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प्रमुख व्यवहारोपयोगी ग्रन्थ कौन है तो यह नि:शक कहा जा सकता है कि एक सत्वार्थ-मथ और दूसरा समयसार । ये दो ग्रन्य प्रमुख लोकोपयोगी है। समयसारमें तो आत्म-तत्त्व विषयक सुविवेचना है और सल्वार्थसत्र में पदार्थ की विविध विषयक सुविवेचना है।
समयार ग्रन्थका प्रतिपाद्य विषय विस्तृत है । अतः इसके मुलकर्ता (गाथाकार)ग्य श्रीमत्यून्दकुम्दाचार्य) की रचना इस प्रकार हुई है :-प्रारम्भ को १२ माथा तो समयसारको पीठिका है। पश्चात मुरूप निषय जीवके स्वरूपका है सो जीवाधिकार आया। पश्चात् अजीवाधिकार प्रामा । पश्चात् जीव-अजीवके बनन के मूल का अर्थात् कल-कर्म-भाचका अधिकार आमा । पश्चात् कत कर्म भायके परिणाम स्वरूप अथवा संसारके प्रधान एक भाव निमित्तभूत पुण्यपापकर्मका अधिकार आया। पश्चात् पुण्यपापकर्म के द्वार 'भूत आसयका अधिकार आया । इसके पश्चात् आस्रव के विपक्षी अयवा मुक्तिके मूल उपायभूत सबरका अधिकार आया। पश्चात संबत होनेपर कार्यकारी एवं मोक्षके साधनभूत निर्जराका अधिकार प्राया। पश्चात मीक्षके विपक्षभूत बाधका अधिकार आया । पश्चात् मोशका अधिकार आया । पश्चात् मुक्ति थे. सर्व उपायोके लक्ष्यभूत समयसाका विशद्ध वर्णन करने के लिए सर्वविशुद्ध ज्ञानाधिकार आया । अन्तमें इसौ सत्वका तथा पूर्व में उक्त व अनुवत विपयाचा उपसहार करने वाला परिशिष्ट रूप स्याहाद अधिकार आया।
इस प्रकार इस समयसार ग्रन्थ (१) पीटिका (२) जोवाधिकार (३) अजीवाधिकार (४) क-कमां धिकार । (५) मृत्य-पापाधिकार (६) आसवाधिकार (७) संवराधिकार (८) निर्जराधिकार (6) बंधा धिकार (१०) मोक्षाधिकार (२६) सर्वविशुद्ध जानाधिकार (१२) चूलिकाधिकार और (१३) स्थाद्वादाधिकार आये 1 एन १३ अधिकारों में आस्मतत्त्व का वर्णन किया है। अद्यतन प्रसिद्धि के अनुसार पीटिकाव जीबधिकारका वर्णन एक धारा में होने के हेतु इमैं दो अधिना कपूरंग ही जानेसे, व अजीवाधिकार में ही विधि-निषेधक रूपमें जीवका वर्गत आ जानेके हसु प्रजीवाधिकार हो जाने से, तथा सर्वविशुद्ध ज्ञानाधिकार व चलिकाधिकार का विषय भी एक धारा में चलने से एवं स्याद्वाद (परिशिष्ट) अधिकार समय प्राभूत सस्य के टीकाकार पूज्य श्री अमृतचन्दजी सूरि की स्वतन्त्र रचना होने ले (१) पूर्वरंग (२) जीवाजीवाधिकार (1) कत कर्माधिकार (४) पुण्य-पापाधिकार (५) बासवाधिकार (६) संघराधिकार (७) निर्जराधिकार (6) बंधाधिकार () मोक्षाधिकार (१०) सर्व विशद्धज्ञानाधिकार । इस प्रकार १० अधिकार हैं।
अब समयसार अन्यके उक्त अधिकारों में किस किस विषयका वर्णन है, इसपर संक्षेप में प्रकाश डाला जाता है ताकि मह भी सुगमतासे जानने में आ सके कितभाव से की गई अनेक ऋषियोंकी पूक्ति विभिन्न आध्यात्मिक धारणाओंका लक्ष्य भी यही समयसार हैराहे उनमें से किसी ने उसपर लक्ष्य कर पाया हो या न कर पाया हो।
पौडिका सर्व प्रथम समयसारके पूर्ण अनुरूप विकास अर्थात् सिद्ध प्रभुको नमस्कार करके समय (सामान्य आत्मा) का इस प्रकार संकेत किया है कि समयकी दो अवस्थायें होती है (१) स्वसमय (शुद्धावस्था) (२) परसमय (अशुद्धाबस्था)। जो अपने दर्शन-ज्ञान-चरित्र में स्थित हो, अर्थात शुद्ध ज्ञान-दर्शनमय निज परमात्मतत्वको रुचि, संवित्तिव निश्चल अनभूतिसे परिणत हो, सो स्वसमय है और जो औपाधिक भावों में स्थित हो सो परसमय है। ये दोनों अवस्थायें जिस एक पदार्थकी है वह समय है। अन्य सर्व परपदार्थोंसे, सर्व पर्यानों से भिन्न देखा गया, केवल यही समय समयसार कहलाता है।
संसारी जीवोंने इस समयसारकी दृष्टि नहीं की। इसी कारण इसे जीवलोक आपमियोंका भाजन होना। पड़ा है। इस समयसारका वर्णन करने के पहले अन्यकर्ता श्रीमत्कुन्दकुन्दाचार्य स्वयं कहते हैं कि इस सममसार (एकस्व विभक्त आत्मा) को यात्मविषय द्वारा दिखाऊँगा, यदि दिखा तो स्वयं अपने विभवस प्रमाण करना, यदि दिखाने में चक जाऊँ सो छल ग्रहण नहीं करना। दिखाना शब्दों द्वारा ही तो हो रहा है, यह क्रिया नयगभित है अतः सुनने में नयका ठीक उपयोग न करमेसे श्रोसाका चुकना सम्भव है। इस ही बातको अपनेपर लेने से प्रत्यकर्ताकी कितनी निगर्वता प्रकट हुई है और स्वयं अनुभवसे प्रमाण करना चाहिये इस भाव द्वारा वस्तुस्वातन्क्ष्य की प्रतीति