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________________ समयमार क्रमप्रवृत्तं वा पर्यायजातमात्मेति लक्षणीयं तदेकलक्षणलक्ष्यत्वात्, समस्तसहक्रमप्रवृत्तानंतपर्यायाविनाभावित्वाच्चैतन्यस्य चिन्मात्र एवात्मा निश्चेतव्यः इति यावत् । बंधस्य तु प्रात्मद्रव्यासाधारणा रागादयः स्वलक्षणं । न च रागादय प्रात्मद्रव्यसाधारणतां विधारणाः प्रतिभासंते नित्यमेव चैतन्यचमत्कारादतिरिक्तत्वेन प्रतिभासमानत्वात् । न च याबदेव समस्तस्बपर्यायव्यापि चैतन्यं प्रतिभाति तावंत एव रागादयः प्रतिभांति । रामादीनंतरेणापि चैतन्यस्यात्मलाभसंभावनात् । यत्तु रागादीनां चैतन्येन सहैवोत्प्लबतं तच्चेत्यचेतकभावप्रत्यासत्तरेव नेकद्रव्यत्वात, तु, छिन्न, नानात्व, आपन्न । मूलधातु-छिदिर् छेदने रुधादि, आ-पद गतौ । पदविवरण-जीवो जीव:अन्य द्रव्योंसे असाधारणपना होनेसे याने अन्य द्रव्यमें न पाया जानेसे चैतन्य स्वलक्षण है । वह चैतन्य स्वलक्षण प्रवर्तता हुमा जिस-जिस पर्यायको व्याप्त कर प्रवर्तता है तथा निवर्तता हमा जिस-जिस पर्यायको ग्रहण कर निवृत्त होता है वह वह समस्त हो सहवर्ती और क्रमवर्ती पर्यायों का समूह आत्मा है ऐसा लखना चाहिये । क्योंकि प्रात्मा उसी एक लक्षणसे लक्ष्यों होता है । तथा समस्त सहवती व क्रमवर्ती अनन्त पर्यायोंके साथ चैतन्यका अविनाभावोपना होनेसे चिन्मात्र ही प्रात्मा है ऐसा निश्चय करना चाहिये, इस प्रकार ही समझना । परन्तु बन्धका स्वलक्षण प्रात्मद्रव्यसे असाधारण रागादिक हैं, क्योंकि ये रागादिक आत्मद्रव्यसे साधारणपन को धारण करते हुए प्रतिभासित नहीं होते, वे रागादिक सदा ही चैतन्यचमत्कारसे भिन्नपने से प्रतिभासित होते हैं । और जितना अपने समस्त पर्यायोंमें व्यापने स्वरूप चतन्य प्रतिभासित होता है, उतने ही रागादिक प्रतिभासित नहीं होते, क्योंकि रागादिकके बिना भी चैतन्यका प्रात्मलाभ सम्भव है । हाँ, जो रागादिकका चैतन्य के साथ ही उत्पन्न होना दीखता है वह इस ज्ञेयज्ञायक भावके अति निकट होनेसे ही दीखता है एक द्रव्यपनेके कारण नहीं । वहाँ चेत्यमान रागादिक आत्माके चेतकपनको याने जायकपनेको हो विस्तारते हैं, रागादिकपनको नहीं विस्तारते, जैसे कि दीपकके द्वारा प्रकाशमान घटादिक दीपकके प्रदीपकपनेको ही विस्तारते हैं, रागादिकपनको नहीं विस्तारते, ऐसा होनेपर भी पात्मा और बन्ध दोनोंके अत्यन्त निकटपने से भेदकी सम्भावनाका अभाव होनेसे इस अज्ञानीके अनादिकालसे एकत्वका भ्रम है । लेकिन वह भ्रम प्रज्ञाके द्वारा छेदा जाता ही है । भावार्थ-प्रात्मा तो अमूर्तिक है और बन्ध सूक्ष्म पुद्गलपरमाणुगोंका स्कन्ध है इस वजहसे ये दोनों पुथक् प्रज्ञानीके ज्ञान में नहीं पाते, एकीभूत दीखता है, यह अज्ञान अनादिसे चला पाया है । सो श्रीगुरुयोंका उपदेश पाकर ज्ञानबलसे इन दोनोंको न्यारान्यारा ही जानना कि चैतन्यमात्र तो मात्माका लक्षण है और रागादिक बन्धका लक्षण है । ये दोनों
SR No.090405
Book TitleSamaysar
Original Sutra AuthorKundkundacharya
Author
PublisherBharat Varshiya Varni Jain Sahitya Prakashan Mandir
Publication Year1995
Total Pages723
LanguageHindi, Prakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size21 MB
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