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समयसार गा य रागदोसमोहं कुब्वदि णाणी कसायभावं वा। मयमप्पणो ण सो तेण कारगो तेसि भावाणं ॥२८॥ ज्ञानी स्वयं न करता, अपने रति द्वेष मोह क्रोधादिक ।
इससे यह प्रात्मा उन, भावोंका है नहीं कर्ता ॥२०॥ नागि नागपमोहं करोति ज्ञानी कपायभाव वा । स्वयमात्मनो न म तेन कारकरतेपां भावानां ॥२०॥
___यथोक्तं वस्तुस्वभाव जानन ज्ञानी शुद्धस्वभावादेव न प्रच्यवते, ततो रागद्वेषमोहादिभाव: स्त्रयं न परिणामते न परेरणापि परिणम्यते, ततप्टकोत्कोणेकज्ञायकस्वभावो ज्ञानी राग
नामसंज्ञः .प, य, रागदीसमोह. पाणि, कसायभाव, वा, सर्य, अप्प, ग, त, वारग, त, भाव । धातुसंज्ञ-युग्ध करो। प्रातिपदिक-- न, च, रागद्वेपमोह, मानिन्, कपायभाव, वा, स्वयं, आत्मन्, न, परिणमाया जाता । इस कारण टंकोत्कीर्ण एक ज्ञायकभावस्वरूप ज्ञानी राग-द्वेष-मोह आदि भावोंका अकर्ता ही है, ऐसा नियम है। भावार्थ:-जब यह आत्मा ज्ञानी हया तब वस्तुका एसा स्वभाव जाना कि स्वयं तो प्रात्मा स्वरूपत: शुद्ध है द्रव्यदृष्टिसे तो ध्र व है पर्याय दृष्टि से परिणमता है सो परद्रव्यके निमित्तसे रागादिरूप परिणामता है सो अब पाप ज्ञानी हुमा उन भावोका वटी नहीं होता, मात्र उदयमें पाये हुए फलोंका ज्ञाता ही है।
अब कहते हैं कि प्रज्ञानी ऐसा वस्तुका स्वभाव नहीं जानता, इसलिये रागादिभावोंका कर्ता होता है--इति वस्तु इत्यादि । अर्थ-अज्ञानी ऐसे अपने वस्तुस्वभावको नहीं जानता, इस कारण वह प्रज्ञानो रागादिक भावोंको अपने करता है, अतः उन (रागादिकों) का करने वाला होता है।
प्रसंगविवरण-अनन्तरपूर्व गाथाद्वय में बताया गया था कि रागादि विकार नैमित्तिक हैं, स्वभावभाव नहीं । अब इस गाथामें बताया है कि वस्तुस्वभावका ज्ञानी रागादिभावका कर्ता नहीं होता।
तथ्यप्रकाश ... (१) ज्ञानी मात्माको सहज शुद्धस्वरूप जानता है । (२) ज्ञानी विकारोद्भबके तथ्यको जानता है कि ये स्वभावसे नहीं होते, किन्तु प्रकृतिविपाकोदयके निमित्तसे होते हैं । (३) वस्तुस्वभावका ज्ञाता स्वयं रागादिरूपसे नहीं परिणमता और न परके द्वारा परिणमाया जाता है। (५) शुद्धस्वभावका अनुभव हो जानेके कारण ज्ञानी शुद्धस्वभावकी प्रतीतिसे शुत होता, सो रागद्वेषमोहादि भावोंका अकर्ता ही है।
प्रान्त---(१) ज्ञानी अपने प्रात्मद्रव्यको निरुपाधिस्वभाव निरखता है। (२) मात्मद्रव्य टोत्कोणंवत् निश्चल एक ज्ञायकस्वभावमात्र है ।