Book Title: Jain Dharma ki Shramaniyo ka Bruhad Itihas
Author(s): Vijay Sadhvi Arya
Publisher: Bharatiya Vidya Pratishthan
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनधर्म की श्रमणियों का बृहद् इतिहास डॉ. साध्वी विजयश्री 'आर्या' Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशक की और से श्रमणियों की जीवन गाथाओं का ऐतिहासिक दार्शनिक एवं साधना मूलक परिप्रेक्ष्य में जो विश्लेषण हुआ है निश्चय ही हमारे राष्ट्र की चिरन्तन पावनतम सांस्कृतिक धरोहर का एक ऐसा एतयुगीन दस्तावेज है जिसकी दीप्ति कभी धूमिल नहीं होगी। राष्ट्र के भावी सांस्कृतिक अभ्युदय में इस दस्तावेज के चरित्र संबल प्रदान करेंगे। अजित जैन ISBN No. : 81-902252-1-9 मूल्य : 2000/- (प्रति सेट ) Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रमण भगवान महावीर स्वामी का शासन सदा जयवन्त रहे जिणाणं (C): 5=0 परस्परोपग्रहो जीवानाम् जैन श्रमणियों का बृहद् इतिहास भारतीय जियभयाण विद्या प्रतिष्ठान भा. वि. प्र. - डॉ. श्रमणी विजयश्री 'आर्या' Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ J जैन श्रमणियों का बृहद् इतिहास (निश्चल निर्मल चारित्राराधन एवं अजर अमर सारस्वत स्वरूपा दस सहस्र श्रमणियों की गौरव गाथाओं का अंकन करने वाला दुर्लभ ऐतिहासिक शोध-ग्रन्थ) प्रणयन : लेखन डॉ. श्रमणी विजयश्री 'आर्या' 0 निदेशक डॉ. सागरमल जी जैन, शाजापुर 0 प्रकाशक भारतीय विद्या प्रतिष्ठान, M-2/77, सैक्टर 13, आत्म वल्लभ सोसायटी, रोहिणी, दिल्ली-110085 ० प्रथम संस्करण वी.नि. 2535 ई. 2007 O ISBN No.: 81-902252-1-9 0 मूल्य : 2000/ 0 मुद्रक जैन अमर प्रिटिंग प्रेस, दिल्ली Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समर्पण जिन्होंने स्वयं के पुण्य चस्ति से इतिहास का निर्माण किया है जिनके पवित्र नामांकन से । इतिहास के पृष्ठ गौरवान्वित हुए हैं अक्षुण्ण श्रद्धा की कीर्ति स्तम्म समी पुण्यसनिला तपोमूर्ति श्रमणियों को विनम्र प्रणमाञ्जलि सह - श्रमणी विजयश्री "आधी' Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हमारी परम्परा महार्या प्रवर्तिनी श्री पार्वती जी म. दिव्य साधिका श्री द्रौपदा जी म. महासाध्वी श्री मोहन देवी जी म. महासाध्वी श्री केसर देवी जी म. अध्यात्म योगिनी महाश्रमणी श्री कौशल्या देवी जी म. Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री ज्ञान चन्द जैन (मालेरकोटला) स्व. श्रीमती राजीबाई (राजस्थान) श्रीमती आदर्श श्री जैन 5 1 आभार प्रदर्शन श्रीमती त्रिशला देवी जी श्री रामेश्वर कुमार सिंगला (फरीदकोट) (मालेरकोटला) स्व. श्रीमती कमला देवी (गुजरात) श्री शान्तिलाल सांड स्व. श्रीमती उगम देवी स्व. श्री हगामीलाल जी नाहर (गुजरात) (राजस्थान) श्रीमती ऊषा श्री जैन श्री विरेन्द्र गुप्ता (सिरसा) स्व. श्रीमती रामप्यारी जैन एवं स्व. श्री शादीलाल जैन (लुधियाना) श्री विमल प्रकाश जैन 50 2008 Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुशंसा लगभग 1000 पृष्ठों में निबद्ध यह विशालकाय प्रबन्ध शोधार्थिनी के विशेष परिश्रम का फल है। साध्वी जीवन की मर्यादा में रहते हुए लेखिका ने अद्भुत धैर्य का परिचय दिया है। उन्होंने जैनधर्म की प्रायः सभी शाखाओं- प्रशाखाओं में दीक्षित श्रमणियों का यथाशक्य परिचय दिया है। जिन श्रमणियों का विशेष परिचय प्राप्त नहीं हो सका है, उनके भी नाम, माता-पिता के नाम, दीक्षा-गुरु के नाम एवं दीक्षा वर्ष देकर यथासम्भव परिचित कराने का सार्थक प्रयास किया है। साध्वी जी को हार्दिक साधुवाद! विजय कुमार शर्मा (निजी सहायक, उपकुलपति) जैन विश्व भारती संस्थान (मान्य विश्वविद्यालय) लाडनूं (राजस्थान) 9 अक्टूबर 2006 Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निमोत्शुणं समणरस भगवओ महावीरस्सा। ॥जय आत्मा ॥जय आनंद| ॥जय ज्ञान।। जय देवेन्द्र।। आचार्य शिवमुनि मंगल संदेश परम विदुषी महासाध्वी श्री विजयश्री जी महाराज ने जिनशासन में महासतीवृंद का योगदान इस विषय पर शोध ग्रन्थ लिखा। महासतीजी का शोध-ग्रन्थ बड़ा ही प्रामाणिक ढंग से खोजपूर्ण एवं मौलिक है। वर्तमान युग में जैन धर्म में संतों के विषय पर तो ऐतिहासिक जानकारियाँ अत्यधिक मिलती है किन्तु नारी शक्ति के बारे में बहुत ही कम जानकारी प्राप्त होती है। ऐसे में महासतीजी ने गहन शोध करके इस विषय पर अपना मौलिक चिन्तन रखा है। इनका यह शोध ग्रन्थ जिनशासन की प्रभावना और महिमा बढ़ाने में सहयोगी बने, ऐसी हम मंगल कामना करते हैं। वीतराग-मार्ग में चारों तीर्थों का समान महत्व है जिसमें नारी शक्ति का महत्वपूर्ण योगदान है। समय-समय पर जिनशासन में ऐसी महान् नारियाँ हुई है जिनके उल्लेख के बिना इतिहास अधूरा है। इस कमी की प्रतिपूर्ति महासतीजी के शोध ग्रन्थ ने की है। यह ग्रन्थ सभी के ज्ञानार्जन में सहयोगी बने और वीतराग-मार्ग प्रशस्त हो ऐसी मंगल कामना करते हैं। । महासाध्वी श्री विजयश्री जी महाराज का जीवन अध्यात्म से भरपूर गुणग्राहक है और चिन्तन से परिपूर्ण हैं आप विनय की प्रतिमूर्ति हैं। अध्यात्म के क्षेत्र में आप उत्तरोत्तर अभिवृद्धि को प्राप्त करें। यही हार्दिक मंगल भावना। सहमंगल मैत्री आचार्य शिवमुनि एस.एस.जैन सभा जैन बाजार जम्मू तवी - जे.एण्ड.के. दि. 5 अक्टूबर, 2006 Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आशीर्वचन आचार्य श्री उमेशमुनि जी महाराज 'अणु' 'इतिहास-लेखान अति दुरुह कार्य है। उसमें भी अनेक गच्छ उपगच्छों सम्प्रदाय-उपसम्प्रदायों में विभाजित जैन इतिहास का लेखन और भी महान भगीरथ काम है। फिर श्रमणियों के इतिहास का लेखन तो और भी दुरुह है। क्योंकि श्रमणों का भी क्रमबद्ध और असंदिग्ध इतिहास मिलना कठिन है तो फिर श्रमणियों के इतिहास के विषय में कहना ही क्या? श्रमणों की श्रमणियों के प्रति उपेक्षा हो, ऐसा भी नहीं है, परन्तु श्रमण और श्रमणियाँ साधना-प्रधान दृष्टिवाले रहे हैं। श्रमण स्वयं अपने चरित्र के प्रति भी उदासीन थे तो वेसाध्वियों की परम्परा का संकलन कहाँ से करते? फिर भी गुणग्राहिता की दृष्टि से कुछ न कुछ लेखन प्रायः होता ही था। आपने उस विरल सामग्री को क्रमबद्ध करके लेखन किया। इतनी सुदीर्घ-कालावधि के विषय में लेखन में सावधानी रखते हुए भी भ्रम होने की संभावना रहती है। फिर पिछले काल के सम्बन्ध में परस्पर विरोधी लेखन भी काफी रहा है। आपश्री ने श्रमणियों के इतिहास जैसे श्रम साध्य विषय पर एक हजार पृष्ठ जितने विशालकाय ग्रन्थ का लेखन कर जैन इतिहास की बहुत बड़ी कमी को पूर्ण किया। अतः आपके श्रम का हम हृदय से अभिनन्दन करते हैं। आचार्य उमेशमुनि ढोरेगांव 14-11-06 Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मंगलमय उद्गार डॉ. साध्वी विजयश्रीजी 'आर्या' का महाशोध निबंध "जैन श्रमणियों का बृहद इतिहास" विषयक अपने आप में अनूठा है। इस ग्रंथ की यह प्रमुख विशेषता है कि चारों संप्रदायों की श्रमणी संस्था का योगदान और उनका लेखा-जोखा एक ही स्थल पर उपलब्ध हो जाता है। साथ ही सैंकड़ों ऐसी साध्वियों के कार्यों का भी महासाध्वीजी ने विवरण प्रस्तुत किया है जो अश्रुतपूर्व है। जैन जगत में प्रकाशित होने वाला यह श्रमणियों का सर्वप्रथम संदर्भ ग्रंथ है। इस ग्रंथ से हम एक-दूसरे की परम्परा, सम्प्रदाय आदि का भी परिचय प्राप्त कर सकेंगे, इस प्रकार यह ग्रंथ अनेकता में एकता का संदेशवाहक है तथा श्रमणियों के गौरव को बढ़ाने वाला है, उसके लिये 'आर्या' जी को मैं हृदय से धन्यवाद देता हूँ। __ आचार्य मुनिचंद्रसूरि मु. बेणप, ता.वाव, जि. बनासकांठा 385320 (उ.गु.) ता. 20.8.2006 मंगल कामना युवाचार्य डॉ. श्री विशाल मुनि जी महाराज महासती श्री विजयश्रीजी ने “जैन साध्वियों का बृहद इतिहास" जैसे महत्वपूर्ण विषय पर शोध ग्रन्थ लिखाकर के साध्वियों के महत्वपूर्ण कार्यों का आकलन प्रस्तुत किया हैं नारी जाति के गौरव को आगे बढ़ाया है। इस ग्रन्थ से अनेक ऐतिहासिक प्रसंगों का ज्ञान होगा। जन-जन में धर्मरुचि बढ़ेगी। यह ग्रन्थ जैन जगत के लिए महत्वपूर्ण सिद्ध होगा ऐसा मेरा पूरा-पूरा विश्वास है। महासाध्वी श्री विजयश्रीजी के इस महत्वपूर्ण कार्य के लिए हम पूरे श्रमण संघ की ओर से उनका सम्मान करते है। आदर व सत्कार करते हैं। उनकी यह सरस्वती साधना आगे भी चलती रहे ऐसी मंगल कामनायें हैं। Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संदेश साध्वी श्री ने बहुत ही श्रम साध्य कार्य किया है, यह ग्रन्थ एक सन्दर्भ ग्रन्थ की तरह महत्त्व स्थापित करेगा, ऐसा विश्वास है। संदेश महाश्रमणी साध्वी श्री विजय श्री जी " आर्या" का शोध प्रबंध "जैन धर्म का श्रमणी संघ व उसका योगदान" कृति देखने का सौभाग्य प्राप्त हुआ। इस ग्रन्थ में प्रागैतिहासिक काल से लेकर वर्तमान काल तक सभी जैन परंपराओं की साध्वियों का ऐतिहासिक अध्ययन प्रस्तुत किया गया है। ग्रन्थ को देखकर हम इस कृति को "साध्वियों के विश्वकोश" की संज्ञा दे सकते हैं। आज तक किसी भी विद्वान ने साध्वी परंपरा पर इतने विशाल स्तर पर शोध कार्य नहीं किया। साध्वी श्री जी की यह कृति जैन समाज की एक सर्वमान्य ऐतिहासिक धरोहर है। इसमें साध्वी श्री जी का कठोर परिश्रम झलकता है। हम साध्वी श्री विजय श्री जी की इस अमूल्य कृति को जैन साध्वी जगत के इतिहास की क्रांतिकारी कृति मानकर उन्हें वंदन करते हैं, और साधुवाद समर्पित करते हैं। रवीन्द्र मुनि ( श्रमण संघीय उपाध्याय) रविंद्र जैन, पुरुषोत्तम जैन (पंजाबी जैन लेखक, मालेरकोटला) Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीमान आनंदी लाल जी मेहता (राज.) संदेश साध्वी तीर्थ का इतिहास एवं आगम ग्रंथों में उनके प्रमाण बीज रूप में ही उपलब्ध है, जैनधर्म अनेक मतों गच्छों और संप्रदायों में विभक्त होने से साध्वी संघ का क्रमबद्ध इतिहास कहीं भी नहीं मिलता। ताड़पत्रों और भोजपत्रों में से उनका संग्रह करना अत्यंत कठिन ही नहीं वरन् असंभव जैसा लगता है। यद्यपि भिन्न-भिन्न संप्रदायों में उन्हीं से संबंधित कुछ अंश मिल जाते हैं, परंतु संपूर्ण जैन समुदाय की दृष्टि से उसका शोधन करना अत्यंत दुःसाध्य कार्य है। महासती श्री विजयश्री जी ने सभी सम्प्रदायों में तथा गच्छ भेद के पूर्व भी जितना उपलब्ध हो सका, अने अथक परिश्रम के साथ लगभग 20 हजार साध्वियों के नाम संग्रहित किये, उनमें से लगभग 8 हजार से अधिक साध्वियों के नाम संग्रहित किये, उनमें से लगभग 8 हजार से अधिक साध्वियों के उपलब्ध योगदानों का संकलन कर जैन इतिहास जगत में आदर्श उपस्थित किया। साथ ही हजारों वर्षों की कमी को भी पूर्ण किया है, इसके लिये वे समग्र जैन समाज की ओर से अभिनंदन की पात्र है। आनंदीलाल मेहता, उदयपुर (वरिष्ठ स्वाध्यायी) Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अभिमत सर्वप्रथम तीर्थ की स्थापना करने के कारण भगवान ऋषभनाथ को आदि तीर्थंकर कहा जाता है। तीर्थ का अर्थ है तैराकर पार कराने वाला। प्रत्येक जीव को भवजलधि पार करना पड़ता है। जो भव्यप्राणी भवसागर को पार करने के लिए तीर्थ की शरण में जाता है वह उसे सरलतापूर्वक पार कर लेता है। जिस प्रकार समुद्र तैरने वाले को नौयान की आवश्यकता होती है। उसी प्रकार जन्म-मरण के भवसागर को पार करने के लिए प्राणी को तीर्थ की शरण में जाने की आवश्यकता है। जैन धर्म में तीर्थ के चार महत्वपूर्ण आयाम माने गये हैं- (1) श्रमण, ( 2 ) श्रमणी (3) श्रावक, (4) श्राविका । इसे ही चतुर्विध धर्मसंघ कहा जाता है। वह संगठन जो धर्म को समर्पित हो जिसके क्रियाकलाप व्यक्ति तथा समाज के निर्माण में सक्षम व समर्थ हो वह धर्मसंघ कहलाता है। प्रागैतिहासिक काल में प्रथम तीर्थंकर आदिनाथ भगवान ऋषभ ने सर्वप्रथम अपनी दो सुपुत्रियों ब्राह्मी और सुन्दरी को दीक्षित कर श्रमणी - संघ की स्थापना की। उन्होंने ब्राह्मी को अक्षर ज्ञान एवं सुन्दरी को गणित का ज्ञान देकर लोक का बड़ा उपकार किया। तप के बल पर मल्लिनाथ ने तीर्थंकर का गौरवमय पद प्राप्त किया। तीर्थंकर मल्लिनाथ श्रमणीसंघ का गौरव व आत्मबल है। दिगम्बर परम्परा द्वारा भगवान मल्लिनाथ का तीर्थंकरत्व स्त्री रूप में न स्वीकार किये जाने पर भी श्रमणियों के मन में केवली प्रज्ञप्त धर्म में आस्था की बाढ़ है। श्रमणियों द्वारा श्रमणाचार के प्रति इतना अधिक आदर उनकी वैचारिक उदारता एवं संघ में उनकी सुदृढ़ भक्ति का निदर्शन है। जैन धर्म तप व व्रत की मर्यादाओं में मर्यादित, व्यक्ति व्यवस्था, समाज व्यवस्था, Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राजव्यवस्था, पर्यावरण आदि व्यवस्थाओं में सहयोगी रूप से अपने को केन्द्रित कर भारतभूमि पर अनवरत प्रवहमान है। इसी क्रम में श्रमणी संघ अजस्रवाहिनी गंगा की धारा के समान धर्म की मर्यादाओं पर खरा उतरता हुआ प्रारम्भ से अब तक अपने में एक अक्षुण्ण भारतीय संस्कृति को संजोये हुए है। ऐसे गौरवशाली श्रमणी संघ का इतिहास उनके सृजनात्मक कार्य का लेखा-जोखा जन सामान्य की जानकारी में आना ही चाहिए। जैनधर्म की तपोमूर्ति साध्वियों का एकत्रित नामोल्लेख आज तक एक स्थान पर नहीं मिल रहा था। प्रस्तुत शोध कार्य के द्वारा यह लोगों के अध्ययनार्थ प्रस्तुत हो रहा है। यह हर्ष का विषय है। इस शोध में मूल स्रोतों को सामग्री चयन का आधार बनाया गया है । यथा - आगम साहित्य, नियुक्तियाँ, भाष्य व चूर्णियाँ, व्याख्या साहित्य, प्रभावक-चरित्र, त्रिषष्टि शलाका पुरुष चरित्र, पउमचरियं आदि चरित्रग्रंथ, पुराण साहित्य, कथा साहित्य विविधगच्छों से सम्बन्धि त पट्टावलियाँ, प्रशस्ति ग्रंथ, हस्तलिखित ग्रंथ, जैन शिलालेख आदि । जैन धर्म की दिगम्बर परम्परा में श्रमणी - संघ का आदरास्पद स्थान है। श्रमणी - संघ वस्त्र धारण करता है। मुखवस्त्रिका का प्रयोग नहीं होता। श्रमणवत् कमण्डल एवं मयूरपंख के रजोहरण का श्रमणी अपनी चर्या में व्यवहार करती हैं। भट्टारिका, आर्यिका माताजी इनके आदरास्पद पद हैं। आहार, वस्त्र, पात्र आदि की चर्या से दिगम्बर परम्परा की सतियों की पहचान श्वेताम्बर परम्परा से अलग हो जाती है। कर्नाटक प्रान्त के श्रवणबेलागोला का चन्द्रगिरि पर्वत सं. 757 से 15वीं सदी तक अमरत्व साधिका संलेखनाव्रत अंगीकार करने वाली आत्मिक उत्कर्ष की साधिकाओं का साक्षी है। यहाँ आठवीं से ग्यारहवीं सदी तक कुरत्तिगल श्रमणी - संघ का स्वतंत्र नेतृत्व रहा और उन्होंने उच्च शिक्षण संस्थाओं का निर्माण कराकर जैन दर्शन के विद्वान तैयार किए। श्वेताम्बर परम्परा का श्रमणी - संघ बहुत बड़ा रहा है। मूर्तिपूजक मन्दिरमार्गी, स्थानकवासी एवं तेरापंथी परम्पराओं के अन्तर्गत स्व-पर कल्याण के लिए विहार करने वाले श्रमणी - संघ ने एक धर्म ज्योति जलाने में सफलता हासिल की है। गणिनी, प्रवर्तिनी, महत्तरा की उपाधियाँ मूर्तिपूजक सम्प्रदाय में, गुरुणी, साध्वी प्रमुखा, समणी नियोजिका उपाधियाँ (xviii) Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्थानकवासी एवं तेरापंथी परम्परा में प्रसिद्ध हैं। श्रमणी संघ में तप-त्याग और समर्पण के साथ-साथ लेखान, सम्पादन, काव्यकला, चित्रकला क्राफ्ट, सूक्ष्माक्षर लिपि, कला एवं चिकित्सा, ध्यान चिकित्सा आदि का विकास हुआ जो अक्षुत व बेजोड़ है। ऐसे महत्वपूर्ण श्रमणीसंघ की नामावली व उनका लेखा-जोखा सचमुच में एक स्तुत्य प्रयास है। यह कार्य एक स्थान पर बैठकर सम्पन्न नहीं किया जा सकता। यायावर अन्वेषक बनकर ही इसे किया जा सकता है। जैन धर्म का श्रमणी-संघ और उसका अवदान' विषय पर गुरुकाय शोधप्रबन्ध लिखकर डॉ. साध्वी विजयाश्री जी ने उन सभी चारित्र आत्माओं के प्रति सच्ची श्रद्धा अर्पित की है। उससे भी आगे यह कार्य नारी जाति का सच्चा सम्मान है। इस कार्य के लिए साध्वी जी को कोटिशः साधुवादा पटियाला 1 जून, 2006 डॉ. प्रद्युम्नशाह सिंह प्रवक्ता जैनीज्म गुरुगोविन्द सिंह भवन पंजाबी विश्वविद्यालय, पटियाला | (xix) | (xix) Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राक्कथन भारतीय संस्कृति में श्रमणी संस्था का इतिहास लगभग रामायण एवं महाभारत काल से मिलने लगता है। यद्यपि ऋग्वेद में घोणा, रोमाशा, अपाला, विश्ववारा, सूर्यासावित्री आदि वेदसूत्रों की रचना करने वाली स्त्रियों के उल्लेख मिलते हैं, किन्तु वे सामान्य विदुषी स्त्रियाँ थी या श्रमणी थी यह निश्चय करना आज कठिन है, यद्यपि वे सभी सूक्तों की रचयित्री होने के कारण कवि शक्ति-सम्पन्ना विदुषी नारियाँ थी। वेदों में ऐसी स्त्रियों के लिए भिक्षुणी, संन्यासिनी अथवा परिवाजिका आदि शब्दों का प्रयोग नहीं मिलता है, इसलिये उन्हें श्रमणी कहना उचित नहीं है। बृहदारण्यकोपनिषद् में याज्ञवल्क्य ऋषि के द्वारा अपनी सम्पत्ति का दोनों पत्नियों में विभाजन करके संन्यास ग्रहण करने का उल्लेख मिलता है। किन्तु याज्ञवल्क्य के संन्यास ग्रहण करने के पश्चात् गार्गी एवं मैत्रेयी ने क्या किया, ऐसा स्पष्ट उल्लेख नहीं मिलता है। यद्यपि मैत्रेयी को ब्रह्मवादिनी अवश्य कहा गया है। प्रो. पी.वी. काणे के अनुसार ब्रह्मवादिनी नारियों के लिये उपनीत होना, अग्नि की उपासना करना अर्थात् हवन आदि करना, वेदाध्ययन करना और भिक्षाचर्या करके अपने घर में भोजन करना आवश्यक था। इससे यह स्पष्ट है कि वे एक सीमित अर्थ में संन्यासिनी की तरह ही जीवन जीती थी, फिर भी उनके लिये गृहत्याग की अनुमति नहीं थी। स्त्री संन्यासिनियों एवं भिक्षुणियों के उल्लेख हमें रामायण एवं महाभारत काल से मिलते हैं। वाल्मिकी रामायण में राम के वनगमन के समय सीता के द्वारा भिक्षुणी जीवन की प्रशंसा की गई है। वाल्मिकी रामायण के अरण्य-काण्ड में शबरी के भिक्षुणी-जीवन की प्रशंसा करते हुए उसे "श्रमणी शंसितव्रताम्" कहा गया है। इससे Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यह स्पष्ट हो जाता है कि शबरी एक श्रमणी थी एवं वह श्रमणी व्रतों का सम्यक् रूप से पालन करती थी। महाभारत के आदि पर्व में नारियों के द्वारा वन में जाकर तपस्या करने के भी उल्लेख मिलते हैं। ऐसी स्त्रियों को 'भिक्षुकी' अथवा 'तपसी' कहा जाता था। इन संदर्भों के आधार पर इतना तो माना जा सकता है, कि रामायण एवं महाभारत काल में स्त्रियाँ संन्यास मार्ग का अनुसरण करती थीं। वाल्मिकी रामायण में शबरी को श्रमणी और शंसितव्रताम् कहने से यह तो स्पष्ट हो जाता है कि उस काल में श्रमणियाँ तो अवश्य होती थी, किन्तु श्रमणी - संघ ऐसी कोई संस्था अस्तित्व में थी या नहीं, प्रमाणों के अभाव में यह कहना कठिन है। जैन परम्परा में यद्यपि सभी तीर्थंकरों के काल में उनके भिक्षुणी संघों के होने के उल्लेख तो मिलते हैं, किन्तु यह सब प्रागैतिहासिक काल के उल्लेख हैं। अतः इतिहास उन्हें प्रमाणभूत मानने में संकोच करते हैं। दूसरे विभिन्न तीर्थंकरों के श्रमणी संघ के सदस्यों की जो संख्या दी गई है, वे भी आगम-युग की न होकर पर्याप्त परवर्तीकाल की है, अतः उसकी प्रामाणिकता इतिहासज्ञों के द्वारा संदेह की दृष्टि से देखी जाती है। किन्तु ऐतिहासिक काल के तीर्थंकर पार्श्व की अनेक श्रमणियों के उल्लेख जैनागमों में मिलते हैं आगमों और आगमिक व्याख्याओं में ऐसे भी अनेक उल्लेख मिलते हैं, जिनके अनुसार पार्श्व की परम्परा की अनेक श्रमणियाँ श्रमणी धर्म ये च्युत् होकर निमित्त शास्त्र का अध्ययन करके अपनी आजीविका चला रही थी इनके उल्लेख ज्ञाता धर्मकथा और आगमिक व्याख्या साहित्य इस प्रकार से मिलते हैं - भगवान पार्श्वनाथ के काल से जैन श्रमणी संस्था का अस्तित्व ऐतिहासिक आधार पर भी सिद्ध होता है । उनके पूर्व भगवान् अरिष्टनेमी के काल की अनेक श्रमणियों के उल्लेख जैनागमों में प्राप्त होते हैं और वे जैन परम्परा की दृष्टि से विश्वसनीय भी माने जाते हैं, चाहे इतिहासकार उनकी ऐतिहासिकता को अस्वीकार करते हों। फिर भी इतना निश्चित है कि भगवान् महावीर एवं भगवान बुद्ध से पूर्व भिक्षुणी संघ या श्रमणी संघ अस्तित्व में आ गया था। (xxii) Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवान पार्श्वनाथ के पश्चात् भगवान महावीर एवं भगवान बुद्ध के विशाल श्रमणी संघ थे, यह तो सर्वमान्य सत्य है। किन्तु जहाँ भगवान महावीर ने बिना किसी संकोच के भिक्षु संघ की स्थापना के साथ ही भिक्षुणी संघ की स्थापना कर दी। वहाँ भगवान बुद्ध के मन में भिक्षुणी संघ की स्थापना के सम्बन्ध में प्रारम्भ से ही एक संकोच का भाव था। वे यह मान रहे थे कि भिक्षुणियों को संघ में प्रवेश देने से भिक्षु संघ दूषित हो जावेगा। यद्यपि उन्होंने आनन्द के आग्रह पर अपनी मौसी एवं विमाता गौतमी को संघ में प्रवेश देकर भिक्षुणी संघ की स्थापना तो की किन्तु उनके मन में यह संकोच बना रहा कि भिक्षुणियों के संघ में प्रवेश देने पर भिक्षु संघ चिरस्थायी नहीं रह पायेगा, और ऐसी उद्घोषणा भी की थी। आज विश्व के अनेक देशों में बौद्ध भिक्षु संघों का अस्तित्व देखा जाता है, किन्तु कुछ अपवादों को छोड़कर प्रायः विश्व के सभी देशों में बौद्ध भिक्षुणी संघ प्रभावशाली ढंग से अस्तित्व में नहीं है, इसके विपरीत जैन भिक्षुणी संघ भगवान महावीर के काल से लेकर आज तक न केवल जीवित है, अपितु चतुर्विध संघ में उनका वर्चस्व एवं प्रभाव भी है। चाहे आगमों और आगमिक व्याख्या ग्रन्थों में भिक्षुसंघ की प्रधानता की बात कही गई हो, किन्तु व्यवहार के स्तर पर भिक्षुणीवर्ग का प्रभाव ही अधिक रहा है। बाहुबली जैसे महासाधक से अपने अहंकार का परित्याग करने या संयम से च्युत् होते हुए अरिष्टनेमी को सत्यमार्ग दिखाने वाली ब्राह्मी, सुन्दरी या राजीमति जैसी भिक्षुणियाँ ही थी। इसी प्रकार स्थूलिभद्र की सातों बहनों का प्रभाव भी कम नहीं था, यद्यपि जैन संघ में भिक्षुओं की अपेक्षा भिक्षुणियों की संख्या सदैव अधिक रही है। फिर भी यह दुर्भाग्य का विषय रहा है कि जैन भिक्षुणी संघ का जो अवदान है वह प्रायः उपेक्षित ही रहा है। साध्वी विजयश्रीजी ने मेरे सान्निध्य में जैन भिक्षुणी संघ की क्रमबद्ध इतिहास एवं उनके अवदान को सविस्तार प्रस्तुत करने का प्रयत्न किया है। भारतीय संस्कृति में श्रमणी संस्था या श्रमणी संघ के विकास के पीछे मूलभूत अवधारणा यह रही है कि जिस प्रकार पुरुष को अपने आध्यात्मिक विकास का अधिकार है, उसी प्रकार स्त्री को भी अपने आध्यात्मिक विकास का पूर्ण अधिकार (xxiii) Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ है, वह केवल पुरुष की भोग्या या दासी नहीं है, उसे भी पुरुष के समान ही अपने जीवन को दिशा निर्धारण करने की पूर्ण स्वतन्त्रता है। समानता और स्वतन्त्रता ये दो ऐसे सिद्धान्त थे, जिनके आधार पर श्रमण संघ या भिक्षुसंघ के समान ही भिक्षुणी संघ या श्रमणीसंघ का विकास हुआ। वैदिक धरा की अपेक्षा श्रमण धारा इस सम्बन्ध में अधिक प्रगतिशील रही है। वैदिक धारा में स्त्री को भोग्या के रूप में देखा गया है, जबकि श्रमण संस्कृति में उसे समता और स्वतन्त्रता के सिद्धान्त के आधार पर पुरुष के समकक्ष ही माना गया। यद्यपि भगवान बुद्ध ने भिक्षुणी संघ की स्थापना के समय आठ गुरुधर्मों की शर्त रखी थी और इसी प्रकार जैन-श्रमणी संघ में पुरुष की ज्येष्ठता को स्वीकार करते हुए यह कहा गया था कि वयोवृद्ध एवं चिर-प्रव्रजित साध्वी के लिए भी नव दीक्षित भिक्षु या मुनिवंदनीय होगा, किन्तु मेरी दृष्टि में यह सब तात्कालिक पुरुष प्रधान संस्कृति का प्रभाव था, जिसे लोक व्यवहार के निर्वाह के लिए उन्हें स्वीकार करना पड़ा होगा। फिर भी इतना निश्चित है कि जैन एवं बौद्ध धर्मों ने भिक्षुणी संघ की स्थापना कर नारी की समानता एवं स्वतन्त्रता की रक्षा की है। उनके लिए प्रव्रज्या का द्वार खोलकर उन्हें पुरुष की दासता से मुक्त होने का मार्ग दिखाया है अन्यथा अनेकों विधवाओं, परित्यक्ताओं और पुरुष की दासता से मुक्त होकर अपने आध्यात्मिक विकास की आकांक्षा रखने वाली कुमारिकाओं को दुर्भाग्यपूर्ण जीवन जीने को बाध्य होना पड़ता। मात्र यही नहीं क्रूर सतीप्रथा के चलते, उन्हें भी जीवित जलने को विवश होना पड़ता। वस्तुतः भिक्षुणी संघ की व्यवस्था नारी जाति के आत्मसम्मान और गौरव की रक्षा का समुचित उपाय था। फिर भी यह दुर्भाग्य का ही विषय रहा है कि जैन-धर्म में नारी जाति के गौरव और भिक्षुणी संघ के अवदान का सम्यक् मूल्यांकन लगभग तीन हजार वर्ष के जैन इतिहास में नहीं हो सका, मात्र प्रकीर्ण उल्लेखों के अतिरिक्त इस सम्बन्ध में कुछ भी सहेज कर नहीं रखा गया। वस्तुतः साध्वी विजय श्री जी का यह मौलिक प्रयास है कि जिसमें उन्होंने उन प्रकीर्ण उल्लेखों को एक जगह एकत्रित करने का प्रयत्न किया है। साध्वी श्री विजय श्रीजी ने जैन श्रमणी संघ यह वृहद् इतिहास बहुत ही परिश्रम पूर्वक तैयार (xxiv) Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किया है उनकी यह शोध यात्रा किन-किन कठिनाईयों के साथ गुजरी है इसका मैं प्रत्यक्ष दृष्टा रहा हूँ। जहाँ जैन आचार्यों और श्रमणी संघ के इतिहास का प्रश्न है वहाँ हमें प्रबंधकोष, प्रभावकचरित्र आदि अनेक ग्रन्थ उपलब्ध हो जाते हैं किन्तु जैन साध्वी संघ के इतिहास के कुछ सूत्र ही मात्र प्रकीर्ण रूप में मिलते हैं। साध्वी विजय श्री जी ने इन प्रकीर्ण संदर्भों को समेटने और सजाने का महत्वपूर्ण कार्य किया है। उनकी इस शोध यात्रा के मूलतः तीन स्रोत रहे हैं- प्रथम स्रोत आगम, आगमिक व्याख्याओं और चरित्रकाव्यों के रूप में रहा है। यह साहित्यिक आधार अति विस्तृत रहा है। हजारों पृष्ठों की इस सामग्री से श्रमणियों ओर उनके अवदानों को खोज लेना एक कठिन कार्य था। यद्यपि इस महत्वपूर्ण कार्य में उन्हें 'प्राकृत प्रोपर नेम्स' से काफी सहायता मिली, फिर भी "प्राकृत प्रोपर नेम्स' मात्र ईसा की सातवीं शताब्दी तक के आगम और आगमिक व्याख्याओं के सन्दर्भों को ही उल्लेखित करता है, शेष सूचनाओं का आधार तो परवर्ती काल में लिखे गए चरित्र काव्य एवं कथानक ग्रन्थ ही रहे हैं। उनकी इस शोध यात्रा का दूसरा एवं सबसे प्रमाणिक आधार जैन अभिलेख है। इन अभिलेखों में से साध्वियों के संदर्भों को ढूंढ निकालना कठिन कार्य था क्योंकि आज तक भी सभी जैन अभिलेखों का न तो सर्वेक्षण हुआ है और न प्रकाशन है। जैन अभिलेख संग्रह आदि प्रकाशित ग्रन्थों से विभिन्न अभिलेखों का आलोडन कर इस कार्य को सम्पन्न किया है। इनके शोध ग्रन्थ का तीसरा आधार ग्रन्थ- प्रशस्तियाँ थी। आज भी जैन ग्रन्थ भंडारों में लाखों ग्रन्थ जीर्ण-शीर्ण अवस्था में पड़े हैं, उनकी सभी प्रशस्तियों को संग्रहित किया जाना तो सम्भव नहीं था, फिर भी जो भण्डार देखने को उपलब्ध हो सके, उनकी प्रशस्तियों को समाहित किया गया है, जितने भी जैन अभिलेख संग्रह प्रकाशित हुए हैं और जैन ग्रंथ भंडारों की जो भी प्रकाशित सूचियाँ प्राप्त हो सकी उनका आलोडन विलोडन किया गया है। (xxv) Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यद्यपि यह सब भी भण्डारों में सुरक्षित जैन ग्रन्थों के दस प्रतिशत से अधिक की सूचना नहीं देता है। अनेक ग्रामों व नगरों में लाखों की संख्या में जैन ग्रन्थ भण्डारों में पड़े हैं किन्तु न तो उनकी कोई व्यवस्थित सूची है, न ही कोई उन्हें खोलकर दिखाना चाहता है। फिर भी साध्वी जी ने जहाँ ऐसे ग्रन्थ देखने को उपलब्ध हो सके उनको देखने का प्रयत्न किया है। साधु जीवन में पद-यात्रा करके सभी स्थानों पर पहुँच पाना भी संभव नहीं था । फिर भी उन्हें जो भी सामग्री मिल पायी है उसे ईमानदारी से समाहित करने का प्रयत्न किया है। जैन श्रमणी संघ के इस इतिहास में विभिन्न जैन सम्प्रदायों की श्रमणियों एवं उनके अवदानों का संकलन आवश्यक था, किन्तु तेरापंथ संप्रदाय को छोड़कर कहीं से भी व्यवस्थित जानकारी या सूचना उपलब्ध नहीं हो सकी। दिगम्बर संप्रदाय में तो लगभग एक हजार वर्ष की सुदीर्घ अवधि में श्रमणी संस्था का कोई सुव्यवस्थित उल्लेख ही प्राप्त नहीं होता है। विगत 50-60 वर्ष में उसमें जो श्रमणी - संघ (आर्यिका संघ) का विकास हुआ है, वह महत्वपूर्ण तो है किन्तु इस संबंध में भी व्यवस्थित जानकारी उपलब्ध नहीं है। उनका मुनि समुदाय सीमित संख्या में होते हुए भी अनेक आचार्यों के नेतृत्व में बंटा हुआ हैं और प्रत्येक का अपना श्रमणी समुदाय है । यद्यपि श्वेताम्बर मूर्तिपूजक संघ में विभिन्न गच्छों में साध्वी परम्परा अविछिन्न रूप से चलती रही है, फिर भी उनका व्यवस्थित इतिहास नहीं मिलता है। मात्र प्रकीर्ण रूप से कुछ सूचनाएँ मिलती है। यद्यपि स्थानकवासी संप्रदाय विगत 500 वर्षों से ही अपने अस्तित्व में आया है किन्तु इसमें भी ग्रन्थ प्रशस्तियों को छोड़कर साध्वियों के कहीं कोई व्यवस्थित उल्लेख नहीं है, जो भी सूचनाएँ उपलब्ध है, वे मात्र 100-150 वर्षों की है। साध्वी विजय श्री जी ने एक सूचना पत्रक का प्रारूप बनाकर भी विभिन्न साध्वियों को भेजा था ताकि उनकी परम्परा की एक व्यवस्थित सूचना मिल सके लेकिन उसके सकारात्मक परिणाम उतने उपलब्ध नहीं हो सके। स्थानकवासी ज्ञानगच्छ (xxxvi) Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ की साध्वी परम्परा के सम्बन्ध में तो सूचनाओं का प्रायः अभाव ही रहा। मात्र विगत कुछ वर्षों से प्रकाशित होने वाली चातुर्मास सूचि से ही संतोष करना पड़ा है। फिर भी साध्वी श्री विजयश्री जी ने अनेक कठिनाइयों को पार करते हुए लगभग 10,000 श्रमणियों के अवदान के विषय में सूचनाएं एकत्रित की है। मात्र नामोल्लेख की दृष्टि सेतो यह संख्या उससे भी अधिक होगी। उनका यह कार्य अत्यन्त परिश्रमपूर्ण रहा है। निश्चय ही श्रमणी संघ के इतिहास की दृष्टि से उनका यह श्रम सार्थक हुआ है और भावी शोधकर्ताओं के लिए आधारभूत और प्रेरणास्पद बनेगा। इस महत्वपूर्ण कार्य के लिए मैं अपनी ओर से और समस्त जैन संघ की ओर से उन्हें बधाई देना चाहूँगा और यह अपेक्षा रखूगा कि वे भविष्य में इसी प्रकार से जैन भारती का भण्डार भरती रहें। आपका कार्य इतना पूर्ण होता है कि मुझे संशोधन की कोई अपेक्षा ही नहीं लगती। आपने जो श्रम किया है वह बहुत ही स्तुत्य है। पी.एच.डी. के सम्बन्ध में ऐसा परिश्रम विरल ही होता है। जैनसंघ आपके इस उपकार को कभी नहीं भूलेगा। डॉ. सागरमल जैन संस्थापक निदेशक प्राच्य विद्यापीठ शाजापुर (म.प्र.) कार्तिक पूर्णिमा, वि.सं. 2063 (xxvii) Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन धर्म का श्रमणी - संघ और उसका अवदान शोध-संक्षेपिका डॉ. साध्वी विजयश्री 'आर्या' विश्व में अनेक धर्म हैं, उन धर्मों का सामाजिक लौकिक, साहित्यिक और सांस्कृतिक उन्नति में क्या अवदान रहा, इसे जानने के लिए उस धर्म के इतिहास को जानना आवश्यक है। जैन धर्म एक शुद्ध चिरन्तन और सार्वजनीन धर्म है, उसके चतुर्विध तीर्थ श्रमण- श्रमणी श्रावक और श्राविका रूप संघ में श्रमणी संघ एक महत्त्वपूर्ण इकाई है। यद्यपि जैन श्रमणी संघ का इतिहास प्रलम्ब अतीत से अद्यपर्यन्त गंगा की निर्मल धारा के समान अनवरत चलता चला आ रहा है, किन्तु इतिहास के सीमित साधन, श्रमणी संघ का शतशाखी विस्तार और श्रमणी परम्परा की प्रामाणिक विकास कथा का अभाव- इन सब कारणों से श्रमणी संघ की कड़ी से कड़ी को जोड़ना और उनके सम्पूर्ण योगदानों को संग्रहित करना एक दुःसाध्य कार्य है। तथापि भगवती सूत्र, अन्तकृद्दशांग, ज्ञातसूत्र, निरयावलिका आदि आगम साहित्य निर्युक्तियाँ भाष्य, चूर्णि आदि व्याख्या - साहित्य, प्रभावक चरित्र, त्रिषष्टिशलाका पुरूष चरित्र, पउमचरियं आदि चरित्रग्रंथ पुराण- साहित्य, कथा - साहित्य, विविध गच्छों से सम्बन्धित पट्टावलियों, प्रशस्ति ग्रंथों, हस्तलिखित ग्रंथों, जैन शिलालेख एवं अन्य ऐतिहासिक ग्रंथों में यत्र-तत्र बिखरे श्रमणियों के इतिहास को संग्रहित कर कालक्रमानुसार व्यवस्थित करने के इस प्रयास में सैंकड़ों ही नहीं, हजारों श्रमणियों की जानकारी प्राप्त होती है। देश, काल, सम्प्रदाय और ज्येष्ठ-कनिष्ठ की सीमा रेखा से परे जैनधर्म की उन सम्पूर्ण श्रमणियों का इतिहास प्रस्तुत शोध-प्रबन्ध में समाविष्ट करने का प्रयत्न रहा है। इस उद्देश्य की परिपूर्ति हेतु आठ अध्यायों में उसका वर्गीकरण किया गया है। प्रथम अध्याय : पूर्व पीठिका प्रथम अध्याय पूर्व पीठिका में अध्यात्म प्रधान भारतीय संस्कृति की महत्ता, श्रमण संस्कृति की प्राचीनता और जैन श्रमण संस्कृति की विशेषता बताते हुए भारत के विभिन्न धर्मों की संन्यस्त स्त्रियों का वर्णन एवं जैन धर्म में दीक्षित श्रमणियों के साथ उनका तुलनात्मक अध्ययन प्रस्तुत किया गया है। साथ ही जैन धर्म में दीक्षित श्रमणियों की योग्यता, आचार संहिता, दीक्षा महोत्सव की विधि, जीवनचर्या आदि पर भी विचार किया गया है। जैन श्रमणी संघ के इतिहास को जानने के साधन स्त्रोत पर विस्तृत विवेचन किया गया है। इसी अध्याय में शोध का महत्त्वपूर्ण हिस्सा कला एवं स्थापत्य में श्रमणियों का अंकन कर श्रमणियों के दुर्लभ प्राचीन 37 चित्रों का भी समावेश किया है, जो ईसा की प्रथम शताब्दी से बीसवीं शताब्दी तक विभिन्न स्थलों Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ से सम्बन्धित हैं। प्रतिमा चित्र विशेषतः मथुरा, देवगढ़ (उत्तरप्रदेश), पाटण, सूरत, मातर एवं भद्रेश्वर तीर्थ से उपलब्ध हुए हैं। कुछ चित्र साराभाई मणिलाल नवाब अहमदाबाद से प्रकाशित 'जैन चित्र कल्पलता' में अंकित हैं। कुछ चित्र सुश्रावक गुलाबचंद जी लोढ़ा चीराखाना दिल्ली के संग्रह में विज्ञप्ति पत्रों से उपलब्ध हुए हैं। दिल्ली जैन श्वेताम्बर मन्दिर की दीवारों व छतों पर उकेरित मुस्लिम काल के भी कुछ चित्र हैं। चित्तौड़ किले पर आचार्य हरिभद्रसूरि के समाधि मन्दिर की मूर्ति के मस्तक भाग पर महत्तरा साध्वी याकिनी का चित्र विशेष रूप से ध्यान देने योग्य है, यह प्रतिमा यद्यपि इक्कीसवीं सदी की है, किन्तु एक जैनाचार्य के हृदय में अपनी गुरूमाता साध्वी के लिए कितना आदर व सम्मान का स्थान था, यह उस प्रतिमा से प्रकट होता है । भद्रेश्वर तीर्थ में जो हाल में ही साध्वी प्रतिमा उत्खनन से प्राप्त हुई और उसका चित्र आचार्य शीलचन्द्रसूरि जी ने 'अनुसंधान' पत्रिका के मुखपृष्ठ पर अंकित किया है, इस चौदहवीं शताब्दी की दुर्लभ भव्य प्रतिमा का चित्र हमें उपाध्याय भुवनचन्द्र जी महाराज से प्राप्त हुआ है। श्वेताम्बर मूर्तिपूजक श्रमणियों की चरण पादुकाओं का इतिहस जो 400 वर्ष पुराना है, उसका एक नमूना हमें आबू रोड़ के समाधि मन्दिर में स्थित साध्वी सुनन्दाश्री जी का प्राप्त हुआ है, वह भी इस अध्याय के अन्त में दिया गया है। द्वितीय अध्याय : प्रागैतिहासिक काल से अर्हत् पार्श्व तक द्वितीय अध्याय में सर्वप्रथम जैन श्रमणी संघ का उद्भव और विकास बताकर तीर्थंकरकालीन श्रमणियों के नाम, संख्या एवं मान्यता भेद का दिग्दर्शन कराया है तथा प्रागैतिहासिक काल से प्रारम्भ कर अत् पार्श्वनाथ के काल तक की श्रमणियों का वर्णन किया गया है। भगवान ऋषभदेव के समय उनकी सुपुत्रियाँ भगवती ब्राह्मी और सुन्दरी ने श्रमणी संघ की नींव डाली, उनकी उर्वर मेधा से आज विश्व की सम्पूर्ण वर्ण रूप और अंक रूप विद्याएँ पल्लवित और पुष्पित हुई हैं। इन युगल श्रमणियों के योगदान से मात्र जैन संस्कृति ही नहीं विश्व संस्कृति भी चिरऋणी रहेगी । तीर्थकर अजितनाथ के समय सुलक्षणा ने शुद्ध सम्यक्त्व की प्रेरणा देकर अपने पति शुद्धभट्ट के साथ संयम अंगीकार किया। तीर्थकर मल्लिनाथ ने श्रमणी पर्याय में तीर्थकर पद पर आरूढ़ होकर शाश्वत सत्य को 'अछेरा' बना दिया था। साध्वी राजीमती ने अपने देवर रथनेमि को कर्त्तव्य बोध का सुन्दर पाठ पढ़ाकर आत्म साधना में स्थिर किया था। साध्वी मदनरेखा ने युद्ध स्थल पर पहुँच कर प्रेम एवं मैत्री का निर्नाद किया, पोट्टिला ने अथक प्रयत्न करके अपने पति को धर्म के सन्मुख किया। रानी कमलावती ने भोगों का ऐसा दारूण चित्र अपने पति ईषुकार के समक्ष चित्रित किया कि राजा भोगों से उपरत होकर दीक्षित हो गया। इसी प्रकार कथा साहित्य में आरामशोभा, कनकमाला कुबेरदत्ता, कलावती, गुणसुन्दरी, भुवनसुन्दरी, मैनासुन्दरी, ऋषिदत्ता, रोहिणी, विजया, सुतारा, श्रीमती, सुरसुन्दरी आदि सैंकड़ों शीलवती सन्नारियों के वर्णन है, जिन्होंने अपने अप्रतिम शौर्य एवं अनुपम बुद्धि चातुर्य का परिचय देकर अन्त में संयम साधना कर जैन शासन की महती प्रभावना की थी । द्वितीय अध्याय में ऐसी आगम व आगमिक व्याख्या - साहित्य तथा पुराण एवं कथा - साहित्य में उल्लिखित कुल 360 श्रमणियों का विशिष्ट परिचय दिया गया है। तृतीय अध्याय : महावीर और महावीरोत्तरकाल तृतीय अध्याय महावीर और महावीरोत्तरकालीन ( वीर निर्वाण 1 से वीर निर्वाण 1489 तक की ) (xxx) Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रमणियों से अनुगुम्फित है। महावीर युग में वर्तमान श्रमणी परम्परा की सूत्रधार आर्या चंदनबालाजी एक बृहत् श्रमणी संघ की संचालिका थी। धर्म की धुरा का संवहन करने में उसने गौतम आदि 11 गणधरों के समान ही महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई थी। इसी प्रकार शान्ति की सूत्रधार मृगावती, तत्त्वशोधिका जयंति, अनुराग से विराग का दीप जलाने वाली देवानन्दा, अचल श्रद्धा की प्रतीक सुलसा, तपस्या के प्राञ्जल कोष की स्वामिनी काली आदि रानियों की यशोगाथाएँ भी इसमें वर्णित हैं। महावीरोत्तरकाल में जम्बूकुमार के साथ अपने अविचल प्रेम का निर्वहन करने वाली समुद्रश्री आदि आठ श्रेष्ठी कन्याएँ भोग योग्य युवावस्था में सुख सुविधाओं को ठुकराकर अद्वितीय अनुपम आदर्श उपस्थित करती हैं। तप-संयम की उत्कृष्ट आराधना कर भगवद् पद को प्राप्त करने वाली पुष्पचूला अपने ही बोध प्रदाता गुरू आचार्य अन्निकापुत्र की मार्गदृष्टा बनती है। अद्वितीय प्रतिभा की धनी, श्रुतसम्पन्ना यक्षा यक्षदत्ता आदि सात साध्वी भगिनियाँ आर्य महागिरि और आर्य सुहस्ति जैसी महान हस्तियों को अपने ज्ञान निर्झर से सिंचित कर जिनशासन को अर्पित करती हैं। आर्या पोइणी श्रुतरक्षा एवं संघहित हेतु अपने विशाल साध्वी समुदाय के साथ कुमारगिरि पर आयोजित श्रमण सम्मेलन में उपस्थिति प्रदान करती है। रूद्रसोमा अपने पुत्र आर्यरक्षित को पूर्वो का अध्ययन करने के बहाने संयम पथ पर आरूढ़ करवाती है। ईश्वरी संकटकाल से प्रेरणा लेकर सम्पूर्ण परिवार में विरक्ति की भावनाएँ जागृत करती है। याकिनी महत्तरा जैन धर्म के कट्टर विद्वेषी विद्वान् हरिभद्र को अपनी व्यवहार कुशलता और अद्भुत प्रज्ञा से जैनधर्म में जोड़ती है। पाहिनी गुरू के वचनों को श्रवण कर पाँच वर्ष के नन्हें पुत्र को गुरू चरणों में समर्पित कर देती है, वही राजा कुमारपाल का प्रतिबोधक एवं कलिकालसर्वज्ञ आचार्य हेमचन्द्र के नाम से ख्याति को प्राप्त हुआ। यह सम्पूर्ण विवरण कालक्रम से उक्त अध्याय में प्रस्तुत किया गया है । इसके अतिरिक्त गण, कुल शाखा से अनुबद्ध वीर निर्वाण 527 से 927 तक की उन श्रमणियों का भी उल्लेख है जो विशेषतः मथुरा के मंदिरों, वहाँ की मूर्तियों की प्रेरणादात्री रही हैं। ऐसी कुल 109 श्रमणियों का विशिष्ट अवदान तृतीय अध्याय में दिया गया है । चतुर्थ अध्याय : दिगंबर-परम्परा चतुर्थ अध्याय दिगम्बर-परम्परा से सम्बन्धित है। इसमें श्वेताम्बर, दिगम्बर परम्परा भेद, दिगम्बर- परम्परा का आदिकाल, दक्षिण भारत में जैन श्रमणियों का अस्तित्व यापनीय सम्प्रदाय एवं भट्टारक परम्परा की श्रमणियों का जैन संघ में विशिष्ट स्थान दर्शाते हुए विक्रम की आठवीं से इक्कीसवीं सदी तक की 319 श्रमणियों के व्यक्तित्व की जानकारी दी गई है। इसमें संवत् 757 से पन्द्रहवीं सदी तक कर्नाटक प्रान्त में हुई, उन अमरत्व की पूज्य प्रतिमाओं की जानकारी भी है, जिन्होंने श्रवणबेल्गोला के चन्द्रगिरि पर्वत पर महान संलेखना व्रत अंगीकार कर अपने आत्मिक उत्कर्ष का परिचय दिया था, तथा आठवीं से ग्यारहवीं सदी तक हुई उन कुरत्तिगल भट्टारिकाओं का भी इतिहास है, जिन्होंने स्वतन्त्र रूप से अपने संघ का नेतृत्त्व किया था। इन श्रमणियों ने बड़े बड़े विश्वविद्यालयों का निर्माण करवाकर वहाँ उच्चकोटि के जैन धर्म व दर्शन के विद्वान् पंडित तैयार किये, जो देश के विभिन्न भागों में जाकर धर्म का प्रचार करते थे। इसी प्रकार विक्रमी संवत् ग्यारहवीं सदी से अठारहवीं सदी तक अनेक श्रमणियाँ हुई जिनके सक्रिय धार्मिक सहयोग एवं प्रेरणा से देवगढ़ (उत्तरप्रदेश) की मूर्तियाँ मन्दिर एवं निर्मित हुए। वहाँ के एक मानस्तम्भ पर तो आर्यिका का उपदेश भी दो पंक्तियों में अंकित है। (xxxi) Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विक्रम की उन्नीसवीं और बीसवीं सदी में दिगम्बर परम्परा की श्रमणियों के कोई उल्लेख प्राप्त नहीं होते। इक्कीसवीं सदी के पूर्वार्ध में पुनः इस परम्परा की आर्यिका श्री चन्द्रमती जी का नाम सर्वप्रथम जानने को मिलता है, वे 101 वर्ष की आयु पूर्ण कर दिल्ली में स्वर्गवासिनी हुई। इनके पश्चात् घोर तपस्विनी श्री धर्ममती माताजी, सम्पूर्ण रसों की आजीवन प्रत्याख्यानी श्री वीरमती जी, अनेकों मुनि आर्यिका ऐलक क्षुल्लक व ब्रह्मचारियों की निर्माति विदुषी श्री इन्दुमती जी हुई। वर्तमान में दिगम्बर संघ की सर्वप्रथम बालब्रह्मचारिणी आर्यिका गणिनी श्री ज्ञानमती जी हैं, इन्होंने बड़े-बड़े आचार्यों की टक्कर के गूढ दार्शनिक ग्रंथों का प्रणयन किया, ऐसे 150 से भी अधिक ग्रंथों की रचना कर ये साहित्यकी के रूप में प्रतिष्ठित हुई। आर्यिका सुपार्श्वमती जी जिनकी ज्ञान-निर्जरित लेखनी से बीसियों ग्रंथ प्रसुटित हुए। प्रत्येक क्षेत्र में विद्वत्ता को प्राप्त ये धर्म व शासन को चार चाँद लगाने वाली हुईं। गणिनी विजयमती जी इक्कीसवीं शताब्दी की सर्वप्रथम गणिनी, बहुभाषाविद्, अनेक धर्म संस्थाओं की प्रेरिका एवं विपुल साहित्यकी विशिष्ट संयमी साध्वी हैं। इसी प्रकार दर्शनशास्त्र की प्रकाण्ड पंडिता श्री जिनमती जी, दुर्गम ग्रन्थों की टीकाकर्ती, ज्ञान की अनुपम निधि श्री विशुद्धमती जी, इक्कीसवीं सदी की प्रथम बाल ब्रह्मचारिणी गणिनी एवं सर्वाधिक दीक्षा प्रदातृ श्री विशुद्धमती जी, कठोर साधिका आर्यिका श्री अनन्तमती जी, क्षुल्लिका श्री अजितमती जी, कवयित्री लेखिका तपस्विनी क्षुल्लिका श्री चन्द्रमती जी, जिनमती जी आदि ज्योतिपुञ्ज महान आर्यिकाओं का वर्णन इस अध्याय में किया गया है। पंचम अध्यायः श्वेताम्बर परम्परा जैनधर्म की श्वेताम्बर परम्परा अपने अस्तित्त्वकाल से ही अति विस्तृत समृद्ध और परिष्कृत परम्परा रही है। इस परम्परा की 3221 श्रमणियों का उपलब्ध विवरण पंचम अध्याय में समाविष्ट किया गया है। खरतरगच्छ का इतिहास विक्रमी संवत् 1080 से प्रारम्भ होकर अद्यतन गतिमान है। वर्तमान में इस गच्छ की श्रमणियों की संख्या 240 है। तपोगच्छ का उदयकाल विक्रम की तेरहवीं सदी है, वहाँ से प्रारम्भ होकर वि. सं. 1791 तक यह परम्परा प्राप्त होती है, उसके पश्चात् डेढ़ सौ-दोसौ वर्षों की अवधि के बाद संवत् 1926 से पुनः इस गच्छ की श्रमणियों का इतिहास वर्तमान तक अनेक समुदायों में विभक्त आचार्यों के नेतृत्त्व में बरसाती नदी के समान विशुद्ध रूप से प्रवहमान है। विशेष रूप से आचार्य आनन्दसागरसूरीश्वर, विजय प्रेमरामचंद्रसूरीश्वर, विजय प्रेम भुवन भानुसूरीश्वर, विजय जितेन्द्रसूरीश्वर, विजय कलापूर्णसूरीश्वर, विजय नेमीसूरीश्वर, विजय नीतिसूरीश्वर, विजय सिद्धिसूरीश्वर (बापजी), विजय वल्लभसूरीश्वर, विजय मोहनसूरीश्वर, विजय रामसूरीश्वर (डहेलावाला), विजय बुद्धिसागर सूरीश्वर, विजय हिमाचलसूरीश्वर, विजय शांतिचन्द्रसूरीश्वर, विजय अमृतसूरीश्वर, आचार्य मोहनलाल जी महाराज विमलगच्छ, सौधर्म वृहत्तपागच्छीय त्रिस्तुतिक समुदाय की श्रमणियों से यह गच्छ शोभायमान हो रहा है। ईस्वी सन् 2005 की गण्नानुसार इन श्रमणियों की कुल संख्या 5784 है। अंचलगच्छ का अभ्युदय काल विक्रमी संवत् 1146-1778 एवं उसके पश्चात् संवत् 1955 से अद्यतन चल रहा है। उपकेशगच्छ की श्रमणियाँ विक्रम की तेरहवीं से सोलहवीं सदी तक के काल की ही प्राप्त होती है। उसके पश्चात् यह परम्परा अन्य गच्छों में विलीन हो गई, आज इस गच्छ का प्रतिनिधि त्व करने वाली एक भी श्रमणी या श्रमण नहीं है। इसी प्रकार आगमिक गच्छ का सितारा भी तेरहवीं से सत्रहवीं सदी तक ही चमकता दिखाई देता है। तपागच्छ की ही एक शाखा पार्श्वचन्द्रगच्छ है, इसका उदय (xxxii) Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सवंत् 1564 में माना जाता है, किन्तु इस शाखा के साधु-साध्वी आज भी अच्छी संख्या में विद्यमान है। सन् 2005 में इन श्रमणियों की संख्या 58 थी। कुल मिलाकर सभी श्वेताम्बर मूर्तिपूजक परम्परा की श्रमणियाँ वर्तमान में 6322 है। श्वेताम्बर-परम्परा में गणिनी प्रवर्तिनी महत्तरा आदि पदों को प्राप्त हुई अनेक विदुषी श्रमणियाँ हैं। संवत् 1477 में गुणसमृद्धिमहत्तरा ने 'अंजणासुंदरीचरियं' 503 पद्यों में रचकर अपने वैदुष्य का परिचय दिया था, ये प्राकृतभाषा की एकमात्र लेखिका है। विक्रम की तेरहवीं सदी में महत्तरा पद्मसिरि अलौकिक व्यक्तित्त्व की धनी साध्वी हुई, गूढ़ से गूढ़ तत्त्वज्ञान को सुबोध सुमधुर शैली में व्याख्यायित करने की उसकी कला एवं वैराग्य रंग से रंजित सदुपदेशों से आकृष्ट होकर अल्प समय में 700 नारियाँ दीक्षित हुई। मातर तीर्थ में प्रतिष्ठित उनकी प्रतिमा का चित्र अध्याय एक में दिया गया है। इसी प्रकार पन्द्रहवीं सदी में धर्मलक्ष्मी महत्तरा को ज्ञानसागरसूरि ने विमलचारित्र में 'स्वर्णलक्षजननी' और 'सरस्वती' कहकर स्तुति की है। बीसवीं सदी में खरतरगच्छीय श्री उद्योतश्री जी ने विशुद्ध श्रमणाचार का पालन करने के लिए श्री सुखसागर जी महाराज के साथ क्रियोद्धार में अपनी महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई थी। प्रवर्तिनी पुण्यश्री जी के वैराग्य रस से ओतप्रोत उपदेशों से 116 मुमुक्षु आत्माएँ दीक्षित हुईं। प्रवर्तिनी शिवश्री जी, प्रेमश्री जी, ज्ञानश्री जी, वल्लभश्री जी ने संघमें विशिष्ट स्थान प्राप्त किया था। जैन कोकिला परम समाधिवंत प्रवर्तिनी विचक्षणश्री जी, महनीय गुणों से सुशोभित श्री मनोहरश्री जी बहुआयामी प्रतिभा की धनी श्री सज्जनश्री जी, जैन द्रव्यानुयोग की विशिष्ट अध्येत्री, अनेक संस्थाओं की प्रेरिका मणिप्रभाश्री जी आदि खरतरगच्छ की 551 साध्वियों का विशिष्ट परिचय एवं योगदान के विभिन्न पहलु पंचम अध्याय में वर्णित है। तपागच्छ में प्रवर्तिनी शिवश्री जी, तिलकश्री जी, तीर्थश्री जी, पुष्पाश्री जी, रेवतीश्री जी, राजेन्द्र श्री जी, मृगेन्द्रश्री जी, निरंजनाश्री जी, मलयाश्री जी आदि विशाल श्रमणी संघ की संवाहिका महाश्रमणियाँ हुईं। विशिष्ट तपाराधना के साथ वर्धमान तप की 100 ओली पूर्ण करने वाली श्रमणियों में श्री तीर्थश्री जी, श्री धर्मोदयाश्री जी, श्री सुशीलाश्री जी, श्री अरूजाश्री जी, श्री निरूपमाश्री जी, श्री रेवतीश्री जी, श्री रोहिताश्री जी, श्री कल्पबोधश्री जी, श्री प्रियधर्माश्री जी, श्री धर्मविद्याश्री जी, श्री धर्मयशाश्री जी, श्री इन्द्रियदमा श्री जी, श्री हर्षितवदनाश्री जी, श्री जितेन्द्र श्री जी, श्री महायशाश्री जी आदि संख्याबद्ध श्रमणियाँ हैं। श्री मोक्षज्ञाश्री जी, श्री चिद्वर्षाश्री जी आदि कुछ साध्वियाँ तो तप की जीती जागती प्रतिमा ही नजर आती हैं। श्री रंजनाश्री जी महान शासन प्रभाविका साध्वी हैं, इन्होंने सम्मेदशिखर जैसे विशाल तीर्थ का जीर्णोद्धार कर अपना नाम अमर कर दिया, तीर्थ स्थान पर इनकी प्रतिमा भी स्थापित की गई हैं। साहित्यिक क्षेत्र में अपना प्रशंसनीय योगदान देने वाली सूर्य शिशु श्री मयणाश्री जी एवं इनकी तीन शिष्याएँ विशुद्ध प्रज्ञा सम्पन्न शतावधानी श्रमणियाँ हैं। इसी प्रकार मासक्षमण आराधिका 27 शिष्याओं की गुरूमाता श्री त्रिलोचनाश्री जी, आशु कवयित्री प्रवर्तिनी श्री लक्ष्मीश्री जी, प्रकृष्ट तपस्विनी श्री देवेन्द्रश्री जी, संस्कृत प्राकृत काव्य न्याय व्याकरण आदि की ज्ञाता विदुषी निरंजनाश्री जी साहस व संकल्प की धनी प्रवर्तिनी रोहिणाश्री जी, महान धर्म प्रभाविका प्रवर्तिनी श्री बसन्तप्रभाश्री जी, श्री सौभाग्यश्री जी, प्रखरबुद्धि सम्पन्ना शतावधानी, डॉ. श्री निर्मलाश्री जी आदि तपागच्छ की महान विदुषी श्रमणियाँ हैं। तपागच्छ की ही प्रवर्तिनी देवश्री जी पंजाब की धरती पर दीक्षित होने वाली सर्वप्रथम श्रमणी एवं विशाल गच्छ की अधिनायिका थीं। पाकिस्तान से भारत आने वाली जैन समाज पर इनका उपकार चिरस्मरणीय है। महत्तरा श्री मृगावतीश्री जी अपनी विचक्षणता विदग्धता, तेजस्विता, नवयुग निर्माण की (xxxiii) Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्षमता और उदार दृष्टिकोण से भारत भर में विख्यात हुईं। काँगड़ा तीर्थ का उद्धार इनके ही प्रयत्नों का सुल है। श्री जसवन्तश्री जी, पद्मलताश्री जी आदि महासाध्वियों ने पंजाब में घूम-घूम कर धर्म का खूब प्रचार-प्रसार किया। तपागच्छ की श्रमणियों में प्रवर्तिनी श्री कल्याणश्री जी का जैन समाज को संस्कारित करने में महान अनुदान रहा है। इनके सदुपदेशों से प्रेरित होकर अकेले 'डभोई' ग्राम में 60-65 मुमुक्षु आत्माएँ दीक्षित हुई। श्री दमयंतीश्री जी ने तपसाधिका के रूप में अपनी विशिष्ट पहचान बनाई है, इनके तपोमय जीवन के आँकड़े आश्चर्यचकित करने वाले हैं। आचार्य विजयरामसूरि जी डहेलावाला के समुदाय में श्री दर्शनश्री जी, श्री जयंतिश्री जी, श्री कनकप्रभाश्री जी, श्री चन्द्रकलाश्री जी आदि तपोपूत महान श्रमणियाँ हैं। आचार्य विजयलब्धिसूरि जी के समुदाय की श्री रत्नचूलाश्री जी अपने विशाल श्रमणी संघ में 'सरस्वती सुता' के नाम से प्रख्यात साध्वी रत्न हैं। इन्हीं की भगिनी वाचंयमाश्री जी प्रखर बुद्धिसम्पन्न, कुशल संघ संचालिका है। श्री भक्तिसूरीश्वर जी के समुदाय में श्री जयश्री जी धर्मप्रभाविका साध्वी थी, ये 88 शिष्या प्रशिष्याओं की संयमदात्री रहीं। इसी समुदाय की श्री हर्षलताश्री जी ने अपने ही परिवार के 45 स्वजनों को संयम पथ पर आरूढ़ करके जैन संघ को बड़ा भारी अनुदान दिया। श्री विजयकेसरसूरि जी के समुदाय में प्रवर्तिनी श्री सौभाग्यश्री जी, प्रवर्तिनी श्री नेमश्री जी, श्री विनयश्री जी, श्री त्रिलोचनाश्री जी गहन ज्ञान की धारक एवं विशाल श्रमणी परिवार का नेतृत्त्व करने में कुशल थी। प्रवर्तिनी श्री मनोहरश्री जी कठोर संयमी थीं। श्री विबोध श्री जी शासन की विविध प्रकार से उन्नति करने में अग्रणी गणनीय साध्वी हैं। तपागच्छ के विजय हिमाचलसूरि जी, विजय शांतिचन्द्रसूरि जी, विजय अमृतसूरिजी, आचार्य मोहनलालजी महाराज एवं विमलगच्छ आदि के समुदाय की साध्वियों का विशेष ज्ञातव्य उपलब्ध नहीं होने से हमने उनका नामोल्लेख मात्र किया है। त्रिस्तुतिक-साध्वी समुदाय में विद्याश्री जी प्रथम महत्तरा साध्वी के रूपमें प्रतिष्ठित हुई हैं। इनकी शिष्याएँ डॉ. प्रियदर्शनाश्री जी और डॉ. सुदर्शनाश्री जी विदुषी साध्वियाँ हैं। इनके अतिरिक्त वर्तमान में इस समुदाय में 178 श्रमणियाँ हैं। पार्श्वचन्द्रगच्छ में प्रवर्तिनी श्री खांतिश्री जी विशाल साध्वी समुदाय की सृजनकी और अनेको की उद्धारकी थी। श्री सुनन्दाश्री जी ने जैनधर्म की गरिमा में अभिवृद्धि करने वाले अनेक कार्य किये। श्री बसन्तप्रभा जी अच्छी कवयित्री विदुषी साध्वी थीं, सुमंगलाश्री जी पंडित महाराज के नाम से प्रसिद्ध थी। विक्रमी संवत् 1564 से प्रवहमान इस गच्छ की 85 श्रमणियों का परिचय हमें उपलब्ध हुआ। चन्द्रकुल से निष्पन्न अंचलगच्छ में सोमाई नामक साध्वी ने एक करोड़ मूल्य के स्वर्णाभूषणों का परित्याग कर संवत् 1146 में दीक्षा अंगीकार की थी, इनके पश्चात् छंद व साहित्य की ज्ञाता प्रवर्तिनी मेरूलक्ष्मी हुई, वर्तमान में श्री जगतश्री जी का विशाल शिष्या परिवार है । इस गच्छ की साध्वी गुणोदयाश्री जी अद्भुत समताभावी व करूणा की देवी हैं। श्री अरूणोदयाश्री जी, श्री विनयश्री जी दृढ़ मनोबली तपोमूर्ति श्रमणियाँ हैं। ऐसी हजारों श्रमणियाँ इस गच्छ में हुई। वर्तमान में भी 239 श्रमणियाँ हैं। हमें केवल 203 श्रमणियों का सामान्य परिचय उपलब्ध हुआ है। उपकेशगच्छ में यद्यपि श्रमणियों का स्वतन्त्र उल्लेख इतिहास ग्रंथों में उपलब्ध नहीं होता, किन्तु अनेक शासन प्रभावक आचार्यों के इतिवृत्त में उनकी माता, पत्नी, भंगिनी आदि के रूप में कुछ नाम उपलब्ध हुए हैं, ऐसी 29 श्रमणियों का परिचय दिया गया है। आगमिक गच्छ जो विक्रम की तेरहवीं सदी से सत्रहवीं शताब्दी तक रहा, उसकी मात्र 4 श्रमणियों की ही जानकारी प्राप्त हुई हैं। इनके अतिरिक्त श्वेताम्बर परम्परा की सैंकड़ों ऐसी श्रमणियाँ हैं, जिन्होंने ताड़पत्र, भोजपत्र अथवा कागज पर प्राचीन ग्रंथों को लिखने का कार्य किया। या विद्वानों से लिखवाकर योग्य श्रमण श्रमणियों को स्वाध्याय (xxxiv) Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हेतु अर्पित किया, उनसे सम्बन्धित अनेक उल्लेख प्रशस्ति- ग्रंथों और पांडुलिपियों में प्राप्त होते हैं, ऐसी संवत् 1175 से 1928 तक के काल की 80 श्रमणियों का वर्णन भी उक्त अध्याय में समाविष्ट किया गया है। षष्ठम अध्यायः स्थानकवासी परम्परा श्वेताम्बर स्थानकवासी परम्परा की श्रमणियों का वर्णन षष्ठम अध्याय में उपदर्शित हैं। इस परम्परा का प्रारम्भ विक्रम की सोलहवीं शताब्दी से माना जाता है। लुकागच्छ की कतिपय श्रमणियों के नाम संवत् 1615 से 1880 तक की हस्तलिखित प्रतियों में प्राप्त होते हैं। स्थानकवासी परम्परा लोंकागच्छीय यति परम्परा से निकलकर क्रियोद्धार करने वाले छः महान आचार्यों की परम्परा का सम्मिलित रूप है। वे छः आचार्य हैं - आचार्य जीवराज जी, आचार्य लवजीऋषि जी, आचार्य हरिदास जी, आचार्य धर्मसिंह जी, आचार्य धर्मदास जी और आचार्य हरजी स्वामी । उक्त सभी आचायों का काल विक्रम की सत्रहवीं सदी से अठारहवीं सदी का है, किन्तु इनकी श्रमणी - परंपरा का काल प्रायः अठारहवीं-उन्नीसवीं सदी से ही उपलब्ध होता है। आचार्य श्री जीवराज जी की परम्परा के आचार्य अमरसिंह जी महाराज की परम्परा में अद्यतन 1200 के लगभग श्रमणियों के दीक्षित होने की सूचना प्राप्त होती है, इनकी आद्या साध्वी श्री भागांजी, सद्दांजी थीं, इनका समय संवत् 1810 का है । ये महान विदुषी शास्त्रज्ञा एवं तपस्विनी थीं। प्रवर्तिनी श्री सोहनकंवर जी आगमज्ञान की गहन ज्ञाता, तपस्विनी, सेवामूर्ति व चंदनबाला श्रमणी संघ की प्रथम प्रवर्तिनी थी। श्री शीलवती जी श्री कुसुमवतीजी अनेक धार्मिक संस्थाओं की प्रेरिका, कठोर संयमी महासती थी। श्री पुष्पवतीजी बहुमुखी प्रतिभा की धनी, साहित्यकर्त्री साध्वी अनेक श्रमण- श्रमणियों की उद्बोधिका हैं। श्री जीवराजजी महाराज की नानक की परम्परा में डॉ. ज्ञानलता जी, डॉ. दर्शनलता जी, डॉ. चारित्रलता जी, डॉ. कमलप्रभा जी आदि जैन जैनेत्तर दर्शन की उच्चकोटि की विद्वान साध्वियाँ हैं। जीवराज जी की श्री शीतलदास जी महाराज की परम्परा में प्रवर्तिनी श्री यशकंवर जी मेवाड़सिंह नी के नाम से प्रख्यात हैं। जोगणिया माता पर होने वाली बलिप्रथा को बंद करवाने का अभूतपूर्व कार्य आपने ही किया था । T क्रियोद्धारक श्री लवजी ऋषि जी की महाराष्ट्र परम्परा में संवत् 1810 में विद्यमान शांत स्वभावी राधा जी के नाम का उल्लेख है। इनके शिष्या परिवार में प्रवर्तिनी श्री कुशलकंवरजी ने अनेक स्थानों के नरेशों को व्यसन मुक्त करवाया था। श्री सिरेकंवरजी आत्मार्थिनी साध्वी थी, गुरूजनों के प्रति अविनयसूचक शब्दों का उच्चारण हो जाने पर तत्काल दो उपवास का प्रत्याख्यान कर लेती थी। श्री बड़े सुन्दरजी को आचार्य आनन्दऋषि जी महाराज अपनी शिक्षा प्रदाता गुरूणी कहकर आदर देते थे। प्रवर्तिनी रतनकंवर जी ने राजा चतरसेनजी द्वारा दशहरे के दिन होने वाली भैंसे की बलि को बंद करवाया था तथा अनेक ग्रामों के नरेशों को माँस मदिरा का त्याग करवाया था। श्री आनन्दकंवर जी ने सर्प के विष को महामंत्र के प्रभाव से दूर कर लोगों को जैन धर्म के प्रति आस्थावान बनाया था। प्रवर्तिनी श्री उज्ज्वलकुमारी जी से चर्चा वार्ता कर महात्मा गाँधीजी असीम शांति व आनन्द का अनुभव करते थे, इनकी विद्वत्ता और विषय निरूपण शैली अद्वितीय थी। श्री सुमतिकंवर जी ने महिला समाज की जागृति व उन्नति के अनेक प्रशंसनीय कार्य किये। प्रवर्तिनी श्री प्रमोदसुधा जी समयज्ञा और योग्य सलाहकार विदुषी साध्वी थीं, उन्हें भारतमाता की पदवी से विभूषित किया गया था। आचार्या चंदना जी राजगृही वीरायतर में रहकर अनेक लोकमंगलकारी एवं मानव सेवा के कार्य कर रही हैं, ये एक स्वतन्त्र संघ की संचालिका है। डॉ. धर्मशीला जी सम्पूर्ण जैन समाज की सर्वप्रथम पी. एच. (-xxxv) Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ डी. डिग्री प्राप्त धर्मप्रभाविका साध्वी है। डॉ. मुक्तिप्रभा जी डॉ. दिव्यप्रभा जी जैनधर्म व दर्शन के गूढ़ रहस्यों की अनुसंधातृ एवं द्रव्यानुयोग, चरणानुयोग की व्याख्याता है। वाणीभूषण श्री प्रीतिसुधाजी अपनी सधी हुई सुमधुर वाणी से हजारों की संख्या में जन समाज को व्यसनमुक्त कराने और कसाइयों के हाथों से पशओं को छुड़वाकर गोरक्षण संस्थाएँ स्थापित कराने की सार्थक भूमिका निभा रही हैं। इसी प्रकार डॉ. ज्ञानप्रभा जी, श्री सुशीलकंवर जी, श्री कुशलकवर जी, श्री किरणप्रभा जी, श्री आदर्शज्योतिजी, श्री नूतनप्रभा जी, श्री त्रिशलाकंवरजी आदि ऋषि सम्प्रदाय की सैंकड़ों विदुषी श्रमणियाँ हैं, जिनमें परिचय प्राप्त 210 श्रमणियाँ हमारे शोध प्रबन्ध में निबद्ध हुई हैं। ऋषि सम्प्रदाय की एक शाखा गुजरात में 'खम्भात सम्प्रदाय' के नाम से चल रही है इसमें श्री शारदाबाई विनय, विवेक की प्रतिमूर्ति, आगमज्ञा, सरल गम्भीर निडर वक्ता एवं खम्भात सम्प्रदाय में श्रमणों की विच्छिन्न कड़ी को जोड़ने वाली साध्वी थीं, इनके नाम से प्रवचनों की कई पुस्तकें प्रकाशित हैं। क्रियोद्धारक पूज्य हरिदास जी महाराज के पंजाबी समुदाय में श्रमणी संघ का आरम्भ उपलब्ध प्रमाणों के आधार पर विक्रमी संवत् 1730 के लगभग महासती श्री खेतांजी से होता है। इनकी परम्परा में श्री वगतांजी निर्मल मतिज्ञान धारिणी थी। आहार की शुद्धता, अशुद्धता का ज्ञान वे देखते ही कर लेती थीं। सीतांजी द्वारा 5000 लोगों ने माँस मदिरा का त्याग किया था, श्री खेमांजी ने 250 जोड़ों को आजीवन ब्रह्मचर्यव्रत प्रदान कराया था। श्री ज्ञानांजी ने विच्छिन्न साधु-परम्परा की कड़ी को जोड़ने का अद्भुत कार्य किया। आचार्य अमरसिंह जी महाराज और आचार्य सोहनलाल जी महाराज जैसी महान हस्तियाँ जैन समाज को महासती श्री शेरांजी से प्राप्त हुई थीं। श्री गंगीदेवी जी बीसवीं सदी के प्रारम्भ की अत्यन्त धैर्यवान चारित्रवान श्रमणी थी। पंजाब श्रमणी संघ की प्रथम प्रवर्तिनी श्री पार्वती जी महाराज हिन्दी साहित्य की प्रथम जैन साध्वी लेखिका हुई हैं। अनेक अन्य मतानुयायी पंडित उनसे शास्त्रार्थ कर धर्म के सत्य सिद्धान्तों पर आस्थावान बने थे। श्री चंदाजी महाराज, श्री द्रौपदांजी महाराज, श्री मथुरादेवी जी महाराज, श्री मोहनदेवी जी महाराज प्रभावशाली प्रवचनकर्ती थीं, उन्होंने समाज की अनेक कुरीतियाँ बंद करवाकर स्थान-स्थान पर धार्मिक सत्संग प्रारम्भ करवाये थे। प्रवर्तिनी श्री राजमती जी, श्री पन्नादेवी जी (टुहाना वाले) महाश्रमणी श्री कौशल्यादेवी जी आदि परम सहिष्णु, समता की साक्षात् मूर्ति, आत्मनिष्ठ श्रमणियाँ थीं। श्री मोहनमाला जी, श्री शुभ जी, श्री हेमकंवर जी ने क्रमश: 311, 265 और 251 दिन सर्वथा निराहार रहकर विश्व में जैन श्रमण संस्कृति का गौरव निनाद किया। इनके अतिरिक्त कंठ कोकिला श्री सीता जी, परम शुचिमना श्री पन्नादेवी जी, वात्सल्यनिधि श्री कौशल्या जी 'श्रमणी', दृढ़ संयमी श्री मगनश्री जी, सर्वदा ऊर्जस्वित व्यक्तित्त्व कृतित्व संपन्ना श्री स्वर्णकान्ता जी गद्य-पद्य में समान कलम की धनी श्री हक्मदेवी जी. अध्यात्मनिष्ठ श्री सन्दरी जी. प्रबल स्मति धारिणी, सुदूर विहारिणी प्रवर्तिनी श्री केसरदेवी जी, प्रभावसम्पन्ना श्री कैलाशवती जी, व्यवहार कुशल श्री पवनकुमारी जी, शासन प्रभाविका श्री शशिकान्ता जी आदि पंजाब की इन विशिष्ट साध्वियों ने समाज व देशके उत्थान में जो सक्रिय कार्य किये वे स्वर्णाक्षरों में अंकित करने योग्य हैं। इन सबका वैदुष्य से भरपूर शिष्या परिवार भी इन्हीं के लक्ष्य कदमों पर चल रहा है। आचार्य धर्मसिंह जी महाराज के क्रियोद्धार का समय विक्रमी संवत् 1685 है। इनकी समूची परम्परा आठ कोटि दरियापुरी सम्प्रदाय के नाम से प्रसिद्ध है। यद्यपि यह परम्परा एक क्षीणतोया नदी की धारा के समान गुजरात में ही प्रवाहित है किन्तु इस संघ की उल्लेखनीय विशेषता है कि आज 386 वर्षों की सुदीर्घ अवधि (xxxvi) Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ के पश्चात् भी एक आचार्य के नेतृत्व में गतिशील है। इस सम्प्रदाय की साध्वियों के उल्लेख संवत् 1961 से प्राप्त होते हैं। संवत् 1961 में नाथीबाई आगमज्ञाता मारणान्तिक उपसर्गों में भी समताभाव रखने वाली साध्वी हुई थी। इन्होंने समाज में धर्म के नाम पर चल रहे अनेक आडम्बरों को दूर करवाया। सूर्यमंडल की अग्रणी श्री केसरबाई भद्र प्रकृति की समतावार निर्मल हृदया साध्वी थी। श्री ताराबाई सरल, सौम्य, वाणी वर्तन में एकरूप और अविरत स्वाध्यायशीला थी। श्री हीराबाई मधुरकंठी तपस्विनी प्रभावक प्रवचनकी थी। श्री वसुमती बाई प्रतिभावंत साध्वी थी। इनके तलस्पर्शी, विचार सभर गम्भीर आशय वाले प्रवचनों की कई पुस्तकें प्रकाशित हैं। बम्बई में एकबार 51 जोड़ों ने इनसे ब्रह्मचर्यव्रत ग्रहण किया था। दरियापुरी सम्प्रदाय की वर्तमान 112 साध्वियाँ हैं। उक्त ग्रंथ में हमने संवत् 1961 से संवत् 2060 तक की 163 श्रमणियों के परिचय और योगदान का उल्लेख किया है। क्रियोद्धारक श्री धर्मदास जी महाराज की परम्परा गुजरात, मालवा, मारवाड़, मेवाड़ आदि भारत के प्रायः सभी देशों में विस्तार को प्राप्त हुई हैं। गुजरात-परम्परा की श्रमणियों का इतिवृत्त संवत् 1718 से उपलब्ध होता है। यह परम्परा गुजरात, सौराष्ट्र, कच्छ में अनेक शाखाओं में विभक्त हुई। लिंबडी अजरामर सम्प्रदाय में बहुश्रुता एवं शत शिष्याओं की प्रमुखा श्री वेलबाई स्वामी श्री उज्ज्वल कुमारी जी आदि हुई। लिंबड़ी गोपाल सम्प्रदाय में सौराष्ट्र सिंहनी श्री लीलावती बाई 145 साध्वियों की कुशल संचालिका थी, इनके प्रवचनों की 'तेतलीपुत्र' आदि कई पुस्तकें हैं। इनकी कई मासोपवासी उग्र तपस्विनी आगमज्ञाता साध्वियों में श्री निरूपमाजी हैं, जो बत्तीस शास्त्रों को कंठस्थ कर महावीर युग की प्रत्यक्ष झलक दिखा रही है। गोंडल सम्प्रदाय में श्री मीठीबाई घोर तपस्विनी महाश्रमणी थी। वर्तमान में प्राणकुंवरबाई, मुक्ताबाई, तरूलताबाई, लीलमबाई, प्रभाबाई, हीराबाई विशाल श्रमणी संघ की संवाहिका आगमज्ञा साध्वियाँ हैं। बरवाला सम्प्रदाय में जवेरीबाई उग्र तपस्विनी साध्वी थी। बोटाद सम्प्रदाय में चम्पाबाई, मंजुलाबाई, कच्छ आठ कोटि मोटा संघ में श्री मीठीबाई, श्री जेतबाई, कच्छ नानीपक्ष में देवकुंवरबाई आदि दृढ़ संयम निष्ठ आत्मार्थिनी श्रमणियाँ हुई। वर्तमान में धर्मदास जी महाराज की गुजरात परम्परा में 726 के लगभग श्रमणियाँ विद्यमान हैं। मालव परम्परा में भी संवत् 1718 से साध्वियों का इतिहास उपलब्ध होता है, जिनके नाम श्री लाडूजी डायाजी आदि हैं। संवत् 1940 में श्री मेनकंवर जी परम वैराग्यवान प्रखर प्रतिभा सम्पन्न साध्वी थीं, उन्होंने भारत के वायसराय एवं सैलाना नरेश आदि राजाओं को अपने प्रवचनों से प्रभावित कर राज्य में अमारि की घोषणा करवाई थी। श्री हीराजी, दौलाजी, प्रवर्तिनी श्री माणककंवर जी, प्रवर्तिनी श्री महताबकंवर जी, प्रवर्तिनी श्री गुलाबकवर जी, प्रवर्तिनी श्री सज्जनकंवर जी आदि लोक हृदय में प्रतिष्ठित विद्वान् साध्वियाँ श्रमणी संघ की निधि हैं। ज्ञानगच्छ में श्री नन्दकंवर जी एवं उनका श्रमणी समुदाय जो आज लगभग 450 की संख्या में विचरण कर रहा है, वह अपने उत्कृष्ट संयम एवं आगम ज्ञान के लिए श्रमणी संघ में एक अद्वितीय मिसाल है। मारवाड़ परम्परा में श्री रघुनाथ जी, श्री जयमल जी, श्री कुशलो जी का श्रमणी समुदाय प्रमुख है। इन श्रमणियों का उल्लेख संवत् 1810 से आर्या केशर जी श्री चतरूजी श्री अमरू जी से प्राप्त होता है। संवत् 1851 में इस परम्परा की साध्वी श्री तेहकंवर जी ने विशाल आगम-साहित्य की दो बार प्रतिलिपि की थी। श्री चौंथाजी ने कई साधु साध्वियों को आगमों में निष्णात बनाया था। श्री सरदारकुंवर जी के द्वारा कई हस्तियाँ संयम मार्ग पर आरूढ़ होकर जिनधर्म की पताका को फहराने वाली बनी। श्री जड़ावांजी श्री भूरसुन्दरी जी की (xxxvii) Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्कृष्ट काव्य कला की विद्वानों ने भूरि भूरि प्रशंसा की है। श्री पन्नादेवी जी ने 'काणुंजी भैरूं नाका' पर होने वाले भीषण पशु संहार को बंद करवाया था। प्रवर्तिनी श्री उमरावकंवरजी उच्चकोटि की योगसाधिका, मधुर उपदेष्टा एवं चिन्तनशीला साध्वी हैं। रत्नवंश की प्रमुखा साध्वी श्री सरदारकुंवर जी, श्री मैनासुन्दरी जी अपनी ओजस्वी प्रवचनशैली और स्पष्ट विचारधारा के लिये प्रसिद्ध थीं। श्री उम्मेदकंवर जी उत्कृष्ट, त्यागी तपस्विनी आदर्श श्रमणी हैं। इसी परम्परा की और भी कई साध्वियाँ विदुषी डॉक्टरेट व शासन प्रभाविका हैं। मेवाड़ परम्परा में श्री नगीनाजी शास्त्रचर्चा में निपुण महासाध्वी हुईं। इनकी चन्दूजी, इन्द्राजी, कस्तूरां जी, श्री वरदूजी आदि कई शिष्याएँ महातपस्विनी और उग्र अभिग्रहधारी थी। श्री श्रृंगारकुंवर जी निर्भीक स्पष्टवक्ता और समयज्ञा साध्वी थीं। आचार्य श्री एकलिंगदास जी महाराज के पश्चात् मेवाड़ की विश्रृंखलित कड़ियों को इन्होंने ही टूटने से बचाया। श्री प्रेमवती जी राजस्थान सिंहनी के नाम से विख्यात साध्वी थीं, अहिंसा के क्षेत्र में इनका योगदान सराहनीय था । क्रियोद्धारक श्री हरजी ऋषि जी की परम्परा में मुख्य रूप से तीन शाखाएँ विद्यमान हैं, उन्हें कोटा सम्प्रदाय, साधुमार्गी सम्प्रदाय और दिवाकर सम्प्रदाय के नाम से जाना जाता है। यद्यपि श्री हरजीऋषि जी के क्रियोद्धार का काल संवत् 1686 के आसपास का है, किन्तु इनके साध्वी सम्प्रदाय का क्रमबद्ध इतिहास संवत् 1910 के लगभग हुई प्रवर्तिनी श्री खेतांजी का मिलता है। कोटा सम्प्रदाय श्री बड़ाकंवर जी का 52 दिन का संथारा प्रसिद्ध है। संथारे में 52 दिन ही नाग उनके दर्शन करने आता रहा। प्रवर्तिनी श्री मानकंवर जी विदर्भसिंह जी थीं, 45 शिष्या प्रशिष्याओं की संयमदात्री थीं। उपप्रवर्तिनी श्री सज्जनकुंवर जी ने डूंगला ग्राम के बाहर नवरात्रि पर होने वाली घोर पशुबलि को अपनी ओजस्वी वाणी से बंद करवाया था। प्रवर्तिनी प्रभाकंवर जी अनेक श्रमण श्रमणियों की संयम प्रेरिका आगमज्ञा साध्वी हैं। आचार्य हुक्मीचन्द्र जी महाराज की सम्प्रदाय में श्री रंगूजी विशिष्ट व्यक्तित्त्व की धनी साध्वी थीं। प्रवर्तिनी श्री रत्नकंवर जी आदर्श त्यागिनी थीं। श्री नानूकंवरजी चातुर्मास के 120 दिन में 5-7 दिन ही आहार ग्रहण करती थीं, उन्होंने दीक्षा के पूर्व कुष्ठ रोग से मृत्यु प्राप्त अपने पति की स्वयं अन्त्येष्टी क्रिया की थी। प्रवर्तिनी श्री आनन्दकंवर जी इतनी करूणामूर्ति थी, कि अपनी जान की परवाह किये बिना जीवदया के अनेक कार्य किये। घोर तपस्विनी श्री बरजूजी ने 82 दिन के उपवास कठोर कायक्लेश करते हुए किये थे। श्री मोता जी बृहद् श्रमणी संघ की जीवन निर्मातृ थीं। श्री नानूकंवर जी बहुभाषाविद् व आगम ज्ञान में निष्णात थीं। दिवाकर सम्प्रदाय में श्री साकरकंवर जी, श्री कमलावती जी अत्यन्त विदुषी शास्त्र मर्मज्ञा एवं ओजस्वी वक्ता थी । कृशकाया में अतुल आत्मबल की धनी श्री पानकंवर जी ने 49 दिन के संथारे में जिस प्रकार देहाध्यास का त्याग किया वह अद्भुत था। वर्तमान में डॉ. सुशील जी, डॉ. चन्दना जी, डॉ. मधुबाला जी, श्री सत्यसाधना जी, श्री अर्चना जी आदि धर्म की अपूर्व प्रभावना में संलग्न हैं। लगभग 400-500 वर्षो से अनवरत प्रवहमान उक्त छः क्रियोद्धारकों की परम्परा में आज तक हजारों श्रमणियाँ हो चुकी हैं, किन्तु प्रामाणिकता पूर्वक उनकी निश्चित् गणना नहीं हो पाई । सन् 2005 के गणनीय आँकड़ों में इनकी संख्या 2953 आंकी गई हैं, किन्तु कइयों के नाम प्रकाशित सूची में नहीं आ पाये हैं। लगभग तीन हजार श्रमणी - वैभव से सम्पन्न यह सम्प्रदाय आज अधिकांश श्रमण संघ में विलीन है। इनमें गुजराती बृहद् संघ, रत्नवंश, ज्ञानगच्छ, साधुमार्गी, नानकगच्छ और जयमल सम्प्रदाय की कतिपय श्रमणियों के (xcxcxviii) Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अतिरिक्त सभी सम्प्रदायों की लगभग एक सहस्त्र श्रमणियाँ आचार्य शिवमुनि जी और आचार्य उमेशमुनि जी की आज्ञानुवर्तिनी श्रमण संघीय श्रमणियों के रूप में पहचानी जाती हैं। हमने अपने शोध प्रबन्ध में कुल 2348 श्रमणियों के व्यक्तित्त्व कृतित्त्व विषयक योगदानों का उल्लेख किया है। इसमें संवत् 1555 से 1993 तक की वे 219 श्रमणियाँ भी हैं, जिनके उल्लेख हस्तलिखित प्रतियों से प्राप्त हुए। गच्छ या सम्प्रदाय का नामोल्लेख न होने से सम्भव है, इनमें कुछ लुंकागच्छीय अथवा कुछ श्वेताम्बर मूर्तिपूजक की श्रमणियाँ भी सम्मिलित हों। सप्तम अध्याय : तेरापंथ-परम्परा तेरापंथ धर्मसंघ के श्रमणी संघ का इतिहास विक्रमी संवत् 1821 से प्रारम्भ हुआ। तब से लेकर अद्यतन पर्यन्त 1700 से अधिक श्रमणियाँ संयम पथ पर आरूढ़ होकर अपने तप-त्याग के द्वारा जिन शासन की चहुमुखी उन्नति में सर्वात्मना समर्पित हैं। आचार्य भिक्षु जी के समय श्री हीराजी 'हीरे की कणी' के समान अनेक गुणों से अलंकृत प्रमुखा साध्वी थीं। श्री वरजूजी, दीपां जी मधुरवक्त्री, आत्मबली, नेतृत्त्व निपुणा प्रमुखा साध्वी थी। श्री मलूकांजी ने आछ के आधार से छमासी, चारमासी आदि उग्र तप एवं सात मासखमण आदि किये। साध्वी प्रमुखा सरदारांजी कठोर तपाराधिका थीं। संघ संगठन व शासनोन्नति में इनका योगदान अपूर्व था। श्री हस्तूजी, श्री रम्भा जी, श्री जेतांजी, श्री झूमा जी, श्री जेठां जी आदि की तपस्याएँ इस भौतिक युग में चौंकाने वाली हैं। साध्वी प्रमुखा गुलाबांजी की स्मरण शक्ति और लिपिकला बेजोड़ थी। श्री मुखां जी अद्भुत क्षमता युक्त, आगमज्ञा साध्वी थीं। श्री धन्नाजी दीर्घतपस्विनी थीं, इन्होंने अन्य तपाराधना के साथ लघुसिंहनिष्क्रीड़ित तप की चारों परिपाटी पूर्ण कर संघ में तप के क्षेत्र में एक अद्भुत कीर्तिमान कायम किया। श्री लाडांजी उच्चकोटि की तपोसाधिका थी, इनके वर्चस्वी व्यक्तित्त्व से प्रभावित होकर अकेले डूंगरगढ़ से 36 बहनों व 5 भाइयों ने संयम अंगीकार किया। श्री मौला जी, श्री सोनांजी, श्री कंकूजी, श्री भूरां जी, श्री चांदा जी, श्री अणचांजी, श्री प्यारा जी, श्री भूरा जी, श्री नोजांजी, श्री तनसुखा जी, श्री मुक्खा जी, श्री जड़ाबांजी, श्री पन्ना जी, श्री भतू जी आदि ने विविध तपो अनुष्ठान कर अपनी आत्मशक्ति का परिचय दिया। श्री संतोका जी बहुमुखी प्रतिभा सम्पन्न साध्वी थीं, ये शल्य चिकित्सा लिपिकला, चित्रकला आदि में भी निपुण थीं। श्री मोहनां जी ने दूर-दूर के प्रान्तों में विचरण कर धर्म की महती प्रभावना की। ____ आचार्य श्री तुलसी जी का शासन तेरापंथ के इतिहास में स्वर्णकाल कहा जा सकता है। इस काल की साध्वियों ने प्रत्येक क्षेत्र में एक मिसाल कायम की है। समण श्रेणी द्वारा जो धर्म प्रभावना का व्यापक रूप दृष्टिगोचर होता है, वह भी इस युग की नई देन है। इस युग में श्री गोंराजी संकल्पमना साध्वी थीं, उन्होंने पाकिस्तान (लाहौर) से नेपाल तक और नागालैंड तक जैनधर्म का प्रचार-प्रसार किया, साथ ही कई ध र्मोपकरणों का कलात्मक निर्माण और सैंकड़ों उद्बोधक चित्र भी बनाये। मातुश्री वदनां जी ने आचार्य तुलसी सहित तीन संतानों को तो संयम मार्ग प्रदान कर जैन शासन को अभूतपूर्व योग प्रदान किया ही, साथ ही स्वयं भी दीक्षित होकर तपोमयी जीवन बनाया। श्री चम्पा जी ने 77 दिन का संथारा कर संघ को गौरवान्वित किया। श्री मालू जी ने 20 वर्ष और श्री सोहनांजी ने 54 वर्ष एक चादर ग्रहण कर परम तितिक्षा भाव का परिचय दिया। श्री सूरजकंवर जी और श्री लिछमां जी सूक्ष्माक्षर व लिपिकला में दक्ष थीं, तो श्री कंचनकुंवर जी शल्य (xxxix) Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चिकित्सा में निपुण थी। श्री प्रमोदश्री जी, श्री सुमनकुमारी जी द्वारा भी कई कलात्मक कृतियाँ निर्मित हुई। श्री संघमित्र जी, श्री राजिमती जी, श्री जतनकंवर जी, श्री कनकश्री जी, श्री यशोधरा जी, श्री स्वयंप्रभा जी आदि कई श्रमणियों ने चिंतनप्रधान उत्तम कोटि का साहित्य जन जीवन को प्रदान किया। महाश्रमणी एवं संघ महानिदेशिका साध्वी प्रमुखा श्री कनकप्रभा जी की अजस्र ज्ञान गंगा से लगभग 115 पुस्तकों का लेखन व सम्पादन हुआ है, जो अपने आप में अनूठा कार्य है। जयश्री जी आदि कई श्रमणियों की उत्कृष्ट काव्य कला की विद्वद्जनों ने मुक्त कंठ से प्रशंसा की है, अमितप्रभा जी आदि कई साध्वियाँ शतावधाती हैं। श्री लावण्यप्रभा जी उज्ज्वलप्रभा जी, सरलयशा जी, सौभाग्ययशा जी आदि कई श्रमणियों ने शिक्षा के अत्युच्च शिखर को छुआ है। समणी साधिकाओं में भी श्री स्थितप्रज्ञा जी, कुसुमप्रज्ञा जी, उज्ज्वलप्रज्ञा जी, अक्षयप्रज्ञा जी आदि विदुषी चिन्तनशील समणियाँ हैं, जो उच्च कोटि का साहित्य सृजन कर समाज को नई दिशा प्रदान कर रही हैं तथा सुदूर देश विदेशों में जाकर ध्यान, योग, जीवन विज्ञान आदि का प्रशिक्षण दे रही हैं। इस प्रकार सप्तम अध्याय में आचार्य भिक्षु से प्रारम्भ कर आचार्य महाप्रज्ञ जी के शासनकाल तक की कुल 1697 श्रमणियाँ एवं 101 समणियों का परिचय दिया है । इन श्रमणियों का इतिहास संवत् 1821 से 2053 तक सम्पूर्ण आलोकित है, उसके पश्चात् नौ-दस वर्षों की अवधि में दीक्षित होने वाली श्रमणियों की सम्पूर्ण जानकारी उपलब्ध नहीं हो सकी। अतः संवत् 2053 के पश्चात् का क्रमबद्ध विवरण हम प्रस्तुत शोध प्रबन्ध में नहीं दे पाए। कतिपय समणियाँ आगे जाकर श्रमणी दीक्षा अंगीकार कर लेती हैं, उनके दोनों स्थानों पर नाम भिन्न होने से यह निर्णय होना कठिन है कि वह पूर्व वर्णित है या उससे भिन्न है। ऐसी स्थिति में हमने उसके समणी रूप को छोड़कर श्रमणी रूप में परिचय देने का प्रयास किया है, तथापि पुनरावृत्ति सम्भव है। अष्टम अध्याय : उपसंहार शोध-प्रबन्ध के अन्त में उपसंहार स्वरूप जैन श्रमणी संघ का तप-त्यागमय स्वरूप दर्शाया गया है तथा विश्व इतिहास में उसकी महत्ता स्थापित की गई हैं। प्राचीनकाल से अर्वाचीन काल तक की श्रमणियों के योगदान की सामूहिक यशोगाथाएँ भी गाई गई हैं। श्रमणियों की देन व्यापक और बहुमुखी है, उसमें शोध की पर्याप्त सामग्री है। यहाँ उन सब पहलुओं पर भी विचार किया गया है, साथ ही श्रमणियों से संदर्भित अनेक प्रश्न जो वर्तमान समय में चर्चित हैं, उनके समाधान की आवश्यकता पर बल दिया गया है। इस प्रकार प्रस्तुत शोध-ग्रंथ में श्रमण संस्कृति की धरोहर पूज्या 8153 श्रमणियों का इतिहास पूर्व पीठिका एवं उपसंहार सहित आठ अध्यायों में वर्णित है, इनके अतिरिक्त हजारों श्रमणियों का नामोच्चारण पूर्वक स्मरण किया गया है। जिनके नाम उपलब्ध नहीं हुए, उन्हें संख्या में परिगणित किया है। यह श्रमणी इतिहास अतीत को जानने का दर्पण है तो वर्तमान श्रमणी जीवन को नापने का थर्मामीटर है तथा भावी जीवन के लिये आत्म आरोग्यता दिलाने वाला अद्वितीय पाथेय भी है। श्रमणी संघ के इस विराट स्त्रोत के प्रत्यक्ष दर्शन कर हम हजारों वर्षों की श्रमणियों के साथ एक सूत्र में आबद्ध हो जाते हैं। Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वकथ्य जैनधर्म एक शुद्ध चिरन्तन और सार्वजनीन धर्म है। इस धर्म ने आत्म-विकास के सम्पूर्ण द्वारों को स्व-पुरुषार्थ से उद्घाटित करने का उद्घोष विश्व के समक्ष रखा। चैतन्य की सर्वतंत्र स्वतन्त्रता का संगान सुनाकर प्रत्युक प्रबुद्ध आत्मा को परमात्मा बनने के लिए उत्प्रेरित किया, इसके लिये न जाति का बंधन है, न उम्र का, न देश का बंधन है, न वेष का। किसी भी जाति, वर्ण, वेष और लिंग का व्यक्ति श्रमण पथ पर आरूढ़ हो सकता है। पथ की योग्यता-अयोग्यता का मापदण्ड मात्र उसका मुमुक्षा भाव है। यही कारण है कि जैनधर्म में प्रत्येक जाति वर्ग के सहस्रों पुरूष जैसे श्रमण मार्ग पर गत्यारूढ़ हुए। उसी प्रकार सहस्रों-सहस्त्र नारियाँ भी संयम के असिधाराव्रत पर चलने के लिए तैयार हुईं। वर्तमान अवसर्पिणी काल में आदियुग की प्रथम शिक्षिका ब्राह्मी से प्रारम्भ कर श्रमणियों की जो धारा श्रमण संस्कृति के मुख को उज्ज्वल-समुज्ज्वल करती हुई प्रवहमान हुई, वह काल की गणनातीत अवधि के पश्चात् आज भी उसी रूप में प्रवाहित होती देखी जाती है। चौबीस तीर्थंकरों की श्रमणी संख्या अड़तालीस लाख आठ सौ सत्तर हजार थी। श्रमण संस्कृति के अंचल में अपने ऊर्जस्वल और तपोमय जीवन से इन पुण्यसलिला श्रमणियों ने सर्वदा गरिमामय इतिहास रचा है, जिसकी झलक हमें आगम और उनकी व्याख्याओं में देखने को मिलती है। उनके धर्म प्रभावना हेतु किये गये कार्य जैन साहित्य, ग्रंथ-प्रशस्तियों तथा शिलालेखों व अन्य ऐतिहासिक अभिलेखों में यत्र-तत्र बिखरे हुए हैं। यद्यपि अनेक विद्वद् मनीषियों ने श्रमणियों के व्यक्तित्व कृतित्व को लेकर अपनी लोह लेखनी का उपयोग किया है, किन्तु अभी तक कोई ऐसा ग्रंथ उपलब्ध नहीं था जो मात्र श्रमणियों का ही हो और जिसमें समग्र जैन समाज की श्रमणियों का प्रमाणाधारित विवरण कालक्रम से दिया गया हो। आज से लगभग 12 वर्ष पूर्व श्रमणियों का इतिहास लिखने की अभीप्सा से मेरे द्वारा भी 'कालजयी महाश्रमणियाँ' शीर्षक से 300 पृष्ठों का एक सम्पूर्ण अध्याय महासती केसरदेवी गौरव ग्रंथ में प्रकाशित हुआ था, किन्तु उसमें भी प्रामाणिक तथ्य एकत्रित कर समग्रता से प्रस्तुत करने की आवश्यकता मुझे प्रतीत हो रही थी, अतः जैन विश्व भारती संस्थान लाडनूं को अनुसंधान की प्रारम्भिक रूपरेखा लिखकर शोध स्वीकृति हेतु प्रार्थना की, उन्होंने मुझे उक्त विषय पर स्वीकृति ही प्रदान नहीं की वरन् इस विषय की आवश्यकता पर उचित टिप्पणी देकर उत्साहित भी किया, अतः मैं सर्वप्रथम संस्थान का आभार मानती हूँ। Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समग्र जैन श्रमणियों का इतिहास लिखना और उसे शोध की सीमा में आबद्ध रखना यद्यपि एक दुःसाध्य कार्य है। विशेष रूप से बीसवीं, इक्कीसवीं सदी की श्रमणियों का इतिहास; जो संख्या में ही अत्यन्त विशालता लिये हुए है। उनमें भी कई श्रमणियों के विस्तृत जीवन उपलब्ध होते हैं, कइयों की साहित्यिक कृतियाँ। अधिकांश श्रमणियों का जीवन वृत्त उपलब्ध नहीं था। अत: रिक्त परम्परा को भरने और इतिहास की अक्षुण्णता बनाये रखने के लिए हमने सन् 2004 के दिल्ली वर्षावास में जैनधर्म की प्रायः सभी श्रमणी प्रमुखाओं, सम्बन्धित आचार्यों एवं संस्थाओं के नाम परिचय पत्र के कुछ बिन्दु एवं विनती पत्र प्रेषित कर परिचय भेजने का अनुरोध किया। इस योजना से काफी सफलता मिली, उसी के परिणाम स्वरूप हम समकालीन चारों प्रमुख परम्पराओं की प्रायः सभी गच्छों की श्रमणियों का इतिहास विस्तृत रूप में दे पाये। विषय की विस्तृतता को कम करने के लिए एवं श्रमणियों का एक साथ सरलता से परिचय जानने के लिए तालिका-पद्धति उचित प्रतीत हुई, इस रूप में हम हजारों श्रमणियों का इतिहास इस ग्रंथ में समाविष्ट कर सके। यद्यपि अभी भी ज्ञात से अज्ञात इतिहास बहुत अधिक है, कई नाम छूट गये हैं, कइयों के योगदानों की चर्चा नहीं हो पाई, कइयों की आंशिक तौर पर ही हो पाई, इन सबके पीछे सामग्री की अनुपलब्धि या प्रामाणिक सामग्री का अभाव ही प्रमुख रहा। शोध प्रबन्ध में एक कठिनाई हस्तलिखित ग्रंथों का प्राप्त न होना भी है। श्रमणियों द्वारा ताड़पत्र या कागजों पर शास्त्रों की प्रतिलिपियाँ करने का कार्य लगभग ग्यारहवीं सदी से प्रारम्भ हो गया था। ये पांडुलिपियाँ विभिन्न ग्रंथ-भंडारों में भरी पड़ी हैं। कई स्थानों से उनकी सूचियाँ प्रकाश में भी आई हैं, तथापि सैंकड़ों ऐसे भण्डार हैं, जिनकी सूचियाँ प्रकाशित नहीं है। श्रमणी विषयक दुर्लभ हस्तलिखित ग्रंथ प्रकाश में आये बिना तद्विषयक खोज नहीं की जा सकती। कई ग्रंथ श्रमणियों ने स्वयं लिखे, कई पंडितों और विद्वानों से लिखवाए, कई लिखकर आचार्यों व मुनियों को प्रदान किये, कई ग्रंथों में श्रमणियों विषयक प्रशस्तियाँ हैं, पन्द्रहवीं से उन्नीसवीं सदी तक कई श्रमणियों द्वारा मरू-गुर्जर भाषा में 'सस्तबक' लिखे जाने की सूचना है, कई पांडुलिपियों में श्रमणियों के स्व-रचित काव्य हैं, जो काव्य की विविध-विधाओं में लिखे उपलब्ध होते हैं। दिल्ली के हस्तलिखित ग्रंथ भंडारों में ऐसे सैंकड़ों ग्रंथ देखने को मिले। इसी प्रकार यदि सभी ग्रंथ भंडारों का प्रतिलेखन किया जाए अथवा उनकी सूची उपलब्ध कराई जाये तो हजारों अज्ञात साध्वियों का इतिहास उपलब्ध हो सकता है, किन्तु सभी ग्रंथ भंडारों की सूचियाँ प्रकाशित नहीं हुई हैं, तथा खेद का विषय है कि जिन ग्रंथ भंडारों से सूचियाँ प्रकाशित हो रही हैं, उनमें भी प्रतिलिपि कर्ताओं के नामों का उल्लेख नहीं किया जाता, यदि ग्रंथ का विवरण लिखते समय समग्रता का ध्यान रखा जाये तो हम अपने नष्ट होते बहुमूल्य इतिहास को बचाने में सहयोगी बन सकते हैं। देश, काल, सम्प्रदाय और ज्येष्ठ-कनिष्ठ की सीमा रेखा से परे जैनधर्म की समग्र श्रमणियों को समान रूप से ग्रंथ में स्थान देने के कारण स्वाभाविक ही ग्रंथ एक बृहदाकार श्रमणी-कोष का रूप धारण कर गया है। जैनधर्म के विस्तृत भू-भाग में ठाठे मारते इस श्रमणी-समुद्र को ग्रंथ रूपी गागर में समाविष्ट करने के लिए हमने आठ अध्यायों में उनका वर्गीकरण किया गया है (xlity | Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम अध्याय पूर्व पीठिका में अध्यात्म प्रधान भारतीय संस्कृति की महत्ता, श्रमण संस्कृति की प्राचीनता और जैन श्रमण संस्कृति की विशेषता बताते हुए भारत के विभिन्न धर्मों में संन्यस्त स्त्रियों का वर्णन एवं जैन धर्म में दीक्षित श्रमणियों के साथ उनका तुलनात्मक अध्ययन प्रस्तुत किया गया है। साथ ही जैनधर्म में दीक्षित श्रमणियों की योग्यता, आचार संहिता, दीक्षा महोत्सव की विधि, जीवनचर्या आदि के साथ जैन श्रमणी संघ के इतिहास को जानने के साधन स्रोत पर भी विचार किया गया है। इसी अध्याय में शोध का महत्त्वपूर्ण हिस्सा कला एवं स्थापत्य में श्रमणियों का अंकन व दुर्लभ प्राचीन 44 चित्रों का भी समावेश है, जो ईसा की प्रथम शताब्दी से बीसवीं शताब्दी तक विभिन्न स्थलों से सम्बन्धित हैं। द्वितीय अध्याय में जैन श्रमणी संघ का उद्भव और विकास बताकर तीर्थकरकालीन श्रमणियों के नाम, संख्या एवं मान्यता भेद को स्पष्ट किया गया है। मुख्य रूप से इस अध्याय में प्रागैतिहासिक काल से प्रारम्भ कर अर्हत् पार्श्वनाथ के काल तक की श्रमणियाँ, आगम व आगमिक व्याख्या-साहित्य तथा पुराण एवं कथा-साहित्य में उल्लिखित कुल 360 श्रमणियों का संक्षिप्त इतिहास चित्रित हुआ है। तृतीय अध्याय में महावीर और महावीरोत्तरकालीन उन 109 श्रमणियों का वर्णन है, जो प्रचलित गच्छों से भिन्न वीर निर्वाण एक से पन्द्रहवीं सदी तक हुई, इन श्रमणियों का इतिहास श्वेताम्बर परम्परा मान्य ग्रंथों में उपलब्ध होता है। चतुर्थ अध्याय दिगम्बर परम्परा से सम्बन्धित है। इसमें श्वेताम्बर दिगम्बर परम्परा भेद, दिगम्बर परम्परा का आदिकाल, दक्षिण भारत में जैन श्रमणियों का अस्तित्त्व तथा यापनीय एवं भट्टारक परम्परा की श्रमणियों का जैन संघ में स्थान दर्शाते हुए विक्रम की आठवीं से इक्कीसवीं सदी तक की 319 श्रमणियों के व्यक्तित्त्व के विशिष्ट गुणों एवं तप त्यागमय जीवन पर प्रकाश डाला गया है। पाँचवाँ अध्याय सम्पूर्ण श्वेताम्बर परम्परा की श्रमणियों से अनुगुंफित है। विक्रम संवत् 1080 से इक्कीसवीं सदी तक के एक सहस्त्र वर्ष के इतिहास में इस परम्परा की सैंकड़ों धाराएँ निकलीं और परस्पर एक दूसरे में विलीन हुईं, उनमें खरतरगच्छ, तपागच्छ, त्रिस्तुतिक, अंचलगच्छ, उपकेशगच्छ, आगमिकगच्छ तथा पार्श्वचन्द्रगच्छ की कुल 3221 श्रमणियों का उपलब्ध विवरण प्रस्तुत अध्याय में सुरक्षित है। षष्ठम अध्याय में स्थानकवासी परम्परा की कुल 2361 श्रमणियों का दिग्दर्शन है। इस अध्याय में स्थानकवासी परम्परा का उद्भव, नामकरण, लुंकागच्छीय श्रमणियाँ तथा स्थानकवासी परम्परा में हुए मुख्यतः छः क्रियोद्धारकों की श्रमणियों का व्यक्तित्व एवं कृतित्व एक कालक्रम में श्रृंखलाबद्ध करके प्रस्तुत किया गया है। अन्त में हस्तलिखित ग्रन्थों से प्राप्त श्रमणियों का भी उल्लेख है। सप्तम अध्याय में तेरापंथ परम्परा की श्रमणियाँ विक्रम संवत् 1821 से अद्यतन पर्यन्त वर्णित हुई हैं। इस परम्परा की कुल 1719 श्रमणियाँ एवं 116 समणियों का परिचय प्रस्तुत अध्याय में समाविष्ट है। (xliit) Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टम अध्याय में उपसंहार स्वरूप जैन श्रमणियों की महत्ता, उनका योगदान तथा श्रमणी विषयक शोध के कतिपय पहलुओं पर प्रकाश डाला गया है। श्रमणियों के वर्णन में प्रामाणिकता, ऐतिहासिकता, क्रमबद्धता का ध्यान रखते हुए उनके द्वारा किये गये धार्मिक, सामाजिक, सांस्कृतिक, साहित्यिक अवदानों का मल्यांकन करने का ही लघ प्रयास किया है, अलौकिक घटनाओं के वर्णन को यथासम्भव छोड़ दिया है। जिन श्रमणियों की विस्तृत जानकारी प्राप्त नहीं हुई, उन्हें तालिका में समाविष्ट कर दिया है। शोध-प्रबन्ध के अन्त में संदर्भ-ग्रंथों की सूची दी गई है। इस प्रकार प्रस्तुत शोध-ग्रंथ में स्व गणनानुसार 8205 श्रमणियों का सामान्य विशेष परिचय तथा जिनका परिचय उपलब्ध नहीं हो सका, ऐसी लगभग 10-15 हजार श्रमणियों का नामोल्लेखपूर्वक स्मरण किया है। शेष श्रमणियों को संख्या में परिगणित किया गया है। कृतज्ञता ज्ञापन - इस गुरूत्तर कार्य को पूर्ण करने में मेरे पथ प्रदर्शक डॉ. सागरमल जी जैन पूर्व निदेशक व सचिव पार्श्वनाथ विद्यापीठ वाराणसी तथा वर्तमान निदेशक प्राच्य विद्यापीठ शाजापुर से जो प्रेरणा, प्रोत्साहन एवं निर्देशन प्राप्त हुआ, तदर्थ कृतज्ञता ज्ञापन के लिए मेरे पास शब्द नहीं हैं। आपके निर्देशन कौशल से ही यह शोध प्रबन्ध इस रूप में लिखा जाना सम्भव हो सका। आप अत्यन्त व्यस्तता एवं अस्वस्थता के बावजूद भी सदैव तत्परता से मेरी समस्याओं का समाधान कर मुझे प्रोत्साहित करते रहे। श्रमणी विषयक यह इतिहास मेरी कल्पना या मस्तिष्क की कोरी उपज तो हो नहीं सकती, अतः सर्वाशतः कदापि मौलिक भी नहीं है, इसे लिखने में जिन पुस्तकों तथा विद्वान् मनीषियों की रचनाओं, कृतियों का किंचित् भी उपयोग हुआ है, उन सबके प्रति आभार प्रकट करना मैं अपना कर्त्तव्य समझती हूँ। प्रस्तुत लेखन में मुझे प्राच्य विद्यापीठ शाजापुर, महावीर जैन आराधना केन्द्र कोबा, जवाहरलाल नेहरू ग्रंथालय दिल्ली, बी. एल. इन्स्टीच्यूट दिल्ली, महावीर जैन लाइब्रेरी चाँदनी चौक, वीर सेवा मन्दिर दरियागंज, कुंदकुंद भारती नई दिल्ली, अध्यात्म साधना केन्द्र छतरपुर, करोलबाग, वीरनगर आदि दिल्ली के प्रसिद्ध ग्रंथालयों से पर्याप्त सहयोग मिला है। डॉ. वीणा जी पश्चिम विहार दिल्ली के अमूल्य सुझावों का भी उपयोग किया है, इन सबके प्रति हृदय से कृतज्ञ हूँ। तपागच्छ के मनस्वी आचार्य विजय मुनिचन्द्रसूरि जी महाराज तथा मुनि श्री भुवनचन्द्रसूरिजी महाराज, (कच्छ गुजरात) ने समय-समय पर मुझे श्रमणी विषयक महत्त्वपूर्ण सामग्री भेजकर उपकृत किया, उनकी निष्काम करूणा मेरे शोध-पथ को आद्यंत आलोकित करती रही, उनके चरणों में मैं सश्रद्ध प्रणत हूँ। भावनगर गुजराती संघ के प्रधान श्री कांतिभाई गोसलिया ने गुजराती स्थानकवासी श्रमणी विषयक सामग्री उपलब्ध करवाने में मुझे पूर्ण सहयोग दिया, उन्हें मैं हृदय से साधुवाद प्रदान करती हूँ। प्रथम अध्याय में अंकित चित्र एवं सप्तम अध्याय का मुद्रण करने में पार्श्व ऑफसेट प्रेस (xliv) Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दिल्ली की श्रद्धा-भक्ति निहित है, उनके प्रति मैं अपनी मंगल कामना प्रेषित करती हूँ। श्रीयुत् हीरालाल जी जैन, अरिहंत प्रिंट 'एन' ग्राफिक्स, मोहाली वालों का हार्दिक सहयोग तो सदा ही स्मृति में रहेगा, जिन्होंने अथक लगन एवं परिश्रम के साथ इस ग्रंथ को यथाशीघ्र मुद्रित किया। मैं भारतीय विद्या प्रकाशन के मालिक सुश्रावक श्री किशोर चन्द्र जैन जी एवं उनके सुपुत्र सुश्रावक श्री अजीत जैन जी को हार्दिक धन्यवाद देती हूँ जिनके अथक परिश्रम से यह पुस्तक प्रकाशित हो पायी है। जिन श्रमणियों ने परिचय-पत्र प्रेषित कर शोध-प्रबन्ध में सहयोग दिया, उनके प्रति भी मैं हृदय से कृतज्ञ हूँ । मेरे सुप्त मानस को जागृत कर शोध कार्य के लिए प्रेरित करने वाली विदुषी प्रज्ञावंत शिष्या प्रतिभाश्री जी 'प्राची' के अवदान को मैं विस्मृत नहीं कर सकती, साथ ही प्रज्ञाविभूति शिष्या साध्वी प्रियदर्शनाश्री जी 'प्रियदा', विचक्षणाश्री जी, तरूलता श्री जी, देशनाश्री जी आदि जिनके प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष सहकार से मेरा लेखन कार्य सम्पूर्ण हुआ, उन सबको धन्यवाद एवं शुभाशीर्वाद प्रदान करती हूँ । मेरी आदरणीय गुरूवर्या पंजाब प्रवर्तिनी श्री केसरदेवी जी महाराज, अध्यात्मयोगिनी महाश्रमणी श्री कौशल्या देवी जी महाराज, मेरी ज्येष्ठा गुरू भगिनी श्री विमलाश्री जी महाराज, डॉ. श्री सरोजश्री जी महाराज, डॉ. श्री मंजुश्री जी महाराज तथा मेरे संसारपक्षीय पिता अध्यात्मनिष्ठ श्रीमान् आनन्दीलालजी सा. मेहता उदयपुर माता श्रीमती रतनदेवी जी इन सबका वरद आशीर्वाद सदैव मेरे पथ को प्रशस्त करता रहा, उन्हें मैं किसी भी क्षण विस्मृत नहीं कर सकती। श्रमणियों के इतिहास को समय के अजस्र प्रवाह में पीछे लौट कर पहचानने की इस प्रक्रिया में मुझे अत्यधिक आनन्द की अनुभूति होती रही, साथ ही प्रेरणा भी मिलती रही, उन सब अक्षुण्ण श्रद्धा की कीर्तिस्तम्भ श्रमणियों को मैं प्रणाम करती हूँ। श्रमणियों का यह इतिहास बंधा हुआ सरोवर न होकर स्वच्छ सलिला का प्रवाह है जो यहीं समाप्त नहीं होता, भविष्य में भी यह गंगोत्री अजस्र रूप में प्रवाहित होती रहेगी......... I अपने श्रम- सीकरों से सिंचित इस शोध-प्रबन्ध को इतिहास प्रेमी / पाठकों प्रबुद्ध मनीषियों के कर-कमलों में समर्पित करते हुए मुझे आत्म परितोष का अनुभव हो रहा है । मैं अपने उद्देश्य में कहाँ तक सफल हुई हूँ, इसका निर्णय उन्हीं पर छोड़कर मैं अपनी लेखनी को यहीं विराम देती हूँ। 1 - साध्वी विजयश्री 'आर्या' (xlv) Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सांकेतिक शब्द-सूची अंचल. अन्तकृ. अ. ग्रं. आ. अंचलगच्छ अन्तकृद्दशांग सूत्र अभिनंदन ग्रंथ आचार्य आर्यिका इंदुमती अभिनन्दन ग्रंथ आवश्यक चूर्णि आवश्यक नियुक्ति आवश्यक वृत्ति उत्तराध्ययन सूत्र ऋषि संप्रदाय का इतिहास ऐतिहासिक जैन काव्य-संग्रह ऐतिहासिक जैन गुर्जर काव्य संचय ऐतिहासिक लेख-संग्रह खरतरगच्छ का इतिहास खरतरगच्छ दीक्षा नंदि सूची खरतरगच्छ बृहद्गुर्वावलि ज्ञाताधर्मकथासूत्र जिनशासननां श्रमणीरत्नो जीवाभिगम सूत्र जैन गुर्जर कविओ जैन पुराण कोष जैनधर्म का मौलिक इतिहास आ. इंदु. अ. ग्रं. आव. चू. आव. नि. आव. वृ. उत्तरा. ऋ. सं. इ. ऐ. जै. का. ऐ. जै. गु. का. सं. ऐ. ले. सं. ख. इ. ख. दी. नं. सू. ख. बृ. गु. ज्ञाता. श्रमणीरत्नो जीवाभि. जै. गु. क. जै. पु. को. जै. मो. इ. Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जै. शि. सं. जै. सा. बृ. इ. जैसल. तीर्थो. त्रि. श. पु. च. दशा. नि. दि. जै. सा. प. पु. هبه प्रा. प्रो. ने. و لهہ هہ जैन शिलालेख संग्रह जैन साहित्य का बृहद् इतिहास जैसलमेर तीर्थोद्गालिक त्रिषष्टि शलाका पुरूष चरित्र दशाश्रुतस्कंध नियुक्ति दिगंबर जैन साधु दृष्टव्य पद्मपुराण पृष्ठ प्राकृत प्रोपर नेम्स बृहद्कल्प नियुक्ति बृहद्कल्प भाष्य बीकानेर जैन लेख संग्रह भोगीलाल लहरचंद इन्स्टीट्यूट भगवतीसूत्र भगवान मध्यप्रदेश मद्रास व मैसूर के प्राचीन जैन स्मारक महापुराण महासती केसरदेवी गौरव ग्रंथ राजस्थानी हिन्दी हस्तलिखित ग्रंथों की सूची लेख संख्या विक्रम संवत् वीर संवत् श्वेताम्बर संपादक स्थानांग सूत्र हरिवंश पुराण हस्तलिखित हिन्दी जैन साहित्य का इतिहास बृ. भा. बी. जै. ले. सं. बी. एल. आई. भग. म. मै. जै. स्मा. म. पु. म. के. गौ. ग्रं. राज. हिं. ह. ग्रं. सू. ले. सं. वि. सं. वी. सं. श्वे. संपा. स्था . हस्त. हिं. जै. सा. इ. (xivit) Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ O प्राक्कथन. ० शोध संक्षेपिका. समर्पण. अनुशंसा मंगल संदेश अभिमत स्वकथ्य D सांकेतिक शब्द - सूची. अध्याय 1 : O विषय सूची O अध्यात्म प्रधान भारतीय संस्कृति. भारतीय संस्कृति की दो धाराएँ.. O श्रमण संस्कृति की प्राचीनता जैनधर्म के संदर्भ में. जैन श्रमण संस्कृति की विशेषता.. श्रमण धर्म की विभिन्न शाखाएँ एवं उनमें श्रमणी संस्था.. वैदिक धर्म में नारी संन्यास.. पूर्व पीठिका ( विभिन्न धर्मों में श्रमणी संस्था / जैन श्रमणी आचार/जैन कला स्थापत्य में श्रमणी दर्शन ) (i) वैदिक काल, (ii) उपनिषद् काल, (iii) महाकाव्य काल, (iv) मध्यकाल, (v) आधुनिक काल, (vi) नाथ सम्प्रदाय बौद्ध धर्म में भिक्षुणी संघ... (i) भिक्षुणी संघ एक परवर्ती घटना, (ii) स्त्री दीक्षा न देने का कारण, (iii) प्रमुख बौद्ध भिक्षुणियाँ, (iv) जैन और बौद्ध श्रमणियों में समानता के बिन्दु, (v) वैषम्य - बिन्दु ईसाई धर्म में संन्यस्त महिलाएँ. (iii) (vii)-(xv) (xvii) (xxi) (xxix) (xli) (xlvi) 1 - 96 3 3 4 5 6 8 12 17 Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - इस्लाम धर्म का नारियों के प्रति दृष्टिकोण............ 0 सूफी मत में संन्यस्त स्त्रियाँ ....... 0 विश्व धर्मों के साथ जैन श्रमणी संस्था की तुलना............. 0 जैन धर्म की चतुर्विध संघ व्यवस्था एवं उसमें श्रमणियों का स्थान......... दिगम्बर परम्परा में श्रमणी संस्था की उपेक्षा एवं उसके कारण ....... - जैन श्रमणी के पर्यायवाची नाम - अन्वर्थता एवं सार्थकता..... (i) श्रमणी, (ii) श्रमणा, (i) अश्रमणा, (iv) शमनी, (v) समणी, (vi) निर्ग्रन्थी, (vii) भिक्षुणी, (viii) संयतिनी, (ix) व्रतिनी, (x) साध्वी, (xi) आर्यिका, (xit) क्षुल्लिका - जैन श्रमणी संघ की आंतरिक व्यवस्था ... ............... 35 (i) प्रवर्तिनी पद : अर्थ, योग्यता व दायित्व (ii) महत्तरिका, (iii) गणिनी, (iv) गणावच्छेदिका, (v) अभिषेका, (vi) प्रतिहारी, (vii) स्थविरा, (vii) भिक्षुणी, (ix) क्षुल्लिका, (x) दिगंबर आर्यिकाओं को पद-व्यवस्था, (xi) श्वेताम्बर-दिगम्बर तुलना 0 श्रमणी संघ में प्रवेश के नियम ........ .............. 42 (i) प्रवेश के प्रेरक हेतु, (ii) आवश्यक योग्यता, (iii) आज्ञा प्राप्ति का विधान, (i) दीक्षा देने का अधिकार a जैन श्रमणी दीक्षा महोत्सव............ 0 जैन श्रमणियों के सत्तावीस गुण.. ........... - जैन श्रमणियों की आचार-संहिता ............ (i) आहार-ग्रहण, (ii) वस्त्र एवं उपकरण के नियम, (iii) वसति के नियम, (iv) केशलोच, (v) अन्य विशेष नियम, (vi) विचरण क्षेत्र, (vii) श्रमण-श्रमणी के पारस्परिक नियम, (viii) संलेखना, (ix) दिगंबर आर्यिकाओं के नियम • जैन श्रमणी संघ के इतिहास को जानने के साधन स्त्रोत.... (i) साहित्यिक स्रोत : आगम, आगमिक व्याख्या साहित्य, चरित काव्य, पट्टावली, स्थविरावली, पाण्डुलिपियाँ, ग्रंथ-प्रशस्ति, विज्ञप्ति-पत्र, सचित्र हस्तलेख, इतिहास ग्रन्थ (ii) अभिलेखीय स्रोत : खारवेल के अभिलेख, मथुरा के अभिलेख, देवगढ़ के ___ अभिलेख, मध्यप्रदेश के अभिलेख, दक्षिण भारत के अभिलेख (ii) पुरातात्त्विक स्रोत : प्रतिमा, गुफा, चरण पादुका । जैन कला एवं स्थापत्य में श्रमणी-दर्शन S .. 64 Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्याय 2 : प्रागैतिहासिक काल (तीर्थंकर ऋषभ से पार्श्व, आगम व्याख्या - साहित्य पुराण व कथा-साहित्य में जैन श्रमणी - दर्शन ) Q जैन श्रमणी संघ का उद्भव और विकास.. तीर्थकरकालीन श्रमणियों का समीक्षात्मक अध्ययन, ऋषभदेव से अर्हत् पार्श्व के काल तक की जैन श्रमणियाँ.. पार्श्व की परवर्त्ती जैन श्रमणियाँ .. आगम एवं आगमिक व्याख्यासाहित्य में वर्णित श्रमणियाँ.. जैन पुराण साहित्य में वर्णित जैन श्रमणियाँ... जैन कथा साहित्य में वर्णित जैन श्रमणियाँ अध्याय 3 : वर्तमान श्रमणी परम्परा और तीर्थंकर महावीर महावीर युग की श्रमणियाँ महावीरोत्तर युग की श्रमणियाँ. (i) गण-मुक्त, (ii) गण से अनुबद्ध अध्याय 4 : महावीर और महावीरोत्तर काल दिगम्बर परम्परा ( अतीत से वर्तमान) → श्वेताम्बर दिगम्बर परम्परा भेद.. दिगम्बर परम्परा का आदिकाल. दक्षिण भारत में जैन श्रमणियों का अस्तित्त्व 97-166 167 - 98 100 102 127 130 136 149 198 167 168 178 199 - 264 201 203 203 Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ a यापनीय सम्प्रदाय की श्रमणियाँ 9 भट्टारक परम्परा की आर्यिकाएँ । कर्नाटक प्रांत की आर्यिकाएँ. - तमिलनाडु प्रांत की आर्यिकाएँ. 2 उत्तर भारत की आर्यिकाएँ.. समकालीन आर्यिकाएँ एवं क्षुल्लिकाएँ......... . समकालीन दिगम्बर परंपरा की अवशिष्ट आर्यिकाएँ 2 समकालीन दिगम्बर परंपरा की अवशिष्ट क्षुल्लिकाएँ - गणिनी श्री विशुद्धमतीजी की संघस्था आर्यिकाएँ.... अध्याय 5 : 265-526 -श्वेताम्बर मूर्तिपूजक परम्परा (अतीत व वर्तमान) - खरतरगच्छ एवं उसकी विदुषी श्रमणियाँ 0 तपागच्छ एवं उसकी प्राचीन श्रमणियाँ.. .............. । समकालीन तपागच्छीय श्रमणियाँ...... ............... (i) आचार्य आनन्दसागर सूरीश्वर का साध्वी समुदाय (ii) आचार्य विजय रामचन्द्र सूरीश्वर जी का साध्वी समुदाय : श्री लक्ष्मीश्रीजी का शिष्या परिवार, श्री विद्याश्रीजी का शिष्या परिवार, श्री दर्शनश्रीजी का शिष्या परिवार (it) आचार्य विजय प्रेम भुवन भानुसूरीश्वरजी का श्रमणी समुदाय : प्रवर्तिनी श्री रंजना श्रीजी का शिष्या परिवार, प्रवर्तिनी श्री रोहिणा श्रीजी का शिष्या परिवार, प्रवर्तिनी श्री रोहिताश्रीजी का शिष्या परिवार (iv) आचार्य विजय जितेन्द्रसूरीश्वर जी का श्रमणी-समुदाय : श्री पुण्यरेखाश्रीजी का शिष्या परिवार (v) आचार्य विजय कलापूर्ण सूरिजी का श्रमणी समुदाय : श्री आनन्दश्रीजी का शिष्या परिवार, श्री चन्द्राननश्रीजी का शिष्या परिवार, श्री निर्मलाश्रीजी का शिष्या परिवार, श्री चन्द्रोदयाश्रीजी का शिष्या परिवार, श्री सुमतिश्रीजी का शिष्या परिवार, श्री उत्तम श्रीजी का शिष्या परिवार (vi) आचार्य विजयनेमि सूरीश्वरजी का श्रमणी समुदाय : श्री जिनेन्द्र श्रीजी का शिष्या परिवार, श्री प्रवीणाश्रीजी का शिष्या परिवार, श्री सूर्यप्रभाश्रीजी का शिष्या परिवार Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (vii) आचार्य श्री नीतिसूरीश्वरजी का श्रमणी समुदाय : श्री नवलश्रीजी का शिष्या परिवार (viit) आचार्य विजय सिद्धिसूरीश्वरजी (बापजी) का श्रमणी-समुदाय (ix) आचार्य विजयवल्लभसूरिजी का श्रमणी समुदाय (x) आचार्य विजय मोहन सूरिजी का श्रमणी समुदाय : प्रवर्तिनी गुलाब श्रीजी का शिष्या परिवार (xi) पंन्यास श्री धर्म विजयजी (डहेलावाला) का श्रमणी समुदाय (xii) आचार्य विजय लब्धिसूरिजी का श्रमणी-समुदाय (xiii) आचार्य विजय भक्ति सूरिजी का श्रमणी समुदाय : श्री हेमलता श्री जी का शिष्या समुदाय (xiv) आचार्य विजय केसर सूरीश्वर जी का श्रमणी समुदाय (v) आचार्य बुद्धिसागर सूरिजी का श्रमणी समुदाय (xvi) आचार्य हिमाचल सूरिजी का श्रमणी समुदाय (xvii) आचार्य शांतिचंद्र सूरिजी का श्रमणी समुदाय (xviii) आचार्य मोहनलालजी महाराज का श्रमणी समुदाय (xix) आचार्य विजय अमृतसूरीश्वर जी का श्रमणी समुदाय (xx) विमलगच्छ समुदाय (xxi) सौधर्म बृहत्तपागच्छीय श्रमणी-समुदाय - अंचलगच्छ की श्रमणियाँ.. (i) श्री जगतश्रीजी का शिष्या परिवार, (ii) अंचलगच्छ की अवशिष्ट श्रमणियाँ - उपकेशगच्छीय श्रमणियाँ.... - आगमिक गच्छ की श्रमणियाँ.... - पार्श्वचंद्रगच्छ की श्रमणियाँ... 0 प्रशस्ति-ग्रन्थों व हस्तलिखित प्रतियों में श्रमणियों का योगदान................ - अवशिष्ट श्रमणियों की तालिका....... ..................... (i) आचार्य आनंदसागर सूरीश्वर की श्रमणियाँ, (it) आचार्य विजय रामचन्द्रसूरिजी का श्री खांतिश्रीजी का शिष्या-परिवार, (it) आचार्य विजयनेमी सूरीश्वरजी का श्रमणियाँ, (iv) आचार्य नीतिसूरिश्वर जी की श्रमणियाँ. (v) आचार्य विजय सिद्धिसूरीश्वरजी (बापजी) की श्रमणियाँ, (vi) आचार्य वल्लभसूरिजी का श्रमणियाँ, (vii) आचार्य विजयलब्धि सूरिजी का श्रमणियाँ 0 0 0 0 Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्याय 6 : 527-800 स्थानकवासी परम्परा (धर्मक्रांति, वीर लोकाशाह, क्रियोद्धारक आचार्यों की श्रमणी परम्परा) . . . ............... 609 616 0 धर्मवीर लोकाशाह और उनकी धर्मक्रांति..... ............ 0 स्थानकवासी नामकरण. ............. - स्थानकवासी श्रमणियाँ.. .............. - लोकागच्छीय श्रमणियाँ..... a क्रियोद्धारक आचार्य श्री जीवराज जी महाराज की श्रमणी परम्परा............ (i) आचार्य श्री अमरसिंह जी महाराज का श्रमणी समुदाय, (ii) आचार्य श्री नानकरामजी की परम्परा का श्रमणी समुदाय, (iii) आचार्य श्री शीतलदास जी की परम्परा का श्रमणी समुदाय क्रियोद्धारक श्री लवजी ऋषि जी की परम्परा... ................ 545 (i) श्री कानजी ऋषि जी (महाराष्ट्र) का श्रमणी समुदाय, (ii) श्री हरिदास जी (पंजाब) का श्रमणी समुदाय, (iii) श्री ताराऋषिजी (खंभात) का श्रमणी समुदाय क्रियोद्धारक श्री धर्मसिंहजी महाराज (दरियापुरी) की श्रमणी परम्परा.. 0 क्रियोद्धारक श्री धर्मदास जी महाराज की श्रमणी परम्परा.................... (i) गुजरात परम्परा (लिंबड़ी अजरामर, लिंबड़ी गोपाल, गोंडल, बरवाला, बोटाद, कच्छ आठ कोटि मोटी पक्ष, नानी पक्ष) (ii) मालव परम्परा, (iii) मालवा की शाजापुर शाखा, (iv) मारवाड़ परम्परा, (v) मेवाड़ परम्परा - क्रियोद्धारक आचार्य श्री हरजी ऋषि जी की श्रमणी परम्परा ................ (i) कोटा सम्प्रदाय, (ii) साधुमार्गी सम्प्रदाय, (iii) दिवाकर सम्प्रदाय - हस्तलिखित ग्रन्थों में स्थानकवासी जैन श्रमणियों का योगदान ............ 0 उपसंहार. 0 अवशिष्ट श्रमणियों की तालिका......... (i) आचार्य अमरसिंह जी की श्रमणियाँ, (ii) आचार्य शीतलदासजी की श्रमणियाँ, (iii) आचार्य कानजी ऋषि जी की श्रमणियाँ, (iv) आचार्य हरिदासजी (पंजाबी) की श्रमणियाँ (श्री पद्मश्रीजी, श्री प्रियावतीजी, श्री प्रेमकुमारीजी, श्री शशिकान्ताजी, श्री मगनश्रीजी, श्री सुन्दरीजी, श्री मोहनदेवीजी, श्री कैलाशवतीजी, श्री स्वर्णकान्ताजी का शिष्या परिवार), (v) लींबड़ी अजरामर, (vi) गोंडल-संप्रदाय (श्री जेतुबाइ, श्री देवकुंवर बाई, श्री संतोकबाई, श्री मणीबाई पारवती बाई, गोंडल संघाणी, बोटाद की श्रमणियाँ), (vii) मालव परम्परा, (vii) मेवाड़ परम्परा, (ix) कोटा सम्प्रदाय, (x) साधुमार्गी सम्प्रदाय 671 691 719 720 Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्याय 7 : 801 - 984 । तेरापंथ परम्परा (आचार्य भिक्षु से आचार्य महाप्रज्ञ तक) 803 803 804 018 - तेरापंथ संघ की स्थापना... तेरापंथ संघ की श्रमणियाँ ......... 0 आचार्य भिक्षुकालीन श्रमणियाँ.......... o आचार्य भारमलजी के काल की श्रमणियाँ . - आचार्य रायचंदजी के काल की श्रमणियाँ ......... - आचार्य श्री जयाचार्य जी के काल की श्रमणियाँ. - आचार्य मघवागणी जी के काल की श्रमणियाँ. - आचार्य श्री माणक गणी जी के काल की श्रमणियाँ 0 आचार्य श्री डालगणी जी के काल की श्रमणियाँ. आचार्य श्री कालूगणी जी के काल की श्रमणियाँ... o आचार्य श्री तुलसीगणी जी के काल की श्रमणियाँ.. - आचार्य श्री महाप्रज्ञ जी के काल की श्रमणियाँ. - तेरापंथ समणी संस्था का विकास एवं अवदान........... 0 अवशिष्ट श्रमणियों की तालिका. 821 823 830 845 . . . . . . . 871 878 981 अध्याय 8 : 985-992 उपसंहार आभार प्रदर्शन 993-994 संदर्भ ग्रन्थ-सूची 995 - 1010 पत्र पत्रिकाएं 1011 Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्याय । पूर्व पीठिका Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भास.............................. 1.1 अध्यात्म प्रधान भारतीय संस्कृति .... 1.2 भारतीय संस्कृति की दो धाराएँ : ब्राह्मण संस्कृति और श्रमण संस्कृति .. 1.3 श्रमण संस्कृति की प्राचीनता जैन धर्म के संदर्भ में... 1.4 जैन श्रमण संस्कृति की विशेषता. 1.5 श्रमण धर्म की विभिन्न शाखाएँ एवं उनमें श्रमणी-संस्था ... 1.6 वैदिक धर्म में नारी-संन्यास......... 1.7 बौद्धधर्म में भिक्षुणी संघ....... 1.8 ईसाई धर्म में संन्यस्त महिलाएँ....... 1.9 इस्लाम धर्म का नारियों के प्रति दृष्टिकोण ................ 1.10 इस्लाम के सूफीमत में संन्यस्त स्त्रियाँ ......... 1.11 विश्व धर्मों के साथ जैन श्रमणी संस्था की तुलना..... 1.12 जैनधर्म की चतुर्विध संघ-व्यवस्था एवं उसमें श्रमणियों का स्थान.......... 1.13 दिगम्बर परम्परा में श्रमणी-संस्था की उपेक्षा एवं उसके कारण............... 1.14 जैन श्रमणी के पर्यायवाची नाम उनकी अन्वर्थता एवं सार्थकता............... 1.15 जैन श्रमणी संघ की आंतरिक व्यवस्था (विभाजन, पद, योग्यता, दायित्व, कर्त्तव्य )........ 1.16 श्रमणी-संघ में प्रविष्टि के नियम ..... 1.17 जैन श्रमणी दीक्षा-महोत्सव... ............................. 1.18 जैन श्रमणियों के सत्तावीस गुण............................................... 1.19 जैन श्रमणियों की आचार-संहिता ................ 1.20 जैन श्रमणी संघ के इतिहास को जानने के साधन-स्रोत 1.21 जैन कला एवं स्थापत्य में श्रमणी-दर्शन ........ Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्याय 1 पूर्व पीठिका 1.1 अध्यात्म प्रधान भारतीय संस्कृति भारतीय संस्कृति एक अध्यात्ममूलक संस्कृति रही है। वैदिक, औपनिषदिक साहित्य, जैन आगम और बौद्ध त्रिपिटक के द्वारा जो अध्यात्म-धारा भारतीय ऋषि-मुनियों ने प्रवाहित की थी वह आज भी विश्व के लिये प्रेरणास्रोत बनी हुई है। भारतीय संस्कृति का मूल संदेश दया, दान और इन्द्रिय दमन है। यद्यपि विदेशियों ने भारत पर अनेक बार आक्रमण किये, किंतु वे भारतीय संस्कृति के इन मूल तत्त्वों को नष्ट नहीं कर सके। भारतीय संस्कृति का अध्यात्म-दीप अनेक झंझावातों में भी सदा जलता रहा। 1.2 भारतीय संस्कृति की दो धाराएँ : ब्राह्मण संस्कृति और श्रमण संस्कृति भारतीय संस्कृति एक होते हुए भी मूलतः दो धाराओं में प्रवाहित हुई है-एक वैदिक संस्कृति और दूसरी श्रमण संस्कृति। ब्राह्मण संस्कृति का मूल आधार वैदिक साहित्य रहा है। वेदों में जो कुछ भी आदेश और उपदेश उपलब्ध होते हैं, उन्हीं के अनुसार जिस परम्परा ने अपनी जीवन-पद्धति का निर्माण किया, वह परम्परा वैदिक संस्कृति कहलाई और जिस परम्परा ने वेदों को प्रामाणिक न मानकर आध्यात्मिक ज्ञान, आत्म-विजय एवं आत्म-साक्षात्कार पर विशेष बल दिया वह श्रमण संस्कृति कहलाई। ब्राह्मण संस्कृति मूलतः प्रवृत्ति प्रधान संस्कृति रही है। भौतिक सुख-सुविधाओं की उपलब्धि ही उनका प्रधान और अंतिम लक्ष्य है, अतः उन्होंने ऐहिक जीवन में धन, धान्य पुत्र, सम्पत्ति आदि की प्राप्ति की कामना की, तो पारलौकिक जीवन में स्वर्ग प्राप्ति को ध्येय बनाया और यह सब देवताओं की कृपा व प्रसाद पर निर्भर है, ऐसा मानकर वे एक ओर देवताओं को प्रसन्न करने के लिये स्तुति और प्रार्थनाएँ करने लगे तो दूसरी ओर उन्हें बलि व यज्ञ द्वारा संतुष्ट करने लगे। इस प्रकार ब्राह्मण संस्कृति कर्मकाण्ड प्रधान संस्कृति रही। उपनिषदों के पूर्व वहाँ आत्मविद्या, तप, त्याग, मुक्ति संन्यास, मोक्ष जैसी शब्दावलियाँ दृष्टिगोचर नहीं होती। वेदों में संहिता के अन्तिम भाग में ईशावास्य आदि उपनिषद् मिलते हैं, वे विद्वानों की दृष्टि में परवर्ती काल में जोड़े गये हैं। श्रमण संस्कृति आत्मोन्नयन और त्याग तपस्या की संस्कृति है। 'श्रमण' का अर्थ है श्रम, शम, सम का साधक मुनि। श्रम अर्थात् तपस्या, साधना एवं स्वयं के पुरूषार्थ पर विश्वास, शम-स्वयं के राग-द्वेष का शमन करना, शांत * डॉ. सागरमलजी जैन, स्थानकवासी जैन परम्परा का इतिहास, पृ. 8 Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन श्रमणियों का बृहद इतिहास रहना और 'सम' का अर्थ है सभी जीवों के प्रति आत्मोपम्य दृष्टि रखना। श्रम, शम और सम ये तीन तत्त्व ही श्रमण संस्कृति के मूल आधार हैं। श्रमण संस्कृति के अनुसार प्रत्येक व्यक्ति अपने श्रम व सत्कर्मों से स्वयं परमात्मा बन सकता है। वह ईश्वर की कृपा पर निर्भर नहीं है उसका स्वयं का पुरूषार्थ उसे चरम स्थिति पर पहुँचा देता है। उसकी मूल साधना है-आत्मचिंतन अथवा भेदज्ञान। संक्षेप में, यह संस्कृति स्वातंत्र्य, स्वावलम्बन और आत्मा की सर्वोच्च शक्ति पर विश्वास करती है। यद्यपि ब्राह्मण-संस्कृति मूलतः प्रवृत्ति प्रधान संस्कृति रही है तथा श्रमण संस्कृति निवृत्ति प्रधान। किंतु यह समझना भ्रांति पूर्ण होगा कि आज वैदिक परम्परा शुद्ध रूप में प्रवृत्ति प्रधान है, आज उसने श्रमणधारा के अनेक तत्त्वों को अपने में समाविष्ट कर लिया है। अध्यात्म, संन्यास और वैराग्य के तत्त्वों को उसने श्रमण-परम्परा से न केवल ग्रहण किया है अपितु आत्मसात् भी कर लिया है इसी प्रकार यह कहना भी उचित नहीं होगा कि श्रमण-परम्परा वैदिक धारा से पूर्णतः अप्रभावित है। वस्तुतः एक ही देश और परिवेश में रहकर दोनों ही धाराओं के लिये यह सम्भव नहीं था कि वे एक-दूसरे के प्रभाव से अछूती रहें अत: आज के युग में कोई भी धर्म परम्परा न एकान्त निवृत्ति मार्ग की पोषक है और न एकान्त प्रवृत्ति मार्ग की। वस्तुतः भारतीय संस्कृति में इन दोनों स्वतंत्र धाराओं का संगम हो गया है, जिन्हें एक-दूसरे से पूर्णतया अलग नहीं किया जा सकता।' 1.3 श्रमण संस्कृति की प्राचीनता जैन धर्म के संदर्भ में श्रमण संस्कृति अत्यंत प्राचीन, उन्नत और गरिमामय है कुछ समय पूर्व यह इतनी प्राचीन नहीं मानी जाती थी, किंतु धीरे-धीरे अनुसंधानों के प्रकाश में यह भ्रम दूर होता गया। मोहनजोदड़ो, हड़प्पा तथा अन्य अवशेषों से यह सिद्ध हो गया कि आर्यों के आगमन के पहले भी भारत में एक समुन्नत संस्कृति प्रवहमान थी, जो श्रमण-संस्कृति अर्थात्, आर्हत संस्कृति थी। ऋग्वेद में 'अर्हन्' शब्द श्रमणों के लिये ही प्रयुक्त हुआ है। भारतीय वाङ्मय मे ऋग्वेद प्राचीनतम ग्रंथ माना जाता है, इसका एक पूरा अध्याय 'वातरशना मुनि' से संबंधित है। उसमें 'केशी' की स्तति की गई है, केशी वातरशना मुनियों के प्रधान थे, और वातरशना मुनि केशी ऋषभदेव की श्रमण-परम्परा के मुनि थे।' यहाँ यह भी उल्लेखनीय है कि वैदिक-परंपरा के धार्मिक गुरु 'ऋषि' कहलाते थे, जिनका वर्णन ऋग्वेद में बार-बार आया है। किंतु श्रमण-परम्परा के साधुओं को 'मुनि या श्रमण' कहा जाता था, जिनका उल्लेख वातरशना मुनियों को छोड़कर अन्यत्र कहीं दिखाई नहीं देता। इससे यह भी सिद्ध होता है कि वेदों में 'ऋषि' शब्द वैदिक परम्परा का एवं 'मुनि' शब्द श्रमण परंपरा का द्योतक रहा है।' वैदिक युग में वैदिक क्रियाकांड की विरोधी एक परम्परा का भी उल्लेख आया है, जिन्हें 'व्रात्य' कहा गया है। अथर्ववेद की शौनक शाखा की संहिता का 15वां काण्ड संपूर्ण 'व्रात्यकांड' ही है। आचार्य सायण ने इसकी भूमिका में व्रात्यों को विद्वत्तम, महाधिकार, पुण्यशील, विश्व सम्मान्य एवं ब्राह्मण-विशिष्ट कहा है। वैदिक-संस्कारों से हीन 'व्रात्य' शब्द श्रमण-परम्परा का ही एक अपर नाम रहा होगा। 'व्रत-नियमों' की पाल में सिमटा हआ होने के कारण ही उसे 'व्रात्य' कहा जाता होगा।' 1. वही, पृ8. 2. ऋग्वेद 10/11/136/1-7 सूक्त 3. श्रीमद्भागवत 5/3/20 4. ऋ. 10/11/136/2 5. अथर्ववेद, व्रात्यकांड 15 6. वही, सायण भाष्य की भूमिका 7. जैन दर्शन और साहित्य का इतिहास, डॉ. भागचन्द्र जैन, पृ. 12 Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पूर्व पीठिका वेदों में उल्लिखित अर्हन् वातरशना, केशी, व्रात्य, मुनि, श्रमण आदि शब्द श्रमण-परम्परा से घनिष्ठ संबंध रखते हैं। इससे यह द्योतित होता है कि ऐतिहासिक युग के प्रारंभ से ही श्रमण-परंपरा और वैदिक-परम्परा साथ-साथ प्रवहमान रही है। यद्यपि वर्तमान में जैन और बौद्ध दोनों श्रमण संस्कृति की शाखा है, किंतु इस प्राचीन श्रमण परंपरा में औपनिषद् और सांख्य योग की धाराएँ भी सम्मिलित थीं जो आज वृहद् हिंदू धर्म का अंग बन चुकी हैं। आजीविक आदि कुछ श्रमण-परम्पराएँ लुप्त भी हो गई हैं। 1.4 जैन श्रमण संस्कृति की विशेषता जैन श्रमण संस्कृति निर्दोष पुरूष अर्थात् राग-द्वेष अज्ञान आदि दोषों से रहित आप्त-पुरूषों की वाणी के आधार पर सृजित है। ऐसे पुरूष को सर्वज्ञ, परमात्मा, वीतराग, अरिहंत आदि नामों से जाना-पहचाना जाता है। जैन श्रमण संस्कृति का उद्घोष है कि आत्मा स्वरूपतः निर्मल और निर्विकार है। हमारे राग-द्वेष रूप परिणामों से आकृष्ट होकर कर्म पुद्गल आत्मा के मूल स्वरूप को आवृत कर लेते हैं। आत्मा की इस वैकारिक स्थिति को दूर करने के लिये संवर (नवीन कर्मों के आगमन को रोकना) और निर्जरा (पुरातन कर्मों का क्षय करना) की साधना अपेक्षित है। यह साधना चाहे ब्राह्मण हो या क्षत्रिय, वैश्य हो या शूद्र, स्त्री हो या पुरूष, जो भी कर्म-मुक्ति की इच्छा रखता है, वही कर सकता है। आत्मिक पुरूषार्थ द्वारा आत्मा को परमात्मा की स्थिति तक पँहुचाने का सभी को समान अधिकार है। जैन श्रमण संस्कृति की यही मूलभूत विशेषता है। जैन श्रमण संस्कृति की अन्य विशेषता अहिंसा की प्रतिष्ठा करना है। यहाँ क्रिया, वाणी और मानस में सर्वत्र, अहिंसा की अनिवार्यता प्रतिपादित की है। अहिंसा जैन संस्कृति के आचार और विचार का केन्द्र है। अहिंसा का जितना सूक्ष्म विवेचन और विशद विश्लेषण जैन संस्कृति में हुआ है, उतना विश्व की किसी भी संस्कृति में नहीं हुआ। यहाँ आमिष मात्र तो अग्राह्य है ही, यहाँ तक कि मिट्टी, पानी, अग्नि, वायु एवं वनस्पति में भी जीव का अस्तित्व मानकर श्रमण-श्रमणी के लिये उसके स्पर्श तक का निषेध किया है। आचार-विषयक अहिंसा का यह उत्कर्ष जैन श्रमण-संस्कृति के अतिरिक्त अन्य कहीं नहीं मिलता। जैन श्रमण संस्कृति समता प्रधान संस्कृति है। यह समता मुख्यतः तीन क्षेत्रों में देखी जा सकती है।(1) समाज विषयक (2) साध्य विषयक (3) प्राणी जगत विषयक।' समाज विषयक समता का अर्थ है-श्रेष्ठत्व और कनिष्ठत्व का आधार जाति, वर्ण, लिंग या वेष नहीं, अपितु गुण या कर्म है।1० अभ्युदय की क्षमता का समान होना साध्य विषयक समता है तथा प्राणीमात्र को आत्मवत् समझना प्राणी विषयक समता है। यह समता ही श्रमण-संस्कृति का प्राण है। समता के अनेक रूप हैं-आचार की समता अहिंसा है, विचारों की समता अनेकान्त है, समाज की समता 8. डॉ. सागरमलजी जैन, डॉ. विजय कुमार जैन, स्थानकवासी परंपरा का इतिहास, पृ. 10 9. देवेन्द्रमुनि शास्त्री, साहित्य और संस्कृति, पृ. 114 10. समयाए समणो होइ, बम्भचेरेण बम्भणो। नाणेण य मुणी होइ, तवेण होई तावसो।। -उत्तराध्ययन 25/30 Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन श्रमणियों का बहद इतिहास अपरिग्रह है और भाषा की समता स्याद्वाद है। अहिंसा, अनेकान्त, अपरिग्रह और स्याद्वाद जैन श्रमण संस्कृति के चतुर्विध आधार स्तम्भ हैं। 1.5 श्रमण धर्म की विभिन्न शाखाएँ एवं उनमें श्रमणी-संस्था प्राचीन जैन ग्रंथों में श्रमणों की 5 शाखाओं का उल्लेख मिलता है-(1) निग्गंठ-तीर्थंकर महावीर तथा उनके पूर्ववर्ती तीर्थंकरों के अनुयायी (2) सक्क अर्थात् शाक्य भगवान बुद्ध के अनुयायी (3) आजीवक-गोशालक मत के अनुयायी (4) तापस (5) गैरिक। पिछली दो शाखाओं के प्रवर्तकों के नाम प्राप्त नहीं होते। ये दोनों शाखाएँ कालान्तर में वैदिक या हिन्दू धर्म में विलीन हो गई। इन्हें वैदिक धर्म और हिन्दू धर्म में 'मुनि' अथवा 'वैदिक श्रमण' कहा गया है। इनकी सैंकड़ों संप्रदायें तथा उपसंप्रदायें हिन्दू समाज में बनी और बिखरीं। ऋग्वेद से प्रारंभ करके सभी वेद, ब्राह्मण आरण्यक, उपनिषद् तथा पुराणों में इनका वर्णन है। हिंदू धर्म की पूरी संत-परम्परा पर श्रमण विचार और आचार का प्रभाव बहुत स्पष्ट है। ईसा पूर्व छठी शताब्दी में भगवान महावीर की समकालीन पाँच अन्य श्रमण शाखाओं का भी उल्लेख जैन एवं बौद्ध ग्रंथों में आता है, वे थे-अक्रियावादी, अज्ञानवादी, नियतिवादी, अन्योन्यवादी एवं उच्छेदवादी। 1.5.1 अक्रियावादी अक्रियावाद के प्ररूपक पूरण काश्यप थे। ये काश्यप गोत्रीय नग्न श्रमण थे। उनकी मान्यता थी - "वस्त्र लज्जा निवारण के लिये धारण किया जाता है। जिसका मूल पाप प्रवृत्ति है, मैं उससे मुक्त हूँ। ‘क्रिया' जीव की स्वाभाविक प्रवृत्ति है, उससे न पुण्य होता है न पाप।" विद्वानों ने काश्यप पर भगवान महावीर के उपदेशों के प्रभाव की पुष्टि की है।" 1.5.2 अज्ञानवादी अज्ञानवाद के प्ररूपक संजय वेलट्ठिपुत्र थे, इनको बौद्ध ग्रंथों में मौद्गलायन और सारिपुत्त का गुरु कहा है, वह पार्श्वनाथ की शिष्य-परम्परा का एक जैन मुनि था, जो चारण ऋद्धिधारी था। उसका कहना था - "परलोक है भी और नहीं भी, परलोक न है और न नहीं है। अच्छे-बुरे कर्म का फल है भी और नहीं भी, न है और न नहीं है।" संजय वेलट्ठिपुत्र के वाद को बौद्ध ग्रंथों में अनिश्चिततावाद और जैन आगमों में 'अज्ञानवाद' कहा गया है। 1.5.3 आजीविक मत या नियतिवादी आजीवक संप्रदाय का मूल स्रोत भी श्रमण परम्परा में निहित है। इनके आचार का वर्णन 'मज्झिमनिकाय' में मिलता है। वे वस्त्र रहित होते थे, हाथों में भोजन करते थे, अपने लिये बनवाया आहार नहीं लेते, मत्स्य, मांस, मदिरा, 11. आचार्य देशभूषण जी, भ. महावीर और उनका तत्त्वदर्शन, अ. 4, पृ. 469-70 12. सूत्रकृतांग 1/6/27; 1/12/1-2 13. मज्झिमनिकाय भाग.1 संदक सुत्तन्त 2/3/6 Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पूर्व पीठिका - मैरेय और खट्टी कांजी को स्वीकार नहीं करते, इत्यादि आचार-विचारों से स्पष्ट है कि वे महावीर के आचार से पूर्ण प्रभावित थे। उनकी मान्यता थी " जो होनहार है वही होता है। अन्यथा कुछ नहीं हो सकता । ज्ञान से मुक्ति नहीं होती, अज्ञान ही श्रेष्ठ है, उसीसे मोक्ष की प्राप्ति होती है। देव या ईश्वर कोई नहीं है, अतः स्वेच्छा पूर्वक शून्य का ध्यान करना चाहिये।" गोशालक ने आजीविक मत का खूब विस्तार किया, उसे कोशलदेश के राजा प्रसेनजित का भी समर्थन मिला। सम्राट् अशोक द्वारा आजीविक संघ के लिये गुफाएँ बनाने का भी उल्लेख प्राप्त होता है। 15वीं शताब्दी तक यह संप्रदाय दक्षिण के जैन संघ में विलीन हो गया प्रतीत होता है। उत्तर भारत में वे हिंदू समाज के तापस संप्रदाय में सम्मिलित हो गये लगते हैं। 14 1.5.4 अन्योन्यवादी इसके प्ररूपक प्रकुध कात्यायन थे, जो कि महात्मा बुद्ध से पूर्व हुए थे और जाति से ब्राह्मण थे, उनकी विचारधारा पर भी पार्श्व मन्तव्यों का स्पष्ट प्रभाव दृष्टिगोचर होता है। वे शीतल जल में जीव मानकर उसके उपयोग को धर्म विरूद्ध मानते थे। जो पार्श्वनाथ की श्रमण परम्परा से प्राप्त है। उनकी कुछ अन्य मान्यताएँ भी पार्श्वनाथ की मान्यताओं से मेल खाती है। 1.5.5 उच्छेदवादी इस मत के प्रवर्तक अजित केशकम्बल भी पार्श्व प्रभाव अछूते दिखाई नहीं देते । यद्यपि उन्होंने पार्श्व के सिद्धान्तों को विकृत रूप में प्रगट किया था, फिर भी वे वैदिक क्रियाकाण्ड के कट्टर विरोधी थे। वे दान, यज्ञ, हवन का विरोध करते थे, स्वर्ग-अपवर्ग को नहीं मानते थे, उनका कथन था कि चार भूत से शरीर उत्पत्ति होती है और मृत्यु के पश्चात् सब विलीन हो जाता है। " इनमें आजीविक आदि संप्रदाय तो महावीर के संघ से भी विस्तृत थे, किंतु परिस्थितियों के वात्याचक्र से जैन एवं बौद्धों के अतिरिक्त ये श्रमण संप्रदाय काल के गर्भ में विलीन हो गये। वर्तमान मे उनका साहित्यिक रूप ही उपलब्ध है, साहित्य नहीं । श्रमण संस्कृति की उक्त सभी शाखाओं के संस्थापक प्रभावशाली धर्मनायक थे। बौद्ध साहित्य में इन सबको तीर्थंकर, संघ-स्वामी, गणाचार्य, ज्ञानी और यशस्वी के रूप में वर्णित किया है।" किंतु किसी भी धर्माचार्य ने स्त्री को दीक्षा प्रदान की हो, ऐसा संकेत कहीं भी उपलब्ध नहीं होता । यद्यपि ये सभी धर्माचार्य भगवान महावीर के समकालिक रहे हैं, तथापि इनके संघ में स्त्रियों के प्रति उदारतावादी दृष्टिकोण का अभाव ही रहा। यद्यपि श्रमण परम्परा की 'गेरूअ' अथवा 'गैरिक' शाखा में गृहत्यागी महिलाओं के उल्लेख प्राप्त होते हैं, उनको ‘परिव्राजिका' कहा जाता था। जैन आगम ज्ञातासूत्र में ऐसी चोक्षा परिव्राजिका का उल्लेख है, वह वेदों की ज्ञाता एवं 14. आचार्य हस्तीमल जी महाराज, जैन धर्म का मौलिक इतिहास, भाग 1 पृ. 730, 736 15. अण्णाणाओ मोक्ख, एवं लोयाण पयडमाणो हु । देवो अ णत्थि कोई, साएह इच्छाए 11 भावसंग्रह, गाथा 178 16. दीघनिकाय, सामञ्ञफलसुत्त 7 Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन श्रमणियों का बृहद इतिहास परम पंडिता थी, परिव्राजिकाओं में अग्रणी थी, गेरू से रंगे हुए वस्त्र पहनती थी, दानधर्म, शौच एवं तीर्थस्नान को महत्व देती थी, त्रिदंड, कमंडलु मयुरपिच्छ का छत्र, छन्नालिक (काष्ठ उपकरण) अंकुश (वृक्ष के पत्ते तोड़ने का उपकरण), पवित्री (धातु की अंगूठी) और केसरी (प्रमार्जन करने का वस्त्र खंड) ये सात उपकरण उसके हाथ में रहते थे। व्यवहारभाष्य में भी परिव्राजिकाओं के उल्लेख आते हैं। ये परिव्राजिकाएँ जैन साध्वियों को संयम मार्ग से च्युत भी कर देती थीं। चोक्षा परिव्राजिका के विषय में उल्लेख है, कि 19वें तीर्थंकर मल्लिकुंवरी की अतिशय रूप-सौंदर्य की प्रशंसा पांचाल जनपद के कांपिल्यपुर नगर के राजा जितशत्रु के सन्मुख करके उसने राजा के मन में मल्लिकुंवरी को पाने की अभीप्सा पैदा करवा दी थी। ये परिव्राजिकाएँ विद्या, मंत्र जड़ी-बूटी आदि देती थीं और जंतर-मंतर भी करती थीं। फिर भी इनकी न तो कोई संघीय व्यवस्था थी न इनका श्रमणी रूप, जो तप, त्याग, वैराग्य से विभूषित होना चाहिये, वह था। इस प्रकार श्रमण संस्कृति की विभिन्न शाखाओं में श्रमणी-संघ का अध्ययन करने के पश्चात् हम वर्तमान में प्रचलित देश के विभिन्न धर्म-वैदिक, बौद्ध, ईसाई, इस्लाम, सूफी आदि में नारी के संन्यस्त रूप पर एक दृष्टिक्षेप करेंगे। 1.6 वैदिक धर्म में नारी-संन्यास 1.6.1 वैदिक काल (ईसा पूर्व 2 हजार से) वैदिक धर्म ऋग्वेद काल से प्रारम्भ होता है, उस काल में हमें बहुत सी ब्रह्मवादिनी स्त्रियों के उल्लेख मिलते हैं, जिन्होंने ऋषियों की तरह ही मंत्रों का साक्षात्कार किया था। महर्षि कश्यप की पत्नी और देवताओं की माता 'अदिति',9 अगस्त्य की पत्नी लोपामुद्रा, अत्रिकुल की 'विश्ववारा 20 व 'अपाला', घोषा-काक्षिवती, दक्षिणा प्रजापत्या, रोमशा कक्षीवान्24, बृहस्पति पत्नी 'जूहू 5, सूर्या-सावित्री आदि ने वैदिक ऋचाएँ व्यक्त की हैं। कन्या वागाम्भृणी तो अद्वैतवाद की जननी थीं। श्री शंकराचार्य ने इसी के सूक्त से प्रेरणा प्राप्त कर अद्वैतवाद का प्रचार किया था।” इस प्रकार विविध मंत्रों का साक्षात्कार करने वाली 25 महान नारियों की ऋचाएँ ऋग्वेद में मौजूद हैं। ये सभी उच्चकोटि की विदुषी एवं ब्रह्मवादिनी नारियाँ थीं, जिन्होंने शिक्षा, ज्ञान और विद्वत्ता के क्षेत्र में महान योगदान किया। किंतु इनका संन्यासी रूप कहीं देखने को नहीं मिलता। वस्तुत: वैदिक काल में संन्यास आश्रम की कोई निश्चित् सूचना भी उपलब्ध नहीं होती।28 1.6.2 उपनिषद् काल (ईसा की आठवीं से पाँचवीं शताब्दी के पूर्व) उपनिषत्काल में आश्रम-व्यवस्था की स्थापना के साथ-साथ प्रत्येक आश्रम के कर्त्तव्य और धर्म पृथक्-पृथक् निर्धारित हुए थे। मनुष्य के जीवन को सौ वर्ष का मानकर अंतिम चतुर्थ भाग में संन्यास आश्रम का विधान किया 17. ज्ञातासूत्र 1/8 18. व्यवहार-भाष्य, गा. 2848, 2862-63 । 19-27. देखिए-ऋग्वेद संहिता क्रमश 10/72/1-9; 5/28/1-6; 8/91/1-7; 10/39/1-14; 10/107/1-11; 1/126/1-7; 10/109/1-73 10/85/1-47; 10/125/1-8 28. 'सप्तत्या ऊर्ध्वं सन्यासमुपदिशन्ति' (बौधायन धर्मसूत्र 2/10/3-6) Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पूर्व पीठिका गया था।" इस आश्रम के द्वारा मनुष्य अपने चरम लक्ष्य मोक्ष की प्राप्ति कर सकता है। किंतु यह विधान पुरूषों के लिये ही था, स्त्रियों के लिये नहीं । वैदिक युग में जिन नारियों को उपनयन (यज्ञोपवीत धारण करना) करने, वेद पढ़ने, साथ ही यज्ञ करने और कराने के अधिकार प्राप्त थे, उत्तरवर्ती काल में वह उन संपूर्ण अधिकारों से वञ्चित हुई देखी जाती हैं। पाणिनी ने वैदिक शाखाओं की स्त्रियों के लिये 'उपाध्याय' के साथ 'उपाध्यायी' तथा 'उपाध्यायानी' शब्द दिया है। 30 इन शब्दों से यह सिद्ध होता है कि उस समय स्त्रियाँ वेद-शास्त्रों का अध्ययन एवं अध्यापन करने का सम्मानजनक कार्य करती थी, किंतु आगे चलकर जैसे पुरूषों को ब्रह्मचर्य आश्रम में गुरूकुल में रहकर गुरू की सेवा करने का निर्देश था, वैसे स्त्रियों के लिये ब्रह्मचर्य या गुरूकुल में रहकर विद्याध्ययन करना अधर्म समझा जाने लगा। मनुस्मृति में तो यहाँ तक कह दिया कि 'कन्या के लिये विवाह ही उपनयन संस्कार है । पतिसेवा ही गुरूकुलवास है और गृहस्थी के कार्य ही अग्नि परिक्रिया है । " नारी का उचित धर्म है, अपनी जाति के पुरूषों से सन्तानोत्पति करना। पति को देवतुल्य मानकर उसकी आज्ञा का पालन करना, उसकी सेवा शुश्रूषा में सतत संलग्न रहना; इसके लिये नारी को विवाह करना अनिवार्य है। अविवाहित स्त्री मोक्ष प्राप्त नहीं कर सकती। ऋषि कूणि की पुत्री सुश्रू ने कठोर तपस्या की, तप करते-करते वह जरा जीर्ण अवस्था को प्राप्त हो गई तथापि वह इसलिये मोक्ष में नहीं जा सकी, चूंकि वह अविवाहित थी। निदान उसने अपनी तपस्या का अर्द्धभाग ऋषि श्रृंगी को प्रदान कर उनसे विवाह किया। सुभ्रू एक रात अपने पति के पास रही उसके बाद ही वह स्वर्ग में जा सकी। 32 वसिष्ठ तथा बौधायन धर्मसूत्र में वर्णन है कि मनुष्य तीन ऋणों से ऋणी होकर जन्म ग्रहण करता है - ऋषिऋण, देवऋण और पितृऋण। स्वाध्याय द्वारा ऋषिऋण, यज्ञ द्वारा देवऋण एवं प्रजनन द्वारा पितृऋण से उऋण हुआ जा सकता है। इनमें से दो ऋणों से मुक्ति प्राप्त करने के लिये गृहस्थाश्रम यानि विवाह करना अनिवार्य है।” गृहस्थाश्रम के कर्त्तव्य पूर्ण करने के पश्चात् वानप्रस्थ आश्रम में वह चाहे तो स्वेच्छा से अपने पति के साथ जा सकती है। किंतु संन्यास आश्रम में वह पति के साथ भी प्रवेश नहीं कर सकती। ऋषि अत्रि का कथन है कि जो स्त्री को संन्यास में प्रविष्ट कराता है, वह पुरुष पाप का भागी है। वह दंड के योग्य है। वहां नारी एवं शुद्र के लिये छः कार्य वर्जित कहे हैं - (1) जप (2) तप ( 3 ) प्रव्रज्या (4) तीर्थयात्रा (5) मन्त्र - साधन (6) देवताराधन 1 34 उपनिषदों में नारी संन्यास के कतिपय उदाहरण : पी. वी. काणे ने अपने 'धर्मशास्त्र का इतिहास' में कहा है कि ब्राह्मणवादी काल में कभी-कभी नारियाँ भी संन्यास धारण कर लेती थीं उन्होंने मिताक्षरा द्वारा बौधायन के एक सूत्र " स्त्रीणा चैके " का उद्धरण देते हुए लिखा है कि कुछ आचार्यों के मत में नारियाँ भी संन्यास आश्रम प्रविष्ट हो सकती थीं । पतञ्जलि के महाभाष्य में 'शंकरा' 29. अष्टाध्यायी 4/1/48 30. वैवाहिको विधि: स्त्रीणां संस्कारो वैदिक स्मृतः । पतिसेवा गुरौवासः गृहार्थोऽग्नि परिक्रिया ।। -मनुस्मृति 2/67 31. अष्टाध्यायी 4/1/48 32. महाभारत, शल्यपर्व 52/3-9 33. युक्तः स्वाध्याये यज्ञे प्रजनने च वसिष्ठ धर्मसूत्र 8 / 11 34. डॉ. प्रीतिप्रभा गोयल, भारतीय संस्कृति, पृ. 136-37 9 Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन श्रमणियों का बृहद इतिहास नाम की एक परिव्राजिका का उल्लेख आता तथा कालिदास रचित नाटक 'मालविकाग्निमित्र' में पंडिता 'कौशिकी' को संन्यासी के वेश में दर्शाया है। 35 कैवल्योपनिषद् (3) का उद्धरण देते हुए उन्होंने कथन किया है कि "न तो कर्मों से, न सन्तानोत्पत्ति से और न धन से ही बल्कि त्याग से कुछ लोगों ने मोक्ष प्राप्त किया । " ऐसे त्याग के लिये शूद्रों एवं नारियों दोनों को छूट है। 36 विनोबा जी ने नारियों के त्याग में सर्वोत्तम त्याग याज्ञवल्क्य की पत्नी मैत्रेयी का बताया है। 7 'मैत्रेयी' ब्रह्मवादिनी थी, वह सत्य ज्ञान की खोज में रहा करती थी, उसने अपने पति से ऐसा ज्ञान मांगा जो उसे अमर कर सके। उसने याज्ञवल्क्य से आत्मज्ञान प्राप्त कर समस्त संपत्ति का त्याग कर दिया और पति के साथ ही वन की ओर प्रस्थान कर गई 1 38 इसी प्रकार वचक्नु ऋषि की कन्या 'वाचक्नवी' (गार्गी) भी अत्यन्त ब्रह्मनिष्ठ थीं और परमहंस की तरह विचरण किया करती थीं। दैवराति जनक की सभा में इनका याज्ञवल्क्य के साथ शास्त्रार्थ हुआ था। कहा जाता है, गार्गी ने प्रश्नों की ऐसी बोछार की कि याज्ञवल्क्य की बुद्धि भी चकरा उठी थी। ऋग्वेदियों के ब्रह्मयाग तर्पण में भी गार्गी का नाम आता है। 39 देवहूति कर्दम ऋषि की पत्नी थी, एवं भगवान कपिल की माता थी । पुत्र के द्वारा इन्हें आत्मज्ञान की प्राप्ति हुई, अनुपम गार्हस्थ्य सुख का त्याग कर ये सरस्वती नदी के किनारे समाधि में स्थित हो गई । जीव भाव से निवृत्त होकर सदा के लिये परमानंद में लीन हो गई । 40 1.6.3 महाकाव्य काल ( ईसा पूर्व पहली से पाँचवीं शताब्दी) वैदिक एवं लौकिक साहित्य के मध्यवर्ती युग में दो महाकाव्य रामायण और महाभारत का सृजन हुआ। रामायण के कर्त्ता ‘महर्षि वाल्मिकी' थे और महाभारत के 'कृष्ण द्वैपायन व्यासऋषि' । यद्यपि रामायण में आश्रम व्यवस्था रूचिर रूप दर्शाया गया है, किंतु वहाँ आश्रम - व्यवस्था के अनुकूल ही अपने जीवन को संचालित करने का विधान है, आश्रम - व्यवस्था का अतिक्रमण निन्दनीय माना गया है। रामायण में चारों आश्रमों को जीवन के एक विभाग के रूप में स्वीकार करके भी गृहस्थाश्रम को सर्वश्रेष्ठ कहा है ।" इस प्रकार रामायण गृहस्थाश्रम का ही महनीय गान है, तथापि वानप्रस्थ एवं संन्यास आश्रम के अनेक प्रसंग उसमें उपलब्ध हो जाते हैं। 12 जैसे एक जगह सीता के सम्मुख पंचवटी में रावण का 'परिव्राजकवेश' संन्यासी के रूप को स्पष्ट करता है। इसी प्रकार शबरी को वाल्मिकी रामायण 35. पी. वी. काणे, धर्मशास्त्र का इतिहास, भाग 1, पृ. 497, प्रकाशन-हिंदी भवन, एम जी रोड़, लखनऊ 36. वही भाग प्रथम, पृ. 498 37. विनोबा, स्त्री-शिक्षा, पृ. 37 38. येनाहं नामृतास्यां किमहं तेन कुर्याम् । यदेव भगवान वेद, तदेव मे ब्रूहीति- बृहदारण्यक 4/5/116-125 39. बृहदारण्यकोपनिषद् 63,64, 67, 69 से 73 दृष्टव्यः विनोबा : वेदांत - सुधा, पृ. 510 40. श्रीमद् भागवत, तृतीय स्कन्ध, 33/12-27 41. चतुर्णामाश्रमाणं हि गार्हस्थ्यं श्रेष्ठमुत्तमम् - वाल्मिकी रामायण 2/126/22 42. हस्तादानो मुखादानो नियतो वृक्षमूलिक : वानप्रस्थो भविष्यामि .. 43. वही, 3/46/3 10 ..इत्यादि । - वाल्मिकी रामायण 5/23/38 Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पूर्व पीठिका में धर्मचारिणी धर्मनिपुणा 'श्रमणा' कहकर संबोधित किया है। राम उसके समक्ष श्रमण धर्म की व्याख्या कर आत्मसमाधि के द्वारा पुण्यस्थान (निर्वाण) प्राप्त करने की चर्चा भी करते हैं। रामायण काल की एक विदुषी संन्यासिनी 'सुलभा' द्वारा राजा जनक के साथ मोक्षविषयक चर्चा होने का भी प्रसंग विनोबा भावे ने लिखा है। किंतु साथ में यह भी लिखा है, कि जनक ने उसे 'ब्राह्मणी संन्यासिनी' समझा किंतु सुलभा ने बताया कि वह एक क्षत्रिय कन्या है और योग्य पति न मिलने के कारण उसने मुनिव्रतों को ग्रहण किया। अब महाभारत काल लें, उसमें भी चारों आश्रमों, उनके क्रम, आश्रमधर्म आदि के उल्लेखों में संबंधित संन्यासियों की आचार-संहिता, संन्यासधर्म आदि पर विस्तृत चर्चा की गई है साथ ही क्रम उल्लंघन करने पर निंदा भी की गई है। इस प्रकार जहाँ वैदिक काल में वेद-सूक्तों की निर्माता नारियाँ भी भिक्षुणी या संन्यासिनियाँ नहीं बनती थीं, वहीं उपनिषद् काल के पश्चात् कतिपय नारियों का भिक्षुणी या संन्यासिनी आदि रूप देखने को मिलता है जो ब्राह्मण संस्कृति पर श्रमण संस्कृति के प्रभाव को परिलक्षित करता है। मैक्समूलर, एस. सी. राय चौधरी, डॉ. राधाकृष्णन् प्रभृति विद्वानों का कहना है कि "उपनिषदों का निर्माण भगवान पार्श्वनाथ के पश्चात् हुआ है, उन पर श्रमण संस्कृति का गहरा प्रभाव पड़ा, यही कारण है कि उपनिषदों में संन्यास आश्रम की विस्तृत चर्चा है।"47 1.6.4 मध्यकाल (छठी से 18वीं सदी) मध्यकाल में हिंदूधर्म की नारी को संन्यासियों के समान ब्रह्मचर्य व्रत पालन का अधिकार नहीं रहा न संन्यास का, उनका स्थान केवल घर-परिवार तक सीमित हो गया था, वे अपने पति की वासना-तृप्ति के लिये ही थीं, पति शराबी हो या दुराचारी परन्तु भारतीय नारी के लिये वह परमेश्वर और गुरू तुल्य माना जाने लगा। मारवाड़ में मीराबाई (ई. 1498-1547), महाराष्ट्र में मुक्ताबाई, उत्तरप्रदेश में सहजोबाई, कर्नाटक में अक्क-महादेवी आदि कई भक्त शिरोमणि संत-स्त्रियाँ निकलीं, लेकिन इनकी मर्यादा थी। संन्यासिनी बनने के लिये मीरां को जहर का प्याला पीना पड़ा, अनेक प्रकार की सामाजिक प्रतिबन्धक बेड़ियों ने उनका मार्ग अवरूद्ध करना चाहा, उनका सामाजिक बहिष्कार भी किया गया, फिर भी वे अंत तक कृष्ण प्रेम में पगी रहीं। रामकृष्ण परमहंस के संप्रदाय में केवल एक स्त्री को दीक्षा दी गई और वह थी स्वयं रामकृष्ण परमहंस की पत्नी शारदादेवी। उनके सिवा अन्य किसी स्त्री को दीक्षा देने का उल्लेख नहीं मिलता।48 1.6.5 आधुनिक काल (19वीं से अद्यतन) यद्यपि हिंदूधर्म में स्त्रियों के लिये संन्यास के द्वार अवरूद्ध हैं, तथापि कुछ प्रेमाभक्ति से ओतप्रोत विदुषी महिलाएँ वर्तमान में प्रसिद्धि को प्राप्त हुई हैं, जिनमें ब्रज की अपूर्व भक्तिमती उषा जी (पू. बोबो)", मां आनन्दमयी 44. स चास्य कथयामास शबरी धर्मचारिणीम्।। श्रमणां धर्म निपुणामभिगच्छेति राघवः।। -वाल्मिकी रामायण 1/1/56 45. स्त्री-शिक्षा, विनोबा, पृ. 37 46. महाभारत 12/192/33; 12/191/8 47. जैन साहित्य के इतिहास की पूर्व पीठिका, पं. कैलाशचन्द्र शास्त्री, पृ. 71 48. विनोबा, स्त्री शिक्षा.. पृ. 21 49. ब्रज विभव की अपूर्व श्री भक्तिमती उषाजी (पू. बोबो): विजय एम. ए, ब्रजनिधि प्रकाशन वृंदावन, 1994 ई. 50. मा आनन्दमयी : डॉ. पन्नालाल, आनंदमयी आश्रम, बी-2-94 भदेनी, बनारस, ई. 1992 Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन श्रमणियों का बृहद इतिहास (ई. 1896-1956), काशी की विशिष्ट साधिका श्री सिद्धिमाता" (सं. 1942), कृष्णानंद गिरि उर्फ 'मौनी मां'2, वृन्दावन में बांके बिहारी वकील की शिष्या श्री कृष्णा जी, संत श्री ललिता जी4, संत श्री संतोष जी, सरला जी जिनके विषय में चक्रधर बाबा का कथन है कि 'वृन्दावन में सौ महात्माओं के दर्शन करने के समान इन दो सहेलियों के दर्शन कर लेना है। श्री दुर्गी मां आदि अनेकों जीवन्मुक्त साधिका के रूप में प्रसिद्धि प्राप्त संत महिलाएँ हुई हैं, जिनका सारा समय भगवद्भक्ति हरिकीर्तन एवं चर्चा में ही व्यतीत होता था, ये वैराग्य और तितिक्षा पूर्ण जीवन यापन करती हुई हजारों लोगों की श्रद्धा पात्र बनी हैं। वर्तमान में प्रजापिता ब्रह्माकुमारियाँ गृहवास का त्याग कर ब्रह्मचर्य का पालन करती हुई समाज की आध्यात्मिक उत्क्रांति के लिये एक सराहनीय कार्य कर रही हैं। यह संस्था हैदराबाद सिन्ध के दादा लेखराज एवं उनकी पत्नी जसोदा द्वारा स्थापित की गई थी। 1.6.6 नाथ-संप्रदाय हिंदूधर्म में एक परम्परा नागा साधु-संन्यासिनियों की चल रही है। ये मूलतः नाथ संप्रदाय से संबंधित मानी जाती हैं, ये गुफाओं में रहकर एकान्त साधना करती हैं। भूतकाल में अनेक शक्तिस्वरूपा देवियाँ थीं, जो नग्न रूप में साधना करती थीं, आज से 60 वर्ष पूर्व भी उनकी साधना इसी प्रकार चलती थी, उनकी दीक्षा-विधि नग्न रूप में पर्दा लगाकर दी जाती है। वर्तमान सामाजिक, राजनैतिक वातावरण में उनके गुरू उन्हें वस्त्र धारण की अनुमति देते हैं, अतः वे जब गुफा से बाहर निकलती हैं, तब वस्त्र सहित निकलती हैं। नाथ सम्प्रदाय पर भगवान पार्श्वनाथ की परम्परा का प्रभाव है यह परम्परा भगवान आदिनाथ, नेमिनाथ, पार्श्वनाथ आदि को भी मानती रही है। उपसंहार इन सब उच्चकोटि की साधिकाओं, भक्तिमती महिलाओं की उपस्थिति हिंदूधर्म में उपलब्ध होने पर भी संपूर्ण वैदिक व ब्राह्मण धर्म का हार्द गृहस्थाश्रम की ही प्रतिष्ठा करना रहा है, उसी की बहुमुखी प्रशंसा से श्रुति, पुराण, स्मृति एवं महाकाव्य आद्यन्त व्याप्त है। शूद्रों एवं स्त्रियों को तो संन्यास अथवा वैराग्य ग्रहण करने का अधिकार ही नहीं है। सारांश रूप में हम कह सकते हैं कि वैदिकधर्म में संन्यस्त महिलाओं का सर्वग्राह्य , संगठित और आत्मलक्ष्यी रूप दृष्टिगोचर नहीं होता। 1.7 बौद्धधर्म में भिक्षुणी संघ 1.7.1 बौद्धधर्म में श्रमणी-संघ का विकासः एक परवर्ती घटना महावग्ग का एक हिस्सा 'चुल्लवग्ग' है, उसके दसवें अध्याय में बौद्ध भिक्षुणी संघ की स्थापना की कथा है। तथागत बुद्ध ने जिस समय अपने धर्मचक्र का प्रवर्तन किया उस समय उन्होंने भिक्षु संघ की ही स्थापना की थी और 51. श्री श्री सिद्धिमाता : राजबालादेवी, चौखम्बा विद्याभवन चौंक, बनारस, 1992 ई 52. वही, पृ. 111 53-56. ब्रज विभव की भक्तिमती उषाजी, पृ. 305, 359, 361, 362 Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पूर्व पीठिका उसके विस्तार के लिये अथक परिश्रम भी किया था" किंतु उन्होंने भिक्षुणी संघ की स्थापना धर्मतीर्थ प्रवर्तन के कुछ वर्षों बाद अनिच्छापूर्वक की थी। बुद्ध की मौसी महाप्रजापति गौतमी ने जब कपिलवस्तु के न्यग्रोधाराम में स्त्रियों को प्रव्रज्या देने का अनुरोध किया, तब प्रथम बार तो बुद्ध ने स्पष्ट रूप से अस्वीकार कर दिया। 58 किंतु गौतमी निराश नहीं हुई, उसने विचार किया कि संभवत: नारी को दुर्बल समझकर बुद्ध उन्हें अपने संघ में प्रवेश नहीं देते होंगे, अतः महाराजा शुद्धोदन की मृत्यु के पश्चात् जब वह पुन: वैशाली में तथागत बुद्ध के पास पहुँची, तब अपने काले और घने सुन्दर बालों को कटवा लिया था, राजसी वस्त्राभूषण त्याग कर काषाय - वस्त्र धारण कर लिये थे तथा अन्य शाक्य-स्त्रियों को साथ लेकर पैदल वहाँ पहुँची, फूले पैर, धूल भरे शरीर वाली दुःखी गौतमी ने अपने हृदय की बात आनन्द के समक्ष प्रकट की। आनन्द ने तथागत से स्त्रियों को दीक्षा देने का अनुरोध किया, किंतु बुद्ध ने पुनः अपनी असहमति प्रकट की। तब आनंद ने बुद्ध को उनके उस सिद्धान्त का जिसमें स्त्रियों को भी अर्हत् पद के योग्य बताया गया था; स्मरण कराते हुए कहा कि गौतमी आपकी अभिभाविका, पोषिका, क्षीरदायिका है, जननी की मृत्यु के पश्चात् उसने आप पर बहुत उपकार किये हैं, अतः स्त्रियों को प्रव्रज्या की अनुमति प्रदान करें। उस समय तक भी बुद्ध नारी - दीक्षा के पक्ष में नही थे, उन्हें उसमें अनेक दोष दिखाई दे रहे थे, तथापि आनन्द के अकाट्य तर्कों तथागत बुद्ध को उलझन में डाल दिया, उन्होंने बहुत अनिच्छापूर्वक इस शर्त पर भिक्षुणी संघ की स्थापना की अनुमति दी, कि भिक्षुणियों को 'आठ गुरुधर्मों का पालन करना होगा। वे गुरुधर्म इस प्रकार हैं (i) सौ वर्ष की दीक्षित भिक्षुणी भी एक दिन के दीक्षित भिक्षु को वंदन करेगी। (ii) जहाँ एक भी भिक्षु नहीं हो वहाँ वर्षावास नहीं करेगी। (iii) वर्ष के प्रत्येक पक्ष में भिक्षु संघ से उपोसथ दिवस तथा उपदेश प्राप्त करने की अपेक्षा करेगी। (iv) प्रत्येक वर्षावास के अंत में भिक्षुणी दोनों संघों से अपने आचरण के संबंध में शिथिलता बतलाने का निवेदन करेगी। (v) भिक्षुणी से यदि कोई गलती हो जाती है तो वह दोनों संघ द्वारा निश्चित् उचित प्रायश्चित् करेगी। (vi) भिक्षुणी बनने की उम्मीदवार 6 महीने प्रशिक्षण के पश्चात् प्रव्रज्या के लिये दोनों संघों से निवेदन करेगी। (vii) भिक्षुणी, भिक्षु को कोई दोष-दर्शन या दुर्वचन नहीं कहेगी । (viii) भिक्षुणी, भिक्षु को कोई उपदेश नहीं देगी - भिक्षु, भिक्षुणी को उपदेश दे सकता है। महाप्रजापति ने इन आठों शर्तों को प्रसन्नता पूर्वक स्वीकार किया और बौद्ध संघ के इतिहास में प्रथम भिक्षुणी बनी 160 57. महावग्ग 1/1/6 58. साधु भंते, लभेय्य मातुगामो तथागतप्पवेदितं धम्मविनये अगारस्मा अनगारियं पव्वजंति । अलं गोतमि मा तें रूच्चि मातुगामस्स पव्वजन्ति - चुलवग्ग, पृ. 374, नालंदा देवनागरी पाली ग्रंथमाला, बिहार, 1956 ई. 59. अथ खो महाप्रजापति गौतमी केशछादयित्वा कासायानिअत्थानि वच्छादेत्वा सम्बहुलाहि साकियानिही सद्धिं सेन वेसाली तेन पक्कामि । - वही, भिक्षुणीविनय-3 पृ. 373 60. चुल्लवग्ग 10/2 पृ. 374-75 13 For Private Personal Use Only Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन श्रमणियों का बृहद इतिहास महाप्रजापति को अपने संघ में भिक्षुणी बनने का अधिकार प्रदान करने एवं भिक्षुणी संघ की स्थापना के पश्चात् भी बुद्ध इस नारी-संघ को हृदय से स्वीकार नहीं कर पाये, अत्यन्त खेद- खिन्न होते हुए उन्होंने कहा- “आनन्द! यह भिक्षु संघ यदि सहस्र वर्ष टिकने वाला था तो अब पाँचसौ वर्ष से अधिक नहीं टिकेगा अर्थात् नारी दीक्षा से मेरे धर्म संघ की उम्र आधी ही शेष रह गई है।" चूंकि, भिक्षुणी-संघ के निर्माण में आनन्द की मूल प्रेरणा रही थी अत: बौद्ध-संघ में इस विषय को लेकर आनन्द के प्रति आक्रोश की भावना झलकती है, यही कारण था कि बुद्ध निर्वाण के अनन्तर महाकाश्यप के तत्त्वावधान में जब प्रथम बौद्ध संगीति में त्रिपिटकों का संकलन हुआ, तब राजगृह में 499 भिक्षु इस सभा में एकत्र हुए। आनंद को इस सभा में प्रथम तो बुलाया ही नहीं, किंतु 500 अर्हत् भिक्षुओं में एक आनन्द ही ऐसे भिक्षु थे जो सूत्र के अधिकारी ज्ञाता थे; अत: भिक्षुओं के आग्रह से जब आनन्द को बुलाया गया तो स्त्री-दीक्षा के प्रेरक बनने, स्त्रियों को भगवान बुद्ध के शरीर का अभिवादन करने की अनुमति प्रदान करने, तथा स्त्रियों को महत्व देने के कारण उन्हें प्रायश्चित् करवाया। 1.7.2 बौद्ध संघ में स्त्री दीक्षा न देने का कारण बुद्ध के भिक्षु संघ का उद्देश्य ऐसे जन सेवक तैयार करना था जो स्वंय पवित्र जीवन जीकर समाज की बुराइयाँ दूर करें। उनकी मान्यता थी, कि अर्हत्पद तो स्त्री हो या पुरूष, कोई घर में रहकर भी प्राप्त कर सकता है, किंतु गृहस्थी में समाज को ऐसे साधु-सेवक नहीं मिल सकते जो निष्परिग्रही हों, निर्भय हों, नि:स्वार्थ हों। राजा-रंक को समान दृष्टि से देखते हो। इसीलिये धर्म-संघ बनाने की आवश्यकता महसूस हुई। यह संघ या तो पुरूषों-पुरूषों का हो या स्त्रियों-स्त्रियों का। पुरूषों का संघ बनाना उन्होंने अधिक उपयुक्त इसलिये समझा कि बुद्ध स्वयं पुरूष होने के कारण उसका सञ्चालन अच्छी तरह कर सकते थे। भिक्षुणी संघ वे इसलिये नहीं बनाना चाहते थे कि दोनों संघों के कारण यहाँ भी वही संसार बन जायेगा, जिसे छोड़कर कोई भिक्षु बनता है, बल्कि घर में तो मनुष्य लोगों से निर्भय होकर दाम्पत्य बिता सकता है, भिक्षु संघ में तो दाम्पत्य को जगह नहीं है, इसलिये यह आकर्षण अन्तर्गामी बन जायेगा और धीरे-धीरे संघ को खोखला कर देगा। बुद्ध की यह शंका किसी हद्द तक ठीक ही निकली, जब उनके ही समक्ष उनके भिक्षु, भिक्षुणियों के निवास लगे कोई चर्चा के बहाने कोई उन्हें परेशान करने कोई पानी लाने तो कोई भिक्षणी से उपदेश सुनने के बहाने भिक्षुणी-आवास में जाने लगे। बुद्ध इस पर चिंता व्यक्त करते हुए कहते हैं, कि “मैंने यद्यपि भिक्षुणियों को दीक्षा से पूर्व आठ गुरूधर्म बना दिये, किंतु क्या इन नियमों से दोनों का आकर्षण कम हो पायेगा? बहाना सबसे सुलभ वस्तु है। मैं सौ नियम बनाऊँगा तो एकसौ एकवां बहाना निकल आयेगा। नियम तो रास्ता बताते हैं, चला नहीं सकते। जिन भिक्षुओं में संयम नहीं है वे नियमों में कैद नहीं हो सकते।"63 बुद्ध का विचार था कि भिक्षुणियों से संघ की शीघ्र अवनति होगी। धीरे-धीरे संघ पापाचार का घर बन जाएगा। संघ की संख्या दूनी हो जाएगी पर संघ का जीवन आधा ही रह जाएगा और पवित्रता तो नामशेष ही समझो। बुद्ध 61. चुल्लवग्ग, भिक्खुणी स्कन्धक 10/1/4, पृ. 376 62. वही, आनन्दस्स दुक्कटानि, 11/6, पृ. 410 63. स्वामी सत्यभक्त, बुद्ध हृदय, पृ. 60, सत्याश्रम वर्धा, जुलाई 1941 ई. 14 Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पूर्व पीठिका की अनिच्छापूर्वक आनन्द के पुनः पुनः आग्रह से भिक्षुणी संघ बना, इसके लिये आनंद को अपने ही संघ से कइयों के वाग्बाणों का शिकार भी बनना पड़ा। उसे अदूरदृष्टा, वर्तमानदर्शी, नगदपुण्य का पुजारी, जल्दी प्रसन्न हो जाने वाला भावनाशील एवं परिणाम को न देखने वाला कहा गया। तथापि इतना तो कहना ही पड़ेगा, कि बौद्ध धर्म में स्त्रियों को प्रवेश आनन्द के कारण ही मिल पाया था, आनन्द ने इस विषय में जो क्रांति की, उससे बौद्ध नारी-समाज महिमामयी बना है, बौद्ध इतिहास में यह प्रसंग अविस्मरणीय रहेगा। बौद्ध भिक्षुणियों के लिये आनन्द सदैव आराध्य-पुरूष के रूप में आदरणीय रहेंगे। 1.7.3 कुछ प्रमुख बौद्ध भिक्षुणियाँ ___बौद्ध संघ में स्त्रियों को स्थान मिलने के पश्चात् बुद्ध की उदारता अप्रतिम रही। उन्होंने विवाहित, अविवाहित, निम्न या उच्चवर्ग, श्रेष्ठी या गणिका आदि किसी भी प्रकार का भेदभाव किये बिना सबके लिये अपने धर्म का द्वार खोल दिया था। उनकी इस उदार दृष्टि से अनेक नारियाँ जो विधवा या किसी सांसारिक कष्ट से पीड़ित होती अथवा किसी कारणवश अविवाहित रह जाती या उसके पति प्रव्रजित हो जाते, उन सब नारियों को निस्संकोच यहाँ शरण मिलने लगा था। सैंकड़ों सहस्रों नारियों को बुद्ध ने त्राण व संरक्षण प्रदान किया। इतना ही नहीं 'थेरी अपदान (सुत्तपिटक) में उनके उपदेशों का संकलन कर विश्व इतिहास में नारियों को एक महत्त्वपूर्ण स्थान प्रदान किया है। सुत्तपिटक के खुद्दनिकाय 'थेरीगाथाओं में लगभग 58 थेरियों की गाथाएँ एवं थेरी अपदान में 40 थेरियों का हृदय स्पर्शी उपदेश संकलित है।5 अंगुत्तरनिकाय में स्वयं बुद्ध ने अपने संघ की अग्रगण्य 13 थेरियों को नामोल्लेख एवं प्रशंसा युक्त वचनों द्वारा सम्मानित किया वे इस प्रकार हैं1.7.3.1 महाप्रजापति गौतमी : ये शाक्य देश में कपिलवस्तु के क्षत्रिय राजा शुद्धोदन की पत्नी थी, भगवान बुद्ध की क्षीरदायिका माता थी, बौद्ध संघ में नारी जाति को स्थान दिलाने के रूप में इतिहास में इनका नाम सदा-सदा अमर रहेगा। इन्हें भगवान बुद्ध ने "रक्तज्ञा भिक्षुणियों में अग्रगण्या" कहकर संबोधित किया है। 1.7.3.2 खेमा : ये मद्र देश सागल की राजकन्या एवं मगधराज बिम्बसार की पत्नी थी। इन्हें तथागत बुद्ध ने 'महाप्रज्ञाओं में अग्रगण्या' कहा है। 1.7.3.3 उत्पलवर्ण : ये कौशल देश में श्रावस्ती नगरी के श्रेष्ठीकुल में उत्पन्न हुई थीं, इन्हें 'ऋद्धिशालिनियों में अग्रगण्या' कहकर सम्मानित किया है। 1.7.3.4 पटाचारा : ये भी श्रावस्ती के श्रेष्ठी कुल की कन्या थी। तथागत बुद्ध ने इन्हें "विनयधराओं में अग्रगण्या' कहा है। 1.7.3.5 धम्मदिन्ना : राजगृह के विशाख श्रेष्ठी की पत्नी थी, इन्हें 'धर्मोपदेशिकाओं में अग्रगण्या' माना गया है। 64. सत्यभक्त, बुद्ध हृदय, पृ. 23 65. थेरी अपदान सुत्तपिटके, भाग 2 पृ. 181-293 संपादक-भिक्खु जगदीश कस्सप, 1959 ई. 66. अंगुत्तरनिकाय, धम्मपद अट्ठकथा 8/3 15 Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन श्रमणियों का बहद इतिहास 1.7.3.6 नन्दा : ये महाप्रजापती गौतमी की पुत्री थी। 'ध्यायिकाओं' में नन्दा को बौद्ध-संघ में श्रेष्ठ माना है। 1.7.3.7 सोणा : श्रावस्ती कुल-गेह से संबंधित भिक्षुणी सोणा 'उद्यमशीलाओं में अग्रगण्य' थी। 1.7.3.8 सकुला : श्रावस्ती की ही रहने वाली थी, इन्हें “दिव्य-चाक्षुकों में अग्रगण्य' कहा है। 1.7.3.9 भद्राकुण्डलकेशा : यह राजगृह के राजकीय कोषाध्यक्ष की सुरूप व गुणवती कन्या थी। एकबार तथागत के शिष्य सारिपुत्त से शास्त्रार्थ में पराजित होकर वह भगवान बुद्ध की शरण में प्रवर्जित हो गई एवं अर्हत् अवस्था को प्राप्त हुई। भगवान बुद्ध के उपदेशों को उसने मगध, कोसल, काशी, वज्जी, अंग आदि अनेक देशों में विस्तार करने का महत्वपूर्ण कार्य किया। बुद्ध ने उसे “प्रखर प्रतिभाशालिनियों में अग्रगण्य" स्वीकार किया। 1.7.3.10 भद्रा कापिलायनी : ये महातीर्थ ब्राह्मण ग्राम के ब्राह्मण बुद्ध के अग्रगण्य शिष्य महात्यागी महाकाश्यप की पत्नी थी। इन्हें बुद्ध ने “पूर्वजन्म की अनुस्मरणकारिकाओं में अग्रगण्या” माना है। 1.7.3.11 भद्राकात्यायनी : ये कपिलवस्तु की राहुल माता देवदह वासी सुप्रबुद्ध शाक्य की पुत्री थीं। 'महा अभिज्ञाधारिकाओं' में इन्हें अग्रगण्य स्थान प्राप्त है। 1.7.3.12 कृशा गौतमी : ये श्रावस्ती के वैश्य कुल की कन्या थी। इन्हें “रूक्ष चीवरधारिकाओं में अग्रगण्या" कहा है। 1.7.3.13 श्रृगालमाता : ये राजगृह के श्रेष्ठि कुल से संबंधित थीं। इनको तथागत बुद्ध द्वारा 'श्रद्धा युक्तों में अग्रगण्या' पद से सम्मानित किया गया है। 1.7.4 जैन एवं बौद्ध श्रमणियों में परस्पर समानता के बिंदु श्रमण संस्कृति की इन दोनों महान धाराओं में गृहत्यागिनी भिक्षुणियों, श्रमणियों का अस्तित्व कई एक बातों में समानता लिये हुए है। उदाहरण स्वरूप(i) दोनों ही परम्परा में नारियाँ संसार के दुःखों का.सम्यग्ज्ञान प्राप्त करके श्रमणी-संघ में प्रविष्ट होती हैं, और दुःखों से मुक्त होना उनका एकमात्र उद्देश्य होता है। (ii) दोनों ही परम्पराओं में योग्य नारी को ही दीक्षा देने का विधान है। शारीरिक या मानसिक दृष्टि से विकृत एवं लोकनिन्दक नारियाँ संघ में प्रवेश नहीं कर सकती हैं। अंतर केवल इतना ही है, कि जैनधर्म में योग्यता-अयोग्यता की परख दीक्षा देने से पूर्व की जाती है, जबकि बौद्ध-परम्परा में नारी को प्रव्रजित करने के पश्चात तत्संबधी प्रश्न पूछे जाते हैं, प्रश्नों का सही समाधान प्राप्त होने पर ही उसे उपसम्पदा दी जाती है। ऐसे अनेक प्रश्नों का उल्लेख डॉ. अरूणप्रतापसिंह ने किया है।" (iii) जैन और बौद्ध दोनों ही परम्पराओं में नारी, दीक्षा से पूर्व अपने परिवारीजन की अनुमति प्राप्त करती हैं, बिना अनुमति प्राप्त किये उसे संघ में दीक्षित नहीं किया जाता है। बौद्ध-साहित्य में 'मण्डपदायिका' नाम की महिला के अन्तर्मन में महाप्रजापति गौतमी के सान्निध्य से वैराग्य प्राप्ति का उल्लेख है, किंतु वह तब तक दीक्षा नहीं ले पाई जब तक पति ने सहर्ष अनुज्ञा नहीं दी। 67. डॉ. सिंह, जैन और बौद्ध भिक्षुणी संघ, पृ. 21 68. रसिक विहारी मंजुल, बौद्धधर्म की 22 वनितायें- पृ. 25 16 Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पूर्व पीठिका (iv) दोनों ही परम्पराएँ नारी की 'अर्हत् दशा' को स्वीकार करती हैं। जैन धर्म में चन्दना, राजीमती, ब्राह्मी - सुंदरी आदि के दीक्षा लेने के पश्चात् निर्वाण प्राप्ति का उल्लेख आगमों में वर्णित हैं। वहीं बौद्ध- त्रिपिटकों में महाप्रजापति गौतमी, किसागौतमी पटाचारा आदि भिक्षुणियों के अर्हत् पद प्राप्ति का भी उल्लेख है। 'अर्हत्' से अभिप्राय जीवन्मुक्त दशा से है । " 1.7.5 श्रमणी संघ के सम्बन्ध में जैन एवं बौद्ध दृष्टिकोण (वैषम्य-बिंदु ) बौद्धधर्म तथा जैनधर्म के श्रमणी संघ का आलोचनात्मक अध्ययन किया जाय तो दोनों धर्मों में एतद्विषयक कई बातों में वैषम्य दिखाई देता है, यथा (i) बौद्ध धर्म में भिक्षुणी संघ बुद्ध से प्रारंभ हुआ था। भगवान बुद्ध भिक्षुणी संघ के संस्थापक थे। जैन धर्म का श्रमणी संघ भगवान महावीर से भी पूर्व भगवान ऋषभदेव से चला आ रहा है। (ii) जैनधर्म में पुरूष एवं स्त्रियों के दीक्षित होने में पूर्वापर क्रम नहीं है, श्रमण एवं श्रमणी दोनों संघों की स्थापना एक ही दिन हुई थी। बौद्धधर्म में भिक्षु संघ की स्थापना के कई वर्ष पश्चात् भिक्षुणी संघ की स्थापना का उल्लेख है। भिक्षुणी संघ स्थापना की तिथि भी विवादास्पद है। कुछ विद्वान् पाँच वर्ष पश्चात् एवं कुछ बीस वर्ष पश्चात् मानते हैं। (iii) जैन परम्परा में श्रमणी बनने के लिये स्त्रियां स्वतन्त्र हैं, उन पर उनके संस्थापकों का कोई प्रतिबंध नहीं है। बौद्ध परम्परा में बुद्ध की इच्छा को प्राथमिकता थी। उन्होंने स्त्री एवं पुरूष दोनों में से केवल पुरूष का ही चुनाव किया था । (iv) बौद्ध परम्परा में भिक्षुणी बनने के लिये महाप्रजापति गौतमी को जैसे बार-बार अनुनय करना पड़ा, वैसा जैन परम्परा में श्रमणी बनने के लिये किसी नारी को महावीर से अनुनय नहीं करना पड़ता। वे संसार के दुःखों से मुक्ति पाने के लिये भगवान के चरणों में दीक्षा की प्रार्थना करती हैं, तो भगवान उनकी भावनाओं का मात्र हृदय से स्वागत ही नहीं करते वरन् उन्हें इस श्रेयस्कर पथ पर कदम बढ़ाने हेतु समय मात्र भी प्रमाद न करने की प्रेरणा भी देते हैं । " 1.8 ईसाई धर्म में संन्यस्त महिलाएँ ईसाई धर्म में जैनधर्म की ही भांति संन्यस्त महिलाओं की अपनी संस्थाएँ हैं। इनमें मूलतः दो संप्रदाय प्रमुख है - रोमन कैथोलिक और प्रोटेस्ट । रोमन केथोलिक ईसा व मरियम की पूजा-अर्चना करते हैं और प्रोटेस्ट मूर्तिपूजा के विरोधी हैं। किंतु दोनों संप्रदायें Bible को अपना धर्मग्रन्थ मानती हैं। रोमन कैथोलिक सम्प्रदाय में पादरियों के अतिरिक्त नॅनस (Nuns) भी होती हैं। जिन्हें Mother कहते हैं। ये ब्रह्मचारिणी होती हैं तथा गिरजाघर (Church) में रहती हैं, इनके मुख्य दो कार्य हैं - ज्ञानदान और सेवा । इस सद् उद्देश्य को लेकर ईसाई धर्म-संघ द्वारा सैंकड़ों शिक्षण संस्थाएँ 69. सुत्तनिपात 2/1/15 70. डॉ. कोमल जैन, बौद्ध एवं जैन आगमों में नारी जीवन, पृ. 173, तुलनीय जैन और बौद्ध भिक्षुणी संघ, पृ. 7 71. अन्तकृद्दशांग सूत्र, वर्ग 5 17 Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन श्रमणियों का बृहद इतिहास एवं चिकित्सालय तथा सेवाश्रम स्थापित हुए हैं। अपने सेवा और त्याग के बल पर आज ये विश्व के कोने-कोने में फैली हुई हैं और ईसाई धर्म विश्व का सबसे प्रसिद्ध धर्म बना हुआ है। इनमें कुछ प्रमुख विदुषी भिक्षुणियों का परिचय इस प्रकार है 1.8.1 साध्वी मारसेलिना (ई. 354) प्राचीन ईसाई नन्स में Marcellina (मारसेलिना) का उल्लेख प्राप्त होता है, जिसने रोम के सेंट पीटर चर्च में पोप लिबेरियस से साध्वी-दीक्षा अंगीकार की थी। इसका समय ई. 354 का है। यह एकान्त, शान्त कक्ष में अकेली निवास करती थी।2 1.8.2 साध्वी स्कोलास्टिका (ई. 480) इसी प्रकार ई. सन् 480 में सन्त Beenedict (बेनेटिक्ट) की बहन Scholastica (स्कोलास्टिका) का भी उल्लेख आता है। जो अपने प्रभु की भक्ति में तन्मय हो जाती थी उसे दिन-रात का पता ही नहीं चलता था, प्रभु की कृपा के अनेकों चमत्कार उसके जीवन में घटित हुए थे। जीवन के अंतिम क्षणों में उसने समस्त लौकिक क्रियाओं को छोड़ दिया एवं प्रभु भक्ति में लीन हो गई थी। स्कोलास्टिका ने अपने तप-त्याग पूर्ण जीवन एवं उपदेश से अनेकों नारियों को सदाचार के मार्ग पर अग्रसर किया था। 1.8.3 साध्वी इलिझाबेथ (ई. 1207-31) सन् 1207 में हंगरी एन्ड्र के राजा के यहाँ आध्यात्मिक शक्ति संपन्न इलिझाबेथ का जन्म हुआ, जो खिस्ती जगत में अद्वितीय संत साध्वी के रूप में आदरणीय बनी। इलिझाबेथ का विवाह सेक्सनी के राजा हारमेन के धार्मिक एवं दयालु राजकुमार लूई के साथ हुआ। प्रारंभ से ही इलिझाबेथ स्वाभाविक धर्म विश्वास, ईश्वर के प्रति अगाध निष्ठा एवं दुःखियों के प्रति दयाभावना से ओतप्रोत हृदय वाली महिला थी, खिस्ती साधु जॉन को उसने अपने गुरू के रूप में स्वीकार किया था। उसका संन्यासिनी से भी अधिक संयमित जीवन था। एक उपासना मंदिर की वेदी पर हाथ रख कर उसने पृथ्वी के समस्त वैभव का त्याग कर दिया था। सन् 1231 को इलिझाबेथ ने स्वर्गप्रयाण किया। उसकी मृत्यु के 4 वर्ष पश्चात् रोम के पोप ने उसको SAINT' (साध्वी) पद से सम्मानित किया। उसकी सबसे छोटी कन्या सोपिफया भी अपनी माता की पवित्र स्मृति को हृदय में धारण कर संन्यासिनी बन गई थी। 1.8.4 साध्वी टेरेसा (ई. 1515-82) स्पेन निवासी साध्वी टेरेसा धर्म परायण एवं महान साध्वी थी। एक धर्मनिष्ठ आत्मा में जितने सद्गुण हो सकते हैं वे सभी सद्गुण उसमें थे। इस पुण्यशालीनि साध्वी टेरेसा का जन्म सन् 1515 में हुआ। राजवंश के डी. सेपेडा उनके पिता एवं परम सुन्दरी बियाट्रिस उनकी माता थी सन् 1533 एविला नगरी में संन्यासिनियों के मठ में जाकर 72. Encyclopaedia of World Women, Vol. 2, पृ. 141-142] S.S. Shashi Sundeep Prakashan, Delhi 1989. 73. वही, पृ. 14-15 74. भिक्षु अखंडानन्द, महान साध्विओ, पृ. 21 से 53 Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पूर्व पीठिका सम्पूर्ण वस्त्राभूषणों का त्याग कर वह संन्यासिनी बन गई थी। संन्यासी बनकर उसने देहदमन की कठोर साधनाएँ कीं । टेरेसा के समय संन्यासियों की दशा अत्यंत पतनोन्मुखी थी। जिन सन्यासी एवं सन्यासिनियों के ऊपर मनुष्य के अंतर में धर्मभाव जागृत करने का कार्य था उनमें से अनेकों में ज्ञान का अभाव था और कुछ हिंसा, द्वेष, विषयासक्ति एवं अधर्म का पोषण कर रहे थे। ऐसी अवस्था देख टेरेसा ने एक नया आश्रम, एक महान उद्देश्य एवं नये आदर्शों को लेकर स्थापित किया। कई विरोधों का सामना करके भी उसने नियमों की कठोरता रखी । आश्रम के नियम थे कि अपनी संपत्ति पर भी अपना अधिकार नहीं रखना, मांसाहार नहीं करना, सस्ते व मोटे कपड़े पहनना, सिर पर बहुत कम बाल रखना, सादा भोजन वह भी काम करके ही खाना आदि । धीरे-2 आश्रम का प्रभाव बढ़ा, पुष्कल धन आने लगा, एवं अनेक स्थानों पर उसकी शाखाएँ खुलीं। सन् 1592 को सन्यासिनी टेरेसा ने देह त्याग किया। सन् 1622 को रोम के पोप ने पुण्यवती टेरेसा को साधु दल में सम्मिलित कर उसका सम्मान बढ़ाया। ये रोमन केथोलिक संप्रदाय की महान साध्वी थी, इसी के नाम पर 20वीं सदी में 'मदर टेरेसा' अपना नाम रखा और भारत भूमि पर असहाय, निर्धन व रोगी परिचर्या में अपने जीवन की पूर्णाहुति की। 75 1.8.5 साध्वी केथेरिन ( ई. 1347-80 ) ये यूरोप की 14वीं शताब्दी की एक महान साध्वी थीं। जिन्हें कठोर धर्मसाधना द्वारा समाधि प्राप्त हुई थी, उस स्थिति में ये ईश्वर में योगयुक्त होकर परम आनंद की अनुभूति में लीन रहती थी। ख्रिस्ती धर्म के लोग उसे 'देवी' के रूप में मान्यता देते। इनका जन्म सन् 1347 में इटालि देश के सायना ग्राम में हुआ इनके पिता का नाम 'जेकोपो' था एवं माता का नाम था 'लापा' उस समय यूरोप में एक प्रकार की संन्यासिनियाँ परिभ्रमण करती थीं जिनके जीवन का लक्ष्य तपस्या एवं लोकसेवा होता था, इन्हें देखकर उसका मन भी आजीवन ब्रह्मचारी रहकर सन्यासिनी बनने का हुआ। अनेक अवरोधों के बावजूद इस संकल्पशील कन्या ने 'सेइन्ट डोमिनिक' संप्रदाय की विधि के अनुसार संन्यासिनी व्रत अंगीकार कर लिया। अब केथेरिन ने अपने अन्तःकरण को स्फटिकवत् स्वच्छ व निर्मल बनाने के लिये ध्यान, धारणा, समाधि एवं उपासना का एक मात्र अवलम्बन लिया। कई-कई दिन उसके उपवास में व्यतीत होते। उसने योग की उच्च अवस्था को प्राप्त कर लिया। उसका उपदेश भी हृदय को परिवर्तन करने वाला होता था। 'कुमारी केथेरिन' ग्रंथ में उस महान साध्वी के उपदेशों का संकलन है। सन् 1390 में केथेरिन की मृत्यु के पश्चात् ई. सन् 1461 में रोम के पोप उसे 'SAINT' (साध्वी) तरीके गिनने की घोषणा लोगों में की। " 1.8.6 साध्वी गेयाँ (ई. 1648-1717) यह फ्रांस की एक महान साध्वी हुई। इनका जन्म फ्रांस के 'मोटारझी' शहर में सन् 1648 को हुआ । इनका पूर्ण नाम 'जां - मारि- बूबि -ऐ- यार - डि-ला-मोथ था। ख्रिस्ती धर्म के नियमों का दृढ़ता से पालन करने वाली इस साध्वी की महान गाथाएँ आज भी यूरोप में गाई जाती है। इसने अपना सर्वस्व ईश्वर के चरणों में समर्पित किया हुआ था। सन् 1717 में इसका स्वर्गवास हुआ।” 75. वही, पृ. 76-105 76. वही, पृ. 54 से 75 77. वही, पृ. 106-128 19 Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1.8.7 साध्वी मेरी कार्पेन्टर (ई. 1807-77 ) इस पुण्यमयी साध्वी का जीवन-वृत्त अत्यन्त प्रेरणादायक रहा है। सन् 1807 को इंग्लैंड के एक्सीटर नगर में इनका जन्म हुआ। पिता डॉक्टर व पादरी थे एवं माता अतिशय धर्मशीला थी। राजा राम मोहनराय की अपूर्व धर्म श्रद्धा एवं स्वार्थ त्याग देखकर 'मेरी' ने भारतवर्ष की स्त्रियों का कल्याण करने का दृढ़ संकल्प किया। उसने भारत आकर सरकार का ध्यान तीन बातों की ओर केन्द्रित करवाया - (i) स्त्री दशा में सुधार, (ii) सुधारक विद्यालय (अल्पवय के अपराधियों को सुधारने की पाठशाला) एवं (ii) कैदियों की अवस्था में सुधार । 'मेरी' के अखूट उत्साह एवं सतत परिश्रम से देश में कितनी ही कन्याशालाएँ, फिमेल नोर्मल स्कूल एवं अनेकों सुधारक विद्यालयों की स्थापना हुई । सन् 1877 में 'मेरी' का स्वर्गवास हुआ। उसने आजीवन ब्रह्मचारिणी रहकर ईश्वर एवं उसकी संतान पर गहन प्रेम का परिचय प्रस्तुत किया। 78 1.8.8 साध्वी कॉब (ई. 1822-1904 ) कुमारी फ्रांसिस कॉब अमेरिका के अनेक धार्मिक एवं विद्वान् पुरूषों की श्रद्धा - पात्र थी। कुमारी कॉब का जन्म सन् 1822 को डबलिन शहर में हुआ। यह एक श्रेष्ठ लेखिका तथा ग्रन्थकर्त्री विदुषी महिला थी । महात्मा ईसु के प्रति अगाध श्रद्धा एवं प्रेम के कारण अध्यात्म भावों से ओतप्रोत जीवन था । धर्म, कर्म एवं ज्ञान में श्रेष्ठता प्राप्त कुमारी कॉब का स्वर्गवास सन् 1904 में हुआ । 79 जैन श्रमणियों का बृहद इतिहास 1.8.9 साध्वी क्लेरा साध्वी क्लेरा ने ऐसिसि नगर के एक सद्गृहस्थ के यहाँ जन्म ग्रहण किया था। उसने अपना संपूर्ण जीवन भगवत्सेवा का लक्ष्य रखकर प्रख्यात संत फ्रांसिस के चरणों में अर्पित किया हुआ था। 18 वर्ष की उम्र में माता-पिता, धन-संपत्ति आदि का त्याग कर यह फ्रांसिस के मठ में प्रविष्ट हुई। क्लेरा की छोटी बहन 'ऐग्निस' भी सन्यासिनी बनी। क्लेरा ने साध्वियों का मठ स्थापित कर वहाँ ब्रह्मचारिणी बहनों को धार्मिक शिक्षण देने का महत्त्वपूर्ण कार्य किया । 80 1.8.10 साध्वी लुइसा (ई. 1776-1810 ) दयाधर्म से परिपूरित अन्तः करण वाली यूरोप की महान रानी जिसे 'देवी स्वरूपा' कहा जाता था, वह सन् 1776 में जर्मनी के एक प्रतिष्ठित कुटुम्ब में जन्मीं । परमेश्वर पर आजीवन अटूट श्रद्धा रखती हुई सन् 1810 में स्वर्गवासिनी हुई।" इनके अतिरिक्त इटली के महात्मा गेरिबाल्डी की धर्मपत्नी एनिटा, हिंदुस्तान के प्रसिद्ध हितचिंतक हेन्री फॉसेट की विदुषी पत्नी केरोलीन हर्शेल, साध्वी बहन दोरा (सन् 1832 1878) वीर साध्वी जॉन ऑफ आर्क इत्यादि 78. वही, 129 से 159 79. वही 155-175 80. वही, 176-179 81. वही, 180-189 20 Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पूर्व पीठिका विदेशी महिलाओं का त्याग, धर्मनिष्ठा, प्रभुप्रेम एवं उनके प्रति वैदिक श्रद्धा उन्हें 'नारी साध्वी' के रूप में चित्रित करती है। 1.8.11 मदर टेरेसा (ई. 1910-97) ऊपर ईसाई साध्वियों में मदर टेरेसा का नाम विशेष रूप से 'मानव की निःस्वार्थ सेवा करने वाली विभूतियों में सबसे है। | मदर : टेरेसा का जन्म यूगोस्लाविया के स्कोपजे नामक छोटे से गाँव में 26 अगस्त 1910 को हुआ था । 12 वर्ष की उम्र में उन्होंने अपने जीवन का लक्ष्य 'मानव सेवा' का बनाया । 18 वर्ष की अवस्था में ईसाई साध्वी (NUN) बनने का निर्णय कर आयरलैंड पहुँची, वहाँ 'लोरेटोनन' के केन्द्र में सम्मिलित हुई। 1929 में भारत आई, यहाँ 'लोरेटो एटेली' स्कूल में अध्यापिका एवं पदोन्नति कर कलकत्ता में ही 'प्रधानाध्यापिका' पद पर प्रतिष्ठित हुई। किंतु पीड़ित मानवता की पुकार ने उनके हृदय को द्रवित किया, सन् 1950 में 'मिशनरीज ऑफ चैरिटी' की कलकत्ता में ही स्थापना की। इन्होंने असहाय लोगों के लिये 'निर्मल हृदय धर्मशाला' खोली। वे अपनी सहयोगिनी सिस्टर्स के साथ सड़क के किनारे गलियों में पड़े मरीजों को उठाकर ले जातीं और उनका निःशुल्क उपचार करतीं। सन् 1952 में स्थापित 'निर्मल हृदय' केन्द्र की आज विश्व भर में करीब 120 शाखाएँ कार्य कर रही हैं। इस संस्था के तहत 169 शिक्षण-संस्था 1369 उपचार केन्द्र और 755 आश्रय - गृह संचालित हैं। मदर टेरेसा का स्वभाव अत्यन्त सहनशील, असाधारण और करूणामय था । उनके मन में रोगियों, वृद्धों, भूखे, नंगे व निर्धन लोगों के प्रति असीम ममता थी । अनाथ तथा विकलांग बच्चों के जीवन को प्रकाशवान करने के लिये इन्होंने अपनी युवावस्था से जीवन के अंतिम क्षणों तक प्रयास किया। सन् 1997 सितंबर में ये परलोकवासिनी हो गई। भारत रत्न से सम्मानित 'मदर टेरेसा' को 'संत की पदवी' (Sount hood) पोन जॉन पॉल द्वितीय ने प्रदान की । सन् 2003 में रोम के एक समारोह में उन्हें 'धन्य' घोषित (Beatification) किया गया। मदर टेरेसा का असली नाम 'एग्नेस बोहाझिउ' था, किंतु पूर्व वर्णित 16वीं शताब्दी की 'संत टेरेसा' के नाम अपना नाम पर उन्होंने 'टेरेसा' रखा। 2 1.8.12 सेंट मेरी ईसाइयों द्वारा रचित ग्रन्थों में सैंकड़ों अपरिग्रही मुसलमान फकीरों के विचरण के उल्लेख भी प्राप्त होते हैं। उनमें अलकासिम गिलानी और सरमद शहीद विशेष उल्लेखनीय हैं, उसके हजारों शिष्य थे। इनमें एक सेन्ट मेरी (St. Mary of Egypt) नामक साध्वी भी थी। यह मिश्रदेश की सुन्दर स्त्री थी, किंतु यह वस्त्र त्याग कर नग्न वेष में परिभ्रमण करती थी तथा अध्यात्मवाद का प्रचार करती थी। डॉ. देवेन्द्र कुमार शास्त्री ने सेन्ट मेरी को 'जैन आर्यिका वेष' में ईसाई महिला कहकर वर्णित किया है | 3 1.9 इस्लाम धर्म का नारियों के प्रति दृष्टिकोण इस्लाम धर्म में स्त्रियों के संन्यास की अवधारणा प्रायः अनुपस्थित है, वे स्त्री को केवल एक भोग्या के रूप में ही देखते हैं तथापि इस्लाम धर्म में भी कुछ स्त्री-फकीरों के उल्लेख मिलते हैं। 82. साहनी एवं सिंह, साहनी सर्वोत्तम हिंदी निबंध, पृ. 7, साहनी ब्रदर्स, अस्पताल रोड आगरा, 2003 ई. 83. शर्मा ठाकुर प्रसाद, 'ह्येनसांग का भारत भ्रमण' अनेकान्त, वर्ष 33 किरण 4 ई. 1925, पृ. 37 21 Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन श्रमणियों का बृहद इतिहास 1.9.1 टिकिया साईं _ 'पाटलिपुत्र के इतिहास' में पंडित प्रवर यति श्री सूर्यमल्ल जी ने एक स्त्री फकीर का उल्लेख किया है। इसका नाम 'टिकिया साई' था। यह मुसलमान फकीरों में अंतिम सिद्ध फकीर थी। इसकी बहुत प्रसिद्धि थी, अपने तपोबल से इसने ऐसे-ऐसे आश्चर्यजनक कार्य कर दिखाये कि जिनकी चर्चा आज भी पटना निवासी करते हैं। इसे हुए अनुमानतः सौ वर्ष व्यतीत हुए हैं।84 1.9.2 बीबी रहिमा इस्लाम धर्म में 'बीबी रहिमा' का नाम भी 'संत-स्त्री' के रूप में अत्यन्त आदर के साथ लिया जाता है। इनका जीवन-वृत्त 'कलकत्ता नूर लायब्रेरी पब्लीकेशन्स' से सन् 1939 में प्रकाशित हुआ है। भाषा बंगाली है। 1.10 इस्लाम के सूफीमत में संन्यस्त स्त्रियाँ सूफीमत इस्लाम धर्म का ही एक अंग है। सूफा के 'अबू हाशिम' ने सर्वप्रथम ईसा की नौवीं शताब्दी में 'सूफी' शब्द को अपने नाम के साथ जोड़कर एक आस्था प्रधान इस्लाम धर्म की नींव रखी थी।85 यद्यपि इस्लाम धर्म के प्रवर्तक हजरत मुहम्मद ने संन्यास के प्रति उदासीनता दिखाई थी, किंतु सूफी साधकों ने ईसाई धर्म से संन्यास की प्रेरणा लेकर उपवास, आन्तरिक शुद्धि, कष्ट साधना, प्रार्थना एवं भगवान के प्रति 'आपा' और प्रेमभाव पर बल दिया। 12वीं सदी में भारत प्रवेश पर यहाँ की श्रमण-परम्परा का प्रभाव भी इन अरब मुसलमानों पर पड़ा, फलस्वरूप अनेक सूफी फकीर हुए। सूफी संप्रदाय में अनेकों स्त्री-साधिकाएँ भी हुई हैं, जो परमात्मा को अपना पति समझती थीं। 1.10.1 सूफी साधिका रबिया (ईसा की आठवीं सदी) सूफी सम्प्रदाय की स्त्री-फकीरों में 'रबिया' का अग्रगण्य स्थान है। ईसा की आठवीं सदी में यह महातपस्विनी भक्त महिला तुर्की राज्य के 'बसरा' शहर में एक निर्धन परिवार की चतुर्थ कन्या के रूप में उत्पन्न हुई थी। बचपन से ही दुःख, क्लेश व विपत्तियों के झंझावातों को समता से सहन करती हुई यह परमात्मा के प्रति दृढ़ आस्थावान बनी रही। रबेया ने ईश्वर की निष्काम प्रेम भक्ति में सराबोर होकर कुछ समय निर्जन अरण्य में, कुछ समय मस्जिद में और शेष जीवन मक्का में व्यतीत किया। मक्का में 'इब्राहिम आदम', 'अबदुल बाहेद अमर' और 'सूफियान' जैसे पहुँचे हुए साधक रबिया के विचारों का अत्यन्त आदर करते थे। वह ईश्वर से प्रार्थना करती थी कि - "हे परमेश्वर! मेरे लिये तूने जो भी सुन्दर चीजें देने के लिये निश्चित् की है, वे सब नास्तिक को दे देना, मेरे लिये तो तूं एक ही काफी है। तेरे सिवा मेरी अन्य कोई चाह नहीं।"86 रबिया ने अपनी प्रेमाभक्ति में अनेक 84. तित्थयर, वर्ष 26 अंक 4, पृ. 165 85. डॉ. श्रीमती राजबाला सिंह, मध्यकालीन भारत में सूफीमत का उद्भव और विकास, पृ. 11, अशोक प्रकाशन, नई सड़क, दिल्ली, सन् 1995 86. मुस्लिम महात्माओं, पृ. 62-72 Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पूर्व पीठिका नारियों को सराबोर कर दिया था, वे भी रबिया के समान फकीर वेष में परमात्मा की भक्ति करने लगी थी। रबिया का देहान्त जेरूसलम में सन् 753 ई. हुआ माना जाता है।87 1.11 विश्व धर्मों के साथ जैन श्रमणी संस्था की तुलना जैन-संस्कृति के परिप्रेक्ष्य में जब हम इतर धर्म एवं दर्शनों का अध्ययन करते हैं तो ज्ञात होता है कि श्रमणी-संस्था का जितना व्यवस्थित एवं परिष्कृत रूप जैनधर्म में है, वैसा अन्यत्र दृष्टिगोचर नहीं होता। यद्यपि वैयक्तिक रूप में नारि-साधिकाओं के उल्लेख सभी परम्पराओं में मिल जाते हैं, किंतु भिक्षुणी-संघ के उल्लेख तो मात्र श्रमण-परम्परा के जैन और बौद्ध-धर्म में ही मिलते हैं। इस पर भी आज चाहे बौद्ध-धर्म दुनियाँ के अनेक देशों में व्याप्त है तथापि एक-दो देशों को छोड़कर अन्यत्र भिक्षुणी-संघ की कोई व्यवस्था नहीं है। चाहे जैनधर्म आज मात्र भारत तक सीमित हो फिर भी उसका भिक्षुणी-संघ आज भी भिक्षु-संघ की अपेक्षा अधिक व्यापक एवं प्रभावशाली है। ईसाई धर्म में छनदे की अपनी कुछ संस्थाएँ हैं, किंतु उनमें सभी की विभिन्न आचार-विचार व जीवन-शैली है। तप-त्यागमय, निष्परिग्रही एवं सर्वत्र महाव्रतों की एक डोर में बंधा हुआ जो रूप जैनधर्म की श्रमणियों का मिलता है, वह अन्यत्र नहीं मिलता। जैन श्रमणियाँ अध्यात्म-प्रधान जीवन की श्रेष्ठतम संवाहिका हैं, वे अध्यात्म को ही परम पुरूषार्थ मानकर स्वात्म-कल्याण एवं आत्मोपलब्धि को अपना चरम व परम लक्ष्य बनाकर चलती हैं। सांसारिक विषय-भोगों को असार, जन्म-मरण का कारण जानकर उनसे विरक्त रहती हैं, वे मात्र तप-संयम की साधना, कषायों का निग्रह, प्रशस्त ध्यान आदि शाश्वत सुख की उपदेशिकाएँ हैं, अत: संपूर्ण विश्व में मात्र जैनधर्म की श्रमणियाँ ही पुरूषों के समान 'मसीहा' के रूप में पूज्यनीय बनी हैं। 1.12 जैनधर्म की चतुर्विध संघ-व्यवस्था एवं उसमें श्रमणियों का स्थान जैनधर्म में 24 तीर्थंकरों अथवा धर्म संस्थापकों की दीर्घकालीन परम्परा चली आ रही है। तीर्थंकर अर्थात् चतुर्विध धर्मतीर्थ के संस्थापक वीतराग, अर्हन् परमात्मा। तीर्थंकर अपने धर्मशासन में आचार, संगठन और व्यवस्था को सूत्रबद्ध बनाये रखने के लिये 'संघ' की संरचना करते हैं। संघ के प्रमुख घटक हैं-श्रमण, श्रमणी, श्रावक और श्राविका। श्रमण-श्रमणी पाँच महाव्रत -(अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य एवं अपरिग्रह), पाँच समिति- (देखकर लना, विचार पूर्वक बोलना, शुद्ध एवं निर्दोष भिक्षाचर्या करना, विवेक युक्त आदान-प्रदान एवं विवेक युक्त परिष्ठापन करना) तीन गुप्ति (मन, वचन एवं काया की अशुभ प्रवृत्ति का निरोध) एवं रात्रि भोजन त्याग आदि व्रतों के संपूर्ण पालक होते हैं। श्रावक-श्राविका के 12 व्रत होते हैं, जिन्हें 'अणुव्रत' कहा जाता है। अणुव्रत इच्छानुसार ग्रहण किये जा सकते हैं। दूसरे शब्दों में महाव्रत उस मोती के समान है जिसे तोड़ा नहीं जा सकता, अणुव्रत स्वर्ण के समान हैं जिनका छोटा से छोटा भाग भी किया जा सकता है। श्रमण हो या श्रमणी पाँच महाव्रतों का संपूर्ण पालन करना दोनों को आवश्यक है, वे चतुर्विध धर्म-तीर्थ के अग्रणी स्तम्भ हैं, तीर्थंकरों द्वारा उपदिष्ट मार्ग पर चलकर वे स्व-कल्याण तो करते ही हैं, साथ ही श्रावक-श्राविकाओं को भी सम्यक्त्व का बोध देकर मोक्षमार्ग की ओर अग्रसर करते हैं। श्रमण-श्रमणियों का स्थान संघ में 'गुरु पद' पर है। 87. दिनकर, संस्कृति के चार अध्याय, पृ. 259 23 Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन श्रमणियों का बृहद इतिहास इस चतुर्विध संघ का एक नाम 'श्रमण संघ' दिया गया है श्रमण संघ का अर्थ मात्र श्रमणों का संघ ही नहीं, अपितु श्रमणियाँ भी इसमें सम्मिलित हैं, मात्र यही नहीं, श्रावक और श्राविका भी इसमें सम्मिलित हैं 'तित्थं पुण चावण्णाइण्णे 'समण-संघे' तंजहा - समणा, समणीओ, सावया, सावियाओ।' 88 यहाँ यह विशेष उल्लेखनीय है कि ज्ञान, दर्शन, चारित्र के धारक, वीतराग के उपासक 'जैन मात्र' एक अखण्ड और अविभाज्य संघ है, इन्हें महाव्रतों एवं अणुव्रतों की अपेक्षा दो वर्गों में तथा स्त्री-साधक व पुरूष साधक के विभागानुसार चार भागों में विभाजित कर चार प्रकार का 'संघ' कहा गया है। जैनधर्म में 'संघ' सर्वोच्च शक्ति का प्रतीक माना गया है, तीर्थंकरों ने संघ को अत्यधिक महत्व दिया है, स्थान-स्थान पर 'संघ' की स्तुति की गई है 1 89 जैनधर्म की श्रमणियाँ तीर्थंकरों द्वारा स्थापित चतुर्विध संघ की मूलभूत इकाई हैं, पुरुषों के समान ही वे भी साधना के पथ पर अग्रसर हो सकती हैं। 'स्त्रीशूद्रौ नाधीयताम्' इस प्रकार के प्रतिबन्ध के लिये जैनधर्म में कहीं भी किंचितमात्र भी स्थान नहीं है, इसका अकाट्य प्रमाण है - तीर्थंकरों द्वारा अपने-अपने समय में श्रमण- श्रमणी श्रावक और श्राविका रूप चतुर्विध धर्मतीर्थ की स्थापना किया जाना । यदि स्त्रियों को इस अधिकार से वंचित रखा जाता तो जैनधर्म में चतुर्विध तीर्थ के स्थान पर द्विविध तीर्थ का उल्लेख मिलता, किंतु ऐसा नहीं है। वस्तुतः अनादिकाल से तीर्थंकर तीर्थ स्थापना के समय पुरुषवर्ग और नारीवर्ग दोनों को अपने धर्मसंघ के सुयोग्य एवं सक्षम अधिकारी समझकर चतुर्विध धर्मतीर्थ की ही स्थापना करते आये हैं। महिलाओं ने भी तीर्थंकर प्रदत्त इस अमूल्य अधिकार का हृदय से स्वागत किया है, वे भी पुरूषों की तरह साधना के कंटकाकीर्ण पथ पर बढ़कर रत्नत्रय की आराधिका बनीं हैं। आत्मकल्याण के साथ-साथ विश्वकल्याण की भावना लेकर उन्होंने जन-जन को जो दिव्य पाथेय प्रदान किया, वह आज भी इतिहास के स्वर्णपृष्ठों पर अंकित है। चौबीस तीर्थंकरों के साधु-साध्वियों की संख्या का तुलनात्मक अध्ययन करने से भी यह बात स्पष्ट होती है कि साधना पथ पर श्रमणियाँ, श्रमणों की अपेक्षा बहुत आगे रही हैं। प्रथम तीर्थंकर भगवान ऋषभदेव के श्रमण जहाँ चौरासी हजार थे, वहाँ श्रमणियाँ तीन लाख थीं। भगवान महावीर के श्रमण 14000 थे, जबकि साध्वियाँ 36000 अर्थात् ढाई गुना से भी अधिक थीं, इसी प्रकार शेष तीर्थंकरों के भी श्रमणों की अपेक्षा श्रमणियों की संख्या सवागुनी से लेकर चतुर्गुणित तक अधिक बताई गई है। अधिक स्पष्टता हेतु चार्ट में देखें (साधु-साध्वी संख्या) जिसमें प्रत्येक तीर्थंकर साधुओं की संख्या से साध्वियों की संख्या अधिक है, ऐसा स्पष्ट दृष्टिगोचर हो रहा है। 88. भगवती सूत्र 20/8 89. (क) वही, शतक 41, उपसंहार गाथा 2, (ख) नन्दीसूत्र, गाथा 4 से 19 24 Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पूर्व पीठिका तीर्थंकर नाम 1. 2. 3. 4. 5. 6. 7. 2 2 2 2 2 8. 9. सुविधिनाथ 10. शीतलनाथ 11. श्रेयांसनाथ 12. वासुपूज्य 13. विमलनाथ 14. 15. 16. 21. ऋषभदेव अजितनाथ संभवनाथ अभिनंदन सुमतिनाथ 22. पद्मप्रभु सुपार्श्वनाथ चंदाप्रभु 23. 17. 18. 19. 20. मुनिसुव्रत नमिनाथ अरिष्टनेमि पार्श्वनाथ महावीर 24. अनंतनाथ धर्मनाथ शांतिनाथ कुंथुनाथ अरनाथ मल्लिनाथ 100000 200000 300000 संख्या लाख में 400000 25 500000 600000 700000 साधु-साध्वी संख्या साधु साध्वी Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन श्रमणियों का बृहद इतिहास वर्तमान में भी अखिल भारतीय समग्र जैन सम्प्रदायों की सूची में श्रमणों की अपेक्षा श्रमणियों की संख्या साढ़े तीन गुना अधिक है। देखें-साधु-साध्वी तालिका - अ. भा. समग्र जैन संप्रदाय के साधु-साध्वियों की तालिका, ई. सन् 2004 सम्प्रदाय कुल श्रमण | कुल श्रमणियाँ प्रतिशत श्रमण श्रमणी अंतर न 1658 6485 20.36 79.68 +59.28 583 2893 16.77 83.23 +66.46 श्वेताम्बर मूर्तिपूजक श्वेताम्बर स्थानकवासी श्वेताम्बर तेरापंथी दिगम्बर समुदाय कुल संख्या 154 532 22.45 77.55 +55.10 542 466 53.77 46.23 -7.54 2937 10376 22.06 77.94 +55.98 जैनधर्म में श्रमणियाँ न केवल संयम के 'असिधाराव्रत' पर चली हैं, अपितु उन्होंने रत्नत्रय की परिपूर्णता द्वारा मोक्ष भी प्राप्त किया है। श्वेताम्बर-परम्परा के अनुसार इस युग में सर्व कर्म क्षय कर मुक्ति प्राप्त करने वाली सर्वप्रथम भगवान ऋषभदेव की माता 'मरूदेवी' थी। कल्पसूत्र में भगवान ऋषभदेव की चालीस हजार श्रमणियों के मोक्षगमन का उल्लेख है, मुक्त हुई इन साध्वियों की संख्या उनके मुक्त हुए श्रमणों की संख्या से दुगुनी है। इसी प्रकार कल्पसूत्र में भगवान अरिष्टनेमि की तीन हजार, भगवान पार्श्वनाथ की दो हजार और भगवान महावीर की चौदहसौं श्रमणियों के सिद्ध बुद्ध मुक्त होने का उल्लेख है। जबकि उनके मुक्त हुए श्रमण क्रमश: 1500, 1000 एवं 700 हैं। यही नहीं, उन्नीसवें तीर्थंकर प्रभु मल्लीनाथ श्वेताम्बर परम्परा के अनुसार स्त्री थे, वे स्वयं तो परमात्मा बने ही, साथ ही 95 हजार श्रमण-श्रमणी, एवं 5 लाख 53 हजार श्रावक-श्राविकाओं के मार्गदृष्टा एवं मोक्ष-पथ प्रदाता भी बने। उनके शासन में एक हजार श्रमण एवं पाँचसौ श्रमणियाँ कर्मक्षय कर मक्ति को प्राप्त हई। भगवती मल्ली का यह धर्म संस्थापक रूप जैन आचार्यों ने गोपनीय नहीं रखा वरन् विश्व इतिहास की अद्वितीय घटना कहकर मुक्त मन से जैन आगम व साहित्य में स्थान दिया। दिगम्बर परम्परा यद्यपि स्त्री-मुक्ति की विरोधी है तथापि तमिलनाडु आदि के अनेक शिलालेखों में श्रमणी भट्टारिकाएँ कुरत्तिगल आदि शब्दों के उट्टङ्कन से वे इस बात से सहमत हैं, कि अतीत में अनेक जैन श्रमणियाँ आचार्य व उपाध्याय पद पर प्रतिष्ठित रही हैं। मूलाचार में श्रमणियों के आचार्य होने का उल्लेख है। 90. समग्र जैन चातुर्मास सूची, विशेषांक, ई. 2004, पृ. 3 91. उसभस्सणं अरहओ कोसलियस्स वीसं अंतेवासि-सहस्सा सिद्धा, चत्तालीसं अज्जिया-साहस्सीओ सिद्धाओ। -संपा. अमरमुनि, सचित्र कल्पसूत्र, सूत्र 197 92. कल्पसूत्र, सूत्र 166, 157,143 93. कल्पसूत्र, पृ. 167 26 Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पूर्व पीठिका वस्तुत: जैन दर्शन अभेदमूलक दर्शन है, उसने मानव मात्र में जिनत्व के दर्शन किये, फिर चाहे वह नर हो या नारी। स्त्री और पुरूष तो शरीर के नाम हैं, आत्मा उससे भिन्न है जो दोनों में समान है। जिनत्व की प्राप्ति में लिंग, जाति, देश व रंग का कोई महत्त्व नहीं है। बाह्य दृष्टि वालों के लिये ये बाह्य उपाधियाँ बाधक रूप बन सकती हैं, किंतु जिसके अन्तर्चक्षु खुल चुके हैं, वे पुरूष व स्त्री दोनों में कोई अन्तर नहीं देखता। जैनधर्म ने एक स्वर में नारी को 'जिन' बीज को अंकरित करने वाला माना. वही नारी स्वयं 'जिनत्व' अवस्था को भी प्राप्त हो जाय इसमें क्या संदेह है? नारी के प्रति तीर्थंकरों के उदार दृष्टिकोण का ही परिणाम है कि आज भी जैनधर्म की श्रमणियाँ 'गुरू' के रूप में सम्माननीय स्थान प्राप्त कर रही हैं। 1.13 दिगम्बर परम्परा में श्रमणी-संस्था की उपेक्षा एवं उसके कारण जैनधर्म की श्वेताम्बर शाखा की अपेक्षा दिगम्बर शाखा में श्रमणियों के प्रति कुछ अनुदारतावादी दृष्टिकोण रहा, उनके अनुसार स्त्री तब तक मोक्ष प्राप्त नहीं कर सकती, जब तक वह पुरूष के रूप में जन्म ग्रहण न कर ले। मोक्षपाहुड में तो स्त्री को श्रमणी का दर्जा भी प्रदान नहीं किया गया, वहाँ आर्यिकाओं में मात्र सामायिक चारित्र माना गया है, और उन्हें पंचम गुणस्थानवर्ती 'उत्कृष्ट श्राविका' कहा है, उनमें महाव्रत तो श्रमण संघ की व्यवस्था मात्र के लिये उपचार से कहे हैं, वस्तुतः उनके संयम को मोक्ष का कारण नहीं माना है। इसका कारण बताते हुए कहा है कि स्त्रियाँ निर्वस्त्र नहीं रह सकतीं, अत: वे मुक्ति भी प्राप्त नहीं कर सकतीं। सुत्तपाहुड में स्त्रियों में निर्भयता व निर्मलता का अभाव, शिथिलता का सद्भाव तथा एकाग्रचिन्तानिरोध रूप ध्यान का अभाव बताकर उनमें दीक्षा का सर्वथा अभाव बताया है चित्तासोहि ण तेसिं ढिल्लं भावं तहा सहावेण विज्जदि माया तेसिं इत्थीसु णऽसंकया झाण। वस्तुत : इस परम्परा ने जिनकल्प के आचार को ही साध्वाचार माना, स्थविरकल्प के गच्छवास तथा सचेल आचार को श्रमणाचार में स्थान नहीं दिया, इनके अनुसार वस्त्रधारी पुरूष चाहे तीर्थंकर ही क्यों न हो निर्वाण प्राप्त नहीं कर सकता, कहा भी है "ण वि सिन्झइ वत्थधरो जिणसासणे जइ वि होइ तित्थयरो' निर्वस्त्रता के प्रति अत्यन्त आग्रह के कारण उनके पास एक ही मार्ग रह गया था कि वे स्त्रियों के मोक्ष का भी निषेध करें। यद्यपि षट्खंडागम में मनुष्य स्त्री को संजद' गुणस्थान कहा है और संयत गुणस्थान वाला मोक्ष प्राप्त कर सकता है।” वट्टकर स्वामी विरचित मूलाचार की गाथा से भी यह बात स्पष्ट होती है कि जो साधु अथवा आर्यिका यथारूप 94. 'स्त्रीणामपि मुक्तिर्नभवति महाव्रताभावात्' - मोक्षपाहुड गा. 12/313/11 (श्रुतसागरीय टीका) 95. सुत्तपाहुड, गा. 26 96. वही, गा. 23 97. षट्खंडागम, भाग. 1, सूत्र 93 पृ. 332, प्रकाशक-जैन साहित्योद्धारक फंड कार्यालय, अमरावती (बरार) 1939 ई. Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार का पालन करते हैं वे जगत में पूजा, यश व सुख को प्राप्त कर मोक्ष में जाते हैं एवं विघाणचरियं चरितं जे साधवो य अज्जाओ। जगपुज्जं कित्तिं सुहं च लद्धूण सिज्झति ॥ 8 इस गाथा में स्पष्ट रूप से आर्यिकाओं के मोक्षगमन को स्वीकार किया गया है। इससे यह प्रतीत होता है कि प्राचीन दिगम्बर आचार्य स्त्री-मुक्ति की अवधारणा में विश्वास करते थे, किंतु बाद में टीकाकारों ने अपनी टीकाओं में स्त्री निर्वाण का निषेध किया है, अर्थात् स्त्री में संयम व मोक्ष के अभाव का विचार मूल जैन - परम्परा से संबद्ध न होकर उत्तरकालीन कुछ आचार्यों की देन है। 1.14 जैन श्रमणी के पर्यायवाची नाम उनकी अन्वर्थता एवं सार्थकता जैनधर्म में श्रमणियों का अस्तित्व इतना प्राचीन और व्यापक रहा है कि देश-काल की परिवर्तित स्थिति में विभिन्न संप्रदायों और विभिन्न भाषाओं में आज तक उन्हें अनेक नामों से संबोधित किया जाता रहा है, जैसे- 'श्रमणी', 'शमणी', 'समणी', 'श्रवणा', 'श्रामणेरी' आदि। इनमें कुछ नाम तो देश और भाषा की वर्तनी - पद्धति के अनुसार व्यवहृत हुए हैं और कुछ आगम- साहित्य एवं ग्रंथों में अथवा बोलचाल में प्रयुक्त हुए हैं। श्रमणी के अन्य पर्यायवाची नामों में 'निर्ग्रन्थी', 'भिक्षुणी', 'संयतिनी', 'व्रतिनी', 'साध्वी', 'आर्यिका', 'क्षुल्लिका', 'महासती', 'स्वामी' आदि प्रमुख है। उक्त नामों की सार्थकता तथा साहित्य में उसके प्रयोग पर एक दृष्टिपात कर लेना भी आवश्यक है। जैन श्रमणियों का बृहद इतिहास 1.14.1 श्रमणी जैनधर्म में दीक्षित स्त्री को 'श्रमणी' कहा जाता है। 'श्रमणी' शब्द तप और खेद अर्थ वाली श्रम् धातु से निष्पन्न हुआ है। 'श्रमु तपसि खेदे च ' जिसका अर्थ है - परिश्रम करना, तपस्या करना अथवा इन्द्रिय- दमन करना । स्त्रीलिंग में 'णा' अथवा 'णी' प्रत्यय जुड़कर 'श्रमणा' अथवा 'श्रमणी' शब्द बना है ।" जैन साहित्य में अनेक स्थलों पर 'श्रम' को 'तप' के अर्थ में लिया है " श्राम्यति तपसा खिद्यत इति कृत्वा श्रमणो वाच्यः 100 “ श्राम्यन्तीति श्रमणाः तपस्यन्तीत्यर्थः 101 “ श्राम्यति तपस्यतीति श्रमण: "102 अर्थात् श्रम और तप ये दोनों एकार्थवाची हैं। जो बाह्य और आभ्यंतर तप में लीन है, वह 'श्रमणी' है। श्रमणी शब्द का यह अर्थबोध जैन श्रमणियों में पूर्णरूप से परिलक्षित होता है। महावीर युग में सम्राट् श्रेणिक की कालि 98. मूलाचार - 4/196 99. वा. शि. आप्टे, संस्कृत-हिन्दी कोश- पृ. 1035, प्रकाशक- मोतीलाल बनारसीदास, दिल्ली, पुनर्मुद्रण 1987 100. आचारांगशीलांककृत टीका, पत्र 263 101. दशवैकालिक हारिभद्रीय वृत्ति 1/3 पत्र 68 102. व्यवहार भाष्य 4/2 28 Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पूर्व पीठिका आदि महारानियों का वर्णन आता है अध्यात्म तपस्तेज की प्रतिमूर्ति उन रानियों ने तप की ज्वाला में अपने समस्त कर्म समूह को भस्मीभूत कर दिया था। आज भी श्रमणियों का तपोमय उज्जवल.रूप जैसा जैन श्रमणियों में परिलक्षित होता है। वैसा विश्व इतिहास में अन्यत्र देखने को नहीं मिलता। यही कारण है कि जैन साध्वी के लिये 'श्रमणी' का सार्थक संबोधन आगम-साहित्य एवं ग्रंथों में स्थान-स्थान पर प्राप्त होता है।103 1.14.2 श्रमणा श्रमणी के लिये पाणिनी ने अष्टाध्यायी तथा शाकटायन ने अपने व्याकरण-ग्रंथ में 'श्रमणा' शब्द का भी प्रयोग किया है। जो कन्याएँ कुमारी अवस्था में ही दीक्षा अंगीकार कर लेती थीं उन्हें 'कुमारीश्रमणा' कहा गया है।04 श्रमणादि गण पाठ के अन्तर्गत 'कुमार प्रव्रजिता', 'कुमार तापसी' आदि शब्दों से यह सिद्ध होता है, कि उस समय प्रव्रज्या ग्रहण करने वाली कुमारिकाओं को 'श्रमणा' शब्द से संबोधित किया जाता था। आचार्य रविषेण ने भी पदमपुराण में श्रमणा' शब्द का प्रयोग किया है "लब्वा बोधिमनुत्तमां शशिनखाऽप्याभिमामाश्रिता। संशुद्ध श्रमणा व्रतोरूविधवा जाता नितान्तोत्कटा॥mos वाल्मिकीय-रामायण में भी शबरी के लिये श्रमणा संबोधन दिया है।06 कहीं-कहीं पर 'श्रमणा' को 'श्रवणा' शब्द से भी वर्णित किया है। अभिधान चिन्तामणि में भिक्षुकी स्त्री के 3 नामों में एक नाम 'श्रवणा' दिया है-'श्रवणा भिक्षुकी मुण्डा107 कुंदकुंदाचार्य ने श्रमण को 'सवण' (श्रवण) कहकर अभिहित किया है-"को वंदमि गुणहीणो ण हु सवणो णेव सावयो होई"108 1.14.3 अश्रमणा __'श्रमणा' जब लोक-अलोक, श्रमण-अश्रमण, तापस-अतापस आदि भेदों से रहित परब्रह्म को प्राप्त करती है तब वह 'अश्रमणा' कही जाने लगती है। बृहदारण्यक में यही बात कही है 'श्रमणोऽश्रमणस्तापसोऽतापसो नन्वागतं पुण्येतानन्वागतं पापेन तीणो' हि तदा सर्वान् शोकान् हृदयस्य भवति। 109 103. (क) श्रीमती श्रमणी पावें बभूवुः परमार्यिकाः - पद्मपुराण आ. रविषेणकृत, पर्व 119/42, (ख) 'पद्माख्या श्रमणीमुख्या विश्राण्य श्रमणीपदम्।' -श्री वादीभसिंहसूरि कृत क्षत्रचूडामणि 11/16 104. 'कुमारी श्रमणा कुमारश्रमण' - शाकटायन व्याकरणम् 2/1/78 की वृत्ति, भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशन, सन् 1977 105. प. पु. पर्व 78 श्लोक 95 106. वा. रा. 1/1/56 107. श्रवणायां भिक्षुकी स्यात्-काण्ड 1, गा. 196, पं. श्री हरगोविन्दशास्त्री, चौखम्बा संस्कृत सीरिज, वाराणसी 108. दर्शनपाहुड, 27 109. बृहदारण्यक 4/3/22 29 Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन श्रमणियों का बृहद इतिहास ऋग्वेद के अश्रमण शब्द की व्याख्या में सायण ने भी 'अश्रमणाः श्रमणवर्जिताः' कह कर उसकी श्रमणातीत अवस्था का संकेत किया है। 1 10 1.14.4 शमनी 'श्रमणी' का ही एक अन्य रूप संस्कृत में 'शमनी' के अर्थ में भी प्राप्त होता है। मागधी भाषा में 'श्रमणी ' के स्थान पर 'शमनी' प्रयोग मिलता है। विदेशों में 'शमन' तथा 'शमन धर्म' के नाम से 'श्रमण धर्म' प्रचलित रहा है । " शमनी शब्द 'शमु उपशमे' धातु से निर्मित हुआ है जिसका अर्थ है अपनी वृत्तियों को शान्त रखने वाली । श्रमणियाँ संयम, समिति, ध्यान, योग, तप और चारित्र द्वारा पापों का शमन करती हैं, अतः उन्हें 'शमनी' भी कहते हैं। 12 1.14.5 समणी अर्द्धमागधी प्राकृत में 'श्रमणी' का 'समणी' रूप बनता है। जैन आचार्यों ने 'समणी' शब्द को विभिन्न अर्थों में व्याख्यायित किया है। स्थानांग सूत्र की टीका में कहा है जह मम ण पिअं दुक्खं जाणिआ एमेव सव्वजीवाणं । न हणइ न हणावेइ अ, सममणई तेण सो समणो ।।13 अर्थात् जो सभी प्राणियों को आत्मतुल्य समझकर किसी भी जीव का हनन नहीं करता, वह 'समण' है। उत्तराध्ययन सूत्र में भी यही बात कही है- 'समयाए समणो होई | 14 जैन समण - समणी समताभाव के आराधक होते हैं वे शत्रु-मित्र पर समदृष्टि रखते हैं, उनके लिये संसार में न कोई प्रिय है न अप्रिय अनुकूल अथवा प्रतिकूल अवस्थाओं में समान वृत्ति व प्रवृत्ति होने से उन्हें 'समण' या 'समणी' यह सार्थक संबोधन प्राप्त हुआ है। 1.14.6 निर्ग्रन्थी जैन श्रमणी का आगम-सम्मत नाम 'निग्गंथी' या 'णिग्गंथी' है । इस शब्द का प्रयोग सर्वप्रथम सूत्रकृतांग 15 सूत्र एवं तत्पश्चात् स्थानांग सूत्र " में हुआ है। ज्ञाताधर्मकथांग, उपासकदशांग " भगवती" आदि परवर्ती आगम- साहित्य में एकाधिक बार 'निग्गंधी' शब्द श्रमणी के लिये प्रयुक्त हुआ है। 110. 'तृदिला अतृदिलासो अद्रयोऽश्रमणा अग्रथिता अमृत्यव: ' - ऋग्वेद 10/94/11 111. दृष्टव्य-जवाहरलाल जी जैन, भारतीय श्रमण संस्कृति, पृ. 3 112. मूलाचार 9/26 114. उत्तराध्ययन 25/32 116. 1/167-269, 3/345, 4/59; 5/98-100, 6/2, 3, 100 117. गोयमादिए समणे निग्गंथे निग्गंधीओ य खामेत्ता....... - ज्ञातासूत्र 1 / 1 / 204 118. उवासगदशा 2/46, 47; 6/28, 29 119. भगवती 7/22 से 25; 8/254 30 113. स्थानांग टीका पृ. 272 115. सूत्रकृतांग 2/1/11 Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पूर्व पीठिका बृहत्कल्प भाष्य में 'ग्रन्थ' का अर्थ गांठ किया है, जो राग-द्वेष रूपी आन्तरिक एवं धन-धान्यादि परिग्रह रूप बाह्य ग्रन्थि को जीतने का प्रयास करता है, वह 'निर्ग्रन्थ है।120 निर्ग्रन्थ की व्याख्या करके भाष्यकार 'निर्ग्रन्थी' शब्द का भी यही अर्थ मान्य करते हुए कहते हैं 'निर्ग्रन्थी शब्द व्युत्पत्तिरपि निर्ग्रन्थ शब्दवद् दृष्टव्या, लिंगमात्रकृत भेदत्वादनयोरिति। 127 अर्थात् भगवान महावीर के शासन में निर्ग्रन्थ एवं 'निर्ग्रन्थी' के आचार, नियम, मर्यादाओं में कोई भिन्नता नहीं है। दोनों को समान स्थान दिया गया है। निशीथ भाष्य में 'निर्ग्रन्थ' के समान ही 'निर्ग्रन्थी' शब्द की व्युत्पत्ति की है- "णिग्गय गंथी णिग्गंथी-122 1.14.7 भिक्षुणी जैन आगम भाष्य, नियुक्ति, चूर्णि आदि में अनेक स्थलों पर 'श्रमणी' के लिये 'भिक्षुणी' शब्द उपलब्ध होता है। सर्वप्रथम आचारांग सूत्र के प्रथम श्रुतस्कन्ध में भिक्षुणी शब्द श्रमणी के लिये प्रयुक्त हुआ। वहां भिक्षुणी को स्वादवृत्ति का वर्जन करते हुए सरस आहार में या स्वाद में लोलुप एवं आसक्त नहीं होने का निर्देश किया है। 23 दशवैकालिक में कहा है-जो मुनि वस्त्रादि उपधि में मूच्छित नहीं है, अगृद्ध है, अज्ञात कुल में भिक्षा की एषणा करता है, दोषों से रहित है, क्रय-विक्रय और सन्निधि से विरत तथा सर्वसंग (परिग्रह) से रहित निर्लेप है वह 'भिक्षु' है,124 क्योंकि भिक्षु अपने जीवन का निर्वाह भिक्षा द्वारा ही करता है, व्यवहार भाष्य निशीथ भाष्य 26, निशीथचूर्णि27 तथा दशवैकालिक नियुक्ति 28 आदि ग्रंथों में 'भिक्षु' शब्द की यही व्युत्पत्ति की गई है। अर्थात् श्रमणी को भिक्षा हेतु शुद्धता, निर्दोषता एवं संयम-निर्वाह का विशेष लक्ष्य रखना चाहिये। व्यवहारभाष्य में भिक्षु की व्युत्पत्ति "भिदंतो यावि खुधं भिक्खू' इस प्रकार की गई है। कहीं-कहीं पर अष्टविध कर्म-ग्रन्थि का भेदन करने के अर्थ में भी 'भिक्षु' शब्द प्रयुक्त हुआ है "भेत्ताऽऽगमोवउत्तो दुविह तवो भेअणं च भेत्तव्व। अट्टविहं कम्मखुहं तेण निरूत्तं स भिक्खुत्ति॥130 120. सहिरण्यक: सग्रन्थः, अत्र हिरण्य ग्रहणं बाह्याऽऽभ्यन्तर परिग्रहोपलक्षणम्'-बृहत्कल्पभाष्य, भाग 2, गा. 806, पृ. 257 121. वही, पृ. 257 122. निशीथभाष्य, सूत्र 23, चतुर्थ उद्देशक 123. आचारांग 1/8/6 124. उवहिम्मि अमुच्छिए अगिद्धे अन्नायउंछपुल निप्पुलाए। कयविक्कयसन्निहिओ विरए सव्वसंगावयए य जे स भिक्खु।। -दशवैकालिक 10/26 125. भिक्खणसीलो भिक्खू व्यवहार भाष्य गा. 189, 126. निशीथभाष्य, गा. 6275 127. भिक्षाभोगी वा भिक्खू निशीथचूर्णि 4 पृ. 271 128. जं भिक्खमत्तवित्ती तेण व भिक्खू - दशवैकालिक नियुक्ति 344 129. व्यवहारभाष्य गा. 42 130. आचार्य तुलसी, निरूक्तकोश, पृ. 220, लाडनूं, वर्ष 1984, 31 For Privac s onal Use Only Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन श्रमणियों का बृहद इतिहास जो शास्त्र की नीति एवं मर्यादानुसार तप द्वारा कर्म-बंधन का भेदन करता है, वह भिक्षु है।। दिगम्बर ग्रंथ मूलाचार में अनेक स्थलों पर श्रमण के लिये 'भिक्षु' शब्द का प्रयोग किया गया है।32 'भिक्षुणी' शब्द का प्रयोग दिगम्बर ग्रंथों में देखने को नहीं मिलता। जबकि श्वेताम्बर आगमों में भिक्षुणी (भिक्खुणी) के अनेकशः उल्लेख हैं। संस्कृत हिंदी कोश में 'श्रमणी' को 'भिक्षुकी' भी कहा है।133 अभिधान चिन्तामणि कोश में 'श्रमणी' के तीन नामों में एक नाम 'भिक्षुकी' है।।34 1.14.8 संयतिनी (संजतीण) श्रमणियों का एक नाम 'संयतिनी' भी है।35 निशीथ चूर्णि में 'संयतिनी नियम से निर्ग्रन्थी है। 36 पद्मपुराण में 'मदोदरी को "संयता, संयममाश्रितानि" कहा है। निशीथभाष्य में 'संयत' के समान ही 'संयतिनी' के नियम जानना चाहिये ऐसा स्पष्ट उल्लेख है। 38 । संयत की परिभाषा करते हुए मूलाचार में कहा है -'कषाय रहित होना चारित्र है, इस दृष्टि से जिस समय जीव उपशान्त (व्रत में स्थित तथा कषाय रहित) हो जाता है उसी समय वह 'संयत' (चारित्र युक्त) हो जाता है, तथा कषाय के वशीभूत जीव असंयत हो जाता है। अतः चारित्रादि अनुष्ठान में निष्ठ रहते वाला 'संयत' कहा जाता है। 39 धवला के अनुसार 'सम' अर्थात सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान के अनुसार जो बहिरंग तथा अंतरंग आस्रवों से विरत है, उन्हें 'संयत' कहते हैं। 40 संयत के समान ही 'संयतिनी' का भी स्वरूप है। 1.14.9 व्रतिनी संयतिनी को 'व्रतिनी' भी कहते हैं, व्रतिनी से तात्पर्य व्रत धारण करने वाली श्रमणी। जैन श्रमणियाँ अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य एवं अपरिग्रह इन पाँच महाव्रतों को धारण करती हैं, अतः वे 'व्रतिनी' हैं। 'समणी-व्रतिन्याम्' विरतीनां आर्यिकाणां"41 इत्यादि शब्दों से ध्वनित होता है कि श्रमणी और वतिनी पर्यायार्थक हैं। बृहत्कल्प भाष्य में 'व्रतिनी' शब्द का श्रमणी के अर्थ में अनेक बार प्रयोग हुआ है। 42 131. यः शास्त्रनीत्या तपसा कर्म भिनत्ति स भिक्षुः- दशवैकालिक हरि. वृत्ति अ. 10 132. मूलाचार 5/213, 7/39, 10/20, 57, 58, 123, 124 133. वा. शि. आप्टे, पृ. 1035 134. अभिधान चिन्तामणि कोश, काण्ड 1 गा. 196 पृ. 134 135. आर्यिकायां संयत्याम् - अभिधान राजेन्द्र कोश, भाग 7 पृ. 417 136. संजतीण वि णियमा अवश्यं निर्ग्रन्थीनां भवतीत्यर्थ-निशीथचूर्णि, जिनदासगणि, चतुर्थ उद्देशक, गा. 590. 137. पद्म पुराण, पर्व 78 श्लो 94 138. इदाणिं संजतीण एसेव गमो णियमा -निशीथ भाष्य गा. 600 139. अकसायं तु चारित्तं कसायवसिओ असंजदो होदि। उवसमदि जम्हि काले तक्काले संजदो होदि।। -मूलाचार 10/91, पृ. 388 140. अभिधान राजेन्द्र, भाग 7, पृ. 413 141. मूलाचार, गा. 180 की टीका 142. वतिणी वतिणी वतिणी व परगुरूं पर गुरू व जइवइणिं-बृहत्कल्पभाष्य गा. 2224 32 Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पूर्व पीठिका 1.14.10 साध्वी श्रमणी के लिये वर्तमान में 'साध्वी' शब्द का प्रचलन बहुतायत से देखने को मिलता है। आमतौर से साधु शब्द का उच्चारण करते ही हमारे सामने 'मुनि, यति, श्रमण' का भाव आ जाता है और साध्वी से 'श्रमणी, आर्यिका' का। दूसरी तरफ ग्रंथ-प्रशस्तियों, प्रतिमा-लेखों आदि में 'साधु 'शब्द' साहुकार या धनी गृहस्थ के अर्थ में अधिकांशतः प्रयुक्त हुआ है, और 'साध्वी' उसकी पत्नी के लिये। नाथूराम प्रेमी ने 'साहु' शब्द का उद्भव संस्कृत से न मानकर फारसी से माना है। उनके मतानुसार यह शब्द मुसलमान काल में लोकभाषा में प्रचलित हो गया था, 43 किंतु यह मान्यता उचित नहीं है। जैन परम्परा में मुनि, ऋषि, संत इत्यादि के पर्यायवाची के रूप में 'साधु' शब्द के प्रयोग मिलते हैं । नमस्कार मंत्र में 'सव्वसाहूणं' पाठ है जो ईसा पूर्व से मिलता है। साध्वी के लिये प्राकृत में 'साहुणी', साहुई एवं साधुणी तीनों शब्द हैं निशीथ भाष्य में कहा है __साधुणी वि सहू, साहू वि सहू' (गा. 1754) साध्वी शब्द 'रत्नत्रयधारिण्यां श्रमण्याम्' अथवा तपस्विनी के अर्थ में भी प्रयुक्त हुआ है। 44 अभिधान राजेन्द्र कोश'45 में विभिन्न आगमों के उद्धरण देकर साधु शब्द की अनेक व्युत्पत्तियाँ की हैं (1) 'साधयति सम्यग्दर्शनादि योगैरपवर्गमिति साधुः' (2) 'साधयति-पोषयति विशिष्टक्रियाभिरपवर्गमिति साधुः (3) 'साधयति ज्ञानादिशक्तिभिर्मोक्षमिति साधुः' (4) 'अभिलषितम) साधयतीति साधुः (5) 'अनन्तज्ञानादि शुद्धात्मस्वरूपं साधयन्तीति साधवः उक्त सभी परिभाषाओं का तात्पर्य उन श्रमण-श्रमणियों से है, जो संपूर्ण दुःखों से मुक्ति प्राप्त करने के लिये ज्ञान, दर्शन चारित्र की साधना करते हैं एवं जीवों पर समता भाव रखते हैं।।46 1.14.11 आर्यिका संस्कृत-साहित्य में 'आर्य' शब्द आदरणीय, सम्माननीय अथवा उच्चपदस्थ या कुलीन व्यक्ति के विशेषण रूप में प्रयुक्त होता है।'47 संस्कृत हिन्दी कोश में आर्य शब्द की व्युत्पत्ति इस प्रकार की गई है 'कर्त्तव्यमाचरन् कार्यमकर्त्तव्यमनाचरन् तिष्ठति प्रकृताचारे स वा 'आर्य' इति स्मृतः।148 143. भास्कर पत्रिका, पृ 82, भाग 7 किरण 2 जून 1940 144. दृष्टव्य- 'साहुणी'-अभिधान राजेन्द्र कोष, भाग 7 पृ. 804 145. अभिधान राजेन्द्र कोश, भाग 7 पृ 802 146. निव्वाणसाहए जोए, जम्हा साहति साहुणो। समा य सव्वभूएसु, तम्हा ते भाव साहुणो।। -आव. नि. भाग 1, गाथा 1002 147. यदार्यमस्यामभिलाषि मे मनः (शकुन्तला नाटक 2/22) 148. द.- वामन शिवराम आप्टे, पृ. 159 33 Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन श्रमणियों का बृहद इतिहास अर्थात् जो अपने देश के नियम तथा धर्म के प्रति निष्ठावान् हैं, उन्हें 'आर्य' कहा जाता है।' आर्य' से ही 'आर्या' शब्द निष्पन्न हुआ है। अर्धमागधीकोश एवं संक्षिप्त प्राकृत हिन्दी कोश में 'आर्यिका' को 'अज्जा' एवं उसका अर्थ साध्वी, सन्यासिनी या 'महासती किया गया है। आगम- साहित्य में साध्वी के लिये 'अज्जा' शब्द का अनेक स्थानों पर प्रयोग हुआ है। 'अज्जिया', 'अज्जया' आदि नामान्तर भी देखे जाते हैं। 149 जैन - साहित्य में 'आर्या' आर्यका, आर्यिका आदि श्रमणियों के लिये प्रयुक्त हुए शब्द हैं। लेकिन वर्तमान समय में श्वेताम्बर परम्परा की श्रमणियों के लिये 'साध्वी' एवं दिगम्बर- परम्परा की श्रमणियों को 'आर्यिका' शब्द से संबोधित किया जाता है। वहाँ 'आर्यिका' के लिये 'अर्जिका' उत्तर भारत में 'माताजी' कन्नड़ में 'अम्मारी' ' संबोधन भी मिलते हैं। जो मुनि से निम्न श्रेणी एवं गृहस्थ से 'उच्च श्रेणी' की प्रतीक है। 'बाईजमा ' जैन वाड्.मय में 'आर्या' शब्द साध्वी के अर्थ में इतना लाक्षणिक हो गया था, कि साध्वियों के विशेष नियमों की ओर संकेत करने वाले सूत्रों को भी 'आर्यासूत्र' कहा जाने लगा। 150 1.14.12 क्षुल्लिका ( खुड्डी ) संयम जीवन के शिखर पर चढ़ने के लिये प्रारंभिक तैयारी के रूप में मुमुक्षु स्त्रियाँ जब शैक्ष अवस्था को पार करके पाँच महाव्रतों को अंगीकार कर लेती हैं तब तीन वर्ष तक की दीक्षिता श्रमणी को 'क्षुल्लिका' कहा जाता है | St तिवरिसो होइ नवो आसोलसगं तु डहरगं बेंति । तरुण चत्तालीसो सत्तरि उण मज्झिमो थेरओ सेसो 1 1 1 52 निशीथसूत्र में 'क्षुल्लिका श्रमणी' के संयम व शील की सुरक्षार्थ अनेक नियम-उपनियमों का विधान किया गया है। दिगम्बर परम्परा में 'क्षुल्लिका' को उत्कृष्ट श्राविका कहा है। पद्मपुराण में आचार्य रविषेण के 'गृहस्थ मुनि' शब्द का अर्थ टीकाकार ने 'क्षुल्लक' किया है। 53 क्षुल्लिका एक पात्रधारी अथवा पाँच पात्रधारी होती हैं। थाली आदि में बैठकर भोजन करती हैं। उनके लिये केशलोंच का नियम नहीं है, वह कैंची आदि से भी बालों को निकाल सकती है। इनके पास धातु का कमण्डलु रहता है। दिन में एक ही बार आहार लेती हैं, वह एक सफेद साड़ी के सिवाय एक चादर भी रखती हैं। 154 श्रमणी के अन्य नामों में आजकल 'सती' या 'महासती' का प्रचलन भी अधिक स्थलों पर देखा जाता है। 149. स्थानांग 5/162, समवायांग 36/3, ज्ञाता सूत्र, 1/1/85, भगवती 3/34, 9/135 से 155; 150. जैन सिद्धान्त बोल संग्रह, भाग 5, पृ. 237, प्रकाशक-सेठिया जैन पारमार्थिक संस्था, बीकानेर, 1950 ई. (द्वि.सं.) 151. (क) सेहो पवज्जाभिमुो आगतो पव्वतितो वा निशीथसूत्र पीठिका, गा. 323 (ख) खुड्डगो सिसू बालो त्ति वृत्तं भवति वही गा. 349 152. व्यवहार भाष्य गाथा 220 153. .. आसनादि प्रदानेन गृहस्थमुनि वेषभृत् पर्व 102, श्लोक 3 154. डॉ. फूलचन्द्र जैन, मूलाचार का समीक्षात्मक अध्ययन, पृ. 422 - 34 Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पूर्व पीठिका जैनधर्म में शील का प्राण-प्रण से निर्वाह करने वाली स्त्रियों को 'सती' या महासती के नाम से पुकारा जाता है, ऐसी सोलह कहीं चौंसठ सतियों के नामोल्लेख भी आये हैं। 1.15 जैन श्रमणी संघ की आंतरिक व्यवस्था (विभाजन, पद, योग्यता, दायित्व, कर्तव्य) प्रत्येक तीर्थंकर के शासनकाल में श्रमणियों का एक संगठित एवं सुविशाल संघ रहा है। किंतु जैसे श्रमण-संघ की सुव्यवस्था अनेक गणधरों में विभक्त होकर होती थी, वे गणधर अपने गणस्थ श्रमणों के अध्ययन तथा पर्यवेक्षण का कार्य करते थे, उस प्रकार सुविशाल श्रमणी-संघ का संचालन करने के लिये किस प्रकार की व्यवस्थाएँ थीं, इसका उल्लेख किसी भी आगम में नहीं मिलता। यद्यपि श्रमण संघ में श्रमणियों की संख्या श्रमणों की अपेक्षा प्रायः अधिक रही हैं, तथापि प्रथम तीर्थंकर भगवान ऋषभदेव के समय 3 लाख श्रमणियों का नेतृत्व ब्राह्मी ने तथा भगवान महावीर के संघ में 36 हजार श्रमणियों का नेतृत्व चन्दना ने किया था। अन्य भी 22 तीर्थंकरों के शासन काल में साध्वियों की सुव्यवस्था हेतु मात्र एक साध्वी-प्रमुखा का ही उल्लेख मिलता है। जिसे 'पवत्तिणी' कहा जाता था। आगम साहित्य में; जैसा कि पूर्व में वर्णित किया जा चुका है, श्रमणी के लिये भिक्खुणी, अज्जा, अज्जिया, समणी, निग्गंथी आदि शब्दों के प्रयोग मिलते हैं परंत इनसे श्रमणी-संघ की संगठनात्मक व्यवस्था की कोई सचना प्राप्त नहीं होती क्योंकि ये शब्द सामान्य रूप से सभी श्रमणियों के लिये सामदायिक रूप में प्रयक्त हए हैं। अन्तकृद्दशांग'56 सूत्र में 'सिस्सिणी' शब्द एवं ज्ञाताधर्मकथा'57 में 'गुरूई' शब्द हैं, जो दीक्षादाता एवं दीक्षा के लिये इच्छुक नारी के सूचक हैं। इसी प्रकार 'अज्जा' शब्द सद्यः प्रव्रजित नारी तथा प्रव्रज्या प्रदान करने वाली श्रमणी दोनों के लिये प्रयुक्त किये गये हैं परंतु ये कोई विशिष्ट शब्द नहीं थे, जिसके आधार पर तत्कालीन श्रमणियों के पद-निर्धारण का कोई क्रम निश्चित् किया जा सके। श्रमणी-संघ की सुव्यवस्था हेतु जितने भी पद हैं, वे छेदसूत्रों में ही उपलब्ध होते हैं। इससे यह प्रतीत होता है कि तीर्थंकरों के समय आत्मानुशासित वृत्ति एवं साक्षात् तीर्थंकरों की उपस्थिति के कारण इस चीज की आवश्यकता महसूस नहीं हुई होगी, अथवा आंतरिक कुछ व्यवस्थाएँ बनी भी होंगी पर बाहर में उनका प्रकटीकरण नहीं हुआ होगा। 1.15.1 श्वेताम्बर परम्परा में श्रमणियों की पद-व्यवस्था श्वेताम्बर परम्परा द्वारा मान्य छेदसूत्रों में श्रमणी के लिये अज्जा, भिक्खुणी, निग्गंथी के अतिरिक्त 'पवत्तिणी' (प्रवर्तिनी), गणिणी, 'गणावच्छेइणी', थेरी आदि पदों का उल्लेख है, भाष्य चूर्णि एवं टीकाओं में उनका विकसित रूप देखने को मिलता है, जैसे-बृहत्कल्पभाष्य में श्रमणी-संघ के पाँच पद-प्रवर्तिनी, अभिषेका, भिक्षुणी, स्थविरा, क्षुल्लिका तथा इसके अतिरिक्त महत्तरिका, गणावच्छेदिका, प्रतिहारी आदि पदों का भी उल्लेख मिलता है। ये सभी पद संयमी जीवन का निर्वाह, धर्म की प्रभावना, ज्ञान की आराधना, संगठन व अनुशासन की दृढ़ता आदि उद्देश्यों को दृष्टि में रखकर दिये जाते थे। 155. श्री जयमलजी महाराज, जयवाणी, पृ. 46 प्रकाशक- सन्मति ज्ञानपीठ आगरा, संवत् 2016 156. अन्तकृद्दशांग सूत्र, वर्ग 5 157. ज्ञाताधर्मकथा सूत्र, 1/9/10 35 For Privatleasonal Use Only Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन श्रमणियों का बृहद इतिहास 1.15.1.1 प्रवर्तिनी पदः अर्थ, योग्यता एवं दायित्व 'प्र' उपसर्ग पूर्वक 'वृत्' धातु में णिच् और 'ण्वुल' प्रत्यय लगाकर 'प्रवर्तक' शब्द बना है। स्त्रीलिंग में 'प्रवर्तिका' अथवा 'प्रवर्तिनी' शब्द उन्नेता, प्रणेता, जन्मदाता अथवा संचालिका के अर्थ में व्यवहत होता है। 58 प्रवर्तिनी का श्रमणी-संघ में वही महत्त्व है, जो महत्त्व श्रमण-संघ में आचार्य का है। प्रवर्तिनी को 'साध्वी-संघ की नायिका कहा गया है। वह साध्वियों को संयम-प्रवृत्ति में जोड़ने वाली होती है।159 आचार्य के समकक्ष प्रवर्तिनी होने से उसकी योग्यताएँ भी आचार्य आदि के ही समकक्ष है। इस महत्त्वपूर्ण पद पर वही साध्वी प्रतिष्ठित हो सकती है जो आचार-कुशल, प्रवचन प्रवीण, असंक्लिष्ट चित्तवाली एवं स्थानांग- समवायांग की ज्ञाता हो। आचार-प्रकल्प (आचारांग-निशीथ सूत्र) को प्रमादवश विस्मृत कर देने वाली साध्वी इस पद के सर्वथा अयोग्य हो जाती है, किंतु अन्य कारणवश विस्मृत हो गई हो और पुनः कंठस्थ कर ले तो वह पुनः इस पद की अधिकारिणी हो सकती है।160 अयोग्य साध्वी यदि प्रवर्तिनी पद पर अधिष्ठित हो गई तो अन्य स्वधर्मिणी साध्वियों को चाहिये कि वे उसे पद-त्याग हेतु विनती करे। अयोग्य प्रवर्तिनी की नेश्राय में रहने वाली साध्वियाँ प्रायश्चित् की भागी होती हैं। प्रवर्तिनी पद पर अधिष्ठित श्रमणी को भी चाहिये कि वह अयोग्य घोषित किये जाने पर अपने पद का त्याग कर दे, अन्यथा उसे उतने ही दिन का तप या छेद रूप प्रायश्चित् आता है। प्रवर्तिनी पद की नियुक्ति आचार्य के निर्देशानुसार की जाती है किंतु सामान्य विधान की अपेक्षा सूत्रानुसार साध्वियाँ या प्रवर्तिनी आदि को भी यह अधिकार है कि वह किसी भी योग्य साध्वी को प्रवर्तिनी पद पर नियुक्त कर सकती हैं और अयोग्य सिद्ध होने पर पद-त्याग की अपील भी कर सकती हैं। प्रवर्तिनी को हेमन्त व ग्रीष्म ऋतु में दो साध्वियों के साथ और वर्षावास में कम से कम तीन साध्वियों के साथ रहने का विधान है। 62 प्रवर्तिनी का कर्तव्य है कि वह अपने संघ की श्रमणियों की सुरक्षा एवं व्यवस्था करे। उन्हें विधि-निषेधक नियमों का परिज्ञान कराए। नियमों का उल्लंघन करने पर उन्हें उचित प्रायश्चित दे। 63 3 क्षेत्र में आगत अन्य प्रवर्तिनी को समचित आदर देना. भक्त-पान एवं स्थानादि हेत पच्छा करना भी प्रवर्तिनी का कार्य है। 64 प्रवर्तिनी का एक प्रमुख कर्त्तव्य संघ में उत्पन्न कलह को प्रशान्त करना भी है। साध्वी-संघ में वैराग्यशीला मुमुक्षु महिलाओं को दीक्षित करने का गुरुतर भार भी प्रवर्तिनी ही संभालती है। 158. संस्कृत हिंदी शब्दकोश, पृ. 673 159. (क) प्रवर्तिनी-सकल साध्विनां नायिका-बृहत्कल्प भाष्य, भाग 4 टीका-4339, (ख) “आचार्य स्थाने प्रवर्तिनी" -वही, गाथा 1070 की टीका। 160. व्यवहारसूत्र 5/16%3; व्यवहार भाष्य 2327-28 161. व्यवहारसूत्र 5/13-14 162. व्यवहारसूत्र 5/1-2,5-6 163. बृहत्कल्प भाष्य, भाग 2, उद्देशक 1 गाथा 1043-1044 164. वही, भा. 2, उद्देशक-1 गा. 1071 165. उप्पन्ने अहिगरणे, गणहारि निवेदणं तु कायव्वं। जइ अप्पणा भणेज्जा, चउम्मासा भवे गुरुगा। -बृहत्कल्प भाष्य भा. 3, गाथा 2222 से 2231 36 Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पूर्वपीठिका संक्षेप में, श्रमणी - संघ की देखभाल का मुख्य उत्तरदायित्व प्रवर्तिनी पर रहता है। श्रमणी संघ में उसका आदेश अंतिम और सर्वमान्य होता है। 1.15.1.2 महत्तरिका श्रमणी - संघ का यह एक महत्त्वपूर्ण पद था, जो आज भी उसी रूप में कायम है। श्रमणी - संघ की प्रमुखा साध्वी को ‘महत्तरा' कहा जाता है। 66 “महत्तर कहिए कुल विषै बड़ा 167 महत्तरिका साध्वी माँ के समान वात्सल्य भाव से धर्म का उपदेश करने वाली होती है। इसका उपदेश बोधि प्राप्ति कराने वाला माना गया है। 168 श्रमणियाँ अपने दोषों की आलोचना उसी के समक्ष करती थीं। अनेक ग्रन्थों के प्रणेता आचार्य हरिभद्रसूरि की बोधदाता एवं ग्रंथ प्रणयन में जोड़ने वाली, साध्वी याकिनी सर्वत्र 'याकिनी महत्तरा' के नाम से आज भी प्रसिद्ध है। गच्छाचार पइन्ना के अनुसार शीलवती, सुकृत करने वाली कुलीन और गंभीर अन्तःकरण वाली गच्छ में मान्य आर्यिका 'महत्तरा' पद को प्राप्त करती है। 169 संघ-प्रमुखा साध्वी के लिये 'महत्तरा' पद सहेतुक है। उसे 'महत्तमा' नहीं कहा, 'महत्तरा' कहकर उसे सामान्य साधु-साध्वी से ऊँचा दर्जा दिया है तथा आचार्य से अनुशासित होने के कारण 'महत्तमा' नहीं गिना गया। 1.15.1.3 गणिनी साध्वी- समुदाय की प्रमुखा को ही गणिनी शब्द से भी संबोधित किया जाता था। गणिनी के संघीय व्यवस्था में क्या कर्त्तव्य थे, यह स्पष्ट नहीं होता है, किंतु जैसे श्रमण-संघ में ग्यारह अंगों का ज्ञाता गणी कहलाता है, 170 सी प्रकार श्रमणी - संघ में बहुश्रुता साध्वी को गणिनी कहा जाता होगा। आचारांग चूर्णि में 'गणी' का महत्त्व स्थापित करते हुए कहा है कि सामान्य श्रमण, आचार्य या उपाध्याय अध्ययन करते हैं, परंतु जब स्वयं आचार्य को अध्ययन की अपेक्षा तब वे मात्र 'गणी' से ही पढ़ सकते हैं। इससे यह प्रतीत होता है कि 'गणी' अथवा 'गणिनी' बहुश्रुती, संयमी एवं पर्याय ज्येष्ठ होते हैं तथा शिक्षा के महत्वपूर्ण कार्य में अग्रणी होते हैं। संस्कृत में 'गण्' धातु गणना के अर्थ में है, इससे भी गणिनी ' श्रेष्ठ, गणनीया, माननीया' साध्वी ही ध्वनित होती है। मूलाचार में महत्तरिका, प्रधान साध्वी को गणिनी कहा है। 171 कहीं-कहीं गणिनी का पद अभिषेका के सदृश दिखाया गया है जैसे जहाँ प्रायश्चित् की बात आती है, वहाँ गणिनी और अभिषेका को एक समान प्रायश्चित् का पात्र बताया है, प्रवर्तिनी के लिये इनकी अपेक्षा गुरूतर प्रायश्चित् का विधान है। 1 72 किंतु अन्यत्र गणिनी को प्रवर्तिनी के समकक्ष भी वर्णित किया गया है। 73 भाष्य में सर्वत्र प्रवर्तिनी 166. (क) स्थानांग सूत्र 4 / 126, 127; 6/53, 54; 8/95-100 (ख) भगवती सूत्र 3/7, 11/109,110 (ग) ज्ञाता सूत्र 1/8/35;2/1/10 167. त्रिलोकसार 683 टीका । 168. 'मयहरिया में णेहपरा धम्मवक्खाणं करेति तेण मे बोधि लद्धा' - निशीथभाष्य 1684 169. गच्छाचार पइन्ना, गाथा 118 170. 'एकादशांगविद् गणी' - जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश, भा. 2, पृ. 234 171. (क) 'गणिनीं तासां महत्तरिकां प्रधानां' - मूलाचार, समाचाराधिकार, गा. 178 टीका, (ख) 'गणिनी महत्तरिका' वही, गा. 192 टीका 172. गणिनी अभिषेका सा छेदे, प्रवर्तिनी पुनर्मूले तिष्ठतीति । - बृहत्कल्प भाष्य, भा. 3, गाथा 2410 की टीका 173. गणिनी प्रवर्तिनी सा भिक्षु सदृशी मन्तव्या - वही, भाग 6 गाथा 6112 की टीका 37 Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन श्रमणियों का बृहद इतिहास और गणिनी एकार्थक रूप में वर्णित है। कहीं प्रवर्तिनी और गणिनी का पृथक-पृथक् दण्ड. विधान भी है। 74 वस्तुतः गणिनी पद को धारण करने वाली श्रमणी में अनेक गुणों तथा योग्यताओं का होना आवश्यक था। वह अत्यन्त विदुषी तथा प्रशासनिक कार्यों में दक्ष होती थी। यद्यपि वह स्वाध्याय तथा ध्यान में सदा लीन रहती थी तथापि जिनशासन की रक्षा का प्रश्न उपस्थित हो जाने पर वह उग्र रूप धारण कर लेती थी। शिक्षा प्रदान करने में वह किसी प्रकार का प्रमाद या आलस्य नहीं करती थी। गणिनी को गुणसम्पन्न कहा गया है। वह संघ की मर्यादा की रक्षा में सदा तत्पर रहती थी तथा साध्वियों की संख्या में वृद्धि का सतत प्रयत्न करती थी। 75 1.15.1.4 गणावच्छेदिका श्रमण के लिये 'गणावच्छेदक' का उल्लेख स्थानांगसूत्र76 एवं आवश्यक चूर्णि'77 में हुआ है। किंतु श्रमणियों के लिये इस पद का प्रयोग केवल छेदसूत्रों में ही देखा जाता है। वहाँ सर्वत्र ‘पवत्तिणी वा गणावच्छेइणी वा' इस प्रकार शब्द-प्रयोग हुआ है। गणावच्छेदिनी प्रवर्तिनी की प्रमुख सहायिका होती है। इनका कार्यक्षेत्र गणावच्छेदक के समान ही विशाल होता है और यह प्रवर्तिनी की आज्ञा से साध्वियों की व्यवस्था, सेवा, प्रायश्चित् आदि सभी कार्यों की देखरेख करती है। श्रमणियों के विहार, वर्षावास के क्षेत्रों की उपयुक्तता देखना भी इनका कार्य है। प्रवर्तिनी की अनुपस्थिति में आवश्यक कार्यों में ये स्वयं प्रवृत्ति भी कर लेती हैं। प्रवर्तिनी की समस्त चिंताओं को ये अपने सिर पर ओढ़ लेती हैं। प्रवर्तिनी के समान ही इस पद के लिये भी आचार-प्रकल्प की सम्यक् जानकारी आवश्यक है। ये आगमज्ञा, संघ-हितैषी, चतुर व प्रतिभाशालिनी होती हैं। गणावच्छेदिनी को शेषकाल में कम से कम अन्य तीन साध्वियों के साथ एवं वर्षावास में अपने से अन्य चार अर्थात् कुल 5 साध्वियों के साथ रहने का विधान है। 78 दण्ड-व्यवस्था में प्रवर्तिनी और गणावच्छेदिनी सदृश दोष की भागी होने पर भी प्रवर्तिनी की अपेक्षा उसे न्यून प्रायश्चित् दिया जाता है उसी अपराध का सेवन करने पर प्रवर्तिनी को अधिक प्रायश्चित् आता है। 79 साध्वी-संघ में 'गणावच्छेदिनी' का वही स्थान है जो श्रमण-संघ में उपाध्याय का है। इसलिये गणावच्छेदिनी को 'उपाध्याया' के रूप में भी पहचाना जाता है। 80 174. (क) छेदो गणिणीए मूलं पवित्तिणी पुण-निशीथ भाष्य, उ. 16 गा. 5335 (ख) गणिणि सरिसो उ थेरो, पवत्तिणी सरिसओ भवे भिक्खू। - वही, 5336 175. समा सीस पडिच्छीणं, चोअणासु अणालसा। गणिणी गुणसंपन्ना पसत्थपुरिसाणुगा।। संविग्गा भीय परिसा य उग्गदंडा य कारणे। सज्झायज्झाण जुत्ता या, संगहे अ विसारआ।। -गच्छाचार पइन्ना, 127-128 176. स्थानांग 3/362,4/434 177. आवश्यक चूर्णि 1/130, 131 178. व्यवहार सूत्र, उ. 5 सू. 3-43; 7-8 179. बृहत्कल्प भाष्य, भाग 2 गा. 1044, 1071 180. "आचार्य स्थाने प्रवर्तिनी, वृषभस्थाने गणावच्छेदिनी वक्तव्या।" -बृहत्कल्प भाष्य, भाग 2, गा. 1070 ('वृषभ' का अर्थ यहां उपाध्याय लिया है) 38 Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पूर्व पीठिका 1.15.1.5 अभिषेका पदारोहण या प्रतिष्ठापन अर्थ में अभिषेक पद प्रयुक्त होता है। भाष्य में 'अभिसेगपत्ता-'अभिषेकप्राप्ता' प्रवर्तिनी पद योग्या 181 कहकर उसे प्रवर्तिनी पद के योग्य माना गया है। इससे ऐसा प्रतीत होता है कि प्रवर्तिनी की मृत्यु के पश्चात् जिस योग्य गीतार्थ श्रमणी को प्रवर्तिनी पद पर अभिषिक्त करना होता था उसे 'अभिषेका' कहते थे। भाष्य में गणावच्छेदिका को भी 'अभिषेका' कहा है। पद की दृष्टि से अभिषेका का स्थान गणावच्छेदिनी से भिन्न माना गया है। प्रवर्तिनी और गणावच्छेदिनी की अपेक्षा उसके दण्ड-विधान की मात्रा भी न्यून है। 82 किंतु स्थविरा, भिक्षुणी एवं क्षुल्लिका से अभिषेका का दर्जा ऊँचा है। संयम गुणों को नष्ट करने वाली प्रवृत्ति करने पर अभिषेका' को स्थविरा सदृश माना गया है। 83 कहीं-कहीं अभिसेगा और गणिनी समकक्ष कही गई है। 84 सारांश यह है कि श्रमणी का 'अभिषेका' पद गरिमामय पद था, जो प्रवर्तिनी अथवा गणिनी की वृद्धावस्था में उसके कार्यों का उत्तरदायित्व संभालने हेतु और भावी गणिनी के रूप में प्रदान किया जाता था। 1.15.1.6 प्रतिहारी प्रतिहारी निर्ग्रन्थी को प्रतिश्रयपाली. द्वारपाली अथवा संक्षिप्त में 'पाली' शब्द से भी संबोधित किया जाता था। यह साध्वियों में प्रतिभासंपन्न, शरीर से सुदृढ़, निर्भीक एवं उच्च कुलोत्पन्न साध्वी होती थी, इसका वय एवं बुद्धि से परिपक्व एवं गीतार्थ तथा भुक्तभोगिनी होना भी आवश्यक था।185 विहार-मार्ग में आपात्कालीन स्थिति में द्वारपाल के रूप में इसे नियुक्त किया जाता था।।86 यह सभी श्रमणियों के लिये 'GUARD' के रूप में कार्यरत रहती थी। यदि किसी श्रमणी को दोनों हाथ ऊपर करके आतापना लेने की इच्छा हो तो प्रतिहारी का आगे खड़ा होना जरूरी था।87 प्रतिहारी को 'रात्निक' अथवा 'रत्नाधिक श्रमणी' माना जा सकता है। 1.15.1.7 स्थविरा सामान्य रूप से स्थविरा का अर्थ वय से परिपक्व एवं बहुत वर्षों की दीक्षित साध्वी के लिये प्रयुक्त होता था।88 भुक्तभोगी और कुतूहल रहित निर्विकारी गीतार्थ को भी 'स्थविर' कहा है।189 181. बृहत्कल्प भाष्य, भा. 4, गाथा 4339 की टीका 182. प्रवर्तिनी यद्याचार्याणां कथयतां न शृणोति तदा चत्वारो गुरवः, प्रवर्तिन्याः पार्वे गणावच्छेदिनी न श्रृणोति चत्वारो लघवः, अभिषेका न श्रृणोति मासगुरू। -बृहत्कल्प भाष्य, भाग 2, गा. 1044 183. 'थेर सरिच्छी तु होइ अभिसेगा'-बृहत्कल्प भाष्य भाग 6, गा. 6111 184. "गणिनी अभिषेका तस्याः सदृशः" वही, भा. 3, गा. 2411 की टीका 185. कारण उवचिया खलु, पडिहारी संजईण गीयत्था। परिणय भुत्त कुलीणा, अभीरू वायामिय सरीरा। ___ -बृहत्कल्प भाष्य भा. 5-6, गा. 2334 186. सा च प्रतिहारी द्वारमूले संस्तारयति।' सा य पडिहारी दारमूले सुवतीति चूर्णो -वही भाग 3, गा. 2333 187. पालीहिं जत्थ दीसइ, जत्थ य सरं विसंति न जुवाणा। उग्गहमादिसु सज्जा, आयावयते तहिं अज्जा।। -वही, भाग 3, गा. 5951 188. 'थेरीहिं-स्थविराभिः वृद्धाभिः।' -मूलाचार 4/194 टीका 189. 'उवभुत्तभोगथेरेहिं'-उवभुत्तभोगी भुत्तभोगिणो विगतकौतुकाः निर्विकारा गीतार्था ते य थेरा' -निशीथ भाष्य 611 39 Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन श्रमणियों का बृहद इतिहास संस्कृत शब्द कोश में स्थविर उसे कहा है जो दृढ़, पक्का, स्थिर और अडिग होता है। श्रमणी-संघ में स्थविरा का पद क्षुल्लिका-संद्य दीक्षिता साध्वी और भिक्षुणी से उच्च माना गया है। वंदन-व्यवहार और कृतिकर्म (सेवा) में क्रमशः प्रवर्तिनी उसके पश्चात् अभिषेका एवं तत्पश्चात् स्थविरा को महत्त्व दिया गया है। यदि वस्त्रादि ग्रहण करना हो तो भी प्रवर्तिनी, अभिषेका या गणावच्छेदिनी के अभाव में स्थविरा साध्वी वस्त्रादि लेने जा सकती है। कभी प्रदेश में विहार करना पड़े या शयन करना पड़े तो स्थविरा साध्वियाँ बाल या तरूण साध्वियों के आगे और पीछे चलती हैं। 'स्थविरा' शब्द वैसे तो वृद्धत्व का सूचक है, किन्तु वृद्धत्व मात्र वय की अपेक्षा से ही नहीं है वरन् जो ज्ञान की पूर्ण अभ्यासी है, स्थानांग-समवायांग आदि आगमों की ज्ञाता हैं, उन्हें 'श्रुत स्थविरा' तथा जिनकी दीक्षा पर्याय 20 वर्ष से अधिक है वे 'पर्याय से स्थविरा' मानी गयी है। ___ शासन में स्थविरा का अत्यन्त महत्त्व है। संघीय समस्याओं को सुलझाने में स्थविरा साध्वी का उल्लेखनीय योगदान होता है। आचार्य, उपाध्याय, प्रवर्तिनी आदि भी उनसे सलाह लेकर कार्य करते हैं। उनके निर्णयों को सम्मान देते हैं। स्थविरा साध्वी स्वयं तो संयम में दृढ़ होती ही है, धर्म में खिन्न होने वाली अन्य साध्वियों को भी स्थिर करती हैं। 1.15.1.8 भिक्षुणी नियमों की सम्यक् जानकारी प्राप्त करने के पश्चात् साध्वी भिक्षुणी कहलाती है। 'भिक्षुणी प्रतीता' कहकर भाष्यकार ने उसे संयम की ज्ञाता कहा है। जैन आगमों में 'भिक्खुणी' को 'निग्गंठी', 'समणी' 'साहुणी, 'अज्जा', 'संयतिनी' आदि अनेक नामों से संबोधित किया है। 1.15.1.9 क्षुल्लिका सद्यः प्रव्रजिता साध्वी 'क्षुल्लिका' या 'बाला' कही जाती है। 92 सामान्यतः तीन वर्ष की दीक्षिता साध्वी जिसे संघ के आचार-नियमों की पूर्ण जानकारी नहीं होती उसे 'क्षुल्लिका' या 'खुड्डि' कहा गया है। यह साध्वी की सबसे सामान्य अवस्था है। अतः आचार्यों ने इसके शील व संयम की सुरक्षा हेतु अनेक प्रतिबंध लगाये हैं। क्षुल्लिका श्रमणी स्वतंत्र या एकाकी विचरण नहीं कर सकती, उसे प्रवर्तिनी आदि गीतार्थ साध्वियों की नेश्राय में रहने का ही विधान है। क्षुल्लिका कदाचित् संयम-मर्यादा का अतिक्रमण भी कर देती हैं तो भी उन्हें कठोर दण्ड नहीं दिया जाता। प्रवर्तिनी, गणावच्छेदिनी, स्थविरा, भिक्षुणी, क्षुल्लिका आदि को क्रमशः अल्प-अल्पतर प्रायश्चित् का भागी कहा है तथा अधिकार एवं संघीय-व्यवस्था की दृष्टि से विलोम क्रम से अधिकाधिक महत्व प्रदान किया गया है। सारांश श्रमणी-संघ में प्रवर्तिनी, गणावच्छेदिनी, अभिषेका और प्रतिहारी आदि चार पद अत्यन्त प्रभावसम्पन्न हैं। निर्ग्रन्थ श्रमण-संघ में जो स्थान आचार्य, उपाध्याय, प्रवर्तक स्थविर तथा रत्नाधिक का है, वही स्थान श्रमणी-संघ में उपर्युक्त 190. असती पवत्तिणीए अभिसेगादी विवज्जए णीसा। गेण्हति थेरिया पुण दुगमादी दोण्ह वी असती।। -बृ.भा., भाग 3, गा. 5963 191. तओ थेरभूमीओ पण्णत्ताओ। तंजहा-जाइथेरे, सुयथेरे, परियायथेरे व्यवहार सूत्र 10/16 192. "क्षुल्लिका बाला" - बृहत्कल्प भाष्य 4339 40 Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पूर्व पीठिका चारों पदों का है। प्रवर्तिनी को महत्तरा के रूप में, गणावच्छेदिनी को उपाध्याय के रूप में, अभिषेका को प्रवर्तक के समान तथा प्रतिहारी को स्थविर या रत्नाधिक वृषभ (श्रमण) के समकक्ष माना जा सकता है। ये चारों श्रमणियाँ श्रमण-संघ के अग्रगण्य संघ-स्थविरों की तरह ही ज्ञानादि गुणों से परिपूर्ण एवं प्रभावसम्पन्ना मानी जाती थीं। महत्तरा एवं गणिनी शब्द प्रमुखतः प्रवर्तिनी के लिये प्रयुक्त हुए हैं। क्षुल्लिका एवं भिक्षुणी ये श्रमणी की विकसित अवस्था के दो प्रकार हैं। बृहद्कल्प भाष्य में श्रमणी-संघ का क्रम इस प्रकार दिया है पवत्तिणी अभिसेगपत्ता थेरी तह भिक्खुणी य खुड्डी य। गहणं तासिं इणमो, संजोगकम तु वोच्छामि।।193 इस प्रकार संघ की समुचित व्यवस्था हेतु उक्त पदों की आवश्यकता समझी गई थी, इनमें से कुछ पदों की प्रासंगिकता एवं महत्ता आज भी बराबर है। 1.15.2 दिगम्बर आर्यिका संघ दिगम्बर जैन आर्यिका संघ की आंतरिक व्यवस्था के संबंध में दिगम्बर ग्रंथों में विशेष उल्लेख नहीं मिलता। मात्र अर्यिकाओं के समाचार (आचार-विचार) वर्णन के प्रसंग में प्रमुख आर्यिका का गणिनी या महत्तरिका एवं स्थविरा का वृद्धा आर्यिका के रूप में उल्लेख है। वैसे प्राचीन काल में आर्यिका संघ बड़ा ही सुव्यवस्थित एवं सुसंगठित था। वृद्धा, तरूणी आदि सभी उम्र की आर्यिकाएँ परस्पर एक-दूसरे के सहयोग की भावना के साथ अपने विशुद्ध आचार के पालन, तपश्चरण, शास्त्राध्ययन एवं मनन-चिंतन में सदा लीन रहती थीं। किंतु संघ-व्यवस्था में आर्यिकाओं के लिये 'गणिणी' और 'महत्तरा' के अतिरिक्त अन्य भी कोई पद थे या नहीं उनकी योग्यता एवं आवश्यक कर्त्तव्य क्या थे, इस विषय की कोई भी सूचना उपलब्ध नहीं होती। श्वेताम्बर परम्परा की तरह दिगम्बर-परम्परा में गणिणी पद पर अधिष्ठित होने के लिये योग्यता का क्या मापदण्ड था। इसका उल्लेख भी प्राप्त नहीं होता। तथापि गणिणी एवं थेरी ये दो पद अत्यन्त उत्तरदायित्व पूर्ण होने से सहज ही यह अनुमान लगता है, कि वे संघ के सभी नियमों की जानकार एवं प्रशासनिक योग्यता में अत्यन्त निपुण, धीर, गम्भीर एवं चिरप्रव्रजिता श्रमणी होती थीं तथा आर्यिका-संघ का सुचारू संचालन आचार्य के निर्देशानुसार करती थीं। मूलाचार में (दिगम्बर-परम्परा की) आर्यिकाओं की संघ व्यवस्था के लिये एक 'गणधर' की नियुक्ति मानी है, जो आर्यिकाओं की प्रतिक्रमण आदि क्रियाओं को कराता था एवं उन्हें प्रायश्चित् आदि भी प्रदान करता था। ऐसे मर्यादोपदेशक गणधर पद के योग्य वही मुनि होता था, जो प्रियधर्म (क्षमा आदि गुणों से युक्त) दृढ़ धर्म (धर्म में स्थिर), संवेग भाव से युक्त परिशुद्ध आचरण वाला, शिष्यों के संग्रह और अनुग्रह में कुशल एवं पाप-क्रियाओं से निवृत्त हो। वह गंभीर, दुर्धर्ष (अडोल स्थिर चित्तवाला) मितवादी, अल्पकुतुहली, चिरप्रवर्जित और गृहीतार्थ (आचार-प्रायश्चित् आदि नियमों का ज्ञाता) होता था। 94 193. (क) बृहद्कल्प भाष्य गा. 4339, (ख) व्यवहार भाष्य 1/724 194. पियधम्मो दढधम्मो संविग्गोऽवज्जभीरू परिसुद्धो। संगहणुग्गह कुसलो, सददं सारक्खणा जुत्तो।। गंभीरो दुद्धरिसो मिदवादी अप्पकोदुहल्लो य। चिरपव्वइदो गिहिदत्थो अज्जाणं गणधरो होदि॥ - मूलाचार, 4/183-184 Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन श्रमणियों का बृहद इतिहास उपर्युक्त गुणों से रहित मुनि के गणधर बनने पर गण-पोषण, आत्म-संस्कार, संल्लेखना और उत्तमार्थ - इन चार बातों का विनाश माना गया था। ऐसा गुणहीन 'गणधर' छेद, मूल, परिहार और पारंचिक प्रायश्चित् का पात्र होता था। अथवा उसे चार महीने तक कांजिक भोजन का आहार लेना पड़ता था। 195 सामान्यतया श्रमणियों के गणधर को 'पुरूष' माना है, किंतु जिस ग्रन्थ में पुरूष आचार्य और उपाध्याय को क्रमशः 5 या 6 हाथ दूर से वंदन करने का विधान हो वहाँ पुरूष गणधर उनकी आंतरिक व्यवस्था का संचालक कैसे हो सकता है? वस्तुतः श्रमणियों की आंतरिक व्यवस्था गणिनी आदि श्रमणी वर्ग से ही होती होगी। तुलना दिगम्बर और श्वेताम्बर सम्प्रदायों के श्रमणी संघ की आन्तरिक व्यवस्था का अध्ययन करने से यह स्पष्ट होता है कि श्वेताम्बर सम्प्रदाय के श्रमणी संघ का एक सुव्यवस्थित संगठन था। उनके विभिन्न कार्यों का उत्तरदायित्व वहन करने के लिये गीतार्थ श्रमणियों को विभिन्न पदों पर प्रतिष्ठित किया जाता था तथा उसके लिये आवश्यक कर्त्तव्य और अधिकार भी निश्चित् कर दिये गये थे। इसके विपरीत दिगम्बर परम्परा में आर्यिका संघ का संगठनात्मक, स्वतन्त्र और पूर्णतया विकसित स्वरूप परिलक्षित नहीं होता है । 1. 16 श्रमणी - संघ में प्रविष्टि के नियम 1.16.1 प्रवेश के प्रेरक हेतु वैदिक काल में जैसा कि हम देखते हैं स्त्रियों का स्थान उच्च था परंतु धीरे-धीरे जब समाज का दृष्टिकोण स्त्रियों के प्रति अनुदार बनने लगा, तब नारियाँ संसार से उपेक्षित होकर संयम के मार्ग पर आतुरता से बढ़ने लगीं। भगवान पार्श्वनाथ ने ऐसी हजारों स्त्रियों को अपने संघ में संरक्षण दिया जो वृद्धावस्था की देहली पर पहुँचकर भी अविवाहित जीवन व्यतीत कर रही थीं उनके संघ में प्रवेश पाने वाली 256 कुमारिकाओं की गाथा ज्ञातासूत्र एवं पुष्पचूलिका में वर्णित है। मदनरेखा %, यशोभद्रा 197 आदि उनके स्त्रियों ने पति की मृत्यु के पश्चात् श्रमणी बनने का मार्ग चुन लिया था। राजीमती ने यह समाचार सुनकर दीक्षा ले ली थी कि उसके मनसा स्वीकृत पति नेमिनाथ साधु बन गये थे। 98 भृगुपुरोहित की पत्नी यशा ने पति और पुत्रों को प्रव्रज्या ग्रहण करते देख स्वयं भी प्रव्रज्या ले ली थी । " भाई का अनुकरण करके बहिनों के दीक्षा लेने के भी उल्लेख हैं। मंत्री शकडाल की यक्षा यक्षदत्ता आदि सात पुत्रियों ने अपने भाई स्थूलभद्र के प्रव्रज्या लेने पर प्रव्रज्या ग्रहण की थी। 200 भाई शिवभूति का अनुकरण कर बहिन उत्तरा के तथा कालक का अनुकरण कर बहिन सरस्वती 201 के दीक्षित होने की घटना जैन इतिहास में वर्णित है। 195. पूर्वोक्तगुण व्यतिरिक्तो यद्यार्याणां गणधरत्वं करोति तदानीं तस्य चत्वारः कालविनाशमुपयान्ति, अथवा चत्वारि प्रायश्चित्तानि लभते गच्छादेर्विराधना च भवेदिति, वही, टीका, 4/185 196. उत्तराध्ययन निर्युक्ति पृ. 136 197. आवश्यक निर्युक्ति, गाथा 1283 198. उत्तराध्ययन, 22 वां अध्ययन 199. उत्तराध्ययन, 14 वां अध्ययन 200. (क) आवश्यक चूर्णि भाग 2 पृ. 183, (ख) उत्तराध्ययन निर्युक्ति, पृ. 181 201. प्रभावक चरित्र, आर्य कालकसूरि प्रबन्धः 42 Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पूर्व पीठिका ___ संतति न होने से सुभद्रा आदि ने202 अथवा संतान की मृत्यु का समाचार सुनकर श्रेणिक राजा की काली आदि दस रानियों ने गृहवास छोड़कर श्रमणी-दीक्षा अंगीकार कर ली थी।203 पद्मावती, रूक्मिणी, सत्यभामा आदि कृष्ण की पट्टरानियों ने भविष्य में होने वाली दुर्घटना (द्वारिका नाश) का ख्याल कर आत्म-कल्याण का श्रेयकारी पथ चुना था तो ब्राह्मी-सुन्दरी आदि आध्यात्मिक भावना से उत्प्रेरित होकर श्रमणी-धर्म में प्रविष्ट हुई थीं। ज्ञाताधर्मकथा में पोटिला तथा सुकुमालिका204 का उदाहरण है जिन्होंने पति के प्रेम में कमी आ जाने के कारण प्रव्रज्या ग्रहण की थी। स्थानांग सूत्र में इन सब कारणों को मुख्यतः दस भागों में विभाजित किया है।205 आज भी वैधव्य, परिजन-वियोग, अनुकरण प्रवृत्ति अथवा स्नेहवश माता अपने पुत्र या पुत्री के साथ, बहिन भाई के पीछे या भगिनी के पीछे अथवा मित्रता निभाने हेतु दीक्षित हुए देखे जाते हैं। वर्तमान में दहेज प्रथा से अभिशप्त कन्याएँ कौमार्यावस्था में दीक्षा अंगीकार कर लेती हैं। असुन्दरता भी कन्याओं की श्रमणी दीक्षा का एक हेतु है। धर्म का प्रचार-प्रसार एवं ज्ञान-प्राप्ति भी श्रमणी-दीक्षा का एक प्रमुख कारण है। श्रमणी-संघ में प्रवेश करने के ये जितने भी कारण हैं वे सब उपचार से कहे हैं इनमें से या अन्य किसी भी हेतु से आंतरिक चेतना का रूपान्तरण हो जाना यह मुख्य बिंदु है। वस्तुतः श्रमणी-संघ में प्रवेश करने का चरम एवं परम हेतु संयम, तप आदि बाह्य एवं आन्तरिक साधना द्वारा कर्मक्षय कर मुक्ति प्राप्त करना है, जो श्रमणी बनने वाली सभी स्त्रियों के लिये समान है। 1.16.2 आवश्यक योग्यता यद्यपि जैन-परम्परा में श्रमणी बनने की अभिलाषा रखने वाली कोई भी स्त्री श्रमणी पद को प्राप्त कर सकती है, इसके लिये जाति, वर्ण आदि किसी प्रकार का प्रतिबंध नहीं है तथापि संघ की मर्यादा एवं सुव्यवस्था हेतु कुछ ऐसे भी नियम बनाये गये है, जिनके आधार पर किसी को दीक्षित किया जाता है। सामान्य रूप से 8 वर्ष से कम वय की कन्या दीक्षा ग्रहण नहीं कर सकती है।206 क्योंकि वह संयम-मर्यादा को समझने एवं पालन करने में समर्थ नहीं है। इसी प्रकार वृद्ध, रोगी, अंगहीन, अंधी, नपुंसक स्त्रियों के लिये भी दीक्षा देने का निषेध है, क्योंकि ऐसी श्रमणियों के कारण संघ में अनेक कठिनाइयाँ पैदा होने की संभावना रहती है। जिन स्त्रियों के कारण संघ में विवाद की स्थिति पैदा हो सकती है, ऐसी ऋणग्रस्ता, दासी, बंधक, अपहता अथवा राजा द्वारा दंडनीय स्त्रियाँ भी दीक्षा के अयोग्य मानी जाती हैं। मूर्ख, पागल, दुष्ट स्त्रियों को दीक्षा देने से संघ बदनाम होता है, अत: इन्हें भी दीक्षित करने का निषेध किया गया है। गर्भिणी तथा बालवत्सा नारियों को भी दीक्षा नहीं दी जाती है।207, यद्यपि उत्तराध्ययन नियुक्ति208 आदि में कुछ गर्भवती महिलाओं की दीक्षा के उल्लेख मिलते हैं। मदनरेखा दीक्षा ग्रहण करने के समय गर्भवती थी, मणिरथ द्वारा पति युगबाहु की हत्या कर दिये जाने के बाद वह जंगल में 202. पुष्पचूलिका, अध्याय 4 203. अन्तकृद्दशांग, वर्ग 8 204. ज्ञातासूत्र 1/14, 1/16 205. स्थानांग 10/9 206. नो कप्पइ निग्गंथाण वा निग्गंथीण वा खुड्डगं व खुड्डियं वा उण?वास जायं उवट्ठावेत्तए वा संलुंचितए वा - व्यवहार सूत्र 10/24 207. स्थानांग 3/202, टीका पृ. 154-55 208. उत्तराध्ययन नियुक्ति पृ. 136-140 43 Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन श्रमणियों का बृहद इतिहास भाग गई थी और वहीं उसने दीक्षा ली थी। पद्मावती209 तथा यशभद्रा ने भी गर्भवती अवस्था में दीक्षा अंगीकार की थी, बाद में उनके पुत्र प्रसव हुए। ये प्रसंग अपवाद रूप में अज्ञात अवस्था में घटित हुए थे, सामान्यतया गर्भिणी स्त्री को श्रमणी-संघ में प्रवेश निषिद्ध है। कदाचित् किसी कारणवश वह दीक्षा अंगीकार कर लेती है, तो उसके जीवन एवं शील को दृष्टि में रखकर पूर्ण संरक्षण दिया जाता है। दिगम्बर ग्रन्थ महापुराण में दीक्षा के योग्य उस व्यक्ति को माना है, जिसका कुल विशुद्ध हो, चरित्र उत्तम हो, मुखाकृति सौम्य हो एवं प्रज्ञावन्त हो।।। दीक्षा के लिये विचारों की परिपक्वता सर्वप्रथम आवश्यक है। अपरिक्व आयु, अपरिपक्व विचार एवं अपरिपक्व वैराग्य दीक्षा के पवित्र उद्देश्य की सम्प्राप्ति में बाधक सिद्ध होते हैं। ___ इस प्रकार हम देखते हैं, कि जैनधर्म में श्रमणी-दीक्षा के प्रति आचार्यों की उदारतापूर्ण साथ ही गरिमामय दृष्टि रही है। 1.16.3 आज्ञा-प्राप्ति का विधान जैन-परम्परा में श्रमणी बनने के लिये स्त्री को अपने अभिभावक अथवा संरक्षक की अनुमति लेना अनिवार्य है। बिना अनुमति के कोई भी नारी प्रव्रज्या ग्रहण नहीं कर सकती है। संरक्षक माता-पिता, भाई, पति अथवा पुत्र कोई भी हो सकता है। संरक्षक की अनुमति के बिना दीक्षा लेने से परिवार एवं संघ में वैमनस्य एवं अविश्वास की भावनाएँ पैदा हो सकती हैं, अतः अनुमति लेने से इस प्रकार के विवादों से बचा जा सकता है। ज्ञाताधर्मकथा-12 में काली, रजनी आदि अनेक वृद्ध कुमारिकाओं के उल्लेख हैं, उन्होंने अपने माता-पिता से दीक्षा की आज्ञा प्राप्त की थी। महासती सुंदरी तब तक दीक्षा अंगीकार नहीं कर सकी, जब तक कि ज्येष्ठ भ्राता सम्राट भरत ने अनुज्ञा नहीं दे दी13, श्रीकृष्ण की पद्मावती आदि रानियाँ तथा राजा श्रेणिक की नंदा आदि तेरह रानियाँ। अपने स्वामी की आज्ञा लेकर दीक्षित हुई थीं। पति के दीक्षा ले लेने पर मूलश्री और मूलदत्ता का अपने श्वसुर श्रीकृष्ण से आज्ञा लेने का उल्लेख है।26 मृगावती ने बहनोई चण्डप्रद्योत से दीक्षा ग्रहण करने के लिये आज्ञा ली थी।17 1.16.4 दीक्षा देने का अधिकार तीर्थंकरों की सान्निधि में श्रमणियाँ तीर्थंकरो द्वारा ही दीक्षित होती थीं, तीर्थंकरों के अभाव में प्रमुखा आर्या मुमुक्षु महिलाओं को दीक्षा प्रदान करती थीं। सुभद्रा को पार्श्वनाथ-परम्परा की साध्वी-प्रमुखा सुव्रता ने दीक्षा दी थी। किंतु साधु किसी स्त्री को अथवा साध्वी किसी पुरूष को दीक्षा दे, इसका स्पष्ट निषेध है।19 हाँ, यदि किसी ऐसे स्थान 209. आवश्यक चूर्णि, भाग 2, पृ. 204-7 210. आवश्यक नियुक्ति 1283 211. विशुद्धकुल गोत्रस्य सवृत्तस्य वपुष्मतः। दीक्षायोग्यत्वमाप्नातं, सुमुखस्य सुमेधसः।। -महापुराण 39/158 212. ज्ञातासूत्र 2/1/3 213. त्रिषष्टिशलाका पुरूष चरित्र 1/3/651 214. अन्तकृद्दशांग सूत्र 5/1-8 215. वही 7/1-13 216. वही 5/9-10 217. त्रि. श. पु. च.. 10/8 218. पुष्पचूलिका, अध्ययन 4 219. व्यवहारसूत्र 7/6-9 44 Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पूर्व पीठिका पर स्त्री को वैराग्य हुआ हो, जहाँ आसपास में साध्वी न हो तो साधु उसे दीक्षा देकर यथाशीघ्र साध्वी को सुपूर्द कर दे, किंतु दीक्षा के नाम पर साधु स्त्री संग या साध्वी पुरूष-संग के दोष की भागी न बने। इसे ध्यान में रखते हुए दीक्षा देने की औपचारिक विधि किसी भी योग्य निर्ग्रन्थ अथवा निर्ग्रन्थी द्वारा संपन्न की जा सकती है। दीक्षित होने के पश्चात् साध्वी का श्रमणी वर्ग में सम्मिलित होना आवश्यक है। तीर्थंकरों के अभाव में आचार्य भी श्रमणियों को दीक्षा देते हैं। आचार्य सुधर्मा द्वारा जम्बू की आठ पत्नियों एवं उनकी माताओं को दीक्षा देने का वर्णन है। आज भी महिलाओं की दीक्षा विधि आचार्य द्वारा संपन्न कराई जाती है और आचार्य के अभाव में अन्य बहुश्रुती श्रमण भी महिलाओं को दीक्षा प्रदान करते देखे जाते हैं। वर्तमान में स्थानकवासी परम्परा में तो स्थविरा साध्वियाँ भी दीक्षा प्रदान करती हैं। 1.17 जैन श्रमणी दीक्षा - महोत्सव आगम-साहित्य में राजा, राजपुत्रों, राजरानियों एवं श्रेष्ठी वर्ग आदि के दीक्षा महोत्सव का भव्य और आकर्षक वर्णन है। अन्तकृद्दशांग सूत्र में वर्णन है कि पद्मावती देवी के दीक्षा हेतु उद्यत होने पर उसे एक सौ आठ स्वर्ण कलशों से स्नान करवाते हैं। सर्वालंकारों से विभूषित कर सहस्र पुरूषों द्वारा उठाई जाने वाली शिविका पर बिठाते हैं। विशाल एवं भव्य जुलूस द्वारा तीर्थंकर प्रभु के समवसरण में लाकर उसे दीक्षित करने की प्रार्थना करते हैं। प्रभु द्वारा शिष्या भिक्षा स्वीकार किये जाने के पश्चात् पद्मावती देवी उत्तर-पूर्व दिशा ( ईशानकोण) में जाकर - अपने वस्त्रालंकारों को उतार देती है तथा स्वयं ही केशलुञ्चन कर भगवान के चरणों में श्रमणी - दीक्षा प्रदान करने का अनुरोध करती है। तीर्थंकर प्रभु प्रथम स्वयं उसे प्रव्रजित करके प्रमुखा आर्या को सौंपते हैं, पश्चात् प्रमुखा आर्या पुनः उसे प्रवर्जित करती है और संयम में सावधान रहने की शिक्षा देती है । 