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________________ मोक्षाधिकार केनात्मबंधी द्विधा कियेते ? इति चेत्-- जीवो बंधो य तहा छिज्जति सलक्खणेहिं णियएहि । पण्णाछेदणएण उ छिण्णा णाणत्तमावण्णा ॥२६४॥ प्रज्ञा छेनी द्वारा, अपने अपने विशिष्ट चिह्नोंसे । जीय तथा बन्धों में, भेद किये भिन्न थे होते ॥२६४॥ जीवो बन्धश्च तथा छियेते स्वलक्षणाभ्यां नियताभ्यां । प्रज्ञाछेदकेन तु छिनौ नानात्वमापन्नौ ।। २९४ ॥ प्रात्मबंधयोदिधाकरणे कार्ये कर्तुरात्मनः करणमीमांसायां निश्चयतः स्वतो भिन्नकरणासंभवात् भगवती प्रजब छेदनात्मक कारण ! जया हिको मामायणमा ततः प्रज्ञयवात्मबंधयोद्विधाकरणं । ननु कथमात्मबंधी चेत्यचेतकभावेनात्यंतप्रत्यासतेरेकीभूतो भेदविज्ञानामावादेकचेतकवव्यवलियमारणी प्रज्ञया छेत्तं पाक्येते ? नियतस्वलक्षण सूक्ष्मांतःसंधिसाचधाननिपातनादिति बुध्येमहि । प्रात्मनो हि समस्तशेष द्रव्यासाधारपात्वाच्चैतन्यं स्वलक्षणं तत्तु प्रवर्तमानं यद्यदभिव्याप्य प्रवर्तते निवर्तमानं च यद्यदुपादाय निवर्तते तत्तत्समस्तमपि सहप्रवृत्तं नामसंज-जीव, बंध, य, तहा, सलक्षण, णियय, पण्णाछेदणअ, उ, छिण्ण, णाणत्त, आवष्ण। धातुसंज्ञ-च्छिद छेदने, आ वण्ण वर्णने । प्रातिपदिक-जीव, बन्ध, च, तहा, स्वलक्षण, नियत, प्रज्ञाछेदक, अपने लक्षणोंसे [प्रशाछेदकेन] बुद्धिरूपी छनीसे [तथा] उस तरह [छिछते छेदे जाते हैं [तु] कि जिस तरह [छिन्नौ] छेदे हुए वे [नानास्वं] नानापनको [प्रापतौ] प्राप्त हो दायें। तात्पर्य---अपने-अपने नियत लक्षणसे जीव और बन्धको अलग-अलग जानकर प्रज्ञा छनीसे उन्हें अलग-अलग कर देना चाहिये । टोकार्थ----मात्मा और बन्धको भिन्न-भिन्न करनेरूप कार्यके विषयमें कर्ता प्रात्माके करणविषयक विचार किया जानेपर निश्चयतः पातमासे पृथक् किसी करणको असंभवता होनेसे भगवती प्रज्ञा याने ज्ञानस्वरूप बुद्धि ही छेदनस्वरूप करण है। उस प्रज्ञाके द्वारा ही छेदे गये वे दोनों याने प्रात्मा द बन्ध नानापनेको अवश्य प्राप्त होते हैं अर्थात् पृथक्-पृथक् हो जाते हैं । इस कारण प्रज्ञाके द्वारा ही प्रात्मा और बन्धका पृथक्-पृथक् करना होता है । प्रश्न--प्रात्मा और बन्ध जो कि चेत्यचेतक भावके द्वारा अत्यन्त निकटताके कारण एकीभूत हो रहे हैं और भेदविज्ञानके अभावसे एक चेतककी तरह जो व्यवहार में प्रवर्तते देखे जाते हैं वे प्रशासे कैसे छेदे जा सकते हैं ? समाधान-प्रात्मा और बन्धक निश्चित स्वलक्षणकी सूक्ष्म अन्तरंग संधि में इस प्रज्ञा छनोको सावधान होकर पटकनेसे दोनोंको याने प्रात्मा और बंधको छेदा जा सकता है, पृथक् पृथक् किया जा सकता है । वहाँ प्रात्माका तो निश्चयसे समस्त
SR No.090405
Book TitleSamaysar
Original Sutra AuthorKundkundacharya
Author
PublisherBharat Varshiya Varni Jain Sahitya Prakashan Mandir
Publication Year1995
Total Pages723
LanguageHindi, Prakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size21 MB
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