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सर्वविशुद्धज्ञानाधिकार
दवियं जं उप्पज्जइ गुगाहि तं तेहिं जासु श्राणां । जह कडयादीहिंद पज्जपहिं कण्यं यमिह ॥२०८ ॥ जीवस्साजीवस्स दु जे परिणामा दु देसिया सुत्ते । तं जीवमजीवं वा तेहिमाणं वियाणाहि ॥ ३०६ ॥ दोचिव उप्पो जह्मा कज्जं या तेण सो यदा । उप्पादेदि किंचिवि कारणमवि तेण ण स होइ ||३१०॥ कम्मं पडुच्च कत्ता कत्तारं तह पडुच्च कम्माणि । उप्पंजंतिय यिमा सिद्धी दु ण दीसए अण्णा ॥ ३११॥ (चतुष्कम् )
जो द्रव्य जिन गुणोंमें, परिणमता वह श्रनन्य उनसे । त्यों कटकादि दशावों से अनन्य है सुवर्ण यहां ||३०८|| जीव व अजीवको जो, परिपतियां हैं बताइ ग्रन्थों में । उनसे अन्य जानो, उस जीव प्रजीव बस्तुको ॥ ३०६ ॥ नहि उत्पन्न किसीसे, इस कारण कार्य है नहीं श्रात्मा । उत्पन्न नहीं करता, परको इससे न कारण वह ॥ ३१० ॥ कर्मोंको प्रश्रय कर, कर्ता कर्ताको कर्म आश्रय कर
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होते उत्पन्न यहां, जानो नहिं अन्यथा सिद्धी ||३११॥ कज्ज, ग. त, त, अत्त, ण, किंचि, वि. कारण, अवि, ण, त, कम्म, कतार, दु ण, अण्णा । घातुसंज्ञ पज्ज गती, जाण अवबोधने, हो सत्तायां, पडि इ विक द्रव्य, यत्, गुण, तत् तत् अन्यत्, यथा, कटकादि तु पर्याय, कनक,
तह, कम्भ, य, नियम, सिद्धि, गती दिस प्रेक्षणे । प्रातिपअनन्यत्, इह, जीव, अजीव,
अब आत्माका अकर्तापन दृष्टान्तपूर्वक प्रसिद्ध करते हैं - [ यत् ब्रव्यं] जो द्रव्य [गुः ] जिन गुणोंसे [ उत्पद्यते ] उपजता है [ तत् ] वह [तः] उन गुणोंसे [ अनन्यत् ] अनन्य [जानीहि ] जानो, [ यथा] जैसे [ह] लोक में [ कनकं ] सुवर्ण [ कटकादिभिः ] अपने कटक कड़े आदि [पर्याय: ] पर्यायोंसे [ अनन्यत् तु] अनन्य है याने कटकादि है वह सुवर्ण ही है । उसी तरह [जीवाजीवस्य तु ] जीव और अजीव [ ये परिणामाः तु] जो परिणाम [ सूत्रे दशिताः ] सूत्र में कहे हैं [तः] उन परिणामोंसे [तं जीवं प्रजीवं वा ] उस जीव प्रजीवको [अन्य] अनन्य [विजानाहि] जानो याने जो परिणाम हैं वे द्रव्य ही हैं। [यस्मात् ] जिस कारण [ स श्रात्मा ]