220 इसी प्रकार अन्य स्त्रियों का दीक्षा महोत्सव भी सामान्य रूप से अपने-अपने घर की स्थिति के अनुसार होता था। दीक्षाओं के सामूहिक आयोजन भी होते थे। ये आयोजन कभी राजाओं की ओर से, कभी धनी श्रेष्ठी वर्ग की ओर से होते थे। भगवान नेमीनाथ के शासन में श्रीकृष्ण द्वारा तथा भगवान महावीर के शासन में सम्राट् श्रेणिक द्वारा ऐसी घोषणाएँ हुई थीं । सामान्य तौर पर हम यह अनुमान कर सकते हैं कि प्राचीन काल में आज की तरह ही कुछ दीक्षाएँ विशिष्ट आयोजन एवं आडम्बर पूर्वक होती होंगी, तो कई दीक्षाएं सादगी पूर्वक ही सम्पन्न हो जाया करती थीं। आगम-ग्रंथों में दीक्षार्थियों द्वारा स्वयं पंचमुष्टि लोच कर दीक्षा के लिये उपस्थित होने के जो उल्लेख हैं, वे आज श्वेताम्बर-परम्परा में प्रायः लुप्त हो चुके हैं, अब नाई को बुलाकर बालों को निकलवा दिया जाता है। प्राचीन पंचमुष्टि लोच की यह प्रथा कबसे लुप्त हुई, यह निश्चित् रूप से तो नहीं कहा जा सकता, पर अनुमान है कि दीक्षार्थी जब स्वयं केश-लोच करने में असमर्थ हुआ होगा तो यह नियम ऐच्छिक बन गया होगा । आज केश-लुञ्चन की अनिवार्यता पंच महाव्रतारोपण के बाद ही समझी जाती है। यद्यपि दिगम्बर परम्परा में आज भी वही परिपाटी दिखाई देती है। 220. अन्तकृद्दशांग सूत्र 5/1 45 For Personal Use Only Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन श्रमणियों का बृहद इतिहास 1.18 जैन श्रमणियों के सत्तावीस गुण समवायांग सूत्र में श्रमण-श्रमणियों के 27 गुणों का वर्णन है-(1) प्राणातिपात विरमण (2) मृषावाद विरमण (3) अदत्तादान विरमण (4) मैथुन विरमण (5) परिग्रह विरमण (6) श्रोत्रेन्द्रिय-निग्रह (7) चक्षुरिन्द्रिय-निग्रह (8) घ्राणेन्द्रिय-निग्रह (9) जिह्वेन्द्रिय-निग्रह (10) स्पर्शनेन्द्रिय-निग्रह (11) क्रोधविवेक (12) मानविवेक (13) मायाविवेक (14) लोभविवेक (15) भावसत्य (16) करण सत्य (17) योगसत्य (18) क्षमा (19) विरागता (20) मनः समाहरणता (21) वचनसमाहरणता (22) कायसमाहरणता (23) ज्ञान सम्पन्नता (24) दर्शन सम्पन्नता (25) चारित्र सम्पन्नता (26) वेदनातिसहनता (27) मारणान्तिकातिसहनता।2।। इनमें प्राणातिपात-विरमण आदि पाँच महाव्रत मूलगुण हैं, शेष 22 उत्तरगुण हैं। जिनमें पाँच इन्द्रियों का निग्रह करना अर्थात् उनकी उच्छृखल प्रवृत्ति को रोकना और क्रोधादि चारों कषायों का विवेक अर्थात् परित्याग करना आवश्यक है। अन्तरात्मा की शुद्धि को 'भावसत्य' कहते हैं। वस्त्रादि का यथाविधि प्रतिलेखन करते समय पूर्ण सावधानी रखना 'करणसत्य' है। मन, वचन, काया की प्रवृत्ति समीचीन रखना अर्थात तीनों योगों की शद्धि या पवित्रता रखना 'योगसत्य' है। मन में भी क्रोध भाव न लाना, द्वेष और अभिमान का भाव जागृत न होने देना 'क्षमा' गुण है। किसी भी वस्तु में आसक्ति नहीं रखना 'विरागता' गुण है। मन, वचन, और काय की अशुभ प्रवृत्ति का निरोध करना उनकी 'समाहारणता' कहलाती है। सम्यग्दर्शन ज्ञान और चारित्र से संपन्न तो होना ही चाहिये। शीत, उष्ण आदि परिषहों को सहना 'वेदनातिसहनता' है। मरण के समय सर्व प्रकार के परीषहों और उपसर्गों को सहना तथा किसी व्यक्ति द्वारा होने वाले मारणान्तिक कष्ट को सहते हुए भी उस पर कल्याणकारी मित्र की बुद्धि रखना 'मारणान्तिकातिसहनता' है। ___ यहाँ यह विशेष ज्ञातव्य है कि दिगम्बर परम्परा में श्रमणियों के 27 गुणों में पाँच महाव्रत और पाँच इन्द्रियों का निरोध रूप दस गुण तो उपर्युक्त हैं ही, शेष 17 गुण इस प्रकार हैं - पांच समितियों का परिपालन, तीन गुप्तियों का पालन, सामायिक, वन्दनादि छह आवश्यक क्रियाएँ करना, एक बार भोजन करना, केश-लुंचन करना और स्नान-दन्त-धावनादि का त्याग करना। श्रमणों में एक अचेल या नग्न रहने का गुण विशेष है। शेष गुण श्रमण-श्रमणी दोनों के एक समान हैं। अचेल गुण को छोड़कर श्वेताम्बर एवं दिगम्बर में वर्णित गुणों का परस्पर एक-दूसरे में अन्तर्भाव हो जाता है। 1.19 जैन श्रमणियों की आचार-संहिता श्रमणियों की दैनन्दिन जीवन-सरणि जैनधर्म में प्रतिपादित आचार की सुदृढ़ भूमि पर प्रतिष्ठित है। आचारनिष्ठ साध्वियों के व्यक्तित्व का प्रभाव सामान्य जनता के हृदय पर अंकित होता है उनका जीवन सैंकड़ों लोगों के लिये संदेश एवं प्रेरक रूप बनता है। अतः श्रमणियों की मूलभूत आचार-संहिता को हम श्वेताम्बर एवं दिगम्बर परम्परा के परिप्रेक्ष्य में प्रस्तुत कर रहे हैं। 221. समवायांग सूत्र 27वां समवाय 46 Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पूर्व पीठिका 1.19.1 श्वेताम्बर-परम्परा 1.19.1.1 आहार-ग्रहण संबंधी नियम जीवन की प्रथम आवश्यकता आहार है, भले ही गृहस्थ हो या साधु। आहार के बिना लौकिक या लोकोत्तर कोई भी साधना नहीं हो सकती। जैन श्रमणियाँ छह कारणों को समक्ष रखकर आहार की गवेषणा करती हैं(1) क्षुधा-वेदना को शांत करने के लिये (2) सेवा की भावना से शारीरिक शक्ति अर्जित करने के लिये (3) ईया समिति (विहार आदि) का पालन करने के लिये (4) संयम का पालन करने के लिये (5) प्राण-रक्षण हेतु और (6) धर्म-चिन्तन की दृष्टि से। परन्तु साथ ही वे अशुद्ध आहार ग्रहण नहीं करती22। सदा सात्त्विक ऐषणीय प्रासुक एवं अचित्त आहार ही ग्रहण करती हैं। गृहस्थ या पार्श्वस्थ के साथ घर में प्रवेश नहीं करती। आधाकर्मी और औद्देशिक आहार का परिहार कर भिक्षा प्राप्त करती हैं। वे श्रेष्ठ कुलों से भिक्षा ग्रहण करती हैं, निंदित, गर्हित कुलों का तथा मृतक- पिण्ड को ग्रहण नहीं करती, पर्व-महोत्सव निमित्त बना वही आहार लेती हैं, जो परिभुक्त या शुद्ध हो संखडी (बृहद्भोज) में जाना उनके लिये निषिद्ध है। उसे स्वाद की लोलुपता और मायाचार से बचने का स्पष्ट निर्देश किया है। श्रमण-श्रमणी के आहार से संबंधित संपूर्ण नियम आचारांग सूत्र में विस्तार से वर्णित है।23 ये नियम श्रमण-श्रमणी दोनों के लिये सामान्य हैं। 1.19.1.2 वस्त्र एवं उपकरण संबंधी नियम सामान्यतया साधना की दृष्टि से श्रमण-श्रमणियों के नियम समान होने पर भी स्त्रियों की प्रकृति और सामाजिक स्थिति को देखकर आचार्यों ने श्रमणियों के लिये वस्त्र एवं उपकरणों के संबंध में कुछ विशेष नियम बनाये। जैसे-श्रमण संपूर्ण वस्त्रों का एवं पात्र का त्याग कर सकता है, वैसा श्रमणी के लिये वस्त्र-पात्र रहित रहना वर्जित है।224 इतना ही नहीं, वरन उसकी आवश्यकता को देखकर 96 हाथ वस्त्र का उपयोग करने की आज्ञा दी है, जब कि साधु को 72 (24 अंगुल का एक हाथ) हाथ वस्त्र ही उपयोग में लेने का विधान है।25 साध्वियों की मानसिक एवं शारीरिक आवश्यकता को ध्यान में रखते हुए उनके लिये 'अवग्रहानन्तक' अर्थात् भीतर पहने जाने वाले वस्त्र के साथ ऊपर पहने जाने वाले वस्त्र का भी विधान है।226 यह वस्त्र साधु के लिये निषिद्ध है। गृहस्थ पद से दीक्षित होने वाली श्रमणी अपने साथ रजोहरण, गोच्छक (पात्रादि पोंछने का वस्त्र) पात्र तथा चार अखण्डित वस्त्र अपने साथ लेकर दीक्षित हो सकती है।27 वे वस्त्र बहुमूल्य, चर्म एवं रोम से निर्मित, सूक्ष्म और सौन्दर्य युक्त नहीं होने चाहिये। आगमिक व्याख्या साहित्य में श्रमणी को तन ढंकने एवं शील सुरक्षा के लिये 25 प्रकार की उपधि रखने का निर्देश दिया है। उनके नाम इस प्रकार है-28 - 222. स्थानांग सूत्र 6 223. आचारांग द्वि श्रु. प्रथम अध्ययन 224. नो कप्पइ निग्गंथीए अचेलियाए होत्तए-बृहद्कल्प सूत्र:5/19 225. आचारांग प्रथम श्रुतस्कंध 8/4/209 226. कप्पइ निग्गंथीणं उग्गहणन्तगं वा उग्गहपटॅग वा धारित्तए वा परिहरित्तए वा-बृहकल्प सूत्र 3/12 227. वही,3/16 228. बृहत्कल्प नियुक्ति, गाथा 3964-4091 Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन श्रमणियों का बृहद इतिहास (1) पात्र - आहार पानी ग्रहण करने का साधन (2) पात्रबन्ध-(झोली) जिसके अन्दर पात्र रखकर-भिक्षा लाई जाय (3) पात्र-स्थापनक - पात्र रखने का छोटा वस्त्र (4) पात्र केसरिका - पात्र प्रमार्जन करने का कोमल वस्त्र (5) पटलक - खाली पात्रों को बांधने के समय उनके बीच में दिये जाने वाले वस्त्र (6) रजस्त्राण - पानी छानने या उसे ढकने का वस्त्र (7) गोच्छक - प्रमाणनिका (8-10) तीन चादर (11) रजोहरण - जीवरक्षा हेतु (12) मुखवस्त्रिका - यतना के लिये मुख पर बांधा जाने वाला वस्त्र (13) मात्रक (14) कमढक - चोलपट्टक स्थानीय वस्त्र, शाटिका (15) अवग्रहानन्तक - गुह्यस्थानाच्छादक वस्त्र (16) अवग्रहपट्टक - लंगोटी के ऊपर कमर पर लपेटने का वस्त्र (17) अझैसक - आधी जांघों को ढकने वाला जांघिया जैसा वस्त्र (18) चलनिका - अझैसक से बड़ा, घुटनों को भी ढंकने वाला वस्त्र (19) अभ्यंतर निवसनी - आधे घुटनों को ढकने वाली (20) बहिर्निवसनी - पैर की ऐड़ियों को ढकने वाली (21) कंचुक - चोली (22) औपकक्षिकी - चोली के ऊपर बांधी जाने वाली (23) वैकक्षिकी - कंचुक और औपकक्षिकी को ढकने वाली (24) संघाटी - वसति में पहने जाने वाली (वर्तमान में दुपट्टा) (25) स्कन्धकरणी - कन्धे पर डालने का वस्त्र। उक्त 25 प्रकार की उपधि में श्रमणों के लिये प्रारंभ की 14 उपधि ही ग्राह्य है, शेष अग्राह्य। भाष्यकार ने स्कन्धकरणी के साथ रूपवती साध्वियों को 'कुब्जकरणी' रखने या बांधने का भी विधान किया है। इसका अभिप्राय है कि रूपवती साध्वी को देखकर कामुक पुरूष चलचित्त न हो, अतः उसे विकृतरूपा बनाने के लिये पीठ पर वस्त्रों की पोटली रखकर बांध देते हैं, जिससे कि वह कुब्जा दिखाई दे। श्रमणी के वस्त्रैषणा और पात्रैषणा संबंधी संपूर्ण विधियों पर आगमकारों ने विस्तृत विचारणा की है।229 1.19.1.3 वसति के नियम श्रमण-श्रमणी दोनों के लिये धान्य-बीजादि बिखरे स्थान पर ठहरना वर्ण्य है, अचित शीत, जल या उष्णजल के घड़े पड़े हों अग्नि या दीपक सारी रात्रि जलते हों वहाँ भी ठहरना उसके लिये निषिद्ध है। जिस मकान में खाद्य पदार्थ यत्र-तत्र बिखरे पड़े हों वहाँ थोड़ी देर भी ठहरना निषिद्ध है। श्रमणियों को धर्मशाला, चारों ओर से अनावृत स्थान पर, वृक्ष या आकाश के नीचे ठहरने का भी निषेध किया है, श्रमणों को इसका निषेध नहीं है। वर्षावास के अतिरिक्त श्रमण जहाँ एक मास रह सकता है वहाँ श्रमणियाँ उपयुक्त स्थान न मिलने पर दो मास भी रह सकती हैं।230 1.19.1.4 केशलोच जैन श्रमण और श्रमणी की कठोर आचार-संहिता में केशलोच भी एक है, वे बाल कटवाते नहीं हैं, बल्कि वर्ष में दो बार उन्हें लोचते हैं। यह प्रक्रिया सामान्य ढंग से जीवन व्यतीत करने वालों को तो कष्टदायी होती है, किंतु सांसारिक माया-मोह का त्याग करने वाले जैन श्रमण-श्रमणियों के लिये यह साधारण क्रिया है और त्याग, तप, संयम व स्वावलम्बन का परिचायक है। 229. दृष्टव्य-आचारांग सूत्र, द्वितीय श्रुतस्कन्ध, अध्ययन 5-6 230. बृहत्कल्प सूत्र उद्देशक-2 सूत्र 1-24 48 For Private Personal Use Only Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पूर्व पीठिका 1.19.1.5 अन्य विशेष नियम श्रमणियों के हितार्थ आगमों में कुछ विशिष्ट नियम भी बनाये हैं, जिनका पालन श्रमणियों के लिये अनिवार्य और श्रमणों के लिये एच्छिक है जैसे- निर्ग्रन्थी को सर्वथा शरीर वोसिरा कर कायोत्सर्ग करना निषिद्ध है इसी प्रकार गाँव के बाहर जाकर आतापना लेना, किसी भी एक आसन से स्थित रहने का अभिग्रह करना आकुंचनपट्टक रखना - घुटने ऊंचे करके कमर और पैरों को बांध देना (ऐसा वस्त्र) जिससे दीवार का सहारा लेने के समान आराम मिले, आलंबनयुक्त आसन (कुर्सी आदि) तथा सविषाण आसन सींग जैसे ऊँचे उठे हुए छोटे-छोटे स्तंभ जो गोल एवं चिकने होने से पुरूष चिह्न से प्रतीत होते हैं उन पर बैठने का निषेध है। इसी प्रकार साध्वी को डंठलयुक्त तुंबी, सवृन्त पात्र केसरिका, (पात्र पोंछने का कपड़ा दंड सहित ), काष्ठ की डंडीवाला पाद प्रोंछन उपयोग करना वर्ज्य है। 231 साध्वियों के लिये इस प्रकार के पृथक् नियम बनाने का उद्देश्य स्पष्ट करते हुए नियुक्तिकार कहते हैं कि इन नियमों को बनाने का उद्देश्य केवल ब्रह्मचर्य की रक्षा है न कि महाव्रतों की ज्येष्ठता- कनिष्ठता बताना, महाव्रतों की अपेक्षा श्रमण- श्रमणी दोनों समान हैं। 232 1.19.1.6 श्रमणियों का विचरण क्षेत्र श्रमणियाँ श्रमणों के समान संपूर्ण भारत के आर्य क्षेत्रों में विचरण करती थी। वे पूर्व में अंग-मगध तक, दक्षिण में कौशाम्बी तक पश्चिम में स्थूणा देश (स्थानेश्वर ) तक और उत्तर में कुणाल देश ( श्रावस्ती जनपद ) तक विचरती थीं। इस विचरण के दो प्रमुख उद्देश्य थे- संयम गुणों की वृद्धि एवं जिनशासन की प्रभावना । भाष्य में साढ़े 25 आर्य देशों नाम गिनाये हैं | 233 आर्यदेशों में विचरते हुए ज्ञान, दर्शन चारित्र आदि गुणों की अभिवृद्धि तथा गच्छ की वृद्धि भी होती थी 1234 यदि अनार्य क्षेत्र में जाने से भी रत्नत्रय की हानि की संभावना न हो तो वहाँ भी श्रमणियाँ जा सकती हैं। भद्रबाहु, स्थूलभद्र आदि 1500 श्रमणों ने नेपाल में विहार किया था। आचार्य कालक पारस कूल (ईरान) जाकर वहाँ के शाहों को अपने साथ भारत लाये थे | 235 1.19.1.7 श्रमण - श्रमणी के पारस्परिक सहयोग के नियम श्रमण संघ को निर्दोष एवं चिरजीवी बनाये रखने के लिये जैनाचार्यों ने श्रमण- श्रमणी के पारस्परिक संबंधों की मर्यादाएँ भी सुनिश्चित की है। जिनमें कुछ सामान्य नियम है कुछ आपवादिक नियम है। सामान्य नियम :- श्रमणों एवं श्रमणियों को यथासंभव एक-दूसरे से दूर रहने का विधान किया है। अकेली 231. वही सू. 31-36, निर्युक्ति गाथा 5966-75 232. 233. बृहत्कल्प सूत्र 48 234. आरियविसयम्मि गुणा, णाण-चरण- गच्छवुड्ढीय 11 - बृहत्कल्प भाष्य गाथा 3265 235. (क) आवश्यक चूर्णि पृ. 186, (ख) निशीथ चू. 10, 2860, पृ. 59. ... बंभवय रक्खणट्ठा वीसुं वीसुं कया सुत्ता- बृ. नि., गा. 1045-47 49 Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन श्रमणियों का बृहद इतिहास श्रमणी, श्रमण के साथ बातचीत नहीं कर सकती। कदाचित् अध्ययन या शंका-समाधान की दृष्टि से कुछ पूछना हो तो गणिनी साध्वी के साथ जाए और उसे आगे करके प्रश्नादि पूछे।236 __ श्रमणों की वसतिका में श्रमणियों को तथा श्रमणियों की वसतिका में श्रमणों को अल्पकालिक क्रियाएँ करना भी निषिद्ध है। अर्थात् बैठना, लेटना, स्वाध्याय करना, आहार, भिक्षा ग्रहण, प्रतिक्रमण, कायोत्सर्ग एवं मलोत्सर्ग आदि क्रियाएँ नहीं करनी चाहिये।237 इससे लोकगर्दा तथा लोकनिन्दा होने का भय तो है ही, साथ ही संयम-विराधना की भी संभावना है। व्यवहार सूत्र में साधु-साध्वियों में पारस्परिक निम्नलिखित सेवाकार्य निषिद्ध किये हैं(1) आहार-पानी लाकर देना-लेना अथवा निमंत्रण करना (2) वस्त्र-पात्र आदि उपकरणों की याचना करके लाकर देना अथवा स्वयं के याचित उपकरण देना (3) उपकरणों का परिकर्म कार्य-सीना, जोड़ना, रोगन आदि लगाना (4) वस्त्र या रजोहरण आदि धोना (5) रजोहरण आदि उपकरण बनाकर देना। (6) प्रतिलेखन आदि करना।38 कल्पसूत्र में साधु-साध्वियों को पारस्परिक पत्राचार करना भी वर्जित किया है।239 दिगम्बर परम्परा में तो श्रमण और आर्यिका के बीच परस्पर वंदना को भी योग्य नहीं माना है, तथापि निषेध भी नहीं किया है।240 यदि वंदना करनी हो तो आचार्य को 5 हाथ दूर से उपाध्याय को 6 हाथ दूर से एवं साधु को 7 हाथ दूर से वंदना करनी चाहिये। वंदना करती हुई वे श्रमण को 'नमोऽस्तु' शब्द न कहकर 'समाधिरस्तु' या 'कर्मक्षयोऽस्तु' कहती हुई गवासन पूर्वक बैठकर वंदना करती हैं।241 आपवादिक नियम :- जहाँ संयम सुरक्षा का प्रश्न हो वहाँ श्रमण-श्रमणी के परस्पर एक-दूसरे का सहयोग भी करने के विधान आगमों में उल्लिखित हैं। जैसे श्रमण के पैर में कांटा चुभा हुआ हो और वह स्वयं निकालने में असमर्थ है, तो उसे अपवाद रूप में श्रमणी निकाल सकती है इसी प्रकार श्रमणी नदी में फिसलती, गिरती या डूबती दिखाई दे, अन्य कोई सहारा नहीं हो, ऐसे में श्रमण उसको बचाने की भावना से उसका स्पर्श करता है तो वह प्रायश्चित् का पात्र नहीं होता है। ऐसे ही विक्षप्तचित्त श्रमणी को श्रमण हाथ पकड़कर यथोचित स्थान पर पहुँचा देते हैं, तो अपवाद स्वरूप इसे दोष नहीं माना जाता।42 किंतु, ये सब अपवादिक कार्य है। उत्सर्ग मार्ग में तो श्रमणी एवं श्रमण का संबंध धार्मिक कार्यों तक ही सीमित है, वह भी मर्यादित। 1.19.1.8 श्रमणियों का अंतिम महान व्रत संलेखना संलेखना का अर्थ है संपूर्ण भक्त-पान, उपधि तथा कषायों का त्याग कर जीवन के अंतिम समय तक देह के प्रति निर्ममत्व भाव से विचरण करना। श्रमणियाँ उक्त व्रत को तब अंगीकार करती हैं, जब वे यह अनुभव करती हैं 236. तासिं पुण पुच्छाओ इक्किस्से णय कहिज्ज एक्को दु। गणिणी पुरओ किच्चा जदि पुच्छइ तो कहेदव्व।। -मूलाचार वृत्ति सहित 4/178 237. बृहत्कल्प, उद्देशक 3 सूत्र 1 238. (क) व्यवहार सूत्र, उ. 5 सू. 20, पृ. 369 239. कल्पसूत्र, पत्र 39 240. मुनिजनस्य स्त्रियाश्च परस्पर वन्दनापि न युक्ता। यदि ता वन्दन्ते तदा मुनिभिर्नमोऽस्तिवति न वक्तव्यं, किं तर्हि वक्तव्यं? समाधिकर्मक्षयोस्तिवति। -मोक्षपाहुड गाथा 12 की श्रुतसागरीय टीका 241. पंच छ सत्त हत्थे सूरी अज्झावगो य साधु या परिहरिऊणज्जाओ गवासणेणेव वंदंति।। - मूलाचार 4/195 वृत्ति सह 242. बृहद्कल्प सूत्र उ. 6 सू. 3-18 50 For Private Personal Use Only Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पूर्व पीठिका कि अब शरीर संयम के नियमों का पालन करने में असमर्थ है अथवा वृद्धावस्था या असाध्य रोग के कारण उसका जीवन पूर्णत: दूसरों पर निर्भर हो गया है अथवा कभी यह लगे कि ब्रह्मचर्य का खंडन किये बिना जीवन जीना संभव नहीं है ऐसी स्थिति में देह के प्रति निर्ममत्व होकर वह देह का विसर्जन कर देती है।243 अन्तकृद्दशांग सूत्र में काली आदि दस रानियों का वर्णन आता है कि तपः साधना के पश्चात् उनका शरीर जब अत्यंत कृश हो गया, तब उनके मन में विचार आया कि शरीर में जब तक स्वल्प सी शक्ति विद्यमान है तथा मन में श्रद्धा धैर्यता और वैराग्य भी है तब तक हमारे लिये यही श्रेयस्कर है कि हम भक्त-पान का त्याग कर संलेखना व्रत अंगीकर कर लें। उन्होंने एक मास की संलेखना स्वीकार की और परिणामों की उत्कृष्टता से अंत में सर्व कर्म क्षय कर सिद्धगति को प्राप्त हुईं।244 श्वेताम्बर और दिगम्बर दोनों ही परम्पराओं में ऐसी सैंकड़ों श्रमणियों के उदाहरण है, जिन्होंने जीवन के अंत में संलेखना करके समाधि पूर्वक देह का त्याग किया था। 1.19.2 दिगंबर परम्परा के नियम दिगम्बर संप्रदाय के ग्रन्थों में आर्यिकाओं के नियम अलग से निर्धारित नहीं किये गये। वहाँ इतनी ही सूचना है, कि 'मुनियों के लिये जो मूलगुण और समाचार का वर्णन किया है, वही सब मूलगुण और समाचार विधि आर्यिकाओं के लिये भी है।45 केवल उन्हें वृक्षमूल, आतापन, अभ्रावकाश और प्रतिमायोग आदि उत्तरयोगों को करने का अधिकार नहीं है। इसके अतिरिक्त आर्यिकाओं के लिये अलग से भी कुछ नियम कहे हैं उन्हें बिना प्रयोजन के परगृह में नही जाना चाहिये, यदि जाना आवश्यक हो तो गणिनी से पूछकर वृद्धा आर्यिकाओं के साथ में मिलकर ही जाना चाहिये। आर्यिकाओं के लिये रोना, नहलाना, खिलाना, भोजन पकाना, सूत कातना, षट्विध आरम्भ करना, यतियों के पैर में मालिश करना, धोना और गीत गाना वर्जित है। आर्यिकाएँ विकार रहित वस्त्र और वेष धारण करती हैं, पसीना युक्त मैल और धूलि से लिप्त रहती हुई वे शरीर संस्कार से शून्य रहती है। क्षमा-मार्दव आदि धर्म, माता-पिता के कुल, अपना यश और अपने व्रतों के अनुरूप निर्दोष चर्या करती हैं।246 ये दो साड़ी रखती हैं, तीसरा वस्त्र नहीं रख सकती हैं, फिर भी ये लंगोटी मात्र धारी ऐलक से अधिक पूज्य मानी गयी हैं, क्योंकि इनके उपचार से महाव्रत हैं, किंतु ऐलक के अणुव्रत ही हैं। सागारधर्मामृत में कहा है- "ग्यारहवीं प्रतिमाधारी ऐलक लंगोट में ममत्व सहित होने से उपचार महाव्रत के योग्य भी नहीं हैं। किंतु आर्यिका एक साड़ी मात्र धारण करने पर भी ममत्व रहित होने से उपचार से महाव्रती है। 247 मुनियों से इनमें केवल दो ही चर्याओं का अन्तर है-साड़ी पहनना और बैठकर आहार करना। 1.20 जैन श्रमणी संघ के इतिहास को जानने के साधन-स्रोत जैन श्रमणी-संघ के इतिहास को जानने के मुख्य तीन साधन हमारे पास हैं - 243. आचारांग सूत्र 1/8 244. अन्तकृद्दशांग सूत्र, वर्ग 8 245. एसो अज्जाणंपि य समाचारो जहाक्खिओ पुव्वं। सव्वम्हि अहोरत्ते विभासिदव्वो जधाजोग्ग।। -मूलाचार 4-182, 187 246. मूलाचार 4/182-90 247. कौपीनेऽपि समूर्च्छत्वात् नाहत्यार्यो महाव्रतम्। अपि भाक्तममूर्च्छत्वात् साटिकेऽप्यार्यिकाअर्हति। -सागार धर्मामृत पृ. 518 51 Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन श्रमणियों का बृहद इतिहास (i) साहित्यिक स्रोत : जिसमें आगम, आगम की व्याख्याएँ, चूर्णि नियुक्ति, टीका, भाष्य आदि तथा पट्टावलियाँ, ग्रंथ-प्रशस्तियाँ सचित्र हस्तलेख, विज्ञप्ति-पत्र, प्रबन्ध एवं इतिहास ग्रंथ आदि सम्मिलित हैं। (ii) अभिलेखीय स्रोत - ताम्रपत्र, शिलालेख आदि (ii) पुरातात्त्विक स्रोत - मूर्ति, चरणपादुका आदि 1.20.1 साहित्यिक-स्रोत 1.20.1.1 आगमः जैन श्रमणी-संघ के इतिहास पर दृष्टि-निक्षेप करने के लिये आप्त कथित आगम ही सर्व प्रामाणिक एवं सर्वप्राचीन आधार है। जैनधर्म में आगमों को वही स्थान प्राप्त है जो स्थान ब्राह्मण-धर्म में वेदों को एवं बोद्धधर्म में त्रिपिटकों को है। आगम भगवान महावीर द्वारा उपदिष्ट वाणी है, अत: उनका समय भी महावीर-काल ही है, सर्वज्ञ द्वारा उपदिष्ट होने से उसकी स्वतः प्रामाणिकता है। इतिहासविद् मनीषियों ने भी आचारांग सूत्र को ई. पू. पाँचवीं चौथी शताब्दी का सिद्ध किया है, अशोककालीन प्राकृत अभिलेखों से भी आचारांग पूर्वकालीन है। यद्यपि इसमें पूर्णरूपेण धर्म एवं दर्शन का वर्णन है, तथापि 'समण' 'समणी' दोनों शब्दों के भिन्न प्रयोग यह सिद्ध करते हैं कि भगवान महावीर के समय 'श्रमणी-समुदाय' की भी संख्या एवं तप, संयम की दृष्टि से अहं भूमिका रही है। समवायांग सूत्र, जिसका समय विद्वानों ने ईसा की तृतीय-चतुर्थ शताब्दी माना है, उसमें सर्वप्रथम चौबीस तीर्थंकरों की प्रमुख श्रमणियों का नामोल्लेख उनकी शिष्याओं की संख्या तथा सूत्र रूप संक्षिप्त व्यक्तित्व प्राप्त होता है। आचार्य शययंभव रचित दशवैकालिक सत्र ई. प. पाँचवीं-चौथी शताब्दी एवं उत्तराध्ययन सूत्र जो ई. पू. चौथी-तीसरी शताब्दी का मान्य है। इनमें राजीमती की बावीसवें तीर्थंकर अरिष्टनेमि के प्रति एकनिष्ठ अनन्य भक्ति एवं रथनेमि को सन्मार्ग पर लाकर संयम में स्थिर करने का प्रेरक वर्णन संपूर्ण 22वें अध्ययन में ग्रथित किया गया है। अंगसूत्रों में विशालकाय महासागर की भांति भगवती सूत्र (विद्वमान्य ई. सन् द्वितीय शताब्दी) में जयंति की ज्ञान-गरिमा, मृगावती का बुद्धि-चातुर्य, प्रियदर्शना की अनाग्रही-वृत्ति आदि पर विशेष प्रकाश डाला गया है। ज्ञातासूत्र, अन्तकृद्दशांग सूत्र आदि धर्मकथानुयोग के ग्रन्थ जिन्हें क्रमशः ईसा की प्रथम शताब्दी से लेकर पंचम शताब्दी तक के संग्रह ग्रन्थ माने हैं, उनमें अन्तकृद्दशांग सूत्र में अरिष्टनेमि काल की श्रमणियों का सर्वप्रथम विस्तृत वर्णन देखने को मिलता है। यहाँ उनके वैराग्य का कारण, दीक्षा की आज्ञा, दीक्षा-विधि, दीक्षा के पश्चात् तप-संयम एवं ज्ञान की उत्कृष्ट आराधना एवं अंत में संलेखना व सिद्धि प्राप्ति तक का सांगोपांग विवरण है, उसके पश्चात् इसी सूत्र में महावीरकालीन सम्राट श्रेणिक की नंदा आदि तेरह व कालि आदि दस महारानियों के तप का जो लोमहर्षक चित्र उपस्थित किया गया है, वह वस्तुतः जैनधर्म की उत्कृष्ट साधना एवं त्याग का अनुपम उदाहरण प्रस्तुत करता है ऐसा वर्णन विश्व के किसी धार्मिक इतिहास में दृष्टिगोचर नहीं होता। ज्ञातासूत्र, निरयावलिका एवं पुष्पचूलिका आदि आगम ग्रंथों में विशेष रूप से पार्श्वनाथ भगवान के श्रमणी समूह एवं तत्कालीन सामाजिक परिवेश का परिचय मिलता है। इस प्रकार 'आगम' जैन श्रमणियों के इतिहास को जानने की आधारभूमि है। अवशेष सम्पूर्ण जैन-साहित्यिक कृतियाँ इनके उत्तरवर्ती काल की हैं। 52 Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पूर्व पीठिका 1.20.1.2 आगम की व्याख्याएँ एवं चरित काव्य आगम-साहित्य के पश्चात् आगमाश्रित नियुक्ति, भाष्य, चूर्णि, टीका, पुराण, चरित्र, प्रबन्धकोष, कल्प एवं प्रकीर्णक ग्रंथों के माध्यम से जैनाचार्यों ने विलुप्त अंशों को सुरक्षित रखने में अपनी ओर से महान् पुरूषार्थ किया। वे ही ग्रंथ इतिहास-गवेषण में हमारे सहायक बने हैं। श्री भद्रबाहु स्वामी द्वारा रचित नियुक्तियाँ, जिनदासगणी महत्तर की ई. 600-650 में रचित आवश्यक चूर्णि, संघदासगणी का ई. 609 के आसपास रचित बृहद्कल्पभाष्य और वसुदेवहिण्डी जिनभद्रगणी क्षमाश्रमण का वि. सं. 645 में रचित विशेषावश्यक भाष्य, विमलसूरि का वि. स. 60 में रचित पउमचरियं, इसी प्रकार यतिवृषभ की तिलोयपण्णत्ती, जिनसेन के आदिपुराण, हरिवंश पुराण गुणभद्र का उत्तरपुराण, रविषेण का पद्मपुराण, आचार्य शीलांक का 'चउवन महापुरिस चरिय', पुष्पदंत का 'महापुराण', भद्रेश्वर का 'कहावली' ग्रंथ, आचार्य प्रभाचंद्रसूरि कृत 'प्रभावक चरित्र', आचार्य मेरूतुंगसूरि कृत 'प्रबंधचिंतामणि' जिनप्रभसूरि कृत 'विविधतीर्थकल्प' आचार्य कक्कसूरि कृत 'उपकेशगच्छ चरित्र' हेमचंद्र का 'त्रिषष्टिशलाका पुरूष चरित्र' 'परिशिष्ट पर्व' आदि कई आचार्यों के लिखे गये ग्रंथ भी श्रमणियों के जीवन संबंधी तथ्यों को जानने के विश्वसनीय स्रोत हैं। आगम-ग्रंथों में ब्राह्मी-सुंदरी आदि जिन श्रमणियों के विषय में संकेत मात्र उपलब्ध होते हैं, उक्त ग्रंथों में उनकी विस्तृत जानकारी प्राप्त होती है। धारणी, पुष्पचूला, यक्षा आदि सात बहनें अवंती सुकुमाल की माता भद्रा, सुनन्दा, रुक्मिणी आदि महावीरोत्तरकालीन अनेक श्रमणियों का अनूठा तप, त्याग व जीवन वृत्त नियुक्ति चूर्णि एवं भाष्य साहित्य में देखने को मिलता है। रामायण एवं महाभारत काल की अनेक साध्वी स्त्रियों के उल्लेख भी आगमेतर साहित्य में उपलब्ध हैं। 1.20.1.3 पट्टावली पट्टावलियों मे भी श्रमणियों का प्रामाणिक इतिहास प्राप्त होता है। प्राचीन समय में पट्टावली-नामावली के रूप में संक्षिप्त रूप से इतिहास को सुरक्षित रखने की पद्धति बहुमान्य थी। इनमें नामावली निबद्ध इतिहास प्राचीन एवं प्रामाणिक माना जाता है। नामावलियों में जैनाचार्यों के विषय में तो जानकारी मिलती ही है, साथ ही उनके शिष्य प्रशिष्य, उनके द्वारा प्रदत्त दीक्षाएँ, महत्त्वपूर्ण पद प्रदान आदि का भी प्रामाणिक विवरण प्राप्त होता है। इसके अतिरिक्त इनमें कहीं-कहीं उस काल की प्रमुखा साध्वियों के नाम तथा किस आचार्य ने कब किन साध्वियों को दीक्षा दी इसके भी उल्लेख हैं। इस प्रकार पट्टावलियाँ जैन साध्वियों के इतिहास को जानने का एक प्रमुख आधार है। पट्टावलियों के संग्रह के रूप में मुनि दर्शनविजय जी द्वारा संपादित 'पट्टावली समुच्चय' दो भागों में है। इसके प्रथम भाग में कल्पसूत्र, नन्दीसूत्र की स्थविरावली, तपागच्छ उपकेशगच्छीय पट्टावली आदि तथा द्वितीय भाग में कच्छूलीगच्छ, पूर्णिमागच्छ आगमगच्छ, बृहद्गच्छ एवं केवलागच्छ की पट्टावली पद्यमयी भाषा में संग्रहित हैं। 'जैन गुर्जर कवियों' के भाग दो और तीन के परिशिष्ट में विभिन्न पट्टावलियों का गुजराती में सारांश है। मुनि जिनविजयजी की विविध गच्छीय पट्टावली संग्रह' प्राकृत, संस्कृत, गुजराती आदि भाषाओं की पट्टावलियों का संग्रह है। जैन इतिहासविद् मुनि कल्याणविजय जी की 'पट्टावली पराग संग्रह' छोटी बड़ी 64 पट्टावलियों का सारांश है।248 'पट्टावली प्रबंध संग्रह' में आचार्य हस्तीमलजी महाराज द्वारा प्रकाशित लोकागच्छ की सात पट्टावलियों का संकलन है। दिगम्बर-परम्परा की मूलसंघ पट्टावली, भट्टारक पट्टावली, नंदी संघ पट्टावली आदि में उपयोगी जानकारी दी गई है। पट्टावलियों में प्रदत्त सूचनाएँ जैनधर्म के इतिहास निर्माण की दृष्टि से महत्त्वपूर्ण हैं। 53 Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1.20.1.4 स्थविरावली तथा गुर्वावली लब्धप्रतिष्ठ इतिहासज्ञ एवं आगमवेत्ता मुनिश्री कल्याणविजयजी के संग्रह में अप्रकाशित हस्तलिखित ग्रंथ हिमवन्त स्थविरावली में इतिहास की दुर्लभ सामग्री प्राप्त होती है। इस स्थविरावली में कालकाचार्य द्वितीय की बहन साध्वी सरस्वती के गर्दभिल्ल द्वारा अपहरण, उसकी मुक्ति व पुनः संयमधर्म में स्थापित करने का उल्लेख है। कुमारगिरि पर आयोजित खारवेल की आगम परिषद सभा में आर्या पोइणी तीनसौ साध्वियों के साथ कलिंग में आई थी, यह इतिहास की एक महत्त्वपूर्ण घटना भी हिमवन्त स्थविरावली में प्राप्त होती है। 249 इसी प्रकार श्री जिनपतिसूरि के शिष्य (सं. 1223-77) श्री जिनपाल उपाध्याय द्वारा लिखित 'खरतरगच्छ गुर्वावली' जिसमें सं. 1080 से सं. 1393 तक का इतिवृत्त है, उसमें समय-समय पर होने वाले उक्त गच्छ के आचार्यों का संपूर्ण विवरण और उसके साथ श्रमण- श्रमणियों की दीक्षा, दीक्षा स्थान, तिथि, प्रवर्तिनी, महत्तरा, गणिनी आदि पद प्रदान करने का प्रामाणिक वर्णन दिया गया है। इसके पश्चात् भी श्रृंखलाबद्ध इतिहास लिखने की प्रणाली बराबर रही है, उसमें श्रमणियों को भी उतना ही महत्त्व प्रदान किया गया है, जितना श्रमणों को। अतः खरतरगच्छ की श्रमणियों का अद्यतन क्रमबद्ध इतिहास पूर्ण विश्वसनीय रूप से उपलब्ध होता है। श्री धर्मसागरगणी विरचित सूत्र वृत्ति सहित तपागच्छ पट्टावली सं. 1648 की उपलब्ध होती है, किंतु उसमें श्रमणियों का नामोल्लेख कहीं देखने में नहीं आया। लेकिन पं. कल्याणविजय जी द्वारा संपादित तपागच्छ पट्टावली भाग 1 में 'कोडिमदे' की दीक्षा का उल्लेख है 1250 1.20.1.5 पांडुलिपियाँ वीर निर्वाण की चतुर्थ शताब्दी से ही जैन साहित्य को सुरक्षित रखने के लिये शास्त्रों को लिपिबद्ध करने की प्रवृत्ति प्रारंभ हो गई थी उसमें साधुओं के समान साध्वियों ने भी अनेक शास्त्रों व ग्रंथों की प्रतिलिपियाँ की । हिमवंत स्थविरावली में उल्लेख है कि कुमारगिरि पर कलिंग के 'भिक्खुराय' अपरनाम 'महामेघवाहन खारवेल ने शास्त्रों की सुरक्षा हेतु चतुर्विध संघ का सम्मेलन कराया था, यह सम्मेलन वी. नि. 330 के लगभग हुआ माना जाता है, उस सम्मेलन में आर्य बलिस्सह आदि जिनकल्पियों की तुलना करने वाले 200 श्रमण, आर्य सुस्थित आदि 700 स्थविरकल्पी श्रमण तथा आर्या पोइणी आदि 300 श्रमणियाँ, भिक्षुराज सीवंद, चूर्णक, सेलक आदि 400 श्रावक और खारवेल की अग्रमहिषी पूर्णमित्रा आदि 700 श्राविकाएँ सम्मिलित हुई थीं । भिक्खुराय की प्रार्थना पर उन स्थविर श्रमणों एवं श्रमणियों ने अवशिष्ट जिनप्रवचन को सर्वसम्मत स्वरूप में भोजपत्र, ताड़पत्र, वल्कल आदि पर लिखा और इस प्रकार वे सुधर्मा द्वारा उपदिष्ट द्वादशांगी के रक्षक बने | 251 248. नाहटा, पट्टावली प्रबंध संग्रह भूमिका, पृ. 37 249. तेण भिक्खुरायणिवेणं जिणपवयण संगहट्ठ जिणधम्म वित्थर ... जैन श्रमणियों का बृहद इतिहास एगा परिसा तत्थ कुमारिपव्वय- तित्थम्मि मेलिया. .......अज्जा पोइणीयाईण अज्जाणं णिग्गंठीणं तिन्नि सया समेया । हिमवंत स्थविरावली (अप्रकाशित ) दृष्टव्य: जैनधर्म का मौलिक इतिहास भाग 2, पृ. 780 250. तपागच्छ पट्टावली भाग 1, पृ. 241 251. इह तेणणिवेणं चोइएहिं तेहिं थेरेहिं अज्जिहिं अवसिद्धं जिणपवयणं दिट्ठिवायं णिग्गंठगणाओ थोवं थोवं साहिइत्ता भुज्ज तालवक्कलाइ पत्ते अक्खरसन्निवायोवयं राकइत्ता भिक्खुराय णिवमणोरहं पूरित्ता अज्ज सोहम्मुवएसिय दुवालसंगी रक्खआ ते संजाया । - हिमवंत स्थविरावली (अप्रकाशित) दृष्टव्य: जैनधर्म का मौलिक इतिहास भाग 2, पृ. 484 54 Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पूर्व पीठिका उक्त उल्लेख से यह स्पष्ट होता है कि वी. नि. की चतुर्थ शताब्दी के मध्य जैन श्रमणों के साथ ही जैन श्रमणियों ने भी शास्त्रों को आंशिक रूप में ही सही, लिखना प्रारम्भ कर दिया था। तत्पश्चात् आर्य स्कंदिल के नेतृत्व में लगभग वी. नि. संवत् 830 से 840 के मध्यवर्ती समय में उत्तर भारत के मुनियों का मथुरा में एवं लगभग इसी काल में दक्षिणापथ में आचार्य नागार्जुन के नेतृत्व में वलभी में श्रमण - सम्मेलन हुआ, उसमें 11 अंगों का संकलन किया गया, वे सूत्र माथुरी वाचना एवं नागार्जुनीय या वलभी वाचना के नाम से प्रसिद्ध हुए। वे भी कुछ भोजपत्र और ताड़पत्रों पर लिखे गये थे। 252 उसके पश्चात् वीर निर्वाण 980 में आचार्य देवर्द्धिगणी ने वलभी में आगमों को सुव्यवस्थित एवं संपूर्ण रूप में लिपिबद्ध करने-करवाने का कार्य किया। यद्यपि मथुरा और वलभी वाचना में श्रमणियों द्वारा लिखने का कोई लेख उपलब्ध नहीं होता, तथापि वीर निर्वाण चतुर्थ शताब्दी में श्रमणियों द्वारा लिखने के जो प्रमाण उपलब्ध होते हैं, उससे यह सुनिश्चित होता है कि यह परम्परा आगे भी चलती ही रही होगी । श्रमण संघ में श्रमणी संघ का भी अन्तर्भाव हो जाने से उनके सहयोग का पृथक् उल्लेख नहीं किया होगा। 253 तथापि श्रमण - संघ जब-जब श्रुतरक्षा, आगम विचारणा हेतु कहीं पर एकत्रित हुआ, वहाँ श्रमणियाँ भी पहुँची ही होंगी और समय-समय पर शास्त्र लेखन आदि कार्य किये ही होंगे, यह तथ्य अनुमान से स्पष्ट होता है। वर्तमान में बहुत खोज करने पर भी उस समय की लिपि अथवा उसके आसपास के सौ दो सौ वर्षों तक लिपि किये गये साहित्य का एक भी पत्र प्राप्त नहीं होता। ताड़पत्र, भोजपत्र आदि पर लिखी गई वलभी की सभी प्राचीन पांडुलिपियाँ आज निःशेष प्रायः हो चुकी हैं। या तो वे धर्म विद्वेषी लोगों की शिकार बन गईं, या ग्रंथ भंडार में पड़ी - पड़ी दीमकों की भक्ष्य बन गईं, या फट गईं, या गलकर नष्ट हो गईं। आज जितने भी हस्तलिखित ग्रंथ प्राप्त होते हैं, वे प्रायः विक्रम की 11वीं शताब्दी के बाद के हैं। वर्तमान में लगभग एक हजार वर्ष का इतिहास हमें पांडुलिपियों के आधार पर उपलब्ध होता है। ये पांडुलिपियाँ हमें विशेष रूप से दिल्ली के ग्रंथ-भंडारों में देखने को मिली। बी. एल. इन्स्टीट्यूट ऑफ इंडोलोजी दिल्ली में लगभग दस हजार ग्रंथों की महत्त्वपूर्ण पांडुलिपियाँ अप्रकाशित सूची के रूप में संग्रहित हैं। सैंकड़ों श्रमणियों द्वारा मरु - गुर्जर भाषा में 'सस्तबक' लिखे जाने की सूचना मिलती है, जो 15वीं से 20वीं सदी के मध्य की हैं। प्रतिलिपिकार के नामोल्लेख के प्रति उपेक्षा भाव होने से शेष पांच हजार प्रतियों में किसी श्रमणी का उल्लेख सूची में अंकित नहीं है। शंकररोड नई दिल्ली में आचार्य सुशील मुनि जी महाराज द्वारा संग्रहित लगभग तीन हजार हस्तलिखित ग्रंथों की प्रतियाँ अवलोकनार्थ प्राप्त हुई, शास्त्रों की पांडुलिपियाँ करने वाली अधिकांश श्रमणियाँ हैं। कई श्रमणियों ने ढाल, रास, चौपई, प्रबन्ध, स्तोक आदि की प्रतिलिपि की हैं, कुछ ऐसी भी श्रमणियाँ हैं जिनके पठनार्थ प्रतिलिपियाँ तैयार की गई, कुछ श्रमणियों की मौलिक रचनाएँ भी इसमें सम्मिलित हैं, आर्या लक्षमां जी (सं. 1850 ) आर्या जमुना जी (सं. 1884) आर्य कस्तूरी (सं. 1967) आर्य रायकंवर (सं. 1993) आर्य पार्वती जी (सं. 1947) आदि उत्कृष्ट कोटि की लेखिका कवियित्री श्रमणियाँ थीं। इन्होंने ग्रंथ के अंत में अपनी संप्रदाय एवं गुरूणी-परंपरा का भी उल्लेख किया है। किंतु इन ग्रंथों की न सूची प्रकाशित है न ही रजिस्टर में नामांकन है। ऐसे ही सैंकड़ों स्थल हैं, जहाँ हस्तलिखित ग्रंथों के अपार भंडार असुरक्षित रूप से पड़े हैं, यदि इन सभी की सूचियाँ उपलब्ध हो तो श्रमणी विषयक कितनी ही महत्त्वपूर्ण सामग्री प्रकाश में आ सकती है। 252. वही, पृ. 649 253. चउव्विहे समण-संघे पण्णत्ते, समणा, समणीओ, सावया, सावियाओ - भगवतीसूत्र 20/8 55 Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन श्रमणियों का बृहद इतिहास कुछ सूचियाँ प्रकाश में आई भी हैं जैसे- राजस्थानी हस्तलिखित ग्रंथ सूची 1 से 8 भाग, इस विशालकाय सूची में मात्र 33 श्रमणियों के नामोल्लेख प्राप्त हुए हैं। इसके अतिरिक्त श्री चतुरविजयजी के प्रमुख निर्देशन में आगमोदय समिति मुंबई ने 'लींबड़ी ज्ञान मंदिर के हस्तलिखित ग्रंथों की सूची प्रकाशित की है। के. भुजबल शास्त्री ने भारतीय ज्ञानपीठ काशी से 'कन्नड़ प्रान्तीय ताड़ग्रंथ सूची' प्रकाशित की है, उक्त सूचियों में प्रतिलिपिकर्त्ताओं का नाम देने की आवश्यकता ही नहीं समझी। हस्तलिखित ग्रंथों का सर्वेक्षण करते समय यदि इस ओर भी ध्यान दिया जाता तो श्रमणियों के क्रमबद्ध इतिहास में वे अत्यंत उपयोगी सिद्ध होतीं । 1.20.1.6 ग्रंथ - प्रशस्ति प्रशस्तियों की महत्ता एवं उपयोगिता अभिलेखों के सदृश हैं, मध्यकाल में आठवीं-नौवीं शताब्दी से ही प्रशस्तियाँ लिखी जाने लगी थीं, उनमें जो सुरक्षित रह पाई हैं, वे जैन इतिहास के पुनर्निर्माण में अत्यधिक महत्त्वपूर्ण स्रोत सिद्ध हुई हैं। अनेक इतिहास प्रेमी विद्वानों, आचार्यों ने हस्तलिखित ग्रंथों की प्रशस्तियों का संग्रह किया है, उनसे श्रमणियों के विषय में महत्त्वपूर्ण जानकारी उपलब्ध होती है। इनमें प्रमुख रूप 'मुनि जिनविजयजी द्वारा संग्रहित 'जैन पुस्तक प्रशस्ति संग्रह, जुगलकिशोरजी मुख्तार की 'जैन ग्रंथ प्रशस्ति संग्रह' गंगवाल की 'प्रशस्ति-संग्रह' श्री कमल कुमार जैन की 'जिनमूर्ति प्रशस्ति लेख', अमृतलाल मगनलाल शाह की 'प्रशस्ति संग्रह' आदि मुख्य हैं। संवत् 1192 में चैत्यवासी ब्रह्माणगच्छ से संबंधित साध्वी लक्ष्मी को 'नवपदप्रकरण' की प्रति समर्पित किये जाने का उल्लेख एवं अन्य भी महत्त्वपूर्ण दुर्लभ जानकारी 'जैन पुस्तक प्रशस्ति संग्रह' में दी गई है। श्री अमृतलाल मगनलाल शाह ने भी प्राचीन ताड़पत्रीय प्रतियों की उल्लेखनीय प्रशस्तियाँ 'जगसुंदरगणिनी (सं. 1265 ) ललितसुंदरगणिनी (सं. 1313) आदि श्रमणियों को ग्रंथ प्रदान विषयक जानकारी दी है। 254 जैसलमेर के प्राचीन ग्रंथ भंडार की सूची में 'जगमतगणिनी' की ताड़पत्र की प्रति में सं. 1300 के लगभग की प्रशस्ति उनके प्रभावशाली व्यक्तित्व की परिचायक है। 255 प्रशस्ति-संग्रह एवं पांडुलिपियों के अतिरिक्त इतिहासविज्ञ विद्वानों ने भी अपने ग्रंथों में श्रमणी विषयक महत्त्वपूर्ण तथ्य प्रकाशित किये हैं, इसमें प्रमुख ग्रंथ हैं - मोहनलाल दलीचंद देसाई की 'जैन गुर्जर कविओ' भाग 1 से 5 इसमें विभिन्न साहित्य भंडारों में उपलब्ध हस्तलिखित ग्रन्थ एवं उसका संपूर्ण विवरण दिया गया है, अनेक आर्याओं का उल्लेख उनकी प्रशस्तियों में उपलब्ध होता है। वाराणसी से प्रकाशित 'जैन साहित्य का बृहद् इतिहास' भाग 1 से 7 में भी विद्वानों ने अथक परिश्रम कर खोजपूर्ण सामग्री प्रस्तुत की है। नाहटा जी का 'ऐतिहासिक काव्य संग्रह' जैन ऐतिहासिक गुर्जर काव्य संचय' भी श्रमणियों का इतिहास जानने में उपयोगी सिद्ध हुआ है। 1.20.1.7 विज्ञप्ति-पत्र - जैन आचार्यों के पास चातुर्मासिक विनंती हेतु जो आमंत्रण-पत्र प्रेषित किये जाते थे उन्हें 'विज्ञप्ति पत्र' कहा जाता था । ये विज्ञप्ति - पत्र संतों के प्रति श्रद्धा भावना के द्योतक होते थे। ऐसे विज्ञप्ति - पत्र सुंदर बेल-बूटों एवं चित्रकारी से सुसज्जित कर कई फुट लंबे कागज या कपड़े पर लिखे हुए होते थे। विज्ञप्ति - पत्र का सबसे प्राचीन नमूना ईसा की 17वीं शती का उपलब्ध होता है । 256 254. श्री प्रशस्ति संग्रह पृ. 6 255. जैसलमेर ग्रंथ भंडारों की सूची, परिशिष्ट 13, पृ. क्र. 592 256. डॉ. मोहनलाल मेहता, जैनधर्म दर्शन, पृ. 616 56 Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पूर्व पीठिका आचार्यों के पास भेजे गये विज्ञप्ति-पत्रों में सुंदर चित्रकारी के साथ-साथ श्रमण- श्रमणियों के चित्र भी अंकित होते हैं, जो काल्पनिक अधिक लगते हैं। लेकिन इससे श्रमणियों का स्वरूप व उनकी तत्कालीन स्थिति पर महत्त्वपूर्ण प्रकाश पड़ता है। श्रमणियों को एवं संघों को प्रेषित दो विज्ञप्ति-पत्रों का विवरण श्री हीरालाल दुगड़ ने अपनी पुस्तक 'मध्य एशिया और पंजाब में जैनधर्म' में प्रकाशित किया है, जिसमें यति-यतिनियों को धर्म प्रचारार्थ क्षेत्र संभालने का जिक्र किया गया है। 257 किंतु ये विज्ञप्ति - पत्र आदेश - पत्र के रूप में हैं, विनंती के रूप में नहीं। तथापि इन विज्ञप्ति - पत्रों के माध्यम से श्रमणियों का संघ में गरिमामय स्थान था, यह झलक अवश्य मिलती है। 1.20.1.8 सचित्र हस्तलेख बीकानेर, जयपुर, जैसलमेर, पाटण आदि के जैन ग्रंथ-भंडारों में कई सचित्र हस्तलिखित ग्रंथ संग्रहित हैं। ये चित्र जैनियों की कला अभिरूचि एवं उनकी परिष्कृत कला - ज्ञान का दिग्दर्शन कराते हैं। निर्माण-तिथि अंकित होने से ये सचित्र ग्रंथ जैन चित्रकला एवं प्रकारान्तर से भारतीय चित्रकला का इतिहास उद्घाटित करते हैं। लगभग 800 वर्ष प्राचीन श्रमणियों के सचित्र - पत्र का नाहटा जी ने उल्लेख किया है। 258 जो उनके कला भवन में संग्रहित है। इससे जैन चित्रों की प्राचीनता के साथ ही साथ जैन श्रमणियों द्वारा चित्रित चित्रकला का इतिहास विक्रम की 12वीं सदी तक का सिद्ध हो जाता है । उपलब्ध चित्र से यह अनुमान भी सहज ही लगता है कि इससे पूर्व भी जैन श्रमणियाँ हस्तलिखित पत्रों पर अपनी चित्रकला का प्रदर्शन करती होंगी। 1.20.1.9 समकालीन इतिहास- ग्रंथ पट्टावलियों, ग्रंथ-प्रशस्तियों एवं विज्ञप्ति-पत्रों के अतिरिक्त वंशावलियाँ, रास, ढालें, चौपाइयाँ, सिलोकों आदि अपभ्रंश तथा गुजराती हिंदी भाषा का साहित्य भी श्रमणियों के इतिहास को जानने के साधन है। गच्छ भेद के पश्चात् की श्रमणियों के वृत्तान्त इतिहास- ग्रंथों में विशद रूप से प्राप्त होते हैं। दिगम्बर परम्परा की श्रमणियों की जानकारी के लिये 'चंदाबाई अभिनन्दन ग्रंथ', 'आर्यिका रत्नमती अभिनंदन ग्रंथ', 'दिगंबर जैन साधु', 'भट्टारक', 'संप्रदाय' आदि उल्लेखनीय कृतियाँ हैं। श्वेताम्बर मूर्तिपूजक संप्रदाय के प्राचीन अर्वाचीन इतिहास की सामग्री महोपाध्याय विनयसागर एवं नाहटा जी द्वारा संग्रहित 'खरतरगच्छ का इतिहास', 'खरतरगच्छ दीक्षा नंदी सूची', नंदलाल देवलुक् का 'जिनशासन नां श्रमणी रत्नों', मुनि ज्ञानसुंदरजी का " भगवान पार्श्वनाथ की परंपरा का इतिहास" आदि उपयोगी ग्रंथ हैं। सुमनमुनि जी महाराज का 'पंजाब श्रमणसंघ गौरव', मोतीऋषि जी महाराज का 'ऋषि संप्रदाय का इतिहास', उमेशमुनि 'अणु' का 'धर्मदास' और उनकी मालव शिष्य परंपरा', मुनि धर्मेश द्वारा लिखित " साधुमार्गी की पावन सरिता ", इन्दौर से प्रकाशित "गोंडल गच्छ दर्शन" 'अजरामर विरासत' एवं अनेक अभिनंदन ग्रंथ, स्मृति ग्रंथ आदि में स्थानकवासी परम्परा की श्रमणियों के संदर्भ प्राप्त होते हैं। तेरापंथ-संघ का व्यवस्थित एवं क्रमबद्ध इतिहास मुनि नवरत्नमलजी ने कई भागों में 'शासन - समुद्र' नाम से प्रकाशित करवाया है। 1.20.2 अभिलेखीय स्रोत अतीत को जानने का सर्वाधिक प्रामाणिक एवं विश्वसनीय साधन उस काल के अभिलेख हैं। ये अभिलेख 257. मध्य एशिया और पंजाब में जैनधर्म, पृ. 343-44 258. भंवरलाल नाहटा अभिनंदन ग्रंथ, पृ. 126 57 Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन श्रमणियों का बृहद इतिहास पाषाण-शिलाओं, स्तम्भों, प्रस्तर- पट्टियों, भवनों, दीवारों, पत्थर एवं धातु की मूर्तियों ताम्रपत्रों, मंदिर के भागों एवं स्तूप आदि स्थानों पर उत्कीर्ण किये जाते हैं। इनकी मुख्य विशेषता यह है कि एकबार उत्कीर्ण किये जाने के बाद उन्हें परिवर्तित नहीं किया जा सकता। शताब्दियों तक संपादन और पुनर्लेखन से गुजरती हुई साहित्यिक सामग्री में प्रायः जिस तरह के अंश प्रक्षिप्त या परिवर्तित कर दिये जाते हैं, वैसा अभिलेखों में नहीं हो सकता, साहित्यिक स्रोतों में भी प्रदत्त तथ्यों की पुष्टि यदि अभिलेखों से होती है, तो वे तथ्य प्रामाणिक माने जाते हैं। ये संस्कृत, प्राकृत, राजस्थानी, हिन्दी और मिश्रित भाषाओं में पाये जाते हैं। प्रायः छठी शताब्दी तक के अभिलेख ब्राह्मी लिपि में, सातवीं से नौवीं शताब्दी तक के कुटिल लिपि में और उसके बाद के देवनागरी लिपि में मिलते हैं। 259 1.20.2.1 खारवेल के अभिलेख ऐतिहासिक घटनाओं और जीवन चरित को अंकित करने वाला भारत का सबसे प्रथम शिलालेख एवं जैन शिलालेखो में सबसे प्राचीन शिलालेख कलिंगाधिपति खारवेल का ई. पू. 170 का माना जाता है 1200 ई. पू. द्वितीय शताब्दी का यह शिलोलेख 'हाथीगुफा के शिलालेख' के नाम से प्रसिद्ध है इसकी भाषा अपभ्रंश प्राकृत है। शिलालेख की प्रथम पंक्ति जैन रीति के अनुसार अर्हत और सिद्धों के नमस्कार से प्रारंभ होती है अतः यह 'जैन शिलालेख' भी कहा जा सकता है। इसमें सम्राट् खारवेल ने अपने राज्यकाल की घटनाओं को 17 पंक्तियों में उत्कीर्ण किया है। यह संपूर्ण लेख ब्राह्मी लिपि में लिखा गया है। खारवेल के शिलालेख में श्रमणियों के बारे कोई उल्लेख नहीं है, किंतु हिमवन्त स्थविरावली से यह सूचित होता है कि खारवेल श्रमणोपासक था। उसने कलिंग के कुमारी पर्वत पर जैन श्रमण संघ का सम्मेलन करवाया था उसमें आर्या पोइणी तीनसौ श्रमणियों के साथ सम्मिलित हुई थी । कुमारीपर्वत पर ही महावीर की वाग्दत्ता (दिगंबर- परम्परा विवाह नहीं मानती) राजकुमारी यशोदा ने तपस्या की थी इस पर्वत का 'कुमारीपर्वत' नाम तभी से प्रसिद्ध हुआ | 201 1.20.2.2 मथुरा के अभिलेख ( ई. पू. प्रथम शताब्दी से ई. पाँचवीं शताब्दी) खारवेल के शिलालेखों के पश्चात् मथुरा के जैन शिलालेख कई दृष्टियों से महत्त्वपूर्ण हैं। खारवेल का शिलालेख जहाँ राजा खारवेल के राज्य शासन में घटित महत्त्वपूर्ण घटनाओं की ओर इंगित करता है, वहाँ मथुरा के जैन अभिलेख सीधे तत्कालीन जैन धर्म के इतिहास एवं संस्कृति का दस्तावेज प्रस्तुत करते हैं। मथुरा के शिलालेखों में एक अन्य विशेषता और भी देखने को मिलती है कि यहाँ पुरूषों की अपेक्षा स्त्रियों के उल्लेख अधिक हैं, ये स्त्रियाँ आर्याओं के उपदेश से प्रेरित होकर धर्मकार्यों में प्रवृत्त हुईं और उदार हृदय से मूर्तियाँ, स्तूप आदि बनवाने में आगे रहीं। अभिलेखों में दानदात्री महिलाओं ने अपने एवं अपने परिवार वालों के नामों के साथ अपनी उपदेशिका पूज्या आर्याओं के नामों को भी उनके गण, कुल या शाखा के साथ अंकित किया है। मथुरा के अभिलेख दो हजार वर्ष पूर्व की श्रमणियों का अस्तित्व एवं उनकी महान् प्रवृत्तियों की एक प्रामाणिक व विश्वसनीय सामग्री प्रस्तुत करते हैं। 259. डॉ. श्रीमती राजेश जैन, मध्यकालीन राजस्थान में जैनधर्म, पृ. 2 260. चि. जै. शाह, उत्तर भारत में जैनधर्म, पृ. 152 261. विजयमती माताजी का लेख 'आर्यिकाओं का योगदान', दृष्टव्य-आ. इंदु, अभि. ग्रं., खंड 4 पृ. 3 58 Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पूर्व पीठिका 1.20.2.3 देवगढ़ के अभिलेख भारतीय कला के इतिहास में उत्तरप्रदेश के ललितपुर जिले में स्थित देवगढ़ का भी अपना विशिष्ट स्थान है। यहाँ लगभग 7वीं शती ई. से जैन मंदिरों का निर्माण प्रारम्भ हुआ उनमें लगभग 300 छोटे-बड़े अभिलेख मिले हैं। जिसमें 50 अभिलेख तिथियुक्त हैं। देवगढ़ के जैन स्मारक एवं मूर्तियों के लेखों में प्राचीनतम अभिलेख, मंदिर संख्या 12 का संवत् 919 का एवं नवीनतम लेख संवत् 1995 का है। इसके प्रारम्भिक अभिलेख ब्राह्मी लिपि में और बाद के लेख नागरी लिपि में लिखे हैं, इनकी भाषा प्रारम्भ में संस्कृत है किंतु बाद के कुछ लेखों में कभी-कभी अपभ्रंश तथा हिंदी भाषा का भी व्यवहार हुआ है | 262 देवगढ़ के मंदिरों में ऐसी कई मूर्तियाँ हैं जिनके शिलालेखों में आर्यिकाओं के अभिलेख हैं। आर्यिका इन्दुआ (सं. 1095) आर्यिका लवण श्री (सं. 1135) आर्यिका धर्मश्री (सं. 1208) आर्यिका नवासी (सं. 1207 ) आदि अनेकों आर्यिकाओं ने गृहस्थ श्राविकाओं को प्रेरित कर मूर्तियाँ प्रतिष्ठापित करवाईं। इन आर्यिकाओं के अभिलेख इस बात के प्रमाण हैं कि आचार्य, उपाध्याय एवं साधुओं के समान आर्यिकाएँ भी धार्मिक एवं कलात्मक गतिविधियों में अपना पूर्ण योगदान देती थीं। 1.20.2.4 मध्यप्रदेश के अभिलेख मध्यप्रदेश के टीकमगढ़ जिले में 'अहार' क्षेत्र पर तथा इसके निकटवर्ती भूभाग पर पुरातत्त्व सामग्री विपुल परिमाण में उपलब्ध होती है। यहाँ भूगर्भ से तथा बाहर अनेक खंडित अखंडित जैन मूर्तियाँ प्राप्त हुई हैं, अनेक मूर्तियों की चरण चौंकी पर लेख अंकित हैं। इन मूर्ति लेखों में भट्टारकों के साथ या स्वतन्त्र रूप से कुछ आर्यिकाओं के नामों का भी उल्लेख मिलता है। जैसे- ज्ञानश्री, जयश्री, त्रिभुवनश्री, लक्ष्मीश्री, चारित्रश्री, रत्नश्री, शिवश्री आदि । 263 इन अभिलेखों से एक और भी तथ्य पर प्रकाश पड़ता है कि आर्यिकाओं ने भट्टारकों के साथ अथवा स्वतन्त्र रूप से भी मूर्तियों की प्रतिष्ठा करायी। कई आर्यिकाओं के साथ 'सिद्धान्ती' जैसे पाण्डित्य सूचक विशेषण भी लगे हुए हैं। इससे यह प्रकट होता है कि ये आर्यिकाएँ परम विदुषी विधि-विधान में निष्णात और सिद्धान्त शास्त्रों की मर्मज्ञा थीं। प्रतिष्ठा कराने वाली इन आर्यिकाओं का नामोल्लेख 12वीं शताब्दी की मूर्तियों के लेखों में मिलता है, बाद के मूर्तिलेखों में नहीं। 'खजुराओ', जो चन्देल शासकों की देन है; वहाँ से भी आर्यिकाओं के कुछ लेख प्राप्त होते हैं। मध्यभारत में महोवा, देवगढ़ अहार, मदनपुर, बाणपुर, जतारा, रायपुर जबलपुर, सतना, नवागढ़, ग्वालियर, भिलसा, भोजपुर, मऊ, धारा, बड़वानी और उज्जैन आदि भी पुरातत्त्व सामग्री के केन्द्रस्थान हैं 264, किंतु श्रमणियों के अंकन में सभी मौन हैं। 262. वि. गार्गीय, " जैन कला तीर्थ देवगढ़', पृ. 146 263. जयंतिलाल पारख, मध्य प्रदेश के दिगंबर जैन तीर्थ, चेदि जनपद, पृ. 92 265. 264. परमानन्द जैन, मध्यभारत का जैन पुरातत्त्व, दृष्टव्य - मुनि श्री हजारीमल स्मृति ग्रंथ अध्याय तीन, पृ. 699 जैन शिलालेख संग्रह, भाग 1, लेख सं. 28, 460, 113, 05, 113, 10, 02, 240, 27, 139, 207, 35, 19, 227, 113, भाग 2, ले. सं. 185 59 Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन श्रमणियों का बृहद् इतिहास 1.20.2.5 दक्षिण भारत के अभिलेख दक्षिण के अभिलेखों में श्रवणबेल्गोला के चन्द्रगिरि पर्वत के शिलालेख सबसे प्राचीन हैं, इनमें अधिकांश 7वीं 8वीं शताब्दी अथवा इसके पूर्व के है। उस पर बड़े-बड़े आचार्य, मुनियों, आर्यिका, श्रावक-श्राविकाओं के संलेखना व्रत लेने का उल्लेख है। जैन शिलालेख संग्रह भाग 1-2 में प्रकाशित शिलालेखों में अनेक आर्यिकाओं के नाम हैं, जिन्होंने आत्मकल्याण के साथ समाज सेवा में भी अपना पूर्ण योगदान दिया, उनके द्वारा जैनधर्म एवं संस्कृति का बहुत प्रचार-प्रसार हुआ। उनमें अनन्तामति गंति, कण्णव्बे कन्ति, कनकश्री कन्ति, जम्बुनायगिर, देवश्री कति, धण्णे कुत्तारेवि गुरवि, नागमति गन्ति, पोल्लव्वे कंति, प्रभावती, मानकब्बे गन्ति, राज्ञीमती गन्ति शशिमति गन्ति, श्रीमती गन्ति, कान्तियर, तोमश्री, जाकियब्बे गन्ति आदि प्रमुख हैं।265 दक्षिण के सुन्दर पाण्ड्य से पूर्व मदुरा के पाण्ड्य शासनकाल और उसके पूर्व तथा उत्तरवर्ती काल के अनेक शिलालेखों में साध्वियों के स्वतन्त्र संघ, भट्टारक साध्वियों, पट्टिनी कुरत्तियार (पट्टधर अथवा आचार्या श्रमणी), तिरूमलैकुरत्ती आदि के उल्लेख हैं इनसे ज्ञात होता है कि सुदूर दक्षिण तमिलनाडु में जैनों के सुदृढ़ केन्द्र थे और साध्वियों के ऐसे स्वतंत्र संघ थे जिनकी संचालिकाएँ साध्वियाँ थीं। ऐसे शिलालेख अधिकांशतः आठवीं से ग्यारहवीं सदी तक के हैं। इन अभिलेखों के अतिरिक्त दक्षिण प्रान्त के सुंदी (धारवाड़) के तथा नेल्लूर जिले में तीतरमाड़ के जैन अभिलेखों में भी आर्यिकाओं विषयक महत्त्वपूर्ण सामग्री उपलब्ध होती है। 1.20.3 पुरातात्त्विक स्रोत 1.20.3.1 प्रतिमा भारतीय पुरातत्त्व में सर्वप्राचीन पुरातत्त्व सिंधुदेश के मोहन-जो-दरो एवं पंजाब के हरप्पा नामक ग्रामों के माने गये हैं. पश्चात अशोक द्वारा निर्मित परातत्त्व तथा खंडगिरि, उदयगिरि व मथरा के पुरातत्त्व ई. प. द्वितीय-प्रथम शताब्दी के हैं। इन सभी पुरातत्त्व से यह ज्ञात होता है कि प्राचीन काल में तीर्थंकर, आचार्य एवं साधुओं की मूर्तियाँ, स्मारक, स्तूप एवं पादुकाओं का विपुलमात्रा में निर्माण होता था, किंतु जैन आर्या-श्रमणियों के मूर्ति शिल्प क्वचित् ही अस्तित्व में है। श्रमणी-प्रतिमा का प्रारंभ कबसे हुआ इसका निश्चित् निर्णय तो नहीं किया जा सकता, किंतु डॉ. सागरमल जी जैन ने ई. सन् प्रथम-द्वितीय शती की मथुरा में उत्कीर्ण साध्वी का चित्रांकन प्रस्तुत किया है, उसके हाथ में पात्र है। एक अन्य चित्र ई. की द्वितीय शताब्दी का है, जिसमें दो साध्वियों की प्रतिमाएँ हैं, बाएँ हाथ में रजोहरण लिये हुए हैं। इससे सिद्ध होता है कि ई. की प्रथम-द्वितीय शताब्दी में श्रमणियों की प्रतिमाएँ निर्मित होती थी। देवगढ़ जिला ललितपुर (उ.प्र.) में आठवीं-नवीं सदी से 16वीं 17वीं सदी ई. के मध्य अनेक मंदिरों व मूर्तियाँ का निर्माण हुआ, जो मुख्यतः गुर्जर-प्रतिहार एवं चन्देल शासकों का काल रहा है। इनमें भी सर्वाधिक जैन-मंदिर और 265. जैन कला तीर्थ देवगढ़, पृ. 120 60 For Private Penal Use Only Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पूर्व पीठिका मूर्तियाँ 9वीं से 11वीं शती ई. के मध्य बनीं, जिनमें आर्यिकाओं का भी रूपायन हुआ है। मंदिर संख्या तीन एवं चार के स्तम्भों पर ये उत्कीर्ण की गई हैं।266 __ बंबई से प्रकाशित 'आचार्य वल्लभसूरि स्मारक ग्रंथ' में आचार्य यशोदेवविजय जी का एक गुजराती लेख 'प्राचीन समय में जैन साध्वियों की प्रतिमाओं' प्रकाशित हुआ है, इसमें उन्होंने वि. सं. 1204 से 1296 तक की जैन साध्वियों की तीन प्रतिमाओं का चित्र सहित पूरा विवेचन दिया है।267 मातर तीर्थ जिला. खेड़ा (गु.) में सुमतिनाथ प्रभु के जिनालय में वि. सं. 1298 की एक प्रतिमा साध्वी पद्मश्री जी की है। आचार्य प्रद्युम्नसूरि जी ने साध्वी जी के अलौकिक व्यक्तित्व का विस्तृत विवरण दिया है।268 साध्वी प्रतिमा की इस परंपरा में दो अन्य प्रतिमाओं का वर्णन 'श्रमण' पत्रिका में महेन्द्रकुमार जैन "मस्त" ने किया है। यह साध्वी प्रतिमा राजगृह (बिहार) के मुख्य श्वेताम्बर मंदिर में मूलनायक के वामवर्ती एक तीर्थंकर प्रतिमा के पद्मासन के नीचे के भाग में सन्निहित है। दूसरी चित्तौड़ किले में महान आचार्य श्री हरिभद्रसूरि जी के समाधि मंदिर में उनकी मूर्ति के मस्तक के पास ही 'महत्तरा साध्वी याकिनी' की दर्शनीय मूर्ति है।269 इसी प्रकार खंभात की एक निषीदिका पर सूरत के भट्टारक विद्यानंदी (प्रथम) की शिष्या आर्यिका जिनमती की संवत् 1544 की मूर्ति है। उस पर रत्नश्री, कल्याणश्री का भी नामोल्लेख है।270 साध्वी-प्रतिमाओं के उक्त साक्ष्य यह सिद्ध करते हैं कि ईसा की प्रथम द्वितीय सदी में ही यह प्रवृत्ति प्रारंभ हो गई थी, जो 12वीं 13वीं शताब्दी में उत्कर्षता को प्राप्त हुई। साध्वी प्रतिमा का निर्माण, प्रतिष्ठा एवं पूजा की यह परम्परा आज भी कई स्थानों पर देखने को मिलती है। तपागच्छीय परम्परा में जैन भारती महत्तरा साध्वी श्री मृगावती श्री जी की प्रतिमा विजयवल्लभ स्मारक, दिल्ली में सन् 1986 की प्रतिष्ठित सर्वप्रथम साध्वी प्रतिमा है। नाकोड़ा तीर्थ के दक्षिणावर्ती मंदिर में साध्वी सज्जन श्री जी की प्रतिमा के दर्शन होते हैं। दिल्ली के महरौली व जयपुर दादावाड़ी मंदिर में साध्वी रत्न विचक्षणश्री जी महाराज की प्रतिमा है। अन्यत्र भी कई स्थलों पर इस प्रकार की प्रतिमाएँ स्थापित हुई हैं। श्वेताम्बर मूर्तिपूजक श्रमणियों की प्रतिमाओं को छोड़कर अन्य किसी आर्यिका की प्रतिमा वर्तमान में देखने को नहीं मिलती। जैन संघ में श्रमणिओं का स्थान द्वितीय क्रमांक पर रखा गया है। श्रमणी-प्रतिमाओं का निर्माण पूज्यता की दृष्टि से करके श्रमण एवं श्रमणी दोनों को समान दर्शाना भी इसका एक हेतु हो सकता है। आचार्य यशोविजय जी ने तो इसे वैधानिक सिद्ध करते हुए स्पष्ट लिखा है - "साध्वी प्रतिमा की प्रतिष्ठा का विधान 15वीं शताब्दी में रचित 'आचार दिनकर' के 13वें अधिकार में सविधि व सविस्तार उल्लिखित मिलता है।''271 266. प्रमुख संपादक मुनि पुण्यविजय जी, पृ. 173 267. पाठशाला, पुस्तक 36, 703 भट्टार मार्ग, सूरत (गु.) जुलाई 2003 268. श्रमण, जुलाई-सितंबर 1997, पृ. 82 269. भट्टारक संप्रदाय, डॉ. वि. जोहरापुरकर, लेखांक 458 270. आ. विजयवल्लभ स्मारक ग्रंथ, पृ. 173 271. विश्वप्रसिद्ध जैन तीर्थ, महो. ललितसागर, कलकत्ता ई. 1995-96 Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन श्रमणियों का बृहद् इतिहास 1.20.3.2 सती. राजुल की गुफा पुरातात्त्विक स्रोत में श्रमणी की गुफा का एकमात्र संदर्भ गिरनार में देखने को मिलता है, वहाँ की पावन स्थली में नेमि राजुल की प्रेम, विरह, वैराग्य, कैवल्य और निर्वाण की अत्यंत लोमहर्षक गाथाएँ जुड़ी हुई हैं। राजीमती जो किसी वक्त नेमिनाथ की पत्नी होने वाली थी, अरिष्टनेमि के साध्वी-संघ में प्रविष्ट होकर उनसे पूर्व निर्वाण को प्राप्त हुई। उसीकी स्मृति में वहाँ 'सती राजुल की गुफा' का निर्माण हुआ है। उसमें लगभग 13वीं सदी की राजुल की प्रतिमा के दर्शन होते हैं। राजुल की गुफा के अलावा किसी श्रमणी के नाम से या श्रमणी के लिये भारत या भारत से बाहर कोई गुफा बनी हो, यह उल्लेख प्राप्त नहीं हुआ।272 1.20.3.3 चरण-पादुका या चरणचिह्य पुरातत्त्ववेत्ताओं के लिये चरण पादुका इतिहास की प्रामाणिक जानकारी का महत्त्वपूर्ण स्रोत है। श्रद्धेय पुरूषों की चरण-पादुका या चरण-चिह्म बनाकर पूजने की परंपरा जैनधर्म में प्राचीन काल से चली आ रही है। पाश्चात्य विद्वान् सर मोन्योर विलियम ने तो 'बुद्धिज्म' नामक पुस्तक में यहाँ तक अपना अभिमत प्रकट किया है कि जैन लोग ही सर्वप्रथम चरण-चिरों की पूजा के आविष्कारक हैं। श्रद्धालु भक्त चरण-पादुका के समक्ष मस्तक झुकाकर प्रणाम करते हैं, प्रणाम के पश्चात् इन चरण-चिह्नों पर रूपया, चांवल एवं अनेक प्रकार के नेवेद्य भेंट करते हैं। भारतीय धर्मों में सर्वप्रथम जैनधर्म में चरण-पादुकाओं की पूजा प्रचलित हुई। प्राचीन तमिल साहित्य की कृतियों में चरण-पादुका की पूजा के अनेक उल्लेख उपलब्ध होते हैं। पोन्नूर की पहाड़ियों में आचार्य कुन्दकुन्द के, जिनकांची में वामन मुनि के और श्रवणबेल्गोल में आचार्य भद्रबाहु एवं चन्द्रगुप्त की चरण-पादुका बनी हुई है, जिनके प्रति श्रद्धालु भक्त अपनी निस्सीम श्रद्धा प्रदर्शित करते हैं। कन्याकुमारी के सागर तट के पास दो पहाड़ियाँ हैं उनमें से एक पहाड़ी परम्परा से लोक में 'श्री पादपारै” के नाम से प्रसिद्ध है। 'श्रीपाद' का अर्थ है-पवित्र चरण, और 'पारै' का अर्थ है पहाड़ी। इस पहाड़ी पर किसी महामानव के चरण-चिन्ह उट्टङ्कित होने से इस संपूर्ण पहाड़ी को 'श्रीपादपारै' कहने लगे। इस भूरे रंग के चरण-चिह्म को विद्वानों ने जैन तीर्थंकर का चरण-चिह्म सिद्ध किया है।274 चरण-चिह्म स्थापित करने का उद्देश्य उन-उन तीर्थंकरों, आचार्यों एवं साधु-साध्वियों के प्रति अपनी श्रद्धा एवं आस्था को व्यक्त करना है, जिनके कि वे चरण चिन्ह हैं। अपने आराध्य के चरण-चिन्हों को नमस्कार कर भक्त-जन उनकी स्मृति को अपने हृदय में अमिट बनाते हैं। चरण-पादुकाओं की स्थापना एवं पूजा का प्रारंभ कबसे आरंभ हुआ, इसका कोई ठोस प्रमाण तो नहीं मिलता, तथापि जैन वाड्.मय के अध्ययन एवं अनुशीलन से यह निर्णायक निष्कर्ष निकलता है कि जैनधर्म की चैत्यवासी 272. जैनधर्म का मौलिक इतिहास, भाग 3, पृ. 224 273. वही, भाग 3 पृ. 223 274. जैनधर्म में यापनीय संप्रदाय, अध्याय चतुर्थ Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पूर्व पीठिका श्रमणियों की चरण पादुकाओं के उल्लेख हमें 17वीं सदी से विपुल परिमाण में प्राप्त हुए हैं, उससे पूर्व उत्तरप्रदेश के अलमोड़ा जिले के द्वारहट स्थान पर एक चरण-पादुका संवत् 1044 की उत्कीर्ण है, उसके शिलालेख पर संस्कृत-नागरी भाषा में “देवश्री की शिष्या अर्जिका ललित श्री" का नाम अंकित है।76 इसी प्रकार काष्ठा संघ माथुर गच्छ के भट्टारक सहस्रकीर्ति की शिष्या आर्यिका प्रतापश्री का नाम भी सं. 1688 की चरण पादुका में उपलब्ध होता है-77, किंतु ये चरण-पादुकाएँ आर्यिका की है अथवा आर्यिका द्वारा निर्मापित है, यह स्पष्ट नहीं होता। इसके अतिरिक्त किसी भी दिगंबर या यापनीय-परम्परा में साध्वी के चरण-चिह्मों की स्थापना का उल्लेख उपलब्ध नहीं होता। श्वेताम्बर मूर्तिपूजक श्रमणियों के चरण युगल का इतिहास 400 वर्षों से अद्यतन काल तक चला आ रहा है। बाबू पूरणचन्द्र नाहर ने तथा नाहटा अगरचंद जी ने ऐसी अनेक श्रमणियों की चरण-पादुकाओं का उल्लेख अपने लेखों में किया है। यहाँ यह बात विशेष ज्ञातव्य है कि ये श्रमणियाँ जिनकी चरण-पादुकाएँ हैं, अथवा जिन्होंने चरण-पादुका निर्मित करने की प्रेरणा दी है, वे प्रायः खरतरगच्छ की हैं। वर्तमान में भी उमेदश्री, नवल श्री जी, जसुजी अमराजी, जयवंतश्रीजी आदि अनेक बृहत्खरतरगच्छीय परम्परा की साध्वियाँ हैं, जिनके चरण-युगल प्रस्थापित हैं। 276. जैन शिलालेख संग्रह भाग 5, पृ. 22 277. डॉ. वि. जोहरापूरकर, भट्टारक-संप्रदाय, पृ. 234 63 For Priva s onal Use Only Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन श्रमणियों का बृहद इतिहास 1.21 जैन कला एवं स्थापत्य में श्रमणी-दर्शन कला एवं स्थापत्य को संरक्षण प्रदान करने में जैनों का महत्त्वपूर्ण योगदान रहा है। जैन स्थापत्य का प्राचीनतम रूप मौर्यकाल में लोहानीपुर-पटना से संबंधित है। इसके पश्चात् खारवेल (ई. पू. द्वितीय शती) हत्थीगुफा से और तत्पश्चात् मथुरा के देवनिर्मित स्तूप (ईसा पूर्व प्रथम शती से ईसा की 10वीं शती तक) से सम्बन्धित है। मथुरा का जो स्थापत्य है उसमें साध्वियों के अनेक अंकन उपलब्ध हैं। इसी प्रकार जैन काष्ठकला, चित्रकला में भी श्रमणियों के अंकन मिलते हैं। शास्त्रों की लघु चित्रकारी युक्त सजावट की शैली 12वीं शती के प्रारम्भ में गुजरात तथा राजस्थान में विकसित हुई। इस शैली का सबसे प्राचीन नमूना ताड़पत्र पर अंकित निशीथचूर्णि में प्राप्त होता है, जो सन् 1100 का है। ज्ञाताधर्मकथा की ताड़पत्रीय हस्तप्रति में प्राप्त सन् 1127 के दो चित्र अधिक महत्वपूर्ण हैं। वैसे 14वीं और 15वीं शती के ताड़पत्र अथवा कागज पर बने कल्पसूत्र और ज्ञाताधर्मकथा से संबंधित चित्र सबसे अच्छे हैं। सचित्र कल्पसूत्र की प्रतियों में ब्राह्मी-सुन्दरी तथा स्थूलभद्र की बहनों के साध्वी रूप में कई चित्र मिलते हैं। जैन आचार्यों के पास प्रेषित किये जाने वाले विज्ञप्ति-पत्र जो सुन्दर बेल-बूटों एवं चित्रकारी से सुसज्जित कर आमंत्रण-पत्र के रूप में भेजे जाते हैं, इसका सबसे पुराना नमूना विक्रम संवत् प्रथम द्वितीय शताब्दी का राजा शालिवाहन द्वारा प्रसारित है जिसमें तीन साध्वियों के आकर्षक चित्र हैं। इस प्रकार जैन कला और स्थापत्य के सभी रूपों में जैन श्रमणियों के अंकन और चित्र उपलब्ध हैं, जिन्हें यहाँ विवरण सहित दिया जा रहा है। जैन श्रमणी-दर्शन (ईसा की 15-16वीं शताब्दी) चित्र 1 * राजा शालिवाहन द्वारा प्रसारित विज्ञप्ति-पत्र में चित्रित साध्वियाँ 64 For Privaledonal Use Only Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पूर्व पीठिका जैन श्रमणी की प्राचीन प्रतिमा ( ईस्वी सन् प्रथम द्वितीय शताब्दी ) 278 चित्र 2 प्रस्तुत चित्र मथुरा से संबंधित है, इस में दाहिनी ओर एक साध्वी का अंकन है, जो हाथ में पात्र धारण किये हुए हैं। धर्मचक्र के बाईं ओर एक नग्न मुनि है, जिनके एक हाथ में प्रतिलेखन व दूसरे हाथ में पात्र युक्त झोली है। श्रमणियों की प्रतिमाएँ (ईस्वी सन् द्वितीय शताब्दी ) 279 चित्र 3 इस चित्र में धर्मचक्र के दोनों ओर मुनियों की दो बैठी हुई प्रतिमाएँ हैं। दाहिनी ओर के मुनि के परिपार्श्व में दो साध्वियों की खड़ी हुई प्रतिमाएं हैं। साध्वियों ने अपने बाएँ हाथ में रजोहरण लिया हुआ है। यह चित्र भी मथुरा का है। 278-279. डॉ. सागरमलजी जैन, जैनधर्म का यापनीय संप्रदाय (परिशिष्ट ) 65 Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन श्रमणियों का बृहद इतिहास श्री मल्लि भगवती की श्रमणी प्रतिमा ( 11वीं शती) 0885 चित्र 4 यह मल्लिनाथ भगवान की नारी मूर्ति है, जो उन्नाव (उ. प्र.) से मिली है और राज्य संग्रहालय लखनऊ (जे. 885) में संग्रहित है। ध्यानमुद्रा में विराजमान मल्लि भगवती की मूर्ति के वक्षःस्थल में श्रीवत्स का चिन्ह नहीं है, वक्षःस्थल का उभार स्त्रियोचित है, पीठिका पर कलश उत्कीर्ण है। 11वीं शती की यह सर्वप्राचीन प्रतिमा है।280 280. डॉ. मारुतीनंदन तिवारी, जैन प्रतिमा विज्ञान, पृ. 114. पा. वि. शोध संस्थान वाराणसी 1981 66 For Priva d isonal Use Only Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पूर्व पीठिका पाठशाला में अध्ययनरत मुनि व आर्यिकाएँ चित्र 5 : देवगढ़ में साध्वियों की मूर्तियाँ (9वीं से 11वीं शती ई.) यद्यपि दिगम्बर परम्परा में मान्यता है कि स्त्री मोक्ष की अधिकारिणी नहीं है, परन्तु देवगढ़ के मंदिरों में साध्वियों की मूर्तियाँ विपुल परिमाण में उपलब्ध होती हैं। जैसे मंदिर संख्या-4 के भीतर उत्तरी भित्ति के एक विशिष्ट शिलाफलक पर 11वीं शती ई0 में निर्मित पाठशाला का सुन्दर दृश्यांकन है, उसमें ऊपर की पंक्ति में 4 साधु एवं नीचे की पंक्ति में हस्तबद्ध मुद्रा में चार आर्यिकाओं का रूपायन हुआ है। आर्यिकाओं की बगल में उनकी मयूरपिच्छी दबी है, कमण्डलु उनके सामने रखे हुए हैं। पुन: दो स्तम्भों के मध्य चार आर्यिकाओं को विनयपूर्वक झुके दिखाया गया है, जिसमें उनका श्रद्धाभाव जीवन्त हो उठा है। मंदिर संख्या-3 के स्तम्भ पर दक्षिणी कोष्ठक में छह आर्यिकाएँ पिच्छी एवं कमण्डलु सहित विनयावनत मुद्रा में दिखाई गई हैं और पश्चिमी कोष्ठक में पिच्छी बगल में दबाए दिखाई गई है।281 ____इसी प्रकार मंदिर संख्या 36/10 जो पिरामिड शैली के शिखर वाला है उसके तीन स्तम्भों पर 16वीं 17वीं शती के कई लेख उत्कीर्ण हैं इन स्तम्भों पर जैन साधुओं के नीचे जैन साध्वियों की भी कायोत्सर्ग मुद्रा में आकृतियाँ मयूरपिच्छी व कमण्डलु सहित उकेरी गई हैं, जो दिगम्बर परम्परा और चिन्तन की व्यापकता तथा उदारता की सूचक है । यहाँ साध्वियों को साधना के गहनतम क्षणों में दिखाया गया है। जैन साधु जहाँ मयूरपिच्छी व कमण्डलु सहित निर्वस्त्र हैं, वहीं साध्वियाँ धोती सहित हैं।82 उपर्युक्त चित्र में मुनि व आर्यिकाएँ पाठशाला में अध्ययनरत दिखाये गये हैं। 281. प्रो. मारूतीनन्दन तिवारी, जैन कला तीर्थ देवगढ़, पृष्ठ 119-20 282. वही, पृष्ठ 136 For P e rsonal Use Only . Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन श्रमणियों का बृहद इतिहास उपाध्याय की प्रतिमा के नीचे श्रमणियाँ (संवत् 1333) चित्र 6 देवगढ़ जिला ललितपुर (उ.प्र.) के मंदिर की यह विश्वविख्यात प्रतिमा है, इसमें उपाध्याय का भव्य रुप दर्शाया गया है। मूर्ति के नीचे दोनों ओर दो साध्वियों का अंकन मूर्तिकला की वैविध्यता का सूचक है। श्रमणियाँ हाथ जोड़कर विनय की मुद्रा में उपाध्याय की भक्ति में लीन हैं। मूर्ति में चौंकी के नीचे संवत् 1333 का पाँच पंक्तियों में लेख उत्कीर्ण है। जिसमें नन्दिसंघीय बलात्कारगण के आचार्य कनकचन्द्रदेव उनके शिष्य लक्ष्मीचंद्रदेव और उनके शिष्य हेमचन्द्रदेव तथा कुछ अन्य नाम अभिलिखित है। यह मूर्ति संप्रति जैनधर्मशाला स्थित दिगम्बर जैन चैत्यालय में विद्यमान है।283 283. जैन भागेन्दु, देवगढ़ की जैन कला, पृ. 177 68 For Private Personal Use Only Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पूर्व पीठिका दिगम्बर आर्यिका की प्रतिमा ( संवत् 1120 ) 284 चित्र 7 यह मूर्ति देवगढ़, जिला-झांसी, उत्तर प्रदेश की प्रतिमा है। मूर्ति के बांये हाथ में कमण्डलु है, आर्यिका ध्यानावस्थित मुद्रा में सीधी खड़ी हैं, दोनों हाथ सीधे लटकाये हुए हैं। सारा शरीर वस्त्राच्छादित है । शान्त और सौम्य मुखमुद्रा जन-जन के मन को आकर्षित करती है। आर्यिका का नाम एवं अन्य जानकारी उपलब्ध नहीं है। केवल मंदिर के बाहर संवत् 1120 का लेख उत्कीर्ण है।* 284. सौजन्य : आचार्य श्री विद्यानन्द जी महाराज, कुन्दकुन्द भारती, दिल्ली । 'देवगढ़ में और भी अर्जिकाओं की मूर्तियाँ हैं । मेल चित्तामूर (चेन्नई) में भी स्तम्भ पर ऐसा ही चित्रण मिलता है, पर जिनालय में नहीं है, बाहर दीर्घा या मण्डप में है।' 69 Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन श्रमणियों का बहद इतिहास जैन श्रमणी की आरस पाषाण में खड़ी मूर्ति (संवत् 1205 )285 चित्र 8 प्रस्तुत मूर्ति के हाथ में श्रमणी जीवन का प्रतीक मुखवस्त्रिका एवं रजोहरण है, मूर्ति ऊपर से लेकर नीचे तक वस्त्र से आवृत्त है, यह वेशभूषा श्वेताम्बर जैन श्रमणी की सूचक है। श्रमणी दोनों हाथ जोड़कर नमस्कार की मुद्रा में स्थित है। कटिभाग को थोड़ा अवनत करके खड़े होना और हाथ जोड़ने की मुद्रा द्वारा नम्रता का जो भाव सूचित किया है, उससे मूर्ति रमणीय और दर्शनीय प्रतीत होती है। मूर्ति के मुखमंडल पर अपार शांति एवं लावण्यपूर्ण तेजस्विता के दर्शन होते हैं तथा त्यागमय जीवन की स्वतः स्फुरित शांति प्रकट होती है। पाँव के दोनों ओर दो उपासिकाएँ हैं। मूर्ति के नीचे के भाग में "सं. 1205 श्री महत्तरा सपरिवारा.......।" इस प्रकार संक्षिप्त लेख है। इस लेख में साध्वीजी का नाम अंकित नहीं है। यह मूर्ति मुनि यशोविजयजी के संग्रह में है। 285. आचार्य विजयवल्लभसूरि स्मारक ग्रंथ, मुनि श्री यशोविजयजी का लेख, पृ. 173. 70 For Plate Personal Use Only Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पूर्व पीठिका संगमरमर के पत्थर पर उत्कीर्ण जैन श्रमणी की बैठी हुई मूर्ति (संवत् 1255) चित्र १ प्रस्तुत मूर्ति सवस्त्र है, प्रवचन या गणधर-मुद्रा का आभास कराती भद्रासन पर स्थित है। मूर्ति के बांये हाथ में मुखवस्त्रिका है, दांया हाथ खंडित हो गया है, तथापि जितना भाग हृदय-प्रदेश पर दिखाई देता है उस पर से लगता है कि शिल्पी ने उस हाथ में माला दी हो। रजोहरण को मस्तक के पृष्ठ भाग में दिखाया है जो प्राचीनकाल की मूर्तियों में अधिकांश रूप से देखा जाता है। मूर्ति के दोनों ओर कुल चार गृहस्थ श्राविकाएँ दर्शाई हैं, इसमें दो आकृतियाँ अखण्ड हैं, एक खड़ी और दूसरी बैठी हुई है, खड़ी आकृति अपनी पूज्या श्रमणी की वासक्षेप से पूजा करती प्रतीत होती है। यह कृति किसी अग्रणी भक्त श्राविका की प्रतीत होती है। उसके मुख पर शिल्पी ने अंतरंग भक्ति-भाव व प्रसन्नता का मनोरम दृश्य अंकित किया है। मूर्ति के ऊपर तीर्थंकर की एक प्रतिमा भी उटैंकित की है। इस मूर्ति का शिल्प एवं दर्शन इतना आकर्षक व भावपूर्ण है कि मुनि यशेविजयजी ने इसे प्राप्य साध्वी मूर्तियों में सर्वश्रेष्ठ उल्लिखित किया है। ____ मूर्ति के नीचे "वि. सं. 1255 कार्तिकवदि 11 बुधे देमतिगणिनी मूर्ति (:)।" इस प्रकार का लेख उटंकित है। यह मूर्ति पाटण (गुजरात) के अष्टापद जी के मंदिर में है।286 286. मुनि श्री यशोविजयजी, आचार्य विजयवल्लभसूरि स्मारक ग्रंथ, पृ. 173. 71 For Private odnal Use Only Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महत्तरा आर्या पद्मसिरि जी पार प प्रजनन चित्र 10 72 जैन श्रमणियों का बृहद इतिहास Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पूर्व पीठिका महत्तरा प्रवर्तिनी आर्या पद्मसिरि जी की प्रतिमा (संवत् 1298)287 साध्वी जी की यह मूर्ति अपने मस्तक पर स्थित स्वआराध्य जिन प्रतिमा को नमस्कार करती हुई भद्रासन पर . प्रवचन मुद्रा में हाथ जोड़कर बैठी हो, इस प्रकार के भाव प्रदर्शित करती प्रतीत होती है। यह सवस्त्र है। उसके बांयी ओर रजोहरण है, बांये हाथ की कोहनी से नीचे लटकता वस्त्र का किनारा दिखाई पड़ता है। ___जनता की अज्ञानता के कारण मातर तीर्थ की इस मूर्ति के विषय में वर्षों तक लोगों की यह धारणा थी, कि श्री गौतमस्वामी जी ने भगवान महावीर को मस्तक के ऊपर धारण किया हुआ है, किंतु मुनिवर यशोविजय जी ने जब इस प्रतिमा जी को बाजु में से उठवाकर सन्मुख रखवाया तो उसके नीचे शिलालेख पर वि. सं. 1298 का उल्लेख और 'आर्या पद्मसिरि' नाम अंकित था। यह मूर्ति गुजरात में 'खेड़ा' के पास 'मातर तीर्थ' की है। आर्या पद्मसिरि का व्यक्तित्व परिचय अध्याय 5 में पर दिया गया है। दिगम्बर आर्यिका जिनमती की प्रतिमा (संवत् 1544 )288 ___ यह मूर्ति दिगम्बर आर्यिका जिनमती की सूरत में है, इसका चित्र 'भट्टारक संप्रदाय' नामक ग्रंथ में प्रकाशित हुआ है। आर्यिका की मूर्ति पर संवत् 1544 वैशाख शुक्ला 3 का अभिलेख भी है। इसका परिचय हमने अध्याय चार में दिया है। प्रस्तुत मूर्ति का शिल्प विन्यास श्वेताम्बर साध्वियों की मूर्तियों से भिन्न प्रकार का है। मूर्ति के एक हाथ में माला है और दूसरे हाथ में मयूर-पिच्छ। कमर के नीचे साड़ी पहनी हुई है। और स्तनों पर एक वस्त्रखंड कसके बांधा हुआ है। आर्यिका की मूर्ति के दोनों हाथों के नीचे दोनों ओर दो मूर्तियाँ हैं। जो सम्भवतः उनकी शिष्याओं की होंगी। ये मूर्तियाँ श्वेताम्बर गुरु-मूर्तियों की तरह ही हैं।289 सकारचन्दाबविणीमल कलावनानकार रामनारकावदाने स्वारनहिनशा श्रीमान प्रज्ञानयात्रासदाशवयापमान Hindi चित्र 11 287. मुनि श्री यशोविजय जी, आचार्य विजयवल्लभसूरि स्मारक ग्रंथ, पृ. 173. 288. डॉ. जोहरापुरकर, भट्टारक-संप्रदाय, पृ. 195. 289. श्रमण अंक 12 ई. 1959 पृ. 32. श्री अगरचंद नाहटा का लेख-दिगंबर आर्यिका जिनमती की मूर्ति 73 For Privbe rsonal Use Only Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन श्रमणियों का बृहद इतिहास भट्टारक विद्यानन्दि (प्रथम) एवं दो आर्यिकाएँ (सं. 1411-1537)90 ___ प्रस्तुत चित्र भट्टारक-संप्रदाय नामक ग्रंथ में प्रकाशित हुआ है चित्र भट्टारक विद्यानन्दि (प्रथम) का है जो बलात्कारगण, सूरत शाखा से संबंधित है। आचार्य के समक्ष स्थापनाचार्य है। सामने की ओर दो आर्यिकाएँ स्थित हैं, दो श्रावक एवं दो, श्राविकाएँ भी हैं, ये सभी आचार्य के उपदेश को ध्यानपूर्वक श्रवण करते दिखाई दे रहे हैं, चित्र के नीचे सं. 1411-1537 का लेख अंकित है। चित्र 12 महासती राजीमति की मूर्ति (13वीं 14वीं सदी)291 यह प्रतिमा गिरनारतीर्थ पर स्थित एक गुफा जो 'सती राजुल की गुफा' के नाम से प्रसिद्ध है; उसमें उत्कीर्ण है, ऊपर 'जय सती' लिखा हुआ है। महासती राजीमति का विस्तृत परिचय अध्याय दो में अंकित है। मूर्ति वस्त्राभूषण युक्त है, अतः यह राजीमति के गृहस्थ रूप का अंकन है। चित्र 13 290. डॉ. जोहरापुरकर भट्टारक-संप्रदाय, पृ. 198. 291. विश्वप्रसिद्ध जैन तीर्थ, महो. ललितसागर कलकत्ता, ई. 1995-96 74 For Prim Personal Use Only Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पूर्व पीठिका राज्ञी राजमत (-ती) (14वीं शताब्दी) राताराऊमत चित्र 14 यह खंडित मूर्ति भद्रेश्वर तीर्थ (कच्छ-गुजरात) के नये मंदिर के फाउण्डेशन के लिये खुदाई करने पर नींव के गड्ढे में से अन्य जिनमूर्तियाँ एवं गुरूमूर्तियों के साथ निकली है। हमें इस मूर्ति का चित्र एवं ज्ञातव्य उपाध्याय श्री भुवनचंद्र जी महाराज द्वारा प्राप्त हुआ है, जो 'अनुसंधान' में भी प्रकाशित हुआ है, करवाया है। साध्वी का नाम 'राज्ञी राजमत' (-ती?) साफ-साफ खुदा है। यह मूर्ति साध्वी की है, मस्तक के पीछे रजोहरण स्पष्ट बताया गया है। दोनों ओर श्राविकाएँ संभवतः साध्वी शिष्याएँ सेवारत दिखाई गई हैं। राजमती कोई 'रानी' होनी चाहिये, दीक्षा के पश्चात् भी उनकी रानी की पहचान कायम रही होगी, यह टिप्पणी अनुसंधान के संपादक आचार्य शीलचन्द्रसूरि ने की है। मूर्ति लेख रहित है, तथापि अन्य प्रतिमाओं पर लिखित लेखों से यह 14वीं शताब्दी की संभावित है।9। 291. आचार्य शीलचंद्रसूरि, संपा. अनुसंधान (32), पृ. 88, अहमदाबाद, 2005 ई. 75 e rsonal Use Only For Prib Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ काष्ठपट्टिका पर साध्वी नयश्री और नयमती का चित्र (संवत् 1150)292 चित्र 15 यह चित्र एक काष्ठफलक पर अंकित है, इसमें साध्वियों का उपाश्रय दर्शाया गया है। पट्ट पर " प्रवर्तिनी विमलमती" बैठी हुई है उनके पृष्ठ भाग में भी पीठफलक सुशोभित है, सामने दो साध्वियाँ बैठी हुई हैं, जिनके नाम 'नयश्री साध्वी' और 'नयमतिम्' लिखा हुआ है। तीनों के मध्य स्थापनाचार्य जी रखे हुए हैं। साध्वी जी के पीछे एक श्राविका आसन पर बैठी हुई है। जिस पर उसका नाम 'नंदीसीर' ( श्राविका ) लिखा हुआ है। इसमें श्री जिनदत्तसूरि जी का दीक्षा नाम ( श्री सोमचन्द्र गणि) लिखा हुआ है नाहटा जी ने इस काष्ठपट्टिका का समय सं. 1150 के लगभग माना है। यह सचित्र काष्ठपट्टिका सेठ शंकरदान नाहटा कलाभवन में संग्रहित है। काष्ठफलक पर चित्रित श्रमणियां (संवत् 1169) 293 जैन श्रमणियों का बृहद इतिहास श्री डान चित्र 16 उक्त काष्ठफलक भी श्री नाहटाजी के 'सेठ शंकरदान कलाभवन बीकानेर' में संग्रहित है। इसमें जिनदत्तसूरि ने वंदन करते हुए भक्त श्रावक के मस्तक पर अपना एक हाथ रखा हुआ है। उनके पृष्ठ भाग में दो साध्वियाँ हैं, जिसमें एक साध्वी का चित्र स्पष्ट है। हाथ में मुखवस्त्रिका एवं बगल में रजोहरण है। दाहिने हाथ का अंगूठा व तर्जनी उंगली मिलाई हुई है । यह काष्ठपफलक वि. सं. 1169 के पश्चात् 12वीं सदी के अंत समय का माना जाता है। 292-293. श्री जिनचंद्रसूरि अष्टम शताब्दी स्मृति ग्रंथ, श्री भँवरलाल नाहटा, पृ. 55-56. 76 For Private & Persona Use Only . Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पूर्व पीठिका आर्यिका का प्राचीन चित्र-94 चित्र 17 प्रस्तुत चित्र मस्तयोगी श्री ज्ञानसागर जी तथा वाचक श्री जयकीर्ति का है। उनके पीछे की ओर जो चित्र है, वह कौन है इसका यद्यपि कोई उल्लेख नहीं हुआ है तथापि श्वेत वस्त्र, ढका हुआ सिर और नारी आकृति से वह किसी श्रमणी का चित्र प्रतीत होता है। यह चित्र सेठ शंकरदान नाहटा कलाभवन बीकानेर में संग्रहित है। आर्य स्थूलभद्र एवं यक्षादि सात साध्वी भगिनियाँ चित्र में ऊपर व नीचे दो भाग हैं ऊपर के चित्र में आर्य स्थूलभद्र | अपनी बहनों को विद्या का चमत्कार दिखाने के लिये द्विदंती और पराक्रमी सिंह का रूप बनाकर बैठे हैं, साध्वी बहनें सिंह के रूप को देखकर विस्मित हैं। नीचे के चित्र में स्थूलभद्र का साधु रूप दर्शाया गया है उनके समक्ष स्थापनाचार्य है। इस संपूर्ण चित्र में साधु तथा साध्वियों का वेश अन्य चित्रों की अपेक्षा बिल्कुल भिन्न है, जो बौद्ध साधुओं के समान प्रतीत होता है प्रत्येक साध्वी के मस्तक के पीछे भामंडल (श्वेत गोल आकृति) है, जो बौद्ध भिक्षुओं के प्राचीन चित्रों में दिव्यतेज दर्शाने के लिये दिखाया जाता है। चित्र संवत् विहीन होने पर भी लगभग 15वीं 16वीं शती का है, ऐसे चित्र सचित्र कल्पसूत्र की अनेक प्रतियों में पाये जाते हैं। चित्र 18 294. श्री भंवरलाल नाहटा अभिनंदन ग्रंथ, पृ. 126. 295. जैन चित्र कल्पद्रुम, पृ. 167, चित्र-197. For Pa77ersonal use only Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दो जैन साध्वियों के चित्र 296 हामीमा धामण स अस्वास चित्र 19 साध्वियों का यह चित्र बैठी हुई अवस्था में है। दोनों पाँवों को रखने की रीति भी एकदम नवीन है। प्राचीन शैली की तरह इनका भी मस्तक भाग छोड़कर शेष सारा शरीर वस्त्राच्छादित है। दोनों श्रमणियाँ दांये हाथ का अंगूठा और तर्जनी को मिलाकर 'प्रवचन मुद्रा' में स्थित प्रतीत होती हैं। कल्पसूत्र के हस्तलिखित पत्र पर ब्राह्मी - सुंदरी का चित्र (सं. 1475 )297 हाराववाइमाणकालाग गाडावत्तद्दा सतस्मारहा ठाकासलिममा प्रतिदातगडा माझगातातडी परिक्षाांतगड मीश्राडावा 296. जैन चित्र कल्पद्रुम, पृ. 120, 298. मई 1981, पृ. 11. Kumal चित्र - 50. जैन श्रमणियों का बृहद इतिहास चित्र 20 नई दिल्ली के नेशनल म्यूजियम में नं. 70-64 में सुरक्षित कल्पसूत्र के एक पन्ने पर बाहुबली का चित्रांकन है बाहुबली के मस्तक के दोनों ओर दो चित्र हैं, वे लगते तो साधु जैसे हैं, किंतु साधु न होकर उन्हें साध्वी ब्राह्मी सुंदरी ही कहना योग्य है। वे दोनों हाथ जोड़कर खड़ी हैं, कांख में रजोहरण है। यह कल्पसूत्र संभवतः 1475 ख्रिस्टाब्द का है। तीर्थंकर मासिक में इसका विस्तृत विवरण प्रकाशित हुआ है। 298 ऐसे चित्र भी सचित्र कल्पसूत्र की अनेक प्रतियों में उपलब्ध है। 200 am कथा 78 For Private Personal Use Only 130 297. नई दिल्ली नेशनल म्यूजियम से प्राप्त Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पूर्व पीठिका हस्तलिखित पोथी में श्रमणी का चित्र ( संवत् 1480 ) 299 चित्र 21 श्री लक्ष्मणगणि विरचित प्राकृत 'सुपासनाहचरियं' की हस्तलिखित प्राचीन प्रति में 37 रंगीन चित्र दिये हैं, जिसके 35वें चित्र में 'सुपार्श्वनाथ स्वामी के मुख्य गणधर 'दिन्न' वन में परिषद के समक्ष उपदेश देते दिखाये गये हैं। दो श्रावक हैं, उनके पीछे एक श्रमणी है, जिसके वस्त्र श्वेत हैं हाथ में मुँहपत्ती तथा बगल में रजोहरण है। एक वस्त्र है जो बांये कंधे पर है। दोनों हाथ जुड़े हुए उसके पीछे एक श्राविका है। यह प्रति पाटण के 'श्री हेमचन्द्राचार्य जैन ज्ञान मंदिर' में सुरक्षित तपागच्छीय जैन ज्ञानभंडार की है। प्रति का क्रमांक 15069 है। पत्र सं. 443 है, प्रति वि. सं. 1479-80 में लिखी गई है। साध्वी श्री रुपाई आदि श्रमणियों का चित्र ( 16वीं सदी के लगभग 300 3501719 चित्र 22 स्वर्ण की स्याही से लिखित कल्पसूत्र के एक पन्ने पर एक साधु एवं तीन साध्वियों के चित्र हैं। साधु के चित्र के ऊपर 'भट्टारक श्री विजयदेव सूरीश्वर गुरुभ्यो नमः' लिखा हुआ है तथा साध्वियों के चित्र के ऊपर 'साही श्री 299. मुनि पुण्यविजयजी, आ. विजयवल्लभसूरि स्मारक ग्रंथ, पृ. 176. 300. स्व. श्री गुलाबचंद लोढ़ा चांदनी चौक, दिल्ली भंडार से प्राप्त 79 For Private Personal Use Only Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन श्रमणियों का बृहद इतिहास रुपाई' अंकित है। आचार्य श्री लकड़ी के सिंहासन पर विराजमान हैं, उनके समक्ष साध्वी जी भी एक चौरंग (चौकी) पर स्थित हैं। इससे प्रतीत होता है कि यह प्रवर्तिनी साध्वी होंगी। शेष दो साध्वियाँ क्रमश: एक-दूसरी के पीछे वज्रासन से बैठी हैं। तीनों का एक हाथ मुखवस्त्रिका सहित ऊपर है और बांया हाथ घुटने पर है। आचार्य एवं प्रमुखा साध्वी के मध्य स्थापनाचार्य है। प्रमुखा साध्वी आचार्य के वचनों को गंभीरतापूर्वक श्रवण करती दिखाई दे रही हैं, शेष दोनों साध्वियाँ भी प्रसन्न मुद्रा में आचार्य के वचनों को सुन रही है। चित्र भावपूर्ण एवं प्राचीन है। साध्वी सरस्वती का प्राचीन चित्रांकन ( 16वीं सदी के लगभग ) 301 चित्र 23 आर्य कालक द्वारा गर्दभिल्ल राजा से अपहृत साध्वी सरस्वती को मुक्त करने की घटना को चित्रकार ने चार भागों में विभाजित किया है। इस चित्र के प्रथम भाग में आर्य कालक अपने शिष्य एवं भक्त श्रावकों को धर्मोपदेश दे रहे हैं। नीचे के भाग में दो श्रमणियाँ भक्त श्राविकाओं को धर्मोपदेश दे रही हैं। चित्र अत्यन्त भावपूर्ण एवं आकर्षक है। कालक कथा की अनेक प्रतियों में ऐसे चित्र मिलते हैं। 301. समय की परतों में, साध्वी शिलापी, पृ. 55. 80 For Privasonal Use Only Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पूर्व पीठिका साध्वी सकलवीरधन (संवत् 1686) S माकरासा भामा व शांतिदासकवर सकलवी रघनसाध चित्र 24 ___ यह चित्र गुजरात के नगर सेठ श्री शांतिदास एवं उनकी धर्मपत्नी कपूरबाई का है। पतरे पर अंकित उक्त चित्र के प्रथम भाग में श्री राजसागरसूरि के गुरुभ्राता श्री कीर्तिसागर उपाध्याय के समक्ष नगरसेठ हाथ जोड़कर खड़े हैं। द्वितीय भाग में उनकी स्त्री कपूरबाई सकलवीरधन साध्वी के समक्ष हाथ जोड़कर खड़ी है। साध्वीजी के हाथ में जपमाला और बगल में रजोहरण है, नीचे पादुका है। 302 यह चित्र विक्रम संवत् 1686 के लगभग का है, क्योंकि नगरसेठ शांतिदास के रत्नजी नामक पुत्र का जन्म विकम संवत् 1686 में उल्लिखित है। 302. जैन चित्र - कल्पलता, चित्र 64, पृ. 55, संपादक व प्रकाशक-साराभाई मणिलाल नवाब, अहमदाबाद सं. 1996 | 81 | For Personal Use Only Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन श्रमणियों का बृहद इतिहास काष्ठपट्टिका पर श्रमणी का चित्र (संवत् 1800 )303 चित्र 25 यह चित्र संग्रहणी प्रकरण की संवत् 1800 की लिखित हस्तलिखित प्रति के ऊपर लकड़ी के पुढे पर दिया हुआ है। चित्र में अलग-अलग चार विभाग बनाकर चतुर्विध संघ की प्रतीति कराता हुआ साधु, साध्वी, श्रावक एवं श्राविका का चित्र बनाया गया है। साधु एवं साध्वी डोरे सहित मुँहपत्ती बांधे हुए हैं जो स्थानकवासी परंपरा का प्रतीक चिह्म है। राजीमती व रथनेमि का चित्र (18वीं सदी)304 सरसकिमोसनेम्वरमलरीजी यस्या/शासीकहाकिदिवास्यदि पावसामसाधावली smनवमुकनैरासरताराबीजीयरणा याआवमी जीयरसीममममार MAध्यारुडारवराभ्यरतणी मिनकामनलागाहरिविफिटरम एतायीकिटकनामावलममा केमाधणाबासकचि तजनहरबसे जिमचकवीमनब मतालिममुकमनजाधव समुंवरसहजैमरामाणि संघाचमाहीमिलवात्त अधि चित्र 26 'नेमराजुल की चौपाई' के एक हस्तलिखित पत्र पर राजीमती एवं रथनेमी का चित्रांकन है, दोनों के मुख पर डोरे सहित मुखवस्त्रिका एवं बगल में रजोहरण है। साध्वी साधु को उपदेश देती प्रतीत हो रही है। साधु के शरीर को बैंगनी कलर से रंगा हुआ होने से यह निर्णय नहीं होता कि उसकी वेशभूषा का क्या स्वरूप है? इसके साथ ही कुछ स्त्रियाँ आनन्दोत्सव मना रही है, सभी नृत्य की मुद्रा में हैं। चित्र 18वीं सदी का है। 303-304. स्व. गुलाबचन्द जी लोढ़ा, चीराखाना, दिल्ली के संग्रह में से For Privat & Personal Use Only Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पूर्व पीठिका विज्ञप्ति-पत्र में श्रमणियों के चित्र (संवत् 1656) स्व. श्री गुलाबचन्द्रजी लोढ़ा के संग्रहालय में एक विज्ञप्ति-पत्र अत्यंत मनोहारी है। इसमें सुंदर चित्रों के साथ श्रमण-श्रमणियों के भी चित्र अंकित है। यह विज्ञप्ति-पत्र खरतरगच्छ के आचार्य युगप्रधान भट्टारक श्री जिनचन्द्र सूरि को जयपुर नगर पधारने की विनती के लिये जयपुर संघ की ओर से लिखा गया है। प्रारंभ में सुंदर चित्रकारी, अष्ट मंगल आदि बने हुए हैं। विज्ञप्ति का समय भादवा सुदी 7 संवत् (1...56) अस्पष्ट सा कुछ मिटा हुआ है। जिनचन्द्रसूरि जो खरतरगच्छ के चतुर्थ 'दादा' संज्ञा से प्रसिद्ध हैं, उनका समय 1595 से 1670 का है इससे उक्त विज्ञप्ति-पत्र सं. 1656 का होना चाहिये। आचार्य जिनचन्द्र सूरि को बादशाह अकबर ने संवत् 1649 में 'युगप्रधान पद' देकर सम्मानित किया था। इस प्राचीन हस्तलिखित विज्ञप्ति-पत्र से हमने निम्नांकित तीन चित्र 26, 27, 28 जो श्रमणी संबंधित हैं, वे प्राप्त किये हैं। चतुर्विध संघ के साथ विहार करती हुई साध्वियों का चित्र (संवत् 1656) चित्र 27 82 For Private &Personal use Only Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन श्रमणियों का बृहद इतिहास श्रावक-श्राविकाओं को धर्मोपदेश देती हुई श्रमणियों का चित्र (संवत् 1656) TREATMENTante बालmimOMATATARRIORTANCriminaRICTaman याम चित्र 28 धर्मोपदेश करते हुए आचार्य श्री (नीचे) श्रमण एवं श्रमणियाँ (संवत् 1656 ) LLLLLLLLLLLLERME ROINETTERLABALI DIO चित्र 29 84 Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पूर्व पीठिका दिल्ली श्वेताम्बर जैन मंदिर में श्रमणियों के प्राचीन चित्र (संवत् 1770-76)305 दिल्ली नौधरां व चेलपुरी मोहल्ले में स्थित श्री सुमतिनाथ भगवान एवं संभवनाथ भगवान का श्वेताम्बर जैन मंदिर अति प्राचीन माना जाता है। उल्लेख है कि आचार्य जिनप्रभसूरि ने संवत् 1389 में 'विविध तीर्थकल्प' की रचना यहीं पर की थी, उसमें उक्त दो मंदिरों का उल्लेख हैं उपर्युक्त दोनों मंदिर प्राचीन होने के कारण इनमें दिवालों पर प्राचीन स्वर्ण चित्रकला से अलंकृत चित्रकारी भी नजर आती है। बादशाह पफर्रुखसियर के समय सेठ घासीराम शाही खजांची ने ई. 1713-19 में मंदिर का जीर्णोद्धार कराया था। प्रतीत होता है कि यह चित्रकारी उसी काल की है। चित्र संख्या 25 से 28 में हमने मुगलकालीन उन चित्रों को दिया है, जो श्रमणियों से संबंधित हैं। मुगलकालीन चित्रकारी में श्रमणियों के चित्र (सं. 1770-76) ANNEL 14 चित्र 30* * सुमतिनाथ जैन श्वेताम्बर मंदिर नौधरां मोहल्ला, चाँदनी चौक, दिल्ली 305. श्री जैन श्वेताम्नाय मंदिर, पौंशाल व चेरिटेबल ट्रस्ट, मंत्री श्री विनयचंद संखवाल नौधरां गली, किनारी बाजार, दिल्ली-6 85 For Price Rersonal Use Only Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन श्रमणियों का बृहद इतिहास उपदेश श्रवण करती हुई श्रमणियों के चित्र (सं. 1770-76) चित्र 31* बाहुबली को उद्बोधन करती हुई ब्राह्मी सुन्दरी का चित्र (सं. 1770-76 ) चित्र 32* * सुमतिनाथ जैन श्वेताम्बर मंदिर नौधरां मोहल्ला, चाँदनी चौक, दिल्ली * मन्दिर चेलपुरी, चाँदनी चौक, दिल्ली 86 For Private Personal Use Only Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पूर्व पीठिका समवसरण में श्रमणियों के चित्र (सं. 1770-76) HARETB चित्र 33* प्रथम तीर्थंकर भगवान ऋषभदेव के समवसरण में श्रमणियाँ (सं. 1950 के लगभग )306 चित्र 34 * सुमतिनाथ जैन श्वेताम्बर मंदिर नौधरां मोहल्ला, चाँदनी चौक, दिल्ली 306. मणिधारी श्री जिनचन्द्रसूरि अष्टम शताब्दी स्मृति ग्रंथ, श्री अगरचंद नाहटा, पृ. 168. 87 For Free Personal Use Only Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन श्रमणियों का बृहद इतिहास इस चित्र के पाँच विभाग किये गये हैं। चतुर्थ भाग में भगवान ऋषभदेव का समवसरण दर्शाया है। ऊपर देव, देवी, मध्य में दो साधु एवं पीछे दो साध्वियाँ चित्रित है। नीचे श्रावक और श्राविका है। सभी दो-दो की संख्या में नमस्कार की मुद्रा में भगवान की वाणी को श्रवण करते हुए दिखाई दे रहे हैं। चित्र लगभग 100 वर्ष प्राचीन है। कलकत्ता जैन मंदिर की दीवार पर चित्रकार इन्द्र दूगड़ द्वारा ये चित्र चित्रित है। श्री याकिनी महत्तरा की प्रतिमा (21वीं सदी) चित्र 35 यह प्रतिमा विक्रम की 13वीं सदी के उदभट विद्वान आचार्य श्री हरिभद्रसूरि जी के समाधि मंदिर चित्तौड़(राजस्थान) किले की है। परिकर के ऊपर भाग में भाल पर साध्वी याकिनी की दर्शनीय मूर्ति प्रतिष्ठित है। साध्वी जी के दाहिने हाथ में माला है, दोनों ओर दो भक्त (एक श्रावक और श्राविका) हाथ जोड़कर विनय की मुद्रा में स्थित है। एक महान जैनाचार्य के मस्तक पर साध्वी की मूर्ति होना, यह इतिहास का एकमात्र उदाहरण है। याकिनी महत्तरा का विस्तृत परिचय अध्याय तीन में देखें। 88 For PrivateRPersonal use only Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पूर्व पीठिका चित्र 36 * कंकाली टीला, मथुरा की श्रमणी प्रतिमाएँ रेखाचित्र (लगभग प्रथम सदी ई. पू.)07 चित्र: 37 आबू रोड के समाधि मंदिर में प्रतिष्ठित साध्वी सुनंदाश्रीजी के चरण-चिह्न 307. N. Shanta, THE UNKNOWN PILGRIMS, पृष्ठ : 270 * 89 य्य Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन श्रमणियों का बृहद इतिहास महासती अंजना (संवत 1850)308 चित्र 39 महासती अंजना एवं बसन्तमाला (संवत् 1850)309 चित्र: 40 308. बीकानेर के जैकिसन कवि द्वारा लिखित अंजना सती चौपाई की हस्तलिखित प्रति साभार : पूज्य आचार्य अमरसिंह जी महाराज ज्ञान भंडार मालेरकोटला (पंजाब) 309. वही बीकानेर के किसवाकवि 90 Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पूर्व पीठिका चित्र 41* परवानपतऊचबन पचमावलमरकाशा जीवनालारापयापरमरकहरभरहनुभवज निनिमामाक्याजावामयाजनराया सनही जामीनरियारकमधुशलपामचीन एकमशीररीजा गणनागपना। यानु.पाट सकारतारेबमोजियमेहाचार मानेश्मा टिकाइमामडी जोनको समानाअनरमेएमागप्रपाका. जागानरमणमामलाकामभमानाननोचल्योलबरबाण स्तमबलसऊनहाजहाथाकारबासुबः सामियाबाबभननिधिनीकीपलंगचनमानानालायन्य ज्यासीसलमामीसासरलाभार-जीवसमगननिरमनविसकीयो बचनकहोमाकिलनि जन्म/ A जीब उपरराएककर्मभयवाद मारोकिरान-NAG६कोमेरेस उममारELS बीथोकी चित्र 42* * श्री शहजादराय रिसर्च इन्स्टीट्यूट ऑफ इन्डोलोजी बड़ौत में संग्रहित * श्री शहजादराय रिसर्च इन्स्टीट्यूट ऑफ इन्डोलोजी बड़ौत में संग्रहित 91 Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन श्रमणियों का बृहद इतिहास चित्र 43* MAसामाजरेस बकनाबनवाएमाजतसाधुमाजी जिलयानवनोपा श्रावकसभाबावखराजनझनाशि एसाइनाणसादर देईनचाजन्यवासाजश्कलपैकपनासुपऊलयवराजाना एकाग्रीधन सरगणनिलोजीरश्रीमावर्षमरियागचौरासीयरगमोजा सामादिसणासुपारीमतिमा निलो ग्राजयतिलकहररायगएमोसामोरनूपताजाश्रमेहमापायरयाएहवेधसोरामोस कसे मिनोदयमूशिययुगइअधोगतिदोपरारणेपूरवाणाच्या उपकरी श्रासयसूलियाकानयान्यसासूधपामायाजी हिमस्खराजारायणाएहवामानसदागतिश्रादानाधिकारेस सराजवबराजचरिचालिष्यतार्थबमचनपईसंगासवतरच्या कातीव दिलियतमथेनलेरोमश्रीवाकानरमाचित्रकला चित्र 44* * श्री शहजादराय रिसर्च इन्स्टीट्यूट ऑफ इन्डोलोजी बड़ौत में संग्रहित * श्री शहजादराय रिसर्च इन्स्टीट्यूट ऑफ इन्डोलोजी बड़ौत में संग्रहित (संवत 1835) 92 Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पूर्व पीठिका “जैन श्रमणियों की साधाना" अंग अध्टायन RAN सेवा शुश्रुषा संलेषना ध्यान निर्वाण * सचित्र अन्तकृदृशांग सूत्र, संपादक श्री अमरमुनि पृ. 160 93 For Privale & Personal Use Only Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन श्रमणियों का बृहद इतिहास चंदनबाला की मूर्ति ( 14वीं शती की) विविध तीर्थकल्प, कौशाम्बी नगरीकल्प में आचार्य श्री जिनप्रभसूरि के 14वीं शती में कौशाम्बी नगरी यात्रार्थ पधारने का उल्लेख है। आचार्य श्री लिखते हैं कि 'यहाँ के मंदिरों में प्रेक्षकजनों के नयनाभिराम अमृताञ्जन सदृश जिन प्रतिमायें हैं। भगवान पद्मप्रभु के मंदिर में भगवान महावीर को पारणा कराती हुई चंदनबाला की मूर्ति है।10 पाषाण में उत्कीर्ण चतुर्विध संघ कुम्भारिया जी के प्राचीन मंदिर के रंगमण्डप की छत में शिल्पकाल के उत्कर्ष समय का चित्र है। आचार्य व्याख्यान दे रहे हैं और साधु-साध्वी, श्रावक एवं श्राविका व्याख्यान श्रवण कर रहे हैं। यह चित्र पाषाण में खुदाई का काम कर बनाया गया है। इसका उल्लेख मुनि श्री ज्ञानसुंदरजी ने 'मूर्तिपूजा का प्राचीन इतिहास पुस्तक में किया है।" श्रमणियों का चित्रकलायुक्त पत्र जैसे ताड़पत्रीय ग्रंथों के लिये काष्ठफलक के पुढे-पटड़ी होते थे, वैसे ही कागज के ग्रंथों के लिय पुढे-पटड़ी फाटिये आदि गत्ते, पुढे-कागज को चिपकाकर मजबूत किए हुए हुआ करते हैं। रद्दी-कागजों को चिपकाकर बनाये एक पुढे के अंदर लगभग 800 वर्ष पूर्व श्री जिनपति सूरि जी के समय का पालनपुर स्थित साध्वी-मंडल का पत्र शेठ शंकरदान कलाभवन बीकानेर में संग्रहित है। उक्त पत्र साध्वियों की कला के प्रति अभिरुचि प्रदर्शित करते हैं। ऐतिहासिक दृष्टि से ऐसे पत्र महत्वपूर्ण हैं। हमें इस विज्ञप्ति-पत्र का चित्र उपलब्ध नहीं हुआ।12 अन्य विज्ञप्ति पत्रों में चित्रांकित साध्वियाँ संवत् 1853 मार्गशीर्ष शुक्ला 5 रवि. का पू. विजयलक्ष्मी सूरि जी को एक विज्ञप्ति पत्र राजनगर, अहमदाबाद पधारने की विनती के लिए लिखा गया। उसमें विजयलक्ष्मी सूरि जी के स्वागत-समैया से संबंधित अनेक चित्रों के साथ उपाश्रय में व्याख्यान करते साधु एवं साध्वी का चित्र भी दर्शाया है।13 प्रवर्तिनी एवं शिष्या परिवार के सजीव चित्र _ वि. सं. 1851 में पाटण का चौमासा पूर्ण कर तपागच्छ के श्री पुण्यसागर सूरि के पट्टधर पू. श्री उदयसागर सूरि को बड़ोदरा संघ द्वारा सं. 1852 को भेजा गया एक सुंदर विज्ञप्ति पत्र है जिसमें बड़ोदरा के विभिन्न मनोहारी सुंदर दृश्यों के चित्रों के साथ श्वेतवस्त्रों से युक्त पूज्य श्री उनके पीछे यति शिष्य आगे उपदेश सुनते श्रावक, श्राविका एवं आशीर्वाद व उपदेश देती हुई प्रवर्तिनी मुख्या, साध्वी अपनी शिष्या परिवार के साथ विराजित है।14 310. प्राचीन ऐति. जैन तीर्थ पुरिमताल, पंन्यास पद्मविजय जी प्रकाशन श्री जै. श्वे. महासभा, हस्तिनापुर (उ. प्र.)। 311. रत्नप्रभाकर ज्ञान पुष्पमाला, लौदी, (राजस्थान), सन् 1936, पृष्ठ 388 312. भंवरलाल नाहटा, अभिनंदन ग्रंथ, पृ. 126. 313. ऐतिहासिक लेख संग्रह, ला. भ. गांधी, पृ. 472. 314. वही, पृ. 461. Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पूर्व पीठिका चंदनबाला की मूर्ति ( 14वीं शती की ) विविध तीर्थकल्प, कौशाम्बी नगरीकल्प में आचार्य श्री जिनप्रभसूरि के 14वीं शती में कौशाम्बी नगरी यात्रार्थ पधारने का उल्लेख है। आचार्य श्री लिखते हैं कि 'यहाँ के मंदिरों में प्रेक्षकजनों के नयनाभिराम अमृताञ्जन सदृश जिन प्रतिमायें हैं। भगवान पद्मप्रभु के मंदिर में भगवान महावीर को पारणा कराती हुई चंदनबाला की मूर्ति है | 10 पाषाण में उत्कीर्ण चतुर्विध संघ कुम्भारिया जी के प्राचीन मंदिर के रंगमण्डप की छत में शिल्पकाल के उत्कर्ष समय का चित्र है। आचार्य व्याख्यान दे रहे हैं और साधु-साध्वी, श्रावक एवं श्राविका व्याख्यान श्रवण कर रहे हैं। यह चित्र पाषाण में खुदाई का काम कर बनाया गया है। इसका उल्लेख मुनि श्री ज्ञानसुंदरजी ने 'मूर्तिपूजा का प्राचीन इतिहास पुस्तक में किया है । 11 श्रमणियों का चित्रकलायुक्त पत्र जैसे ताड़पत्रीय ग्रंथों के लिये काष्ठफलक के पुट्ठे-पटड़ी होते थे, वैसे ही कागज के ग्रंथों के लिय पुट्ठे-पटड़ी फाटिये आदि गत्ते, पुट्ठे-कागज को चिपकाकर मजबूत किए हुए हुआ करते हैं। रद्दी - कागजों को चिपकाकर बनाये एक पुट्ठे के अंदर लगभग 800 वर्ष पूर्व श्री जिनपति सूरि जी के समय का पालनपुर स्थित साध्वी - मंडल का पत्र शेठ शंकरदान कलाभवन बीकानेर में संग्रहित है। उक्त पत्र साध्वियों की कला के प्रति अभिरुचि प्रदर्शित करते हैं । ऐतिहासिक दृष्टि से ऐसे पत्र महत्वपूर्ण हैं। हमें इस विज्ञप्ति - पत्र का चित्र उपलब्ध नहीं हुआ | 3 12 अन्य विज्ञप्ति पत्रों में चित्रांकित साध्वियाँ संवत् 1853 मार्गशीर्ष शुक्ला 5 रवि का पू. विजयलक्ष्मी सूरि जी को एक विज्ञप्ति पत्र राजनगर, अहमदाबाद पधारने की विनती के लिए लिखा गया। उसमें विजयलक्ष्मी सूरि जी के स्वागत - समैया से संबंधित अनेक चित्रों के साथ उपाश्रय में व्याख्यान करते साधु एवं साध्वी का चित्र भी दर्शाया है । 13 प्रवर्तिनी एवं शिष्या परिवार के सजीव चित्र वि. सं. 1851 में पाटण का चौमासा पूर्ण कर तपागच्छ के श्री पुण्यसागर सूरि के पट्टधर पू. श्री उदयसागर सूरि को बड़ोदरा संघ द्वारा सं. 1852 को भेजा गया एक सुंदर विज्ञप्ति पत्र है जिसमें बड़ोदरा के विभिन्न मनोहारी सुंदर दृश्यों के चित्रों के साथ श्वेतवस्त्रों से युक्त पूज्य श्री उनके पीछे यति शिष्य आगे उपदेश सुनते श्रावक, श्राविका एवं आशीर्वाद व उपदेश देती हुई प्रवर्तिनी मुख्या, साध्वी अपनी शिष्या परिवार के साथ विराजित है । 314 310. प्राचीन ऐति. जैन तीर्थ पुरिमताल, पंन्यास पद्मविजय जी प्रकाशन श्री जै. श्वे. महासभा, हस्तिनापुर (उ. प्र.)। 311. रत्नप्रभाकर ज्ञान पुष्पमाला, लौदी, (राजस्थान ), सन् 1936, पृष्ठ 388 312. भंवरलाल नाहटा, अभिनंदन ग्रंथ, पृ. 126. 313. ऐतिहासिक लेख संग्रह, ला. भ. गांधी, पृ. 472. 314. वही, पृ. 461. 95 Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन श्रमणियों का बृहद इतिहास बीकानेर के प्राचीन सचित्र विज्ञप्ति-लेख में श्रमणियाँ बीकानेर नाहटा संग्रह में एक विज्ञप्ति-पत्र सं. 1801 का है। यह पत्र खरतर गच्छ के आचार्य जिनभक्तिसूरि जी की सेवा में बीकानेर से राधनपुर भेजा गया था। 9 फीट लंबे और 9 इंच चौड़े इस पत्र में अनेक चित्र दिये हैं। पूज्य श्री की स्थूल काया के सामने 3 श्रावक, दो साध्वियाँ एवं दो श्राविकाएँ भी स्थित हैं।15 15वीं शताब्दी में कागज पर बने चित्रों में साध्वियाँ (संवत् 1486) बीकानेर के बृहत् ज्ञान भंडार में त्रिषष्टिशलाका पुरुष चरित्र के अंतिम पत्रों में आचार्य श्री जिनराज सूरि जी और उपाध्याय जयसागर जी तथा साध्वियों के समक्ष श्राविकाएँ बैठी हुई हैं, चित्र सं. 1486 के हैं, जो नाहटा जी के संग्रह में हैं। ताड़पत्र की प्रति में श्रमणियों के चित्र श्रीमान साराभाई नवाब ने प्राचीन ज्ञान-भण्डारों से जैन चित्रों का संग्रह कर 'जैन चित्र कल्पद्रुम' नामक पुस्तक प्रकाशित की है, इसमें पाटण ज्ञान भंडार की प्राचीन ताड़पत्र की प्रति के एक चित्र का उल्लेख मुनि ज्ञान सुंदर जी ने किया है जिसमें आचार्य श्री के सामने स्थापना जी और एक मुनि का चित्र है। मुनि के हाथ में ताड़पत्र का सूत्र है, वह वाचना ले रहा है। नीचे के भाग में तीन साध्वी हैं और कुछ श्रावक-श्राविकाएँ हैं। दूसरा चित्र ईडर की प्राचीन प्रति से लिया गया है, चित्र में "साधु, साध्वी अने श्रावक-श्राविकाओं" लिखा हुआ है।17 कलकत्ता जैन मंदिर में श्रमणियों के चित्र श्री भंवरलाल जी नाहटा ने तीर्थकर मासिक में कलकत्ता के जैन मंदिर में कुछ श्रमणियों के चित्रांकन का उल्लेख किया गया है। इनमें प्रमुख रूप से ब्राह्मी-सुंदरी, सीता राजीमती, मृगावती, चंदनबाला, प्रभावती आदि के विविध दृश्य अंकित किये गये हैं। चित्र लगभग 100 वर्ष प्राचीन हैं।318 हमें ये चित्र उपलब्ध नहीं हुए। सारांश इस प्रकार आगमों, आगमिक व्याख्याओं, पुराणों, चरितकाव्यों, इतिहास ग्रंथों, पट्टावलियों, प्रशस्ति-ग्रंथों, पांडुलिपियों, विज्ञप्ति-पत्रों, अभिलेखों एवं पुरातात्त्विक सामग्रियों में जैनधर्म की श्रमणियों से संदर्भित विशद सामग्री उपलब्ध होती है, उन्हीं का आधार लेकर अग्रिम अध्यायों में श्रमणियों का क्रमबद्ध इतिहास प्रस्तुत किया जा रहा है। 315. भंवरलाल नाहटा अभिनंदन ग्रंथ, पृ. 224. 316. वही, पृ. 142. 317. मूर्तिपूजा का प्राचीन इतिहास, पृ. 388. 318. तीर्थंकर मासिक, अक्तूबर 1980, पृ. 168.69. 96 Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्याय 2 प्रागैतिहासिक काल से अर्हत् पार्श्व के काल तक निर्ग्रन्थ परम्परा की श्रमणियाँ Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 2.1 जैन श्रमणी संघ का उद्भव और विकास. 2.2 तीर्थंकरकालीन श्रमणियों पर एक समीक्षात्मक दृष्टि .. 2.3 ऋषभदेव से अर्हत् पार्श्व के काल तक की जैन श्रमणियाँ 2.4 भगवान पार्श्व की परवर्ती जैन श्रमणियाँ (पार्श्व निर्वाण संवत् 1 से 250 वर्ष ).... आगम व आगमिक व्याख्याओं में वर्णित कतिपय अन्य जैन श्रमणियाँ . 2.6 पुराण - साहित्य में वर्णित जैन श्रमणियाँ. 2.7 जैन कथा - साहित्य में वर्णित श्रमणियाँ 2.5 99 100 102 127 130 136 149 Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्याय 2 प्रागैतिहासिक काल से अर्हत् पार्श्व के काल तक निर्ग्रन्थ परम्परा की श्रमणियाँ अतीत को जानने के दो कोण हैं-प्रागैतिहासिक काल और ऐतिहासिक काल। इतिहास की सामग्री-लिखित साहित्य, अभिलेख, पुरातत्त्व, उत्खनन से प्राप्त सामग्री, मूर्ति, सिक्के आदि के आधार पर इतिहास काल का निर्धारण किया जाता है, जो उससे अतीत है, वह प्रागैतिहासिक काल है। जैनधर्म में मान्य 24 तीर्थंकरों में से 21 तीर्थंकर एवं उनकी श्रमणियों का काल प्रागैतिहासिक है, उन्हें पुरातत्त्व सामग्री में खोजना एक प्रयास मात्र है। 22वें तीर्थंकर अरिष्टनेमि को श्रीकृष्ण अपना अध्यात्मगुरू मानते थे, अतः श्रीकृष्ण के समान ही वे पौराणिक व ऐतिहासिक व्यक्तित्व सिद्ध होते हैं। तीर्थंकरों के क्रम में तेइसवें तीर्थंकर पार्श्वनाथ आधुनिक इतिहासविदों द्वारा ऐतिहासिक पुरुष प्रमाणित हुए हैं। उनका समय भगवान महावीर से लगभग 250 वर्ष पूर्व था।' उनकी परम्परा के कई मुनि भगवान महावीर के संघ में सम्मिलित हुए थे, अतः पार्श्वनाथ तथा महावीर प्रसिद्ध ऐतिहासिक पुरूषों में परिगणित होते हैं। 2.1 जैन श्रमणी संघ का उद्भव और विकास जैन इतिहास के अनुसार वर्तमान अवसर्पिणी काल के तृतीय-चतुर्थ पर्व में ये 24 तीर्थंकर इस भारतभूमि पर अवतरित हुए। उन्होंने इस सृष्टि के जीवों को आत्मा से परमात्मा, नर से नारायण बनने का मार्ग दिखाया। लिंग, वेष, जाति या देश के आग्रह से मुक्त उनका अहिंसामय संदेश सबके लिये समान रूप से आचरणीय था। उनके उदारतावादी दृष्टिकोण के फलस्वरूप पुरूषों के साथ हजारों-लाखों महिलाएँ भी उस अध्यात्म-पथ पर बढ़ने के लिये अग्रसर हुईं। भगवान ऋषभदेव इस आर्यावर्त में सर्वप्रथम श्रमणधर्म के उपदेष्टा हुए। उनके उपदेशों से 84 हजार पुरूष श्रमण एवं तीन लाख महिलाएँ श्रमणी धर्म में प्रविष्ट हुई। महिलाओं में श्रमणी धर्म का सूत्रपात करने वाली भगवान ऋषभदेव की ही कन्याएँ-ब्राह्मी और सुन्दरी थीं। उस समय उन दोनों की आयु 77 लाख पूर्व की थी, वे 7 लाख पूर्व तक श्रमणी-परम्परा की संवाहिकाएँ रहीं, अंत समय में संपूर्ण कर्मों का क्षय कर निर्वाण को प्राप्त हुईं। उनके 1. डॉ. मोहनलाल मेहता, जैनधर्म दर्शन, पृ. 609 | Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन श्रमणियों का बृहद इतिहास निर्वाण के पश्चात् भी श्रमणी - परम्परा निर्व्याघात रूप से चली, जिसका काल 50 लाख करोड़ सागर और 12 लाख पूर्व का निर्धारित किया गया है, तत्पश्चात् तीर्थंकर अजितनाथ के श्रमणी संघ की संचालिका महासती फल्गुजी हुईं। 2 इसी प्रकार आगे भी प्रत्येक तीर्थंकर के काल में श्रमणी संघ वेग से गतिमान रहा, इसकी पुष्टि जैन इतिहास ग्रंथों में वर्णित आंकड़ों से होती है । यद्यपि सुविधिनाथ से शांतिनाथ तक सात तीर्थंकरों के अन्तराल काल में क्रमशः पौन पल्य, एक पल्य, पौन पल्य, अर्ध पल्य और पाव पल्य कुल 4 पल्य धर्म तीर्थ का विच्छेद रहा। उस समय श्रमणी-संघ रूपी सरिता का प्रवाह भी रूक गया था, किंतु पुनः सोलहवें तीर्थंकर शांतिनाथ से भगवान महावीर तक चतुर्विध जैन संघ अपने उत्कर्ष में चलता रहा। तीर्थंकर काल की 16वीं श्रमणी - प्रमुखा ' श्रुति' से 'चन्दनबाला' तक और उनके पश्चात् आज तक श्रमणी संघ की अखंड धारा अनवरत प्रवाहित है, उसके मध्य व्यवधान नहीं आया। 2.2 तीर्थंकरकालीन श्रमणियों पर एक समीक्षात्मक दृष्टि जैन आगम - साहित्य का अवलोकन करने पर यह तथ्य स्पष्ट होता है कि प्रत्येक तीर्थंकर के काल में श्रमणियों की संख्या हजारों या लाखों में पहुँची है भगवान ऋषभदेव से लेकर महावीर काल तक की श्रमणियों की संख्या 48 लाख आठसौ 70 हजार आंकी गई है। इसके अतिरिक्त प्रत्येक तीर्थंकर के निर्वाण और नये तीर्थंकर के जन्म के मध्यवर्ती समय में भी श्रुतधर आचार्यों के काल की श्रमणियाँ गणनातीत संख्या में हैं, किंतु खेद है कि संयम, तप, त्याग की साक्षात् मूर्ति भगवती स्वरूपा इन श्रमणियों का संपूर्ण इतिहास अतीत की गोद में विलुप्त हो चुका है। उनका नाम तक भी आज उपलब्ध नहीं होता। 23 तीर्थंकरों के शासन काल के साक्षी अंतिम तीर्थंकर सर्वज्ञ प्रभु महावीर ने उन अज्ञात अतीत की श्रमणियों में कितनों को शब्दायित किया है, यह प्रयत्न पूर्वक खोजने पर भी नहीं मिलता। वर्तमान आगम - साहित्य एवं प्राचीन ग्रंथों में तीर्थंकरों की प्रमुखा श्रमणियों के नाम एवं शेष श्रमणियों की मात्र संख्या ही उपलब्ध होती है। प्रमुखा श्रमणियों में प्रथम तीर्थंकर की शिष्या ब्राह्मी सुन्दरी तथा अंतिम तीर्थंकर महावीर की प्रमुखा शिष्या चन्दनबाला का यत्किंचित् वृतान्त उपलब्ध होता है, शेष श्रमणियाँ जो तीर्थंकरों के विशाल श्रमणी संस्था की संवाहिका रहीं, उनका वृत्तान्त न मिलना एक दुर्भाग्यपूर्ण घटना है। कतिपय वैचारिक भिन्नताएँ यद्यपि तीर्थंकर कालीन जैन श्रमणी इतिहास का मूल आधार भगवान महावीर की वाणी है तथापि जैन श्रमणी विषयक ऐतिहासिक मान्यताओं में कुछ मतभेद दिखाई देते हैं। उसका कारण कालप्रभाव, स्मृति भेद, दृष्टि भेद, श्रुतिभेद आदि हैं। ये ही विभिन्न मान्यताएँ कालान्तर में प्रमुख रूप से दिगम्बर और श्वेताम्बर मान्यताओं के रूप में प्रकट हुई जैसे 1. नाम व संख्या भेद - श्रमणियों के नाम एवं संख्या में श्वेताम्बर - दिगम्बर के मध्य कहीं साम्य तो कहीं वैषम्य दिखाई देता है, जैसे द्वितीय तीर्थंकर की प्रमुखा साध्वी श्वेताम्बर - परम्परा के अनुसार 'फल्गु' है, तो दिगम्बर- परम्परा मे उसे 'प्रकुब्जा' कहा है। इसी प्रकार तृतीय तीर्थंकर की प्रमुखा साध्वी श्वेताम्बर परम्परा में 'श्यामा' और दिगम्बर परम्परा में 'धर्मश्री' के रूप में उल्लिखित है, इसी प्रकार अन्यत्र भी नामों में फर्क आया है। 2. वही, पृ. 216 3. N. Shanta, THE UNKNOWN PILGRIMS, पृष्ठ 270 चित्र 6 100 Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रागैतिहासिक काल से अर्हत् पार्श्व के काल तक निर्ग्रन्थ-परम्परा की श्रमणियाँ ___ संख्या की दृष्टि से श्वेताम्बर-परम्परा के अनुसार प्रथम तीर्थंकर की साध्वी संख्या तीन लाख है, किंतु दिगम्बर ग्रंथों में तीन लाख पचास हजार है। दूसरे तीर्थंकर की साध्वी संख्या श्वेताम्बर तीन लाख तीस हजार मानते हैं तो दिगम्बर तीन लाख बीस हजार। अन्य तीर्थंकरों की श्रमणियों में भी इसी प्रकार भेद आया है। नाम और संख्या का यह भेद श्रुति भेद या गणना भेद के कारण हुआ प्रतीत होता है। तालिका में इसे देखें - तीर्थंकरों की प्रमुख श्रमणियाँ एवं उनकी साध्वी संख्या-श्वेताम्बर-दिगम्बर तालिका' क्रम तीर्थंकर नाम प्रमुखा साध्वी साध्वी-संख्या संख्या श्वेताम्बर दिगम्बर श्वेताम्बर दिगम्बर 1. श्री ऋषभदेवजी श्री ब्राह्मीजी श्री ब्राह्मीजी 3,00,000 350,000 2 श्री अजितनाथजी श्री फल्गुजी श्री प्रकुब्जाजी 330,000 320,000 3. श्री संभवनाथजी श्री श्यामाजी श्री धर्मश्रीजी 336,000 330,000 4. श्री अभिनन्दननाथजी श्री अजीताजी श्री मेरूसेनाजी 630,000 330,000 5. श्री सुमतिनाथजी श्री कासवीजी श्री अनन्ताजी 5:30,000 330,000 6 श्री पद्मप्रभजी श्री रतिजी श्री रतिसेनाजी 420,000 420,000 7. श्री सुपार्श्वनाथजी श्री सोमाजी श्री मीनाजी 430,000 330,000 8. श्री चंद्रप्रभजी श्री सुमनाजी श्री वरूणाजी 380,000 3 80,000 9. श्री सुविधिनाथजी श्री वारूणीजी श्री घोषाजी 120,000 380,000 10. श्री शीतलनाथजी श्री सुलसाजी श्री धरणाजी 100,006 380,000 11. श्री श्रेयांसनाथजी श्री धारणीजी श्री चारणाजी 10300 120,000 12. श्री वासुपूज्यजी श्री धरणीजी श्री वरसेनाजी 100,000 106,000 13. श्री विमलनाथजी श्री धरणीधराजी श्री पद्माजी 120,800 1,03,000 14. श्री अनंतनाथजी श्री पद्माजी श्री सर्वश्रीजी 62,000 108,000 15. श्री धर्मनाथजी श्री शिवाजी श्री सुव्रताजी 62400 62,400 16. श्री शांतिनाथजी श्री श्रुतिजी श्री हरिसेनाजी 61600 60300 17. श्री कुंथुनाथजी श्री अंजुयाजी श्री भाविताजी 60600 60350 18. श्री अरनाथजी श्री रक्षिताजी श्री कुंतुसेनाजी 60,000 60,000 19. श्री मल्लिनाथजी श्री बंधुमतीजी श्री मधुसेनाजी 55,000 55,000 20. श्री मुनिसुव्रतजी श्री पुष्पवतीजी श्री पूर्वदत्ताजी 50,000 50,000 21. श्री नमिनाथजी श्री अमलाजी श्री मार्गिणीजी 41,000 45,000 22. श्री अरिष्टनेमिजी श्री यक्षिणीजी श्री यक्षीजी 40,000 40,000 23. श्री पार्श्वनाथजी श्री पुष्पचूलाजी श्री सुलोकाजी 38,000 38,000 24. श्री महावीरस्वामीजी श्री चन्दनबालाजी श्री चन्दनाजी 36000 35,000 1. (क) श्वेताम्बर स्रोत - समवायांग, सूत्र 649, गाथा 43-45, प्रवचन सारोद्धार द्वार 17, गा. 335-39 (ख) दिगम्बर स्रोत - हरिवंशपुराण, गाथा 432-440, देखें-जैनधर्म का मौलिक इतिहास, भाग 1, पृ. 815 | 101 Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन श्रमणियों का बृहद इतिहास 2. मान्यता-भेद - दिगम्बर-परम्परा स्त्री को मुक्ति की अधिकारिणी नहीं मानती, अतः उनके अनुसार चौबीस तीर्थंकरों की कोई भी श्रमणी सर्वज्ञ-सर्वदर्शी नहीं बनीं। सभी श्रमणियाँ देवलोक में गईं, वहाँ से स्त्रीलिंग का छेदन कर पुरूष-पर्याय प्राप्त करके वे मोक्ष में जायेंगी। लेकिन श्वेताम्बर और यापनीय परम्परा ने स्त्री-पर्याय को निर्वाण में बाधक स्वीकार नहीं किया, उनके अनुसार तीर्थंकरों की सभी प्रमुखा श्रमणियाँ मोक्ष में गईं तथा और भी सहस्राधिक अन्य श्रमणियों ने केवलज्ञान प्राप्त कर मोक्ष प्राप्त किया। जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति एवं आवश्यक चूर्णि आदि में ऋषभदेव के धर्म परिवार में 20 हजार श्रमण और 40 हजार साध्वियों के आठों कर्मों को समूल नष्ट कर मोक्ष प्राप्त करने का उल्लेख है। यह मान्यता भेद साम्प्रदायिक अभिनिवेश के कारण है। __कुछ मान्यताएँ कालदोष के प्रभाव से भिन्न-भिन्न हो गईं, जैसे आवश्यक मलयगिरी वृत्ति, कल्पद्रुमकलिका आदि श्वेताम्बर साहित्य में ब्राह्मी का विवाह बाहुबली से और सुंदरी का विवाह भरत से होने का उल्लेख प्राप्त होता है। यह विवाह तीर्थंकर ऋषभदेव ने यौगलिक धर्म का निवारण करने हेत किया था, किंत आचार्य जिनसेन ने ब्राह्मी और सुंदरी को अविवाहित माना।' इसी प्रकार दिगम्बर मान्यता ऋषभदेव के प्रथम समवसरण में ही ब्राह्मी-सुंदरी दोनों को प्रव्रज्या अंगीकर करना मानती हैं, वहाँ श्वेताम्बर मान्यता सुंदरी की प्रव्रज्या चक्रवर्ती भरत के दिग्विजय से लौटने के पश्चात् स्वीकार करती हैं। बाहुबलि के अभिमान को विगलित करने में भी परम्परा भेद है, श्वेताम्बर परम्परा बाहुबली के मान को ब्राह्मी-सुंदरी के उद्बोधन से नष्ट होना मानती है तो दिगम्बर-परम्परा भरत चक्रवर्ती द्वारा पूजा अर्चना किये जाने से दूर हुआ मानती है। तीर्थंकर अरिष्टनेमि की श्रमणी-प्रमुखा के विषय में दिगम्बर-ग्रंथों में राजीमती का नाम है जबकि श्वेताम्बर परम्परा में यक्षिणी का। इसी प्रकार अन्य भी अनेक मान्यताओं में पारस्परिक विभेद प्राप्त होता है हमने श्वेताम्बर और दिगम्बर मान्यता का स्थान-स्थान पर भेद निर्देश किया है। अध्ययन एवं विषय की दृष्टि से प्रस्तुत अध्याय 5 भागों में विभाजित किया गया है-(1) ऋषभदेव से अर्हत् पार्श्व के काल तक की जैन श्रमणियाँ (2) पार्श्व की परवर्ती जैन श्रमणियाँ (3) आगम एवं आगमिक व्याख्याओं में वर्णित जैन श्रमणियाँ (4) जैन पुराण-साहित्य में वर्णित जैन श्रमणियाँ (5) जैन कथा-साहित्य में वर्णित जैन श्रमणियाँ। 2.3 ऋषभदेव से अर्हत् पार्श्व के काल तक की जैन श्रमणियाँ तीर्थंकर ऋषभदेव से महावीर पर्यन्त 24 तीर्थंकरों की चौबीस प्रमुख शिष्याएँ हुईं, इनका सर्वप्राचीन उल्लेख चतुर्थ अंग ‘समवाय' में आता है। उनके नाम हैं - ब्राह्मी, फल्गु, श्यामा, अजिता, कासवी, रति, सोमा, सुमना, वारूणी, सुलसा, धारणी, धरणीधरा, पद्मा, शिवा, श्रुति, अंजुया, रक्षिता, बंधुवती, पुष्पावती, अमला, यक्षिणी पुष्पचूला और चंदना। 4. जै. मौ. इ. भाग 1, पृ. 128 5. द.-देवेन्द्र मुनि जी, भगवान ऋषभदेवः एक परिशीलन, प्र. 74 6. बंभी य फग्गु सामा...................................चंदणज्जा आहिया उ तित्थप्पवत्तयाणं पढमा सिस्सी जिणवराण।। - समवायांग, सूत्र 649, गाथा 43-45 102 Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रागैतिहासिक काल से अर्हत् पार्श्व के काल तक निर्ग्रन्थ- परम्परा की श्रमणियाँ ये चौबीस ही प्रमुख शिष्याएँ तीर्थंकरों के धर्मप्रवर्तन के प्रथम दिन प्रथम उपदेश से प्रबुद्ध होकर प्रव्रज्या अंगीकर कर लेती हैं। ये सभी उत्तम कुल वाली, विशुद्ध वंश वाली एवं अनेक गुणों से अलंकृत होती हैं ।" तीर्थंकर का अतिशय तो होता ही है साथ ही श्रमणी - प्रमुखा का दिव्य उर्जस्वी प्रभाव भी महिलावर्ग पर पड़ता है, यही कारण है कि उनकी प्रव्रज्या के तुरन्त पश्चात् नारियों की दीक्षा का प्रवाह सा उमड़ पड़ता है, अनेकों महिलाएँ रमणी श्रमणी बनने को आतुर हो उठती हैं। स्त्री जाति में आध्यात्मिक जागरण की लहर पैदा करने वाली श्रमणी - प्रमुखा श्रमणी - संघ में गणधर तुल्य अतिशय से सम्पन्न होती हैं। तीर्थंकर द्वारा उपदिष्ट 11 अंगों का ज्ञान वे अपनी व्युत्पन्न बुद्धि एवं क्षिप्रग्राही लब्धि से प्रथम बार में ही अर्जित कर लेती हैं। लक्षाधिक साध्वियों का नेतृत्व वे अकेली करने की क्षमता रखती हैं, उनसे हजारों-हजार साध्वियाँ एकादशांगी का ज्ञान प्राप्त कर श्रुतसंपन्ना एवं आचार संपन्ना बनती हैं। ध्यान, स्वाध्याय, योग एवं कठोर तपश्चरण द्वारा स्वात्म कल्याण का मार्ग प्रशस्त करती है। हजारों श्रमणियाँ उनके निर्देशन में आत्मसाधना करती हुईं निर्वाण को प्राप्त होती हैं, हजारों एकाभवतारी बनती हैं। वे स्वयं भी वर्धमान परिणामों से कर्म कालुष्य को धोकर अंत में कैवल्य लक्ष्मी को प्राप्त करती हैं। ऋषभदेव से अर्हत् पार्श्व के काल तक की जैन श्रमणियों में प्रत्येक तीर्थंकर की प्रमुखा श्रमणियों के अतिरिक्त अन्य श्रमणियों के उल्लेख भी आगम ग्रंथों में उपलब्ध होते हैं जो उस-उस तीर्थंकर के काल में हुई थी। उनमें कतिपय श्रमणियों के उल्लेख श्वेताम्बर ग्रंथों में तथा कतिपय श्रमणियाँ दिगम्बर-ग्रंथों में उल्लिखित हैं, यहां दोनों परम्पराओं की श्रमणियों का प्रमाण पुरस्सर वर्णन प्रस्तुत किया जा रहा है। 2.3.1 ब्राह्मी जैनधर्म की साध्वियों में ब्राह्मी और सुंदरी का नाम शीर्षस्थ स्थान पर है। वर्तमान अवसर्पिणी काल की प्रथम साध्वी ब्राह्मी भगवान ऋषभदेव की सुपुत्री तथा सुमंगला (ऋषभदेव की सहजात) की अंगजात कन्या थी। प्रथम चक्रवर्ती सम्राट भरत ब्राह्मी के सहजात भ्राता थे। बुद्धि एवं गुणों में अभिवृद्धि करने वाली अनेक कलाओं की शिक्षा ब्राह्मी ने अपने पिता ऋषभदेव से प्राप्त की थी। वर्णमाला का प्रथम बोध पाठ भी युग के प्रारंभ में भगवान ऋषभदेव ने ब्राह्मी को ही प्रदान किया था, ब्राह्मी के नाम पर यह लिपि अनेक शताब्दियों के बाद भी आज तक 'ब्राह्मी लिपि' के नाम से ही विश्रुत है। यावन्मात्र लिपियाँ जो वर्तमान में उपलब्ध हैं उन सबका मूल आधार 'ब्राह्मी लिपि को माना जाता है। जैन आगम ग्रंथों में 'नमो बंभीए लिवीए' कहकर इसे आदर पूर्वक नमस्कार किया गया है।" भगवान ऋषभदेव को जब केवलज्ञान प्राप्त हुआ, तब उनके प्रथम प्रतिबोध से ही ब्राह्मी ने गृहत्याग कर श्रामणी-दीक्षा अंगीकार कर ली थी। इतना ही नहीं उनके द्वारा संस्थापित श्रमणी - संघ की प्रथम 'आर्या' बनने का सौभाग्य भी ब्राह्मी को ही प्राप्त हुआ था। इनके नेतृत्व में तीन लाख श्रमणियाँ तथा पाँच लाख चउपन हजार व्रतनिष्ठ 7. उदितोदिय कुलवंसा विसुद्धवंसा गुणेहि उववेया । । - वही, सूत्र 649, गा. 45 8. आवश्यक चूर्णि भाग 1, पृ. 156-211; आवश्यक निर्युक्ति (हरिभद्र) भाग 1 पृ. 100 9. भगवतीसूत्र, मंगलाचरण 103 Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन श्रमणियों का बृहद इतिहास श्राविकाएँ थीं। दिगम्बर ग्रंथों में ब्राह्मी को 3.50,000 श्रमणियों की प्रमुखा बताया है। चौरासी लाख पूर्व की आयु पूर्ण कर महासती ब्राह्मी सिद्धगति को प्राप्त हुई। 2.3.2 सुन्दरी सुन्दरी ऋषभदेव की द्वितीय पत्नी सुनन्दा से बाहुबली के साथ युगल रूप में उत्पन्न हुई थी। पिता ऋषभदेव ने सुंदरी को सर्वप्रथम अंकविद्या, मान, उन्मान, तोल, नाप आदि का ज्ञान कराया और मणि आदि के उपयोग की विधि भी बताई। श्वेताम्बर-परम्परा के अनुसार सुन्दरी भी तीर्थंकर ऋषभदेव के प्रथम प्रवचन को श्रवण कर संयम ग्रहण करना चाहती थी, किंतु सम्राट् भरत के द्वारा आज्ञा प्राप्त न होने से वे दीक्षित नहीं हो पाई। भरत उसे स्त्री-रत्न बनाना चाहते थे, किंतु सुंदरी ने प्रभु ऋषभदेव से सुना कि 'स्त्री-रत्न' का गौरव प्राप्त करने वाली नारी नरकगामिनी होती है, अतः उसने संयम की उत्कृष्ट भावना से सम्राट् भरत के दिग्विजय प्रस्थान के साथ ही आयम्बिल व्रत (रूक्ष भोजन) की साधना प्रारम्भ कर दी। भरत जब षट्खण्ड पर विजय प्राप्त कर दीर्घकाल के पश्चात् विनीता लौटे तब सुन्दरी के तप से कृश तनु को देखकर चकित रह गये। उसका दृढ़ संयम एवं वैराग्य देखकर अन्ततः भरत को दीक्षा की अनुमति देनी पड़ी। आचार्य जिनसेन के अनुसार सुन्दरी ने भगवान ऋषभदेव के प्रथम प्रवचन से ही प्रतिबोध पाकर ब्राह्मी के साथ दीक्षा ग्रहण की। हरिवंशपुराण में ब्राह्मी के साथ सुंदरी को भी गणिनी कहकर तीन लाख साध्वियों की प्रमुखा बताया है। इन दोनों बहनों द्वारा बाहुबली के अन्तर में छिपे सूक्ष्म मान को समाप्त करने का घटना-प्रसंग भी जैन इतिहास में बड़ा प्रसिद्ध है। बाहुबली एक वर्ष से जंगल में ध्यान लगाये खड़े थे, तथापि ज्येष्ठत्व के अहं का त्याग नहीं कर पाने के कारण उनकी कठोरतम साधना भी फलीभूत नहीं हो पा रही थी। बाहुबली को जागृत करने के लिए भगवान ऋषभदेव ने ब्राह्मी और सुंदरी को प्रेषित किया। भगिनीद्वय ने बाहुबली को नमन किया और कहा-"हमारे प्रिय भैया! आप हस्ती पर से नीचे उतरो, हस्ती पर आरूढ़ व्यक्ति को कभी केवलज्ञान की उपलब्धि नहीं होती।" बहनों के चिर-परिचित स्वर एवं उसका अभिप्राय समझकर बाहुबली के चिंतन का प्रवाह बदला, "ओह! बहने सत्य कह रही हैं। मैं अहंकार के हाथी पर सवार हूँ, परमात्मा बनने के लिये मुझे अहंकार को चूर करना होगा"। यह विचार कर लघु-बन्धुओं को वंदना के लिये जैसे ही उनके हिमाचल से स्थिर चरण भूमि से उठे कि केवलज्ञान, केवल दर्शन प्रगट हो गया। दिगम्बर-परम्परा में बाहुबली के मान की निवृत्ति भरतजी की क्षमायाचना एवं पूजा द्वारा मानी गई हैं। 10. हरिवंशपुराण परिशिष्ट-59, महापुराण 16/4-7 दृष्टव्य-जैन पुराण कोश पृ. 252 11. त्रिषष्टिशलाकापुरूष चरित्र, पर्व 1 सर्ग 3 श्लोक 650-55 12. (क) आवश्यक चूर्णि भाग 1 पृ. 156-211; (ग) आवश्यक मलयगिरि वृत्ति, पत्र संख्या 194-983; (घ) त्रि.श.पु.च 1/4/758-795 13. द. महापुराण 24/1773; हरि. पु. सर्ग 12 पृ. 212 14. (क) त्रि. श. पु.च. 1/4/795-798, (ख) आव. मलय, वृ. पत्र सं. 194-98 104 Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रागैतिहासिक काल से अर्हत् पार्श्व के काल तक निर्ग्रन्थ-परम्परा की श्रमणियाँ योगदान :- विश्व संस्कृति को ब्राह्मी और सुन्दरी का अप्रतीम योगदान रहा है। वैदिक युग में वैदिक ऋचाओं की सर्जिका ब्रह्मवादिनी नारियों से भी शतगुना, सहस्रगुना अधिक गौरव ऋषभदेव की इन दोनों पुत्रियों का है। इन्होंने ही युग की आदि में श्रमणी-संघ की नींव डाली। इनकी मेधा के उत्स से ही ज्ञान-विज्ञान का अजस्र स्रोत प्रवाहित हुआ। आज विश्व में जितनी भी वर्णरूप या अंक रूप विद्याएँ हैं उनके विकास का बीज ब्राह्मी और सुन्दरी की उर्वर बुद्धि से अंकुरित पुष्पित व फलित हुआ है। 2.3.3 फल्गु फल्गु द्वितीय तीर्थंकर अजितनाथ की प्रथम नारी शिष्या थी। ये तीन लाख तीस हजार श्रमणियों की प्रमुखा थी। श्वेताम्बर-ग्रंथ समवायांगा में 'फलगू' प्रवचनसारोद्धार में 'फग्गू' 'फग्गुणी' तथा दिगम्बर ग्रंथों में प्रकुब्जा' नाम है श्रमणियों की संख्या भी तीन लाख बीस हजार कही है।16 2.3.4 श्री विजयादेवी द्वितीय तीर्थंकर श्री अजितनाथजी की माता श्री विजयादेवी अयोध्या नगरी के राजा जितशत्रु की रानी थीं। अजितनाथ भगवान ने केवलज्ञान के पश्चात् चतुर्विध तीर्थ की स्थापना की, उसीमें विजयादेवी भी उत्कृष्ट भावों के साथ घनघाती कर्मों का क्षय कर केवलज्ञान केवलदर्शन को प्राप्त हुई तथा अंत में सिद्धगति प्राप्त की। 2.3.5 सुलक्षणा दूसरे तीर्थंकर अजितनाथ के पास सुलक्षणा ने दीक्षा ग्रहण की। यह शालिग्राम के दामोदर ब्राह्मण के पुत्र शुद्धभट्ट की पत्नी थी, जैन साध्वी प्रवर्तिनी विपुला की प्रेरणा से इसे शुद्ध सम्यक्त्व की प्राप्ति हुई, उसने अपने पति को भी शुद्ध सम्यक्त्व की प्रेरणा दी। धर्म के सही स्वरूप को समझकर शुद्धभट्ट ने सुलक्षणा के साथ दीक्षा ग्रहण की और अनेक वर्षों तक विशुद्ध श्रमणाचार का पालन कर दोनों मोक्ष में गये। सुलक्षणा शय्यातरी भी थी, उसने प्रवर्तिनी साध्वी विपुला को अपने मकान का बाहरी कक्ष चातुर्मास के लिए प्रदान किया था। 2.3.6 विपुला __ अजितनाथ भगवान के समय की प्रभावशालिनी साध्वी थी। अपने साथ अन्य दो साध्वियों को लेकर इसने शालिग्राम निवासी शुद्धभट्ट की पत्नी सुलक्षणा की आज्ञा से उनके ही निवास स्थान पर चातुर्मास किया। प्रतिदिन धर्मोपदेश देकर अनेक भव्य जीवों को शुद्ध मार्ग बताया। सुलक्षणा को भी इनके सदुपदेश से धर्म की रूचि जागृत हुई, उसके अन्तस्तल में सम्यक्त्व का उद्योत हुआ, आगे जाकर सुलक्षणा ने दीक्षा लेकर मोक्ष प्राप्त किया। 15. समवायांग, सूत्र 649 गा. 433; प्राकृत प्रोपर नेम्स भाग 1 पृ. 484 16. द. जै. मौ. इ., भाग 1 पृ. 815 17. (क) समवायांग, सूत्र 634, गा. 9 (ख) जै. मौ. इ., भाग 1 पृ. 828 18. (क) त्रि.श.पु.च. 2/3/861-937 (ख) जै. मौ.इ. भा.1 पृ. 158-162 19. त्रि. श. पु. च. 2/3/861-937 105 Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 2.3.7 श्यामा ( सामा ) जैनधर्म के तीसरे तीर्थंकर संभवनाथ की ये प्रथम शिष्या थी । इन्हें तीन लाख छत्तीस हजार श्रमणियों की 'प्रमुखा' कहा गया है। 20 दिगम्बर ग्रंथ हरिवंश पुराण में 'धर्मश्री', तिलोयपण्णत्ती में 'धर्मार्या' नाम प्राप्त होता है तथा उक्त दोनों में श्रमणियों की संख्या तीन लाख तीस हजार है। उत्तरपुराण में तीन लाख बीस हजार की संख्या का उल्लेख है | 21 2.3.8 श्री सेनादेवी आप श्री संभवनाथ भगवान की माता थीं, तथा श्रावस्ती नगर के राजा जितारि की पटरानी थीं। श्री संभवनाथ तीर्थंकर के तीर्थ में दीक्षा ग्रहण कर सर्वकर्मों का क्षय किया, तथा मुक्ति प्राप्त की | 2 2.3.9 अजिता ( अजिया ) चतुर्थ तीर्थंकर अभिनन्दन नाथ की प्रमुखा शिष्या के रूप में इनका नाम आदर के साथ लिया जाता है। श्रमणी - अग्रणी अजिता छह लाख तीस हजार श्रमणी - संघ की प्रमुखा थी। 23 दिगम्बर ग्रंथों में 'मेरूसेना' 'मरूषणा' तथा 'मरूषेणा' नाम है। इनकी श्रमणी संख्या हरिवंशपुराण में तीन लाख तीस हजार और तिलोयपण्णत्ती में तीन लाख तीस हजार छह सौ निर्दिष्ट हैं | 24 जैन श्रमणियों का बृहद इतिहास 2.3.10 श्री सिद्धार्था देवी चतुर्थ तीर्थंकर श्री अभिनन्दन नाथ की जननी थीं, ये अयोध्या के राजा संवर की महारानी थीं। श्री अभिनन्दन नाथ के तीर्थ में दीक्षा ग्रहण कर तप-संयम की आराधना की तथा अंत में केवलज्ञान केवलदर्शन को प्राप्त कर मोक्ष की अधिकारिणी बनीं 125 2.3.11 काश्यपी (कासवी) पाँचवे तीर्थंकर श्री सुमतिनाथजी की अग्रणी शिष्या काश्यपी पाँच लाख तीस हजार श्रमणियों का कुशलता पूर्वक नेतृत्व करती थी। 26 दिगम्बर ग्रंथों में इन्हें तीन लाख तीस हजार साध्वियों की प्रमुखा कहा है। तथा ‘अनन्ता' 'अनन्तमती' नाम दिया है। 27 4 20. (क) समवायांग सूत्र 649, पृ. 231 (ख) प्राप्रोने भा. 1. पृ. 776 21. दृ. जै. मौ. इ. 1. पृ. 815, 817 22. (क) समवायांग सूत्र 634 गा. 9 (ख) तिलोयपन्नत्ती, गा. 526-549 (ग) जैन शासननां श्रमणी - रत्नो, पृ. 82 23. (क) समवायांग पृ. 231, सू. 649 (ख) प्राप्रोने भा. 1 पृ. 25 24. दृ. जै. मौ. इ., पृ. 815, 817 25. (क) समवायांग, सूत्र 634 गा. 9, (ख) तिलोयपन्नत्ती, गा. 526-549, (ग) जैन शासननां श्रमणीरत्नो, पृ. 82 26. (क) समवायांग पृ. 231, सू. 649 (ख) प्राप्रोने. भाग 1 पृ. 177 27. जै. मौ. इ., भाग 1 पृ. 815, 817 106 Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रागैतिहासिक काल से अर्हत् पार्श्व के काल तक निर्ग्रन्थ-परम्परा की श्रमणियाँ 2.3.12 श्री सुमंगला देवी श्री सुमंगलादेवी अयोध्या के महाराजा मेघरथ की महारानी तथा पाँचवें तीर्थंकर श्री सुमतिनाथजी की महिमामयी मातेश्वरी थी। श्री सुमतिनाथ भगवान द्वारा तीर्थ-स्थापना के पश्चात् इन्होंने साध्वी-प्रमुखा श्री काश्यपी के पास दीक्षा ग्रहण की, सर्व कर्म क्षय कर सिद्धगति को प्राप्त हुई।28 2.3.13 रति रति ने छठे तीर्थंकर श्री पद्मप्रभु की प्रमुखा शिष्या बनने का सौभाग्य प्राप्त किया था। इसके नेतृत्व में चार लाख बीस हजार श्रमणियाँ आत्म कल्याण की साधना करती थी। दिगम्बर ग्रंथों में रतिसेना, रतिषणा या रात्रिषेणा के नाम से ये प्रसिद्ध हैं। साध्वी संख्या श्वेताम्बर के अनुरूप ही है। 2.3.14 श्री सुसीमा देवी ___ आप छठे तीर्थंकर श्री पद्मप्रभुजी की जननी थीं। कौशाम्बी के महाप्रतापी सम्राट् श्रीधर की महारानी थीं। श्री पद्मप्रभु भगवान द्वारा तीर्थ की स्थापना करने पर आप भी संसार के सुखों को छोड़कर श्रमणी बन गईं। साध्वी-प्रमुखा श्री 'रति' के सान्निध्य में उत्कृष्ट तप-त्याग की आराधना करके मोक्ष-लक्ष्मी को प्राप्त किया। 2.3.15 सोमा सातवें तीर्थंकर सुपार्श्वनाथ भगवान की प्रथम शिष्या के रूप में आपने यशस्विता प्राप्त की थी अन्यत्र इन्हें 'जसा' नाम से भी अभिहित किया है। आप चार लाख तीस हजार श्रमणियों की अध्यक्षा थीं। दिगम्बर ग्रंथों में आपका नाम 'मीना' उल्लिखित है। तथा साध्वी संख्या तीन लाख तीस हजार है।" 2.3.16 श्री पृथ्वीदेवी आप सातवें तीर्थंकर श्री सुपार्श्वनाथजी की माता तथा वाणारसी के राजा प्रतिष्ठित की महारानी थीं। श्री सुपार्श्वनाथ को केवलज्ञान की प्राप्ति एवं लोकमंगलकारी तीर्थ-स्थापना के पश्चात् आप भी श्रमणी बनकर तप-त्याग की आराधना में लीन बनीं, उत्कृष्ट भावों से संयम की आराधना कर अंत में सिद्ध, बुद्ध, मुक्त हुईं। 2.3.17 सुमना आठवें तीर्थंकर श्री चन्द्रप्रभु के धर्मसंघ में श्रमणी संघ का नेतृत्व साध्वी प्रमुखा 'सुमना' करती थी। इनके संघ 28. (क) समवयांग सूत्र 634 गा. 9, (ख) तिलोयपन्नत्ती, गा. 526-549 (ग) जैन शासननां श्रमणी-रत्नो, पृ. 82 29. (क) समवायांग पृ. 231, सू. 649 (ख) प्राप्रोने. भा. 1 पृ. 615 30. म. पु. 52/63, दृ. जै. पु. को. पृ. 326 31. (क) समवायांग सूत्र 634 गा. 9 (ख) तिलोयपन्नत्ती, गा. 526-549 (ग) जैन शासननां श्रमणी-रत्नो, पृ. 82 32. प्राप्रोने. 1 पृ. 282 33. जै. मौ. इ. भाग 1, पृ. 815, 817 34. (क) समवायांग सूत्र 634 गा. 9, (ख) तिलोयपन्नत्ती, गा. 526-549 (ग) जैन शासननां श्रमणी-रत्नो, पृ. 82 107 Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन श्रमणियों का बृहद इतिहास में तीन लाख अस्सी हजार श्रमणियाँ आत्मोत्थान की साधना में निरत थी।” दिगम्बर ग्रंथों में इनका नाम 'वरूणा' आया 136 2.3.18 श्री लक्ष्मणादेवी आठवें तीर्थंकर श्री चन्द्रप्रभु भगवान की माता तथा चन्द्रपुर नगरी के महाराज महासेन की पटरानी थीं। श्री चन्द्रप्रभु भगवान की तीर्थ स्थापना के पश्चात् लक्ष्मणादेवी भी उत्कृष्ट अध्यवसाय द्वारा सर्व कर्म क्षय कर मोक्ष में गईं। 37 2.3.19 वारुणी नौवे तीर्थंकर सुविधिनाथ जी की ये अग्रगण्या श्रमणी - श्रेष्ठा थीं। इन्होंने तीन लाख श्रमणियों के लिये आत्मोत्थान का मार्ग प्रशस्त किया था। 38 अन्यत्र इनके नेतृत्व में एक लाख बीस हजार श्रमणियों की संख्या उल्लिखित है। दिगम्बर- परम्परा में श्रमणियों की संख्या तीन लाख अस्सी हजार दी है। तथा 'वारूणी' के स्थान पर 'घोषा. ' नाम दिया है। 39 2.3.20 श्री रामादेवी काकंदी के राजा सुग्रीव की महारानी तथा श्री सुविधिनाथ भगवान की माता थीं। श्री सुविधिनाथ को केवलज्ञान हुआ, माता रामादेवी ने भी इस असार संसार का त्याग कर अपूर्व आराधना की और आयुष्य पूर्ण होने पर सनत्कुमार नाम के तृतीय देवलोक में गईं 140 2.3.21 सुलसा दसवें तीर्थंकर शीतलनाथ की प्रमुखा श्रमणी थीं। तथा एक लाख बीस हजार श्रमणियों का नेतृत्व करती थीं। अन्यत्र कहीं एक लाख छह हजार साध्वियों का उल्लेख है, कहीं एक लाख छह साध्वी संख्या है।" दिगम्बर ग्रंथों में साध्वी संख्या तीन लाख अस्सी हजार प्राप्त होती है तथा सुलसा की जगह 'धरणा' नाम का उल्लेख मिलता है। 2 2.3.22 धारिणी आप ग्यारहवें तीर्थंकर श्री श्रेयांसनाथजी की अग्रणी श्रमणी थी। एक लाख छह हजार आर्यिकाओं का नेतृत्व 35. (क) समवायांग सू. 649, गा. 43 पृ. 231 (ख) प्रापोने. भाग 1 पृ. 832 36. जै. मौ. इ. भाग 1, पृ. 815 37. (क) समवयांग सूत्र 634 गा. 9, (ख) तिलोयपन्नत्ती, गा. 526-549 (ग) जैन शासननां श्रमणी - रत्नो, पृ. 83 38. (क) समवायांग, सू. 649, गा. 43 पृ. 231 (ख) प्रापोने. भाग 1 पृ. 691 39. महापुराण 55/56 40. (क) समवायांग सूत्र 634 गा. 9, (ख) तिलोयपन्नत्ती, गा. 526-549 (ग) जैन शासननां श्रमणी - रत्नो, पृ. 83 41. समवायांग, सूत्र 649 प्राप्रोने. भा. 1 पृ. 839 42. म. पु. 56/54 108 Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रागैतिहासिक काल से अर्हत् पार्श्व के काल तक निर्ग्रन्थ-परम्परा की श्रमणियाँ आपको प्राप्त था। तीर्थोद्गालिक में एक लाख तीन हजार साध्वी संख्या का भी उल्लेख है। दिगम्बर ग्रंथों में कहीं 'चारणा' कहीं 'धारणा' नाम आता है। साध्वी संख्या तिलोयपण्णत्ती में एक लाख तीस हजार तथा उत्तरपुराण में एक लाख बीस हजार दी है। 2.3.23 श्री विष्णुदेवी ग्यारहवें तीर्थंकर श्री श्रेयांसनाथजी की माता तथा सिंहपुर के राजा विष्णु की महारानी थीं। भगवान के द्वारा तीर्थ-स्थापना के पश्चात् विष्णुदेवी ने भी संसार का त्याग कर ज्ञान, दर्शन चारित्र की उत्कृष्ट आराधना की, आयुष्य पूर्ण होने पर वे सनत्कुमार नामक तीसरे देवलोक में गईं। 2.3.24 धरणी आप बारहवें तीर्थंकर श्री वासुपूज्य की प्रथम साध्वी थीं आपकी नेश्राय में तीन लाख तीन हजार श्रमणियों के दीक्षित होने का उल्लेख मिलता है। अन्यत्र एक लाख साध्वी परिवार का भी उल्लेख है। दिगम्बर परम्परा में आप 'वरसेना' अथवा 'सेना' के नाम से भी प्रसिद्ध हैं। वहाँ आपकी साध्वी संख्या एक लाख छह हजार निर्दिष्ट 2.3.25 रोहिणी रोहिणी बारहवें तीर्थंकर श्री वासुपूज्य के पुत्र मघव की कन्या लक्ष्मी की पुत्री थी। आठ भाइयों की एक मात्र बहिन रोहिणी का स्वयंवर हस्तिनापुर के राजा अशोक के साथ हुआ। कालान्तर में सम्राट अशोक चम्पानगरी में भगवान वासुपूज्य के दर्शनार्थ आया। भगवान का उपदेश श्रवण कर अशोक ने दीक्षा अंगीकार की तथा भगवान के गणधर बने। रोहिणी ने भी आर्यिका दीक्षा अंगीकार की, वह अच्युत स्वर्ग में देव रूप से उत्पन्न हुई।48 रोहिणी द्वारा दीक्षा के पश्चात् 'रोहिणीव्रत' आराधन का भी उल्लेख दिगम्बर ग्रंथों में मिलता है। उक्त कथानक श्वेताम्बर परम्परा के ग्रंथों में नहीं है, डॉ. शिवप्रसाद ने चम्पानगरी कल्प का वर्णन करते हुए उक्त कथा लिखी है, किन्तु उन्होंने भगवान वासुपूज्य के शिष्य रूप्यकुंभ-स्वर्णकुम्भ द्वारा पूर्वभव का वृत्तान्त सुनकर अशोक के प्रतिबोधित होने का तथा सपरिवार मुक्ति प्राप्त करने का उल्लेख किया है। 43. (क) समवायांग, सूत्र 649, गा. 43, (ख) प्राप्रोने. भा. 1 पृ. 408 44. जै. मौ. इ. भाग 1 पृ. 815, 817 45. (क) समवयांग सूत्र 634 गा. 9, (ख) तिलोयपन्नत्ती, गा. 526-549 (ग) जैन शासननां श्रमणी-रत्नो, पृ. 83 46. (क) समवायांग, सूत्र 649, गा. 43, (ख) प्राप्रोने. भा. 1 पृ. 404 47. जै. मौ. इ. भाग 1 पृ. 815, 817 48. (क) महापुराण पृ. 174. (ख) बृहत्कथाकोष, हरिषेण 57/20-25 (अशोक रोहिणी कथानकम्) 49. जैन व्रत कथा संग्रह, मोहनलाल शास्त्री, पृ. 55 50. जैन तीर्थों का ऐतिहासिक अध्ययन पृ. 125-127 | 109/ Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन श्रमणियों का बहद इतिहास 2.3.26 मनोहारी ये राजा जितशत्रु की पत्नी थी, जब इन्हें संसार के कामभोगों से विरक्ति हुई और तीर्थंकर वासुपूज्य के पास दीक्षा लेने को उद्यत हुई तब राजा जितशत्रु ने इन्हें इस शर्त के साथ दीक्षा की आज्ञा प्रदान की, कि ये देवलोक से आकर अपने पुत्र बलदेव अचल को प्रतिबोधित करेंगी। 2.3.27 मेघमाला महानिशीथ में तीर्थंकर वासुपूज्य के श्रमणी-संघ की एक साध्वी 'मेघमाला' का नाम भी उल्लिखित है। संयम के उत्तरगुणों के दूषित होने से वह मरकर आसुरी स्थानों में उत्पन्न हुई। 2.3.28 धरणीधरा आप तेरहवें तीर्थंकर श्री विमलनाथजी की प्रमुख शिष्या थीं, तीर्थोद्गालिक में इनका नाम 'वरा' है। ये एक लाख आठसौ श्रमणियों की प्रमुखा थीं। दिगम्बर-ग्रंथों में इन्हें 'पद्मा' नाम से अभिहित किया है, तथा श्रमणियों की संख्या एक लाख तीन हजार कही है। 2.3.29 पद्मा चौदहवें तीर्थंकर अनंतनाथ की प्रमुख शिष्या का नाम 'पद्मा' था। इन्हें एक लाख आठसौ श्रमणियों की प्रमुखा बनने का गौरव मिला था। अन्यत्र बासठ हजार श्रमणियाँ वर्णित हैं। दिगम्बर ग्रंथों में सर्वश्री' गाणिनी की एक लाख आठ हजार श्रमणी संख्या का उल्लेख है। 2.3.30 चिरा/शिवा आप पन्द्रहवें तीर्थंकर श्री धर्मनाथ की अग्रण्या श्रमणी रही हैं। समवायांग में आपका नाम शिवा और दिगम्बर ग्रंथों में7 'सुव्रता' है। आपकी नेश्राय में बासठ हजार चारसौ श्रमणियों का होना सर्वत्र निर्विवाद है। 2.3.31 श्रुति . जैनधर्म के सोलहवें तीर्थंकर शांतिनाथ के शासन में श्रमणी-संघ का संपूर्ण नेतृत्व साध्वी श्रुति के हाथों में था। 51. त्रि. श.पु.च. 4/2/348 52. महानिशीथ पृ. 154, द. प्राप्रोने. भाग 2, पृ. 609 53. (क) समवायांग, सूत्र 649, गा. 43, (ख) प्राप्रोने. भा. 1 पृ. 405 54. जै. मौ. इ. भाग 1 पृ. 815,817 55. (क) समवायांग, सूत्र 649, गा. 44, (ख) प्राप्रोने. भा. 1 पृ. 405 56. जै. मौ. इ. भाग 1 पृ. 815,817 57. वही, भाग 1 पृ. 815, 817 Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रागैतिहासिक काल से अर्हत् पार्श्व के काल तक निर्ग्रन्थ-परम्परा की श्रमणियाँ आपके पास इकसठ हजार छहसौ श्रमणी शिष्याएँ थीं। अन्यत्र आप 'शुचि', 'सुहा', 'सुई' के नाम से भी वर्णित है। दिगम्बर-ग्रंथों में हरिसेन/हरिषेणा नाम से प्रसिद्ध हैं, वहाँ साध्वी संख्या साठ हजार तीन सौ कही है।” 2.3.32 अंजुया __ आप सत्रहवें तीर्थंकर कुंथुनाथ की सबसे प्रथम एवं अग्रणी श्रमणी थी। आपके नेतृत्व में साठ हजार छहसौ साध्वियों का परिवार था। अन्यत्र आपका नाम 'दामिनी' भी है। दिगम्बर-ग्रंथों में 'भविता' नाम से प्रसिद्ध होकर छह हजार तीन सौ पचास श्रमणियों का नेतृत्व करती थी। 2.3.33 रक्षिता अठारहवें तीर्थंकर श्री अरहनाथ की प्रमुखा शिष्या के रूप में 'रक्षिता' का उल्लेख है। आपकी नेश्राय में साठ हजार श्रमणियों ने आगार से अनगारवृत्ति धारण की। दिगम्बर-परम्परा में कुंतुसेना, कुंथुसेना कहीं 'यक्षिला' नाम भी आता है।62 2.3.34 सुव्रता अठाहरवें तीर्थंकर अरनाथ के समय की श्रमणी थी। वामन रूपधारी वीरभद्र को उसकी पत्नियों ने चिरकाल के पश्चात् इनकी शरण में प्राप्त किया था। इसने अरनाथ से वीरभद्र के पूर्व जन्म में किये सुकृत्यों के संबंध में जिज्ञासा व्यक्त की, तो भगवान ने उसका पूर्ववृत्तान्त कहा। 2.3.35 मल्ली भगवती __ श्वेताम्बर आगम-साहित्य में मल्लिनाथ को स्त्री तीर्थंकर बनने का गौरव प्रदान किया गया है। इनके पिता मिथिला नगरी के राजा कुम्भ एवं माता प्रभावती थी। अपने रूप-लावण्य और गुणादि की उत्कृष्टता से सर्वत्र चर्चित मल्ली से आकर्षित होकर साकेतपुर के राजा प्रतिबुद्ध, चम्पानगरी के राजा चन्द्र, श्रावस्ती के राजा रूक्मि, हस्तिनापुर के राजा अदीनशत्रु, पाञ्चाल के राजा जितशत्रु तथा काशी देश के राजा शंख ने विवाह करने की इच्छा प्रकट की। महाराजा कुम्भ के द्वारा अस्वीकृत कर दिये जानेपर छहों राजा अपनी सेना के साथ आक्रमण करने के लिये मिथिला में आ गये। राजकुमारी मल्लि ने युक्ति बल से उन्हें शरीर की अशुचिता का बोध कराया। संसार की नश्वरता पुदगलों का परिणमन एवं पूर्व जन्म में पाले हुए संयमी जीवन का स्मरण दिलाकर प्रतिबोधित किया। राजकुमारी मल्लि सभी 58. समवाय पृ. 231, प्राप्रोने. भा. 1 पृ. 803 59. मपु. 64/49 दृ. जै. पु. को. पृ. 260 60. प्राप्रोने. भाग 1 पृ. 366 61. प्राप्रोने. भाग 2 पृ. 617 62. मपु. 65/43 दृ0 जै. पु. को. पृ. 311 63. त्रि. श. पु. च. 6/2 111 Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन श्रमणियों का बृहद इतिहास प्रतिबोधित राजाओं तथा तीन सौ पुरूषों एवं तीन सौ महिलाओं के साथ दीक्षित हुईं। एक प्रहर से कुछ अधिक साध्वी अवस्था में रहकर दिन के चतुर्थ प्रहर में सर्व कर्मराशि को भस्म कर सर्वज्ञ-सर्वदर्शी बनी। सर्वज्ञता प्राप्ति के पश्चात् चतुर्विध-संघ रूप तीर्थ का स्थापन जैसे अन्यान्य तीर्थंकरों ने किया, उसी तरह इन्होंने भी किया। इनके संघ में साध्वियों को आभ्यंतर परिषद् में तथा साधुओं को बाह्य परिषद् में गिना गया अर्थात् साध्वियाँ अग्रस्थान में बैठती थीं। मल्लि भगवती के 28 गणधर, चालीस हजार श्रमण एवं पचपन हजार श्रमणियाँ थी, एक लाख चौरासी हजार गृहस्थ उपासक तथा तीन लाख पैंसठ हजार गृहस्थ उपासिकाएँ थीं। पचपन हजार वर्ष तक देश के विभिन्न क्षेत्रों में धर्म का उपदेश देती हुईं चैत्र शुक्ला चतुर्थी को रात्रि में सम्मेदशिखर पर निर्वाण को प्राप्त हुईं। भगवान मल्लिनाथ पर अनेक आचार्यों की उच्चकोटि की रचनाएँ उपलब्ध हैं। श्वेताम्बर परम्परा ने स्त्री को न केवल धर्म संस्थापिका के रूप में स्वीकार किया है अपितु उनकी स्त्री रूप में प्रतिमाएं भी बनाई हैं। ऐसी एक प्रतिमा 12वीं शताब्दी की गंधावल ग्राम (देवास जिला म. प्र.) में लीशामपुर (उज्जैन) के मन्दिर में कुछ धातु प्रतिमाएँ रतलाम के श्वेताम्बर संप्रदाय के जूने मन्दिर में सुरक्षित हैं तथा एक दुर्लभ प्रतिमा झार्डा (म. प्र.) में काले पत्थर पर निर्मित है। उस पर संवत् 1206 का अभिलेख है। और उसके पादपीठ पर "मल्लिनाथ प्रणमति नित्यम्" लेख अंकित है।66 लखनऊ के शासकीय म्युजियम में स्थित मल्लिनाथ की स्त्री प्रतिमा का एक चित्र प्रथम अध्याय में दिया है। इन प्राचीन मूर्तियों एवं उन पर अंकित अभिलेखों से स्पष्ट रूपेण सिद्ध होता है कि मल्ली तीर्थंकर स्त्री थे। यद्यपि दिगम्बर-परम्परा उनके स्त्री होने का निषेध करती है तथापि कंदकंद के इस वचन से: कि जिनशासन में वस्त्रधारी की मुक्ति नहीं है चाहे वह तीर्थकर ही क्यों न हो;7 से प्रतीत होता है कि वे भी पहले स्त्री का तीर्थं थे, बाद में अचेलत्व के आग्रह से स्त्री-मुक्ति के साथ स्त्री तीर्थंकर का भी विरोध किया हो। 2.3.36 बंधुमती उन्नीसवें तीर्थंकर मल्लिनाथ के श्रमणी-संघ की प्रवर्तिनी बंधुमती थी। हरिवंश पुराण आदि दिगम्बर ग्रंथों में2 इनका नाम मधुसेना या बंधुसेणा उल्लिखित है। इनकी नेश्राय में पचपन हजार श्रमणियों ने दीक्षा अंगीकर की थी। इस श्रमणी-संघ की एक उल्लेखनीय विशेषता यह रही कि इन्हें मल्ली भगवती के समवसरण में अग्रस्थानीय का सम्मान मिला, क्योंकि इन्हें आभ्यंतर परिषद् में परिगणित किया है, और श्रमण-संघ को बाह्य-परिषद में।68 2.3.37 पुष्पावती बीसवें तीर्थंकर श्री मुनिसुव्रत जी के श्रमणी संघ की ये प्रमुखा श्रमणी थी। इनकी नेश्राय में पचास हजार श्रमणियों ने जिनदीक्षा अंगीकार की। दिगम्बर ग्रंथों में ये पूर्वदत्ता, पुष्पदंता नाम से प्रसिद्ध हुई हैं।" 64. ज्ञाताधर्मकथा 1/8, समवायांग 231, आव. नि. 257, 386, त्रि.श.पु.च. 6/6; प्राप्रोने. 1 पृ. 554-555 65. द्र-जैन संस्कृत साहित्य नो इति. प्र. 22, 24 तथा जैन साहित्य का बृहद् इतिहास, भाग 2 पू. 53, 147, 177%; वही, भाग-3 पृ. 511 66. डॉ. सुरेन्द्रकमार 'आर्य': मल्लिनाथ की अप्रकाशित प्रतिमाएँ, महाश्रमणी ग्रंथ खंड 4 पृ. 47 67. ण वि सिज्झइ वत्थधरो जिण सासणे जइवि होइ तित्थयरो-सुत्तपाहुड 23 68. समवायांग पृ. 231, प्राप्रोने, 2 पृ. 795; ज्ञाता 1/8 69. समवायांग पृ. 2313; प्राप्रोने. भा. 1 पृ. 470 70. मपु. 63/53 दृ. जै. पु. को पृ. 228 112 Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रागैतिहासिक काल से अर्हत् पार्श्व के काल तक निर्ग्रन्थ-परम्परा की श्रमणियाँ 2.3.38 पुरन्दरयशा श्रावस्ती के महाराजा जितशत्रु की कन्या एवं राजकुमार स्कन्दक की बहिन पुरन्दरयशा का विवाह उत्तरापथ की सीमा पर स्थित कुम्भकारकटक नगर के राजा दंडकी के साथ हुआ था। दंडकी राजा का पुरोहित पालक राजकुमार स्कन्दक का तीव्र विद्वेषी था। स्कन्दक दीक्षा लेने के पश्चात् अपने पाँचसौ शिष्यों के साथ जब बहन और बहनोई को धर्मोपदेश देने की भावना से कुम्भकारकटक के बाहर उद्यान में पधारे, तो पालक ने कुटिल षड़यंत्र रचकर स्कन्दक मुनि को उनके पाँच सौ शिष्यों सहित घाणी में पिलवा दिया था। अपने प्राण-प्रिय भ्राता मुनि की ऐसी हृदयद्रावक मृत्यु का समाचार जब पुरन्दरयशा के पास पहुंचा तो वह संसार के भय से उद्विग्न बनी और बीसवें तीर्थंकर मुनिसुव्रत के चरणों में दीक्षित हो गई । " 2.3.39 मंदोदरी राजा 'मय' एवं रानी हेमवती की विदुषी कन्या मन्दोदरी भारतवर्ष के महान शक्तिसम्पन्न एवं चर्चित सम्राट् रावण की पट्टमहिषी थी। उसने समय-समय पर हित-मित उपदेश द्वारा रावण को सन्मार्ग पर लाने के संपूर्ण प्रयत्न किये। किंतु “विनाशकाले विपरीत बुद्धि" उक्ति के अनुसार रावण को पत्नी का उपदेश अच्छा नहीं लगा, वह मृत्यु को प्राप्त हुआ, रावण की मृत्यु के पश्चात् संसार की असारता एवं क्षणभंगुरता को देखकर मन्दोदरी ने शशिकान्ता आर्या के पास दीक्षा अंगीकार कर ली। उसके साथ रावण की बहन चन्द्रनखा आदि के भी दीक्षा लेने का उल्लेख है। 2 शशिकान्ता आर्या संभवत: आचार्य अनन्तवीर्य के संघ की आर्यिकाओं की गणिनी प्रतीत होती है। क्योंकि पर्व 78 में आचार्य अनंतवीर्य का ही नाम है, जिनके पास मंदोदरी की दीक्षा का उल्लेख हुआ है। रावण के साथ मंदोदरी के संवादों को अनेक कवियों ने अपने काव्य में उतारा है। " 2.3.40 कैकयी आचार्य विमलसूरि की ईसवी सन् प्रथम शती में रचित कृति 'पउमचरियं' में कैकयी के उदात्त जीवन का चित्रण है। यह उत्तरापथ के राजा शुभमति की रानी पृथ्वी की रूप- गुण सम्पन्न कन्या थी । कैकयी ने दशरथ का स्वयं वरण किया था। रथ-संचालन-कला में विशेष निपुण होने के कारण उसने दशरथ के साथ युद्ध करने आये अन्य राजाओं को पराजित करने में दशरथ का पूर्ण सहयोग किया था। प्रसन्न होकर दशरथ ने कैकयी को एक वरदान मांगने को कहा । चतुर बुद्धि कैकयी ने अपना 'वर' धरोहर के रूप में राजा के पास ही रखा। जैन ग्रन्थ पद्मपुराण और पउमचरियं के अनुसार जब दशरथ ने राम के राज्याभिषेक एवं स्वयं के दीक्षित होने का संकल्प सभाजनों के समक्ष रखा, तब कैकयी पुत्र भरत भी पिता के साथ संसार त्याग करने को तैयार हुए। कैकयी पति और पुत्र दोनों को दीक्षा ग्रहण करते देख मानसिक पीड़ा से आहत हो उठी। पुत्र को दीक्षा के मार्ग से रोकने के लिये उसने एक युक्ति सोची। वह उचित समय जानकर राजा के पास में गई और उन्हें अपने वर की स्मृति दिलाते हुए याचना की " हे नाथ, मेरे पुत्र के लिये राज्य प्रदान कीजिये । " प्रण में आबद्ध राजा दशरथ ने अपने ज्येष्ठ पुत्र 71. (क) बृहत्कल्प भाष्य भा. 3 पृ. 915, (ख) त्रि. श. पु. च. 7/5/367-68 (ग) उत्तराध्ययन नेमिवृत्ति, पृ. 24 72. प. पु. भाग 3 पर्व 58, मपु. 8/17-27, 68/356 दृ. 73. दृ.-जै. सा. बृ. इ. भाग 2 पृ. 482, 498, 516,568 पु. को. पृ. 279 113 Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन श्रमणियों का बृहद इतिहास राम को बुलाकर सारी स्थिति अवगत कराई। मर्यादा पुरूषोत्तम राम यह सुनकर सहर्ष भरत का राज्याभिषेक कर वन की ओर प्रस्थान कर गये, क्योंकि उन्हें पता था कि मेरे रहते भरत कभी राजगद्दी पर नहीं बैठेंगे। चौदह वर्ष के पश्चात् राम जब सीता और लक्ष्मण के साथ अयोध्या लौटे तो भरत की भावनाएं पुनः साकार हो उठी, राज्य-भार ज्येष्ठ भ्राता राम को सौंपकर भरत ने दीक्षा अंगीकार कर ली। भरत के दीक्षा ले लेने पर कैकयी भी घर में नहीं रह सकी, वह भी तीनसौ स्त्रियों के साथ 'पृथिवीमती' आर्यिका के पास दीक्षित हो गई। अनेक वर्षों तक तप संयम की आराधना कर साध्वी कैकयी सर्वकर्मों से विमुक्त होकर मोक्ष में गई।74 समीक्षा जैनेतर ग्रंथ रामायण आदि में कैकयी के चरित्र को अत्यंत कुटिल एवं निम्न रूप में चित्रित किया है, किंतु जैन-ग्रंथों में कैकेयी एक वात्सल्यमयी माता, उदार दृष्टिकोण वाली धर्मानुरागिनी विदुषी नारी के रूप में वर्णित है। उसने पुत्र-स्नेह से भरत को राज्य देने की प्रार्थना अवश्य की, किंतु राम वन-गमन करे, ऐसी अभिलाषा उसकी नहीं थी जैन साहित्य के अनुसार कैकेयी का चरित्र उज्जवल है। 2.3.41 सीता अनेक विषम परिस्थितियों का धैर्य एवं साहस के साथ सामना करने वाली महासती सीता भारतीय नारी के लिये अनुकरणीय आदर्श है। ये विदेह राजा जनक की पुत्री एवं मर्यादा पुरूषोत्तम श्री राम की सहधर्मिणी भार्या थी। चौदह वर्ष तक अपने पति राम एवं देवर लक्ष्मण के साथ ये वन में रहीं। अंतिम छह मास लंका में रावण की कैद में रहकर महाभयंकर कष्टों एवं प्रलोभनों के मध्य भी ये अपने शीलधर्म से च्युत नहीं हुईं। वनवास का समय व्यतीत होने के बाद जब ये अयोध्या आईं तब भी अपनी सौंतों की ईर्ष्या का शिकार बन गर्भावस्था में राम द्वारा परित्यक्ता हो गईं। वन में ही सीता ने युगल पुत्र (लव-कुश) को जन्म दिया। तथा अपने पातिव्रत्य धर्म को प्रमाणित करने के लिये अग्नि-परीक्षा भी दी। असह्य कष्टों की दारूण गाथा महासती सीता ने अंत में जीवन से वैराग्य की शिक्षा लेकर बीसवें तीर्थंकर मुनिसुव्रत स्वामी के शासन में विचरण करते आचार्य जयभूषण के पास दीक्षा अंगीकार की तथा साध्वी सुप्रभा के नेतृत्व में तप-त्याग द्वारा साठ वर्षों तक आत्म-कल्याण की साधना करके बारहवें देवलोक में देव बनी। महासती सीता भारतीय संस्कृति व समाज में गौरव व सतीत्व की पर्यायवाची है। 2.3.42 अंजना वीर हनुमान की माता महासती अंजना भारतीय नारी के त्याग, बलिदान, संयम, समर्पण एवं कष्ट-सहिष्णुता का जीवन्त उदाहरण है। यह महेन्द्रपुर नगर के राजा महेन्द्र एवं राजमहिषी मनोवेगा की सर्वांगसुन्दरी कन्या थी। राजा प्रहलाद के पुत्र पवन ने अंजना को विवाह की रात से ही इस आशंका से त्याग दिया था कि वह 'विद्युत्पर्व' को ज्यादा चाहती है। 22 वर्ष के लंबे अंतराल के पश्चात् भाग्य ने करवट बदली, पवन अपनी भूल का पश्चाताप करने 74. (क) विमलसूरि, पउमचरियं 24/37-38, (ख) पद्मपुराण पर्व 86, (ग) त्रि. श. पु. च. 7/4 75. (क) त्रि. श.पु. च. 7/10/94-96 (ख) प्रापौने. 2 पृ. 797; (ग) पद्मपुराण पर्व 109 114 ia Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रागैतिहासिक काल से अर्हत् पार्श्व के काल तक निर्ग्रन्थ-परम्परा की श्रमणियाँ अंजना के महलों में आए, इस बात से अनभिज्ञ सासु केतुमती ने अंजना को कलंकिनी समझकर गर्भवती अवस्था में घर से निकाल दिया, वह पीहर में आश्रय लेने पहुंची, तो उसके चरित्र पर शंका करके न पिता ने अपने घर में रखा न भाईयों ने। अंजना, सखी बसन्तमाला के साथ वन की ओर चल दी, वहीं हनुमान का जन्म हुआ। वन में एकाकी अंजना को देख उसके मामा 'हनुमत्पाटन' लेकर आये। पवन जब युद्धभूमि से लौटे तो घर पर अंजना को नहीं देखकर उसके वियोग में प्राण-त्याग के लिये तैयार हो गये। अंत में अंजना और पवनंजय का मिलन हुआ। दोनों हनुमान को राज्य सौंपकर दीक्षित हो गये। अंजना ने उग्र तप और संलेखना द्वारा शरीर त्याग किया। वह महाविदेह से मोक्ष प्राप्त करेंगी। अंजना सती शिरोमणि थी, उसमें भारतीय नारी का सजीव चित्र रूपायित हुआ है। इसका मूल आधार त्रिषष्टिशलाकापुरूषचरित का 7वां पर्व है। इसके अतिरिक्त अंजना सती के चरित्र पर अनेक रास, काव्य, नाटक, उपन्यास आदि भी रचे गये हैं।" 2.3.43 मनोदया पद्मपुराण में तीर्थंकर मुनिसुव्रत के तीर्थ की आर्यिका मनोदया का वर्णन है, ये हस्तिनापुर के राजा इभवाहन की रानी चूड़ामणि की सर्वगुणालंकृत कन्या थी, युवती होने पर अयोध्या के राजा सुरेन्द्रमन्यु के पुत्र ब्रजबाहु से विवाह हुआ, एकबार मनोदया अपने पति एवं भाई के साथ हस्तिनापुर जा रही थी, रास्ते में बसंतपर्वत की एक महाशिला पर ध्यानमग्न मुनि को देखा, उदयसुन्दर ने अपने बहनोई जो एकटक मुनि को देख रहे थे, विनोद में पूछा-"क्या, तुम्हारी भी मुनि बनने की भावना बन रही है। अगर ऐसा है तो मैं तुम्हारा सखा बन जाऊंगा।" यह सुनते ही वज्रबाहु एकदम हाथी से उतरकर पर्वत पर चढ़ गए और तत्र स्थित गुणसागर मुनि के चरणों में नमस्कार कर दीक्षा की प्रार्थना की। उदयसुंदर यह देखकर दंग रह गये, बहनोई को केश लुञ्चन करते देख उनका मन भी वैराग्यवासित हो गया। नवपरिणिता मनोदया ने भी अपने पति व भ्राता के मार्ग का अनसरण किया। दीक्षा लेकर घोर संयम व तपश्चरण की आराधना कर वह देवलोक में गई।78 2.3.44 गणिनी अनुद्धरा अनुद्धरा महातपस्वी आचार्य मतिवर्धन के संघ की गणिनी आर्यिका थीं। पद्मपुराण में उल्लेख है कि जब आचार्य पद्मिनीनगरी के बंसत तिलक उद्यान में पधारे तो वहाँ का राजा विजयपर्वत इस ज्ञानी, ध्यानी, स्वाध्यायी मुनि एवं आर्यिका संघ के दर्शन करने आया और अपनी अनेक शंकाओं का समाधान पाकर विरक्त भाव से उसने भी जैनेश्वरी दीक्षा अंगीकार कर ली।" 2.3.45 वरधर्मा गणिनी बीसवें तीर्थंकर मुनिसुव्रत स्वामी के शासन में गणिनी वरधर्मा का उल्लेख आता है। वनवास के प्रसंग में एकबार 76. (क) प्राप्रोने. भा. 1 पृ. 8 (ख) जैनकथाएं भाग 2 77. देखें, जैन साहित्य का बृहद इतिहास, भाग 2 पृ. 133, 268,330, 344,353, 450, 491 भाग-3, पृ. 72, 362, भाग-6, पृ. 183, भाग 7- पृ. 85%; जैन संस्कृत साहित्य नो इतिहास पृ. 264, 265 78. पद्मपुराण पर्व 21 भाग 1 पृ. 453, जैन पुराण कोश पृ. 275 79. पदमपुराण पर्व 39 Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन श्रमणियों का बृहद इतिहास श्री रामचन्द्रजी ने कलिंगाधिपति अतिवीर्य को राजा भरत पर चढ़ाई करते सुना, वे अतिवीर्य को पराजित करने के लिये प्रस्थान से पूर्व पास ही के एक जिनमंदिर में गये, वहाँ संयम, तप व ध्यान में लीन आर्यिकाओं के संघ को देखकर उन्होंने भक्तिपूर्वक उनको नमस्कार किया, और वहीं आर्यिका संघ की गणिनी वरधर्मा के पास सीता को सुरक्षा हेतु रखा और जब अतिवीर्य को पराजित कर पुन: आये तो राम ने सर्व संघ के साथ विराजित वरधर्मा गणिनी की पूजा-भक्ति भी की। वरधर्मागणिनी के समान ही रामयुग में गणिनी सुप्रभा,2 गणिनी हरिकांता गणिनी लक्ष्मीवती, गणिनी शशिकान्ता, गणिनी पृथ्वीमती, गणिनी बंधुमती”, गणिनी श्रीमती, गणिनी चरणश्री आदि महत्तरा पद पर प्रतिष्ठित श्रमणियाँ एक सुव्यवस्थित विशाल श्रमणी-संघ का नेतृत्व करती थीं साथ ही अत्यंत प्रभावसंपन्ना थीं, जिनके पास राजवैभव में पली उच्चकुल की स्त्रियाँ दीक्षा लेकर आत्मोद्धार का मार्ग प्रशस्त करती थीं। 2.3.46 अमला अमला इक्कीसवे तीर्थंकर श्री नमिनाथजी की प्रमुख शिष्या थीं। इनका श्रमणी परिवार इकतालीस हजार था, दिगम्बर-ग्रंथों में इनका नाम 'मार्गिणी' या 'मंगिनी' उल्लिखित है। एवं श्रमणी संख्या पैंतालीस हजार मानी गई है। 2.3.47 यक्षिणी श्वेताम्बर आगम व आगमेतर-साहित्य के अनुसार भगवान अरिष्टनेमि को दीक्षा के चउपन दिन पश्चात् आसोज कृष्णा अमावस्या के दिन उर्जयन्त नामक शैल शिखर पर केवलज्ञान केवलदर्शन की प्राप्ति हुई उनके प्रथम समवसरण में ही अन्य क्षत्रिय राजकुमारों के समान 'यक्षिणी' नाम की राजकुमारी ने भी अनेक राजकन्याओं के साथ दीक्षा ग्रहण की। यक्षिणी को प्रवर्तिनी पद प्रदान किया गया। आर्या यक्षिणी की नेश्राय में चालीस हजार श्रमणियाँ थी, उसमें से तीन हजार श्रमणियाँ सर्व कर्म क्षय कर मुक्ति पद की अधिकारिणी बनी।2 80. पद्मपुराण पर्व 39 81. त्रि. श. पु. च. 7/9/223 82. त्रि. श. पु. च. 7/10/65 83. त्रि.श.पु.च. 7/10/113 84. पद्मपुराण, पर्व 78/94-95, दृ.-जै. पु. को. पृ. 399 86. वही, पर्व 86 87. वही, 113/40-42, दृ.- जै.पु.को. पृ. 246 88. (क) त्रि. श. पु. च. पर्व 7/10/181 (ख) प. पु., पर्व 119 89. आगम और त्रिपिटक,खंड 4 पृ. 465 90. समवायांग पृ. 231 तीर्थो. 461, दू. प्राप्रोने. 1 पृ. 54-55 91. "जाया पवित्तिणी विय जक्खिणी सयलाण अज्जाणं" -आ. हेमचन्द्र, भवभावना 3712 92. त्रि.श.पु.च. 8/9/377, आवचू. भा. 1 पृ. 159 दृ. प्राप्रोने भा. 1 पृ. 272 Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रागैतिहासिक काल से अर्हत् पार्श्व के काल तक निर्ग्रन्थ- परम्परा की श्रमणियाँ 2.3.48 राजीमती बाईसवें तीर्थंकर अरिष्टनेमि की नवभवों की सहधर्मिणी राजीमती प्रेम की साक्षात् मूर्ति और गंगा सी निर्मल व पवित्र सन्नारी थी। वह सर्वलक्षणों से संपन्न एवं गुणवती थी। जूनागढ़ के राजा उग्रसेन की महारानी धारणी की अंगजात एवं सत्यभामा की वह लघु बहिन थी । अरिष्टनेमिकुमार देवोपम बारात सजाकर महाराज उग्रसेन के यहां राजीमतीको ब्याहने आये । साक्षात् कामदेव के समान त्रिभुवन मोहक नेमिकुमार को देखकर राजीमती अपने भाग्य की सराहना करने लगी, किंतु क्षण मात्र में ही उसकी सारी आशाएं धराशायी हो गई; करूणामूर्ति अरिष्टनेमि हजारों पशुओं को जीवनदान देकर पुनः लौट रहे थे । राजीमती अपने प्राणेश्वर नेमिकुमार के लौट जाने और उनके प्रव्रजित होने के निश्चय को सुनकर पूर्वजन्मों के मोह के कारण मूच्छित होकर गिर पड़ी। मूर्च्छा टूटने पर वह हृदयद्रावी करूण क्रन्दन करने लगी। माता-पिता व सखियों ने किसी अन्य सर्वगुणसम्पन्न रूपवान यादवकुमार को पतिरूप में चुनने की सलाह दी, किंतु एकनिष्ठ पतिव्रत धर्म की प्रेमी राजुल ने दृढ़ता पूर्वक इस प्रस्ताव का विरोध किया तथा स्वयं भी प्रव्रज्या धारण कर पति के पथ का अनुसरण करने का निश्चय किया। मकुमार के तोरण से लौट जाने पर उनके छोटे भाई रथनेमि ने राजीमती को अपनी ओर आकर्षित करने की कोशिश की, किंतु राजीमती ने चतुराई और युक्तिपूर्ण तरीके से रथनेमि को इस प्रकार समझाया कि वह भी संयम लेने को समुद्यत हो उठा। जब नेमीनाथ भगवान को केवलज्ञान केवलदर्शन की प्राप्ति हुई, उस समय अनेक मुमुक्षु आत्माओं ने प्रभु-चरणों में दीक्षा ग्रहण की, प्रभु ने चतुर्विध संघ की स्थापना की। यह श्रवणकर राजीमती ने भी अनेक कन्याओं के साथ दीक्षा ग्रहण की, रथनेमी भी प्रव्रजित हो गये थे। एक बार राजीमती भगवान के दर्शन हेतु अन्य साध्वियों के साथ रैवतगिरि की ओर जा रही थी। रास्ते में घनघोर वर्षा के कारण एक गुफा अपने आर्द्र वस्त्रों को सुखाने लगी। उसी गुफा में मुनि रथनेमि ध्यान-साधना कर रहे थे। राजीमती के अपूर्व सौन्दर्य को देखकर ध्यानस्थ रथनेमि का मन पुनः विचलित हो गया, उसने राजीमती के समक्ष कामेच्छा पूर्ति का आतुर निवेदन किया तो राजीमती ने निर्भीक प्रताड़ना करते हुए सिंहगर्जना की कि “हे अपयशकामी ! धिक्कार तुम्हें, जो तुम त्यक्त विषयों को पुनः ग्रहण करना चाहते हो । श्रेष्ठ कुल में उत्पन्न हुए तुम्हें क्या इस प्रकार का आचार शोभा देता है? सयंम पतित जीवन की अपेक्षा तो तुम्हारा मरण ही श्रेष्ठ है। हे अस्थिर चित्त वाले ! संयम में स्थित बनो । " । राजीमती की हितकारी ललकार और फटकार रथनेमि के मदोन्मत काम-रूप हस्ति के लिए अंकुश का काम कर गई। वह निर्वाण का पथिक बन गया । राजीमती ने भी तप-संयम की साधना करते हुए केवलज्ञान की प्राप्ति की और तीर्थंकर अरिष्टनेमि के पूर्व ही निर्वाण को प्राप्त हो गई। दिगम्बर-ग्रंथों में राजीमती को गणिनी आर्यिका के रूप में उल्लिखित किया है । कुन्ती, सुभद्रा, द्रौपदी आदि गणिनी राजीमती के पास दीक्षा ग्रहण करती हैं। 94 अनुदान : राजीमती का जीवन संपूर्ण विश्व की नारी समाज के लिये प्रेरणादायी है। वह एक बार जिसे अपना उपास्य मान लेती है उससे शारीरिक संबंध न होने पर भी अंत तक उसके साथ प्रेम का निर्वाह करती है। कैवल्य 93. (क) उत्तराध्ययन सूत्र अध्ययन 22, (ख) त्रि. श. पु. च. पर्व 8 सर्ग 9 94. कुंती सुभद्रा द्रौपद्यश्च दीत्रां ता. परा ययुः । निकटे राजमत्याख्य गणिन्या गुणभूषणाः । -उत्तरपुराण, पर्व 72, गा. 264 117 Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन श्रमणियों का बृहद इतिहास प्राप्ति के पश्चात् अरिष्टनेमि के मार्ग का अनुकरण कर प्रेम का उदात्त रूप उपस्थित करती है। इसकी रंगीन कल्पनाओं का चित्रण अनेक कवियों ने अपनी लेखनी द्वारा किया, एवं उसकी भक्ति व स्नेहोत्सर्ग को भक्तिमती मीरा से भी बढ़कर आंका है। जैन आगमों में राजीमती को एक चरित्रवाली, विदुषी महिला एवं परम् साधिका के रूप में चित्रित किया हैं रथनेमी को आत्मसाधना में पुनः स्थिर कर और उसे कर्त्तव्य बोध का सुंदर पाठ पढ़ाने वाली श्रमणी राजीमती का जीवन युगों-युगों तक विश्व के लिये आदर्श प्रस्तुत करता रहेगा। 2.3.49 कात्यायनी अरिष्टनेमि की प्रमुखा साध्वियों में यक्षी व राजीमती के साथ कात्यायनी नाम की साध्वी का उल्लेख पुराणों में आया है। 2.3.50 शिवादेवी शिवादेवी बाईसवें तीर्थंकर अरिष्टनेमि की सौभाग्यशालिनी माता थी। एवं समुद्रविजय की धर्मशीला महारानी थी। जब अरिष्टनेमि कुमार उग्रसेन राजा की सर्वगुणसम्पन्न कन्या राजीमती से विवाह न कर लौट गए थे और दीक्षा अंगीकार कर केवलज्ञान प्राप्त किया, तब माता शिवादेवी भी भगवान अरिष्टनेमि के चरणों में दीक्षित हो गई थी।” आयुष्य पूर्ण कर वह चौथे माहेन्द्र देवलोक में देव बनी। शिवादेवी के पवित्र-चरित्र तथा नेमनाथ भगवान के साथ हुए उनके संवाद को कवियों ने अपने काव्य में उतारा है।98 2.3.51 द्रौपदी जैन परम्परा में महाभारतकालीन प्रसिद्धि प्राप्त द्रौपदी का नाम साहसी, करूणाशील एवं पाँच पति होते हुए भी महान सती सन्नारी के रूप में आदर के साथ लिया जाता है। पूर्वभव में द्रौपदी का जीव चम्पानगरी में सोम ब्राह्मण की पत्नी नागश्री के रूप में था। एकबार मासोपवासी अनगार धर्मरूचि को उसने कड़वा तूम्बा भिक्षा में बहरा दिया, करूणामूर्ति धर्मरूचि ने कीड़ियों की महान हिंसा से बचने के लिये उस जहरीले साग को समता भाव से उदरस्थ कर प्राण-त्याग दिये। नगर में इस बात की चर्चा फैलने से पति सोम ने नागश्री को घर से निकाल दिया। गांव वाले भी उसे तिरस्कार और घृणा की दृष्टि से देखने लगे। नागश्री दीन-हीन, गरीब भिखारियों की तरह जीवन-यापन करती अनेक व्याधियों से ग्रस्त होकर मृत्यु को प्राप्त हुई। वहाँ से अनेक क्षुद्र योनियों में परिभ्रमण कर चम्पानगरी के जिनदत्त सार्थवाह की भार्या भद्रा की कुक्षि से पुत्री के रूप में जन्मी। अति कोमल शरीर होने से माता-पिता ने उसका नाम 'सुकुमालिका' रखा। किंतु पूर्वभव के अशुभ कर्म-बंधन के कारण शरीर से अत्यन्त दुर्गन्ध व ताप आने के कारण कोई भी पुरूष उसके साथ शादी करने को तैयार नहीं हुआ, अंततः उसने आत्मकल्याण का पथ 'संयम' ग्रहण कर लिया। गोपालिका आर्या की आज्ञा में रहकर कठोर 95. (क) हरिवंशपुराण, सर्ग 57 (ख) उत्तरा. नेमि. वृत्ति, पृ. 188 96. यक्षी राजीमती कात्यायन्यन्याश्चाखिलार्यिका:-उत्तरपुराण 71/186 97. (क) समवायांग पृ. 231 (ख) डा. हीराबाई बोरदिया, जैनधर्म की प्रमुख साध्वियों एवं महिलाएँ, पृ. 22 98. जै. सा. का बृ. इ. भाग 7 पृ. 222 Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रागैतिहासिक काल से अर्हत् पार्श्व के काल तक निर्ग्रन्थ- परम्परा की श्रमणियाँ तप करती हुई वह अशुभ कर्मों की निर्जरा करने लगी। एकबार नगर के बाहर उद्यान में गुरूणी की आज्ञा का उल्लंघन करके बेले-बेले की तपस्या के साथ सूर्य की आतापना लेने लगी, (साध्वी-चर्या में इस प्रकार का तप निषिद्ध है) वहाँ देवदत्ता गणिका पाँच पुरूषों के साथ सांसारिक सुख का आनन्द अनुभव कर रही थी, यह देखकर अतृप्तकामी सुकुमालिका को भी इसी प्रकार भोग भोगने की अभिलाषा पैदा हुई, उसने अपनी उग्र संयम व तप की साधना को दांव पर लगाते हुए आगामी भव में इसी प्रकार पाँच पुरूषों के साथ भोग भोगने का निदान किया और अर्द्धमास की संलेखना के साथ देहोत्सर्ग किया। यही जीव पूर्वकृत निदान के फलस्वरूप पाञ्चाल देश के कांपिल्यपुर के राजा द्रुपद की चुलनी रानी की कुक्षि से पुत्री रूप में उत्पन्न हुआ, जिसका नाम 'द्रौपदी' रखा गया । यौवनवय में प्रवेश करने पर अपूर्व सौन्दर्य-निधि द्रौपदी युधिष्ठिर आदि पाँच पांडुपुत्रों की पत्नी बनी। राजमहलों की समृद्धि में रहने की आदि होती हुई भी यह तेरह वर्षों तक पांडवों के साथ वन-वन भ्रमण करती रही । धातकीखंड द्वीप में राजा पद्मनाभ द्वारा अपहृत की जाने पर इसने चतुराई से राजा को समझाकर छः महीने आचाम्लव्रत के साथ अपने शील की सुरक्षा की। जब द्वारिका दाह, यदुवंश का नाश और श्रीकृष्ण का निधन सुना तो पाँचों पांडवों के साथ द्रौपदी ने भी आर्या सुव्रता के पास प्रव्रज्या ग्रहण की। आर्या सुव्रता से ग्यारह अंगों का गंभीर अध्ययन किया और उत्कृष्ट तप-जप की साधना कर ये पाँचवे देवलोक में उत्पन्न हुई। महाभारत में द्रौपदी के अंतिम जीवन का प्रसंग अन्य रूप में चित्रित है, वह पाँचों पांडवों 'साथ तीर्थयात्रा करती हिमाचल की तलहटी पर पहुंची, उनके साथ एक कुत्ता भी था पर्वतारोहण करते हुए द्रौपदी, भीम, अर्जुन, नकुल और सहदेव ने क्रमशः देह का त्याग किया। 100 2.3.52 पद्मावती अरिष्टपुरनरेश हिरण्याभ की पुत्री पद्मावती वासुदेव श्रीकृष्ण की आठ अग्रमहिषियों में से एक थी। इसे प्राप्त करने के लिये स्वयंवर में कृष्ण को अनेक राजाओं से युद्ध करना पड़ा। श्रीकृष्ण के जीवन में पद्मावती का महत्वपूर्ण स्थान था, वह श्रीकृष्ण के लिये श्वासोच्छ्वास के समान प्रिय और उदुम्बर पुष्प के समान दुर्लभ थी। प्रभु अरिष्टनेमि से द्वारिका का विनाश एवं श्रीकृष्ण की मृत्यु का हृदय विदारक वर्णन सुनकर विरक्त हो गई और दीक्षा ग्रहण कर ली। पद्मावती आर्या ने गुरूणी यक्षिणी के समीप ग्यारह अंगों का अध्ययन किया तथा उपवास से लेकर मासखमण तक की विविध तपस्याएं की। बीस वर्ष तक चारित्र का पालन कर अंत में एक मास की संलेखना करके शुद्ध-बुद्ध और मुक्त हो गई। अन्तकृद्दशांगसूत्र में पद्मावती का विस्तार से वर्णन हुआ है। श्रीकृष्ण की आठ पट्टरानियों में उसे सर्वप्रथम स्थान दिया गया है। 10 2.3.53 गौरी वासुदेव श्रीकृष्ण की दूसरी प्रमुख रानी 'गौरी' थी। वह वीतशोका नगरी के राजा मेरूचन्द्र की चन्द्रमती रानी 99. (क) ज्ञातासूत्र 1/16 (ख) त्रि. श. पु. च. 8 /12/92 (ग) प्राप्रोने. भा. 1 पृ. 390 100. चक्रवर्ती राजगोपालचारी, महाभारत कथा पृ. 474-75 101. (क) अन्तकृ: 5/1 (ख) त्रि. श. पु. च. 8 / 11 (ग) प्राप्रोने 1 पृ. 820 119 Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन श्रमणियों का बृहद इतिहास से पैदा हुई सर्वांगसुन्दरी कन्या थी। द्वारिका दहन की घटना से गौरी का दिल भी दहल उठा। संसार की नश्वरता का दृश्य उसकी आंखों के समक्ष तैरने लगा। श्रीकृष्ण की अनुज्ञा से इसने भी संसार का परित्याग किया। प्रवर्तिनी यक्षिणी के सान्निध्य में रहकर ग्यारह अंगों का अध्ययन व उत्कृष्ट तप की आराधना द्वारा बीस वर्ष में संपूर्ण कर्मों का क्षय कर इसने मुक्ति प्राप्त की।102 2.3.54 गान्धारी यह गान्धार देश के पुष्कलावती नगरी के राजा इन्द्रगिरि की मेरुमति रानी की अनिन्द्य सौन्दर्यशालिनी कन्या थी। पूर्वजन्म में की गई संयम व तप की साधना के फलस्वरूप ये उस समय के महाप्रतापी सम्राट् वासुदेव श्रीकृष्ण की पट्टमहिषी बनी। श्री अरिष्टनेमि के मुखारविन्द से द्वारिका विनाश की घटना श्रवण कर ये भी संसार से विरक्त हुईं, संसार का परित्याग कर अर्हन्त अरिष्टनेमि के चरणों में दीक्षित हुईं, बीस वर्ष तक प्रवर्तिनी यक्षिणी के सान्निध्य में ग्यारह अंगों का विधिवत् ज्ञान एवं तप संयम की उत्कृष्टता द्वारा बीस वर्ष की दीक्षा-पर्याय में सिद्ध बुद्ध मुक्त हो गई।103 2.3.55 लक्ष्मणा सिंहलद्वीप के राजा हिरण्यलोम की पत्नी सुकुमारा की ये रूप-सम्पन्न कन्या थी। इनके भ्राता द्रुमसेन को मारकर श्रीकृष्ण लक्ष्मणा को द्वारिका लाये। ये भी श्रीकृष्ण की आठ पटरानियों में एक थी। भगवान अरिष्टनेमि से द्वारिका का दुःखद अंत श्रवण कर ये भी श्रीकृष्ण की अनुज्ञा लेकर यक्षिणी आर्या के पास प्रव्रजित हुईं। बीस वर्ष की संयम पर्याय में ज्ञान व तप की उत्कृष्ट आराधना कर मुक्त हुई।104 2.3.56 सुसीमा सुसीमा अरक्खुरी नगरी के सुराष्ट्रवर्धन राजा की रानी सुज्येष्ठा की सर्वलक्षण सम्पन्न गुणवती कन्या थी। उसका भाई नमुची युवराज था। भाई को युद्ध में मारकर श्रीकृष्ण उसे द्वारवती लेकर आये और उसके साथ विवाह कर पटरानी का पद प्रदान किया। सुसीमा भी द्वारिका नाश का वृतान्त सुनकर अरिष्टनेमि भगवान के चरणों में दीक्षित हो गई। सभी के साथ इसने भी प्रवर्तिनी यक्षिणी से ग्यारह अंग की शिक्षा प्राप्त की, तप संयम की आराधना कर ये भी निर्वाण को प्राप्त हुई।105 2.3.57 जाम्बवती जाम्बवती जंबूद्वीप के विजयार्ध पर्वत की उत्तरश्रेणी पर स्थित "जाम्बव" नामके नगर के राजा जमवन्त की पत्नी जंबूषणा की सुपुत्री थी। एवं शांबकुमार की माता थी। द्वारिका दहन के वृत्तान्त को सुनकर ये भी प्रतिबुद्ध हुईं। 102. (क) अन्तकृ. 5/2 (ख) त्रि.श.पु.च. 8/11 103. (क) अन्तकृ. 5/3 (ख) त्रि.श.पु.च. 8/11 104. (क) अन्तकृ. 5/4 (ख) प्राप्रोने. 2 पृ. 651 105. (क) अन्तकृ. 5/5 (ख) प्राप्रोने. 2, पृ. 844 120 Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रागैतिहासिक काल से अर्हत् पार्श्व के काल तक निर्ग्रन्थ-परम्परा की श्रमणियाँ श्रीकृष्ण की अनुज्ञा लेकर श्री अरिष्टनेमि के चरणों में दीक्षित हो गई। बीस वर्ष तक संयम का पालन कर अंत में केवली होकर सिद्धगति को प्राप्त हुईं।106 2.3.58 सत्यभामा सत्यभामा मथुरा के राजा उग्रसेन की पुत्री एवं कंस की बहन थी। देवांगना के सदृश रूपवती अपनी बहिन के विवाह हेतु कंस ने घोषणा करवाई कि उसके यहाँ विद्यमान शाडर्ग धनुष को जो वीर पुरूष चढ़ा देगा, उसीके साथ सत्यभामा का पाणिग्रहण किया जाएगा। सत्यभामा को पाने की लिप्सा से अनेक राजकुमार आये, पर धनुष चढ़ाना तो दूर उठाने में भी समर्थ नहीं हुए। उस समय वहाँ उपस्थित श्रीकृष्ण ने पुष्पमाला की तरह शाड,र्गधनुष को उठाया और सबके देखते ही देखते उस पर प्रत्यञ्चा चढ़ा दी। सत्यभामा की मनोकामना पूर्ण हुई, उसने श्रीकृष्ण के गले में वरमाला डाल दी। सत्यभामा ने अपनी बुद्धिमता और व्यवहार-कुशलता से श्रीकृष्ण को अनेक बार कठिन परिस्थितियों में सहयोग दिया। भगवान अरिष्टनेमि के द्वारा उपदिष्ट द्वारिका-दहन प्रसंग को श्रवण कर सत्यभामा ने श्रीकृष्ण की अनुज्ञा से दीक्षा ग्रहण की। प्रवर्तिनी यक्षिणी के सान्निध्य में तप-संयम की आराधना करके बीस वर्ष संयम-पर्याय पालकर मुक्त हो गई।107 __महाभारत में उल्लेख है कि कृष्ण की मृत्यु का समाचार सुनकर उनकी 8 पटरानियों में रूक्मिणी, गांधारी, सह्या हेमावती, जाम्बवती -ये पाँच रानियां चितारोहण करती है, किंतु सत्यभामा सती न होकर तपस्या हेतु वन में चली जाती हैं।108 2.3.59 रुक्मिणी कुंडिनपुर के राजा भीष्मक तथा रानी यशोमती की अप्रतिम सुन्दर कन्या का नाम रुक्मिणी था। युवराज रुक्मि की इच्छा के विरूद्ध रुक्मिणी नागपूजा के बहाने नगर के बाहर उद्यान में उपस्थित श्रीकृष्ण के साथ रथ में बैठकर द्वारिका चली गई वहीं श्रीकृष्ण के साथ रुक्मिणी का पाणिग्रहण हुआ।109 द्वारिका दहन की घटना का रुक्मिणी के कोमल मन पर बड़ा प्रभाव पड़ा, उसने भी श्रीकृष्ण की अनुज्ञा लेकर भगवान अरिष्टनेमि के चरणों में दीक्षा ग्रहण करली। ग्यारह अंगों का अध्ययन करके तप और संयम की उत्कृष्टता से वह बीस वर्ष की दीक्षा पर्याय में निर्वाण को प्राप्त हो गई। श्रीकृष्ण की इन आठ पटरानियों ने पूर्वभव में भी संयम की आराधना की थी, फलस्वरूप ये राजन्य-कुलों में उत्पन्न हुईं एवं श्रीकृष्ण जैसे अर्द्धचक्रवर्ती की पटरानियाँ बनीं। इन सबके पूर्वभवों का वृत्तान्त हरिवंशपुराण में विस्तृत रूप से वर्णित है।।।। 106. अन्तकृ. 5/6 107. त्रि.श.पु.च. 8/6/65-109; प्राप्रोने 2 पृ. 749; अन्तकृ 5/7 108. महाभारत 16/7/73-74 109. त्रि.श.पु.च. 8/6 110. अन्तकृ 5/8 111. हरि. पु. 60/65 121 Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन श्रमणियों का बृहद इतिहास 2.3.60 मूलश्री, मूलदत्ता ये दोनों श्रीकृष्ण की जाम्बवती महारानी के सुपुत्र 'शाम्ब' की पत्नियां थीं। भगवान अरिष्टनेमि की वाणी से प्रतिबोधित होकर शाम्बकुमार ने अपने अन्य भ्राताओं जालि, मयालि आदि के साथ दीक्षा ग्रहण कर ली थी। इन दोनों का मन भी संसार से उद्विग्न हो रहा था। भगवान अरिष्टनेमि के द्वारा द्वारिका-दाह की घटना को सुनकर ये दोनों 'खणं जाणाहि पंडिए' इस आप्त वाक्य का अनुसरण कर अपने श्वसुर श्रीकृष्ण की अनुज्ञा से प्रवर्तिनी यक्षिणी आर्या के पास दीक्षित हो गईं। ग्यारह अंगों की ज्ञाता एवं तप-संयम की उत्कृष्ट आराधिका बनकर इन्होंने भी मुक्ति प्राप्त की।12 2.3.61 कनकवती अंधकवृष्णि के सबसे छोटे पुत्र वसुदेव की अनेक रानियों में एक रानी का नाम कनकवती था। गजसुकुमार के निर्वाण के पश्चात् यादव-कुल के अनेक नर-नारी दीक्षित हुए थे। वासुदेव की महारानियों में देवकी, रोहिणी और कनकवती को छोड़ शेष सभी रानियां भी प्रव्रजित हो गई थी। कनकवती गृहस्थ में रहती हुई भी उत्कृष्ट साधना में लीन रही। एक दिन वह संसार के वास्तविक स्वरूप का चिंतन करते-करते उच्च, निर्मल एवं विशुद्ध परिणामों से घाति कर्मों का क्षय कर केवली बन गई। देवताओं ने उसका कैवल्य-महोत्सव मनाया, तत्पश्चात् कनकवती ने साध्वी-वेश स्वीकारा और भगवान अरिष्टनेमि के समवसरण में गई। एक मास के अनशन के साथ वह सिद्ध बुद्ध मुक्त हो गई।113 2.3.62 दमयन्ती कनकवती अपने पूर्वभव में निषधराज के पुत्र नल की पत्नी दमयन्ती थी। ऊंचे विचार विनम्र स्वभाव के कारण नारी-समाज में उसका उच्च स्थान था। पति के धुतव्यसन ने इन्हें राज्यश्री से विहीन कर जंगल में भटकने पर विवश कर दिया। वन-विहार के घोर कष्टों का विचार कर नल ने दमयंती को निद्रित अवस्था में अकेली ही अरण्य में छोड़ दिया। दमयंती अनेक कठिनाइयों का साहस के साथ सामना करती हुई अन्ततः अपने पिता के घर पहुंची। वहीं युक्ति र का आयोजन करने पर सारथी के वेश में आये नल से उसका पुनः मिलन हुआ। अंत समय में नल राजा के साथ ही दमयंती ने दीक्षा अंगीकार की, आयु पूर्ण होने पर यह देवी बनी, वहाँ से च्यव कर कनकवती के रूप में वसुदेव की रानी बनी।14 2.3.63 केतुमंजरी केतुमंजरी श्रीकृष्ण की पुत्री थी। श्रीकृष्ण निदान के कारण स्वयं दीक्षा नहीं ले सके, परन्तु वे चाहते थे कि मेरे परिवार में सभी दीक्षा लें, अतः उनकी जो भी पुत्री सयानी होने पर उन्हें प्रणाम करने पहुँचती तो वे आशीर्वाद देते हुए पूछते "बेटी! तुझे स्वामी बनना है या सेविका?" पुत्री कहती- "तात! मुझे स्वामी बनना है, सेविका नहीं।" तब श्रीकृष्ण उसे श्री अरिष्टनेमि के चरणों में दीक्षा लेने की सलाह देते। इस प्रकार श्री कृष्ण की अनेकों पुत्रियों ने श्रमणी-दीक्षा अंगीकार करली थी। 112. (क) अन्तकृ. 5/9-10 (ख) प्राप्रोने. 2 पृ. 607-608 113. मुनि नगराजजी, आगम और त्रिपिटक एक अनुशीलन-खंड 3 पृ. 539 114. त्रि.श.पु.च. पर्व 8 सर्ग 3 122 Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रागैतिहासिक काल से अर्हत् पार्श्व के काल तक निर्ग्रन्थ-परम्परा की श्रमणियाँ केतुमंजरी से भी श्रीकृष्ण ने उक्त प्रश्न पूछा, तो उसने कहा “मुझे सेविका बनना है" क्योंकि उसे ज्ञात था कि स्वामिनी कहने पर मुझे दीक्षा लेनी पड़ेगी। उसे शिक्षा देने के लिए श्रीकृष्ण ने एक गरीब बुनकर वीरक के साथ उसकी शादी कर दी और उससे कहा “तुम इससे खूब काम करवाना।" वीरक ने ऐसा ही किया। दरिद्रता और घर के काम-काज से तंग आकर केतुमंजरी ने पिता श्रीकृष्ण के पास संसारी झंझटों से त्राण पाने वाली दीक्षा की अनुमती माँगी। श्रीकृष्ण द्वारा अनुज्ञा मिलने पर उसने भगवान अरिष्टनेमि के पास दीक्षा अंगीकार की।115 2.3.64 एकनाशा एकनाशा मथुरा के राजा कंस की पुत्री थी। वसुदेव व देवकी-पुत्र गजसुकमाल के असामयिक वियोग से यादवगण अत्यन्त व्यथित थे, अनेक लोग इस घटना से बोध प्राप्त कर विरक्ति के मार्ग पर बढ़े। एकनाशा भी बहुत सी यादव कन्याओं के साथ अरिष्टनेमि भगवान के पास प्रव्रजित हुई।16 2.3.65 कमलामेला द्वारका की अत्यन्त रूपवती राजकुमारी कमलामेला का संबंध उग्रसेन के पौत्र धनदेव के साथ सुनिश्चित हुआ, किन्तु नारद के द्वारा सागरदत्त के गुणों की प्रशंसा श्रवण कर यह सागरदत्त की ओर आकृष्ट हो गई। शाम्बकुमार ने अपनी विद्या से कमलामेला का अपहरण कर सागरदत्त के साथ विवाह करवा दिया। धनदेव इस घटना से अत्यन्त क्षुब्ध हुआ किंतु विवश था। जब सागरदत्त भगवान अरिष्टनेमि से श्रावक के द्वादश व्रत ग्रहण कर प्रतिमा में स्थित हुआ धर्मध्यान में लीन था, उस समय धनदेव ने उसे मार दिया। इस घटना से कमलामेला विरक्ति को प्राप्त होकर दीक्षित हो गई। 2.3.66 सुव्रता यह तीर्थंकर अरिष्टनेमि के काल की साध्वी है। महासती द्रोपदी एवं सुभद्रा ने इन्हीं से दीक्षा अंगीकार कर ग्यारह अंगों का अध्ययन किया था। इससे प्रतीत होता है कि ये प्रवर्तिनी यक्षिणी आर्या के बाद प्रमुखा साध्वी के रूप में विचरण करती हों। 2.3.67 पुष्पचूला __ ये तेइसवें तीर्थंकर भगवान् पार्श्वनाथ की प्रमुख शिष्या थी। श्वेताम्बर ग्रंथों में इनका यही नाम उल्लिखित है। किंतु दिगम्बर ग्रंथों में "सुलोका" व "सुलोचना" नाम दिया है। साध्वी संख्या सर्वत्र अड़तीस हजार है, किंतु उत्तरपुराण में छत्तीस हजार दी है। साध्वी प्रमुखा पुष्पचूला का अन्य इतिवृत अज्ञात है, केवल इतना ही उल्लेख है, कि ये पार्श्व संघ के श्रमणी संस्था की संचालिका थी, हजारों श्रमणियों को इन्होंने शिक्षा-दीक्षा देकर निर्वाण का पथिक बनाया। संपूर्ण आगम 115. आव. नि. हरि. वृ. भा. 2 पृ. 16 116. मुनि नगराजः आगम और त्रिपिटक, खंड 3 पृ. 539 117. प्राप्रोने. भा.2 पृ. 842 118. दृ. ज्ञाता. 1/16 123 Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन श्रमणियों का बृहद इतिहास साहित्य में वे ही ऐसी श्रमणी - प्रमुखा हैं, जिनके पास दोसौ सोलह वृद्धा कुमारिकाओं ने दीक्षा ली और शरीरशोभा में रूचि लेने के कारण विराधक बनी। 19 2.3.68 श्री वामादेवी तेईसवें तीर्थंकर श्री पार्श्वनाथजी की माता वामादेवी वाणारसी के महाराज अश्वसेन की महारानी थीं। प्रभु पार्श्वनाथ को केवलज्ञान प्रगट होने पर संघ स्थापना हुई, उसमें प्रभु की वाणी से प्रतिबोध प्राप्त कर महाराजा अश्वसेन के साथ महारानी वामादेवी ने आत्मकल्याण के लिए चारित्र ग्रहण किया तथा आयुष्य पूर्ण कर माहेन्द्र नाम के चौथे देवलोक में देव बनीं 1 1 20 2.3.69 श्री प्रभावती प्रभावती कुशस्थल नगर के राजा नरवर्मा के पुत्र प्रसेनजित की अनुपम रूप- लावण्य व गुणयुक्त कन्या थी, उसने पार्श्वकुमार के गुणों की महिमा श्रवण कर मन से उन्हें अपने पति के रूप में स्वीकार कर लिया था। राजा प्रसेनजित अपनी पुत्री को लेकर वाराणसी आये और राजा अश्वसेन से पार्श्वकुमार के साथ प्रभावती के विवाह की प्रार्थना की। यद्यपि पार्श्वकुमार सांसारिक बंधन से मुक्त रहना चाहते थे, किंतु पिता के आग्रह से उन्होंने प्रभावती के साथ विवाह किया। तीस वर्ष तक गृहस्थ जीवन में रहकर पार्श्वकुमार सहज विरक्त हो गये। जब उन्हें केवलज्ञान - केवलदर्शन प्रगट हो गया, तब देवी प्रभावती भी प्रभु पार्श्वनाथ के श्रमणी संघ में सम्मिलित होकर आराधक बनीं। 121 2.3.70 काली, राजी, रजनी, विद्युत, मेघा ये पाँचों आमलकल्पा नगरी में अपने 2 नाम के अनुरूप नाम वाले गाथापतियों की कन्याएं थीं। जैसे काली के पिता काल और माता कालश्री, इसी प्रकार सबका समझना । वृद्धावस्था आने तक भी ये अविवाहित रहीं, भगवान् पार्श्वनाथ का उपदेश सुनकर प्रव्रजित हो गईं, और पुष्पचूला की शिष्याएँ बनी। कुछ समय पश्चात् ये शरीर- शोभा में विशेष रूचि लेने लगीं। गुरूणी के मना करने पर ये उनसे स्वतंत्र रहकर जीवन व्यतीत करने लगीं। अंत में चमरेन्द्र की अग्रमहिषियाँ बनीं। ये भविष्य में महाविदेह से मुक्ति प्राप्त करेंगी। 122 2.3.71 शुंभा, निशुंभा, रंभा, निरंभा, मदना ये श्रावस्ती नगरी की अपने नामानुरूप गाथापतियों की कन्याएँ थीं। वृद्धावस्था तक विवाह नहीं हुआ, पार्श्वनाथ भगवान् से दीक्षा लेकर पुष्पचूला की शिष्याएँ बनीं। शरीर शोभा की आसक्ति के कारण मृत्यु प्राप्त कर बलीन्द्र की अग्रमहिषियाँ बनी। भविष्य में महाविदेह से मुक्ति प्राप्त करेंगी। 123 119. ज्ञातासूत्र 2/1-10; पुष्पचूलिका 1-10 120. (क) समवायांग सूत्र 634, गा. 9 (ख) आचार्य हस्तीमलजी ऐतिहासिक काल के तीन तीर्थंकर पृ. 182 121. (क) त्रि.श.पु.च. पर्व 9 सर्ग 3; (ख) पूर्वोक्त तीन तीर्थंकर पृ. 182 122. ज्ञातासूत्र, श्रुतस्कंध 2, वर्ग 1 अध्ययन 1-5 123. ज्ञाता. 2/2/1-5 124 Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रागैतिहासिक काल से अर्हत पार्श्व के काल तक निर्ग्रन्थ-परम्परा की श्रमणियाँ 2.3.72 इला, सतेरा, सौदामिनी, इन्द्रा, घना, विद्युता एवं कुल मिलाकर 54 साध्वियाँ ये सब वाराणसी नगरी के अपने समान नाम वाले गाथापति दम्पतियों की पुत्रियाँ थीं, वृद्धावस्था तक विवाह न होने से भगवान् पार्श्व से दीक्षा ली, चारित्र की विराधना करने से मृत्यु प्राप्त कर धरणेन्द्र की अग्रमहिषियाँ बनी। नाम केवल 6 के ही उपलब्ध होते हैं, शेष के लिए इतना ही उल्लेख है कि ये क्रमशः संयम की विराधना करने के कारण मृत्यु के उपरांत 6 धरणेन्द्र की, 6 वेणुदेव की, 6 हरिदेव की, 6 अग्निशिख की, 6 पूर्णदेव की, 6 जलकांत की, 6 अमितगति, 6 वेलम्ब, एवं 6 घोषइन्द्र आदि उत्तरेन्द्रों की अग्रमहिषियां बनीं। भविष्य में महाविदेह से मुक्त होंगी।।24 2.3.73 रूपा, सुरूपा, रूपांशा, रूपकावती, रूपकलता, रूपप्रभा कुल 54 ये चम्पानगरी में अपने समान नाम वाले गाथापतियों की पुत्रियां थी। जराजीर्ण हो जाने पर भी अविवाहित रहीं। भगवान् पार्श्वनाथ के उपदेश से प्रभावित होकर आर्या पुष्पचूला के पास संयम ग्रहण किया। सबने कठोर तपस्या करके संयम के मूलगुणों का पूर्णरूपेण पालन किया। लेकिन शरीर बाकुशिका होकर अंत में मृत्यु प्राप्त कर भूतानंद नामक उत्तरेन्द्र की अग्रमहिषियाँ बनीं। इसमें नाम केवल 6 के दिए हैं, लेकिन कुल 54 साध्वियों का उल्लेख है। ये सभी चारित्र की विराधना द्वारा मरकर क्रमश: 6 वेणुदाली, 6 हरिस्सह, 6 अग्निमाणवक, 6 विशिष्ट, 6 जलप्रभ, 6 अमितवाहन, 6 प्रभंजन, 6 महाघोष, इन्द्रों की अग्रमहिषियाँ बनीं।125 2.3.74 कमला, कमलप्रभा, उत्पला, सुदर्शना, रूपवती, बहुरूपा, सुरूपा, सुभगा, पूर्णा, बहुपुत्रिका, उत्तमा, भार्या, पद्मा, वसुमती, कनका, कनकप्रभा, अवतंसा, केतुमती, वज्रसेना, रतिप्रिया, रोहिणी, नौमिका, ली, पुष्पवती, भुजंगा, भुजंगावती, महाकच्छा, अपराजिता, सुघोषा, विमला, सुस्वरा, सरस्वती-32 ये बत्तीस ही नागपुर और वाराणसी की स्वनामानुरूप गाथापतियों की पुत्रियाँ थीं। ये भी जब वृद्धावस्था तक कुमारी ही रहीं, तो भगवान् पार्श्वनाथ के उपदेश से आर्या .पुष्पचूला के पास प्रवजित हो गईं। इन सबने अनेक वर्षों तक संयम व चारित्र का पालन किया। किन्तु शरीर बाकुशिका हो जाने के कारण संयम के उत्तर गुणों की विराधना की और अंत समय में बिना आलोचना किए संलेखना पूर्वक कालधर्म को प्राप्त होकर ये दक्षिण दिशा के कालपिशाचेन्द्र एवं अन्य 31 भी दक्षिणेन्द्र वाणव्यंतर की अग्रमहिषियाँ बनीं।126 2.3.75 बत्तीस कुमारिका-श्रमणियाँ ये साकेतपुर के अपने समान नाम वाले गाथापति दम्पतियों की पुत्रियाँ थीं। इन्होंने भी भगवान पार्श्वनाथ के उपदेशों से विरक्त हो आर्या पुष्पचूला के पास प्रव्रज्या ग्रहण की। अनेक वर्षों तक संयम एवं तप की साधना की किन्तु संयम के उत्तरगुणों की विराधिकाएँ होने के कारण ये आयुष्य पूर्ण कर महाकाल आदि उत्तरदिशा के आठ इन्द्रों की बत्तीस अग्रमहिषियाँ बनीं। इनके नामों का उल्लेख नहीं है।127 124 ज्ञाता. 2/3/1-6 125. ज्ञाता. 2/4/1-6 126 ज्ञाता. 2/5/1-32, भगवती 406, स्थानांग 273 127. ज्ञाता . 2/6/1-32 125 Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 2.3.76 सूर्यप्रभा, आतपा, अर्चिमाली, प्रभंकरा ये अक्खुरी नगरी में उत्पन्न हुईं। तीर्थंकर श्री पार्श्वनाथ से वृद्धावस्था में दीक्षित होकर शरीर बाकुशिका होने के कारण मृत्यु उपरांत ज्योतिष्केन्द्र सूर्य की अग्रमहिषियाँ बनीं। 128 2.3.77 चन्द्रप्रभा, ज्योत्स्नाभा, अर्चिमाली, प्रभंकरा ये मथुरा में अपने समान नाम वाले गाथापति दम्पति की पुत्रियाँ थीं। भगवान् पार्श्वनाथ से दीक्षित हुई, उत्तर गुणों की विराधना कर ये ज्योतिष्केन्द्र चन्द्र की अग्रमहिषियाँ बनीं। 1 29 2.3.78 पदमा, शिवा, सती (श्वेता ), अंजू, रोहिणी, नवमिका, अचला, अप्सरा इनमें क्रमश: दो श्रावस्ती, दो हस्तिनापुर, दो कांपिल्यपुर, दो साकेत की पद्म गाथापति और विजया माता की पुत्रियां थीं। जराजीर्ण अवस्था तक विवाह नहीं हुआ, तो पार्श्वनाथ भगवान् का उपदेश सुनकर आर्या पुष्पचूला के पास दीक्षित हुईं। उत्तर गुणों की विराधना कर शक्रेन्द्र ( सौधर्मेन्द्र) की अग्रमहिषियाँ बनीं। 30 जैन श्रमणियों का बृहद इतिहास 2.3.79 कृष्णा, कृष्णराजि, रामा, रामरक्षिता, वसु, वसुगुप्ता ( वसुदत्ता), वसुमित्रा, वसुंधरा इनमें क्रमशः दो वाराणसी, दो राजगृह, दो श्रावस्ती और दो कौशाम्बी के रामगाथापति और धर्मा माता की कन्याएँ थीं। वृद्धावस्था तक कुमारिका रहने के पश्चात् भगवान् पार्श्वनाथ के पास आर्या पुष्पचूला से दीक्षा लेकर उत्तर गुणों की विराधना करने के कारण ये ईशानेन्द्र की अग्रमहिषियाँ बनीं। 1 31 2.3.80 भूता भूता राजगृह के समृद्ध गाथापति सेठ सुदर्शन एवं उनकी पत्नी प्रिया की इकलौती कन्या थी । इसका विवाह नहीं हुआ और उसी में वह वृद्धावस्था को प्राप्त हो गई। भगवान् पार्श्वनाथ के उपदेश से संसार का परित्याग किया और पुष्पचूला की शिष्या बनी । कालान्तर में यह स्वतन्त्र जीवन जीने लगी। अंत में मृत्यु प्राप्त कर सौधर्म कल्प विमान में 'श्रीदेवी' के रूप में उत्पन्न हुई। महाविदेह क्षेत्र से सिद्ध, बुद्ध, मुक्त होगी। साध्वी भूता के समान ही (1) ही (2) धी (3) कीर्ति (4) बुद्धि (5) लक्ष्मी (6) इला (7) सुरा ( 8 ) रसदेवी और (9) गंधदेवी इन नौ साध्वियों का वर्णन है, जो भगवान् पार्श्वनाथ के शासन में दीक्षित होकर पुष्पचूला आर्या की शिष्याएँ बनीं। ये सभी शरीर बाकुशिका हो गईं। अपनी प्रवर्तिनी के समझाने पर भी इन्होंने शिथिलाचार का अंत तक त्याग नहीं किया और देहोत्सर्ग कर सौधर्म देवलोक में ऋद्धि संपन्न देवियाँ बनीं। देवलोक की आयुष्य पूर्ण कर ये सब महाविदेह क्षेत्र में मुक्त होंगी। 132 128. ज्ञाता 2/7/1-5 129. ज्ञाता 2/8/1-4, भग. 406, जीवाभि. 202, जंबू. 170, स्थानांग 273 130. ज्ञाता 2/9/1-8, भग. 406, स्था. 612 131. ज्ञाता. 2/10/1-8 132. पुष्पचूलिका, अ. 1-10; प्राप्रोने. 2 पृ. 533 126 . Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रागैतिहासिक काल से अर्हत् पार्श्व के काल तक निर्ग्रन्थ-परम्परा की श्रमणियाँ समीक्षा इन दोसौ सोलह वृद्ध कुमारिकाओं के आख्यानों से उस समय की सामाजिक स्थिति का दिग्दर्शन होता है सामाजिक रूढ़ियों अथवा अन्य किन्हीं कारणों से उस समय समृद्ध परिवारों को भी अपनी कन्याओं के लिए योग्य वरों का मिलना बड़ा दूभर था। भगवान् पार्श्वनाथ ने जीवन से निराश ऐसे परिवारों के समक्ष साधना का प्रशस्त मार्ग प्रस्तुत कर तत्कालीन समाज को बड़ी राहत प्रदान की । ऐतिहासिक दृष्टि से इन सभी साध्वियों का अत्यधिक महत्त्व है। 2.4 भगवान पार्श्व की परवर्ती जैन श्रमणियाँ (पार्श्व निर्वाण संवत् 1 से 250 वर्ष) भगवान पार्श्वनाथ से महावीर के शासन का अंतराल 250 वर्ष का माना गया है, यह अन्तराल दोनों तीर्थंकरों के तीर्थ स्थापना से तीर्थ-स्थापना का है अथवा निर्वाण से जन्म तक का या निर्वाण से तीर्थ-स्थापना तक का, या निर्वाण से निर्वाण तक का है; यह शोध का विषय है। आवश्यक नियुक्ति में 'पास जिणाओ " 33 पाठ से पार्श्व निर्वाण से महावीर जन्म का अंतराल 250 वर्ष है। अन्यत्र पार्श्वनाथ के निर्वाण से महावीर निर्वाण का उक्त समय वर्णित है । 1 34 मध्यावधि में भगवान पार्श्वनाथ परम्परा के आर्य शुभदत्त (पार्श्व नि. 1-24 ) आर्य हरिदत्त (पा. नि. सं. 24-94) आर्य समुद्रसूरि (पा. नि. सं. 94-166 ), आर्य केशी श्रमण (पा. नि. सं. 166-250 ) आदि आचार्यों के शासनकाल में हजारों श्रमण - श्रमणियों के भारत - वसुधा पर विचरण करने के उल्लेख हैं। 135, उनमें से कुछ उपलब्ध श्रमणियों का वर्णन हम यहाँ कर रहे हैं। 2.4.1 सुव्रता प्रवर्तिनी पुष्पचूला के पश्चात् अग्रणी साध्वियों में सुव्रता का उल्लेख आता हैं ये गुप्त, ब्रह्मचारिणी, बहुश्रुता एवं अनेक शिष्याओं का नेतृत्व करने वाली प्रभावसंपन्ना साध्वी थीं। इन्होंने वाराणसी के भद्रा सार्थवाह की वन्ध्या भार्या सुभद्रा को धर्म की ओर अग्रसर कर उसे श्रमणी - जीवन की शिक्षा-दीक्षा दी थी। सुभद्रा की दीक्षा में श्री पार्श्वनाथ या श्रमणी पुष्पचूला का उल्लेख नहीं है, इससे यह ज्ञात होता है कि आर्या सुव्रता श्री पार्श्वनाथ की परवर्ती श्रमणी - प्रमुखा रही होंगी। 36 2.4.2 सुभद्रा वाराणसी के भद्र सार्थवाह की भार्या सुभद्रा अपने वन्ध्यत्व के कारण सदा खिन्न व उदासीन रहती थी एकबार अपने घर पर भिक्षाचर्या निमित्त आई हुई सुव्रता आर्या की शिष्याओं से उसने संतान प्राप्ति का उपाय पूछा, आर्याओं ने उसकी लौकिक कामनाओं को लोकोत्तर मार्ग की ओर मोड़ा और उसे निर्ग्रन्थ-धर्म का उपदेश दिया। साध्वियों के सदुपदेश से उसके अन्तर्मन में धर्म की ज्योति प्रज्वलित हुई और उसने सुव्रता आर्या के पास दीक्षा अंगीकार की । साध्वी बनने के बाद भी उसकी संततिलिप्सा शांत नहीं हुई। वह बच्चों के साथ विभिन्न क्रीड़ाएं कर पुत्र-पुत्री या पौत्र-पौत्री 133. आव. नि. (मलय) पृ. 241 गाथा 17 134. जै. मौ. इ. भाग 1 पृ. 835 135. वही भाग 1 पृ. 528 136. पुष्पिका अध्ययन 4 127 Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन श्रमणियों का बृहद इतिहास एवं दोहित्र आदि की लालसा का अनुभव करने लगी। साध्वी सुव्रता ने इसका निषेध किया तो वह स्वतंत्र रहकर अपनी भावना को पूर्ण करने लगी। अंत समय तक वह शिथिलाचारिणी बनी रही। आयुष्य पूर्ण कर सौधर्मकल्प विमान में "बहुपुत्रिका देवी" के रूप में उत्पन्न हुई। वहाँ से च्यवकर विन्ध्यगिरि की तलहटी के बेभेल सन्निवेष में ब्राह्मण कुल की कन्या के रूप में जन्म लेगी। सोमा नाम से प्रसिद्ध उस कन्या का राष्ट्रकूट के साथ विवाह होगा। और प्रत्येक वर्ष में सन्तान युगल को जन्म देकर 16 वर्ष में बत्तीस बालकों का प्रसव करेगी। इतने बच्चों के पालन-पोषण से परेशान सोमा तत्कालीन सुव्रता आर्या से निर्ग्रन्थ धर्म का श्रवण करके प्रव्रजित होगी। उनके पास ग्यारह अंगों का अध्ययन एवं तपः कर्म का आराधन कर वह मासिकी संलेखना से मृत्यु प्राप्त कर शक्रेन्द्र के सामानिक देव के रूप में उत्पन्न होगी। दो सागरोपम की स्थिति भोगकर वह वहाँ से महाविदेह क्षेत्र में सिद्ध बुद्ध और मुक्त होगी।137 2.4.3 नंदश्री वाराणसी के भद्रसेन जीर्णश्रेष्ठी की भार्या नन्दा की पुत्री नंदश्री वर विवर्जिता थी, उसने भगवान पार्श्वनाथ का उपदेश श्रवण कर गोपालिका आर्या से जिनदीक्षा धारण की। प्रारंभ में सिंह की भांति पराक्रम दिखाकर अंत में शिथिलाचारिणी हो गई। शौच धर्म को महत्व देने लगी। गुरुणी के द्वारा निषेध करने पर वह पृथक् उपाश्रय में रहने लगी। अंत समय तक भी शिथिलाचार की आलोचना न करेने से वह देवी बनी।137 2.4.4 पांडुरार्या आवश्यक नियुक्ति एवं दशाश्रुतस्कन्ध नियुक्ति में माया कषाय के संदर्भ में पाण्डुरार्या नामक साध्वी का वर्णन है। वह शिथिलाचारिणी साध्वी थी, पीत संवलित वस्त्र पहनने के कारण लोग उसे 'पाण्डुरार्या' के नाम से जानते थे। वह विद्यासिद्ध थी, बहुत से वशीकरण उच्चाटन आदि मंत्रों की ज्ञाता होने से लोगों की भीड़ इकट्ठी होने लगी। आचार्य ने उसे विद्या, मंत्र आदि के प्रयोग का निषेध किया, किन्तु एकाकिनी हो जाने से पुनः उसने लोगों को बुलाना आरंभ किया एवं आचार्य के पूछने पर कहती-"ये सब पूर्व अभ्यास से आते हैं।" इस मायाचरण की आलोचना किए बिना ही मृत्यु प्राप्त कर वह सौधर्मकल्प में ऐरावत की अग्रमहिषी के रूप में उत्पन्न हुई। एकबार भगवान् महावीर के समवशरण में हस्तिनी का रूप धारण करके आई, भगवान ने उसका पूर्वभव बताकर अपने साधु-साध्वियों को माया न करने की शिक्षा दी। 39 2.4.5 अंनगसुन्दरी पार्श्व निर्वाण संवत् 94 से 166 के मध्य आर्य समुद्रसूरि भगवान पार्श्वनाथ के तृतीय पट्टधर रहे थे, उनके आज्ञानुवर्ती विदेशी नामक एक मुनि के त्याग-वैराग्य पूरित उपदेश से प्रभावित होकर उज्जैन के राजा जयसेन ने रानी 137. पुष्पिका अ. 43; प्राप्रोने. 2 पृ. 826 138. आव. नि. हरि. वृ., भा. 2 पृ. 260 139. आव. नि. हारि व., भा. 1 पृ. 262; दशा. नि. गा. 108, 109; दृ. डॉ. अशोककुमार सिंह, दशाश्रुतस्कंधनियुक्तिः एक अध्ययन, पृ. 144 वाराणसी ई. 1998 128 Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ • प्रागैतिहासिक काल से अर्हत् पार्श्व के काल तक निर्ग्रन्थ- परम्परा की श्रमणियाँ अंनगसुन्दरी तथा अपने प्रिय पुत्र केशी के साथ जैन श्रमणदीक्षा अंगीकार की थी। उपकेशगच्छ पट्टावली के अनुसार बार्षिकेशी जातिस्मरणज्ञान के साथ-साथ चतुर्दश पूर्वधारी प्रकाण्ड प्रतिभासम्पन्न आचार्य हुए। 140 2.4.6 सोमा जयन्ती आवश्यक चूर्णि में पार्श्वनाथ के अनेक श्रमणों का उल्लेख मिलता है। जो महावीर की साधु जीवन की चारिका के समय मौजूद थे। उनमें उत्पल नाम के एक श्रमण पार्श्वनाथ परम्परा में दीक्षित हुए थे, बाद में दीक्षा छोड़कर अस्थिर ग्राम में ज्योतिषी बनकर रहने लगे। उत्पल की दो बहने थी- सोमा और जयन्ती । इन्होंने भी पार्श्वनाथ की दीक्षा छोड़कर परिव्राजिकाओं की दीक्षा ले ली थी। किंतु महावीर के प्रति भक्ति रखती थीं। एक बार गांव के आरक्षक साधनावस्था में स्थित महावीर के साथ दुर्व्यवहार करने लगे, तब इन्होंने उनको रोका और कष्ट के लिए उनसे क्षमा मांगी। 141 2.4.7 विजया - प्रगल्भा ये दोनों परिव्राजिकाएं भी पूर्व में पार्श्वनाथ की परम्परा में दीक्षित हुई थीं, किन्तु कठोर संयम का पालन न कर सकने के कारण परिव्राजक - दीक्षा अंगीकार करली, तथापि भगवान पार्श्वनाथ के सिद्धान्तों के प्रति आस्थावान थीं। भगवान महावीर छद्मास्थावस्था में एकबार कूपिक ग्राम में पधारे तो वहाँ के आरक्षक पुरूषों ने उन्हें गुप्तचर समझकर बन्दी बना लिया था। विजया-प्रगल्भा उसी समय भगवान महावीर के दर्शन हेतु वहाँ आई, भगवान को बंदी अवस्था में देखकर तथा उन पर लगे असत्य आरोप को जानकर दोनों ने नगररक्षकों को भगवान का सही परिचय दिया। 142 2.4.8 जसा डॉ. अशोक कुमार सिंह ने तीर्थंकर पार्श्वनाथ की परम्परा में "जसा" नाम की एक आर्यिका का उल्लेख किया है जो तीर्थंकर महावीर की समकालिक थी। मलयगिरिकृत आवश्यक टीका में उक्त साध्वी के उल्लेख का वर्णन किया है। 143 2.4.9 मदनरेखा मदनरेखा सुदर्शनपुर के नृप मणिरथ के अनुज युगबाहु की पत्नी थी । मणिरथ ने उस पर आसक्त होकर अपने अनुज को मार डाला। मणिरथ भी सर्पदंश से मृत्यु को प्राप्त हो गया । मदनरेखा अपने शील एवं गर्भस्थ बालक की रक्षा के लिए भाग निकली, उसने अरण्य में पुत्र को जन्म दिया। तभी सरोवर पर प्रक्षालन के लिए जाते समय एक विद्याधर ने मदनरेखा का अपहरण कर लिया। चतुराई से अपने शील की रक्षा करके मदनरेखा साध्वी बन गई। उसके 140. जैनधर्म का मौलिक इतिहास, भाग 1, पृ. 527 141. चोराय चारि अगडे सोम जयंति उवसमेइ-आव. नि. हारि वृ. भाग 1 गा. 477; आव. चू. पूर्वार्ध, पृ. 286 142. "दुरप्पा! ण याणह चरम तित्थकरं सिद्धत्थराय पुत्तं " 143. श्रमणी रत्ना श्री सज्जनकुंवर अभि. ग्रंथ खंड आव. नि. (हरिभद्र) भाग 1 पृ. 139; आव. चू. भाग 1 पृ. 291 4, पृ. 373 - 129 Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन श्रमणियों का बृहद इतिहास पुत्र को मिथिला नरेश पद्मरथ ने अपना पुत्र बनाकर पालन-पोषण किया और उसे मिथिला का राज्य प्रदान कर दिया । मदनरेखा का ज्येष्ठ पुत्र चन्द्रयश सुदर्शनपुर का अधीश बन गया था। एक बार चन्द्रयश और मिथिला नरेश नमि के बीच युद्ध छिड़ गया। दोनों भ्राता एक-दूसरे से अनजान थे। साध्वी मदनरेखा को इस घटना का पता लगा तो वह धन-जन की अपार हानि का विचार कर युद्ध-स्थल पर पंहुची, दोनों भ्राताओं का परस्पर परिचय देकर युद्ध बंद करवाया। 144 समीक्षा मदनरेखा के पुत्र नमिराजऋषि प्रत्येकबुद्ध हुए। उन्हीं के समय में तीन अन्य प्रत्येकबुद्ध भी हुए थे - कलिंग में करकंडु, पाँचाल में द्विमुख और गांधार में नग्गति । इन चारों प्रत्येकबुद्ध के क्षितिप्रतिष्ठित नगर के यक्षायतन में मिलने तथा पारस्परिक संलाप होने का उल्लेख आगमों में वर्णित है। किन्तु महावीर या पार्श्व के तीर्थ में ये चारों हुए हों ऐसा विवरण कहीं नहीं मिलता। अत: यह संभव है कि ये चारों महावीर और पार्श्व के मध्यवर्ती काल में हुए और इसी बीच सिद्ध, बुद्ध मुक्त हुए । मदनरेखा चरित्र प्रत्येकबुद्ध कथाओं में 'नेमिचरित्र' के साथ भी वर्णित है पर पीछे इसकी रोचकता के कारण अनेक स्वतन्त्र रचनाएँ लिखी गई हैं। 45 मदनरेखा कथा की संस्कृत गद्य की एक हस्तलिखित प्रति पाटण के तपागच्छ ज्ञान भंडार में 17वीं सदी की है। 146 तथा एक हस्तलिखित प्रति बी. एल. इन्स्टीट्यूट वल्लभस्मारक दिल्ली में भी मौजूद है, क्रमांक अंकित नहीं है। 2.5 आगम व आगमिक व्याख्याओं में वर्णित कतिपय अन्य जैन श्रमणियाँ श्वेताम्बर परम्परा मान्य आगम, चूर्णि, भाष्य, निर्युक्ति आदि में उन श्रमणियों के उल्लेख भी प्राप्त होते हैं, जिनका वर्तमानकालीन तीर्थंकरों के साथ संबंध नहीं है, अपने जीवन से तप त्याग तितिक्षा का अनुपम आदर्श उपस्थित करने वाली कतिपय श्रमणियाँ का विवरण हम यहाँ प्रस्तुत कर रहे हैं। 2.5.1 गोपालिका द्रौपदी का सुकुमालिका के भव में इनके पास दीक्षा लेने का उल्लेख है 'गोवालियाओ अज्जाओ बहुस्सुयाओ' कहकर आगमकार ने उसकी बहुश्रुतता की प्रशंसा की है। यह साध्वी संघ की प्रमुखा श्रमणी थी, दृढ़ संयमी एवं शुद्ध वीतराग धर्म की उपदेष्टा थी । सुकुमालिका जैसी धनाढ्य श्रेष्ठी कन्या को उसने संसार के विषय भोगों से विरक्ति दिलाकर संयम - पथ की पथिका बना दिया था। दीक्षा ग्रहण के पश्चात् वह सुकुमालिका को श्रमणी जीवन की मर्यादा के प्रति सजग करती है, उसके शरीर पोषण एवं शिथिलाचार पर प्रतिबंध लगाती है। इस प्रकार वह साध्वी सुकुमालिका के संयमी जीवन को पुनः पुनः स्थिर करने का प्रयास करती है। 147 144. करकंडू कलिंगेसु पंचालेसु य दुम्मुहो। णमी राया विदेहेसु गंधारेसु य णग्गई- उत्तरा 18/46; उत्तरा वृत्ति नेमिचन्द्राचार्य पृ. 92-93; प्राप्रोने. भाग 2 पृ. 549 145. हिं जै. का बृ. सा. इ. भा. 1 पृ. 88 128, 300, 449, 569, भाग 2 पृ. 573; भाग 6 पृ. 352 146. पाटण हस्तलिखित ग्रंथ सूची पत्र भा. 2, ग्रंथांक 16223 147. (क) ज्ञाता. 1/16 (ख) प्राप्रोने 238 130 Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रागैतिहासिक काल अर्हत् पार्श्व के काल तक निर्ग्रन्थ-परम्परा की श्रमणियाँ 2.5.2 पोटिल्ला तेलीपुरनगर के मूषिकारदारक स्वर्णकार की कन्या पोटिल्ला अत्यंत सुंदर व रूपवती थी। राजा कनकरथ के अमात्य तेतलिपुत्र ने उस पर अनुरक्त हो विवाह कर लिया, किंतु कुछ समय पश्चात् ही स्नेह का सूत्र टूट जाने से पोटिल्ला का जीवन विरान सा हो गया, उसकी इस खिन्नता और उदासी को दूर करने के लिये तेतलिपुत्र ने उसे भोजनशाला में इच्छित दानादि कार्य में नियुक्त किया तथापि पोटिल्ला का मन नहीं लगा, अतः उसने सुव्रता आर्या के पास दीक्षा अंगीकार करने की अनुमति मांगी। तेतलिपुत्र ने उसे देवलोक गमन के पश्चात् अपने को प्रतिबोधित करने की शर्त मंजूर करवाकर दीक्षा की आज्ञा प्रदान की । पोटिल्ला ने दीक्षा लेकर 11 अंगों का अध्ययन किया, तप व संयम की आराधना कर वह किसी देवलोक में देव रूप में उत्पन्न हुई। पति को दिये वचन के अनुसार उसने तेतलिपुत्र को जिस प्रकार धर्म की ओर सन्मुख किया, वह उसके अनथक प्रयत्न, लगन एवं जिनधर्म के प्रति आस्था को द्योतित करता है। 148 2.5.3 यशा यह कुरूजनपद में ईषुकार नगर के भृगुपुरोहित की पत्नी थी, पूर्वभव में यह अपने अन्य मित्रों के साथ दीक्षा अंगीकार कर प्रथम स्वर्ग के नलिनीगुल्म विमान से, ईषुकार नगर में उत्पन्न हुई थी, पुत्र के अभाव में रात-दिन शोक मग्न यशा के पास एक दिन प्रथम स्वर्ग के ( पूर्वभव के मित्र) देवों ने आकर संकेत किया कि तुम्हारे एक साथ पुत्र होंगे, बाल्यावस्था में ही धार्मिक संस्कार युक्त होने से वे संयम ग्रहण करना चाहेंगे, तुम उसमें बाधक मत बनना । भृगु एवं यशा ने देवों की बात स्वीकार की। कुछ समय पश्चात् उक्त दोनों देव आयु पूर्ण कर यशा एवं भृगु के घर पैदा हुए। भविष्य की आशंका से कि कहीं दोनों साधु जीवन न अंगीकार कर लें, वे नगर के बाहर कर्पट नाम के छोटे से ग्राम में जाकर रहने लगे, दोनों पुत्रों के मन में भी जैन साधुओं के प्रति भय का भाव पैदा करवा दिया कि वे कभी उनके पास जाने की सोच भी न सके, लेकिन दोनों ने एकबार दो जैन साधुओं की अहिंसक चर्या को प्रत्यक्ष देखा, तो उन्हें जातिस्मरणज्ञान पैदा हो गया वे अपने पूर्वभव को देखकर विरक्त हो गये। भृगु पुरोहित व यशा ने अनेक हेतु व तर्क देकर समझाने का प्रयत्न किया किंतु जब असफल हुए तो वे भी उन दोनों के साथ दीक्षित हो गये। साध्वी यशा ने अनेक वर्षों तक तप-संयम की उत्कृष्ट आराधना की व मोक्ष पद को प्राप्त किया । 149 2.5.4 कमलावती ईषुकार नरेश की रानी कमलावती तत्त्वज्ञा और अनासक्त योग की आराधिका सन्नारी थी । श्रमण दीक्षा अंगीकार करने का दृढ़ संकल्प लेकर भृगु-पुरोहित ने जब अपनी अपार संपत्ति का तिनके की तरह त्याग कर दिया तब उसकी त्यक्त संपति को राजा विशालकीर्ति ने अपने कोष में संग्रहित करने की अनुज्ञा प्रदान की, रानी कमलावती ने उस समय मार्मिक शब्दों से राजा को उद्बोधित किया संसार के तुच्छ व नश्वर भोगों से उपरत होकर निरासक्त और निरापद बनने की प्रेरणा दी 50। रानी के सुभाषित वचनों को श्रवण कर राजा भी प्रतिबुद्ध हुए, रानी कमलावती के साथ संयम 148. (क) ज्ञाताधर्मकथा सूत्र 1/14 (ख) प्राप्रोने. भाग 1 पृ. 418 (ग) आव चू. भाग 1 पृ. 499 149. (क) उत्तरा अध्ययन 14; (ख) उत्तरा शान्त्याचार्य टीका, अ. 14 पत्र 395 150. एको हु धम्मो नरदेव! ताणं, न विज्जए अन्नमिहेह किंचि उत्तरा 14/40 131 Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन श्रमणियों का बृहद इतिहास ग्रहण कर छहों मोक्ष के अधिकारी बनें।।51 रानी कमलावती ने त्याग, तितिक्षा व साधना का ऐसा सुंदर रूप राजा के समक्ष चित्रित किया कि आकंठ भोगों में निमग्न राजा विशालकीर्ति संयम पथ पर अग्रसर होकर सर्वाथसिद्धि प्रदायक मुक्ति को प्राप्त कर लेता है। समीक्षा इसी प्रकार का कथानक 'हत्थिपाल जातक' में बुद्ध द्वारा वर्णित है। वहाँ महात्मा बुद्ध पूर्वभव में पुरोहित पुत्र हस्तिपाल के रूप में उल्लिखित हैं, वे अपनी वैराग्यवाहिनी रसधारा में अपने पिता, परिवार, राजा, राजपरिवार यहां तक कि समस्त वाराणसी के नागरिकों को संयम-मार्ग की ओर बहाकर ले जाते हैं, सारी वाराणसी खाली हो जाती है, राजा का नाम वहाँ भी 'एसुकारी' है। संभव है ये दोनों घटनाएँ दो न होकर एक ही हों। 2.5.5 अनुकोशा जम्बूद्वीप के दारू नामक ग्राम में वसुभूति ब्राह्मण की पत्नी। अतिभूति उसका पुत्र और सरसा पुत्रवधू थी। कयान ब्राह्मण ने सरसा का अपहरण कर लिया, यह अपने पति व पुत्र के साथ उसे ढूंढने निकली, किंतु कहीं भी सरसा का पता नहीं लगा। एक मुनि के उपदेश से वैराग्य पैदा हुआ यह अपने पति के साथ दीक्षित हो गई। कमल श्री आर्यिका के पास रहकर उसने तप-संयम की शिक्षा प्राप्त की। मरकर सौधर्म देवलोक में देव बनीं। वहाँ से च्यव कर चन्द्रगति विधाधर की पुष्पवती रानी बनी।।52 2.5.6 कमलश्री अनुकोशा ने इस साध्वी के पास दीक्षा ग्रहण की थी।143 2.5.7 सरसा दारू ग्राम के अतिभूति की पत्नी। कयान नाम के ब्राह्मण ने इस पर आसक्त होकर अपहरण कर लिया था। अंत में एक साध्वी के सम्पर्क में आकर इसने दीक्षा ग्रहण कर ली थी। मृत्यु प्राप्त कर ईशान देवलोक में देवी बनीं। वहाँ से च्युत होकर पुरोहित की कन्या वेगवती हुई। वहाँ भी दीक्षा लेकर ब्रह्मदेवलोक में गई, वहीं से जनक-पुत्री सीता के रूप में उत्पन्न हुई।।54 2.5.8 जयश्री इसने अंजना के जीव कनकोदरी को जिन-प्रतिमा का अनादर न करने का उपदेश दिया था और उसे सम्यक्त्वी बनाया था।155 151. (क) उत्तरा. अ. 14 (ख) प्राप्रोने. पृ. 160%; (ग) उत्तरा. नेमि वृ. पृ. 136 152. त्रि. श. पु. च., पर्व 7 सर्ग 4 श्लोक संख्या 208-14 153. त्रि.श.पु.च. 7/4/212 154. त्रिश.पु.च. 7/4/209-217, 236-37 155. त्रि.श.पु.च. 7/3/174-79 132 Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रागैतिहासिक काल से अर्हत् पार्श्व के काल तक निर्ग्रन्थ-परम्परा की श्रमणियाँ 2.5.9 सुकुमालिका वाराणसी के राजा वासुदेव के ज्येष्ठ भ्राता जराकुमार का पुत्र जितशत्रु की कन्या सुकुमालिका ने अपने ससअ और भसअ नामक दो भाइयों के साथ दीक्षा ली थी। वह अत्यन्त सुन्दर और नाजुक थी, जब वह भिक्षा के लिए जाती तो कुछ मनचले तरूण उसका पीछा करते थे, और उसकी वसति में घुसे चले आते। यह देखकर गणिनी ने आचार्य से निवेदन किया, आचार्य ने ससअ - भसअ मुनि को साध्वी सुकुमालिका की शील- रक्षा हेतु साध्वियों के उपाश्रय में रखा। यदि एक गोचरी जाता तो दूसरा वहाँ रहता, दोनों ही भ्राता सहस्रमल्ल की शक्ति के धारक होने से जो भी तरूण उपद्रव करता उसे क्षत-विक्षत कर देते थे। इससे कितने ही लोग उनके शत्रु हो गए। सुकुमालिका ने भ्रातृ-अनुकम्पा से अनशन कर लिया, अनशन से अत्यन्त क्षीण होने के कारण एकबार वह मूर्छित हो गई। दोनों भाई उसे मृत समझकर श्मशान में ले जा रहे थे, इसी बीच शीतल वायु के स्पर्श से उसमें चेतना का संचार हुआ, किंतु पुरूष - स्पर्श से कामविह्वल बनी वह चुप रही। दोनों भ्राता उसे एकांत में रखकर गुरू के पास चले गए। सुकुमालिका किसी सार्थवाह के साथ चली गई। पश्चात दोनों भ्राताओं ने इसे पुनः देखा, सर्व घटना पूछी, सुकुमालिका ने पुनः दीक्षा ग्रहण कर आत्मकल्याण किया। 10156 2.5.10 यशभद्रा यह कुण्डरिक युवराज की पत्नी थी, इसके रूप सौन्दर्य पर मुग्ध होकर ज्येष्ठ भ्राता पुण्डरीक ने अपने भाई कुण्डरीक को मौत के घाट उतार दिया था । यशभद्रा उस समय गर्भवती थी उसके समक्ष शील सुरक्षा और गर्भ सुरक्षा की समस्या आ खड़ी हुई। एक सार्थ का उसने आश्रय लिया, श्रावस्ती में 'कीर्तिमती' आर्यिका के पास उसने संयम ग्रहण किया। कुछ मास पश्चात् यशभद्रा ने एक बालक को जन्म दिया उसका नाम 'खुड्डग कुमार' रखा गया। यशभद्रा संयम तप की उत्कृष्ट साधना कर आराधक पद को प्राप्त हुई। 157 2.5.11 धनश्री ये बसन्तपुर राजा के राज्य में धनपति और धनावह श्रेष्ठी की बाल-विधवा भगिनी थी, दोनों भाइयों को जब संसार से विरक्ति हुई, तो धनश्री ने भी अपने प्राणप्रिय भ्राताओं के पथ का अनुसरण कर धर्मघोष आचार्य के पास दीक्षा अंगीकार कर ली। मृत्यु प्राप्त कर यह सर्वांङ्ग सुन्दरी के रूप में उत्पन्न हुई। 158 2.5.12 भद्रा ये तगरानगरी के श्रेष्ठी दत्त की पत्नी एवं अरणक की माता थीं। महामुनि मित्राचार्य ( अर्हन्मित्र) के उपदेश को सुनकर तीनों ने दीक्षा ले ली। जब अरणक स्वयं को संयम के लिये असमर्थ जानकर वहाँ की प्रोषितपतिका (जिसका पति परदेश में था) के कामबाण से विंध गये, तब भद्रा पागल सी होकर गली-गली अरणक-अरणक पुकारती फिरने लगी, वह सबसे अपने बेटे के विषय में पूछती । एक दिन अरणक ने गवाक्ष से अपनी माँ को देखा, 156. (क) निशीथ चूर्णि भाग 2 पृ. 417-18 (ख) निशीथ भाष्य 2951 (ग) बृहत्कल्प भाष्य 5254-7 (घ) प्राप्रोने 2 पृ. 806 157. (क) आव. नि. भाग 2, पृ. 141; (ख) आ. चू. भाग 2 पृ. 191-92 (ग) प्राप्रोने. भाग 1, पृ. 180,281 158. आव. नि. हारि. वृ. भाग 1, पृ. 262-63 133 Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन श्रमणियों का बृहद इतिहास तो तुरंत नीचे उतरा,-ममता और श्रद्धा का सुखद मिलन हुआ। माँ ने पुत्र की आत्मा को धिक्कारते हुए कहा-"पुत्र! तूने अपनी सोने की थाली को पीतल की बनाली? इसी जन्म में क्या, अनेक जन्मों में भी तुझे भोगों से तृप्ति नहीं मिली। विचार करके देख कितने जन्मों से तू भोगों से तृप्त नहीं हुआ, क्या अब तुझे तृप्ति मिल जाएगी?" माँ की ममता के स्वर ने अरणिक को पुनः जागृत कर दिया, खोया हुआ आत्मबल और संकल्प पुनः हुंकार उठा। अरणिक ने तपती शिला पर संथारा कर उत्कृष्ट समभाव की आराधना से एक ही दिन में कैवल्यलक्ष्मी को प्राप्त किया। साध्वी माता की ममता आत्म जागृति का कारण बनी, धन्य हो गई वह माँ।'59 2.5.13 मनुमतिका (दासी) उज्जैन के राजा देवलासुत महारानी लोचना की यह दासी थी, राजा देवलासुत और महारानी के दीक्षा लेने पर संगतदास और मनुमतिका दासी ने भी दीक्षा अंगीकार कर ली। राजा-रानी के अनुराग से दास और दासी भी दीक्षित हो गये। मनुमतिका ने संयम तप की आराधना करके आत्मकल्याण किया।'60 2.5.14 लोचना व अर्द्धसंकाशा लोचना उज्जैन के राजा देवलासुत की धर्मनिष्ठा महारानी थी। एक बार राजा के सिर पर श्वेत बाल देखकर उसने महाराज से कहा-'दूत आया है'। राजा के पूछने पर रानी ने यमराज का श्वेत बाल रूप दूत निकालकर राजा को दिखाया इससे राजा प्रतिबद्ध हआ. उसने तत्काल राज्य त्याग कर संन्यास ग्रहण कर लि होती हुई भी राजा के पीछे उसने भी वही मार्ग अपना लिया। जब प्रमुखा साध्वी को इस बात का पता लगा, तो उसने किसी शय्यातरी के यहाँ रानी की व्यवस्था की। बालिका के जन्म के साथ ही रानी स्वर्गवासिनी हो गई। बालिका 'अर्द्धसंकाशा' के नाम से पहचानी जाने लगी। यौवनावस्था प्राप्त होने पर एकबार अर्द्धसंकाशा पिता के आश्रम की ओर गई, उसकी सुंदरता पर मोहित हो राजर्षि काम की याचना करने लगे। पिता की इस अनौचित्य लालसा को देख अर्द्धसंकाशा वहाँ से भाग निकली, वह मन में विचार करती जा रही थी - "धिद्धी इहलोए फलं परलोए न नज्जइ, किं होतित्ति संबुद्धो।62 चिन्तन की गहराई और परिणामों की विशुद्धि से उसे 'अवधिज्ञान' उत्पन्न हो गया, वह किसी संयतिनी साध्वी के पास दीक्षित हो गई उत्कृष्ट तप संयम की आराधना कर वह मोक्ष को प्राप्त हुई। 2.5.15 अज्ञातनामा बृहत्कल्प भाष्य में एक साध्वी का वर्णन आता है उस पर आसक्त होकर उसके पति को ज्येष्ठ भ्राता ने मार दिया। इस घटना से वैराग्य प्राप्त होकर उसने दीक्षा अंगीकार की, उसका पति दु:ख से संतप्त होकर अकाम निर्जरा 159. उत्तराध्ययन नियुक्ति गाथा 92, प्रा. प्रो. ने. भाग 2, पृ. 517 160. आव. नि. हरि. वृ., भा. 2 पृ. 150 161. (क) आव. चू. भा. 2, पृ. 202 (ख) प्राप्रोने. 2, पृ. 658 162. आव. नि. हरि. वृ. भाग 2, गा. 1359 134 Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रागैतिहासिक काल से अर्हत् पार्श्व के काल तक निर्ग्रन्थ-परम्परा की श्रमणियाँ से मरकर व्यंतर जाति के देवों में उत्पन्न हुआ। साध्वी बनी हुई अपनी स्त्री को उसने अनेक तरह से पीड़ित किया । दैवी उपसर्ग को समता भाव से सहन कर उसने आत्मकल्याण का मार्ग प्रशस्त किया। 163 2.7.16 राजक्षुल्लिका जितशत्रु राजा की भगिनी थी। जितशत्रु ने स्थविरों के पास दीक्षा ले ली, गीतार्थ होकर वे पोतनपुर में परतीर्थिकों के साथ वाद-विवाद कर महती जिनशासन प्रभावना कर निर्वाण को प्राप्त हुए। भ्राता के अनुराग से राजक्षुल्लिका भी प्रव्रजित हो गई थी, उसने सुना कि मेरा भाई कालगत हो गया, सुनकर वह क्षिप्तचित्त हो गई, आचार्य ने उसके क्लान्त मन को अनित्य भावना से भावित कर स्थिर किया। 164 राजक्षुल्लिका ज्ञान, दर्शन चारित्र की आराधना से संलग्न होकर आराधक बनीं। 2.5.17 मति पाण्डुमथुरा के राजा पाण्डुसेन की यह कन्या थी, इसने संयम ग्रहण कर मुक्ति प्राप्त की। जिस स्थान पर इनका निर्वाण हुआ, उस स्थान को लवण समुद्र के देवों ने आलोक व प्रकाश से परिपूरित कर दिया, वह स्थान 'प्रभास' नाम से जाना जाता है। 165 2.5.18 लक्ष्मणार्या अवसर्पिणी काल की अतीत चौबीसी के चौबीसवें तीर्थंकर की ये साध्वी थीं। एक बार उद्यान में ध्यान लगाकर बैठी थीं कि सामने पक्षी युगल के मैथुन संबंध को देखकर काम वासना से मलिन चित्त वाली हो गई। अपनी साध्वी अवस्था का ध्यान आने पर पश्चाताप हुआ, किंतु लज्जावश गुरूणी से स्पष्ट आलोचना करने के बजाय उनसे काम से ग्रस्त चित्त होने पर क्या प्रायश्चित् आता है, यह जानकारी लेकर उसी प्रकार तप भी किया, तथापि माया रखने से विराधक बनीं। संसारवृद्धि की, भविष्य में मुक्ति प्राप्त करेगी। 166 2.5.19 फल्गुश्री दुःषम नाम के इस पंचम काल के अंत में होने वाली इस साध्वी का नाम 21 हजार वर्ष तक अमिट रहेगा। यह साध्वी दुःसह नाम के आचार्य की परम्परा में होगी। आचार्य के बारे में उल्लेख है, कि उनका शरीर दो हाथ का आयु 20 वर्ष की होगी, 12 वर्ष की अवस्था में दीक्षा लेंगे। दशवैकालिक ज्ञाता महान श्रुतधर के रूप में प्रतिष्ठित होंगे। 8 वर्ष तक संयम का पालन करेंगे। तेले के तप सहित मृत्यु प्राप्त करके सौधर्म देवलोक में उत्पन्न होंगे। उसी दिन पूर्वाह्न में चारित्र का विच्छेद हो जाएगा। इनके समय में विमलवाहन राजा और सुमुख मंत्री होंगे। अंतिम श्रावक 'नागिल' और 'सत्यश्री' नाम की श्राविका होगी। 107 163. बृहत्कल्प भाष्य भाग 6, गा. 6261, पृ. 1652 164. बंभीय सुंदरी या अन्नाविय जाइ लोगजेट्ठाओ। ताओ वि कालगया, किं पुण सेसाउ अज्जाओ ? बृहद्कल्प भाष्य - भाग 6, गाथा 6201 165. (क) प्राप्रोने, 2 पृ. 535 (ख) आव. चू. भाग 2, पृ. 157, (ग) आ. नि. 1296 166. महानिशीथ, पृ. 163, दृ. प्राप्रोने. भा. 2 पृ. 650 167. त्रिषष्टि 10/3/46-47 135 Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 2.5.20 वर्तमान युग की अंतिम साध्वी के रूप में विष्णु श्री का भी उल्लेख है। 168 2.6 पुराण - साहित्य में वर्णित जैन श्रमणियाँ जैन पुराण - साहित्य अत्यंत विस्तृत एवं विशाल है, उसमें अनेक जैन श्रमणियों के उल्लेख हैं। प्रथम तीर्थंकर भगवान ऋषभदेव से भगवान महावीर तक के काल में जिन-जिन श्रमणियों ने संयम ग्रहण किया उनका उल्लेख हमने प्रायः उस-उस तीर्थंकर के साथ कर दिया है, शेष श्रमणियों का काल निर्णीत नहीं होने से उनका वर्णन हम यहाँ अकारादि क्रम से कर रहे हैं। 2.6.1 अनुशा यह दारूग्राम निवासी विमुचि ब्राह्मण की भार्या तथा अतिभूति की जननी थी। कमलकान्ता आर्यिका से दीक्षित होकर तप व शुभ ध्यान से मरण कर ब्रह्मलोक में देवी बनी, यहाँ से च्युत होकर चन्द्रगति विधाधर की पुष्पवती नाम की भार्या हुई | 169 जैन श्रमणियों का बृहद इतिहास 2.6.2 अभयमती यौधेय देश के राजपुर नगर के राजा मारिदत्त को किसी भैरवाचार्य ने आकाशगमन की शक्ति प्राप्त करने का उपाय बलिकर्म बताया, उसमें अनेक पशु-पक्षी युगल एकत्रित किए गए, एक मनुष्य युगल की कमी थी। उसी समय दिगम्बर मुनि सुव्रताचार्य अपने चतुर्विध संघ के साथ यहां पधारे, अवधिज्ञान से इस महाहिंसा को रोकने में निमित्तभूत बनने वाले क्षुल्लक अभयरूचि व क्षुल्लिका अभयमती को राजपुर में आहार हेतु भेजा। राजा मारिदत्त के पूछने पर अपना व राजा का मामा-भानजे का रिश्ता तथा पूर्वभव में अपने द्वारा आटे के मूर्गे की बलि के फलस्वरूप कई भवों तक पीड़ादायी महान कष्ट उठाने की गाथा को सुनाकर उन्हें उस महाहिंसा से उपरत किया। राजा ने एवं क्षुल्लक ने सुदत्ताचार्य के पास मुनि दीक्षा अंगीकार की । क्षुल्लिका अभयमती ने भी गणिनी के पास दीक्षा ली 1170 2.6.3 गणिनी अमितमती, अनंतमती ये दोनों महाविदेह क्षेत्र के जगत्पाल चक्रवर्ती की पुत्रियाँ थीं इनके सदुपदेश से यशस्वती, गुणवती, कुबेरसेना आदि कईयों ने पूर्वकृत कर्मों का फल श्रवणकर दीक्षा अंगीकार की। 7 " 2.6.3 कनकमाला विजयार्ध पर्वत की दक्षिणश्रेणी में शिवमंदिर के राजा मेघवाहन की रानी विमला की ये पुत्री थी, यौवनावस्था 168. महनिशीथ पृ. 115-117 दृ प्राप्रोने. भाग 2 पृ. 706 169. प. पु. 30/116, 124 125 134, दृष्टव्य, जैन पुराण कोश, पृ. 20 170. आर्यिका रत्नमती अभि. ग्रंथ. पृ. 378-89 171. आदिपुराण, पर्व 46; म.पु. 46/45-47 दृ. जै. पु. को., पृ. 29 136 Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रागैतिहासिक काल से अर्हत् पार्श्व के काल तक निर्ग्रन्थ-परम्परा की श्रमणियाँ में पूर्वविदेह के रत्नसंचय नगर के राजा क्षेमंधर के प्रपौत्र सहस्रायुध की भार्या श्रीषेणा के पुत्र कनकशांत से इनका विवाह हुआ। कनकमाला और सपत्नी बसंतसेना दोनों ने विमलमती आर्यिका के पास दीक्षा ग्रहण की। घोर तपस्या व अंत में संल्लेखना मरण से मरकर स्वर्गगामिनी हई।172 2.6.5 कनक श्री __ ये अर्धचक्री प्रतिवासुदेव राजा दमितारि की पुत्री थी। जम्बूद्वीप के पूर्वविदेह के ही वत्सकावती देश का राजा स्तिमितसागर की वसुंधरा रानी से उत्पन्न अपराजित बलदेव एवं अनुमति रानी से उत्पन्न अनंतवीर्य वासुदेव ने युद्ध में दमितारि को मारकर कनकश्री का वरण किया। कनकश्री अपने पितामह कीर्तिधर केवली से पिता की मृत्यु का कारण और पूर्वभव का वैरानुबंध जानकर वैराग्य को प्राप्त हुई एवं सुप्रभा नाम की गणिनी के पास स्वयंप्रभ नामके तीर्थंकर के समवसरण में दीक्षा ली। समाधि से आयुष्य पूर्ण कर वे सौधर्म स्वर्ग में गईं।173 2.6.6 कुन्ती शौर्यपुर नगर के राजा अन्धकवृष्णि व उसकी रानी सुभद्रा की पुत्री। वसुदेव आदि इसके दस भाई तथा माद्री इसकी बहिन थी। राजा पाण्डु ने अदृश्य रूप से कन्या अवस्था में इसके साथ सहवास किया था। कन्या अवस्था में इसके कर्ण तथा विवाहित होने पर युधिष्ठिर आदि 5 पुत्र हुए। कौरवों ने इसे लाक्षागृह में जला देना चाहा था, किंतु यह पुत्रों सहित सुरंग से बाहर निकल गई थी। वनवास के समय पांडवों ने इसे विदुर के यहाँ छोड़ दिया था। अन्त में दीक्षा धारण कर सोलहवें स्वर्ग में सामानिक देव हुई, वहाँ च्युत होकर यह मोक्ष प्राप्त करेगी।174 2.6.7 गुणवती यह राजा प्रजापाल की पुत्री तथा प्रभावती आर्यिका की सहवर्तिनी एक गणिनी साध्वी थी, अमितमती आर्यिका के सान्निध्य में संयम धारण कर लिया था। इसने श्रीधरा यशोधरा व धनश्री को दीक्षा दी थी। 75 2.6.8 चंद्रनखा खरदूषण की पत्नी, रावण की बहिन और शम्बूक तथा सुन्द की जननी। राम-लक्ष्मण पर यह कामासक्त हो गई, किंतु इसका मनोरथ पूर्ण नहीं हुआ, अंत में शशिकान्ता आर्या के पास साध्वी हो गई, तपस्या करके रत्नत्रय की प्राप्ति की।176 2.6.9 चन्द्राभा वटपुर नगर के राजा वीरसेन की भार्या। राजा मधु ने वीरसेन को धोखा देकर इसे अपनी स्त्री बनाया, बाद में 172. मपु. 63/124 दृ. जै. पु. को. पृ. 376 173. उत्तरपुराण, पर्व 63 पृ. 172 174. मपु. 70/95-97, 115-16; वही 72/264-66 दृ. जै. पु. को पृ. 88 175. म.पु. 46/223; 59/232; 72/235, दृ. जै. पृ. को. पृ. 112 176. प पु. 43/113; 78, 95, दृ. जै. पु. को. पृ. 122 137 For Private & LearnerUse Only Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन श्रमणियों का बृहद इतिहास पर स्त्री सेवन के पाप का प्रायश्चित् कर मधु ने विमलवाहन मुनि से दीक्षा ले ली, इसने भी आर्यिकाव्रत स्वीकार कर लिये। 77 2.6.10 चारित्रमती इसने "गरूड़पंचमीव्रत" किया, अंत में दीक्षा लेकर देव बनी। 78 2.6.11 जिनदत्ता मथुरा के सेठ भानुदत्त की पत्नी यमुनादत्ता को इसने दीक्षा दी थी। वीतशोका नगरी के राजा अशोक की पुत्री श्रीकान्ता ने भी इसके पास दीक्षा ली।179 2.6.12 जिनमति'० 2.6.13 जिनमतिक्षन्ति : इनसे कौशाम्बी के श्रेष्ठी सुभद्र की पुत्री धर्मवती ने जिनगुणतप लेकर उपवास किये थे। 2.6.14 दत्तवती पोदनपुर के राजा पूर्णचन्द्र की रानी हिरण्यवती ने इनसे दीक्षा ली थी।182 2.6.15 दान्तमती इस आर्यिका द्वारा सिंहपुर की रानी रामदत्ता को उद्बोध प्रदान करने का उल्लेख है।183 2.6.16 दुर्गन्धा धनमित्र की कन्या दुर्गन्धा ने "रोहिणीव्रत" का आराधन कर आयु के अंत में दीक्षा ली और मरकर प्रथम स्वर्ग में देवी बनी।184 177. प. पु. 109/136-162, दृ. जैपु को. पृ. 124 178. जैन व्रत कथा संग्रह, पृ. 107 179. ह पु. 33/96-100; 60/69-70 दृ. जैपुको पृ. 145 180. देखिए. धर्ममति 181. हपु. 60/101-2; मपु. 71/437-38, दृ. जैपुको. पृ. 146 182. हपु. 27/56, जैपुको. पृ. 159 183. मपु. 59/199, 212, दृ. जैपुको. पृ. 163 184. जैन व्रत कथा संग्रह, पृ. 54 138 Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रागैतिहासिक काल से अर्हत् पार्श्व के काल तक निर्ग्रन्थ-परम्परा की श्रमणियाँ 2.6.17 धनवती कुबेर मित्र की पत्नी धनवती ने संघ की स्वामिनी 'अमितमति' के पास दीक्षा ली। और उन यशस्वती और गुणवती आर्यिकाओं की माता 'कुबेरसेना' ने भी अपनी पुत्री के समीप दीक्षा ले ली। ततो धनवती दीक्षा, गणिन्या सन्निधि ययौ। माता कुबेरसेना च, तयोरार्यिकयोयो।' 2.6.18 धनश्री चम्पानगरी के अग्निभूति ब्राह्मण और अग्निला ब्राह्मण की पुत्री थी, सोमश्री और नागश्री की बड़ी बहिन थी। सोमदेव ब्राह्मण के पुत्र सोमदत्त से विवाहित इसके पति ने वरूण गुरू के पास और इसने अपनी बहिन मित्रश्री के साथ गुणवती आर्यिका के समीप दीक्षा धारण करली थी। मरकर अच्युत स्वर्ग में सामानिक देव हुई। वहाँ से च्युत होकर यह पाण्डुपुत्र नकुल हुई।6 2.6.19 धर्ममति कौशाम्बी नगरी के सेठ सुभद्र व सेठानी मित्रा की पुत्री। इसने जिनमति आर्यिका के पास जिनगुण नामका तप किया, मरकर महाशुक्र स्वर्ग में इन्द्राणी हुई थी।87 2.6.20 नंदयशा जम्बूद्वीप के भरतक्षेत्र में भद्दिलपुर नगर के श्रेष्ठी धनदत्त की ये भार्या थी, धनपाल, देवपाल आदि नौ पुत्र एवं प्रियदर्शना एवं ज्येष्ठा इन दो पुत्रियों के साथ नंदयशा ने सुदर्शना नाम की आर्यिका के पास दीक्षा ग्रहण की। नंदयशा ने अपने संपूर्ण परिवार का संबंध परजन्म में बने रहने का निदान कर संन्यास धारण किया, मरकर सबके साथ 13वें आनत देवलोक के शांतकर विमान में उत्पन्न हए। वहाँ से च्यवकर नंदयशा शौरिपुर नगर के स्वामी राजा अंधकवृष्णि की रानी सुभद्रा के रूप में उत्पन्न हुई, निदान के फलस्वरूप सुभद्रा के समुद्रविजय, स्तिमित, हिमवान्, विजय, विद्वान्, अचल, धारण, पूरण, पूरितार्थीगच्छ और अभिनन्दन ये नौ पुत्र हुए अंत में दसवें पुत्र का नाम वसुदेव रखा गया। प्रियदर्शना एवं ज्येष्ठा के जीव क्रम से कुंती और माद्री नामकी दो कन्यायें हुई जिनसे उत्पन्न पुत्र 'पांडव' के नाम से विख्यात हुए।188 2.6.21 निर्नामिका इसने दुर्गन्ध रोग दूर करने के लिये "मुक्तावलीव्रत" किया था, आगे जाकर वासुपूज्य स्वामी के समवसरण में गणधर बनी।189 185. आदिपुराण, (द्वि.) पृ. 457 186. हपु. 64/4-6, 12-13, 111-12, दृ. जैपुको. पृ. 179 187. हपु. 60/101-2, दृ. जैपुको. पृ. 182 188. मपु. 70/182-98; हपु. 18/123-24 दृ. जै.पु.को. पृ. 198 189. जैन व्रत कथा संग्रह, पृ. 156 139 Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन श्रमणियों का बृहद इतिहास 2.6.22 पद्मलता पुष्करवरद्वीप के सरित्देश में स्थित वीतशोकपुर के राजा चन्द्रध्वज और कनकमालिनी की पुत्री, इसने गणिनी अमितसेना के पास संयम धारण किया और मरकर स्वर्ग में देव हुई। 90 2.6.23 पद्मावती यह कलिंग देश के बसंतपुर नगर के राजा वीरश्रेणी के राजकुमार चित्रश्रेणी की पत्नी थी, जब भ. महावीर का समवसरण कुमारी पर्वत पर लगा, उस समय उसने पति चित्रश्रेणी के साथ आर्यिका दीक्षा धारण की। 2.6.24 पद्मावती राजपुर के वृषभदत्त सेठ की भार्या, इसने सुव्रता आर्यिका से संयम लिया था। गन्धर्वपुर के राजा वासव की रानी प्रभावती ने इससे दीक्षा ली थी, भद्रिलपुर के राजा मेघनाद की रानी विमल श्री ने भी इसी आर्या से दीक्षा ली थी।192 2.6.25 पद्मिनी पूर्वजन्म में इसने "चंदनषष्ठीव्रत" की विधिपूर्वक आराधना की थी, अपने पूर्वभव का वृतांत सुनकर भोगों से वैराग्य उत्पन्न हुआ और दीक्षा लेकर 16वें स्वर्ग में देव बनी।193 2.6.26 प्रभावती महाविदेह के विजयार्ध पर्वत की उत्तरश्रेणी के गन्धर्वपुर नगर के राजा विद्याधर वासव की रानी व महीधर की जननी। इसने पद्मावती आर्यिका से रत्नावली तप ग्रहण किया था, मरकर अच्युतेन्द्र स्वर्ग में प्रतीन्द्र हुई थी।194 2.6.27 प्रियदर्शना इसने अयोध्या के राजा अरविन्द की पुत्री सुप्रबुद्धा को दीक्षा दी थी।195 2.6.28 प्रियमित्रा गणिनी आर्यिका। इसने विजयार्ध पर्वत के वस्त्वालय नगर के राजा सेन्द्रकेतु की पुत्री मदनवेगा को दीक्षा दी थी। अन्य एक प्रियमित्रा राजा मेघरथ की पत्नी, नन्दीवर्धन की जननी। यह अत्यधिक रूपवती थी। देवसभा में इसके 190. डॉ. नेमिचन्द्र शास्त्री: तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्य परम्परा, भाग 1, पृ. 260 191. मपु. 62/365 दृ. जै. पु. को. पृ. 213 192. जैन व्रत कथा संग्रह, पृ. 66 193. मपु. 75/314-19 दृ. जै. पु. को, पृ. 230 194. मपु. 7/30; 29/32, दृ. जै. पु. को. पृ. 237 195. मपु. 72/34-35 दृ. जै. पु. को. पृ. 242 140 Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रागैतिहासिक काल से अर्हत् पार्श्व के काल तक निर्ग्रन्थ-परम्परा की श्रमणियाँ सौन्दर्य की प्रशंसा सुनकर रतिषेणा और रति नामा दो देवियां इसका रूप दर्शन करने स्वर्ग से आयीं थीं। तैल-मर्दन कराती देख वे संतुष्ट हुईं, किंतु जब इस सुसज्ज अवस्था में देखा तो उन्हें प्रसन्नता नहीं हुई, वे इसके नश्वर रूप को धिक्कारती हुई वहाँ से चली गई। राजा-रानी दोनों ने संयम ग्रहण कर लिया। 196 2.6.29 प्रीतिमती पुष्कार्ध द्वीप के पश्चिम विदेह में गंधिलादेश के विजयार्ध पर्वत की उत्तरश्रेणी के अरिन्दमपुर के राजा अरिंजय की अजितसेना रानी से यह रूप गुण सम्पन्न कन्या पैदा हुई। युवती अवस्था में उसने संकल्प किया कि जो मुझे 'गतियुद्ध ( दौड़) में जीतेगा, उसीका मैं वरण करूंगी। उत्तरश्रेणी के राजा सूर्यप्रभ एवं रानी धारिणी के पुत्र चिंतागति, मनोगति और चपलगति ने उसके साथ स्पर्धाकी, उसमें चिंतागति को विजय प्राप्त हुई, किंतु उसने वरमाला पहनने से इंकार कर दिया, उसने कहा कि तूंने पहले उन्हें भी प्राप्त करने की इच्छा से गतियुद्ध किया अतः तूं मेरे लिये त्याज्य है। प्रीतिमती ने कहा- जिसने मुझे जीता है उसी के गले में माला डालूंगी।' इस विवाद में प्रीतिमती संसार से विरक्त हो विवृता नामकी आर्यिका के पास दीक्षित हो गई। प्रीतिमती के इस साहस को देखकर तीनों भ्राताओं ने भी दमवर मुनि के पास दीक्षा ग्रहण की। उत्कृष्ट संयम का पालन कर ये तीनों चौथे माहेन्द्र स्वर्ग में सामानिक देव बनें। आगे जाकर इससे सातवें भव में चिंतागति का जीव बावीसवाँ तीर्थंकर नेमिनाथ एवं प्रीतिमती राजीमती के रूप में पैदा हुई। 197 2.6.30 प्रीतिकरी गांधार देश में विंध्यपुर के निवासी वणिक् सुदत्त की भार्या । इसी नगरी के राजकुमार नलिनकेतु ने कामासक्त होकर इसका अपहरण किया था, जिससे उसका पति विरक्त होकर दीक्षित हो गया, इसने भी आर्यिका सुव्रता से दीक्षा ले ली। मरकर यह ऐशान स्वर्ग में देवी हुई।" 2.6.31 मदनावती पूर्वभव में शीतलनाथ भगवान के समय " सुगंधदशमीव्रत" किया, अपना पूर्वभव सुनकर दीक्षा ली 16वें स्वर्ग में देव बनी, फिर मोक्ष में गई । 199 " 2.6.32 मदनमंजूषा रत्नशेखर की पत्नी, पूर्वभव में "पुष्पांजलीव्रत" किया, अपना पूर्वभव सुनकर दीक्षा ली 16वें स्वर्ग में देव बनी | 200 196. मपु. 63/249-53, 288-95 दृ. जै. पु. को 197. मपु. 70/30-37 दृ. जै. पु. को पृ. 240 198. मपु. 63/99-100 दृ. जै. पु. को पृ. 244 199. जैन व्रत कथा संग्रह, पृ. 77 200. जैन व्रत कथा संग्रह, पृ. 130 पृ. 243 141 Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 2.6.33 मद्री / माद्री राजा अन्धकवृष्णि और उसकी रानी सुभद्रा की द्वितीय पुत्री, कुंती की छोटी बहिन । समुद्रविजय आदि इसके भाई थे। यह पाण्डु की द्वितीय रानी थी। नकुल और सहदेव इसके पुत्र थे। पति के दीक्षित हो जाने पर इसने भी संसार से विरक्त होकर पुत्रों को कुंती के संरक्षण में छोड़ दिया था और संयम धारण करके गंगा तट पर घोर तप किया था, अन्त में मरकर सौधर्म स्वर्ग में उत्पन्न हुई | 201 2.6.34 मित्र श्री धनश्री की छोटी बहिन | अपनी छोटी बहिन नागश्री द्वारा धर्मरूचि मुनि को विषमिश्रित आहार दिये जाने से यह और इसकी बड़ी बहिन धनश्री तथा सोमदत्त आदि तीनों भाई दीक्षित हो गये थे। मरकर ये पाँचों जीव अच्युत स्वर्ग में सामानिक देव हुए। वहाँ से च्यवकर पाण्डुपुत्र सहदेव हुई थी। 202 2.6.35 यमुनादत्ता मथुरा के बारह करोड़ मुद्राओं के अधिपति सेठ भानु की स्त्री। इसके सुभानु भानुकीर्ति आदि सात पुत्र थे । अन्त में इसने और इसकी सातों पुत्रवधुओं ने जिनदत्ता आर्यिका के समीप तथा इसके पुत्रों ने व पति भानु सेठ ने वरधर्म मुनि से दीक्षा ले ली थी। 203 2.6.36 यशस्वती राजा चेटक की पुत्री ज्येष्ठा की दीक्षा इनके द्वारा होने का उल्लेख पुराणों में है। 204 2.6.37 यशोधरा अलका नगरी के राजा सुदर्शन और रानी श्रीधरा की पुत्री । यह विजयार्ध की उत्तर श्रेणी में प्रभाकरपुर के राजा सूर्यावर्त के साथ विवाही गयी थी। इसने अपनी माता के साथ गुणवती आर्यिका से दीक्षा ले ली थी । अन्त में पति और पुत्र ( रश्मिवेग) दोनों दीक्षित हो गये थे | 205 जैन श्रमणियों का बृहद इतिहास 2.5.38 रामदत्ता मेरू गणधर के नौवें पूर्वभव का जीव । पोदनपुर के राजा पूर्णचन्द्र और रानी हिरण्यवती की पुत्री, सिंहपुर के राजा सिंहसेन की रानी थी। इसके मंत्री सत्यघोष द्वारा भद्रमित्र की धरोहर के रूप में रखे गये रत्नों को उसे पुन: लौटाने मुकर जाने पर इसने मंत्री के साथ जुआ खेला और उसमें उसका यज्ञोपवीत व नामांकित अंगूठी मंत्री के घर भेजकर से 201. मपु. 70/94-97, 114-116 दृ. जै. पु. को. पृ. 272, 294 202. मपु. 72/227-37, 261, दृ. जै. पु. को. पृ. 298 203. मपु. 71/2016, 243 44, हपु. 33/96-100 दृ. जै. 204. मपु. 75/31-33 दृ. जै. पु. को. पृ. 313 205. मपु. 59/230; हपु. 27/79-83 दृ. जै. पु. को. पृ. 314 पु. को. 142 पृ. 312 Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रागैतिहासिक काल से अर्हत् पार्श्व के काल तक निर्ग्रन्थ- परम्परा की श्रमणियाँ चातुर्यता से उसकी स्त्री से रत्न मंगवा लिये। इस प्रकार भद्रमित्र को न्याय दिलाने और अपराधी को दंडित कराने में इसका अपूर्व योगदान रहा। राजा के मरने के पश्चात् इसने हिरण्यमति आर्यिका से संयम धारण किया । पुत्र सिंहचन्द्र भी दीक्षित हुआ, यह देखकर यह हर्षित हुई थी। अंत में पुत्र स्नेह से निदानपूर्वक मरकर महाशुक्र स्वर्ग के भास्कर विमान में देव हुई | 206 2.5.39 वसन्तसुन्दरी वसुन्धरपुर के राजा विंध्यसेन और रानी नर्मदा की पुत्री । युधिष्ठिर के लाक्षागृह की आग में जलकर मर जाने के समाचार से इसका विवाह युधिष्ठिर से नहीं हो सका तब यह संसार से विरक्त हुई और इसने दीक्षा ले ली थी। 207 2.5.40 विजयावती पूर्वभव में इसने " मेघमालाव्रत" का आराधन किया। और अब जिनेश्वरी दीक्षा ले 16वें स्वर्ग मे देव बनी, आगे मोक्ष प्राप्त करेगी | 208 2.5.41 विद्यु यह पूर्वभव में सर्वभूषण की आठसौ स्त्रियों में किरणमण्डला नामकी प्रधान स्त्री थी। इसने अपने मामा के पुत्र हेमशिख का सोते समय बार-बार नामोच्चारण किया था, इस घटना से इसका पति मुनि बन गया और यह साध्वी हो गई थी। आयु के अंत में किसी कलुषित भावना से मरकर यह राक्षसी हुई 1 209 2.6.42 विनयवती गोवर्धन नगर के श्रावक जिनदत्त की स्त्री । यह आर्यिका होकर तथा तप करते हुए मरकर स्वर्ग में देव हुई थी । 210 2.6.43 विमलमती यह गणिनी आर्यिका थी। राजा कनकशांति की दो रानियाँ इनसे दीक्षित हुई थीं। 21 2.6.44 विमल श्री भरतक्षेत्र में जयन्त नगर के राजा श्रीधर और रानी श्रीमती की पुत्री । भद्रिलपुर के राजा मेघनाद की यह रानी थी। पति के मर जाने पर इसने पद्मावती आर्यिका के समीप दीक्षा लेकर आचाम्ल वर्धमान तप किया था। अन्त में मरकर यह सहस्रार स्वर्ग के इन्द्र की प्रधान देवी बनी | 212 206. मपु. 59/146-77, 192-256; हपु. 27/20-21, 47-58 दृ. 207. हपु. 45/70-72 दृ. जै. पु. को. पृ. 352 208. जैन व्रत कथा संग्रह, पृ. 94 209. पपु. 104/99-117 दृ. जै. पु. को. 370 210. पपु. 20/137-43 दृ. जै. पु. को. पृ. 372 211. मपु. 63/ 124 दृ. जै.. पु. को. पृ. 376 212. मपु. 71/452-57; हपु. 60/117-20 दृ. जै. पु. को. पृ. 376 जै. पु. ant. y. 328 143 Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 2.6.45 विमला राजपुर नगर के सेठ सागरदत्त और सेठानी कमला की पुत्री । निमित्तज्ञानी के कथनानुसार इसका विवाह जीवन्धर कुमार के साथ हुआ था । जीवन्धर के दीक्षा ले लेने पर इसने भी चन्दना - आर्यिका से संयम धारण कर लिया था । 213 2.6.46 वेदवती मृणालकुण्ड नगर के श्रीभूति पुरोहित और उसकी स्त्री सरस्वती की पुत्री। इसी नगर के राजकुमार शम्भू ने इसके पिता को मारकर बलपूर्वक इसके साथ कामसेवन किया था। शम्भू की इस कुचेष्टा के कारण आगामी पर्याय में शम्भू का वध करने का निदान किया, आयु के अन्त में आर्यिका हरिकान्ता से दीक्षा लेकर इसने कठिन तप किया तथा मरकर ब्रह्म स्वर्ग में गई। वहाँ से च्यवकर यह राजा जनक की पुत्री सीता हुई। पूर्वभव के निदान के अनुसार रावण (शम्भू का जीव ) के क्षय का कारण बनीं। 214 2.6.47 शीलावती इसने " द्वादशीव्रत " किया, बाद में दीक्षा ली। 215 2.6.48 श्रीकान्ता जम्बूद्वीप के भरतक्षेत्र सम्बन्धी पुष्कलावती देश की वीतशोका नगरी के राजा अशोक और रानी श्रीमती की पुत्री। इसने जिनदत्ता आर्यिका से दीक्षा ली, रत्नावली- तप करते हुए देह त्याग करके माहेन्द्र स्वर्ग के इन्द्र की देवी हुई 1216 जैन श्रमणियों का बृहद इतिहास 2.6.49 श्रीकान्ता मथुरा नगरी के सेठ भानु की पुत्रवधु और शूर की पत्नी । अंत में दीक्षित हो गई थी। 217 2.6.50 श्रीधरा विजयार्ध पर्वत की दक्षिण श्रेणी में धरणीतिलक नगर के राजा अतिबल और रानी सुलक्षणा की पुत्री । यह अलका नगरी के राजा सुदर्शन के साथ विवाही गयी थी। इसने गुणवती आर्यिका से दीक्षा लेकर तप किया। तपश्चरण अवस्था में पूर्वभव के वैरी सत्यघोष के जीव अजगर ने इसे निगल लिया। मरकर यह कापिष्ठ स्वर्ग के रूचक विमान में उत्पन्न हुई 1 218 213. मपु. 75/584-87; 679-84 दृ. जैपु को. पृ. 377 214. पपु. 106/135-78, 208, 225-31 दृ. जै पु. को. पृ. 387 215. जैन व्रत कथा संग्रह, पृ. 110 216. मपु. 71/393-96; हपु. 60/68-70 दृ. जै पु को. पृ. 408 217. हपु. 33/96-99, 127 218. मपु. 59/228-38; हपु. 27/77-79 144 Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रागैतिहासिक काल से अर्हत् पार्श्व के काल तक निर्ग्रन्थ-परम्परा की श्रमणियाँ 2.6.51 श्रीमती महाविदेह के पुण्डरिकिणी नगरी के वज्रदंत चक्रवर्ती की रानी लक्ष्मीमती की कन्या थी, पुष्कलावती के उत्पलखेट नगर के राजा वज्रबाहु एवं रानी वसुन्धरा के पुत्र वज्रजंघ के साथ इनका विवाह हुआ। वज्रजंघ ही भरतक्षेत्र के आदितीर्थंकर ऋषभदेव हुए एवं श्रीमती हस्तिनापुर के राजकुमार प्रथम दान तीर्थ के प्रवर्तक श्रेयांसकुमार हुए। चक्रवर्ती वज्रदंत ने भी साठ हजार रानियों 20 हजार राजाओं एवं एक हजार पुत्रों के साथ दीक्षा धारण की।219 2.6.52 श्रीमती बन्धुयशा की पर्याय में कृष्ण की पटरानी जाम्बवती ने इनसे प्रोषधव्रत धारण किया था।220 2.6.53 श्रीषेणा और हरिषेणा ये साकेत नगर के राजा श्रीषेण तथा रानी श्रीकान्ता की पुत्रियाँ। पूर्वभव में की हुई प्रतिज्ञा का स्मरण हो जाने से इन दोनों ने दीक्षा ले ली थी। 2.6.54 संयमभूषण आर्जिका ____ इसने हस्तिानापुर के राजा विशाखदत्त की भार्या विजयसुंदरी को "त्रैलोक्य तीज के व्रत" को विधि पूर्वक प्रदान किया था।222 2.6.55 संयम श्री आर्यिका थी, कनकोदरी (अंजना के जीव) को उपदेश देकर सम्यक्त्वी बनाया था।23 2.6.56 सर्वश्री यह आर्यिका पंचमकाल के साढ़े आठ मास शेष रहने पर कार्तिक मास के कृष्णपक्ष के अंतिम दिन स्वाति नक्षत्र में देह त्याग कर स्वर्ग में उत्पन्न होगी।224 2.6.57 सुकुमारी चम्पापुर के सुबन्धु सेठ और उसकी स्त्री धनदेवी की पुत्री। इसके शरीर से दुर्गन्ध आती थी। इसी नगर के सेठ धनदत्त के पुत्र जिनदेव से इसका विवाह हुआ। दुर्गन्ध से खिन्न होकर जिनदेव ने सुव्रत मुनि के पास दीक्षा ले 219. मपु. पर्व 8 श्लोक 85 220. हपु. 60/48-49 दृ. जै. पु. को. 412 221. मपु. 72/253-56; हपु 64/129-31 दृ. जै. पु. को. पृ. 414 222. जैन व्रत कथा संग्रह, पृ. 43 223. पपु. 17/166-69. 191-94 दृ. जै. पु. को. पृ. 420 224. मपु. 76/432-36, इ. जै पु. को. पृ. 431 145 Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन श्रमणियों का बृहद इतिहास ली। इसके बाद जिनदेव के छोटे भाई जिनदत्त से विवाह हुआ। उसने भी इसे स्नेह नहीं दिया। अन्त में इस आत्म-निन्दा करते हुए शान्ति आर्यिका से दीक्षा ले ली और समाधिमरण करके अच्युत स्वर्ग में देवांगना हुई। स्व से च्यवकर यही राजा द्रुपद की पुत्री द्रौपदी बनी 125 2.6.58 सुन्दरी मथुरा के राजा शूरसेन के पुत्र सूरदेव की स्त्री थी। यही विरक्त होकर दीक्षित हो गई थी । 226 2.6.59 सुप्रबुद्धा साकेत नगर के राजा अरिंजय के पुत्र अरिंदम और उनकी श्रीमती रानी की पुत्री। इसने प्रियदर्शना आर्यिका दीक्षा ले ली थी। आयु के अंत में सौधर्म इन्द्र की यह मणिचूला नाम की देवी हुई | 227 2.6.60 सुप्रभा धातकी खंड द्वीप के पश्चिम विदेह क्षेत्र में गंधिलदेश की अयोध्या नगरी के राजा जयवर्मा की रानी और अजितंजय की जननी। राजा जयवर्मा के दीक्षित होकर मोक्ष जाने के पश्चात् यह सुदर्शना गणिनी के पास रत्नावली व्रत करके अच्युत स्वर्ग के अनुदिश विमान में देव हुई | 228 2.6.61 सुप्रभा गणिनी आर्यिका थी। राजा दमितारि की पुत्री कनक श्री ने इन्हीं से दीक्षा ली थी। 