________________
कर्तृकर्माधिकार
२२५
सामान्यप्रत्ययाः खलु चत्वारो भव्यते बंधकर्तारः । मिथ्यात्वमविरमणं कषाययोगी च बोद्धव्याः ॥१०६॥ तेषां पुनरपि चायं भणितो भेदस्तु त्रयोदशविकल्पः । मिथ्यादृष्टघादिर्यावत्सयोगिन श्रमांतम् ॥ ११०॥ एते अचेतनाः खलु पुद्गलकर्मोदय संभवा यस्मात् । ते यदि कुर्वति कर्म नापि तेषां वेदक आत्मा ||११|| गुणसंशितास्तु एते कर्म कुर्वति प्रत्यया यस्मात् । तस्माज्जीवोऽकर्ता गुणाश्च कुर्वति कर्माणि ॥ ११२ ॥ पुद्गलकर्मणः किल पुद्गलद्रव्यमेकं कर्तृ, तद्विशेषाः मिथ्यात्वाविरतिकषाययोगा बन्धस्य सामान्यहेतुतया चत्वारः कर्तारः त एव विकल्प्यमाना मिथ्यादृष्ट्या दिसयोग केवल्यंतास्त्रयोदश कर्तारः । अर्थते पुद्गलकर्मविपाक विकल्पत्वादत्यतमचेतनाः संतस्त्रयोदश कर्तारः
खलु, पुग्गलकम्मुदयसंभव, ज, त, जदि, कम्म, ण, वि. त, वेदग, अत्त, गुणसणिद, दु, एत, कम्म, पच्चय, जत, जीव, अकतार, गुण, य, कम्म । धातुसंज्ञ –भण कथने, बुज्झ अवगमने, कर करणे, कुब्ब करणे, कुव्व करणं । प्रकृतिशब्द - सामान्यप्रत्यय, खलु, चतुर्, बन्धकर्तृ, मिथ्यात्व, अविरमण, कषाययोग, तत्, पुनर् अपि च, इदम्, भेद, तु, त्रयोदशविकल्प, मिथ्यादृष्ट्यादि. यावत् सयोगिन् चरमान्त एतत् अनेसन, खलु पुद्गलकर्मोदयसंभव, यत्, तत्, यदि, कर्मन् न, अपि तत्, वेदक, आत्मन् गुणसंज्ञित, तु, मान्य प्रत्यय [ख] वास्तव में [ बंधकर्तारः ] बंधके कर्ता [मण्यन्ते ] कहे गये हैं वे [ मिथ्यात्वं ] मिथ्यात्व [ श्रविरम ] श्रविरमण [च] प्रौर [रुषाययोगी] कषाय योग [ बोद्धव्याः ] जानने चाहिये [च पुनः ] और फिर [तेषां अपि ] उनका भी [ त्रयोदशविकल्पः ] तेरह प्रकारका [अ] यह [ मेदः ] भेद [कथितः ] कहा गया है जो कि [मिथ्यादृष्ट्यादिः ] मिथ्यादृष्टिको श्रादि लेकर [ सयोगिचरमांतः यावत् ] सयोग केवली तक है। [ एते] ये [ खलु] निश्चय से [ प्रतनाः ] अचेतन हैं [ यस्मात् ] क्योंकि [ पुद्गलकर्मोदय संभवाः] पुद्गलकर्मके उदयसे हुए हैं [ यदि ] यदि [ते] a [ कर्म] कर्मको [ कुन्ति] करते हैं तो करें [तु] किन्तु [तेषां बेब : ] उनका भोक्ता [f] भी [ श्रात्मा न] प्रात्मा नहीं होता [यस्मात् ] क्योंकि [ गुणसंज्ञिताः ] गुरण नाम वाले [ एते प्रत्ययाः ] ये प्रत्यय [ कर्म कुर्वसि] कर्मको करते हैं [तस्मात् ] इस कारण [जीव: ] जीव तो [अकर्ता ] कर्मका कर्ता नहीं है [व] और [ गुणाः ] ये गुरा ही [कर्माणि ] कमको [ कुर्बति ] करते हैं ।
तात्पर्य - श्रात्मा निमित्ततः भी पोद्गलिक कर्मोंका कर्ता नहीं, किन्तु पुद्गलमय सामान्य प्रत्यय व उनके विशेष प्रयोदश गुणस्थान ये पौगलिक कर्मो के निमित्ततः कर्ता हैं । टोकार्थ - निश्चयसे पुद्गलकर्मका एक पुद्गलद्रव्य ही कर्ता है । उस पुद्गल द्रव्यके मिथ्यात्व प्रविरति कषाय और योग ये चार बंधके सामान्यहेतु होनेसे बंधके कर्ता हैं । वे हो मिथ्यादृष्टिको आदि लेकर सयोगकेवली तक भेदरूप हुए तेरह कर्ता हैं । अब ये पुद्गलकर्मfarea. भेद होनेसे प्रत्यंत प्रवेतन होते हुए केवल ये १३ गुणस्थान पुद्गलकर्मके कर्ता होकर व्याप्यव्यापकभाव से कुछ भी पुद्गलकर्मको करें तो करें, जीवका इसमें क्या आया ? कुछ भी