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अथ रागाद्यसंकीर्ण मावसंभवं दर्शयति
समयसार
पक्के फल पडिए जह या फलं बज्झए पुणो विंटे । जीवस्स कम्मभावे पडिए पुणोदयमुबेई ॥१६८॥
फल पक्क हो पतित फिर, जैसे वह वृत्त में नहीं लगता । कर्मभाव हटनेपर, फिर न जीवके उदित होता ॥१६८॥
पक्व फले पतिते यथा न फलं बध्यते पुनर्वृन्ते । जीवस्य कर्मभावे पतिते न पुनरुदयमुपैति ॥ १६८ ॥ यथा खलु पक्वं फलं वृतात्सकृद्विश्लिष्टं सन्न पुनर्वृन्तसंबंधधमुपैति तथा कर्मोदयजो
नामसंज्ञ - पक्क, फल, पडिय, जह, ण, फल, पुणो, विट, जीव, कम्मभाव, पडिय. पण, ग धातुसंज्ञ-पड पलने, बज्भ बंधने, उप-टू गतौ । प्रातिपदिक- पत्रत्र, फल, पतित, यथा न पत्त जीव, कर्मभाव, पतित न पुनस्, उदय। मूलधातु- डुपचष् पाहे भ्वादि फल नियत भ्वादि पल्लू गतौ भ्वादि, पत गतौ चुरादि, बन्ध बन्धने उप- इण गती । पदविवरण पक्के एकत्र तभी एक० । फल फिले - सप्तमी एक० । पडिए पतिते सप्तमी एक० । जह यथा - अव्यय । ण न अव्यय । फलं - प्रथमा
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दृष्टि-- १- निमित्तत्वनिमित्तदृष्टि (५३) । २- उपादानदृष्टि ( ४६ ब ) |
प्रयोग - रागादिसंपृक्त भाव: श्रात्माको बन्धन
संकटमें रखने वाला है ऐसा जानकर पौरुष करना ॥१६७॥
अपने रागादिरहित सहन ज्ञानस्वभावमें उपयुक्त होनेका अब रागादिकसे न मिले ज्ञानमय भावका संभव दिखलाते हैं: - [ यथा ] जैसे [क् फले पतिले] पके फलके गिर जानेपर [पुनः ] फिर [ फलं ] वह फल [ [ते] उस डंठल में [न बध्यते ] नहीं बंधता, उसी तरह [ जीवस्य ] जीवके [कर्मभावे ] कर्मभाव के [ पतिते ] झड़ जानेपर [ पुनः] फिर वह [ उदयं] उदयको [न उपैति] प्राप्त नहीं होता ।
तात्पर्य ---- कर्मोदयज भाव जीवभावसे पृथक् ज्ञात होनेपर फिर कर्मोदय भाव जीवभावरूप नहीं अनुभवा जा सकता ।
टीकार्थ-- जैसे पका हुआ फल गुच्छेसे एक बार पृथक होता हुआ वह फल फिर गु से सम्बन्धित नहीं होता, उसी प्रकार कर्मके उदयसे उत्पन्न हुआ भाव एक बार भी जोवभात्र से पृथक होता हुआ फिर जीव भावको प्राप्त नहीं होता। इस प्रकार से मिला हुआ भाव ज्ञानमय ही संभव है । भावार्थ: जीव अज्ञानसे कर्मोदयज भावोंको अपना मान कर उसे जीवभाव बना देता है। यदि स्वलक्षणक परिचयसे प्रास्रव श्री जीवस्वभावका परिचय यथार्थतया प्राप्त कर ले तो फिर कर्मोदयज भाव जीवभावसे नहीं जुड़ सकते ह सब रागादिसे संकीर्ण ज्ञानमयभावका चमत्कार है ।
अब इस अर्थ का कलशरूप काव्य कहते हैं— भावो इत्यादि । अर्थ-राग मोह