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________________ ६५४ समयसार चेतनात् स्वयमेव ज्ञानचेतना भवतीति भावः । ज्ञानस्य संचेतनयव नित्यं प्रकाशते ज्ञानमतीव शुद्धं । अज्ञानसंचेतनया तु धावा बोधस्य शृद्धि निरुणद्धि बंधः ।।२२४।। ॥ ३८३.३८६ ॥ प्र० एक० । संपडि संप्रति-अव्यय । अरऐयवित्थरविसेसं अनेकविस्तरविशेष-प्रथमा एक० । तं दोस तं दोष-द्वि० ए० । जो यः-प्रथमा एक० । नेयइ चेतयते-वर्तमान० अन्य० एक० क्रिया । सो सः आलोयणं आलोचनं चेया चेतयिता-प्र० ए० । णिचं नित्यं-अव्यय । पच्चक्राणं प्रत्याख्यानं-द्वितीया एक० । कुन्वइ करोति-वर्तमान लट् अन्य पुरुष एकवचन क्रिया । पडिकमांड प्रतिकामात-वर्तमान लट् अन्य पुरुष एक० क्रिया । आलोचेयइ आलोचयति-वर्तमान लट अन्य पुरुष एकवचन किया। चरितं चरित्र-प्र० एक० । हवइ भवति-वर्तमान अन्य० एक क्रिया । चेया घेयिता-प्रथमा एकवचन ।। ३८३-३८६ ।। एकाग्र उपयुक्त होकर उसी में ध्यान रखना ज्ञानचेतना है । इस ज्ञानचेतनासे तो ज्ञान अत्यन्त शुद्ध होकर प्रकाशित होता है याने केवलज्ञान उत्पन्न हो जाता है, और तब ही सम्पूर्ण ज्ञानचेतना नाम पाता है। और अज्ञानमय कर्म और कर्मफलरूप उपयोगको करना उसी तरफ एकाग्र होकर अनुभव करना वह अज्ञानचेतना है। अज्ञानचेतनासे कर्मका बन्ध होता है और वह ज्ञानको शुद्धताको रोकता है अर्थात् जानकी शुद्धता नहीं होने देता ।। प्रसंगविवरण-अनन्तरपूर्व गाथादशकमें यह बताया गया था कि प्राश्रयभूत परद्रव्य रागादिभावका कारण नहीं है ऐसा जानकर उपशमभावको प्राप्त होना चाहिये । अब इस गाथाचतुष्कमें बताया है कि रागादिके निमित्तभूत प्रतीत भविष्यत् वर्तमान कर्मके फलसे भी अलग रहना चारित्र है। ___ तथ्यप्रकाश-(१) पूर्वबद्ध पुद्गलकर्मविपाकज भावोंसे निराले स्वात्माके आश्रयके बलसे पूर्वकर्मको निष्फल कर देना प्रतिक्रमण है । (२) बँध रहे पुद्गलकर्म के कार्यभत आगामी कर्मको सहजात्माके प्राश्रयसे निष्फल कर देना प्रत्याख्यान है । (३) वर्तमान कर्मविपाकको सहजात्मस्वरूपसे प्रत्यन्त भिन्न निरखते हुए सहजात्माके प्राश्रयसे निष्फल कर देना पालोचना है । (४) परमार्थ प्रतिक्रमण प्रत्याख्यान व मालोचनाके बलसे ज्ञानस्वभाव स्वात्मामें निरन्तर उपयोगको रखना चारित्र है । (५) परमार्थ चारित्ररूप होते हुए अन्तरात्माके स्वयं ज्ञानचेतना होतो है । (६) स्वयंको ज्ञानमात्र चेतना, निरखना ज्ञानचेतना है। (७) ज्ञानको संचेतनासे ही अतीव शुद्ध परतत्वविभक्त ज्ञान प्रकाशमान होता है । (८) अज्ञानको संचेतना से बन्ध होता है और ज्ञानको शुद्धि तिरोभूत हो जाती है। सिद्धान्त-(१) सहजात्मस्वरूपको भावनामें त्रिकाल कर्मफलका प्रभाव है । दृष्टि-१- शुद्धभावनापेक्ष शुद्ध द्रव्यार्थिकनय (२४)। प्रयोग-यात्मम्वरूपमें स्थिर होनेके लिये परद्रव्य व परभावसे विविक्त सहज ज्ञान
SR No.090405
Book TitleSamaysar
Original Sutra AuthorKundkundacharya
Author
PublisherBharat Varshiya Varni Jain Sahitya Prakashan Mandir
Publication Year1995
Total Pages723
LanguageHindi, Prakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size21 MB
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