229 2.6.62 सुभद्रा सद्भद्रिलपुर के राजा मेघरथ रानी और दृढ़रथ की जननी थी। राजा मेघरथ के दीक्षा धारण कर लेने पर सुदर्शना आर्यिका के पास इसने भी दीक्षा ले ली थी। 230 2.6.63 सुभद्रा अर्जुन की पत्नी । यह कृष्ण की बहिन तथा अभिमन्यु की जननी थी। इसने राजीमती गणिनी से दीक्षा लेकर तपश्चरण किया था। आयु के अन्त में मरकर सोलहवें स्वर्ग में देव हुई | 231 225. मपु. 72/241-48, 256-59, 263 दृ. जैपु को पृ. 445 226. हपु. 33/96-99, 127, 60/51. जै. पु. को. पृ. 451 227. मपु. 72/25, 34-36 दृ. जै. पु. को. पृ. 452 228. मपु. 7/38-44 दृ. जैपुको. पृ. 452 229. मपु. 62/500-8 दृ. जैपु.को. पृ. 453 230. मपु. 70/183, हपु. 18/ 112, 116-117 दृ. जैपुको. पृ. 454 231. मपु. 72/214, 264-66; हपु. 47/18 दृ. जैपुको. पृ. 454 146 Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रागैतिहासिक काल से अर्हत् पार्श्व के काल तक निर्ग्रन्थ-परम्परा की श्रमणियाँ 2.6.64 सुभद्रा एक आर्यिका। नित्यालोकपुर के राजा महेन्द्रविक्रम की रानी सुरूपा इन्हीं से दीक्षित हुई थी।232 2.6.65 सुमति अपराजित बलभद्र और रानी विजया की पुत्री। इसने एक देवी से अपना पूर्वभव सुनकर सुव्रता आर्यिका के पास सातसौ कन्याओं के साथ दीक्षा ले ली थी। आयु के अन्त में यह आनत स्वर्ग के अनुदिश विमान में देव हुई।233 2.6.66 सुमति एक गणिनी आर्यिका थी। धातकीखंडद्वीप के तिलकनगर की रानी सुवर्णतिलका ने इन्हीं से दीक्षा ली थी।14 2.6.67 सुरूपा जंबूद्वीप के विजयार्धपर्वत की दक्षिण श्रेणी के गगनवल्लभ नगर के राजा विद्युद्वेग विधाधर की पुत्री। यह नित्यालोकपुर के राजा महेन्द्रविक्रम को विवाही गयी थी। ये दोनों पति-पत्नी जिनेन्द्र की पूजा करने सुमेरू पर गये थे। वहाँ चारण ऋद्धिधारी मुनि से धर्मोपदेश सुनकर इसका पति दीक्षित हो गया था। इसने भी सुभद्रा आर्यिका से संयम धारण किया।35 2.6.68 सुलोचना भरतक्षेत्र के काशीदेश की वाराणसी नगरी के राजा अकम्पन और रानी सुप्रभा देवी की पुत्री। इसके हेमांगद आदि एक हजार भाई तथा लक्ष्मीमती एक बहिन थी। रंभा और तिलोत्तमा इसके अपर नाम थे। इसने अपने स्वयंवर में आये राजकमारों में जयकमार का वरण किया था। भरतेश चक्रवर्ती के पत्र अर्ककीर्ति ने इसके लिये जयकमार से युद्ध किया, परन्तु इसके उपवास के प्रभाव से युद्ध समाप्त हो गया था। इसने जयकुमार पर गंगा नदी में काली देवी के द्वारा मगर के रूप में किये गये उपसर्ग के समय पंच नमस्कार मंत्र का ध्यान कर उपसर्ग समाप्ति तक अन्न-जल का त्याग कर दिया था। इस त्याग के फलस्वरूप गंगादेवी ने आकर उपसर्ग का निवारण किया। जयकुमार ने इसे पट्टबंध बांधकर पटरानी बनाया था। इसके पति जयकुमार को कांचनादेवी उठाकर ले जाना चाहती थी, किन्तु इसके शील के प्रभाव से भयभीत होकर अदृश्य हो गयी थी। जयकुमार के दीक्षित हो जाने पर इसने भी ब्राह्मी आर्यिका से दीक्षा ले ली थी, तथा तप करके यह अच्युत स्वर्ग में देव हुई थी।236 2.6.69 सुवर्णतिलका धातकीखंडद्वीप के ऐरावत क्षेत्र में स्थित तिलकनगर के राजा अभयघोष की रानी। इसके विजय और जयन्त दो 232. मपु. 71/420, 423 दृ. जैपुको. पृ. 454 233. मपु. 63/2-4,12-24 दृ, जैपुको. 456 234. मपु. 63/175 दृ. जैपुको. पृ. 456 235. मपु. 71/419-24 दृ. जैपुको पृ. 459 236. मपु. 43/124-36, 329; 44/327-40, 45/2-7, 142-149 दृ. जैपुको. पृ. 460 147 Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन श्रमणियों का बृहद इतिहास पुत्र थे । पृथिवीतिलका इसकी सौंत थी। राजा के उसमें आसक्त हो जाने से विरक्त होकर इसने सुमति गणिनी से आर्यिका दीक्षा ले ली थी। 237 2.6.70 सुव्रता एक आर्यिका । भरतक्षेत्र में हस्तिनापुर नगर के राजा गंगदेव की रानी नंदयशा ने इन्हीं से दीक्षा ली थी। 238 2.6.71 सुव्रता यशोदा की पुत्री ने व्रतधर मुनि से अपना पूर्वभव सुनकर इन आर्यिका से दीक्षा ली थी। 239 2.6.72 सुव्रता जम्बूद्वीप के भरतक्षेत्र में शंख नगर के वैश्य देविल की पुत्री ने इन्हें आहार दिया था | 240 2.6.73 सोमश्री चम्पानगरी के अग्निभूति ब्राह्मण तथा उसकी पत्नी अग्निला की तीन पुत्रियों में दूसरी पुत्री । इनका विवाह इसके फुफेरे भाई सोमिल से हुआ था। अपनी बहिन नागश्री द्वारा विष मिश्रित आहार देकर मुनि को मार डालने की घटना से दुःखी होकर पति-पत्नी दोनों दीक्षित हो गये थे। आयु के अन्त में मरकर दोनों देव हुए तथा स्वर्ग से च्यवकर यह सहदेव हुई थी | 241 2.6.74 सोमिल्या आर्जिका पुत्रवधु कुम्भश्री के स्पर्श से और "ज्येष्ठजिनवरव्रत" से उसकी कुरूपता दूर हुई और दीक्षा ली 1242 2.6.75 स्वयंप्रभा मंदोदरी की छोटी बहिन । रावण ने इसे सहस्ररश्मि को देना चाहा था, किन्तु इसने उसे स्वीकार न करके दीक्षा ले ली थी । 243 2.6.76 हिरण्यमती दान्तमती आर्यिका ने इन्हीं के साथ विहार किया था। रानी रामदत्ता की यह दीक्षा गुरू थी । 244 237. मपु. 62/168-75, दृ. जैपुको. पृ. 460 238. मपु. 71/287-88, हपु. 33 / 141-43, 165 दृ. जैपुको. पृ. 462 239. मपु. 70/405-8 दृ. जैपुको. पृ. 462 240. मपु. 62/494-8 दृ. जैपुको. पृ. 462 241. हपु. 64/4-13, 137-38 दृ, जैपुको. पृ. 468 242. जैन व्रत कथा संग्रह, पृ. 141 243. पपु. 10/161 दृ. जैपुको. पृ. 474 244. मपु. 59/199-200 दृ. रामदत्ता 148 Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रागैतिहासिक काल से अर्हत् पार्श्व के काल तक निर्ग्रन्थ-परम्परा की श्रमणियाँ 2.7 जैन कथा - साहित्य में वर्णित श्रमणियाँ जैन कथा-साहित्य अत्यंत विस्तृत और विशाल है, कथाओं का मूल उत्स प्रथमानुयोग है। पंचकल्पभाष्य में उल्लेख है कि आचार्य कालक (वी. नि. 605) ने जैन परम्परागत कथाओं का संग्रह किया और इस क्षीण होते साहित्य का 'प्रथमानुयोग' नाम से पुनरूद्धार किया। इस उल्लेख के प्रमाण वसुदेवहिण्डी, आवश्यकचूर्णि, आवश्यक सूत्र तथा अनुयोगद्वार की हारिभद्रीया वृत्ति आदि ग्रंथों में प्राप्त होते हैं। 245 इसके अतिरिक्त भी अनेक जैन कवियों ने प्राकृत, अपभ्रंश, संस्कृत और लोकभाषाओं में अनेक कथा - आख्यानों की रचना की है, इनमें अधिकांश कथाओं का मूल उद्देश्य शीलव्रत की प्रतिष्ठा करना है, अपने उद्देश्य की प्राप्ति हेतु नायक-नायिका अनेक विपत्तियाँ भोगने के बाद भी प्रलोभनों से दूर रह अपने एकनिष्ठ प्रेम की अडिगता सिद्ध करते हैं, अंत में किसी जैन मुनि के उपदेश को श्रवण कर दीक्षा अंगीकार करते हैं प्रत्येक कथा के पीछे उच्च आदर्श, प्रेरकतत्व और जीवन निर्माणकारी मूल्य निहित है। ये कथा और आख्यान रास, चौपाई, चरित्र, ढाल, चम्पू आदि शीर्षकों में रचित हैं। 2.7.1 अनंतमती यह चम्पापुरी के प्रियदत्त श्रेष्ठी एवं पत्नी बुद्धिश्री की कन्या थी । बचपन में ही धर्मकीर्ति आचार्य की देशना सुनकर उसने आजन्म ब्रह्मचर्य व्रत अंगीकार कर लिया था। इस व्रत के पालन में अनेक विकारवर्धक प्रलोभन एवं कामान्ध पुरूषों के आक्रमणों के बावजूद भी उसने जान हथेली पर लेकर अखंड ब्रह्मज्योति जगाये रखी। अंत में, आर्या पद्मश्री से दीक्षा लेकर स्वर्ग प्राप्त किया । 246 2.7.2 आरामशोभा मातृविहीन विद्युत्प्रभा अपनी सोतेली माँ से त्रस्त एकदिन वन में गायों को चरा रही थी, उस समय नागदेव ने प्रसन्न होकर उसे वरदान दिया कि उसके सिर पर सदा हरा भरा कुंज रहेगा तब से उसका नाम 'आरामशोभा पड़ गया। पाटलीपुत्र का राजा उसके साहस व कुंज से प्रभावित होकर अपनी पटरानी बना लेता है, उसके पश्चात् भी उसे अपनी सोतेली मां की कुटिलता का शिकार होना पड़ा, किंतु बाद में राजा जितशत्रु ने असली आरामशोभा को पहचान लिया, और वे सुख रहने लगे। कालान्तर में मुनि से अपने पूर्वभव का वृत्तांत सुनकर आरामशोभा ने दीक्षा ग्रहण की और तपश्चरण कर सद्गति प्राप्त की । 247 आरामशोभा की कथा जैन कथाकारों को बहुत प्रिय रही है, इस पर संस्कृत, प्राकृत, गुजराती सभी भाषाओं में कई संस्करण प्राप्त होते हैं। 248 2.7.3 कनकलता, चम्पकलता बसंतपुर के राजा पुष्पसेन की रानियां थीं । पूर्वभव के सम्बन्ध के कारण एक-दूसरे से अतिशय प्रीति व वियोग-संयोग का दृश्य उपस्थित होने पर राजा पुष्पसेन व दोनों रानियां दीक्षा लेकर निर्वाण को प्राप्त हुई | 249 245. उपाध्याय पुष्करमुनिजी, जैन कथाएं (संपादकीय ) 246. उपासकाध्ययन, आठवां कल्प, आचार्य सोमदेवकृत, दृ. जैन कथाएं, 'ब्रह्मज्योतिकथा', भाग 29 247. आधार - मूलशुद्धिप्रकरणवृत्ति, श्री देवचंद्रसूरिकृत, ई. 1089-90; दृ. जैन कथाएं, भाग 66 248. देखें- श्री गणेश ललवानी का लेख, श्री भंवरलाल नाहटा अभिनंदन ग्रंथ पृ. 81-86, कलकत्ता ई. 1986 249. राजस्थानी जैन लोककथा साहित्य के आधार पर, दृ. जैन कथाएं, भाग 52 149 Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन श्रमणियों का बहद इतिहास 2.7.4 कनकसुन्दरी अयोध्या के श्रेष्ठी धनदत्त के पुत्र मदनकुमार के साथ कनकसुंदरी का विवाह निश्चित् होता है, किंतु मदन की पूर्व प्रेमिका कामलता गणिका अपने चंगुल में फंसाये रखने के लिये सर्वांगसुंदरी कनकवती को कानी बताती है, उसके चित्र को भी विकृत करके मदन के मन में भ्रांति और नफरत पैदा कर देती है। शादी के बाद भी कनकसुंदरी अंजना की तरह पतिसुख से वंचित ही नहीं अपितु पति के लिये नफरत बनी रहती है। इतना अपमान एवं प्रताड़ना सहकर भी वह हताश नहीं होती। अपनी हिम्मत और बुद्धिमानी के बल पर धीरे-धीरे पति की भ्रांति को दूर करती है, उसे वैश्या के चंगुल से मुक्त कराकर आदर्श गृहस्थ सुख का चमन गुलजार करती है। अंत में धर्मघोष मुनि की देशना से उदबुद्ध होकर कनकसुंदरी व मदनकुमार चारित्र ग्रहण कर अमरपद को प्राप्त करते हैं।250 इस प्रकार-पथभ्रष्ट पति को नारी सन्मार्ग पर ला सकती है। "भ्रांति से अशान्ति और विश्वास में शांति" का संदेश देती है। 2.7.5 कमला भृगुकच्छ के राजा मेघरथ व रानी पद्मावती की कन्या कमला सोपारपुर के राजा रतिवल्लभ की रानी बनीं। सागरद्वीप के राजा कीर्तिध्वज ने उसका अपहरण करवाकर लोह श्रृंखलाओं से जकड़ दिया और अंधेरे कोष्ठागार में डलवा दिया। कमला के शील के प्रभाव से श्रृंखलाएँ टूट गईं, राजा कीर्तिध्वज ने उससे क्षमायाचना कर अपनी बहन बनाया। कालान्तर में रानी कमला के साथ राजा रतिवल्लभ ने भी दीक्षा ग्रहण की और अपना आत्मोद्धार किया। 2.7.6 कमलावती कमलावती राजा मेघरथ की रानी थी। कमलावती का जीवन अनेकानेक कष्टों से घिरा हुआ रहने पर भी वह अपने धैर्य व साहस को नहीं खोती, अंत में राजा-रानी दोनों संसार से विरक्त हो जाते हैं, पर रानी कमलावती अपने दूध-मुंहे बच्चे के कारण बीस वर्ष घर में ही शील का पालन कर पुत्र को राजगद्दी पर बिठाकर दीक्षा लेती है।252 2.7.7 कलावती कलावती अवन्ती के राजकुमार शंख की पत्नी थी। विवाह में आये अनेक व्यवधानों को पार कर इन दोनों का संबन्ध हुआ। शीलधर्म एवं प्रेम की एकनिष्ठता की रक्षा करते हुए कलावती अंत में शंख कुमार के साथ संयम अंगीकार करती है। कलावती के पवित्र चरित्र पर अनेक कवियों की रचनाएं उपलब्ध होती हैं।253 2.7.8 कलावती भोगपुर व विलासपुर के राजा पुरन्दर की रानी, पतिव्रता सती थी। जगभूषण केवली से अपना पूर्वभव श्रवण 250. उपलब्धि सूत्र - जैन कथाएं, "भ्रांति में अशांति" भाग 29 251. आधार-शीलोपदेशमाला, सोमतिलकसूरि टीका (संवत् 1394) कथा उपलब्धि सूत्र-जैन-कथाएं, भाग 65 252. आधार-कमलावती रास, आगमगच्छीय श्री विजयभद्रसूरि (संवत् 1410), दृ.-जैन साहित्य का बृहद् इतिहास भाग 1 पृ. 278, 476%; भाग 6 पृ. 358 253. आधार-कलावती सती रास, आगमगच्छीय श्री विजयभद्रसूरि, (रचना संवत् 1410). दृ. जै. सा. का बृ. इ. भाग-1, पृ. 278, 478 Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रागैतिहासिक काल से अर्हत् पार्श्व के काल तक निर्ग्रन्थ-परम्परा की श्रमणियाँ कर राजा पुरन्दर के साथ रानी कलावती ने भी संयम ग्रहण किया, उत्कृष्ट चारित्र का पालन कर पुरन्दर और कलावती 12वें देवलोक में देव बने। 254 2.7.9 कुबेरदत्ता मथुरा की गणिका कुबेरसेना की युगल-संतान कुबेरदत्त और कुबेरदत्ता का अज्ञात अवस्था में परस्पर विवाह हो गया, ज्ञात होने पर कुबेरदत्ता ने श्रामणी - दीक्षा ग्रहण करली, निर्मलचारित्र का पालन करते हुए उसे अवधिज्ञान पैदा हो गया, उसने ज्ञान से जाना, कि मेरा भाई कुबेरदत्त अपनी ही माता के साथ भोग भोगता हुआ एक पुत्र का पिता बन गया है, सद्बोध देने की भावना से वह मथुरा में अपनी माता कुबेरसेना के यहाँ ठहरी, और उसके पुत्र को क्रीड़ा कराने के बहाने से उसने उस नवजात शिशु के साथ स्वयं के, कुबेरदत्त और कुबेरसेना तीनों के छह-छह मिलाकर 18 नातों की बातें समझाई और उन्हें धर्ममार्ग पर चलने की प्रेरणा दी। उक्त कथा जम्बूकुमार ने उस युग के दुर्दान्त दस्यु प्रभव तस्कर को सुनाई। यह कथा श्रवण कर प्रभव ने पाप-पंक में निमग्न अपनी आत्मा का उद्धार किया। 255 2.7.10 कुवलयमाला दुःखपूर्ण संसार में भ्रमण का कारण क्रोध, मान, माया, लोभ और मोह है । इनके प्रभावों का दिग्दर्शन पाँच रूपकों द्वारा कथात्मक ढंग से किया गया है। कथा के मुख्य पात्र कुवलयचन्द्र और कुवलयमाला दोनों अपने पुत्र पृथ्वीसार कुमार को राज्यभार सौंप दीक्षा ले लेते हैं। 255 2.7.11 कुसुमवती सेठ विनोदीलाल की इच्छा के विरूद्ध उसकी पुत्री कुसुमवती ने धनहीन श्रेष्ठी पुत्र हीरालाल से विवाह किया, उसके धैर्य, विवेक व शील के प्रभाव से हीरालाल राजा बना। अंत में जैनमुनि से अपना पूर्वभव ज्ञात कर दोनों ने दीक्षा लेकर मोक्ष प्राप्त किया। 257 2.7.12 कुसुम श्री रत्नद्वीप की रत्नपुरी के राजा रणधीर की अपूर्व सुन्दरी कन्या कुसुमश्री का विवाह कनकशालपुर के राजा हरिकेशरी की रानी गुणावली के पुत्र वीरसेन के साथ हुआ। विवाह के पश्चात् देव-माया से पति-पत्नी का बिछोह और फिर कुसुम श्री का वेश्या के चंगुल में फंस जाना, बड़ी चतुराई से व साहस के साथ वह अपने शील की रक्षा करती हुई, बड़े आश्चर्यजनक ढंग से पति वीरसेन से मिलती है, यह प्रसंग अत्यंत रोचक व प्रेरणादायी है। अंत में 254. आधार - भावदेवसूरि शिष्य मालदेवकृत पद्य-चौपाई, दृ. जैन कथाएं, भाग-84 255. आधार - जंबूचरियं, गुणपालन मुनि (प्राकृत, संवत् 1076) दृ. जैन कथाएं, भाग 102, अन्य रचनाएं-दृ. जै. सा. का बृ. इ. भाग 6 पृ. 153-55 256. आधार - कुवलयमाला, उद्योतनसूरिकृत (वि. सं. 835 ), दृ. जैन कथाएं, भाग 72 257. जैन कथाएं, भाग 46, पृ. 1 151 Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन श्रमणियों का बृहद इतिहास दोनों संयम ग्रहण कर लेते हैं। प्राचीन जैन चरित्रों में 'वीरसेन कुसुमश्री' के चरित्र पर कई विद्वानों व कवियों की रचनाएँ उपलब्ध होती हैं।259 2.7.13 गुणमंजरी मंजुघोषा कौशाम्बी के राजा बसंतमाधव की रानियाँ, अनेक कष्टों का अपने जीवन में अनुभव करने के पश्चात् दोनों दीक्षा लेकर मुक्त हुईं।200 2.7.14 गुणमाला तिलकपुर के राजा सिंहरथ और रानी मृगासुंदरी की परम शीलवती कन्या थी, प्रारम्भ से ही निर्ग्रन्थ धर्म की मर्मज्ञा और कर्म सिद्धान्त पर विश्वास करने वाली गुणमाला का विवाह एक जीर्ण रोगी भिखारी के साथ कर दिया। चक्रेश्वरी देवी के संकेत से गुणमाला ने महामंत्र के अभिमंत्रित जल से पति का रोग दूर कर दिया, वह राजपुर के राजा वीरधवल का पुत्र गुणभद्र था। राजा सिंहरथ को ज्ञात होने पर गुणमाला से क्षमायाचना की, गुणमाला व गुणभद्र ने दीक्षा लेकर सद्गति प्राप्त की।261 2.7.15 गुणसुंदरी __ भद्दिलपुर नगर के राजा अरिमर्दन की कन्या थी। उसके कर्म सिद्धान्त से क्रुद्ध पिता एक सामान्य लकड़हारे के साथ उसका विवाह कर देते हैं। किंतु बुद्धिमती गुणसुन्दरी अपने परिश्रम और भाग्य पर आस्था रखती है और अंत में भाग्य ही फलता है, भूपाल नहीं, यह सिद्ध कर देती है। गुणसुंदरी अपने पति राजा पुण्यपाल के साथ श्री वर्धमान मुनि से दीक्षा लेकर अपूर्व तपश्चर्या द्वारा मोक्ष पद प्राप्त करती है।262 गुणसुंदरी पर अनेक कवियों की रचनाएं उपलब्ध होती हैं।263 2.7.16 गुणावली व प्रेमलालच्छी ये चंदराजा की रानियाँ थीं, अंतिम समय में चंदराजा के साथ 700 रानियों द्वारा श्रमणीधर्म में प्रवेश करने का उल्लेख प्राप्त होता है।264 2.7.17 चम्पकमाला कुणाल के राजा अरिकेशरी की पटरानी चम्पकमाला दृढ़ सम्यकत्वी और तत्त्वज्ञा थी, चूडामणि ग्रंथ की विशिष्ट 258. आधार-कुसुमश्री रास, जिनहर्षकृत (संवत् 1715), दृ. जैन कथाएं, भाग 39 259. जै.सा.बृ.इ. भाग 3, पृ. 123, 165 260. प्राचीन चौपाइयों के आधार पर, दृ. जैन कथाएं, भाग 53 261. जैन कथाएं, भाग 68 262 आधार -उपाध्याय गुणविनयकृत गुणसुंदरी चौपई (संवत् 1665), दृः- जैन कथाएं भाग्यचक्र कथा' भाग 29 263. दृ.- जै. सा. बृ. इ. भाग 2, पृ. 131, 472; भाग 3 पृ. 93; भाग 6 पृ. 357 264. चन्दराजा नो रास, श्री मोहनविजयजी कृत. (वि. सं. 1782 राजनगर), दृ. जैन कथाएं, भाग 74 For private s-ersonal Use Only Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रागैतिहासिक काल से अर्हत् पार्श्व के काल तक निर्ग्रन्थ-परम्परा की श्रमणियाँ ज्ञाता एवं भूत-भविष्य की घटनाओं को जानने वाली होने के साथ वह अद्भुत क्षमाशील थी। सौंत दुल्लह देवी के सभी षड्यन्त्रों को जानते हुए भी समताभाव से अपना लोकापवाद सहती है और उसे धर्म की ओर उन्मुख करती है। राजा अरिकेसरी को सम्यक्त्वी ही नहीं बनाती वरन् संयम ग्रहण करने की प्रेरणा देती है। चम्पकमाला भी संयम लेकर 11 अंगों का अध्ययन कर प्रवर्तिनी पद को प्राप्त करती है, अंत में मोक्ष प्राप्त करती है।265 2.7.18 चम्पकमाला, फूलदे, सुघड़दे, देवलदे, रत्नदे निशीथवृत्ति में गजसिंह कुमार का चरित्र वर्णित है, उसकी 5 रानियाँ थीं। इन पाँचों ने अपने पति के साथ जीवन के अंतिम भाग में संयम ग्रहण कर आत्म-कल्याण किया था। कई कवियों ने इस कथा को अपने काव्य का विषय बनाया है।266 2.7.19 विमलमती यह वेणातट नगर आंध्रप्रदेश के कामराष्ट्र जनपद के राजा धनद की पटरानी थी। धनद श्रावक के 12 व्रतों का पालन करता था। विमलमती बौद्ध धर्मानुयायी संघश्री जो राजा धनद का मंत्री था, उसकी बहन थी, धर्म का तत्व समझकर वह भी जैनधर्मी बन गई थी। एकबार बौद्ध गुरू बुद्धश्री के प्रभाव में आकर संघश्री ने असत्य वचन का प्रयोग किया, इस गहन मिथ्यात्व के कारण वह उसी समय मरण-शरण होकर नरक में गया। इस घटना को देख राजा धनद व विमलमती को विरक्ति हो गई वे समाधिगुप्त मुनि एवं तत्कालीन आर्या जिनदत्ता के पास प्रवर्जित हो गए। चिरकाल तक संयम की आराधना कर धनद मुनि दिव्यपुरी के निकट गोवर्धनपर्वत से मोक्ष गए, एवं साध्वी विमलमती स्वर्ग गई।267 2.7.19 जयसुन्दरी __जयसुन्दरी के पति पाटणपुर के श्रेष्ठी सुंदरशाह को धर्म कर्म में विश्वास नहीं होने से दोनों के बीच तकरार हो जाती है, सुंदरशाह पत्नी की धर्म निष्ठा को चुनौति देता है, वह उसे छोड़कर परदेश चला जाता है। जय सुंदरी ने बड़ी सूझ-बूझ और चातुर्य के साथ अपनी कमाई से सुंदर महल बनवाए, राजा को धर्मबन्धु बनाया और बड़े नाटकीय ढंग से शील रक्षा करते हुए भी पुत्रोत्पत्ति की। आखिर सुंदरशाह के समक्ष सब भेद खुलता है और वह पत्नी की धर्मनिष्ठा का सच्चा प्रशंसक बन जाता है। जयसुंदरी ने धर्मरक्षा करते हुए जीवन व्यवहार चलाया और अंत में जयसुंदरी ने पति के साथ संयम ग्रहण कर शिवसुख को प्राप्त किया।268 2.7.20 झणकारा यह रामावती नगरी के रामेश्वर हलवाई की पुत्री थी। अयोध्या के श्रेष्ठी पुत्र लीलापत उसके रूप को स्वप्न में देखकर उसी की खोज में निकल जाता है, देव सहयोग से वह झणकारा के साथ विवाह करता है। अनेक रूप 265. श्री सुपार्श्वनाथ चरित्र; जैन कथारत्नकोष भाग 6, बालावबोध गौतमकुलक, द. जैन कथाएं, भाग 76 266. जैन साहित्य का बृहद इति. भा. 5 पृ. 325, जैन गुर्जर कविओ, भा. 3 पृ. 60, 63, 156, 524, 526; 267. उपलब्धि सूत्र : जैन कथाएं, भाग 100 268. जैन कथाएं, भाग 28 153 Page #216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन श्रमणियों का बृहद इतिहास लोभी कापुरूषों द्वारा झणकारा का अपहरण होता है, पर कठिन से कठिन परिस्थिति में भी झणकारा अपने बुद्धिबल आत्मबल के सहारे शीलधर्म की रक्षा करती है। बाद में अपने पूर्वभव को सुनकर राजर्षि बना लीलापत, झणकारा और उसकी अन्य दो सपत्नियों ने दीक्षा ली। झणकारा मरकर प्रथर्म स्वर्ग में गई, आगे महाविदेह में जन्म लेकर मोक्ष प्राप्त करेगी। 269 2.7.21 ताम्रवन्ती, रूपावन्ती, नीलवन्ती, मुक्तावन्ती, हंसावली ये पाँचों बसंतपुर के राजा वज्रसेन और प्रियंवदा के पुत्र बलवीर की पत्नियां थी। अपने जेठ ( पति के ज्येष्ठ भ्राता) जयवीर और धनवीर की ईर्ष्या का शिकार बनकर अनेक कष्ट भोगने पड़े, अंत में पूर्वभव का वृत्तान्त मुनि से सुनकर बलवीर और पाँचों रानियों ने संयम अंगीकार किया। 270 2.7.22 तारासुन्दरी राजा मदनसेन की रानी तथा सेठ लक्ष्मीपति और कमला की पुत्री थी, विद्याधर ने कामवश उसका अपहरण किया, अनेक कष्टों के बावजूद भी वह शीलधर्म पर अडिग रही। पति मिलन के पश्चात् राजा रानी दोनों ने दीक्षा अंगीकार की। 271 2.7.23 त्रिलोकसुंदरी सुदर्शनपुर के श्रेष्ठी पुष्पदत्त के द्वितीय पुत्र चित्रसार की पत्नी थी। यह अपने साहस, चातुर्य से समय पर पुरूषवेष बनाकर अपने धर्म की रक्षा करती है और बुद्धि कौशल से अन्त में सुखपूर्वक जीवन व्यतीत करती है। सुख-दुख के पीछे कर्मों का ही विधान है, यह प्रतिबोध हो जाने पर तिलोकसुंदरी ने अपनी सपत्नी गुणसुंदरी एवं पति चित्रसार के साथ संयम ग्रहण कर स्वर्गलोक प्राप्त किया। 272 2.7.24 धनश्री, रत्नवती, कुसुमवती, रूपवती ये चारों दृढ़ अध्यवसायी सिंहलकुमार की पत्नियां थी। शील, परोपकार आदि का आदर्श स्थापित कर ये चारों अपने पति के साथ दीक्षा लेकर अन्त में देवलोक में गयीं 1273 2.7.25 धारिणी राजा अरिमर्दन की रानी थी। रानी को पुत्रवती होने के आशीर्वाद को सत्य सिद्ध करने के लिये मुनि ने निदान पूर्वक संथारा किया और धारिणी के पुत्र प्रियदर्शी के रूप में उत्पन्न हुआ, इस रहस्य का उद्घाटन होने पर कुमार 269. सती झणकारा रास मुनि कालूराम जी कथा - उपलब्धि : जैनकथाएं “लीलापत झणकारा कथा", भाग 20 270. जैन कथाएं, भाग 65, पृ. 118-50 करे सो भरे (कथा- शीर्षक ) 271. जैन कथाएं, भाग 69, पृ.69-88 272. जैन कथाएं, भाग 32, आधार सूत्र - त्रिलोकसुंदरी मंगल कलश चौपई, कवि लखपत कृत (संवत् 1691) अन्य रचनाएं देखेंजै. सा. का. बृ. इ. भाग 2, पृ. 132; भाग 4 पृ. 360 273. आधार : कवि समयसुंदर रचित सिंहलसी चरित्र, (सं. 1672) जैन कथाएं, भाग 44 154 Page #217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रागैतिहासिक काल से अर्हत् पार्श्व के काल तक निर्ग्रन्थ-परम्परा की श्रमणियाँ प्रियदर्शी के साथ राजा अरिदमन और रानी धारिणी ने भी दीक्षा अंगीकार कर ली, अंत में सद्गति प्राप्त की। कथा का संदेश है - 'बिना विचारे मत बोलो। '274 2.7.26 नर्मदासुन्दरी विवाह के बाद महेश्वरदत्त नर्मदासुंदरी को साथ लेकर धन कमाने के लिये भवनद्वीप गया। मार्ग में पत्नी के चरित पर आशंका होने से उसे वहीं छोड़ दिया, कुछ समय बाद उसका चाचा वीरदास मिला, वह उसे बब्बर कुल ले गया। यहां वेश्याओं के मोहल्ले में 700 वेश्याओं की प्रमुख हरिणी नामक वेश्या ने वीरदास से रूष्ट होकर नर्मदासुंदरी का युक्ति से अपहरण करवा लिया, नर्मदासुंदरी पंकभूत स्थान पर भी अपने शील पर अटल रही। बब्बर राजा ने उस पर मुग्ध हो उसे पकड़वाने के लिये अपने दंडधारियों को भेजा, तो मार्ग में आते हुए वह जान बूझकर बावड़ी के गड्ढे में गिर गई, शरीर पर कीचड़ लपेट कर पागलों का सा अभिनय करने लगी । बब्बर राजा ने भूतबाधा समझ कर उसका उपचार किया पर लाभ नहीं हुआ। वह खप्पर लेकर पागलों के समान भिक्षाटन करने लगी। अंत में जिनदेव धर्मबन्धु के द्वारा वह पुनः वीरदास से मिली। जीवन के इन उतार-चढ़ाव को देख उसे संसार से बहुत विरक्ति हुई और उसने सुहस्ति सूरि के चरणों में दीक्षा ग्रहण कर ली। वह श्रमणी - संघ की 'प्रवर्तिनी' बनी। इस कथानक पर कई कवियों ने प्राकृत, अपभ्रंश, गुजराती हिंदी में काव्य लिखे ।1275 2.7.27 निर्मला कंचनपुर के राजा रूपसेन की रानी थी, ईर्ष्याग्नि से दग्ध उसकी सौंतें उसके साथ अमानवीय व्यवहार करती हैं, और षड्यन्त्र रचकर राजा को उसके विरूद्ध कर देती हैं, एक दिन असत्य का पर्दा हटता है, निर्मला अंत में दीक्षा ग्रहण कर सद्गति को प्राप्त करती है | 276 2.7.28 पद्मश्री पद्मश्री अपने पूर्वजन्म में एक सेठ की पुत्री थी, जो बाल विधवा होकर अपना जीवन अपने दो भाईयों और उनकी पत्नियों के बीच एक ओर ईर्ष्या व सन्ताप दूसरी ओर धर्मसाधना में बिताती रही। दूसरे जन्म में पूर्व पुण्य के फल से राजकुमारी हुई, किंतु जो पापकर्म शेष रहा था उसके फलस्वरूप उसे पति-परित्याग का दुख भोगना पड़ा, तथापि संयम और तपस्या के बल से अंत में केवल्य प्राप्त कर मोक्ष पद पाया। 277 2.7.29 पद्मावती पद्मावती वसंतपुर नरेश के मंत्री की पुत्री थी । उसका विवाह उसी नगर के धनी-मानी और अनेक कलाओं में कुशल सेठ पद्मसिंह के साथ हुआ। दोनों में अतिशय प्रीति थी। पद्मावती के सौंदर्य पर मोहित होकर एक विद्याधर 274. भारतीय लोककथा के आधार पर दृ. जैन कथाएं भाग 36 275. आधार-नर्मदासुंदरी, महेन्द्रसूरि कृत (संवत् 1187 ); दृ. - प्राकृत भाषा और साहित्य का आलोचनात्मक इतिहास, पृ. 494; जै. सा. बृ. इ. इ. भाग 2, पृ. 83, 84, 359, 396, 519; भाग 3 पृ. 335, 372-73, भाग 6, पृ. 349 276. राजस्थानी जैन लोककथा के आधार पर जैन कथाएं भाग 52 277. (क) पउमसिरिचरिउ कविधाहिलकृत प्रका. सिंघी जैन ग्रंथमाला (ख) जै. सा. बृ. इ. भाग 6 पृ. 357 155 Page #218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन श्रमणियों का बृहद इतिहास ने उसका अपहरण कर लिया। किंतु उसके शील से प्रभावित होकर उसे बहन बना लेता है। पूर्वजन्म के कर्मविपाक के कारण पद्मसी अपनी पत्नी के बुद्धि चातुर्य को चुनौति देकर उसे चार असंभव काम बताकर चला जाता है, उनमें से एक काम शील का पालन करते हुए पुत्र को उत्पन्न करना भी था, इन असंभव कार्यों को पद्मावती किस चतुराई से पूर्ण करती है और अंत में संयम ग्रहण कर लेती है।278 2.7.30 पद्मावती, लीलावती, मदनमंजरी, तिलकसुंदरी, चंद्रावती पद्मावती राजा रणधीर की पत्नी थी, लीलावती राजा रणधीर एवं रानी पद्मावती के ज्येष्ठ पुत्र जयसेन की पत्नी थी, मदनमंजरी, तिलकसुंदरी और चन्द्रावती राजा रणधीर एवं रानी पद्मावती के लघु पुत्र चन्द्रसेन की पत्नियाँ थीं। इन सबके गुणधारक मुनि के पास संयम अंगीकार करने और सुगति प्राप्त करने का उल्लेख है।279 2.7.31 प्रियदर्शना यह शूरसेन राजा की पत्नी थी, जीवन के अंतिम क्षण तक एकनिष्ठ शीलधर्म का आराधन करने के पश्चात् दीक्षा अंगीकार कर लेती है।280 2.7.32 बावना चंदन यह राजकुमारी अपने रूप व गुणों की सुवास के कारण उक्त नाम से विख्यात हुई। राजकुमार वैरीसिंह के साथ उसका मिलन कई अपौरूषेय घटनाओं के घटने के बाद हुआ है। बावना चंदन अपने पातिव्रत्य धर्म की अंत तक रक्षा करती हैं, अंत में दोनों भव्य जीव चारित्र का पालन कर घाति कर्मों का क्षय कर कैवल्यलक्ष्मी को प्राप्त करते हैं।281 2.7.33 भवानी पूर्वजन्म में अभक्ष्य भक्षण से रोगिणी होती है। गुरूणी जी से अपना पूर्वभव जानकर अभक्ष्य त्याग करती है, परिणाम स्वरूप अगले जन्म में मंत्री-पुत्री बनती है। रसना इन्द्रिय को वश में रखने के कारण वह अमोघवादिनी और परम बुद्धिमती बनती है। वह इतनी पुण्यशालीनि थी कि उसके जन्म लेते ही देश में अकाल की मंडराती भीषण काली छाया सुकाल की सुखद चन्द्ररश्मियों में परिवर्तित हो जाती है। युवावस्था में वह अनेक धूर्तों को वाद में पराजित करके अपने देश का गौरव बढ़ाती है। जीवन की सांध्यवेला में वह संयम ग्रहण करके, केवलज्ञान का उपार्जन करके मुक्त होती है। इतना ही नहीं, उसकी प्रेरणा से उसके पति ने भी संयम का पालन करके मुक्ति प्राप्त की।282 278. आधार सूत्र - श्री कृष्णदास के शिष्य मुनि बालु रचित पद्मावती पदमसी रास, सं. 1692 कथा-उपलब्धिः जैन कथाएं भाग 84, अन्य रचनाएं : जै. सा. बृ. इ. भाग 1, पृ. 176.537 279. जैन कथाएं, भाग 13 280. (क) उत्तराध्ययन की टीका अ. 3 (ख) आराधनासार कथाकोष, दृ.-जैन कथाएं, भाग 68 281. आधार : बावना चंदन चौपाई, श्री मोहनविमल जी कृत 18वीं शताब्दी, कथा-उपलब्धिः जैन कथाएं, भाग 40 282. जैन कथाएं, भाग 81 156 Page #219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रागैतिहासिक काल से अर्हत् पार्श्व के काल तक निर्ग्रन्थ-परम्परा की श्रमणियाँ 2.7.34 भुवनसुंदरी नाइल्ल कुल समुद्रसूरि के शिष्य विजयसिंह सूरि ने शक संवत् 975 में 8944 गाथा प्रमाण 'सिरि भुयण सुंदरी कहा' की रचना की। सती भुवनसुंदरी ने जीवन के विविध उतार-चढ़ावों को पार कर अंत में चंद्र श्री गणिनी के पास दीक्षा अंगीकार की तथा ग्यारह अंगों का अध्ययन किया। आत्मिक गुणों का उत्कर्ष करते हुए यह एक विशाल श्रमणी - संघ की प्रवर्तिनी भी बनीं। अंत में केवलज्ञान प्राप्त कर मोक्ष में गई 1 283 2.7.35 भुवनानन्दा भुवनानन्दा मंत्री बुद्धिसागर और रतिसुंदरी की पुत्री थी, सुखवासीन नगर के राजा रिपुमर्दन की रानी थी। कर्म योग से राजा ने रानी का त्याग कर दिया, भुवनानंदा ने अपने बुद्धि चातुर्य से राजा से प्रच्छन्न वेष में संपर्क कर पुत्र की प्राप्ति की। अंत में मुनि के उपदेश से प्रतिबुद्ध होकर राजा रिपुमर्दन और भुवनानन्दा दोनों ने चारित्र अंगीकार किया और सद्गति प्राप्त की। 284 2.7.36 सती मंजुला श्रीपुर नगर के युवा श्रेष्ठी श्रीकान्त के साथ उसका विवाह हुआ, विवाह होते ही श्रीकान्त व्यापार हेतु विदेश रवाना हो गया, चार मास बाद एक सिद्धयोगी की मदद से वह अपनी पत्नी से मिला। मंजुला को गर्भ रह गया, इससे सशंकित ननद पद्मा और सास ने मंजुला को घर से बाहर निकाल दिया। गर्भवती मंजुला की करूण कथा यहीं से प्रारंभ होती है, जीवन में समागत भयंकर तूफानों में बहती हुई मंजुला अन्त तक अपना तेज बनाये रखती है और एक खिलाड़ी की तरह संकटों से जीवन भर खेलती जाती है । अन्त में मंजुला एवं श्रीकांत संयम अंगीकार करते हैं, पद्मा और उसकी माँ भी दीक्षा ले लेती है। पंडित मरण से मरकर ये सभी स्वर्गलोक में देव बने | 285 2.7.37 मदनमंजरी कौशाम्बी के राजा युगबाहु की रूप- गुण सम्पन्न कन्या और साकेतराज वसुतेज की रानी थी। वसुतेज के सिर पर एक श्वेत बाल को 'धर्मदूत' बताकर उन्हें संयम की ओर अग्रसर किया, दोनों ने आचार्य अमरतेज के पास दीक्षा ली और देवगति प्राप्त की। 286 2.7.38 मदनमंजरी कुसुममंजरी, पुष्पमंजरी, काममंजरी, रूपमंजरी ये विजयपुर नगर के श्रेष्ठी पुत्र जिनचंद्र कुमार की पत्नियां थीं। विदेश यात्रा के समय जहाज के स्वामी व्यापारी 283. एक्कारसंग सुत्तत्थधारिणी, भुयणसुंदरी गणिणी । साहुणिसंघे जाया पवित्तिणी गुणगणग्घविया । । - श्री विजयसिंहसूरि, भुयणसुंदरी कहा, गा. 8926, पाटण, ई. 2000 284. जैन कथाएं भाग 65 285. लोककथा (गुजराती/राजस्थानी ); दृ. जैन कथाएं, भाग 32 286. सुमतिनाथ चरित्र; जैन कथारत्नकोष भाग 6 बालावबोध गौतमकुलक से उद्धृत जैन-कथाएं भाग 78 157 Page #220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन श्रमणियों का बृहद इतिहास द्वारा जिनचंद्र को समुद्र में फेंक दिया गया, चारों ने अपने शील को सुरक्षित रखा, अंत में समुद्र से बचकर आये जिनचन्द्र से मिलन हुआ, सबने जिन दीक्षा अंगीकार की । 287 2.7.39 मन्दी शिवानगरी के दानवीर राजा बसन्तर की ये भार्या थीं। राजा बसन्तर एवं रानी मंदी कर्ण की तरह दानशील थे, याचना करने पर वे राज्य का पट्टहस्ती भी दान कर देते हैं, यहां तक कि अपने पुत्रों का भी दान कर देते हैं। अपनी दानशूरता के कारण वे पिता द्वारा राज्य से निष्कासित होते हैं और अपनी दानवीरता से ही पुनः सिंहासनासीन भी हो जाते हैं। अंत में राजा वसन्तर मुनिदेव से एवं रानी मन्दी साध्वी श्रीमती से दीक्षा अंगीकार कर दोनों स्वर्गलोक में जाते हैं। 288 2.7.40 मलयासुंदरी महाबलराजा की प्रिय महारानी मलयासुंदरी अंत तक अपनी एकनिष्ठ पतिव्रत भक्ति का परिचय देकर अंत में जैन साध्वी दीक्षा अंगीकार करती है। 15वीं शताब्दी में अंचलगच्छ के माणिक्यसूरि ने 'महाबल मलयासुंदरी' कथा संस्कृत गद्य में लिखी, उसमें मलयासुंदरी को भगवान पार्श्वनाथ के निर्वाण से 100 वर्ष पश्चात् उत्पन्न होना बताया है। 289 इस पर सर्वप्रथम संस्कृत रचना सं. 1456 पल्लीगच्छ के आचार्य शांतिसूरि की उपलब्ध होती है 1 290 2.7.41 मलयागिरि मलयागिरि कुसुमपुर के राजा चंदन की महारानी थी । दैवयोग से राजा रानी और दो पुत्र सभी का एक-दूसरे से वियोग हो जाता है, मलयागिरि नारी होकर भी साहस, धैर्य और चातुर्य से अपने शील की रक्षा करती है, अंत में सभी का मिलन होता है, और रानी मलयगिरि राजा चंदन के साथ संयम अंगीकार कर आत्मकल्याण करती है। राजा-रानी के चरित्र में सुख - दुःख की चरम स्थिति का चित्रण होने से अनेक कवियों ने इस कथा को अपने काव्य का विषय बनाया है । 291 2.7.42 मालिनी, शीलवती आनन्दपुर के राजा जितशत्रु की रानी मालिनी एवं उसके पुत्र रसाल की पत्नी थी शीलवती । पत्नी और माता की इच्छा के विरूद्ध रसाल घर से निकल गया, 12 वर्षों के पश्चात् आकर शीलवती से क्षमायाचना की। शीलवती ने भी एक शुष्क तरू को फलप्रद कर अपने शीलव्रत का प्रत्यक्ष प्रमाण प्रस्तुत किया। मालिनी और शीलवती दोनों दीक्षा के पश्चात् उत्कृष्ट साधना करके मोक्ष पहुंचे | 292 287. आधार : (क) जैन कथारत्न कोष, भाग 6 पृ. 23, कथा - उपलब्धि सूत्र - जैन कथाएं, भाग 69, पृ. 10 288. उपलब्धि सूत्र - जैन कथाए, भाग 28 (ख) गौतमकुलक बालावबोध ; षट्पुरूष चरित्र 289. जै. सा. का बृ. इ. भाग 6, पृ. 351-52 290. जैन संस्कृत साहित्य नो इतिहास, पृ. 155 291. जै. सा. का बृ. इ. भाग 2, पृ. 88, 320-21, 556; भाग 3 पृ. 39, 105, 124, 163, 380, 527 292. प्राचीन चौपाइयों के आधार पर, दृ. जैन कथाएं, भाग 54 158 Page #221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रागैतिहासिक काल से अर्हत् पार्श्व के काल तक निर्ग्रन्थ-परम्परा की श्रमणियाँ 2.7.43 मृगसुंदरी मृगसुन्दरी दृढ़धर्मिणी थी, गुरूदेव से लिये नियमों का दृढ़ता पूर्वक पालन करती थी, यद्यपि ससुराल में उसे विरोधी वातावरण मिला, फिर भी वह अपने नियमों में दृढ़ रही, बाद में ससुराल वाले भी धर्माभिमुख हो गये। नियम दृढ़ता के कारण अगले जन्म में वह ऐसी शील सम्पन्न हुई कि उसके स्पर्शमात्र से राजकुमार का कुष्ठ रोग दूर हो गया, वह भी जिनधर्मानुयायी बना, उसी राजकुमार के साथ विवाह होने से वह राजरानी बनी और आयु के अंत में संयम पालन कर स्वर्गगति प्राप्ति की।293 2.7.44 मृगांकलेखा मृगांकलेखा उज्जैनी के सेठ धनसागर की अन्यन्त रूपवती कन्या थी। इसका विवाह सागरदत्त के पुत्र सागरचंद से हुआ। कुछ समय पश्चात् सागरचंद अपनी मुद्रिका मृगलेखा को देकर युद्ध के लिए गया। पीछे मृगलेखा के चरित्र पर आशंका कर उसे गर्भावस्था में ही घर से निकाल दिया गया। मृगलेखा पर आपदाओं का पहाड़ टूट पड़ा। प्रसूतपुत्र को भी जंगल में से कोई उठा ले गया। उसके शीलभंग करने के प्रयत्न किए गए, किन्तु धैर्यपूर्वक सब कष्टों को सहती हुए उसने अपने सतीत्व की रक्षा की। अंत में पुत्र एवं पति से मिलाप होता है और दोनों दीक्षा अंगीकार कर लेते हैं। साध्वी मृगांकलेखा कठोर तपश्चरण कर कर्मों का उसी भव में क्षय कर मोक्ष प्राप्त करती है।294 2.7.45 मित्रश्री, चन्दनश्री, विष्णुश्री, नागश्री, पद्मलता, कनकलता, विद्युल्लता, कुन्दलता ये सब शूरसेन देश में उत्तर मथुरा नगरी के श्रेष्ठी धर्मात्मा, श्रमणोपासक, सम्यक्त्वी अर्हद्दास की पत्नियाँ थी। जब राजा उदितोदय ने नगर में कौमुदी महोत्सव की घोषणा की ओर कहा कि अष्टमी से लेकर पूर्णिमा तक नगर की सभी स्त्रियां प्रमदवन में क्रीड़ा के लिये जाएंगी, एवं पुरूष घर पर रहेंगे। उस समय राजा से विशेष आज्ञा लेकर श्रेष्ठी अर्हद्दास और उसकी आठों पत्नियाँ पौषधशाला में आठ दिन का उपवास करते हुए धर्मजागरणा करती हैं। रात्रि में सेठ अर्हद्दास सहित सभी पत्नियां अपनी-अपनी सम्यक्त्व प्राप्ति की हेतुभूत एक-एक कथा (घटना) सुनाती है। अंत में, कुन्दलता की प्रेरणा से सभी पत्नियां, सेठ अर्हद्दास, राजा उदितोदय, रानी उदिता, मंत्री सुबुद्धि और तस्कर स्वर्णखुर आदि 13 व्यक्तियों ने मुनि गणधर के समीप श्रामणी दीक्षा अंगीकार की। घोर तपश्चर्या द्वारा दलित कर्मों का नाश कर स्वर्ग प्राप्त किया। यह दृष्टान्त भगवान महावीर ने राजगृही के सम्राट् श्रेणिक को सुनाया, जिसे सुनकर राजा को भी शुद्ध सम्यक्त्व की प्राप्ति हुई, अनेक लोगों को भी सम्यग्दर्शन प्राप्त हुआ।295 2.7.46 मैनासुन्दरी उज्जैन के राजा पहुपाल की रानी निपुणसुंदरी की कन्या थी। पिता द्वारा इच्छित वर माँगने पर मैना ने स्पष्ट मना कर दिया। और कहा-मेरे भाग्य में जैसा होगा ठीक है। इससे चिढ़कर पिता ने कोढ़ी पति श्रीपाल के साथ शादी कर दी। मैनासुंदरी ने किसी मुनि से कुष्ठ निवारण हेतु नवपद की आराधना का महत्त्व श्रवण कर उसकी विधिवत् 293. आधार सूत्र-मृगसुंदरी चौपाई, श्री विनयशेखर कृत, (संवत् 1644) अन्य रचना-जै. सा. का बृ. इ. भाग 6 पृ. 359 294. आधार सूत्र -मृगांकलेखा चरित्र, कवि वच्छकृत, वि. सं. 1520 के लगभग, अन्य रचनाएं : (क) जै.सा.का.बृ.इ. भाग 6 पृ. 351 (ख) ही. र. कापडिआ, जैन संस्कृत साहित्य नो इतिहास, खंड 2, पृ. 155 295. आधार स्रोत-हरिषेण आचार्य कत (वि. सं. 1755) बृहत्कथा कोष में सम्यक्त्व कौमुदी कथा, कथा-उपलब्धि-जैन कथाएं, भाग 30 1159 Page #222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन श्रमणियों का बृहद इतिहास आराधना की। नवपद प्रभाव से श्रीपाल का कुष्ठ रोग नष्ट हो गया, उसके साथी 700 कुष्ठी भी रोगमुक्त हो गये। नवपद के प्रभाव से श्रीपाल का भाग्य चमकता ही गया, 12 वर्षों में 12 रानियों को लेकर पुनः अपने पैतृक राज्य चम्पापुर में आया, चाचा वीरदमन से युद्धकर अपना राज्य वापिस लिया। अंत में दोनों संसार से विरक्त हो गए, मैनासुंदरी घोर तपश्चरण कर नवमें स्वर्ग में देव बनी, वहाँ से मनुष्य बनकर सिद्धि प्राप्त करेगी। मैनासुंदरी पर श्वेतांबर दिगम्बर अनेक कवियों की रचनाएं प्राप्त होती हैं।296 2.7.47 यशोमती यशोमती का पति भुवनतिलक कुमार पूर्वभव में बहुत अविनयी तथा क्रोधी था, क्रोधावेश में वह सम्पूर्ण श्रमणसंघ के विनाश का घोर पापकर्म भी कर बैठा, किंतु इस जन्म में उसकी आत्मा विनय गुण के कारण ही उन्नत हुई, उसके मुनि बनने पर राजकुमारी यशोमती ने भी राजीमती के समान उन्हीं के पथ का अनुगमन किया, और केवलीमुनि शरद भानु के चरणों में दीक्षित हो गई थी।297 2.7.48 रत्नवती पुरिमताल के श्रेष्ठी पुत्र रत्नपाल की पत्नी व कालकूट द्वीप के राजा कृष्णायन की पुत्री थी। योगी के रूप में अपने पति को विदेश यात्रा के समय हर संकट से उबारा। योगी राउल के रूप में रत्नवती साहस, चातुर्य और बुद्धिकोशल का परिचय देकर अंत में महातपस्वी अमितगति आचार्य के पास दीक्षा अंगीकार करती है, मरकर वह ब्रह्मदेवलोक में देव बनीं, वहाँ से महाविदेह में मोक्ष प्राप्त करेगी।298 इस कथा का श्री चंदनमुनि (नव तेरापंथी) ने प्राकृत भाषा में 'रयणवाल कहा' के रूप में प्रणयन किया है। 2.7.49 ऋषिदत्ता ऋषिदत्ता रथमर्दनपुर के राजा कनकरथ की पत्नी थी। कनकरथ का प्रेम पाने के लिये उसकी प्रथम पत्नी रूक्मिणी ऋषिदत्ता को कलंकित करने की जघन्यतम चेष्टाएं करती है पर उदात्तचरित ऋषिदत्ता उन सबको माफ करके अपने शीलधर्म की तेजस्विता और नारी की अनन्त असीम क्षमाशीलता का परिचय देती है। अंत में जाति स्मृति से अपने पूर्वभव को जानकर वह अपने पति के साथ ही दीक्षा अंगीकर कर मोक्ष प्राप्त करती है। उपकेशगच्छ की संवत् 1561 की ऋषिदत्ता चौपई में ऋषिदत्ता का मोक्षगमन भगवान शीतलनाथ की जन्म भूमि में होना लिखा है।99 ऋषिदत्ता चरित्र की एक हस्तप्रति प्राकृत भाषा की सं. 1400 की अतिजीर्ण अवस्था में जिनभद्रसूरि कागल नो हस्तलिखित ग्रंथ भंडार में उपलब्ध है। 296. श्रीपालरास, श्री ब्रह्मरायमल्ल (सं. 1630), दृ. जै.सा.का.बृ.इ. भाग 2, पृ. 287412 297. आधार-धर्मरत्न प्रकरणटीका श्री देवेन्द्र सूरि जी, गाथा 25, कथा-उपलब्धिः जैन कथाएं, भाग 110 298. आधार - रत्नवती-रत्नपाल चरित्र, कवि मोहनविजय कृत, कथा-उपलब्धि-जैन कथाएं, भाग 2 'कष्टों के यान में साहस का सम्बल' 299. स्रोत-"इसिदत्ता चरियं (प्राकृत) रचना 9-10वीं शताब्दी के कवि नाइल कुल के गुणपालमुनि कृत, दृ.-मरूगुर्जर जैन साहित्य, हिंदी जै. सा. बृ. इ., भाग 2 पृ. 398 300. जैसलमेर ग्रंथ भंडार सूची, ग्रंथांक 1319 कथा उपलब्धि सूत्र-जैन कथाएं भाग 20, अन्य रचनाओं के लिये देखें - जै. सा. का बृ. इ. भाग 2, पृ. 131, 133,464,498, 519, भाग 3, पृ. 162, 295,346-47 160 . Page #223 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रागैतिहासिक काल से अर्हत् पार्श्व के काल तक निर्ग्रन्थ- परम्परा की श्रमणियाँ 2.7.50 रूपकला अनूपगढ़ के राजा सुमतिचंद्र व शशिकला की पुत्री रूपकला अपने पिता के क्रोधावेश का शिकार बनकर एक महामूर्ख व दरिद्रनारायण 'शंकर' के साथ ब्याह दी गई। रूपकला ने अपने बुद्धि कोशल से उसे करोड़ों की सम्पत्ति का मालिक शंकर श्रेष्ठी के रूप में प्रसिद्धि दिलवाई, अंत में रूपकला ने आर्हती दीक्षा लेकर उत्कृष्ट साधना से अपने जीवन को निर्मल बनाया | 301 2.7.51 रूपली एक गरीब राजपूत की कन्या थी, वह अपनी सुन्दरता, लावण्य एवं चतुराई के कारण राजरानी बन गई किंतु गाये चराने वाली रूपली राजा की चहेती बनकर भी अपनी हैसियत को नहीं भूली राजा के द्वारा उसे परीक्षा हेतु जब उसी दीनदशा में छोड़ दिया जाता है, तब भी वह उतनी ही प्रसन्न है जितनी रानी बनकर थी । हर दशा में अपने असली स्वरूप का ध्यान रखते हुए समभाव की आराधिका रूपली ने चारित्र ग्रहण किया, उसके उपदेश से अनेकों ने श्रावक व्रत ग्रहण किये, राजा विमलसेन, उसकी अन्य रानियाँ, नगरसेठ एवं सेठानी लीलावती ने भी संयम ग्रहण किया। 302 2.7.52 रोहिणी चन्द्रपुर के राजा चन्द्रसिंह की रानी, उसकी पुत्री ज्योत्स्ना का विवाह विधि के विधानानुसार एक भिखारी के साथ हो गया, कर्म की विचित्रता को देखकर राजा चंद्रसिंह और रानी रोहिणी आचार्य धर्मघोषमुनि के संघ में दीक्षित हो गये। 303 2.7.53 लीलावती इसका विवाह स्वयंवर में विजयपुर के युवराज चन्द्रसेन के साथ हुआ, इससे चिढ़कर कनकपुर का अभिमानी राजा कनकरथ लीलावती को पाने के लिये अनेक षड्यन्त्र रचता है, अंत में कनकरथ को करनी का फल मिलता है, वह बन्दी बनाया जाता है और चन्द्रसेन पुनः खोया राज्य और पत्नी को प्राप्त कर लेता है, दोनों संयम ग्रहण कर लेते हैं 1304 2.7.54 लीलावती कौशाम्बी के सागरदत्त श्रेष्ठी के कनिष्ठ पुत्र श्रीराज की पत्नी थी। अपने शीलधर्म की रक्षा करने के लिये उसने जीवन भर अति शौर्य और चातुर्य से काम किया। ठग और चोरों के चंगुल में फंसकर भी वह अपनी चतुराई 301. रास - साहित्य के आधार पर जैन कथाएं भाग 54 302. आधार लोककथा से उद्धृत जैन कथाएं, भाग 32 303. प्राचीन चौपाइयों के आधार पर जैन कथाएं भाग 54 304. आधार-‘लीलावइ कहा' कोउहल कृत, ( 8वीं शती), दृ. - जैन कथाएं भाग 28, अन्य रचनाएं जै. सा. का बृ. इ. भाग 1. q. 574, 340, 419 161 Page #224 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन श्रमणियों का बृहद इतिहास से बच निकलती है और आखिर उन ठगों का हृदय बदलकर उन्हें सभ्य नागरिक बना देती है। लीलावती नारी होते हुए इतने साहस और चतुराई से काम करती है, यह सचमुच एक आश्चर्य तथा प्रेरक घटना है। अंत में मुनिवर सुमति के पास लीलावती और श्रीराज ने सयंम अंगीकार किया। 305 2.7.55 लीलावती सामंतपुत्री लीलावती का विवाह राजगृह के सिंह नामक राजपुत्र के साथ हुआ। मित्र जिनदत्त के सम्पर्क से वे जिनधर्मी बने, एकबार राजगृह में पधारे समरसेन मुनि से अपना व मुनि का पूर्वभव सुनकर लीलावती और सिंह को जातिस्मरण ज्ञान हो गया, और जिनदीक्षा लेकर तपश्चरण द्वारा मोक्ष पद पाया। इस पर अनेक कवियों की रचनाएं हैं। 306 2.7.56 विजया कनकपुरी के दृढ़धर्मी श्रावक मणिचन्द्र के पुत्र गुणचन्द्र की पत्नी थी, माता-पिता की अविनय के कारण दुःखी व दरिद्री जीवन व्यतीत करने के पश्चात् सद्गुरू से बोध की प्राप्ति होती है, विनय व सेवा गुण से गई हुई लक्ष्मी व कीर्ति पुनः प्राप्त हो जाती है। केशीश्रमण के उपदेश से आर्या सुव्रता के पास दीक्षा लेकर विजया 11 अंगों का अध्ययन कर अंत में 12वें देवलोक में देव बनी 1307 2.7.57 विजया कच्छ देश के अर्हद्दास के पुत्र विजय के साथ विजया का विवाह हुआ था, दोनों ने 15 दिन ब्रह्मचर्य व्रत के पालन का नियम लिया हुआ था, विजय ने शुक्लपक्ष के 15 दिन, विजया ने कृष्ण पक्ष के 15 दिन। और इसी व्रत ने उन्हें अखंड ब्रह्मचारी बना दिया। जब अंगदेश के चम्पानगरी के बारहव्रती श्रावक सेठ जिनदास की शुभेच्छा हुई कि मैं 84 हजार मुनियों को अपने हाथ से एक साथ पारणा कराऊं तो विमल केवली ने उसकी इच्छापूर्ति की राह बताते हुए विजय और विजया के अखंड ब्रह्मचर्य का रहस्योद्घाटन किया और कहा - " ऐसे ब्रह्मचारी दम्पती 84 हजार मुनियों के बराबर है, उन्हें भक्तिपूर्वक भोजन करवा कर तुम 84 हजार मुनि को भोजन करवाने का लाभ प्राप्त कर सकते हो, ऐसे दम्पत्ति भरतखंड में अकेले ही हैं। " रहस्य प्रगट हो जाने पर निर्णयानुसार बड़े उच्च व उत्कृष्ट परिणामों से दोनों ने संयम ग्रहण किया कठोर तप संयम व चारित्र का पालन कर अंत में मोक्ष गति प्राप्त की। 308 विशिष्ट अवदान - उत्कट ब्रह्मचर्याराधना में भारतीय इतिहास का निश्चय ही यह एक अद्भुत उदाहरण है। इस कथा से प्रेरणा लेकर अनेक लोग ब्रह्मचारी बने, कई बारहव्रतधारी श्रावक बने और कई संयमी बने । 305. आधार - लीलावती कथा, भूषणभट्टपुत्रकृत (प्राकृत) (सं. 1265), दृ. - जैन कथाएं "नहले पर दहला", भाग 29 अन्य रचनाएं देखें- जै. सा. का बृ. इ. भाग 2 पृ. 590-91, 306. आधार- सुधर्मगच्छ के जिनेश्वरसूरि कृत 'निव्वाण लीलावई कहा' (प्राकृत, संवत् 1082 और 1095 के मध्य) दृ.-जै. सा. का बृ. इ. भाग 6 पृ. 343 307. श्री रत्नऋषि जी कृत मणिचंद्र गुणचंद्र चरित्र (वि. सं. 1968 ) के आधार पर जैन कथाएं, भाग 47 308. आधार- विजय सेठ विजया प्रबन्ध, खरतरगच्छीय श्री ज्ञानमेरूकृत पाटण, (संवत् 1665 ) दृ. - जैन कथाएं, भाग 33 अन्य उपलब्धि सूत्र- जै. सा. का बृ. इ. भाग 2 पृ. 195-96, 406,568 162 Page #225 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रागैतिहासिक काल से अर्हत् पार्श्व के काल तक निर्ग्रन्थ- परम्परा की श्रमणियाँ 2.7.58 विद्युल्लता श्रेष्ठी सज्जनशेखर के पुत्र विद्युत्सेन के साथ कनकपुर नगर में इसका विवाह हुआ। विद्युत्सेन के पिता को कुलदेवी ने सावधान किया था, कि अपने पुत्र को पढ़ाना नहीं यदि पढ़ जाये तो फिर विवाह मत करना परंतु विद्याध्ययन से अनजान पिता ने जब विद्युत्सेन का विवाह कर दिया तो कुलदेवी ने प्रथम रात्रि में ही उसका अपहरण कर लिया। विद्युल्लता ने इस असीम दुख में भी धैर्य रखा। और अपनी वृत्तियों को निर्मल बनाया। उसकी सात्त्विक वृत्तियों से चोर भी उसके भाई बन गये और वे विद्युत्सेन का दैवी द्वारा अपहरण होने का सुराग और उसके मिलने का स्थान बताते हैं। सती उसकी खोज में लगती है और अपने सतीत्व तेज के बल पर देवी को भी विवश कर देती है, उसका पति सकुशल उसे मिल जाता है। अंत में एक ज्ञानी मुनि की देशना सुनकर विद्युल्लता संयम अंगीकार कर मोक्ष प्राप्त करती है। 309 2.7.59 विनयवती कौशाम्बी के श्रेष्ठी जिनदास की पुत्रवधु विनयवती धर्मनिष्ठ और पतिसेवा में अनुरक्त थी, उसके शीलधर्म व सत्य पर अनेक विपत्तियां आई किंतु वह सत्य - शील की सभी परीक्षाओं में कुंदन बनकर चमकी। अंत में साध्वी बनकर शिवपुर को प्राप्त किया। 310 2.7.60 विमला यह ऋषभपुर के राजकुमार पद्मध्वज की पत्नी थी। विमला ने अपने ज्येष्ठ राजध्वज की कामवासना का शिकार बनकर अनेक कष्टों का सामना करके भी शील को सुरक्षित रखा। अंत में पद्मध्वज और सती विमला ने दीक्षा ग्रहण कर मोक्ष प्राप्त किया । ३॥ 2.7.61 शीलवती श्रावस्ती के श्रेष्ठी गुणचन्द्र की पत्नी थी, 12 वर्षों तक भयंकर कष्ट सहन करने के पश्चात् दोनों ने धर्मघोष मुनि से दीक्षा अंगीकार की । इसकी चार पुत्रवधुओं - रूपवती, लीलावती, लक्ष्मी, और कनकमाला ने भी पति लीलाधर के साथ दीक्षा ग्रहण कर उत्कृष्ट तपः साधना से निर्वाण प्राप्त किया। इन सबमें लक्ष्मी के साहस और बुद्धि की विलक्षणता का विशेष वर्णन है । 3 12 2.7.62 शीलवती यह कांचनपुर के क्षत्रिय शूरपाल, जो अत्यंत साधारण किसान थे, उसकी पत्नी थी। सामान्य स्थिति में भी यह जीवन विकास के ऊँचे सपने देखती है- सास-ससुर की सेवा, गरीबों अनाथों की सेवा, दान-पुण्य पूजा भक्ति करना 309. कथा उपलब्धि सूत्र : जैन कथाएं 'सती का हठ' भाग 29 310. प्राचीन चौपाइयों के आधार से जैन कथाएं, भाग 47 311. जैन कथाएं, भाग 69, पृ. 119 312. राजस्थानी जैन लोककथा साहित्य के आधार पर जैन कथाएँ, भाग 52 163 Page #226 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन श्रमणियों का बृहद इतिहास और जीवन को जनसेवा में बिताना । साहसी शूरपाल पत्नी के इन सब स्वप्नों को साकार करता है, पुरूषार्थ और भाग्य के योग से वह महाशाल नगर का राज्य प्राप्त कर लेता है, और पत्नी के सब सपने साकार हो जाते हैं। अंत में राजा शूरपाल एवं शीलवती दोनों श्रुतसागर आचार्य के पास दीक्षा लेकर मोक्ष प्राप्त करते हैं। 13 2.7.63 श्रीदत्ता, रत्नचूला, स्वर्णचूला, श्रीदेवी ये चारों वत्सराज की पत्नियां थीं। वत्सराज सात्त्विक विचार वाला, नीतिनिष्ठ पुरूष था, उस पर अनेक कष्ट आते हैं, किंतु अंत में सुखी व यशस्वी जीवन की प्राप्ति होती है। वह दीक्षा अंगीकार करता है, चारों पलियों ने भी अपने पति के साथ चारित्र ग्रहण किया और अमरपुरी की अधिकारी बनीं। 7314 2.7.64 श्रीमती आयोध्या के धवल श्रेष्ठी की पत्नी श्रीमती अपने अपूर्व साहस व बुद्धि-चातुर्य से राजा, राज पुरोहित, कोतवाल और प्रधान अमात्य को ऐसा पाठ पढ़ाती है कि वे जीवन भर परनारी प्रेम का त्याग कर देते हैं। श्रीमती अंत में दीक्षा अंगीकार कर उत्कृष्ट तप-संयम की आराधना करती है। 315 2.7.65 सरस्वती राजा धनमोद की यह पतिव्रता, विदुषी रूप में देवांगना और बुद्धि-वैभव में नाम को सार्थक करने वाली सन्नारी थी। एक बार राजा-रानी में बुद्धि व धन की एकांगी श्रेष्ठता को लेकर विवाद छिड़ गया, राजा धन की श्रेष्ठता पर अड़ गया और रानी बुद्धि की। राजा ने उसे सिद्ध करने के लिये चुनौति दी। रानी ने अपने राजसी वस्त्रालंकार त्याग कर एकाकी बुद्धि बल से अनेक चमत्कारी कार्य किये एवं बुद्धि बल की प्रतिष्ठा स्थिर की। राजा धनमोद ने रानी सरस्वती से क्षमायाचना की। रानी सरस्वती ने अपने पति धनमोद राजा एवं सौंत चौबोली के साथ दीक्षा लेकर स्वर्गगमन किया, आगे ये तीनों मोक्ष प्राप्त करेंगे। 316 2.7.66 सुतारा सत्यव्रती हरिश्चन्द्र की पत्नी थी, पति के व्रत पालन में सहयोगी बनकर सुतारा ने जो उज्जवल आदर्श कायम किया वह आज भी भारतीय संस्कृति का प्राण है। यह कथा जैन परम्परा तथा हिंदू परम्परा दोनों में कुछ घटनाक्रम की रचना के अन्तर से प्राप्त होती है। अंत में जैन - परम्परा के हरिश्चन्द्र व महारानी सुतारा दोनों ने श्रमणी दीक्षा ली। उग्रतप की आराधना कर दोनों ने कैवल्य प्राप्त किया, फिर मोक्ष के अधिकारी बने । 317 313. आधार - शांतिनाथ चरित्र (श्री भावचन्द्र सूरिकृत ) षष्ठ प्रस्ताव में अतिथि संविभाग व्रत पर लिखित उक्त कथानक कथा उपलब्धि सूत्र- जैन कथाएं, भाग 11 314. शांतिनाथ चरित्र से उद्धृत जैन कथाएं, भाग 45 315. राजस्थानी लोककथा साहित्य के आधार पर जैन कथाएं, भाग 52 316. उपलब्धि सूत्र - जैन कथाएं, भाग 32 317. (क) हरिश्चन्द्र राजानो रास, श्री कनकसुन्दर रचित (सं. 1697 ) प्रकाशक - बालाभाई छगनलाल शाह, अमदाबाद (ख) जैन कथाएं, भाग 46 164 Page #227 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रागैतिहासिक काल से अर्हत् पार्श्व के काल तक निर्ग्रन्थ-परम्परा की श्रमणियाँ 2.7.67 सुदर्शना कुछ श्रमणियाँ अपने पूर्व जीवन में अत्यन्त व्युत्पन्नमति की थीं। देवेन्द्रमुनि (ई. सन् 1270) ने "सुदंसणाचरियं' चरित काव्य में सुदर्शना को शैशवकाल में ही अनेक विद्याओं की ज्ञाता, पंडिता बताया है, उसे जातिस्मरण ज्ञान हो जाता है। राजसभा में ज्ञाननिधि नामक पुरोहित, ब्राह्मण धर्म का उपदेश करता है, पर सुदर्शना उसके धर्म का खंडन कर श्रमणधर्म का निरूपण कर उसे निरस्त कर देती है। वह आजन्म ब्रह्मचारिणी रह कर आत्मासाधना करती है। मुनि और साधकों के प्रति उसके मन में अपार श्रद्धा थी वह मुनिराज का उपदेश सुनकर विरक्त हो जाती है और अपनी सखी शीलमती के साथ दीक्षा लेकर रत्नावली आदि विविध प्रकार के तपश्चरण करती है।18 2.7.68 सुभद्रा वसन्तपुर निवासी अमात्य जिनदास की पुत्री सुभद्रा जैन धर्मानुयायिनी थी। जिनमत में आस्था न रखने वाले श्रेष्ठी बुद्धदास ने छलपूर्वक उससे विवाह कर लिया। धर्मविद्वेषी श्वसुरपक्ष की ओर से सुभद्रा पर दुःशीलता का जब मिथ्या कलंक लगा, तो सुभद्रा तड़प उठी, उसके तप व आस्था के चमत्कार से चम्पा के राजद्वार बंद हो गए, आकाशवाणी हुई कि "पतिव्रता नारी ही कच्चे सूत में छलनी बांधकर कुएँ से पानी निकालकर छिड़केगी, तभी ये द्वार खुल सकेंगे।" राज्य की सभी स्त्रियों ने असफल प्रयास किये, किंतु किसी से भी द्वार नहीं खुले, अन्ततः सुभद्रा ने चम्पा के बंद द्वारों को उद्घाटित कर अपने सतीत्व का परिचय दिया। सुभद्रा अंत में श्रामणी दीक्षा अंगीकार कर आत्मोत्थान के पथ पर अग्रसर हो गई। सती सुभद्रा पर अनेक कवियों के द्वारा रचित रास, चौपाई, सज्झाय, चतुष्पदिका आदि प्राप्त होती हैं। 2.7.69 सुरसुंदरी अप्रतीम ज्ञान से युक्त सुरसुंदरी राजा मकरकेतु की रानी थी, दोनों के मध्य हुए विनोद पूर्ण प्रश्नोत्तर, पहेली, समस्या द्वारा सुरसुंदरी की प्रखर प्रज्ञा व विवेक का परिचय मिलता है। आरंभ में वासनात्मक जीवन, मध्य में वियोग का दारूण दुःख भोगकर अंत में सुरसुंदरी और मकरकेतु विरक्ति के पथ पर बढ़कर घोर तपश्चरण करते हुए मुक्ति प्राप्त करते हैं।320 2.7.70 सुरसुन्दरी श्रेष्ठी पुत्र अमरकुमार और राजकुमारी सुरसुन्दरी दोनों एक ही पाठशला में अध्ययन करते थे। स्त्री-पुरूष के अधिकारों को लेकर एक दिन दोनों में विवाद खड़ा हो गया। विद्या-अध्ययन के पश्चात् संयोग से सुरसुन्दरी का विवाह अमरकुमार के साथ हो गया। एकबार अमरकुमार सुरसुन्दरी के साथ सिंहलद्वीप की ओर जहाज़ से जा रहा था रास्ते में उसे बचपन में सुरसुन्दरी द्वारा किये अपमान का स्मरण हो आया, प्रतिशोध की भावना से वह सुरसुन्दरी को वहीं अकेली सोती हुई छोड़कर जहाज़ लेकर चला गया। नींद खुलने पर विकल हुई सुरसुन्दरी शीलव्रत की रक्षा के लिए 318. डॉ. नेमीचन्द्र शास्त्री, प्राकृत भाषा और साहित्य का आलोचनात्मक इतिहास पृ. 331, तारा पब्लिकेशन्स, वाराणसी 319. श्री भरहेसर सज्झाय, पंच प्रतिक्रमण सूत्र 320. सुरसुंदरीचरियं, धनेश्वरसूरिकृत संवत् 1095, दृ.-जै. सा. का बृ. इ. भाग 6, पृ. 347-49 165 Page #228 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन श्रमणियों का बृहद इतिहास पुरूषवेश में चम्पावती के राजा के पास पहुंची। वहाँ पर बीमार राजा को स्वस्थ करके उनसे आधा राज्य प्राप्त किया। तब तक अमरकुमार भी वहाँ पहुंच जाता है दोनों का मधुर मिलन होता है। सुरसुन्दरी अमरकुमार रास की संवत 1689 की नयनसुन्दरकृत प्रति जिनभद्रसूरि कागल नो हस्तलिखित भंडार में उपलब्ध है।321 2.7.71 हेमवती लक्ष्मीपुर के राजा धीर की रानी थी। कामांध विद्याधर से अपने शील की रक्षा हेतु रानी ने फांसी का फंदा लगा लिया, किंतु वह पुष्पहार बन गया। चक्रेश्वरी देवी ने उसके शील की रक्षा की। बाद में हेमवती साध्वी बन गई और सद्गति प्राप्त की। यह कथा सिद्धसेन सूरि ने राजा विक्रमादित्य को सुनाई। विक्रमादित्य एवं विक्रमसेन पर जैनाचार्यों की 15वीं सदी में लिखी रचनाएँ मिलती हैं। उसी में यह कथा भी है।322 321. आधार-अमरकुमार सुरसुन्दरी नो रास, महोपाध्याय धर्मसिंह कृत (संवत् 1736) अन्य रचनाएं दृ.-जै. सा. का बृ. इ. भाग 3, पृ. 63, 260, जैसलमेर ग्रंथ भंडार की सूची, ग्रंथांक 1986 322. आधार : विक्रमादित्य चौपाई, श्री लक्ष्मीवल्लभ (संवत् 1728), कथा-उपलब्धि : जैन कथाएं भाग 22 166 Page #229 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - अध्याय 3 महावीर और महावीरोत्तरकालीन जैन श्रमणियाँ Page #230 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .... 169 3.1 वर्तमान श्रमणी परम्परा और तीर्थंकर महावीर ............ 3.2 महावीर युग की श्रमणियाँ .. 3.3 महावीरोत्तर युग (वी. नि. 1 से 12वीं शताब्दी)....... ........... 170 180 Page #231 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्याय 3 महावीर और महावीरोत्तरकालीन जैन श्रमणियाँ समग्र जैन इतिहास की प्रधान धुरी तथा सर्वाधिक स्पष्ट पथ-चिह्न भगवान महावीर (599-527 ई. पू.) का रहा है। उनके पूर्व का प्रागैतिहासिक काल या महावीर पूर्व युग है तो उनके निर्वाण के पश्चात् का महावीरोत्तर काल । भगवान महावीर जैनधर्म के अंतिम तीर्थंकर साथ ही शुद्ध ऐतिहासिक पुरूष भी थे, इतना ही नहीं महावीर और महावीरोत्तरकालीन जितनी भी श्रमणियाँ हैं, वे मूलत: महावीर के शासनकाल की है। 3. 1 वर्तमान श्रमणी परम्परा और तीर्थंकर महावीर तीर्थंकर महावीर तीस वर्ष की अवस्था में प्रव्रजित हुए और साढ़े 12 वर्ष की कठोर साधना के पश्चात् उन्हें ऋजुकुला नदी के तट पर केवलज्ञान हुआ, केवलज्ञान प्राप्ति के दूसरे दिन जृम्भिका गांव से 12 योजन दूर महासेनवन उद्यान में वैशाख शुक्ला एकादशी को उन्होंने धर्मतीर्थ की स्थापना की। दिगम्बर- परम्परा के अनुसार भगवान के तीर्थं प्रवर्तन का समय उनके केवलज्ञान के 66 दिन बाद अर्थात् श्रावण कृष्णा प्रतिपदा का है। भगवान के धर्मतीर्थ में उसी समय इन्द्रभूति आदि 11 गणधर एवं चार हजार चारसौ शिष्य श्रमण-धर्म में दीक्षित हुए, तथा राजकुमारी चन्दनबाला आदि अनेक महिलाओं ने भी प्रव्रज्या अंगीकार की। शंख, शतक आदि ने श्रावक धर्म और सुलसा आदि ने श्राविका धर्म स्वीकार किया। इस प्रकार मध्यम पावा के महासेन वन में वैशाख शुक्ला एकादशी वी. नि. पूर्व 30 ( विक्रम पूर्व 490) को भगवान ने श्रुतधर्म और चारित्रधर्म की शिक्षा देकर साधु, साध्वी श्रावक एवं श्राविका रूप चतुर्विध तीर्थ की स्थापना की। यही दिन वर्तमान जैन श्रमणी संघ की स्थापना का शुभ दिन है। यद्यपि हम श्रमणी परम्परा के मूल उत्स का अनुसंधान करने चलेंगे तो सर्वप्रथम भगवती ब्राह्मी - सुंदरी का नाम आता है, किंतु वर्तमान श्रमणी - परम्परा भगवान महावीर और चंदनबाला की आभारी है, इसमें कोई संदेह नहीं, क्योंकि प्रत्येक तीर्थंकर धर्म प्रवर्तक होता है, उनकी अपनी स्वतंत्र परम्परा एवं शासन व्यवस्था होती है। वे परम्परा के वाहक नहीं अपितु जन्मदाता होते हैं। भगवान महावीर भी स्वयंबुद्ध एवं साक्षात् दृष्टा थे, उन्होंने अपने अनुभूत सत्य से धर्मतीर्थ का प्रवर्तन कर स्वतंत्र आचार संहिता कायम की, भगवान अजितनाथ से पार्श्वनाथ तक की अरबों वर्षों से चली आई 1. आवश्यक निर्युक्ति, गाथा 537 2. पं. केलाशचंद्र शास्त्री, जैन साहित्य का इतिहास, पूर्व पीठिका, पृ. 130 Page #232 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन श्रमणियों का बृहद इतिहास चातुर्याम धर्म व्यवस्था को उन्होंने पंचयाम धर्म में परिवर्तित कर दिया। इसके अतिरिक्त उन्होंने प्रारम्भ से चली आई सचेल परम्परा के साथ अचेल धर्म को भी मान्यता दी। सचेल परम्परा में भी रंगीन वस्त्रों के बदले श्वेत वस्त्र ग्रहण करने का विधान किया तथा उभयकालीन प्रतिक्रमण को श्रमण- श्रमणियों की आवश्यक क्रियाओं में सम्मिलित किया, इससे पूर्व श्रमण - श्रमणियों के लिये उभयकालीन प्रतिक्रमण आवश्यक नहीं था।' इस प्रकार भगवान महावीर ने युग के अनुसार अनेक प्राचीन मान्यताओं में परिवर्तन कर श्रमण श्रमणी श्रावक-श्राविकाओं की एक विशिष्ट आचार-संहिता निर्मित की। गत ढाई हजार वर्षों से अनवरत गतिमान श्रमण परम्परा के प्रवर्तक होने के कारण ही 'महावीर और महावीरोत्तरकालीन श्रमणी परम्परा' को नवीन अध्याय प्रदान किया गया है। " 3.2 महावीर युग की श्रमणियाँ महावीर युग का श्रमणी संघ विशाल सुदृढ़ एवं संगठित था। बड़े-बड़े राजघरानों की कन्याओं, पुत्रवधुओं एवं राजरानियों ने भगवान महावीर के संघ में दीक्षा अंगीकार की थी। लिच्छवी गणतंत्र के प्रधान, भगवान महावीर के अनन्य उपासक राजा चेटक की छह पुत्रियों के महावीर संघ में दीक्षित होने के उल्लेख आगम- साहित्य में वर्णित हैं। अन्य श्रमणियों में अंगारवती, मदनमंजरी, जयंती, मृगावती तथा सम्राट् श्रेणिक की तेईस रानियों ने भी भगवान महावीर के चरणों में दीक्षा अंगीकार की। इस प्रकार भगवान महावीर के जीवनकाल में 36000 श्रमणियाँ संयम मार्ग पर आरूढ़ हुई थीं उनमें कुछ प्रमुख श्रमणियों के उपलब्ध जीवन-वृत्त हम अग्रिम पृष्ठों पर अंकित कर रहे हैं। 3.2.1 चन्दनबाला (वी. नि. 30 वर्ष पूर्व ) भगवान महावीर द्वारा प्रवर्तित धर्म-तीर्थ की प्रथम साध्वी चन्दनबाला चम्पानरेश दधिवाहन एवं माता धारिणी की सुपुत्री थी। राजा दधिवाहन कौशाम्बी नरेश शतानीक के साथ संग्राम करने में धन, जन की अपार हानि का विचार कर जब चम्पा का राज्य छोड़कर चले गये, और माता धारिणी ने शीलव्रत की रक्षा के लिये अपने प्राणों का उत्सर्ग कर दिया तब चंदना अकेली रह गई उसे रथी ने क्रीतदासी के रूप में भरे बाजार वैश्या के हाथों बेच कर स्वर्ण मुद्राएँ प्राप्त की । वैश्या ने चंदना को अपना सतीत्व बेचने के लिये विवश किया, किंतु मृत्यु का वरण करने को समुत्सुक चन्दना के द्वारा जब वैश्या का ईरादा पूर्ण नहीं हुआ तो उसने धनावह सेठ के हाथों उसे बेच दिया । सदाचारी सेठ की पितृछाया में भी चन्दना दासी की तरह प्रताड़ना और यंत्रणाओं से घिरी रही। ईर्ष्यालु मूला सेठानी ने उसके सुनहरे लंबे काले बालों को कैंची से काटकर हाथों में हथकड़ियाँ व पैरों में बेड़ियाँ पहना दी और उसे भूमिगृह में डाल दिया। तीन दिन भूख-प्यास से बिलबिलाती चन्दना को सेठ धनावह ने बाहर निकाला और खाने के लिये उड़द के बाप में रखकर दिये । चन्दना घर की देहली में बैठकर किसी महात्मा की प्रतीक्षा कर रही थी, तभी अभिग्रहधारी प्रभु महावीर ने अपने पांच मास 25 दिन का पारणा चन्दना के हाथों से किया। चन्दना कृतार्थ हो गई। प्रभु महावीर को केवलज्ञान प्राप्त होते ही चन्दना ने भी दीक्षा ग्रहण कर ली और महावीर की प्रथम शिष्या बनकर श्रमणी संघ की प्रवर्तिनी बनी। इनके नेतृत्व में छत्तीस हजार साध्वियों का समुदाय था ।' श्रमणी - संघ का समीचीन संचालन करती 3. उत्तराध्ययन सूत्र, अ. 23 4. (क) समवायांग, सूत्र 649 (ख) आवश्यक निर्युक्ति, भाग 1 गाथा 521, पृ. 148, 170 Page #233 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महावीर और महावीरोत्तरकालीन जैन श्रमणियाँ हुई महासती चन्दनबाला ने केवलज्ञान-केवलदर्शन को प्राप्त किया। अंत में, सिद्ध, बुद्ध, मुक्त बनी। चन्दबालाजी के नेतृत्व में 1400 श्रमणियों ने आत्म कल्याण कर मुक्ति प्राप्त की। __ अवदान : चन्दनबाला का समग्र जीवन उतार-चढ़ाव के चलचित्रों से भरा पूरा था पर उसके जीवन का अंतिम अध्याय एक बृहत् श्रमणी-संघ की संचालिका के गौरवपूर्ण पद पर बीता। गृह एवं परिवार की कारा में बंधी नारी एक इतने बड़े धार्मिक श्रमणी-संघ का नेतत्व करने की भी क्षमता रखती है. यह उस यग के चिन्तन से दर क्षितिज पार की कल्पना को आर्या चन्दना ने साकार कर दिखाया था। वर्तमान युग नारी को राष्ट्राध्यक्ष एवं प्रधानमंत्री आदि उच्च पदों पर आसीन देखकर जिस प्रबुद्ध चेतना का गौरव अनुभव करता है, उसका मूल उत्स श्रमण-संस्कृति के इस पच्चीस सौ वर्ष पुराने इतिहास में छिपा है। धर्म की धुरा का संवहन करने में इन्द्रभूति गौतम आदि 11 गणधरों के समान चंदनबाला की जो महत्त्वपूर्ण भूमिका रही उससे भारतीय-संस्कृति युगों-युगों तक गौरवान्वित रहेगी। जैन वर्णनात्मक और अन्य विपुल साहित्य महासती चन्दनबाला की कथा से भरा हुआ है। उसके जीवन की गाथाएं आवश्यकचूर्णि आवश्यक नियुक्ति, मलयगिरि वृत्ति, श्री कल्पसूत्रार्थ प्रबोधिनी आदि प्राचीन एवं अर्वाचीन ग्रंथों में गौरव के साथ गाई गई है। 3.2.2 देवानन्दा (वी. नि. 28 वर्ष पूर्व) श्वेताम्बर-परम्परा के अनुसार देवानन्दा भगवान महावीर की प्रथम माता थी, साढ़े बयासी रात्री तक भगवान इनके उदर में रहे। उसके पश्चात् शक्रेन्द्र की आज्ञा से हरिणैगमेषी देव ने भगवान को देवानंदा के गर्भ से निकालकर क्षत्रियकुण्ड निवासी त्रिशला रानी की कुक्षि में रख दिया था। देवानन्दा ब्राह्मणकुण्डग्राम के प्रमुख, वेदों के प्रकाण्ड पंडित एवं श्रमणोपासक ब्राह्मण ऋषभदत्त की पत्नी थी। भगवान जब राजगृह में तेरहवां वर्षावास समाप्त कर विदेह की ओर प्रस्थान कर रहे थे, तब मार्गवर्ती ब्राह्मणकुण्डग्राम के बहुशाल चैत्य में पधारे। महावीर के आगमन का संवाद श्रवण कर ऋषभदत्त और देवानंदा भगवान के दर्शन हेतु गये। तीन बार वंदन कर जब दोनों देशना सुनने के लिये बैठे, तो देवानंदा का मन पूर्वस्नेह से भर गया, वह आनन्दमग्न व पुलकित हो गई, उसके स्तनों से दुग्ध की धारा बहने लगी। गौतम स्वामी के पूछने पर भगवान ने कहा- 'गौतम! यह मेरी माता है, मैं इसका अंगजात पुत्र हूँ। भगवान ने अपने गर्भ-परिवर्तन का संपूर्ण वृत्तान्त कहा, जिसे सुनकर सारी सभा आश्चर्यचकित रह गई। ऋषभदत्त और देवानन्दा के हर्ष का पारावार नहीं रहा। उन्होंने भगवान की धर्म-प्रज्ञप्ति पर दृढ़ श्रद्धा अभिव्यक्त की और भव-भ्रमण का अंत करने वाली प्रव्रज्या प्रदान करने की प्रभु से प्रार्थना की। इस प्रकार ये दोनों पति-पत्नी दीक्षित होकर भगवान महावीर के धर्म संघ में प्रविष्ट हुए। दोनों ने 11 अंगों का अध्ययन किया। एवं सर्व कर्मों का क्षय कर मुक्ति पद को प्राप्त किया। अवदान : देवानंदा जन्मना ब्राह्मण-महिला थी, ब्राह्मण धर्म में स्त्री को संन्यास का अधिकार नहीं है, किंतु देवानंदा ने संन्यास दीक्षा लेकर यह सिद्ध कर दिया कि साधना के मार्ग पर कोई भी व्यक्ति कदम बढ़ा सकता है, इसमें किसी लिंग, जाति, या वर्ण का प्रतिबन्ध नहीं है। श्रमणधर्म में दीक्षित होकर साधना के पूर्ण लक्ष्य तक पहुचने 5. कल्पसूत्र वृत्ति, विनयविजयजी कृत, पृ. 170 6. (क) भगवती सूत्र, 9/33 (ख) आव. नि. भा. 1 गा. 457 पृ. 119 (ग) त्रिषष्टि. 10/8/1-27 (घ) प्राप्रोने. 1 पृ. 388 171 Page #234 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन श्रमणियों का बृहद इतिहास वाली देवानंदा ने श्रमण संस्कृति को जो गौरव प्रदान किया उसके लिये श्रमण-संस्कृति सदा उसकी चिरऋणी रहेगी। 3.2.3 प्रियदर्शना (वी. नि. 28 वर्ष पूर्व ) श्वेताम्बर मान्यतानुसार प्रियदर्शना अपर नाम 'अनवद्या" भगवान महावीर की पुत्री और यशोदा की अंगजात कन्या थी। कई कलाओं में निपुण यौवनारूढ़ होने पर भगवान महावीर की बहन सुदर्शना के पुत्र क्षत्रिय राजकुमार जमालि से इनका विवाह हुआ। तीर्थंकर महावीर जब केवलिचर्या के द्वितीय वर्ष में क्षत्रियकुण्ड पधारे तो पांचसौ क्षत्रिय राजकुमारों के साथ जमालि ने और एक हजार स्त्रियों के साथ प्रियदर्शना ने भगवान के पास प्रव्रज्या ग्रहण की। भगवान महावीर की केवलीचर्या के चौदहवे वर्ष में जमालि भगवान के 'कडेमाणे कडे' सिद्धान्त को अमान्य करके भगवान से अलग होकर विचरने लगे, तब आर्या प्रियदर्शना ने भी उसके नवीन मत को स्वीकार कर लिया था, वह भी 1000 आर्याओं के साथ चन्दना आर्या के श्रमणी - संघ से पृथक् होकर विचरण करने लगी थी। किंतु बाद में श्रावस्ती के ढंक श्रावक, जो अर्हत्प्रणीत धर्म के प्रति श्रद्धानिष्ठ थे, उनके समझाने से वह पुनः भगवान के धर्म में श्रद्धाशील होकर विचरने लगी। अवदान : प्रियदर्शना के प्रसंग से यह ज्ञात होता है कि श्रमण संघ से पृथक् हुए श्रमणों का प्रभाव श्रमणी - संघ पर भी पड़ता ही है। भगवान महावीर के साथ मतभेद होने पर जमालि और प्रियदर्शना दोनों निर्ग्रन्थ संघ से अलग हो गये थे। किंतु प्रियदर्शना ने 'सत्यं मदीयं' को प्रमुखता दी और जब सत्य उसके समक्ष प्रगट हो गया तो उसे स्वीकार करने में तथा जमालि का साथ छोड़ने में उसने जरा भी संकोच नहीं किया। इस प्रकार उसकी अनाग्रहीवृत्ति ने उस समय जैनधर्म की जो महिमा बढ़ाई वह अपूर्व थी । 3.2.4 जयन्ती (वी. नि. 27 वर्ष पूर्व) जैन साहित्य में तत्वशोधिका जयंति का नाम बहुत आदर के साथ लिया जाता है। जयन्ती वत्स देश की राजधानी कौशाम्बी के सहस्रानीक राजा की पुत्री, शतानीक राजा की भगिनी महासती मृगावती की ननद एवं राजा उदयन की बुआ थी। वह श्रमणोपासिका थी तथा अर्हत् धर्म पर अपार श्रद्धा रखती थी, प्रथम शय्यातर के रूप में भी वह प्रसिद्ध थी। तीर्थंकर प्रभु महावीर कैवल्य प्राप्ति के तृतीय वर्ष में विहार करते हुए कौशाम्बी के " चन्द्रावतरण" चैत्य में पधारे। यह शुभ सन्देश सुनकर जयन्ती, राजा उदयन तथा मृगावती के साथ प्रभु के समवसरण में देशना सुनने हेतु गई, देशना के पश्चात् जयन्ती ने अर्हत्धर्म के तत्व को विस्तार से समझने के लिए आत्मा के गुरूत्व, लघुत्व, भव्यत्व, अभव्यत्व आदि अनेक तत्व - प्रधान एवं जिज्ञासा - प्रधान प्रश्न भगवान से पूछे। उसके गूढ़ दार्शनिक प्रश्नों को सुनकर उपस्थित सभा चकित रह गई । प्रभु महावीर से प्रश्नों का समुचित समाधान पाकर एवं जीवाजीव विभक्ति को जानकर जयन्ती भगवान के चरणों में दीक्षित हो गई । " 7. अणुज्जंगी नाम, बीयं नाम पियदंसणा उत्त. नेमिवृ. पृ. 46 8. (क) आव. नि., भा. 1 पृ. 208-9 (ख) आव. चू. भा. 1 पृ. 245, 416 (ग) भगवती 9 / 33 (घ) त्रिषष्टि. 10/8/28-29 (ड.) प्राप्रोने, 1 पृ. 456 9. भगवतीसूत्र, शतक 12 उद्देशक 2; प्राप्रोने 1 पृ. 276 172 Page #235 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महावीर और महावीरोत्तरकालीन जैन श्रमणियाँ अवदान : वैदिक धर्म में जो स्थान गार्गी और मैत्रेयी का है. जैनधर्म में वही स्थान जयन्ती का है, उसकी अध्यात्म निर्जरित मेधा ने कोटि-कोटि जन-समुदाय को स्वस्थ चिंतन प्रदान किया। इस दृष्टि से राजकन्या जयंती का श्रमण-धर्म में दीक्षित होना अत्यन्त महत्त्व रखता है। 3.2.5 प्रभावती (वि. नि. तृतीय दशक पूर्व) सिंधु-सौवीर देश महावीर-बुद्ध के समय एक विशाल शक्तिशाली राज्य माना जाता था। वहां के राजा उदायन अपने समय के बड़े पराक्रमी, लोकप्रिय और क्षमावीर के रूप में प्रसिद्ध सम्राट थे। प्रभावती उदायन की सर्वगुणसम्पन्ना आदर्श पत्नी थी और वैशाली राजा चेटक की पुत्री थी। प्रारम्भ से ही निर्ग्रन्थ-धर्म की उपासिका महारानी प्रभावती की उत्कट धर्मनिष्ठा का प्रभाव उदायन पर पड़ा, उसने प्रभु महावीर के पास श्रावक के बारह व्रतों को अंगीकार किया, इससे पूर्व वह तापस-भक्त था।" एक बार प्रभावती ने अपनी एक दासी को शुद्ध वस्त्र लाने के लिये कहा, किंतु उत्पात दोष से वस्त्र कुसुंभ रंग का हो गया, यह देख रानी अत्यन्त रूष्ट हुई और दासी पर प्रहार किया, इससे दासी की मृत्यु हो गई। निरपराधिनी दासी के मर जाने पर प्रभावती को अत्यंत पश्चाताप हुआ। उसने विचार किया-'अहो, मैं दीर्घकाल से स्थूल प्राणातिपात व्रत का पालन कर रही थी, वह मेरा खंडित हो गया। अब मैं संपूर्ण प्राणातिपात विरमण का पालन करने के लिये श्रमणी दीक्षा अंगीकार करूंगी।।2 प्रभावती ने प्रव्रज्या ग्रहण हेतु राजा उदायन से विनती की, राजा ने कहा -'तुम स्वर्ग में जाने के पश्चात् मुझे प्रतिबोधित करो, तो मैं तुम्हें दीक्षा की आज्ञा दूंगा।' रानी के स्वीकार करने पर उदायन ने राजसी ठाठ के साथ प्रभावती का महाभिनिष्क्रमण किया। श्रमणी प्रभावती ने चंदनबाला के पास दीक्षा अंगीकार की। कठोर तप- संयम का पालन कर वह छह मास में ही संयम की आराधना कर वैमानिक देवलोक में देवरूप में उत्पन्न हुई। अपने प्रण के अनुसार उसने राजा उदायन को प्रतिबोधित किया। उदायन अपने भानजे केशी को राज्य सौंपकर दीक्षित हुए। डॉ. हीरालाल दुगड़ ने प्रभावती की कुल आयु 27 वर्ष उल्लिखित की है। उन्होंने प्रभावती का जन्म ई. पू. 594, विवाह ई. पू. 580, दीक्षा ई. पू. 569 तथा मृत्यु ई. पू. 567 में मानी है। 4 अवदान : सोलह सतियों में प्रभावती का नाम बड़े आदर के साथ लिया जाता है। उनकी धर्मनिष्ठा से ही उस युग के सर्वोच्च सत्तासम्पन्न महापराक्रमी सम्राट् उदायन श्रमणोपासक एवं बाद में श्रमण बने थे। जैन कवियों को उदायन राजर्षि और प्रभावती के चरित बड़े रोचक लगे। इस पर अनेक कलम-कलाधरों ने अपनी लोह-लेखनी चलाई है। 10. आव. नि. हारि. वृ., भा. 2 पृ. 124, 125 11. उत्तरा. नेमिवृत्ति पृ. 169-70 12. दशाश्रुतस्कंध नियुक्ति गाथा. 93-94 13. प्राप्रोने. 1 पृ. 436 14. मध्य एशिया और पंजाब में जैनधर्म, पृ. 184 15. दृष्टव्य-जै. सा. बृ. इ., भा.-2 पृ. 261, 264, 284 Page #236 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन श्रमणियों का बृहद इतिहास 3.2.6 पद्मावती पद्मावती भी राजा चेटक की पुत्री एवं राजा दधिवाहन की पत्नी थी, इन्हीं की प्रेरणा से राजा दधिवाहन ने चम्पानगरी को जैनधर्म का केन्द्र बनाया था। प्रत्येक बुद्ध करकण्डु पद्मावती के ही पुत्र थे। करकण्डु जब गर्भ में थे, तभी पद्मावती ने दन्तपुर में श्रमणियों के पास दीक्षा अंगीकार कर ली थी। उसके जन्म के पश्चात् प्रायश्चित लेकर शुद्धिकरण किया। पिता-पुत्र के सम्बन्ध से अनभिज्ञ राजा दधिवाहन एवं राजा करकण्डु का जब आपसी घोर संग्राम होने जा रहा था, तब समरभूमि में जाकर पद्मावती ने पिता-पुत्र का मिलन करवा कर युद्ध विराम ही नहीं कराया, वरन् दधिवाहन को भी दीक्षा की प्रेरणा दी।17 समीक्षात्मक टिप्पणी पद्मावती का अन्य नाम 'धारणी' एवं उसकी पुत्री वसुमती (चंदना) के होने का उल्लेख डॉ. हीराबाई बोरदिया ने अपने शोध ग्रंथ में किया है, किंतु यह युक्तिसंगत नहीं लगता, करकंडु को श्रमणी अवस्था में जन्म देने की घटना भी जिस पद्मावती के साथ में जुड़ी हुई है उसने देहोत्सर्ग नहीं किया था, देहोत्सर्ग की घटना का संबंध वसुमती की माता धारणी से है। इससे प्रतीत होता है कि पद्मावती और धारणी दधिवाहन की दो भिन्न-2 रानियां थीं। 3.2.7 नंदा (वी. नि. 23 वर्ष पूर्व) नंदा दक्षिण देशस्थ वेण्यातट नामक नगर के व्यापारी भद्रश्रेष्ठी की गुणवान पुत्री थी। अपने निर्वासनकाल में राजगृह के सम्राट श्रेणिक ने इनसे विवाह किया था। श्रेणिक की 23 रानियों में नंदा सबमें ज्येष्ठ थी। इतिहास विश्रुत बुद्धिनिधान मंत्री अभयकुमार नंदा के ही पुत्र थे। भगवान महावीर अपनी केवलीचर्या के सातवें वर्ष में राजगृह पधारे, उन के उपदेश को श्रवण कर नंदा ने राजा श्रेणिक की आज्ञा से चन्दनबाला के पास दीक्षा अंगीकार की। दीक्षा के पश्चात् उन्होंने सामायिक आदि ग्यारह अंगों का अध्ययन किया तथा अनेक प्रकार की उग्र तपस्याएँ की। बीस वर्षों तक चारित्र पर्याय का पालन तथा दो मास की संलेखना द्वारा सर्व कर्मों का क्षय करके अंत में निर्वाण को प्राप्त हुई। ___ नंदा के साथ ही श्रेणिक की अन्य रानियाँ 2 नंदमती 3. नंदोत्तरा 4. नंदिसेणिया, 5. मरुया 6. सुमरुया 7. महामरुता 8. मरूदेवा 9. भद्रा 10. सुभद्रा 11. सुजाता 12. सुमना और 13 भूतदत्ता ने भी आर्या चन्दना के पास दीक्षा अंगीकार की। ज्ञान एवं तप की उत्कृष्ट आराधना कर बीस वर्ष तक संयम का पालन कर सभी ने मुक्ति प्राप्त की। 3.2.8 मृगावती (वि. नि. 22 वर्ष पूर्व) वैशाली गणराजा चेटक की तृतीय पुत्री एवं कौशाम्बी नरेश शतानिक की पत्नी महारानी मृगावती अद्वितीय सुंदरी 16. आव. नि., भा. 2 पृ. 151 17. दो वि रज्जाणि तस्स दाऊण दहिवाहणो पव्वइओ-उत्तरा. नेमिवृत्ति पृ. 90 18. जैनधर्म की प्रमुख साध्वियों और महिलाएँ, पृ. 72 19. आवचू., भा. 2 पृ. 1773; नंदीवृत्ति मलयगरि पृ. 150 20. अन्तकृ., वर्ग7 21. (क) आव. चू., भा. 1 पत्र 91, (ख) प्राप्रोने. 2 पृ. 601-2 174 Page #237 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महावीर और महावीरोत्तरकालीन जैन श्रमणियाँ थी। उसके रूप-सौन्दर्य पर लुब्ध होकर उज्जैन के सम्राट चंडप्रद्योत ने कौशाम्बी पर आक्रमण किया। इस आक्रमण काल में शतानिक की मृत्यु हो गई। तब देवी मृगावती ने पति-शोक का बहाना कर बड़ी चतुराई से चंडप्रद्योत द्वारा कौशाम्बी का सुदृढ़ किला बनवाया। जब भगवान महावीर कौशाम्बी पधारे तो महारानी ने अपने पुत्र उदयन की सुरक्षा का भार चंडप्रद्योत को सौंपा और उन्हीं की आज्ञा से प्रभु महावीर के संघ में दीक्षा अंगीकार कर ली। एकबार स्वस्थान पर रात्रि में देरी से लौटने के कारण प्रवर्तिनी चन्दनबाला जी से उपालम्भ पाकर मृगावती आत्मालोचना में प्रवृत हुईं, भाव विशुद्धि से तत्क्षण ही घनघाती कर्मों का क्षय करके केवली बन गई। मृगावती की समर्पणता एवं अपने अज्ञान की आलोचना करती हुई चंदनबाला जी की भी अन्तश्चेतना जागृत हुईं वे अपनी शिष्या के पांव में गिरकर उनकी अशातना हेतु क्षमा मांगने लगीं, उसी रात्रि वे भी सर्वज्ञ-सर्वदर्शी बनी। अवदान : गुरुणी-शिष्या की आलोचना-प्रत्यालोचना एवं पारस्परिक विनय का यह उच्चतम आदर्श जैन इतिहास के स्वर्णिम पृष्ठों पर अनेक आचार्यों एवं विद्वानों की लेखनी का विषय बना है।24 3.2.9 शिवादेवी (वी. नि. 22 वर्ष पूर्व) शिवादेवी वैशाली गणराज के अध्यक्ष राजा चेटक एवं महारानी पृथा की चतुर्थ कन्या-रत्न थी। विश्व की अद्वितीय सुन्दरी यह शिवादेवी मालव के पराक्रमी सम्राट् चण्डप्रद्योत को स्त्रीरत्न के रूप में प्राप्त हुई थी। चण्डप्रद्योत की आठ रानियों में शिवादेवी का अग्रगण्य स्थान था। 'पाप से घृणा करो पापी से नहीं, इस आदर्श को उसने अपने जीवन से चरितार्थ किया था। महानगरी उज्जयिनी में जब दैवी प्रकोप से आग लग गई थी, तो इनके सतीत्व के प्रभाव से एवं इनके द्वारा छिड़के गये जल से ही वह शान्त हो पाई थी। भगवान महावीर के समवसरण में मृगावती ने दीक्षा अंगीकार की, तब शिवादेवी ने भी अपनी ज्येष्ठा भगिनी का अनुसरण कर दीक्षा ग्रहण की थी। आर्या चन्दना के साध्वी-संघ में सम्मिलित होकर श्रमणी शिवादेवी संयम व तप द्वारा आत्मकल्याण में प्रवृत्त हुई। 3.2.10 अंगारवती (वी. नि. 22 वर्ष पूर्व) जैन साहित्य में चंडप्रद्योत की आठ रानियों का उल्लेख आया है, जो कौशाम्बी की रानी मृगावती के साथ भगवान के पास दीक्षा लेती हैं, उनमें एक है-अंगारवती। यह सुंसुमारपुर के राजा की पुत्री थी। इसे प्राप्त करने के लिए प्रद्योत ने सुसुमारपुर पर घेरा डाला। कथासरित्सागर में अंगारवती को राजा अंगारक की पुत्री कहा है। इसकी 22. मृगावती द्वारा निर्मापित यह किला आज भी कौशाम्बी (यमुना तट पर स्थित गढ़वा कोशल इनाम गांव से एक कि. मी. दूर) में ध्वंस स्थिति में मौजूद है। कहा जाता है इस किले का घेराव चार मील का था व 32 दरवाजे थे, जिसकी 30-35 फुट ऊंची दीवारें ध्वस्त हुई दिखाई देती हैं।-तीर्थदर्शन, प्रथम खंड, पृ. 112 23. अज्जचंदणा पाएसु पडिऊण भणइ-मिच्छामि दुक्कडं त्ति-आव. नि., भाग 1 पृ. 325 24. (क) जैन संस्कृत साहित्य नो इतिहास भाग 2, पृ. 245 (ख) जै. सा. बृ. इ., भाग 6 पृ. 201 25. (क) आव. चू. उत्तरार्ध, पत्र 160 (ग) त्रि. श. पु.च. 10/6/186 (ख) आव. नि., भाग 2 पृ. 122 (घ) प्राप्रोने. 2 पृ. 795 26. (क) आव. चू., भा.2 पृ. 161 (ख) आव. हरि. वृ., भा. 1 गाथा 87 (ग) त्रि.श.पु.च. 10/8 (घ) प्राप्रोने. 1 पृ. 7 175 Page #238 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन श्रमणियों का बृहद इतिहास साक्षात् लक्ष्मी का अवतार स्वरूप विनय आदि गुणों से मंडित 'वासवदत्ता' नाम की कन्या थी।” मगावती एवं राजा चंडप्रद्योत के प्रकरण से वैराग्य प्राप्त कर ही अंगारवती ने भी मुगावती के साथ ही दीक्षा अंगीकार की। आर्या चन्दना के सान्निध्य में उसने उत्कृष्ट ज्ञान और तप की आराधना की। 3.2.11 मदनमंजरी (वी. नि. 22 वर्ष पूर्व) यह महापराक्रमी मालवराज चंडप्रद्योत की आठ रानियों में से एक थी। और दुर्मुख प्रत्येकबुद्ध की कन्या थी। जब मृगावती ने भगवान महावीर के पास दीक्षा अंगीकार की तब इन्होंने भी साथ में संयम ग्रहण किया।28 3.2.12 सुज्येष्ठा वैशाली गणराज्य के अध्यक्ष राजा चेटक की पुत्री सुज्येष्ठा सभी कलाओं में अत्यन्त निपुण एवं सर्वगुणसंपन्ना होने के साथ-साथ धर्म के प्रति दृढ़ श्रद्धावान भी थी। एकबार एक तापसी उसके पास शुचिधर्म का आडम्बरपूर्ण उपदेश देने लगी. सुज्येष्ठा एवं चेलना दोनों ने युक्तिपूर्ण तर्कों से उसके सिद्धान्तों का इस प्रकार खंडन किया कि तापसी निरूत्तर होकर वहां से तुरन्त चल दी। अपने अपमान का बदला लेने के लिए तापसी ने सज्येष्ठा का सन्दर चित्र बनाकर राजा श्रेणिक को दिखाया। श्रेणिक इस लावण्यमयी रूपसी सुधा का पान करने को लालायित हो उठा। मंत्री अभयकुमार के बुद्धि-कौशल से श्रेणिक सुरंग द्वारा वैशाली पहुंचे। सुज्येष्ठा और चेलना दोनों श्रेणिक के रूप व गुणों से प्रभावित थी, अत: दोनों ही राजगृही जाने के लिए श्रेणिक के साथ रथ में बैठी, तभी सुज्येष्ठा को अपनी रत्नाभूषण की मंजूषा की स्मृति हो आई। वह मंजूषा लेने पुनः राजमहलों में गई। राजा श्रेणिक ने चेलना को सुज्येष्ठा समझकर शीघ्र वहां से प्रस्थान कर दिया। राजगृही की सीमा आने पर श्रेणिक ने सुज्येष्ठा को आवाज दी, तो चेलना ने कहा-"मैं सुज्येष्ठा नहीं, उसकी छोटी बहन चेलना हूं।" श्रेणिक चेलना के रूप सौन्दर्य को देखकर संतुष्ट हुए, और उसके साथ विवाह कर लिया। इधर जब सुज्येष्ठा रत्नाभूषणों की मंजूषा लेकर लौटी तो रथ को वहाँ न देखकर निराश हो गई, उसे अपनी बहन चेलना के इस व्यवहार से क्षोभ हुआ, और सांसारिक जीवन से ही विरक्ति हो गई। उसने अपने पिता राजा चेटक से दीक्षा की अनुमति मांगी। पिता ने राजसी ठाठ व समारोह पूर्वक अपनी पुत्री सुज्येष्ठा को चंदनबाला श्रमणी-संघ में दीक्षित किया। अवदान : जीवन में कितनी ही घटनाएँ चित्त को उद्वेलित करने वाली बन जाती हैं। ऐसे प्रसंगों पर अपने जीवन को समत्व व त्याग से जोड़ने का अपूर्व उदाहरण सुज्येष्ठा ने युग के समक्ष रखा। 3.2.13 ज्येष्ठा यह क्षत्रियकुंड के अधिपति राजा सिद्धार्थ के ज्येष्ठ पुत्र नंदीवर्धन की पत्नी तथा वैशाली गणराज्य के अध्यक्ष चेटक की पुत्री थी। अपने रूप, गुण तथा शील में वह सर्वत्र प्रशंसनीय थी, एकबार देवता ने उसके शीलव्रत की 27. हरिहरनिवास द्विवेदी-मध्यभारत का इतिहास, खंड 1, पृ. 175 28. उत्तरा. नेमिचन्द्र वृति 135-2-1362 29. (क) आवश्यक हरि. वृत्ति, भा. 2 पृ. 124-25 (ख) प्राप्रोने. 2 पृ. 810 176 Page #239 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महावीर और महावीरोत्तरकालीन जैन श्रमणियाँ परीक्षा ली थी, भय व प्रलोभन के मध्य भी जब वह अडिग रही, तो देव हार मानकर चला गया। पति-पत्नी ने गृहस्थाश्रम में रहकर पहले बारह व्रतों को अंगीकार किया, तत्पश्चात् ज्येष्ठा को वैराग्य हो गया और वह पति की आज्ञा लेकर आर्या चंदना के पास दीक्षित हो गई। 30 अवदान : लौकिक जीवन कितना भी सुखी व सम्पन्न क्यों न हो अन्ततः उसकी परिणति दुःख रूप है, ऐसा चिंतन कर राजमहिषियाँ भी जीवन के चतुर्थ भाग में संसार त्यागी बन जाती थीं। ज्येष्ठा के जीवन का यह उदाहरण आज समग्र मानव जाति के लिये प्रेरणादायक है। 3.2.14 काली आदि दस रानियाँ (वी. नि. 16 वर्ष पूर्व ) प्रभु महावीर जब अपनी केवलीचर्या के चौदहवें वर्ष में मिथिला का वर्षावास पूर्ण कर चंपा नगरी के पूर्णभद्र नामक चैत्य में पधारे, प्रभु के पधारने का समाचार सुनकर चम्पा नगरी के लोग तथा काली आदि दस रानियाँ महावीर के दर्शन तथा प्रवचन श्रवण करने के लिए गईं। उस समय चम्पा नगरी का राजा कोणिक अपने कालकुमार आदि दस भाइयों की सेना को साथ लेकर वैशाली के राजा चेटक के साथ युद्ध करने के लिए गया हुआ था। देशना के अनन्तर अनुकूल अवसर देखकर कालकुमार आदि दसों कुमारों की माताओं ने अपने पुत्रों के लिए जिज्ञासा व्यक्त की "हे भगवन! हमारे पुत्र कालकुमार आदि युद्ध में गए हुए हैं क्या वे सकुशल वापिस लौटेंगे।" रानियों के प्रश्न के उत्तर में महावीर ने कहा- "हे देवानुप्रिय ! तुम्हारे पुत्र युद्ध में काम आ गए, वे पुन: नहीं लौटेंगे। "31 पुत्र वियोग की बात श्रवण कर काली आदि माताओं का हृदय शोक से संतप्त हो गया। वे संसार के वैभव से विमुख होकर त्याग और वैराग्य मार्ग अपनाने के लिए तैयार हो गईं। प्रभु महावीर ने उन्हें दीक्षित कर आर्या चन्दना को सौंप दिया। काली आदि रानियों ने आर्या चन्दना के साध्वी संघ में सम्मिलित होकर सामायिक आदि ग्यारह अंगों का अध्ययन किया। तत्पश्चात् कठोर तपस्या कर कर्मों की निर्जरा करने लगी इनकी तपस्या का लोमहर्षक चित्रण आगम - साहित्य में इस प्रकार मिलता है। (i) काली : इन्होंने 'रत्नावली तप' की साधना की। यह साधना एक वर्ष तीन मास और बाईस दिन में पूर्ण होती है, इस तप में 384 दिन तपस्या के एवं 88 दिन पारणे के आते हैं। इस प्रकार की तप साधना उन्होंने चार बार की, जो पाँच वर्ष छः मास और अट्ठाईस दिन में पूर्ण हुई। इन्होंने आठ वर्ष संयम पाला । (ii) सुकाली : सुकाली रानी ने 'कनकावली' तप प्रारम्भ किया। इसकी एक परिपाटी में एक वर्ष पाँच मास और अठारह दिन लगे। इसमें 28 दिन का पारणा और 1 वर्ष 2 मास 14 दिन उपवास के आते हैं। ऐसी चार परिपाटी को पूरा करने में उन्हें पांच वर्ष नौ महीने अठारह दिन लगे। सुकाली ने नौ वर्ष संयम पाला । (ii) महाकाली : इन्होंने " लघुसिंहनिष्क्रीड़ित " तप की आराधना की। इसके एक क्रम में तैंतीस दिन पारणे के और पांच महीने चार दिन तप के होते हैं। इस प्रकार की चार परिपाटी उन्होंने दो वर्ष अट्ठाईस दिन में पूर्ण की। महाकाली साध्वी ने दस वर्ष तक संयम का पालन किया। 30. आव. नि. हरि वृत्ति, भाग 2 पृ. 124 31. निरयावलिका सूत्र, अध्याय 1 177 Page #240 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन श्रमणियों का बृहद इतिहास (iv) कृष्णा : कृष्णा महारानी ने महासिंहनिष्क्रीड़ित तप की आराधना की। इसमें 61 दिन पारणे के 479 दिन तपस्या के आते हैं। ऐसी चार परिपाटी उन्होंने 6 वर्ष 2 महीने 12 दिन में पूर्ण की। इन्होंने 11 वर्ष तक संयम का पालन किया। (v) सुकृष्णा : इन्होंने सप्तसप्तति भिक्षु-प्रतिमा अंगीकार की जिसमें प्रथम सप्ताह एक दत्ति (एकबार दिया गया) आहार व एक दत्ती पानी की ग्रहण की। क्रमशः सातवें सप्ताह सात दत्ति आहार व सात दत्ति पानी की ग्रहण की जाती हैं। उसकी समाप्ति पर फिर अष्टअष्टमिका भिक्षु-प्रतिमा फिर नवनवमिका एवं पश्चात् दसदसमिका भिक्षु-प्रतिमा तप किया। ये 12 वर्ष संयम पालकर मुक्त हुईं। (vi) महाकृष्णा : इन्होंने लघुसर्वतोभद्र तप की आराधना की। इस तप में उन्हें एक वर्ष एक मास दस दिन लगे। इस तप में 25 दिन पारणा और 75 दिन तप के ऐसे कुल सौ दिन होते हैं। इस तप की चार परिपाटी पूर्ण की। इनका संयम तेरह वर्ष का था। (vii) वीरकृष्णा : इन्होंने महासर्वतोभद्र तप की आराधना की, इसकी एक परिपाटी में 49 दिन का पारणा व छह मास 16 दिन का तप ऐसे कुल आठ मास पांच दिन लगते हैं। इस तप की चार परिपाटी पूर्ण करने में 2 वर्ष 8 मास 20 दिन लगे। इनका संयम-पर्याय चौदह वर्ष का था। (viii) रामकृष्णा : इन्होंने चन्दनबाला आर्या की आज्ञा से भद्रोत्तर प्रतिमा तप किया। 40 दिन के इस तप में 5 पारणे और 35 उपवास आते हैं। इस तप को शास्त्रोक्त विधि से पूर्ण करने में उन्हें 2 वर्ष 2 महीने 20 दिन लगे। इन्होंने 15 वर्ष संयम पाला। (ix) पितृसेनकृष्णा : इनका मुक्तावली तप था। इस तप की चारों परिपाटियों को पूर्ण करने में इन्हें तीन वर्ष दस महीने लगे। इन्होंने 16 वर्ष तक संयम का पालन किया। (x) महासेनकृष्णा : श्रेणिक राजा की दसवीं रानी महासेनकृष्णा ने आयम्बिल वर्धमान तप की आराधना की इसमें उन्हें 14 वर्ष 3 मास 20 दिन लगे। इनका संयम पर्याय 17 वर्ष का था। इस प्रकार इन दसों रानियों ने घोर तपश्चर्या की अग्नि में अपने अष्ट कर्म समूहों को भस्मीभूत कर अन्त में एक मास की संलेखना की और केवलज्ञान, केवलदर्शन को प्राप्त कर सिद्ध गति में पहुंची। अवदान : कर्म समूह को भस्मीभूत करने एवं आत्म-शक्तियों को प्रगट करने के लिये संयम व तप उत्कृष्ट साधन है। काली आदि रानियों ने संयम व तप की दुष्कर साधना कर विश्व को यह दिखा दिया कि नारी मोम के समान कोमल ही नहीं वह वज्र के समान सुदृढ़ भी है। अन्तकृद्दशांग सूत्र में वर्णित रानियों की तपस्या के स्वर्णिम पृष्ठ हमारी रोमराशि को प्रकंपित कर देने वाले आख्यानों का संगान है। आज भी हजारों-हजार मुमुक्षु आत्माएँ इन प्रज्वलित दीपमालाओं से प्रकाश ग्रहण कर तप व संयम की साधना में अग्रसर होती हैं। 3.2.15 दुर्गन्धा/गजगन्धा यह राजगृही की वैश्या की कन्या थी, जन्म से ही इसके शरीर की दुर्गन्ध असह्य होने से वैश्या ने उसे मार 32. अन्तकृदृदशांग सूत्र, वर्ग 8 अध्याय 1-10 178 Page #241 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महावीर और महावीरोत्तरकालीन जैन श्रमणियाँ पर ही कहीं छोड़ दिया। राजा श्रेणिक भगवान महावीर के दर्शनार्थ उधर से निकले तो दुर्गन्धा को देख भगवान से उसका पूर्वभव पूछा। प्रभु ने कहा-यह पूर्वभव में शालिग्राम के धनमित्र श्रेष्ठी की कन्या 'धनश्री' थी। अपने विवाहोत्सव के समय एक निर्ग्रन्थ मुनि को देख उनसे घृणा की. अतः यहाँ उसे दुर्गन्धयुक्त शरीर मिला। यौवनवय आने पर इसके पापकर्म का क्षय हो जायेगा. तब यह तुम्हारी ही रानी बनेगी। कालान्तर में वैसा ही हुआ, एक निःसंतान ग्वालन ने इसे पुत्रीवत् पाला। इसके सौन्दर्य को देखकर राजा श्रेणिक मोहित हो गये और उसके साथ विवाह कर लिया। कुछ वर्षों पश्चात् जब उसे अपने पूर्वभवों का वृत्तान्त ज्ञात हुआ तो संसार की नश्वरता का बोध कर वह भगवान के पास दीक्षित हो गई। दुर्गन्धा ने तप-संयम की सुगंध से अपनी आत्मा को सुवासित कर लिया। 3.2.16 जयश्री, मनोरमा, देवदत्ता, धनश्री, श्रीमती, कुसुमश्री और सोमश्री राजगृह के श्रेष्ठी धनदत्त के पुत्र कृतपुण्य की ये आठ भाएं थीं। जयश्री राजगृह के श्रेष्ठी सागरदत्त की पुत्री थी, मनोरमा राजा श्रेणिक की पुत्री थी, देवदत्ता, सुलोचना गणिका की पुत्री, शेष चारों बसन्तपुर की सेठानी चम्पा की युवती विधवाएं थीं, ये सातों कृतपुण्य के सुख-दुःख में भागीदार बनी थीं। भगवान महावीर के द्वारा अपना पूर्वभव श्रवण कर सभी को जातिस्मृतिज्ञान हुआ, इन सबने राजगृही के गुणशीलक उद्यान में संयम अंगीकार किया। जयश्री, मनोरमा आदि सातों साध्वियाँ चन्दनबाला की आज्ञानुवर्तिनी बनकर कठोर महाव्रतों का पालन करती हुई सद्गति को प्राप्त हुईं। 3.2.17 श्री विजयादेवी दक्षिण भारत के वर्तमान कर्नाटक (मैसूर) राज्य में हेमांगद नामक देश की राजधानी राजपुरी में सत्यन्धर राजा की ये अतिप्रिय लावण्यवती महारानी थी। सत्यन्धर सज्जन प्रकृति के पुरूष थे साथ ही वैज्ञानिक यन्त्रों को बनाने में अत्यधिक पटु थे, किन्तु राज-काज में कोरे होने से मंत्री काष्टांगार के षड्यन्त्र का शिकार हुए, आसन्न संकट देख गर्भवती विजयारानी को स्वनिर्मित मयूरयन्त्र में बैठाकर आकाशमार्ग से पहले ही उन्होंने बाहर भेज दिया। दूर एक श्मशान में यन्त्र उतरा वहीं विजया ने जीवन्धर को जन्म दिया। विजया ने अनेक संकट झेलते हुए पुत्र के लालन-पालन, सुरक्षा एवं उचित शिक्षा-दीक्षा की व्यवस्था की। उसके पश्चात् चन्दना आर्या के पास संयम ग्रहण किया। 3.2.18 आर्या सुव्रता प्रभु महावीर के प्रथम पट्टधर आर्या सुधर्मा के आचार्यकाल में महासती सुव्रता का उल्लेख परिशिष्ट पर्व में आचार्य हेमचन्द्र ने किया है, वहाँ उल्लेख है कि जम्बूकुमार की माता, पत्नियों एवं उनकी माताओं को आचार्य सुधर्मा स्वामी ने श्रमणी दीक्षा प्रदान कर साध्वी सुव्रताजी की आज्ञानुवर्तिनी बनाया। साध्वी सुव्रता प्रवर्तिनी चन्दनबाला की आज्ञानुवर्तिनी स्थविरा साध्वी थी या आचार्य सुधर्मा के श्रमणी संघ की प्रवर्तिनी? यदि प्रवर्तिनी थीं तो किस समय 33. (क) आव नि. हरि. वृ., भा. 1 पृ. 217 (ख) निशीथसूत्र भाष्य, भाग 1 पृ. 16 गा. 25 34. (क) अभयकुमार चरितं महाकाव्य सर्ग 9, उपाध्याय चन्द्रतिलक रचित (ख) कयवन्ना शाह नो रास, जयतसी कविकृत, कथा-उपलब्धि सूत्रः जैन कथाएं, भाग 46 35. समीपे चन्दनार्या वा जगह: संयम परं - उत्तरपुराण, पृ. 527 179 Page #242 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन श्रमणियों का बृहद इतिहास से किस समय तक प्रवर्तिनी रहीं, इस संबंध में कहीं कोई उल्लेख दृष्टिगोचर नहीं होता। तथापि जम्बूकुमार की माता व पत्नियों की वीर निर्वाण 1 में साध्वी सुव्रता के पास दीक्षा के उल्लेख से यह तो स्पष्ट होता है कि वह महावीरकालीन साध्वी थी, आचार्य सुधर्मस्वामी के समय स्थविरा या प्रवर्तिनी के रूप में सम्माननीया रही। 3.3 महावीरोत्तर युग (वी. नि. 1 से 12वीं शताब्दी) ई. पू. 527 से महावीरोत्तर युग प्रारम्भ होता है। जिसका काल वी.नि. 21 हजार वर्ष लगभग है, किंतु अनागत अनुपस्थित होने से हम वर्तमान वी.नि. 2531 वर्ष के महावीरोत्तर युग की ही श्रमणियों का अध्ययन कर सकते हैं, प्रस्तुत अध्याय में महावीरोत्तर युग की 12वीं शताब्दी तक की श्रमणियाँ; जिनका संबंध गच्छभेद से पूर्ववर्ती शाखाओं से है, उन्हीं के संबंध में विचार किया गया है। इन श्रमणियों को हमने दो भागों में विभाजित किया है गण मुक्त - जो किसी भी गच्छ से संबंधित नहीं हैं। गण कुल या शाखा से अनुबद्ध - ये श्वेताम्बर और यापनीयों की पूर्वज हैं तथा मुख्यतया मथुरा के अभिलेखों में उटैंकित हैं। 3.3.1 गण मुक्त महावीर के पश्चात् महावीर के शासन की डोर उनके पंचम गणधर सुधर्मा स्वामी ने संभाली, इस समय मगध पर कूणिक का राज्य था। वी.नि. 17 या 18 तक उसके राज्यकाल में कई श्रमणियों के दीक्षा लेने का उल्लेख है। वी. नि. 1 में श्रेष्ठी पुत्र जम्बूकुमार के साथ 17 महिलाएँ दीक्षित हुईं। आर्या पुष्पावती एवं पुष्पचूला का समय भी वी. नि. प्रथम दशक है। अवन्ती में राजा चण्डप्रद्योत के पौत्र राष्ट्रवर्धन की भार्या धारिणी वी.नि. 24 से 60 के लगभग प्रव्रजित हुई थीं। यद्यपि वी. नि. 1 से 64 वर्ष तक मगध में शिशुनागराजवंश, अवंती में प्रद्योत राजवंश, वत्स (कौशाम्बी) में पौरव राजवंश एवं कलिंग में चेदि राजवंश जैनधर्म के अनन्य भक्त रहे,” अतः स्वाभाविक है कि इन राजवंशों की महिलाओं एवं अन्य श्रेष्ठी, सामन्त कुल की स्त्रियों ने भी प्रव्रज्या ग्रहण की होगी, किंतु प्रामाणिक सामग्री के अभाव में निश्चित् कुछ नहीं कहा जा सकता। तथापि वी. नि. की प्रथम शताब्दी से सातवीं शताब्दी तक चतुर्दश या दस पूर्वधर आचार्यों के काल में भी अनेकानेक श्रमणियाँ प्रव्रजित होती रहीं, यह निम्न तालिका से स्पष्ट ज्ञात होता है- (देखें तालिका) तालिका - महावीर निर्वाण की प्रथम से सातवीं शताब्दी तक की श्रमणियाँ वीर निर्वाण शताब्दी श्रमणियाँ प्रथम भद्रा आदि 17 महिलाएँ, पुष्पवती, पुष्पचूला, धारिणी, विनयमती, विगतभया आदि। द्वितीय आर्य स्थूलिभद्र की 7 बहिनें-आर्या यक्षा, यक्षदत्ता आदि आर्य सुहस्ती के पास अवन्तीसुकुमाल की माता भद्रा एवं 31 पत्नियाँ चतुर्थ आर्य सुस्थित के समय पोइणी आदि 300 आर्याएँ 36. जै. मौ. इति., भाग 2, पृ. 223 37. जै.मौ.इ. भाग 2 पृ. 248-50 तृतीय 180 Page #243 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महावीर और महावीरोत्तरकालीन जैन श्रमणियाँ पंचम छठी कालकाचार्य (द्वितीय) की भगिनी सरस्वती मुरूण्ड राजकुमारी, आर्य वज्र की माता सुनन्दा एवं आर्य वज्र पर अनुरक्ता रूक्मिणी, आर्य रक्षित की माता रूद्रसोमा, आर्य नन्दिल के काल में वैरोट्या आदि आर्य वज्रसेन के काल में ईश्वरी आदि सातवीं इस प्रकार वी. नि. की प्रथम से सातवीं शताब्दी तक श्रमणियों का अस्तित्व इस बात का सूचक है कि विभिन्न आचार्यों के काल में भी श्रमणी-संघ की अविच्छिन्न धारा चलती रही, यद्यपि विगत की बीच-बीच की कालावधि में साध्वियों के नामोल्लेख नहीं हैं, तथापि उक्त श्रमणियों को प्रव्रज्या प्रदान करने वाली साध्वियां और उनकी शिष्याओं का क्रम निर्बाध गति से चलता रहा, यह अनुमान सहज ही लगाया जा सकता है। साथ ही वी. नि. की द्वितीय शताब्दी में हुई आर्या यक्षा आदि एवं छठी शताब्दी में बालक वज्र के समक्ष एकादशांगी का स्वाध्याय करने वाली साध्वियों के उल्लेखों से यह भी प्रमाणित होता है कि बीच के अनेक अन्तरालों में न केवल श्रमणी परम्परा ही अपितु सम्पूर्ण एकादशांगी की पारंगता साध्वी परम्परा भी सदा अक्षुण्ण रूप से विद्यमान रही है। यदि ऐसा नहीं होता तो आर्य महागिरी, आर्य सुहस्ती एवं आर्य वज्र आदि को साध्वियों द्वारा एकादशांगी कंठस्थ कराने के उल्लेख प्राचीन नियुक्ति एवं चूर्णियों में नहीं मिलते। __यहाँ एक बात और भी उल्लेखनीय है कि दिगम्बर-श्वेताम्बर परम्परा भेद वी. नि. 606 अथवा 609 के आसपास माना गया है। श्वेताम्बर-परम्परा में दस पूर्वधारी अंतिम आचार्य वज्र का स्वर्गगमन 584 में हुआ। हरिषेणकृत बृहत्कथाकोश में प्रभावना अंग का वर्णन करते हुए जिन वज्रमुनि को जिनशासन की महिमा बढ़ाने वाला कहा गया है, उनका समय भी यही है इससे प्रतीत होता है कि दोनों परम्पराओं को मान्य वज्र मुनि आर्य वज्र हैं जो छठी शताब्दी में आर्यरक्षित के विद्यागुरू हुए। उनके समय तक श्रमण संघ में विभेद की स्थिति नहीं थी। आर्य वज्र के स्वर्गगमन के पश्चात् दिगम्बर श्वेताम्बर का स्पष्ट भेद दिखाई देता है। यही कारण है कि सातवीं शताब्दी तक की श्रमणियाँ किसी गच्छ से अनुबंधित नहीं हुई। यहाँ हम महावीरोत्तर युग की उन श्रमणियों का विवरण प्रस्तुत कर रहे हैं जिनके उल्लेख प्रायः श्वेताम्बर परम्परा मान्य ग्रंथों में उपलब्ध होते हैं, तथा जिन पर किसी गण कुल या शाखा की मोहर अंकित नहीं है। 3.3.1.1 धारिणी/भद्रा (वि. नि. 1) धारिणी राजगृही के धनकुबेर श्रेष्ठी ऋषभदत्त की भार्या थी। निःसन्तान होने से वह सदा चिन्तित और दुःखी रहती थी। बाद में अटूट निष्ठा के साथ निष्कपट भाव से निरंतर धर्म-आराधना करते हुए धारिणी ने गर्भ धारण किया और सुधर्मास्वामी द्वारा विघ्न बतलाने पर 108 आयाम्बिल व्रत किए।" गर्भ प्रवेश पर धारिणी ने स्वप्न में जंबूफल देखा। गर्भकाल पूर्ण होने पर उसने एक महातेजस्वी पुत्र को जन्म दिया, जिसका नाम जंबूकूमार रखा। बाल्यकाल पूर्ण होने पर उसने अपने पुत्र का आठ श्रेष्ठी कन्याओं से वाग्दान किया। 38. जै.मौ. इति., भाग 2 पृ. 582 39. डॉ. हीराबाई बोरदिया, जैनधर्म की प्रमुख साध्वियाँ एवं महिलाएँ, पृ. 133 40. जैनधर्म का मौलिक इतिहास, भा. 2 पृ. 213 181 For Private & Eersonal Use Only Page #244 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन श्रमणियों का बृहद इतिहास सुधर्मास्वामी की वाणी से प्रभावित होकर जंबूकुमार ने विवाह के दूसरे दिन ही 527 जनों के साथ दीक्षा अंगीकार की। उसमें प्रभवप्रमुख 500 डाकू, जंबू के माता-पिता, जम्बू की आठों पत्नियाँ एवं उनके माता-पिता सम्मिलित थे। उस समय संघ का नेतृत्व 'आर्या सुव्रता' नाम की साध्वी के हाथों में होने का उल्लेख प्राप्त होता है। वीर निर्वाण संवत् 1 में इनकी दीक्षा हुई। 3.3.1.2 समुद्रश्री आदि आठ कन्याएँ, तथा पद्मावती आदि आठ महिलाएँ (वी. नि. 1 ) समुद्रश्री, पद्मश्री, पद्मसेना, कुबेरसेना, नभसेना, कनकश्री, कनकवती एवं जयश्री ये आठों क्रमशः समुद्रदत्त, सागरदत्त, कुबेरदत्त, कुबेरसेन, श्रमणदत्त, वसुषेण, एवं वसुपालित आदि प्रतिष्ठित श्रेष्ठियों की कन्याएँ थी। सभी रूप, गुण तथा कलाओं में पारंगत थी, पिता ने इनका वाग्दान जंबूकुमार के साथ किया किंतु जब आर्य सुधर्मा स्वामी के उपदेश से जम्बू ने दीक्षा ग्रहण करने का संकल्प किया, तो आठों कन्याओं ने महासती राजीमती के सदृश ही अपने माता-पिता को स्पष्ट शब्दों में कह दिया- 'आपने हमें उन्हें वाग्दान में दे दिया है, अतः वे ही हमारे स्वामी हैं, हम जंबूकुमार के साथ ही विवाह करेंगी, उसके पश्चात् या तो हम जंबूकुमार को अपने प्रेम-पाश में बांधकर दीक्षा लेने से रोक लेंगी अथवा हम भी उनके पथ का अनुसरण कर लेंगी। उनकी ऐसी दृढ़ प्रतिज्ञा देखकर उनके माता-पिता जंबूकूमार के साथ अपनी-अपनी कन्याओं का पाणिग्रहण करवाया। सुहागरात में सोलहों श्रृंगारों से सुसज्जित इन अनिन्द्य सुन्दरी वधुओं ने कुमार को रिझाने और अपने निश्चय से चलायमान करने का अथक प्रयत्न किया। परस्पर पूरा शास्त्रार्थ चला, किंतु जम्बूकुमार के दृढ़ निश्चय के समक्ष सभी को पराजित ही नहीं होना पड़ा वरन् वे स्वयं भी जम्बूकुमार के साथ दीक्षा लेने के लिये तैयार हो गईं। जम्बूकुमार एवं पत्नियों का शास्त्रार्थ अत्यन्त ज्ञानवर्धक होने के साथ-साथ रोचक भी है। दीक्षा के समय जम्बूकुमार सोलह वर्ष के थे।", तो उनकी पत्नियां भी इसी प्रकार अल्पवय की होनी संभवित है। साथ ही वे प्रखर प्रतिभा सम्पन्न भी थी, यह उनके द्वारा कथित कथाओं द्वारा ज्ञात होता है । उक्त आठ कन्याओं के साथ उनकी माताओं ने भी श्रमणी दीक्षा अंगीकार की थी, उनके नाम इस प्रकार हैं :- 1. पदमावती 2. कमलमाला, 3. विजयश्री, 4. जयश्री, 5. कमलावती, 6. सुषेणा, 7. वीरमती, 8 अजयसेना । दिगम्बर ग्रन्थों में जम्बूकुमार की चार पत्नियों का ही उल्लेख है सागरदत्त सेठ की कन्या पद्मश्री, कुबेरदत्त की कन्या कनकश्री, वैश्रवणदत्त की कन्या विनयश्री एवं धनदत्त की कन्या रूपश्री 42 अनुदान : समुद्रश्री आदि जम्बूकुमार की ऐश्वर्य में पली आठों पत्नियों ने भोगयोग्य जवानी में जिस प्रकार काम-भोगों, सुख-सुविधाओं व अपार सम्पदा को ठुकराकर जम्बूकुमार के साथ अपने अविचल प्रेम का अन्त तक निर्वहन किया, वह वस्तुतः महान, अद्वितीय, अनुपम, अत्यद्भुत और मुमुक्षुओं के लिये प्रेरणास्रोत रहा है और रहेगा । विश्व-साहित्य में इस प्रकार का अन्य कोई उदाहरण दृष्टिगोचर नहीं होता। यह घटना जैन कवियों को इतनी रोचक लगी कि उस पर संस्कृत, प्राकृत, अपभ्रंश तथा देशी भाषाओं में 100 से अधिक रचनाएँ उपलब्ध होती हैं। संघदासगणि, गुणभद्राचार्य, गुणपालन मुनि हेमचन्द्राचार्य, रत्नप्रभसूरि, जिनसागरसूरि आदि बड़े-बड़े आचार्यों ने इस महाभिनिष्क्रमण की स्तुति की है। 43 41. (क) पंन्यास कल्याणविजय जी, तपागच्छ पट्टावली, पृ. 5-22 (ख) जैनधर्म का मौलिक इति. भा. 2, पृ. 777 42. जैनधर्म का प्राचीन इतिहास, भा. 2, पृ. 34 43. (क) हिं. जै. सा. इ., भाग 6 पृ. 153-155, (ख) उत्तरपुराण का 76वां पर्व 182 Page #245 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महावीर और महावीरोत्तरकालीन जैन श्रमणियाँ 3.3.1.3 श्री गंधर्वदत्ता, गुणमाला, पद्मोत्तमा, केमचरी, कनकमाला, विमला, सुरमंजरी और लक्ष्मणादेवी (वी. नि. के लगभग ) जीवक - चिंतामणि में राजा जीवंधर की पत्नियों के रूप में इनका उल्लेख प्राप्त होता है. जीवंधर अपनी माता विजयादेवी को दीक्षा के मार्ग पर अग्रसर देखकर स्वयं भी विरक्त भाव से कुछ वर्ष राज्य भोगकर श्री सुधर्मास्वामी के पास दीक्षा ग्रहण कर लेते हैं। श्री गंधर्वदत्ता, गुणमाला आदि भी अपने पति के मार्ग का अनुसरण कर श्री सुधर्मास्वामी के पास दीक्षा अंगीकार कर लेती हैं। 14 उत्तरपुराण में इनकी दीक्षा विजयादेवी के साथ ही आर्या चन्दना के समीप हुई, ऐसा उल्लेख है।” संस्कृत, प्राकृत, हिंदी, तमिल, कन्नड़ आदि भाषाओं में इन पर उत्तम काव्यरची गई हैं। 46 -कृतियाँ 3.3.1.4 पुष्पावती (वी. नि. 11 से पूर्व ) पुष्पावती पुष्पभद्र निवासी राजा पुष्पकेतु की रानी थी। पुष्पचूल और पुष्पचूला स्वर्ग से च्युत होकर एक साथ पुष्पावती के गर्भ में आये, दोनों भाई-बहन युगल के रूप में पैदा हुए। दोनों का परस्पर गाढ़ स्नेह देखकर माता-पिता ने सामाजिक नियम के प्रतिकूल पुष्पचूल व पुष्पचूला दोनों का विवाह कर दिया। संसार में पति-पत्नि कहलवा कर भी ये दोनों भाई-बहन के समान निर्दोष व पवित्र बने रहे। इन दोनों भाई-बहनों की चढ़ती जवानी में यह निर्विकारता तथा भोगों से अलिप्त वृत्ति देखकर राजा-रानी का भोगी मन संसार से विरक्त हो गया, उन्होंने पुष्पचूल को राज्य सौंपकर दीक्षा अंगीकार कर ली। 47 इनकी दीक्षा आचार्य अन्निकापुत्र के काल में होने का उल्लेख प्राप्त होता है। अन्निकापुत्र का निर्वाण वीर. संवत् 11-12 में हुआ, ये आचार्य जयसिंह के शिष्य थे। पुष्पावती की दीक्षा अन्निकापुत्र के निर्वाण से पूर्व हुई थी। 48 3.3.1.5 पुष्पचूला (वी. नि. 12 के पश्चात् ) पुष्पचूला गंगा नदी के तट पर स्थित 'पुष्पभद्रा' नामक नगरी के राजा पुष्पकेतु की कन्या और राजा पुष्पचूल की रानी थी। माता पुष्पावती मरकर देवलोक में देवी बनी थी, उसने अपनी पुत्री पुष्पचूला को प्रतिबोध देने के लिये नरक - स्वर्ग के अनेक दृश्य दिखाये। नरकों के घोर कष्टों से भयभीत पुष्पचूला ने आचार्य अन्निकापुत्र से उसके निवारण का उपाय पूछा, आचार्य ने उसे संयम धारण करने की सलाह दी। पुष्पचूला ने अपने पति पुष्पचूल से संयम की अनुमति मांगी, तो पुष्पचूल ने उसे इस शर्त पर आज्ञा दी कि आप इसी नगरी में रहेंगी और प्रतिदिन मेरे घर से आहार ग्रहण करेंगी । पुष्पचूला पति की शर्त स्वीकार कर आचार्य अन्निकापुत्र के पास दीक्षित हो गई। जंघाबल क्षीण हो जाने पर अन्निकापुत्र भी पुष्पभद्र नगर में ही स्थिरवासी हो 44. तिरूत्तक्क देवर रचित महाकाव्य, जीवक - चिंतामणि, पृ. 201 45. उत्तरपुराण, पृ. 527 46. (क) जै. सा. का बृ. इ. भाग 7, पृ. 161-66 (ख) डॉ. ज्योतिप्रसाद, ऐतिहासिक जैन पुरूष और महिलाएँ, पृ. 21 47. (क) आव. चू., भाग 1 पृ. 559, (ख) आव. नि. भाग 1, गाथा 1284 (ग) प्राकृत प्रोपर नेम्स, भाग 1 पृ. 470 48. युवाचार्य श्री मधुकरमुनि, जैन कथामाला, भाग 14, पृ. 7, हजारीमल स्मृति प्रकाशन, ब्यावर 183 Page #246 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन श्रमणियों का बृहद इतिहास गये। साध्वी पुष्पचूला आचार्य की गोचरी लाने की सेवा करती। शुभ अध्यवसाय स्वरूप जब संपूर्ण कर्म क्षीण हो गये और वह केवली हो गई, तब भी उसने पूर्व आचरित विनय को नहीं छोड़ा। अब तो वह आचार्य के लिये और भी मनोभिप्सित वस्तुएँ लेकर आने लगी, आचार्य को अत्यंत आश्चर्य होता था, किंतु पुष्पचूला केवली ने कभी कुछ नहीं बताया। एक बार जब वर्षा में भी वह गोचरी लेकर आई तो आचार्य ने पूछा -'तुम वर्षा में आई हो?' पुष्पचूला बोली- 'जिधर अचित्त वर्षा थी, उधर से आई हूँ।' ऐसा कहने पर आचार्य को उसके केवली होने का रहस्य प्रकट हुआ। उन्होंने पुष्पचूला से क्षमायाचना की। पुष्पचूला केवली पर्याय में कितने वर्ष रही और उनका निर्वाण कब हुआ इसकी निश्चित् तिथि तो ज्ञात नहीं है, किंतु अन्निकापुत्र का निर्वाण वी. सं. 11-12 में हुआ, इससे इतना अवश्य कहा जा सकता है, कि वह भी वी. नि. 12 के पश्चात् मोक्ष को प्राप्त हुई। अवदान : संसार में रहकर एक राजा की रानी के रूप में भाई के प्रति अनन्य स्नेह होने पर भी पुष्पचूला सदा साध्वी, सती और अखंड ब्रह्मचारिणी बनी रही और अंत में भाई/पति के अनुराग को भी क्षीण कर शाश्वत लक्ष्य को प्राप्त कर गई, इतिहास का यह अभूतपूर्व प्रेरक प्रसंग है। 3.3.1.6 तरंगवती/साध्वी सुव्रता (वी. नि. प्रथम दशक के लगभग) चन्दनबाला आर्या के संघ में उक्त श्रमणी का उल्लेख एवं उसकी विस्तृत कथा आचार्य पादलिप्तसूरि ने लिखी। रचना समय वि. सं. 151 से 219 के मध्य का है। यह कथा आज मूल रूप में प्राप्त नहीं है। लेकिन इसका संक्षिप्त रूप जिसका दूसरा नाम तरंगलोला भी है। वह श्री नेमिचन्द्रगणि ने तरंगवती कथा के लगभग 100 वर्ष पश्चात् अपने 'यश' नामके शिष्य के स्वाध्याय हेतु लिखी थी। इसमें 1642 गाथाएँ हैं। अद्भुत रस युक्त यह कथा आत्मकथा के रूप में वर्णित है। ____ तरंगवती महासती चंदनबाला की प्रशिष्या के रूप में उल्लिखित हुई हैं। राजा कोणिक के राज्य में वह एकबार धनपाल श्रेष्ठी के घर भिक्षाचर्या के लिए गई तो उसकी शोभा नाम की पत्नी ने साध्वी के अनुपम रूप-सौन्दर्य से मुग्ध होकर पूछा कि, "हे आर्ये! आप त्रिलोक का सारा सौन्दर्य लेकर क्यों विरक्त हुईं? मेरे मन में आपका परिचय जानने की तीव्र उत्कंठा है।" तब साध्वी तरंगवती (सुव्रता) ने अपने गृहस्थ जीवन का परिचय देते हुए कहा- “मैं एकबार अपनी सखियों के साथ नगर के बाह्य उद्यान में गई, वहाँ एक चकवा पक्षी को देखकर मुझे जातिस्मरण ज्ञान हो गया, अर्थात् मैं भी पूर्वजन्म में किसी चकवे के साथ चकवी के रूप में गंगा नदी के तट पर क्रीड़ा कर रही थी, उस समय किसी शिकारी ने मेरे पति चकवे की हत्या कर दी, मैंने भी उसके वियोग में तड़फ-तड़फ कर प्राण त्याग दिये, वहाँ से मैं एक श्रेष्ठी के यहाँ कन्या रूप में उत्पन्न हुई। जाति-स्मरण ज्ञान द्वारा अपने पूर्वभव के पति चकवे की खोज करने के लिए मैंने उसका व अपना क्रीड़ा करते हुए का दृश्य चित्रित कर कौशाम्बी नगरी के चौराहे पर रख दिया। वहाँ के श्रेष्ठी-पुत्र पद्मदेव ने उस चित्र को देखा उसे भी जातिस्मरण ज्ञान हो गया। हम दोनों का परस्पर स्नेह वृद्धिंगत होता गया, किंतु पिता की विवाह-हेतु अनुमति नहीं मिलने से हम नाव में बैठकर भाग गए, आगे चोरों ने हमें पकड़ लिया, और बलि हेतु कात्यायनी देवी के समक्ष ले गये। जीवन-रक्षा के लिए मैंने अत्यन्त 49. (क) आव. चू. उत्तरार्ध, हरि. वृत्ति, पृ. 177-79 (ख) आव. नि., भाग 1 पृ. 286 एवं भाग 2 पृ. 132 (ग) प्राप्रोने. 1 पृ. 468, (घ) जै. सा. बृ. इ., भाग 6 पृ. 319 50. प्राकृत भाषा और साहित्य का आलोचनात्मक इतिहास, डॉ. नेमिचंद्र शास्त्री, पृ. 450-56 184 Page #247 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महावीर और महावीरोत्तरकालीन जैन श्रमणियाँ में करूण विलाप किया, इससे द्रवित होकर चोरों के सरदार ने हमें मुक्त कर दिया। हम भटकते हुए कौशाम्बी नगरी पिता ने धूमधाम से शादी की। कुछ वर्षों के बाद भोगों से उपरत होकर मैंने साध्वी प्रमुखा चंदनबाला के संघ में प्रव्रज्या अंगीकार कर ली और आज मैं आपके यहाँ गोचरी हेतु आई हूँ।" आए, अवदान : तरंगवती ने साध्वी सुव्रता के रूप में संयम और तप की विशिष्ट आराधना की। ग्रामानुग्राम विचरण कर भगवान महावीर के अहिंसामय धर्म को सर्वत्र प्रचारित किया। कई प्राचीन ग्रंथों में तरंगवती का उदात्त शब्दों में स्मरण किया गया है। वी. नि. संवत् 1 में भद्रा, समुद्रश्री आदि 17 श्रेष्ठी - महिलाओं ने जिन सुव्रता साध्वी के पास दीक्षा अंगीकार की, संभव है वह यही सुव्रता हो । 3.3.1.7 धारिणी “द्वितीय" (वी. नि. 24-60 के लगभग ) महापराक्रमी राजा चण्डप्रद्योत की मृत्यु के पश्चात् पालक उज्जयिनी का राजा बना। उसके दो पुत्र थे। अवतीवर्धन और राष्ट्रवर्धन । धारिणी राष्ट्रवर्धन की पत्नी थी, यह अत्यन्त रूपसंपन्ना थी, अवन्तीवर्धन ने धारिणी की रूप-सुधा पर मोहित होकर अपने लघु भ्राता राष्ट्रवर्धन की हत्या कर दी। सतीत्व की रक्षा हेतु धारिणी चुपचाप राज्य त्याग कर कौशाम्बी चली गई, वहां गर्भावस्था में ही साध्वी समुदाय के पास दीक्षित हो गईं। गर्भावधि पूर्ण होने पर धारिणी ने पुत्र को जन्म दिया, संयम- मर्यादा हेतु उसने अपने शिशु को जंगल में एकान्त स्थान पर रख दिया, कौशाम्बी के राजा अजयसेन ने इस नवजात शिशु को उठाकर निःसंतान रानी को दे दिया, रानी ने अत्यंत हर्षित होकर शिशु को अपनी गोद में लिया और बालक का नाम 'मणिप्रभ' रख दिया। कालान्तर में धारिणी का प्रथम पुत्र 'अवन्तिसेन' जिसे वह उज्जैन में ही छोड़ आई थी, वह उज्जैन के सिंहासन पर बैठा, और अजयसेन राजा का पालित पुत्र 'मणिप्रभ' कौशाम्बी के राज सिंहासन पर बैठा। अलग-अलग राज्य के स्वामी दोनों भ्राताओं में एकबार किसी बात पर युद्ध छिड़ गया, साध्वी धारिणी को ज्ञात हुआ तो वह रक्तपात रोकने के लिये युद्धस्थल पर आई, दोनों को उनका असली परिचय देकर उनमें भ्रातृ-स्नेह स्थापित किया।” अवदान : श्रमणी धारिणी ने युद्ध की भयावह हिंसा को रोककर अहिंसा का महत्त्व स्थापित किया, तथा समयोचित निर्णय लेकर अपनी विवेक बुद्धि का परिचय दिया, जो अनुकरणीय आदर्श है। 3.3.1.8 विगतभया (वी. नि. 44 के लगभग ) धर्मवसु आचार्य के शिष्य धर्मघोष और धर्मयश के संघ की महत्तरा साध्वी विनयमती की ये शिष्या थी, जो जप-तप ध्यान में अग्रणी थी। उसने भक्त - प्रत्याख्यान संथारा धारण किया, और संलेखना समाधि पूर्वक मृत्यु का वरण किया। कौशाम्बी के संघ ने अत्यन्त ऋद्धि के साथ उनका भव्य मृत्यु- महोत्सव मनाया। उस समय कौशाम्बी में अजितसेन का राज्य होने का भी उल्लेख है। 3 51. (क) महापुरिसचरियं, आचार्य शीलांक, पत्र 641, (ख) जै. सा. बृ. इ. भाग 6, पृ. 335, (ग) ऐतिहासिक लेख संग्रह, पू. 525 52. (क) आव. नि. हरि वृ. भाग 2 पृ. 140-141, गाथा 1287 (ख) प्राप्रोने, भाग 1 पृ. 409 53. कोसंबिय जियसेणे धम्मवसू धम्मघोस धम्मजसे । विगयभया विणयवई इड्ढि विश्रुसा य परिकम्मे ।। आव. नि., भाग 2, गाथा 1286, पृ. 139 185 Page #248 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन श्रमणियों का बृहद इतिहास समीक्षा इन उल्लेखों के आधार पर हम यह विश्वसनीय तौर पर कह सकते हैं कि उस समय साध्वी संघ उज्जैन, कौशाम्बी आदि राज्यों में या उसके आसपास पैदल विहार कर जैनधर्म का प्रचार-प्रसार करता था, ये राज्य भी जैनधर्म के महत्वपूर्ण केन्द्र रहे होंगे, इस बात की पुष्टि धारिणी के उज्जैन से कौशाम्बी में आकर दीक्षा ग्रहण करने से भी होती है। महत्तरा विनयमती एवं उनकी साध्वियों से धारिणी का पूर्व परिचय होना भी संभवित लगता है। इससे यह भी सिद्ध होता है कि महत्तरा विनयवती वी. नि. की प्रथम शताब्दी के प्रथम चरण में किसी छोटे या बड़े साध्वी-संघ की प्रमुखा थी। 3.3.1.9 यक्षा आदि सात साध्वी-भगिनियां (वी. नि. दूसरी-तीसरी शती) __जैन-परम्परा में महासती चंदनबाला के पश्चात् यक्षा, यक्षदत्ता, भूता, भूतदिन्ना, सैणा, वैणा, रैणा इन सात महाश्रमणियों का नाम बड़े आदर के साथ लिया जाता है। इन्होंने अपनी अद्भुत मेधा-शक्ति से उस समय के प्रकाण्ड विद्वान् वररूचि के मान को भी विगलित किया था। ये सातों पाटलिपुत्र के नन्दराजा महापद्म के महामंत्री शकडाल की सुपुत्रियाँ थीं। तथा स्थूलिभद्र एवं श्रीयक की बहनें थी। इन सातों बहनों एवं दोनों भाइयों ने आचार्य संभूतिविजय के पास साध्वी-संघ में दीक्षा अंगीकार की। प्राचीन ग्रंथों में ऐसा उल्लेख आता है कि एकबार साध्वी यक्षा की प्रेरणा से भाई श्रीयकमुनि ने पर्युषण पर्व पर उपवास की आराधना की, किन्तु भूख से व्याकुल होकर उसी रात्रि उसका देहान्त हो गया। इस अप्रत्याशित घटना से साध्वी यक्षा को अत्यन्त पश्चाताप हुआ। तीन दिन अन्न-जल का त्याग कर उसने शासनदेवी की आराधना की और उनके सहयोग से महाविदेह क्षेत्र में सीमंधर प्रभु के श्रीमुख से अपनी निर्दोषता श्रवणकर तथा उनकी वाणी अपनी अद्भुत स्मरणशक्ति में रखकर भरतक्षेत्र में लाई। इनके द्वारा लाई गई चार चूलिकाओं में से दो चूलिकाएँ संघ ने आचारांग के प्रथम दो अध्ययनों के रूप में तथा अन्तिम दो को दशवैकालिक के अंत में स्थापित किया। कुछ विद्वानों ने इस कथानक की प्रामाणिकता में सन्देह प्रकट किया है। दशवैकालिक सूत्र के चूर्णिकार अगस्त्यसिंहसूरि ने भी इन दोनों चूलिकाओं को आचार्य शय्यंभव द्वारा रचित होना ही सूचित किया है। लेकिन महाविदेह से लाई जाने वाली बात का कोई कथन उन्होंने नहीं किया। अतः यह किंवदंती चूर्णिकार के बाद किसी ने किसी कारण से प्रचारित की है, जो बाद में ग्रन्थों में लिख दी गई है। अस्तु, इतना अवश्य है कि साध्वी यक्षा आदि उस युग की अद्वितीय प्रतिभा सम्पन्न परमप्रभाविका महासाध्वी थी। अपनी अद्भुत स्मरण-शक्ति से अथाह ज्ञान अर्जित कर इन सभी ने अनेक वर्षों तक जिनशासन की महती सेवा की। कहा जाता है कि आर्य महागिरि और आर्य सुहस्ति को आचार्य स्थूलिभद्र ने बाल्यावस्था से ही यक्षा साध्वी को सौंपा हुआ था। उसके ज्ञान-निर्झर से सिंचित ये दोनों ही आगे चलकर महाप्रभावक आचार्य बने। 54. (क) आव. नि. हरि. वृ., भाग 2, पृ. 139 (ख) आव. चू., भाग 2 पृ. 183 55. महाविदेहे य पुच्छिका गता अज्जा, दोवि अज्झयणाणि भावणा विमोत्तीय आणिताणि। -आव. चू., भाग 2 पृ. 188 56. देखें-त्रीणि छेदसूत्राणि, मुनि कन्हैयालाल 'कमल' द्वारा लिखित प्रस्तावना 57. पं. कल्याणविजयजी, तपागच्छ पट्टावली, पृ. 48 186 Page #249 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महावीर और महावीरोत्तरकालीन जैन श्रमणियाँ अवदान : आर्य महागिरि और आर्य सुहस्ती जैसे आचारनिष्ठ प्रभावशाली एवं महाप्रभावक - श्रमण श्रेष्ठों को एकादशांगी का अध्ययन कराने वाली महासती यक्षा कितनी विदुषी, और आचारनिष्ठ होगी, इसका सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है। यक्षा आदि इन बालब्रह्मचारिणी, महामेधाविनी एवं विशिष्ट श्रुतसम्पन्ना साध्वियों से साध्वी- मंडल ही नहीं, समूचा जैनसंघ गौरवान्वित हुआ है, भारत की अध्यात्म चेतना इन साध्वियों की चिरऋणि रहेगी। 3.3.1.10 भद्रा (वी. नि. सं. 245 के लगभग ) श्रेष्ठी 'भद्रा' अवन्तिसुकुमाल की माता थी । इनका समय वी. नि. सं. 245 का है, जब मौर्य सम्राट् बिन्दुसार के शासनकाल का बारहवां वर्ष चल रहा था, उस समय आर्य महागिरि के स्वर्गगमन के पश्चात् आर्य सुहस्ती आचार्य बने । श्रेष्ठी भद्रा आर्य सुहस्ती के काल में हुई थी। यह उज्जैन की अति समृद्ध महिला थी, उसका सप्त मंजिल का भव्य भवन था, साधु साध्वियों के प्रति उसके हृदय में अपार श्रद्धा थी, वह शय्यातर - दाता भी थी, साधु-साध्वी उसकी वाहनकुटी में ठहरा करते थे। उसने अपने एकमात्र पुत्र अवन्ति - सुकुमाल का बत्तीस श्रेष्ठी कन्याओं के साथ विवाह करवाया था। आचार्य सुहस्ती अपने शिष्य परिवार के साथ एकबार उज्जैन में पधारे और श्रेष्ठी भद्रा की वाहनकुटी में ठहरे। रात्रि के समय आचार्यश्री द्वारा सुमधुर आगम पाठ का श्रवण कर अवन्तीसुकुमाल को जातिस्मरण ज्ञान उत्पन्न हो गया। पूर्वभव में नलिनीगुल्म विमान के भोगे हुए भोगों को पुनः भोगने की अभिलाषा लेकर वे माता भद्रा एवं पत्नियों की अनुमति के बिना ही दीक्षित हो गये और आर्य सुहस्ती की आज्ञा से नगर के बाहर निर्जन शमशानभूमि में ध्यान लगाकर खड़े हो गए। । उनके पदचिन्हों पर लहूमिश्रित धूलिकणों की गंध का अनुसरण करती हुई एक श्रृगालिनी अपने बच्चों सहित वहाँ आई और शांत खड़े मुनि के पैर को और धीरे-धीरे उनके अंग-प्रत्यंगों को दांतों से काट-काट कर खाने लगी, समाधिपूर्वक प्राणोत्सर्ग कर मुनि अंवतिसुकुमाल नलिनीगुल्म विमान में देवरूप में उत्पन्न हुए। दूसरे दिन माता भद्रा ने आर्य सुहस्ती से यह सारा वृत्तान्त जाना । तो पुत्र मोह से उद्वेलित हो अश्रुपात करने लगी। बाद में आर्य सुहस्ती के उपदेश से उसने भी अपनी 31 पुत्रवधुओं के साथ श्रमणी दीक्षा ग्रहण कर ली। एक पुत्रवधु गर्भवती थी, अतः वह घर पर ही रही । * अवदान : भारतीय श्रमण संस्कृति की यह विशेषता रही कि यहाँ नारियाँ पतिवियोग के पश्चात् न आत्मदाह करती हैं न जीवन भर अश्रुमुखी बनी रहती हैं, वरन् धर्म-मार्ग का अनुसरण कर अपने जीवन का साफल्य प्राप्त करती हैं। भद्रा एवं उसकी 31 पुत्रवधुएं इसका ज्वलन्त प्रमाण है। 3.3.1.11 आर्या पोइणी (वी. नि. 300 से 330 के आसपास) वीर निर्वाण की चतुर्थ शताब्दी में कलिंग नरेश राजा खारवेल ने आगम-साहित्य को सुरक्षित व सुव्यवस्थित करने के लिए कुमारीपर्वत पर जैन मुनियों का महासम्मेलन करवाया था, उसमें आर्य सुस्थित की परम्परा के 500 श्रमण और आर्या पोइणी के नेतृत्व में 300 जैन साध्वियाँ सम्मिलित हुई थीं। ” आर्या पोइणी महत्तरा साध्वी थीं, वह ज्ञान 58. (क) आव. नि. हारि. वृ., भा. 2 पृ. 120; (ख) आव. चू., भाग 2 पृ. 157; (ग) प्राप्रोने 2 पृ. 520; 59. (क) तपागच्छ पट्टावली, पृ. 246; (ख) जैनधर्म का मौलिक इतिहास, भाग 2, पृ. 780 187 Page #250 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन श्रमणियों का बहद इतिहास स्थविरा आगम-मर्मज्ञा तथा प्रकाण्ड विदुषी थी, साथ ही संघ संचालन में कुशल एवं आचारनिष्ठ भी थी। उन्होंने श्रुतरक्षा एवं संघहित हेतु आयोजित वाचनाओं, विचारणाओं एवं परिषद में अपने विशाल साध्वी समुदाय के साथ उपस्थित रहकर इस कार्य में पूर्ण सहयोग प्रदान किया था। हिमवंत स्थविरावली के अनुसार खारवेल का अंतिम समय वी. नि. 330 सिद्ध होता है, महार्या पोइणी खारवेल द्वारा आयोजित आगम-परिषद् में उपस्थित थी, इस उल्लेख से आर्या पोइणी का समय 300 से 330 तक अनुमानित होता है। 3.3.1.12 सरस्वती (वी. नि. की 5वीं शताब्दी का पूर्वार्द्ध) साध्वी सरस्वती धारावास नगर के राजा वज्रसिंह/वीरसिंह और रानी सुरसुन्दरी का कन्या थी। उसने अपने भ्राता कालककुमार के साथ आचार्य गुणाकरसूरि (विद्याधर शाखा) के वैराग्यरंजित उपदेश को श्रवण करके ईसा पूर्व प्रथम शताब्दी में प्रव्रज्या अंगीकार की। आगे जाकर ये 'सूरि' पद पर प्रतिष्ठित हो गए। एकबार आचार्य कालक के साथ आर्या सरस्वती भी अन्य साध्वियों के साथ विहार करती हुई उज्जैन पहुंची। वहाँ का राजा गर्दभिल्ल अन्यायी तो था ही व्यभिचारी भी था। उसने साध्वी सरस्वती पर मोहित होकर उसका बलात् अपहरण करवा लिया। राजा ने उसे भय और प्रलोभन दिये, किंतु सरस्वती अपने धर्म से च्युत नहीं हुई। कालकाचार्य को जब यह वृत्तान्त ज्ञात हुआ तो उन्होंने राजा को बहुत समझाया, संघ अग्रेश्वरों ने भेंट देकर साध्वी को छोड़ने की प्रार्थना की, तथापि वह नहीं माना तो आचार्य ने निराश हो उसे पदभ्रष्ट करने का संकल्प किया। उन्होंने अपनी प्रतिभा, विद्या तथा युक्ति आदि से सिन्धु देश के 96 शक राजाओं के साथ मिलकर गर्दभिल्ल पर धावा बोल दिया। गर्दभिल्ल को परास्त कर साध्वी सरस्वती को उसकी कैद से मुक्त कराया और प्रायश्चित आदि देकर उसे पुनः साध्वी-संघ में सम्मिलित किया तथा स्वयं भी आलोचना की।" __ अवदान : साध्वी सरस्वती अत्यंत धैर्यवान एवं साहसी साध्वी थी। गर्दभिल्ल ने उसे अनेक प्रकार की यातनाएँ, भय एवं प्रलोभन दिये, तथापि वह सत्पथ से विचलित नहीं हुई। गर्दभिल्ल के पाश से मुक्त होने के पश्चात् सरस्वती ने जीवन-पर्यन्त कठोर तप एवं संयम की साधना की एवं जिनशासन में स्थित साध्वियों के लिये आदर्श रूप बनीं। 3.3.1.13 मुरुण्ड ‘राजकुमारी' (वि. नि. 5वीं 6ठी सदी) विदेशी शक शासक राजा मुरुण्ड की भगिनी विधवा होने के पश्चात् निवृत्तिमार्ग अपनाना चाहती थी, कहा जाता है कि मुरुण्डराज ने अपनी बहन को योग्य स्थान पर दीक्षा देने हेतु साध्वियों की परीक्षा करनी चाही इसके लिए उसने महावत सहित एक भीमकाय हाथी को चौराहे पर खड़ा कर दिया, जब कोई साध्वी उधर से निकलती तो महावत चेतावनी देता, कि सभी वस्त्रों का परित्याग कर निर्वसना हो जाओ अन्यथा यह हाथी तुम्हें अपने पैरों से कुचल देगा। अनेक साध्वियाँ, परिव्राजिकाएँ, भिक्षुणियाँ भयाक्रान्त बनी निर्वसना हो गईं। अंत में एक जैनश्रमणी उधर आई, ज्योंहि हाथी उसकी ओर बढ़ा, तो उसने सर्वप्रथम मुँहपत्ती, फिर रजोहरण फिर पात्र आदि धर्मोपकरण उसकी ओर फैंके, उसके पश्चात् साध्वी हाथी के इधर-उधर घूमने लगी, किन्तु उसने अपने वस्त्रों का त्याग नहीं किया। 60. 'सुता सरस्वती नाम्ना ब्रह्मभूविश्वपावना।' -प्रभावकचरिते, श्री कालकसूरिप्रबन्ध; (चन्द्रप्रभसूरि प्रणीत) गाथा 8 61. वही, कालकसूरिप्रबन्ध, पृ. 36-46 188 Page #251 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महावीर और महावीरोत्तरकालीन जैन श्रमणियाँ उस तपोपूता श्रमणी के अद्भुत बुद्धि कौशल, अप्रतीम धैर्य एवं साहस से प्रभावित होकर मुरुण्डराज ने अपनी बहन से कहा-"एस धम्मो सवन्नु दिट्ठो"। अर्थात् यही धर्म श्रेष्ठ और सर्वज्ञदृष्ट है। तुम्हें प्रव्रजित होना है तो जैनधर्म में प्रव्रजित हो जाओ।62 अवदान : यद्यपि इस साहसी साध्वी का तथा मुरुण्ड राजकुमारी के नाम का कहीं भी उल्लेख नहीं मिलता। किंतु इस अगाध धैर्यशालिनी सर्वसहा साध्वी ने जन-जन को जो विवेक व सहिष्णुता का बोध पाठ दिया, वह जैन इतिहास में सदैव आदर्श रूप रहेगा। 3.3.1.13 सुनन्दा (वी. नि. छठी शताब्दी का प्रारंभ) सुनन्दा उज्जयिनी के धनपाल श्रेष्ठी की कन्या थी। स्वयं गर्भवती होती हुई भी अपने पति धनगिरि को आचार्य सिंहगिरि के पास दीक्षा की अनुमति दी। कालान्तर में पुत्र वज्र को भी पूर्वजन्म के संस्कारवश श्रमणधर्म पर अनुराग उत्पन्न हुआ, तब उसे दीक्षा की आज्ञा देकर सुनन्दा भी निवृत्ति मार्ग में प्रवृत्त हुई। बालक वज्र उस समय तीन वर्ष के थे। आर्य वज्र का लालन-पालन किन्हीं बहुश्रुती, ज्ञान-स्थविरा साध्वियों की देखरेख में हुआ, उन साध्वियों की निरन्तर स्वाध्याय-प्रवृत्ति का ही प्रभाव था कि बालक वज्र सुन-सुनकर आठ वर्ष की अल्पायु में एकादशांगी के ज्ञाता हो गए थे। आगे चलकर ये दस पूर्वधारी महाप्रभावक आचार्य बने।4 सुनन्दा ने किसके पास दीक्षा ग्रहण की ओर आर्य वज्र ने किन साध्वियों के मुखारविंद से एकादशांगी याद की, इसका उल्लेख कहीं नहीं मिलता। आर्या सुनन्दा की दीक्षा आर्य वज्र के जन्म के तीन-चार वर्ष पश्चात् अर्थात् वीर नि. 500 में होनी सिद्ध है। अवदान : धनगिरि जैसे भवविरक्त महान त्यागी की पत्नी और आर्य वज्र जैसे महान युगप्रधानाचार्य की माता सुनन्दा का गौरव-गरिमापूर्ण उल्लेख सदा स्वर्णाक्षरों में किया जाता रहेगा, जिसने गुर्विणी होते हुए भी दीक्षा के लिये उत्कंठित अपने पति को प्रव्रजित होने की अनुमति दी। भारतीय नारी का यह त्यागमय आदर्श उदाहरण अन्यत्र कहीं दृष्टिगोचर नहीं होता। 3.3.1.15 रुद्रसोमा (वी. नि. की छठी सदी) रुद्रसोमा दशपुर के राजपुरोहित सोमदेव की पत्नी एवं नव पूर्वधारी जैनाचार्य आर्यरक्षित की मातेश्वरी थी। जब आर्यरक्षित पाटलीपुत्र से उच्च शिक्षा प्राप्त कर राजा द्वारा सम्मानित हुए, तब रुद्रसोमा ने उस विद्या को संसार वृद्धि का हेतुभूत कहकर दृष्टिवाद का अध्ययन करने के लिये उन्हें आर्य तोसलीपुत्र के पास भेजा। उनके पास दीक्षा लेकर आर्यरक्षित ने आचार्य वज्रस्वामी से नौ पूर्वां तक का विशद ज्ञान अर्जित किया। कालान्तर में रुद्रसोमा की प्रेरणा से उसके द्वितीय पुत्र फल्गूरक्षित एवं सोमदेव पुरोहित ने भी जिनदीक्षा अंगीकार की। स्वयं रुद्रसोमा अपनी पुत्रियों, पुत्रवधुओं एवं दोहित्रियों आदि परिवार के साथ दीक्षित हुई थी।67 62. बृहत्कल्प भाष्य, भा. 4 गाथा 4123-26 63. (क) आव. हरि. वृ., भाग 1 पृ. 194 (ख) प्राप्रोने. 2 पृ. 812 64. प्रभावक चरिते, वज्रप्रबन्धः पृ. 1-13 65. आव. चू., भाग 1 पृ. 402 66. जेण संसारो वड्ढइज्जइ, तेण कहं तुस्सामि? -उत्तरा. नेमि. चंद्र वृत्ति पृ. 15 67. अज्जरक्खिएहिं आगंतूण सव्वो पव्वाविओ, माता पिता भाता भगिणी.....धूताओ सुहाओ पव्वावियाओ। - आव. चू. भा. 1 पृ. 406 189 Page #252 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन श्रमणियों का बृहद इतिहास अनुदान : रुद्रसोमा की प्रेरणा एवं समयोचित वाणी का ही प्रभाव था कि उनका पुत्र आर्यरक्षित के रूप में संघ का प्रभावशाली युगप्रधान आचार्य बना उसने स्वयं दीक्षा लेकर अपने संपूर्ण परिवार को दीक्षा की प्रेरणा दी। उसका यशस्वी जीवन इतिहास की अनमोल संपदा है। “मानव जीवन की सफलता वंश-विस्तार में नहीं अपितु आत्मिक उत्थान में है," यह उसने अपने जीवन-व्यवहार से सिद्ध कर दिया। 3.3.1.15 रुक्मिणी (वी. नि. छठी शताब्दी का मध्यकाल) वी. नि. की छठी शताब्दी के मध्यकाल में साध्वी रुक्मिणी का उल्लेख अत्युच्च कोटि की त्यागी के रूप में । जैन इतिहास में प्राप्त होता है। यह पाटलीपुत्र के धनकुबेर धनदेव की रूप-सौन्दर्य, गुण-सम्पन्न कन्या थी। साध्वियों के मुखारविंद से वज्रस्वामी की अलौकिक शक्ति व प्रभाव को श्रवण कर वह उन पर मुग्ध हो गई, उसने वज्र स्वामी से ही विवाह करने का अपना संकल्प पिता से कहा। पिता धनदेव एक अरब मुद्राएँ तथा दिव्य वस्त्राभूषणों के साथ अपनी कन्या रुक्मिणी के विवाह प्रस्ताव को लेकर वज्रस्वामी के पास पहुंचे, किन्तु उनके त्याग-वैराग्य से छलछलाते उपदेश को सुनकर रुक्मिणी का भोगी मन योग की ओर प्रवृत हो गया, उसने वज्रस्वामी से दीक्षा अंगीकार की और उनके साध्वी-संघ को गरिमामय बनाया। साध्वी रुक्मिणी का त्याग अपने आप में सबसे निराला एवं सबसे अनूठा है। इनका समय वी. नि. 548 से 584 के मध्य का है। 3.3.1.18 वैरोट्या (वि. नि. की छठी शताब्दी का उत्तरार्ध) वैरोट्या वरदत्त सार्थवाह की पुत्री व पद्मिनीखंड के पद्मकुमार की पत्नी थी। सास की प्रताड़नाओं से त्रस्त उसके अशांत मानस को आचार्य नंदिल ने शांति प्रदान की थी, संसार से विरक्त होकर उसने दीक्षा अंगीकार कर ली। आचार्य नन्दिल के उपकारों का स्मरण कर तीर्थंकर पार्श्वनाथ के चरणों की भक्ति में वह तन्मय बन गई। आयुष्य पूर्ण कर धरणेन्द्र की देवी के रूप में उत्पन्न हुई। कहा जाता है आचार्य नन्दिल ने वैरोट्या की स्मृति में 'नमिऊण जिण पासं' इस मंत्र गर्भित स्तोत्र की रचना की। वैरोट्या का समय वी. नि. 597 के बाद का है। अवदान : वैरोट्या संयम-साधना की दीपशिखा उन साध्वियों में है जिसने अपने आत्मिक गुणों को इतना विकसित किया कि एक महान आचार्य के द्वारा वे स्तुत्य हुईं। इतिहास के ये उदाहरण जैन श्रमणी-संघ की गौरव गरिमा में अभिवृद्धि करने वाले हुए। 3.3.1.18 ईश्वरी (वी. नि. छठी शताब्दी का अंतिम दशक) ईश्वरीदेवी सोपारक (सोपारा-मुंबई के पास) निवासी सल्हड़ गोत्रीय श्रेष्ठी जिनदत्त की पत्नी थी। उसके चार पुत्र थे- नागेन्द्र, चन्द्र, निवृत्ति और विद्याधर। दुष्काल के प्रकोप से प्रताड़ित ईश्वरी जब एक लाख स्वर्ण मुद्राओं के मूल्य से थोड़ा सा अन्न खरीद कर उसमें विष मिलाकर खाने की तैयारी कर रही थी तभी युगप्रधानाचार्य आर्य वज्रसेन का वहां आगमन हुआ, उन्होंने गुरु के भविष्य कथन के अनुसार ईश्वरी से कहा -" श्राद्धे! अब दुष्काल का अंत सन्निकट है, कल ही प्रचुर मात्रा में अन्न उपलब्ध हो जायेगा।" 68. (क) आव. नि. हरि. वृ., भाग 1 पृ. 196, (ख) प्रभावक चरित, वज्रप्रबन्धः 69. प्रभावक चरिते, श्री आर्य नन्दिल प्रबन्धः, पृ. 31-36 Page #253 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महावीर और महावीरोत्तरकालीन जैन श्रमणियाँ मुनिराज का भविष्यकथन सत्य हो गया। उसी रात्रि में अन्न से लदे जहाज सोपारकपुर बंदर पर पहुंचे। ईश्वरी की प्रसन्नता का पार नहीं था, उसको जैनधर्म पर अगाध श्रद्धा पैदा हो गई। उसने पति से कहा-"कल यदि मुनि ने हमें आश्वस्त नहीं किया होता, तो आज हमारे परिवार का एक भी व्यक्ति दिखाई नहीं देता, क्यों न हम अपने जीवन प्रदाता श्रमण श्रेष्ठ आचार्य के चरणों में दीक्षित होकर जीवन सफल करें।" ईश्वरी की प्रेरणा से सेठ जिनदत्त सहित चारों पुत्रों ने दीक्षा अंगीकार की। वी. नि. सं. 592 में इनकी दीक्षा हुई। तपागच्छ पट्टावली में वी. नि. 613 का उल्लेख है। कालक्रम से ईश्वरी के इन चारों पुत्रों के नाम से चार शाखाएं बनी। नागेन्द्र से-नागेन्द्रगच्छ (नाइली शाखा) चन्द्रमुनि से चन्द्रशाखा, विद्याधर से विद्याधरशाखा, निवृत्तिमुनि से निवृत्तिशाखा शुरू हुई। ये चारों कुछ कम दस पूर्व के ज्ञाता थे, और चारों ही प्रभावशाली आचार्य-पद पर प्रतिष्ठित हुए। ऐसा भी उल्लेख है कि ईश्वरी के प्रत्येक पुत्र ने 21-21 आचार्य किए और उसमें से 84 गच्छ की उत्पत्ति हुई। इनमें निवृत्ति कुल का शीघ्र विच्छेद हो गया, शेष तीन दीर्घ समय चले। अवदान : साध्वी ईश्वरी का जीवन प्रत्येक साधक के लिए प्रेरणादायी है। उसने संकटकाल से शिक्षा ग्रहण की, उसके सामयिक चिन्तन ने भीषण संकट के अभिशाप को वरदान के रूप में बदल दिया। उसीकी प्रेरणा से पूरा परिवार प्रव्रजित होकर जैनधर्म का परम उपासक बना। नागेन्द्र आदि चार सुविशालगच्छ के अधिपति आचार्यों की प्रेरिका जननी आर्या ईश्वरी के प्रति जैनसंघ सदा ऋणि रहेगा। 3.3.2.19 आचार्य सिद्धसेन दिवाकर की बहिन (वी. नि. 9वीं 10वीं शताब्दी) गुप्तकाल की यह अत्यन्त बुद्धिमती शास्त्रज्ञा जैन साध्वी हुई है। जैनदर्शन के प्रकाण्ड विद्वान् तार्किक श्री सिद्धसेन दिवाकर के स्वर्गवास के पश्चात् उज्जैन के एक वैतालिक ने उसके समक्ष अनुष्टुप छन्द के दो चरण कहे'स्फुरन्ति वादिखद्योताः साम्प्रतं दक्षिणापथे' अर्थात् दक्षिण में इस समय अनेक 'वादी' रूपी तारे चमक रहे हैं।' उसके सांकेतिक भाव को पहचान कर उस साध्वी ने जान लिया कि निश्चय ही मेरे विद्वान् भ्राता का देहावसान हो गया है, उसने तुरन्त आगे के दो चरण कहकर उक्त छंद को पूर्ण किया-'नूनमस्तंगतो वादी सिद्धसेनो दिवाकरः।।' अर्थात् निश्चय ही महान शास्त्रज्ञ श्री सिद्धसेन रूपी सूर्य अस्त हो गया है। इसके इस प्रत्युत्तर से उसके वैदुष्य एवं प्रत्युत्पन्नमति का पता चलता है। 3.3.1.20 साध्वी खंभिल्या (वी. नि. 1167) आप नागेन्द्र कुल के सिद्ध महत्तरा की शिष्या थीं, यह उल्लेख अकोटा (बसंतगढ़) से प्राप्त पार्श्वनाथ की तीन तीर्थी प्रतिमा से प्राप्त हुआ है। प्रतिमा के पीछे 'नागेन्द्र कुल में सिद्ध महत्तरा की शिष्या 'खंभिल्यार्जिका की यह प्रतिमा है,' ऐसा लेख अंकित है। प्रतिमा धातु की है। यह लेख वि. सं. 697 का है। 70. तपागच्छ पट्टावली भाग 1 पृ. 246 71. ऐतिहासक लेख संग्रह पृ. 106 72. डॉ. साध्वी सुभाषा, श्री कुसुमाभिनन्दनम्, पृ. 106 73. यतीन्द्रसूरि अभि. ग्रंथ, पृ. 209 191 Page #254 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 3.3.1.21 याकिनी महत्तरा ( वी. नि. 1227 के लगभग ) याकिनी महत्तरा का नाम जैन दर्शन के प्रकाण्ड विद्धान, प्रखर प्रतिभासम्पन्न बहुश्रुत आचार्य हरिभद्र के साथ ही प्रसिद्धी को प्राप्त हुआ । इनके जन्म-स्थान, माता-पिता आदि का वर्णन कहीं भी देखने को नहीं मिलता। जो थोड़ा बहुत परिचय प्राप्त है, वह आचार्य हरिभद्र के साहित्य-ग्रन्थों से ही मिलता है। आचार्य ने स्थान-स्थान पर “ याकिनी महत्तरा सूनु” के नाम स्वयं को प्रकट किया। प्रभावकचरित के अनुसार हरिभद्र चितौड़ में जितारि राजा के पुरोहित थे। अपनी विद्वत्ता के अभिमान में आकर उन्होंने प्रतिज्ञा की कि "जिसका कहा हुआ समझ नहीं पाऊंगा, उसका शिष्य बन जाऊंगा" एकबार राजसभा से रात्रि में लौटते समय उन्होंने उपाश्रय से आती एक सुमधुर ध्वनि में एक सांकेतिक गाथा सुनी। जैन श्रमणियों का बृहद इतिहास चक्किदुगं हरिपणगं पणगं चक्कीण केसवो चक्की | केसव चक्की केसव दुचक्की केसीय चक्कीय | 74 श्लोक की स्वर लहरियाँ हरिभद्र के कानों से टकराई, उन्होंने बार-बार इसे ध्यानपूर्वक सुना । मन ही मन चिन्तन चला, पर वे बुद्धि को झकझोर देने पर भी अर्थ का नवनीत प्राप्त न कर सके। अर्थबोध प्राप्त करने की जिज्ञासा से वे उपाश्रय के द्वार तक पहुंचे और अभिमान से अति वक्र भाषा में महत्तराजी से पूछा - " इस स्थान पर चकचकाहट क्यों हो रही है? अर्थहीन श्लोक का पुनरार्वतन क्यों किया जा रहा है?" याकिनी महत्तरा ने धीर-गंभीर मृदु शब्दों में कहा- "नूतनं लिप्तं चिगचिगायते " 'नया लिपा हुआ आंगन चकचकाहट करता है, हम तो शास्त्रीय पाठ का उच्चारण कर रही है। याकिनी महत्तरा द्वारा दिए गए स्पष्ट और सारगर्भित उत्तर को सुनकर हरिभद्र प्रभावित हुए, उन्होंने साध्वीजी से अर्थबोध कराने की प्रार्थना की, साध्वीजी ने जिन भट्टसूरि के पास से अर्थ समझने का निर्देश दिया । हरिभद्र आचार्य जिनभट्टसूरि के पास श्लोक का अर्थ समझकर उन्हीं के पास दीक्षित हो गए। प्रबन्धकोश के अनुसार आचार्य हरिभद्र ने 1444 ग्रन्थों की रचना की थी और उन सब पर अपने नाम के पूर्व उन्होंने “याकिनी महत्तरा सुनू" लिखा। उन्होंने महत्तरा साध्वी के प्रति कृतज्ञता प्रकट करते हुए कहा- "मैं शास्त्र विशारद होकर भी मूर्ख था, सुकृत के संयोग से निजकुल देवता की तरह धर्ममाता याकिनी के द्वारा मैं बोध को प्राप्त हुआ हूं।" अवदान : जैन इतिहास में याकिनी महत्तरा का नाम स्वर्णिम पृष्ठों पर अंकित है। जिनकी व्यवहार कुशलता हरिभद्र जैसे जैनधर्म के कट्टर विद्वेषी हिंदू को जैनधर्म के प्रभावक आचार्य के रूप में प्रतिष्ठापित करवाया। इनके इस महान अवदान की प्रतीक रूप मूर्ति चित्तोड़ के किले में हरिभद्रसूरि के मस्तक पर अंकित की गई है, उसका चित्र प्रथम अध्याय 'जैन कला एवं स्थापत्य में श्रमणी - दर्शन' शीर्षक में देखें। कुवलयमाला कहा के आधार पर मुनि श्री जिनविजयी जी ने आचार्य हरिभद्र का समय ई. 700 से 770 के मध्य निश्चित किया है।" इसी आधार पर याकिनी महत्तरा साध्वी का समय भी ईसा की 7वीं सदी होना संभावित लगता है। 74. प्रभावक चरिते, हरिभद्रसूरि प्रबन्धः, गाथा 21 75. दशवै., हरि, वृत्ति 10/3 76. डॉ0 श्रीमती कोमल जैन, हरिभद्र साहित्य में समाज व संस्कृति, पृ. 3, वाराणसी 1994, 192 Page #255 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महावीर और महावीरोत्तरकालीन जैन श्रमणियाँ 3.3.1.22 साध्वी गुणा (वी0 नि. 1432) आप गुजरात राज्य की एक विदुषी ख्यातनामा साध्वी थी। वि. सं. 962 में कविकुंजर सिद्धर्षि ने भिन्नमाल के जिन-मंडप में 16 हजार श्लोक प्रमाण सुप्रसिद्ध आध्यात्मिक रूपक ग्रंथ 'उपमिति भव प्रपंच कथा' रची। आपने उसका संस्कत भाषा में लोकभोग्य शैली में अनवाद किया था। सरिजी के उत्कष्ट व अदभत ग्रन्थ की व्याख्या संस्कत में लिखने वाली 'साध्वी गणा' निश्चय ही एक प्रकाण्ड पंडिता साध्वी रही होगी। कथा के प्रथम आदर्श के रूप में साध्वी जी का 'श्रुतदेवी' (सरस्वती) के रूप में स्मरण किया है। प्रथमादर्शलिखिता साध्वी श्रुतदेवतानुकारिण्या। दुर्गस्वामी गुरूणां, शिष्यका गुणामिधया। उपाध्याय क्षमाकल्याण जी द्वारा 'प्रश्नोत्तर सार्द्ध शतक' की भाषा साध्वी जी के लिये ही बनाने का उल्लेख भी प्राप्त होता है। 3.3.2 गण कुल या शाखा से अनुबद्ध श्रमणियाँ (वी. नि. 527-927) वीर निर्वाण छठी शताब्दी से 10वीं शताब्दी तक के मथुरा के शिलालेखों में इन श्रमणियों के उल्लेख मिलते हैं, ये प्रायः किसी गण, शाखा या कुल से संबंधित है। प्राप्त अवशेषों में कुषाणकालीन-ईसा की प्रथम शती से तृतीय शती तक के अवशेष अधिक संख्या में है, जो वर्तमान मथुरा नगर के दक्षिण-पश्चिम में स्थित 'कंकाली टीले' से प्राप्त हुए हैं। इस टीले की तीन बार खुदाई में अब तक लगभग 100 शिलालेख, डेढ़ हजार के करीब पत्थर की मूर्तियाँ, आयागपट्ट, स्तूप स्तम्भ आदि का विशाल जैन खजाना देखकर लोगों ने इसे 'जैनी टीला' नाम दिया है। दो सहस्र वर्ष प्राचीन मथुरा में स्थित ये प्रतिमाएँ नग्न, अर्द्धनग्न तथा अनग्न अवस्था में खड़ी तथा पद्मासन में बैठी हुई हैं। इन प्रतिमाओं के शिलालेखों पर तत्कालीन ब्राह्मी लिपि एवं संस्कृत-प्राकृत मिश्रित भाषा का प्रयोग किया गया है। कुषाण संवत् 5 से 98 (ई. 83 से 176) तक के लेखों में उन तीन गणों 12 कुलों एवं 10 शाखाओं के नाम उकित है, जो श्वेताम्बर परम्परा के आगम कल्पसूत्र में भी आये हैं तथा नन्दीसूत्र के अन्तर्गत वाचकवंश की पट्टावली में जिन आचार्यों -आर्य समुद्र, आर्य मंगु, आर्य नन्दिल, आर्य नागहस्ती आर्य भूतदिन्न के नाम हैं, वे भी उन शिलालेखों पर अंकित हैं। श्वेताम्बर-परम्परा से संबद्ध ग्रंथों की पट्टावलियों में उल्लिखित आचार्यों के पूर्वोक्त नामों से एवं गण या कुल से यह तो स्पष्ट सिद्ध होता है कि मथुरा की कलाकृतियां एवं उनके प्रेरणास्रोत आचार्य व श्रमणियाँ दिगम्बर-परम्परा की नहीं है। किंतु साथ ही नग्न-अनग्न मूर्तियाँ इस बात की भी द्योतक हैं, कि इनकी निर्माणकर्ती व प्रेरिका श्रमणियाँ एकान्त श्वेताम्बर परम्परा की आग्रही नहीं रही होंगी, यदि ऐसा होता तो सभी मूर्तियाँ जो प्रायः समकालीन एवं एक ही तीर्थक्षेत्र की निधि है, वे एक ही अनग्न अवस्था में प्राप्त होती, नग्न या अर्द्धनग्न नहीं। ऐसी मूर्तियों के चित्र डॉ. सागरमल जी जैन ने अपनी पुस्तक 'जैनधर्म का यापनीय सम्प्रदाय' में दिये हैं। उन्होंने यह भी सिद्ध किया है 77. ऐति. लेख संग्रह, पृ. 338 78. ब्र. चंदाबाई अभि. ग्रं., पृ. 572 79. जैन शिलालेख संग्रह, भाग-3 प्रस्तावना, पृ. 16-18 193 Page #256 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन श्रमणियों का बृहद इतिहास कि मथुरा के मंदिरों की निर्माणकर्की महिलाएँ एवं श्रमणियाँ श्वेताम्बर एवं यापनीय की पूर्वज हैं, जिन्होंने पारस्परिक सौहार्द की भावना से यह समन्वयमूलक निर्माण कार्य किया है। अधिकांश अभिलेखों में 'सर्वसत्त्वानां हितसुखाय' की पवित्र भावना ही दृष्टिगत होती हैं।80 इन मूर्तियों को बनवाने और प्रतिष्ठापित कराने वाली अधिकांश स्त्रियाँ हैं, जो आर्याओं के उपदेशों से प्रभावित होकर निर्माण कार्य में प्रवृत्त हुई थीं, अतः शिलालेखों पर दानदात्री गृहस्थ श्राविकाओं के नाम एवं उनके परिवारीजनों के नामों के साथ-साथ उन-उन आर्याओं के नाम भी उनकी गुरू-परम्परा के साथ उपलब्ध होते हैं, साथ ही संबंधित गण, कुल तथा शाखा आदि के नाम भी इन अभिलेखों में मिलते हैं। 3.3.2.1 आर्यवती (विक्रम की प्रथम शताब्दी) आर्यवती का चोकोर शिलापट्ट हारित पुत्र पाल की पत्नी कोत्स गोत्रीय श्रमणों की भक्त श्राविका अमोहिनी ने राजा शोडास (सुदास) के राज्यकाल (ई.पू. प्रथम शताब्दी) में प्रतिष्ठापित कराया। शिलापट्ट पर बीच में अभया मुद्रा में खड़ी हुई देवी 'आर्यवती' प्रदर्शित है, उनके आजु बाजु में छत्र, चौरी तथा माला लिये हुए परिचारिका स्त्रियाँ खड़ी हैं। यह आर्यवती कौन थी, यह निर्णीत होना तो अभी भी शेष है, हो सकता है कि यह कोई श्रमणी या आर्यिका हो जो बाद में देवतुल्य पूज्य मानी गई हो, क्योंकि इनकी उपासना में एक क्षुल्लक/मुनि भी प्रदर्शित है। कुछ विद्वानों की यह भी धारणा है कि ये तीर्थंकर माता है।2. 3.3.2.2 क्षुल्लिका पूतिगंधा (वि. सं. 57) वि. सं. 57 के लगभग सोपारा से एक आर्यिका संघ का यात्रार्थ निकलने का उल्लेख जयंतिलाल एल. पारख ने बिहार, बंगाल, उड़ीसा के दिगम्बर जैन तीर्थ में किया है। यह संघ राजगृही के विपुलाचल पर गया था, उसमें धीवरी पूतिगंधा नाम की क्षुल्लिका भी थी। यहाँ की नीलगुफा में उसकी समाधि हुई थी। 3.3.2.3 आर्या साथिसिहा "षष्ठिसिंहा" (वि. सं. 139) मथुरा के ही हुविष्क वर्ष 4 के प्राकृत भाषा में लिखित एक शिलालेख पर साथिसिहा (षष्ठिसिंहा) की शिष्या सिहमित्र की श्राद्धचरी के दान का उल्लेख है। षष्ठिसिंहा वारणगण, आर्य हाट्टकिय कुल एवं वज्रनागरी शाखा के पुष्यमित्र की शिष्या थी।85 3.3.2.4 आर्या दतिला (वि. सं. 147) अहिछत्रा तीर्थ के प्राचीन जीर्ण जैन मंदिर के उत्खनन से एक खंडित मूर्ति पद्मासन के रूप में प्राप्त हुई। उस । 80. जैनधर्म का यापनीय-संप्रदाय, पृ. 65 81. कल्पसूत्र (स्थविरावली), पृ. 231, श्री अमरमुनि -पद्म प्रकाशन, दिल्ली, ई. 1995 82. ब्र. पं. चंदाबाई अभिनंदन ग्रंथ, पृ. 494 83. भारत के दिगंबर जैन तीर्थ, पृ. 86 84, वारणगण और वज्रनागरी (वइरी) शाखा-श्वेताम्बर और यापनीयों की पूर्वज है। इसका उल्लेख भी कल्पसूत्र में है। ___ -सचित्र कल्पसूत्र, अमरमुनि, पृ. 220, 222 85. जैन शिलालेख संग्रह, भा.2, शिलालेख सं 17-मथुरा 194 Page #257 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महावीर और महावीरोत्तरकालीन जैन श्रमणियाँ मूर्ति के नीचे कुशाणकालीन ब्राह्मी लिपि में अभिलेख उत्कीर्णित हैं। उसमें उल्लेख है कि हुविष्क सं. 12 वर्षा के चतुर्थमास दसवें दिन कोटिक गण ब्रह्मदासीय कुल और उच्चानगरी शाखा के आर्य पुशिल की शिष्या दतिल ..... जो हरिनंद की भगिनी थी उसकी आज्ञा से सुतार श्रावक-श्राविकाओं..... ..... गाला गांव की जिनदासी, रूद्रदेव, ग्रहश्री, रूद्रदत्ता, मित्रश्री आदि ने बिम्ब करवाया। 86 कोटिकगण का उल्लेख कल्पसूत्र पट्टावली में मिलता है। ये श्वेताम्बर और यापनीय इन दोनों के पूर्व की स्थिति के सूचक हैं 187 3.3.2.5 आर्या श्यामा (वि. सं. 149 ) आर्या श्यामा आर्य ज्येष्ठहस्ति की शिष्या थी, इनकी प्रेरणा से वर्मा की पुत्री तथा जयदास की पत्नी गुल्हा / गूढ़ा ने संवत् 14 में भगवान ऋषभदेव की प्रतिमा बनवाई 188 3.3.2.6 आर्यिका गोदासा ( सं. 166 ) सं. 31 में बुद्धदास की पुत्री तथा देवीदास की पत्नी गृहश्री द्वारा आर्यिका गोदासा की प्रेरणा से जिनप्रतिमा की प्रतिष्ठापना कराने का उल्लेख है। 9 3.3.2.6 दत्ता (सं. 166 ) इनके सदुपदेश से (निर्वतनी) से ग्रहश्री ने सं. 31 में जिन प्रतिमा का दान किया । " 3.3.2.7 आर्या संधि (सं. 170 ) ये कोट्टियगण के आचार्य बलत्रात की शिष्या थीं, इनके उपदेश से जयभट्ट की कुटुम्बिनी ने प्रतिमा की प्रतिष्ठा की। आर्या संधि की ही भक्त जया ने जो नवहस्ती की दुहिता, गुहसेन की स्नुषा देवसेन और शिवदेव की माता थी; उसने एक विशाल वर्धमान प्रतिमा ई. 113 के लगभग प्रतिष्ठित करवाई, ऐसा उल्लेख (E.I. Vol-1 Muttura ins no. 34 ) मिलता है । " 3.3.2.8 आर्यिका कुमारीमित्रा (सं. 170) यह तपस्विनी आचार्य बलदिन्न (बलदत्त) की शिष्या थी । शिलालेखों में कुमारमित्रा के लिये अनेक प्रशंसनीय शब्दों का प्रयोग किया गया है। उसको संशित ( Whetted), मखित ( Poleshed ), बोधित (Awakened) अर्थात् 86. श्री गणेश ललवाणी, भंवरलाल नाहटा अभि. ग्रं. पृ. 151 87. सचित्र कल्पसूत्र, पृ. 222 88. (क) ए. पि. इं. 1389 सं. 14 (ख) आर्यिका इंदुमती अभिनन्दन ग्रंथ, गणिनी विजयमती माताजी, खंड 4 पृ. 54 89. आ. इंदुमती. अभि. ग्रं. पृ. 54 90. (क) ए. पि. इं. 2, 204, सं. 21, चित्र 10 (ख) ब्र. पं. चंदाबाई अभि. ग्रं., पृ. 494 91. हीरालाल दुगड़, मध्य एशिया और पंजाब में जैनधर्म, पृ. 445 195 Page #258 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन श्रमणियों का बृहद इतिहास विचारशील, तपः पूत तथा ज्ञानी कहकर स्तुति की गई है। इसके पुत्र गंधिक कुमारभट्ट ने अपनी माता कुमारमित्रा की प्रेरणा से सं. 35 (ई. 213) में वर्धमान की प्रतिमा का दान किया था। यह मूर्ति कंकाली टीले के पश्चिमी भाग में स्थित दूसरे देवप्रसाद में भग्नावशेष के रूप में प्राप्त हुई है। कुमारमित्रा संन्यासिनी थी, संन्यस्ता स्त्री का पुत्र कहना असंगत सा लगता है, परंतु वास्तविकता यह रही होगी कि पहले कमारमित्रा एक गहस्थ स्त्री थी। पत्रोत्पत्ति के पश्चात उसने संन्यास ले लिया. फिर अपने पत्र को जो अब गहस्थ धर्म का पालन कर रहा होगा. उपदेश दिया और उसने माता की प्रेरणा से प्रतिमा का दान किया। वह विधवा थी या सधवावस्था में पति के साथ ही साध्वी बनी, यह कुछ भी नहीं कहा जा सकता है, क्योंकि दोनों बातें संभव है। यह भी हो सकता है कि वह पति की आज्ञा से साध्वी बनी हो। ___इन्हीं कुमारमित्रा के उपदेश से जयनाग की कुटुम्बिनी और ग्रामिक जयदेव की पुत्रवधु द्वारा सं. 40 में शिलास्तम्भ दान देने का भी उल्लेख है। 3.3.2.9 आर्या दत्ती (सं. 175) उल्लेख है, कि हुविष्क वर्ष 40 में शीत ऋतु महीने के दसवें दिन सिंहदत्ता ने एक पाषाण स्तम्भ की स्थापना की थी। यह स्थापना वारणगण आर्य हाटीकीय कुल वज्रनागरी शाखा तथा शिरिय संभोग (?) की 'अकका' के आदेश से हुई थी। यह अकका नन्दा और बलवर्मा की शिष्या, महनन्दि की श्राद्धचरी तथा दति (दत्ती) की शिष्या थी। 3.3.2.10 आर्या धन्यश्रिया (सं. 183) ये धन्यपाल की शिष्या थीं, इनकी प्रेरणा से सं. 47 (इं. 126) में शर्वत्रात की पौत्री तथा बन्धुक की पत्नी यशा ने संभवनाथ की प्रतिमा की प्रतिष्ठापना की। 3.3.2.11 आर्या ग्रहवला (सं. 209) हुविष्क सं. 74 की चौमुख प्रतिमा के चारों ओर दो-दो पंक्तियों में लेख खुदे हुए हैं उसमें उल्लेख है कि "वारणगण कुल और वज्रनागरी शाखा और आम्रक (संभोग) तीन धनवाचक की शिष्या.......ग्रहवला की आज्ञा से सं 74 की ग्रीष्म ऋतु के प्रथम मास के पांचवें दिन देवकी पत्नी धरवला ने दान..........।” 3.3.2.12 आर्यिका जीवा (सं. 216) यह शिलालेख मथुरा में भग्न स्थिति में है कई अक्षर मिटे हुए हैं। हुविष्क वर्ष 81 में प्राकृत में लिखित इस । 92. (क) ए. पि. इं. 1385 सं. 7, चित्र 9 (ख) ब्र. पं. चन्दाबाई अभि. ग्रं., पृ 494 93. आ. इन्दुमती अभि. ग्रं., खंड 4 पृ. 54 94. आ. आनंदऋषि अभिनंदन ग्रं., स्था. जैन संघ नानापेठ, पूना 1975 ई. 95. जैन शिलालेख संग्रह, भा. 2, संग्रह सं. 44, मथुरा, भाषा-प्राकृत 96. (क) ए. ई. 10, 112 सं. 5 (ख) ब्र. पं. चन्दाबाई अभि. ग्रं., पृ. 454 97. (क) भंवरलाल नाहटा अभि. ग्रं., श्री गणेश ललवाणी, पृ. 191 (ख) जैन सत्यार्थ प्रकाश, 1991 अगस्त-सितंबर, वर्ष 13 अंक 4 के कान्फ्रेंस हेरल्ड में प्रकाशित लेखानुसार 196 Page #259 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महावीर और महावीरोत्तरकालीन जैन श्रमणियाँ शिलालेख में इतना ही स्पष्ट होता है कि आर्यिका जीवा की शिष्या दत्ता की निवर्तना (उपदेश ) से ग्रहशिरि ( ग्रहश्री) .. दान दिया था ? यह कार्य शक वर्ष 81, वर्षा ऋतु के प्रथम मास के छठे दिन संपन्न हुआ था ।" 3.3.2.13 आर्यिका धरणिवृद्धि (सं. 219 ) सं. 84 में दमित्र और दत्ता की पुत्री कुटुम्बिनी के धरणिवृद्धि आर्यिका की प्रेरणा से वर्धमान भगवान की प्रतिमा प्रतिष्ठापित करने का उल्लेख मिलता है। 9 3.3.2.14 आर्या धर्मार्था (सं. 220 ) आर्या धर्मार्था के उपदेश से कंकाली टीले के दक्षिण पूर्व भाग में धनहस्ति की धर्मपत्नी और गुहदत्त की पुत्री द्वारा एक शिलापट्ट दान में देने का उल्लेख (E. I. Vol-1, No. 22 ) है । उस पर स्तूप की पूजा का सुंदर दृश्य भी अंकित है। 100 जैन शिलालेख संग्रह भाग 2 में 'धामथा' नाम का उल्लेख हुआ है, और उसे कोट्टियगण, ठानिय कुल वइरा शाखा के आर्य अरह ( दिन्न) की शिष्या कहा है। 101 3.3.2.15 आर्या वसुला (सं. 221 ) आर्या संगमिका की ये शिष्या थीं, इसके पिता का नाम दास दिया है, इनकी प्रेरणा से कनिष्क सं. 1593 में श्रेष्ठी वेणी की पत्नी भट्टीसेन की माता कुमारमित्रा ने सर्वतोभद्रिका प्रतिमा की स्थापना की 102 इन्हीं आर्या वसुला के उपदेश से हुविष्क सं. 86 (ई. 164) में दास की पुत्री प्रिय की पत्नी ने एक जिन प्रतिमा का दान किया था। 103 इन दोनों लेखों में 71 वर्षों का अंतर होने से अनुमान होता है कि वसुला दीर्घ आयु वाली श्रमणी थी । कुमार मित्रा को उपदेश देने के समय यदि वसुला की आयु 25 वर्ष की मान ली जाय तो प्रिय की पत्नी को उपदेश देने के समय वह 96 वर्ष की रही होगी। जो एक तपस्विनी श्रमणी के लिये असंभावित नहीं कही जा सकती। कुमारमित्रा वाले लेख में आर्या संगमिका के गुरू आर्य जयभूति का भी नाम दिया है, प्रिया के शिलालेख में वह नहीं है। लिस्ट ऑफ ब्राह्मी इंस्क्रिपशंस' में जयभूति को 'मैघिक / मेहिक' कुल का कहा है। 104 यह मेहिक कुल कल्पसूत्र पट्टावली में उल्लेखित है । 105 98. जैन शिलालेख संग्रह, भा 2, सं. 61 99. आ. इंदु. अभि. ग्रंथ, खंड 4 पृ. 54 100. डॉ. हीरालाल जैन, संग्रह 68, मथुरा - प्राकृत, ( वर्ष 95 ) 101. दुगड़ हीरालाल, मध्य एशिया और पंजाब मैं जैनधर्म, पृ. 450 102. जैन शिलालेख संग्रह, भाग 2, सं. 26 103. वही, भाग 2, सं. 63 104. लि. ब्रा. इं. पृ. 14, 105. सचित्र कल्पसूत्र, पृ. 221 197 Page #260 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन श्रमणियों का बृहद इतिहास 3.3.2.16 आर्या सादिता (सं. 457) ये वारणगण नाडिक कुल तथा........के वाचक .......... ढुक की शिष्या थीं। आर्या सादिता के उपदेश से दान-कार्य हुआ।106 इसमें काल का निर्देश नहीं है। ब्राह्मी इंस्क्रिपशंस के अनुसार यह दान ऋषभदेव की प्रतिमा का था तथा सादिता का समय ई. सन 440 तक का है।107 सारांश मथुरा के शिलालेखों में और भी दानदात्री महिलाएँ।08 सार्थवाहिनी धर्मसोमा (ई.100), कौशिकी शिवमित्रा, आदि के दान की अमरकथा अंकित है इन श्राविकाओं के हृदय में तप और श्रद्धा का अंकुर पैदा करने वाली श्रमणियाँ ही थीं, उन्हीं की प्रेरणा मथुरा के पुरातन वैभव को अक्षुण्ण बनाने वाली बनीं। मथुरा से मिली हुई सामग्री से यह भी पता चलता है कि जैन समाज में स्त्रियों को बहुत ही सम्मानित स्थान प्राप्त था। अधिकांश दान और प्रतिमा प्रस्थापन उन्हीं की श्रद्धा-भक्ति का फल थी। 'सर्वसत्त्वानां हितसुखाय' और 'अर्हत्पूजायै' ये दो वाक्य कितनी ही बार लेखों में आते हैं। जो उस काल की भक्ति को प्रदर्शित करने वाले हैं। 106. संग्रह सं. 72, मथुरा-प्राकृत-जैन शिलालेख संग्रह, भाग 2 107. लिस्ट ऑफ ब्राह्मी इंस्क्रिपशंस, पृ. 20 108. मध्य एशिया और पंजाब में जैनधर्म, पृ. 450 198 Page #261 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्याय 4 दिगम्बर परम्परा की श्रमणियाँ Page #262 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 4.1 श्वेताम्बर-दिगम्बर परम्परा भेद ........................... 4.2 दिगम्बर परम्परा का आदिकाल.............. 4.3 दक्षिण भारत में जैन श्रमणियों का अस्तित्व.. ........... 4.4 यापनीय सम्प्रदाय की श्रमणियाँ........... ......................... 4.5 भट्टारक परम्परा की श्रमणियाँ : पद एवं अधिकार.... 4.6 दक्षिण के कर्नाटक प्रान्त में दिगंबर परंपरा की आर्यिकाएँ (वि. संवत् आठवीं सदी से पन्द्रहवीं सदी तक). ............... 4.7 तमिलनाडु प्रांत की श्रमणियाँ (8वीं से 11वीं सदी)................. 4.8 उत्तरभारत में दिगम्बर परम्परा की आर्यिकाएँ (वि. सं. 11वीं से 19वीं सदी तक). 4.9 समकालीन दिगम्बर परम्परा की श्रमणियाँ (विक्रम की बीसवीं सदी के उत्तरार्द्ध से वर्तमान तक)............................. - Page #263 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्याय 4 दिगम्बर परम्परा की श्रमणियाँ 4.1 श्वेताम्बर-दिगम्बर परम्परा भेद ___जैन आगम-साहित्य का अनुशीलन करने से यह स्पष्ट है कि भगवान महावीर के समय जिनकल्प और स्थविरकल्प दो प्रकार के साधु थे। जो श्रमण अचेल रहना चाहते थे, वे अचेल रहते और जो सचेल रहना चाहते थे वे वस्त्र धारण करते थे।' महावीर स्वयं अचेलव्रती थे, जबकि पार्श्वनाथ के साधु वस्त्र धारण करते थे। इस प्रकार जैन श्रमणों में अचेल और सचेल दोनों मान्यताएँ प्रचलित थी यह मान्यता श्वेताम्बरों की है। दिगम्बर-परम्परा भगवान ऋषभदेव से महावीर तक अचेल परम्परा को ही स्वीकार करता है। तथापि भगवान महावीर और उनके पश्चात् इन्द्रभूति गौतम, सुधर्मा और जम्बूस्वामी तक श्वेताम्बर और दिगम्बर यह भेद नहीं था। जम्बूस्वामी के पश्चात् दिगम्बर संप्रदाय में विष्णु, नन्दी, अपराजित, गोवर्धन और भद्रबाहु तथा श्वेताम्बर संप्रदाय में प्रभव, शय्यंभव, यशोभद्र, संभूतिविजय और भद्रबाहु ये पाँच श्रुतकेवली माने गये हैं। भद्रबाहु को दोनों परम्पराएँ श्रुतकेवली के रूप में स्वीकार करती हैं। अत: आचार्य भद्रबाहु (प्रथम) के काल तक भी जैन संघ में भेद की स्थिति उत्पन्न नहीं हुई थी। भद्रबाहु के अचेलवती होने तथा आर्य महागिरि और आर्यरक्षित के जिनकल्प धारण करने का उल्लेख ग्रंथों में मिलता है। आचार्य भद्रबाहु के पश्चात् आर्य महागिरि और आर्य सुहस्ती के समय में भी मतभेद का बीजारोपण तो नहीं हो पाया, पर कतिपय श्रमण कठोर श्रमणाचार के पक्षपाती और अधिकांश श्रमण समय, सामर्थ्य आदि को दृष्टि में रखते हुए अपवाद मार्ग के समर्थक हो गये थे। हिमवंत स्थविरावली के उल्लेख से भी इस अनुमान की पुष्टि होती है। किन्तु श्रमणों में आचार भेद होने पर भी आपस में मनभेद की स्थितियाँ नहीं थी, अन्यथा दो पृथक् परम्परा के साधु एक साथ मिल बैठकर श्रुतरक्षा एवं संघहित हेतु प्रयत्नशील नहीं होते।' हिमवन्त स्थविरावली में यह भी उल्लेख है कि कुमारगिरि पर आयोजित सभा में जिनकल्पी आर्य बलिस्सह आदि 200 साधुओं और स्थविरकल्पी आर्य सुस्थित सुप्रतिबद्ध आदि 300 साधुओं के साथ आर्या पोइणी आदि 300 साध्वियाँ भी सम्मिलित हुई थी। आर्या पोइणी इन दोनों परम्पराओं में किस परम्परा से संबंधित थी, इसका उल्लेख 1. अचेलगो य जो धम्मो, जो इमो सन्तरूत्तरो-उत्तराध्ययन 23/13 2. प्रभावक चरिते, आर्यरक्षित प्रबन्धः । 3-4 आचार्य श्री हस्तीमलजी, जैनधर्मका मौलिक इतिहास भाग 2 पृ. 78 Page #264 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन श्रमणियों का बृहद इतिहास नहीं है। यदि गच्छभेद होता तो श्रमणों के समान ही दोनों परम्पराओं की साध्वियों का भी पृथक्-पृथक् उल्लेख किया जाता, किन्तु एक ही साध्वी का नेतृत्व यह सिद्ध करता है कि साध्वियों में जिनकल्प और स्थविरकल्प का कोई प्रश्न नहीं उठा था। श्रमणियाँ दोनों परम्परा के श्रमणों का सम्मान करती थीं। परम्परा भेद श्रमणों में भी ऐच्छिक था, अतः श्रमणियों पर उसका प्रभाव नहीं पड़ा था। खारवेल का काल वी. नि. संवत् 316 से 329 तक सुनिश्चित है, अतः यह सम्मेलन इस काल के मध्य ही किसी समय आयोजित हुआ था। ईसवी सन् की प्रथम शताब्दी के अंतिम चरण में एक नदी की दो धाराओं के समान अविभक्त श्रमण संघ श्वेताम्बर और दिगंबर- इन दो विशाल धाराओं में स्पष्ट रूप से प्रवाहित होने लग गया था। भेद का प्रमुख कारण वस्त्र था। एक परम्परा ने वस्त्र ग्रहण में परिग्रह माना, दूसरी ने वस्त्र के प्रति मूर्छाभाव में परिग्रह माना, वस्त्र में नहीं। कालान्तर में आगमों की प्रामाणिकता के संबंध में मतभेद होने से दोनों की मान्यताएँ पृथ्क-पृथक् हो गईं। इन दोनों में सैद्धान्तिक मतभेद के मुख्यतः तीन मुद्दे थे, दिगंबरो की मान्यता थी कि - 1. केवली कवलाहार नहीं करते। 2. स्त्रियों की मुक्ति नहीं होती। 3. वस्त्र मात्र परिग्रह है। श्वेताम्बरों की मान्यता इसके विपरीत है। मेघविजयगणि कृत युक्तिप्रबोध में दिगम्बर और श्वेताम्बर के 84 मतभेदों का वर्णन है।' 1 डॉ. हीरालाल जैन ने भी 42 मतभेदों का विस्तार से उल्लेख किया है। उक्त विभाजन श्वेताम्बर मान्यता के अनुसार वी. नि. 609 रथवीरपुर नगर में आचार्य कृष्ण के शिष्य शिवभूति से हुआ, और दिगम्बर परम्परा में वी. नि. 606 में श्वेतपट संघ की उत्पति की बात कही गई है। दोनों परम्पराओं के ग्रंथों के एतद्विषयक उल्लेखों से इतना तो स्पष्ट है कि वी. नि. 606 अथवा 609 के लगभग श्वेताम्बर-दिगम्बर सम्प्रदाय-भेद प्रकट हुआ। यद्यपि दोनों परम्पराएँ ई0 सन् की प्रथम शती में श्वेताम्बर दिगम्बर परम्पराओं के संघभेद की चर्चा करती है, किन्तु इसका सर्वप्रथम अभिलेखीय साक्ष्य ईसवी सन् की पांचवी शती का ही मिलता है। हुल्सी के उस काल के अभिलेखों में निर्ग्रन्थ, यापनीय, कूर्चक, ओर श्वेतपट्ट ऐसे चार संघ के उल्लेख मिलते है। इनमें निर्ग्रन्थ, यापनीय और कूर्चक संघ अचेल परम्परा से ही सम्बन्धित है। 5. वही भाग 2 पृ. 486 6. वही, भाग 2, पृ. 700-24 7. डॉ. जगदीशचन्द्र जैन, आगम साहित्य में भारतीय समाज, पृ. 20 8. मधय एशिया और पंजाब में जैनधर्म, पृ. 328-33 9. (क) भावसंग्रह, गा. 53 से 68 (ख) बृहत्कथा कोष, कथानक 131 पृ. 318-19 (ग) भद्रबाहु चरित्र 4 परिच्छेद 54:55 दृ. जै. मौ. इ. भाग 2 पृ. 6/2 1202 Page #265 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दिगम्बर परम्परा की श्रमणियाँ 4.2 दिगम्बर परम्परा का आदिकाल श्वेताम्बर मान्यता के अनुसार वी. नि. 609 (वि. संवत् 139) में दिगम्बर मत की स्थापना हुई। आर्य कृष्ण के शिष्य शिवभूति (गृहस्थ नाम सहस्रमल) ने एकान्त नग्नत्व को लेकर जिस नवीन पंथ की स्थापना की उस बोटिक मत'' में साध्वी उत्तरा का उल्लेख आता है। दिगम्बर परम्परा में साध्वी से संबंधित इस प्रकार का कोई उल्लेख प्राप्त नहीं होता, साध्वियाँ वहाँ प्रारंभ से ही सचेल ही स्वीकार की गई हैं। साहित्यिक एवं अभिलेखीय साक्ष्यों के आधार पर कालक्रम से दिगम्बर परम्परा में अनेक संघ, अन्वय, गण एवं गच्छ उदभुत हुए, जिनमें मुख्यतः मूलसंघ, माथुरसंघ, द्राविड़ संघ, मयूरग्राम संघ, नविलूरसंघ एवं इनकी शाखाएँ कुंदकुंदान्वय कोण्डकुंदान्वय, चित्रकूटान्वय तथा इनमें से निसृत देशीगण, आजिगण, सौराष्ट्रगण, सूरस्तगण, पुन्नागवृक्षमूलगण आदि कई गण एवं गच्छ की श्रमणियों के उल्लेख प्राप्त होते हैं।अध्ययन की सुविधा की दृष्टि से उन सभी श्रमणियों का दो वर्गों में वर्गीकरण किया गया है (6) दक्षिण भारत की जैन श्रमणियाँ ; (वर्तमान कर्नाटक, तमिलनाडु) तथा (ii) उत्तर भारत की जैन श्रमणियाँ उल्लेखनीय है कि दक्षिण भारत के दोनों प्रान्तों में आरम्भ से ही दिगम्बर परम्परा में भट्टारक-सम्प्रदाय का प्राधान्य रहा है, अतः अधिकांशतः दिगम्बर आर्यिकाएँ भट्टारक-परम्परा से ही संबद्ध रही है इसके अतिरिक्त दिगम्बर और श्वेताम्बर के मध्य योजक कड़ी के रूप में प्रतिष्ठापित यापनीय संप्रदाय जिसकी श्रमणियों का उल्लेख 8वीं से 11वीं शती तक विशेष रूप से उपलब्ध होता है तथा कालान्तर में यह संप्रदाय दिगम्बर-परम्परा में विलीन हो गया; इन सभी साध्वियों का विवरण दक्षिण भारत की दिगम्बर-परम्परा की श्रमणियों के क्रम में प्रस्तुत किया गया है। उत्तर भारत का जहां तक प्रश्न है, अभिलेख एवं साहित्य के आधार पर विक्रम की 11वीं सदी से लेकर 19वीं शताब्दी के पूर्वार्द्ध तक उनके अस्तित्व की सूचना है, उसके पश्चात् लगभग 150 वर्षों की सुदीर्घ कालावधि तक दिगम्बर-परम्परा की आर्यिकाओं का उल्लेख नहींवत् है। बीसवीं सदी के अंत में पुनः इस परम्परा की आर्यिकाएँ आचार्य आदिसागर जी महाराज 'अंकलीकर' एवं श्री शांतिसागरजी महाराज से प्रारम्भ होकर वर्तमान में विचरण कर रहीं है। ये श्रमणियाँ प्रायः मूलसंघ, कुंदकुंदआम्नाय बलात्कारगण से संबंधित है। एक ही संघ व गण से संबंधित होने के कारण उनका क्षेत्रीय दृष्टि से विभाजन नहीं किया है।' 4.3 दक्षिण भारत में जैन श्रमणियों का अस्तित्व दिगंबर परम्परा के अनुसार वी. नि. की द्वितीय शताब्दी में आचार्य भद्रबाहु 12 वर्षीय भीषण दुष्काल से संघ की सुरक्षा का विचार कर अपने 12 हजार श्रमण समुदाय के साथ दक्षिण की ओर प्रस्थित हुए थे, और तभी श्रुतकेवली भद्रबाहु के संघस्थ मुनियों के द्वारा कर्नाटक एवं तमिलनाडु प्रान्त में जैनधर्म का प्रवेश माना जाता है। किंतु 10. छव्वाससयाई तइया सिद्धि गयस्स वीरस्स। ___ तो बोडियाण ट्ठिी, रहवीरपुरे समुप्पण्णा।। विशेषावश्यक भाष्य, जिनभद्रगणीक्षमाश्रमण कृत, गाथा 2550 11. मा अम्ह लोगो विरज्जही...........अच्छउ एसा तव देवयाए- उत्तराध्ययन नेमिचन्द्रवृति पृ. 51 12. 'जैन कामताप्रसाद', दिगम्बरत्व और दिगम्बर मनि, पृ. 91 203 Page #266 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन श्रमणियों का बृहद इतिहास एक मान्यता यह भी है कि आचार्य भद्रबाहु के दक्षिण प्रवेश से पूर्व ही वहां की जनता जैनधर्म से परिचित थी. अन्यथा 12 हजार श्रमणों के आहारादि देने-लेने की व्यवस्था श्रमणों से अनजान प्रदेश में कैसे संभव हो सकती थी? बौद्धों के पालि-साहित्य से भी इस कथन की पुष्टि होती है। महावंश (बौद्ध ग्रंथ) में उल्लेख है कि 437 ई. पू. के लगभग सिंहलनरेश पाण्डुकभय ने अपनी राजधानी अनुराधापुर में एक जैन मंदिर और जैनमठ बनवाया था, निर्ग्रन्थ साधु वहां पर निर्बाध धर्म-प्रचार करते थे। कुल 21 राजाओं के राज्य तक वह विहार और मठ वहां मौजुद रहा, किन्तु ईसा पूर्व 38 में राजा वट्टगामिनी ने उसको नष्ट कर बौद्ध विहार बनवा दिया था। इससे ज्ञात होता है कि दक्षिण में लंका तक आचार्य भद्रबाहु से पूर्व भी जैनधर्मानुयायी श्रावक रहते थे, और उन्हीं अनुयायियों ने इस विशाल श्रमण संघ का खूब श्रद्धा-भक्ति सहित स्वागत किया होगा। श्रमणों के विचरण से कर्नाटक एवं तमिल प्रदेशों मे जैनधर्म का खूब प्रचार-प्रसार हुआ और दक्षिण भारत जैनधर्म का प्रमुख केन्द्र बन गया। __ श्रमण समुदाय के साथ साध्वियों के विहार का यद्यपि कहीं उल्लेख प्राप्त नहीं होता, तथापि इतने विशाल संघ में साध्वियाँ नहीं गई हों, यह भी संभव नहीं लगता। दुष्काल की विषम स्थिति से सुरक्षित बचने तथा संयम का निर्दोष पालन करने की भावना से साध्वियों ने आचार्य के साथ-साथ विहार किया ही होगा। इस तथ्य की सिद्धि ईसा की दूसरी शताब्दी के पूर्वार्द्ध में रचित 'शिलप्पदिकारम' और 'मणिमेखलै' नामक तमिल महाकाव्य से होती है। बौद्ध विद्वान् द्वारा रचित तमिलग्रन्थ' 'मणिमेखलै' में जैन संप्रदाय और जैन मुनियों (समण-अमण) तथा उनके विहारों का विशेष रूप से उल्लेख है। यह ग्रन्थ ईसा की दूसरी से पाँचवी शताब्दी के मध्य का है, उसमें वर्णन है कि "निर्ग्रन्थ गण ग्रामों के बाहर शीतल मठों में रहते थे। इन मठों की दिवाले बहुत ऊँची और लाल रंग से चित्रित होती थी.. .............जैन साधुओं के आवास-स्थानों के साथ जैन साध्वियों के आराम भी होते थे। जैन साध्वियों का तमिल महिला समाज पर विशेष प्रभाव था।"14 शिलप्पदिकारम् की एक प्रमुख पात्र ‘कोन्ती' जैन साध्वी थी, वह कावेरी नदी के तट पर श्रीकोइल के जैन मंदिर की एक वसतिका में रहती थी, तमिल की निर्दोष नगरी 'मदुरा' को देखने की उत्कंठा से तथा पापमुक्त संतो का उपदेश सुनने की इच्छा से वह श्रेष्ठी कोवलन् और उसकी पत्नी कण्णकी के साथ ही आई थी, उसने मार्ग मे चलते हुए कण्णकि को जैनधर्म के सिद्धान्तों का विशद ज्ञान कराया था, कवुन्ति ने उसे अहिंसक मार्ग पर चलने की शिक्षा भी दी थी। उक्त उल्लेखों के आधार पर यह स्पष्ट रूप से कहा जा सकता है कि दक्षिण में जैन श्रमणियों की उपस्थिति ईसा की प्रथम द्वितीय शताब्दी में निर्द्वन्द्व रूप से थी उसके पश्चात् भी 11वीं शती तक गंगवंश के 900 वर्षों के राज्य काल में जैनधर्म कर्नाटक में खूब फूला फला, क्योंकि उस समय कर्नाटक में सैंकड़ों श्रमणियाँ विचरण करती थी। वि. संवत् 757 के आसपास श्रवणबेलगोला के चन्द्रगिरि पर्वत पर जिन आर्यिकाओं के संलेखना व्रत ग्रहण करने के उल्लेख हैं, उनमे से बहुत सी श्रमणियाँ प्रसिद्ध राजवंशों से ही संबंधित थी। श्रमणी पल्लविया (974-984) गंगनरेश राचमल्ल के मंत्री चामुण्डराय की भगिनी थी, पनिवव्वे भी राजा चामुण्ड के वंश की राजकुमारी थी, गंगनरेश 13. दक्षिण भारत में जैनधर्म, पृ. 2 14. दृष्टव्य- दिगम्बरत्व और दिगम्बर मुनि, पृ. 107 15. भगवान महावीर और उनका तत्वदर्शन, अध्याय 4 पृ. 427 16. दक्षिण भारत में जैनधर्म, पृ. 15 Page #267 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दिगम्बर परम्परा की श्रमणियाँ बुत्तुंग की ज्येष्ठ भगिनी पामब्बे (1028) पेदियर दोरप्पय नरेश की पत्नी थी। इसी प्रकार माचिकब्बे, शान्तलदेवी आदि पोयसल वंश के नरेश की सहधर्मिणी थी। इनके अतिरिक्त भी चालुक्यवंश राष्ट्रकूटवंश आदि राजाओं के जैनधर्मावलम्बी होने से यह सिद्ध होता है कि वहां की राजमहिषियाँ भी जैनधर्म के प्रति गहन आस्था रखती होंगी और दीक्षा भी लेती होगी। 4.4 यापनीय सम्प्रदाय की श्रमणियाँ जैनधर्म के दो प्रमुख सम्प्रदाय दिगम्बर और श्वेताम्बर के अतिरिक्त जैनों का एक संप्रदाय और भी था जो यापनीय के नाम से जाना जाता था। इस सम्प्रदाय की विशेषता यह थी कि इसने श्वेताम्बर और दिगम्बर सम्प्रदायों के मध्य एक योजक कड़ी का काम किया। एक ओर यापनीय संघ के मुनि नग्न रहते थे, मोरपिच्छी रखते थे, पाणितल भोजी थे, नग्न मूर्तियों की पूजा करते थे, दूसरी ओर श्वेताम्बर परम्परा मान्य आचारांग आदि आगमों को अपने धर्मग्रन्थों के रूप में मानते थे, रत्नत्रय की पूजा करते थे, कल्पसूत्र की वाचना करते थे, स्त्री को उसी भव में मुक्ति, सवस्त्रधारी की मुक्ति व केवली का कवलाहार मानते थे। विक्रम की दूसरी शताब्दी से 11वीं शताब्दी पर्यन्त लगभग एक सहस्र वर्ष की लम्बी अवधि तक यह एक अति प्रतिष्ठित तथा राज्यमान्य जैन सम्प्रदाय के रूप में सम्मानित रहा और अंत में यह दिगम्बर संघ में विलीन हो गया। श्रमणियों के लिये जितनी उदारता इस संघ ने दिखाई उतनी न श्वेताम्बरों ने दिखाई न दिगम्बरों ने। दोनों संघों में प्रारम्भ काल से लेकर वर्तमान काल तक साध्वियों के समूह को साधु आचार्यों के ही अधीन रखा जाता रहा है। साध्वियों द्वारा संघ-संचालन करने, उन्हें आचार्य पद पर प्रतिष्ठित करने अथवा भट्टारिका पद प्रदान करने की परम्परा किसी भी काल में नहीं रही। इन दोनों संधों के समग्र आगम या आगमेतर साहित्य में ऐसा एक भी उदाहरण उपलब्ध नहीं होता जहाँ किसी साध्वी को ऐसे सर्वाधिकार सम्पन्न एवं स्वतंत्र अधिकारिक पदों पर आसीन किया हो। किंतु इन दोनों की सैद्धान्तिक तथा व्यावहारिक मान्यताओं के विपरीत यापनीय संघ ने श्रमणियों को भी 'भट्टारक' पद पर प्रतिष्ठित किया। सुन्दर पांड्य से पूर्व मदुरा के पांड्य शासनकाल और उसके पूर्व तथा उत्तरवर्ती काल के शिलालेखों में साध्वियों के स्वतन्त्र संघ, भट्टारक साध्वियों, पट्टिनी कुरत्तियार (पट्टधर अथवा आचार्य गुरूणी), तिरूमले कुरत्ती (गुरूणी) आदि के उल्लेख देखकर यह मानना पडता है कि इस संघ में साध्वियाँ स्वतन्त्र रूप से संघ संचालन करती थी उनकी अपनी संस्थाएँ थीं। वे नर और नारी दोनों को अपना शिष्य बनाती थीं। कर्णाटक का इतिहास साक्षी है कि यापनीय संघ ने स्त्रियों को सर्वाधिक प्रोत्साहन दिया। परिणामस्वरूप मध्ययुग में जैनधर्म कर्णाटक प्रदेश का बहुजनसम्मत प्रधान धर्म बना। 4.5 भट्टारक परम्परा की श्रमणियाँ : पद एवं अधिकार दिगम्बर श्वेताम्बर और यापनीय तीनों संघों में उनके स्वतन्त्र अस्तित्व की दो-तीन शताब्दियों के मध्य ही भट्टारक परम्परा भी प्रारम्भ हुई। इन तीनों परम्पराओं के कुछ श्रमण, गिरि-गुहाओं का निवास तथा सतत परिव्रजन 17. जैनधर्म का मौलिक इतिहास भाग 3, पृ. 247 18. डॉ. सागरमल जैन, जैनधर्म का यापनीय संप्रदाय, पृ. 82, 108, 120, 135, 170, 180 205 Page #268 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन श्रमणियों का बृहद इतिहास को छोड़कर रहने लगे। अपने-अपने स्थानों पर सिद्धान्तशालाएँ खोलकर बालकों तथा युवकों को सैद्धान्तिक, धार्मिक तथा व्यावहारिक शिक्षण देने लगे। अपने द्वारा स्थापित मंदिर, चैत्य, महाविद्यालय आदि के नाम पर जो विशाल धनराशि प्राप्त होती, उससे इन्होनें सिंहासनापीठ कायम किये, उच्चकोटि के संस्कृति केन्द्र तथा विश्वविद्यालय स्तर के शिक्षा केन्द्र बनाये तथा वहां से निकले प्रतिभा सम्पन्न विद्वान् श्रमणों को दूरवर्ती प्रदेशों में धर्म का प्रचार प्रसार करने के लिये भेजा। इनमें श्वेताम्बर भट्टारक परम्परा 'श्रीपूज्य परम्परा' के नाम से जानी जाती थी, जो कालान्तर में यति-परम्परा के रूप में परिवर्तित हो गई। वर्तमान में प्रचलित भट्टारक परम्परा केवल दिगम्बर-आम्नाय की ही है, जो आचार्य माघनन्दि द्वारा कोल्हापुर (क्षुल्लकपुर) नरेश गण्डादित्य और उनके सामन्त सेनापति निम्बदेव की सहायता से ई. सन् 1123 से 1135 के मध्य किसी समय प्रारम्भ हुई थी। आचार्य माघनन्दि के 700 शिष्य उच्चकोटि के विद्वान् थे, जिनसे विभिन्न भागों में 25 भट्टारक पीठ स्थापित हुए। ये ही नन्दि संघ के मूल पुरुष आचार्य थे। इस परम्परा में भट्टारक पद्मनंदी के तीन शिष्यों से तीन भट्टारक परम्पराएँ और उनसे अनेक शाखाएँ प्रशाखाएँ प्रचलित हुई। भट्टारक परम्परा ने यापनीय संघ के समान ही साध्वियों को साधुओं के समान पूर्ण अधिकार दिये, अनेक श्रमणियाँ भट्टारिका पद पर प्रतिष्ठित हुईं इसका प्रबल प्रमाण 'तिरूचारणत्थुमलै' स्थान है, यहाँ पर प्राचीन काल में जैन संघ का एक विश्वविद्यालय था, उस पर प्रकाश डालने वाले 'कलुगुमलै' के शिलालेखों में एक साध्वी भट्टारिका का उल्लेख है, उसने उस विश्वविद्यालय मे जैन सिद्धान्तों का उच्चकोटि का प्रशिक्षण दिलवाकर विद्वान, स्नातकों को देश के विभिन्न प्रान्तों में धर्म प्रचार के लिये भेजा था। इन शिलालेखों में कतिपय 'कुरत्तिगल' (आदरणीया गुरूणी) के नाम भी अंकित है। उन सब अभिलेखों का सूक्ष्म शोधपरक दृष्टि से अध्ययन करने पर साध्वी संघ के सम्बन्ध में महत्वपूर्ण अनेक ऐतिहासिक तथ्य प्रकाश में आ सकते हैं। 4.6 दक्षिण के कर्नाटक प्रान्त में दिगंबर परंपरा की आर्यिकाएँ (वि. संवत् आठवीं सदी से पन्द्रहवीं सदी तक) ___ कर्नाटक प्रान्त में जैन श्रमणियों का सर्वप्रथम उल्लेख चन्द्रगिरि के अभिलेखों से प्राप्त होता है। इस प्रान्त की प्राप्त श्रमणियों का विवरण इस प्रकार है 4.6.1 राज्ञीमती गन्ति (वि. सं. 757) ___ आप नविलूर संघ, आजिगण की साध्वी थीं। चन्द्रगिरि पर्वत पर संन्यास धारण कर संलेखना द्वारा स्वर्ग गति प्राप्त की थी। लेख लगभग शक संवत् 622 का है। संलेखना जैन दर्शन की एक अनुपम देन है, जो आत्मघात से बिल्कुल विपरीत है, आत्मघात नैराश्यपूर्ण जीवन की अभिव्यक्ति का नाम है, जबकि संलेखना समतामूलक संयम की , अंतिम परिणति है, जो आध्यात्मिक जीवन का परिशोधन करने के लिये धारण की जाती है। 19. वही, भाग 3 पृ. 175 20. वही, भाग 3 पृ. 173-74 21. वही, पृ. 142 22. प्रो. वी. पी. जोहरापुरकर, भट्टारक संप्रदाय पृ. 91 23. श्री हीरालाल जैन, जैन शिलालेख संग्रह, भाग 1 लेख संख्या 207 (97) 206 Page #269 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दिगम्बर परम्परा की श्रमणियाँ 4.6.2 आर्यिका जम्बुनायगिर् (वि.सं 757) इन्होनें भी चन्द्रगिरि पर्वत पर व्रत पालकर समाधिमरण किया था। यह शिलालेख चन्द्रगिरि की शासनवस्ति के पूर्व की और है। यद्यपि लेख में 'आर्यिका' शब्द का उल्लेख नहीं है, किंतु श्री हीरालाल जी जैन तथा श्रीमती जे. के. जैन ने अपने लेख में उन्हें 'आर्यिका'कहा है। 4.6.3 शशिमती गन्ति आर्यिका (वि. सं. 757) चन्द्रगिरि पर्वत पर शशिमती गन्ती के संन्यास धारण कर स्वर्गगामी होने का उल्लेख है। अंत समय के उसके उद्गार कि “मुझे इसी मार्ग का अनुसरण करना है..............."; उनकी लक्ष्य के प्रति अटूट निष्ठा को अभिव्यक्त करते है। उन्होंने जान लिया कि परमात्मपद ही मेरी मंजिल है, ओर मुझे आत्म-लक्ष्य की और बढ़ना है। लेख में उसे 'व्रत शील सम्पन्ना' कहा गया है।26 4.6.4 सायिब्बे कान्तियर (वि. सं. 757) चन्द्रगिरि पर तेरिन बस्ति के नवरंग में एक टूटे पाषाण पर सायिब्बे कान्तियर् का उल्लेख है।” 4.6.5 नन गंतियर् (वि. सं. 757) चन्द्रगिरि पर सन् 700 में ननगंतियर् के संलेखना व समाधिमरण का उल्लेख प्राप्त होता है-8 इनकी विशेष जानकारी उपलब्ध नहीं हुई। 4.6.6 अनन्तामती गन्ती (वि. सं. 757) चन्द्रगिरि पर्वत के शिलालेख में अनन्तामतीगन्ती के लिये उल्लेख है कि उन्होनें भी द्वादश तप को धारण कर कटवप्रपर्वत पर यथाविधि व्रतों का पालन किया एवं सुरलोक को प्राप्त हुईं। आप नविलूर संघ की आर्यिका थीं।" 4.6.7 सौन्दर्या-आर्या (वि. सं. 757) चन्द्रगिरि पर ही मयूरग्राम संघ की आर्या सौन्दर्या ने कटवप्रपर्वत पर समाधिमरण किया, यह उल्लेख वहाँ के शिलालेख पर उट्टांकित है। 24. वही, भाग 1 लेख 5 (18) 25. श्रवणबेल्गोल के शिलालेखों में महिलाएँ पृ. 74 जैन सिद्धान्त. भास्कर, जुलाई 1946 26. अभिलेख 35 (76) जै. शि. संग्रह, भाग 1 पृ. 15 27. अभिलेख 227 (136) जै. शि. संग्रह भाग 1 28. लेख संख्या 76, मद्रास व मैसूर के प्राचीन जैन स्मारक, पृ. 260 29. अभिलेख 28 (98)जै. शि. संग्रह, भाग 1 30. अभिलेख 29 (108) जै. शि. संग्रह, भाग 1, |207 Page #270 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन श्रमणियों का बृहद इतिहास 4.6.8 आर्यिका प्रभावती (वि. सं. 757) चन्द्रगिरि पर्वत पर शासनवस्ति के पूर्व की ओर के शिलालेख में नमिलूर संघ की प्रभावती आर्या के द्वारा संलेखना व्रत धारण कर दिव्य शरीर प्राप्त करने का उल्लेख है।" 4.6.9 आर्यिका दमितामती (वि. सं. 757) चन्द्रगिरि पर्वत की शासनवस्ति के पूर्व की और के शिलालेख में ही मयूरग्राम संघ की आर्यिका दमितामती के कटवप्र पर्वत पर समाधिमरण का उल्लेख है।2 4.6.10 नागमति गन्ति (वि. सं. 757) आप अदेयरेनाड में चित्तूर के मौनी गुरू की शिष्या थी; इन्होंने तीन महीने के व्रत के पश्चात् शरीर त्याग किया। मौनी गुरू को कोट्टर के गुणसेन और नविलूर संघ के वृषभनन्दि का गुरू माना गया है, वृषभनंदि का समय शक संवत् 622 (वि. संवत् 757) का है, वहाँ इन्हें अगलि के मौनिगुरू कहा है। अदेयरेनाडु, संभव है पल्लव नरेश नन्दिवर्म के एक दानपत्र में 'अदेयराष्ट्र का उल्लेख आया है, वही हो।" 4.6.11 धण्णे कुत्तारे (वि. सं. 757) चन्द्रगिरि की पार्श्वनाथ वस्ति के दक्षिण की और के शिलालेख पर पेरूमाल गुरू की शिष्या धण्णेकुत्तारेवि गुरवी के समाधिमरण का लेख उट्टांकित है। यह आर्यिका थी। 4.6.12 कमलश्री (विकम की 9वीं शती) ज्वालामालिनी कल्प के कर्ता इन्द्रनन्दि योगीन्द्र जो द्रविड़ संघ के थे, उन्होंने उक्त ग्रन्थ की उत्थानिका में लिखा है कि, दक्षिण के मलय देश के हेमग्राम में द्रविड़ संघ के अधिपति हेलाचार्य थे, उनकी शिष्या कमलश्री को ब्रह्मराक्षस लग गया उसकी पीड़ा को दूर करने के लिए हेलाचार्य ने ज्वालामालिनी की साधना की। देवी के साक्षात् होने पर आचार्य ने कहा, "मुझे अन्य कुछ नहीं चाहिए, मेरी शिष्या को ग्रहमुक्त कर दो" देवी के मंत्र से शिष्या स्वस्थ हो गई। इसके पश्चात् देवी के आदेश से हेलाचार्य ने "ज्वालिनीमत" नामक एक ग्रन्थ की रचना की, उक्त ग्रन्थ की आद्य प्रशस्ति के 22वें पद्य में उनके शिष्य गंगमुनि, नीलग्रीव और बीजाव नाम के शिष्यों के साथ "सांतिरसव्वा" नाम की आर्यिका का भी उल्लेख किया है। 'कमलश्री' और 'आर्यिका सांतिरसव्वा' का समय विद्वानों ने 8वीं या 9वीं शताब्दी माना है।" 31. अभिलेख 27 (114) जै. शि. संग्रह, भाग । पृ. 11 32. अभिलेख 27 (114) जै. शि. संग्रह, भाग 1 . 11 33. अभिलेख 2 (20) जै. शि. संग्रह, भाग 1, पृ. 13 34. अभिलेख 10 (7) जै. शि. सं. भाग 1 35. जुगल किशोर मुख्तार -जैन ग्रन्थ प्रशस्ति संग्रह, भाग 1 पृ. 135 36. वही, भाग - 1 पृ. 63 |208 Page #271 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दिगम्बर परम्परा की श्रमणियाँ 4.6.13 कनकवीर कुरत्तियार (संवत् 900 के आसपास) यापनीय संघ के गुणकीर्ति भट्टारक की शिष्या कनकवीर कुरत्तियार उच्चकोटि की शास्त्रज्ञ एवं कवियित्री थी। तमिलनाडु के जैन शिलालेखों मे उल्लेख है कि 500 साध्वियों की ये अधिनायिका आचार्या थीं, इनके साथ ही किसी अन्य जैन संघ की चारसौ साध्वियाँ जो वेडाल में ही विद्यमान थीं, आपस में मनोमालिन्य बढ़ गया, उस समय उसके भक्तों ने उन्हें आश्वस्त करते हुए साध्वी संघ की रक्षा एवं प्रतिदिन की आवश्यकता की पूर्ति करने का वचन दिया।" 400 साध्वियों के जिस समूह के साथ कुरत्तियार कनकवीरा का संघर्ष हुआ, वे संभवतः दिगम्बर परम्परा के द्राविड़ संघ की साध्वियाँ रही होंगी, इस कारण विद्वानों ने यह अनुमान लगाया है कि कनकवीर कुरतियार का संघ कर्णाटक प्रदेश से तमिलनाडु में धर्म के प्रचार प्रसार हेतु आया होगा, उसमें उनकी आशातीत सफलता एवं बढ़ते प्रभाव को देखकर द्राविड़ संघ के साध्वी समूह में सहज ईर्ष्या भाव जागृत हुआ होगा। बहुत सम्भव है, उन्होनें अपने अनुयायियों रने व आहार पानी देने का निषेध किया हो, इस संकट की घडी में यापनीय संघ एवं इन साध्वियों के प्रति श्रद्धा रखने वाले अनुयायी वर्ग ने इनके भरण-पोषण का भार अपने ऊपर लेते हुए उन्हें आश्वस्त किया हो। तमिलनाडु के लिये उस समय यह धार्मिक असहिष्णुता की घटना बड़ी महत्वपूर्ण घटना रही होगी, अतः उसे शिलालेख में उदृकित किया गया प्रतीत होता है। तमिलनाडु के अकेले बेडाल क्षेत्र में नौसौ साध्वियों के समूह की इस घटना से यह भी सहज अनुमान लगता है कि उस समय दक्षिण प्रान्त में अन्य स्थानों की मिलाकर हजारों श्रमणियाँ उन प्रदेशों में विचरण करती होंगी, इतनी श्रमणियों को धर्ममार्ग पर अग्रसर होने की प्रबल प्रेरणा देने वाली ये कुरत्तियार, भट्टारिकाएं निश्चय ही अत्यन्त लोकप्रिय एवं शक्तिशाली रही होगी तभी इतने विशाल साध्वी-समुदाय की देखरेख करती थीं। 4.6.14 संलेखना ग्रहण करने वाली छः आर्यिकाएं (10वीं सदी) "सुन्दी'(धारवाड़) के जैन मंदिर में 20वीं शती के एक शिलालेख पर अंकित है कि पश्चिमीय गंगवंशीय राजकुमार बुटुग की पत्नी दिवलम्बा ने छः आर्यिकाओं को समाधिमरण कराया था।" 4.6.15 मारब्बे कन्ति (10वीं सदी) आप देवेन्द्र पंडित भट्टार की शिष्या थीं। मण्णे (मैसूर) के शिलालेख पर आपके समाधिमरण का तथा कलिगब्बेकन्ति द्वारा निसिधि की स्थापना करने का उल्लेख है। शिलालेख पर अंकित लिपि 10वीं सदी की एवं भाषा कन्नड़ है। 4.6.16 देवियब्बे कन्ति (10वीं सदी) __ आप प्रभाचन्द्र भट्टार की शिष्या थीं, इन्होंने अंकनाथपुर (मैसूर) मे समाधिमरण किया, उसका स्मारक निर्मित हुआ है। यह लेख अंकनाथेश्वर मंदिर की छत में स्थित है। इसकी भी भाषा कन्नड़ एवं लिपि 10वीं सदी की है।" 37. साउथ इण्डियन इंस्क्रिप्शन्स, वोल्यूम 3 संख्या 92 38. जै. मौ. इ. भाग 3, पृ. 198 39. 'आ. देशभूषण', महावीर और उनका तत्वदर्शन, अ. 4, पृ. 435 40. अभिलेख 102, जै. शि. सं. भाग 4 पृ. 69 41. अभिलेख 105,जै. शि. सं. भाग 4 209 209 Page #272 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 4.6.17 अनन्तमति गन्ति ( 10वीं सदी ) यह नविलूर संघ की आर्यिका थी, इसने द्वादश तपों का कटवप्र पर्वत पर यथाविधि पालन किया, अंत में समाधिसहित स्वर्गवासिनी हुईं। 2 4.6.18 कण्णब्बे ( 10वीं सदी) श्रवणबेलगोल संख्या 460 (485) के शिलालेख में इनका एक आर्यिका के रूप में नामोल्लेख है । 13 जैन श्रमणियों का बृहद इतिहास 4.6.19 पोल्लव्वे कंतियर ( 10वीं सदी) चंद्रगिरि पर्वत के कञ्चिनदोणे के आसपास 'पोल्लव्वे कंतियर आर्या का उल्लेख है। 44 4.6.20 कादम्बे कंती (वि. संवत् 1027 ) गंदसी ग्राम के उत्तरद्वार के पाषाण पर यह लेख है कि श्री जिनसेन भट्टारक के शिष्य गुणभद्रदेव की शिष्या कादम्बे कंती थी, उसका यह स्मारक है। यह आर्यिका सत्यवाक्य कोंगनी वर्मा महाराजाधिराज के समय विद्यमान थी । 15 4.6.21 पामब्बे (संवत् 1028 ) रानी पामब्बे गंगनरेश बुत्तुंग की बड़ी बहन और पेदियर दोरपप्य नरेश की ज्येष्ठ रानी थी। दुर्विपाकवश जब विधवा हो गई तो नाणव्वे कन्ति नाम की एक आर्यिका के पास पहुँची और केशलोच करके आर्यिका के व्रत धारण कर लिए थे। 30 वर्ष तक लगातार पांच महाव्रतों का पालन कर कठिन तपश्चर्या करते हुए आत्मशोधना पूर्वक 973 ईसवी में स्वर्गवासिनी हुईं " शिलालेख में लिखा है कि जब लोग उनको बुटुग नरेश की बहन मानकर आदर करते थे और पूछते थे कि वे कोई सेवाकार्य बतायें, तो वे कह देती थी कि मुझे जो प्राप्त था उसका ही मैंने त्याग कर दिया, अब मुझे कुछ नहीं चाहिए। 7 पामब्बे के ये शब्द श्रमण-संस्कृति को गौरवान्वित करने वाले स्वर हैं, जो उसकी आध्यात्मिक पवित्रता, वैराग्यवासित निःसंग जीवन से उद्भुत हुए हैं। अध्यात्म को मूल ध्रुव मानकर चलने वाली इन श्रमणियों ने भौतिक जीवन शैली के समक्ष जो त्याग का उत्कृष्ट उदाहरण प्रस्तुत किया, वह आज भी शिलालेखों के माध्यम से हमें संदेश देता है। 4.6.22 पल्लविया (वि. संवत् 1031-41 ) आप गंगनरेश राचमल्ल सत्यवाक्य चतुर्थ के मंत्री चामुण्डराय की भगिनी एवं काललदेवी की सुपुत्री थीं। इन्होने 42. 'श्रीमती जी. के. जैन' श्रवणबेलगोल के शिलालेख, लेख संख्या 28 (98) दृ. जै. सि. भास्कर पृ. 71 43. वही, पृ. 73 44...... मुडिपिदरवगुड्डिसायिब्बे निसिदल पोल्लब्बे कन्तियों ......गे। अभिलेख - 240 (156) - जै. शि. सं., भाग 1 45. मद्रास व मैसूर के प्राचीन जैन स्मारक, लेख संख्या 164 पृ. 281 46. आ. आदिसागर अभिनंदन ग्रंथ, पृ. 38 47. 'डॉ. ज्योतिप्रसाद', प्रमुख ऐतिहासिक जैन पुरूष और महिलाएं पृ. 80 210 Page #273 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दिगम्बर परम्परा की श्रमणियाँ लघुवय में ही सांसारिक सुख-समृद्धि का त्यागकर आर्यिका व्रत ग्रहण किया था। कठोर तप, जप एवं नियमों का पालन करती हुई अंत में संलेखना व्रत अंगीकार किया। श्रवणबेलगोल की चन्द्रनाथ वसति में इन्होंने देह त्याग किया। इनकी माता काललदेवी की भावना से ही चामुण्डराय ने 978 ईसवी में गोमटेश्वर (बाहुबलि) की विश्वविश्रुत 57 फुट ऊँची खड्गासन में स्थित प्रतिमा का निर्माण कराकर प्रतिष्ठा कराई थी, जो शिल्पकला तथा मूर्तिविज्ञान की अद्वितीय कलाकृति है। आचार्य हस्तीमल जी महाराज ने अपने इतिहास-ग्रंथ में गंगनरेश राचमल्ल-राजमल्ल का समय ईस्वी सन् 974 से 984 का वर्णित किया है, किन्तु चामुण्डराय, जिन्होनें श्रवणबेल्गोल की गगनचुम्बी मूर्ति का निर्माण करवाया; उसकी प्रतिष्ठा का समय बाहुबलि चरित्र में उल्लिखित संवत् एवं तिथि के अनुसार प्रमुख इतिहासज्ञों ने सन् 1028 में 23 मार्च का दिन माना है।49 4.6.23 अमृतब्बे कन्ति (वि. सं. 1032) प्रो. हीरालाल जी जैन ने 'कन्नड़ जैन शिलालेखों में जैन संत' लेख में 'मैसूर आर्कियोलोजिकल रिपोर्टस् 1939-65 के अनुसार साध्वी अमृतब्बे कति का उल्लेख किया है, उनका समाधिमरण 975 ईस्वी में हुआ। 4.6.24 माकब्बे गंति (संवत् 1070) बोमलापुर मैसूर शक संवत् 935 ई. सन् 1013 का कन्नड़ शिलालेख है। इसमें माकब्बेगति के समाधिमरण का उल्लेख है, जिसका स्मारक बीचगवुड़ ने स्थापित किया था।" 4.6.25 आर्या हुलियबाज्जिके (संवत् 1073) ___आप सौराष्ट्रगण चित्रकुटान्वय के श्री नंदी पंडित की शिष्या थीं, आपको जैन सेंक्च्युरी के लिए धाखाड़ जिले के सोरटूर ग्राम में संवत् 1071(3) में एक भूमि दान स्वरूप प्राप्त हुई थी। इसी प्रकार का उल्लेख एक अन्य साध्वी के लिये भी प्राप्त होता है। इस उल्लेख में अष्टोपवासी कतियर को संवत् 1076 में गुडीगेरे में जैन पार्श्वनाथ मंदिर के लिये भूमि प्राप्ति की सूचना है। उक्त उल्लेखों से यह सिद्ध होता है कि साध्वियाँ सर्वतंत्र समर्थ होती थीं, साध्वियों की आंतरिक देखरेख के लिये साध्वियाँ साधुओं पर अवलम्बित नहीं थीं। 4.6.26 पनिवव्वे आर्यिका (11वीं सदी) पनिवव्वे गंगवंश में वीर मार्तण्ड राजा चामुण्डराय के वंश की राजकुमारी थी, उसने आर्यिका व्रत ग्रहण किये थे। श्री अजितसेनाचार्य और नेमिचन्द्राचार्य उस समय चामुण्डराय के गुरू होने से आर्यिका पनिवव्वे भी उन्हीं के संघ में दीक्षित हुई प्रतीत होती है।54 48. जैनधर्म का मौलिक इतिहास, भाग 3 पृ. 269 49. जै. शि. सं. भाग 1 की भूमिका पृ. 31 50. जैन सिद्धान्त भास्कर पृ. 69 दिसंबर 1940 51. 'वि. जोहरापुरकर, जै. शि. सं. भाग 4 पृ. 74 52-53 रामभूषणप्रसाद सिंह, जैनिज्म इन अर्ली मिडिवल कर्नाटका (500 से 1200 ई.) पृ. 129-30 प्रकाशक-मोतीलाल बनारसीदास, दिल्ली 1975 (प्र. सं.) 54. भ. महावीर और उनका तत्वदर्शन, पृ. 422 Page #274 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 4.6.27 ससिरमति गंती ( 11वीं सदी) इंस्क्रिपशंस ऑफ श्रवणबेलगोला लेख नं. 30 के उल्लेखानसार प्रो. श्री हीरालाल जैन ने अपने लेख में ससिरमती गंती का वर्णन करते हुए लिखा है कि वह हंसमुख स्वभाव की दृढ़ निश्चयी, गुणवती एवं महान विदुषी (आर्यिका ) थी, उसने श्रवणबेलगोल में संलेखना व्रत ग्रहण कर देह त्याग किया था। 5 4.6.28 क्किब्बे ( संवत् 1109 ) चन्दियब्बे गावुण्डि की मंत्रकी और कस्तूरी भट्टार की शिष्या, 'जक्कियब्बे' ने इस कारण संन्यास ग्रहण कर लिया कि वह 'दायतिगमती' के स्वर्गवास के समाचार को सुनकर सहन नहीं कर पाई और संसार से विरक्त हो गई। इसके पति का नाम 'एडय्य' था। जैन श्रमणियों का बृहद इतिहास यह उल्लेख तीतरमाड़ (नल्लूर) के घर के निकट 117 नं. के तालाब के बांध पर पाषाण पर संस्कृत व कन्नड़ भाषा में लगभग 1050 ईस्वी ( लुई राईस) का उत्कीर्ण है। 56 4.6.29 अरसव्वे गंती ( संवत् 1152 ) आप सुराष्ट्रगण के कलनेले के श्री रामचन्द्रदेव की शिष्या थी । सोमेश्वर ग्राम में वासव मंदिर के खम्भे पर सन् 1095 के उट्टङ्कित स्मारक में आपका उल्लेख किया गया है। 57 4.6.30 वसववे गंती (वि. संवत् 1156) अनुसार आप श्री मूलसंघ के दिवाकरनंदी सिद्धान्तदेव की शिष्या थी, 1099 ईसवी में जिनालय हेतु दान दिलाने में आपका उल्लेख मिलता है। 58 मूलसंघ दिगम्बर संप्रदाय का प्राचीनतम संघ है। 1100 ईसवी के अभिलेख के यह आचार्य 'कुन्दकुन्द के द्वारा स्थापित किया गया, किंतु पट्टावलियों से प्राप्त जानकारी के अनुसार आचार्य माघनन्दि ने इस संघ की स्थापना की थी। चौथी और पांचवी शताब्दी के अभिलेखों के अध्ययन से मूल संघ की स्थापना ईसा की दूसरी शताब्दी में श्वेताम्बर व दिगम्बर सम्प्रदायों के अस्तित्व में आने के समय हुई। मूलसंघ की एक शाखा 'नन्दि आम्नाय' है। 59 4.6.31 आर्यिका रात्रिमती कन्ति (वि. संवत् 1165 ) आप बल्लालदेव और गणधरादित्य के समय 1108 ईसवी में मूलसंघ के पुन्नागवृक्षमूल गण की आर्यिका थीं। आपकी शिष्या 'बम्मवगुड' द्वारा मंदिर बनवाने का उल्लेख है। 50 55. जैन सिद्धान्त भास्कर पृ. 62, दिसंबर 1943 56. अभिलेख - 83, जैन शिलालेख संग्रह, भाग 2 57. अभिलेख - 96, मद्रास व मैसूर के जैन स्मारक, पृ. 284 58. लेख संख्या 24, वही, पृ. 192 59. श्रीमती डॉ. राजेश जैन, मध्यकालीन राजस्थान में जैनधर्म, पृ. 90 60. अभिलेख - 250, जैन शिलालेख संग्रह, भाग 2 212 Page #275 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दिगम्बर परम्परा की श्रमणियाँ पुन्नागवृक्षमूलगण का उल्लेख वृक्षमूल गण के नाम से नंदि संघ की एक शाखा के रूप में भी उपलब्ध होता है, और वह यापनीय संघ का ही एक गण था।" इस उल्लेख से आर्यिका रात्रिमती कन्ति यापनीय संघ की ही आर्यिका थी । 4.6.32 आर्यिका श्रीमती गंती (वि. संवत् 1176 ) श्रवणबेलगोला में मठ के शिलालेख पर उल्लेख है कि श्रीमती गंती ने सन् 1119 में संलेखना कर समाधिमरण किया 2 आचार्य देशभूषण जी ने श्रवणबेलगोल के नं. 139 के शिलालेख में योगी दिवाकरनंदि से 'गन्ती' नामक एक भद्र महिला के दीक्षा ग्रहण कर समाधिमरण प्राप्त करने का उल्लेख किया है। उसका काल वर्णित नहीं है किंतु लेख संख्या एक होने से यह प्रतीत होता है, कि ये दोनों एक ही अर्यिका के लेख हैं। 4.6.33 मानकव्वे गन्ति (वि. सं. 1176 ) श्रवणबेलगोल मठ के उत्तर की गोशाला में मानकव्वे गन्ति का स्मारक है, जो माङ्क ब्बे गन्ती ने स्थापित कराया। स्मारक पर उत्कीर्ण लेख में मानकब्बे गन्ती को देशियगण कुन्दकुन्दान्वय के दिवाकर नन्दि की शिष्या कहा गया है। 64 दिवाकरनन्दि बड़े भारी योगी थे, वे देवेन्द्र सिद्धान्तदेव की शाखा में हुए थे। उनके दो शिष्य मलधारिदेव और शुभचन्द्रदेव सिद्धान्त मुनीन्द्र थे, श्रीमती गन्ती ने उनसे दीक्षा लेकर शक संवत् 1041 में समाधिमरण प्राप्त किया। 4.6.34 गे......गन्ति ( संवत् 1177 ) मत्तावार (कर्नाटक) में पार्श्वनाथ बस्ति के प्रांगण में एक पाषाण पर कन्नड भाषा में लिखित एक लेख जो लगभग 1120 ईसवी का है, उसमें उल्लेख है कि मरूळहळलि के जकव्वे के द्वारा प्रेषित गे......गन्ति ने मत्तवूर की बसदि में तपश्चरण करके सिद्धि प्राप्त की । उसकी स्मृति में अब्बेय माजक के पुत्र मारेय ने यह पाषाण स्थापित किया। 65 4.6.35 पोचिकब्बे (विं. संवत् 1178) चन्द्रगिरि की पार्श्वनाथ वस्ति के दक्षिण की ओर के शिलालेख में 'मार' और 'माकणव्बे' के सुपुत्र' 'एचि' व एचिगांङ्ग. की भार्या 'पोचिकब्बे' की धर्मपरायणता की स्तुति करते हुए उसके अंत में संन्यास लेकर स्वर्गारोहण का उल्लेख है। इस उल्लेख से यह सिद्ध होता है कि जीवन के अंतिम क्षणों में संन्यास और संलेखना व्रत एक 61. जै. मौ. इ. भाग 3 पृ. 191 62. लेख संख्या 351 (139), म. मै. जै. स्मा. पृ. 269 63. भ. महावीर और उनका तत्त्वदर्शन, अ. 4 पृ. 442 64. लेख संख्या 139 (351), जैन शिलालेख संग्रह, भाग 1 65. अभिलेख- 273, जैन शिलालेख संग्रह, भाग 2 66. अभिलेख - 44 (118), जै, शि. सं. भाग 1 213 Page #276 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन श्रमणियों का बृहद इतिहास साथ धारण करके भी महिलाएं अपने नर-जन्म को कृतार्थ करती थीं, पोचिकब्बे, लक्ष्मीमती, माचिकब्बे, शान्तलदेवी आदि इसी प्रकार संयम पथ पर आरूढ़ होने वाली महिला-श्रमणियाँ हैं। 4.6.36 लक्ष्मीमती (वि. संवत् 1179) चंद्रगिरि की पार्श्वनाथ वस्ति के दक्षिण की ओर के शिलालेख पर ही लक्ष्मीमती के संन्यासविधि से शक संवत् 1044 में देहोत्सर्ग का उल्लेख है। ये दंडनायक गंगराज की धर्मपत्नी थी, तथा दान, गुण व शील में अग्रणी थी। मूलसंघ पुस्तकगच्छ देशीगण के शुभचन्द्राचार्य की शिष्या थीं। दंडनायक गंगराज ने अपनी साध्वी स्त्री की स्मृति में निषद्या निर्माण करवाई167 4.6.37 माचिकब्बे एवं शान्तलदेवी (वि. संवत् 1185) चन्द्रगिरि की गन्धवारण बस्ती के प्रथम मण्डप के तृतीय स्तम्भ पर महान तपस्विनी सती साध्वी माचिकब्बे एवं पुत्री शान्तलदेवी की अमर कीर्ति गाथाएं उट्टङ्कि.त हैं। यह लेख तीन भागों में विभक्त है, कुल 40 पद्य हैं, उसमें प्रारम्भ के 19 पद्यों में द्वारावती के यादववंशीय पोयसल नरेश विनयादित्य व उनके उत्तराधिकारी 'एरेयग.' तथा उनके पुत्र और उत्तराधिकारी' विष्णुवर्द्धन' का वर्णन है। विष्णुवर्द्धन बड़ा प्रतापी नरेश हुआ, उसने अनेक माण्डलिक राजाओं को जीतकर अपने राज्य का विस्तार किया था। इसकी पटरानी शान्तलदेवी धर्मपरायण थी, प्रभाचन्द्र सिद्धान्तदेव की वह शिष्या थी। शान्तलदेवी के पिता का नाम मारसिंगय्य और माता का नाम माचिकब्बे था। शान्तलदेवी ने बेल्गोल में आकर संन्यासविधि लेकर एक मास का अनशन व्रत किया और समाधिमरण को प्राप्त हई। सन 1121 में जब शान्तलदेवी का संलेखना मरण हुआ तो माता माचिकब्बे को भी संसार से विरक्ति हो गई। माचिकब्बे दण्डाधीश नागवर्म और उनकी भार्या चन्दिकब्बे के पुत्र प्रतापी बलदेव दण्डनायक और उनकी भार्या वाचिकब्बे की पुत्री थी। इन्होंने भी श्रवणबेल्गोल में अपने गुरू प्रभाचन्द्र सिद्धान्तदेव वर्धमानदेव और रविचन्द्रदेव की उपस्थिति में संन्यास दीक्षा ग्रहण कर एक मास के अनशन के साथ संलेखना व्रत अंगीकार किया और समाधिमरण किया था। उक्त त्यागी मुनियों ने इनके तप, संयम एवं धर्मनिष्ठा की भूरि-भूरि प्रशंसा की थी। मध्यकालीन भारत की वीरपत्नी और वीरमाता माचिकब्बे एवं शान्तलदेवी ने तीर्थंकरकालीन उन श्रमणियों का आदर्श प्रस्तुत किया जो अंतिम समय में भोगों से विरक्त होकर संयम जीवन में प्रवेश करती थीं, और अंत में मासिकी संलेखना धारण कर आत्म-ज्योति को प्रगट कर लेती थीं। इन दोनों माता पुत्रियों का उत्कृष्ट त्याग युगों-युगों तक भारतीय नारियों के लिये पथ चिह्म बना रहेगा। 4.6.38 कण्नबे कन्ति (वि. सं. 12वीं शताब्दी) श्रवणबेलगोल के गरगट्ट चन्द्रय्य के घर जिनमूर्ति के पादपीठ पर उत्कीर्ण लेख में इस महान साध्वी का उल्लेख है।० 67. अभिलेख-48 (128), जै. शि. सं., भाग 1 68. (क) अभिलेख- 53 (143), जै. शि. सं. भाग 1, (ख) डॉ. जैन ज्योतिप्रसाद, प्रमुख ऐतिहासिक जैन पुरूष और महिलाएं, पृ. 141 70. 'श्रीमत् कणनबे कन्तियरू कलसतवादिय तीर्थद वसदिगे कोहर" अभिलेख 460 (485) जै. शि. सं., भाग 1 214 Page #277 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दिगम्बर परम्परा की श्रमणियाँ 4.6.39 अमरचर की शिष्या आर्यिका ( 12वीं सदी) कुन्दकुन्दू देशीयगण के अमरचर की शिष्या आर्यिका के विषय में जगवल्लू ग्राम के जैन मंदिर के पाषाण पर यह लेख उत्र्कीण है कि ये आर्यिका एक मास में आठ उपवास करती थीं, और 97 वर्ष की आयु प्राप्त कर अंत में समाधिमरण से देहोत्सर्ग किया। इनके सहपाठी श्री गुणचन्द्र भट्टारक थे।" 4.6.40 पंच कल्याणोत्सव में आर्यिकाएं (वि. संवत् 1234) विन्ध्यगिरि पर्वत के अखण्डबागिलु के पूर्व की चट्टान पर लेख संग्रह 113 (268) पर उल्लेख है कि कुन्दकुन्दान्वय, देशीगण पुस्तकगच्छ के महाप्रभावी आचार्यों-त्रिभुवनराजगुरू भानुचन्द्र सिद्धान्त चक्रवर्ती सोमचन्द्र सिद्धान्त चक्रवर्ती-चतुर्मुख, भट्टारक देव, सिंहनन्दि भट्टाचार्य, शान्ति भट्टारकाचार्य, शान्तिकीर्ति भट्टारक देव, कनकचन्द्र मलधारिदेव और नेमिचन्द्र मलधारिदेव इन सब आचार्यों व अन्य अनेक गणों और संघों के आचार्य तथा कलियुग के गणधर 50 मुनीन्द्र व उनकी शिष्याएं-गौरश्री, सोमश्री, देवश्री, कनकश्री व शिष्यों के 28 संघों ने शक संवत् 1099 को एकत्र होकर पंच कल्याणोत्सव मनाया। लेख में संवत्सर का नाम दिया है "हैबणन्दि संवत्सरद फाल्गुण सु. 4 श्री गोम्मटदेघर तीर्थनंद.......पञ्चकल्याण........173 कर्नाटक के शिलालेखों में अधिकांश आर्यिकाओं के पीछे "कन्ति" शब्द का प्रयोग मिलता है। गौरश्री, सोमश्री, देवश्री, कनकश्री आदि एक ही गच्छ की आर्यिकाएं थीं, संभव है, ये प्रमुखा आर्यिकाएं रही होंगी, जिन के संघ में और भी अनेकों आर्यिकाएं थीं, और वे सभी पंचकल्याणोत्सव में सम्मिलित हुई होंगी। क्योंकि जहां बड़े-बड़े आचार्य भट्टारक, गणधर मुनि उपस्थित हुए हों, वहां आर्यिकाएँ भी विशाल संख्या में उपस्थित हुई हों, यह सहज अनुमान लगता है। देवश्री कति ने कई तीर्थक्षेत्रों की वंदना भी की थी। 4.6.41 पेण्डरवाचि मुत्तव्वे (वि. संवत् 1252) ईंगलेश्वर (विजापुर, मैसूर) शक संवत् 1117 सन् 1195 भाषा कन्नड़ में यह लेख अंकित है। इसके अनुसार ये तीर्थ चन्द्रप्रभदेव की शिष्या थीं, एवं इन्होनें समाधिमरण किया था। 4.6.42 जकौव्वे (वि. संवत् 1264) बेलगाम (मैसूर) में सन् 1206 के लेख में होयसल राजा वीर बल्लाल के 16वें वर्ष क्षय संवत्सर के भाद्रपद कृष्णा 11 को कमलसेन की शिष्या 'जकौव्वे' के समाधिमरण का उल्लेख है। लेख में वृहस्पतिवार तथा अंत में 'श्री वीतरागाय नमो" भी उल्लिखित है। यह कन्नड़ भाषा में है। 71. अभिलेख- 3, मद्रास व मैसूर के जैन स्मारक, पृ. 280 72. (क) जैन शिलालेख संग्रह भाग-1, पृ. 373 (ख) श्रीमती जे. के. जैन, श्रवणबेल्गोला के शिलालेख, जै. सि. भास्कर, जुलाई 1946 पृ. 73-74 73. शक संवत् 1099 हेबणन्दि (हेमलम्ब) वर्ष था, शकसंवत् से विक्रम संवत् 135 वर्ष पूर्व का है। 74. अभिलेख 283, जै. शि. सं., भाग 4 75. अभिलेख-322, जै. शि. सं. भाग 4 215 Page #278 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन श्रमणियों का बृहद इतिहास 4.6.43 अर्जिका धर्ममती ( 13वीं सदी) मूडबिद्री जैनमठ के ताड़पत्रीय ग्रंथ संख्या 325 में उल्लेख है कि क्षय संवत्सर निज श्रावण कृष्णा 1 शुक्रवार के दिन श्रृंगेरी पुट्टय्य के पुत्र पोमय्य ने 'श्रावकाचार' की एक प्रति कन्नड़ भाषा में लिखकर अर्जिका धर्ममती को प्रदान की थी। इसका लेखनकाल अज्ञात है, तथापि ताड़पत्रीय प्रतिलिपियों का काल लगभग 13वीं सदी तक का है, अतः उक्त प्रति एवं उसे प्राप्त करने वाली आर्यिका का काल 13वीं सदी या उससे पूर्व का होना चाहिये। 4.6.44 ज्ञानमती अव्वै (13वीं सदी) मूडबिद्री के ही जैन भवन के ताड़पत्रीय ग्रन्थ संख्या 24 में उल्लेख है कि विरोधिकृत, संवत् चैत्र शु. 10 के दिन स्वामी विद्यानन्दी की शिष्या ज्ञानमती अव्वै के लिये मायण्णसेट्टि ने कन्नड़ भाषा में 'अंजनादेवी चरित' की रचना की। मायण्णसेट्टि जैनधर्म की आस्थावाला उच्चकोटि का कवि था, आर्यिका ज्ञानमती जी ने अपनी तीक्ष्णबुद्धि से उसकी काव्य-प्रतिभा को परखकर उसका उपयोग किया, और जैन साहित्य भंडार को 'अंजनादेवी चरित्र' के रूप में एक अमूल्य कृति भेंट कर अपूर्व योगदान दिया।" 4.6.45 आकलपे अव्वे (वि. संवत् 1324) अण्णिगेरि (धारवाड़, मैसूर) शक 1189 (सन् 1267) कन्नड़ भाषा में उल्लिखित लेख में 'आकलपे अव्वे' के समाधिमरण का उल्लेख है। यह लेख चैत्र कृ. 4 मंगलवार, प्रभव संवत्सर का है। आकलपे अव्वे को मूलसंघ कोण्डकुन्दान्वय के सोमदेव आचार्य की शिष्या कहा गया है। साध्वियों तथा सन्यासिनियों को कन्नड़ में 'अव्वै' भी कहा जाता था। जीवक चिन्तामणि में इस शब्द का बार-बार प्रयोग हुआ है। तमिल साहित्य में जो 'अव्वैयार पाडल्हल' (अव्वैयार के पद्य) के नाम से पद्य मिलते हैं, वे साध्वियों की रचना मानी गई है। जैन श्रमणों की भांति जैन श्रमणियाँ भी विहार करती हुई धर्म का प्रचार करती रहती थीं। 4.6.46 ..........य्यिलेकन्ति (14वीं सदी) ___ तगडूर (मैसूर) में 14वीं सदी का कन्नड़ भाषा में एक लेख निसिधि पर है उसमें........यियलेकन्ति के समाधिमरण का उल्लेख है। यह आर्यिका मूलसंघ कोण्डकुन्दान्वय के नागनन्दि भट्टारक के शिष्य नन्दिभट्टारक की शिष्या थी। पाषाण टूटा होने से कुछ अक्षर नष्ट हो गये हैं। 76. कन्नड़ प्रांतीय ताड़ग्रंथ सूची, पृ. 70 77. कन्नड़प्रांतीय ताग्रंथ सूची, पृ. 228 78. अभिलेख-343, जै. शि. सं. भाग 4 79. जैन साहित्य का बृहद् इतिहास, भाग 7, पृ. 178 80. अभलेख-417, जै. शि. स., भाग 4, पृ. 296 Page #279 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दिगम्बर परम्परा की श्रमणियाँ 4.6.47 नादोव्वे ( 14वीं सदी) सालूर (मैसूर) के निषिधि लेख में चन्द्रनाथ देव की शिष्या नादोव्वे के समाधिमरण तथा नागय्य द्वारा इस निषिधि की स्थापना का उल्लेख है। भाषा कन्नड़ है। 4.6.48 कामीगौण्डि (वि. संवत् 1452 ) हिरे आवली में तीसरे पाषाण पर संस्कृत तथा कन्नड़ में वर्ष 1395 ईसवी (लूईराइस) का उल्लेख है कि जिस समय राजधानी हस्तिनापुर विजयनगर और समस्त शहरों के अधीश्वर महाराजाधिराज हरिहरराय का राज्य था, तब उसके मंत्री काबरामण की पत्नि कामीगौंण्डि संन्यास लेकर स्वर्गगामिनी हुई। 2 4.6.49 चन्दगौण्डि (वि. संवत् 1456 ) हीरे आवलि के पांचवें पाषाण पर उट्टङ्कित है कि शक संवत् 1321 ( ई. 1399 ) में चन्दगौण्ड की पत्नी चन्दगौण्ड जिनके पुरोहित विजयकीर्ति थे; उसने संन्यास लेकर स्वर्ग की ओर प्रयाण किया। यह अभिलेख संस्कृत तथा कन्नड़ भाषा में है । 3 4.6.50 छत्तवे गंती (वि. संवत् 1457) अर्कियोलॉजिकल सर्वे ऑफ मैसूर, एनिअल रिपोर्ट पृ. 171 बैंगलोर ( ईसवी 1932) के उल्लेखानुसार शिलालेख संख्या 15 पर छत्तवे गंती, के समाधिमरण की सूचना उपलब्ध होती है। 84 4.6.51 बोम्मिगौण्डि (वि. संवत् 1460 ) शक सम्वत् 1325 (ईसवी 1403) हीरे आवलि के 17वें पाषाण पर संस्कृत - कन्नड़ भाषा में लिखित शिलालेख के अनुसार हरिहरराय के राज्यकाल में बोम्मिगोंण्डि ने संन्यास ग्रहण कर स्वर्गारोहण किया।" 4.6.52 कालि - गौण्ड (वि. संवत् 1474 ) हादिकल्लु में, रते हक्कल्के के समाधि पाषाण पर उल्लेख है कि वर्ष हेमलम्बी 1417 ई. (लूईराइस) में गुणसेन सिद्धान्तिदेव के गृहस्थ शिष्य ...... अय्यप्प गौड की पत्नी कालि - गौण्डि ने संन्यास ग्रहण कर स्वर्ग गमन किया। शिलालेख की भाषा संस्कृत तथा कन्नड़ है | " 81. अभिलेख - 540, जै. शि. सं., भाग 4, पृ. 356 82. अभिलेख - 594, जै. शि. सं., भाग 3 83. अभिलेख 598, जै. शि. सं., भाग 3 84. अभिलेख - 591, जै. शि. सं., भाग 4 85. डॉ. ए. एन. उपाध्ये, जैन बिबलियोग्राफी, पृ. 500, वीर सेवा मंदिर, दरियागंज नई दिल्ली, 1982 ईसवी 86. अभिलेख - 601, जै. शि. सं., भाग 3 217 Page #280 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 4.6.53 नागवे ( 15वीं सदी) गुड्डगुडि ( धारवाड़, मैसूर) में कन्नड़ भाषा में प्राप्त अभिलेख सरस्त (सूरस्त) गण के किसी आचार्य की शिष्या 'नागवे' से संबंधित है, उसके समाधिमरण पर निर्मित स्मारक पर यह लेख उट्टङ्कित है। 7 4.7 तमिलनाडु प्रांत की श्रमणियाँ ( 8वीं से 11वीं सदी) 4.7.1 एनादि कुट्टनन साटी ( 10वीं सदी से पूर्व ) लेख नं 116 में ईसा की 10वीं सदी से पूर्व का उल्लेख है कि कव्व्ठुगुमलै ग्राम के शिलालेख में उट्टङ्कि. त है कि वहां की तीर्थंकर प्रतिमा 'एनादी कुट्टनन साटी' की प्रेरणा से बनवाई गई थी। यह तिरूमलै की साध्वी कुरट्टिगळ' की शिष्या थी। 88 जैन श्रमणियों का बृहद इतिहास 4.7.2 एनादि मागणक्कुरत्ति ( 10वीं सदी के पूर्व ) लेख नं. 150 ग्राम कुष्ठुगुमले की प्रतिमा एनादि मागणक्कुरत्ति साध्वी की प्रेरणा से बनी थी। ̈ 4.7.3 कुरत्तिगळ ( 10वीं सदी) लेख संख्या 118 में तिरूप्परूत्ति की साध्वी पट्टिनी भट्टारा ( प्रमुख स्त्री भट्टारिका) की शिष्या कुरत्तिगळ की प्रेरणा से 'कुठुगुमलै' ग्राम में एक प्रतिमा निर्मित होने का उल्लेख है। 4.7.4 तिरूविलै कुरत्ति ( 8वीं से 11वीं सदी) ये तिरूविलै के चतुर्विध संघ की अधिष्ठाता आचार्य भट्टारिका थीं। दिगम्बर और श्वेताम्बर धर्म-संघों की मान्यता और स्थिति के विपरीत इन महाश्रमणी की भट्टारक, आचार्य और उपाध्याय के पद पर प्रतिष्ठा क्रांतिकारी और आश्चर्यजनक ही है । " 4.7.5 अरिष्टनेमि कुरत्तिगळ ( 8वीं से 11वीं सदी) ये मम्मइ-कुरतिगल की शिष्या थीं। इन्होंने प्रतिमा निर्माण में प्रेरणा दी। लेख सं. 66 है। 2 जैन इन्स्क्रिप्शन्स में ग्राम 'कुळगुमलै' दिया है, और लेख सं. 117 है । " 87. अभिलेख - 612, जै. शि. सं., भाग 3 88. डॉ. ए. के. चक्रवर्ती, जैन इन्सक्रिप्शंस, तमिलनाडु, पृ. 80 89. वही, पृ. 92 90. वही, पृ. 80 91. जैन जवाहिरलाल, भारतीय श्रमण-संस्कृति, पृ. 52 92. ए. के. चक्रवर्ती, सी. के. शिवप्रकाशम, श्रपद स्पजतंजनतम पद ज्उपसदंकनए पृ. 187 93. देखें- जै. इं. तमिलनाडु, पृ. 80 218 Page #281 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दिगम्बर परम्परा की श्रमणियाँ 4.7.6 तीर्थ भट्टार ( 8वीं से 11वीं सदी ) इनकी शिष्याओं ने इळानिक्कुररत्तु क्कुरत्तिगळ की पवित्र प्रतिमा बनाने की प्रेरणा दी। प्रतीत होता है, कि ये आचार्या साध्वी थी, जिनका विशाल साध्वी - संघ रहा होगा | 24 4.7.7 तिरुच्चारणत्तु ( 8वीं से 11वी सदी) “चारण पर्वत की पूज्य अध्यक्षा गुरूणी' शिलालेख संख्या 53 में उल्लेख है कि मिलालुर - क्कुरत्तियार की शिष्या साध्वी तिरुच्चारणत्तु भट्टारिगल की प्रेरणा से प्रस्तुत प्रतिमा का निर्माण हुआ । " साउथ इंडियन इन्स्क्रिप्शन्स में तिरूच्चारणत्तु कुरत्तिगल के 'वरगुण' नामक एक शिष्य का उल्लेख है जो संभवतः पांड्य राजवंश का सदस्य था।” 4.7.8 तिरूमलै - क्कुरत्तिगल ( 8वीं से 11वीं सदी ) शिलालेख नं. 65 में उल्लेख है - "तिरुमलैक्कुरत्तिगल साध्वी (तिरूमलै के जैन संघ की गुरूणी) का शिष्य एनाडिकुट्टनन (पुरूष साधु) के पुण्यफलार्थ यह प्रतिमा बनाई गई थी। 197 इस लेख से यह तथ्य प्रकाश में आ है कि तिरुमलै की वह गुरूणी एक स्वतन्त्र चतुर्विध जैन संघ की अधिष्ठाता आचार्या अथवा भट्टारिका थी । और उनके श्रमण- श्रमणियों के संघ में पुरूष साधु भी शिष्य के रूप में उनके आज्ञानुवर्ती थे। 479 तिरूप्परूत्ति क्कुरत्तिगल ( 8वीं से 11वीं सदी) शिलालेख नं. 67 में पट्टिनी भट्टार की शिष्या तिरूप्परूत्ति - कुरत्तिगल ने प्रतिमा बनवाई। तिरूप्परूत्ति कुरत्तिगल का अर्थ 'तिरूप्परूत्ति' नामक स्थान की साध्वियाँ भी होता है। 8 4.7.10 पळयिराइकीकाणीक्कुरत्ती ( 8वीं से 11वीं सदी ) शिलालेख नं. 52 उक्त साध्वी की शिष्या सिरि कुरत्तियार की प्रेरणा से प्रतिमा निर्माण के संदर्भ में अंकित है। 4.7.11 नालकूर - क्कुरत्तिगळ ( 8वीं से 11वीं सदी) शिलालेख नं. 62 में नालकूर की साध्वी 'अमलनेमिभटार' (साध्वी) की शिष्या 'नालकुर - क्कुरत्तिगल' (गुरूणी भट्टार) तथा 'माणक्किगल' का नाम अंकित है । 100 94. अभिलेख - 64, वही, पृ. 186 95. जैन इंस्क्रि. तमिलनाडु, पृ. 181 96. South Indian Inscriptions, Vol. 5-1 अभिलेख 324, 326 97. जैन इंस्क्रि. तमिलनाडु, पृ. 187 " 98. वही, पृ. 188 99. वही, पृ. 181 100. वही, पृ. 185 219 Page #282 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन श्रमणियों का बृहद इतिहास 4.7.12 नाट्टिग भट्टारर (8वीं से 11वीं सदी) शिलालेख नं. 61 में महासती 'नालकुर-क्कुरत्तिगळ' की शिष्या 'नाट्टिग-भट्टारर' की प्रेरणा से पवित्र प्रतिमा के निर्माण होने का उल्लेख है। 4.7.13 मिळालुर-क्कुरत्तिगळ (8वीं से 11वीं सदी) कुलुगुमलै ग्राम के शिलालेख नं. 73 में साध्वी पीरूर-क्कुरत्तियार (पैरूर की गुरूणी आचार्या) जो करैकाननाडू के पुत्र पिडान कुडी की मिंगाइकुमान की पुत्री थी; की शिष्या 'मिळालुर-क्कुरत्तिगल' द्वारा मूर्ति बनवाने का उल्लेख है।102 4.7.14 विसइया-क्कुरत्तियार (8वीं से 11वीं सदी) शिलालेख नं. 54 में बेनबइक्कुडि की साध्वी तक्कनसंग क्कुरत्तिगल (ज्मबबंद.दहं ज्ञानतंजपहंस) की शिष्या सिरि विसइया (श्री विजया) की प्रेरणा से जिन प्रतिमा का निर्माण संदनकट्टि के श्रेयार्थ करने का उल्लेख है। यह एक स्वतन्त्र संघ की आचार्या, अधिष्ठात्री अथवा अध्यक्षा थी। 4.7.15 पिक्कइ कुरत्ति (8वीं से 11वीं सदी) शिलालेख नं. 51 में उल्लेख है कि इडैक्कलनंदु के सिरूपोलल की साध्वी पिक्कइकुरत्ति की प्रेरणा से इस जिनप्रतिमा का निर्माण हुआ। 4.7.16 लेनेक्कुरत्तु कुरत्तिगल (8वीं से 11वीं सदी) यह तीर्थ भट्टार की शिष्या थी, इसकी प्रेरणा से जिनप्रतिमा निर्मापित होने का संदर्भ शिलालेख नं. 64 में प्राप्त होता है। इस लेख से यह भी अर्थ निकल सकता है कि उक्त कुरत्तिगल 'लेनेक्कुरम' की साध्वी थी।105 4.7.17 अदिट्टनेमि भट्टारक स्नातक कुरत्तियार (8वीं से 11वीं सदी) शिलालेख नं. 66 में उक्त साध्वी का उल्लेख है यह ममेइ-क्कुरत्तिगल की शिष्या थी, इनकी प्रेरणा से जिन-प्रतिमा निर्मित हुई थी। 101. वही, पृ. 185 102. वही, पृ. 191 103. Jain Literature in Tamil, A.K.Charkavarthy, Page 181 104. वही, पृ. 180 105. वही, पृ. 186 106, वही, पृ. 187 220 Page #283 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दिगम्बर परम्परा की श्रमणियाँ 4.7.18 अवनंदि कुरत्तियार (8वीं से 11वीं सदी) प्राकृतिक गुफा पर पाया गया यह शिलालेख है। इसमें उल्लेख किया गया है कि पेरम्बत्तिउर की साध्वी पट्टिनीकुरत्तियार की शिष्या अवनंदि कुरत्तियार की प्रेरणा से जिन प्रतिमा निर्मित कराई गई थी।'07 उक्त संदर्भ शिलालेख संख्या 89 का है। इनके अतिरिक्त कतिपय अन्य आर्यिकाएँ - अव्वैयार, गुण ताङ्कुिरत्तियार, इलनेसुरत्तु कुरत्तियार, कवुन्द अडिगल, कनकवीर कुरन्ति, कुंडल कुरत्तियार, मम्मैकुरत्तियार, मिलनूर कुरत्तियार, नलकूर कुरत्तियार, पेरूर कुरत्तियार, पिच्चेकुरत्तियार, पूर्वनन्दि कुरत्तियार, संघ कुरत्तियार, तिरूवसै कुरत्तियार, श्री विजय कुरत्तियार आदि नामों का उल्लेख पं. सिंहचन्द जैन शास्त्री ने 'तमिलनाडु में जैनधर्म एवं तमिलभाषा के विकास में जैनाचार्यों का योगदान" शीर्षक से आस्थांजली में किया है।108 समीक्षा इन सब शिलालेखों से यह स्पष्ट सिद्ध होता है कि तमिलनाडु जैसे सुदूर दक्षिण प्रदेश में प्राचीन काल में भी जैनों के सुदृढ़ केन्द्र थे, और साध्वियों के ऐसे स्वतन्त्र संघ थे, जिनकी सर्वसत्तासम्पन्न संचालिकाएँ कुरत्तियार, कुरत्तिगल अथवा कुरत्ति या भट्टारिकाएँ होती थीं। ये 'कुरत्तियार' किस संघ से संबंधित थी, इसका कहीं स्पष्ट उल्लेख प्राप्त नहीं होता, किंतु यापनीय संघ जिसने साधारणतः समग्र स्त्री समाज को और विशेषतः साध्वियों को जो साधुओं के समान अधिकार दिये, उससे विद्वद् मनीषियों ने इनके यापनीय परम्परा की होने की संभावना व्यक्त की है. क्योंकि श्वेताम्बर और दिगम्बर परम्परा में तो प्रारम्भ काल से लेकर आज तक साध्वियों के समह साध आचार्यों के ही अधीन हैं, अतः ये साध्वी आचार्या उक्त दोनों संघों से भिन्न किसी अन्य संघ की होनी चाहिये, और वह संघ 'यापनीय-संघ' हो सकता है। दक्षिण भारत की इन आर्यिकाओं ने तत्कालीन स्थिति में समाज में नव जागरण का शंख फूंका, धार्मिक प्रवृत्तियों के शोधन में अपना समय दिया तथा समाज की धर्म भावनाओं में अभिवृद्धि की। दक्षिण भारत में भारतीय-संस्कृति, धर्म और दर्शन की धारा को अक्षुण्ण बनाये रखने में इनका महत्त्वपूर्ण स्थान रहा है। 4.8 उत्तरभारत में दिगम्बर परम्परा की आर्यिकाएँ (वि. सं. 11वीं से 19वीं सदी तक) उत्तर भारत में दिगम्बर परम्परा की आर्यिकाओं के उल्लेख 11वीं शताब्दी से उपलब्ध हुए हैं। ग्वालियर के 11वीं से 16वीं शताब्दी से प्राप्त पुरातात्त्विक साक्ष्यों से दिगम्बर मुनि एवं आर्यिकाओं के उल्लेख प्राप्त होते है। यहां के दूबकुण्ड नामक स्थान के 1088 ईसवी के प्राप्त शिलालेख में दिगम्बर मुनि संघ-मुनि, आर्यिका, ऐलक, क्षुल्लक का अंकन है।09 इसी प्रकार देवगढ़ जिला झांसी के अनेक अभिलेख दिगम्बर आर्यिकाओं से संबंधित है। वहां के मंदिर संख्या 11 के सामने तथा 12 के दक्षिण में स्थित मानस्तम्भ के पूर्व की ओर संवत् 1116 की दो पंक्तियों के 107. वही, पृ. 171 108. आचार्य श्री विमलमुनि अभिनंदन ग्रंथ, पृ. 185 109. जैन कामताप्रसाद. दिगम्बरत्व और दिगम्बर मुनि, पृ. 118 221 Page #284 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन श्रमणियों का बृहद इतिहास अभिलेख में 'आर्यिका' का उपदेश अंकित है।।10 इन्दुआ, लवणश्री, नवासी, मदन, धर्मश्री आदि आर्यिकाओं के सक्रिय धार्मिक सहयोग और जीवन-गाथाएँ भी अभिलिखित हैं। संवत् 1208 के शिलालेख से ज्ञात होता है कि वहाँ आचार्य जयकीर्ति के शिष्यों में भावनन्दि मुनि तथा कई आर्यिकाएँ थीं, इसी प्रकार संख्या 222 की मूर्ति मुनि, आर्यिका, श्रावक एवं श्राविका-चतुर्विध संघ के लिये बनी थी।'' उत्तर भारत के वैराटनगर (दिल्ली के निकट) में अकबर के शासनकाल के समय कवि राजमल्ल जिन्होंने 'लाटी संहिता' की रचना की; ने 'जम्बूस्वामी चरित' में लिखा है कि भटानिया कोल के निवासी साह टोडर जब तीर्थयात्रा करते हुए मथुरा पंहुचे तो उन्होंने वहां 514 दिगम्बर मुनियों के समाधि सूचक प्राचीन स्तूपों को जीर्णशीर्ण दशा में देखकर उनका उद्धार करवाया, तथा शुभ तिथि व वार को चतुर्विध संघ-मुनि, आर्यिका, श्रावक, श्राविका को एकत्र कर प्रतिष्ठा करवाई थी।12 इस उल्लेख से प्रतीत होता है कि कुछ दिगम्बर मुनि व आर्यिकाएँ अकबर काल में विचरण करती थीं, लेकिन उसके पश्चात् धीरे-धीरे दिगम्बर आर्यिकाएँ विलुप्त सी हो गयीं। यहां संवत् 1045 से 1828 तक उपलब्ध दिगम्बर परम्परा की आर्यिकाओं का विवरण दिया गया है। 4.8.1 आर्या ललितश्री (संवत् 1045) द्वारहट जि. अलमोड़ा (उ. प्र.) में संवत् 1045 सन् 988, का संस्कृत भाषा एवं नागरी लिपि में उल्लिखित यह शिलालेख चरणपादुका के पास है। इसमें उक्त वर्ष में अर्जिका देवश्री की शिष्या अर्जिका ललित श्री का नाम अंकित है। लेख से यह स्पष्ट नहीं होता है कि यह चरण पादुका ललितश्री की है या उनकी प्रेरणा से प्रतिष्ठापित किसी आचार्य या मुनि की। 4.8.2 आर्यिका इन्दुआ (संवत् 1095) देवगढ़ जिला झांसी (उ. प्र.) के किले में तीर्थंकर की एक खड़ी मूर्ति पर प्राकृत-संस्कृत भाषा में सं. 1095 की दो पंक्ति का शिलालेख है उस पर 'आर्यिका इन्दुआ' नाम अंकित है। संभव है, उक्त मूर्ति के निर्माण में आर्यिका इन्दुआ की प्रेरणा रही हो। 4.8.3 आर्यिका लवणश्री (संवत् 1135) देवगढ़ जिला झांसी (उ. प्र.) के मंदिर संख्या 20 में एक जैनमूर्ति की स्थापना हुई, इसमें वि. सं. 1136 में जसोधर के पुत्र (नाम अस्पष्ट) का उल्लेख है। यहीं के एक अन्य लेख में सं. 1135 में आर्यिका लवणश्री का नाम 110. डॉ. भागचन्द्र 'भागेन्दु' देवगढ़ की जैन कला एक सांस्कृतिक अध्ययन, पृ. 76 111. दिगम्बरत्व और दिगम्बर मुनि, पृ. 120 112. दिगम्बरत्व और दिगम्बर मुनि, पृ. 144 113. जैन शिलालेख संग्रह, भाग 5, पृ. 22 114. विश्वम्भरदास गार्गीय, देवगढ़ के जैन मंदिर, संख्या 11, प्रकाशन-बलवन्त प्रेस, श्री देवगढ़ तीर्थोद्धारक फंड, झांसी, वी. सं. 2448 222 Page #285 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दिगम्बर परम्परा की श्रमणियाँ अंकित है।'' देवगढ़ के जैन मंदिर नामक ग्रंथ में अर्जिका लवनासर नाम है।" जो लवणश्री का ही सूचक है यह लेख संस्कृत भाषा और नागरी लिपि में उल्लिखित है। 4.8.4 सोना आदि आर्याएँ ( 12वीं सदी ) देवगढ़ जिला झांसी (उ. प्र.) में और भी अनेक ऐसे शिलालेख हैं, जिन पर आर्यिकाओं के नाम अंकित हैं। वहां के मंदिर नं. 16 में आर्यिका सोना, आर्यिका सिरिमा, आर्यिका पद्मश्री, संयमश्री, रत्नश्री, ललित श्री, संयमश्री, जयश्री . आदि नाम उट्टङ्कित हैं। ये शिलालेख संस्कृत भाषा और नागरी लिपि में होने से 12वीं सदी के प्रतीत होते हैं। 17 4.8.5 अर्जिका गणी ( 12वीं सदी) देवगढ़ के मंदिर में ही पाँच इंच लंबी खड्गासन की मूर्ति पर 'अर्जिका गणी....' उल्लिखित है, संभव है ये गणिनी साध्वी हो, संवत् अज्ञात है । 18 4.8.6 अर्जिका इमदुवा ( संवत् 1200 ) उक्त मंदिर में तीन फुट साढ़े 8 इंच की ऊँची बैठी हुई प्रतिमा सं. 1200 के लगभग की है, इसमें उक्त आर्यिका का नाम अंकित है । " 4. 8.7 अर्जिका म...... (संवत् 1201 ) देवगढ़ (उ. प्र. ) किले में ढाई इंच...... लंबी ऋषभनाथ जी की पद्मासन स्थित प्रतिमा में प्रतिष्ठात्री के रूप में उक्त आर्यिका का नाम मिट जाने से पढ़ा नहीं जाता। यह संवत् 1201 का अभिलेख है । 1 20 दिगम्बर परम्परा के सिद्धान्त से प्रतिकूल आर्यिका का प्रतिष्ठात्री के रूप में नाम अंकित होना एक नवीनता है। 4.8.8 आर्यिका नवासी ( संवत् 1207 ) देवगढ़ के ही जैन मंदिर नं. 4 के दाहिने स्तम्भ पर संवत् 1207 की दो पंक्ति है, उसमें आचार्य जयकीर्ति के साथ अर्जिका नवासी का नाम अंकित है। 1 21 115. अभिलेख 49-50 - डॉ. विद्याधर जोहरापुरकर, जैन शिलालेख संग्रह, भाग 5, पृ. 117 116. विश्वम्भरदास गार्गीय, देवगढ़ के जैन मंदिर, नं. 107 117. शिलालेख संख्या 310 से 369, जैन शिलालेख संग्रह, भाग 5, पृ. 117 118. वि. गार्गेय, देवगढ़ के जैन मंदिर, संख्या 32 119. वही, संख्या 30 120. वही, संख्या 52 121. वही, संख्या 25 223 Page #286 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 4.8.9 आर्यिका धर्मश्री (संवत् 1208) देवगढ़ (झांसी) के पुरातत्त्व में दिगम्बर आर्यिकाओं के कई उल्लेख प्राप्त होते हैं। सं. 1208 के लेख में दिगम्बर गुरूओं की भक्त " आर्यिका धर्मश्री" का उल्लेख है। संवत् 1208 में वहां आचार्य जयकीर्ति प्रसिद्ध थे। उनके शिष्यों में भावनन्दि मुनि तथा कईं आर्यिकाएँ थी। संख्या 222 की मूर्ति पर भी आर्यिका का नाम चतुर्विध संघ के साथ जुड़ा हुआ है। 122 4.8.10 अर्जिका मेकुश्री / मेरूश्री (संवत् 1215 ) खजुराहो (छतरपुर, म.प्र.) के श्री शांतिनाथ मंदिर में स्थित जिनमूर्ति के पादपीठ पर अर्जिका मेकुश्री का नाम उति है। यह आर्या देशीगण पंडित श्री राजनंदि के शिष्य पंडित श्री भानुकीर्ति की शिष्या थी । जैन श्रमणियों का बृहद इतिहास लेख संवत् 1215 (ई. 1158) का नागरी लिपि व संस्कृत भाषा में है । 1 23 इस लेख में उल्लेखित अर्जिका कुश्री - सम्भवतः निम्न शिलालेख में उल्लेखित मेरू श्री ही हो। डॉ. कस्तूरचंद कासलीवाल ने खजुराहो के ही दक्षिण-पूर्व के जैन मंदिर नं. 8 में चन्द्रप्रभ भगवान की प्रतिमा की पीठिका पर इसी संवत् में भानुकीर्ति की शिष्या 'अर्जिका मेरू श्री' का उल्लेख किया है। यह नाम अधिक उपयुक्त लगता है। इस शिलालेख को उन्होंने चंदेल राजाओं से संबंधित माना है। 124 4.8.11 णाणश्री (संवत् 1223 ) मालपुरा के मण्डी के मन्दिर में वि. संवत् 1223 में प्रतिष्ठित एक प्रतिमा है जिस पर माथुर संघ के पंडित कनकचंद्र की शिष्या 'णाणश्री' और प्रतिष्ठाचार्य वीरनाथ का उल्लेख किया है। 25 प्रतिमा की प्रतिष्ठापना के समय 'णाणश्री' संघस्थ साध्वियों के साथ वहां उपस्थित हुई थी। 4.8.12 आर्यिका ज्ञानश्री (संवत् 1234 ) आर्यिका ज्ञानश्री का उल्लेख मालवा के जैन अभिलेख में प्रकाशचन्द्र जैन ने अपने शोध-प्रबन्ध 'मध्यकालीन मालवा में जैनधर्म' में किया है। यह अभिलेख संवत् 1234 का है। इसमें 'धर्मश्री' का भी नाम है 1 126 4.8.13 आर्या मदन श्री ( संवत् 1246 ) सं. 1246 के प्राकृत भाषा में अंकित अजमेर (राज.) के शिलालेख पर आर्यिका मदन श्री द्वारा आचार्य 122. आ. देशभूषण, भ. महावीर और उनका तत्त्व-दर्शन, अ. 4, पृ. 436 123. श्री संवतु 1215 माघ सुदि 5 रवौ देशीगणे पंडितः श्री राजनंदि तत् सिष्य पंडितः श्री भानुकीर्ति अर्जिका मेकुश्री अभिनन्दन स्वामिनं नित्यं प्रणमंति। -अभिलेख - 100, 'जोहरापुरकर', जै. शि. सं., भाग 5 123. मध्यप्रदेश के दिगंबर जैन तीर्थ, चेदि जनपद, पृ. 108 125. डॉ. कासलीवाल, खंडेलवाल जैन समाज का बृहद् इतिहास, पृ. 162 126. संवत् 1234 वर्षे...... श्री मूलसंघे भट्टारक श्री धर्मकीर्ति देव सेणदेव अर्जिका नाणीशिरि .......लि धर्मशिरि प्रणमति नित्यं कर्मक्षयार्थं कारापिता । पृ. 419 (अप्रकाशित) प्राच्य विद्यापीठ, शाजापुर से प्राप्त 224 Page #287 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दिगम्बर परम्परा की श्रमणियाँ माणिक्यदेव के शिष्य सोमदेव की मूर्ति प्रतिष्ठापित करने का उल्लेख है। साथ ही संघसहित मूर्ति को वंदना भी करती है ऐसा वर्णित है। 27 यह लेख 12वीं शताब्दी की जैनलिपि में लिखा हुआ है। 4.8.14 आर्या रत्नसिरि एवं आर्या कुलिकी (13वीं सदी) आर्या रत्नसिरि भट्टारक श्री गुणकीर्ति देव, श्री यश:कीर्ति, श्री मलयकीर्ति तथा श्री गुणभद्र की शिष्या थीं। इनकी शिष्या कुलिकी ने ताम्रपत्र में एक यंत्र लिखवाया था। 28 4.8.15 अर्जिका गुणश्री एवं विमलश्री (संवत् 1428) दिल्ली नया मन्दिर कटघर की मूर्तियों में आदिनाथ की मूर्ति पर "संवत् 1428 ज्येष्ठ सुदि 12 का लेख है। उसके अनुसार इस मूर्ति के प्रतिष्ठापक आचार्य विमलसेन भट्टारक देवसेन के शिष्य थे, वे काष्ठासंघ, माथुरान्वय शाखा से सम्बंधित थे। अर्जिका गुणश्री और विमल श्री इन्हीं विमलसेन की शिष्या थी, यह बात उसी मंदिर की एक अन्य मूर्ति के लेख से प्रकट होना लिखा है। 29 स्व. कामताप्रसाद जी ने किस मूर्ति के लेख पर आर्यिकाओं का नाम पढ़ा है, मालूम नहीं। हमने वहाँ की प्रत्येक मूर्ति का शिलालेख देखा किंतु ये नाम हमारे पढ़ने में नहीं आये। उक्त मंदिर तेरापंथ दिगम्बर शाखा का है, इस शाखा में तीर्थंकर की मूर्ति पर 'आर्या' का नाम अंकित करने का कट्टर विरोध देखा गया है। 4.8.16 आर्या जेतक्षणी एवं संयम श्री (वि. संवत् 1473) आर्या जेतक्षणी और संयम श्री का उल्लेख काष्ठा संघ के भट्टारक श्री सहस्रकीर्ति देव के शिष्य श्री गुणकीर्ति देव के शिष्य यशकीर्ति देव की शिष्या के रूप में हुआ है। आर्या जेतक्षणी और आर्यिका संयमश्री ने श्री महावीर स्वामी की धातु प्रतिमा जो पद्मासन में स्थित है और जिसकी ऊंचाई 5.4" की है, वह वि. संवत् 1473 में प्रतिष्ठित कराई थी।130 4.8.17 अर्जिका विमलमती (संवत् 1479) तोमरवंशीय वीरमदेव के राज्यकाल में संवत् 1479 में जौतु की स्त्री 'सरो' ने 'षट्कर्मोपदेश' की प्रति लिखवाकर अर्जिका विमलमती को पूजा-महोत्सव के साथ समर्पित की। यह प्रति आमेर के शास्त्र भंडार में विद्यमान है। इस उल्लेख से सिद्ध होता है कि जैन श्राविकाएं भी श्रुतज्ञान की रक्षा के कार्य बड़े उत्साह एवं आदर के साथ करती थीं। 127. शिलालेख संख्या 418, जैन शिलालेख संग्रह, भा. 3, पृ. 224 128. प्रकाशचन्द जैन-मध्यकालीन मालवा में जैनधर्म, शोध-प्रबन्ध (अप्रकाशित) शाजापुर प्राच्य विद्यापीठ 129. दिगम्बरत्व और दिगम्बर मुनि, पृ. 122 130. प्रशस्ति-संवत् 1473 जेष्ठ सुदी 15 बुध दिने श्री काष्ठासंघे भट्टारक श्री सहस्रकीर्ति देवा तत्प? श्री गुणकीर्तिदेवा तत् शिष्य यशकीर्ति देवा आर्या जेतक्षणी आर्या संजमश्री निजकर्मक्षयार्थं प्रतिष्ठितम्।-जैन कमलकुमार, जिनमूर्ति प्रशस्ति लेख, पृ. 27 131. पारख श्री जयंतिलाल, म. प्र. के दिगम्बर जैन तीर्थ, पृ. 22 225 For Prib e rsonal Use Only Page #288 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन श्रमणियों का बृहद इतिहास 4.8.28 आर्यिका आगमश्री (संवत् 1483) इनका उल्लेख बलात्कारगण दिल्ली जयपुर शाखा लेखांक 244 निषीदिका पर उल्लिखित है। ये नन्दिसंघ के कुन्दकुन्द आचार्य के अन्वय में पद्मनंदि के शिष्य भट्टारक श्री शुभचन्द्रदेव की शिष्या थी। इनकी समाधि बनाने का उल्लेख प्राप्त होता है। 32 4.8.19 आर्यिका जैतश्री एवं विमलश्री (संवत् 1497) संवत् 1497 काष्ठसंघ के आचार्य अमरकीर्ति द्वारा रचित 'षट्कर्मोपदेश' नामक ग्रन्थ की एक प्रति ग्वालियर के तेवर या तोमरवंशी राजा वीरमदेव के राज्य में अग्रवाल साहू जैतू की धर्मपत्नी सरे ने लिखाकर आर्यिका जैतश्री की शिष्यणी आर्यिका विमलश्री को समर्पित की थी। 4.8.20 आर्यिका संयमश्री (वि. संवत् 1513) वि. संवत् 1513 की चौवीसी मूर्ति मूलसंघ आर्यिका संयमश्री के श्रेयार्थ घोघा में प्रतिष्ठित की गई थी। यह अभिलेख बलात्कार गण-सूरत शाखा का है।।34 4.8.21 आगमश्री “क्षुल्लिका" (वि. संवत् 1531) __संवत् 1531 फाल्गुन शु. 5 को श्री मूलसंघ के भट्टारक श्री जिनचन्द्र सिंहकीर्ति देव की शिष्या आगमसिरि क्षुल्लिका द्वारा कलिकुंडयंत्र करवाने का उल्लेख है। 4.8.22 आर्यिका रणमती (वि. संवत् 1566) अभिमान मेरू महाकवि पुष्पदंत ने "जसहरचरिउ" की अपभ्रंश भाषा में रचना की थी, उसकी टीका आर्या रणमती ने संस्कृत में लिखी। इसका रचना समय सन् 1509 माना जाता है। "यशधरचरित्र" की खंडित प्रति दिल्ली पंचायती मंदिर के शास्त्र भंडार में है। यशोधरचरित्र की यह टिप्पणी की प्रति सं. 1566 मृगसिर कृष्णा दसमी बुधवार को लिखी गई है। टिप्पणी के अंत में निम्न पुष्पिका वाक्य लिखा हुआ है :- “इति श्री पुष्पदंत यशोधर काव्य को लिखो आर्यिका श्री रणमति कृत सम्पूर्णम्"136 4.8.23 आर्या रत्नमती (16वीं सदी का मध्यकाल) आर्या रत्नमति ने संस्कृत भाषा में रचित "सम्यक्त्व कौमुदी" ग्रंथ का गुजराती पद्यानुवाद किया था, जो "समकीतरास" के नाम से प्रसिद्ध है, वह कुल 89 पन्नों का है। इसके बीच में लघु कथाएँ भी हैं, उसमें समकीत 132. बिजौलिया, अनेकान्त मासिक अंक 11, पृ. 365 133. शास्त्री परमानंद का लेख, दृष्टव्य-ब्र. पं. चंदाबाई अभिनंदन ग्रंथ, पृ. 482 134. डॉ. वि. जोहरापुरकर, भट्टारक संप्रदाय, पृ. 170, लेखांक 429 135. नाहटा अगरचंद, प्रतिमा लेख संग्रह, दृष्टव्य-जैन सिद्धान्त भास्कर, 'आरा' पृ. 16 136. शास्त्री परमानन्द का लेख, दृष्टव्य-ब्र. पं. चन्दाबाई अभिनंदन ग्रंथ, पृ. 479-81 | 226 Page #289 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दिगम्बर परम्परा की श्रमणियाँ प्राप्ति की आठ कथाएँ हैं और प्रसंगवश अनेक अवान्तर कथाएँ भी यथास्थान दी गई हैं। ग्रंथ के अंत में उन्होंने जो अपनी गुरू परंपरा दी है उसमें मूलसंघ कुन्दकुन्दान्वय सरस्वती गच्छ में भट्टारक पद्मनंदी के शिष्य ज्ञानभूषण की शिष्या आर्या चन्द्रमती, विमलमती और रत्नमती। आर्या रत्नमती ने यह रास विमलमती की प्रेरणा से रचा है। उक्त रचना की हस्तलिखित प्रति एलक पन्नालाल दिगम्बर जैन सरस्वती भवन, झालरा (पाटन) में सुरक्षित है।' 4.8.24 आर्यिका देवश्री (वि. संवत् 1568) संवत् 1568 के फाल्गुन मास शुक्लपक्ष की दसमी तिथि गुरूवार के दिन गिरिपुर में श्री आदिनाथ के चैत्यालय में मूलसंघीय भट्टारक श्री ज्ञानभूषण के शिष्य भट्टारक विजयकीर्ति की भगिनी आर्यिका देवश्री के लिये 'पद्मनंदी पंचविंशति' की प्रति श्री संघ ने लिखवाई। यह उल्लेख बड़ोदा, दा. मा. पृ. 34 पर उल्लिखित है। यह बलात्कार गण ईडर शाखा का लेख है। 38 4.8.25 आर्या विनयश्री (वि. संवत् 1582) आर्या विनयश्री आर्या विमलश्री की शिष्या व भट्टारक लक्ष्मीचन्द द्वारा दीक्षित थी। इनके विषय में उल्लेख है, कि इन्होंने 'महाभिषेक भाष्य' स्वयं लिखकर मूलसंघ के भट्टारक श्री मल्लिभूषण देव के शिष्य भट्टारक श्री लक्ष्मीचंद्र देव के शिष्य वर ब्रह्म श्री ज्ञान सागर को पढ़ने के लिये दिया। ब्रह्म नेमिदत्त ने आर्या विनयश्री का अपने ग्रंथ में आदर पूर्वक उल्लेख किया है। उक्त टीका उन्होंने संवत् 1582 के चैत्र मास शुक्लपक्ष की पंचमी तिथी रविवार को भगवान ऋषभदेव के चैत्यालय में लिखी। यह लेख 'षट्प्राभृतादि संग्रह' प्रस्तावना पृ. 7 पर दिया है। साध्वी श्री की विद्वत्ता एवं पाण्डित्य का यह अनूठा उदाहरण है। 4.8.26 आर्या राजश्री (वि. संवत् 1584) आर्या राजश्री के विषय में इतना ही उल्लेख मिलता है कि ये पुरवाल वंश में समुत्पन्न नारायण सिंह की बहन एवं यशसेन की शिष्या थी। इनके पुत्र पंडित जिनदास काष्ठासंघ के माथुरान्वय और पुष्करगण के भट्टारक कमलकीर्ति कुमुदचन्द्र और भट्टारक यशसेन के अन्वय में हुए थे। वि. सं. 1584 में इनके आदेश से कवि बीरू ने देहली के मुगल बादशाह बाबर के राज्यकाल में रोहितासपुर के पार्श्वनाथ मन्दिर में बृहत् सिद्ध चक्र पूजा' ग्रन्थ को रचना की थी। उक्त ग्रन्थ की प्रशस्ति में आर्या राजश्री की 'संयमनिलया' कहकर स्तुति की गई है। 40 पुत्र को दीक्षा देकर स्वयं जैन श्रमणी बनने वाली ऐसी अनेकों महिलाएँ जैनधर्म में हुई हैं। इन श्रमणियों ने शासन प्रभावना के जो कार्य किये उससे समूचा चतुर्विध संघ लाभान्वित हुआ है। 137. शास्त्री परमानन्द, दृष्टव्य, वही, पृ. 481 138. डॉ. वि. जोहरापुरकर, भट्टारक संप्रदाय, पृ. 144, लेखांक 365 139. वही, पृ. 175, लेखांक 470 140. तच्छिक्षणीह जाता सच्छील तरंगिणी महाव्रतिनी। राजश्रीरिति नाम्नी संयमनिलया विराजते जगति।।4।। -पंडित जुगलकिशोर, जैन ग्रन्थ प्रशस्ति संग्रह, भाग 1, पृ. 222 227 For Price Lepesonal Use Only Page #290 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन श्रमणियों का बहद इतिहास 4.8.27 विनयश्री (वि. संवत् 1595) भट्टारक श्री धर्मचन्द्र की शिष्या विनयश्री आर्यिका को पढ़ने के लिये कवि सिंह कृत "पज्जुणचरिउ" की पाण्डुलिपि साह सुरजन एवं उसकी धर्मपत्नी सुनावत ने संवत् 1595 में भेंट की थी। धर्मचन्द्र अपने युग के बड़े भारी संत एवं प्रभावक आचार्य थे, इन्होंने जैन साहित्य एवं संस्कृति की भारी सेवा की थी, इनकी और भी अनेक आर्याएं थीं।14 4.8.28 आर्यिका विजयश्री (वि. संवत् 1612) सं. 1612 में सोनी गोत्रीय बाई तील्हू ने 'नवकार श्रावकाचार' की प्रतिलिपि करवाकर आर्यिका विजयश्री को भेंट की थी।142 4.8.29 आर्या चारित्रश्री (वि. संवत् 1621) संवत् 1621 में मूलसंघ बलात्कार गण सरस्वती गच्छ कुन्दकुन्दाचार्य के अन्वय में भट्टारक श्री पद्मनंदि देव की परम्परा में भट्टारक श्री शीलभूषण की शिष्या आर्या श्री चारित्रश्री का उल्लेख है। उन्होंने बाई हीरा तथा चंदा के पठनार्थ "यशोधर चरित्र" अलवर निवासी पंडित वीणासुत से लिखवाया था।143 4.8.30 आर्यिका हरषमती (वि. संवत् 1641) संवत् 1641 कार्तिक कृष्णा 5 को बलात्कार गण कारंजाशाखा के भट्टारक देवेन्द्रकीर्ति ने एरंडवेल नगर के श्री धर्मनाथ चैत्यालय में हरषमती आर्यिका के लिए “अम्बिकारास" की एक प्रति लिखी। 44 4.8.31 अजीतमति (वि. संवत् 1650) आपने अपने को बाई अजीतमति लिखा है, आप भट्टारक वादिचन्द्र (16वीं-17वीं शताब्दी) की प्रमुख शिष्या थीं, उन्हीं के संघ में ब्रह्मचारिणी साध्वी के रूप में रहती थी, अंतिम समय में आप क्षुल्लिका बनी थी। आचार्य विद्यानन्दजी के कथनानुसार उनके जन्म का अनुमान संवत् 1610 के आसपास माना जाता है। उनके स्वयं के हाथ से लिखा हुआ एक गुटका है जो संवत् 1650 का है। इस गुटके में उनकी संग्रहित रचनाएँ -(1) आध्यात्मिक छंद (2) षट्पद (3) भक्तिपरक 7 पद (4) इतिहास परक घटनाओं का वर्णन आदि। इनकी सभी रचनाएँ स्वान्तः सुखाय एवं आत्म-रस से परिपूर्ण हैं। ये हुंबड़ जाति के श्रावक कान्ह जी, जो अपने समय के प्रभावशाली व्यक्ति थे एवं सागवाड़ा के रहने वाले थे; उनकी पुत्री थी। 45 141. 'कासलीवाल', खंडेलवाल जैन समाज का बृहद् इतिहास, पृ. 150 142. (क) राजस्थान के जैन शास्त्र भंडारों की ग्रंथ सूचि भाग-4, पृ. 65 (ख) डॉ. कासलीवाल, खंडेलवाल जैन समाज का बृहद् इतिहास, पृ. 109 143. डॉ. वि. जोहरापुरकर, भट्टारक संप्रदाय, लेखांक सं. 309, पृ. 127 144. वही, 109, पृ. 51 145. डॉ. कासलीवाल, दृष्टव्य- बाई अजीतमति एवं उसके समकालीन कवि, श्री महावीर ग्रन्थ अकादमी, जयपुर, 1984 ई. 228 Page #291 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दिगम्बर परम्परा की श्रमणियाँ 4.8.32 आर्यिका प्रतापश्री (वि. संवत् 1688 ) काष्ठासंघ माथुरान्वय पुष्करगण भट्टारक श्री सहस्त्रकीर्ति की शिष्या आर्यिका प्रतापश्री ने सपीदोनगर में संवत् 1688 में उत्तमक्षमादि दशलक्षणी धर्म यंत्र बनवाया । ताम्रपत्र पर अंकित यह यंत्र एवं लेख नया मन्दिर धर्मपुरा दिल्ली में है। भट्टारक संप्रदाय के लेखक डॉ. जोहरापुरकर ने इन्हीं आर्या की चरणपादुका संवत् 1688 में होने का उल्लेख लेखांक 610 में किया है। 146 आर्यिका प्रतापश्री की समाधि सपीदो नगर में संवत् 1688 की बनी हुई है। इस प्रतिमालेख की हस्तलिखित प्रति अति जीर्ण अवस्था में श्री अगरचन्द नाहटा संग्रह में है। 147 4.8.33 आर्यिका पासमती (वि. संवत् 1787 ) यह लेख बलात्कार गण कारंजा शाखा का है। इसमें उल्लेख है कि मूलसंघ के श्री धर्मचंद्र देव के शिष्य भट्टारक श्री देवेन्द्रकीर्ति जब सूरत के वासुपूज्य चैत्यालय में विराजमान थे, तब संवत् 1787 की भाद्रपद शुक्ला 5 को आर्यिका पासमती के लिये श्रीचन्द विरचित 'कथाकोष' की एक प्रति लिखवाई | 148 4.8.34 शिखर श्री (वि. संवत् 1816 ) संवत् 1816 देवलग्राम के श्रीचन्द्रप्रभु चैत्यालय में भट्टारक श्री नरेन्द्रसेन के शिष्य श्री शांतिसेन की शिष्या आर्यिका शिखर श्री जी ने अपने शिष्य पं. वानार्शिदास के लिए हरिवंशदास की एक प्रति लिखी। यह प्रति नागपुर सेनगण मन्दिर 20 में मौजूद है। 149 4.8.35 शांतमती और इन्दुमती (वि. संवत् 1828 ) संवत् 1828 बलात्कारगण कारंजाशाखा के आचार्य धर्मचन्द्र भट्टारक के शिष्य वृषभ ने शांतमती और इन्दुमती आर्यिका के आग्रह पर “रविव्रत कथा " लिखी । तथा संवत् 1830 की ज्येष्ठ कृष्णा 5 को "निर्दोषसप्तमी व्रत" का उद्यापन लिखा । 150 योगदान : दिगम्बर परम्परा में उत्तर भारत की इन श्रमणियों ने जैनधर्म और संस्कृति के विकास एवं संरक्षण के लिए अनेक उल्लेखनीय कार्य किये हैं। प्राचीन शास्त्रों की सुरक्षा एवं प्रचार के लिए उनकी अधिकाधिक हस्तलिखित प्रतियाँ तैयार करवाकर वितरित करवाई, नये मंन्दिर निर्माण, प्राचीन मन्दिरों का जीर्णोद्धार, शास्त्रदान, औषधदान हेतु महिलाओं को प्रेरित किया । इतिहास सुरक्षा के लिए ताम्रपत्र, शिलालेख आदि का लेखन कार्य करवाया । अनेकों ने सल्लेखना - समाधि ग्रहण कर स्वर्गारोहण किया। 146. भट्टारक संप्रदाय, पृ. 234 147. जैन सिद्धान्त भास्कर, षण्मासिकी, पृ. 16 148. (क) श्री रायबहादुर, श्री हीरालाल जी संपादित, मध्यप्रान्त और बरार के हस्तलिखितों की सूची, पृ. 727 (ख) डॉ. वि. जोहरापुरकर, भट्टारक संप्रदाय, लेखांक 159, पृ. 61 149. वही, लेखांक 73 150. वही, लेखांक 181, पृ. 66-67 229 Page #292 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन श्रमणियों का बृहद इतिहास 4.9 समकालीन दिगम्बर परम्परा की श्रमणियाँ (विक्रम की बीसवीं सदी के उत्तरार्द्ध से वर्तमान तक) दिगम्बर मुनि एंव आर्यिकाओं की अविच्छिन्न परम्परा अपने आविर्भाव काल से 15वीं 16वीं शताब्दी तक दिखाई देती है, उसके पश्चात् कोई ठोस प्रामाणिक सामग्री उपलब्ध नहीं होती। किसी गुटके में, ग्रंथ में या किंवदन्तियों से अथवा श्रुति परम्पराओं से छुटपुट किसी दिगम्बर मुनि का उल्लेख मिलता भी है तो वह किसी संघ के रूप में नहीं। स्वर्गीय कामताप्रसाद जी ने ढाका शहर में श्री नरसिंहमुनि (संवत् 1870) का, जयपुर में एक दिगम्बर मुनि (20वीं सदी) का, संवत् 1969 में चन्द्रसागर जी का, संवत् 1978 उदयपुर में आनंदसागर जी का तथा संवत् 1974 में अनंतकीर्ति जी आदि मुनियों के अस्तित्व का उल्लेख किया है, किंतु ये सूचनाएँ अत्यल्प हैं, इनमें भी दिगम्बर आर्यिकाएँ तो भट्टारक-परम्परा में ही दिखाई देती हैं, वह भी आचार्य धर्मचन्द्र भट्टारक की शिष्या शांतिमती इंदुमती बलात्कार गण कारंजा शाखा की उल्लिखित हैं। इनका अस्तित्व काल 1828 है, इसके पश्चात् बीसवीं सदी के उत्तरार्ध तक आर्यिकाओं के उल्लेख नहीं हैं। दिगम्बर मुनि परम्परा की विच्छिन्न कड़ी को जोड़ने वाले आचार्य आदिसागरजी महाराज हुए, जो 'अंकलीकर' के नाम से प्रसिद्ध थे, इन्होंने 47 वर्ष की अवस्था में योग्य गुरू के अभाव में स्वयं ही कुन्थलगिरि सिद्धक्षेत्र पर प्राचीन आचार्य कुलभूषण देशभूषण को साक्षी मानकर संवत् 1971 में दीक्षा अंगीकार की इन्हें संवत् 1972 में अर्थात् दीक्षा के दूसरे ही वर्ष में चतुर्विध संघ ने आचार्य पद प्रदान किया था। आप आगम-मर्मज्ञ एवं महान तपस्वी थे, सात-सात दिन के पश्चात् आहार ग्रहण करते थे, निर्जन गुफाओं में ध्यान साधना करते थे। संवत् 2000 फाल्गुन कृ. 13 को 14 दिन की संलेखना पूर्वक देह त्याग किया।।