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________________ पूर्व रंग समुद्योतितास्खलितकस्वभावकभावः शुद्धनय एवोपरितनैकप्रतिरिकास्थानीयत्वात्परिज्ञायमानः प्रयोजनवान् । ये तु प्रथम द्वितीयाधनेकपाकपरंपरापच्यमानकार्तस्वरस्थानीयमपरमं भावमनुभवति हिर । धातुसंज्ञ-सुज्झ नैमल्ये, दिस प्रेक्षणे, दरिस दर्शनायां, ट्ठा गतिनिवृत्ती । प्रकृतिशब्द - शुद्ध, शुद्धा. स्थल तक चल रहा है । सो उसी विषयमें यह जिज्ञासा होना प्राकृतिक है कि व्यवहारनयका मनुसरण क्यों नहीं करना चाहिये । इसके हो उत्तरमें इस गाथाका अवतार हुआ है। तथ्यप्रकाश-(१) जो सहज शाश्वत सत् (भूत) अर्थ है वह भूतार्थ है । (२) जो सहज शाश्वत सत् (भूत) अर्थ नहीं वह अभूतार्थ है । (३) अभूतार्थ मिथ्या नहीं, किन्तु सहज शाश्वत स्वभाव अनुभूयमान होनेपर अभूतार्थ मिथ्या है । (४) उपाधिसंसर्ग, बन्धन, क्षणिक भाव, विकार, गुणभेद, कारककारकिभेद, गुणगुणिभेद, उपचार--ये सब अभूतार्थ हैं। (५) प्रभूतार्थ से हटकर भूतार्थका प्राश्रय करनेके लिये प्रथम कदम भेदविज्ञान है, द्वितीय कदम शुद्धनयका पालम्बन है। __ सिद्धान्त--(१) सहज शाश्वत अभेद चैतन्यस्वभाव भूतार्थ है । (२) गुणगुणिभेद, कारककारकिभेद, गुणभेद, क्षरिणकभाव, विकार, उपाधिबन्धन, उपचार आदि ये सब अभूतार्थ हैं। दृष्टि--१- शुद्धनय, परमशुद्धनिश्चयनय भेदकल्पनानिरपेक्ष शुद्धद्रव्याथिकप्रतिपादक (४४, ४६, ८०) । २-- गुणगुणि बोधक परमशुद्ध सद्भूतव्यवहार (६६), कारककारकिभेदकसद्भूतव्यवहार (७३), भेदकल्पनासापेक्ष अशुद्ध द्रव्याथिकप्रतिपादकव्यवहार, उपचरित परमशुद्धसद्भूतव्यवहार, भेदकल्पनासापेक्ष प्रशुद्ध द्रव्याथिकनय (८२, ७०, २६), सत्तागीणोत्पादव्ययग्राहकनित्य अशुद्ध पर्यायाथिकनय (३७), उपाधिसापेक्ष अशुद्ध द्रव्याथिकनय (२४), परसम्बन्धव्यवहार {१२५), उपचार (१०३ से १५१) आदि । प्रयोग---परमशुद्धनिश्चयनय अथवा शुद्धनय भूतार्थको विषय करते हैं शेष सभी नय प्रभूतार्थको विषय करते हैं, किन्तु वस्तुका परिचय कराते हैं । सो वस्तुपरिचयके लिये सर्व नयोंका उपयोग कर भूतार्थसम्मुख होते हुए सर्वनयोंका परित्याग करके एक शुद्ध नथका मालम्बन लेकर भूतार्थ सहज अन्तस्तत्वको अनुभवना चाहिये ॥११॥ अब कहते हैं कि यह व्यवहारनय भी किसी किसीको, किसी काल में प्रयोजनवान् है, सर्वथा निषेध्य करने योग्य नहीं है, इसलिये इसका उपदेश है--[परममावशिभिः] जो शुद्धनय तक पहुंचकर श्रद्धावान हुए तया पूर्ण ज्ञानचारित्रवान हो गये उनको तो [शुद्धादेशः] शुद्ध ज्ञायकमात्र आत्माका उपदेश करने वाला [शुद्धः] शुद्धनय [जातव्यः] जानने योग्य है
SR No.090405
Book TitleSamaysar
Original Sutra AuthorKundkundacharya
Author
PublisherBharat Varshiya Varni Jain Sahitya Prakashan Mandir
Publication Year1995
Total Pages723
LanguageHindi, Prakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size21 MB
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