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________________ पूर्व रंग युगपदनेकविधस्य बंधनोपाधेः सन्निधानेन प्रधावितानामस्वभावभावानां संयोगवशाद्विचित्रोपाश्रयोपरक्तः स्फटिकोपल इवात्यंततिरोहितस्वभावभावतया अस्तमितसमस्तविवेकज्योतिमहता स्वयमज्ञानेन विमोहितहृदयो भेदमकृत्वा तानेवास्वभावभावान् स्वीकुर्वाणः पुद्गलद्रव्यं भमेदमित्यनुभवति किलाप्रतिबुद्धो जीवः । प्रथायमेव प्रतिबोध्यते रे दुरात्मन्, प्रात्मपंसन्, जहीहि जहीहि परमाधिवेकघस्मरसतृणान्यवहारित्वं । दूरनिरस्तसमस्तसंदेहविपर्यासानध्यवसाइदम्, पुद्गल, द्रव्य, बद्ध, अबद्ध, च, तथा, जीव, बहुभावसंयुक्त, सर्वज्ञज्ञानहष्ट, जीय, उपयोगलक्षण, नित्य, कथं, तत. पुद्गलद्रध्यीभूत, यत्, अस्मद्, इदम्, यदि, लत्, पुद्गलद्र व्यीभूत, जीवत्व, आगत, इतर तर्हि-अभ्यय, शक्त, यत्, अस्मद, इदम्, पुद्गल, द्रश्य । मूलधातु-ज्ञा अवबोधने, मुह वैचित्ये, भग शब्दार्थः, दृशिर प्रेक्षणे, अक्ल-शक्ती, वच परिभाषणं। पद विवरण-अज्ञानमोहितमतिः-प्रथमा एवावचन जो [मरणसि] तू कहता है कि [इदं मम] यह पुद्गलद्रव्य मेरा है । [यदि ] यदि [सः] जीवद्रव्य [पुद्गलद्रव्योभूतः] पुद्गलद्रव्यरूप हो जाय और [इतरत्] पुद्गलद्रव्य भी [जीवत्वं] जोवपनेको [प्रागतं] प्राप्त हो जाय । कदाचित् भी ऐसा हो सके [तत् ] तो [वक्तु शक्तः] तुम कह सकते हो [यत्] कि [इवं पुद्गलद्रव्यं ] यह पुद्गलद्रव्य [मम] मेरा है, किन्तु ऐसा हो ही नहीं सकता । तात्पर्य-स्व प्रात्माका लक्षण व परका लक्षण विज्ञात होते ही अज्ञान दूर हो जाता टीकार्थ-- एक साथ अनेक प्रकारको बन्धनोपाधिके सन्निधानसे वेगपूर्वक बहते हुए अस्वभाव भावोके संयोगवश अज्ञानी जीव, विचित्र प्राश्रयसे उपरक्त स्फटिक पाषाणकी तरह स्वभावभाव अत्यन्त तिरोहित होनेसे जिसकी समस्त भेदविज्ञानज्योति प्रस्त हो गई ऐमा स्वयं प्रज्ञान से विमुख हृदय होकर जो अपने स्वभाव नहीं हैं, ऐसे विभावोंको करता हुआ वह पुद्मलद्रव्यको अपना मानता है । ऐसे अज्ञानीको समझाते हैं कि रे दुरात्मन् ! प्रात्माका घातक ! तू परम अविवेव से जैसे तृणासहित सुन्दर पाहारको हाथी प्रादि पशु खाते हैं उसी तरहके खाने का स्वभाव छोड़ छोड़ । जो सर्वज्ञके जानसे प्रकट किया नित्य उपयोग स्वभावरूप जीवद्रव्य वह कैसे पुद्गलरूप हो सकता जिससे कि तू "यह पुद्गल मेरा है" ऐसा अनुभव करता है । कैसा है सर्वज्ञका ज्ञान जिसने समस्त संदेह विपर्यय अनध्यवसाय दूर कर दिये हैं समस्त वस्तुके प्रकाशनेको एक अद्वितीय ज्योति है । ऐसे ज्ञानसे दिखलाया गया है। और कदाचित् किसो प्रकार जैसे लवण तो जलरूप तथा जल लदरणरूप हो जाता है उसी प्रकार जीवदव्य तो पुद्गल हो जाय तथा पुद्गलद्रव्य जीवरूप हो जाय तो तेरी "पुद्गलद्रव्य मेरा है" मी अनुभूति बन जाय, किन्तु ऐसा तो किसी तरह भी द्रव्यस्वभाव बदल नहीं सकता। यही दृष्टांतसे अच्छी
SR No.090405
Book TitleSamaysar
Original Sutra AuthorKundkundacharya
Author
PublisherBharat Varshiya Varni Jain Sahitya Prakashan Mandir
Publication Year1995
Total Pages723
LanguageHindi, Prakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size21 MB
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