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________________ समयसार जो ण करेदि जुगुप्पं चेदा सब्वेसिमेव धम्माणं । सो खलु णिबिदिगिच्छो सम्मादिट्टी मुणेयन्वो ॥२३१॥ जो नहिं करे जुगुप्सा, समस्त धर्मों व वस्तुधर्मोमें । है वह निविचिकित्सक, सम्यग्दृष्टी उसे जानो ॥२३१॥ यो न करोति जुगुप्सा चयिता सर्वेषामेव धर्माणां । स खलु निबिचिकित्सः सम्यग्दृष्टिमन्तव्यः ।।२३।। यतो हि सम्यग्दृष्टिः टंकोत्कीण कज्ञायकभावमयत्वेन सर्वेष्वपि दस्तुधर्मेषु जुगुप्साऽभावानिविचिकित्सः ततोऽस्य विचिकित्साकृतो नास्ति बंधः किंतु निर्जरैव ।।२३।। नामसंज्ञ--ज, ण, जूगुप्प, चेदा, सम्ब. एव, धम्म, त, खलु, णिविदिगिच्छ, सम्मादिदि, मुणेयव्य । धातुसंज्ञकर करणे, मुण ज्ञाने। प्रातिपदिक - यत्, न, जुगुप्सा, चेतायत. सर्व, एत्र, धर्म, तत्, खलु, निर्विचिकित्स, सम्यादृष्टि, मन्तव्य । मूलधातु--डुकृञ् करणे, मन ज्ञाने दिवादि । पदविवरण-जो यःप्रथमा एकवचन । ण न-अव्यय । करेदि करोति-वर्तमान लट् अन्य पुरुष एक० । जुगुणं जुगुप्सा-द्वितीया एक० । चेदा चेतयिता-प्रथमा एक० । सम्बेसि सर्वेषां-षष्ठी बहु० । एव-अध्यय । धम्माण धर्माणां-पष्ठी बहः । सो स:-प्रथमा एक० । खलु-अव्यय । णिबिदिगंछो निर्विचिकित्सः-प्रथमा एकः । सम्मादिट्टी सम्यग्दृष्टि:-प्र० ए० । मुणेयव्यो मन्तव्यः-प्रथमा एकवचन कृदन्त ॥ २३१ ॥ ऐसा जानना चाहिये। तात्पर्य-जो क्षुधादि दोषोंमें उद्विग्नता व अशुचि पदार्थों में ग्लानि नहीं करता वह निविचिकित्स सम्यग्दृष्टि है। टीकार्थ-जिस कारण सम्यग्दृष्टि टंकोत्कीर्ण एक ज्ञायक भावमयपने से सभी वस्तु धर्मों में जुगुप्साके अभावसे निविचिकित्स याने ग्लानिरहित है इस कारण इसके विचिकित्साकृत बंध नहीं है, किन्तु निर्जरा ही होती है । भावार्थ-सम्यग्दृष्टि क्षुवादि कष्टोंमें उद्विग्नता नहीं करता तथा विष्टा आदि मलिन द्रव्योंमें ग्लानि नहीं करता व जुगुप्सानामक कर्मप्रकृतिके उदय में जो भाव आता है वह परभाव है उसका कर्ता नहीं होता है । इस कारण ज्ञानीके जुगुप्साकृत बंध नहीं है । प्रकृति रस (फल) खिराकर निकल जाती है इस कारण निर्जरा ही है । प्रसंगविवरण-अनन्तरपूर्व गाथामें सम्यग्दृष्टिके नि:कांक्षित अंगका वर्णन किया गया था। अब इस गाथामें क्रमप्राप्त निविचिकित्सित अंगका वर्णन किया गया है । तथ्यप्रकाश-१-सहजशुद्धात्मतत्वकी भावना होनेके कारण सम्यग्दृष्टि समस्त वस्तु. धर्मोंमें ग्लानि, निदा, दोष व द्वेष नहीं करता । २-सम्यग्दृष्टि दुर्गन्धादिकमें खेद नहीं मानता । ३-सम्यग्दृष्टि क्षुधा प्रादि वेदनाओंमें म्लान नहीं होता । ४-सम्यग्दृष्टि धर्मात्मा जनोंकी सेवामें ग्लानि निन्दा, दोष व द्वेष दृष्टि नहीं करता । ५ -- परद्रध्यद्वेषनिमित्तक बन्ध सम्यग्दृष्टिके नहीं
SR No.090405
Book TitleSamaysar
Original Sutra AuthorKundkundacharya
Author
PublisherBharat Varshiya Varni Jain Sahitya Prakashan Mandir
Publication Year1995
Total Pages723
LanguageHindi, Prakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size21 MB
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