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________________ ३३५ संवराधिकार पिधारावाहिना बोधनेन ध्रुवमुपलभमानः । शुद्धमात्मानमास्ते । तदयमुदयदात्माराममात्मानमामा परपरिणतिरोधाच्छुद्धमेवाभ्युपैति ॥ १२७।। ।। १८६ ।। 1 पद विवरण- सुद्धं युद्ध - द्वितीया एकवचन । तु-अव्यय । वियागतो विजानन् - प्रथमा एक० कृदन्त । सुद्धं शुद्ध द्वितीया एक । च एव, अप्पयं आत्मानं द्वितीया एकवचन | लहूदि लभते वर्तमान लट् अन्य पुरुष एकवचन क्रिया । जीवो जीवः - प्रथमा एक० । जाणतो जानन्- प्र० ए० । दु तु-अव्यय । असुद्ध अशुद्ध द्वि० ए० । असुद्ध अशुद्ध द्वितीया एक एव अव्यय । अप्पयं आत्मानं द्वितीया एक० । लहइ लभते - वर्तमान लट् अन्य पुरुष एकवचन क्रिया ।। १०६ ।। किसी भी प्रकार धारावाही ज्ञानसे निश्चल शुद्ध आत्माको प्राप्त हुआ रहता है तो वह आत्मा उदय होते हुए आत्मा रूप क्रीड़ावन वाले अपने आत्माको परपरिणति रूप राग, द्वेष, मोहके निरोधसे शुद्ध को ही पाता है। भावार्थ -- एक प्रवाहरूप ज्ञानको वाराबाही ज्ञान कहते हैं । इसकी दो रोतियाँ हैं -- ( १ ) मिथ्याज्ञान बीचमें न आये ऐसा सम्यग्ज्ञान धारावाही ज्ञान है और ( २ ) जब तक उपयोग एक शेयमें उपयुक्त रहे तब तक धारावाही ज्ञान कहा जाता है, यह अंतर्मुहूर्त ही रह पाता है, योजना हो वहीं वैसा धारावाही ज्ञानका अर्थ जानना | प्रथम रीति वाले धारावाही ज्ञानसे प्रतीतिरूप शुद्धात्मत्व की प्राप्ति है । द्वितीय रीति वाले धारावाही ज्ञानसे क्षपकश्रेणिस्थ योगियोंको व्यक्त निर्मल शुद्धात्मत्व की प्राप्ति होती है । प्रसंगविवरण -- अनन्तरपूर्व गाथायुग्म में भेदविज्ञान से शुद्धात्माकी उपलब्धि होती है। यह बताते हुए यह दर्शाया गया था कि शुद्धात्माकी उपलब्धिसे ही संवर होता है । सो प्रब इस गाथा में यही युक्तिसहित बताया गया है कि कैसे शुद्धात्माकी उपलब्धिसे ही संवर होता है । तथ्यप्रकाश - १ - निरंतर धारावाही ज्ञानसे सहजशुद्ध ज्ञानस्वभावमें उपयोग रखने वाला भव्य शुद्धात्माको प्राप्त करता है । २- सहजज्ञानस्वभावमें उपयोग रखने वाले ज्ञानीके ज्ञानमय ही भाव होता है । ३ - ज्ञानमयभावसे ज्ञानमयभाव ही होनेके कारण नवोनकर्मास्रव का निमित्तभूत रागद्वेषमोहसंतान दूर हो जाता है । ४- सविकार आत्मा में ही नित्य उपयोग रखने वाला अज्ञानी अशुद्धात्मा को ही प्राप्त होता है । ५ - सविकार अपने को प्रात्मसर्वस्व मानने वाले अज्ञानी अज्ञानमय ही भाव होता है । ६ - प्रज्ञानमयभावसे प्रज्ञानमय ही भाव होनेके कारण नवीनकर्मास्रवणका निमित्तभूत रागद्वेषमोहसंतान पुष्ट होता रहता है । ७-प्रशुद्धात्माकी उपलब्धिसे अशुद्ध बने रहने की संतति चलती रहती है । ८- शुद्धात्मा की उपलब्धिसे संवरतत्त्व प्रकट होता है, शुद्ध पर्यायकी संतति बनती रहती 1 सिद्धांत --- १ - सहजज्ञानस्वभाव के उपयोगसे ज्ञानमयपरिणमन होता है । २ - विकृत
SR No.090405
Book TitleSamaysar
Original Sutra AuthorKundkundacharya
Author
PublisherBharat Varshiya Varni Jain Sahitya Prakashan Mandir
Publication Year1995
Total Pages723
LanguageHindi, Prakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size21 MB
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