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अन्धाधिकार
४६ १ द्वेष मोहादिभावानामकर्तवेति नियमः । " इति वस्तुस्वभावं स्वं नाज्ञानी वेत्ति तेन सः । रागादीनात्मनः कुर्यादतो भवति कारक || १७७॥ ॥ २८० ॥
तत् तत् कारक तत्, भाव । मूलघातु- डुकृञ करणे । पबविवरण – ण ग य च अव्यय । रायदोसमोहं रागद्वेषमोह - द्वितीया एक० कुठवदि करोति - वर्तमान लट् अन्य पुरुष एकवचन । गाणी ज्ञानी-प्रथमा एक० । कषायभाव - द्वितीया एक वा अव्यय । सयं स्वयं अध्यय । अप्पणो आत्मनः - षष्ठी एक० । न - अव्यय । सो सः - प्र० ए० । तेण तेन-तृ० एक० । कारगो कारक:-प्र० एक० । तेसि तेषां षष्ठी बहु० । भावाणं भावानां षष्ठी बहुवचन ॥ २८० ॥
(२२) ।
दृष्टि - १- शुद्धजय ( १६८ ) । २- उत्पादव्ययगोणसत्ता ग्राहक शुद्ध द्रव्यार्थिकनय
प्रयोग - रागादिभावोंको मौपाधिकभाव जानकर उनरूप अपने को नहीं मानना और अपने सहज चैतन्यस्वभाव में रुचि करना ॥ २८० ॥
अब ज्ञानको दशाको इस गाथामें कहते हैं: [ रागे च द्वेषे च कषायकर्मसु चैव ] रागद्वेष और कषाय कर्मोके होनेपर [ये भाषाः] जो भाव होते हैं [ तैस्तु ] उन रूपोंसे [ परिणाममानः ] परिणमता हुश्रा श्रज्ञानी [ रागावीन्] रागादिकोंको [पुनरपि ] बार-बार [ बध्नाति ] बांधता है ।
तात्पर्य - रागादिकर्म प्रकृतिका उदय होनेपर रागादिरूप मैं हूं इस श्रद्धासे परिणमता हुमा अज्ञानी फिर रागादि कर्मोंको बांधता हैं ।
टीकार्थं यथोक्त वस्तुस्वभावको नहीं जानता हुआ प्रशानी प्रपने शुद्ध स्वभावसे मनादि संसारसे लेकर च्युत हुप्रा हो है इस कारण कर्मके उदयसे हुए जो राग-द्वेष-मोहादिक भाव हैं उनसे परिणमता प्रज्ञानी राग-द्वेष-मोहादिक भावोंका कर्ता होता हुआ कमसे बंधता ही है, ऐसा नियम है । भावार्थ - प्रज्ञानी अपना यथार्थस्वभाव तो जानता नहीं है, परंतु कर्मके उदयसे जैसा कर्मरस झलके उसको अपना समझ परिणमता है तब भावोंका कर्ता होता हुआ कर्मोसे बंधता ही है, ऐसा नियम है । मादार्थ - मज्ञानी अपना यथार्थ स्वभाव तो जानता नहीं है, परंतु कर्मके उदयसे जैसा कर्मरस झलके उसको अपना समझ परिणमता है तब उन भावोंका कर्ता हुआ आगे भी बार-बार कर्म बांधता है यह निश्चित है ।
प्रसंगविवरण- अनन्तः गाथामें बताया गया था कि ज्ञानी पुरुष रागादिभावका अकर्ता है | अब इस गाथामें बताया है कि रागादिको प्रपनाने वाला अज्ञानी जीव रागादिका कर्ता होता है और वह पुनः कर्मोंसे बँधता है ।