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________________ समयसार वाप्नोति । एष संवरप्रकार: ।। निजमहिम रताना भेदविज्ञानशक्त्या भवति नियतमेषां शुद्धतत्वो. पलंभः । अचलितमखिलान्यद्रव्यदूरे स्थितानां भवति सति च तस्मिन्नक्षयः कर्ममोक्षः ॥२२८॥ ।। १८५.१८६ ।। पदविवरण- -अप्पाणं आत्मान-द्वितीया एक० । अप्पणा आत्मना-तृतीया एकवचन । रुभिऊण रुन्च्चाअसमाप्तिकी क्रिया। दोपृष्णपापजोगम-सप्तमी बहु० । द्विपुण्यपापयोगयो:-सप्तमी द्विवचन । दसणणाणम्हि दर्शनज्ञाने-सातमी एक० । ठिदो स्थित:-प्रथमा एक । इच्छाविरओ इच्छाविरत:-प्र० एक० । य च-अध्यय । अण्णम्हि अन्यस्मिन्-सप्तमी एक० । जो य:-प्र० ए०। सब्बसंगमुक्को सर्वसंगमुक्त:-प्रथमा एक० । मायदि ध्यायनि-वर्तमान लद अन्य पुरुष एक क्रिया । अप्पाणं आत्मानं-द्वितीया एकवचन । अपणो आत्मनः-पाठी एक० । अया आत्मा-प्रथमा एक० । ण न-अव्यय । अपि-अव्यय । कम्म कर्मद्वि० ० । किम्म नोकर्म-द्वि० एक० । चेदा चेतयिता-प्र० ए० । चेयेइ चेतयति-वर्तमान लट् अन्य पुरुष एकवचन । एयत्तं एकत्वं- हिए । अप्पागं आत्मानं-द्वितीया एक०। झायतो ध्यायन्-प्रथमा एक० कृदन्त । दसणणाणमओ दर्शनज्ञानमय:-प्रथमा एक० । अणण्णमओ अनन्यमयः-प्रथमा ए० । लहइ लभतेवर्तमान अन्य एक प्रिया । अचिरेण-तृ० एक० । अप्पाणं आत्मानं-द्वि० ए० । एव-अव्यय । सो सःप्रथमा एक० । कम्मविष्पमुक्कं कर्मविप्रमुवतं-द्वितीया एकवचन ।। १८७-१८६ ॥ नोकर्मसे अत्यन्त विविक्त अपने स्वरूप में एकाग्न होकर ध्यान करता हुआ रहे वह अन्तरात्मा थोड़े समय में ही सर्व कर्मोसे पृथक् हो जाता है । सम्बरको विधि यही है । __ अब इस अर्थका कलशरूप काव्य कहत हैं-निज इत्यादि । अर्थ-भेदविज्ञानको शक्तिसे अपने स्वरूपकी महिमामें लीन पुरुषोंको नियमसे शुद्धतत्त्वकी प्राप्ति होती है और उस शुद्धतत्वकी प्राप्ति होनेपर समस्त अन्य द्रव्योंसे दूर प्रचलित स्थित पुरुषोंका अक्षय कर्ममोक्ष होता है। प्रसंगविवरण-अनन्तरपूर्व गाथामें बताया गया था कि कसे शुद्धात्माके उपलम्भसे सम्बर होता है । अब उसी सम्वरका प्रायोगिक प्रकार इस गाथात्रिकलमें कहा गया है । तथ्यप्रकाश-(१) यह जीव रागद्वेषमोहमूलक शुभ अशुभ योगमें प्रवर्तता चला पाया है । (५) दृढ़तर भेदविज्ञानसे प्रात्मशक्ति द्वारा शुभाशभयोगका प्रवर्तन निरुद्ध हो जाता है । (३) दृढ़तरभेदविज्ञानसे शुभाशुभयोगका निरोध कर यह आत्मा शुद्ध चेतनामात्र अन्तस्तत्त्व में प्रतिष्ठित हो जाता है । (४) सहजस्वरूपमें प्रतिष्ठित मात्मा निःसंग व निष्प्रकम्प हो जाता है । (५) स्वरूपप्रतिष्ठित, निःसङ्ग, निष्कम्प प्रात्मा परतत्व से विविक्तता होनेसे चैतन्य. चमत्कारमात्र प्रात्माका ध्यान करता हुआ शुद्धात्माको प्राप्त हुआ है । (६) शुद्धात्माको प्राप्त प्रात्मा सर्वपरभावसे पृथक् होकर शीघ्र ही अपनेको कर्मविमुक्त कर लेता है ।। सिद्धान्त--(१) शुद्धात्माकी उपलब्धि से योगनिरोध होनेसे कर्माका संवर होता है ।
SR No.090405
Book TitleSamaysar
Original Sutra AuthorKundkundacharya
Author
PublisherBharat Varshiya Varni Jain Sahitya Prakashan Mandir
Publication Year1995
Total Pages723
LanguageHindi, Prakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size21 MB
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