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अशुद्ध शुद्ध आश्रय-आशय चेतयितुनिमिनकेन – चेतयिनि भित्तन लादि पर-लादिपर पूर्वकृत–पूर्वकृतं पास ण याणाए-यागंण यागए धम्माधम्म -प्राधम्म मध्वसानं.. मध्यवतान स्व -स्वरूप गृहीतु- गृहीत विहार्षा - बिहार्षी
पृष्ठ पंक्ति १३८व पंज पर ६७ कलण लिखना गाथा टीका ५५२-१३ के अन्त में ४०
चुतकुम्भाभिधानेषि कुम्भोधतमयो न चेत ५१२-२
जीवो वार्णादिमज्जीवजलपने पि न तन्मयः ।। ८० ।।
२३०वं पेज पर १२५ माथा टीका के अन्त में ६५वां
कलश लिखें-- ६३१-२ स्थितेति जीवस्य निरन्तराया स्वभावभता परिणामशक्तिः । ६४३-१ तस्यां स्थितारा स करोति भावं यं स्वस्व तस्यैव भवेत्स। ६४५-५
वर्ता ॥६५ १५२-५
अपनी बातचीत अयि आत्मन ! तु क्या है ? विचार ! ज्ञानमय पदार्थ !! तेरा इन दृश्यों के साथ क्या कोई सम्बन्ध है यथार्थ? नहीं, नहीं, कुछ भी सम्बन्ध नहीं ! क्यों नही? यों कि 'कोई विसीका कुछ भी परिणमन कर नहीं सकता" में ज्ञानमय आत्मा हे , स्वयं है, इसीलिय अनादिसे है, मैं किसी दिन हुआ होऊ, पहिले नया यह बात नहीं। न या तो फिर हो भी नहीं सकता। फिर ध्यान दे---इस नर जन्भसे पहिले तू था ही ! क्या था? अनंतकाल तो निगोदिया था। वहां क्या बीती? एक सेकिण्ड में २३ बार पंदा हुआ और मरा। जीभ, नाक, आंख, कान, मन तो था ही नहीं और था शरीर । ज्ञानकी ओरसे देखो तो जड़सा रहा; महासंक्लेश! न कुछसे बुरी दशा । सुयोग हुआ तब उस दुर्दशासे निकला । पृथ्वी हुबा तो खोदा गया, जूटा गया, साड़ा गया, सुरंग कोड़ा गया। जल भी तो तू हुआ, तब औटाया गया, बिलोरा गया, गर्म आग पर डाला गया। अग्नि हुआ, तब पानीसे, राखरो, घुलसे, बुझाया गया, सुदेश गया । वायु हुआ, तव पंखोंसे, बिजलियोंसे ताड़ा गया, रबर आदिमें रोका गया। पेड़, फल, पत्र जब काटा, छेदा, भूना, सुखाया गया। कीड़े भी तुम्हीं बने और मच्छर, मक्खी, बि आदि भी! बताओ कौन रक्षा कर सका ! रक्षा तो दूर रही, दवाइयां डाल डाल कर मारा गया, पत्थरोंसे, जूतोंसे, खरोंसे दबोचा व मारा गया । बल, घोड़े, कुते आदि भी तो तू हुआ । कैसे दुःख भोगे ? भूखे प्यासे रहे, ठंडों मरे, ममियों मरे, ऊपरसे चाबुक लगे, मारे गये। गूकर मारे जाते हैं चलते फिरतोंको छुरी भोंककर । कहीं तो ज़िन्दा ही आग में भूने जाते हैं।
यह दूसरों की कथा नहीं, तेरी है। यह दशा क्यों हुई? मोह बढ़ाये; कषाय किये; खाने, पीने, विषयों की धुन रही; नाना कर्म वांधे; मिथ्याव, अन्याय, अभश्यसेवन किये। बड़ी कठिनाईसे यह मनुष्य जन्म मिला तब यहां भी मोहराग द्वेष विषय कषायकी ही बात रही। तब...जैसे मनुष्य हए, न हुए बराबर है। कभी ऐसा भी हुआ कि तूने देव होकर या राजा, सम्राट् , महान् धन-पति होकर अनेक संपदा पाई परन्तु वह सभी संपदायें थीं तो असार और कलेशकी कारण !! इतने पर भी उन्हें छोड वर मरना हो तो पड़ा! अबतो पाया ही क्या ? ने कूछ । म पूछमें व्यर्थलालसा
| सर्व हानि कर रहे हो ? आरमन ! स्वभावसे ज्ञान-मय है, प्रम है, स्वतन्त्र है, सिद्ध परमात्मा की जाति का है । क्या कर रहा ? उठ, चल, अपने स्वरूपमें बस 1 अकेला है, अकेला ही पुण्य-पाप करता, अकेला ही पुण्य-पाप भोगता, अकेला ही शुद्ध स्वरूपकी भावना करता, अकेला ही मुक्त हो जाता। देख ! चेत! पर पर ही है, परमें निजबुद्धि वरना ही दुःख है, स्वयं में आत्मबुद्धि करना सुख है, हित है, परम अमृत है । वह तू ही तो स्वयं है । परकी आशा तज, अपने में मग्न होने की घून रख । सोच तो यही सोच-परमात्माका स्वरूप...उसकी भक्ति में रह । लोगोंको मोच, तो उनका जैसे हित हो उस तरह सोच । बोल तो यही बोल-शद्धात्माका गुण गान...इसकी स्तुतिमें रह । लोगों में बोल, तो हित, मित, प्रिय वचन बोल । कर, तो ऐसाकर जिसमें किसी प्राणीका अहित न हो, घात न हो। अपनी चर्या धार्मिक बनाओ । तू शुद्ध चैतन्य स्वभावी है; सहजमावका अनुभव कर । जप, जप:-"शुद्धचिद्रूपोऽहम्"
शिवमस्तु