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समयसार
अथ सर्वविशुद्धज्ञानाधिकारः
अथ प्रविशति सर्वविशुद्धं ज्ञानम् । नीत्वा सम्यक् प्रलयमखिलान् कर्तृभोक्त्रादिभावान् दूरीभूतः प्रतिपदमयं बंधमोक्षप्रक्लृप्तेः । शुद्धः शुद्धः स्वरसविसरापूर्ण पुण्याचलाचिष्टकोत्कीर्णप्रकटमहिमा स्फूर्जति ज्ञानपुञ्जः ॥ १६३ ॥ कर्तृत्वं न स्वभावस्य वित्तो वेदयितृत्वस् । श्रज्ञानादेव कर्ता तदभावादकारकः || १६४ ।। अथात्मनोऽकर्तृत्वं दृष्टांत पुरस्सर मारूपालि
नामसंज्ञ - दविय, ज, गुण, त, त, अणण्ण, जह, कडयादि, दु, पज्जय, कणय, अणण्ण, इह, जीव, अजीब, दु, ज, परिणाम, दु, देसिय, सुत्त, त, जीव, अजीव, वा, त, अणण्ण, ण, कुदोचि, वि, उप्पण, ज, यहाँ मोक्ष का भी स्वाङ्ग निकलनेके पश्चात् सर्वविशुद्धज्ञान प्रवेश करता है । रङ्गभूमिमें जीवाजीव, कर्ता-कर्म, पुण्य-पाप, आस्रव, संवर, निर्जरा, बन्ध प्रोर मोक्ष-ये आठ स्वाङ्ग प्राये थे उनका नृत्य हुआ । त्रे भाठों विकल्प अपना-अपना स्वरूप दिखाकर निकल गये । गब सब स्वाङोंके दूर होनेपर एकाकार सर्वविशुद्ध ज्ञान प्रवेश करता है ।
यहाँ प्रथम हो मंगलरूप ज्ञानपुञ्ज आत्माको महिमा बतलाते हैं-- नीत्वा इत्यादि । अर्थ-- समस्त कर्ता भोक्ता श्रादि भावोंको सम्यक् प्रकारसे नाशको प्राप्त कराके पद-पदपर अर्थात् कर्मोंके क्षयोपशम के निमित्तसे होने वाली प्रत्येक पर्याय में बन्धमोक्षकी रचनासे दूर वर्तता हुधा, शुद्ध शुद्ध अर्थात् रागादिमूल तथा प्रावरणसे रहित विस्तारसे परिपूर्ण तथा टंकोकीवत् प्रकट महिमा वाला ज्ञानपुञ्ज प्रात्मा प्रगट होता है । भावार्थ- शुद्धनका विषय सहज ज्ञानस्वरूप श्रात्मा है वह कर्ता-भोक्तापने के भावोंसे रहित है, बन्धमोक्षकी रचनासे रहित है, परद्रव्योंसे और सब परद्रव्यों के भावोंसे रहित होनेके कारण शुद्ध हैं और अपने निजरसके प्रवाहसे पूर्ण देदीप्यमान ज्योतिस्वरूप टंकोत्कोशवत् श्रचल है, ऐसा ज्ञानपुञ्ज प्रात्मा प्रगट होता है ।
अब सर्व विशुद्ध ज्ञार्मको बतलाने के प्रारम्भ में प्रथम ही सहज ज्ञानब्रह्मको कर्ता भोक्ता भावसे भिन्न दिखलाते हैं - कर्तृत्वं इत्यादि । अर्थ-- इस चित्स्वरूप श्रात्माका जिस प्रकार भोक्तापना स्वभाव नहीं है, उसी तरह कर्तापना भी स्वभाव नहीं है । यह आत्मा प्रज्ञानसे ही कर्ता माना जाता है, सो अज्ञानका प्रभाव होनेपर वह कर्ता नहीं है ।