52 आपके पश्चात् श्री महावीरकीर्ति जी महाराज आचार्य बने। आपकी शाखा में तपस्वी सम्राट् भारत गौरव सिद्धान्त चक्रवर्ती श्री सन्मतिसागरजी महाराज, स्व. आचार्य विमलसागरजी महाराज आचार्य भरतसागरजी महाराज वर्तमान में गणधराचार्य श्री कुन्थुसागर जी महाराज, आचार्य सम्भवसागर जी, आचार्य पुष्पदन्त सागर जी, आचार्य विरागसागर जी, आचार्य सुधर्म सागरजी ऐलाचार्य कनकनन्दिजी, आचार्य श्री पद्मनन्दिजी आदि आचार्य तथा गणिनी विज्ञानमतिजी, गणिनी श्री कुलभूषणमतिजी, गणिनी श्री कमलश्रीजी का विशाल संघ विद्यमान है। दिगम्बर-परम्परा की द्वितीय शाखा चारित्र चक्रवर्ती आचार्य शांतिसागरजी म. (दक्षिण) की है। इन्होंने संवत् 1977 में श्री देवेन्द्रकीर्तिजी से मुनि दीक्षा अंगीकार की, 4 वर्ष पश्चात् समडोली में चतुर्विध संघ द्वारा आचार्य पद प्राप्त करने के बाद इन्होंने कई मुमुक्षुओं को दीक्षा प्रदान की। इनके शिष्य आचार्य वीरसागरजी, आचार्य शिवसागरजी आचार्य ज्ञानसागरजी, आचार्य विद्यासागरजी, आचार्य धर्मसागरजी, आचार्य अजितसागरजी, आचार्य श्रेयांससागरजी, आचार्य वर्धमानसागरजी, आचार्य अभिनंदनसागरजी तथा गणिनी ज्ञानचिंतामणिश्री, ज्ञानमतीजी, गणिनी श्रेयांसमतिजी, गणिनी विजयमतिजी गणिनी सुपार्श्वमतिजी आदि एवं आचार्य विद्यासागरजी की संघस्था आर्यिकाएँ हैं। दिगम्बर की तृतीय शाखा आचार्य शांतिसागरजी 'छाणी' की है। इस परम्परा में आचार्य सूर्यसागरजी, आचार्य विजयसागरजी, आचार्य विमलसागरजी, वर्तमान में आचार्य निर्मलसागरजी (गिरनार वाले) आचार्य नेमिसागरजी, आचार्य शांतिसागरजी (नमोक्कार मंत्र वाले) आचार्य सुमतिसागरजी आदि प्रसिद्ध आचार्य तथा गणिनी ज्ञानमतिजी 151. दिगम्बरत्व और दिगम्बरमुनि पृ. 149 152. दिगम्बरत्व और दिगम्बर मुनि, पृ. 150 230 Page #293 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दिगम्बर परम्परा की श्रमणियाँ (गुजरात), गणिनी विशुद्धमतिजी, गणिनी स्याद्वादमतीजी गणिनी कीर्तिमतीजी आदि आर्यिका संघ है। उक्त तीनों समकालीन आचार्यों की वर्तमान में कल 12 गणिनी आर्यिकाएँ. 358 आर्यिकाएँ एवं 72 क्षल्लिकाएँ विचरण कर रही अग्रिम पृष्ठों पर हम वर्तमान दिगम्बर परम्परा की सर्वप्रथम दीक्षिता साध्वी श्री चन्द्रमतीजी से प्रारंभ कर कालक्रमानुसार कुछ प्रमुख आर्यिकाओं और क्षुल्लिकाओं का उपलब्ध जीवनवृत्त व अनुदान का विवरण प्रस्तुत कर रहे हैं उसके उपरांत जिनका सामान्य जीवन-परिचय ही प्राप्त हुआ उन्हें तालिका में दे रहे हैं। शेष आर्यिकाओं के नाम व गुरू का नाम मात्र ही वर्षावास सूची से प्राप्त हुआ है, उनका उल्लेख तदनुरूप करके ही संतोष करना पड़ रहा है। 4.9.1 आर्यिका श्री चन्द्रमतीजी (20वीं सदी) आर्यिका चन्द्रमतीजी वर्तमान समय की प्रथम दीक्षित आर्यिका थीं, इनके पूर्व भारत भर में दिगम्बर आर्यिका पद पर कोई विद्यमान नहीं था इन्होंने 500 वर्षों से विच्छिन्न श्रमणी परम्परा को उत्तरभारत में पुनः कायम किया। इनकी दीक्षा चारित्र चक्रवर्ती आचार्य शांतिसागरजी महाराज द्वारा हुई थी। ये महाराष्ट्र के पूना जिले के वाल्हे गांव की निवासी थी, 13 वर्ष में इनका पाणिग्रहण हो गया था जन्म नाम केसरबाई था, विकाश्रम में रहकर अध्ययन की इच्छा को पूर्ण करने के लिये पिता ने घर पर ही पंडित नानाजी नाग के तत्वावधान में शिक्षण करवाया। कहा जाता है कि आचार्य शांतिसागरजी ने अनेक महिलाओं को प्रार्थना करने पर भी दीक्षित नहीं किया था, किन्तु केसरबाई को यह कहकर दीक्षित किया, कि 'नमूना तो बनो।"54 सचमुच ही ये भावी आर्यिका संघ के लिये उत्कृष्ट नमूना सिद्ध हुई। इन्होंने आत्मशुद्धि को जीवन का परम ध्येय मानकर चारित्रशुद्धि व्रत प्रारंभ किये जिसमें 1234 उपवास आते हैं। इनकी पवित्र और उज्जवल भावनाओं का जन-जन पर अमिट प्रभाव पड़ता था। दिल्ली के सुप्रसिद्ध नये मन्दिरजी में शुभ्रवर्णी सहस्रकूट चैत्यालय एवं दिगम्बर जैन लालमन्दिर के उद्यान में सुन्दर मानस्तम्भ इन्हीं की प्रेरणा का फल है। 101 वर्ष की उम्र में दिल्ली महिलाश्रम दरियागंज में ये स्वर्गवासिनी हुई। 4.9.2 आर्यिका श्री धर्ममतीजी (संवत् 1993-2004) आपका जन्म 1898 ईसवी में कुचामन के पास लूणवां नामक ग्राम के निवासी चम्पालालजी जैन के घर हुआ। 14 वर्ष की आयु में वर्धा निवासी लखमीचन्द्रजी कासलीवाल के साथ विवाह और फिर वैधव्य से संसार की असारता का अनुभव हुआ। सन् 1936 को कुन्थलगिरि में श्री जयकीर्ति जी महाराज से आर्यिका दीक्षा ग्रहण की। आप सौम्य मुखाकृति, गंभीर प्रकृति, उग्र तपस्विनी तथा निरन्तर अध्ययनादि में निरत रहती थीं। सन् 1936 से 1947 तक के 11 चातुर्मासों में आगम विहित आचाम्लव्रत, एकावलीव्रत, चान्द्रायण व्रत, पुनः एकावली मुक्तावली, सिंहनिष्क्रीड़ित, सर्वतोभद्र, दुकावली व्रत, रत्नावली, शान्तकुम्भ व मेरूपंक्ति आदि अनेक प्रकार की तप साधना की। आपने अपने 153. जैन बाबूलाल 'उज्जवल', समग्र जैन चातुर्मास सूची, खंड 4, 2004 ई., बम्बई 154. आर्यिका रत्नमती अभिनंदन ग्रंथ, पृ. 407 231 For Private L.Penal Use Only Page #294 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन श्रमणियों का बृहद इतिहास जीवनकाल में कुल तीन हजार उपवास किये। अंत में खानियां (जयपुर) में आचार्य देशभूषण जी महाराज के सान्निध्य में समाधिमरण प्राप्त किया।155 4.9.3 आर्यिका श्री वीरमतीजी (संवत् 1995) आपका जन्म खंडेलवाल परिवार में जयपुर निवासी श्री जमुनालाल जी के यहां हुआ, विवाह के पश्चात् भावविशुद्धि से सिद्धवरकूट सिद्धक्षेत्र में आचार्य शांतिसागरजी से क्षुल्लिका दीक्षा एवं इन्दौर में संवत् 1995 में आचार्य वीरसागरजी से आर्यिका दीक्षा ली। आपको संस्कृत व हिंदी पर विशेष अधिकार है, राजस्थान एवं मध्यप्रदेश में विचरण कर आपने धर्म की वृद्धि की, दूध के अलावा संपूर्ण रसों का त्याग कर आप विषयों से विरक्त बन गई।156 4.9.4 आर्यिका श्री विमलमतीजी (संवत् 2002-34) आपका जन्म ग्राम मुंगावली (म.प्र.) में श्री रामचन्द्रजी परवार के यहां चैत्र शु. 13 सं. 1962 को हुआ। 12 वर्ष की वय में विधवा होने के पश्चात् आप विद्याध्ययन कर नागौर की कन्या पाठशाला में अध्यापिका पद पर 8 वर्ष तक रहीं। संवत् 2000 में क्षुल्लिका दीक्षा तथा संवत् 2002 में पूज्य वीरसागरजी महाराज से आर्यिका दीक्षा अंगीकार की। आपने नागौर एवं उसके आसपास के क्षेत्रों में ही धर्मप्रचार किया, कई ग्रंथों का आपके द्वारा प्रकाशन हुआ है। यथा-कल्याण पाठ संग्रह, नित्यनियमपूजा, भक्तामर कथा, शांतिविधान, देववंदना, समाधितन्त्र, इष्टोपदेश, स्वरूप संबोधन, जिनसहस्र स्तवन, द्वादश अनुप्रेक्षा, नवधा भक्ति, आराधना कथाकोष 1-3 भाग, (हिंदी व संस्कृत)। संवत् 2034 वैशाख शुक्ला 1 को नागौर में ही आपका स्वर्गवास हुआ।'57 4.9.5 आर्यिका श्री पार्श्वमतीजी (संवत् 2002) आश्विन कृ. 3 संवत् 1956 के दिन जयपुर के खेड़ा ग्राम में श्रीमान् मोतीलाल जी वोरा के यहां आपका जन्म हुआ। आठ वर्ष की उम्र में आपका विवाह जयपुर निवासी श्री लक्ष्मीचन्द्रजी से हुआ, श्वसुर पक्ष में सभी व्यक्ति शिक्षित योग्य व संपन्न थे, आपके श्वसुर सात ग्राम के जमींदार थे, किंतु असमय में ही पति वियोग ने आपके अन्तर् में वैराग्य की प्रबल ज्योति जागृत कर दी, आप व्रत-नियमों का कठोरता से पालन करने लगीं, वि. संवत् 1997 में आचार्य वीरसागरजी से क्षुल्लिका दीक्षा ली, ज्ञान-चारित्र में उत्तरोत्तर उन्नति करती हुई आप आश्विन पूर्णमासी संवत् 2002 को झालरापाटन में आचार्य वीरसागरजी से आर्यिका के रूप में दीक्षित हो गईं। इस प्रकार आप तप एवं साधना में संलग्न रहकर ज्ञान और चारित्र के मार्ग पर अग्रसर रहीं।।58 155. वही, पृ. 410 156. दिगम्बर जैन साधु, पृ. 143 157. वही, पृ. 144 158. वही, पृ. 147 1232 Page #295 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दिगम्बर परम्परा की श्रमणियाँ 4.9.6 आर्यिका श्री इन्दुमतीजी (संवत् 2006) ऋषियों व वीरों की भूमि राजस्थान प्रान्त के नागौर जिले में डेह ग्राम निवासी श्री चरणमलजी पाटनी के यहां संवत् 1984 में मोहिनीबाई का जन्म हुआ, 12 वर्ष की अल्पायु में विवाह और 6 मास बाद वैधव्य ने इनकी जीवन दिशा को एक नया मोड़ दिया। वि. संवत् 2000 में आचार्य चन्द्रसागरजी से क्षुल्लिका दीक्षा एवं पश्चात् संवत् 2006 में आचार्य वीरसागरजी से आर्यिका दीक्षा ग्रहण की। आर्यिका संघ का संचालन करते हुए आपने अनेकानेक तीर्थों व नगरों में परिभ्रमण किया। आपके सदुपदेश से प्रेरित होकर कई दिगम्बर मुनि, आर्यिका, क्षुल्लिका एवं ब्रह्मचारी तैयार हुए। आपका जीवन अभूतपूर्व तप, त्याग एवं साधना से मंडित है। आप इतनी निस्पृह हैं कि सन् 1982 में तीर्थराज सम्मेदशिखर जी पर आपके सम्मान में अभिनंदन ग्रंथ भेंट किया गया, किंतु आपने उसे स्वीकार नहीं किया।।59 4.9.7 आर्यिका श्री विद्यावतीजी (संवत् 2008) आपका जन्म सिकन्दरपुर (उ. प्र.) में श्रेष्ठी श्री फूलचन्दजी अग्रवाल के यहां हुआ, लौकिक शिक्षा के साथ आप व्याकरण, न्याय, सिद्धान्त की अधिकारिणी साध्वी थीं। शास्त्री परीक्षा भी पास की। क्रमशः सातवीं प्रतिमा तथा दही गांव में क्षुल्लिका दीक्षा (संवत् 1998) लेकर दहीगांव में ही आचार्य श्री शांतिसागर जी से संवत् 2008 में आर्यिका दीक्षा ली। आपने 40 चातुर्मास यत्र-तत्र कर धर्म की प्रभावना की, साथ ही सोलह कारण, कर्मदहन, दशलक्षण आदि विविध तप भी किया।160 4.9.8 आर्यिका श्री कनकमतीजी (संवत् 2009) आपका जन्म बड़गांव (म. प्र.) हजारीमल जी वैद्य के यहां हुआ 12 वर्ष की वय में झांसी जिले के 'कारीटोरन' में श्री दयाचन्दजी सिंघई से विवाह और 16 वर्ष में वैधव्य को प्राप्त हुईं। आपने अपने दुर्भाग्य को सौभाग्य में परिवर्तित करने का संकल्प लेकर महिलाश्रम सिवनी, उदासीन महिला आश्रम इन्दौर तथा सागर में रहकर विशारद तक अध्ययन किया, पश्चात् सागर, दुर्ग तथा डालटेनगंज में अध्यापिका रहीं, आचार्य शिवसागर जी से महावीर जी में वैशाख शुक्ला 11 संवत् 2009 में आर्यिका दीक्षा ग्रहण की। आप कई रसों का आजीवन त्याग कर अस्वाद वृत्ति का आदर्श रखती हुई विचरण कर रही है। 4.9.9 गणिनी श्री ज्ञानमतीजी (संवत् 2013) न्याय प्रभाकर सिद्धान्त वाचस्पति की उपाधि से विभूषित आर्यिका रत्न ज्ञानमती जी दिगम्बर जैन समाज में एक तत्त्व चिंतिका एवं सुख्यात लेखिका विदुषी साध्वी हैं। आपका जन्म टिकैतनगर (जि. वाराबांकी, उ. प्र.) में वि. संवत् 1991 में हुआ। 17 वर्ष की आयु मे ही देशभूषण जी महाराज से क्षुल्लिका दीक्षा ग्रहण की, पश्चात् संवत् 2013 159. आ. रत्नमती अभिनंदन ग्रंथ, पृ. 404 160. दिगम्बर जैन साधु, पृ. 96 161. दि. जै. सा., पृ. 196 233 Page #296 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन श्रमणियों का बृहद इतिहास में आचार्य श्री शांतिसागर जी महाराज के पट्टाधीश आचार्य श्री वीरसागरजी महाराज से आर्यिका दीक्षा ग्रहण की। दिगम्बर जैन समाज में आप इस शताब्दी की सर्वप्रथम बालब्रह्मचारिणी आर्यिका है। अनुदान : आपने संस्कृत एवं प्राकृत भाषा के अनेक ग्रंथों की टीकाएँ एवं मौलिक साहित्य लिखा है। इससे पूर्व ग्रंथ-भंडारों में जितना भी साहित्य उपलब्ध होता था वह आचार्यों, भट्टारकों एवं विद्वानों द्वारा लिखित प्राप्त होता था, आर्यिकाओं द्वारा लिखित साहित्य सर्वप्रथम आपका ही है। आपने प्राचीन ग्रंथ मूलाचार, नियमसार पर संस्कृत में तथा अष्टसहस्री, कातंत्रव्याकरण, आदि पर हिंदी टीकाएँ सरल सुबोध शैली में नाटक, कथाएँ तथा बालोपयोगी साहित्यिक ग्रन्थ आदि कुल 150 के लगभग ग्रंथों का प्रणयन किया है। साहित्य सेवा के अतिरिक्त आपकी प्रेरणा से अनेक ऐतिहासिक महत्त्व के कार्य सम्पन्न हुए हैं, हो रहे हैं। हस्तिनापुर में जम्बूद्वीप रचना, आचार्य श्री वीरसागर संस्कृत विद्यापीठ, सम्यग्ज्ञान हिंदी पत्रिका, ऋषभदेशना आदि लोकप्रिय पत्रिका, समग्र भारत में जम्बूद्वीप ज्ञान ज्योति का प्रवर्तन, अ. भा. दि. जैन महिला संगठन की लगभग 239 ईकाइयाँ आपकी प्रेरणा से स्थापित सृजित व संचालित है। आपके अभिनंदन स्वरूप एक विशालकाय ग्रंथ सन् 1992 में आपको समर्पित किया गया था, जो "गणिनी आर्यिका रत्न श्री ज्ञानमती अभिवंदन ग्रंथ" के नाम से सुआख्यात है। यह ग्रंथ दिगम्बर जैन त्रिलोक शोध संस्थान हस्तिनापुर से प्रकाशित है। 4.9.10 आर्यिका श्री रत्नमतीजी (संवत् 2013-स्वर्गवास) 'नारी गुणवती धत्ते स्त्रीसृष्टेरग्रिमं पदं' उक्ति को चरितार्थ कर आपने फलभरित वटवृक्ष के समान अनेक रत्नत्रय संपन्न साध्वी रत्नों को प्रसूत किया है जिसमें गणिनी आर्यिका ज्ञानमतीजी विश्रुत आर्यिका रत्न है। श्री अमयमती माताजी आपकी सुपुत्री हैं। इसके अतिरिक्त आपके सुपुत्र ब्र. रवीन्द्रकुमार जैन एवं सुपुत्रियां ब्र. कु. मालती शास्त्री, ब्र. कु. माधुरी शास्त्री भी त्याग व वैदुष्य से संपन्न मुमुक्षु आत्माएं हैं। इस प्रकार आपका पूरा परिवार जैनधर्म, साहित्य एवं संस्कृति के लिये सर्वात्मना समर्पित है। आपने आचार्य धर्मसागरजी महाराज से 57 वर्ष की उम्र में आर्यिका दीक्षा अंगीकार की तथा ज्ञानमतीजी की माता होकर भी उनसे शिक्षा दीक्षा ग्रहण कर उन्हें गुरू का सम्मान व विनय प्रदान किया। आपके सम्मान में 'आर्यिका रत्नमती अभिनंदन ग्रंथ' दिगंबर समाज द्वारा समर्पित किया गया विद्वद्भोग्य ग्रंथ है। 4.9.11 गणिनी श्री सुपार्श्वमती माताजी (संवत् 2014-वर्तमान) अपने तप एवं वैदुष्य से विद्वत्संसार में समादरणीया माताजी नागोर जिले के मैनसर गांव के सद्गृहस्थ श्री हरकचंद जी चूड़ीवाल के घर संवत् 1985 में जन्मी। विवाह के तीन मास बाद ही वैधव्य ने इनकी मानस लहरियों पर वैराग्य की ज्योति प्रज्वलित की। संवत् 2014 में आचार्य वीरसागरजी द्वारा आर्यिका दीक्षा ग्रहण की।162 161. संपादक, जैन डॉ. पन्नालाल, आर्यिका रत्नमती अभिनंदन ग्रंथ, भा. दि. जैन महासभा, डोभापुर, ई. 1983 162. दिगम्बर जैन साधु, पृ. 152 234 Page #297 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दिगम्बर परम्परा की श्रमणियाँ अनुदान : अपनी तर्कप्रवण प्रज्ञा, सूक्ष्म बुद्धि से आपने कई ग्रंथ लिखे, एवं कइयों का अनुवाद किया। परम अध्यात्म तरंगिणी, सागार धर्मामृत, अनगार धर्मामृत, नय विवक्षा, राजवार्तिक, आचारसार आदि लगभग 20 ग्रंथ उच्चकोटि के प्रकाश में आये हैं। आपका ज्योतिष ज्ञान, मंत्र, तंत्र, यंत्रों का ज्ञान एवं प्रभावी प्रवचनशैली सभी को अभिभूत कर देती है । आसाम, बंगाल, बिहार, नागालैंड आदि प्रान्तों में अपूर्व धर्मप्रभावना करने का श्रेय आपको ही है। आपकी प्रेरणा से शिखरजी में मध्यलोक की भव्य रचना हुई, इसमें 458 अकृत्रिम जिनमंदिर हैं। मध्यलोक की संपूर्ण रचना शास्त्रोक्त रीति से दर्शाई है। आप शान्त व निर्मल स्वभाव की हैं। सैंकड़ों लोग आपसे ब्रह्मचर्य व्रत एवं प्रतिमा व्रत लेकर चारित्र मार्ग पर दृढ़ बने हैं। आपके संघ में श्री सुप्रभा माताजी, श्री आनंदमती माताजी आदि साध्वियाँ हैं। 63 4.9.12 आर्यिका श्री सिद्धमतीजी ( संवत् 2014 - वर्तमान) आपका जन्म परवार जाति में पिता श्री मन्नुलालजी भोपाल निवासी के यहां संवत् 1990 में हुआ। आपने 'आरा' महिलाश्रम में रहकर लौकिक एवं धार्मिक अध्ययन किया। विवाह के छह महीने बाद ही पति का वियोग आपके लिये शोक का कारण बना, किंतु धर्मचर्चा, जिनेन्द्रभक्ति में जब मन रम गया तो आपने बड़वा में फाल्गुन शु. 10 सं. 2013 को क्षुल्लिका दीक्षा ली एवं मांगीतुंगी सिद्धक्षेत्र पर पोष कृ. 2 संवत् 2014 को आचार्य विमलसागरजी आर्यिका दीक्षा ग्रहण कर ली। आप अत्यंत विदुषी सुयोग्य साध्वी हैं, इन्दौर, ईसरी आदि जिन-जिन क्षेत्रों में आपने चातुर्मास किये वहाँ की जनता आपसे बड़ी प्रभावित हुई। आपने घी, तेल दही आदि रसों का त्याग किया हुआ है। आपका तपोपूत जीवन वर्तमान युग में प्रेरणादायक है। 164 4.9.13 आर्यिका श्री चन्द्रमतीजी ( संवत् 2014 ) आपने वि. संवत् 1956 में सतारा जिले के 'गिरवी' ग्राम निवासी श्री फूलचन्द्रजी को अपना पिता कहलाने का सौभाग्य प्रदान किया सोलापुर के श्री हीरालालजी से आप विवाह बंधन में बंधी, किंतु आठ ही वर्ष में यह बंधन टूट गया तत्पश्चात् कालिञ्जा आश्रम में धार्मिक शिक्षा का गहन अध्ययन एवं अध्यापन कार्य किया, आपकी एक मात्र सुपुत्री श्री विद्युल्लताजी प्रधानाध्यापिका एवं अधिष्ठात्री के रूप में सप्तम प्रतिमा तक व्रतों को ग्रहण कर सोलापुर आश्रम में सेवा दे रही हैं। आपने संवत् 2013 में आचार्य वीरसागरजी से जयपुर खानियां में क्षुल्लिका दीक्षा एवं संवत् 2014 में चैत्र कृ. 1 को आचार्य श्री शिवसागरजी से आर्यिका दीक्षा ग्रहण की। आप तपस्या के द्वारा आत्मा को कर्ममल से रहित करती हुई मुक्ति मार्ग पर अग्रसर हैं। 165 4.9.13. आर्यिका श्री शांतिमतीजी ( - वर्तमान) आप नसीराबाद के श्री रोडमलजी खंडेलवाल की कन्या थीं, विवाह चम्ब गोत्र में हुआ, पति हीरे-जवाहरात के व्यवसायी हैं। आर्यिका सुपार्श्वमती जी से प्रभावित होकर क्षुल्लिका दीक्षा ली, बाद में नागौर में आचार्य वीरसागर जी से आर्यिका दीक्षा ग्रहण करली। आप संयम और विवेकशीला हैं, देश व समाज को सन्मार्ग पर चलने का सद्बोध देती रहती हैं, आपने दूध के अलावा 5 रसों का त्याग किया हुआ है। 66 163. दिगम्बर जैन साधु, पृ. 152 164. दि. जै. सा., पृ. 403 166. दि. जै. सा., पृ. 157 165. दि. जै. सा. पृ. 212 235 Page #298 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 4.9.15. आर्यिका श्री शीलमतीजी (संवत् 2015 ) आपका जन्म शिरसापुर (महाराष्ट्र) में हुआ, आपने बाल ब्रह्मचारिणी के रूप में रहकर अनेक संस्थाओं का संचालन किया। संवत् 2015 श्रावण शुक्ला 6 को फिरोजाबाद (उ. प्र.) में आचार्य महावीरकीर्तिजी से दीक्षा धारण कर आर्यिका बनीं। आपकी प्रेरणा से अनेक मन्दिरों में जिन प्रतिमाएं प्रतिष्ठित हुईं, धर्मकार्य में आप अग्रणी रहकर कार्य करती हैं। 167 4.9.16. आर्यिका श्री श्रेयांसमतीजी (संवत् 2015 ) आपका जन्म राजसुन्नारगुडी में श्री वर्द्धमान मुदालिया जी के यहाँ हुआ, आपका विवाहित जीवन स्वल्प ही रहा, 38 वर्ष की उम्र में दो पुत्र रत्न की प्राप्ति के पश्चात् आप विधवा हो गईं। संवत् 2015 में आपने आचार्य महावीरकीर्तिजी से नागौर में आर्यिका दीक्षा ले ली। आप नागौर, अजमेर, पावागढ़, बड़वानी, गजपन्था आदि स्थानों पर वर्षावास करती हुई धर्म की प्रभावना कर रही हैं। 168 4.9.17 आर्यिका श्री राजमतिजी आप मध्यप्रदेश के अम्बा (मुरैना) ग्राम की कुलदीपिका हैं आचार्य सुमतिसागर जी से दीक्षा अंगीकार कर धर्म प्रभावना के कई कार्य किये, आप कोटा में जैन औषधालय व जैन पाठशाला, सागर (म. प्र. ) में वर्णी जैन भुवन, वाकल (जबलपुर) में पाठशाला, पांडिचेरी में मंदिर तथा अन्यत्र भी मंदिरों की प्रेरिका रही हैं। 169 जैन श्रमणियों का बृहद इतिहास 4.9.18 आर्यिका श्री सुपार्श्वमतीजी बांसवाड़ा (राजस्थान) निवासी श्री अजबलाल जी आपके पिता थे, संसार अवस्था में आप तीन पुत्र और पुत्री की माता थीं, किंतु विरक्ति के बीज जब मनोभूमि पर अंकुरित हुए तो आपने अपने पति 'अर्हत्मार्ग स्वीकार करने की प्रेरणा दी, आपकी सतत प्रेरणा फलीभूत हुई, दोनों दम्पत्ति साथ ही व्रती बने, आपने शिखरजी पर कार्तिक शुक्ला प्रतिपदा के दिन श्री विमलसागर जी से आर्यिका दीक्षा ग्रहण की। चारित्र का दृढ़ता से पालन करते हुए डुंगरपुर में आपकी समाधि हो गई । 170 4.9.19 आर्यिका श्री जिनमतीजी (2016) म्हसवड़ (महाराष्ट्र) ग्राम में जन्मी प्रभावती बाल्यवय में ही माता-पिता की स्नेहछाया से वन्चित हो गई, ज्ञानमती माताजी ने षोडशी अवस्था में इस बालिका को अपनी शीतल वात्सल्यमयी हृदय धरा पर परिपोषित किया, वीरसागरजी महाराज से संवत् 2012 में क्षुल्लिका दीक्षा एवं तदनन्तर आचार्य शिवसागरजी से संवत् 2016 को सीकर में आर्यिका दीक्षा अंगीकार की। 167. दि. जै. सा., पृ. 363 168. दि. जै. सा., पृ. 362 169. दि. जै. सा., पृ. 498 170. दि. जै. सा., पृ. 363 236 Page #299 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दिगम्बर परम्परा की श्रमणियाँ आप कुशाग्रबुद्धि की परम विदुषी साध्वी हैं, संघस्थ नवदीक्षित आर्यिकाओं की देखरेख, वैयावृत्य, अध्ययन-अध्यापन आदि के द्वारा ये संघ में सराहनीय कार्य कर रही हैं। विशेष रूप से आपने 'प्रमेयकमलमार्तण्ड' जैसे महान दार्शनिक ग्रंथ की हिंदी टीका कर दार्शनिक जगत को एक अपूर्व भेंट दी है। 4.9.20 आर्यिका श्री पार्श्वमतीजी आपका जन्म अजमेर में सं. 1956 मृगशिर कृष्णा 12 को हुआ, पिता का नाम श्री सौभाग्यमल जी सोनी तथा पति का नाम जसकरण जी गंगवाल (कड़ेल निवासी) था, शादी के कुछ ही दिन के पश्चात् आपके पति स्वर्गवासी हो गये, पुण्ययोग से आचार्य चन्द्रसागर जी महाराज के सत्संग से आपमें वैराग्य भावना अंकुरित हुई, क्षुल्लिका एवं तत्पश्चात् आर्यिका दीक्षा भी उन्हीं से अंगीकार की। आपने सारे भारतवर्ष में पाद-विहार कर धर्मप्रभावना की है। आपकी दुर्बल काया में तप-त्याग अपूर्व था, आप कठोर व्रतों का पालन करने वाली साध्वी थीं।172 4.9.21 आर्यिका श्री चारित्रमतीजी (संवत् 2017) आपका जन्म बेलगांव (दक्षिण) में सं. 1965 को श्री संगप्पा के यहाँ हुआ, आप चतुर्थ जाति की थीं, संवत् 2002 में मुनि पायसागरजी से सप्तम प्रतिमा धारण की, संवत् 2007 में गुलबर्गा में क्षुल्लिका दीक्षा तथा संवत् 2017 में आचार्य देशभूषणजी से आर्यिका दीक्षा धारण की। आप कन्नड़, मराठी, हिन्दी की उच्चकोटि की प्रवक्ता हैं तथा सरल एवं शांत जीवन है। 73 4.9.22 आर्यिका श्री आदिमतीजी (संवत् 2018) गोपालपुरा (आगरा) के श्री जीवनलाल जी को आपके पिता बनने का सौभाग्य प्राप्त हुआ, विवाह के डेढ़ वर्ष पश्चात् ही पति से वियोग हो गया, तो आपने अपने जीवन क्रम को बदला और संवत् 2018 में सीकर (राजस्थान) में आचार्य शिवसागर जी के द्वारा दीक्षित हो गईं। आपकी नेमिचन्द्राचार्य कृत गोम्मटसार कर्मकाण्ड पर हिन्दी टीका प्रकाशित है। आप रस परित्यागी, आत्मसाधना में निरत विदुषी साध्वी हैं, वर्तमान में आचार्य श्री धर्मसागरजी म. के संघ में धर्म प्रभावना के कार्य कर रही हैं।174 4.9.23 आर्यिका श्री राजुलमतीजी (संवत् 2018) वि. संवत् 1964 में कारन्जा (आकोला) के बघेलवाल गोत्रीय श्री बबनसाजी के सम्पन्न खानदान में आपने जन्म लिया। कारन्जा के देवमनसाजी को आपके पति बनने का सौभाग्य प्राप्त हुआ, किंतु डेढ़ वर्ष में ही वे चल बसे। आपने सोलापुर के आश्रम में 16 वर्ष तक अध्ययन तत्पश्चात् अध्यापन का कार्य कुशलता पूर्वक किया। संवत् 2012 171. दि. जै. सा., पृ. 197 172. दि. जै. सा., पृ. 417 173. दि. जै. सा., पृ. 335 174. दि. जै. सा., पृ. 189 237 Page #300 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन श्रमणियों का बृहद इतिहास चैत्र शुक्ला 4 संवत् 2018 के दिन 'सीकर' में आचार्य श्री के ही चरणों में पावन प्रव्रज्या का पंथ स्वीकार किया। आप अनेकों भव्य जीवों को सत्पथ दर्शाती हुई संयम मार्ग पर अग्रसर हैं। 175 4.9.24 गणिनी श्री विजयमती माताजी ( संवत् 2019 ) बीसवीं शताब्दी की सर्वप्रथम गणिनी पदालंकृता माताजी श्री विजयमतीजी का जन्म संवत् 1984 में ग्राम कामा (जि. भरतपुर राजस्थान) निवासी संतोषीलाल जी खंडेलवाल जैन की धर्मपत्नी चिरोंजीबाई की कुक्षि से हुआ । अल्पवय में ही विवाह और वैधव्य के पश्चात् आप चन्दाबाई बालाश्रम में प्रविष्ट हो गईं, वहां रहकर बी. ए., बी. टी., साहित्यरत्न, विशारद एवं न्यायतीर्थ किया, साथ ही चित्रकला, संगीत, नाटक, हस्तकला, अध्यापन आदि प्रत्येक क्षेत्र में उन्नति की। आखिर 35 वर्ष की उम्र में नशियां जी (आगरा) में आचार्य श्री विमलसागरजी महाराज के कर-कमलों से चैत्र कृष्णा 3 संवत् 2019 में आर्यिका के रूप में दीक्षित हुईं। आपका प्रवचन, भाषा की प्राञ्जलता, भावों की पवित्रता विचारों की स्पष्टता से युक्त सरल एवं सयुक्तिक होता है, आप संस्कृत, प्राकृत, हिन्दी, गुजराती, मराठी, कन्नड़, ऊर्दू, तमिल आदि भाषाओं में धाराप्रवाह बोलती हैं। प्राचीन तमिल भाषा में निबद्ध ताड़पत्र पर अंकित कई ग्रंथों का आपने हिंदी में रूपांतरण किया है। अन्य भी आप द्वारा लिखित ग्रंथ इस प्रकार हैं (1) महिपाल चरित्र (2) प्रथामानुयोगदीपिका (3) तामिलतीर्थ दर्पण (4) अमृतवाणी (5) तत्त्वदर्शन (6) जिनदत्त चरित्र ( 7 ) सिद्धचक्र पूजातिशय प्राप्त श्रीपाल चरित्र ( 8 ) अहिंसा की विजय (9) कथा मञ्जरि (10) कथा सुमन ( 11 ) शील की महिमा (12) विमल पताका (23) आत्मानुभव ( 14 ) नीति वाक्यामृतम् (15) निजानन्द पीयूष ( 16 ) जिन भक्ति से मुक्ति ( 17 ) निजावलोकन (18) जैनधर्म और भक्ति पीयूष ( 19 ) आत्म निर्झर ( 20 ) नारी वैभव ( 21 ) आत्म पीयूष (22) आराधना समुच्चय ( 23 ) प्रतिज्ञा ( 24 ) पुनर्मिलन (25) उन्नति का सोपान (26) जैन ज्ञातव्य प्रश्नोत्तरी ( 27 ) मुक्ति का सोपान (28) सच्चा कवच ( 29 ) चतुर्विंशति स्तोत्र की टीका (3) आत्म चिन्तन (31) तजो मान करो ध्यान ( 32 ) कुन्दकुन्द शतक (33) उद्बोधन (34) ओमप्रकाश कैसे बना सिद्धान्त चक्रवर्ती आचार्य सन्मतिसागर (35) छिटक रही अंकलीकर चन्द्रिका ( 36 ) शीतलनाथ विधान (37) अमृताशीति (38) मूलाराधना (39) अंतिम दिव्य देशना (40) दिव्य देशना (41) गुरूवाणी (42) 75 प्रश्नोत्तरमाला (43) आ. कुन्दकुन्द स्वामी जीवन परिचय एवं पूजा आरती ( 44 ) गुरूपूजा एवं आरती (45) जिनवाणी की झलक (46) जिनधर्म रहस्य ( 47 ) तपस्वी सम्राट् आचार्य श्री सन्मतिसागर जी महाराज का अभिनन्दन ग्रन्थ का संपादन (48) जीवन ज्योति आदि । समय-समय पर पत्रिकाओं में लेख, कथा कहानी आगमानुसार छपते रहते हैं। आपकी प्रेरणा से पांडीचेरी, पनरौटी, मद्रास, बड़नगर, बड़वानी ( पार्श्वगिरि) आदि क्षेत्रों में पंचकल्याणक एवं वेदी की प्रतिष्ठा हुई, कई स्थान जैसे- तिरूमुनिगिरि, करन्दै ( अकलंकवस्ती) पोन्नूरमले, बंगाल, तिरूपति कौन्ड्रम, मुदलूर, मलयनूर, बड़तिल, वेलियमल्लूर, तिरूपणामूर, वेन्निपाकम्, वन्देवासी, सल्लुके आदि के मंदिरों के जीर्णोद्धार हुए। इसके अतिरिक्त मुंबई में औषधालय एवं त्यागी निवास, पोन्नूरमलै में त्यागी भवन, यात्री निवास आदि अनेक धर्म कल्याणकारी रचनात्मक कार्य भी आपकी प्रेरणा से हुए । आपके द्वारा कई दीक्षार्थी संघ में तैयार हुए, उनमें प्रमुख हैं - क्षुल्लिका कुलभूषणमती जी ( वर्तमान में आर्यिका हैं), आर्यिका विमलप्रभा माताजी, आर्यिका विजयप्रभा माताजी, आर्यिका विनयप्रभा माताजी, सप्तम 175. दि. जै. सा. पृ. 192 238 Page #301 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दिगम्बर परम्परा की श्रमणियाँ प्रतिमाधारिणी ब्र. गुलकंदीबाई (गणिनी विजयमती माताजी की ज्येष्ठा भगिनी), ब्र. पद्मप्रभाजी, पंचम प्रतिमाधारिणी ब्र. राजकुमारीजी, दो प्रतिमाधारिणी ब्र. रानी कुमारी। आपकी अद्भुत तपस्या, कार्यक्षमता एवं अभूतपूर्व प्रतिभा के कारण आप गुरूप्रदत्त अनेक पदों से अलंकृत हुईं, जैसे-गणिनी, सिद्धान्त विशारदा, जिनधर्मप्रभाविका, आर्यिका रत्न, ज्ञान चिन्तामणि, समाधिकल्पद्रुम, रत्नत्रय हृदय सम्राट्, दीर्घतपस्विनी आदि। इस प्रकार आपका जीवन विशिष्ट संयम की गरिमा से मंडित रहा है। माताजी का विस्तृत परिचय 'प्रथम गणिनी 105 आर्यिका श्री विजयमती माताजी अभिनन्दन ग्रंथ में वर्णित है। 76 4.9.25. आर्यिका श्री श्रेयांसमतीजी (संवत् 2021) आपका जन्म संवत् 1982 पूना में श्रीमान् दुलीचन्दजी खण्डेलवाल (बड़जात्या गोत्र) में तथा विवाह मूलचन्द्र जी पहाड़े से हुआ। पति मुनि श्री श्रेयांससागरजी का अनुगमन कर संवत् 2021 में आप भी आचार्य शिवसागर जी म. के चरणों में महावीर जी तीर्थ स्थल पर दीक्षित हुईं। आपने राजस्थान के प्रांतों में विचरण कर धर्मप्रभावना की है। स्वयं ने भी साधना के कठोर मार्ग पर चलते हुए तेल, दही, घी, नमक तक का त्याग किया हुआ है। 4.9.26. आर्यिका श्री विशुद्धमती माताजी (संवत् 2021) वि. संवत् 1986 रीठी (जबलपुर, म. प्र.) में गोलापूर्व परिवार के सद्गृहस्थ पिता श्री लक्ष्मणलाल जी सिंघई एवं माता मथुराबाई की पांचवीं संतान के रूप में इनका जन्म हुआ। प्रसिद्ध संत श्री गणेशप्रसाद जी वर्णी के निकट संपर्क से संस्कारित सुमित्रा जी वैधव्य के बाद सागर महिलाश्रम में 12 वर्ष प्रधानाध्यापिका रही पश्चात् अतिशय क्षेत्र पपौरा में सन् 1984 में आर्यिका दीक्षा धारण की। इन्होंने जिनवाणी की सेवा का व्रत ग्रहण कर अब तक करीब 35 ग्रंथों की टीका, रचना, संकलन व संपादन किया। इनमें प्रमुख रूप से नेमिचन्द्र विरचित त्रिलोकसार की हिन्दी टीका, भट्टारक सकलकीर्ति विरचित "सिद्धान्तसार दीपक" की हिन्दी टीका, यतिवृषभाचार्य विरचित 'तिलोयपण्णत्ती की सचित्र हिन्दी टीका (3 खंडों में), इन दुरूह ग्रंथों का प्राकृत से अनुवाद कर जिस नवीन परम्परागत रूप में इन्होंने प्रस्तुत किया है, वह वस्तुतः सराहनीय है इसके अतिरिक्त आचार्य महावीरकीर्ति स्मृति ग्रन्थः एक अनुशीलन, जैनाचार्य शांतिसागर जी म. का जीवन वृत्त, वत्थुविज्जा आदि ग्रंथ भी प्रशंसनीय है। जन कल्याण के रूप में श्री शांतिवीर गुरूकूल जोबनेर, दिगंबर जैन महावीर चैत्यालय, जिनमंदिर जीर्णोद्धार, उदयपुर में श्री शिवसागर सरस्वती भवन, दिगंबर जैन धर्मशाला टोडारायसिंह का नवीनीकरण एवं अशोकनगर आपके सद् प्रयत्नों का फल है। 78 4.9.27. आर्यिका श्री अरहमती जी (संवत् 2021) आप वीरगांव के श्री गुलाबचन्द्र जी खण्डेलवाल की सुपुत्री हैं। विवाह के बाद वैधव्य जीवन से विरक्ति की 176. पत्राचार द्वारा प्राप्त सामग्री के आधार पर, लेखिका-आर्यिका विमलप्रभा माताजी 177. दि. जै. सा., पृ. 201 178. तिलोयपण्णत्ती, भूमिका, चन्द्रप्रभ दि. जैन अतिशय क्षेत्र, देहरा, तिजारा (राजस्थान) त. सं. 1997 ई. 239 Page #302 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन श्रमणियों का बृहद इतिहास भावना बढ़ी, अपने ज्येष्ठ मुनि श्री चन्द्रसागर जी, काका आचार्य वीरसागर जी, पुत्र मुनि श्री श्रेयांस कुमार जी से धर्म प्रेरणा प्राप्त कर आपने भी श्री सुपार्श्वसागर जी से संवत् 2020 में क्षुल्लिका दीक्षा ली और अगले वर्ष संवत् 2021 में आचार्य शिवसागर जी से महावीरजी तीर्थ में आर्यिका दीक्षा ली। आप अपनी संयमचर्या में बड़ी जागरूक हैं, नमक, तेल, दही का त्याग किया हुआ है। चारित्रशुद्धि, कर्मदहन तीस चौबीसी जैसी तपस्याएं की हैं। 4.9.28 आर्यिका श्री आदिमतीजी (संवत् 2021) कामा निवासी सुंदरलाल जी अग्रवाल के घर में समुत्पन्न बालिका मैनाबाई कोसी निवासी श्री कपूरचंद जी की गृहशोभा बनकर गई, किंतु 1 वर्ष पश्चात् ही वैधव्य ने जगत की असारता का चित्र उनके समक्ष प्रस्तुत कर दिया, अतः इन्होंने संवत् 2017 को कम्पिला जी में क्षुल्लिका दीक्षा ली, तदुपरान्त संवत् 2021 में मुक्तागिरि पर आचार्य विमलसागर जी से आर्यिका दीक्षा अंगीकार की। वर्तमान में ये संघ की परम तपस्विनी आर्यिका के रूप में प्रसिद्ध हैं।180 4.9.29 आर्यिका श्री अनन्तमतीजी (संवत् 2022) आपने 'कन्नड़' ग्राम (औरंगाबाद) के सेठ हीरालाल जी के घर संवत् 1939 में जन्म लिया। 13 वर्ष की अल्पायु में 'आहुल' निवासी श्री सुखलालजी कासलीवाल के साथ विवाह हुआ, उनसे एक पुत्र व एक पुत्री की प्राप्ति हुई, नौ वर्ष की अवधि में आप वैधव्य को प्राप्त हुईं, आपने उदार मन से अपनी सम्पत्ति को पंचकल्याणक, प्रतिमाओं के लिये अर्पित कर संवत् 2006 को नागौर में आचार्य वीरसागरजी के कर-कमल से क्षुल्लिका दीक्षा ग्रहण की, एवं 16 वर्ष कठोर व्रतों का पालन करने के पश्चात् संवत् 2022 कार्तिक शुक्ल 11 को आचार्य धर्मसागरजी से खुरई (सागर) में आर्यिका दीक्षा ली। इस प्रकार आप धार्मिक प्रभावना व आत्मकल्याण हेतु तप साधना में तत्पर हैं।18 4.9.30 आर्यिका श्री विनयमतीजी (संवत् 2023) आप मड़ावरा (उ. प्र.) के श्रीमान् मथुराप्रसादजी की सुपुत्री व चतुर्भुजजी की पत्नी थीं, विरक्त आत्माओं को देखकर आपने भी संवत् 2023 को कोटा में आचार्य शिवसागरजी से आर्यिका दीक्षा ले ली। आपने उदयपुर, प्रतापगढ़ आदि स्थानों पर धर्म की प्रभावना की, मीठा, नमक और दही का त्याग कर आपने विरक्ति का आदर्श उपस्थित किया।182 4.9.31 आर्यिका श्री दयामतीजी (संवत् 2023) आप सुविख्यात आचार्य श्री शांतिसागर जी महाराज की लघु भगिनी हैं। आपके पिता श्री भागचन्द्र जी एवं माता मानकबाई छाणी (उदयपुर) के सुप्रतिष्ठित व्यक्ति थे, बचपन से आपके मानस में वैराग्य की भावना अंकुरित 179. (क) दि. जै. सा., पृ. 189, (ख) आर्यिका रत्नमती अभि. ग्रंथ, पृ. 403 180. दि. जै. सा., पृ. 399 181. दि. जै. सा., पृ. 245 182. दि. जै. सा., पृ. 204 240 Page #303 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दिगम्बर परम्परा की श्रमणियाँ होकर संवर्द्धित और संरक्षित होती रही, खुरई में समस्त सांसारिक बंधनों को तोड़कर वि. संवत् 2020 में आपने आचार्य श्री धर्मसागर जी म. से क्षुल्लिका दीक्षा अंगीकार की तथा संवत् 2023 में आचार्य देशभूषण जी म. से दिल्ली में आर्यिका दीक्षा लेकर भातृपथ का अनुकरण किया। आपको णमोक्कारादि मंत्र विज्ञान का विशिष्ट ज्ञान है, दूर्ग, दिल्ली, जयपुर, उदयपुर, आदि जहां भी आपके चातुर्मास हुए, धर्म की अपूर्व लहर पैदा कर दी। आपका उपदेश मंत्रमुग्ध कर देने वाला व हृदय की ग्रंथियों को खोलने वाला प्रभावकारी होता है। आप त्यागी श्रमणी है, दही, तेल और रस आदि का सेवन नहीं करतीं।183 4.9.32 आर्यिका श्री सुप्रभामती जी (संवत् 2024) आप कुरड़वाडी (महाराष्ट्र) निवासी श्री नेमीचंद जी की सुपुत्री हैं, 12 वर्ष की वय में ही आपका विवाह हुआ और कुछ ही दिनों में विधवा हो गई। शीघ्र ही आपने अपने चित्त को धर्म में लगाया एवं न्याय, प्रथमा, इन्टर की परीक्षाएं दी, तत्पश्चात् सोलापुर के श्राविकाश्रम में 15 वर्ष तक अध्यापन कार्य किया, संवत् 2024 कार्तिक शुक्ला 12 को कुम्भोज बाहुबली में श्री समन्तभद्र जी महाराज से आर्यिका दीक्षा ग्रहण की। आप अध्यापन कार्य में अत्यन्त दक्ष हैं, अनेक कन्याओं एवं महिलाओं को योग्य प्रशिक्षण देकर उन्हें सन्मार्ग में लगाया है।184 4.9.33 गणिनी श्री विशुद्धमती माताजी (संवत् 2025 से वर्तमान) संवत् 2005 में लश्कर नगरी निवासी श्री गुलजारीलाल जी (वर्तमान में क्षु. श्री आदिसागर जी म.) एवं माता श्रीमती देवी (आर्यिका रूप से दीक्षित) के यहां जन्म लेकर आपने 8 वर्ष की उम्र में आजीवन कन्दमूल व 14 वर्ष की उम्र में आजीवन ब्रह्मचर्यव्रत अंगीकार कर लिया था। 16 वर्ष की उम्र में स्वयं केशलोच कर संवत् 2025 में सम्मेदाचल पर्वत पर आचार्य निर्मलसागर जी से आपने आर्यिका दीक्षा ग्रहण करली। तीन वर्ष के अंदर ही संवत् 2029 में आपको आचार्य विमलसागर जी म. ने 'गणिनी' पद पर प्रतिष्ठित कर दिया। 21वीं सदी की आप प्रथम बालब्रह्मचारिणी गणिनी एवं सर्वाधिक दीक्षा प्रदात्री के रूप में विश्रुत हैं। आपने पंचकल्याणक, वेदी, मंदिर आदि की अनेक स्थानों पर प्रतिष्ठा करवाई। कइयों को आर्यिका, क्षुल्लिका ब्रह्मचर्य आदि व्रत देकर उनके जीवन को सफल बनाया।85 आपकी स्वर्ण जयंती पर 'मां रत्नत्रय चन्द्रिका' अभिवन्दन ग्रंथ समर्पित किया गया है।186 आपकी संघस्थ साध्वियों का परिचय तालिका में दिया गया है। 4.9.34 आर्यिका विद्यावती जी (संवत् 2025) आप मुबारिकपुर (अलवर) के चिरंजीलाल जी पालीवाल की कन्या हैं, 10 जनवरी 1919 को आपका जन्म हुआ। विवाह के पश्चात् आप दो पुत्रों की माता बनीं। पति वियोग के बाद अध्ययन कर 20 वर्ष तक स्कूल में - 183. दि. जै. सा., पृ. 331 184. दि. जै. सा., पृ. 474 185. ब्र. श्री आभा जैन, पत्र द्वारा प्राप्त सामग्री के आधार पर 186. प्रो. टीकमचंद जैन, प्रधान संपादक, प्राप्ति स्थान-अग्रवाल जैन धर्मशाला, मालपुरा जि. टोंक (राजस्थान) 241 Page #304 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन श्रमणियों का बृहद इतिहास अध्यापिका रही, पश्चात् आचार्य धर्मसागर जी म. से महावीर जी में संवत् 2025 में आर्यिका दीक्षा ली। आप कुशल प्रवचनकी एवं तपस्विनी साध्वी हैं। दशलक्षण, अठाई, सोलहकारण आदि उपवास प्रायः चलते रहते हैं।187 4.9.35 आर्यिका श्री अभयमती जी (2026) आपके पिता टिकेतनगर (बाराबांकी) के श्री छोटेलाल जी गोयल हैं, आप बाल्यकाल से ही संत सत्संग व धर्मोपदेश में रूचि रखती थीं, अतः क्रमशः ब्रह्मचर्य प्रतिमा, पांचवी प्रतिमा, सातवीं प्रतिमा पर आरूढ़ होती हुई संवत् 2021 को क्षुल्लिका पद पर स्थित हुईं, इस उपलक्ष में आपने अपनी ओर से 'श्रावकाचार' ग्रंथ प्रकाशित करवाया। हैदराबाद में आचार्य धर्मसागरजी से आर्यिका दीक्षा लेकर आप ज्ञानमती माताजी की शिष्या बनीं। आप अपना अधिकांश समय धर्मध्यान शास्त्र-स्वाध्याय में व्यतीत करती हैं आपने आचार्यों द्वारा रचित कई ग्रंथों के पद्यानुवाद किये तथा छोटी-छोटी 10-15 पुस्तकें लिखीं।188 4.9.36 आर्यिका श्री विमलमतीजी (संवत् 2026) आप अडंगाबाद (बंगाल) के श्री छगमल जी खण्डेलवाल के यहां अवतरित हुईं, विवाह के पश्चात्, आपको 3 पुत्र व 3 पुत्रियां हुईं। गुरू का सुयोग मिलने पर संवत् 2026 को सुजानगढ़ (राजस्थान) में आचार्य विमलसागर जी से क्षुल्लिका दीक्षा व तदनन्तर आचार्य धर्मसागर जी म. से आर्यिका दीक्षा ली। आपको णमोकार आदि मंत्रों का विशिष्ट ज्ञान है। तेल, दही आदि रसों का त्याग कर आप तपस्विनी के रूप में भी प्रसिद्ध हुई हैं।189 4.9.37 आर्यिका श्री शांतिमतीजी (संवत् 2024) आर्यिका शांतिमतीजी 'यथा नाम तथा गुण' की उक्ति को अपने जीवन में चरितार्थ कर साधना के मार्ग पर अग्रसर हैं। आपका जन्म हमेरपुर में श्रीमान् अम्बालाल जी बड़जात्या के यहां तथा विवाह टोडारायसिंह निवासी गुलाबचन्दजी पाटनी से हुआ, आपके तीन सुपुत्रियां और दो सुपुत्र हैं, सब तरह से संपन्न होकर भी अंतिम लक्ष्य की प्राप्ति की ललक बनी रही। आर्यिका इंदुमतीजी के संसर्ग से दूसरी फिर पांचवीं और फिर सातवी प्रतिमा धारण कर अंत में श्री सन्मतिसागरजी के श्रीमुख से मृगशिर कृ. 6 के शुभ दिन टोडारायसिंह में आर्यिका दीक्षा अंगीकार की। दीक्षा के पश्चात् त्याग, तप में आप उत्तरोत्तर आगे से आगे बढ़ रही हैं ज्ञान, ध्यान, स्वाध्याय, उपदेश के द्वारा स्वपरकल्याण में निरत हैं।190 4.9.38 आर्यिका शान्तिमतीजी (संवत् 2029 ): बाल्यवय से ही धर्म प्रवृत्ति संपन्न इस बालिका को जन्म देने का सौभाग्य सांगली (महाराष्ट्र) की भूमि को प्राप्त हुआ। आपने सम्मेदशिखर पर आचार्य विमलसागरजी से संवत 2029 कार्तिक शुक्ला 2 को आर्यिका दीक्षा धारण 187. दि. जै. सा., पृ. 247 188. दि. जै. सा., पृ. 246 189. दि. जै. सा., पृ. 249 190. दि. जै. सा., पृ. 291 |242 Page #305 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दिगम्बर परम्परा की श्रमणियाँ की। दीक्षा के पश्चात् सिद्धान्त ग्रंथों के स्वाध्याय का आपने लक्ष्य बनाया, और जैनदर्शन के उच्चकोटि के ग्रंथों का पारायण किया। 4.9.39 आर्यिका पार्श्वमतीजी (संवत् 2029) आप पाणूर (उदयपुर) निवासी श्री हुकमचंद जी नरसिंहपुरा की सुपुत्री हैं, आपके पति श्रीपाल जैन 'कूड' के निवासी थे। संवत् 2024 फाल्गुन शुक्ला 2029 को पारसोला में क्षुल्लिका दीक्षा तथा कार्तिक शुक्ला 2 संवत् 2029 में सम्मेदशिखर पर आर्यिका दीक्षा श्री विमलसागरजी से ग्रहण की। आप बहुत ही स्वाध्याय प्रिय जप तप में लीन शांत प्रवृत्ति की महाश्रमणी हैं।।92 4.9.40 आर्यिका सिद्धमतीजी (संवत् 2029) आपका जन्म संवत् 1971 वैशाख शुक्ला पूर्णिमा को जयपुर के श्री केशरीमल जी के यहां हुआ। कार्तिक शुक्ला 12 को जयपुर में ही आचार्य धर्मसागर जी से आर्यिका दीक्षा ली। आप कठोर तपस्विनी हैं, समय-समय पर 10-10 उपवास करती रहती हैं।193 4.9.41 आर्यिका श्रुतमतीजी (संवत् 2031) आपका जन्म कलकत्ता में 14 अगस्त 1947 को हुआ आपके पिता श्री फागूलाल जी वर्तमान में आचार्य श्रुतसागर जी महाराज के नाम से विख्यात हैं, बचपन में ही धार्मिक प्रवृत्ति होने से आजीवन ब्रह्मचर्य व्रत तथा दूसरी प्रतिमा ग्रहण करली, साथ ही विशारद एवं शास्त्री की भी परीक्षाएँ दी। भगवान महावीर के 2500वें निर्वाण दिवस के दिन दिल्ली में आचार्य धर्मसागर जी महाराज से जिनदीक्षा अंगीकार की। आप वर्तमान में श्री आदिमती माताजी के पास सतत स्वाध्याय व तप में संलग्न है, आप संस्कृत, न्याय, व्याकरण की अध्येता धर्मप्रभाविका विदुषी साध्वी 4.9.42 आर्यिका समयमतीजी (संवत् 2032) आपका जन्म सन् 1921 में कर्नाटक प्रान्त के बेलगांव जिले के आकोला ग्राम में हुआ। आपने अपने पति मुनि श्री मल्लिसागर जी, पाँच पुत्र-पुत्रियों को एवं स्वयं को जिन शासन में दीक्षित कर जैनधर्म को एक बहुत बड़ी भेंट दी है। प्रख्यात युवा आचार्य विद्यासागर जी महाराज आपके ही पुत्ररत्न हैं। आप सबने एक साथ सपरिवार संवत् 2032 माघ शुक्ल 5 को मुजफ्फरनगर (उ. प्र.) में आचार्य श्री धर्मसागर जी म. से दीक्षा अंगीकार की। आपके त्याग का यह उत्कृष्ट आदर्श चिरकाल तक जीवन्त रहेगा।195 191. दि. जै. सा., पृ. 403 192. दि. जै. सा., पृ. 401 193. दि. जै. सा., पृ. 250 194. दि. जै. सा., पृ. 257 195. दि. जै. सा., पृ. 254 243 Page #306 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 4.9.43 आर्यिका गुणमतीजी आपका जन्म महावीरजी में श्री मूलचन्द जी पांड्या के घर तथा विवाह भंवरलाल जी गंगवाल नीमाज (राजस्थान) वासी से हुआ, आपको दो पुत्र व एक पुत्री इस प्रकार सम्पन्न एवं धार्मिक वृत्ति का परिवार मिला। पंचकल्याणक प्रतिष्ठा के पुण्य अवसर पर महावीरजी में आचार्य धर्मसागरजी म. ने आपको आर्यिका दीक्षा प्रदान की। दीक्षा के पश्चात् आपने प्रायः समस्त तीर्थों का पाद-विहार करके वंदना की। आप सरल एवं प्रखर प्रतिभासंपन्न है, प्रवचन शैली में मधु सी मीठास है, गुरू भक्ति आपमें अटूट भरी हुई है। आपने चारित्रशुद्धि के 1234 उपवास कर तप का आदर्श भी कायम किया, इस प्रकार आप ज्ञान व तप के मार्ग पर सतत परिव्रजन कर रही हैं। 196 4.9.44 आर्यिका प्रवचनमती जी (संवत् 2032 ) आप सौभाग्यशालिनी आर्यिका मातुः श्री समयमती माताजी की सुपुत्री एवं आचार्य विद्यासागर जी महाराज की संसारी भगिनी हैं, आपका जन्म सन् 1955 रक्षाबंधन के दिन हुआ, उस दिन आपके पिता श्री मल्लप्पा जी ने 21 तोला सुवर्ण खरीदा, अतः आप स्वर्णा नाम से संबोधित की गई। आपने अपनी मातुः श्री के साथ ही माघ शुक्ला 5 संवत् 2032 में आर्यिका दीक्षा ग्रहण की। आप सतत अध्ययन मनन चिंतन में लीन रहती हैं, आपकी मुखमुद्रा प्रतिसमय प्रसन्न रहती है। 197 जैन श्रमणियों का बृहद इतिहास 4.9.45 आर्यिका सुरत्नमती जी ( संवत् 2033 ) आप श्री बैनीप्रसाद जी गुनौर ग्राम (म. प्र. ) निवासी की इकलोती बेटी थीं, संवत् 2013 को गुनौर में आपका जन्म हुआ। 18 वर्ष की अल्पायु में ही अपने ज्येष्ठ भ्राता की मुनिचर्या से प्रभावित होकर आजीवन ब्रह्मचर्यव्रत अंगीकार कर लिया। सन् 1976 को बसंतपंचमी के दिन मुजफ्रनगर (उ. प्र.) में आचार्य धर्मसागर जी महाराज के कर-कमलों से आपने आर्यिका दीक्षा अंगीकार की। आप विदुषी धर्मप्रचार में अग्रणी साध्वी हैं। 198 4.9.46 आर्यिका धन्यमती जी आप डेह (नागौर) निवासी थीं, विवाह के पश्चात् एक पुत्री पैदा हुई, उसके बाद आप विधवा हो गईं। आचार्य वीरसागरजी से आत्मकल्याणार्थ सातवीं प्रतिमा अंगीकार की, 30 वर्ष तक संघ में रहकर साधुओं की सेवा का लाभ लिया। अंत में उदयपुर (राजस्थान) में आचार्य धर्मसागरजी से आर्यिका दीक्षा ली। केशरियाजी तीर्थ पर आपने संल्लेखना एवं समाधिमरण से देह का उत्सर्ग किया, इस अवसर पर 40 साधु उपस्थित थे। आपकी सरलता, दान, सेवा परोपकारिता एवं मिलनसारिता से सभी प्रभावित थे। 199 196. दि. जै. सा., पृ. 255 197. दि. जै. सा., पृ. 356 198. दि. जै. सा., पृ. 258 199. दि. जै. सा., पृ. 259 244 Page #307 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दिगम्बर परम्परा की श्रमणियाँ 4.9.47 आर्यिका चन्द्रमतीजी (संवत् 2034) विदुषी आर्यिका रत्न श्री चन्द्रमती माताजी अहर्निश पठन-पाठन, ज्ञान, ध्यान, तप, त्याग, संयम में लवलीन रहने वाली आदर्श श्रमणी हैं। आपके पिताजी नावां (कुचामन रोड) के निवासी सेठ सीतारामजी गोधा थे, संवत् 2005 को दीपावली के दिन आपका जन्म हुआ, नाम 'रोशनबाई' प्रसिद्ध हुआ। आप प्रखर प्रतिभा संपन्न हैं। अल्पायु में विवाह, वैधव्य का सुख-दुःखमय संसार देख लेने पर विशुद्धमती जी विनयमती जी, सन्मति जी माताजी के संसर्ग का आत्मा पर प्रभाव पड़ा, क्रमशः पंचम, सप्तम प्रतिमा करके कार्तिक कृ. प्रतिपदा के दिन नागौर में आचार्य श्री सन्मतिसागरजी के श्रीमुख से आर्यिका दीक्षा अंगीकार की, दीक्षा के अवसर पर आपने एक घंटा उद्बोधन दिया, उसे श्रवणकर उपस्थित लोग धन्य-धन्य पुकारने लगे। वर्तमान में भी आपकी मधुर प्रवचनशैली को सुनने के लिये लोग लालायित रहते हैं, आप अपने उपदेशामृत द्वारा लोगों में त्याग, नियम, निवृत्ति की भावनाएं भरती हैं। आपका कोमल एवं निष्कषायी शांत हृदय सबके लिये प्रेरणास्रोत बना है। इस प्रकार आप अर्हनिश स्वपर कल्याण में तल्लीन रहती हैं।200 4.9.48 आर्यिका भरतमतीजी (संवत् 2036) आप हमाई जिला डूंगरपुर निवासी जीतमल जी सिंघवी की कन्या हैं, कार्तिक शुक्ला पूर्णमासी संवत् 1984 पें आपका जन्म हुआ। विवाह रामगढ़ के श्री गणेशलालजी से हुआ, 5 वर्ष बाद पति वियोग ने आपके जीवन क्रम को बदला। श्री दयासागरजी से संवत् 2034 में क्षुल्लिका दीक्षा ली, उसमें आपने 32 उपवास किये, पश्चात् सोनगिर में संवत् 2036 श्रावण शुक्ला 12 के दिन आप आर्यिका बनीं, आप स्वाध्याय, ध्यान, तप व धर्म प्रभावना में सतत जागरूक हैं।201 4.9.49 आर्यिका सुव्रतामतीजी आपने संवत् 1950 में हब्बड़ी तालुका धारवाड़ में श्री रायप्पाजी के यहां पर जन्म लिया। आपका जन्म नाम था अम्माचवा और मातृभाषा थी कन्नड़। 10 वर्ष की उम्र में आपकी शादी श्री रागप्पा जी के साथ हुई, बचपन से ही धार्मिक भावना आप दोनों के हृदय में कूट-2 कर भरी हुई थी, अत: दोनों ने छठी प्रतिमा मुनि श्री पायसागरजी से ली, वैराग्य तीव्र हुआ तो पति ने क्षुल्लक दीक्षा और आपने आर्यिका दीक्षा श्री देशभूषण जी म. से ली। आपके चातुर्मास संयम तप व धर्म की वृद्धि करने वाले हुए।202 4.9.50 आर्यिका शान्तिमतीजी आपने बाराबांकी निवासी श्री कुन्थुदासजी के यहां संवत् 1983 में जन्म लिया, अल्पवय में ही आपने अष्टसहस्री, सर्वार्थसिद्धि, गोम्मटसार, न्यायदीपिका जैसे उच्च सैद्धान्तिक ग्रंथ कंठस्थ कर लिये थे, आप प्रवचन कला में भी दक्ष थीं, अपने 32 चातुर्मासों में आपने जैन समाज को ज्ञान, दर्शन, चारित्र में काफी आगे बढ़ाया तीर्थराज 200. दि. जै. सा., पृ. 290 201. दि. जै. सा., पृ. 283 202. दि. जै. सा., पृ. 329 245 Page #308 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन श्रमणियों का बृहद इतिहास सम्मेदशिखर पर आपकी दीक्षा हुई, अंतिम समय कैंसर रोग से पीड़ित रहने पर भी स्वाध्याय, नित्य नियम नहीं छोड़ा 1203 4.9.51 आर्यिका अनन्तमतीजी (सं. 2011 ) तपस्विनी आर्यिका श्री अनन्तमती माताजी का जन्म 13 मई 1935 को गढ़ी (उ. प्र. ) ग्राम में हुआ, आपके पिता लाला मिट्ठनलाल जी व माता पार्वतीदेवी थी। आपने 8 वर्ष की उम्र में ही त्याग की दिशा पकड़ ली 13 वर्ष की उम्र में तो रात्रि को पानी पीने का भी आजीवन त्याग कर दिया, आजीवन ब्रह्मचर्य व्रत धारण कर लिया, क्षुल्लिका और आर्यिका न होने पर भी आपकी साधना उनसे किसी प्रकार कम नहीं थी, आप घंटों सामायिक करतीं, लोग देवी मानकर दर्शन हेतु उमड़े चले आने लगे, आशीर्वाद पाकर फूले न समाते, आप विचार करतीं - बिना दीक्षा लिये जब यह हाल है तो दीक्षा लेने पर क्या होगा? 19 वर्ष की आयु में आचार्य देशभूषण जी से कांधला में आर्यिका दीक्षा ग्रहण कर आप इलायची से 'आर्यिका अनन्तमती' बन गईं। आपकी केशलुंचन की क्रिया को देखकर लोग विरक्ति की भावना का अनुभव करते थे। आपके आहार संबंधी कठोर नियम और उनमें भी अनेकों बार अन्तराय आ जाता, कभी-कभी 10-15 दिन तक भी आहार नहीं हुआ, तब भी आपके मुख की सौम्यता और सुषमा नहीं गई। आप एक ऐसी आर्यिका हैं जो वर्ष में 3-4 मास ही आहार लेती हैं। रोग की पीड़ा, अन्तराय का क्षोभ और कठोर क्लान्ति का आभास भी आपके मुख पर प्रकट नहीं होता, प्रायः मौन रहकर स्वाध्याय एवं साधना में लीन रहती हैं। कंकाल मात्र शरीर में कितनी सशक्त कितनी तेजस्वी आत्मा निवास करती है, इसका आदर्श उदाहरण ये श्रमणीजी हैं। 204 4.9.52 आर्यिका स्याद्वादमतीजी (संवत् 2036 के बाद ) आपका जन्म 14 मई सन् 1953 को इन्दौर के सुप्रतिष्ठित परिवार में श्रीमान धन्नालाल जी पाटनी के यहां हुआ। आपने बी. ए. तक अध्ययन किया, 16 वर्ष की उम्र में ब्रह्मचर्यव्रत अंगीकार कर एक आदर्श स्थापित किया, श्रावण शुक्ला 12 संवत् 2036 में सोनागिरी जी पर आचार्य विमलसागर जी से आपने क्षुल्लिका दीक्षा ग्रहण की, तदनन्तर गोम्मटेश्वर महामस्तकाभिषेक में आर्यिका दीक्षा लेकर स्याद्वादमती नाम को सार्थक किया। आप अध्ययन, मनन, चिंतन के साथ स्व- पर कल्याण करती हुई श्रेष्ठ साध्वी जीवन व्यतीत कर रही हैं 1205 4.9.53 आर्यिका नंगमतीजी ( संवत् 2036 ) आप इन्दौर के माणिकचंद जी कासलीवाल की कुलदीपिका हैं। आपने 18 वर्ष की उम्र में आजीवन ब्रह्मचर्यव्रत धारण कर लिया। सप्तम प्रतिमा की आराधना के पश्चात् श्रावण शुक्ला पूर्णमासी संवत् 2036 में सोनागिरी पर श्री विमलसागर जी महाराज से आर्यिका दीक्षा ग्रहण की। आप अध्ययनशीला, सरल स्वभावी एवं मृदुभाषी साध्वी हैं। 206 203. दि. जै. सा., पृ. 330 204. दि. जै. सा., पृ. 332 205. दि. जै. सा., पृ. 400 206. दि. जै. सा., पृ. 400 246 Page #309 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दिगम्बर परम्परा की श्रमणियाँ 4.9.54 आर्यिका सुवैभवमतीजी (संवत् 2038 ) आप गुजरात के पंचमहल दाहोद ग्राम के श्री पन्नालाल जी गांधी की सुपुत्री है। आपने 12वीं कक्षा तक अध्ययन किया। मूल गुजराती होती हुई भी हिन्दी, कन्नड़, संस्कृत की अच्छी ज्ञाता हैं। मुनि दयासागर जी से त्रिमूर्ति पोदनपुर में 1 जनवरी 1982 को आर्यिका के रूप में दीक्षित हुई। आप सरल, शांतिप्रिय व अध्ययनशीला श्रमणी हैं। 207 4.9.55 आर्यिका सुप्रकाशमतीजी ( संवत् 2038 ) आपका जन्म कुण्डा (उदयपुर) में हुआ, आपने 11वीं तक लौकिक शिक्षा प्राप्त की, 15 वर्ष की उम्र में ही आजीवन ब्रह्मचर्य व्रत ग्रहण कर नवयुवतियों के समक्ष आदर्श प्रस्तुत किया । बम्बई पोदनपुर त्रिमूर्ति में आपने मुनि दयासागर जी से 17 जनवरी 1982 में आर्यिका दीक्षा धारण की। आप सरल व तपस्विनी साध्वी हैं। 208 4.9.56 आर्यिका बाहुबली माताजी ( संवत् 2039 ) आपका जन्म कर्नाटक प्रान्त के रामनेवाड़ी ग्राम में सन् 1960 में हुआ, आपके पिता श्री अन्नासाहेब व माता सोनाबाई धर्मनिष्ठ सज्जन प्रवृत्ति के व्यक्ति थे । आपने 22 वर्ष की उम्र में संवत् 2039 में गणेशबाड़ी स्थान पर आचार्य सुबलसागर जी महाराज से आर्यिका दीक्षा अंगीकार की। आपकी ज्येष्ठा भगिनी श्री भरतमती जी माताजी हैं। आप बहुभाषाविद् एवं आगमज्ञा हैं। ज्योतिष, वास्तु, ध्यान, मुद्रा आदि में भी आपकी रूचि है। आपने जहां भी वर्षावास किये वहां ध्यान शिविर, मुद्रा शिविर एवं ज्ञान शिविर के आयोजन कर लोगों में धर्म की अभिरूचि जागृत की है। आपकी मौलिक कृतियाँ हैं- सम्यक्त्व - सुमन, जीवन जीने की कला ध्यान, मंत्र जाप आदि। आप मृदु, मधुरभाषिणी एवं सफल प्रवचनकर्त्री हैं। 209 4.9.57 आर्यिका अजितमतीजी ( संवत् 2048 ) आपका जन्म सन् 1900 के लगभग कोल्हापुर (महाराष्ट्र) के निकट वलिवड गांव में नाना साहेब चौगुले व कृष्णाबाई के यहां हुआ। जन्म नाम मरूदेवी था, उस समय की रूढ़ि परम्परा से मात्र 1 वर्ष की अवस्था में विवाह और 12 वर्ष की आयु में वैधव्य दशा आ गई। कंदमूल, रात्रि भोजन त्याग आदि के साथ दीक्षा लेने की प्रबलेच्छा जागृत हुई, किंतु दिगम्बर साधु साध्वियों के अभाव से वह इच्छापूर्ण नहीं हुई। पश्चात् 25 - 26 वर्ष की वय में शांतिसागर जी महाराज से शिखर जी पर क्षुल्लिका दीक्षा ग्रहण की, वह दिन था फाल्गुन शुक्ला नवमी संवत् 1985 आप 63 वर्ष पर्यंत ज्ञान व चारित्र की आराधना करती रहीं। 7 जनवरी 1991 को आचार्य बाहुबलिजी महाराज से आर्यिका दीक्षा ग्रहण की, अनेक ग्रंथों का गहन अध्ययन, दीर्घ एवं कठोर तपाराधना कर अंत में संलेखना सहित समाधिमरण को प्राप्त हुईं। आप अपने जीवन में दशलक्षण व्रत 10 वर्ष, षोडशकारण व्रत 16 वर्ष, श्रुत स्कंधव्रत 12 207. दि. जै. सा., पृ. 282 208. दि. जै. सा., पृ. 281 209. प्रत्यक्षीकरण से प्राप्त परिचय के आधार पर 247 Page #310 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन श्रमणियों का बृहद इतिहास वर्ष, पुष्पांजलि 5 वर्ष, अष्टाझिक 8 वर्ष, लब्धिव्रत 5 वर्ष, कर्मदहन 153 उपवास, पंचमेरू, तीन चौबीसी व विद्यमान बीस तीर्थकर के 780 उपवास, चारित्र शुद्धि के 1234 उपवास, जिनगुणसंपत्ति के 63 उपवास, पंच परमेष्ठी के 143 उपवास, रत्नत्रय, मुक्तावली, कनकावली, सर्वदोष प्रायश्चित् आदि अनेक दीर्घ एवं कठोर तपाराधाना की, साथ ही अनेक ग्रंथों का पारायण किया।210 4.9.58 श्री विमलमती माताजी (संवत् 2048) आपका जन्म 9 जुलाई 1951 को आरा (बिहार) निवासी श्रीमान् चन्द्ररेख कुमार जी अग्रवाल के यहां हुआ। आपने 'जैन बालाश्रम आरा' में रहकर संस्कृत में बी.ए. ओनर्स (बी. ए., बी. एड) तक किया, धार्मिक प्रशिक्षण से वैराग्य ज्योति प्रज्वलित हुई तो आजीवन शूद्रजल का त्याग एवं ब्रह्मचर्य व्रत अंगीकार कर लिया, आर्यिका दीक्षा के पूर्व दूसरी प्रतिमा, सप्तमप्रतिमा एवं क्षुल्लिका दीक्षा के मार्ग पर आगे बढ़ती हुई आपने 28 मई 1991 को मांगीतुंगी सिद्धक्षेत्र पर गणिनी विजयमती माताजी से आर्यिका दीक्षा अंगीकार की। . आपने नमस्कारमंत्र, भक्तामर, चारित्र शुद्धि, जिनगुण सम्पत्ति, कर्मदहन आदि की तपस्याएँ की हैं। साथ ही अनेक ग्रंथों का प्रणयन भी किया है-पर्युषण पर्व, तीर्थंकर बनने का मंत्र, आराधना सार (हिंदी टीका), विजय स्तोत्र एवं गणिनी विजयमती माताजी के अभिवंदन ग्रंथ का संपादन आदि महत्त्वपूर्ण ग्रंथों की रचना व संपादन कार्य किया है। आप 'सम्यग्ज्ञान चन्द्रिका' की उपाधि से विभूषित हैं।। 4.9.59 आर्यिका श्री नमनश्री माताजी (संवत् 2049) ___ आपका जन्म आसाढ़ शुक्ला 9 संवत् 2031 में श्री ख्यालीलाल जी गंगावत अहमदाबाद निवासी के यहां हुआ। घर पर रहते हुए आपने छह ढाला (चार भाग), द्रव्य संग्रह, रत्नकंड श्रावकाचार तत्त्वार्थसूत्र, सर्वार्थसिद्धि, कर्मकाण्ड आदि का अध्ययन किया वैराग्य भाव प्रस्फुटित होने पर आचार्य विमलसागर जी से आजीवन ब्रह्मचर्यव्रत अंगीकार किया, और महावीर जयंति संवत् 2049 को श्री बालाचार्य नेमिसागर जी म. से फिरोजाबाद (उ. प्र.) में आर्यिका दीक्षा ग्रहण की। आप गणिनी विजयमती माताजी के संघ की विदुषी आर्यिका हैं, जिनेन्द्र भक्ति, गुरूभक्ति, स्वाध्याय में सदा लीन रहती हैं।12 4.9.60 आर्यिका श्री विजयप्रभा माताजी (संवत् 2050) आप जबलपुर (म. प्र.) के श्री मदनलाल जी नायक (परवार) की सुपुत्री हैं। आपने बी. ए. तक लौकिक शिक्षा प्राप्त कर 4 अक्टूबर विजयादशमी ई. 1984 में क्षुल्लिका दीक्षा अंगीकार की, तत्पश्चात् 31 वर्ष की वय में संवत् 2050 को डुंगरपुर में गणिनी विजयमतीजी के पास आर्यिका दीक्षा अंगीकार की। आपने ज्ञान एवं तप से अपने संयमी जीवन को निखारा है। णमोकारमंत्र, भक्तामर, दशलक्षण, पंचमेरू, तत्त्वार्थसूत्र, जिनगुण संपत्ति के तप एवं उद्यापन भी किया है। वर्तमान में चारित्रशुद्धिव्रत कर रही हैं।213 210. पत्राचार से प्राप्त सामग्री के आधार पर 212. पत्राचार से प्राप्त 211. पत्राचार से प्राप्त 213. पत्राचार से प्राप्त 248 Page #311 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दिगम्बर परम्परा की श्रमणियाँ 4.9.61 आर्यिका विनयप्रभा माताजी (संवत् 2050) आप साबरकांठा (गुजरात) जिले के ईडर ग्राम निवासी श्री दिलीपकुमार जी दोशी (हुमड़ जाति, मंत्रेश्वर गोत्र) की कन्या हैं, माघ कृ. 6 संवत् 2030 के शुभ दिन आपका जन्म हुआ। हायर सैकेन्डरी के साथ दिगम्बर जैन पाठशाला ईडर से प्रथम से चतुर्थ भाग व छह ढाला की परीक्षाएं पास की। वैराग्योत्पत्ति होने पर शूद्रजल का त्याग एवं आजीवन ब्रह्मचर्य व्रत अंगीकार कर लिया। पश्चात् द्वितीय प्रतिमा व सप्तम प्रतिमा व्रत क्रमशः ग्रहण कर माघ शुक्ला 3 संवत् 2050 को डुंगरपुर में गणिनी विजयमती माताजी से आर्यिका दीक्षा अंगीकार की। ध्यान, अध्ययन, चिंतन-मनन, मौन, लेखन तथा आगमोक्त प्रमाण एकत्रित करने में आप रूचि रखती हैं। आपने भक्तामर के 48 उपवास किये, वर्तमान में जिनगुणसंपत्ति तप कर रही हैं। 4.9.62 आर्यिका स्वस्तिभूषण माताजी (संवत् 2053 से वर्तमान) ___ आपका जन्म मध्यप्रदेश के छिन्दवाड़ा नगर में परवार दिगम्बर जैन सम्प्रदाय के नीणाक श्री मोतीलाल जी जैन और श्रीमती पुष्पा जैन के यहां हुआ। संवत् 2053 को सिवनी में आचार्य सन्मतिभूषण जी से इटावा में आर्यिका दीक्षा अंगीकार की। आप अपने अध्ययन और साधना के माध्यम से वर्तमान में एक विचारक व लेखिका के रूप में प्रसिद्ध हैं। मृत्यु को जानो, आंखों के रूप, किससे क्या मिलता है, आदि उत्कृष्ट कोटि की काव्य-रचनाएं आपने की हैं। युवक-युवतियों में धर्म संस्कार जागृत करने के लिये आप शिविरों की समायोजना भी सफलता पूर्वक करती हैं। मुरादाबाद में आप की प्रेरणा से सृष्टि-स्वस्ति महिला मंडल, बालिका मंडल, युवा मंडल और नवयुवक मंडल का गठन हुआ।214 4.9.63 आर्यिका श्री प्रभावतीजी (संवत् 2054) आपने 'जटवाटा' औरंगाबाद जिले में आचार्य श्री देवनंदी जी महाराज से 90 वर्ष की वय में आर्यिका दीक्षा अंगीकार की, यह आपकी विशिष्ट ऐतिहासिक जीवन घटना है। आपने 2 अक्टूबर 1997 को दीक्षा ग्रहण की और मात्र 12 दिन संयम-पर्याय का अनुभव कर 14 अक्टूबर 1997 को स्वर्गवासिनी हुईं।15 4.9.64 क्षुल्लिका गुणमती माताजी आपका जन्म संवत् 1956 में लाला हुकमचंद जी के घर हुआ, विवाह के 36दिन के पश्चात् ही आपका सौभाग्य छिन गया, अत: आपका लक्ष्य व्रत, नियम, संयम का बन गया, जैनधर्म व्याकरण आदि में आप निष्णात बन गई, ज्ञानाराधना का स्वाद अन्य भी उठायें, इस शुभ भावना से गुहाना में श्री ज्ञानवती जैन वनिताश्रम' की स्थापना की। (आपका संसार में यही नाम था) नारी जाति के उद्धार के लिये इस संस्था ने कल्पवृक्ष का कार्य किया। आंतरिक संयम की प्रबल भावना के फलस्वरूप आचार्य शांतिसागर जी म. से क्षुल्लिका दीक्षा अंगीकार की। दीक्षा के पश्चात् भी दरियागंज दिल्ली में कन्याओं में धार्मिक शिक्षा के लिये 'श्री ज्ञानवती कन्या पाठशाला' स्थापित करायी। आप स्त्री शिक्षा का प्रचार हो एवं चरित्र की वृद्धि हो इस हेतु अर्हनिश प्रयत्नशील रहीं।216 214. विनीत कुमार जैन (संयोजक), सृष्टि-स्वस्ति वाणी, चातुर्मास स्मारिका, नवंबर 2001, दिगम्बर जैन समाज, मुरादाबाद 215. समग्र जैन चातुर्मास सूची, विशेषांक सन् 1998 216. दि. जै. सा., पृ. 99 | 2491 Page #312 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन श्रमणियों का बृहद इतिहास 4.9.65 क्षुल्लिका अजितमती माताजी (संवत् 1985) आपका जन्म सन् 1904 में 'ओलीवेढे' (जि. कोल्हापुर) में नानासाहब के यहां हुआ, ढाई वर्ष की उम्र में विवाह और 12 वर्ष की उम्र में पति से वियोग हुआ, तब सन् 1928 में आचार्य शांतिसागर जी म. से सम्मेदशिखर में क्षुल्लिका दीक्षा धारण की, तभी से आपने अपने जीवन को तप त्याग में लगाया हुआ है। आपने सोलह कारण के तीन बार 32-32 उपवास, दो बार सिंहनिष्क्रीड़ित तथा चारित्रशुद्धि के 1234 उपवास किये। आप रात-दिन पठन-पाठन में संलग्न रहती हैं, आप द्वारा रचित पुस्तकें इस प्रकार है- आचार्य वीरसागर जी महाराज का पूजन, शांतिनाथ स्तोत्र, जीवन्धर की वैराग्य वीणा, चिंतामणि पार्श्वनाथ पूजा, सशिक्षा, पराक्रमी वरांग, लघुसमाधि साधन, पंचाध्यायी आदि। अनुवादित साहित्य-सन्मति सूत्र, धर्म रत्नाकर, ध्यान कोष, आराधना समुच्चय, कम्मपयडि चूर्णि, पाँच द्वात्रिंशिकाएँ, द्रव्यसंग्रह , भक्तामर, अभ्रदेव का श्रावकाचार, श्री योगदेव की तत्त्वार्थवृत्ति, भगवती आराधना। इस प्रकार आप एक अच्छी कवि, लेखिका, ज्ञानी, ध्यानी, तपस्विनी साधिका हैं। आप वयोवृद्ध तपोवृद्ध एवं विविध गुण सम्पन्न हैं।217 4.9.66 क्षुल्लिका कमलश्रीजी (संवत् 2011) आपका जन्म सन् 1915 अक्षय तृतीया के दिन 'वसंगडे' जिला कोल्हापुर (महाराष्ट्र) में श्रेष्ठी श्री तोताबासौदे के यहां हुआ आपने रोहतक में आचार्य देशभूषण जी से माघ शुक्ला 5 संवत् 2011 को दीक्षा अंगीकार की। आप शान्त स्वभावी, गुरू-भक्ति से परिपूर्ण एवं धर्म प्रभाविका हैं।218 4.9.67 क्षुल्लिका चन्द्रसेनाजी (संवत् 2012) आपने संवत् 1952 में उत्तरप्रदेश की राजधानी लखनऊ में श्री अनन्तमल जी अग्रवाल के यहां जन्म लिया था, आपने प्रथम छठी प्रतिमा धारण कर फिर पति की अनुमति से आचार्य देशभूषण जी म. से जयपुर में संवत् 2012 में क्षुल्लिका दीक्षा ली। आपने अनेक क्षेत्रों में पाद-विहार किया और धर्मोपदेश देकर श्रावक-श्राविकाओं को सन्मार्ग में लगाया, अंत में समाधिपूर्वक स्वर्गवासिनी हुईं।219 4.9.68 क्षुल्लिका चन्द्रमती माताजी (संवत् 2012 के लगभग) आपका जन्म सन् 44 को बैजापुर (महाराष्ट्र) में हुआ। पिता छगनलाल और माता सोनूबाई की आप 'खीरनमाला' नाम की कन्या थीं, लौकिक शिक्षण में बी. ए. आनर्स तथा एच.एम.डी.एस. वैद्यकीय उपाधि प्राप्त की। आपका विवाह डॉ. चन्द्रकान्त दोशी (वर्तमान में मुनि श्री वीरसागर जी म.) के साथ हुआ। दीक्षा के पश्चात् आपने 217. दि. जै. सा., पृ. 101 218. दि. जै. सा., पृ. 337 219. दि. जै. सा., पृ. 101 250 Page #313 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दिगम्बर परम्परा की श्रमणियाँ तत्वार्थ सूत्र, सर्वार्थसिद्धि समयसार, द्रव्यसंग्रह, प्रवचनसार आदि गूढ़ ग्रंथों का सूक्ष्मरीति से अध्ययन किया, आपकी प्रवचन शैली सहज हृदय गम्य है, अनेक भव्य जीव आपके सदुपदेश से स्वाध्यायप्रेमी व व्रत सम्पन्न बने हैं।220 4.9.69 क्षुल्लिका आदिमतीजी ( संवत् 2015 ) आप राजमन्नारगुडी (मद्रास) के श्री वर्धमानजी की कन्या है आपके पति अपाड़मुदलिया वैदारवीया (तमिलनाडु) निवासी थे, उनके स्वर्गवास के बाद आप गृहभार से मुक्त हो गईं, भाइयों की अनुमति लेकर आचार्य महावीरकीर्ति जी से नागौर में सन् 1958 में दीक्षा ली अनेक स्थानों पर वर्षावास करती हुई आप जन-जन के हृदय में धर्म का दीप प्रज्वलित कर रही हैं। 221 4.9.70 क्षुल्लिका चन्द्रमतीजी अलवर (राजस्थान) के श्री सरदारसिंह जी आपके पिता थे, 8 वर्ष की उम्र में आपका विवाह हुआ, हाथ की मेंहदी भी नहीं उतर पाई थी कि वैधव्यता का सिक्का लग गया। आचार्य शांतिसागर जी महाराज के प्रभाव से आपने अपने जीवन को पवित्र बनाना प्रारंभ किया, श्राविकाओं को धर्मोपदेश, शिक्षा देकर आपने उन्हें धर्म श्रद्धावान बनाया, वैराग्य तीव्र होने पर सोनगिर में आचार्य महावीरकीर्ति जी से क्षुल्लिका दीक्षा अंगीकार कर ली। आपने अपने जीवन में स्त्रियों को शिक्षित करने के प्रेरक कार्य किये। साथ ही आपकी सत्प्रेरणा से श्री वासुपूज्य भगवान के गर्भ, जन्म, तप, ज्ञान और निर्वाण स्थान पर 70 फुट ऊँचा मानस्तम्भ, 24 टोंक, भगवान वासुपूज्य की 25 फुट ऊँची प्रतिमा, स्वाध्याय भवन आदि लोकमंगलकारी कार्य हो रहे हैं। 222 4.9.71 क्षुल्लिका श्री जिनमतीजी (संवत् 2022 ) मृगशिर कृष्णा 5 संवत् 1979 को सिनोदिया ( जयपुर ) ग्राम में जन्मी छिगनीबाई 13 वर्ष की उम्र में श्री मांगीलाल जी पाटनी कांकरा निवासी के यहां ब्याही गई, शादी के नौ वर्ष पश्चात् पति का देहान्त हो गया, संसार का कर्त्तव्य दोनों पुत्रियों का विवाह करने के पश्चात् आपने साधना का मार्ग स्वीकार किया। क्रमशः पांचवी और सातवीं प्रतिमा ग्रहण करते हुए आपने दिल्ली में आ. देशभूषण जी म. से मृगशिर शु. 2 संवत् 2022 में क्षुल्लिका दीक्षा अंगीकार कर ली, बड़े कठोर संघर्ष करने पड़े आपको दीक्षा के लिये, किन्तु अन्ततः आप विजयी हुईं। दीक्षा के पश्चात् आप भारत के कोने-कोने में पैदल भ्रमण कर धर्म प्रचार कर रही हैं, आप जहां भी गयीं, वहीं विभिन्न धार्मिक अनुष्ठान जाप, मंडल विधान आदि के आयोजन करवाये, जयपुर में साधुओं के लिये शुद्ध निर्दोष औषधि का निर्माण कार्य आपके प्रयासों से चलता है आपके उपदेशों का अन्य धर्मावलम्बियों पर काफी अच्छा प्रभाव पड़ता है, कई क्षत्रियों ने रात्रिभोजन, मांस, मदिरा का त्याग एवं आजन्म ब्रह्मचर्य व्रत पालन का नियम किया है, आपके प्रवचन में छोटे-छोटे बच्चे भी सैंकडों की संख्या में पहुंचते हैं, एवं व्रत नियम अंगीकार करते हैं । 223 220. दि. जै. सा., पृ. 458 221. दि. जै. सा., पृ. 364 222. दि. जै. सा., पृ. 365 223. दि. जै. सा., पृ. 334 251 Page #314 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन श्रमणियों का बृहद इतिहास 4.9.72 क्षुल्लिका अजितमतीजी (संवत् 2024) आपका जन्म जबलपुर में श्री बशोरेलाल जी गोलापूर्व के यहां तथा विवाह राजाराम जी से हुआ। आपको तीन पुत्र व सात पुत्रियाँ हुई, सब प्रकार से सुखी व सम्पन्न होने पर भी आपके हृदय में आचार्य आदिसागर जी महाराज के सदुपदेश से विरक्ति के भाव जागृत हुए और चैत्र कृ. 5 को संवत् 2024 में श्रवणबेलगोला में आचार्य देशभूषण जी से दीक्षा अंगीकार कर ली। दीक्षा के पश्चात् कोथली, फुलेरा आदि स्थानों पर चातुर्मास कर जनता को धर्म के सन्मुख किया। आप तपस्विनी साध्वीजी हैं. सोलहकारण. कर्मदहन, अष्टान्हिका, पंचकल्याण व दशलक्षणव्रत किये हैं।224 4.9.73 क्षुल्लिका जिनमतीजी (संवत् 2024) संवत् 1973 में सागवाड़ा (राजस्थान) निवासी श्री चन्दुलाल जी नरसिंहपुरा के यहां आपका जन्म हुआ, विवाह के छह मास बाद ही वैधव्य ने आपकी दिशा बदल दी, संवत् 2024 फाल्गुन शु. 12 को पारसोला में आप क्षुल्लिका के रूप में दीक्षित हुईं। आपने अपने तपस्वी जीवन एवं शान्त स्वभाव से कइयों में धर्म की श्रद्धा जागृत की।225 4.9.74 क्षुल्लिका श्रीमतिजी (संवत् 2029) ___ आप पिता श्री नेमीचन्द जी सकड़ी (कोल्हापुर) निवासी की पुत्री व शिरहदी (बेलगांव) निवासी पारिसा आदिनाथ उपाध्याय की धर्मपत्नी हैं, दुर्भाग्य से 10 वर्ष बाद पति का स्वर्गवास हो गया आचार्य विमलसागर जी के सदुपदेश से आप धर्ममार्ग पर अग्रसर हुईं, चैत्र शु. 4 सं. 2029 को राजगृही में क्षुल्लिका दीक्षा ग्रहण की। आप अति शान्त, भद्र परिणामी, अध्ययनशीला एवं जिज्ञासुवृत्ति की हैं।26 4.9.75 क्षुल्लिका विशालमतीजी आपका जन्म ग्राम 'चोंकाक' (कोल्हापुर) है, पाँच वर्ष की उम्र में आपके ऊपर विधवापन की छाप लग गई, आपने आत्मकल्याण को सुअवसर जानकर 'ब्रह्मचर्य' व्रत अंगीकार किया, ट्रेनिंग पूर्ण कर अध्यापिका बनी, समाज को सही मार्गदर्शन देने हेतु आपने 'महिला वैभव' नाम की मासिक पत्रिका का संपादकीय पद स्वीकार किया, एक 'कन्याकुमार पाठशाला' की भी स्थापना की। बोरगांव में आचार्य पायसागर जी से क्षुल्लिका दीक्षा लेकर आप धर्मोद्योत कर रही हैं, आप कष्टसहिष्णु, सहनशील और कुशल वक्ता हैं।227 4.9.76 क्षुल्लिका राजमतीजी आप बूचाखेड़ी (कांधला) के शीलचंदजी की अनासक्त भावप्रवण कन्या है। आचार्य देशभूषण जी से कोल्हापुर में वैशाख शु. 12 को क्षुल्लिका दीक्षा अंगीकार करने के पश्चात् आपने पूरे भारत में पैदल भ्रमण किया, एवं स्थान-स्थान पर धार्मिक कार्य किये जयपुर के निकट चूलगिरी क्षेत्र का विकास आपके अथक प्रयत्नों का फल 224. दि. जै. सा., पृ. 336 225. दि. जै. सा., पृ. 364 226. दि. जै, सा., पृ. 406 227. दि. जै. सा., पृ. 581 252 Page #315 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दिगम्बर परम्परा की श्रमणियाँ है, जो जयपुर की शोभा है, एवं तीर्थक्षेत्र बन गया है। धर्म जागृति के कार्यों में आपका विशिष्ट अवदान रहा है। आप अभी भी इसी तीर्थक्षेत्र के विकास में संलग्न हैं। आप विदुषी एवं तपोमूर्ति भी हैं, अभी तक 1500 उपवास कर चुकी हैं।228 उपसंहार ___ इस प्रकार विभिन्न भाषाओं में रचित जैन साहित्य, ग्रंथ-प्रशस्तियों तथा विभिन्न स्थानों से प्राप्त जैन शिलालेखों के अध्ययन से दिगंबर परंपरा की प्राचीन श्रमणियों के विषय में यह स्पष्ट जानकारी प्राप्त होती है कि इन्होंने अपने तप-संयम से श्रमण संस्कृति को तो गौरवान्वित किया ही, साथ ही अपने सान्निध्य में आने वाले अनेक उपासक-उपासिकाओं को प्रेरणा देकर धर्मतीर्थ के अन्नयन का महत्त्वपूर्ण कार्य भी किया है। तमिल और कर्नाटक प्रान्तीय आर्यिकाएँ अपने सुविशाल संघ की नियन्ता सर्वतंत्र समर्थ आचार्य व उपाध्याय पद पर भी प्रतिष्ठित रही है तथा 'महाव्रत पवित्रांगा' जैसे सम्माननीय विरूद से संबोधित हुई हैं। वर्तमान में भी आर्यिकाओं और क्षुल्लिकाओं का योगदान किसी भी क्षेत्र में कम नहीं है। कितनी ही आर्यिकाएं गणिनी पद को प्राप्त हैं, कई महाविदुषी हैं, तत्त्वज्ञा हैं कठोरतम नियमों का अनुपालन करने वाली विदुषी श्री वीरमतीजी, श्री इन्दुमतीजी, श्री धर्ममतीजी, श्री रत्नमतीजी आदि समाज के लिए आदर्श बनी हैं। श्री विशुद्धमतीजी, श्री सुपार्श्वमतीजी जैसी कितनी ही आर्यिकाएं जैनधर्म और दर्शन की प्रौढ़ प्रवक्ता हैं। गणिनी ज्ञानमतीजी गणिनी विजयमतीजी आदि के उच्चस्तरीय ग्रंथ विद्वानों की अनुशंसा के विषय तो बने ही हैं साथ ही उन पर शोध कार्य भी हुआ है। अवशिष्ट दिगम्बर आर्यिकाएँ तथा क्षुल्लिकाएँ १ ___ यहाँ उन दिगम्बर आर्यिकाओं एवं क्षुल्लिकाओं के नाम दिये जा रहे हैं, जिनका विशेष परिचय उपलब्ध नहीं हो सका। दिगम्बर जैन साधु-साध्वी वर्षायोग 2001 की सूची से उनका, और उनके दीक्षा गुरू का नाम ही प्राप्त हुआ है अतः उतना ही उल्लेख करके संतोष करना पड़ रहा है। 1. आचार्य श्री श्रेयांससागरजी से दीक्षित :- श्री अभेदमती जी, श्री प्रवीणमती जी, श्री प्रसन्नमती जी, श्री प्रयोगमती जी, श्री प्रवेशमती जी, श्री प्रत्यक्षमती जी, श्री सुदृष्टिमती जी। 2. आचार्य श्री बाहुबलीसागरजी से दीक्षित :- श्री मुक्तिलक्ष्मी जी, श्री शांतिमती जी, श्री निदेवीजी, श्री श्रुतदेवीजी, श्री निर्वाणलक्ष्मीजी, श्री मुक्तिकांताजी, श्री धर्मेश्वरीजी, श्री सुज्ञानीजी, श्री निष्पापमती जी, श्री धर्ममतीजी, श्री शिवादेवी जी, श्री सुमंगलाजी। 3. आचार्य श्री विमलसागरजी से दीक्षित:- श्री मोक्षमती जी, श्री मुक्तिमती जी, श्री पावापुरीमतीजी, श्री चैतन्यमती, श्री चिंतनमतीजी, श्री चिन्मती माताजी, श्री धवलमतीजी, श्री सम्मेदशिखर श्री जी, श्री कैलाशमती जी. श्री सिद्धान्तमतीजी श्री शांतिमतीजी। 228. दि. जै. सा., पृ. 339 229. संकलन- डॉ. अनुपम जैन, ऋषभ देशना, सितंबर-अक्टूबर 2001, पृ. 1-34, प्रकाशक-अखिल भारतीय दिगंबर जैन महिला संगठन, एम. एस. जे. हाउस 36-37 कंचनबाग, इंदौर-1 For Pric rsonal Use Only Page #316 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन श्रमणियों का बृहद इतिहास 4. आचार्य श्री देवनन्दीजी से दीक्षितः- श्री कांतिश्रीजी, श्री सुमंगल श्रीजी, श्री स्वस्तिश्रीजी, श्री सम्यक श्रीजी, श्री कीर्तिश्रीजी, श्री पद्मश्रीजी। 5. आचार्य श्री कुंथुसागरजी से दीक्षित :- श्री पावनश्रीजी, श्री धन्यश्री, श्री अपूर्वश्रीजी, श्री अरूपश्रीजी, श्री संयमश्रीजी, श्री करूणाश्रीजी, श्री पवित्रश्रीजी, श्री कुलभूषणमतीजी, श्री कुन्दश्रीजी, श्री पद्मश्रीजी, श्री वीरमतीजी। 6. आचार्य श्री कनकनंदीजी से दीक्षित :- श्री क्षमाश्रीजी, श्री आस्थाश्रीजी, श्री ऋद्धिश्रीजी। 7. आचार्य श्री कुशाग्रनंदीजी से दीक्षित :- श्री कुशलवाणीजी, श्री जिनवाणीजी, श्री गुरूवाणीजी, श्री __ वीरवाणीजी, श्री त्यागवाणीजी, श्री निर्मलवाणीजी, श्री ऋतुवाणीजी, श्री विद्यावाणीजी, श्री कविवाणी जी, श्री कृपावाणीजी। 8. आचार्य श्री पद्मनंदीजी से दीक्षित :- श्री विजयश्रीजी, श्री दयाश्रीजी, श्री धैर्यश्रीजी, श्री प्रशान्तश्रीजी, गणिनी श्री कमलश्रीजी, दिव्यश्रीजी, श्री चिंतनश्रीजी, श्री कनकश्रीजी, श्री कलाश्रीजी, श्री मुक्तिश्रीजी। 9. आचार्य श्री सन्मतिसागरजी से दीक्षित :- श्री लक्ष्मीभूषण माताजी, श्री दर्शनमती जी, श्री शरणमतीजी, श्री शीतलमतीजी, श्री सुयोगमतीजी, श्री चन्द्रमतीजी (प्रथम), श्री चन्द्रमतीजी (द्वितीय), श्री लक्ष्मीभूषणजी, श्री दृष्टिभूषणजी, श्री मुक्तिभूषणजी, श्री अनुभूतिभूषणजी, श्री मुनिसुव्रतमतीजी, श्री सरस्वतीभूषणजी, श्री शांतिभूषणजी, श्री सृष्टिभूषणजी, श्री स्वस्तिभूषणजी, श्री सुबुद्धिमतीजी। 10. आचार्य श्री सिद्धान्तसागरजी से दीक्षित :- श्री समतामती जी, श्री संगममती जी, श्री सौभाग्यमती, श्री कलाश्रीजी, श्री मुक्तिश्रीजी, श्री अक्षयमती जी, श्री श्रद्धामतीजी। 11. आचार्य श्री सुबलसागरजी से दीक्षित :- श्री सौरभमतीजी, श्री सुव्रतमतीजी, श्री सरस्वतीजी, श्री सन्मतिजी, श्री विशालमतीजी, श्री लक्ष्मीमतीजी, श्री सुवर्णमतीजी, श्री अजितमतीजी, श्री सुमतिमतीजी। 12. आचार्य श्री वर्धमानसागरजी से दीक्षित :- श्री शुभमती जी, श्री दयामती जी, श्री विपुलमतीजी, श्री सुवैभवमतीजी, श्री निःसंगमतीजी, श्री अनन्तमतीजी, श्री सौम्यमतीजी, श्री सौरभमतीजी, श्री चैत्यमतीजी, श्री वैराग्यमतीजी, श्री प्रेरणामतीजी, श्री वंदितमतीजी, श्री वत्सलमतीजी, श्री विलोकमतीजी, श्री मूर्तिमतीजी। 13. आचार्य श्री विरागमसागरजी से दीक्षित :- श्री विशिष्टश्रीजी, श्री विदुषीश्रीजी, श्री विभूतिश्रीजी, श्री विजयश्रीजी, श्री विरक्तीश्रीजी, श्री विनीतश्रीजी, श्री शांतिमतीजी, श्री विधिश्रीजी, श्री विंध्यश्रीजी, श्री विज्ञाश्रीजी, श्री विकासश्रीजी, श्री विशाश्रीजी, श्री विभाश्रीजी, श्री विमत्सनाश्रीजी, श्री विनीतश्रीजी। 14. आचार्य श्री विवेकसागरजी से दीक्षित :- श्री विपुलमतीजी, श्री विश्रुतमती जी, श्री विज्ञानमती जी। 15. आचार्य श्री योगीन्द्रसागरजी से दीक्षित :- श्री सरलमतीजी, श्री सूर्यमतीजी, श्री समवशरणमतीजी। 16. आचार्य श्री विद्यासागरजी से दीक्षित :- श्री आदर्शमतीजी, श्री दुर्लभमतीजी, श्री अंतरमतीजी, श्री अनुनयमतीजी, श्री अनुग्रहमतीजी, श्री अक्षयतीजी, श्री अमूर्तमतीजी, श्री अखंडमतीजी, श्री अनुपममतीजी, श्री अनर्घमतीजी, श्री अतिशयमतीजी, श्री अनुभवमतीजी, श्री आनंदमतीजी, श्री अधिगममतीजी, श्री अमंदमतीजी. श्री अभेदमतीजी. श्री उद्योतमतीजी. श्री अकम्पमतीजी. श्री अमल्यमतीजी. श्री आराध्यमतीजी, श्री अचिन्त्यमतीजी, श्री अलोल्यमतीजी, श्री अनमोलमतीजी, श्री आज्ञामतीजी, श्री अचलमतीजी, श्री अवगममतीजी, श्री आलोकमतीजी, श्री अनंतमतीजी, श्री विमलमतीजी, श्री निर्मलमतीजी, श्री शुक्लमतीजी, 254 Page #317 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दिगम्बर परम्परा की श्रमणियाँ श्री अतुलमतीजी, श्री निर्वेगमतीजी, श्रीसविनयमतीजी, श्री शोधमतीजी, श्री समयमतीजी, श्रीशाश्वतमतीजी, श्री सुशीलमतीजी, श्री सुसिद्धमतीजी, श्री सुधारमतीजी, श्री अपूर्वमतीजी, श्री अनुत्तरमतीजी, श्री बाहुबलीमतीजी, श्री उज्जवलमतीजी, श्री चिंतनमतीजी, श्री सूत्रमतीजी, श्री शीतलमतीजी, श्री पावनमतीजी, श्री साधनामतीजी, श्री विलक्षणामतीजी, श्री वैराग्यमतीजी, श्री अकलंकमतीजी, श्री निकलंकमतीजी, श्री आगममतीजी, श्री स्वाध्यायमतीजी, श्री प्रशममतीजी, श्री मुदितमतीजी, श्री सहजमतीजी, श्री संयममतीजी, श्री सत्यार्थमतीजी, श्री सिद्धमतीजी, श्री शास्त्रमतीजी, श्री समुन्नतमतीजी, श्री गुणमतीजी, श्री जिनमतीजी, श्री कुशलमतीजी, श्री धरणमतीजी, श्री उन्नतमतीजी, श्री गुरुमतीजी, श्री सारमतीजी, श्री साकारमतीजी, श्री सौम्यमतीजी, श्री सूक्ष्ममतीजी, श्री शांतमतीजी, श्री सुशांतिमतीजी, श्री जिनदेवीजी, श्री ऐरादेवीजी, श्री मृदुमतीजी, श्री निर्णयमतीजी, श्री प्रसन्नमतीजी, श्री प्रभावनामतीजी, श्री भावनामतीजी, श्री सदयमतीजी, श्री प्रकाशमतीजी, प्रशान्तमतीजी, श्री विनम्रमतीजी, श्री विनतमतीजी, श्री अनुगममतीजी, श्री संवेगमतीजी, श्री शैलमतीजी, श्री विशुद्धमतीजी, श्री पूर्णमतीजी, श्री शुभमतीजी, श्री साधुमतीजी, श्री विशदमतीजी, श्री विपुलमतीजी, श्री मधुरमतीजी, श्री एकत्वमतीजी, श्री कैवल्यमतीजी, श्री सतर्कमतीजी, श्री श्वेतमतीजी, श्री ऋजुमतीजी, श्री सरलमतीजी, श्री शीलमतीजी, श्री समर्पणमतीजी, श्री सुबोधमतीजी, श्री सत्यमतीजी, श्री सकलमतीजी, श्री तपोमतीजी, श्री सिद्धान्तमतीजी, श्री नम्रमतीजी, श्री पुराणमतीजी, श्री उचितमतीजी, श्री उपशांतमतीजी । 17. आचार्य श्री जयसागरजी से दीक्षित श्री पावनमतीजी, श्री पवित्र श्रीजी । 18. आचार्य श्री शिवसागरजी से दीक्षित :- श्री आदिमतीजी, श्री सरलमतीजी, श्री श्रेयांसमतीजी 19. आचार्य श्री निर्मलसागरजी से दीक्षित :- श्री अचलमतीजी, श्री विरागमतीजी 20. आचार्य श्री अजितसागरजी से दीक्षित :- श्री अमृतमतीजी, श्री दक्षमतीजी, श्री मनोमतीजी, श्री अक्षयमतीजी : 21. आचार्य श्री दयासागरजी से दीक्षित :- श्री सुदर्शनमतीजी, श्री सुभूषणमतीजी, श्री सुप्रकाशमतीजी 22. आचार्य श्री अभिनन्दनसागरजी से दीक्षित :- श्री जिनेन्द्रमतीजी, श्री चैत्यमतीजी 23. आचार्य श्री चन्द्रसागरजी से दीक्षित :- श्री चैतन्यमतीजी, श्री चिंतनमतीजी, श्री चिन्मतीजी, श्री अक्षयतज 24. आचार्य श्री गुणधरनंदीजी से दीक्षित :- श्री निर्मलमतीजी 25. आचार्य श्री सारस्वतसागरजी से दीक्षित श्री सरस्वतीजी 26. मुनि श्री गुणसागरजी से दीक्षित :- श्री सुबोधमतीजी 27. आचार्य श्री सुविधिसागरजी से दीक्षित :- श्री सुविधिमतीजी श्री अभयमतीजी, श्री शिवमतीजी श्री चन्दनमतीजी 28. आचार्य श्री धर्मसागरजी से दीक्षित 29. आचार्य श्री श्रुतसागरजी से दीक्षित 30. आचार्य श्री पुष्पदंतसागरजी से दीक्षित :- श्री पूर्वमतीजी 31. गणिनी श्री सुपार्श्वमतीजी से दीक्षित श्री मनोज्ञमतीजी : 32. आर्यिका श्री सर्वज्ञ श्रीजी से दीक्षित :- श्री सक्षममतीजी, श्री साहसमतीजी - · 255 For Private Personal Use Only Page #318 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन श्रमणियों का बृहद इतिहास 33. गणिनी श्री श्रेयांसमतीजी से दीक्षित :- श्री सुग्रीवमतीजी, श्री शारदामतीजी, श्री शैलमतीजी 34. आर्यिका श्री श्रुतमतीजी से दीक्षित :- श्री बाहुबलीमतीजी 35. आर्यिका श्री सुभूषणमतीजी से दीक्षित श्री सुआद्यमतीजी, श्री सुभद्रमतीजी, श्री सुदत्तमतीजी -- क्षुल्लिकाओं की सूची 1. आचार्य श्री विमलसागरजी से दीक्षित :- श्री सिद्धान्तमतीजी, श्री श्रीमतीजी, श्री उद्धारमती जी, श्री आनंदमतीजी, श्री चेतनमतीजी 2. आचार्य श्री भरतसागरजी से दीक्षित :- श्री चन्द्रमतीजी, श्री सौम्यश्री जी 3. आचार्य श्री देवनन्दी जी से दीक्षित :- श्री संवेगश्रीजी, श्री सरलमतीजी श्री 4. आचार्य श्री गुणधरनंदी जी से दीक्षित :- श्री सर्वज्ञमतीजी, श्री सत्यमतीजी, श्री नमनमतीजी, नम्रमतीजी, श्री चन्द्रमतीजी 5. आचार्य श्री कुशाग्रनन्दी जी से दीक्षित :- श्री तीर्थवाणी जी 6. आचार्य श्री निर्मलसागर जी से दीक्षित :- श्री सन्मती जी, श्री वंदितमतीजी, श्री कुन्दनश्रीजी 7. आचार्यश्री सन्मतिसागरजी से दीक्षित :- श्री श्रेयांसमतीजी, श्री शांतिभूषणजी, श्री श्रुतमतीजी, श्री संभवमतीजी 8. आचार्य श्री शांतिसागर जी से दीक्षित :- श्री आदिमतीजी, श्री शुद्धमतीजी, श्री गुणदेवीजी । :- श्री जैनमती जी -- 9. आचार्य श्री सुमतिसागर जी से दीक्षित 10. आचार्य श्री सिद्धान्तसागरजी से दीक्षित 11. आचार्य श्री सुबलसागरजी से दीक्षित :12. आचार्य श्री विरागसागरजी से दीक्षित :- श्री विपुलमतीजी, श्री विश्रुतमतीजी श्री अनंतमतीजी, श्री जिनमतीजी 13. आचार्य श्री अजितसागर जी से दीक्षित :- श्री दयामतीजी 14. श्री ज्ञानमती जी गणिनी से दीक्षित :- श्री वासमती, श्री करूणामतीजी, 15. अन्य आचार्यों से दीक्षित :- श्री विशेषमतीजी, श्री मुक्तिप्रभाजी, श्री आदिमतीजी, श्री शांतिमतीजी 16. आचार्य श्री भूतबलीसागरजी से दीक्षित -- श्री प्रशस्तमतीजी 17. आचार्य श्री देशभूषणजी से दीक्षित :- श्री अनंतमतीजी, श्री राजश्रीजी 18. आचार्य श्री कुमुदनंदी जी से दीक्षित श्री समाधिमतीजी 19. आचार्य श्री बाहुबलीसागर जी से दीक्षित :- श्री चन्द्रमती जी, श्री वृषभमतीजी 20. आचार्य श्री योगीन्द्रसागरजी से दीक्षितः - श्री सुग्रीवमतीजी, श्री स्वर्णमती जी 21. आचार्य श्री नेमीसागरजी से दीक्षितः - श्री मुक्तिप्रभाजी, श्री मोक्षप्रभाजी 22. आचार्य श्री निर्भयसागरजी से दीक्षित 23. आचार्य श्री पुष्पदंतसागरजी से दीक्षित श्री सौम्यमतीजी, श्री स्वयंमतीजी श्री विशेषमतीजी श्री पद्मश्रीजी 256 For Private Personal Use Only Page #319 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समकालीन दिगम्बर परंपरा की अवशिष्ट आर्यिकाएँ-36 दिगम्बर परम्परा की श्रमणियाँ For Priyle & क्रम आर्यिका नाम | जन्म संवत् | पिता का नाम क्षल्लिका दीक्षा| आर्यिका दीक्षा दीक्षा स्थान दीक्षा दाता विशेष विवरण संख्या स्थान संवत् तिथि | संवत् तिथि | श्री वीरमति जी जमनालाल सोनी |1995 पो. कृ.51 1996 का.शु 11| इन्दौर पतिवियोग से विरक्ति श्री कुंथुमती जी - 2003 आ. वीरसागर जी 3 श्री सुमतिमती जी - खंडेलवाल जयपुर आ. वीरसागर जी | नागौर में स्वर्गवास श्री सिद्धमती जी |1950 दिल्ली | श्री नंदकिशोर 2000 2006 नागौर आ. वीरसागर जी | सं. 2025 प्रतापगढ़ में समाधि अग्रवाल मरण 5 श्री चन्द्रमति जी |1982 बेलार |श्री लालाराम जी 2012 आपकी दीक्षा आ. विमल मती जी की उपस्थिति में हुई। 6 श्री जिनमती जी |1973 पाडवा |श्री चन्दुलाल जी |2024 सम्मेदशिखर आ. विमलसागरजी| बाल विधवा हैं, 7वीं प्रतिमा भी ली, तपस्विनी साध्वी है। 7 श्री शीतलमतीजी | सिरसापुर - 2015 श्रा.शु. 6| नासिक आ. महावीरकीर्तिजी बाल ब्रह्मचारिणी है। 8 |श्री बुद्धमतीजी |1967 जबलपुर | श्री बसोरेलाल जी |1993 2017 जादर आ. शिवसागर जी| ईडर, डूंगरपुर, घाटोल आदि चातुर्मास 9 श्री विद्यामती जी |1992 डेह |श्री नेमीचंदजी 2017 सुजानगढ़ आ. शिवसागर जी| आ. इन्दुमति जी के संघ | में वाकलीवाल रही। 10 श्री नेमीमती जी |1995 जयपुर|रिखबचन्द विनायक्या 2017 सुजानगढ़ आ. शिवसागर जी पति वियोग के अनन्तर वैराग्य। 11 श्री श्रेष्ठमती जी | फतेहपुर सीकरी श्री वासुदेवजी 2019 आ. शिवसागर जी | आपने चारित्रशुद्धि के व्रत किये। अग्रवाल 12 श्री विपुलमती जी 2019 आपके सुपुत्र भी मुनि . rsonal Use Only बने। 13 श्री रत्नमती जी । अवध प्रान्त |आ. धर्मसागर जी | - 236. दिगम्बर जैन साधु, पृ. 96-417 Page #320 -------------------------------------------------------------------------- ________________ | विशेष विवरण क्रम आर्यिका नाम | जन्म संवत् | पिता का नाम |क्षल्लिका दीक्षा आर्यिका दीक्षा दीक्षा स्थान दीक्षा दाता संख्या स्थान संवत् तिथि | संवत् तिथि 16 _ For Privale & Personal Use Only 258/ श्री सूर्यमती जी |1965 बुढार |श्री विशाललालजी |2017 अषा.कृ. 31 2021 मा.शु.14 | मुक्तगिरी आ. विमलसागर जी श्री सरस्वती जी आ. विमलसागर जी श्री भद्रमती जी |कुंडलपुर श्री परमलाल जी | 2020 2023 आ. शिवसागर जी | लाडनू में 25 वर्ष अध्या पिका रही। श्री दयामती जी सागर सिंघई गोरेलाल जी आ. शिवसागर जी संभवमती जी |अजमेर श्री पन्नालाल जी | अजमेर आ. शिवसागर जी| श्री समाधिमती जी 1960 रायपुर | मेहरचन्द जी अग्र. | 2023 | मुजफरनगर | आ. धर्मसागर जी श्री शीतलमती जी |1995 गामड़ी | निहालचन्द जी |2019 मा.सु.5 | 2023 का.कृ.10 | रेनवाल आ श्रुतसागर जी |' सन्मतिमती जी 1975 बनगोठड़ी भूरामलजी |2022 का.शु.10 | | 2023 मा.कृ. 2 | कोटा आ. शिवसागर जी एक कन्या की माता बनी। श्री सुव्रता माताजी | सदलगा अण्णासाव जी 2025 सम्मेदशिखर | आ. सुबलसागर जी श्री गुणमती जी श्यामलाल जी श्रा.शु.पूर्णिमा | सम्मेदशिखर | मुनि कीर्तिसागर जी| श्री सरलमती जी |1990 टीकमगढ़ श्री चुन्नीलाल जी | 2026 वै.शु.10 | उदयपुर आ. श्रुतसागरजी श्री कल्याणमति जी मुबारिकपुर |श्री समयसिंह 12022 कोटा आ. शिवसागरजी | अ. संत गणेशप्रसाद वणी के सत्संग से 7वीं प्रतिमा ग्रहण की श्री ब्रह्ममती जी छांडी (राज.)| श्री खूमजी दशा | 2027 रक्षाबन्धन| राजगृह आ. विमलसागर जी - हुमड़ श्री निर्मलमती जी 1968 पवई श्री विसारेलाल जी 2019 आ विमलसागर जी श्री स्वर्णमति जी सीरगुप्पी श्री साक्काप्पा 2027 श्रा.शु.5 | रोडवार मुनि आदिसागर जी| आपने 18 वर्ष की उम्र से (कर्ना) लिंगायत आजीवन ब्रह्मचर्य व्रत धारण कर लिया था। । श्री शुभमति जी |2004 खुरई |श्री गुलाबचंद्र जी 2028 मृ.कृ.3 | अजमेर आ. धर्मसागर जी| आपने आ. ज्ञानमती जी से अनेक संस्कृत ग्रंथों का अध्ययन किया। श्री शांतिमती जी 2024 अमेरपुर श्री अंबालाल 2028 मृ.कृ. 6 |- आ. सन्मतिसागर बड़जात्या 29 जैन श्रमणियों का बृहद इतिहास 30 Page #321 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्रम आर्यिका नाम संख्या विशेष विवरण जन्म संवत् | पिता का नाम |क्षल्लिका दीक्षा | आर्यिका दीक्षा दीक्षा स्थान दीक्षा दाता स्थान संवत् तिथि | संवत् तिथि 31 32 - श्री जयमती जी |1993 मजफर.श्री पदमप्रसाद जी। श्री नियममती जी सदलगा 2029 आ. धर्मसागर जी मुजफर आ. धर्मसागर जी | आपके 3 भाई, 1 बहिन, (कर्नाटका) नगर माता व पिता जी दीक्षित 2029 अजमेर आ. धर्मसागर जी माघ शु. 5 मुजफरनगर | आ. धर्मसागर जी | 2029 | दिल्ली आ. देशभूषण जी | वृद्धावस्था में दीक्षा ली। 2029 | पपौरा आ. कुंथुसागरजी जैसवाल 2029 का.शु. 2 | सम्मेदशिखर आ. विमलसागरजी| दिगम्बर परम्परा की श्रमणियाँ श्री शुभमती जी 2004 खुरई |श्री गुलाबचन्दजी जैन श्री चेतनमती जी सीकर (राज.)/दाखाबाई (माता) श्री यशोमती जी दिल्ली श्री शान्तिमति जी |1959 लखनऊ श्री नत्थुरामजी 37 श्री शान्तमती जी कबलापुर (सांगली) श्री नंदामती जी श्री मुनिलाल जी | 2026 2030 का.शु. 259 39 श्री निर्मलमति जी 1980 बैराठ (राज.) 40 श्री पाश्वमती जी आरा (बिहार) श्री महेन्द्रकुमारजी आ. विमलसागरजी श्री सुगंधीलाल जी आपके अपति थे, स्वर्गवास के बाद दीक्षा। आ. धर्मसागर जी | 13 वर्ष में वैधव्य विरक्ति में कारण बना। मुनि सुमतिसागरजी आप सरल एवं तपस्विनी साध्वी हैं। आ. धर्मसागर जी आ. धर्मसागर जी |आ. सन्मतिसागरजी बाल ब्रह्मचारिणी है। 2030 श्रा.शु.9 - सं. 2029 2029 2031 2031 निर्वाणोत्सव | दिल्ली 2032 कलकता श्री संयममती जी |1979 मेरठ श्री मोहनलाल जी। श्री संयममती जी दिल्ली नेममती जी 1987 टूडला | श्री प्यारेलाल जी (उ. प्र.) श्री विजयमती जी 1985 पिडावा |श्री राजमल जी (राज.) अजीतमती जी खुर (सीकर) 44 2032 का.शु.3 कोटा मुनि सन्मतिसागरजी | स्वाध्याय मनन-चिन्तन में लीन। आ. सन्मतिसागर जी से 4 वर्ष पूर्व दीक्षा ली। मुनि कुंथुसागरजी 46 | श्री शान्तिमति जी लखुआ (म.प्र)। श्री नथुराम जी पोरेसा Page #322 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्रम आर्यिका नाम | जन्म संवत् | पिता का नाम क्षल्लिका दीक्षा आर्यिका दीक्षा दीक्षा स्थान दीक्षा दाता | विशेष विवरण संख्या स्थान संवत् तिथि | संवत् तिथि 47 श्री चन्द्रमति जी |ऋषभदेवा (रा) श्री अमरचन्द जी | 2032 माशु3 मुनि सन्मतिसागरजी 48 श्री ज्ञानमति जी |साबरकांठा (गु) |श्री सांकलचन्द जी| 2031 म.कृ.5 | 2032 माशु3 कीनसेली मुनि सम्मतिसागरजी| बाल ब्रह्मचारिणी 49 श्री सुमतिमती जी | 2015 सदलगा | श्री धारीसाजी I - साम्मेदशिखर आ. सुबलसागरजी| 16 वर्ष की उम्र में ब्रह्मचर्य व्रत लिया। श्री वीरमती जी |1965 नसालापुर दादा भगदुम जी 2033 मई 2 |श्री सूर्यमती जी | बुद्धार (बिलासपुर) श्री विशालाल जी | 2017 आ.कृ.3 | 2021 मुक्तगिरी आ. विमलसागरजी - मा.शु.14 52 श्री सुशीलमती जी| 1973 मस्तानपुर | श्री मोहनलाल जी | 2022 कोटा आ. शिवसागरजी| सं. 2009 में पपौरा में (म. प्र.) ब्रह्मचर्य व्रत लिया। श्री सूर्यमती जी श्री पाश्वमती जी 1956 अजमेर श्री सौभाग्यमल जी आ. धर्मसागर जी| आपकी कठोरचर्या रही। सोनी 55 श्री पार्श्वमती जी |2008 दरियाबाद | श्री बनारसीलालजी | त्रिलोकपुर | मुनि पुष्पदंत सागरजी आपने 150 व्यक्तियों का सुखी व समृद्ध परिवार छोड़कर दीक्षा ली। । श्री शांतिमती जी |1983बाराबांकी | श्री कुंथुदास जी सम्मेदशिखर - आपको कई ग्रंथ कंठस्थ थे। श्री यशोमती जी |1967 सोनीपत | श्री कुवरसेन जी आ. देशभूषण जी आप धर्म साधना में अग्रवाल संलग्न रही। श्री वीरमती जी | बेलगांव श्री देवप्पा जी | मांगूर(कर्ना) आ. देशभूषण जी - श्री प्रज्ञामती जी उदयपुर श्री राम चन्द्र जी अक्षयतृतीया घाटोल मुनि दयासागर जी | आप बालविधवा थी। श्री नि.संगमतीजी |1993 नागपुर |श्री सुमेरचन्द्र जी |छिन्दबाड़ा |मुनि दयासागर जी | आप बीस वर्ष छिंदवाडा| में अध्यापिका रही। श्री वीरमती जी लोनी (उ.प्र.) सेठ बसंतीलाल जी आ.महावीरकीर्तिजी - श्री यशोमती जी | उदयपुर 2035 आश्विन-/उदयपुर आ. धर्मसागर जी | बा. ब्र. है। श्री विद्यामती जी | उदयपुर श्री उदयलाल जी 2038 मुरैना आ. सुमतिसागरजी | पति का नाम ताराचन्द था। 64 श्री गोम्मटमती जी पारसोला श्री दीपचन्दजी(पति)। 2038 आ.विमलसागरजी जैन श्रमणियों का बृहद इतिहास Page #323 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 261 क्रम संख्या 1 23 4 56789 10 11 12 133 141 आर्यिका नाम 16 जन्म संवत् स्थान श्री नेमिमती जी फलटन (महा.) अक्कलकोट श्री जयश्री जी श्री आदिमती जी श्री यशोमती जी श्री विशुद्धमती जी श्री वीरमती जी समकालीन दिगम्बर परंपरा की अवशिष्ट क्षुल्लिकाएँ पिता का नाम क्षुल्लिका दीक्षा संवत् तिथि दीक्षा स्थान दीक्षा दाता 2013 नागौर (राज.) 2016 ज्ये. शु. 10 श्रवणबेलगोला 2017 कोल्हापुर श्रवणबेलगोला फूलचन्द जी दशा हुमड़ श्री कृष्णामती जी 1970 पंढरपुर बापूराव कटेक श्री विमलमती जी श्री राजमती जी दक्षिण भारत श्री दर्शनमती जी श्री जिनमती जी श्री दयामती जी 2012 उदयपुर राजस्थान 1972 चरगवां श्री बंडोबा पमला गोनोर जबलपुर (म.प्र.) 1960 छाणी जवाहरलाल जी गुलाबचंद जी 2019 फूलचंद्रजी परवार 2019 देवीचंद जी ज्वालाप्रसाद जी भागचंद जी श्री सुव्रतमती जी 1991 हिंगोली भगवानराव जी 2019 श्री श्रेयांसमती जी 1925 नातेपुर श्री खेमचंद जी 2020 उदयपुर बड़ौदा (गु.) कपिला जी 2024 237 1 आ. महावीरकीर्तिजी आ. धर्मसागर जी आ. देशभूषण जी घाटोला दाहोद (गु.) आ. सन्मतिसागरजी आ. सन्मतिसागर जी खुरई (म.पं.) मुनि धर्मसागर जी आ. विमलसागर जी पू. पायसागर जी विशेष विवरण विवाह सूरत में हुआ। आदिपुराण का स्वाध्याय करते-2 विरक्ति । आ. देशभूषण जी आ. धर्मसागर जी आ. विमलसागर जी दीक्षा पूर्व द्वितीय प्रतिमा धारण की। बालविधवा, सरल, धार्मिक वृति, अनुभवी है। आपने दूसरी व सातवीं प्रतिमा भी धारण की थी । धर्मप्रभाविका हैं, मुनि जंबू सागर जी की पत्नी थी। 2021 का. शु.11 पपौरा अति. क्षेत्र. आ. शिवसागर जी आ. देशभूषण जी मुनि दयासागर जी शादी के बाद गृह कलह से जीवन में मोड़ आया। आ. विमलसागर जी बाल विधवा, तेल और नमक का त्याग। युवावस्था में दीक्षा ली। धर्मध्यान में लीन आप आ. शांतिसागर जी म. (छाणी) की बहिन थी 9 वर्ष की उम्र में विधवा, आ. अनन्तमती जी से वैराग्य प्राप्ति । अनेक धार्मिक ग्रंथों का अध्ययन किया, सेवाभाविनी । 15 श्री वैराग्यमती जी 2014 साबला लक्ष्मीलालजी रोहिदां श्री शांतिमती जी कोल्हापुर बापू (जाति से पंचम) 2024 दिल्ली सदर 237. (क) दिगम्बर जैन साधु. पृ. 96-417 (ख) डॉ. हीराबाई बोरदिया- जैनधर्म की प्रमुख साध्वियाँ एवं महिलाएँ, पृ. 209-36 दिगम्बर परम्परा की श्रमणियाँ Page #324 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 262 क्रम | आर्यिका नाम जन्म संवत् | पिता का नाम दीक्षा संवत तिथि दीक्षा स्थान दीक्षा दाता विशेष विवरण स्थान 17 | श्री पद्मश्री जी |राजस्थान श्री गुलाबचन्द्र जी | 2019 | बड़ौदा (गु.) | आ. विमलसागर जी| दीक्षा पूर्व द्वितीय प्रतिमा धारण की। 18 | श्री संयममती जी | 1886 निवारी | श्री सनोखनलालजी 2025 का.शु. 15| सुजानगढ़ | आ. विमलसागर जी| शादी के बाद दीक्षा, णमोकारमंत्र में आस्थावान्। | श्री चेलनामती जी 1985 गढ़ी श्रीप्रकाशचंद्रजी जैन | - सम्मेदशिखर आ. विमलसागर जी बाल्यवय से ही धार्मिक प्रवृत्ति की। 20 | श्री कुंथुमती जी मालेगांव | बैजुलालजी पाटोदी 2025 कर्नाटक आ. अनंतमतीजी बालविधवा, गजपंथा, कर्नाटक में धर्मप्रचार। 21 | श्री राममती जी दक्षिण भारत 25 वर्ष की हिन्दी संस्कृत की विदुषी, पति भी। वय में मुनि बने। | श्री वृषभसेना जी | जयपुर खण्डेलवाल वंश | - जयपुर | आ. देशभूषणजी | चारित्रपरायण धर्मनिष्ठ महिला। अरहमती जी | वीरमगांव श्रीकुंदनमलजी जैन - | रामपुर मुनि सुपार्श्वसागरजी | श्री जयमती जी | मुजफरनगर | पदमचंद जी जैन | 2026 सिंत. 17 / लैकिक शिक्षा-इन्टरमीडिएट, धार्मिक षट्खंडागम आदि। श्री दयामती जी | ललितपुर काशीराम जी जैन | - सोनागिर तीर्थ आ. सुमतिसागरजी | विवाहित श्री धर्ममती जी कोथली सेठ कालीशाह सोनागिर तीर्थ | मुनि निर्माणसागरजी श्री शीतलमती जी इन्दौर । | चौथमल जी 2026 जयपुर आ. देशभूषणजी श्री सगुणमती जी | हालनूल गुलाबचंद्र जी जैन | 2029 श्रा.कृ.9/श्री निर्मलमती जी कटनी कपूरचंद जी जैन 2029 श्रा.क. 11 कटनी मुनि सन्मतिसागरजी | अल्पवय में दीक्षित। श्री सुशीलमती जी क्षत्रीग्राम सुन्दरलाल जी - दिल्ली मुनि कुंथुसागरजी श्री शुद्धमती जी | ग्वालीयर | उदयराज जी जैन | श्रा.शु. 9 आ. सुमतिसागरजी श्री शांतिमती जी | पनागर भैयालालजी आ. सुमतिसागर जी 2 पुत्र 4 पुत्रियों की मां, पति वियोग से वैराग्य। श्री विद्यामती जी श्री जिनमती जी | सदलगा तात्यासाबजी लटण मुनि सुबलसागर जी शिक्षित छोटी उम्र में ग्रह त्याग। श्री कीर्तिमती जी | कुसंबा हीरालालजी शहा | 2033 फा. शु. 51 सम्मेदशिखर |आ. विमलसागर जी| दो पुत्रों की माता, शांत स्वभावी, सतत अध्ययनरत। |श्री विनयमती जी | हिरनोदा जीवनलालजी | 2036 जोबनेर आविशुद्धमती माताजी| सरल व तपस्वी। श्री निर्माणमती जी खवरा हीरालालजी(पति)| 2036 फा.शु. 2 | सम्मेदशिखर आ. सन्मतिसागरजी | पति क्षुल्लक मुनि हैं, 3 पुत्र व 2 | पुत्रियों के जनक जननी।। जैन श्रमणियों का बृहद इतिहास Page #325 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 263 (www.jainelibrary.om क्रम आर्यिका नाम सं. 1 श्री शान्तिमती जी 234 5 6 ० श्री कुंथुमती जी श्री विमलमती जी श्री आदिमती जी जन्म संवत् स्थान कोडियागंज 88 ★ बाराबांकी वामरोली 4 श्री विशिष्टमती जी शिकोहाबाद 7 श्री विरक्तमती जी बामरोली गणिनी श्री विशुद्धमतीजी की संघस्था आर्यिकाएँ 238 पिता का नाम दीक्षा संवत् तिथि दीक्षा स्थान दीक्षा दाता 4 श्री विजयमती जी बौढा (उ. प्र. ) सूरजमलजी अग्रवाल जैन छेदालालजी पल्लीवाल जैन ★ कस्तूरचंदजी (पति) 11 4 श्री विकासमती जी 12 4 श्री विभवमती जी टुडला 13 श्री विभुषणमतीजी मुरैना (म.प्र.) 14 श्री विलक्षणमतीजी बझेरा, एटा सूरजमलजी अग्रवाल जैन श्री कनकमती जी 9 श्री विमुक्तमती जी गढाजोरी (म.प्र.) ख्यालीरामजी गोल सिंघारे 10 4 श्री विनीतमती जी अवागढ़ (एटा) शांतिस्वरूपजी पुरवाल जैन जयंतीप्रसाद अग्रवाल जैन मित्रसेनजी अग्रवाल जैन संतलाल जी पल्लीवाल जैन 2027 ज्ये.शु.7 गणिनी श्री विशुद्धमतीजी स्वर्गस्थ 2028 आ.शु. 8 दिल्ली गणिनी श्री विशुद्धमतीजी सं. 2036 ईडर में स्वर्गस्थ दिल्ली 2028 का. शु. 2037 वै.शु. 7 गणिनी श्री विशुद्धमतीजी गणिनी श्री विशुद्धमतीजी फूफ (म.प्र.) 2042 ज्ये. शु. 8 फिरोजाबाद गणिनी श्री विशुद्धमतीजी 2046 जुलाई 19 टोडारायसिंह गणिनी श्री विशुद्धमतीजी बिजौलियां क्षेत्र गणिनी श्री विशुद्धमतीजी आचार्य श्री पद्मनंदीजी गणिनी श्री विशुद्धमतीजी पार्श्वनाथ गणिनी श्री विशुद्धमतीजी धर्मालंकार पार्श्वनाथ गणिनी श्री विशुद्धमतीजी गणिनी श्री विशुद्धमतीजी गणिनी श्री विशुद्धमतीजी पार्श्वनाथ | गणिनी श्री विशुद्धमतीजी पार्श्वनाथ 2048 मृ.कृ. 1 मुजफरनगर 2051 का. शु. 8 चंवलेश्वर 2051 का.शु. 8 चंवलेश्वर 2050 अगस्त 5 2050 आ. शु. 2051 का. शु. 8 2051 का. शु. 8 चंवलेश्वर हुण्डीलाल जी पुरवाल जैन 238. माँ रत्नत्रय चन्द्रिका, प्रधान संपादक-प्रो. टीकमचंद जैन कुचामन सिटी कुचामन सिटी चंवलेश्वर विशेष विवरण -संकेत चिन्हपतिवियोग सुहागिन बालब्रह्मचारिणी श्वसुरपक्ष दिगम्बर परम्परा की श्रमणियाँ Page #326 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्रम आर्यिका नाम जन्म संवत् | पिता का नाम दीक्षा संवत तिथि| दीक्षा स्थान | स्थान दीक्षा दाता विशेष विवरण 15|श्री विश्वस्तमतीजी | अलीगढ़ | श्री विभुषितमतीजी क्षु. श्रीज्ञानमती जी लश्कर 2054 जुलाई 21 डुंगरपुर |गणिनी श्री विशुद्धमतीजी | पूर्व मे क्षल्लिका संयममति जी, स्वर्गस्थ गणिनी श्री विशुद्धमतीजी स्वर्गस्थ | गुलजारीलालजी 2027 नवं. 20 गणिनी श्री विशद्धमतीजी गणिनी विशद्धमतीजी की माता पुरवाल (पति) जी, स्वर्गस्थ सं.2043अवागढ़ में 2034 नवं. 20 गणिनी श्री विशुद्धमतीजी 2041 चै.शु.13 | शिकोहाबाद | गणिनी श्री विशुद्धमतीजी गणिनी श्री विशुद्धमतीजी गणिनी श्री विशुद्धमतीजी सूरत सूरत | क्षु. श्रीयशमतीजी क्षु श्रीचारित्रमतीजी श्रीविनयमतीजी 21 क्षु. श्रीरत्नमती जी 264 जैन श्रमणियों का बृहद इतिहास Page #327 -------------------------------------------------------------------------- ________________ MARATommmmm अध्याय 5 recommeriom श्वेताम्बर परम्परा की श्रमणियाँ Page #328 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .........268 316 5.1 खरतरगच्छ एवं उसकी विदुषी श्रमणियाँ (विक्रम संवत् 1080 से 20वीं सदी तक).. 5.2 तपागच्छ एवं उसकी प्राचीन श्रमणियाँ ( 13वीं सदी से संवत् 1791).............. 5.3 समकालीन तपागच्छीय श्रमणियाँ (20वीं सदी से अद्यतन).. ................... 322 5.4 अंचलगच्छ की श्रमणियाँ (संवत् 1146 से अद्यतन).................... 5.5 उपकेशगच्छ की श्रमणियाँ (वि. सं. 13वीं सदी से 16वीं सदी).............. 5.6 आगमिकगच्छ की श्रमणियाँ (वि. संवत् 13वीं से 17वीं सदी)................. 5.7 पार्श्वचन्द्रगच्छ की श्रमणियाँ (वि. संवत् 1564 से अद्यतन )....... 5.8 प्रशस्ति-ग्रंथों व हस्तलिखित प्रतियों में श्वेताम्बर मूर्तिपूजक श्रमणियाँ ..... 457 ..479 480 487 Page #329 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्याय 5 श्वेताम्बर परम्परा की श्रमणियाँ जैनधर्म की श्वेताम्बर परम्परा अपने अस्तित्वकाल से ही विस्तृत, समृद्ध एवं परिष्कृत परम्परा रही है। इस परम्परा के आचार्यों ने अपने उदार एवं समन्वयवादी दृष्टिकोण से जैनधर्म के प्रचार-प्रसार के विविध कार्य किये। कल्पसूत्र एवं नंदीसूत्र में श्वेताम्बर परम्परा के आचार्यों की प्राचीनतम पट्टावलियाँ प्राप्त होती हैं, इन पट्टावलियों तथा मथुरा के अभिलेखों से उपलब्ध प्राचीन ऐतिहासिक सामग्री से यह परिज्ञात होता है कि वी. नि. 1 से 1000 तक के इतिहास में आचार्यों की अखंड विशुद्ध परम्परा एक महानदी के प्रवाह के रूप में अबाध गति से चलती रही। आचार्य देवर्द्धिगणी के स्वर्गवास के पश्चात् उत्तरवर्ती काल में चैत्यवासी संघ का शनै- शनै: जोर बढ़ने लगा, चैत्यवासी संघ सशक्त, सुदृढ़ देशव्यापी और बहुजनमान्य बन गया और विशुद्ध श्रमणाचार की पोषक मूल परम्परा स्वल्पतोया नदी के समान क्षीण हो गई। चैत्यवासी परंपरा का वर्चस्व वी. नि. 11वीं से 16 शताब्दी के प्रथमार्द्ध तक बना रहा। उस समय बीज रूप में विद्यमान विशुद्ध श्रमण परंपरा के वनवासी आचार्य उद्योतनसूरि के पास आचार्य वर्द्धमानसूरि ने अभिनव धर्म-क्रांति का सूत्रपात कर लगभग 500 वर्षों से अंधकार की ओर अग्रसर जैन संघ को प्रकाश की ओर मोड़ दिया। विक्रम की 11वीं शताब्दी से 13वीं शताब्दी के अंत तक चैत्यवासी परंपरा के साथ इस परंपरा का संघर्ष चलता रहा। वस्तुतः यह सर्वप्रथम क्रियोद्धार था, उसके पश्चात् उनके पट्ट पर आसीन आचार्यों ने गुजरात, राजस्थान, मालवा आदि प्रदेशों में अप्रतिहत विहार कर जन-जन के समक्ष धर्म और श्रमणाचार के आगमिक स्वरूप को प्रस्तुत कर चैत्यवासी परम्परा का न केवल वर्चस्व समाप्त किया अपितु उसके अस्तित्व तक को समाप्त कर दिया। इस प्रकार श्री वर्द्धमानसूरि ने शिथिलाचार के दलदल में धंसे धर्मरथ का उद्धार कर विशुद्ध स्वरूप को पुनः प्रतिष्ठापित करने का जो साहस दिखाया उसके लिये जैन संघ सहस्राब्दियों तक उनका ऋणि रहेगा। यही परम्परा आगे चलकर 'खरतरगच्छ' के नाम से विख्यात हुई।' श्री वर्द्धमानसूरि के क्रियोद्धार का सुखद परिणाम यह हुआ कि न केवल साधु-साध्वी अपितु जनमानस में भी जैनधर्म के विशुद्ध स्वरूप को समझने की प्रबल जिज्ञासा तरंगित हो उठी थी, अतः जब-जब भी जैन संघ में धर्म के नाम पर बाह्याडम्बर का प्रभाव बढ़ा, तब-तब आत्मार्थी संतों ने उसे सही राह पर लाने का प्रयत्न किया। वी. नि. की 16वीं शताब्दी के पूर्वार्द्ध में वर्द्धमानसूरि द्वारा किये गये क्रियोद्धार के पश्चात् समय-समय पर क्रियोद्धार की एक श्रृंखला सी चल पड़ी, और उसमें से क्रिया या मान्यता भेद को लेकर श्वेताम्बर परम्परा गच्छों की एक बाढ़ सी आ 1. जैनधर्म का मौलिक इतिहास, भाग 4 पृ. 104 Page #330 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन श्रमणियों का बृहद इतिहास गई, जिसकी सिद्धि 'प्रतिष्ठा लेख संग्रह' से होती है। इस एक ही पुस्तक में श्वेताम्बर परम्परा के 72 गच्छों का उल्लेख है, इसके अतिरिक्त चैत्यवासी परम्परा के 84 गच्छ तथा शिलालेखों एवं जो तिरोहित हो चुके हैं, उन गण, गच्छों को भी मिलाया जाय तो गच्छों की एक बृहदाकार सूचि तैयार हो सकती है। ऐसे अनेक गच्छ श्वेताम्बर परम्परा में बने और विलीन हो गये । मात्र कुछ ही गच्छ चिरजीवी और प्रभावशाली रहे, इन सभी गच्छों में अल्पाधिक रूप में श्रमणियाँ विद्यमान रहीं हैं, किंतु किस गच्छ में कब, कितनी कौनसी श्रमणियों हुई, इसका प्रमाण पुरस्सर वर्णन कहीं भी प्राप्त नहीं होता। जिन गच्छों में श्रमणियों के उल्लेख विशेष रूप से उपलब्ध होते हैं, वे हैं- खरतरगच्छ, तपागच्छ, अंचलगच्छ, उपकेशगच्छ, आगमिकगच्छ और पार्श्वचंद्रगच्छ । वर्तमान में सर्वाधिक श्रमणियाँ तपागच्छ की एवं तत्पश्चात् खरतरगच्छ की हैं। यद्यपि इन सभी गच्छों में प्रत्येक युग में हजारों की संख्या में श्रमणियाँ मौजुद रही हैं, किंतु इतिहास में उन सबका वर्णन नहीं मिलता, कई श्रमणियों के तो नाम का भी उल्लेख नही है, तथापि जिन-जिन श्रमणियों के नाम अथवा जीवन-वृत्त की जानकारी उपलब्ध हुई है, उनका संक्षिप्त वर्णन प्रस्तुत अध्याय में किया गया है। 5.1 खरतरगच्छ एवं उसकी विदुषी श्रमणियाँ (विक्रम संवत् 1080 से 20वीं सदी तक ) खरतरगच्छ श्वेताम्बर संप्रदाय की लगभग एक सहस्र वर्ष प्राचीन और महत्वपूर्ण शाखा है। विक्रम की 11वीं शताब्दी में अपने अभ्युदय से लेकर आज तक भी यह गच्छ जैनधर्म के लोक कल्याणकारी सिद्धान्तों का पालन कर विश्व के समक्ष एक उज्जवल आदर्श उपस्थित कर रहा है। कहा जाता है कि संवत् 1080 में दुर्लभराज की सभा में जिनेश्वरसूरि का चैत्यवासियों के साथ शास्त्रार्थ हुआ था, फलतः चैत्यवासियों की पराजय हुई, गुर्जर महाराज ने श्री जिनेश्वरसूरि का पक्ष 'खरा' अर्थात् सत्य प्रमाणित किया, तभी से उनका समुदाय 'खरतरगच्छ के नाम से प्रसिद्ध हुआ । खरतरगच्छ में बड़ी संख्या में विदुषी साध्वियाँ गणिनी, प्रवर्तिनी महत्तरा आदि पदों को प्राप्त कर चुकी हैं। अनेक साध्वियों ने साहित्य-सृजन, तपाराधना एवं शासन प्रभावना के कार्य कर संपूर्ण भारतीय संस्कृति को समृद्ध एवं पवित्र बनाने में महान योगदान दिया। चैत्यवास का उन्मूलन कर सुविहित मार्ग की पुनः प्रतिष्ठा करने में प्रभावक आचार्यों, उपाध्यायों के साथ-साथ विदुषी साध्वियों की भी महत्त्वपूर्ण भूमिका रही । खरतरगच्छ बृहद्गुर्वावली, खरतरगच्छ इतिहास, स्वर्णगिरि जालोर आदि में इस गच्छ के महान आचार्यों, साधुओं एवं सैंकड़ों साध्वियों की दीक्षा, पद-प्रदान, शासन प्रभावना आदि बातों पर प्रकाश डाला गया है। साध्वियों का श्रृंखलाबद्ध इतिहास ज्ञात करने के लिये श्री जिनपतिसूरि के शिष्य श्री जिनपाल उपाध्याय द्वारा संकलित खरतरगच्छ गुर्वावली का उपयोग किया है, इसमें संवत् 1277 तक का इतिवृत्त है, इसके पश्चात् 'खरतरगच्छ युगप्रधानाचार्य गुर्वावली' में संवत् 1393 तक अर्थात् श्री जिनोदयसूरि तक का इतिहास संकलित है। उसके पश्चात् मध्य के 400 वर्षों में व्यवस्थित क्रमबद्ध इतिहास नहीं लिखा गया, अतः जिनराजसूरि 'प्रथम' (सं. 1432) से लेकर श्री जिनसुखसूरि ( संवत् 1779) तक कुछ छुटपुट साध्वियों की ही जानकारी उपलब्ध हो सकी है। उसके पश्चात् 'खरतरगच्छ दीक्षा नंदी सूची' में पुनः संवत् 1800 से अद्यतन पर्यन्त श्रमणियों की दीक्षाओं का उल्लेख है। 2. वही, भाग 4, पृ. 629 3. अ. भं. नाहटा, युगप्रधान जिनचंद्रसूरि, पृ. 11 268 Page #331 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्वेताम्बर परम्परा की श्रमणियाँ 5.1.1 महत्तरा श्री कल्याणमति (संवत् 1060-1110 के लगभग ) साध्वी कल्याणमति खरतरगच्छ की वे साध्वी हैं जो इस गच्छ की प्रथम महत्तरा बनीं | युगप्रधानाचार्य गुर्वावली के अनुसार कल्याणमति को 'महत्तरा' पद आचार्य वर्धमानसूरि ने प्रदान किया था। उनके द्वारा जिनेश्वर और बुद्धिसागर भ्राताद्वय एवं उनकी भगिनी कल्याणमति की दीक्षा होने का भी उल्लेख है। जिनेश्वर एवं बुद्धिसागर जन्मजात ब्राह्मण थे, अतः कल्याणमति भी निश्चित् रूप से ब्राह्मण कुल में ही जन्मी थीं। बंधुओं द्वारा अपनाये गये पथ को समुचित जानकर कल्याणमति ने भी प्रव्रज्या स्वीकार कर ली थी। ज्ञान, ध्यान, स्वाध्याय में वैशिष्ट्य प्राप्त कर वे 'महत्तरा' पद पर आरूढ़ हुईं। संवत् 1095 में श्री धनेश्वरसूरि ने प्राकृत में 4 हजार गाथा प्रमाण 'सुरसुंदरी कथा' रची, उसमें उक्त गुरू भगिनी का अलंघ्य वचन ही एकमात्र कारण है, ऐसा सूचित किया है 5.1.2 प्रवर्तिनी श्री मरूदेवी ( 11वीं सदी) खरतरगच्छ के आचार्य श्री जिनेश्वरसूरि की ये स्वगच्छीय साध्वी थी या शिष्या इसकी प्रामाणिक जानकारी नहीं मिलती, इतना उल्लेख अवश्य मिलता है कि श्री जिनेश्वरसूरि आशापल्ली से विहार कर डिंडियाणा ग्राम पधारे, तब मरूदेवी ने 40 दिन का संथारा लिया था, अंत समय में सूरिजी ने उससे अपने उत्पत्ति स्थान की जानकारी देने को कहा। देव पर्याय को प्राप्त मरूदेवी ने आचार्यश्री को 'म स ट स ट च ये संकेताक्षर दिये सूरिजी ने जान लिया कि ये तीन गाथाओं के आदि अक्षर हैं, उन्होंने वे तीनों गाथाएं ज्यों की त्यों लिख दी। उसने आचार्यश्री से यह भी कहा कि " आप चारित्र के लिये अधिक से अधिक उद्यम करें शेष कार्यों से कोई प्रयोजन सिद्ध नहीं होगा । ' मरूदेवी के संदेश से आचार्यश्री ने भी प्रेरणा प्राप्त कर अंत समय संलेखना द्वारा देह का त्याग किया। साध्वी मरूदेवी द्वारा दिये गये संदेश से प्रतीत होता है कि वह संयमनिष्ठ, चारित्रसम्पन्न आत्मार्थिनी साध्वी थी। " 5.1.3 शासन प्रभाविका श्रमणियाँ ( संवत् 1141 के आसपास) श्री जिनदत्तसूरि खरतरगच्छ के प्रभावशाली आचार्य हुए। कहा जाता है कि जिनेश्वरसूरि के शिष्य उपाध्याय धर्मदेव की आज्ञानुवर्तिनी साध्वियों ने धोलका निवासी भक्त 'वाछग' और उसकी पत्नी 'बाहड़देवी' के पुत्र 'सोमचन्द्र' को सर्वलक्षणों से युक्त देखकर उसे दीक्षा हेतु प्रेरणा दी थी। उनकी प्रेरणा व प्रभावोत्पादक उपदेश से बालक 'सोमचंद्र' जैनधर्म में ( संवत् 1165) दीक्षित हुआ । यही बालक आगे चलकर 'जिनदत्तसूरि' के नाम से खरतरगच्छ का नायक बना। इन साध्वियों के नामों का उल्लेख प्राप्त नहीं हुआ । ' - 4. तयोर्भगिनी कल्याणमति नाम्नी महत्तरा कृता । श्री जिनविजयजी संपादित, खरतरगच्छ बृहद्गुर्वावलि पृ. 5 5. अगरचंद नाहटा, ऐतिहासिक लेख संग्रह, पृ. 338 6. मरूदेवी नाम अज्जा गणिनी जाआसि तुम्ह गच्छम्मि। सग्गम्मि गया पढमे देवो जाओ महड्ढिओ ।। 1 ।। टक्कलयम्मि विमाणे दो सागर आउसो समुप्पणो । समणेसस्स जिणेसरसूरिस्स इमं कहिज्जासु ।। 2 11 टक्कउरे जिणवन्दण निमित्त मिहागएण देवेण । चरणम्मि उज्जमो भो कायव्यो किं च सेसेहिं ॥। 3 ॥ - श्री जिनविजय जी संपादित खरतरगच्छ पट्टावली पृ. 2 7. ख. बृ. गु., पृ. 14-15 269 Page #332 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 5.1.4 प्रवर्तिनी श्री विमलमती ( संवत् 1150 से 1165 के मध्य ) आपका उल्लेख एक काष्ठफलक से उपलब्ध हुआ है, जो शेठ शंकरदान नाहटा कलाभवन बीकानेर में सुरक्षित है। उससे आप जिनदत्तसूरि के आचार्य पद प्राप्ति के पूर्व ( श्री सोमचन्द्रगणि) के समय की श्रमणी प्रतीत होती हैं। जिस पट्ट पर आप विराजमान हैं, उस पर आपका नाम 'प्रवर्तिनी विमलमती' और आपके सामने दो साध्वियाँ हैं, जिनके नाम 'नयश्री', 'नयमतिम्' लिखा हुआ है। इनके सम्बन्ध में विशेष जानकारी उपलब्ध नहीं है । काष्ठफलक का चित्र अध्याय एक में दिया गया है । " 5.1.5 अज्ञातनामा महत्तरा (सं. 1169 के लगभग ) संवत् 1169 में जिनदत्तसूरि की शिष्या महत्तरा साध्वी कौमल्या की अज्ञातनामा एक शिष्या का उल्लेख प्राप्त हुआ है। वह नारनौल के श्रीमाल श्रावक की पुत्री थी, विवाह के पश्चात् विधवा हो जाने पर परिवारीजनों ने उसे पति के साथ ही 'सती' होने के लिये बाध्य किया, वह भयभीत बनी आचार्य के पास आई, आचार्यश्री ने उसे कौमल्या साध्वी के पास 12 वर्ष रखकर दीक्षा प्रदान की। एकबार उसके वस्त्रों में अनेक जुएँ देखकर आचार्यश्री ने भविष्यवाणी की - "यह सातसौ साध्वियों की अग्रणी होगी", वैसा ही हुआ, उसे 'महत्तरा' पद प्रदान किया गया। आगे चलकर उसने अपनी गुरूणी कौमल्या साध्वी के कहने पर धर्मशासन की प्रभावना के दस महान कार्य किये। इस साध्वी का नाम एवं उसके द्वारा किये गये दस महान कार्यों का वर्णन उपलब्ध नहीं है। " जैन श्रमणियों का बृहद इतिहास 5.1.6 श्री शांतिमती गणिनी ( संवत् 1172 ) आप आचार्यश्री जिनदत्तसूरिजी की शिष्या थी । संवत् 1172 में इन्हें 'गणिनी' पद से विभूषित किया था। ‘स्वप्न सप्ततिका प्रकरणगत गाथा सटीक' की ताड़पत्रीय प्रति में भी उक्त साध्वीजी के नाम का उल्लेख है। ग्रंथ की भाषा संस्कृत प्राकृत मिश्रित है, ग्रंथाग्र 250 व मूल गाथा 38 है, इस पर कर्ता का नाम नहीं है। यह प्रति संवत् 1215 की है।° शांतिमतिगणिनी के साथ कितनी ही श्राविकाओं ने अपनी जिज्ञासाएँ रखी थीं, वे 'संदेह दोहावली' नाम से प्रसिद्ध हैं । " 5.1.7 श्रीमती, जिनमती, पूर्णश्री, ज्ञानश्री, जिनश्री ( 12वीं सदी ) आप सभी जिनेश्वरसूरि के शिष्य श्री जिनदत्तसूरि की शिष्याएँ थीं। श्री जिनदत्तसूरि ने बागड़ देश में इन पाँचों को दीक्षित किया था। सूरिजी की आज्ञा से ये पाँचों साध्वियाँ अध्ययनार्थ धारानगरी भी (म. प्र. ) गई थीं। अध्ययन कर वापिस आने के बाद इन पाँचों को सूरिजी ने 'महत्तरा' पद से विभूषित किया। 2 जिनदत्तसूरि का आचार्य काल संवत् 1169 से 1211 तक है। 3 8. जिनदत्तसूरि अष्टम शताब्दी ग्रंथ, पृ. 56 9. श्री जिनविजयजी, खरतरगच्छ पट्टावली, परिशिष्ट 3, पृ. 46 10. श्री जंबूविजयजी, जैसलमेर ग्रंथ भंडारों की सूची, परिशिष्ट 13, पृ.608 11. नंदलाल देवलुक्, जिनशासन नां श्रमणी रत्नो, पृ. 150 12. ख. बृ. गु., पृ. 18, 19 13. श्री जिनदत्तसूरि द्वारा अजमेर से बागड़ की ओर विहार में 52 साध्वियों व अनेक साधुओं को दीक्षा देने का उल्लेख है, उसमें जिनरक्षित और शीलभद्र इन दो भाइयों ने भी अपनी माता के साथ दीक्षा ली थी । अन्य साध्वियों के नाम एवं दीक्षा तिथि आदि का उल्लेख नहीं है।- म. विनयसागर, खरतरगच्छ का इतिहास, भा. 1, पृ. 39 270 Page #333 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्वेताम्बर परम्परा की श्रमणियाँ 5.1.8 परम्परा की रक्षिका अज्ञातनामा श्रमणी खरतरगच्छ के इतिहास में महोपाध्याय विनयसागर जी ने जिनवल्लभगणि के समय की एक आर्यिका का उल्लेख किया है, उसने भगवान महावीर के गर्भ कल्याणक मनाने का निश्चय कर बैठे सूरिजी सहित श्री संघ को पार्श्वनाथ चैत्यालय में प्रवेश नहीं करने दिया, क्योंकि उस समय तक गर्भ कल्याणक पर्व मनाने की परिपाटी नहीं थी, साध्वी द्वारा विरोध किये जाने के पश्चात् चित्तोड़ में दो मंदिर निर्मित हुए-एक पार्श्वनाथ भगवान का (पहाड़ पर) एवं दूसरा भगवान महावीर स्वामी का (पहाड़ के नीचे)। 5.1.9 प्रवर्तिनी हेमदेवी (संवत् 1214) ये मणिधारी जिनचन्द्रसूरि की शिष्या थीं। सूरिजी ने संवत् 1214 में त्रिभुवनगिरि (तहनगढ़) में इन्हें 'प्रवर्तिनी' पद प्रदान किया था। 5.1.10 महत्तरा गुणश्री (संवत् 1218) ____ आप संवत् 1218 में उच्चानगरी में मणिधारी जिनचन्द्रसूरिजी से दीक्षित हुई थीं। संवत् 1234 में फलवर्द्धिका (फलौदी) में आपको 'महत्तरा' पद पर प्रतिष्ठित किया गया था। आपके साथ जगश्री व सरस्वती श्री जी की भी दीक्षा होने का उल्लेख है। 5.1.11 देवभद्र की पत्नी (संवत् 1221) संवत् 1221 में श्री देवभद्र की पत्नी ने अपने पति का अनुगमन करते हुए 'बब्बेरक ग्राम' में मणिधारी श्री जिनचंद्रसूरि से प्रव्रज्या ग्रहण की थी।" 5.1.12 शासनप्रभाविका महत्तरा साध्वी (संवत् 1225-75) गुर्वावली में उल्लेख है कि संवत् 1225 से 1275 के मध्य किसी समय श्री जिनपतिसूरिजी 'आसीनगर' में जिनबिंब की प्रतिष्ठा हेतु पधारे, उसी समय एक विद्यासिद्ध योगी वहां भिक्षा नहीं मिलने से रूष्ट हो गया और मूलनायक बिम्ब को कीलित कर चला गया। प्रतिष्ठा-मुहूर्त पर जब संघ उस बिंब को उठाने गया तो वह उठा नहीं। संघ की चिंता और जैनधर्म की हीलना को देख एक महत्तरा साध्वी ने आचार्यश्री से निवेदन करते हुए कहा"भगवन्! संघ में आपकी हँसी हो रही है, क्या हमारे मुनियों में उस अज्ञ योगी जितनी भी विद्या नहीं है? अतः आप अपनी लब्धि का उपयोग कर शासन की रक्षा कीजिये।" महत्तरा साध्वी के वचनों से प्रेरित होकर आचार्य ने अपनी लब्धि का उपयोग किया, बिंब के मस्तक पर उनके द्वारा वासक्षेप करते ही तत्काल बिम्ब उठ गया। महत्तरा साध्वी के नाम आदि की अन्य जानकारी प्राप्त नहीं होती। 14. खरतरगच्छ का इतिहास, पृ. 23, 24 15. ख. बृ. गु. पृ. 50 16. ख. बृ. गु., पृ. 7 17. ख. बृ. गु., पृ. 20 18. ख. बृ. गु., पृ., 93 271 Page #334 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन श्रमणियों का बहद इतिहास 5.1.13 सात श्रेष्ठी पलियाँ (संवत् 1225) संवत् 1225 में श्री जिनपतिसूरिजी ने पुष्करणी में जिनसागर जिनाकर, जिनबंधु, जिनपाल, जिनधर्म, जिनशिष्य और जिनमित्र को पत्नी सहित दीक्षा प्रदान की। इन सातों की पत्नियों के नामों का उल्लेख प्राप्त नहीं होता। 5.1.14 धर्मशील श्रेष्ठी की माता (संवत् 1227) श्री जिनपतिसूरिजी द्वारा उच्चानगरी में श्रेष्ठी धर्मशील व उसकी माता को दीक्षा दिये जाने का उल्लेख है। यह दीक्षा संवत् 1227 में हुई थी। 5.1.15 श्री अजितश्री (संवत् 1227) अजित श्री मुनि शीलसागर और मुनि विनयसागर जी की बहिन थी। संवत् 1227 में इसने मरूकोट में श्री जिनपतिसूरिजी के मुखारविंद से दीक्षा ग्रहण की थी। 5.1.16 श्री अभयमती, जसमती, आसमती और श्री देवी (संवत् 1230) श्री जिनपतिसूरिजी ने उक्त चारों मुमुक्षु आत्माओं को संवत् 1230 विक्रमपुर में जैन भागवती दीक्षा प्रदान की थी। 5.1.17 सिरिमा महत्तरा (संवत् 1233 के लगभग) आप श्री जिनपतिसूरिजी की आज्ञानुवर्तिनी साध्वी थीं आप द्वारा रचित 'श्री जिनपतिसूरि बधामणा गीत' 20 गाथा का संवत् 1233 में लिखा हुआ मिलता है, जिसकी भाषा ठेठ ग्राम प्रचलित लोकगीतों की भाषा के समान है। एक साध्वी द्वारा प्रयुक्त यह भाषा तत्कालीन मरूगुर्जर का प्राकृतिक स्वरूप पाठकों के समक्ष प्रस्तुत करती है। 5.1.18 श्री जयदेवी (संवत् 1234) फलवर्द्धिका (फलौदी) में संवत् 1234 में श्री जयदेवी जिनपतिसूरिजी द्वारा दीक्षित होकर श्रमणी बनी थी। 5.1.19 गणिनी चरणमती (संवत् 1235) आपकी दीक्षा संवत् 1234 में श्री जिनपतिसूरिजी द्वारा अजमेर (राजस्थान) में सम्पन्न हुई। आपकी प्रेरणा से पुत्र देवप्रभ ने भी संयम अंगीकार किया था। 19. ख. बृ. गु., पृ., 23 20. ख. बृ. गु., पृ.. 23 21. ख. बृ. गु., पृ., 24 22. ख. बृ. गु., पृ. 24 23. जैन साहित्य का बृहद् इतिहास, भा. 5, पृ. 145 24. ख. बृ. गु., पृ. 24 25. (क) ख. बृ. गु., पृ. 24, (ख) खरतर. का इतिहास, पृ. 55 270 For Private & based Use Only Page #335 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्वेताम्बर परम्परा की श्रमणियाँ 5.1.20 प्रभावती महत्तरा (संवत् 1241) आपकी दीक्षा संवत् 1241 में श्री जिनपतिसूरिजी के मुखारविन्द से फलौदी में हुई थी, उस समय आपका नाम 'धर्मदेवी' रखा गया। संवत् 1265 में जाबालिपुर के विधि चैत्यालय में जब सूरिजी द्वारा महावीर प्रतिमा की स्थापना की गई, उस समय श्री जिनपालगणि को उपाध्याय पद एवं प्रवर्तिनी धर्मदेवी को 'महत्तरा' पद से अलंकृत किया गया, तथा उसका नाम 'प्रभावती' प्रसिद्ध किया गया। धर्मदेवी एक विदुषी साध्वी थीं, इन्हें संवत् 1263 फाल्गुन कृष्णा 4 को लवणखेड़ा में 'प्रवर्तिनी' पद देने का भी उल्लेख है।7 श्री जिनवल्लभसूरि कृत 'पिण्डविशुद्धि प्रकरण' जिसकी टीका यशोदेवसूरि ने लिखी, उसमें भी आपके नाम का उल्लेख है। इसकी प्रति जिनभद्रसूरि ताड़पत्रीय ग्रंथ भंडार में है।28 5.1.21 संयमश्री, शांतमती एवं रत्नमती (संवत् 1245) श्री जिनपतिसूरिजी द्वारा पुष्करणी नगरी (पोकरण) में संवत् 1245 फाल्गुन मास की शुभ तिथि में श्री संयमश्री आदि तीन बहनों को श्रमणी दीक्षा प्रदान करने का उल्लेख है।" 5.1.22 प्रवर्तिनी रत्नश्री (संवत् 1254) संवत् 1254 में श्री जिनपतिसूरिजी द्वारा धारानगरी में आपने दीक्षा अंगीकार की, आगे चलकर अपने वैदुष्य से आप 'प्रवर्तिनी' पद पर प्रतिष्ठित की गईं।30 5.1.23 महत्तरा आनंदश्री (संवत् 1260) श्री जिनपतिसूरिजी ने संवत् 1260 आसाढ़ कृ. 6 को लवणखेड़ा में आपको 'महत्तरा' पद पर विभूषित किया था। 5.1.24 गणिनी मंगलमती (संवत् 1263) संवत् 1263 फाल्गुन कृ. 4 को लवणखेड़ा में आपने श्री जिनपतिसूरिजी के मुखारविन्द से दीक्षा ग्रहण की। आपके साथ विवेकश्री, कल्याणश्री एवं जिनश्री भी दीक्षित हुई थीं। आपके वैदुष्य से प्रभावित होकर संवत् 1283 माघ कृ. 6 को बाडमेर (राज.) में श्री जिनेश्वरसूरि (द्वितीय) द्वारा आप 'प्रवर्तिनी' के महत्त्वपूर्ण पद पर प्रतिष्ठित की गई थीं। 26. (क) ख. बृ. गु., पृ. 44, (ख) भंवरलाल नाहटा, खरतर. दीक्षा नंदी सूची, पृ. 7 27. खरतर. का इतिहास, पृ. 98 28. जैसलमेर ग्रंथ भंडार सूची, परिशिष्ट 13, पृ. 599 29. ख. बृ. गु., पृ. 44 30. (क) ख. बृ. गु.. पृ. 44 (ख) ख. दी. नं. सू., पृ. 7 31. (क) ख. बृ. गु., पृ. 44 (ख) ख. का इति. पृ. 98 32. (क) ख. बृ. गु., पृ. 49, (ख) ख. दी. नं. सू., पृ. 8 273 Page #336 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन श्रमणियों का बृहद इतिहास 5.1.25 श्री सुन्दरमती श्री आसमती (संवत् 1265) संवत् 1265 में श्री सुन्दरमती और आसमती ने लवणखेड़ा में श्री जिनपतिसूरिजी के मुखारविन्द से दीक्षा अंगीकार की थी। 5.1.26 श्री ज्ञानश्री (संवत् 1266) संवत् 1266 में विक्रमपुर में श्री ज्ञानश्रीजी ने श्री जिनपतिसूरिजी से दीक्षा ग्रहण की थी। 5.1.27 श्री चन्द्रश्री, केवलश्री (संवत् 1269) श्री चन्द्रश्री और केवलश्री ने संवत् 1269 जाबालिपुर में श्री जिनपतिसूरिजी के द्वारा दीक्षा अंगीकार की।" 5.1.28 श्री भुवनश्री गणिनी, श्री जगमती, श्री मंगलश्री (संवत् 1275) संवत् 1275 ज्येष्ठ शुक्ला 12 के शुभ दिन जाबलिपुर में इन तीनों मुमुक्षु बहनों ने श्री जिनपतिसूरिजी के मुखारविंद से श्रामणी दीक्षा अंगीकार की थी। इसके पश्चात् श्री सूरिजी के द्वारा किसी श्रमणी को दीक्षित करने का उल्लेख प्राप्त नहीं होता। ये तीनों श्री जिनपतिसूरिजी की अंतिम शिष्याएँ थीं। 5.1.29 महत्तरा हेमश्री (संवत् 1278-1331) साध्वी हेमश्री, हेमाचार्य की भगिनी थीं। एकबार देव आरक्षित एक पुस्तक जिसमें स्वर्णसिद्धि का उपाय लिखा हुआ था; गुरू द्वारा खोलने व पढ़ने का निषेध करने पर भी इन्होंने उसे खोल दिया, तत्काल ये अंधत्व को प्राप्त हो गई और पुस्तक आकाश में उड़ गई। यह प्रसंग पट्टावली में उल्लिखित है।" 5.1.30 श्री केवलप्रभा (संवत् 1278) श्री जिनपतिसूरिजी के पट्टधर आचार्य श्री जिनेश्वरसूरि द्वारा संपादित दीक्षा सूची में सर्वप्रथम श्री केवलप्रभा का नाम गौरव के साथ लिया गया है। ये खींवड़ की पुत्री थीं, तथा मुनि श्री स्थिरकीर्ति की बहिन थीं, दोनों भ्राता-भगिनी संवत् 1278 माघ शुक्ला 6 को जाबालिपुर में आचार्य जिनेश्वरसूरिजी से दीक्षित हुए थे। 5.1.31 विवेक श्री गणिनी, शीलमाला गणिनी, चन्द्रमाला गणिनी विनयमाला गणिनी (सं. 1279) ___ आप चारों की दीक्षा संवत् 1279 माघ सुदी 5 को जालोर में श्री जिनेश्वरसूरि जी के सान्निध्य में हुई, आप चारों ही 'गणिनी' पद पर भी प्रतिष्ठित 33. ख. बृ. गु., पृ. 44 34. ख. बृ. गु., पृ. 47 35. ख. बृ. गु., पृ. 47 36. ख. बृ. गु., पृ. 47 37. जिनविजयजी, खरतरगच्छ पट्टावली-2, पृ. 25 38. भं. नाहटा, स्वर्णगिरि जालोर, पृ. 23 39. (क) ख. बृ. गुर्वा., पृ. 59, (ख) स्वर्णगिरि जालोर, पृ. 24 (ग) ख. का इति., पृ. 107 274 274] For Private Person Use Only Page #337 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्वेताम्बर परम्परा की श्रमणियाँ 5.1.32 गणिनी ज्ञानमाला (संवत् 1279) आपकी दीक्षा संवत् 1279 ज्येष्ठ शुक्ला 12 को श्रीमालपुर में चारित्रमाला व सत्यमाला के साथ श्री जिनेश्वरसूरि (द्वि.) द्वारा संपन्न हुई थीं। संवत् 1310 वैशाख शुक्ला 13 स्वाति नक्षत्र शनिवार को सूरिजी ने इन्हें "प्रवर्तिनी' पद से विभूषित किया। 5.1.33 गणिनी हेमश्री (संवत् 1280) आपने श्री जिनेश्वरसूरि जी से संवत् 1280 माघ शुक्ला 12 को श्रीमालपुर में दीक्षा अंगीकार की। आपके साथ 'पूर्णश्री' की दीक्षा का भी उल्लेख है।" 5.1.34 गणिनी कमलश्री (संवत् 1281) संवत् 1281 मिती वैशाख शुक्ला 6 के शुभ दिन श्री जिनेश्वरसूरि जी ने आपको दीक्षा प्रदान की। दीक्षा नंदी सूची में आपके साथ 'कुमुदश्रीजी' की दीक्षा का भी उल्लेख है।12 5.1.35 प्रवर्तिनी धर्मसुन्दरी (संवत् 1284) आपने संवत् 1284 में बीजापुर में श्री जिनेश्वरसूरिजी से दीक्षा अंगीकार की। आपके साथ चारित्रसुन्दरी जी की भी दीक्षा हुई। आपके वैदुष्य को देखकर संवत् 1316 माघ शुक्ला 14 को जालोर में सूरिजी ने 'प्रवर्तिनी' पद से विभूषित किया। 5.1.36 श्री उदयश्री (संवत् 1285) ____ श्री उदयश्रीजी ने संवत् 1285 ज्येष्ठ शुक्ला 2 को श्री जिनेश्वरसूरिजी द्वारा बीजापुर (कर्नाटक) में दीक्षा अंगीकार की थी। संभवतः ये कर्नाटक की ही निवासिनी हों। कर्नाटक में सूरिजी के विचरण और दीक्षा प्रदान किये जाने के उल्लेख से कर्नाटक में उस समय श्वेताम्बर जैन समाज के वर्चस्व का भी पता लगता है। 5.1.37 महत्तरा लक्ष्मीनिधि (संवत् 1287) आपने संवत् 1287 फाल्गुन कृष्णा 5 को प्रहलादपुर (पालनपुर) में 'कुलश्री' के साथ श्री जिनेश्वरसूरि जी (द्वि.) से दीक्षा अंगीकार की थी, उस समय आपका नाम 'प्रमोदश्री' था। संवत् 1310 वैशाख शुक्ला 13 को स्वातिनक्षत्र शनिवार के दिन सूरिजी ने प्रमोदश्री गणिनी को 'महत्तरा' पद देकर 'लक्ष्मीनिधि' नाम रखा संवत् 40. (क) ख. बृ. गु. पृ. 49, (ख) ख. दी. नं. सू., पृ. 9, (ग) ख. इति., पृ. 107 41. ख. दी. नं., पृ. 9 42. (क) ख. बृ. गु., पृ. 49%; (ख) ख. दी. नं., पृ.9 43. (क) ख. बृ. गु., पृ. 49,51; (ख) ख. दी. नं., पृ. 12 44. ख. बृ. गु., पृ. 49 For P e rsonal Use Only Page #338 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन श्रमणियों का बृहद इतिहास 1336 में लक्ष्मीनिधि महत्तरा का अन्य 13 साध्वियों के साथ श्री जिनेश्वरसूरिजी के संघ सह शत्रुंजयतीर्थ यात्रा करने का उल्लेख है । 45 5.1.38 गणिनी चारित्रमति ( संवत् 1288 ) संवत् 1288 मिति पौष शुक्ला 11 के दिन श्री जिनेश्वरसूरिजी के सान्निध्य में आपने धर्ममती, विनयमती, एवं विद्यामती आदि 10 मुमुक्षु आत्माओं के साथ जालोर में दीक्षा अंगीकार की थी 146 5.1.39 श्री राजमति, हेमावली, कनकावली, रत्नावली, मुक्तावली ( संवत् 1289 ) संवत् 1289 ज्येष्ठ शुक्ला 12 के शुभ दिन चित्तोड़ (राज.) में श्री जिनेश्वरसूरि (द्वि.) के द्वारा श्री राजमति आदि 5 बहिनों ने संयम जीवन अंगीकार किया था। 47 5.1.40 महत्तरा चंदनश्री (संवत् 1291 ) आपने संवत् 1291 मिति वैशाख शुक्ला 10 को जाबालिपुर में शीलसुन्दरी के साथ दीक्षा ग्रहण की। संवत् 1340 ज्येष्ठ कृ. 5 के दिन जिनप्रबोधसूरिजी ने इन्हें 'महत्तरा' पद से विभूषित कर 'चंदनसुंदरी' से 'चंदन श्री ' नाम प्रदान किया । 48 5.1.41 श्री मुक्तिसुंदरी (संवत् 1309 ) श्री मुक्तिसुंदरी ने संवत् 1309 माघ शुक्ला 12 को पालनपुर में श्री जिनेश्वरसूरि से दीक्षा अंगीकार की । 5.1.42 श्री जयलक्ष्मी, कल्याणनिधि, प्रमोदलक्ष्मी, गच्छवृद्धि ( संवत् 1313 ) श्री जिनेश्वरसूरि द्वारा ही संवत् 1313 चैत्र शुक्ला 14 को जालोर में श्री जयलक्ष्मी आदि 4 मुमुक्षु बहनों के संयम जीवन अंगीकार करने का उल्लेख प्राप्त होता है। 50 5.1.43 प्रवर्तिनी रत्नवृष्टि ( संवत् 1315 ) आप साऊ रूयड़ विमलचन्द्र " की पुत्री थी। आपने श्री जिनेश्वरसूरि जी से पालनपुर में संवत् 1315-16 आसाढ़ शुक्ला 10 को दीक्षा अंगीकार की, आपके साथ ही 'बुद्धिसमृद्धि' और 'ऋद्धिसुन्दरी' भी दीक्षित हुई थीं। 45. (क) ख. बृ. गु., पृ. 49-50, 52, (ख) ख. इति., पृ. 115 46. ख. बृ. गु., पृ. 89 47. ख. बृ. गु., पृ. 49 48. (क) ख. बृ. गु., पृ. 49-58, (ख) ख. इति., पृ. 109 49. ख. बृ. गु., पृ. 49 50. ख. बृ. गु., पृ. 50 51. अनेकान्त जय पताका वृत्ति की प्रशस्ति में साहू विमलचन्द्र के पुत्रों द्वारा शत्रुञ्जय, उज्जयन्त आदि महातीर्थों में संघ यात्रा निकालने और उस उपलक्ष में स्वर्णगिरि पर प्रासाद निर्माण का उल्लेख है । - स्वर्णगिरि जालोर, पृ. 28 276 Page #339 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्वेताम्बर परम्परा की श्रमणियाँ संवत् 1334 मार्गशीर्ष शुक्ला 13 को श्री जिनप्रबोधसूरि ने आपको 'प्रवर्तिनी' पद से अलंकृत किया। था। संवत् 1366 में जब श्री जिनचन्द्रसूरि संघ सहित भीमपल्ली से पत्तन, खम्भात और महातीर्थों की यात्रा के लिये निकले तब प्रवर्तिनी रत्नवृष्टि भी 15 ठाणों से उस यात्रा में साथ थी। 5.1.44 गणिनी बुद्धिसमृद्धि (संवत् 1315) आपने जिनेश्वरसूरिजी से पालनपुर में संवत् 1315-16 आसाढ़ शुक्ला 10 को दीक्षा अंगीकार की। संवत् 1342 वैशाख शुक्ला 10 के दिन जाबालिपुर में आपको 'प्रवर्तिनी' पद पर विभूषित किया। चैत्र शुक्ला 13 को भीमपल्ली से शंखेश्वर की यात्रा में आप 15 साध्वियों के साथ तीर्थयात्रा में सम्मिलित हुई थी। 5.1.45 श्री सौम्यमूर्ति, न्यायलक्ष्मी (संवत् 1317) ___संवत् 1317 वैशाख शुक्ला 12 को श्री जिनेश्वरसूरि ने इनको दीक्षा दी। दीक्षा स्थान का उल्लेख नहीं है। 5.1.46 श्री विजयसिद्धि (संवत् 1319) संवत् 1319 माघ कृष्णा 5 के शुभ दिन इनकी दीक्षा श्री जिनेश्वरसूरि द्वारा हुई थी। 5.1.47 श्री चित्तसमाधि, क्षान्तिनिधि (संवत् 1321) संवत् 1321 फाल्गुन शुक्ला 2 गुरूवार के दिन श्री जिनेश्वरसूरि द्वारा प्रह्लादपुर में इनकी दीक्षा हुई। 5.1.48 प्रवर्तिनी प्रियदर्शना (संवत् 1322) ___आपने संवत् 1322 माघ शुक्ला 14 को विक्रमपुर में श्री जिनेश्वरसूरिजी द्वारा जिनदीक्षा अंगीकार की थी। आपके साथ 'मुक्तिवल्लभा', 'नेमिभक्ति', 'मंगलनिधि' व 'वीरसुन्दरी' ने भी दीक्षा अंगीकार की थी। संवत् 1368 में जिनचन्द्रसूरि ने भीमपल्ली में आपको ‘महत्तरा' पद पर अलंकृत किया था।” बृहद्गुर्वावली के अनुसार उन्हें प्रवर्तिनी पद दिया गया था। श्री जिनकुशलसूरि के पाटण में मनाये गये पाट-महोत्सव पर श्री 'जयर्द्धि महत्तरा' 'प्रवर्तिनी बुद्धिसमृद्धि' एवं 'प्रवर्तिनी प्रियदर्शना गणिनी आदि 23 साध्वियों के सम्मिलित होने का उल्लेख गुर्वावली में है। 52. (क) ख. बृ. गु., पृ. 51, 62, (ख) ख. इति., पृ. 133 53. (क) ख. बृ. गु., पृ. 59, 63, (ख) ख. इति., पृ. 128, 135 54. ख. बृ. गु., पृ. 49 55. ख. बृ. गु., पृ. 49 56. ख. बृ. गु., पृ. 50 57. ख. दी. नं. सू., पृ. 17 58. ख. बृ. गु., पृ. 64 59. ख. बृ. गु., पृ. 69 277 Page #340 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 5.1.49 श्री विनयसिद्धि, आगमवृद्धि ( संवत् 1323 ) श्री जिनेश्वरसूरि द्वारा संवत् 1323 मार्गशीर्ष कृष्णा 5 जाबालिपुर में श्री विनयसिद्धि और आगमवृद्धि को दीक्षा प्रदान की थी 150 5.1.50 श्री अनंतलक्ष्मी, व्रतलक्ष्मी, एकलक्ष्मी, प्रधानलक्ष्मी (संवत् 1324 ) संवत् 1324 मार्गशीर्ष कृष्णा 2 शनिवार के दिन जाबालिपुर में ही अनंतलक्ष्मी आदि 4 मुमुक्ष बहनों ने श्री जिनेश्वरसूरि से प्रव्रज्या अंगीकार की । " 5.1.51 कल्याणऋद्धि गणिनी (वि. संवत् 1330 ) आपको संवत् 1330 मिती वैशाख कृ. 6 के शुभ दिन श्री जिनेश्वरसूरिजी ने जाबालिपुर (जालोर) में 'प्रवर्तिनी' पद से अलंकृत किया था । 2 जैन श्रमणियों का बृहद इतिहास 5.1.52 गणिनी केवलप्रभा, हर्षप्रभा, जयप्रभा, यशप्रभा ( संवत् 1331 ) श्री जिनप्रबोधसूरि के पद स्थापना महोत्सव पर संवत् 1331 फाल्गुन शुक्ला 5 के शुभ दिन केवलप्रभा'हर्षप्रभा', 'जयप्रभा', 'यशप्रभा' ने दीक्षा अंगीकार की। खरतर दीक्षा नंदी सूची व खरतरगच्छ के इतिहास में पदारोहण के 12 दिन पश्चात् दीक्षा लेने का उल्लेख है । 4 श्री केवलप्रभा जी की योग्यता व विद्वत्ता का मूल्यांकन करते हुए संवत् 1369 मार्गशीर्ष कृष्णा 6 के दिन उन्हें पाटण नगर में 'प्रवर्तिनी' पद पर प्रतिष्ठित किया | S 5.1.53 श्री लब्धिमाला, पुण्यमाला (संवत् 1332 ) श्री लब्धिमाला और पुण्यमाला ने संवत् 1382 को जाबालिपुर में श्री जिनप्रबोधसूरि से दीक्षा अंगीकार की । उस समय वहां श्री जिनेश्वरसूरिजी की मूर्ति स्थापना भी हुई थी 1 5.1.54 गणिनी कुशल श्री (संवत् 1333 ) आपको संवत् 1333 माघ कृष्णा 13 को जाबालिपुर में श्री जिनप्रबोधसूरिजी ने 'प्रवर्तिनी' पद से विभूषित किया था। आचार्य श्री चैत्र कृष्णा 5 संवत् 1333 में शत्रुंजय महातीर्थ की यात्रा हेतु जाबालिपुर से प्रस्थित हुए 60. ख. बृ. गु., पृ. 51 61. ख. बृ. गु., पृ. 52 62. (क) ख. बृ. गु., पृ. 54, (ख) ख. इति., पृ. 118 63. ख. बृ. गु., पृ. 54 64. (क) ख. दी. नं. सू., पृ. 14 (ख) खर का इति पृ. 120 65. ख. बृ. गु., पृ. 64 66. ख. बृ. गु., पृ. 55 278 Page #341 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्वेताम्बर परम्परा की श्रमणियाँ उस समय 27 साधु एवं प्रवर्तिनी ज्ञानमाला गणिनी, प्रवर्तिनी कुशल श्रीजी, प्रवर्तिनी कल्याणऋद्धि प्रभृति 21 साध्वियाँ भी पूज्यश्री के साथ थीं। 5.1.55 गणिनी धर्ममाला, गणिनी लक्ष्मीमाला (संवत् 1334) आप श्री जिनप्रबोधसूरिजी से संवत् 1334 मिति ज्येष्ठ कृ. 7 के शुभ दिन शत्रुञ्जय महातीर्थ पर दीक्षित हुई थी, आपके साथ 'साध्वी पुष्पमाला' एवं 'यशोमाला' की भी दीक्षा हुई। संवत् 1375 में जिनचन्द्रसूरि द्वारा इन्हें फलौदी में 'प्रवर्तिनी' पद तथा 'लक्ष्मीमाला गणिनी' को संवत् 1391 पोष कृष्ण 10 सोमवार के दिन जैसलमेर में आचार्य जिनपद्मसूरि जी द्वारा 'प्रवर्तिनी' पद प्रदान किया गया। 5.1.56 श्री कुमुदलक्ष्मी, भुवनलक्ष्मी (संवत् 1339) श्री कुमुदलक्ष्मी, भुवनलक्ष्मी ने संवत् 1339 ज्येष्ठ कृष्णा 4 के शुभ दिन जाबालिपुर में जिनप्रबोधसूरि जी से दीक्षा अंगीकार की। 5.1.57 गणिनी पुण्यसुंदरी (संवत् 1340) आपने संवत् 1340 मिती ज्येष्ठ कृष्णा 4 के दिन जैसलमेर में जिनप्रबोधसूरि जी से संयम-रत्न अंगीकार किया। आपके साथ श्री 'रत्नसुंदरी', 'भुवनसुंदरी' एवं 'हर्षसुंदरी' की भी दीक्षा हुई थी। आपको संवत् 1375 माघ शुक्ला 12 को फलौदी पार्श्वनाथ में श्री जिनचन्द्रसूरि जी ने 'प्रवर्तिनी' पद देकर सम्मानित किया था। संवत् 1381 में आप साधुराज वीरदेव कारित कृत युगावतार महारथ तुल्य श्री देवालय में चतुर्विंशति पट्टक की स्थापना के समय श्री जिनकूशलसूरिजी के साथ थीं। यह महोत्सव भीमपल्ली में ज्येष्ठ कृष्णा 5 को हुआ था। 5.1.58 श्री धर्मप्रभा और देवप्रभा (संवत् 1341) इनकी दीक्षा श्री जिनप्रबोधसूरिजी द्वारा संवत् 1341 फाल्गुन कृष्णा 11 को हुई। ये क्षुल्लिकाएँ थीं।" 5.1.59 गणिनी रत्नमंजरी (संवत् 1342) __आप ठाकुर हांसिल के पुत्ररत्न देहड़ के छोटे भाई स्थिरदेव की पुत्री थी। संवत् 1342 वैशाख शुक्ला 10 के शुभ दिन जाबालिपुर में श्री जिनचन्द्रसूरि ने इन्हें तथा 'जयमंजरी' एवं 'शीलमंजरी' को दीक्षा प्रदान की थी। संवत् 1368 में आपको 'महत्तरा' पद प्रदान कर 'जयर्द्धि महत्तरा' नाम दिया गया। श्री जिनपद्मसूरि जब संवत् 67. (क) ख. बृ. गु., पृ. 55 (ख) स्वर्णगिरि जालोर, पृ. 30 68. (क) ख. बृ. गु., पृ. 55, 66, 86 (ख) खरतरगच्छ दीक्षा नंदी सूची, पृ. 18 69. ख. बृ. गु., पृ. 58 70. (क) ख. बृ. गु., पृ. 58, 78, (ख) ख. दी. नं. सू., पृ. 18 71. ख. बृ. गु., पृ. 55 72. ख. दी. नं. सू., पृ. 17 Page #342 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन श्रमणियों का बहद इतिहास 1394 चैत्र शुक्ला पूर्णिमा को 15 साधुओं एवं श्रावकों के साथ 'अर्बुदतीर्थ' की यात्रा पर गये तब आप भी आठ साध्वियों के साथ उस तीर्थ यात्रा में सम्मिलित हुई थीं। 5.1.60 श्री चारित्रलक्ष्मी (संवत् 1345) संवत् 1345 वैशाख कृष्णा 1 के दिन जाबालिपुर में श्री जिनचन्द्रसूरिजी के द्वारा इनकी दीक्षा हुई।74 5.1.61 श्री रत्नश्री (संवत् 1346) संवत् 1346 फाल्गुन शुक्ला 8 को जाबालिपुर में श्री जिनचन्द्रसूरिजी के द्वारा 'रत्नश्रीजी' की दीक्षा हुई। 5.1.62 श्री मुक्तिलक्ष्मी, मुक्तिश्री (संवत् 1346) संवत् 1346 ज्येष्ठ कृष्णा 7 को भीमपल्ली में श्री जिनचन्द्रसूरिजी के श्री मुख से इन दोनों ने दीक्षा अंगीकार की। उस समय शासन की महती प्रभावना हुई थी। 5.1.63 श्री मुक्तिचन्द्रिका (संवत् 1347) __ श्री मुक्तिचंद्रिका की दीक्षा संवत् 1347 चैत्र कृष्णा 6 को बीजापुर में श्री जिनचन्द्रसूरिजी द्वारा हुई।” 5.1.64 श्री अमृतश्री (संवत् 1348) संवत् 1348 वैशाख शुक्ला 3 को प्रहलादपुर में श्री सूरिजी के हाथों इन्होंने संयम ग्रहण किया था। 5.1.65 श्री हेमलक्ष्मी (संवत् 1351) संवत् 1351 माघ कृष्णा 5 को प्रह्लादपुर में इनकी दीक्षा श्री जिनचन्द्रसूरिजी द्वारा हुई। 5.1.66 श्री जयसुंदरी (संवत् 1354) संवत् 1354 ज्येष्ठ कृष्णा 10 को जाबालिपुर में इनकी दीक्षा श्री जिनचंद्रसूरिजी द्वारा हुई।१० 73. ख. बृ. गु., पृ. 59, 87 74. ख. बृ. गु., पृ. 59 75. ख. बृ. गु., पृ. 59 76. ख. बृ. गु., पृ. 60 77. ख. बृ. गु., पृ. 61 78. ख. बृ. गु., पृ. 61 79. ख. बृ. गु., पृ. 62 80. ख. बृ. गु., पृ. 62 280 Page #343 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्वेताम्बर परम्परा की श्रमणियाँ 5.1.67 श्री व्रतधर्मा, दृढ़धर्मा (संवत् 1367 ) भीमापल्ली में संवत् 1367 में इनकी दीक्षा हुई थी, उस समय श्री जिनचंद्रसूरिजी चतुर्विध संघ के साथ शंखेश्वर की तीर्थयात्रा करके भीमपल्ली में पधारे थे।" 5.1.68 श्री पद्मश्री, व्रतश्री (संवत् 1367 ) ये दोनों क्षुल्लिकाएँ थीं। श्री जिनचंद्रसूरिजी से संवत् 1367 फाल्गुन शुक्ला प्रतिपदा के दिन भीमपल्ली में ये दीक्षित हुई थीं। 2 5.1.69 श्री यशोनिधि, महानिधि ( संवत् 1370 ) संवत् 1370 माघ शुक्ला 11 के दिन श्री जिनचंद्रसूरि द्वारा इन्होंने प्रव्रज्या अंगीकार की । ३ 5.1.70 श्री प्रियधर्मा, आशालक्ष्मी, धर्मलक्ष्मी (संवत् 1371) संवत् 1371 फाल्गुन शुक्ला 11 को भीमपल्ली में आचार्य जिनचंद्रसूरिजी से दीक्षित हुईं थीं 184 5.1.71 श्री पुण्यलक्ष्मी, ज्ञानलक्ष्मी, कमललक्ष्मी, मतिलक्ष्मी (संवत् 1371 ) संवत् 1371 मिती ज्येष्ठ कृष्णा 10 को जाबालिपुर में श्री जिनचंद्रसूरि द्वारा ये सभी एक साथ दीक्षित होकर प्रव्रज्या के पावन पथ पर आरूढ़ हुई थीं। 5.1.72 श्री शीलसमृद्धि, दुर्लभसमृद्धि, भुवनसमृद्धि ( संवत् 1375 ) नागोर में संवत् 1375 माघ शुक्ला 12 को उक्त तीनों श्रमणियां श्री जिनचंद्रसूरिजी द्वारा दीक्षित हुई । " 5.1.73 साध्वी धर्मसुन्दरी, चारित्रसुन्दरी (संवत् 1381 ) संवत् 1381 को पाटण में इन दोनों ने आचार्य श्री जिनकुशलसूरिजी से दीक्षा अंगीकार की ।187 5.1.74 साध्वी कमलश्री, ललित श्री (संवत् 1382 ) आचार्य श्री जिनकुशलसूरि द्वारा भीमपल्ली में संवत् 1382 वैशाख शुक्ला 5 के शुभ दिन इनकी दीक्षा हुई । " 81. ख. बृ. गु., पृ. 63 82. ख. बृ. गु., पृ. 63 83. ख. बृ. गु., पृ. 64 84. ख. बृ. गु., पृ. 64 85. ख. बृ. गु., पृ. 64 86. ख. बृ. गु., पृ. 64 87. ख. बृ. गु., पृ. 77 88. ख. बृ. गु., पृ. 80 281 For Private Personal Use Only Page #344 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन श्रमणियों का बृहद इतिहास 5.1.75 साध्वी कील्हू (संवत् 1382) आप पाल्हणपुर निवासी माल्हू गोत्रीय रूद्रपाल शाह और धारला की पुत्री थी। संवत् 1382 में अपने भ्राता 'समरिग' के साथ श्री जिनकुशलसूरि के पास भीमपल्ली में दीक्षा अंगीकार की। 'समरिग' 'मुनि सोमप्रभ' के नाम से विख्यात हुए, संवत् 1415 में खम्भात शहर में आचार्य पद पर स्थापित होने पर ये 'जिनोदयसूरि' नाम से प्रसिद्ध हुए। श्री जिनकुशलसूरि ने संवत् 1382 वैशाख सुदि 5 को “विनयप्रभ' 'मतिप्रभ', सोमप्रभ', 'हरिप्रभ', 'ललितप्रभ' इन 5 मुनि एवं 2 क्षुल्लिकाओं को दीक्षा दी थी। संभव है उन्हीं में से एक का नाम 'कोल्हू' हो। दीक्षा के बाद क्षुल्लिकाओं का क्या नाम रखा, इसका उल्लेख नहीं है। 5.1.76 कुछ क्षुल्लिका दीक्षाएँ (संवत् 1384) श्री जिनकुशलसूरि द्वारा संवत् 1384 वैशाख शुक्ला 5 के दिन दो क्षुल्लिकाओं को दीक्षा देने का उल्लेख प्राप्त होता है। क्षुल्लिकाओं के नाम आदि की जानकारी उपलब्ध नहीं है। इनके पश्चात् संवत् 1385 फाल्गुन शुक्ला 4 को देवराजपुर (देवरावर) में भी कुछ क्षुल्लिकाओं के दीक्षित होने के उल्लेख उपलब्ध होते हैं।" 5.1.77 श्री कुलधर्मा, विनयधर्मा, शीलधर्मा (संवत् 1386) संवत् 1386 माघ शुक्ला 5 को देवराजपुर (देरावर) में श्री जिनकुशलसूरिजी के द्वारा उक्त तीनों की दीक्षाएँ हुई थीं। 5.1.78 श्री महाश्री, कनकश्री (संवत् 1390) इन दोनों ने संवत् 1390 ज्येष्ठ शुक्ला 6 सोमवार के शुभ दिन क्षुल्लिका दीक्षा अंगीकार की थी। ये दीक्षाएँ दादा गुरूदेव श्री जिनकुशलसूरि जी के स्वर्गारोहण के पश्चात् श्री जिनपद्मसूरिजी के मुखारविंद से हुईं। 5.1.79 प्रबुद्धसमृद्धि गणिनी (14वीं सदी) ___14वीं सदी के प्रारंभ में विद्यमान खरतरगच्छ के जिनेश्वरसूरि के शिष्य वाचक सर्वराजगणि रचित 'गणधरसार्द्धशतक' की संक्षिप्त व्याख्या उक्त साध्वीजी की अभ्यर्थना से की गई थी। 5.1.80 श्री मतिसुन्दरी, हर्षसुन्दरी (संवत् 1431) श्री मतिसुंदरी भूतपूर्व देश सचिव माल्हू शाखीय डुंगरसिंह की पुत्री थी, इनका गृहस्थ नाम 'उमा' था। इनकी 89. (क) खरतर. पट्टावली पृ. 12 (ख) श्री अगरचंद नाहटा, ऐति. लेख संग्रह, पृ. 502 90. खर. दीक्षा नंदी सूची, पृ. 19 91. ख. बृ. गु., पृ. 80 92. ख. बृ. गु., पृ. 82 93. ख. बृ. गु., पृ. 85-86 94. 'नाहटा' ऐति. लेख संग्रह, पृ. 339 282 Page #345 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्वेताम्बर परम्परा की श्रमणियाँ दीक्षा संवत् 1431 मिती मार्गशीर्ष की प्रथम छठ के दिन करहेड़ा तीर्थ में हुई थी। इनके ही साथ 'हर्षसुन्दरी' की भी दीक्षा हुई थी। जो व्यावहारिक वंशी महीपति की पुत्री थीं, उनका सांसारिक नाम 'हांसू' था। ये दोनों दीक्षाएँ आचार्य जिनोदयसूरिजी द्वारा हुई थीं। श्री जिनोदयसूरिजी ने संवत् 1415 में 24 शिष्य और 14 शिष्याओं को दीक्षा प्रदान की, उसके पश्चात् भी संवत् 1432 तक अनेक आर्याओं की दीक्षा आप द्वारा हुई, कइयों को गणिनी, प्रवर्तिनी, महत्तरा पद से भी अलंकृत किया, किंतु उनमें से किसी के भी नाम, संवत् आदि की ऐतिहासिक जानकारी उपलब्ध नहीं है। 5.1.81 गुणसमृद्धि महत्तरा (संवत् 1477) आप खरतरगच्छ के श्री जिनचन्द्रसूरि की शिष्या थीं। आपने 503 पद्यों में जैन महाराष्ट्री (प्राकृत) में 'अंजणासुंदरी चरियं' रचा है। यह ग्रंथ जैसलमेर के भंडार में विद्यमान है। इसमें हनुमानजी की माता अंजनासुंदरी का चरित्र वर्णित है। इस रचना की प्रशस्ति से ज्ञात होता है कि इसकी रचना संवत् 1477 चैत्र शुक्ला 13 के दिन जैसलमेर में की गई थी।” प्राकृत भाषा की ये एकमात्र लेखिका साध्वी हैं। इनके वैदुष्य की प्रशंसा कई जैन इतिहासकारों ने अपने ग्रंथों में की है। 5.1.82 जयमाला (संवत् 1492 के लगभग) आप खरतरगच्छीय जिनचंद्रसूरि (1492-1530) की शिष्या थीं। इन्होंने "जिनचन्द्रसूरिगीत' सात गाथा में व 'चन्द्रप्रभु स्तवन' लिखा। इसकी प्रति 'अगरचंद नाहटा (बीकानेर) के ग्रंथ भंडार में है।98 5.1.83 मतिवल्लरि गणिनी (संवत् 1499) आप श्री जिनभद्रसूरि (1475-1514) की शिष्या थीं। संवत् 1499 में इन्होंने श्री सुमतिसूरि की टीका वाला दशवैकालिक सूत्र जो करीब तीन हजार श्लोक प्रमाण है; अपनी शिष्या 'आज्ञावल्लरि गणिनी' को पढ़ाने के लिये लिखवाया था। 5.1.84 राजलक्ष्मी गणिनी (संवत् 1520) ये आचार्य जिनसमुद्रसूरि (1533-1555) की शिष्या थीं। इनका संवत् 1520 मृगसर कृष्णा 10 को पालनपुर में वर्षावास होने का उल्लेख प्राप्त होता है।100 95. ख. दी. नं., सू., पृ. 22 पृ. 265, बड़ोदरा, ई. 1968 96. ख. का इति., पृ. 182 97. सिरि जैसलमेर पुरे विक्कम च उदसह सत्तुत्तरे वरिसे। वीर जिण जम्मदिवसे कियमंजणिसुंदरी चरिय।। 503 ।। -ही. र. कापड़िया, जैन संस्कृत साहित्य का इति. 98. 'नाहटा' ब्र. पं. चंदाबाई अभि. ग्रंथ, पृ. 576 99. 'नाहटा' ऐति. लेख संग्रह, पृ. 339 100. जिनशासन नां श्रमणीरत्नों, पृ. 31 283 Page #346 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 5.1.85 साध्वी हर्षलक्ष्मी ( संवत् 1550 ) संवत् 1550 में रचित खरतरगच्छीय कल्याणतिलक का 'धन्नारास' साध्वी कनकलक्ष्मी की शिष्या हर्षलक्ष्मी के लिये लिपिकृत हुआ । इसकी प्रति अभय जैन लायब्रेरी बीकानेर (नं. 3490) में है। 101 5.1.86 साध्वी गणिनी (संवत् 1573 ) 4 'श्री जंबूस्वामी चरित्र' (गद्य) संवत् 1573 में खरतरगच्छ के श्री सत्यतिलक मुनि ने प्रह्लादपुर में साध्वी के वाचनार्थ लिखा। यह प्रति घोघा भंडार अहमदाबाद में है। 102 5.1.87 साध्वी सुमतिसिद्धि ( संवत् 1591 ) श्री शुभवर्धन शिष्य रचित' गजसुकुमाल ऋषिरास' साध्वी सुमतिसिद्धि के पठनार्थ प्रतिलिपि किया हुआ अभय जैन ग्रंथालय बीकानेर में ( नं 255 ) है । यही रास पं. रंगकुशलमुनि ने लिखकर साध्वी हर्षलक्ष्मी को पठनार्थ प्रदान किया। प्रति बीकानेर (नं. 2630) में है। 103 5.1.88 साध्वी श्री रूपाई (संवत् 1600 के लगभग ) आप भट्टारक श्री विजयदेवसूरि की आज्ञानुवर्तिनी साध्वी थीं। इस साध्वी का चित्र स्वर्ण की स्याही में लिखी गयी कल्पसूत्र की एक प्रति से प्राप्त हुआ है, जिसमें एक ओर आचार्य विराजमान हैं, दूसरी ओर एक के पीछे एक ऐसी तीन साध्वियों के चित्र हैं। आचार्य के चित्र पर 'भट्टारक श्री विजयदेव सूरीश्वर गुरूभ्यो नमः' तथा साध्वी के चित्र के ऊपर 'साही श्री रूपाई' अंकित है। चित्र अध्याय 1 में दिया गया है। जैन श्रमणियों का बृहद इतिहास 5.1.89 श्री हेमसिद्धिगणिनी ( संवत् 1602 ) इनके लिये श्री विमलकीर्तिगणी ने 'उपदेशमाला प्रकरण' की प्रतिलिपि संवत् 1602 में लिखकर प्रदान की थी। ये मानसिद्धि की प्रशिष्या और पद्मसिद्धि की शिष्या थी। यह प्रति आचार्य सुशलिमुनि आश्रम नई दिल्ली में है। 104 5.1.90 श्री विमलसिद्धि ( संवत् 1644 ) खरतरगच्छीय कनकसोम रचित " आर्द्रकुमार चौपाई' विमलसिद्धि के पठनार्थ संवत् 1644 में प्रतिलिपि की गई। यह प्रति दानसागर संग्रह बीकानेर (पो. 40 नं. 1048) में है । 105 101. जै. गु. क. भाग 1, पृ. 197 102. जै. गु. क. भाग 1, पृ. 389 103. जै. गु. क., भाग 1, पृ. 320 104. अप्रकाशित 105. जै. गु. क., भाग 2 पृ. 149 284 Page #347 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्वेताम्बर परम्परा की श्रमणियाँ 5.1.91 श्री राजलक्ष्मी ( संवत् 1646 ) खरतरगच्छीय जयसोमगणि की 'बारह भावना संधि' (संवत् 1646 ) की प्रतिलिपि साध्वी राजलक्ष्मी ने साध्वी क्षेमलक्ष्मी जयलक्ष्मी के वाचनार्थ लिखी । प्रति अभय ग्रंथालय बीकानेर (नं. 2731 ) में है 1 106 5.1.92 श्री पद्मसिद्धि ( संवत् 1652 ). खरतरगच्छीय हर्षसार के शिष्य शिवनिधान ने संवत् 1652 श्रावण कृष्णा 4 को शाकम्भरी (सांभर) में रचित 'शाश्वत स्तवन' (गु.) में मानसिद्धि गणिनी की शिष्या पद्मसिद्धि के पठनार्थ का उल्लेख किया है। इस ग्रंथ (प्रशस्ति) की एक हस्तलिखित प्रति महावीर जैन विद्यालय मुंबई (नं. 687) में है । 107 5.1.93 श्री मृगादे 'माणिक्यमाला' (संवत् 1661 ) मृगादे जंगलदेश के बीकानेर नगर के राजा रायसिंह के राज्य में बोथरा गोत्रीय शाह बच्छा की भार्या थीं। एकबार जिनसिंहसूरिजी का वहाँ शुभागमन हुआ, इन्होंने अपने दोनों पुत्र विक्रम और सामल के साथ संवत् 1661 माघ शुक्ला 7 को दीक्षा अंगीकार करली। विक्रम का विनयकल्याण एवं सामल का 'सिद्धसेन' नाम दिया। ये सिद्धसेन आगे जाकर 'आचार्य जिनसागरसूरि' नाम से खरतरगच्छ के प्रभावशाली आचार्य हुए। निर्वाणरास ( कवि सुमतिवल्लभकृत) में 'मृगादे' का नाम 'माणिक्यमाला' दिया है। 108 5.1.94 प्रवर्तिनी लावण्यसिद्धि (स्वर्ग. संवत् 1662 ) आप वीकराज की पत्नी गुजरदे की कुक्षि से उत्पन्न हुई थी और प्रवर्तिनी रत्नसिद्धि की पट्टधर शिष्या थीं। साध्वी हेमसिद्धि ने 'लावण्यसिद्धि पहुतणी गीतम्' में लिखा है कि आप जिनचन्द्रसूरिजी के आदेश से बीकानेर आईं और वहीं अनशन आराधना कर संवत् 1662 में स्वर्ग सिधारी । वहां आपकी स्मृति में एक स्तूप बनाया गया। 109 5.1.95 प्रवर्तिनी सोमसिद्धि ( संवत् 1662 के आसपास ) आप नाहर गोत्रीय नरपाल की पत्नी सिंघादे की कुक्षि से पैदा हुई, बचपन का नाम 'संगारी' था। जेठाशाह के पुत्र राजसी के साथ आपका विवाह हुआ 18 वर्ष की अवस्था में आपने लावण्यसिद्धि के पास दीक्षा अंगीकार की, उन्हीं से विद्याभ्यास किया और उनकी पट्टधर बनीं। इन्होंने शत्रुंजय आदि तीर्थों की यात्रा की थी, तप-जप साधना करके अंत में श्रावण कृष्ण 14 गुरूवार को संथारे सहित स्वर्गवासिनी हुईं। आपकी शिष्या हेमसिद्धि ने 'मल्हार राग' में 'सोमसिद्धि निर्वाण गीतम्' 18 पद में लिखा, जिसमें गुरणी के प्रति अपार स्नेह प्रदर्शित हुआ है। 106. जै. गु. क. भाग 2 पृ. 236 107. जै. गु. क. भाग 2, पृ. 284 108. माणिकमाला मावड़ी विनयकल्याण विशेष । सिद्धसेन इम त्रिहुं जणा, नाम दीक्षा ना देखि ।। गाथा 15-अगरचंद नाहटा, ऐति. जैन काव्य संग्रह, पृ. 191 109. 'नाहटा', ऐति. जैन काव्य संग्रह, पृ. 210-211 285 Page #348 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन श्रमणियों का बृहद इतिहास विरला पालइ नेहडउ तुमसु (तो?) प्राण आधारो रे। तुम बिना हुँ क्युं कर रहुं, दुखिया तुं साधारो रे।।15 ॥१० 5.1.96 प्रवर्तिनी हेमसिद्धि (संवत् 1662 के लगभग) __ आपने स्वयं अपना कोई परिचय नहीं दिया है, किंतु आपकी दो रचनाएँ 'लावण्यसिद्धि पहुतणीगीतम्' और 'सोमसिद्धि निर्वाण गीतम्' से ज्ञात होता है कि आप सोमसिद्धि की शिष्या और लावण्यसिद्धि की प्रशिष्या थीं। रचना की पंक्तियों में लावण्यसिद्धि इनकी गुरणी और सोमसिद्धि सहगुरूणी प्रतीत होती हैं। आपकी दोनों रचनाएँ 'ऐतिहासिक जैन काव्य संग्रह' में नाहटा जी ने प्रकाशित की है। तत्कालीन लिपी अभय जैन ग्रंथालय बीकानेर में संग्रहित है।" 5.1.97 श्री विमलसिद्धि (संवत् 1662 के लगभग) आप मुल्तान निवासी माल्हू गोत्रीय साहू जयतसी की पत्नी जुगतादे की कुक्षि से उत्पन्न हुई थीं। लघुवय में ही ब्रह्मचर्यव्रत के धारक अपने पितृव्य गोपाशाह के प्रयत्न से प्रतिबोध पाकर आपने लावण्यसिद्धि के पास प्रव्रज्या अंगीकार की। और बीकानेर में स्वर्गवासिनी हुई। उपाध्याय ललितकीर्तिजी ने स्तूप के अंदर आपके सुंदर चरणों की स्थापना कर प्रतिष्ठा करवाई। साध्वी विवेकसिद्धि ने 'विमलसिद्धि गुरूणी गीतम्' में विमलसिद्धि का उक्त परिचय दिया है। 12 हिंदी जैन साहित्य का इतिहास भा. 3 पृ. 483 पर आपको अठारहवीं सदी की आर्या लिखा है, किंतु आप लावण्यसिद्धि की शिष्या हैं, और उनके स्वर्गवास के समय आप विद्यमान थीं, अत: आपका समय संवत् 1662 के लगभग होना सिद्ध है। 5.1.98 श्री विवेकसिद्धि (संवत् 1662 के लगभग) ___ आपने अपनी गुरूणी की स्तुति में “विमलसिद्धि गुरूणी गीतम्' लिखा। यह रचना आपकी प्रतिभा की प्रतीक है। ऐतिहासिक जैन काव्य संग्रह' में यह गीत प्रकाशित है। 5.1.99 श्री कल्याणमाला, स्वरूपमाला (संवत् 1664) संवत् 1664 फाल्गुन शुक्ला 2 बुधवार को आगरा नगर में श्री विजयदेवसूरि रचित 'शीलप्रकाश रास' की प्रतिलिपि बृहत्खरतरगच्छ के भट्टारक श्री जिनचन्द्रसूरि ने उक्त साध्वियों के पठनार्थ लिखवाकर प्रदान की, ऐसा उल्लेख है। यह प्रति 'नित्यविजय लायब्रेरी चाणस्मा' में संग्रहित है। प्रति संख्या 673 है।14 110. 'नाहटा', ऐति. जैन काव्य संग्रह, पृ. 212-213 111. 'नाहटा', ऐति. जैन काव्य संग्रह, पृ. 210 112. 'नाहटा', ऐति. जै. का. संग्रह, पृ. 422 113. 'नाहटा', ऐ. जै. का. संग्रह, पृ. 66 114. (क) अ. म. शाह, श्री प्रशस्ति संग्रह, पृ. 170 (ख) जैन गुर्जर कविओ, भाग 1, पृ. 314 286 Page #349 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्वेताम्बर परम्परा की श्रमणियाँ 5.1.100 श्री पद्मसिद्धि गणिनी, पुण्यसिद्धि गणिनी, मानसिद्धि गणिनी ( संवत् 1669 ) संवत् 1669 में विरचित उपदेशमाला प्रकरण के बालावबोध में श्री विमलकीर्ति ने उक्त साध्वियों का उल्लेख किया है। इसकी हस्तलिखित प्रति जिनभद्रसूरि नो हस्तलिखित भंडार ( ग्रंथांक 1581 ) में मौजूद है | 15 संवत् 1692 में रचित 'विमलकीर्ति गुरू गीतम्' से प्रतीत होता है कि ये खरतरगच्छ के कीर्तिरत्नसूरि शाखा की साध्वियाँ थीं। 5.1.101 श्री प्रेमसिद्धि गणिनी ( संवत् 1671 ) श्री विमलकीर्तिकृत 'यशोधर चरित्र चौपाई' (संवत् 1665) राजधानी नगर में संवत् 1671 को प्रेमसिद्धि गणिनी के वाचनार्थ प्रतिलिपि की गई। यह प्रति अनंतनाथ जी नुं जैन मंदिर मांडवी मुंबई भंडार 2 में संग्रहित है। ये मानसिद्धिगणिनी की प्रशिष्या और श्री पद्मसिद्धिगणिनी की शिष्या थीं। 5.1.102 श्री तारादेवी (संवत् 1684 ) तारादेवी सेरूणा नगर निवासी लूणिया गोत्रीय शाह तिलोकसी की पत्नी थीं। इनके दो पुत्र थे - रतनसी एवं रूपचन्द। पति तिलोकसी के स्वर्गवास के पश्चात् इन्हें संसार से विरक्ति हुई, अतः अपने दोनों पुत्रों को साथ लेकर इन्होंने बीकानेर में विराजित भट्टारक श्री जिनराजसूरि के पास दीक्षा की प्रार्थना की। पूज्यश्री ने लाभ देखकर माता तेजलदे (तारादेवी) को 16 वर्षीय पुत्र रतनसी एवं 8 वर्षीय रूपचंद के साथ दीक्षा प्रदान की। इनकी दीक्षा संवत् 1684 को हुई। रतनसी आगे जाकर 'आचार्य जिनरत्नसूरि' के रूप में प्रख्यात आचार्य हुए। 17 5.1.103 श्री राजसिद्धि, आणंदसिद्धि ( संवत् 1686 ) श्री भागसिद्धि गणिनी की ये दोनों शिष्याएँ थीं, इनके लिये पुण्यकीर्ति रचित 'रूपसेनकुमार रास' (संवत् 1681 रचित) की प्रति तैयार कर संवत् 1686 में पठनार्थ दी गई। यह प्रति अगरचंद नाहटा बीकानेर के संग्रह में है | 128 5.1.104 श्री ज्ञानसिद्धि, धनसिद्धि ( संवत् 1689 ) इनके लिये पंडित पुण्यकलश ने 'नवतत्त्व स्तबक' की प्रतिलिपि तैयार कर संवत् 1689 कार्तिक कृष्णा 7 को पठनार्थ दी। यह प्रति जैन विद्याशाला अमदाबाद में है। 19 5.1.105 श्री प्रभावती ( संवत् 1690) संवत् 1690 आश्विन 2 बुधवार को 'श्री जंबूस्वामी चतुष्पदी' की प्रति श्री राजकलश की शिष्या प्रभावती 115. जैसल. के जैन ग्रंथ भंडारों की सूची, परिशिष्ट 13, पृ. 599 116. जै. गु. क. भाग 3 पृ. 116 117. (क) ख. दी. नं. सूची, पृ. 29 (ख) खरतरगच्छ पट्टावली, परिशिष्ट-2, पृ. 36 118. जै. गु. क., भाग 3 पृ. 123 119. (क) जै. गु. क., भाग 3 पृ. 354 (ख) प्रशस्ति-संग्रह, पृ. 200, प्रशस्ति संख्या - 705 287 Page #350 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन श्रमणियों का बृहद इतिहास द्वारा विरोज शहर में लिखी गई। यह प्रति हंसविजय शास्त्र भंडार वडोदरा एवं हेमचन्द्राचार्य ज्ञान मंदिर पाटण में संग्रहित है। साध्वी प्रभावती श्री दयासुंदरीजी की शिष्या थीं। 20 5.1.106 श्री राजश्री (संवत् 1694) संवत् 1694 माघ शुक्ला 11 अमदाबाद में ऋषि राजकीर्ति ने साध्वीजी के लिये उपाध्याय समयसुंदर कृत 'दान शील तप भावना संवाद' (रचना सं. 1662) की प्रतिलिपि की। यह पादरा भंडार (नं. 43) में है। 21 5.1.107 श्री पद्मलक्ष्मी (संवत् 1695) उपाध्याय समयसुंदरकृत 'चार प्रत्येकबुद्ध नो रास' (संवत् 1665) साध्वी हेमा की शिष्या साध्वी पद्मलक्ष्मी के पठनार्थ संवत् 1695 में प्रतिलिपि की गई। प्रति वर्धमान रामजी हेमराज शेठ नो मालो मुंबई या नलिया (कच्छ) में है। 22 5.1.108 श्री विद्यासिद्धि (संवत् 1699) आपकी एक रचना 'गुरूणी गीतम्' नाम से 'ऐतिहासिक जैन काव्य संग्रह' में प्रकाशित है। प्रारम्भ की पंक्ति नहीं होने से गुरूणी का नाम उपलब्ध नहीं हुआ, किंतु उससे यह ज्ञात होता है कि आपकी गुरूणी साउँसुखा गोत्रीय कर्मचन्द की पुत्री थी, और जिनसिंहसूरि (1670-1674) ने उन्हें प्रवर्तिनी' पद दिया था। यह रचना संवत् 1699 भाद्रपद कृष्णा 2 की है। इनकी एक रचना 'जिनराजसूरि गीत' (पद संख्या 5) भी है, जो अगरचंद जी नाहटा बीकानेर के संग्रह में है। 23 5.1.109 श्री सौभाग्यविजया (संवत् 1700) संवत् 1700 में बृहत्खरतरगच्छ के युगप्रधान भट्टारक श्री जिनरंगसूरि परम्परा की साध्वी दीपविजया की शिष्या श्री कीर्तिविजया की शिष्या श्री सौभाग्यविजया की चरणपादुका प्रतिष्ठित की गई।124 5.1.110 श्री कीर्तिलक्ष्मी (संवत् 1702) उपाध्याय पद्मराजकृत 'क्षुल्लक कुमार राजर्षि चरित्र' (संवत् 1667) श्री महेशदास राजा के राज्य में पं. लब्धिनिधान ने संवत् 1702 वैशाख शुक्ला 4 गुरूवार को प्रतिलिपि कर भीनमाल में साध्वी कीर्तिलक्ष्मी को । पठनार्थ प्रदान की थी। प्रति अभय जैन ग्रंथालय बीकानेर (नं. 3754) में है। 25 120. (क) अ. म. शाह, प्रशस्ति संग्रह, पृ. 200, (ख) जै. गु. क., भाग 1, पृ. 132 121. जै. गु. क. भाग 2, पृ. 315 122. जै. गु. क. भाग 2, पृ. 322 123. 'नाहटा', ऐति. जैन काव्य संग्रह, पृ. 214 124. नाहर पूरणचन्द्र, जैन लेख संग्रह, भाग 1, लेख संख्या-205 125. जै. गु. क., भाग 2, पृ. 266 288 288 Page #351 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्वेताम्बर परम्परा की श्रमणियाँ 5.1.111 श्री विद्यासिद्धि, समयसिद्धि (संवत् 1711) श्री कमलहर्ष वाचक ने 'जिनरत्नसूरि निर्वाण रास' आगरा में रचा, उसे पाटण में मानजी करमसी ने संवत् 1711 कार्तिक शुक्ला 7 सोमवार को लिपि कर श्री विद्यासिद्धि, समयसिद्धि को पठनार्थ दिया। प्रति महिमा भक्ति संग्रह बीकानेर बृहद् ज्ञान भंडार (पो. 86) में है। 26 5.1.112 आर्या गौर्या (संवत् 1714) आर्या गौर्या ने कनककीर्तिकृत 'नेमिनाथ रास' (संवत् 1692) की प्रतिलिपि पांडे जादै से संवत् 1714 में लिखाई। प्रति 'अनंतनाथ जी नुं जैन मंदिर, मांडवी मुंबई नो भंडार' में है।127 5.1.113 श्री महिमासिद्धि (संवत् 1723) आपकी प्रार्थना पर खरतरगच्छीय भट्टारक श्री जिनचंद्रसूरि के राज्य में वाचक कमलहर्ष ने संवत् 1723 सोजत शहर में 'दशवैकालिक के दस अध्ययन' पर गीत की रचना की।128 साध्वियों की प्रेरणा या अनुनय से प्रेरित होकर आचार्यों एवं विद्वान् मुनियों ने आगम-ग्रंथों को जन-सुलभ भाषा में रचना कर सबके लिये उपयोगी बनाया, ऐसे अनेकों उदाहरण इतिहास में मौजूद हैं। 5.1.114 श्री कीर्तिलक्ष्मी (संवत् 1725) जिनोदयसूरि विरचित 'हंसराज वच्छराज नो रास' (संवत् 1680) की प्रतिलिपि लक्ष्मीसेन साधु ने संवत् 1725 में साध्वी कीर्तिलक्ष्मी के पठनार्थ तैयार की। यह प्रति अभय जैन ग्रंथालय बीकानेर (नं. 2881) में है।।29 5.1.115 श्री पुष्पमाला, साध्वी प्रेममाला (संवत् 1730) संवत् 1730 में खरतरगच्छ के भट्टारक श्री जिनधर्मसूरि की शिष्या साध्वी विनयमाला ने साध्वी पुष्पमाला की एवं साध्वी प्रेममाला की चरण पादुका प्रतिष्ठापित करवाई।।30 5.1.116 श्री चन्दनमाला (संवत् 1740) संवत् 1740 में चन्दनमाला साध्वी की चरण पादुका साध्वी सौभाग्यमाला द्वारा प्रतिष्ठापित करवाई गई। 126. (क) ऐतिहासिक जैन काव्य संग्रह पृ. 234-40 (ख) जै. गु. क., भाग 4, पृ. 186 127. जै. गु. क., भाग 2, पृ. 292 128. डॉ. क्षीरसागर, राजस्थानी हिन्दी हस्त. ग्रंथों की सूची, भाग 8, पृ. 145 129. जै. गु. क., भाग 2, पृ. 151 130. "नाहटा अगरचंद', बीकानेर जैन लेख संग्रह, संख्या 54 131. वही, लेख संख्या-52 289 Page #352 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन श्रमणियों का बृहद इतिहास 5.1.117 श्री लक्ष्मादे (संवत् 1740) आचार्य आनंदवर्धन का 'अर्हन्नकरास' (संवत् 1702 की रचना) बावरा में मुनि गणेश ने संवत् 1740 में आर्या लक्ष्मादे के पठनार्थ लिखा। प्रति अभय जैन ग्रंथालय बीकानेर (पोथी 13 नं. 139) में है। 32 5.1.118 आर्या राजश्री (संवत् 1740) बृहद्खरतरगच्छीय आनंदवर्धन के 'अर्हन्नकरास' को संवत् 1740 में गणि विनयानंद ने धारानगरी में साध्वी राजश्री के वाचनार्थ लिपि किया। यह प्रति 'विजयधर्म लक्ष्मी लायब्रेरी वेलनगंज आगरा में है।133 5.1.119 श्री सज्जनाजी (संवत् 1762) साध्वी सरूपा की शिष्या साध्वी सज्जनां के पठनार्थ बृहत्खरतगच्छ के सागरचन्द्रसूरि की परम्परा के सुखहेम ने संवत् 1762 में 'चतुर्विंशति जिन स्तवन' की प्रति लिखकर प्रदान की, यह प्रति मोहनलाल दलीचंद देसाई महावीर जैन विद्यालय मुंबई के संग्रह भंडार में है। 34 5.1.120 श्री राजसिद्धि गणिनी (संवत् 1775) संवत् 1775 में साध्वी राजसिद्धि गणिनी की पादुका श्राविकाओं द्वारा करवाने का उल्लेख प्राप्त होता है। 35 5.1.121 श्री भावसिद्धि (संवत् 1780) खरतरगच्छ भट्टारक श्री जिनधर्मसूरि के गच्छ की साध्वी श्री भावसिद्धि की पादुका उनकी शिष्या जयसिद्धि द्वारा प्रतिष्ठित करवाई गई।।36 5.1.122 श्री लाडमदेवीजी (संवत् 1781) जिनमाणिक्यसूरि शाखा के सुगुणतिलक के शिष्य मुनि आसकर्ण द्वारा संवत् 1781 में अजमेर नगर में 'पुण्यसार रास' लिखकर साध्वी लाडमदेजी को देने का उल्लेख है। यह प्रति विजय नेमीश्वर ज्ञान मंदिर खंभात (नं. 4498) में संग्रहित है।137 5.1.123 श्री मानसिद्धि, विनयसिद्धि, लक्ष्मीसिद्धि (संवत् 1783) संवत् 1783 फाल्गुन शु. 5 के शुभ दिन भट्टारक श्री जिनभक्तिसूरि ने श्री मानसिद्धि, श्री विनयसिद्धि एवं श्री लक्ष्मीसिद्धि को दीक्षा प्रदान की। ये क्रमशः श्री जीवसिद्धि, श्री भामा व श्री जीवाजी की शिष्याएँ बनीं।।33 132. जै. गु. क., भाग 4, पृ. 67 133. जै. गु. क., भाग 4, पृ. 67 134. जै. गु. क., भाग 2, पृ. 110 135. बी. जै. ले. सं. लेख सं. 1417, पृ. 293 136. वही, लेख सं. 51 137. जै. गु. क. भाग 3, पृ. 122 138. ख. दी. नं. सूची, पृ. 123 290 Page #353 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्वेताम्बर परम्परा की श्रमणियाँ 5.1.124 श्री कनकमाला, किसनमाला व रूपमाला (संवत् 1797) संवत् 1797 प्रथम आसाढ़ शुक्ला 5 को जैसलमेर में भट्टारक श्री जिनकीर्तिसूरि द्वारा प्रदत्त तीन श्रमणी दीक्षाओं का उल्लेख है-साध्वी कनकमाला, किसनमाला एवं रूपमाला।139 5.1.125 श्री विवेकसिद्धि (18वीं शती) श्री विनयचंद्रसूरि रचित 'विनयांकित महाकाव्य' (रचना संवत् 1266-1345 के मध्य) जो भगवान मल्लिनाथ पर आठ सर्गों में लिखा गया है, इसकी हस्तलिखित प्रति में साध्वी विवेकसिद्धि का उल्लेख है।140 5.1.126 गणिनी अमरश्री (18वीं सदी) खरतरगच्छीय कनककवि कृत 'वलकलचीर ऋषि राजवेलि' (रचना संवत् 1582-1612 के मध्य) की प्रतिलिपि मंडपगढ़ में गणिनी अमरश्री ने श्राविका कीकी के लिये की। इसकी प्रति राजस्थान प्राच्य विद्या प्रतिष्ठान जोधपुर में है। 5.1.127 श्री सत्यलक्ष्मी (18वीं सदी) ऋषि रविचंद्र ने खरतरगच्छ के धर्मसमुद्रगणी रचित 'जयसेन चोपाई' साध्वी सत्यलक्ष्मी को लिखकर पठनार्थ दी। यह प्रति ‘संघ हस्तक नो उपाश्रय मां नो भंडार, मांगरोल में है। 42 5.1.128 गणिनी विशालशोभा (18वीं सदी) पंडितउदय रत्नगणि के शिष्य ने 'जयसेन चौपाई' की प्रतिलिपि कर गणिनी विशालशोभा की शिष्या लालबाई को पठनार्थ दी। प्रति मोटा संघ नो भंडार, राजकोट में है। 43 5.1.129 श्री मलूकोजी (संवत् 1803) उपाध्याय समयसुंदर कृत 'प्रियमेलकरास' की प्रतिलिपि संवत् 1803 ज्येष्ठ कृष्णा 2 को पूर्णकर साध्वी मलूको जी को पठनार्थ दी गई। यह प्रति सर्वज्ञ महावीर जैन पुस्तक भंडार, धोरांजी (गुजरात) में है। 44 5.1.130 श्री रूपसीजी (संवत् 1804) खरतरगच्छ के जिनराजसूरि की 'शालिभद्रधन्नारास' (रचना संवत् 1678) की प्रतिलिपि संवेग कीसनदास 139. ख. दी. नं. सूची, पृ. 124 140. (क) जैन साहित्य का बृ. इति., खंड 3, पृ. 486; (ख) वही, खंड 6 पृ. 110 141. जै. गु. क., भाग 1, पृ. 504 142. जै. गु. क., भाग 1, पृ. 243 143. जै. गु. क., भाग 1, पृ. 243 144. जै. गु. क., भाग 2, पृ. 330 291 Page #354 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन श्रमणियों का बृहद इतिहास ने देहगाम में संवत् 1804 कार्तिक शुक्ला 11 रविवार को करके साध्वी रूपसी पठनार्थ दी। यह प्रति महिमा भक्ति ज्ञान भंडार बीकानेर (पोथी 86) में है। 45 5.1.131 श्री प्रभाजी (संवत् 1812) खरतरगच्छीय भद्रसेन वाचक की 'चंदन मलयागिरि चौपाई' (रचना संवत् 1709) की प्रतिलिपि संवत् 1812 मार्गशीर्ष कृ. 13 शुक्रवार को पं. भाणविजयजी ने करके महाराजपुर में साध्वी दीपां जी की शिष्या श्री प्रभाजी को दी। यह प्रति महावीर जैन भंडार धोरांजी (गु.) में है। 46 5.1.132 प्रवर्तिनी सुजानविजयाजी (संवत् 1820) पावापुरी तीर्थ स्थल पर चंदनबाला कोठरी के चरणों पर उल्लेख है कि संवत् 1820 में प्रवर्तिनी श्री सुजानविजयाजी की पादुका प्रतिष्ठित की गई। 47 5.1.133 अज्ञातनामा साध्वीजी (संवत् 1844) संवत् 1844 में महत्तरा साध्वी सुजानविजया जी की शिष्या दीपविजया उनकी शिष्या पानविजया की प्रेरणा से किसी भक्त श्रावक ने चरण पादुका प्रतिष्ठित कराई, साध्वीजी के नाम का उल्लेख नहीं है। 48 5.1.134 महत्तरा श्री मतिविजयाजी (संवत् 1848) संवत् 1848 में खरतरगच्छीय भट्टारक श्री जिनरंगसूरि की परम्परा में महत्तरा साध्वी मतिविजया की चरण पादुका उनकी शिष्या रूपविजयाजी ने पावापुरी में प्रतिष्ठित करवाई।।49 5.1.135 श्री राजाजी, श्री चैनाजी ( संवत् 1863) बीकानेर गंगाशहर रोड पर स्थित आदिनाथ मंदिर में संवत् 1863 की एक चरण पादुका है, जो विक्रमपुर में प्रतिष्ठित हुई, उस पर साध्वी राजा एवं साध्वी चैनां के नामों का उल्लेख हैं अर्थात् उक्त दोनों साध्वियों की ये पादुकाएं हैं।150 5.1.136 श्री सिद्धश्रीजी (संवत् 1888) संवत् 1888 वै. शुक्ला 3 मेड़ता निवासी सोलंकी गोत्रीय श्री रतनचंदजी के पुत्र पीरचंदजी की भार्या 'सरूपां' पं. चारित्रविनय मुनि के उपदेश से श्री सुमतिवर्द्धन की शिष्या बनीं। उनका नाम 'सिद्धश्री' दिया गया।।51 145. जै. गु. क., भाग 3, पृ. 105 146. जै. गु. क., भाग 3, पृ. 183 147. 'नाहर' जैन लेख संग्रह, भाग 1, लेख संख्या 204 148. वही, भाग 1, ले. सं. 335 149. वही, भाग 1, लेख सं. 206 150. 'नाहटा' बीकानेर जैन लेख संग्रह, ले. सं. 2024, पृ. 281 151. खरतरगच्छ दीक्षा नंदी सूची, पृ. 122 292 Page #355 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्वेताम्बर परम्परा की श्रमणियाँ 5.1.137 श्री ज्ञानश्रीजी (संवत् 1888) संवत् 1888 पोष कृष्ण 2 को नागोर निवासी छजलानी गोत्रीय श्री वृद्धिचंदजी की पत्नी गुमानी भी पं. सुमतिवर्द्धन की शिष्या बनी एवं 'ज्ञानश्री' नाम दिया गया। 52 5.1.138 प्रवर्तिनी श्री विनयसिद्धिजी श्री अमृतसिद्धिजी (संवत् 1888) संवत् 1888 द्वितीय वैशाख शुक्ला 7 को जिनहर्षसूरि द्वारा प्रवर्तिनी साध्वी श्री विनयसिद्धि की पादुका व अमृतसिद्धि की पादुका प्रतिष्ठित करवाई गई।153 5.1.139 यतिनी इन्द्रध्वजमालाजी (संवत् 1892) संवत् 1892 का लेख है कि श्री जिनउदयसूरि ने इन्द्रध्वजमाला की पादुका धेनमाला की प्रेरणा से प्रतिष्ठित करवाई, उस समय श्री रतनसिंहजी राज्य करते थे। यह पादुका किसी 'यतिनी' की है।154 5.1.140 श्री लक्ष्मीश्रीजी (संवत् 1894) संवत् 1894 आसाढ़ शुक्ला 10 को पाली निवासी खूबचन्दजी धारीवाल के पुत्र रूघजी की धर्मपत्नी 'लाछां ने सिद्धश्रीजी के उपदेश से वैराग्य-वासित हृदय से 'जिनमहेन्द्रसूरि' के मुखारविन्द से जिनदीक्षा ग्रहण की। उनका नाम 'लक्ष्मीश्री' रखा गया।55 | 5.1.141 श्री बुद्धिजी, कस्तूरांजी (संवत् 1899) बीकानेर के ही आदिनाथ मंदिर में संवत् 1899 में साध्वी श्री बुद्धिजी की व साध्वी कस्तूरांजी की पादुका विक्रमपुर में प्रतिष्ठित होने का उल्लेख है। 5.1.142 श्री बख्तावरजी (संवत् 1899) संवत् 1899 में विक्रमपुर में ही साध्वी बख्तावरजी की पादुका होने की भी सूचना प्राप्त होती है। 5.1.143 आर्या जसुजी, अमरांजी, उमेदांजी (संवत् 1899) संवत् 1899 में अमरसोत शाखा की आर्या श्री जसुजी की पादुका उनकी पौत्री शिष्या साध्वी उमा द्वारा 152. वही, पृ. 122 153. 'नाहटा' बीकानेर-जैन लेख संग्रह, ले. सं. 2079 154. वही, ले. सं. 2315, पृ. 324 155. वही, पृ. 122 156. वही, ले. सं. 2026 157. वही. ले. सं. 2027 293 For Private Personal Use Only Page #356 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन श्रमणियों का बृहद इतिहास प्रतिष्ठापित कराई गई। आर्या उमाजी ने इसी वर्ष अपनी दादा गुरूणी अमरांजी की, तथा उमेदांजी की भी पादुका प्रतिष्ठित करवाई।158 5.1.144 श्री उमेदांजी (संवत् 1919) ___ संवत् 1919 में साध्वी उमेदांजी की पादुका का उल्लेख बीकानेर के आदिनाथ मंदिर में प्राप्त होता है।।59 5.1.145 श्री ज्ञानमाला जी (संवत् 1924) संवत् 1924 में भट्टारक श्री जिनहेमसूरि ने विक्रमपुर में साध्वी श्री चनणाश्री की प्रेरणा से साध्वी ज्ञानमाला जी की पादुका बनवाई, जो यतिनी साध्वी थी।10 5.1.146 श्री चंदन श्री जी (संवत् 1930) संवत् 1930 में साध्वी धेनमाला की शिष्या गुमानश्री उनकी शिष्या चंदनश्री ने अपनी प्रसन्नता से अपनी पादुका बीकानेर में महाराज बहादुर डुंगरसिंह के राज्यकाल में प्रतिष्ठित कराई। ये साध्वी जी बृहत्खरतरगच्छ के भट्टारक आचार्य जिनहेमसूरि की शिष्या थी। 5.1.147 श्री मानलक्ष्मीजी (संवत् 1943) संवत् 1943 में साध्वी मानलक्ष्मी की चरण पादुका कनकलक्ष्मी द्वारा स्थापित करवाई गई।162 5.1.148 श्री रतनश्रीजी (संवत् 1948) श्री नवलश्रीजी (संवत् 1951) साध्वी यतनश्री जी ने संवत् 1948 में रतनश्री जी साध्वी की पादुका स्थापित करवाई। आर्या यतनश्री द्वारा ही नवलश्री की पादुका संवत् 1951 में प्रतिष्ठित करवाई गई।163 5.1.149 श्री नवलश्रीजी (संवत् 1964) संवत् 1964 में चंदनश्री पद पर विराजित नवलश्री जी के जीवन काल में ही चरण पादुका स्थापित होने का उल्लेख प्राप्त होता है यह साध्वी खरतरगच्छ में आचार्य श्री जिनसिद्धिसूरिजी की परंपरा की थी।164 5.1.150 साध्वी जतनश्री (संवत् 1975) संवत् 1975 में साध्वी श्री जतनश्रीजी की पादुका श्रीसंघ बीकानेर द्वारा प्रतिष्ठित करवाने का उल्लेख है। यहाँ एक स्थान पर संवत् 1981 तथा अन्यत्र 1977 भी उल्लिखित है।।65 158. वही, ले. सं. 2565, 2566,2567, पृ. 363 159. वही, ले. सं. 2025 160. वही, ले. सं. 2311, पृ. 323 161. वही. ले. सं. 2312, पृ. 323 162. बीकानेर जैन लेख संग्रह, ले. सं. 2294 163 वही. ले. सं. 2121, 2120 165. वही. ले. सं. 2314, पृ. 324 294 Page #357 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्वेताम्बर परम्परा की श्रमणियाँ 5.1.151 श्री जयवंत श्री जी ( संवत् 1981 ) संवत् 1981 में साध्वी श्री जयवन्तश्रीजी की पादुका श्री मदनचंद जी किशनचंद जी द्वारा करवाई गई । 166 5.1.152 श्री उमेदांश्री जी (संवत् 1988 ) श्री उमेदश्रीजी के स्वर्गवास पर संवत् 1988 में उनकी चरण पादुका प्रतिष्ठित की गई । 167 5.1.153 अन्य श्रमणी - पादुकाएँ (संवत् 1970-90 ) संवत् 1970 में साध्वी प्रेमश्रीजी, संवत् 1974 में गुरणीजी विवेकश्री की, संवत् 1988 में साध्वी उमेदश्रीजी की तथा संवत् 1975 में चमन जी, अभुजी, कस्तूरांजी की चरण पादुका प्रतिष्ठित हुई। इसी प्रकार बीकानेर श्रीसंघ ने संवत् 1990 में पू. श्री सुखसागर जी महाराज की संप्रदाय की साध्वी प्रवर्तिनी श्री पुण्यश्रीजी की शिष्या प्रवर्तिनी श्री सुवर्णश्रीजी के चरणों की स्थापना करवाई । 168 5.1.2 समकालीन खरतरगच्छ की श्रमणियाँ बीसवीं तथा 21वीं सदी में भी खरतरगच्छ की श्रमणियों का इतिहास अत्यन्त उज्जवल, गरिमामयी रहा है। अनेकों श्रमणियाँ आजीवन ब्रह्मचारिणी, विशिष्ट व्याख्यानदात्री अद्भुत तपस्विनी विदुषी एवं प्रचारिका के रूप में प्रसिद्धि को प्राप्त हुईं। वर्तमान में इस समुदाय के प्रमुख नायक गणाधीश श्री कैलाशसागरसूरिजी की आज्ञा में 237 साध्वियाँ विचरण कर रही हैं, जिनमें एक महत्तरा साध्वी श्री मनोहर श्रीजी तथा दो प्रवर्तिनी साध्वियाँ - श्री विद्वानश्रीजी तथा श्री तिलक श्रीजी हैं। समकालीन खरतरगच्छ के विशाल श्रमणी - समुदाय में हमें कुछ ही श्रमणियों का परिचय प्राप्त हुआ, वह यहाँ प्रस्तुत कर रहे हैं। 5.1.2.1 श्री उद्योतश्रीजी ( संवत् 1918 - 40 ) आप फलौदी निवासी रतनचंदजी गोलेछा की धर्मपत्नी थी। गोलेछाजी की मृत्यु के पश्चात् संसार से विरक्त होकर संवत् 1918 माघ शुक्ला 5 में अपने तीन पुत्र, पाँच पौत्र व तीन पौत्रियों की मोहमाया को छोड़कर श्री रूपश्रीजी राजश्रीजी के पास संयम ग्रहण किया। आप कठोर क्रिया की पक्षधर थीं। फलौदी में श्री सुखसागरजी महाराज की उत्कृष्ट क्रिया- पात्रता को देखकर विरोधियों के वाग्बाणों की भी परवाह न कर आपने उनके साथ क्रियोद्धार का कार्य किया, एवं जीवन पर्यन्त उनकी आज्ञानुयायिनी बनकर रहीं । आपकी प्रमुख चार शिष्याएँ थीं- धनश्री, लक्ष्मीश्री, मगनश्री और शिवश्री । इनमें लक्ष्मीश्रीजी और शिवश्रीजी बहुश्रुती एवं प्रभावशालिनी साध्वी हुईं। अत: उद्योतश्रीजी की परंपरा उक्त दो साध्वियों के नाम से अद्यतन प्रवहमान है। 169 शिथिलाचार का परिहार कर विशुद्ध श्रमणाचार का परिपालन करने कराने में जिस प्रकार आचार्यों एवं मुनियों ने कार्य किया उसी प्रकार 166. वही. ले. सं. 2122 2125 2126 2127 2128 167. वही. ले. सं. 2123 168. वही. ले. सं. 2124 169. जिन शासननां श्रमणीरत्नो, पृ. 798 295 For Personal Use Only Page #358 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन श्रमणियों का बृहद इतिहास श्रमणी-वर्ग ने भी इस कार्य में अपनी महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई है। 20वीं सदी में क्रियोद्धारिका के रूप में उद्योतश्री जी का नाम गौरव के साथ लिया जाता है। 5.1.2.2 प्रवर्तिनी लक्ष्मीश्रीजी (संवत् 1924) ____ आप फलोदी के श्रेष्ठी जीतमलजी गोलेछा की सुपुत्री एवं सरदारमलजी झाबक की धर्मपत्नी थीं। बाल्यवय में पति के निधन से वैराग्यभाव जागृत हुआ, एवं श्री सुखसागरजी के सदुपदेश से संसार का त्याग कर संवत् 1924 मार्गशीर्ष कृष्णा 10 को दीक्षा ग्रहण की। इन्होंने अनेक महिलाओं को दीक्षा दी थी, उसमें संवत् 1931 में पुण्यश्रीजी को भी दीक्षा देने का उल्लेख प्राप्त होता है, इनके द्वारा अन्य कितनी दीक्षाएँ दी गईं, इसका कोई उल्लेख प्राप्त नहीं है, किंतु 'पुण्यमंडल' और 'शिवमंडल' के नाम से इनकी शिष्याओं की दो शाखाएँ वर्तमान में प्रसिद्ध है। 70 5.1.2.3 प्रवर्तिनी पुण्यश्रीजी (संवत् 1931-76) : जैसलमेर के संपन्न परिवार में श्री जेतमलजी व कुंदनदेवी के यहाँ संवत् 1915 में इनका जन्म हुआ। इनकी इच्छा के विरूद्ध फलौदी निवासी दौलतसिंहजी झाबक के साथ विवाह कर दिया गया, किंतु 18 दिन में ही पति की मृत्यु से 'भलो थयो भांगी जंजाल' की तरह ये संसारी जाल से मुक्त होकर दीक्षा के महापथ पर आरूढ़ हो गईं। गणनायक श्री सुखसागरजी के सान्निध्य में संवत् 1931 वैशाख शुक्ला 11 के दिन दीक्षा अंगीकार की। इनके प्रसन्न-गंभीर आकर्षक व्यक्तित्व, गहन आत्मज्ञान एवं मधुरवाणी से खरतरगच्छ में तेजी से श्रमणियों की अभिवृद्धि हुई। संवत् 1931 से 1976 तक 45 वर्षों के मध्य 116 दीक्षाएँ विभिन्न स्थानों पर हुईं और वे भी विशाल समारोह पूर्वक, इनमें 49 तो इनकी स्वयं की शिष्याएँ बनीं, शेष प्रशिष्याएँ थीं। यही नहीं, अनेक पुरूष भी इनकी प्रेरणा से प्रतिबोधित होकर संयम लेने को तत्पर हुए। शासन प्रभावना में इनका नाम सुवर्णाक्षरों में अंकित है। अनेक संघ-यात्राएँ अनेक जिनालयों का पुनर्निमाण व नवनिर्माण इनकी प्रेरणा व नेश्राय में हुआ, हजारों लोग व्यसन मुक्त व अभक्ष्य त्यागी बने। इस प्रकार श्री पुण्यश्रीजी का पुण्य प्रभाव बहुजनहिताय रहा। संवत् 1972 से 76 तक ये जयपुर में स्थिरवासिनी रहीं, संवत् 1976 फाल्गुन शुक्ला 10 को इनके स्वर्गवास के पश्चात् जयपुर मोहनवाड़ी में इनकी पुण्य स्मृति में छतरी बनाकर 'चरण पादुका' प्रस्थापित की गई।17। 'पण्य जीवन ज्योति' नाम से इनका जीवन चरित्र भी जयपुर से प्रकाशित हुआ है। प्रवर्तिनी श्री पुण्यश्रीजी के शिष्या-परिवार का परिचय तालिका में देखें। 5.1.2.4 प्रवर्तिनी शिवश्रीजी 'सिंहश्री जी' (संवत् 1932-65) अपने दोनों नामों को सार्थकता प्रदान करने वाली साध्वी शिवश्रीजी का जन्म 1912 में फलौदी निवासी पिता लालचन्द्रजी व माता अमोलकदेवी के यहाँ हुआ। संसारी नाम 'शेरू' था, शेर के समान ही ये निर्भीक व साहसी थीं। बालवय में लग्न और पश्चात् विधवा हो जाने पर संसार के दु:खों का सामना करते हुए विरक्ति के भाव जागृत हुए, बीस वर्ष की उम्र में संवत् 1932 अक्षय-तृतीया के शुभ दिन श्री लक्ष्मीश्रीजी के चरणों में संयम 170. वही, पृ. 799 171. वही, पृ. 799 296 Page #359 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्वेताम्बर परम्परा की श्रमणियाँ अंगीकार किया। साहस व संयम की धनी, ज्ञान व क्रिया में चुस्त, प्रवचन में कुशल शिवश्रीजी ने अनेकों मुमुक्षुओं का उद्धार किया। आज आपका साध्वी मंडल 'शिवमंडल' के नाम से प्रख्यात है जिसमें अनेकों विदुषी, तप-साधिकाएँ, शासन प्रभावक साध्वियाँ विद्यमान हैं। संवत् 1965 पोष शुक्ला 12 को अजमेर में स्वर्गवासिनी हुईं।172 5.1.2.5 प्रवर्तिनी सुवर्णश्रीजी (संवत् 1946-89) प्रवर्तिनी पुण्यश्री जी के स्वर्गवास के पश्चात् श्री सुवर्णश्रीजी प्रवर्तिनी पद पर प्रस्थापित हुईं। आपका जन्म संवत् 1927 में अहमदनगर निवासी सेठ योगीदास जी बोहरा व माता दुर्गादेवी के यहाँ हुआ। 11 वर्ष की उम्र में नागोर निवासी प्रतापचन्द्र जी भंडारी के साथ विवाह हुआ। श्री पुण्यश्रीजी के सम्पर्क से वैराग्य पूर्वक पति से अनुज्ञा लेकर संवत् 1946 मृगशिर शुक्ला 5 को दीक्षित हुई। आप आत्मार्थ-साधिका थीं, ज्ञानवृद्धि के साथ-साथ 13-14 घंटे ध्यानावस्था में व्यतीत करतीं। विविध तपोनुष्ठान, स्वाध्याय आदि में मग्नता, साथ ही सेवा-शुश्रूषा में अग्रणी रहने के कारण प्रवर्तिनी पुण्यश्री जी ने आपको शिष्याओं में बारहवाँ स्थान होने पर भी 'गणनायिका' के पद पर प्रतिष्ठित किया। आपकी प्रभाव संपन्न गिरा से हापुड़, आगरा, बेलनगंज सौरिपुर, दिल्ली, जयपुर, बीकानेर आदि अनेक स्थानों में जिनालयों का निर्माण या जीर्णोद्धार के कार्य हुए। जयपुर में इनकी प्रेरणा से वीर बालिका विद्यालय प्रारम्भ हुआ, जो आज वीर बालिका महाविद्यालय के रूप में रूपान्तरित हो गया है। संवत् 1989 माघ कृष्णा 9 को बीकानेर में आपका स्वर्गवास हुआ। अग्निसंस्कार स्थल (रेलदादाजी) पर इनकी पुण्य स्मृति में 'स्वर्ण-समाधि' का निर्माण किया गया।173 5.1.2.6 प्रवर्तिनी प्रतापश्रीजी (संवत् 1947-स्वर्गस्थ) आपने संवत् 1925 को फलोदी में जन्म लिया, 12 वर्ष की वय में विवाह व शीघ्र वैधव्य ने आपको मुक्ति का राही बना दिया। संवत् 1947 मृगशिर कृष्णा 10 में दीक्षा लेकर श्री शिवश्रीजी की प्रधान शिष्या बनने का गौरव प्राप्त किया। आपका जीवन शांत, सरल व गुरू सेवा में समर्पित था। ज्ञान व तप को जीवन का ध्येय बनाकर अनेकों मुमुक्षुओं को वैसी प्रेरणा भी दी। 12 शिष्याओं का गुरू पद एवं अनेक वर्षों तक प्रवर्तिनी पद को सुशोभित किया। द्वादश पर्व व्याख्यान, संस्कृत की चैत्यवंदन स्तुति, आनन्दघन चौबीसी, देवचन्द्र चौबीसी आदि आपके उपयोगी ग्रंथ प्रकाशित हैं।174 5.1.2.7 प्रवर्तिनी श्री देवश्रीजी (संवत् 1950 स्वर्गस्थ) आपका जन्म मारवाड़ के फलोदी नगर में श्री कचरमलजी वैद और उनकी धर्मपत्नी श्रीमती छोटीबाई की रत्नकुक्षि से संवत् 1928 चैत्र शुक्ला 3 को हुआ। तथा विवाह वहीं गोलेछा परिवार में हुआ। पतिवियोग के पश्चात् संवत् 1950 फाल्गुन शुक्ला 2 को खरतरगच्छीय आचार्य श्री भगवानसागरजी महाराज के द्वारा आपकी दीक्षा हुई, 172. वही, पृ. 804 173. वही, पृ. 800 174. वही, पृ. 805 297 For Private mesonal Use Only Page #360 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन श्रमणियों का बृहद इतिहास आप मगनश्रीजी की शिष्या बनीं। स्वल्पावधि में ही स्तोक आगम, व्याकरण आदि की योग्यता प्राप्त कर आपने धर्मप्रचार करना प्रारंभ किया। आपकी अनेक शिष्याएँ हुईं, जिनमें जीतश्रीजी, हस्तीश्रीजी, विद्याश्रीजी, दानश्रीजी, भानुश्रीजी, हीराश्रीजी, जसवंतश्रीजी, मनमोहनश्रीजी, मिलापश्रीजी, सज्जनश्रीजी आदि प्रमुख हैं। संवत् 1997 को श्री प्रतापश्री जी के स्वर्गवास के पश्चात् आपको श्री शिवश्रीजी के समुदाय की प्रवर्तिनी पद पर प्रतिष्ठित किया गया। आप सौम्य प्रकृति एवं दिव्य गुणों से सुशोभित थीं। 5.1.2.8 प्रवर्तिनी श्री विमलश्रीजी (संवत् 1950-90) ___श्री विमल श्रीजी पू. सिंहश्रीजी की सुयोग्य एवं विदुषी शिष्या थीं, इनकी जन्मतिथि आदि के विषय में जानकारी उपलब्ध नहीं है किंतु इन्होंने मारवाड़, मेवाड़, मालवा, गुजरात काठियावाड़ आदि देशों में बहुत शासनोन्नति एवं धर्म प्रभावना की है। भोपाल और गन्धार में प्रतिष्ठा महोत्सव, रतलाम में ध्वजारोपण और बाबासा के मंदिर का जीर्णोद्धार, सरवाड़ के दादावाड़ी के भव्य मंदिर का उद्धार, सोजत में कन्या पाठशाला की स्थापना, कोटे में दीवान बहादुर केशरीसिंह जी द्वारा विंशतिस्थानक तप उद्यापन, महोत्सव आदि अनेक धार्मिक अनुष्ठान इनके सदुपदेशों से हुए। इससे भी बढ़कर इनका महान कार्य श्री प्रमोदश्रीजी के व्यक्तित्व का निर्माण करना रहा, इसके लिये इनका यश चिरकालीन रहेगा। 76 5.1.2.9 प्रवर्तिनी प्रेमश्रीजी (संवत् 1954-2011) फलौदी निवासी छाजेड़ कुल में जन्मी, गोलेछा परिवार में ब्याही और एक वर्ष में ही वैधव्य आ पड़ने पर प्रेमश्रीजी के हृदय में सम्यग्ज्ञान की ज्योति प्रज्वलित हुई तथा संवत् 1954 मृगशिर कृष्णा 10 को शिवश्रीजी के पास दीक्षा अंगीकार की। आप संस्कृत-प्राकृत भाषा व न्यायदर्शन की उच्चकोटि की अध्येता थी। अद्भुत प्रवचन शक्ति के साथ मौन व ध्यानप्रिय थीं, प्रातः 6 से 10 ध्यान में बैठतीं। आहारशुद्धि व उसमें भी नियमितता आपका खास गुण था। ध्यान का बल इतना था कि एकबार मध्यप्रदेश में विहार के समय सशस्त्र डाकुओं की टोली लूटने के लिये सामने आई, आपके ध्यान के प्रभाव से उनका दृष्टि विपर्यास हुआ वह अन्य दिशा में दौड़ गई। आप 15 वर्ष फलौदी में स्थिरवासिनी रहीं। 17 शिष्या व 25 प्रशिष्याओं द्वारा शासन की अभिवृद्धि कर संवत् 2011 में स्वर्गस्थ हुईं। 5.1.2.10 प्रवर्तिनी श्री ज्ञानश्रीजी (संवत् 1955-2023) आपका जन्म संवत् 1942 में फलोदी निवासी केवलचंदजी गोलेछा के यहाँ हुआ। मात्र 9 वर्ष की वय में भीकमचंदजी वेद से आपका विवाह हुआ। एक वर्ष में ही बाल विधवा होने पर आप श्री रत्नश्रीजी के सम्पर्क में संयम-रत्न ग्रहण करने को आतुर हो उठी, संवत् 1955 में गणनायक भगवानसागरजी के मुखारविंद से दीक्षा अंगीकार कर आप पुण्यश्रीजी की शिष्या बनीं।।78 आपने 40 वर्ष की दीक्षा-पर्याय में मारवाड़, मेवाड़ मालवा, 175. श्री हीराश्रीजी, जैन कथा संग्रह, पृ. 1, लोहावट (राज.) संवत् 2003 176. आर्या राजेन्द्रश्री जी, प्रस्तावना-युगप्रधान श्री जिनचन्द्रसूरि, 1935 ई. 177. 'श्रमणीरत्नो', पृ. 806 178. वही, पृ. 801 298 Page #361 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्वेताम्बर परम्परा की श्रमणियाँ गुजरात, आदि प्रदेशों में विहार कर अनेक भव्यात्माओं को प्रतिबोध दिया। आप शासन प्रभावना के कार्यों में ही । अपने क्षण-क्षण का उपयोग करती थीं। श्री सज्जनश्रीजी जैसी महान विदुषी शिष्याओं की आप जन्मदात्री थीं। आचार्य जिनानंदसागरसूरिजी भी आपके ही सदुपदेशों एवं त्यागमय जीवन से प्रभावित होकर दीक्षित हुए थे, वे समय-समय पर साध्वी जी से धर्मचर्चा व शंकाओं का समाधान भी प्राप्त किया करते थे। सूरिजी ने आपकी स्मृति में अपने जन्म-स्थान सैलाना (म. प्र.) में 'श्री आनंद ज्ञान मंदिर' की स्थापना की है। 79 आपका स्वर्गवास संवत् 2023 को जयपुर में हुआ। 5.1.2.11 प्रवर्तिनी ज्ञानश्रीजी (संवत् 1961-96) लोहावट में जन्में, लोहावट में ही चोपड़ा कुल में विवाह और वैधव्य के हर्ष-शोक से अलिप्त रहकर श्री ज्ञानश्रीजी ने श्री शिवश्रीजी म. के संपर्क से संवत् 1961 मृगशिर शुक्ला 5 में दीक्षा अंगीकार की। आपने लोहावट, फलोदी आदि शहरों में 'कन्या पाठशाला' की स्थापना करवाई। आपके उपदेश से खीचन व जैसलमेर से संघ निकले, धर्मशालाएँ निर्मित हुईं। संवत् 1996 में समाधिपूर्वक स्वर्गवास के साथ अपने पीछे 13 शिष्याओं का समुदाय छोड़ा।180 5.1.2.12 प्रवर्तिनी वल्लभश्रीजी (संवत् 1961-2018) लोहावट के श्रीमान् सूरजमलजी के यहाँ 1951 में जन्म लेकर सतत संघर्ष पूर्वक ये अपनी भुआ-ज्ञानश्रीजी के साथ संवत् 1961 में मृगशिर शुक्ला 5 को श्री छगनसागरजी म. द्वारा दीक्षित हुई। बालवय, तीक्ष्ण बुद्धि, दृढ़, लगन ने इन्हें कुछ वर्षों में 'विदुषी साध्वियों के स्थान पर प्रतिष्ठित करा दिया। इन्होंने सुदूर प्रदेशों में विहार कर अनेक राजा-महाराजा व जागीरदारों को अहिंसक बनाया, उन्हें व्यसनों से मुक्त करवाया। 20 के करीब विशिष्ट ग्रंथों का आलेखन किया। अनेक विदुषी, तपस्वी, व्याख्यात्री शिष्याएँ शासन को भेंट की। छत्तीसगढ़ शिरोमणी मनोहरश्रीजी आपकी ही विदुषी शिष्या है। इनकी सभी शिष्याएँ वक्तृत्वकला में निपुण हैं। संवत् 2018 अमलनेर में इनका स्वर्गवास हुआ। 5.1.2.13 प्रवर्तिनी प्रमोद श्री जी (संवत् 1964-2039) अन्तर्-बाह्य सौन्दर्य व समर्थ प्रभावी साध्वी प्रमोदश्रीजी का मूल वतन फलौदी था। पिता सूरजमलजी के स्वर्गवास के पश्चात् माता जेठी देवी के साथ आपकी दीक्षा संवत् 1964 माघ शुक्ला 4 को हुई। आपने आगमों का गंभीर व तलस्पर्शी ज्ञान प्राप्त किया। आपकी लेखनी से वैराग्य शतक का संक्षिप्त विवेचन, व रत्नत्रय विवेचन नामक दो ग्रंथ प्रकाशित हुए। मंदिर, दादावाड़ी, पाठशाला, आयम्बिलशाला आदि भी आपकी प्रेरणा से निर्मित हुए। आपकी 14 शिष्याएँ बनीं, इनमें डॉ. विद्युतप्रभाश्रीजी अच्छी लेखिका हैं। संवत् 2039 बाडमेर में आप स्वर्गवासिनी हुईं।182 179. मणिधारी जिनचंद्रसूरि अष्टम शताब्दी स्मृति ग्रंथ, दिल्ली, पृ. 135 180. 'श्रमणीरत्नो' पृ. 806 181. वही, पृ. 807 182. वही, पृ. 809 129१ Page #362 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 5.1.2.14 श्री उपयोग श्रीजी ( संवत् 1974-2016 ) आपका जन्म फलौदी निवासी श्री कन्हैयालालजी गोलेछा के यहाँ हुआ। बाल्यवय में पतिवियोग के पश्चात् संवत् 1974 माघ शुक्ला 13 फलोदी में दीक्षा ग्रहण कर, श्री पुण्यश्रीजी की शिष्या बनीं, किंतु इनका समग्र जीवन ज्ञान श्रीजी की सेवा में व्यतीत हुआ, अपने उदार व्यक्तित्व एवं सेवाभावना से इन्होंने साध्वी - वृंद में विशिष्ट नाम अर्जित किया। संवत् 2016 जयपुर में अकस्मात् इनका स्वर्गवास हुआ। 183 5.1.2.15 प्रवर्तिनी श्री जिनश्रीजी ( संवत् 1976-2045 ) श्री जिनश्रीजी तिंवरी (राज.) निवासी श्री लादुरामजी बुरड़ एवं माता घूड़ीदेवी की कन्या थीं। संवत् 1957 में जन्म के पश्चात् 14 वर्ष की वय में विवाह हुआ, डेढ़ वर्ष पश्चात् वैधव्य के ताप से त्रस्त इन्होंने संवत् 1976 मृगशिर शुक्ला 5 के दिन वल्लभश्रीजी के पास दीक्षा अंगीकार की। अपनी प्रज्ञा से गुरूवर्या के संपूर्ण कार्यों में सहयोग देने से ये 'मंत्री' के नाम से प्रख्यात हुईं, उनके स्वर्गवास के पश्चात् ये प्रवर्तिनी पद पर प्रतिष्ठित हुईं। अमलनेर में सुदीर्घ संयम पर्याय का पालन कर स्वर्गवासिनी हुईं। 184 5.1.2.16 श्री अनुभव श्रीजी ( संवत् 1979-2043 ) इनका जन्म संवत् 1959 भाद्रपद कृष्णा अष्टमी के दिन शाजापुर में हुआ था। इनके माता-पिता का नाम सोनादेवी जमुनादास भांडावत था। प्रवर्तिनी श्री प्रेमश्रीजी के प्रवचनों से प्रभावित होकर संवत् 1979 में दीक्षा ग्रहण की। आप संस्कृत, प्राकृत की विदुषी, आगम-मर्मज्ञा एवं प्रखर व्याख्यात्री थीं, 26 वर्ष पाली में स्थानापन्न होकर जिनशासन की सेवा करती हुई संवत् 2043 फाल्गुन कृष्णा 3 को समाधिपूर्वक स्वर्गवासिनी हुईं। वर्तमान में आप की छः शिष्या एवं 11 प्रशिष्याएँ हैं । 185 जैन श्रमणियों का बृहद इतिहास 5.1.2.17 श्री हीराश्री जी ( संवत् 1980-99 ) फलोदी (राज.) निवासी शेठ फतेलालजी कोचर और तुलछीबाई के यहाँ आपका जन्म नाचणगांव में संवत् 1968 चैत्र शुक्ला 3 को हुआ। 10 वर्ष की वय में बड़ौदे में संवत् 1980 ज्येष्ठ शुक्ला 3 को आचार्य हरिसागर सूरिजी के मुखारविन्द से दीक्षा पाठ पढ़कर आपने प्रवर्तिनी श्री देवश्रीजी की शिष्या श्री दानश्रीजी के पास दीक्षा ग्रहण की थी। नैसर्गिक प्रतिभा एवं गुरूजनों के संसर्ग से अनेकानेक ग्रंथ, कोश ग्रन्थ, व्याकरण, महाकाव्य व आगमों की ज्ञाता बन गईं। आप सदा ज्ञान का ही अन्वेषण, उसीका चिन्तन-मनन करती थीं। आपका स्वभाव अत्यंत शांत और विवेकपूर्ण था, कभी भी किसी अवस्था में उत्तेजित नहीं होती थीं। संवत् 1999 पोष शुक्ला 3 के दिन फलोदी में समाधिपूर्वक आप स्वर्गवासिनी हुईं। आपने जंबूचरित्र - कथा संग्रह, बंकचूल कथा, गजसुकुमाल कथा, अवन्ती सुकुमाल कथा, धन्यकथा, इलापुत्र आदि कई कथाएँ संस्कृत भाषा में लिखी, " जैन कथा संग्रहः " के नाम से प्रकाशित हैं । 186 183. वही, पृ. 802 184. खरतरगच्छ का इतिहास, खंड 1 पृ. 424 185. संविग्न साधु-साध्वी परम्परा का इतिहास, पृ. 421 186. श्री हीराश्रीजी, जैन कथा संग्रहः, लोहावट, वि. सं. 2060 ई. 300 Page #363 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्वेताम्बर परम्परा की श्रमणियाँ 5.1.2.18 प्रवर्तिनी श्री हेमश्रीजी ( संवत् 1980-2046 ) फलौदी निवासी गोलेछा गोत्रीय श्री जमुनालालजी एवं श्रीमती सुगनदेवी के यहाँ संवत् 1962 में आपका जन्म हुआ। संवत् 1980 ज्येष्ठ शुक्ला 5 को फलौदी में प्रवर्तिनी श्री वल्लभ श्रीजी के पास दीक्षा ग्रहण की। आप विदुषी साध्वी थीं। संवत् 2046 मृगशिर कृष्णा 5 को सैंधवा में प्रवर्तिनी पद दिया गया उसी वर्ष वैशाख कृष्णा 13 को उज्जैन में आप स्वर्गवासिनी हुई | 187 5.1.2.19 प्रवर्तिनी विचक्षणश्रीजी (संवत् 1981-2037 ) खरतरगच्छ की प्रभावक साध्वी विचक्षणश्रीजी का जन्म संवत् 1969 आसाढ़ कृष्णा 1 को अमरावती में पिता श्री मिश्रीमलजी मूथा एवं माता रूपादेवी के यहाँ हुआ। द्राक्षावत् मधुर व रसीली होने से आपका नाम 'दाखीबाई' प्रसिद्ध हो गया। छोटी अवस्था में ही आपकी सगाई पन्नालालजी मुणोत के साथ कर दी गई। पिताश्री का अचानक स्वर्गवास हो जाने तथा स्वर्णश्रीजी के सतत सम्पर्क में आने से माता-पुत्री दोनों ने अत्यन्त विरक्त भाव से संवत् 1981 पीपाड़ में प्रव्रज्या ग्रहण की। आपकी वाणी में श्रोताओं को मुग्ध करने की अद्भुत शक्ति थी। वैष्णव संत अखंडानन्द जी के साथ प्रवचन में उन्होंने इन्हें 'जैन मीरा' पद दिया। तपागच्छ के विजयवल्लभसूरिजी के साथ प्रवचन में उन्होंने मुग्ध होकर 'जैन कोकिला' से संबोधित किया था। ये समता मूर्ति, विश्व प्रेम प्रचारिका, समन्वय साधिका, व्याख्यान भारती, अध्यात्मरस निमग्ना आदि अलंकरणों से भी अलंकृत हुई। इनकी वाणी से प्रभावित होकर 45 महिलाओं एवं कन्याओं ने संयम ग्रहण किया, जिनमें साध्वी अविचलश्रीजी, मणिप्रभाश्रीजी आदि सुयोग्य विदुषी विख्यात साध्वियाँ हैं। आपने समाज की गरीब महिलाओं के लिये 'भारतीय सुवर्ण सेवा फंड' अमरावती व जयपुर में स्थापित करवाया दिल्ली में 'सोहन श्री विज्ञान श्री कल्याण केन्द्र' व रतलाम में 'सुखसागर जैन गुरूकुल' आदि जनोपयोगी संस्थाएँ प्रारम्भ की। कई जगह वर्षों से विभक्त समाज परस्पर संगठित हुए। जीवन के अंतिम समय में आप कैंसर जैसी भयंकर व्याधि से ग्रस्त हो गईं, तथापि कोई हिंसक उपचार नहीं करवाया। “व्याधि में समाधि" का सूत्र अपनाकर संवत् 2037 को दादावाड़ी जयपुर में स्वर्गस्थ हुईं। 'जैन कोकिला' नाम से इनका जीवन चरित्र प्रकाशित है। अपने 'कोमल' उपनाम से इन्होंने अनेक आध्यात्मिक प्रेरक भजन लिखे । 188 5.1.2.20 श्री प्रकाशश्रीजी (संवत् 1984 से वर्तमान) इनका जन्म संवत् 1972 खैरवा में समदड़िया मूथा हीराचंदजी के यहाँ हुआ। संवत् 1984 मृगशिर शुक्ला 13 को खैरवा में ही श्री प्रमोद श्रीजी से आपने दीक्षा ग्रहण की। श्री शिवश्रीजी के मंडल में इस समय आप सबसे वयोवृद्ध साध्वी हैं। 89 5.1.2.21 श्री अविचल श्रीजी ( संवत् 1985 ) जन्म संवत् 1968 नागौर निवासी पिता वृद्धिचन्दजी माता घीसाबाई के यहाँ हुआ। बीकानेर निवासी 187. खरतरगच्छ का इतिहास, खंड 1, पृ. 424 188. (क) — श्रमणीरत्नो', पृ. 803 (ख) श्री मणिप्रभाश्रीजी से प्राप्त सामग्री के आधार पर 189. खरतरगच्छ का इतिहास, खंड 1, पृ. 423 301 Page #364 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन श्रमणियों का बृहद इतिहास लालचंदजी पुंगलिया से विवाह के 3 वर्ष पश्चात् वैधव्य से संसार का बोध प्राप्त कर संवत् 1989 ज्येष्ठ शुक्ला 5 को श्री जतन श्री जी के सान्निध्य में दीक्षा अंगीकार की। इन्होंने अनेक शास्त्र और आध्यात्मिक पुस्तकों का अध्ययन किया। तप, स्वाध्याय और जप में इनकी विशेष रूचि है। मद्रास, बैंगलोर, मुंबई, सूरत, खानदेश, बालाघाट, दूर्ग, रायपुर, इंदौर, राजस्थान, दिल्ली आदि इनके विचरणक्षेत्र रहे हैं | 190 5.1.2.22 महत्तरा श्री मनोहर श्रीजी (संवत् 1991 से 2062 ) आपका जन्म संवत् 1979 माघ सुदि 5 को फलौदी में हुआ। राखेचा गोत्रीय रावतमलजी और जीयोदेवी की आप पुत्री थीं। संवत् 1991 माघ शुक्ला 13 को लोहावट में श्री गुप्तिश्रीजी के पास अत्यंत वैराग्य से दीक्षा ग्रहण की। आपने छत्तीसगढ़ अंचल को खरतरगच्छ का केन्द्र बनाने में बहुत उद्योग किया। आप सरल स्वभावी, मिलनसार और प्रभावशाली व्यक्तित्व वाली विदुषी साध्वी हैं। समुदाय में ज्ञान, अनुभव एवं संयम में वयोवृद्ध होने के कारण आपको महत्तरा पद से विभूषित किया गया। आपश्री की शिष्याओं की संख्या लगभग 31 है, जो अच्छी व्याख्यात्री हैं। नागपुर में संवत् 2062 अक्टूबर 12 को आप स्वर्गवासिनी हुईं। ' 191 5.1.2.23 श्री बुद्धिश्रीजी (संवत् 1993 ) इन्होंने जिन चैत्यवंदन चतुर्विंशतिका/ त्रैलोक्य प्रकाश जो संवत् 1812 में रचित उपाध्याय क्षमाकल्याण (खरतर) की विविध छंदोबद्ध कृति हैं, उसका वि. सं. 1993 में हिंदी में अनुवाद किया, वह अजमेर के श्राविका संघ की तरफ से वि. सं. 1993 में प्रकाशित हुई। 192 5.1.2.24 प्रवर्तिनी श्री तिलक श्रीजी ( संवत् 1996 से वर्तमान) आपका जन्म संवत् 1982 को पादरा (गुजरात) में हुआ। श्रीमाल छजलानी गोत्रीय मोतीलालजी एवं लक्ष्मीबहन इनके माता-पिता थे। संवत् 1996 फाल्गुन कृष्णा 2 को अणादरा में विचक्षणश्रीजी के पास दीक्षा ग्रहण की। आप मिलनसार और अच्छी विदुषी साध्वी हैं, प्रवर्तिनी पुण्यश्रीजी मंडल की आप प्रमुखा हैं। 193 5.1.2.25 श्री विनीताश्रीजी ( संवत् 1996 से वर्तमान) इनका जन्म वि. सं. 1983 को पादरा में छजलानी गोत्रीय मोतीलाल शाह और चम्पाबहन के यहाँ हुआ । संवत् 1996 फाल्गुन कृष्णा 2 को अणादरा में दीक्षा ग्रहण कर श्री विचक्षणश्रीजी की शिष्या बनी। आप अत्यंत सरल हृदया हैं आजीवन अपनी गुरूणी की सेवा में संलग्न रही, आप अभी 5 शिष्याओं के साथ विचरण कर रही हैं। 194 190. वही, पृ. 801 191. खरतरगच्छ का इतिहास, खंड 1 पृ. 424 192. जैन संस्कृत साहित्य का इतिहास, भाग 2, पृ. 575 193. खरतरगच्छ का इतिहास, खंड 1, पृ. 416 194. वही, खंड 1, पृ. 416 302 Page #365 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्वेताम्बर परम्परा की श्रमणियाँ 5.1.2.26 प्रवर्तिनी सज्जन श्री जी ( संवत् 1998 स्वर्गस्थ ) गुलाबी नगरी जयपुर में ही जन्मी, यहीं खेलीं, बड़ी हुई, यहीं विवाहित जीवन जीकर, पति की आज्ञा से दृढ़ निश्चय पूर्वक संवत् 1998 आसाढ़ शुक्ल 2 के दिन आप दीक्षित हुई और प्रवर्तिनी ज्ञानश्रीजी की शिष्या बनीं। अपनी सुदीर्घ दीक्षा - पर्याय में आपका सुदीर्घ विचरण इतिहास के पन्नों पर स्वर्णाक्षरों में अंकित करने योग्य है। भारत के कोने-2 में विचरण कर अनेक मुमुक्षुओं को दीक्षा दी, अनेक जिनालयों का निर्माण व पुनर्निर्माण करवाया। आपकी काव्य-सर्जना, शास्त्रज्ञता, विद्वत्ता उपदेशकता आदि बहु आयामी प्रतिभा जैनधर्म की विविध प्रभावनाओं से जुड़ी हुई रही। 195 संवत् 2046 में जयपुर संघ ने अखिल भारतीय स्तर पर आपका अभिनन्दन कर आपको 'श्रमणी' नामक अभिनंदन ग्रंथ भेंट किया, सन् 1992 दिसंबर मास में जयपुर में आपका निधन हुआ, स्थानीय मोहनबाड़ी आपकी स्मृति में एक भव्य स्मारक का निर्माण किया गया। 16 5.1.2.27 श्री विनोद श्रीजी ( संवत् 2000 से वर्तमान ) इनका जन्म संवत् 1987 को भोपाल निवासी भाण्डावत गोत्रीय गेंदमलजी के यहाँ हुआ। संवत् 2000 आषाढ़ कृष्णा 13 को फलौदी में आपकी दीक्षा हुई। व्याकरण, न्याय, जैन साहित्य आदि पर आपका अच्छा अधिकार है। 197 5.1.2.28 श्री कमलश्रीजी ( संवत् 2002 से वर्तमान) मंदसौर निवासी श्री मन्नालालजी लोढ़ा के यहाँ संवत् 1969 आषाढ़ शुक्ला सप्तमी को इनका जन्म हुआ। संवत् 2002 वैशाख शुक्ला तीज को मंदसौर में दीक्षा लेकर ये चंदनश्रीजी की शिष्या बनीं। 198 5.1.2.29 श्री चन्द्रप्रभाश्रीजी ( संवत् 2008 से वर्तमान) संवत् 1995 को बीकानेर में नाहटा गोत्रीय बालचन्द्रजी के यहाँ इनका जन्म हुआ। साहित्य महारथी श्री अगरचंदजी भंवरलालजी नाहटा की आप भतीजी हैं। वैराग्यवासित होकर संवत् 2008 फाल्गुन शुक्ला 12 को खुजनेर (मालवा) में दीक्षा ग्रहण कर विचक्षणश्रीजी की शिष्या बनीं। आप अत्यन्त विदुषी और व्यवहारदक्षा हैं। आपके द्वारा पठित मंगलपाठ बड़ा प्रभावशाली होता है। 14 साध्वियों के साथ आप विचरण कर रही हैं। 199 5.1.2.30 श्री दिव्यप्रभाश्री जी (संवत् 2009 से वर्तमान) लोहावट निवासी भंसाली गोत्रीय श्री मेघराजजी के घर संवत् 1999 को इनका जन्म हुआ। संवत् 2009 मृगशिर शुक्ला पूर्णिमा को लोहावट में ही श्री पवित्रा श्री के पास दीक्षा ग्रहण की। आप विदुषी और श्रेष्ठ व्याख्यात्री हैं, कई वर्षों से गुजरात की ओर विचरण कर रहीं हैं। आपका शिष्या प्रशिष्या मंडल विस्तृत है | 200 195. 'श्रमणीरत्नो', पृ. 803 196. संविग्न साधु-साध्वी परम्परा का इतिहास, पृ. 415 197. संविग्न साधु-साध्वी परम्परा का इतिहास, पृ. 421 198. संविग्न साधु-साध्वी परम्परा का इतिहास, पृ. 419 199. खरतरगच्छ का इतिहास, पृ. 417 200. संविग्न साधु-साध्वी परम्परा का इतिहास, पृ. 419 303 Page #366 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 5.1.2.31 श्री विजयेन्द्र श्रीजी ( संवत् 2009 से वर्तमान) इनका जन्म संवत् 1984 प्रतापगढ़ में श्री मोतीलालजी जवासा के यहाँ हुआ। संवत् 2009 माघ शुक्ला 11 को में आपने श्री प्रमोद श्रीजी से दीक्षा ग्रहण की। वर्तमान में 12 साध्वियों के साथ आप विचरण कर रही हैं। 201 उदयपुर 5.1.2.32 श्री चन्द्रकलाश्रीजी ( संवत् 2009 से वर्तमान) इनका जन्म वैशाख शुक्ला एकम संवत् 1991 को मुलतान में नाहटा गोत्रीय धनीरामजी के यहाँ हुआ। संवत् 2009 फाल्गुन शुक्ला 5 को छापीहेड़ा में श्री विचक्षणश्रीजी के पास दीक्षित हुई। आप अत्यन्त सरलमना और उदारहृदयी हैं। श्री सुलोचनाश्रीजी आदि चार शिष्याएँ हैं। 202 5.1.2.33 श्री मनोहर श्रीजी ( संवत् 2011 से वर्तमान ) इनका जन्म पादरा में संवत् 1993 को श्रीमाल चिमनभाई - चन्दनबाला के घर हुआ था। संवत् 2011 मृगशिर शुक्ला 11 को पादरा में दीक्षा ग्रहण कर ये श्री विचक्षणश्रीजी की शिष्या बनीं। आप शतावधानी हैं, व्याख्यान में दक्ष और कुशल लेखिका भी हैं। पुरातन स्थलों का जीर्णोद्धार व संघ के विकास हेतु आप सदा प्रयत्नशील रही हैं। आपकी अनेक शिष्याएँ विदुषी और लेखिकायें हैं। डॉ. सुरेखाजी, डॉ. मधुस्मिताश्री, डॉ. दिव्यगुणाश्री, डॉ. स्मितप्रज्ञाश्री, डॉ. हेमरेखाश्री ये 5 शिष्याएँ पी.एच.डी. की उपाधि प्राप्त हैं। मालपुरा दादावाड़ी की प्रतिष्ठा के समय आप 16 शिष्याओं के साथ विद्यमान थीं। 203 जैन श्रमणियों का बृहद इतिहास 5.1.2.34 श्री हेमप्रभाश्रीजी ( संवत् 2012 से वर्तमान ) इनका जन्म 2001 को उज्जैन में भाण्डावत गोत्रीय गेंदामलजी के यहाँ हुआ। संवत् 2012 वैशाख शुक्ला 7 को पाली में अनुभव श्रीजी के पास इनकी दीक्षा हुई। आपने दर्शनशास्त्र में एम. ए. किया है, आप प्रखर व्याख्यात्री हैं। 'प्रवचनसारोद्धार-टीका सह' नामक क्लिष्ट ग्रंथ का आपने हिंदी अनुवाद किया है जो प्राकृत भारती अकादमी जयपुर से 2 भागों में प्रकाशित हो चुका है। आप प्रभावशालिनी और मधुरभाषिणी हैं। आपकी प्रेरणा से अनेक दादावाड़ियों का निर्माण हुआ है। आपकी शिष्या मंडली में 16-17 साध्वियाँ हैं । 204 5.1.2.35 श्री सुरंजनाश्रीजी (संवत् 2012 से वर्तमान) संवत् 1993 पादरा में इनका जन्म वाडीलालभाई मेहता और इच्छाबहन के यहाँ हुआ। संवत् 2012 आषाढ़ शुक्ला 10 के दिन श्री विचक्षणश्रीजी के पास दीक्षा ली। आप मिलनसार, सरलहृदया और विदुषी साध्वी हैं। वर्तमान में श्री सिद्धांजनाश्रीजी आदि छह शिष्याओं के साथ आप विचरण कर रही हैं। 205 201. खरतरगच्छ का इतिहास, खंड 1, पृ. 423 202. खरतरगच्छ का इतिहास, खंड 1, पृ. 416 203. खरतरगच्छ का इतिहास, खंड 1, पृ. 417 204. खरतरगच्छ का इतिहास, खंड 1, पृ. 422 205. खरतरगच्छ का इतिहास, खंड 1, पृ. 417 304 Page #367 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्वेताम्बर परम्परा की श्रमणियाँ 5.1.2.36 श्री मणिप्रभाश्रीजी ( संवत् 2014 से वर्तमान) जैन जगत में ओजस्विनी आध्यात्मिक प्रवचनदात्री के रूप में सुविख्यात श्री मणिप्रभाश्रीजी का जन्म संवत् 1998 जयपुर के छाजेड़ परिवार में हुआ। संवत् 2014 फाल्गुन शुक्ला 10 के शुभ दिन टोंक (राज.) में इनकी दीक्षा जैन कोकिला श्री विचक्षणाश्रीजी के पास हुई। हिंदी में एम. ए., साहित्यरत्न के साथ जैन द्रव्यानुयोग की ये विशिष्ट अध्येता हैं। इनके प्रवचन आध्यात्मिक, मनोवैज्ञानिक, पारिवारिक, सामाजिक व्यक्तित्व विकास हेतु सम्बल देने वाले होने से अत्यंत प्रभावोत्पादक होते हैं। इनके प्रवचन से प्रभावित होकर नौ विदुषी कन्याओं ने दीक्षा अंगीकार की, मुनि श्री महेन्द्रसागरजी, श्री मनीषसागरजी, जो श्रीसंघ की अमूल्य धरोहर हैं; इन्हीं की देन हैं। समाज में आवश्यक संस्थाओं हेतु इनकी प्रेरणा से अनेकानेक कार्य हुए हैं। भद्रावती तीर्थ जीर्णोद्धार, कैवल्यधाम तीर्थ, जलगांव, धूलिया, बोदवड़, मालेगांव, दोंडायचा, अमरावती, वाण्याविहार, जयपुर, जोधपुर, इन्दौर, टोंक, रायपुर, बेतुल, बाडमेर, बालाघाट, नागदा, झाबुआ, धमतरी, गोरेगांव, बुलढाणा, मलकापुर, परभणी, चन्द्रपुर, नागपुर, धोलका आदि क्षेत्रों में जिनमंदिर, दादावाड़ियाँ, विचक्षण स्वाध्याय भवन नाम से कई जैन उपाश्रय, हॉस्पीटल, गौशालाएँ, वाचनालय आदि का निर्माण हुआ। हजारों के जीवन को सन्मार्ग पर बढ़ाने वाले इनके लोकप्रिय प्रवचन 'प्रवचन प्रभा' भाग 1-2-3-4, 'शांतिपथ' आदि पुस्तकों में प्रकाशित हुए हैं। अपनी गुरूवर्या से संबंधित पुस्तकें तन में व्याधि मन में समाधि, आत्म-प्रभा, विचक्षण विचार आदि भी प्रकाशित हुई हैं |206 5.1.2.37 श्री शशिप्रभाश्रीजी ( संवत् 2014 से वर्तमान) इनका जन्म संवत् 2001 को फलौदी में गोलेछा श्री ताराचंदजी के यहाँ हुआ। श्री सज्जन श्रीजी से प्रबुद्ध होकर संवत् 2014 मृगशिर कृष्णा 6 को ब्यावर में दीक्षा ग्रहण की। आप उच्चकोटि की विदुषी और व्याख्यात्री हैं, व्याकरण शास्त्री आदि कई उपाधियाँ प्राप्त कर चुकी हैं। श्री सज्जन श्रीजी महाराज का समाधि स्थान आपके प्रयत्नों से निर्मित हुआ है। 207 5.1.2.38 श्री सुलोचनाश्रीजी ( संवत् 2018 से वर्तमान ) इनका जन्म संवत् 2005 को फलौदी के हुड़िया वैद श्री गुमानमलजी के यहाँ हुआ। स्व. श्री गुमानमल जी तपस्वीरत्न थे, उन्होंने अपने जीवनकाल में 500 से अधिक अठाइयां की थीं। आपने संवत् 2018 आषाढ़ कृष्णा 6 को फलौदी में ही श्री तेज श्रीजी के पास दीक्षा अंगीकार की। आपकी 21 साध्वियाँ हैं। आपकी लघुभगिनी श्री सुलक्षणाश्रीजी ने आपके पास संवत् 2028 फाल्गुन शुक्ला 3 को दीक्षा ग्रहण की 1 208 5.1.2.39 श्री सूर्यप्रभाश्री जी ( संवत् 2022 से वर्तमान ) इनका जन्म मालू गोत्रीय ज्ञानचंदजी फलौदी निवासी के यहाँ संवत् 2003 को हुआ। संवत् 2022 मृगशिर 206. पत्राचार से प्राप्त सामग्री के आधार पर 207. खरतरगच्छ का इतिहास, खंड 1, पृ. 418 208 संविग्न साधु-साध्वी परम्परा का इतिहास, पृ. 421 305 Page #368 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन श्रमणियों का बृहद इतिहास शुक्ला 10 को फलौदी में श्री चम्पाश्रीजी से दीक्षा ग्रहण कर व्याकरण काव्य, कोश, छन्द एवं जैन शास्त्रों का गहन अध्ययन किया। उदारता और मिलनसारिता आपके प्रमुख गुण हैं। 209 5.1.2.40 श्री दिव्यगुणाश्रीजी ( संवत् 2029 ) आपका जन्म संवत् 2009 में तथा दीक्षा संवत् 2029 मई 30 को हुई। आपने 'हिंदी कविता में महावीर' विषय पर सन् 1991 में गुजरात विश्वविद्यालय से पी. एच. डी. की उपाधि प्राप्त की। 210 5. 1.2.41 डॉ. श्री विद्युत्प्रभाश्रीजी (संवत् 2030 से वर्तमान) आपका जन्म संवत् 2020 को मोकलसर में हुआ, आपके पिता का नाम श्री पारसमलजी लुंकड़ और माता का नाम रोहिणीदेवी था। संवत् 2030 आषाढ़ कृष्णा 7 को आपने अपनी माता एवं भ्राता के साथ पालीताणा में दीक्षा ग्रहण की। माता का नाम श्री रत्नमालाश्रीजी एवं भ्राता उपाध्याय मणिप्रभसागरजी हैं। आप विदुषी, कुशल व्याख्यात्री एवं उच्चकोटि की लेखिका हैं। अनगूंज, अधूरा सपना, राही और रास्ता, भीगी खुशबू, प्रीत की रीत, स्वप्नदृष्टा गुरूदेव, विद्युत तरंगे करूणामयी माँ सेठ मोतीशाह आदि कई पुस्तकें आपकी प्रकाशित हैं। सन् 1994 में " जैन दर्शन में द्रव्य का स्वरूप" विषय पर गुजरात युनिवर्सिटी से पी. एच. डी. की उपाधि प्राप्त की। आप प्रवर्तिनी प्रमोदश्रीजी की शिष्या हैं। बाडमेर में 'कुशलवाटिका' संस्था आपकी प्रेरणा से चल रही है। श्री शासन प्रभाश्रीजी, श्री नीलांजना श्रीजी, श्री प्रज्ञाजनाश्रीजी, श्री दीप्तिप्रज्ञाश्रीजी, श्री नीति प्रज्ञाश्रीजी, श्री विभांजानाश्रीजी, श्री आपकी शिष्याएं हैं | 211 5.1.2.42 डॉ. श्री सुरेखाश्रीजी (संवत् 2032 ) आपका जन्म संवत् 2010 तथा दीक्षा 14 मई संवत् 2032 को हुई। आप प्रवर्तिनी श्री विचक्षणश्रीजी की सुशिष्या हैं। आपने राजस्थान युनिवर्सिटी से 'जैन दर्शन में सम्यक्त्व का स्वरूप' विषय पर महानिबंध लिखकर सन् 1985 में पी. एच. डी. की डिग्री प्राप्त की है। 5.1.2.43 श्री विमलप्रभाश्रीजी ( संवत् 2033 से वर्तमान ) इनका जन्म संवत् 2014 को सिवाना में ललवाणी श्री वंशराजजी के यहाँ हुआ। संवत् 2033 माघ शुक्ला 11 को सिवाना में ही दीक्षा ग्रहण कर श्री चम्पाश्रीजी की शिष्या बनीं। आप जैनधर्म, दर्शन, व्याकरण की अच्छी ज्ञाता हैं। वर्तमान में अपनी 10 शिष्याओं के साथ विचरण कर रही हैं। सूर्यप्रभाश्री और विमलप्रभाश्री ने अपनी स्वर्गीय गुरूवर्या की स्मृति में गढ़सिवाना में चम्पावाड़ी नामक भव्य स्मारक का निर्माण करवाया है। संवत् 2057 में इसका प्रतिष्ठा महोत्सव संपन्न हुआ था । 212 209. खरतरगच्छ का इतिहास, खंड 1, पृ. 418 210. श्री सुभाषजी एडवोकेट, जालना के संग्रह से 211. (क) खरतरगच्छ का इतिहास, खंड 1, पृ. 423 (ख) पत्राचार के माध्यम से 212. संविग्न साधु-साध्वी परम्परा का इतिहास, पृ. 419 306 Page #369 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्वेताम्बर परम्परा की श्रमणियाँ 5.1.2.44 डॉ. हेमप्रज्ञाश्रीजी ( संवत् 2035 ) आपका जन्म संवत् 2016 में हुआ, दीक्षा संवत् 2035 में ली। सन् 1988 में अहिल्यादेवी जैन विश्वविद्यालय इन्दौर से आपने 'कषाय' विषय पर महानिबंध लिखकर पी. एच. डी. की उपाधि प्राप्त की। 213 5.1.2.45 डॉ. मधुस्मिताश्रीजी ( संवत् 2038 ) आपका जन्म संवत् 2013 तथा दीक्षा संवत् 2038 मई 25 को हुई। आप श्री प्रवर्तिनी विचक्षणश्रीजी की शिष्या हैं। इन्होंने 'जैन पुराणों में राजनीति' विषय पर गुजरात युनिवर्सिटी से सन् 1985 में पी. एच. डी. की डिग्री प्राप्त की। 214 5.1.2.46 डॉ. सौम्यगुणाश्रीजी ( संवत् 2040 ) आपका जन्म संवत् 2027 व दीक्षा संवत् 2040 जुलाई 25 को हुई। आपने 'विधिमार्ग प्रपा' विषय पर जयपुर विश्वविद्यालय से सन् 2003 में पी. एच. डी. की उपाधि प्राप्त की। आप श्री शशिप्रभाजी की शिष्या हैं | 215 5.1.2.47 डॉ. विनीतप्रज्ञाजी ( संवत् 2041 ) आपका जन्म संवत् 2028 में और दीक्षा संवत् 2041 मार्च 2 को हुई। आपको गुजरात युनिवर्सिटी से सन् 2001 में 'उत्तराध्ययन सूत्र' पर पी. एच. डी. की उपाधि प्रदान की गई। 216 5.1.2.48 डॉ. हेमरेखाश्रीजी ( संवत् 2041 ) आपका जन्म संवत् 2027 में और दीक्षा संवत् 2041 मई 1 को हुई आपने 'जैनागमों में स्वर्ग-नरक की विभावना' विषय लेकर गुजरात विश्वविद्यालय से सन् 2003 में पी. एच. डी. की उपाधि प्राप्त की 1217 5.1.2.49 डॉ. श्री संयमज्योतिजी ( संवत् 2047 ) आपका जन्म संवत् 2025 में हुआ, तथा दीक्षा संवत् 2047 जनवरी 28 को हुई। आप प्रवर्तिनी श्री सज्जन श्रीजी की विदुषी शिष्या है। आपने 'जैनदर्शन में अतीन्द्रिय ज्ञान' पर शोध प्रबंध लिखा है। जोधपुर विश्वविद्यालय ने सन् 1999 में आपको पी. एच. डी. की उपाधि से अलंकृत किया | 2018 5.1.2.50 डॉ. श्री स्मितप्रज्ञाश्री (संवत् 2051 से वर्तमान) आपका जन्म संवत् 2017 एवं दीक्षा संवत् 2051 अप्रैल 18 को हुई थी। आप शतावधानी श्री मनोहर श्रीजी की शिष्या हैं। आपने 'आचार्य जिनदत्तसूरि का जैनधर्म एवं साहित्य में योगदान' विषय लेकर गुजरात वि. वि. से सन् 1999 में पी.एच.डी. की उपाधि प्राप्त की है। शोधप्रबन्ध 5 अध्यायों में विभक्त है। 219 213-218. सुभाष जी एडवोकेट, जालना के संग्रह से प्राप्त 219. विचक्षण स्मृति प्रकाशन, खरतरगच्छ ट्रस्ट, नवरंगपुरा अमदा., ई. 1999 307 Page #370 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन श्रमणियों का बृहद इतिहास 19वीं सदी में खरतरगच्छाधिपति भट्टारक श्री जिनलाभसूरि, श्री जिनचंद्रसूरि तथा श्री जिनहर्षसूरि द्वारा जिनशासन में अनेकों श्रमणियाँ दीक्षित हुईं। उनका मात्र नाम एवं संवत् ही प्राप्त होता है, अतः उनका परिचय तालिका में दिया जा रहा है। 5.1.3 खरतरगच्छ की अन्य विदुषी श्रमणियाँ (19वीं 20वीं सदी ) 220 क्रम साध्वी नाम दीक्षा संवत् तिथि श्री भक्तिसिद्धि श्री रत्नसिद्धि श्री फतैसिद्धि श्री लालसिद्धि श्री रूक्मसिद्धि श्री महासिद्धि श्री विवेकसिद्धि 1. 2. 3. 4. 5. 1810 मृ. कृ. 5 1810 मृ. कृ. 5 1810 मृ. कृ. 5 1810 मृ. कृ. 5 1821 वै. शु. 3 3 12. श्री अमृतलक्ष्मी 1821 वै.शु. 1821 वै. शु. 3 1824 वै. शु. 3 1824 वै. शु. 15 13. श्री सरूपसिद्धि 14. श्री मलूकसिद्धि 1825 15. श्री अमृतसिद्धि 16. श्री पुष्पशोभा 1825 17. श्री विनयसिद्धि 1825 18. श्री अक्षयसिद्धि 19. श्री कुशललक्ष्मी 1825 पो. शु. 7 1825 पो. शु. 7 1825 पो. शु. 7 6. 7. 8. श्री जयचूलाजी 9. श्री रत्नचूलाजी 10. श्री फूलसिद्धि 11. श्री राजसिद्धि 20. श्री जयसिद्धि 21. श्री फूलसिद्धि 22. श्री अमृतसिद्धि 23. श्री अमरसिद्धि 24. श्री रत्नसिद्धि 1805 वै.शु. 5 1810 मृ. कृ. 5 1810 मृ. कृ. 5 1810 मृ. कृ. 5 1810 मृ. कृ. 5 1830 फा. कृ. 2 1830 फा. कृ. 2 1830 फा. कृ. 2 1830 फा. कृ. 2 दीक्षा स्थान जैसलमेर बीकानेर बीकानेर बीकानेर बीकानेर बीकानेर बीकानेर बीकानेर बीकानेर तलवाड़ा तलवाड़ा तलवाड़ा उदयपुर देशनोक भुंभा दड़ा भुंभा दड़ा भुंभा दड़ा पालिताणा पालिताणा पालिताणा पालिताणा दीक्षा प्रदाता श्री जिनलाभसूरि श्री जिनलाभसूरि श्री जिनलाभसूरि श्री जिनलाभसूरि श्री जिनलाभसूरि श्री जिनलाभसूरि श्री जिनलाभसूरि श्री जिनलाभसूरि श्री जिनलाभसूरि श्री जिनलाभसूरि श्री जिनलाभसूरि श्री जिनलाभसूरि श्री जिनलाभसूरि श्री जिनलाभसूरि श्री जिनलाभसूरि श्री जिनलाभसूरि श्री जिनलाभसूरि 308 श्री जिनलाभसूरि श्री जिनलाभसूरि श्री जिनलाभसूरि श्री जिनलाभसूरि श्री जिनलाभसूरि श्री जिनलाभसूरि श्री जिनलाभसूरि गुरुणी श्री जीव सिद्धि श्री नैणसिद्धि श्री लाण्यसिद्धि श्री रत्नसिद्धि श्री मलूकसिद्धि श्री विनयसिद्धि श्री वीरचूला श्री वीरचूला श्री रूपलक्ष्मी श्री रूपलक्ष्मी श्री रूपलक्ष्मी श्री भावसिद्धि श्री भावसिद्धि श्री नैणसिद्धि श्री दीपशोभा श्री रत्नसिद्धि श्री लावण्यसिद्धि श्री रूपलक्ष्मी श्री सरूपसिद्धि श्री रत्नसिद्धि श्री रत्नसिद्धि श्री विनयसिद्धि श्री रत्नचूला 52. महो. विनयसागर, 'नाहटा भंवरलाल' संपादक- खरतरगच्छ दीक्षा नंदी सूची, पृ. 122-165 प्रकाशक - प्राकृत भारती अकादमी, जयपुर 1990 ई. विशेष विवरण नाहटा परिवार से Page #371 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्वेताम्बर परम्परा की श्रमणियाँ 25. श्री अमृतचूला 26. श्री चारित्रसिद्धि 27. श्री विनय सिद्धि 28. श्री क्षमासिद्धि 29. श्री ज्ञानसिद्धि 30. श्री जयमाला 31. श्री विजयमाला 32. श्री लक्ष्मीसिद्धि 33. श्री फुंदमाला 34. श्री फतैमाला 35. श्री रत्नशोभा 36. श्री लक्ष्मीसिद्धि 37. श्री जयलक्ष्मी 38. श्री मतिमाला 39. श्री चन्द्रमाला 40. श्री मानशोभा 41. श्री फंदमाला 42. श्री चेनमाला 43. श्री धेनमाला 44. श्री अखेमाला 45. श्री राजमाला 46. श्री पुण्यश्रीजी 47. श्री गुमान श्रीजी 48. श्री रतन श्रीजी 49. श्री जयश्रीजी 50. श्री आनंदमाला 51. श्री आनंदसिद्धि 52. श्री अमृतसिद्धि 53. श्री राजसिद्धि 54. श्री हस्तसिद्धि 55. श्री मुक्तिशोभा 56. श्री जीतलक्ष्मी 1841 फा. शु. 7 1843 ज्ये. शु. 1 1843 ज्ये. शु. 1 1843 ज्ये. शु. 1 1843 ज्ये. शु. 1 1843 ज्ये. शु. 1 1843 ज्ये. शु. 1 1843 ज्ये. शु. 1 1843 ज्ये. शु. 1 1843 ज्ये. शु. 1 1843 ज्ये. शु. 1 1843 ज्ये. शु. 1 1845 मृ. कृ. 7 1850 वै. शु. 3 1850 वै. शु. 3 1851 मृ. कृ. 11 1851 मा. शु. 13 1851 मा. शु. 13 1851 मा. शु. 13 1851 मा. शु. 13 1851 मा. शु. 13 1862 मा. शु. 5 1862 मा. शु. 5 1862 मा. शु. 5 1862 मा. शु. 5 1867 आषा. शु. 9 1867 आषा. शु. 9 1867 आषा. शु. 9 1867 आषा. शु. 9 1867 आषा. शु. 9 1868 ज्ये. कृ. 1 1869 मृ. कृ. 13 फलौदी बीकानेर बीकानेर बीकानेर बीकानेर बीकानेर बीकानेर बीकानेर बीकानेर बीकानेर बीकानेर बीकानेर बीकानेर बीकानेर बीकानेर बीकानेर खम्भात खम्भात खम्भात खम्भात खम्भात बीकानेर बीकानेर बीकानेर बीकानेर पाली पाली देशनोक देशनोक देशनोक देशनोक बीकानेर 309 वा. कुशल भक्ति श्री जिनचंद्रसूरि श्री जिनचंद्रसूरि श्री जिनचंद्रसूरि श्री जिनचंद्रसूरि श्री जिनचंद्रसूरि श्री जिनचंद्रसूरि श्री जिनचंद्रसूरि श्री जिनचंद्रसूरि श्री जिनचंद्रसूरि श्री जिनचंद्रसूरि श्री जिनचंद्रसूरि श्री जिनचंद्रसूरि श्री जिनचंद्रसूरि श्री जिनचंद्रसूरि श्री जिनचंद्रसूरि श्री जिनचंद्रसूरि श्री जिनचंद्रसूरि श्री जिनचंद्रसूरि श्री जिनचंद्रसूरि श्री जिनचंद्रसूरि श्री जिनचंद्रसूरि श्री जिनचंद्रसूरि श्री जिनचंद्रसूरि श्री जिनचंद्रसूरि श्री जिनहर्षसूरि श्री जिनहर्षसूरि श्री जिनहर्षसूरि श्री जिनहर्षसूरि श्री जिनहर्षसूरि श्री जिनहर्षसूरि श्री जिनहर्षसूर श्री फूलसिद्धि श्री फूलसिद्धि श्री अखयसिद्धि श्री अखयसिद्धि श्री फतैमाला श्री फतैमाला श्री रत्नसिद्धि श्री मानमाला श्री कुंदमाला श्री पुष्पशोभा श्री अमृतसिद्धि श्री अमृतलक्ष्मी श्री पुष्पशोभा श्री जयमाला श्री जयसिद्धि श्री विनयसिद्धि श्री लक्ष्मीसिद्धि श्री चारित्रसिद्धि श्री मानशोभा श्री जयलक्ष्मी नाहटा परिवार Page #372 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन श्रमणियों का बृहद इतिहास श्री जीतलक्ष्मी नाहटा परिवार पारख परिवार खचानचि कुल खचानचि कुल 57. श्री प्रीतलक्ष्मी 1869 म. कृ. 13 बीकानेर 58. श्री जयंतश्रीजी 1869 मा. शु. 15 बीकानेर 59. श्री ज्ञानश्रीजी 1869 मा. शु. 15 बीकानेर 1869 मा. शु. 15 बीकानेर 61. श्री शोभाश्रीजी 1879 आषा. शु. 10 बीकानेर 62. श्री सत्यशोभा 1879 आषा. शु. 10 बीकानेर 63. श्री लब्धिसिद्धि 1879 आषा. शु. 10 बीकानेर 64. श्री स्वर्णसिद्धि 1879 आषा. शु. 10 बीकानेर 65. श्री नीतिसिद्धि 1879 आषा. शु. 10 बीकानेर 66. श्री ऋद्धिचूला 1879 आषा. शु. 10 बीकानेर 67. श्री धर्ममाला 1879 आषा. शु. 10 बीकानेर 68. श्री सौभाग्यसिद्धि 1879 आषा. शु. 10 बीकानेर 69. श्री चित्रसिद्धि 1888 मा. शु. 5 बीकानरे। 70. श्री मानसिद्धि 1889 मा. शु. 4 - 71. श्री धर्मलक्ष्मी 1890 वै. शु. 2 - 72. श्री क्षेमचूला 1897 मा. कृ. 8 दूर्ग (म. प्र.) 73. श्री रत्नसिद्धि 1903 मा. शु. 13 दिल्ली 74. श्री आनंदसिद्धि 1903 मा. शु. 13 दिल्ली 75. श्री स्थिरश्री 1906 फा. कृ. 5. पोकरण 76. श्री ज्ञानसिद्धि(द्वि.) 1908 मृ. शु. 11 कलकत्ता श्री जिनहर्षसूरि श्री जिनहर्षसूरि श्री जिनहर्षसूरि श्री जिनहर्षसूरि श्री जिनहर्षसूरि श्री जिनहर्षसूरि श्री जिनहर्षसूरि श्री जिनहर्षसूरि श्री जिनहर्षसूरि श्री जिनहर्षसूरि श्री जिनहर्षसूरि श्री जिनहर्षसूरि श्री जिनहर्षसूरि श्री जिनहर्षसूरि श्री जिनहर्षसूरि श्री जिनहर्षसूरि श्री आनंदरत्नगणि श्री आनंदरत्नगणि श्री जिनहेमसूरि श्री आनंदरत्नगणि श्री रत्नशोभा श्री शोभा श्री राजसिद्धि श्री ज्ञानसिद्धि श्री स्वर्णसिद्धि श्री रंगचूला श्री रंगचूला श्री विनयसिद्धि श्री लक्ष्मीसिद्धि श्री चारित्रसिद्धि श्री जीतलक्ष्मी श्री रंगचूला श्री ज्ञानसिद्धि श्री ज्ञानसिद्धि दशवाणिया पारख परिवार सांवसुखा कोठारी दादरी निवासी दुधेड़िया गोत्र 77. श्री ज्ञानश्री 1913 मृ. कृ. 10 बीकानेर 78. श्री लावण्यसिद्धि 1920 फा. कृ. 5 बूंदी 79. श्री सिणगारमाला 1229 वै. शु. 2 विक्रमपुर 80. श्री सत्यमाला 1920 वै. शु.2 विक्रमपुर 81. श्री सत्यसिद्धि 1920 फा. कृ. 5 बूंदी 82. श्री पद्मसिद्धि 1921 आषा. कृ. 4 - 83. श्री चंद्रसिद्धि 1921 ज्ये. कृ. 8 मेड़ता . श्री चारित्रसिद्धि - - . श्री राजसिद्धि 86. श्री उदयसिद्धि 1921 आषा. कृ. 7 जोधपुर 87. श्री तीर्थसिद्धि 1921 आषा. कृ. 7 जोधपुर श्री जिनहेमसूरि श्री आनंदरत्नगणि श्री जिनहेमसूरि श्री जिनहेमसूरि श्री आनंदरनगणि श्री चारित्रविनय श्री चंदनश्री श्री चित्रसिद्धि श्री नवलांजी श्री नवलांजी श्री सिद्ध श्री श्री सत्यसिद्धि श्री पद्मसिद्धि श्री चंद्रसिद्धि पारख, जोधपुर श्री सुमतिवर्द्धन श्री रत्नराजमुनि श्री रत्नराजमुनि श्री रत्नराजमुनि Page #373 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्वेताम्बर परम्परा की श्रमणियाँ श्री रत्नराजमुनि श्री रत्नराजमुनि श्री जिनसुख शा. 88. श्री रत्नसिद्धि 1921 आषा. कृ. 7 जोधपुर 89. श्री सुमतिसिद्धि 1921 आषा. कृ. 7 जोधपुर श्री विवेकसिद्धि 1921 आषा. कृ. 7 जोधपुर 91. श्री जयसिद्धि 1921 आषा. कृ. 7 जोधपुर 92. श्री मानसिद्धि 1921 आषा. कृ. 7 जोधपुर 93. श्री राजसिद्धि 1921 आषा. कृ. 7 जोधपुर 94. श्री कनकमाला 1924 आषा. शु. 3 बीकानेर 95. श्री रत्नमाला 1926 फा. शु. 7 96. श्री सत्यसिद्धि 1928 माघ अजमेर 97. श्री निधानसिद्धि 1928 माघ अजमेर 98. श्री रत्नसिद्धि 1928 माघ अजमेर 99. श्री पुष्पसिद्धि 1928 माघ अजमेर 100. श्री ज्ञानसिद्धि 1928 माघ अजमेर श्री ज्ञानसिद्धि श्री ज्ञानसिद्धि श्री गुलाबसिद्धि श्री गुलाबसिद्धि श्री चंदनश्री श्री जिनहेमसूरि श्री जिनहेमसूरि श्री चारित्रसागर श्री चारित्रसागर श्री चारित्रसागर श्री चारित्रसागर श्री चारित्रसागर श्री सत्यसिद्धि श्री सत्त्वसिद्धि श्री सत्त्वसिद्धि श्री विद्यासिद्धि 5.1.4 प्रवर्तिनी श्री पुण्यश्रीजी का साध्वी समुदाय21 क्रम दीक्षा संवत्, तिथि 2. 3. साध्वी नाम श्री अमरश्रीजी श्री श्रृंगारश्रीजी श्री सिरदारश्रीजी श्री सुमतश्रीजी श्री केशरश्रीजी श्री भीमश्रीजी श्री धेवरश्रीजी श्री चम्पाश्रीजी श्री चांदश्रीजी श्री तेजश्रीजी श्री विवेक श्रीजी श्री गुलाबश्रीजी श्री रत्नश्रीजी श्री लाभश्रीजी श्री कनकश्रीजी 1936 आषाढ़ 1936 मृ. कृ. 2 1936 म. कृ. 13 1941 वै. शु. 3 1941 ज्ये. कृ. 12 1941 ज्ये. कृ. 13 1941 माघ सु. 1941 माघ सु. 1943 वै. शु. 10 1943 वै. शु. 10 1943 वै. शु. 10 1943 म, कृ. 1947 चै. शु.5 1948 चै. शु. 5 1948 आ. शु. 3 गुरूणी श्री पुण्यश्रीजी श्री पुण्यश्रीजी श्री पुण्यश्रीजी श्री कस्तूरीश्रीजी श्री श्रृंगारश्रीजी श्री श्रृंगारश्रीजी श्री श्रृंगारश्रीजी श्री श्रृंगारश्रीजी श्री श्रृंगारश्रीजी श्री श्रृंगारश्रीजी श्री श्रृंगारश्रीजी श्री श्रृंगारश्रीजी श्री विवेकश्रीजी श्री श्रृंगारश्रीजी श्री पुण्यश्रीजी 221. खरतरगच्छ का इतिहास, पृ. 177-86 311 Page #374 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन श्रमणियों का बृहद इतिहास 18. 1948 मृ. शु. 2 1950 ज्ये. कृ. 13 1951 आ. शु. 7 1951 मृ. शु. 15 1951 मा. शु. 5 1952 ज्ये. शु. 7 1953 ज्ये. शु. 2 श्री पुण्यश्रीजी श्री पुण्यश्रीजी श्री पुण्यश्रीजी श्री पुण्यश्रीजी श्री नवलश्रीजी श्री श्रृंगारश्रीजी श्री पुण्यश्रीजी 21. 1955 फा. कृ.5 1955 ज्ये. शु. 2 1955 पो. शु. 6 1955 पो. 31. श्री धनश्रीजी श्री फतेश्रीजी श्री मेहताबश्रीजी श्री उज्जवल श्रीजी श्री रतनमालाश्रीजी श्री प्रेमश्रीजी श्री हर्षश्रीजी श्री टीकमश्रीजी श्री चन्द्ररिद्धिश्रीजी श्री विद्याश्रीजी श्री सौभाग्यश्रीजी श्री गौतमश्रीजी श्री विजयश्रीजी श्री हुलासश्रीजी श्री माणकश्रीजी श्री हीरश्रीश्रीजी श्री पद्मश्रीजी श्री मोहनश्रीजी श्री दयाश्रीजी श्री जीवणश्रीजी श्री कमलश्रीजी श्री रेवन्तश्रीजी श्री दीपश्रीजी श्री नवलश्रीजी श्री प्रेमश्रीजी श्री ज्योतिश्रीजी श्री देवश्रीजी श्री चन्दनश्रीजी श्री भक्तिश्रीजी श्री मेघश्रीजी श्री चेतनश्रीजी श्री हितश्रीजी 36. श्री श्रृंगारश्रीजी श्री पुण्यश्रीजी श्री पुण्यश्रीजी श्री पुण्यश्रीजी श्री पुण्यश्रीजी श्री पुण्यश्रीजी श्री पुण्यश्रीजी श्री पुण्यश्रीजी श्री पुण्यश्रीजी श्री विवेक श्रीजी श्री पुण्यश्रीजी श्री पुण्यश्रीजी श्री पुण्यश्रीजी श्री पुण्यश्रीजी श्री सुवर्णश्रीजी श्री श्रृंगारश्रीजी श्री पुण्यश्रीजी श्री रत्नश्रीजी श्री स्वर्णश्रीजी श्री स्वर्णश्रीजी श्री स्वर्णश्रीजी श्री लाभश्रीजी श्री लाभश्रीजी न 1955 पो. शु. 6 1956 वै. शु. 6 1956 वै. शु. 6 1956 वै. शु. 6 1956 वै. शु. 6 1956 चैत्र शु. 13 1956 माघ शु. 5 1956 माघ शु. 5 1956 माघ शु.5 1956 माघ शु. 5 1957 माघ शु. 5 1958 म. कृ. 12 1958 म. कृ. 11 1958 फा. कृ. 3 1958 फा. कृ. 2 1958 फा. कृ. 2 1958 फा. कृ. 2 1958 फा. कृ. 2 1959 माघ कृ.7 1960 वै. शु. 7 ल ल ल 40. + + Page #375 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्वेताम्बर परम्परा की श्रमणियाँ 49. 51. 62. श्री गुणश्रीजी श्री माणकश्रीजी श्री उमंगश्रीजी श्री जयश्रीजी श्री मुक्तिश्रीजी श्री चम्पाश्रीजी श्री विनयश्रीजी श्री वल्लभश्रीजी श्री लब्धिश्रीजी श्री मोतीश्रीजी श्री अमृतश्रीजी श्री कल्याणश्रीजी श्री जीतश्रीजी श्री हगामश्रीजी श्री सत्यश्रीजी श्री चतुरश्रीजी श्री कुंकुमश्रीजी श्री चिमनश्रीजी श्री रेवंतश्रीजी श्री मणिश्रीजी श्री मोहनश्रीजी श्री गंगाश्रीजी श्री कंचनश्रीजी श्री यमुनाश्रीजी श्री जतनश्रीजी श्री सूरजश्रीजी श्री फूलश्रीजी श्री धनश्रीजी श्री शुभश्रीजी श्री शांतिश्रीजी श्री गंभीरश्रीजी श्री लालश्रीजी 1960 वै. शु. 7 1960 ज्ये. शु. 5 1960 आ. शु. 10 1960 माघ शु. 7 1961 वै. शु. 10 1961 म. शु. 5 1961 पो. शु. 12 1961 पो. शु. 15 1961 चैत्र. शु. 13 1962 आ. शु. 7 1962 मृ. शु. 6 1962 मृ. शु. 6 1962 मृ. शु. 6 1962 मृ. शु. 11 1963 वै. शु. 7 1963 वै. शु. 7 1963 वै. शु. 7 1963 वै. शु. 7 1963 वै. शु. 10 1963 पोष कृ. 7 1963 पोष कृ. 7 1963 पोष कृ. 7 1964 वै. शु. 11 1964 ज्ये. शु. 5 1964 मि. व. 5 1964 मृ. व. 5 1964 मृ. व. 5 1964 मृ. शु. 5 1964 मृ. शु. 5 1964 मा. शु. 5 1964 आ. कृ. 3 1965 आ. कृ. 12 श्री लाभश्रीजी श्री कनकश्रीजी श्री कनकश्रीजी श्री सुवर्णश्रीजी श्री पुण्यश्रीजी श्री पुण्यश्रीजी श्री पुण्यश्रीजी श्री पुण्यश्रीजी श्री विवेकश्रीजी श्री पुण्यश्रीजी श्री सुवर्णश्रीजी श्री सुवर्णश्रीजी श्री लाभश्रीजी श्री स्वर्णश्रीजी श्री पुण्यश्रीजी श्री पुण्यश्रीजी श्री सुवर्णश्रीजी श्री लाभश्रीजी श्री पुण्यश्रीजी श्री पुण्यश्रीजी श्री लाभश्रीजी श्री पुण्यश्रीजी श्री विवेक श्रीजी श्री पुण्यश्रीजी श्री सुवर्णश्रीजी श्री गुणश्रीजी श्री पुण्यश्रीजी श्री पुण्यश्रीजी श्री पुण्यश्रीजी श्री कनकश्रीजी श्री रतनश्रीजी श्री पुण्यश्रीजी ० ० ० ० 313 Page #376 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन श्रमणियों का बृहद इतिहास 81. 82. 84. 1966 माघ शु. १ 1966 माघ शु. 9 1966 माघ शु. 9 1967 वै. शु. 11 1967 वै. शु. 11 1968 1968 1969 ज्ये. शु. 13 1969 माघ कृ. 13 1969 1969 1969 श्री प्रधानश्रीजी श्री चन्द्रश्रीजी श्री ताराश्रीजी श्री प्रसन्नश्रीजी श्री विजयश्रीजी श्री आरामश्रीजी श्री अमोलकश्रीजी श्री तेजश्रीजी श्री कस्तूरश्रीजी श्री सिद्धिश्रीजी श्री अजितश्रीजी श्री संतोषश्रीजी श्री कीर्तिश्रीजी श्री सुमतिश्रीजी श्री गुमानश्रीजी श्री चरित्रश्रीजी श्री इन्द्रश्रीजी श्री चरणश्रीजी श्री मनोहरश्रीजी श्री नीतिश्रीजी 101. श्री मैनाश्रीजी 102. श्री वसन्तश्रीजी 103. श्री दत्तश्रीजी 104. श्री भुवनश्रीजी 105. श्री प्रीतिश्रीजी 106. श्री जोरावरश्रीजी श्री समरथश्रीजी 108. श्री उपयोगश्रीजी 109. श्री पवित्रश्रीजी 110. श्री रविश्रीजी 111. श्री सुजानश्रीजी 112. श्री दर्शनश्रीजी 1969 1971 अक्षय तृतीया 1971 अक्षय तृतीया 1971 माघ शु. 5 1972 द्वि. वै. शु. 10 1972 द्वि. वै. शु. 10 1972 द्वि. वै. शु. 10 1972 द्वि. वै. शु. 10 1972 द्वि. वै. शु. 10 1972 ज्ये. कृ. 5 1973 1973 1972 मृ. शु.5 1972 मृ. शु. 5 1973 1974 माघ शु. 13 1975 वै. शु. 10 1974 मा. शु. 13 1974 मा. शु. 13 1974 श्री पुण्यश्रीजी श्री पुण्यश्रीजी श्री श्रृंगारश्रीजी श्री पुण्यश्रीजी श्री पुण्यश्रीजी श्री लाभश्रीजी श्री लाभश्रीजी श्री नवलाश्रीजी श्री लाभश्रीजी श्री श्रृंगारश्रीजी श्री श्रृंगारश्रीजी श्री श्रृंगारश्रीजी श्री श्रृंगारश्रीजी श्री पुण्यश्रीजी श्री पुण्यश्रीजी श्री पुण्यश्रीजी श्री पद्मश्रीजी श्री सौभाग्यश्रीजी श्री सौभाग्यश्रीजी श्री सौभाग्यश्रीजी श्री सौभाग्यश्रीजी श्री सुवर्णश्रीजी श्री चन्दनश्रीजी श्री दीपश्रीजी श्री रत्नश्रीजी श्री रत्नश्रीजी श्री पुण्यश्रीजी श्री पुण्यश्रीजी श्री पुण्यश्रीजी श्री कनकश्रीजी श्री पुण्यश्रीजी 314 Page #377 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्वेताम्बर परम्परा की श्रमणियाँ 113. श्री सिद्धार्थ श्रीजी 114. श्री गीतार्थ श्रीजी 115. श्री अनुपम श्रीजी 116. श्री धर्मश्रीजी 117. श्री रतिश्रीजी 118. श्री उत्तमश्रीजी 119. श्री प्रकाश श्रीजी 120. श्री यशवंत श्रीजी 121. श्री सुव्रत श्रीजी 122. श्री देवेन्द्र श्रीजी 123. श्री सुगनश्रीजी 124. श्री जैन श्रीजी 125. श्री जिनेन्द्र श्रीजी 126. श्री विज्ञान श्रीजी 127. श्री समताश्रीजी 128. श्री बुद्धिश्रीजी 129. श्री सुमन श्रीजी 130. श्री सुव्रत श्रीजी 131. श्री अभयश्रीजी 132. श्री यशश्रीजी 133. 134. 135. 136. 137. 138. 139. 140. 141. 142. 143. 144. श्री सम्पतश्रीजी श्री विनोद श्रीजी श्री शीतल श्रीजी श्री ध्यान श्रीजी श्री नीतिश्रीजी श्री सुनन्दाश्रीजी श्री राजश्रीजी श्री जीवन श्रीजी श्री कुशल श्रीजी श्री कुमुदश्रीजी श्री वर्द्धन श्रीजी श्री हीराश्रीजी 1975 1975 1976 आ. शु. 2 1976 फा. शु. 7 1979 फा. शु. 7 1979 फा. शु. 7 1979 फा. शु. 7 1980 माघ शु. 3 1980 माघ शु. 3 1980 माघ शु. 3 1980 माघ शु. 3 1979 मृ.शु. 5 1979 मू. शु. 5 1980 ज्ये. शु. 5 1980 1980 1980 1980 1981 मेरूतेरस 1981 माघ शु. 15 1981 वै. शु. 11 1982 माघ शु. 5 1986 फा. शु. 1 1986 ज्ये. कृ. 12 1988 माघ शु. 5 1988 माघ शु. 5 1988 माघ सु. 5 1988 फा. सु. 3 1988 ज्ये. सु. 3 1988 315 श्री रत्नश्रीजी श्री रत्न श्रीजी श्री सुवर्णश्रीजी श्री हीर श्रीजी श्री हीरश्रीजी श्री हीरश्रीजी श्री हीरश्रीजी श्री रत्नश्रीजी श्री रत्नश्रीजी श्री रत्नश्रीजी श्री कनक श्रीजी श्री चेतन श्रीजी श्री चेतन श्रीजी श्री सुवर्णश्रीजी श्री कनकश्रीजी श्री दयाश्रीजी श्री उल्लास श्रीजी श्री उल्लास श्रीजी श्री ज्ञान श्रीजी श्री चन्दन श्रीजी श्री चेतनश्रीजी श्री विद्याश्रीजी श्री सुवर्णश्रीजी श्री कनकश्रीजी श्री धनश्रीजी श्री मोतीश्रीजी श्री लालश्रीजी श्री ज्ञानश्रीजी श्री कल्याण श्रीजी श्री प्रेमश्रीजी श्री चेतनश्रीजी श्री रत्नश्रीजी Page #378 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 145. 146. 147. 148. 149. 150. 151. 152. 153. 154. 155. 156. 157. 158. 159. 160. 161. 162. 163. 164. 165. 166. 167. 168. 169. 170. श्री विचित्र श्रीजी श्री विशाल श्रीजी श्री वीरश्रीजी श्री अशोक श्रीजी श्री त्रिभुवनश्रीजी श्री रणजीत श्रीजी श्री रंभाश्रीजी श्री विबुधश्रीजी श्री पुष्पा श्रीजी श्री चितरंजन श्रीजी श्री प्रभाश्रीजी श्री प्रकाश श्रीजी श्री राजेन्द्र श्रीजी श्री जिनेन्द्र श्रीजी श्री प्रवीण श्रीजी श्री विजयेन्द्र श्रीजी श्री देवेन्द्रश्रीजी श्री हीराश्रीजी श्री विकास श्रीजी श्री रूपश्रीजी श्री गुणवान श्रीजी श्री माणक श्रीजी श्री सूर्यप्रभाश्रीजी श्री संतोष श्रीजी श्री हंसप्रभाश्रीजी श्री ज्योतिप्रभाश्रीजी 1991 वै. सु. 5 1991 वै. सु. 10 1993 मृ. कृ. 7 1996 वै. शु. 7 1997 ज्ये. शु. 11 1997 ज्ये. शु. 11 1999 माघ कृ. 6 1999 फा. शु. 2 1999 माघ वदि 6 1999 2001 वै. शु. 6 2003 मृ. शु. 5 2001 वै. शु. 12 2002 ज्ये. शु. 15 2002 आ. शु. 2 2001 आ. शु. 2 2003 म शु. 6 2002 2008 मृ.शु. 5 2009 ज्ये. कृ. 7 2011 म शु. 11 2011 फा. शु. 2 2017 वै. शु. 13 2020 वै. शु. 13 5.2 तपागच्छ एवं उसकी प्राचीन श्रमणियाँ ( 13वीं सदी से संवत् 1791 ) जैन श्रमणियों का बृहद इतिहास श्री विनयश्रीजी श्री विनयश्रीजी श्री विनयश्रीजी श्री जतनश्रीजी श्री उमंग श्रीजी श्री प्रसन्नश्रीजी श्री रतिश्रीजी 316 श्री वसंत श्रीजी श्री अनुपम श्रीजी श्री जैन श्रीजी श्री विज्ञान श्रीजी श्री प्रकाशश्रीजी श्री उपयोग श्रीजी श्वेताम्बर परम्परा में तपागच्छ का स्थान आज सर्वोपरि है। इस गच्छ की परम्परानुसार बृहद्गच्छीय आचार्य मणिरत्नसूरि के शिष्य जगच्चन्द्रसूरि ने अपने गच्छ में व्याप्त शिथिलाचार के कारण चैत्रगच्छीय आचार्य धनेश्वरसूरि के प्रशिष्य और भुवनचन्द्रसूरि के शिष्य देवभद्रगणि के पास उपसम्पदा ग्रहण की, एवं 12 वर्षों तक निरंतर आयम्बिल तप किया, जिससे प्रभावित होकर आघाटपुर के शासक जैत्रसिंह ने वि. संवत् 1285 में इन्हें श्री ज्ञानश्रीजी श्री जतनश्रीजी श्री विचक्षणश्रीजी श्री दत्तश्रीजी श्री यशश्रीजी श्री उमंग श्रीजी श्री लालश्रीजी श्री उमंग श्रीजी श्री हीराश्रीजी श्री विचक्षणश्रीजी श्री वर्धनश्रीजी श्री विचक्षणश्रीजी Page #379 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्वेताम्बर परम्परा की श्रमणियाँ 'तपा' विरूद प्रदान किया। आगे चलकर इनकी शिष्य संतति 'तपागच्छीय' कहलाई। 222 तपागच्छ पट्टावली, (श्री मुनिसुंदरसूरिकृत) गुर्वावली तथा जीर्ण पट्टावली आदि में तपागच्छ की किसी भी साध्वी का नामोल्लेख देखने को नहीं मिला। यद्यपि प्राचीन हस्तलिखित ग्रंथों व उनमें उल्लिखित प्रशस्तियों मे श्रमणी विषयक महत्त्वपूर्ण सामग्री उपलब्ध हो सकती है, किंतु इसके लिये ग्रंथ भंडारों से पर्याप्त विवरण प्रकाश में लाने की आवश्यकता है। जो थोड़ी-बहुत जानकारी हमें उपलब्ध हुई है वह मूर्ति, प्रतिमा लेख, प्रशस्तियों के द्वारा प्राप्त हुई है, उसीके आधार पर यहाँ तपागच्छ की प्राचीन साध्वियों का इतिवृत्त दिया गया है। 5.2.1 प्रवर्तिनी साध्वी पाहिनी ( संवत् 1207 ) आप कलिकाल सर्वज्ञ के नाम से जैन साहित्याकाश में विख्यात, साढ़े तीन करोड़ श्लोक परिमाण ग्रन्थ के कर्त्ता राजा कुमारपाल के गुरू आचार्य हेमचन्द्र की मातेश्वरी थीं। आचार्य हेमचन्द्र (गृहस्थ नाम चांग) को चन्द्रगच्छ की शाखा के आचार्य देवचन्द्रसूरि के पास दीक्षित करने के पश्चात् माता पाहिनी ने भी दीक्षा आंगीकार करली थी। आचार्यश्री ने आपको 'प्रवर्तिनी' पद से विभूषित किया था। 23 वि. संवत् 1207 को पाटन में आपने आचार्यश्री सान्निध्य में आमरण संथारा भी स्वीकार किया था । इस उपलक्ष में आचार्य श्री ने तीन लाख श्लोक माता साध्वी की पुण्य स्मृति में बनाये, एवं श्रावक संघ ने तीन करोड़ मुद्राएं पुण्य कार्य में व्यय की 1224 5.2.2 देमति गणिनी ( संवत् 1255 ) आप एक विशिष्ट प्रभावशालिनी साध्वी हुई हैं। पाटण (गुजरात) के अष्टापदजी के मंदिर में आपकी मूर्ति प्रतिष्ठित है, उस पर “ वि. संवत् 1255 कार्तिक वदि 11 बुधवार देमतिगणिनी मूर्ति ( : ) ।” लिखा हुआ है। प्रतिमा का चित्र इसी ग्रंथ की प्रस्तावना में दिया गया है। 5.2.3 आर्या पद्मसिरि (संवत् 1276 ) खेड़ा जिला के 'मातरतीर्थ' (गुजरात) में सुमतिनाथ प्रभु के विशाल जिनालय में संगमरमर की एक प्रतिमा 'आर्या पद्मश्री' की है, उसके नीचे शिलालेख पर 'आर्या पद्मसिरि' वि. संवत् 1298' अंकित है। जिनालय प्रदक्षिणा की चोथी देरी में उक्त मूर्ति प्रतिष्ठित है। साध्वी पद्मश्री की 800 वर्ष प्राचीन यह प्रतिमा उस समय की है, जब किसी साधु प्रतिमा की भी प्रतिष्ठा नहीं की जाती थी, किसी-किसी युगप्रधान आचार्य की प्रतिमा ही प्रतिष्ठापित की जाती थी, ऐसे में साध्वी की मूर्ति का निर्माण उसके अलौकिक व्यक्तित्व को प्रगट करती है। आर्या पद्मसिरि का जन्म संवत् 1268 में खंभात के कोट्याधिपति श्रेष्ठी के यहाँ हुआ था। जब वे 8 वर्ष की थीं, तब एकबार दादाजी के साथ उपाश्रय में गुरू महाराज के दर्शनार्थ आईं, उनका तेजस्वी ललाट और सौम्य, शांत मुखाकृति को देखकर वहाँ विराजमान धर्ममूर्ति गुरू ने जिनशासन के लिये उस बालिका की माँग की। शासन की अतिशय प्रभावना का विचार कर परिवारीजनों ने पद्मश्री को गुरू महाराज के सुपुर्द कर दिया। 8 वर्ष की 222. डॉ. शिवप्रसाद, तपागच्छ का इतिहास, भाग 1 खंड 1, पृ.6 223. तदा च पाहिनी.... .......... तत्र चारित्रमादत्ता विहस्ता गुरुहस्ततः । प्रवर्तिनी प्रतिष्ठां च दापयामास नम्रगी ।। - प्रभावकचरिते, श्री हेमचन्द्रसूरि प्रबन्ध : 61, 62 224. मुनि ज्ञानसुंदर, भ. पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास भाग 1, खंड 2, पृ. 1261 317 Page #380 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन श्रमणियों का बृहद इतिहास कन्या को दीक्षा देकर उसका नाम 'आर्या पद्मसिरि' रखा। आर्या पद्मसिरि के तेजस्वी आभामंडल से प्रभावित होकर श्राविकाओं व कन्याओं के झुंड के झुंड उनके पास दीक्षा के लिये आने लगा। अल्प समय में ही ये 700 शिष्याओं की गुरूणी बन गईं। ज्ञान का क्षयोपशम इतना स्पष्ट व निर्मल था कि गूढ़ से गूढ तत्त्वज्ञान को वे सरल रूप में समझा देती थीं। सूरि महाराज ने इन्हें क्रमशः 'प्रवर्तिनी' और फिर 'महत्तरा' पद से अलंकृत किया। 28 वर्ष की कुल उम्र में 20 वर्ष संयम व चारित्र का पालन कर ये संवत् 1296 में समाधि पूर्वक स्वर्गवासिनी हुई। इन असीम उपकारों की स्मृति में संभवतः उनके 2 वर्ष पश्चात् संवत् 1298 में उनकी प्रतिमा स्थापित की गई।25 प्रतिमा का चित्र इसी ग्रंथ की प्रस्तावना में दिया गया है। 5.2.4 धर्मलक्ष्मी महत्तरा (संवत् 1491) आनन्द मुनि ओसवंशी ने संवत् 1577 में मंडवु (मांडवगढ़) में धर्मलक्ष्मी महत्तरा भास 53 पद्यों में लिखा। उसके अनुसार धर्मलक्ष्मीजी ओसवाल वंश के पिता मेलाई (मेलूय) एवं माता 'रामवि' की कन्या थीं। 7 वर्ष की अल्पायु में ही संयम ग्रहण करने की बलवती भावना देखकर श्री रत्नसिंहसूरि ने इन्हें संवत् 1491 में दीक्षा प्रदान की। आप रत्नचूला महत्तरा की शिष्या बनीं। आपने 11 अंगों का अध्ययन किया, छ: भाषाओं की ज्ञाता बहुश्रुती एवं संयमनिष्ठ जीवन को देखकर संवत् 1571 में देलवाड़ा में 'महत्तरा' पद पर स्थापित किया।26 वि. संवत् 1516 में लिखी गई उत्तराध्ययन की एक प्रति से ज्ञात होता है, कि वह रत्नसिंहसूरि की शिष्या थीं, उनके पठनार्थ उक्त प्रति लिखी गई थी।27 ऐतिहासिक लेख संग्रह के अनुसार वि. संवत् 1507 स्तम्भतीर्थ (खंभात) में बृहत्तपागच्छ के ज्ञानसागरसूरि रचित 'विमलचारित्र' महाकाव्य में भी आपका संस्मरण किया है। इन्हें ग्रंथकार ने “स्वर्णलक्ष जननी, प्रवीणा, विधिसंयुता, सरस्वती सदृश" कहकर स्तुति गान किया है।28 5.2.5 श्री राजलक्ष्मी (संवत् 1493) ये पोरवाड़वंशीय गेहा की पत्नी विल्हणदे की कुक्षि से उत्पन्न हुई थी। श्री जिनकीर्तिसूरि की आप बहिन थीं। तथा तपागच्छीय श्री 'शिवचूला महत्तरा' की शिष्या थीं। आपकी संवत् 1493 की देलवाड़ा (मेवाड़) में रचित "शिवचूलागणिनी विज्ञप्ति' गाथा 20 श्री नाहटा जी ने काव्य-संग्रह में प्रकाशित की है। शिवचूलागणिनी को 1493 में महत्तरा पद प्रदानोत्सव पर शाह महादेव संघवी ने बड़ा उत्सव किया था। शिवचूला गणिनी का चरित्र इस विज्ञप्ति में वर्णित है।229 225. पाठशाला, पुस्तक 36, आ. प्रद्युम्नसूरि, 703 नूतन विलास भटारमार्ग, सूरत, जुलाई, 2003 226. पय नमी दीधैं खमासणूं ए, सासणदेव प्रसन्न। संवत् चउद एकाणूइए, जाणूं बहु परिजंग।। 181 -ऐ. जै. गुर्जर काव्य संचय, पृ. 215-220 227. डॉ. शिवप्रसाद, तपागच्छ का इति, पृ. 231 228. ऐति. ले. सं., पृ. 339 229. कुंवर गुण भंडारूए 'जिनकीरतिसूरि सा वीरूए। 'राजलच्छी' बहन तसु नामुए, लीह पवतणि करूँ पणामुए ___-'नाहटा', ऐति. जै. काव्य संग्रह, पृ. 339, 40, कलकत्ता 1318 Page #381 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्वेताम्बर परम्परा की श्रमणियाँ 5.2.6 महत्तरा उदयचूला आपके जीवन के विषय में विशेष वृत्तान्त उपलब्ध नहीं होता। केवल 'श्रीमति उदयचूला स्वाध्याय' में आपके गुणों का वर्णन किया गया है। आप 'करमादे' की पुत्री थीं। एवं अत्यंत महिमावंत साध्वी थीं। आपकी वाणी अत्यंत मधुर एवं प्रभावशाली थी । युगप्रधान आचार्य श्री लक्ष्मीसागरसूरि ने आपको शिवचूला के पाट पर स्थापित कर 'महत्तरा' पद प्रदान किया था। काव्य में कवि की अनन्य भक्ति इस रूप में व्यक्त होती है- नवि मांगऊ राज नई अमर वास । देज्यो- देज्यो निअ पाय कमलवास ॥ 230 इसमें कुल 19 पद हैं। 5.2.7 रत्नचूला महत्तरा रत्नसिंहसूरि के ही पट्टधर उदयवल्लभसूरि हुए, उनका नाम संवत् 1518 से 1521 तक कुछ प्रतिमा लेखों में 'प्रतिष्ठापक' के रूप में मिलता है, साथ ही इनकी आज्ञानुवर्तिनी दो साध्वियों का भी उल्लेख मिलता है- - रत्नचूला महत्तरा एवं विवेकश्री प्रवर्तिनी |231 विशेष ज्ञातव्य उपलब्ध नहीं है। 5.2.8 श्री भावलक्ष्मी ( संवत् 1508 ) ये पोरवालवंशीय पिता सलाहा एवं माता झबक की सुंदरी नाम की कन्या थी। अपने संसारी भ्राता श्री रत्नसिंहरि की प्रेरणा से साध्वी रत्नचूला के पास प्रव्रज्या अंगीकार की। उदयधर्म के शिष्य ने भावलक्ष्मी पर 'धुल' नाम की रचना संवत् 1508 में की। जिसकी हस्तलिखित प्रति पाटण भंडार में सुरक्षित है। 232 5.2.9 साधुलब्धिगणिनी ( संवत् 1508-1519 मे मध्य ) आप शेठ छाड़ा के वंश में उत्पन्न हुई थीं। आपके दादा खीमसिंहजी ने तपागच्छ के आचार्य लक्ष्मीसागरसूरि से संवत् 1508-1517 के मध्य अपनी पौत्री साधुलब्धि को 'गणिनी' पद दिलवाकर संघ पूजा की थी। 