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________________ पुण्यपापाधिकार २८३ अथ ज्ञानाजाने मोक्षबंधहेतू नियमयति-- वदणियमाणि घरंता सीलाणि तहा तवं च कुव्वंता। परमवाहिरा जे णिबाणं ते ण विंदति ॥१५३॥ बत नियमोंको धरते, शील तथा तप अनेक करते भी। परमार्थ बाह्य जो हैं, वे नहि निर्धारणको पाते ॥१५३।। प्रतनियमान् धारयंतः सीलानि तथा तपश्च कुर्वन्तः । परमार्थबाह्या ये निर्वाण ते न विदंति ।। १५३ ।। जानमेव मोक्षहेतुस्तदभावे स्वयमज्ञान भूतानामज्ञानिनामन्तव॑तनियमशीलतपःप्रभृतिशुभकर्मसद्धावेऽपि मोक्षाभावात् । अज्ञानमेव बंधहेतुः, तदभावे स्वयं ज्ञानभूतानां ज्ञानिनां वहि तनियमशीलतपःप्रभृतिशुभकर्मासद्भावेऽपि मोक्षसद्भावात् । यदेतद् ज्ञानात्मा ध्रुवमचलमाभाति भवन, शिवस्यायं हेतुः स्वयमपि यतस्तच्छिव इति । अतोऽन्यद्वंधस्य स्वयमपि यतो बंध इति तत्, ततो ज्ञानात्मत्वं भवनमनुभूतिहि विहितं ।।१०।।1। १५३ ।। प्राकृतशय–वदणियम, सील तहा, तव, च, परमवाहिर, ज, णिब्वाण, त, ण । प्राकृतधातुधर धारणे, कुन्न करणे, विद ज्ञाने। प्रकतिशब्द-ब्रनियम, धारयत्, शील, तथा, तापस्, च, परमार्थबाह्य, यत्, निर्वाण, तत्, न । मूलधातु-नि यम परिवेषरणे चुरादि भ्वादि, शील समाधी, तप संतापे ऐश्वर्ये च, डुकृञ् करणे, विद्ल लाभे तुदादि । पदविवरण-अनियमान्-द्वितीया बहु । धारयंत:-प्रथमा बह० कृदन्त। शीलानि-द्वि० बहः । तथा-अव्यय । तप:-द्वितीया एक०। च-अव्यय। कर्वन्त:-प्रथमा बह। परमार्थबाह्याः, ये-प्रथमा बह० ! निर्वाण-दि० एकः। ते-प्रथमा बह । न-अव्यय । विन्दन्तिवर्तमान लट् अन्य पुरुष बहुवचन ॥१५३ ।। का अभाव होनेके कारण उनको मोक्ष नहीं होता । (२) अज्ञानरहित ज्ञानी जीवके बाह्य सुवि. दित हों, ऐसे व्रतादि शुभ क्रियाकांड नहीं तो भी ज्ञानभावके कारण उनको मोक्ष हो जाता है । सिद्धान्त-(१) क्रियाकाण्डमें शान नहीं । (२) ज्ञान में क्रियाकाण्ड नहीं । (३) अज्ञानमय दुर्भावोंको तत्काल रोकनेका बाह्य साधन शुभ क्रियाकाण्ड है । दृष्टि--१- प्रतिषेधक शुद्धनय (४६)। २- प्रतिषेधक शुद्धनय (४६)। ३निमित्तदृष्टि (५३)। प्रयोग-~-जिस ज्ञानभायके अभावमें अनेक शुभ क्रियाकाण्ड भी मोक्षसाधन नहीं बनते उस ज्ञानभावमें अपने ज्ञानको उपयुक्त करनेका पौरुष करना ।। १५३ ।। अब फिर भी पुण्यकर्मके पक्षपातीके प्रतिबोधनके लिये कहते हैं-[ये] जो [परमार्थबाहाः] परमार्यसे बाह्य हैं [ते वे जीव [मोक्षहेतु] मोक्षका कारण ज्ञानस्वरूप प्रात्माको [प्रजानंतः] नहीं जानते हुए [संसारगमनहेतु अपि] संसारमें गमनका हेतुभूत होनेपर भी [पुण्यं] पुण्यको [मनानेन] अज्ञानसे [इच्छति] चाहते हैं ।
SR No.090405
Book TitleSamaysar
Original Sutra AuthorKundkundacharya
Author
PublisherBharat Varshiya Varni Jain Sahitya Prakashan Mandir
Publication Year1995
Total Pages723
LanguageHindi, Prakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size21 MB
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