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बन्धाधिकार
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तावन्नैमित्तिकभूतं भावं न प्रतिक्रामति न प्रत्याचष्टे च यावतु भावं न प्रतिक्रामति न प्रत्या चष्टे तावत् स्यात् । यदैव निमित्तभूतं द्रव्यं प्रतिक्रामति प्रत्याचष्टे च तदैव नैमित्तिक भूतं भावं प्रतिक्रामति प्रत्याचष्टे च । यदा तु भावं प्रतिक्रामति प्रत्याचष्टे च तदा साक्षादकतेंब स्यात् ।। २८३ २८५ ।।
गाथावत् जावं यावत्-अव्यय । अपवित्रक्रमणं प्रतिक्रमणं द्वितीया एक अपञ्चवखाणं अप्रत्याख्यानंद्वि० एक० च अभ्यय । दव्वभावाणं द्रव्यभावानां षष्ठी बहु० । कुब्वइ करोति-वर्तमान लट् अन्य पुरुष एक क्रिया । आदा आत्मा-प्रथमा एकवचन । तावं तावत् कत्ता कर्ता प्र० ए० । सो सन्प्र० ए० । होइ भवन वर्तमान लट् अन्य पुरुष एक० | गायत्री ज्ञातव्यः प्रथमा शुक्रवचन ।। २८३-२६५ ।।
निमित्त है, रागादिभाव नैमित्तिक है । ७- जब तक परद्रव्यका त्याग न किया जा सके तब तक रामका कैसे त्याग हो सकेगा ? - जन तक रागादिभावोंको न त्याग सके याने रागादिभावोंको अपनाये तब तक वह कर्ता है । 2- जब जीव मनसा वचसा कायेन परद्रव्यका त्याग कर देता है तभी वह रागादिभावोंको त्याग देता है । १०- जब रागादिभावोंको त्याग दिया तब वह अकर्ता ही है । ११- ग्रप्रतिक्रमण श्रप्रत्याख्यान ( रागादिभाव ) ये कर्मके कर्ता हैं | कर्मका कर्ता जीवद्रव्य नहीं । १२- यदि जीवद्रव्य कर्मका कर्ता हो तो सदा ही कर्ता रहना पड़ेगा क्योंकि जीव सदा है । १३- रागादिविकल्प अनित्य हैं सो जब स्वभावच्युत जीवोंके रागादिविकल्प है तब कर्ता है | १४ - स्वभावाश्रय होनेपर विकल्पसंकल्प न रहनेसे ज्ञानी कर्ता नहीं है ।
सिद्धान्त - १ - कर्मविपाकप्रतिफलित रागादिकको जो अपनाये वह अज्ञानी है । २- कर्मविपाकप्रतिफलित रागादिकको जो प्रत्यन्त दूर करे वह ज्ञानी है ।
दृष्टि - १ - उपाधिसापेक्ष अशुद्धद्रव्यार्थिकनय (२४) । २ - प्रतिषेधक शुद्धनय (४९) । प्रयोग — रागादि विकारका निमित्तके साथ अन्वयव्यतिरेक निरखकर उससे हटकर अपने स्व शाश्वत ज्ञानस्वभावमें रमकर तृप्त रहना ॥ २८३- २८५ ॥
श्रव द्रव्य और भावको निमित्तनैमित्तिकताका उदाहरण देते हैं:--- [ अधःकर्माद्याः इमे ] श्रधःकर्म आदि जो ये [ पुद्गलद्रव्यस्य दोषाः ] पुद्गल द्रव्यके दोष हैं [तात्] उनको [ज्ञानी] ज्ञानी [कथं करोति ] कैसे करे ? [तु] क्योंकि [ये] ये [नित्यं ] सदा ही [परद्रव्यगुखाः ] परद्रव्यके याने पुद्गलद्रव्यके गुण हैं । [च] और [ इवं ] यह प्रधःकर्मोद्द शिकं ] अधःकर्म और उद्देशिक [ पुद्गलमयं ब्रदर्श ] पुद्गलमयं द्रव्य [ यत् ] जो कि [नित्यं ] सदा