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________________ समयसार एवं ववहारणो पडिसिद्धो जाण गिच्छयणयेगा । णिच्छयणयासिदा पुण मुणिणो पावंति णिव्वाणं ॥२७२॥ निश्चयनयसे जानो, यह सब व्यवहारनय निषिद्ध प्रतः । निश्चयनयाश्रयो भूनि, पाते निवारणपदको हैं ॥२७२॥ एवं व्यवहार नयः प्रतिषिद्धो जानीहि निश्चयनयेन । निश्चयनयाश्रिताः पुनः मुनयः प्राप्नुवंति निर्वाणं | प्रात्माश्रितो निश्चयनयः, पराश्रितो व्यवहारनयः । तत्रैवं निश्चयनयेन पराश्रितं सम. स्त मध्यवसानं बंधहेतुत्वेन मुमुक्षोः प्रतिषेधयता व्यवहारनय एव किल प्रतिषिद्धः, तस्यापि परा नामसंझ-एवं, ववहारणअ, पडिसिद्ध, णिच्ट्रयणय, णिच्छयणयासिद, पुण, मुणि, गिब्वाण । पातुसंत्र-जाण अवबोधन, प आव प्राप्ती । प्रातिपदिक----एवं, व्यवहारनय, प्रतिषिद्ध, निश्चयनथ, निश्च-: यनयाथित, पुनर, मुनि, निर्वाण । मूलधात-ज्ञा अवबोधने, प्र आप्लू व्याप्ती स्वादि । पदविवरण--एवंयव्यय । बबहारणओ व्यवहारनयः-प्रथमा एक० । परिसिद्धो प्रतिषिद्धः-प्रथमा एक० । जाण जानीहि-' अब उक्त गाथार्थका स्पष्टीकरण करते हैं--[एवं] इस प्रकार याने पूर्वकथित रीतिसे [व्यवहारमयः] व्यवहारनय [मिश्चयनयनj नियाययः सारा [प्रतिषिद्धः] प्रतिषिद्ध [जानीहि] जानो [पुनः] क्योंकि [निश्चय नयनयाक्षिताः] निश्चयके प्राश्रित हैं [मुनयः] मुनिराज [निरपं] मोक्षको [प्राप्नुवंति] प्राप्त करते हैं। तात्पर्य-व्यवहारनये समस्त तत्त्वोंको जानकर उन भेदविकल्पोंसे भी परे होकर परमशुद्धनिश्चयनयका आश्रय कर लेने वाले मुनिराज मोक्ष प्राप्त करते हैं। ___ . टोकार्थ-प्रात्माश्रित निश्चयनय है और पराश्रित व्यवहारनय है ! वहाँ बंधका कारणपना होनेसे पराश्रित समस्त अध्यवसान मुमुक्षुमोंको उस अध्यवसानका निषेध करते हुए प्राचार्यने वास्तव में व्यवहारनयका हो निषेध कर दिया है, क्योंकि प्रध्यवसानकी तरह व्यवहारनयके भी पराश्रितपनेका अन्तर नहीं है। और इस प्रकार भी व्यवहारनय निषेध करने योग्य है कि प्रात्माश्रित निश्चयनयका प्राश्रय लेने वाले हो मुक्त होते हैं और पराश्रित व्यवहारनयका प्राश्रय एकांततः कभी मुक्त न होने वाला अभव्य भी करता है । भावार्थ-- प्रात्माके परके निमित्तसे होने वाले अनेक भाव सब व्यवहारनयके विषय है । इस कारण व्यवहारनय तो पराश्रित है और जो एक अपना स्वाभाविक भाव है वह निश्चयनयका विषय है । इस कारण निश्चयनय प्रात्माश्रित है। अध्यवसान भी पराश्रित होनेसे व्यवहारन यका ही विषय है । इसलिये जो भले प्रकार अध्यवसानका त्याग है वह सब व्यवहारनयका ही त्याग है । जो निश्चयके ग्राश्रय प्रवर्तते हैं वे तो कर्मसे छूटते हैं और जो एकांतसे व्यवहारनय
SR No.090405
Book TitleSamaysar
Original Sutra AuthorKundkundacharya
Author
PublisherBharat Varshiya Varni Jain Sahitya Prakashan Mandir
Publication Year1995
Total Pages723
LanguageHindi, Prakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size21 MB
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