233 5.2.10 आगमरिद्धि ( संवत् 1530 ) आप द्वारा संवत् 1530 का लिखित भक्तामर स्तोत्र बालावबोध की हस्तलिखित प्रति अभय जैन ग्रंथालय संग्रह, बीकानेर नं. 1931 में संग्रहित है | 234 5.2.11 साध्वी कनकलक्ष्मी (संवत् 1557 ) आप गच्छाधीश हेमविमलसूरि के शिष्य पं. सुमतिमंडन गणि की आज्ञानुवर्तिनी गणिनी विनयलक्ष्मी की 230. ऐति. जै. गुर्जर काव्य संचय, पद 18 पृ. 221-222 231. डॉ. शिवप्रसाद, तपागच्छ का इति., पृ. 231 232. जिनशासन नां श्रमणीरत्नो, पृ. 153 233. वही, पृ. 153 234. जै. गु. कविओ भाग 1, पृ. 57 319 Page #382 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन श्रमणियों का बृहद इतिहास शिष्या गणिनी राजलक्ष्मी की शिष्या थी। आपके वाचनार्थ संवत् 1557 में हर्षकुल कृत 'वासुदेवचौपाई' श्री सुमतिमंडन गणि ने लिखकर दी। यह प्रति ईडर के भंडार में है। इसमें लिपि संवत् नहीं है।235 5.2.12 कोडिमदे (संवत् 1613) आप मारवाड़ के नाडलाई ग्राम निवासी कर्माशाह की धर्मपत्नी थी, जो राजा देवड़ की 35 वीं पीढ़ि में हुई, ऐसा माना जाता है। इनके पुत्र का नाम 'जेसिंघ' था। इन्होंने तपागच्छ के महान क्रियोद्धारक श्री आनन्दविमलसूरि के पट्टधर शिष्य श्री विजयदानसूरिजी के पास सूरत शहर में संवत् 1613 ज्येष्ठ शु. 11 को पुत्र के साथ दीक्षा अंगीकार की। वे विजयसेनसूरि के नाम से प्रख्यात हुए। सूरिजी की तार्किक बुद्धि एवं युक्तिपूर्ण निरूत्तर करने की शक्ति से प्रभावित होकर अकबर बादशाह ने 'सूरिसवाई' का विरूद प्रदान किया था।236 5.2.13 साध्वी राजश्री (संवत् 1634) तपागच्छीय आचार्य विजयसिंहसूरि के श्री देवविजयजी ने 'चंपकरास' 48 ढाल, 240 कड़ी का संवत् 1735 श्रावण शु. 13 को 'धाणेरा' में रचा। उसकी प्रशस्ति में साध्वी राजश्री का स्मरण किया है। यह प्रति विजय नेमीश्वर भंडार, खंभात में है।। साधु पुण्यविजय सखाई, सूधी साध गुरूभाई जी राजश्री साध्वी मुझ माई, श्री जिनधर्म सगाईजी। 5.2.14 आर्या सोना (संवत् 1638) बड़तपागच्छीय ज्ञानसागरसूरि के शिष्य वच्छ श्रावक ने 'मृगांकलेखा रास' की रचना संवत् 1523 में की, इसकी प्रति संवत् 1638 वैशाख कृ. 6 रविवार को रामदास ने कुर्कटेश्वर में लिखकर आर्या सोना को पढ़ने के लिये दी थी। यह प्रति विजयनेमिसूरिश्वर ज्ञानमंदिर खम्भात में संग्रहित है।238 5.2.15 साध्वी हेमश्री (संवत् 1644) आप बड़तपागच्छीय भानुमेरू के शिष्य नयसुन्दर की शिष्या थीं। आपने संवत् 1644 वैशाख कृ. 7 मंगलवार को 367 कड़ी की एक विस्तृत रचना 'कनकावती आख्यान' लिखकर पूर्ण की। इस कथा में शील का माहात्म्य दर्शाया है। रचना का कुछ अंश 'जैन गुर्जर कविओ' भाग 2 पृ. 231 पर उल्लिखित है। आपकी एक अन्य कृति 'मौन एकादशी स्तुति' प्रवर्तक कांतिविजयजी भंडार, नरसिंहजी की पोल, बड़ोदरा में है। उक्त कृति गणि रत्नविजयजी ने सूरत में लिखी, वह शेठ हालाभाई मगनलाल का निवास फोफलियावाड़ पाटण दा. 48 नं. 140 में सुरक्षित है।39 235. जै. गु. क. भाग 1, पृ. 214 236. (क) मुनि विद्याविजय, विजय प्रशस्ति सार, पृ. 22, हर्षचन्द्रभूराभाई जैनशासन लखनऊ, सन् 1912, (ख) पं. कल्याणविजय जी, पृ. 241 ई. तपागच्छ पट्टावली भाग 1, अमदाबाद, 1940 237. जै. गु. क. भाग 4, पृ. 258 238. जै. गु. क. भाग 1, पृ. 142 239. डॉ. शितिकंठ मिश्र, हि. जै. सा. इ. भाग 2, पृ. 598, बनारस 320 Page #383 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्वेताम्बर परम्परा की श्रमणियाँ 5.2.16 महत्तरा विनयवृद्धि (संवत् 1644) तपापक्ष की वृद्धेतर शाखा में श्री हीरविजयसूरि के शिष्यानुशिष्य श्री जयसागरजी ने संवत् 1644 ज्येष्ठ शु. 14 गुरूवार को 'कल्याणमंदिर टीका' महत्तरा विनयवृद्धि की शिष्या साध्वी श्री बाई के पठनार्थ लिखकर दी। यह प्रति बड़ा चौटा, उदयपुर पोथी 15 में संग्रहित है।240 5.2.17 प्रवर्तिनी विवेकलक्ष्मी, धर्मलक्ष्मी (संवत् 1652) श्री जयवंतसूरि-गुणसौभाग्यसूरि की 'काव्यप्रकाश टीका' की प्रशस्ति में उक्त साध्वियों का आदर सहित उल्लेख किया गया है। ये बृहद् तपागच्छीय परंपरा की साध्वियाँ हैं। टीका संवत् 1652 की है।241 5.2.18 साध्वी नयश्री (संवत् 1652) ये मेड़ता के ओसवाल परिवार के चोरड़िया गोत्रीय शाह मांडण की पुत्रवधु एवं नथमलजी की भार्या थी। इनका नाम 'नायकदे' था। इनकी दादी फूलां भी अति उदार हृदया महिला थी। नथमलजी से इनके पाँच पुत्र हुए। त्यन्त धार्मिक प्रवृत्ति के व्यक्ति थे, इन्होंने तपागच्छ के श्री कमलविजयजी से 21 अट्टम व कई बेले, उपवास ग्रहण किये थे। बाद में परिवार के 6 व्यक्तियों के साथ जिसमें नायकदे व उनके 4 पुत्रों ने संवत् 1652 माघ शु. 2 को पाटण में विजयसेनसूरि के पास दीक्षा ग्रहण की। 'नायकदे' का दीक्षा के पश्चात् 'नयश्री' नाम दिया। इनके तृतीय पुत्र कर्मचन्द्र दीक्षा के पश्चात् कनकविजय और आचार्य पद के पश्चात् 'विजयसिंहसूरि' के नाम से प्रसिद्धि को प्राप्त हुए।242 5.2.19 साध्वी कल्याणऋद्धि (संवत् 1687) संवत् 1687 में तपागच्छीय श्री विजयदेवसूरीश्वर के राज्य में पं. कीर्तिविजयजी ने 'श्री पाक्षिक सूत्र' लिखकर साध्वी हेमऋद्धि की शिष्या कल्याणऋद्धि को दिया। इसकी हस्तप्रति श्री कांतिविजय संग्रहालय बड़ोदरा में है।243 5.2.20 साध्वी लब्धिलक्ष्मी (संवत् 1692) संवत् 1622 में पूर्णिमागच्छ के रत्नसुंदर द्वारा रचित 'पंचाख्यान चौपाई/कथा कल्लोल चौपाई' तपागच्छ के श्री हेमविमलसूरि की परम्परा के मुनि सौभाग्यविमल ने भ्राता मुनि वृद्धिविमल तथा साध्वी लब्धिलक्ष्मी के वाचनार्थ पाहलणपुर में संवत् 1692 में लिखकर दी। यह प्रति रत्नविजय भंडार डेहला, दा. 41 नं. 29 में सुरक्षित है।244 240. जै. गु. क. भाग 3, पृ. 350 241. जै. गु. क. भाग 2, पृ. 72 242. 'नाहटा', ऐति. जै. काव्य संग्रह, पृ. 95 से 100 243. अ. म. शाह, श्री प्रशस्ति संग्रह, पृ. 192 244. जै. गु. क. भाग 2, पृ. 131 3211 Page #384 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन श्रमणियों का बहद इतिहास 5.2.21 साध्वी धरणूं, रूपां, कमां, ऊदा (संवत् 1697) आप सभी का उल्लेख संवत् 1697 की हस्तलिखित प्रति 'मृगांकलेखा रास' के अंत में है। उक्त प्रति से ज्ञात होता है कि ये साध्वियाँ पूज्य पासचन्द्र आचार्य एवं श्री हरपाल रिक्ष की आज्ञानुवर्तिनी थीं। मृगांकलेखा रास बड़तपागच्छीय ज्ञानसागरसूरि के शिष्य श्रावक कवि वच्छ द्वारा संवत् 1523 में रचा गया था। हस्तलिखित प्रति विमलगच्छ भंडार, विजापुर नं. 20-11 और 20-15 में संग्रहित है।245 उक्त रास की एक प्रति संवत् 1697 की पाटण भंडार वाचक धर्मभूषणगणि द्वारा लिखित प्राप्त हुई है, जिस पर लिखा है- प्रवर्तिनी सत्यप्रभा पठनार्थ, राजसुंदरी चिरं जयात्। 5.2.22 श्री दीपविजयाजी (संवत् 1791) आपके लिये तपागच्छीय पुण्यसागरजी के शिष्य अमरसागर कृत 'रत्नचूड़ चौपाई' 62 ढाल की संवत् 1748 मधुमास शु. 11 गुरूवार को मालवा के खिलचीपुर में रचित होने का उल्लेख है, जो संवत् 1791 पोष शु. 11 बुधवार को जहानाबाद में लिखवाई गई थी, वर्तमान में वह गुलाबकुमारी लायब्रेरी कलकत्ता बंडल नं. 55, नं. 661 में है। इसमें आपको श्री सुजाणविजयाजी की शिष्या लिखा है। सुजाणविजयाजी के लिये लेखक ने 'शीलालंकारधारिणी' विशेषण दिया है, एवं दीपविजयाजी को 'महामतिधारिणी' लिखा है।247 5.3 समकालीन तपागच्छीय श्रमणियाँ (20वीं सदी से अद्यतन) 5.3.1 आचार्य आनन्दसागरसूरीश्वर जी का श्रमणी-समुदाय : । श्वेताम्बर मूर्तिपूजक तपागच्छ सम्प्रदाय में आगमोद्धारक आचार्य श्री आनन्दसागरसूरि जी का समुदाय अतीत से आज तक अत्यधिक विस्तीर्ण एवं विविधता लिये हुए है। वर्धमान तप की 100 ओली संपूर्ण करने का सर्वप्रथम श्रेय इसी समुदाय को प्राप्त हुआ है, आज भी इस समुदाय की श्रमणियों में अलौकिक प्रतिभा, तप-साधना में अप्रमत्तता, स्वाध्यायशीलता आदि विशिष्ट गुण देखने को मिलते हैं। सन् 2004 की चातुर्मास सूची के अनुसार वर्तमान में इस समुदाय की श्रमणियों की संख्या 839 है। इस विशाल साध्वी-समुदाय में श्री शिवश्री जी, तिलक श्रीजी, तीर्थश्रीजी, पुष्पाश्रीजी, रेवतीश्रीजी, राजेन्द्र श्रीजी, मृगेन्द्र श्रीजी, निरंजनाश्रीजी, मलयाश्रीजी आदि का पृथक्-पृथक् सुविस्तृत परिवार है उन सभी का उपलब्ध व्यक्तित्व, कृतित्व, शिक्षा, साधना, धर्मप्रचार का विवरण यहाँ प्रस्तुत किया गया है। 5.3.1.1 प्रवर्तिनी शिवश्रीजी (संवत् 1926-80) सुदीर्घ संयम पर्यायी शासन प्रभाविका साध्वियों में अग्रिम पंक्ति में स्थान पाने वाली साध्वी शिवश्रीजी का जन्म संवत् 1908 को सौराष्ट्र के रामपुरा-झंकोड़ा (वीरमगाम) निवासी शेठ झुमखराम संघवी की धर्मपत्नी 245. जै. ग. क. भाग 1. प. 144 246. वही, पृ. 144 247. जै. गु. क. भाग 5, पृ. 68 322 Page #385 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्वेताम्बर परम्परा की श्रमणियाँ अंबाबाई से हुआ। माता के स्वर्गवास के पश्चात् पिताश्री के साथ आपने भी यावज्जीवन चतुर्थ व्रत ग्रहण कर लिया, पश्चात् जड़ावश्रीजी, जयश्रीजी के पास पाटण में दीक्षा अंगीकार की । ज्ञान और अत्कृष्ट आचार का पालन करती हुई आपने साध्वी- समुदाय में एक महान आदर्श उपस्थित किया। आपके पुण्य का ही प्रभाव है कि श्री सौभाग्यश्रीजी, विनयश्रीजी, तिलकश्रीजी आदि आपकी शिष्या - प्रशिष्याओं की वंशावली 600 तक पंहुची है, और आज तक सैंकड़ों साध्वियाँ उत्कृष्ट तपाराधना करने वाली हुई हैं इनमें तिलक श्रीजी का परिवार अति विस्तृत है, विनयश्री जी की शिष्या सुमतिश्री व उनकी शिष्या लावण्यश्रीजी हैं। 248 5.3.1.2 साध्वी तिलक श्रीजी ( संवत् 1954-2009 ) श्री तिलक श्रीजी राधनपुर के सुप्रतिष्ठ श्रेष्ठी दलछाचंद व माता वीजलीबाई के यहाँ समुत्पन्न हुईं। संवत् 1932 में आपका जन्म हुआ । यौवनावस्था में पति से आज्ञा प्राप्त कर संवत् 1954 मृगशिर शुक्ला 10 को शिवश्री जी के पास दीक्षित हुईं। आप दीर्घदृष्टा, अध्यात्मज्ञानी एवं अद्भुत वात्सल्य से सिक्त शांतमूर्ति महासती थीं। कहा जाता है आपकी छत्रछाया में 100-100 साध्वियाँ एक साथ रहती थीं, कोई भी आप से पृथक् रहना नहीं चाहता था। संवत् 2009 अमदाबाद राजनगर में आपका स्वर्गवास हुआ। श्री मणिश्रीजी, श्री हरकोर श्रीजी, भानुश्रीजी, श्रीजी, मनोहर श्रीजी, धर्मश्रीजी, मंगलश्रीजी, मृगेन्द्रश्रीजी, महोदय श्रीजी, राजेन्द्र श्रीजी, लब्धिश्रीजी, विद्युतश्रीजी, सुमंगलाश्रीजी, मार्दवश्रीजी आदि 14 विदुषी शिष्याओं का परिवार है। इनमें महोदया श्रीजी की मनोज्ञाश्रीजी, सुमंगलश्रीजी की सुव्रताश्री तथा मार्दवश्रीजी की चेलणा व उनकी आर्जव श्रीजी शिष्या हैं। 249 श्री तिलक श्रीजी के परिवार में अनेक श्रमणियाँ दीर्घ तपस्विनी हैं, जैसे 250 श्री धर्मोदया श्रीजी पूर्णप्रज्ञाश्रीजी कल्पप्रज्ञाश्रीजी राजप्रज्ञाश्रीजी पूर्णदर्शिताश्रीजी पूर्णनंदिताश्रीजी सुशीलाश्रीजी - वर्धमान तप की 129 ओली, 600 आयंबिल, सिद्धितप, श्रेणीतप, चत्तारिअट्ठदसदोय, 8, 16, 30 उपवास, 229 छ्ट्ट, पार्श्वनाथ के 108 अट्टम, 3 वर्षीतप नवमासी 9, छमासी 2, समवसरण, सिंहासन, सहस्रकूट तप के 1024 उपवास, 13 काठिया के 13 अट्ठम, नवपद तप । 500 आयंबिल एकांतर, दो वर्षीतप, वर्धमान ओली चालु 500 आयंबिल, सिद्धितप, श्रेणितप, वर्षीतप, वर्धमान ओली चालु 500 आयंबिल, वर्षीतप श्रेणितप, वर्षीतप, वर्धमान ओली चालु सिद्धितप, श्रेणीतप, वर्षीतप श्रेणितप, वर्षीतप, वर्धमान ओली चालु सिद्धितप, वर्धमान ओली चालु 100 ओली संपन्न, 500 आयंबिल 6 अठाई, 229 छट्ट, 16, 30 उपवास, सिद्धितप, वर्षीतप 2, चत्तारिअट्ठदसदोय तप । 248. श्री नंदलाल देवलुक्, संपा. जिनशासन नां श्रमणीरत्नों, पृ. 162 249. वही, पृ. 163 250. वही, पृ. 238, 253-59 323 Page #386 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुपमाश्रीजी अरूजाश्रीजी अमीवर्षाश्रीजी शीलभद्राश्रीजी सम्यग्गुणाश्रीजी प्रमितगुणाश्रीजी नीलरत्नश्रीजी जैन श्रमणियों का बृहद इतिहास - 100 ओली संपन्न, 700 आयंबिल, 6 अट्ठाई लगातार, सान्तर अठाइयां कई, 229 छट्ट, मासक्षमण, 6, 16, 15 उपवास, सिद्धितप, श्रेणितप, भद्रतप, क्रमशः उपवास बेले, तेले से 3 वर्षीतप। - 100 ओली संपन्न, 500 आयंबिल एकांतर, वर्षीतप। - 100 ओली संपन्न, 500 आयंबिल एकांतर, सिद्धितप, श्रेणितप, दो वर्षीतप, चत्तारि० - मासक्षमण, अट्ठाई 2, वर्षीतप, वर्धमान ओली चालु। 3, 4, 5, 8, 10, 16, 30 उपवास, अक्षयनिधि, 20 स्थानक, नवपद ओली, वर्षीतप, 500 आयंबिल, 27 ओलीपूर्ण, सहस्रकूट, 99 यात्रा दो बार, छट्ठ से सात यात्रा, रत्नपावड़ी-दीपावली के 9-9 छ8 व अट्टम, कर्मसूदन, पंचमी, दशमी, नवकारमंत्र आराधनादि। 2, 3, 4, 8, 16, 30 उपवास, क्षीरसमुद्र, चत्तारि, अट्ठदसदोय वर्षीतप, सिद्धितप, 20 स्थानक, नवपदओली, 30 अट्ठम, चार बार 99 यात्रा, दीपावली, रत्नपावड़ी तप, उपधान, छ8 से 7 यात्रा 7 बार, 52 ओली पूर्ण। 2, 3, 8, 30 उपवास, सिद्धितप, क्षीरसमुद्र, पाँचम दशम ग्यारस, उपधान, नवपद ओली, दीपावली रत्नपावड़ी, छट्ट, 20 स्थानक, वर्धमान तप चालु, वर्षीतप। - नवपद ओली, अठाई, वर्षीतप, सिद्धितप, कषायजय, इन्द्रियजय, शत्रुजय तप, 99 यात्रा, चौविहार छ? से सात यात्रा, सिद्धाचल, 45 आगम तप। 4 से 11, 15, 16, 30 उपवास, 20 स्थानक, दो वर्षीतप (एक छ8 से) नवपद ओली, वर्धमान तप की 28 ओली, ये शतावधानी थीं। - 8, 9, 11, 30 उपवास, वर्षीतप। - वर्षीतप, पंचमी, दशम, बीसस्थानक, 4, 5 उपवास व लाखों का जाप क्षीरसमुद्र, अठाई, छ8 से 7 यात्रा, 99 यात्रा तीन बार, नवपद ओली, वर्धमान तप की 20 ओली, बीस स्थानक एवं जाप आदि। - बीसस्थानक, मासक्षमण, सिद्धितप, चत्तारि अट्ठदसदोय, नवपद, वर्धमान तप। सिद्धितप, 99 यात्रा तीन बार, चत्तारि तप, 16 मासखमण। 100 ओली पूर्ण, 4, 6, 16, 30 उपवास, 50 अट्टम, अठाई-4 क्षीरसमुद्र, समवसरण, सिंहासन, सिद्धितप, वर्षीतप, बीस स्थानक, नवपद ओली एक धान्य से, दीपावली व रत्नपावडी के 9 छट्ठ, दूज, पंचमी, ग्यारस, 99 यात्रा पाँच बार, तलाजा की 99 यात्रा 5 बार, सिद्धाचल, अक्षयनिधि, चत्तारि तप, 150, 250, 500 आयंबिल, कल्याणक तप, नवकारतप. 25 वर्ष से बियासणा। तीर्थयशाश्रीजी मयणाश्रीजी वीरभद्राश्रीजी धर्मोदयाश्रीजी मनोज्ञाश्रीजी मंगलाश्रीजी महोदया श्रीजी निरूपमाश्रीजी Page #387 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्वेताम्बर परम्परा की श्रमणियाँ धर्मानंदश्रीजी - सिद्धितप, 16 उपवास, 65 ओली, 120 आयंबिल, इन्द्रियजय, बीस स्थानक, कषायजय, नाना-मोटा पखवासा। शमदमाश्रीजी - 10, 11, 16 सिद्धितप, रत्नपावडी, दीपावली, अक्षयनिधि, सिद्धाचल, वर्धमानतप, छ?-पंचमी-एकादशी-दशमी तप। नीतिप्रज्ञाश्रीजी - 8, 9, 15, 16, 20, 30 उपवास, 20 स्थानक, वर्षीतप, 32 ओली। दीप्तिप्रज्ञाश्रीजी - 8, 9, 11, 30 उपवास, 20 स्थानक, वर्षीतप, 31 ओली। किरणप्रज्ञाश्रीजी __- अट्ठाई 3, सिद्धितप 2, वर्षीतप, बीस स्थानक, 13 ओली। भाग्योदयाश्रीजी - सिद्धितप, श्रेणितप, 108 अट्टम, समवसरण, सिंहासन, वर्षीतप, चत्तारि०, 13 काठिया, सहस्रकूट, दो-छह, दो अठाई। सुररलाश्रीजी - 8 वर्षीतप, 45 आगम तप। महाप्रज्ञाश्रीजी - 8 वर्षीतप, सिद्धितप। शासनरसाश्रीजी - 8,1633 उपवास, श्रेणितप, चत्तारि तप, ओली चालु। महेन्द्र श्रीजी 500 आयंबिल। अशोकश्रीजी मासक्षमण। अरूणप्रभाश्रीजी मासक्षमण, सिद्धितप, 500 आयंबिल। आत्मयशाश्रीजी मासक्षमण, सिद्धितप, 500 आयंबिल, श्रेणितप। अमितगुणाश्रीजी - मासक्षमण, सिद्धितप, धर्मचक्रतप। अनंतगुणाश्रीजी मासक्षमण, सिद्धितप, 500 आयंबिल। अमीपूर्णाश्रीजी 500 आयंबिल अनंतकीर्तिश्रीजी - सिद्धितप, श्रेणितप अमीदर्शाश्रीजी ___ - मासक्षमण, धर्मचक्र, अट्ठम से बीस स्थानक अनंतयशाश्रीजी __ - मासक्षमण, सिद्धितप अर्चपूर्णाशाश्रीजी - सिद्धितप, धर्मचक्र तप, चत्तारिअट्ठदशदोय तप अर्चितगुणाश्रीजी - सिद्धितप, धर्मचक्रतप, चत्तारिअट्ठदशदोय तप मृदुपूर्णाश्रीजी - सिद्धितप, धर्मचक्रतप, चत्तारिअट्ठदशदोय तप श्रीजी सिद्धितप, धर्मचक्रतप अमीझराश्रीजी मासक्षमण, धर्मचक्रतप 325 Page #388 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विनेन्द्र श्रीजी अर्पितगुणाश्रीजी आत्मजयाश्रीजी मुक्तिरत्नाश्रीजी विरागरत्नाश्रीजी भक्तिरत्नाश्रीजी ज्येष्ठाश्रीजी सुगुप्ताश्रीजी सौम्यरत्नाश्रीजी नम्ररत्नाश्रीजी रम्यरत्नाश्रीजी हेमप्रभाश्रीजी पद्मलताश्रीजी पूर्णलताश्रीजी चारित्ररत्नाश्रीजी गुणरत्नाश्रीजी तीर्थरत्नाश्रीजी - मासक्षमण, 500 आयंबिल मासक्षमण, 20 स्थानक अट्ठम से, 8, 16 उपवास, वर्षीतप ओलीतप चालु 8, 9, 11, 30, 51 उपवास, सिद्धितप, 500 आयंबिल, वर्षीतप 500 आयंबिल, सिद्धितप 10 अठाई, वर्षीतप 500 आयंबिल अठाई जैन श्रमणियों का बृहद इतिहास 8, 16, उपवास बीसस्थानक और वर्धमान ओली चालु 8, 9, 10, 11, 30 उपवास, पार्श्वनाथ के 21 अट्टम, सिद्धितप, श्रेणितप, समवसरण, सिंहासन, वर्षीतप सिद्धितप, 25 ओली, अठाई 8, 30 उपवास, सिद्धितप, वर्षीतप, दीपावली तप, 13 ओली 2, 3, 8, 16, 30 उपवास, सिद्धितप, नवपद ओली, पंचमी, दसम ग्यारस, दीपावली के एवं रत्नपावड़ी के छट्ट 2, 3, 8 उपवास, सिद्धितप, नवपद ओली, दीपावली व रत्नपावड़ी के छट्ठ, पंचमी, दसम, ग्यारस, वर्षीतप 99 यात्रा, बीसस्थानक, डेढ़मासी तप व 13 ओली 16, 30 उपवास, अठाई 2, क्षीरसमुद्र, वर्षीतप, 96 जिन कल्याणक, कर्मप्रकृति तप, रत्नपावड़ी व दीपावली के छुट्ट, इन्द्रियजय, कषायजय, योगशुद्धि, सिद्धाचल, 500 आयंबिल एकांतर, नवपद एक धान की 11 ओली, कर्मसूदन, अक्षयनिधि, गौतम पड़वा, पंचमी, दसम ग्यारस, पूनम, 41 ओली वर्धमान आयंबिल की, चौविहारी छुट्ट से सात यात्रा, विविध तप एकासणे से 91 ओली, बीसस्थानक, नवपद, वर्षीतप एकम, पाँचम, दसम, पूनम, 8, 16,30 उपवास 16, 28 उपवास, पाँचम, दसम, पूनम, सिद्धितप, चत्तारि, नवपद, 21 ओली 16, 30 उपवास, सिद्धितप, वर्षीतप, बीसस्थानक, अक्षयनिधि, पंचमी, दसम, पूनम, ग्यारस, 99 यात्रा, नवपद ओली, शंखेश्वर नागेश्वर के अट्ठम, उपधान, दीपावली के छट्ट, वर्धमान तप की 36 ओली 8, 30 उपवास, सिद्धितप, पंचमी, दसम, तेरस, पूनम, अष्टापद ओली, नवपद ओली एक धान से, 535 आयंबिल, गौतम पड़वा, अक्षयनिधि, वर्धमान तप की 68 ओली उपवास 435, अट्ठाई, दूज, पंचमी, दसम ग्यारस, तेरस, पूनम को उपवास 326 Page #389 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्वेताम्बर परम्परा की श्रमणियाँ सिद्धितप, वर्षीतप, बीस स्थानक, चत्तारि०, 500 आयंबिल, 67 ओली पूर्ण, गौतम पड़वा 24, नवपद ओली एक धान से, अष्टापद जी की 8 ओली, अक्षयनिधि मनोजिताश्रीजी - 4, 8, 10, 11, 14, 16 उपवास, दो उपधान, 19 अट्ठम, 6 काय चार बार ज्ञानपंचमी, क्षीरसमुद्र, 21 ओली सौम्यवदनाश्रीजी - 5,11 उपवास, वर्षीतप, 500 आयंबिल, बीसस्थानक चालु राजिताश्रीजी - 5, 8, 11, 16 उपवास, वर्षीतप, 500 आयंबिल, बीसस्थानक चालु निर्मिताश्रीजी वर्षीतप, सिद्धितप, 15 उपवास भव्यपूर्णाश्रीजी - 3, 4, 8, 16, 30, 45 उपवास, उपधान 2, सिद्धितप, 99 यात्रा, चौविहार छ? से 7 यात्रा, अक्षयनिधि, नवपद ओली एक धान्य की, 35 ओली, पंचमी, दसमी, ग्यारस, पूनम सुषेणाश्रीजी - बीसस्थानक, वर्षीतप, अठाई, पाँचम, दशमी के अट्ठम 25, नवकारतप, 99 यात्रा, छठ से 7 यात्रा, नवपद ओली, सिद्धाचल, सहस्रकूट तप स्मितदर्शनाजी - 8,11 उपवास, सिद्धितप, उपधान 2 नवपूर्णाश्रीजी - 16 वर्षीतप नयसिद्धिश्रीजी - 8,10 उपवास, मेरूदंड, बीसस्थानक चालु रत्नत्रयाश्रीजी - 1 से 4 उपवास, पंचमी, दशमी, पूनम बीसस्थानक, अक्षयनिधि, नवपद ओली, वर्धमान तप की 12 ओली, 99 यात्रा, रसत्यागी, सेवाभाविनी सौम्यगुणाश्रीजी - क्षीरसमट असा क्षीरसमुद्र, अठाई 16, पंचमी, दशमी, ग्यारस, नवपद ओली, वर्षीतप, उपधान, 99 यात्रा, बीसस्थानक व वर्धमान ओली चालु रम्यगुणाश्रीजी - चत्तारि, 16 उपवास, पंचमी, दशमी, ग्यारस, कर्मसूदनतप, नवपद ओली, वर्धमान तप की 16 ओली, बीस स्थानक, वर्षीतप, उपधान, 99 यात्रा आदि। कल्पिताश्रीजी वर्षीतप 2, बीस स्थानक, पंचमी, दशमी, पूनम, एकादशी रत्नपावड़ी के छ8, 99 यात्रा, छट्ठ अट्ठम से सातयात्रा, कर्मसूदन, उपधान, चत्तारि, 500 आयंबिल, 108 अट्ठम, कल्याणक, सिद्धितप, 34 ओली क्षीरसमुद्र, 2, 3, 4, 5, 9, 10, 16 उपवास, छकाय 2, अठाई 2, श्रेणितप, अक्षयनिधि, सहस्रकूट तथा विविध तप एकासणा से अमितज्ञाश्रीजी . - 1, 2, 3, 4, 6, 16 उपवास, 2 अठाई, चत्तारि, सिद्धितप 2, वर्षीतप, उपधान, 20 स्थानक, 21 ओली, नवपद ओली, पंचमी, दशमी, पूनम, 99 यात्रा, छ8 से 7 यात्रा, 81 आयंबिल, सिद्धाचल, कर्मसूदन तप। 327 For Pri b ersonal Use Only Page #390 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नयप्रज्ञाश्रीजी आत्मज्ञाश्रीजी शीलरत्नाश्रीजी मोक्षरलाश्रीजी जैन श्रमणियों का बृहद इतिहास - 1 से 8 तक उपवास, बीस स्थानक, नवपद ओली, वर्षीतप, उपधान, वर्धमान तप की 55 ओली, पंचमी, ग्यारस, पोष दशमी, पूनम, दीपावली छ8, 99 यात्रा, छ? करके सात यात्रा, एकांतर 567 आयंबिल - 1 से 4, 8 16 उपवास, पंचमी, दशमी, ग्यारस, वर्षीतप, सिद्धितप, बीस स्थानक, नवपद ओली, 13 ओली, 99 यात्रा 3 बार, छट्ठ करके 7 यात्रा, कर्मसूदन तप 8, सहस्रकूट 1 से 4, 8 उपवास, नवपद ओली, दशम, पूनम, बीस स्थानक, उपधान, वर्षीतप, दीपावली तप, 22 ओली - 12.3.5 दो बार 6,8,10,16 मासखमण, चत्तारि०, सिद्धितप, श्रेणितप, उपधान 3, पंचमी, दशमी, ग्यारस, पूनम, नवपद ओली, वर्धमान 26 ओली, बीस स्थानक, दीपावली के 7 छ8, 99 यात्रा, एकांतर 500 आयंबिल - 1-4, 6, 8, 16 उपवास, सिद्धितप, नवपद ओली, वर्षीतप, उपधान 2, वर्धमान तप की 21 ओली, पंचमी दशम, पूनम, दीपावली के छ? - पंचमी, दशम, पूनम, नवपद की ओली, वर्धमान तप की 10 ओली - अठाई 2, 11, 16 उपवास, चत्तारि, उपधान 2, वर्षीतप पंचमी, दशम, पूनम, दूज, दीपावली तप, बीस स्थानक, वर्धमान तप चालु। अठाई, वर्षीतप, उपधान, मोक्षदंड, चैत्री पूनम, नवपद ओली। वर्षीतप, 16 वर्ष से एकासणा, 30 ओली, सिद्धितप, मेरूतेरस, चत्तारि, सिद्धाचल, स्वस्तिक, मासक्षमण, 16 उपवास, अठाई 3, अष्ट महासिद्धि, चौदहपूर्व, अक्षयनिधि, 6 काय, 9 उपवास, नवपद ओली, वर्धमान तप की 30 ओली, पूनम, 108 अट्टम, पंचरंगी, कर्मसूदन, 20 स्थानक, चौविहार छ8 कर सात यात्रा, 99 यात्रा, कल्याणक तप, इन्द्रियजय, 96 जिन, उपधान 3 सहस्रकूट तथा अन्य अनेक छोटी बड़ी तपस्याएँ की। समयज्ञाश्रीजी सिद्धरत्नाश्रीजी श्रुतज्ञाश्रीजी धर्मप्रज्ञाश्रीजी चित्प्रज्ञाश्रीजी 5.3.1.3 तीर्थश्रीजी (संवत् 1973-2017) खेड़ा (मातर) के हाईकोर्ट के सुप्रसिद्ध वकील श्री हरिभाई के यहाँ संवत् 1940 में आपका जन्म हुआ। दशा पोरवाड़ वंश के श्री अमृतलाल भाई के साथ विवाह और कुछ ही समय में वैधव्य के बाद तिलक श्री जी की प्रशिष्या बनकर आपने साध्वी-वर्ग में तप की ज्योति प्रज्वलित की। पिछले दो हजार वर्षों में वर्धमानतप की 100 ओली पूर्ण करने वाली आप प्रथम साध्वी थीं, आपके पश्चात् सैंकड़ों साध्वियाँ इस मार्ग पर अग्रसर हुईं। संवत् 2017 अमदाबाद में आप स्वर्गस्थ हुईं। श्री रंजनश्रीजी, प्रमोदश्रीजी, सुरप्रभाश्रीजी आपकी परम विदुषी शिष्याएँ हैं। प्रमोदश्रीजी की निपुणश्रीजी, निरूपमाश्रीजी, हेमंतश्रीजी तीन शिष्याएँ हैं। निपुणाश्रीजी की निर्जराश्री, 328 Page #391 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्वेताम्बर परम्परा की श्रमणियाँ भाग्योदया श्री शांतरसाश्री, नयरत्नाश्री, कल्परत्नाश्री, महाप्रज्ञा श्री एवं नीतिप्रज्ञाश्रीजी ये 7 शिष्याएँ हैं। जीतज्ञाश्री किरणप्रज्ञाश्री, सुरत्नाश्री, पूर्णज्ञाश्री, भव्यरत्नाश्री, सोमप्रज्ञाश्री शासनरसा श्री दीप्तिप्रज्ञाश्री ये पौत्र शिष्याएँ हैं। 251 5.3.1.4 रंजनश्री जी (संवत् 1973-2022 ) आप तीर्थ श्रीजी की संसारी पुत्री एवं शिष्या भी थीं। सम्मेदशिखर महातीर्थ का जीर्णोद्धार आपके ही सदुपदेश से इस सदी में (संवत् 2017 ) हुआ। इतिहास में आपका यह अवदान अपूर्व है। जहां साध्वी इतने महान् कार्य की प्रेरणा स्रोत बनी हो । आप जहाँ भी विचरीं, वहां महिला मंडल स्थापित करवाये। 500-600 जितने विशाल श्रमणी - परिवार की संचालिका रंजनाश्रीजी साध्वी समाज के लिये गौरव स्वरूपा थीं। आपके इस महत्कार्य को 'अमृत समीपे ' ग्रन्थ श्री रतिलाल दीपचंद देसाई, श्री सम्मेदशिखर तीर्थ दर्शन ( समेतशिखर जिर्णोद्धार समिति संवत् 2020 ) के आमुख में, तथा ज्ञानांजलि आदि सभी प्रमुख ग्रन्थों के लेखकों ने सराहा है। रंजन श्रीजी की खांति श्रीजी, सरस्वती श्री, रेवतीश्रीजी, मलया श्रीजी 252, प्रवीण श्रीजी 253, मयणाश्रीजी, प्रियंकरा श्रीजी 254, गुणोदया श्री, खीरभद्राश्रीजी, मनोगुप्ताश्रीजी ये 10 शिष्याएँ हैं। सरस्वती श्रीजी की सद्गुणाश्री25 व अजिताश्रीजी हैं। रेवतीश्रीजी की रोहिताश्रीजी, रामगुणाश्रीजी, महागुणाश्री मोक्षगुणा एवं प्रशमपूर्णाजी हैं। रोहिताश्रीजी की अभ्युदयाश्री, रिपुजिता श्री, जयंकराश्री, रक्षितपूर्णा श्री हैं। अभ्युदयाश्रीजी की दो शिष्याएँ हैं - तत्त्वज्ञाश्री, चारूज्ञता श्री । रिपुजिता श्रीजी की सुविदिताश्री हैं। रामगुणाश्रीजी की प्रशांतगुणा, विजेताश्री तथा प्रशांतगुणाश्रीजी की प्रशमपूर्णा श्री व रत्नपूर्णा श्री है । गुणोदया श्री जी की 7 शिष्याएँ मनोरमाश्री, कल्पलताश्रीजी, लक्षिता श्रीजी, सुनयज्ञाश्रीजी धर्मज्ञाश्री, संविज्ञाश्रीजी, कृतज्ञता श्रीजी हैं। मनोरमाश्रीजी की तीन शिष्याएँ हैं 7 आत्मगुणाश्री जी मनोजिता श्रीजी, विनीतागुणाश्रीजी | कल्पलताश्री जी की एक शिष्या तत्त्वविदाश्रीजी । लक्षिताश्रीजी की कल्पपूर्णाश्रीजी व चिदरताश्रीजी । सुनयज्ञाश्रीजी की प्रमितज्ञाश्रीजी, पियुषप्रज्ञाश्रीजी, कर्मज्ञाश्रीजी, रम्यज्ञाश्रीजी, तृप्तिज्ञाश्रीजी, सौम्यज्ञाश्रीजी एवं तत्त्वप्रज्ञाश्रीजी हैं। 256 रेवती श्रीजी की 31 साध्वियाँ हैं, इनमें रेवती श्री, रोहिताश्रीजी ने 100 ओली पूर्ण की हैं, शेष सबकी वर्धमान तप की ओली चालू हैं। रेवतीश्रीजी, जयंकराश्री, शमगुणाश्री, महागुणाश्री, तत्त्वहिताश्री, रक्षितपूर्णा श्री प्रशांतगुणाश्री, विदितपूर्णा श्री (500 आयंबिल आराधिका), पुनीतापूर्णाश्री, प्रणिधानपूर्णा श्री एवं विजेता श्रीजी ने मासक्षमण जैसी उत्कृष्ट तपस्याएँ की हैं। 257 5.3.1.5 श्री मृगेन्द्राश्री जी ( संवत् 1989 - स्वर्गस्थ ) अमदाबाद के श्री पोपटभाई की पुत्री श्री मृगेन्द्राश्रीजी ने 13 वर्ष की उम्र में श्री तिलक श्रीजी के पास दीक्षा ली । वर्तमान तपागच्छीय साध्वियों में ये सर्वश्रेष्ठ आगम अम्यासी मानी जाती हैं। पालीताणां आदि में 200-250 साध्वियों को जीवसमास आदि का गंभीर अध्ययन कराया। तप त्याग में ये स्वयं भी अग्रणी रहीं तथा अपनी शिष्याओं को भी तप की प्रेरणा दी। इन्होंने वीसस्थानक, वर्धमान तप ओली 29, बावन जिनालय, कल्याणक, रत्नपावडी के छट्ट, नवपद ओली एक धान्य की, पोष दशमी, मौन एकादशी, ज्ञानपंचमी आदि 251. वही, पृ. 165-71 252-256. इनका विशेष परिचय अग्रिम पृष्ठों पर देखें 257. श्रमणीरत्नो, पृ. 172-175 329 For Private Personal Use Only Page #392 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन श्रमणियों का बृहद इतिहास तपस्याएँ की।258 श्री मृगेन्द्राश्री जी की 14 शिष्याएँ एवं 70 के लगभग प्रशिष्याएँ हैं। शिष्याओं के नामसंवेगश्रीजी, सुयशाश्रीजी, प्रबोधश्रीजी, विबुधश्रीजी, संवरश्रीजी, मृगलक्ष्याश्रीजी, विनीतयशश्रीजी, तत्त्वरसाश्रीजी, मनीषाश्रीजी, ऋजुप्रज्ञाश्रीजी, चिद्वर्षाश्रीजी श्रुतवर्षाश्रीजी, अक्षयवर्षा श्रीजी, हार्दज्ञाश्रीजी। प्रशिष्याओं के नाम-ऋषिदत्ताश्रीजी, शुभंकराश्रीजी, विपुलयशाश्रीजी, वरधर्माश्रीजी, कल्पधर्माश्रीजी, पुष्पदंताश्रीजी, शुभ्रयशाश्रीजी, सुसंयताश्रीजी, वर्यताश्रीजी। व्रतधराश्रीजी, आर्यव्रताश्रीजी, मुदिताश्रीजी, कल्पवंदिताश्रीजी, धर्मशीलाश्रीजी, रम्यशीलाश्रीजी, भव्यशीलाश्रीजी, अभिज्ञाश्रीजी। जिनधर्माश्रीजी, वीर्यधर्माश्री, दिव्यधर्माश्री, नयधर्माश्रीजी, दीप्तिधर्माश्रीजी, प्रीतिधर्माश्रीजी, दर्शिताश्रीजी, परागधर्माश्रीजी, विरागधर्माश्रीजी। पद्मयशाश्रीजी, मोक्षविदाश्रीजी, प्रशमधराश्रीजी, शीलंधराश्रीजी, कीर्तिधराश्रीजी; उदितयशाश्रीजी, उपशमयशाश्रीजी, कीर्ति रेखाश्रीजी। मार्दवताश्रीजी, मोक्षरताश्रीजी, विशदगुणाश्रीजी विरक्ताश्रीजी, प्रशमरताश्रीजी, धर्मरताश्रीजी, जयप्रज्ञाश्री, व्रतरताश्रीजी, शमरताश्रीजी, वात्सल्यरताश्रीजी, अमिताश्रीजी सौम्यताश्रीजी, शमिताश्रीजी, प्रविदिताश्रीजी एवं वरेण्यताश्रीजी। इस प्रकार शिष्या-प्रशिष्या परिवार की विशालता से श्री मृगेन्द्राश्रीजी के विषय में यह सहज अनुमान लगता है कि वे महागुणी, शासनप्रभाविका एवं समर्थ साध्वी थीं।59 मृगेन्द्रश्रीजी की तपोमूर्ति साध्वियों का ज्ञातव्य इस प्रकार उल्लिखित हैसंवेगश्रीजी - वर्धमान तप की सौ ओली, बीस स्थानक, बावन जिनालय, कल्याणक, चौमासी, डेढमासी, पंचमी, नवपदओली (एक धान्य से) प्रशमश्रीजी - अठाई, सोलह, बावन जिनालय, वर्षीतप, वर्धमान तप की 27 ओली, नवपद ओली। निर्वेदश्रीजी - बीस स्थानक, अठाई, वर्षीतप, पंचमी, नवपद ओली, सिद्धितप, एकादशी, वर्धमानतप की 45 ओली, तीन चौबीसी शुभंकराश्रीजी - 8, 10, 16, 30 उपवास, मेरूतप, पंचमी, दशमी, नवपद ओली, बीस स्थानक, 96 जिन कल्याणक, क्षीरसमुद्र, पूनम, चत्तारि अट्ठदस दोय, वर्धमान तप की 51 ओली से ऊपर, 100 आयंबिल, वर्षीतप, तीन चौमासी, सिद्धाचल के 7 छ? 2 अट्ठम। कल्पधर्माश्रीजी उपधान, नवाणु, पंचमी, क्षीरसमुद्र, नवपद ओली, वर्धमान तप की 17 ओली, पोषदशमी (25 वर्षों से) सुयशाश्रीजी नवकारमंत्र व 14 पूर्व के एकासन, 48 अट्टम, बीसस्थानक की 2 ओर वर्धमान तप की 9 ओली, पोष दशमी तप विपुलयशाश्रीजी - पंचमी, दशमी, बीज, ग्यारस, वर्धमान तप की 25 ओली, नवपद ओली आदि। प्रबोधश्रीजी - 8, 11, 16, 17, 30 उपवास, पंचमी, दसमी, ग्यारस, वर्धमान तप की 63 ओली, वर्षीतप, सिद्धितप, नवपद ओली। मृगलक्ष्याश्रीजी पंचमी, दशमी, बीस स्थानक, वर्षीतप, सिद्धितप, श्रेणीतप, नवपद ओली, वर्धमान तप की 53 ओली, 500 आयंबिल 258. वही, पृ. 237 259. वही, पृ. 117-79 330 Page #393 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्वेताम्बर परम्परा की श्रमणियाँ विनीतयशाश्रीजी मोहजिताश्रीजी पद्मयशाश्रीजी मनीषाश्रीजी ऋजुप्रज्ञाश्रीजी अमिताश्रीजी सौम्यता श्रीजी समिताश्रीजी प्रशांतश्रीजी व्रतधराश्रीजी वरेण्यताश्रीजी प्रविदिताश्रीजी मोक्षरताश्रीजी शमरताश्रीजी वात्सल्यरता श्रीजी व्रतरताश्रीजी मार्दवताश्रीजी विशदगुणाश्रीजी - वर्धमान तप की 31 ओली, नवपद की 40 ओली, वर्षीतप, बीसस्थानक, क्षीरसमुद्र, अठाई, पंचमी, दशमी पंचमी, दसमी, अठाई, वर्षीतप, नवपद ओली पंचमी, बीस स्थानक, दो वर्षीतप अठाई, नवपदओली, वर्धमान तप की 44 ओली । घडिया, बेघडिया, नवपद ओली, पोष दशमी तीन वर्षीतप, सिद्धितप, वर्धमान तप, बीस स्थानक, पंचमी, चौमासी 4, रत्नपावड़ी, छट्ठ 9 तथा 7, 11, 16 उपवास वर्षीतप, नवपद ओली, वर्धमान तप ओली 28, बीस स्थानक 3, चौमासी 2, सिद्धितप, पंचमी, दसम ग्यारस, 24 तीर्थंकर के एकासन, 45 उपवास, 2 अठाई। पंचमी, दसमी, नवपद ओली, कर्मसूदन, स्वर्गस्वस्तिक, अठाईतप पंचमी, नवपद ओली, वर्धमान तप ओली 26, बीस स्थानक, कर्मसूदन, वर्षीतप, सिद्धितप, अठाई, स्वर्ग स्वस्तिक तप । 8, 9, 10, 11, 16, 30 उपवास, बीस स्थानक, सिद्धितप, नवपद ओली, पंचमी, ग्यारस, डेढ़मासी, चौमासी, वर्धमान तप ओली 50, वर्षीतप दो । 8, 16, 30 उपवास, पंचमी, दसम दो वर्षीतप, वर्धमान तप ओली 25, नवपद ओली, क्षीरसमुद्र, बीसस्थानक, उपधान पंचम, दसम ग्यारस, नवपद ओली, सिद्धितप, बीस स्थानक, वर्धमान तप की 23 ओली, चत्तारि अट्ठ दस दोय तप । 8, 10, 11, 30 उपवास, पाँचम, नवपद ओली, वर्षीतप दो, सिद्धितप, बीस स्थानक, दशम | दो वर्षीतप, मासक्षमण, बीसस्थानक, सिद्धितप, 500 आयंबिल, वर्धमानतप की 76 ओली एकांतर 500 आयंबिल 45 उपवास 500 आयंबिल, सिद्धितप, बीस स्थानक दो वर्षीतप सिद्धितप, श्रेणीतप, वर्धमानतप की 14 ओली, बीसस्थानक, 8, 16, 30 तप मासक्षमण, सिद्धितप, वर्धमान तप की 100 ओली सजोड़े (कीर्तिमान) सिद्धितप, मासक्षमण 331 Page #394 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन श्रमणियों का बृहद इतिहास - 30, 45 उपवास, सिद्धितप, श्रेणितप मासक्षमण, सिद्धितप मासक्षमण, सिद्धितप. श्रेणीतप विरक्ताश्रीजी मुक्तिप्रज्ञाश्रीजी प्रशमरताश्रीजी जयप्रज्ञाश्रीजी धर्मज्ञाश्रीजी मोक्षविदाश्रीजी उपशमयशाश्रीजी उदितयशाश्रीजी कीर्तिरेखाश्रीजी धर्मशीलाश्रीजी रम्यशीलाश्रीजी सिद्धितप, 500 आयंबिल एकांतर - सिद्धितप, 500 आयंबिल एकांतर __- सिद्धितप, 500 आयंबिल, 3 उपधान, अठाई, सिद्धितप, नवपद ओली, वर्धमान तप की 40 ओली, दो वर्षीतप, पंचमी, वीसस्थानक __ - सिद्धितप, अठाई, मासक्षमण, उपधान, वर्धमान तप चालु - उपधान, अठाई, नवपद ओली, वर्धमान तप की 12 ओली से ऊपर, मासक्षमण, पंचमी, अक्षयनिधि, वर्षीतप, वीशस्थानक - उपधान, अठाई, धर्मचक्र, पंचमी, अक्षयनिधि, वर्धमानतप चालु पंचमी, दशमी, नवपद ओली, उपधान, वर्धमान तप की 31 ओली, वर्षीतप, अठाई, 15 उपवास, छट्ठ से सात यात्रा - 8, 9, 11, 30 उपवास, पंचमी, दसमी, ग्यारस, उपधान, अक्षयनिधि, 500 आयंबिल एकांतर, नवपद ओली, वर्धमान तप की 41 ओली (चालु) पंचरंगी, सिद्धितप, वर्षीतप, वीशस्थानक आदि 8, 9, 11, 30 उपवास, पंचमी, दसमी, ग्यारस, सिद्धितप, वर्षीतप, बीसस्थानक, भद्रतप, नवपद ओली, वर्धमान तप की 36 ओली(चालु) एकांतर 500 आयंबिल, सिद्धाचल के 7 छ8, 2 अट्ठम, उपधान आदि। - 8, 9, 10, 16, 30, पंचमी, दसमी, नवपद ओली, वर्धमानतप ओली (चालु) सिद्धितप, क्षीरसमुद्र, उपधान, अक्षयनिधि, स्वर्ग स्वस्तिक, छ8 से सात यात्रा आदि। पंचमी, दशम, ग्यारस, नवपद ओली, वर्धमान तप की 40 ओली (चालु), सिद्धितप, वर्षीतप, बीसस्थानक, छ8 से सात यात्रा, अठाई, मासखमण 4, 5, 6, 7, 8, 16, 30 उपवास, बीसस्थानक, बावन जिनालय, वर्षीतप, नवपद ओली, वर्धमान तप की 25 ओली, 45 आगम 14 पूर्व नवकारमंत्र आदि के एकाशन, पंचमी, अष्टमी, दशम, ग्यारस, चौदस, पूनम। 9, 10, 12, 13, 15, 16, 21, 30 उपवास, 8 अठाई, 10 अट्ठम, सिद्धितप, समवसरण, चत्तारि, अट्ठ दस दोय, पंचरंगी, वर्षीतप, डेढ़मासी, सिद्धाचल तप, ज्ञानपंचमी, पोषदशमी, वर्धमान तप ओली 40 (चाल) नवपदओली एक धान्य से, कर्मसूदन, बीसस्थानक आदि। भव्यशीलाश्रीजी अभिज्ञाश्रीजी आर्यव्रताश्रीजी शुभ्रयशाश्रीजी सुसंयताश्रीजी 332 Page #395 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्वेताम्बर परम्परा की श्रमणियाँ पुष्पदंताश्रीजी वर्यताश्रीजी वीर्यधर्माश्रीजी दिव्यधर्माश्रीजी परागधर्माश्रीजी विरागधर्माश्रीजी निधिधर्माश्रीजी - पंचमी, 99 यात्रा, छ8 से सात यात्रा, नवपद ओली, उपधान, 8, 9 उपवास - 5, 6, 7, 8, 11, 30 बीसस्थानक, क्षीरसमुद्र, वर्धमानतप की 26 ओली, सिद्धाचल, दीपावली तप, उपधान, पंचमी, दसमी, ग्यारस, नवपद ओली, दो बार छट से सात यात्रा, 99 यात्रा। - 7, 8, 30 उपवास, सिद्धितप, वर्षीतप, दीपावली के 9 छ?, एकांतर 500 आयंबिल, नवपदओली, बर्धमान तप ओली 25, पंचमी, दसमी, छ8 से सात यात्रा, 99 यात्रा, यावज्जीवन प्रतिदिन तपाराधना में संलग्न रहीं। दो अठाई, मासखमण, क्षीरसमुद्र, पंचमी, दसमी, वीशस्थानक, नवपदओली, वर्धमान तप ओली 21 (चालु), 99 यात्रा, छ8 से सात यात्रा। - 17, 30 उपवास, दिपावली छ?, पंचमी, दसमी, नवपद ओली, वर्धमान तप ओली (चालु), 99 यात्रा, छ8 से सात यात्रा। - , पंचमी, नवपद ओली, वर्धमान तप (चालु) ___ - 7, 8 उपवास, नवपद ओली, वर्धमान तप ओली 16 (चालु) बीस स्थानक, 99 यात्रा, छ8 से सात यात्रा। - दीपावली तप, वर्षीतप, नवपद ओली, वर्धमान ओली (चालु) 99 यात्रा छ8 से सात यात्रा। ___- 4,5, 8 उपवास, पंचमी, दशमी, वर्षीतप, नवपद ओली 1 धानकी, 10 नवपदओली वर्धमान तप की 17 ओली (चालु) 99 यात्रा, छ8 से सात यात्रा 2 बार - 4,5,6,7,8 उपवास, वर्षीतप, बीसस्थानक, नवपद ओली 15, वर्धमान तप की ओली 29, दीपावली के छ?, अट्ठम, 99 यात्रा, छ8 से सात यात्रा। __- 3, 4, 5, 8 उपवास, दीपावली के 7 छ?, पंचमी, नवपद ओली, वर्धमान तप की 33 ओली, 99 यात्रा दो बार, छ8 से सात यात्रा दो बार। - छ?, अट्ठम, अठाई, पंचमी, नवपदओली, वर्धमान तप की 25 ओली दसमी, 99 यात्रा, छ8 से सात यात्रा। - 6, 8, 17 उपवास, दीपावली के 9 छ?, पंचमी, बीस स्थानक, वर्षीतप, नवपद ओली, वर्धमान तप ओली 26, 99 यात्रा, छट्ठ से सात यात्रा, दसमी।260 दीप्तिधर्माश्रीजी वरधर्माश्रीजी जिनधर्माश्रीजी नयधर्माश्रीजी प्रीतिधर्माश्रीजी दर्शिताश्रीजी 5.3.1.6 श्री मनोहराश्रीजी (संवत् 1984-2031) मालवदेश दीपिका श्री मनोहराश्रीजी का जन्म संवत् 1949 को मक्षी तीर्थ के निकट बांकाखेड़ी ग्राम में श्री 260. मुनि श्री सुधर्मसागरजी, जैन शासन नां श्रमणीरत्नो पृ. 245-49 333 Page #396 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन श्रमणियों का बृहद इतिहास लक्ष्मणचंदजी संकलेचा के यहाँ हुआ। विवाह व वैधव्य के पश्चात् इन्दौर में 'सुंदरबाई महिलाश्रम' में ये गृहमाता के रूप में कार्य करने लगीं। वहां 'धर्मोत्तेजक महिला मंडल' की स्थापना की, मंदिर में अष्टापद की रचना व प्रतिष्ठा करवाई। कई तपाराधना व तीर्थयात्रा के पश्चात् संवत् 1984 फाल्गुन शुक्ला 5 इन्दौर में श्री विजयसागरजी महाराज से दीक्षा पाठ पढ़कर श्री तिलक श्रीजी की शिष्या बनीं। इनकी प्रथम शिष्या गुणश्रीजी इनके साथ ही दीक्षित हुई, पश्चात् संयमश्रीजी, फल्गुश्रीजी261, सुमनश्रीजी, सुबोधश्रीजी, चतुरश्रीजी, इन्दुश्रीजी262, विवेकश्रीजी, सदक्षाश्रीजी व सनन्दाश्रीजी ये 9 शिष्याएँ हई। समनश्रीजी की तत्त्वज्ञाश्रीजी. धैर्यताश्रीजी. सर्योदयाश्रीजी263 सूर्यकांताश्रीजी, सुविनयाश्रीजी ये 5 शिष्याएँ हैं। सुमनश्रीजी की धैर्यताश्रीजी-विमलप्रभाश्रीजी-प्रीतिधराश्रीजी-प्रीतिसुधाजी हैं। सूर्यकांताश्रीजी की तीन शिष्याएँ हैं-मृगनयनाश्रीजी, सुधासनाश्रीजी, सुधामयाश्रीजी। मृगनयनाजी की पुनः तीन शिष्याएँ हैं- मुक्तिनिलयाश्रीजी, शीलपद्माश्रीजी, मुदिताश्रीजी। विवेकश्रीजी की विकास प्रभाश्रीजी शिष्या है। इस प्रकार मनोहराश्रीजी विशाल शिष्या-प्रशिष्या की संपदा से विभूषित तपोमूर्ति साध्वी थी। मालव देश में इनके द्वारा कई धर्म उद्धारक कार्य हुए। संवत् 2031 में ये स्वर्गवासिनी हुईं।264 5.3.1.7 श्री पुष्पाश्रीजी (संवत् 1987-2017) त्याग के मार्ग पर सभी परिवारीजनों को जोड़ने वाली पुष्पाश्रीजी कपड़वंज (गुजरात) के प्रतिष्ठित शेठ श्री झवेरचंद वीशानी और मानकुंवरबेन की सुपुत्री थीं, तथा गांधी परिवार के श्रेष्ठी माणेकचंदभाई की पुत्रवधू थी। वैधव्य के पश्चात् अपने भतीजे वर्तमान कंचनसागरसूरिजी के साथ संवत् 1987 वैशाख शुक्ला 10 को कपड़वंज में हीरश्रीजी के पास दीक्षा अंगीकार की। दीक्षा के पश्चात् इनके प्रेरक व्यक्तित्व से पुत्र, पुत्रवधूएँ, पौत्र-पौत्री सभी ने एक साथ दीक्षा अंगीकार कर जंबूकुमार का आदर्श उपस्थित किया। संवत् 2017 कपड़वंज में ही समता-समाधि पूर्वक इनका स्वर्गवास हुआ। उस समय आपकी शिष्या-प्रशिष्याओं की संख्या 80 से ऊपर थी। कुछ शिष्या - प्रशिष्याओं के नाम इस प्रकार हैं-सुमलयाश्रीजी, मनकश्रीजी, निरंजनाश्रीजी, प्रभंजनश्रीजी, स्नेहप्रभाश्रीजी, चन्द्रगुप्ताश्रीजी, संवेगश्रीजी, कल्पयशाश्रीजी, तत्त्वज्ञाश्रीजी, विश्वप्रज्ञाश्रीजी, धर्मज्ञाश्रीजी, सम्यग्रत्नाश्रीजी, दिव्योदयाश्रीजी, अमीप्रज्ञाश्रीजी, कनकप्रभाश्रीजी, हेमेन्द्र श्रीजी, नित्योदयाश्रीजी, वांचयमाश्रीजी। पुष्पाश्रीजी महाराज की गुरूणी हीरश्रीजी महाराज की 17 शिष्याएँ थीं- प्रधानश्रीजी, दानश्रीजी, हरख श्रीजी, सुनंदाश्रीजी, रेवतीश्रीजी, हेमश्रीजी, शांतिश्रीजी, हेमन्तश्रीजी, वसंतश्रीजी, कुमुदश्रीजी, विनयश्रीजी, देवश्रीजी, पुष्पाश्रीजी, सुमित्राश्रीजी, कमलश्रीजी, मनोहरश्रीजी, जज्ञाश्रीजी, इनमें पुष्पाश्रीजी, व मनोहरश्रीजी, के अतिरिक्त अन्य साध्वियों के विषय में विशेष जानकारी उपलब्ध नहीं हुई।265 श्री पुष्पाश्रीजी के परिवार की तपोमूर्ति श्रमणियाँ इस प्रकार हैं-266 श्री हेमेन्द्र श्रीजी - 8, 16 उपवास, वर्षीतप, 500 आयम्बिल कीर्तिलताश्रीजी - 11, 15, 16, 17 उपवास, चार अठाई, चत्तारि अट्ठ दस दोय, वर्षीतप मोक्षानंदश्रीजी - सिद्धितप, श्रेणितप, वर्षीतप, चत्तारि, 8, 16, 30 उपवास 261-263.इनका विशेष परिचय अग्रिम पृष्ठों पर अंकित है। 264. श्रमणीरत्नो, पृ. 175-77 265. वही, पृ. 221-23, नोट - सुमलयाश्रीजी व हेमेन्द्रश्रीजी का विशेष परिचय अग्रिम पृष्ठों पर देखें 266. वही, पृ. 259, 260 334 Page #397 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्वेताम्बर परम्परा की श्रमणियाँ आत्मानंद श्रीजी हर्षयशाश्रीजी चन्द्रयशाश्रीजी वीरेशाश्रीजी मीनेशाश्रीजी रत्नेशाश्रीजी यशवीराश्रीजी मलाश्रीजी विचक्षणाश्रीजी तिलक श्रीजी महेन्द्र श्रीजी तारक श्रीजी किरण श्रीजी तिलोत्तमाश्रीजी सूर्यकांता गुणोदया श्रीजी विपुलयशाश्रीजी रम्यप्रज्ञाश्रीजी महायशाश्रीजी - सिद्धितप श्रेणितप, वर्षीतप चत्तारि, 8, 16, 30 उपवास 2 वर्षीतप अठाई सिद्धितप, श्रेणितप, वर्षीतप, नवपद ओली, वर्धमान तप की 18 ओली पूर्ण, छट्ट से सात यात्रा, पंचमी, दशम, ग्यारस, 5, 8, 13, 16, 19, 30, 45 उपवास सिद्धितप श्रेणितप, वर्षीतप 500 आयंबिल, नवपद ओली, वर्धमान तप की 14 ओली, 8, 16, 20, 30, 33, 35, 45 उपवास 9,10, 11, 16, 30 उपवास, 3 अठाई के ऊपर अट्ठम, श्रेणीतप, सिद्धितप, वर्षीतप (एक छट्ठ से) 99 यात्रा 2 बार, छट्ठ कर सात यात्रा, दीपावली तप, सहस्रकूट, तीर्थंकर तप, पंचमी, दशम, ग्यारस, पूनम । नौ वर्षीतप । 16, 30, 45, 51 उपवास, श्रेणितप, सिद्धितप, वर्षीतप चत्तारि०, अठाई 9 बार, नवपद ओली, वर्धमान तप की 25 ओली, सहस्रकूट आदि । सिद्धितप, वर्षीतप 2, छमासी 2, चौमासी 2, तीनमासी 1, डेढ़मासी 1, 8, 16 उपवास, वीशस्थानक वर्षीतप 2, 6, 8, 9, 10, 30 उपवास, बीसस्थानक सिद्धाचल, 99 यात्रा, चौविहारी, छट्ठ से सात यात्रा, श्रेणितप, वर्षीतप चत्तारि, 500 आयंबिल, 8, 9, 10, 15, 16, 30 उपवास, कल्याणक तप, 51 ओली, रत्नपावडी के आठ छट्ठ एक अट्ठम, दीपावली के 5 छट्ट, 10 वर्ष एकासणा, पंचम, ग्यारस, दशम वर्षीतप, बीसस्थानक, 8, 10, 16 उपवास वर्षीतप बीसस्थानक, 500 आयंबिल, 8, 9, 10, 11, 15 उपवास 8, 9, 10, 11, 12 उपवास, चत्तारि० वर्षीतप, बीसस्थानक, 500 आयंबिल सिद्धितप, धर्मचक्रतप, 2 वर्षीतप, 20 स्थानक, 300 आयंबिल, 8, 9, 10, 16 उपवास। दो वर्षीतप बीसस्थानक, 8, 9, 10, 16, 30 उपवास सिद्धितप, दो वर्षीतप 20 स्थानक, 8, 9, 10, 15, 16, 30 उपवास सिद्धितप, दो वर्षीतप 20 स्थानक, 8, 9, 10, 15, 16, 30 उपवास वर्षीतप 8, 30 उपवास सिद्धितप, श्रेणितप, वर्षीतप 500 आयंबिल, 8, 9, 10, 11, 15, 16, 30 उपवास 335 Page #398 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन श्रमणियों का बहद इतिहास अरूणोदयाश्रीजी - दो वर्षीतप, 500 आयंबिल, सहस्रकूट, 8, 9, 30 उपवास हर्षलताश्रीजी - 8, 9, 10, 11, 15, 16, 30 उपवास, सिद्धितप, श्रेणितप, दो वर्षीतप, 500 आयंबिल देवयशाश्रीजी - सिद्धितप, श्रेणितप, वर्षीतप, 8, 9, 10, 11, 16, 30 उपवास कल्पवर्षाश्रीजी - सिद्धितप, 8, 10, 16 उपवास इनके परिवार की प्रायः साध्वियाँ वर्धमान ओली तप की समाराधना में संलग्न हैं। 5.3.1.8 श्री सुमलयाश्रीजी (संवत् 1987 - स्वर्गस्थ) पुष्पाश्रीजी के भाई की पुत्रवधु चंदन प्रारंभ से ही अनासक्त वृत्ति वाली थी, ये अपने पुत्र व पति को भी उन्हीं भावों से अनुरंजित कर संवत् 1987 आषाढ़ शुक्ला 6 को संयम पथ पर अग्रसर हुई। पति लब्धिसागरजी और पुत्र सूर्योदयसागरसूरिजी के नाम से प्रख्यात हुए। सुमलयाश्रीजी की 13 शिष्याएँ हुईं। - सूर्यकांताश्रीजी, विचक्षणाश्रीजी, तिलक श्रीजी, महेन्द्रश्रीजी, तारकश्रीजी, किरणश्रीजी, तिलोत्तमाश्रीजी, हर्षलताश्रीजी, शुभोदयाश्रीजी, विपुलयशाश्रीजी, रम्ययशाश्रीजी, मयायशाश्रीजी, अम्युदयाश्रीजी। इनकी शिष्याएँ -पदमलताश्रीजी267, गुणोदयाश्रीजी, रत्नरेखाश्रीजी, रम्यप्रभाश्रीजी, तीर्थयशाश्रीजी शुभंकराश्रीजी, महानंदाश्रीजी, सुज्येष्ठाश्रीजी, अरूणोदयाश्रीजी, सुरद्रुमाश्रीजी सिद्धिद्रुमाश्रीजी, देवयशाश्रीजी, कल्पवर्षाश्रीजी268 | 5.3.1.9 श्री अंजनाश्रीजी (संवत् 1987-2041) भावनगर के त्रापज ग्राम के वारैया परिवार में संवत् 1936 को कल्याणजी भाई एवं हेमीबेन के यहाँ अंजनाश्रीजी का जन्म हुआ। जंबूकुमार के समान वैरागी हठीचंदभाई के साथ संबंध हो जाने पर दो पुत्र व एक पुत्री को पैदा किया। लघु पुत्र के देहावसान से विशेष विरक्त बने पति का अनुकरण कर ये भी संवत् 1987 कार्तिक कृष्णा तृतीया के दिन दीक्षित हो गईं। आत्मध्यान में निमग्न रहते हुए मासक्षमण, 16, 15, 9, 8 उपवास, वर्षांतप, बीसस्थानक की ओली वर्धमान तप की 22 ओली, नवपद ओली, बावन अजवाला, पर्वतिथि आराधना, रत्नपावड़ी के छ? अट्ठम, तेरा काठिया के 13 अट्टम, दो छः मासी, छ: चारमासी, दो डेढ़मासी, एक अढ़ीमासी, 11 मास एकांतर उपवास, मेरूतप आदि तप किया। कैंसर की असह्य वेदना में अपूर्व समता का परिचय देकर तलाजातीर्थ पर संवत् 2041 में महाप्रयाण किया। इनकी पुत्री विदुषी साध्वी विद्याश्रीजी इन्हीं की शिष्या बनी। विद्याश्रीजी की 5 शिष्याएँ - श्री रंजनाश्रीजी, गुणोदयाश्रीजी, शीलव्रताश्रीजी, आदित्ययशाश्रीजी, पूर्णकलाश्रीजी एवं 6 प्रशिष्याएँ-प्रियदर्शनाश्रीजी, शुभदर्शनाश्रीजी, गुणरत्नाश्रीजी, अभयरत्नाश्रीजी, विमलयशाश्रीजी तथा कीर्तिकलाश्रीजी हैं।269 श्री अंजनाश्रीजी के परिवार की तपोमूर्ति श्रमणियाँ निम्नलिखित है-70 - 267. विशेष परिचय अग्रिम पृष्ठों पर देखें 268. वही, पृ. 223-25 269. वही, पृ. 232-33 270. मुनि सुधर्मसागरजी, जिनशासन नां श्रमणीरत्नो, पृ. 266-68 Page #399 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्वेताम्बर परम्परा की श्रमणियाँ विद्याश्रीजी - नवपद ओली। गुणादेयाश्रीजी - अठाई, वर्षीतप शीलव्रताश्रीजी - 8, 9, 10, 11, 30 उपवास, कल्याणक, वर्षीतप, सिद्धितप, 20 स्थानक, नवपद ओली, वर्धमान तप चालु आदित्ययशाश्रीजी - अठाई, वर्षीतप, 20 स्थानक, कल्याणक, सिद्धितप, नवपद ओली, वर्धमान तप चालु। विमलयशाश्रीजी __- 8, 9, 11, 15, 30 उपवास, सिद्धितप, वर्षीतप, 20 स्थानक, नवपद ओली, कल्याणक, वर्धमान तप चालु। प्रियदर्शनाश्रीजी - 8, 9, 15 बीसस्थानक शुभदर्शनाश्रीजी - 8, 9, 11, 16, 30 उपवास, वर्षीतप, सिद्धितप, कल्याणक, नवपद ओली, स्थानक पूर्णकलाश्रीजी अठाई 2, 16, वर्षीतप, सिद्धितप, 20 स्थानक, कल्याणक, नवपद ओली, बीस स्थानक अभयरलाश्रीजी - 8, 15, 16, 30, वर्षीतप, सिद्धितप, 20 स्थानक, कल्याणक, नवपद ओली, वर्धमान ओली चालु। कीर्तिकलाश्रीजी - 8, 16, बीस स्थानक, नवपद ओली, वर्धमान ओली चालु। तिलकश्रीजी - 8 वर्षीतप, सिद्धितप, कषायजय, इन्द्रियजय, शत्रुजयमोदक, नवपद ओली, वर्धमान तप की ओली, 99 यात्रा, चौविहार छ8 से 7 यात्रा। कारूण्योदयाश्रीजी - 5, 8, 16, 31 उपवास, बीस स्थानक, वर्षीतप, वर्धमान तप चालु, सिद्धाचल, 99 ___ यात्रा 4 बार, मेरूतेरस, वर्ण की नवपद ओली 13, अक्षयनिधि तप। हेमेन्द्र श्रीजी - सिद्धितप, वर्षीतप, वर्धमान तप चालु, अट्ठाई 2, वर्ण की नवपद ओली, 99 यात्रा पंचमी, दसम, 21 अट्ठम, उपधान, अक्षयनिधि तप। चारूदर्शाश्रीजी 500 आयंबिल एकांतर, 31 अट्टम, 5, 8 उपवास दो-दो बार, वर्ण की नवपद ओली, वर्धमान तप चालु, अष्टापद की 8 ओली, पंचमी, दशम, ग्यारस, गौतम प्रतिपदा, उपधान 4, अक्षयनिधि तप। अक्षिताश्रीजी - 8, 30 उपवास, वर्षीतप, वर्धमान तप चालु, बीस स्थानक, दशम, पाँचम, 5 उपवास 5 बार, 41 अट्ठम, 2 उपधान। पूर्विताश्रीजी - 15 अट्ठम, 30 ओली वर्ण की, वर्धमान तप चालु, 20 स्थानक, पंचमी, दशम, उपधान, 4 अक्षयनिधि तप। 337 Page #400 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन श्रमणियों का बृहद इतिहास हेमप्रभाश्रीजी कीर्तिलताश्रीजी नरेन्द्र श्रीजी कल्पबोधश्रीजी महापूर्णाश्रीजी शमितपूर्णश्रीजी भव्यदर्शिताजी दिव्यदर्शिताजी तत्त्वत्रयाश्रीजी - छ8 से सात यात्रा, 99 यात्रा 7 बार - अट्ठाई 3, 11, 15, 16, 17 उपवास, वर्षीतप, चत्तारि०, वर्धमान तप चालु, नवपद की 12 ओली, 99 यात्रा 3 बार, छ8 से 7 यात्रा। - 8, 16, 30 उपवास, पंचमी, ग्यारस, मोटा पखवासा, चत्तारि, 20 स्थानक, छ? से। वर्षीतप, 500 आयंबिल, सिद्धितप, डेढ़मासी, दो मासी, 100 ओली पूर्ण द्वितीय बार। 18 ओली, नवपद सहस्रकूट आदि। - 8, 9, 16, 30 उपवास पंचमी, ग्यारस, 20 स्थानक, सिद्धितप, नवपद ओली, श्रेणितप, भद्रतप, महाधन तप, निगोदनिवारण, समवसरण, सिंहासन, चत्तारि., दो-चार-छहमासी तप, 500 आयंबिल, वर्षीतप 2, सहस्रकूट, वर्धमान 100 ओली पूर्ण करके पुनः प्रारंभ, अन्य तप के एकासणे। 9,10,11,16,21.30 उपवास, दशम, 20 स्थानक, चत्तारि. नवपद ओली दीक्षा से चालु, 500 आयंबिल, 21 अठाई, 7 वर्षीतप (एक छ8 व एक अट्ठम से) सिद्धितप, नवपद ओली, पंचमी, वर्धमान ओली चालु - सिद्धितप 2, नवपद ओली, अठाई पंचमी, सिद्धितप, नवपद ओली ___ - 8, 10, उपवास, वर्षीतप, छ8 से 7 यात्रा, पंचरंगी, नवपद ओली, वर्धमान ओली चालु, पाँचम, दीपकव्रत 6, 8, 9, 11, 16, 30 उपवास, वर्षीतप, सिद्धितप, सहस्रकूट, नवपद ओली, छ? से 7 यात्रा, पाँचम, दशम, वर्धमान ओली 18 अठाई, वर्षीतप, 20 स्थानक, सिद्धितप, छ8 से 7 यात्रा, वर्धमान ओली चालु - 20 स्थानक, वर्षीतप, 500 आयंबिल, 16, 30 उपवास, वर्धमान ओली चालु - 20 स्थानक, वर्षीतप, अठाई, छ8 से 7 यात्रा, वर्धमान ओली चालु - 20 स्थानक, वर्धमान तप चालु तत्त्वगुणाश्रीजी हितज्ञाश्रीजी कैवल्यश्रीजी भव्यानंदश्रीजी पूर्णितप्रज्ञाश्रीजी 5.3.1.10 श्री मलयाश्रीजी (संवत् 1990-2048) सौराष्ट्र के लखतर ग्राम में संवत् 1966 में पोपटभाई एवं मणीबहन शेठ के घर जन्मी तथा अमदाबाद में भीखी भाई से अल्पवय में ही परिणय संबंध से जुड़ी मलयाश्रीजी वैधव्य के पश्चात् संवत् 1990 वैशाख शुक्ला 9 को रंजनश्रीजी के चरणों में दीक्षित हुई। अठाई, सोलह, मासखमण, क्षीरसमुद्र, वीशस्थानक, वर्षीतप, नवपद ओली, पंचमी, एकादशी, रत्नपावड़ी के बेले, सिद्धाचल के बेले, वर्धमान तप की ओलियाँ आदि तप, त्याग व अनेक तीर्थयात्रा रूप त्रिवेणी संगम से जीवन को सार्थक करती हुई खानपुर में संवत् 2048 को समाधि पूर्वक 338 Page #401 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्वेताम्बर परम्परा की श्रमणियाँ स्वर्गस्थ हुईं। आपके शिष्या प्रशिष्या परिवार में 55 विदुषी साध्वियाँ हैं। स्वयं की 5 शिष्याएँ हैं-प्रगुणाश्रीजी, नरेन्द्रश्रीजी272, शमदमाश्रीजी, कैवल्यश्रीजी, हितज्ञाश्रीजी। शमदमाश्रीजी की दो शिष्याएँ हैं-तत्त्वत्रयाश्रीजी, तत्त्वगुणाश्रीजी। कैवल्यश्रीजी की दो शिष्याएँ हैं- करूणाश्रीजी, भव्यानंदश्रीजी। करूणाश्रीजी की राजपूर्णाश्रीजी, जयपूर्णाश्रीजी, समकितपूर्णश्रीजी, ये तीन तथा भव्यानंदश्रीजी, की पूर्णप्रज्ञाश्रीजी, कल्पप्रज्ञाश्रीजी, राजप्रज्ञाश्रीजी, कैरवप्रज्ञाश्रीजी-भव्यप्रज्ञाश्रीजी, पूर्णितप्रज्ञाश्रीजी, शिष्याएँ हैं। हितज्ञाश्रीजी की हर्षज्ञाश्री, चित्प्रज्ञाश्री हैं, हर्षज्ञाश्री की रक्षिताश्रीजी शिष्या हैं।73 श्री मलयाश्रीजी के परिवार की तपोमूर्ति श्रमणियाँ74 - प्रशमशीलाश्रीजी-अठाई प्रशमनाश्रीजी, प्रशमश्रेयाश्रीजी- अठाई, प्रशमानंदश्रीजी - नौ उपवास, प्रशमाननाश्रीजी, प्रशमदर्शिताश्रीजी - वर्षीतप, प्रशमरत्नाश्रीजी- श्रेणितप, वर्षीतप, मासक्षमण, प्रशमवर्षाश्रीजी -वर्षीतप, सिद्धितप, 8, 16, 30 उपवास, प्रशमरक्षिताश्रीजी - मासक्षमण, प्रशमदर्शाश्रीजी- मासक्षमण, श्रेणितप, 440 आयंबिल, प्रशमीशाश्रीजी - वर्षीतप, 8, 30 उपवास, प्रशमतीर्थाश्रीजी-वर्षीतप, 500 आयंबिल, प्रशमनंदिताश्रीजी - 500 आयंबिल, प्रशमज्ञेयाश्रीजी - वर्षीतप, 8, 9, 11 उपवास प्रशमजिनेशाश्रीजी - वर्षीतप, 8, 9, 10, 11, 16, 31 उपवास, प्रशमजिनाश्रीजी - 31 उपवास, प्रशमवदनाश्रीजी - सिद्धितप, श्रेणितप, भद्रतप, मासक्षमण, प्रायः सभी की वर्धमान ओली चल रही है। श्री सुताराश्रीजी - वर्षांतप, सुज्ञरसाश्रीजी - वर्षीतप, 500 आयंबिल, मासक्षमण, सुलक्षिताश्रीजी -500 आयंबिला, शुभवर्षाश्रीजी - 500 आयंबिल, वर्षीतप। रत्नप्रभाश्रीजी- वर्षीतप। 51 ओली। मोक्षानंदाश्रीजी-8, 16, उपवास, हर्षवर्धनाश्रीजी-8, 16 उपवास, सिद्धितप, चत्तारि अट्ठ दस दोय, चेलणाश्रीजी- वर्षीतप, सिद्धितप, हितप्रज्ञाश्रीजी- अठाई 8, 16, सिद्धितप, श्रेणितप, चत्तारि., आत्मज्ञाश्रीजी- 8, 9, 11 उपवास, वर्षीतप, वज्ररत्नाश्रीजी- वर्षीतप, मासखमण, नीतिप्रज्ञाश्रीजी- वर्षीतप, मासक्षमण, सिद्धितप, 8, 11, उपवास, राजपुण्याश्रीजी- आठ वर्षीतप, श्रेणितप अमितज्ञाश्रीजी - 8, 10 उपवास, क्षीरसमुद्र, वर्षीतप, बीसस्थानक, नवपद ओली 45, वर्धमान तप की 69 ओली, 99 यात्रा दो बार, छट्ठ से सात यात्रा, सिद्धाचल, पंचमी, दशम, ग्यारस, पूनम। ये मात्र 9 वर्ष की उम्र से नवपद ओली सतत कर रही हैं। निरंजनाश्रीजी - दो अठाई, 16, चत्तारि, घड़िया बेघडिया, नवपदओली, बीस स्थानक, पाँचम, दशम, 99 यात्रा दो बार, छट्ठ से सात यात्रा निरूपमाश्रीजी - 4, 8, 11, 16, 30 उपवास, उपधान, अक्षयनिधि, नवपदओली, पंचमी, दशमी, सिद्धितप, वर्षीतप, दीपावली छ8, 99 यात्रा, चैत्रीपूनम शुभोदयाश्रीजी 8 उपवास, अक्षयनिधि, नवपद ओली, सिद्धाचल व तलाजा की 99 यात्रा, एकासणे आदि। धर्मज्ञाश्रीजी - 5, 6, 8, 9, 11, 16, 30 उपवास, क्षीरसमुद्र, सिद्धितप, वर्षीतप, 500 आयंबिल एकांतर, 54 ओली, नवपद ओली 30 वर्ष से, 99 यात्रा चौविहार छ8 से सात यात्रा, 271-272. इनका विशेष परिचय तालिका में देखें। 273. श्रमणीरत्नो, पृ. 183-85 274. वही, पृ. 260-66 339 Page #402 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमितज्ञाश्रीजी - सुरद्रुमाश्रीजी - सिद्धिगुमाश्रीजी - अमितगुणाश्रीजी जैन श्रमणियों का बृहद इतिहास सिद्धाचल, अक्षयनिधि, डेढ़मासी, अढ़ीमासी, बीस स्थानक, पंचमी, दशमी, ग्यारस, पूनम, कल्याणक, उपधान, कषायजय तप। सभी के वर्धमान ओली चालु हैं। 8, 16, उपवास, डेढमासी, वर्षीतप, 500 आयंबिल एकांतर, नवपदओली 25 वर्ष से, वर्धमान ओली 46, सिद्धाचल, 99 यात्रा, चौविहारी छ? से सात यात्रा, कल्याणक, पंचमी, दशम, ग्यारस, पूनम। ये शतावधानी हैं। 6, 8, 11, 30 उपवास, ओली 39, वर्षीतप, नवकारतप, धर्मचक्र, अक्षयनिधि, 99 यात्रा, चौविहार छ8 से सात यात्रा, पाँचम, दशम, पूनम, उपधान 2, कल्याणक, नवपद ओली, शत्रुजयमोदक, स्वर्गस्वस्तिक, सिद्धाचल, परदेशी राजा तप आदि। 4, 5, 8, 9, 16 उपवास, क्षीर समुद्र, श्रेणितप, सिद्धितप, वर्षीतप 3, उपधान 2, 500 आयंबिल, बीस स्थानक, वर्धमान तप की 40 ओली. नवपदओली. पंचमी. दशम, 99 यात्रा, चौविहारी छ8 से सात यात्रा डेढ़मासी, अढीमासी, सिद्धाचल, नाना-मोटा 10 पच्चक्खाण, 18 वर्ष से बीयासन, विविध एकासणा 5, 6, 9, 11, 17, 30 उपवास, पंचमी, दशमी, ग्यारस, पूनम, नवपदओली एक द्रव्य से, चत्तारि., सिद्धितप, क्षीरसमुद्र, 20 स्थानक, वर्षीतप, उपधान 2, वर्धमान तप की ओली 80 पूर्ण. 500 आयंबिल एकांतर. नाना-मोटा पखवासा. नवपदओली 20, 15 तिथि आराधना, 99 जिन तप, अक्षयनिधि, सिद्धाचल का तप, 99यात्रा तीन बार, छट्ठ से सात यात्रा, अभिग्रह अट्ठम 3 ये शतावधानी, वक्तृत्व गुण से युक्त होती हुई भी छोटे बड़े सभी साधुओं को वंदन करती हैं। 4, 5, 6, 8, 9, 10, 11, 15, 16 उपवास, सिद्धितप, वर्षीतप, पंचमी, दशम, ग्यारस, डेढ़मासी, मेरूओली 5, बीस स्थानक, नाना-मोटा पखवासा, सिद्धाचल ट्रॅक, 99 यात्रा तलाजा की, वर्धमान तप की 88 ओली, नवपद ओली, समवसरण, सिंहासन, 500 आयंबिल एकांतर, 101 आयंबिल, क्षीरसमुद्र, सम्मेदशिखर की 21 यात्रा। 4, 5, 6, 7, 8, 9, 10, 11, 16, 30 उपवास, सिद्धितप, श्रेणितप, दो वर्षीतप (एक छ? से) बीसस्थानक, 96 जिन ओली, कर्मसूदन, बड़ा पखवासा, 65 ओली, नवपद ओली, पाँचम, दशम, ग्यारस, पूनम, सिद्धाचल के 7 छट्ठ 2 अट्ठम, 99 यात्रा, 229 छट्ट, दीपावली के 9 छ8, क्षीरसमुद्र, अक्षयनिधि, 500 आयंबिल एकांतर, सहस्रकूट 5, 8, 11, 16, 30 उपवास, सिद्धितप, धर्मचक्र, वर्षीतप, पंचमी, दशमी, ग्यारस, चंपापांखड़ी, दीपावली के 9 8, नवपद ओली, वर्धमान ओली 42, अन्य महाभद्राश्रीजी विनीताज्ञाश्रीजी कल्पद्रुमाश्रीजी 340 Page #403 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्वेताम्बर परम्परा की श्रमणियाँ अपूर्वयोगाश्रीजी विदितयोगाश्रीजी शुभंकराश्रीजी महानंदाश्रीजी दिव्यपूर्णाश्रीजी दिव्यप्रज्ञाश्रीजी दिव्यांगनाश्रीजी प्रशमप्रज्ञाश्रीजी एकासणा, क्षीरसमुद्र, सिद्धाचल - 8, 10, 16 उपवास, बीस स्थानक, सिद्धाचल, 99 यात्रा नवपदओली, वर्धमान तप की 26 ओली, पंचमी, दशमी, चंपा पांखड़ी, दीपावली छ? तप 9 - 8, 10, 16 सिद्धितप, वर्षीतप, सिद्धाचल, बीसस्थानक, नवपदओली, पंचमी, दशमी, दीपावली छट्ठ, वर्धमान ओली चालु - 8, 15, 16 वर्षीतप, 20 स्थानक, 325 आयंबिल एकांतर, वर्धमान तप चालु, विविध एकासणा तप - 8, 11, 16 उपवास, श्रेणितप, सिद्धितप, 20 स्थानक, मासक्षमण, वर्षीतप 2, चत्तारि., छ8 से सात यात्रा, वर्धमान ओली चालु - 10, 16, अठाई 2, सिद्धितप, समवसरण, वर्षीतप, 500 आयंबिल वर्धमान ओली चालु - 7, 10, 11, 16, 30 उपवास, दो समवसरण, वर्षीतप, 500 आयंबिल - 5, 8 उपवास सिद्धितप 4, 5, 6, 10, 11, 30, 45 अठाई 15, मौन चौविहार से दो अठाई, श्रेणितप, सिद्धितप, 500 आयंबिल, 20 स्थानक, पंचमी, ग्यारस, दीपावली तप, 99 यात्रा 4 बार, अट्ठम से 11 यात्रा, 13 बार चौविहारी छ? से सात यात्रा, नवपद ओली एक द्रव्य, ओली 60 पूर्ण 3. 4, 6, 7, 16, 30 उपवास, वर्षीतप 3 (एक छ8 से), नवपद ओली, चत्तारि, पाँचम, दसम, अष्टमी, ग्यारस, अष्टमासी, चारमासी, छमासी, 99 यात्रा 5 बार, सिद्धाचल तप 2 बार, कई साहजिक छ? किये। दो अठाई, 9, 10, 13, 30 उपवास, सिद्धितप, वर्षीतप 2 पंचमी, नवकारपद, 500 आयंबिल एकांतर, बीस स्थानक, ग्यारस सिद्धितप, वर्षीतप, 20 स्थानक, पंचमी, ग्यारस, 14 पूर्व के एकासणे 8, 16, 30, 45 उपवास, श्रेणितप, सिद्धितप, वर्षीतप, 500 आयंबिल, 20 स्थानक, वर्धमान तप की 89 ओली, पंचमी, ग्यारस श्रेणितप, सिद्धितप, बीसस्थानक 8, 500 आयंबिल, पंचमी, ग्यारस - 8, 16, सिद्धितप, श्रेणितप, वर्षीतप, बीसस्थानक, 500 आयंबिल एकांतर - 8, 11, 16 वर्षीतप, सिद्धितप, बीसस्थानक, पाँचम, ग्यारस - 8, 16, 30 उपवास, 20 स्थानक प्रमोदश्रीजी प्रशमरसाश्रीजी जयधर्माश्रीजी प्रदीप्ताश्रीजी . दर्शनरसाश्रीजी तत्त्वरसाश्रीजी पूर्णताश्रीजी दिव्यताश्रीजी 341 Page #404 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन श्रमणियों का बृहद इतिहास प्रभंजनाश्रीजी - 3, 4, 5, 6, 8, 16 चौमासी, वर्षीतप, सिद्धाचल, बीसस्थानक, कल्याणक, पाँचम, ग्यारस, मेरूतेरस, दशमी, नवपद ओली, नंदीश्वरतप कनकप्रभाश्रीजी अठाई 5, वर्षीतप 4, चत्तारि, वर्धमान ओली 51, चौमासी, तीनमासी, दोमासी, अढ़ीमासी, डेढ़मासी, छमासी, इन्द्रियजय, पंचमी, दसम, ग्यारस, मेरूतेरस, सिद्धाचल, 500 आयंबिल एकांतर, नवपद ओली, रत्नपावड़ी व दीपावली तप, समवसरण, सिंहासन, बीसस्थानक मनकश्रीजी ___ - 8, 9, 16, 30 उपवास, वर्षीतप, 20 स्थानक, नवपद ओली, वर्धमान तप ओली 15 संवेगश्रीजी - 8, 9, 10, 11, 16, 20, 30 उपवास, सिद्धितप, 20 स्थानक, नवपद ओली, 52 जिनालय तप वर्धमान ओली चाल कल्पयशाश्रीजी वर्षीतप, सिद्धितप, 52 जिनालय, चत्तारि., बीस स्थानक, चौमासी तप, वर्धमान ओली चालु तत्त्वज्ञाश्रीजी - 6, 8 वर्षीतप, नवपद ओली, वर्धमान ओली चालु विश्वप्रज्ञाश्रीजी - 8, 9, 10, 11, 16, 30 वर्षीतप, श्रेणितप, सिद्धितप, भद्रतप, समवसरण, सिंहासन, 20 स्थानक, सहस्रकूट, नवपद ओली, 108 अट्ठम चालु सौम्यदर्शिताश्रीजी - 8, 9, 10 सिद्धितप, श्रेणितप, नवपद ओली बीसस्थानक सहस्रकूट सम्यक्रत्नाश्रीजी - अठाई, सिद्धितप, श्रेणितप, नवपद ओली बीसस्थानक सहस्रकूट जयरेखाश्रीजी - 2, 3, 6, 7, 8, 10 उपवास, दूज, पंचमी, ग्यारस, दसम, 20 स्थानक, 100 ओली पूर्ण, वर्षीतप 2, 500 आयंबिल, सिद्धाचल, छ8 से 7 यात्रा 2 बार, 99 यात्रा तीन बार, तलाजा की 99 दो बार अक्षयरेखाश्रीजी _ - 2, 3, 8, 9, 16 वर्षीतप, 20 स्थानक, 14 ओली, सिद्धाचल, चौविहारी छ8 से 7 यात्रा नवरत्नाश्रीजी 6, 10, 16, 30, 45 उपवास, श्रेणितप, सिद्धितप, 20 स्थानक, 90 ओली पूर्ण, 525 आयंबिल, पंचमी, दसम, ग्यारस, दीपावली तप, 99 यात्रा दो बार, सिद्धाचल तप, दो चौमासी आदि अन्य तप निरन्तर चालु, नवपद की 10 ओली चिद्रलाश्रीजी - पंचमी, 20 स्थानक, छ8 से सात यात्रा, 99 यात्रा, नवपद ओली, सिद्धाचल तप, वर्धमान तप की 26 ओली पूर्ण, 2 ग्यारस आदि 5.3.1.11 श्री फल्गुश्रीजी (संवत् 1990-स्वर्गस्थ) अपने निर्मलगुणों में साध्वी संघ में सम्माननीय पद को प्राप्त श्री फल्गुश्रीजी का जन्म उज्जैन के निकट 'आगर' ग्राम में संवत् 1966 में हुआ, पिता मोतीलाल जी एवं माता श्रीमती जड़ावबाई थीं। नौ वर्ष की उम्र में 342 342 Page #405 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्वेताम्बर परम्परा की श्रमणियाँ विवाह और नौ मास में ही इस संबंध पर उल्कापात पड़ने पर फल्गुश्री का बालमन वैराग्य-वासित हो गया, किंतु मोहग्रस्त परिवार ने दीक्षा की अनुमति नहीं दी, सतत संघर्ष के पश्चात् संवत् 1990 फाल्गुन कृष्णा 6 को श्री चन्द्रसागर सूरीश्वरजी द्वारा संयम ग्रहण कर लिया। शासनोन्नति के अनेकविध कर्त्तव्य करके वे उज्जैन में स्वर्गवासिनी हुईं। इनकी 8 शिष्याएँ - ध्यानश्रीजी, ऋजुताश्रीजी, कल्याणश्रीजी, विनयप्रभाश्रीजी, अशोकश्रीजी, अमितगुणाश्रीजी,75 तथा आत्मयशाश्रीजी हैं। कल्याणश्रीजी की शिष्या महेन्द्रश्रीजी-मुक्तिश्रीजी तथा विनयप्रभाश्रीजी की विनेन्द्रश्री और चन्द्रप्रभाश्रीजी हैं।276 5.3.1.12 निरूपमाश्रीजी (सं. 1990-वर्तमान) भोयणीतीर्थ के निकटस्थ ग्राम डांगरवा से अपनी मातु श्री चंचलबहन एवं दो बहनों के साथ संवत् 1990 फाल्गुन कृष्णा 7 को अमदाबाद में दीक्षित निरूपमाश्रीजी अनेक आगम-ग्रंथों की विज्ञाता एवं तपोमूर्ति साध्वी रत्ना हैं। आठ, दस, सोलह, मासखमण, सिद्धितप, वर्षीतप, 250-500 संलग्न आयंबिल तप, वर्धमान आयंबिल की संपूर्ण 100 ओली, 24 तीर्थंकर के एकासन, बीसस्थानक आदि विविध तपस्याएँ की। इनकी अनेक शिष्याएँ हैं-ज्येष्ठाश्री, प्रशमरसाश्रीजी, जयरेखाश्रीजी, जयवर्धमाश्रीजी, प्रदीप्ताश्रीजी, पुण्ययशाश्रीजी, प्रशमप्रज्ञाश्रीजी आदि। ज्येष्ठाश्रीजी की प्रमितगुणाश्री- सुगुप्ताश्री- नम्ररत्नाश्री- नीलरत्नाश्रीजी, सौम्यरत्नाश्रीजी- रम्यरत्नाश्रीजी, सम्यग्गुणाश्रीजी आदि शिष्या हैं। जयरेखाश्रीजी की अक्षयरेखाश्रीजी नवरत्नाश्री- चिद्रत्नाश्री हैं। प्रदीप्ताश्रीजी की पूर्णताश्री और दिव्यताश्री तथा प्रशमप्रज्ञाश्रीजी की दिव्यदर्शनाश्री और स्मितदर्शनाश्रीजी हैं।27 5.3.1.13 श्री सुलसाश्रीजी (संवत् 1991 से वर्तमान) ऊनावां (महेसाणा) में मूलचंदभाई के यहाँ अवतरित सुलसाश्रीजी ने माता पिता दो भ्राताओं के साथ संवत् 1991 चैत्र शुक्ला 11 को रतलाम में दीक्षा ग्रहण की, एवं अपनी मातुश्री सद्गुणाश्रीजी की शिष्या बनी। अनेक शास्त्रों का ज्ञान संपादन करने के साथ 21 वर्ष दादी गुरूणी श्री सरस्वतीश्रीजी एवं 10 वर्ष गुरूणी की सेवा में रत रहीं, इनकी 13 शिष्या एवं 14 प्रशिष्याओं के नाम इस प्रकार हैं -तत्त्वानंदश्रीजी, सुगुणाश्रीजी, सुधर्माश्रीजी, हितोदयाश्रीजी, सुज्येष्ठाश्रीजी, सुरक्षाश्रीजी, पुण्ययशाश्रीजी, विरतियशाश्रीजी, देवज्ञाश्रीजी, भावरत्नाश्रीजी, राजनंदिताश्रीजी, तत्त्वनंदिताश्रीजी, नयनंदिताश्रीजी, सुनंदिताश्रीजी, आगमयशाश्रीजी, अक्षतयशाश्रीजी, विश्वोदयाश्रीजी, शीलदर्शनाश्रीजी, कल्पदर्शनाश्रीजी, पूर्णदर्शनाश्रीजी, निर्मलदर्शनाश्रीजी, विश्ववंदिताश्रीजी, तत्त्वरक्षाश्रीजी, मुक्तिरक्षाश्रीजी, विश्वनंदिताश्रीजी, जयनंदिताश्रीजी, श्रुतनंदिताश्रीजी। विशाल साध्वी संघ की आस्थाभूमि सुलसाश्रीजी कट्टर आचार की समर्थक एवं स्वावलम्बी जीवन की हिमायती महाविदुषी साध्वी हैं। इनके परिवार की अनेक साध्वियों ने तप की उज्जवल ज्योति प्रदीप्त की है, उन सबका उपलब्ध विवरण नीचे दिया जा रहा है-78श्री सरस्वतीश्रीजी - 8, 16, 30 उपवास, 108 आयंबिल, मेरूदंड, चौदहपूर्व, वर्धमान तप की 56 ओली, कल्याणक, कर्मसूदन, चतुर्दशी, समवसरण, तेरह काठिया के 13 अट्ठम, 275. विशेष परिचय अग्रिम पृष्ठों पर देखें 276. श्रमणीरत्नो. पृ. 180 277. वही, पृ. 181-83 278. वही, पृ. 188-89 343 For Privat n al Use Only Page #406 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री सद्गुणाश्रीजी अजिताश्रीजी सुलसाश्रीजी तत्त्वानंद श्रीजी जयनंदिताश्रीजी सुज्येष्ठाश्रीजी भावरत्नाश्रीजी सुगुणाश्रीजी सुधर्माश्रीजी पूर्णदर्शनाश्रीजी तत्त्वरक्षाश्रीजी मुक्तिरक्षा श्रीजी देवयशाश्रीजी - - जैन श्रमणियों का बृहद इतिहास तीर्थंकर तप, बेले से वर्षीतप उपवास से वर्षीतप क्षीरसमुद्र, गणधरतप, मेरूतेरस, नवपद ओली 21, बीसस्थानक, युगप्रधान तप आदि विविध तप । 8, 16, 30 उपवास, वर्षीतप, समवसरण, सिद्धितप चत्तारि अट्ठ दस दोय, मेरूदंड, नवकार तप क्षीरसमुद्र, पोषदशमी, मेरू तेरस, बीज, अष्टमी, चौदस, बीस स्थानक एवं कई एकासना बीयासना आदि तपस्या । वर्षीतप, उपधान 3, अट्ठाई, सिद्धाचलतप, वर्धमान तप की 35 ओली, नवपद ओली 27, एकमासी, दोमासी, चारमासी, रोहिणीतप, अक्षयनिधि तप तथा अन्य तप । दो वर्षीतप में एक छट्ट से, अठाई, नवपद के 9 अट्ठम, 14 वर्ष एकासन, नवपद ओली वर्ण से और सादी, बीसस्थानक, वर्धमान तप की 25 ओली तथा अन्य विविध तप । वर्षीतप, बीसस्थानक, वर्धमान तप की 37 ओली, नवपद ओली 47 वर्ष से, 8, 16 उपवास व एकासने सिद्धितप, वर्षीतप, अठाई, क्षीरसमुद्र, बीसस्थानक, वर्धमान तप की 16 ओली (चालु) 8, 11, 30 उपवास, सिद्धितप, बीस स्थानक, कर्मसूदन, वर्धमान तप की ओली 33 (चालु) बीज, पूनम व एकासणे 9, 11, 15, 16, 17 अठाई, सिद्धितप, वर्षीतप क्षीरसमुद्र, बीसस्थानक, वर्धमान तप की 23 ओली (चालु) बीसस्थानक, 13 वर्ष एकासणा, वर्धमान तप की 25 ओली, नवपद ओली 35 बीसस्थानक, वर्धमान तप की 25 ओली, नवपद ओली 40 13 वर्ष एकासणा 16 उपवास । सिद्धितप, वर्षीतप 2, नवपद ओली, ज्ञानपंचमी, ग्यारस, दशम, बीस स्थानक, गौतमस्वामी के छट्ट, 16, 8 उपवास व एकासणे सिद्धितप, वर्षीतप 16 उपवास, बीसस्थानक, दशमी, पंचमी, ग्यारस, वर्धमान तप की 14 ओली, नवपद ओली, क्षीर समुद्र । मासक्षमण, 4, 5, 6, 8, 9, 11, 16 उपवास, पंचमी, ग्यारस, नवपद ओली, वर्धमान तप की 17 ओली, बीसस्थानक, क्षीरसमुद्र, गिरनारकी सात यात्रा, 99 यात्रा, उपधान 2 मासक्षमण, 16, 8, 9, 11 उपवास, क्षीरसमुद्र, बीसस्थानक, वर्धमान तप ओली 51 आदि । 344 Page #407 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्वेताम्बर परम्परा की श्रमणियाँ श्रुतनंदिताश्रीजी - मासक्षमण, सिद्धितप, वर्षीतप, बीसस्थानक, वर्धमान तप की 20 ओली, 9, 11, 16 उपवास, 2 अठाई। निर्मलदर्शनाश्रीजी - सिद्धितप, 9, 8 उपवास, वर्धमान तप की 27 ओली, 99 यात्रा, छ8 से सात यात्रा दोबार, उपधान, अक्षयनिधि, बीसस्थानक, पंचमी, दशमी, नवपद ओली आदि। पूर्णदर्शनाश्रीजी - सिद्धितप, वर्षीतप 2, नवपद ओली, क्षीरसमुद्र, 9, 16 उपवास उपधान, पांत्रीसु, पंचमी, गौतमस्वामी के छट्ट, दशम, ग्यारस विश्वोदयाश्रीजी - मासक्षमण, सिद्धितप, 9, 11, 16, 8 उपवास, उपधान, वर्षीतप, चत्तारि, बीसस्थानक, नवपद ओली, पांचम, दशम व एकासणा आदि। विश्वनंदिताश्रीजी - 9, 16 उपवास, बीसस्थानक, क्षीरसमुद्र, वर्धमान तप की 17 ओली, नवपद ओली, 99 यात्रा, छ8 से सात यात्रा, पंचमी, दशम, वर्षीतप आदि। शीलदर्शनाश्रीजी - मासक्षमण, सिद्धितप, श्रेणीतप, चतारि अट्ठ दसदोय, 16, 11, 8 उपवास, वर्धमान तप की 37 ओली, 3 उपधान, अक्षयनिधि, नवपद ओली, पंचमी, ग्यारस, 99 यात्रा, छट्र से 7 यात्रा, विविध अट्टम, वर्षीतप 2, बीसस्थानक एकासणं, T सिद्धितप, 16, 10, 8, 4, 5, 6 उपवास, पोषदशमी के दस अट्टम, दीपावली के 5 छट्ठ, मोक्षदंड, चौदपूर्व, पंचमी, स्वर्गस्वस्तिक तप, वर्धमान तप की 82 ओली, वर्षीतप 2, बीसस्थानक आदि तप। संयमगुणाश्रीजी मासक्षमण, 15, 16, 11, 10, 9, 5, 6 उपवास, 12 अठाई, 25 अट्ठम, पोषदशमी अट्ठम 15, क्षीरसमुद्र, सिद्धितप, श्रेणीतप, चत्तारिअट्ठ दस दोय, समवसरण, सिंहासन, एक मासी, छः मासी, आठ मासी, तीन मासी, चार मासी, छ मासी (5 दिन कम) तप, विविध एकासण तप, बीस स्थानक, दो वर्षीतप, उपधान 3, रत्नपावड़ी छट्ठ, ग्यारस, 15 वर्ष आयंबिल, स्वस्तिक तप, कल्याणक, वर्धमान तप की 35 ओली, नवपद ओली आदि अन्य विविध तप। सुनंदिताश्रीजी - 8, 16 उपवास, वर्षीतप, बीसस्थानक, वर्धमान तप की 27 ओली अक्षतयशाश्रीजी - 8, 9, 16 उपवास, क्षीरसमुद्र, बीसस्थानक, अष्टापद, वर्षीतप, वर्धमान ओली 27 विश्वनंदिताश्रीजी - 8, 16, 31 उपवास, बीसस्थानक, वर्षीतप, वर्धमान तप की 38 ओली, नवपद ओली पुन्ययशाश्रीजी - 8, 9, 16, 30 उपवास, वर्षीतप, बीसस्थानक, वर्धमान तप की 90 ओली तत्त्वनंदिताश्रीजी - वर्धमान तप की 17 ओली, क्षीरसमुद्र, वर्षीतप, बीसस्थानक नयनंदिताश्रीजी - 8, 16 उपवास, वर्षीतप, सिद्धितप, बीसस्थानक, वर्धमान ओली 31 नवपद ओली सुरक्षाश्रीजी 45 345 For Privalumadonal Use Only Page #408 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विरतियशाश्रीजी आगमयशाश्रीजी हितोदयाश्रीजी कल्पदर्शनाश्रीजी पूर्णप्रज्ञाश्रीजी राजप्रज्ञाश्रीजी जैन श्रमणियों का बृहद इतिहास - 8, 16, 31 उपवास, बीसस्थानक, चत्तारि, वर्धमान ओली 27 ओली, नवपद ओली प्रतिवर्ष - 8, 11, 16 उपवास, क्षीरसमुद्र, वर्षीतप, बीसस्थानक, वर्धमान ओली 25, नवपद ओली। - वर्षीतप दो, 16, 11, 8 उपवास, विविध कई अट्ठम, अक्षयनिधि, पंचमी, दशमी, वर्धमान तप की 27 ओली, नवपद की 20 ओली (आगे चालु) उपधान, चार वर्ष से एकासणा। इन महासतीजी ने 13 वर्ष की अल्पायु में मासक्षमण जैसा दीर्घ तप कर कीर्तिमान किया। - वर्षीतप, 16, 9, 8, 4 उपवास, उपधान, नवपद की एक धान्य की ओली, छ? से गिरिराज की सात यात्रा, 8 अट्टम, पंचमी, ग्यारस आदि तप पंचमी, दशमी, दूज, नवपद ओली, वर्धमान ओली तप 37 से आगे, बीसस्थानक, वर्षीतप 3, अक्षयनिधि तप, कर्मसूदन की ओली दो, अठाई, 96 जिन के उपवास, नवकार तप, चारमासी, दो मासी तप, चौविहार छ8 से सात यात्रा, एकांतर 500 आयंबिल, 99 यात्रा दो बार, विविध एकासणा तप पंचमी, दसमी, अठाई, वर्षीतप 3, चारमासी, छः मासी तप, 500 आयंबिल एकांतर, वर्धमान तप की 19 ओली, नवपद ओली, शत्रुजय की 99 यात्रा दो बार, चौविहार छ8 से सात यात्रा दो बार, बीस स्थानक तप। - ज्ञानपंचमी, वर्धमान ओली 22, वर्षीतप सिद्धितप, भद्रतप, बीसस्थानक, 99 यात्रा, चौविहार छ8 से सात यात्रा, अठाई, नवपद ओली। पंचमी, दशमी, अक्षयनिधि, वर्धमान तप-28, बीसस्थानक, नवपद ओली, अठाई, वर्षीतप 4, सिद्धितप, श्रेणीतप, भद्रतप, नवकारतप, छ: मासी, चारमासी-3, तीनमासी, दोमासी, डेढ़ मासी तप, 500 आयंबिल एकांतर, शत्रुजय के छ8 अट्टम, चउविहार छ8 से सात यात्रा, तिविहार छ8 से सात यात्रा, 99 यात्रा दो बार। पंचमी, दशमी, एकादशी, उपधान 2, अठाई, वर्षीतप, वर्धमान तप चालु, नवपद ओली, बीसस्थानक, 99 यात्रा दो बार, चौविहार छ? 7 यात्रा, डेढ़ मासी, अक्षयनिधि तपा अठाई, समवसरण तप 2, 500 आयंबिल, वर्धमान तप की 32 ओली नवपद ओली, 99 यात्रा. बीसस्थानक की 5 ओली। यह तप 20 वर्ष की उम्र में 3 वर्ष की दीक्षा पर्याय तक का है। अध्ययन भी विशिष्ट है। - वर्षीतप, पंचमी, 99 यात्रा दो बार, छट्ठ से सात यात्रा 2, अट्ठम से सात यात्रा, सिद्धितप, श्रेणीतप, बीसस्थानक, वर्धमान तप की 29 ओली, नवपद ओली, शत्रुजय पूर्णनंदिताश्रीजी कल्पप्रज्ञाश्रीजी कैरवप्रज्ञाश्रीजी भव्यज्ञाश्रीजी पूर्णदर्शिताश्रीजी 346 Page #409 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्वेताम्बर परम्परा की श्रमणियाँ भावितरत्नाश्रीजी विदितरत्नाश्रीजी नम्रताश्रीजी सरिताश्रीजी मोक्षज्ञाश्रीजी भव्यप्रज्ञाश्री छट्ठ अट्ठम, सहस्रकूट, अठाई, क्षीर समुद्र तप । प्रज्ञावंत साध्वी हैं। पंचमी, दसमी, ग्यारसतप, 50 अट्टम, बीसस्थानक, 96 जिन ओलीतप, नवपद ओली, अष्टमी, सिद्धितप, वर्षीतप अठाई, एकासणे । वर्षीतप 500 आयंबिल, बीसस्थानकतप, नवपद ओली, वर्धमान तप की 15 ओली। दूज, पंचमी, दसमी, ग्यारस, अक्षयनिधि, नवपद ओली, दिवाली छट्ठ, वर्धमान तप की 13 ओली (चालु) सिद्धितप, सोलह उपवास, खीरसमुद्र, वर्षीतप बीसस्थानक की ओली, दीपावली छट्ठ, नवपद ओली, वर्धमान तप की 18 ओली (चालु) दसम, पंचमी, ग्यारस, अक्षयनिधि तप, नवकारतप, पंचरंगी, एकासणे आदि । अक्षयनिधि तप 4, उपधान, दूज, पंचमी, अष्टमी, दशमी, ग्यारस, मेरूतेरस, चौदस, बसस्थानक तप, 96 जिन तप, विजय की 5 ओली, कर्मसूदन तप, बावन जिनालय, 45 आगम, 14 पूर्व, अष्टमासिद्धि, नमस्कार तप, लब्धितप, स्वर्गस्वस्तिक तप, मोदकतप, 4, 5, 6, 8, 9, 10, 11, 15, 16 मासक्षमण, क्षीरसमुद्र, सातसमुद्र, चत्तारिअट्ठ दस दोय, सिद्धितप, पंचरंगी, 150 कल्याणक, वर्षीतप, शत्रुंजय तप 3, शत्रुंजय मोदक, दीपावली अट्ठम 20, पार्श्वनाथ अट्ठम (108) 1024 सहस्रकूट, 229 छ्ट्ठ व अट्ठम, चैत्रीपूनम 22, सात सौख्य, योगशुद्धि, रत्नत्रय, रत्नपावडिया, नवपद ओली 32, चौमासीतप 9, वर्धमान तप ओली 49, कर्मप्रकृति तप, श्रेणीतप धर्मचक्र, सात सौख्य आठ मोक्ष, नागेश्वर पार्श्वनाथ के अट्टम तथा एकासने से अन्य भी विविध तप करती हुई ये लब्धि-संपन्न तपोमूर्ति साध्वी के रूप में जिनशासन की दीप्तीमान मणी है। 279 अट्ठम, बीसस्थानक, बेले व उपवास से वर्षीतप, उपधान, नवपद ओली, वर्धमान तप की 14 ओली, दीपावली छट्ट, सिद्धितप, नवकारमंत्र आदि । 5.3.1.14 श्री प्रवीणश्रीजी (संवत् 1991-2047 ) संवत् 1971 राजनगर के मोहनभाईवादी व नारंगीबहन के यहाँ जन्मी इस पुण्यात्मा ने संवत् 1991 कार्तिक कृष्णा 11 को अमदाबाद में श्री सिद्धसूरिजी (बापजी) के वरदहस्त से श्री रंजनाश्रीजी की नेश्राय में दीक्षा ग्रहण की। प्रज्ञा की उत्कर्षता के साथ वर्धमान आयंबिल तप की 100 ओली पूर्ण कर अपनी आत्मशक्ति का परिचय देने वाली तपोदीप्त साध्वियों में ये एक हैं। बीसस्थानक तप, रत्नपावड़ी, सिद्धाचल के छट्ट-अट्ठम, बावन जिनालय, कर्मप्रकृति के 158 उपवास, 96 जिन ओली उपवास से, 45 आगम तप, मासखमण, नवपद जी की लगभग 100 ओली, 24 तीर्थंकर तप, एकादशी, पंचमी, दसमी आदि अन्य भी अनेक तपस्याएँ इन्होंने की। संवत् 279. मुनि श्री सुधर्मसागरजी, जिनशासन नां श्रमणीरत्नो, पृ. 238-44 347 Page #410 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन श्रमणियों का बृहद इतिहास 2047 में समाधि पूर्वक कैंसर की असह्य वेदना को सहकर कालधर्म को प्राप्त हुईं। संयममार्ग पर गतिशील इनकी कई शिष्याएँ प्रशिष्याएँ हैं - मृदुता श्रीजी 280, सुज्ञताश्रीजी, भाविताश्रीजी, हितप्रज्ञाश्रीजी, हर्षपूर्णाश्रीजी, विश्वप्रज्ञाश्रीजी, विश्वज्ञाश्री, रम्यप्रज्ञाश्री, रत्नप्रज्ञाश्री, वर्धमान श्रीजी, सुजेताश्रीजी, हर्षिता श्रीजी, विशुद्धप्रज्ञाश्रीजी आदि | 281 5.3.1.15 श्री विद्याश्रीजी ( संवत् 1991 से वर्तमान) माता साध्वी अंजनाश्री एवं पिता श्री हंससागरसूरिजी के अनासक्त जीवन से संस्कारित विद्याश्रीजी संवत् 1991 फाल्गुन कृष्णा 13 को लघु भ्राता ( श्री नरेन्द्रसागर मुनि) के साथ दीक्षित हुईं। आधे घंटे में 50 गाथाएं स्मृति में रख सकने की क्षमता से संपन्न साध्वी का अनेक आगम-ग्रंथों में निष्णात होना स्वाभाविक ही था। साढ़े 12 वर्ष तीव्र कर्मोदय की स्थिति में भी इनके द्वारा रचित गीत, गहुंली, दोहे आदि 'विद्यासंगीत सरिता' भाग 1 से 3 तक प्रकाशित हो चुके हैं, चित्रकला, व्याख्यान कला में भी ये गणनीय स्थान पर हैं। इस प्रकार विद्याश्रीजी ने अपने नाम को तो सार्थकता प्रदान की ही साथ ही जिनशासन की भी उल्लेखनीय सेवा की है। 282 5.3.1.16 श्री राजेन्द्र श्रीजी ( संवत् 1992 से वर्तमान ) विक्रम संवत् 1972 अहमदाबाद के 'मास्तर' अमृतलालभाई व मेनाबाई की सुपुत्री रूप में सुख्यात 'तारा' वात्सल्यमूर्ति तिलकश्रीजी के सान्निध्य में त्याग के मार्ग पर संवत् 1992 वैशाख शुक्ला 4 को अग्रसर होकर 'राजेन्द्र श्री' नाम को प्राप्त हुई। अध्यात्म का गहन अध्ययन करने के साथ ही इन्होंने वर्धमान आयंबिल तप की 100 ओली पूर्ण की, पुनः इसी तप को प्रारंभ कर 20 तक ओली की, साथ में वर्षीतप सिद्धीतप, पाँचतिथि उपवास, नवपद ओली आदि निरन्तर तप धर्म में संलग्न रहीं। इनके बाह्य व आभ्यंतर तप से आकर्षित होकर कई मुमुक्षु आत्माएँ साधना पथ पर आरूढ़ हुईं। इनकी निम्नलिखित विदुषी शिष्या - प्रशिष्याएँ हैं शिष्याएँ - कारुण्यश्रीजी, शुभोदया श्रीजी, सुलक्षणाश्रीजी, लक्ष्यज्ञाश्रीजी । पौत्र शिष्याएँ- विनयधर्माश्रीजी, गुणरत्नज्ञाश्रीजी, 283 सोमयशाश्रीजी, कल्परेखा श्रीजी, विश्वहिताश्रीजी, हृदयंगमा श्रीजी । प्रपौत्र शिष्याएँ - प्रियधर्माश्रीजी, सौम्यवदनाश्रीजी, जयनशीलाश्रीजी, तक्षशीला श्रीजी, यशोधर्माश्रीजी, दमितधर्माश्रीजी, नीतिधर्माश्रीजी, जितधर्माश्रीजी | 284 इनकी शिष्याओं में कई उग्रतपस्विनी हैं। विनयधर्माश्रीजी ने मासक्षमण, वर्धमानतप की 100 ओली की साथ ही श्रेणीतप व 500 आयंबिल भी किये। प्रियधर्माश्रीजी ने भी वर्धमान तप की 100 ओली, पुनः 12 ओली, सिद्धितप श्रेणीतप, वर्षीतप 500 आयंबिल तथा सिद्धाचलजी, तलाजा तथा गिरनार की 99 यात्राएँ की । शुभोदया श्रीजी मासक्षमण, 500 आयंबिल, एकान्तर, सिद्धितप, चत्तारि अट्ठ दशदोय तप संपन्न कर चुकी हैं। हृदयंगमा श्रीजी ने श्रेणीतप, सिद्धितप तथा 500 आयंबिल किये। जयनशीला श्रीजी ने भी एकांतर 500 आयंबिल किये। यशोधर्माश्रीजी ने, 5,7,8,30 उपवास, दो वर्षीतप, वर्धमान तप की 54 से ऊपर ओली, वीसस्थानक, 280. विशेष परिचय तालिका में देखें 281. जिनशासन नां श्रमणीरत्नो, पृ. 185 282. वही, पृ. 234-36 283. इनका परिचय तालिका में देखें। 284. जिनशासन नां श्रमणीरत्नो, पृ. 180 348 Page #411 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्वेताम्बर परम्परा की श्रमणियाँ सिद्धितप 500 आयंबिल, सिद्धाचल की 99 यात्रा की। इनके अतिरिक्त श्री लक्ष्यज्ञाश्री, तक्षशीलाश्री, कल्परेखाश्रीजी ने भी मासक्षमण तथा अनेक छोटी-बड़ी तपस्या की । इस प्रकार इन साध्वियों ने जैनधर्म तथा संघ के गौरव में महान अभिवृद्धि की है | 285 5.3.1.17 श्री सुरप्रभाश्रीजी ( संवत् 1995 ) राणपुर निवासी श्रेष्ठी नागरदास व झबकबेन की सुपुत्री समता का जन्म संवत् 1960 को हुआ । समता ने अपने ही समक्ष पति, पुत्र एवं पुत्री का संयोग, वियोग रूप दृश्य प्रत्यक्ष देखकर मोक्षमार्ग का अनुसरण करने का लक्ष्य बनाया और संवत् 1995 ज्येष्ठ शुक्ला 6 के दिन श्री तीर्थश्रीजी के चरणों में अपना जीवन समर्पित कर दिया। दीक्षा के पश्चात् जहां भी विचरीं वहीं अनेक भव्यात्माओं को धर्म का मर्म बताकर मुक्ति का राही बना दिया इनकी परम विदुषी शिष्याएँ इस प्रकार हैं- कनकप्रभाश्रीजी, तत्त्वबोधश्रीजी, धर्मानंद श्रीजी, रत्नत्रयाश्रीजी, रत्नप्रभाश्रीजी, धर्मोदया श्रीजी, इनमें सुतारा श्रीजी, नित्योदया श्रीजी, 286 धैर्यप्रभाश्रीजी, जयज्ञाश्रीजी, तत्त्वरेखाश्रीजी, सुलक्षिताश्रीजी, विरतिप्रज्ञाश्रीजी, सुज्ञरसाश्रीजी, भव्यलक्षिताश्रीजी, शुभवर्षाश्रीजी, हितवर्धनाश्रीजी, मतिज्ञा श्रीजी । यह कनकप्रभाश्रीजी का परिवार है और रत्नत्रयाश्रीजी के परिवार में सौम्यगुणाश्रीजी, रम्यगुणाश्रीजी, अमितज्ञाश्रीजी, नयप्रज्ञाश्रीजी, शीलरत्नाश्रीजी, मोक्षरत्नाश्रीजी, सिद्धरत्नाश्रीजी, आत्मज्ञाश्रीजी, समयज्ञाश्रीजी, श्रुतज्ञाश्रीजी आदि साध्वियाँ हैं। 287 5.3.1.18 श्री प्रियंकराश्रीजी (संवत् 1999-2011 ) राधनपुर के जीवराजभाई मणियार के यहाँ जन्म हुआ । विवाह के पश्चात् एक पुत्र व एक पुत्री की प्राप्ति के बाद वैधव्य को विरक्ति में परिवर्तित करती हुईं ये संवत् 1999 वैशाख शुक्ला 11 के दिन पुत्री प्रमिला के साथ श्री रंजन श्रीजी के चरणों में दीक्षित हुईं। प्रकृति से शांत, मधुरभाषिणी, विनय विवेक व व्यक्तित्व की प्रखरता से शिष्या परिवार की वृद्धि हुई। स्वयं की 5 शिष्याएँ हुईं- (1) निरंजनाश्रीजी (2) नित्यानंद श्रीजी, (3) सुरेन्द्रश्रीजी (4) जितेन्द्र श्रीजी, (5) जयानंद श्रीजी । प्रशिष्याओं का विशाल परिवार इस प्रकार है। - महायशाश्रीजी, कुमुदयशाश्रीजी, धर्मरसाश्रीजी, प्रशांतरसाश्रीजी, आत्मरसाश्रीजी, प्रमुदिताश्रीजी, पूर्णरत्नाश्रीजी, सौम्ययशाश्रीजी, धर्मविदाश्रीजी, अमितप्रज्ञाश्रीजी, नंदिताश्रीजी, नयदर्शनाश्रीजी, व्रतनंदिताश्रीजी, जिनदर्शिताश्रीजी, प्रशमिताश्रीजी, जिनेशिताश्रीजी, शमरसाश्रीजी, महानंदाश्रीजी, कल्पज्ञाश्रीजी, सत्त्वगुणाश्रीजी, चारूप्रज्ञाश्रीजी, शमपूर्णाश्रीजी, शमदर्शिताश्रीजी, ललितयशा श्रीजी, प्रसन्नवदनाश्रीजी, तत्त्वदर्शनाश्रीजी, नयज्ञाश्री, समयज्ञाश्री, विरागदर्शिता जी, सुसंयमिताश्री सौम्यनंदिताश्रीजी, हर्षनंदिताश्रीजी, धर्मयशाश्री, नयगुणाश्रीजी, इन्द्रियदमा श्रीजी, पूर्णानंद श्री, प्रशमगुणाश्री, अमीरसाश्रीजी, हर्षितवदनाश्री, आत्मजयाश्री, मुक्तिपूर्णाश्री, मुक्तिरत्नाश्री विरागरत्नाश्री, भक्तिरत्नाश्री, सत्त्वानंद श्रीजी, आत्मदर्शिताश्रीजी, तत्त्वशीलाश्री, राजदर्शिताजी, अपूर्वनंदिताश्री। इस प्रकार अपूर्व तप, त्याग एवं चारित्र का दीप प्रदीप्त कर प्रियंकराश्रीजी संवत् 2011 को महाप्रयाण कर गईं। 288 285. वही, पृ. 238 286. विशेष परिचय अग्रिम पृष्ठों पर देखें 287. 'श्रमणीरत्नो' पृ. 192-93 288. वही, पृ. 197 349 Page #412 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन श्रमणियों का बृहद इतिहास 5.3.1.19 श्री निरंजनाश्रीजी (वर्तमान) प्रेरणादायी व्यक्तित्व लिये श्री निरंजनाश्रीजी नौ दस वर्ष की उम्र में दीक्षित हुईं, वर्तमान में 50-60 शिष्याओं की गुरूणी होने पर भी अहंत्व ममत्व व कर्तृत्व से रहित इनका जीवन है। स्वयं वर्षीतप, अठाई, नवपद ओली, रत्नपावड़ी तप, सिद्धाचल तप, कल्याणक, बीसस्थानक तथा अन्य अनेकविध तपस्या करती हुई अपनी शिष्याओं को भी तप की प्रेरणा देती हैं। इनकी तपस्विनी शिष्याओं की झलक इस प्रकार है।289 धर्मविद्याश्रीजी - 100 ओली सम्पन्न, सिद्धितप, 6, 8, 10, 15, 16, 30, 51 उपवास, बीसस्थानक, समवसरण, सिंहासन, वर्षीतप, काठिये के 13 अट्ठम, कषायजय, इन्द्रियजय, लगातार 1500 आयंबिल दो बार, दो बार 500 आयंबिल सह 99 यात्रा, नवपद ओली, क्षीरसमुद्र, अक्षयनिधि, चत्तारि अट्ठ दस दोय, सिद्धाचल, धर्मचक्र तप धर्मयशाश्रीजी 11, 15, 16, 17, 30 उपवास, 5 अठाई, 100 ओली संपूर्ण कर पुनः प्रारंभ, बीसस्थानक, नवपद ओली एक धान्य से, चत्तारि अट्ठ दस दोय, सिद्धितप, भद्रतप, वर्षीतप 2 (एक छ8 से) 500 आयंबिल, कल्याणक, 99 यात्रा दो बार, छट्ठ के साथ 7 यात्रा, सिद्धाचल, दीपावली के 9 छ8, रत्नपावडी, कर्मसूदन समवसरण, चतुर्मासी, छमासी, धर्मचक्र, नवकार तप, उपधान, सहस्रकूट, छः अठाई आदि। इन्द्रियदमाश्रीजी - 8, 16, 30 उपवास, 100 ओली पूर्ण, बीसस्थानक, वर्षीतप, क्षीरसमुद्र, नवकारपद, नवपद ओली, 500 आयंबिल एकांतर, चोमासी, दोमासी, डेढ़मासी, कषायजय, आयंबिल सह 99 यात्रा, छ8 से 7 यात्रा, क्षीरसमुद्र, उपधान, सहस्रकूट कल्याणक तथा एकासणे आदि। धर्मरसाश्रीजी 8, 9 उपवास, बीसस्थानक, कर्मसूदन, वर्धमान ओली 40, छट्ठ से सात यात्रा 2, वर्षीतप, पंचमी, दशमी, कल्याणक, नवपद ओली, युगप्रधान तप, अक्षयनिधि, अष्टमहासिद्धि, नवपद ओली 17 वर्ष से, अन्य एकासण तप मनोरमाश्रीजी वर्षीतप, नवपद ओली, चौविहारछट्ट से सात यात्रा, वर्धमान तप की 22 ओली 99 यात्रा, उपधान, अट्ठाई, छ: काय । नयदर्शनाश्रीजी - 5, 8, 30 उपवास, सिद्धितप, बीसस्थानक, सिद्धाचल, नवपद ओली, वर्धमान ओली 19, छट्ठ से सात यात्रा, उपधान अमितप्रज्ञाश्रीजी - नवपद ओली, वर्धमान ओली चालु, उपधान, दीपावली तप, एकासणा आदि अमीरसाश्रीजी 8, 16, 30 उपवास, 51 ओली, बीसस्थानक, श्रेणीतप, भद्रतप, वर्षीतप, सिद्धितप, चत्तारिअट्ठ दश दोय, क्षीरसमुद्र, 500 आयंबिल एकांतर, नवपद ओली, डेढ़, दो, तीन, छः मासी, कर्मसूदन, कषायजय, इन्द्रियजय, 99 यात्रा दो, 45 आगम, कल्याणक, उपधान, नवकारपद तप। 289. मुनि सुधर्मसागरजी, वही, पृ. 249-52 350 Page #413 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्वेताम्बर परम्परा की श्रमणियाँ अपूर्व नंदिताश्रीजी तत्त्वशीलाश्रीजी जिनदर्शिताश्रीजी हर्षितवदनाश्रीजी नयगुणाश्रीजी जितेन्द्र श्रीजी प्रशांतरसाश्रीजी आत्मदर्शिताजी पूर्णरत्नाश्रीजी व्रतनंदिताश्रीजी पूर्णानंद श्रीजी - बीसस्थानक, भद्रतप, वर्षीतप नवपद ओली, वर्धमान ओली 43, 500 आयंबिल, 8,9 8, 30 उपवास, बीसस्थानक, श्रेणितप, 27 ओली, वर्षीतप 2, सिद्धितप, चत्तारि, 500 आयंबिल एकांतर, क्षीरसमुद्र, छ मासी, नवपद ओली, 99 यात्रा दो, कल्याणक, सिद्धाचल, उपधान तप । बीसस्थानक, 96 जिन, मोक्षदंड, 99 यात्रा, 23 ओली, छट्ठ करके सात यात्रा, 7 छ दीपावली के वर्षीतप कर्मप्रकृति, नवपद ओली, पंचमी, दशमी, ग्यारस, उपधान, 6, 16 उपवास, सदा बीयासणा 100 ओली पूर्ण, श्रेणीतप, बीसस्थानक, सिद्धितप कर्मसूदन, सहस्रकूट, 500 आयंबिल, चत्तारि डेढ़ मासी, नवपद ओली, आयंबिल के साथ 99 यात्रा, वर्षीतप उपवास व छट्ठ से, उपधान, उपवास-8, 16, 30 8, 9, 30 उपवास, क्षीरसमुद्र, काठिया के 13 अट्ठम, नवपद ओली, चोविहार छट्ट से 7 यात्रा, 99 यात्रा, 12 ओली वर्धमान तप की 100 ओली पूर्ण, 8, 16, 30 उपवास, बीस स्थानक, चत्तारि..., नवकारतप, क्षीरसमुद्र, श्रेणितप, भद्रतप, 500 आयंबिल, सहस्रकूट, सिद्धाचल, छट्ट से वर्षीतप, समवसरण, सिंहासन, सिद्धितप, नवपद ओली, डेढ़, अढ़ी, चार, छमासी तप, 13 अट्ठम, कषायजय, इन्द्रियजय, छट्ठ से सात यात्रा, आयंबिल सह 99 यात्रा, उपधान आदि। 8, 16, 30 उपवास, 108 आयंबिल, वर्षीतप 2,500 आयंबिल एकांतर, 50 ओली, नवपद ओली, क्षीरसमुद्र, श्रेणितप, सिद्धितप, सिद्धाचल, चौविहार छट्टु से सात यात्रा, 99 यात्रा, कल्याणक, नवकार पद, तीन चौबीसी, उपधान 2, अष्टमहासिद्धि, कर्मसूदन की 4 ओली, बीसस्थानक, प्रतिवर्ष नवपद ओली, पाँचम, दशम 3, 4, 5, 6, 7, 30 उपवास, सिद्धितप, चत्तारि, कर्मसूदन, समवसरण, 52 ओली, वर्षीतप, अक्षयनिधि, पंचमी, दशमी, ग्यारस, आयंबिल से 99 यात्रा दो बार, रत्नपावड़ी, दीपावली के 9 छट्ट, चार मासी, 6 अठाई 4, 5, 6, 8 उपवास, क्षीरसमुद्र, कर्मसूदन, वर्षीतप 500 आयंबिल एकांतर, 45 आगम, सिद्धाचल, नवपद ओली, अक्षयनिधि, कल्याणक, उपधान, दसम ग्यारस, 99 यात्रा, छट्ठ से सात यात्रा, सहस्रकूट, 23 ओली आदि 30, 51 उपवास, श्रेणितप, बीसस्थानक, नवपद ओली, छट्ट से सात यात्रा, 99 यात्रा, अक्षयनिधि, दशमी, पूनम, 17 ओली पूर्ण 3, 4, 5, 6, 7, 8, 9, 10, 16 उपवास, वर्षीतप 2, सिद्धितप, श्रेणितप, चत्तारि, 351 Page #414 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन श्रमणियों का बृहद इतिहास क्षीरसमुद्र, 500 आयंबिल एकांतर, 37 ओली पूर्ण, रत्नपावड़ी, दीपावली के 9-9 छट्ट, बीसस्थानक, कल्याणक, नवपदओली कायम, अन्य एकासणा तप नंदिताश्रीजी 8, 16, 30 उपवास, वर्षीतप, श्रेणितप, समवसरण, सिंहासन, बीसस्थानक, एकांतर 500 आयंबिल, सिद्धितप, कर्मसूदन, 99 यात्रा, सिद्धाचल, छट्ठ से सात यात्रा 2 बार, 41 ओली पूर्ण, 96 जिन कल्याणक, दीपावली छठ्ठ, नवपद ओली, पंचमी, दशमी एकादशी, पूनम, उपधान 2 सत्त्वानंदश्रीजी - 5, 8, 16, उपवास, सिद्धितप, वर्षीतप, वीशस्थानक, नवकारपद, 99 यात्रा, छ8 से सात यात्रा, सिद्धाचल, सहस्रकूट, 96 जिनकल्याणक, कर्मसूदन, 14 ओली प्रशमगुणाश्रीजी - नवपद ओली, 25 ओली पूर्ण, बीसस्थानक, वर्षीतप, 99 यात्रा 2 बार, उपधान, 8, 9 उपवास, बियासणां 16 वर्ष से । राजदर्शिताश्रीजी - अठाई, सिद्धितप, नवपद ओली, बीसस्थानक, 99 यात्रा दो बार सुरेन्द्र श्रीजी 7, 8, 16, 30 उपवास, सिद्धितप, वर्षीतप 2, 37 ओली पूर्ण, नवपदओली, 500 आयंबिल एकांतर, छमासी, सिद्धाचल, छ8 से 7 यात्रा, बीसस्थानक, पंचमी, कल्याणक, उपधान, 99 यात्रा महायशाश्रीजी - 100 ओली पूर्ण, वर्षीतप, सिद्धितप, 6, 8, 10, 16, 30 उपवास, बीसस्थानक, समवसरण, सिंहासन, क्षीरसमुद्र, नवपद ओली, 99 यात्रा दो बार आयंबिल से, सहस्रकूट, सिद्धाचल, उपधान, एकासणे बीयासणे चालु प्रमुदिताश्रीजी - सिद्धितप, वर्धमान तप चालु 5.3.1.20 श्रीपद्मलताश्रीजी (स्वर्ग. संवत् 2036) धर्मप्रेरणा की निर्झर पद्मलताश्रीजी संवत् 1978 में कपड़वंज के शाह ओच्छवलाल के यहाँ जन्मी तथा सूर्यकांताश्रीजी की शिष्या बनकर संयम मार्ग पर आरूढ़ हुईं। इनकी तलस्पर्शी वैराग्यवासित वाणी से 10 शिष्याएँ श्री निरूपमाश्रीजी, कल्पगुणाश्रीजी, वीरभद्रश्रीजी, आत्मज्ञाश्रीजी, धर्मज्ञाश्रीजी, प्रमितज्ञाश्रीजी, अमितगुणाश्रीजी, विनीतज्ञाश्रीजी, विनयज्ञाश्रीजी, महाभद्राश्रीजी तथा 10 ही प्रशिष्याएँ - सुशेनाश्रीजी, वज्ररत्नाश्रीजी, राजरत्नाश्रीजी, रीतिज्ञाश्रीजी, भव्यज्ञाश्रीजी, भव्यनंदिताश्रीजी, मृदुदर्शिताश्रीजी, कल्पद्रुमाश्रीजी, अपूर्वयोगाश्रीजी, विदितयोगाश्रीजी, संयमी बनीं। अंत समय में 10-10 कर्म रोग के आतंक पर विजय प्राप्त कर संवत् 2036 पालीताणां में वह धैर्यमूर्ति समताभाव से वीरगति को प्राप्त हुई।280 5.3.1.21 श्री इन्दुश्रीजी (संवत् 1999) 'मालवज्योति' विरूद से प्रसिद्धि प्राप्त इन्दुश्रीजी का जन्म देपालपुर (इन्दौर) की भूमि पर श्री मगनलाल जी व चंपाबाई के घर-आंगन में संवत् 1963 के शुभ दिन हुआ। देवास निवासी सौभाग्यमलजी चौधरी के संयोग 290. श्रमणीरत्नो, पृ. 225-26 352 Page #415 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्वेताम्बर परम्परा की श्रमणियाँ से ये दो पुत्रों की माता बनीं। पतिवियोग, संसार का असली स्वरूप देखकर ये संवत् 1999 माघ शुक्ला 15 को मालव दीपिका मनोहरश्रीजी के पास दीक्षित हो गईं। इनकी वाणी के प्रभाव से कई आत्माएँ प्रव्रज्या मार्ग पर आरूढ़ हुईं, इतना ही नहीं अपने ही परिवार की 21 दीक्षाएँ करके इन्होंने जिनशासन को अपूर्व योगदान दिया। इनका विशाल शिष्या-प्रशिष्या परिवार ग्राम-ग्राम विचरण कर स्व-पर उपकारी सिद्ध हो रहा है। शिष्या परिचय-हिरण्यश्रीजी', कमलप्रभाश्रीजी292, हेमप्रभाश्रीजी, कुसुमश्रीजी, कैलासश्रीजी, चन्द्रभाश्रीजी, करूण्योदयाश्रीजी, चंद्रकांताश्रीजी, पुष्पाश्रीजी, शशीप्रभाश्रीजी, हेमेन्द्रश्रीजी, गुणज्ञाश्रीजी, चन्द्रयशाश्रीजी, सौम्ययशाश्रीजी, तीर्थरलाश्रीजी, चारित्ररत्नाश्रीजी, सौम्यपूर्णाश्रीजी, राजरत्नाश्रीजी, चन्द्ररत्नाश्रीजी, चारूधर्माश्रीजी, रम्यधर्माश्रीजी, कल्पद्रुमाश्रीजी, विपुलप्रज्ञाश्रीजी, मतिप्रज्ञाश्रीजी, अक्षयप्रज्ञाश्रीजी, सौम्यव्रताश्रीजी, चारूव्रताश्रीजी294, चारूदर्शनाश्रीजी, अर्पिताश्रीजी, अक्षिताश्रीजी, पूर्विताश्रीजी, अर्चिताश्रीजी, सुरेखाश्रीजी, प्रीतरसाश्रीजी, मुक्तिरसाश्रीजी, चारित्ररसाश्रीजी, पीयूषरसाश्रीजी, अपूर्वरसाश्रीजी, पूर्णयशाश्रीजी, हर्षप्रज्ञाश्रीजी, पीयूषवर्षाश्रीजी, सौम्यवदनाश्रीजी, रश्मिताश्रीजी, राजिताश्रीजी, निर्मिताश्रीजी, कल्पयशाश्रीजी, सूचिप्रज्ञाश्रीजी, सौम्यवर्षाश्रीजी, अमीवर्षाश्रीजी, गुणरत्नाश्रीजी। अल्प दीक्षापर्याय में भी इन्दुश्रीजी ने देवास, झार्डा, इन्दौर आदि स्थानों में भव्य जिनालयों का निर्माण, उपाश्रय आदि के प्रेरक कार्य किये।295 5.3.1.22 श्री हेमेन्द्र श्रीजी (संवत् 2003-37) बीलीमोरा नगर के धर्मिष्ठ परिवार के श्री वीरचंदभाई दिवालीबहन के घर संवत् 1985 में इनका जन्म हुआ। संस्कारों की प्रबलता से संवत् 2003 मृगशिर कृष्णा 4 के शुभ दिन संयम मार्ग पर आरूढ़ होकर श्री प्रभंजनश्रीजी की शिष्या बनीं। इनके तलस्पर्शी अध्ययन एवं चारित्रनिष्ठ जीवन से उद्बोधित कई उच्चकुलीन कन्याएँ इनकी शिष्या प्रशिष्या बनीं। जैसे- आत्मप्रभाश्रीजी, हेमप्रभाश्रीजी, आत्मानंदश्रीजी, वीरेशाश्रीजी, मोक्षज्ञाश्रीजी, प्रशिष्याएँ - हर्षयशाश्रीजी, कीर्तिप्रभाश्रीजी, रत्नेशाश्रीजी, रत्नवीराश्रीजी, चंद्रयशाश्रीजी, मीनेशाश्रीजी, यशवीराश्रीजी। श्री हेमेन्द्रश्रीजी शासन प्रभावना के अनेकविध कार्य संपन्न कर संवत् 2037 में समाधिपूर्वक स्वर्गवासिनी हुई।296 5.3.1.23 नित्योदयश्रीजी (संवत् 2004-36) जामनगर में जन्मी वहीं शांतिभाई रंगवालों से विवाह हुआ, उनसे एक पुत्र व एक पुत्री की प्राप्ति हुई। अल्प समय में पति व पुत्र वियोग ने इनके जीवन को वैराग्य की ओर मोड़ दिया। माता-पुत्री दोनों ने संवत् 2004 वैशाख कृष्णा 3 को श्री कनकप्रभाश्रीजी के पास दीक्षा ग्रहण की। 32 वर्ष तक विशुद्ध संयम का पालन कर कइयों को प्रतिबोधित किया। आपका शिष्या परिवार इस प्रकार है- श्री निरूजाश्री (पुत्री), मोक्षप्रज्ञाश्री, चरणप्रज्ञाश्री, भव्यप्रज्ञाश्री, कल्पिताश्री, भावितरत्नाश्रीजी, विदितरत्नाश्रीजी, नम्रताश्री, सरिताश्रीजी1297 5.3.1.24 मयणाश्रीजी 'सूर्यशिशु' (संवत् 2005-2044) ये सूरत के जवेरी कुटुंब के श्रेष्ठी जीवनचंद जी व गुलाबबहन की सुकन्या थीं। सूरत में ही संवत् 2005 291-294. इनका परिचय अग्रिम पृष्ठों पर देखें 295. श्रमणीरत्नो, पृ. 193-95 296. वही, पृ. 227 297. वही, पृ. 202 353 Page #416 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन श्रमणियों का बृहद इतिहास माघ शुक्ला 2 को सूर्यकान्ता श्रीजी के पास दीक्षा अंगीकार की। श्री सागरानंदसूरिजी के साध्वी-संघ में साहित्यिक क्षेत्र में आपका नाम प्रथम पंक्ति में गिना जाता है। प्रारंभ में आपके विचार - कल्याण, गुलाब, सुघोषा, शांतिसौरभ आदि सामयिक पत्रिकाओं में प्रकाशित होते थे। उसके पश्चात् लगभग 30 पुस्तकें 'सूर्य शिशु' नाम से लिख चुकी हैं। इनमें से कुछ निम्न हैं कथा-साहित्य :- कुलदीपक, मायानी जाल, संसार ना वहेण भाग 1 से 3, वैर नां विषपान, संसार नी सहिष्णु नारी, वीणेला मोती, पलटता रंग, जीवन धन, उर उजास, प्रेरणा प्रकाश, प्रेम पीयूष आदि -आदि । भक्ति काव्य :- पुष्प - सुमलय सौरभ, आनंद - चंद्र ज्योति, भक्तिनी मस्ती, प्रभु प्रीत नां गीत, संगीत नी सरगम, पद्म परिमल आदि। आपने गुरू-स्मृति में 45 फुट ऊँचा 'आगम स्तम्भ' कपड़वंज में बनवाया। अनेक स्थानों पर भक्ति - मंडल, लायब्रेरी, कोयम्बतूर में श्रीसंघ की स्थापना, पालीताणा में 'सूर्यशिशु साधना सदन' छ री पालित संघ, परीक्षाएँ, प्रतिमा-प्रतिष्ठापन आदि अनगिनत शासन प्रभावना के कार्य किये। संवत् 2044 को सूरत में इस सरस्वती पुत्री ने चिर विदाई ली | 298 विशिष्टता - अखिल भारतवर्ष के श्रमणी - संघ में आपके ग्रूप की एक अप्रतिम विशेषता पढ़ने में आई है, वह है - एक ही ग्रूप में चार साध्वियाँ 'शतावधानी' हैं। उनके नाम हैं (1) आप स्वयं मयणाश्रीजी (2) साध्वी शुभोदया श्रीजी (3) साध्वी अमितगुणाश्रीजी (4) साध्वी प्रमितगुणाश्रजी । साध्वी शुभोदया श्रीजी का इंग्लिश पर कमांड एवं स्वर की मीठास विशेष उल्लेखनीय है । 299 5.3.1.25 श्री हेमप्रभाश्रीजी ( संवत् 2010-38) विशद ज्ञान एवं मधुर वाणी वैभव की धनी हेमप्रभाश्रीजी का जन्म नवसारी निवासी सेठ नागरदास दुर्लभजी भाई व माता कमलाबहन के यहाँ हुआ। संवत् 2010 को सिद्धगिरि महातीर्थ की छत्रछाया में हेमेन्द्र श्रीजी की सुशिष्या बनकर संयम के पुनीत पंथ पर पदार्पण किया। अल्पावधि में ही आगम, धर्मग्रंथों एवं अनेक भाषाओं पर प्रभुत्व स्थापित कर लिया। तपस्या के क्षेत्र में ज्ञानपंचमी, मौन एकादशी, नवपदजी की 11 ओली, पालीताणा की छट्ट द्वारा सात यात्रा, उपवास से 3 यात्रा इत्यादि 99 यात्राएँ की । अल्प समय में महान आत्म-परहित संपादित कर संवत् 2038 में स्वर्गवासिनी हुईं। इनकी दस शिष्याएँ- दमिताश्रीजी, मणिप्रभाश्रीजी, प्रियदर्शनाश्रीजी, पद्मलताश्रीजी, पुण्योदयाश्रीजी, विश्वप्रज्ञाश्रीजी, पुण्यप्रभाश्रीजी, हेमप्रज्ञाश्रीजी, भव्यपूर्णाश्रीजी, हितेशाश्रीजी तथा 23 प्रशिष्याएँ हैं- निर्मलयशाश्रीजी, दिव्ययशाश्रीजी, दिव्यदर्शनाश्रीजी, निर्मलगुणाश्रीजी, मुक्तिदर्शाश्रीजी, मुक्तिप्रियाश्रीजी, चारूवर्षाश्रीजी, चारूवदनाश्रीजी, मृदुप्रिया श्रीजी, प्रफुल्लप्रभाश्रीजी, मुक्तिदर्शनाश्रीजी, पूर्णाहिताश्रीजी, हितदर्शनाश्रीजी, पुण्यदर्शनाश्रीजी, सम्यग्दर्शनाश्रीजी, मोक्षदर्शनाश्रीजी, ऋजुदर्शनाश्रीजी, पुनीतदर्शनाश्रीजी, पूर्णलताश्रीजी, पीयूषपूर्णाश्रीजी, पूर्णिताश्रीजी, शासनरत्नाश्रीजी, रत्नेशा श्रीजी | 300 298. वही. पृ. 228 299. वही, पृ. 840 300. वही, पृ. 230-31 354 Page #417 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्वेताम्बर परम्परा की श्रमणियाँ 5.3.1.26 श्री सूर्योदया श्रीजी ( संवत् 2011 आप अमदाबाद के श्री दलीचंद वीरचंदजी की सुपुत्री हैं, संवत् 2011 माघ शुक्ला 14 इन्दौर में श्री सुमन श्रीजी के पास दीक्षा ग्रहण की। अठाई, 16 मासक्षमण, सिद्धितप चत्तारि अट्ठ दस दोय, बीसस्थानक की ओली, वर्षीतप 500 आयंबिल संलग्न आदि तप मार्ग का अनुसरण करने के साथ ही इन्होंने छ'री पालित संघ यात्रा, प्रतिष्ठा, मंदिर, उपाश्रय, पाठशाला आदि शासन प्रभावना के भी अनेकविध कार्य किये। स्वयं की 6 शिष्याएँ - रत्नज्योतिश्रीजी, पद्मज्योतिश्रीजी, कल्पज्योति श्रीजी, शाशनज्योतिश्रीजी, सुवर्णज्योतिश्रीजी, सिद्धांतज्योतिश्रीजी तथा दो प्रशिष्या- मोक्षज्योतिश्रीजी, अक्षयज्योतिश्रीजी हैं । 301 5.3.1.27 श्री प्रशमशीलाश्रीजी ( संवत् 2016 से वर्तमान) साबरमती के श्रेष्ठी भूराभाई की सुपुत्री श्री प्रशमशीलाजी का जन्म संवत् 1996 में हुआ। वैराग्यभाव से स्वकुल व श्वसुरकुल से आज्ञा लेकर संवत् 2016 पोष कृष्णा 6 को राजनगर श्री प्रगुणाश्रीजी के पास दीक्षा अंगीकार की। न्याय, संस्कृत, प्राकृत, द्रव्य गुण पर्याय, व आगमग्रंथों का विशद अध्ययन किया। आपके प्रवचन में भी अद्भुत आकर्षण था। स्वयं की 11 शिष्याएँ हैं- प्रशमनाश्रीजी, प्रशमानना श्रीजी, प्रशमवर्षाश्रीजी, प्रशमरत्नाश्रीजी, प्रशमदर्शनाश्रीजी, प्रशमरक्षिताश्रीजी, प्रशमनंदाश्रीजी, प्रशमीशाश्रीजी, प्रशमतीर्थाश्रीजी, प्रशमजिनेशाश्रीजी 1302 5.3.1.28 अमितगुणाश्रीजी ( संवत् 2020 से वर्तमान) संवत् 2020 माघ कृष्णा चतुर्थी को श्री फल्गुश्रीजी के पास दीक्षित अमितगुणाश्रीजी बड़नगर (उज्जैन) के श्री गुलाबचंदजी की कन्या हैं। इनकी शासन प्रभावना उल्लेखनीय है । साधारण सी रकम के लिये श्री संघों को विशेष परिश्रम करना पड़ता है। किंतु ये जहाँ भी जाती हैं वहाँ 'चन्दनबाला के अट्टम' करवाती हैं और धनावह शेठ की बोली बुलवाती हैं तथा लाखों की दानराशि मिनटों में लिखवा लेती हैं। आपकी प्रेरणा से 8 मंदिर, 7 उपाश्रय 5 पदयात्री का निर्माण हुआ। आपकी विदुषी शिष्याओं में अनंतगुणाश्रीजी, अमीपूर्णाश्रीजी, अर्चितगुणाश्रीजी, अर्पितगुणाश्रीजी, अमीझरा श्रीजी व अर्चनाजी हैं। अनंतगुणाश्रीजी, की अनंतकीर्तिश्रीजी और अनंतयशाश्रीजी ये दो शिष्याएँ हैं। अमीपूर्णाश्रीजी की अमीदर्शाश्रीजी, अमीयशाश्रीजी, अमीवर्षाश्रीजी, अर्चपूर्णाश्रीजी ये 4 शिष्याएँ तथा मृद्रपूर्णाश्री, अर्हता श्रीजी, अर्पणा श्रीजी, भक्तिपूर्णाश्रीजी ये 4 प्रशिष्याएँ हैं। ज्ञान, ध्यान, जप, तप, स्वाध्याय में अग्रणी वर्धमान ओली तप की आराधिका अमितगुणाश्रीजी का संघ में महत्त्वपूर्ण योगदान है 1303 5.3.1.29 साध्वी चारूव्रताश्रीजी ( संवत् 2029 वर्तमान ) पाटणवाव (जूनागढ़) के शेठ श्री देवचंदभाई कुसुंबाबहन की पुत्री चारुव्रताजी धर्म प्रभाविका ऊर्जस्वल व्यक्तित्व की धनी साध्वी हैं। संवत् 2029 वैशाख शुक्ला 3 को हेमेन्द्रश्रीजी के पास दीक्षा ग्रहण कर ये शीघ्र ही एक विदुषी साध्वी के रूप में प्रख्यात हो गईं। मेवाड़, मध्यप्रदेश में अपने प्रभावशाली प्रवचनों से अनेकों घर 301. वही, पृ. 210 302. वही, पृ. 211 303. वही, पृ. 214-15 355 Page #418 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन श्रमणियों का बृहद इतिहास मूर्तिपूजक श्रद्धा के बनाये। 20 वर्ष की दीक्षा-पर्याय में इन्होंने 16 छ'री पालित संघ निकाला, अनेक स्थानों पर उपाश्रय, जिनालय, गुरू मंदिर आदि बनवाये। इनके पास पाँच विदुषी कन्याओं ने दीक्षा ग्रहण की-धर्मरत्नाश्री, चिद्वताश्रीजी, गीतव्रताश्रीजी, भव्यव्रताश्रीजी, नम्रव्रताश्रीजी।304 5.3.1.30 चिद्वर्षाश्रीजी - (संवत् 2031-2045) संवत् 2004 में नवसारी के श्री बाबूभाई के यहाँ आपका जन्म व संवत् 2031 माघ शुक्ला 5 नवसारी में ही दीक्षा अंगीकार की। ये श्री मृगेन्द्र श्रीजी की महान तपस्विनी शिष्या थीं। स्वजीवन में तपधर्म को ही स्थान देकर 5 वर्षीतप किये, पारणे में प्रथमवर्ष एक विगय, दूसरे वर्ष दो, तीसरे वर्ष तीन, चौथे वर्ष में चार और पाँचवें वर्ष में पाँचों विगय का त्याग कर दिया। वर्षीतप के पारणे में मासखमण, सिद्धितप फिर अठाई से तप शुरू किया अठाई का पारणा करके अठाई तथा पारणे में एक धान्य से आयंबिल, ऐसी 13 अट्ठाईयाँ पूर्ण की। 14वीं अठाई के 5वें दिन सर्वजीवों से क्षमापना करके ये समाधिपूर्वक कालधर्म को प्राप्त हुईं।305 5.3.2 आचार्य विजय प्रेमरामचन्द्रसूरिजी महाराज का श्रमणी समुदाय सम्पूर्ण जैन समाज में श्वेताम्बर मूर्तिपूजक श्रमणियों की संख्या अप्रतिम है, उनमें सर्वाधिक साध्वियाँ तपागच्छ की और उनमें भी सर्वाधिक समुदाय वर्तमान में आचार्य विजय रामचन्द्रसूरिजी का आंका गया है, सन् 2004 की चातुर्मास सूची के अनुसार इस समुदाय की साध्वियों की संख्या 873 है, जो अपने उत्कृष्ट संयमी जीवन द्वारा मानव मात्र में अहिंसा, दया, शांति व समता का संदेश दे रही हैं। अतीत से वर्तमान तक उपलब्ध इस समुदाय की श्रमणियों का विशिष्ट व्यक्तित्व एवं साधना का परिचय अग्रिम पंक्तियों में दिया जा रहा है। 5.3.2.1 श्री कल्याणश्रीजी (सं. 1968-2038 ) बड़ोदरा जिले के डभोई ग्राम के श्रीमंत श्रेष्ठी मगनभाई के यहाँ संवत् 1953 में इनका जन्म हुआ। संवत 1968 माघ कृष्णा 13 को विवाह के पश्चात् श्री चतुरजी की शिष्य बनकर ये संयम पथ पर अग्रसर हुईं। इन्होंने अपने जीवन में लगभग 165 शिष्या-प्रशिष्याओं को प्रतिबोध देकर जिनशासन की महती अभिवृद्धि की। ये स्वयं तपोमूर्ति थीं, और अनेक शिष्याओं को ज्ञान व तप के मार्ग पर बढ़ने की प्रेरणा दी। इन्होंने मासखमण, सिद्धितप, बीसस्थानक, अट्ठम व छ8 से अरिहंत सिद्धपद की आराधना, चत्तारि अटु, परदेशी राजा का तप, दीपावली तप, कर्मप्रकृति, कर्मसूदन, कषायजय, अक्षयनिधि, चौमासी, 45 आगम, रत्नपावड़ी, वर्धमान तप की 82 ओली, नवपद ओली 40, पंचमी, दशमी ग्यारस, मेरूतेरस, चैत्री पूनम, 99 यात्रा चार बार (एक आयंबिल एक छट्ठ व एक अट्ठम के साथ), 300 उपवास, 700 आयंबिल, 900 एकासणा, 2000 बियासणा आदि तपस्याओं में अपने को समर्पित कर रखा था। 86 वर्ष की उम्र में सेवाड़ी में ये स्वर्गस्थ हुईं।306 304. वही, पृ. 217 305. वही, पृ. 219 306. 'श्रमणीरत्नो', पृ. 270-72 356 Page #419 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्वेताम्बर परम्परा की श्रमणियाँ 5.3.2.2 प्रवर्तिनी श्रीदर्शनजी (सं. 1983-2022 ) अमदाबाद के वीशा श्रीमाली सेठ संकरचंद की धर्मपत्नी शणगार बहन की कुक्षि से संवत 1970 में इनका जन्म हुआ। संवत् 1983 पोष कृष्णा 5 महेसाणा में श्रीमद् विजयमेघसूरिजी के वरद हस्त से दीक्षा ग्रहण कर ये श्री दयाश्रीजी की शिष्या बनीं। बाल्यवय से ही ये ज्ञानपिपासु, धर्मरूचि से संपन्न एवं पापभीरू थीं, रसनेन्द्रिय विजेता और उत्कृष्ट त्यागी भी थीं, इनकी शीतल छाया में कई तपस्विनी, त्यागी, ज्ञानी, लेखक, कवियत्री, सेवाभाविनी, व्याख्यातृ 191 साध्वियों से अधिक साध्वियों का समुदाय हैं। संवत् 2022 अक्षय तृतीया को पाटण में पंडितमरण से इनका देहविलय हुआ। 307 5.3.2.3 प्रवर्तिनी श्री लक्ष्मीश्रीजी (सं. 1983-2021 ) संवत् 1960 जैन नगरी राजनगर में श्री वाडीलाल भाई के यहाँ इनका जन्म हुआ। एक पुत्री की माता बनने के पश्चात् पतिवियोग से वैराग्य प्राप्त कर संवत् 1983 वैशाख कृष्णा 16 को शेरीसा तीर्थ में ये दीक्षित हुईं। ये कल्याणश्रीजी की प्रशिष्या थीं तथा आशु कवयित्री के रूप में प्रसिद्ध थीं, अनेक प्रकरण ग्रंथों का अध्ययन एवं सुविशुद्ध चारित्र का पालन करने वाली थीं। इनके शिष्या प्रशिष्या परिवार की संख्या 220 तक थी। संवत् 2021 वापी में ये दिवंगत हुई 1308 5.3.2.4 प्रवर्तिनी श्री जयश्रीजी (सं. 1983 से स्वर्गस्थ ) राजनगर की पुण्यधरा पर सेठ नानालाल भाई के यहाँ जन्म लेकर इन्होंने तीव्र वैराग्यभाव से श्वसुर व पीहर पक्ष को कहे बिना ही शेरीसा तीर्थ जाकर स्वयं सं. 1983 वै. कृ. 6 को दीक्षा अंगीकर करली, ये महान जिनशासन प्रभाविका साध्वी थीं, लगभग 150 से अधिक मुमुक्ष आत्माओं को तत्त्वज्ञानामृत का पान कराया था। इनका जीवन आडम्बर रहित सादगीमय व अल्प उपधि से युक्त था, आवश्यक क्रियाओं में भी ये अप्रमत्त भाव रखती थीं। 309 5.3.2.5 प्रवर्तिनी श्री देवेन्द्र श्रीजी (सं. 1990 - स्वर्गस्थ ) प्रकृष्ट तपस्विनी प्रवर्तिनी देवेन्द्रश्रीजी का जन्म लींबड़ी संवत् 1980 कार्तिक शुक्ला 1 को माता पुरीबहेन व पिता खेतशी भाई के यहाँ हुआ । मात्र 10 वर्ष की उम्र में संवत् 1990 पोष कृष्णा 4 को अमदाबाद में आचार्य विजय सिद्धिसूरिजी ( बापजी महाराज) के वरदहस्त से दीक्षा अंगीकार ये श्री शांति श्रीजी की शिष्या बनीं। इनकी तपस्या की सूचि इस प्रकार है मासक्षमण 2, सिद्धितप 2, 20 स्थानक 4 वर्षीतप 5, (एक छट्ठ से) अट्ठाई 2, चत्तारि अट्ठ दस दोय, श्रेणितप, भद्रतप, डेढ़ मासी, समवसरण, सिंहासन, जिनगुणसंपत्ति, मेरूमंदिर, 229 छट्ट व 12 अट्ठम, 6, 5, 16 उपवास, 108 अट्ठम, धर्मचक्र तप, नवकारतप, एकांतर 500 आयंबिल, 99 जिन ओली, वर्धमान तप की 50 ओली आदि। 310 श्री देवेन्द्र श्री जी का शिष्या परिवार तालिका में देखें। 307. वही, पृ. 293-96 308. वही, पृ. 272-74 309. वही, पृ. 279 310. वही, पृ. 312-14 357 Page #420 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन श्रमणियों का बृहद इतिहास 5.3.2.6 साध्वी त्रिलोचनाश्रीजी (संवत् 1994) पाटण निवासी भोगीभाई जवेरी और बापूबहन के घर संवत् 1977 में त्रिलोचनाश्रीजी का जन्म हुआ, संवत् 1994 ज्ये. शु. 2 को श्री दर्शनश्रीजी की शिष्या के रूप में ये संयम मार्ग पर प्रस्थित हुईं। श्रुतोपासना के अतिरिक्त ये अपनी निश्रावर्ती जो भी तप के क्षयोपशमवाली साध्वियाँ होतीं; उन्हें तप की निरंतर प्रेरणा देती थीं, जिसके प्रभाव से इनके शिष्या-प्रशिष्या परिवार में प्रायः 27 श्रमणियों ने 'मासखमण' तप की आराधना की है। 5.3.2.7 श्री निरंजनाश्रीजी (सं. 2000-2034) मोदी परिवार के व्रजलाल भाई के यहाँ इनका जन्म हुआ, अपनी ज्येष्ठा भगिनी के साथ राजकोट में संवत् 2000 फा.शु. 5 को दीक्षा ली। इनकी श्रुतोपासना उल्लेखनीय है। संस्कृत, प्राकृत, काव्य, न्याय आदि की उच्चकोटि की अध्येता के साथ इन्हें 25 हजार श्लोक कंठस्थ थे। इन्होंने स्थान-स्थान पर ज्ञान भंडार खुलवाये, खुले हुए ज्ञान भंडारों को व्यवस्थित करने में भी इनका महत्वपूर्ण योगदान रहा। तपाराधना के क्षेत्र में भी प्रथम चातुर्मास में ही चौविहारी अट्ठाई की मिशाल कायम की। वर्षीतप, चौमासी, बीसस्थानक, नवपद ओली, 33, चत्तारि अट्ट आदि विविध तपस्याएं की। संवत् 2034 को 107 डिग्री ज्वर में भी 2000 गाथाओं का स्वाध्याय करती हुई स्वर्गलोक की ओर प्रस्थित हुईं।12 5.3.2.8 प्रवर्तिनी खांतिश्रीजी (संवत् 2006- स्वर्गस्थ) पिंडवाड़ा के श्रेष्ठी सरेमलजी की धर्मपत्नी केशरबाई की कुक्षि से संवत् 1962 में इनका जन्म हुआ, वीरवाड़ा के श्रेष्ठी श्री छगनलालजी के साथ सांसारिक जीवन व्यतीत करते हुए ये 3 सुपुत्रों की जननी बनीं, पतिवियोग के पश्चात् संवत् 2006 वैशाख कृष्णा 6 को ये रोहिताश्रीजी की प्रथम शिष्या के रूप में दीक्षित हुईं। ये तप, त्याग व संयम की आराधना में वृद्धावस्था में भी जागरूक थीं। 82 वर्ष की उम्र तक 3 मासखमण, 3 वर्षीतप, सिद्धितप चत्तारि., 16, 15 उपवास दो बार, अठाई 9, 10 और 11 उपवास, 13 काठिया के 13 अट्टम, 500 आयंबिल, 99 यात्रा 3 बार, वर्धमान तप की 67 ओली, नवपद ओली आदि विविध तपस्याएँ की। इनकी शिष्या श्री किरणप्रज्ञाश्रीजी तथा प्रशिष्या हर्षितप्रज्ञाश्री, लक्षितप्रज्ञाश्री हैं। वर्तमान में इनकी 70 साध्वियाँ हैं। 311. वही, पृ. 305 312. वही, पृ. 283 313. वही, पृ. 314-16 1358 For Privatr onal Use Only Page #421 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्वेताम्बर परम्परा की श्रमणियाँ 5.3.2.9 श्रीमद् विजयरामचन्द्रसूरीश्वरजी का अवशिष्ट श्रमणी समुदाय (क) श्री लक्ष्मीश्रीजी का शिष्या-प्रशिष्या परिवार 14 गुरूणी नाम दीक्षा स्थान शेरीसातीर्थ अमदाबाद सुरेन्द्रनगर लोद्रवाजी अमदाबाद राजकोट राजकोट अमदाबाद पालीताणा पालीताणा पालीताणा पालीताणा लक्ष्मीश्रीजी लक्ष्मीश्रीजी लक्ष्मीश्रीजी जयाश्रीजी चिंतामणिश्रीजी भद्रपूर्णाश्रीजी मा. शु. 6 # नई नई जयाश्रीजी जयाश्रीजी लक्ष्मीश्रीजी सुमंगलाश्रीजी लक्ष्मीश्रीजी क्रम साध्वी नाम जन्म संवत् स्थान दीक्षा संवत् तिथि 1. श्री जयाश्रीजी 1962 अमदाबाद 1983 वै.कृ. 6 2. श्री चिंतामणिश्रीजी अमदाबाद 1988 मृ.शु. 6 3. श्री झरमरश्रीजी वढवाण 1989 मा. शु. 11 श्री भद्रपूर्णाश्रीजी 1942 राजकोट 1993 म. कृ7 श्री धनप्रभाश्रीजी 1999 म. शु. 6 श्री मनोरमाश्रीजी 1982 राजकोट 2000 शु. 5 श्री निरंजनाश्रीजी 1984 - 2000 श्री वनमालाश्रीजी वांकली 2001 9. श्री चंद्रोदयश्रीजी 1983 जोरावरनगर 2002 10. श्री सुमंगलाश्रीजी मसुर 2002 11. श्री अनुपमाश्रीजी 1989 मसुर 2002 वै. शु. 11 12. श्री ऊषाप्रभाश्रीजी - पूना 2007 म. शु. 6 13. श्री लावण्यश्रीजी 14. श्री पुण्यप्रभाश्रीजी 1989 राजकोट 2008 फा. शु.10 श्रीपुण्यप्रभाश्रीजी 1990 पादरली 2008 ज्ये. शु. 5 16. श्री धर्मलताश्रीजी 1995 सुरत 2009 मा. कृ. 10 17. श्री रत्नलताश्रीजी 1989 राजकोट 2009 मा. कृ. 10 18. श्री भंद्रकराश्रीजी शाहपुर 2010 वै. शु. 11 19. श्री सूर्यप्रभाश्रीजी ववाणिया 2010 ज्ये. शु. 5 श्री मेरूकीर्तिश्रीजी लकिद 2011 वै. शु. 7 21. श्री मोक्षलताश्रीजी भुजपुर 2011 वै. शु. 7 22. श्री विमलकीर्तिश्रीजी - गाधकडा 2011 ज्ये. शु. 5 23. श्री हंसकीर्तिश्रीजी 1996 पीपलगाम 2011 ज्ये. शु. 5 24. श्री मलयकीर्तिश्रीजी भुजपुर 2011 : शु. 5 25. श्री तरूलताश्रीजी 1996 नासिक 2012 26. श्री पद्मप्रभाश्रीजी राजकोट 2012 वै. शु. 3 राजकोट मुंबई पूना पूना अमदाबाद पूना मुरबाड पूना मुंबई पीपलगाम निरंजनाश्रीजी निरंजनाश्रीजी निरंजनाश्रीजी भद्रपूर्णाश्रीजी चिंतामणीश्रीजी भद्रपूर्णाश्रीजी पुण्यप्रभाश्रीजी सूर्यप्रभाश्रीजी निरंजनाश्रीजी भद्रपूर्णाश्रीजी मोक्षलताश्रीजी निरंजनाश्रीजी निरजनाश्रीजी नासिक नासिक 314. जिनशासन नां श्रमणीरत्नो पृ. 274-77 359 Page #422 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन श्रमणियों का बृहद इतिहास नासिक पूना 2012 2012 2013 2014 2017 शंखेश्वरतीर्थ अमदाबाद राजकोट अमदाबाद अमदाबाद वै. शु. 3 वै. शु. 11 म. शु. 9 वै. कृ. 6 वै. कृ. 7 ज्ये. शु. 10 ज्ये. शु. 10 फा. शु. 3 पो. शु. 14 पो. शु. 14 मृ. शु. 6 शु. 6 शु. 2 वै. शु. 6 2019 2019 2022 2022 2022 2025 मुंबई मुरबाड सोजत मुरबाड पूना 2025 मा 2025 2026 2027 27. श्री पद्मलताश्रीजी 2000 राजकोट 28. श्री मनोगुप्ताश्रीजी 1996 बिजापुर श्री दिव्ययशाश्रीजी 1993 मसुर 30. श्री सुलोचनाश्रीजी 1992 नवागाम 31. श्री लोकयशाश्रीजी 32. श्री निर्ममाश्रीजी 1986 सांधव 33. श्री इन्दुरेखाश्रीजी 2011 सांधव 34. श्री यशोधनाश्रीजी 1996 सिहोर 35. श्री पूर्णप्रभाश्रीजी 1996 सोजत 36. श्री हंसप्रभाश्रीजी 2014 37. श्री उत्तमगुणाश्रीजी 1982 शीयाणा 38. श्री अमृतयशाश्रीजी ___2012 शीयाणा 39. श्री चन्द्रपूर्णाश्रीजी 40. श्री हितपूर्णाश्रीजी 2009 पाडीव 41. श्री पूर्णशीलाश्रीजी - मुंबई 42. श्री गुणमालाश्रीजी श्री हर्षपूर्णाश्रीजी 2006 जुनागढ 44. श्री अनंतयशाश्रीजी 2005 खंभात 45. श्री अक्षययशाश्रीजी 2008 मुंबई 46. श्री दिव्यप्रेक्षाश्रीजी 47. श्री कीर्तिमालाश्रीजी 48. श्री नयप्रज्ञाश्रीजी 49. श्री प्रियंवदाश्रीजी 2005 भीनमाल 50. श्री चन्द्रमालाश्रीजी 2015 शीयाणा 51. श्री चारूदयाश्रीजी 1999 मोरबी 52. श्री मुक्तिप्रभाश्रीजी - धारगणी 53. श्री नयशीलाश्रीजी 2022 महेसाणा 54. श्री धर्मशीलाश्रीजी 2008 पाडीव 55. श्री उत्तमयशाश्रीजी 2011 मसुर 56. श्री सुयशप्रभाश्रीजी मुंबई 57. श्री धर्मपूर्णाश्रीजी महेसणा म. श. मृ. शु. 5 पूना खंभात पालीताणा मुंबई नासिक मुंबई खंभात खंभात 2027 2027 निरंजनाश्रीजी निरंजनाश्रीजी निरंजनाश्रीजी निरंजनाश्रीजी अनुपमाश्रीजी लक्ष्मीश्रीजी निर्ममाश्रीजी पुण्यप्रभाश्रीजी जयाश्रीजी पूर्णप्रभाश्रीजी अनुपमाश्रीजी उत्तमगुणाश्रीजी चिंतामणीश्रीजी जयाश्रीजी निंजनाश्रीजी सुलांचनाश्रीजी मेरूकीर्तिश्रीजी तरूलताश्रीजी अनंतयशाश्रीजी मोक्षलताश्रीजी विमलकीर्तिश्रीजी दिव्यप्रज्ञाश्रीजी धर्मलताश्रीजी वनमालाश्रीजी चन्द्रोदयाश्रीजी पुण्यप्रभाश्रीजी उत्तमगुणाश्रीजी जयाश्रीजी जयाश्रीजी पुण्यप्रभाश्रीजी अनुपमाश्रीजी 2028 2028 खंभात 2028 2028 2028 2028 2029 2029 2029 2030 2030 2030 2030 2031 खंभात खंभात नासिक मुंबई मुंबई मुंबई मा. कृ. 9 ज्ये. शु. 13 म. शु. 2 पो. कृ. 6 फा. कृ. 10 वै. शु. 3 वै. शु. 3 वै. शु. 3 वै. शु. 3 पो. कृ. 10 पूना पूना पूना मुंबई मुंबई 360 Page #423 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नासिक मुंबई मुंबई ___ मुंबई WN - पूना 2032 पूना पूना जो अमलनेर नाश्रीजी मुंबई । मुंबई मुंबई नम् मुंबई श्वेताम्बर परम्परा की श्रमणियाँ 58. श्री अनंतकीर्तिश्रीजी - वावडी 2031 चै. कृ. 1 59. श्री जयलताश्रीजी 1991 सादडी 2031 आषा. शु. 9 60. श्री मदनरेखाश्रीजी 2020 सादडी 2031 आषा. शु. 9 61. श्री ललितरेखाश्रीजी 2022 सादडी 2031 आषा. शु. 9 62. श्री हितयशाश्रीजी 2013 मुंबई 2032 का. शु. 10 63. श्री सौम्यकीर्तिश्रीजी का शु. 10 64. श्री सौम्यदर्शनाश्रीजी 2032 ___ ज्ये. कृ. 7 श्री हेमरत्नाश्रीजी 2012 नासिक 2033 मा. शु. 13 श्री गुणरत्नाश्रीजी ___ 2014 नासिक - - 67. श्री धर्मरत्नाश्रीजी 2015 - 68. श्री तत्त्वरत्नाश्रीजी 2012 आंबा 2033 शु. 13 69. श्री हर्षवर्धनाश्रीजी 2033 70. श्री मतिरत्नाश्रीजी 2020 2033 वै. शु. 13 71. श्री रम्यकीर्तिश्रीजी डुबशी(राज.) 2034 ___ मा. शु. 13 72. श्री विरतीगुणाश्रीजी 2015 - 2035 मृ. शु.5 73. श्री जितमोहाश्रीजी 1999 मांडवी(कच्छ)2035 फा. शु. 10 74. श्री तपोरत्नाश्रीजी 2035 फा. शु. 10 75. श्री प्रशांतरसाश्रीजी खर्डी 2035 फा. शु. 10 76. श्री बोधिरत्नाश्रीजी 2019 खर्डी 2035 वै. शु. 6 77. श्री मोक्षरत्नाजी 2011 फागणा 2035 वै. शु. 6 78. श्री निरागरेखाश्रीजी 2011 सूरत 2037 फा. शु. 4 79. श्री ज्योतिमालाश्रीजी 2016 शीयाणा 2037 वै. शु. 6 80. श्री अनुपमयशाश्रीजी 2039 का. कृ. 11 81. श्री पूर्णदर्शनाश्रीजी वै. शु. 2 82. श्री विरागहंसाश्रीजी पो. कृ. 6 श्री तत्त्वरमाश्रीजी ज्ये. शु. 6 श्री सिद्धान्तरसाश्रीजी 2040 वै. शु. 5 85. श्री चिद्गुणाश्रीजी 2040 वै. कृ. 1 86. श्री परमहिताश्रीजी 2041 वै. शु. 4 87. श्री दिव्यगिराश्रीजी 2041 वै. शु. 4 88. श्री प्रशमरसाश्रीजी 2041 वै. शु. 4 1361 मुंबई नलेगाम खंभात सुरेन्द्रनगर सुरेन्द्रनगर सुरेन्द्रनगर पीडवाड़ा पीडवाड़ा शंखेश्वरतीर्थ भीलडियाजी विमलकीर्तिश्रीजी पुष्पलताश्रीजी जयलताश्रीजी जयलताश्रीजी अक्षयशाश्रीजी विमलकीर्तिश्रीजी हंसकीर्तिश्रीजी हंसकीर्तिश्रीजी हंसकीर्तिश्रीजी हंसकीर्तिश्रीजी पुण्यप्रभाश्रीजी विमलकीर्तिश्रीजी गुणमालाश्रीजी मेरूकीर्तिश्रीजी रत्नलताश्रीजी जयाश्रीजी विमलकीर्तिश्रीजी मेरूकीर्तिश्रीजी हंसकीर्तिश्रीजी हंसकीर्तिश्रीजी इन्दुरेखाश्रीजी चंद्रमालाश्रीजी तरूलताश्रीजी जयाश्रीजी हंसप्रभाश्रीजी सुलोचनाश्रीजी इन्दुरेखाश्रीजी जयाश्रीजी वनमालाश्रीजी इंदुरेखाश्रीजी परमहिताश्रीजी पाटण अमदाबाद बर्लुट हस्तगिरि करजण पालीताणा खंभात खंभात खंभात Page #424 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन श्रमणियों का बृहद इतिहास खंभात अमदाबाद मुंबई मुंबई मुंबई मुंबई 2041 वै. शु. 4 2042 मृ. शु. 3 2043 पो. कृ. 6 2043 कृ. 6 2043 पो. कृ. 6 2043 2043 ___पो. कृ. 6 2043 पो. कृ. 6 2043 पो. कृ. 6 2043 ज्ये. शु. 10 2044 का. कृ. 6 2044 मा. कृ. 4 2044 मा. कृ. 4 2044 मा. कृ. 4 मुंबई मुंबई मुंबई परमहिताश्रीजी यशोधनाश्रीजी तरूलताश्रीजी तरूलताश्रीजी स्वयंप्रभाश्रीजी इंदुरेखाश्रीजी मेरूकीर्तिश्रीजी सुयशप्रभाश्रीजी पुण्यप्रभाश्रीजी इंदुरेखाश्रीजी पुण्यप्रभाश्रीजी पद्मलताश्रीजी धर्मशीलाश्रीजी हितपूर्णाश्रीजी हंसकीर्तिश्रीजी मुंबई मुंबई जामनगर - - दावणगिरे मुंबई मुंबई 89. श्री संवेगपूर्णाश्रीजी 90. श्री अनंतदर्शनाश्रीजी 91. श्री जिनयशाश्रीजी 92. श्री हितकांक्षाश्रीजी 93. श्री भाग्यपूर्णाश्रीजी 94. श्री मधुरगिराश्रीजी 95. श्री तत्त्वरसाश्रीजी 96. श्री अमृतरसाश्रीजी 97. श्री सम्यग्दर्शनाश्रीजी 98. श्री जितकर्माश्रीजी 99. श्री पुण्यरसाश्रीजी 100. श्री तत्त्वदर्शिताश्रीजी ____ 2025 101. श्री चारित्रपूर्णाश्रीजी 2022 102. श्री पूर्णसौम्याश्रीजी 2024 103. श्री जिनरक्षिताश्रीजी 104. श्री हितरक्षाश्रीजी 105. श्री संवरगुणाश्रीजी 106. श्री भावितधर्माश्रीजी 2014 107. श्री अपूर्वश्रेयाश्रीजी 2024 108. श्री मुक्तिरसाश्रीजी 2026 109. श्री कल्याणप्रियाश्रीजी - 110. श्री मुक्तिप्रज्ञाश्रीजी - 111. श्री हितप्रियाश्रीजी 112. श्री जिनदर्शनाश्रीजी 113. श्री सुवर्णलताश्रीजी 114. श्री संयमलताश्रीजी 115. श्री शासनलताश्रीजी 116. श्री निर्वेदलताश्रीजी 117 श्री चन्द्रप्रज्ञाश्रीजी 118. श्री सूर्यप्रज्ञाश्रीजी 119. श्री श्रुतरत्नाश्रीजी 120. श्री जयप्रदाश्रीजी नासिक नासिक नासिक खर्डी 2045 2045 2045 2045 2046 2046 वै. शु. 5 वै. शु. 5 वै. शु. 5 वै. शु. 5 मा. शु. 5 मा. शु. 13 हस्तगिरि हस्तगिरि हस्तगिरि हस्तगिरि पालीताणा खेडब्रह्मा जयाश्रीजी अनंतकीर्तिश्रीजी हंसकीर्तिश्रीजी भावितधर्माश्रीजी हंसकीर्तिश्रीजी चंद्रप्रज्ञाश्रीजी जयाश्रीजी मदनरेखाश्रीजी F - । । । । । । खेडब्रह्मा खेडब्रह्मा खेडब्रह्मा फा. शु. 3 फा. शु. 3 धर्मलताश्रीजी नयप्रज्ञाश्रीजी चंद्रप्रज्ञाश्रीजी दिव्ययशाश्रीजी 2038 खेडब्रह्मा 362 Page #425 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्वेताम्बर परम्परा की श्रमणियाँ (ख) श्री विद्याश्रीजी का शिष्या-प्रशिष्या परिवार 15 दीक्षा स्थान गुरूणी नाम अमदाबाद अमदाबाद अमदाबाद अमदाबाद अमदाबाद अमदाबाद अमदाबाद जामनगर चेला श्री वसंतश्रीजी विद्याश्रीजी विद्याश्रीजी विद्याश्रीजी विद्याश्रीजी कांताश्रीजी विद्याश्रीजी रत्नप्रभाश्रीजी सुभद्राश्रीजी चन्द्रप्रभाश्रीजी रत्नप्रभाश्रीजी चन्द्रप्रभाश्रीजी हर्षप्रभाश्रीजी परमप्रभाश्रीजी परमप्रभाश्रीजी परमप्रभाश्रीजी परमप्रभाश्रीजी स्वयंप्रभाश्रीजी परमप्रभाश्रीजी तत्त्वप्रज्ञाश्रीजी पूना क्रम साध्वी नाम जन्म संवत् स्थान दीक्षा संवत् तिथि 1. श्री विद्याश्रीजी 1983 2. श्री सुभद्राश्रीजी अमदाबाद 1988 आ. शु. 10 श्री कांताश्रीजी अमदाबाद 1988 मा. शु. 6 4. श्री रंजनाश्रीजी अमदाबाद 1988 मा. कृ. 3 5. श्री सुदर्शनाश्रीजी अमदाबाद 1989 - 6. श्री गीर्वाणश्रीजी अमदाबाद 1988 - 7. श्री रत्नप्रभाश्रीजी 1999 ज्ये. शु. 13 8. श्री चन्द्रप्रभाश्रीजी बीजापुर , 2001 अषा. शु. 6 9. श्री सुव्रताश्रीजी 1978 खेड़ा 2003 आषा.शु. 10 10. श्री मणिप्रभाश्रीजी चेला-हालार 2004 पो. शु. 6 11. श्री परमप्रभाश्रीजी 1979 मुरबाड़ 2012 फा. शु. 3 12. श्री हर्षप्रभाश्रीजी 2012 का. कृ. 11 13. श्री इन्द्रप्रभाश्रीजी 2000 पूना 2012 फा. शु. 14. श्री स्वयंप्रभाश्रीजी 2003 मुरबाड़ 2012 ___फा. शु. 15. श्री सुरप्रभाश्रीजी 2005 मुरबाड़ 2012 फा. शु. 16. श्री रत्नरेखाश्रीजी 2008 मुरबाड़ 2023 वै. कृ. 1 17. श्री हर्षरेखाश्रीजी 2009 मुरबाड़ 2023 वै. कृ. 6 18. श्री धर्मयशाश्रीजी 2003 महेसाणा 2027 आषा.शु. 10 19. श्री तत्त्वप्रज्ञाश्रीजी 1995 गलथ 2028 मा. कृ.9 20. श्री रम्यगुणाश्रीजी 2018 गलथ 2028 मा. कृ. 9 21. श्री लक्ष्मणाश्रीजी श्री मयणाश्रीजी 23. श्री विनीतरत्नाश्रीजी 2033 म. शु. 13 24. श्री तत्त्वरेखाश्रीजी 2034 वै. शु. 5 25. श्री सौम्यरेखाश्रीजी . श्री मुक्तिदर्शनाश्रीजी 2035 फा. शु. 10 27. श्री दर्शनरत्नाश्रीजी 2037 म. कृ. 3 28. श्री निर्वेदरेखाश्रीजी पूना 2038 फा. शु. 4 29. श्री अक्षयदर्शनाश्रीजी पूना 2038 वै. शु. 13 पूना मंचर मुरबाड़ मुरबाड़ पूना खंभात खंभात अमलनेर अमदाबाद मणिप्रभाश्रीजी इन्द्रप्रभाश्रीजी स्वयंप्रभाश्रीजी रत्नरेखाश्रीजी सुरेन्द्रनगर वापी शंखेश्वरतीर्थ पाटड़ी हर्ष रेखाश्रीजी स्वंयप्रभाश्रीजी परमप्रभाश्रीजी 315. वही, पृ. 278 363| Page #426 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 30. श्री प्रशमपूर्णाश्रीजी 2040 वै. कृ. 1 31. श्री हितरत्नाश्रीजी 2040 वै. कृ. 1 32. श्री हितदर्शनाश्रीजी 2040 वै. कृ. 1 33. श्री हितरेखा श्रीजी 2041 फा. शु. 1 34. श्री विरतिरसाश्रीजी 2044 फा. कृ. 3 (ग) श्री दर्शनश्रीजी का शिष्या प्रशिष्या परिवार 316 क्रम साध्वी नाम 1. हंस श्रीजी 2. श्री रंजन श्रीजी 3. त्रिलोचनाश्रीजी 4. हेमप्रभाश्रीजी 5. ज्योतिप्रभाश्रीजी 6. रतिप्रभाश्रीजी 7. पद्मयशाश्रीजी 8. जयकीर्तिश्रीजी 9. पद्मकीर्तिश्रीजी 10. सूर्यमालाश्रीजी 11. गुणमाला श्रीजी 12. हर्षपूर्णाश्रीजी 13. भद्रपूर्णाश्रीजी 14. मार्गोदया श्रीजी 15. नित्योदया श्रीजी 16. सूर्य रेखाश्रीजी 17. जयरेखाश्रीजी 18. जयमालाश्रीजी 19. जयलताश्रीजी 20. इन्द्रमाला श्रीजी 21. पीयूषपूर्णाश्रीजी 22. किरणरेखाश्रीजी 23. सर्वभद्रश्रीजी 316. जिनशासन नां श्रमणीरत्नो, पृ. 297-301 दीक्षा संवत् 1989 1993 1994 1998 सावरकुंडला 2002 2002 2005 2005 2005 2007 2007 2007 2007 सावरकुंडला 2010 2010 2011 2011 2012 2012 2012 2014 2014 2015 जन्म संवत् स्थान 1973 छाणी 1974 1977 1981 1982 1991 1991 1983 1987 1992 1980 1989 1990 1991 1997 1987 1992 1995 1979 1994 खंभात 1998 1996 छाणी करांची - शिवगंज विजापुर विजापुर - 364 तिथि वै. शु. 6 चै. कृ. 2 ज्ये. शु. 2 ज्ये. शु. 2 मा. शु. 5 मा. शु. 5 मृग. शु. 4 वै. कृ. 6 वै. कृ. 6 मा. शु. 6 मा. शु. 6 वै. शु. 5 .. 10 मृ. शु. 3 मृ. शु. 3 वै. शु. 6 वै. शु. 6 चै. कृ. 4 चै. कृ. 5 वै. शु. 7 का. कृ. 6 पो. कृ. 7 पो. कृ. 13 जैन श्रमणियों का बृहद इतिहास स्वयंप्रभाश्रीजी स्वयंप्रभाश्रीजी हर्ष रेखाश्रीजी हर्ष रेखाश्रीजी हर्ष रेखाश्रीजी पालीताणा पालीताणा पालीताणा पालीताणा मुंबई दीक्षा स्थान छाणी छाणी पाटण सावरकुंडला सूरत सूरत दादर वापी वापी नडियाद नडियाद सावरकुंडला खंभात सावरकुंडला सावरकुंडला बांकानेर बांकानेर सावरकुंडला सावरकुंडला खंभात छाणी सूरत वापी गुरुणी नाम श्री दर्शन श्रीजी श्री दर्शन श्रीजी श्री दर्शन श्रीजी कीर्तिप्रभाश्रीजी दर्शनश्रीजी रंजन श्रीजी हेमप्रभाश्रीजी त्रिलोचनाश्रीजी हंसश्रीजी हेमप्रभाश्रीजी हेमप्रभाश्रीजी दर्शन श्रीजी त्रिलोचनाश्रीजी त्रिलोचनाश्रीजी त्रिलोचना श्रीजी हेमप्रभाश्रीजी हेमप्रभाश्रीजी त्रिलोचनाश्रीजी रतिप्रभाश्रीजी भद्रपूर्णाश्रीजी हंसश्रीजी दर्शन श्रीजी जयकीर्तिश्रीजी Page #427 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्वेताम्बर परम्परा की श्रमणियाँ 24. हर्ष रेखाश्रीजी 25. सूर्यकीर्तिश्रीजी 26. हर्षकीर्ति श्रीजी 27. रविचंद्राश्रीजी 28. विश्वप्रज्ञाश्रीजी 29. तत्त्वप्रज्ञाश्रीजी 30. कल्पप्रज्ञाश्रीजी 31. वीरयशाश्रीजी 32. कल्पशीलाश्रीजी 33. रत्नशीलाश्रीजी 34. निर्मलगुणाश्रीजी 35. लब्धगुणाश्रीजी 36. धैर्यगुणाश्रीजी 37. चन्द्ररत्नाश्रीजी 38. भव्यरत्नाश्रीजी 39. रम्यक्चंद्राश्रीजी 40. फाल्गुनचंद्रा श्रीजी 41. भव्यप्रज्ञाश्रीजी 42. स्मितप्रज्ञाश्रीजी 43. संवेगरसाश्रीजी 44. आत्मरसाश्रीजी 45. पुण्यरेखाश्रीजी 46. महाज्योतिश्रीजी 47. अमितज्ञाश्रीजी 48. प्रमितज्ञाश्रीजी 49, हेमज्योतिश्रीजी 50. सौम्यज्योतिश्रीजी 51. चंद्रज्योतिश्रीजी 52. प्रीतिप्रज्ञाश्रीजी 53. पुण्यदर्शनाश्रीजी 54. सम्यग्दर्शनाश्रीजी 55. आत्मदर्शनाश्रीजी 1989 1997 2001 1997 1997 1988 1971 2003 2006 2010 2000 | | 1999 2006 2001 2003 2001 1997 2004 2003 2001 2005 2007 2009 2006 2006 2015 2005 2008 2005 T 1 वापी - ।। I शिवगंज जामनगर I । । 1 मलाड ।। 2016 2017 2017 2018 2019 2019 2019 2020 2023 2023 2023 2023 2023 2023 2023 2024 2025 2025 2025 आषा. शु. 6 2025 ज्ये शु. 5 2025 ज्ये. शु. 5 2025 आषा. शु. 6 2026 2026 2026 2027 2027 2027 2027 2028 2028 2028 पो. कृ. 6 फा. कृ. 7 फा. कृ. 7 का. कृ. 11 वै. कृ. 6 वै. कृ. 6 वै. कृ.6 मा. शु. 4 मा. शु. 9 मा. शु. 9 चैत्र कृ. 2 चैत्र कृ. 2 चैत्र कृ. 2 वै. कृ. 10 वै.शु. 10 मृ. शु. 9 मृ. शु. 9 वै. क1. 7 365 मृ. शु. 3 मृ. कृ. 5 मृ. कृ. 5 मृ. शु. 9 फा. शु. 4 मृ.शु. 11 वै. कृ. 2 वै.शु. 3 वै.शु. 3 वै. शु. 5 पालीताणा दर्शन श्रीजी छाणी रंजनश्रीजी छाणी रतिप्रभाश्रीजी मांडाणी (राज.) हेमप्रभाश्रीजी सावरकुंडला त्रिलोचनाश्रीजी सावरकुंडला त्रिलोचनाश्रीजी सावरकुंडला विद्युतश्रीजी रतिप्रभाश्रीजी रविचंद्राश्रीजी जयकीर्तिश्रीजी श्रीज्योतिप्रभाश्रीजी त्रिलोचनाश्रीजी त्रिलोचना श्रीजी हर्षपूर्णाश्रीजी त्रिलोचनाश्रीजी रतिप्रभाश्रीजी वडावली वडावली सावरकुंडला सावरकुंडला सावरकुंडला वापी वापी गिरधर गिरधर अमरेली बीजापुर सावरकुंडला सावरकुंडला शिवगंज जामनगर अमदाबाद सीसोद्रा मलाड सांगली वापी वापी दादरा रम्यप्रभाश्रीजी त्रिलोचनाश्रीजी सूर्यमालाश्रीजी त्रिलोचनाश्रीजी तत्त्वप्रज्ञाश्रीजी जयरेखा श्रीजी हर्षपूर्णा रतिप्रभाश्रीजी हर्षकीर्तिश्रीजी हंसश्रीजी जयप्रज्ञाश्रीजी हर्षपूर्णाश्रीजी सूर्यमालाश्रीजी हंस श्रीजी पुण्यदर्शनाश्रीजी नित्योदया श्रीजी Page #428 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन श्रमणियों का बृहद इतिहास 2028 दादरा गएं न दादरा दादरा न 2008 - 2010 वै. शु. 7 वै. शु.6 मा. शु. 6 मा. कृ. 6 2005 वापी पानसर 2005 2016 - नएं नई नई 2011 वै. शु. 3 लुणावा वांकली मुंबई 2007 2028 2028 2028 2028 2030 2031 2031 2031 2031 2032 2032 2032 2033 2033 2039 2033 2033 2033 2033 लुणावा वांकली घाटकोपर वापी 2014 FEE . . EEEEEEEEEEE , पूना 2010 वै. शु. 11 म. शु. 5 मा. शु. 10 फा. शु. 10 मा. शु. 5 मा. शु. 5 मा. शु. 13 मा. शु. 3 शु. 13 56. तत्त्वदर्शनाश्रीजी 57. जयदर्शनाश्रीजी 58. विशुद्धदर्शनाश्रीजी 59. तत्त्वदर्शनाश्रीजी 60. कल्पदर्शनाश्रीजी 61. स्नेहवर्षाश्रीजी 62. विनीतवर्षाश्रीजी 63. ज्ञानशीलाश्रीजी 64. पीयूषरेखाश्रीजी 65. निर्मलरेखाश्रीजी 66. हितधर्माश्रीजी 67. जयधर्माश्रीजी 68. शुद्धनयाश्रीजी 69. जिनधर्माश्रीजी 70. राजधर्माश्रीजी 71. मुक्तिपूर्णाश्रीजी 72. उज्जवलज्योतिश्रीजी 73. ज्ञानरत्नाश्रीजी 74. हितप्रज्ञाश्रीजी 75. अनंतगुणाश्रीजी 76. हितपूर्णाश्रीजी 77. प्रशमचंद्राश्रीजी 78. कल्याणपूर्णाश्रीजी 79. सौम्यप्रज्ञाश्रीजी 80. भव्यदर्शनाश्रीजी 81. अनंतहर्षा श्रीजी 82. भव्यधर्माश्रीजी 83. भावोज्जवलाश्रीजी 84. धर्मवर्धनाश्रीजी 85. मुक्तिवर्धनाश्रीजी 86. दर्शनरत्नाश्रीजी 87. यशोवर्धनाश्रीजी पाटण 2012 मुंबई 2014 2016 2014 पाटण अमलनेर बैंगलोर मुंबई त्रिलोचनाश्रीजी त्रिलोचनाश्रीजी त्रिलोचनाश्रीजी रतिप्रभाश्रीजी हर्षकीर्तिश्रीजी पीयूषपूर्णाश्रीजी पीयूषपूर्णाश्रीजी रत्नशीलाश्रीजी जयरेखाश्रीजी सूर्यरेखाश्रीजी जयप्रज्ञाश्रीजी पुण्यदर्शनाश्रीजी त्रिलोचनाश्रीजी जयरेखाश्रीजी नित्योदयाश्रीजी हर्षपूर्णाश्रीजी सूर्यमालाश्रीजी त्रिलोचनाश्रीजी भव्यरत्नाश्रीजी त्रिलोचनाश्रीजी त्रिलोचनाश्रीजी फाल्गुनचंद्राश्रीजी फाल्गुनचंद्राश्रीजी प्रमितज्ञाश्रीजी सम्यग्दर्शनाश्रीजी पुण्यरेखाश्रीजी पुण्यरेखाश्रीजी पद्मकीर्तिश्रीजी भव्यप्रज्ञाश्रीजी लब्धगुणाश्रीजी ज्ञानरत्नाश्रीजी ज्ञानरत्नाश्रीजी न न 2015 मुंबई न 2014 न 2009 2033 मुंबई मुंबई मुंबई न 2010 2012 2020 2006 नई मालेगाम शिवगंज मद्रास 2022 2013 2006 2034 2034 2034 2034 2034 2035 2035 2035 2035 2035 2035 वै. श. 5 वै. शु. 5 शु. 12 वै. कृ.6 म. शु. 5 फा. शु. 3 फा. शु. 10 फा. शु. 10 वै. शु. 3 वै. शु. 3 2008 पाटण सुरेन्द्रनगर सुरेन्द्रनगर 2008 . 2013 - 366 Page #429 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्वेताम्बर परम्परा की श्रमणियाँ 88. गुणोज्जवला श्रीजी 89. सूर्योज्जवलाश्रीजी 90. शीतलदर्शनाश्रीजी 91. निर्मलदर्शनाश्रीजी 92. कौशलदर्शनाश्रीजी 93. ज्ञानरसाश्रीजी 94. धर्मरसाश्रीजी 95. बोधिरत्नाश्रीजी 96. मोक्षदर्शनाश्रीजी 97. मुक्तिदर्शनाश्रीजी 98. कल्पपूर्णाश्रीजी 99. दिव्यदर्शनाश्रीजी 100. मुक्तिदर्शिताश्रीजी 101. शासनदर्शिताश्रीजी 102. रत्नदर्शिताश्रीजी 103. वैराग्यदर्शिता श्रीजी 104. प्रशांतदर्शनाश्रीजी 105. स्मितदर्शनाश्रीजी 106. शुद्धदर्शनाश्रीजी 107. महादर्शनाश्रीजी 108. जिनरक्षिताश्रीजी 109. भक्तिपूर्णाश्रीजी 110. धर्मशीला श्रीजी 111. निर्मोहाश्रीजी 112. कीर्तिपूर्णाश्रीजी 113. जयवर्धनाश्रीजी 114. परमहर्षाश्रीजी 115 पूर्णयशाश्रीजी 116. जिनरत्नाश्रीजी 117. महारत्नाश्रीजी 118. रम्यज्योतिश्रीजी 119. चारित्रदर्शनाश्रीजी 120. राजदर्शनाश्रीजी 2006 2015 2015 2019 2019 2015 2016 2022 1983 2008 2013 2014 वागरा 2015 वागरा 2015 वागरा 2019 2026 2007 2016 2017 2020 2017 2021 2020 2014 2014 2014 2012 2012 2014 2025 2018 2021 2016 मुंबई मुंबई पालडी बनासकांठा बनासकांठा बनासकांठा शिवगंज । I 2035 2035 2036 2036 2036 2037 2037 2037 2037 2037 2037 2037 2037 2037 2037 2037 2038 2038 2038 2038 2038 2038 2038 2039 2039 2039 2039 2039 2039 2039 2040 2040 2040 367 वै.शु. 6 वै. शु. 6 वै. कृ. 2 कृ. 2 वै. कृ. 2 फा. शु. 4 फा. शु. 4 फा. शु. 4 वै. शु. 6 वै.शु. 6 वै. शु. 6 वै.शु. 6 ..6 वै. शु. 6 वै. शु. 6 वै.शु.6 मृ. शु. 5 मृ. शु. 5 मृ. शु. 5 मृ. शु. 5 का कृ. 4 मा. कृ. 6 फा. शु. 3 का. कृ. 11 chl. ch. 11 का. कृ. 11 वै. कृ. 6 वै. कृ. 5 वै. कृ. 5 वै. कृ. 5 पो. शु. 13 पो. शु. 13 पो. शु. 13 वापी वापी कोल्हापुर कोल्हापुर कोल्हापुर शंखेवर शंखेश्वर शंखेश्वर भीलडियाजी भीलडियाजी भीलडियाजी भीलडियाजी कैलाशनगर कैलाशनगर कैलाशनगर कैलाशनगर पालडी पालडी पालडी पालडी फणसा शंखेश्वर खंभात पाटण पाटण शिवगंज वापी वापी वापी हर्षरेखा श्रीजी स्नेहवर्षाश्रीजी स्मितप्रज्ञाश्रीजी स्मितप्रज्ञाश्रीजी सूर्यमालाश्रीजी मुक्तिपूर्णाश्रीजी मुक्तिपूर्णाश्रीजी भव्यरत्नाश्रीजी त्रिलोचनाश्रीजी त्रिलोचनाश्रीजी रम्यक्चंद्राश्रीजी मोक्षदर्शनाश्रीजी कीर्तिप्रभाश्रीजी मुक्तिदर्शिताश्रीजी मुक्तिदर्शिताश्रीजी शासनदर्शिताश्रीजी जयरेखाश्रीजी जयरेखाश्रीजी जयरेखाश्रीजी जयरेखाश्रीजी श्री पीयूषपूर्णाश्रीजी त्रिलोचनाश्रीजी रत्नशीलाश्रीजी भव्यरत्नाश्रीजी तत्त्वप्रज्ञाश्रीजी नित्योदया श्रीजी अनंतहर्षाश्रीजी त्रिलोचनाश्रीजी हर्षरेखाश्रीजी पद्मकीर्तिश्रीजी हेमज्योतिश्रीजी सम्यग्दर्शनाश्रीजी पुन्यदर्शनाश्रीजी Page #430 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन श्रमणियों का बृहद इतिहास 2018 2018 2015 - पाटण 2040 2040 2040 पो. शु. 13 फा. शु. 7 वै. शु. 5 वै. कृ. 1 2011 न न 2018 न न 2021 1985 2025 मुंबई 2025 2022 2018 2024 2028 121. राजनंदिताश्रीजी 122. जिनाज्ञाश्रीजी 123. मोक्षरत्नाश्रीजी 124. हितरसाश्रीजी 125. पुन्यवर्धनाश्रीजी 126. आगमरसाश्रीजी 127. विरतिरत्नाश्रीजी 128. आगमरत्नाश्रीजी 129. शीलधर्माश्रीजी 130. चारूधर्माश्रीजी 131. दिव्यज्योतिश्रीजी 132. भव्यनिधिश्रीजी 133. प्रशमरसाश्रीजी 134. मोक्षरसाश्रीजी 135. सौम्यरसाश्रीजी 136. चारित्ररत्नाश्रीजी 137. हितरत्नाश्रीजी 138. चैतन्यपूर्णाश्रीजी 139. पूर्णज्योतिश्रीजी 140. मोक्षदर्शिताश्रीजी 141. राजदर्शिताश्रीजी 142. मुक्तिदर्शिताश्रीजी 143. संवेगदर्शिताश्रीजी 144. पुण्यनिधिश्रीजी 145. श्री क्षमानिधिश्रीजी 146. जिनदर्शनाश्रीजी 147. चन्द्रदर्शनाश्रीजी 148. मुक्तिरसाश्रीजी 149. निर्वेदरसाश्रीजी 150. अध्यात्मरसाश्रीजी 151. मोक्षनिधिश्रीजी 152. जिनरसाश्रीजी 153. निर्वेदरेखाश्रीजी 2019 2020 राधनपुर मुंबई नवं नवं नवं नवं वापी कल्पदर्शनाश्रीजी पाटण जयरेखाश्रीजी हस्तगिरितीर्थ . हर्षपूर्णाश्रीजी पालीताणा त्रिलोचनाश्रीजी पालीताणा ज्योतिप्रभाश्रीजी पालीताणा कल्पपूर्णाश्रीजी पालीताणा तत्त्वप्रज्ञाश्रीजी भव्यरत्नाश्रीजी मुंबई हंसश्रीजी शीलधर्माश्रीजी बारडोली भव्यरत्नाश्रीजी महादर्शनाश्रीजी अमदाबाद सम्यग्दर्शनाश्रीजी अमदाबाद पुन्यदर्शनाश्रीजी अमदाबाद मोक्षरसाश्रीजी राधनपुर ज्ञानरसाश्रीजी राधनपुर धर्मरसाश्रीजी वापी फाल्गुनचंद्राश्रीजी पाटण सौम्यज्योतिश्रीजी अच्छारी रम्यज्योतिश्रीजी अच्छारी पद्मकीर्तिश्रीजी अच्छारी राजदर्शिताश्रीजी चारित्रदर्शनाश्रीजी पालडी पुन्यरेखाश्रीजी पालडी. शुद्धदर्शनाश्रीजी मुंबई विशुद्धदर्शनाश्रीजी भव्यदर्शनाश्रीजी लब्धगुणाश्रीजी मुंबई आत्मरसाश्रीजी भव्यदर्शनाश्रीजी पालडी जयरेखाश्रीजी भव्यरत्नाश्रीजी वांकली निर्मलरेखाश्रीजी 2015 2040 वै. कृ. 1 2040 वै. कृ. 1 2041 कृ. 10 2041 वै. शु. 4 2041 वै. शु. 4 2041 वै. कृ. 6 2042 का. कृ. 4 2042 म. शु. 2 2042 2042 2042 2042 2042 2043 2043 2043 2043 वै. शु. 6 2043 वै. शु. 6 2043 ज्ये.शु. 10 2043 ज्ये. शु. 10 2044 ___ का. कृ. 6 2044 मा. कृ. 4 2044 म. कृ. 4 2044 फा. कृ. 3 2044 फा. कृ. 3 2044 फा. कृ. 3 2044 ज्ये. शु. 2 2044 ज्ये. शु. 10 2008 2020 नवं 2024 2025 2024 अच्छारी पालडी 2022 2024 2019 मुंबई मुंबई 2023 2016 मुंबई 2021 पालडी वांकली 368 Page #431 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्वेताम्बर परम्परा की श्रमणियाँ कैलासनगर 2021 2024 2024 2021 2044 2044 2044 2045 2045 2045 2045 2023 वापी 2014 2014 2025 2030 1983 शिवगंज सुरत ज्ये. शु. 10 ज्ये. शु. 2 ज्ये. शु.2 का. कृ. 4 पो. कृ. 5 पो. कृ. 5 पो. कृ. 10 पो. कृ. 10 पो. कृ. 10 मा. शु. 5 मा. शु. 10 वै. शु. 2 वै. शु. 2 आषा. शु. 6 मा. कृ.5 फा. शु. 11 चै. कृ. 6 2021 154. मोक्षदर्शिताश्रीजी 155. विरागरसाश्रीजी 156. अक्षयरसाश्रीजी 157. प्रशमरत्नाश्रीजी 158. उदयचंद्राश्रीजी 159. संवेगवर्धनाश्रीजी 160. आगमप्रज्ञाश्रीजी 161. विरागदर्शनाश्रीजी 162. संवेगदर्शनाश्रीजी 163. आत्मरसाश्रीजी 164. प्रशमपूर्णाश्रीजी 165. कल्याणदर्शनाश्रीजी 166. कैवल्यरत्नाश्रीजी . 167. वैराग्यनिधिश्रीजी 168. लक्षनिधिश्रीजी 169. प्रियश्रेयाश्रीजी 170. दिव्यरत्नाश्रीजी 171. कुलवर्धनाश्रीजी 172. स्मितवर्षिताश्रीजी 173. श्रुतवर्षिताश्रीजी 174. सौम्यवर्षिताश्रीजी 175. अध्यात्मरेखाश्रीजी 176. प्रशमनिधिश्रीजी 177. उपशमरेखाश्रीजी 178. संवेगरेखाश्रीजी 179. सौम्यनिधिश्रीजी 2028 2045 2045 2045 2045 2045 2046 2046 2046 2046 गोल शासनदर्शिताश्रीजी बोधिरत्नाश्रीजी बोधिरत्नाश्रीजी भव्यरत्नाश्रीजी जामनगर रविचंद्राश्रीजी पुन्यदर्शनाश्रीजी हितपूर्णाश्रीजी सुरत ज्ञानरसाश्रीजी विरागदर्शनाश्रीजी वरकाणातीर्थ कीर्तिप्रभाश्रीजी गधार मुक्तिदर्शनाश्रीजी हस्तगिरि सम्यग्दर्शनाश्रीजी हस्तगिरि त्रिलोचनाश्रीजी पालीताणा निर्मोहाश्रीजी पालडी जयरेखाश्रीजी डेंलीया (सौं.) सूर्यमालाश्रीजी राधनपुर हितरत्नाश्रीजी रतिप्रभाश्रीजी सूर्यमालाश्रीजी स्मितप्रज्ञाश्रीजी स्मितप्रज्ञाश्रीजी खीवाणदी नवाडीसा पालीताणा निर्मलरेखाश्रीजी पालीताणा निर्मलरेखाश्रीजी शिवगंज परमहर्षाश्रीजी 2025 पालडी 2022 2027 2024 2048 2048 2048 2048 - ___ मुंबई पालडी रतलाम 2025 रतलाम शिवगंज 2049 चै. कृ. 9 5.3.3 आचार्य श्री विजय प्रेम-भुवनभानु सूरीश्वरजी का श्रमणी-समुदायः । आचार्य श्री विजयप्रेमसूरिजी महाराज का विशाल श्रमणी समुदाय उनके स्वर्गवास के पश्चात् सन् 1990 तक आचार्य प्रेम-रामचन्द्रसूरीश्वरजी के साथ सम्मिलित था, उसके पश्चात् विगत 14 वर्षों में इस समुदाय में 315 साधु-साध्वियों की अभिवृद्धि हुई। इस समुदाय के वर्तमान संघनायक आचार्य विजय जयघोषसूरीश्वरजी हैं, इनकी आज्ञा में कुल 384 साध्वियाँ विचरण कर रही हैं। इनमें 191 साध्वियाँ आचार्य विजयराजेन्द्रसूरिजी की तथा 181 369 Page #432 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन श्रमणियों का बृहद इतिहास साध्वियाँ आचार्य जितेन्द्रसूरीश्वरजी की हैं। विजय राजेन्द्रसूरिजी के समुदाय में प्रवर्तिनी श्री रंजनश्रीजी, श्री रोहिणाश्रीजी, श्री रोहिताश्रीजी, श्री इन्द्रश्रीजी आदि समर्थ, विदुषी एवं तपस्विनी साध्वियाँ हुई हैं, जिनका विशाल श्रमणी परिवार ज्ञान-ध्यान, उत्तम चारित्र और विशिष्ट गुणों के कारण अपना अलग ही महत्त्व रखता है, उन श्रमणियों की उपलब्ध जीवन गाथाएँ इस प्रकार हैं - 5.3.3.1 प्रवर्तिनी रंजनश्रीजी (संवत् 1985-2045) स्तम्भनपुरतीर्थ में दलपतभाई के यहाँ संवत् 1970 में इनका जन्म हुआ। दीक्षा की आज्ञा में बाधा उपस्थित होने पर ये स्वयं गुप्त रीति से सकरपुर तीर्थ में संवत् 1985 माघ शुक्ला 5 चिन्तामणि पार्श्वनाथ के सम्मुख साध्वी वेष धारण कर प्रवर्तिनी चन्द्रश्रीजी की शिष्या बनीं इन्होंने अपने जीवन में ज्ञान-भक्ति व तप तीनों की विशिष्ट रूप से उपासना की थी। 8 शिष्या और 46 प्रशिष्या परिवार की ये प्रवर्तिनी थीं। प्रवर्तिनी रोहिताश्रीजी, इन्द्रश्रीजी आदि इनकी विदुषी शिष्याएँ हैं। संवत् 2045 में ये स्वर्गस्थ हुईं।17 5.3.3.2 प्रवर्तिनी इन्द्र श्रीजी (संवत् 1995- ) _स्तंभनपुर के धर्मिष्ठ सुश्रावक वाडीलाल तथा परशनबहन की सुपुत्री इन्द्रश्री वैराग्य से ओतप्रोत होकर श्री रंजनश्रीजी की शिष्या के रूप में दीक्षित हुई। समता, क्षमता व समाधि इनके जीवन का मूलमंत्र है। विशाल श्रमणी संघी की प्रवर्तिनी होकर भी निस्पृहता और निरभिमानता में ये अद्भुत हैं।18 5.3.3.3 .प्रवर्तिनी रोहिणाश्रीजी (संवत् 2002-44) स्तंभनपुरतीर्थ के श्रेष्ठी नगीनदासभाई व मणिबहन के यहाँ संवत् 1970 में इनका जन्म हुआ। 14 वर्ष की लघुवय में विवाह होने पर 10 मास में ही ये पति की मृत्यु के पश्चात् संसार से विरक्त हो गईं। किंतु विरोध के वात्याचक्र का सामना करते-2 बत्तीस वर्ष की उम्र में स्वजनों से आज्ञा प्राप्त हुई, पश्चात् संवत् 2002 वैशाख कृष्णा 10 के दिन प्रव्रज्या अंगीकार कर श्री कल्याणश्रीजी की शिष्या बनीं। उल्लेखनीय विशेषता रही कि इन्होंने 42 वर्ष संयम पाला और 42 मुमुक्षु बालाओं को श्रमणी दीक्षा प्रदान कर जिनशासन को अर्पित किया। इनका साहस व संकल्प बल इतना मजबूत था कि एकबार तपाराधना करते हुए 62 वर्ष की उम्र में 8 मास में 3 हजार कि. मी. की पदयात्रा की। संवत् 2044 को अमलनेर में ये स्वर्गस्थ हुईं।19 5.3.3.4 प्रवर्तिनी रोहिताश्रीजी (संवत् 2002- स्वर्गस्थ) अमदाबाद की पुण्य धरा पर जन्मी रोहिताश्रीजी बचपन में ही माता, पिता और रि पति का वियोग देखकर संसार से विरक्त हो गईं, संवत् 2002 वैशाख शुक्ला 11 के शुभ दिन बड़ोदरा में श्री कल्याणश्रीजी की शिष्या बनकर निष्कंटक ज्ञान एवं साधना में प्रगति करती गईं। स्वभाव की भद्रिकता सरलता व आत्म साधना में 317. 'श्रमणीरत्नो' पृ. 333 318. वही, पृ. 337-38 319. वही, पृ. 339 370 370 Page #433 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्वेताम्बर परम्परा की श्रमणियाँ तल्लीनता आदि गुणों से आकृष्ट होकर अनेक भव्यात्माएं प्रेरणा प्राप्त कर प्रव्रज्या के पावन पथ पर गतिशील बनीं। वर्तमान में इनकी 60 से अधिक शिष्या-प्रशिष्या वृंद हैं।320 5.2.3.5 श्री विनयप्रभाश्रीजी (संवत् 2007-स्वर्गस्थ) माता मणिबहेन व पिता मोहनभाई की सुपुत्री विनयप्रभाश्रीजी ने वैधव्य के पश्चात् संवत् 2007 मृगशिर शुक्ला 5 के शुभदिन दीक्षा अंगीकार की और श्री रंजनश्रीजी की शिष्या बनीं। अपने संयम, तप विनय, वैराग्य से इन्होंने प्रत्येक साध्वियों का दिल जीता। मनोबल इतना मजबूत था कि 68 वर्ष की उम्र में 8 मास में तीन हजार कि. मी. की पदयात्रा तपस्या के साथ की तथा दूर-2 विचरण कर अनेक भव्यात्माओं के आत्मोद्धार में प्रेरक निमित्त बनीं।321 5.3.3.6 श्री शशिप्रभाश्रीजी ( - 2045) शशिप्रभाजी के पिता का नाम मणिलाल व माता का नाम डाहीबहेन था, प्रवर्तिनी रंजनाश्रीजी के पास दीक्षा ग्रहण की। गुरू भक्ति इनकी बेजोड़ थी। कई वर्ष गुरूणी की सेवा में खंभात रहीं, वहीं संवत् 2045 कार्तिक शुक्ला 9 के दिन स्वर्गवासिनी हुईं।322 5.3.3.7 प्रवर्तिनी श्री बसंतप्रभाजी (संवत् 2011 से वर्तमान) आपका जन्म संवत् 1992 में खंभात में हुआ, नाम रखा 'विजया'। माता-पिता ने आपकी सगाई खंभात में ही कर दी, इसी बीच उपधान तप की माला पहनते हुए आपने ब्रह्मचर्य का प्रत्याख्यान कर लिया। जबर्दस्ती से विवाह संबंध कर श्वसुर गृह में आये, पर ब्रह्मचर्यव्रत नहीं छोड़ा। डेढ़ वर्ष की कठिन तपस्या के पश्चात् पति की आज्ञा लेकर संवत् 2011 में रंजनश्रीजी के पास दीक्षा अंगीकार की। दीक्षा के पश्चात् आपने मासखमण, वर्षीतप, अठाई, वर्धमान तप की ओली आदि तपाराधना के साथ-जैनधर्म व दर्शन का गहन अध्ययन किया। जहाँ-जहाँ साधुओं का विचरण अल्प होता है ऐसे क्षेत्रों में जाकर आपने धर्म-प्रभावना की। अनेक नूतन जिनालयों का निर्माण, जीर्णोद्धार, अंजनशलाका आदि शासन प्रभावना के कार्य किये। आपकी 21 शिष्याएँ बनीं।23 5.3.3.8 श्री विनीताश्रीजी (संवत् 2012-स्वर्गस्थ) सौराष्ट्र के मूली ग्राम निवासी परसोत्तमभाई व विमलाबहेन के घर संवत् 1988 में इन्होंने जन्म लिया, विवाह के पश्चात् वैधव्य से इनकी जीवन दिशा परिवर्तित हुई और राणपुर में संवत् 2012 वैशाख शुक्ला 7 को श्री रोहिणाश्रीजी के पास दीक्षा अंगीकार की। दीक्षा से पूर्व जहां ये पोरूषी का प्रत्याख्यान भी नहीं कर सकती थीं वही अपनी दृढ़ इच्छाशक्ति से वर्धमान तप की 63 ओली पूर्ण कर चुकी हैं, एकांतर 1051 आयंबिल किये इस 320. वही, पृ. 335-36 321. वही, पृ. 342-43 322. वही, पृ. 345 323. वही, पृ. 345 371 Page #434 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन श्रमणियों का बृहद इतिहास प्रकार जिनशासन में तप की ध्वजा लहराने के साथ अपने परिवार से पाँच आत्माओं के संयम की प्रेरिका भी रहीं। इनकी तीन शिष्या व एक प्रशिष्या है। 324 5.3.3.9 साध्वी अनंतकीर्तिश्रीजी ( संवत् 2026 से वर्तमान) अमलनेर के कोठारी कुल में समुत्पन्न श्री अनंतकीर्तिश्रीजी ने संवत् 2026 में दीक्षा ली। दीक्षा लेते ही आप दो शिष्याओं की गुरणी बन गई। दीक्षा के सात वर्ष बाद अमलनेर में एक साथ होने वाली 26दीक्षाओं में आपके पास शिष्याओं की वृद्धि होती गई। दक्षिण भारत में आपने युवतियों में धर्म जागृति हितार्थ कई भव्य शिविर आयोजित किये, उनमें हजार - बारहसौ की संख्या हो जाती। आपकी नेतृत्व कुशलता, संयमनिष्ठता, निरभिमानता वर्णनीय है। 325 5.3.3.10 श्री हेमरत्नाश्रीजी ( संवत् 2026-48 ) उच्चकोटि की साधिका श्री हेमरत्नाश्रीजी अमलनेर में संवत् 2010 के दिन जन्मी और संवत् 2026 वैशाख शुक्ला 6 के दिन संयम स्वीकार कर श्री अनंतकीर्तिश्रीजी की शिष्या बनीं। अपनी व्युत्पन्न मेधा से इन्होंने संस्कृत - प्राकृत, न्याय, व्याकरण ज्योतिष, कम्मपयडि जैसे आकर ग्रंथों का गंभीर अध्ययन किया। सौम्यता, सहृदयता सहनशीलता को जीवन में चरितार्थ कर मद्रास में संवत् 2048 के दिन महाप्रयाण कर दिया । 326 5.3.3.11 श्री चन्द्रयशाश्रीजी अहमदनगर जिले केडग्राम वासी शेठ सूरजमलजी इनके पिता थे, वहीं के गर्भश्रीमंत धनराजजी भंडारी से इनका विवाह हुआ। आचार्य श्री विजय यशोदेवसूरिजी की वाणी से उबुद्ध दोनों पति-पत्नी दीक्षित हुए। चन्द्रयशाजी श्री निर्मलाश्रीजी की शिष्या बनीं। इनके सचोट उपदेशों से अहमदनगर जिनालय का पुनरोद्धार, 24 देरीओं के भव्य जिनालय का निर्माण हुआ। संवत् 2044 से ये पूना में विराजमान हैं। इनकी शिष्याएँ श्री चारूयशाजी, चारूधर्माश्रीजी, चारूप्रज्ञाश्रीजी, विमलयशाश्रीजी, कमलयशाश्रीजी, चंद्रशीलाश्रीजी, निरूयशाश्रीजी तथा प्रशिष्या चरणयशाश्रीजी हैं। 327 5.3.3.12 प्रवर्तिनी श्री रंजनश्रीजी के परिवार की श्रमणियाँ 1 328 क्रम साध्वी नाम दीक्षा संवत् तिथि 1. श्री विनयप्रभाश्रीजी 325. वही, पृ. 348-49 325. वही, पृ. 349-52 326. वही, पृ. 353-55 2. 327. वही, पृ. 355-56 328. जिनशासन नां श्रमणीरत्नों; पृ. 875 2007 मृ. शु. 5 372 गुरुणी नाम श्री रंजन श्रीजी श्री रंजन श्रीजी Page #435 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्वेताम्बर परम्परा की श्रमणियाँ श्री स्वयंप्रभाश्रीजी श्री प्रियंवदाश्रीजी श्री विश्वप्रभाश्रीजी श्री सूर्ययशाश्रीजी श्री सुशीलयशाश्रीजी श्री यशोधनाश्रीजी 3. 4. 5. 6. N 7. 8. 9. 10. श्री इन्द्रयशाश्रीजी 11. श्री देवानंदाश्रीजी 12. श्री गुणमाला श्रीजी 13. श्री तत्त्वप्रज्ञाश्रीजी श्री कल्याणपुण्याश्रीजी 14. श्री सुवर्णप्रभाश्रीजी 15. श्री जयमंगलाश्रीजी 16. श्री जितेन्द्र श्रीजी 17. श्री सुमंगलाश्रीजी 18. श्री दिव्ययशाश्रीजी 19. श्री जयमाला श्रीजी 20. श्री पुन्यप्रभाश्रीजी 21. श्री दिव्यप्रभाश्रीजी 22. श्री किरणयशाश्रीजी 23. श्री संवेगरत्नाश्रीजी 24. श्री दिव्यज्योतिश्रीजी 25. श्री दर्शनरत्नाश्रीजी 26. श्री चारित्ररत्नाश्रीजी 27. श्री रम्ययशाश्रीजी 28. श्री मेरूधराश्रीजी 29. श्री मुक्तिधराश्रीजी 30. श्री आत्मदर्शनाश्रीजी 31. श्री निर्मलयशाश्रीजी 32. श्री चारित्रवर्धनाश्रीजी 33. श्री ज्योतिवर्धनाश्रीजी 34. श्री हृदयरत्नाश्रीजी 2011 2016 2019 2021 2021 2025 2025 2025 2027 2027 2027 2027 2027 2027 2027 2029 2029 2029 2029 2031 2032 2033 2033 2034 2035 2035 2035 2037 2037 2038 2038 2039 373 वै. शु. 7 मा. शु. 6 वै. शु. 6 मृ. शु. 5 मृ. शु. 5 मृ.शु. 6 मृ. शु. 9 मृ. शु. 2 पो. कृ. 6 मा. शु. 4 मा. शु. 4 मा. शु. 5 मा. शु. 5 मा. शु. 5 मा. शु. 5 वै.शु. 3 वै. शु. 3 वै.शु. 3 वै.शु. 3 मा. शु. 4 मा. शु. 5 मा. शु. 13 .. 13 मा. कृ. 11 मृ. शु. 5 वै. शु. 6 वै. शु. 6 वै. कृ. 6 वै. कृ. 6 मा. शु. 6 मा. शु. 6 वै. शु. 10 श्री इन्द्रश्रीजी श्री बसंतप्रभाश्रीजी श्री स्वयंप्रभाश्रीजी श्री वसंतप्रभाश्रीजी श्री बसंतप्रभाश्रीजी श्री रंजन श्रीजी श्री स्वयप्रभाश्रीजी श्री स्वयप्रभाश्रीजी श्री स्वयप्रभाश्रीजी श्री रंजन श्रीजी श्री स्वयंप्रभाश्रीजी श्री बसंतप्रभाश्रीजी श्री सुवर्णप्रभाश्रीजी श्री जयमंगलाश्रीजी श्री जितेन्द्र श्रीजी श्री वसंतप्रभाश्रीजी श्री स्वयंप्रभाश्रीजी श्री विश्वप्रभाश्रीजी श्री वसंतप्रभाश्रीजी श्री यशोधनाश्रीजी श्री विनयप्रभाश्रीजी श्री स्वयंप्रभाश्रीजी श्री स्वयंप्रभाश्रीजी श्री अमीप्रभाश्रीजी श्री किरणयशाश्रीजी श्री दर्शनरत्नाश्रीजी श्री मेरूधराश्रीजी श्री स्वयंप्रभाश्रीजी श्री सुशीलयशाश्रीजी श्री वसंतप्रभाश्रीजी श्री चारित्रवर्धनाश्रीजी श्री दर्शनरत्नाश्रीजी Page #436 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन श्रमणियों का बृहद इतिहास श्री सुशीलयशाश्रीजी श्री विश्वप्रभाश्रीजी श्री सूर्ययशाश्रीजी श्री सूर्ययशाश्रीजी श्री दिव्ययशाश्रीजी श्री दिव्ययशाश्रीजी श्री चैतन्ययशाश्रीजी श्री स्वयंप्रभाश्रीजी श्री हितरक्षाश्रीजी श्री विनयप्रभाश्रीजी श्री दिव्ययशाश्रीजी श्री बसंतप्रभाश्रीजी श्री हृदयरत्नाश्रीजी श्री बसंतप्रभाश्रीजी श्री स्वयंप्रभाश्रीजी 35. श्री चैतन्ययशाश्रीजी 2040 36. श्री मैत्रीवर्धनाश्रीजी 2042 पो. कृ. 6 37. श्री ज्ञानवर्धनाश्रीजी 2042 का शु. 3 38. श्री संयमवर्धनाश्रीजी 2044 मा. शु. 14 39. श्री अमितवर्धनाश्रीजी 2044 40. श्री विरलवर्धनाश्रीजी 2044 मा. शु. 14 41. श्री मांगल्यवर्धनाश्रीजी 2044 मा. शु. 14 42. श्री हितरक्षाश्रीजी 2044 43. श्री कुलरक्षाश्रीजी 2044 मा. शु. 14 44. श्री शासनरत्नाश्रीजी 2045 पो. कृ. 5 45. श्री दीपयशाश्रीजी 2046 मा. शु. 6 46. श्री भव्यगुणाश्रीजी 2047 फा. कृ. 3 47. श्री धर्मरत्नाश्रीजी 2047 वै. कृ. 7 48. श्री आदित्ययशाश्रीजी 2049 मा. शु. 5 49. श्री जिनकृपाश्रीजी 2049 वै. शु. 6 5.3.3.13 (ख) श्री रोहिणाश्रीजी के परिवार की श्रमणियाँ 29 क्रम साध्वी नाम जन्म संवत् स्थान दीक्षा संवत् तिथि 1. श्री भाग्योदयाश्रीजी - खंभात 2009 का. कृ. 9 2. श्री हर्षपूर्णाश्रीजी 2011 वै. शु. 7 विनीताश्रीजी 1989 मूली 2012 वै. शु. 7 4. कीर्तिपूर्णाश्रीजी अमदाबाद 2014 पो. शु. 7 चारूयशाश्रीजी 2016 पो. कृ. 6 6. उज्जवलधर्माश्रीजी मुंडारा 2022 का. शु. 4 7. कोटीपुण्याश्रीजी अमदाबाद 2025 का. कृ. 11 8. धर्मज्योतिश्रीजी खंभात 2025 मा. शु. 6 9. तत्त्वज्योतिश्रीजी खंभात 2025 म. शु. 6 10. अनंतकीर्तिश्रीजी अमलनेर ___ 2026 वै. शु. 6 11. रत्नकीर्तिश्रीजी वणी 2026 वै. शु. 6 12. राजरत्नाश्रीजी इटारसी 2026 वै. श. 6 दीक्षा स्थान खंभात खंभात राणपुर अमदाबाद मुंडारा अमदाबाद खंभात खंभात अमलनेर अमलनेर गुरूणी नाम श्री रोहिणाश्रीजी श्री रोहिणाश्रीजी श्री रोहिणाश्रीजी श्री रोहिणाश्रीजी श्री रोहिणाश्रीजी श्री विनीताश्रीजी श्री रोहिणाश्रीजी श्री रोहिणाश्रीजी श्री कीर्तिपूर्णाश्रीजी श्री रोहिणाश्रीजी श्री हर्षपूर्णाश्रीजी श्री अनंतकीर्तिजी 329. वही, पृ. 877 374 Page #437 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्वेताम्बर परम्परा की श्रमणियाँ 13. हेमरत्नाश्रीजी 14. जयनंदिताश्रीजी 15. तत्त्वदर्शनाश्रीजी 16. शुभदर्शनाश्रीजी 17. विनयरत्नाश्रीजी 18. मुक्तिनिलयाश्रीजी 19. कल्पज्योतिश्रीजी 20. दिव्यनिधिश्रीजी 21. दक्षनिधिश्रीजी 22. मंदिरनिधिश्रीजी 23. मधुरनिधिश्रीजी 24. सुधर्मानिधिश्री 25. कल्पनिधिश्रीजी 26. पुण्यनिधिश्रीजी 27. श्री रत्ननिधिश्रीजी 28. श्री अमितनिधिश्रीजी 29. श्री अक्षयनिधिश्रीजी 30. संवेगनिधिश्रीजी 31. कुलरत्नाश्रीजी 32. मुक्तिरत्नाश्रीजी 33. शीलवर्धनाश्रीजी 34. पीयूषपूर्णाश्रीजी 35. हंस पूर्णाश्रीजी 36. नंदीवर्धनाश्रीजी 37. जिनदर्शनाश्रीजी 38. निर्मलवर्धनाश्रीजी 39. रिद्धिनिधिश्रीजी 40. प्रशांतनिलयाश्रीजी 41. नंदीनिलयाश्रीजी 42. वैराग्यनिधिश्रीजी 43. अपूर्वनिधिश्रीजी 44. लब्धिनिधिश्रीजी 1982 अमलनेर सायला 2026 2027 2028 2028 2028 2028 2032 2032 2032 2033 2033 2033 2033 2033 2033 2033 2033 2033 2034 2034 2035 2035 2035 अमदाबाद 2035 अमदाबाद 2039 2040 2040 2041 2041 2043 2045 2046 नागपुर खंभात मुंबई खंभात अमलनेर अमलनेर खंभात खंभात अमलनेर वणी दहाड इटारसी वणी अमलनेर अमलनेर वराडीआ आंबेगाम टींबा नासिक पाटण अमलनेर राणपुर राणपुर नासिक अमलनेर नाणोटा वै. शु. 6 वै. कृ. 6 मा. कृ. 9 मा. कृ. 9 मा. कृ. 9 मा. कृ. 9 मा. शु. 5 मा. शु. 5 मा. शु. 5 मा. शु. 13 मा. शु. 13 मा. शु. 13 मा. शु. 13 मा. शु. 13 मा. शु. 13 मा. शु. 13 मा. शु. 13 मा. शु. 13 फा. शु. 14 चै. शु. 13 वै.शु. 3 .. 6 वै.शु. 6 वै.शु. 3 चै. शु. 4 का. कृ. 11 पो. कृ. 6 वै. शु. 6 का. शु. 7 मा. कृ. 5 375 अमलनेर नासिक खंभात खंभात खंभात खंभात जीरावलातीर्थ जीरावलातीर्थ खंभात खंभात अमलनेर अमलनेर अमलनेर अमलनेर अमलनेर अमलनेर अमलनेर अमलनेर मलाड टींबा टींबा मलाड अमदाबाद नवसारी अमलनेर राणपुर राणपुर भंडारदरा अमलनेर श्री अनंतकीर्तिजी श्री विनीताश्रीजी श्री रोहिणा श्रीजी श्रीतत्त्वदर्शनाश्रीजी श्री हर्षपूर्णाश्रीजी श्री तत्त्वदर्शनाश्रीजी श्री धर्मज्योतिश्रीजी श्री विनीताश्रीजी श्री दिव्यनिधिश्रीजी श्री तत्त्वज्योतिश्रीजी श्री तत्त्वज्योतिश्रीजी श्री राजरत्नाश्रीजी श्री रत्नकीर्तिश्रीजी श्री अनंतकीर्तिश्रीजी श्री सुधर्मानिधिश्रीजी श्री रत्नकीर्तिश्रीजी श्री सुधर्मनिधिश्रीजी श्री हेमरत्नाश्रीजी श्री कीर्तिपूर्णाश्रीजी श्री रोहिणा श्रीजी श्री अनंतकीर्तिश्रीजी श्रीकीर्तिपूर्णाश्रीजी श्री पीयूषपूर्णाश्रीजी श्री पीयूषपूर्णाश्रीजी श्री शीलवर्धनाश्रीजी श्री अनंतकीर्तिश्रीजी श्री नंदीवर्धनाश्रीजी श्री सुधर्मनिधिश्रीजी श्री मुक्तिनिलयाश्रीजी श्री प्रशांतनिलया श्रीजी श्री राजरत्नाश्रीजी श्री कल्पनिधिश्रीजी Page #438 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 45. संस्कारनिधि श्रीजी मुंबई 46. धृतिवर्धनाश्रीजी सुमेरपुर 5.3.3.14 श्री रोहिताश्रीजी का शिष्या - परिवार 330 क्रम साध्वी नाम जन्म संवत् स्थान दीक्षा संवत् लींबड़ी लुणी सुरेन्द्रनगर मुंबई पडवाड़ा पडवाड़ा 1. 2. 3. 4. श्री रोहिताश्रीजी श्रीपद्मसेनाश्रीजी श्री हितसेनाश्रीजी श्री महारक्षा श्रीजी 5. श्री महानंदाश्रीजी 6. श्री निर्मलगुणाश्रीजी 7. श्री विपुलगुणाश्रीजी 8. श्री अक्षितगुणाश्रीजी 9. श्री भव्यात्मा श्रीजी 10. श्री विरागरत्नाश्रीजी 11. श्री पुन्यनंदिताश्रीजी 12. श्री श्रुतरसाश्रीजी 13. श्री आगमरसाश्रीजी 14. श्री चंदनबालाश्रीजी 15. श्री दिव्यरत्नाश्रीजी 16. श्री दीप्तिरत्नाश्रीजी 17. श्री कैवल्यरत्नाश्रीजी 18. श्री निर्वेदरत्नाश्रीजी 19. श्री राजरत्नाश्रीजी 20. श्री अपूर्वरत्नाश्रीजी 21. श्री कारूण्यरत्नाश्रीजी 22. श्री भक्तिदर्शिताश्रीजी पडवाड़ा पींडवाड़ा सुरेन्द्रनगर पडवाड़ा 2020 मुंबई मुंबई झाडोली 2009 दादर 2012 मुंबई 2047 2047 2027 2035 2042 2045 वै. कृ. 5 ज्ये. शु. 11 376 तिथि वै. शु. 11 वै. शु. 7 वै. शु. 6 वै. शु. 4 वै. शु. 6 शु. 5 वै.शु. 5 वै. शु. 5 वै. शु. 3 मा. शु. 13 चै. कृ. 5 वै. शु. 3 वै. शु. 3 शु. 3 जैन श्रमणियों का बृहद इतिहास श्री अनंतकीर्तिश्रीजी श्री नंदीवर्धनाश्रीजी मद्रास मद्रास दीक्षा स्थान बडोदरा अमदाबाद सुरेन्द्रनगर पालीताणा पींडवाड़ा पींडवाड़ा पडवाड़ा पडवाड़ा सुरेन्द्रनगर पींडवाड़ा झाड़ोली झाड़ोली झाडोली अजारी मलाड वापी 5.3.4 आचार्य विजय जितेन्द्रसूरीश्वरजी की आज्ञानुवर्तिनी श्रमणियाँ सुविशाल गच्छाधिपति आचार्य श्री विजयप्रेमसूरिजी के शिष्य आचार्य विजयभुवनभानुसूरि के शिष्य मेवाड़देशोद्धारक महान तपस्वी आचार्य श्री विजयजितेन्द्रसूरि जी महाराज का मेवाड़ प्रदेश में अत्यधिक प्रभाव रहा 330. वही, पृ. 337 गुरुणी नाम श्री कल्याणश्रीजी श्री रोहिताश्रीजी श्री रोहिताश्रीजी श्री रोहिताश्रीजी श्री रोहिताश्रीजी श्री रोहिताश्रीजी श्री निर्मलगुणाश्रीजी श्री निर्मलगुणाश्रीजी श्री हितसेनाश्रीजी श्री महानंदा श्रीजी श्री रोहिताश्रीजी श्री विपुलगुणाश्रीजी श्री श्रुतरसाश्रीजी श्री रोहिताश्रीजी श्री रोहिताश्रीजी श्री दिव्यरत्नाश्रीजी श्री रोहिताश्रीजी श्री रोहिताश्रीजी श्री निर्वेदरत्नाश्रीजी श्री कैवल्यरत्नाश्रीजी श्री चंदनबालाश्रीजी श्री निर्वेदरत्नाश्रीजी Page #439 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्वेताम्बर परम्परा की श्रमणियाँ है, वर्तमान में उनकी आज्ञा में श्री पुष्पलताश्रीजी, श्री पुण्यरेखाश्रीजी का शिष्या - परिवार ज्ञान-साधना, तपाराधना व संयम में अपना विशिष्ट स्थान रखती है, उनमें मात्र तीन श्रमणियों के व्यक्तित्व की उल्लेखनीय जानकारी प्राप्त हुई है, शेष का सामान्य परिचय प्राप्त हुआ है। 5.3.4.1 श्री पुष्पलताश्रीजी ( संवत् 2008 से वर्तमान) आचार्य विजयजितेन्द्रसूरीश्वरजी महाराज की आज्ञानुवर्तिनी साध्वी श्री पुष्पलताश्रीजी उत्कृष्ट त्यागी एवं संयमी साधिका हैं। संवत् 2008 ज्येष्ठ शुक्ला 14 को सवा वर्ष के पुत्र की ममता का त्याग कर श्री निरंजना श्रीजी के पास दीक्षा अंगीकार की। दीक्षा के पश्चात् 16, 13 उपवास, 500 आयंबिल, तीन मासी तप आदि अनेक प्रकार की तपाराधना इनकी रही, इससे प्रभावित होकर कई शिक्षित युवतियाँ इनके चरणों में समर्पित हुईं। आगम, ध र्मग्रंथ, न्याय व्याकरण, ज्योतिष, कर्मग्रंथ आदि का तलस्पर्शी अध्ययन-अध्यापन कर कइयों में ज्ञानपिपासा जागृत की है। 331 5.3.4.2 श्री पुण्यरेखाश्रीजी ( संवत् 2013 से वर्तमान) लघुवय एवं लघु दीक्षापर्याय में विशाल साध्वीवृंद की संचालिका श्री पुण्यरेखा श्रीजी उच्चकोटि की विदुषी तपस्विनी साध्वी हैं। संवत् 2013 को पादरली ( राजस्थान) में श्री तिलकचंदजी के यहाँ इनका जन्म हुआ। अपने जीवन में अट्ठाई, अट्टम, बीसस्थानक आदि तपाराधना के साथ भोजन में मात्र तीन द्रव्य ग्रहण करती है। नमकीन, मिठाई फल आदि का त्याग, मौन आचरण, इस प्रकार संयम व तप-त्याग को एकमात्र जीवन का लक्ष्य बनाकर चलने वाली इन महासाध्वीजी के पास, वर्तमान में 66 शिष्या - प्रशिष्याएँ आत्माराधना में संलग्न हैं । 332 5.3.4.3 श्री गिर्वाण श्रीजी ( संवत् 2044 से वर्तमान ) भावनगर के मोहनलाल भाई की सुपुत्री साध्वी गिर्वाणश्रीजी जिनशासन की गरिमा में अभिवृद्धि करने वाली गणनीया साध्वियों में एक हैं, इन्होंने अपने परिवार के दो पुत्र, दो पुत्री एवं पति को संयम की प्रेरणा देकर दीक्षित करवाया, स्वयं ने भी श्री पुण्यरेखाश्रीजी के सान्निध्य में संवत् 2044 ज्येष्ठ शुक्ला 10 को पादरली में दीक्षा ग्रहण की। 333 5.3.4.4 श्री पुण्यरेखाश्रीजी का शिष्या परिवार 34 क्रम साध्वी नाम जन्म संवत् स्थान दीक्षा संवत् 1. नंदीरेखाश्रीजी 2033 2. सौम्यरेखाश्रीजी 2034 331. वही, पृ. 357 332. वही, पृ. 357-58 333. वही, पृ. 359 334. वही, पृ. 360-61 खीमेल तिथि ज्ये. वै. शु. 5 377 दीक्षा स्थान पादरली नाकोड़ाजी गुरुणी नाम पुण्यरेखाश्रीजी पुण्यरेखाश्रीजी Page #440 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन श्रमणियों का बृहद इतिहास पुरण 3. कीर्ति रेखाश्रीजी 4. गुणज्ञरेखाश्रीजी 5. निपुणरेखाश्रीजी 6. हेमरेखाश्रीजी 7. हर्षितरेखाश्रीजी 8. कुलरेखाश्रीजी 9. चारित्ररेखाश्रीजी 10. लावण्यरेखाश्रीजी 11. कुमुदरेखाश्रीजी 12. प्रशमरेखाश्रीजी 13. तपोरेखाश्रीजी 14. पुनितरेखाश्रीजी 15. अमितरेखाश्रीजी 16. मोक्षरेखाश्रीजी 17. पीयूषरेखाश्रीजी 18. विरागरेखाश्रीजी 19. भव्यरेखाश्रीजी 20. मुक्तिरेखाश्रीजी 21. संयमरेखाश्रीजी 22. लब्धिरेखाश्रीजी 23. विनीतरेखाश्रीजी 24. शासनरेखाश्रीजी 25. निमेषरेखाश्रीजी 26. प्रमोदरेखाश्रीजी 27. मनीषरेखाश्रीजी 28. हितेशरेखाश्रीजी 29. कारूण्यरेखाश्रीजी 30. संवररेखाश्रीजी 31. प्रीणेशरेखाश्रीजी 32. मनोज्ञरेखाश्रीजी 33. विशुद्धरेखाश्रीजी 2016 मुंबई 2035 वै. शु. 6 2018 मालवाड़ा 2035 वै. शु. 6 पुरण 2012 हैदराबाद 2035 पाडीव 2018 मुंबई 2036 पो. कृ. 5 पुरण 2016 चरली 2036 मा. कृ. 3 पुरण 2019 मुंबई 2036 मा. कृ.3 तखतगढ़ 2012 शिवगंज 2036 ता. शु. 4 शिवगंज 2018 मालवाड़ा 2037 पो. कृ. 6 पुरण 2014 मुंबई 2037 वै. शु. 13(प्र.) खंभात वडताल 2038 का. कृ. 11 वडताल पाली 2038 चै. कृ. 2 पाली 2016 मुंबई 2038 ज्ये. शु. 3 तखतगढ़ 2023 धुंबा 2039 मा. कृ. 10 धुंबा 2017 तखतगढ़ 2039 फा. शु. 7 तखतगढ़ 2017 तखतगढ़ 2039 फा. शु. 7 तखतगढ़ 2018 बापला 2039 फा. शु. 7 तखतगढ़ 2018 मनोरा 2039 फा. शु. 7 तखतगढ़ 2019 तखतगढ़ - 2039 तखतगढ़ 2020 तखतगढ़ 2039 तखतगढ़ 2022 तखतगढ़ 2039 तखतगढ़ 2024 दावणगेरे 2039 शु. 7 तखतगढ़ 2022 मनोरा 2039 फा. शु. 7 तखतगढ़ - गोल उमेदाबाद 2041 वै. कृ. 2 सुरत 2019 कलकत्ता 2041 ___ ज्ये. शु. 13 पादरली मुंबई 2041 ज्ये. शु. 13 पादरली पादरली 2042 वै. शु. 5 पादरली पाटण 2042 वै. शु. 10 - कुंघारिया ___ - वै. शु. 5 ___2030 तखतगढ़ __2044 मा. शु. 10 तखतगढ़ गोरेगाम 2044 फा. कृ. 3 जालोर - गोरेगाम 2044 फा. कृ. 3 जालोर पुण्यरेखाश्रीजी पुण्यरेखाश्रीजी पुण्यरेखाश्रीजी पुण्यरेखाश्रीजी पुण्यरेखाश्रीजी हर्षितरेखाश्रीजी पुण्यरेखाश्रीजी पुण्यरेखाश्रीजी पुण्यरेखाश्रीजी पुण्यरेखाश्रीजी पुण्यरेखाश्रीजी पुण्यरेखाश्रीजी पुण्यरेखाश्रीजी पुण्यरेखाश्रीजी पुनीतरेखाश्रीजी पुण्यरेखाश्रीजी पुण्यरेखाश्रीजी पुण्यरेखाश्रीजी पुण्यरेखाश्रीजी संयमरेखाश्रीजी पुण्यरेखाश्रीजी पुण्यरेखाश्रीजी पुण्यरेखाश्रीजी पुण्यरेखाश्रीजी पुण्यरेखाश्रीजी पुण्यरेखाश्रीजी पुण्यरेखाश्रीजी सौम्यरेखाश्रीजी नंदीरेखाश्रीजी श्री पुण्यरेखाश्रीजी श्री पुण्यरेखाश्रीजी 378 Page #441 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्वेताम्बर परम्परा की श्रमणियाँ 34. मधुररेखाश्रीजी 35. गिर्वाणरेखाश्रीजी 36. ललितांगरेखाश्रीजी 37. विरक्तरेखाश्रीजी 38. हेमंतरेखा श्रीजी 39. कल्पेशरेखा श्रीजी 40. हितज्ञरेखाश्रीजी 41. भावितरेखाश्रीजी 42. दर्शितरेखा श्रीजी 43. उज्जवलरेखा श्रीजी 44. दिव्येशरेखा श्रीजी 45. निर्मोहरेखा श्रीज 46. पावनरेखाश्रीजी 47. सिद्धान्तरेखा श्रीजी 48. परागरेखाश्रीजी 49. आगमरेखाश्रीजी 50. पद्मेशरेखा श्रीजी 51. रत्नेशरेखा श्रीजी 52. दिव्येशरेखा श्रीजी 53. रक्षितरेखाश्रीजी 54. भद्रेशरेखा श्रीजी 55. तत्त्वेशरेखा श्रीजी 56. कीर्त्तनरेखा श्रीजी 57. चिरागरेखाश्रीजी 58. अनुपमरेखाश्रीजी 59. अक्षयरेखाश्रीजी 60. विरलरेखा श्रीजी 61. हर्षरेखाश्रीजी 62. विबुधरेखाश्रीजी 63. भक्तिरेखाश्रीजी 64. ज्योतिरेखाश्रीजी 1986 1991 2018 2025 2028 2024 2020 2017 2009 2017 2018 2019 2026 2030 2020 चरली भावनगर तखतगढ़ बापला पादरली मनोरा 2013 भावनगर तखतगढ़ वडगाम रानीवाड़ा दीहोर डेंडा बापला तखतगढ़ जोधपुर तखतगढ़ मुंबई मुंबई थुंबा महुवा तखतगढ़ 2026 तखतगढ़ 2030 मुंबई 2021 धानेरा सिरोडी डा 2044 2044 2044 2044 2044 2044 2044 2044 2045 2046 2046 2046 2046 2046 2046 2046 2047 2047 2047 2047 2047 2047 2047 2047 2048 2048 2048 2049 2049 2049 2049 1379 ज्ये. शु. 10 ज्ये. शु. 10 ज्ये. शु. 10 ज्ये. शु. 10 ज्ये. शु. 10 ज्ये. शु. 10 ज्ये. शु. 10 ज्ये. शु. 10 फा. शु. 3 मृ. शु. 6 मा. कृ. 5 वै. कृ. 6 ज्ये. शु. 2 ज्ये. शु. 2 ज्ये. शु. 2 ज्ये. शु. 2 का. कृ. का. कृ. वै. कृ. 5 वै. कृ. 7 वै. कृ. 7 वै. कृ. 7 वै. कृ. 7 ज्ये. शु. 6 चै. शु. 8 वै. शु. 5 मृ. कृ. 7 फा. शु. 3 वै. शु. 7 ज्ये. शु. 4 ज्ये. कृ. 7 पादरली पादरली पादरली पादरली पादरली पादरली पादरली पादरली वड़गाम रानीवाड़ा भावनगर पाली तखतगढ़ तखतगढ़ तखतगढ़ तखतगढ़ पालनपुर पालनपुर थुंबा तखतगढ तखतगढ तखतगढ़ तखतगढ़ धानेरा सिरोडी रायपुर सिरोडी पाथावाड़ा छापी पादरू सांचोर श्री पुण्यरेखाश्रीजी श्री पुण्यरेखाश्रीजी श्री पुण्यरेखाश्रीजी श्री पुण्यरेखाश्रीजी श्री पुण्यरेखाश्रीजी श्री पुण्यरेखाश्रीजी प्रमोदरेखाश्रीजी श्री पुण्यरेखाश्रीजी श्री पुण्यरेखाश्रीजी श्री पुण्यरेखाश्रीजी प्रमोदरेखाश्रीजी गुणज्ञरेखाश्रीजी श्री पुण्यरेखाश्रीजी हर्षितरेखाश्रीजी श्री पुण्यरेखाश्रीजी सद्धान्तरेखाश्रीजी श्री पुण्यरेखाश्रीजी श्री पुण्यरेखाश्रीजी हर्षितरेखाश्रीजी हर्षितरेखाश्रीजी लब्धिरेखाश्रीजी कुलरेखाश्रीजी पुण्यरेखाश्रीजी पुण्यरेखाश्रीजी विनीतरेखाश्रीजी पुण्यरेखाश्रीजी गुणज्ञरेखाश्रीजी कुलरेखाश्रीजी हेमरेखाश्रीजी कीर्ति रेखाश्रीजी गुणज्ञरेखाश्रीजी Page #442 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 5.3.5 आचार्यश्री विजयकलापूर्णसूरिजी के समुदाय की श्रमणियाँ भारत के पश्चिम कोण में स्थित कच्छ- वागड़ की भूमि में अपने निर्मल चारित्र के प्रभाव से धर्म का बीज वपन करने वाले श्वेताम्बर मूर्तिपूजक संप्रदाय में 'कच्छ वागड़ समुदाय' के प्रवर्त्तमान गच्छाधिपति श्री विजयकलापूर्णसूरिजी थे, उनका शिष्या - समुदाय भी 'कच्छ - वागड़ श्रमणी समुदाय' के नाम से प्रसिद्धि को प्राप्त है। श्रमणियों में वागड़ को अपनी जन्मभूमि के साथ कर्मभूमि बनाने का सर्वप्रथम श्रेय महत्तरा साध्वी आनंद श्रीजी को है। ये श्वेताम्बर मूर्तिपूजक संप्रदाय में 'कच्छ - वागड़ की आद्या श्रमणी - रत्ना' के रूप में प्रतिष्ठित हैं, इनके पावन उपदेशों से सैंकड़ों विदुषी नारियाँ संयम पथ पर आरूढ़ हुईं। वर्तमान में भी इस समुदाय में 497 श्रमणियाँ हैं। कुछ श्रमणियों की उपलब्ध परिचय - रेखाएं इस प्रकार हैं 5.3.5.1 महत्तरा आणंद श्रीजी ( संवत् 1938-1993 ) कच्छ वागड़ संघाड़ा के साध्वी समुदाय की प्रथम साध्वी आणंद श्रीजी थीं। संवत् 1917 में पलांसवा (वागड़ा) की भूमि में दोशी मोतीचंद के यहाँ जन्म लेकर अपनी उत्तम ज्ञानसाधना द्वारा अनेक आत्माओं के कल्याण में ये प्रेरक निमित्त बनीं। श्रीमद् विजय कनकसूरिजी महाराज को संसार की असारता का बोध इनके उपदेशों से हुआ। इनकी प्रेरणा से संवत् 1938 मृ शु. 3 पलासवां में उन्होंने दीक्षा ग्रहण की। आपके साध्वी परिवार में वर्तमान में 497 के आसपास साध्वियाँ हैं। 335 5.3.5.2 प्रवर्तिनी चतुरश्रीजी ( संवत् 1967 - स्वर्गस्थ ) रत्नश्रीजी महाराज के समागम से आपने अपनी मातुश्री के साथ संवत् 1967 माघ शुक्ला 10 के दिन मांडवी (कच्छ) में दीक्षा ग्रहण की। अपूर्व वात्सल्य भाव से आपने 250 साध्वियों का संचालन किया। आपकी साध्वियों में कुवलयाश्रीजी, प्रभंजनाश्रीजी, नेमिप्रभाश्रीजी आदि ने वर्धमान तप की 100 ओली पूर्ण की हैं। 336 जैन श्रमणियों का बृहद इतिहास 5.3.5.3 श्री पुष्पचूलाजी ( संवत् 2001 - स्वर्गस्थ ) साध्वी पुष्पचूलाश्रीजी 16 वर्ष की उम्र में परिणय सूत्र में बंधने के बावजूद वैराग्यवासित हृदयी बनकर 29 वर्ष की उम्र में संवत् 2001 मृगशिर शुक्ला 6 को दीक्षित हुईं। दीक्षा से पूर्व ही इन्होंने 3 उपधान तप और वध 'मान तप की 11 ओली पूर्ण की व दीक्षा के 19वें वर्ष में 100 ओली संपूर्ण की, तथा पुनः वर्धमान तप की नींव डालकर संवत् 2046 में 100 ओली पूर्ण की। समग्र भारतवर्ष के साध्वी समुदाय में 200 ओली पूर्ण करने वाली पुण्यात्माओं में इनका द्वितीय स्थान है। अब तीसरी बार 27 ओली पूर्ण कर चुकी हैं। आपकी प्रशिष्या हंसकीर्तिश्रीजी ने भी 500, 1000, 1500, 1700 आयंबिल तप एवं उसमें अट्ठम तप साथ ही मासखमण आदि तप व वर्धमान तप की तीसरी ओली कर रही हैं। 37 इस समुदाय की अवशिष्ट श्रमणियों का सामान्य परिचय तालिका में दिया जा रहा है 335. 'श्रमणी रत्नो', पृ. 365-68 336. वही, पृ. 371 337. वही, पृ. 395 380 Page #443 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्वेताम्बर परम्परा की श्रमणियाँ 5.3.5.5 श्री आनंद श्रीजी का शिष्या परिवार क्रम साध्वी नाम जन्म संवत् स्थान दीक्षा संवत् श्री ज्ञान श्रीजी 1938 श्री माणेक श्रीजी 1952 1958 1965 1965 1967 1969 1969 1. 2. श्री चंदनश्रीजी श्री सुमतिश्रीजी श्री चंपाश्रीजी 6. श्री मुक्ति श्रीजी 7. श्री नीतिश्रीजी 8. श्री लाभश्रीजी 9. श्री चारित्र श्रीजी 10. श्री न्यायश्रीजी 11. श्री नंदन श्रीजी 12. श्री विवेक श्रीजी 13. श्री दौलत श्रीजी 14. श्री हेमश्रीजी 15. श्री विमल श्रीजी 16. श्री रेवती श्रीजी 17. श्री सुव्रताश्रीजी 18. श्री हिरण्यश्रीजी 20. श्री अरूण श्रीजी 21. श्री महिमाश्रीजी 22. श्री रक्षिताश्रीजी 23. श्री निर्मलाश्रीजी 24. श्री निरंजनाश्रीजी 25. श्री सुनंदाश्रीजी 26. श्री भुवनश्रीजी 27. श्री चंद्रयशाश्रीजी 28. श्री सरस्वती श्रीजी 29. श्री दिव्यश्रीजी 30. श्री नर्मदा श्रीजी 3. 4. 5. 1959 1962 1961 1960 1961 1971 1971 1966 1977 1978 1976 1982 पलासवां चोटीला अमदाबाद पलांसवां अमदाबाद मांडवी मांडवी मांडवी लाकडीया फतेहगढ़ अमदाबाद भीमासर आफ्रिका खेड़ा भीमासर वढवाण चाणस्मा चूड़ा अमदाबाद राधनपुर पल्लडम 1973 1986 1987 1988 1989 1990 1990 1991 1991 1992 राधनपुर 1994 भुज 1995 अमदाबाद 1996 अमदाबाद 1996 राधनपुर 1996 1998 तिथि मृ. शु. 3 वै.शु. 15 मृ.शु. 15 381 मा. शु. 2 का. शु. 2 का. शु. 2 मृ.शु. 7 मृ. शु. 7 मा. शु. 13 म. शु. 13 मा. शु. 10 मु. शु. 3 मा. कृ. 2 मा. शु. 6 वै. शु. 10 आसो. शु. 9 ज्ये. कृ. 2 वै. शु. 11 पो. कृ. 6 वै. कु. 6 वै. शु. 5 ज्ये कृ. 2 दीक्षा स्थान पलांसवा विजापुर पालीताणा अमदाबाद अमदाबाद मांडवी भद्रेश्वरजी भद्रेश्वरजी पालीताणा पालीताणा भीमासर मांडवी अमदाबाद पालीताणा जोटाणा राधनपुर अमदाबाद राधनपुर राधनपुर चाणस्मा राधनपुर भुज अमदाबाद अमदाबाद राधनपुर लीच गुरुणी नाम श्री निधानश्रीजी श्री आणंद श्रीजी श्री आनंद श्रीजी श्री ज्ञान श्रीजी श्री चंदनश्रीजी श्री आनंद श्रीजी श्री चतुरश्रीजी श्री नीतिश्रीजी श्री चतुरश्रीजी श्री चतुरश्रीजी श्री चतुरश्रीजी श्री नीतिश्रीजी श्री लाभश्रीजी श्री चरणश्रीजी श्री विवेकश्रीजी श्री हेमश्रीजी श्री लाभश्रीजी श्री नंदन श्रीजी श्री लाभश्रीजी श्री लावण्यश्रीजी श्री लावण्यश्रीजी श्री चतुरश्रीजी श्री चतुरश्रीजी श्री लावण्यश्रीजी श्री लावण्यश्रीजी श्री लावण्यश्रीजी श्री अरूण श्रीजी श्री चतुरश्रीजी श्री चतुरश्रीजी Page #444 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 31. श्री नंदाश्रीजी 32. श्री कल्याणश्रीजी 33. श्री धर्मोदया श्रीजी 34. श्री विनीताश्रीजी 35. श्री चंद्राननाश्रीजी 36. श्री भारती श्रीजी 37. श्री अनुपमा श्रीजी 38. श्री पुष्पा श्रीजी 39. श्री चारूलताश्रीजी 40. श्री पुण्योदया श्रीजी 41. श्री नित्योदया श्रीजी 42. श्री धुरंधराश्रीजी 43. श्री भूषण श्रीजी 44. श्री पद्मलताश्रीजी 45. श्री रोहिणी श्रीजी 46. श्री अनंत श्रीजी 47. श्री सुगुणाश्रीजी 48. श्री सुदक्षा श्रीजी 49. श्री सुमंगलाश्रीजी 50. श्री सुधर्माश्रीजी 51. श्री यशस्वती श्रीजी 52. श्री अमर श्रीजी 53. श्री विजयाश्रीजी 54. श्री कुवलयाश्रीजी 55. श्री प्रद्योतन श्रीजी 56. श्री सत्यवती श्रीजी 57. श्री कमलप्रभाश्रीजी 58. श्री विचक्षणाश्रीजी 59. श्री विश्वविभाश्रीजी 60. श्री सुदेव श्रीजी 99 61. श्री सुमन श्रीजी 62. श्री आदित्ययशाश्रीजी 63. श्री सुप्रज्ञाश्रीजी 1980 - 1960 1978 1992 1983 1982 1983 1983 1984 1982 1986 1984 1984 अषा. शु. 2 1998 1998 वै. शु. 5 1998 वै. शु. 5 2000 2000 2000 2000 भुजपुर 2001 जोरावरनगर 2001 जोरावरनगर 2001 सुरेन्द्रनगर 2001 अमदाबाद 2002 राधनपुर 2002 राधनपुरा 2002 अमदाबाद 2003 अमदाबाद 2004 धोलासण 1986 1986 नखत्राणा वांकानेर भीमासर हलपद अमदाबाद अमदाबाद राधनपुर राधनपुर चाणस्मा 1980 अमदाबाद 1976 वाराही चाणस्मा राधनपुर राधनपुर राधनपुर धोणासण वेडा राधनपुर डांगरवा भीमासर राधनपुर चाणस्मा 2004 2004 2004 2004 2004 2005 2006 2006 2006 2007 2007 2007 2007 2007 382 मा. शु. 10 मा. शु. 10 फा. कृ. 2 फा. कृ. म. शु. 6 मा. शु. 6 मा. शु. 6 मा. शु. 10 वै. कृ. 10 वै. कृ. 10 वै. कु. 10 वै. कृ. 5 वै. कृ. 6 वै. शु. 6 पो. कृ. 5 पो. कृ. 5 पो. शु. 11 पो. शु. 11 वै. कृ. 6 वै. शु. 6 वै. शु. 12 नं मृ.शु. 14 वै. शु. 3 वै. शु. 3 वै. शु. 15 वै. कृ. 6 मा. शु. 13 जैन श्रमणियों का बृहद इतिहास श्री नर्मदाश्रीजी श्री लावण्यश्रीजी श्री भुवनश्रीजी श्री विमल श्रीजी श्री चरण श्रीजी श्री सुनंदाश्रीजी श्री अरूण श्रीजी श्री पुष्पचूलाश्रीजी श्री चरणश्रीजी लीच लखत्राणा भूज हलवद हलवद अमदाबाद अमदाबाद अमदाबाद जोरावरनगर जोरावरनगर धांगन्धा राधनपुर राधनपुर राधनपुर मुदरडा राधनपुर राधनपुर राधनपुर राधनपुर राधनपुर भीमासर अमदाबाद अमदाबाद अमदाबाद राधनपुर राधनपुर राधनपुर धोणासण धीणोज राधनपुर श्री चारूलताश्रीजी श्री निरंजनाश्रीजी श्री लावण्यश्रीजी श्री भुवनश्रीजी श्री भूषण श्रीजी श्री रेवती श्रीजी श्री अनुपमाश्रीजी श्री सुव्रताश्रीजी श्री सरस्वती श्रीजी श्री सुदक्षाश्रीजी श्री सुव्रताश्रीजी श्री सुप्रज्ञाश्रीजी श्री अनुपमा श्रीजी श्री विवेक श्रीजी श्री कुमुदश्रीजी श्री न्यायश्रीजी श्री सुधर्माश्रीजी श्री लावण्यश्रीजी श्री भूषण श्रीजी श्री भूषणश्रीजी श्री सुधर्माश्रीजी श्री सुव्रताश्रीजी श्री अजिता श्रीजी श्री सुव्रताश्रीजी Page #445 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्वेताम्बर परम्परा की श्रमणियाँ 1989 1990 2008 2008 2009 2009 1990 1974 1985 1988 - 1982 1987 64. श्री वीरभद्राश्रीजी 65. श्री प्रगुणाश्रीजी श्री नेमिप्रभाश्रीजी 67. श्री सुबुद्धिश्रीजी 68. श्री हेमप्रभाश्रीजी 69. श्री दिव्ययशाश्रीजी 70. श्री चंद्रसेनाश्रीजी 71. श्री चंद्रशीलाश्रीजी 72. श्री अनिलप्रभाश्रीजी 73. श्री अर्कप्रभाश्रीजी 74. श्री सुधाकरश्रीजी 75. श्री सुवर्णप्रभाश्रीजी 76. श्री पुण्यप्रभाश्रीजी 77. श्री नित्यचंद्राश्रीजी 78. श्री हेमगुणाश्रीजी 79. श्री हिमांशुप्रभाश्रीजी 80. श्री कुशलप्रभाश्रीजी 81. श्री निर्मलयशाश्रीजी 82. श्री चंद्रगुणाश्रीजी 83. श्री धैर्यप्रभाश्रीजी 84. श्री पद्मप्रभाश्रीजी 85. श्री भद्रंकराश्रीजी 86. श्री चंद्रपूर्णाश्रीजी 87. श्री चित्रप्रभाश्रीजी 88. श्री विश्वनंदाश्रीजी 89. श्री विश्वयशाश्रीजी 90. श्री हंसकीर्तिश्रीजी 91. श्री पूर्णकलाश्रीजी 92. श्री आर्यरक्षिताश्रीजी 93. श्री सूर्यांशुयशाश्रीजी 94. श्री पद्मावतीश्रीजी 95. श्री प्रभावतीश्रीजी 96. श्री प्रभंजनाश्रीजी खंभात वांकानेर राधनपुर राधनपुर राधनपुर मांडवी मुंबई आधोई मांडवी मांडवी जवाहरनगर लोदी राधनपुर आघोई राधनपुर राधनपुर राधनपुर 2009 2009 2010 2010 2010 2010 2010 2010 2010 2010 2011 2011 2011 2011 मा. कृ. 11 पो. कृ. 6 फा. कृ. 7 फा. कृ. 7 फा. कृ. 7 फा. कृ. 7 वै. शु. 3 वै. शु. 3 वै. शु. 6 वै. शु. 6 वै. शु. 3 वै.शु. 10 मृ. शु. 10 म. शु. 10 वै. शु. 7 वै. शु. 7 वै. शु. 7 वै. शु. 7 खंभात धांगध्रा राधनपुर राधनपुर राधनपुर राधनपुर राधनपुर राधनपुर राधनपुर राधनपुर राधनपुर फलोदी अंजार अंजार राधनपुर राधनपुर राधनपुर राधनपुर 2001 1988 1994 - 1993 श्री हेमश्रीजी श्री धर्मोदयाश्रीजी श्री नंदनश्रीजी श्री सुव्रताश्रीजी श्री लावण्यश्रीजी श्री दोलतश्रीजी श्री चंद्रयशाश्रीजी श्री चंद्रयशाश्रीजी श्री अनुपमाश्रीजी श्री अनिलप्रभाश्रीजी श्री सुप्रज्ञाश्रीजी श्री सुनंदाश्रीजी श्री पुष्पाश्रीजी श्री नित्योदयाश्रीजी श्री हिरण्यश्रीजी श्री हेमगुणाश्रीजी श्री कुमुदश्रीजी श्री नेमिप्रभाश्रीजी श्री चरणश्रीजी श्री धुरंधराश्रीजी श्री पुष्पचूलाश्रीजी श्री भुवनश्रीजी श्री चरणश्रीजी श्री चरणश्रीजी श्री विचक्षणाश्रीजी श्री विचक्षणाश्रीजी श्री पूर्णकलाश्रीजी श्री पुष्पचूलाश्रीजी श्री अजिताश्रीजी श्री सरस्वतीश्रीजी श्री पुन्यप्रभाश्रीजी श्री पुन्यप्रभाश्रीजी श्री नंदनश्रीजी । शु.2 1992 लींबड़ी अमदाबाद धांगध्रा अमदाबाद लींबड़ी लींबड़ी भाभर मुंबई अमदाबाद आडीसर वढवाण तुंबड़ी भद्रेश्वर लोंबड़ी कटारीया कटारीया 1990 1992 1995 1997 2013 मा. कृ. 3 2013 2014 कृ. 11 2.014 मा. शु. 6 2014 मा. शु. 6 2014 __मा. शु. 10 2014 मा. शु. 10 2014 मा. शु. 10 2014 मा. शु. 10 2014 मा. शु. 13 2014 मा. कृ. 2 2015 वै. शु. 2 2015 2015 वै. शु. 2 वढवाणा 1988 1986 अमदाबाद मोरबी वढवाणा अमदाबाद मोरबी 1995 पाटण पाटण पाटण 1995 1989 राधनपुर राधनपुर पाटण 383 Page #446 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 97. श्री धर्मकलाश्रीजी 98. श्री धनंजयाश्रीजी 99. श्री नूतनकला श्रीजी 100. श्री नवीनप्रभाश्रीजी 101. श्री फुल्लप्रभाश्रीजी 102. श्री नयप्रज्ञाश्रीजी 103. श्री नंदोत्तराश्रीजी 104. श्री नयधर्माश्रीजी 105. श्री वारिषेणाश्रीजी 106. श्री प्रशमरेखाश्रीजी 107. श्री जयभद्राश्रीजी 108 श्री विजयप्रभाश्रीजी 109. श्री पुण्यकीर्तिश्रीजी 110. श्री हेमचंद्राश्रीजी 111. श्री सुशीलगुणाश्रीजी 112. श्री भुवनकीर्तिश्रीजी 113. श्री पूर्णगुणाश्रीजी 114. श्री पूर्णचंद्राश्रीजी 115. श्री अमीपूर्णाश्रीजी 116. श्री विश्वकीर्तिश्रीजी 115. श्री हंसकलाश्रीजी 117. श्री चारूकीर्तिश्रीजी 118. श्री अमीवर्षाश्रीजी 119. श्री अनंतप्रज्ञाश्रीजी 120. श्री पूर्णयशाश्रीजी 121. श्री मयणाश्रीजी 122. श्री प्रियंकराश्रीजी 123 श्री प्रियंवदाश्रीजी 124. श्री भद्रपूर्णाश्रीजी 125. श्री भावपूर्णाश्रीजी 126. श्री अमितप्रज्ञाश्रीजी 127. श्री अनंतकिरणाश्रीजी 128. श्री धर्मरत्नाश्रीजी 1994 1996 1990 1995 1993 1992 1996 2009 मांडवी मांडवी राधनपुर राधनपुर राधनपुर मुंबई रंगून नवागाम वेधि 1992 वढवाण 2000 राधनपुर 1998 राधनपुर 2002 हलरा 2004 मकरा 1991 मांडवी 1997 भूज 2003 जंगी धांगधा मांडवी नवसारी 1993 2001 2007 उदयपुर 2004 पाटण 2004 मुंबई 2008 मुंबई 2003 नापाड़ 2007 नापड़ 2004 वजपासर 2009 वजपासर 2005 मांडवी 2015 2015 2015 वै. शु. 6 2015 वै. शु. 6 2015 2016 2016 2016 2019 2019 2021 2022 2022 2022 2023 2023 2023 2023 2023 2023 2024 2025 2026 2026 2026 2026 2026 2026 2027 2027 2027 2027 2027 वै. शु. 2 वै. शु. 5 384 मा. कृ. 11 वै. शु. 6 वै. शु. 6 मा. शु. 10 वै. शु. ॥ मा. शु. 13 मृ.शु. 10 ज्ये. शु. 7 मा. शु. 6 मा. शु. 6 पो. शु. 7 पो. शु. 7 मा. कृ. 2 मा. कृ. 2 मा. कृ. 2 मा. कृ. 11 मा. शु. 7 मा. शु. 9 वै. शु. 5 वै.शु. 6 वै.शु. 11 मा. शु. 9 मा. शु. 9 मा. शु. 9 मृ.शु. 5 मु. शु. 5 मृ.शु. 5 मृ.शु. 5 मृ. शु. 5 जैन श्रमणियों का बृहद इतिहास श्री भुवन श्रीजी श्री धर्मकलाश्रीजी श्री नवीनप्रभाश्रीजी श्री नंदनश्रीजी वांकीपत्री वांकीपत्री मांडवी मांडवी कटारीआ करजीसणा लीच लीच भचाऊ हलवद जामनगर वेधि वढवाण वढवाण भद्रेश्वर भद्रेश्वर नवाडीसा नवाडीसा भद्रेवश्वर भूज भद्रेश्वर जूनागढ़ मांडवी नवसारी नवाडीसा पाटण पाटण पाटण नापाद नापड़ वजपासर वजपासर अमदाबाद श्री पुन्यप्रभाश्रीजी श्री नर्मदाश्रीजी श्री नंदाश्रीजी श्री नर्मदाश्रीजी श्री विश्वविभाश्रीजी श्री फुलप्रभाश्रीजी श्री चंद्रयशाश्रीजी श्री विमलश्रीजी श्री पद्मप्रभाश्रीजी श्री हंसकीर्तिश्रीजी श्री हिमांशुप्रभाश्रीजी श्री भुवनश्रीजी श्री प्रभंजनाश्रीजी श्री पूर्णगुणाश्रीजी श्री अर्कप्रभाश्रीजी श्री विचक्षणाश्रीजी श्री हिमांशुप्रभाश्रीजी श्री चरणश्रीजी श्री अनुपमाश्रीजी श्री आर्ययशाश्रीजी श्री प्रभंजनाश्रीजी श्री पद्मावती श्रीजी श्री फुलप्रभाश्रीजी श्री प्रियंकराश्रीजी श्री भद्रंकराश्रीजी श्री भद्रपूर्णा श्रीजी श्री अनुपमा श्रीजी श्री अनुपमा श्रीजी श्री भुवनश्रीजी Page #447 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्वेताम्बर परम्परा की श्रमणियाँ खेड़ा अमदाबाद मा. शु. 14 राजकोट भूज खंभात खंभात अमदाबाद 2029 अमदाबाद जामनगर जलालपोर राधनपुर अमदाबाद मुंबई 2011 129. श्री हेमरत्नाश्रीजी 2019 130. श्री जयधर्माश्रीजी जामनगर 131. श्री हेमरत्नाश्रीजी वढवाण 132. श्री अमीरसाश्रीजी लोडाई 133. श्री अर्हदज्योतिश्रीजी 2005 घोघा 134. श्री अर्हद्यशाश्रीजी 2009 घोघा 135. श्री सुरक्षिताश्रीजी अमदाबाद 136. श्री सुविनीताश्रीजी अमदाबाद 137. श्री अमीप्रज्ञाश्रीजी 2003 जामनगर 138. श्री आत्मदर्शनाश्रीजी 2002 जलालपोर । 139. श्री संवेगरसाश्रीजी 2005 राधनपुर 140. श्री दिव्यानंदाश्रीजी 2013 जेतपुर 141. श्री पूर्णज्योतिश्रीजी 2008 मनफरा 142. श्री हर्षकलाश्रीजी 2005 143. श्री अनंतप्रभाश्रीजी फतेहगढ़ 144. श्री सुभद्रयशाश्रीजी मनफरा 145. श्री समरसाश्रीजी राधनपुर 146. श्री नयरत्नाश्रीजी 147. श्री नयदर्शनाश्रीजी 148. श्री सौम्यपूर्णाश्रीजी 2013 लाकडीया 149. श्री भव्यरसाश्रीजी वेधि 150. श्री कल्परसाश्रीजी वेधि 151. श्री विश्वज्योतिश्रीजी 2005 भचाऊ 152. श्री हंसपद्माश्रीजी 2007 वढवाण 153. श्री हंसमालाश्रीजी - वढवाण 154. श्री हंसदर्शिताश्रीजी 2009 वढवाण 155. श्री हंसप्रज्ञाश्रीजी वढवाण 156. श्री चित्तप्रज्ञाश्रीजी 2014 भचाऊ 157. श्री जितपद्मश्रीजी जामनगर 158. श्री जयदर्शिताश्रीजी 1956 मुंबई 159. श्री धर्मरसाश्रीजी 2008 जामनगर 160 श्री प्रियधर्माश्रीजी 2013 भचाऊ 161. श्री अनंतदर्शनाश्रीजी 2028 मा. शु. 1 2028 2028 शु. 14 2028 मा. शु. 14 2028 2028 __मा. कृ. 9 2029 मा. कृ. 5 2029 ___ मा. कृ.5 2029 फा. शु. 4 फा. शु. 4 2029 फा. शु. 4 2030 वै. शु. 7 2030 म. शु. 5 2030 मृ. शु. 11 2030 2031 का. कृ. 10 2031 मा. शु. 4 2031 मा. कृ. 5 2031 मा. कृ.5 म. शु. 13 2032 2032 फा. शु. 3 2032 फा. शु. 3 मा. शु. 3 2033 मा. शु. 3 2033 मा. शु. 3 2033 मा. शु. 3 2033 मा. शु. 13 2033 मा. शु. 13 2033 मा. शु. 13 2033 मा. शु. 13 2033 फा. शु. 3 2034 मा. शु. 6 मनफरा फतेहगढ़ अंजार सांतलपुर श्री हिरण्यश्रीजी श्री जयभद्राश्रीजी श्री हंसकीर्तिश्रीजी श्री अमरश्रीजी श्री अमितगुणाश्रीजी श्री अर्हद्ज्योतिश्रीजी श्री सुव्रताश्रीजी श्री सुव्रताश्रीजी श्री धैर्यप्रभाश्रीजी श्री अनंतप्रज्ञाश्रीजी श्री सुमंगलाश्रीजी श्री चित्रप्रभाश्रीजी श्री पूर्णगुणाश्रीजी श्री हंसकीर्तिश्रीजी श्री अर्कप्रभाश्रीजी श्री सुबुद्धिश्रीजी श्री सुवर्णप्रभाश्रीजी श्री नर्मदाश्रीजी श्री नर्मदाश्रीजी श्री सुशीलगुणाश्रीजी श्री विनीतश्रीजी श्री विनीतश्रीजी श्री विजयप्रभाश्रीजी श्री हंसकीर्तिश्रीजी श्री हंसकीर्तिश्रीजी श्री हंसकीर्तिश्रीजी श्री हंसकीर्तिश्रीजी श्री चंद्रयशाश्रीजी श्री जयधर्माश्रीजी श्री जयधर्माश्रीजी श्री धुरंधराश्रीजी श्री प्रियंवदाश्रीजी श्री अनुपमाश्रीजी लीच लीच लुणावा वेधि वेधि वेधि 2033 वढवाण वढवाण वढवाण वढवाण सुरेन्द्रनगर सुरेन्द्रनगर सुरेन्द्रनगर सुरेन्द्रनगर भचाऊ दुधई मनफरा 385 Page #448 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन श्रमणियों का बृहद इतिहास मनफरा 2034 मा. शु.6 2034 मा. शु. 6 2035 मृ. शु. 5 2035 मा. शु. 10 2038 फा. शु. 3 2037 मृ. शु. 4 2037 __ मृ. शु. 4 म. शु. 4 2037 2037 2037 मुंबई मनफरा पीडवाड़ा सुरेन्द्रनगर शंखेश्वर शंखेश्वर शंखेश्वर शंखेश्वर शंखेश्वर शंखेश्वर कटारिया कटारिया कटारिया कटारिया कटारिया जूनागढ़ जूनागढ़ 2039 2039 2039 FFF न न न न न न है 2039 2039 162. श्री आत्मरसाश्रीजी लोडाई 163. श्री पुन्यदर्शनाश्रीजी 2013 मनफरा 164. श्री अर्हद्कल्पाश्रीजी 2011 भोयणीजी 165. श्री सौम्यगिरिश्रीजी लींबड़ी 166. श्री सम्यक्त्वश्रीजी 2011 अमदाबाद 166. श्री मोक्षदर्शिताश्रीजी । 2016 मुंबई 168. श्री अमीगिराश्रीजी 2017 वांढीया 169. श्री जितकल्पाश्रीजी 2016 मुंबई 170. श्री स्मितपूर्णाश्रीजी 2013 राधनपुर 171. श्री संवेगपूर्णाश्रीजी मनफरा 172. श्री भक्तिपूर्णाश्रीजी 173. श्री पद्माननाश्रीजी 2015 मनफरा 174. श्री पद्मदर्शनाश्रीजी 2021 मनफरा 175. श्री पद्मज्योतिश्रीजी 2018 . मनफरा 176. श्री प्रशमज्योतिश्रीजी 2022 मनफरा 177. श्री शरद्पूर्णाश्रीजी आघोई 178. श्री स्नेहपूर्णाश्रीजी - फलोदी 179. श्री हर्षितवदनाश्रीजी खंभात 180. श्री जिनधर्माश्रीजी वसई 181. श्री जिनभद्राश्रीजी 182. श्री अपूर्वगुणाश्रीजी 2020 बालापुर 183. श्री परमज्योतिश्रीजी 2013 मुंबई 184. श्री प्रसन्नहृदयश्रीजी 2015 भचाऊ 185. श्री प्रशांतदर्शनाश्रीजी 2021 मनफरा 186. श्री प्रसन्नवदनाश्रीजी 2017 भचाऊ 187. श्री प्रशान्तलोचनाश्रीजी 2020 भचाऊ 188. श्री श्रुतदर्शनाश्रीजी - मनफरा 189. श्री कल्पज्ञाश्रीजी 2017 मनफरा 190. श्री कल्पदर्शिताश्रीजी 2018 मनफरा 191. श्री देवेन्द्रयशाश्रीजी अमदाबाद 192. श्री भक्तिरसाश्रीजी आघोई 193. श्री आगमरसाश्रीजी आडीसर 194. श्री अमीझरणाश्रीजी भीमासर 2040 चै. कृ.5 श्री अमीरसाश्रीजी श्री पुण्यप्रभाश्रीजी श्री अमितगुणाश्रीजी श्री चरणश्रीजी श्री धैर्यप्रभाश्रीजी श्री धैर्यप्रभाश्रीजी श्री अमीवर्षाश्रीजी श्री जयधर्माश्रीजी श्री सुशीलगुणाश्रीजी श्री सुशीलगुणाश्रीजी श्री भूषणश्रीजी श्री प्रभंजनाश्रीजी श्री प्रभंजनाश्रीजी श्री पूर्णज्योतिश्रीजी श्री पूर्णज्योतिश्रीजी श्री सुवर्णप्रभाश्रीजी श्री सुवर्णप्रभाश्रीजी श्री हंसकलाश्रीजी श्री जयधर्माश्रीजी श्री जयधर्माश्रीजी श्री अमितगुणाश्रीजी श्री प्रियंकराश्रीजी श्री प्रियंवदाश्रीजी श्री पुण्यदर्शनाश्रीजी श्री प्रियंवदाश्रीजी श्री प्रियंवदाश्रीजी श्री सुभद्रयशाश्रीजी श्री कुमुदश्रीजी श्री कल्पज्ञाश्रीजी श्री चंद्रयशाश्रीजी श्री भूषणश्रीजी श्री अमरश्रीजी श्री अमीवर्षाश्रीजी खंभात 2040 2040 2040 2040 2040 2041 मा. कृ. 6 मा. कृ. 6 वसई 2041 2041 2041 2041 2041 2041 2041 2042 2042 2043 2043 का. कृ. 6 का. कृ. 6 का. कृ. 6 कृ. 6 का. कृ. 6 मृ. शु. 6 मृ0 शु. 6 म. शु. 6 वै. शु. 3 माघ वै. शु. 4 वै. शु. 4 सुरेन्द्रनगर सुरेन्द्रनगर पालीताणा नवाडीसा नवाडीसा नवाडीसा नवाडीसा नवाडीसा नवाडीसा नवाडीसा नवाडीसा अमदाबाद अंजार गांधीधाम गांधीधाम 386 Page #449 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्वेताम्बर परम्परा की श्रमणियाँ 195. श्री विश्वकलाश्रीजी रापर 2943 196. श्री श्रुतगिराश्रीजी - पाटण 2043 197. श्री मोक्षरसाश्रीजी 2018 अमदाबाद 2045 198. श्री विनयगुणाश्रीजी 2025 नासिक 2046 199. श्री भक्तिगुणाश्रीजी 2028 नासिक 2046 200. श्री संयमपूर्णाश्रीजी मनफरा 2046 201. श्री हर्षनंदिताश्रीजी अंजार 2046 202. श्री भावदर्शनाश्रीजी आघोई 2046 203. श्री भावधर्माश्रीजी आघोई 2046 204. श्री नंदीवर्धनाश्रीजी ___2055 5.3.5.6 श्री चन्द्राननाश्रीजी का शिष्या-परिवार338 वै. शु. 6 मा. शु. 10 का. कृ. 10 का. कृ. 10 पो. कृ. 9 मा. शु. 6 मा. कृ. 6 मा. कृ. 6 मा. शु. 9 रापर पाटण गंधार पालीताणा पालीताणा मनफरा वढवाण आघोई आघोई धांगध्रा श्री विजयाश्रीजी श्री सुविनीताश्रीजी श्री अर्हद्यशाश्रीजी श्री अपूर्वगुणाश्रीजी श्री अपूर्वगुणाश्रीजी श्री सुबुद्धिश्रीजी श्री हंसकीर्तिश्रीजी श्री भूषणश्रीजी श्री भूषणश्रीजी श्री नर्मदाश्रीजी दीक्षा स्थान भद्रेश्वर भद्रेश्वर सुरेन्द्रनगर सुरेन्द्रनगर सुरेन्द्रनगर सुरेन्द्रनगर सुरेन्द्रनगर सं 6 6 हलवद क्रम साध्वी नाम जन्म संवत् 1. श्री नेमिचंद्राश्रीजी 1989 2. श्री नित्यप्रभाश्रीजी 1991 3. श्री नंदीश्वराश्रीजी 1994 श्री नित्यानंदश्रीजी 1994 श्री निर्वेदगुणाश्रीजी 1994 श्री चारुलक्षणाश्रीजी 10994 श्री चंद्रोज्वलाश्रीजी 1995 8. श्री चारूदर्शनाश्रीजी 2000 9. श्री चंदनबालाश्रीजी 2001 . श्री चंद्रज्योतिश्रीजी 1994 11. श्री चारूरत्नाश्रीजी 12. श्री निर्ममाश्रीजी 13. श्री दिव्यपूर्णाश्रीजी 14. श्री दिव्यप्रज्ञाश्रीजी 15. श्री प्रशमगुणाश्रीजी 16. श्री तत्त्वपूर्णाश्रीजी 17. श्री पीयूषपूर्णाश्रीजी स्थान दीक्षा संवत् तिथि हलवद 2009 मृ. शु. 10 हलवद 2009 म. शु. 10 सुरेन्द्रनगर 2016 मा. कृ. 8 सुरेन्द्रनगर 2016 मा. कृ. 8 आडीसर 2016 सुरेन्द्रनगर म. शु. 6 सुरेन्द्रनगर 2017 म. शु. 6 हलवद 2019 मा. शु. 1 हलवद 2019 सुरेन्द्रनगर 2023 वै. शु. 3 सुरेन्द्रनगर 2023 धांगध्रा 2025 शु. 9 हलवद 2027 हलवद 2027 शु. 5 चोटीला 2028 मा. कृ. 9 सुरेन्द्रनगर 2028 मा. कृ. 9 सुरेन्द्रनगर 2028 मा. कृ. 9 गुरूणी नाम श्री चंद्रानानाश्रीजी श्री चंद्रानानाश्रीजी श्री चंद्राननाश्रीजी श्री चंद्राननाश्रीजी श्री चंद्राननाश्रीजी श्री चंद्राननाश्रीजी श्री चंद्राननाश्रीजी श्री चंद्राननाश्रीजी श्री चंद्राननाश्रीजी श्री चंद्राननाश्रीजी श्री चंद्राननाश्रीजी श्री चंद्राननाश्रीजी श्री चंद्राननाश्रीजी श्री चंद्राननाश्रीजी श्री चंद्राननाश्रीजी श्री चंद्राननाश्रीजी श्री चंद्राननाश्रीजी - हलवद सुरेन्द्रनगर सुरेन्द्रनगर धांगध्रा गई शु.5 हलवद हलवद खंभात खंभात खंभात 338. 'श्रमणीरत्नो', पृ. 409-11 387 Page #450 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन श्रमणियों का बृहद इतिहास मा. कृ. 9 खंभात खंभात खंभात 1941 जामनगर अमदाबाद जामनगर 18. श्री उदयपूर्णाश्रीजी 1955 19. श्री दिव्यमालाश्रीजी 20. श्री कीर्तिपूर्णाश्रीजी श्री चंद्रमालाश्रीजी 22. श्री दिव्यदर्शिताश्रीजी - 23. श्री चारूदर्शिताश्रीजी 1947 24. श्री प्रशमिताश्रीजी - श्री चारूपद्माश्रीजी 26. श्री दिव्यधर्माश्रीजी . - 27. श्री चंद्रदर्शिताश्रीजी - 28. श्री दिव्यनंदिताश्रीजी 1954 29. श्री प्रशांतरसाश्रीजी - 30. श्री प्रशमरसाश्रीजी - 31. श्री भव्यकल्पाश्रीजी _____1955 32. श्री भव्यदर्शिताश्रीजी - 33. श्री तत्त्वदर्शिताश्रीजी 1932 श्री मुक्तिमालाश्रीजी 1938 1938 35. श्री चंद्रनंदिताश्रीजी 1938 36. श्री रत्नरेखाश्रीजी 1938 37. श्री भव्यरेखाश्रीजी 1938 38. श्री रम्यमालाश्रीजी 1963 श्री चारूनंदिताश्रीजी 1954 40. श्री चारूगिराश्रीजी 1950 41. श्री मुक्तिदर्शनाश्रीजी 42. श्री भक्तिरत्नाश्रीजी 1957 43. श्री तत्त्वगुणाश्रीजी श्री राजरत्नाश्रीजी 45. श्री भव्यरत्नाश्रीजी 1957 46. श्री संयमरनाश्रीजी 1955 47. श्री पुण्यरत्नाश्रीजी - राजकोट 2028 चोटीला 2028 पलांसवा 2028 धांगध्रा 2030 अमदाबाद अमदाबाद 2030 2030 जामनगर 2030 अमदाबाद 2031 महेमदाबाद 2032 सरेन्द्रनगर 2033 सुरेन्द्रनगर 2033 सुरेन्द्रनगर 2033 सुरेन्द्रनगर 2034 सुरेन्द्रनगर 2034 माटुंगा 2035 शांतलपुर 2035 सुरेन्द्रनगर 2035 सुरेन्द्रनगर 2035 सुरेन्द्रनगर 2035 ऊंभा 2035 नांदेज 2035 महेमदाबाद 2035 मुंबई 2035 मुंबई 2037 आडीसर 2039 धांगध्रा 2039 राधनपुर 2039 सुरेन्द्रनगर 2040 सुरेन्द्रनगर 2040 चोटीला 2040 जोरावरनगर 2040 मा. कृ. 9 मृ. शु. 11 वै. शु.7 मृ. शु. 11 पो. कृ. 10 मा. शु. 5 मा. श. 13 मा. शु. 13 मा. शु. 13 मा. कृ. 11 मा. कृ. 11 फा. शु. 10 फा. शु. 10 फा. शु. 10 फा. शु. 10 फा. शु. 10 फा. शु. 10 शु. 10 फा. शु. 10 वै. शु. 3 पो. कृ. 5 वै. शु. 2 वै.शु. 2 शु. 2 कृ. 6 वै. कृ. 6 वै. कृ. 6 वै. कृ. 6 अमदाबाद महेमदाबाद सरेन्द्रनगर सुरेन्द्रनगर सुरेन्द्रनगर सुरेन्द्रनगर सुरेन्द्रनगर सुरेन्द्रनगर सुरेन्द्रनगर सुरेन्द्रनगर सुरेन्द्रनगर सुरेन्द्रनगर सुरेन्द्रनगर सुरेन्द्रनगर सुरेन्द्रनगर पीडवाड़ा पालीताणा कटारीया धांगध्रा कटारिया सुरेन्द्रनगर सुरेन्द्रनगर सुरेन्द्रनगर सुरेन्द्रनगर श्री चंद्राननाश्रीजी श्री चंद्राननाश्रीजी श्री चंद्राननाश्रीजी श्री चंद्राननाश्रीजी श्री चंद्राननाश्रीजी श्री चंदनबालाश्रीजी श्री चंद्राननाश्रीजी श्री चंद्राननाश्रीजी श्री चंद्राननाश्रीजी श्री चंद्राननाश्रीजी श्री चंद्राननाश्रीजी श्री चंद्राननाश्रीजी श्री चारूलक्षणाश्रीजी श्री चंद्रज्योतिश्रीजी श्री चंद्रज्योतिश्रीजी श्री चंद्राननाश्रीजी श्री चंद्राननाश्रीजी श्री चंद्राननाश्रीजी श्री चंद्राननाश्रीजी श्री चंद्राननाश्रीजी श्री चंद्राननाश्रीजी श्री चंद्राननाश्रीजी श्री चंद्राननाश्रीजी श्री चंद्राननाश्रीजी श्री चंद्राननाश्रीजी श्री निर्वेदगुणाश्रीजी श्री चंद्राननाश्रीजी श्री चंद्राननाश्रीजी श्री चंद्राननाश्रीजी श्री चंद्राननाश्रीजी 388 For Private & bersend Use Only Page #451 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्वेताम्बर परम्परा की श्रमणियाँ 48. श्री जिनेशरत्नाश्रीजी 49. श्री चिद्रत्नाश्रीजी 50. श्री शासनरत्नाश्रीजी 51. श्री कीर्तिरत्नाश्रीजी 52. श्री दर्शनरत्नाश्रीजी 53. श्री ज्योतिदर्शनाश्रीजी 54. श्री जिनेशपद्माश्रीजी 55. श्री मुक्तिपूर्णाश्रीजी 56. श्री मैत्रीपूर्णाश्रीजी 57. श्री कारूण्यरत्नाश्रीजी 58. श्री दीप्तिरत्नाश्रीजी 59. श्री हितधर्माश्रीजी 60. श्री जिनरक्षिताश्रीजी 61. श्री पुण्यधर्माश्रीजी 62. श्री राजदर्शिताश्रीजी 63. श्री श्रुतगिरा श्रीजी 64. श्री महानंदा श्रीजी 65. श्री भव्यप्रज्ञाश्रीजी 66. श्री जिनेशप्रज्ञाश्रीजी 67. श्री अक्षयप्रज्ञाश्रीजी 68. श्री ज्योतिवर्धनाश्रीजी 69. श्री मार्दवगुणाश्रीजी 5.3.5.7 श्री निर्मला श्रीजी का शिष्या - परिवार339 क्रम साध्वी नाम जन्म संवत् स्थान दीक्षा संवत् 1981 तीरपुर 1993 1994 खीवान्दी 2005 1984 अमदाबाद 2005 1990 सायला 2010 1. 2. 3. 4. श्री निर्जराश्रीजी श्री दिनकर श्रीजी श्री जितेन्द्र श्रीजी श्री पूर्णप्रभाश्रीजी 339. वही, 411-12 1962 1968 1964 मनफरा आघोई आघोई आघो नांदेज आघोई 1955 मनफरा आडीसर आडीसर रतलाम रतलाम जूनागढ़ जूनागढ़ जूनागढ़ पालीताणा सुरेन्द्रनगर सोपरा अमदाबाद अमदाबाद 2040 2040 2040 2040 वै. कृ. 6 वै. कृ. 6 वै. कृ. 6 वै. कृ. 6 मा. शु. 5 मा. शु. 5 मा. शु. 5 मा. शु. 14 मा. शु. 14 पो. शु. 12 पो. शु. 12 पो. कृ. 6 पो. कृ. 6 पो. कृ. 6 पो. कृ. 6 मा. शु. 5 मा. कृ. 5 वै. शु. 6 वै. शु. 6 वै. शु. 14 वै.शु. 6 वै.शु. 6 तिथि का. कृ. 5 का. कृ. 13 वै. शु. 6 मृ. शु. 6 389 सुरेन्द्रनगर सुरेन्द्रनगर सुरेन्द्रनगर सुरेन्द्रनगर रापर रापर रापर आडीसर आडीसर रतलाम रतलाम पालीताणा पालीताणा पालीताणा पालीताणा पालीताणा पालीताणा भोरल भोरल रामपुर धांगध्रा अमदाबाद दीक्षा स्थान धामा शांतलपुर अमदाबाद धंधुका श्री चंद्राननाश्रीजी श्री चंद्राननाश्रीजी श्री चंद्राननाश्रीजी श्री चंद्राननाश्रीजी श्री चन्द्राननाश्रीजी श्री चंद्रज्योतिश्रीजी श्री चंद्राननाश्रीजी श्री मुक्तिदर्शनाश्रीजी श्री मुक्तिपूर्णाश्रीजी श्री कीर्तिपूर्णाश्रीजी श्री दिव्यप्रज्ञाश्रीजी श्री चन्द्राननाश्रीजी श्री चन्द्राननाश्रीजी श्री चन्द्राननाश्रीजी श्री कीर्तिपूर्णाश्रीजी श्री चन्द्राननाश्रीजी श्री चन्द्राननाश्रीजी श्री प्रशमिताश्रीजी श्री प्रशमिताश्रीजी श्री दिव्यदर्शिताश्रीजी श्री उदयपूर्णाश्रीजी श्री चंद्राननाश्रीजी गुरुणी नाम श्री निर्मलाश्रीजी श्री निर्मलाश्रीजी श्री निर्जराश्रीजी श्री निर्जराश्रीजी Page #452 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन श्रमणियों का बृहद इतिहास राधनपुर कटारीया म. शु. 6 मा. शु. 10 म. शु. 6 मृ. शु. 4 अमदाबाद अमदाबाद गोधरा मृ. गोधरा गोधरा 2022 फतेहगढ़ मनफरा म. शु. 5 फा. कृ. 4 फा. कृ. 3 मा. शु. 14 का. कृ. 10 का. कृ. 10 का. कृ. 10 भूज 2031 अंजार अंजार अंजार # 5. श्री दिनमणिश्रीजी 2001 खीवान्दी 2011 6. श्री नूतनप्रभाश्रीजी 1990 चोटीला 2011 श्री नित्यधर्माश्रीजी 2002 भावनगर 2018 8. श्री नंदिमित्राश्रीजी 2009 अमदाबाद 2020 9. श्री जयमालाश्रीजी 2006 भावनगर 2022 . श्री जयवर्धनाश्रीजी 2008 भावनगर 2022 11. श्री ज्योतिपूर्णाश्रीजी 2007 । बैंगलोर 12. श्री प्रियदर्शनाश्रीजी 1996 अमदाबाद 2022 13. श्री दिव्यकिरणाश्रीजी 2009 अमदाबाद 2028 14. श्री दिव्यदर्शनाश्रीजी 2010 अमदाबाद 2028 15. श्री दिव्यरेखाश्रीजी 2010 2031 16. श्री दिव्यरत्नाश्रीजी 2010 17. श्री दिव्यप्रतिमाश्रीजी 2014 भूज 2031 18. श्री दृढ़शक्तिश्रीजी 2017 अमदाबाद 2037 19. श्री शीलचंद्राश्रीजी 2012 अमदाबाद 2039 20. श्री दिव्यधराश्रीजी पोनाली 2039 21. श्री ज्योतिधराश्रीजी अमदाबाद 22. श्री निर्मलदर्शनाश्रीजी भावनगर 2040 23. श्री निर्मोहाश्रीजी विसलपुर 24. श्री अक्षयनंदिताश्रीजी 2006 ब्यावर 2041 25. श्री अक्षयप्रज्ञाश्रीजी 2025 बैंगलोर 2041 26. श्री दीप्तिरत्नाश्रीजी 2019 सिकन्दराबाद 2041 27. श्री दीप्तिदर्शनाश्रीजी 2026 बैंगलोर 2041 28. श्री शीतलदर्शनाश्रीज 2028 बैंगलोर 2041 29. श्री गीर्वाणयशाश्रीजी 2030 बैंगलोर 2041 30. श्री मोक्षनंदिताश्रीजी 2032 बैंगलोर 2041 31. श्री दिव्यचेतनाश्रीजी 2018 अदौनी 2042 32. श्री राजधर्माश्रीजी डभोई 2042 33. श्री नंदिरत्नाश्रीजी आडीसर 2042 34. श्री राजमतीश्रीजी ___2024 जंगी 2043 35. श्री इंदुरेखाश्रीजी 2022 बैंगलौर 2045 वै. शु. 6 वै. शु. 2 श्री दिनकरश्रीजी श्री निर्जराश्रीजी श्री निर्जराश्रीजी श्री निर्जराश्रीजी श्री निर्जराश्रीजी श्री निर्जराश्रीजी श्री निर्जराश्रीजी श्री निर्जराश्रीजी श्री दिनमणिश्रीजी श्री दिनमणिश्रीजी श्री दिनमणिश्रीजी श्री दिनमणिश्रीजी श्री दिव्यरत्नाश्रीजी श्री दिव्यरत्नाश्रीजी श्री नित्यधर्माश्रीजी श्री जयवर्धनाश्रीजी श्री दिव्यधराश्रीजी श्री नित्यधर्माश्रीजी श्री नित्यधर्माश्रीजी श्री दिनमणिश्रीजी श्री दिनमणिश्रीजी श्री दिव्यकिरणाश्रीजी श्री अक्षयनंदिताश्रीजी श्री दिनमणिश्रीजी श्री अक्षयनंदिताश्रीजी श्री दिनमणिश्रीजी श्री दिनमणिश्रीजी श्री नित्यधर्माश्रीजी श्री नंदीमित्राश्रीजी श्री दिव्यकिरणाश्रीजी श्री दृढ़शक्तिश्रीजी । सिद्धक्षेत्र नारणपुरा देवकीनंदन अमदाबाद विसलपुर विसलपुर शंखेश्वर शंखेश्वर शंखेश्वर शंखेश्वर शंखेश्वर शंखेश्वर शंखेश्वर गांधीधाम डभोई सुरेन्द्रनगर भूज भचाऊ वै. कृ.6 वै. कृ. 6 फा. शु. 3 फा. शु. 3 फा. शु. 3 फा. शु. 3 फा. शु. 3 फा. शु. 3 फा. शु. 3 वै. शु. 4 वै. शु. 4 मा. कृ. 6 का. कृ. 6 वै. शु. 3 390 e For Private L al Use Only Page #453 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्वेताम्बर परम्परा की श्रमणियाँ 5.3.5.8 श्री चंद्रोदया श्रीजी का शिष्या परिवार 340 दीक्षा संवत् 1996 1999 क्रम साध्वी नाम 1. 2. श्री चंद्ररेखा श्रीजी श्री चंद्रप्रभाश्रीजी श्री चंद्रकलाश्रीजी 4. श्री दिवाकर श्रीजी 5. श्री चारुव्रताश्रीजी 6. श्री देवयशा श्रीजी 7. श्री दिव्यप्रभाश्रीजी 8. श्री चन्द्रकान्ता श्रीजी 9. श्री चंपक श्रीजी 10. श्री चंद्रगुप्ताश्रीजी 11. श्री चित्रगुणाश्रीजी 12. श्री निर्मलगुणाश्रीजी 13. श्री चंद्रखताश्रीजी 14. श्री चंद्रकीर्तिश्रीजी 15. श्री जयनंदाश्रीजी 16. श्री जयलताश्रीजी 17. श्री देवानंदाश्रीजी 18. श्री चिरंतन श्रीजी 19. श्री चारूधर्माश्रीजी 20. श्री चारूयशाश्रीजी 3. जन्म संवत् स्थान 21. श्री चारुप्रज्ञाश्रीजी 22. श्री चारुलोचनाश्रीजी 1985 1985 1966 1972 1972 1974 1991 1989 1996 1996 1994 1994 1998 1998 1979 1994 1997 23. श्री निजानंदाश्रीजी 24. श्री चारुगुणाश्रीजी 25. श्री ज्योतिप्रज्ञाश्रीजी 26. श्री मदनरेखा श्रीजी 27. श्री कलावतीश्रीजी 340. 'श्रमणीरत्नो', पू. 412-14 2006 गारीयाधार लीवीआ पलांसवा भूजपुर अमदाबाद अमदाबाद भूजपुर भूजपुर भूजपुर भावनगर फतेगढ़ 2006 2008 2008 2008 2010 2011 2011 2011 2012 राधनपुर 2013 राधनपुर 2013 भूजपुर 2014 भूजपुर 2014 अमदाबाद 2014 अमदाबाद 2014 गोधावी 2014 अमदाबाद 2016 अमदाबाद 2018 2019 भचाऊ राधनपुर 2022 मुंबई 2023 मुंबई 2023 भूजपुर मुद्रा बर्मा तिथि आषा. शु. 7 ज्ये शु. 6 पों. शु. 11 फा. शु. 10 वै. शु. 9 वै. शु. 11 म. शु. 5 मृ. शु. 5 मु. शु. 5 मा. श. 10 मा. शु. 10 मा. शु. 10 वै. शु. 2 मा. क. 3 मा. कृ. 3 ज्ये. शु. 10 ज्ये. शु. 10 । वै. शु. 3 मृ.शु. 10 मृ. कृ. 4 पो. शु. 11 पो. शु. 11 391 दीक्षा स्थान अमदाबाद अमदाबाद राधनपुर भुजपुर अमदाबाद अमदाबाद भद्रेश्वर भद्रेश्वर भद्रेश्वर पालीताणा कटारीया कटारीया कटारीया भूजपुर आडसर आडीसर भूजपुर भूजपुर अमदाबाद अमदाबाद फतेगढ़ भावनगर अमदाबाद भचाऊ राधनपुर वांकी बांकी गुरुणी नाम श्री चंद्रोदया श्रीजी श्री चंद्ररेखाश्रीजी श्री चंद्रोदया श्रीजी श्री चंद्रोदया श्रीजी श्री चंद्रोदया श्रीजी श्री चंद्रोदया श्रीजी श्री चंद्रोदया श्रीजी श्री चंद्ररेखाश्रीजी श्री चंद्रकान्ताश्रीजी श्री चंद्ररेखाश्रीजी श्री चारुव्रताश्रीजी श्री चंद्ररेखाश्रीजी श्री चंद्रकलाश्रीजी श्री चंद्रोदया श्रीजी श्री चंद्रकलाश्रीजी श्री जयानंदाश्रीजी श्री चंद्ररेखाश्रीजी श्री चंद्ररेखाश्रीजी श्री चंद्रोदया श्रीजी श्री देवयशाश्रीजी श्री चंद्रोदया श्रीजी श्री चंद्ररेखाश्रीजी श्री निर्मलगुणाश्रीजी श्री चंद्रोदया श्रीजी श्री जयलताश्रीजी श्री दिवाकर श्रीजी श्री मदनरेखाश्रीजी Page #454 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन श्रमणियों का बृहद इतिहास कृ. 2 कृ. 2 चै. कृ. 2 जंगी जंगी भचाऊ कृ. 10 मा. कृ. 11 कृ. 11 मृ. शु. 10 मा. शु. 4 गांधीधाम लाकडीया राधनपुर राधनपुर राधनपुर राणपुर अमदाबाद जंगी 2011 लुणावा मा. शु. 7 मा. शु. 7 लुणावा शु. 13 भचाऊ 28. श्री वीरधर्माश्रीजी जंगी 2003 29. श्री शीलवतीश्रीजी 2006 जंगी 2023 30. श्री चंद्रधर्माश्रीजी 2000 भचाऊ 2023 31. श्री चंद्रकिरणश्रीजी 2002 गांधीधाम 2023 32. श्री चेलणाश्रीजी 2004 लाकडीया 2023 33. श्री चारूवंदनाश्रीजी 1999 भावनगर 2026 34. श्री जितप्रज्ञाश्रीजी राधनपुर 2026 35. श्री जयकीर्तिश्रीजी राधनपुर 2026 36. श्री नयनरम्याश्रीजी राणपुर 2030 37. श्री चारूज्योतिश्रीजी 2001 अमदाबाद 2031 38. श्री विश्वदर्शनाश्रीजी - जंगी 40. श्री चित्तप्रसन्नाश्रीजी 2011 मुंबई 41. श्री चित्तरंजनाश्रीजी 2011 मुंबई 42. श्री चंद्रदर्शनाश्रीजी 2009 भचाऊ 2032 43. श्री जयरेखाश्रीजी ___2011 मुंबई 2032 44. श्री जयपद्माश्रीजी 2011 राधनपुर 45. श्री दक्षगुणाश्रीजी 2012 गारीयाधार 2032 46. श्री जयदर्शनाश्रीजी 2011 राधनपुर 47. श्री जिनदर्शनाश्रीजी पालीताणा 2033 48. श्री चारूकलाश्रीजी 2012 भचाऊ 2033 49. श्री समदर्शनाश्रीजी 2012 भचाऊ 2033 50. श्री नयनज्योतिश्रीजी 2011 आघोई 2034 51. श्री नयचंद्राश्रीजी 2020 भूजपुर 2034 52. श्री चारूलेखाश्रीजी 2014 लाकडीया 2034 53. श्री भव्यदर्शनाश्रीजी - पलांसवा 2034 54. श्री चारूकल्पाश्रीजी 2017 सामखीयारी 2034 55. श्री तत्त्वदर्शनाश्रीजी मुंबई 2037 56. श्री जयनंदिताश्रीजी लाकडीया 2037 57. श्री जयदर्शिताश्रीजी पलांसवा 2037 58. श्री चरणगुणाश्रीजी जवाहरनगर 2037 59. श्री जयप्रज्ञाश्रीजी पलांसवा - मा. शु. 13 शु. 13 लुणावा लुणावा जामनगर श्री चंद्रोदयाश्रीजी श्री चंद्रोदयाश्रीजी श्री चंपक श्रीजी श्री चंद्रोदयाश्रीजी श्री चंद्रोदयाश्रीजी श्री चारूलोचनाश्रीजी श्री ज्योतिप्रज्ञाश्रीजी श्री जितप्रज्ञाश्रीजी श्री निर्मलगुणाश्रीजी श्री चारूधर्माश्रीजी श्री वीरधर्माश्रीजी श्री चंद्रोदयाश्रीजी श्री चंद्रोदयाश्रीजी श्री चंद्रधर्माश्रीजी श्री जयलताश्रीजी श्री जितप्रज्ञाश्रीजी श्री चंद्ररेखाश्रीजी श्री जयपद्माश्रीजी श्री ज्योतिप्रज्ञाश्रीजी श्री चंद्रोदयाश्रीजी श्री चंद्रोदयाश्रीजी श्री निर्मलगुणाश्रीजी श्री निर्मलगुणाश्रीजी श्री चेलणाश्रीजी श्री चंद्रकलाश्रीजी श्री चंपक श्रीजी श्री चित्तप्रसन्नाश्रीजी श्री जयलताश्रीजी श्री जितप्रज्ञाश्रीजी श्री चारूगुणाश्रीजी श्री ज्योतिप्रज्ञाश्रीजी भचाऊ भचाऊ फा. कृ. 4 मा. कृ. 4 मा. शु. 4 भद्रेश्वर भद्रेश्वर भचाऊ भचाऊ मनफरा मनफरा जैसलमेर मा. शु. शु. 6 शु. 6 कृ.5 पो. कृ. 5 पो. कृ. 5 पो. कृ.5 वै. शु. 11 पालीताणा पालीताणा पालीताणा पालीताणा अंजार 392 Page #455 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्वेताम्बर परम्परा की श्रमणियाँ वै. शु. 11 का. कृ. 11 अंजार छाणी कटारीया । । नवं नवं वै. शु. 2 न न न भूजपुर कटारिया कटारिया कटारिया कटारिया कटारिया कटारिया लाकडीया पालीताणा फतेगढ़ सामखीयारी न - मुंद्रा - 2012 मुंबई 2039 2019 फतेगढ़ 2039 1985 भूजपुर - राजकोट 2039 2019 सणवा 2039 2019 कीडीयानगर 2039 2018 सई 2039 2018 आघोई 2039 2023 सामखीयारी 2039 लाकड़ीया 2039 - देशलपुर 2040 2014 फतेगढ़ 2041 __ 2019 भांडुप 2043 माधापर 2043 भुटकीया 2043 __ - अंजार 2043 ___ पलांसवा - वाटाबदर पलांसवा - रापर - पो. कृ. 6 चै. कृ. 5 न पो. कृ. 6 60. श्री जयमंगलाश्रीजी 61. श्री चंद्रज्योत्स्नाश्रीजी । श्री चारूनयनाश्रीजी श्री चैतन्यश्रीजी 64. श्री नयरेखाश्रीजी 65. श्री नयगुणाश्रीजी 66. श्री विरतिधर्माश्रीजी 67. श्री शांतरसाश्रीजी 68. श्री भव्यरंजनाश्रीजी 69. श्री शीलदर्शनाश्रीजी श्री चंद्रवदनाश्रीजी 71. श्री चिरंजयाश्रीजी 72. श्री जिनाज्ञाश्रीजी 73. श्री विरागरसाश्रीजी 74. श्री अक्षयचंद्राश्रीजी 75. श्री जिनरक्षिताश्रीजी 76. श्री जितमोहाश्रीजी 77. श्री जयपूर्णाश्रीजी 78. श्री विरतिपूर्णाश्रीजी 79. श्री मृगलोचनाश्रीजी 80.. श्री चंद्रनिलयाश्रीजी 81. श्री मुक्तिप्रियाश्रीजी 82. श्री चारूविनीताश्रीजी 83. श्री जिनकल्पाश्रीजी 84. श्री चारूविरतिश्रीजी श्री चारूनंदनाश्रीजी 86. श्री चिंतनपूर्णाश्रीजी 87. श्री चारूरक्षिताश्रीजी 88. श्री जिनरसाश्रीजी 89. श्री विरागपूर्णाश्रीजी अंजार श्री जयकीर्तिश्रीजी श्री चारूलोचनाश्रीजी श्री चित्रगुणाश्रीजी श्री दिवाकरश्रीजी श्री चंद्ररेखाश्रीजी श्री चित्रगुणाश्रीजी श्री वीरधर्माश्रीजी श्री शीलवतीश्रीजी श्री चित्तरंजनाश्रीजी श्री समदर्शनाश्रीजी श्री चेलणाश्रीजी श्री चितरंजनाश्रीजी श्री जयलताश्रीजी श्री विश्वदर्शनाश्रीजी श्री चारूप्रज्ञाश्रीजी श्री जितप्रज्ञाश्रीजी श्री जयमंगलाश्रीजी श्री जयानंदाश्रीजी श्री वीरधर्माश्रीजी श्री चंद्रकलाश्रीजी श्री चंद्रकलाश्रीजी श्री मदनरेखाश्रीजी श्री चारूलोचनाश्रीजी श्री जयदर्शनाश्रीजी श्री चारूलोचनाश्रीजी श्री चारूकलाश्रीजी श्री चित्तरंजनाश्रीजी श्री चारूकलाश्रीजी श्री जयदर्शिताश्रीजी श्री विरागरसाश्रीजी पो. कृ. 6 वै. शु. 4 अंजार अंजार । गांधीधाम गांधीधाम न नएं गांधीधाम । रापर रापर रापर । । वेरावल आडीसर बोटाद मा. शु. 14 आडीसर 2044 क माधापर भचाऊ 2045 2046 2046 2046 का. कृ. 6 शु. 3 म. शु. १ चै. कृ. 6 चै. कृ. 6 भीमासर भांडुप भूज भीमासर भीमासर - Page #456 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 5.3.5.9 श्री सुमतिश्रीजी का शिष्या परिवार 341 जन्म संवत् स्थान 1951 थराद क्रम साध्वी नाम श्री नीतिश्रीजी श्री प्रधान श्रीजी श्री दमयंती श्रीजी श्री मनोरंजनाश्रीजी श्री विद्युत्प्रभाश्रीजी श्री प्रवीणप्रभाश्रीजी 1. 2. 3. 4. 5. 6. 7. 8. 9. श्री हीर श्रीजी 10. श्री विजयलोचनाश्रीजी 11. श्री विक्रमेन्द्राश्रीजी 12. श्री नित्ययशाश्रीजी 13. श्री विभाकर श्रीजी 14. श्री विमलकलाश्रीजी 15. श्री विपुलगुणाश्रीजी 16. श्री मोक्षानंद श्रीजी 17. श्री नित्यानंद श्रीजी 18. श्री दिव्यकलाश्रीजी 19. श्री नित्यप्रभाश्रीजी 20. श्री इन्द्रयशाश्रीजी 21. श्री हर्षोज्वलाश्रीजी श्री प्रगुणप्रभाश्रीजी श्री विचक्षणाश्रीजी 22. श्री नयप्रज्ञाश्रीजी 23. श्री हर्षपूर्णाश्रीजी 24. श्री धर्मकीर्तिश्रीजी 25. श्री प्रियदर्शनाश्रीजी 26. श्री निर्मलकीर्तिश्रीजी 27. श्री मयूरकलाश्रीजी 28. श्री दक्षकलाश्रीजी 341 ' श्रमणीरत्नो', पृ. 415 1971 1952 1983 1980 रज 1988 लुदरा 1973 थराद वापी 1995 1989 1980 1987 1988 1986 1997 1995 1995 1991 वाव मच्छावा अमदाबाद 2001 1996 1999 2002 2002 अमदाबाद राधनपुर आघोई राधनपुर वाराही राधनपुर राधनपुर थराद वासणा राधनपुर राधनपुर वढवाण हारीज हारीज गमानपरा वाराही जंगी वासणा जूनाडीसा दीक्षा संवत् 1975 1992 1996 1997 2000 2000 2001 2006 2007 2009 2009 2010 2011 2013 2013 2014 2014 2015 2016 2018 2018 2021 2021 2022 2023 2025 394 तिथि वै. शु. 10 वै. कृ. 7 मृ. शु. 6 पो. कृ. 11 मा. शु. 11 चै. कृ. 4 मृ.शु. 6 मृ. शु. 10 ज्ये. शु. 5 फा. शु. 3 फा. कृ. 7 फा. कृ. 7 मा. शु. 13 वै. शु. 7 पो. कृ. 5 पो. कृ. 5 मृ.शु. 6 मृ. शु. 6 मा. शु. 13 मा. शु. 9 फा. शु. 2 फा. शु. 2 मृ. शु. 10 मा. शु. 6 वै.शु. 5 वै. शु. 3 ज्ये. शु. 5 जैन श्रमणियों का बृहद इतिहास दीक्षा स्थान थराद वाव सीपोर अमदाबाद रज लुदरा वाव अमदाबाद राधनपुर राधनपुर राधनपुर वाराही राधनपुर राधनपुर राधनपुर मांडवी मांडवी कटारीया वढवाण हारीज हारीज गमानपरा राधनपुर लोडाई राधनपुर जूनाडीसा गुरुणी नाम श्री सुमतिश्रीजी श्री सुमतिश्रीजी श्री नीतिश्रीजी श्री न्यायश्रीजी श्री न्यायश्रीजी श्री प्रधान श्रीजी श्री प्रवीणप्रभाश्रीजी श्री दमयंती श्रीजी श्री हेतश्रीजी श्री विद्युत्प्रभाश्रीजी श्री विद्युत्प्रभाश्रीजी श्री नीतिश्रीजी श्री विद्युत्प्रभाश्रीजी श्री विद्युत्प्रभाश्रीजी श्री विद्युत्प्रभाश्रीजी श्री नित्यानंद श्रीजी श्री नीतिश्रीजी श्री दमयंतिश्रीजी श्री नित्ययशाश्रीजी श्री विक्रमेन्द्राश्रीजी श्री हर्षपूर्णाश्रीजी श्री हर्षपूर्णाश्रीजी श्री नीतिश्रीजी श्री हर्षपूर्णा श्री विमलकलाश्रीजी श्री नित्ययशाश्रीजी श्री दिव्यकलाश्रीजी श्री दिव्यकलाश्रीजी Page #457 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवाडीसा 2029 राधनपुर विरमगाम राधनपुर लुणावा वढवाण सुरेन्द्रनगर सुरेन्द्रनगर मकरा गढ गढ श्वेताम्बर परम्परा की श्रमणियाँ 29. श्री दिव्यगुणाश्रीजी 2003 नवाडीसा 2026 वै.शु. 5 30. श्री हितप्रज्ञाश्रीजी 2005 थराद 2027 मा. शु. 10 श्री निर्मलयशाश्रीजी 2006 लोडाई 2028 मा. शु. 14 श्री केवलदर्शनाश्रीजी वापी मा. कृ. 6 श्री महापद्माश्रीजी 2003 राधनपुर फा. शु. 4 34. श्री हितपूर्णाश्रीजी 2010 विरमगाम 2030 मा. 35. श्री मोक्षरत्नाश्रीजी 2012 राधनपुर 2031 मा. शु. 11 36. श्री नयपूर्णाश्रीजी 2010 पलासवा 2032 मा. शु. 13 37. श्री विश्वदर्शिताश्रीजी 2011 लुणावा 2033 मा. शु. 3 38. श्री प्रशीलयशाश्रीजी 2008 राधनपुर 2033 39. श्री विरागयशाश्रीजी 2014 आघोई 2033 40. श्री इन्द्रवदनाश्रीजी 2009 मकरा 2033 41. श्री इन्द्रदर्शिताश्रीजी 42. श्री मुक्तिधर्माश्रीजी 2009 2034 चै. कृ. 7 43. श्री मुक्तिप्रभाश्रीजी 2012 गढ 2034 चै. कृ. 7 44. श्री हर्षदर्शिताश्रीजी 2013 नवाडीसा 2034 मा. शु. 11 45. श्री हर्षितप्रज्ञाश्रीजी 2013 नवाडीसा 2034 मृ. शु. 11 46. श्री वाचंयमाश्रीजी 2020 आघोई 2034 मा. शु. 6 47. श्री मोक्षदर्शिताश्रीजी 2013 नवाडीसा 2034 म. शु. 6 48. श्री मैत्रीरत्नाश्रीजी - नवाडीसा फा. शु. 9 49. श्री मैत्रीधर्माश्रीजी 2012 नवाडीसा फा. शु. 9 50. श्री मुक्तिरसाश्रीजी - धानेरा फा. शु. 11 51. श्री मुक्तिरेखाश्रीजी - धानेरा फा. शु. 11 52. श्री मुक्तिनिलयाश्रीजी - धानेरा फा. शु. 11 53. श्री दिव्यरत्नाश्रीजी 2012 पलांसवा 2035 म. शु. 9 54. श्री हर्षरक्षिताश्रीजी 2013 नवाडीसा 2037 मृ. शु. 12 55. श्री हर्षवंदनाश्रीजी 2013 नवाडीसा 2037 म. शु. 12 56. श्री विश्वनंदिताश्रीजी 2022 आघोई 2037 फा. शु. 3 श्री नयपद्माश्रीजी 2013 रापर 2037 फा. शु. 7 58. श्री दक्षनंदिताश्रीजी 2014 भीलडीयाजी 2038 मा. शु. 6 59. श्री नययशाश्रीजी 2015 भीमासर 2039 वै. शु.2 60. श्री विनयपूर्णाश्रीजी 2018 वढवाण 2039 वै. श. 2 395] नवाडीसा नवाडीसा श्री दिव्यकलाश्रीजी श्री हीरश्रीजी श्री नित्यप्रभाश्रीजी श्री हितप्रज्ञाश्रीजी श्री मोक्षानंदश्रीजी श्री हर्षोज्वलाश्रीजी श्री मोक्षानंदश्रीजी श्री नयमालाश्रीजी श्री विद्युत्प्रभाश्रीजी श्री प्रियदर्शनाश्रीजी श्री विक्रमेन्द्राश्रीजी श्री इन्द्रयशाश्रीजी श्री इन्द्रयशाश्रीजी श्री मोक्षानंदश्रीजी श्री मुक्तिधर्माश्रीजी श्री हर्षपूर्णाश्रीजी श्री हर्षदर्शिताश्रीजी श्री विजयलताश्रीजी श्री मोक्षानंदश्रीजी श्री मोक्षरत्नाश्रीजी श्री मैत्रीरत्नाश्रीजी श्री मुक्तिप्रभाश्रीजी श्री मुक्तिरसाश्रीजी श्री मुक्तिरेखाश्रीजी श्री दिव्यगुणाश्रीजी श्री हर्षपूर्णाश्रीजी श्री हर्षपूर्णाश्रीजी श्री विक्रमेन्द्राश्रीजी श्री नयमालाश्रीजी श्री दक्षकलाश्रीजी श्री निर्मलयशाश्रीजी श्री विश्वदर्शिताश्रीजी मकरा मात्राजा नवाडीसा नवाडीसा नवाडीसा शंखेश्वर शंखेश्वर नवाडीसा कटारीया कटारीया Page #458 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन श्रमणियों का बृहद इतिहास 61. श्री नयभद्राश्रीजी 2017 पलांसवा ___ 2039 62. श्री नयनज्योतिश्रीजी 2016 पलांसवा 2039 63. श्री विमलप्रज्ञाश्रीजी 2026 राधनपुर 2039 64. श्री कैवल्यगुणाश्रीजी 2021 धनपुरा 2039 65. श्री हितवंदिताश्रीजी 2015 2040 66. श्री हितवर्षाश्रीजी 2019 - 2040 67. श्री ललितगुणाश्रीजी 2024 जेगोल । 2041 68. श्री रक्षितगुणाश्रीजी 2026 जेगोल 2041 69. श्री विरतियशाश्रीजी - आघोई 2041 70. श्री निर्मलदर्शनाश्रीजी - थोरीयारी ___ 2042 71. श्री दिव्यदर्शिताश्रीजी 2019 जेतड़ा • 2043 72. श्री दिव्यलोचनाश्रीजी 2020 कमोडी 2043 73. श्री दर्शनगुणाश्रीजी 2027 कापरा 2046 वै. शु. 2 वै. शु. 2 वै. शु. 6 पो. कृ. 6 वै. शु. 5 वै. शु. 5 का. कृ. 6 मा. कृ. 6 का. क. 6 कटारीया कटारीया वांढीया नवाडीसा विरमगाम विरमगाम डीसा डीसा नवाडीसा थोरीयारी जेतड़ा डीसा आघोई श्री नयमालाश्रीजी श्री नयमालाश्रीजी श्री विमलकलाश्रीजी श्री दिव्यगुणाश्रीजी श्री हितपूर्णाश्रीजी श्री हितवंदिताश्रीजी श्री दिव्यगुणाश्रीजी श्री ललितगुणाश्रीजी श्री विजयलताश्रीजी श्री निर्मलयशाश्रीजी श्री दिव्यगुणाश्रीजी श्री दिव्यगुणाश्रीजी श्री दिव्यगुणाश्रीजी म. शु. 13 मा. शु. 6 मा. शु. 6 5.3.5.10 श्री उत्तमश्रीजी का शिष्या-परिवार3422 क्रम साध्वी नाम जन्म संवत् स्थान दीक्षा संवत् तिथि गुरूणी नाम दीक्षा स्थान अमदाबाद 1960 अमदाबाद 1981 फा. शु. 10 II मुंद्रा सांतेज सांतेज 1. श्री सुभद्राश्रीजी श्री सुशीलाश्रीजी श्री गिर्वाणश्रीजी श्री रमणीक श्रीजी श्री अमरेन्द्र श्रीजी 6. श्री मृगांकश्रीजी 7. श्री हेमंतश्रीजी 8. श्री सुलोचनाश्रीजी 9. श्री निपुणाश्रीजी 10. श्री यशोधराश्रीजी 11. श्री सुदर्शनाश्रीजी 12. श्री दिनेन्द्रश्रीजी 13. श्री विबुधश्रीजी 14. श्री सुलसाश्रीजी 1988 1988 1989 1989 1994 आषा. शु. 14 आषा. शु. 14 मृ. शु. 6 मृ. शु. 6 वै. खंभात खंभात सांतेज सांतेज श्री गुणश्रीजी श्री गुणश्रीजी श्री गुणश्रीजी श्री गुणश्रीजी श्री रमणिकश्रीजी श्री उत्तमश्रीजी श्री मृगांक श्रीजी श्री गुणश्रीजी श्री हेमंतश्रीजी श्री निपुणाश्रीजी श्री सुभेद्राश्रीजी श्री चंद्राश्रीजी श्री सुभद्राश्रीजी श्री सुभद्राश्रीजी 1967 अमदाबाद जलालपुर भरूच पो. कृ. 5 भरूच । न अंबाजीरा 1996 वै. कृ. 5 सूरत 1979 अमदाबाद 1998 मा. शु. 6 अमदाबाद 342. 'श्रमणीरत्नो', पृ. 418-20 396 Page #459 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मा. कृ. 6 म. शु. 6 वै. कृ. 3 वै. शु. 12 पो. शु. 11 मा. शु. 5 मा. शु. 5 फा. शु. 5 फा. शु.5 मा. शु. 11 वै. शु. 7 वै. शु. 7 शु. 3 एं F# # श्वेताम्बर परम्परा की श्रमणियाँ 15. श्री सूर्यप्रभाश्रीजी 1982 16. श्री क्षेमंकराश्रीजी 17. श्री सूर्ययशाश्रीजी 1979 18. श्री हिमांशुश्रीजी 19. श्री अंजनाश्रीजी 20. श्री शुभंकराश्रीजी 21. श्री जयप्रभाश्रीजी 22. श्री चंद्रलताश्रीजी । श्री निरूपमाश्रीजी 24. श्री हेमलताश्रीजी 25. श्री शुभोदयाश्रीजी 1990 26. श्री सुरेन्द्रश्रीजी 1993 27. श्री हर्षलताश्रीजी 28. श्री सिद्धप्रभाश्रीजी 1992 29. श्री अतिमुक्ताश्रीजी 30. श्री अभ्युदयाश्रीजी - 31. श्री कल्पगुणाश्रीजी 32. श्री हेमकलाश्रीजी 33. श्री महाप्रज्ञाश्रीजी 34. श्री यशोधनाश्रीजी 35. श्री सुवर्णरेखाश्रीजी 2000 36. श्री अनंतकीर्तिश्रीजी 37. श्री हृदययशाश्रीजी 38. श्री शीलगुणाश्रीजी 2000 39. श्री यशोधर्माश्रीजी - 40. श्री शीलरत्नाश्रीजी 2005 41. श्री विमलगुणाश्रीजी 42. श्री हेमज्योतिश्रीजी 43. श्री सौम्यरसाश्रीजी 2003 44. श्री यशोभद्राश्रीजी 45. श्री सौम्यगुणाश्रीजी 2009 46. श्री हर्षपूर्णाश्रीजी - 47. श्री ज्योतिमालाश्रीजी 1999 2001 अमदाबाद 2002 अमदाबाद 2002 अमदाबाद 2004 2005 2005 जामनगर 2009 मुंबई 2009 बहियल 2010 राधनपुर 2011 गोधावी 2011 अमदाबाद 2012 लींबड़ी 2014 मुंद्रा 2014 मुंद्रा 2014 दाभला 2016 अमदाबाद 2016 मुंबई 2017 2017 मनफरा 2017 अंजार 2018 बीलीमोरा 2020 लींबड़ी 2021 कीडीयानगर 2022 मनफरा 2022 रंगून 2023 खोंड 2024 विरमगाम 2026 अमदाबाद 2027 रोझु 2027 साबरमती 2027 जामनगर 2028 पालीताणा जोरावरनगर अमदाबाद अमदाबाद राधनपुर जलालपुर जलालपुर जामनगर जामनगर पालीताणा राधनपुर अमदाबाद करचेलिया लोंबड़ी लोंबड़ी लींबड़ी विसनगर आघोई बीदडा बीदड़ा मनफरा अंजार बीलीमोरा लींबड़ी कीडीयानगर श्री गुणश्रीजी श्री निपुणाश्रीजी श्री सुभद्राश्रीजी श्री हेमंतश्रीजी श्री अमरेन्द्र श्रीजी श्री निपुणाश्रीजी श्री शुभंकराश्रीजी श्री चंद्रलताश्रीजी श्री चंद्रलताश्रीजी श्री हेमंतश्रीजी श्री सुलोचनाश्रीजी श्री सुभद्राश्रीजी श्री हेमंतश्रीजी श्री सुभद्राश्रीजी श्री अमरेन्द्रश्रीजी श्री अमरेन्द्र श्रीजी श्री मनोरंजनाश्रीजी श्री हेमंतश्रीजी श्री यशोधराश्रीजी श्री महाप्रज्ञाश्रीजी श्री सुलसाश्रीजी श्री अमरेन्द्रश्रीजी श्री हेमंतश्रीजी श्री सुलोचनाश्रीजी श्री यशोधराश्रीजी श्री सुलसाश्रीजी श्री यशोधराश्रीजी श्री हेमकलाश्रीजी श्री सुलोचनाश्रीजी श्री यशोधनाश्रीजी श्री सुलसाश्रीजी श्री हेमंतश्रीजी श्री चंद्रलताश्रीजी मा. शु. 6 मा. शु. 6 वै. कृ. 6 वै. शु. फा. कृ.7 फा. कृ. 7 फा. शु. 10 म. शु. 6 वै. शु. 6 म. शु. 10 म. कृ. 4 मा. कृ. 2 पो. शु. 12 मुंबई मनफरा मा. शु. 5 वै. शु. 6 मृ. शु. 5 शु. 5 मृ. शु.5 अमदाबाद पीडवाडा लींबड़ी खंभात लींबड़ी साबरमती जामनगर 397 Page #460 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 48. श्री नीलपद्माश्रीजी 49. श्री अनंतज्योतिश्रीजी 50. श्री सौम्यज्योतिश्रीजी 51. श्री सौम्यकीर्तिश्रीजी 52. श्री सुज्येष्ठाश्रीजी 53. श्री हेममालाश्रीजी 54. श्री हितपूर्णाश्रीजी 55. श्री सौम्यदर्शिताश्रीजी 56. श्री हितदर्शिताश्रीजी 57. श्री सम्यग्दर्शनाश्रीजी 58. श्री अर्हद्दर्शिताश्रीजी 59. श्री यशोजयाश्रीजी 60. श्री मनोजयाश्रीजी 61. श्री ज्योतिदर्शनाश्रीजी 62. श्री जिनदर्शिताश्रीजी 63. श्री जितरसाश्रीजी 64. श्री नयदर्शिताश्रीजी 65. श्री निरागपूर्णाश्रीजी 66. श्री पुण्यदंता श्रीजी 67. श्री स्मितदर्शनाश्रीजी 2006 2007 2012 - 2012 2019 68. श्री स्मितवदनाश्रीजी 2022 69. श्री सिद्धान्तपूर्णाश्रीजी 2014 70. श्री हर्षवदनाश्रीजी 71. श्री शासनरसाश्रीजी 72. श्री अक्षयरत्नाश्रीजी 73. श्री उज्जवलरत्नाश्रीजी 74. श्री श्रुतपूर्णाश्रीजी 75. श्री शक्तिपूर्णाश्रीजी 2014 जामनगर दाभला मनफरा मनफरा हीरापुर हीरापुर हीरापुर अमदाबाद अमदाबाद मनफरा दाभला सामखीयारी पलांसवा जामनगर जामनगर जामनगर जामनगर जामनगर अमदाबाद मनफरा मनफरा बड़ी नवसारी वांकानेर नांदीया नांदीया मनफरा मनफरा 2028 2028 2028 2028 2030 2030 2030 2032 2032 2032 2032 2033 2034 2035 2035 2035 2035 2038 2040 2040 2040 2041 2042 2044 2045 2045 2046 2046 मृ. शु 5 फा. कृ. 3 फा. कृ. 3 फा. कृ. 3 मा. शु. 5 मा. शु. 10 मा. शु. 10 मा. शु. 5 मा. शु. 5 मा. शु. 13 मा. शु. 5 फा. कृ. 4 398 मा. शु. 10 वै.. शु. 3 वै.. शु. 3 वै.. शु. 3 म1. शु. 6 मृ. शु. 5 का. कृ. 4 मा. कृ. 6 मा. कृ. 6 मृ. शु. 6 फा. शु. 3 मा. शु. 5 फा. शु. 1 फा. शु. 1 वै. शु. 4 वै. शु. 4 जैन श्रमणियों का बृहद इतिहास श्री निरूपमा श्रीजी श्री क्षेमंकराश्रीजी श्री सुवर्णरेखाश्रीजी श्री सौम्यज्योतिश्रीजी जामनगर मनफरा मनफरा मनफरा बड़ी अमदाबाद अमदाबाद अमदाबाद अमदाबाद सुरेन्द्रनगर अमदाबाद भद्रेश्वर मनफरा पींडवाड़ा पडवाड़ा पडवाड़ा जामनगर जामनगर अमदाबाद सुरेन्द्रनगर सुरेन्द्रनगर बड़ी शंखेश्वर बड़ी नांदीया नांदीया भचाऊ भचाऊ श्री सुरेन्द्र श्रीजी श्री हितपूर्णाश्रीजी श्री हेमंत श्रीजी श्री सूर्यप्रभाश्रीजी श्री हेमकलाश्रीजी श्री सौम्यकीर्तिश्रीजी श्री हिमांशुश्रीजी श्री यशोधनाश्रीजी श्री यशोधर्माश्रीजी श्री ज्योतिमाला श्रीजी श्री ज्योतिदर्शनाश्रीजी श्री नयदर्शिताश्रीजी श्री निरूपमा श्रीजी 5.3.6 श्रीमद् विजयनेमीसूरीश्वरजी का श्रमणी - समुदाय तपागच्छ में आचार्य श्री विजयनेमीसूरि का समुदाय भी अति विशिष्ट और विशाल संख्या वाला है। वर्तमान में इस साध्वी- समुदाय में 441 साध्वियाँ तप, त्याग, वैराग्य एवं वैदुष्य से जैन - जैनतर वर्ग को प्रभावित कर रही हैं। श्री नीलपद्माश्रीजी श्री हेमंत श्रीजी श्री सम्यग्दर्शनाश्रीजी श्री स्मितदर्शनाश्रीजी श्री शीलगुणाश्रीजी श्री हितदर्शिताश्रीजी श्री शुभोदया श्रीजी श्री यशोधनाश्रीजी श्री यशोधनाश्रीजी श्री शीलरत्नाश्रीजी श्री श्रुतपूर्णाश्रीजी Page #461 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्वेताम्बर परम्परा की श्रमणियाँ 5.3.6.1 श्री सौभाग्यश्रीजी ( संवत् 1946-96 ) सौराष्ट्र के बोटाद गाँव में संवत् 1924 में श्री भगुभाई जीवाजी के यहाँ आपका जन्म हुआ 14 वर्ष की उम्र में विवाह और 16 वर्ष की उम्र में वैधव्य को प्राप्त होने पर पंजाब के पू. लब्धिविजयजी महाराज के उपदेश से वैराग्य की ज्योति प्रज्वलित हो गई। दीक्षा के लिये सतत संघर्ष करने पर भी अनुमति प्राप्त नहीं हुई तो 'चूड़ा' गाँव की धर्मशाला में स्वतः संयमी वेश ग्रहण कर लिया, अंततः परिवारी जनों ने 'सायला' दीक्षा की अनुमति दी। संवत् 1946 वैशाख शुक्ला 2 को श्री खांतिविजयजी म. के वरद हस्तों से दीक्षित होकर श्री देवश्री जी की शिष्या बनीं। आपने अनेक मंदिरों के जीर्णोद्धार एवं निर्माण की प्रेरणा दी। अनेक शिष्या - प्रशिष्याओं के मार्गदृष्टा बने! विशेष रूप से बालुचर की महारानी मीनाकुमारी जो प्रतिदिन पान के 50 बीड़े खाती थी, उसे बीस स्थानक की ओली तप से जोड़कर सदा-सदा के लिये व्यसनमुक्त कर दिया। उसने आपकी प्रेरणा से खंभात में धार्मिक पाठशाला की स्थापना करवाई, आज भी उस पाठशाला से अनेकों श्राविकाएँ एवं साध्वियाँ ज्ञानार्जन करती हैं। संवत् 1996 को पालीताणा में आपका समाधिपूर्वक स्वर्गवास हुआ। 343 5.3.6.2 श्री जिनेन्द्र श्रीजी ( संवत् 1989-2043 ) खंभात निवासी शेठ भोगीलालभाई की धर्मपत्नी मंगलाबहेन की कुक्षि से संवत् 1964 में इनका जन्म हुआ । लग्न के छः मास पश्चात् ही वैधव्य के दुःख से संसार की नश्वरता का बोधकर ये अन्य दो सखियों- रेवाबहेन और कांताबहेन के साथ संवत् 1989 ज्येष्ठ शुक्ला 4 के शुभ दिन स्वयं दीक्षा अंगीकार कर गुणश्रीजी की शिष्या बनीं। आगम एवं धर्म-ग्रंथों का गहन अभ्यास किया, अपने स्वजन, संबंधी तथा अन्य कई मुमुक्षु बहनों को संयम पथ पर आरूढ़ किया। संवत् 2043 बोटाद चातुर्मास में ये परलोकवासिनी हुईं। 344 इनकी श्री ऋजुमतिश्रीजी, मतिधरा श्रीजी, श्रुतधराश्रीजी, भूषणरत्नाश्रीजी, निधिरत्नाश्रीजी, जिनाज्ञा श्रीजी, विशालनंदिनी श्रीजी, राजनंदिनी श्रीजी, पृथ्वीधराश्रीजी, वैराग्यपूर्णाश्रीजी, श्वेतधराश्रीजी, पूर्वधराश्रीजी, कोविदरत्नाश्रीजी, प्रतिबोधरत्नाश्रीजी, जैनम्धराश्रीजी, हर्षोदया श्रीजी, हर्षलताश्रीजी, चंद्रहर्षाश्रीजी, मुक्तिसेनाश्रीजी, अर्हत्सेनाश्रीजी, तत्त्वरूचि श्रीजी, धन्यसेनाश्रीजी, मुक्तिसेनाश्रीजी, काव्ययशाश्रीजी आदि के अतिरिक्त कुछ शिष्या - प्रशिष्याओं का परिचय प्राप्त हुआ वह तालिका में दे रहे हैं 1345 5.3.6.3 श्री जिनेन्द्र श्रीजी का शिष्या - परिवार क्रम साध्वी नाम 1. 2. 3. श्री कीर्तिश्रीजी श्री जयप्रभाश्रीजी श्री कांतगुणाश्रीजी श्री कैलास श्रीजी जन्म संवत् स्थान दीक्षा संवत् तिथि खंभात खेड़ा गोधरा खंभात 4. 343. 'श्रमणीरत्नो', पृ. 423 344. वही, पृ. 450 345. वही, पृ. 451-52 399 For Private Personal Use Only दीक्षा स्थान खंभात खंभात खंभात खंभात गुरुणी नाम श्री जिनेन्द्र श्रीजी श्री जिनेन्द्र श्रीजी श्री जिनेन्द्र श्रीजी श्री जिनेन्द्र श्रीजी Page #462 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री धर्मिष्ठाश्रीजी श्री विचक्षणाश्रीजी 5. 6. 7. श्रीकुमुदप्रभाश्रीजी 8. श्री हर्षप्रभाश्रीजी 9. श्री कल्पगुणाश्रीजी 10. श्री राजीमती श्रीजी 11. श्री चंद्रपूर्णाश्रीजी 12. श्री अभयप्रज्ञाश्रीजी 13. श्री ज्योतिप्रज्ञाश्रीजी 14. श्री इन्द्रयशाश्रीजी 15. श्री महाभद्राश्रीजी 16. श्री सन्मतिश्रीजी 17. श्री मुक्तिमतिश्रीजी 18. श्री कीर्तिसेनाश्रीजी 19. श्री महाप्रज्ञा श्रीजी 20. श्री शीलवती श्रीजी 21. श्री महानंदाश्रीजी 22. श्री लब्धिमतिश्रीजी 23. श्री भव्यरत्नाश्रीजी 24. श्री कल्परत्नाश्रीजी 25. श्री हेमरत्नाश्रीजी 26. श्री सम्यक्रत्नाश्रीजी 27. श्री आगमरसाश्रीजी 28. श्री मोक्षयशाश्रीजी 29. श्री भव्यपूर्णा श्रीजी खंभात खंभात मातर गोधरा गोधरा बोटाद बोटाद बोटाद बोटाद बोटाद बोटाद बोटाद बोटाद बोटाद बोटाद बोटाद खंभात भावनगर सुरेन्द्रनगर बोटाद बोटाद बड़ी बोटाद बोटाद 400 जैन श्रमणियों का बृहद इतिहास श्री जिनेन्द्र श्रीजी श्री जिनेन्द्र श्रीजी श्री जिनेन्द्र श्रीजी श्री कीर्तिश्रीजी श्री कीर्तिश्रीजी श्री विचक्षणाश्रीजी श्री विचक्षणाश्रीजी श्री राजीमती श्रीजी श्री राजीमती श्रीजी श्री जिनेन्द्र श्रीजी श्री कल्पगुणाश्रीजी श्री कीर्तिश्रीजी श्री राजीमती श्रीजी श्री महाभद्राश्रीजी श्री ज्योतिप्रज्ञाश्रीजी श्री ज्योतिप्रज्ञाश्रीजी श्री धर्मिष्ठाश्रीजी श्री कीर्तिश्रीजी श्री सन्मतिश्रीजी श्री राजीमती श्रीजी श्री सन्मतिश्रीजी श्री मुक्तिमतिश्रीजी श्री अभयप्रज्ञाश्रीजी खंभात खंभात खंभात गोधरा गोधरा बोटाद बोटाद बोटाद बोटाद बोटाद बोटाद बोटाद बोटाद बोटाद बोटाद बोटाद खंभात 5.3.6.4 श्री प्रवीणाश्रीजी ( संवत् 1990 के लगभग ) संवत् 1973 वेजलपुर में पिता वाडीलालभाई के यहाँ इनका जन्म हुआ, विवाह के पश्चात् गांधीवादी विचारों के धनी पति शांतिभाई की जेल इनके वैराग्य में निमित्त बनीं, उमराला में स्वयं दीक्षित होकर ये गुणश्रीजी की शिष्या के रूप में दीक्षित हो गईं। इनकी वाणी का प्रभाव अपूर्व है, जो मुमुक्षुओं में संयम की प्रेरणा जागृत कर देता है, इनकी प्रेरणा से 108 आत्माएँ संयममूर्ति के रूप में जिनशासन को उपलब्ध हुई हैं। 346 346. वही, पृ. 457-59 पालीताणा सुरेन्द्रनगर अमदाबाद अमदाबाद अमदाबाद लींबड़ी बोटाद बोटाद श्री अभयप्रज्ञाश्रीजी श्री चंद्रपूर्णाश्रीजी Page #463 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्वेताम्बर परम्परा की श्रमणियाँ श्री प्रवीणाश्रीजी का शिष्या-परिवार 347 क्रम साध्वी नाम श्री कलावती श्रीजी श्री चंद्रलताश्रीजी श्री सुयशाश्रीजी श्री जितेन्द्र श्रीजी 1. 2. 3. 4. 5. श्री कल्पयशाश्रीजी 6. श्री सौरभयशाश्रीजी 7. श्री शशीयशाश्रीजी 8. श्री जितज्ञयशाश्रीजी 9. श्री मनोज्ञगुणाश्रीजी 10. श्री विपुलयशाश्रीजी 11. श्री राजयशाश्रीजी 12. श्री जिनयशाश्रीजी 13. श्री भुवनयशाश्रीजी 14. श्री वंदनयशाश्रीजी 15. श्री शुद्धयशाश्रीजी 16. श्री कीर्तनयशाश्रीजी 17. श्री कीर्तियशा श्रीजी 18. श्री रयणयशाश्रीजी 19. श्री किरणयशाश्रीजी 20. श्री गीतयशा श्रीजी 21. श्री मार्गयशाश्रीजी जन्म संवत् स्थान गोधरा गोधरा गोधरा गोधरा 22. श्री ज्ञातयशा श्रीजी 23. श्री उज्जवलयशाश्रीजी 24. श्री चरणयशाश्रीजी 25. श्री उदययशाश्रीजी 26. श्री तिलकयशाश्रीजी 27. श्री वीतरागयशाश्रीजी 28. श्री शाश्वतयशाश्रीजी 29. श्री मृदुयशा श्रीजी 347. वही, पृ. 460-61 2009 2010 खंभात खंभात शिहोर मुंबई वेजलपुर वेजलपुर सुरेन्द्रनगर भावनगर सुरेन्द्रनगर सुरेन्द्रनगर वेजलपुर गोधरा मुंबई गदग करांची राधनपुर करांची बोटाद सुरेन्द्रनगर भावनगर ध्रांगध्रा ध्रांगध्रा भावनगर वेजलपुर मुंबई दीक्षा संवत् 2007 2013 2015 2016 2017 2022 2025 2027 2027 2029 2031 2034 2036 तिथि मा. कृ. 1 म. शु. 13 मृ. कृ. 2 वै. शु. 6 मृ. कृ. 2 वै. शु. 6 ज्ये. शु. 6 मा. शु. 7 का. शु. 11 फा. शु. 4 मा. कृ. 5 मा. शु. 5 फा. शु. 6 401 दीक्षा स्थान बोटाद गोधरा गोधरा गोधरा खंभात वेजलपुर खंभात वेजलपुर वेजलपुर मुंबई अमदाबाद भावनगर सुरेन्द्रनगर मुंबई पालीताणा वेजलपुर मुंबई मुंबई वाण राधनपुर पालीताणा बोटाद सुरेन्द्रनगर भावनगर ध्रांगध्रा परोलीतीर्थ मुंबई मुंबई मुंबई गुरुणी नाम श्री प्रवीणाश्रीजी श्री प्रवीणाश्रीजी श्री प्रवीणाश्रीजी श्री प्रवीणाश्रीजी श्री प्रवीणाश्रीजी श्री प्रवीणाश्रीजी श्री प्रवीणाश्रीजी श्री प्रवीणाश्रीजी श्री प्रवीणाश्रीजी श्री मनोज्ञगुणाश्रीजी श्री मनोज्ञगुणाश्रीजी श्री विपुलयशाश्रीजी श्री मनोज्ञगुणाश्रीजी श्री भुवनयशाश्रीजी श्री प्रवीणाश्रीजी श्री शुद्धयशाश्रीजी श्री प्रवीणाश्रीजी श्री प्रवीणाश्रीजी श्री कलावती श्रीजी श्री रयणयशाश्रीजी श्री कलावती श्रीजी श्री प्रवीणाश्रीजी श्री ज्ञातयशा श्रीजी श्री रयणयशाश्रीजी श्री कीर्तियशा श्रीजी श्री कीर्तियशा श्रीजी श्री रयणयशाश्रीजी श्री रयणयशाश्रीजी श्री रयणयशाश्रीजी Page #464 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 30. श्री मित्रयशाश्रीजी 31. श्री वज्रयशाश्रीजी 32. श्री वर्धमानयशाश्रीजी 33. श्री चारूयशाश्रीजी 34. श्री कल्याणयशाश्रीजी 35. श्री भक्तियशाश्रीजी 36. श्री संवेगयशाश्रीजी 37. श्री कृपायशाश्रीजी 38. श्री चंद्रयशाश्रीजी 39. श्री वीरयशाश्रीजी 40. श्री विनीतयशाश्रीजी 41. श्री मलययशाश्रीजी 42. श्री धर्मयशाश्रीजी 43. श्री विश्वयशाश्रीजी 44. श्री भव्ययशाश्रीजी 45. श्री त्रिपदीयशाश्रीजी 46. श्री त्रिगुणयशाश्रीजी 47. श्री धन्ययशाश्रीजी 48. श्री विरागयशाश्रीजी 49. श्री मंगलयशाश्रीजी 50. श्री दर्शनयशाश्रीजी 51. श्री वरबोधियशाश्रीजी 52. श्री महाव्रतयशाश्रीजी 53. श्री तत्त्वयशाश्रीजी 54. श्री विरतियशाश्रीजी 55. श्री मंजुलयशाश्रीजी 56. श्री क्षमायशा श्रीजी 57. श्री अतुलयशाश्रीजी 58. श्री यशाश्रीजी 59. श्री पूर्णयशाश्रीजी 60. श्री त्रिदशयशाश्रीजी 61. श्री तेजयशा श्रीजी 2018 1995 2002 2002 2015 2009 2016 पूना ध्रांगध्रा रांधेजा राधनपुर I मुंबई वांकानेर मुंबई माढा वांकड चोटीला राजकोट अमदाबाद भावनगर दूधरेज दहेज धोधा मुंबई मुंबई सुरेन्द्रनगर मुंबई आई आधोई खेखा मुंबई मुंबई अमदाबाद धोळा धोळाजंक्शन 2037 2038 2046 2014 2023 2023 2028 2028 2031 2034 2034 2034 402 वै. कृ. 2 मा. कृ. 2 मा. शु. 13 वै. शु. 7 मा. कृ. 13 मा. कृ. 13 फा. शु. 5 फा. शु. 5 वै. कृ. 5 मा. शु. 5 मृ. शु. 5 मृ. शु. 8 जैन श्रमणियों का बृहद इतिहास श्री कीर्तियशा श्रीजी श्री उदययशाश्रीजी श्री मित्रयशाश्रीजी श्री प्रवीणाश्रीजी श्री चारुयशा श्रीजी श्री चारूयशाश्रीजी श्री चारूयशाश्रीजी श्री चारुयशा श्रीजी श्री चारुयशा श्रीजी श्री चारुयशा श्रीजी श्री प्रवीणाश्रीजी श्री प्रवीणाश्रीजी श्री विनीतयशा श्रीजी श्री विनीतयशा श्रीजी श्री विनीतयशा श्रीजी श्री विनीतयशा श्रीजी श्री विनीतयशा श्रीजी श्री विश्वयशाश्रीजी श्री विनीतयशा श्रीजी श्री विनीतयशा श्रीजी श्री मंगलयशाश्रीजी श्री दर्शनयशाश्रीजी श्री धन्ययशाश्रीजी श्री प्रवीणाश्रीजी श्री तत्त्वयशाश्रीजी श्री तत्त्वयशाश्रीजी श्री प्रवीणाश्रीजी श्री क्षमायशा श्रीजी श्री मंजुलयशाश्रीजी श्री तत्त्वयशाश्रीजी पूना वेजलपुर वडोदरा पालीताणा पालीताणा पालीताणा पालीताणा पालीताणा पालीताणा पालीताणा पालीताणा खंभात पालीताणा पालीताणा भूज अमदाबाद अमदाबाद सुरेन्द्रनगर भावनगर मुंबई मुंबई घोघा सुरेन्द्रनगर मुंबई पालीताणा पालीताणा पालीताणा पालीताणा शामसीआरी मुंबई अमदाबाद भावनगर श्री अतुलयशाश्रीजी श्री अतुलयशाश्रीजी Page #465 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुंबई मुंबई श्वेताम्बर परम्परा की श्रमणियाँ 62. श्री सुव्रतयशाश्रीजी 2011 कपड़वंज 2035 वै. शु. 6 पालीताणा श्री अतुलयशाश्रीजी 63. श्री सिद्धियशाश्रीजी 2014 बीदड़ा 2036 फा. शु. 6 श्री मंजुलयशाश्रीजी 64. श्री कमलयशाश्रीजी 2036 फा. कृ. 5 मुंबई श्री मंजुलयशाश्रीजी 65. श्री भाग्ययशाश्रीजी 2023 मुंबई 2036 ज्ये. शु. 10 श्री यशाश्रीजी 66. श्री अमरयशाश्रीजी 2017 कपड़वंज 2936 मा. कृ. 5 कपड़वंज श्री अतुलयशाश्रीजी 67. श्री रिद्धियशाश्रीजी 2023 तलाजा 2044 फा. कृ. 8 तलाजा श्री अतुलयशाश्रीजी 68. श्री चैतन्ययशाश्रीजी 2021 मेंदरड़ा 2046 फा. शु. 3 राजकोट श्री अतुलयशाश्रीजी 69. श्री गीर्वाणयशाश्रीजी - मोजीदड़ 2046 फा. शु. 3 राजकोट श्री अतुलयशाश्रीजी 5.3.6.6 श्री सूर्यप्रभाश्रीजी (संवत् 1995 के लगभग) इनका जन्म वेडछा ग्राम में हुआ, नवसारी निवासी, छगनभाई (वर्तमान में आचार्य श्री विजयकुमुदचन्द्रसूरि) के साथ विवाह संबंध हुआ। संयम-साधना की उत्कट भावना से दोनों ने दीक्षा अंगीकार की, ये श्री गुणश्रीजी की शिष्या बनीं। इनमें भक्तियोग के साथ वैयावच्च का विशिष्ट गुण था, इनकी तपाराधना भी अभूतपूर्व थी, मासक्षमण, श्रेणीतप, सिद्धितप, वर्धमान तप की 36 ओली, 500 आयंबिल आदि दीर्घ व कठोर तपस्याएँ की। वडोदरा के देरापोल उपाश्रय में आपका स्वर्गवास हुआ। आपकी शिष्या-प्रशिष्याओं का परिचय तालिका में दिया गया है। 5.3.6.7 श्री विद्युत्प्रभाश्रीजी (संवत् 2003-स्वर्गस्थ) ये आचार्य विजयनेमिसूरीश्वर जी की संसारपक्षीया भतीजी थीं। मधुपुरी के श्रेष्ठी चुनीभाई के साथ इनका विवाह संबंध हुआ, उनके स्वर्गवास के पश्चात् संवत् 2003 काल्गुन कृष्णा 5 कदम्बगिरि तीर्थ में श्री देवीश्री जी की शिष्या के रूप में दीक्षा अंगीकार की, पुत्री भी शशिप्रभाजी के नाम से ख्यातनामा साध्वी है। विद्युत्प्रभाजी ने शासन-प्रभावना के विविध कार्य-जिनालय जीर्णोद्धार, प्रतिष्ठापन, पुस्तक प्रकाशन आदि करवाये। इनकी नेश्राय की 24 से अधिक साध्वियाँ रत्नत्रय की आराधना में संलग्न हैं।48 5.3.6.8 श्री पुण्यप्रभाश्रीजी आपकी निष्कारण करूणा एक भाई ने लिखी- मैं सारा दिन परिवार के लिये मेहनत मजदूरी करता, पर परिवार में मेरी कोई कदर नहीं, शिक्षित होने पर भी मेरी शिक्षा फली नहीं, परिवार में मेरे प्रति किसी का सम्मान नहीं, अतः मैंने आत्महत्या का निर्णय किया। साध्वीजी को शंका हुई, उन्होंने मुझे बुलवाया, मुझे समझाया ऐसी शांति प्रदान की, कि आज तक मेरा मन शांत है। अब जटिल परिस्थितियों में भी मस्तिष्क संतुलित रहता है।349 साध्वी पुण्यप्रभाश्रीजी जैसी सैंकड़ों साध्वियाँ वर्तमान में जन-मानस को सही दिशादर्शन देकर सत्पथ पर लगाने का महनीय काय कर रही हैं। 348. वही, पृ. 841 349. वही, 470 403 Page #466 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन श्रमणियों का बृहद इतिहास दीक्षा स्थान महुवा महुवा महुवा भावनगर सूरत 5.3.6.9 श्री सूर्यप्रभाश्रीजी महाराज की शिष्या-प्रशिष्याएँ 50 क्रम साध्वी नाम जन्म संवत् स्थान दीक्षा संवत् तिथि 1. श्री सौम्यप्रभाश्रीजी 1999 करांची 2016 मा. शु. 5 श्री सुवर्णप्रभाश्रीजी 2001 करांची 2016 मा. __ श्री प्रियधर्माश्रीजी 2005 करांची 2026 मा. शु. 3 श्री कीर्तिप्रभाश्रीजी 2002 भावनगर 2026 मा. कृ. 5 श्री कल्परत्नाश्रीजी 2000 सूरत 2026 मा. कृ. 7 6. श्री तीर्थरत्नाश्रीजी 2010 पालीताणा 2034 ___फर. 12 श्री तेजरत्नाश्रीजी 2009 सूरत 2034 मा. शु. 5 8. श्री जयरत्नाश्रीजी 2009 पालीताणा 2037 9. श्री ज्ञेयरत्नाश्रीजी 2013 बोटाद 2037 श्री शासनरत्नाश्रीजी 2016 मोरीआ 2038 11. श्री मोक्षरत्नाश्रीजी 2017 शिवेन्द्रनगर 2038 फा. शु. 3 12. श्री कुलरत्नाश्रीजी 2018 मुंबई 2043 वै. शु. 6 13. श्री रत्नधर्माश्रीजी - तावीड़ा (सौ.) 2043 वै. शु. 6 पालीताणा गुरूणी नाम श्री सूर्यप्रभाश्रीजी श्री सौम्यप्रभाश्रीजी श्री सौम्यप्रभाश्रीजी श्री सौम्यप्रभाश्रीजी श्री सौम्यप्रभाश्रीजी श्री सौम्यप्रभाश्रीजी श्री सुवर्णप्रभाश्रीजी श्री सौम्यप्रभाश्रीजी श्री सौम्यप्रभाश्रीजी श्री सौम्यप्रभाश्रीजी श्री सौम्यप्रभाश्रीजी श्री कल्परत्नाश्रीजी श्री सूर्यप्रभाश्रीजी 2037 चै. कृ. 10 ना ना सूरत मुंबई मुंबई मुंबई मुंबई मुंबई महुवा 5.3.7 आचार्य श्री नीतिसूरीश्वरजी का श्रमणी-समुदाय तपागच्छ के शासनप्रभावक गच्छाधिपति आचार्य विजयनीतिसूरिजी महाराज की आज्ञानुवर्तिनी श्रमणियों में श्री भुवनश्रीजी गुणश्रीजी आदि का नाम शीर्षस्थान पर है, ये शांतमूर्ति, परमविदुषी तपस्विनी महासाध्वी थीं, इनके परिवार की ललितप्रभाश्रीजी के उपदेशों से इस समुदाय में साध्वियों की आशातीत वृद्धि हुई, वर्तमान में श्री महिमाश्रीजी, नवलश्रीजी, लावण्यश्रीजी तथा निर्मल श्रीजी का विशाल श्रमणी-परिवार पूरे भारत में विचरण कर जैनधर्म की पताका को फहराने में अपना अप्रतिम योगदान दे रहा है, वर्तमान में इनकी संख्या 398 आंकी गई है। समुदाय स्थित सभी श्रमणियों की उपलब्ध गौरव गाथा यहाँ अंकित कर रहे हैं। 5.3.7.1 श्री लाभश्रीजी (संवत् 1967-2027) झींझुवाड़ा में संवत् 1943 को जन्म लेकर ये 14 वर्ष की उम्र में वैधव्य को प्राप्त हुईं, पश्चात् संवत् 1967 माघ कृष्णा 2 के दिन श्री गुणश्रीजी के चरणों में दीक्षा अंगीकार की। इन्होंने स्वजीवन में तप को महत्त्वपूर्ण स्थान दिया, छ?, अट्ठम अठाई, 16 आदि बड़ा या छोटा कोई भी तप हो, एकासणे सतत चालु रखे। स्वजनों को प्रतिबोधित कर आत्मकल्याण के मार्ग पर बढ़ाने में भी इनका अपूर्व योगदान रहा, यही कारण है कि इनके परिवार की 17 पुण्यात्माओं ने दीक्षा अंगीकार की, जो अपने वैदुष्य एवं धर्म प्रभावक रूप में संघ में विख्यात हैं। 84 350. वही, पृ. 472 351. संपादक-श्री बाबूलाल जैन, समग्र जैन चातुर्मास सूची, ईसवी सन् 2005 पृ. 