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. पहाँ कोई पुरुष ऐसे शंकाल हो सकते हैं, कि सम्यग्दष्टि ज्ञानी जीवके भी तो दावें गुणस्थान तक बन्ध चलता है, फिर ज्ञानीको प्रबन्धक कसे कहा गया है? सो उन्हें तीन प्रकारसे बात जानकर अपना चित्त समाधान रूप कर लेना चाहिये । (१) जिस गुणस्थानमें जितनी प्रकृतियोंका बन्न नहीं होता है, उतनी प्रकृतियों की अपेक्षा उन्हें अवन्धक समक्षना, (२) जो भी किंचित् बंध होता है वह संसारपृद्धिको सामथ्यं नहीं रखता, इसलिये अबन्धसम ही समझना । (३) ज्ञानी विशेषण कहने से उसको केवल ज्ञानपरिणमनरूपसे ही देखना, अन्य परिणमनरूपसे नहीं देखना । तब तो यह पूर्ण सिद्ध है कि शानीले किचिन्मात्र भी बंध नहीं होता।
जानी जीत्रके पूर्वसंचित कर्म उदयमें आ ते हैं, नवीन वाले काम नहीं इनते, मोति जानीके विभावये राग नहीं रहा । ज्ञानी जीवके जो भो अंध चलता है वह जानकी जघन्यतासे अनुमीयमान शेष रहे अबुद्धिपूर्वक रागके कारण होता है । अतः कर्तव्य तो यही है कि तबतक ज्ञानको अनवरत उपासना करना चाहिए, जबतक ज्ञानका पूर्ण विकास न हो।
शुद्धनपके विषयभूत समयसारसे व्युत रहकर या होकर जीव रागादि परिणामसे संकीर्ण हो जाता है और उसके निमित्तसे पुद्गल-कर्मवर्गणाएं स्वयं बंधरूपसे परिणम जाती है। जैसे किसी पुरुषने आहार ग्रहण किया, यह तो उसका बद्धिपूर्वक कार्य हुआ। अब आगे बह आहार स्वयं रस, रुधिर, मल आदि रूप परिणम आता है और जो विपाक होना होता है, होता है । यह सब निमित्त-नैमित्तिक भाववश होता ही है। यदि कोई आसक्तिसे आहार ग्रहण करे तो उसे उसके फलमें आहार-विपाकके समय वेदना भोगनी पड़ती है। इसी तरह यदि कोई आसक्सिसे, मोहसे विभावरति करे तो तन्निमित्तक हुए कर्मबंधके परिपाकसमयमें वेदना भोगनी पड़ती है। इसलिये कहा जा सकता है कि 'कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेष कदाचन" । अत: कल्याणार्थीको अपने परिणाम सदा सावधान रखना चाहिए।
संपराधिकार संबर नाम रुकने का है। रागादिभावोंके आगमन रुकने के या न आनेको संवर कहते है। इस रागादिके संवर के परिणाममें कोका आना भी रुक जाता है। अत: कमौका आना रुक जानेको भी संबर कहते हैं। संबर का उपाय भेदविज्ञान है । आत्मा तो शानमात्र है और शानभावके अतिरिक्त शेष सर्व औपाधिकभाव अनात्मा है। वहां अब यह देखना चाहिये किमानमें (उपयोगमें, अयवा आत्मामें कोषादिक औपाधिक भाव नहीं हैं और क्रोधादिक औपाधिक भावों में उपयोग नहीं हैं । कोषादिक तो क्रुध्यतादिक स्वरूपमें है और ज्ञान जानत्तारूपमें ही है । इस भेदवितानसे शुद्धारमाकी उपलब्धि होती है और शुद्धात्माकी उपसम्धिसे संवर होता है।
शुद्धात्माको जानता हुआ आत्मा शुद्धात्मा को प्राप्त करता है और अशुद्ध आत्माको जानता हुआ आत्मा अपने को अशुद्ध ही पाता रहता है । शुद्धात्माको प्राप्ति व संत्ररका बुद्धिपूर्वक व अबुधिपूर्वक उपाय यह है कि-शुभ तथा अशुभ योगमें प्रवतंते हुये अपने आपको प्रबल भदविज्ञानके उपयोग द्वारा इस प्रवर्तनसे रोके और शुद्ध चतन्या. स्मक निज आत्मतत्व में प्रतिष्ठित करे। फिर यह आत्मा इच्छा-रहित व संग-रहित होकर अपने आपके द्वारा अपने आत्माका ध्याता हो जाता है। उस समय एकत्व-विभक्त निज आत्माका ध्यान करता हुआ अर्थात चैतन्य चमत्कारमात्र आस्माका ध्यान करता हुआ निज अकलंक आत्माको प्राप्त करता है। यही संबरका प्रकार है व कमोसे मुक्त होने का उपाय है।
तात्पर्य यह है कि भवविज्ञान से शुद्ध आत्मा की उपलब्धि होती है, शुद्ध आरमाकी उपलब्धि होनेसे अध्यवसानोंका अभाव होता है, अध्यवसानोंके अभाव होनेपर मोहका अभाव होता है, मोहझाव का अभाव होनेपर रागद्वेषभाव का अभाव हो जाता है, राग-द्वेष का अभाव होने पर कर्मका अभाव हो जाता है, कर्मका अभाव होनेपर सदा के लिये शरीरका अभाव हो जाता है और शरीरका अभाव होनेपर संसारका अभाव हो जाता है। संसार ही