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________________ कर्तृकर्माधिकार प्रत एतस्थितं उप्पादेदि करेदि य बंधदि परिणामएदि गिण्हदि य । आदा पुग्गलदबं ववहारणयस्स बत्तब्वं ॥१०७|| व्यवहारसे बताया, ज्ञानावरणादि कर्मको प्रात्मा । गहे करे अरु बांधे, उपजावे वा परिणमावे ॥१०७॥ उत्पादयति करोति च बध्नाति परिणामयति गृह्णाति च । आत्मा पुद्गल द्रव्यं व्यवहारनयस्य वक्तव्यं । अयं खल्वात्मा न गृह्णाति न परिणामयति नोत्पादयति न करोति न बध्नाति व्याप्यव्यापकभावाभावात् प्राप्यं विकार्य निर्वयं च पुद्गलद्रव्यात्मकं कर्म । यत्तु व्याप्यव्यापकभावा ___ नामसंज्ञ य, य, अत्त, पुग्गलदव्व, बवहारणय, वत्तव्य। धातुसंज्ञ---उत्-पद गती, कर करणे, बंध बंधने, परि-नम नम्रीभावे प्रेरणा, गिण्ह ग्रहणे । प्रकृतिशब्द . च, त्र आत्मन्, पुद्गलद्रव्य, व्यवहारनय, वक्तव्य । मूलधातु-उत्-पद गती दिवादि चुरादि, डुका करणे, बन्ध बन्धने, परिणम प्रह्वस्वे, ग्रह उपालोग कहने लगते हैं कि जीवने पुद्गलकर्मको ग्रहण किया, परिणमाया, उत्पन्न किया, बाँधा प्रादि, सो यह उपचारमात्र ही है । टोकार्थ--यह प्रात्मा निश्चयसे व्याप्य-व्यापकभावके प्रभावसे प्राप्य, विकार्य और निर्वयं पुद्गलद्रव्यात्मक कर्मको न प्रहार करता, । परिवार है, ग उजार है, न करता है और न बांधता है । व्याप्य-व्यापक भावके प्रभाव होनेपर भी प्राप्य, विकार्य और निर्वयं ऐसे तीन प्रकारके पुद्गलद्रव्यात्मक कर्मको यह प्रात्मा ग्रहण करता है, उपजाता है, करता है और पौधता है। ऐसा जो विकल्प होता है, वह प्रकट उपचार है । भावार्थ---व्याय-व्यापक भावके बिना जीवको कर्मका कर्ता कहना वह उपचार है। प्रसंगविवरण-अनन्तरपूर्व गाथामें उदाहरणपूर्वक यह बताया गया था कि जीवके द्वारा कर्म किया गया यह कथन उपचारसे किस प्रकार है ? अब इस गाथामें उस विवरणके निष्कर्षमें आगमणित सिद्धान्त स्थापित किया गया है । तथ्यप्रकाश-(१) आत्मा पुद्गलद्रव्यको करता है यह व्यवहारनयका वचन है । (२) यहाँ करता है यह सामान्य वचन है जिसका विश्लेषण करनेपर कि क्या-क्या कैसे-कैसे करता है, चार क्रियायें प्राती हैं । (३) उत्पादयति अर्थात् जोव कर्मको प्रकृतिरूपसे उत्पन्न करता है । (४) बध्नाति अर्थात् जीव कर्ममें स्थितिबन्ध करता है । (५) परिणमयति अर्थात् जीव कर्मको अनुभागरूपमें परिणमाता है । (६) गृह्णाति अर्थात् जीव सर्वात्मप्रदेशोंसे कर्मप्रदेशोंको याने कर्म परमाणुवोंको ग्रहण करता है। (७) उपादानदृष्टि से निरखनेपर यह सब कथन उपचार वाला व्यवहार बनता है । () घटनादृष्टिसे, निमित्तनैमित्तिकदृष्टिसे निरखने
SR No.090405
Book TitleSamaysar
Original Sutra AuthorKundkundacharya
Author
PublisherBharat Varshiya Varni Jain Sahitya Prakashan Mandir
Publication Year1995
Total Pages723
LanguageHindi, Prakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size21 MB
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