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जीवाजीवाधिकार
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यस्याभिनिवेशः तस्य शेषद्रव्यासाधारणस्य वर्णाद्यात्मकत्वस्य पुद्गल लक्षणस्य जीवेन स्वीकरणाजीवपुद्गलयोर विशेष प्रसक्तो सत्यां पुद्गलेभ्यो भिन्नस्य जीवद्रव्यस्याभावाद्भवत्येव जीवाभावः ।।६२।।
यदि - अव्यय | हि-अव्यय । जीवस्य षष्ठी एक । अजीवस्य षष्ठी एक० । च-अव्यय । न-अव्यय । अस्ति - वर्तमान लट् अन्य पुरुष एक० । विशेषः - प्रथमा एक० तु अव्यय । ते षष्ठी एकवचन । कश्चित् अव्यय अन्तः प्रथमा एकवचन ।। ६२॥
प्रयोग - अपने श्रात्मा व वर्णादिक भावोंको बिल्कुल पृथक् निरखकर अपने चैतन्यचमत्कार मात्र स्वरूप में उपयोगको लीन करनेका भावपौरुष करना चाहिये ॥६२॥
संसार अवस्था में हो जीवका वर्णादिकसे तादात्म्य है, ऐसा अभिप्राय होनेपर भी यही दोष आता है, ऐसा कहते हैं - [ ] अब यदि [ तत्र ] तुम्हारे मतमें [ संसारस्थानां terri] संसार में स्थित जीवोंके ही [वर्णादयः ] बदिक तादात्म्यस्वरूपसे [ भवन्ति ] हैं [तस्मात् ] तो इसी कारण [ संसारस्थाः जीवाः ] संसार में स्थित जीव [ रूपित्वं प्रापन्नाः ] रूपीपनेको प्राप्त हो गए । [ एवं ] ऐसा होनेपर [ तथा लक्षगेन ] पुद्गलके लक्षण के समान atest लक्षण होनेसे [मूढमते ] हे मूढ़ बुद्धि [पुगलद्रव्यं] पुद्गलद्रव्य ही [ जीवः ] जीव सिद्ध हुआ [च निर्धार ] और निर्वाणको [ उपगतोषि] प्राप्त हुआ भी [ पुद्गलः ] पुद्गल हो [जीवत्वं ] जीवपनेको [ प्राप्तः ] प्राप्त हुप्रा ।
तात्पर्य - संसारदशामें ही सही, जीवका लक्षण रूपी श्री निर्वाण होनेपर कहा जायगा कि पुद्गलका निर्माण हुथा, टीकार्थ- जिसके मत में संसार अवस्था में जोवका वर्णादि भावोंके साथ तादात्म्य
माननेपर वह पुद्गल कहलाया पुद्गल ही जीव बन गया ।
सम्बंध है, ऐसा अभिप्राय है, उसके संसार अवस्थाके समय वह जीव रूपित्व दशाको प्रवश्य प्राप्त होता है । और रूपित्व किसी द्रव्यका श्रसाधारण (ग्रन्य द्रव्योंसे पृथक् कराने वाला) लक्षण है । इस कारण रूपित्व लक्षण मात्र से जो कुछ लक्ष्यमाण है वही जीव है और रूपित्व से लक्ष्यमारण पुद्गलद्रव्य ही है । इस प्रकार पुद्गलद्रव्य ही स्वयं जीव सिद्ध होता है अन्य कोई नहीं । ऐसा होनेपर मोक्ष श्रवस्था में भी पुद्गलद्रव्य हो भाप जोव होता है । क्योंकि जो द्रव्य है, वह नित्य अपने लक्षणसे लक्षित है, यह सभी अवस्थाओं में अविनाशस्वभाव है इसलिये अनादिनिधन है, इस कारण पुद्गल ही जीव है, इससे भिन्न कोई जीव नहीं है । ऐसा होनेसे संसारदशा में ही जीवका वर्णादिके साथ तादात्म्य मानने वाले के मत में भी पुद्गलोंसे भिन्न जीव का अभाव होनेसे जीवका प्रभाव ही सिद्ध हुआ । इसलिये यह निश्चित हुआ. कि जो वर्णादिक भाव हैं, वे जीव नहीं हैं ।