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________________ ६२ समयसार रूपत्वेनाप्रतिबुद्धः कश्चिल्लक्ष्येत तथाहमेतदस्म्येतदहमस्ति ममैतदस्त्येतस्याहमस्मि ममैतत्पूर्वमासीदेतस्याहं पूर्वमासं ममैतत्पुनर्भविष्यत्येतस्याहं पुनर्भविष्यामीति परद्रव्य एवासभूतात्मनिक पत्वेनाप्रतिबुद्धो लक्ष्येतात्मा। नाग्निरिधनमस्ति नेधनमग्निरस्त्यग्निरनिरस्तोंधमिधनमस्ति नाग्नेरिवनमस्ति धनस्याग्निरस्त्यग्नेरग्निरस्तीधनस्यधनमस्ति नाग्नेरिंधनं पूर्वमासीन्नेधनस्याग्निः पूर्वमासीदग्नेरग्निः पूर्वमासीदिधनस्य धनं पूर्वमासीन्नाग्नेरिंधनं पुनर्भविष्यति धनस्याकरणें । प्रातिपदिक---अस्मद, एतत्, एतत्, अस्मद, अस्मद, एतत्, अन्यत्, यत्, परद्रव्य, सचित्ताचित्तमिथ, वा, अस्मद, पूर्व, एतत्, एतत्, अस्मद् अपि, पूर्व, हि, पुनर्, अपि, अस्मद्, एतत्, अस्मद, अपि, एवं, तु, असद्भूत, आत्मविकल्प, संमूढ, भूतार्थ, जानत्, न, तु तत् असंमूढ । मूलधातु-भु सत्तायां हु, गतो, अस् भुवि, डुकुन करणे, मुह वैचित्ये वंचित्यमविवेकः, ज्ञा अवबोधने । पदविवरण-अहं-प्रथमा एक । एतत्-प्रथमा एक०। एतत्-प्रथमा एक० | अहं-प्रथमा एक०। अहं-प्रथमा एक० | एतस्य-षष्ठी एक० । एव-अव्यय । भवामि-वर्तमान लट् उत्तम पुरुष एक० क्रिया । मम-एकवचन । परद्रव्य-प्रथमा एक । सचिताचित्तामिश्र-प्रथमा एक० । वा-अव्यय । आसीत्-भूत लुङ, अन्य पुरुष एका० क्रिया । मम-षष्ठी एक० । अग्निको अग्नि पहले थी, ईंधनका ईधन पहले था तथा अग्निका ईंधन अागामी नहीं होगा, ईधनकी अग्नि अागामो नहीं होगी, अग्निकी अग्नि ही आगामी कालमें होगी, ईंधनका ईंधन हो अागामो होगा। इस तरह कसौके भारत में ही सत्यार्थ अग्निका विकल्प जिस प्रकार हो जाता है, उसी तरह मैं यह परद्रव्य नहीं हूं, तथा यह परद्रव्य मुझ स्वरूप नही है, मैं तो मैं ही हूं, परद्रव्य परद्रव्य ही है तथा मेरा यह परद्रव्य नहीं है, इस परद्रव्यका मैं नहीं हूं, अपना ही मैं हूं, परद्रव्यका परद्रव्य है तथा इस परद्रव्य का मैं पहले नहीं था, यह परद्रव्य मेरा पहले नहीं था, अपना मैं ही पूर्वमें था, परद्रव्यका परद्रव्य पहले था तथा यह परद्रव्य मेरा आगामी न होगा, उसका मैं अागामी न होऊँगा, मैं अपना ही अागामी होऊँगा, इस (परद्रव्य) का यह (परद्रव्य) अागामी होगा। ऐसा जो स्वद्रव्यमें ही सत्यार्थ प्रात्मविकल्प होता है, यही प्रतिबुद्ध ज्ञानीका लक्षण है, इसीसे ज्ञानी पहचाना जाता है । भावार्थ- जो परद्रव्यमें प्रात्माका विकल्प करता है, वह तो अज्ञानी है । और जो अपने प्रात्माको हो अपना मानता है वह ज्ञानी है। ऐसा अग्नि ईंधनके दृष्टान्तसे हढ़ निर्णय किया है। __ अब इसी अर्थका कलशरूप काव्य कहते हैं- 'त्यजतु इत्यादि । अर्थ हे लोकके जीवो, अनादि संसारसे लेकर अब तक अनुभव किए मोहको अब तो छोड़ो और रसिक जनोंको रुचने वाला उदीयमान जो ज्ञान है उसे प्रास्वादन करो, क्योंकि इस लोकमें प्रात्मा है वह परद्रव्यके साथ किसी समयमें प्रगट रीतिसे एकत्वको किसी प्रकार प्राप्त नहीं होता। इसलिए मात्मा एक है, वह अन्य द्रव्यके साथ एकरूप नहीं होता। भावार्थ--प्रात्मा परद्रव्यके साथ किसी प्रकार किसी कालमें एकताको प्राप्त नहीं होता 1 इसलिए प्राचार्यने ऐसी प्रेरणा की है कि
SR No.090405
Book TitleSamaysar
Original Sutra AuthorKundkundacharya
Author
PublisherBharat Varshiya Varni Jain Sahitya Prakashan Mandir
Publication Year1995
Total Pages723
LanguageHindi, Prakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size21 MB
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