188 404 Page #467 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्वेताम्बर परम्परा की श्रमणियाँ वर्ष की दीर्घायु में 60 वर्ष शुद्ध संयम का पालन कर ये समाधिपूर्वक स्वर्गवासिनी हुईं। श्री लाभ श्री की पाँच विदुषी शिष्याएँ हैं- श्री मंगलाश्रीजी, सुशीलाश्रीजी, मनोहरश्रीजी, चंद्रप्रभाश्रीजी तथा कंचनश्रीजी। श्री कंचनश्रीजी की शिष्या लावण्यश्रीजी अत्यंत विदुषी शासन प्रभाविका साध्वी हैं उनका परिचय पृथक् रूप से अंकित है। शेष प्रशिष्याओं के नामोल्लेख मात्र उपलब्ध हुए हैं जो इस प्रकार हैं-श्री स्नेहलताश्रीजी, श्री अभयप्रज्ञाश्रीजी, व्रतनंदिताश्रीजी, सूर्यप्रभाश्रीजी, शुभंकराश्रीजी, मालिनीयशाश्रीजी, शासनदर्शिताश्रीजी, श्रेयःवर्धनाश्रीजी, आत्मप्रभाश्रीजी, प्रज्ञाश्रीजी, अर्केन्दुश्रीजी, कैलासश्रीजी, हर्षपूर्णाश्रीजी, कैवल्यरत्नाश्रीजी, धैर्यप्रज्ञाश्रीजी, मौनरलाश्रीजी, प्रशीलयशाश्रीजी, संयमदर्शिताश्रीजी, मैत्रीदर्शिताश्रीजी, शीलरत्नाश्रीजी, संवेगरत्नाश्रीजी, श्रुतवर्धनाश्रीजी, भावितरत्नाश्रीजी, साधि तरत्नाश्रीजी, मोक्षरत्नाश्रीजी, अर्पितगुणाश्रीजी, समर्पितगुणाश्रीजी, जिनेन्द्रप्रभाश्रीजी, सिद्धिपूर्णाश्रीजी, अक्षयरत्नाश्रीजी, मैत्रीपूर्णाश्रीजी, जिनरक्षिताश्रीजी, समकितरत्नाश्रीजी, सुलसाश्रीजी, पद्मरेखाश्रीजी, अर्हत्पद्माश्रीजी, मृगनयनाश्रीजी, मुक्तिनिलयाश्रीजी, भव्यदर्शिताश्रीजी, रम्यदर्शनाश्रीजी, चंद्रयशाश्रीजी, तरूणश्रीजी, भद्रगुप्ताश्रीजी3521 5.3.7.2 श्री मनोहरश्रीजी (संवत् 1967 के लगभग) आगमप्रज्ञ, दर्शनप्रभावक मुनि श्री जंबूविजयजी की मातेश्वरी एवं श्री भुवनविजयजी की संसारपक्षीया धर्मसहचरी मनोहरश्रीजी स्वयं भी तप-संयम की जीवन्त प्रतिमूर्ति है। झींझूवाड़ा के पोपटभाई और बेनीबहन को इनका जन्मप्रदाता बनने का सौभाग्य प्राप्त हुआ। पति के दीक्षित होने पर ये स्वयं भी 45 वर्ष की उम्र में आठ वर्षीय पुत्र के साथ श्री लाभश्रीजी (बहिन) के पास दीक्षित हो गईं। आत्मा को कर्मभार से मुक्त करने के लिये इन्होंने उग्र तपस्याएँ की- मासक्षमण, चत्तारि, अट्ठ दस दोय, सिद्धितप, श्रेणीतप, समवसरण तप, 5 वर्षीतप, 20, 16, 11, 10 उपवास, 7 अठाई, वर्धमान तप की 60 ओली, आजीवन एकासणा आदि तप किया। 100 वर्ष की उम्र में भी ये सदा अप्रमत्त जीवन जीती रहीं। अपने पीहर पक्ष से 70 व श्वसुरपक्ष से 6 आत्मार्थी जनों की प्रतिबोधिका रहीं। स्वयं की 45 शिष्या-प्रशिष्याएँ थीं, सबके लिये उनका एक ही वाक्य था-'परचिंता मां पड़शो नहीं, आत्मचिंता ज करजो' ऐसी तपस्विनी, दीर्घायुषी महासाध्वी का आशीर्वाद प्राप्त करके साधु-साध्वी श्रावक-श्राविका अपना अहोभाग्य समझते थे । श्री मनोहराश्रीजी की तीन शिष्याएँ चारित्रश्रीजी, महिमाश्रीजी, विमलश्रीजी हैं, आगे इन तीनों का विशाल परिवार है। चारित्रश्रीजी का शिष्या परिवार-प्रभाश्रीजी, चंद्रप्रभाश्रीजी, मंजुलाश्रीजी, चंद्रकलाश्रीजी, चंद्रयशाश्रीजी, महायशाश्रीजी, चंद्रनंदिताश्रीजी, अमितप्रज्ञाश्रीजी, अक्षयप्रज्ञाश्रीजी, अनंतप्रज्ञाश्रीजी, अर्पणरसाश्रीजी, आगमरसाश्रीजी, आर्जवरसाश्रीजी, अमीझरणाश्रीजी, पावनरसाश्रीजी, अपूर्वरसाश्रीजी। विमलश्रीजी की 3 शिष्याएँ हैं- गुणश्रीजी, हेमश्रीजी, चारूलताश्रीजी। 5.3.7.3 प्रवर्तिनी महिमाश्रीजी (संवत् 1984-2042) श्री महिमाश्री का जन्म गुर्जरदेश में स्थित राधनपुर के श्रेष्ठी श्री जगजीवनदास की धर्मपत्नी मणिबहेन की कुक्षि से संवत् 1960 में हुआ। वहीं के मणिलालभाई के साथ इनका विवाह हुआ, किंतु चार मास के पश्चात् ही ये विधवा हो गईं। मनोहरश्रीजी के सत्संग से वैराग्य की भावना तीव्र हुई तो संवत् 1984 आषाढ़ शुक्ला 3 के दिन दीक्षा अंगीकार की। अल्पवय से ही इन्होंने सिद्धितप, चत्तारि अट्ठ दस दोय, समवसरण, सिंहासन तप 16, 352. 'श्रमणीरत्नो', पृ. 504-505 353. वही, पृ. 500-501 405 Page #468 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन श्रमणियों का बृहद इतिहास 15, 11, 10, 9, 8 उपवास, बीसस्थानक, तेरहकाठिया, गणधर तप, सिद्धाचल आदि विविध तप करके स्वयं के जीवन को तेजस्वी बनाया। इनके प्रतिबोध से 6 शिष्याएँ - चंदाश्रीजी, कंचनश्रीजी, सुमंगलाश्रीजी, दक्षाश्रीजी, राजुलाश्रीजी, कल्पज्ञाश्रीजी एवं 40 प्रशिष्याएँ हुईं- निरूपमाश्रीजी, कल्पलताश्रीजी, कल्पगुणाश्रीजी, कल्परत्नाश्रीजी, नंदियशाश्रीजी, आर्ययशाश्रीजी, कल्पप्रज्ञाश्रीजी, आदर्शप्रज्ञाश्रीजी, वीक्षितगुणाश्रीजी, अमीरत्नाश्रीजी, नम्रदर्शिताश्रीजी, सौभाग्ययशाश्रीजी, सुचिरत्नाश्रीजी, सूर्योदया श्रीजी, राजेन्द्र श्रीजी, सुनिला श्रीजी, पद्मयशाश्रीजी, कल्पयशाश्रीजी, अनिलाश्रीजी, भद्रगुणाश्रीजी, राजरत्नाश्रीजी, दिव्यप्रज्ञाश्रीजी, सुयशा श्रीजी, जयज्ञाश्रीजी, दिव्यज्ञाश्रीजी, प्रशमिताश्रीजी, सद्गुणाश्रीजी, प्रगुणाश्रीजी, विपुलगुणाश्रीजी, प्रीतिपूर्णाश्रीजी, पीयूषपूर्णाश्रीजी, अमिताश्रीजी, कल्पधराश्रीजी, कुमुदयशाश्रीजी, भव्यरत्नाश्रीजी, भव्यज्ञाश्रीजी, जयदर्शिता श्रीजी, प्रियदर्शिता श्रीजी, भद्रदर्शिता श्रीजी, रिद्धिदर्शिताश्रीजी । इस प्रकार ज्ञानी, विदुषी तपस्विनी विशाल शिष्या - परिवार का कुशल संचालन कर संवत् 2042 अहमदाबाद में इनका स्वर्गवास हुआ। 354 5.3.7.4 श्री लावण्यश्रीजी (1986 स्वर्गस्थ ) वर्तमानकालीन साध्वी संस्था में लावण्यश्रीजी का नाम मूर्धन्य स्थान पर है। इस विभूति ने पिता रूगनाथभाई और माता केवलीबहन के यहाँ संवत् 1975 पाटड़ी ग्राम में जन्म लिया। रूगनाथभाई प्रारंभ से ही संसार से विरक्त आत्मा थी, उन्होंने पंन्यास श्री चरणविजयजी के पास दीक्षा अंगीकार की, उनका नाम रंजनविजयजी रखा गया। संस्कारों की प्रबलता से लावण्यश्रीजी ने 11 वर्ष की उम्र में अपनी लघु भगिनी श्री वसंतश्रीजी के साथ दीक्षा अंगीकार की, छ महिने के बाद इनकी मातुश्री भी दीक्षित होकर श्री कंचनश्रीजी बनीं। ये तीनों श्री लाभश्रीजी के चरणों में समर्पित हुईं। लावण्यश्रीजी ने आध्यात्मिक ग्रंथों का खूब सूक्ष्मता से परिशीलन किया, संस्कृत - प्राकृत भाषा पर भी आधिपत्य स्थापित किया । ज्ञान-ध्यान के साथ तप की वेदिका पर आरूढ़ होकर 16 वर्ष की उम्र में मासक्षमण जैसी उग्र तपस्या की, तत्पश्चात् सिद्धितप, दो वर्षीतप वर्धमान ओली 59, बीशस्थानक तप कर्मसूदनतप, पखवासा, छट्ठ अट्टम अठाई, 15, 16 उपवास आदि अनेकविध तपस्याएँ कीं । स्व-कल्याण के साथ जन-कल्याण हेतु भी ये सतत जागरूक रहीं, कइयों को आध्यात्मिक सत्य का परिज्ञान करवाया, अन्तर्मुख बनाया, कइयों को देहाध्यास और देहाभ्यास से छुड़वाकर जीवमैत्री, जड़ विरक्ति और जिनभक्ति में संयोजित किया, इनके अनुशासन में 90 से अधिक साध्वियाँ तप, ज्ञान ध्यान, जप, मौन आदि की साधना तथा शासन प्रभावना का महती कार्य संपादित कर रही हैं। इनकी स्वयं की 23 शिष्याएँ और उनकी शिष्या - प्रशिष्या परिवार के नाम इस प्रकार 355_ वसंत श्रीजी - ज्योतिप्रभाश्रीजी, पूर्णभद्राश्रीजी, जयमालाश्रीजी, किरणमाला श्रीजी, सुप्रज्ञाश्रीजी, विज्ञप्ताश्रीजी, प्रज्ञप्ताश्रीजी, वारिषेणाश्रीजी । जयशीलाश्रीजी, कीर्तिवर्धनाश्रीजी, मंगलवर्धनाश्रीजी, नंदिवर्धनाश्रीजी, मैत्रीवर्धनाश्रीजी, कृतज्ञाश्रीजी, कर्मज्ञाश्रीजी, ऋजुप्रज्ञाश्रीजी, प्रशमनाश्रीजी, हितप्रज्ञाश्रीजी, पुनीतप्रज्ञाश्रीजी, देवप्रज्ञाश्रीजी, रम्यप्रज्ञा श्रीजी, जिनप्रज्ञाश्रीजी, सिद्धिप्रज्ञाश्रीजी, चरणप्रज्ञाश्रीजी, तत्त्वशीलाश्रीजी, कीर्तनप्रज्ञाश्रीजी, विश्वदर्शिताश्रीजी, पावनप्रज्ञाश्रीजी, अक्षयप्रज्ञाश्रीजी, वज्रसेनाश्रीजी, दिव्यदर्शनाश्रीजी । 354. वही, पृ. 501-503 355. वही, पृ. 506-09 - 406 Page #469 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्वेताम्बर परम्परा की श्रमणियाँ जयप्रभाश्रीजी - चन्द्रयशाश्रीजी, दिव्ययशाश्रीजी, तत्त्वयशाश्रीजी, परागयशाश्रीजी सुलोचनाश्रीजी - निरंजनाश्रीजी, निर्मलाश्रीजी, आर्यरक्षाश्रीजी, कनकप्रभाश्रीजी - मदनरेखाश्रीजी सद्गुणाश्रीजी - प्रियंकराश्रीजी, सौम्यगुणाश्रीजी चंद्रकलाश्रीजी - विपुलयशाश्रीजी, संवेगरसाश्रीजी, मौनरसाश्रीजी, शाश्वतरसाश्रीजी मयूरकलाश्रीजी - नंदियशाश्रीजी, कैरवयशाश्रीजी, प्रशांतयशाश्रीजी, विरतियशाश्रीजी, विरागयशाश्रीजी, नम्राननाश्रीजी, तत्त्वरसाश्रीजी, अर्पितयशाश्रीजी मृगलोचनाश्रीजी - सम्यग्दर्शनाश्रीजी, चिरागरत्नाश्रीजी, पुण्यरत्नाश्रीजी जयरेखाश्रीजी - उपशमरसाश्रीजी सम्यरेखाश्रीजी - शासनरसाश्रीजी, संयमरसाश्रीजी, सिद्धान्तरसाश्रीजी नलिनीयशाश्रीजी - निरागयशाश्रीजी काश्मीराश्रीजी - सिद्धिदर्शनाश्रीजी, कीर्तिदर्शनाश्रीजी, कारूण्यदर्शनाश्रीजी उज्जवलयशाश्रीजी - अचिन्त्ययशाश्रीजी सुनितयशाश्रीजी - जिनदर्शिताश्रीजी, दिव्यदर्शिताश्रीजी, ज्ञानदर्शिताश्रीजी, श्रुतदर्शिताश्रीजी, शौर्यदर्शिताश्रीजी पुनीतयशाश्रीजी - क्षमादर्शिताश्रीजी, हितदर्शिताश्रीजी विचक्षणश्रीजी, महापद्माश्रीजी, रत्नरेखाश्रीजी, महानंदाश्रीजी, मुक्तिप्रियाश्रीजी, रत्नरेखाश्रीजी, महानंदाश्रीजी, तथा विश्वनंदिताश्रीजी का शिष्या परिवार नहीं है। 5.3.7.5 डॉ. श्री निर्मलाश्रीजी (1987 - से वर्तमान) प्रज्ञावन्त साध्वी निर्मलाश्रीजी अमदाबाद निवासी स्वरूपचंदजी व सूरजबहन की सुसंस्कारी कन्या-रत्न हैं, संवत् 1978 में इनका जन्म हुआ, जन्म के दो वर्ष पश्चात् ही पिता के स्वर्गवास से माता को इस असार संसार से विरक्ति हो गई, उसने नव वर्ष की बालिका को लेकर संवत् 1987 आषाढ़ शुक्ला 8 के दिन चाणस्मा में श्री धनश्रीजी के सान्निध्य में दीक्षा अंगीकार की। श्री निर्मलाश्रीजी अपनी मातुश्री सुनंदाश्रीजी की शिष्या बनीं। साध्वी निर्मलाश्रीजी ने एम. ए. की परीक्षा सर्वप्रथम श्रेणी से उत्तीर्ण करके 'भारतीय दर्शन' पर पी.एच.डी. की उपाधि बिहार की वैशाली विद्यापीठ से प्राप्त की 'जैन दर्शन में अभाव मीमांसा' विषय पर भी इन्होंने शोधपरक निबंध लिखा है। पालनपुर में आपने 29 के लगभग स्कूलों व संस्थाओं में जाहिर प्रवचन किया, व 'संस्कार अध्ययन सूत्र' का आयोजन किया। आपके शिविर आयोजन के प्रभाव से 35 बहनों ने दीक्षा अंगीकार की, कईयों ने श्रावक-व्रत अंगीकार किये। आप अत्यंत प्रज्ञावन्त साध्वीजी हैं, अपनी तीक्ष्ण, बुद्धि से कलकत्ता में सन् 1958 में बड़े-बड़े मिनिस्टर, जज आदि गणमान्य लोगों के समक्ष शतावधान के प्रयोग किये। आपका यह प्रयोग भारत की महिला समाज में सर्वप्रथम था। इस अवधान द्वारा आपने समस्त साध्वी समाज को गौरवान्वित किया है। इनकी धर्म प्रभावना को देखकर स्थान-स्थान पर श्री संघ द्वारा इन्हें 'शासनप्रभावक', |407|| Page #470 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन श्रमणियों का बृहद इतिहास ‘शासनदीप', ‘समाजोद्धारक' आदि पदों से अलंकृत किया । इनकी 10 शिष्याएँ हैं-तरूणश्रीजी, पद्मयशाश्रीजी, पूर्णयशाश्रीजी, भास्वरयशाश्रीजी, दिव्ययशाश्रीजी, नलिनीयशाश्रीजी, देविनीयशाश्रीजी, चारूयशाश्रीजी, विमलयशाश्रीजी, प्रणवयशाश्रीजी । पौत्र शिष्याएँ- निर्वेदयशाश्रीजी, चंदनबालाश्रीजी, पीयूषकलाश्रीजी, भव्ययशाश्रीजी, मुक्तिमाला श्रीजी, निरागयशाश्रीजी, कारूण्ययशाश्रीजी, अक्षतयशा श्रीजी, कामितयशा श्रीजी 1356 5.3.7.6 श्री ललितप्रभाश्रीजी ( संवत् 1995 के पश्चात् से वर्तमान ) श्री भक्ति श्रीजी के शिष्या - परिवार में ललितप्रभाजी एक तेजस्वी वर्चस्वी साध्वी हुई हैं, इनके द्वारा लगभग 100 मुमुक्षु आत्माएँ संयम मार्ग पर आरूढ़ हुई। ये राजस्थान के राणीबाग वासी हीराचंदजी एवं अंशीबाई की सुपुत्री थीं। रोडला निवासी श्री जसराजजी के साथ जिस दिन विवाह हुआ, उसके दूसरे दिन ही ये वैधव्य को प्राप्त हो गईं। संसार की क्षणभंगुरता को देखकर तीव्र वैराग्य भाव से 19 वर्ष की उम्र में भक्ति श्रीजी के चरणों में इन्होंने अपना जीवन समर्पित कर दिया। दीक्षा के पश्चात् इन्होंने तीन मासक्षमण, श्रेणीतप, सिद्धितप, भद्रतप, नवकारतप, सिंहासनतप, समवसरण तप, अट्टम, छट्ठ तप, 35 वर्धमान ओली, बीस स्थानक आदि विविध तपस्याएँ की। साथ ही स्थान-स्थान पर शिविरों का फल संचालन कर युवापीढ़ि को धर्म की ओर उन्मुख किया। शासन प्रभावना में भी इनका योगदान अविस्मरणीय है, दो भव्य मंदिरों का निर्माण, 15 उजमणां, उपाश्रय, पाठशालाएँ, उपधान, छ' रिपालित संघ इनकी सशक्त प्रेरणा का प्रतिल है। 400 अट्ठम तप की अनुमोदना निमित्त पालीताणाघेटी के पास 20 विहरमान की 20 देहरी का निर्माण करवाकर तप-प्रसंग पर होने वाले व्यर्थ आडंबर को दूर किया। इनकी 13 शिष्याएँ एवं 51 प्रशिष्याओं की नामावली इस प्रकार है- श्री स्नेहलता श्रीजी, हर्षप्रभाश्रीजी, विश्वपूर्णाश्रीजी, लक्षगुणाश्रीजी, ललितयशा श्रीजी, लक्षितप्रज्ञाश्रीजी, कल्पशीला श्रीजी, कल्परत्नाश्रीजी, दक्षरत्नाश्रीजी, सम्यग्रनाश्रीजी, रश्मिरेखाश्रीजी, शासनदर्शनाश्रीजी, दर्शनप्रिया श्रीजी ये 13 शिष्याएँ हैं, तथा प्रशिष्याएँ- भव्यगुणाश्रीजी, ज्योतिप्रज्ञाश्रीजी, दिव्यप्रज्ञाश्रीजी, श्रुतदर्शिताश्रीजी, शीलगुणाश्रीजी, फुल्लप्रज्ञाश्रीजी, मतिप्रज्ञाश्रीजी, मुक्तिरसाश्रीजी, अतुलप्रज्ञाश्रीजी, दीक्षितप्रज्ञाश्रीजी, शाश्वतप्रज्ञा श्रीजी, रत्नत्रया श्रीजी, जयवर्धनाश्रीजी, समकीतगुणाश्रीजी, निखिलगुणाश्रीजी, सिद्धिरक्षिताश्रीजी, श्रुतरक्षिताश्रीजी, ज्योतिप्रज्ञाश्रीजी, तत्त्वप्रज्ञाश्रीजी, सुविनीतप्रज्ञाश्रीजी, आदर्शप्रज्ञाश्रीजी, नम्रदर्शिता श्रीजी अक्षयरसाश्रीजी, आगमरसाश्रीजी, अनंतरसाश्रीजी, साहित्यरसाश्रीजी, मुक्तिपूर्णाश्रीजी, विनीतपूर्णाश्रीजी, संवेगपूर्णाश्रीजी, विरागपूर्णाश्रीजी, चिंतनपूर्णाश्रीजी, सुनयनपूर्ण श्रीजी, कोमलपूर्णाश्रीजी, वैराग्यदर्शिता श्रीजी, हितेशपूर्णाश्रीजी, सम्यग्गुणाश्रीजी, रवीन्द्रगुणाश्रीजी, सिद्धान्तगुणाश्रीजी, समर्पितगुणाश्रीजी, शासनदर्शिताजी, कल्पदर्शिताजी, गुणज्ञदर्शिताश्रीजी, निर्वेदगुणाश्रीजी, रत्नयशाश्रीजी, हर्षितप्रज्ञाश्रीजी, रक्षितप्रज्ञाश्रीजी, कीर्तिशीलाश्रीजी, संयमशीला श्रीजी, पीयूषरत्नाश्रीजी, लब्धिरत्नाश्रीजी, भवितरत्नाश्रीजी, और मोक्षप्रिया श्रीजी । ये सभी श्रमणियाँ अपने उच्च संयमी जीवन, तपोमय चरित्र एवं उत्कृष्ट आचार-विचार द्वारा गुरूणी की गरिमा में अभिवृद्धि करती हुईं विचरण कर रही हैं। 357 5.3.7.7 श्री राजु श्रीजी (सं. 2006- > इनका जन्म राधनपुर के श्री जगजीवनदास की धर्मपत्नी मणिबहन की कुक्षि से संवत् 1979 में हुआ। विवाह के पांच वर्ष पश्चात् पति और दो पुत्रियों के वियोग ने इन्हें संसारी जीवन से विरक्त कर दिया, अतः संवत् 2006 356. वही, पृ. 512 357. वही, पृ. 494-99 408 Page #471 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्वेताम्बर परम्परा की श्रमणियाँ लं गल्गुन कृष्णा 10 के दिन अपनी ज्येष्ठा भगिनी महिमाश्रीजी के पास राधनपुर में ही दीक्षा अंगीकार की। ये अति तपस्विनी महासती हैं, भगवान महावीर के 229 छ8 तथा 12 अट्ठम, 6 मासी, 4, 3, 2 और डेढ मासी तप, मासक्षमण 17, 16, 15, 11, 10, 9 आदि उपवास, समवसरण, सिंहासन, छः अठाई, सिद्धितप, चत्तारि अट्ट, क्षीरसमुद्र, वर्षीतप, 20 स्थानक, 500 आयंबिल, वर्धमान ओली 50, तेरह काठिया, शत्रुजय व गिरनार की 99 यात्रा तप सहित, पार्श्वनाथ भगवान के 108 अट्ठम आदि अनेक तपस्याएँ जाप आदि किये।58 चातुर्मास सूची में नाम नहीं होने से प्रतीत होता है कि ये स्वर्गवासिनी हो गई हैं। 5.3.7.8 श्री नवलश्रीजी का शिष्या-परिवार क्रम साध्वी नाम जन्म संवत् स्थान दीक्षा संवत् तिथि दीक्षा स्थान गुरूणी नाम 1. श्री ज्ञानश्रीजी 1974 तखतगढ़ 1999 मा. शु. 13 तखतगढ़ श्री नवलश्रीजी 2. श्री गुणप्रभाश्रीजी 1988 खिवाणदी 2018 ज्ये. शु. 13 बादनवाडी श्री ज्ञानश्रीजी आणंदश्रीजी 2002 जालोर 2025 म. कृ. 1 हरजी गुणप्रभाश्रीजी 4. कुसुमप्रभाश्रीजी 2010 चोराऊ 2029 मा. शु. 11 उमेदाबाद गुणप्रभाश्रीजी 5. किरणमालाश्रीजी 1996 जालोर ___2030 ज्ये. कृ. 7 खीमेल ज्ञानश्रीजी 6. चंद्रकलाश्रीजी 2017 जालोर 2030 ज्ये. शु. 13 लुणावा किरणमालाश्रीजी जयप्रज्ञाश्रीजी 1998 तखतगढ़ 2031 ज्ये. शु. - लेटा ज्ञानश्रीजी 8. मुक्तिप्रियाश्रीजी 2013 दयालपुरा 2035 ज्ये. शु. 14 दयालपुरा आनंदश्रीजी 9. नेमिरक्षिताश्रीजी 2020 अमदाबाद 2041 फालना जयप्रज्ञाश्रीजी 10. यत्नदर्शिताश्रीजी लेटा (राज.) 2042 वै. कृ. 7 लेटा चंद्रकलाश्रीजी 11. विनीतदर्शिताश्रीजी 2012 दयालपुरा 2042 ज्ये. कृ.5 दयालपुरा मुक्तिप्रियाश्रीजी 12. चारित्ररत्नाश्रीजी 2023 मद्रास 2043 फा. शु. 3 उमेदाबाद कुसुमप्रभाश्रीजी 13. वीतरागदर्शिताश्रीजी 2001 2043 वै. कृ. 6 गढ़सिवाना चंद्रकलाश्रीजी 14. नंदीपूर्णाश्रीजी 2011 हरजी 2043 ज्ये. कृ. 6 हरजी आनंदश्रीजी 15. मनोदर्शिताश्रीजी 2020 उमेदाबाद 2045 वै. शु. 10 उमेदाबाद मुक्तिप्रियाश्रीजी 16. समर्पितप्रियाश्रीजी 2022 मांडवला 2049 ज्ये. कृ. 7 मांडवला मुक्तिप्रियाश्रीजी 17. सौम्यप्रियाश्रीजी 2026 मांडवला 2049 ज्ये. कृ. 7 मांडवला मुक्तिप्रियाश्रीजी 2021 लेटा 5.3.8 दादाश्री विजयसिद्धिसूरीश्वरजी (बापजी) महाराज का श्रमणी-समुदाय यह समुदाय अत्यंत विशाल एवं श्री मणिविजयजी दादा के समय से प्रवर्तमान है। वर्तमान में इस समुदाय के साध्वियों की संख्या 370 है। पूर्व में भी कई अध्यात्मनिष्ठ, प्रभावशाली साध्वियाँ इस समुदाय में हुई हैं जैसे-श्री चंदनश्रीजी, अशोकश्रीजी, कल्याणश्रीजी, वल्लभश्रीजी, चंपकश्रीजी, ताराश्रीजी, प्रभाश्रीजी, प्रभंजनाश्रीजी, 358. वही, पृ. 519-21 359. वही, पृ. 517 Page #472 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन श्रमणियों का बृहद इतिहास हीरश्रीजी, वल्लभ श्रीजी, चारित्रश्रीजी, सुमतिश्रीजी, जयाश्रीजी, मृगांक श्रीजी, गंभीराश्रीजी, सूर्योदया श्रीजी, हेमप्रभाश्रीजी, सूर्ययशाश्रीजी, अरूण श्रीजी, विज्ञान श्रीजी, तीर्थश्रीजी, गीर्वाणश्रीजी, मनोरमाश्रीजी, पद्मलताश्रीजी, विद्याश्रीजी, चंद्रकलाश्रीजी, चारूलताश्रीजी, जयप्रभाश्रीजी, महिमाश्रीजी, रत्नप्रभाश्रीजी, ललितप्रभाश्रीजी, चंपकलताश्रीजी, चंदनबालाश्रीजी, विजयाश्रीजी आदि। उक्त साध्वियों के नामोल्लेख के सिवाय अन्य जीवन संबंधी जानकारी प्राप्त नहीं होती, वर्तमान में जिनका जीवन उपलब्ध हुआ है, उन्हीं को यहाँ प्रस्तुत किया जा रहा है। 5.3.8.1 प्रवर्तिनी कंचनश्रीजी ( संवत् 1969 - स्वर्गस्थ ) प्रवर्तिनी कंचनश्रीजी 52 साध्वियों की जीवन शिल्पी एवं 500 साध्वियों में अग्रणी साध्वी थीं। बोरसद ग्राम के सुश्रावक नगीनदास जी के यहाँ संवत् 1945 में इनका जन्म हुआ । विवाह के दो मास पश्चात् विधवा हो जाने पर इन्होंने अपने हृदय में धर्म की स्थापना की और श्री बापजी महाराज की आज्ञानुवर्तिनी ताराश्रीजी के पास दीक्षा अंगीकार की। 67 वर्ष की दीर्घ संयम पर्याय में नव चौमासी, दो छमासी, डेढ़मासी एकमासी तप, वर्षीतप, एकांतर 500 आयंबिल, वर्धमान तप की 63 ओली, सतत एकासण तथा ज्ञान, ध्यान व शुद्ध संयम की आराधना कर 91 वर्ष की उम्र में ये दिवंगत हुईं। 360 5.3.8.2 श्री सुलोचनाश्रीजी ( संवत् 1989-2021 ) छाणी (गुजरात) निवासी श्री त्रिकमलाल रेवाबहन की सुपुत्री सुनंदा का जन्म 1974 बसंतपंचमी को हुआ । बाल्यवय में ही सुसंस्कारी होने के कारण संवत् 1989 में त्यागमार्ग स्वीकार कर ये श्री हीरश्रीजी की शिष्या बनी। स्वाध्याय, समता और वैयावृत्य इनके जीवन का मूलमंत्र रहा। छट्ट से सात यात्रा, शत्रुंजय तप, 99 यात्रा चार बार की। कई मीठाई, फ्रूट आदि का त्याग कर तप से जीवन को सुशोभित किया। इनकी मातुश्री रेवाबहन भी दीक्षित होकर रत्नश्री साध्वी बनीं। 361 आपकी तपस्विनी शिष्याओं के तप का विवरण अग्रिम पंक्तियों में दिया जा रहा है। 362 5.3.8.3 श्री मलयप्रभाश्रीजी आपने इन्द्रियजय, कषायजय, कल्याणक, 14 पूर्व, 45 आगम, मेरूतप, 5 महाव्रत 10 यतिधर्म तप, अष्टमी, दूज, ग्यारस, दशम, वर्षीतप, नवकारतप, अष्टमसिद्धि, बीस स्थानक, क्षीरसमुद्र, अंगविशुद्धि, गौतम कमल, 96 जिन ओली, नवपद ओली, रत्नपावड़ी, वर्धमान ओली, शत्रुंजयमोदक, षट्कायतप, स्वर्गस्वस्तिक, घनतप, वर्गतप, छ: मासी, पांच दिन कम छ: मासी, चारमासी 2, तीनमासी 2, अढ़ीमासी 2, डेढ़मासी 2, मासक्षमण 5 दो मा 5, मोक्षदंडक, योगविशुद्धि, 500 आयंबिल एकांतर, 99 यात्रा तीन बार, छट्ठ से 7 यात्रा, दो अठाई, नौ चत्तारि अट्ठ दस दोय, कर्मप्रकृति आदि विविध तप किये। 5.3.8.4 श्री मेरूप्रभाश्रीजी वर्षीतप, नवपद ओली, वर्धमान ओली, रतनपावड़ी, दीपावली, अठाई 5, ग्यारस, पांचम, दूज, आठम, दशम, 360. 'श्रमणीरत्नो', पृ. 523 361. आचार्य विजयमुनिचन्द्रसूरि जी के पत्र के आधार पर 362. 'श्रमणीरत्नो', पृ. 530-31 410 Page #473 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्वेताम्बर परम्परा की श्रमणियाँ पूनम तप, कषायजय, कर्मसूदन, अक्षयनिधि, सीता तप, सौभाग्यसुंदर, बीस स्थानक, डेढमासी, धर्मचक्र, 99 यात्रा, छट्ठ से 7 यात्रा, स्वर्ग स्वस्तिक, जिनगुणसंपत्ति, कंठाभरण, शंखेश्वर तप, अंगविशुद्धि आदि। 5.3.8.5 श्री मित्तप्रभाश्रीजी सिद्धितप चत्तारि, अठाई, 8, 9 उपवास, वर्धमान ओली, नवपद ओली, रत्नपावडी, पूनम, पांचम, दूज, ग्यारस, मेरूतेरस, दीपावली, शुद्धि तप, चौदपूर्व, वर्षीतप, सौभाग्यकल्पवृक्ष, सौभाग्यसुंदरी, कलंकनिवारण, गौतम कमल, 96 जिन ओली, नवनिधान, अष्टसिद्धि, स्वस्तिक, नवकार तप, षट्काय, शत्रुंजय, अष्ट प्रतिहार्य, 4, 5, 7 उपवास, मोक्षतप, अखंड 500 आयंबिल व एकासना क्षीरसमुद्र तप । 5.3.8.6 श्री सौम्यरत्नाश्रीजी सिद्धितप, कर्मप्रकृति, कल्याणक, चत्तारि, सीता तप, 14 पूर्व, 16, 4, 5, 11 उपवास, दूज, पांचम, दशम, ग्यारस, पूनम, क्षीरसमुद्र, पंचमहाव्रत, मेरूतप, 10 यतिधर्म, 1000 आयंबिल एकांतर, वर्धमान ओली 47, सौभाग्यसुंदरी, 20 स्थानक, नवपद ओली, शीतपावड़ी, दीपावली, शंखेश्वर, अंतरिक्ष, चंदनबाला, षट्कायरक्षक, रत्नत्रय, नवकार तप, अशोकवृक्ष, कषायजय, योगविशुद्धि, अंगविशुद्धि, गौतमकमल, स्वर्ग स्वस्तिक, शत्रुंजयमोदक, 14 पूर्व, सात सौख्य, सौभाग्यकल्पवृक्ष, 96 जिन ओली, अष्टप्रतिहार्य आदि । 5.3.8.7 श्री लक्षिताश्रीजी वर्षीतप 2 (एक छट्ठ से) मासक्षमण, 45, 18, 21, 20, 16, 11, 9, 8 उपवास, सिद्धितप, चत्तारि, महाव्रत तप, पंचमेरू, चंदनबाला, शंखेश्वर के अट्ठम, दूज, पंचमी, दशम, ग्यारस, पूनम, दीपक तप, सीता तप, गौतम कमल, स्वर्गस्वस्तिक, शत्रुंजय मोदक, नवपद ओली, वर्धमान ओली, दीपावली छट्ठ, 20 स्थानक, समवसरण, र्मचक्र, भद्रतप, श्रेणीतप, चौबीसजिन, अष्टमसिद्धितप, मेरूतेरस, छट्ठ से सात यात्रा, पर्युषण में छट्ट अट्टम आदि तप । 5.3.8.8 श्री हेमगुणाश्रीजी वर्धमान ओली 19, नवपद ओली, रत्नपावड़ी, दूज, पांचम, आठम, दशम, तेरस, ग्यारस तप, 11, 16, 20, 30, 45 उपवास, अट्टम अभिग्रह, सिद्धितप, मोक्षतप, शत्रुंजयमोदक, महाव्रत, मेरूतप, सीता तप, लब्धि 28 तप, 14 पूर्व, 24 तीर्थंकर तप, गौतम कमल, 20 स्थानक, धर्मचक्र, भद्रतप, श्रेणीतप, अंगविशुिद्धि, अष्टमसिद्धि, समवसरण, वर्षीतप स्वर्गस्वस्तिक आदि विविध तप । 5.3.8.9 श्री चैतन्यरत्नाश्रीजी : मासक्षमण, सिद्धितप, अठाई, वर्षीतप, वर्धमान ओली 10, नवपद ओली, पांचम, दशम, ग्यारस आदि । 5.3.8.10 श्री प्रशमप्रभाश्रीजी ( संवत् 2017-47 ) घाणेराव (राजस्थान) निवासी शेठश्री जीवराजजी इनके पिता एवं सुनीबहेन माता थी, सादड़ी के श्री गंगारामजी के साथ ये परिणय सूत्र में बंधी । संवत् 2017 फाल्गुन कृष्णा 7 के दिन सादड़ी में दीक्षा अंगीकार 411 Page #474 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन श्रमणियों का बृहद इतिहास कर ये श्री महिमाश्रीजी की शिष्या बनीं। इन्होंने तप व सेवा गुण से सबके दिलों को जीता। शंखेश्वर के 108 अट्टम, 5 तिथि नियमित उपवास, 500 आयंबिल मासक्षमण, 16, 11 उपवास, 20 से अधिक अठाइयाँ, 2 वर्षीतप, 99 यात्रा 2, वर्धमान ओली की आराधना, प्रतिदिन चार विगय वर्जन कर स्वयं को प्रभुमय बनाने का सतत पुरूषार्थ किया। इनके पुत्र विजय जिनचंद्रसूरीश्वरजी के रूप में शासन प्रभावक आचार्य हैं। संवत् 2047 सावत्थी तीर्थ में इस तपस्विनी आत्मा ने चिर विदाई ली। 5.3.8.11 श्री हेमगुणाश्रीजी, दिव्यगुणाश्रीजी, हर्षगुणाश्रीजी आदि विदुषी साध्वियाँ (वर्तमान) वर्तमान में श्री सुवर्णाश्रीजी की शिष्याएँ श्री हेमगुणाश्रीजी एवं दिव्यगुणाश्रीजी प्राचीन हस्तलिखित प्रतियों के संशोधन व संपादन का महत्त्वपूर्ण कार्य कर रही हैं। इस श्रृंखला में इनके देवेन्द्रसूरिविरचित 'श्री दानोपदेशमाला', माणिक्यचन्द्रसूरि विरचित “ श्री शांतिनाथ चरित महाकाव्यम्” के दो भाग एवं शोभनमुनि कृत चतुर्विंशति स्तुति पर वृत्ति 'पणि- पीयूष - पयस्विनी' ग्रंथ प्रकाशित हुए हैं पुस्तक अवलोकन से इनकी संपादन कला एवं विद्वत्ता के दर्शन होते हैं। लेखिका साध्वी द्वय ने 'रम्यरेणु' नाम से ग्रंथों का प्रकटीकरण किया है। जो इनकी संसारपक्षीया मातेश्वरी ( रम्यगुणाश्रीजी) हैं। इसके अतिरिक्त 'रम्यरेणु' नाम से ही साध्वी हर्षगुणाश्री ने भी सचित्र कर्मग्रन्थ के 5 भागों का आलेखन भी किया है। कर्मग्रन्थ जैसे जटिल विषय को जिस सरल सुबोध चित्रमयी शैली में समझाने का प्रयास किया है, वह वस्तुतः अद्भुत व अपूर्व है । विदुषी साध्वियों का गहन अध्ययन, चिन्तन एवं प्रस्तुतिकरण वस्तुतः प्रशंसनीय है। इसी समुदाय की साध्वी महायशाश्रीजी ने 'सुरसुंदरीचरिय' की संस्कृत छाया लिखी है, तथा जिनयशाश्रीजी 'नवतत्त्व सुमंगला टीका' का अनुवाद कर रही हैं। ये सभी विदुषी साध्वियाँ आचार्य विजय मुनिचन्द्र सूरि जी म. सा. की प्रेरणा एवं मार्गदर्शन में साहित्य क्षेत्र में प्रगति कर रही हैं। 363 5.3.9 पंजाबकेसरी आचार्य श्री विजयवल्लभसूरिजी का श्रमणी - समुदाय मूर्तिपूजक संप्रदाय के आचार्य विजयवल्लभसूरि एक युगदृष्टा और दूरदर्शी आचार्य थे। चतुर्विध संघ में साध्वी समाज के उत्थान हेतु उन्होंने महत्त्वपूर्ण क्रांतिकारी कदम उठाये, उसीका प्रभाव है कि इस समुदाय की श्रमणियाँ सुशिक्षित एवं शासन की महान प्रभावना करने वाली हुईं, उन्होंने साध्वियों को पुरूषों की सभा में प्रवचन देने का अधिकार भी प्रदान किया । प्रवर्तिनी दानश्रीजी, प्रवर्तिनी कर्पूरश्रीजी, महत्तरा साध्वी श्री मृगावतीश्रीजी, श्री ओमकार श्रीजी, श्री सुमतिश्रीजी, श्री सुमंगलाश्रीजी आदि ने गुरूवल्लभ के विचारों को साकार रूप प्रदान करने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई है। वर्तमान में इस समुदाय की साध्वी संख्या 196 है। इनमें श्री विनीताश्रीजी, श्री चित्तरंजनश्रीजी, श्री प्रवीणाश्रीजी, श्री अभयश्रीजी, श्री कमलप्रभाश्रीजी 'प्रवर्तिनी' पद पर एवं श्री सुमंगलाश्रीजी 'महत्तरा' पद पर अधिष्ठित हैं। 5.3.9.1 प्रवर्तिनी देवश्रीजी ( संवत् 1954-2004 ) आचार्य विजयवल्लभसूरिजी के मुखारविंद से पंजाब की धरती पर दीक्षा अंगीकार वाली श्वेताम्बर मूर्तिपूजक 363. ॐकारसूरि आराधना भवन, सुभाषचौंक गोपीपुरा, सूरत, सन् 1999 से 2002 412 Page #475 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्वेताम्बर परम्परा की श्रमणियाँ साध्वी के रूप में श्री देवश्रीजी का नाम सर्वप्रथम लिया जाता है। इनका जन्म संवत् 1935 वैशाख शुक्ला 10 के दिन अंबाला के सुप्रतिष्ठित ओसवाल परिवार के लाला नानकचंदजी भाबुक की धर्मपत्नी श्री श्यामादेवी की कुक्षि से हुआ, 13 वर्ष की उम्र में ही लुधियाना निवासी श्री चुंबामलजी के साथ इनका विवाह हुआ, किंतु विधि की क्रूरता के कारण विवाह के दूसरे ही दिन चुंबामलजी स्वर्गवासी हो गये। संसार की भयावह स्थिति देखकर देवश्रीजी अन्तर्हदय से विरक्त हो गईं और जंडियाला में संवत् 1954 माघ शुक्ला 5 को श्री चंदनश्रीजी की शिष्या के रूप में दीक्षित हुईं। देवश्रीजी धर्मप्रभाविका साध्वी थीं, 25 वर्षों तक पंजाब में विचरण कर इन्होंने क्षमाश्रीजी, दानश्रीजी, दयाश्रीजी, हेमश्रीजी, विवेकश्रीजी, चंदनश्रीजी, चंद्रश्रीजी, चरणश्रीजी, चित्तश्रीजी, जिनेन्द्र श्रीजी, आदि 9 शिष्याओं तथा श्री चंपाश्रीजी, दमयंतीश्रीजी, महेन्द्रश्रीजी, प्रकाशश्रीजी, मुक्तिश्रीजी, आदि 6 प्रशिष्याओं को ध र्ममार्ग पर प्रवृत्त कर दीक्षा प्रदान की। महलगाँव (पंजाब) में कई क्षत्रियों को जीववध न करने की प्रतिज्ञा दिलाई। पालनपुर का नवाब इनके व्यक्तित्व से अत्यंत प्रभावित था। संवत् 2004 भाद्रपद शुक्ला 11 को अमृतसर में इनका स्वर्गवास हुआ।64 5.3.9.2 श्री हेमश्रीजी (संवत् 1969-2015) अमदाबाद के सुसंस्कारी परिवार में संवत् 1941 इनका जन्म हुआ, विवाह के पश्चात् वैधव्य प्राप्त होने पर संवत् 1969 अक्षयतृतीया के शुभ दिन श्री कुंकुमश्रीजी की शिष्या बनकर संयम की आराधना करने लगी। इनके बहुमुखी व्यक्तित्व से प्रेरित हो कर कई कन्याएँ संयम मार्ग पर अग्रसर हुईं, इनमें ललितश्रीजी, इन्द्रश्रीजी, मनोहरश्रीजी, वनिताश्रीजी, मुक्तिश्रीजी, अभयश्रीजी, चंद्रोदयाश्रीजी, वीरेन्द्र श्रीजी, जिनेन्द्रश्रीजी आदि प्रमुख हैं। वनिताश्रीजी की दो शिष्याएँ - जयकांताश्रीजी और विरागरसाश्रीजी। अभयश्रीजी की कल्पज्ञाश्रीजी, वारिषेणाश्रीजी, रत्नकल्पाश्रीजी ये तीन शिष्याएँ हुईं। चन्द्रोदयाश्रीजी की हितज्ञाश्री इनकी नयरत्नाश्रीजी व रत्नत्रयाश्रीजी दो शिष्याएँ हैं। वीरेन्द्रश्रीजी की जितज्ञाश्रीजी, समयज्ञाश्रीजी, नयप्रज्ञाश्रीजी, तथा प्रशिष्याएँ-नंदीरत्नाश्रीजी, पुनीतरत्नाश्रीजी, प्रशमरत्नाश्रीजी, योगरक्षिताश्रीजी, दीपरक्षिताश्रीजी, दिव्यप्रज्ञाश्रीजी, जितप्रज्ञाश्रीजी हैं, जिनेन्द्रश्रीजी की मोक्षरत्नाजी, इस प्रकार इनकी विदुषी व तपस्विनी साध्वियों का विशाल परिवार है। संवत् 2015 में मासक्षमण की आराधना करके स्वर्गवासिनी हुईं।365 5.3.9.3 श्री विनयश्रीजी (संवत् 1991-2043) ___ कपड़वंज में संवत् 1976 को न्यालचंदभाई के यहाँ जन्मी श्री विनयश्रीजी ने अपनी ज्येष्ठा भगिनी विद्याश्रीजी के साथ संवत् 1991 मृगशिर शुक्ला 6 के दिन दीक्षा अंगीकार की। ये प्रारंभ से ही सरस्वती सुता के रूप में प्रख्यात थीं, संस्कृत, प्राकृत न्याय, दर्शन इतिहास, आगम आदि का गहन अध्ययन किया। कर्मग्रंथ में इनकी 'मास्टरी' थी, उसके लिये पुस्तक की भी जरूरत नहीं पड़ती। इनसे प्रतिबोध प्राप्त कर 11 परिवारीजन जिनशासन में दीक्षित हुए। दो ही वर्षों में इनकी 12 शिष्या-प्रशिष्याओं ने वर्षीतप की आराधना की, कई स्थानों पर साधर्मिक, दुष्काल गौरक्षण, उद्योगालय के लिये विशाल राशि एकत्रित करवाई। स्वयं ने वर्धमान तप की 35 ओली, 229 छ8, 12 अट्टम, सिद्धितप, 12 उपवास, बीशस्थानक तप (एकासणा आयंबिल, उपवास व छ? द्वारा) 364. रिखबचंद डागा, आदर्श प्रवर्तिनी, प्रकाशन-ममोल जैन ग्रंथमाला सन् 1951 365. 'श्रमणीरत्नों', पृ. 553-55 413 For privateersonal Use Only Page #476 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन श्रमणियों का बृहद इतिहास चार बार किया। सरलता, दृढ़ता, 'शासनरसी' की भावना आदि इनके व्यक्तित्व की विरल विशेषताएँ थीं। संवत् 2043 पालीताणा में इनका परलोक-प्रयाण हुआ । 366 5.3.9.4 महत्तरा श्री मृगावती श्रीजी (संवत् 1995-2042 ) ख्यातनामा विदुषी साध्वीरत्ना मृगावतीजी का जन्म संवत् 1982 सरधार ग्राम (राजकोट) के डुंगरसी संघवी एवं माता शिवकुंवर के यहाँ हुआ। संवत् 1995 पालीताणा में इन्होंने माता साध्वी शीलवती श्रीजी के पास दीक्षा अंगीकार की। पंजाब केसरी जैनाचार्य विजयवल्लभ सूरीश्वरजी की आज्ञा में विचरण करते हुए इन्होंने आगम न्याय, व्याकरण जैन व इतर दर्शनों का गहन अध्ययन मूर्धन्य विद्वानों से प्राप्त किया। इनकी विचक्षणता, विदग्धता, तेजस्विता, नवयुग निर्माण की क्षमता और वैज्ञानिक दृष्टिकोण ने भारतभर में इन्हें विख्यात किया। सन् 1953 कलकत्ता शांति निकेतन में सर्वधर्म परिषद में जैनधर्म की प्रतिनिधि बनकर इन्होंने जैनधर्म का गौरव बढ़ाया। सन् 1954 में गुलजारीलाल नंदा की अध्यक्षता में पावापुरी में हुए भारत सेवक समाज अधिवेशन में 70 हजार जन-समुदाय की उपस्थिति में जैनधर्म पर प्रवचन दिया। सांप्रदायिक संकीर्णता से मुक्त होने के कारण लगभग सभी महानगरों में इनके सार्वजनिक प्रवचन आयोजित किये गये। कांगड़ा तीर्थोद्धारिका के रूप में आप प्रसिद्धि प्राप्त हैं। मृगावती जी ने साठ हजार मील की पदयात्रा कर स्थान - 2 पर धर्म प्रभावना के विविध कार्य किये। दिल्ली में वल्लभस्मारक, वासुपूज्य भगवान का चौमुख जैनमंदिर, बी. एल. इन्स्टीट्यूट ऑफ इंडोलाजी, मृगावती जैन विद्यालय, देवी पदमावती चैरीटेबल ट्रस्ट, माता पद्मावती देवी धर्मार्थ ट्रस्ट, साध्वी सुज्येष्ठाश्री चैरीटेबल ट्रस्ट आपकी प्रेरणा से बने। अंबाला में आत्मवल्लभ जैन एजूकेशनल फांउडेशन की स्थापना, एस. ए. जैन हाई स्कूल, मॉडल स्कूल, कन्या विद्यालय, शिशु विद्यालय तथा बम्बई, होश्यारपुर, जंडियाला, बैंगलोर, मैसूर आदि अनेक स्थानों पर जैन उपाश्रय मंदिरों के जीर्णोद्धार आदि में आर्थिक सहयोग हेतु प्रेरणाएं दी। इतना ही नहीं लुधियाना में भव्य अक्की बाई आई होस्पीटल, श्रीमती मोहन देवी कैंसर होस्पीटल और रिसर्च सैंटर का शिलान्यास, बम्बई भायखला में जैन नगर योजना, दिल्ली रोहिणी का वल्लभविहार, अनेक औषधालय, प्रेस व उद्योग केन्द्र, ज्ञानचंद जैन धर्मशाला, रोशनलाल जैन धर्मशाला, अतिथिगृह, जीवदया - गौशाला इत्यादि में करोड़ों रूपयों की धनराशि दिलवाकर आर्थिक संबल प्रदान किया । अपने ओजस्वी प्रवचनों के माध्यम से इन्होंने सामाजिक कुरूढ़ियां, कुप्रथाएं, दहेज, फैशन-परस्ती, मांस, अंडा, शराब आदि व्यसन मुक्त समाज की संरचना में भी अपूर्व योगदान प्रदान किया। आपकी अभूतपूर्व धर्म प्रभावना देख कर आचार्य विजयसमुद्रसूरिजी ने आपको सन् 1972 बम्बई में 'जैन भारती' पद प्रदान किया। एवं आचार्य श्री इन्द्रदिन्नसूरि जी ने सन् 1979 में 'कांगड़ा तीर्थोद्धारिका पद' से सम्मानित किया, इस प्रकार साध्वी मृगावतीजी जहां भी गई, वहीं अवसरानुकूल कहीं धर्म ज्ञान और संस्कार की संस्था तो कहीं व्यक्ति के उद्धार की संस्था का निर्माण करवा गईं। इतना ही नहीं, वे स्वयं ही एक संस्था स्वरूप बन गईं। एक साध्वी 61 वर्ष के जीवनकाल में इतने विपुल परिमाण में कार्य करने की क्षमता रख सकती है, इसका वे सशक्त उदाहरण थीं। संवत् 1986 वल्लभस्मारक दिल्ली में ये चिरविलीन हुईं, वहीं इनकी भव्यमूर्ति भी प्रतिष्ठित है, जो 21 वीं सदी की जैन साध्वियों में सर्वप्रथम मानी गई है। 367 366. वही, पृ. 568-71 367. दिल्ली, वल्लभविहार से प्राप्त सामग्री के आधार पर 414 Page #477 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्वेताम्बर परम्परा की श्रमणियाँ 5.3.9.5 श्री समताश्रीजी ( संवत् 1998-41 ) कच्छ में अप्रतिम प्रभावना करने वाली महान तपस्विनी शास्त्रवेत्ता साध्वियों में श्री समताश्रीजी का नाम आदर के साथ लिया जाता है। इनका जन्म कच्छ में मोराना निवासी पटेल वस्ताभाई की धर्मपत्नी सुदेबाई से हुआ। 'डगारा' के वतनी पटेल रताभाई के साथ पाणिग्रहण हुआ, किंतु भवितव्यता के योग से कुछ ही समय में रताभाई का जीवन - दीप बुझ गया, यह देख सोना बहेन के हृदय में जैन साध्वी बनने की लगन पैदा हुई, किसी भी जैन साध्वी के चरणों में जीवन समर्पण करने की तीव्र भावना से तीन दिन का उपवास हो गया, अंततः भावना फलीभूत हुई, श्री सुभद्राश्रीजी महाराज का डगारा में पदार्पण हुआ। सोना बहन संवत् 1998 कार्तिक कृष्णा 5 कपड़वंज में श्री लक्ष्मीश्रीजी के चरणों में दीक्षित होकर 'समता श्रीजी' बन गई। समताश्रीजी ने अपने जीवन में आगम, साहित्य धर्म ग्रंथों का गहन ज्ञान संपादित किया, साथ ही शासन प्रभावना के अनेकविध कार्य किये। भटाणा में प्रतिष्ठा महोत्सव, ढेरा (भरतपुर) के शिखरबंध मंदिर का जीर्णोद्धार, डगारा में दो चबूतरा, दो उपाश्रय, शिखरबंधी जिनमंदिर का निर्माण प्रतिष्ठा, गौशाला, धमकड़ा, माधापर, मोखाणा, धाणेटी, जवाहरनगर नखत्राणा आदि में उपाश्रय, थाणां में उपधान तप भव्य उद्यापन आदि कार्य इनकी प्रेरणा से हुए। अपने 43 वर्ष की दीक्षा पर्याय में ज्ञानपंचमी, नवपद ओली, वर्षीतप 20 स्थानक नवकारतप दो बार, वर्धमान ओली, 101 आयंबिल, मासक्षमण, 16, 15, 11, 10 उपवास, सिद्धितप चत्तारि अट्ठ दस दोय, अठाइयां, चौविहार छट्ट अट्टम, 99 यात्रा यावज्जीवन डेढ़ पोरूषी आदि तपश्चर्याएँ की । 368 5.3.9.6 श्री जशवंतश्रीजी ( सवंत् 2001 - 50 ) आचार्य विजयवल्लभसूरि के समुदाय विशिष्ट आर्यारत्न के रूप में प्रसिद्धि प्राप्त जशवंत श्रीजी का जन्म गुजरानवाला (पाकिस्तान) में कोठीवाले लाला हीरेशाह के यहाँ हुआ। अपनी वात्सल्यमयी जननी आनंदश्रीजी के चरण चिन्हों का अनुगमन कर नौ वर्ष की उम्र में ये पालीताणा में उन्हीं के साथ दीक्षित हुईं। तीक्ष्ण प्रतिभा, अप्रमत्त जीवन एवं सतत स्वाध्याय से इन्होंने स्वल्पावधि में विशिष्ट ज्ञान संपादन कर लिया। माता के स्वर्गवास के पश्चात् श्री पुष्पाश्रीजी के सान्निध्य में पंजाब के प्रत्येक ग्राम, नगर में घूम-घूमकर अपनी सुमधुर व्याख्यान वाणी से धर्म का खूब प्रचार-प्रसार किया, स्थान-स्थान पर युवतियों-बच्चों के धार्मिक शिविर लगवाये, कई कन्याओं को दीक्षित किया। गुरुभक्ति और जिनभक्ति इनके अणु-अणु में समाविष्ट थी, इसीके परिणाम स्वरूप आगरा बालुगंज वल्लभ कॉलोनी में नूतन जिनमंदिर का निर्माण करवाया। सौराष्ट्र, गुजरात, राजस्थान, पंजाब, उत्तरप्रदेश, बिहार आदि प्रांतों में धर्मप्रचार के साथ अनेक सामाजिक, शैक्षणिक तथा धार्मिक संस्थाओं को सक्रिय किया। 58 वर्ष की आयु में 49 वर्ष शुद्ध चारित्र का परिपालन व वर्षीतप 8, 9, 11, 16 आदि तपस्या से अपने व्यक्तित्व को आलोकित कर सुरेन्द्रनगर में संवत् 2050 में यह शासनप्रभाविका विरूद से अर्चित साध्वी शिरोमणी कालधर्म को प्राप्त हुई । 369 5.3.9.7 श्री पद्मलताश्रीजी ( संवत् 2011 से वर्तमान) समर्थ शासनप्रभाविका के रूप में प्रख्यात श्री पद्मलताश्रीजी ने संवत् 1992 गढ़ग्राम ( पालनपुर) निवासी 368. ' श्रमणीरत्नो', पृ. 558-62 369. स्मृति विशेषांक, पंजाबी साध्वी श्री जसवंत श्रीजी, विजयानंद वर्ष 42 अंक 1 जनवरी 1998 415 Page #478 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन श्रमणियों का बृहद इतिहास पिता लक्ष्मीचंदजी के यहाँ जन्म लिया। श्री विज्ञानश्रीजी के चरणों में संवत् 2011 अक्षय तृतीया के शुभ दिन संयम-पथ पर आरूढ़ होकर ज्ञान, ध्यान, तप-त्याग में अपूर्व प्रगति की। इनकी वचनसिद्धि अद्भुत है, आचार्य वल्लभसूरिजी का एक भी ऐसा क्षेत्र नहीं कि जहाँ इनका नाम न हो। अपनी जन्मभूमि गढ़ ग्राम में अंजनशलाका प्रतिष्ठा महोत्सव पर लगभग 1 करोड़ रूपये की धनराशि एकत्रित करवाई, पावागढ़ तीर्थ में देरासर तथा कन्या छात्रालय हेतु आर्थिक सहायता दिलवाई, खोडियालपुर व सिंगपुर में जिनालय निर्माण करवाया, पावागढ़ और हस्तिनापुर में मूलनायक दादा की चांदी की प्रतिमाएँ बनाने की प्रेरणा दी, इस प्रकार प्रत्येक स्थान पर शासन प्रभावना के विविध कार्य करती हुई ये 4 शिष्याओं तथा 2 प्रशिष्याओं के साथ विचरण कर रही हैं।370 इनके अतिरिक्त इस समुदाय में सुज्ञानश्रीजी, कांताश्रीजी, हेमेन्द्र श्रीजी, यशोदाश्रीजी, चंद्रयशाजी, निर्मलाश्रीजी, सुव्रताश्रीजी, दर्शनश्रीजी, कीर्तिप्रभाश्रीजी, यशकीर्तिश्रीजी, देवेन्द्रश्रीजी, हर्षप्रियाश्रीजी, जितप्रज्ञाश्रीजी, अमितगुणाश्रीजी, सुमिताश्रीजी, चंद्रयशाश्रीजी, महायशाश्रीजी, लक्षगुणाश्रीजी, उदययशाश्रीजी, कल्पयशाश्रीजी, रत्नशीलाश्रीजी, संवेगरसाश्रीजी, रक्षितप्रज्ञाश्रीजी, सुमनिषाश्रीजी, पुनीतरत्नाजी, नरेन्द्रश्रीजी, सौम्यप्रभाश्रीजी, सुविरतिश्रीजी, सुचेताश्रीजी, सुसेनाश्रीजी, दिव्यप्रभाश्रीजी, पुष्पाश्रीजी, सुशीलाश्रीजी, पूर्णकलाश्रीजी, सुजीताश्रीजी आदि साध्वियाँ अपनी शिष्याओं के साथ अग्रणी बनकर धर्मप्रभावना कर रही हैं। 5.3.10 आचार्य श्री विजयमोहनसूरिजी का श्रमणी-समुदाय वर्तमान में गच्छाधिपति आचार्य विजययशोदेवसूरिजी के साध्वी समुदाय की संख्या 200 के लगभग है। इनमें 125 साध्वियों की प्रमुखा श्री कल्याणश्रीजी (संवत् 1958) हुईं, जो साध्वी हेमश्रीजी की शिष्या थीं। इनकी शिष्याओं में 'डभोई' की ही 60 साध्वियाँ हैं। कई साध्वियाँ उत्कट तपस्विनी हैं, श्री अजितसेनाश्रीजी, हर्षपूर्णाश्रीजी आदि साध्वियों ने वर्धमान ओली तप की संपूर्ण आराधना की है इसके उपरांत कई साध्वियाँ श्रेणीतप, सिद्धितप, मासक्षमण तप, समवसरण तप आदि उत्कट तप-साधनाएँ कर चुकी है। 5.3.10.1 श्री मंगलश्रीजी (संवत् 1952-2024) दीर्घसंयमी श्री मंगलश्रीजी का जन्म चूडा ग्राम (कंकणपुर) के श्री धरमशीभाई गोमतीबहन के यहाँ हुआ। बाल्यवय में दीक्षा अंगीकार कर श्री गुलाबश्रीजी के पास वर्षों तक अध्यात्म ग्रंथों का गहन अध्ययन किया। इनका विहारक्षेत्र सौराष्ट्र काठियावाड़ तो रहा ही, साथ ही पंजाब राजस्थान, बिहार बंगाल तक की भी पद-यात्राएँ की। इनकी स्वयं की दो शिष्याएँ हुई- नवल श्रीजी और दमयंतीश्रीजी। दोनो ही सुयोग्य, सेवाभाविनी विदुषी एवं तपस्विनी हैं। चूड़ा में संवत् 2022 के चातुर्मास में 72 वर्ष संयम पर्याय पालकर ये स्वर्गस्थ हुईं।372 5.3.10.2 श्री कंचनश्रीजी (संवत् 1956-2019) अपनी विशिष्ट वाक्शक्ति द्वारा सैंकड़ों मुमुक्षु आत्माओं के अंतर में जिनशासन की चिर प्रतिष्ठा कायम 370. 'श्रमणीरत्नो', पृ. 585 371. समग्रजैन चातुर्मास सूची सन् 2005, पृ. 216-20 372. 'श्रमणीरत्नो', पृ. 598-99 416 Page #479 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्वेताम्बर परम्परा की श्रमणियाँ करने वाली साध्वियों में कंचनश्रीजी का नाम उल्लेखनीय है। संवत् 1936 झालावाड़-लींबड़ी की पुण्यधरा पर जन्म लेकर 'डभोई' ग्राम में ये विवाहित हुईं। अल्पसमय में ही विधवा हो जाने पर श्री गुलाबश्रीजी के चरणों में संवत् 1956 वैशाख शुक्ला पूर्णमासी के दिन डभोई में दीक्षा अंगीकार की। कल्याणश्रीजी के सान्निध्य में प्रकरण, भाष्य, कर्मग्रंथ पंचसंग्रह, क्षेत्रसमास, बृहत् संग्रहणी, संस्कृत, प्राकृत, न्याय आदि का तलस्पर्शी अध्ययन किया, तथा गुजरात सौराष्ट्र, मेवाड़, मालवा आदि प्रदेशों में विचरण कर कइयों को संयमी बनाया। आज प्रायः 100 के लगभग विशाल साध्वियों का परिवार इनके चरण-चिन्हों पर अनवरत गतिमान है। 63 वर्ष तक चारित्र की सुंदर आराधना करते-कराते संवत् 2019 को दर्भावती-डभोई में इन्होंने परलोक मार्ग की ओर प्रयाण किया।373 5.3.10.3 प्रवर्तिनी श्री कल्याणश्रीजी (संवत् 1957-2008) पूज्यपाद आचार्यश्री विजयमोहनसूरीश्वरजीमहाराज द्वारा प्रवर्तिनी पद पर विभूषित साध्वी कल्याणश्रीजी सवासौ के लगभग श्रमणियों का रूल नेतृत्व कर रही हैं इनका जन्म अमदाबाद के वीशा श्रीमाली शेठ छगनभाई की धर्मपत्नी विजयाबहेन की कुक्षि से संवत् 1941 में हुआ। पिता ने इनका विवाह किया, किंतु अल्पावधि में ही ये वैधव्य को प्राप्त हो गई। प्रवर्तिनी श्री गुलाबश्रीजी के सान्निध्य में रहते हुए इन्हें वैराग्य की प्राप्ति हुई, फलस्वरूप 16 वर्ष की उम्र में संवत् 1957 अमदाबाद में इन्होंने सर्वसंग परित्याग रूप आहती दीक्षा अंगीकार की। ये ज्ञान गर्वीष्ठा तो थी ही, साथ ही क्रिया में भी अत्यंत चुस्त थीं अपनी शिष्याओं पर इनका संयममय अनुशासन होने से इनका श्रमणीवर्ग विनय विवेक तथा ज्ञानध्यान में अपना विशिष्ट स्थान रखता है। गुजरात, सौराष्ट्र, मालवा, मेवाड़ आदि प्रान्तों में उग्र विहार कर लोगों को जैनधर्म से संस्कारित करने में आपका महत्त्वपूर्ण योगदान रहा है। आपके सदुपदेशों से प्रेरित होकर मात्र 'डभोई' से 60-65 मुमुक्षु दीक्षित हुए। संवत् 2008 में 'डभोई' का अंतिम चातुर्मास करके आप वहीं स्वर्गस्थ हुईं।374 5.3.10.4 श्री केवलश्रीजी (संवत् 1962-स्वर्गस्थ) स्तम्भनतीर्थ (खंभात) की पुण्यधरा पर इस पुण्यवती साध्वीश्री का जन्म संवत् 1940 में दीपचंद परसनबहन के यहाँ हुआ। खंभात के ही ठाकरशीभाई से इनका विवाह हुआ, पाँच वर्ष में एक पुत्र और एक पुत्री प्रदान कर ठाकरशीभाई स्वर्गवासी हो गये। प्रवर्तनी श्री गुलाबश्रीजी की शिष्या ज्ञानश्रीजी से प्रतिबोध पाकर संवत् 1962 में इन्होंने दीक्षा अंगीकार की। आपने अपने प्रभाव से कई कन्याओं को प्रतिबोधित किया।375 5.3.10.5 श्री जयंतिश्रीजी (संवत् 1968-201) श्वेताम्बर-परम्परा का प्रसिद्ध तीर्थ प्रभासपाटण के निकट वेरावल (वेलाकुल) के लोढविया कुटुंब में शेठ सोमचंदजी और कुंवरबाई के यहाँ संवत् 1946 में श्री जयंतिश्रीजी का जन्म हुआ। पाँच वर्ष गृहस्थ-सुख भोगने के पश्चात् पुत्र एवं पति वियोग से इनके हृदय में वैराग्य बीज अंकुरित हुआ, संवत् 1968 ज्येष्ठ शुक्ला 11 के दिन श्री ज्ञानश्रीजी के पास दीक्षा अंगीकार की। अल्प समय में ही ये एक प्रतिभाशालिनी विदुषी साध्वी के रूप 373. वही, पृ. 600-1 374. वही, पृ. 592-94 375. वही, पृ. 595-97 417 Page #480 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन श्रमणियों का बृहद इतिहास में प्रख्यात हो गईं। कच्छ, झालावाड़, गुजरात आदि प्रदेशों में 42 वर्ष विचरण कर इन्होंने जन-जीवन में धार्मिक भावनाओं का संचार किया । ध्रांगध्रा में इनके सर्वाधिक चातुर्मास हुए, वहां धर्मबीज का वपन करने वाली ये सर्वप्रथम साध्वी थीं। जिनशासन को श्री निर्मलाश्रीजी, कुशल श्रीजी, दिव्याश्रीजी, कवीन्द्रश्रीजी, आदि लगभग 25 विदुषी शिष्या - प्रशिष्याएँ समर्पित कर संवत् 2010 ध्रांगध्रा में कालधर्म को प्राप्त हुईं। 176 5.3.10.6 प्रवर्तिनी श्री कुसुमश्रीजी (1980-2045 ) जन्म दीक्षा और स्वर्गवास तीनों का सौभाग्य कपड़वंज की भूमि को प्रदान कराने वाली श्री कुसुमश्रीजी लग्न के छः मास पश्चात् ही वैधव्य को प्राप्त हो गयीं। अतः इन्होंने अपना जीवनरथ वैराग्य पंथ की ओर मोड़ने का निर्णय लिया। पिता गिरधरलाल व माता समरथवहन से आज्ञा प्राप्त कर इन्होंने संवत् 1980 को श्री कंचनश्रीजी के सान्निध्य में दीक्षा अंगीकार की । स्वाध्याय, तप, तीर्थयात्रा करते हुए लगभग 50 कन्याओं को इनके द्वारा संयम जीवन की शिक्षा, दीक्षा प्राप्त हुई। संवत् 2045 को 86 वर्ष की वय में यह महान आत्मा जिस धरा पर प्रगट हुई वहीं विलीन हो गई। 377 5.3.10.7 श्री सुनन्दाश्रीजी ( संवत् 1983 - स्वर्गवास ) कपड़वंज गाँव में संवत् 1967 को श्री शंकरलाल पारीख और चंचलबहन के घर श्री सुनन्दाश्रीजी का जन्म हुआ। वैराग्यवासित हृदय से संवत् 1983 वैशाख शुक्ला पंचमी के दिन कपड़वंज में ही इन्होंने दीक्षा ग्रहण की। श्री कंचन श्रीजी की प्रेरणा और आशीर्वाद से गहन शास्त्रीय ज्ञान एवं शुद्ध संयम की शिक्षा प्राप्त की। स्वयं की सेवाभाविनी विदुषी 8 शिष्याएँ बनीं, उन्हें ज्ञान व आचार की शिक्षा प्रदान कराने की तीव्र अभिलाषा रखने के कारण ये अपने संघ में 'उपाध्याय' के नाम से पहचानी जाती थीं। 66 वर्ष की दीक्षा पर्याय में 8, 16, 15, 30 उपवास, चत्तारि - अट्ठ-दस दोय, सिद्धितप, बीस स्थानक वर्धमान ओली 27, पंचमी, अष्टमी, चौदस आदि तपोमय साधना से अपने जीवन को आलोकित करती हुई वर्तमान में 200 साध्वी- समुदाय के नायकत्व के रूप में विचरण कर रही हैं। 378 5.3.10.8 श्री कमलाश्रीजी ( संवत् 1985 से वर्तमान ) शांत स्वभावी श्री कमलाश्रीजी डभोई के धर्मश्रद्धालु शेठ श्री खुशालचंदजी व उनकी पत्नी जेकोरबहन की सुपुत्री हैं। 12 वर्ष की उम्र में विवाह और छः मास में ही वैधव्य ने कमला श्रीजी की दुःखद मनः स्थिति को वैराग्य मार्ग की ओर मोड़ दिया। संवत् 1985 मृगशिर शुक्ला द्वितीया के दिन ये कंचन श्रीजी की शिष्या के रूप में दीक्षित हुईं। ज्ञान और भक्ति से इनका व्यक्तित्त्व शोभित होने लगा, स्थान-स्थान पर इनके सदुपदेश से पाठशाला, आयंबिलशाला, देरासर आदि सक्रिय हुए, मध्यमवर्गीय श्रावक आर्थिक दृष्टि से स्वावलम्बी बने। इनकी विदुषी शिष्याएँ - अरूणप्रभाश्रीजी, स्नेहलता श्रीजी, कीर्तिलताश्रीजी आदि हैं। 379 376. वही, पृ. 596-97 377. वही, पृ. 601-3 378. वही, पृ. 603-4 379. वही, पृ. 605-6 418 Page #481 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्वेताम्बर परम्परा की श्रमणियाँ 5.3.10.9 श्री दमयंती श्रीजी ( संवत् 1987-2045 ) श्रमणी जीवन की साधना में तप एक महत्वपूर्ण साधना है। दमयंतीजी एक तपसाधिका के रूप में जिनशासन में एक विशिष्ट श्रमणी हुई हैं, इन्होंने अपने संयमी जीवन में 9 वर्षीतप किये जिसमें अट्टम के पारणे में अट्टम, छट्ठ के पारणे में छट्ठ, उपवास के पारणे में उपवास तथा प्रत्येक पारणा एकासण से इस प्रकार की कठिन तप साधना की। नौ चौमासी तप बेले बेले से, एक चौमासी अट्ठम से, दो छः मासी, दो मासी, डेढ़ मासी, अढ़ीमासी, 229 छट्ठ, 12 अट्ठम, वर्गतप, भद्रप्रतिमा 2 बार 1024 सहस्रकूट का तप, श्रेणितप, सिद्धितप, बीस स्थानक, 16 अठाइयां, 158 प्रकृति के उपवास, पार्श्वनाथ के 108 अट्ठम, चत्तारि अट्ठ दोय तप, तेरह काठिये के 13 अट्टम, 16 उपवास, 15 उपवास, वर्धमान तप की 44 ओली, इसमें अंतिम दो ओली एक दिन उपवास एक दिन आयंबिल से की। नवपद की ओलियाँ जीवन पर्यन्त की, उसके पारणे में अट्ठम व उसका पारणा आयम्बिल से करते थे, ज्ञानपंचमी, पोषदशमी, एकादशी, पूर्णिमा दूज, अष्टमी इस प्रकार आजीवन तप तपा, तप के साथ इनका संयम भी उत्कृष्ट था। ज्ञानपिपासा, तपोनिष्ठा और अप्रमत्तदशा की साधिका दमयंती श्री चूड़ा निवासी जेसिंगभाई और उनकी धर्मपत्नी मीठीबाई की एकमात्र कन्या थी। पूर्व संस्कारों से प्रेरित होकर 17 वर्ष की वय में भोंयणी में संवत् 1987 माघ शुक्ला 11 दीक्षा लेकर ये मंगलश्रीजी की शिष्या बनीं। 59 वर्ष तक संयम व तप द्वारा आत्मोत्थान करती हुई संवत् 2045 में आदीश्वर दादा की शीतल छाया में समाधिपूर्वक आयुष्य पूर्ण किया। 380 5.3.10.10 श्री मंजुलाश्रीजी ( संवत् 1987-2033 ) मंजुलाश्रीजी का जन्म संवत् 1974 को खंभात के श्री उजमशीभाई के यहाँ हुआ। शिशुवय में ही संवत् 1987 में ये अपनी बहिन विमलाश्रीजी के साथ खंभात में दीक्षित हुईं। अप्रमत्त भाव से रत्नत्रय की आराधना करते हुए इन्होंने वर्षीतप छमासी, चौमासी, 16, 9, 8 उपवास, 20 स्थानक, नवपद तथा वर्धमान ओली आदि तप किया। इनके प्रतिभासंपन्न व्यक्तित्व के कारण शासन के अनेक अवरूद्ध कार्य पूर्ण हुए। पद्मयशाश्री, पुष्पयशाश्री आदि सुयोग्य विशाल शिष्या परिवार को छोड़कर अंत में संवत् 2033 में यह महान साध्वी स्वर्गलोक की ओर प्रयाण कर गईं। 391 5.3.10.11 श्री प्रियंवदाश्रीजी ( संवत् 1991 से वर्तमान) सौराष्ट्र की जेतपुर नगरी में संवत् 1977 को जीवणभाई धर्मपत्नी हीराबहन की कुक्षि से चतुर्थ कन्या के रूप में प्रियंवदाश्रीजी ने जन्म ग्रहण किया। 12 वर्ष की लघुवय में इन्होंने पातीताणा की 99 यात्रा कर अपने अदम्य साहस एवं भक्ति का परिचय दिया। स्वजनों से दीक्षा की अनुमति नहीं मिलने पर ये संवत् 1991 आषाढ़ शुक्ला चतुर्दशी को गुप्त वेश पहनकर दीक्षित हो गईं। निर्मलाश्रीजी के सान्निध्य में रहकर प्रतिदिन 50-60 गाथा कंठस्थ कर इन्होंने जैन आगम ग्रंथों का व्यापक अध्ययन किया। तप में नवपद ओली, बीस स्थानक तप अठाई, मोटा योग आदि एवं विविध तप-जप की साधना से आत्म-शक्ति की वृद्धि की। कंठ की मधुरता के कारण 380. वही, पृ. 607-8 381. वही, पृ. 613 419 Page #482 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन श्रमणियों का बृहद इतिहास शासन प्रभावना के विविध प्रसंगों में इनका अग्रगण्य स्थान रहता हैं। इनकी 'निर्मल प्रियात्म विनोद' तथा 'जिन गुण मंजरी' पुस्तकें अति लोकप्रिय बनी हैं। अपनी अलौकिक प्रतिभा, गंभीरता, समयज्ञता, उदारता तथा अनोखी व्याख्यान शैली के कारण साध्वी-वृंद में इन्होंने अपना विशिष्ट स्थान बनाया है।382 5.3.10.12 श्री पद्मयशाश्रीजी (संवत् 2009 से वर्तमान) जेतपुर निवासी देवचंदभाई व माता दिवालीबहन के यहाँ संवत् 1990 में इनका जन्म हुआ। भाणवड निवासी प्रभुभाई के साथ विवाह बंधन में बंध जाने पर भी इनकी योगैश्वर्य की साधना स्वीकार करने का कृत संकल्प देख कर अंततः उन्हें दीक्षा की अनुमति देनी पड़ी। संवत् 2009 अषाढ़ शुक्ला 5 धांगध्रा में प्रियंवदाश्रीजी के चरणों दीक्षा अंगीकार की। अध्यात्म ज्ञान के साथ 89,11 उपवास, 20 स्थानक, वर्धमान ओली, नवपद ओली, कर्मसूदन, परदेशीतप, रतनपावड़ी, दीपावली, एकमासी, डेढ़मासी, छोटा-बड़ा पखवासा, दूज, पंचमी, अष्टमी, ग्यारस, चौदश आदि तपाराधनाएँ की। स्थान-स्थान पर ज्ञानमंदिर, ज्ञान भंडार की व्यवस्था, सुघोषा, कल्याण, गुलाब जैन आदि जैन साहित्य में चिंतन प्रधान लेख इनकी ज्ञानपिपासा व साहित्य प्रेम को सूचित करते हैं। अमरेली में इनकी प्रेरणा से 'श्री नेमिनाथ जैन देरासर सर्वतोभद्र प्रासाद' नाम का शिखरबंधी भव्य जिनालय का निर्माण हुआ। इस प्रकार जीवदया और विश्वमैत्री की शुभ भावना से किये गये सर्व मंगलकारी मार्गदर्शन से आज भी संघ इनसे लाभान्वित हो रहा है।383 5.3.10.13 श्री ज्योतिप्रभाश्रीजी (संवत् 2017 से वर्तमान) पाटण निवासी मणिभाई के घर संवत् 1944 में जन्मो बालिका पूर्व संस्कारों से प्रेरित होकर संवत् 2017 मृगशिर शुक्ला 15 के शुभ दिन प्रियंवदाश्रीजी के चरणों में मुंबई में दीक्षित हुई। अपनी प्रखर प्रतिभा एवं ज्ञानरूचि से इन्होंने तत्त्वज्ञान विद्यापीठ पूना की तथा अन्य धार्मिक परीक्षाएँ भी दीं। पंचमी, दशमी, 20 स्थानक, वर्धमान ओली, 96 जिन ओली, नवपद ओली, अठाई, मासक्षमण, सिद्धाचल, छ? अट्ठम, श्रेणीतप आदि तप एवं जप की विविध साधनाएँ इन्होंने संपन्न की हैं। श्री पीयूषकला, श्री कोमलकला, श्री अपूर्वकला, श्री मैत्रीकलाश्रीजी आदि इनका शिष्या-प्रशिष्या का परिवार वर्तमान में रत्नत्रय की आराधना में संलग्न है।384 5.3.10.14 आचार्य श्री विजयमोहनसूरिजी की आज्ञानुवर्तिनीप्रवर्तिनी श्री गुलाबश्रीजी का शिष्या-परिवार 85 जन्म संवत् - क्रम साध्वी नाम 1. श्री शांतिश्रीजी 2. श्री गंभीरश्रीजी 3. श्री प्रभाश्रीजी स्थान दीक्षा संवत् तिथि लीमड़ी - - साणंद 1964 ___ ज्ये. शु. 1 दीक्षा स्थान लीमड़ी अमदाबाद गुरूणी नाम श्री कल्याणश्रीजी श्री कल्याणश्रीजी श्री गंभीरश्रीजी 382. वही, 611-12 383. वही, पृ. 615-16 384. वही, पृ. 617-19 385. जिनशासन नां श्रमणीरत्नों, प्र. 628-37 420 Page #483 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्वेताम्बर परम्परा की श्रमणियाँ । । वडोदरा अमदाबाद अमदाबाद अमदाबाद 1984 1984 म. शु. 3 मृ. शु. 6 - वेरावल वेरावल । । । नाना 1991 1991 चै. कृ. 5 चै. कृ. 11 पालीताणा पालीताणा पालीताणा पालीताणा वेरावल वेरावल 1992 म. शु.3 1997 मा. श.6 डभोई 4. श्री कांतिश्रीजी श्री महिमाश्रीजी श्री सुमंगलाश्रीजी 7. श्री विमलाश्रीजी 8. श्री सुलोचनाश्रीजी 9. श्री दमयंतीश्रीजी 10. श्री नरेन्द्र श्रीजी 11. श्री प्रियदर्शनाश्रीजी 12. श्री अंजनाश्रीजी 13. श्री विनोदश्रीजी 14. श्री सूर्ययशाश्रीजी 15. श्री चंद्रकलाजी 16. श्री सद्गुणाश्रीजी 17. श्री राजेन्द्र श्रीजी 18. श्री सुलसाश्रीजी 19. श्री इन्द्रश्रीजी 20. श्री महेन्द्रश्रीजी 21. श्री प्रवीणश्रीजी 22. श्री देवेन्द्रश्रीजी 23. श्री मंजुलाश्रीजी 24. श्री कैलासश्रीजी श्री विचक्षणाश्रीजी श्री मनोरमाश्रीजी 27. श्री मृगेन्द्र श्रीजी 28. श्री रत्नप्रभाश्रीजी 29. श्रीवसंतप्रभाश्रीजी 30. श्री कनकप्रभाश्रीजी 31. श्री यशोधराश्रीजी 32. श्री अरूणप्रभाश्रीजी श्री पद्मलताश्रीजी 34. श्री कुमुदप्रभाश्रीजी 35. श्री हेमलताश्रीजीजी डभोई डभोई डभोई डभोई वेरावल लीमड़ी डभोई डभोई डभोई डभोई डभोई डभोई डभोई डभोई डभोई आमली डभोई डभाई डभोई डभोई डभोई पालीताणा पालीताणा गोरडका अमदाबाद श्री कल्याणश्रीजी श्री कल्याणश्रीजी श्री कल्याणश्रीजी श्री सुमंगलाश्रीजी श्री कल्याणश्रीजी श्री कल्याणश्रीजी श्री शान्तिश्रीजी श्री सुमंगलाश्रीजी श्री कंचनश्रीजी श्री कल्याणश्रीजी श्री कल्याणश्रीजी श्री कल्याणश्रीजी श्री कल्याणश्रीजी श्री सुनंदाश्रीजी श्री राजेन्द्रश्रीजी श्री अंजनाश्रीजी श्री अंजनाश्रीजी श्री अंजनाश्रीजी श्री इन्द्र श्रीजी श्री कमलाश्रीजी श्री कुसुमश्रीजी श्री कुसुमश्रीजी श्री कल्याणश्रीजी श्री विमलाश्रीजी श्री कुसुमश्रीजी श्री कुसुमश्रीजी श्री कुसुमश्रीजी श्री विमलाश्रीजी श्री कमलाश्रीजी श्री प्रियदर्शनाश्रीजी सुव्रताश्रीजी श्री प्रवीणश्रीजी शु. 6 चूडा 1997 मा. शृ. 6 1997 __ मा. शु. 10 1997 शु. 10 1997 1997 मा. कृ. 3 1999 वै. शु. 3 1999 2000 फा. शु. 3 2001 वै. शु. 11 2002 ज्ये. शु. 10 2004 वै. शु. 10 2004 वै. शु. 3 2005 ज्ये. शु. 3 2005 मा. शु. 11 2005 मा. शु. 11 2005 मा. शु. 11 2005 मा. शु. 11 2005 मा. शु. 14 | 421 For Private Personal Use Only अमदाबाद वेरावल डभोई डभोई डभोई डभोई डभोई डभोई डभोई अमदाबाद डभोई डभोई डभोई डभोई डभोई डभोई डभोई Page #484 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाटण 2009 2009 2009 2009 मा. शु. 8 मा. शु. 11 फा. शु. 6 फा. कृ. 8 मृ. शु. 3 मृ. शु. 3 वेरावल महेसाणा डभोई आमली डभोई कपड़वंज मोरबी डभोई 2010 به पादरा बामलगाम पादरा वासद 36. श्री अजितसेनाश्रीजी 37. श्री जयसेनाश्रीजी 38. श्री सुलक्षणाश्रीजी 39. श्री यशोभद्राश्रीजी 40. श्री जयलताश्रीजी 41. श्री किरणलताश्रीजी 42. श्री सुवर्णप्रभाश्रीजी 43. श्री अनुपमाश्रीजी 44. श्री हर्षप्रभाश्रीजी 45. श्री इन्द्रप्रभाश्रीजी 46. श्री सूर्यप्रभाश्रीजी 47. श्री पूर्णकलाश्रीजी 48. श्री मृगावतीश्रीजी 49. श्री चंद्रयशाश्रीजी 50. श्री वीरभद्राश्रीजी 51. श्री हर्षलताश्रीजी श्री यशोलताश्रीजी 53. श्री रश्मिलताश्रीजी 54. श्री कुंजलताश्रीजी 55. श्री कल्पयशाश्रीजी 56. श्री कल्पलताश्रीजी 57. श्री स्नेहलताश्रीजी 58. श्री पद्मरेखाश्रीजी 59. श्री अनंतगुणाश्रीजी 60. श्री ज्योतिगुणाश्रीजी 61. श्री मयूरकलाश्रीजी श्री धर्मनंदिनीश्रीजी 63. श्री जयनंदिनी श्रीजी 64. श्री प्रतापनंदिनीश्रीजी 65. श्री विश्वप्रज्ञाश्रीजी 66. श्री तक्षशिलाश्रीजी 67. श्री चंद्रगुप्ताश्रीजी कपड़वंज महुधा महुधा वासद डभोई अमदाबाद ऊमेटा ऊमेटा अमदाबाद अमदाबाद डभोई राजकोट राजकोट डभोई डभोई पादरा गंभीरा गंभीरा नागपुर बोरसद डभोई 2010 2010 2010 2011 2011 2011 2011 2012 2012 2012 2013 2013 2014 2014 2014 2014 2014 2016 2016 2016 2016 2017 2017 2017 2017 2020 2021 मा. शु. 11 चै. कृ. 10 चै.कृ. 10 चै. कृ. 9 ज्ये. शु. 5 फा. कृ. 7 फा. कृ. 7 वै. शु. 3 मा. कृ. 3 फा. कृ. 2 फा. शु. 6 फा. शु. 6 वै. शु. 7 वै. शु. 7 ज्ये. कृ. 7 फा. शु. 3 म. शु. 6 मृ. शु. 11 फा. शु.5 फा. कृ. 3 फा. कृ. 11 फा. कृ. 11 ज्ये. कृ. 6 का. कृ. 6 मृ. शु. 6 जैन श्रमणियों का बृहद इतिहास पाटण श्री मंजुलाश्रीजी श्री रत्नप्रभाश्रीजी वडोदरा श्री यशोधराश्रीजी श्री प्रियदर्शनाश्रीजी कपड़वंज श्री मनोरमाश्रीजी कपड़वंज श्री कुसुमश्रीजी कपड़वंज श्री बसंतप्रभाश्रीजी कपड़वंज श्री कुसुमश्रीजी पादरा श्री प्रवीणश्रीजी पादरा श्री महेन्द्रश्रीजी पादरा श्री हर्षप्रभाश्रीजी कपड़वंज श्री विचक्षणाश्रीजी अमदाबाद श्री सुनंदाश्रीजी अमदाबाद श्री मृगावतीश्रीजी श्री प्रवीणश्रीजी सायण श्री इन्द्र श्रीजी अमदाबाद श्री कुसुमश्रीजी ऊमेटा श्री इन्द्रश्रीजी ऊमेटा श्री रश्मिलताश्रीजी अमदाबाद श्री हेमलताश्रीजी अमदाबाद श्री कुमुदप्रभाश्रीजी डभोई श्री कमलाश्रीजी पालीताणा श्री सुवर्णप्रभाश्रीजी पालीताणा श्री पद्मरेखाश्रीजी डभोई श्री कनकप्रभाश्रीजी डभोई श्री प्रवीणश्रीजी पादरा श्री पद्मलताश्रीजी गंभीरा श्री प्रवीणश्रीजी गंभीरा श्री जयनंदिनीश्रीजी चाणस्मा श्री यशोधराश्रीजी वासद श्री हर्षप्रभाश्रीजी डभोई श्री पद्मरेखाश्रीजी 422 Page #485 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्वेताम्बर परम्परा की श्रमणियाँ डभोई चाणस्मा डभोई डभोई . वासद पो. कृ. 10 वै. शु. 6 म. शु. 10 म. शु. 10 मा. शु. 5 मृ. शु. 3 वै. शु. 10 वै. कृ. 6 ज्ये. शु. 13 आषा. शु. 2 मा. शु. 5 मा. शु.5 रतलाम पालीताणा दहेज डभोई मुंबई डभोई # डभोई अमदाबाद पालीताणा पादरा शु. 13 वासद 68. श्री जयमालाश्रीजी 69. श्री लक्षितज्ञाश्रीजी 70. श्री कीर्तिलताश्रीजी 71. श्री हंसलताश्रीजी 72. श्री दक्षयशाश्रीजी 73 श्री रत्नत्रयाश्रीजी 74. श्री अमितयशाश्रीजी 75. श्री नयप्रज्ञा श्रीजी 76. श्री महानंदिनीश्रीजी 77. श्री ज्योतिर्धराश्रीजी 78. श्री जयपूर्णाश्रीजी 79. श्री कल्पपूर्णाश्रीजी 80. श्री विरेशपद्माश्रीजी 81. श्री सूर्योदयाश्रीजी 82. श्री भव्यरत्नाश्रीजी 83. श्री हर्षरत्नाश्रीजी 84. श्री अमीवर्षाश्रीजी 85. श्री हर्षपूर्णाश्रीजी 86. श्री यशोधर्माश्रीजी 87. श्री जीतपूर्णाश्रीजी 88. श्री पीयूषपूर्णाश्रीजी 89. श्री हितपूर्णाश्रीजी 90. श्री हर्षदर्शिताश्रीजी 91. श्री सौम्यरसाश्रीजी 92. श्री यशोनंदिनीश्रीजी 93. मोक्षरसाश्रीजी 94. श्री प्रियज्ञाश्रीजी 95. श्री हितज्ञाश्रीजी 96. श्री हेमकलाश्रीजी 97. श्री विरतिधराश्रीजी 98. श्री यश:कलाश्रीजी 99. श्री पीयूषकलाश्रीजी #mutluluulettimet डभोई 2021 चाणस्मा 2021 डभोई 2022 डभोई 2022 वासद 2022 रतलाम 2023 पालीताणा 2024 सावरकुंडला 2025 डभोई 2025 मुंबई 20256 डभोई 2027 डभोई 2027 अमदाबाद पालीताणा 2027 पादरा 2027 वासद 2027 डभोई 2027 पाटण 2027 मुंबई 2029 अमदाबाद 2029 अमदाबाद 2029 कपड़वंज 2029 डभोई 2029 अमदाबाद 2030 मलाड ___2030 डभोई 2030 आमोद 2030 आमोद 2030 वडोदरा 2031 डभोई 2031 डभोई 2031 डभोई 2031 श्री यशोधराश्रीजी श्री विश्वप्रज्ञाश्रीजी श्री कमलाश्रीजी श्री अजितसेनाश्रीजी श्री कुंजलताश्रीजी श्री किरणलताश्रीजी श्री कनकप्रभाश्रीजी श्री विश्वप्रज्ञाश्रीजी श्री जयमालाश्रीजी श्री जयलताश्रीजी श्री कल्पलताश्रीजी श्री कल्पलताश्रीजी श्री चंद्रयशाश्रीजी श्री सुलक्षणाश्रीजी श्री पद्मलताश्रीजी श्री पद्मलताश्रीजी श्री किरणलताश्रीजी श्री अजितसेनाश्रीजी श्री स्नेहलताश्रीजी श्री जयसेनाश्रीजी श्री यशोलताश्रीजी श्री सुवर्णप्रभाश्रीजी श्री प्रियदर्शनाश्रीजी श्री कल्पलताश्रीजी श्री मंजुलाश्रीजी श्री मयूरकलाश्रीजी श्री कल्पलताश्रीजी श्री कल्पलताश्रीजी श्री विश्वप्रज्ञाश्रीजी श्री प्रतापनंदिनीश्रीजी श्री यशोधराश्रीजी श्री लक्षितज्ञाश्रीजी अमदाबाद घाटकोपर मुंबई अमदाबाद अमदाबाद कपड़वंज मा. कृ. 7 मा. कृ. 11 चै. कृ. 5 वै. कृ. 6 मा. कृ. 2 मा. शु. 5 मा. कृ. 2 मा. कृ. 5 का. कृ. 11 मृ. शु. 10 मा. कृ. 11 फा. कृ. 2 कृ. 2 वै. शु. 10 मा. कृ. 3 चै. कृ. 7 चै. कृ. 8 चै. कृ. 8 डभोई अमदाबाद मुंबई नई डभोई आमोद आमोद वडोदरा डभोई डभोई डभोई 423 Page #486 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 100. श्री चारूयशाश्रीजी 101. श्री कल्परत्नाश्रीजी 102. श्री विश्वरत्नाश्रीजी 103. श्री राजरत्नाश्रीजी 104. श्री राजधर्माश्रीजी 105 श्री विश्वधर्माश्रीजी 106. श्री धर्मरत्नाश्रीजी 107. श्री सुधर्माश्रीजी 108 श्री सौम्यदर्शिताश्रीजी 109. श्री भव्यदर्शिताश्रीजी 110. श्री हेमज्योतिश्रीजी 111. श्री भक्तिरसाश्रीजी 112. श्री विनीतरत्नाश्रीजी 113. श्री दिव्यरक्षितश्रीजी 114. श्री जयरत्नाश्रीजी 115. श्री कल्पधर्माश्रीजी 116. श्री दिव्यधर्माश्रीजी 117. श्री दिव्यज्योतिश्रीजी 118. श्री जयधर्माश्रीजी 119. श्री विश्वगुणाश्रीजी 120. श्री मृत्युंजयाश्रीजी 121. श्री कल्परसाश्रीजी 122. श्री विश्वमित्राश्रीजी 123. श्री शासनज्योतिश्रीजी 124. श्री दिव्यगुणाश्रीजी 125. श्री जितरसाश्रीजी 126. श्री पद्मरत्नाश्रीजी 127. श्री चरणरत्नाश्रीजी 128. श्री पुनितपूर्णाश्रीजी 129. श्री पुण्ययशाश्रीजी 130. श्री मयूरयशाश्रीजी 141. श्री कल्पद्रुमाश्रीजी वासद मुंबई 2031 2033 2033 2033 2033 2033 2033 2033 2034 2034 2034 2035 2035 2035 2035 2035 2036 2036 2036 2036 2036 2036 2036 2036 डभोई 2036 भोई 2036 कड़वंज 2036 चेम्बूर 2037 कपड़वंज 2038 पालीताणा 2039 पालीताणा 2040 भोई 2040 भोई भोई भोई डभोई भोई पादरा कपड़वंज भोई ध्रांगध्रा डभोई डभोई भोई मुंबई मुंबई भोई भोई नागपुर पालीताणा पालीताणा भोई भोई वै. शु. 5 फा. शु. 5 फा. शु. 5 फा. शु. 5 फा. शु. 5 फा. शु. 5 फा. शु. 13 मृ. शु. 3 मृ. शु. 3 ज्ये. कृ. 2 मृ. शु. 5 मृ. शु. 5 मृ.शु. 5 मा. कृ. 6 ज्ये. शु. 5 का. कृ. 11 का. कृ. 11 का. कृ. 14 मृ.शु. 11 मृ. शु. 7 मा. कृ. 7 मा. कृ. 7 मा. कृ. 7 मा. कृ. 7 मा. कृ. 7 वै.शु. 13 मृ. शु. 5 वै... 6 का. कृ. 10 मा. शु. 3 मा. शु. 3 424 वासद चेम्बर भोई डभोई जैन श्रमणियों का बृहद इतिहास श्री दक्षयशाश्रीजी श्री कल्पलताश्रीजी श्री वसंत प्रभाश्रीजी श्री पूर्णकलाश्रीजी श्री ज्योतिगुणाश्रीजी श्री विश्वरत्नाश्रीजी डभोई डभोई भोई पादरा पालीताणा पालीताणा नागपुर पालीताणा पालीताणा पालीताणा मुंबई तखतगढ़ बढवाण बढवाण बढवाण सुरेन्द्रनगर भोई भोई डभोई भोई भोई मुंबई मुंबई कपड़वंज पालीताणा पालीताणा भोई श्री कल्पयशाश्रीजी श्री हर्षप्रभाश्रीजी श्री चंद्रयशाश्रीजी श्री पद्मरेखाश्रीजी श्री नयप्रज्ञाश्रीजी श्री मयूरकलाश्रीजी श्री हर्षरत्नाश्रीजी श्री किरणलताश्रीजी श्री यशोधराश्रीजी श्री कल्पलता श्रीजी श्री पीयूषकलाश्रीजी श्री दिव्यधर्माश्रीजी श्री विश्वप्रज्ञाश्रीजी श्री सुलक्षणाश्रीजी श्री चंद्रयशाश्रीजी श्री विश्वप्रज्ञाश्रीजी श्री विश्वरत्नाश्रीजी श्री कुंजलताश्रीजी श्री अनंतगुणाश्रीजी श्री लक्षितज्ञाश्रीजी श्री पूर्णकलाश्रीजी श्री पूर्णकलाश्रीजी श्री पीयूषपूर्णाश्रीजी श्री चंद्रयशाश्रीजी श्री चंद्रयशाश्रीजी श्री किरणलताश्रीजी Page #487 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्वेताम्बर परम्परा की श्रमणियाँ 142. श्री विश्वहिताश्रीजी 143. श्री कल्पगिराश्रीजी 144. श्री कल्पवर्षाश्रीजी 145. श्री कल्पहिताश्रीजी 146. श्री शाश्वतयशाश्रीजी 147. श्री शाश्वतधर्माश्रीजी 148 श्री जिनयशाश्रीजी 149. श्री चैत्यरसाश्रीजी 150 श्री सोहमयशाश्रीजी 151. श्री कल्पश्रुताश्रीजी 152. श्री कल्पितपूर्णाश्रीजी 153. श्री विश्वदर्शाश्रीजी 154. श्री भव्यज्ञाश्रीजी 155. श्री जिनरक्षा श्रीजी 156. श्री धर्मरक्षा श्रीजी 157. श्री महाश्रुताश्रीजी 158. श्री प्रियश्रुताश्रीजी 159. श्री निरारसा श्रीजी 160. श्री ध्यानरसा श्रीजी 161. श्री अभयधर्माश्रीजी 162. श्री साधकरसाश्रीजी 163. श्री चैत्ययशाश्रीजी 164. श्री स्मृतियशाश्रीजी 165. श्री हेमवर्षा श्रीजी 166 श्री ह्रींकारयशाश्रीजी 167. श्री प्रशांत पूर्णा श्रीजी 168. श्री हंसाश्रीजी 169. श्री निर्मला श्रीजी 170. श्री कुशल श्रीजी 171. श्री दिव्यश्रीजी 172. श्री ललिताश्रीजी 173. श्री कवीन्द्र श्रीजी 1 भोई आमोद आमोद आमोद टटोई टटोई टोई आमरोल महुधा वेजलपुर भोई कपड़वंज चाणस्मा चाणस्मा वडोदरा भीमडी मुंबई भोई कपड़ आणंद कपडवंज कपड़वंज पूना कच्छ अमदाबाद वढवाण अमदाबाद वेरावल वेरावल 2040 मा. शु. 11 2040 वै. शु. 5 2040 वै. शु. 5 2040 2040 2040 2041 2042 2043 2044 2044 2044 2044 2045 2045 2045 2045 2045 2045 2046 2046 2046 2047 2047 2047 2048 1 वै. शु. 5 वै.कृ. 5 वै.कृ. 5 मृ. शु. 2 चै. कृ. 5 ज्ये. कृ. 2 मा. शु. 7 मा. कृ. 11 फा. कृ. 3 फा. शु 6 मा. शु. 5 मा. शु. 5 मा. शु. 10 मा. शु. 10 फा. शु. 3 वै. शु. 6 मा. शु. 11 मा. शु. 11 मा. शु. 5 मा. शु. 11 ज्ये. शु. 13 वै. शु. 5 मा. शु. 11 11 | 425 For Private&al Use Only भोई आमोद आमोद आमोद टटोई टटोई टींटोई वडोदरा महुधा वेजलपुर अमदाबाद मुंबइ ཁྐྲ་ཀྰ་ཀྰ་ मुंबई मुंबई मुंबई चाणस्मा चाणस्मा वडोदरा मुंबई मुंबई मुंबई वडोदरा कपड़वंज कपड़वंज पालीताणा अमदाबाद वेरावल श्री विश्वरत्नाश्रीजी श्री विश्वरत्नाश्रीजी श्री विश्वरत्नाश्रीजी श्री विश्वरत्नाश्रीजी श्री यशोधर्माश्रीजी श्री यशोधर्माश्रीजी श्री यशोधर्माश्रीजी श्री मयूरकलाश्रीजी श्री चंद्रयशाश्रीजी श्री कल्पपूर्णाश्रीजी श्री सुवर्णप्रभाश्रीजी श्री विश्वरत्नाश्रीजी श्री हेमकलाश्रीजी श्री सूर्योदया श्रीजी श्री जिनरक्षा श्रीजी श्री नयप्रज्ञाश्रीजी श्री महानंदिनी श्रीजी श्री लक्षितज्ञाश्रीजी श्री मयूरकलाश्रीजी श्री विश्वधर्माश्रीजी श्री मयूरकलाश्रीजी श्री मयूरकलाश्रीजी श्री दक्षयशाश्रीजी श्री चंद्रयशाश्रीजी श्री अमीवर्षाश्रीजी श्री मयूरयशाश्रीजी श्री अजितसेनाश्रीजी श्री जयंति श्रीजी श्री जयंति श्रीजी श्री जयंति श्रीजी श्री जयंति श्रीजी श्री जयंति श्रीजी Page #488 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 174. श्री सुरेन्द्रश्रीजी 175. श्री गुणमाला श्रीजी 176. श्री स्वयंप्रभाश्रीजी 177. श्रीधर्मप्रभाश्रीजी 178. श्री कीर्तिकलाश्रीजी 179. श्री ऋजुकलाश्रीजी 180. श्री हर्षकलाश्रीजी 181. श्री पीयूषकलाश्रीजी 182. श्री राजकलाश्रीजी 183. श्री जयधर्मकलाश्रीजी 184. श्री भद्रकलाश्रीजी 185. श्री दीपकलाश्रीजी 186. श्री ज्ञानकलाश्रीजी 187. श्री मृदुकलाश्रीजी 188. श्री पुनितकलाश्रीजी 189. श्री जिनेशकलाश्रीजी 190. श्री दिव्यकलाश्रीजी 191. श्री कीर्तनकलाश्रीजी 192. श्री कोमलकलाश्रीजी 193. श्री विनीतकलाश्रीजी 194. श्री अपूर्वकलाश्रीजी 195. श्री अर्हत्कलाश्रीजी 196. श्री मैत्रीकलाश्रीजी 197. श्री मनोरमा श्रीजी 198. श्री इन्द्रश्रीजी 199. श्री भरत श्रीजी 200. श्री विमलाश्रीजी 201. श्री कुमुदश्रीजी 202. श्री जिनेन्द्र श्रीजी 203. श्री चंद्रश्रीजी 204. श्री सुदर्शनाश्रीजी 205. श्री पद्मयशाश्रीजी वेरावल वेरावल अमदाबाद 2003 2014 2022 2023 भुजपुर 2023 देवड़ा 2029 2030 2031 2034 2035 2035 2037 2040 2041 2041 2041 2042 अमदाबाद 2042 बोरीवली (मुं.) 2045 बोरीवली 2047 जाखडी 2047 शिरपुर 1969 खंभात 1972 1983 1987 1989 1989 1989 1990 2007 सूरत ऊंझा अमरेली खंभात जेतपुर मुंबई अमदाबाद मुंबई दहाणु मुंबई ऊंझा दादर (मुं.) जेतपुर धोल अमदाबाद खंभात पेटलाद पालीताणा पालीताणा छनीयार खंभात 426 ज्ये. कृ. 11 ज्ये. कृ. 3 फा. शु. 3 वै. शु. 6 आषा. शु. 2 मृ. शु. 8 मृ. कृ. 4 वै. शु. 11 फा. शु. 4 मृ. शु. 5 मृ.शु. 5 माघ कृ. 2 फा. शु. 2 फा. शु. 4 फा. शु. 4 फा. शु. 4 फा. शु. 6 फा. कृ. 3 फा. शु. 2 मृ. कृ. 5 वै. कृ. 2 मा. शु. 6 मा. शु. 6 मृ. कृ. 3 फा. शु. 6 मृ. कृ. 3 मा. कृ. 11 मा. शु. 14 फा. कृ. 11 वै. शु. 10 जैन श्रमणियों का बृहद इतिहास पालीताणा वेरावल अमदाबाद सूरत मुंबई अमरेली मुंबई मुंबई मुंबई मुंबई जूनागढ़ पालीताणा पालीताणा बोरीवली (मुं.) मुंबई मुंबई मुंबई बोरीवली माटुंगा (मुं.) चेम्बुर (मुं.) बोरीवली चुनाभट्टी जाखडी अमदाबाद खंभात पेटलाद पालीताणा पालीताणा अमदाबाद खंभात श्री कवीन्द्र श्रीजी श्री प्रियंवदाश्रीजी श्री स्वयंप्रभाश्रीजी श्री प्रियंबदाश्रीजी श्री पद्मयशाश्रीजी श्री प्रियंवदाश्रीजी श्री ज्योतिप्रभाश्रीजी श्री कीर्तिकलाश्रीजी श्री प्रियंवदाश्रीजी श्री कीर्तिकलाश्रीजी श्री प्रियंवदाश्रीजी श्री कीर्तिकलाश्रीजी श्री प्रियंवदाश्रीजी श्री ऋजुकलाश्रीजी श्री कीर्तिकलाश्रीजी श्री हर्षकलाश्रीजी श्री जयधर्मकलाश्री श्री ज्योतिप्रभाश्रीजी श्री दीपकलाश्रीजी श्री ज्योतिप्रभाश्रीजी श्री प्रियंवदाश्रीजी श्री कोमलकलाश्रीजी श्री कैवल्यश्रीजी श्री कैवल्यश्रीजी श्री कैवल्यश्रीजी श्री कैवल्यश्रीजी श्री मनोरमाश्रीजी श्री मनोरमा श्रीजी श्री इन्द्रश्रीजी श्री भरत श्रीजी श्री मंजुला श्रीजी Page #489 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्वेताम्बर परम्परा की श्रमणियाँ खंभात 2007 प्रभासपाटण 2010 प्रभासपाटण 2010 खंभात 2023 खंभात 2026 खंभात 2026 राजकोट 2027 अमदाबाद 2035 आमदाबाद 2035 2035 पालीताणा 2039 कल्याण 2040 वै. शु. 10 मा. कृ. 13 मा. कृ. 13 पो. शु. 11 वै. कृ. 3 वै. शु. 10 मा. शु. 5 मृ. शु. 5 म. शु. 5 मृ. शु. 8 का. कृ. 11 का. कृ. 4 खंभात पालीताणा पालीताणा खंभात खंभात खंभात खंभात पालीताणा पालीताणा पालीताणा पालीताणा पालीताणा मुंबई पालीताणा खंभात श्री मंजुलाश्रीजी श्री मंजुलाश्रीजी श्री मंजुलाश्रीजी श्री विमलाश्रीजी श्री मंजुलाश्रीजी श्री मंजुलाश्रीजी श्री पुष्पयशाश्रीजी श्री दिव्ययशाश्रीजी श्री ललितांगयशाश्री श्री पुष्पयशाश्रीजी श्री आगमरसाश्रीजी श्री पद्मयशाश्रीजी श्री आगमरसाश्रीजी श्री हर्षोदयाश्रीजी श्री आगमरसाश्रीजी श्री उत्तमश्रीजी श्री दमयन्तीश्रीजी श्री दमयन्तीश्रीजी श्री चंद्रप्रभाश्रीजी श्री कनकप्रभाश्रीजी श्री कनकप्रभाश्रीजी श्री मंगलश्रीजी श्री नवलश्रीजी श्री नवलश्रीजी भावनगर डभोडा 206. श्री पुष्पयशाश्रीजी 207. श्री दिव्ययशाश्रीजी 208. श्री ललितांगयशाश्रीजी 209. श्री हर्षोदयाश्रीजी 210. श्री भव्ययशाश्रीजी 211. श्री विरतियशाश्रीजी 212. श्री सुयशाश्रीजी 213. श्री दिव्यरसाश्रीजी 214. श्री आगमरसाश्रीजी 215. श्री पुनितयशाश्रीजी 216. श्री आत्मदर्शनाश्रीजी 217. श्री सौरभयशाश्रीजी 218. श्री जिनदर्शाश्रीजी 219. श्री मुक्तियशाश्रीजी 220. श्री नयदर्शाश्रीजी 221. श्री मंगलश्रीजी 222. श्री चन्द्रप्रभाश्रीजी 223. श्री कनकप्रभाश्रीजी 224. श्री तृप्तिपूर्णाश्रीजी 225. श्री ऋषिदत्ताश्रीजी 226. श्री वासवदत्ताश्रीजी 227. श्री नवलश्रीजी 228. श्री निर्मलाश्रीजी 229. श्री प्रियंकराश्रीजी 230. श्री जशवंतश्रीजी 231. श्री हसमुखश्रीजी 232. श्री मतिगुणाश्रीजी 233. श्री कनकप्रभाश्रीजी 234. श्री जिज्ञरसाश्रीजी 235. श्री तत्त्वप्रज्ञाश्रीजी 236. श्री तत्त्वगुणाश्रीजी 237. श्री कुसुमश्रीजी मुंबई 2044 2046 1952 2004 2007 2030 2037 भोयणी ऐठोर(ऊंझा) चुड़ा सुरत सूरत ऐडन मजेवडी ऐडन वै. कृ. 6 मा. कृ. 11 चै. शु. 11 वै. शु. 6 का. कृ. 5 म. शु. 10 वै. शु. 7 वै. शु. 7 सुरत धोराजी मजेवड़ी मजेवडी 2037 दशपरा । दशपरा पूना । । । जामनगर । । । । । । श्री हसमुखश्रीजी श्री निर्मलाश्रीजी श्री नंदनश्रीजी खेड़ा 1996 ज्ये. कृ. 11 - 427 Page #490 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन श्रमणियों का बृहद इतिहास 238. श्री देवश्रीजी 239. श्री दिव्याश्रीजी 240. श्री दक्षगुणाश्रीजी 241. श्री उर्मिलयशाश्रीजी 242. श्री स्नेहलयशाश्रीजी 243. श्री नीलदर्शिताश्रीजी 244. श्री नीलरत्नाश्रीजी 245. श्री शीलधर्माश्रीजी 246. श्री मुक्तिमालाश्रीजी 247. नम्रदर्शिताश्रीजी 248. श्री हीराश्रीजी 249. श्री पुष्पाश्रीजी 250. श्री प्रभंजनाश्रीजी 251. श्री कनकप्रभाश्रीजी साणोदर गारियाधार डभोई जूनागढ़ कोतुल जेसर सुरेन्द्रनगर वडज पालीताणा 2014 2014 2021 2027 2029 2034 2036 2041 2045 2045 ज्ये. शु. 10 ज्ये. शु. 10 वै. शु. 2 म. शु. 6 मा. शु. 13 पो. कृ. 5 मा. कृ. 7 फा. शु. 4 मा. कृ. 11 वै. कृ.5 श्री नंदनश्रीजी - श्री कुसुमश्रीजी श्री देवश्रीजी श्री दिव्याश्रीजी जोरावरनगर श्री दिव्याश्रीजी जेसर श्री दिव्याश्रीजी सुरेन्द्रनगर श्री दिव्याश्रीजी बोरीवली (म.) श्री दिव्याश्रीजी भयंदर (मु.) श्री स्नेहलयशाश्रीजी दहीसर श्री नीलदर्शिताश्रीजी । । श्री पुष्पाश्रीजी । । 5.3.11 पंन्यास श्री धर्मविजयजी (डहेलावाला) के समुदाय की श्रमणियाँ श्वेताम्बर मूर्तिपूजक तपागच्छ के विभिन्न समुदायों मे 'डहेलावाला' का समुदाय एक प्राचीन व सुप्रसिद्ध समुदाय है, उस समुदाय को 'पंन्यास श्री धर्मविजयजी महाराज के समय विशेष प्रसिद्धि प्राप्त हुई, वर्तमान में इस समुदाय के गच्छाधिपति आचार्य विजयअभयदेवसूरिजी महाराज हैं, उनकी आज्ञा में 257 साध्वियों का समुदाय भारत के विविध अंचलों में परिभ्रमण करता हुआ अपने ज्ञान, संयम व तप-त्याग की सौरभ को विश्व में प्रसारित कर रहा है, इस समुदाय की उपलब्ध श्रमणियों का परिचय इस प्रकार है। 5.3.11.1 श्री तरूणप्रभाश्रीजी (संवत् 1966-स्वर्गस्थ) जन्म संवत् 1949 अमदाबाद, दीक्षा संवत् 1966 अमदाबाद। तप-नौ वर्ष की उम्र में उपधान तप, अठाई, 16 उपवास, दीक्षा के बाद नवपद ओली बीस स्थानक, वर्धमान ओली 87, वर्षीतप, सिद्धितप, चत्तारि अट्ठ दस दोय, 500 आयंबिल, मासक्षमण आदि। यात्रा-गिरनार की एक, शत्रुजय की दो बार 99 यात्रा चौविहारी छ8 से सात यात्रा, कई जैन तीर्थों की यात्रा की है।386 5.3.11.2 श्री रंजनश्रीजी (संवत् 1976-2040) ___ जन्म संवत् 1959 डागरवा गुजरात, पिता वाडीलाल माता चंचलबहन, दीक्षा संवत् 1976 वैशाख शुक्ला 6 अमदाबाद, गुरूणी मनहरश्रीजी, तप-सिद्धितप, स्वर्गवास संवत् 2040 अमदाबाद।387 386. 'श्रमणीरत्नो', पृ. 642 387. वही, पृ. 644 428 Page #491 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्वेताम्बर परम्परा की श्रमणियाँ 5.3.11.3 श्री सुनन्दाश्रीजी ( संवत् 1986-2028 ) जन्म संवत् 1946 वराद गुजरात, दीक्षा संवत् 1986 शेरीसा तीर्थ, गुरूणी श्री चंपाश्रीजी, तप-सिद्धितप, वरसीतप, बीस स्थानक, चारमासी, तीन मासी, दो मासी, डेढ़मासी, नवपद ओली, 11, 10 9 8 6 उपवास, लावाला आचार्य श्री विजयरामसूरीश्वर की मातेश्वरी, चारित्र की सुंदर आराधना की। संवत् 2028 अमदाबाद में कालधर्म को प्राप्त हुईं 1388 5.3.11.4 श्री दर्शनश्रीजी ( संवत् 1987 -2037 ) श्री दर्शन श्रीजी अपनी गंभीरता सरलता, क्षमा, धीरता, गुर्वाज्ञा, वैयावृत्यवृत्ति आदि गुणों के लिये अपने समुदाय में एक प्रख्यात साध्वीरत्न हुई हैं । संसारपक्ष से ये खेड़ा गाँव के श्रीमोतीलालजी व जड़ावबहन की सुपुत्री थीं, संवत् 1962 में जन्म हुआ और 1987 वैशाख कृष्णा 7 के शुभ दिन श्री विमल श्रीजी के पास दीक्षा अंगीकार की । तप के क्षेत्र में इन्होंने नवपद ओली, वर्धमान तप की 70 ओली, सिद्धितप, वर्षीतप बीस स्थानक, चौबीसी, सहस्रकूट आदि दीर्घ तपस्याएँ की हैं। श्री कनकप्रभाश्री और कल्पलता श्रीजी इन दो विदुषी शिष्याओं के परिवार की ये अग्रणी थीं। अमदाबाद में संवत् 2037 में स्वर्गवासिनी हुईं। 389 5.3.11.5 श्री जयंति श्रीजी ( संवत् 1990 से वर्तमान) जन्म राजनगर संवत् 1970, श्री लालचंद भाई शेठ व माणेकबहन की सुपुत्री, अढ़ाई वर्ष के विवाह संबंध को तोड़कर वैराग्य भाव से संवत् 1990 वैशाख शुक्ला 10 के दिन श्री विमलाश्रीजी के सान्निध्य में दीक्षा अंगीकार की। इनकी प्रेरणा से ललिताश्री और कनकप्रभाश्री इनकी ये दो बहनें भी दीक्षित हुईं। इन्होंने सिद्धितप, अखंड 500 आयंबिल, नवपद, बीस स्थानक, 99 यात्रा, अठाई, समवसरण, सिंहासन, 15 उपवास, सिद्धाचल के छट्ठ अट्टम 108 वर्धमान तप की ओली, चत्तारि अट्ठ, वर्षीतप जैसी उत्कृष्ट तपस्याएँ की हैं। मीठाई, कढ़ाई विगय की त्यागी हैं। कच्छ, सौराष्ट्र, जैसलमेर, मध्यप्रदेश आदि स्थलों पर वित्तरण कर कई लोगों को धर्म से जोड़ा है। श्री ललिताश्रीजी, अभया श्रीजी, रत्नरेखाश्री, जयप्रदाश्री, पूर्णयशाश्री आदि इनकी सुयोग्य शिष्याएँ हैं । 390 5.3.11.6 श्री विमलश्रीजी ( संवत् 1995 से वर्तमान) जन्म संवत् 1967 उदयपुर, पिता नथमलजी, माता हेतबाई, पति अमृतलालजी चेलावत, दीक्षा संवत् 1995 आषाढ़ कृष्णा 10 उदयपुर, गुरूणी सुमतिश्रीजी, ज्ञान- दशवैकालिक, छः कर्मग्रन्थ, संग्रहणी, क्षेत्रसमास संस्कृत, प्राकृत, हिंदी, गुजराती, तप-अठाई, 24 तीर्थंकर के एकाशन, वर्धमान ओली 49, शिष्या - श्री सुदर्शना श्रीजी 391 388. वही, पृ.645 389. वही, पृ. 638 390. वही. पृ. 639 391. वही, पृ.645 429 Page #492 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 5.3.11.7 श्री कंचनश्रीजी ( संवत् 1995 से वर्तमान) जन्म संवत् 1981 राधनपुर, पिता मोतीलाल भाई, माता मणिबहन, दीक्षा संवत् 1995 माघ शुक्ला 6 राध नपुर, गुरूणी श्री श्रमणी श्रीजी, तप-मासक्षमण, वर्षीतप, बीस स्थानक आदि, शिष्याएँ - श्री वयक्षणाश्रीजी, चंद्रोदया श्रीजी, अनिलप्रभाश्रीजी, भद्राश्रीजी, सरस्वती श्रीजी । 392 5.3.11.8 श्री चंपक श्रीजी ( संवत् 1996 - स्वर्गस्थ ) जन्म संवत् 1967 राधनपुर पिता ककलभाई माता दिवालीबहन, दीक्षा संवत् 1996 माघ शुक्ला 10; गुरूणी श्री रंजन श्रीजी, ज्ञान- दशवैकालिक भाष्य, चार प्रकरण, कर्मग्रन्थ आदि; तप मासक्षमण, क्षीरसमुद्र, वर्षीतप 3, 108 अट्टम, 229 छ्ट्ट आदि तप | 393 जैन श्रमणियों का बृहद इतिहास 5.3.11.9 श्री सुलोचनाश्रीजी ( संवत् 1997-2048 ) जन्म मुदरड़ा गुजरात, पिता माणेकलाल माता पुरीबहेन, दीक्षा संवत् 1997 मृगशिर शुक्ला 5 अमदाबाद, गुरूणी श्री महिमाश्रीजी, तपस्या- मासक्षमण, सिद्धितप, 16 उपवास, दो वर्षीतप चत्तारि अट्ठ, 229 छ्ट्ठ, 12 अट्टम, विहारक्षेत्र- राजस्थान, महाराष्ट्र, बिहार, बंगाल, पंजाब, गुजरात, मालवा, उत्तरप्रदेश। संवत् 2048 अमदाबाद में स्वर्गवास 1 394 5.3.11.10 श्री सुलोचनाश्रीजी (संवत् 1999 - स्वर्गस्थ ) जन्म संवत् 1980 बोरू ग्राम, पिता चंदुलाल घेलाभाई, माता मंगुबहेन, दीक्षा संवत् 1999 वैशाख शुक्ला 11 बोरू, गुरूणी श्री मनोहर श्रीजी, ज्ञान-छः कर्मग्रन्थ, संस्कृत, तपस्या - सिद्धितप, चत्तारि, अट्ठ, अठाई, 9 उपवास, 150 आयम्बिल। विहार क्षेत्र-गुजरात, महाराष्ट्र राजस्थान, बिहार 1 395 - 5.3.11.11 श्री वसंत श्रीजी ( संवत् 1999 - स्वर्गस्थ ) जन्म संवत् 1987 लुणावाडा, पिता महासुखलाल, माता रमतीबहन, दीक्षा संवत् 1999 मृगशिर शुक्ला 5, गुरूणी श्री हेतश्रीजी, अभ्यास- कर्मग्रन्थ, वैराग्यशतक, उपदेशमाला, क्षेत्रसमास, कुलकसंग्रह आदि । तपस्या - 16 उपवास, चत्तारि अट्ठ, सिद्धितप, बीस स्थानक, मेरूबंध और नवपद की 6 अठाई, वर्षीतप, वर्धमान ओली, 500 आयंबिल। इनका विहार क्षेत्र कच्छ, हालार और राजस्थान रहा। 396 392. वही, पृ. 645 393. वही, पृ. 645 394. वही, पृ. 645 395. वही, पृ.646 396. वही, पृ. 646 5.3.11.12 श्री सुशीला श्रीजी ( संवत् 1999 - स्वर्गस्थ ) जन्म संवत् 1984 लुणावाडा ( जिला पंचमहाल), पिता पीताम्बरदास, माता डाहीबहन, दीक्षा संवत् 1999 430 Page #493 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्वेताम्बर परम्परा की श्रमणियाँ फाल्गुन कृष्णा 11 अमदाबाद में हुई। गुरूणी श्री कुमुदश्रीजी थीं, ज्ञानार्जन-छः कर्मग्रन्थ, वैराग्य शतक, तत्त्वार्थ आदि। तपस्या-मासक्षमण, 16 उपवास, सिद्धितप, चत्तारि अट्ठ दस दोय, वर्षीतप 2, चारमासी, बारहमासी, गणधर छ?, बीस स्थानक, चार चौबीसी, वर्धमान तप की 79 ओली, 500 आयंबिल। विहार क्षेत्र -कच्छ, सौराष्ट्र गुजरात, राजस्थान, मध्यप्रदेश आदि। 5.3.11.13 श्री विमलाश्रीजी (संवत् 1999 से वर्तमान) - बनासकांठा जिले का आंत्रोली गाँव, पिता माणेकलाल माता मणिबहन की कुक्षि से संवत् 1981 में जन्म हुआ। संवत् 1999 ज्येष्ठ शुक्ला 10 को आंत्रोली में श्री अनोपमाश्रीजी के सान्निध्य में प्रव्रज्या ली। कर्मग्रंथ, चार प्रकरण, तीन भाष्य, बृहद् संग्रहणी, तत्त्वार्थ, साहित्य आदि का गहन अध्ययन किया। वर्षीतप, सिद्धितप, वर्धमान तप की 70 ओली, छ: मासी आदि तपस्याएँ की। शत्रुजय की 99 यात्रा दो बार, भारत के प्रायः जैन तीर्थों की पद-यात्राएँ कर संयमी जीवन को कृतार्थ किया।398 5.3.11.14 श्री प्रवीणश्रीजी (संवत् 2000 से वर्तमान) जन्म संवत् 1980 थानगढ़, पिता रतिलाल माता जीवतीबहन, दीक्षा संवत् 2000 वैशाख शुक्ला 11, गुरूणी श्री पद्मश्रीजी, अभ्यास-संस्कृत, प्राकृत, न्याय आदि। तप-वर्षीतप, वर्धमान तप की 23 ओली, नव लाख नवकार जाप/399 5.3.11.15 श्री विचक्षणाश्रीजी (संवत् 2000-2046) जन्म संवत् 1976 उमत्ता गाँव, पिता मणिलाल भाई, माता चंचलबहन, संवत् 2000 आषाढी दूज अमदाबाद में दीक्षा, श्री कंचनश्रीजी गुरूणी, ज्ञानार्जन - 6 कर्मग्रंथ अर्थसहित, दशवैकालिक, सिंदुर प्रकरण, तत्त्वार्थ आदि। तपस्या - अठाई, वर्धमान तप, नवपद ओली, मेरूपर्वत की 5 ओली, बीस स्थानक ओली, विहार क्षेत्र कच्छ, सौराष्ट्र, गुजरात, राजस्थान आदि, संवत् 2046 में स्वर्गवास हुआ।400 5.3.11.16 श्री चन्द्रोदयाश्रीजी (संवत् 2001-स्वर्गस्थ) जन्म संवत् 1975 धारीसणा ग्राम, पिता कोदरलाल माता चंद्राबहन, दीक्षा संवत् 2001 मृगशिर शुक्ला 4 अमदाबाद, गुरूणी श्री कंचनश्रीजी, अभ्यास-धर्मरत्न प्रकरण आदि। तप-मासक्षमण, 16, 11, 15 उपवास, वर्षीतप, 500 आयंबिल, वर्धमान तप आदि। विहार क्षेत्र-राजस्थान, कच्छ, सौराष्ट्र, महाराष्ट्र आदि। शिष्याएँ - श्री सद्गुणाश्रीजी तथा श्री अमितप्रज्ञाश्रीजी।401 397. वही, पृ. 641 398. वही, पृ. 641 399. वही, पृ. 647 400. वही, पृ. 647 401. वही, पृ. 647 431 Page #494 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन श्रमणियों का बृहद इतिहास 5.3.11.17 श्री विनयप्रभाश्रीजी (संवत् 2001-42) जन्म संवत् 1970 अमदाबाद, पिता भायालाल शाह, माता शकरीबहन, दीक्षा संवत् 2001 काल्गुन कृष्णा 6 अमदाबाद, श्री रंजनश्रीजी गुरूणी, हिंदी, संस्कृत, प्राकृत का अध्ययन, तप-अठाई, वर्धमान तप ओली, आयंबिल छ? अट्टम, कई वर्षों से घंटों ध्यान-साधना, गुजरात, सौराष्ट्र महाराष्ट्र में विचरण, श्री सुव्रतप्रभाश्रीजी, स्वयंप्रभाश्रीजी शिष्याएँ, संवत् 2042 अमदाबाद में स्वर्गवास हुआ।302 5.3.11.18 श्री सूर्यप्रभाश्रीजी (संवत् 2002 से वर्तमान) जन्म संवत् 1977 अमदाबाद, पिता परशोत्तमदास, माता मोतीबहन, दीक्षा संवत् 2002 वैशाख कृष्णा 11, श्री महेन्द्रश्रीजी गुरूणी, क्षेत्रसमास, सिंदुरप्रकरण, तत्त्वार्थ, बृहत् संग्रहणी आदि अध्ययन, 509 आयंबिल दो वर्षीतप, छमासी, तीनमासी, चारमासी, डेढ़मासी, 6, 7, 8, 5 उपवास, मासक्षमण, 108 अट्ठम तप की आराधना की।403 5.3.11.19 श्री रत्नप्रभाश्रीजी (संवत् 2002 से वर्तमान) बनासकांठा जिले में सांतलपुर ग्राम में जन्म, पिता नागरदास सिंघवी माता समरतबहन, संवत् 2002 फाल्गुन कृष्णा 11 पालीताणा में दीक्षा, श्री महिमाश्रीजी गुरूणी, 7, 8, 9, 10 उपवास, बीस स्थानक, तिथि आराधना, वर्धमान ओली चालु। कच्छ, वागड़, राजस्थान, मेवाड़, सौराष्ट्र आदि में विचरण किया।404 5.3.11.20 श्री कनकप्रभाश्रीजी (संवत् 2003 से वर्तमान) जन्म संवत् 1984, माता माणेकबहन पिता लालभाई की दसवीं संतान, अमदाबाद के श्री रजनीकान्त के साथ परिणय संबंध से जुड़ी, किंतु संसार की आसक्ति को तोड़ने का दृढ़-निश्चय लेकर पति आज्ञा से संवत् 2003 वैशाख कृष्णा 11 को संयम स्वीकार किया। ज्ञानाभ्यास में संस्कृत, प्राकृत, तर्क संग्रह, स्याद्वादमंजरी, नयचंद्रसार भाष्य, हेमलघु प्रक्रिया आदि उच्चकोटि के ग्रंथों का अध्ययन किया। तप में नवपद, बीस स्थानक, वर्षीतप, 16, 13, 8 उपवास, वर्धमान तप की 108 ओली, 500 आयंबिल आदि विविध तप किया। विहारचर्या- कच्छ, सौराष्ट्र, राजस्थान, मद्रास, मेवाड़, मालवा, लक्ष्मणी आदि क्षेत्रा में रही। सिकन्दराबाद, मलाड (मुंबई) में वर्धमान तप आयंबिल शाला, कायमी आयम्बिल तप, धार्मिक पाठशाला सामायिक मंडल, महिला मंडल आदि प्रारंभ करवाये, कई स्थानों पर ज्ञान शिविरों का सफल आयोजन किया। पद्मप्रभाश्री, हर्षपूर्णाश्री, विनीतयशाश्री, चारूशीलाश्री, वसंतप्रभाश्री, लक्षगुणाश्री, राजयशाश्री, मृदुरसाश्री, विरागमालाश्री, सिद्धान्तगुणाश्री आदि इनकी विदुषी शिष्याएँ हैं।105 5.3.11.21 श्री सुव्रतप्रभाश्रीजी (संवत् 2004-स्वस्थ) ___संवत् 1975 बोरू में जन्म, पिता डाह्याभाई माता नरभीबहन, दीक्षा संवत् 2004 वैशाख मास अमदाबाद में, 402. वही, पृ. 647 403. वही, पृ. 648 404. वही, पृ. 648 405. वही, पृ. 639-41 432 Page #495 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्वेताम्बर परम्परा की श्रमणियाँ श्री विनयप्रभाश्रीजी गुरूणी, ज्ञानार्जन-प्रकरण, तीन भाष्य, दशवैकालिक, तपस्या - वर्षीतप, बीस स्थानक वर्धमान तप, 500 आयंबिल/06 5.3.11.22 श्री निर्मलाश्रीजी (संवत् 2004-स्वर्गस्थ) संवत् 1985 माणेकवाड़ा (सौराष्ट्र) में जन्म, पिता कोठारी गुलाबचंदजी तथा माता समरतबहन, पति ताराचंदजी थे। दीक्षा संवत् 2004 माघ मास अमदाबाद में ली। श्री महेन्द्रश्रीजी गुरूणी, अभ्यास-बृहद् संग्रहणी दशवैकालिक, वैराग्यशतक, संस्कृत आदि। तपस्या-अठाई, 9, 16 उपवास, चत्तारि अट्ठ दस दोय, दो सिद्धितप, 500 आयंबिल, प्रतिदिन बीयासणा।407 5.3.11.23 श्री सूर्यप्रभाश्रीजी (संवत् 2005-35) जन्म संवत् 1958 माता मोतीबाई, पिता हरखचंदजी, दीक्षा संवत् 2005 वैशाख कृष्णा 6 जामनगर। अध्ययन-छह कर्मग्रंथ, तीन भाष्य, चार प्रकरण, व्याकरण आदि। तप-नवपद ओली, 20 स्थानक चार चौबीसी, वर्धमान ओली। विहार-गुजरात, सौराष्ट्र, मारवाड़, महाराष्ट्र आदि। शिष्याएँ - तीन बनी, संवत् 2035 जामनगर में स्वर्गस्था408 5.3.11.24 श्री भद्राश्रीजी (संवत् 2007-37) ___ जन्म सरखेज, दीक्षा संवत् 2007 वैशाख कृष्णा 7 को 60 वर्ष की उम्र में, विहार-सौराष्ट्र, कच्छ, बनासकांठा, 90 वर्ष की उम्र में 30 वर्ष संयम पालकर संवत् 2037 अमदाबाद में समाधिमरण। शिष्याएँ - पद्मलताश्रीजी आदि शिष्या-प्रशिष्या आदि 17 का परिवार था।09 5.3.11.25 श्री सुदर्शनाश्रीजी (संवत् 2008- से वर्तमान) संवत् 1976 उदयपुर में जन्म, पिता प्रतापसिंहजी नलवाया माता सोवनबहन, संवत् 2008 फाल्गुन कृष्णा 11 चाणस्मा में, दीक्षा गुरूणी श्री विमलश्रीजी। दशवैकालिक, कर्मग्रन्थ, संग्रहणी आदि का अध्ययन, तपस्या-चत्तारि अट्ठ दस दोय, सिद्धितप, 16 उपवास, 96 जिन ओली, विजय के 170 उपवास आदि तप, मेवाड़, मालवा, गुजरात आदि में विचरण, शिष्याएँ-श्री चंद्रकलाश्रीजी, श्री कल्पलताश्रीजी संसार पक्ष से दोनों पुत्रियाँ हैं। 10 5.3.11.26 श्री कल्पलताश्रीजी (संवत् 2008 से वर्तमान) संवत् 1996 उदयपुर में जन्म लिया। पिता मोहनलालजी गन्ना माता सुगनबाई, संवत् 2008 फाल्गुन कृष्णा 11 चाणस्मा में दीक्षा हुई। श्री सुदर्शनाश्रीजी गुरूणी। ज्ञानार्जन-प्राकृत, संस्कृत, कर्मग्रंथ, तर्कसंग्रह आदि। 406. वही, पृ. 648 407, वही, पृ. 648 408. वही, पृ. 648 409. वही, पृ. 645 410. वही, पृ. 649 433 Page #496 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन श्रमणियों का बृहद इतिहास तपस्या-3, 8, 5, 16 उपवास, वर्षीतप, बीस स्थानक, ज्ञानपंचमी, वर्धमान तप, नवपदजी, 12 मास मौन में अर्हत् पद का ध्यान, शिष्याएँ - श्री भद्रपूर्णाश्रीजी, कल्पगुणाश्रीजी, संवेगपूर्णाश्रीजी, नयपूर्णाश्रीजी, प्रशिष्या - पद्मगुणाश्रीजी । विहार क्षेत्र - मेवाड़, मालवा, मारवाड़, गुजरात, सौराष्ट्र, महाराष्ट्र आदि । 5.3.11.27 श्री चंद्रकलाश्रीजी (संवत् 2009 से वर्तमान ) उदयपुर के गन्ना परिवार में समुत्पन्न साध्वी श्री चंद्रकलाश्रीजी नौ वर्ष की उम्र में ही फाल्गुन कृष्णा 11 संवत् 2008 को 'चाणस्मा' में अपनी माता श्री सुदर्शनाश्रीजी के चरणों में दीक्षित हुईं। इनकी जन्मभूमि मेवाड़, दीक्षा भूमि गुजरात एवं कर्मभूमि मालवा रही है। उदयपुर में इनके द्वारा 'श्री विमल सुदर्शन चन्द्र पारमार्थिक जैन ट्रस्ट' की स्थापना हुई। प्राचीन श्री वही पार्श्वनाथजी तीर्थ में होस्पीटल तथा बीस तीर्थंकरों की निर्वाण भूमि के प्रतीक श्री सम्मेतशिखर तीर्थ का निर्माण, भविष्य में वृद्धाश्रम, छात्रावास आदि की योजना, प्रतापगढ़, मंदसौर में आराधना भवन आदि विविध रचनात्मक कार्य इनकी सशक्त प्रेरणा का प्रतिल हैं। सार्वजनिक मदद रूप में ये प्रतिवर्ष साधर्मिक - भक्ति, मूक-बधिर स्कूल में सहयोग, ड्रेस वितरण थाली सेट वितरण आदि कार्य करवाती हैं, कई महिला मंडल, भक्ति मंडल, स्नात्र मंडल आदि मंडल व संस्थाओं की संस्थापिका हैं। साहित्य के क्षेत्र में भी इनकी अनन्य रूचि है। श्री कल्पसूत्र सुबोधिका टीका का हिंदी अनुवाद, सचित्र भक्तामर, स्वरचित 'आदर्श सरगम' तीन भाग, गंहुली संग्रह, पारस एक नाम अनेक, सुजय चित्र संपुट, महापूजन संग्रह, अंतिम आराधना संग्रह आदि पुस्तकें प्रकाशित हुई हैं। ध्यान, जाप, मौन इनकी साधना के प्रमुख अंग हैं। श्री कीर्तिप्रभाश्रीजी, शीलमाला श्री, रत्नमालाश्री, शीलकान्ताश्री, सुमलयाश्री, चरणकलाश्री, अक्षयरत्नाश्री आदि शिष्याएँ एवं 11 प्रशिष्याओं का विशाल परिवार इनके मार्गदर्शन में साधना पथ पर गतिशील है । दृढ़ संकल्पी मनस्विनी श्री चन्द्रकलाश्रीजी उदयपुर श्रीसंघ द्वारा 'मेवाड़ - मालव ज्योति' की उपाधि से समलंकृता हैं । 412 5.3.11.28 सूर्ययशाश्रीजी ( संवत् 2009 से वर्तमान) जन्म 1993 आंत्रोली, पिता माणेकलाल, माता मणिबहन ( दीक्षित) महोदया श्रीजी, विमलाश्रीजी ज्येष्ठ भगिनी साध्वियाँ हैं। दीक्षा 2009 चाणस्मा, अवदान - अनेकों को संयम का प्रतिबोध दिया, अमदाबाद वासणा में उपाश्रय, आयंबिलखाता, गृहमंदिर की प्रेरणा, संस्कार शिविरों का आयोजन, कई तीर्थों की यात्रा, दो बार शत्रुंजय की 1 बार गिरनार की 99 यात्रा । तप-अठाई, 16, वर्षीतप, वर्धमान तप की 51 ओली, नवपद ओली आदि की। 113 5.3.11.29 श्री सद्गुणाश्रीजी ( संवत् 2012 से वर्तमान) राधनपुर में जन्म, माता, चंदनबहन पिता शिवलालभाई, संवत् 2012 वैशाख शुक्ला 10 राधनपुर में दीक्षा, गुरूणी चंद्रोदयाश्रीजी तप - 7, 8, 9 उपवास, वर्धमान तप की 11 ओली, 500 आयंबिल एकांतर, गुजरात, महाराष्ट्र, राजस्थान, बिहार, बंगाल में विचरण रहा। 414 411. वही, पृ.648 412. पत्राचार के आधार पर 413. 'श्रमणीरत्नो', पृ. 642 414. वही, पृ.649 434 Page #497 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्वेताम्बर परम्परा की श्रमणियाँ 5.3.11.30 श्री हर्षपूर्णाश्रीजी (संवत् 2015-30) जन्म मालवाड़ा, पिता गोपाजी माता वकतु बहन, दीक्षा - क्षय रोग में दीक्षा का संकल्प 16 वर्ष की उम्र में संवत् 2015 वैशाख शुक्ला 3 मालवाड़ा में दीक्षा, गुरूणी श्री त्रिलोचनाश्रीजी, शिष्या - चारित्रपूर्णाश्रीजी, संयमपूर्णाश्री, कीर्तिपूर्णाश्री आदि 21 शिष्या-प्रशिष्या। संवत् 2030 वांकडिया में स्वर्गवास हुआ।ls 5.3.11.31 श्री पद्मलताश्रीजी (संवत् 2016 से वर्तमान) जन्म मोरवाडा (गुजरात) पिता वीरचंदजी दोशी माता मथुरीबहन, दीक्षा संवत् 2016 माघशुक्ला 10 राधनपुर, गुरूणी श्री भद्राश्रीजी, तपस्या-वर्षीतप, वर्धमान ओली 12 अन्य तप साधनाएँ, चातुर्मास क्षेत्र-पालीताणा, धानेरा, महेसाणा, बोटाद, मोरवाड़ा, समी, पाटण, मुंबई, अमदाबाद आदि। 5.3.1.32 श्री रत्नप्रभाश्रीजी (संवत् 2017 से वर्तमान) अमदाबाद में जन्म, पिता कोदरलाल, माता हीराबहन, संवत् 2017 वैशाख कृष्णा 2 अमदाबाद में दीक्षा, गुरूणी श्री महेन्द्र श्रीजी। तपस्या-वर्षीतप, वर्धमान तप की ओली, घड़िया बेघड़िया, उजमणा, अष्टाह्मिका महोत्सव आदि में प्रेरणा, विचरण क्षेत्र-मारवाड, महाराष्ट्र, विदर्भ, राजस्थान, मालवा आदि।17 5.3.11.33 श्री कीर्तिप्रभाश्रीजी (संवत् 2018 से वर्तमान) संवत् 1942 चाणस्मा में जन्म, माता शकरीबहन, पिता जीवणलाल, संवत् 2018 चैत्र कृष्णा 6 अमदाबाद में दीक्षा, गुरूणी श्री चंद्रकलाश्रीजी, ज्ञानसार, कम्मपयडी, उत्तराध्ययन, संस्कृत प्राकृत का अध्ययन, तपस्या-मासक्षमण, वर्षीतप, 500 आयंबिल, 11 उपवास, बीस स्थानक, वर्धमान तप, 96 जिन तप, आदि। अठाई महोत्सव, सिद्ध चक्रपूजन, शान्तिस्नात्र आदि में प्रेरणा। विचरण क्षेत्र - गुजरात, सौराष्ट्र, काठियावाड़, मेवाड़, मारवाड़, मालवा आदि। शिष्याएँ - श्री विश्वप्रभाश्रीजी, श्री पुष्पलताश्रीजी, सम्यग्रत्नाश्रीजी।18 5.3.11.34 श्री मृगेन्द्र श्रीजी (संवत् 2018 से वर्तमान) __कुवाला ग्राम में संवत् 2001 में जन्म, पिता भोगीभाई माता जशोदाबहन, संवत् 2018 गल्गुन शुक्ला 4 को दीक्षा। गुरूणी श्री पद्मलताश्रीजी, तप-5, 8, 9, 16 उपवास, मासक्षमण, सिद्धितप, वर्षीतप, बीस स्थानक, वर्धमान ओली 15, विहार क्षेत्र-गुजरात, सौराष्ट्र, मुंबई राजस्थान आदि। शिष्याएँ-श्री अर्हत्प्रज्ञाश्रीजी, प्रशांतरसाश्रीजी, कर्मजिताश्रीजी।419 415. वही, पृ. 644 416. वही, पृ. 649 417. वही, पृ. 650 418. वही, पृ. 650 419. वही, पृ. 650 435 Page #498 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन श्रमणियों का बृहद इतिहास 5.3.11.35 श्री नीतिपूर्णाश्रीजी (संवत् 2026-स्वर्गस्थ) जन्म संवत् 1983 माणसा, माता केशरबहन पिता केशरीमलजी, संवत् 2026 वैशाख शुक्ला 10 मालवाड़ा में दीक्षा, गुरूणी श्री त्रिलोचनाश्रीजी तपस्या-अट्ठाई, अट्टम, छट्ठ, वर्धमान तप की 20 ओली, सिद्धितप, 10 उपवास शिष्याएँ-श्री शीलपूर्णाश्रीजी, श्री कीर्तिरत्नाश्रीजी/420 5.3.11.36 श्री शीलपूर्णाश्रीजी (संवत् 2026) जन्म संवत् 2016 मालवाड़ा (राजस्थान) माता नानुबहन पिता गेनमलजी। दीक्षा संवत् 2026 वैशाख शुक्ला दसमी, मालवाड़ा, गुरूणी श्री नीतिपूर्णाश्रीजी। अध्ययन छः कर्मग्रन्थ, योगशास्त्र, वीतराग स्तोत्र, सिन्दुर प्रकरण, व्याकरण, तर्कसंग्रह, प्राकृत, कम्मपयडी आदि। विहारक्षेत्र-मारवाड़, गुजरात आदि। शिष्याएँ-शासनरक्षिताश्रीजी, भावरक्षिताश्रीजी, तपस्या-4, 5 उपवास, वर्धमान ओली 20, वर्षीतप, बीस स्थानक आदि।421 5.3.11.37 श्री पूर्णमालाश्रीजी (संवत् 2026 से वर्तमान) जन्म संवत् 2011 मालवाड़ा, माता नानूबहन पिता गेनमलजी, दीक्षा 2026 वैशाख शुक्ला 10 मालवाड़ा, गुरूणी श्री प्रसन्नप्रभाश्रीजी, छः कर्मग्रन्थ, वैराग्यशतक, वीतराग स्तोत्र आदि। तप- 5 उपवास, वर्धमान ओली 25, बीस स्थानक। शिष्याएँ - कौशल्यदर्शिताश्रीजी, श्री पूर्णदर्शिताश्रीजी।422 5.3.11.38 श्री रत्नकलाश्रीजी (संवत् 2027 से वर्तमान) संवत् 2007 चाणस्मा में जन्म, माता भगवती बहन, पिता कंचनलाल, दीक्षा संवत् 2027 मृगशिर कृष्णा । चाणस्मा, गुरूणी श्री चंद्रकलाश्रीजी, अध्ययन बृहत् संग्रहणी, हिंदी विशारद, गुजराती, हिन्दी, अंग्रेजी, संस्कृत, प्राकृत, मेवाड़ी आदि बहुविध भाषाविद्। तप-वर्धमान ओली 20, नवपद ओली, पंचमी, एकादशी तप। विचरण-मेवाड़, मालवा, महाराष्ट्र, बिहार, बंगाल , मुंबई, गुजरात आदि।423 5.3.11.39 श्री अमितप्रज्ञाश्रीजी (संवत् 2027 - वर्तमान) जन्म संवत् 2006 साबरमती, माता सुशीलाबहन पिता अजितलाल शाह, संवत् 2027 माघ शुक्ला 4 साबरमती में दीक्षा। गुरूणी श्री चंद्रोदयाश्रीजी। तपस्या- 11, 16 उपवास, मासक्षमण, बीस स्थानक, नवपद ओली, वर्धमान ओली 13, वर्षीतप आदि। विहार क्षेत्र-गुजरात, सौराष्ट्र, महाराष्ट्र, मारवाड़, मुंबई आदि। शिष्याएँ-श्री मौलिकरत्नाश्रीजी, पुनीतप्रज्ञाश्रीजी, मुक्तिरसाश्रीजी, चित्तदर्शिताश्रीजी, संवेगप्रज्ञाश्रीजी आदि।*24 420. वही, पृ. 651 421. वही. पृ. 651 422. वही, पृ. 651 423. वही, पृ. 652 424. वही, पृ. 652 436 Page #499 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्वेताम्बर परम्परा की श्रमणियाँ 5.3.11.40 श्री नयप्रज्ञाश्रीजी (संवत् 2027 से वर्तमान) आपने अठाई, 11, 16 उपवास, मासक्षमण, नवपद ओली, बीस स्थानक, वर्धमान तप की 85 ओली, की। यात्रा-शत्रुजय और गिरनार की 99 यात्रा, चौविहारी छ8 से सात यात्रा, कई जैन तीर्थों की यात्रा।425 5.3.11.41 श्री सुरमालाश्रीजी (संवत् 2028 से वर्तमान) दीक्षा संवत् 2028, तप्र- 8, 16, उपवास, नवपद ओली, बीस स्थानक, मासक्षमण, वर्धमान तप की 30 ओली। कई जैन तीर्थों की यात्रा।426 5.3.11.42 श्री तत्त्वदर्शिताश्रीजी दीक्षा सूरत में, तप - 8, 16, मासक्षमण, सिद्धितप, वर्षीतप, नवपद ओली, वर्धमान ओली आदि तप, तीर्थयात्रा 10 उपवास के साथ।427 5.3.11.43 श्री स्मितप्रज्ञाश्रीजी अठाई, वर्षीतप, नवपद ओली, वर्धमान तप की 15 ओली, सिद्धितप।428 5.3.11.44 श्री विरागयशाश्रीजी (संवत् 2045 से वर्तमान) जन्म संवत् 2018 जामनगर, पिता अमृतलाल मेहता, माता लीलावती बहन, दीक्षा संवत् 2045 पोष कृष्णा 11 बुधवार कुवाला ग्राम में श्री नयप्रज्ञाश्रीजी की शिष्या। तप : 5,7,8,9, 11 उपवास, नवपद ओली, उपधान, बीस स्थानक, वर्धमान तप ओली।429 5.3.12 आचार्य श्री विजयलब्धिसूरीश्वरजी के समुदाय की श्रमणियाँ तपागच्छ के शतशाखी विशाल श्रमणी-समुदाय में आचार्य श्री विजयलब्धिसूरिजी महाराज के समुदाय की श्रमणियाँ अपनी ज्ञान गरिमा, संयम साधना एवं तप आराधना में एक विशिष्ट पहचान बनाये हुए हैं, इस समुदाय में जहां जैनधर्म व अध्यात्म की गहन अध्येता विदुषी श्रमणियाँ हैं, वहीं वर्धमान तप की 101 ओली पूर्ण करने वाली तपस्विनी महासाध्वियाँ भी हैं। वर्तमान में इस समुदाय की 208 साध्वियाँ आचार्य विजय अशोकरत्नसूरिजी की आज्ञा में विचरण कर रही हैं, हम यहाँ अतीत एवं वर्तमानकालीन उपलब्ध श्रमणियों का उल्लेखनीय व्यक्तित्व एवं कृतित्व प्रस्तुत कर रहे हैं। 425. वही, पृ. 642 426. वही. पृ. 643 427. वही, पृ. 643 428. वही, पृ. 643 429. वही, पृ. 643 - 437 Page #500 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन श्रमणियों का बृहद इतिहास 5.3.12.1 प्रवर्तिनी श्री सुव्रताश्रीजी (संवत् 1984-2039) श्रीमद् विजयलब्धिसूरिजी महाराज की आज्ञानुवर्तिनी साध्वियों में प्रथम प्रवर्तिनी पद की गरिमा प्राप्त करने वाली श्री सुव्रतश्रीजी अतुल मनोबली महान साध्वी-रत्ना थीं। 14 वर्ष की लघुवय में ही दो उपधान वहन कर इन्होंने अपनी आत्मशक्ति का परिचय दिया। सूरत के श्री ठाकोरभाई व गजराबहन के यहाँ संवत् 1958 में इनका जन्म हुआ। अपने प्रचंड पुरूषार्थ से विवाह के पश्चात् पति की अनुमति प्राप्त कर श्री कल्याणश्रीजी के पास संवत् 1984 कार्तिक कृष्णा 10 को छाणी में दीक्षा - महोत्सव संपन्न हुआ। पाँच वर्ष नित्य एकासणा तथा 25 वर्ष बियासणा किया, इसके साथ ही 20 अठाइयाँ, अष्टापद तप, बीस स्थानक, चत्तारि तप, वर्धमान तप की 28 ओली, सिद्धाचल, पोषदशमी की आराधना, छ? अट्ठम से 99 यात्रा आदि विविध तपस्या करके संयमी जीवन को तेजस्वी बनाया। स्वयं दीक्षा लेकर अपनी माता अंजनाश्रीजी तथा दो बहनों-उमंगश्रीजी व ध्वजप्रभाश्रीजी को दीक्षित किया, अनुक्रम से 17 मुमुक्षु आत्माओं को दीक्षा प्रदान की। गुजरात, सौराष्ट्र, राजस्थान आदि दूर-दूर के क्षेत्रों में विचरण कर 55 वर्ष तक ज्ञानदान, संयमदान और धर्मदान का कार्य किया। अंत में संवत् 2039 ईडर में अत्यंत समता व समाधि से देह का परित्याग किया।430 5.3.12.2 श्री हंसाश्रीजी (संवत् 1993-स्वर्गस्थ) जन्म संवत् 1974 शिहोर, माता नेमकोरबहन, पिता गुलाबचंदभाई, दीक्षा संवत् 1993 चैत्र कृष्णा 5. गुरूमाता श्री नंदनश्रीजी। आगम ग्रंथों का तलस्पर्शी अध्ययन किया, संस्कृत भाषा पर प्रभुत्व था, कई संस्कृत के श्लोक रचे। शिष्याएँ -श्री पद्मलताश्रीजी, गौतमश्रीजी, उज्जवलाश्रीजी, हंसकलाश्रीजी, प्रशमकलाश्रीजी, जयलताश्रीजी। प्रशिष्याएँ - श्री हर्षपद्माश्रीजी, अनंतपद्माश्रीजी, लक्ष्मीश्रीजी, चारूप्रज्ञाश्रीजी, प्रियकलाश्रीजी, अध्यात्मकलाश्रीजी, सुवर्णप्रभाश्रीजी, भव्यप्रज्ञाश्रीजी, मुक्तियशाश्रीजी/431 5.3.12.3 श्री रत्नचूलाश्रीजी (संवत् 2006 से वर्तमान) धोलेरा निवासी श्री रतीलाल जेठालाल जवेरी व शांताबेन के यहाँ संवत् 1992 अमदाबाद में इनका जन्म हुआ। बाल्यवय से ही प्रतिभासंपन्न रत्नचूलाश्रीजी 14 वर्ष की उम्र में संवत् 2006 वैशाख कृष्णा 6 पालीताणा में आचार्य राजयशसूरिजी के श्रीमुख से दीक्षा अंगीकार कर श्री सुव्रताजी की शिष्या बनीं। अपनी प्रखरबुद्धि से दिन में सौ गाथा तक कंठस्थ करने की क्षमता से इन्होंने ज्ञान के क्षेत्र में अत्यधिक प्रगति की। चार प्रकरण, 3 भाष्य, 6 कर्मग्रन्थ, क्षेत्रसमास, बृहत्संग्रहणी, दशवैकालिक, उत्तराध्ययन ज्ञानसार, तत्त्वार्थसूत्र, अभिध नि चिन्तामणि कोश आदि तो नवकार मंत्र की तरह कंठस्थ है। इनकी ऐसी अपूर्व स्वाध्यायमग्नता ग्रहण व धारणा शक्ति को देख आचार्य देव ने 11 अंगसूत्र कंठस्थ करने को कहा, और इन्होंने 11 ही अंगशास्त्र कंठस्थ कर लिये। उसमें विशालकाय भगवतीसूत्र एकाशन तप के साथ कंठस्थ किया। संस्कृत व प्राकृत भाषा पर इनका मातृभाषा के समान अधिकार है। अपने संघ की ही नहीं, वरन् स्थानकवासी की अनेक साध्वियों को कठिन से कठिन ग्रंथों का अभ्यास इन्होंने सरलता पूर्वक करवाया है, इस प्रकार विशाल श्रमणीसंघ 430. वही, पृ. 653-56 431. वही. पृ. 657-59 438 Page #501 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्वेताम्बर परम्परा की श्रमणियाँ में ये 'सरस्वतीसुता' के नाम से प्रसिद्ध है। इनकी "विक्रम भक्तामर" की रचना एक उच्चकोटि की विद्वद्भोग्य रचना है। कई अष्टक रचनाएँ भी गुरूदेवों की स्तुति रूप में रची हैं। तप के क्षेत्र में वर्धमान आयंबिल तप की 78 ओली व दो वर्षीतप सम्पन्न कर चुकी हैं। इनकी शिष्याएँ - श्री गीतपद्माश्रीजी, प्रीतयशाश्रीजी, पावनयशाश्रीजी, प्रज्ञप्तियशाश्रीजी, पवित्रयशाश्रीजी, मंदारयशाश्रीजी एवं प्रसन्नयशाश्रीजी हैं, प्रशिष्याएँ पुनीतयशाश्रीजी आदि वर्तमान में 48 विदुषी तपस्विनी साध्वियों की ये प्रमुखा हैं।32 5.3.12.4 श्री वाचंयमाश्रीजी (संवत् 2006 से वर्तमान) श्री रत्नचूलाजी की भगिनी श्री वाचयमाश्रीजी 12 वर्ष की अल्पायु में उन्हीं के साथ दीक्षित होकर प्रवर्तिनी श्री सुव्रताजी की शिष्या बनी। रत्नचूलाश्रीजी के समान ही इन्होंने भी आगम, धर्मग्रंथ, न्याय, व्याकरण, ज्योतिष आदि सभी विषयों पर प्रभुत्व स्थापित किया है। अध्ययन के साथ अध्यापन की कला भी उत्कृष्ट कोटि की है। 'बेन महाराज' के नाम से प्रसिद्ध आप द्वारा प्रेरित सभी आयोजनों ने आपको 'श्रेष्ठ श्रमणी रत्न' की संज्ञा प्रदान करवाई है। समायोजन और नियोजन शक्ति आपकी अनूठी है, प्रत्येक व्यक्ति को उसकी रूचि व क्षमता के अनुसार उस कार्य में संलग्न कर उसकी कार्य शक्ति व आत्म विश्वास की अभिवृद्धि करने में आप सिद्धहस्त हैं। आप द्वारा रचित 'कमल पराग' 'पाथेय कोईनु श्रेय सर्वन,' प्रतिक्रमण चिंतनिका दशवैकालिक चिंतनिका उत्तराध्ययन चिंतनिका व आचारांग चिंतनिका' आदि उच्चकोटि के ग्रंथों को पढ़कर विभिन्न गच्छ तथा संप्रदाय की साध्वियाँ आपसे मार्गदर्शन ग्रहण करने आती हैं। आयंबिल की 62 ओली व वर्षीतप कर तप के क्षेत्र में भी अग्रणी रही हैं। शिष्याएँ - अर्हत्पद्माश्रीजी, परमपद्माश्रीजी, वसुपद्माश्रीजी, पार्श्वयशाश्रीजी, जी. शीलयशाश्रीजी. दिव्ययशाश्रीजी। प्रशिष्याएँ - विमलयशाश्रीजी तीर्थयशाश्रीजी. विक्रमयशाश्रीजी. परमेष्ठीयशाश्रीजी, लक्ष्याशाश्रीजी. संभवयशाश्रीजी, सौधर्मयशाश्रीजी, लब्धियशाश्रीजी, सौभाग्ययशाश्रीजी, वाणीयशाश्रीजी, लोकेश्वरीश्रीजी, सर्वेश्वरीयशाश्रीजी, हर्षितयशाश्रीजी। आपकी लघु साध्वी बहन शुभोदयाश्रीजी ने पल्लीवाल प्रदेश में जाकर खूब धर्मप्रभावना की, लगभग 36 जिन मंदिरों का जीणोद्धार तथा नव निर्माण कराया, 11 आराध ना भवन एवं उपाश्रय बनवाये, धार्मिक शिविरों के आयोजन करवाये। श्री वीरेशपद्माश्रीजी, जिनेशपद्माश्रीजी, विद्वत्पद्माश्रीजी, विभातयशाश्रीजी इनकी शिष्याएँ तथा विराजयशाश्रीजी प्रशिष्या हैं।433 5.3.12.5 श्री सर्वोदयाश्रीजी (संवत् 2007-2050) साध्वी सर्वोदयाश्रीजी 'मां महाराज' के नाम से विख्यात थीं। 36 वर्ष की उम्र में ही अपनी तीन पुत्रियों -रत्नचूलाश्रीजी, वाचयमाश्रीजी, व शुभोदयाश्रीजी के साथ झगड़िया तीर्थ पर संवत् 2007 में संयम अंगीकार किया। आपकी प्रेरणा से 'जिन शासनना श्रमणीरत्नो' ग्रन्थ श्री नंदलाल देवलुक भावनगर द्वारा संपादित व प्रकाशित हुआ है। इन्होंने तीन वर्षीतप, 21, 11 उपवास, चत्तारि तप, 4 अठाई नवपद ओली, प्रतिवर्ष दो-तीन अट्ठम, वर्धमान ओली, पंचमी आदि विविध तपस्याएँ अपने जीवन में की, अंत में चौविहारी अट्ठम के साथ संवत् 2050 अमदाबाद में स्वर्गवासिनी हुईं। इनकी शिष्याएँ श्री नयपद्माश्रीजी, शुभ्रांशुयशाश्रीजी, सुधांशुयशाश्रीजी, शीतांशुयशाश्रीजी, श्री कुलयशाश्रीजी आदि हैं।434 432. (क) वही, पृ. 663 (ख) पत्राचार से प्राप्त सामग्री के आधार पर 433. पत्राचार द्वारा प्राप्त सामग्री के आधार पर 434. वही, पृ. 659-63 Page #502 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन श्रमणियों का बृहद इतिहास 5.3.12.6 गीतपद्माश्रीजी (संवत् 2018 से वर्तमान) आगम-ग्रंथों में काली आदि महासतियों के तप का वर्णन पढ़कर रोमांच हो उठता है, आज पंचमकाल में भी ऐसी तपाराधिका श्रमणियाँ हुई हैं, जिनके तपोमय जीवन की कथा अद्भुत व आश्चर्यकारक लगती है। उसी कड़ी में एक है - गीतपद्माश्रीजी। इन्होंने 36, 42, 51, 68 उपवास, 20 उपवास बीस बार, एक वर्ष में 20 अट्ठाई, 26 मासखमण, 3 वर्षीतप, श्रेणीतप, भद्रतप, 20 स्थानक की ओली, 375 आयंबिल, 110 अट्टम आदि अनेक दीर्घ व चौंकाने वाली तपस्या की है। वे अपने जीवन में 108 मासखमण करने की भावना रखती हैं। ये श्री चंपकलाल व केसरबहन की सुपुत्री हैं, 17 वर्ष की उम्र में संवत् 2018 पोष कृष्णा 5 के दिन श्री रत्नचूलाश्रीजी की शिष्या के रूप में दीक्षित होकर तपोमार्ग पर अग्रसर हैं।435 5.3.13 आचार्यश्री विजयभक्तिसूरीश्वरजी महाराज के समुदाय की श्रमणियाँ वर्धमान तपोनिधि पूज्यपाद आचार्यश्री विजयभक्तिसूरिजी महाराज तथा आचार्य श्री विजय प्रेमसूरीश्वरजी की आज्ञानुवर्तिनी वर्तमान में 227 श्रमणियाँ हैं, उनमें कुछ का ही परिचय उपलब्ध हुआ है, वह यहाँ प्रस्तुत कर रहे हैं। 5.3.13.1 श्री चंपकश्रीजी (संवत् 1983-2046) जन्म कांकरेज के निकट खिमाणागाँव में संवत् 1964, माता जमनाबहन पिता धरमचंद, पति थरा निवासी जगदीशचंद्रजी, वैधव्य के पश्चात् संवत् 1983 मृगशिर शुक्ला 10 राधनपुर में दीक्षा। गुरूणी श्री दर्शनश्रीजी। तप-एक से 17 उपवास क्रमबद्ध, मासक्षमण, चत्तारि, सिद्धितप, वर्ष में 6 अठाई, बीस स्थानक तप, वर्धमान ओली 17, नवपद ओली आदि। इनकी प्रेरणा से अनेक लोगों ने 500 आयंबिल, वर्षीतप आदि किये। पाठशालाएँ भी स्थापित करवाई। संवत् 2046 थरा में अंतिम विदाई। शिष्या-प्रशिष्याएँ-श्री कंचनश्रीजी, श्री अरूणश्रीजी, त्रिलोचनाश्रीजी, मतिपूर्णाश्रीजी, अनिलप्रभाश्रीजी, तत्त्वप्रज्ञाश्रीजी, गीतप्रज्ञाश्रीजी, दिव्यप्रज्ञाश्रीजी, दिव्यदर्शिताश्रीजी, सम्यग्दर्शिताश्रीजी, हितरत्नाश्रीजी, जिनरत्नाश्रीजी, नम्रनंदिताश्रीजी, अक्षयनंदिताश्रीजी, मोक्ष नंदिताश्रीजी, जिनरक्षिताश्रीजी।436 5.3.13.2 श्री जयश्रीजी (संवत् 1993 से पूर्व, स्वर्ग. संवत् 1945) जन्म संवत् 1960 मोटणुंदा, पिता पोपटलाल माता रंभाबहन, पति आरंभडा निवासी मणिभाई। अपनी पुत्री तथा देवर की पुत्री को प्रतिबोधित कर संयम का राही बनाया। पुत्री का नाम लावण्यश्रीजी व देवर की पुत्री का नाम चंद्रकांताश्रीजी रखा। स्थान-स्थान पर जिनमंदिर, उपाश्रय, पाठशाला, आयंबिलशाला आदि द्वारा जिनशासन की महती प्रभावना की। अमदाबाद में गुलाबशांति के नाम से स्वाध्याय मंदिर, आराधना भवन, आयंबिल भवन, मुक्ताबहन आराधना हॉल, जयश्रीजी लावण्यश्रीजी जैन उपाश्रय घाटकोपर, जयश्रीजी कन्या पाठशाला आदि अनेकविध निर्माणात्मक कार्य किये। अंत में, संवत् 1945 में 88 वर्ष कीआयु पूर्ण कर 88 शिष्या-प्रशिष्या परिवार की सन्निधि में अमदाबाद में चिरविदाई ली।437 435. (क) वही, पृ. 671 436. 'श्रमणीरत्नो', पृ. 693-95 437. वही, पृ. 690-92 1440 Page #503 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्वेताम्बर परम्परा की श्रमणियाँ 5.3.13.3 प्रवर्तिनी श्री लावण्यश्रीजी (संवत् 1993 - स्वर्गस्थ) आरंभडा गाँव में जन्म, माता जड़ावबहन पिता मणिलाल गांधी, भोंयणी तीर्थ में संवत् 1993 कृ. 11 को दीक्षा, श्री जयश्रीजी माता व गुरूणी। तपस्या-डेढ़ मासी, दो मासी, अढ़ीमासी, तीन मासी, चारमासी, पांचमासी दो बार, छ: मासी 2, वर्षीतप, कर्मसूदन, लोकनालि, जिनगुणसंपत्ति, नवकारपद, मेरूमंदर, बीस स्थानक, कल्याणक, अष्टारिका, 170 जिन, 45 आगम तप, 96 जिनालय तप, 25 वर्धमान ओली, अठाई आदि तप। प्रशांत प्रकृति, कुशाग्रबुद्धि, वाद-विवाद से दूर, तप त्याग में लीन व्यक्तित्व था। चार वर्ष की अवधि में 88 से 108 शिष्याओं की अभूतपूर्व वृद्धि की 5.3.13.4 श्री कंचनश्रीजी (संवत् 2002 से वर्तमान) जन्म संवत् 1979 थरा गाँव, पिता मणिलाल, माता मणिबहन, वैधव्य के पश्चात् संवत् 2002 थरा में मृगशिर शुक्ला 10 को दीक्षा, गुरूणी श्री चंपक श्रीजी। सेवाभाविनी, नम्र स्वभावी, निस्पृह आत्मलीन साध्वी जी।439 5.3.13.5 श्री हर्षलताश्रीजी (संवत् 2003-36) कर्मठ कर्मयोगिनी, कठोर तपस्विनी अप्रमत्त साधिका के रूप में प्रख्यात हर्षलताश्रीजी का जन्म संवत् 1964 शिहोर में हुआ। पिता नेमचंद गगजी तथा माता कुंकुबहन थी, भावनगर निवासी साकरचंद भाई के साथ विवाह संबंध होने पर ये दो पुत्र और एक पुत्री की माता बनीं, तभी साकरचंद भाई का स्वर्गवास हो गया, हर्षलताश्रीजी ने अपने वैधव्य को सरल और सक्षम बनाने के लिये ओलियां, मेरूतेरस, चैत्री पूनम, वर्षीतप, कर्मसूदन आदि तप किया, पुत्री हंसा 16 वर्ष की हुईं, तो उसके साथ संवत् 2003 पोष कृष्णा 11 शिहोर में दीक्षा अंगीकार की, हंसा 'हेमलताश्रीजी' नाम से अलंकृत हुईं। दोनों ने अपने संयमी जीवन को भक्ति व तप-त्याग में लगाना प्रारंभ किया। हर्षलताश्रीजी ने वर्धमान तप की 61 ओली, बीसस्थानक तथा विविध तपस्याए की, जैसलमेर में इन्होंने डेढ़ मास में 6 हजार जिनबिम्बों के सम्मुख चैत्यवंदन किया। इनकी प्रेरणा से दो बहनें, तीन पुत्रियाँ, भाई-भाभी आदि लगभग 45 स्वजन संयम की उत्कृष्ट साधना में संलग्न हैं। इस प्रकार सबके लिये प्रेरक बनकर अंत में इन्होंने संवत् 2036 को समाधि पूर्वक देहत्याग किया।40 5.3.13.6 श्री हेमलताश्रीजी (संवत् 2003 से वर्तमान) जन्म 1986 भावनगर पिता साकरचंदभाई, माता उत्तमबहन, दीक्षा संवत् 2003 पोष कृष्णा 11 शिहोर में, गुरूणी श्री हर्षलताश्रीजी। ज्ञानोपासना के साथ वैयावृत्त्य-वृत्ति में उत्तम रूचि, बीस स्थानक, चत्तारि अट्ठ दस दोय, 500 आयंबिल, वर्धमान तप की 36 ओली आदि तप किया। जहां भी विचरण किया अनेक बहनों, बालाओं को तप-त्याग और वैराग्य से जोड़ा। हेमलताश्रीजी का 19 शिष्या-परिवार है, उनमें 11 का विवरण प्राप्त हुआ है 438. वही, पृ. 692-93 439. वही, पृ. 695 440. वही. पृ. 685-89 441. वही, पृ. 689-90 441 Page #504 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन श्रमणियों का बृहद इतिहास गुरूणी नाम क्रम साध्वी नाम जन्म संवत् स्थान दीक्षा संवत् तिथि 1. श्री हर्षप्रभाश्रीजी 1996 ऊंझा 2017 मृ. शु. 6 श्री विनयगुणाश्रीजी 1996 ऊंझा 2021 मा. कृ. 10 श्री रत्नसंचयाश्रीजी 2008 भोरोल 2030 । मृ. शु. 13 श्री राजरत्नाश्रीजी 2012 वायड 2031 मृ. शु. 11 श्री राजप्रज्ञाश्रीजी 2014 वायड 2031 मृ. शु. 11 श्री ज्योतिरत्नाश्रीजी 2019 भावनगर 2038 ज्ये. शु. 14 श्री जयरत्नाश्रीजी 2022 भोरोल 2040 वै. शु.5 श्री विरागरसाश्रीजी 2010 सुरेन्द्रनगर 2041 फा. शु. 3 9. श्री विरतिरसाश्रीजी 2019 मुंबई 2041 फा. शु. 3 10. श्री विनीतरसाश्रीजी 2019 उमराला 2041 फा. शु. 3 11. श्री आत्मरत्नाश्रीजी 2023 पाटण 2044 मा. शु. 3 दीक्षा स्थान ऊंझा ऊंझा भोरोलतीर्थ पालीताणा पालीताणा मुंबई खापोली मुंबई मुंबई मुंबई अमदाबाद 5.3.13.7 प्रवर्तिनी श्री विद्युत्प्रभाश्रीजी (संवत् 2007 से वर्तमान) जन्म संवत् 1982 बनासकांठा के चंडीसर गाँव में, पिता सोमाणी उत्तमभाई, माता केशरबाई। दीक्षा संवत् 2007 वैशाख शुक्ला 11, गुरूणी श्री दर्शनश्रीजी। आठ वर्ष तक मूंग की दाल और चपाती के सिवाय सभी खाद्य वस्तुओं का त्याग। आदर्श व प्रेरक जीवन/42 इनकी. सूर्यकलाश्रीजी आदि 15 शिष्याएँ हैं। 5.3.13.8 श्री तीर्थश्रीजी (संवत् 2029-48) ___जन्म महाराष्ट्र के विदर्भ देश का तिवरंग नामक गाँव, पिता गुलाबचंदजी, माता सोनाबाई। एक ही परिवार से ये स्वयं, इनके पति श्री वीरविजयजी, तीन पुत्र-श्री भानुचंद्रविजयजी, देवचंद्रविजयजी, हेमचंद्रविजयजी, पुत्री-राजरत्नाश्रीजी, देवर की दो पुत्रियाँ-श्री सौम्यप्रज्ञाश्रीजी, विनीतप्रज्ञाश्रीजी, बहन की पुत्री- सुयशप्रज्ञाश्रीजी, श्री ऋजुप्रज्ञाश्रीजी इस प्रकार 10 दीक्षाओं का एक अनोखा इतिहास बनाने वाली तीर्थश्रीजी अन्य 9 मुमुक्षु आत्माओं के साथ संवत् 2029 वैशाख शुक्ला 5 के दिन दारव्हा ग्राम (महाराष्ट्र) में दीक्षित हुईं। इससे पूर्व संवत् 2026 में एक पुत्र व पुत्री ने दीक्षा ली थी। और भी इनके परिवार में दीक्षाएं हुईं। तप-वर्षीतप, मासक्षमण, 20 अठाई, 16, 11, 10, 9 उपवास, 20 स्थानक ओली उपवास से की। वर्धमान तप की 19 ओली आदि। भारत के अनेक प्रान्तों में विचरण कर धर्म की ज्योति जलाई। संवत् 2048 रतलाम में इस अविनाशी आत्मा ने देह रूपी कलेवर का त्याग किया।43 5.3.14 आचार्य श्री विजयकेसरसूरीश्वरजी के समुदाय की श्रमणियाँ योगनिष्ठ आचार्य श्री विजयकेसरसूरीश्वरजी महाराज स्वयं योगमार्ग के अनन्य साधक और परम निस्पृही संत 442. वही, पृ. 697 443. वही, पृ. 699-702 1442 Page #505 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्वेताम्बर परम्परा की श्रमणियाँ थे, उनकी आज्ञानुवर्तिनी श्रमणियों में भी योगमार्ग के प्रति विशेष रूचि देखने को मिलती है, वर्तमान में इस समुदाय के आचार्य श्री विजयहेमप्रभसूरिजी महाराज हैं, उनकी आज्ञा में इस समय 215 साध्वियों का परिवार है, जिसमें कई प्रतिभासंपन्न, दीर्घ चारित्रपर्यायी एवं शासन प्रभाविकाएँ हैं। 5.3.14.1 महत्तरा प्रवर्तिनी श्री सौभाग्यश्रीजी (संवत् 1955-2030) आपका जन्म कच्छ के वीसा ओसवाल सेठ वीरपाल भाई के यहाँ संवत् 1931 में हुआ। अशोकश्रीजी की आप शिष्या बनीं। तीक्ष्ण बुद्धि व लगन से आप रोज 50 गाथा और एक सज्झाय कंठस्थ करती थी, प्रतिदिन 2000 गाथाओं का स्वाध्याय करतीं। शासन की महती प्रभावना करके 2030 में आप स्वर्गवासिनी हुईं। आपकी 5 शिष्याएँ तथा 22 ठाणा का परिवार था, वर्तमान में 62 साध्वियाँ हैं।144 5.3.14.2 प्रवर्तिनी श्री नेमश्रीजी (विद्यमान) जन्म कच्छदेश का डुमरा गाँव, वहीं दीक्षा लेकर श्री विवेकश्रीजी की शिष्या बनी। दो मासी, ढाईमासी, डेढ़मासी, चारमासी, वर्षीतप, कल्याणक, 62 वर्ष ज्ञानपंचमी आराधना, पोषदशमी, मौन एकादशी, मेरूतेरस, चैत्री पूनम, बीस स्थानक, 6 अठाई, 16, 19 उपवास, मासक्षमण, नवपद की 105 ओली, वर्धमान ओली आदि कठोर तपस्याएँ की। शिष्या-प्रशिष्याओं की नामावली निम्नानुसार उल्लिखित है-श्री चंपकश्रीजी, तरूणप्रभाश्रीजी, सुलसाश्रीजी, मंजुलाश्रीजी, त्रिलोचनाश्रीजी, श्री वारिषेणाश्रीजी, श्री वज्रसेनाश्रीजी, रत्नत्रयाश्रीजी, विरतिधराश्रीजी, मेरूशिलाश्रीजी, शासनरसाश्रीजी, शाश्वतयशाश्रीजी, वीतरागयशाश्रीजी, नंदीश्वराश्रीजी, हितपूर्णाश्रीजी, विश्वयशाश्रीजी, वंदिताश्रीजी, आगमरसाश्रीजी, गुप्तिधराश्रीजी, गिरिवराश्रीजी, सिद्धशिलाश्रीजी, वैरूट्याश्रीजी, नम्रगुणाश्रीजी, वासवदत्ताश्रीजी, भवभीरूश्रीजी, श्रुतरसाश्रीजी, भव्यदर्शिताश्रीजी, अप्रमत्ताश्रीजी, अदोषिताश्रीजी, तत्त्वदर्शिताश्रीजी, जयतीर्थाश्रीजी, वीरतीर्थाश्रीजी, वीररत्नाश्रीजी, अपराजिताश्रीजी, अपिताश्रीजी, तीर्थेश्वराश्रीजी, परमेश्वराश्रीजी, राजदर्शाश्रीजी, निर्वेददर्शाश्रीजी, दर्शनमित्राश्रीजी, अपूर्वनिधिश्रीजी, अप्रतिचक्राश्रीजी, पुन्येश्वराश्रीजी, तीर्थलीनाश्रीजी, श्री मुक्तिश्रीजी, सुप्रसजयश्रीजी, आत्मलीनाश्रीजी, तृप्तिलीनाश्रीजी, योगीश्वराश्रीजी, चंद्राननाश्रीजी, श्री रमणीकश्रीजी, श्री सुमंगलाश्रीजी इत्यादि 52 विदुषी श्रमणियों की सफल खिवैया हैं। 80 वर्ष की उम्र में भी विशुद्ध व निर्मल संयम का पालन करती हुई ये भावी श्रमणियों के लिये आदर्श रूप बनी हैं।445 5.3.14.3 प्रवर्तिनी श्री मणिश्रीजी (संवत् 1965-2037) __ जन्म संवत् 1939 सुरेन्द्रनगर जिला का सायला नगर, पिता नागजीभाई माता दिवालीबहन, दीक्षा संवत् 1965 पोष कृष्णा 8 सायला, गुरूणी श्री चंदनश्रीजी (महुवा वाला), 73 वर्ष की संयम पर्याय में कई तीर्थों की यात्रा की, भारत के विभिन्न प्रान्तों में विचरण कर जन-जन में धार्मिक भावनाएँ पैदा की। कइयों को संयम पथ पर अग्रसर किया, संवत् 2037 सुरेन्द्रनगर में 98 वर्ष की वय पूर्ण कर यह दिव्यपुञ्ज आत्मा स्वर्गलोक की ओर प्रस्थित हुई।446 444. वही, पृ. 704-6 445. वही, पृ. 710-12 446. वही, पृ. 707-9 443 Page #506 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन श्रमणियों का बृहद इतिहास 5.3.14.4 श्री ज्ञानश्रीजी (संवत् 1985-स्वर्गस्थ) जन्म संवत् 1964 पालनपुर, माता धापुबाई पिता जवेरी हीरालालजी, दीक्षा संवत् 1985 कार्तिक कृष्णा 10 पालनपुर में, गुरूणी श्री सौभाग्यश्रीजी। ज्ञान-प्रकरण, भाष्य, कर्मग्रंथ, वृहद्संग्रहणी, दशवैकालिक, उत्तराध्ययन, नंदीसूत्र, प्रशमरति, ज्ञानसार, योगदृष्टिसमुच्चय आदि अनेक ग्रंथ कंठस्थ किये। शिष्या-प्रशिष्याएँ - श्री सूर्ययशाश्रीजी, विनयश्रीजी, कल्पलताश्रीजी, मनोरंजनाश्रीजी, निरंजनाश्रीजी, प्रियदर्शनाश्रीजी, गुणधर्माश्रीजी, हेमरत्नाश्रीजी, पियुषवर्षाश्रीजी, उज्जवलगुणाश्रीजी, वीराज्ञाश्रीजी, प्रशमरसाश्रीजी, बोधिरत्नाश्रीजी, दिव्यदर्शिताश्रीजी आदि।447 5.3.14.5 श्री हस्तीश्रीजी (संवत् 1991-स्वर्गस्थ) पेथापुर के निकट ऊनावा गाँव, पिता लल्लुभाई माता वीजलीबहन की कुक्षि से संवत् 1966 में जन्म, वैध व्य के पश्चात् संवत् 1991 में दीक्षा, गुरूणी श्री चरणश्रीजी। आभ्यंतर तपस्विनी, 22 शिष्या-प्रशिष्याएँ- श्री रत्नप्रभाश्रीजी, राजेन्द्रश्रीजी, निरंजनाश्रीजी, कल्पगुणाश्रीजी, हर्षगुणाश्रीजी, मोक्षानंदश्रीजी, दिव्यप्रज्ञाश्रीजी, भावपूर्णाश्रीजी, नीलपद्याश्रीजी, विनयरत्नाश्रीजी, जयरत्नाश्रीजी, वैराग्यरसाश्रीजी, दिव्यरत्नाश्रीजी, कीर्तिरत्नाश्रीजी, मोक्षरत्नाश्रीजी, काव्यरत्नाश्रीजी, मौलीरत्नाश्रीजी, चैत्यरत्नाश्रीजी, धैर्यरत्नाश्रीजी, कल्याणरत्नाश्रीजी।48 5.3.14.6 श्री मंजुलाश्रीजी (संवत् 1995-2041) जन्म संवत् 1974 गलथ (गिरनार तलहटी) पिता जगजीवनजी, माता समरतबहन, वैधव्य के पश्चात् दीक्षा संवत् 1995 वैशाख शुक्ला 3 पालीताणा, गुरूणी श्री रंजनश्रीजी। सौराष्ट्र, गुजरात में विचरण कर कई कन्याओं को दीक्षित किया, इनमें सूर्ययशाश्रीजी, मधुकांताश्रीजी, मधुलताश्रीजी, गुणसेनाश्रीजी आदि प्रमुख है। इनकी प्रेरणा, मार्गदर्शन से अनेक स्थानों पर विविध तपस्याएँ, चिरस्मरणीय धर्मकार्य संपन्न हुए। स्वयं उपवास, छट्ठ और अट्ठम से वर्षीतप, 11 अठाई, 16, 21 उपवास, मासक्षमण, सिद्धितप ओली आदि तप तीर्थयात्रा और एक करोड़ तक महामंत्र जाप की अपूर्व साधना अराधना कर संवत् 2041 मुंबई सायन में स्वर्गवासिनी हुई।49 5.3.14.7 श्री विनयश्रीजी (संवत् 2006- ) जन्म संवत् 1976 पालनपुर, पिता मलुकचंदभाई, माता प्रसन्नबहन, पालनपुर में लगभग 200 बहनों को नि:स्वार्थ भाव से ज्ञानदान एवं धर्म-संस्कार देने का कार्य किया। दीक्षा संवत् 2006 कार्तिक कृष्णा 7 गुरूणी श्री ज्ञानश्रीजी। संयमजीवन में स्वयं ज्ञानोपासना में लीन रहने के साथ 175 बहनों को अध्यापन करवाया। मासक्षमण, सिद्धितप, वर्षीतप, वर्धमान तप की 91 ओली आदि तप किया, व्यक्तित्व अध्यात्मोन्मुखी है।450 5.3.14.8 श्री त्रिलोचनाश्रीजी (संवत् 2007-39) जन्म स्थान जामनगर, पिता मगनभाई माता जीवीबहन, बाल्यवय में उपधान, दीक्षा 2007 मृगशिर कृष्णा 10 447. वही, पृ. 715-17 448. वही, पृ. 717-18 449. वही, पृ. 719-21 450. वही, पृ. 724 444 Page #507 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्वेताम्बर परम्परा की श्रमणियाँ मुंबई घाटकोपर, गुरूणी श्री नेमश्रीजी । प्रतिदिन 3000 श्लोक का स्वाध्याय, 20 माला नवकार मंत्र की व 10 घंटा मौन यह नित्य नियम, पालीताणा की 99 यात्रा 8 बार, छट्ट के साथ सात यात्रा, शिखरजी की 14 दिन में 14 यात्रा, गिरनार की 15 यात्रा 15 दिन में, वर्धमान ओली 105, सहस्रकूट तप, कल्याणक, दो वर्षीतप, छः मासी, चारमासी. तीनमासी, अढ़ीमासी, डेढ़मासी, समवसरण, श्रेणीतप, भगवान महावीर के 229 छट्ठ, मासखमण, सिद्धितप, 45 उपवास, तेरह काठिया के अट्ठम, एकांतर 500 आयंबिल, नवपद ओली, बीस स्थानक, पंचमी, एकादशी, 14 वर्ष हरी सब्जी व आम का त्याग, इस प्रकार मानो तप की प्रतिमा ही हो, अंत में नवकार मंत्र के 68 अक्षर की आराधना हेतु 68 उपवास प्रारंभ किये, किंतु 61 वें उपवास में ही स्वर्गवासिनी हो गईं 1451 5.3.14.9 श्री हेतश्रीजी ( संवत् 2016 - स्वर्गस्थ ) जन्म संवत् 1934 जामनगर, पिता शेठ प्रागजीभाई, माता कड़वीबहन पति लक्ष्मीचंदभाई, वैधव्य के पश्चात् संवत् 2016 कार्तिक कृष्णा 7 को श्री गुणश्रीजी के पास दीक्षा अंगीकार की । इनके सदुपदेश से जामनगर, राणपुर, सुरेन्द्रनगर, भावनगर, चूड़ा आदि स्थानों पर महिला मंडल स्थापित हुए । इनकी शिष्या श्री वल्लभ श्रीजी ध्रांगध्रा के श्री उजमशीभाई की कन्या थी, वे सुरेन्द्रनगर ईस्वी 2002 में स्वर्गवासिनी हुईं 1452 5.3.14.10 श्री वारिषेणाश्रीजी ( सवंत् 2017-2035 ) जन्म संवत् 1993 कच्छ - मांडवी, पिता श्री नेमीदास, माता गुलाबबहन, दीक्षा संवत् 2017 माघ शुक्ला 10 घाटकोपर मुंबई, गुरूणी श्री मंजुला श्रीजी । आगम ग्रंथों का गहन अध्ययन, अंग्रेजी, मराठी, संस्कृत, गुजराती, हिन्दी, तमिल आदि बहुभाषाविद् । प्रिय शिष्या श्री वज्रसेनाश्रीजी (संवत् 2017 ) आदि 18 शिष्याएँ, संवत् 2035 खेड़ा में दिवंगत 1453 5.3.14.11 श्री सुमतिश्रीजी ( संवत् 2017 से वर्तमान) बोटाद के वीशा श्रीमाली श्री डुंगरशीभाई सलोत की सुपुत्री, पालीताणा में संवत् 2017 फाल्गुन कृष्णा 9 को दीक्षा, श्री वल्लभ श्रीजी गुरूणी । तप के क्षेत्र में वर्षीतप 16 उपवास आदि तपस्याएँ की । वर्तमान में नारी समाज में धार्मिक संस्कार और घर-घर में धार्मिक भावना प्रगटाने का कार्य कर रही हैं 1454 5.3.14.12 श्री महिमाश्रीजी श्री अजित श्रीजी की शिष्या महिमाश्रीजी निखालसता की प्रतिमूर्ति श्रमणी थी, तप उनके जीवन का प्राण था, वर्धमान तप की 62 ओली, यावज्जीवन नवपद ओली, उपवास से सहस्रकूट तप, 5 तिथि उपवास, 12 तिथि एकासणा आदि आराधना चलती रही, 56 वर्ष का सुदीर्घ संयम पर्याय पालकर स्वर्गवासिनी हुईं। 455 451. वही, पृ. 726-27 452. वही, पृ. 733-34 453. वही, पृ. 729-33 454. वही, पृ. 734 455. वही, पृ. 736-38 445 Page #508 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन श्रमणियों का बृहद इतिहास 5.3.14.13 श्री रत्नत्रयाश्रीजी (संवत् 2023-40) जन्म कच्छ-मांडवी, पुत्र-श्री अजितचंद्रविजयजी, दो पुत्रियाँ-श्री मंजुलाश्रीजी, वारिषेणाश्रीजी को दीक्षित करने के पश्चात् 65 वर्ष की उम्र में संवत् 2023 मृगशिर शुक्ला 3 राजनगर में पति (प्रशांतविजयजी) के साथ दीक्षा अंगीकार की। जीवन पर्यन्त बीयासणा, 10 अठाई, वर्षीतप, सिद्धितप, 500 आयंबिल, वर्धमान ओली 25 आदि तप से आत्मा को उज्जवल किया। 17 वर्ष संयम आराधना कर संवत् 2040 पालीताणा में स्वर्गवासिनी हुई।456 5.3.14.14 श्री मयणाश्रीजी (संवत् 2057 से वर्तमान) जन्म वढवाण, पिता कालिदासभाई, माता सांकलीबहन, विवाह-राणपुर के श्री व्रजलालभाई। गृहस्थजीवन से ही तप-त्याग व तत्त्वज्ञान आराधना में संलग्न, जैनधर्म का गहन अध्ययन किया। पति के स्वर्गवास के पश्चात् संवत् 2057 में 60 वर्ष की उम्र में हेतश्रीजी के पास दीक्षा अंगीकार की।457 5.3.15 आचार्य श्री बुद्धिसागरसूरीश्वरजी महाराज का श्रमणी-समुदाय ____108 ग्रंथों के प्रणेता सागरगच्छ के प्रख्यात आचार्य श्री बुद्धिसागरसूरिजी के श्रमणी-समुदाय में एक से बढ़कर एक श्रमणियाँ अतीत में हुई हैं जो ज्ञानसंपन्ना, निर्मल चारित्रसंपन्ना तथा तपस्तेज संपन्ना थीं। श्री लाभश्रीजी, दौलतश्रीजी, अमृतश्रीजी जैसी साध्वियाँ संत जीवन का आदर्श थीं, श्री मनोहरश्रीजी का नाम चतुर्थ आरे की श्रमणी के रूप में सम्मान पूर्वक लिया जाता है, वर्तमान में भी श्री जसवंतश्रीजी, इन्द्रश्रीजी, कुसुमश्रीजी, विबोधश्रीजी आदि का नाम विशिष्टता की सूचि में अंकित है। साध्वियों की गुण-गरिमा के प्रति अहोभाव व्यक्त करते हुए आचार्य श्री बुद्धिसागरजी ने कहा है- 'दासोऽहम् सर्वसाधुनाम् साध्वीनां च विशेषतः' अर्थात् मैं सभी साधुओं का दास हूँ और उसमें भी विशेष रूप से साध्वियों का।58 चारित्रसम्पन्न साध्वियों ने अपनी आंतरिक गुण संपत्ति द्वारा जिनशासन के गरिमा-कोष की सदा अभिवृद्धि की है। वर्तमान आचार्य श्री सुबोधसागरजी म. सा. की आज्ञा में 84 साध्वियाँ विचरण कर रही हैं। कतिपय साध्वियों का उल्लेखनीय जीवन-वृत्त यहाँ अंकित है। 5.3.15.1 श्री दौलतश्रीजी (संवत् 1961-स्वर्गस्थ) जन्म संवत् 1941 उदयपुर जिले के आमेट गाँव में, पिता श्री केशरीमलजी चोपड़ा, माता डाहीबहन, दीक्षा संवत् 1961 माघ शुक्ला 5 बीजापुर, गुरूणी श्री रत्नश्रीजी। शिष्याएँ-श्री जयंतिश्रीजी, मंगलाश्रीजी आदि। चार भूजारोड-आमेट में स्वर्गवास हुआ।459 5.3.15.2 प्रवर्तिनी श्री मनोहर श्रीजी (संवत् 1972-2044) शताधिक आयु को प्राप्त श्री मनोहरश्रीजी श्रमणी संघ में विशिष्ट साध्वी रत्न हुई हैं। ये जीवन-पर्यन्त ज्ञान 456. वही, पृ. 738-39 457. वही, पृ. 735 458. वही, पृ. 740 459. वही, पृ. 743-45 446 Page #509 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्वेताम्बर परम्परा की श्रमणियाँ और तपस्तेज से विभूषित बनकर रहीं। इनका जन्म साणंद जिले के 'पादेर' गाँव के श्री राघवजी भाई की धर्मपत्नी पार्वतीबहन की कुक्षि से संवत् 1942 में हुआ। राजनगर निवासी श्री चीमनभाई के साथ इनका विवाह सबंध मात्र छः मास ही रहा, वैधव्य के कारण वैराग्य में अभिवृद्धि हुई, फलस्वरूप संवत् 1972 वैशाख शुक्ला 5 को श्री सुमतिश्रीजी के सान्निध्य में दीक्षा अंगीकार की। स्वाभाविक समता, ऋजुता, नम्रता, गंभीरता आदि गुणों से आकृष्ट होकर आचार्य श्री बद्धिसागरजी महाराज ने अपने समदाय में इन्हें प्रथम प्रवर्तिनी पद से सम्मानित किया। इन्होंने अपने जीवन में कभी सूर्योदय से पूर्व विहार या प्रतिलेखन नहीं किया, पांच आयंबिल से नीचे तप नहीं किया, नित्य बीयासणा किया। 95 वर्ष की उम्र तक उभयकालीन प्रतिक्रमण खड़े रहकर किया, रात्रि 12 बजे से पूर्व शयन नहीं किया, 92 वर्ष की उम्र में आबू के देहरासर की 99यात्रा की, संवत् 2044 को साबरमती में 102 वर्ष की आयु पूर्ण कर ये स्वर्गवासिनी हुईं। इनके शिष्या परिवार में श्री हिंमतश्रीजी, श्री प्रमोदश्रीजी, प्रवीणश्रीजी, विबोधश्रीजी, सुमित्राश्रीजी,, उमंगश्रीजी, राजेन्द्रश्रीजी, चन्द्रप्रभाश्रीजी, जयप्रभाश्रीजी, पुण्यप्रभाश्रीजी, प्रशांतश्रीजी, प्रियदर्शनाश्रीजी, चारूशीलाश्रीजी, रम्यगुणाश्रीजी, प्रशीलयशाश्रीजी, कल्पशीलाश्रीजी, हितप्रज्ञाश्रीजी, पद्मकीर्तिश्रीजी, सुवर्णरेखाश्रीजी, चंद्रकीर्तिश्रीजी, उज्जवलप्रज्ञाश्रीजी, जयदर्शिताश्रीजी, उपशमशीलाश्रीजी, पुण्यकीर्तिश्रीजी आदि विदुषी साध्वियाँ हैं।460 5.3.15.3 श्री अमृतश्रीजी (संवत् 1972-2018) जन्म संवत् 1948 गुजरात के माणसागाम में, पिता जीवाभाई शेठ, माता हरकोरबाई, दीक्षा संवत् 1972 ज्येष्ठ कृष्णा 3 माणसा, गुरूणी-सुमतिश्रीजी। शिष्याएँ-ललिताश्रीजी, अंजनाश्रीजी, जयाश्रीजी, गंभीरश्रीजी, मंजुलाश्रीजी, अशोक श्रीजी, मधुरश्रीजी, लब्धिश्रीजी आदि। मंजुलाश्रीजी की शिष्याएँ-मृगलोचनाश्रीजी, मयणलताश्रीजी, सुरप्रभाश्रीजी, विदितरत्नाश्रीजी, भावितरत्नाश्रीजी। संवत् 2018 लोदरा में स्वर्गवास हुआ।61 5.3.15.4 श्री प्रमोद श्रीजी (संवत् 1980-2034) जन्म 1967 जामनगर, ठक्कर कुटुम्ब, माता हेमकुंवर, दीक्षा संवत् 1980 गुरूणी-मनोहरश्रीजी, माता साध्वी हिंमतश्रीजी। अध्ययन-व्याकरण, न्याय, ज्योतिष, कर्म साहित्य आदि। तप-वर्षीतप, अठाई, बीस स्थानक वर्धमान ओली। शिष्याएँ - प्रवीणाश्रीजी, सुमित्राश्रीजी, चंद्रप्रभाश्रीजी, उमंगश्रीजी, विबुधश्रीजी आदि। संवत् 2034 वीजापुर (गुजरात) में स्वर्गवास। 5.3.15.5 श्री प्रवीणाश्रीजी (संवत् 1920-2028) जन्म संवत् 1967 महेसाणा, पिता केशवलालभाई, माता चंदनबहन, दीक्षा संवत् 1990 वैशाख शुक्ला 6, गुरूणी श्री प्रमोदश्रीजी, शिष्याएँ श्री राजेन्द्रश्रीजी आदि 9, स्वर्गवास संवत् 2028 में हुआ।463 460. वही, पृ. 741 461. वही, पृ. 747 462. वही, पृ. 748 463. वही, पृ. 750 Page #510 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन श्रमणियों का बृहद इतिहास 5.3.15.6 श्री कुसुमश्रीजी (संवत् 1991-स्वर्गस्थ) जन्म महेसाणा पिता मूलचंदभाई माता चंपाबहन, दीक्षा संवत् 1991 फाल्गुन शुक्ला 2 पालीताणा, गुरूणी-श्री चन्द्रयशाश्रीजी (माता) तप-सिद्धितप, 500 आयंबिल, 1024 सहस्रकूट के उपवास, 16 उपवास, वर्धमान तप, नवपद, वर्षीतप 3, अठाई आदि। अपने जीवन में 15 से अधिक जिन प्रतिमा भराई, शिष्या-प्रशिष्या-चंद्रकलाश्रीजी आदि 19 हैं।464 5.3.15.7 श्रीवसन्तश्रीजी (संवत् 1992- से वर्तमान) जन्म संवत् 1979 रूपपुर में, दीक्षा संवत् 1992 वैशाख शुक्ला 10 पालीताणा में। तप-बीस स्थानक, सिद्धितप, मासक्षमण, अठाई, धर्मचक्र, शिष्याएँ श्री विनयप्रभाश्री, स्नेहलताश्रीजी, कल्पलताश्रीजी, सूर्यलताश्रीजी, धर्मरत्नाश्रीजी, हर्षपूर्णाश्रीजी, चंद्रगुणाश्रीजी, प्रियधर्माश्रीजी, नयतत्त्वज्ञाश्रीजी, नयनप्रभाश्रीजी, पुनीतधर्माश्रीजी, पीयूषपूर्णाश्रीजी, शीलपूर्णाश्रीजी, निर्मलप्रभाश्रीजी, मुक्तिरत्नाश्रीजी, राजरत्नाश्रीजी, प्रशांतपूर्णाश्रीजी, हितदर्शिताश्रीजी, सम्यग्दर्शिताश्रीजी आदि।465 5.3.15.8 श्री विनयेन्द्र श्रीजी (संवत् 1993-2037) जन्म संवत् 1978 माणसा, दीक्षा संवत् 1993 माघ कृष्णा 11 साणंद। शांत प्रकृति की सरल महासाध्वी संवत् 2037 साबरमती में कालधर्म को प्राप्त हुईं। शिष्या प्रशिष्याएँ-श्री किरणलताश्रीजी, तत्त्वगुणाश्रीजी, तीर्थरत्नाश्रीजी, शासनरत्नाश्रीजी, संयमरत्नाश्रीजी आदि।466 5.3.15.9 श्री विबोधश्रीजी (संवत् 1994-स्वर्गस्थ) जन्म संवत् 1974 सालेड़ा जिला महेसाणा, पिता श्री डोसाभाई, पनि श्री मणिलाल, दीक्षा संवत् 1994 माघ कृष्णा 6 महेसाणा। दो विदुषी शिष्याएँ - प्रथम श्री प्रबोधश्रीजी, ये शमशेरबहादुर वाले शाह केशव लाल सवाईभाई अमदाबाद वालों की धर्मपत्नी थीं, संवत् 2007 कार्तिक कृष्णा 6 के दिन दीक्षा ग्रहण की। द्वितीय श्री प्रियलताश्रीजी ये मूलचंदभाई और हीरीबहन अमदाबाद वालों की सुपुत्री थी, संवत् 2009 में दीक्षित हुईं। तप-अठाइयाँ, चत्तारि अट्ठ दस दोय, 16, 10, 9, 4 उपवास, आयंविल की अलूणी 11 ओली, वर्धमान तप की 11 ओली, बीस स्थानक, रत्नपावडिया आदि विविध तपस्याएँ की। अनेक धार्मिक प्रसंग इनकी प्रेरणा से सफल रूप से आयोजित हुए जैसे-दीक्षा-महोत्सव, उजमणां, उपधान, 325 भगवंतों का अंजनशलाका महोत्सव, 11 पाठशालाएँ, गृह मंदिर, उपाश्रय, वटवा में जिनमंदिर निर्माण, घंटाकर्ण, नाकोडाजी, पद्मावती, सरस्वती आदि देरीओं की स्थापना, छ' री पालक वटवा से पालीताणा संघ, वटवा में 21 भगवान की अंजनशलाका प्रतिष्ठा, धर्मशाला, भोजनशाला, नीलगार्डन तथा वटवा में महावीर जैन आश्रम। 67 464. वही, पृ. 751-52 465. वही, पृ. 753 466. वही, पृ. 762-63 467. वही, पृ. 753-55 448 Page #511 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्वेताम्बर परम्परा की श्रमणियाँ 5.3.15.10 श्री ललिता श्रीजी ( स्वर्गवास संवत् 2039 ) जन्म विजापुर, 27 वर्ष की उम्र में वेरावल में दीक्षा ग्रहण की। अति शांत प्रकृति व अप्रमत्त व्यक्तित्व की धनी साध्वी थीं, 8, 16 उपवास, वर्षीतप, वर्धमान तप आदि कई तपस्याएँ की। महेसाणा में संवत् 2039 में इनका स्वर्गवास हुआ। श्री कुमुदश्रीजी, विनयेन्द्रश्रीजी, उर्मिला श्रीजी, और किरणलता श्रीजी ये 4 शिष्याएँ थीं 1468 5.3.15.11 श्री चंद्रप्रभाश्रीजी ( संवत् 1998-2030 ) जन्म संवत् 1980 महेसाणा, पिता श्री कीलाचंदभाई, माता मणिबहन, श्री व्रजलाल भाई महेसाणा के साथ विवाह संबंध होने से पूर्व ही वैराग्य-वासित दोनों पति-पत्नी संयम मार्ग पर आरूढ़ हो गये। संवत् 1998 माघ शुक्ला 13 महेसाणा में श्री प्रमोद श्रीजी के पास ये दीक्षित हुईं। 16 उपवास, दो वर्षीतप, सिद्धितप, वर्धमान तप आदि तपस्याएँ की, इनकी श्री कल्पशीला श्रीजी आदि 3 शिष्याएँ बनीं। बनारस चातुर्मास के पश्चात् संवत् 2030 फाल्गुन कृष्णा 6 को बस दुर्घटना की शिकार बनकर ये महासाध्वी स्वर्गवासिनी हो गई | 469 5.3.15.12 श्री जयप्रभाश्रीजी ( संवत् 2005 - स्वर्गस्थ ) जन्म संवत् 1978 मोरबी, पिता श्री प्राणजीवनदास महेता, माता मणिबहन, विवाह जामनगर निवासी दोशी लालजीभाई से हुआ, संवत् 1996 में एक पुत्री का जन्म हुआ, 18 वर्ष की उम्र में वैधव्य को प्राप्त माता जयाबहन ने पुत्री के साथ संवत् 2005 माघ कृष्णा 6 के दिन महेसाणा में श्री प्रवीणश्रीजी के पास दीक्षा ग्रहण की, पुत्री • शिष्या का नाम पुण्यप्रभाश्री रखा। अध्ययन व वक्तृत्वशक्ति में उल्लेखनीय प्रगति की। गुजरात, सौराष्ट्र मध्यप्रदेश, राजस्थान आदि स्थानों पर विचरण कर प्रतिमा, तीर्थपट, उजमणा प्रभुभक्ति- मंडल, सामायिक मंडल आदि की स्थापना के विविध शासन प्रभावक कार्य किये 1470 5.3.15.13 श्री प्रियदर्शनाश्रीजी ( संवत् 2006-34 ) जन्म संवत् 1998 ज्ञानपंचमी शहर ऊनां में पिता श्री त्रिभोवनदास माता रंभाबहन, दीक्षा संवत् 2006 वैशाख शुक्ला 6 ऊना में, गुरूणी श्री प्रमोद श्रीजी । तप- 8, 16 उपवास, 500 आयंबिल, वर्षीतप 2, वर्धमान तप की 47 ओली आदि तपस्या की। संवत् 2034 पाटण में स्वर्गवासिनी हुईं। 471 5.3.15.14 श्री हर्षप्रभाश्रीजी ( संवत् 2008-46 ) जन्म संवत् 1974 खानपरड़ा (पाटण) ग्राम, माता मैनाबहन, पिता श्री वाडीभाई, विवाह - रानेर निवासी डाह्याभाई से हुआ। वैधव्य के पश्चात् संवत् 2008 कार्तिक कृष्णा 6 को पाटण में अपनी पुत्री के साथ दीक्षा । पुत्री - शिष्या का नाम श्री पवित्रलता श्रीजी था। इनकी गुरूणी श्री जशवंत श्रीजी थीं। संवत् 2046 साबरमती के 468, वही, पृ. 755 469. वही, पृ. 756 470. वही, 757-58 471. वही, पृ. 759 449 Page #512 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन श्रमणियों का बृहद इतिहास निकट ट्रक-दुर्घटना से स्वर्गवास हुआ। श्री पवित्रलताश्रीजी की 3 शिष्याएँ-रत्नत्रयाश्रीजी, सौम्यरसाश्रीजी, जयनंदिताश्रीजी, प्रशिष्याएँ-पुष्परत्नाश्रीजी, ऋजुदर्शिताश्रीजी।472 5.3.16 श्रीमद् विजयहिमाचलसूरीश्वरजी का श्रमणी-समुदाय : वर्तमान में इस समुदाय के प्रमुख संघ नायक मेवाड़ दीपक पंन्यास श्री रत्नाकर विजयजी हैं, उनकी आज्ञा में विचरण करने वाली 131 श्रमणियाँ हैं, उन में से उपलब्ध नामावली इस प्रकार है- श्री आनन्दश्रीजी, श्री गिरिमाश्रीजी, श्री सूर्यप्रभाश्रीजी, श्री चंपक श्रीजी, श्री शांताश्रीजी, श्री बालाश्रीजी, श्री सुरेखाश्रीजी, श्री रंजनश्रीजी, श्री शांतिश्रीजी, श्री पुष्पाश्रीजी, श्री मदनरेखाश्रीजी, श्री दर्शनश्रीजी, श्री भक्तिश्रीजी, श्री अमृतकलाश्रीजी, श्रीपुण्योदयाश्रीजी, श्री सूर्यप्रभाश्रीजी, श्री वल्लभप्रभाश्रीजी, श्री सुवर्णप्रभाश्रीजी,273 श्री मनोहर श्रीजी, श्री सुगुणाश्रीजी, श्री मोहनश्रीजी, श्री सत्यप्रभाश्रीजी, श्री हेमलताश्रीजी, श्री कल्पलताश्रीजी, श्री कमलप्रभाश्रीजी, श्री जेष्ठप्रभाश्रीजी, श्री सुरेखाश्रीजी, श्री संजयशीलाश्रीजी, श्री रत्नरेखाश्रीजी, श्री सुपद्मेन्द्रश्रीजी, श्री उपेन्द्रयशाश्रीजी-74 5.3.17 आचार्य श्री विजयशांतिचन्द्रसूरीश्वरजी का श्रमणी-समुदाय : इस समुदाय में वर्तमान 148 साध्वियाँ हैं, जिनमें कुछ आचार्य सोमसुन्दरसूरिजी की आज्ञानुवर्तिनी हैं, अधि कांश साध्वियाँ आचार्य जिनचन्द्रसूरि की आज्ञा में विचरण कर रही हैं, उनमें प्रमुखा श्रमणियों के नाम इस प्रकार हैं- प्रवर्तिनी श्री स्नेहलताश्रीजी, श्री प्रेमलताश्रीजी, श्री सूर्ययशाश्रीजी, श्री सूर्यकलाश्रीजी, श्री सुवर्णकलाश्रीजी, श्री सुप्रज्ञाश्रीजी, श्री अमितयशाश्रीजी, श्री रत्नमालाश्रीजी, श्री सत्वगुणाश्रीजी, श्री विवेकपूर्णाश्रीजी, श्री भव्यरत्नाश्रीजी, श्री सुरक्षिताश्रीजी, श्री सुप्रज्ञाश्रीजी, श्री स्वर्णप्रभाश्रीजी, श्री सुरलताश्रीजी, श्री मोक्षज्ञाश्रीजी, श्री पुनितयशाश्रीजी। श्री शांतिचन्द्रसूरिजी की समुदाय में ही वर्तमान आचार्य विजय राजेन्द्रसूरिजी की आज्ञानुवर्तिनी 152 साध्वियों में प्रमुख साध्वियों की नामावली इस प्रकार है- श्री सोहनश्रीजी, श्री सूर्यप्रभाश्रीजी, श्री प्रभंजनाश्रीजी, श्री विनयपूर्णा श्रीजी. श्री राजमतिश्रीजी. श्री संवेगगणाश्रीजी. श्री सजेष्ठाश्रीजी. शरदपर्णाश्री, श्री शासनरसाश्री. श्री शमपूर्णाश्रीजी, श्री मदनरेखाश्रीजी, श्री विश्वगुणाश्रीजी, श्री इन्दुकलाश्रीजी, श्री शीलरत्नाश्रीजी, श्री पीयूषणपूर्णाश्रीजी, श्री तत्त्वदर्शनाश्रीजी, श्री सुव्रताश्रीजी, श्री सद्गुणाश्रीजी, श्री आगमरसाश्रीजी, श्री विरागरसाश्रीजी, श्री राजरत्नाश्रीजी आदि। 75 5.3.18 गच्छाधिपति आचार्य मोहनलालजी महाराज का श्रमणी-समुदाय मुंबई नगरी में 109 वर्ष पूर्व सर्वप्रथम प्रवेशकर्ता, मुंबई नगरोद्धारक आचार्य श्री मोहनलालजी महाराज इस समुदाय के आद्य संस्थापक कहे जाते हैं, वर्तमान में आचार्य श्री कीर्तिसेनसूरिजी की आज्ञा में 32 साध्वियों का समुदाय विभिन्न प्रान्तों में शासन की प्रभावना करता हुआ विचरण कर रहा है, इसमें अतीत व वर्तमान की कुछ प्रमुख साध्वियों के ही नामों का उल्लेख प्राप्त हुआ है-श्री जंबूश्रीजी, श्री विजयश्रीजी, श्री कमल श्रीजी, श्री कविन्द्रश्रीजी, श्री खान्तिश्रीजी, श्री सज्जनश्रीजी, श्री प्रेमलताश्रीजी, श्री सुमंगलाश्रीजी, श्री जयंतीश्रीजी, श्रीसंयमश्रीजी, 472. वही, पृ. 761-62 473. समग्र जैन चातुर्मास सूची, 1989, भाग 15, पृ. 173 474. वही, 2004 ई., भाग 14, पृ. 249 475. समग्र जैन चातुर्मास सूची 2004, भाग 16, 17, पृ. 254-57 476. (क) समग्र जैन चातुर्मास सूची 1989, पृ. 162, (ख) वही, 2004, पृ. 258 450 Page #513 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्वेताम्बर परम्परा की श्रमणियाँ श्री कीर्तिप्रभाश्रीजी, श्री चन्द्रप्रभाश्रीजी, श्री हेमरत्नाश्रीजी, श्री जयाश्रीजी, श्री अरूणप्रभाश्रीजी, श्री दिव्यदर्शनाश्रीजी, श्री पुष्पा श्रीजी, श्री जिनरत्नाश्रीजी, श्री गौरवपुण्यश्रीजी, श्री हिरण्यलता श्रीजी, श्री विश्वपूर्णाश्रीजी । 5.3.19 आचार्य विजयअमृतसूरीश्वरजी का श्रमणी - समुदाय : हालार देशोद्धारक रूप में ख्याति प्राप्त श्रीमद् अमृतसूरिजी के समुदाय में वर्तमान आचार्य श्री विजय जिनेन्द्रसूरिजी हैं, ये प्राचीन साहित्य के उद्धारक विद्वान् संत हैं, इनकी आज्ञा में 23 साध्वियाँ विचरण कर रही हैं उनमें 5 के ही नाम प्राप्त हुए- प्रवर्तिनी श्री सुरेन्द्रप्रभाश्रीजी, श्री मृगेन्द्रप्रभाश्रीजी, श्री अनंतप्रभाश्रीजी, श्री इन्द्रप्रभाश्रीजी, श्री स्वयंप्रभाश्रीजी । 477 5.3.20 विमलगच्छ समुदाय की श्रमणियाँ : विमलगच्छ समुदाय आचार्य श्री शांतिविमलसूरीश्वरजी के नाम से ख्याति प्राप्त हैं, वर्तमान इस गच्छ के अधिपति आचार्य श्री प्रद्युम्नविमलसूरिजी हैं, इनकी आज्ञा में विचरण कर रहीं 31 साध्वियों में से कुछ प्रमुखाओं के नामोल्लेख मात्र समग्र चातुर्मास सूची से प्राप्त हुए श्री भुवनश्रीजी, श्री मनोरमाश्रीजी, श्री नयप्रज्ञाश्रीजी, श्री गुणसेनाश्रीजी, श्री भव्यकलाश्रीजी, श्री पीयूषपूर्णाश्रीजी, श्री भव्यपूर्णाश्रीजी, श्री महापूर्णाश्रीजी, श्री प्रियदर्शनाश्रीजी, श्री देवसेना श्रीजी, श्री मतिप्रज्ञाश्रीजी, श्री मोक्षलता श्रीजी 1478 - 5.3.21 श्री सौधर्म बृहत्तपागच्छीय त्रिस्तुतिक समुदाय की श्रमणियाँ श्री सौधर्म बृहत्तपागच्छीय त्रिस्तुतिक समुदाय के प्रवर्तक आचार्य श्री राजेन्द्रसूरिजी महाराज हैं, जो अभिधान राजेन्द्रकोष के सर्जक आत्मपुरूषार्थी महान साधक हुए। वर्तमान में यह गच्छ चार शाखाओं में विभक्त हो गया है- (1) श्रीमद् विजयजयन्तसेनसूरि ( 2 ) श्रीमद् विजयहेमेन्द्रसूरिजी (3) आचार्य लब्धिचन्द्रसूरिजी (4) मुनि श्री जयानन्दविजयजी। इनमें प्रथम दो शाखाओं में क्रमशः 115 और 63 साध्वियाँ हैं तृतीय और चतुर्थ शाख में साध्वियाँ नहीं हैं। कुल त्रिस्तुतिक गच्छ की वर्तमान में 178 साध्वियाँ हैं। जिनमें विदुषी, तप साधिकाएं, शासनप्रभाविकाएँ कई श्रमणियाँ है । जिन्होंने अपने वैदुष्य से तपागच्छ समुदाय में एक विशिष्ट पहचान कायम की है। उनका उपलब्ध ज्ञातव्य यहाँ अंकित है। 5.3.21.1 श्री अमरश्रीजी ( संवत् 1926-34) ये सौधर्म बृहत्तपागच्छ की सर्वप्रथम साध्वी हैं, इन्होंने संवत् 1926 फा. कृ. 8 के दिन वरकाणा तीर्थ में श्रीमद् विजयराजेन्द्रसूरीश्वरजी म. सा. से दीक्षा ग्रहण की, इनके साथ ही इनकी एक सखी लक्ष्मीबाई भी दीक्षित हुई। इन्होंने मारवाड़, मालवा आदि अनेक ग्राम, नगरों में विचरकर धर्म की महती प्रभावना की थी। संवत् 1934 माघ शु. 8 को दाहोद में आपका स्वर्गवास हुआ। 179 477. समग्र जैन चातुर्मास सूची, 2004 ई., भाग 19, पृ. 260 478. समग्र जैन चातुर्मास सूची, 2004, 3/20, पृ. 261 479. श्री राजेन्द्र ज्योति, पृ. 71 मोहनखेड़ा तीर्थ, वी. नि. संवत् 2503 451 Page #514 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 5.3.21.2 महत्तरिका साध्वी विद्याश्रीजी ( संवत् 1934-62 ) भोपावर निवासी शाह देवचंदजी की ये सुपुत्री थीं। विवाह के लगभग तीन वर्ष बाद ही ये विधवा गईं। एकबार इनकी आँखों में असह्य पीड़ा हुई, औषधोपचार से भी आराम नहीं होने पर इन्होंने संकल्प किया कि यदि मेरी नेत्र - पीड़ा शांत हो जायेगी तो मैं दीक्षा ग्रहण करूंगी। इस शुभ संकल्प के एक मास पश्चात् ही ये नेत्र - पीड़ा से मुक्त हो गईं, उसके बाद संवत् 1934 राजगढ़ में अमर श्रीजी के सान्निध्य में दीक्षित हुईं। इनकी योगविद्या में विशेष रूचि थी, अर्धरात्रि में उठकर घंटों पदमासन, उत्कुटासन व अन्यान्य आसनों में कायोत्सर्ग किया करती थीं । त्रिस्तुतिक साध्वी समुदाय में ये 'प्रथम महत्तरिका साध्वी' के रूप में प्रतिष्ठित हुईं। उसके पश्चात् 60 के लगभग विदुषी साध्वियाँ हुईं। श्री मोहनखेड़ा तीर्थ में स्मारक रूप में इनका समाधि मंदिर है 1480 5.3.21.3 प्रवर्तिनी श्री प्रेमश्रीजी ( संवत् 1940-88 ) जन्म संवत् 1951 आश्विन पूर्णिमा को जालोर जिले के कोबा (आहोर ) ग्राम में पिता शाह उमाजी पोरवाल, माता लक्ष्मीबाई, पति भूताजी पोरवाल, वैधव्य के पश्चात् संवत् 1940 अषाढ़ शुक्ला 6 को हरजी में दीक्षा, गुरूणी श्री विद्याश्रीजी, संवत् 1962 खाचरोद में प्रवर्तिनी पद प्राप्ति। मालवा, मारवाड़, गुजरात आदि अनेक क्षेत्रों में विचरण कर तप, जप, उद्यापन, सामायिक, पूजा, प्रभावना के धार्मिक कार्य किये। संवत् 1988 वडनगर में देहविलय हुआ। श्री रायश्रीजी को अपने सर्व अधिकार प्रदान किये। 481 5.3.21.4 श्री मानश्रीजी ( संवत् 1941-90) जन्म संवत् 1914 भीनमाल (मारवाड़) पिता - उपकेशवंश के वृद्धशाखीय श्रेष्ठी श्री दलीचंदजी बाना, माता नंदाबाई, पति भीनमाल निवासी धूपचंदजी ओसवाल, तीन मास पश्चात् ही पतिवियोग, दीक्षा संवत् 2041 भेसवाडा में। इनकी साधुशीलता, व्याख्यानशैली, अध्ययन प्रीति, क्रिया परायणता और आज्ञाकारिता ने इन्हें शीघ्र ही गुरूजनों का प्रियपात्र बना दिया, इन्होंने अनेक तीर्थों की यात्रा व ग्रामानुग्राम विहार कर शासन की खूब प्रभावना की, संवत् 1990 आहोर में एक मास के अनशन के साथ इस नश्वर देह का परित्याग किया। इनकी भावश्रीजी, कमलश्रीजी, पुण्यश्रीजी, ललित श्रीजी, मनोहर श्रीजी, विनयश्रीजी, सुमताश्रीजी, सोहन श्रीजी, गुलाब श्रीजी आदि 40 से अधिक शिष्याएँ थीं, जिनमें कई प्रभावशाली साध्वी के रूप में विख्यात है । 482 जैन श्रमणियों का बृहद इतिहास 5.3.21.5 श्री गुलाब श्रीजी (सं. 1967 - स्वर्गस्थ ) इनका जन्म संवत् 1953 कार्तिक शुक्ला 13 रतलाम में हुआ संवत् 1966 में पतिदेव का अवसान होने पर संवत् 1967 आश्विन शुक्ला 10 को साध्वी मानश्रीजी के पास दीक्षा ग्रहण की 14833 480. वही, पृ. 71 481. जिनशासन नां श्रमणीरत्नो, पृ. 765-66 482. वही, पृ. 766-67 483. वही, पृ. 767 452 Page #515 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्वेताम्बर परम्परा की श्रमणियाँ 5.3.21.6 श्री मगनश्रीजी (सं. 1971 - ) इनका जन्म भीनमाल में संवत् 1946 भाद्रपद कृष्णा 13 को हुआ। 1961 में विवाह और 1969 में वैधव्य आ जाने पर संवत् 1971 में श्री मानश्रीजी के पास दीक्षा ग्रहण की।484 5.3.21.7 श्री हेतश्रीजी (सं. 1972- ) इनका जन्म संवत् 1955- आश्विन शुक्ला 10 को आहोर में हुआ 1968 में विवाह और 1969 में पतिवियोग हो जाने के पश्चात् संवत् 1972 में श्री मानश्रीजी के पास दीक्षा हुई। ये बहुश्रुती, व्यवहार कुशल, अध्ययन-अध्यापन में दक्ष और आज्ञांकित साध्वी के रूप में प्रख्यात हुईं।485 5.3.21.8 श्री लावण्यश्रीजी (संवत् 1996-2047) श्री लावण्यश्रीजी का जन्म संवत् 1968 सूरत शहर में पिता धन्नालालजी और माता मोतीबाई के यहाँ हुआ, आलासण निवासी श्री छोगालालजी के साथ विवाह संबंध मात्र दो मास रहा, उनके स्वर्गवास के पश्चात् संवत् 1996 मृगशिर शुक्ला 12 को आकोली गाँव में दीक्षा हुई गुरूणी श्री कंचनश्रीजी के सान्निध्य में इनका बहुमुखी विकास हुआ, विशेषतः व्याख्यान शैली रोचक और अत्यंत प्रभावशाली थी, कइयों को धर्म में स्थिर कर, अनेकों को दीक्षा प्रदान कर, समाज व शासन प्रभावना के अनेकविध कार्यों में अपना योगदान देकर भीनमाल में संवत् 2047 वैशाख शुक्ला 11 को समाधिपूर्वक परलोक की ओर प्रयाण किया।486 5.3.21.9 डॉ. श्री प्रियदर्शनाश्रीजी (संवत् 2020 से वर्तमान) विदुषी साध्वी प्रियदर्शनाश्रीजी का जन्म संवत् 2004 मृगशिर शुक्ला 3 को राजगढ़ (म. प्र.) में तथा दीक्षा संवत् 2020 फाल्गुन शुक्ला 3 को मोहनखेडा तीर्थ में हुई, ये साध्वी श्री हेतश्रीजी की शिष्या बनीं। इन्होंने डॉ. सागरमलजी जैन के निर्देशन में "आचारांग का नीतिशास्त्रीय अध्ययन" विषय पर शोध-प्रबन्ध लिखा है जो पार्श्वनाथ विद्यापीठ वाराणसी से सन् 1995 में प्रकाशित हुआ है।487 5.3.21.10 डॉ. श्री सुदर्शनाश्रीजी (संवत् 2025 से वर्तमान) इनका जन्म राजगढ़ (म. प्र.) में 2007 श्रावण कृष्णा 5 को हुआ। संवत् 2025 काल्गुन शुक्ला 7 के दिन श्री हेतश्रीजी के पास दीक्षा अंगीकार की, दीक्षा आहोर में हुई। इन्होंने भी डॉ. सागरमलजी जैन के निर्देशन में 'आनंदघन का रहस्यवाद' विषय लेकर महानिबंध लिखा है। वाराणसी से इन्होंने पी. एच. डी. की उपाधि प्राप्त की है। श्री प्रियदर्शनाश्रीजी एवं सुदर्शनाश्रीजी ने सम्मिलित रूप से जैन साहित्य भंडार को कई पुस्तकों का अनुदान दिया है, साध्वीद्वय ने अभिधान राजेन्द्रकोष महाग्रन्थ से 2667 सूक्तियों को संकलित कर 'सूक्ति सुधारस' 7 खण्डों में हिंदी भाषा में तैयार किया है। इसके अतिरिक्त इनके निम्न ग्रंथ भी प्रकाशित हैं488 - 484. वही, पृ. 767 485. वही, पृ. 767. 486. वही, पृ. 768 487. वही, पृ. 770 488. प्राप्ति स्थान-आधुनिक वस्त्र विक्रेता, सदर बाजार, भीनमाला, जि. जालोर (राज.) 453 Page #516 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन श्रमणियों का बृहद इतिहास श्रीमद् राजेन्द्रसूरिः जीवन सौरभ, अभिधान राजेन्द्र कोष में जैन दर्शन वाटिका, अभिधान राजेन्द्र कोष में कथा कुसुम, जिन खोजा तिन पाइया, जीवन की मुस्कान, सुगंधित-सुमन। 5.3.21.11 आचार्य श्री विजयराजेन्द्रसूरिजी का अवशिष्ट श्रमणी-समुदाय89 क्रम साध्वी नाम जन्म संवत् स्थान दीक्षा संवत् तिथि दीक्षा स्थान गुरूणी नाम 1. श्री कुसुमश्रीजी - बागरा 2003 वै. शु. 3 बागरा श्री हेतश्रीजी 2. श्री कुमुदश्रीजी 1981 बागरा 2003 वै. शु. 3 बागरा श्री हेतश्रीजी 3. श्री महाप्रभाश्रीजी 1970 राजगढ़ 2008 - राजगढ़ श्री हेतश्रीजी 4. श्री भुवनप्रभाश्रीजी 1991 करवुण 2011 वै. शु. थराद श्री हीरश्रीजी 5. श्री स्वयंप्रभाश्रीजी अलिराजपुर 2012 आषा. शु. 11 मोहनखेड़ा श्री हेतश्रीजी 6. श्री दमयंतीश्रीजी 1987 दासपा 2015 ज्ये. शु. 10 सायला श्री लावण्यश्रीजी 7. श्री प्रेमलताश्रीजी - थराद 2017 आषा. शु. 6 थराद श्री हेतश्रीजी 8. श्री पूर्णकिरणश्रीजी - थराद 2017 आषा. शु. 6 थराद 9. श्री कनकप्रभाश्रीजी 1994 थराद 2022 मा. शु. 13 थराद 10. श्री कल्पलताश्रीजी - थराद 2022 मा. शु. 13 थराद श्री स्वयंप्रभाश्रीजी 11. श्री महिमाश्रीजी 1989 कैलाशनगर 2024 वै. शु. 11 सियाणा श्री हेतश्रीजी 12. श्री कोमललताश्रीजी - साधु 2023 ज्ये. शु. 2 श्री लावण्यश्रीजी 13. श्री सुनंदाश्रीजी 2002 कठोर 2022 ज्ये. कृ. 6 भीनमाल श्री हेतश्रीजी 14. श्री हर्षपूर्णाश्रीजी 1984 आकोली 2025 ज्ये. शु. 6 आकोली श्री लावण्यश्रीजी 15. श्री सूर्यकिरणाश्रीजी - मेंगलवा 2026 मृ.शु. 6 आकोली श्री लावण्यश्रीजी श्री सूर्योदयाश्रीजी बीजापुर 2026 मृ.शु. 6 आकोली श्री लावण्यश्रीजी 17. श्री स्नेहलताश्रीजी 2013 आकोली 2026 मृ.शु. 6 आकोली श्री लावण्यश्रीजी 18. श्री कैलाशश्रीजी 2011 बीजापुर । 2027 ता. शु 11 जालोर श्री दमयन्तीश्रीजी 19. श्री अनन्तगुणाश्रीजी 2017 रतलाम 2027 मा. शु. 7 कुक्षी श्री प्रभाश्रीजी 20. श्री चन्द्रयशाश्रीजी 1995 सान्डेराव 2027 मा. शु. 11 कोसेलाव श्री हीरश्रीजी 21. श्री शशिकलाश्रीजी 1999 थराद 2030 फा. शु. 10 थराद श्री मुक्तिश्रीजी 22. श्री शशिप्रभाश्रीजी 2005 थराद 2030 फा. शु. 10 थराद श्री हेतश्रीजी 23. श्री आत्मदर्शनाश्रीजी 2018 राजगढ़ 2035 वै. शु. 3 मोहनखेड़ा श्री महाप्रभाश्रीजी 24. श्री हितप्रज्ञाश्रीजी 1998 धानेरा 2035 वै. शु. 7 धानेरा श्री स्वयंप्रभाश्रीजी साथु 489. 'श्रमणीरत्नो', पृ. 770-72 454 For Private Personal Use Only Page #517 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्वेताम्बर परम्परा की श्रमणियाँ दीक्षा स्थान गुरूणी नाम साला अमदाबाद श्री स्वयंप्रभाश्रीजी आहोर श्री कुसुमप्रभाश्रीजी आहोर श्री सूर्यकिरणश्रीजी आहोर श्री महाप्रभाश्रीजी सियाणा श्री सूर्यकिरणाश्रीजी सियाणा श्री आत्मदर्शनाश्रीजी भांडव पुरातीर्थ श्री स्वयंप्रभाश्रीजी बागरा श्री महाप्रभाश्रीजी थराद श्री कुसमश्रीजी सियाणा श्री स्वयंप्रभाश्रीजी थराद श्री स्वयंप्रभाश्रीजी थराद श्री शशिकलाश्रीजी थराद श्री शशिकलाश्रीजी क्रम साध्वी नाम जन्म संवत् स्थान दीक्षा संवत् तिथि 25. श्री अरूणप्रभाश्रीजी 26. श्री भव्यगुणाश्रीजी 2025 रतलाम 2038 मृ. शु. 3 27. श्री वसंतमालाश्रीजी 1998 थराद - मा. शु. 10 . श्री सम्यग्प्रभाश्रीजी - पादरू 2040 अषा. शु. 5 29. श्री सम्यग्दर्शनाश्रीजी 2025 इन्दौर 2040 अषा. कृ.5 30. श्री पुण्यप्रभाश्रीजी - सियाणा 2040 म. कृ. 11 31. श्री पुण्यदर्शनाश्रीजी 2022 सियाणा 2040 म. कृ. 11 32. श्री मोक्षगुणाश्रीजी 2026 थराद 2041 मा. शु. 13 . श्री दिव्यदर्शनाश्रीजी 2011 देवलगाँवराजा 2040 ज्ये. कृ. 6 34. श्री रत्नयशाश्रीजी 2008 थराद 2040 ज्ये. शु. 12 35. श्री सौम्यगुणाश्रीजी 2021 थराद 2041 मृ. शु.9 36. श्री कैवल्यगुणाश्रीजी 2013 थराद 2042 मा. शु. 13 37. श्री दिव्यदृष्टाश्रीजी थराद 2042 ज्ये. शु. 0 38. श्री अविचलदृष्टाश्रीजी 2015 थराद 2042 ज्ये. शु. 0 39. श्री अनुपमदृष्टाश्रीजी थराद ज्ये. शु. 10 40. श्री अमितदृष्टाश्रीजी - थराद शु. 10 41. श्री अनंतदृष्टाश्रीजी थराद 2042 42. श्री विद्वद्गुणाश्रीजी थराद 43. श्री अक्षयगुणाश्रीजी 2023 अमदाबाद 2042 मृ. शु. 7 44. श्री दर्शितगुणाश्रीजी 2019 थराद 2043 45. श्री दर्शितकलाश्रीजी 2020 थराद 2043 46. श्री दर्शनकलाश्रीजी 2023 थराद 2043 47. श्री रंजनमालाश्रीजी 2000 थराद कृ. 6 48. श्री शासनलताश्रीजी सियाणा शु. 3 49. श्री तत्त्वलताश्रीजी 2025 रतलाम 2044 ज्ये. शु. 11 50. श्री चारूदर्शनाश्रीजी 2025 आहोर 2045 फा. शु. 3 51. श्री अनेकांतलताश्रीजी 2024 भीनमाल 2045 ज्ये. शु. 10 52. श्री मयूरकलाश्रीजी - थराद 2045 का. कृ. 4 53. श्री विज्ञानलताश्रीजी 2018 सियाणा 2045 मृ. शु. 6 थराद 2042 2042 थराद थराद शु. 10 थराद श्री स्वयंप्रभाश्रीजी अमदाबाद # थराद थराद श्री शशिकलाश्रीजी ## थराद 2043 # धानेरा सियाणा रतलाम रतलाम श्री वसंतमालाश्रीजी श्री कोमललताश्रीजी श्री स्नेहलताश्रीजी श्री स्नेहलताश्रीजी श्री कोमललताश्रीजी श्री शशिकलाश्रीजी श्री स्नेहलताश्रीजी भीनमाल थराद सियाणा Page #518 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन श्रमणियों का बृहद इतिहास दीक्षा स्थान सियाणा पादरू नारोली थराद थराद पालीताणा क्रम साध्वी नाम जन्म संवत् स्थान दीक्षा संवत् तिथि 54. श्री मोक्षपूर्णाश्रीजी 1989 लास 2045 मृ. शु. 6 55. श्री शरदप्रभाश्रीजी - पादरू 2045 मा. कृ. 1 56. श्री जीवनकलाश्रीजी 2026 नारोली 2045 मा. कृ. 6 57. श्री सिद्धान्तगुणाश्रीजी - थराद 2045 ___फा. शु. 3 58. श्री समकितगुणाश्रीजी - थराद 2045 फा. शु. 3 59. श्री शीतलगुणाश्रीजी 2030 रावटी 2045 वै. शु. 1 60. श्री चारित्रकलाश्रीजी 2025 अमदाबाद 2045 वै. शु. 6 61. श्री कल्परेखाश्रीजी 2033 भरतपुर 2045 ज्ये. शु. 6 62. श्री यशोलताश्रीजी 2027 पेढापुर 2047 अषा. शु. 2 63. श्री भक्तिरसाश्रीजी 64. श्री विनीताश्रीजी - जेटा 2047 अषा. शु 11 65. श्रीवात्सल्यगुणाश्रीजी - थराद 2947 आषा. शु. 11 66. श्री वैराग्यगुणाश्रीजी थराद 67. श्री हर्षितश्रीजी गुरूणी नाम । श्री कुसुमश्रीजी श्री सूर्यकिरणाश्रीजी श्री शशिकलाश्रीजी श्री स्वयम्प्रभाश्रीजी श्री स्वयंप्रभाश्रीजी श्री स्वयंप्रभाश्रीजी श्री शशिकलाश्रीजी श्री प्रेमलताश्रीजी श्री कोमललताश्रीजी अमदाबाद अमदाबाद आकोली श्री स्वयंप्रभाश्रीजी थराद थराद 456 Page #519 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्वेताम्बर-परम्परा की श्रमणियाँ 5.4 अंचलगच्छ की श्रमणियाँ (संवत् 1146 से अद्यतन) चन्द्रकुल से निष्पन्न प्रवर्तमान गच्छों में प्राचीनता की दृष्टि से खरतर और तपागच्छ के बाद अंचलगच्छ का स्थान आता है। इस गच्छ के तीन नाम है-विधिपक्ष, अंचलगच्छ और अचलगच्छ। बृहद्गच्छीय आचार्य जयचन्द्र सूरि के शिष्य विजयचन्द्रगणि अपरनाम आर्यरक्षितसूरि द्वारा वि. सं. 1169 में विधिमार्ग की प्ररूपणा और उसके पालन करने से यह गच्छ अस्तित्व में आया। अंचलगच्छ नाम के संबंध में यह घटना प्रसिद्ध है, कि कुडी व्यवहारी नामक श्रावक ने चौलुक्य नरेश कुमारपाल की सभा में आर्यरक्षित सूरि को अपने उत्तरीय के एक छोर से भूमि का प्रमार्जन कर वंदन किया और कुमारपाल की जिज्ञासा पर हेमचन्द्राचार्य ने वंदन की उक्त विधि को शास्त्रोक्त बताया, तब कुमारपाल ने विधिपक्ष को 'अंचलगच्छ' नाम प्रदान किया। यह घटना संवत् 1213 की है। प्राचीन प्रशस्तियों, शिलालेखों-प्रतिमालेखों आदि से भी अंचलगच्छ नाम की ही पुष्टि होती है।490 इस गच्छ में जयसिंहसूरि, धर्मघोषसूरि, महेन्द्रसूरि, धर्मप्रभसूरि, महेन्द्रप्रभसूरि, जयशेखरसूरि, मेरूतुंगसूरि, जयकेशरीसूरि, ध ममूर्तिसूरि, कल्याणसागरसूरि आदि प्रभावक और विद्वान् जैनाचार्य तथा मुनिजन हो चुके हैं। जैन परम्परा में समय-समय पर उद्भुत अनेक गच्छ जहां विलुप्त हो गये, वहीं अंचलगच्छ आज भी विद्यमान है। जिसका श्रेय इसके क्रिया सम्पन्न मुनिराजों व साध्वियों को है। आज भी अंचलगच्छ में आचार्य श्री गौतमसागरसूरीश्वरजी के पट्टधर आचार्य श्री गुणसागरसूरिजी की आज्ञा में 239 साध्वियाँ विचरण कर रही हैं। यहाँ हम अतीत से वर्तमान तक की साध्वियों का प्रभावी व्यक्तित्व एवं कृतित्व प्रस्तुत कर रहे हैं। 5.4.1 महत्तरा समयश्रीजी (संवत् 1146) ___ अंचलगच्छ की प्रथम महत्तरा साध्वी जी के रूप में आपका गौरवपूर्ण स्थान है। भावसागर गुर्वावली में उल्लेख है कि आर्यरक्षितसूरि विचरण करते हुए विउणप बंदर में आये, वहाँ वंका शेठ के पुत्र कोडी व्यवहारी को प्रतिबोध देकर अपना श्रावक बनाया। उसकी 'सोमाई' नाम की पत्री थी. जो एक करोड य के स्वर्ण आभूषणों से हर समय लदी रहती थी, आचार्य श्री का उपदेश श्रवण कर उसने उन सबका त्याग कर अपनी 25 सखियों के साथ दीक्षा ग्रहण की। बाद में उसे 'महत्तरा' पद प्रदान किया गया।91 उल्लेख है, कि आर्यरक्षितसूरि के परिवार में 203 महत्तरा साध्वी, 82 प्रवर्तिनी साध्वी व 1130 साध्वी कुल 1315 साध्वियों में समयश्री 'प्रथम महत्तरा' साध्वी थी।492 5.4.2 जिनसुंदरी गणिनी (संवत् 1288) आप विधिपक्ष की अति विदुषी लब्धप्रतिष्ठ साध्वी थीं। आचार्य देवनाग ने संवत् 1288 में आपके लिये मुनि शीलभद्र से गोविन्दगणि के 'कर्मस्तव' पर टीका लिखाई थी। आपने भी संवत् 1313 चैत्र शुक्ला 8 रविवार के 490. (क) प्रयोजक-पार्श्व, 'अंचलगच्छ दिग्दर्शन, पृ. 49, मुंबई 1968, (ख) डॉ. शिवप्रसाद, अचलगच्छ का इतिहास, श्रमण' स्वर्ण जयंति अंक, अप्रेल-जून 1999, पृ. 112 पार्श्वनाथ विद्यापीठ, वाराणसी 491. अंचलगच्छ दिग्दर्शन, पृ. 48-50 492. वही, पृ. 281 457 Page #520 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन श्रमणियों का बृहद इतिहास दिन पालनपुर में सेठ वीरजी ओसवाल के पुत्र श्रीकुमार की धर्मपत्नी पद्मश्री से पंचमी कथा की पुस्तक लिखवाकर' साध्वी ललितसुंदरी गणिनी को भेंट की थी । 493 5.4.4 तिलकप्रभा गणिनी ( संवत् 1384 ) आर्यरक्षितसूरि के समय प्रथम महत्तरा साध्वी समयश्री के बाद दो सौ वर्षों के मध्य जिनसुंदरगणिनी के सिवाय अंचलगच्छीय साध्वियों का कोई उल्लेख प्राप्त नहीं होता। किंतु संवत् 1384 भाद्रपद शुक्ला 1 शनिवार, खंभात में लिखित 'पर्युषणाकल्प टिप्पनक' की प्रति में 'तिलकप्रभा गणिनी' के उल्लेख के आधार पर यह जाना जा सकता है कि 'समयश्री' के बाद भी एक के बाद एक साध्वी की विद्यमानता की श्रृंखला चली होगी। यह पुष्पिका महं. अजयसिंह ने लिखी है। 494 5.4.5 महत्तरा महिमाश्री ( संवत् 1445 के लगभग ) आप अंचलगच्छ के आचार्य मेरूतुंग के सम्प्रदाय की तेजस्वी साध्वी थी। सूरिजी ने आपको 'महत्तरा' पद से विभूषित किया था। इनका समय संवत् 1445 से 1471 का है। आपने 'उपदेश चिंतामणि अवचूरि' रची 1495 श्री महिम श्री महत्तरा ए, माल्हतंडे थापिया महत्तरा भारि । साह वरसंधि उच्छव कीया ए, माल्हंतडे जंबू नयर मंझारि ॥ - मेरूतुंगसूरि रास 5.4.6 प्रवर्तिनी मेरूलक्ष्मी (संवत् 1445 ) आप भी संवत् 1445 के लगभग हुईं, ऐसा अनुमान है। आपके रचित दो स्तोत्र - 'आदिनाथ स्तवनम् और 'तारंगा मंडन श्री अजितनाथ स्तवन' शीलरत्नसूरि कृत चार स्तोत्रों के साथ उपलब्ध होने से आपको उनके समकालीन माना गया है। आपकी ये दोनों कृतियाँ प्रौढ़ावस्था की ही हैं। अनुक्रम से 7 और 5 श्लोक परिमाण ये कृतियां लघुकाय होने पर भी सरस और प्रवाहपूर्ण है। इसकी भाषा भी प्राञ्जल है। प्रथम स्तोत्र में छंद - वैविध्य से यह जाना जा सकता है कि ये छंद और साहित्य की ज्ञाता पंडिता साध्वी थीं 1496 5.4.7 साध्वी सत्यश्री (संवत् 1566 ) संवत् 1566 आश्विन शुक्ला द्वितीया गुरूवार को श्री हर्षमंडनगणिंद्र शिष्य वाचक हर्षमूर्तिगणि ने कवि देपाल रचित 126 पद्य की 'चंदनबाला चौपाई' आणंद श्रीगणिनी की शिष्या सत्यश्री को लिखकर दी। यह प्रति कर्पटगंज में लिखी है । 497 493. जैन पुस्तक प्रशस्ति संग्रह, प्रशस्ति संख्या 12, 13 494. अंचलगच्छ दिग् दर्शन पृ. 162-163 495. आ. विजय मुनिचन्द्रसूरिजी के पत्र से उल्लिखित 496. (क) दृ. जैन सत्यप्रकाश, वर्ष 9 पृ. 1401 (ख) अंचल. दिग्दर्शन, पृ. 256 497. जै. गु. क. भाग 1, पृ. 135 458 Page #521 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्वेताम्बर - परम्परा की श्रमणियाँ 5.4.8 साध्वी प्रतापश्री (संवत् 1619 ) वि. संवत् 1619 में जलालुद्दीन अकबर के राज्यकाल में श्री धर्ममूर्तिसूरि के विजय राज्य में महोपाध्याय पुण्यलब्धि के शिष्य उपाध्याय भानुलब्धि की आज्ञानुवर्तिनी साध्वी चन्द्रलक्ष्मी की शिष्या करमाई की शिष्या 'प्रताप श्री' का उल्लेख है। इस वर्ष के मार्गशीर्ष शुक्ला 2 शुक्रवार को मेवात - मंडल के अंतर्गत तिजारा नगर में इनके पठन हेतु 'ज्ञानपंचमी कथा' की प्रति लिखी गई थी 1498 5.4.9 साध्वी करमाई ( संवत् 1633 ) संवत् 1633 भाद्रपद शुक्ला 15 शुक्रवार को 'रयवोंडी नगर' में धर्ममूर्तिसूरि के विजय राज्य में भानुलब्धि की शिष्या साध्वी करमाई के पठनार्थ सेवककृत 'ऋषभदेव विवाहलुं' की प्रति खिमराज ने लिखी। मुनि लाखा की गुरू पट्टावली के अनुसार धर्ममूर्तिसूरि के शिष्य परिवार में 5 महत्तरा 11 प्रवर्तिनी एवं 57 साध्वियाँ थीं। आपका आचार्य काल संवत् 1602 से 1671 तक था ।499 5.4.10 साध्वी कुशललक्ष्मी (संवत् 1648 ) संवत् 1648 पोष शुक्ला 3 बुधवार को अंचलगच्छ के वाचक विवेकशेखर ने 'शांति मृगसुंदरी की चौपई की प्रति साध्वी कुशललक्ष्मी के पठनार्थ लिखी। यह प्रति 'वीरविजय उपाश्रय अमदाबाद नो भंडार' (दा. 17 ) में संग्रहित है। आप साध्वी विमलाजी की शिष्या थीं 1500 5.4.11 साध्वी विमलश्री (संवत् 1670 ) इन्होंने संवत् 1670 में बालोतरा चातुर्मास के समय 'उपाध्याय मेघसागर जी की गंहुली' रची। 501 5.4.12 साध्वी सहजलक्ष्मी ( संवत् 1673 ) आप अंचलगच्छ की साध्वी वाल्हाजी की शिष्या लालाजी की शिष्या सुमतलक्ष्मी की शिष्या थीं। आपने वाचक मेघराज रचित 'ज्ञातासूत्र 19 अध्ययन पर भास' की प्रति संवत् 1673 में लिखी। इस प्रति की पुष्पिका में इन सबका नामोल्लेख है। 502 5.4.13 भुज व खंभात में साध्वियाँ ( संवत् 1677 ) वाचक देवसागर जी (अंचल) के पत्रानुसार संवत् 1677 भुज में नयश्री, रूपश्री, क्षीरश्री आदि साध्वियाँ तथा खंभात में यशश्री, सुवर्णश्री, लक्ष्मीश्री, रत्नश्री, इन्दिराश्री आदि साध्वियों का चातुर्मास था 1503 498. (क) अंचल. दिग्दर्शन पृ. 361, (ख) डॉ. शिवप्रसाद, अंचल का इति., पृ. 133 499. (क) अंचल. दिग्दर्शन, पृ. 361, (ख) जै. गु. क. भाग 1 पृ. 212 500. (क) अंचल, दिग्दर्शन, संख्या 1556, (ख) जै. गु. क. भाग 2, पृ. 212 501. अंचल. दिग्दर्शन, पृ. 413 502. जै. गु. क. भाग 3, पृ. 6, अंचल. दिग्दर्शन, संख्या 1557 503. अंचल. दिग्दर्शन, पृ. 413 459 Page #522 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन श्रमणियों का बृहद इतिहास 5.4.14 साध्वी वाहला 'वाल्हा' (संवत् 1684, 1699) खरतरगच्छ के उपाध्याय श्री समयसुंदर रचित 'वल्कलचीरी रास' 225 कड़ी, संवत् 1681 जैसलमेर में रचित है. वह संवत 1699 में अंचलगच्छ के पं. गणशील ने आगरा में साध्वी वाल्हा जी के पठनार्थ लिखा। इसकी प्रति, जिनचारित्रसूरि संग्रह मुंबई पोथी 85 नं. 1328 में है।504 इसके अतिरिक्त विद्याविजयकृत 'नेमिराजुल लेख चौपई' की संवत् 1684 की आगरा में लिखी प्रति पर भी साध्वी वाल्हा जी का उल्लेख है।05 5.4.15 साध्वी विद्यालक्ष्मी (संवत् 1712) __ आप अंचलगच्छ की साध्वी रही की शिष्या अदू की शिष्या मानाजी की शिष्या थीं। आपके पढ़ने के लिये कल्याणकृत 'धन्यविलास रास' की प्रतिलिपी जेठ कृ. 5 संवत् 1712 में की गई, यह हस्तप्रति मोहनलाल जी नो भंडार, सूरत, (पो. 122) में संग्रहित है।506 5.4.16 साध्वी पद्मलक्ष्मी (संवत् 1720) आप साध्वी श्री हेमा की शिष्या थीं। वाचक भावशेखर ने संवत् 1720 माघ शु. 5 शुक्रवार को भुज में 'साधुवंदना' की प्रति उक्त साध्वीजी के वाचनार्थ लिखी।507 यह प्रति श्री लाभविजय ज्ञानभंडार राधनपुर में है।508 5.4.17 साध्वी लाला (संवत् 1721) ___ आप अंचलगच्छ के भट्टारक अमरसागरसूरि के शिष्य रत्नशीलजी की शिष्या थीं। आपकी गुरूणी का नाम साध्वी वाल्हा जी था। इन्होंने सं. 1721 मार्गशीर्ष कृ. 11 गुरूवार को श्री नेमिकुंजर कृत 'गजसिंहरास' की प्रति लिखी।509 आपने ही मुनि पुण्यकीर्ति कृत 'पुण्यसार रास' की प्रति संवत् 1666 में तथा संवत् 1721 कार्तिक शु. 14 को दिन राजशीलकृत 'विक्रम खापर चरित चौपई' की प्रति भी लिखी।510 5.4.18 साध्वी लावण्यश्री (संवत् 1734) आप अत्यन्त महिमावन्त साध्वी जी थीं। आंचलगच्छ के लावण्यचन्द्र मुनि ने अपनी रचना 'साधुवंदना' एवं 'साधु गुणभास' के अंत में आपको प्रणाम किया है। साधुवंदना की रचना संवत् 1734 श्रावण शु. 13 सिरोही में तथा 'साधुगुणभास' की रचना संवत् 1734 फाल्गुन शु. 11 पत्तन नगर में की गई थी। नाथागणि के शिष्य धर्मचन्द्र द्वारा लिखित इसकी हस्त प्रति महावीर जैन विद्यालय मुंबई नं. 630 में संग्रहित है।।। 504. जै. गु. कु. भाग 2, पृ. 377 505. अंचल. दिग्दर्शन संख्या 1750 506. (क) जै. गु. क. भाग 3, (ख) पृ. 162, अंचल. दिग्दर्शन संख्या 1753 507. (क) अंचल. दिग्दर्शन, सं. 1752, (ख) 'शिवप्रसाद', अचल. का इति., पृ. 136 508. अ. म. शाह, श्री प्रशस्ति संग्रह, पृ. 230 509. जै. गु. क., भाग 3, पृ. 122 510. वही, भाग 1, पृ. 226 511. साधइ मुगति समाधि सुं नीति। प्रणमिहे लावन्यसिरि नाम कि।। - उद्धृत- जै. गु. क., भाग 5, पृ. 8 460 Page #523 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्वेताम्बर-परम्परा की श्रमणियाँ 5.4.19 साध्वी गुणश्री (संवत् 1778) आप अंचलगच्छ के महोपाध्याय रत्नसागर जी की शिष्या थीं। आपने संवत् 1778 कपड़वंज चातुर्मास में 'गुरूगुण चौबीसी' नाम की गंहुली रची है, इसमें आचार्यश्री के गुणों की स्तुति की गई है।12 5.4.20 जीवलक्ष्मी सहिजसुंदर रचित 'सूडा साहेली प्रबन्ध' अंचलगच्छ के महिमातिलक द्वारा अहमदाबाद में लिखकर जीवलक्ष्मी साध्वी जी को पढ़ने देने का उल्लेख है, प्रति खंभात में 'लावण्य विजयसूरि ज्ञान भंडार' में संग्रहित है। 13 अंचलगच्छ में संवत् 1778 के पश्चात् करीब डेढ़सौ वर्षों तक के साध्वी संघ का इतिहास विलुप्त सा है। संवत् 1955 में साध्वी शिवश्रीजी एवं पश्चात् प्रवर्तिनी गुलाबश्रीजी का उल्लेख 'श्रमणी-रत्नों' ग्रंथ में प्राप्त हुआ 5.4.21 प्रवर्तिनी महत्तरा गुलाबश्रीजी (संवत् 1955-2022 ) संवत् 1935 में कच्छ देश के आसंबिया ग्राम में शेठ श्री हीराकुरपाल के यहाँ आपका जन्म हुआ। विवाह के पश्चात् वैधव्य से वैराग्य के बीज प्रस्फुटित हुए और अचलगच्छाधिपति श्री गौतमसागरसूरि जी की आज्ञानुवर्तिनी साध्वी शिवश्रीजी के पास संवत् 1955 फाल्गुन शुक्ला 13 को पालीताणा में भव्य समारोह पूर्वक दीक्षा अंगीकार की। आपकी सरलता, वत्सलता, निरभिमानता को देखकर संवत् 1985 में प्रवर्तिनी महत्तरा पद से अलंकृत किया गया। 87 वर्ष की आयु में आपका स्वर्गवास हुआ।14 5.4.22 श्री लाभश्रीजी (संवत् 1960-2028) नम्र सरल और सौम्यमूर्ति श्री लाभश्रीजी का जन्म संवत् 1938 में टुंडा गाँव में हुआ। पिता का नाम कचरालाल जी और माता का जीवीबाई था। आशंबिया निवासी नरसिंहभाई के साथ विवाह संबंध हो जाने पर भी पूर्व संस्कारवश वैराग्यभाव से आपने श्री गुलाबश्रीजी के पास संवत् 1960 वैशाख शुक्ला 8 को दीक्षा अंगीकार की। वर्षीतप, अठाई, 16 उपवास, बीसस्थानक, वर्धमान तप की ओली आदि विविध तपस्याएँ कर आत्मा को तेजस्वी बनाया। संवत् 2028 फाल्गुन शुक्ला 8 को मांडवी में स्वर्गवास हुआ।514 5.4.23 श्री रूपश्रीजी (संवत् 1971-2003) कच्छ के हालाई विभाग में 'शेरडी' गाँव संवत् 1953 में रूपश्रीजी का जन्म हुआ। पिता कुरपालभाई माता खेतबाई थीं, रतडिया निवासी भाणजी देराज के साथ विवाह के पश्चात् वैधव्य से विरक्त बनी इस आत्मा ने संवत् 512. अंचल. दिग्दर्शन पृ. 413 513. जै. गु. क. भाग 1, पृ. 263 514. जैन शासन नां श्रमणीरत्नों, पृ. 774 461 Page #524 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन श्रमणियों का बृहद इतिहास 1971 मृगशिर शुक्ला 11 को श्री कस्तूर श्रीजी के पास दीक्षा अंगीकार की । ज्ञानाराधना के साथ जीवन पर्यन्त एकासणा, विधि सह बीस स्थानक, वर्धमान तप की 33 ओली वर्षीतप 16 उपवास, अठाईयाँ आदि कई तपस्याएँ की। जगतश्रीजी, अमरेन्द्र श्री जी आदि शिष्या प्रशिष्याओं का विशाल परिवार होने पर भी ये निस्पृह रहीं। 60 वर्ष तक जिनशासन की अपूर्व सेवा कर संवत् 2032 कोटड़ा में इनका स्वर्गवास हुआ। 15 5.4.24 श्री मुक्ति श्रीजी (सं. 1981 जन्म संवत् 1967 सांधव (कच्छ), पिता खोना मुलजी लखाना माता कुंवरबाई, दीक्षा संवत् 1981 कार्तिक कृष्णा 6 जसापुर (कच्छ) गुरूणी श्री केवल श्रीजी । इन्होंने अपनी क्षिप्रग्राहिणी मेघा से धर्म ग्रंथों का गहन अध्ययन किया, साथ ही अठाई 16 उपवास, बीस स्थानक, नवपद, पंचमी, वर्धमान तप आदि तपस्याएँ तथा सिद्धगिरि का 99 यात्रा 9 बार की। कच्छ, सौराष्ट्र, राजस्थान आदि में विचरण कर शासन प्रभावना के अनेकविध कार्य किये। उत्तम श्रीजी, गुणलक्ष्मीश्रीजी आदि शिष्या - प्रशिष्या का विशाल परिवार है। 516 - 5.4.25 श्री हरखश्रीजी ( संवत् 1981 ) सौराष्ट्र जामनगर जिल के नवागाम में संवत् 1966 में जन्म हुआ, पिता गोसर राजा व माता लीलाबाई थीं। पति नरशीभाई का लग्न के कुछ दिन पश्चात् ही स्वर्गवास हो जाने पर संवत् 1981 मृगशिर शुक्ला 2 के दिन श्री कस्तूर श्री जी की शिष्या कर्पूर श्री जी के पास इन्होंने दीक्षा अंगीकार की । इन्होंने 3 वर्षीतप एक मासखमण, 16 उपवास अनेक अठाईयाँ, 500 आयंबिल आदि अनेक तपस्याएँ की। पालीताणा की 99 यात्रा तीन बार तथा तलहटी की 2200 यात्रा कर चुकी हैं। 17 515. वही, पृ. 777-79 516. वही, पृ. 791-92 517. वही, पृ. 780-85 518. वही, पृ. 780-85 ) 5.4.26 श्री जगतश्रीजी ( संवत् 1999-2023 ) श्री जगतश्री जी का जन्म संवत् 1942 भद्रेश्वर तीर्थ के निकट गुंदाला गाम निवासी शाह मुरजी और हीरबाई के यहाँ हुआ। लाखापुर गाँव के डाह्याभाई से विवाह हुआ, कुछ ही दिनों में वियोग के दुःख से विरक्ति के भाव जागृत हुए, संवत् 1999 देवपुर गाँव में रूपश्रीजी के पास इनकी दीक्षा हुई इनमें तप और भक्तियोग का अपूर्व समन्वय था। वर्धमान तप की 69 ओली वीशस्थानक, चार और छः मासी आयंबिल तप, निरंतर एकासण, दो मासक्षमण, 16, 15, 11, 10 उपवास, 6 अठाई, 12 अट्ठम 206 छट्ठ आदि तपस्याएँ की । इन्होंने अपने उपदेश से देवपुर, भुजपुर, पत्री, बीदड़ा, कोडाय आदि में आयंबिल शालाएँ खुलवाईं। संवत् 2023 वैशाख कृष्णा 4 के दिन यह महान श्रमणी अनेक जीवों का कल्याण करके दिवंगत हुई 1 518 462 Page #525 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्वेताम्बर - परम्परा की श्रमणियाँ 5.4.27 श्री जगतश्रीजी का शिष्या-परिवार 19 क्रम साध्वी नाम श्री हीरश्री जी श्री निरंजनाश्रीजी श्री गुणोदया श्रीजी श्री हीरप्रभाश्रीजी श्री पुण्योदया श्रीजी श्री अरूणोदयश्रीजी श्री कल्याणोदय श्रीजी श्री भुवनश्रीजी श्री विश्वोदय श्रीजी 1. 2. 3. 4. 5. 6. 7. 8. 9. 10. श्री पूर्णानंद श्रीजी 11. श्री सद्गुणाश्रीजी 12. श्री अभयगुणाश्रीजी 13. श्री विमलयशाश्रीजी 14. श्री रम्यगुणाश्रीजी 15. श्री अनंतगुणाश्रीजी 16. श्री विपुलगुणाश्रीजी 17. श्री हर्षगुणाश्रीजी 18. श्री जयगुणाश्रीजी 19. श्री सौम्यगुणाश्रीजी 20. श्री शीलगुणाश्रीजी 21. श्री ज्योतिगुणाश्रीजी 22. श्री कल्पगुणाश्रीजी 23. श्री तत्त्वगुणाश्रीजी 24. श्री भद्रगुणाश्रीजी 25. श्री कीर्तिगुणाश्रीजी 26. श्री रयणगुणाश्रीजी 27. श्री सुशीलगुणाश्रीजी 28. श्री रत्नयशाश्रीजी 519. 'श्रमणीरत्नो', 783-85 जन्म स्थान देवपुर कोडाय भुजपुर भुजपुर मोटा आसंबिया मोटा आसंबिया अंजार भुजपुर देवपुर भुजपुर तुंबडी बीदडा वराडीया अंजार रामाणीया नागलपुर नागलपुर मांडवी बड़ा बीड़ा बीड़ा बीदड़ा फरादी मेराऊ पुनडी गढशीशा मोटा आसंबीया रायणा दीक्षा संवत् 1999 2006 2008 2008 2010 2011 2013 2013 2013 2015 2015 2019 2019 2020 2022 2023 2023 2024 2026 2026 2026 2026 2026 2026 2027 2028 2028 2028 463 दीक्षा स्थान देवपुर पालीताणा भुजपुर भुजपुर मोटा आसंबीया मांडल अंजार भुजपुर भुजपुर चीचबंदर चींचबंदर पालीताणा अंजार रामाणीया नागलपुर नागलपुर अंजार बीडा बीदडा बीदडा बीदडा फरादी मेराऊ पुनडी मोटा आसंबीया रायण गुरुणी श्री जगतश्रीजी श्री जगतश्रीजी श्री जगतश्रीजी श्री गुणोदया श्रीजी श्री निरंजनाश्रीजी श्री निरंजनाश्रीजी श्री गुणोदया श्रीजी श्री गुणोदया श्रीजी श्री गुणोदया श्रीजी श्री गुणोदया श्रीजी श्री अरूणोदया श्रीजी श्री गुणोदया श्रीजी श्री निरंजनाश्रीजी श्री गुणोदया श्रीजी श्री गुणोदया श्रीजी श्री पुण्योदया श्रीजी श्री पुण्योदया श्रीजी श्री पुण्योदया श्रीजी श्री गुणोदया श्रीजी श्री गुणोदया श्रीजी श्री गुणोदया श्रीजी श्री गुणोदया श्रीजी श्री गुणोदया श्रीजी श्री पुण्योदया श्रीजी श्री पूर्णानंद श्रीजी श्री पूर्णानंद श्रीजी श्री सद्गुणाश्रीजी श्री निरंजनाश्रीजी Page #526 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन श्रमणियों का बहद इतिहास 2028 तुंवडी नानी भुजपुर तुंबडी नानी चांगडाई भुज 2030 2031 2031 2031 तुंबडी भुजपुर तुंबडी देवपुर भुज 2031 मोटा आसंबीया लाला 2035 2035 2035 2037 2037 2037 29. श्री हिरण्यगुणाश्रीजी 30. श्री देवगुणाश्रीजी 31. श्री जयपद्मगुणाश्रीजी 32. श्री वीरगुणाश्रीजी 33. श्री अमितगुणाश्रीजी 34. श्री महापद्मगुणाश्रीजी 35. श्री मोक्षगुणाश्रीजी 36. श्री संयमगुणाश्रीजी 37. श्री मौनगुणाश्रीजी 38. श्री सुवर्णगुणाश्रीजी 39. श्री संवेगगुणाश्रीजी 40. श्री नयगुणाश्रीजी 41. श्री चारूगुणाश्रीजी 42. श्री कैवल्यगुणाश्रीजी 43. श्री जितगुणाश्रीजी 44. श्री पूर्णगुणाश्रीजी 45. श्री भव्यगुणाश्रीजी 46. श्री यशोगुणाश्रीजी 47. श्री भावगुणाश्रीजी 48. श्री प्रशांतगुणाश्रीजी 49. श्री विरागगुणाश्रीजी 50. श्री नीतिगुणाश्रीजी 51. श्री तीर्थगुणाश्रीजी 52. श्री अनंतरत्नाश्रीजी 53. श्री हृींकारगुणाश्रीजी 54. श्री हितगुणाश्रीजी 55. श्री विरतिगुणाश्रीजी 56. श्री गौतमगुणाश्रीजी 57. श्री नम्रगुणाश्रीजी 58. श्री पुनितगुणाश्रीजी 59. श्री रक्षगुणाश्रीजी 60. श्री लक्षगुणाश्रीजी जसापर नानी तुंबडी नानी तुंबडी नागलपुर गढशीशा गढशीशा गढशीशा भीसरा डेपा फरादी साभराई देढिया नारणपुर फरादी मोरेगाम मुलुण्ड मुलण्ड चींचपोकली चींचपोकली नागलपुर गढशीशा गढशीशा गढशीशा गोधरा मुंबई 2038 2038 2038 2038 2038 2039 2039 2039 2039 श्री सद्गुणाश्रीजी श्री विश्वोदयश्रीजी श्री कल्याणोदयश्रीजी श्री भुवनश्रीजी श्री कल्याणोदयश्रीजी श्री अमितगुणाश्रीजी श्री पुण्योदयश्रीजी श्री पुण्योदयश्रीजी श्री पुण्योदयश्रीजी श्री हिरण्यगुणाश्री श्री हिरण्यगुणाश्री श्री निरंजनाश्रीजी श्री विश्वोदयाश्रीजी श्री विश्वोदयाश्रीजी श्री चारूगुणाश्रीजी श्री अभयगुणाश्रीजी श्री पुण्योदयश्रीजी श्री हिरण्यगुणाश्रीजी श्री हिरण्यगुणाश्रीजी श्री विपुलगुणाश्रीजी श्री अभयगुणाश्रीजी श्री निरंजनाश्रीजी श्री पुण्योदयश्रीजी श्री जयपद्मगुणाश्रीजी श्री पुण्योदयश्रीजी श्री पुण्योदयाश्रीजी श्री रयणगुणाश्रीजी श्री वीरगुणाश्रीजी श्री वीरगुणाश्रीजी श्री कल्याणोदयश्रीजी श्री जयगुणाश्रीजी श्री नयगुणाश्रीजी थाणा थाणा लालबाग वडाला 2040 वडाला बाडा 2040 वडाला तलवाणा 2040 2040 शेरडी फरादी 2042 लायजा समेतशिखरजी भांडुप कोटडा मोथारा 2044 कोटडा मोथारा 2044 बाडा 2044 बाडा नवावास गोधरा 2044 2045 2045 27 जिनालय भांडुप भांडुप भुजपुर 464 Page #527 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्वेताम्बर-परम्परा की श्रमणियाँ 2045 2045 ऊनडोठ लायजा लायजा चांगडाई रतडिया 2046 2047 2047 61. श्री तारकगुणाश्रीजी 62. श्री दर्शनगुणाश्रीजी 63. श्री विनयगुणाश्रीजी 64. श्री अर्हदगुणाश्रीजी 65. श्री हर्षदगुणाश्रीजी 66. श्री समयगुणाश्रीजी 67. श्री भक्तिगुणाश्रीजी 68. श्री मैत्रीगुणाश्रीजी 69. श्री जिनेन्द्रगुणाश्रीजी 70. श्री श्रुतगुणाश्रीजी माटुंगा वर्ती चीचबंदर मालिया मालिया पालीताणा भुजपुर भुज देशलपुर देशलपुर श्रीसुशीलगुणाश्रीजी श्री भद्रगुणाश्रीजी श्री नीतिगुणाश्रीजी श्री वीरगुणाश्रीजी श्री वीरगुणाश्रीजी श्री हिरण्यगुणाश्रीजी श्री देवगुणाश्रीजी श्री महापद्मगुणाश्रीजी श्री विपुलगुणाश्रीजी श्री हिरण्यगुणाश्रीजी नाना आसंबिया भुजपुर 2047 2048 2048 भुज देशलपुर 2048 बारोई 2048 5.4.28 श्री हेमलताश्रीजी (संवत् 1999-2044) जन्म संवत् 1972 कच्छ मोटा आसंबिया, पिता मोणशीभाई, माता रतनबाई, कच्छ पुनडी के प्रेमजीभाई के साथ विवाह, अल्पसमय में वैधव्य के पश्चात् विरक्ति। संवत् 1999 चैत्र कृष्णा 13 को दीक्षा। श्री आणंदश्री जी की शिष्या श्री प्रभाश्रीजी के सान्निध्य में संयम, तप, जप की आराधना की, अपनी शिष्याओं के साथ विचरण कर संघों में खूब धर्म जागृति की। संवत् 2044 मृगशिर कृष्णा 11 को पालीताणा में स्वर्गवास हुआ।520 5.4.29 श्री रतनश्रीजी (संवत् 1999-2050) जन्म संवत् 1968 कच्छ-राणपुर, पिता देवणांधभाई माता कुंवरबाई, जेवंतभाई नागड़ा के साथ विवाह, 1 वर्ष में वैधव्य के पश्चात् संवत् 1999 माघ शुक्ला 5 सुथरी तीर्थ में दीक्षा हुई। गुरूणी श्री हरखश्रीजी थीं। तप साधना-14 वर्ष एकासणा, 500 आयंबिल, नवपद, ज्ञानपंचमी, मौन एकादशी, नवकार तप, 2 चौबीसी तप, प्रतिदिन 108 प्रदक्षिणा, 99 यात्रा दो बार। व्याख्यान शैली मधुर। शिष्याएँ - श्री चंद्रोदयाश्री जी, जिनगुणाश्रीजी आदि। संवत् 2050 कार्तिक शुक्ला 12 को पालीताणा में स्वर्गवास।21 5.4.30 श्री खीरभद्राश्रीजी (संवत् 2006-48) जन्म संवत् 1961 मोटा आसंबिया, पिता जेठाभाई माता वेजबाई था। नाना आसंबिया के नेणशीभाई के साथ विवाह, छः महीने में वैधव्य के पश्चात् संवत् 2006 वैशाख कृष्णा 3 साध्वी देवश्रीजी की शिष्या रूप में दीक्षा अंगीकार की। बड़ी सेवाभाविनी, 22 वर्ष तक वृद्ध साध्वियों की सेवा में एक स्थान पर रहीं, पश्चात् 67 वर्ष की वय से 84 वर्ष की उम्र तक ग्रामानुगाम विहार कर धर्म का प्रचार किया। वर्षीतप, अट्ठाई आदि कई तपस्याएँ की। संवत् 2048 में स्वर्गवास।522 520. वही, पृ. 787 521. वही, पृ. 785-87 522. वही, पृ. 789-91 465 Page #528 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 5.4.31 साध्वी अमरेन्द्र श्रीजी ( संवत् 2006 - 48 ) साध्वी रूपश्रीजी की शिष्या साध्वी अमरेन्द्र श्रीजी कच्छ की धरती पर संवत् 1963 में जन्मी और पालीताणा में 2006 मौन एकादशी के दिन दीक्षित हुई। अचलगच्छ के इतिहास में वर्धमान तप की 100 ओली पूर्ण करने वाली ये सर्वप्रथम साध्वी थीं। इसके साथ ही 16,15 उपवास, 25 अठाइयाँ, 2 वर्षीतप बीसस्थानक आदि विविध तपस्याएँ की । सादगी और शांतिप्रिय ये महासतीजी संवत् 2048 कोटड़ा में स्वर्गवासिनी हुईं। 523 5.4.32 श्री गुणोदयश्रीजी ( संवत् 2008-31) जन्म संवत् 1982 भुजपुर (कच्छ), पिता खेतशीभाई, माता खीमईबाई । दीक्षा संवत् 2008 मृगशिर शुक्ला 10 भुजपुर में । गुरूणी श्री जगतश्रीजी । इनकी समता और परहितचिंता की भावना की उल्लेखनीय घटना है- एक वृद्ध साध्वीजी को डोली में बिठाकर ले जाते समय रास्ते में इनके पैर में बिच्छू ने जोर से डंक मारा किंतु इन्होंने यह बात यथास्थान पहुँचने के पूर्व किसी से कही तक भी नहीं, और ऐसी स्थिति में भी 35 कि. मी. का विहार किया। इनकी कष्ट सहिष्णुता और हिम्मत को देखकर सभी आश्चर्यचकित थे। ये आत्मार्थिनी साध्वी थीं, समझाने की शैली भी अद्भुत थी। धर्म और तत्त्व की बातों का शब्दार्थ, भावार्थ गूढार्थ धीर, गंभीर प्रभावक शैली में समझातीं। करूणा और दया से इनका दिल ओतप्रोत था, एक बार आँख में मकोड़ा प्रवेश कर गया, आँखों से अश्रु की धार बहने लगी आँख सूझकर बड़ी हो गई, अपार वेदना को ये सारी रात इसलिये सहन करती रहीं कि आँख को मलने से कहीं मकोड़े को कष्ट न हो, प्रातः वह मकोड़ा स्वयं ही बाहर आ गया । देवपुर चातुर्मास में दुष्काल के कारण निर्धन जनों को छाछ व अनाज के लिये इधर-उधर परिभ्रमण करते देख दया से द्रवित हो इन्होंने छाछ केन्द्र और अनाज की दुकानें खुलवाईं। पालीताणा के जंबूद्वीप मंदिर में स्थापित प्रतिमाओं के पीछे 33 प्रतिशत प्रेरणा इनकी रही है। जीवन पर्यन्त समता, समाधि, सहनशीलता और स्वदेह के प्रति निरीहता का पाठ पढ़ाकर यह महासाध्वी संवत् 2031 देवपुर में चिरसमाधि में लीन हो गईं। 524 इनकी पूर्णानंद श्रीजी आदि 27 साध्वियाँ थीं। जैन श्रमणियों का बृहद इतिहास 5.4.33 श्री रत्नरेखाश्रीजी ( संवत् 2010 से वर्तमान) जन्म संवत् 1993 मोटा आसंबिया (कच्छ), पिता श्री प्रेमजी वीजपार रांभीया, माता परमाबाई, दीक्षा संवत् 2010 वैशाख शुक्ला 5 मोटा आसंबिया में। गुरूणी श्री हेमलता श्रीजी । 6 कर्मग्रन्थ, 4 प्रकरण, तत्त्वार्थ, व्याकरण, न्याय, काव्य, संस्कृत व धर्मशास्त्रों का तलस्पर्शी अध्ययन । साहित्य - अंतर नां अमी, अमीवर्षा, परमेष्ठी गुण सरिता, हृदय वीणा नां तारे तारे आदि पुस्तकों का सम्पादन । शासन प्रभावना के अनेकविध कार्य । श्री प्रियदर्शनाश्रीजी, आत्मगुणाश्रीजी, हर्षावली श्रीजी आदि शिष्या प्रशिष्या का विशाल परिवार । 525 5.4.34 साध्वी अरूणोदया श्रीजी व विनयप्रभाश्रीजी ( संवत् 2021 ) संयम व तप के उच्चतम प्रतिमानों को प्रतिष्ठापित करने वाली श्रमणियाँ हर युग व हर काल में हुई हैं। वर्तमान में भी साध्वी अरूणोदया श्रीजी एवं साध्वी विनयप्रभा जी ऐसी ही विरल साध्वी रत्न हैं: जिन्होंने तप की शक्ति से असाध्य रोगों को दूर कर दिया। इनमें साध्वी अरूणोदयश्रीजी का जन्म वि. सं. 1972 कच्छ मोटा 523. वही, पृ. 788-89 524. (क) वही, पृ. 792-95, (ख) बहुरत्ना वसुंधरा भाग 3, पृ. 549 525. वही, पृ. 796 466 Page #529 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्वेताम्बर - परम्परा की श्रमणियाँ आसंबिया (बड़ा) गाँव में हुआ। संवत् 2021 में पति के स्वर्गस्थ होने के पश्चात् आपने संयम लिया। आप दृढ़ मनोबली अटूट श्रद्धासंपन्न साध्वी हैं, वर्धमान आयंबिल तप करते हुए आपकी कई कठिन कसौटियाँ हुई। सर्वप्रथम कंठ की स्वरपेटी में कैंसर हो गया 10 वर्ष तक आवाज बंद रही, किंतु आपने सावद्य चिकित्सा न करवाकर आयंबिल ही चालू रखे। बीच में भयंकर हृदय रोग का हमला भी हुआ, हरपीस भी हुई, किंतु आपकी अडिग श्रद्धा के साथ की जाने वाली आयंबिल तपस्या व नवकार मंत्र के जाप से कैंसर कैंसल हो गया। हार्ट अटेक को ही मानों एटेक आ गया, हरपीस भी हारकर दूर हट गया। और आज 84 साल की उम्र में भी 101-102 इसी क्रम से आगे बढ़ते हुए 109 ओलियाँ परिपूर्ण कर ली, और वर्तमान में 500 आयंबिल की तपस्या चालू है। साध्वी विनयप्रभाजी को भी कैंसर हुआ तब 81 आयंबिल और 15 चौविहार अट्टम के साथ महामंत्र का जाप किया, खून की उल्टी के साथ कैंसर के कीटाणु दूर हो गये। आप 300 से भी अधिक अट्ठम कर चुकी हैं साथ ही आजीवन अनेक प्रतिज्ञाओं में किसी को सहज दुःख पहुँच जाए ऐसी वाणी निकलते ही अट्टम पचख लेना, किसी की थोड़ी भी निंदा सुन लें तो आयंबिल करना, इत्यादि कठोर प्रतिज्ञाएँ भी धारण की हुई हैं। आप 24 घंटे में केवल ढाई घंटा आराम करती हैं। 526 5.4.35 श्री जयदर्शिताश्रीजी ( 2036 से वर्तमान) मूल वतन कच्छ, जन्म संवत् 2011 मध्यप्रदेश एवं पली महाराष्ट्र में। पिता श्री वीरचंद वालजी मोमायाना, माता नवलबाई के घर में रहते हुए एम. एस. सी. ( वनस्पतिशास्त्र) प्रथम श्रेणी में पास की, पश्चात् दो वर्ष पार्ट टाईम डेमोस्ट्रेटर एवं चार वर्ष लेक्चरर के रूप में 'सोमैया कालेज विद्याविहार मुंबई' में अध्ययन कार्य किया। इसी बीच वैराग्य भावना का प्रबल उदय हुआ एवं 2036 वैशाख शुक्ला 13 को पालिताणा में श्री जयलक्ष्मीश्रीजी महाराज के पास दीक्षा स्वीकार की। आप पाँच भाषाओं पर प्रभुत्व रखती हैं। भावनगर विश्वविद्यालय से सन् 1988 में “फिलोसोफी ऑफ साधना इन जैनिजम” विषय पर महानिबंध लिखकर पी. एच. डी. की डिग्री प्राप्त की । अचलगच्छ साधु-साध्वी समुदाय में विश्वविद्यालय से उच्च पदवी प्राप्त करने वाली आप सर्वप्रथम साध्वी है। 527 5.4.36 डॉ. साध्वी मोक्षगुणाश्री (21 वीं सदी) आपने 'आचार्य जयशेखरसूरि एवं उनका साहित्य' पर शोध प्रबन्ध लिखकर मुंबई विश्व विद्यालय से पी. एच. डी. की उपाधि प्राप्त की है। यह ग्रंथ दो भागों में प्रकाशित है। 528 आचार्य जयशेखर 15वीं शती के अंचलगच्छ आचार्यों में प्रभावशाली विद्वान आचार्य हुए हैं। 526. बहुरत्ना वसुंधरा, भाग 3, पृ. 564 527. वही, पृ. 796 528. आर्य जय कल्याण केन्द्र, देरासर लेन, घाटकोपर मुंबई - 77 ई. 1991 467 Page #530 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन श्रमणियों का बहद इतिहास दीक्षा स्थान देवपुर दीक्षा संवत् तिथि 1963 ज्ये. शु. 1967 1971 म. शु.5 1972 - 1972 - 1972 1980 19801981 - 1982 वैशाख - 1982 ज्ये. शु. 7 1983 चै. शु. 13 1983 वैशाख - रामाणीआ तलवाणा 5.4.37 अंचलगच्छ की अवशिष्ट श्रमणियों की तालिका क्रम साध्वी नाम जन्म संवत् स्थान 1. श्री झवेरश्रीजी देवपुर श्री पद्मश्रीजी 1944 नाना आसंबिया श्री केशरश्रीजी 1956 रामाणीआ श्री दीपश्रीजी 1954 मोटा रतडीया श्री आणंदश्रीजी मोटा आसंबिया श्री ऋद्धिश्रीजी 1954 मोटा लायजा श्री भक्तिश्रीजी 1954 नाना आसंबिया श्री दर्शनश्रीजी 1956 9. श्री हरकश्रीजी 1964 चेला श्री चारित्रश्रीजी 1952 मजलरेलडीया श्री कांतिश्रीजी सुथरी 12. श्री मनहरश्रीजी 1959 नलीया 13. श्री गुणश्रीजी तलवाणा 14. श्री गिरिवरश्रीजी 1956 नाराणपुरा श्री हंसश्रीजी 1958 बीदड़ा श्री कमलश्रीजी 1939 17. श्री अशोकश्रीजी 1947 लायजा 18. श्री विद्याश्रीजी 1955 पुनडी 19. श्री इन्द्रश्रीजी 1964 सांधव 20. श्री रमणीक श्रीजी 1956 मोटा आसंबिया 21. श्री कंचनश्रीजी 1954 22. श्री ताराश्रीजी रापरगढ़ श्री चंदनश्रीजी 1961 जखौ . श्री कचनश्रीजी 1971 जखौ 25. श्री जयंतिश्रीजी 1958 तलवाणा 26. श्री मुक्ताश्रीजी 1957 27. श्री प्रभाश्रीजी 1971 बीदड़ा 28. श्री भानुश्रीजी सांएरा 1984 1984 1984 मा. शु. 8 1985 जखौ 1981 सुथरी रापर 1987 1987 1988 वै. शु. 11 1988 वै. शु. 11 1989 फा. शु. 3 1989 मा. शु. 13 1990 1992 1992 वै. शु. 11 जखौ 1992 भीअसरा 529. श्री पार्श्व, अंचलगच्छ दिग्दर्शन, पृ. 599, 604-6 1468 Page #531 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्वेताम्बर - परम्परा की श्रमणियाँ 29. श्री रामश्रीजी 30. श्री जसवंतश्रीजी 31. श्री दर्शन श्रीजी 32. श्री मनहर श्रीजी 33. श्री रंजन श्रीजी 34. श्री नरेन्द्र श्रीजी 35. श्री सुरेन्द्र श्रीजी 36. श्री रत्न श्रीजी 37. श्री रत्नश्रीजी 38. श्री वसंत श्रीजी 39. श्री कांतिश्रीजी 40. श्री प्रधान श्रीजी 41. श्री हेमलता श्रीजी 42. श्री निर्मला श्रीजी 43. श्री चन्द्रप्रभाश्रीजी 44. श्री सूर्ययशाश्रीजी 45. श्री प्रियंवदाश्रीजी 46. श्री वृद्धिश्रीजी 47. श्री विद्युतप्रभाश्रीजी 48. श्री महेन्द्र श्रीजी 49. श्री सुलक्षणाश्रीजी 50. श्री धर्मानंद श्रीजी 51. श्री हेमप्रभाश्रीजी 52. श्री रत्नप्रभाश्रीजी 53. श्री जयप्रभाश्रीजी 54. श्री तरूणप्रभाश्री 55. श्री जयानंद श्रीजी 56. श्री चारूलताश्रीजी 56. श्री बसंतप्रभाश्रीजी 57. श्री कनकप्रभाश्रीजी 58. श्री अरूणप्रभाश्रीजी 59. श्री वनलता श्रीजी 1964 1976 1976 1976 1972 1966 1948 1954 1969 1963 1978 1979 1988 1955 1980 1978 1969 1961 1963 1968 1968 1968 1978 1997 1997 1993 1992 1996 अंगडाई तेरा मंजलरेलडीया भूज बीदड़ा बड़ी कोडाय नलीआ रायण रामपगढ़ रवा परजाऊ पुनड़ी बारापधर डुमरा चीं आसरा देठीया जखौ कोठारा भूजपुर बीड़ा रायण भूज आरीखाणा भींअसरा अमदाबाद कोठारा मोटा आसंविया मोटाआसंबिया भुजपुर भूजपुर कांडागरा 469 1993 वै.शु. 6 1993 पो. शु. 7 1993 वै. शु. 6 1995 मृ.शु. 13 1996 1996 1997 1997 1998 मा. कृ. 5 1999 वै. शु. 2 1999 1999 1999 1999 1999 1999 1999 2005 2005 2005 2005 2006 मा. शु. 11 2006 मा. शु. 11 2006 2009 ज्ये. शु. 11 2010 ज्ये. शु. 7 2011 वै. शु. 7 2011 2011 2012 2012 2012 मंजल मंजल '' ' ' ' रायण 111111 भूज FTF 11 Page #532 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन श्रमणियों का बृहद इतिहास तलवाण 2012 1962 1990 1972 2013 लाला वराडीया बाडा पालीताणा 1987 1964 डुमरा सांघाण गोधरा 2013 2014 पो. कृ. 11 2014 2014 2015 पो. कृ. 6 2015 2015 1995 2016 1990 1999 1964 1997 1996 1998 1972 1970 2016 2016 2017 लायजा तेरा साभराई मांडल सुथरी मांडवी कोठरा नलीआ सायरा जखौ सुथरी फरादी नानाआंसबिया 2017 2017 60. श्री अनुपमाश्रीजी 61. श्री चंद्रोदयश्रीजी 62. श्री नित्यानंदश्रीजी 63. श्री दिव्यप्रभाश्रीजी 64. श्री अरूणप्रभाश्रीजी 65. श्री हीराश्रीजी 66. श्री चंद्रयशाश्रीजी 67. श्री मनोरमाश्री जी 68. श्री हंसावलीश्रीजी 69. श्री जिनमतिश्रीजी 70. श्री सुनंदाश्रीजी 71. श्री जयलक्ष्मीश्रीजी 72. श्री महोदयश्रीजी 73. श्री विनयलताश्रीजी 74. श्री विपुलयशाश्रीजी 75. श्री गुणलक्ष्मीश्रीजी 76. श्री विनयप्रभाश्रीजी 77. श्री सुव्रताश्रीजी 78. श्री अविचलश्रीजी 79. श्री निर्मलगुणाश्रीजी 80. श्री जयरेखाश्रीजी 81. श्री ज्योतिप्रभाश्रीजी 82. श्री विमलगुणाश्रीजी 83. श्री दिव्यप्रभाश्रीजी 84. श्री धर्मकीर्तिश्रीजे. 85. श्री हर्षकांताश्रीजी 86. श्री विचक्षणाश्रीजी 87. श्री मोक्षलक्ष्मीश्रीजी 88. श्री प्रियदर्शनाश्रीजी 89. श्री अक्षयगुणाश्रीजी 90. श्री आत्मगुणाश्रीजी 91. श्री कीर्तिलताश्रीजी 1977 1998 1956 1966 1984 लायजा नानाआसंबिया 1988 1993 1993 1995 1998 2017 2017 2017 2018 2018 2018 2018 2018 2018 2018 2018 मा. शु. 2 2019 2019 2019 लायजा रायण पालीताणा डोण भाडिया कांडागरा सुथरी 1997 1969 सुथरी 1995 2002 2019 1988 कांडागरा बदिडा मांडवी 2020 1997 2021 का. शु. 7 470 Page #533 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्वेताम्बर - परम्परा की श्रमणियाँ 92. श्री निर्मलप्रभाश्रीजी 93. श्री विश्वलताश्रीजी 94. श्री भावपूर्णाश्रीजी 95. श्री धैर्यप्रभाश्रीजी 96. श्री यशप्रभाश्रीजी 97. श्री दिव्यप्रज्ञाश्रीजी 1978 1997 1994 2004 2006 1996 कोठरा भूज नवावास नलीआ नलीआ नलीआ 2022 2022 वै. कृ. 2 2022 2023 2023 2023 I 5.5 उपकेशगच्छ की श्रमणियाँ (वि. सं. 13वीं सदी से 16वीं सदी) पूर्वमध्यकालीन श्वेताम्बर गच्छों में 'उपकेशगच्छ' का अत्यन्त महत्वूपर्ण स्थान है। जहां अन्य सभी जैन संप्रदाय के गच्छ भगवान महावीर से अपनी परम्परा जोड़ते हैं, वहीं उपकेशगच्छ अपना संबंध भगवान पार्श्वनाथ से जोड़ते हैं। अनुश्रुति के अनुसार इस गच्छ की उत्पत्ति का स्थान राजस्थान का ओसिया (प्राचीन उपकेशपुर ) माना जाता है। परम्परानुसार इस गच्छ के आदिम आचार्य रत्नप्रभसूरि ने वीर नि. संवत् 70 में ओसवाल जाति की स्थापना की थी, किंतु मनीषी विद्वानों ने ऐतिहासिक साक्ष्यों के आधार पर ओसवाल जाति की स्थापना और इस गच्छ की उत्पति का समय ई. की आठवीं शती के पश्चात् माना है। क्योंकि देवर्द्धिगणि क्षमाश्रमण ने भगवान महावीर के 980 वर्ष बाद आगमों का संकलन किया, उस समय तक उपकेशगच्छ या ओसवाल जाति का कहीं उल्लेख नहीं मिलता, इस गच्छ में आचार्य रत्नप्रभसूरि, यज्ञदेवसूरि, कक्कसूरि, देवगुप्तसूरि और सिद्धसूरि पाँच नामों से क्रमशः आचार्य परंपरा चली आ रही थी, यह क्रम 35 पट्ट तक चला, उसके बाद कक्कसूरि, देवगुप्तसूरि और सिद्धसूरि इन तीन नामों से आचार्य परम्परा मिलती है। 530 उपलब्ध साक्ष्यों के आधार पर विक्रम की 13 वीं शती से 15वीं शती के अंत तक इस गच्छ का अस्तित्व सिद्ध होता है। 16वीं शती से इस गच्छ से सम्बद्ध साक्ष्यों का नितान्त अभाव यह सिद्ध करता है कि इस गच्छ के अनुयायी किसी अन्य वृहद् गच्छ में सम्मिलित हो गये । FI उपकेशगच्छ में श्रमणियों का स्वतंत्र उल्लेख कहीं नहीं मिलता, किंतु इस गच्छ के महान आचार्यों की माता, भगिनी या पत्नी बनने का सौभाग्य प्राप्त करने वाली ये श्रमणियाँ स्वयं भी महान प्रभावशाली रही होंगी। इनकी सतत प्रेरणा एवं सहयोग ने ही उपकेशगच्छ को समृद्धि के शिखर पर चढ़ाया है। ऐतिहासिक दृष्टि से भी इन श्रमणियों का महत्व कम नहीं है। प्रभावक चरित्र आदि प्राचीन ग्रंथों में उपकेशगच्छीय श्रमणियों का अस्तित्व वि. पू. 400 से स्वीकार किया गया है। यद्यपि उपकेशगच्छ का यह काल विद्वानों को मान्य नहीं है तथापि अन्य प्रामाणिक सामग्री के अभाव में इसी काल को आधार मानकर यहाँ इस गच्छ की श्रमणियों के जीवन वृत्त आदि का विवरण प्रस्तुत किया जा रहा है। 'भगवान पार्श्वनाथ की परंपरा का इतिहास' ग्रंथ उल्लेखानुसार वीर निर्वाण 52 से 84 के मध्य आचार्य रत्नप्रभसूरि ने चतुर्विध श्रमण संघ के साथ शत्रुंजय तीर्थ की यात्रा की थी उसमें 5 हजार साधु-साध्वी सम्मिलित हुए थे तथा आचार्य यक्षदेवसूरि ने भी वी. नि. 84 से 128 के मध्य 37 पुरूष और 60 महिलाओं को दीक्षित किया था। उक्त विवरण से ज्ञात होता है कि आचार्य रत्नप्रभसूरि और 471 530. उपकेशगच्छ का संक्षिप्त इतिहास, पृ. 61 डॉ. शिवप्रसाद, श्रमण पत्रिका वर्ष 42 अंक 7-12, ई. 1919, 531. वही, डॉ. शिवप्रसाद, पृ. 63 Page #534 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन श्रमणियों का बृहद इतिहास यक्षदेवसूरि के काल में भी यह गच्छ अपने उत्कर्ष पर था। इसके पश्चात् उपलब्ध श्रमणियों का विवरण इस प्रकार है 5.5.1 कुमारदेवी (वि. पू. 79) __ ये उपकेशपुर के राजा उत्पलदेव की संतान परंपरा में श्रेष्टी गोत्रीय 'रावकरत्था' की द्वितीय पत्नी एवं बाप्प नागगौत्रीय राव देपाल की पुत्री थी। रावजी को प्रथम पत्नी से 11 पुत्र हुए, पुत्री की कामना से उन्होंने द्वितीय विवाह कुमारदेवी से किया इन्हें भी एक पुत्र ही हुआ, उसका नाम देवसिंह रखा। आचार्य कक्कसूरि का उपदेश श्रवण कर 16 वर्षीय किशोर देवसिंह को वैराग्य हुआ, उसकी तीव्र भावना देखकर पिता भी दीक्षा लेने को तैयार हो गये, तब कुमारदेवी ने पति से कहा-"जब पुत्र ही घर छोड़कर जा रहा है, और आप भी अपने पुत्र के साथ हैं, तो मैं क्यों पीछे रहूँगी?" इस प्रकार देवसिंह के साथ उसकी माता कुमारदेवी, पिता रावकरत्थ एवं अन्य 35 पुरूष एवं 60 महिलाओं ने वि. पू. 79 के लगभग दीक्षा अंगीकार की। कुमारदेवी के संस्कारों से पल्लवित हुए ये ही देवसिंह आगे जाकर आचार्य देवगुप्त सूरि के रूप में प्रख्यात हुए। जो भगवान पार्श्वनाथ के 14 वें पट्टधर माने जाते हैं।533 5.5.2 जाल्हणदेवी (वि. पू. 12 के लगभग) उपकेशपुर में चिंचट गोत्रीय शाह रूपणसिंह की ये धर्मपरायणा गृहदेवी थीं। इनके पुत्रों में भोपाल' नाम के पुत्र की आचार्य श्री सिद्धसूरि (द्वि.) के उपदेश से दीक्षा की भावना हुई तो पुत्र का अनुकरण कर पिता रूपणसिंह एवं माता जाल्हणदेवी भी दीक्षित हो गई। इनके साथ अन्य 37 नर-नारी भी दीक्षित हुए थे। सबके नाम उपलब्ध नहीं हैं, इतना ही ज्ञात होता है कि वे मेदिनीपुर फेफावती और सत्यपुरी नगर की समृद्ध महिलाएँ थीं।34 5.5.3 अज्ञातनामा साध्वी (वि. सं. 52) विक्रम संवत् 52 में जीवदेवसूरि एक महान लब्धिधारी धर्म प्रभावक आचार्य हुए थे। उन्होंने अपने साधु, साध्वियों को एकबार उत्तर दिशा में जाने का निषेध किया था, तथापि दो साध्वियाँ स्थंडिल हेतु उधर चली गई, लौटते समय दुष्ट चित्तवाले योगी ने हाथ लंबा कर लधु साध्वी पर ऐसा चूर्ण डाला कि, वह साध्वी योगी के वश हो वहीं बैठ गई, वृद्धा साध्वी के समझाने पर भी नहीं उठी तो आचार्य जीवदेवसूरि ने अपनी लब्धि से तृण का पुतला बनाकर श्रावकों को दिया, उन्होंने पुतले की कनिष्ठा अंगुली काटी, तो योगी की अंगुली कट गई, इस प्रकार दूसरी अंगुली भी काट डाली। श्रावकों ने उसे डराते हुए कहा-"अरे योगी इस साध्वी को मुक्त कर अन्यथा तेरा मस्तक भी काट दिया जाएगा।"535 आचार्य की लब्धि का प्रत्यक्ष प्रभाव देखकर योगी ने साध्वी को मुक्त कर दिया। यह साध्वी कौन थी, क्या नाम था, ऐसी कोई सूचना प्राप्त नहीं होती। 532. मुनि श्री ज्ञानसुंदर, भगवान पार्श्वनाथ की परंपरा का इतिहास, भाग 1 खंड 1, पृ. 415 533. वही, पृ. 404-5 534. वही, पृ. 396-99 535. मुञ्च साध्वी न चेत्पापं छेत्स्यामस्तव मस्तकम। न जानासि परे स्वे वा शक्त्यंतरमचेतन।। 67 ।। -प्रभावकचरिते श्री जीवसूरिप्रबन्धः 472 Page #535 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्वेताम्बर-परम्परा की श्रमणियाँ 5.5.4 कुल्लीदेवी (वि. सं. 115) कुल्ली देवी ओंकार नगर के तप्तभट्ट गोत्रीय शाह पेथा की भार्या थीं। उनके पुत्र राजसी ने 16 वर्ष की उम्र में जंबूकुमार की तरह अपनी नवविवाहिता पत्नी के साथ दीक्षा ली तो शाह पेथा भी एक-एक कोटि धन अपनी सात पुत्रियों को देकर, तथा शेष द्रव्य सात क्षेत्रों में व्यय कर भार्या कुल्ला एवं अन्य 23 नर- नारियों के साथ अत्यंत समारोह पूर्वक आचार्य श्री सिद्धसूरिजी के चरणों में दीक्षित हुए। राजसी ही आगे जाकर महाप्रभावशाली रत्नप्रभसूरि (तृतीय) के नाम से प्रसिद्ध आचार्य बने। ये उपकेशगच्छ के 26 वें आचार्य थे।536 तत्पश्चात् भगवान पार्श्वनाथ के 27 वें पट्ट पर आचार्य यक्षदेव सूरि (तृतीय) के उपदेश से प्रभावित होकर भी अनेक मुमुक्षु आत्माएँ दीक्षित हुईं। यथा - (1) मुग्धपुर के तप्तभट गोत्रीय शाह राजा ने सपत्नीक दीक्षा ली। (2) नागपुर के आदित्यनाग गोत्रीय लाखण ने 18 लोगों के साथ दीक्षा ली, उसमें महिलाएं भी थीं। (3) चन्द्रावती के राव सांगण ने 18 नर-नारियों के साथ दीक्षा ली। उपकेशगच्छ में इस समय 3000 साधु-साध्वी विहरण कर रहे थे।37 5.5.5 ललितादेवी (संवत् 157 के लगभग) ये पार्श्वनाथ परंपरा के 18 में पट्टधर आचार्य कक्कसूरि की माता थीं। इन्होंने अपने पुत्र त्रिभुवनपाल, पति (कोरंटपुर नगर के प्राग्वाट्वंशीय) शाह लाला एवं अन्य 52 व्यक्तियों के साथ आचार्य यक्षदेवसूरि (तृतीय) के पास संयम ग्रहण किया।538 5.5.6 कमलादेवी (संवत् 177-199) पार्श्वनाथ परंपरा के 20वें पट्टधर सिद्धसूरि (तृतीय) की मातेश्वरी कमलादेवी मांडव्यपुर नगर के राजा सुरजन के मुख्य मंत्री श्रेष्ठी गोत्रीय नागदेव की तीसरी पत्नी थी और उपकेशपुर के चिंचट गोत्रीय शाह रामा की सुपुत्री थीं। आचार्य कक्कसूरि के सदुपदेश एवं प्रबल प्रेरणा से कमलादेवी, पुत्र देवसी, पति नागदेव एवं नागदेव की अन्य दो पत्नियाँ-रंभा और देवला एवं सात पुत्र, इस प्रकार एक ही परिवार से 12 व्यक्तियों ने दीक्षा ली।39 5.5.7 अज्ञातनामा साध्वियाँ संवत् 199-218 के मध्य ) ___ आचार्य रत्नप्रभसूरि (चतुर्थ) ने धर्म प्रभावना के अनेक कार्यों में उज्जैन चातुर्मास के पश्चात् बाप्पनाग गोत्रीय शाह मेघा द्वारा निर्मित पार्श्वनाथ भ. के मंदिर की प्रतिष्ठा के अवसर पर 8 पुरूष और 13 बहिनों को दीक्षा दी। उनके नाम, गोत्र आदि का उल्लेख प्राप्त नहीं है।540 536. भगवान पार्श्वनाथ की परंपरा की इतिहास, भाग 1 खंड 1, पृ. 469-82 537. वही, पृ. 509 538. वही, पृ. 558 539. वही, पृ. 598 540. वही, पृ. 623 473 Page #536 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 5.5.8 महादेव की भार्या ( संवत् 235 -60) आचार्य कक्कसूरि चतुर्थ वि. संवत् 235 से 60 के मध्य जब सिंध प्रदेश में विचरण कर रहे थे तब उमरेलपुर के श्रेष्ठी गोत्रीय शाह महादेव जो प्रभूत सम्पति सम्पन्न थे, उन्होंने अपनी पत्नी एवं अन्य 14 नर-नारी के साथ दीक्षा अंगीकार की। ये उपकेशगच्छ के 23 वें पट्टधर थे 1541 5.5.9 पन्नादेवी (संवत् 260 - 82 ) आप आचार्य देवगुप्तसूरि चतुर्थ की मातेश्वरी थी, एवं धनकुबेर कुमट गोत्रीय डाबर नाम के श्रेष्ठी की पत्नी थी। पुत्र कल्याण के दीक्षा ग्रहण करने व उनके आचार्य पद पर प्रतिष्ठत होने के पश्चात् चन्द्रावती नगरी में डाबर एवं पन्नादेवी ने भी दीक्षा ग्रहण कर ली। आचार्य देवगुप्तसूरि ने अनेक राजाओं को जैनधर्म में श्रद्धावान बनाये। ये उपकेशगच्छ के 24वें पट्टधर थे 1542 5.5.10 दुर्लभादेवी (संवत् 282-98 ) दुर्लभादेवी वल्लभी नगरी के राजा शिलादित्य की बहन थी । आचार्य जिनानन्द ने तीन पुत्रों के साथ इन्हें दीक्षा दी। इसमें मल्ल मुनि सब से छोटे एवं प्रतिभासंपन्न थे। गुरू ने उन्हें नयचक्र नामक ग्रंथ जो ज्ञानप्रवाद पूर्व उद्धृत था, उसे पढ़ने का निषेध साध्वी माता दुर्लभादेवी के समक्ष किया, किंतु बाल- चापल्य और जिज्ञासावश माता की अनुपस्थिति में उन्होंने ग्रन्थ उठाकर पढ़ना शुरू किया, अभी उसका प्रथम पन्ना पढ़ा ही था, कि श्रुतदेवता ने वह पुस्तक खींच ली। इस ग्रंथ को पुनः प्राप्त करने के लिये आपने महान तपस्या की, जिससे प्रथम पंक्ति का श्लोक, जो आपने पढ़ लिया था उससे देवी के वरदान स्वरूप 10 हजार श्लोक प्रमाण वाले नयचक्र ग्रन्थ की रचना की। साहित्य सर्जना के महद् कार्य में माता दुर्लभादेवी का संपूर्ण सहयोग रहा। मल्लमुनि आगे जाकर आचार्य मल्लवादी के रूप में प्रतिष्ठित हुए, जो भगवान महावीर की परंपरा में थे 1543 जैन श्रमणियों का बृहद इतिहास 5.5.11 साध्वी चम्पादेवी ( संवत् 282-98 ) आप आचार्य सिद्धसूरि (चतुर्थ) की मातेश्वरी तथा उपकेशपुर नगर के महाराजा उत्पलदेव की संतान-परंपरा के श्रेष्ठि गोत्रीय शाह जेता की धर्मपरायणा पत्नी थीं। आचार्य देवगुप्तसूरि (चतुर्थ) के चरणों में आपने अपने पुत्र सारंग (सिद्धसूरि ) के साथ 56 नर-नारियों सहित दीक्षा ली 1544 संवत् 298 से 370 के मध्य और भी अनेक स्त्रियों ने दीक्षा ली, उनका नामोल्लेख एवं विशेष वर्णन उपलब्ध नहीं है केवल संख्या ही उपलब्ध होती है, वह इस प्रकार है- संवत् 310 - 336 में आचार्य यक्षदेवसूर (पंचम) ने आभापुरी नगरी में 31 मुमुक्षुओं को दीक्षा दी, जिसमें 17 श्रमणियाँ बनीं। संवत् 336-358 में आचार्य कक्कसूरि (पंचम) ने उपकेशपुरी में शाह कर्मा के साथ 30 नर-नारियों को दीक्षा प्रदान की । आचार्य देवगुप्तसूरि 541. वही, पृ. 661 542. वही, पृ.682 543. वही, पृ. 712-14, प्रभावक चरिते, श्री मल्लवादी प्रबन्ध, पृ. 123-28 544. वही, पृ. 684-96 474 Page #537 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्वेताम्बर-परम्परा की श्रमणियाँ (पंचम) जिनके गच्छ में कई लब्धिधारी विद्वान मुनि रत्न थे, उन्होंने संवत् 357-370 में अनेक नर-नारियों को दीक्षा प्रदान की।545 5.5.12 जैती एवं पुत्रवधु जिनदासी (संवत् 370-400) ___आप जाबालीपुर नगर में मोरख गोत्रीय या डिडू गोत्रीय पुष्करणा शाखा में जगाशाह नामके धनकुबेर श्रेष्ठी की भार्या थीं। आपकी प्रेरणा से श्रेष्ठी जगाशाह ने शत्रुजय की तीर्थ यात्रा का संघ निकाला था। पट्टावलीकार के अनुसार उस संघ में 700 साधु- साध्वियाँ और 20 हजार भावुक भक्त थे। इनके ठाकुरसी नाम का होनहार पुत्र-रत्न था, जंबूकुमार की तरह पिता ने ठाकुरसी का 16 वर्ष की उम्र में ही उसी नगर के बलाह गोत्रीय शाह चतरा की सुशील सुशिक्षित कन्या जिनदासी के साथ अत्यंत धूमधाम से विवाह कर दिया। लग्न को 6 मास भी पूर्ण नहीं हुए कि आचार्य देवगुप्तसूरि (पंचम) के सदुपदेश को श्रवण कर ठाकुरसी के हृदय में वैराग्य हिलोरे लेने लगा। ठाकुरसी का ही अनुगमन कर उसके पिता शाह जगा, माता जैती एवं पत्नी जिनदासी ने भी दीक्षा ली। ठाकुरसी का नाम अशोकचन्द रखा गया। ये उपकेशगच्छ के 30 वें आचार्य सिद्धसूरि (पंचम) के रूप में प्रसिद्ध हुए।546 5.5.13 फेफो श्रमणी (संवत् 400-24) आप उपकेशगच्छ के 31वें आचार्य श्री रत्नप्रभसूरि (षष्टम) की मातेश्वरी थीं। और शंखपुर (मरूधर प्रान्त) में राव कानड़देव के राज्य में तप्तभट्ट गोत्री शाह धन्ना की गृहदेवी थीं। इनके 13 पुत्रों में भीमदेव पूर्वभव से संस्कारित आत्मा एवं वर्तमान में माता-पिता के सुसंस्कारों से पोषित अति ही भव्य कुमार था। शाह धन्ना और माता फेफोने भी पुत्र के साथ आचार्य सिद्धसूरि (पंचम) के चरणों में माघ शुक्ला 13 को दीक्षा अंगीकार की। भीमदेव आगे जाकर उपकेशगच्छ के 31वें आचार्य श्री रत्नप्रभसूरि (षष्टम्) के नाम से महान प्रभावशाली आचार्य हुए।547 5.5.14 रूक्मणी (संवत् 480-520) ये खट्कूप (मरूधरदेश) नगर के धनाढ्य श्रेष्ठी करणा गोत्रीय शाह राजसी की गृहदेवी थीं। कहा जाता है, कि इनके घृत तेल के पुष्कल व्यापार के साथ-साथ एक हजार गायों का पालन पोषण एवं विस्तृत खेती होती थी। इन्होंने सम्मेदशिखर तक यात्रा संघ निकाला, यात्रा से आने के पश्चात् स्वधर्मी भाइयों को सोने की कंठी, चूड़ा तथा वस्त्रादि देकर सम्मानित किया। खट्कुंप में इन्होंने भ. महावीर का मंदिर भी बनवाया। इनके 13 पुत्र और 4 पुत्रियाँ थीं। इनमें धवल नाम के पुत्र को आचार्य कक्कसूरि (षष्टम) के पास भव्य महोत्सव पूर्वक दीक्षा प्रदान की, ये ही उपकेशगच्छ के 34वें आचार्य श्री देवगुप्तसूरि के रूप में (षष्टम) प्रतिष्ठित हुए। इनकी दीक्षा के पश्चात माता रूक्मणी ने और पिता शाह राजसी ने भी अपार ऐश्वर्य का त्याग कर कक्कसूरि (षष्टम) के चरण-कमलों में दीक्षा अंगीकार की।48 545. वही, भाग 1 खंड 2 पृ. 750 546. विशेष देखें -वही, पृ. 791-803 547. वही, पृ. 812-27 548. इनका विस्तृत परिचय देखें- वही, पृ. 878-894 475 Page #538 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन श्रमणियों का बृहद इतिहास 5.5.15 श्रमणी नाथी (संवत् 520-58) ये महान युगप्रवर्तक उपकेशगच्छ के 35वें आचार्य श्री सिद्धसूरीश्वर जी (षष्टम) की मातेश्वरी थीं। तथा वीरप्रसूता मेदपाटभूषण चित्रकोट नगर के विरहट गोत्री दिवाकर शाह उमाजी की धर्मपत्नी थी। आचार्य देवगुप्तसूरि का उपदेश एवं पुत्र सारंग का उत्कट वैराग्य देख इन्होंने अपने पति एवं पुत्र के साथ दीक्षा ग्रहण की, इनके साथ 37 दीक्षाएँ और हुई।549 5.5.16 श्रमणी विमल भार्या (संवत् 558-601) ये आचार्य श्री कक्कसूरि जी (सप्तम) जो उपकेशगच्छ के 36वें आचार्य थे, उनकी धर्मपत्नी थीं एवं मरूधर प्रांत के मेदिनीपुर नगर के सुप्रतिष्ठ व्यापारी श्रेष्टि गोत्रीय शाह करमण की पुत्रवधु थीं। आपकी विशेष प्रेरणा व सहयोग से पति विमल के संघपतित्व में छ'री पालक संघ शत्रुजय की तीर्थ यात्रा हेतु निकला पश्चात् वैराग्य भाव से आपने अपने 8 पुत्र 3 पुत्रियों का विशाल परिवार एवं वैभव त्याग कर आचार्य सिद्धसूरि (षष्टम) के श्रीचरणों में भागवती दीक्षा अंगीकार की।50 5.5.17 श्रमणी नानी (संवत् 558-601) आप उपकेशपुर में चरड़ गोत्रीय कांकरिया शाखा के शाह घेरू के पुत्र लिंबा की धर्मपत्नी थी। असमय में ही पति का वियोग हो गया। आ. कक्कसूरि (सप्तम) के वैरोग्योत्पादक प्रवचन श्रवण कर असार संसार से अरूचि हो गई, तो इन्होंने चार अग्रगण्य व्यक्तियों को करीब एक करोड़ रूपयों की संपत्ति ज्ञानभंडार एवं आगम लेखन हेतु सुपूर्द कर 8 बहिनों के साथ आचार्यश्री के पास दीक्षा ग्रहण की।5। 5.5.18 श्रमणी रामा (संवत् 601-631) आप उपकेशगच्छ के 37 वें युगप्रधान आचार्य देवगुप्तसूरि (सप्तम) की मातेश्वरी थी, एवं अर्बुदाचल तीर्थ की तलहटी में बसी कोटीश्वर श्रेष्ठीवर्यों से विभूषित चंद्रावती नगरी के प्राग्वाटवंशीय शाह यशोवीर की भार्या थीं। शा. यशोवीर चंद्रावती के अधीश राव सज्जनसेनजी के अमात्य (मंत्री) पद पर विभूषित प्रतिष्ठित व्यक्ति थे। श्रेष्ठनी रामा ने अपने ज्येष्ठ पुत्र मंडन जो राष्ट्रीय राजकीय नीतिविद्या में परम निष्णात थे, उनके एवं पति यशोवीर के साथ आचार्य कक्कसूरि (सप्तम) के पास दीक्षा अंगीकार की। मंडन, देवगुप्तसूरि के नाम से षट्दर्शन के प्रकाण्ड पंडित एवं तेजस्वी आचार्य हुए, कई प्रतिवादियों को शास्त्रार्थ में पराजित किया था। ये उपकेशगच्छ के 37 वें आचार्य थे।552 5.5.19 श्रमणी सरजू (संवत् 660-80) आप उपकेशगच्छीय 39वें पट्टधर आचार्य श्री कक्कसूरि (अष्टम) की माता थीं। एवं अर्बुदाचलतीर्थ की तलहटी में स्थित पद्मावती नगरी के तप्तभट्ट गोत्रीय शा. सलखण नाम के लोकमान्य प्रतिष्ठित व्यापारी की 549. विशेष देखें-वही, पृ. 895-899 550. वही, पृ. 1009-13 551. वही, पृ. 1019 552. वही, पृ. 1031 476 Page #539 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्वेताम्बर-परम्परा की श्रमणियाँ धर्मपत्नी थी, इनका पुत्र 'खेमा' अत्यंत प्रतिभासंपन्न बालक था। माता सरजू के साथ उसने एकबार साध्वीजी के उपाश्रय में द्वार पर बैठे-बैठे सारा प्रतिक्रमण सुनकर सविधि याद कर लिया था। 15 वर्ष की लघुवय में 'खेमा' ने संसार एवं विशाल वैभव को तिनके की तरह छोड़कर आचार्य सिद्धसूरि के चरणों में दीक्षित होने की भावना व्यक्त की तो शाह सलखण एवं धर्मपत्नी सरजू ने भी दीक्षा अंगीकार कर ली।53 5.5.20 श्रमणी करण भार्या (संवत् 724-78) आप उपकेशगच्छ के 41वें पट्टधर आचार्य श्रीसिद्धसूरि की संसारावस्था में भार्या थीं। उपकेशपुर में आदित्यनाग गोत्र की पारख शाखा के धनकुबेर श्रावक, परम धार्मिक श्री अर्जुन श्रेष्ठी की पुत्रवधु थीं। विवाह के साथ ही दोनों पति-पत्नी ने आजीवन ब्रह्मचर्य व्रत अंगीकार कर लिया। एवं विजयकुंवर-विजयाकुंवरी के समान एक शय्या पर सोकर भी अखण्ड ब्रह्मचर्य पालन का दृश्य उपस्थित किया। तदनन्तर दोनों ने एक साथ सेठ अर्जुन एवं सेठानी लागू से दीक्षा की अनुमति ली। शा. अर्जुन ने इनका भव्य दीक्षा महोत्सव कर आ. देवगुप्तसूरि के चरणों में समर्पित कर दिया। करण दीक्षा लेकर मुनि चंद्रशेखर से आ. देवसिद्धसूरि बने। आपके साथ अनेक मुमुक्षु आत्माओं ने भी दीक्षा लेकर आत्मकल्याण किया।554 5.5.21 श्रमणी लाडुक भार्या (संवत् 1033-74) ... आप मेदपाट (मेवाड़) प्रान्तीय देवपट्टन नगर में सुघड़ गोत्रीय शाह चतरा की धर्मपत्नी भोली के पुत्र-रत्न लाडुक की धर्मपत्नी थी, जब लाडुक साधारण गृहस्थ की कोटि में आ गये, तब एक योगी ने उन्हें दारिद्र्य विनाशक मंत्र देते हुए कहा कि इसके बदले में तुम्हें जैनधर्म छोड़कर मेरे धर्म को स्वीकार करना होगा। लाडुक ने यह बात अपनी पत्नी से कही-तो धर्म पर दृढ़ निष्ठा वाली उसकी पत्नी ने ललकारते हुए कहा 'क्या पैसे जैसे क्षणिक द्रव्य के लिये आप धर्म को तिलाञ्जलि देने के लिये उद्यत हो गये? मेरी दृष्टि में चिन्तामणि रत्न रूप जैनधर्म का त्याग करना कदापि उचित नहीं।" पत्नी के दृढ़ धार्मिक विचारों को सुनकर लाडुक को अत्यंत आनंद की अनुभूति हुई। वह ऐसी पतिव्रता धर्मपरायणा पत्नी को पाकर स्वयं गौरव का अनुभव करने लगा। कालान्तर में एकबार देवगुप्तसूरि (10वें) का लोद्रवपट्टन में आगमन होने पर लाडुक के मन में वैराग्य भावना जागृत हुई, उनकी पत्नी एवं योगी ने भी दीक्षा अंगीकार की। लाडुक दीक्षा के पश्चात् उपकेशगच्छ के 47 वें आचार्य श्री सिद्धसूरि (10वें) के रूप में महाप्रभावशाली आचार्य हुए। 5.5.22 श्रमणी मोहिनी (संवत् 1055-1108) ___ आप पाटण नगर में बाप्पनाग गोत्रीय नाहटा जाति के कोट्याधीश व्यापारी श्रीचंद के सबसे लघुपुत्र भोजा की धर्मपत्नी थीं। आचार्य सिद्धसूरीश्वरजी के प्रभावोत्पादक व्याख्यान को श्रवण कर दोनों ही निवृत्तिमार्ग की ओर अग्रसर हो गये। भोजा, जो अब मुनि भुवनकलश बन गये थे, उनकी योग्यता एवं गुणों से प्रभावित होकर आ. 553. वही, पृ. 1109-13 554. वही, पृ. 1063-1071 555. वही, पृ. 1411-14 Page #540 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन श्रमणियों का बृहद इतिहास सिद्धसूरि ने इन्हें संवत् 1074 में सूरि पद से विभूषित कर 'कक्कसूरि' नाम दिया। ये उपकेशगच्छ के 48वें आचार्य हुए। इनके काल में इस संघ में 3000 साधु-साध्वी थे 1556 5.5.23 श्रमणी रोली ( संवत् 1076- 1128 ) आप सिन्धभूमि में डामरेलनगर की भाद्रगौत्रीय समदडिया शाखा के शाह गोसल की सुपुत्री थीं, आप सर्वकलाविद् एवं रूप-गुणसंपन्ना थीं। आपका विवाह आदित्यनाग गोत्रीय गुलेच्छा शाखा के लब्धप्रतिष्ठ व्यापारी पद्माशाह के सुपुत्र चोखा से हुआ, विवाह से पूर्व ही 'चौखा' धर्म के रंग में रंगा हुआ था, अतः विवाह के तुरंत बाद ही नेमकुमार और राजुल का आदर्श उपस्थित करते हुए चोखा एवं रोली ने आचार्य श्री कक्कसूरि के चरणों वि. संवत् 1076 के ाल्गुन पंचमी के शुभ दिन अनेकों मुमुक्षु आत्माओं के साथ संयम अंगीकार किया। दीक्षा के बाद चोखा का देवभद्र नामकरण किया गया । वि. संवत् 1108 में आप आचार्य पद पर प्रतिष्ठित हुए। उपकेशगच्छ में देवगुप्तसूरि ( 12वें ) 49वें आचार्य माने गये । हैं । 557 5.5.24 श्रमणी उदा भार्या (संवत् 1077 ) उपकेशगच्छ के 48 वें आचार्य श्री कक्कूसरि ( 12वें ) ने संवत् 1077 का चातुर्मास पाली में किया। चातुर्मास के पश्चात् श्रेष्टि गोत्रीय शाह भाणा के सुपुत्र उदा एवं उसकी 6 मास की विवाहिता पत्नी ने सूरि के उपदेशामृत का पान कर सजोड़े आचार्य श्री के चरणों में भागवती दीक्षा अंगीकार की 1558 5.5.25 श्रमणी चन्दनबाला (संवत् 1178) आप गुर्जर देश के अष्टादशशती प्रान्त में 'मदुआ' नामक ग्राम के निवासी प्राग्वाटवंशीय श्री वीरनाग की बहन थीं एवं स्याद्वाद - रत्नाकर के कर्त्ता तथा पाटण में दिगंबर आचार्य कुमुदचंद्र को शास्त्रार्थ में पराजित करने वाले, 84 वादों में विजेता आचार्य वादीदेवसूरि की बुआ लगती थी। दीक्षा के पश्चात् इन्होंने खूब तप: संयम की आराधना की, ऐसा उल्लेख पट्टावली में है। 559 5.5.26 साध्वी सरस्वती श्री (संवत् 1181 ) आप एक निर्भीक एवं प्रज्ञाशील साध्वी थीं। आपके विषय में यह घटना प्रसिद्ध है कि एकबार दिगंबर आचार्य कुमुदचन्द्र ने आपका तिरस्कार किया तो आप आचार्य देवसूरि के पास आईं और आचार्यश्री को ललकारते हुए कहा 'आपकी विद्वत्ता किस काम की ? जो हथियार शत्रु को न जीत सके वह हथियार किस काम का? जिससे परभव बढ़े ऐसी समता किस काम की.......... .?' साध्वीश्री की चुनौती सुनकर आचार्यश्री ने दिगंबर वादियों के साथ शास्त्रार्थ करने के लिये पाटण संघ को पत्र लिखा। शास्त्रार्थ में विजयी होने पर 556. वही, पृ. 1436-40 557. वही. पृ. 1455-59 558. वही, पृ. 1441 559. वही, पृ. 1256 478 Page #541 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्वेताम्बर - परम्परा की श्रमणियाँ आचार्यश्री की महिमा चारों ओर फैल गई। शास्त्रार्थ का विषय स्त्री मुक्ति को लेकर था। आचार्यश्री को शास्त्रार्थ के लिये प्रेरित करने वाली साध्वी सरस्वती का नाम इतिहास के पृष्ठों पर आज भी सुरक्षित है। 500 5.5.27 विनेयिका गणिनी ( संवत् 1237 ) जसवन्तपुरा परगने का रेवड़ा गाँव, जिला जालोर में सच्चिकादेवी की प्रतिमा पर उल्लिखित अभिलेख में उक्त साध्वी के वैदुष्य का वर्णन है अभिलेख विषय इस प्रकार हैं- उपकेशगच्छ की सत्यशीला और क्षमागुणवती विनेयिका गणिनी ने जनसाधारण के कल्याण के लिये वि. संवत् 1237 फाल्गुन सुदि 2 मंगलवार को जूना (बाड़मेर) में सच्चिका माता की प्रतिमा का निर्माण करवाया और श्री ककुदसूरि ने उसकी प्रतिष्ठा की 161 5.5.28 साध्वी रंगलक्ष्मी (संवत् 1591 वि. संवत् 1591 में उपकेशगच्छीय उपाध्याय रत्नसमुद्र ने अपनी शिष्या रंगलक्ष्मी के लिये 'मयणरेहारास ' की प्रति लिखकर दी। यह प्रति रत्नविजय भंडार डेहला का उपाश्रय अमदाबाद में सुरिक्षत है। 562 5.6 आगमिकगच्छ की श्रमणियाँ (वि. संवत् 13वीं से 17वीं सदी ) 13वीं सदी के प्रारंभकाल में चन्द्रगच्छ में शिथिलाचार व उनकी अनागमिक मान्यताओं से खिन्न होकर श्री शीलगुणसूरि ने आगमिक गच्छ की स्थापना की। इस गच्छ में श्री धर्मघोषसूरि महती प्रभावक आचार्य हुए, श्री सर्वानन्दसूरि वचनसिद्ध आचार्य के रूप में विख्यात थे। अभयदेवसूरि परम क्रियानिष्ठ आचार्य थे, आचार्य वज्रसेन आगमों के तलस्पर्शी ज्ञाता विद्वान् थे । नवरसावतारतरंगिणी के विरूद से विभूषित श्री जिनचंद्रसूरि, हेमरत्नसूरि आदि कई उच्चकोटि के विद्वान् मनीषी आचार्य हुए। इस गच्छ में विदुषी, प्रतिलिपिकर्ता के रूप में कुछ साध्वियों के उल्लेख प्राप्त हुए हैं, जो 13वीं से 17वीं सदी तक की हैं। वर्तमान में आगमगच्छ निःशेष प्रायः हो चुका है। 5.6.1 प्रवर्तिनी श्री चंद्रकांति ( 13वीं सदी) आगमिकगच्छ के जिनप्रभसूरि ने प्रवर्तिनी श्री चंद्रकांति महासाध्वी की विनंती पर 'मल्लि जिन' (19वें तीर्थंकर) अपभ्रंश भाषा में रचा। रचना 13 सदी के अंत की है। 563 5.6.2 साध्वी विवेकलक्ष्मी (संवत् 1626) उपकेशगच्छीय कक्कसूरि के शिष्य द्वारा संवत् 1528 के लगभग रचित 'कुलध्वजकुमार रास' गाथा 375 की प्रतिलिपि संवत् 1626 माघ शुक्ला 8 को आगमगच्छ की साध्वी जयलक्ष्मी की शिष्या विवेकलक्ष्मी ने की। श्री जिनचारित्रसूरि संग्रह पोथी 81 नं. 2027 तथा जिनदत्त भंडार मुंबई में इसकी प्रति प्राप्त है। 564 560. (क) वही, पृ. 1258-59, (ख) आ. यशश्चन्द्र, मुदित कुमुदचन्द्र नाटक, 46-47, वाराणसी वी. संवत् 2431 561. गोविन्दलाल श्रीमाली, राजस्थान के अभिलेख, पृ. 181, 183 महाराज मानसिंह पुस्तक प्रकाश, जोधपुर, ई. 2000 562. उपकेशगच्छ का इतिहास, डॉ. शिवप्रसाद, 'श्रमण' वर्ष 42 अंक 7-12 सन् 1991, पृ. 117 से उद्धृत 563. ऐति. लेख संग्रह, पृ. 339 564. जै. गु. क. भाग 1, पृ. 150 479 Page #542 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 5.6.3 प्रवर्तिनी हेमश्री (संवत् 1640 ) संवत् 1640 आसोज शु. 3 रविवार को आगमगच्छ धंधुकपक्ष में सौभाग्यसुंदरसूरि की परंपरा के भट्टारक श्री धर्मरत्नसूरि ने तपागच्छीय कुशलसंयमसूरि द्वारा संवत् 1555 माघ शुक्ला 5 में रचित 'हरिबल नो रास' की प्रतिलिपि की। उसमें प्रवर्तिनी हेमश्री की शिष्या महिमश्री, हर्षश्री की शिष्या 'लाला' का उल्लेख है, उसके पठनार्थ उक्त रास लिखकर दिया। इसकी प्रति वीरविजय उपाश्रय अमदाबाद में है। 565 5.6.4 साध्वी महिमश्री (संवत् 1648 ) आप आगमगच्छ के लघुशाखा आचार्य सौभाग्यसुंदर की शिष्या थी। आपके लिये पं. जयसुंदरजी ने वि. संवत् 1648 आसोज शु. 3 को देकापुर में ग्रंथ लिखाया था 5.7 पार्श्वचन्द्रगच्छ की श्रमणियाँ (वि. संवत् 1564 से अद्यतन ) जैन श्रमणियों का बृहद इतिहास पार्श्वचन्द्रगच्छ नागोरी बृहत्तपागच्छ से उद्भुत एक स्वतंत्रगच्छ हैं। शताधिक ग्रंथों के कर्त्ता महाप्रभावशाली श्री पार्श्वचंद्रसूरि इस गच्छ के संस्थापक आद्य आचार्य थे। संवत् 1564 में साधु- संस्था में व्याप्त शिथिलाचार का उन्मूलन करने के लिये वे अपने गुरु श्री साधुरत्नसूरि की आज्ञा से संवेग मार्ग में प्रस्थित हुए थे, उनके पश्चात् यह गच्छ ‘पार्श्वचंद्रगच्छ नाम से प्रसिद्धि को प्राप्त हुआ। गच्छ की स्थापना के समय अनेक साध्वियों ने भी क्रियोद्धार में अपना महत्त्वपूर्ण योगदान दिया था। उस समय इस गच्छ में साध्वियों की भी विशद संख्या थी, किंतु शनैः-शनैः साध्वी संघ विलुप्त प्रायः हो गया, उसे पुनर्जीवित करने के लिए वि. संवत् 1947 में श्री शिवश्रीजी, ज्ञानश्रीजी व हेमश्रीजी को गणिवर श्री कुशलचन्द्रजी महाराज ने 'जामनगर' में दीक्षा प्रदान की थी, ये तीनों 'कच्छ की काशी' के रूप में विख्यात 'कोडाय' ग्राम की रहने वाली थीं। 567 इसके अतिरिक्त इनसे संबंधित अन्य कोई जानकारी उपलब्ध नहीं होती, तथापि आज आप तीनों से ही इस गच्छ का विस्तार हुआ है, अनेक तेजस्विनी, प्रज्ञासम्पन्न साध्वियों से यह गच्छ गरिमामयी बना है। 5.7.1 श्री लब्धिश्रीजी ( संवत् 1948-94 ) संवत् 1924 में कच्छ के डोणगाँव वासी देशरभाई के यहाँ खीमइबाई की कुक्षि से इनका जन्म हुआ । विवाह के कुछ समय पश्चात् वैधव्य से वैराग्य की भावना जागृत हुई, संवत् 2047 कोडाय गाँव में दीक्षित होकर श्री शिवश्रीजी की प्रथम शिष्या बनीं। ज्ञान की ओजस्विता तप की तेजस्विता और व्यक्तित्व की वत्सलता से ये शीघ्र ही संघ में विख्यात हो गईं। 46 वर्ष के सुदीर्घ संयम के पश्चात् लाछुमा गाँव में स्वर्गवासिनी हुईं। श्री कनक श्रीजी, पूनम श्रीजी, माणेक श्रीजी, धर्मश्रीजी, कुसुमश्रीजी, जगतश्रीजी, कीर्तिश्रीजी, मंगलश्रीजी, मित्रश्रीजी, कंचनश्रीजी, रमणीकश्रीजी आदि आपकी विदुषी शिष्या - प्रशिष्याओं का विशाल परिवार है 1568 565. जै. गु. क. भाग 1, पृ. 209, 566 श्री प्रशस्ति संग्रह, पृ. 133 567. मुनि श्री भुवनचंद्रजी, संघ- सौरभ, पृ. 17 श्री पार्श्वचंद्रगच्छ जैन संघ, देशलपुर, कच्छ (गु.) 2005 ई. 568. (क) वही, पृ. 57 (ख) 'श्रमणीरत्नों, पृ. 818 480 Page #543 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्वेताम्बर-परम्परा की श्रमणियाँ 5.7.2 श्री लक्ष्मीश्री (संवत् 1948-2005) कच्छ नवावास में जन्म और भारापुर के कोरशीभाई के साथ विवाह हुआ, एक ही वर्ष में पतिवियोग हो जाने पर संवत् 1948 फाल्गुन शुक्ला 2 को श्री शिवश्रीजी के पास इन्होंने दीक्षा ग्रहण की। इन्होंने कइयों में धर्म-श्रद्धा जागत करवाई, कइयों को संयम प्रदान किया। इनकी शिष्याएँ-श्री तत्त्वश्रीजी, मुक्तिश्रीजी, अक्षयश्रीजी, त्रिभुवनश्रीजी, हेमश्रीजी, विनोदश्रीजी, जीतश्रीजी, जंबूश्रीजी, सुबोधश्रीजी, न्यायश्रीजी आदि हैं। जंबूश्रीजी की शिष्या-प्रशिष्याएँ- श्री विद्याश्रीजी, उद्योतप्रभाश्रीजी, जयनंदिताश्रीजी, विपुलगिराश्रीजी, सुवर्णलताश्रीजी, अनंतगुणाश्रीजी, भयभंजनाश्रीजी, दिव्यरत्नाश्रीजी, धैर्यप्रज्ञाश्रीजी, विमलयशाश्रीजी तथा विरतियशाश्रीजी आदि हैं। संवत् 2005 नवावास में विशाल शिष्या-प्रशिष्या परिवार की शासन को अपूर्व भेंट देकर ये परलोकवासिनी हुईं।569 5.7.3 श्री लाभश्रीजी (संवत् 1948-स्वर्गस्थ) ये कच्छ के नागलपुर गाँव की थीं, श्री लब्धिश्रीजी के साथ बाल्यवय से ही प्रेम संबंध होने से उनके साथ इन्होंने भी दीक्षा अंगीकार की। ये सरल स्वभावी, आत्मार्थिनी और प्रखर विदुषी थीं। इनकी प्रथम शिष्या श्री गुणश्रीजी उच्चकोटि की विदुषी साध्वी होने से आचार्य सम गरिमा प्राप्त थी, कंठ अति सुरीला था, श्रीमद् राजचन्द्र के प्रति आस्था एवं कानजी स्वामी के संपर्क में आने से अपनी शिष्या अशोकश्रीजी और सुशीलश्रीजी के साथ वे सोनगढ़ में स्थिरवासिनी हो गईं, अन्य शिष्याएँ-पद्मश्रीजी, जयश्रीजी, नेमश्रीजी, कल्याणश्रीजी, भानुश्रीजी, खांतिश्रीजी आदि का विशाल परिवार वटवृक्ष की तरह शोभित है। इनका स्वर्गवास वांकानेर में हुआ।570 5.7.4 श्री चंदनश्रीजी (संवत् 1952-2011) श्री चंदनश्रीजी श्री हेतश्रीजी की शिष्या थीं, ये खंभात की थीं, मांडल में दीक्षित हुईं और अंत में खंभात में स्वर्गवासिनी हुईं। शिष्याएँ-श्री सुमतिश्रीजी, आनंदश्रीजी, शांतिश्रीजी, जिनश्रीजी, जयंतिश्रीजी, देवश्रीजी तथा प्रशिष्याएँ-हरखश्रीजी, तिलकश्रीजी, धनश्रीजी, पद्मश्रीजी, पुन्यश्रीजी, राजश्रीजी, मुक्तिश्रीजी, सुशीलाश्रीजी, वीरात्माश्रीजी, सौभाग्यश्रीजी, शणगारश्रीजी, प्रभाश्रीजी, प्रीतिश्रीजी, दयाश्रीजी, प्रधानश्रीजी, दानश्रीजी, तीवश्रीजी, चंद्रोदयाश्रीजी, महोदयश्रीजी, हर्षप्रभाश्रीजी, चंद्ररेखाश्रीजी, ज्योतिप्रभाश्रीजी आदि हैं।571 5.7.5 महास्थविरा श्री विवेकश्रीजी (संवत् 1959-2041) ____ पार्श्वचन्द्रगच्छ में विवेकश्रीजी महाराज जो 103 वर्ष की आयु पूर्ण कर कालधर्म को प्राप्त हुईं, उन्होंने 21 वर्ष की उम्र में संवत् 1959 माघ शुक्ला 5 को श्री प्रमोदश्रीजी के पास नाना भाडिया (कच्छ) में दीक्षा ली। संवत् 1959 से संवत् 2041 तक 82 वर्ष का सुदीर्घ संयम पाला। आपकी शिष्याओं में आनंदश्रीजी विदुषी साध्वी हुई हैं।572 569. वही, पृ. 55 570. वही, पृ. 59 571. (क) वही, पृ. 64-65 (ख) 'श्रमणीरत्नो', पृ. 831 572. (क) वही, पृ. 61-63 (ख) 'श्रमणीरत्नो', पृ. 834 481 Page #544 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 5.7.6 प्रवर्तिनी श्री खांतिश्रीजी ( संवत् 1974-2034 ) आपका जन्म कच्छ प्रदेश के मांडवी तालुका में नागलपुर नामक छोटे से ग्राम में संवत् 1958 में हुआ । पिता पूंजाभाई व माता मूळीबेन ने अपनी पुत्री 'जीवां' का 14 वर्ष की उम्र में रामजीभाई मग के साथ विवाह किया, किंतु थोड़े ही समय बाद विषमज्वर से आक्रान्त होकर रामजीभाई स्वर्गवासी हो गये। आपने तब अपना लक्ष्य निश्चित् किया और अमदाबाद में श्री पूनमचन्द्रगणि के पास आकर संवत् 1974 वैशाख कृ. 5 को दीक्षा अंगीकार करली। प्रखर विद्वान् सरल स्वभावी एवं विशाल साध्वी समुदाय की सृजनकर्त्री श्री लाभश्रीजी जो संसारपक्षीय भुआ भी थी, उनके पास आगमज्ञान की शिक्षा प्राप्त की। आपकी व्याख्यान शैली इतनी निराली थी कि कच्छ भुज में मानों सारा शहर ही आकर एकत्र हो जाता था। राजपरिवार भी आपका धर्मोपदेश सुनने के लिये प्रतिदिन आता था। रानीवास में प्रवचन के लिये आपको निमंत्रण दिया जाता था, रानी दिलहरकुंवरबा सहित सभी ने आपको गुरू-रूप में माना। अनेकों को आपने व्यसनों से मुक्त कराया। आपने अनेकों पुस्तकें भी लिखीं। 'साध्वी व्याख्यान निर्णय' नामकी पुस्तक आपकी तार्किक बुद्धि की परिचायिका है। संवत् 2034 में बम्बई मुलुन्ड में आपका स्वर्गवास हुआ। इनका शिष्या परिवार अत्यंत विस्तृत है- श्री सुनन्दाजी, सुमंगलाश्रीजी, ॐकारश्रीजी, कल्पलताश्रीजी, कुंजलताश्रीजी, सुनंदिताश्रीजी आदि 13 शिष्याएँ एवं सौम्यगुणाश्रीजी, सुरलताश्रीजी, सुयशा श्रीजी, राजयशाश्रीजी, स्वयंप्रज्ञाश्रीजी, वीरभद्राश्रीजी, कृतिनंदिताश्रीजी, विश्वनंदिताश्रीजी आदि प्रशिष्याएँ श्री सुनन्दाजी की शिष्याएँ हैं। 573 5.7.7 श्री आनंद श्रीजी ( संवत् 1987-2042 ) नवावास ग्राम के वेलजीभाई आसारिया तथा वेलबाई के यहाँ संवत् 1972 में जन्म लिया, संवत् 1987 फाल्गुन कृष्णा 2 को नवावास में श्री विवेक श्रीजी की शिष्या बनीं। प्रखरबुद्धि के कारण ये विविध विषयों में पारंगत बनीं। अमृतश्रीजी, आत्मगुणाश्रीजी, प्रियदर्शनाश्रीजी, भाग्योदयाश्रीजी आदि शिष्याओं को संयम की शिक्षा प्रदान की संवत् 2042 में स्वर्गवासिनी हुईं। 574 5.7.8 श्री महोदया श्रीजी ( संवत् 1990-2048 ) जन्म संवत् 1954 खंभात के सुश्रावक श्री मगनलालजी की धर्मपत्नी हरकौर की रत्नकुक्षि से हुआ । विवाह के कुछ समय पश्चात् पति का स्वर्गवास होने पर वैराग्य को बल मिला, संवत् 1990 मृगशिर कृष्णा 7 को चंदनश्रीजी की शिष्या बनीं। स्व-कल्याण के लिये इन्होंने स्वयं को तप में संलग्न किया, वैसे ही पर- कल्याण की भावना से अनेक प्रांतों में विचरण कर लोगों को धर्म में स्थिर किया, खंभात, अमदाबाद में महिला मंडल, अगासी तीर्थ में मुनिसुव्रत महिला मंडल की स्थापना की, भद्रेश्वर तीर्थ में बिना मूल्य जमीन दिलवाकर गुरू मंदिर की रचना करवाई। स्वयं की तीन शिष्याएँ बनीं। खंभात में ये स्थिरवासिनी थीं। संवत् 2048 खंभात में इनका स्वर्गवास हुआ। 575 573. वही, पृ. 820-22 574. वही, पृ. 832 575. वही, पृ. 835-37 जैन श्रमणियों का बृहद इतिहास 482 Page #545 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्वेताम्बर-परम्परा की श्रमणियाँ 5.7.9 श्री सुनन्दाश्रीजी (संवत् 1990-2049) राजस्थान रश्मि, गुर्जररत्ना के रूप में प्रख्यात परम विदुषी साध्वी श्री सुनन्दाश्रीजी का जन्म संवत् 1973 में उत्तर गुजरात प्रान्त के उनावा शहर में हुआ। संवत् 1990 फाल्गुन शुक्ला 3 को प्रवर्तिनी श्री खातिश्रीजी के चरणों में दीक्षा अंगीकार की। आगम, न्याय, व्याकरण, ज्योतिष स्वमत-परमत की ज्ञाता के साथ ही आप अप्रमत्त, दूरदर्शी गम्भीर, चिन्तक, व्यवहारकुशल, प्रखर व्याख्यात्री, दृढ़ अनुशासनकर्ती, मितभाषी एवं सौम्यप्रकृति की साध्वीरत्ना थीं। अपनी आत्म-कल्याणकारिणी साधना के साथ आपने समाज को एकसूत्र में जोड़ने के अनेक समन्वयकारी कार्य किये। अनेकों साधक तैयार किये, कइयों को निर्व्यसनी बनाया, जैन-संस्कृति की गरिमा बढ़ाने वाले तथा संस्कार निर्माण करने वाले कई शिविरों का भी आयोजन किया। आपकी प्रेरणा से कच्छ, काठियावाड़, राजस्थान, महाराष्ट्र के अनेक नगरों में मंदिरों का जीर्णोद्धार, नूतन जिनमंदिर, ज्ञानमंदिर, उपाश्रय निर्मित हुए। पचपदरा नूतन जिनमंदिर की जिन भक्ति प्रतिष्ठा महोत्सव में 1 करोड़ 30 लाख की उछामणी आपके सान्निध्य में होना आपके अद्भुत व्यक्तित्व का उदाहरण है। आपके परिवार से 13 दीक्षाएँ हुई हैं। श्री पार्श्वचंद्रगच्छ ने आपके व्यक्तित्व के विविध प्रेरणादायी पहलुओं को उजागर करने हेतु श्री नन्दिताश्रीजी के संपादकत्व में 'दर्द का रिश्ता' नामक पुस्तिका का प्रकाशन किया है। संवत् 2049 जोधपुर में समाधिपूर्वक आपने देह-त्याग किया।76 5.7.10 श्री उद्योतप्रभाश्रीजी (संवत् 2004 से वर्तमान) कच्छ-भुजपुर में जन्म लेकर संवत् 2004 में ये अपनी मासी श्री जंबूश्रीजी की शिष्या बनीं। अपनी वैयावृत्य भावना से ये सभी की प्रियपात्र रहीं। वर्तमान में अपनी 6 शिष्याओं और प्रशिष्याओं के साथ कच्छ में धर्म प्रभावना कर रही हैं।577 5.7.11 श्री बसंतप्रभाजी 'सुतेज' (संवत् 2005-2050) कच्छ की पावनधरा पर मोटी खाखर ग्राम में पिता रवजीभाई और माता वेलबाई के यहाँ जन्म लेकर आपने संवत् 2005 मृगशिर शुक्ला 6 को सुनंदाश्रीजी के पास दीक्षा ग्रहण की। दीक्षा लेते ही संस्कृत, प्राकृत, तर्कसंग्रह, काव्य आदि में विशिष्ट योग्यता अर्जित की। आपने अनेक गद्य-पद्य पुस्तकों की रचना की है। 'धर्म सौरभ, धर्म झरणां, पुण्य झरणां, सद्बोध झरणां, महावीर जीवन ज्योत आदि पुस्तकें तथा 'सुनंदा-सुतेज पुष्पमाला के 14 पुष्प प्रकाशित हुए हैं। प्रभु-भक्ति एवं प्रसंगोपात अनेक काव्यों की आपने रचना की, जिसमें 'वसंतगीत गुंजन', मन मालानां मणकां' 'सुतेज प्रसंग गीतो, सुतेज भक्ति कुंज' आदि प्रसिद्ध हैं। जैसलमेर तीर्थयात्रा में जाते हुए बाडमेर के निकट संवत् 2050 में अकस्मात् आपका स्वर्गवास हो गया। इनकी शिष्याएँ श्री बिंदुप्रभाश्रीजी, पद्मगीताश्रीजी, मनोजिताश्रीजी, पार्श्वचन्द्राश्रीजी, चारूशीलाश्रीजी तथा नम्रशीलाश्रीजी आदि हैं।578 5.7.12 श्री ॐकारश्रीजी (संवत् 2006 से वर्तमान) संवत् 1990 कच्छ-नागलपुर में जन्मी, एवं संवत् 2006 फाल्गुन शुक्ला 9 को अमदाबाद में दीक्षित हुईं। आपके पिता गोसरभाई देढिया और माता लाखणीबहन थी, श्री खांतिश्री आपकी संसारी बुआ और गुरूणी थी। 576. दर्द का रिश्ता, संपादिका-आर्या कृतिनंदिताश्री, भेरूबाग पार्श्वनाथ जैन तीर्थ, जोधपुर, वि. संवत् 2050 577. 'श्रमणीरत्नो', पृ. 834 578. वही, पृ. 825 483 Page #546 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन श्रमणियों का बृहद इतिहास ज्ञानयज्ञ के साथ विविध तपोकर्म भी आपके जीवन का मुख्य ध्येय रहा। आपने मासक्षमण, 11, 10, 9, 8 उपवास किये। आपकी प्रेरणा से मुम्बई-चेम्बूर में 'साध्वी खातिश्रीजी विद्यापीठ' की स्थापना हुई, जहाँ अनेकों साधु-साध्वी अध्ययन कर जैनधर्म का तलस्पर्शी ज्ञान अर्जित करते हैं। युगप्रधान आचार्य पार्श्वचन्द्रसूरिजी की 500वीं जन्म शताब्दी पर भव्य आयोजन देशभर में करवाने में आपकी मुख्य भूमिका रही। इसके अतिरिक्त और भी शासनप्रभावना के अनेक कार्य आप द्वारा हुए हैं। आपकी 7 शिष्याएँ -भव्यानंदश्रीजी, रम्यानंदश्रीजी, पुनीतकलाश्रीजी, निजानंदश्रीजी, पद्मरेखाश्रीजी, पुनीतकलाश्रीजी और पंकजश्रीजी हैं। तथा 15 प्रशिष्याएँ-संयमरसाश्रीजी, शासनरसाश्रीजी, सिद्धान्तरसाश्रीजी, मितानंदश्रीजी, वीररत्नाश्रीजी, पावनगिराश्रीजी, प्रशांतगिराश्रीजी, यशमालाश्रीजी, यशपूर्णाश्रीजी, पूर्णमालाश्रीजी आदि हैं।579 5.7.13 श्री सुशीलाश्रीजी (संवत् 2007-45) __ आत्मार्थिनी श्री सुशीलाश्रीजी की जन्मभूमि मांडल थी। इच्छा नहीं होने पर भी विवाह हो जाने पर इन्होंने गुप्त रूप से दीक्षा ले ली और मुक्तिश्रीजी की शिष्या बनीं। तप और जप में इनकी विशेष रूचि थी। संवत् 2045 में तप की भावना के साथ स्वर्गवासिनी हुईं। इनकी शिष्या श्री वीरात्माश्रीजी हैं।80 5.7.14 श्री सुमंगलाश्रीजी (संवत् 2008-50) ___ श्री सुनंदाश्रीजी की लघुभगिनी सुमंगलाश्रीजी का जन्म संवत् 1976 में हुआ। 12 वर्ष के विवाहित जीवन में स्वयं अपने हाथों से पति का अन्यत्र विवाह करवाकर इन्होंने संवत् 2008 माघ शुक्ला 5 को श्री सुनन्दाश्रीजी की शिष्या के रूप में दीक्षा अंगीकार की। संस्कृत काव्य और चरित्रों का विशद ज्ञान होने से समुदाय में ये 'पंडित महाराज' के नाम से प्रख्यात हुईं। ये स्वयं तपस्विनी थीं। और शिष्याओं के तप में भी सहायक बनी। संवत् 2050 अमदाबाद में इनका स्वर्गवास हुआ। इनकी एक शिष्या है-सौम्यगुणाश्री।581 5.7.15 श्री सौम्यगुणाश्रीजी (संवत् 2022-39) ये नागलपुर के लालजी हंसराजजी की सुपुत्री थीं, 21 वर्ष की वय में संवत् 2022 माघ कृष्णा 7 के दिन दीक्षा लेकर 17 वर्ष तक कठोर तपस्या की। 8, 9, 10, 12, 16, 21 उपवास, मासक्षमण, चत्तारि अट्ठ तप, सिद्धितप, बीसस्थानक तप से वर्षीतप, छ? से वर्षीतप, वर्षीतप से 40 ओली आदि तप किया। संवत् 2039 में अपने अंतिम चातुर्मास की पूर्व घोषणा कर तपस्या प्रारंभ की, 48 वें उपवास में ऊर्ध्वगति प्राप्त की।582 579. वही, पृ. 826-28 580. वही, पृ. 837 581. वही, पृ. 828-30 582. वही, पृ. 829 484 Page #547 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्वेताम्बर-परम्परा की श्रमणियाँ श्री पार्श्वचन्द्रगच्छ की अवशिष्ट श्रमणियाँ93 क्रम साध्वी नाम जन्म संवत् स्थान पिता का नाम दीक्षा संवत् दीक्षा स्थान गुरूणी नाम 1. श्री प्रमोदश्रीजी 1919 भाडिया - 1951, स्वर्ग, 1991 बिदड़ा 2. श्री कनकश्रीजी 1938 बिदड़ा 1954 फा.शु. 2, बिदड़ा (कच्छ) स्वर्ग. 2005 3. श्री दयाश्रीजी 1946 लायजा खीवंशी भाई 1961,मा.कृ.12 भुजपुर श्री प्रमोदश्रीजी स्वर्ग.2020 4. श्री जीतश्रीजी 1947 कोडाय 1964 स्वर्ग. 2005 कोडाय 5. श्री कीर्तिश्रीजी 6. श्री प्रमाणश्रीजी 1952 बिदड़ा 1967, स्वर्ग. 2033 कोडाय 7. श्री प्रीतिश्रीजी 1950 खंभात साकलचंद 1970, स्वर्ग. 2040 ध्रांगध्रा श्री प्रभाश्रीजी 8. श्री चंपकश्रीजी 1962 मुंबई 1988, स्वर्ग. 2038 नवावास 9. श्री जंबूश्रीजी 10. श्री त्रिभुवनश्रीजी 11. श्री अविचल श्रीजी - 12. श्री तत्त्वश्रीजी 1948 1996, स्वर्ग. 2033 - 13. श्री सुधाकरश्रीजी - 14. श्री सूर्य प्रभाश्रीजी 1986 2002, स्वर्ग. 2056 - 15. श्री कल्पलताश्रीजी 1977 कोंढ शा. प्रेमचंद जी 2008, मा.कृ. 14 कोंढ श्री सुनंदाश्रीजी 16. श्री हर्षप्रभाश्रीजी 1981 2009, स्वर्ग. 17. श्री इंदुप्रभाश्रीजी देशलपुर शिवजी वीरा 2009, मा.शु.5 नवीनाल श्री चंपकश्रीजी 18. श्री सुरलताश्रीजी ध्रांगध्रा केवलजी पारेख 2011, मा.शु.11 ध्रांगध्रा श्री सुनंदाश्रीजी 19. श्री पद्मप्रभाजी 2001 डोरंडा मोहनजी 2015 ज्ये.शु. 14 बीकानेर श्री अनुभवश्रीजी रामपुरिया 20 श्री आत्मगुणाजी 1994 भाडिया 2016 मृ.शु. 10 नानाभाडिया श्री आनंदश्रीजी 21. श्री सुदक्षाश्रीजी 1994 खाखर दामजीविक्रम 2018 मृ.शु. मोटीखाखर श्री सुनंदाश्रीजी 22. श्री सुव्रताश्रीजी 2002 डोरंडा मोहनजी 2018 फा.शु.2 बीकानेर श्री अनुभव श्रीजी रामपुरिया 23. श्री सुवर्णलताजी 1998 बीदडा ठाकरशी मारू 2018 पो. कृ.6 बीदड़ा श्री उद्योतप्रभाजी 24. श्री बिंदुप्रभाजी 1998 अहमदाबाद नरोत्तमदास पुदी 2018 वै.शु.3 अहमदाबाद श्री बसंतप्रभाजी 583. मुनि श्री भुवनचंद्रजी, संपादक-संघ-सौरभ, चित्र-विभाग, पृ.22-40, देशलपुर (कंठी) कच्छ 2005 ई. 485 Page #548 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन श्रमणियों का बृहद इतिहास टुन्डा मोटी खाखर श्री ॐकारश्रीजी देशलपुर श्री स्वयं प्रज्ञाजी नानीखाखर श्री चंपक श्रीजी मोटीखाखर श्री ऊँकारश्रीजी श्री आनन्दश्रीजी चैम्बूर श्री सुरलताश्रीजी मोटी खाखर श्री ऊँकारश्रीजी चैम्बूर श्री वसंतप्रभाजी श्री सुनंदाश्रीजी श्री महोदयश्रीजी नानी तुंबडी श्री ऊँकारश्रीजी A श्री पंकजश्रीजी 25. श्री पंकजश्रीजी 2003 भाडिया प्रेमजी टाईया 2018 मृ.