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मोक्षाधिकार वेत्यमानस्तु रागादिरात्मनः प्रदीप्यमानो घटादिः प्रदीपस्य प्रदीपकतामिव चेतकतामेव प्रथयेन पूना रागादीन्, एवमपि तयोरत्यंतप्रत्यासत्या भेदसंभावनाभावादनादिरस्त्येकत्वव्यामोहः स तु प्रज्ञयव छिद्यत एव ।। प्रज्ञा छेत्री शितेयं कथमपि निपुणः पातिता सावधानः सुक्ष्मेऽन्तःसंधिबंधे प्रथमा एक० । बंधो बन्धः-प्रथमा एकवचन । य च तह तथा-अव्यय । सलक्खणेहि-तृतीया बह । स्वलक्षणाभ्या--तृतीया द्विवचन । णियएहि-४० बहु० 1 नियताभ्यां-तृतीया द्विवचन | छिज्जति-वर्तमान लट् प्रज्ञानवश ज्ञेयज्ञायकभावकी अतिनिकटतासे एकसे हो रहे दीखते हैं, लेकिन तीक्ष्णबुद्धिरूपो छैनीको इनको सूक्ष्म संधिपर ज्ञानाभिमुख होकर पटकना । उसके पड़ते हो दोनों प्रलग-अलग दोखने लगते हैं और तब आत्माको ज्ञान भाव में ही रखना और बन्धको अज्ञानभाव में डालना ।
__अब इसी अर्थको का७५ में कहते हैं--प्रज्ञा इत्यादि । अर्थ-प्रवीण व सावधान प्रमादरहित पुरुषोके द्वारा प्रात्मा और कर्म इन दोनोंके सूक्ष्म भीतरी संविपर पटकी हुई यह तीव्र प्रज्ञारूपो छनी शीघ्र ही अन्तरङ्गमें तो स्थिर और स्पष्ट प्रकाशरूप देदीप्यमान तेज वाले चैतन्य के प्रवाहमें भग्न अात्माको तथा प्रज्ञानभावमें नियमित बन्धको भिन्न-भिन्न करती हुई मात्मकर्मोभयकी संधिपर गिरती है । भावार्थ--यहाँ कार्य तो है प्रात्मा और बन्धको भिन्नभिन्न करना । उसका कर्ता प्रात्मा है । और जिसके द्वारा कार्य हो वह करण भी प्रात्मा है। निश्चयन यत: कर्तासे पृथक करण होता नहीं है । इस कारण आत्मासे अभिन्न यह प्रज्ञा हो इस कार्य में करग है । सो प्रज्ञा द्वारा शरीरसे, ज्ञानावरणादिक द्रव्यकर्मसे तथा रागादिक भावकर्मसे भिन्न एक चैतन्य भावमात्र अपना अनुभव रखना ही इनको भिन्न करना है। इसी विधिसे सब कर्मोका नाश हो जाकर सिद्धपद प्राप्त हो जाता है ।
प्रसंगविधरण-अनन्तरपूर्व गाथामें प्रात्मा और बन्धको अलग करनेके प्रसङ्ग में मोक्ष का उपाय स्पष्ट बताया था । अब इस गाथामें यह बताया है कि प्रात्मा और बन्ध किस साधनसे अलग-अलग किये जाते हैं।
तथ्यप्रकाश – (१) प्रात्मा और बन्धको अलग करनेरूप कार्यका कर्ता प्रात्मा हो होगा। (२) प्रात्माके जिस करणसे प्रात्मबन्धका द्विधाकरण होगा वह प्रात्मासे अभिन्न ही होगा। (३) प्रात्मबन्धके द्विधाकरणका साधन प्रज्ञा ही है । (४) प्रज्ञाके द्वारा छेदे गये वे दोनों अवश्य ही अलग-अलग हो जाते हैं। (५) बन्ध चेत्य है, ग्रात्मा चेतक है इस निकटता से वे दोनों यद्यपि एकीभूतसे लग रहे हैं तथापि प्रज्ञा द्वारा उनके अपने अपने स्वलक्षणोंको जुदा-जुदा पहचानने से वे छिन्न हो जाते हैं । (६) आत्माका लक्षग चैतन्य है जो किसी अन्य द्रव्यम नही पाया जाता और प्रात्मामें सदा तन्मय रहता है। (७) बन्धका लक्षण रणादिक