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________________ पूर्व रंग कलयन् भगवानात्मैव वाबुध्यते । यत्किलाहं खल्वेकः ततः संवेद्यसंवेदकभावमात्रोपजातेतरेतरसंबलनेपि परिस्फुटस्वदमानस्वभावभेदतया धर्माधर्माकाशका पुद्गलजीवांतराणि प्रति निर्ममत्वोस्मि । सर्वदेवात्मैकत्वगतत्वेन समयस्यैवमेव स्थितत्वात् इतीत्थं शेयभावविवेको भूतः । इति सति सह सर्वेरन्यभावविवेके स्वयम्यमुपयोगो विभ्रदात्मानमेकं । प्रकटितपरमार्थेर्दर्शनज्ञानवृत्तैः कृतपरिणतिरात्माराम एवं प्रवृत्तः ||३१|| ||३७ ६१ मान लट् अन्य पुरुष एक० क्रिया, सम-षष्ठी एक०, धर्मादयः प्रयमा बहु०, बुध्यते - वर्तमान लट् अन्य पुरुष एक० क्रिया दिवादिगणे, उपयोगः- प्रथमा ए०, एव-अव्यय, अहं प्रथमा एक०, एक:- प्रथमा एक०, तं - द्वितीया. ए०, धर्मनिर्ममत्वं द्वि० एक०, समयस्थ- पष्ठी एक०, विज्ञायकाः- प्रथमा बहु०, विदन्ति-वर्तमान लट् अन्य पुरुष बहु० क्रिया ॥ ३७ ॥ भिन्नता हुई, तब यह उपयोग स्वयं ही अपने एक प्रात्माको ही धारता हुआ, जिनका परमार्थ प्रकट हुआ है, ऐसे जो सम्यग्दर्शन, ज्ञान, चारित्र उनरूप जिसने परिणमन किया है ऐसा होना हुआ अपने आत्मा रूपी बाग ( क्रीड़ावन) में प्रवृत्ति करता है, अन्य जगह नहीं जाता | भावार्थ -- सब परद्रव्योंसे तथा उनसे उत्पन्न हुए भावोंसे जब भेद जाना, तब उपयोगको रमने के लिए अपना आत्मा ही रहा, दूसरा स्थान नहीं रहा । इस तरह दर्शन, ज्ञान और चारित्र से एकरूप हुआ ज्ञानी आत्मामें ही रमण करता है, अन्यत्र नहीं । प्रसंगविवरण- प्रनन्तरपूर्व गाथा में भावकभाव के विवेकका प्रकार बताया था, ब निश्चयस्तुति के प्रकरणसे सम्बंधित ज्ञेयभावके विवेकका प्रकार बताया जा रहा है । तथ्यप्रकाश - ( १ ) एक धर्मद्रव्य, एक अधमंद्रव्य, एक श्राकाशद्रव्य, प्रसंख्यात कालद्रव्य, अनंत पुद्गलद्रव्य व अनंत जीवांतर इनका एक ज्ञाता जीवके साथ मात्र क्षेत्रज्ञायक संबंध है । (२) ज्ञाता अन्तस्तत्व है, ज्ञेय बहिस्तत्व है । (३) प्रत्येक पदार्थ अपने-अपने स्वरूपके एकत्व में प्राप्त है, अतः किसी भी पदार्थका दूसरा कुछ भी सम्बंधी नहीं है । सिद्धान्त -- ( १ ) ज्ञाताका ज्ञेयोंके साथ ज्ञेयशायक सम्बंध है । ( २ ) प्रत्येक पदार्थ अपने स्वरूपके एकत्वमें प्राप्त है अन्य सबसे विभक्त है । दृष्टि - १ - स्वजातिविजात्यसद्भूतव्यवहार (ee ) । २- स्वद्रव्यादिग्राहक द्रव्याथिकनय, परद्रव्यादिग्राहक द्रव्यार्थिकनय ( २८, २६) । प्रयोग – मुझ ज्योतिस्वरूपका स्वभाव है कि जो सत् है तद्विषयक जानन परिणमन चलता है, किन्तु बाह्य ज्ञेयसे मेरा कुछ सम्बन्ध नहीं और तद्विषयक प्रतिभास भी भोपाधिक है, मैं प्रतिभासमानस्वभावी हैं, अतः मैं अपने में अपना जानन बर्तता हुआ रहूं ऐसा प्रन्तः पौरुष करना चाहिये ||३७||
SR No.090405
Book TitleSamaysar
Original Sutra AuthorKundkundacharya
Author
PublisherBharat Varshiya Varni Jain Sahitya Prakashan Mandir
Publication Year1995
Total Pages723
LanguageHindi, Prakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size21 MB
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