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पूर्व रंग
६३ यकस्वभावभावनात्यंतविविक्तत्वाच्छुद्धः । चिन्मानतया सामान्य विशेषोपयोगात्मकतानतिक्रमणा. दर्शनज्ञानमयः स्पर्शरसगंधवर्णनिमित्तसंवेदनपरिणतस्वेपि स्पर्शादिरूपेण स्वयमपरिगमनात्परमार्थतः सदैवारूपोति प्रत्यगह स्वरूप संचेतयमानः प्रतपामि । एवं प्रतफ्तश्च मम बहिर्विचित्रशुद्ध, दर्शनज्ञानमय, सदा, अरूपिन्, न, अपि, मम किंचित्, अपि, अन्यत्, परमाणुमात्र, अपि । मूलधातुशुध शोचे, इशिर् प्रेक्षणे, ज्ञा अवबोधने । पद विवरण - अहं-प्रथमा एक० । एक:-प्रथमा एक० । खलुलोक पर्यंत उछल रहा है।
___भावार्थ-~- जैसे समुद्रकी आड़ में कुछ पा जाय तब जल नहीं दिखता और जब पाड़ दूर हो जाय तब प्रकट दीखता हुअा लोकको प्रेरणा योग्य हो जाता है कि इस जलमें सब लोक स्नान करो । उसी तरह यह प्रात्मा विभ्रम द्वारा माच्छादित था, तब इसका रूप नहीं दीखता था, जब विभ्रम दूर हुआ, तब यथार्थ स्वरूप प्रकट हुअा। अब इसके वीतरागविज्ञान रूप शान्तरसमें एक कालमें सब लोक मग्न हो जानो, ऐसी प्राचार्य ने प्रेरणा की है अथवा जक मात्माका अज्ञान दूर हो जाता है, तब केवलगान प्रकट होता है, और तब समस्त लोकमें ठहरे हुए पदार्थ एक ही समय ज्ञान में आकर झलकते हैं, उसको सब लोक देखो।
___ इस ग्रंथका प्राशय ग्नलंकार द्वारा नाटकरूपमें देखनेसे भाव सुगम हो जाता है । जैसे नाटकमें पहले रंगभूमि रचो जाती है, वही देखने वाला नायक तथा सभा होती है और नृत्य करने वाले होते हैं, वे अनेक स्वांग रचते हैं तथा शृङ्गारादिक पाठ रसोंका रूप दिखलाते हैं उस जगह शृङ्गार, हास्य, रौद, करुणा, वीर, भयानक, वीभत्स, अद्भुत-ये पाठ लौकिक रस हैं । नाटकमें इनका ही अधिकार है । नवमा शान्तरस है, वह लोकोत्तर है । इन रसोंके स्थायीभाव, सात्त्विकभाव, अनुभावविभाव, व्यभिचारीभाव और इनकी दृष्टि प्रादिका विशेष वर्णन रसग्रंथों में है वहाँसे जानना, किन्तु सामान्यपनेसे रसका यह स्वरूप है कि ज्ञानमें जो ज्ञेय पाया उससे ज्ञान तदाकार हो जाय, उसमें पुरुषका भाव लीन हो जाय अन्य ज्ञेयकी इच्छा न रहे वह रस है। सो नृत्य करने वाले नृत्यमें इन आठ रसोंका रूप दिखलाते हैं । इसी प्रकार यहाँ पहले रंगभूमि स्थल कहा, वहाँ नृत्य करने वाले जीव अजीव पदार्थ हैं और दोनोंकी एकरूपता व कर्तृकर्मस्व आदि उनके स्वांग हैं । उनमें परस्पर अनेक रूप होते हैं, वे पाठ रसरूप होकर परिणत होते हैं, यही नृत्य है । वहाँ देखने वाला सम्यग्दृष्टि जीब अजीवके भिन्न स्वरूपको जानता है, वह तो इन सब स्वांगोंको कर्मकृत जानकर शान्त रसभे ही मग्न है
और मिथ्यादृष्टि प्राणी जीव अजीवका भेद नहीं जानते, इसलिए इन स्वांगोंको सच्चा जानकर इनमें लीन हो जाते हैं । उनको सम्यग्दृष्टि यथार्थ दिखलाकर, उनका भ्रम मेटकर और शांत.