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'निर्जराधिकार भावस्य इच्छाया अभावादशनं नेच्छति तेन ज्ञानिनोऽशनपरिग्न हो नास्ति ज्ञानमयस्यै कस्य ज्ञायकभावस्य भावादशनस्य केवलं ज्ञायक एवायं स्यात् ।।२१२।। अवबोधने यादि, भू सत्तायां । पदविवरण- अपरिगहो अपरिग्रहः-प्रथमा एक० । अणिच्छो अनिच्छ:प्रथमा एक० । भणिदो भणित:-प्रथमा एक० कृदन्त । णाणी ज्ञानी-प्रथमा एक० । य च-अव्यय । ण न
५। इच्छदे इच्छति-वर्तमान लट अन्य पुरुष एकवचन त्रिया। असणं अदानं-द्वितीया एकवचन । अपरिग्मही अपरिग्रह:-प्र० ए० 1 दु तु-अव्यय । असणस्स अशनस्य षष्ठी एक० । जाणगो ज्ञायक:-प्रथमा एक० । तेण तेन-तृ० एक० । सो सः-प्र० ए० । होदि भवति-वर्तमान लट् अन्य पुरुष एकवचन ।।२१२||
प्रसंगविवरण-ज्ञानीके अपरिग्रहत्व बतानेका यह स्थल चल रहा है। यहाँ धर्म अधर्मका परिग्रह बताकर ज्ञानीके प्रशन परिग्रहका प्रतिषेध करनेके लिये यह गाथा माई है।
तथ्यप्रकाश-१-क्षुधाको औपाधिक विकार जाननेके कारण ज्ञानीको क्षुधाकी इच्छा नहीं है । २-क्षुघाकी चिकित्सारूप भोजनको प्रात्माका प्रकृत्य जानने से उसकी भी अन्तः इच्छा नहीं है । ३-ज्ञानस्वरूप अन्तस्तत्त्वमय अपनी प्रतीति होनेसे ज्ञानी भोजनका अपरिग्रही है।
सिद्धान्त--१-सातावेदनीयके तीन व मंद दिपाकोदयके निमित्तसे क्षुधावेदना होती है। २-चारित्रमोहके उदयसे भोजन ग्रहण करनेको इच्छा होती है । ३-ज्ञानी क्षुधा व भोजनेच्छाको प्रोपाधिक (पोद्गलिक) जानकर उससे विविक्त विशुद्ध चैतन्यस्वभावमात्र अपने को जानता है।
__दृष्टि--- १-उपाधिसापेक्ष अशुद्धद्रव्याथिकनय (५३) । २- उपाधिसापेक्ष प्रशुद्धद्रव्याथिकनय (५३) । ३-विवक्षितकदेशशुद्धनिश्चयनय (४८) ।
प्रयोग-क्षुधा, इच्छा आदि औपाधिक भावोंको प्रात्माका प्रकृत्य जानकर उन परभावोंसे विविक्त अविकार ज्ञानस्वभावकी दृष्टि से तृप्त होनेका पोष करना ॥२१२।।
प्रब ज्ञानीके पानपरिग्रहत्वका प्रतिषेध करते हैं--[अमिछः] इच्छारहित पुरुष [अपरिग्रहः] परिग्रहित [भरिणतः] कहा गया है। [4] प्रौर [शामी] ज्ञानी पुरुष [पान] कुछ पीनेको [न] नहीं [इच्छति] चाहता है। [तेल] इस कारण [सः] वह [पानस्य] पानका [अपरिग्रहः] परिग्रही नहीं है [तु] किन्तु वह [ज्ञायकः] पानका शायक ही [भवति] होता है।
तात्पर्य-ज्ञानीके पुण्य, पाप व भोजनको इच्छा न होनेकी तरह पानकी भी इच्छा नहीं है । अतः ज्ञानी पानका भी परिग्रही नहीं है ।
टोकार्थ----इच्छा परिग्रह है, उसके परिग्रह नहीं जिसके इच्छा नहीं है । इच्छा तो