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________________ कर्तृकर्माधिकार २३६ तित्वात् ज्ञानभय एव स्यात् । अज्ञानिनस्तु सम्यकस्वपरविवेकाभावेनात्यंतप्रत्यस्तमितविविक्तारमख्यातित्वादज्ञानमय एव स्यात् ।।१२६।। कर्मकारक। आत्मा-प्रथमा एकवचन कतकारक । कर्ता, स:-प्र० ए० । भवति-वर्तमान लट् अन्य पुरुष एक० किया । तस्य, कर्मणः, ज्ञानिन:-षष्ठी एकवचन । सः, ज्ञानमयः, अज्ञानमय:-प्र० ए० । अज्ञानिम:षष्ठी एकवचन ।। १२६ ।। का स्पष्टीकरण इस गाथामें किया है। तथ्यप्रकाश-१-यात्मा अपने जिस भावको करता है उस कर्मका (जीवपरिणामका) कर्ता होता है। २-ज्ञानीके स्वपरविवेक होने के कारण दृष्टि में सर्वपरविविक्त आत्माको ख्याति होनेसे ज्ञानमय ही भाव होता है । ३-प्रज्ञानीके सही स्वपरविवेक न होनेके कारण विविक्त प्रात्माकी ख्याति (प्रतीति) न होनेसे अज्ञानमय ही भाव होता है । सिद्धान्त-१-स्वपरविवेकपूर्वक स्वभावदृष्टि होनेसे ज्ञानीके ज्ञानमय भाव होते हैं। २-स्वपरविवेक न होनेके कारण स्व दृष्टि मस्त मानेको सम्मानीले ज्ञानमय भाव होते हैं । दृष्टि-- अपूर्ण शुद्धनिश्चयनय (४६ब) । २-प्रशुदनिश्चयनय (४७) । प्रयोग-ज्ञानमयभावको स्वभावभाव व निराकुल जानकर उसकी कारणभूत अवि. कारज्ञानस्वभाव दृष्टि रखनेका पौरुष करना ।।१२६॥ ज्ञानमय भावसे क्या होता है और प्रज्ञानमय भावसे क्या होता है, अब यह कहते हैं—[अज्ञानिनः] अज्ञानीका [प्रज्ञानमयः] अज्ञानमय [भावः] भाव है [तेन] इस कारण [कर्मारिण] प्रज्ञानी कर्मोको [करोति] करता है [तु] और [ज्ञानिनः] ज्ञानोके [ज्ञानमयः] ज्ञानमय भाव होता है [तस्मात्त ] इसलिये वह ज्ञानी [कर्माणि] कोको [न] नहीं [करोति] करता। टीकार्थ-प्रज्ञानीके अच्छी प्रकार स्वपरका भेदज्ञान न होनेसे विविक्त आत्माको ख्याति अत्यंत अस्त हो जानेके कारण अज्ञानमय हो भाव होता है । उस अज्ञानमय भावके होनेपर प्रात्माके और परके एकात्वका अध्यास होनेसे ज्ञानमात्र अपने आत्मस्वरूपसे भ्रष्ट हुआ परद्रव्यस्वरूप राग द्वेषके साथ एक होकर अहंकारमें प्रवृत्त हुआ अज्ञानी ऐसा मानता है कि 'मैं रागी हूं, द्वेषी हूँ' इस प्रकार बह रागी द्वेषी होता है । उस रामादि स्वरूप प्रज्ञानमय भाव से अज्ञानी हुा परद्रव्यस्वरूप जो राग-द्वेष उन रूप अपनेको करता हुमा कर्मोको करता है । और ज्ञानीके अच्छी तरह अपना परका भेदशान हो गया है इसलिये जिसके भिन्न प्रात्मा को प्रकटता—'ख्याति' प्रत्यंत उदित हो गई है, उस भावके कारण ज्ञानमय ही भाव होता है। उस भावके होनेपर अपने व परको भिन्नपनेका शान भेदज्ञान होनेसे ज्ञानमात्र अपने
SR No.090405
Book TitleSamaysar
Original Sutra AuthorKundkundacharya
Author
PublisherBharat Varshiya Varni Jain Sahitya Prakashan Mandir
Publication Year1995
Total Pages723
LanguageHindi, Prakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size21 MB
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