शु. 13 26. श्री वीरभद्राजी देशलपुर शांतिभाई पंचाण 2019 वै.शु.3 27. श्री पूर्णकलाजी 2000 खाखर हंसराज सालिया 2019 वै.शु.3 28. श्री निजानंदश्रीजी 2009 तुंबडी जगशीभाई बौआ 2021 माशु.2 29. श्री प्रियदर्शनाजी 2001 मोणशी गोगरी 2022 ज्ये.शु.7 30. श्री राजयशाश्रीजी नवावास प्रेमजी मोता 2023 वै.शु.10 31. श्री पुनीतकलाजी 2009 मेराऊ देवजी फुरिया 2026 वै.शु.5 32. श्री पद्मगीताजी 2008 भाडीया डुंगरशीगाला 2027 मा. शु.5 33. श्री सुनंदिताश्रीजी 2006 खाखर दामजी भाई 2027 मा.शु.5 34. श्री ज्योतिप्रभाजी 2006 खाखर सुरजी छाडवा 2027 मृ.शु.13 35. श्री भव्यानंदश्रीजी 2017 मेराऊ देवशी फुरिया 2028 मा.श.5 36. श्री पद्मरेखाजी 2017 तुंबडी खीमजी बऊआ 2028 पो.कृ. 37. श्री तत्त्वानंदश्रीजी नाना भाडिया नरशी गाला 2028 मृ.शु.3 38. श्री विपुलानंदश्रीजी 2019 मोटी खाखर लीलाधर वोरा 2028 मृ.शु.3 39. श्री भयभंजनश्रीजी 2000 बीदडा दामजी छेड़ा 2029 मा.कृ.5 40. श्री मनोजिताश्रीजी 2009 खाखर बचुभाई विकम 2031 वै.कृ..6 श्री जयनंदिताश्रीजी 1998 कोडाय काकुभाई 2033 फा.शु.2 42. श्री मोक्षानंदश्रीजी 2014 खाखर कांतिभाई विकम 2034 वै.शु.11 43. श्री मितानंदश्रीजी 2008 भुजपुर डुंगरशीगाला 2034 वै.शु.11 44. श्री दिव्यरत्नाजी 2014 त्रगड़ी लालजी गडा 2035 वै.शु.6 45. श्री विश्वदर्शिताजी 2012 खाखर हंसराज सालिया 2035 फा.शु.2 46. श्री दिव्यदर्शिताजी 2018 खाखर हंसराज सालिया 2035 फा.शु.2 47. श्री पार्श्वचन्द्राश्रीजी 2019 खाखर बचुभाई विकम 2037 वै.शु.6 48. श्री कृतिनंदिताश्रीजी 2019 ऊनावा चीमनभाई शाह 2037 वै.शु.6 49. श्री धैर्यप्रज्ञाश्रीजी 2012 टुन्डा मुरजी गोगरी 2037 पो.कृ.5 50. श्री मरुत्प्रभाश्रीजी 2020 झझू ईश्वरजी सेठिया 2038 मृ.शु.3 51. श्री विश्वनंदिताश्रीजी 2017 भाडिया डुंगरशी गाला 2039 वै.शु.2 52. श्री विमलयशाश्रीजी 2019 देशलपुर राघवजी सावला 2039 वै.शु.13 53. श्री यशमालाश्रीजी 2021 खाखर भवानजी वोरा 2040 वै.शु.7 54. श्री विरतिरसाश्रीजी 2016 कांडागरा दामजी छेड़ा 2041 वै.शु.5 मुंबई दादर ऊनावा चेम्बूर कोडाय __चेम्बूर चेम्बूर त्रगडी नानी खाखर नानीखाखर मोटी खाखर अहमदाबाद श्री उद्योतप्रभाजी श्री वसंतप्रभाश्रीजी श्री जंबूश्रीजी श्री निजानंदश्रीजी श्री निजानंदश्रीजी श्री उद्योतप्रभाजी श्री पूर्णकलाश्रीजी श्री पूर्णकलाश्रीजी श्री वसंतप्रभाश्रीजी श्री सुनंदिताश्रीजी श्री उद्योतप्रभाश्रीजी श्री पद्मप्रभाश्रीजी श्री सुनंदिताश्रीजी श्री उद्योतप्रभाश्रीजी श्री पंकजश्रीजी श्री उद्योतप्रभाजी टुन्डा बीकानेर खंभात देशलपुर मोटी खाखर कांडागरा 486 Page #549 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्वेताम्बर-परम्परा की श्रमणियाँ गोलवड़ 55. श्री संयरसाश्रीजी 2022 खाखर लालजी छाडवा 2041 दिसं.18 56. श्री वीररत्नाश्रीजी 2025 लाकडिया धनजी भाई 2042 वै.श.7 57. श्री शासनरसाश्रीजी 2021 पालिताणा रतिलाल संघवी 2043 मई 19 58. श्री चारूशीलाश्रीजी 2025 खाखर मणिलाल विकम 2043 वै.शु. 3 59. श्री नम्रशीलाश्रीजी 2029 खाखर तलकशी गाला 2044 मा.शु.10 60. श्री सिद्धांतरसाश्रीजी 2023 गोलवड चंपकलाल पुनमिया 2045 फर.7 61. श्री चंद्रकलाश्रीजी 1992 मेराऊ करमशी गाला 2045 फर.7 62. श्री पावनगिराश्रीजी 2023 कांडागरा नागजी भाई 2045 मा.शु. 10 63. श्री विपुलगिराश्रीजी 2019 भाडिया चापशीभाई 2046 वै.शु.6 64. श्री प्रशांतगिराश्रीजी 2026 भुजपुर वशनजी भेदा 2047 मा.कृ. 14 65. श्री नंददक्षाश्रीजी 2024 अहमदाबाद भमेश शाह 2047 वै.शु.13 66. श्री हितदर्शनाश्रीजी 2025 भाडिया प्रेमजी मारु 2048 वै.शु.5 67. श्री संवेगरसाश्रीजी 2034 भाडिया नानजी मारु 2052 जन. 24 68. श्री मैत्रीकलाश्रीजी 2045 खाखर बल्लभजी गाला 2053 जन. 24 69. श्री दर्शितप्रज्ञाश्रीजी 2025 कोडाय खीमजी बोरिया 2053 मा.शु.3 70. श्री मोक्षव्रताश्रीजी 2030 भुजपुर कांतिलाल गोसर 2053 जन. 24 चेम्बुर श्री भव्यानंदश्रीजी अहमदाबाद श्री निजानंदश्रीजी विक्रोली श्री भव्यानंदश्रीजी मोटी खाखर श्री पद्मगीताश्रीजी नानीखाखर श्री पद्मगीताश्रीजी श्री भव्यानंदश्रीजी चेम्बूर श्री ॐकारश्रीजी थाणा श्री पद्मरेखा श्रीजी नाना भाडिया श्री जयनंदिताश्रीजी पालिताणा श्री पद्यरेखाश्रीजी राजनगर श्री सुदक्षाश्रीजी तीथल श्री प्रियदर्शनाश्रीजी थाणा श्री संयमरसाश्रीजी थाणा श्री पुनीतकलाश्रीजी श्री पार्श्वचंद्राश्रीजी थाणा श्री मोक्षानंद श्रीजी चेम्बुर 5.8 प्रशस्ति-ग्रंथों व हस्तलिखित प्रतियों में श्वेताम्बर मूर्तिपूजक श्रमणियाँ 5.8.1 महानंदश्री महत्तरा और वीरमती गणिनी (संवत् 1175) संवत् 1175 में सिद्धराज जयसिंह के राज्य-काल में मलधारी श्री हेमचन्द्रसूरि ने 'विशेषावश्यक भाष्य' की 37 हजार श्लोक प्रमाण जो 'शिष्यहिता' नाम की विस्तृत और महत्त्वपूर्ण टीका बनाई, उसमें सहयोगी बनने वाले 7 व्यक्तियों में उक्त दो विदुषी श्रमणियों का उल्लेख स्वयं ग्रंथकार ने किया है। 84 टीका के अंत में दोनों साध्वियों का नामोल्लेख करते हुए यह भी लिखा है, कि उन्हें सूरिजी ने अपने शिष्यों के साथ विशेष अध्ययन करने के लिये धारानगरी में भेजा था।585 धारानगरी उस समय उच्चस्तरीय विद्या का केन्द्र थी। इससे स्पष्ट है, कि उस समय साध्वियाँ उच्चकोटि का अध्ययन कर जैनाचार्यों के साथ धर्मचर्चा एवं साहित्य सर्जना में सहयोगी बनती थीं। 5.8.2 आर्यिका श्री मरूदेवी (संवत् 1179) संवत् 1179 पाटन में महामात्य आशुक के काल में संघ ने इनके लिये यक्षदेव से ताड़पत्र पर 'उत्तराध्ययन सूत्र' लिखवाया। उस समय “चेल्लिका बालमती गणिनी" भी इनके साथ थी।586 584. पं. ब्र. चंदाबाई अभिनंदन ग्रंथ, नाहटाजी का लेख, पृ. 572-63 585. डॉ. ही. बोरदिया, जैनधर्म की प्रमुख साध्वियाँ एवं महिलाएं, पृ. 193 586. जैनशासन नां श्रमणीरत्नों, पृ. 16 487 Page #550 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 5.8.3 गणिनी श्री देवश्री (संवत् 1191 ) संवत् 1191 में राजा सिद्धराज जयसिंह के मंत्री गांगिल के काल में आचार्य महेश्वरसूरि द्वारा रचित 'पुष्पवई कहा' की प्राकृत - अपभ्रंश भाषा में ताड़पत्र पर आलेखित प्रति उक्त साध्वी जी के लिये लिखी गई थी। उसकी फोटो कापी 'पाटण जैन ग्रंथ भंडार' (गा. ओ. सि. नं. 76) में है। 587 5.8.4 श्री परमश्री महत्तरा ( संवत् 1192 ) उपदेशमाला प्रकरण के कर्त्ता धर्मदासगणि है। इस ग्रंथ की शब्दार्थ सह गुजराती भाषा की प्राचीन हस्तलिखित प्रति में ‘परमश्री महत्तरा' एवं 'शांतिवल्लरी गणिनी' का नामोल्लेख हुआ है। गाथा 543 व पत्र संख्या 24 है। इसमें उनके गच्छ आदि का उल्लेख नहीं है। यह प्रति जिनभद्रसूरि कागळ नो हस्त. भंडार, ग्रंथांक 1018 पर संग्रहित है। 588 जैन श्रमणियों का बृहद इतिहास 5.8.5 साध्वी श्री लक्ष्मी (संवत् 1192 ) चैत्यवासी ब्रह्माणगच्छ से संबद्ध 'नवपदप्रकरण' की वि. संवत् 1192 की दाता - प्रशस्ति में साध्वी मीनागणिनी की शिष्या नंदागणिनी उसकी शिष्या 'लक्ष्मी' का नामोल्लेख है। विमल आचार्य के एक श्रावक आंबवीर से 'नवपदलघुवृत्ति' तैयार करवाकर समस्त श्राविकाओं ने ज्ञानपंचमी तप की आराधना की पूर्णाहूति पर साध्वी लक्ष्मीजी को यह प्रति अर्पित की। ताड़पत्र की यह प्रति पाटण जैन ज्ञान भंडार (140) में है 1589 5. 8.6 प्रवर्तिनी श्री मियावई " मृगावती” ( 12वीं सदी) जैसलमेर में लोंकागच्छीय भंडार की ताड़पत्रीय चार प्रतियों में भगवती सूत्र की प्रति में 'मियावई का उल्लेख है। यह सूत्र अनुमान से विक्रम की 12वीं सदी का है इसका ग्रन्थाग्र 15600 है। पत्र संख्या 422 के अंत में तीन शोभन अति सुंदर हैं। 590 5. 8.7 साध्वी श्री ज्ञानश्री ( 12वीं सदी) आपने 'न्यायावतार सूत्र' की टीका संस्कृत भाषा में लिखी थी। 'न्यायावतार सूत्र वृत्ति टिप्पणी सह' में वृत्ति कर्त्ता के रूप में सिद्ध साधु का तथा टीकाकर्त्री के रूप में ज्ञानश्री आर्यिका का नाम है। इसकी पत्र संख्या 1 से 137 तक है। जिनभद्रसूरि ताड़पत्रीय ग्रंथ भंडार, जैसलमेर दुर्ग में ग्रंथांक 364 पर यह प्रति सुरक्षित है | 591 5. 8.8 गणिनी श्री अपराश्री (संवत् 1227 ) कुमारपाल राजा के समय राहड़ नामक एक श्रावक ने संवत् 1227 में 'शांतिनाथ चरित्र' की रचना की, 587. ऐतिहासिक लेख संग्रह, पृ. 338 588. मुनि जंबूविजयजी, जैसलमेर प्राचीन ग्रंथ भंडार सूची, परिशिष्ट 13 पृ. 599,608 589. जैन पुस्तक प्रशस्ति संग्रह, पृ. 103 590. जैसलमेर ग्रंथ सूची, परिशिष्ट 13, पृ. 603 591. मुनि जम्बूविजयजी, जैसलमेर, प्राचीन ग्रंथ भंडारों की सूची, पृ. 39 488 Page #551 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्वेताम्बर-परम्परा की श्रमणियाँ उसमें गणिनी अपराश्री का उल्लेख किया गया है। इसकी एक ताड़पत्र प्रति (संख्या 112) संघवी पाटण जैन ज्ञान भंडार में सुरक्षित है।592 5.8.9 श्री अजितसुंदरी गणिनी (संवत् 1258) _आप हर्षपुरी गच्छ के मलधारी की आज्ञानुवर्तिनी साध्वी थीं। आपने संवत् 1258 श्रावण शुक्ला 7 सोमवार को पाटन में 'श्री सित्तरी-भाष्य' लिखवाया। पाटण जैन ज्ञान भंडार में इसकी ताड़पत्रीय प्रति (140) अवस्थित है।593 5.8.10 श्री जगसुन्दरगणिनी (संवत् 1265) संवत् 1265 ज्येष्ठ शुक्ला 5 रविवार को श्रीमालवंशीय धांधापुत्र देवकुमार ने अपनी मातुश्री धनदेवी के श्रेयार्थ 'श्री दशवैकालिकसूत्रम्' ताड़पत्र पर लिखवाकर अपनी भगिनी साध्वी जगसुन्दरगणिनी को पठनार्थ अर्पित की। यह उल्लेख सूत्र की प्रशस्ति में है। प्रति (श्री उ. फो. जै. ध.) अमदाबाद में (संख्या 4683) है।594 5.8.11 गणिनी श्री निर्मलमति (संवत् 1292) आप धर्कटवंश के श्रेष्ठि 'गणिया' और श्रेष्ठिनी 'गुणश्री' की सुपुत्री थीं। आपने आचार्य प्रद्युम्नसूरि के मुखारविन्द से 'महत्तरा प्रभावती' के पास पंच महाव्रत ग्रहण किये थे। संवत् 1292 कार्तिक शुक्ला 8 रविवार धनिष्ठा नक्षत्र में आपने आचार्य हेमचन्द्रसूरि की सटीक 'योगशास्त्र' की दो प्रतियाँ लिखकर मानतुंगसूरि के पट्टधर पद्मदेवसूरि को अर्पित की थी।595 आचार्य प्रद्युम्नसूरि के समुदाय में महत्तरा साध्वी प्रभावती महत्तरा जगश्री, महत्तरा उदयश्री, महत्तरा चारित्रश्री आदि अन्य भी प्रभावशालिनी विदुषी महाश्रमणियाँ थीं। यह उल्लेख पाटण के जैन ज्ञान भंडार की ताड़पत्रीय प्रति 9 में भी किया गया है।96 5.8.12 रत्नश्री गणिनी (वि. संवत् 1300) आप 'याकिनी महत्तरा' के समान ही एक बहुश्रुती प्रभावशालिनी विदुषी साध्वी थीं। चन्द्रगच्छ के श्री हरिभद्रसूरि के शिष्य सिद्धसारस्वत आचार्य बालचन्द्रसूरि ने 'वसन्तविलास' महाकाव्य; जो संवत् 1300 में रचित है; उसमें अपने को इस महान श्रमणी का 'धर्मपुत्र' कहा है। आचार्य बालचन्द्र उच्चकोटि के विद्वान् थे, उन्होंने विवेकमंजरी, उपदेश कंदली आदि कृत्तियाँ वसंतविलास महाकाव्य (मंत्रीश्वर वस्तुपाल चरित्र) करूणा वज्रायुध जैसे नाटक भी लिखे हैं।97 592. अ. म. शाह., प्रशस्ति संग्रह, पृ. 72 593. अ. म. शाह., श्री प्रशस्ति संग्रह, पृ. 84 594. अ. म. शाह, प्रशस्ति-संग्रह, पृ. 6, ता. प्र. 10 595. 'श्रमणीरत्नो', पृ. 13 596. अ. म. शाह, प्रशस्ति संग्रह, पृ. 5 597. (क) ऐति. लेख संग्रह, पृ. 338, (ख) ही. र. कापड़िया, जैन संस्कृत साहित्य का इतिहास भाग 2, पृ. 126 489 Page #552 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन श्रमणियों का बृहद इतिहास 5.8.13 श्री जगमतगणिनी (संवत् 1300) धर्मबिन्दु प्रकरण नामक हरिभद्रसूरि के ग्रन्थ की मुनिचंद्रसूरि द्वारा संवत् 1300 में की गई ताड़पत्रीय वृति में जगमतगणिनी के नाम का उल्लेख मिलता है।598 5.8.14 श्री ललितसुन्दरगणिनी (संवत् 1313) संवत् 1313 चैत्र शु. 8 रविवार महाराजधिराज श्री वीसलदेव कल्याणविजय के राज्य में नियुक्त श्री नागड़ महामात्य ने समस्त संसारी कार्यों को छोड़कर धक्कलनगर में ललितसुंदरीगणिनी से ज्ञानपंचमी पुस्तिका लिखवाई। यह ताड़पत्रीय प्रति संघवी पाडा जैन ज्ञान भंडार पाटण में संख्या 121 पर है।599 5.8.15 श्री विजयलक्ष्मी आदि साध्वियाँ (संवत् 1384) बृहद्गच्छीय श्री वादींद्रदेवसूरि की परंपरा के श्री वयरसेणसूरि ने साध्वी विजयलक्ष्मी, पद्मलक्ष्मी एवं चारित्रलक्ष्मी की अभ्यर्थना पर सभी आचार्य, उपाध्याय एवं प्रमुख साधुओं के वाचनार्थ 'श्री शांतिनाथ चरित्र' संवत् 1384 आसोज शु. 13 सोमवार के दिन लिखा। यह ताड़पत्रीय प्रति संघवी पाडा जैन ज्ञान भंडार पाटण संख्या 108 में है।600 5.8.16 श्री सुंदरीजी (संवत् 1384) आपकी विनंती पर आचार्य वज्रसेनसूरि ने स्वश्रेय एवं परश्रेयार्थ संवत् 1384 आश्विन शुक्ल 1 सोमवार को श्रीमाल नगर में 'शांतिनाथ चरित्र' लिखा था।601 5.8.17 श्री महिमागणिनी (14वीं सदी) "श्री शतकचूर्णि टिप्पनकम्" ग्रंथ की ताड़पत्रीय प्रति में उल्लेख है कि यह प्रति श्री महिमागणिनी के पठनार्थ लिखी गई है। रचनाकार एवं लिपिकार का नाम प्राप्त नहीं हुआ। उक्त प्रति श्री संघवी पाडा जैन ज्ञान भंडार पाटण (संख्या 125) में है।002 5.8.18 श्री राजलब्धिगणिनी (संवत् 1505) 'शत्रुजय महातीर्थ स्तवन वृत्ति सहित' की प्रतिलिपि टीकाकार जयचंद्रसूरि ने संवत् 1505 में राजलब्धि गणिनी हेतु तैयार की।603 इसकी एक प्रति बी. एल. इन्स्टीट्यूट, दिल्ली में है, तथा इसका दूसरा पत्र वहाँ के शोकेश में है। 598. जैसलमेर के प्राचीन जैन ग्रंथ भण्डारों की सूची परिशिष्ट-13, क्रमांक 592 599. अ. म. शाह., श्री प्रशस्ति-संग्रह, पृ. 80 600. श्री प्रशस्ति संग्रह, पृ. 70 601. संपादिका साध्वी विजयश्री, महासती केसरदेवी गौरव ग्रंथ, पृ. 280 602. श्री प्रशस्ति संग्रह, पृ. 81 603. डॉ. शितिकंठ मिश्र, हिंदी जैन साहित्य का इतिहास, भाग-2 पृ. 495-96 490 Page #553 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्वेताम्बर - परम्परा की श्रमणियाँ 5.8.19 श्री विनयचूलागणिनी ( संवत् 1513 ) आप श्री हेमरत्नसूरि की धर्मपरायणा एवं शास्त्रज्ञा विदुषी साध्वी थीं। आपने संवत् 1513 में 'श्री हेमरत्न सूरि गुरू फागु' नाम की 11 कड़ी में काव्य रचना की, उसमें हेमरत्नसूरि का परिचय दिया गया है। काव्य में विनय चूला गणिनी की प्रशस्ति होने से ऐसा लगता है कि विनयचूला इसकी कर्त्ता न होकर उसके आग्रह से यह रचना 22 गाथा में रची हो, अंत में लिखा भी है-' इति श्री हेमरत्नसूरि गुरू फागु विदुषी विनयचूलागणिनिर्बंधेन कृतम्।' श्री अभय जैन ग्रंथालय बीकानेर में इसकी हस्तप्रति मौजुद है 1604 5. 8.20 श्री महीमलक्ष्मी गणिनी ( संवत् 1514 ) संवत् 1514 में साध्वी महीमलक्ष्मी ने 'पिंडविशुद्धि दीपिका की टीका' (रचना संवत् 1295, उदयसिंहसूरि कृत संस्कृत टीका) की प्रतिलिपि की । यह प्रति बी. एल. इन्स्टीट्यूट वल्लभ स्मारक, दिल्ली (परिग्रहण संख्या 3066) में है। 5. 8.21 गणिनी श्री सुमतिलब्धि ( संवत् 1517 ) संवत् 1517 में श्री भावराजगणि की 'उत्तमकुमार चरित्र' की प्रतिलिपि कर श्रीपत्तन नगर में गणिनी सुमतिलब्धि को पठनार्थ प्रदान की। यह प्रति श्री जैन विद्याशाला ज्ञानभंडार अमदाबाद में है 1605 5.8.22 श्री मतिकला साध्वी ( संवत् 1519 ) संवत् 1519 फाल्गुन शु. 11 को जिनपद्मसूरिरचित 'नेमिनाथ फागु' मतिकला साध्वी के लिये आशापल्ली में लिपिकृत किया गया। 606 5. 8. 23 श्री सहजलब्धि गणिनी ( संवत् 1530 ) संवत् 1530 मार्गशीर्ष शुक्ला सोमवार को श्री लक्ष्मीसुंदरगणिनी की शिष्या सहजलब्धिगणिनी द्वारा 'आवश्यक निर्युक्ति' की प्रतिलिपि करने का उल्लेख है। यह प्रति संघवी ज्ञान भंडार पाटण में है 1607 5.8.24 साध्वी श्री पद्मश्रीजी ( संवत् 1540 ) इनके गुरू व गच्छ का नाम अज्ञात है । नेमिचरित्र के आधार से आप द्वारा रचित 'चारूदत्त चरित्र' की प्रति संवत् 1626 की उल्लिखित है । अन्यत्र इस रचना का समय संवत् 1540 के लगभग बताया है। 608 इसकी भाषा प्राचीन गुजराती है व पद्य संख्या 254 है। इसमें प्रायः चौदह छंदों का प्रयोग हुआ है, इससे ज्ञात होता है कि आप 604. पूर्वोक्त, हिंदी जैन साहित्य का इतिहास, भाग-2 पृ. 495-96 605 श्री प्रशस्ति संग्रह, पृ. 22, प्रशस्ति 95 606. जै. गु. क. भाग 1, पृ. 17 607. प्रशस्ति संग्रह, प्रशस्ति 143, पृ. 33 608. हिं. जै. सा. इति. भाग 2, पृ. 145 491 Page #554 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन श्रमणियों का बृहद इतिहास काव्य, छंद की ज्ञाता पंडिता साध्वीजी थीं। शेठ देवचंद लालचंद पुस्तकोद्धार लायब्रेरी नं. 1125 सूरत में यह प्रति संग्रहित है 1009 5.8.25 साध्वी पल्हणश्रीजी ( संवत् 1587 के लगभग ) आप हुमायु बादशाह के काल में हुई थी, एवं मेघचन्द्र श्री की शिष्या थीं। आप अपने समय की एक प्रभावशालीनि साध्वी थीं, जिनके सान्निध्य में अनेक श्राविकाओं ने दीक्षा ग्रहण कर धर्म साधना की। गृहस्थ शिष्याओं की यह नई परम्परा कफी समय तक चलती रही। आप द्वारा स्थापित इन गृहस्थ परम्परा की शिष्याओं में प्यारीबाई, गौरीबाई, सविरीबाई सुरसरीबाई आदि उल्लेखनीय हैं। इसी परम्परा की एक शिष्या तंबोलीबाई ने 'चौबीस ठाणे की संचिका' लिखवाई। आर्यिका पल्हणश्री द्वारा स्थापित यह नई परम्परा काफी समय तक चलती रही। इन सब शिष्याओं का उल्लेख सोनीपत में लिखे गये एक गुटके में है 1 610 5. 8.26 चंद श्री महत्तरा साध्वी ( 16वीं सदी) आपके वैदुष्य का उल्लेख श्री लावण्यभद्रगणी के शिष्य ने 'सित्तरि बालावबोध' की प्रशस्ति में किया है, उन्होंने लिखा है- “ चंद महत्तरा ..... महासती ने सित्तरी गाथा कही, उस पर नियुक्तिकार ने स्वमति से 19 गाथा और बनाकर 89 गाथा कही, मैंने सित्तरी गाथा का बालावबोध स्वपरोपकार हेतु संक्षेप में लिखा है । " 'सित्तरि प्रकरण' मूल प्राकृत में चंद महत्तरा की श्रेष्ठ कृति कही जा सकती है, जिस पर पश्चाद्वर्ती आचार्यों ने नियुक्ति व बालावबोध लिखा। मूल कृति प्राकृत में है। इसकी हस्तप्रति संवत् 16 वर्षे फाल्गुन कृ. 8 रवि की 'इंडिया ऑफिस लायब्रेरी, संख्या 1032 में है | 1 | 5.8.27 श्री दूला आर्या (16वीं सदी) भव विरक्त, तपस्विनी, निरासक्त, सुविनीत, श्रुतदेवी सदृश इस साध्वी की प्रार्थना से कवि 'धाहिल' ने प्राकृत अपभ्रंश मिश्रित भाषा में 'पउमसिरि (पद्मश्री) चरित्र रचा है। उसकी प्रति पाटन जैन भंडार में है 1 0 1 2 5.8.28 श्रीमदनसुंदरी, भावसुंदरी ( 16वीं सदी) श्रेष्ठी आहड़ की चन्द्र नामक पत्नी से आसराज, श्रीपाल, धांधक, पद्मसिंह, ललिता एवं वास्तुदेवी ये 6 संतान पैदा हुई । वास्तुदेवी की पुत्री मदनसुंदरी और पद्मसिंह की पुत्री भावसुंदरी का साध्वी कीर्तिगणिनी के पास प्रव्रज्या अंगीकार करने का उल्लेख प्राप्त होता है । 13 609. (क) जै. गु. क. भाग 1 पृ. 160 610. डॉ. ही. बोरदीया, जैनधर्म की प्रमुख साध्वियाँ एवं महिलाएं, पृ. 200 611. जै. गु. क., भाग 3, पृ. 560 612. ऐति. लेख संग्रह, पृ. 338 613. जिनशासन नां श्रमणीरत्नों, पृ. 14 492 Page #555 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्वेताम्बर-परम्परा की श्रमणियाँ 5.8.29 श्री चंदनबाला गणिनी (16वीं सदी) श्रेष्ठी सोलाक की लक्षणा पत्नी से 6 संतान पैदा हुई थीं-उदय, चंद्र, चांदाक, रत्न, वाल्हाकदेवी और घाल्हीदेवी। चंद्र ने दीक्षा ली वे उदयचन्द्रसूरि के नाम से प्रख्यात हुए। बाल्हाकदेवी का पुत्र आचार्य ललितकीर्ति बना। चांदाक के पौत्र एवं पौत्री ने दीक्षा ली, वे पंन्यास धनकुमारगणि एवं चन्दनबाला गणिनी के रूप में प्रसिद्ध हुए।614 5.8.30 प्रवर्तिनी श्री अचललक्ष्मी (16वीं सदी) श्री प्रतिष्ठालक्ष्मी महत्तरा साध्वी की शिष्या अचललक्ष्मी के लिये पं. विजयमूर्तिगणि ने 'तेतलीमंत्रीरास' (रचना संवत् 1595) की प्रतिलिपि करके दिया। प्रति विजय नेमीश्वर भंडार, खंभात में है।615 5.8.31 साध्वी श्री इंद्राणी (16वीं सदी) अंचलगच्छ के वाचक लाभमंडन रचित "धनसार पंचशील रास" (संवत् 1583) की प्रति साध्वी इंद्राणी के लिये दी गई, यह लींबड़ी भंडार में है।616 5.8.32 साध्वी श्री जयश्री (संवत् 1601) बृहद्तपागच्छ के भट्टारक श्री धर्मरत्नसूरि के शिष्य श्री सौभाग्यमंडनगणि ने साध्वी जयश्री के पठनार्थ संवत् 1601 कार्तिक कृ. 3 गुरूवार को 'श्री बलभ्रद यशोभद्र प्रबंध' लिखकर दिया। यह प्रति आचार्य विजयनीतिसूरि ज्ञान भंडार खंभात में है।617 5.8.33 आर्या श्री मूली (1609) इनका सूत्रकृतांग सूत्र (द्वि. श्रु.) सटिप्पण मरूगुर्जर भाषा में प्रतिलिपि किया हुआ बी. एल. इन्स्टीट्यूट दिल्ली (परि. 2627) में संग्रहित है। आर्या मूली का ही 'कर्मग्रन्थ षष्ठ का बालावबोध' जो मरूगुर्जर भाषा का है, वह प्रतिलिपि किया हुआ बी. एल इन्स्टीट्यूट (परि. 4469) में है। प्रतिलिपि का समय संवत् 1609 उल्लिखित है। 5.8.34 गणिनी श्री रत्नशोभा (संवत् 1610) पूर्णिमागच्छ के श्री धर्मदेवसूरि का 'अजापुत्र रास' संवत् 1610 चै. शु. 11 बुधवार को गणिनी विजयशोभा की शिष्या गणिनी रत्नशोभा के पठनार्थ लिखे जाने का उल्लेख है। इसकी प्रति विजयनेमिसूरीश्वर ज्ञान मंदिर खंभात (नं. 3341) में है।618 614. वही, पृ. 14 615. जै. ग. क. भाग 1, प. 261 616. जै. गु. क. भाग 1, पृ. 280 617. श्री प्रशस्ति-संग्रह, प्रशस्ति 362, पृ. 99 618. जै. गु. क. भाग 1, पृ. 206 493 Page #556 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन श्रमणियों का बृहद इतिहास 5.8.35 साध्वी श्री प्रतापश्री (संवत् 1619) अकबर जलालुद्दीन के राज्य में श्री अंचलगच्छीय उपाध्याय भानुलब्धि ने संवत् 1619. को मेवात मंडल के तिजारा नगर में साध्वी चन्द्रलक्ष्मी की शिष्या प्रतापश्री को 'ज्ञानपंचमी कथा' लिखकर पठनार्थ प्रदान की। यह प्रति श्री कांतिविजय शास्त्र संग्रह, वडोदरा में है।19 5.8.36 साध्वी श्री सहिज श्री (संवत् 1629) संवत् 1629 आश्विन शु. 12 गुरूवार को पं. श्री श्री देवविजयजी ने अपनी शिष्या साध्वी सहिजश्री के पठनार्थ 'श्री रायपसेणी सूत्रम्' लिखा। यह प्रति जैन संघ ज्ञान भंडार सीनोर में है।620 5.8.37 साध्वी श्री हंसलक्ष्मी (संवत् 1629) ऋषि सोमजी ने संवत् 1629 श्रा. शु. 5 रविवार को आशापल्ली में 'महीपाल नो रास' की प्रतिलिपि कर श्री हंसलक्ष्मी को पढ़ने के लिये दी। यह प्रति सीमंधर स्वामी भंडार सूरत में है। 21 5.8.38 प्रवर्तिनी श्री सत्यलक्ष्मी (संवत् 1637) __ऋषि सोमा ने संवत् 1637 में तपागच्छीय सुमतिमुनि रचित (संवत् 1601) की 'अगडदत्तरास' की प्रतिलिपि छकड़ी पाटक में गणिनी सत्यलक्ष्मी के वाचनार्थ दी। प्रति लिंबड़ी भंडार में है।622 5.8.39 साध्वी श्री सौभाग्यमाला (संवत् 1648) ___पंडित सुमतिसुंदर ने संवत् 1648 माघ शु. 2 सोमवार को नायल नागेन्द्रगच्छ के श्री ज्ञानसागर रचित 'सिद्धचक्ररास' (संवत् 1531) की प्रतिलिपि साध्वी सौभाग्यमाला को पठनार्थ दी।623 5.8.40 साध्वी श्री सूरश्री (संवत् 1663) बृहत्तपागच्छीय श्री पार्श्वचन्द्रसूरि की '29 भावना' (संवत् 1601) को वाचक विमलहर्षगणि जसविजय ने संवत् 1663 मृगशिर शु. 9 को लिखकर सूरश्री के पठनार्थ दी। यह प्रति हालाभाई मगनभाई पाटण भंडार (दाबड़ो 48) में है।624 5.8.41 साध्वी श्री नाथी (संवत् 1669) शुभवर्धनशिष्य रचित 'गजसुकुमाल ऋषि रास' (रचना संवत् 1591) को संवत् 1669 पोष शु. 3 मंगलवार को मेधा ने साध्वी नाथा के पठनार्थ लिखा। यह प्रति गुलाबविजय पंन्यास भंडार खंभात में है।625 619. श्री प्रशस्ति-संग्रह, प्रशस्ति 437, पृ. 115 620. श्री प्रशस्ति संग्रह, प्रशस्ति 417, पृ. 124 621. जै. गु. क., भाग 1, पृ. 219 622. जै. गु. क. भाग 2 623. जै. गु. क. भाग 1, पृ. 139 624. जै. गु. क. भाग 1 पृ. 302 625. जै. गु. क. भाग 1, पृ. 320 494 Page #557 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्वेताम्बर - परम्परा की श्रमणियाँ 5.8.42 साध्वी श्री वकत्तु (संवत् 1676 ) 'जिनभद्रसूरि कागळ नो हस्तलिखित ग्रंथ भंडार' में संवत् 1976 का भगवती सूत्र, लिपिकृत है उसमें वकत्तु साध्वी के नाम का उल्लेख है। 26 5.8.43 साध्वी श्री वा (मा) णबाई (संवत् 1696 ) आंचलगच्छ के मूलावाचक की कृति 'गजसुकुमाल चौपाई' (संवत् 1624 ) की प्रतिलिपि उक्त साध्वीजी के पठनार्थ संवत् 1696 में तैयार की गई । प्रति कलकत्ता संस्कृत केटेलोग, वोल्यूम 10 ( नं. 98, नं. 206-7 ) में है 1627 5.8.44 साध्वी श्री वाहला ( संवत् 1696 ) इनके पठनार्थ 'नेमिराजुल लेख चौपाई' (संवत् 1684) विद्याविजय रचित संवत् 1696 को आगरा में तैयार की। प्रति जिनचारित्रसूरि संग्रह (पो. 83 नं. 2162 ) में है। 628 5.8.45 साध्वी श्री हेमी (17वीं सदी) उपकेशगच्छ के विनयसमुद्रसूरि रचित 'शत्रुंजय स्तवन' थंभण पार्श्वस्तवन, पार्श्व दस भव स्तवन (संवत् 1583 के आसपास) साध्वी हेमी के पठनार्थ तैयार की गई प्रप्ति 17वीं सदी की है। प्रति मोतीचंद खजानची संग्रह में है। 029 5.8.46 साध्वी श्री मानलक्ष्मी ( 17वीं सदी) तपागच्छीय श्री लावण्यसमय रचित 'नव पल्लव पार्श्वनाथ स्तवन' (संवत् 1558) की प्रतिलिपि साध्वी मानलक्ष्मी को पठनार्थ दी गई। यह प्रति मुनि पुण्यविजयजी संग्रह एल. डी. विद्यामंदिर अमदाबाद ( नं. 1978) में है 10630 5.8.47 साध्वी श्री रत्नसुंदरी ( 17वीं सदी) श्री सुधर्मरूचि रचित 'आषाढ़भूति मुनि चौपई' श्री ज्ञानसोम ने रत्नसुंदरी के पठनार्थ लिपि की 31 5.8.48 आर्या श्री सोमा ( संवत् 1709 ) श्री समरचंद शिष्य नारायण की श्रेणिकरास दो खंड श्रीमाली ज्ञाती शाह आणंदजी की बहिन आर्या श्री 626. जैसल. ग्रं. सू. परि. 13 पृ.606 627. जै. गु. क. भाग 2, पृ. 137 628. जै. गु. क. 3, पृ. 259 629. जै. गु. क. भाग 1, पृ.449 630. जै. गु. क. भाग 1, पृ. 169 631. राजस्थानी हिंदी हस्तलिखित ग्रंथ सूची, भाग 4, 495 Page #558 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन श्रमणियों का बृहद इतिहास सोमा ने लिपि की, विमलदास ने संवत् 1709 में इसे पूर्ण किया। प्रति 'शेठ आणंदजी कल्याणजी नी पालीताणा नी पेढ़ी' में है 1632 5.8.49 साध्वी श्री पद्मलक्ष्मी ( संवत् 1710 ) तपागच्छ के आचार्य लक्ष्मीरत्नसूरि के शिष्य की 'सुरप्रियऋषि रास' ( 17वीं सदी) की प्रतिलिपि संवत् 1710 में साध्वी पद्मलक्ष्मी ने की। यह प्रति सीमंधर स्वामी भंडार, सूरत (दा. 24 ) में मौजूद है। 633 5.8.50 साध्वी श्री लावण्यलक्ष्मी (संवत् 1712 ) साध्वी लावण्यलक्ष्मी ने अज्ञातकविकर्तृक 'षडावश्यक बालावबोध' को संवत् 1712 भाद्रपद कृ. 2 मंगलवार को दीसा ग्राम (गु.) में लिखा 1634 इन्हीं की 1723 की एक प्रतिलिपि 'नवतत्त्व प्रकरण सस्तबक' प्रेमबाई पठनार्थ लिखी हुई मिलती है। 635 दोनों प्रतियां प्रवर्तक श्री कांतिविजय भंडार, नरसिंहजी ने पोल वड़ोदरा में है। 5. 8.51 साध्वी श्री जयंत श्री ( संवत् 1721 ) संवत् 1721 फाल्गुन शु. 2 मंगलवार को खम्भात में 'श्री प्रत्याख्यान आगार' साध्वी जयंतश्री के वाचनार्थ लिखा गया। प्रति कांतिविजय संग्रह छाणी में सुरक्षित है। 636 5.8.52 साध्वी श्री माणिक्य श्री (संवत् 1727 ) साध्वी माणिक्यश्री के कहने से पं. नित्यविजय गणि ने सिरोही निवासी रूपा से संवत् 1727 द्वि. वैशाख कृ. 2 मंगलवार को 'नवस्मरण स्तबक' की प्रतिलिपि श्राविका कल्याणबाई के पठनार्थ करवाई। प्रति नित्यविजय लायब्रेरी चाणस्मा में है। 637 5.8.53 आर्या श्री लीलाजी (संवत् 1733 ) नागोरगच्छीय त्रिक्रममुनि रचित 'बंकचूल नो रास' (संवत् 1706) पं. शांतिविजयगणि ने संवत् 1733 फाल्गुन शु. पूर्णमासी को उदयपुर में आर्या लाछां जी की शिष्या आर्या लीलाजी के पठनार्थ प्रतिलिपि किया। प्रति अनंतनाथजी नु मंदिर मांडवी मुंबई' के भंडार में है। 638 632. जै. गु. क. भाग 3, पृ. 247 633. जै. गु. क. भाग 1, पृ. 245 (ख) प्रशस्ति संग्रह, पृ. 240, 896 634. जै. गु. क. भाग 5, पृ. 37 635. प्रशस्ति संग्रह, पृ. 234, प्र. 873 636. प्रशस्ति संग्रह, पृ. 231, प्र. 859 637. (क) जै. गु. क. भाग 5, पृ. 378, 638. जै. गु. क. भाग 3, पृ. 340 496 क्रमांक 2026, ग्रंथांक 14523 Page #559 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्वेताम्बर - परम्परा की श्रमणियाँ 5.8.54 साध्वी श्री प्रेमलक्ष्मी ( संवत् 1735 ) तपागच्छीय देवीदास (द्विज) के 'महावीर स्तोत्र' (संवत् 1611) को पं. भावसागर ने साध्वी प्रेमलक्ष्मी के वाचनार्थ लिपि किया। प्रति अभय जैन ग्रंथालय बीकानेर (नं. 2169) में है 1 539 5.8.55 साध्वी श्री लाला ( संवत् 1744 ) पार्श्वचन्द्रगच्छ के ब्रह्ममुनि रचित 'अढार पाप स्थान परिहार भास' ( भाषा) की प्रतिलिपि संवत् 1744 वैशाख शु. 13 बुधवार को साध्वी लाला के पठनार्थ इलमपुर में तैयार की। यह जिनचारित्रसूरि संग्रह (पो. 83, नं. 2154) में है। 640 5.8.56 साध्वी श्री प्रेमश्री (संवत् 1745 ) अंचलगच्छ के श्री ज्ञानसागर कृत 'इलायचीकुमार चौपाई (संवत् 1719 ) की प्रतिलिपि नित्यविजयगणि ने साध्वी माणिक्यश्री की शिष्या साध्वी प्रेमश्री के वचनों से संवत् 1745 वैशाख शु. 2 शुक्रवार को सूरत में श्राविका माणिकबाई के पठनार्थ की। यह प्रति मुक्तिकमल जैन मोहन ज्ञान मंदिर बड़ोदरा (नं. 2370 ) में है 1641 5.8.57 आर्या श्री रत्नाजी, हीराजी (संवत् 1747 ) तपागच्छीय रूचिविमल रचित 'मत्स्योदर रास' (संवत् 1736 ) की प्रतिलिपि रतलाम में मुनि कृष्णविमल ने संवत् 1747 द्वि. वैशाख कृ. 8 रविवार को आर्या श्री रत्नाजी, हीराजी के वाचनार्थ तैयार की। प्रति विजयनेमीश्वर ग्रंथ भंडार खंभात (नं. 4490) में है 1642 5.8.58 साध्वी श्री वीरां जी ( संवत् 1751 ) ये साध्वी सौभाग्यमाला की शिष्या सौख्यमाला की शिष्या थीं। वाचक दयासागर गणि ने इनके वाचनार्थ 'जीवविचार' संवत् 1751 वैशाख कृ. 11 के दिन बीकानेर में लिखा। इसकी प्रति श्री विजयदानसूरि शास्त्र संग्रह छाणी' में मौजूद है 1643 5.8.59 साध्वी श्री जीऊजी ( संवत् 1766 ) ऋषि डुंगरसी के शिष्य लालचंदजी ने साध्वी जीऊजी के पठनार्थ विजयदेवसूरि रचित "शीलप्रकाश रास" ( रचना संवत् 1602) की प्रतिलिपि लूणकरणसर में संवत् 1766 में की। प्रति ला. द. भारतीय संस्कृति विद्या मंदिर अमदाबाद में है 1644 639. जै. गु. क. भाग 2, पृ. 49 640. जै. गु. क. भाग 1, पृ. 326 641. जै. गु. क. भाग 4, पृ. 42 642. जै. गु. क. भाग 5, पृ. 376 643. प्रशस्ति-संग्रह, पृ. 260, प्र. 990 644. जै. गु. क., भाग 1, पृ. 315 497 Page #560 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 5. 8.60 साध्वी श्री भागलक्ष्मी (संवत् 1768 ) गुणसेन रचित 'फलवर्धी पार्श्वनाथ छंद' की संवत् 1768 की प्रतिलिपिकर्त्री के रूप में साध्वी भागलच्छी का नाम है 1645 5.8.61 साध्वी श्री जीवांजी ( संवत् 1773 ) खरतरगच्छ के उपाध्याय समयसुंदर कृत 'प्रियमेलापक रास' ( रचना संवत् 1672) की प्रतिलिपि संवत् 1773 फाल्गुन शु. 3 उदासर में लखणसी ने साध्वी जीवा के लिये लिखी । यह प्रति कृपाचंद्रसूरि नो भंडार बीकानेर (पो. 46 नं. 836) 1646 5. 8.62 साध्वी श्री लच्छीजी ( संवत् 1780 ) श्री अमरसागर की राजस्थानी भाषा में रचित 'रत्नचूड़ चौपई' (रचना संवत् 1744 ) की प्रतिलिपि संवत् 1780 को आगरा में कुशलसिद्धि की शिष्या साध्वी लच्छी ने की। यह प्रति बी. एल. इन्स्टी. दि. (परि. 7139) में सुरक्षित है। जैन श्रमणियों का बृहद इतिहास 5. 8.63 आर्या श्री रहीजी ( संवत् 1780 ) श्री विमलसोमसूरि रचित 'प्रभासस्तवन' की प्रतिलिपि पं. कुशलधर्म ने संवत् 1780 पोष शु. 1 मंगलवार को अहमदाबाद में करके आर्या रही को वाचनार्थ दी। यह प्रति 'डायरा उपाश्रय नो भंडार' पालनपुर (दा. 41 नं. 109) में है। 647 5. 8.64 साध्वी श्री कस्तूरांजी ( संवत् 1784 ) खरतरगच्छीय कनकसोम रचित 'आर्द्रकुमार चौपाई' (संवत् 1644) की प्रतिलिपि पं. रत्नसी ने संवत् 1784 मृगशिर शु. 3 को साध्वी कस्तूरां के वाचनार्थ की। प्रति अभय जैन ग्रंथालय बीकानेर (नं. 3198) में है 1648 5. 8.65 साध्वी श्री कस्तूराजी (संवत् 1785 ) तपागच्छीय उदयरत्नसूरिकृत 'स्थूलिभद्ररास' (संवत् 1759 ) की प्रतिलिपि पं. रतनसी ने साध्वी कस्तूरां के वाचनार्थ लिखी। प्रति अभय जैन ग्रंथालय बीकानेर (नं. 3511) में है 1 649 एक ही ग्रंथालय में प्राप्त एक ही पंडित प्रतिलिपिकृत प्रति की अधिकारिणी साध्वी कस्तूरां जी एक ही प्रतीत होती हैं। 645. राज. हिं. ह. ग्रं. सू. भाग 6, क्रमांक 1497 ग्रंथांक 8879 646. जै. गु. क. भाग 2, पृ. 328 647. जै. गु. क. भाग 5, पृ. 309 648. जै. गु. क. भाग 2, पृ. 149 649. जै. गु. क. भाग 5, पृ. 84 498 Page #561 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्वेताम्बर-परम्परा की श्रमणियाँ 5.8.66 साध्वी श्री जीवाजी (संवत् 1787) खरतरगच्छीय धर्ममंदिरगणि' की 'परमात्म प्रकाश चौपाई' (संवत् 1742) की प्रतिलिपि पं. लाषणसी ने संवत् 1787 पोष कृ. 14 वीकानेर में साध्वी जीवा वाचनार्थ की। प्रति जैनशाला अहमदाबाद (दा. 13 नं. 16) में है।650 5.8.67 साध्वी श्री दीपाजी (संवत् 1788) खरतरगच्छीय उपाध्याय समयसुंदर कृत 'नलदवदंती रास' (संवत् 1673 की रचना) की प्रतिलिपि सागरचन्द्रसूरि शाखा के पं. चतुरहर्षजी ने करके विक्रमपुर नगर में रेषाजी की शिष्या जगसाजी उनकी शिष्या दीपा को वाचनार्थ दी। यह प्रति विजयनेमीश्वर ज्ञानमंदिर, खंभात (नं. 4494) में है।651 5.8.68 श्री लक्ष्मीश्रीजी (संवत् 1796) जिनादिविजयरचित 'श्री दंडकस्तबकः' संवत् 1796 में पं. मेघविमलजी ने सूरत में श्री लक्ष्मीश्रीजी के पठनार्थ लिखा। यह प्रति श्री विजयदानसूरि शास्त्र भंडार छाणी में संग्रहित है।652 5.8.69 साध्वी श्री लक्ष्मीजी (संवत् 1798) संवत् 1798 पोष कृ. 11 गुरूवार को पं. गणेशरूचि गणि ने 'क्षेत्रसमास स्तबक' की प्रतिलिपि साध्वी लक्ष्मी के लिये तैयार की। प्रति विजयदानसूरि शास्त्र संग्रह छाणी में है।653 5.8.70 साध्वी श्री हरखांजी (18वीं सदी) खरतरगच्छ के मतिकुशल रचित 'चंद्रलेखा चौपाई' (रचना संवत् 1728) की प्रतिलिपि श्री नयचंद ने साध्वी हरखां निमित्त तैयार की। प्रति उपाध्याय जयचंद्रजी नो भंडार बीकानेर (पोथी 63) में है।654 5.8.71 साध्वी श्री वाल्हाजी (18वीं सदी) बृहद् तपागच्छीय नयसुंदर रचित 'प्रभावती उदायन रास' (संवत् 1640) की प्रतिलिपि संवत् 174 फाल्गुन शु. 7 रविवार राजनगर में साध्वी मेधा की शिष्या वाल्हा ने की। प्रति पाटण भंडार (दा. 9 नं. 16) में है।655 5.8.72 आर्या श्री वारोजी (18वीं सदी) ये आर्या पूरणा की शिष्या आर्या नयणा की शिष्या थीं, इनके लिये 'चउसरण पइन्ना' की प्रतिलिपि करने का उल्लेख है। प्रति सुशीलमुनि आश्रम नई दिल्ली में है। 650. जै. गु. क. भाग 4, पृ. 327 651. जै. गु. क. भाग 2, पृ. 334 652. प्रशस्ति -संग्रह, पृ. 261, प्र. 992 653. (क) जै. गु. क. भाग 5, पृ. 394 (ख) प्रशस्ति -संग्रह, पृ. 323, प्र. 1263 654. जै. गु. क. भाग 4, पृ. 422 655. जै. गु. क. भाग 2, पृ. 101 499 Page #562 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 5.8.73 साध्वी श्री सरूपांजी (संवत् 1800 ) खरतरगच्छ के उपाध्याय समयसुंदर की कृति 'प्रियमेलकरास' की प्रतिलिपि पं. विजय ने संवत् 1800 में मेड़ता नगर में करके साध्वी सरूपांजी को वाचनार्थ दी। प्रति विजयनेमीश्वर भंडार खंभात (नं. 4482) में है | 656 5.8.74 आर्या श्री ज्ञानकुंवरी (संवत् 1833 ) खरतरगच्छ के हेमराज कृत 'रात्रिभोजन चौपाई' ( रचना संवत् 1738 ) की हस्तप्रति संवत् 1833 में आर्या केसरजी की शिष्या ज्ञानकुंवरी द्वारा बीकानेर में लिखी जाने का उल्लेख है। प्रति पंन्यास गुलाबविजयजी अमदाबाद भंडार में है 1657 5.875 साध्वी श्री मयाजी ( संवत् 1835 ) खरतरगच्छ के जिनोदयसूरि की 'हंसराज वच्छराज नो रास' (संवत् 1680) को संवत् 1835 कार्तिक कृ. 6 रविवार की प्रतिलिपि कर्त्ता में साध्वी कुसलाजी की शिष्या 'मयाजी' का नाम है। यह प्रति गुलाबकुमारी लायब्रेरी कलकत्ता (नं. 55 - 14 ) में है 1658 जैन श्रमणियों का बृहद इतिहास 5.876 साध्वी श्री पूतां / पूलांजी ( संवत् 1843 ) इनके लिये खरतरगच्छ के धर्मसिंह पाठक की रचित 'अमरकुमार सुरसुंदरी नो रास' (संवत् 1736 ) की संवत् 1843 पोष कृ. रविवार को वीकानेर में प्रतिलिपि की गई। यह प्रति उपा. जयचन्द्र नो भंडार वीकानेर (पोथी 66) में है 1659 5. 8.77 साध्वी श्री ज्ञानश्रीजी ( संवत् 1847 ) तपागच्छीय केसरविमलसूरिजी की 'सूक्तमुक्तावली' (संवत् 1754) की प्रतिलिपि संवत् 1847 पोष शु. 12 रूपचन्द वासानगर में ज्ञानश्री के पठनार्थ की। यह प्रति अभय जैन ग्रंथालय बीकानेर (नं. 3758) में है 1 660 5.8.78 आर्या श्री हरितश्री (19वीं सदी) श्री फतेन्द्रसागर की 'होलिका व्याख्यान सस्तबक ( रंचना संवत् 1822) की प्रतिलिपि हरितश्री ने पाली में की। प्रति बी. एल. इन्स्टी. दिल्ली (परि. 6721 ) में श्रेष्ठ स्थिति में है। 656. जै. गु. क. भाग 2, पृ. 329 657. जै. गु. क. भाग 4, पृ. 352 658. जै. गु. क. भाग 3, पृ. 151 कतिपय विदुषी आर्यिकाओं की रचना, चंदाबाई अ. ग्रं., पृ. 576 659. जै. गु. क. भाग 4, पृ. 294 660. जै. गु. क. भाग 5, पृ. 136 500 Page #563 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्वेताम्बर-परम्परा की श्रमणियाँ 5.8.79 साध्वी श्री सिद्धश्रीजी (संवत् 1916) आपका संवत् 1916 में रचित 'प्रतापबाबूसिंह रास' प्रकाशित है इसमें ऊजीमगंज के धर्मप्रेमी बाबू प्रताप सिंह जी के धर्मकार्यों का उल्लेख है।661 5:8.80 प्रवर्तिनी श्री उदयसुंदरीजी (संवत् 1928) तपागच्छीय सोमविमलसूरि कृत 'मनुष्य भवोपरि दश दृष्टांत नां गीतो' (रचना संवत् 1597 से 1637 मध्य) मुनि ज्ञानसहज ने संवत् 1928 अमदाबाद में लिखकर प्रवर्तिनी उदयसुंदरी की शिष्या को पठनार्थ दिया। इसकी प्रति भांडारकर इंस्टीट्यूट, पूना (नं. 290) में है।662 उपसंहार श्वेताम्बर मूर्तिपूजक श्रमणियाँ सुदूर अतीत काल से आज तक उत्कृष्ट तपाराधना में संलग्न रहकर जन-जन के लिये तीर्थ स्वरूपा बनी हैं। इन्होंने जैन संघ के शेष तीन अंगों को सामाजिक धार्मिक साधना में प्रेरक शक्ति बनकर नींव की ईंट का काम किया है। धर्म, संघ व तीर्थ की उन्नति की ये मुख्य आधार रही हैं, समय-समय पर क्रियोद्धार के कार्यों में आचार्यों की सहयोगिनी बनी है। जब मुद्रणकला का अस्तित्व नहीं था उस समय सैंकड़ों हस्तलिखित प्रतियाँ लिखकर इन्होंने जिनवाणी की सुरक्षा में अपना महत्त्वपूर्ण योगदान दिया है। कितनी ही ताड़पत्रियाँ स्वयं ने लिखी, लिखकर योग्य विद्वान् व्याख्याता मुनियों को अर्पित की। आज सैंकड़ों हस्तलिखित प्रतियाँ श्वेताम्बर मूर्तिपूजक श्रमणियों की प्राप्त होती हैं, जिनमें इनकी साहित्य-साधना, धर्म व तीर्थ के प्रति अनन्य निष्ठा की झलक मिलती है। आज भी साहित्य की विविध विधाओं में इनका प्रकृष्ट चिंतन एवं संस्कृत-प्राकृत आदि भाषाओं का गूढ़ ज्ञान परिलक्षित होता है। शेष श्रमणियों का परिचय हम तालिका में दे रहे हैं। 661. अगरचंद जी नाहटा, का लेख, श्वे. साध्वियों में 662. जै. गु. क. भाग 2, पृ. 8 501 Page #564 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तपागच्छीय अवशिष्ट श्रमणियाँ (क) आचार्य आनन्दसागरसूरीश्वरजी महाराज का समुदाय63 502 । क्रम | साध्वी नाम | जन्म संवत् स्थान पिता का नाम | दीक्षा संवत् तिथि दीक्षा स्थान | गुरूणी विशेष विवरण 1 D|श्री हेमश्रीजी | 1936 सूरत कल्याणचंद | कल्याणचंद | 1962 वै. शु. 6 | श्री तिलकश्री शांत, प्रतिभाशाली.दीर्घदष्टा.सेवा भाविनी, तीर्थश्री, जवेरी प्रधानश्री, दर्शनश्री, हंसाश्री, निर्मलश्री, राजुलश्रीजी आदि शिष्या, संवत् 2008 अमदाबाद में स्वर्ग. राजुलश्रीजी की 7 शिष्याएँ-कंचनश्री, सुशीला| श्री, अनुपमाश्री, कलागुणाश्री, अरूजाश्री, अमीवर्षाश्री, भद्रशीलाश्रीजी। प्रधानश्रीजी की चन्द्रश्रीजी, सुशीलाश्रीजी की शीलभद्राश्रीजी। इस प्रकार विशाल शिष्या परिवार। 2. श्री सद्गुणाश्रीजी - रणुंज- अंबालालभाई | 1991 मृ.शु. 3 | रतलाम श्री सरस्वतीश्री | पालीताणां में जंबद्वीप के प्रेरक श्री (पाटण) अभयसागरजी की जननी, समग्र परिवार को संयम से जोड़ने वाली, सुदीर्घ दीक्षा पर्यायी, संवत् 2048 में स्वर्गस्थ सुलसाश्री (पुत्री) तारकश्री व संयमगुणाश्री ये तीन शिष्याएँ। 13. श्री संवेगश्रीजी | -अमदाबाद | फूलचंदभाई |1999 वै.शु. 5 | कदंबगिरि | श्री मृगेन्द्रश्री वर्धमान तप की 100 ओली की। (तीर्थ) आगम ग्रंथों की उच्चकोटि की अभ्यासी, शिष्याएँ-विवुधश्री, प्रशम श्री-निर्वेदश्री-प्रशांतश्री, यशस्विनीश्री संवत् 2019 में समाधिमरण। जैन श्रमणियों का बृहद इतिहास 663. जिनशासन नां श्रमणीरत्नों, पृ. 162-236 Page #565 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्वेताम्बर परम्परा की श्रमणियाँ 503 क्रम | साध्वी नाम जन्म संवत् स्थान| पिता का नाम | दीक्षा संवत् तिथि | दीक्षा स्थान | गुरूणी विशेष विवरण 4. श्री हिरण्यश्रीजी | 1984 रतलाम | केशरीमलजी | 2002 ज्ये. कृ.4 श्री इन्दुश्रीजी तप-मासखमण, कर्मसूदन, समव सरण, वर्षीतप,यावज्जीवन नवपद ओली, वर्धमान तप की 54 ओली, चत्तारि अट्टदस दोय तप। शिष्या परिवार-मदनरेखाश्री, सुभाषिताश्री, विश्वविदाश्री, शीलरेखाश्री-मुक्ति रेखाश्री सौम्यरेखाश्री, सुवर्षाश्री, सुहर्षाश्री,शमविदाश्री, अस्मिताश्री, सुचिताश्री, स्वर्गवास-72 वर्ष की आयु में। 15. | श्री प्रगुणाश्रीजी | 1985 सुरेन्द्रनगर अमुलखभाई | 2003 मा. शु. 3 | सुरेन्द्रनगर | श्रीमलयाश्रीजी | धर्मग्रंथों की गूढ अध्येता, तार्किक प्रज्ञा, संवत् 2039 वाराही ग्राम में दिवंगत, दो शिष्या-प्रशमशीला श्री, चारूशीलाश्री, 21 प्रशिष्या। 16. D|श्री धर्मानंदाश्रीजी 1961 जामनगर खुशालभाई | 2004 वै.कृ. 3 | जामनगर श्री सुरप्रभाश्रीजी| धर्मग्रंथों का तलस्पर्शी अध्ययन, सिद्धितप, 16 उपवास, वर्धमान तप की 65 ओली, चातुर्मासिक आयंबिल, इन्द्रियजय, कषायजय, 20 स्थानक, पखवाड़ा तप। संवत् 2041 पालिताणां में स्वर्गस्था मोक्षा नंदश्री एवं हर्षवर्धनाश्री शिष्याएँ हुईं। 7. - | श्री नरेन्द्रश्रीजी | -सुरेन्द्रनगर | अमुलखभाई | 2005 ज्ये. शु. 2 | सुरेन्द्रनगर | श्री मलयाश्रीजी | उत्कृष्ट संयमाराधन, 32 वर्ष संयम पालन। शिष्या-सुशीमाश्री, शीलपूर्णाश्री, महापूर्णाश्री, शमितपूर्णाश्री, समकितपूर्णाश्री। 8. |श्री मृदुताश्रीजी । - सुरत मास्तर 2006 अषा. शु.5 श्री प्रवीणश्रीजी | मृदु, मधुरभाषिणी,मासखमण तपानानालाल राधिका, दो शिष्याएँ-विद्वत्ताश्री व रूचिताश्री Page #566 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्रम | साध्वी नाम | जन्म संवत् स्थान ! पिता का नाम दीक्षा संवत् तिथि | दीक्षा स्थान गुरूणी विशेष विवरण 9. 10. | 11. श्री सुशीमाश्रीजी - हलवद चुनीलाल 2007 का. कृ. 6 | सुरेन्द्रनगर श्री नरेन्द्र श्रीजी | ग्रहण, धारण व स्मरणशक्ति अद्भुत, वर्धमान तप की 100 ओली संपूर्ण, द्वितीय बार 18 ओली, मासक्षमण, सोलह, बीसस्थानक, सिद्धितप,छट से वर्षीतप, शिष्याएँकल्पबोधश्री, भव्यदर्शिताश्री, सुप्रज्ञा श्री, दिव्यदर्शिताश्री श्री शमदमाश्रीजी - 2007 श्री मलयाश्री तपोमूर्ति 10,11,16 उपवास, सिद्धितप, रत्नपावड़ी, व दिवाली के बेले, अखंड अक्षयनिधि, कोलिया तप, दीपक तप, सिद्धाचल के बेले, वर्धमान तप की ओली प्रखर परिवाजिका, दो शिष्या-तत्त्व त्रयाश्री, तत्त्वगुणाश्री कमलप्रभाश्रीजी | - मालवा सौभाग्यमलजी | 2009 म. शु. 15 | पालीताणा |श्री इन्दुश्रीजी घोरतपी-वर्षीतप, बीसस्थानक, पार्श्वनाथ के 108 तेले, महावीर स्वामी के 229 बेले, 12 तेले, सिद्धितप, 16, अठाई 6, नवकार तप, मेरूतप, भद्र महाभद्र, श्रेणी, वर्ग, दान, कर्मसूदन तथा सहस्रकूट आदि तप, 250, 500, 700 आयंबिल, 1176 सलंग आयंबिल, वर्धमान तप की 100 ओली, चौविहार 8 से 99 यात्रा। संवत् 2045 समाधिमरण श्री चारूशीलाश्री| 1994 बनासकांठा | भुराभाई | 2016 वै.शु. 4 | बनासकांठा | श्री प्रगुणाश्री धर्मग्रंथों के गहन अभ्यासी,8,9, 10, 11,12,14,15,16 उपवास, वर्धमान तप की 48 ओली। संवत् 2043 सूरत में स्वर्गस्था शिष्याएँ- दिव्यपूर्णाश्री, दिव्यप्रज्ञाश्री, दिव्यांगनाश्रीजी। | 12. जैन श्रमणियों का बृहद इतिहास Page #567 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 505 क्रम साध्वी नाम 13. 4 श्री गुणरत्नज्ञाश्री 14. श्री दिव्यपूर्णा श्री 15. 4 दिव्यप्रज्ञाश्रीजी 16. O वीर्यधर्माश्रीजी 17. दिव्यांगनाश्रीजी 18. 19. धर्मोदया श्रीजी गुलाब श्रीजी जन्म संवत् स्थान 2002 बेणप 2004 बेणप 'अमदाबाद सूरत कपड़वंज 1958 पिता का नाम दीक्षा संवत् तिथि खोड़ीदासभाई 2027 पो. शु. 6 भुराभाई भुराभाई पतिजगत्चंद्रसागर रतिभाई ओच्छवलाल भाई केशवलाल भाई 2027 मा. शु. 5 2027 मा. शु. 5 2040 वै. कृ. 10 1982 दीक्षा स्थान बेणप(बनास कांठा) बेणप मलयाश्रीजी श्रीमनहर श्रीजी चतुरश्रीजी गुरूणी शुभोदयाजी चारूशीलाश्री जिनधर्माश्रीजी विशेष विवरण पालीताणा 11 अठाई, मासखमण, वर्षीतप आदि उग्रतपस्या, वर्धमान तप की ओली व अनेक अम चारूशीलाश्रीजी मासखमण, 10, 11, 16 उपवास, 2 अठाई, वर्धमान तप की 42 ओली, नवपद ओली आदि तप, गहन अभ्यासी, धर्मवत्सला दो अठाई, 16, सिद्धितप, वर्षीतप, समवसरण तप, नवपद ओली, वर्धमान तप की 42 ओली आदि विविध तप। शांत, सौम्य, सरल। ट्रक दुर्घटना में संवत् 2046 में अपूर्व समता के साथ पंडितमरण गहन अध्येता, तप- नवपद ओलियां, वर्धमान तप की 26 ओली, सिद्धितप अठाई, ज्ञान पांचम, पोष दशमी आदि तप, विदुषी साध्वी रत्ना । अपनी चार पुत्रियों की संयम- प्रेरिका तप - मासक्षमण, सिद्धितप, 14 अठाई, वर्धमान तप की लुणीकच्छ 48 ओली, संतव् 2029 जोरावरनगर में दिवंगत | -संकेत चिन्ह पतिवियोग ० सुहागिन 4 बालब्रह्मचारिणी ⭑ श्वसुरपक्ष श्वेताम्बर परम्परा की श्रमणियाँ Page #568 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (ख) श्री विजय रामचन्द्र सूरीश्वरजी महाराज के समुदाय की श्री खांतिश्रीजी का शिष्या-परिवार-64 क्रम | साध्वी नाम | जन्म संवत् स्थान | पिता का नाम | दीक्षा संवत् तिथि दीक्षा स्थान | विशेष विवरण तीर्थ 506| 6. 1.0] विद्युतश्रीजी 1958 भावनगर 'त्रिभुवनभाई 1987 ज्ये. कृ. 14 छाणी पति पत्नी व पुत्र तीनों दीक्षित, शांत प्रशांत, धीर गंभीर तपस्पिवनी, सं. 2040 में स्वर्गस्थ हंसाश्रीजी 1973 छाणी हिंमतभाई 1989 वै. शु. 6 | - उपशांत कषायी, प्रतिभासंपन्न, 35 मुमुक्षुजनों की उद्बोधिका, स्वाध्यायी भद्रपूर्णाश्रीजी | 1942 सरधार | साकरचंद दोशी | 1993 कृ. 7 | लोद्रवाजी | वर्षीतप, बीस स्थानक, 99 यात्रा, उत्कृष्ट त्यागी, भद्रपरिणामी, सं. 2021 में स्वर्गस्थ श्री हेमप्रभाश्रीजी | 1987 विसलपुर हजारीमलजी 1998 फा. शु. 3 | सावरकुंडला | मासक्षमण, 21, 16, 9 उपवास, 10 अठाई, 108 अटुम, 500 आबिल, 100 ओली पूर्ण अन्य उत्कट तपाराधना, उग्रविहारी, 46 शिष्या-प्रशिष्या की नायिका। 5. मनोरमाश्रीजी | रवजीभाई जेवरी | 2000 फा. शु. 5 | राजकोट। यावज्जीवन पोरूषी, संयमी, स्वाध्यायी, मात्र ढाई मास संयम पाला अनुपमाश्रीजी | 1989 महेसाणा चुनीलालभाई | 2002 वै. शु. 11 | सिद्धगिरि माता सुमंगलाश्रीजी सह दीक्षित, 100 ओली पूर्ण, 500, 541 आयंबिल में 551000 खमासमणा । 7. ज्योतिप्रभाश्रीजी | 1982 सावरकुंडला छोटालाल भाई | 2002 सुरत 16 उपवास, वर्षीतप 2, अठाई, नवपद व वर्धमान ओली, अनेक रास स्तवन, ढाल, चौपाई, सज्झाय, व्याकरण, न्याय आदि कंठस्थ , स्वंय की दो शिष्या।। 8. / हर्षपूर्णाश्रीजी । 1989 करांची दीपचंदभाई |2007 वै. शु. 5 | सांवरकुंडला | तप-सिद्धाचल, अक्षयनिधि. 24 ओली, विदुषी साध्वी विमलकीर्तिश्रीजी| 1926 जेसर दीपचंदभाई शेठ | 2011 वै. शु. 7 | वणी मासक्षमण, 16, वर्षीतप, सिद्धितप, नवपद ओली, चत्तारि, 25 ओली आदि तप 10. सूर्यप्रभाश्रीजी मनसुखभाई जवेरी 2011 ज्ये. शु.5 | पूना | माता भद्रपूर्णाजी की शिष्या, महान विदुषी, मुंबई| में स्वर्गवास 11. रत्नरेखाश्रीजी 1989 नवाडीसा | रवचंदभाई 2015 - जूनाडीसा विशिष्ट अभ्यास के साथ सिद्धितप, वर्षीतप, एकांतर 500 आयंबिल, वर्धमान ओली 40, संवत् 2042 में| स्वर्गस्थ aaa... जैन श्रमणियों का बृहद इतिहास 664. जिनशासन नां श्रमणीरत्नों, पृ. 270-331 Page #569 -------------------------------------------------------------------------- ________________ www.lainelibrary.org 507 क्रम 12. A 13. प्रसन्नरेखाश्रीजी 14.0 15.O 18. साध्वी नाम जयप्रज्ञाश्रीजी 16. A लक्षितप्रज्ञाश्रीजी 19. 17. सूर्यप्रज्ञाश्रीजी 20. किरणप्रज्ञाश्रीजी 21. हर्षिताप्रज्ञाश्रीजी विश्वप्रज्ञाश्रीजी सुवर्णलताश्रीजी संयमरत्नाश्रीजी शीलरत्नाश्रीजी जन्म संवत् स्थान 1999 करांची 1975 पिंडवाड़ा *पिंडवाड़ा 2008 पिंडवाड़ा 2016 पिंडवाड़ा 2011 पिंडवाड़ा 2012 पिंडवाड़ा - महेसाणा 2012 नवाडीसा 2014 नवाडीसा पिता का नाम दीपचंदभाई पूनमचंदभाई * कालिदासभाई कालिदासभाई कालिदासभाई छोटालाल भाई छोगालालभाई लीलाचंद भाई अमृतभाई अमृतभाई दीक्षा संवत् तिथि दीक्षा स्थान विशेष विवरण 2019 वै. कृ. 6 सावरकुडला 2025 वै. शु. 7 वै. 2025 शु. 7 2025 वै. शु. 7 2025 वै. शु. 7 2035 मृ. शु. 6 पिंडवाड़ा 2035 मृ. शु. 6 पिंडवाड़ा पिंडवाड़ा पिंडवाड़ा 2030 वै. शु. 7 2030 वै. शु. 7 2031 आषा. शु. 9 मुंबई पिंडवाड़ा पिंडवाड़ा नवाडीसा नवाडीसा 16, 11, 10, 9, 8 उपवास, सिद्धितप श्रेणितप, चत्तारि, नवपद ओली 60, वर्धमान तप ओली, संवत् 2040 पाटण में स्वर्गस्थ सिद्धितप, श्रेणितप, वर्षीतप, वर्धमान तप की 36 ओली, संवत् 2047 पिंडवाड़ा में स्वर्गस्थ स्वाध्यायी, सेवाभाविनी, पति 2 पुत्र 2 पुत्री सह दीक्षित, वर्धमान तप की 68 ओली, मासक्षमण, 500 आयंबिल, 17, 11, 9 उपवास, 2 अट्ठाई, वर्षीतप आदि विविधतप 5 शिष्या 22 प्रशिष्या । संवत् 2043 में स्वर्गस्थ | विशिष्टि अध्ययन सह सद्धितप, वर्षीतप, नवपद ओली, वर्धमान ओली 42, अठाई, अट्ठम आदि तप, माता कमलप्रज्ञा बहिन लक्षितप्रज्ञा, पिता भ्राता भी दीक्षित, शिष्या 12 प्रशिष्या 3 वैदुष्य में अग्रणी, मधुरकंठी, वर्षीतप 20 स्थानक, नवपद ओली, वर्धमान ओली 35, कई वस्तुओं का त्याग। शिष्या 10 प्रशिष्या 2 विशिष्ट ज्ञानार्जन सह सिद्धितप, 20 स्थानक, वर्धमान तप की 33 ओली, 11 उपवास सेवाभाविनी, श्रेणितप, सिद्धितप, 20 स्थानक, वर्धमान तप की 34 ओली | दो वर्षीतप नवपद ओली, बीस स्थानक, वर्धमान ओली, 8, 16 आदि विविधतप सिद्धितप, बीस स्थानक, चत्तारि, वर्धमान ओली 41 आदि तपाराधिका सिद्धितप, बीसस्थानक, वर्धमान ओली 36, कई धर्मग्रंथों का अध्ययन श्वेताम्बर परम्परा की श्रमणियाँ Page #570 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्रम | साध्वी नाम जन्म संवत् स्थान | पिता का नाम | दीक्षा संवत् तिथि | दीक्षा स्थान विशेष विवरण मोक्षरत्नाश्रीजी 2014 जूनाडीसा | जेसिंगभाई 23. नंदीरत्नाश्रीजी 2015 पाडीव छगनभाई गुप्तिरत्नाश्रीजी | 2016 चित्रदुर्ग छगनभाई मार्गदर्शिताश्रीजी | 2021 पाटण दीपचंदभाई सुविनीतदर्शिताश्रीजी| 2023 पिंडवाड़ा | शांतिभाई सुरक्षितदर्शिताजी | 2023 पिंडवाडा | संतोकभाई चेतोदर्शिताजी 2015 दांतराई पुखराजभाई विवेकदर्शिताजी | 2016 नवाडीसा | अमृतभाई 2035 वै. शु. 3 | जूनाडीसा श्रेणितप, वर्धमान तप की 40 ओली, कई सूत्र ग्रंथ कंठस्थ हैं। 2039 मृ. शु. 11 | मंडवारिया कई सूत्र, ग्रंथ, काव्य, व्याकरण की अध्येता, सिद्धितप, वर्धमान ओली 26. नवपद ओली आदि तप 2039 म. शु. 11 | मंडवारिया | विशिष्ट धर्मग्रंथ की ज्ञाता, सिद्धितप, 20 स्थानक, नवपद ओली, 16 उपवासादि 2040 चै. शु. 15] पाटण सिद्धितप, वर्धमान ओली 45, 17 उपवासादि, विदुषी शास्त्रज्ञ 2040 चै. कृ.5 | पिंडवाड़ा मासक्षमण, सिद्धितप, 16 उपवास, वर्धमान ओली 27, ज्ञानाभ्यासी 2040 चै. कृ. 5 | पिंडवाड़ा | मासक्षमण, 16, 11 उपवास, ज्ञानाभ्यासी 2041 वै. कृ. 7 | दांतराई मासक्षमण, 500 आयंबिल, वर्धमान ओली 53, सिद्धितप, ज्ञानाभ्यासी 2041 वै. शु. 7 | नवाडीसा विनय वैयावृत्य व ज्ञानाभ्यास सह सिद्धितप, 500 आयंबिल, वर्धमान ओली 50 आदि। कृ. 7 | दांतराई सिद्धितप, 11 उपवास, वर्धमान ओली 34 आदि तप 2041 ज्ये, शु. 10/ रोहिडा विनय वैयावृत्य ज्ञानाभ्यास सह सिद्धितप, मासक्षमण, वर्धमान ओली 40, नवपदओली.5 वर्ष तक एकासणे 2042 पो. कृ. 6 | शिवगंज ज्ञानाभ्यास सह मासक्षमण, सिद्धितप, चत्तारि. वर्धमान ओली 42 आदि 2042 चै. कृ. 7 | मुंडारा वर्धमान ओली 70, 500 आयंबिल तथा ज्ञानाभ्यास 2042 वै. शु.5 दांतराई ज्ञानाभ्यास सह मासक्षमण, सिद्धितप. चत्तारिं.. वर्धमान ओली 42 2042 वै. शु. 5 | दांतराई मासक्षमण, सिद्धितप, अट्ठाई, 17 उपवास, चत्तारि. वर्धमान ओली 30 2043 मृ. शु. 13 | रतलाम विशिष्ट तप-मासक्षमण, सिद्धितप, श्रेणितप, बीसस्थानक, अठाई, वर्धमान ओली 23 न | उद्योतदर्शनाश्रीजी | 2018 मालगांव | चंद्रदर्शनाजी 2020 अमदाबाद धूपचंदजी | मिश्रीमलजी निर्मोहदर्शनाश्रीजी | 2023 भडथ हुकमीचंदजी दर्शनसुधाश्रीजी | 1986 सादड़ी गीर्वाणसुधाश्रीजी 2019 दांतराई फूलचंदजी हीराचंदजी कारूण्यसुधाश्रीजी/ 2022 दांतराई हीराचंदभाई जैन श्रमणियों का बृहद इतिहास तत्त्वशीलाश्रीजी | 2003 गदग। वेरशीभाई Page #571 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 509 क्रम 35. 36. 37. 38. 39. 40. 41. 42. 43. 44. 45. 46. 47. 48. 49. साध्वी नाम सम्यग्शीलाश्रीजी दर्शनशीलाश्रीजी दिव्यसुधाश्रीजी मैत्रीसुधाश्रीजी विनयदर्शनाश्रीजी संवेगदर्शनाश्रीजी जन्म संवत् स्थान 2028 गदग 2030 सैधन्वा 2034 देसूरी 2020 चुली 2022 लुणावा 2002 सादड़ी विरतिरक्षिताश्रीजी अभयरक्षिताश्रीजी मतिरक्षिताश्रीजी 2027 पिंडवाड़ा निवृत्तिरक्षिताश्रीजी 2029 पिंडवाड़ा तत्त्वक्षिताश्रीजी तपोरक्षिताश्रीजी जिनरक्षिताश्रीजी हितरक्षिताश्रीजी कल्याणरमाश्रीजी 2025 पिंडवाड़ा 2025 पिंडवाड़ा 2026 दांतराई 2028 पूना 2030 पूना 2030 दांतराई 1998 रोहिड़ा पिता का नाम गुलाबचंदभाई गुलाबचंदभाई दानमलजी वीरचंदभाई रामचंद्रजी जवानमलजी चंदनमलजी शांतिलाल भाई शांतिलालभाई अमृतलाल भाई हजारीमलजी समरथमलजी नथमलजी हजारीमलजी छगनलालजी दीक्षा संवत् तिथि दीक्षा स्थान विशेष विवरण 2043 मृ. शु. 13 2043 ज्ये. शु. 10 रतलाम भावनगर दांतराई 2044 ज्ये. शु. 10 शिवगंज 2044 मृ. शु. 14 2045 मृ.शु. 10 2046 का. कृ. 10 2047 वै. शु. 10 2047 वै.शु. 10 वै. 2047 शु. 10 2047 ज्ये. शु. 9 2049. शु. 4 2049. शु. 4 2049. शु. 4 2049. शु. 4 2049 वै. कृ. 4 लुणावा पालीताणा पिंडवाड़ा पिंडवाड़ा पिंडवाड़ा पिंडवाड़ा दांतराई दांतराई दांतराई दांतराई पिंडवाड़ा विशिष्ट तप-नवपद ओली, वर्धमान तप की 17 ओली विशिष्ट तप-सिद्धितप, मोक्षदंडक तप, अठाई, नवपद ओली, वर्धमान ओली 22 विशिष्ट तप- मासक्षमण, सिद्धितप 17 उपवास, वर्धमान ओली 38, नवपद ओली तप - मासक्षमण, सिद्धितप, अठाई, नवपद ओली, वर्धमान ओली 41, आयंबिल 500 तप - मासक्षमण, श्रेणितप, सिद्धितप, वर्धमान ओली 30 तप - मासक्षमण, सिद्धितप, अठाई, नवपद ओली, वर्धमान ओली 25 तप - सिद्धितप, नवपद ओली, वर्धमान ओली 25 तप - सिद्धितप, वर्धमान ओली 22 तप - सिद्धितप, मोक्षदंडक तप, वर्धमान ओली 22 तप-सिद्धितप, अठाई, मोक्षदंडक तप, नवपदओली, वर्धमान ओली 21 गुरूणी - लक्षितप्रज्ञाश्रीजी गुरूणी-हर्षितप्रज्ञाश्रीजी गुरूणी - लक्षितप्रज्ञाश्रीजी गुरूणी - लक्षितप्रज्ञाश्रीजी गुरूणी - हर्षितप्रज्ञाश्रीजी - संकेत चिन्हपतिवियोग ० सुहागिन 4 बालब्रह्मचारिणी ★ श्वसुरपक्ष श्वेताम्बर परम्परा की श्रमणियाँ Page #572 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री देवेन्द्र श्रीजी का शिष्या-परिवार665 क्रम | साध्वी नाम | जन्म संवत् स्थान | दीक्षा संवत् तिथि दीक्षा स्थान गुरूणी विशेष विवरण गोंडल अलाव जामनगर श्री हर्षप्रभाश्रीजी | 1985 अमदाबाद अनंतगुणाश्रीजी | 2009 आबु आत्मदर्शीताश्रीजी | 2008 जामनगर अनंतदर्शिताश्रीजी | 2011 जामनगर अक्षयगुणाश्रीजी 2012 अमदाबाद जिनदर्शिताश्रीजी | 2021 अमदाबाद | 2011 वै. शु. 10 2017 फा. कृ. 7 2033 मा. शु. 13 | 2033 मा. शु. 13 | 2040 वै. कृ. 1 2044 का. कृ. 6 श्री देवेन्द्र श्रीजी श्री देवेन्द्र श्रीजी अनंतगुणाश्रीजी अनंतगुणाश्रीजी अनंतगुणाश्रीजी अनंतगुणाश्रीजी जामनगर पालीताणां अमदाबाद (ग) आचार्य विजयकलापूर्णसूरिजी का श्रमणी समुदाय66 510 क्रम - साध्वी नाम जन्म संवत् स्थान | पिता नाम, गोत्र दीक्षा संवत् तिथि | दीक्षा स्थान | गुरूणी - विशेष विवरण 1. श्री रत्नश्रीजी. 1941 वागड़ 1963 फा. शु. 6 | अमदाबाद | लावण्यश्रीजी 1965 मांडवी | कानजीभाई दोशी |1982 का. कृ. 6 ] शत्रुजय तीर्थ श्री कुमुदश्रीजी | 1964 अमदाबाद - - | 1984 का. कृ. 12/ माणेकश्रीजी| क्रियानिष्ठ, निस्पह, एक शिष्या चतुरश्रीजी, संवत् 2024 भचाऊ में स्वर्गस्थ लाभश्रीजी | रत्नत्रयी व तत्त्वत्रयी की साधिका, महिमाश्रीजी आदि 9 शिष्याएँ नंदनश्रीजी करूणावान, संयमी,अप्रमत्त, राधन पुर में 85 वर्ष की उम्र में दिवंगत चतुरश्रीजी हेमश्रीजी आदि 84 श्रमणियों की प्रमुखा, संवत् 2035 सुरेंद्र नगर में दिवंगत प्रभंजनश्रीजी संयमप्रेरिका, पिता भगिनी, भाभी, भाणजी भी दीक्षित, संवत् 2046 में दिवंगत 4. श्री चरणश्रीजी | 1962 राजनगर प्रेमचंदभाई | 1985 का. कृ. 10/ राजनगर 5. 0| श्री विजयाश्रीजी | 1964 सिहोर जमनादास शाह 1990 फा. कृ. 3 | जैन श्रमणियों का बृहद इतिहास 665. जिनशासन नां श्रमणीरत्नो, पृ. 314 666. जिनशासन नां श्रमणीरत्नो, पृ. 365-401 Page #573 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (ग) आचार्य विजयकलापूर्णसूरिजी का श्रमणी समुदाय क्रम | माध्वी नाम जन्म संवत् स्थान |पिता नाम, गोत्र | दीक्षा संवत् तिथि | दीक्षा स्थान | गुरूणी विशेष विवरण 6. | श्री निर्जराश्रीजी |1981 कोयम्बतूर |माणेकलालभाई | 1993 का. कृ. 5 | धीणोज श्वेताम्बर परम्परा की श्रमणियाँ 7. | चंद्रोदयाश्रीजी 1965 मांडवी दामजीभाई 1996 आषा. शु. 7| अमदाबाद 8. D चंद्ररेखाश्रीजी 1962 गारियाधार श्री सुलसाश्रीजी |1979 राजनगर दयालभाई | गोकलभाई 1996 आषा. शु. 7| अमदाबाद 1998 मा. शु. 6 | 10. 11. अजिताश्रीजी 1984 राधनपुर श्री अरविंदाश्रीजी | 1986 राधनपुर श्री दिव्यप्रभाश्रीजी - भूजपुर | जयसुखभाई जयसुखभाई डुंगरशीभाई 2004 पो. शु. 11 | राधनपुर 2004 पो. शु 11 | राधनपुर 2008 मृ. शु.5 | भद्रेश्वरतीर्थ निर्मलाश्रीजी | कुशाग्रबुद्धि, समताभावी संवत् 2030 में समाधि मरण | चतुरश्रीजी सेवाभाविनी, 72 बहनों की दीक्षादाता, संवत् 2043 में स्वर्गस्थ चंद्रोदयाश्रीजी | तेजस्वी व्यक्तित्व, शासन प्रभाविका सुभद्राश्रीजी | वर्धमान तप की 100 ओली पूर्ण, मासक्षमण, सिद्धितप, चत्तारि, वर्षीतप, समवसरण, 8, 10, 11, 15, 16 उपवास | अरूणश्रीजी | विदुषी, कई शिष्या-प्रशिष्याएँ अजिताश्रीजी | विदुषी | चंद्रोदयाश्रीजी | 127 ओली पर्ण, 500 आयंबिल, 8 वर्षीतप, 20, 30 31, उपवास दो बार, 9, 11, सात बार, श्रेणितप, सिद्धितप, चत्तारि, छ? अट्टम अरविंदाश्रीजी विदुषी अमतिगुणाश्री | प्रवचन प्रभाविका, संवत् 2053 अमदाबाद में स्वर्गस्थ चंद्रोदयाश्रीजी] 108 वर्धमान तप ओली, 500 आयंबिल, 30, 45 उपवास, वर्षीतप, सिद्धितप 511 12.0 अमितगुणाश्रीजी | 1992 राधनपुर आर्ययशाश्रीजी 1995 राधनपुर | राधनपुर जयसुखभाई जयसुखभाई 2011 मृ. शु. 6 2011 मृ. शु. 10 14. 15. चंद्रकीर्तिश्रीजी | 1989 रंगून साकरचंदभाई 2012 वै. शु. 2 भूजपुर Page #574 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (घ) आचार्य विजयनेमिसूरीश्वरजी का श्रमणी समुदाय67 क्रम । साध्वी नाम | जन्म संवत् स्थान | पिता नाम | दीक्षा संवत् तिथि | दीक्षा स्थान | गुरूणी विशेष विवरण (संवत् 2038 तक) 1. D श्री चंपाश्रीजी | 1932 खंभात |छगनभाई 1948 मृ. शु. 11 | खंभात 2. 0| श्री गुणश्रीजी | - खंभात कस्तूरभाई | 1972 मृ. शु. 11 | अमदाबाद | 3. D श्री प्रभाश्रीजी | 1945 खंभात नाथाभाई | 1975 मा. शु. 14 - 114.DI श्री चंपकश्रीजी | 1944 अमदाबाद | गोकलदास | 1975 मृ. शु. 5 आदरज 512 | मासक्षमण, वर्षीतप, सिद्धितप, 20) स्थानक, वर्धमान तप, कर्मसूदन, पर्युषण में अठाई, नवपद ओली वर्ष में 2, संवत् 1995 पालीताणा में स्वर्गस्थ | गुलाबश्रीजी | मधुरवाणी, शासन प्रभाविका, स्वयं की 9 शिष्याएँ, संवत् 2011 वेजलपुर में| दिवंगत श्री चंपाश्रीजी | गहन ज्ञानाभ्यास, मासक्षमण, सिद्धितप, वर्षीतप, छमासी, चातुर्मासिक तप, पर्युषण में अठाई, 16 शिष्या 41 प्रशिष्या, संवत् 2031 महुआ में दिवंगत | श्री नवलश्रीजी| इनकी दीक्षा से इनके पिता, काका, काकी, भाई, भाभी आदि कई जन प्रेरित होकर दीक्षित बने। स्वंय की 35 शिष्या-प्रशिष्याएँ, संवत् 2022 में दिवंगत | श्री प्रभाश्रीजी | साहसी, चतुर, समभावी, संवत् 2022 खंभात में स्वर्गस्थ | लाभश्रीजी ज्ञानसाधना व चारित्र आराधना उच्च कोटि की। संवत् 1984 में दिवंगत, गुरू भगिनी अमरश्रीजी भी अध्यात्म प्रवृत्ति की थीं। | श्री पद्माश्रीजी| मासक्षमण, पासक्षमण, 6 अठाई, वर्षीतप, सिद्धितप, 20 स्थानक, वर्धमान तप, कर्मसूदन तप, 15 शिष्याएँ, संवत् 2043 भावनगर में दिवंगत | श्री देवश्रीजी | 1950 महुआ छोटालालभाई| 1977 आषा. शु. 10/ महेसाणा 6. O| श्री सुभद्राश्रीजी | 1955 भावनगर | शा. हुकमचंद | 1978 वै. शु. 11 | भावनगर 7. श्री प्रमोदश्रीजी | 1971 खंभात | सकरचंदभाई |1983 आषा. शु. 8 | राजनगर जैन श्रमणियों का बृहद इतिहास | 667. जिनशासन नां श्रमणीरत्नो, पृ. 432-93 Page #575 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 513 साध्वी नाम 8. श्री चंद्राश्रीजी क्रम 9. श्री पुष्पा श्रीजी 10. श्री देवेन्द्र श्रीजी 11. 4 श्री राजेन्द्र श्रीजी 12. श्री जयाश्रीजी 13. 4 श्री कंचनश्रीजी 14. श्री चारित्रश्रीजी 15. 4 श्री श्रीमती श्रीजी जन्म संवत् स्थान पिता नाम कस्तूरचंद गांधी ताराचंदभाई 17. श्री पूर्णभद्राश्रीजी 1945 खंभात 1963 खंभात खंभात 1961 खंभात - खंभात खंभात 1968 गोंडल 1972 खंभात 16. 4 श्री चन्द्रलताश्रीजी गोधरा 18. 4 श्री सरस्वती श्रीजी 1974 अमदाबाद ताराचंदभाई छोटालाल भाई खूबचंदभाई 1988 ज्ये. शु. 4 1 दीक्षा संवत् तिथि दीक्षा स्थान गुरूणी 1984 मा. शु.5 श्री गुणाश्रीजी श्री प्रभाश्रीजी गुलाबचंद भाई अमृतलाल 1985 का. कृ. 10 1988 ज्ये. शु. 4 1989 मा. शु. 10 1989 वै. कृ. 11 1990 मृ.शु. 10 खभात शकरपुर खुभात पालीताणा अमदाबाद अमदाबाद श्री पुष्पाश्रीजी श्री गुण श्रीजी श्री देवी श्रीजी श्री चंद्रश्रीजी विशेष विवरण (संवत् 2038 तक) अध्यात्म प्रवृत्ति, 4 शिष्याएँ, संवत् 199 पालीताणां में दिवंगत मासक्षमण, 20 स्थानक, वर्धमान तप, 45 आगम, सहस्रकूट, कल्याणक तप, 99 यात्रा 2 बार मासक्षमण, सिद्धितप कर्मसूदन, अष्टापद वर्षीतप गोधरा में भव्य जिनालय, नणंद-भोजाई पौषध शाला की प्रेरिका संवत् 2025 में स्वर्गस्थ देवभक्ति में रूचि एक शिष्या वर्धमान तप, उपधान, संवत् 2033 में स्वर्गस्थ श्री चंपक श्रीजी वर्धमान तप की 43 ओली, वर्षीतप एकांतर 581 आयंबिल 173 उपवास संवत् 2049 में दिवंगत तलस्पर्शी अध्ययन, संवत् 2043 साबरमती स्वर्गवास 3 शिष्या 3 प्रशिष्या श्री पुष्पा श्रीजी श्री प्रवीणाश्रीजी 101 ओली, मासक्षमण, 20 स्थानक, 16 उपवास, समोसरण, सिंहासन नवपद ओली, 99 यात्रा पुरूषार्थी शतायुमाता मुक्तिप्रभाजी व बहिन सुशीलाश्रीजी को खंभात में 20 वर्ष समाधि दिलवाई, समताभावी श्री चारित्र श्रीजी मासक्षमण, नवपद ओली, वर्धमान ओली 26 81 एकांतर आयबिल, शिष्या मनोरमाश्रीजी एवं प्रशिष्याएँ श्वेताम्बर परम्परा की श्रमणियाँ Page #576 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्रम | साध्वी नाम जन्म संवत् स्थान| पिता नाम दीक्षा संवत् तिथि | दीक्षा स्थान | गुरूणी विशेष विवरण (संवत् 2038 तक) | 19. श्री कीर्तिश्रीजी | - खंभात | फूलचंदभाई | 1991 मृ. शु. 3 | श्री जिनेन्द्र श्रीजी | बोटाद के एक चातुर्मास में 15 विरक्तात्माएं तैयार की, संवत् 2029 अमदाबाद में दिवंगत 20.0 श्री सद्गुणाश्रीजी - अमदाबाद मणिभाई 11992 मा. शु. 2 अमदाबाद श्री प्रभाश्रीजी | पिताश्री निपुणविजयजी आदि कुटुंब में 10 दीक्षाएं, संवत् 2034 अमदाबाद में स्वर्गस्थ 21. श्री रविन्द्रप्रभाश्रीजी| 1984 चाणस्मा | चतुरभाई | 1995 वै. शु. 13 | अमदाबाद |श्री प्रभाश्रीजी | वीसस्थानक, वर्धमान ओली 45, नवपद मेहता ओली, वर्षीतप, अठाई, 16 उपवास, 99 यात्रा, सुरीला कंठ, 12 शिष्या प्रशिष्या 22. श्री दोलतश्रीजी | 1967 सिहोर | रतिलालभाई | 2000 वै. शु. 6 | पालीताणा |श्री सौभाग्यश्रीजी | 16 उपवास, वर्षीतप, सिद्धितप, छ:मासी तप 23.0 श्री कमलप्रभाश्रीजी 1971 महोलेल | धनजीभाई | 2002 वै. शु. 10 | पालीताणा श्री देवीश्रीजी | 28 शिष्या-प्रशिष्या परिवार, दो पुत्रियों के साथ दीक्षा, संवत् 2041 अमदाबाद में दिवंगत 24. श्री शशिप्रभाश्रीजी | - महुवा | चुनीलाल 2003 वै. शु. 6 रोहीशाला श्री विद्युत्प्रभाश्रीजी अठाई, 15, नवपद ओली, वर्धमान ओली 7, बीस स्थानक, 10 शिष्या अनेक प्रशिष्याओं की गुरूणी. 25.0 श्री मुक्तिप्रभाश्रीजी | 1945 वासद | जेशिंगभाई। 2004 अषा. शु. 2 | श्री हीराश्रीजी | पुत्री सह दीक्षित, पूर्ण 100 वर्ष की 26. श्री हर्षप्रभाश्रीजी | 1988 त्रंबावटी | रतनलाल जी 2004 आषा. शु. 2 | - श्री देवेन्द्र श्रीजी | वर्षीतप, अठाई, रतनपावड़ी, वर्धमान | ओली, 20 स्थानक आदि तप संवत् 2043 में स्वर्गस्थ आयु करके संवत् | 2045 में स्वर्गस्थ 27. श्री कल्पलताश्रीजी 1972 पेथापुर | जेसिंगभाई | 2009 म. कृ.5 | अमदाबाद श्री चारित्राश्रीजी अठाई, 16, उपवास, नवपद ओली, 150 आयबिल, वर्धमान ओली 39 दोशी जैन श्रमणियों का बृहद इतिहास Page #577 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्वेताम्बर परम्परा की श्रमणियाँ क्रम साध्वी नाम जन्म संवत् स्थान पिता नाम | दीक्षा संवत् तिथि | दीक्षा स्थान | गुरूणी विशेष विवरण (संवत् 2038 तक) 28. श्री हर्षलताश्रीजी 1977 ढवाणा पुरूषोत्तमदास | 2010 वै. कृ.5 | अमदाबाद | श्री चारित्रश्रीजी |2 मासक्षमण, श्रेणीतप, सिद्धितप, जवेरी वर्षीतप, क्षीरसमुद्र, समवसरण, सिंहासन, चत्तारि, कर्मसूदन, बीस स्थानक, नवपद ओली, 17, 20 उपवास, 500 आर्यबल,45 आगम तप 29. श्री ललितयशाश्रीजी |1996 महुवा | गिरधरलाल | 2015 मा. शु.5 | महुवा श्री शशिप्रभाश्रीजी | पासक्षमण, मासक्षमण, सिद्धितप, दोशी श्रेणीतप, 20 स्थानक, कर्मप्रकृति तप |30. श्री कीर्तियशाश्रीजी |1995 मुंबई रवजीभाईशाह | 2015 मा. कृ. 2 | सांताक्रूझ श्री प्रवीणाश्रीजी | वर्षीतप, नवपद ओली, वर्धमान ओली 13, बीस स्थानक शिष्याएँउदययशाश्री, तिलकयशाश्री, मित्र यशाश्रीजी 31. श्री रत्नमालाश्रीजी 1988 बोटाद नवलचंदभाई | 2017 श्री रवीन्द्रप्रभाश्रीजी | व्याकरण न्याय सिद्धांत में प्रवीण, वक्तृत्व कला, 5 शिष्या-पीयूषपूर्णा श्री, राजपूर्णाश्री, यशपूर्णाश्री, धर्म रत्नाश्री, प्रियरत्नाश्री 132. श्री नयप्रज्ञाश्रीजी 1995 पाटण डाह्याभाई 2019 मा. कृ.5 | पाटण | श्री हेमलताश्रीजी | अध्ययनसह 500 एकांतर आबिल, बीस स्थानक, वर्धमान ओली 87, वर्षीतप, कल्याणक तप |33. श्री जयपूर्णाश्रीजी |- महुवा चंदुलालशाह 1 2020 फा. शु. 3 | महुवा श्री शशिप्रभाश्रीजी | सिद्धितप, वर्धमान तप की ओली आदि। | 34. श्री हर्षपूर्णाश्रीजी 2001 अमरेली भगवानजी | 2020 फा. शु. 3 | महुवा श्री शशिप्रभाश्रीजी | वर्षीतप, अठाई, 16, पासक्षमण, ध्रुव मासक्षमण, सिद्धितप, बीस स्थानक, कल्याणक, वर्धमान ओली 20, शिष्या-सौम्यगुणाश्री 135. श्री जयधर्माश्रीजी 1958 सिहोर |- | 2022 श्री कमलप्रभाश्री गृहस्थावस्था में 11, 15, 16 मास क्षमण, 14 वर्षीतप, वर्धमान ओली 31 सिद्धितप, श्रेणीतप, सिंहासन, समवसरण, कई अठाइयां। पुत्री नयपूर्णाश्री व प्रपौत्री अनंतपूर्णाश्री दीक्षित। संवत् 2039 में स्वर्गस्था Page #578 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . (www.jainelibrary om 516 क्रम 36. 37. 39. 38 श्री वारिषेणाश्रीजी 40. 41. 42. साध्वी नाम श्री राजप्रज्ञाश्रीजी O श्री विश्वरत्नाश्रीजी 2011 महुवा जन्म संवत् स्थान पिता नाम 1996 मांडवी मणिलाल महेता श्री उदययशाश्रीजी श्री लक्षगुणाश्री श्री यक्षपूर्णाश्रीजी 1994 घाटकोपर 2005 ध्रांगध्रा - महुवा नगीनदास दोशी श्री कीर्तिषेणाश्रीजी 2006 घाटकोपर रायचंद गांधी 2025 मृ. कृ. 3 1975 सिहोर त्रिभोवनदास दीक्षा संवत् तिथि दीक्षा स्था 2023 पो. शु. 11 अमदाबाद - मा. कृ. 11 दलीचंदभाई 2025 मृ. कृ. 3 व्रजलाल पारेख दलीचंदभाई 2028. कृ. 12 2028. शु. 4 2028 वै. कृ. 5 महुवा मुंबई अहमदाबाद श्री शशिप्रभाश्रीजी ध्रांगध्रा महुवा गुरूणी विशेष विवरण (संवत् 2038 तक) श्री शशिप्रभाश्रीजी विशारद, संस्कृत भूषण, तप- पास क्षमण, मासक्षमण, सिद्धितप वर्षीतप 20 स्थानक आदि । तीन शिष्याएँ- विश्वरत्नाश्री, कोटीगुणाश्री, भव्यरत्नाश्रीजी । सिहोर श्री राजप्रज्ञाश्रीजी श्री शशिप्रभाश्रीजी श्री कीर्तियशा श्रीजी श्री शशिप्रभाश्रीजी श्री रत्नमालाश्रीजी 6 कर्मग्रंथ, योगशास्त्र, ज्ञानसार, संस्कृत का अभ्यास, तप-8, 15 उपवास आगम-ग्रंथों का ज्ञान, तप- वर्षीतप, चौबीसी, नवपद ओली, 20 स्थानकतप आगम ग्रंथों की अभ्यासी, तप- 15 उपवास, मासक्षमण, सिद्धितप वर्षीतप, 20 स्थानक, नवपद ओली, वर्धमान ओली, चौबीसी तप । अभ्यास श्रेष्ठ, तप- 16, उपवास, वर्धमान ओली 15, 20 स्थानकतप अभ्यास श्रेष्ठ, तप- 11 उपवास, वर्षीतप सिद्धितप, नवपद ओली, बीस स्थानक मासक्षमण, सिद्धितप, धर्मचक्र, डेढ़मासी, अढ़ीमासी, चारमासी, छः मासी, कर्मसूदन, वर्धमान ओली 36, सहस्रकूट, कर्मसूदन, 99 यात्रा, 2000 गाथा स्वाध्याय रोज, संवत् 2047 में स्वर्गस्थ, पुत्र सुमतिसागर व पौत्री दर्शितमालाश्री नाम से दीक्षित जैन श्रमणियों का बृहद इतिहास Page #579 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्रम | साध्वी नाम जन्म संवत स्थान | पिता नाम दीक्षा संवत् तिथि | दीक्षा स्थान | गुरूणा विशेष विवरण (संवत् 2038 तक) 36. श्वेताम्बर परम्परा की श्रमणियाँ दोशी श्री राजप्रज्ञाश्रीजी | 1996 मांडवी मणिलाल | 2023 पो. श. 11| अमदाबाद |श्री शशिप्रभाश्रीजी | विशारद, संस्कृत भूषण, तप-पास|श्री तिलकयशाश्रीजी 2009 ध्रांगध्रा देवचंद महेता 2031 मा. कृ. 50 पचेली तीर्थ श्री कीर्तियशाश्रीजी | अभ्यास श्रेष्ठ, तप-सिद्धितप, वर्षीतप, मासक्षमण, 20 स्थानक, नवपद ओली 44. | श्री कोटीगुणाश्रीजी | - खूटवडा भगवानदास | 2034 वै. शु. 5 | महुवा श्री राजप्रज्ञाश्रीजी अभ्यास श्रेष्ठ, तप-नवपद ओली, वर्धमान ओली आदि। 45. | श्री सौम्यगुणाश्रीजी | - महुवा खांतिलाल | 2034 वै. शु.5 | महुवा श्री हर्षपूर्णाश्रीजी तप-वर्धमान ओली चालु, नवपद दोशी ओली, 20 स्थानक आदि 46. श्री ज्योतिर्धराश्रीजी 2003 भावनगर | दामजी महेता 2034 मृ. कृ. 3 | भावनगर श्री हेमलताश्रीजी | अभ्यास श्रेष्ठ, तप-क्षीरसमुद्र, 15 उपवास, बीस स्थानक, वर्धमान, ओली 32, 500 एकांतर आयंबिल। 47. | श्री सुविदिताश्रीजी | 2017 साबरमती | चीनुभाई शाह 2035 मा. शु. 5 | साबरमती श्री हेमलताश्रीजी तप-नवपद ओली, वर्धमान ओली आदि। श्री भव्यरत्नाश्रीजी | - मोरबी डाह्यालाल | 2035 27. शु. 3 | भावनगर श्री राजप्रज्ञाश्रीजी | अभ्यास श्रेष्ठ, तप-मासक्षमण, भाई वर्षांतप,16 उपवास, बीस स्थानक आदि। 49. श्री विपुलमतिश्रीजी 2015 भावनगर | शांतिलालशाह 2037 फा. कृ.7] भावनगर श्री चरणधर्माश्रीजी | अभ्यास श्रेष्ठ, सामान्य तप आदि। Page #580 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 518 क्रम साध्वी नाम 1. श्री सुशीला श्रीजी राणी - मरूधर 2. A 3. श्री भक्ति श्रीजी 4. श्री कमलश्रीजी (ङ) आचार्य नीतिसूरीश्वरजी का श्रमणी - समुदाय 68 दीक्षा संवत् तिथि दीक्षा स्थान गुरूणी 1995 पो. कृ. 5 वालीगांव 5. श्री सुनंदाश्रीजी जन्म संवत् स्थान पिता नाम गणेशमलजी श्री महायशाश्रीजी 1984 वांढिया 6. श्री कंचन श्रीजी 7. श्री चंद्राश्रीजी विसलपुर विजोवा रामचंद्रभाई 1962 कोठ (गु.) फतलाल 1958 मुजपुर राजपारभाई (कच्छ) वनेचंदजी 1973 नायका (गु.) हालचंदभाई 668. 'श्रमणीरत्नो', पृ. 494-516 मोहनलाल 2019 - सं. 2044 वडनगर 1987 आषा. शु. 13 1992 का शु. 5 1992 का शु. 5 t ' 1 श्री भुवनश्रीजी सुशीलाश्रीजी जतनश्रीजी श्री धनश्रीजी विशेष विवरण उपधान, नवपद ओली, बीस स्थानक, सिद्धितप, दो वर्षीतप वर्धमान ओली तप किया। शांतमूर्ति विदुषी । अनेकविध तपस्या, 70 के लगभग शिष्या - प्रशिष्या, 85 वर्ष की उम्र में स्वर्गस्थ महिमाश्रीजी साठ वर्ष की उम्र में 45 दिन का तप, सूरत में दिवंगत शत्रुंजय की 12 बार 99 यात्रा, ऊना- देलवाड़ा, आदि 7 तीर्थों की 9 बार यात्रा, सभी चातुर्मास तीर्थ-स्थानों। में किये । तप-क्षीरसमुद्र, 9 उपवास 9 बार, 14, 16, 11 उपवास, 5 उपवास 5 बार, मासक्षमण, चार, मोटां समव सरण, सिद्धितप, 36 ओली, सिद्धचक्र, वर्धमान ओली 43, अठाई 50, 40 उपवास में समाधियुक्त मरण । एक करोड़ महामंत्र का जाप, संवत् 2024 आबूरोड में दिवंगत, श्री निर्मला श्रीजी (एम. ए.) मातेश्वरी श्री महिमाश्रीजी विनयी, सेवाभाविनी, संवत् 2036 'हारीज' ग्राम में स्वर्गस्थ मासक्षमण, सिद्धितप, चत्तारि, सिंहासन, समवसरण, सहस्रकूट, वर्षीतप अठाई 6, संवत् 2042 अमदाबाद में दिवंगत जैन श्रमणियों का बृहद इतिहास Page #581 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 519 क्रम 8. 9. 10. क्रम 1.0 2. साध्वी नाम श्री सूर्योदया श्रीजी 1985 राधनपुर श्री दक्षाश्रीजी राधनपुर जन्म संवत् स्थान पिता नाम प्रभुलालभाई श्री दर्शन श्रीजी 3. 0 श्री देवी श्रीजी 1970 अमदाबाद 669. वही, पृ. 523-544 बापुलालभाई छाणी सकरचंदभाई ( वर्तमान में श्री सुबुद्धि विजयगणी) दीक्षा संवत् तिथि 2001 वै. कृ. 11 2002 वै. शु. 10 श्री सुमंगलाश्रीजी बापुलालभाई 1996 पो. कृ. 5 राधनपुर महिमाश्रीजी (च) आचार्य विजयसिद्धिसूरीश्वरजी ( बापजी ) महाराज का श्रमणी समुदाय 69 साध्वी नाम जन्म संवत् स्थान पिता नाम दीक्षा संवत् तिथि दीक्षा स्थान गुरूणी विशेष विवरण श्री दयाश्रीजी 1953 कपड़वंज साकरचद 1971 1983 पो. कृ. 5 दीक्षा स्थान गुरूणी राधनपुर 1984 वै. शु. 11 राधनपुर महेसाणा कंचनश्रीजी अमदाबाद महिमाश्रीजी श्री दानश्रीजी श्री दयाश्रीजी विशेष विवरण शांत, भद्रिक, सं. 2031 सुरेन्द्रनगर में स्वर्गस्थ श्री हीरश्रीजी 8, 10, 16 उपवास, बीस स्थानक, कल्याणक, 13 काठिया वर्षीतप 500 आयबिल, वर्धमान ओली 100 पूर्ण करने का संकल्प संवत् 2001 में दिवंगत मासक्षमण, 16, 8, वर्षीतप, नवपदओली, 20 स्थानक, 99 यात्रा, संवत् 2016 पालीताणा में दिवंगत, 28 साध्वियों का परिवार, ज्ञानी सेवाभाविनी प्रखरवक्ता, मितभाषी, 16, 8 उपवास, वर्षीतप चत्तारि, सिद्धितप, चौमासी 4 बार, डेढ़मासी, ढाईमासी, 6 मासी, वर्धमान ओली 30 बीस स्थानक, सिद्धाचल, नवपद ओली, 99 यात्रा मासक्षमण, 21, 11, 16 उपवास, चार मासी 10, छ: मासी 2, पांच दिन कम छहमासी तप, 229 छट्ठ 12 अट्ठम, 2 मासी दो, डेढमासी 2, अढ़ीमासी 2, वर्षीतप 2, समवसरण, सिंहासन, 84 शिष्या - प्रशिष्या परिवार में 11 जन दीक्षित, सं. 2030 छाणी में दिवंगत श्वेताम्बर परम्परा की श्रमणियाँ Page #582 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्रम | साध्वी नाम जन्म संवत् स्थान | पिता नाम | दीक्षा संवत् तिथि | दीक्षा स्थान गुरूणी विशेष विवरण 520 4. श्री सुताराश्रीजी | 1976 महेसाणा |भाईलालभाई | 1987 वै. शु. 10 अमदाबाद | मृगांक श्रीजी कर्तव्यपरायणा, सेवाभाविनी, संवत (वर्तमान में (माता व गुरूणी)| 2024 में स्वर्गस्थ, शासनप्रभाविका आचार्य भद्र करसूरिजी) .0|चंद्रोदयाश्रीजी - वडोदरा | मणिलालभाई | 1990 आषा. शु2 | अमदाबाद | प्रभंजनाश्रीजी वर्धमान ओली, 500 एकांतर आयंबिल, ढाईसौ, डेढसौ, तीनसौ आयंबिल, छ: अठाई, 5 तिथि 6 विगय का त्याग, 25 साध्वी परिवार, संवत् 2031 जीजुवाड़ा में स्वर्गस्थ 6. | श्री सुलोचनाश्रीजी 1982 पाटण पोपटभाई | 1994 का. कृ. 11 | कंबोई सुनंदाश्रीजी |न्याय, व्याकरण, साहित्य आगम आदि का अध्ययन, स्याद्वादमंजरी, हीरसौभाग्य, शाब-प्रद्युम्न चरित्र आदि का गुजराती अनुवाद, सिद्धितप, वर्षीतप, 500 आयंबिल, एकासणा, 20 स्थानक, नवपद-वर्धमान ओली, 99 यात्रा 5 आदि तप। 7.0 राजेन्द्रश्रीजी 1964 सूरत लचंदभाई | 1996 वै. शु. 14 | सुरत | ताराश्रीजी 42 वर्षीतप, इसमें छट्ठ व अट्टम से भी किया, संवत् 2039 में दिवंगत 8. चंद्रप्रभाश्रीजी J- साणंद मगनभाई 1997 मा. शु. 6 | अमदाबाद प्रभंजनाश्रीजी | मासक्षमण, 16 उपवास, सिद्धितप 2, श्रेणितप, वर्षीतप 3, बीस स्थानक, नवपद,500 आयबिल, वर्धमान ओली 26, ज्ञानपंचमी, चत्तारि, चौमासी तप 3, शिष्याएँ 2, स्वर्गारोहण-संवत् 2047 पालीताणा 19. A] रत्नप्रभाश्रीजी बावला वाडीलालशाह 1999 मा. शु. 6 | पालीताणा प्रभंजनाश्रीजी मासक्षमण, 11, 16, 36 45 उपवास, वर्षीतप 4,सिद्धितप, 500 आयबिल, वर्धमान ओली 32, 135 अटुम, बीस स्थानक, नवपद, ग्यारस आदितप, जैन श्रमणियों का बृहद इतिहास । Page #583 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्रम साध्वी नाम जन्म संवत् स्थान | पिता नाम | दीक्षा संवत् तिथि |दीक्षा स्थान | गुरूणी विशेष विवरण 10.0 मणिप्रभाश्रीजी पीठडिया श्वेताम्बर परम्परा की श्रमणियाँ 11. - सूर्यप्रभाश्रीजी बावला 2. रवीन्द्रप्रभाश्रीजी जामकंडोरणा 13.0 महानंदाश्रीजी दमण 521 सुरत 14. 15. नयानंदाश्रीजी जयानंदाश्रीजी शिष्या 2, स्वाध्यायी, स्वर्गारोहण 2043 अमदाबाद | हीराचंदभाई | 2003 वै. शु. 10 | अमदाबाद | सुमंगलाश्रीजी भव्य मंदिर निर्माण, उपाश्रय, पाठ शालाएँ आदि की स्थापना | मगनलाल | 2006 मृ. शु. 6 अमदाबाद रत्नप्रभाश्रीजी मासक्षमण, 16 उपवास, वर्षीतप 2, 500 आयंबिल दो बार, बीस स्थानक, वर्धमान ओली 90, नवपद, ज्ञानपंचमी, मोटा जोग। दलीचंद | 2010 मृ. शु.3 धोराजी | रत्नप्रभाश्रीजी 16, 8 उपवास, सिद्धितप, चत्तारि महेता अट्ठ, नवकारतप, 500 आयंबिल 2 बार, वर्षीतप 3 बीस स्थानक, नवपद, वर्धमान ओली 59.पंचमी तप, शिष्या 2 नवलचंदभाई | 2010 मा. शु. 10 | सरत च न्द्रोदयाश्रीजी इन्होंने सात संतानों में छः को दीक्षा दिलाई, संवत् 2028 सुरत में दिवंगत चीमनभाई महानंदाश्रीजी सौम्य स्वभाव, समतावान, समाधि मृत्यु चीमनभाई महानंदाश्रीजी 100 ओली पूर्ण, मासक्षमण, वर्षीतप श्रेणितप, सिद्धितप, समवसरण आदि तप चीमनभाई | 2010 मा. शु. 10 | सुरत महानंदाश्रीजी सरल, स्पष्टवक्त, विनयी, सेवाभाविनी मोहनभाई महानंदाश्रीजी ग्रेन्युएट, विनयी, वर्षीतप, नवपद ओली चमनभाई | 2013 मा. शु. 9 | जामनगर हर्षप्रभाश्रीजी तप-7, 8, 9, 16 उपवास, वर्षीतप, 20 स्थानक, वर्धमान ओली *मोहनभाई महानंदाश्रीजी | दो पुत्र एक पुत्री दीक्षित, गंभीर, अन्त र्मुख वृत्ति उजमसीभाई | 2016 ज्ये. शु. 14 बोटाद जयपद्माश्रीजी | विदुषी, गंभीर, सरलस्वभावी उजमसीभाई 2016 ज्ये. शु. 14 बोटाद जयपद्माश्रीजी उजमसीभाई | 2026 वै. शु. 10 महाभद्राश्रीजी शांतिभाई | 2029 वै. शु. 12 कलकत्ता | रविन्द्रप्रभाश्रीजी | तप-16, 8 उपवास, सिद्धितप, श्रेणितप, 250 आयंबिल, नवपद सुरत सुरत 16. कीर्तिसेनाश्रीजी 17.0/नयरत्नाश्रीजी 18. A| विश्वप्रभाश्रीजी सुरत जामनगर 19.0/ चन्द्ररत्नाश्रीजी | सुरत 20. 21. महाभद्राश्रीजी जिनभद्राश्रीजी मनोभद्राश्रीजी हर्षनंदिताश्रीजी बोटाद बोटाद बोटाद -मुबंई 23. Page #584 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्रम साध्वी नाम । जन्म संवत् स्थान | पिता नाम दीक्षा संवत् तिथि | दीक्षा स्थान | गुरूणी विशेष विवरण ओली, वर्धमान ओली 39, बीस स्थानक, ज्ञानपंचमी, तप । ज्ञानाभ्यास श्रेष्ठ, 99 यात्रा गिरनार की 1 व शत्रुजय की 2 बार 24. पुण्यवर्धना श्रीजी | जामनगर वाडीलाल |2032 मा. शु. 5 | जामनगर विश्वप्रभाश्रीजी | अठाई, उपधान, मासखमण, 16 उपवास, बीसस्थान आदि रवीन्द्रप्रभाश्रीजी | | तप-अठाई, बीस स्थानक, नवपद, | 25. - शासनरत्नाश्रीजी | अमदाबाद कांतिलालशाह | 2041 ज्ये. कृ. 5 | राजकोट (1) जैन श्रमणियों का बृहद इतिहास Page #585 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 523 क्रम 1. A 2. प्र. कर्पूर श्रीजी 3. 0 श्री माणेक श्रीजी 4. साध्वी नाम प्र. दानश्रीजी 6. A 7. A 670. श्री तिलक श्रीजी (छ) आचार्य विजयवल्लभसूरीश्वरजी का श्रमणी - समुदाय 70 जन्म संवत् स्थान पिता नाम दीक्षा संवत् तिथि दीक्षा स्थान गुरूणी विशेष विवरण 1939 चरोतर मूलजीभाई 1956 वै. शु. 6 होश्यारपुर 1949 खंभात 5. प्रवर्तिनी विनीताश्री 1968 बालापुर - वडोदरा 1967 कपड़वंज प्र. श्री पुष्पा श्रीजी 1968 पंजाब मोंघीबहेन (माता) बापुभाई (राजवैद्य) पानाचंद दलीचंदभाई श्री विद्याश्रीजी कपड़वंज जिनशासननां श्रमणीरत्नो, पृ. 546-91 1967 मा. कृ. 5 1968 - 1984 वै. कृ. 5 1985 पो. कृ. 7 1986 न्यालचंदभाई 1991 मृ. शु. 6 सुरत वडोदरा पाटण बालापुर श्री देवश्रीजी कंकुश्रीजी दानश्रीजी श्री दानश्रीजी हेमश्रीजी श्री चित्तश्रीजी दानश्रीजी हेतश्री, कुसुमश्री, वसंतश्री, शांति श्री, प्रधानश्री, नंदाश्रीजी, विद्याश्रीजी, विनयश्रीजी, प्रीति श्रीजी आदि शिष्याएँ कांतिश्री, सौभाग्यश्री, चंपाश्रीजी, कुसुमश्री, प्रियंकराश्री, विनोदश्री, यशकीर्तिश्री आदि 7 शिष्याएँ, यशकीर्तिजी की 3 शिष्याएँ-किरणयशा श्रीजी, मेरूशीलाश्रीजी, महायशाश्रीजी तपा. साध्वियों में मुंबई का प्रथम चातुर्मास करने वाली, ऊटी देशोद्धारिका इन्दौर में स्वर्गस्थ शिष्या - भद्राश्री, प्रशिष्या-सुज्ञानश्री, सुधर्माश्री, प्रवीण श्री, प्रशांत श्रीजी । संवत् 2029 पालीताणां में स्वर्गवास मासक्षमण, वर्षीतप 2, वर्धमान ओली 55, बीशस्थानक, सहस्रकूट, कल्याणक, ओच्छवतप, पंचमी, 12 तिथिएकाशन । स्वावलंबी, सुदीर्घ संयमी दो शिष्याएँजयकांता श्री, विरागरसाश्रीजी जैन सिद्धांतविद्, कई अजैनों को मांसमद्य छुड़वाया, संवत् 2028 पालीताणा में स्वर्गस्थ दो शिष्याएँ - ॐकार श्रीजी, विद्युत्प्रभाश्रीजी श्वेताम्बर परम्परा की श्रमणियाँ Page #586 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्रम | साध्वी नामजन्म संवत् स्थान | पिता नाम दीक्षा संवत् तिथि | दीक्षा स्थान | गुरूणी । विशेष विवरण 8. श्री शीलवतीश्रीजी राणपरड़ा *डुंगरशीभाई 1995 9.0 प्र. श्री विज्ञानश्रीजी 1959 प्रहलादनपुर वालजी गांधी 1999 फा. शु. 2 | 10. | श्री सुज्येष्ठाश्रीजी |1985 सोपार 2005 - 11.0|श्री कनकप्रभाश्रीजी 1971 जवाहरनगर| ओघवजी 2008 मा. शु. 13 524 12. श्री कमलप्रभाश्रीजी |- अंगीया टोकरशीभाई | 2008 मा. शु. 13 पालीताणा व्यवहारदक्ष, शासनप्रभाविका, मृगावती श्रीजी के अभ्युदय हेतु जीवनभर तप करनेवाली हितेषिणी माता, संवत् 2024 मुंबई में स्वर्गवास श्री चित्तश्रीजी आकोला में 'विज्ञान पाठशाला' का निर्माण, कुमुदश्री जयश्री शिष्याएँ संवत् | 2035 आकोला में स्वर्गस्थ सोपार (गु.)| श्री शीलवतीजी | स्वर्गवास संवत् 2041 वल्लभ स्मारक में। समाधि पर 'सेवा साधना समर्पण अंकित है। समताश्रीजी निर्भीक, आंगीया में वल्लभविहार की प्रेरणा, कमलप्रभा पुत्री व शिष्या। कनकप्रभाश्री | जयप्रज्ञा, विशिष्टप्रज्ञा, ऋजुप्रज्ञा, रक्षितप्रज्ञा, सौर्यप्रज्ञा, शीलप्रज्ञा, हितदर्शिताश्री, पुण्यदर्शिताश्री, निजात्मदर्शिताजी आदि शिष्याएँ | अंबाला जशवंतश्रीजी | इन्दौर की सर्वधर्मगोष्ठी में प्रभावी प्रवचनकर्ता,संवत् 2038 सादाबाद में स्वर्गस्थ, एक शिष्या हिंगणघाट माणेक श्रीजी | अंतरिक्ष तीर्थरक्षिका, शासनज्योति | विरूद आगरा श्री पुष्पाश्रीजी | दो पुत्र एक पुत्री व पति दीक्षित, श्रेणीतप, सिद्धितप, सिंहासन, समवसरण तप, 51 उपवास, वर्धमान | ओली, प्रतिवर्ष अठाई प्रतिवर्ष ज्ञानशिविर का आयोजन, संवत् 2049 जामनगर में स्वर्गस्थ 13. श्री प्रियदर्शनाश्रीजी 1994 गुजरात मनोहरलालजी | 2017 म. शु. 6 14. श्री सुमतिश्रीजी भुजग्राम माणेकलाल - फा. कृ.2 15.0/ गुणप्रभाश्रीजी *जंडियाला 2027 - *बाबुलाल दुग्गड़ जैन श्रमणियों का बृहद इतिहास Page #587 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (ज) आचार्य श्री विजयलब्धिसूरिजी का श्रमणी समुदाय 71 जन्म संवत् स्थान पिता नाम दीक्षा संवत् तिथि दीक्षा स्थान |गुरूणी विशेष विवरण क्रम | साध्वी नाम 1. - श्री नंदनश्रीजी | 1934 वढवाण | मूलजीभाई | 1993 चै. कृ. 5 श्वेताम्बर परम्परा की श्रमणियाँ 2. 0 श्री प्रियंकराश्रीजी | - छाणी जयतिभाई | 1997 म. कृ. 10 | अमदाबाद श्री सूर्यप्रभाश्रीजी | 1985 छाणी भीखाभाई | 2000 - ऊंडदी श्री जयपद्माश्रीजी | 1987 छाणी भीखाभाई 2003 - वापी . श्री आत्मप्रभाश्रीजी 1984 दमण श्री दिव्यप्रभाश्रीजी 1985 दमण चुनीभाई |चुनीभाई 2004- 2004 - दमण दमण 525 श्री ललिताश्रीजी | संवत् 2026 शिहोर में स्वर्गस्थ, हंसा श्रीजी, निर्मलाश्री शिष्या। श्री चरणश्रीजी | दो पुत्रियां दीक्षित, संवत् 2024 वलसाड में स्वर्गस्थ श्री महेन्द्र श्रीजी | वर्षांतप, 500 आयंबिल, चत्तारि., 16 उपवास आदि तप, ग्रंथरचना भी की हैं। सूर्यप्रभाश्रीजी 16 उपवास, चत्तारि अट्ट, वर्षीतप आदि तप श्री सुव्रतश्रीजी | वर्षीतप, मासक्षमण, नवकार तप |श्री सुव्रतश्रीजी | वर्धमान तप की 100 ओली, मास क्षमण, वर्षीतप 2, श्रेणितप, सिद्धितप, 16 उपवास आदि तप श्री सुव्रतश्रीजी | 15, 8, 7, 6 उपवास, वर्धमान 100 ओली पूर्ण पुनः 36 ओली, 500 आयंबिल, वर्षीतप, 20 स्थानक आदि तप, शिष्या पद्मयशाश्री सर्वोदयाश्रीजी वर्षीतप, 8, 16 मासक्षमण, 45 उपवास, मद्रास में स्वर्गस्थ सर्वोदयाश्रीजी | मासक्षमण 2, आयंबिल ओली 65, सिद्धितप, 500 आयंबिल, 16, 81 उपवास, अध्ययन श्रेष्ठ सूर्यप्रभाश्रीजी 1500 आर्यबिल, सिद्धितप, अठाई आदि तप| श्री जयंतश्रीजी | संसारीपति श्री जयचंद्रविजयजी, संवत् 2043 नवसारी में स्वर्गस्थ 7. श्री जिनेन्द्र श्रीजी | 1992 दमण बाबुभाई | 2007 वै. शु. 11 | दमण 8. 0 श्री चंद्रयशाश्रीजी | 2000 खंभात पूजालालभाई | 2015 - खंभात श्री नयपद्माश्रीजी | 2006 खंभात नटवरलालभाई 2020 - - 10. श्री भव्यज्ञाश्रीजी | 2003 छाणी | श्री पद्मयशाश्रीजी कनुभाई 2022 - 2023 वैशाख छाणी पालीताणा 671. जिनशासननां श्रमणीरत्नो, पृ. 653-84 Page #588 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्रम | साध्वी नाम जन्म संवत् स्थान | पिता नाम दीक्षा संवत् तिथि दीक्षा स्थान गुरूणी विशेष विवरण 12.0 | श्री चारूप्रज्ञाश्रीजी |2002 सिहोर छोटालाल | 2023 13. 14. श्री तारकयशाश्रीजी |2010 खंभात श्री दीपयशाश्रीजी |2008 खंभात नटवरलालभाई - - | नटवरलालभाई| 2027 वै. कृ. 2 15. | श्री संघयशाश्रीजी |2007 जामवंथली | प्रेमचंदभाई 12029 मा. शु.4 16. 17. श्री विमलयशाश्रीजी 2016 एडन श्री कल्पनंदिताश्रीजी 1954 डूंगरपुर शांतिलाल अमृतभाई | 2030 ज्ये. शु. 13 12031 - हंसकलाश्रीजी | 16 उपवास, सिद्धितप, समवसरण, 57 ओली शंखेश्वर दीपयशाश्रीजी मासक्षमण, वर्षीतप, वर्धमानओली | सिकंदराबाद | नयपद्माश्रीजी 36,51,68 उपवास, 20 उपवास 20 बार, 20 अठाई, 25 मासक्षमण, दो वर्षीतप, एक वर्ष में 71 अट्टम, उग्र तपस्विनी लखनऊ | सुधांशुयशाश्रीजी 46 उपवास, संवत् 2031 अमदाबाद में 51 उपवास के साथ स्वर्गस्थ अर्हत्प्रज्ञाश्रीजी अठाईतप, सामान्य ज्ञान। ईडर आत्मप्रभाश्री मासक्षमण, सिद्धितप, वर्षीतप आदि शिहोर हंसकलाश्रीजी 9,11, 16 उपवास, सिद्धितप, 500 आयंबिल, धर्मचक्र, दो अठाई मालेगांव | हेमप्रभाश्रीजी 500 आयंबिल, 16 उपवास, धर्मचक्र, सिद्धितप, दो अठाई शंखेश्वर कल्पनंदिताश्री मासक्षमण, वर्षीतप, सिद्धितप, बीस स्थानक तप, वर्धमान तप की ओली आदि तप। श्री अध्यात्मकलाश्री 2010 सिहोर 526 छोटालाल | 2033 19. श्री अभयप्रज्ञाश्रीजी 1963 पूना लक्ष्मीदास 2038 20. | श्री गुणनंदिताश्रीजी |2021 ईडर | अमृतभाई अमृतभाई | 2041 - ____ -संकेत चिन्ह0 पतिवियोग ० सुहागिन - बालब्रह्मचारिणी * श्वसुरपक्ष जैन श्रमणियों का बृहद इतिहास Page #589 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्याय 6 स्थानकवासी परम्परा की श्रमणियाँ Page #590 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 528 528 ..... 528 528 6 (क) धर्मवीर लोकाशाह और उनकी धर्मक्रांति.... 6 (ख) स्थानकवासी नामकरण ...... 6. (ग) स्थानकवासी श्रमणियाँ... ....................... ...... ................................................ 6.1 लोंकागच्छीय श्रमणियाँ ....................... 6.2 क्रियोद्धारक आचार्य श्री जीवराजजी महाराज की श्रमणी-परम्परा.......... 6.3 क्रियोद्धारक श्री लवजीऋषिजी की परम्परा ....................... 543 6.4 क्रियोद्धारक श्री धर्मसिंहजी महाराज व दरियापुरी संप्रदाय की श्रमणियाँ ........ 6.5 क्रियोद्धारक श्री धर्मदासजी महाराज तथा गुजरात-परम्परा... ................. 614 6.6 क्रियोद्धारक आचार्य श्री हरजीऋषिजी परम्परा .................... ......................669 6.7 हस्तलिखित प्रतियों में स्थानकवासी जैन श्रमणियों का योगदान................... 689 531 607 Page #591 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्याय 6 स्थानकवासी परम्परा की श्रमणियाँ 6 (क) धर्मवीर लोकाशाह और उनकी धर्मक्रांति जैन मध्ययुग के इतिहास को यदि हम क्रियोद्धारकों का इतिहास कहें तो कोई अत्युक्ति नहीं होगी। धर्म के आगम-सम्मत स्वरूप एवं विशुद्ध श्रमणाचार में चैत्यवासी परम्परा द्वारा उत्पन्न की गई विकृतियों के उन्मूलन के लिये समय-समय पर महापुरूषों द्वारा क्रियोद्धार किये गये श्वेताम्बर - परम्परा में मूर्तिपूजा के विरुद्ध अपना स्वर मुखर करने वालों से लोकाशाह प्रथम व्यक्ति थे। उन्होंने जो क्रियोद्धार का शंख फूंका, वह उनके द्वारा लिखित कामत प्रतिबोध कुलक, लोंकाशाह के 34 बोल, 58 बोल की हुंडी, लोंकाशाह द्वारा द्रव्य - परम्परा के कर्णधारों को पूछे गये 13 प्रश्नों द्वारा प्रगट होता है। लोकाशाह ने तत्कालीन समाज में व्याप्त जिनप्रतिमा, जिनप्रतिमा निर्माण, पूजन, मंदिर निर्माण और जिनयात्रा की हिंसा से जुड़ी हुई प्रवृत्तियों को भी धर्म विरूद्ध बताया और आडम्बर रहित शुद्ध धर्म का उपदेश देना प्रारंभ किया । इन्हीं दिनों सिरोही, अरहट्टवाड़ा, पाटण और सूरत ये चार संघ यात्रा करते हुए अमदाबाद आये। लोकाशाह के साथ इनकी विस्तृत धर्मचर्चा हुई, उससे प्रभावित होकर संघपति नागजी, दलीचंदजी, मोतीचंदजी और शम्भूजी के नेतृत्व में 45 मुमुक्षु जन वैराग्य के प्रगाढ़ रंग से अनुरंजित होकर शुद्ध आचार निष्ठ श्रमणधर्म में दीक्षित हुए। यह घटना वि. सं. 1531 (ई. 1474) की ज्येष्ठ शुक्ला 5 को हुई। कहीं कहीं 45 व्यक्तियों में लखमसी जी, नूनांजी, शोभाजी, डूंगरसीजी, भाणांजी प्रमुख व्यक्तियों का लोकाशाह की प्रेरणा से यति परम्परा में दीक्षित होने का उल्लेख है। 2 लोकागच्छ में आगे चलकर रूपाजी से गुजराती लोंकागच्छ (सं. 1568) श्री हीरागरजी से नागोरी लोंकागच्छ (सं. 1580) सदारंगजी से लाहौरी लोंकागच्छ ( सं. 1608) की स्थापना हुई। उक्त गच्छों में जब मतभेद एवं पारस्परिक अनैक्य के कारण अनेक दोष उत्पन्न हो गये, धर्म के उपदेष्टा अपने लक्ष्य से च्युत होने लगे तब ऐसे विकट समय में पुनः क्रियोद्धार का संदेश लेकर 6 महापुरूष इस धरा धाम पर अवतरित हुए, वे छः महापुरूष थेश्री जीवराजजी, श्री लवजीऋषिजी, श्री धर्मसिंहजी, श्री धर्मदासजी, श्री हरजीऋषिजी, श्री हरिदासजी, लाहौरी। इन सबका समय 17वीं, 18वीं सदी के मध्य का है। 1. आचार्य श्री देवेन्द्रमुनिः प्रभापुंज श्री लोंकाशाह, श्रमणसंघ ज्योति, वर्ष 1 अंक 6 नवंबर - 2003 2. डॉ. सागरमल जैन डॉ. विजयकुमार जैन स्थानकवासी जैन परम्परा का इतिहास पृ. 142 - Page #592 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन श्रमणियों का बृहद इतिहास 6 (ख) स्थानकवासी नामकरण लोकाशाह द्वारा किये गये धर्मोद्धार के विशुद्ध स्वरूप का सर्वप्रथम नाम 'जिनमती' था, किंतु लोकाशाह के अनन्य उपकार की स्मृति में उनके अनुयायियों ने अपने गच्छ को 'लोंकागच्छ' के नाम से प्रचारित किया था। 18वीं सदी के प्रारंभ में महान प्रभावशाली क्रियोद्धारक आचार्य धर्मदासजी ने अपने 99 शिष्यों को जब 22 भागों में विभक्त कर पृथक्-पृथक् प्रांतों में धर्मप्रचार हेतु भेजा, तब से यह संघ 'बाईसटोला' या 'बाईसपंथी' के नाम से प्रसिद्ध हो गया। ये संत कठोर आचार-विचार का पालन करते हुए साधु के लिये निर्मित उपाश्रयों में नहीं ठहरते थे। निर्दोष स्थान की अन्वेषणा को प्रमुखता देने के कारण लोगों ने 'स्थानकवासी' नाम प्रदान कर दिया, आज यही नाम इस परम्परा के लिये सर्वप्रसिद्धि प्राप्त है। यद्यपि कहीं-कहीं इस परम्परा को 'ढूंढिये' नाम से भी संबोधित किया जाता है उसका अर्थ ज्ञान दर्शन चारित्र रूप रत्नत्रय के खोजी, आत्म-मंदिर में परमात्मा की खोज करने वाले तथा निर्दोष आहार-पानी एवं स्थान की खोज करने वाले के रूप में किया जाता है। 6. (ग) स्थानकवासी श्रमणियाँ लोंकागच्छ की स्थापना के पूर्व श्रमणियों को धर्मसंघ में पूर्ण स्वतन्त्रता प्राप्त नहीं थी, तत्कालीन मुस्लिम शासकों की पर्दा प्रथा एवं अन्य सामाजिक तथा राजनैतिक कारणों से श्रमणियों को महावीर काल में प्राप्त कई अधिकार लुप्तप्रायः हो गये थे। उन्हें शास्त्र पढ़ना, प्रायश्चित् देना, व्याख्यान देना, धर्मचर्चा करना, पठन-पाठन करना, पाट पर बैठना आदि अनेक अधिकारों से वंचित कर दिया गया था, गुरू आडम्बर ने श्रमणियों का स्वतन्त्र अस्तित्व ही नष्ट कर दिया था। लोकाशाह ने इन धर्म विरूद्ध परम्पराओं का भी विरोध किया, उनकी धर्मक्रांति के फलस्वरूप श्रमणियों को कई अधिकार पुनः प्राप्त हुए, फलस्वरूप अनेक महिलाएं इस आडम्बर विहीन त्यागमार्ग की ओर अग्रसर हुई। लोंकाशाह की मौलिक क्रांति एवं सामयिक जागरण में जिन महिलाओं ने सहयोग दिया उनमें श्री सोभाजी, गोधाजी, तथा इन्द्राजी के नाम विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं, इन्होंने ज्ञानमुनिजी की परम्परा की साध्वी श्री चरण महासतीजी के पास दीक्षा अंगीकार की। इनके अतिरिक्त संघपति श्री शम्भूजी की बाल विधवा पौत्री श्री मोहाबाई का भी उल्लेख आता है। जैन इतिहास में श्रमणियों की परम्परा श्रमणों के कारण ही अस्तित्व में आई है, अतः अग्रिम पृष्ठों पर लोंकागच्छ एवं उसके पश्चाद्वर्ती छः महापुरूषों की परंपरा जो आज स्थानकवासी परम्परा के रूप में प्रसिद्ध है, उनकी श्रमणियों का उल्लेख संक्षिप्त रूप में कर रहे हैं। 6.1 लोंकागच्छीय श्रमणियाँ 6.1.1 प्रवर्तिनी श्री धर्मवतीजी (सं. 1615 से 1642 के मध्य) नागोरी लोकागच्छ के तृतीय आचार्य श्री दीपागरजी स्वामी अत्यंत प्रभावशाली आचार्य थे, उनके ओजस्वी प्रवचनों का प्रभाव लुधियाना (पंजाब) के कोट्याधीश शाह श्रीचन्द्रजी ओसवाल की विवाहिता पुत्री धर्मवती पर 3. स्थानकवासी जैन परंपरा का इतिहास, पृ. 142 4. श्रमणसंघ ज्योति, नवंबर 2003 में आचार्य देवेन्द्रमुनिजी का लेख 530 Page #593 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्थानकवासी परम्परा की श्रमणियाँ पड़ा। उसने अपने श्वसुरकुल और पितृकुल इस प्रकार दोनों ही कुलों से सहर्ष अनुमति प्राप्त की, तत्पश्चात् अपनी तीन अन्य धर्मप्राणा सखियों सहित अत्यंत धूमधाम पूर्वक आचार्य श्री दीपागरजी स्वामी से दीक्षा- मंत्र लेकर श्रमणी धर्म में दीक्षित हुई। नागोरी लोकागच्छ में आचार्य श्री दीपागरजी स्वामी की धर्मशिष्या महासती श्री धर्मवती जी महाराज ही आद्या प्रवर्तिनी साध्वी हुई। इस साध्वी मंडल ने वहीं लुधियाना के आसपास 12 कोश के मंडल में विहार किया, अधिक नहीं। आचार्य दीपागरजी स्वामी संवत् 1615 में आचार्य पद पर अधिष्ठित हुए और 27 वर्ष तक आचार्य पद पर रहे अतः आर्या धर्मवती का समय भी यही सिद्ध होता है । " 6.1.2 आर्या पद्मा (सं. 1690 ) ये आर्या लालबाई की शिष्या आर्या मोहणदे की शिष्या थीं एवं गुजराती लोंकागच्छीय वरसिंहजी की आज्ञानुवर्तिनी थीं। इनकी 'नागलकुमार नागदत्त नो रास' की एक प्रतिलिपि सं. 1690 की महुआ, तिलकविजय भंडार में है ।" 6.1.3 आर्या रतनां (सं. 1690 के लगभग ) ये भी गुजराती लोंकागच्छीय साध्वी आर्या वीजां की शिष्या थी, इन्होंने भी 'नागल कुमार नागदत्त नो रास ' की प्रतिलिपि की थी, जो खेड़ा के ज्ञान भंडार में है । ' 6.1.4 आर्या जवणादे (सं. 1697) आप लोकागच्छीय देवमुनि के शिष्य श्री धर्मसिंहजी की शिष्या थीं। धर्मसिंहजी ने संवत् 1607 में 'मल्लिनाथ स्तवन' की रचना की, उसकी प्रशस्ति में गुरू परम्परा का उल्लेख करते हुए यह भी लिखा है कि इसकी प्रति आर्या जवणादे के पठनार्थ लिखी गई। आचार्य धर्मसिंहजी ने संवत् 1697 में 'शिवजी आचार्य रास' की रचना सोजत में की, इससे विद्वानों ने उनकी 'मल्लिनाथ स्तवन' की रचना को भी संवत् 1697 की माना है | 6.1.5 आर्या लोहागदेजी, सदाजी (सं. 1749 ) लोंकागच्छीय इन दोनों साध्वियों का उल्लेख संवत् 1749 को बीकानेर में लिखित 'सुबाहु चोढालियुं' की प्रतिलिपिकर्त्ता के रूप में है, यह कृति अभय जैन ग्रंथालय बीकानेर नं. 2839 में संग्रहित है। " 5. श्री उमेशमुनि 'अणु', प्रमुख संपादक पंडितरत्न श्री प्रेममुनि स्मृति ग्रंथ, पृ. 214-17 6. जै. गु. क. भाग 2, पृ. 123 7. वही, भाग 2, पृ. 123 8. हिं. जै. सा. इ., भाग 2, पृ. 249 9. वही भाग 5, पृ. 75 531 Page #594 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 6.1.6 आर्या केशरजी (सं. 1764) ये लोंकागच्छीय भीमजी के शिष्य तेजमुनि की आज्ञानुवर्तिनी आर्या फूलांजी की शिष्या आर्या नांनबाई की शिष्या थीं। 'जितारी राजा रास' की हस्तलिखित प्रति में आपका उल्लेख है, यह प्रति सूरत में ऋषि ठाकुर ने इनके पठनार्थ लिखी थी, जो 'डेहला नां अपासरा नो भंडार, अमदाबाद' (दा. 71, नं. 31 ) में संग्रहित है | 10 6.1.7 आर्या गोरजां, आर्या भागु (सं. 1771 के लगभग ) इनका नामोल्लेख स्थविर ऋषि श्री भाऊजी द्वारा लिखित हस्तप्रति 'चंदनमलयगिरि चौपई' जो संवत् 1771 की है, उसमें हुआ है। यह प्रति आपके वाचनार्थ लिखी गई थी, जो अनंतनाथ जी नुं मंदिर मांडवी, मुंबई नो भंडार में है । " जैन श्रमणियों का बृहद इतिहास 6.1.8 आर्या रत्ना ( 18वीं सदी) इनका उल्लेख राजस्थान प्राच्य विद्या प्रतिष्ठान जोधपुर (क्र. 782, ग्रं. 12320 ) में संग्रहित प्रतिलिपि 'दसारणभद्र चौढालियो ' में हुआ है, यह कृति 18वीं सदी की है, जो 'आर्या रत्ना पठनार्थ' लिखी गई थी, आर्या जी लुकागच्छी है। 12 6.1.9 आर्या लद्धाजी (सं. 1809 ) इन्होंने 'आर्य वसुधा धारणी स्तोत्र' की प्रतिलिपि संवत् 1809 को सरसा नगर में पं. प्रेमविजयजी के पढ़ने के लिये की, ये लुकागण की साध्वी जी थीं। अक्षर अत्यंत सुंदर हैं। 3 6.1.10 आर्या पानोश्री (सं. 1816 ) ये गुजराती लोकागच्छीय धर्मसिंहजी की परंपरा के दीपचंदजी की साध्वी थीं, इनकी 'पुण्यसेन चौपाई' की हस्तलिखित प्रति मुनि पुण्यविजयजी के गुजराती हस्तलिखित भंडार में है। प्रति में संवत् 16 ठारस लिखा है। 4 6.1.11 साध्वी मूलीबाई (सं. 1865-90 ) ये दशा श्रीमाली वणिक रतनशा की पत्नी अमृताबाई की कुक्षि से पैदा हुई थीं, और विवाह नानजी कोठारी 10. वही भाग 4, पृ. 152 11. जै. गु. क. भाग 5, पृ. 281 12. ओं. मेनारिया, संपादक-राज. हिं. ह. ग्रं. सू., भाग 3, पृ. 94 13. बी. एल. आई. इन्स्टी. दिल्ली की हस्तलिखित सूची (अप्रकाशितु ) परिग्रहण संख्या 1074, 8890 14. जै. गु. क. भाग 5, पृ. 415 532 Page #595 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्थानकवासी परम्परा की श्रमणियाँ के साथ हुआ, शादी के पश्चात् इन्हें गृहस्थ जीवन की निरर्थकता का बोध हुआ, और संवत् 1865 में दीक्षा ली। संवत् 1890 श्रावण शु. 14 को संथारे द्वारा शरीर त्याग किया। इनकी स्तुति विषयक एक रचना 'मूलीबाई ना बारमास' संवत् 1892 मागसर शु. 13 गुरूवार, सायला में लोंकागच्छीय श्रावक श्री हरषा के पुत्र सबराज ने रची। उस समय वहाँ राजा वख्तसिंह का शासन था। 15 6.1.12 आर्या धन्नोजी (सं. 1871 ) जब उत्तरार्ध लोंकागच्छीय श्रीपूज्य आचार्य विमलचन्द्र स्वामी को हयवतपूर (पट्टी जि. अमृतसर) में संवत् 1871 माघ शु. 5 मंगलवार के दिन आचार्य पद दिया गया, तो उन्होंने यतियों के नाम पर एक विज्ञप्ति लिखी, उसमें अपने अनुयायी यतियों को पंजाब के जो-जो क्षेत्र धर्म प्रचारार्थ सौंपे थे, उनमें आर्या धन्नोजी को-होशियारपुर, आर्या लछमीजी को-वैरोवाल, आर्या सुखमनीजी को - अंबाला क्षेत्र सौंपने का उल्लेख है। यह विज्ञप्ति - पत्र श्री वल्लभस्मारक जैन प्राच्य शास्त्र भंडार दिल्ली में सुरक्षित हैं । " 6.1.13 आरजा लक्ष्मीजी, सुखमनीजी (सं. 1880 ) वि. सं. 1880 माघ शुक्ला 5 बृहस्पतिवार के दिन श्रीमत्पूज्य राजचन्द्रजी स्वामी के पूज्य पदवी प्रदान महोत्सव के समय अमृतसर में उन्होंने अपने अनुयायी यतियों एवं यतिनियों को क्षेत्र सोंपे। जिसमें आरजा लक्ष्मीजी को-होशियारपुर एवं आरजा सुखमनीजी को थानेसर और समाना क्षेत्र सुर्पुद करने का उल्लेख है। इस महोत्सव में 16 जती, 41 आर्या पधारी थीं। 17 6.2 क्रियोद्धारक आचार्य श्री जीवराजजी महाराज की श्रमणी - परम्परा : लोंकागच्छ की स्थापना के आठ पाट तक मुनियों का शुद्धाचरण चलता रहा। 17वीं शताब्दी के अंत में आचरण शैथिल्य प्रारंभ हो गया और चैत्यवास जैसी बुराईयां प्रविष्ट होने लगीं। परिणामतः क्रियोद्धार करके श्री जीवराजजी लोंकागच्छ से पृथक् हो गये इन्होंने कठोर संयम पालन का आदर्श प्रस्तुत कर शुद्ध एवं सादगीमय जीवन जीने की शिक्षा दी, जिससे ये बहुत लोकप्रिय हुए। इनकी पांच शाखाएँ विद्यमान हैं- (1) पूज्य श्री अमरसिंहजी महाराज, (2) पूज्य श्री नानकरामजी महाराज, (3) पूज्य श्री स्वामीदासजी महाराज, (4) पूज्य श्री शीतलदासजी महाराज (5) पूज्य श्री नाथूरामजी महाराज। इनमें पूज्य श्री स्वामीदासजी महाराज और श्री नाथूरामजी महाराज की साध्वी - परम्परा का उल्लेख प्राप्त नहीं होता। शेष तीन में प्रथम शाखा के आचार्य अमरसिंहजी महाराज थे। इनकी परम्परा में आज तक 1150 से भी अधिक साध्वियाँ हो चुकी हैं। उनमें से कुछ उपलब्ध साध्वियों का परिचय इस प्रकार है 18 15. हिं. जै. सा. इ. भाग 4, पृ. 224 16. हीरालाल दुगड़, मध्य एशिया और पंजाब में जैनधर्म, पृ. 343-44 17. वही, पृ. 343-44 18. कुसुम अभिनंदन ग्रन्थ, संपादिका - डॉ. दिव्यप्रभा, खण्ड-2, पृ. 103 - 117 533 Page #596 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन श्रमणियों का बहद इतिहास 6.2.1 आचार्य श्री अमरसिंहजी महाराज का श्रमणी-समुदाय : 6.2.1.1 श्री भागांजी (सं. 1810) पंचेवर ग्राम में संवत् 1810 वैशाख शुक्ला 5 मंगलवार को स्थानकवासी साधु-साध्वियों का एक सम्मेलन रखा गया, उसमें पूज्य अमरसिंहजी म. के लघु गुरूभ्राता श्री दीपचंदजी म. एवं इस परम्परा की साध्वी भागांजी अपनी शिष्या परिवार के साथ वहाँ उपस्थित हुई थी। भागांजी का जन्म दिल्ली में हुआ था, आचार्य अमरसिंहजी महाराज से आपने आहती दीक्षा ग्रहण की थी। अनुश्रुति है कि इन्हें बत्तीस आगम कंठस्थ थे, इन्होंने अनेक शास्त्र, ग्रंथ, रास, चौपाई आदि की प्रतिलिपि भी की थी। ये एक महान विदुषी, शास्त्रज्ञा, प्रमुखा साध्वी थीं। इस परंपरा की सभी साध्वियाँ 'भागांजी' को 'आद्यश्रमणी' स्वीकार करती हैं। इनकी परंपरा में 1100 से भी अधिक साध्वियाँ हो चुकी हैं। जिनका चार्ट महासती केसरदेवी गौरव ग्रंथ में उल्लिखित है। आर्या भागांजी की शिष्या वीरांजी और उनकी शिष्या सद्दा जी थीं। 6.2.1.2 श्री सद्दांजी (सं. 1877-1921) अद्वितीय रूप व गणसम्पदा को लेकर ये राजस्थान के सांभर गांव में पीथोजी मोदी की पत्नी 'पाटनदे' की कुक्षि से संवत् 1857 पोष कृ. दशमी को अवतरित हुई। जोधपुर रियासत के अधिकारी श्री सुमेरसिंहजी मेहता के साथ आपका विवाह हुआ, उनका स्वर्गवास होते ही आपने दूध, दही, घी, तेल और मिष्टान्न का आजीवन त्याग कर दिया था। भोजन में केवल रोटी और छाछ का ही उपयोग करती थीं, पति के स्वर्गवास पर आर्तध्यान भी नहीं किया। आपने महासती भागांजी की शिष्या वीरांजी के पास संवत 1877 जसौल ग्राम (बाडमेर) में दीक्षा अंगीकार की। दीक्षा के पश्चात् 18 शास्त्र थोकड़े कंठस्थ किये, दार्शनिक धार्मिक ग्रंथों का अध्ययन भी किया, विभिन्न क्षेत्रों में परिभ्रमण कर धर्म की खूब प्रभावना की। संवत् 1921 में 55 दिन का संथारा करके ये जोधपुर में स्वर्गस्थ हुई। आपकी अनेक शिष्याएँ थी जिनमें श्री फत्तूजी, श्री रत्नाजी, श्री चेनाजी, श्री लाधाजी, श्री अमताजी, ये 5 मुख्य थीं। फत्तजी का विहार क्षेत्र मारवाड रहा, आपकी अनेक शिष्याएँ भी हईं किंतु सभी का परिचय उपलब्ध नहीं होता, महासती रत्नांजी का विचरण मेवाड में रहा, मेवाड में जितनी साध्वियाँ हैं, वे रत्नां जी के परिवार की है। श्री चेनांजी सेवाभाविनी एवं श्री लाधांजी उग्रतपस्विनी थीं। श्री सद्दांजी को अंत में 55 दिन का संथारा आया था। संवत् 1921 को जोधपुर में ये दिवंगत हईं। 6.2.1.3 श्री अमृतांजी (सं. 1877 के पश्चात्) आपश्री सद्दांजी की पांचवीं शिष्या थीं, आपकी परम्परा में श्री रायकुंवरजी हुई जो प्रतिभा सम्पन्न साध्वी थी। उनका जन्म उदयपुर के निकट 'कविता' ग्राम में हुआ, आप ओसवाल तलेसरा परिवार की थी, इससे अधिक और कोई जानकारी उपलब्ध नहीं है। 6.2.1.4 श्री लछमांजी (संवत् 1928-56) आपका जन्म उदयपुर राज्य के तिरपालग्राम निवासी रिखबचंदजी मांडोत की धर्मपत्नी नन्दूबाई की कुक्षि से संवत् 1910 में हुआ, मुनि श्री किसनाजी और वच्छराजजी आपके भाई थे। आपका पाणिग्रहण मादड़ा ग्राम के 19. साध्वी विजयश्री 'आर्या' महासती केसरदेवी गौरव ग्रंथ, खंड-3, पृ. 297-300 534 Page #597 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्थानकवासी परम्परा की श्रमणियाँ सांकलचंदजी चौधरी से हुआ था, पतिवियोग के पश्चात् महासती रत्नांजी की शिष्या महातपस्विनी गुलाबकुंवर जी के पास संवत् 1928 में दीक्षा ग्रहण करली। आप प्रकृति से भद्र, विनीत, सरल मानसवाली प्रतिभासम्पन्न साध्वी थीं। वि. सं. 1956 ज्येष्ठ कृष्णा अमावस्या के दिन 67 दिन के संथारे के साथ आपका स्वर्गवास हुआ। 6.2.1.5 श्री रंभाजी, श्री नवलांजी (सं. 1928 के लगभग ) आप भी महासती रत्नाजी की शिष्या थीं, रंभाजी प्रतिभा की धनी थीं। आपकी शिष्या नवलांजी हुईं, जो परम विदुषी साध्वी थीं, उनकी प्रवचनशैली अत्यन्त प्रभावक थी। इनकी अनेक शिष्याएँ हुईं- श्री कंसुबाजी, इनकी शिष्या सिरेकंवरजी थीं, सिरेकंवरजी की साकरकंवरजी और नजरकंवरजी दो शिष्याएँ हुईं। साकरकंवरजी की शिष्याओं की जानकारी उपलब्ध नहीं है। 6.2.1.6 श्री नजरकंवरजी (सं. 1930 के लगभग ) आप एक विदुषी साध्वी थीं, आपका जन्म ब्राह्मण कुल में हुआ था, आगम- साहित्य की आप अच्छी ज्ञाता थीं। आप की 5 शिष्याएँ थीं- श्री रूपकंवरजी- ये उदयपुर के निकट देलवाड़ा ग्राम की निवासिनी थीं। श्री प्रतापकुंवरजी- ये उदयपुर राज्य के वीरपुर ग्राम की थीं। श्री पाटूजी- समदड़ी की थीं, पति का नाम गोडाजी लुंकड था, दीक्षा संवत् 1978 में हुई। श्री चौथाजी- ये उदयपुर के बंबोरा ग्राम की थीं, वाटी ग्राम में ससुराल था। श्री एजाजी - ये उदयपुर जिले के शिशोदा ग्राम के निवासी श्री भेरूलालजी की पुत्री थीं। विवाह 'वारी' ग्राम हुआ तथा दीक्षा भी वहीं हुई । में 6.2.1.7 श्री फूलकुंवरजी (सं. 1938-) आपका जन्म उदयपुर राज्य अन्तर्गत दुलावतों के गुड़े में श्री भागचंदजी की पत्नी चुन्नीबाई की कुक्षि से वि. सं. 1921 में हुआ । तिरपाल ग्राम में आपका विवाह हुआ। पति के देहान्त के पश्चात् 17 वर्ष की आयु में श्री छगनकंवरजी के पास दीक्षा ग्रहण की। आपकी बुद्धि तीक्ष्ण थीं अनेक शास्त्र आपको कंठस्थ थे, प्रवचनशैली भी मधुर थी। आपकी सात शिष्याएँ थीं। अंतिम समय में आपको बारह दिन का संथारा आया था। 6.2.1.8 श्री छगनकुंवरजी (-1965 ) श्री नवलाजी की तृतीय शिष्या श्री केसरकुंवरजी की आप शिष्या थीं। कुशलगढ़ के निकट केलवाड़े ग्राम की निवासिनी थीं, पतिवियोग के पश्चात् नाबालिग वय में श्री गुलाबकुंवरजी के पास दीक्षा ग्रहण की। संवत् 1965 में संथारे के साथ उदयपुर में आपका स्वर्गवास हुआ। 6.2.1.9 श्री अभयकंवरजी (सं. 1950-2033 ) आप श्री नवलांजी की द्वितीय शिष्या गुमानांजी की शिष्या श्री आनन्दकंवरजी की शिष्या थीं। आपका जन्म संवत् 1952 फाल्गुन कृष्णा 12 मंगलवार को राजवी के बाटेला गांव (मेवाड़) में हुआ। आपने अपनी मातुश्री हेमकुंवरजी के साथ संवत् 1950 मृगशिर शुक्ला 13 को पाली में दीक्षा ग्रहण की। आपकी प्रवचनशैली अत्यंत आकर्षक थी, भीम में कई वर्ष स्थिरवासिनी रहीं, संवत् 2033 माघ मास में संथारे सहित आपका स्वर्गवास हुआ। आपकी दो शिष्याएँ - श्री बदामकुंवरजी तथा श्री जसकुंवरजी हुईं। 535 Page #598 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन श्रमणियों का बृहद इतिहास 6.2.1.10 श्री ज्ञानकुंवरजी (संवत् 1950-1987) वि. सं. 1905 में जम्मड़ ग्राम में आपका जन्म हुआ, तथा बम्बोरा निवासी श्री शिवलालजी के साथ आपका पाणिग्रहण हुआ, उनसे आपको एक पुत्ररत्न की प्राप्ति हुई। आगे चलकर आपके पुत्र ताराचंदजी ने आचार्य पूनमचंदजी के पास एवं आपने छगनकंवरजी के पास संवत् 1950 को जालोट में दीक्षा अंगीकार की। आप बड़ी सेवाभाविनी तपोनिष्ठा साध्वी थीं। वि. सं. 1987 उदयपुर में संथारे सहित स्वर्गवासिनी हुईं 6.2.1.11 श्री माणककुंवरजी (-स्वर्ग. सं. 1985) आपका जन्म कानोड़ (उदयपुर) में संवत् 1910 में हुआ। श्री फूलकुंवरजी के उपदेश से आपने दीक्षा ग्रहण की। आपकी प्रकृति सरल सरस थी, सेवाभावना भी अत्यधिक थी। 75 वर्ष की आयु में संवत् 1985 आसोज मास में उदयपुर स्वर्गवास हुआ। 6.2.1.12 श्री धूलकुंवरजी (संवत् 1956-2013) आपका जन्म मादड़ा ग्राम (मेवाड़) निवासी श्री पन्नालालजी चौधरी की धर्मपत्नी नाथीबाई की कुक्षि से संवत् 1935 माघ कृष्णा अमावस्या को हुआ। 13 वर्ष की आयु में 'वास' निवासी चिमनलालजी चोरडिया के साथ आपका विवाह हुआ। पतिवियोग के पश्चात् संवत् 1956 फाल्गुन कृष्णा 13 के दिन 'वास' ग्राम में श्री फूलकुंवरजी के पास दीक्षा ग्रहण की। विनय, वैयावृत्य और सरलता आपके जीवन की विशेषताएं थीं। आपको अनेक शास्त्र और 300 स्तोक कण्ठस्थ थे। आपकी अनेक शिष्याएँ थीं। आपका विहार क्षेत्र राजस्थान और मध्यप्रदेश रहा। वि. सं. 2013 कार्तिक शुक्ला 11 को संथारे सहित गोगुन्दा में स्वर्गवास हुआ। 6.2.1.13 श्री मदनकुंवरजी (-स्वर्ग. 2006) ___ आपकी जन्मस्थली उदयपुर थी, दीक्षोपरान्त आगमों का गहन अध्ययन किया। आचार्य मन्नालालजी महाराज ने जो स्वंय आगमों के मूर्धन्य विद्वान् थे; उदयपुर में महासतीजी से एक प्रवचन सभा में आगमों से संबंधित 19 प्रश्न पूछे, आपने सभी प्रश्नों का सटीक और सप्रमाण उत्तर देकर अपने वैदुष्य का परिचय दिया। आचार्यश्री ने कहा-'मैंने कई साधु-साध्वी देखे, पर इनके जैसी प्रखर प्रतिभा सम्पन्न साध्वी नहीं देखी।' आप गुप्त तपस्विनी भी थीं, सेवाभावना आपमें कूट-कूट कर भरी हुई थी। संवत् 2006 में तीन दिन के संथारे के साथ उदयपुर में स्वर्गवासिनी हुई। 6.2.1.14 श्री तीजकुंवरजी (सं. 1957- ) आपका जन्म उदयपुर के तिरपाल ग्राम में हुआ था, एवं विवाह भी वहीं के सेठ श्री रोडमलजी भोगर के साथ हुआ था, आपके दो पुत्र और एक पुत्री थी, पति की मृत्यु के पश्चात् अपने दोनों पुत्र प्यारेलाल, भेरूलाल और पुत्री खमाकुंवर के साथ संवत् 1957 में दीक्षा ग्रहण की थी। आप उग्र तपस्विनी थीं, 16 वर्ष तक घी के अतिरिक्त दूध, दही, तेल और मिष्टान्न इन चारों विगयों का त्याग किया था। एक दिन के संथारे के साथ आपका स्वर्गवास हुआ। 536 Page #599 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्थानकवासी परम्परा की श्रमणियाँ 6.2.1.15 प्रवर्तिनी श्री सोहनकुंवरजी (सं. 1957-2023 ) उदयपुर जिले के तिरपाल ग्राम के निवासी श्री रोडमलजी की धर्मपत्नी श्रीमति गुलाबदेवी की कुक्षि से वि. सं. 1948 में जन्मी खमाकुंवर ने 9 वर्ष की लघुवय में ही संसार के दृढ़तम रेशमी बंधन वाग्दान को ठुकराकर अपनी मातेश्वरी एवं ज्येष्ठ भ्राताद्वय के साथ महासती रायकुंवरजी के पास बाडमेर जिले के पंचमड़ा ग्राम में दीक्षा अंगीकार की। आप आगम साहित्य की गहन ज्ञाता थीं, प्रतिवर्ष एक बार बत्तीस आगमों का पारायण करने का संकल्प था, आपको शताधिक रास, चौपाइयां भजन आदि कण्ठस्थ थे। आपकी प्रवचनशैली अत्यन्त मधुर व रसप्रद थी। आपने अपने जीवन को अनेक नियमों में आबद्ध किया हुआ था। पांच द्रव्य से अधिक ग्रहण नहीं करना, पर्वतिथि पर तप करना, वर्ष में छह मास चार विगय एवं हरी सब्जी का वर्जन, तीन शिष्याओं के उपरांत शिष्या नहीं बनाना, नवीन पात्र ग्रहण नहीं करना आदि अनेकों नियम आपने धारण किये हुए थे। आपके त्यागमय जीवन का उदाहरण देकर आचार्य गणेशीलालजी महाराज अपनी संप्रदाय की साध्वियों को व्रतनिष्ठ बनने के लिये प्रेरित करते थे। आपके अन्तर्मानस में स्व-पर का भेदभाव नहीं था, कई इतर संप्रदाय की साध्वियों की सेवा-शुश्रूषा, संलेखना, संथारा कराने में अपना अपूर्व सहयोग दिया था। आपकी व्रतों के प्रति दृढ़ निष्ठा, आगमों का तलस्पर्शी अध्ययन, चिंतन, मनन उद्बोधन तथा सेवा - भक्ति एवं विवेक का अपूर्व समन्वय देखकर सन् 1963 में अजमेर सम्मेलन के समय आपको चंदनबाला श्रमणी संघ की 'प्रथम प्रवर्तिनी' पद पर सर्व सम्मति से विभूषित किया। तीन वर्ष तक इस गरिमामय पद पर प्रतिष्ठित रहकर अंत में भाद्रपद शुक्ला 13 संवत् 2023 में पाली ( पारवाड़) वर्षावास के समय संथारे के साथ आप स्वर्गवासिनी हो गई। आपकी तीन शिष्याएँ थीं- श्री कुसुमवतीजी, श्री पुष्पवतीजी और श्री प्रभावतीजी । 6.2.1.16 श्री लाभकुंवरजी (सं. 1959-2003 ) आपका जन्म ढोल (उदायपुर) निवासी मोतीलालजी ढालावत की धर्मपत्नी तीजबाई की कुक्षि से संवत् 1933 में हुआ था। आपका विवाह सायरा ग्राम के कावड़िया परिवार में हुआ। पतिवियोग के पश्चात् संवत् 1959 में सादड़ी मारवाड़ में श्री फूलकुंवरजी के पास दीक्षा ग्रहण की। आपका कंठ मधुर और व्याख्यान कला सुंदर थी। साथ ही आप बहुत निर्भीक वीरांगना थी । एकबार खामनेर से सेमल जाते हुए रास्ते में सशस्त्र डाकू आपको लूटने के लिये आगे बढे, किंतु आपकी निर्भीक वाणी के प्रभाव से डाकुओं के दिल परिवर्तित हो गये, उन्होंने लूटपाट का धंधा त्याग दिया। ऐसी अनेक घटनाएं आपके साधनामय जीवन में घटित हुई। आपकी दो शिष्याएँ - श्री लहरकंवरजी और दाखकुंवरजी हुई। आपका स्वर्गवास संवत् 2003 श्रावण मास यशवंतगढ़ में हुआ । 6.2.1.17 श्री मोहनकुंवरजी आपका जन्म भूताला ग्राम (उदयपुर) के ब्राह्मण परिवार में हुआ था। नौ वर्ष की अल्पायु आपका विवाह हुआ, भड़ौच में स्नान करते समय पति का स्वर्गवास हो गया, महासती आनंदकुंवरजी के उपदेश से 16 वर्ष की आयु में 'भूताला' में दीक्षा ग्रहण की। 32 वर्ष की स्वस्थ अवस्था में संथारा ग्रहण कर गौतम प्रतिपदा के दिन स्वर्गवासिनी हुई। 537 Page #600 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन श्रमणियों का बृहद इतिहास 6.2.1.18 श्री लहरकुंवरजी (-स्वर्ग. सं. 2007) आपका जन्म एवं विवाह उदयपुर राज्य के सलौदा ग्राम में हुआ, लघुवय में पति का देहान्त हो जाने के कारण आपने महासती आनन्दकुंवरजी के पास दीक्षा ग्रहण की। आपको आगम-साहित्य का गहन ज्ञान था। आपने शास्त्रार्थ कर विजय पताका भी फहराई। आपकी वाणी में मीठास और व्यवहार सरल था। संवत् 2007 के यशवन्तगढ़ चातुर्मास में आपका स्वर्गवास हुआ। आपकी दो शिष्याएँ हुईं-श्री सज्जनकुंवरजी श्री कंचनकुंवरजी। 6.2.1.19 श्री सज्जनकुंवरजी (सं. 1976-2030) आपका जन्म तिरपाल ग्राम के बांबोरी परिवार में भेरूलालजी की पत्नी रंगूबाई की कुक्षि से हुआ। कमोल निवासी ताराचन्द्रजी जोशी के साथ आपका विवाह हुआ। पतिवियोग के पश्चात् आपने संवत् 1976 में श्री आनन्दकुंवरजी के पास दीक्षा अंगीकार की। संवत् 2030 आसोज पूर्णिमा को जशवन्तगढ़ में आपका स्वर्गवास हुआ। आपकी शिष्या श्री कौशल्याजी हैं। 6.2.1.20 श्री कंचनकुंवरजी (सं. 1976 के लगभग) आपका जन्म कमोलग्राम के दोशी परिवार में तथा विवाह पदराड़ा में हुआ। पतिवियोग के पश्चात् श्री लहरकंवरजी के पास दीक्षा ग्रहण की। नांदेशमा ग्राम में संथारे के साथ आपका स्वर्गवास हुआ। आपकी शिष्या श्री वल्लभकुंवरजी सेवाभाविनी साध्वी थीं। 6.2.1.21 श्री सूरजकुंवरजी आपकी जन्मस्थली उदयपुर और पाणिग्रहण साडोल (मेवाड़) के हनोत परिवार में हुआ। 6.2.1.22 श्री फूलकंवरजी आपकी जन्मस्थली भी उदयपुर थी, आंचलिया परिवार में आपका पाणिग्रहण हुआ। अन्य जानकारी उपलब्ध नहीं है। 6.2.1.23 श्री हुल्लासकुंवरजी ___ आपका जन्म उदयपुर में एवं विवाह भी उदयपुर के हरखावत परिवार में हुआ था, आपके सदुपदेश से प्रभावित होकर पाँच शिष्याएँ हुईं-श्री देवकुंवरजी, श्री प्यारकुंवरजी, श्री पद्मकुंवरजी, श्री सौभाग्यकुंवरजी, श्री चतरकुंवरजी। श्री पद्मकुंवरजी की श्री कैलाशकुंवरजी शिष्या थीं। श्री सौभाग्यकुंवरजी उदयपुर निवासी मोडीलालजी खोखावत व रूपाबाई की कन्या थीं, ये मधुर स्वभावी थीं, इनकी शिष्या श्री मोहनकुंवरजी थीं। 6.2.1.24 श्री हुकुमकुंवरजी आप श्री रायकुंवरजी की चतुर्थ शिष्या थीं। आपकी 7 शिष्याएँ थीं- (1) श्री भूरकुंवरजी- जन्म-उदयपुर जिले के कविता ग्राम में हुआ, 75 वर्ष की आयु में देहावसान हुआ, इनकी एक शिष्या प्रतापकुंवरजी भद्रप्रकृति की थीं, 70 वर्ष की उम्र में वे स्वर्गवासिनी हुईं। (2) श्री रूपकुंवरजी- जन्म देवास (मेवाड़) में व स्वर्गवास 538 Page #601 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्थानकवासी परम्परा की श्रमणियाँ उदयपुर में ( 3 ) श्री वल्लभकुंवरजी- जन्म उदयपुर बाफना परिवार में एवं विवाह वहीं गेलड़ा परिवार में हुआ, आप आगमज्ञाता थीं। आपकी एक शिष्या गुलाबकुंवर जी थीं। ( 4 ) श्री सज्जनकुंवरजी- जन्म उदयपुर के बाफना परिवार में और पाणिग्रहण दूगड़ परिवार में हुआ, आपकी शिष्या श्री मोहनकुंवरजी थीं, आपका स्वर्गवास उदयपुर में हुआ ( 5 ) छोटे राजकुंवरजी- उदयपुर के माहेश्वरी परिवार की कन्या थीं। ( 6 ) श्री देवकुंवरजीकर्णपुरा ग्राम की पोरवालवंश की कन्या थीं। ( 7 ) श्री गेंदकुंवरजी- भुआना के पगारिया परिवार की कन्या थीं, चंदेसरा के बोकड़िया परिवार में विवाह हुआ, ये सेवापरायणा थीं। सं. 2010 ब्यावर में स्वर्गवास हुआ। 6.2.1.25 श्री लहरकंवरजी (सं. 1981-2026 ) नांदेशमा निवासी सूरजमलजी सिंघवी की धर्मपत्नी फूलकुंवरजी की कुक्षि से आपका जन्म हुआ तथा ढोल निवासी गैंगरायजी ढालावत के साथ आपका विवाह हुआ, पति के देहावसान के पश्चात् श्री लाभकुंवरजी के पास संवत् 1981 ज्येष्ठ शुक्ला 12 के दिन नांदेशमा में आपने दीक्षा ग्रहण करली। आप मिलनसार थीं, आपकी शिष्या श्री खमानकुंवर जी थीं। संवत् 2006 माघ कृष्णा अष्टमी को संथारे के साथ सायरा में आप स्वर्गवासिनी हुईं। 6.2.1.26 श्री प्रेमकुंवरजी (-स्वर्ग. सं. 1994 ) आपका जन्म गोगुंदा में और विवाह उदयपुर में हुआ। पति के देहावसान के पश्चात् महासती फूलकुंवरजी के पास आप दीक्षित हुईं। आप विनीत सरल एवं क्षमाशील थीं, संवत् 1994 उदयपुर में आपका स्वर्गवास हुआ। आपकी एक शिष्या पानकुंवरजी थीं, उनका स्वर्गवास पौष मास सं. 2024 को गोगुंदा में हुआ । 6.2.1.27 श्री मोहनकुंवरजी आपका जन्म उदयपुर राज्य के 'वाटी' ग्राम में हुआ एवं विवाह 'मोलेरा' ग्राम में हुआ था। महासती फूलकुंवरजी के पास आप दीक्षित हुईं आपका स्तोक ज्ञान विस्तृत था । 6.2.1.28 श्री सौभाग्यकुंवरजी 2027) आपका जन्म बड़ी सादड़ी के नागोरी परिवार में हुआ, बड़ी सादड़ी के ही प्रतापमलजी मेहता के साथ आपका विवाह हुआ। आपके एक पुत्र भी हुआ। महासती फूलकुंवर जी के उपदेश से प्रभावित होकर उनके ही पास दीक्षा ग्रहण की। आपकी प्रकृति भद्र थी, संवत् 2027 आषाढ़ शुक्ला 13 को संथारे के साथ गोगुन्दा में आपका स्वर्गवास हुआ। 6.2.1.29 श्री शम्भूकुंवरजी (सं. 1982-2023 ) आपका जन्म बागपुरा निवासी गंगराजजी धर्मावत की धर्मपत्नी नाथीबाई की कुक्षि से संवत् 1958 में हुआ था। खाखड़ निवासी अनोपचंदजी बनोरिया के सुपुत्र धनराजजी के साथ आपका विवाह हुआ। आपको दो पुत्रियां हुईं। पति की मृत्यु के पश्चात् अपनी लघुपुत्री शीलकुंवर के साथ संवत् 1982 फाल्गुन शुक्ला द्वितीय को खाखड़ में श्री धूलकुंवरजी के पास दीक्षा ग्रहण की। आपको थोकड़े और साहित्य का अच्छा ज्ञान था, संवत् 2023 आषाढ़ कृष्णा 13 को गोगूंदा में आपका संथारा सहित स्वर्गवास हुआ। 539 Page #602 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन श्रमणियों का बृहद इतिहास 6.2.1.30 श्री शीलकंवरजी (सं. 1982-2056) श्री शीलकंवरजी का जन्म बाघपुरा (मेवाड़) के खाकड़ ग्राम में सं. 1968 को जन्माष्टमी के दिन हुआ। पिताश्री धनराजजी बरोनिया एवं माता रोडीबाई की सुपुत्री थीं आपने महास्थविर श्री ताराचंदजी म. एवं श्री धूलकवर जी के सदुपदेश से 13 वर्ष की उम्र में अपनी माता के साथ खाखड़ में ही दीक्षा ग्रहण की। आपकी प्रवचन शैली वैराग्यरस से ओतप्रोत एवं लुभावनी थी। वर्धमान जैन स्वाध्याय संघ सायरा, महावीर गोशाला, पाठशालाएं, स्थानक भवन आदि अनेक धार्मिक संस्थाओं की आप प्रेरिका रही हैं। राजस्थान और मध्यप्रदेश में आपका काफी प्रभाव है। आपकी 5 शिष्याएँ हैं। 6.2.1.31 श्री कुसुमकंवरजी (संवत् 1993-2058) आपका जन्म मेवाड़ की राजधानी उदयपुर में संवत् 1982 में श्रीमान गणेशीलालजी एवं माता केलाशबाई की कुक्षि से हुआ। 11 वर्ष की अवस्था में मातुश्री के साथ देलवाड़ा में श्री सोहनकंवरजी के पास दीक्षा ग्रहण की। संस्कृत, प्राकृत, न्याय, व्याकरण और सिद्धान्त में बहुमुखी प्रतिभा की धनी महासाध्वी स्वभाव से भी मृदु एवं मधुरभाषिणी थीं। ब्यावर श्रीसंघ ने आपको 'प्रवचन भूषण' की उपाधि से विभूषित किया। आपकी सप्रेरणा से तारकगुरू जैन धार्मिक पाठशाला डबोक, श्री सोहनकुंवर मानव सेवा सहायता फण्ड, श्री सोहनकुंवर बालिका मंडल नांदेशमा, चन्दनबाला जैन बालिका मंडल नाथद्वारा, महावीर जैन महिला मंडल नाथ द्वारा, डूंगला, महावीर जैन युवक मंडल डूंगला, श्री सोहनकुंवर प्रवचन हॉल तिरपाल आदि का निर्माण हुआ। संवत् 2058 में आपका स्वर्गवास हुआ।आपश्री का अभिनंदन ग्रंथ आपकी सुयोग्य शिष्या श्री दिव्यप्रभाजी द्वारा संपादित है। आपकी तीन शिष्याएँ एवं कई प्रशिष्याएँ हैं।20 6.2.1.32 श्री प्रभावतीजी (सं. 1994-स्वर्गस्थ) श्रमणसंघ के तृतीय आचार्यश्री देवेन्द्रमुनिजी की मातेश्वरी साध्वी प्रभावतीजी प्रारंभ से ही अत्यंत साहसी, दृढ़ मनोबली एवं धर्म में आस्थावान महिला रही। कठिन कसौटियों से गुजरने के बाद आपको संयम मार्ग में प्रवेश मिला। आप सफल कवियत्री थी। आप द्वारा रचित अनेक काव्य प्रकाशित हुए हैं। 'साहस का सम्बल, पुरूषार्थ का फल आदि कई चरित प्रधान काव्य अपनी सरल सुबोध शैली में लिखे हैं। 6.2.1.33 श्री पुष्पवतीजी (सं. 1994 से वर्तमान) परम विदुषी महासती श्री पुष्पवतीजी का जन्म संवत् 1981 में पिता श्री जीवनसिंहजी बरडिया एवं माता प्रेमदेवी की कुक्षि से उदयपुर में हुआ। 13 वर्ष की उम्र में आपने अपनी मातुश्री (द्वितीय) महासतीश्री प्रभावती जी के साथ वि. सं. 1994 माघ शुक्ला 13 को श्री सोहनकंवरजी के पास उदयपुर में दीक्षा ग्रहण की। आपके ही छोटे भ्राता श्री देवेन्द्रमुनिजी हैं, जो श्रमण संघ के तृतीय आचार्य पद पर शोभित हुए। आपकी दीक्षा के पश्चात् 8 अन्य परिवारी जनों ने भी संयम ग्रहण किया। आप सुमधुर प्रवचनकी एवं सुलेखिका हैं। संस्कृत, प्राकृत, न्याय, व्याकरण आदि में आपने उच्चकोटि की विद्वत्ता प्राप्त की। आप द्वारा लिखित साहित्य- (1) किनारे-किनारे 20. श्री कुसुम अभिनंदन ग्रंथ, प्रमुख संपादिका-साध्वी दिव्यप्रभा, प्रका. श्री तारक गुरू ग्रंथालय उदयपुर, ई. 1990 540 Page #603 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्थानकवासी परम्परा की श्रमणियाँ (2) पुष्प-पराग (3) सती का शाप (4) प्रभावती शतक (5) साधना-सौरभ (6) फूल और भंवरा (7) कंचन और कसौटी (8) खोलों मन के द्वार (9) प्रभा प्रवचन (10) कल्पतरू (11) पुरूषार्थ का फल (12) साहस का सम्बल (13) सुधा सिन्धु (14) प्रभा पीयूष घट (15) जीवन की चमकती प्रभा आदि हैं। आपकी 50वीं दीक्षा जयंति के अवसर पर एक अभिनंदन ग्रंथ समर्पित किया गया। जो किसी श्रमणी रत्न को समर्पित किये गये अभिनंदन ग्रंथ की सर्वप्रथम कड़ी है। आपकी छह शिष्याएँ हैं। सभी शिष्याओं को तथा संघस्थ मुनिवृंदों को अध्ययन करवाकर उच्चकोटि की धार्मिक परीक्षाएँ भी दिलवाई हैं। आपश्री ने अपने आदर्श जीवन व्यवहार और धर्म देशना के माध्यम से समाज को बहुत कुछ दिया है और दे रही हैं, साथ ही आत्मोत्थान की साधना में सदा सजग रहकर विचर रही हैं। 6.2.1.34 श्री चन्द्रकुंवरजी (सं. 2004-41) आपका जन्म कानोड़ ग्राम में भाणावत के यहां एवं विवाह उदयपुर के श्री पन्नालालजी मेहता के यहां हुआ। आपके 4 पुत्र एवं दो पुत्रियां हुई। पति के स्वर्गवास के पश्चात् संवत् 2004 नाई (उदयपुर) में अपनी लघुपुत्री चन्द्रावती जी के साथ दीक्षा अंगीकार कर श्री प्रभावतीजी की शिष्या बनीं। आप मिलनसार, व्यवहार कुशल मृदु एवं मधुरभाषिणी थीं। आपके तीनों सुपुत्र श्री देवीलालजी, श्री आनन्दीलालजी व श्री फूलचन्दजी भी अध्यात्म के रसिक और उच्चकोटि के विद्वान् हैं। आपके परिवार से आठ मुमुक्षु आत्माएं दीक्षित हुई हैं। लेखिका की वे संसार 'दादी मां' थीं। 6.2.1.35 श्री चन्द्रावतीजी (संवत् 2004-56) आपका जन्म संवत् 1993 उदयपुर निवासी श्री पन्नालालजी मेहता की धर्मपत्नी श्री लहेरकुंवरजी की कुक्षि से हुआ। नौ वर्ष की वय में ही अपनी मातुश्री के साथ 'नाई' (उदयपुर) में संवत् 2004 माघ शुक्ला 3 को दीक्षा अंगीकार कर आपश्री पुष्पवतीजी की शिष्या बनीं। आप जैन सिद्धान्ताचार्य एवं संस्कृत प्राकृत न्याय, व्याकरण, आगम आदि की ज्ञाता थी। मगध का राजकुमार मेघ और दिव्य पुरूष ये दो आप द्वारा रचित उच्चकोटि के खंडकाव्य एवं उपन्यास हैं। आप साहित्यकर्जी के साथ ही तात्त्विक शैली में प्रभावशाली प्रवचनकर्ती भी थीं। 6.2.1.36 श्री कौशल्याजी (सं. 2005 से वर्तमान) आप नांदेशमा निवासी लाडुजी पालिवाल की पुत्री एवं उपाध्याय श्री पुष्करमुनिजी महाराज की सांसारिक भानजी हैं। आपकी गुरणी श्रीसज्जनकंवरजी थीं। संवत् 2005 देवास में आप दीक्षित हुईं। आप जैन सिद्धान्ताचार्य, मधुर गायिका कवियित्री तथा लेखिका भी हैं। भक्ति के स्वर, विनय, वंदन, कमल प्रभात, मंगल के मोती, सत्य शिवं सुंदरम् आदि पुस्तकें आप द्वारा प्रकाशित हुई हैं। आपकी 7 शिष्याएँ हैं। 6.2.1.37 श्री सत्यप्रभाजी (सं. 2025 से वर्तमान) आपका जन्म राजस्थान के बाडमेर जिला के खण्डप ग्राम में हुआ। पिता श्री मिश्रीमलजी सुराणा थे। श्री सुकनकंवरजी के पास 22 वर्ष की उम्र में आपने दीक्षा ली। आप राष्ट्रभाषा कोविद व जैन सिद्धान्त प्रभाकर हैं, आगमज्ञाता विदुषी सरल स्वभावी हैं। आपकी 5 शिष्याएँ हैं। 21. महासती पुष्पवती अभिनंदन ग्रंथ, संपादक-श्री देवेन्द्रमुनि शास्त्री, श्री तारक गुरू ग्रंथालय, उदयपुर, 1987 541 Page #604 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन श्रमणियों का बहद इतिहास 6.2.1.38 श्री चारित्रप्रभाजी (संवत् 2025 से वर्तमान) आपका जन्म बगडुन्दा निवासी कन्हैयालालजी छाजेड़ की धर्मपत्नी हंसादेवीजी की कुक्षि से सं. 2005 में हुआ। सं. 2025 फाल्गुन शुक्ला 5 को नाथद्वारा में आपने महासती श्री कुसुमवतीजी के पास दीक्षा ग्रहण की। आपको हिन्दी, संस्कृत, प्राकृत भाषाओं का उच्चस्तरीय ज्ञान है, हिन्दी में साहित्यरत्न एवं पाथर्डी बोर्ड से जैन सिद्धान्ताचार्य किया। आप द्वारा लिखित एवं संकलित पुस्तकें-चारित्र सौरभ (प्रवचन), कुसुम चारित्र, स्वाध्याय माला, नित्य स्मरण माला, चारित्र ज्योति (भजन) आदि हैं। आपने अलवर में 'कुसुम सिलाई बुनाई केन्द्र, चांदनी चौंक दिल्ली में महिला मंडल, अमीनगर सराय में धार्मिक पाठशाला' दोघट में 'जैन वीर बाल संघ' कांधला में जैन वीर बालिका संघ आदि अनेक जन-मंगलकारी कार्य किये। आपकी दस शिष्याएँ हैं उनमें मेघाजी, महिमाजी, प्रज्ञाजी और आस्थाजी का परिचय उपलब्ध नहीं हुआ शेष का परिचय तालिका में अंकित है। 6.2.1.39 डॉ. श्री दिव्यप्रभाजी (सं. 2030 से वर्तमान) __आपका जन्म उदयपुर निवासी श्री कन्हैयालालजी सियाल की धर्मपत्नी चौथबाई की कुक्षि से सं. 2014 मृगशिर शु. 10 को हुआ। आप की कुसमवती जी की ममेरी (मामा की) बहिन हैं, उन्हीं के पास सं. 2030 कार्तिक शु. 13 के दिन अजमेर में उपाध्याय श्री पुष्करमुनिजी महाराज के मुखारविन्द से दीक्षा ग्रहण की। आपने संस्कृत में एम. ए., हिन्दी साहित्य सम्मेलन से साहित्यरत्न राज. वि. वि. से जैन दर्शन शास्त्री तथा दिल्ली संस्थान से जैनदर्शन आचार्य उत्तीर्ण की। आचार्य श्री सिद्धर्षि के 'उपमिति भवप्रपंचकथा' पर शोध प्रबन्ध लिखकर जयपुर वि. वि. से पी. एच.डी. की उपाधि प्राप्त की। आपने रत्नाकर पच्चीसी का हिन्दी अनुवाद एवं कुसुम अभिनन्दन ग्रन्थ का लेखन एवं सम्पादन भी किया है। आपने राजस्थान, उत्तर प्रदेश, जम्मू कश्मीर तक धर्म प्रचार किया है। 6.2.1.40 डॉ. श्री दर्शनप्रभाजी (सं. 2032) आप विदुषी साध्वी हैं आपने 'आचार्य हरिभद्र और उनका साहित्य' विषय पर जयपुर से पी. एच. डी. की उपाधि ली है। इसके अतिरिक्त प्रयाग से 'साहित्यरत्न' वर्धा से राष्ट्रभाषा रत्न, अमदाबाद से 'दर्शनाचार्य' एवं पाथर्डी बोर्ड से 'जैन सिद्धान्ताचार्य' की परीक्षाएँ भी दी हैं। तथा संस्कृत में एम. ए. भी किया है। आप दिल्ली चांदनी चौंक निवासी श्री रतनलालजी लोढ़ा की कन्या हैं। श्रमणसंघीय उपप्रवर्तक श्री नरेशमुनि जी आपके लघु भ्राता हैं। कई वर्ष वैराग्य अवस्था में रहने के पश्चात् ब्यावर (राज.) में उपाध्याय श्री पुष्करमुनि जी महाराज के श्रीमुख से सं. 2032 में दीक्षा अंगीकार कर आप श्री चारित्रप्रभाजी की शिष्या बनीं। 6.2.1.41 श्री रूचिकाजी (सं. 2037) आपका जन्म जम्मू नगर निवासी मनीरामजी आनन्द की धर्मपत्नी राजदेवी की कुक्षि से सं. 2016 श्रावण शुक्ला षष्ठी को हुआ। आपकी दीक्षा सं. 2037 कांधला में श्री चारित्रप्रभाजी के पास हुई। आपने एम. ए., बी. एड. तक व्यावहारिक शिक्षण तथा जैनागम, स्तोक आदि का भी अध्ययन किया है, आप जैन सिद्धान्त परीक्षा उत्तीर्ण हैं। आप मधुर गायिका हैं। 542 Page #605 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्थानकवासी परम्परा की श्रमणियाँ 6.2.1.42 श्री गरिमाजी (संवत् 2037) आपका जन्म मेरठ (उ. प्र.) निवासी श्रीमान् तालेरामजी उज्जवल के यहां सं. 2020 को हुआ। श्री सुमतिप्रकाश जी म. सा. से कांधला में दीक्षा पाठ पढ़कर सं. 2037 को आप दीक्षित हुईं। आप श्री कुसुमवतीजी की शिष्या हैं, डबल एम. ए. हैं, संस्कृत, प्राकृत हिंदी अंग्रेजी में भी आपने अच्छी योग्यता प्राप्त की है। आपकी रूचि काव्य रचना सुसाहित्य का अध्ययन एवं चित्रकला में विशेष है। 'गीतों की गरिमा' नाम से आपकी एक पुस्तक प्रकाशित हो चुकी है। 6.2.1.43 डॉ. श्री राजश्रीजी (सं. 2041) आपका जन्म ग्राम बगडुन्दा (उदयपुर) है। श्री गोपीलालजी छाजेड़ की पत्नी अमृताबाई की कुक्षि से सं. 2023 में आपका जन्म हुआ। श्री चारित्रप्रभाजी के पास सं. 2041 मृगशिर शुक्ला 10 को चांदनी चौंक दिल्ली में आपने दीक्षा ग्रहण की। आपको स्तोक व आगमों का अच्छा ज्ञान है, पाथर्डी से जैन सिद्धान्त शास्त्री तक परीक्षाएँ दीं। आपने आचार्य शीलाडू. की आचाराङ्ग.वृत्ति पर शोधपरक प्रबन्ध लिखकर पी एच. डी. की उपाधि प्राप्त की है। आपने वैराग्यावस्था में ही यह प्रबन्ध पूर्ण कर लिया था। गायन में आपकी विशेष रूचि है। 6.2.2 आचार्य श्री नानकरामजी की परम्परा का श्रमणी-समुदाय : क्रियोद्धारक आचार्य श्री जीवराजजी महाराज के शिष्य श्री लालचंदजी महाराज के शिष्य श्री नानकराम जी महाराज से यह संप्रदाय 'नानकवंश' के नाम से प्रसिद्ध हुआ। वर्तमान में इस परम्परा के आचार्य श्री सोहनलाल जी महाराज के शिष्य आचार्य श्री सुदर्शनमुनिजी महाराज हैं। आपकी आज्ञानुवर्तिनी साध्वी प्रमुखा श्री उमरावकुंवरजी, श्री बदामकुंवरजी थीं, वर्तमान में साध्वी प्रमुखा श्री जयवंतकुंवरजी की श्री घेवरकुंवरजी आदि 15 शिष्याएँ-प्रशिष्याए हैं। 6.2.2.1 डॉ. श्री ज्ञानलताजी (सं. 2030), डॉ. श्री दर्शनलताजी (सं. 2033) डॉ. श्री चारित्रलताजी (सं. 2039) साध्वी रत्नत्रयी के नाम से विख्यात आप तीनों ही सहोदरा भगिनी हैं, तीनों ही साध्वी एम. ए., पी. एच. डी. हैं, साध्वी ज्ञानलताजी ने 'महाप्राज्ञ प्रवर्तक श्री पन्नालालजी म. सा. : व्यक्तित्व एवं कृतित्व' पर सन् 1993 में जयपुर विश्व विद्यालय से पी. एच. डी. की, साध्वी दर्शनलताजी ने 'ज्ञानार्णव-एक समीक्षात्मक अध्ययन' विषय पर पी. एच.डी. की, तथा साध्वी चारित्रलताजी ने सन् 1992 में 'जैनागमों में श्रमण' विषय पर शोध प्रबन्ध लिखकर राजस्थान विश्वविद्यालय जयपुर से पी. एच. डी. की उपाधि प्राप्त की। आप तीनों ही जैन जैनेतर दर्शन की गंभीर अध्येता संस्कृत, प्राकृत, हिन्दी, गुजराती, अंग्रेजी आदि अनेक भाषाओं की ज्ञाता विदुषी साध्वियाँ हैं। आप तीनों के सम्मिलित प्रयास से श्री स्वाध्यायी जैन महिला मंडल गुलाबपुरा की स्थापना हुई, जिसकी विभिन्न प्रदेशों एवं प्रान्तों में 40 से भी अधिक शाखाएं हैं, इस संस्था का उद्देश्य महिलाओं को जैनदर्शन का ज्ञान कराना, प्रवचन-कला का प्रशिक्षण देकर चातुर्मास से वञ्चित क्षेत्रों में महिलाओं को भेजकर धर्म-जागृति करना है। आप रत्नत्रयी द्वारा स्थापित अहिंसा प्रचार समिति-कांवलियास ने देवस्थानों पर होने वाली पशुबली को बंद 543 Page #606 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन श्रमणियों का बृहद इतिहास कराने के सराहनीय कार्य किये हैं, यह समिति पशु चिकित्सा शिविर आदि प्राणीदया के कार्य कर रही है। आपने सैंकड़ों लोगों को व्यसन त्याग, दहेज की मांग, हिंसा जनित सौन्दर्य प्रसाधन, भ्रुण हत्या, बर्क युक्त मिठाइयां, होली खेलने, फटाके फोड़ने आदि का त्याग कराया है। आपकी सरस सुबोध चिन्तनपरक प्रवचनशैली से श्रोता आचरण की ओर उन्मुख होते हैं। अध्ययन एवं अध्यापन की रूचि के कारण आप प्रतिवर्ष स्वाध्याय-शिविरों के द्वारा जैनधर्म का तत्त्वज्ञान बांटने का कार्य करती हैं। आप तीनों का सम्मिलित प्रकाशित साहित्य इस प्रकार है - महाप्राज्ञ की जीवनयात्रा, बोध-संबोध (मुक्तक), पर्वत की पगडंडी पर (चरित्र) अनुभूति का आलोक (काव्य) दिशायें साक्षी हैं (संस्मरण) मंजिल की ओर, ममता के आंगन में, त्रिवेणी की पावन धारा (प्रवचन-संग्रह), कुछ हीरे कुछ मोती ( सुभाषित)। वर्तमान में अभयदेव सूरि की उपासकदशांग व प्रश्नव्याकरण सूत्र की टीका का भाषानुवाद प्रकाशनाधीन है। साध्वी ज्ञानलताजी साध्वी प्रमुखा श्री जयवन्तकंवरजी म. सा. की शिष्या हैं। आपके सदुपदेश का संबल प्राप्त कर छह आत्मार्थी बहनें संयम मार्ग में प्रविष्ट हुईं- डॉ. श्री दर्शनलताजी, डॉ. श्री चारित्रलताजी, श्री कीर्तिलताजी, श्री कल्पलताजी, श्री संयमलताजी, श्री सौम्यलताजी | 22 6.2.2.2 डॉ. श्री कमलप्रभाजी (सं. 2031 ) ज्योतिषाचार्य पू. प्रवर्तक श्री कुन्दनमलजी की आज्ञानुवर्तिनी श्री जयवन्तकंवरजी की सुशिष्या डॉ. कमलप्रभाजी परम विदुषी साध्वी हैं, इन्होंने सत्यवादी हरिश्चन्द्र के जीवन चरित्र पर एकादश किरणों में प्रबन्ध काव्य की सर्जना की। काव्य ग्रंथ का नाम है 'धरती का ध्रुवतारा'। इसके अतिरिक्त आपकी अन्य कृतियां भी हैं- आंगन उतरी भोर, मन उपवन के सुमन, नानकवंश परिचय, परिशिष्ट पर्व (अनुवाद), भगवती सूत्र (अनुवाद) आदि। 'तीर्थंकर महावीर - प्रबंध काव्य पर सन् 1992 राजस्थान विश्वविद्यालय से पी. एच. डी. की उपाधि प्राप्त की 123 6.2.3 आचार्य श्री शीतलदासजी की परम्परा का श्रमणी समुदाय : 6.2.3.1 श्री चाहुकुमारीजी (संवत् 1763 से 1837 के मध्य ) आपके विषय में इतना ही उल्लेख मिलता है कि आप श्री शीतलदासजी के समय में हुई थी, उस समय इस समुदाय में 300 श्रमणियाँ थी, उनमें आपका उल्लेखनीय स्थान था । 6.2.3.2 प्रवर्तिनी श्री यशकंवरजी (सं. 1994 ) श्री चाहुकुमारीजी की परम्परा में उनके पश्चात् साध्वी श्री यशकंवरजी का नाम विशेष उल्लेखनीय है । वि. सं. 1974 में मंदसौर जिले के जाटनगर में पिता काशीरामजी की धर्मपत्नी श्रीमति घीसाबाई की कुक्षि से आपने जन्म ग्रहण किया, श्री अजबकुंवरजी की विदुषी शिष्या श्री हुलासकंवरजी के चरणों में संवत् 1994 में दीक्षा अंगीकार की। आप विनम्र, क्रियानिष्ठ और प्रभावक व्यक्तित्व की धनी विदुषी साध्वी हैं। 22. पत्राचार द्वारा प्राप्त सामग्री के आधार पर 23. डॉ. सुभाष जैन, एडवोकेट जालना द्वारा प्राप्त 544 Page #607 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्थानकवासी परम्परा की श्रमणियाँ __ आपकी प्रेरणा एवं ओजस्वी वाणी से फूलियाकलां में 'आनन्द यश जैन छात्रालय, 'आनन्द यश जैन पाठशाला' 'श्री यश जैन बाल मंदिर' का निर्माण हुआ। इसके अलावा मेवाड़ के सुप्रसिद्ध ऐतिहासिक स्थल 'जोगणिया माता' के मंदिर में दशाब्दियों से चली आती अति जघन्य और क्रूरतम 'बलिप्रथा' को बंद करने का एक अभूतपूर्व कार्य भी आपने किया। इसके लिये आपने स्वयं की जान जोखिम में डालकर नंगे पैर उबड़-खाबड़ मार्गों पर निःशंक घूम कर जनमानस को परिवर्तित किया, बलिस्थान को खुदवाकर वहाँ की रक्तरंजित भूमि पर महादेव की स्थापना करवाई। आज वहाँ ऐसा वातावरण बन गया है कि बड़ी से बड़ी विरोधी शक्ति भी वहाँ बलिदान करने का साहस नहीं कर सकती। जोगणिया माता में 'यशभवन' (वर्धमान दया भवन) का निर्माण हुआ, आपका एक चातुर्मास भी वहाँ हुआ, उसमें अनेक जन मंगलकारी आश्चर्यजनक कार्य हुए। 'मेवाड़ सिंहनी' एवं 'भारत कोकिला' के नाम से आज आप श्रमणसंघ में सुविख्यात हैं। आपके प्रभावशाली व्यक्तित्व का ही प्रभाव है कि आपकी जन्मभूमि जाटनगर को लोग 'यशनगर' के नाम से पहचानते हैं। श्री यशकंवरजी का जीवन-ग्रंथ उनकी शिष्याओं द्वारा प्रकाशित किया गया है।24 6.3 क्रियोद्धारक श्री लवजीऋषिजी की परम्परा : श्री जीवराजजी महाराज के पश्चात् क्रियोद्धारकों की श्रृंखला में श्री लवजीऋषिजी का नाम आता है इनके तप त्याग और उपदेशों से जैनधर्म का सर्वतोमुखी प्रचार-प्रसार हुआ। कालूपुर निवासी शाह सोमजी ने लवजी के पास श्रमणधर्म की दीक्षा ग्रहण की। ऋषि सोमजी के शिष्य परिवार में चार बड़े ही प्रभावक शिष्य हुए। उन चारों के नाम से आचार्य लवजीऋषि की परंपरा की चार यशस्विनी शाखाएं प्रचलित हुई, जिनके नाम इस प्रकार हैं - (1) पूज्य कानजीऋषि की सम्प्रदाय, यह ऋषि सम्प्रदाय की प्रमुख शाखा है इस सम्प्रदाय के साधुओं का प्रमुख विचरणक्षेत्र महाराष्ट्र रहा (2) पूज्य हरिदासजी की सम्प्रदाय, पंजाब-परम्परा इन्हीं से संबंधित हैं। (3) पूज्य ताराऋषिजी की सम्प्रदाय, यह खंभात समुदाय के नाम से गुजरात में प्रसिद्ध है। (4) पूज्य रामरतनजी महाराज की सम्प्रदाय (मालवा)25 6.3.1 श्री कानजीऋषिजी का श्रमणी-समुदाय 6.3.1.1 आद्य साध्वी श्री राधाजी (सं. 1810) प्रतापगढ़ भंडार से प्राप्त एक प्राचीन हस्तलिखित पत्र में वि. सं. 1810 वैशाख शु. 5 मंगलवार को 'पंचेवर ग्राम' में चार सम्प्रदायों के सम्मेलन का वर्णन है, उसमें ऋषि संप्रदाय के पूज्य ताराऋषिजी महाराज एवं उनकी आज्ञानुवर्तिनी महासती राधाजी की उपस्थिति का उल्लेख है, राधाजी महाराज विदुषी, शांत स्वभावी एवं प्रमुखा साध्वी थीं। आपने चतुर्विध संघ के संगठन एवं महिला वर्ग की जागृति में महान योग दिया था। आपकी अनेक शिष्याएँ थीं, जिनमें 'महासती श्री किसनाजी- प्रसिद्ध थीं। इनकी शिष्या जोतांजी व उनकी शिष्या श्री मोताजी हुई। श्री मोतांजी की अनेक शिष्याओं में श्री कुशलकवरजी का नाम विशेष प्रसिद्ध है।26 24. श्री यशकंवरजी म. व्यक्तित्व कृतित्व जीवन ग्रंथ, संपादिका-आर्या श्री प्रेमकंवर, श्री रिद्धकंवर 'मधु' 25. प्रवर्तक मुनि शुक्लचंद्र : भारत श्रमणसंघ गौरवः आचार्य सोहन, पृ. 353 अंबाला ई. 2002 (द्वि. सं.) 26. श्री मोतीऋषिजी : ऋषि संप्रदाय का इतिहास, पृ. 273-74 545 Page #608 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन श्रमणियों का बृहद इतिहास 6.3.1.2 प्रवर्तिनी श्री कुशलकुंवरजी (19वीं सदी का मध्यकाल) आपका जन्म मालवा प्रान्त के बागड़ देशीय 'हावड़ा' ग्राम में हूमड़ गोत्रीय परिवार में हुआ था। महासती श्री मोताजी के पास आपने वैराग्य भाव से दीक्षा अंगीकार की। राधाजी की चौथी पीढ़ी में होने से सं. 1850 के पश्चात् आपकी दीक्षा संभव लगती है। विनय, सरलता, दक्षता, गंभीरता आपके व्यक्तित्व के विशिष्ट अंग थे। आपके सदुपदेशों से प्रभावित होकर प्रतापगढ़, धरियावद, पीपलोदा आदि अनेक स्थानों के नरेशों ने सदा के लिये मांस, मदिरा का त्याग कर दिया था। पूज्य श्री धनजी ऋषिजी की उपस्थिति में ऋषि-सम्प्रदाय के सम्मेलन में करीब 125 संत और 150 साध्वियों के मध्य आपकी उत्कृष्ट साधना, धीरता, गंभीरता का सर्वोपरि मूल्यांकन कर 'प्रमुखा साध्वी' के रूप में 'प्रवर्तनी' पद से सुशोभित किया था। तत्कालीन मुनियों में जैसे पूज्य श्री उदयसागर जी म. शास्त्रीय-चर्चा में अपना महत्व रखते थे, वैसे ही सतियों में आपकी प्रतिष्ठा थी। आपकी 27 शिष्याएँ हुई, उनमें चार के ही नाम उपलब्ध होते हैं-श्री सरदारांजी, श्री धनकंवरजी, श्री दयाजी, श्री लिछमांजी। इनमें श्री दयाकुंवरजी एवं श्री लछमांजी की शिष्या-परम्परा ही प्रायः ऋषि सम्प्रदाय में प्रचलित हैं। ऋषि-सम्प्रदाय में साध्वियाँ हैं. वे सब प्रायः आपको ही अपनी आद्यप्रवर्तिनी साध्वी स्वीकार करती हैं। 6.3.1.3 प्रवर्तिनी श्री दयाकुंवरजी (19वीं सदी का उत्तरार्द्ध) दयाकंवरजी की विशेष परिचय उपलब्ध नहीं होता, इतना ही उल्लेख मिलता है कि इन्होंने लोगों को सन्मार्ग पर लगाया। ये प्रभावशाली प्रवचनकी परम पंडिता साध्वी थीं। अंतिम समय रतलाम में इन्होंने सती गेंदाजी से पूछा 'अब कितनी रात शेष है'? उन्होंने तारामंडल देखकर कहा- 'तीसरा प्रहर व्यतीत होने वाला है।' आपने अपना अंतिम समय जानकर कहा-'मुझे संथारा लेना है, और वह 25 दिन चलेगा, घबराना नहीं।' सतीजी ने पूछा 'खाचरोद से श्री गुमानकंवर जी, श्री सिरेकवरजी आदि को बुला लें?' तो आपने कहा-'परसों शाम को वे स्वयं आ जाएंगी, वैसा ही हुआ। 25वें दिन आप स्वर्गवासिनी हो गई। इनकी अनेक शिष्याओं में श्री घीसाजी, झमकूजी, हीराजी, गुमानाजी गंगाजी, मानकंवरजी प्रसिद्ध हैं।28 6.3.1.4 श्री नानूजी (सं. 1914- ) रतलाम निवासी श्री दुलीचंदजी सुराणा की आप धर्मपत्नी थीं, आपके 3 पुत्र व एक पुत्री थी। पति वियोग के अनंतर श्री अयवंता ऋषि जी के प्रवचन को श्रवण कर आपने दीक्षा का विचार किया, आपकी भावना को देखकर पुत्री हीराबाई, पुत्र कंवरमल एवं तिलोकचंदजी भी दीक्षा के लिये तैयार हो गये। सं. 1914 माघ कृ. प्रतिपदा गुरूवार के दिन चारों ने पंडित श्री अयवंताऋषिजी के मुखारविंद से दीक्षा ग्रहण की। श्री नानूंजी और हीराजी श्री दयाकंवरजी की शिष्या बनीं। आप महान जिनशासन प्रभावक माता हुईं, आपके सुपुत्र श्री तिलोकमुनि ही पूज्यपाद आचार्य तिलोकऋषि जी महाराज के नाम से प्रख्यात आचार्य हुए। आप सरल व गंभीर थीं। मालवा में ही किसी समय आपका स्वर्गवास हुआ।29 27. ऋ. स. इ., पृ. 274-75 28. ऋ. स. इ., पृ. 276 29. ऋ. स. इ., पृ. 294 546 Page #609 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्थानकवासी परम्परा की श्रमणियाँ 6.3.1.5 महार्या श्री हीरांजी (सं. 1914) रतलाम निवासी श्री दुलीचंदजी सुराणा की धर्मपत्नी श्री नानूबाई की कुक्षि से आपका जन्म हुआ था। माता के दीक्षा लेने के निश्चय को सुनकर ये भी दीक्षित हो गईं। आपका कंठ मधुर व व्याख्यान अत्यन्त रोचक था। संवत् 1935 का चातुर्मास जावरा में करने के पश्चात् पूज्यपाद तिलोकऋषिजी के साथ आप भी दक्षिण में चार वर्ष विचरीं। आपकी प्रेरणा से ही श्री रत्नऋषिजी अध्ययन कर ज्ञानी बने। श्रीवृद्धिऋषिजी एवं उनकी धर्मपत्नी आपके सदुपदेश से ही दीक्षित हुए थे। आपकी 13 शिष्याएँ थीं।- श्री हरियाजी, छोटाजी, रंभाजी, गोकुलजी, श्री लछमांजी, श्री झमकूजी, श्री अमृताजी, श्री सोनाजी, श्री रंगूजी, श्री नंदूजी, श्री चंपाजी, श्री भूराजी, श्री रामकुंवरजी। 6.3.1.6 श्री लछमाजी (सं. 1921 से पूर्व) आप मन्दसौर के बीसा पोरवाड़ श्रीमान् धनराजजी की पुत्री थीं, रतलाम में विवाह हुआ। पदवीधर श्री कुशलकुंवरजी से आपने दीक्षा अंगीकार की, आगम का अभ्यास कर आप बहुसूत्री बनीं। आपकी प्रवचनशैली मधुर आकर्षक थी, आपके प्रवचन को श्रवण कर पिपलोदा के राजा दुलीसिंह जी ने 11 जीवों को अभयदान दिया था, आपने प्रतापगढ़ नरेश को भी सद्बोध देकर धर्मनिष्ठ बनाया था। भगवतीसूत्र को भिन्न-भिन्न शैली से समझाने में आप निपुण थीं। अंत में 11 वर्ष प्रतापगढ में स्थिरवास किया। दो दिन के संथारे के साथ समाधिपूर्वक शरीरोत्सर्ग किया। आपकी अनेक शिष्याएँ हुईं, उनमें श्री रूक्माजी, श्री हमीराजी, श्री देवकुंवरजी, श्री रंभाजी, श्री दयाकुंवरजी, श्री जड़ावकुंवरजी, श्री गेंदाजी, श्री लाडूजी, श्री बड़े हमीराजी, शांतमूर्ति श्री सोनाजी ये दस नाम उपलब्ध होते हैं।" 6.3.1.7 श्री झमकूजी (सं. 1921-?) आप पीपलोदा निवासी श्री माणकचंदजी नांदेचा की सुपुत्री थीं। आपके द्वारा मालवा और दक्षिण देश में धर्मप्रचार हुआ। 16 मुमुक्षु बहनों ने आपके पास प्रव्रज्या ग्रहण की, उनमें श्री गंगाजी, अमृताजी, केसरजी, जड़ावांजी, राधाजी, मानकंवरजी और कुशलांजी प्रसिद्ध थीं। 6.3.1.8 श्री लाडूजी (सं. 1921 के लगभग) आप श्री लिछमांजी की शिष्या थीं। अत्यंत सरल हृदया और विनयविभूषिता साध्वी थीं। शास्त्रलेखन की भी रूचि थी, आपके हस्तलिखित पन्ने मौजुद हैं। आपका व्याख्यान भी प्रभावशाली था। आप की एक शिष्या श्री भूलांजी हुई। 30. ऋ. सं. इ., पृ. 295 31. ऋ. सं. इ., पृ. 364 32. ऋ. सं. इ., पृ. 277-278 33. ऋ. सं. इ., पृ. 365 547 Page #610 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन श्रमणियों का बृहद इतिहास 6.3.1.9 श्री बड़े हमीराजी (बीसवीं सदी का पूर्वार्द्ध) ___ आपने श्री लछमाजी के पास दीक्षा ग्रहण की। आप व्याख्यानपटु सरल और गंभीर प्रकृति की थीं। आपने मालवा और बागड़ आदि प्रान्तों में जैनधर्म का खूब प्रचार किया। आप बड़ी तेजस्विनी और प्रभावशालिनी सती थीं, साध्वीवृंद पर आपका अच्छा प्रभाव था अतः उस समय विचरण करने वाली लगभग 30 साध्वियाँ आपकी आज्ञा का पालन करती थीं। आपकी 5 शिष्याएँ हुईं- श्री छोटाजी, श्री जमनाजी, श्री हुलासकुंवरजी, श्री मानकुंवरजी, श्री रंभाजी। 6.3.1.10 श्री गंगाजी (बीसवीं सदी का पूर्वार्द्ध) ये दक्षिण प्रान्त की निवासिनी थीं, महासती झमकूजी से दीक्षा लेकर इन्होंने अपना संपूर्ण जीवन सेवा में बिताया। स्वभाव से ये शांत व सरल प्रकृति की थी। श्री आनंदऋषिजी म. सा. सं. 2006 में इन्हें रतलाम में दर्शन देने पधारे थे। इनका स्वर्गवास रतलाम में ही हुआ। इनकी दो शिष्याएँ हुईं-श्री राजकुंवरजी, श्री सुमतिकंवरजी।'' 6.3.1.11 आर्या गुमानाजी (बीसवीं सदी का पूर्वार्द्ध) प्रतापगढ़ (राज.) कोटड़ी गांव के पिता नाहरमलजी व माता झूमाबाई की ये पुत्री थीं, 21 वर्ष की आयु में जावरा शहर में महासती दयाकुंवरजी से इन्होंने दीक्षा ग्रहण की। ये उग्र तपस्विनी साध्वी थीं, इन्होंने 36 वर्ष तक एकांतर तप किया, जिसमें 12 वर्ष तक पारणे में कभी आयंबिल और कभी एकासन करती रहीं, उसके बाद भी कभी एकलठाणा या बियासणा करती रहीं। आपने मासखमण, अर्द्धमास आदि तप भी किया, विगय का प्रायः उपयोग नहीं करती थीं। स्वभाव से सरल व भेदभाव से दूर थीं। सदा खादी के वस्त्र धारण करतीं। मालवा, मेवाड़ और बरार में विचरते हुए इन्होंने अपने व अन्य संत-सतियों की खूब सेवा की। आपका स्वर्गवास संवत् 1939 के लगभग मालव प्रांत में हुआ।36 6.3.1.12 श्री सोनाजी (सं. 1925-56) आपका जन्म ‘जावद' (मालवा) में सं. 1900 में श्री ओंकारजी की धर्मपत्नी रोडीबाई से हुआ। श्री लछमाजी म. की वैराग्यमयी वाणी श्रवण कर पीपलोदा में संवत् 1925 में आपने उत्कृष्ट वैराग्य से दीक्षा ग्रहण की। आप शांत, गंभीर और विदुषी पंडिता महासती थीं। छोटे-2 ग्रामों में विचरण कर आपने लोगों को दृढ़ धर्मी बनाया। संवत् 1956 में प्रतापगढ़ चातुर्मास में आप संथारे के साथ स्वर्गवासिनी हुईं। आपकी 11 शिष्याएँ हुईं, जिनमें से पांच के नाम उपलब्ध हैं-श्री कासाजी, श्री चम्पाजी, श्री बड़े हमीराजी, श्री प्याराजी, श्री छोटे हमीराजी।" 6.3.1.13 प्रवर्तिनी श्री रंभाजी (सं. 1927-2002) आप प्रतापगढ़ निवासी वैष्णवधर्मी श्री घासीलालजी पोरवाड़ की पुत्री थीं, नौ वर्ष में विवाह और तेरह वर्ष 34. ऋ. सं. इ., पृ. 368 35. ऋ. सं. इ., पृ. 279 36. ऋ. सं. इ., पृ. 283 37. ऋ. सं. इ., पृ. 389 548 Page #611 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्थानकवासी परम्परा की श्रमणियाँ की आय में वैधव्य ने इन्हें संसार के सत्य स्वरूप का प्रत्यक्ष दर्शन करा दिया, श्री हमीराजी महाराज के पास आपने दीक्षा अंगीकार की। आपने मालवा. बागड. गजरात महाराष्ट खानदेश में अनेक परीषह झेलकर भी विहार किया। संवत् 1991 को पूना में आप प्रवर्तिनी पद से अलंकृत हुई, वृद्धावस्था के कारण लगभग 15 वर्ष आप पना में स्थिरवासिनी रहीं। शारीरिक स्थिति गिरती हई देखकर आपने प्रथम नौ दिन के उपवास किये, पश्चात संथारा ग्रहण किया, 36 दिन के संथारे के साथ कुल 45 दिन की तपस्या में संवत् 2002 ज्येष्ठ शु. 15 को समाधि में लीन होकर देहोत्सर्ग किया। आपने 75 वर्ष संयम पाला, 90 वर्ष की उम्र में स्वर्गवासिनी हुईं। आपके सदुपदेश से 18 शिष्याएँ हुईं, जिनमें श्री पानकुंवरजी, श्री राजकुंवरजी, श्री रामकुंवरजी, श्री केसरजी, श्री गुलाबकुंवरजी, श्री जतनकुंवरजी, श्री सुन्दरकुंवरजी, श्री जसकुंवरजी, श्री सूरजकुंवरजी, श्री विजयकुंवरजी, श्री जयकुंवरजी, श्री जड़ावकुंवरजी, श्री रतनकुंवरजी, श्री प्रेमकुंवरजी, श्री फूलकुंवरजी, श्री बसन्तकुंवरजी, श्री चन्द्रकुंवरजी, श्री आनन्दकुंवरजी थीं। 6.3.1.14 श्री सुन्दरकुंवरजी ( -1973) आप चोपड़ा (खानदेश) की थीं, श्री रंभाजी के पास दीक्षित हुई। स्वभाव की कोमलता और अंत:करण की भद्रता प्रशंसनीय थी। आपको कई ढाल, स्तवन, थोकड़े आदि कंठस्थ थे, वि. सं. 1973 में आप स्वर्गवासिनी हुई। 6.3.1.15 श्री छोटे हमीराजी ( - 1989) आप श्री सोनाजी की शिष्या थीं। आपका स्वभाव अत्यंत सरल और विनम्र था, श्रुत-चारित्र धर्म की ओर आपका पूर्ण लक्ष्य था। शारीरिक क्षीणता के कारण 18 वर्ष तक आप प्रतापगढ़ में विराजमान रहीं, किंतु आपके आचार-विचार और व्यवहार के प्रति सभी को अन्तर हृदय से श्रद्धा भक्ति थी। संवत् 1989 पोष शु. 4 को तेले के पारणे पर यावज्जीवन संथारा पचख कर आप समाधिपूर्वक स्वर्गवासिनी हुईं। अंतिम क्रिया के समय आपकी मुखवस्त्रिाका पर आंच भी नहीं आई, ऐसा प्रत्यक्षदर्शियों का कथन है। आपके संथारे के शुभ अवसर पर श्री अमोलकऋषिजी म., श्री आनन्दऋषिजी आदि 16 संत एवं प्रवर्तिनी श्री कस्तूरांजी, प्र. श्री रतन कुंवर जी आदि 40 सतियाँ उपस्थित थीं। आपने अपनी नेश्राय में शिष्या बनाने का त्याग कर दिया था।40 6.3.1.16 श्री पानकुंवरजी ( -1991) आप सुकिना निवासी श्रीमान् किशनदासजी की पुत्री थीं, नौ वर्ष की वय में विवाह और 10 वर्ष की वय में वैधव्य को प्राप्त हुई। 19 वर्ष की उम्र में श्री रंभाजी म. के पास दीक्षित हुईं। आपकी भाषा में अनूठा माधुर्य था, हृदय को हिला देने वाली शक्ति थी, गंभीरता, समयसूचकता आदि गुणों से विभूषित थीं। श्री रंभाजी म. की दाहिनीभुजा समझी जाती थी, महाराष्ट्र में आपने खूब धर्म प्रचार किया। संवत् 1991 भाद्रपद शु. 5 की रात्रि को समाधिपूर्वक देहोत्सर्ग किया। 38. ऋ. सं. इ., पृ. 371 39. ऋ. सं. इ., पृ. 370 40. ऋ. सं. इ., पृ. 390-92 41. ऋ. सं., इ., पृ. 372 549 Page #612 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन श्रमणियों का बहद इतिहास 6.3.1.17 श्री सूरजकुंवरजी (सं. 1930 के लगभग) आपकी जन्मभूमि कुडगांव (अहमदनगर) थी, गुगलिया गोत्र में विवाहित हुई। पांच वर्षीय पुत्र का मोह छोड़कर श्री रंभाजी केपास 'कड़ा' में दीक्षित हुई। आपका शास्त्रीय ज्ञान व कंठकला अच्छी थी। कोकिला के समान मधुर स्वर से जब आप प्रभु-प्रार्थना और वैराग्य-रस के पदों का उच्चारण करती तो श्रोतागण भक्ति विह्वल हो जाते थे। आवाज भी आपकी बुलन्द थी, स्वभाव शांत और सरल था। आपके पुत्र ने भी दस वर्ष की उम्र में पूज्य श्री जवाहरलालजी म. के पास दीक्षा अंगीकार की, उनका नाम श्री श्रीमलजी म. रखा गया, वे विद्वान, उत्साही, पंडित, वक्ता एवं प्रमुख संतों में गिने जाते थे।12 6.3.1.18 श्री चन्द्रकुंवरजी ( -1993) आप कड़ा निवासी नवलमलजी सिंघी की सुपुत्री एवं पारनेर निवासी श्रीमान् चुन्नीलाल जी सिंघवी की धर्मपत्नी थी, डेढ़ वर्ष में ही पतिवियोग से विरक्त होकर 15 वर्ष की उम्र में श्री रंभाजी म. के पास 'कड़ा' में ही दीक्षा अंगीकार की। आपने संस्कृत प्राकृत, आगम आदि का उच्चकोटि का ज्ञान प्राप्त किया। आप का कंठ अतिशय मधुर था, आपके भक्ति व वैराग्य के पदों को श्रवण कर लोग भाव विभोर हो जाते थे। आपके सदुपदेश से अनेकों ने मांस, मदिरा, हिंसा, परस्त्रीगमन आदि के प्रत्याख्यान किये, छोटे-2 ग्रामों में विचरण कर आपने महाराष्ट्र की जनता पर खब उपकार किया। आपको चार शास्त्र कंठस्थ थे। संवत 1993 दौंड में आपका स्वर्गवास हुआ। आपकी दो शिष्याएँ हुईं-श्री प्रभाकुंवरजी, श्री इन्द्रकुंवरजी। 6.3.1.19 श्री नंदूजी (सं. 1936-83) नासिक जिले के साइखेड़ा ग्राम के निवासी श्री मेघराजजी नाबरिया की धर्मपत्नी चंदनबाई की कुक्षि से सं. 1914 में जन्म हुआ, विवाह के पश्चात् 22 वर्ष की उम्र में संवत् 1936 चैत्र शु. 13 को कविवर्य श्री तिलोकऋषि जी म. सा. के मुखारविंद से दीक्षा लेकर हीराजी म. की शिष्या बनीं। आपने 30 सूत्र और 200 थोकड़ों का गहन अध्ययन किया। आप उग्र तपस्विनी थीं- कर्मचूर, धर्मचक्र, चक्रवर्ती के 13 तेले, अठाइयाँ, पंचरंगी तप, एक से 15 तक तप, 18, 21 आदि तपस्याएँ की। आपकी श्री छोटाजी, प्रवर्तिनी श्री सिरेकंवरजी, श्री रायकंवरजी, श्री राधाजी, श्री केसरजी, श्री सायरकुंवरजी, जड़ावकुंवरजी 7 शिष्याएँ हुई। संवत् 1983 मार्गशीर्ष शुक्ल 3 को उपवास के दिन अहमदनगर में आपका महाप्रयाण हुआ। 6.3.1.20 श्री चंपाजी (संवत् 1936-51) आप घोड़नदी (पूना) निवासी श्री गंभीरमलजी लोढ़ा की धर्मपत्नी थीं, संसार से विरक्ति हो जाने पर पुत्री सहित सं. 1936 आषाढ़ शु. 9 के दिन पूज्यपाद श्री तिलोकऋषिजी के मुखारविंद से दीक्षा धारण कर श्री हीराजी की शिष्या बनीं। आपमें सहनशीलता, शांतता, गंभीरता, सरलता आदि विशिष्ट सद्गुण थे। क्षमामूर्ति श्री 42. ऋ. सं. इ., पृ. 375 43. ऋ. सं. इ., पृ. 380 44. ऋ. सं. इ., पृ. 297 550 Page #613 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्थानकवासी परम्परा की श्रमणियाँ रामकुंवरजी को शिक्षित बनाने का श्रेय इनको ही था। सं. 1951 में अपने भावी लक्षण देखकर आपने स्वयं संथारा कर लिया, आपका संथारा 60 दिन तम तिविहारी और अंत के 5 दिन चौविहारी-इस प्रकार 65 दिन के संथारे के साथ भाद्रपद शु. 3 को घोड़नदी में स्वर्गवास हुआ। आपकी दो शिष्याएँ हुईं- श्री छोटाजी और श्री जमुनाजी।45 6.3.1.21 श्री रामकुंवरजी (सं. 1936-89) पूना जिले के घोड़नदी गांव में श्रीमान् गंभीरमलजी लोढ़ा की धर्मपत्नी चंपाबाई से आपका जन्म हुआ। खाराकर्जुना निवासी श्री गुलाबचंदजी बोरा के साथ अठारह मास परिणय-संबंध रहा, पश्चात् विधवा हो गईं। सं. 1936 आसाढ़ शुक्ला 9 को श्री हीराजी म. के पास माता-पुत्री एक साथ प्रवर्जित हुईं। इन्हीं के साथ श्री रत्नऋषिजी की भी दीक्षा हुई। रामकुंवरजी स्वभाव से अत्यंत नम्र व सरल थीं, वे अपना अधिकांश समय नाम-स्मरण और शास्त्रीय चिंतन में ही व्यतीत करती थीं। अंतिम समय एकातर तप और तत्पश्चात बेले-बेले पारणा करते 389 कार्तिक क. 2 के दिन मध्यरात्रि को आप अनशन पूर्वक स्वर्ग सिधारी आपकी 23 विदषी शिष्याएँ हई- श्री रंगजी. बडे सन्दरजी. श्री हलासाजी श्री सरजकंवरजी. श्री बडे राजकवरजी. श्री बडे केशरजी, श्री कस्तूराजी, श्री छोटे सुन्दरकुंवरजी, श्री शांतिकुंवरजी, श्री सदाकुंवरजी, श्री छोटे राजकुंवरजी, श्री प्रेमकुंवरजी, श्री श्रेयकुंवरजी, श्री चन्द्रकुंवरजी, श्री जड़ावकुंवरजी, श्री सुव्रताजी, श्री चांदकुंवरजी, श्री पानकुंवरजी, श्री जसकुंवरजी, श्री सरसकुंवरजी, श्री रम्भाजी, श्री केसरजी, श्री सोनाजी। रामकुंवरजी की शिष्या श्री राजकुंवरजी प्रवर्तिनी बनी थी। इनकी शिष्या रंभाकुंवरजी सेवाभाविनी, समयसूचक, दक्ष विदुषी साध्वी थीं, श्री सुमतिकुंवरजी की शैक्षणिक अभिलाषा में इन्होंने पूर्ण सहयोग दिया था। 6.3.1.22 श्री भूराजी (सं. 1937-79) आपने श्री पूज्यपाद तिलोकऋषि जी महाराज के सदुपदेश से वैराग्य प्राप्त कर सं. 1937 को श्री हीराजी महाराज के पास दीक्षा ग्रहण की। आपका स्वभाव सरल शांत और कोमल था, विनय के साथ विद्वत्ता का अपूर्व संगम था, व्याख्यान प्रभावशाली, मधुर और रोचक था। मालवा, नगर, पूना, नाशिक आपकी प्रधान विहारभूमि रही। आपकी नेश्राय में चार दीक्षाएं हुईं, जिनमें बा. ब्र, प्रवर्तिनी श्री राजकुंवरजी अतीव प्रभावशालिनी और शासन प्रभाविका हुई हैं। पोष कृष्णा 13 सं. 1979 में आपका स्वर्गवास हो गया। 6.3.1.23 श्री सिरेकंवरजी (सं. 1939-58) सिरेकवरजी का जन्म नागपुर के श्री नवलमलजी की धर्मपत्नी श्री विनयकुंवरबाई की कुक्षि से हुआ, सं. 1939 में इन्होंने उग्र तपस्विनी श्री गुमानांजी के पास संयम अंगीकार किया। बत्तीस सूत्र, 100 स्तोक, स्तवन, लावणी के 351 पद्य एवं करीब 300 अन्य श्लोक और सवैये आपको कंठस्थ थे। आपकी प्रकृति अत्यंत सरल और निश्छल थी। स्वर मधुर और हृदय भक्ति से भरपूर था। गुरूणीजी के सम्मुख अविनय से एक अक्षर का भी उच्चारण हो जाने पर तत्काल बेला कर लेती थीं, ये अल्पाहारी एवं विगय-त्यागी थीं। मासखमण अर्द्धमास के 45. ऋ. सं. इ., पृ. 305 46. ऋ. सं. इ., पृ. 307 47. ऋ. सं. इ., पृ. 346 551 For Priv medsonal Use Only Page #614 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन श्रमणियों का बृहद इतिहास दो थोक किये। कभी-2 गर्मियों में सूर्य की आतापना लेती थीं, शरीराच्छादन हेतु मोटा लट्ठा ही पहनती। इस प्रकार । 18 वर्षों तक शुद्ध संयम का पालन किया। जावरा में असाध्य रोग हो जाने पर भी औषधोपचार त्याग कर बेले-बेले पारणा किया। सं. 1958 में जब जावरा में आप स्वर्गवासिनी हुईं तो दाह-संस्कार में मुखवस्त्रिका पर आंच भी नहीं आई। यह आपके तप-संयम का प्रभाव था। आपकी नौ शिष्याएँ हुईं, इनमें श्री चूनाजी, गुलाबांजी, गंगाजी, चंपाजी, घीसाजी तथा प्रवर्तिनी रतनकुंवरजी का ही नामोल्लेख प्राप्त होता है।48 6.3.1.24 प्रवर्तिनी श्री कस्तूरांजी (सं. 1949-2008) आप मालवा के श्री लक्ष्मीचंदजी पोरवाड़ एवं माता श्रीमती चंदनबाई की सुपुत्री थीं। संवत् 1923 में आपका विवाह हुआ। संवत् 1949 आसाढ़ शु. 12 के दिन शाजापुर में श्री कासाजी म. के समीप आपने दीक्षा ग्रहण की। आप अत्यन्त ही सरल एवं करूणावान साध्वी थीं। भद्रता, भव्यता, शिष्टता और शालीनता आपके प्रत्येक व्यवहार से टपकती थी। मालवा. मेवाड. मध्यप्रदेश. वागड आदि प्रान्तों में आपने खब धर्म प्रभावना की थी। संवत 1989 को प्रतापगढ़ सम्मेलन में आप प्रवर्तिनी पद पर विभूषित की गई। संवत् 2008 को प्रतापगढ़ में ही दो दिन के संथारे के साथ आपने स्वर्ग प्रयाण किया। आपकी तीन शिष्याएँ हुईं-श्री जड़ावकुंवरजी, श्री इन्द्रकुंवरजी, श्री नजरकुंवरजी। 6.3.1.25 श्री बड़े सुन्दरजी (सं. 1950 से पूर्व 1977 आप और आपकी छोटी बहिन हुलासकंवरजी की एक साथ ही शांतमूर्ति रामकुंवरजी के पास आलेगांव (पूना) में दीक्षा हुई। प्रवर्तिनी रामकुंवरजी के ग्रुप का संचालन आपने कुशलता पूर्वक किया। आपकी गुरू भक्ति, दूरदर्शिता, समय-सूचकता और दाक्षिण्यता सभी को मुग्ध करती थी, नेतृत्वशक्ति अनूठी होने से ये 'प्रधानजी महाराज' के नाम से विख्यात थीं। आपकी आवाज बुलन्द व गायनकला उत्कृष्ट थी। आपके प्रति आचार्य आनन्दऋषिजी महाराज अत्यंत आदर व सम्मान के साथ यह कहते थे कि "बांबोरी में मैंने श्री सुन्दरजी महासतीजी से 'पुच्छिस्सुणं' का अभ्यास किया, महासती जी ने बड़े ही विवेक व प्रसन्नता से मुझे इस प्रकार वह अभ्यास करवाया कि मेरे लिये वह नीति का ज्ञान कराने जैसा सिद्ध हुआ, महावीर स्तुति के साथ-साथ दूसरे ज्ञान की भी जानकारी मिली, जिससे मैं शास्त्रों के अन्तर्रहस्य को समझने लगा।"50 अंतिम समय नौ दिन के अनशन एवं संथारे पर आचार्य रत्नऋषिजी महाराज के साथ आनंदऋषिजी महाराज उनको दर्शन देने अष्टी निजाम स्टेट से विहार कर अहमदनगर पधारे। सं. 1977 आसाढ़ मास में आपका स्वर्गवास हुआ। आचार्य आनंदऋषिजी महाराज जैसी महान हस्ती में आगम ज्ञान के प्रति रूचि जागत कराने वाली ये महासती नि:संदेह महान थीं। 6.3.1.26 बड़े राजकुंवरजी (सं. 1951-75) अहमदनगर निवासी श्री दौलतराम जी बोरा पिता एवं चिचोंडी निवासी श्री कोंडीराम जी गांधी आपके पति थे। सं. 1951 में सती श्री रामकुंवरजी से चिचोंडी (पटेल) में दीक्षा ली। आप बड़ी सरल और सेवाभाविनी थीं। 48. ऋ. सं. इ., पृ. 284 49. वही, पृ. 401 50. आ. आनंदऋषि अभि. ग्रंथ में आचार्य आनन्दऋषिजी का लेख 'मेरे गुरूदेव' पृ. 39 नानापेठ, पूना, ई. 1975 51. ऋ. सं. इ., पृ. 312 552 Page #615 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्थानकवासी परम्परा की श्रमणियाँ शास्त्रीय ज्ञान साधारण होने पर भी एषणा समिति के अनुसार गोचरी लाने में विशेष दक्ष थीं, अतः आप 'गोच वाले महाराज' के नाम से प्रसिद्ध थीं। आपका स्वर्गवास सं. 1975 में अहमदनगर में हुआ । 2 6.3.1.27 महार्या श्री कासाजी ( -1975 ) मंदसौर में मां जोताबाई की कुक्षि से श्री तिलोकचंदजी के घर आपका जन्म हुआ। महासती सोनांजी की शिष्या बनीं। अपनी विनयशीलता से अल्पकाल में ही शास्त्रज्ञान अर्जित कर ये पंडिता बन गई। आपका आचार उच्चकोटि का था, संवर और निर्जरा के साधनों में सदैव तन्मय रहती थीं। अल्प से अल्प उपधि से संयम - यात्रा का सम्यक् निर्वाह करती थीं। अपनी चित्तवृत्ति का संतुलन रखने की आपमें अद्भुत क्षमता थी। उस समय विचरण करने वाली 40 सतियाँ आपके साथ एक ही मांडले पर आहार- पानी करती थी, यह आपकी वाणी की मिठास और सब पर समान प्रीति का प्रभाव था। संवत् 1975 में अपनी जन्मभूमि मन्दसौर में आपने संथारा कर स्वर्गगमन किया। आपकी शिष्याओं में श्री मथुराजी घोर तपस्विनी थीं। श्री सरसाजी सेवाभाविनी थीं, प्रवर्तिनी श्री कस्तूरांजी सरल स्वभावी थीं, प्रवर्तिनी श्री हगामकुंवरजी विदुषी साध्वी थीं।” 6.3.1.28 प्रवर्तिनी श्री सिरेकंवरजी (सं. 1954-2001 ) आप शांत एवं सरल प्रकृति की थीं। हिंदी और प्राकृत भाषा की ज्ञाता थीं, सं. 1991 चैत्र कृ. 7 को पूना में आयोजित ऋषि संप्रदायी सती सम्मेलन में इन्हें प्रवर्तिनी पद से विभूषित किया गया था। आपका स्वर्गवास घोड़नदी में सं. 2001 में हुआ। आपकी एक शिष्या थीं- श्री हुलासकुंवर जी । 54 6.3.1.29 प्रवर्तिनी श्री शांतिकुंवरजी (सं. 1957-2005 ) आप घोड़नदी निवासी श्री गुलाबचंदजी दुगड़ की पुत्री थीं। नौ वर्ष की उम्र में सं. 1957 पोष कृ. 11 को श्री रामकुंवरजी के पास आपने दीक्षा ग्रहण की। धारणा शक्ति प्रबल होने से कुछ ही समय में 5 शास्त्र, लघुकौमुदी सिद्धान्तकौमुदी, तर्कसंग्रह, हितोपदेश, पंचतत्र आदि कंठस्थ किये। आपका व्याख्यान प्रभावशाली व रोचक तथा विद्वत्तापूर्ण होता था, आपके उपदेश से कुकाना के जयराम बांबी व मुसलमान भाई ने यावज्जीवन मांस मदिरा का त्याग किया, अन्य भी अनेक लोगों को आपने सन्मार्ग पर लगाया, पूना में दक्षिण प्रांतीय ऋषि सम्प्रदाय सती सम्मेलन में सं. 1991 चैत्र कृ. 7 को आप प्रवर्तिनी पद पर विभूषित हुईं। 47 वर्ष संयम पालकर अंत में संथारे के साथ स्वर्गवासिनी हुईं। आपकी 6 शिष्याएँ हुईं- श्री रतनकुंवरजी, श्री सज्जनकुंवरजी, श्री अमृतकुंवरजी, श्री सूरजकुंवरजी, श्री मदनकुंवरजी, विदुषी श्री सुमतिकुंवरजी ।” 6.3.1.30 श्री गुलाबकुंवरजी (सं. 1957 स्वर्गस्थ ) आपका जन्म संवत् 1948 में श्री अमरचंदजी माली निनोर ( मालवा ) निवासी के यहां हुआ। नौ वर्ष की 53. ऋ. स. इ., पृ. 314 54. ऋ. सं. इ., पृ. 392 55. ऋ. सं. इ., पृ. 298 - 553 Page #616 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन श्रमणियों का बृहद इतिहास उम्र में श्री लाडूजी के मुखारविन्द से चैत्र शु. 3 सं. 1957 में दीक्षा अंगीकार की। आप श्री भूलाजी की शिष्या थीं। आप भद्र प्रकृति की थीं, आपकी तीन शिष्याएँ हुईं- श्री धापूजी, श्री सूडाजी, श्री सुमतिकुंवरजी । 6 6.3.1.31 प्रवर्तिनी श्री रतनकुंवरजी (सं. 1957 स्वर्गस्थ ) आपका जन्म संवत् 1949 मोगरा (जोधपुर) ग्राम में पिता गणेशीरामजी राजपूत और माता रम्भाबाई के यहां हुआ। आठ वर्ष की उम्र में संवत् 1957 को जावरा में श्री सिरेकुंवरजी से दीक्षा ग्रहण की। आपने संस्कृत, प्राकृत, ऊर्दू का उच्च शिक्षण प्राप्त किया। आपकी वाणी को श्रवण कर सेमलिया के महाराज श्री चतरसेनजी ने दशहरे के दिन होने वाली भैंसे की बलि को सदा के लिये बंद करवा दिया। देलवाड़ा, तनोदिया, अचलावदा, ऊबरवाड़ा, पीपलखूटा, भींडर, निंबोज, नामली तथा सैलाना के नरेशों ने मांस-मदिरा का त्याग कर दिया। आपने परदेशी राजा, शांतिनाथ चरित्र, रत्नचूड़ मणिचूड़ चरित्र, सती तिलोकसुंदरी, चंद्रलेखा चरित्र, कुसुमश्री चरित्र आदि चरित्र भी रचे हैं। जो जैन सुबोधरत्नमाला भाग 1 से 4 प्रकाशित हुए हैं। कविकुलभूषण पूज्यपाद तिलोकऋषि जी द्वारा लिखित भरतक्षेत्र का नक्शा, लेश्यावृक्ष, निर्जरा के भेदों का वृक्ष आपके द्वारा लिखे जाने पर ही प्रसिद्धि में आया है, प्रतापगढ़ में संवत् 1989 पोष कृ. 5 को मालवा प्रान्तीय ऋषि संप्रदायी सती सम्मेलन में आपको ‘प्रवर्तिनी' पद प्रदान किया गया था। नागदा जंक्शन में 'श्री रत्न जैन पुस्तकालय' की स्थापना आपके सदुपदेश से हुई। श्री उमरावकंवरजी, वल्लभकंवरजी, श्रीमतीजी, राजीमतीजी, सोहनकंवरजी, श्री चतरकंवरजी, विमलकंवरजी, पानकुंवरजी, सूरजकंवरजी, कुसुमकंवरजी ये आपकी दस शिष्याएँ थीं। आपके स्वर्गवास की तिथि अज्ञात है। 6.3.1.32 प्रवर्तिनी श्री राजकुंवरजी (सं. 1958 - 96 ) आप रतलाम निवासी श्री कस्तूरचंदजी मुणोत की पुत्री थीं। आठ वर्ष की उम्र में श्री भूराजी महाराज के पास वैशाख शु. 6 सं. 1958 को आप दीक्षित हुईं। बाल्यावस्था में ही आपने आठ शास्त्र कंठस्थ किये। संस्कृत प्राकृत, हिन्दी, ऊर्दू, फारसी पर आपका अच्छा प्रभुत्व था। आपके कंठ में माधुर्य था, प्रवचन रसपूर्ण, मधुर गंभीर और प्रभावशाली होता था। आपके प्रवचनों को सुनकर अनेक जैनेतर भाइयों ने मांस, मद्य का सदा के लिये परित्याग कर दिया, कई तो पक्के जैन श्रद्धालु बन गये । बम्बई में प्रथम बार चातुर्मास करके आपने ही सतियों के लिये बंबई का द्वार खुला किया था। आपका संयमी जीवन अत्यन्त निर्मल रहा । गुणग्राहिता, सरलता, शांति और उदारता के कारण आप सबकी श्रद्धा पात्र थीं, नम्रता इतनी थी कि छोटे से छोटे संत के साथ भी धर्मचर्चा और भद्र व्यवहार करती थीं। आपने जैनधर्म के प्रचार में महत्वपूर्ण योग प्रदान किया है। फाल्गुन शु. 4 सं. 1996 के दिन संथारा के साथ आपने आयुष्य पूर्ण किया। आपकी 15 शिष्याएँ हुई हैं- श्री सुगनकुंवरजी (सं. 1970), श्री चन्द्रकुंवर जी (सं. 1973), श्री जसकुंवरजी (सं. 1974) श्री शांतिकुंवरजी, श्री सिरेकुंवरजी (सं. 1979-94), श्री सूरजकुंवरजी (सं. 1993 ), श्री विनयकुंवरजी (सं. 1981), श्री बदामकुंवरजी (सं. 1983) श्री 56. ऋ. सं. इ., पृ. 324 57. ऋ. सं. इ., पृ. 367 - 554 Page #617 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्थानकवासी परम्परा की श्रमणियाँ लाभकुंवरजी (सं. 1985), श्री रमणीककुंवरजी (सं. 1989), श्री सज्जनकुंवरजी (सं. 1991) श्री चन्दनबालाजी, श्री उज्जवलकुमारीजी (सं. 1991) श्री गुलाबकुंवरजी (सं. 1992), श्री माणकुंवरजी (सं. 1993)58 6.3.1.33 प्रवर्तिनी श्री हगामकुंवरजी (सं. 1960-स्वर्गस्थ) प्रतापगढ़ (राज.) के श्री माणकचंदजी चंडालिया व अमृतबाई की ये आत्मजा थीं। मालोट निवासी गुलाबचंदजी कोठारी के साथ अल्पकाल का वैवाहिक संबंध रहा। संवत् 1960 में श्री कासाजी के पास दीक्षा अंगीकार की। आप साहसी, भद्रपरिणामी एवं विदुषी साध्वी थीं। मालवा, मेवाड़, वागड़, वरार, म. प्र. झार्डा आदि ऐसे प्रदेशों में आपने विचरण कर धर्मप्रचार किया, जहां संत-सतियों का आवागमन नहीं होता था, सं. 1987 के ऋषि संप्रदाय के सती सम्मेलन में आप 'प्रवर्तिनी पद' से अलंकृत की गईं। आप की नौ विदुषी शिष्याएँ हुईं हैंश्री नजरकुंवरजी, श्री छोटे हगाम कुंवरजी, श्री केसरजी, श्री हुलासकुंवरजी, श्री कस्तूरांजी, श्री दाखाजी, श्री जानकुंवरजी, श्री सुंदरकुंवरजी, श्री नन्दकुंवरजी।” 6.3.1.34 प्रवर्तिनी श्री राजकुंवरजी (सं. 1962-स्वर्गस्थ) आपका जन्म वांबोरी (अहमदनगर) निवासी श्रीमान् चन्दनमलजी मूथा के यहां तथा विवाह पूना निवासी श्री रतनचंदजी मुणोत के साथ हुआ। सं. 1962 मार्गशीर्ष शु. 3 को श्री रत्नऋषिजी म. के मुखारविंद से आपकी दीक्षा घोड़नदी में हुई, आप श्री रामकुंवरजी की शिष्या बनीं। आप बड़ी ही सुशील, सरलस्वभावी, सेवाभावी आत्मार्थिनी साध्वीजी थीं। सं. 2005 को घोड़नदी में आचार्य आनंदऋषिजी द्वारा आप प्रवर्तिनी पद से अलंकृत की गई। 6.3.1.35 श्री शांतिकुंवरजी (सं. 1962 से 67 के मध्य) आप बाम्बोरी निवासी श्री सरूपचंदजी की सुपुत्री थीं। लघुवय में ही आपने श्री राजकुंवरजी म. के पास दीक्षा अंगीकार की। आपने शास्त्रज्ञान के अतिरिक्त लघुसिद्धान्कौमुदी भी कंठस्थ की। अतः संस्कृत साहित्य का आपको अच्छा अभ्यास था। आपकी प्रकृति अत्यंत कोमल, सरल और शांत थी। सदा ज्ञान-ध्यान में लीन, सांसारिक वार्तालाप से उदासीन रहा करती थीं। वस्तुतः आप आत्मार्थिनी साध्वी थीं। प्रभावशाली प्रवचनों द्वारा आपने अपने धर्म की खूब प्रभावना की थी। 6.3.1.36 श्री रायकुंवरजी ( - सं. 1985) __ आपने श्री नंदूजी महासती से दीक्षा ग्रहण की। सं. 1984 में बीमार हो जाने पर कोपरगांव में श्री अमोलक ऋषि जी महाराज के श्री मुख से 43 दिन के संथारे के साथ चैत्र शु. 4 सं. 1985 में स्वर्गस्थ हुईं। आपके संथारे से तप-त्याग एवं धर्म की महती प्रभावना हुई। आपकी दीक्षा सं. 1954 से 1963 के मध्य किसी वर्ष हुई थी।62 58. ऋ. सं. इ., पृ. 286 59. ऋ. सं. इ., पृ. 349 60. ऋ. सं. इ., पृ. 394 61 ऋ. इ., पृ. 316 62. ऋ. सं. इ., पृ. 353 555 Page #618 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन श्रमणियों का बृहद इतिहास 6.3.1.37 श्री वरजूजी (सं. 1967 से पूर्व) आपका जन्म मालवा में हुआ। श्री जड़ावकुंवरजी महाराज के पास उत्कृष्ट वैराग्य भाव से आप दीक्षित हुई। आप विदुषी साध्वी थीं, मालवा के छोटे-छोटे प्रान्तों में विचरण कर आपने जिनवाणी की वर्षा की, तथा कइयों के जीवन पवित्र बनाये, आपकी वाणी में माधुर्य-रस झरता था। आपकी शिष्या श्री सिरेकुंवरजी हुईं। 6.3.1.38 श्री सिरेकुंवरजी (सं. 1967 - स्वर्गस्थ) आपका जन्म निनोर (प्रतापगढ़) के श्री रामलालजी बोहरा के यहां ज्येष्ठ शु. 9 सं. 1958 में हुआ। करीब नौ वर्ष की उम्र में सं. 1967 फालान श. 7 को उज्जैन मे पंडित श्री अमीऋषि जी महाराज एवं पंडिता श्री कासाजी म. की उपस्थित में दीक्षा अंगीकार कर आप श्री वरजू जी म. की शिष्या बनीं। आपने लघुवय में ही दशवैकालिक, उत्तराध्ययन, नन्दी सूत्र, व सुखविपाक शब्दार्थ सहित कंठस्थ किये। हिंदी, संस्कृत, ऊर्दू भाषाओं का ज्ञान एवं 26 शास्त्रों का वाचन किया। आप स्वभाव से शांत और विनीत थी, व्याख्यान, सरस रोचक व मधुर था। आपकी तीन शिष्याएँ हुईं-श्री गुमानकुंवरजी, श्री हुलासकुंवरजी श्री गुलाबकुंवरजी।64 6.3.1.39 श्री लछमांजी (सं. 1969 - स्वर्गस्थ) आपका जन्म सं. 1954 में कालूखेड़ा (मालवा) निवासी राजपूत सरदार श्री किशना जी हवलदार के यहां हुआ, 7 वर्ष में विवाह और छह मास की वैधव्य स्थिति में विरक्त होकर आपने सं. 1969 मार्गशीर्ष कृ. 2 के दिन जावरा में श्री चतरकंवरजी के पास दीक्षा ली। आपने संस्कृत, प्राकृत, हिंदी, ऊर्दू, फारसी का अध्ययन किया। शास्त्रीय ज्ञान भी अच्छा था, कंठ मधुर होने से श्रोता मंत्रमुग्ध होकर प्रवचन एवं गीतों का श्रवण करते थे। विविध प्रान्तों में विचरण कर आपने जैनधर्म की प्रभावना की। आपकी एक शिष्या श्री शांतिकुंवरजी धूलिया में दीक्षित हुईं। 6.3.1.40 श्री अमृतकुंवरजी (सं. 1974-2006) आप प्रतापगढ़ निवासी मूर्तिपूजक आम्नाय के श्रीमान् बालचंदजी मंडावत की पुत्री थीं। श्री कासाजी म. के संपर्क से वैराग्य का बीज अंकुरित होने पर महावीर जयंति के शुभ दिन सं. 1974 प्रतापगढ़ में श्री कासाजी के श्रीमुख से दीक्षित होकर श्री जड़ावकुंवरजी की शिष्या बनीं। आपका स्वभाव अत्यंत सरल और भद्र था, शास्त्रीय ज्ञान भी अच्छा था, रोचक शैली में आपके प्रवचनों का प्रभाव श्रोताओं पर हृदय-स्पर्शी होता था, मालवा, विदर्भ, खानदेश, मध्यप्रदेश, दक्षिण में आपका अधिक विचरण हुआ, अंत में चैत्र शु. 9 सं. 2006 को मनमाड़ में आपका स्वर्गवास हुआ। आपकी 11 शिष्याएँ हुई- श्री कंचनकुंवरजी, श्री राजाजी, श्री सोनाजी, श्री फूलकुंवरजी, श्री केसरजी, श्री चांदकुंवरजी, श्री राधाजी, श्री जयकुंवरजी, श्री अजितकुंवरजी, श्री विमलकुंवरजी, श्री वल्लभकुंवरजी। 63. ऋ. सं. इ., पृ. 299 64. ऋ. सं. इ., पृ. 415 65. ऋ. सं. इ., 416 66. ऋ. सं. इ., पृ. 293 Page #619 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्थानकवासी परम्परा की श्रमणियाँ 6.3.1.41 महार्या श्री आनन्दकुंवरजी (सं. 1979-स्वर्गस्थ) ___ आप जाति से ब्राह्मण श्री लाधूरामजी रत्नपुरी पांडेय की धर्मपत्नी रतनबाई की कुक्षि से पैदा हुई। सं. 1979 को 19 वर्ष की आयु में श्री रंभाजी के पास आप दीक्षित हुईं। आपकी सेवाभावना प्रशंसनीय थी, श्री रायकुंवरजी को उनकी सख्त बीमारी की हालत में 13 कि. मी. तक पुणतांबा से कोपरगांव तक कंधे पर उठाकर लाईं। आप अत्यंत निर्भीक एवं साहसी भी थीं। आपने अनेक परिवारों को स्थानकवासी संप्रदाय की श्रद्धा से जोड़ा था। कोपरगांव में आपको सर्प ने डस लिया, विषापहार छंद और भक्तामर स्तोत्र के 42 वें पद्य का पाठ करने से आपका जहर उतर गया। जैनधर्म का यह प्रत्यक्ष प्रभाव देखकर वहाँ उपस्थित एक कसाई (गुलाबभाई) ने अपना कसाई का धंधा छोड़ दिया, वह भूसे का व्यापार करने लगा। आपने रायचूर, बैंगलोर, महाराष्ट्र आदि में खूब धर्म की प्रभावना की। आपकी पांच शिष्याएँ हुई -श्री सज्जनकुंवरजी, श्री हर्षकुंवरजी, श्री पुष्पकुंवरजी, श्री मदनकुंवरजी, श्री वल्लभकुंवरजी।। 6.3.1.42 श्री विनयकुंवरजी (सं. 1981 स्वर्गस्थ) सिन्दूरणी निवासी श्री चुन्नीलालजी ललवाणी के यहां सं. 1964 को आपने जन्म ग्रहण किया। विवाह के पश्चात् विरक्त होकर माघ कृ. 9 सं. 1981 को जलगांव में 18 वर्ष की उम्र में श्री राजकुंवरजी के पास दीक्षा ग्रहण की। आपने शास्त्रज्ञान के साथ लघुकौमुदी, हिंदी, गुजराती, मराठी, ऊर्दू भाषाओं का भी अभ्यास किया। गंभीरता, विनम्रता, सरलता एवं समयसूचकता आपकी प्रशंसनीय विशेषता थी। प्रवर्तिनीजी श्री राजकुंवरजी के प्रत्येक कार्य में आपका पूर्ण सहयोग रहता था। आपका प्रवचन मधुर और गंभीर था। महाराष्ट्र में विचरकर आपने धर्म की खूब प्रभावना की। 6.3.1.43 प्रवर्तिनी श्री सायरकंवरजी (सं. 1981-2001 के पश्चात् ) जेतारण (माखाड़) निवासी श्रीमान् कुंदनमलजी बोहरा की धर्मपत्नी श्री श्रेयकुंवरबाई की कुक्षि से सं. 1958 कार्तिक कृ. 13 के दिन आपका जन्म हुआ। सिकन्दराबाद निवासी श्री सुगालचंदजी मकाना के साथ विवाह एवं 3 वर्ष बाद वैधव्य ने इन्हें विरक्ति की ओर मोड़ दिया। पू. अमोलकऋषिजी म. के मुखारविन्द से मिरि (अहमदनगर) में दीक्षा लेकर श्री नंदूजी की शिष्या बनीं। आपने कई सूत्र, स्तोक, चौढालिया व करीब 500 स्तवन, पद्य, सैंकड़ों सवैये आदि कंठस्थ किये। व्यक्तित्व इतना प्रभावशाली था कि अनेक कुव्यसनी लोगों ने मांस, मदिरा, जूआ आदि का त्याग कर दिया। दक्षिण की भूमि में खूब धर्मप्रचार कर सं. 2001 में प्रवर्तिनी पद से सुशोभित हुए। धार्मिक संस्थाओं के प्रति आपके मन में बहुत सद्भावना थी। आपकी 6 शिष्याएँ हुई-श्री सोनाजी, सुमतिकुंवरजी, पद्मकंवरजी, पारसकुंवरजी, श्री दर्शनकुंवरजी, श्री इन्द्रकुवंरजी। 6.3.1.44 श्री वल्लभकंवरजी (सं. 1983-स्वर्गस्थ) आप शाजापुर निवासी मोतीलालजी कोठारी की पुत्री थीं, सं. 1968 में आपका जन्म हुआ, 11 वर्ष की वय 67. ऋ. सं. इ.. पृ. 407 68. ऋ. सं. इ., पृ. 383 69. ऋ. सं. इ., पृ. 355 Page #620 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन श्रमणियों का बृहद इतिहास में विवाह एवं 12 वर्ष की उम्र में विधवा हो जाने पर सं. 1983 आसाढ़ शु. 5 को प्रवर्तिनी रतनकंवरजी के पास शाजापुर में ही दीक्षित हुईं। आपकी बुद्धि निर्मल व स्मरणशक्ति तीव्र होने से स्वल्पावधि में ही हिंदी, संस्कृत प्राकृत, ऊर्दू, अरबी, फारसी, अंग्रेजी आदि भाषायी ज्ञान के साथ शास्त्रीय ज्ञान का भी अध्ययन किया। आप विदुषी होती हुई भी नम्र, सरल व शांत थीं, आपके प्रवचन विद्वत्तापूर्ण एवं रोचक होते थे, शाजापुर में आपके उपदेश से सं. 2011 में जैन पाठशाला की स्थापना हुई, आपने उदयपुर, जोधपुर, बीकानेर, रतलाम, पूना, नगर, खानदेश आदि बड़े-बड़े शहरों में आम व्याख्यान भी किये। 6.3.1.45 श्री श्रीमतीजी (सं. 1988 - स्वर्गस्थ) वखतगढ़ (म. प्र.) निवासी चंपालालजी के यहां सं. 1967 में आपका जन्म हुआ, और विवाह नागदा निवासी श्री बस्तीमलजी सुराणा से हुआ। श्री प्रवर्तिनी रतनकंवरजी से वैराग्य होकर खाचरोद में सं. 1988 मार्गशीर्ष कृष्णा 5 के दिन दीक्षा ग्रहण की। आपने हिंदी, संस्कृत प्राकृत का अच्छा अभ्यास किया, पाथर्डी बोर्ड से 'प्रभाकर' की परीक्षा दी। ज्ञान के साथ विशिष्ट तपाराधना आपके जीवन का लक्ष्य रहा, उपवास, बेले. तेले, पचोले तो आप करती ही रहती थीं, किंतु 8, 15, 17, 19, 21, 29 दिन की तपस्या भी की। आप सेवाभावी, शांत, चतुर और आत्मार्थिनी थीं। 6.3.1.46 प्रवर्तिनी श्री उज्जवलकुमारीजी (सं. 1991-2034) भव्य एवं आकर्षक व्यक्तित्व की धनी महासती श्री उज्जवलकुमारीजी का जन्म संवत् 1975 बरवाला (सौराष्ट्र) में श्री माधवजी भाई डगली की धर्मपत्नी श्री चंचलबहन की कुक्षि से हुआ। श्री राजकुंवरजी म. के सदुपदेश से संसार की अनित्यता और असारता को जानकर आपकी माताजी जो 'रत्नचिंतामणि कन्याशाला, घाटकोपर बम्बई' में अध्यापिका पद पर थीं, उनके साथ सं. 1991 की अक्षय तृतीया के दिन करमाला में श्री आनंदऋषिजी म. के श्रीमुख से दीक्षा अंगीकार की। दीक्षा के पश्चात् आत्मार्थी मुनि श्री मोहनऋषिजी महाराज ने आपको व्याकरण, साहित्य, दर्शन, जैनागम आदि का गंभीर और विशद अध्ययन करवाया। विश्व कवि श्री रवीन्द्रनाथ ठाकुर के साहित्य का भी आपने खूब पर्यालोचन किया। आप पांच भाषाओं-हिंदी, गुजराती, संस्कृत प्राकृत और अंग्रेजी में धाराप्रवाह प्रवचन करती थीं, आपका पाण्डित्य व्यापक और तलस्पर्शी था। विचारों में क्रांन्ति और आचरण में सुधार का शंखनाद था। महात्मा गांधीजी से आपका कई बार मिलाप हुआ। गांधीजी आपसे धर्मचर्चा करते समय न किसी अन्य से भेंट करते और न मौनव्रत का पालन करते, वे कहते थे, मैंने विश्वशांति के लिये मौन ली आपसे चर्चा करते हुए मुझ आराम मिलता है। ये चर्चाएं 'गांधी उज्जवल वार्तालाप' पुस्तक में संकलित हैं। बम्बई के प्रधान सचिव बाला साहब खेर ने आपके प्रवचनों को सुनकर कहा-'प्राचीनकाल में ब्रह्मवादिनी स्त्रियाँ हुआ करती थीं, आज जैन समाज में वह स्वरूप मुझे महासतीजी में परिलक्षित होता है।' श्रोतावृन्द आपकी विद्वत्ता एवं विषय निरूपणशैली की भूरि-भूरि प्रशंसा करते थे। आपके कतिपय प्रवचन 'उज्जवल वाणी' भाग 1-2, जीवनधर्म तथा 'श्रावक धर्म' पुस्तक में संग्रहित हैं। अंत समय आप प्रज्ञाचक्षु के रूप में कई वर्षों तक अहमदनगर में स्थिरवासिनी रहीं, सं. 2034 में आपका स्वर्गवास अहमदनगर में हुआ। 70. ऋ. सं. इ., पृ. 301 71. ऋ. सं. इ., पृ. 288 72. ऋ. सं. इ., पृ. 289 558 Page #621 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्थानकवासी परम्परा की श्रमणियाँ 6.3.1.47 श्री सुमतिकुंवरजी महार्या (सं. 1992 से वर्तमान) आपका जन्म घोड़नदी निवासी श्रीमान् हस्तीमलजी दुगड़ की धर्मपत्नी हुलासाबाई की रत्नकुक्षि से सं. 1973 में हुआ। विवाह के 18 मास पश्चात् पति मोहनलालजी भणसाली का स्वर्गवास होने पर सं. 1992 पोष शु. 2 को आपने श्री रामकुंवरजी की शिष्या श्री जसकुंवरजी, श्री रंभाजी के पास दीक्षा अंगीकार करली। आप आगम, दर्शन, न्याय, व्याकरण संस्कृत, प्राकृत आदि की विशिष्ट ज्ञाता हैं। विधवा बहनों, परित्यक्ता या पीड़ित बहनों व कन्याओं की शिक्षा व्यवस्था में आप सदा सजग रहकर समाज को प्रेरित करती हैं। आपने अनेक संस्थाएँ व उपाश्रय खडे करवाये. अनेक संघों के पारस्परिक संघर्ष मिटाये। आपके गुरू आचार्य आनन्दऋषिजी हैं, उनसे ही दीक्षा-शिक्षा एवं संस्कार प्राप्त हुए हैं। आप उनकी अत्यंत कृपापात्र एवं दांये हाथ के रूप में रही हैं। धार्मिक परीक्षा बोर्ड पाथर्डी के आद्यन्त निर्माण का श्रेय आपको ही है। घोड़नदी में पांजरापोल, तिलोक पारमार्थिक संस्था, उपाश्रय एवं पुस्तकालय, तिलोक शताब्दी ग्रंथ का प्रकाशन आदि में भी मूल प्रेरणा आपकी रही है। आपने समाज में व्याप्त अनेक कुप्रथाओं को दूर करने का प्रयास किया। सन् 1950 तक विधवा बहनों को गहरे लाल या काले कपड़े पहनने होते थे, अपनी सरल सुबोध उपदेश शैली से आपने उसे समूल नष्ट करवाया। उस समय माताएं, बहनें प्रवचन सुनने के लिये प्रवचन हॉल में पर्दे में बैठती थी उसे भी आपने दूर करवाया। इतना ही नहीं, प्रत्येक क्षेत्र में महिला मंडल स्थापित करके महिलाओं को जागरण की दिशा दी। मुंबई में चातुर्मास करके साध्वियों के लिये मुंबई नगरी के बंद द्वारों को सन् 1956 में सर्वप्रथम आपने ही खोले। आप हजारों मील का विहार कर हर साध सम्मेलन में पंहची और साधुओं के एकाधिकार को तोड़कर साध्वियों का महत्व स्थापित करवाया। महिलाओं को चौपाई सुनाने के बजाय ज्ञानार्जन हेतु प्रेरित करना, उनमें जागरण लाना आपकी करूणा का यह एक सहज रूप रहा हैं। सन् 2004 में आपका 80वां जन्मोत्सव आचार्य चंदनाजी के सान्निध्य में वीरायतन (राजगृही) के प्रांगण में मनाया गया। इस प्रकार जैन समाज में आपकी गौरवगाथा चिरस्मरणीय रहेगी। वर्तमान में आप एवं आपका शिष्या परिवार स्वतंत्र संघ के रूप में वीरायतन राजगृह में शासन की प्रभावना कर रहा है।' 6.3.1.48 श्री अमृतकुंवरजी (सं. 1992-स्वर्गस्थ) वि. सं. 1975 में ग्राम चन्होली (पूना) निवासी सेठ पूनमचंदजी सुराणा के यहां आपका जन्म तथा श्री नवलमलजी खिंवेसरा के पुत्र श्री जीवराजजी के साथ विवाह हुआ। प्रवर्तिनी श्री शांतिकुंवरजी के सदुपदेश से माघ शु. 7 सं. 1992 को चरोली में ही श्री आनंदऋषिजी महाराज के श्रीमुख से आपकी दीक्षा हुई। दीक्षा प्रसंग पर श्री ताराचंदजी म. ठाणा 5 भी उपस्थित थे। आपकी बुद्धि अत्यंत प्रखर थी, संस्कृत भाषा के करीब 1000 श्लोक अर्थ सहित कंठस्थ थे। पाथर्डी बोर्ड से 'प्रभाकर', 'शास्त्री' की परीक्षा उर्तीण की। आप प्रकृति से शांत व सरल थीं, प्रवचन मधुर व प्रभावशाली था, सतत ज्ञान पिपासु प्रकृति रही। 73. (क) ऋ. सं. इ.. पृ. 360 (ख) डॉ. श्री धर्मशीलाजी से प्राप्त सामग्री के आधार पर 74. (क) ऋ. सं. इ., पृ. 331 (ख) अमरभारती पत्रिका, सन् 2003 जनवरी-फरवरी अंक 559 Page #622 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन श्रमणियों का बृहद इतिहास 6.3.1.49 श्री सज्जनकुंवरजी (सं. 1992-स्वर्गस्थ) ___ बार्शी (सोलापुर) निवासी श्रीमान् आनन्दरामजी चतुरमूथा की आप सुपुत्री तथा चिंचवड़ निवासी श्री बोरीदासजी संचेती की पुत्रवधु थीं, अल्पकाल में ही पतिवियोग के पश्चात् आपको तत्त्व की प्राप्ति हुई. सं. 1992 फाल्गुन कृष्णा 11 को श्री आनन्दऋषिजी म. सा. के श्रीमुख से पूना में दीक्षा अंगीकार कर श्री आनन्दकुंवरजी की शिष्या बनीं। आपने पंडित राजधारी त्रिपाठी जी से संस्कृत-प्राकृत तथा शास्त्रों का अच्छा अभ्यास किया। आपका व्याख्यान भी प्रभावक था, आपने प्रायः पूना, सोलापुर, कर्णाटक में विचरण कर धर्म का खूब उद्योत किया। पूना में सं. 2012 को श्री शांतिकुंवरजी को दीक्षित किया। 6.3.1.50 श्री पानकंवरजी (सं. 1993-स्वर्गस्थ) आप शाजापुर निवासी श्री हुक्मीचंदजी की पुत्री एवं कानड़ निवासी श्री देवबक्षजी की धर्मपत्नी थीं। प्रवर्तिनी श्री रतनकंवरजी के पास संवत् 1993 माघ कृ. 5 को भुसावल में पूज्य श्री देवजी ऋषि जी से दीक्षा पाठ पढ़ा। आप हिंदी, संस्कृत, स्तोक व शास्त्रों की अच्छी ज्ञाता थीं, फुटकर उपवास आदि के साथ 9, 11, 17, 19, 21 उपवास भी किये, आप शांत स्वभावी आत्मार्थिनी साध्वी थीं। आपका स्वर्गवास लगभग 96 वर्ष की अवस्था में शाजापुर में हुआ। आप डॉ. सागरमलजी जैन की दादीजी थी। 6.3.1.51 श्री दयाकुंवरजी (सं. 2000-स्वर्गस्थ) आपका जन्म चांदुरबाजार (बरार) में आसाढ़ शु. 13 सं. 1974 में श्री आसकरणजी छाजेड़ के यहां तथा विवाह नागौर निवासी श्री नेमिचन्द्रजी सुराणा से हुआ। वैशाख कृ. 13 सं. 2000 को चांदुरबाजार में दीक्षा ग्रहण कर श्री हुलासकंवरजी की नेश्राय में शिष्या बनीं। आपकी प्रकृति बहुत ही कोमल तथा सरल थी, निरन्तर नूतन ज्ञानार्जन हेतु प्रयत्नशील रहीं। शास्त्रीय ज्ञान के साथ हिन्दी, संस्कृत, प्राकृत भाषाओं का भी आपने अच्छा अभ्यास किया।" 6.3.1.52 प्रवर्तिनी श्री इन्द्रकुंवरजी आपकी जन्मभूमि कुडगांव (अहमदनगर) थी, आप आठ वर्ष की उम्र से ही विरक्ता बनकर दौंड में श्री चन्द्रकुंवरजी के पास दीक्षित हुई। आपने आगम ज्ञान व संस्कृत प्राकृत आदि का अच्छा ज्ञान प्राप्त किया, अनेक से आपका प्रवचन भी प्रभावशाली व रोचक होता था। संवत 2002 पना में आत्मार्थी श्री मोहनऋषिजी महाराज ने आपको 'प्रवर्तिनी' पद से अलंकृत किया। आपने जैनधर्म की खूब प्रभावना की। भाषाओं पर 6.3.1.53 प्रवर्तिनी श्री प्रमोदसुधाजी (सं. 2005-2060) महासती श्री प्रमोदसुधाजी का जन्म विजयादशमी के शुभ दिन घोड़नदी (महाराष्ट्र) में पिता श्रीमान् चांदमलजी चोपड़ा एवं माता सौ. प्यारीबाई की कुक्षि से हुआ। 13 जनवरी सन् 1948 को घोड़नदी में ही श्री 75. ऋ. सं. इ., पृ. 329 76. ऋ. सं. इ., पृ. 385 77. ऋ. सं. इ.. पृ. 290 78. ऋ. सं. इ., पृ. 419 560 Page #623 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्थानकवासी परम्परा की श्रमणियाँ मोहनऋषिजी म. के मुखारविन्द से भागवती दीक्षा अंगीकार कर आप महासती श्री उज्जवलकुमारीजी की शिष्या बनीं। आपके अन्तर्मानस में ज्ञान संस्कारों का सिंचन करने में विनयकुंवरजी महासतीजी का भी पूर्ण योग रहा है। आपमें सरलता उदारता एवं वाणी में अत्यधिक मधुरता का संगम है। हिन्दी, मराठी, गुजराती, अंग्रेजी, संस्कृत आदि भाषाओं पर आपका प्रभुत्व है। आपके चुंबकीय व्यक्तित्व से आकर्षित होकर 21 मुमुक्षु कन्याएं संयम साधना में अग्रसर हुई हैं। आपने जहां भी चातुर्मास किये, वहाँ लोक मंगलकारी शिविर, स्वधर्मी सहायता एवं शिक्षण हेतु फंड, धार्मिक शिविर आदि जनोपयोगी विविध कार्य हुए। सन् 1994 में आपको महाराष्ट्र प्रवर्तिनी पद प्रदान किया गया। 9 वर्षों तक इस पद का कुशलता पूर्वक निर्वाह कर सन् 2003 में आप देवलोकवासिनी हो गई। आपकी स्मति में श्री विनय उज्जवल भारतमाता प्रमोदसधाजी महाराज बहउद्देशीय संस्था एवं पथ सरक्षा संगठन की स्थापना आपकी शिष्या डॉ. साध्वी प्रियदर्शनाजी के मार्गदर्शन में हुई है। आपकी अन्य शिष्याओं में श्री दिव्यदर्शनाजी, सम्यक्दर्शनाजी, सत्यप्रभाजी, विश्वदर्शनाजी आदि प्रमुख हैं। 6.3.1.54 आचार्य श्री चन्दनाजी (सं. 2009-वर्तमान) ___पूना जिले के चासकमान निवासी श्रीमान् माणकचंदजी कटारिया की धर्मपत्नी श्री प्रेमकुंवरबाई की कुक्षि से सं. 1995 में जन्म लिया। वैराग्य अवस्था में ही 900 मील की पैदल यात्रा कर गुलाबपुरा (राज.) में आचार्य श्री आनंदऋषिजी के मुखारविन्द से चैत्र शु. 2 सं. 2009 को दीक्षा ग्रहण कर, आप श्री सुमतिकुंवरजी की शिष्या बनीं। आपकी बुद्धि तीव्र और निर्मल थी, धारणाशक्ति भी अच्छी होने से शीघ्र ही सभी आगम, न्याय, तर्क, व्याकरण, भाषा ज्ञान आदि का अध्ययन कर लिया। जैन सिद्धान्ताचार्य एवं दर्शनाचार्य जैसी उच्चकोटि की परीक्षाएँ भी दी। इस दौरान 12 वर्ष तक मौन अध्ययन किया, आयंबिल का वर्षीतप एवं मासक्षमण जैसी उत्कृष्ट तपस्याएँ भी की। प्रगतिशील विचारों की धनी आचार्य चन्दनाजी 1973 ई. से भगवान महावीर की समवसरण भूमि राजगृह में 'वीरायतन' की परिकल्पना को साकार रूप देकर पल्लवित और पुष्पित करने उपाध्याय अमरमुनिजी महाराज की प्रेरणा से जुड़ी और तभी से वाहन विहारिणी होने से ऋषि संप्रदाय एवं श्रमण-संघ से इनका संबंध विच्छिन्न हो गया। वीरायतन की भूमि पर इन्होंने शिक्षा एवं सेवा से संबंधित अनेक लोक मंगलकारी कार्य किये। आदिवासी बच्चों को शिक्षा-संस्कार देने हेतु 'वीरायतन शिक्षा निकेतन विद्यालय' की स्थापना की, नेत्र ज्योति सेवा मंदिरम्' के माध्यम से आजतक 6.5 लाख रोगियों के आंखों की जांच तथा शल्य चिकित्सा हो चकी है. पोलियो एवं दंत-चिकित्सा के कार्य भी होते हैं. इस नि:शल्क सेवा से प्रतिलाभित जन शराब. शिकार. मांसाहार. बलि आदि का भी त्याग करते हैं। आप द्वारा स्थापित 'ब्राह्मी कला मंदिर' इतिहास. संस्कति और धर्म का समेल है. तो 'ज्ञानाञ्जलि' में महत्वपूर्ण ग्रंथों का संकलन है, 'अमरसर्वतोभद्रम्' नाम से ध्यान-केन्द्र भी प्रस्थापित हुआ है। तार्किक शोधपूर्ण अध्ययन हेतु 'चंदना विद्यापीठ' लंदन, केनिया, अमेरिका और अप्रिफ्रका में स्थापित हुआ है। जखनिया तथा रूद्राणी में वीरायतन विद्यापीठ, लछुवाड़ तथा पावापुरी में 'तीर्थंकर महावीर विद्या मंदिर, नवल वीरायतन (पूना) आदि संस्थाएँ चंदनाजी के निर्देशन में सतत गतिशील हैं। आपकी योग्यता, विद्वत्ता एवं बृहद् स्तर पर किये जाने वाले रचनात्मक कार्यों का मूल्यांकन कर 26 जनवरी 1987 में 79. ऋ. सं. इ., पृ. 382 80. (क) ऋ. सं. इ., 363 (ख) डॉ. श्री प्रियदर्शनाजी से प्राप्त सामग्री के आधार पर Page #624 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन श्रमणियों का बृहद इतिहास क्रान्तदृष्टा उपाध्याय अमरमुनिजी ने सहस्रों वर्षों से चली आई एकमात्र पुरूषाधिकृत महिमाशाली 'आचार्य पद' से साध्वी श्री चन्दनाजी को अलंकृत कर जैन इतिहास में एक अभूतपूर्व मोड़ दिया है, उनका यह कार्य शताब्दियों से चली आ रही सामाजिक व्यवस्था के लिये गहरी चुनौती है। इस पद को प्राप्त करने के पश्चात् चंदनाजी की 'जिनशासनोन्नतिकरा' क्षमता में निश्चय ही अभिवृद्धि हुई है। आचार्य पद से अलंकृत होने के पश्चात् वे 1993 में विश्वधर्म संसद में जैनदर्शन के प्रतिनिधि के रूप में शिकागों में आमंत्रित हुईं। वहाँ भी भारत-अमेरिका के मध्य सेतु का कार्य करे ऐसी 'वीरायतन इन्टरनेशनल' संघ की स्थापना की। सन् 2000 में विनाशकारी भूकम्प के समय अंजार, भुज, आदि स्थानों पर 'वीरायतन विद्यापीठ' की स्थापना की, मुफ्त कम्प्यूटर एजुकेशन प्रारंभ किये। आपकी करूणा, मानवसेवा की भावना से प्रभावित होकर मद्रास की सुप्रसिद्ध संस्था 'भगवान महावीर फाउण्डेशन' ने प्रथम पुरस्कार से सम्मानित किया। 28 फरवरी 2003 को उन्हें 'श्रीमती राजमती पाटील जन सेवा पुरस्कार' भी प्रदान किया ।" एक जैन साध्वी का इतने विशद स्तर पर रचनात्मक कार्य करना एक महनीय उपलब्धि है। आप वाहन-विहारी जैन साध्वी हैं। वर्तमान में आप एक बृहद् स्वतन्त्र संघ की संचालिका हैं, जिसमें सुशिक्षित, डॉक्टर, प्रशासक एवं इंजिनियर शिष्याएँ हैं। प्रतिवर्ष अमेरिका, न्यूजर्सी, न्यूयार्क, मेरीलैंड, लांस एन्जेलिस, सैनफ्रांसिस्को, शिकागो, एटलाण्टा आस्ट्रेलिया आदि स्थानों पर जाकर भगवान महावीर के संदेश को विदेशों में पहुंचाने का कार्य कर रही हैं। आचार्य चंदनाजी की वर्तमान में 10 शिष्याएँ हैं, उनके नाम और दीक्षा तिथि निम्न है - ( 1 ) श्री चेतनाजी - 13 मार्च 1973 (2) श्री विभाजी - 10 मार्च 1978, (3) श्री शुभम् जी - 10 मार्च 1978 (4) श्री श्रुतिजी - 28 अक्टूबर 1985 (5) श्री शिलापीजी -23 अक्टूबर 1991, (6) श्री संप्रज्ञाजी - 11 अक्टूबर 1992 (7) श्री सुमेधाजी- 26 फरवरी 2000, (8) श्री रोहिणीजी-20 अक्टुबर 2002, (9) श्री सोमाजी- 20 अक्टूबर 2002, (10) साध्वी श्रीजी -20 अक्टुबर 2002 डॉ. साध्वी संप्रज्ञाजी ने " जैनधर्म की ऐतिहासिक एवं सांस्कृतिक पृष्ठभूमि में राजगृह" विषय पर शोध प्रबंध लिखकर मगध विश्वविद्यालय बोधगया, विहार से पी. एच. डी. की उपाधि प्राप्त की है। आचार्य चंदनाजी के विचार एवं उनके विविध कार्यक्रम आदि अमर भारती मासिक पत्रिका में प्रकाशित होते हैं। 82 6.3.1.55 डॉ. श्री ज्ञानप्रभाजी (सं. 2015 से वर्तमान) आप ललवाणी परिवार की कन्या हैं। महासती उज्जवल कुमारी जी के पास 1 मई 1958 को अहमदनगर में आपकी दीक्षा हुई। आपने पाथर्डी बोर्ड से जैन सिद्धान्त शास्त्री कर आगम, न्याय, संस्कृत प्राकृत में गहन विद्वत्ता प्राप्त की। आप हिंदी में साहित्यरत्न, फिलोसॉफी में एम. ए. हैं, पूना विश्वविद्यालय से 'जैन दर्शन में जीवतत्त्व' विषय पर सन् 1989 में पी. एच. डी. की उपाधि प्राप्त की। आप अग्रणी विदुषी साध्वी हैं, वर्षों से विभिन्न क्षेत्रों में विहार कर जन-जन में धार्मिक जागृति पैदा हो इसके लिये उपासिका युवा बहु ग्रुप नासिक, औरंगाबाद, ज्ञान युवक मंडल, चंदनबाला महिलामंडल, उज्जवल कन्या मंडले, आनंद बाल मंडल, विनय बालिका मंडल (चेन्नई व रायपुर) आदि के द्वारा धर्मोन्नति के कार्य कर रही हैं। श्री आत्मदर्शनाजी, श्री पुष्पलताजी, श्री पवित्रदर्शनाजी, श्री सुप्रियदर्शनाजी, श्री नियमदर्शनाजी आपकी शिष्याएँ हैं। 3 81. ऋ. सं. इ., पृ. 345 82. साध्वी शिलापीजी, समय की परतों में, पृ. 194 प्रका. वीरायतन राजगृह नालंदा, बिहार, 1998 ई. 83. आचार्य श्री चंदनाजी से प्राप्त सामग्री के आधार पर 562 Page #625 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्थानकवासी परम्परा की श्रमणियाँ 6.3.1.56 डॉ. श्री धर्मशीलाजी (सं. 2015 से वर्तमान) आपका जन्म ‘कान्हूरपठार (महा.) के श्री रामचंदजी शिंगवी व माता कस्तूरीबाई के यहां हुआ। सं. 2015 मृगशिर शु. 11 को आचार्य आनन्दऋषिजी म. सा. के श्रीमुख से अहमदनगर में दीक्षा अंगीकार कर आप श्री उज्जवलकुमारी जी की शिष्या बनीं। आप पूना युनिवर्सिटी से एम. ए. की परीक्षा में 'सर्वोच्च' स्थान प्राप्त कर 'स्वर्ण-पदक' से सम्मानित हुईं। पूना विद्यापीठ से ही आपने 'जैनदर्शन में नवतत्त्व' विषय पर सन् 1977 में पी. एच. डी. की डिग्री प्राप्त की, संपूर्ण जैन समाज में आप सर्वप्रथम पी. एच. डी. डिग्री प्राप्त साध्वी हैं। पूना विश्वविद्यालय में भी आपका मराठी भाषा में लिखित उक्त शोध प्रबन्ध सर्वप्रथम स्थान पर अंकित है। आप हिंदी में साहित्यरत्न, संस्कृत में कोविद हैं, हिंदी, मराठी, गुजराती, अंग्रेजी, संस्कृत, पालिप्राकृत आदि भाषाओं पर आपका असाधारण प्रभुत्व है। आपके उपदेश हृदय-स्पर्शी होते हैं, अनेक लोग आपका प्रवचन श्रवण कर व्यसन मुक्त एवं निराडम्बर जीवन जी रहे हैं। आपकी सद्प्रेरणा से बोरीवली का जैन क्लिनिक, एवं घाटकोपर का हिंदू सभा का हॉस्पीटल जो हड़ताल के कारण बंद पड़ा था, वह चालू हुआ। आप अग्रणी साध्वी हैं, प्रत्येक चातुर्मास में महिलाओं, बहुओं व कन्याओं की धर्म जागृति हेतु मंडल, प्रश्नमंच, विविध आरोग्य शिविर आदि का उत्साह पूर्वक आयोजन करती हैं। आपका साहित्य-जैन दर्शन में नवतत्त्व (हिन्दी, मराठी, गुजराती), नवस्मरण, णमो सिद्धाणं पदः समीक्षात्मक परिशीलन, सामायिक-प्रतिक्रमण इंग्लिश सार्थ आदि प्रकाशित हैं। आपकी तीन शिष्याएँ हैं-विवेकशीलाजी, पुण्यशीलाजी, भक्ति शीलाजी। उज्जवल धर्म साहित्य प्रकाशन ट्रस्ट (मुंबई) की आप संस्थापिका हैं। 6.3.1.57 डॉ. श्री मुक्तिप्रभाजी (सं. 2016 से वर्तमान) आप आचार्य आनन्दऋषिजी महाराज की प्रज्ञाशील विदुषी साध्वी हैं। आपका जन्म सन् 1941 अक्टूबर 1 को गुजराती प्रतिष्ठित परिवार में हुआ। संवत् 2016 नवंबर 9 को आपने श्री उज्जवलकुमारीजी के पास दीक्षा अंगीकार की। जैनधर्म व दर्शन का गहन अध्ययन करते हुए उज्जैन विश्वविद्यालय से 'जैन दर्शन में योग' विषय पर पी. एच. डी. की उपाधि प्राप्त की। आपकी मौलिक कृतियां हैं- योग-प्रयोग कल्याणमन्दिर अस्तित्व का मूल्यांकन। आपने अनुयोगप्रवर्तक मुनि श्री कन्हैयालालजी 'कमल' के मार्गदर्शन में 'द्रव्यानुयोग एवं चरणानुयोग' का सुंदर शैली में संपादन किया है। 5 डॉ. दिव्यप्रभाजी, श्री दर्शनप्रभाजी, डॉ. अनुपमाजी, श्री योगसाधनाजी, श्री अपूर्वसाधनाजी, श्री उत्तमसाधनाजी, श्री विरति साधनाजी आदि 14 साध्वियों का आप नेतृत्व कर रही हैं। 6.3.1.58 डॉ. श्री प्रियदर्शनाजी (सं. 2017 से वर्तमान) आप भारतमाता प्रवर्तिनी श्री प्रमोदसुधाजी की संसारपक्षीया लघु भगिनी हैं, विनयकुंवरजी महासती से धर्म संस्कार प्राप्त होने पर आपके वैराग्य में वृद्धि हुई, फलतः कार्तिक कृष्णा 5 सं. 2017 के शुभ दिन जलगांव में आचार्य आनन्दऋषिजी महाराज के श्रीमुख से दीक्षा ग्रहण की। आपने पाथर्डी बोर्ड से जैन सिद्धान्त शास्त्री की परीक्षा देकर आगम, संस्कृत, प्राकृत, न्याय आदि विषयों में निपुणता प्राप्त की। पूना विश्वविद्यालय द्वारा 'जैन साधना में ध्यान योग' विषय पर सन् 1986 में पी. एच. डी. की डीग्री एवं विक्रमशीला हिन्दी विद्यापीठ से सन् 84. श्री सुप्रियदर्शनाजी से प्राप्त सामग्री के आधार पर 85. साध्वी श्री पुण्यशीलाजी से प्राप्त सामग्री के आधार पर 1563 Page #626 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन श्रमणियों का बहद इतिहास 1998 में नवकारमंत्र पर डी. लिट् की उपाधि प्राप्त की। अग्रणी के रूप में विचरण करते हुए आपने स्थान-स्थान पर बहुमंडल कन्यामंडल आदि की स्थापना की है, आपकी विद्वत्ता एवं प्रतिभा से प्रभावित होकर पार्श्वनाथ विद्यापीठ शोधसंस्थान बनारस ने आपको 'महाप्रज्ञा' पद से अलंकृत किया है।86 6.3.1.59 श्री प्रीतिसुधाजी (सं. 2018 से वर्तमान) __जन जागरण, जन कल्याण और जीवदया के कार्यों में सतत संलग्न श्री प्रीतिसुधाजी जैन-अजैन समाज में वाणी भूषण और संस्कार भारती के नाम से प्रख्यात विदुषी साध्वी रत्न है। इनका जन्म महाराष्ट्र के एक छोटे से ग्राम पिंपलगांव (बसवंत) में संवत् 2000 अगस्त 1 के दिन श्री भिकमचंदजी रायसोनी के यहां हुआ। संवत् 2018 मार्च 7 को ये अपनी माता शांतादेवी के साथ पिंपलगांव में ही दीक्षित हुईं। इनकी गुरूणी श्री उज्जवल कुमारीजी थीं। दीक्षा के पश्चात् इन्होंने साहित्यरत्न, जैन शास्त्री तथा संस्कृत शास्त्री की परीक्षाएँ दी, साथ ही सभी धर्मग्रंथों का विशिष्ट अध्ययन किया। आत्मधर्म के साथ मानवधर्म का महत्त्व प्रतिस्थापित करना इनका मूल ध्येय रहा। इनके प्रवचन भी सरस, सर्वग्राही और हृदयस्पर्शी होते हैं। प्रांतीय भाषाओं के सम्मिश्रण के साथ ऊर्दू, अंग्रेजी आदि शब्दों व मुहावरों का पुट देकर जब ये अपनी मधुर और सधी हुई वाणी से प्रवचन देती हैं, तो लोगों की अपार भीड़ आतुरता पूर्वक सुनने के लिये इकट्ठी हो जाती है। इनकी प्रभावोत्पादक गिरा का आदर करते हुए राहता, धूलिया व जलगांव में इंग्लिश मीडियम स्कूल, नासिक में 'प्रीतिसुधाजी शिक्षण फंड' आदि चालु हुए। मुंबई के देवनार कत्लखाने में जहाँ प्रतिदिन हजारों जानवर मौत के घाट उतारे जाते थे, वह संख्या घटकर सैंकड़ों तक रह गई। इनकी ओजस्वी वाणी के प्रभाव से रायपुर में 4500 जानवरों को कसाई के हाथों से मुक्त करवा कर गोशाला में लाया गया। नागपुर, चन्द्रपुर, अकोला, वणी आदि 12 स्थानों पर गोरक्षण संस्थाएँ स्थापित हुईं। नारी जागृति के क्षेत्र में कई महिला सम्मेलन इनके सान्निध्य में आयोजित हुए और लगभग 75 स्थानों पर 'सुशील बहु मंडल' बनें। अनेक स्थानक भवनों का निर्माण कार्य हुआ। अहिंसा, शाकाहार, व्यसन मुक्ति एवं विश्व कल्याण के संदर्भ में समकालीन लगभग सभी देशसेवकों (राजनेताओं) के साथ इनकी चर्चा-वार्ताएँ हुई हैं। इनके प्रवचनों का संग्रह 'संस्कारपुष्प' में तथा भजनों का संग्रह 'प्रीतिपुष्प' के नाम से प्रकाशित हैं। अनेक विशेषताओं की संगम प्रीतिसुधाजी वर्तमान में जयस्मिताजी, विजयस्मिताजी, मधुस्मिताजी, मंगलप्रभाजी, प्रीतिदर्शनाजी आदि 14 शिष्याओं के साथ विचरण कर रही हैं। 6.3.1.60 डॉ. श्री दिव्यप्रभाजी (सं. 2023 से वर्तमान) आप डॉ. श्री मुक्तिप्रभाजी की लघुभगिनी हैं, आपने भी सन् 1982 में उज्जैन विश्वविद्यालय से 'अरिहंत' विषय पर पी. एच. डी. की उपाधि प्राप्त की। आप की अन्य भी मौलिक कृतियां - "दिव्यदृष्टा महावीर, भक्तामर स्तोत्र: एक दिव्य दृष्टि, 'लोगस्स सूत्र' आदि प्रकाशित है। आप प्रखर व्याख्यात्री है, किसी भी विषय की सूक्ष्मता में पहुंचकर उसके समस्त रहस्यों को उद्घाटित करने एवं उनको अभिव्यक्ति देने में आप कुशल हैं।88 6.3.1.61 डॉ. श्री अरूणप्रभाजी (सं. 2025 ) आप मालेगांव (महा.) निवासी श्रीमान् सुरजमलजी सुराणा एवं श्रीमती बदामबाई सुराणा की सुपुत्री हैं। आपकी दीक्षा 28 अप्रेल 1968 अक्षय तृतीया के शुभ दिन 'मिरी' (अहमदनगर) में आचार्य सम्राट् श्री आनन्द 85-90. परिचय-पत्र के आधार पर 564 Page #627 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्थानकवासी परम्परा की श्रमणियाँ ऋषि जी महाराज के श्रीमुख से श्री उज्जवलकुमारीजी के पास हुई। आप विदुषी साध्वी हैं, पंडित, विशारद आदि के साथ एम. ए., पी. एच. डी. तक निपुणता प्राप्त की है। आपने 'श्री तिलोकऋषिजी म. सा. के साहित्य का समीक्षात्मक अध्ययन' पर शोध प्रबन्ध लिखा है, जो सन् 1999 में मुंबई युनिवर्सिटी एस. एन. डी. टी. कॉलेज द्वारा मान्य हुआ है। 89 6.3.1.62 श्री स्नेहप्रभा 'सुमन' (सं. 2027 ) आपका जन्म राजस्थान के भंडारी परिवार में हुआ । वैशाख शु. 2 सं. 2027 में बेंडर सुरापुर (कर्नाटक) में महास्थविरा श्री चन्द्रकंवरजी महाराज की शिष्या श्री इन्द्रकंवरजी के पास दीक्षा ग्रहण की। आपने जैन आगमों के साथ इतर धर्मों का भी गहन अध्ययन किया। हिंदी में साहित्यरत्न व संस्कृत में कोविद की परीक्षाएँ भी दीं। जिनशासन की प्रभावना के साथ-साथ भूतर (हिमाचल) जैसे दुर्गम प्रांत में आपने 'जैन साधना केन्द्र' स्थापित किया। आपके परिवार से 5 दीक्षाएं हो चुकी हैं- मातुश्री स्व. प्रीतिसुधाजी, बहन विमलप्रभाजी एवं दो भानजी - श्री नूतनप्रभाजी और शीतलप्रभाजी । 6.3.1.63 साध्वी मधुस्मिता, जयस्मिता (सं. 2032 से वर्तमान) महाराष्ट्र की धरती पर जन्मी, पली, दीक्षित हुई साध्वी मधुस्मिता एवं जयस्मिता भारत कोकिला साध्वी प्रीतिसुधाजी की सांसारिक लघुभगिनी एवं भानजी हैं। भारत के अध्यात्म ज्ञान को पाश्चिमात्य देशों में पहुंचाने की तीव्र ललक ने इन्हें विदेश जाने को प्रेरित किया। सन् 1989 का चातुर्मास अमेरिका के 'ह्युस्टन' शहर में तथा 1990 का चातुर्मास कनाडा 'टोरेन्टो' शहर में किया । इतिहास के पृष्ठों पर स्थानकवासी जैन श्रमणियों का विदेश की धरती पर यह प्रथम कदम था। साध्वीजी ने विदेश में रहकर भी मात्र यान विहार को छोड़कर शेष संपूर्ण मर्यादाओं का पालन किया, किंतु श्रमण संघ की समाचारी के विरूद्ध कार्य होने से आपको इस क्रांतिकारी कदम के लिये बहुत बड़ा विरोध सहन करना पड़ा, श्रमणसंघ से आपको निष्कासित होना पड़ा। अपने उद्देश्य में सफलता प्राप्त करने के लिये साध्वीजी ने वहाँ तप, जप, प्रार्थना, प्रवचन, सांस्कृतिक, आध्यात्मिक एवं नैतिक जागरण के अनेकविध कार्य किये। विदेश में आपने मुख्य रूप से ह्यूस्टन, कनेडा, न्यूजर्सी वाशिंगटन, रिचमंड, कैलिफोर्निया, सैन फ्रांसिस्को, पिट्सबर्ग, लंदन, बैंकांक, हांगकांग आदि क्षेत्रों में जाकर धर्म प्रचार किया । वाशिंगटन में 'जैन सैंटर प्रतिष्ठा महोत्सव' पर आप आचार्य सुशीलमुनिजी आदि जैनधर्म के चारों प्रतिनिधि संतों के साथ उपस्थित थीं। विदेश में जैन साध्वियों का धर्म प्रचार हेतु जाना इतिहास की एक महत्त्वपूर्ण घटना है। इसका उल्लेख 'यात्रा' पुस्तक में मधुस्मिताजी ने किया है।" 6.3.1.64 श्री नूतनप्रभाजी (सं. 2033 से वर्तमान) 14 वर्ष की संपूर्ण मौन साधना का आदर्श कीर्तिमान स्थापित कर श्री नूतनप्रभाजी ने नाम के अनुरूप ही समाज के सामने एक नूतन आदर्श उपस्थित किया। इनका जन्म अहमदनगर जिले में श्रीगोंदा तहसील में सन् 1955 में हुआ। 6 फरवरी 1976 को घोड़नदी में श्री इन्द्रकंवरजी महाराज के पास संयमी जीवन अंगीकार किया। 91. यात्रा, प्रकाशन - 5 ए विंग, लोकमत भवन, पं. नेहरू मार्ग, नागपुर सन् 1995 565 Page #628 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन श्रमणियों का बृहद इतिहास आप साहित्यरत्न, बहुभाषाविद्, प्रभावी वक्तृत्व, मधुरकंठी व आकर्षक व्यक्तित्व की धनी हैं। दीक्षा के 14 वें वर्ष में 27 मई 1989 से आप 2003 तक आत्मसाधना एवं आत्मा की खोज हेतु मौन साधना में संलग्न रहीं। इस अवधि में दूध व किशमिश के अतिरिक्त सभी वस्तुओं का त्याग कर दिया। आपने आठ उपवास 21 उपवास, एकांतर उपवास, व 91 दिन के आयंबिल भी किये हैं। आपके भजन 'नूतन ज्योति' व 'कविताकुंज' में संग्रहित 6.3.1.65 आदर्शज्योतिजी 'अमृता' (सं. 2035 से वर्तमान) श्री आदर्शज्योतिजी का जन्म संवत् 2017 नागदा (म. प्र.) में श्रीमान् केशरीमलजी सुराना के यहां हुआ, तथा दीक्षा माघ शुक्ला 11 संवत् 2035 को सैलाना में प्रवर्तिनी श्री रतनकुंवरजी के पास हुई। ये प्रज्ञावंत विदुषी साध्वी हैं, इन्होंने एम. ए., भाषारत्न, साहित्यरत्न जैन सिद्धान्तशास्त्री, जैन विद्यारत्न आदि परीक्षाए उत्तीर्ण की हैं। इनकी वाणी में संप्रेषणीयता, मधुरता, तार्किकता का सम्मीश्रण है। अपनी वाणी के प्रभाव से अनेक स्थानों पर संघीय एवं पारिवारिक विघटन को मिटाकर सौहार्द का वातावरण निर्मित किया। दक्षिण भारत में सैंकड़ों लोगों को निर्व्यसन जीवन की दीक्षा दी। जैन कॉलेजों में इनके प्रवचनों का आयोजन हुआ। बैंगलोर, आश्वी, अरिहंतनगर (दिल्ली) अहिंसाविहार में आदर्श नवयुवक मंडल, महिला मंडल, युवा क्लब, बाल मंडल आदि की स्थापना की। मद्रास में महावीर सेवा केन्द्र, मुंबई में आनंद शिक्षण फंड प्रारंभ करवाया। इनके विचार नई सदी की नई नारी, "विचार वातायन' तथा समय-2 पर जैन पत्रिकाओं में लेख, निबंध आदि के माध्यम से प्रसारित हुए हैं। श्री शीतल ज्योति (माताजी) श्री अमितज्योतिजी, श्री आत्मज्योतिजी, श्री रजतज्योति जी श्री अंतरज्योतिजी इनकी सहवर्तिनी शिष्याएँ हैं। 6.3.1.66 डॉ. श्री पुण्यशीलाजी (सं. 2037 से वर्तमान) आप इगतपुरी (महा.) निवासी सौ. जयकंवरबाई किशनलाल जी लुणावत की सुपुत्री है। आपने 14 फरवरी 1981 को मुंबई अंधेरी (वेस्ट) में डॉ. श्री धर्मशीलाजी के पास दीक्षा अंगीकार की। आपके पिताश्री भी आचार्य उमेशमुनिजी के पास श्री किशनमुनिजी के नाम से दीक्षित हैं। आप आगम, स्तोक, स्तोत्र आदि की ज्ञाता तथा हिंदी में पंडित व प्राकृत में एम. ए. हैं। पूना विद्यापीठ से आपने 'जैन दर्शनातील भावना संकल्पना आशय आणि अभिव्यक्ति' विषय पर सन् 2004 में पी. एच. डी. की उपाधि प्राप्त की। आप मधुरगायिका एवं आशु कवियित्री भी हैं, आपकी पुस्तक 'धर्म पुण्य गीत गुंजन' भाग 1-4 प्रकाशित हैं। 6.3.1.67 श्री प्रियदर्शनाजी (सं. 2038 से वर्तमान) ऋषि संप्रदाय की विदुषी साध्वी प्रियदर्शना जी ने संवत् 2006 भेरूलालजी चोरड़िया के यहां जन्म लिया। शाजापुर में संवत् 2038 जनवरी 29 को श्री वल्लभकुंवरजी के पास इनकी दीक्षा हुई। ये सेवाभाविनी तपस्विनी व धर्मप्रभाविका साध्वी हैं। दीक्षा के बाद 11 उपवास, 5 अठाई तथा 11 वर्ष आयंबिल एकांतर की साधनाकी, 5 वर्ष से निरंतर एकासन तप और हर पाक्षिक पर्व को उपवास कर तप की ज्योति आत्मा में प्रज्वलित कर रही 92-95. पत्राचार से प्राप्त सामग्री के आधार पर 566 Page #629 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्थानकवासी परम्परा की श्रमणियाँ हैं। इनकी प्रेरणा से भाणगांव, बुरहानपुर, बालुच, बेल्हा, मालेफाटा में युवक मंडल, महिलामंडल की स्थापना हुई । सवाई माधोपुर में आनंद पाठशाला, वाल्हेकर वाड़ी पूना में प्रिय वल्लभपाठशाला आदि की स्थापना की। सैंकड़ों को व्यसन मुक्त, गलत परम्पराओं का उन्मूलन, फैशन मुक्त बनाने में योगदान दिया । इनकी दो शिष्याएँ हैं- श्री कल्पदर्शनाजी, श्री विरागदर्शनाजी | " 6.3.1.68 अन्य श्रमणियाँ ऋषि संप्रदाय की अन्य भी विदुषी श्रमणियाँ हैं, जिनके विषय में जानकारी उपलब्ध नहीं हुई, वे हैं (1) श्री किरणप्रभाजी 'एम. ए. ', इनकी 6 शिष्याएँ हैं- प्रीतिदर्शनाजी, प्रशमदर्शनाजी, विपुलदर्शनाजी, ओजसदर्शनाजी, रशिमदर्शना जी और रूचिदर्शनाजी । ( 2 ) श्री सुशीलकंवरजी सरलस्वभावी, नम्रवृत्ति की विदुषी प्रभावक प्रवचनकर्त्री साध्वीजी हैं। इनके शिष्या परिवार में श्री सन्मतिजी, श्री सुनन्दाजी, श्री प्रियनंदाजी, श्री सुचेताजी, श्री सुप्रभाजी, श्री शिवदाजी, श्री शुभदाजी, श्री सुमित्राजी, श्री सुप्रियाजी, श्री सुबोधिजी आदि शिष्याएँ हैं। (3) श्री विमलकुंवरजी के परिवार में श्री त्रिशलाकंवरजी, डॉ. श्री स्मितासुधाजी, श्री श्वेताश्रीजी, श्री सुहिताजी, श्री इन्द्रप्रभाजी, श्री विजयप्रभाजी आदि साध्वियाँ हैं, (4) श्री सुंदरकुंवरजी के परिवार में श्री मंगलप्रभाजी, श्री उदयप्रभाजी, श्री प्रगतिश्रीजी आदि हैं। ( 5 ) श्री कुशलकंवरजी, प्रमोदसुधाजी, साधनाजी, श्री चेतनाजी, श्री पुनीताजी, श्री रामकुंवरजी, दिव्यप्रभाजी (6) श्री प्रभाकुंवरजी, प्रतिभाकुंवरजी, सिद्धिसुधाजी आदि 8 श्री पुष्पकुंवरजी, प्रगतिश्रीजी ठाणा 3 श्री प्रकाशकुंवरजी, श्री सुशीलाकंवरजी, श्री हंसाजी आदि 5 श्री संयमप्रभाजी, श्रुतप्रज्ञाजी आदि 3, श्री आगमश्रीजी आदि 3, श्री किरणसुधाजी श्री विशालाजी, श्री प्रज्ञाजी आदि 7, श्री प्रशांतकुंवरजी, दिव्याश्रीजी आदि 3, श्री फुल्लाजी आदि 4 तथा प्रेमकुंवरजी, विजयकुंवरजी आदि साध्वियों का परिचय उपलब्ध नहीं हुआ। 6.3.2 श्री हरिदासजी का श्रमणी - समुदाय : 6.3.2.1 श्री खेतांजी (सं. 1730 के लगभग ) आप पंजाब स्थानकवासी परम्परा की आद्य श्रमणी मानी जाती हैं, पंजाब श्रमणी - संघ का आरम्भ अब तक के उपलब्ध प्रमाणों के आधार पर श्री खेतांजी से प्रारम्भ होता है। आपका मूल परिचय, जन्मस्थान आदि का इतिवृत अज्ञात है, तथापि इतना उल्लेख मिलता है, कि जब पूज्य हरिदासजी महाराज वि. सं., 1730 में गुजरात से पंजाब पधारे थे तो आपके पास संवत् 1750 में महासती बगतांजी की दीक्षा हुई थी। उक्त साक्ष्य से यह प्रमाणित होता है, कि आप श्री हरिदासजी महाराज की समकालीन साध्वी रही होंगी, अथवा यह भी हो सकता है कि आप उन्हीं के संघ की साध्वी हों। अपने युग की आप महान प्रभावशाली साध्वी थीं, कई श्रेष्ठी गृहों की कन्याओं ने आपके पास संयम ग्रहण किया था। आपकी तीन शिष्याएँ प्रमुख थीं- श्री बगतां जी, श्री मीनाजी, श्री कक्कोजी। आपका विचरण एवं प्रचार क्षेत्र पंजाब, हरियाणा व जम्मू था। 'सुनाम' में आपका काफी प्रभाव था।" 96. श्री सुमनमुनि, पंजाब श्रमण संघ गौरव, पृ. 166 567 For Private Personal Use Only Page #630 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन श्रमणियों का बृहद इतिहास 6.3.2.2 श्री बगतांजी (सं. 1750-80) आपकी माता का नाम श्रीमती 'वेगा' और पिता का नाम 'श्री रत्नसिंह' था, जो जाति से राजपूत किसान थे। आपने संवत् 1750 में श्री खेतांजी के पास दीक्षा ग्रहण की। श्री बगतांजी के बारे में यह अनुश्रुति है, कि वे सदोष-निर्दोष आहार की परख बिना किसी से पूछे स्वयं अपनी प्रज्ञा से कर लेती थीं। एकबार वे किसी गांव में पहुंची, साध्वियाँ गोचरी लेकर आईं, उन्होंने देखते ही कहा- 'आहार व पात्र दोनों अशुद्ध हैं, इन्हें फैंक दो।" साध्वियाँ हैरान हुई, जिन घरों से आहार लेकर आई थीं वहाँ पूछताछ की, तो पता लगा यह सारा गांव मुसलमानों का है, सब्जी में अंडों की जर्दी का प्रयोग था। साध्वीश्री ने आहार के साथ पात्रों का भी विसर्जन किया। अशुद्ध आहार का प्रायश्चित् अंगीकार किया, और कितने ही दिन बिना पात्रों के निर्वाह किया। आपकी घ्राण-शक्ति की प्रबलता, मतिज्ञान की निर्मलता संयम की सजगता व सतर्कता का यह अनुपम उदाहरण है। आपकी अनेक साध्वियाँ थीं-मीनाजी, ककोजी, दयाजी, फूलोजी, सजनाजी, सीताजी आदि। किन्तु शिष्या के रूप में एकमात्र सीताजी का ही नाम आता है। आपका स्वर्गवास वि. सं. 1780 में हुआ।” 6.3.2.3 श्री सीताजी (सं. 1755) महान् धर्म प्रचारिका साध्वी श्री सीताजी अमृतसर के जौहरी परिवार में पैदा हुई थीं। आपकी माता का नाम श्री अमृतादेवी था, उन्हीं की प्रेरणा से आपने वि. सं. 1755 में साध्वी श्री बगतांजी के पास दीक्षा ग्रहण की। आपके उपदेश से प्रभावित होकर पांच हजार लोगों ने मांस-मदिरा आदि व्यसनों का आजीवन त्याग किया था। आपकी एक शिष्या का ही उल्लेख प्राप्त होता है वे थीं, साध्वी श्री खेमाजी। 6.3.2.4 श्री सुजानांजी (सं. 1765) ___ आप महासती बगतांजी की साध्वी थीं, साथ ही एक कुशल लेखिका भी थीं। आपका लिखा हुआ 43 पन्नों का 'निशीथ सूत्र टब्बार्थ' वि. सं. 1765 श्रावण कृष्णा 11 का प्राप्त होता है। 6.3.2.5 श्री खेमाजी (सं. 1800) आपका जन्म रोहतक जिले के छोटे से गांव 'रोडका' में हुआ था। माता का नाम 'जीवादेवी' था। भरे-पूरे परिवार का त्याग कर आपने प्रौढ़ावस्था में श्री सीताजी के पास संवत् 1800 में दीक्षा ग्रहण की। आपने अपने जीवन में शीलधर्म का खूब प्रचार-प्रसार किया। जिस क्षेत्र में भी जातीं, वहीं दो चार जोडे ब्रह्मचर्य व्रत के लिये तैयार हो जाते, एकबार तो आपने 250 जोड़ों को ब्रह्मचर्य व्रत अंगीकार करवाया। श्री सदाकुंवरजी, श्री वेनतीजी, श्री सजनाजी आपकी प्रसिद्ध शिष्याएँ थीं। आप कठोर संयमी एवं अनुशासनप्रिय प्रतिभासंपन्न साध्वीजी थीं। जब संवत् 1810 में श्री सोमजीऋषिजी की चार संप्रदायों का सम्मेलन हुआ, तब आपने श्री दयाजी, मंगलाजी, फूलांजी साध्वीजी को अपना प्रतिनिधि बनाकर भेजा था।100 97. वही, पृ. 167 98. वही, पृ. 167 99. वही, पृ. 166 100. वही, पृ. 168 568 Page #631 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्थानकवासी परम्परा की श्रमणियाँ 6.3.2.6 श्री फूलांजी (सं. 1809-1877) ___ आपका अन्य इतिवृत तो उपलब्ध नहीं होता किंतु इतना उल्लेख अवश्य मिलता है, कि वि. सं. 1809 में पंचेवर ग्राम में हुए 1810 के सम्मेलन में आप पूज्य श्री हरिदासजी महाराज की साध्वी संघ का नेतृत्व करती हुई स्यालकोट से पधारी थीं। इससे ज्ञात होता है, कि आप अत्यंत विदुषी एवं प्रतिभासंपन्न साध्वी थीं। आपकी हस्तलिखित प्रति 'औपपातिक सूत्र' सुंदर और शुद्ध लिपि में लिखी हुई प्राप्त होती है। आप महासती दयाजी की शिष्या थीं, संवत् 1877 में विद्यमान थीं। आपकी एक शिष्या वषतांजी थीं। 6.3.2.7 श्री सजनां जी (सं. 1865) आप देहली निवासिनी राजपूत कन्या थीं, संवत 1865 में आपकी दीक्षा हुई, आपकी दो सुयोग्य शिष्याएँ थीं- श्री ज्ञानाजी और श्री शेरांजी। इसके अतिरिक्त आपके विषय में कोई उल्लेखनीय जानकारी उपलब्ध नहीं होती।102 6.3.2.8 श्री ज्ञानाजी (सं. 1870-1895) महासाध्वी ज्ञानाजी को वर्तमान पंजाबी जैन स्थानकवासी साधु-परंपरा की जन्मदातृ एवं संस्थापिका कहा जाता है। पंजाब में जब अंतिम स्थानकवासी साधु, तपस्वी मुनि श्री छजमलजी का भी देहावसान हो गया, तब ज्ञानाजी ने एक तेजस्वी नवयुवक रामलाल; जो जाति से राजपूत था, उसे जैन साधु बनने के लिये तैयार किया, और उसके पिता से संघ रक्षार्थ उसकी याचना की। पिता द्वारा स्वीकृति मिलने पर उसे शास्त्र-ज्ञान में प्रवीण किया, तथा स्वयं दीक्षा प्रदान की। नवदीक्षित साधु रामलालजी को उन्होंने दिवंगत आचार्य श्री छजमलजी स्वामी की नेश्राय में शिष्य घोषित किया। आगे जाकर ये पंजाब के आचार्य पद पर अधिष्ठित हुए, इन्हीं के शिष्य-रत्न आचार्य अमरसिंहजी म. हुए। श्री ज्ञानांजी महान कवियित्री, जैन आगमों की गहन अध्येता एवं ज्योतिष व सामुद्रिक शास्त्र की पारंगता थी। एकबार दुष्ट आशय से सम्मुख आ रहे तीन व्यक्तियों को मार्ग में ही साध्वी जीवन के नियम-उपनियम एवं महासती धारिणी चंदनबाला का धार्मिक चरित्र सुनाकर उनके भोगासक्त मन को परिवर्तित कर दिया था। बाद में उन तीनों ने श्री शेराजी महाराज से श्रावक के 12 व्रत ग्रहण किये। आप ओसवाल परिवार की थीं, वि. सं. 1870 में आपकी दीक्षा श्री सजनाजी के पास हुई। अंतिम संयम में आप नेत्र-ज्योति से विहीन बन गई थीं, अत 'सुनाम' नगर में कई वर्ष स्थिरवासिनी रही। आपका अपर नाम 'चैनाजी' था। आपकी दो शिष्याएँ थीं- श्री खूबां जी एवं श्री जीवनदेवीजी। जीवनदेवीजी ओसवाल परिवार से संबंधित थी, उनकी दीक्षा संवत् 1895 में सुनाम में हुई। ज्ञानांजी की परम्परा काफी विस्तृत है।104 101. वही, पृ. 169 102. वही, पृ. 169 103. श्री रवीन्द्र जैन ने उसे ज्ञानांजी का भानजा बताया है।-महाश्रमणी अभिनंदन ग्रंथ, खंड 5, पृ. 18 104. पंजाब श्रमण संघ गौरव, पृ. 170-72 569 Page #632 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन श्रमणियों का बहद इतिहास 6.3.2.9 श्री शेरांजी (सं. 1875-1910) आपका जन्म वि. सं. 1824 में अमृतसर निवासी लाला खुशहालसिंहजी जौहरी के यहां हुआ। आचार्य श्री अमरसिंहजी के पिता सेठ बुधसिंहजी जौहरी की आप भुआ थी। स्यालकोट के एक समृद्ध परिवार में आप एकमात्र पुत्रवधु बनकर आई, किंतु शीघ्र ही विधवा हो गई। 51 वर्ष की दीर्घायु तक आप संयमी जीवन के लिये प्रयत्नरत रहीं, अंततः वि. सं. 1875 में श्री सजनाजी के प्रभाव से दीक्षा संपन्न हुई। आपका आगम-ज्ञान उत्कृष्ट कोटि का था, आपने संयम-मर्यादा में कभी शैथिल्य नहीं आने दिया। नाम के अनुरूप ही आप शेरनी की भांति साहसी, पराक्रमी और धर्मोद्योत करने वाली थीं। आचार्य अमरसिंहजी महाराज एवं आचार्य श्री सोहनलालजी महाराज जैसे साधु-शिरोमणि आपकी ही प्रेरणा से जैन समाज को प्राप्त हुए थे। कहा जाता है कि जब आचार्य अमरसिंहजी महाराज गृहस्थावस्था में थे, तो उनके तीनों ही पुत्रों का देहान्त हो गया, साथ ही जीवन-संगिनी ज्वालादेवी का भी। उसी समय महासती शेरांजी का वहाँ पदार्पण हुआ, उनकी वैराग्यवर्द्धक वाणी सुनकर अमरसिंहजी को संसार की अनित्यता एवं पुद्गल की विचित्रता का ज्ञान हुआ। शेरांजी ने उन्हें संयम मार्ग ग्रहण करने की प्रेरणा दी उनकी प्रेरणा से श्री अमरसिंहजी एवं उनके साथी श्री रामरत्नजी तथा श्री जयंतिदासजी ने वि. सं. 1898 में पंडित श्री रामलालजी महाराज के पास दिल्ली, बारहदरी जैन स्थानक में दीक्षा ग्रहण की। इसी प्रकार पसरूर में एक बार आप प्रवचन दे रही थीं, श्री सोहनलालजी धर्मसभा में अग्रिम पंक्ति में पद्मासन से बैठकर एकाग्रता से प्रवचन श्रवण कर रहे थे, महासतीजी की दृष्टि उनके पांव की रेखा पर पड़ी तो उन्होंने कहा-'तुम अगर दीक्षा लोगे तो धर्म की महान प्रभावना करोगे।' उनकी प्रेरणा से श्री सोहनलालजी ने बारह व्रत स्वीकार किये और अंत में आचार्य अमरसिंहजी महाराज के पास वि. सं. 1933 में दीक्षा अंगीकार की। इस . प्रकार आप महान् धर्मप्रभाविका साध्वी जी थीं। 35 वर्ष तक संयम-पर्याय का पालन करती हुई वजीराबाद में संवत् 1910 में आपका स्वर्गवास हुआ। आपकी दो शिष्याएँ थीं-श्री पूर्णदेवी एवं श्री गंगी जी।105 6.3.2.10 श्री खूबांजी (सं. 1881-1931) ___ श्री खूबांजी जाति से राजपूत थीं, दिल्ली में इनका विवाह हुआ, वैधव्य के पश्चात् ये वि सं. 1881 में महार्या ज्ञानांजी के पास दीक्षित हुईं। ये सरल हृदय की सेवाभाविनी साध्वी थीं, वर्षों तक सुनाम में रहकर गुरूणी की सेवा की। ये पंजाब के अतिरिक्त अन्य प्रदेशों में भी विचरी थीं। इनका देहावसान वि. सं. 1931 टांडा नगर (पंजाब) चातुर्मास में हुआ। आपकी 5 शिष्याएँ थीं- (1) हीराजी (2) दीपाजी (3) मूलांजी (4) आशाजी (5) निहालदेवीजी। इनमें हीरांजी जाति से माली परिवार की थीं और संवत् 1882 में दीक्षित हुई थीं। दीपाजी की दीक्षा 1883 में हुई व जाति से क्षत्रिय थीं इन दोनों का शेष जीवनवृत्त उपलब्ध नहीं है।105 6.3.2.11 श्री मूलांजी (सं. 1897-1903) आपका जन्म कुम्भकार परिवार में हुआ था। तपस्वी आचार्य श्री छजमलजी ऋषि आपके मौसा थे। वि. सं. 1897 में आप श्री खूबांजी के पास दीक्षित हुई। आप अत्यन्त सहनशीला एवं सयंमनिष्ठा साध्वी थीं। एकबार 105. वही, पृ. 186 106. वही, पृ. 172 570 Page #633 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्थानकवासी परम्परा की श्रमणियाँ आपके पांव में एक भयंकर फोड़ा हुआ, उसी स्थिति में आपने तीन साध्वियों के साथ अमृतसर की ओर विहार किया। साथ की तीनों साध्वियाँ आपको इस असह्य पीड़ा की स्थिति में 'रमद्दीपिंड' नामक गांव में छोड़कर विहार कर गईं। आप आहार-पानी लाने में असमर्थ थीं, अत: 10 दिन के चौविहारी उपवास का प्रत्याख्यान कर लिया। लाहौर में विराजित खूबांजी और शिष्या मेलोजी को जब पता चला तो वे उग्र बिहार कर दस दिन में 'रमद्दी' पहुंची उनके अत्यंत आग्रह करने पर दस दिन के पश्चात् आपने जल ग्रहण किया, किंतु तिविहारी संथारा कर लिया। इस प्रकार 31 दिन के संथारे के साथ सं. 1903 में समाधिपूर्वक देह का त्याग किया। आपने कुल 6 वर्ष संयम पालन किया। जो साध्वियाँ उन्हें अकेला छोड़ गई थीं, उन्हीं दिनों उनमें से दो साध्वियों का अकस्मात् स्वर्गवास हो गया। आपकी 3 शिष्याएँ हुई, जिनसे आगे चलकर साध्वी संघ की काफी अभिवृद्धि हुई- श्री बथोजी (सं. 1898), श्री ताबोजी (सं. 1900), श्री मेलोजी (सं. 1901) 107 6.3.2.12 श्री सदाकुंवरजी (सं. 1898) ___आप महासती खेमाजी की शिष्या थी, आपकी लिपि बड़ी सुंदर थी। आपके द्वारा लिपिकृत 'तीर्थंकर नेमनाथ का ब्याहला' वि. सं. 1898 का उपलब्ध होता है। 08 6.3.2.13 श्री ताबोजी (सं. 1900) आपका जन्म जालंधर के एक समृद्ध किसान परिवार में हुआ, साध्वी श्री मूलांजी के पास संवत् 1900 में आप दीक्षित हुई। और जिनशासन में अच्छी प्रतिभासंपन्न साध्वी के रूप में विख्यात हुई। आपका स्वर्गवास रोहतक में 21 दिन के संथारे के साथ हुआ, स्वर्गवास के पूर्व ही आपको ज्ञात हो चुका था कि मेरा देहत्याग तीन साधुओं के आने पर होगा। वैसा ही हुआ, तीन संत पधारे, उन्हें वंदना करते हुए आपने देह त्याग किया। श्री जीवनीजी, सुषमाजी और जयदेवी जी ये तीन सुयोग्य शिष्याओं की आप गुरूणी बनीं। श्री जयदेवीजी रावलपिंडी के ओसवाल परिवार की कन्या थीं। सं. 1903 में रमद्दी गांव में दीक्षा ग्रहण की थी, आपकी दो शिष्याएँ थीं-श्री पानकुंवरजी एवं गंगीदेवीजी (छोटी) 109 6.3.2.14 श्री मेलोजी (सं. 1901-64) आप संवत् 1880 में गुजरानवाला निवासी पिता पन्नालालजी ओसवाल के यहां जन्म लेकर 1901 में कांधला में साध्वी मूलांजी से दीक्षित हुईं। आपके जीवन में स्वाध्याय व संयम के साथ सेवा और तपस्या का विशिष्ट गुण था। स्वभाव से विनम्र एवं क्रियापालन में अत्यंत कठोर थी। लगभग 84 वर्ष की दीर्घायु में 63 वर्षों तक धर्मप्रचार करती हुई संवत् 1964 रायकोट नगर लुधियाना में मृगशिर शुक्ला प्रतिपदा को प्रात:काल समाधि पूर्वक स्वर्गस्थ हुईं। श्री चम्पाजी और प्रवर्तिनी पार्वतीजी महाराज आपकी ही शिष्या थी।110 107. वही, पृ. 174 108. वही, पृ. 365 109. लेखिका-श्री सुन्दरीदेवीजी म., महासती मथुरादेवीजी जीवन चरित्र, पृ. 121 110. पंजाब श्रमण संघ गौरव, पृ. 175 571 Page #634 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन श्रमणियों का बृहद इतिहास 6.3.2.15 श्री गंगीदेवीजी (सं. 1919) आपका जन्म पंजाब प्रान्त के सुनाम नगर मे कम्बों किसान परिवार में हुआ। तथा दीक्षा संवत् 1919 में संपन्न हुई। आप अत्यंत चारित्रवान और धैर्यवान् साध्वीजी थीं। एकबार आपकी गुरूणी श्री ताबोजी ने रूष्ट होकर 4-5 साध्वियों के निमित्त लाया हुआ सारा आहार करने की आज्ञा दी, आपने उस आज्ञा को शिरोधार्य कर सारा आहार दिनभर में पूर्ण कर लिया, उसके पश्चात् 21 उपवास किये। आपकी इस प्रकार विनय भक्ति देखकर गुरूणीजी को पश्चाताप भी हुआ, लेकिन साथ ही अपनी होनहार शिष्या पर सात्विक गर्व भी अनुभव हुआ। आप इतनी क्षमाशील थीं कि एकबार किसी शरारती ने सद्यजात कुतिया के बच्चे को पकड़कर आपके पात्र में डाल दिया, और 'कहा, तुम दया का उपदेश देते हो न? लो इस बच्चे की दया पालो।' आपने उस पर किंचित् भी क्रोध न करते हुए ऐसी करूण दृष्टि बरसाई, कि वह स्वयं अपने कृत्य पर पश्चाताप करने लगा। एकबार रात्रि में किसी ने दुर्भावना पूर्वक आपके पात्र में रोटी डालकर रात्रिभोजन का आरोप लगा दिया, तब भी आप शांत रहीं। किसी समय आप अपनी शिष्याओं सहित दोआबा की ओर जा रही थीं। मार्ग में किसी संत-द्वेषी व्यक्ति ने आपको देवाधिष्ठित मकान में ठहरा दिया। रात्रि में वहाँ का स्थानीय देव उपद्रव करने लगा। संकटापन्न स्थिति देख आप इष्ट मंत्र के ध्यान में तल्लीन हो कर बैठ गई, आपकी दिव्य व शांत मुखमद्रा से देव प्रभावित हुआ, उसने साध्वीजी से क्षमा मांगी। साध्वीजी ने उसे भविष्य में किसी संत को न सताने का नियम करवाया। इस प्रकार के अनेकों संस्मरण आपके जीवन के साथ जुड़े हुए हैं। आपकी 12 शिष्याएँ थीं, वर्तमान में दो के नाम उपलब्ध हैं- श्री नंदकौरजी एवं श्री मथुरादेवीजी। पटियाला में 8 दिन के संथारे के साथ आपने देहत्याग किया। 6.3.2.16 गणावच्छेदिका श्री निहालदेवीजी (सं. 1920-90) जांलधर के श्री लक्खूशाहजी ओसवाल व सरस्वती देवी के यहां संवत् 1905 में जन्म लेकर बाल्यवय से ही विरक्तमना निहालदेवीजी ने संवत् 1920 में साध्वी खेमाजी की प्रशिष्या श्री सुखदेवीजी के पास दीक्षा ग्रहण की। आपने अपनी प्रखर प्रतिभा से जैन-जैनेतर दर्शनों का गहन अभ्यास किया, और बड़े-बड़े दिग्गज विद्वानों से वाद-विवाद कर उन्हें सत्य ज्ञान की ज्योति प्रदान की। पहले आप आचार्य श्री नागरमलजी की आज्ञानुवर्तिनी साध्वी थीं. संवत 1930 में उनके स्वर्गवास के बाद आप आचार्य अमरसिंहजी की आज्ञा स्वीकार करने लगीं। लुधियाना में उनके दर्शनार्थ आप-अमृताजी, कर्मोजी, गुरूदत्ती जी, पारोजी, अक्को जी आदि 15 साध्वियों के साथ पधारी थी। आपकी योग्यता, व्यवहारकुशलता, मधुरता एवं विद्वत्ता को देखकर वि. सं. 1951 में आचार्यश्री मोतीरामजी महाराज ने आपको 'गणावच्छेदिका पद प्रदान किया। आपके साथ ही अन्य तीन साध्वियाँ श्री अमृताजी, श्री कर्मोजी एवं गुरूदत्तीजी भी 'गणावच्छेदिका' पद पर प्रतिष्ठित की गई। ये सब गौरवशीला, वर्चस्वी, मेधावी, परम पंडिता विदुषी कवियत्री और पांचाल प्रदेश की निर्भीक साध्वी रत्ना थीं। आपकी तीन शिष्याएँ थीं-श्री गंगादेवी, तथा श्री खूबांजी, श्री जीवीजी।।2 111. संपादिका- साध्वी सुषमा एवं संगीता, अध्यात्म साधिका सुंदरी, खंड 6 पृ. 8 112. श्री तिलकधर शास्त्री, संपादक-संयम गगन की दिव्य ज्योति, पृ. 217 572 Page #635 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्थानकवासी परम्परा की श्रमणियाँ 6.3.2.17 गणावच्छेदिका श्रीअमृतांजी प्रेमांजी (1969 के लगभग) आपके विषय में इतना ही संकेत मिलता है कि ये गणावच्छेदिनी थीं और 1969 तक विद्यमान थीं। ये सात साध्वियाँ थीं। इनमें साध्वी रलीजी भी हुई हैं, उन्होंने ढाल जिनदत्त की, विर्त मंडली चोपयइ (सं. 1960) कायस्थिति का थोकड़ा (सं. 1966) आदि लिखा, जिसकी प्रतिलिपियां उपलब्ध हैं।13 6.3.2.18 श्री गंगादेवीजी (सं. 1923) वि. सं. 1923 में 11 वर्ष की लघु अवस्था में आपने महान तेजस्विनी गणावच्छेदिका श्री निहालदेवीजी के पास श्री जीवादेवीजी के साथ जालंधर में दीक्षा अंगीकार की। आप स्वभावतः दक्ष एवं मेधावी थी, अतः स्वल्पकाल में ही सभी आगमों की ज्ञाता बन गई। आपने पंजाब, मारवाड़, बम्बई, देहली, यू.पी. आदि दूर-दूर के क्षेत्रों में विचरण कर हजारों नर-नारियों को अपनी ज्ञान-गंगा से पवित्र बनाया था। आपका त्याग-वैराग्य बहुत उच्चकोटि का था। आपकी शिष्याओं में -जमुनादेवीजी, लाजवंतीजी (श्री खजानचंदजी महाराज की बहन) शिवदयालीजी, रलीजी आदि प्रमुख थी। अम्बाला में संवत् 1990 को आपका देहावसान हुआ।14 6.3.2.19 प्रवर्तिनी श्री पार्वतीजी (वि. सं. 1924-1996) स्थानकवासी पंजाब परम्परा की साध्वियों में प्रवर्तिनी साध्वी श्री पार्वतीजी का नाम शीर्षस्थान पर है। आपका जन्म आगरा जिले के भौंडपुरी ग्राम में संवत् 1911 में पिता श्री बलदेवसिंहजी व माता धनवन्तीजी चौहान के यहां हुआ। जैन मुनि श्री कंवरसेनजी की प्रेरणा से संवत् 1924 चैत्र सुदी एकम को श्री हीरादेवीजी के सान्निध्य में 'अलम' गांव (कांधला) में अन्य 3 कुमारियों-मोहनिया जी, सुन्दरिया जी, जीवोजी के साथ आपकी दीक्षा हुई। किंतु ज्ञान एवं क्रिया का विशिष्ट लाभ अर्जित करने के लिए संवत् 1930 में आप पंजाब के पूज्य अमरसिंहजी की साध्वी श्री खूबाजी, मेलोजी के संघ में सम्मिलित हो गई थीं। आप बड़ी आचारनिष्ठ साध्वी थीं। पंजाब के साध्वी संघ पर तो आपका प्रभुत्व था ही, परन्तु श्रमण संघ भी आपकी आवाज का आदर करता था। आपकी प्रचण्ड देह और व्याख्यान छटा बड़ी प्रभावोत्पादक थी। अपनी प्रभावशाली वाणी से कई बार आपने अन्य मताबलंबियों से शास्त्रार्थ किये। लाला लाजपतरायजी से 'सत्यार्थ प्रकाश' विषय पर कई शास्त्रार्थ हुए, आपकी स्पष्टता, निर्भीकता से प्रभावित होकर लालाजी आपको अपनी 'धर्ममाता' कहते थे। जालंधर में वि. सं. 1967 में आपके उपदेशों से प्रभावित होकर 8 देशी रियासत के राजाओं ने मांस, शराब और शिकार का आजीवन त्याग कर दिया था। जयपुर के राजकुमार ने भी अपने जीवन को व्यसन मुक्त और धर्ममय बनाया। आपकी तर्कप्रवण प्रज्ञा, प्रभावशाली व्यक्तित्व से प्रभावित होकर आचार्य श्री मोतीरामजी म. ने वि. सं. 1951 चैत्र कृ. 11 को लुधियाना में 75 नगर के संघों के समक्ष पंजाब की सर्वप्रथम प्रवर्तिनी के पद पर आपको नियुक्त किया, इससे पूर्व 200 वर्षों के इतिहास में पंजाब में किसी को प्रवर्तिनी पद प्राप्त नहीं हुआ था। आपने पंजाब के अतिरिक्त हरियाणा, पाली, उदयपुर, जयपुर आदि दूर-दूर के क्षेत्रों में भी 113. पंजाब श्रमणसंघ गौरव, पृ. 208-9 114. (क) वही, पृ. 205 (ख) संपा. - तिलकधर शास्त्री, संयम गगन की दिव्य ज्योति, पृ. 220 573 Page #636 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन श्रमणियों का बृहद इतिहास विचरण कर धर्म की अतिशय प्रभावना की । हिंदी साहित्य की प्रथम जैन साध्वी लेखिका के रूप में भी आप विख्यात है। आपने ज्ञान- दीपिका, सम्यक्त्व - सूर्योदय, सम्यक् चन्द्रोदय, वृत्तमंडली, अजितसेन कुमार ढाल, सुमतिचरित्र, अरिदमन चौपाई आदि लगभग 40 ग्रंथों की रचना की। इनकी हस्तलिखित प्रतियां बीकानेर में श्री पूज्य जिन चारित्र सूरिजी के संग्रह में है। नई दिल्ली आचार्य सुशीलमुनि आश्रम, शंकर रोड में आप द्वारा कई हस्तलिखित प्रतियां देखने को मिली। संवत् 1951 में रचित 'राजुल नेम बारहमासा', संवत् 1979 की 'सेठ जिनदत्त की ढाल', संवत् 1961 जयपुर में रचित 'सुमति चरित्र', (होश्यारपुर में उसकी प्रतिलिपि श्री लाजवंतीजी ने की), एवं जयपुर में ही संवत् 1957 में रचित 'चन्द्रप्रभचरित' (ढाल 24 कुल दोहा 413) आदि की प्रतियां मौजूद हैं। कृति के अंत में साध्वीजी ने अपने को आचार्य श्री अमरसिंहजी महाराज श्री सोहनलालजी महाराज की आज्ञानुवर्तिनी एवं सती खूबांजी की शिष्या लिखा है । सं. 1952 में आप द्वारा लिखित 'व्यवहारसूत्र' (पत्र सं. 38 ) की सुंदर सुलिपी युक्त हस्तप्रति भी नई दिल्ली में मौजूद है। जीवन के अंतिम 16 वर्ष आप जालंधर में स्थिरवास रहीं, वहीं संवत् 1996 माघ कृ. 9 को आपका स्वर्गवास हुआ। श्री जीवीजी, कर्मोजी, भगवानदेवीजी और राजमतीजी - ये आपकी 4 शिष्याएँ थीं। जीवीजी की बसंतीजी और निहालीजी तथा कर्मोंजी की शिष्या चंदनबाला हुई 15 6.3.2.20 श्री चम्पाजी (सं. 1928-75 ) आप दिल्ली निवासी लाला रूपचन्दजी जौहरी बाणवाला की सुपुत्री तथा गुलाबचन्दजी जौहरी की पुत्रवधु थीं, संवत् 1928 फाल्गुन कृ. 1 को आपकी दीक्षा हुई। संवत् 1975 दिल्ली चातुर्मास तक आप जीवित थीं। 16 6.3.2.21 श्री आशादेवीजी (सं. 1936 ) आप अमृतसर निवासी व जाति से ओसवाल थीं, मृगसिर शु. 2 को जालंधर छावनी में आपकी दीक्षा हुई, आप खूबांजी की शिष्या बनीं। आपके विषय में शेष कुछ भी ज्ञात नहीं है। 7 6.3.2.22 श्री जमनादेवीजी (सं. 1942-2008 ) 12 वर्ष की अल्पायु में वैधव्य को प्राप्त हुई बालिका जमनादेवी गणावच्छेदिका निहालदेवीजी की शिष्या गंगादेवीजी के पास संवत् 1942 में दीक्षित हुई । अध्ययन के साथ-साथ इन्होंने अनेक फुटकर तपस्याएँ, 8, 9, 15, 11 के स्तोक, कई सालों तक ओली आदि तप की आराधना की। रात्रि में स्वल्प सी निद्रा लेकर अधिकांशतः ये जाप स्वाध्याय में लीन रहती थीं। गंगादेवीजी के साथ ये पंजाब से राजस्थान तक विचरण कर 6 शिष्याओं व अनेक प्रशिष्याओं की गुरूणी बनीं उनमें पन्नादेवीजी, ज्ञानवंतीजी, विद्यावतीजी सुभद्राजी, कौशल्याजी आदि प्रमुख थी। संवत् 2008 में पानीपत शहर से आप स्वर्ग सिधारी । 18 115. साध्वी विजयश्री 'आर्या' महासती केसरदवी गौरव ग्रंथ, पृ. 370 116. वही. पृ. 175-76 117. पंजाब श्रमण संघ गौरव, पृ. 183 118. तिलकधर शास्त्री, संयम गगन की दिव्य ज्योति 574 Page #637 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्थानकवासी परम्परा की श्रमणियाँ 6.3.2.23 श्री भगवानदेवीजी (सं. 1943-62) आपका जन्म माछीवाड़ा (लुधियाना) में श्री नगीनचंद्रजी जैन के यहाँ संवत् 1921 को हुआ। समानां में विवाह के पश्चात् पतिवियोग एवं पुत्रीवियोग से उद्वेलित होकर करोड़ों की सम्पत्ति को ठोकर मारकर आप वि. सं. 1943 ज्येष्ठ शुक्ला 12 को प्रवर्तिनी श्री पार्वतीजी म. के पास रोपड़ में दीक्षित हो गईं। आपने जिनशासन की महती प्रभावना की। आपकी 4 शिष्याएँ हुईं-श्री मथरोजी, श्री पूर्णदेवीजी, श्री द्रौपदांजी, श्री लक्ष्मीजी। संवत् 1962 भाद्रपद अमावस्या को गजरांवाल में आप स्वर्गस्थ हई।119 6.3.2.24 श्री चन्दाजी (सं. 1944-2009) स्थानकवासी समाज की लब्ध प्रतिष्ठ साध्वी-रत्न महासती श्री चन्दाजी म. का जन्म संवत् 1933 में आगरा के राजपूत वंश में पिता श्री खुमानसिंह जी एवं माता श्रीमती हर्षकंवर के यहां हुआ। मात्र नौ वर्ष की आयु में बालिका की उत्कट भावना देखकर माता ने करनाल नगर में महासती पार्वतीजी के चरणों में सदा के लिये इन्हें समर्पित कर दिया। संवत् 1944 फाल्गुन शुक्ला 2 के शुभ दिन प्रवर्तिनी श्री राजमतीजी के पास इनकी दीक्षा हुई। इनकी स्मरणशक्ति इतनी प्रखर थी कि एक दिन में 50-60 गाथाएं तो चलते-फिरते ही याद कर लेती थी। 12 वर्ष की आयु तक तो इन्होंने सभी आगमों का अध्ययन कर लिया। जैनदर्शन के साथ-साथ वेद, उपनिषद् स्मृतियां, पुराण, कुरान आदि अनेक ग्रंथों का भी गहन अध्ययन किया। इनके प्रवचनों में आर्यसमाजी, सनातन, वैष्णव, मुसलमान सभी कोम के लोग आते और स्थायी प्रभाव लेकर जाते थे। जब आप प्रवचन देतीं तो संत अपना प्रवचन बंद रखते थे। उस युग में रोहतक की आर्यसमान ने 'ॐ' पर आपके तीन प्रवचन रिकार्ड किये। यह आपके व्यक्तित्व और शब्द संप्रेषण शक्ति का अद्भुत प्रभाव था। 'चंद्र-ज्योति' में आपका जीवन व प्रवचन संग्रहित है। सामाजिक कुप्रथाओं के प्रति भी ये संवेदनशील थीं। स्यालकोट में एक हिंसक प्रवृत्ति के भाई श्री बुग्गामलजी के परिवार में नववधु को भैंसे की बलि चढ़ाकर उसके रक्त से रंजित ओढ़नी ओढ़ाने की प्रथा थी, इनके अहिंसात्मक उपदेश से उन्होंने तथा उनके साथ 40 अन्य परिवारों ने इस कुप्रथा का त्याग किया, लुधियाना में वक्षस्थल विवस्त्र कर रोने पीटने की कुप्रथा भी आपने दूर करवाई। इसी प्रकार अन्य भी अनेक लोकोपकारी कार्य किये। फरीदकोट में एवं अन्य भी जैन कन्या पाठशालाएं खोलने की प्रेरणा दी। आपकी चैत्र कृ. 11 सं. 1961 में रचित 'सुमतसुंदरी की ढाल' सं. 1969 में गुजरांवाल में आर्या भागवतीजी द्वारा लिपिकृत सुशीलमुनि आश्रम, शंकररोड नई दिल्ली में मौजुद है। इसके अतिरिक्त रत्नपाल, मंदिरा कमलप्रभा आदि कई चरित्र रचे। आपकी तीन शिष्याएँ थीं- श्री देवकीजी बा. ब्रां. श्री श्रीमतीजी व श्री धनदेवीजी। श्रीमती जी की शिष्या श्रीहाकमदेवीजी (लाहौर) और लज्जावतीजी थीं।120 6.3.2.25 प्रवर्तिनी श्री राजमतीजी (1048-2010) विदुषी महासती श्री राजमतीजी का जन्म स्यालकोट के प्रसिद्ध जैन परिवार में लाला खुशहालशाह के घर हुआ तथा विवाह जम्मू के सुप्रतिष्ठित समृद्धि सम्पन्न लाला श्री जयदयालजी के साथ हुआ। वि. सं. 1948 में 119. महासती केसर गौरव ग्रंथ, खंड-3, पृ. 371-72 120. श्री महेन्द्रजी म.-चंद्रज्योति (जीवन खण्ड) प्रकाशक-श्री जैन शास्त्रमाला कार्यालय, जैन स्थानक लुधियाना, वि. सं. 2011 575 Page #638 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन श्रमणियों का बृहद इतिहास पार्वतीजी महाराज जब स्यालकोट पधारी, तो उनके सत्संग एवं प्रवचनों का राजमती पर गहरा प्रभाव पड़ा, दोनों पक्षों को समझा-बुझाकर दृढ़मना राजमती ने पति की उपस्थिति में ही संसारी विषय-भोगों की विष- बेल को काटकर फेंक दिया, और उसी वर्ष वैशाख सुदी 13 सोमवार को अमृतसर में आर्हती दीक्षा अंगीकार की। दीक्षा के पश्चात् आप स्वाध्याय, ध्यान, मौन, जप आदि में तल्लीन रहने लगीं। घंटों तक समाधि लगाकर ध्यान, जप आदि करती रहतीं। आप परम तितिक्षु थीं, कड़कड़ाती पोष मास की सर्दी एवं भयंकर प्राणलेवा गर्मी को भी सहज ढंग से सहन कर लेती थीं। आप एक निस्पृह, एकान्त साधिका थीं। आपका शिष्या समुदाय भी काफी विस्तृत एवं प्रभावशाली रहा है। प्रवर्तिनी महासती पार्वतीजी महाराज के स्वर्गवास के पश्चात् आपको 'प्रवर्तिनी' के महान् पद पर प्रतिष्ठित किया गया। आप भी अंतिम समय जालंधर में ही स्थिरवास रहीं। संवत् 2010, कार्तिक शुक्ला त्रयोदशी के दिन समाधि पूर्वक वहीं पर आपने देह त्याग किया। आपकी 7 शिष्याएँ हुईं- श्री हीरादेवीजी, पन्नादेवीजी, चन्दाजी, माणकदेवीजी, रत्नदेवीजी, ईश्वराजी, राधाजी । 121 6.3.2.26 श्री द्रौपदांजी (सं. 1953-92 ) महार्या द्रौपदांजी का जन्म संवत् 1934 को अंबाला में पिता मेलाराजजी अग्रवाल एवं माता जमुनादेवी के यहां हुआ। 11 वर्ष की अल्पायु में अंबाला में ही श्री बंशीलालजी गर्ग के सुपुत्र श्री कृष्णगोपालजी से आपका विवाह हुआ । एकबार अपनी बहन गणेशीदेवीजी के यहां किसी जैन साध्वी को ऐषणीय व निर्दोष आहार ग्रहण करते देखकर जैनधर्म पर अगाध श्रद्धा पैदा हो गई, बड़े कष्ट पति व ससुराल वालों की आज्ञा प्राप्त कर संवत् 1953 फाल्गुन शुक्ला पूर्णिमा के दिन लुधियाना में आचार्य श्री मोतीरामजी महाराज के मुखारविंद से दीक्षा पाठ पढ़कर श्री भगवानदेवीजी की शिष्या बनीं। दीक्षा के पश्चात् आप ज्ञान एवं तप के संग्रह में जुट गईं, 50-60 श्लोक प्रतिदिन याद कर लेना तो आपकी स्वाभाविक क्रिया थी ही, साथ ही आपकी जीवदया की भावना भी उच्चकोटि की थी, इसी गुण से प्रभावित होकर अमीरखां नामक एक शिकारी ने शिकार खेलना बंद कर दिया। हांसी में डिप्टी कमिश्नर ने वहाँ के तालाब से मछली पकड़ना और मारना निषिद्ध करवा दिया। जालन्धर छावनी में मुस्लिमों ने बकरीद पर बकरों की कुर्बानी करनी बन्द कर दी और बकरीद को चावल, घी व सेवियों से मनानी प्रारंभ कर दी। आपके उपदेश से एक धनाढ्य नंबरदार ने परिवार सहित मांस न खाने की प्रतिज्ञा की और गांव में भी विवाह आदि में मांस का इस्तेमाल न होने देने का कानून बनाया। एक कसाई ने आपके अहिंसक उपदेश से सर्वदा के लिये कसाई कर्म छोड़ दिया वह अहिंसक तथा सात्विक जीवन जीने लगा। इस प्रकार आपने कइयों के मन-मंदिर में अहिंसा भगवती की प्रतिष्ठापना की। आपकी प्रेरणा से जम्मू दिल्ली, रोहतक, बड़ौत आदि कई स्थानों पर जैन कन्या पाठशालाओं की स्थापना हुई। आपकी प्रवचन शैली तार्किक, तात्त्विक और निराली थी। एक आर्यसमाजी भाई एकबार आपसे शास्त्रार्थ करने आया आपके तर्क के आगे नतमस्तक हो कर वह जैनधर्मानुयायी बन गया। समाज सुधार विषयक आपके प्रवचनों से लोगों के दिल परिवर्तित हो जाते थे। स्यालकोट में आपके हृदयद्रावक उपदेश को सुनकर अनेक लोगों को चमड़े की वस्तुओं के प्रति घृणा पैदा हो गई। विवाह संबंधी कुरीतियों और उन पर होने वाले अपव्यय एवं हानियों पर आप जब प्रवचन सभा में विवेचन करतीं तो अनेकों लोग त्याग प्रत्याख्यान ग्रहण कर लेते थे। पंजाब में उस 121. साध्वी सरला, साधना पथ की अमर साधिका, पृ. 26 576 Page #639 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्थानकवासी परम्परा की श्रमणियाँ समय 'स्यापा' का बड़ा बुरा रिवाज था। इसके विरूद्ध ऐसी सिंह गर्जना की, कि स्थान-स्थान से यह प्रथा भी समाप्त होती चली गई। आज इस प्रथा का पंजाब में नामोनिशां भी नहीं रहा, इसका अधिकांश श्रेय द्रौपदांजी महाराज का है। स्वर्गवास से एक दिन पूर्व भी आपने अंबाला समाज के आपसी वैमनस्य को दूर करने की प्रेरणा दी। आपकी प्रेरणा के फलस्वरूप विमान उठाने से पूर्व सभी ने अपने अहं भरे आग्रहों का त्याग कर क्षमायाचना की, उसके पश्चात् विमान उठाया गया। भाद्रपद सुदी 8 संवत् 1992 में जहाँ आप जन्मी वहीं से अंतिम विदाई ली। आपके स्वर्गवास पर जालंधर, अम्बाला, जम्मू, हांसी, रोहतक आदि कई स्थानों पर बिरादरी ने बाजार बंद रखा। जैनशासन की गरिमा बढ़ाने वाला महासती द्रौपदांजी का अनूठा अवदान सदा चिरस्मरणीय रहेगा। आपकी 5 शिष्याएँ थीं- धनदेवीजी, मोहनदेवीजी, धर्मवतीजी, हंसादेवीजी सोमादेवीजी।122 6.3.2.27 श्री पन्नादेवीजी (1958-2037) महासती पन्नादेवीजी महाराज का जन्म आज से एक शताब्दी पूर्व वि. सं. 1948 में सोजत नगर (राज.) के एक सम्भ्रान्त क्षत्रिय परिवार के श्री किशनचंदजी चौहान और श्रीमती जानकीदेवी के यहां हुआ। मात्र 9 वर्ष की वय में श्रमणी श्रेष्ठा प्रवर्तनी पार्वतीजी तथा लब्धिधारी मुनि जी मायारामजी महाराज के दर्शन करते ही पूर्व संस्कारों से प्रेरित होकर आप वि. सं. 1958 में जयपुर वर्षावास कर रही प्रवर्तिनी पार्वतीजी महाराज के चरणों में प्रवर्जित हो गई। आप प्रवर्तनी श्री राजमतीजी महाराज की शिष्या बनीं। आपने स्वल्प समय में ही आगमों का तलस्पर्शी ज्ञान प्राप्त कर लिया। आपकी वाग्धारा इतनी सहज और सरल थी कि श्रोता मंत्रमुग्ध हो जाते थे। कांधला चातुर्मास में आपने अपनी विद्या व प्रवचन-पटुता से लोगों को आश्चर्यचकित कर दिया। आपके स्वच्छ आचार एवं स्वच्छ विचारों ने आपको उत्कर्षता प्रदान की। लगभग 8 दशक तक संयम पर्याय का पालन कर 27 मई 1980 को स्वर्गस्थ हो गईं। आपकी 4 शिष्याएँ थीं-श्री जयंतिजी, गुणवंतीजी, रायकलीजी, हर्षावतीजी।123 6.3.2.28 श्री लाजवन्तीजी (सं. 1960-2006) आपका जन्म रावलपिंडी व दीक्षा यौवनवय में भाद्रपद मास सं. 1960 में श्री गंगादेवीजी के सान्निध्य में हुईं। आप जाति से ओसवाल व स्वामी श्री खजानचंद्रजी महाराज की बहिन थीं, वर्षों तक बरवाला में स्थिरवास रहीं। आपकी शिष्या परंपरा नहीं चली।।24 6.3.2.29 श्री मथुरादेवीजी (सं. 1960-2002) आपका जन्म हरियाणा प्रांत पुर खास में राठी वंश के चौधरी श्री मोखरामजी की धर्मपत्नी जैकोर की कुक्षि से संवत् 1937 की भादों वदि दूज को हुआ। कुछ बड़े होने पर बुआना ग्राम के चौधरी के यहां शादी कर दी। शादी के 6 मास पश्चात् ही इनके पति की मृत्यु हो गई। ससुराल पक्ष वालों ने देवर से; जो उम्र में काफी छोटा था, शादी करने का आग्रह किया तो आपको गृहस्थ जीवन से ही नफरत हो गई। आप गंगीजी महाराज की सेवा 122. लेखिका-श्री मोहनदेवीजी, श्री द्रौपदांजी महाराज का जीवन चरित्र, चांदनीचौंक दिल्ली, ई. 1956 (द्वि. सं.) 123. साध्वी सरला, साधना पथ की अमर साधिका, जैन महिला समिति, सदर बाजार, देहली-6 ई. 1970 124. पंजाब श्रमणसंघ गौरव, पृ. 207 577 Page #640 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन श्रमणियों का बृहद इतिहास में रहने लगीं। सुसराल वालों को पता लगने पर उन्होंने सब को जलाकर मारने की धमकी दी। समाज की अनिष्टता व हिंसक वातावरण का विचार कर मथुरादेवीजी घर पर आ गई। वहाँ पर भी सुसराल वालों ने मारणान्तिक कष्ट दिये। अंततः संकल्पविजेता मथुराजी ने कांधले में पूज्य सोहनलाल जी महाराज के मुखारविन्द से मार्गशीर्ष कृष्णा 7 वि. सं. 1960 को दीक्षा अंगीकार की, ये श्री गंगीजी म. की शिष्या बनीं। श्री कांशीरामजी महाराज एवं नरपतरायजी महाराज की भी दीक्षा इनके साथ ही हुई थी। ये परम धर्म प्रभाविका साध्वी थीं। वि. सं. 1996 में पटियाला का एक मुसलमान परिवार आपका परम भक्त बन गया। वह सामायिक आदि साधना भी करता था। भारत-पाक विभाजन के समय पटियाला के राजा ने जब सभी मुसलमानों को मारने अथवा निकल जाने का हुक्म दिया, तो उसे सामयिक में बैठा देखकर सरकार ने उसकी रक्षा ही नहीं की. वरन सरक्षित लाहौर पहचाया। आपके सदपदेशों से एवं उच्च चरित्र से कइयों के जीवन में धर्म की ज्योति जागृत हुई, कितनों ने ही मांस, मदिरा आदि का त्याग किया। एक स्त्री, धर्म भ्रष्ट होकर वैश्यावृति में लग गई थी, उसे आपने सदाचरण का ऐसा मार्मिक उपदेश दिया कि वह वैश्यावृति छोड़कर बारह व्रतधारी श्राविका बन गई। इसी प्रकार एक गौ हत्यारा जो प्रतिदिन गौवध करता था और गोवध के अपराध में कई बार सजा भुगत चुका था, तथापि उसने गौवध बंद नहीं किया। उसके मन में दया का भाव जगाकर उसे पूर्ण अहिंसक श्रावक बना दिया। आप स्वयं भी अत्यन्त निस्पृह और सेवाभावी साधिका थी। एकबार अपनी गुरणी जी गंगीजी के बीमार हो जाने पर उन्हें समाना से पटियाला तक पीठ पर बिठाकर चलीं। रोहतक में श्री नियादरी देवी जी और परमेश्वरीदेवीजी की भी आपने निस्वार्थ भाव से सेवा की थी। आप स्वाध्यायप्रेमी भी उतनी ही थी। रात्रि को निद्रा के कारण स्वाध्याय में बाधा पड़ती देख अपना आसन कंकरों पर बिछाकर बैठ जाती एवं निद्रा जीतने का प्रयत्न करती थीं। आप इतनी सहनशील थीं कि साढ़े सात वर्षों तक आंखों की दुस्सह वेदना सहन की, अन्ततः वेदना की तीव्रता देख दोनों आंखों को बैठे-बैठे डॉक्टर से निकलवा लिया, उस समय आपके मुंह से 'आह' भी नहीं निकली। वि. सं. 2002 में यह महान साध्वी स्वर्गवासिनी हो गई। इनकी छह शिष्याएँ हुईं- श्री रत्नदेवीजी, रूक्मिणीजी, सत्यवतीजी, मगनश्रीजी, सुन्दरीजी, राजमतीजी।।25 6.3.2.30 श्री सोमादेवीजी (सं. 1962) आपका जन्म अमृतसर निवासी लाला ईश्वरदासजी ओसवाल के यहां तथा विवाह स्यालकोट के लाला पन्नाशाह के साथ हुआ, किंतु बाल्यवय में ही आप विधवा हो गई। सं. 1962 में आप द्रौपदाजी की शिष्या बनीं, आपके पिताजी भी आचार्य सोहनलालजी महाराज के पौत्र शिष्य बनें। आप अत्यन्त वैराग्यशीला, त्यागी एवं तपस्विनी महासती थीं।126 6.3.2.31 श्री धनदेवीजी (1967-2016) श्री धनदेवीजी महाराज का जन्म अमृतसर के सुश्रावक लाला पिशोरीलालजी जैन एवं श्रीमती प्रेमवतीजी के यहां संवत् 1947 फाल्गुन सुदी अष्टमी के दिन हुआ। जब आप मात्र नौ वर्ष की थीं तभी आपका विवाह 125. श्री सुंदरीदेवीजी, संयम सुरभि, पृ. 120, दिल्ली , ई. 2003 126. श्री द्रौपदांजी महाराज का जीवन चरित्र, पृ. 104 578 Page #641 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्थानकवासी परम्परा की श्रमणियाँ स्यालकोट के लाला भोलूशाहजी ओसवाल के कनिष्ठ पुत्र पन्नालालजी के साथ कर दिया परन्तु उसी वर्ष फाल्गुन मास में उनका देहान्त हो गया। पति के स्वर्गवास के पश्चात् आपने महासती द्रौपदांजी के उपदेशामृत से प्रेरित होकर चैत्र सुदी पंचमी संवत् 1967 में संयम अंगीकार कर लिया। आप इतनी संयमनिष्ठ थीं, कि 16 वर्ष तक भयंकर चम्बल रोग से ग्रस्त होती हुई भी उसके उपचार स्वरूप न कभी दवा ली, न लेप रूप में ही कोई दवा लगाई। धीरे-धीरे अस्वस्थता बढ़ती गई, और रोहतक में सं. 2016 की असोज सुदी पंचमी मंगलवार के दिन स्वर्गवासिनी हो गई। आपकी 4 शिष्याएँ थीं-श्री शीतलमती जी, मनोहरमतिजी, धर्मवतीजी, लोचनमतीजी।।27 6.3.2.32 महार्या मोहनदेवीजी (सं. 1970-2023) श्री मोहनदेवीजी का जन्म दिल्ली सुराणा गोत्रीय श्री कल्लूमलजी जैन के यहां धर्मनिष्ठ माता गेंदादेवीजी की कुक्षि से वि. सं. 1937 (सन् 1880) कार्तिक कृष्णा 10 को हुआ। 5 भाई और 6 बहनों में आप सबसे ज्येष्ठ थीं। 11 वर्ष की उम्र में ही आपका विवाह दिल्ली के सुप्रसिद्ध जौहरी श्री खुशहालचंदजी के सुपुत्र जगन्नाथजी नाहर के साथ हुआ। 3 वर्ष पश्चात् ही पति का स्वर्गवास हो गया। वैधव्य के इस दु:ख को वरदान स्वरूप बनाने के लिये 12 वर्षों तक आपने संयम के लिये सतत संघर्ष किया पश्चात् संवत् 1970 पोष कृष्णा 5 के दिन देहली में ही श्री द्रौपदांजी महाराज के पास दीक्षा ग्रहण की। दीक्षा के पश्चात् समाज की कुरीतियों को दूर करने एवं स्त्री को शिक्षित व स्वावलम्बी बनाने की और आपके विशेष प्रयास रहे। इसके लिये आपने स्थान-स्थान पर महिला संगठन बनाकर साप्ताहिक सत्संग प्रारंभ करवाये। महिलाओं को जैनधर्म व उसके सिद्धान्तों का परिचय कराया। दिल्ली में प्रथम बार महिला-स्थानकों का निर्माण होने लगा। आप द्वारा प्रेरित जैन महिला स्थानक सब्जीमंडी, दिल्ली, महासती मोहनदेवी जैन सिलाई शिक्षण केन्द्र, मोहनदेवी जैन कन्या पाठशाला, भगवान महावीर होस्पीटल दिल्ली, जैन कन्या पाठशाला हांसी आदि संस्थाएँ आज भी खूब कार्यरत हैं। 53 वर्षों तक जिनशासन की महती प्रभावना करती हुई 86 वर्ष की आयु में आप महिला स्थानक, दिल्ली में सन् 1966 मगसिर कष्णा 2 बुधवार सायं 4 बजे स्वर्गवासिनी हो गईं। आपकी 4 शिष्याएँ हुई। विमलमतीजी, रोशनम राजेश्वरीजी। इनमें श्री रोशनमतीजी और राजेश्वरीजी की ही शिष्या परम्परा चली।128 6.3.2.33 श्री लज्जावतीजी (सं. 1971-2037) आपका जन्म जावरा के श्रेष्ठी श्री रामलालजी कटारिया के यहां श्रीमती गंगादेवीजी की कुक्षि से संवत् 1959 में हुआ। अपने सहोदर भ्राता मुनि श्री हजारीलालजी महाराज की प्रेरणा से 11 वर्ष की अल्पायु में कार्तिक कृष्णा सप्तमी संवत् 1971 के शुभ दिन लाहौर में श्री चंदाजी महाराज के पास दीक्षा अंगीकार कर ये श्री श्रीमती जी की शिष्या बनीं। आपका विचरण क्षेत्र राजस्थान, यू. पी., हरियाणा, पंजाब, मालवा आदि रहा। 66 वर्षों तक संयम का सानन्द पालन करती हुईं अंत में संवत् 2037 में 10 दिन के संथारे के साथ लुधियाना में स्वर्गस्थ हुईं। अनशन के 10 दिनों तक आप सुखासन की स्थिति में अडोल, अचल स्थिर रहीं, यह आपकी सुदीर्घ साधना का प्रतिफल था। आपके जीवन के तीन प्रेरक संदेश थे-विनय, विवेक, और वैराग्य। पठन-पाठन, जप, स्वाध्याय आपको अत्यधिक प्रिय थे. रात्रि में 12 बजे. दो बजे फिर चार बजे उठ-उठकर ध्यानस्थ हो जाते थे। सबके साथ 127. वही, पृ. 204 128. लेखिका-साध्वी हुक्मदेवीजी, दिव्यविभूति महासती मोहनदेवीजी Page #642 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन श्रमणियों का बृहद इतिहास कोमल और मधुर व्यवहार करते थे। आपकी चार शिष्याएँ हुईं-श्री अभयकुमारी जी, श्री दीपमालाजी, श्री दयावतीजी तथा श्री चम्पकलताजी।।29 6.3.2.34 श्री जयंतीजी (सं. 1971-2025) आप पसरूर (पंजाब) के लाला काशीराम जैन की पुत्री व श्री वस्तीशाहजी स्यालकोट वालों की पुत्रवधु थीं। 21 वर्ष की उम्र में श्री पन्नादेवीजी म. सा. के पास आपकी दीक्षा हुई, आप बहुत विनम्र व सेवाभाविनी थीं। संवत् 2025 में आप स्वर्गवासिनी हुईं। आपकी दो शिष्याएँ थीं- (1) प्रज्ञावतीजी ये होश्यारपुर की थीं संवत् 1979 में 19 वर्ष की उम्र में दीक्षित हुई। इनकी श्री मृगावतीजी (संवत् 1992) श्री प्रमोदजी (संवत् 2014), श्री कविताजी (संवत् 2022) ये तीन शिष्याएँ हुईं। (2) विजेन्द्रकुमारीजी-रावलपिंडी के श्री राधूशाह ओसवाल की सुपुत्री थीं। 28 वर्ष की उम्र में पतिवियोग के पश्चात् सं. 1999 में दीक्षा ली।130 6.3.2.35 श्री पद्मावतीजी (सं. 1972-73) ___आप पटियाले के उच्च खानदानी क्षत्रिय कुल की कन्या थीं, 18 वर्ष की उम्र में अत्यंत वैराग्य भाव से फाल्गुन कृ. सप्तमी को आप धनदेवीजी की शिष्या बनीं, आप बहुत शांत, विनयशीला व कष्ट सहिष्णु थी, किंतु दीक्षा के चार मास पश्चात् ही श्रावण मास में आप स्वर्ग सिधार गईं।। 6.3.2.36 श्री पन्नादेवीजी 'टुहाना' (सं. 1974-2022) आपका जन्म हिसार जिले के 'टोहाना' ग्राम में सं. 1949 के शुभ दिन लाला मूलचंदजी अग्रवाल के यहां हुआ, विवाह के पश्चात् वैराग्य की प्रबल भावना से स्वयं साध्वी वेष धारण करने के बाद पति व श्वसुर आदि से आज्ञा प्राप्त कर आप रामपुरा में श्री निहालदेवीजी के पास संवत् 1971 में दीक्षा का पाठ पढ़कर श्री जमुनादेवीजी की शिष्या बनीं। आपका आगमज्ञान तलस्पर्शी था, तथा संयम उच्चकोटि का था, एक साथ हाथ, पैर, सीने और रीढ़ की हड्डी पर चार फोड़े निकल आने पर भी एलोपैथिक औषधियों का सेवन नहीं किया। आप बहुत मितभाषी थीं, हाथ में सदैव माला रहती थी। अल्प निद्रा, ध्यान स्वाध्याय आदि में लीन रहती थीं। आपकी वाणी के प्रभाव से अनेकों के दुःख दर्द नष्ट हुए थे। सं. 2022 माघ शु. 13 को दिल्ली में आप स्वर्गवासिनी हुईं। आपका जीवन एवं उनसे संबंधित अनेक शिक्षाप्रद प्रेरक प्रसंग संयम गगन की दिव्य ज्योति ग्रंथ में प्रकाशित हुए हैं। आपकी 5 शिष्याएँ हुईं- श्री हुक्मदेवीजी, श्री प्रियावतीजी, श्री प्रेमकुमारीजी, श्री प्रकाशवतीजी, श्री चन्द्र लाजी।।32 6.3.2.37 श्री हुक्मदेवीजी (सं. 1974-2000) आपका जन्म सं. 1948 लाला गंगाराम जैन मोही निवासी की धर्मपत्नी श्रीमती धनदेवी की कुक्षि से हुआ। नौ वर्ष की अल्पायु में रायकोट निवासी श्री लक्खूशाहजी के सुपुत्र से आपका विवाह हुआ। पतिवियोग के पश्चात् 129. साध्वी श्री उमेशकुमारी, नॉलेज इज़ लाईफ भाग 3, पृ. 1-8, ई. 1987 130. साधना पथ की अमर साधिका, पृ. 134 131. श्री द्रौपदांजी म. का जीवन चरित्र, पृ. 206 132. संपादक-श्री तिलकधर शास्त्री, प्राप्तिस्थान-श्री नरेन्द्रकुमारजी जैन बी.जी. 3 पूर्वी शालीमार बाग, दिल्ली. ई. 2003 580 Page #643 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्थानकवासी परम्परा की श्रमणियाँ छत बनूड़ में सं. 1974 में जैन आर्हती दीक्षा अंगीकार की। दीक्षा के अवसर पर आपने अनेक संस्थाओं को दान दिया। दीक्षा के समय आपके लिये पटियाला से स्वर्ण पालकी मंगाई गई थी। आप महासती पन्नादेवीजी की शिष्या बनीं। आपका स्वर मधुर और सुरीला था। अंत समय में असह्य वेदना को समभाव से सहन कर सं. 2000 में आप स्वर्गवासिनी हुईं। आपकी दो शिष्याएँ थीं-श्री पद्मश्रीजी एवं श्री श्रीमतीजी।133 6.3.2.38 श्री गुणवन्तीजी (सं. 1975-78) आप लुधियाना के श्रीमंत खानदान की कन्या एवं पुत्रवधु थी, पति के स्वर्गवास के पश्चात् भोगों से विरक्त हो गईं। श्री पन्नादेवीजी के पास आश्विन शु. 5 को होशियारपुर में आप दीक्षित हुई। उस समय आप स्वर्ण की पालकी में बैठकर दीक्षा स्थल तक दीन-दुखियों को मुक्त हस्त से दान देती हुई गईं तथा दीक्षा-प्रसंग पर लोगों को स्वर्ण की अंगूठियां भेंट की। दीक्षा के कुछ ही दिन बाद आप बीमार हो गईं और सं. 1978 में स्वर्गवासिनी हो गईं। आप बहुत विनीत, सेवाभावी एवं सहनशीला थीं।134 6.3.2.39 श्री हंसादेवीजी (सं. 1977) आप हैदराबाद (आं. प्र.) के लाला शिवसहायमलजी जौहरी की सुपुत्री थीं, देहली में लाला बुधसिंहजी जौहरी के सुपुत्र ला. हीरालालजी के साथ सं. 1951 में विवाह हुआ, पतिवियोग के पश्चात् 36 वर्ष की उम्र में द्रौपदांजी महाराज के पास दीक्षित हुईं। आपने 25 सूत्रों का अभ्यास किया था, आप अत्यंत विदुषी धर्मप्रभाविका साध्वी थीं। 6.3.2.40 श्री शीतलमतीजी (सं. 1977) आप केकड़ी (राज.) के उच्च माहेश्वरी परिवार के सेठ भोलानाथ की कन्या थीं, 9 वर्ष की उम्र में आपका विवाह सेठ लक्ष्मीनारायणजी से हुआ, उसी वर्ष उनका देहान्त हो जाने से सं. 1977 को 27 वर्ष की उम्र में धनदेवीजी के पास दीक्षित हो गईं। आप विनयवान व विदुषी साध्वी थीं। आपकी एक शिष्या हैं-उपप्रवर्तिनी श्री कैलाशवतीजी।।36 6.3.2.41 श्री धर्मवतीजी (सं. 1977) आप पुरपांची जि. रोहतक के चौधरी रामबक्श जाट की सुपुत्री थीं। छः वर्ष की उम्र में ही आपका विवाह हो गया, 8 वर्ष की थीं तब किसी साधु के इन वचनों को श्रवण कर कि 'जो मनुष्य धर्म नहीं करता उसे 84 लाख जीवायोनि में परिभ्रमण करना पड़ता है' आप संसार से विरक्त हो गईं। परिवारीजनों के बहुत समझाने पर भी मार्गशीर्ष कृ. 10 सं. 1977 में आपने श्री मोहनदेवीजी के पास दीक्षा ग्रहण कर ली। 19 वर्ष की आयु में 133. संयम गगन की दिव्य ज्योति, पृ. 225 134. साधना पथ की अमर साधिका, पृ. 135 135. महासती द्रौपदांजी का जीवन चरित्र, पृ. 207 136. वही, पृ. 208 581 Page #644 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन श्रमणियों का बृहद इतिहास हैजे के रोग से ग्रस्त होकर दीक्षा के 15वें दिन ही स्वर्गवासिनी हो गईं। आपके विचार अत्यंत शुभ और उत्कृष्ट थे, प्रतिसमय संसार के दु:खों से छूटने का उपाय ही सोचती रहती थीं।137 6.3.2.42 श्री रोशनमतीजी (सं. 1980-2028) आप जम्मू के लाला लधुशाहजी ओसवाल की सुपुत्री थीं, माता का नाम कृपादेवी था, सं. 1947 में आपका जन्म हुआ एवं विवाह स्यालकोट के प्रसिद्ध लाला पन्नाशाहजी के पुत्र ला. देशराजजी से हुआ। आप जम्मू के प्रसिद्ध ला. काकूशाहजी जौहरी की भतीजी थीं। पतिवियोग के पश्चात् वैराग्य भाव से सं. 1980 ज्येष्ठ शुक्ला 3 को रावलपिण्डी में दीक्षित होकर श्री मोहनदेवीजी की शिष्या बनीं। आप स्वावलम्बी जीवन में विश्वास करने वाली, गंभीर, साहसी एवं विदुषी साध्वी थीं। आपकी दो शिष्याएँ हुई-श्री हुक्मदेवीजी महाराज एवं पंजाब सिंहनी प्रवर्तिनी श्री केसरदेवीजी महाराज।138 6.3.2.43 महार्या श्री सौभाग्यवतीजी (सं. 1983-2024) 'चंदा' आपके पिता लूनकरणसरजी संचेती व मातेश्वरी दानीबाई थी। संवत् 1957 में आपका जन्म हुआ 6 भाइयों की इकलौती लाडली बहन थी, 12 वर्ष में विवाह व वैधव्य ने आपके चिन्तन को संयम पथगामिनी बनाया, माघ शुक्ला पूर्णिमा संवत् 1973 में आप श्री धनदेवीजी की शिष्या बनी। आपने दीक्षा से पूर्व ही मासखमण कर तप को जीवन का अभिन्न अंग बना लिया। ज्योतिषज्ञान के साथ आप निर्मल प्रज्ञासंपन्न साध्वी थीं। एकबार गोचरी के लिये छोटी साध्वीजी के साथ गई। आप नीचे ही खड़ी रही, जब वह साध्वी आहार लेकर नीचे उतरी तो आपने कहा-'कौशल्या! तू यहां से तीन रोटी और एक मीठा पूआ लाई है न?' उनकी मतिज्ञान की निर्मलता को देखकर साध्वीजी हैरान रह गईं। आचरण की आप बड़ी पक्की व संयमशील थीं। संवत् 2024 में लुधियाना में आपका स्वर्गवास हुआ। आपकी दो शिष्याएँ हैं-उपप्रवर्तनी श्री सीताजी, उपप्रवर्तिनी कौशल्या जी।।39 6.3.2.44 श्री हुक्मदेवीजी (सं. 1983-36) श्री हुक्मदेवीजी महाराज का जन्म वि. सं. 1973 मेरठ जिले के निसौली ग्राम में हुआ। तीन वर्ष की अल्पायु में ही माता भगवानदेवीजी का स्वर्गवास हो गया। पिता प्रभुदयालजी ने मातृसुख से वञ्चित बालिका को श्री पानकंवरजी महाराज के चरणों में समर्पित कर दिया। संवत् 1983 माघ शुक्ला पूर्णिमा के दिन व्याख्यान वाचस्पति पंडित श्री मदनलालजी महाराज के मुखारविन्द से संयमी जीवन अंगीकार कर आपने सर्वविरति चारित्र पर कदम रखा, कि अगले वर्ष की उसी माघ पूर्णिमा के दिन इनकी श्रद्धेया गुरूणीजी भी अपनी जीवन यात्रा पूर्ण कर देवलोक की ओर प्रयाण कर गईं, ये अकेली रह गई। देहली में विराजमान महासती मोहनदेवीजी को पता लगा, तो वे इस बाल साध्वी को अपने पास ले आये, और श्री रोशनदेवीजी की शिष्या के रूप में इन्हें स्थापित किया। आपके साधनामय जीवन की वास्तविक शुरूआत यहीं से हुई। आप प्रज्ञासंपन्न थीं, स्वयं धर्म की गहराई में पहुंचकर तत्वों के मर्म को समझतीं, और अपने पास में आने वाले बच्चों व महिलाओं में धर्म के संस्कार भरती 137. वही, पृ. 208 138. वही, पृ. 209 139. उपप्रवर्तनी श्री कौशल्यादेवीजी जीवन दर्शन, पृ. 52 Page #645 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्थानकवासी परम्परा की श्रमणियाँ थीं। "दिव्यविभूति महासती मोहनदेवीजी महाराज का जीवन-दर्शन' आपने ही लिखा है। आप एक अच्छी काव्य रचनाकार भी हैं। सैंकड़ों गीत भजन, पद्य आपके बने हुए हैं। वे 'जैन मोहन पुष्पलता' के नाम से संवत् 1997 में रावलपिंडी से प्रकाशित हुए हैं। आपकी सत्प्रेरणा से 'मोहनदेवी जैन सिलाई शिक्षण केंद्र' दिल्ली में चल रहा है। इस समिति के द्वारा निःशुल्क नेत्र-शिविरों का वर्ष में दो बाद आयोजन किया जाता है, जिसमें हजारों व्यक्ति नेत्र-ज्योति प्राप्त करते हैं। इसी प्रकार 'महासती मोहनदेवी जैन पुस्तकालय, वाचनालय, स्वाध्याय मंडल एवं साप्ताहिक महिला-सत्संग की योजनाएं भी आप से प्रेरित होकर अनवरत च आप की एक शिष्या हैं-उ. प्र. श्री स्वर्णाजी।।40 6.3.2.45 श्री पद्मश्रीजी (सं. 1984) __ आप देहरादून के सेठ मनसबरायजी की पुत्री एवं सुनाम निवासी साधुरामजी की धर्मपत्नी थी, पति के देहावसान के पश्चात् सं. 1984 को मालेरकोटला में महासती हुक्मदेवीजी के पास दीक्षा ग्रहण कर ली। आपने आगमों का खूब स्वाध्याय किया, बेले, तेले, पंचोले, आठ, दस, ग्यारह, पंद्रह तप भी किया, महीने में पांच-छह उपवास तो करती ही थीं। कंठ बड़ा सुरीला था, शास्त्र के आधार पर ही प्रवचन करती थीं। तीतरवाड़ा में 52 वर्ष की उम्र में इनका स्वर्गवास हुआ। इनकी दो शिष्याएँ थीं-उपप्रवर्तिनी श्री पवनकुमारीजी एवं श्री सत्यवतीजी।।41 6.3.2.46 श्री मनोहरमतीजी (सं. 1984) आप भवानी (हिसार) के लाला फकीरचंदजी ओसवाल की सुपुत्री थीं, आपका विवाह दादरी में ला. शेरसिंहजी रईस के लघु भ्राता डालूरामजी से हुआ, उनके स्वर्गवास के पश्चात् सं. 1984 में चैत्र शु. 5 को दादरी में ही दीक्षा अंगीकार कर श्री शीतलमतीजी की शिष्या बनीं। आपने अपनी एकमात्र प्रिय पुत्री का मोह त्याग कर दीक्षा ग्रहण की थी। श्रमणियों की त्यागवृत्ति का यह अनूठा उदाहरण आपके जीवन में दृष्टिगोचर होता है, आपकी तीन शिष्याएँ बनी-श्री सुदर्शनाजी, श्री तिलकाजी श्री जगदीशमतीजी, तिलका जी की एक शिष्या थी-प्रकाशवतीजी।।42 6.3.2.47 श्री सुदर्शनावतीजी (सं. 1986 के पश्चात्) आप चरखी दादरी के सुप्रसिद्ध चौधरी रामप्रसादजी ओसवाल रईस की सुपुत्री थीं, आपका जन्म सं. 1959 माघ मास में हुआ। आपका विवाह सं. 1972 को हुआ। पतिवियोग के पश्चात् आप संवत् 1986 आषाढ़ शुक्ला 5 को दीक्षित होकर श्री मनोहरमतिजी की शिष्या बनीं। आप की शिष्या फूलमतीजी थीं।143 6.3.2.48 उपप्रवर्तिनी श्री जगदीशमतीजी (सं. 1987) आपका जन्म वि. सं. 1979, चैत्र शुक्ला प्रतिपदा के दिन अलवर में हुआ। आपके पिता लाला धर्मचंदजी जैन जौहरी होने के साथ-साथ रियासत अलवर महाराजा के दीवान भी थे, माता का नाम रामाबाई था। जब आप 140. महासती केसरदेवी गौरव ग्रंथ, पृ. 378 141. संयम गगन की दिव्य ज्योति, पृ. 226-35 142. महासती द्रौपदांजी का जीवन चरित्र, पृ. 211 143. वही, पृ. 211 583 Page #646 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन श्रमणियों का बृहद इतिहास पांच वर्ष की थी, तब आपकी दादीजी अपनी भानजी ( महासती मनोहरमती जी ) के दीक्षोत्सव पर दादरी में महासती द्रोपदांजी महाराज के पास गई और वहीं पर आपको नवदीक्षिता महासती मनोहरमतीजी के चरणों में अर्पित कर दिया। आपने लाला गन्नूमलजी के यहां रहकर विद्याध्ययन किया और आठ वर्ष की अल्पायु में संवत् 1987 मृगसिर शुक्ला 10 को चिराग दिल्ली में प्रव्रज्या अंगीकार की। आप उच्चकोटि की शास्त्रज्ञाता थीं। अनेक शास्त्र एवं स्तोक आपको कंठस्थ थे। आपका उपदेश एवं व्याख्यान भी अतीव सरस व प्रभावशाली था। आपकी 4 शिष्याएँ हैं - श्री कृष्णाजी, श्री रमेशकुमारीजी, श्री कमलजी, श्री संतोषजी । 144 6.3.2.49 श्री रायकलीजी (सं. 1988-2058 ) आपका जन्म खानपुर (पंजाब) में श्री बरकतरायजी के घर हुआ। साधु-साध्वियों के प्रति आकर्षण ने आपको 11 वर्ष की उम्र में संसार की आसक्ति का त्याग करवा कर जिनधर्म में दीक्षित कर दिया। आप स्वभाव से सरल एवं विनम्र थीं, सेवा की भावना तो आपमें कूट-कूट कर भरी हुई थी आप की दो शिष्याएँ बनीं - श्री सरलादेवीजी एवं श्री सुशीलाजी । श्री सुशीला जी दृढ़ वैराग्यशीला साध्वी थीं, 32 वर्ष की उम्र में पतिवियोग के पश्चात् छपरौली में सं. 2018 में दीक्षित हुईं। ये सहिष्णु, मधुरभाषिणी, विनम्र व सेवापरायणा थीं। 145 6.3.2.50 श्री फूलवतीजी (सं. 1989-2035 ) आप सोजत निवासी ओसवालवंशीय श्री बिशनदासजी मेहता की सुपुत्री थीं, दिल्ली के लाला धन्नामल जी सुजन्ती से आपका विवाह हुआ, उनसे एक पुत्री श्रीमती नगीनादेवी चौरड़िया का जन्म हुआ, जो स्वाध्यायप्रेमी महिला हुईं। पतिवियोग के पश्चात् फूलवतीजी सुदर्शनाजी के पास संवत् 1989 ज्येष्ठ कृष्णा अष्टमी को दीक्षित हुईं। आप संयमनिष्ठ क्रियाशील जागरूक साध्वी थीं, जीवन के अंतिम वर्षों में दिल्ली पत्तलगली में वर्षों तक स्थिरवासिनी रहीं। 85 वर्ष की उम्र में तीन दिन के संथारे के साथ 21 अप्रेल 1977 को स्वर्गवासिनी हुईं। 146 6.3.2.51 श्री हर्षावतीजी (सं. 1990 ) आपकी दीक्षा संवत् 1990 मिगसर सुदी 5 को 12 वर्ष की लघुवय में श्री पन्नादेवीजी के पास हुई। आपकी आवाज बड़ी सुरीली व मीठी थी। पंजाब में सर्वत्र आप ' भारत कोकिला' के नाम से प्रसिद्ध थीं। आपकी स्वर - लहरियों से आकर्षित होकर राह पर चलते लोग स्थानक में आकर बैठ जाते थे। आपकी शिष्या अशोक कुमारी जी (सं. 2007) एवं अशोक कुमारी जी की शिष्या श्री स्नेहलताजी (सं. 2016) देहली के लाला छुट्टनमल जी वकील की सुपुत्री थीं। आपकी शांति, गंभीरता, आगमज्ञता व सेवाभावना की सभी बड़ी प्रशंसा करते हैं। 147 6.3.2.52 उपप्रवर्तनी श्री सत्यवतीजी (सं. 1992-2051 ) महास्थविरा, श्री सत्यवतीजी महाराज का जन्म वि. सं. 1966 झिंझाणा (मुजफ्फरनगर) में सेठ श्री 144. वही, पृ. 212 145. साधना पथ की अमर साधिका, पृ. 135 146. उ. प्र. श्री कौशल्यादेवी जीवन दर्शन, पृ. 40 147. साधना पथ की अमर साधिका, पृ. 136 584 Page #647 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्थानकवासी परम्परा की श्रमणियाँ धर्मचन्दजी गुप्ता के यहां हुआ था। आप विवाह के कुछ ही समय पश्चात् विधवा हो गईं। बचपन से ही साधु संगति करना, गीता-रामायण, श्रीमद्भागवत का पाठ करना या सुनना आपको अत्यंत प्रिय था। अतः श्री पन्नादेवी जी महाराज के सत्संग से आपका मुमुक्षु मन शीघ्र ही विरक्त हो गया। और तीतरवाड़ा ग्राम में वि. सं. 1992 माघ शुक्ला तृतीया के दिन दीक्षा अंगीकार की। आप प्राकृत, संस्कृत, हिंदी, अंग्रेजी, उर्दू, फारसी, गुजराती आदि भाषाओं की ज्ञाता थीं। तथा सतत अप्रमत भाव से स्वाध्याय, जप-तप आदि में संलग्न रहती थीं, फाल्गुन शुक्ला चतुर्दशी, सं. 2051 में आपका स्वर्गवास हुआ।148 आपकी शिष्याओं का परिचय तालिका में देखें। 6.3.2.53 उपप्रवर्तिनी श्री अभयकुमारीजी (वि. सं. 1993-2051) आपने फिरोजपुर जिले के जीरा ग्राम में श्री मुंशीरामजी जैन के घर जन्म लिया। श्री चन्दाजी महाराज के उपदेश से सं. 1993 दिल्ली चांदनीचौंक में दीक्षा अंगीकार कर श्री लज्जावतीजी की शिष्या बनीं। आप अत्यन्त सरल और सादगीपूर्ण विचार वाली थीं। आप एवं उपप्रवर्तिनी श्री सावित्रीजी महाराज दोनों बहिनें थी। श्री शांताजी, पद्माजी, श्री मीनाजी आपकी शिष्याएँ हैं और कांताजी, श्री मुक्ताजी, श्री मंजूषाजी, श्री महकजी श्री मनीषाजी, श्री सुमन जी प्रपौत्र शिष्याएँ हैं। श्री सावित्रीजी की एक शिष्या हैं-श्री उमेशजी, ये बड़ी विदुषी साध्वी हैं, इनकी जीवन विज्ञान भाग 1-4 व प्रश्नों के सीप समाधान के मोती आदि तत्त्वज्ञान से संबंधित पुस्तकें लुधियाना से प्रकाशित हुई हैं उमेशजी की तीन शिष्याएँ हैं-श्री वीणाजी, श्री सुनीताजी, श्री शालूजी।'49 6.3.2.54 श्री श्रीमतीजी (सं. 1993-2020) आपका जन्म 'खेवड़ा' (हरियाणा) में वि. सं. 1974 को श्री जगराम चौधरी मनियारी व्यवसायी के यहां हुआ, एवं शादी रोहतक में हुई। श्री पन्नादेवीजी महाराज के सत्संग से वैराग्य का बीज अंकुरित हुआ तो सं. 1993 ज्येष्ठ कृ. 3 के दिन 16 वर्ष की उम्र में गणी श्री उदयचंद्रजी महाराज से दीक्षा अंगीकार करली एवं हुक्मदेवीजी की शिष्या बनीं। आप बहुभाषविद् थीं, 8 से 11 तक और 15, 21, 23 आदि के थोक व कई अठाइयाँ की। सं. 2020 माघ कृ. 14 को जीन्द में आपका स्वर्गवास हुआ।50 6.3.2.55 उपप्रवर्तिनी श्री प्रेमकुमारीजी (सं. 1994 से वर्तमान) परम विदुषी, महासती श्री प्रेमकुमारीजी का जन्म वि. सं. 1997 कार्तिक शुक्ला त्रयोदशी के दिन हरियाणा प्रान्त के एक छोटे से ग्राम 'अट्टा चौरासी' में हुआ। आपकी माता का नाम श्रीमती सरस्वती देवी एवं पिता का नाम श्री रिशालसिंह चौधरी था। नौं वर्ष की उम्र में ही साध्वी शिरोमणि श्री पन्नादेवी जी महाराज (टुहाना वाले) के सान्निध्य में वैराग्य की प्राप्ति हुई, एवं वि. सं. 1994 में उन्हीं के पास बड़ौत मंडी में दीक्षा अंगीकार की। आप संस्कृत, प्राकृत, हिंदी उर्दू आदि भाषाओं के साथ जैनधर्म आगम-शास्त्र, न्याय-व्याकरण आदि की भी अध्येता हैं। 15 वर्ष की आय से ही प्रवचन करना प्रारंभ कर दिया। आज आप स्थानकवासी: 148. संयम गगन की दिव्य ज्योति, पृ. 240 149. महासती केसरदेवी गौरव ग्रंथ, पृ. 393 150. संयम गगन की दिव्य ज्योति, पृ. 242-43 585 Page #648 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन श्रमणियों का बृहद इतिहास व्याख्यात्री, मधुर गायिका एवं कवियत्री के रूप में प्रतिष्ठित हैं। आपश्री का विहार क्षेत्र हरियाणा, उत्तरप्रदेश, राजस्थान व दिल्ली रहा है। 51 आपकी शिष्याओं का परिचय तालिका में दिया गया है। 6.3.2.56 श्री सीताजी (सं. 1994 से वर्तमान ) मधुरभाषिणी, कवयित्री महासती श्री सीताजी का जन्म गुजरांवाला ( पाकिस्तान) में संवत् 1973 की कार्तिक कृष्णा त्रयोदशी (धनतेरस) के दिन हुआ। आपके जन्म से पूर्व ही भयंकर वेदना से ग्रस्त आपकी माता रामप्यारी जी ने मन ही मन निश्चय किया कि यदि सुख पूर्वक संतान पैदा हो गई और मैं जीवित रही, तो अपनी संतान को जिनशासन में दीक्षित कर दूंगी। माता की शुभ भावना फलीभूत हुई और पिता कर्मचंदजी की मोहासक्ति को दूर कर माता ने अपनी पूर्वकृत प्रतिज्ञानुसार इन्हें मात्र साढे सात वर्ष की अवस्था में लाहौर में विराजित महासती श्री सौभाग्यवतीजी के चरणों में समर्पित कर दी। लगभग साढ़े चार वर्ष विरक्तावस्था में रहकर 11 वर्ष की आयु में वैशाख शुक्ला 13 सन् 1937 के दिन आप ने संयमी जीवन में प्रवेश किया। आप शास्त्र - मर्मज्ञा, कुशल अनुशासिका व आशु कवयित्री हैं। कंठ में मानों साक्षात् सरस्वती का वास है। साथ आपकी गीत रचना भी अनुपम है। आप जैन- संस्कृति का प्रचार प्रसार करती हुई अद्यतन जन-जन को धर्म मार्ग की ओर अग्रसर कर रही हैं। श्री सीताजी की दो शिष्याएँ हैं- श्री महेन्द्राजी व श्री शिमला जी। महेन्द्राजी की जनकजी एवं उनकी श्री मंजुजी, रंजनाजी, श्री समीक्षाजी, श्री दीपमालाजी एवं प्रगतिजी है। शिमलाजी की सुमित्राजी, संतोषजी, श्री निर्मलाजी, श्री पुष्पाजी, श्री दर्शनाजी एवं श्री आशाजी हैं। श्री सुमित्राजी की तीन शिष्याएँ हैं- श्री उषाजी, डॉ. श्रीसुनीताजी एवं डॉ. सुरभिजी। सुनीताजी की श्री साक्षीजी, डॉ. सुप्रियाजी श्री समृद्धिजी और श्री स्वातिजी श्री सुनिधिजी, श्री सुप्रतिभाजी, श्री सुदीप्ति जी हैं। श्री पुष्पाजी की 5 शिष्याएँ हैं - श्री ममताजी, श्री विजयजी, श्री सुषमाजी, श्री सुधाजी, श्री दिव्याजी । इस प्रकार श्री उप प्रवर्तिनी श्री सीताजी का 31 शिष्या - प्रशिष्या का परिवार है। 152 6.3.2.57 उपप्रवर्तिनी श्री मगनश्रीजी (सं. 1994-2054 ) श्री मगन श्रीजी महाराज का जन्म वि. सं. 1973 की फाल्गुन कृष्णा अमावस्या के दिन हरियाणा प्रान्त के 'राजपुर' ग्राम में हुआ। आपके पिता श्रीमान् चौधरी जीतराम राठी और माता धर्मशीला रजवण कौर थीं। 21 वर्ष की अवस्था में आपने महार्या श्री मथुरादेवीजी ( खद्दरवाले) के पास सं. 1994 वैशाख शुक्ला 3 को स्यालकोट शहर में प्रव्रज्या अंगीकार की। आपने हरियाणा, पंजाब, यू. पी. दिल्ली आदि में परिभ्रमण कर धर्म का खूब प्रचार किया, आपका जीवन अत्यंत सरल एवं यशस्वी था। आपका आचार, उच्चार व विचार एकरूपता लिये हुए था। वाणी ओजस्वी और सूत्रानुसारी थी। पुस्तक, पात्र आदि का अनावश्यक संग्रह आप नहीं करती थीं। नियमित स्वाध्याय आपका व्यसन रहा । साठ वर्ष का संयम पर्याय पालकर सन् 1997 त्रिनगर दिल्ली में आपका स्वर्गवास हुआ । इनके शिष्या परिवार का परिचय तालिका में दिया गया है। 153 151. महासती केसरदेवी गौरव ग्रंथ, पृ. 413 152. वही. पृ. 396 153. वही. पृ. 394 586 Page #649 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्थानकवासी परम्परा की श्रमणियाँ 6.3.2.58 श्री प्रियावतीजी (सं. 1995-2040) आपका जन्म सं. 1970 में शहर रिवाड़ी (हरियाणा) के श्री कुन्दन लाल जी दिगंबर जैन (कपड़े के व्यवसायी) के यहां हुआ, एवं विवाह फिरोजपुर के श्री प्रहलादराय जी जैन स्थानकवासी के साथ हुआ। वैराग्य भाव उत्पन्न होने पर पति, सास, ससुर का त्याग कर सं. 1995 वैशाख शु. 7 के दिन गणि उदयचंदजी महाराज, जैन दिवाकर श्री चौथमल जी म. के द्वारा दीक्षा पाठ पढड़ा, इसी दिन श्री सीता जी व चम्पकमाला जी की भी दीक्षा हुई। आप विनम्र एवं विदुषी थीं। कइयों की जीवन निर्माता थी। अंत में कर्मपुरा, नई दिल्ली में सन् 1983 में आप स्वर्गवासिनी हुईं।।54 इनके शिष्या परिवार का परिचय तालिका में दिया गया है। 6.3.2.59 प्रवर्तिनी श्री केसरदेवीजी (सं. 1995) श्रीकेसरदेवीजी महाराज का जन्म संवत् 1981 'पुरपांची' जिला रोहतक के चौधरी श्री केवलरामजी की धर्मपत्नी छोटीदेवी की कुक्षि से हुआ था। बाल्यावस्था में ही आपकी माता का स्वर्गवास हो गया, अंन्तिम समय आपकी माता की भावना थी कि मेरी लड़की को धर्ममार्ग पर आरूढ़ करना, अतः संवत् 1992 में आपके पिता चौधरी केवलरामजी आपको श्री मोहनदेवीजी के चरणकमलों में शिष्यारूप में भेंट कर गये। सं. 1995 आसोज शुक्ला द्वादशी के दिन आपका दीक्षोत्सव हुश्यारपुर में हुआ। आप पंजाब की परम प्रभावसंपन्ना निर्भीक साध्वी हैं। जम्मू से लेकर मद्रास तक की सुदूर विहार यात्रा कर जैनधर्म की महती प्रभावना करने वाली आप सर्वप्रथम साध्वी हैं, आपके साध्वी परिवार में उच्च शिक्षा प्राप्त ज्ञान गीता व आचरण में अग्रणी साध्वियाँ हैं। साहसी निर्भीक, वचनसिद्ध तेजोमय व्यक्तित्व के कारण हजारों लोगों को धर्म से जोड़ने, व्यसनमुक्त करने में आपका विशिष्ट योगदान रहा है। आप 'पंजाब सिंहनी' के रूप में भारत भर में विख्यात हैं। आपके व्यक्तित्व एवं कृतित्व को उजागर करने वाला गौरव-ग्रन्थ उत्तर भारत की श्रमणियों में सर्वप्रथम प्रकाशित हुआ है। 6.3.2.60 श्री बुद्धिमतीजी (सं. 1996 के लगभग से 2045) श्री बुद्धिमतीजी का जन्म, दीक्षा माता-पिता विषयक जानकारी उपलब्ध नहीं है, इतना ही ज्ञातव्य है कि इन्होंने नौ वर्ष की अल्पायु में दीक्षा ग्रहण की थी, 2045 जून मास में आगरा में स्वर्गवासिनी हुईं। इन्होंने अपने जीवन के अंतिम 50 वर्ष नेत्रहीन अवस्था में व्यतीत किये थे, इस दौरान इनका अधिकांश समय आगरा में ही व्यतीत हुआ, ये महान ख्याति प्राप्त दिव्यदृष्टि सम्पन्न साध्वी थीं, कइयों को इनकी वाणी के चमत्कार देखने को मिले हैं। आगरा में रतनमुनि मार्ग जैन छतरी के समीप पंचकुइयां रोड़ पर इनका पावन समाधि स्थल बना हुआ है। जालन्धर से प्रकाशित "विमल विवेक' पत्रिका के मुखपृष्ठ पर इनका जाप करते हुए चित्र भी दिया गया है। 6.3.2.61 उपप्रवर्तिनी श्री सुन्दरीजी (सं. 1996-2062) आपका जन्म वि. सं. 1972 की भाद्रपद शुक्ला पंचमी तिथि 'संवत्सरी' के शुभ दिवस हरियाणा प्रान्त सोनीपत जिले के राजपुरा ग्राम में हुआ। आपके पिताश्री 'चौधरी ज्ञानसिंह राठी' एवं माता 'श्रीमती भरतोदेवीजी 154. संयम गगन की दिव्य ज्योति, पृ. 246-51 155. महासती केसरदेवी गौरव-ग्रंथ, लेखिका-साध्वी विजयश्री 'आर्या', प्रकाशन-पार्श्व ऑफसैट प्रैस, दिल्ली, 1994 ई. 156. सविता जैन लुधियाना का संस्मरण लेख, विमल विवेक पत्रिका, फरवरी 2005, पृ. 31 587 Page #650 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन श्रमणियों का बृहद इतिहास थी। आपने दृढ़ संयमी, खद्दरधारी श्री मथुरादेवीजी महाराज के पावन सान्निध्य में वैराग्य प्राप्त वि. सं. 1996 में सुनाम नगर में महान समाज सुधारक कवि श्री अमरमुनिजी महाराज से दीक्षा का पाठ पढ़ा। आप 'हरियाणा सिंहनी' के नाम से उत्तर भारत में एक ख्यातनामा साध्वी थीं। सामाजिक रूढ़ियों की समाप्ति पर आप सदा जोर देती रहती थीं। पीड़ित, असहाय, संकटापन्न व्यक्तियों को धैर्य बंधाने में आपकी कतृत्व - कला बड़ी अपूर्व थी । अनेक राजपूत, मुसलमानों को पंच परमेष्ठी का शरणा देकर आपने सप्त कुव्यसनों से मुक्ति दिलाई हैं। साहस, तितिक्षा, बलिदान आपके जीवन के विशिष्ट गुण थे। 'अध्यात्म साधिका सुंदरी अभिनंदन ग्रंथ में आपकी विस्तृत जीवन रेखाएं अंकित हैं। 157 6.3.2.62 उपप्रवर्तिनी श्री कौशल्याजी (सं. 1999 से वर्तमान ) आगम गगनचन्द्रिका, महासती श्री कौशल्याजी का जन्म दिल्ली चांदनी चौंक में वि. सं. 1975 आसोज बदि अष्टमी के दिन हुआ | आपके पिता सेठ कपूरचंदजी मालू दिल्ली के प्रसिद्ध जौहरी थे। माता धर्मपरायणा श्रीमती मेमवतीजी थीं। आपने वि. सं. 1999 आसोज सुदि सप्तमी के दिन गणि श्री उदयचंदजी महाराज से दिल्ली चांदनी चौंक में दीक्षा का पाठ पढ़ा और तपस्विनी महासती श्री सौभाग्यवतीजी की चरण-शरण में संयमी जीवन की शिक्षा प्राप्त की । दीक्षा अंगीकार करने के बाद आपने हिन्दी, गुजराती, पंजाबी, ऊर्दू, अंग्रेजी, संस्कृत व प्राकृत आदि भाषा - ज्ञान के साथ-साथ आचार्य सम्राट् श्री आत्मारामजी महाराज से जैनधर्म का गहन अध्ययन किया। सम्यक्त्व के सोपान, कुसुमाञ्जलि, मुक्ति साधन अमृतवाणी, आगमदीप, नित्य-नियम आदि पुस्तकें आप द्वारा प्रकाश में आई हैं। प्रज्ञा की तेजस्विता, प्रखर प्रतिभा, ज्ञान निर्जरित वाणी, प्रभावशाली उद्बोधन, सरल सुमधुर वाग्मिता, व्यवहार पटुता, कार्यक्षमता, क्रियानिष्ठता, सहिष्णुता, सेवाभाव आपकी निजी विशेषताएं हैं। 158 आपकी शिष्याओं का परिचय तालिका में देखें। 6.3.2.63 तपसूर्या महासाध्वी श्री हेमकंवरजी (सं. 2000 से वर्तमान ) आपका जन्म पंजाब के भटिण्डा जिला रामामण्डी कस्बे में सन् 1924 को अरोड़ावंशीय गुरूमुखमलजी एवं उनकी धर्मपत्नी श्रीमती जयकौर के यहां हुआ। श्री पन्नालालजी म. एवं कवि श्री चन्दनमुनिजी के उपदेशों से प्रभावित होकर आपने 20 वर्ष की यौवनावस्था में महासती श्री मोहनकुंवरजी के सान्निध्य में नगर ' सिरसा ' में संयम अंगीकार किया। दीक्षा के पश्चात् ज्ञानोपासना एवं सेवा-भाव में अग्रणी रहकर वर्तमान में आप तपोसाधना में विश्वकीर्तिमान स्थापित करने वाली महासतीजी हैं। अपने जीवनकाल में अनगिनत अठाईयां, मासखमण तथा 61, 73, 75, 108, 131, 151 और 251 दिन के उपवास कर चुकी हैं। सन् 1998 त्रिनगर दिल्ली में 54 दिन के चौविहारी उपवास के साथ 204 दिन के उपवास तप का कीर्तिमान स्थापित किया है। आचार्यश्री, प्रवर्तक श्री आदि के द्वारा आप समय - समय पर तपोवारिधि, तपमुकुटमणि, तपसूर्या इत्यादि विरूदों से अलंकृत हुई | 159 157. अध्यात्म साधिका सुंदरी अभिनन्दन ग्रन्थः प्राप्ति स्थल- श्री सुरेशकुमार जैन, प्रशांत विहार, दिल्ली, 2003 ई. 158. उ. प्र. कौशल्यादेवी जीवन दर्शन, लेखक - श्री कमलचन्द मालू, जवाहरनगर, दिल्ली, 1996 ई. 159. साध्वी विजयश्री महासती केसरदेवी गौरव ग्रंथ, पृ. 385 588 Page #651 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्थानकवासी परम्परा की श्रमणियाँ 6.3.2.64 उपप्रवर्तिनी श्री आज्ञावतीजी (सं. 2002 से वर्तमान) आप हरियाणा के ग्राम सिंघाना जिला जींद में श्री अर्जुनदास जी जैन की सुपुत्री हैं, 12 वर्ष की लघुवय में ही पट्टी ग्राम अमृतसर (पंजाब) में संवत् 2002 माघ कृष्णा दूज के दिन श्री लाजवन्तीजी के पास दीक्षा ग्रहण की, उससे पूर्व ही गुरूणी का स्वर्गवास हो गया तो आपको राजमतीजी की शिष्या बना दिया। आप प्रखर बुद्धि संपन्न व अनेक भाषाओं की ज्ञाता हैं। आप सहज कवियित्री व लेखिका भी हैं, आपके भजनों की कई पुस्तकें प्रकाशित हुई तथा उपन्यास भी प्रकाशित हैं। आप कुशल वक्ता एवं समर्थ लेखिका हैं। आपकी सद्प्रेरणा से करनाल में श्री चिन्तामणि जैन स्वाध्याय सदन का निर्माण हुआ है।160 6.3.2.65 उपप्रवर्तिनी श्री कैलाशवतीजी (सं. 2002 से 2061) श्री कैलाशवतीजी महाराज का जन्म हरियाणा प्रान्त की हरी-भरी धरती 'हिसार' में वि. सं. 1947 की ज्येष्ठ शुक्ला नवमी को हुआ। आपके पिता श्रीमान् माडूमलजी जैन तुषाम निवासी' थे। माता का नाम श्रीमती भुल्लाबाई था। बाल्यावस्था में ही आपने भाई के देहावसान का निमित्त पाकर संयम मार्ग पर बढ़ने का निश्चय कर लिया। उस समय परिजनों ने आपको ताले में बन्द कर दिया, अनेक कठोर परीक्षाओं में विजय प्राप्त कर अंत में परिवारीजनों की आज्ञा प्राप्त कर महासती श्री धनदेवीजी महाराज के चरणों में वि. सं. 2002 की वैशाख कष्णा दूज को 'भिवानी' शहर में दीक्षा अंगीकार की। आप आगम-मर्मज्ञा एवं संस्कृत, प्राकृत हिंदी, उर्दू, पंजाबी, गुजराती आदि अनेक भाषाओं की जानकार थीं। आपका जीवन त्याग का सागर व गुणों का आकार था। आपके द्वारा संग्रहित 'कैलाश स्वाध्याय जान गटका. जैनधर्म का अनमोल खजाना. तप की महकती कलियाँ, कैलाश की गूंज, महिमा मंडित मथरा, संयम-सरभि आदि पुस्तकें प्रकाशित हैं। "श्रीकैलाश कल्पद्रम" नाम से एक अभिनन्दन ग्रन्थ श्रद्धालु भक्तों द्वारा आपको समर्पित हुआ है। 61 संवत् 2061 फाल्गुन कृष्णा 3 पानीपत में आपका स्वर्गवास हुआ। आपकी 38 शिष्या-प्रशिष्याएँ हैं उनका परिचय तालिका में देखें। 6.3.2.66 उपप्रवर्तिनी श्री सुभाषवतीजी (सं. 2002-स्वर्गस्थ) श्री सुभाषवतीजी महाराज का जन्म रोहतक जिले के एक छोटे से ग्राम कलावाली गढ़ी में सन् 1915 में एक सम्पन्न वैश्य परिवार में हुआ था। पिता का नाम श्री चेतारामजी जैन एवं माता का नाम श्रीमती पालीदेवी था। बचपन में ही आपकी शादी पानीपत जिले के अन्तर्गत इसराना गांव में श्रीमान मोहनलालजी अग्रवाल के साथ हई। उनसे आपको एक कन्या रत्न की प्राप्ति हई। बालिका जब लगभग अढाई वर्ष की थी. तभी मोहनलालजी का स्वर्गवास हो गया, उसके पश्चात् आपने वैशाख कृष्णा द्वितीया संवत् 2002 को जालन्धर में प्रवर्तिनी श्री राजमतीजी की शिष्या श्री रतनदेवी जी के पास दीक्षा अंगीकार की। आपकी सुपुत्री भी श्री प्रवेशकुमारीजी के नाम से विख्यातनामा साध्वी हुई। हैं। पंजाब की सम्माननीया साध्वी वृन्द में आपका आदरणीय स्थान था। संयम-साधना में तल्लीन रहना आपका लक्ष्य रहा। श्री प्रवेशकमारीजी और श्री प्रभाज्योतिजी ये दो आपकी शिष्याएँ हैं। प्रवेशकुमारीजी की शिष्याएँ घोरतपस्विनी श्री मोहनमालाजी, श्री शांतिजी, पवित्रज्योतिजी श्री मंजुज्योतिजी श्री पूजाज्योतिजी हैं। पूजाज्योतिजी की श्री दीप्तिजी और श्री कीर्तिजी दो शिष्याएँ हैं। 62 160. महासती केसरदेवी गौरव ग्रंथ, पृ. 404 161. प्रमुख संपा.-डॉ. हरीशकुमार वर्मा, सुश्रुत प्रकाशन दिल्ली-92, ई. 2004 162. महासती केसरदेवी गौरव ग्रंथ, पृ. 405 589 Page #652 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन श्रमणियों का बृहद इतिहास 6.3.2.67 श्री राजेश्वरीजी (सं. 2003-51) आपका जन्म सं. 1975 में जम्मू निवासी श्री अमरचंदजी नाहर एवं माता लद्धादेवीजी के यहां हुआ। 28 वर्ष की अवस्था में पंजाब केसरी श्री प्रेमचन्दजी महाराज से दीक्षा पाठ पढ़कर अंबाला में संयम अंगीकार किया। आप श्री मोहनदेवीजी महाराज की शिष्या बनीं। आप अतीव पुरूषार्थी, आगम विज्ञाता व दृढ़ संयमी थीं। 21-21 आयंबिल, कई अठाइयाँ, ओलीतप, आदि साधना में सदा संलग्न रहती थीं। आपकी प्रेरणा से अनेक स्थानकों का निर्माण हुआ, सिलाई शिक्षा केन्द्र, महिला मंडल, कन्या मंडल आदि की स्थापना हुई, अनेक युवकों को व्यसन मुक्त करवाकर सन्मार्ग की ओर प्रेरित किया। महिलाओं में कुप्रथाओं का अंत करवाया, कई श्री संघों में आपसी विरोध को मिटाकर प्रेमभाव स्थापित करवाया। आपको वचनसिद्धि भी प्राप्त थी। संवत् 2051 जनवरी 6 को जालंधर शहर में आपका समाधिमरण हुआ। आपकी दो शिष्याएँ हैं-श्री सुलक्षणा जी, श्री प्रमोदजी163 6.3.2.68 महाश्रमणी श्री कौशल्यादेवीजी (सं. 2003-60) पूज्या गुरूवर्या श्री कौशल्यादेवी जी महाराज का जन्म आषाढ़ वदी अष्टमी, संवत् 1975 को 'लाहौर' (पाकिस्तान) में हुआ। आपके पिता लाला खैरातीलालजी जैन एवं माता श्रीमती तारादेवीजी थीं। पूर्वभव के सुसंस्कारों से इस कन्या को पंजाब प्रवर्तक श्री शुक्लचंदजी म. द्वारा अध्यात्म बोध हुआ और माता-पिता के जटिल मोह बंधनों को अपने अनासक्त त्याग भाव से तोड़कर पंजाब सिंहनी केसरदेवी जी के पास सं. 2003 चैत्र कृ. 5 को पटियाला में दीक्षा अंगीकार की। आप संपूर्ण जैन समाज में एक शांत स्वभावी आत्मार्थिनी साध्वी के रूप में प्रसिद्धि प्राप्त थीं। आपने श्वेताम्बर परम्परा मान्य 32 आगमों का एवं दिगम्बर परम्परा मान्य विभिन्न शास्त्रों का तलस्पर्शी अध्ययन किया। स्वाध्याय और ध्यान के आलम्बन से अपनी आत्मा के सहज शांत स्वभाव को प्रकट करने का भी निरंतर उद्यम किया। अतः आप 'अध्यात्मयोगिनी महाश्रमणी' के नाम से वि,यात हुईं। अपनी 57 वर्ष की दीक्षा पर्याय में आपने अपनी गुरूणी श्री केसरदेवीजी के साथ पंजाब से लेकर सुदूर मद्रास तक हजारों कि. मी. की पद-यात्रा करके लाखों भारतवासियों को अहिंसात्मक ढंग से जीवन जीने की कला सिखाई। आपश्री के व्यक्तित्व की झांकी 'अध्यात्मयोगिनी महाश्रमणी' ग्रंथ में अंकित है। 64 दिल्ली वीरनगर में उत्कृष्ट वेदनीय कर्म को उत्कृष्ट समता के साथ भोगकर आप 26 नवम्बर सन् 2003 को स्वर्गप्रयाण कर गई। आपके स्वर्गवास पर अ. भा. जैन कांन्फ्रेंस की मुखपत्रिका 'जैनप्रकाश' ने 'महासती कौशल्यादेवी विशेषांक' प्रकाशित किया जो किसी श्रमणी के लिये निकला सर्वप्रथम विशेषांक था।65 आपकी 5 शिष्याएँ हैं-श्री विमलाश्रीजी, डॉ. सरोजश्रीजी, डॉ. श्री मंजुश्रीजी, श्री विजयश्रीजी, श्री भारतीश्रीजी। 6.3.2.69 श्री सरलादेवीजी (सं. 2004 से वर्तमान) वर्तमान में अर्हत् संघ की उपाचार्या साध्वी सरलादेवीजी श्री पन्नादेवीजी के परिवार की विदुषी साध्वी हैं। इनका जन्म आगरा में श्री पुष्पचंदजी जैन व माता कमलादेवीजी के यहां हुआ, बचपन में ही माता-पिता के 163. वही, पृ. 380 164. लेखिका-साध्वी विजयश्री 'आर्या', प्रका. पार्श्व ऑफसेट प्रैस, दिल्ली-7, ई. 1994 165. जैन प्रकाश, 2003 दिसम्बर अंक 590 Page #653 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्थानकवासी परम्परा की श्रमणियाँ परलोकवासी हो जाने पर इनके चाचाजी ने इस सहज प्रतिभावंत बालिका को श्री पन्नादेवीजी के श्रीचरणों में समर्पित कर दिया। संवत् 2004 वैशाख शुक्ला पंचमी के शुभ दिन लुधियाना में आचार्य सम्राट् श्री आत्मारामजी महाराज से दीक्षा पाठ पढ़कर ये श्री रायकलीजी की शिष्या घोषित हुईं। अपनी प्रत्युत्पन्न मेधा से इन्होंने जैन सिद्धान्ताचार्य की सर्वोच्च परीक्षा उत्तीर्ण की। इनकी प्रवचन शैली अति प्रभावपूर्ण है। श्री पन्नादेवीजी महाराज इनके वैदुष्य के कारण इन्हें अपना ‘मंत्री' कहते थे। इन्होंने 'साधना पथ की अमर साधिका' में श्री पन्नादेवीजी का जीवन चरित्र साहित्यिक व परिमार्जित भाषा शैली में अति सुन्दर ढंग से प्रस्तुत किया है। ये ज्योतिष आदि विद्याओं में निष्णात सरल स्वभावी विनम्र प्रकृति युक्त व्यक्तित्व की धनी हैं। अर्हद् संघाचार्य श्री सुशीलमुनिजी के संघ में सम्मिलित होती हुई भी ये कठोर नियमों की मनसा अनुमोदना करती हैं। श्री सरलादेवीजी की दो शिष्याएँ हैं-उपप्रवर्तिनी श्री कुसुमलताजी तथा डॉ. साध्वी श्री अर्चनाजी।।66 6.3.2.70 उपप्रवर्तिनी श्री पवनकुमारीजी (सं. 2005-60) साध्वीरत्न श्री पवनकुमारीजी का जन्म हरियाणा प्रान्त के एक छोटे से ग्राम 'देहरा' में हुआ। आपके पिता का नाम लाला चिरंजीलालजी जैन था एवं माता का श्रीमती ज्ञानमतिजी था। आपने बाल्यकाल में ही श्री हुकमदेवीजी महाराज की शिष्या श्री पदम्श्रीजी महाराज के सदुपदेशों से प्रभावित होकर 13 वर्ष की उम्र में दीक्षा अंगीकार की। आप संस्कृत प्रकृत, हिंदी, आगमज्ञान आदि की ज्ञाता थीं। आपकी प्रवचन शैली बड़ी मधुर व आकर्षक थी। आपकी सद्प्रेरणा से दिल्ली सरकार के शिक्षा विभाग से मान्यता प्राप्त जैन साध्वी पद्मा विद्या निकेतन दिल्ली शक्तिनगर में स्थापित हैं, जहां हजारों विद्यार्थी शिक्षा प्राप्त कर चुके हैं। एवं सैंकड़ों महिलाएं सिलाई की शिक्षा प्राप्त कर चुकी हैं। दि. 8 सितम्बर ई. 2004 को आपका स्वर्गवास शक्तिनगर एक्सटेंशन के जैन स्थानक में हुआ। 67 6.3.2.71 उपप्रवर्तिनी श्री स्वर्णकान्ताजी (सं. 2005-205) ___ जैन ज्योति महासती श्री स्वर्णकांताजी का जन्म 'लाहौर' (पाकिस्तान) में 26 जनवरी सन् 1921 में हुआ। आपके पिता लाला खजानचंद्रजी जैन एवं माता श्रीमती दुर्गादेवीजी थीं। एक बार बचपन में आपकी टांग पर एक फोड़ा निकल आया, अनेक वैद्य बुलवाए, औषध व मंत्रोच्चार से भी फोड़ा ठीक नहीं हआ तो अनाथीमुनि की तरह आपके हृदय में ये विचार उद्भुत हुए कि 'अगर मेरा फोड़ा ठीक हो गया, तो मैं साध्वी दीक्षा अंगीकार कर लूंगी।' हुआ भी वैसा ही, फोड़ा ठीक हो गया और परिवार वालों की ओर से आने वाले मोह के अनेक अवरोधों को अपनी आत्मशक्ति से पराजित कर अन्ततः जालंधर छावनी में 27 अक्टूबर 1949 को प्रवर्तिनी श्री राजमतीजी के सान्निध्य में आप साध्वी श्री पार्श्ववतीजी के पास दीक्षित हो गईं। आप जैन शासन की एक ज्योतिर्मयी साध्वी थीं। पंजाब जैन साहित्य की प्रेरिका एवं मानव धर्म की उपदेशिका थीं। अंबाला जालन्धर, सुनाम आदि अनेक ग्रन्थ भंडारों की सुव्यवस्था करना, पंजाब के लोगों में ज्ञान पिपासा जागृत हो, इसके लिये 40 पुस्तकों का पंजाबी भाषा एवं लिपि में लेखन व सम्पादन कार्य करवाना निरयावलिकादि प्राचीन अप्रकाशित सूत्रों का संपादन कर 166. डॉ. साध्वी सुभाषा, श्री कुसुमाभिनन्दनम्, पृष्ठ 172 167. महासती केसरदेवी गौरव ग्रंथ, पृ. 408 Page #654 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन श्रमणियों का बृहद इतिहास प्रकाशित करवाना यह सब आपके साहित्यिक प्रेम को दर्शाता है। इतना ही नहीं, आपने जैन आगम साहित्य पर शोधरत विद्वानों को प्रोत्साहित करने के लिये 'इंटरनेशनल पार्वती जैन अवार्ड' की स्थापना कराई, शाकाहार व अहिंसा के प्रचार हेतु सेठ नाथूराम कुनेरा की स्मृति में 'इंटरनेशनल महावीर जैन शाकाहार अवार्ड' की प्रेरणा दी। आप पच्चीसौवीं महावीर निर्वाण महोत्सव समिति की संयोजिका एवं अनेक संस्थाओं की प्रेरिका रही हैं 1 168 आपकी शिष्याओं का परिचय तालिका में दिया गया है। 6.3.2.72 श्री शकुंतलाजी (सं. 2006 से वर्तमान) आपका जन्म 'कलैथ' नामक क्षेत्र में पिता श्री भगतरामजी के यहां हुआ । होश्यारपुर में सं. 2006 में आपने दीक्षा ली। आप अहर्निश स्वाध्याय सेवा आदि में संलग्न रहती हैं। 169 6.3.2.73 श्री राजकुमारीजी (सं. 2006 से वर्तमान) आपका जन्म गुजरांवाला (पाकिस्तान) में लाला खैरायती रामजी जैन के यहां हुआ। 19 वर्ष की उम्र में प्रवर्तिनी श्री राजमतीजी महाराज से दीक्षा पाठ पढ़कर आप श्री स्वर्णकान्ता जी की ज्येष्ठ शिष्या बनीं। आप सरल, नम्र एवं तपस्वीनि साध्वी हैं। 170 6.3.2.74 श्री स्वर्णकुमारीजी (सं. 2006 से वर्तमान ) आप लाहौर धर्मनिष्ठ श्रावक लाला लद्धामल जी ( साबुन वाले) की पौत्री व लाला टेकचंदजी की सुपुत्री हैं, आपकी माता का नाम सरस्वतीदेवी था। 18 वर्ष की उम्र में श्री भागमलजी महाराज से दीक्षा अंगीकार कर श्री हुकमदेवीजी की शिष्या बनीं, आप की दीक्षा दिल्ली सदरबाजार में हुई थी, आपकी दीक्षा पर लाला टेकचंद जी ने एक दिन में सामूहिक 1500 आयंबिल करवाये थे। आप विनयवान शास्त्रज्ञ विदुषी साध्वी हैं। आपकी दो शिष्याएँ हैं - श्री प्रवीणजी, श्री निर्मलजी | 171 6.3.2.75 श्री विजेन्द्रकुमारीजी (सं. 2008-54 ) आपका जन्म सं. 1994 ग्राम रिंढाणा (हरियाणा) में श्री परमेश्वरीदासजी जैन के यहां हुआ। आपने सं. 2008 माघ शु. 13 को तीतरवाड़ा (यू.पी.) में श्री प्रियावतीजी के पास दीक्षा अंगीकार की। आप दृढ़ संयमी, अत्यंत सरलमना व अनुशासिता साध्वी थीं। हिंदी, अंग्रेजी, प्राकृत, संस्कृत, पंजाबी, ऊर्दू आदि कई भाषाओं की ज्ञाता थीं। आपके उपदेशों से अनेक लोगों ने उन्मार्ग का त्याग किया। समाज के गरीब वर्ग के प्रति करूणा से प्रेरित होकर निःशुल्क सिलाई कढ़ाई केन्द्र सुलतानपुरी दिल्ली में प्रारंभ करवाया, जैन साध्वी प्रियावती चिकित्सा केन्द्र ( सुलतानपुरी) की भी स्थापना करवाई। अंत में पूर्ण समाधि के साथ न्यू मुलतान नगर दिल्ली में 23 अगस्त 168. प्रमुख संपादिका - साध्वी स्मृति महाश्रमणी अभिनंदन ग्रंथ, खंड -2, पृ. 53-83 169. संयम सुरभि, पृ. 130 170. महाश्रमणी अभिनंदन ग्रंथ, पृ. 53 171. महासती केसरदेवी गौरव ग्रंथ, पृ. 381 592 Page #655 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्थानकवासी परम्परा की श्रमणियाँ 1997 को महाप्रयाण कर गईं। आपकी 5 शिष्याएँ हैं- श्री प्रवीण जी, मंजुलज्योतिजी, निधिज्योतिजी रचिताजी एवं प्रियंकाजी 1 172 6.3.2.76 उपप्रवर्तिनी श्री शशिकांताजी (सं. 2008-2048 ) साध्वी प्रमुखा श्री शशिकांताजी महाराज का जन्म हरियाणा प्रान्त के एक छोटे से ग्राम देहरा में सन् 1936 में हुआ। आपके पिता का नाम श्री माईधनजी जैन और माता का नाम श्रीमती कलावती था। पांच भाई बहनों में आप सबसे छोटी थीं। आपका विवाह झांसी निवासी श्री डिप्टीमलजी जैन के साथ हुआ, किंतु दो वर्ष बाद ही पति का स्वर्गवास हो गया। इस असह्य वज्रपात से आपको गहरी चोट लगी। उन्हीं दिनों महासती श्री श्रीमतिजी महाराज का पधारना हुआ, उनके संपर्क से वैराग्य रस से अनुप्राणित होकर आपने सन् 1952 में कांधला शहर में दीक्षा अंगीकार की। नाम के अनुरूप ही आपने अपनी निर्मल कान्ति का चारों दिशाओं में प्रसार किया। ऐसा कहा जाता है, कि आपके संयमी जीवन में ऐसा समय भी आया, जब अपनी गुरूणीजी के दिवंगत होने पर आप अकेली रह गई थीं, फिर भी आप विचलित नहीं हुई, और अपने दृढ़ मनोबल, त्याग वैराग्यमय जीवन के प्रभाव से विशाल श्रमणी परिवार की प्रमुखा बनीं। अंतिम समय में हृदयरोग से आक्रान्त होक 39 वर्ष की दीक्षा पर्याय के पूर्ण होते-होते दिल्ली अरिहंत नगर में 7 मार्च 1991 बृहस्पतिवार के दिन आप समाधि पूर्वक देहत्याग कर स्वर्गों की ओर प्रयाण कर गई। 173 आपके शिष्या परिवार का परिचय तालिका में दिया गया है। 6.3.2.77 उपप्रवर्तिनी श्री कुसुमलताजी (सं. 2010-62 ) आपका जन्म वि. सं. 1996 बामनोली (उ. प्र.) में श्री विशम्बरदयालजी के यहां हुआ, 12 वर्ष की अल्पायु में व्याख्यान वाचस्पति श्री मदनलालजी महाराज के मुखारविन्द से दीक्षा ग्रहण कर श्री सरलादेवीजी की शिष्या बनीं। आप सदा स्वाध्याय में तल्लीन रहती थीं, सरलता, नम्रता, गंभीरता आपके व्यक्तित्व की अनूठी पहचान थी। 174 संवत् 2062 करनाल रोड पर सड़क दुर्घटना में अकस्मात् ही आप व आपकी पौत्र शिष्या गीतांजलिजी का स्वर्गवास हो गया । 6.3.2.78 श्री विमलाजी (सं. 2011 ) आप चरणदास भाबू टांडा निवासी की पुत्री हैं, संवत् 2011 चैत्र शु. 13 को श्री कौशल्यादेवीजी म. के पास लुधियाना में आप दीक्षित हुईं, आप बड़ी तपस्विनी साध्वी हैं, 3 एकान्तर वर्षीतप 13 अठाइयाँ, प्रतरतप, मासखमण, दो बार पखवाड़ा आदि तप कर चुकी हैं। आप सौम्य व सरल स्वभावी हैं। 75 172. संयम गगन की दिव्य ज्योति, पृ. 252 173. महासती केसर देवी गौ. ग्रं., पृ. 414 174. श्री कुसुमाभिनन्दनम्, प्रका. - आत्म मनोहर जैन संस्कृति केन्द्र, मालेरकोटला, ई. 2004 175. उपप्रवर्तिनी श्री कौशल्यादेवी जीवन-दर्शन, पृ. 102 593 Page #656 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन श्रमणियों का बृहद इतिहास 6.3.2.79 श्री चन्द्रकलाजी (सं. 2012-36) आपका जन्म सींख पाथरी (हरियाणा) ग्राम में वि. सं. 1989 को लाला कश्मीरीलालजी जैन के यहां हुआ। विवाह के कुछ समय बाद ही आप विधवा हो गई, सं. 2012 चैत्र शु. 13 के दिन जैननगर मेरठ में तपस्वी श्री निहालचंदजी म. के श्रीमुख से दीक्षा अंगीकार कर आपने साध्वी जीवन में प्रवेश किया, और पन्नादेवीजी टोहानावालों की शिष्या बनीं। आप अध्ययनशीला संयमी जपी-तपी तो थी ही, साथ ही आपके अन्त:करण में करूणा का अनंत स्रोत था, सन् 1980 जीन्दशहर में विहार के समय रेल की पटरी पर चलती हुई अबोध गाय और सामने आती हुई गाड़ी को देखकर आपका हृदय करूणा से आप्लावित हो उठा, गाय को रेल की पटरी से बाहर किया, किंतु इतनी ही देर में वेग से आती हुई गाड़ी से टकराकर आप नीचे गिर पड़ी और वहीं समाधिपूर्वक मृत्यु को प्राप्त हो गईं। आपका यह प्राणोत्सर्ग दयाव्रती धर्मरूचि अणगार की स्मृति करवाता है, उन्होंने कीड़ियों की करूणा से प्रेरित होकर अपने प्राणों का त्याग किया आपने गाय की करूणा करके अपने प्राणों को दांव पर लगा दिया। 25 वर्ष की संयम-पर्याय में आपने बहुत वर्ष एकांतर बेले, तेले आदि की तपस्या की एवं उग्र संयम का पालन किया। 6.3.2.80 घोरतपस्विनी महासती श्री मोहनमालाजी (2013 से वर्तमान) तप चक्रेश्वरी महासती श्री मोहनमालाजी आज तप और त्याग के क्षेत्र में भारत भर में ही नहीं विदेशों में भी चर्चित हैं। आपका जन्म पंजाब की औद्योगिक नगरी फगवाड़ा में पिता श्री अमरचंद जैन और माता द्रौपदीदेवी के यहां सन् 1939 में हुआ। संयम के संकल्पित महापथ पर बढ़ने की आज्ञा प्राप्त करने के लिये गर्मी की मौसम में तीन-तीन दिन भूखे प्यासे भूसे की कोठरी में व्यतीत कर तथा अनेक कठोर संघर्षों का शूरवीरता से सामना करने के पश्चात्, सगाई के बंधन को तोड़ने में सफल हुई, अंतत: 4 जून 1957 को फगवाड़ा में ही श्री प्रवेशकुमारीजी के चरणों में दीक्षा अंगीकार की। वैराग्यावस्था में ही 8, 13 उपवास कर दिखाने वाली महासती ने अब तो प्रतिवर्ष अठाई, दस इत्यादि करने प्रारंभ किये, 250 प्रत्याख्यानों के कोष्ठक कई बार किये, एक मुट्ठी मुरमुरे के आधार पर 35, 71 आयम्बिल एवं बढ़ते हुए 37 उपवास 112 उपवास किये। संवत् 2055 में 211 उपवास एवं संवत् 2052 में 311 उपवास कर आपने सभी को आश्चर्यचकित कर दिया। इसके अतिरिक्त 153, 145, 205 उपवास भी किये हैं। करूणा और सेवाभावना से ओतप्रोत आपने 'महासती प्रवेशकुमारी जैन चैरीटेबल फीजियोथेरैपी, दंतचिकित्सा, नेत्रचिकित्सा, डिस्पैन्सरी होस्पीटल, धर्मार्थ मिशन शिवाजीपार्क, महासती पन्नादेवी जैन हॉस्पीटल शिवविहार आदि अनेक जनोपयोगी संस्थाओं का निर्माण करवाया है। आपकी 5 शिष्याएँ हैं-श्री आदर्शज्योतिजी, श्री वीनाज्योतिजी, श्री पुनीतज्योतिजी, श्री साक्षीज्योतिजी, श्री आरतीजी।।77 6.3.2.81 श्री प्रवीणकुमारीजी (सं. 2013 से वर्तमान) आपका जन्म संवत् 1987 आषाढ़ शुक्ला 12 स्यालकोट (पंजाब) में श्री नगीनचंद व चम्पादेवी के यहां हुआ। संवत् 2013 माघ शुक्ला पंचमी के दिन चांदनी चौंक दिल्ली में पंडितरत्न श्री त्रिलोकचंदजी महाराज के 176. संयम गगन की दिव्य ज्योति, पृ. 261 177. वही, पृ. 386 594 Page #657 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्थानकवासी परम्परा की श्रमणियाँ श्रीमुख से दीक्षा पाठ पढ़कर श्री स्वर्णकुमारीजी की शिष्या बनीं। दीक्षा के पश्चात् आपने आगम, स्तोक आदि का गहन अध्ययन कर जैन सिद्धान्त शास्त्री परीक्षा भी उत्तीर्ण की। आपकी प्रेरणा से गुड़गांवा में महासती हुक्मदेवी जैन सिलाई शिक्षण केन्द्र की स्थापना तथा अन्य अनेकों लोकमंगलकारी कार्य हुए। 78 6.3.2.82 श्री विमलाश्रीजी (सं. 2014 से वर्तमान) आपका जन्म कैंथल (हरियाणा) सं. 1997 में श्री हरिरामजी अग्रवाल के यहां श्रीमती मामनीदेवी की कुक्षि से हुआ। आपकी बुआजी श्रीमती मायादेवीजी के सम्पर्क से वैराग्य के बीज अंकुरित हुए और शेरे पंजाब श्री प्रेमचंदजी महाराज से दीक्षा पाठ पढ़कर मार्गशीर्ष शु. 14 को आप दीक्षित हुईं। आप अध्यात्मयोगिनी श्री कौशल्यादेवी जी की शिष्या बनीं। आपने पाथर्डी बोर्ड से जैन सिद्धान्ताचार्य, एवं मैसूर विश्व विद्यालय से एम. - ए. की परीक्षा दी। आप स्वभाव से सरल, बुद्धि से प्रखर एवं स्पष्ट वक्ता साध्वी हैं। आपकी दो शिष्याएँ हैं-श्री उर्मिला जी एवं श्री कृपाश्रीजी। उर्मिलाश्रीजी दृढ़ संकल्पी, तपस्विनी तथा सेवाभाविनी साध्वी हैं। इनकी एक शिष्या है-श्री निधिश्रीजी, निधिश्रीजी एवं कृपाश्रीजी दोनों अत्यंत विदुषी प्रखरवक्ता, धर्म प्रभाविका साध्वियाँ हैं। इन दोनों की कई मौलिक कृतियाँ प्रकाशित हैं। जीवन-बोध, जीवन-पाथेय, जीवन डायरी, आपकी राशि आपका समाधान, सुमति माला, सौ बातों की एक बात, जीना आये वह जिंदगी, Solution to Your sunsign, Pseudo persona, Bhaktamar Stotra." 6.3.2.83 डॉ. श्री सरोजश्रीजी (सं. 2014 से वर्तमान) ___ आप देहली चांदनीचौंक निवासी श्री तुरतसिंहजी सुराणा एवं उनकी धर्मपत्नी श्रीमती मेमबाई की सुपुत्री हैं। 15 वर्ष की उम्र में महासती कौशल्यादेवीजी के तप-त्यागमय जीवन से प्रभावित होकर शेरे पंजाब प्रेमचंदजी महाराज से दीक्षा अंगीकार की। आप जैन सिद्धान्त शास्त्री, साहित्यरत्न व एम.ए., पी.एच.डी. हैं। आप हंसमुख प्रकृति की निर्भीक एवं स्पष्टवादी साध्वी हैं आपने 'बनारसीदास व्यक्तित्व व कृतित्व' पर बम्बई वि. वि. से ई0 1989 में पी. एच. डी. की डीग्री प्राप्त की। आपकी कई पुस्तकें प्रकाशित हैं-वास्तविक भाव अनुप्रेक्षा, महावीर दर्शन, नमू अनंत चौबीसी, सन्मति स्वर, प्राज्ञमणियाँ, आप्तमणियाँ, सम्यक्मणियाँ, समाधान के मोती, जननायक महावीर आदि। आपकी दो शिष्याएँ हैं-श्री यशाजी व श्री कौमुदीश्रीजी।180 6.3.2.84 श्री भागवन्तीजी (सं. 2014 से वर्तमान) आप श्री शांतिदेवीजी की ज्येष्ठ भगिनी हैं, आपका विवाह रोहतक निवासी श्री केसरीलालजी से हुआ। पतिवियोग के पश्चात् आपने 27 वर्ष की उम्र में व्याख्यान वाचस्पति श्री मदनलालजी महाराज से दीक्षा पाठ पढ़कर श्री सुन्दरीजी महाराज का शिष्यत्व ग्रहण किया। आप अत्यंत सेवाभावी एवं मधुर स्वभावी साध्वी हैं। आपकी तीन शिष्याएँ हैं - श्री शिक्षा जी, श्री संयमप्रभाजी 'कमल' एवं श्री वंदनाजी।।8] 178-180. परिचय पत्र के आधार पर 181. संयम-सुरभि, पृ. 147 595 Page #658 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन श्रमणियों का बृहद इतिहास 6.3.2.85 श्री प्रमिलाजी (सं. 2016 से वर्तमान) आप स्यालकोट के श्री चिमनलालजी तातेड़ की सुपुत्री हैं, 18 वर्ष की उम्र में पंडित ज्ञानमुनिजी महाराज से दीक्षा पाठ पढ़ा, आपकी वाणी में मिश्री सी मधुरता है, सेवा, आत्मीयता, सहृदयता, करूणा, व्यवहार कुशलता आपके आकर्षक व्यक्तित्व की पहचान है। आप श्री कौशल्याजी म. सा. 'श्रमणी' की शिष्या हैं।182 6.3.2.86 श्री सुलक्षणाजी (सं. 2016 से वर्तमान) संवत् 1992 भाद्रपद कृष्णा द्वादशी को इनका जन्म देहली के प्रतिष्ठित जौहरी श्री केवलचंदजी के यहां हुआ, तथा दीक्षा संवत् 2016 वैशाख शुक्ला षष्ठी के शुभ दिन चांदनीचौंक दिल्ली में श्री राजेश्वरीजी म. के पास हुई। आप अति गंभीर, विनयवान व विवेकशीला साध्वी रत्न हैं। संस्कृत में शास्त्री तथा जैन सिद्धान्त शास्त्री की परीक्षाएँ देकर स्वमत व परमत दर्शन तथा आगम का विशिष्ट ज्ञान अर्जित किया। तप आपके जीवन का अभिन्न अंग रहा है। 25 बार नवपद की ओली, 41, 204, 400 आयंबिल लगातार किये। उपवास की कई अठाइयाँ, 10, 18, 33 उपवास 2 बार, तथा 11 उपवास 11 बार कर चुकी हैं। आप तप, स्वाध्याय, ज्ञान ध्यान में तल्लीन रहती हैं।183 6.3.2.87 डॉ. मंजुश्रीजी (सं. 2017 से वर्तमान) आप दिल्ली चांदनीचौंक निवासी श्री कंवरसेनजी चौरड़िया की सुपुत्री हैं। महासती कौशल्यादेवीजी के अध्यात्मनिष्ठ उपदेश से वैराग्य रंग से अनुरंजित होकर पंडितरत्न श्री त्रिलोकमुनिजी महाराज से संवत् 2017 वैशाख शु. 8 को चांदनी चौंक में ही दीक्षा पाठ पढ़कर आपश्री कौशल्यादेवीजी की शिष्या बनीं। आप प्रखर बुद्धि एवं मधुर गायिका हैं। आपने जैन सिद्धान्ताचार्य, साहित्य रत्न, एम. ए. व सन् 1990 में “जैन दर्शन और कबीर का तुलनात्मक अध्ययन" पर पूना विश्व विद्यालय से पी. एच. डी. की डीग्री प्राप्त की है। आपका शोध ग्रंथ दिल्ली से प्रकाशित हो चुका है, अन्य भी आपकी कृतियां हैं-मंजुगीतमाला, गुरू-दक्षिणा, देव रचना का अनुवाद (संदर्भ एवं टिप्पणी सह) आपका नाम अमेरिकन बायोग्राफिकन इन्स्टीट्यूट (ई. 1992) व रिफरेन्श एशिया (ई. 1991) में उल्लिखित है। इनकी 6 शिष्याएँ हैं। प्रमुख शिष्या श्री अक्षयश्री विदुषी, ध्यान साधिका व शांत स्वभावी साध्वी हैं, इनकी समर्पण, महावीथी, रसायन, अमीधारा, मेरा भाई, जागरण, श्रुतधारा आदि साहित्य प्रकाशित है।184 6.3.2.88 श्री प्रमोदजी (सं. 2018 से वर्तमान) संयमनिष्ठ साध्वी प्रमोदजी का जन्म संवत् 1999 में श्रीमान् देशराजजी अग्रवाल कैंथल निवासी (हरियाणा) के यहां हुआ। संवत् 2018 फाल्गुन कृष्णा 13 के शुभ दिन दिल्ली चांदनीचौंक में श्री राजेश्वरीजी महाराज के पास दीक्षा अंगीकार की। आप मधुरस्वभावी, व्यवहारदक्ष, समतावान विदुषी साध्वी हैं। आगमों के गहन चिंतन के साथ स्तोक व स्वमत-परमत का विशिष्ट अध्ययन किया है। आपकी प्रेरणा से जालन्धर में महासती मोहनदेवी 182. उपप्रवर्तिनी श्री कौशल्यादेवी जीवन-दर्शन, पृ. 104 183-184. पत्राचार व संपर्क से प्राप्त सामग्री के आधार पर 596 Page #659 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्थानकवासी परम्परा की श्रमणियाँ जैन सिलाई शिक्षण केन्द्र, भगवान महावीर सिलाई स्कूल आदि की स्थापना हुई है। अनेक युवकों को व्यसन मुक्त करने में आप भी अग्रणी रहीं । कविता, भजन आदि बनाने में भी निष्णात हैं आपका प्रवचन ओजस्वी व हृदयस्पर्शी होता है। 85 आपकी 5 शिष्याएँ हैं। 6.3.2.89 श्री सुशीलाजी (सं. 2019 से वर्तमान ) आप रोहतक जिले के ग्राम 'रिंढाणा' में प्रतिष्ठित चौधरी धारासिंहजी की कन्या हैं। श्री त्रिलोकचंद जी महाराज से 10 मई 1962 को घरोंडा में दीक्षा पाठ पढ़कर आप श्री सुंदरीजी की शिष्या बनीं। आपने पाथर्डी बोर्ड से जैन सिद्धान्तशास्त्री तक परीक्षाएँ दी हैं। आपका कंठ मधुर हैं, समाज कल्याण एवं ज्ञानवृद्धि के लिए कई स्थानों पर पुस्तकालय (मजलिस पार्क, उत्तमनगर, गुडगांव, जालंधर) की स्थापना की । भटिण्डा में पशु-पक्षी चिकित्सालय, बुलढाणा एवं न्यू शक्तिनगर में होम्योपैथी डिस्पैंसरी हेतु प्रेरणा दी। मांस व शराब की दुकानों बंद करवाया, भ्रूण हत्या एवं व्यसन सेवन के कइयों प्रत्याख्यान करवाये। आपने दो मासखमण व अट्ठाइयाँ की हैं। आपकी पुस्तक 'संयम सुरभि' में आपकी विद्वत्ता एवं गुरू- भक्ति के दर्शन होते हैं। 186 6.3.2.90 आचार्य डॉ. श्री साधनाजी (सं. 2020 से वर्तमान ) आपका जन्म हरियाणा के जींद शहर में 9 जून 1948 को श्री बलदेवकुमारजी के यहां हुआ। सं. 2020 दिल्ली में श्री सुशीलमुनिजी म. से दीक्षा लेकर आप श्री सरलाजी की शिष्या बनीं। दीक्षा के पश्चात् आपने जैन आगम ज्ञान व संस्कृत प्राकृत का गहन अध्ययन किया। साथ ही 'अपभ्रंश जैन साहित्य में जीवन मूल्य' पर पी. एच. डी. तथा 'हिन्दी साहित्य और दर्शन में आचार्य सुशीलकुमारजी का योगदान' विषय पर डी.लिट् की उपाधि प्राप्त की। विश्वधर्म सम्मेलन के प्रेरक आचार्य सुशीलकुमारजी के साथ रहकर आपने विविध सामाजिक धार्मिक गतिविधियों में अपनी सक्रिय भागीदारी निभाई। 'आचार्य सुशील गऊ सदन', आचार्य सुशील मार्ग, आचार्य सुशील चौंक आदि की संस्थापना में आपकी प्रमुख भूमिका रही । अमेरिका के 'न्यूजर्सी' स्थित 'सिद्धाचलम्' तीर्थ निर्माण में आपका परिश्रम निहित है। भगवान महावीर के अहिंसा सिद्धान्त के प्रचारार्थ आप कई बार अमेरिका, इंग्लैंड, सिंगापुर, मलेशिया, थाइलैंड, हांगकांग, नेपाल आदि स्थानों पर गई हैं। भारत से विदेशयात्रा पर जाने वाली आप 'प्रथम जैन साध्वी' हैं, तथा विश्व विद्यालय की उच्चतम उपाधि डी. लिट् प्राप्त करने वाली भी आप प्रथम जैन साध्वी हैं। अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर प्रथम महिला आचार्य भी हैं। आपकी प्रेरणा 'अहिंसा पर्यावरण साधना मन्दिर' नई दिल्ली तथा 'वर्ल्ड फैलोशिप आफ रिलीजन्स' भवन का निर्माण हुआ है। आप निम्नलिखित संस्थाओं में उच्चपदपर आसीन है - (1) तृतीय पट्टधर आचार्य - इन्टरनेशनल अर्हत् जैन संघ, ई. 1998 दिल्ली, (2) अध्यक्षा - आचार्य सुशील मुनि मैमोरियल ट्रस्ट, (3) संरक्षिका - विश्व अहिंसा संघ, (4) चेयरपर्सन-आचार्य सुशील गऊ सदन, (5) संरक्षिका - आचार्य सुशील मुनि चैरिटेबल हस्पताल होशियारपुर, (6) मार्गदर्शिका - श्री महावीर विश्व विद्यापीठ दिल्ली, (7) प्रमुख अमेरिका, इंग्लैंड मद्रास दिल्ली स्थित सभी आश्रम, (8) प्रेरिका-अहिंसा पर्यावरण साधना मंदिर, (9) महासचिव- भारत एकता आन्दोलन, (10) उपाध्यक्ष- दिल्ली संत महामंडल, ( 11 ) उपाध्यक्ष- साध्वी शक्ति परिषद । आपकी बहुमुखी प्रतिभा एवं कार्यक्षमता 185 - 188. पत्राचार से प्राप्त सामग्री के आधार पर 597 Page #660 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन श्रमणियों का बृहद इतिहास से प्रेरित होकर दिल्ली से 'महिला प्रतिभा एवार्ड', महासती प्रवर्तनी पार्वती अवार्ड, अम्बैसडैर फॉर पीस अवार्ड' का पुरस्कार भी प्राप्त हुआ है। आपकी दो शिष्याएँ हैं- श्री गुरूछायाजी, श्री गुरूप्रियाजी । 187 6.3.2.91 उपप्रवर्तिनी डॉ. श्री सरिताजी (सं. 2021 से वर्तमान ) आपका जन्म सन् 1951 में जींद के निकटवर्ती ग्राम खेड़ी ( भगतों की) में श्री भगतरामजी जैन के घर हुआ। नौ वर्ष की अल्पायु में विद्वद्रत्न श्री रामकृष्णजी महाराज से 'जींद' में ही दीक्षा ग्रहण कर आप श्री शशिकांताजी की शिष्या बनीं। अध्ययन की अदम्य लालसा से आपने डबल एम. ए. तक की शिक्षा प्राप्त की, साथ ही जैन आगम - साहित्य का भी तलस्पर्शी ज्ञान प्राप्त किया। आपने सन् 1994 में डॉ. आर. एन. मिश्रा के निर्देशन में मेरठ युनिवर्सिटी से आचार्य पुष्पदंत कृत 'जसहरचरियं में जैनधर्म संस्कृति और दर्शन' विषय पर शोध-प्रबन्ध लिखकर पी. एच. डी. की डीग्री प्राप्त की। आपकी वाणी में ओज व माधुर्य का संगम है, विद्वत्ता और विनम्रता के मणिकांचन संयोग ने आपको 'श्रमणीसूर्या' के रूप में प्रवर्तक भंडारी श्री पद्मचन्द्रजी महाराज द्वारा अलंकृत किया गया है। आप आठ वर्षों एकान्तर तप की आराधना में संलग्न हैं। डेराबस्सी में जैन युवक मंडल, जैन साध्वी शशिकांता युवती मंडल, जैन महिला मंडल, एस. एस. जैन संघ मंडी गोविन्दगढ़, श्री आदिनाथ जैन समिति (रजि.), श्री जैन साध्वी शशिकान्ता चैरिटेबल एवं वेलफेयर सोसाइटी (रजि.), जैन साध्वी सरिता शुभ चैरिटेबल ट्रस्ट आदि संस्थाओं की आप प्रेरणा स्रोत हैं। संघ उन्नति में आपका सक्रिय योगदान प्रत्येक क्षेत्र में अंकित है । 188 आपकी कई शिष्याएँ हैं। 6.3.2.92 श्री सुधाजी (सं. 2022 से वर्तमान) आपका जन्म ई. 1943 को पंजाब के पट्टी नगर में श्री त्रिलोकचंदजी के घर हुआ, जो श्री स्वर्णकांता जी के भ्राता थे। आचार्य सम्राट् श्री आत्माराम जी महाराज की अंतिम घड़ियों में समता, सहिष्णुता के दर्शन कर वैराग्य जागृत हुआ, फलस्वरूप कैंथल में श्री प्रेमचंदजी महाराज से सर्वविरति दीक्षा अंगीकार कर आप श्री स्वर्णकांताजी की शिष्या बनीं। आप गूढ़ गंभीर अध्येत्री एवं शांत, सहज स्वभावी हैं। आपने दो वर्षीतप एवं अठाइयाँ आदि की है । 189 आपकी शिष्याओं का परिचय तालिका में दिया गया है। 6.3.2.93 उपप्रवर्तिनी श्री रमेशकुमारीजी (सं. 2023 से वर्तमान ) आपका जनम रिंढ,ण, ग्राम के श्री मोतीरामजी के यहां हुआ। श्री जगदीशमतीजी के पास 14 वर्ष की वय में मालेरकोटला में दीक्षित हुईं आपने अपने जीवन को तप से सजाया है, मासखमण, 17, 11, 10, 24 अठाई, 65 बेले, लगभग 1008 तेले एवं एकाशने के 501 109, 120 आदि स्तोक पांच बार किये हैं। आप प्रभावसंपन्ना साध्वी हैं, आपके उपदेश से महासती जगदीशमति सिलाई स्कूल, प्री प्रेट्री स्कूल, चंदनबाला युवती मंडल आदि प्रारंभ हुए हैं। आप सबको जप-तप की प्रेरणा देती हैं। आपकी छह शिष्याएँ - श्री संतोषजी, श्री सुयशाजी एम. ए. श्री सारिकाजी, श्री शमांजी, श्री राजेशजी, श्री शिल्पाजी हैं। श्री रिद्धिजी और श्री सिद्धिजी पौत्र शिष्याएँ हैं। 190 185 188. पत्राचार से प्राप्त सामग्री के आधार पर 189. महाश्रमणी अभिनंदन ग्रंथ, पृ. 53 190. परिचय पत्र के आधार पर 598 Page #661 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्थानकवासी परम्परा की श्रमणियाँ 6.3.2.94 श्री विजयश्रीजी 'आर्या' (सं. 2024 से वर्तमान) आपका जन्म उदयपुर (राज.) में सं. 2008 माघ शु. पूर्णमासी के दिन श्री आनंदीलालजी मेहता के यहां हुआ। विजयादशमी सं. 2024 को शेरे पंजाब श्री प्रेमचंदजी महाराज से दिल्ली में दीक्षित होकर अध्यात्मयोगिनी श्री कौशल्याजी की शिष्या बनीं। आप अध्ययनशीला साध्वी हैं, आपने पाथर्डी बोर्ड से जैन सिद्धान्ताचार्य, हैदराबाद से हिंदी भूषण, पूना से संस्कृत-प्राकृत एवं मैसूर विश्वविद्यालय से एम. ए. की परीक्षाएँ दी, उक्त सभी परीक्षाओं में सर्वप्रथम स्थान प्राप्त किया। एम. ए. में कर्नाटक राज्यस्तर पर सर्वोच्च आने के उपलक्ष में आप चार स्वर्णपदक से सम्मानित हुईं, विभिन्न विश्वविद्यालय से साध्वी जीवन में छह स्वर्णपदक प्राप्त करने वाली आप प्रथम साध्वी हैं। आपका प्रकाशित साहित्य-महासती केसरदेवी गौरव ग्रंथ, अध्यात्म-योगिनी महाश्रमणी, प्रवचन-सौरभ (मराठी), महासागर के मोती, अंतर की पुकार, आर्या के स्वर, तीर्थंकर प्रदीपिका, गुरू-प्रसाद, मुक्त-निर्झर, मंगल-प्रभात, सचित्र सुखविपाक, सचित्र जैन पच्चीसबोल तथा संपादित साहित्य-श्री ऋषभदेव एक परिशीलन (द्वि. सं.), विशालवाणी, आनंद जीवनचर्या आदि प्रकाशित है। आपके सदुपदेशों से प्रेरित होकर अनेक संस्थाएँ सक्रिय कार्य कर रही हैं, उनमें प्रमुख हैं-महावीर जैन पुस्तकालय (आलंदी, बैंगलोर, मैसूर, विजयवाड़ा), देवर्द्धिगणी पुस्तकालय भावनगर, केसरदेवी जैन पुस्तकालय साहरनपुर, श्रमणसंघीय श्राविका संघ उदयपुर, आत्मानंद देवेन्द्र निर्धन सहायता कोष (रजि.) उदयपुर, विजयश्री धार्मिक उपकरण भंडार धूलिया, जैन स्थानक सातपूर (नासिक), अरिहंत गौसेवा ट्रस्ट एवं गौशाला नाशिक, जैन स्थानक सातवपुर (पूना), ब्राह्मी कन्या परिषद (नासिक, घोड़नदी आलंदी) पद्मावती महिला मंडल यशवंतपुर (बैंगलोर) श्री विजय महिला मंडल, श्रीरामपुरम (बैंगलोर), विजयवाड़ा, शाकाहार समिति देऊर, (महा.) इत्यादि अग्रणी के रूप में विचरण करते हुए आपने 24 घंटे व 12 घंटे के 11 साप्ताहिक धार्मिक शिविर, कई स्वास्थ्य कैंप, महिला सम्मेलन, तप-जप, प्रतियोगिताएं एवं प्रश्नमंच आदि विविध धार्मिक सामाजिक आयोजन करवाये। सैंकड़ों लोगों को मांस, मदिरा, पान पराग, गुटका, रेशम आदि का त्याग करवाया। तपस्वी श्री चेतनमुनिजी को दीक्षा की प्रेरणा आपसे ही प्राप्त हुई है। आपका विचरणक्षेत्र राजस्थान, मध्यप्रदेश, मालवा, दिल्ली, उत्तरांचल, हिमाचल, हरियाणा, पंजाब, जम्मू, आंध्रप्रदेश, महाराष्ट्र, कर्नाटक, तमिलनाडु, गुजरात, काठियावाड़, सौराष्ट्र आदि सुदूर क्षेत्रों में हुआ है। आपने 1 से 9 उपवास की लड़ी, 1008 एकासन 108,51,31, 31 एकासणे, 1 से 21 तक एकासण की लड़ी, उपवास से वर्षीतप. सैंकडों आयंबिल. उपवास. बेले तेले किये हैं। आपकी 3 शिष्याएँ हैं-श्री प्रियदर्शनाजी, श्री प्रतिभाश्रीजी, श्री तरूलताश्रीजी। 6.3.2.95 डॉ. श्री रविरश्मिजी. (सं. 2027 से वर्तमान) आपका जन्म पंजाब प्रान्त के फिरोजपुर जिले में मुक्तसर ग्राम में संवत् 2015 को हुआ, घोरतपस्विनी श्री हेमकुंवरजी महाराज आपकी गुरूणी हैं, 13 वर्ष की लघुवय में सं. 2027 में श्री मंगलमुनि से दीक्षा पाठ पढ़ा। आप अनेक भाषाओं की ज्ञाता तथा आगम, न्याय, दर्शन आदि की गहन अध्येता हैं। आपने ‘परमाणु विज्ञान' पर शोध प्रबंध लिखकर विक्रम विश्वविद्यालय उज्जैन से पी. एच.डी. की उपाधि प्राप्त की। आपकी दो शिष्याएँ हैं-श्री प्रदीपरश्मि व श्री राकेशरश्मि। रजतरश्मि, निधिरश्मि, यशिमारश्मि, देशनारश्मि और कौमुदीरश्मि पौत्र शिष्याएँ हैं। 191. महासती केसरदेवी गौरव-ग्रंथ, पृ. 416 599 Page #662 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 6.3.2.96 श्री सुमित्राजी श्रीसंतोषजी (सं. 2027 से वर्तमान) आप दोनों भगिनी युगल तप, संयम, सेवा और त्याग की प्रतिमूर्ति हैं। श्रमणसंघीय आचार्य श्री शिवमुनि जी महाराज के ताऊ श्री बनारसीदासजैन, मलोटमंडी निवासी की सुपुत्रियाँ हैं। मलोट में ही दीक्षा अंगीकार कर ये श्री शिमलाजी की शिष्या बनीं। दीक्षा के पश्चात् से आप दोनों सतत तपस्या व स्वाध्याय में संलग्न हैं। कई निर्जल अठाइयाँ, उपवास, बेले, तेले, चौले आदि कर चुकी हैं। चातुर्मास में एक साथ नौ-नौ अठाइयाँ 17 वर्षों से लगातार वर्षीतप की आराधना, अठाई के पारणे में भी एकान्तर तप करना इनके तपोमय जीवन की बहुत बड़ी विशेषता है। सर्दी में गर्म वस्त्र का त्याग, किसी से सेवा लेने का त्याग आदि अनेक प्रकार के त्याग से इनका जीवन सुसज्जित है। 192 6.3.2.97 श्री निर्मलाजी (सं. 2029 से वर्तमान ) आप मलौट मंडी जि. फिरोजपुर (पंजाब) के श्री चिरञ्जीलालजी की सुपुत्री हैं। आचार्य सम्राट् श्री शिवमुनिजी की आप लघु भगिनी हैं, आपने उनके साथ ही 17 मई 1972 को मलौटमंडी में पंडित ज्ञानमुनिजी से दीक्षा ग्रहण की, एवं श्री कौशल्याजी की शिष्या बनीं। आपने जैन सिद्धान्तशास्त्री तक अध्ययन किया। साथ ही वर्षीतप, कई अठाइयाँ 31 और 33 उपवास, आयम्बिलों की लड़ी आदि तपस्याएँ की हैं। 193 जैन श्रमणियों का बृहद इतिहास 6.3.2.98 डॉ. श्री पुनीतज्योतिजी (सं. 2031 से वर्तमान ) आप तप चक्रेश्वरी, महासती मोहनमालाजी की शिष्या हैं संवत् 2009 आपका जन्म व संवत् 2031 अप्रैल 28 को आपकी दीक्षा हुई। आपने 'सन्तत्रयी के काव्य में जैनदर्शन के तत्व' विषय पर डॉ. विष्णुदत्त शर्मा के निर्देशन में शोध प्रबन्ध लिखकर सन् 1996 में इलाहाबाद विश्वविद्यालय से पी. एच. डी. की उपाधि प्राप्त की। आप ऊर्जस्वल, तेजोमयी व्यक्तित्व की धनी साध्वी हैं। शासन प्रभावना के अनेकविध कार्य आपकी प्रेरणा से हुए और हो रहे हैं। आपकी शिष्याएँ - श्री श्वेताजी, श्री निधिज्योतिजी, श्री मुक्ताजी, श्री अक्षीताजी, श्री स्वातिजी, श्री पल्लवीजी, श्री विपुलजी प्राञ्जलजी, जागृतिजी आदि हैं। 194 6.3.2.99 श्री भारती श्रीजी (सं. 2031 से वर्तमान ) आप बड़ौत (उ. प्र.) के श्री ज्योतिप्रसादजी जैन की सुपुत्री हैं, सन् 2006 को आपका जन्म हुआ। संवत् 2031 आसोज शुक्ला 5 को उपाध्याय श्री केवलमुनिजी महाराज के मुखारविन्द से बम्बई खार में आप दीक्षित हुईं। आप श्री कौशल्यादेवीजी महाराज की शिष्या हैं। आप की काव्य-कला उत्कृष्ट है, आशु कवियत्री भी हैं, 400 के लगभग गीत, 1000 मुक्तक, दोहे आदि रचे हैं। साथ ही घोर तपस्विनी हैं, आयंबिल की 11 ओलियाँ के अतिरिक्त कई लंबी तपस्याएँ 121, 101, 91, 81, 71, 51, 31, 11 बार 21 आयंबिल तथा 4 वर्षीतप उपवास के, एक वर्षीतप पोला अट्टम के साथ, सतत 2 वर्ष, 5 वर्ष तक एकासन, 300 तेले, 4, 5, आदि तप कर चुकी हैं। इन्होंने विभिन्न 5 क्षेत्रों में वीर बालिका मंडल तथा एक ब्राह्मी महिला मंडल की स्थापना की है। 195 उद्धृत 192. डॉ. साध्वी सुनीताजी 'आचारांगसूत्रः एक आलोचनात्मक अध्ययन" की प्रस्तावना से 193. उपप्रवर्तिनी कौशल्यादेवी जीवन-दर्शन, पृ. 106 194. परिचय पत्र के आधार पर 195. परिचय पत्र के आधार पर 600 Page #663 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्थानकवासी परम्परा की श्रमणियाँ 6.3.2.100 श्री सुषमा जी (सं. 2032 से वतर्मान) आपका जन्म राजपुरा ग्राम के चौधरी दीवानसिंह जी राठी के यहां ई. 1956 में हुआ। आप श्री सुंदरीदेवी जी की चचेरी बहन एवं शिष्या हैं। गन्नौर मंडी में आपकी दीक्षा हुई। आप जैन एवं जैनेतर दर्शन की गहन अध्येता हैं, गायन कला मधुर होने से आप 'जैन कोकिला' के नाम से विख्यात हैं, साथ ही तपस्विनी भी हैं।196 6.3.2.101 डॉ. श्री सुनीताजी (सं. 2034 से वतर्मान) तप्त तपस्विनी, तप रत्नेश्वरी के विरूद से अर्चित डॉ. सुनीताजी ने संवत् 2017 को मोगा मंडी के सुश्रावक श्री जगदीशलाल जी जैन (नाहर) के यहां जन्म लिया। संवत् 2034 जून 13 को मोगा मंडी में ही श्रमण श्री फूलचन्दजी महाराज के श्रीमुख से दीक्षा अंगीकार कर श्री सुमित्राजी की शिष्या बनीं। इन्होंने आगमों के गंभीर अध्ययन के साथ संस्कृत में एम. ए. की परीक्षा देकर स्वर्णपदक प्राप्त किया। अपनी विचक्षण मेधा से धर्म व दर्शन में भी एम. ए. करके 'आचारांगसूत्रः एक आलोचनात्मक अध्ययन' विषय लेकर पटियाला विश्वविद्यालय से इन्होंने सन् 1994 को पी.एच.डी. की उपाधि प्राप्त की। ज्ञान आराधना के साथ-साथ डॉ. सुनीताजी ने मालेरकोटला में 117 उपवास करके तप के क्षेत्र में भी कीर्तिमान स्थापित किया है। इसके अतिरिक्त दो-तीन निर्जल अठाई, 16 वर्षों से एकासना, आयंबिल आदि तप भी करती रहती हैं। सुनीताजी अध्ययन व तप के साथ नि:स्वार्थ सेवाभाविनी, सरल स्वभावी, स्पष्टवक्ता, सदा प्रसन्नचित्त शासनप्रभाविका भी हैं। 6.3.2.102 श्री प्रियदर्शनाजी (सं. 2036 से वर्तमान) आपका जन्म संवत् 2019 को उदयपुर के श्रीमान् आनंदीलालजी मेहता के यहां हुआ। हैदराबाद में सं. 2036 अक्षय तृतीया को आचार्य श्री आनंदऋषिजी म. सा. से दीक्षा अंगीकार कर आप श्री विजयश्रीजी 'आर्या' की शिष्या बनीं। आप मधुरवक्ता, कवियत्री एवं सुलेखिका हैं। आपने जैन सिद्धान्ताचार्य, साहित्यरत्न व एम. ए. किया है। 5 वर्षों से आप अग्रणी के रूप में विचरण कर धर्मप्रभावना के अनेक कार्य कर रही हैं। इनकी कई पुस्तकें प्रकाशित हैं - जैन जयति शासनम्, तत्त्वार्थसूत्रः जिज्ञासा एवं समाधान, जैन गणितमाला, श्रीमद् राजचंद्र संस्मरणों के आईने में, प्रश्नों के आकाश में समाधान का सूर्य, श्रावक व्रत आराधना, ऋषभ चरित्र। इन्होंने कई उपवास, बेले तेले के साथ 15,16 उपवास, आयंबिल का मासक्षमण, ज्ञानपंचमी, पुष्यनक्षत्र एकासन का वर्षीतप आदि तपस्याएँ की हैं। इनकी दो शिष्याएँ हैं-श्री विचक्षणा श्री जी, श्री देशनाश्रीजी।198 6.3.2.103 श्री किरणजी (सं. 2036 से वर्तमान) आप अंबाला के श्री अमरकुमार जी जैन (भाबू) की सुपुत्री हैं। सं. 2036, 31 मई को श्री सुधाजी महासती के पास दीक्षा अंगीकार की। आपकी प्रवचन शैली अत्यंत आकर्षक एवं मधुर है। भजनों की छटा तो निराली ही है, आपने जहां भी चातुर्मास किये वहाँ नवयुवतियों में बालिकाओं में विशेष उत्साह पैदा किया। अंबाला में 196. संयम-सुरभि, पृ. 160 197. जीवन-परिचय; आचारांग सूत्र एक आलोचनात्मक अध्ययन : डॉ. सुनीता, बहादुरगढ़, ई. 2004 198-201. प्रत्यक्ष सम्पर्क से प्राप्त सामग्री के आधार पर 601 Page #664 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन श्रमणियों का बृहद इतिहास जिनेश्वरी देवी तरूण मंडल, मालेरकोटला में पार्वती महिला मंडल व वर्धमान युवक मंडल, हनुमानगढ़ में स्वर्ण युवक मंडल, मानसा में स्वर्ण सेवा सोसायटी, खरड़ में होम्योपैथिक डिस्पैंसरी, जेतों में स्वर्ण डिस्पैंसरी, हुनमानगढ़ में स्वर्ण कमल डिस्पैंसरी, गीदड़वाहा में स्वर्ण-सुधा पब्लिक स्कूल व जैन सभा, पद्मपुर एवं पटियाला में डिस्पैंसरी आदि मंडल व संस्थाएँ आपकी सद्प्रेरणा से कार्यरत हैं।199 6.3.2.104 श्री किरणजी (सं. 2036 से वर्तमान) आपका जन्म संवत् 2011 अगस्त 8 को मेरठ के श्री विद्यासागरजी लाहौर वाले की धर्मपत्नी सुश्राविका त्रिशलादेवी जैन की कुक्षि से हुआ। श्री प्रवीणकुमारीजी के पास संवत् 2036 नवंबर 26 को कोल्हापुर रोड दिल्ली में पंडित रत्न श्री लाभचंदजी महाराज के मुखारविंद से दीक्षा ग्रहण की। आप मौनप्रिय और तपस्विनी साध्वी हैं। 10 वर्ष अखंड मौनव्रत की साधना एकासन के साथ की, अभी भी मौनव्रत चालु है। इसके अतिरिक्त 131 एकासन, 51, 71 आयंबिल 9, 15 उपवास, 25 मौन तेले, पुष्यनक्षत्र, ज्ञानपंचमी आदि तपाराधनाएँ की हैं।200 6.3.2.105 डॉ. श्री शुभाजी (सं. 2037 से वतर्मान) इनका जन्म संवत् 2015 जंडियाला गुरू में श्री हुकुमतराय ढींगर के यहां हुआ। संवत् 2037 मार्च 3 को अंबाला में डॉ. श्री सरिताजी के पास इन्होंने दीक्षा अंगीकार की। ज्ञान व तप का अद्भुत समन्वय इनके जीवन में दिखाई देता है। आगम, न्याय, व्याकरण, ज्योतिष ज्ञान के साथ इन्होंने सन् 1996 मेरठ विश्वविद्यालय से "सुदंसणचरिउ' में जैनधर्म दर्शन और संस्कृति विषय लेकर पी. एच. डी. की उपाधि प्राप्त की। इसी प्रकार तप के क्षेत्र में इन्होंने 15 उपवास, 17 अठाइयाँ, मासक्षमण, 150 तेले, कई बेले उपवास आदि तथा आयंबिल के 3 मासक्षमण, नवपद ओली, 81 आयंबिल, ज्ञानपंचमी, पोषदशमी, पुष्यनक्षत्र आदि विविध तपस्याएँ की। 15 वर्षों से वर्षीतप की आराधना भी चालु है।2014 6.3.2.106 श्री करूणाजी (सं. 2038 से वर्तमान) श्री करूणाजी का जन्म कोटकपूरा (पंजाब) संवत् 2017 में श्रीमती शांतिदेवी तथा श्री चिरंजीलाल गोयल के यहां हुआ। संवत् 2038 अप्रेल 22 को बठिण्डा में उपाध्याय श्री मनोहरमुनिजी से दीक्षित होकर श्री कुसुमलताजी की शिष्या बनीं। इन्होंने अनेक आगमों के अध्ययन के साथ हिंदी व संस्कृत में एम. ए. किया है। ये विदुषी, प्रवचनकर्ती, स्वाध्याय प्रेरिका हैं। तथा 'प्रवचन प्रभाविका' 'जैन ज्योति' पद से समलंकृत हैं।202 6.3.2.107 श्री सुधाजी (सं. 2039 से वतर्मान) सफीदों मण्डी में श्री लालचन्दजी जैन के यहां ई. 1956 में आपका जन्म हुआ। श्री सुंदरीजी महाराज की शिष्या बनकर आपने तप आराधना में अपने जीवन को संलग्न किया। आपने 13 तेले व एक वर्षीतप अनेक अठाइयाँ की, चार वर्ष एकासने किये, वर्तमान में भी एकांतर तप चलता है।203 202. श्री कुसुमाभिनन्दनम्, परिशिष्ट भाग 203. संयम-सुरभि, पृ. 161 602 Page #665 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्थानकवासी परम्परा की श्रमणियाँ 6.3.2.108 श्री प्रतिभाश्रीजी (सं. 2042 से वर्तमान) आपका जन्म बैंगलोर में श्री बंशीलालजी धोका के यहां ज्येष्ठ कृ. 2 सं. 2004 को हुआ, आपकी दीक्षा अहमदनगर में आचार्य श्री आनंदऋषिजी म. सा. के श्रीमुख से अक्षय तृतीया को हुई, आपने श्री विजयश्रीजी 'आर्या' के पास दीक्षा ग्रहण की। आप साहित्यरत्न, जैन सिद्धान्ताचार्य और एम. ए. हैं। हिंदी, पंजाबी, अंग्रेजी, मराठी, कन्नड़, मारवाड़ी, गुजराती में धाराप्रवाह प्रवचन देने में निपुण हैं। आप कोकिलकंठी एवं मधुरवक्ता हैं। महिलाओं, युवक-युवतियों में धर्म जागृति के लिये सम्मेलन, स्पर्धाएं, परीक्षाएँ आदि का सफल आयोजन भी करती हैं। महावीर जैन पुस्तकालय खार (मुंबई), जैन उपकरण भंडार पश्चिमविहार (दिल्ली) की आप प्रेरिका हैं। आपकी पुस्तकें-प्रतिभा स्वराञ्जलि, बीते पल सुनहरी यादें, प्रतिक्रमण (अंग्रेजी अनुवाद) Yah! Hu I got treasure आदि प्रकाशित हैं। वर्तमान में 'जैन श्राविकाओं का योगदान' विषय पर शोधकार्य कर रही हैं। आपने उपवास का मासखमण, 11, 9, 8 उपवास आयंबिल की ओलियाँ, वर्षीतप ( उपवास, आयंबिल व एकासने से) ज्ञानपंचमी, पुष्यनक्षत्र आदि विविध तपस्याएँ की हैं। 204 6.3.2.109 डॉ. श्री सुभाषाजी (सं. 2043 से वर्तमान ) विदुषी साध्वी सुभाषाजी का जन्म संवत् 2031 नवम्बर 30 को श्रीनगर (काश्मीर) में हुआ। इनकी माता श्रीमती सुनीतादेवी और पिताश्री राममूर्ति महाजन हैं। उपाध्याय श्री मनोहरमुनिजी महाराज के श्रीमुख से दीक्षा पाठ पढ़कर ये संवत् 2043 दिसंबर 3 को मालेरकोटला में संयम मार्ग पर आरूढ़ हुईं। श्री कुसुमलताजी के सान्निध्य में आगमों का गहन अध्ययन करने के साथ-साथ अंग्रेजी और संस्कृत दोनों में एम. ए. किया, तथा कुरूक्षेत्र विश्वविद्यालय से ‘जैन दर्शन में रत्नत्रयः एक समीक्षात्मक अध्ययन' विषय पर पी. एच. डी. की उपाधि प्राप्त की। आगे डी. लिट् के लिये अध्ययनरत हैं। इनकी जैनदर्शन, श्री कुसुमाभिनन्दनम्, गीत कुसुमांजलि आदि साहित्य प्रकाशित है। श्रंपद चेपसवेवचील (अंग्रेजी) प्रकाशनाधीन है। ये मधुरगायिका मिलनसार एवं प्रभावक प्रवचनकर्त्री होनहार साध्वी हैं। 205 6.3.2.110 डॉ. श्री सुप्रियाजी (सं. 2046 से वर्तमान ) सुप्रियाजी का जन्म संवत् 2026 दिसंबर 1 को हुआ इनकी दीक्षा संवत् 2046 मई 17 को डॉ. श्री सुनीताजी के पास हुई। पंजाब विश्वविद्यालय चंडीगढ़ से इन्होंने सन् 2002 में 'आदिपुराण एक समीक्षात्मक अध्ययन' पर शोध प्रबंध लिखकर पी.एच.डी. की उपाधि प्राप्त की। 206 6.3.2.111 डॉ. श्री सुरभिजी (सं. 2047 से वर्तमान ) इनका जन्म 23 जुलाई संवत् 2028 को हुआ। संवत् 2047 मई 6 को इनकी दीक्षा डॉ. श्री सुनीता जी के 204. प्रत्यक्ष संपर्क के आधार पर 205. डॉ. सुभाषाजी, कुसुमाभिनन्दनम्, परिशिष्ट भाग 206. संग्रहित, सुभाष जैन एडवोकेट जालना से प्राप्त 603 Page #666 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन श्रमणियों का बृहद इतिहास पास हुई। इन्होंने पंजाब विश्वविद्यालय चंडीगढ़ से सन् 2003 में “विपाकसूत्रः एक दार्शनिक अध्ययन' विषय लेकर पी. एच. डी. की उपाधि प्राप्त की।207 6.3.2.112 डॉ. श्री स्मृतिजी (2047 से वर्तमान) इनका जन्म संवत् 2026 मई 17 को अम्बाला के श्री तरसेमकुमारजी के यहां हुआ। संवत् 2047 फरवरी 19 को सफीदों मंडी में दीक्षित होकर ये श्री सुधाजी की शिष्या बनीं। स्मृतिजी प्रतिभा संपन्न विदुषी साध्वी हैं। इन्होंने कुरूक्षेत्र से संस्कृत में एम. ए. कर स्वर्णपदक प्राप्त किया, यहीं से डॉ. धर्मचंद जैन के निर्देशन में 'उपासकदशासूत्र में श्रावकाचार' विषय लेकर सन् 1999 में पी. एच. डी. की उपाधि प्राप्त की। यह शोध प्रबन्ध दिल्ली से सन् 2004 में प्रकाशित हुआ है। इसके अतिरिक्त 'निरयावलिका सूत्र, सचित्र भगवान महावीर, व महाश्रमणी अभिनंदन ग्रंथ की भी प्रमुख संपादिका हैं। इन्होंने 51, 72 आयंबिल आदि तप भी किये हैं।208 6.3.2.113 डॉ. श्री भावनाजी (सं. 2048 से वर्तमान) __ ये बठिण्डा जिले के आहलुदपुर निवासी श्री सन्तरामजी जैन (नाहटा) की सुपुत्री हैं। इनका जन्म 15 अप्रेल सन् 1971 में हुआ। उपप्रवर्तनी श्री कौशल्यादेवीजी के पास सिरसा (हरियाणा) में संवत् 2048 अप्रेल 1 को दीक्षा अंगीकार की। इन्होंने 'आचार्य आत्मारामजी महाराज व्यक्तित्व और कृतित्व' पर चंडीगढ़ विश्वविद्यालय से सन् 2001 में पी. एच. डी. की उपाधि प्राप्त की।209 6.3.2.114 तपस्विनी श्री शुभजी (सं. 2049 से वर्तमान) जैनधर्म की तपःपूत आत्माओं में श्री शुभजी का नाम भी शीर्षस्थान पर है, जगराओं में जुलाई 1997 से गर्म जल के आधार पर उत्तरोत्तर बढ़ते हुए इन्होंने 265 दिन के उपवास की तथा सन् 2005 लुधियाना में 170 दिन की दीर्घ तपस्या की। इनका जन्म जालन्धर में एक अजैन नैय्यर परिवार में हुआ। बचपन से ही विरक्तात्मा श्री शुभजी ने श्री राजेश्वरजी महाराज की सुशिष्या श्री सुनीताजी के संसर्ग में आकर सन् 1992 में दीक्षा अंगीकार की। दीक्षा के प्रथम वर्ष ही इन्होंने दीर्घ तप की आराधना की और प्रतिवर्ष तप का क्रम उत्तरोत्तर बढ़ाती रहीं। इतनी अल्प दीक्षा-पर्याय में महान तप करने वाली ये सर्वप्रथम साध्वी हैं। तप के साथ-साथ ये कई-कई घण्टे जप में व्यतीत करती हैं।210 6.3.2.115 श्री गीतांजलि जी (सं. 2051-62) पठानकोट में संवत् 2035 को श्री राममूर्तिजी के घर जन्मीं गीतांजलिजी ने अपनी ज्येष्ठ भगिनी डॉ. श्री सुभाषाजी का अनुगमन कर उन्हीं के पास संवत् 2051 फरवरी 4 को जालंधर में दीक्षा अंगीकार की। ये भी 207. वही 208. (क) महाश्रमणी, पृ. 56 (ख) परिचय पत्र के आधार से 209. उपप्रपवर्तिनी श्री कौशल्यादेवी जीवन-दर्शन, पृ. 120 210. भूपेन्द्र जैन, मंत्री जगराओं: जैन प्रकाश 23 मार्च 1998 के अंतिम कवर पृष्ठ पर उद्धत 604 Page #667 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्थानकवासी परम्परा की श्रमणियाँ संगीत, काव्य-लेखन, संपादन आदि कलाओं में कुशल थीं, इन्होंने अंग्रेजी साहित्य तथा जैनधर्म दर्शन में एम.ए. (डबल) किया है। यह होनहार साध्वी अकस्मात् दुर्घटना से ग्रस्त होकर करनाल रोड पर स्वर्गस्थ हो गईं। 6.3.2.116 श्री प्रमिलाजी (सं. 2054 से वर्तमान) प्रमिलाजी का जन्म लाहौर (पाकिस्तान) में श्री चमनलाल जैन, श्रीमती पूरणदेवीजी के यहां संवत् 2003 में हुआ। 11 फरवरी संवत् 2054 को करनाल में उपाध्याय मनोहरमुनिजी के श्रीमुख से दीक्षित होकर श्री कुसुमलताजी की शिष्या बनीं। इन्होंने बी. एस. सी. पास की है, अध्ययन-अध्यापन, लेखन, तपस्या आदि में इनकी अभिरूचि सराहनीय है।212 6.3.2.117 श्री पुष्पांजलिजी (सं. 2056 से वर्तमान) __ ये अंबाला शहर निवासी श्री प्रमोद गोयल की सुपुत्री हैं। संवत् 2039 नवम्बर 28 को जन्म और संवत् 2056 फरवरी 11 को मालेरकोटला में दीक्षित हुईं। ये श्री सुभाषाजी की शिष्या हैं। आगम, स्तोक, स्तोत्र, आदि के साथ सेवा, तपस्या, बाल शिक्षण आदि में इनकी अभिरूचि है।13 6.3.2.118 श्री चित्राजी (सं. 2058 से वर्तमान) इनका जन्म बटाला (पंजाब) में संवत् 2043 को श्री प्रदीपजी शर्मा के यहां हुआ। वरिष्ठ उपाध्याय श्री मनोहरमुनिजी से संवत् 2058 फरवरी 17 को गिद्दड़बाहा में दीक्षा लेकर श्री करूणाजी की ये शिष्या बनीं। ये भी आगम, स्तोक, स्तोत्र की अध्येता व संगीत सेवा तपस्या में अभिरूचि संपन्ना हैं।214 6.3.2.119 श्री आकांक्षाजी (सं. 2058 से वर्तमान) आकांक्षाजी देहरादून के श्री राजेन्द्रप्रसाद द्विवेदी के यहां 5 दिसंबर 1982 को जन्मीं और संवत् 2058 फरवरी 24 को करनाल में उपाध्याय श्री मनोहरमुनिजी महाराज से दीक्षित होकर डॉ. सुभाषा जी की शिष्या बनीं। आगम, स्तोक आदि के अध्ययन के साथ बालकों को सुसंस्कार देने में भी ये अग्रणी है।15 6.3.3 श्री ताराऋषिजी की खंभात ऋषि संप्रदाय व उनका श्रमणी-समुदाय 6.3.3.1 महासती श्री शारदाबाई (सं. 1996-2042) जैन धर्म में ऐसी अनेकों श्रमणियाँ हुई हैं, जिन्होंने अपने तेजस्वी व्यक्तित्व से पुरूषों को मात्र प्रतिबोधित ही नहीं किया वरन् उन्हें स्वयं श्रमणधर्म में दीक्षित कर आचार्य पद के योग्य भी बनाया। खंभात संप्रदाय की 211. कुसुमाभिनन्दनम्, परिशिष्ट भाग 212. वही, परिशिष्ट भाग 213. कुसुमाभिनन्दनम्, परिशिष्ट 214. कुसुमाभिनन्दनम्, परिशिष्ट 215. कुसुमाभिनन्दनम्, परिशिष्ट 605 Page #668 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन श्रमणियों का बृहद इतिहास श्रमणी शिरोमणि श्री शारदाबाई महासती का नाम इस रूप में इतिहास के पृष्ठों पर स्वर्णाक्षरों में लिखा जाएगा। श्री शारदाबाई का जन्म वि. सं. 1981 को साणंद (अहमदाबाद) में माता शकरीबहन और पिता वाडीभाई शाह के यहाँ हुआ। खम्भात संप्रदाय के गच्छाधिपति ब्र. श्री रत्नचंद्रजी महाराज के सान्निध्य में इन्होंने, दशवैकालिक, उत्तराध्ययन सत्र एवं शताधिक स्तोक कंठस्थ किये और 13 वर्ष की अल्पाय में ही जीवन पर्यन्त टेन में सफर न करने का दृढ संकल्प कर लिया। माता-पिता, परिवारीजनों के बहत समझाने डराने धमकाने पर भी आपकी वैराग्य भावना दृढ़ बनी रही तो 16 वर्ष की आयु में 'साणंद' में ही सं. 1996 वैशाख शुक्ला षष्ठी के शुभ दिन पू. रत्नचंद्रजी म. के मुखारविन्द से दीक्षा पाठ पढ़ाकर पूज्या पार्वतीबाई महासतीजी की शिष्या बनाया। आप संयमी जीवन की सभी कलाओं में निष्णात, विनय और विवेक की प्रतिमूर्ति बत्तीस शास्त्रों की गहन ज्ञाता, अध्येता, सरल, गंभीर नीडर वक्ता, विशाल दृष्टि संपन्न, संप्रदाय की खिवैया थीं। आचार्य रत्नचन्द्र जी महाराज तथा श्री गुलाबचंद्रजी म. सा. के कालधर्म के पश्चात् जब खंभात संप्रदाय में एक भी संत नहीं रहा, उस समय आपने वह वहाँ के संघपति श्री कांतिभाई पटेल को उद्बोधित किया, आपकी प्रेरणा से खम्भात से चार भाई दीक्षा लेने को तैयार हुए, आपके पुनीत हस्तों से उनकी दीक्षा विधि संपन्न हुई, आप उनकी दीक्षा प्रदाता गुरूणी बनी। उनके नाम हैं- आचार्य श्री कांतिऋषिजी, श्री सूर्यमुनिजी, वर्तमान आचार्य श्री अरविन्दमुनिजी एवं श्री नवीनमुनिजी। इनके अतिरिक्त 36 बहनों ने आपसे प्रतिबोध पाकर दीक्षा अंगीकार की। आप प्रखर-व्याख्याता थीं, अन्तर्ग्रन्थियों को खोलने वाली आपकी वाणी से कांदावाड़ी मुंबई में एक चातुर्मास में 16 मासखमण एवं 6 से ऊपर उपवास करने वाले दोसौ व्यक्ति थे। आपकी विशेष उल्लेखनीय विशेषता यह है कि आपके प्रवचनों की पुस्तकें 10-10 हजार की संख्या में प्रकाशित होती हैं, तथापि निरन्तर मांग बनी रहती है। आपकी पुस्तकें पढ़कर जैन-जैनेतर हजार से अधिक भाई-बहनों ने आजीवन ब्रह्मचर्य व्रत अंगीकार किया है। अनेकों ने व्यसनों का, यहाँ तक की मीसा के तहत कारावास भोगते जैन भाई तक धर्मध्यान में जुड़ गये। आप मात्र दो वर्ष की संयम-पर्याय से प्रारम्भ करके जीवन के अंतिम दिन तक प्रवचन वर्षा करती रहीं आपके प्रवचनों की 14 पुस्तकें हैं-शारदा सुधा, शारदा संजीवनी, शारदा माधुरी, शारदा परिमल, शारदा सौरभ, शारदा सरिता, शारदा ज्योत, शारदा सागर, शारदा शिखर, शारदा दर्शन, शारदा सुवास, शारदा सिद्धि, शारदा रत्न, शारदा शिरोमणि। अंतिम दिन भी एक घंटा प्रवचन, मंगलपाठ, 135 जीवों को अभयदान, 51 अखंड अद्र लोगस्स का कायोत्सर्ग आदि करवाया। अपने 46 वें वर्ष के संयम-पर्याय में लगे दोषों के लिये स्वयं छः महीने दीक्षा छेद का प्रायश्चित् लेकर 'जीव जा रहा है नवकार बोलों' का संकेत देकर आप समाधिपूर्वक स्वर्गवासिनी हुईं। आपका दीक्षा एवं स्वर्गवास एक ही दिन वैशाख शुक्ला छठ बुधवार को था। आपके जीवन को प्रकाशित करने वाली पुस्तक है- दीवादांडी-16 तथा जीवन केम जीवी जाणवु?-17 6.3.3.2 श्री वसुबाई महासतीजी (सं. 2013) आपका जन्म विरमगाम में 'शाह' परिवार में हुआ। 23 वर्ष की अविवाहित अवस्था में सं. 2013 मृगशिर शु. 5 को वीरमगाम में आपने शासनरत्ना श्री शारदाबाई के पास दीक्षा अंगीकार की। आपने उत्तराध्ययन, 216. शारदा स्मृति ग्रंथ, प्रकाशक-श्री वर्ध. स्था. जैन श्रावक संघ, 1 मामलदारवाड़ी, मलाड (वेस्ट), मुंबई, 1988 217. प्रेरिका श्री वसुबाई महासतीजी, प्रकाशक-स्व. लीलाबेन कीर्तिलाल मणिलाल मेहता, मुंबई, 1990 606 Page #669 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्थानकवासी परम्परा की श्रमणियाँ दशवैकालिक, नंदीसूत्र, विपाकसूत्र आचारांग, सूयगडांग, अनुत्तरोपपातिक आदि आगम कंठस्थ किये हैं तथा पाथर्डी बोर्ड से जैन सिद्धान्ताचार्य की परीक्षाएँ दी हैं। आप अत्यंत विदुषी, विनम्र एवं शासन प्रभाविका साध्वी हैं तपोनुष्ठान में भी अग्रणी हैं, अठाई, वर्षीतप आदि विविध तपस्याएँ की हैं। 218 6.3.3.3 श्री इन्दिराबाई 'खंम्भात' (सं. 2014 ) आपने भावसार जैन कुल में सं. 1992 में जन्म ग्रहण किया। 22 वर्ष की वय में मृगशिर शु. 6 सं. 2014 सूरत में ही श्री शारदाबाई महासती के पास दीक्षा ग्रहण की। आपने संयमी जीवन में 9 आगम एवं सैंकड़ों स्तोक कंठस्थ किये। मासखमण आदि अनेक तपस्याएँ भी की हैं। वर्तमान में खंभात संप्रदाय के आचार्य अरविन्दमुनि जी महाराज की आज्ञा में विचरण करती हुई आप जिनशासन की प्रभावना के अनेक कार्य कर रही हैं | 219 6.3.3.4 श्री कमलाबाई महासतीजी (सं. 2014 ) आपका जन्म 'स्तम्भन तीर्थ' में पटेल जैन परिवार में हुआ। संवत् 2014 को 24 वर्ष की वय में वैशाख शुक्ला 6 के शुभ दिन खम्भात में ही श्री शारदाबाई महासती के पास दीक्षा अंगीकार की। दीक्षा के पश्चात् आगम, न्याय, दर्शन, संस्कृत - प्राकृत आदि विविध विषयों का गहन अध्ययन कर पाथर्डी से जैन सिद्धान्ताचार्य' तक की सर्वोच्च परीक्षाएँ दी। आप तपस्विनी भी हैं, एकान्तर उपवास, बेले- बेले का वर्षीतप अठाई आदि की तपस्याएँ सतत चालू हैं, वर्तमान वर्धमान आयंबिल तप की आराधना कर रही हैं 1220 6.3.3.5 श्री चंदनाबाई महासतीजी (सं. 2017 ) आपका जन्म सं. 1988 में 'लखतर' के शाह परिवार में हुआ सं. 2017 मृगशिर शुक्ला 6 को लखतर में ही श्री शारदाबाई महासतीजी के पास आप दीक्षित हुईं। आप आगम व स्तोक आदि की ज्ञाता होने के साथ-साथ घोर तपस्विनी हैं। आपने उपवास एवं बेले से वर्षीतप की आराधना की, मासक्षमण, 16, 8 आदि अनेक तपोनुष्ठान किये। वर्तमान में अग्रणी के रूप में शासन की प्रभावना कर रही हैं। 221 खम्भात ऋषि सम्प्रदाय की अवशिष्ट श्रमणियां 222 क्रम साध्वी नाम जन्म स्थान दीक्षा संवत् खंभात सुरत विरमगाम श्री सुभद्राबाई 2. श्री इन्दुबाई 3. श्री वसुबाई 4. श्री कांताबाई लखतर 5. श्री सद्गुणाबाई 6. श्री इन्दिराबाई सुरत 1. 2008 2011 2013 2013 2013 2014 तिथि चै.शु. 10 शुक्र. आसा. शु. 5 गुरू मृ. शु. 5 शुक्र. मृ. शु. 10 गुरु मा. शु. 6 बुध मृ.शु. 6 बुध 218-221. शारदा स्मृति ग्रन्थ, पृ. 30-31 222. शारदा - सुधा, में 'श्री शारदाबाई का शिष्या परिवार' माटुंगा, मुंबई सन् 1998 607 दीक्षा स्थान खंभात नार विरमगाम लखतर सुरत गुरुणी नाम " श्री शारदाबाई Page #670 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन श्रमणियों का बृहद इतिहास 7. श्री शांताबाई श्री कमलाबाई 9. श्री ताराबाई मोडासर खंभात साबरमती 2014 2014 म.शु.7 सोम मृ.शु. 6 शुक्र आसा. शु. 2 गुरू 2014 2017 नार खंभात साबरमती माटुंगा (मुं.) में स्वर्गवास, सं. 2023 लखतर दादर (मुंबई) - दादर (मुंबई) - मलाड (मुंबई) - माटुंगा (मुंबई) - खम्भात श्री वसुबाई 2021 2021 2022 2023 2026 2026 2029 2029 भावनगर श्री वसुबाई 2033 खंभात माटुंगा मलाड दादर साणंद खम्भात 10. श्री चंदनबाई लखतर 11. श्री रंजनबाई साबरमती 12. श्री निर्मलाबई खंभात श्री शोभनाबाई लींबड़ी श्री मंदाकिनीबाई माटुंगा 15. श्री संगीताबाई खम्भात 16. श्री हर्षिदाबाई घाटकोपर (मुं.) 17. श्री साधनाबाई खम्भात 18. श्री भावनाबाई मुंबई 19. श्री प्रफुल्लाबाई विरमगाम 20. श्री सुजाताबाई दादर (मुं.) 21. श्री पूर्वीषाबाई माटुंगा (मुं.) 22. श्री मनीषाबाई खंभात 23. श्री उर्वीशाबाई खंभात 24. श्री सुरेखाबाई मुंबई 25. श्री श्वेताबाई विरमगाम 26. श्री नम्रताबाई विरमगाम श्री विरतिबाई धानेरा श्री रक्षिताबाई धानेरा श्री हेतलबाई अहमदाबाद 30. श्री रोशनीबाई नार श्री चांदनीबाई खम्भात 32. श्री अर्पिताबाई खेड़ा 33. श्री पूर्णिताबाई खेड़ा 34. श्री सुज्ञाबाई जोरावरनगर 35. श्री प्रेक्षाबाई खम्भात - 36. श्री सेजलबाई अमदाबाद 37. श्री बीजल बाई अमदाबाद 2033 2037 2037 2037 2038 2039 2039 खम्भात मृ. शु. 6 गुरू मा. श. 13 रवि मा. शु. 13 रवि वै.शु. 11 रवि मा. शु. 8 रवि वै. कृ. 5 रवि वै. कृ. 11 रवि शु. 2 गुरू वै. शु. 5 सोम मृ. शु. 6 शुक्र वै.शु. 13 रवि फा. कृ. 2 रवि वै. शु. शुक्र वै. शु. शुक्र वै. शु. 6 गुरू वै.शु. 1 रवि वै.शु. 1 रवि मृ. कृ. 3 मंगल मृ. कृ. 3 मंगल मृ. कृ. 3 मंगल मा.शु. 11 शुक्र मा. कृ. 3 शुक्र फा. शु. 2 गुरू फा. शु. 2 गुरू फा. शु. 3 शुक्र वै. शु. 11 शनि. फा.शु. 7 सोम. फा.शु. 7 सोम. 2041 अहमदाबाद विरमगाम विरमगाम धानेरा धानेरा धानेरा नार खंभात 2041 2041 2041 2041 2041 खेड़ा खेड़ा 2041 2042 2043 जोरावरनगर नार कांदीवली (मुं.)कांदीवली (मुं.) - 2045 2045 608 Page #671 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्थानकवासी परम्परा की श्रमणियाँ 38. श्री हर्षज्ञाबाई 39. श्री श्रेयाबाई 40. श्री श्रुतिबाई 41. श्री माधुरीबाई 42. श्री चेतनाबाई 43. 44. श्री समीक्षाबाई अमदाबाद श्री शीतलबाई खम्भात 2047 2049 2049 2049 2052 2057 2059 मृ. कृ. 5 गुरू. मृ.शु. 7 शनि. 223. स्थानकवासी जैन परम्परा का इतिहास, पृ. 293 224. वही, पृ. 293 मु. शु. 7 शनि. वै.शु. 10. मा. शु. 13 शुक्र. मा. शु. 11 रवि. मा. शु. 5 शुक्र. 6.4 क्रियोद्धारक श्री धर्मसिंहजी महाराज व दरियापुरी संप्रदाय की श्रमणियाँ : लोकागच्छ में आयी शिथिलता के विरूद्ध क्रियोद्धार करने वालों में आचार्य धर्मसिंहजी का नाम बड़े आदर के साथ लिया जाता है। आपने संवत् 1675 माघ शु. 13 को यति श्री शिवजीऋषि के सान्निध्य में जामनगर में दीक्षा अंगीकार की । आगमों का अध्ययन करने के पश्चात् आपने जाना कि तत्कालीन साधु आचार-व्यवस्था आगम-विरूद्ध है, आपने एतद्विषयक चर्चा गुरू से की, गुरू श्री शिवजीऋषि ने क्रियोद्धार करने में अपनी असमर्थता व्यक्त की, अतः आपने गुरू की आज्ञा लेकर 16 साधुओं के साथ अहमदाबाद के दरियापुरी दरवाजे पर वि. सं. 1685 वैशाख शु. तृतीया को क्रियोद्धार किया। 223 आपकी समूची परंपरा दरियापुरी सम्प्रदाय के नाम से प्रसिद्ध है। वर्तमान में श्री शांतिलालजी स्वामी इस संघ के नायक हैं। इस संघ की यह उल्लेखनीय विशेषता है कि अपने उद्भवकाल से लेकर आज तक 386 वर्षों की सुदीर्ष अवधि से यह एक आचार्य के नेतृत्व में गतिशील हैं। इस संप्रदाय की साध्वियों का उल्लेख विक्रम की 20वीं सदी से मिला है, 20वीं सदी के प्रारंभ में श्री झलकबाई, जड़ावबाई के पास श्री नाथीबाई ने दीक्षा अंगीकार की थी। स्थानकवासी जैन परम्परा के इतिहास में आचार्य धर्मसिंहजी की माता श्रीमती शीवाबाई का सं. 1675 में श्री धर्मसिंहजी के साथ ही दीक्षित होने का उल्लेख है,224 किंतु इन्होंने किसके पास दीक्षा ली दरियापुरी संप्रदाय की प्रथम साध्वी कौन थी, यह परम्परा आगे किस प्रकार चली, इसकी प्रामाणिक जानकारी उपलब्ध नहीं हुई। 6.4. 1 श्री नाथीबाई (सं. 1961-2032 ) दरियापुरी संप्रदाय की प्रभावशालिनी साध्वीजी के रूप में श्री नाथीबाई महासतीजी का नाम सर्वप्रथम लिया जाता है। आपका जन्म साबरकांठा जिले के प्रांतीज ग्राम में सं. 1933 को पिता लल्लुभाई एवं माता गुलाबबहन के यहां हुआ। 12वर्ष की अवस्था में विवाह हुआ, कुछ ही समय बाद पति का वियोग होने से आपने श्री झलकबाई की शिष्या श्री जड़ावबाई के पास मृगशिर शु. 7 सं. 1961 में दीक्षा अंगीकार कर ली। दीक्षा के पश्चात् दशवैकालिक उत्तराध्ययन आदि आगम, 100 स्तोक, लगभग 300-400 सज्झाय, संस्कृत-व्याकरण, प्राकृत आदि का अच्छा अभ्यास किया। आपके हृदय में जैनशासन के अभ्युदय की प्रबल भावना रहती थी, तपस्या के पीछे होने वाले आडम्बर को अपने सदुपदेश द्वारा बंद करवाकर आपने संघ हित में श्रेष्ठ कार्य किया। शाहपुर में यह अहमदाबाद विलेपार्ले 609 Page #672 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन श्रमणियों का बृहद इतिहास रिवाज बिल्कुल बंद है, दरियापुरी आठ कोटी स्थानकवासी जैन संघ की प्रतिष्ठापना भी आपने की। आप अत्यंत व्यवहारकशल एवं समयज्ञा थीं। अहमदाबाद में अध्यात्मयोगी श्रीमद राजचंद्र एवं राष्ट्रपिता महात्मागांधी से भी आपकी धर्म चर्चाएं हई। आप पर मारणान्तिक उपसर्ग भी आये, उसका साहस के साथ मकाबला किया. आपके जीवन से संबंधित अनेक प्रेरक प्रसंग 'पू. नाथीबाई जीवन झरमर' में प्रकाशित हैं।225 आपकी 7 शिष्याएँ थीं-श्री कांताबाई, श्री आनंदीबाई, श्री जसवंतीबाई, श्री झबकबाई तथा श्री प्रफ्फुल्लाबाई, श्री शकरीबाई. श्री कुसुमबाई। श्री नाथीबाई की पूर्ण आयु 100 वर्ष की थी, जो दरियापुरी संप्रदाय में एक कीर्तिमान है। 71 वर्ष की दीक्षा-पर्याय पूर्ण कर फाल्गुन शु. 7 सं. 2032 को शाहपुर में आपका स्वर्गवास हुआ। 6.4.2 श्री झबकबाई (सं. 1962 के लगभग - स्वर्गस्थ) आपका जन्म सायला में मूलचंदभाई के यहाँ, तथा विवाह वढवाण के वोरा कुटुम्ब में हुआ। वेधव्य के पश्चात् 40 वर्ष की वय में दीक्षा अंगीकार की। आपका जीवन अत्यन्त सादगी व संयम पूर्ण था। आहार में पांच द्रव्यों का ही सेवन करती थीं, प्रमाद आपके जीवन में नहीं था, प्रायः स्वाध्याय-ध्यान में लीन रहती थीं।26 6.4.3 श्री सूरजबाई (सं. 1979 से पूर्व -स्वर्गस्थ) आप श्री झबकबाई की शिष्या थीं, आपका जन्म वढवाण (सौराष्ट्र) में हुआ, माता का नाम मोंघीबाई था, बाल्यवय में ही आपका विवाह हो गया किंतु संयम की उत्कट भावना से पति व श्वसुर से आज्ञा लेकर दीक्षा अंगीकार की। आपका जीवन ज्ञान और आचार का संगम था, व्याख्यान-शैली मधुर व अध्यात्म से अनुरंजित थी। पालनपुर में आपका अधिक प्रभाव था। श्रीकेसरबाई, चंपाबाई, ताराबाई आदि आपकी शिष्याएँ थीं।227 6.4.4 श्री पार्वतीबाई (सं. 1979-2018 के पश्चात् ) __ आपका जन्म सुरेन्द्रनगर में पिता जीवणभाई और माता झबकबाई के यहां हुआ। लींबड़ी निवासी श्री जेठालालभाई के साथ आपका संबंध हुआ, कुछ ही समय पश्चात् विधवा हो जाने से आपको विरक्ति पैदा हो गई और श्री जीवकोरबाई की सुशिष्या बालुबाई महासतीजी के पास 'वीरमगाम' में दीक्षा अंगीकार की। आप संयमनिष्ठ एवं आगमप्रेमी थीं, सदा स्वाध्याय की प्रेरणा देती रहती थीं।228 6.4.5 श्री केसरबाई (सं. 1982-2033) दरियापुरी संप्रदाय के सूर्यमंडल की अग्रणी श्री केसरबाई महासतीजी का जन्म बनासकांठा जि. पालनपुर में संवत् 1958 के पोष मास में श्री फोजालाल पारेख व श्रीमती समरतबेन के यहां हुआ। 16 वर्ष की वय में पालनपुर के श्री बालचंदजी मंगलजी के साथ विवाह हुआ, दो वर्ष में ही पति की मृत्यु हो गई, तब आपने अपने श्वसुर पक्ष की संपूर्ण सम्पत्ति से पालनपुर में 'मंगलजी वमलशी होस्पीटल' का निर्माण करवाया, और जब दीक्षा का 225. संपादक, भातृचन्द्रपादाम्बुजरज 'अंबू' प्रकाशक-श्री शाहपुर दरियापुरी आठकोटि स्था. जै. संघ, अहमदाबाद, ई. 1976 226. संपा. अमृतलाल स. गोपाणी, वसुवाणी, भाग बीजो, पृ. 340, माटुंगा मुंबई, ई. 1962 227. वसु.वाणी, भाग बीजो, पृ. 340 228. वसुवाणी, भाग बीजो, पृ. 341 Page #673 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्थानकवासी परम्परा की श्रमणियाँ विचार पक्का बन गया तो अपनी समस्त संपत्ति इसी होस्पीटल को दान स्वरूप देकर पालनपुर में संवत् 1982 में दीक्षा अंगीकार की। आपकी गुरूणी श्री झबकबाई श्री सूरजबाई थीं। आपने बत्तीस ही आगमों का अनुशीलन परिशीलन किया था जो आपके असरकारक अचूक प्रवचनों में झलकता था। आप स्व.-पर हितार्थ की भावना से सदा ही विहार करना पसंद करती थीं, कच्छ, सौराष्ट्र, गुजरात और मुंबई आपकी विहारभूमि रही। आप भद्र प्रकृति की समतावान, निष्कारण उपकारी एवं निर्मल हृदय की थीं। मौन, गुरूआज्ञा और स्वाध्याय में ही तल्लीन रहना आपकी प्रवृत्ति थी। अंत में 51 वर्ष की पूर्ण दीक्षा-पर्याय पालकर सं. 2033 जेठ सुदी 13 को अमदाबाद सारंगपुर के उपाश्रय में समाधिभाव से स्वर्गवासिनी हुईं। आपकी दीक्षा एवं स्वर्गवास एक ही दिन हुआ-जेठ सुदी 13 सोमवार। आपकी दो शिष्याएँ थीं-श्री प्रभाबाई, स्व. श्री वसुमतीबाई। 'श्री केसरबाई नी संक्षिप्त जीवन झरमर' पुस्तक प्रकाशित है।229 6.4.6 श्री शकरीबाई (सं. 1984-स्वर्गस्थ) आप मूल ध्रांगध्रा की थीं, वढवाण में आपका ससुराल था। आपको एक पुत्री भी थी। वैधव्य के पश्चात् पू. नाथीबाई के पास शाहपुर में वैशाख कृ. 5 के दिन दीक्षा अंगीकार की। आप बड़ी ही स्वाध्याय प्रेमी थीं, सेवाभाविनी थी। अंत समय में सात वर्ष तक हड्डी के कैंसर की बीमारी को समताभाव से भोगकर कार्तिक कृ. 12 को शाहपुर में समाधिपूर्वक स्वर्गवासिनी हुईं।230 6.4.7 श्री ताराबाई (सं. 1986-2036) आपका अवतरण सं. 1956 को पालनपुर में माता मैनाबाई व पिता भाईचंदभाई के यहां हुआ। तरूण अवस्था में आपका विवाह हुआ, किंतु 11 महीने में ही वैधव्य का दुःख आ पडा। सं. 1986 में पूज्य लक्ष्मीचंदजी म. सा. के सदुपदेश से प्रेरित होकर वैशाख कृ. 5 को 30 वर्ष की वय में दीक्षा अंगीकार कर श्री सूरजबाई की शिष्या बनीं। आप प्रारंभ से ही ज्ञानपिपासु थीं, व्याख्यान हो या स्वाध्याय कभी ऊपर निगाह कर किसीको उस काल में देखती भी नहीं थीं। 50 वर्ष की दीक्षा-पर्याय में आपने अविरत अध्ययन किया, जीवन पर्यन्त विद्यार्थी बनी रहीं, आगम संबंधी कहीं से भी कोई प्रश्न पूछता तो उसे तुरंत समाधान प्राप्त होता था। दिन में कभी आराम नहीं करती, मन की निश्चलता इतनी थी, कि एकबार जहां बैठ गईं, वहाँ से बिना कारण उठती नहीं थीं। आठ उपवास में भी प्रवचन की धारा बंद नहीं की। आप सरलता, सौम्यता वाणी-वर्तन की एकता और क्रियानिष्ठा की खान थीं। श्री वीरेन्द्रमुनिजी पर महासतीजी का महान उपकार था। अंत समय में देह से निस्पृह होकर बहिर्भाव को भूलकर आत्मस्थ रहीं, बीमारी की अवस्था में न डॉक्टर को बुलाया न कोई दवा ली। सं. 2036 चैत्र शु. 10 को नवरंगपुरा अमदाबाद में आप समाधिमरण को प्राप्त हुईं। आपकी कुल 18 शिष्याएँ थीं।3। आपके उववाईसूत्र पर आधारित व्याख्यान 'आध्यात्मिक प्रवचन' के नाम से प्रकाशित हैं।232 229. संपादक-अंबालाल छोटालाल पटेल, प्रकाशक-दरियापुरी आठकोटि स्था. जैनसंघ, सारंगपुर, अमदाबाद, ई. 1978 230. वात्सल्यता नी वीरड़ी, पृ. 5 231. तारक नां तेज किरणो, लेखिका-प्रीति शाह, प्रकाशक-श्रीमती पद्माबेन धनकुमार, 5 जैननगर, पालड़ी, अमदाबाद, ई. 1981 232. द. तारा सुधारस वाणी, माटुंगा, मुंबई वि. सं. 2015 Page #674 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 6.4.8 श्री हीराबाई (सं. 1994-2035 ) आपका जन्म सौराष्ट्र भूमि में धोराजी ग्राम निवासी ब्रह्मक्षत्रिय श्री डाह्याभाई तथा माता रलियातबहेन के यहाँ सं. 1972 ज्येष्ठ शु. 11 को हुआ। जेतपुर निवासी श्री वनमालीदासभाई से आपका बाल्यवय में पाणिग्रहण हुआ, 3-4 वर्ष में ही पतिवियोग के पश्चात् दरियापुरी संप्रदाय की साध्वी श्री छबलबाई के वैराग्यवर्द्धक प्रवचन से आपमें आत्म-लक्ष्य को प्राप्त करने की धुन जागृत हुई तो एक ही महीने में सामायिक, प्रतिक्रमण, 10 स्तोक तथा आचारांग सूत्र भी सीख लिया और सं. 1994 वैशाख शु. 5 को अमदाबाद सारंगपुर में आप दीक्षित हो गईं। आप अतिशय प्रतिभावंत थीं, आपको 400 बड़ी-बड़ी सज्झाय कंठस्थ थीं, साथ ही कंठ भी सुरीला था, आप जब गातीं थीं तो आपके मधुर स्वर को सुनकर राह पर चलते लोग खड़े हो जाते थे, और एकाग्र मन से सज्झाय श्रवण करते थे। प्रवचनशैली अति सरल व प्रभावक थी, गुजरात, सौराष्ट्र झालावाड़, महाराष्ट्र, मुंबई आदि क्षेत्रों में आपने खूब धर्मप्रभावना की। आप तपस्विनी भी थीं, पोरसी रोज करती थीं, अन्य तपस्या भी की, पर पृथक् उल्लेख नहीं किया है। अंत समय में आपको पूर्वाभास हो गया था, अतः संथारा पूर्वक मुंबई अंधेरी के उपाश्रय में माघ शु. 2 सं. 2035 को कुल 62 वर्ष की उम्र में कालधर्म को प्राप्त हुईं। आपकी 5 शिष्याएँ हैं - श्री मंजुलाबाई, श्री कांताबाई, श्री मधुबाई, श्री ललिताबाई, श्री इन्दिराबाई तथा वीणाबाई, प्रवीणाबाई, भावनाबाई व जागृतिबाई ये 4 प्रशिष्याएँ हैं। 233 6.4.9 श्री जशवंतीबाई (सं. 1995-2053 ) आपका जन्म सूरत निवासी श्री मणिलाल छगनलाल संघवी के यहां श्रीमती शिवा बहन की कुक्षि से आश्विन कृ. 9 सं. 1978 में हुआ। दीक्षा माघ शु. 5 सं. 1995 के शुभ दिन छीपापोल अमदाबाद में हुई, श्री नाथी बाई आपकी गुरूणी थीं। आपने दीक्षा के पश्चात् 11 आगम, 100 स्तोक कितनी ही सज्झाय कथाएँ आदि कंठस्थ कीं, संस्कृत- प्राकृत की भी अच्छी जानकार थीं। प्रतिदिन दशवैकालिक, उत्तराध्ययन, आचारांग व नंदीसूत्र का स्वाध्याय चालू रहता था। आप सेवामूर्ति थीं, सतत 14 वर्ष शाहपुर श्री नाथीबाई की सेवा में संलग्न रहीं । विद्या व विनय संपन्नता आपके साहजिक गुण थे, सभी के प्रश्नों का सरल व शांति से समाधान कर संतुष्ट कर देती थीं। आपका विशाल अध्ययन चिंतन व अनुभव आपकी तेजस्वी वाणी से प्रकट होता था। आपकी 4 शिष्याएँ हैं- श्री कुसुमबाई, प्रफुल्लाबाई, नलिनीबाई व उर्वशीबाई । चारों शिष्याओं को योग्य एवं विदुषी बनाकर 78 वर्ष की अवस्था में ज्येष्ठ शु. 11 सं. 2053 को देहातीत अवस्था में समाधिमरण को प्राप्त हुईं। श्री वीरेन्द्रमुनि श्री राजेन्द्रमुनि व श्री रवीन्द्रमुनि आपके द्वारा प्रेरित होकर संयम अनुगामिनी बने | 234 जैन श्रमणियों का बृहद इतिहास 6.4.10 श्री वसुमतीबाई (सं. 1995-2031 ) आप दरियापुरी संप्रदाय की तेजस्विनी प्रभावसंपन्ना साध्वी थीं, आपका जन्म सं. 1963 चैत्र कृ. 1 को हुआ । आपके पिता श्री तलसीभाई पालनपुर राज्य के नवाबी राजा के दीवान थे। वैधव्य के पश्चात् सं. 2031 चैत्र कृ. 11 को वीरमगाम में आपकी दीक्षा श्री सूरजबाई की शिष्या श्री केसरबाई के पास हुई। आप प्रारंभ से ही प्रतिभावंत 233. शिष्याओं द्वारा प्राप्त, सूरत से प्राप्त, गुरूणीमैया हीराबाई म. सा. नु. जीवन कथन 234. वात्सल्यता नी वीरड़ी, संपा. - मेरूभाई झींझुवाड़िया, अमदाबाद, ई. 1998 612 Page #675 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्थानकवासी परम्परा की श्रमणियाँ एवं कंठमाधुर्य के गुण से युक्त थीं। अपनी विचक्षण मेधा शक्ति से आपने अनेक आगम, स्तोक, सज्झाय, संस्कृत - प्राकृत आदि का ज्ञान प्राप्त किया था। आपकी प्रवचनशैली तलस्पर्शी, विचार सभर गंभीर आशय वाली, सरल व प्रसाद गुण युक्त थी। आपके प्रेरक प्रवचन से मुंबई में 51 दम्पती ने आजीवन ब्रह्मचर्य व्रत ग्रहण किया। जैन कान्फ्रेंस के स्वर्ण जयंति ग्रंथ में भी आपके प्रवचनों की प्रशंसा उल्लिखित है, 235 आप जो भी बोलतीं वह नीडरता से युक्तिपूर्ण बोलतीं थीं, अतः आपको 'प्रवचनकार', 'शासनदीपक' आदि उपाधियों से विभूषित किया गया था। आपके प्रवचन वसुझरणा, वसु-सुवास भाग 1-2, वसुधारा भाग 1-2 व वसुवाणी भाग 1-2 में संग्रहित हैं। आपके जीवन के अनेक प्रेरक प्रसंग पुस्तक रूप में प्रकाशित हैं 1236 आपकी मुख्य 5 शिष्याएँ हैं- श्री दमयंतीबाई, दीक्षिताबाई, हीराबाई, सविताबाई एवं प्रफुल्लाबाई । सं. 2031 चैत्र कृष्णा 11 को लखतर में आपका स्वर्गवास हुआ। 6.4.11 श्री कुसुमबाई (सं. 2015 से वर्तमान ) आप अमदाबाद के श्रीमती मणिबहेन नगीनदासजी की सुपुत्री हैं, आपका जन्म संवत् 1991 में हुआ। पू. जशवंतीबाई के पास अमदाबाद में ही संवत् 2015 पोष कृ. 1 को आप दीक्षित हुई। आपने दीक्षा के पश्चात् 10 आगम 60 स्तोक, अनेक सज्झाय आदि कंठस्थ किये। आपने अनेक प्रकार की तपस्याएँ, वर्षीतप आदि किया है। 237 6.4.12 श्री प्रफुल्लाबाई (सं. 2017 से वर्तमान) आपका जन्म सं. 1996 ज्येष्ठ कृ. अमावस्या को खेड़ा जिले के बोरसद गांव के पास बोदाल ग्राम में हुआ । आपके पिता श्री आशाभाई पटेल ( लेउवा पाटीदार) थे। वीरमगाम में सं. 2017 माघ शु. 10को आप श्री जशवंतीबाई के चरणों में दीक्षित हुईं। आप विदुषी साध्वी रत्न हैं। 238 6.4.13 श्री नलिनीबाई (सं. 2039 से वर्तमान ) आपका जन्म अमदाबाद में सं. 2005 श्री मणिभाई के यहाँ हुआ। पू. जशवंतीबाई के पास माघ शु. 6 को संवत् 2039 में अमदाबाद शाहपुर में आपकी दीक्षा हुई। आप पढी-लिखी विदुषी साध्वी हैं, गृहस्थावस्था में ही एम. ए. की पढ़ाई की, आगमों का भी अच्छा अभ्यास किया है। 239 6.4.14 श्री उर्विशाबाई (सं. 2045 से वर्तमान) आपका जन्म विरमगाम में श्री बाबूभाई शाह के यहां सं. 2020 में हुआ। कॉलेज का एक वर्ष करके आपने संवत् 2045 माघ कृष्णा 5 को श्री जशवंतीबाई के पास विरमगाम में दीक्षा अंगीकार की। आप संयम व तप की साधना में संलग्न हैं | 240 235. जै. कां. स्वर्ण जयंति ग्रंथ, पृ. 57 236. श्री वसुमती आर्याजी नी जीवन झरमर, संपादक-अंबालाल सी. पटेल, अहमदाबाद, वि. सं. 2031 237. वात्सल्यता नी वीरड़ी, पृ. 6 238. वात्सल्यता नी वीरड़ी, पृ. 7 239. वात्सल्यता नी वीरड़ी, पृ. 9-11 240. वात्सल्यता नी वीरड़ी, पृ. 11 613 Page #676 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन श्रमणियों का बृहद इतिहास लं दरियापुरी सम्प्रदाय की अवशिष्ट श्रमणियाँ क्रम साध्वी नाम जन्म संवत् तिथि दीक्षा संवत् तिथि दीक्षा स्थान विशेष विवरण 1. श्री हर्षिताबाई 2007 नवंबर 29 2033 मा.शु. 13 अमदाबाद वर्तमान 2. श्री अरूणाबाई 2001 अप्रेल 8 2033 मा. शु. 13 अमदाबाद वर्तमान श्री नयनाबाई 2033 फा.शु. 2 वढवाणा वर्तमान 4. श्री भानुबाई 2034 पो. कृ.5 अमदाबाद वर्तमान 5. श्री हंसाबाई (तृ.) 2006 श्रा.शु. 5 2 034 वै.शु. 7 अमदाबाद वर्तमान 6. श्री चेतनाबाई 2010 का. शु. 9 2035 फा.शु. 2 जोरावरनगर वर्तमान 7. श्री धर्मिष्ठाबाई 2036 वै.कृ.5 शाहपुर वर्तमान 8. श्री रश्मिताबाई 2012 श्रा.0शु. 11 2036 वै.कृ. 5 शाहपुर (अमद.) वर्तमान 9. श्री मौनिकाबाई 2015 वै.शु. 8 2037 मा. कृ. 10 गिरधरनगर (अमदा.) वर्तमान 10. श्री विशाखाबाई 2037 फा.शु. 7 शाहपुर (अमदा.) वर्तमान 11. श्री चंद्रिकाबाई 2011 जनवरी 18 2037 फा.शु. 7 शाहपुर (अमदा.) वर्तमान 12. श्री प्रीतिबाई 2006 जुलाई 20 2037 वै.शु. 11 कांदावाड़ी (मुं.) वर्तमान 13. श्री अनिलाबाई 2012 जुलाई 4 2038. फा.शु. 2 सायला वर्तमान 14. श्री फाल्गुनीबाई 2011 अप्रेल 12 2039 का. शु. 11 बालकेश्वर (मुं.) वर्तमान 15. श्री प्रेक्षाबाई 2020 चै.शु. 15 2039 मृ.शु. 3 अमदाबाद वर्तमान श्री अंजलिबाई 2009 - 2039 वै.कृ. 5 अमदाबाद स्वर्गस्थ 17. श्री सुज्ञाबाई 2039 वै.कृ.5 अमदाबाद स्वर्गस्थ 18. श्री अमीशाबाई 1995 श्रा.कृ. 4 2039 वै.कृ.5 अमदाबाद वर्तमान । श्री नमीशाबाई 2022 आसो. शु. 6 2039 वै.कृ. 5 अमदाबाद वर्तमान 20. श्री अमिताबाई 2039 वै.कृ.5 अमदाबाद वर्तमान 21. श्री निपुणाबाई 1956 चै. कृ. 2 2040 पो.कृ. 1 अमदाबाद वर्तमान श्री धारिणीबाई 2008 मई 14 2040 पो.कृ. 6 अमदाबाद वर्तमान 23. श्री कविज्ञाबाई 2013 वै. शु. 4 2040 मा.शु. 13 सायला वर्तमान 24. श्री सिद्धिबाई 2040 फा. शु. 2 वढवाण वर्तमान 25. श्री धर्मिज्ञाबाई 2040 वै.शु. 5 धंधुका स्वर्गस्थ श्री विज्ञाताबाई 2040 वै.शु. 5 धंधुका वर्तमान 27. श्री रिद्धिबाई 2012 फरवरी 4 2041 मृ. शु. 6 अमदाबाद स्वर्गस्थ 28. श्री झंखनाबाई 2009 अक्टू. 7 2041 फा. कृ. 2 अमदाबाद वर्तमान 29. श्री हितज्ञाबाई 2041 वै.शु. 8 कलोल वर्तमान 30. श्री श्वेताबाई 2013 अप्रेल 15 2041 आसो. शु. 6 सुरेन्द्रनगर वर्तमान 31. श्री सुधाबाई 2016 मार्च 30 2041 आसो. शु. 6 सुरेन्द्रनगर वर्तमान 241. पत्राचार से प्राप्त सामग्री के आधार पर नोट : वर्तमान में स्रवत् 2061 की सूची के अनुसार इस सम्प्रदाय में कुल 113 श्रमणियाँ हैं। Page #677 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्थानकवासी परम्परा की श्रमणियों 32. श्री झरणाबाई 2020 चै. शु. 9 33. श्री वीरांगीबाई 2015 मृ.शु. 8 34. श्री रचनाबाई 2009 दिसंबर 9 35. श्री निधिबाई 2021 मई 19 36. श्री कृपाबाई 37. श्री कृपालीबाई 38. श्री नेहाबाई 39. श्री श्रेयाबाई 40. श्री तृप्तिबाई 41. श्री विभाबाई 42. श्री किरणबाई 43. श्री जिज्ञाबाई 44. श्री मोक्षाबाई 45. श्री दृष्टाबाई 46. श्री भाविताबाई 47. श्री भावनाबाई (तृ.) 48. श्री भावनाबाई (च) 49. श्री चंदनबाई 50. श्री मीतेशाबाई 51. श्री तेजस्विनीबाई 52. श्री हितेशाबाई 53. श्री महिताबाई 54. श्री हेमाबाई 55. श्री दृष्टिबाई 56. श्री हेतलबाई 57. श्री प्रतीतिबाई 58. श्री हितप्रज्ञाबाई 59. श्री नीपाबाई 60. श्री प्रतिक्षाबाई 61. श्री ओजस्विनीबाई 62. श्री मनीषाबाई 63. श्री हितस्विनीबाई 64. श्री हेतस्विनीबाई 65. श्री लब्धिबाई 2018 सितंबर 20 2019 आसो. शु. 5 2025 ज्ये कृ. 7 2023 सिंत. 15 2022 मा. शु. 10 2015 मार्च 24 2020 आसो. शु. 8 2021 आसो. कृ. 12 2024 चै. कृ. 12 2024 पो. शु. 10 2018 पो. शु. 11 2020 अप्रेल 18 2024 अषा. शु. 6 """ ।। 2021 सितंबर 8 2027 दिसंबर 15 2033 अगस्त 7 2037 अप्रेल 30 2039 अगस्त 1 2042 पो. कृ. 1 2043 मा.शु. 9 2044 मू. शु. 15 2044 मा. शु. 2044 द्वि. ज्ये. शु. 2 2044 हि. ज्ये.शु 2 2045 पो. कृ. 1 2045 पो. कृ. 1 2045 पो. कृ. 8 2045 मा. शु. 5 2045 वै. शु. 6 2047 मा. शु. 5 2047 मा. कृ. 5 2047 मा. कृ. 4 2047 मा. कृ. 11 2047 द्वि. वै.शु. 9 2049 मा. शु. 3 2049 आसो. शु. 13 2050 पो. शु. 12 2050 मा.कृ. 5 2050 पो. शु. 15 2052 का. कृ. 12 2053 मृ शु. 2 2050 मा. शु. 3 2053 मा. शु. 13 2054 मृ.शु. 5 2054 मा.शु. 5 2055 मा.शु. 11 2055 ज्ये. शु. 10 2057 मा.शु. 8 2057 मा. कृ. 4 2060 मृ. कृ. 3 2060 मृ. कृ. 3 2060 मा. कृ. 3 615 अमदाबाद वडोदरा अमदाबाद अमदाबाद अमदाबाद अमदाबाद अमदाबाद अमदाबाद धानेरा ध्रांगधा वालकेश्वर (मुं.) भावनगर कलोल कलोल नवसारी अमदाबाद सुरेन्द्रनगर पालनपुर अमदाबाद इटोला अमदाबाद सायला सुरेन्द्रनगर घाटकोपर (मुं.) अमदाबाद अंधेरी (वे.) मु. अमदाबाद सुरत सुरेन्द्रनगर अमदाबाद सुरेन्द्रनगर पीज पीज सुरत वर्तमान वर्तमान स्वर्गस्थ वर्तमान वर्तमान वर्तमान वर्तमान वर्तमान वर्तमान वर्तमान वर्तमान वर्तमान वर्तमान वर्तमान स्वर्गस्थ वर्तमान वर्तमान वर्तमान वर्तमान वर्तमान स्वर्गस्थ स्वर्गस्थ वर्तमान वर्तमान वर्तमान वर्तमान वर्तमान वर्तमान वर्तमान वर्तमान वर्तमान वर्तमान वर्तमान वर्तमान Page #678 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 6.5 क्रियोद्धारक श्री धर्मदासजी महाराज तथा गुजरात-परम्परा क्रियोद्धारक श्री धर्मदासजी स्वामी के 99 शिष्यों में 22 शिष्य प्रमुख हुए, जिनमें प्रथम शिष्य मुनि श्री मूलचन्दजी स्वामी थे, वे सं. 1723 में अहमदाबाद में दीक्षित हुए, संवत् 1764 में वे आचार्य पद पर प्रतिष्ठित हुए, इनके सात शिष्य थे, इन सातों शिष्यों के द्वारा गुजरात के पृथक-पृथक् संप्रदायों की नींव पड़ी, वह इस प्रकार है- (1) श्री गुलाबचन्द्रजी के शिष्य नागजी से सायला संप्रदाय (2) पंचायणजी से लींबड़ी संप्रदाय ( 1718), (3) श्री वनाजी, श्री कानजी (बड़े) से बरवाला संप्रदाय (4) श्री बनारसी स्वामी के शिष्य श्री उदयसिंहजी, श्री जयसिंहजी से चूड़ा संप्रदाय, ( 5 ) श्री विट्ठलजी के शिष्य श्री भूषणजी, श्री वशरामजी से ध्रांगध्रा अथवा बोटाद संप्रदाय, ( 6 ) श्री इन्द्रचंद्रजी से कच्छ आठकोटि संप्रदाय (सं. 1856) (7) श्री इच्छाजी के शिष्य रामजीऋषि (छोटे) से उदयपुर संप्रदाय । उपशाखाएं – लींबड़ी संप्रदाय के संस्थापक पंचायणजी के शिष्य श्री रत्नसिंहजी, श्री डुंगरसीजी से गोंडल संप्रदाय (सं. 1845), गोंडल संप्रदाय के संस्थापक श्री डुंगरशीजी के शिष्य श्री गंगाजी, श्री जयचन्दजी से गोंडल संघाणी संप्रदाय । लींबड़ी संप्रदाय के पंचम पट्टधर श्री अजरामरजी स्वामी के पंचम पट्टधर श्री गोपालजी से लींबड़ी गोपाल संप्रदाय प्रारंभ हुई। इन्हीं में 'हालारी' और 'वर्धमान' सम्प्रदाय भी है। कच्छ आठ कोटी के संस्थापक श्री इन्द्रचंद्रजी के चतुर्थ पट्टधर श्री किरसनजी हुए इनसे कच्छ आठ कोटी नानी पक्ष और मोटीपक्ष इस प्रकार दो विभाग हुए। इनमें श्री लवजीऋषिजी की परंपरा के श्री मंगलऋषिजी की खंभात संप्रदाय व श्री धर्मसिंहजी की दरियापुरी संप्रदाय मिलाकर गुजरात में कुल 16 संप्रदायें अस्तित्व में आईं। इनमें 'सायला', सम्प्रदाय में दो साधु हैं, साध्वियाँ नहीं। 'चूड़ा' और 'उदयपुर' सम्प्रदायें विलुप्त हो गई हैं, इनमें कोई साधु-साध्वी नहीं है। 'हालारी' संप्रदाय में संघ प्रमुख स्थविर श्री केशवमुनिजी तथा श्री नानजी महाराज की आज्ञा में श्री कमलाबाई, श्री वनिताबाई श्री वसुमतीबाई तथा श्री प्रज्ञाबाई ये 4 महासतीजी वर्तमान हैं। वर्धमान संप्रदाय में शतावधानी श्री पूनमचंद्रजी महाराज के शिष्य संघनायक श्री निर्मलमुनिजी की आज्ञा में तपस्विनी श्री रूक्मणीबाई, श्री शोभनाबाई आदि 6 साध्वियाँ हैं। इनका विशेष इतिवृत्त ज्ञात नहीं है। शेष संप्रदायों और उनकी श्रमणियों का वर्णन अग्रिम पंक्तियों में अंकित कर रहे हैं। 6.5.1 लिंबड़ी अजरामर सम्प्रदाय ( संवत् 1718 से वर्तमान ) 6.5.1.1 प्रवर्तिनी श्री सुजाणबाई आदि पांच आद्य श्रमणियाँ ( दीक्षा सं. 1718-1739) आचार्य श्री धर्मदासजी महाराज के प्रमुख शिष्य आचार्य श्री मूलचन्द्रजी स्वामी की आज्ञानुवर्तिनी पांच साध्वियाँ थीं- श्री सुजाणबाई, श्री सुंदरबाई, श्रीनिर्मलाबाई श्री गंगाबाई श्री जमनाबाई । ये पांचों बहनें सूरत के जैन ओसवाल परिवार से संबंधित थीं, आचार्य श्री धर्मदासजी महाराज द्वारा सूरत में ही संवत् 1718 वैशाख शुक्ला 13 को इन सबने दीक्षा अंगीकार की। इनमें श्री सुजाणबाई सबसे ज्येष्ठ थीं, वे प्रवर्तिनी पद पर प्रतिष्ठित की गई, उनके प्रवर्तिनी पद प्रदान का समय जयपुर (राज.) संवत् 1723 माघ शुक्ला अष्टमी का है। 16 वर्ष इस पद पर रहकर संवत् 1739 आषाढ़ शुक्ला द्वितीया के दिन स्वर्गवासी हुईं। 242 242. अजरामर विरासत (स्मृति ग्रंथ), पृ. 153, 177, श्री स्था. जैन लींबड़ी अजरामर संप्रदाय, लींबड़ी (गु.) 2003 ई. (प्र. सं.) जैन श्रमणियों का बृहद इतिहास 616 Page #679 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्थानकवासी परम्परा की श्रमणियाँ 6.5.1.2 प्रवर्तिनी श्री काशीबाई (सं. 1740-48) आप श्री सुजाणबाई की शिष्या थीं, उनके स्वर्गवास के बाद आप संवत् 1740 पौष शुक्ला 5 को आचार्य श्री धर्मदासजी महाराज द्वारा प्रवर्तिनी पद पर प्रतिष्ठित की गईं, श्रावण कृष्णा 2 संवत् 1748 में आपका स्वर्गवास हुआ।243 6.5.1.3 प्रवर्तिनी श्री चंदनबाई (सं. 1748-57) श्री काशीबाई की शिष्या श्री चंदनबाई थीं, आचार्यश्री धर्मदास महाराज ने श्री काशीबाई के स्वर्गवास के पश्चात् मृगशिर शुक्ला 13 संवत् 1748 में आपको प्रवर्तिनी पद प्रदान किया, संवत् 1757 कार्तिक कृष्णा नवमी को आप स्वर्गस्थ हुईं।244 6.5.1.4 प्रवर्तिनी श्री समजूबाई (सं. 1758-1774) आपश्री चंदनबाई की शिष्या थीं, श्री चंदनबाई के स्वर्गवास के पश्चात् माघ शुक्ला द्वितीया रतलाम (मालवा) संवत् 1758 में आप प्रवर्तिनी बनीं। आपका प्रवर्तिनी पद भी आचार्य धर्मदासजी महाराज के मुखारविंद से दिया गया था। चैत्र कृष्णा अष्टमी संवत् 1774 में आपका स्वर्गवास हुआ।245 6.5.1.5 प्रवर्तिनी श्री धीरजबाई (सं. 1775-1810) आप संवत् 1775 वैशाख शुक्ला 15 को पूज्य श्री मूलचन्द्रजी महाराज द्वारा प्रवर्तिनी पद पर नियुक्त हुईं, आपकी स्वर्गवास तिथि संवत् 1810 आश्विन कृष्णा 1 है। श्री धीरजबाई के स्वर्गवास के पश्चात् प्रवर्तिनी पद की परम्परा नहीं चली, मात्र प्रमुखा साध्वी के रूप में उनकी शिष्या श्री जेठीबाई (मोटा) हुईं, उनकी सुशिष्या श्री कुंकुबाई (श्री अजरामरजी महाराज की मातेश्वरी) आदि साध्वियाँ हुईं, जो आचार्य मूलचन्द्रजी स्वामी के पाटानुपाट पूज्य श्री हीराजी स्वामी (सं. 1833-1841) की आज्ञा में सौराष्ट्र तथा गुजरात में विचरण करती थीं।246 6.5.1.6 आर्या कुंकुबाई (सं. 1819 - ) आप लींबड़ी सम्प्रदाय के शासनोद्धारक आचार्य श्री अजरामरजी महाराज की मातेश्वरी एवं जिला जामनगर ग्राम पडाणा के श्री माणिकचंद भाई शाह की पत्नी थीं। आप अत्यंत धर्मनिष्ठ नारी-रत्ना थीं, प्रतिदिन सामायिक, प्रतिक्रमण आदि नित्य नियम उच्चारण पूर्वक करती थीं। आपकी धर्मनिष्ठा का ही प्रभाव था कि पांच वर्ष की उम्र में ही बालक अजरामर ने माता द्वारा किये गये प्रतिक्रमण को सुन-सुनकर याद कर लिया था। वि. सं. 1819 माघ शु. 5 को पूज्य श्री हीराजी स्वामी के सान्निध्य में माता-पुत्र दोनों ने दीक्षा ग्रहण की, अजरामरजी कानजी स्वामी के शिष्य बने तथा कुंकुबाई श्री जेठीबाई आर्या की शिष्या बनीं। आपके स्वर्गवास की तिथि अज्ञात है। अजरामर मुनि बड़े ही उच्चकोटि के तपस्वी तथा सद्गुणों की खान थे। लिम्बड़ी में आप पांचवें गादीपती आचार्य के रूप में ख्याति प्राप्त हैं। वर्तमान में लिम्बड़ी संप्रदाय 'श्री अजरामरजी महाराज की संप्रदाय' के रूप में प्रसिद्ध है।247 6.5.1.7 श्री जेठीबाई, श्री मोंघीबाई (सं. 1869- ) आचार्य अजरामरजी महाराज ने वि. सं. 1869 कार्तिक कृष्णा त्रयोदशी के दिन कच्छ की श्री जेठीबाई एवं । 243-246. अजरामर विरासत, पृ. 154 Page #680 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन श्रमणियों का बृहद इतिहास मोरवी की श्री मोंघीबाई आदि आर्याओं को लिम्बड़ी में दीक्षा प्रदान की थी। 248 अजरामरजी स्वामी के समय कच्छ वागड़ में उनकी आज्ञानुवर्तिनी साध्वी श्री 'वांछीबाई' के विचरण का उल्लेख भी प्राप्त होता है 1 249 6.5.1.8 श्री डाहीबाई ( स्वर्ग. 1974 ) आप भद्रात्मा पुण्य प्रभाविका थीं। आपका जन्म 'गुंदाला' में हुआ और दीक्षा भी गुंदाला में हुई। अंतिम समय आप 'मांडवी (कच्छ) में स्थिरवासिनी रहीं। सं. 1974 को भादवा सुदी पूर्णमासी के दिन आप कालधर्म को प्राप्त हुईं। 250 उस समय आचार्य मेघराजजी, आचार्य देवचन्द्रजी स्वामी थे। - 6.5.1.9 श्री संतोकबाई ( बीसवीं सदी का मध्यकाल ) आप महान वैरागी, एकांतवासी एवं अध्यात्ममार्ग की सहयोगिनी थीं, इन्हीं की परंपरा में श्री कुंवरबाई निर्भीक, साहसी व सिद्धांतप्रेमी साध्वी हुईं तथा श्री लाड़कंवरबाई भी विचक्षणा साध्वी हुईं थीं। 251 6.5.1.10 श्री केसरबाई ( 20वीं सदी का मध्यकाल ) श्री वांछीबाई महासतीजी के परिवार में श्री केसरबाई महाप्रभावशालिनी साध्वी हुईं, उनकी अनुगामिनी शिष्या श्री नाथीबाई भी बड़ी विचक्षणा थीं, ये श्री लाधाजी स्वामी तथा श्री मेघराजजी स्वामी की शिष्या थीं। उनका समय 1961 से 1971 के मध्य का है। 252 6.5.1.11 आर्या श्री पांचीबाई (सं. 1953 से 1996 के मध्य ) आप श्री केसरबाई की शिष्या श्री नाथीबाई की शिष्या थीं। साध्वी समुदाय में सर्वप्रथम संस्कृत एवं आगमों का अध्ययन करने वाली विदुषी अग्रणी साध्वी हुईं, आपने शतावधानी श्री रत्नचन्द्रजी महाराज से सूत्र वाचना ग्रहण की थी। पांचीबाई के समय कच्छ लींबड़ी में अन्य ओजस्वी वक्ता के रूप में 'श्री माणिकबाई' प्रसिद्ध साध्वी थीं इन दोनों को आचार्य श्री 'सवाया साधु' कहकर संबोधित करते थे। 253 श्री रत्नचन्द्रजी महाराज का समय 1953 से 1996 का है 254, आप इसी काल में किसी समय हुई थीं। 6.5.1.12 आर्या श्री लाड़कंवरबाई (बीसवीं सदी का मध्यकाल ) आप अतिशय पुण्यशाली, अति स्वरूपवान तेजस्वी व्यक्तित्व की धारिका थीं, आपका पवित्र चरित्रजीवन की शुद्धि करने वाला तथा अनेकों में धर्म की प्रेरणा जागृत करने वाला रहा। आप श्री पांचीबाई की शिष्या थीं। 255 247-248. डॉ. सागरमलजी जैन, स्थानकवासी जैन परम्परा का इतिहास, पृ. 302-303 249. साध्वी सुलोचना स्मृति ग्रंथ, पृ. 11, स्था. छ कोटि जैन संघ, समाघोघा (कच्छ) 250. वात्सल्य नी वहेती धारा, पृ. 37 251. वही, पृ. 29 252-253. साध्वी सुलोचना स्मृति ग्रंथ, पृ. 11 254. स्था. जैन परम्परा का इतिहास, पृ. 322 255. साध्वी सुलोचना स्मृति ग्रंथ, पृ. 11 618 Page #681 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्थानकवासी परम्परा की श्रमणियाँ 6.5.1.13 साध्वी प्रमुखा श्री रत्नकुंवरबाई (सं. 1962-2043) आपका जन्म 'भोरारा' निवासी उमरशीभाई देढ़िया (ओसवाल) के यहां सं. 1944 माघ शुक्ला 5 को हुआ। संवत् 1962 ज्येष्ठ शुक्ला 5 को 'रताड़िया' में पूज्य श्री केशरबाई की शिष्या श्री नाथीबाई के पास आपने दीक्षा ग्रहण की। आप लिंबड़ी संप्रदाय में सर्वाधिक दीर्घायु वाली प्रखर व्याख्याता एवं तीर्थस्वरूपा साध्वी थीं, समाघोघा में आप तीन वर्ष स्थिरवासिनी रहीं वहीं आपकी 100वीं जन्म जयंति का सोत्साह आयोजन प्रारंभ हुआ, अनेक भाई-बहन वर्षीतप की आराधना में संलग्न हुए, वैशाख मास में यह महोत्सव आयोजित होना था, उससे पूर्व सं. 2043 की कार्तिक पूर्णिमा के बाद संलेखना के साथ 99 वर्ष की उम्र में आप स्वर्गवासिनी हो गईं। आपकी स्मृति में 'श्री रत्न स्वाध्याय सदन' का निर्माण तथा 'रत्न सागर शताब्दी ग्रंथ' का विमोचन हुआ।56 6.5.1.14 श्री वेलबाई स्वामी (सं. 1967-2045) आपका जन्म श्री वीरजीभाई की धर्मपत्नी भमीबहन की कुक्षि से संवत् 1945 गुंदाला ग्राम (कच्छ) में हुआ। 12 वर्ष की वय में श्री चांपशीभाई के साथ आपका विवाह हुआ, आठ वर्ष पश्चात् ही उनका स्वर्गवास हो गया। वासना के भूखे कामी प्रकृति के लोगों द्वारा अनेक विपत्तियां आने पर भी आप धर्म से च्युत नहीं हुईं। आपने अपनी व्युत्पन्न बुद्धि, साहस व धर्म पर अडिग श्रद्धा रखकर उन पर विजय प्राप्त की, अंततः श्री मंगलजी स्वामी की शिष्या श्री डाहीबाई तथाजीवीबाई महासतीजी के पास मांडवी (लींबड़ी) में माघ शु. 10 सं. 1967 में आचार्य श्री देवचन्द्रजी स्वामी के श्रीमुख से प्रव्रज्या अंगीकार करली। आपमें सेवा व समर्पणता की भावना उच्चकोटि की थी, वयोवृद्धा साध्वी श्री डाहीबाई एवं प्रज्ञाचक्षु श्री माणिकबाई की बहुत वर्षों तक सेवा की। आपके चिंतन में विवेक, वाणी में संयम एवं कर्त्तव्य में कुशलता का संगम था। शतायु एवं शत शिष्याओं की गुरूणी होने पर भी आप अत्यंत सरल स्वभावी एवं निरभिमानी थीं। 'रापर' में अंतिम समय तक आप स्थिरवासिनी रहीं। वहीं आश्विन शुक्ला 10 सं. 2045 को स्वर्गवासिनी हुईं।257 6.5.1.15 श्री माणिक्यबाई (1971-2039) आपका जन्म सं. 1947 'मुन्द्रा' में श्री कुशलचंदभाई दोशी के यहां हुआ। सं. 1971 माघ शुक्ला 11 को 'मानकूवा' ग्राम में श्री जीविबाई स्वामी के पास दीक्षा अंगीकार की। आप परम विदुषी, अजोड़ व्याख्यानी एवं मधुरकंठी थीं। आप प्रज्ञाचक्षु बन गई थीं, कंठमाल की दारूण वेदना को अत्यंत सहनशीलता के साथ वेदन किया। आप अपनी संप्रदाय में प्रथम कोटि की प्रतिभावंत, विदुषी वक्ता थीं। आप वेलबाई स्वामी की शिष्या थीं। अंत में 'रापर' में स्थिरवास किया, लंबी बीमारी में भी औषध व उपचार नहीं किया। सं. 2039 ज्येष्ठ शु. 4 के दिन आपका स्वर्गवास हुआ।58 256. साध्वी सुलोचना स्मृति ग्रंथ, पृ. 42 257. वात्सल्य नी वहेती धारा, लेखिका-श्री उज्जवलकुमारीबाई महासती, प्रका.-अजरामर संघ, लींबड़ी (सौ.) ई. 1996 258. वात्सल्य नी वहेती धारा, पृ. 71 619 Page #682 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन श्रमणियों का बृहद इतिहास 6.5.1.16 श्रीजीवी बाई (सं. 1974 से 2025 के मध्य) आप धैर्यवान, शीतल स्वभावी व बहुश्रुता साध्वी थीं। अजरामर संप्रदाय के आचार्य श्री रूपचंद्रजी स्वामी, श्री शामजी स्वामी की आज्ञानुवर्तिनी श्री डाहीबाई महासतीजी की आप शिष्या थीं।259 6.5.1.17 श्री प्रभाकुंवरबाई (सं. 1982-2027) आपका जन्म सरसई ग्राम (सौराष्ट्र) के पोपटाणी कुटुम्ब में श्री कल्याणजीभाई के यहां चैत्र शुक्ला 1 संवत् 1965 में हुआ। मजेवड़ी ग्राम के श्री घेलाभाई के साथ 15 वर्ष की उम्र में विवाह और 16वें वर्ष में वियोग ने आपकी विचार-धारा को वैराग्य की ओर मोड़ दिया। संवत् 1982 वैशाख शुक्ला 3 को लींबड़ी के श्री नानचन्द्रजी महाराज की आज्ञा से श्री देवकुंवरबाई की शिष्या श्री मोतीबाई की शिष्या के रूप में आप दीक्षित हो गईं। आपने अल्प समय में विशद ज्ञान अर्जित किया। अल्प परिग्रह और अल्पकषाय इन दो महान गुणों ने आपको शीघ्र ही महानता की श्रेणी में लाकर खड़ा कर दिया। उत्तराध्ययन सूत्र के 36 अध्ययन आपके दैनिक स्वाध्याय की चर्या थी। आपकी तीन शिक्षाएँ मुख्य थीं - परिग्रह इकट्ठा करना नहीं, कषाय करना नहीं और संसारियों के संग से दूर रहना। आपका प्रवचन मार्मिक व हृदयवेधी होता था। आपकी छह शिष्याएँ बनी- श्री चंदनाबाई, सरलाबाई, श्री हंसाबाई, श्री इंदुबाई, श्री हसुमतीबाई, श्री तरूलताबाई। 45 वर्ष शुद्ध संयम की आराधना कर वैशाख शुक्ला 11 संवत् 2027 में आप स्वर्गवासिनी हुईं।260 6.5.1.18 आर्या श्री सूरजबाई (सं. 1996-2045) आप श्री लाड़कंवरबाई की शिष्या प्रखर व्याख्याता साध्वी प्रमुखा श्री रतनबाई की शिष्या थीं। श्री सूरजबाई 'कच्छ की सिंहनी' के रूप में प्रख्यात थीं, ये प्रथम बाल ब्रह्मचारिणी साध्वी इस संप्रदाय में हुईं। आपने अज्ञानता, गरीबी व निरक्षरता के युग में समाज में विशेषकर महिला वर्ग में धार्मिक संस्कारों के बीजारोपण का कार्य किया, आप समाज में साक्षात् देवी तुल्य गिनी जाती थीं। आपका जन्म कच्छ भूमि में समाघोघा शहर में हुआ, पिता श्री देवजीभाई एवं माता श्री जेठीबाई थीं। संवत् 1996 कार्तिक शुक्ला 2 के शुभ दिन श्री गुलाबचन्द्रजी महाराज ने आपको दीक्षा प्रदान की। शासन प्रभावना के अनेकविध कार्य कर समाघोघा में चैत्र कृष्णा 6 संवत् 2045 में आप समाधि पूर्वक स्वर्गवासिनी हुईं। आपकी स्मृति में 'समाघोघा' में 'सूर्या सेनेटोरियम' का निर्माण हुआ है।261 6.5.1.19 आर्या श्री भाणबाई (बीसवीं सदी) आप कच्छ प्रान्त की तेजस्विनी साध्वी थीं। श्री वेलबाई स्वामी की वाणी से विरक्त होकर श्री रतनबाई के पास दीक्षा अंगीकार की। आप संयमी, सरल एवं तपस्विनी थीं। श्री प्रेमबाई, श्री सूर्यबाई व श्री मणिबाई ये तीन आपकी विदुषी शिष्याएँ थीं, अमदाबाद में आप दिवंगत हुईं।262 259. वही, पृ. 36 260. लेखक-श्री चंद्रकांत जोशी, विजय जीवन नो मरण मृत्यु नु., पृ. 35 261. साध्वी सुलोचना स्मृति ग्रंथ, पृ. 171 262. साध्वी सुलोचना स्मृति ग्रंथ, पृ. 167 Page #683 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्थानकवासी परम्परा की श्रमणियाँ 6.5.1.20 श्री प्रेमकुंवरबाई (स्वर्ग. 2038) __ आप नीसर कुल के श्री देशरभाई एवं माता रामबहेन की कन्या थीं। खंगारपर (कच्छ) में आपका जन्म हुआ। मकरा ग्राम निवासी श्री कानजीभाई के साथ विवाह हुआ, किंतु कुछ ही समय में उनसे वियोग हो गया। श्री नाथीबाई के पास मकरा में ही श्री रत्नचन्द्रजी महाराज से दीक्षा अंगीकार की। श्री डाहीबाई श्री लाड़कंवर बाई के सान्निध्य से आपने ज्ञान-ध्यान में खूब उन्नति की। माघ कृष्णा अमावस्या संवत् 2038 में आप स्वर्गवासिनी हुईं। 6.5.1.21 श्री दीवाली बाई (बीसवीं सदी) आपकी माता का नाम कामल बहेन तथा पिता श्री वीरजीभाई गाला थे। आपका जन्म संवत् 1968 में हुआ। बाल्यवय में ही श्री करशनभाई के साथ विवाह हुआ, कुछ ही समय बाद उनका स्वर्गवास हो गया। विरक्त होकर आपने श्री रत्नबाई गुरूणी के पास दीक्षा अंगीकार की। अहिंसा, संयम और तप का पालन करती हुई मृगशिर कृष्णा 3 रविवार को स्वर्गगामिनी हुईं।264 6.5.1.22 श्री दीक्षिताबाई (सं. 2011-42) आप गाला कुटुंब के श्री पंचाणभाई की पुत्री व माता शांत बहन की संस्कारी कन्या थीं। मकरा (कच्छ) में संवत् 1995 को आपका जन्म हुआ। सं. 2011 विरमगाम में आर्या श्री रतनबाई के पास दीक्षा ग्रहण की। संयम व तप में निष्ठा रखती हुईं आपने स्वयं अपने मुख से संथारा धारण कर श्रमणोचित आदर्श उपस्थित किया, फाल्गुन शु. 6 संवत् 2042 को आपने महाप्रयाण किया।265 6.5.1.23 श्री हसुमती बाई (सं. 2015-2035) आप संवत् 1995 वैशाख शु. 8 को धोराजी ग्राम के श्री छगनभाई व दिवाली बहेन की सुपुत्री के रूप में अवतरित हुईं। उल्लेख है कि जन्म के समय बालिका रोई नहीं। अत: नाम 'हसुमती' रखा। आप प्रारंभ से ही संसार से उदासीन थी। 19 वर्ष की वय में पंडित नानचन्द्रजी महाराज की विदुषी शिष्या श्री प्रभाकुंवर बाई के पास जेतपुर में आपने दीक्षा ली, उस समय गोंडल संप्रदाय के आचार्य श्री पुरूषोत्तमजी महाराज तथा लींबड़ी संप्रदाय के आचार्य श्री धनजी स्वामी उपस्थित थे। दीक्षा के पश्चात् छह मास में ही दैवी उपसर्ग से ग्रस्त हो बीमार रहने लगी। अस्वस्थ दशा में आपने 16 उपवास अठाई, तेले आदि कई प्रकार की तपस्याएँ की, कर्म के तीव्र उदय से पवन का स्पर्श भी बिच्छु के डंक सदृश प्रतीत होता था जिह्वा बंद हो गई ऐसी विषम स्थिति में भी आपकी चित्त प्रसन्नता एवं समता भावना अपूर्व थी, आप सतत स्वाध्याय व चिंतन में लीन रहती थीं, जो भी दर्शनार्थी आता उसे पाटी पर लिखकर आध्यात्मिक उपदेश देती थीं, उनका सूत्र था-‘पर थी खस, स्व मां वस, कर्म ने कस, मेळवी ले जस।' ऐसी अनेक आध्यात्मिक शिक्षाएं आप प्रदान करती रहती थीं। संवत् 2035 श्रावण शुक्ला 263. वही, पृ. 168 264. वही, पृ. 173 265. सुलोचना स्मृति ग्रंथ, पृ. 174 1621 For Private seersonal Use Only Page #684 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन श्रमणियों का बृहद इतिहास एकम को सुरेन्द्रनगर में पूर्ण समाधि के साथ आपकी आत्मा दिव्यधाम की ओर प्रस्थित हुई, उससे पूर्व आपने संदेश दिया -'शोक करशो नहीं, मने अपूर्व शांति छे मारो आत्मा अनंत शक्ति नो स्वामी छे अजर छे अमर छे.....।' आपका प्रेरणास्पद जीवन एवं आध्यात्मिक विचार श्री चंद्रकांत जोशी ने पुस्तक रूप में प्रकाशित किया है।266 6.5.1.24 श्री सुलोचनाबाई (सं. 2016-50) आपका जन्म संवत् 1997 में उज्जैन (म. प्र.) में भड़ियाद ग्राम (लींबड़ी) निवासी पिता श्री जगजीवन भाई केशवलालजी हकाणी एवं माता ललिताबहन के घर हुआ। आपने पंडित रत्न शतावधानी श्री पूनमचन्द्रजी स्वामी के मुखारविन्द से संवत् 2016 पाल्गुन शुक्ला 2 को वीरमगाम (गुजरात) में दीक्षा अंगीकार की। आपकी गुरूणी श्री सूरजबाई स्वामी थीं। आपने विनय से गुरूकृपा प्राप्त की, दीक्षा के पश्चात् आत्मानुभूति और गुरूजनों की सेवा को अपना जीवन सूत्र बनाया 33 वर्ष तक कच्छ वागड़, लींबड़ी, गोधरा, धंधुका आदि क्षेत्रों में विचरण कर हजारों लोगों का पथ प्रदर्शन किया। नवकार-मंत्र की आप परम उपासिका थीं। आप कला कुशल भी थीं रंगाई, सिलाई, व्याख्यान के पुढे, मुंहपत्ती के पुढे, रजोहरण आदि बनाने में तो निपुण थी ही, साथ ही श्रमणी-जीवन का विशिष्ट आचार-कल्प लोच में भी निपुण थीं, कठिन से कठिन लोच एक घंटे में करना, दिन में 7-8 साध्वियों की लोच अकेले कर देना आपके लिये सहज था। सामाजिक क्षेत्र में आपने अनेकों को सत्पथ पर लगाया, कई दम्पति एवं पिता-पुत्र के पारस्परिक क्लेश मिटाकर प्रेम स्थापित करवाया। आपके चातुर्मास में अनेकों जगह तप व ब्रह्मचर्य ग्रहण करने वालों के कीर्तिमान स्थापित हुए। अजरामर द्विशताब्दी महोत्सव पर आपकी प्रेरणा से 800 वर्षीतप हुए। इस प्रकार जैनशासन की सुरभि को चतुर्दिक प्रसारित कर 53 वर्ष की वय में संवत् 2050 मुंबई में स्वर्गारोहण किया। आपश्री के प्रौढ़ जीवन की झांकी 'साध्वी सुलोचना स्मृति ग्रंथ' में अंकित है।267 6.5.1.25 श्री कुसुमबाई (सं. 2022-51) आपका जन्म कच्छ अंजार निवासी श्री नाथालाल पानाचंद भाई के यहां संवत् 1993 में हुआ। 29 वर्ष की उम्र में श्री वेलबाई, माणिक्यबाई के परिवार की श्री उज्जवलकुमारीजी के पास 'अंजार' में ही फाल्गुन शुक्ला 5 संवत् 2022 को दीक्षा अंगीकार की। आपमें प्रारंभ से ही गुरू-भक्ति, शासन के प्रति अनुरक्ति व विषयों से विरक्ति की प्रवृत्ति रही। दीक्षा के बाद एक मास भी आपने बिना तपस्या के नहीं बिताया। आपके तप की तालिका इस प्रकार है-सर्वतोभद्र तप, लघुसिंहनिष्क्रीड़ित तप, धर्मचक्र, सिद्धितप, चार मासखमण, उपवास-52, 37, 31, 22, 16, 15, 13, 12, 10, 9, 8 उपवास। छ? (बेला), पोला अट्ठम (तेला), अट्ठम, निवि, एकासणा का वर्षीतप एकबार तथा उपवास का वर्षीतप तो कई बार किया। वर्धमान आयंबिल तप की ओली 29, वीशस्थानक के उपवास की ओली, आयंबिल की ओली 9, छ: मासी अट्ठम तप, परदेशी राजा के बेले, 72 पक्ष के एकासने, ढाईसौ पचखाण, साड़े बारा वर्ष एकासने किये। इस प्रकार आत्मलक्षी विविध साधना करके अंत में वलसाड जिले के 'बिलीमोरा' ग्राम में आप 28 दिन के चौविहारी संथारे के साथ स्वर्गवासिनी हुईं। आपका यह अद्भुत संथारा जैन शासन में एक कीर्तिमान बना, अनेक व्रत, प्रत्याख्यान आदि हुए। आपने 29 वर्ष की वय में दीक्षा ली और 29 वर्ष ही संयम का पालन किया।268 266. विजय जीवन ष्टनो मरण मृत्यु नो, प्रकाशक-हसुमतीबाई स्वामी स्मारक ट्रस्ट, लातीबाजार सुरेन्द्रनगर, 1983 ई. 267. संपादक-रत्नसूर्य शिष्या वृन्द, प्रकाशक-श्री स्थानकवासी छः कोटि जैन संघ, समाघोघा (कच्छ), 1994 ई. 268, श्री कुसुमबाई महासतीजी नी जीवन झरमर, प्रकाशक - श्री धनीबेन मेकणभाई धना सत्रा, बीलीमोरा, 1995 ई. 622 Page #685 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्थानकवासी परम्परा की श्रमणियाँ लिंबड़ी अजरामर सम्प्रदाय में और भी विदुषी श्रमणियाँ हुई हैं, उनका परिचय तालिका में दिया गया है। 6.5.2 लींबड़ी गोपाल संप्रदाय की श्रमणियाँ लीबड़ी संप्रदाय के पंचम पट्टधर श्री अजरामर स्वामी के पश्चात् छठे पट्टधर पूज्य देवजी स्वामी हुए। अनके समय में श्री अजरामरजी स्वामी के शिष्य श्री देवराजजी स्वामी के प्रशिष्य श्री हेमचन्द्र स्वामी ने अपने शिष्य गोपालजी स्वामी को साथ लेकर लींबड़ी गोपाल संप्रदाय की स्थापना की।269 इस संप्रदाय की साध्वियों का इतिहास श्री हेमकुंवरबाई से प्रारम्भ होता है, हेमकुंवरबाई की दो शिष्याएँ थीं-पूरीबाई व कंकूबाई। पूरीबाई की शिष्या रामबाई उनकी श्री अंबाबाई थीं। पूरीबाई की द्वितीय शिष्या श्री कुंवरबाई उनकी उजमबाई, जवलबाई, पुरीबाई, दिवालीबाई, लेरीबाई व मणीबाई थीं, मणिबाई की श्री मोंघीबाई शिष्या थीं। श्री कंकूबाई की प्रथम शाखा में श्री हीराबाई, शीवबाई, सुंदरबाई धनीबाई व उनकी शिष्या चंचलबाई थीं। दूसरी शाखा में श्री पारवतीबाई थीं, उनकी शिष्याएँ-श्री संतोकबाई, दो (मोटा, नाना) श्री जीवकोरबाई, झकलबाई, रंभाबाई, रतनबाई, मणीबाई, चंदनबाई इनकी शिष्या दयाबाई हुईं। श्री कंकूबाई की तृतीय शाखा में बा. ब्र. श्री सूरजबाई हुईं, उनकी शिष्या श्री दिवालीबाई थीं, इनकी 5 शिष्याएँ थीं-श्री सुंदरबाई, झवेरबाई, झबकबाई, पार्वतीबाई एवं परम विदुषी श्री लीलावती बाई।270 6.5.2.1 आर्या श्री लीलावतीबाई (सं. 1992-2039) ___गोपाल लिंबड़ी सम्प्रदाय की सर्व प्रतिष्ठित प्रभावशालिनी क्रियानिष्ठ महासती लीलावतीबाई का जन्म 'रंगून' शहर में सं. 1975 मृगशिर शु. 13 को हुआ। पिता का नाम श्री वीरचंद भाई था। श्री लीलावतीबाई ने वांकानेर (सौराष्ट्र) में विदुषी श्री दिवालीबाई के दर्शन किये, पूर्वभव के संस्कार उदय में आते ही दीक्षा लेने का पक्का निर्णय किया और ज्येष्ठ शु. 11 सं. 1992 में पूज्य श्री मणिलालजी महाराज के मुख से दीक्षा का पाठ पढ़कर श्री दिवालीबाई की शिष्या बनीं। मात्र ढाई वर्ष की दीक्षा-पर्याय में गुरूणी से वियोग होने पर आपने प्रवचन देना प्रारंभ किया, आपके प्रवचनों का प्रभाव जनता पर इस प्रकार पड़ने लगा कि थानगढ़ (सौ.) में आपको एक दिन और रोकने के लिये छह व्यक्तियों ने आजीवन ब्रह्मचर्य व्रत ग्रहण कर लिया। आपको तप के प्रति भी अत्यंत अहोभाव था, एकासना, उपवास, छठ, अट्ठम तो आप करते ही, साथ ही एकांतर वर्षीतप, मुक्तावली तप, अठाई, नवाई, 18 उपवास बेले-तेले वर्षीतप आदि का आराधना भी की। आपका शासन प्रेम, वात्सल्य चारित्र निष्ठा, संप्रदाय संचालन की कला कुशलता आदि गुणों से आकर्षित होकर आपके जीवन काल में 73 बहनों ने प्रव्रज्या का मार्ग स्वीकार किया। ये सभी बहनें बालब्रह्मचारिणी हैं। आपने अपने शिष्या परिवार को एक कुशल शिल्पी के समान गढ़ा, अनेक शिष्याएँ तपस्विनी हैं तथा आगम की गहन अध्येता हैं, बत्तीस शास्त्रों को मुखपाठ कर कीर्तिमान स्थपित करने वाली साध्वी भी आपके संघ में मौजूद हैं। कठोर चारित्र पालन की हिमायती तथा निर्भीक प्रवृत्ति की होने से आप "सौराष्ट्र सिंहनी' के नाम से पहचानी जाती थीं। आप अपनी सिद्धान्त दृढ़ता, अध्यात्मनिष्ठा के कारण सर्वत्र समादरणीया बनीं। सुरेन्द्रनगर में संवत् 2039 जेठ कृष्णा सप्तमी शनिवार को आप 269. स्था. जैन परंपरा का इतिहास, पृ. 301 270. श्री स्था. जैन लींबड़ी संघवी संप्रदाय नो साध्वी कल्पद्रुम, पुस्तक-विश्रांति नो वडलो, खंड-3, पृ. 233-72 Page #686 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन श्रमणियों का बृहद इतिहास संघ व समाज का भरपूर उपकार कर स्वर्ग की ओर प्रस्थित हुई। आपके प्रेरणादायक प्रवचनों की 22 पुस्तकें प्रकाशित हैं- ऋषभदत्त देवानंदा अने जमालिकुमार, मृगापुत्र भाग 1-2, आध्यात्मिक व्याख्यान संगह, भाग 1-2, प्रवचन पीयुष भाग 1-2, श्रमण केशी अने गणधर गौतम प्रमादस्थान, प्रवचन-पुष्प, आनंद श्रावक नो अधिकार भाग 1 से 3, अनाथी निर्ग्रन्थ भाग 1-3, तेतलीपुत्र भाग 1-2, माकंदिय पुत्र भाग 1-2, निषधकुमार चरित्र, परदेशी नुं परिवर्तन; इस प्रकार 13 चातुर्मासों में दिये गये प्रवचन, 22 पुस्तकों में वर्णित हैं। तेतलीपुत्र पुस्तक की तो हिंदी गुजराती आदि में हजारों प्रतियां निकल चुकी हैं, तथापि उसकी मांग बनी रहती है। ज्ञानगच्छ के स्वर्गीय श्री राजेन्द्रमुनि पर तो उक्त पुस्तक का इतना प्रभाव पड़ा कि वे दीक्षा के लिये तत्पर बन गये थे। इस प्रकार आपका जीवन अंत तक मुमुक्षु आत्माओं के लिये शरणभूत बना रहा। आपके चारित्रबल की अनेक घटनाएं "विश्रांति नो वडलो' पुस्तक में संयोजित हैं।271 जैन कान्फ्रेंस स्वर्ण जयंति ग्रंथ में भी आपका आदर पूर्वक स्मरण किया गया है। आपकी 145 साध्वियों का परिचय273 अग्रिम पृष्ठों पर अंकित है। 6.5.2.2 श्री मंजुलाबाई (सं. 1998 से वर्तमान) आपके पिता श्री नानालाल माणेकचंद एवं माता जलुबहेन थीं। नागनेश (सौराष्ट्र) में आपका जन्म हुआ, वढवाण में मृगशिर कृ. 11 सं. 1998 में दीक्षित होकर आप चारित्रनिष्ठ श्री लीलावतीबाई की प्रथम शिष्या बनीं। संसार का सौभाग्य छीन जाने के पश्चात् आपने स्वयं को स्व में स्थिर किया। शरीर का सौन्दर्य, तेजस्वी व्यक्तित्व और सुरीला स्वर जन्म से ही आपको मिला, अपनी मधुर व्याख्यान शैली से अनेकों को सन्मार्ग की ओर प्रेरित किया। 6.5.2.3 श्री मुक्ताबाई (सं. 1998 से वर्तमान) श्री ठाकरशी करशनजी के घर 'थान' ग्राम में ही आपने जन्म लिया और फाल्गुन कृ. 5 को 'थान' में ही दीक्षा अंगीकार कर श्री लीलावतीबाई की शिष्या बनीं। शरीर से कृश होने पर भी आपका मनोबल बड़ा ही श्रेष्ठ है आपने बेले-बेले वर्षीतप कर आत्मशक्ति का परिचय दिया। आपकी वाणी से कइयों ने संसार का त्याग किया, शास्त्रों को समझाने की शैली भी आपकी अत्युत्तम है। आपके सुमधुर प्रवचन ज्ञाताधर्मकथा अध्ययन 5 पर आधारित 'मुक्तिमाला' पुस्तक में संग्रहित एवं प्रकाशित हैं। 6.5.2.4 श्री जशवंतीबाई (सं. 2001 - स्वर्गस्थ) आपका जन्म ग्राम वढवाण है, पिता मोहनलालजी बेलाणी और माता संतोकबेन की पुत्री थीं। मृगशिर कृ. 11 को वढवाण में ही श्री लीलावतीबाई के पास प्रव्रज्या अंगीकार की। आप शांति व सहनशीलता की मूर्ति थीं, लगभग एकाशन करके स्वाध्याय में लीन रहती थीं। 272. विश्रांति नो वडलो; संपादक-प्रा. मलूकचंद रतिलाल शाह एवं डॉ. हरिशभाई रतिलाल बेंकर, प्रकाशन-श्री संघवी धारशी रवाभाई स्था. जैन संघ, छालियापरा, लींबड़ी (सौ.) ई. 1985 273. दृ. जैन कान्प्रफ्रेस स्वर्ण जयंति ग्रंथ, पृ. 57 274. विश्रांति नो वडलो, पृ. 210-72 624 6247 Page #687 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्थानकवासी परम्परा की श्रमणियाँ 6.5.2.5 श्री ताराबाई (सं. 2004 - स्वर्गस्थ ) आप भी वढवाण निवासी श्री मगनलाल माणेकचंद की सुपुत्री थीं। सं. 2004 माघ कृ. 5 को वढवाण में श्री लीलावतीबाई के पास दीक्षित हुईं। संयम पर आरूढ़ होने के लिये आपको अनेक बाधाओं का सामना करना पड़ा। आपके स्वभाव की सरलता से आकर्षित होकर कई कन्याओं ने लीलमबाग में प्रवेश किया, आपने कई साध्वियों को आगम- निष्णात बनाया। 6.5.2.6 श्री कमलाबाई (सं. 2005 - स्वर्गस्थ ) आप वढवाण के श्री शांतिलाल चतुरभाई की कन्या हैं। बोटाद में सं. 2005 मृगशिर कृ. 10 को दीक्षा हुई। आप तपस्विनी साध्वी के नाम से सुख्यात हैं। आपने 1 उपवास लेकर 36 उपवास तक क्रमबद्ध तपस्या की है। आठ मासखमण, मोटा पखवाड़ा, कल्याणक तप, सिद्धितप, श्रेणीतप चौबीस तीर्थंकरों की ओली, सर्वतोभद्र तप, उपवास का वर्षीतप, बेले व तेले का वर्षीतप भी कर चुकी हैं। इस प्रकार तप द्वारा कर्म संग्राम में शौर्यता के साथ अग्रसर होती हुई अपनी जीवन यात्रा पूर्ण की। 6.5.2.7 श्री कंचनबाई (सं. 2007 से वर्तमान) आप वांकानेर में श्री वीरपाल डुंगरशी के घर जन्मी एवं वांकानेर में ही वैशाख शु. 5 सं. 2007 को लीलम चरणों में दीक्षित हुईं। आपने भी जीवन में तप को मुख्यता दी है। एकांतर बेला और तेले - तेले वर्षीतप तथा चोले- चोले पारणा का छहमासी तप किया, अठाई, सोलह आदि किये। फुटकर तपस्याओं के साथ प्रतिदिन एकासना तप भी करती हैं। 6.5.2.8 श्री रमाबाई (सं. 2013 से वर्तमान ) आप राजकोट निवासी गिरधरलाल जादवजी की सुपुत्री हैं। वांकानेर में सं. 2013 पोष कृ. 8 के दिन लीलाबाई स्वामी के पास दीक्षित हुई। आप ज्ञान, दर्शन चारित्र की आराधना के साथ तप की आराधना में भी अग्रसर हैं। आपने मासखमण किये। एकांतर उपवास, छट्ठ-अट्ठम का वर्षीतप तथा फुटकर तपस्याएँ की हैं। 6.5.2.9 श्री हीराबाई (सं. 2014 से वर्तमान ) आप बांकानेर के दामजीभाई उकाभई की कन्या हैं, वांकानेर में ही माघ शु. 10 सं. 2014 में आपकी दीक्षा हुई। आप श्री लीलावतीबाई की भाणेज हैं, इनकी अन्य दो बहनें - रंजनबाई एवं हर्षिताबाई भी दीक्षित हैं। आप सौम्य व गम्भीर स्वभाव की हैं, आवाज मधुर है, अनेक शास्त्र कंठस्थ हैं। 6.5.2.10 श्री प्रज्ञाबाई (सं. 2015 से वर्तमान) आप लींबड़ी के श्री चत्रभुज नानचंदभाई की सुपुत्री हैं। सुरेन्द्रनगर में पोष शु. 13 को आपकी दीक्षा हुई। आप श्री लीलाबाई महासतीजी के बाग की मालिन हैं। उनकी सेक्रेटरी के रूप आपका योगदान अपूर्व है । प्रखर व्याख्याता हैं, तथा प्रत्येक साध्वी की शारीरिक आरोग्यता के प्रति भी सतर्क रहती हैं। 625 Page #688 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन श्रमणियों का बृहद इतिहास 6.5.2.11 श्री कुसुमबाई (सं. 2016 - 49) आप सुरेन्द्रनगर के श्री वाडीलाल कस्तूरचन्द की कन्या हैं। सुरेन्द्रनगर में ही कार्तिक कृष्णा 3 संवत् 2016 को आपकी दीक्षा हुई। आप यथा नाम तथा गुण के अनुसार कोमल, कमनीय एवं कलात्मक थीं। व्याख्यान शैली अत्यन्त रूचिकर एवं हृदयस्पर्शी थी, अनेकों की जीवन निर्मात्री थीं। 11 वर्ष तक निरंतर एकासन तप किया। आपके प्रवचन 'कुसुम किरण' और 'कुसुमसौरभ' नाम से प्रकाशित हुए हैं। संवत् 2044 अमदाबाद में आपका स्वर्गवास हुआ।74 6.5.2.12 श्री सुशीलाबाई (सं. 2017 से वर्तमान) आप श्री रमाबाई की लघु भगिनी हैं। वैशाख शु. 11 को ध्रांगध्रा में आपकी दीक्षा हुई। आप रास, वार्ता आदि के द्वारा धर्म प्रभावना के सुन्दर कार्य करती हैं। 6.5.2.13 श्री मंगलाबाई (सं. 2019 से वर्तमान) आप वढवाण निवासी अमरशी दुर्लभजी की सुपुत्री हैं। वढवाण में ही कार्तिक कृ. 11 को आप दीक्षित हुई। आप सेवाभावी साध्वी हैं, स्वाध्यायी साध्वियों के लिये इनका सहयोग सराहनीय है। 6.5.2.14 श्री मधुबाई (सं. 2019) आप जोरावरनगर के श्रीमति समरतबेन हरिलालभाई की दुलारी कन्या हैं, सं. 2019 मृगशिर शुक्ला 6 को । श्री लीलावतीबाई के चरणों में जोरावरनगर में ही आपकी दीक्षा हुई। आपका कंठ मधुर है, स्मरणशक्ति प्रखर है, सुत्तागम व अत्थागम में आप गहरी पहुंची हुई हैं, साथ ही तपस्विनी भी हैं। 6.5.2.15 श्री निर्मलाबाई (सं. 2019 से वर्तमान) आप मोरबी के श्री रेवाशंकर प्रभुदासजी की पुत्री हैं। सं. 2019 वैशाख शुक्ला 11 को 'सरा' ग्राम में आप दीक्षित हुईं। आप स्वच्छ निर्मल प्रकृति की हंसमुख स्वभाव की साध्वी हैं, राग-द्वेषजन्य स्थिति को समत्व पूर्ण । बनाने में कुशल हैं, आप रसपरित्यागी भी हैं। 6.5.2.16 श्री भारतीबाई (सं. 2020 से वर्तमान) आप वढवाण के श्री सवाईलाल पानचंदजी की सुपुत्री हैं। माघ शु. 11 सं. 2020 को आपने वढवाण में । ही दीक्षा धारण की। आपने अनेक गीत व रास आदि बनाये, बेले-बेले वर्षीतप व 16 आदि अनेक उपवास करती हुई आत्मशुद्धि के मार्ग पर अग्रसर हैं। 6.5.2.17 श्री सुलोचनाबाई (सं. 2022 से वर्तमान) आप सीतापुर के श्री मनसुखलाल त्रिभुवनदासजी की कन्या हैं। सुरेन्द्रनगर में मृगशिर शु. 2 को आप दीक्षित 274. कुसुम किरण, प्रकाशक-दिनकरभाई मोतीलाल शाह, मलाड (वेस्ट) मुंबई-64, ई. 2001 626 Page #689 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्थानकवासी परम्परा की श्रमणियाँ हुईं, आप कलाप्रिय, विवेकी एवं सूक्ष्मबुद्धि संपन्न हैं, प्रत्येक कार्य गहराई से विचारपूर्वक करती हैं। आपने बेले बेले वर्षीतप 16, मासखमण आदि उग्र तपस्याएँ भी की हैं। 6.5.2.18 श्री प्रियदर्शनाबाई (सं. 2022 से वर्तमान) __ आप ध्रांगध्रा निवासी श्री वाडीलाल जेठालालजी की सुपुत्री हैं। वैशाख शु. 5 को ध्रांगध्रा में ही आप दीक्षित हुईं। बोम्बे के विलासी वातावरण से निकल कर श्री लीलावतीबाई के पास दीक्षित होने वाली आप सर्वप्रथम साध्वी हैं, आपने अपनी जागृत प्रज्ञा से अनेकों को धर्म के मार्ग पर लगाया है, आप सेवाभाविनी भी हैं। 6.5.2.19 श्री सुभद्राबाई (सं. 2022-34) ___आप वढवाण निवासी श्री वाडीभाई की सुपुत्री थीं। सं. 2022 वैशाख कृ. 5 को सुरेन्द्रनगर में श्री लीलावती बाई के पास सजोड़े चारित्र अंगीकार किया। आपने अपने जीवन में करत-करत अभ्यास के जड़मति होत सुजान' की उक्ति को चरितार्थ किया। रोज एक दो गाथाएं करते हुए उत्तराध्ययन के 36 ही अध्ययन कंठस्थ किये। आप सरल स्वभावी व सेवाभाविनी थीं। अंतिम समय में आपको मृत्यु का आभास हो गया था, छह दिन का संथारा करके स्वर्गवासिनी हुईं। 6.5.2.20 श्री मालतीबाई (सं. 2022 से वर्तमान) आप 'सौका' ग्राम के श्री पोपटलाल नरसीदास की सुपुत्री हैं लींबड़ी में ज्येष्ठ शु. 10 को आपकी दीक्षा हुई। आप शरीर से कमजोर होने पर भी आत्मबली हैं, बेले-बेले वर्षीतप, सिद्धितप, मासखमण तप व तेले-तेले वर्षीतप की उग्र तप साधना में संलग्न हैं। 6.5.2.21 श्री मंगलाबाई (सं. 2023 से वर्तमान) आप वीरमगाम निवासी श्री गणेशभाई शाह लक्ष्मीबेन की कन्या हैं। वीरमगाम में ही मृगशिर शु. 10 को आपने दीक्षा ग्रहण की। प्रौढ़वय में दीक्षित एवं वय स्थविर होने पर भी आप उमंगी व उत्साही हैं। आपने बेले-बेले वर्षीतप, पोला अट्ठम75 की वर्षभर आराधना की, सिद्धितप, मासखमण तप की उग्र तपस्या भी कर चुकी हैं। 6.5.2.22 श्री सुयशाबाई (सं. 2023 से वर्तमान) ___आप 'टीकर' ग्राम के श्री मोहनलालजी एवं अमरतबेन की सुपुत्री हैं, वैशाख कृष्णा 5 सं. 2023 को मोरबी में आपने दीक्षा ग्रहण की। आप संस्कृत प्राकृत भाषा की अच्छी जानकार हैं। आचार्यों की संस्कृत टीकाओं के अध्ययन-अध्यापन में भी निपुण हैं। आपके स्वभाव की सौम्यता, गंभीरता एवं विद्वत्ता से अनेक साध्वियाँ लाभान्वित हई हैं। 6.5.2.23 श्री जागृतिबाई (सं. 2023 से वर्तमान) __ आप वांकानेर निवासी श्री रतिलाल वीरचंदभाई एवं लाभुबन की कन्या हैं। वैशाख कृ. 11 को वांकानेर में 275. उपवास एकासना व उपवास मिलकर एक पोला अट्टम कहा जाता है। 1627| For Private Personal Use Only Page #690 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन श्रमणियों का बृहद इतिहास श्री लीलाबाई के पास आर्हती दीक्षा अंगीकार की। आप उनकी संसारी भतीजी भी हैं। संयम अथवा संघ-भक्ति में शिथिल साध्वियों के मन को सुदृढ़ करने में आपका विशेष योगदान है। आपने बेला, पोला अट्ठम आदि विविध वर्षीतप किये हैं। 6.5.2.24 श्री चंद्रिकाबाई (सं. 2023 से वर्तमान) आप श्री जागृतिबाई की चुल्लक बहन एवं श्री लीलावतीबाई की संसारी भतीजी हैं, आपके पिता श्री नवनीतभाई वीरचंद एवं माता लीलावतीबेन वांकानेर निवासी हैं, आपने भी वैशाख कृ. 11 को दीक्षा ग्रहण की। साध्वियों की वैयावृत्य आप बड़ी निष्ठा से एवं विवेक से करती हैं, सेवाभावना व सहनशीलता इन दो गुणों से आप शासन में सौरभ फैला रही हैं। 6.5.2.25 श्री रंजनबाई (सं. 2026 से वर्तमान) आप श्री चन्द्रिकाबाई की लघु भगिनी हैं। मृगशिर कृ. 10 के दिन मुंबई (माटुंगा) में आपने दीक्षा ग्रहण की, उस समय सात बहनों की एक साथ दीक्षा हुई थी, उनमें आप अग्रणी थीं। आप अल्पभाषी सेवाभाविनी एवं तपस्विनी हैं। अठाई, 16, मासखमण, सिद्धितप, बेले-बेले वरसीतप भी किया है। 6.5.2.26 श्री नलिनीबाई (सं. 2026 से वर्तमान) आप वांकानेर के श्री दामजीभई उकाभाई की पुत्री हैं, व हीराबाई की बहन हैं। श्री रंजनबाई के साथ आपकी दीक्षा हुई। आपकी स्मरणशक्ति बहुत अच्छी है, कम बोलना और अधिक आचरण करना इनकी विशेषता है। अठाई, सोलह, मासखमण, सिद्धितप, बेले-बेले वर्षीतप आदि अनेक तपस्याएँ की हैं। 6.5.2.27 श्री प्रतिभाबाई (सं. 2026 से वर्तमान) आप मोरबी के श्री प्राणलाल चुनीलालजी की सुपुत्री थीं मांटुगा में सात दीक्षाओं में आपकी भी दीक्षा हुई। आपने मात्र तीन वर्ष में 19 शास्त्र अर्थ सहित कंठस्थ किये थे, किंतु 24 वर्ष की लघुवय में ही आप कालधर्म को प्राप्त हो गईं। 6.5.2.28 श्री हसुमतीबाई (सं. 2026 से वर्तमान) आप ध्रांगध्रा निवासी श्री कान्तिलाल संघजीभाई की कन्या हैं, माटुंगा में ही आपकी दीक्षा हुई। आप बचपन से ही प्रतिभसंपन्न व विदुषी साध्वी हैं। रसनेन्द्रिय की विजेता हैं। 16, मासखमण आदि उग्र तपस्या भी आपने की हैं। 6.5.2.29 श्री जयश्रीबाई (सं. 2026 से वर्तमान) आप 'भोबाला' निवासी अमृतलाल जेचंदभाई की कन्या हैं। माटुंगा में आपकी दीक्षा हुई। आपने अपने जीवन में 'सबसे हिल-मिल चालिये, नदी नाव संयोग' की उक्ति को आत्मसात् किया था, आप व्याख्यान प्रभावक भी Page #691 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्थानकवासी परम्परा की श्रमणियाँ हैं। मासखमण, एकान्तर, बेले-बेले वर्षीतप आदि उग्र तपस्याएँ भी की हैं। 6.5.2.30 श्री कौशल्याबाई (सं. 2026 से वर्तमान) आप बांकानेर के श्री नानचंदभाई व समजूबेन की पुत्री हैं। माटुंगा में दीक्षा अंगीकार की। आपका जीवन अत्यंत व्यवस्थित है। 16, मासखमण, सिद्धितप, छ?-अट्ठम का वर्षीतप आदि घोर तपस्याएँ की हैं। 6.5.2.31 श्री जयंतिकाबाई (सं. 2026 से वर्तमान) आप लोंबड़ी के श्री कपूरचंद नागरदास की सुपुत्री हैं, माटुंगा में आपकी दीक्षा हुई। प्रारंभ किये हुए कार्य को पूर्ण करने की लगन इनकी निजी विशेषता है, सेवाभाविनी, मधुरभाषिणी भी हैं। आपने 16 उपवास छट्ठ (बेले) का वर्षीतप, सिद्धितप आदि महान तपस्याएँ की हैं। 6.5.2.32 श्री मृदुलाबाई (सं. 2026 से वर्तमान) ___आप धोलेरा ग्राम के शांतिभाई गांधी की सुपुत्री हैं। धोलेरा में ही फाल्गुन कृ. 8 को आपकी दीक्षा हुई। आप तप द्वारा आत्मशुद्धि कर रही हैं, कुछ न कुछ तप चालु ही रहता है। 6.5.2.33 श्री मनोरमाबई (सं. 2028 से वर्तमान) आप कालावाड़ के श्री हिंमतभाई दवाणी की सुपुत्री हैं। वढवाण में माघ कृ. 5 के दिन आप दीक्षित हुईं। आप सेवाभाविनी साध्वी हैं, विषम परिस्थिति में भी मनको स्थिर रखने की कला में निपुण हैं। 6.5.2.34 श्री सरोजबाई (सं. 2028 से वर्तमान) __आप वढवाण निवासी सुखलाल मोतीचंद की कन्या हैं। आपकी दीक्षा वढवाण में ही माघ कृ. 13 के दिन हुई। आपको संयम धन अत्यंत कठिनाई के द्वारा प्राप्त हुआ, अतः उसकी सुरक्षा में उतनी ही जागरूक हैं, आप सरल, दयालु व मधुरकंठी हैं। 6.5.2.35 श्री साधनाबाई (सं. 2028 से वर्तमान) आप बरबाला के श्री जीवनराज रणछोड़भाई की सुपुत्री हैं। लोंबड़ी में वैशाख कृ. 13 को आप दीक्षित हुईं। आप प्रवचन प्रभाविका हैं, साधुजीवन के लिये उपयोगी कला को हस्तगत कर लेने की सदा चाह रहती है। 6.5.2.36 श्री कनकप्रभाबाई (सं. 2028 से वर्तमान) आप मोटीवावड़ी ग्राम के निवासी श्री हरगोविंद भाईचंदजी की कन्या हैं, लींबड़ी में वैशाख कृ. 13 को आपकी दीक्षा हुई। आप कोमल, स्नेही एवं कार्यकुशल हैं। प्रवचन शैली एवं कंठकला अच्छी होने से आप शासन की प्रभावना में अपना खूब योगदान देती हैं। वर्षीतप की आराधिका भी हैं। Page #692 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन श्रमणियों का बृहद इतिहास 6.5.2.37 श्री रक्षाबाई (सं. 2029 से वर्तमान) आप वढवाण निवासी श्री चीमनलालजी की सुपुत्री हैं। आपकी दीक्षा बोरीवली (मुंबई) में मृगशिर शु. 7 के दिन हुई। आप सेवाभाविनी एवं तपस्विनी हैं, आपके पिताश्री दरियापुरी संप्रदाय में दीक्षित हुए। आपने उपवास, छट्ठ और पोला अट्ठम आदि का वर्षीतप किया है। 6.5.2.38 श्री प्रतिभाबाई (सं. 2029 स्वर्गस्थ) आप धारी के श्री नरभेरामभाई की सुकन्या थीं। बोरीवली में मृगशिर शु. 7 के दिन आपकी दीक्षा हुई। आपमें कंठ माधुर्यता के साथ प्रवचन-शैली की भी विशेषता थी, मासखमण जैसी उग्र तपस्या भी की थी। 6.5.2.39 श्री किरणबाई (सं. 2029 से वर्तमान) आप दुधई के श्री रतिलालजी जीवराजभाई की सुपुत्री हैं। वेशाख शुक्ला 7 को बोरीवली में आपने संयम ग्रहण किया। आप संयम उल्लासी, प्रसन्न मुखमुद्रा वाली साध्वी हैं। आपने एकांतर छ8 से वर्षीतप व मासखमण जैसी उग्र तपस्या की है। 6.5.2.40 श्री उषाबाई (सं. 2030 से वर्तमान) आप श्री किरणबाई की ज्येष्ठ भगिनी हैं, लघुबहन की दीक्षा देखकर आप भी कार्तिक कृ. 2 को विलेपार्ले में दीक्षित हो गईं। आप संयम की आराधिका एवं तप साधिका हैं। 6.5.2.41 श्री हर्षाबाई (सं. 2030 से वर्तमान) आप श्री नवनीतभाई वीरचंदभाई वांकानेर निवासी की कन्या एवं चंद्रिकाबाई की बहिन हैं। मृगशिर शुक्ला 5 को कांदिवली (मुंबई) में दीक्षा अंगीकार की। आप अध्यात्मप्रिय हैं, व्याख्यान-दक्ष भी है, तपस्विनी भी हैं। चार मासखमण, छट्ठ का वर्षांतप, 36 उपवास आदि अनेक तपस्याएँ की हैं। 6.5.2.42 श्री मनीषाबाई (सं. 2030 से वर्तमान) आप ध्रांगध्रा निवासी वाडीलाल जेठाभाई की सुपुत्री हैं। गृहस्थ दशा में बी.ए. तक का अध्ययन कर ज्येष्ठ भगिनी प्रियदर्शनाबाइ का अनुगमन कर मृगशिर शु. 5 के दिन कांदावाड़ी (मुंबई) में दीक्षा अंगीकार की। आपका कंठ सुरीला है, अनेक स्वरचित गीत बनाये हैं, व्याख्यान शैली भी सुंदर है, आपने छ8 का वर्षीतप किया है। 6.5.2.43 श्री हर्षिताबाई (सं. 2030 से वर्तमान) आप श्री लीलाबाई महासतीजी की भाणजी तथा श्री हीराबाई की लघु भगिनी हैं। आपकी दीक्षा मृगशिर शु. 5 को कांदावाड़ी (मुंबई) में हुई। आपकी स्मरणशक्ति अत्यंत तीव्र है। मासखमण, 36 आदि तपस्याएँ की हैं। 6.5.2.44 श्री पूर्णिताबाई (सं. 2030 से वर्तमान) आप लींबड़ी के श्री रमणिकलाल केशवलालभाई की सुपुत्री हैं। कांदावाड़ी में मृगशिर शु. 5 को आपने Page #693 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्थानकवासी परम्परा की श्रमणियाँ प्रव्रज्या अंगीकार की। आपकी मेधा तीव्र व प्रखर है, प्रकृति से ही स्वरसाम्राज्ञी हैं। अनेक भाववाही गीत आप द्वारा रचित हैं। आप तपस्विनी भी हैं। मासखमण, छठ का वर्षीतप सिद्धितप आदि विविध तपस्याएँ की हैं। 6.5.2.45 श्री निरूपमाबाई (सं. 2030 से वर्तमान) आप 'तनमनिया' ग्राम के श्री चिमनभाई जशवंतीबेन की दुलारी कन्या हैं, सुरेन्द्रनगर में मृगशिर शु. 11 को आपने संयम स्वीकार किया। आपने 5 वर्ष में विशाल आगम-साहित्य की बत्तीसी कंठस्थ कर पिछले 100 वर्षों का रिकार्ड तोड़ा है। आपके इस कंठस्थ ज्ञान का कई विबुधवर्गीय लोगों द्वारा परीक्षण किया गया और आपको समाज की ओर से 'आगम-रत्न' का पद अर्पित किया। 6.5.2.46 श्री जिज्ञासाबाई (सं. 2030 से वर्तमान) आप 'बारोई' निवासी श्री प्रेमजी नाथाभाई की पुत्री हैं। मृगशिर कृ. 11 को दादर (मुंबई) में आपकी दीक्षा हुई। आपको अनेक आगम, स्तोक आदि कंठस्थ हैं। आप समताभावी साध्वी हैं। 6.5.2.47 श्री निरंजनाबाई (सं. 2030 से वर्तमान) आप 'विंछीया' के श्री सवाईलाल हरगोविंद की सुपुत्री हैं। पोष शु. 3 को थाणा (मुंबई) में आपने दीक्षा ग्रहण की। आपने अपने जीवन में वृत्तिसंक्षेप तप की विशेष आराधना की, आहार में मात्र 5 द्रव्य का ही सेवन करती हैं. अन्य भी अनेक तपस्याएँ की हैं 6.5.2.48 श्री सुनीताबाई (सं. 2030 से वर्तमान) आप 'गोधरा' के श्री रतिलाल मनसुखलाल की पुत्री हैं, गोधरा में फाल्गुन कृ. 9 को आपने दीक्षा ग्रहण की। आप व्याख्यानी साध्वी हैं, तपस्विनी भी हैं, 5 मासखमण, 36 उपवास, सिद्धितप, छ8 का वर्षीतप आदि अनेक तपस्याएँ की हैं। 6.5.2.49 श्री अर्पिताबाई (सं. 2030 से वर्तमान) ___ आप लींबड़ी के श्री चंदुलाल मणिलालजी की सुपुत्री हैं। अहमदाबाद (नगरशेठ नो वंडो) में वैशाख शु. 7 को दीक्षित हुईं। आप मौन साधिका है, मासखमण, छट्ठ का वर्षांतप आदि बड़ी तपस्याएँ की हैं। 6.5.2.50 श्री अमिताबाई (सं. 2030 से वर्तमान) आप रंगपुर वर्तमान में अमदाबाद निवासी श्री उत्तमलाल मणिलाल की कन्या हैं। आप सेवाभाविनी तपस्विनी हैं, 16, 21 आदि उपवास किये हैं। 6.5.2.51 श्री रश्मिताबाई (सं. 2030 से वर्तमान) आपका मूल वतन 'नागनेश' है, पिता श्री शांतिभाई व्रजलाल तथा माता श्रीमति चम्पाबहन है। लींबड़ी में । Page #694 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन श्रमणियों का बृहद इतिहास ज्येष्ठ शु. 10 को आप दीक्षित हुईं। आप विनयी आज्ञाकारी एवं तपस्विनी हैं। मासखमण, सिद्धितप, छट्ठा वर्षीतप आदि दीर्घ तपस्याएँ की हैं। 6.5.2.52 श्री कीर्तिदाबाई (सं. 20131 से वर्तमान ) आप वढवाण के गिरधरलाल नारायणदास की कन्या हैं। कार्तिक कृ. 2 को वढवाण में दीक्षित हुईं। आप दृढ़ संकल्पी, उत्तम संयमी एवं तपस्विनी हैं, मासखमण, छट्ट का वर्षीतप सिद्धितप आदि अनेक तपस्याएँ की हैं। 6.5.2.53 श्री राजुलाबाई (सं. 2031 से वर्तमान ) आप 'रामपरा' के श्री चंदुलाल वृंदानदास' की सुपुत्री हैं। 'रामपरा' में मृगशिर शु. 2 को आप प्रव्रजित हुईं। आपका स्वर मधुर है । आपने छुट्ट का वर्षीतप सिद्धितप व 16 आदि की तपस्या की है। 1 , 6.5.2.54 श्री नम्रताबाई (सं. 2031 से वर्तमान) आप पोरबंदर के हरकिशनभाई की कन्या हैं। वैशाख कृ. 9 को लींबड़ी में दीक्षा अंगीकार की। आप संयम तप की साधना में संलग्न हैं। 6.5.2.55 श्री सुधाबाई (सं. 2032 से वर्तमान) आप वढवाण के श्री चंदुलाल भगवानजी की पुत्री हैं, अमदाबाद मृगशिर शु. 10 को आपने प्रव्रज्या स्वीकार की। आपने एकांतर छट्ट, पोला अट्टम आदि की तपस्याएँ की हैं। आपको अनेक शेर-शायरी याद है, प्रवचन में उनका उपयोग कर शासन की प्रभावना करती हैं। 6.5.2.56 श्री निवृत्तिबाई (सं. 2032 से वर्तमान) आप धोलेरा निवासी श्री शशिकांत रमणिकभाई की सुपुत्री हैं। अमदाबाद में मृगशिर शु. 10 को दीक्षित हुई । आप सेवाभाविनी तपस्विनी हैं, उपवास व छट्ट का वर्षीतप एवं अन्य भी तपाराधना की है। 6.5.2.57 श्री अर्चिताबाई (सं. 2032 से वर्तमान ) आप लींबड़ी के नारायणदास नागरदास की सुपुत्री हैं। फाल्गुन शु. 7 को लींबड़ी में दीक्षा ली। आप कार्यकुशल प्रसन्नमुद्रा वाली तपस्विनी साध्वी हैं। पोला अट्टम से वर्षीतप किया है। 6.5.2.58 श्री सुजाताबाई (सं. 2033 से वर्तमान ) आप ‘शेखपर' के श्री माणेकचंदजी कमलाबेन की कन्या हैं। मृगशिर शु. 7 को वांकानेर में दीक्षा ली। आपने 16 उपवास, मासखमण तक की दीर्घ तपस्या की हैं। 632 Page #695 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्थानकवासी परम्परा की श्रमणियाँ 6.5.2.59 श्री स्वातिबाई (सं. 2033 से वर्तमान) आप सायला के श्री भोगीलालजी की कन्या हैं, मृगशिर शुक्ला 3 को वांकानेर में दीक्षा ग्रहण की। आपने मासखमण, 36 उपवास तक की लंबी तपस्या की है। 6.5.2.60 श्री शाश्वतीबाई (सं. 2033 से वर्तमान) ___आप वांकानेर के श्री धीरजलाल शिवलालजी की पुत्री हैं। वांकानेर में ही मृगशिर शु. 7 को आप दीक्षित हुईं। मासखमण, सिद्धितप की आराधिका हैं। 6.5.2.61 श्री जयंतिकाबाई (सं. 2033 से वर्तमान) आप 'लोंबड़ी' के श्री कपूरचंद नागरदासजी की सुपुत्री हैं। ज्येष्ठ शुक्ला 2 को लोंबड़ी में ही दीक्षा ली। आपकी स्मरणशक्ति अच्छी है, कई आगम कंठस्थ हैं। 6.5.2.62 श्री धारिणीबाई (सं. 2034 से वर्तमान) आप श्री रसिकलाल हकमीचंद राजकोट निवासी की सुपुत्री हैं। माघ शु. 11 को वढवाण में आपने प्रव्रज्या अंगीकार की। आपने एकांतर छ8 का वर्षांतप, सिद्धितप किया है। 6.5.2.63 श्री कल्याणीबाई (सं. 2034 से वर्तमान) आप रंगपर बेला (कच्छ) वर्तमान में मुंबई निवासी श्री शांतिलाल मंजुलाबेन की पुत्री हैं। वढवाण में माघ शु. 11 को आपकी दीक्षा हुई। आप में सेवा का गुण अच्छा है, प्रवचनशैली भी उत्तम है। 6.5.2.64 श्री अनुपमाबाई (सं. 2035 से वर्तमान) आप वढवाण के श्री भगवानदास हरखचंद की सुपुत्री हैं। वढवाण में ही माघ कृष्णा 2 को आपने दीक्षा ली। आपको नया जानने व नया करने की बड़ी जिज्ञासा है, 17 शास्त्र आपने कंठस्थ किये हैं। 6.5.2.65 श्री हेमांगिनीबाई (सं. 2037 से वर्तमान) आप नागनेश (वढवाण) निवासी श्री धीरजलाल अमुलखजी की सुकन्या हैं। मृगशिर शु. 3 को नगनेश में आप दीक्षित हुईं। आप ज्ञान व सेवा में रूचि संपन्न हैं। 6.5.2.66 श्री कौमुदिनीबाई (सं. 2037 से वर्तमान) आप 'सौका' के श्री कांतिलाल हीमजीभाई की सुपुत्री हैं। पोष शु. 13 को लींबड़ी में आप दीक्षित हुई। आपको अध्ययन अध्यापन की अच्छी रूचि है। 6.5.2.67 श्री मनोज्ञाबाई (सं. 2037 से वर्तमान) आप ‘कांचरडी' के श्री धीरूभाई डगली की पुत्री हैं। 'ढसा' ग्राम में माघ शु. 11 को आपकी दीक्षा हुई। आपने पाथर्डीबोर्ड से कई परीक्षाएँ दी हैं, बोलने व समझाने की शैली अच्छी है। 633 Page #696 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 6.5.2.68 श्री अभिज्ञाबाई (सं. 2037 से वर्तमान) आप बरवाला के श्री ताराचंदजी नीमजीभाई की कन्या हैं। आपने बरवाला में ही ज्येष्ठ कृ. 1 को सादगी से दीक्षा ग्रहण की। आपने भी पाथर्डी बोर्ड की परीक्षाएँ देकर विशेष योग्यता अर्जित की, आप प्रवचन प्रभाविका हैं। 6.5.2.69 श्री सुज्ञाबाई (सं. 2038 से वर्तमान) आप लींबड़ी निवासी श्री रसिकलाल चुनीलाल दोशी की पुत्री हैं। मृगशिर कृ. 3 को लींबड़ी में आपकी दीक्षा हुई। आप गंभीर शांत व संयमनिष्ठ हैं। 6.5.2.70 श्री कीर्तनाबाई (सं. 2038 से वर्तमान ) आप ध्रांगधा के कनैयालाल चुनीलालजी की आत्मजा हैं। माघ शु. 13 को ध्रांगध्रा में आप दीक्षित हुईं। सेवाभाविनी हँसमुख साध्वी हैं। जैन श्रमणियों का बृहद इतिहास 6.5.2.71 श्री ज्योतिबाई (सं. 2038 से वर्तमान ) आप नराडी निवासी श्री जयंतिलाल माता विमलाबेन की पुत्री हैं। वैशाख शु. 2 को ध्रांगध्रा में दीक्षा हुई। आपकी बुद्धि तीव्र है, अनेक स्तोक-शास्त्र आदि कंठस्थ हैं। 6.5.2.72 श्री रोहिणीबाई (सं. 2039 - स्वर्गस्थ ) आप मेंगणी निवासी वर्तमान में अमदाबाद के श्री जयसुखलाल प्रेमचंद की आत्मजा हैं। कार्तिक कृ. 8 को अमदाबाद में दीक्षा ग्रहण की। आप शांत सरल व स्वाध्याय प्रेमी हैं। 6.5.2.73 श्री निधिबाई (सं. 2039 से वर्तमान) आप वढवाण के श्री रमणिकलालजी की सुपुत्री हैं, वढवाण में ही वैशाख शु. 11 को आप प्रव्रज्या के पंथ पर चलीं। आपने दो वर्ष में ही 16 सूत्र कंठस्थ किये, तपस्या भी छोटी-मोटी कई की हैं, मधुरभाषिणी हैं। 6.5.2.74 श्री अनुज्ञाबाई (सं. 2039 से वर्तमान ) आप वांकानेर के श्री छोटालाल डाह्यालाल की सुपुत्री हैं। वढवाण में वैशाख कृ. 5 के दिन श्री लीलावती बाई स्वामी के मुखारविंद से अंतिम दीक्षा का पाठ पढ़कर आप प्रव्रजित हुईं। आपकी दीक्षा के एक मास पश्चात् वे स्वर्गवासिनी हो गईं। आपकी अध्ययन-अध्यापन की रूचि अच्छी है। 6.5.2.75 श्री परागिनीबाई (सं. 2039 से वर्तमान) आप मुंबई निवासी प्रभुदास मणिलाल की सुपुत्री हैं। दीक्षा के लिये दस-दस वर्ष तक संघर्ष करने के पश्चात् असाढ़ शु. 6 को सुरेन्द्रनगर में आपकी दीक्षा हुई। संयम व तप की साधना में आप निरंतर अग्रसर हैं। 634 Page #697 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्थानकवासी परम्परा की श्रमणियाँ 6.5.2.76 श्री नंदिताबाई (सं. 2040 से वर्तमान) ___ आप 'झोबाला' के श्री अमृतलालजी की पुत्री हैं। पोष कृ. 6 को सुरेन्द्रनगर में आपकी दीक्षा हुई। आप तपस्विनी हैं, 16 उपवास की तपस्या की है। 6.5.2.77 श्री अक्षिताबाई (सं. 2040 से वर्तमान) आप सुरेन्द्रनगर के श्री चंदुलाल देवशीभाई की पुत्री हैं। अमदाबाद में माघ शु. 5 को आपकी दीक्षा हुई। आप सेवाभाविनी, स्वाध्यायी साध्वी हैं। आठ तक की तपस्या की है। 6.5.2.78 श्री कृपालीबाई (सं. 2040) आप विरमगाम के श्री नगीनभाई गोपाणी की पुत्री हैं। वैशाख शु. 5 को विरमगाम में आप दीक्षित हुईं। आप मिलनसार संयमनिष्ठ साध्वी हैं। 6.5.2.79 श्री निरालीबाई (सं. 2040) आप जोरावरनगर के श्री दलसुखभाई की सुपुत्री हैं। वैशाख शु. 5 को विरमगाम में आपकी दीक्षा हुई। आप मितभाषिणी हैं। 6.5.2.80 श्री अरूणाबाई (सं. 2040) आप 'मोटी वावडी' निवासी अमीचंद ठाकरशी की सुपुत्री हैं। वैशाख शु. 13 को सुरेन्द्रनगर में आपकी दीक्षा हुई। आपने अनेक शेर-शायरियाँ रची हैं। 6.5.2.81 श्री हितस्विनीबाई (सं. 2041) आप 'पालियाद' ग्राम के श्री हीराचंदभाई की कन्या हैं अमदाबाद में मृगशिर शु. 3 को आपने दीक्षा ली। आप अध्ययनशीला साध्वी हैं। 6.5.2.82 श्री कल्पज्ञाबाई (सं. 2041) ___आप विरमगाम के श्री प्राणलाल चुनीलालजी की सुपुत्री हैं। मृगशिर कृ. 1 को अमदाबाद में दीक्षा अंगीकार की। आप सौम्य प्रकृति की सुसंस्कारी साध्वी हैं। 6.5.2.83 श्री परिज्ञाबाई (सं. 2041)276 आप वांकानेर के श्री वनेचंदभाई दोशी की आत्मजा हैं। अमदाबाद में मृगशिर कृ. 1 को आपने दीक्षा अंगीकार की आप भद्रप्रकृति की हैं, अनेक आगम मुखपाठ हैं। 6.5.2.84 श्री भाविज्ञाबाई (सं. 2041) आप 'चोटिला' के श्री अरविंदभाई की कन्या हैं। फाल्गुन शु. 5 को जोरावरनगर में आपकी दीक्षा हुई। आपका स्वर मधुर है, संयम व साधना में सतत गतिशील हैं। 276. दीक्षा संवत् 2030 लिखा है, किंतु 82वां पुष्प होने के क्रम में इनकी दीक्षा सं. 2041 उचित लगती है-विश्रांति नो वडलो. पृ. 270 635 Page #698 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन श्रमणियों का बृहद इतिहास 6.5.2.85 श्री प्रफुल्लाबाई (सं. 2041) आप वढवाण निवासी कांतिभाई कोठारी की पुत्री हैं। सुरेन्द्रनगर में वैशाख शु. 5 को आपकी दीक्षा हुई। आप डबल ग्रेज्युएट हैं, बुद्धि अत्यंत प्रखर है। 6.5.2.86 श्री गीताबाई (सं. 2041) आप सुरेन्द्रनगर में श्री धीरज भाई तुरखिया की कन्या हैं, सुरेन्द्रनगर में ही वैशाख शु. 5 को दीक्षा हुई। आपने सन् 85 में दीक्षा ली और लीलमबाग में 85 वें पुष्प के रूप में ही विकसित हुईं, यह एक संयोग है। 6.5.2.87 श्री मतिज्ञाबाई (सं. 2041) आप 'सौका' ग्राम के श्री कांतिभाई गांधी की द्वितीय दीक्षिता पुत्री हैं। वैशाख कृ. 5 को लींबड़ी में आपकी दीक्षा हुई। आप संयमनिष्ठ विदुषी साध्वी हैं। इनके पश्चात् दीक्षिता साध्वियों की केवल नामावली ही उपलब्ध हो सकी है, वह इस प्रकार है-श्री निमज्ञाबाई, श्री शीतलबाई, श्री निशीताबाई, श्री ऋजुताबाई, श्री करूणाबाई, श्री जयणाबाई, श्री ख्यातिबाई, श्री हितज्ञाबाई, श्री आरतीबाई, श्री हितेषाबाई, श्री धराबाई, श्री विनीताबाई, श्री महिताबाई, श्री गीतेषाबाई, श्री धैर्यताबाई, श्री अंकिताबाई, श्री नेहालीबाई, श्री रोहिताबाई, श्री कल्पेषाबाई, श्री निष्ठाबाई, श्री विज्ञाताबाई, श्री रिद्धिबाई, श्री हितज्ञाबाई, श्री जयज्ञाबाई, श्री जागृतिबाई, श्री दीप्तिबाई, श्री ऋषिताबाई, श्री धरतीबाई, श्री आस्थाबाई, श्री उषाबाई, श्री प्रगतिबाई, श्री अजिताबाई, श्री दिव्यताबाई, श्री रम्यताबाई, श्री अल्काबाई, श्री मीराबाई, श्री अभिषाबाई, श्री अंतेषाबाई, श्री वीरांशीबाई, श्री देवांशीबाई, श्री प्रियज्ञाबाई, श्री हेमज्ञाबाई, श्री रूपाबाई, श्री कृतिज्ञाबाई, श्री लक्षिताबाई, श्री ईशीताबाई, श्री हितरत्नाबाई, श्री आत्मज्ञाबाई, श्री सारंगाबाई, श्री यशाबाई, श्री वसुधाबाई, श्री विज्ञाबाई, श्री तत्त्वज्ञाबाई, श्री आज्ञाबाई, श्री खुशबूबाई, श्री स्नेहाबाई, श्री नीताबाई, श्री हेतलबाई, श्री सिद्धिबाई। इनमें 144 साध्वियाँ बालब्रह्मचारिणी हैं। 8 का स्वर्गवास हो चुका है, शेष साध्वियाँ अपने ज्ञान दर्शन चारित्र द्वारा शासन की प्रभावना करती हुई विचरण कर रही हैं।27 6.5.3 गोंडल सम्प्रदाय की श्रमणियाँ : गांडल गच्छ के आद्य संस्थापक युगप्रधान आचार्य श्री डुंगरसिंहजी महाराज थे, जो लिंबड़ी संप्रदाय के संस्थापक श्री पंचायणजी की परम्परा के थे। वि. सं. 1815 कार्तिक कृष्णा 10 को पूज्य आचार्य श्री रत्नसिंहजी महाराज के सान्निध्य में 'दीवबंदर' (सौराष्ट्र) ग्राम में इन्होंने दीक्षा धारण की। वि. सं. 1845 माघ शुक्ला पंचमी के दिन 'गोंडल' में इन्हें आचार्य पद से विभूषित किया, उस समय इन्होंने 'गोंडल' को धर्मकार्य हेतु केन्द्र स्थान बनाकर प्रचार प्रसार करने का निर्णय लिया, तबसे यह संप्रदाय 'गोंडल सम्प्रदाय' के रूप में प्रसिद्धि को प्राप्त हुआ। गोंडल गच्छ के लगभग 215 ग्राम हैं। इस सम्प्रदाय में अनेक तेजस्वी, वर्चस्वी महाश्रमणियाँ अतीत में भी हुई हैं और आज भी हैं। जिनमें प्रमुख रूप से वि. सं. 1815 में श्री डंगरसिंहजी महाराज के साथ दीक्षित उनकी मातुश्री हीरबाई, बहन श्री वेलबाई एवं 277. संपादिका-प्रज्ञाबाई महासतीजी, कुसुम-किरण, पृ. 111-113, मलाड (वेस्ट) मुंबई-64, ई. 2001 636 Page #699 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्थानकवासी परम्परा की श्रमणियाँ भानजी श्री मानकुंवरबाई इन तीन महासतियों के दीक्षा ग्रहण करने का उल्लेख है, इन्हीं से वृद्धि को प्राप्त हुई। इस शाखा में सैंकड़ों श्रमणियाँ हुईं हैं।278 6.5.3.1 महासती श्री मानकुंवरबाई (सं. 1815) मानकुंवरबाई गोंडल संप्रदाय की प्रभावशालिनी महासाध्वी थी। आप सौराष्ट्र देश के 'मांगरोल' ग्राम में 'बदाणी' परिवार से संबंधित थीं। वि. सं. 1815 कार्तिक कृ. 10 को आचार्य श्री रत्नसिंहजी महाराज के सान्निध्य में दीवबंदर (सौराष्ट्र) गांव में आपकी दीक्षा हुई। आपकी वाणी का जादू और तप-संयम का इतना उत्कृष्ट प्रभाव था, कि जो भी चरणों में आता वह कुछ न कुछ व्रत-प्रत्याख्यान ग्रहण करके जाता। आपने अनेकों भव्यात्माओं को सम्यक्दृष्टि प्रदान की, अनेकों मुमुक्षु आत्माएँ श्रावक-व्रतों को ग्रहण करने वाली बनीं, और अनेक आत्माओं को संयम पथ पर लगाया। श्री डाह्यीबहन, रतनबहन, कड़वीबहन, गंगाहन, माणेकबहन आदि उच्च कुल की वधुओं ने आपके पास दीक्षा ग्रहण की। आचार्य डुंगरसिंहजी महाराज आपके धर्म प्रेरित कार्यों से अत्यंत प्रसन्न थे। वि. सं. 1861 में जब आचार्यश्री ने चतुर्विध श्रीसंघ के कल्याणार्थ 45 साधु-साध्वियों की नेश्राय में सम्मेलन किया, तब आप साध्वी प्रमुखा के रूप में वहाँ उपस्थित थीं। गोंडल संप्रदाय की वर्तमान श्रमणीवृंद की आप मूलनायिका साध्वी हैं।279 6.5.3.2 महासती श्री गंगाबाई (स्वर्ग. सं. 1909) आप गोंडल गच्छ की आद्य प्रवर्तिनी मानकुंवरबाई महासतीजी की संसारी बहन जूठीबाई की सुपुत्री थी, 11 वर्ष की नन्हीं वय में माता-पुत्री दोनों ने दीक्षा अंगीकार करली। आपकी बुद्धि अत्यन्त तीक्ष्ण एवं ध्यान साधना उत्कृष्ट थी। एकबार आप माणावदर में विराजमान थीं, आपके रूप-सौन्दर्य के पिपासु तीन-चार मुस्लिम भाई मध्य रात्रि में वहाँ आये, साध्वीजी उस समय ध्यान में तल्लीन थी, उनके ध्यान एवं संयम के प्रभाव से कुदृष्टि रखने वाले उन भाइयों के पांव जमीन से चिपक गये, वे अंधे और गूंगे बन गये। सारी रात वे इसी स्थिति में रहे, प्रातः श्रावकों ने उन्हें देखा। श्रावकों की प्रेरणा से उन्होंने महासतीजी के पास प्रतिज्ञा की, कि भविष्य में हम कभी भी किसी औरत को खराब दृष्टि से नहीं देखेंगे। पश्चाताप करने पर वे स्वस्थ हो अपने घर पहुंचे। आपकी सहनशीलता भी गजब की थी। एक रात्रि जब आप सो रही थीं, कि चूहों ने आपकी देह को कुतर लिया, असह्य वेदना को शांत भाव से सहन कर कुछ ही दिन में आप इस क्षणभंगुर देह से मुक्त हो गईं।280 6.5.3.3 मोटा श्री दुधीबाई महासती (सं. 1931-83) श्री मोहनलालजी महाराज की आप भगिनी एवं धर्मपरायण पिता हेमशीभाई खोडा व माता वेलुबाई की सुपुत्री थीं। 11 वर्ष की वय में विवाह और अल्प समय में वैधव्य के दुःख ने इनको वैराग्य की ओर मोड़ दिया। श्री मानकुंवरबाई, श्री डाह्याबाई व श्री मूलीबाई महासतीजी का सुयोग प्राप्त होने से सं. 1931 में उन्हीं के चरणों में संयम ग्रहण किया। आप अत्यंत विनयशील एवं मेधावी साध्वी थीं। संयम के प्रति जागरूक थीं। अंग्रेजी दवा 278. गिरधारलाल सवचंद दोशी, गोंडल गच्छ दर्शन, पृ. 51 279. महासती केसरदेवी गौरव ग्रंथ, खंड 3, पृ. 345 280. गोंडल गच्छ दर्शन, पृ. 51 637 Page #700 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन श्रमणियों का बृहद इतिहास का कभी आपने अपने जीवन में उपयोग नहीं किया। राजकोट में महात्मा गांधीजी ने भी आप से ज्ञानचर्चा एवं मंगलपाठ श्रवण किया। उस समय राजकोट, जेतपुर में प्लेग के उपद्रव से सभी भयभीत थे, किंतु आपके तप-संयम के प्रभाव से जैन समाज में कोई भी क्षति नहीं हुई। सं. 1983 जेतपुर में आपका स्वर्गवास हुआ। उस समय 51 खंड की पालकी बनीं।281 6.5.3.4 श्री देवकुंवरबाई महासती (सं. 1956-87) आपका जन्म सं. 1937 में चोरवाड़ निवासी श्री धरमसी भाई की धर्मपत्नी कस्तूरबहन की कुक्षि से हुआ। शादी के तीन वर्ष पश्चात् वैधव्य के दु:ख से संसार की असारता का बोध कर दीक्षा लेने का निश्चय किया तो माणेक गुरूदेव ने कहा कि 25 मासखमण तप की उत्कृष्ट आराधिका सुंदरबाई महासती के साथ दिव्य प्रभावशाली मीठीबाई महासतीजी वृद्धावस्था के कारण गोंडल में विराजमान हैं, उनके पास संयम लेकर उनकी सेवा करो, उनके आशीर्वाद से तुम्हारा संयम और परिवार अमृतबेलवत् वृद्धिंगत होगा। पूज्यश्री के वचनों को शिरोधार्य कर आपने उनके पास दीक्षा अंगीकार की। आपकी सात विदुषी शिष्याएँ बनीं। उन्हींका परिवार आज वटवृक्ष की तरह शतशाखी बनबर संपूर्ण भारत में विचरण कर रहा है। 50 वर्ष की उम्र में, जामनगर में सं. 1987 को आपने संथारा सहित स्वर्गगमन किया।282 6.5.3.5 श्री उजमबाई महासतीजी (सं. 1961-2006) आपका जन्म सं. 1940 में माता हीरूबहन व पिता जीवनराजभाई के घर शीतला कालावाड़ में हुआ। 13 वर्ष की उम्र में लग्न और 17 वर्ष की वय में वैधव्य के दुःख से त्रस्त पू. देवकुंवरबाई के चरणों में दीक्षा अंगीकार की। आपकी प्रतिभा संपन्न मेधा, भव्य शारीरिक सोष्ठव व प्रखर प्रवचन को श्रवण कर कोई भी मंत्र-मुग्ध हुए बिना नहीं रहता। आप समाज में व्याख्यान वाचस्पति, प्रखरवक्ता आदि नाम से संबोधित किये जाते थे। आपके प्रवचनों में राजा, महाराजा, अमलदार आदि भी उपस्थित होते थे। आपकी शिष्याओं में प्रभाबाई, छबलबाई, चंपाबाई, जयाबाई, गुलाबबाई आदि प्रमुख हैं। इसी काल में श्री जेतुबाई महासतीजी (सं. 1961-2001) प्रखर प्रभावसंपन्ना साध्वी हुई, उन्होंने सैंकड़ों राजपूतों को शराब, मांस आदि व्यसनों से मुक्त कराया था।283 6.5.3.6 श्री मणीबाई महासती (सं. 1962-89) आपका जन्म गोपाल ग्राम (सौराष्ट्र) में पिता मोतीचंदभाई एवं माता दुधीबाई के यहां हुआ। जब आप तीन मास की नन्ही बालिका थीं, तभी पिता ने संपन्न परिवार में आपकी सगाई करदी, किंतु श्री देवकुंवरबाई महासती के सदुपदेश से वैराग्य से अनुरंजित मणीबाई ने पति को भ्राता के समान मान 'मांगरोल' में दीक्षा ग्रहण करने का निर्णय किया। वहाँ के नरेश हुसेन मियां ने कुंवारी छोटी लड़की को दीक्षा लेते देख उससे कई प्रश्न पूछे, उसके दृढ़ व सचोट जवाबों को श्रवण कर नरेश ने प्रसन्न होकर दीक्षा का संपूर्ण व्यय अपनी ओर से किया। आपका व्याख्यान इतना मधुर और वैराग्यपूर्ण होता था, कि जैन-जैनेतर लोगों की भीड़ जमा हो जाती थी। जहां भी आप 281. गोंडल गच्छ दर्शन, पृ. 56 282. वही, पृ. 57 283. वही, पृ. 68 Page #701 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्थानकवासी परम्परा की श्रमणियाँ पधारती वहीं तप-त्याग-वैराग्य का वातावरण निर्मित हो जाता था। संयम में आप इतनी दृढ़ थीं, कि असाध्य रोग में भी कभी पुरूष डॉक्टर का स्पर्श नहीं होने दिया। जूनागढ़ में सं. 1989 में कुल 48 वर्ष की उम्र में ही शासन की महती प्रभावना कर ये देवलोक की ओर प्रयाण कर गईं।284 6.5.3.7 श्री जवेरबाई महासती (सं. 1975-2019) __ आप श्री देवचंदभाई व माता नंदुबहन की कन्या रत्न थी। बालवय में ही धर्म साधना की उत्कट लगन और वैराग्य-वासित हृदय होने पर भी परिजनों के आग्रह से परिणय-संबंध में बंधना पड़ा किंतु आपके वैराग्य की छाया पति शांतिलालजी पर ऐसी पड़ी, कि वे बिना किसी को कहे गृह-बंधन से मुक्त होकर अज्ञात स्थान पर चले गये। जवेरीबहन ने भी 22 वर्ष की वय में सरल सौम्यमूर्ति श्री लीरूबाई महासतीजी के पास जामनगर में दीक्षा अंगीकार की। आपकी सत्यता, नीडरता, कवित्व चातुर्य और प्रखर व्याख्यान शैली से प्रभावित होकर 13 कुमारी कन्याओं ने संयम अंगीकार किया। आपकी शिष्याओं में अचरतबाई. जैकंवरबाई. वखतबाई प्रभाबाई. इन्दबाई. हीराबाई, हंसाबाई, दयाबाई, रमाबाई, इंदुबाई, नंदनबाई, ज्योतिबाई आदि ओजस्वी तेजस्वी साध्वियाँ हुईं। अंतिम समय मधुमेह की बीमारी से राजकोट में सं. 2019 मागसिर वदि 8 को 44 वर्ष की उम्र में स्वर्ग सिधारी।285 6.5.3.8 श्री मीठीबाई महासती (सं. 1976-2016) परम तपस्विनी मीठीबाई महासतीजी का जन्म मेंदरड़ा ग्राम में मावाणी कुल के बेचरभाई व माता पार्वतीबाई के यहां सं. 1934 चैत्र सु. 13 को हुआ। आप बाल्यकाल से ही अत्यंत निर्भीक एवं दयालु प्रकृति की थीं। एकबार __ कुछ लोग नाग को मारने को उद्यत हुए तो मीठीबाई ने उन्हें रोका, मारने वालों ने कहा- "इतनी ही नाग के प्रति दया है तो रखले अपने घर में।" मीठीबाई ने तुरंत अपने वस्त्रखंड में नाग को लपेटा ओर दूर जंगल में छोड़ आयीं। 16 वर्ष की उम्र में सरधार ग्राम के हरखचंद भाई के साथ लग्न हुआ, उनसे एक पुत्र मलूकचंद भाई और पुत्री जयाबहन का जन्म हुआ। कुछ समय पश्चात् पति का देहावसान हो गया, तो पू. जयचंदजी महाराज की प्रेरणा से पुत्री जयाबहन के साथ शास्त्रवेत्ता पूज्य पुरूषोत्तमजी म. सा. के मुखारविंद से जेतपुर में दीक्षा ग्रहण की और पू. मोटा दुधीबाई की शिष्या बनीं। आपने अपने जीवन में उग्र तप साधना की। 16 वर्ष की उम्र में जब आपने अठाई की तपस्या कर आपका साथ दिया प्रथम अठाई की तो कहा जाता है कि आपके कुटुंब में 32 जनों ने अठाई की तपस्या कर आपका साथ दिया। आपने वर्षीतप 31, 22, 16, 11, अठाई-24, 10, 9 (तीन बार) 7-चार, 6-बारह बार 5-बीस बार, 4, 3,2,1 का तो पार ही नहीं, आयंबिल की कितनी ही ओलियाँ की। आपकी तपस्या में 2218 दिन उपवास के व 1526 दिन पारणे के थे, कुल 3784 दिन की तपस्या की। आपकी संकल्प शक्ति व ढता अटूट थं टट थी. 105 डिग्री बखार में भी तपस्या नहीं छोडी। मेंदरडा जामजोधपर वेरावल आदि कई स्थानों पर श्राविकाशाला की स्थापना की, कितनों को ही ब्रह्मचर्य व्रत व वर्षीतप करवाये। आपने प्रतिलिपि का कार्य भी किया, सूत्र व रास आदि मिलाकर कुल 56 हस्तलिखित पुस्तकें जेतपुर, जूनागढ़ व मेंदरड़ा संघ को प्रदान की। अंत में संवत् 2016 को जेतपुर में 82 वर्ष की उम्र में आप स्वर्गवासिनी हुईं।286 284. वही, पृ. 43 285. वही, पृ. 62 286. मीठी न्हेक, लेखिका-श्री शान्ताबहेन सिंघवी, प्रकाशक-श्री भरतकुमार खुशालचंद शेठ, उपलेटा, ई. 1962 Page #702 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन श्रमणियों का बृहद इतिहास 6.5.3.9 श्री जयाकुंवरबाई (सं. 1976-स्वर्गस्थ) आपका जन्म ग्राम सरधार निवासी श्री हरखचन्द भाई गांधी (दशाश्रीमाली) एवं मातुश्री मीठीबाई के यहां सं. 1959 अषाढ़ शु. 13 को 'बिलखा' में हुआ, माता मीठीबाई की प्रेरणा से आप उन्हीं के साथ 17 वर्ष की वय में पंडित रत्न श्री पुरूषोत्तमजी महाराज के मुखारविंद से ज्येष्ठ शु. 6 सं. 1976 को दीक्षा अंगीकार कर मोटा दूधीबाई स्वामी की शिष्या के रूप में प्रसिद्ध हुईं। आपने दस महीने मांगरोल पाठशाला में संस्कृत एवं धार्मिक अध्ययन किया, दशवैकालिक, उत्तराध्ययन, नंदी आदि आगम व 125 थोकड़े कंठस्थ किये। आपकी बुद्धि इतनी प्रखर थी कि 30 दिन में 31 स्तोक व 14 दिन में नंदीसूत्र याद कर लिया था। दीक्षा के पश्चात् 7 वर्ष तक वयोवृद्ध गुरूणी की सेवा की, उपवास, बेले, तेले, चोले, पचोले, अठाई, नौ, दस आदि की कितनी ही तपस्या की, वर्षीतप भी किया।287 6.5.3.10 श्री अंबाबाई महासती (सं. 1979-2010) आपका जन्म समढीयार (सौराष्ट्र) गांव में पिता मोतीचंदभाई एवं माता साकरबाई के यहां हुआ। सावरकुंडला निवासी मोनजी भाई के साथ विवाह-संबंध हुआ, उनसे एक पुत्र की प्राप्ति भी हुई, किंतु पति एवं पुत्र दोनों का वियोग हो गया। वियोग ने वैराग्य को पैदा किया और आपने सावरकुंडला में ही सं. 1979 में 36 वर्ष की उम्र में श्री देवकुंवरबाई के पास दीक्षा अंगीकार की। आप एक अच्छी मार्गदर्शिका एवं हितशिक्षिका थी, आचार्य प्राणलालजी महाराज की आप सतत सहयोगिनी रहीं। आपकी शिष्याएँ समरतबाई लक्ष्मीबाई, नवलबाई, कुंदनबाई, पुष्पाबाई आदि हैं। सं. 2010 में 68 वर्ष की उम्र में जूनागढ़ में आपका स्वर्गवास हुआ।288 6.5.3.11 आर्या श्री शांताबाई (सं. 2002-से वर्तमान) - आपने गोंडल में पोष शु. 6 सं. 1983 के शुभ दिन श्री दलपतराम तेजपाल कोठारी एवं माता अंबाबाई के घर जन्म लिया तथ जूनागढ़ में सं. 2002 मृगशिर शु. 3 शुक्रवार को 19 वर्ष की उम्र में आचार्य पुरूषोत्तमजी महाराज से दीक्षा लेकर श्री जयाबाई स्वामी की शिष्या बनीं। आप सुस्वर गायिका हैं। दीक्षित जीवन में सात आगम, साधक सहचरी, निर्ग्रन्थ प्रवचन, 61 थोकड़े, कई छंद, सज्झाय स्तवन, स्तोत्र आदि स्मृतिस्थ किये।289 6.5.3.12 श्री प्राणकंवरबाई (सं. 2004-से वर्तमान) 'गोंडल' आपका जन्म राणपुर के श्री जयाचन्दभाई के यहां हुआ। सं. 2004 माघ शुक्ला 13 को सावरकुंडला में श्री मोतीबाई महासतीजी के परिवार में आप दीक्षित हुईं। आपने अपने हृदयस्पर्शी प्रवचनों के माध्यम से जन-जन को प्रभावित किया, आपके प्रवचनों की कई पुस्तकें प्रकाशित हैं-धर्मप्राण प्रवचन भाग 1-2, प्राण-परिमल, आचार प्राण प्रकाश, प्राण-प्रसादी, प्राण प्रगति, प्राण-प्रबोध, जनेता-मां नो उपकार। आपकी सभी पुस्तकें आगम के अधिकार को प्रवचन का माध्यम बनाकर लिखी गई हैं।290 287. मीठी म्हेक, पृ. 22 288. स्था. गोंडल गच्छ दर्शन, पृ. 40 289. मीठी म्हेक, पृ. 23 290-291. मीठी म्हेक, पृ. 24-25 640 Page #703 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्थानकवासी परम्परा की श्रमणियाँ 6.5.3.13 श्री कंचनबाई (सं. 2007- ) आपका जन्म स्थान मोटा लीलीया में हुआ, पिता दामनगर निवासी श्री लल्लुभाई नागरदास अजमेरा थे, बगसदा में विवाह हुआ, 18 वर्ष के पश्चात् पति से वियोग होने पर पू. मीठीबाई महासती की प्रेरणा से 43 वर्ष की उम्र में मृगशिर शु. 2 रविवार के दिन धोराजी में दीक्षा ली। आपने कई आगम व स्तोक याद किये। साथ ही परम सेवाभाविनी थीं, संयम व आचरण में दृढ़ थीं। 291 6.5.3.14 श्री इन्दुबाई (सं. 2009-39) आपका जन्म करांची (पाकिस्तान) में श्री करमचन्दभाई तथा श्रीमती समरतबेन के यहां हुआ। अल्पवय में ही आपके मन में विरक्ति के भाव जागृत हुए, मृगशिर कृष्णा 10 को 18 वर्ष की आयु में चारित्रनिष्ठ श्री समरतबाई की शिष्या बनीं। आप आगम की गहन ज्ञाता थीं, तीव्र बुद्धि व अद्भुत मेधा से आप दिन में 60 गाथाएं कंठस्थ करती थीं। 100 स्तोक व 11 शास्त्र आपने याद किये थे, इन सबका जब तक पुनरावर्तन नहीं कर लेतीं, तब तक निद्रा नहीं लेतीं थीं। कई बार पुनरावृत्ति में 12 बज जाते थे। कर्मग्रन्थ आपका प्रिय विषय था, उसे सरल व सहज रूप से किसी को भी समझा देतीं। आप सहनशील व तपस्विनी थीं, आयंबिल की ओली, वर्धमान तप की ओली, आयंबिल उपवास के वर्षीतप, बेले- बेले वर्षीतप तेले-तेले एकांतर किये, इसके अतिरिक्त सैंकड़ों तेले जीवन में किये। निरतिचार चारित्र का पालन करती हुईं अंत में कैंसर की व्याधि में समताभाव रखकर तीन दिन के संथारे के साथ श्रावण कृ. 13 सं. 2039 को नागपुर में स्वर्गवासिनी हुईं। आपकी दो शिष्याएँ बनीं - श्री ज्योतिबाई, श्री भानुबाई । श्री इन्दुबाई ने समाज उद्धार के कार्य भी बहुत किये, कइयों को व्यसनमुक्त किया महुआ में अनेक परिवार जो वैष्णव धर्मानुयायी बन गये थे, उनको प्रयत्न पूर्वक प्रतिबोध देकर जैनधर्म से जोड़ने का महान कार्य किया, कइयों को सामायिक, प्रतिक्रमण याद कराये, व्रत- प्रत्याख्यान दिलाये | 292 6.5.3.15 डॉ. श्री तरूलताबाई (सं. 2014 ) आपका जन्म धारी निवासी श्री वनमालीभाई के यहां हुआ, संवत् 2014 फाल्गुन शुक्ला 2 को वेरावल में आपने दीक्षा अंगीकार की, आप गोंडल संप्रदाय की श्री ललिताबाई स्वामी की शिष्या हैं। आप परम विदुषी मधुर प्रवचनकर्त्री हैं। श्रीमद् राजचंद्रजी की अध्यात्मकृति 'आत्मसिद्धि शास्त्र' पर शोध-प्रबन्ध लिखकर आपने पी.एच. डी. की उपाधि प्राप्त की है, आपकी पुस्तक 'हूं आत्मा छू' हिन्दी गुजराती दोनों भाषाओं में प्रकाशित है, पुस्तक अत्यंत लोकप्रिय है । 293 6.5.3.16 श्री सुदर्शनाबाई (सं. 2027-39) आप जूनागढ़ निवासी श्री विनुभाई बाटविया की सुपुत्री थीं, सं. 2001 मृगसिर कृ. 6 को 'चास' में आपने जन्म लिया । सं. 2027 को घाटकोपर मुंबई में 'मुक्त लीलम' परिवार की महासती उषाबाई के पास दीक्षा अंगीकार की। आप सौम्य आकृति, शांत गम्भीर व विचारशील थीं। श्रमणी विद्यापीठ घाटकोपर मुंबई में चार वर्ष अध्ययन 292. इन्दु नी तेजल ज्योत, लेखिका - ज्योतिबाई महासतीजी प्रकाशक - श्री स्था. जै. संघ, वेस्ट (मुं.), ई. 1984 293. संपर्क सूत्र के आधार पर 641 Page #704 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन श्रमणियों का बृहद इतिहास कर आपने न्याय-दर्शन, व्याकरण, आगम एवं संस्कृत-प्राकृत में योग्यता प्राप्त की। आप गुजरात से लेकर राजस्थान, मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र,हरियाणा, उत्तरप्रदेश, बिहार, आसाम तक दूर-दूर क्षेत्रों में विचरीं। लेकिन 38 वर्ष की अल्पायु में ही आप चास' चातुर्मास हेतु जाते हुए पूर्ण वेग से आते हुए ट्रक के द्वारा दुर्घटानाग्रस्त होकर चास के नजदीक दामोदरपुल के पार पर काल कवलित हो गईं। आपकी ज्येष्ठ भगिनी श्री वनिताबाई भी दीक्षित हैं। आपकी स्मृति में चास में श्री 'सुदर्शना अर्चिता स्मृति भवन' का निर्माण एवं श्मशान भूमि पर समाधि स्थान बना है।294 6.5.3.17 श्री अर्चिताबाई (सं. 2032-39) आप सौराष्ट्र के जेतपुर ग्राम में श्री केशुभाई मोदी के यहां सं. 2007 में जन्मीं। बचपन से ही प्रखर प्रतिभा की धनी थीं, मैट्रिक में प्रथम श्रेणी से उत्तीर्ण हुई, 15 वर्ष की अल्पवय में वर्षीतप की आराधना कर आपने अपूर्व आत्मबल का परिचय दिया। सं. 2032 वैशाख शु. 7 को आपकी दीक्षा तपस्वी श्री रतिलालजी महाराज के द्वारा 'मुक्त-लीलम' परिवार में हुई आप श्री सुदर्शनाबाई की शिष्या बनीं। आप अत्यंत मधुरकंठी एवं प्रवचन प्रभाविका थीं, साथ ही आप अनेक भाषाओं की ज्ञाता, परम विदुषी साध्वी थीं। आपकी भावना थी, जहां साधु-साध्वी कम पंहुचते हैं ऐसे क्षेत्रों में धर्म प्रभावना की जाय, इसके लिये अपनी गुरूणी के साथ दूर-दूर के क्षेत्रों में विचरीं। 'चास' चातुर्मास हेतु जाते हुए आप सुदर्शनाबाई के साथ ही दुर्घटना की शिकार बनकर वहीं स्वर्गवासिनी हो गई।95 6.5.3.18 श्री ज्योतिबाई (सं. 2029) आप राजकोट निवासी श्री मनसुखलाल की सुपुत्री हैं, घर में मेडीकल की छात्रा होते हुए भी हस्तकला के प्रत्येक क्षेत्र में आपने योग्यता अर्जित की, किंतु गोंडल संप्रदाय की श्री इन्दुबाई महासती का एक व्याख्यान सुनकर सब कुछ निस्सार सा प्रतीत हुआ। सं. 2029 माघ शु. 11 को राजकोट में दीक्षा अंगीकार की। आपकी सेवा भावना अपूर्व है, विनय के साथ कार्यदक्षता, त्याग, ज्ञान व स्वाध्याय भी उच्चकोटि का है। आपकी गुरू भगिनी भानुबाई महुआ शहर के प्रभुदास भाई खोखाणी की कन्या हैं, इन्होंने स. 2031 में श्री गिरीशमुनिजी महाराज द्वारा दीक्षा अंगीकार की थी। गोंडल गच्छ में चारित्र की दृढ़ हिमायती, सेवामूर्ति श्री जैकुंवरबाई तथा स्वाध्याय व सेवा में सतत तल्लीन श्री अचरतबाई महासतीजी का भी अत्यन्त श्रद्धा के साथ स्मरण किया जाता है, किंतु उनका इतिवृत्त अज्ञात है। 6.5.4 बरवाला-संप्रदाय की श्रमणियाँ : आचार्य मूलचंद्रजी के तृतीय शिष्य श्री वनाजी के शिष्य कानजी (बड़े) से 'बरवाला' संप्रदाय प्रारंभ हुआ। वर्तमान में इस संप्रदाय के गच्छाधिपति संघनायक मधुरवक्ता श्री सरदारमुनिजी महाराज हैं। आपकी आज्ञा में इस समय 15 साध्वियाँ विचरण कर रही हैं, सन् 2004 की चातुर्मास सूची के अनुसार उनके नाम इस प्रकार हैं294. शासन-सुमन सुवासिका, संपादक-श्री जिज्ञेसमुनि, प्रकाशक-श्री प्राण परिमल प्रकाशन, श्री स्था. जैन संघ, चास-बोकाटो (बिहार) ई. 1982 295. सही, शासन सुमन सुवासिका। 296. इन्दु नी तेजल ज्योति के आधार पर 16420 For Private a Personal Use Only Page #705 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्थानकवासी परम्परा की श्रमणियाँ उग्रतपस्विनी श्री जवेरीबाई, श्री सुभद्राबाई, श्री रतनबाई, श्री प्रमिलाबाई, श्री हंसाबाई, श्री गीताबाई, श्री सुवृत्ताबाई, श्री चन्द्रेशाबाई, श्री भावेशाबाई, श्री अंगूरप्रभाबाई, श्री नीताबाई, श्री छायाबाई, श्री ताराबाई | 297 ये सभी विदुषी स्वाध्याय प्रेमी, मधुर व्याख्यानी साध्वियाँ हैं, इनका अन्य परिचय उपलब्ध नहीं हुआ है। 6.5.5 बोटाद संप्रदाय की श्रमणियाँ : आचार्या मूलचंद्रजी के पंचम शिष्य श्री विट्ठलजी से गुजरात में एक नवीन सम्प्रदाय का उद्भव हुआ, जिसे 'ध्रांगध्रा सम्प्रदाय' कहा जाता था। इसमें मूखणजी और वशरामजी के शिष्य श्री जसाजी 'बोटाद ' पधारे, तबसे यह संप्रदाय 'बोटाद सम्प्रदाय' के नाम से प्रसिद्ध हो गया। इस संप्रदाय में श्री अमरचंदजी और श्री माणकचंदजी हुए, वर्तमान में श्री नवीनमुनिजी आचार्य हैं। 6.5.5.1 श्री चम्पाबाई (सं. 2017-60 ) बोटाद सम्प्रदाय की आद्या श्रमणी के रूप में श्री चम्पाबाई महासतीजी का नाम चिरस्मरणीय रहेगा। आप बोटाद साध्वी संघ की प्रमुख थीं। संवत् 1971 हड़दड़ ग्राम जिला बोटाद में मां छबलबहेन एवं पिता लक्ष्मीचंद भाई के यहां आपने जन्म ग्रहण किया। 10 वर्ष की उम्र से ही चौविहार सामायिक एवं अनेक व्रत- प्रत्याख्यान आदि में आपकी रूचि थी । बोटाद के श्री किस्तूरभाई के साथ लग्न हुआ, किंतु श्री शिवलालजी म. सा. के प्रवचनों में मृगापुत्र अध्ययन के माध्यम से नरक के दुःखों का वर्णन सुनकर संसार से छूटने की लौ जागृत हुई, वैवाहिक जीवन बंधन रूप लगने लगा। संयोग से पति का देहावसान हो गया, तो आप दीक्षा के लिये कृतसंकल्प हो गईं। उस समय तक बोटाद संप्रदाय में कोई साध्वी नहीं थी । अतः गोंडल संप्रदाय की सौम्यमूर्ति उदारचेता श्री रम्भाबाई ने सन्निष्ट नियामिका बनकर इनके साथ अन्य तीन बहनों को बोटाद संप्रदाय की साध्वियों के रूप में दीक्षा प्रदान की तथा संयम की शिक्षा देकर परिपक्व पात्र बनाया। आपकी दीक्षा वैशाख कृष्णा 7 रविवार संवत् 2017 को बोटाद संप्रदाय के स्वर्गीय श्री कानजी महाराज के मुखारविंद से हुई। अन्य तीन श्रमणियाँ थीं - श्री सविताबाई, श्री मंजुलाबाई व श्री सरोजबाई | आप 8 वर्ष तक श्री रम्भाबाई की आज्ञा से विचरीं । पश्चात् उन्हीं की आज्ञा से बोटाद के आसपास के क्षेत्रों में विचरीं आपकी 48 शिष्या - प्रशिष्याएँ बनीं। 13 वर्षों तक वर्षीतप करके आपने अपनी आत्मा को कुंदनवत् चमकाया। संवत् 2060 माघ कृष्णा 1 को आपका स्वर्गवास हुआ 1 298 6.5.5.2 श्री मंजुलाबाई (सं. 2017-27 ) आपका जन्म बोटाद में पोष शुक्ला 1 संवत् 1998 में शाह गांडाभाई (मोहनभाई) के यहां हुआ। संवत् 2027 वैशाख कृष्णा 7 रविवार को 19 वर्ष की वय में आप श्री चम्पाबाई के साथ दीक्षित होकर उन्हीं की शिष्या के रूप में प्रसिद्ध हुईं। आप मितभाषी, अनेक आगम- स्तोक आदि की अभ्यासी और त्याग - वैराग्य में उल्लासी साध्वी थीं, बोटाद संप्रदाय की स्तम्भ स्वरूप थीं, आपमें नेतृत्वक्षमता, मध्यस्थता, निष्पक्षता और वात्सल्यता का अपूर्व संगम था। 12-13 वर्ष की उम्र में आपने वर्षीतप की आराधना कर आत्मबल का परिचय दिया था। 10 297. समग्र जैन चातुर्मास सूची सन् 2004, पृ. 150 298. शाह अनोपचंद भाई रचित 34 सलोकों के आधार पर ( अप्रकाशित रचना ) . 643 Page #706 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन श्रमणियों का बृहद इतिहास वर्ष निरतिचार संयम का पालन कर 28 वर्ष की उम्र में बोटाद में स्वर्गवासिनी हुईं। आपके व्यक्तित्व एवं कृतित्व से संबंधित “श्री मंजुल जीवन मंजुषा" पुस्तक प्रकाशित है।299 बोटाद सम्प्रदाय की वर्तमान में श्री सविताबाई, श्री सरोजबाई, श्री मधुबाई, श्री माधुरीबाई आदि विदुषी श्रमणियाँ हैं, इनकी नेश्राय में श्री रक्षाबाई, श्री उर्मिलाबाई, श्री दर्शनाबाई, श्री मैत्रीबाई, श्री सुधाबाई, श्री ज्योत्स्नाबाई, श्री सुजाता बाई, श्री मीनाबाई, श्री जागृतिबाई, श्री हंसाबाई, श्री वंदनाबाई, श्री रेणुकाबाई, श्री दीपिकाबाई, श्री जिनाज्ञाबाई, श्री आदि 49 साध्वियों का परिवार है।300 6.5.6 कच्छ आठ कोटी मोटी पक्ष की श्रमणियाँ (सं. 1856 से वर्तमान) कच्छ आठ कोटी के संस्थापक श्री इन्द्रचंदजी के चतुर्थ पट्टधर श्री किरसनजी हुए, ये श्रावकों का आठ कोटी प्रत्याख्यान मानते थे, अतः इनकी संप्रदाय आठ कोटी मोटा पक्ष के नाम से प्रसिद्ध हुई। यह संप्रदाय संवत् 1856 से अस्तित्व में आई, तभी से इस संप्रदाय में साध्वियों का वर्चस्व रहा है, किंतु उनकी प्रामाणिक जानकारी उपलब्ध नहीं है। वर्तमान कार्यवाहक श्री ताराचंदजी महाराज की सूचनानुसार इस संप्रदाय की पांच साध्वियाँ पूर्व में संथारा साधिका हुई हैं-श्री मेघबाई स्वामी, श्री मीठीबाई स्वामी, श्री देवकुंवरबाई, श्री पानबाई, श्री सूरजबाई। इनके अतिरिक्त अन्य श्रमणियों की जीवन रेखाएँ इस प्रकार प्राप्त हुई हैं। 6.5.6.1 श्री मीठीबाई स्वामी 'भोजाय' (सं. 1949-2019) आप श्री व्रजपालजी स्वामी की सुशिष्या थीं। संवत् 1926 में आपका जन्म तथा संवत् 1949 में दीक्षा हुई। आप उग्रतपस्विनी थीं। दीक्षा के पश्चात् 70 वर्ष की दीक्षा-पर्याय तक पर्युषण तथा आयंबिल की ओली में कभी आहार नहीं किया। 90 वर्ष की उम्र तक प्रतिदिन खमासमण से 500 बार वंदना करतीं। जीवन पर्यन्त वे पैदल विहार करती रहीं, डोली या व्हीलचेयर का प्रयोग नहीं किया। 93 वर्ष की उम्र में वर्षीतप में संथारा अंगीकार किया जो 45 दिन चला। संथारे के 17वें दिन अपनी प्रशिष्या सेवाभाविनी श्री निरंजनाबाई, जो कभी प्रवचन नहीं देती थीं, उन्हें आशीर्वाद दिया कि तुम प्रभावक व्याख्याता होगी- उनका आशीर्वाद फलीभूत हुआ। इस प्रकार श्री मीठीबाई कच्छ आठ कोटी संघ की महाप्रभावशालिनी साध्वी हुईं।301 6.5.6.2 श्री जेतबाई स्वामी (सं. 1980-स्वर्गस्थ) आप श्री व्रजपालजी महाराज की तेजस्विनी शिष्या थीं। उन दिनों भुजपुर गांव में किसी भी जैन साधु-साध्वी का चातुर्मास नहीं हो पकता, यह विरोधी प्रस्ताव ताम्रपत्र पर लिखकर पास करवाया गया था, अतः वहाँ कोई भी चातुर्मास नहीं कर सकता था। संवत् 1980 में आषाढ़ पूर्णिमा के दिन सांयकाल विहार करती हुई आप वहाँ पहुंची तो पुलिस ने उन्हें स्थानक खाली करने के लिये कहा। साध्वीजी ने कहा-“विहार तो अब नहीं कर सकते, हमें आप साढ़े तीन हाथ जमीन प्रदान कर दें, हम संथार कर लेते हैं।" आपकी चारित्रिक निष्ठा व अपूर्व दृढ़ता देखकर सरकारी अधिकारियों ने सहर्ष चातुर्मास की आज्ञा प्रदान की। तब से लेकर आज तक प्रतिवर्ष वहाँ चातुर्मास होते हैं।302 299. मुनि श्री सुधेन्द्र, प्रकाशक-भूधरलाल हरखचंद, तुरखावाला, रामकृष्णनगर-4, राजकोट, 1971 ई. (द्वि. सं.) 300. समग्र जैन चातुर्मास सूची 2004, पृ. 142 301-302. श्री ताराचंदजी महाराज की सूचनानुसार 644 Page #707 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्थानकवासी परम्परा की श्रमणियाँ 6.5.6.3 प्रवर्तिनी श्री मणीबाई (सं. 1994 से वर्तमान) आप श्री देवकुंवरबाई की शिष्या हैं, संवत् 1994 वैशाख शुक्ला 11 कच्छ माथर में आपने दीक्षा अंगीकार की। आप संस्कृत, हिंदी, गुजराती की ज्ञाता हैं, आगम और 40 स्तोक कंठस्थ हैं। आपने 4 अठाई, दो वर्षीतप, मौन एकादशी, रोहिणी तप, ज्ञानपंचमी तथा 15 आयंबिल की ओलियाँ की हैं। आपकी 5 शिष्याएँ एवं 14 प्रशिष्याएँ हैं। वर्तमान में 93 वर्ष की उम्र में आप संयम साधना में अप्रमत्त रहकर विचरण कर रही हैं। 303 6.5.6.4 श्री जयाबाई महासती (सं. 2011 से वर्तमान) आपका जन्म संवत् 1993 में हुआ, संवत् 2011 मृगशिर शुक्ला 10 को कच्छ बीदड़ा में श्री मणीबाई के पास दीक्षा अंगीकार की। आप संस्कृत प्राकृत, हिंदी गुजराती भाषा की ज्ञाता हैं, 11 शास्त्र और 60 स्तोक कंठस्थ हैं। दो वर्षीतप, वीशस्थानक ओली, 96 देवनी ओली, ज्ञानपंचमी, मौन ग्यारस आदि विविध तपस्याएँ की हैं। आप परमविदुषी साध्वी हैं, आपका मौलिक साहित्य - जया सौरभ, जया सुधारस, जया झरणां, परमात्मा परिमल आदि सात पुस्तकें प्रकाशित हैं। आपकी 10 शिष्याएँ तथा 5 प्रशिष्याएँ हैं । 304 6.5.6.5 श्री शिलाबाई (सं. 2027 से वर्तमान ) आप श्री जयाबाई की शिष्या हैं, संवत् 2027 वैशाख शुक्ला 11 के दिन कट्ठोर (गुजरात) में आप श्री प्राणलालजी स्वामी से दीक्षित हुईं। चार आगम व लगभग 70 स्तोक कंठस्थ हैं। आपने दो बार अठाई भी की है। कच्छ मोटी पक्ष में वर्तमान गादीपती श्री प्राणलालजी महाराज की आज्ञानुवर्तिनी 78 साध्वियाँ हैं, जिनमें प्रवर्तिनी श्री सुनीताबाई, श्री मणिबाई 'टोडा', श्री रूक्ष्मणीबाई, श्री दमयंतीबाई, श्री प्रभावतीबाई, श्री लीलावतीबाई, श्री मंजुलाबाई, श्री भावनाबाई, श्री निर्मलाबाई, श्री निरंजनाबाई, श्री सुभद्राबाई, श्री कस्तूरबाई, श्री नयनाबाई, श्री कोकिलाबाई, श्री सुनन्दाबाई, श्री वीरमणीबाई, श्री इन्दिराबाई, श्री श्री उज्जवलबाई, श्री गीताबाई, श्री शीलाबाई, श्री साधनाबाई, श्री शोभनाबाई, श्री करूणाबाई, श्री सुयशाबाई प्रमुखा साध्वियाँ हैं। 305 6.5.7 कच्छ आठकोटी नानी पक्ष की श्रमणियाँ (सं. 1856 ) श्री मूलचन्दजी के सप्तम शिष्य श्री इन्द्रचंदजी से कच्छ आठ कोटी संप्रदाय प्रारंभ हुआ, इनकी परम्परा के श्री डाह्याजी के दूसरे शिष्य श्री जसराजजी से आठ कोटी नानी पक्ष की शुरूआत हुई। इसमें नथुजी, हंसराजजी, व्रजपालजी, डुंगरशी, शामजी, श्रीलालजी, केशवजी आदि प्रभावक संघनायक संत हुए। वर्तमान में इस समुदाय के संघनायक आचार्य श्री राघवजी महाराज की आज्ञा में 38 श्रमणियों के नामोल्लेख प्राप्त होते हैं इनमें पदवीधर महासती श्री लक्ष्मीबाई की नेश्राय में श्री निर्मलाबाई, श्री चंद्रिकाबाई, श्री ताराबाई, श्री नेहलबाई, श्री साकरबाई, श्री कस्तूरीबाई, श्री हेमप्रभाबाई, श्री दुलारीबाई, श्री भानुबाई, श्री वेजबाई, (प्रथम), श्री निर्मलाबाई, श्री विमलाबाई, श्री रतनबाई, श्री कस्तूरबाई, श्री सुशीलाबाई, श्री दीनाबाई, श्री कमलाबाई, श्री रतनाबाई, श्री लक्ष्मीबाई, श्री साकरबाई, श्री आशाबाई, श्री नीनाबाई, श्री रतनबाई, श्री कुसुमबाई, श्री ग्रीष्माबाई, श्री देवकीबाई, श्री इलाबाई, 303-304. श्री ताराचंदजी महाराज की सूचनानुसार 305. समग्र जैन चातुर्मास सूची, 2004, पृ. 133 645 For Private Personal Use Only Page #708 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन श्रमणियों का बृहद इतिहास श्री रीटाबाई, श्री ईलाबाई, श्री ताराबाई, श्री सुशीलाबाई, श्री हंसाबाई, श्री मंजरीबाई, श्री प्रवीणाबाई, श्री मेघाबाई, श्री हेमलताबाई, श्री मीनाबाई आदि विदुषी आचारनिष्ठ श्रमणियाँ हैं, जो मात्र कच्छ में ही विचरण करती हैं, चातुर्मास हो या शेषकाल; कभी भी कच्छ से बाहर गुजरात प्रान्त में भी विचरण नहीं करतीं। बाह्य जन-सम्पर्क से रहित ये सदा अपने स्वाध्याय ध्यान आदि में तल्लीन रहती हुई निर्दोष संयम का पालन करती हैं।306 6.5.7.1 प्रवर्तिनी श्री देवकुंवरबाई (सं. 1975 - 2061) कच्छ आठ कोटी छोटी पक्ष में प्रवर्तिनी श्री देवकुंवरबाई दृढ़ संयम निष्ठ साध्वी हुई हैं। कच्छ के बड़ाला ग्राम में सं. 1975 में आपकी दीक्षा हुई थी। प्रवर्तिनीजी श्री पांचीबाई के कालधर्म के पश्चात् सं. 1996 में उनके पाट पर आप विराजमान हुईं।307 6.5.8 आचार्य श्री धर्मदासजी की मालव परम्परा एवं श्रमणी-समुदाय : स्थानकवासी सम्प्रदाय के क्रियोद्धारक आचार्यों में श्री धर्मदासजी महाराज का नाम अत्यंत आदर के साथ लिया जाता है। आपने अपने जीवन काल में एक कम 100 पुरूषों को प्रभावित कर दीक्षा प्रदान की थी, उनके प्रमुख 22 टोले बनाकर विभिन्न क्षेत्रों में धर्म प्रचार हेतु भेजा था। उनमें श्री धन्नाजी महाराज की परम्परा मारवाड़ में श्री मूलचंदजी महाराज की परम्परा गुजरात में एवं छोटे पृथ्वीराजजी महाराज की शिष्य परम्परा मेवाड़ में विकसित हुई। शेष शिष्यों की परम्पराओं के समूह को 'मालव-परम्परा' कहा जाता है। इस परम्परा, का विस्तृत इतिहास श्री उमेशमुनिजी 'अणु' ने 'श्री धर्मदासजी महाराज और उनकी मालव परम्परा पुस्तक में अत्यंत खोज पूर्वक लिखा है, हम उसीको आधार मानकर मालव-परम्परा की श्रमणियों का उपलब्ध विवरण यहाँ प्रस्तुत कर रहे हैं। 6.5.8.1. श्री लाडुजी, डायाजी (सं. 1718) मालवा पट्टावली में उल्लेख है कि श्री धर्मदासजी महाराज ने अपने क्रियोद्धार (सं. 1716) के दो वर्ष पश्चात् लाडुजी, डायाजी आदि पांच महिलाओं को दीक्षित किया था। डायाजी उनकी मातेश्वरी थी और उन्होंने धर्मदासजी के अतिरिक्त अपने एक पुत्र को भी दीक्षा दी, ऐसी संभावना एक प्राचीन पत्र के आधार पर प्रकट की गई है।108 ये दीक्षाएं गुजरात में हुई या अन्य प्रान्त में, उनकी विद्यमानता में साध्वियों का कितना परिवार था, भिन्न-भिन्न प्रान्तों में सायी वर्ग भिन्न-भिन्न रूप से रहा या एक प्रवर्तिनी की नेश्राय में आदि प्रश्नों के समाधान के लिये एद्विषयक कोई सामग्री उपलब्ध नहीं होती। 6.5.8.2. आर्या श्री कर्माजी सुकड़जी (सं. 1817-20 के मध्य) ये साध्वियाँ कब हुईं, इस विषय में प्रामाणिक परिचय उपलब्ध नहीं हुआ है, पर उन पर लिखी गई एक चिट्ठी से उनके व्यक्तित्व की झलक मिलती है, इस चिट्ठी में न सन्, संवत् हैं, न कहां से, किसने लिखी, उसका 306. समग्र जैन, चातुर्मास सूची, 2004, पृ. 140-41 307. जै. कां. स्वर्ण जयंति ग्रंथ, पृ. 57 308. श्री उमेशमुनि 'अणु' श्रीमद् धर्मदासजी महाराज और उनकी मालव परम्परा, पृ. 41 646 Page #709 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्थानकवासी परम्परा की श्रमणियाँ उल्लेख है, पर उसमें उज्जैन शाखा के तृतीय आचार्य श्री माणकचंदजी की आज्ञा का उल्लेख है, पू. श्री का आचार्यकाल सं. 1803 से सं. 1850 के बीच पड़ता है, अत: वह चिट्ठी भी इसी काल के बीच की होनी चाहिये, उसका अनुमान सं. 1817 से 1820 के मध्य का माना है। उस समय आर्या कमांजी, सुकड़जी, केसरजी, वीराजी ये 4 प्रभावशालिनी आर्याएँ थीं, इनका दक्षिण में भी प्रभाव था।309 6.5.8.3. आर्या वीराजी (सं. 1786-1828) आर्या वीराजी एक विशिष्ट व्यक्तित्व वाली साध्वी हो गई हैं। आपका जन्म धारा नगरी में हुआ था, पिता का नाम केलाजी चौधरी और माता का नाम राजीबाई था। आपका जन्म संवत् 1754 के लगभग हुआ था और आपने सं. 1786 के लगभग उस समय की प्रसिद्ध साध्वी श्री नाथाजी के पास परम वैराग्य से प्रव्रज्या अंगीकार की थी। आपके विषय में 'केसरबाई' नाम की श्राविका ने अनशन वर्णन की गीतिका बनाई थी, उसमें आपको धर्मदासजी म. की अनुयायिनी साध्वी बताया हैं। आपके माता-पिता वंश तथा भाई का नाम चौधरी भगवतीदासजी दिया है। गुरूणी नाथाजी तथा गुरूबहन अजबजी का नामोल्लेख भी किया है। आपके मन में संथारा करने की अभिलाषा हुई, अतः आपने प्रथम एक पक्ष के एकांतर किये, रि बेला, फिर तेला और चोले के साथ ही आजीवन तिविहार कर प्रत्याख्यान कर लिया। 43 वर्ष दीक्षा पाली, 75 वर्ष की आयु में सं. 1827 फाल्गुन कृ. 9 शुक्रवार को 15 दिन का अनशन पालकर तीसरे पहर में देह त्याग किया।10 6.5.8.4. श्री आर्या दलूजी (सं. 1800 के लगभग) आपके हाथ की लिखी हुई एक सज्झाय है, उसमें संवत् का उल्लेख नहीं है। इसमें इन्होंने अपने को श्री देवीचन्दजी म. की प्रसाद प्राप्त शिष्या लिखा है, यदि ये देवीचंदजी म. श्री धर्मदासजी म. के शिष्य श्री देवी सिंहजी हो तो श्री दलुजी का अस्तित्व काल सं. 1800 के आसपास ठहरता है, क्योंकि श्री देवीसिंहजी म. की हस्तलिखित व्यवहार सूत्र की सं. 1796 नौरंगाबाद में और 'परमात्मपुराण' की सं. 1800 की देवास में लिखी हुई प्रतिलिपि प्राप्त होती है। अतः इसी समय आर्या श्री दलुजी ने उनके दर्शन राजगढ़ में किये होंगे। 6.5.8.5. श्री मयाजी, राजाजी (सं. 1865) ___ संवत् 1865 में इन आर्याओं का अस्तित्व था। ये अपने ऊपर रतलामशाखा के प्रसिद्ध संत श्री दानाजी स्वामी की विशेष कृपा मानती थी।12 6.5.8.6. श्री आर्या सजाजी (सं. 1868) संवत् 1868 में इन्होंने 'श्राद्ध प्रतिक्रमण' की प्रतिलिपि की थी। उसमें आपने अपने को 'दानाजी म.' की। शिष्या लिखा है तथा अपने ऊपर उनकी कृपा का उल्लेख भी किया है।13 309. वही, पृ. 205-6 310. वही, पृ. 206 311-314. वही, पृ. 208 647| Page #710 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन श्रमणियों का बृहद इतिहास 6.5.8.7. आर्या श्री चन्दाजी, श्री उमाजी, श्री नन्दूजी, श्री जोतांजी (सं. 1895) संवत् 1895 चैत्र शु. 2 की तपस्वी श्री परसरामजी म. के शिष्य श्री मूलचंदजी म. द्वारा लिखित 'देवकी चौपाई' की प्रति में उक्त आर्याओं के नाम मिलते हैं। तपस्वी श्री रतनचंदजी के शिष्य श्री हेमराजजी ने सं. 1876 में आर्या उमाजी के पठनार्थ एक स्तवन लिखा था।14 6.5.8.8. प्रवर्तिनी श्री मेनकुंवरजी (सं. 1940-2007) __ आपका जन्म संवत् 1933 में पेटलावद में श्री कस्तूरचन्दजी वोरा की धर्मपत्नी जड़ावबाई की कुक्षि से हुआ। जब आप लगभग 8 वर्ष की थी, एकबार माता ने चूल्हे में जलाने के लिये लकड़ी लाने को कहा, आप लकड़ी ला रही थी कि अचानक हाथ से लकड़ी छूट गई, लकड़ी घुनवाली थी अत: उसका आटा नीचे गिर गया। बाल सुलभ कोतुहल से आपने उस आटे को चिमटी से उठाया तो उसमें घुण कुलबुलाते देख आपका हृदय कांप उठा, और सीधे स्थानक में वाल्हीजी महासतीजी के पास दीक्षित हो गईं। आपके साथ आपकी माता ने भी दीक्षा ली. दीक्षा संवत् 1940 में हुई। आप प्रखर प्रतिभासंपन्न थीं। मात्र 16 वर्ष की आयु में आपने 7 शास्त्र कंठस्थ कर लिये थे। चन्द्र सूर्य प्रज्ञप्ति छोड़कर शेष 30 शास्त्रों का अध्ययन किया, दोसौ थोकड़े एवं एक हजार के लगभग श्लोक सवैया, दोहे आदि कंठस्थ कर लिये थे। आपको स्वावलंबन बहुत ही प्रिय था, 15 वर्ष की वय से ही अपने हाथों से केश लुचन करना प्रारम्भ कर दिया था। आपके तात्त्विक, मधुर, सारगर्भित और प्रभावशाली प्रचनों से प्रभावित होकर कई स्त्रियाँ महाव्रतधारिणी बनीं। अनेकों स्त्री-पुरूष अणुव्रती सम्यक्त्वी और सप्त कुव्यसन त्यागी बने। सैलाना में भारत के वायसराय लार्ड इरविन ने सपरिवार आपके दर्शन कर प्रवचन का लाभ लिया था। सं. 1868 में सैलाना नरेश की वर्षगांठ के उत्सव पर वहाँ के तत्कालीन दीवान श्री प्यारेकृष्णजी कौल की विनति पर वहाँ पधारकर 27 सार्वजनिक प्रवचन दिये। वहाँ 5 प्रवचनों में स्वयं नरेश भी उपस्थित हुए। सैलाना में आपकी प्रेरणा से नरेश ने चैत्र शु. 13 को प्रतिवर्ष राज्यभर में 'अमारि' की घोषणा करवाई, उस दिन को 'अहिंसा दिवस' के रूप में मनाया जाता था। 27 गांवों ने भी आपके प्रवचनों का लाभ लिया था। ऐसा छोटे बड़े कई रजवाड़ों में अमुक तिथियों पर अहिंसा पालन की घोषणाएँ हुई थीं। आपको संवत् 1978 में 'प्रवर्तिनी पद' प्रदान किया गया था। सं. 2000 से 2007 तक आप इन्दौर में स्थिरवास रहीं। और वहीं 2007 कार्तिक शुक्ला 11 को कुछ समय के अनशन पूर्वक देह त्याग किया। आपकी पांच गुरू बहनें थीं- श्री दोलाजी, श्री माणकजी, श्री जड़ावकंवरजी (संसारपक्षीय माता) श्री रतनकंवरजी और श्री गेन्दाजी। श्री जडावकंवरजी को 11 दिन का, श्री रतनकुंवरजी को 5 दिन का और श्री गेंदाजी म. को 22 दिन का संथारा आया था। आपकी 14 शिष्याएँ और 20 प्रशिष्याएँ आपके सान्निध्य में दीक्षित हुई थीं। बड़ी शिष्या गुलाबकुंवरजी सं. 1954 में दीक्षित हुई, उन्होंने ही दिन के अनशन से देह त्याग किया। दूसरी शिष्या राजकुंवरजी थीं, उनकी दीक्षा सं. 1958 में हुई, वे प्रवर्तिनी पद पर अधिष्ठित रहीं।15 6.5.8.9. श्री दौलांजी (सं. 1946 से पूर्व) आपके विषय में इतना ही उल्लेख मिलता है कि आपश्री मानकुंवरजी की गुरूणी थीं, श्री हीरांजी के साथ 315-316. वही, पृ. 209-15 नोट: प्रवर्तिनी श्री मेनकंवरजी के शिष्या-परम्परा के लिये देखें-महासती केसरदेवी गौरव ग्रंथ खंड-3, पृ. 338 648 Page #711 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्थानकवासी परम्परा की श्रमणियाँ आपका अत्यंत प्रेम संबंध था, अतः हीरांजी दौलांजी की जोड़ी प्रख्यात थी । दौलांजी की पांच शिष्याएँ थीं श्री मानकंवरजी, श्री प्रेमकंवरजी, श्री प्याराजी, श्री सिरेकंवरजी, श्री पानकंवरजी । श्री मानकंवरजी की 11 शिष्याएँ हुईं- श्री जड़ावकंवरजी, श्री छोटे मेनकंवरजी, श्री सूरजकंवरजी, श्री पानकंवरजी, श्री रतनकंवरजी, श्री नेमांजी श्री बदामजी, श्री चांदकंवरजी, श्री केशरजी, श्री जसकंवरजी, श्री सज्जनकंवरजी । श्री जड़ावजी की एक शिष्या धनकंवरजी हुई। श्री मेनकंवरजी की चार शिष्याएँ - श्री सुगनकंवरजी, श्री राजकंवरजी, श्री सणगारांजी श्री मदनकुंवरजी । सुगनकंवरजी की तीन शिष्याएँ - श्री सरदारांजी, श्री गुलाबकंवरजी, श्री हंसकंवरजी । श्री मानकुंवरजी की तृतीय शिष्या श्री सूरजकुंवरजी की दो शिष्याएँ श्री मानकुंवरजी और सुन्दरकुंवरजी । श्री सुन्दरकुंवरजी की शिष्या श्री केशरकुंवरजी हुई। श्री मानकुंवरजी की आठवीं शिष्या श्री चाँदकंवरजी की एक शिष्या श्री जतनकुंवरजी । श्री मानकंवरजी की 11वीं शिष्या प्रवर्तिनी पंडिता श्री सज्जनकुंवरजी थीं । 316 6.5.8.10. प्रवर्तिनी श्री माणकजी (सं. 1946-82 ) आप रतलाम के प्रख्यात मुणोत परिवार की पुत्रवधु थीं। वैधव्य के पश्चात् सास नानूबाई, नणंद प्रेमाबाई एवं देवर ताराचंदजी के साथ आपने श्री मोखमसिंहजी म. के मुखारविंद से सं. 1946 चैत्र शु. 11 को दीक्षा अंगीकार की। आपकी पूर्वजा साध्वियों में श्री हीरांजी दोलाजी आदि से आपको उत्तराधिकार में ज्ञान सम्पन्नता प्राप्त हुई । हीराजी दौलाजी की जोड़ी प्रख्यात थी । आप हीराजी की शिष्या थी। श्री माधवमुनिजी म. के युवाचार्य पद प्रदान के समय सं. 1978 में आपको प्रवर्तिनी पद प्रदान किया गया, परन्तु कुछ वर्ष बाद सं. 1982 फाल्गुन शुक्ला 8 रतलाम में आप स्वर्गवासिनी हो गई। आपकी चार शिष्याएँ थीं- श्री भूरीजी, श्री मेहताबजी, श्री फूलकुंवरजी, श्री श्यामकुंवरजी। श्री भुरीजी की शिष्या श्री धनकुंवरजी और उनकी शिष्या श्री सोहनकुंवरजी हुई। 317 - 6.5.8.11. प्रवर्तिनी श्री महताबकुंवरजी (सं. 1947-85 ) आपका जन्म सं. 1939 कुशलगढ़ निवासी ठाकुर दीवान श्रीमान् दिलीपसिंहजी चौपड़ा की चतुर्थ पत्नी प्याराबाई की कुक्षि से हुआ। पिता के देहान्त के पश्चात् माता प्याराबाई का हृदय संसार से विरक्त हो गया। अतः सं. 1947 में माता-पुत्री दोनो ने इन्दौर में श्री रतनकुंवरजी के पास दीक्षा अंगीकार की। माता का नाम प्रेमकुंवरजी रखा गया। आठ वर्ष की बालिका साध्वी वेश में आत्मसाधना के मार्ग पर दृढ़ता पूर्वक बढ़ने लगी। शास्त्रों का गंभीर अध्ययन किया। आपके कण्ठ माधुर्य की विशिष्टता से आप 'मालव कोकिला' के नाम से विख्यात हुई। वक्तृत्व कला भी आपकी अनूठी थी, आपने कई आत्माओं को लक्ष्य-बोध दिया, आत्म-साधना के मार्ग पर गतिशील किया। सं. 1985 चैत्र शुक्ला 3 को लगभग 46 वर्ष की उम्र में इन्दौर में देहान्त हुआ। आपका स्वल्पजीवन भी गौरव-गरिमा से मण्डित और तेजोदीप्त रहा। आपकी 17 शिष्याएँ और कई प्रशिष्याएँ हुईं। आपकी माताजी श्री प्रेमकुंवरजी का देहान्त सं. 1999 वैशाख शु. 2 को रतलाम में हुआ, उनकी चार शिष्याएँ हुईं। 18 6.5.8.12. आर्या सूरजकंवरजी (सं. 1950 ) संवत् 1950 के आसपास श्रीसूरजकुंवरजी नाम की प्रखर व्यक्तित्व वाली साध्वी हुई हैं। वह अपने को 317. वही, पृ. 222 318-319. वही, पृ. 225 649 Page #712 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन श्रमणियों का बृहद इतिहास उज्जैन शाखा से संबद्ध मानती थीं। उनकी अनेक शिष्याएँ हुई। महिदपुर, झार्डा, सोंधवाड़ा उज्जैन, वखतगढ़, बदनावर आदि क्षेत्रों में उनका विहार विशेष रूप से होता था। इनकी शिष्या प्यारांजी (सं. 1996) पश्चात् मोहनकुंवरजी (सं. 1996) उनकी कंचनकंवरजी (सं. 2021) शिष्या हुई।319 6.5.8.13. श्री नानूजी (सं. 1953) आप धरियावद ग्राम की निवासिनी, हुम्मड़ दिगम्बर परिवार की थीं। सं. 1953 चैत्र शुक्ला 13 को धरियावद में दीक्षा हुई। आप शान्त स्वभाव की आत्मसाधिका थी। श्री प्रेमकुंवरजी महाराज की आप शिष्या थीं।320 6.5.8.14. श्री फूलकंवरजी (सं. 1954) आप बड़े मेनकुंवरजी की द्वितीय शिष्या थीं। खाचरोद के समीप धानासुता ग्राम आपका निवास स्थान था। सं. 1954 में आपने दीक्षा अंगीकार की थी। आप अत्यंत निर्भीक स्वभाव की एवं शान्त प्रकृति की थीं। शिवगढ़ (रतलाम) चातुर्मास में आप छंद-स्तोत्र आदि का पाठ कर रहीं थीं, एक सर्प वहां आया और चुपचाप स्तोत्र पाठ श्रवण करने लगा, स्तोत्र सुनकर वह चला गया, सतीजी वहीं बैठी रहीं। दूसरे दिन भी सर्प आया ऐसे नित्य सर्प आता और स्तोत्र सुनकर चला जाता, एक दिन आप तेज बुखार के कारण स्तोत्र नहीं सुना पायी, दूसरी सतियाँ डरने लगे उन्होंने सर्प को आने से मना कर दिया तब से वह अदृश्य हो गया, अंत में सं. 2001 से आप 30 दिन के संथारे के साथ स्वर्गवासिनी हुई। आपकी दो शिष्याएँ हुईं, उनमें एक का नामोल्लेख है-श्री मानंकवरजी।321 6.5.8.15. श्री रतनकुंवरजी (सं. 1954) आप रतलाम निवासीनी, श्रीमान् घासीरामजी मुणोत की धर्मपत्नी थीं। सं. 1954 में अपने पुत्ररत्न श्री वृद्धिचन्दजी के साथ दीक्षा ग्रहण की थी आप श्री वाल्हीजी की शिष्या थीं, बड़ी तपस्विनी साध्वी थीं, दीर्घ तपस्याएँ भी की थीं। पांच दिन के अनशन पूर्वक आपने देह त्याग किया। स्वर्गवास की तिथि ज्ञात नहीं है।322 6.5.8.16. श्री चम्पाजी (सं. 1958) आप अकोदड़ा ग्राम की निवासिनी थीं। वहीं सं. 1958 ज्येष्ठ शुक्ला 11 को आपकी दीक्षा हुई। आप तपस्विनी थीं, 21 या 22 मासखमण तथा अन्य कई फुटकर तपस्याएँ की, आप श्री प्रेमकुंवरजी की शिष्या थीं।323 6.5.8.17. प्रवर्तिनी श्री टीबूजी (सं. 1959-2001) आपका जन्म रतलाम निवासी श्री माणिकचंदजी सुराना की धर्मपत्नी हीराबाई की कुक्षि से हुआ, तथा विवाह पिलोदा के प्रसिद्ध एवं समृद्ध घराने में हफआ। कुछ ही समय पश्चात् पति बालचंदजी ने अपनी माता के बहकावे में आकर आपका परित्याग कर दिया। आपने सं. 1959 में श्री लच्छीजी की शिष्या श्री सिरेकुंवरजी के पास 18 320. वही, पृ. 226 321-322. वही, पृ. 215 323. वही. पृ. 227 650 Page #713 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्थानकवासी परम्परा की श्रमणियाँ वर्ष की आयु में दीक्षा ग्रहण की, और विशिष्ट ज्ञानाभ्यास किया। प्रवचन कला में भी आप पटु थीं, राह चलता व्यक्ति भी आपकी मनमोहक वाणी से आकर्षित होकर प्रवचन में बैठ जाता था, आपने दक्षिण प्रदेश में विचरण करके भी धर्म का खब प्रचार-प्रसार किया। आप विनीत, व्यवहार कुशल, निर्भीक व स्पष्टवक्ता थीं। सं. 1978 में आपको प्रवर्तिनी पद पर अधिष्ठित किया गया था। वि. सं. 2001 पौष कृष्णा 8 को रतलाम में अनशन पूर्वक स्वर्गवासिनी हुईं। आपकी आठ शिष्याएँ हुईं।324 6.5.8.18. प्रवर्तिनी श्री राजकुंवरजी (सं. 1960 के बाद - ) ___ आपका जन्म जावरा में पिता मूलचंदजी एवं माता धापीबाई के यहाँ हुआ। विवाह के बाद पति का स्वर्गवास हो जाने पर श्री टीबूजी म. के उपदेश से प्रव्रज्या अंगीकार की। आप विचारशीला एवं क्रियानिष्ठ साध्वी थीं। श्री टीबूजी म. के स्वर्गवास के पश्चात् सं. 2001 में आपको चतुर्विध संघ ने प्रवर्तिनी पद प्रदान किया। कुछ वर्ष इस पद पर रहकर रतलाम में संथारा सहित स्वर्ग-प्रस्थान कर गईं। आपकी तीन शिष्याएँ थीं-श्री श्रृंगारकुंवरजी (सरसी), श्री गुलाबकुंवरजी (थांदला), सेवाभाविनी व्याख्यात्री श्री केसरकुंवरजी। श्री गुलाबकुंवरजी की श्री सज्जनकुंवरजी तथा केसरकुंवरजी की श्री दिलसुखकुंवरजी, श्री गुलाबकुंवरजी, श्री प्रमोदकुंवरजी ये तीन शिष्याएँ हैं।25 6.5.8.19. श्री पानकुंवरजी (सं. 1960- ) ___आप झालावाड़ छावनी की निवासिनी थीं, विवाह के कुछ समय बाद पति वियोग हो जाने पर सं. 1960 चैत्र शुक्ला 5 को 14 वर्ष की आयु में प्रवर्तिनी श्री महताबकुंवरजी के पास दीक्षा ग्रहण की। आप व्याख्यात्री और धर्म प्रचारिका थीं। आपकी तीन शिष्याएँ हईं- (1) श्री तेजकंवरजी - झालोद निवासनी, तीस वर्ष की उम्र में सं. 1967 माघ शुक्ला 6 को वखतगढ़ में दीक्षा ली, ये तपस्विनी थीं। (2) श्री गुलाबकंवरजी -गेता-हाड़ोती निवासिनी, 35 वर्ष की आयु में सं. 1983 कार्तिक कृष्णा 13 बुधवार को दीक्षा। (3) श्री जोरावरकुंवरजी -सायपुरा निवासिनी, सं. 2002 उज्जैन में माघ शुक्ला 5 बुधवार को दीक्षा, ये तपस्विनी थीं। इन सबका स्वर्गवास हो चुका है।326 6.5.8.20. श्री हंसकुंवरजी (सं. 1961 - ) आप राणापुर झाबुआ ग्राम निवासिनी थीं, सं. 1961 ज्येष्ठ शु. 6 को प्रवर्तिनी श्री महताबांजी के पास दीक्षा हुई, आपकी तीन शिष्याएँ हुईं- (1) श्री गुलाबकुंवरजी - स्थान चडवाला, 35 वर्ष की आयु में सं. 1966 में दीक्षा। (2) श्री धनकुंवरजी - स्थान करजू, दीक्षा सं. 1968 कार्तिक शुक्ला 11, (3) श्री उम्मेदकुंवरजी - स्थान लांब्या, दीक्षा सं. 1971 माघ शुक्ला 5, इनकी दो शिष्याएँ हुई-श्री सौभाग्य कुंवरजी, श्री जतनकुंवरजी।327 6.5.8.21. श्री सुगनकुंवरजी (सं. 1964- ) आप मान.रोल-हाड़ोती निवासिनी थीं। बाल्यवय में अविवाहित अवस्था में सं. 1964 माघ शुक्ला 5 मांगरोल 324. (क) वही, पृ. 232, (ख) श्री केसरदेवी गौरव ग्रंथ, खंड 3, पृ. 343 325. वही, पृ. 233 326-327. वही, पृ. 227 651 Page #714 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन श्रमणियों का बृहद इतिहास में प्रवर्तिनी श्री महताबकुंवरजी के पास दीक्षा अंगीकार की। आप भजनानन्दी थीं। आपकी दो शिष्याएँ हुईं- (1) श्री मेनकंवरजी - स्थान काटपाड़ी (दक्षिण), 15 वर्ष की उम्र में सं. 2001 माघ शुक्ला 5 को खाचरोद में दीक्षा। (2) श्री कौशल्याजी-आप मैनकुंवरजी की लघु भगिनी हैं। 14 वर्ष की आयु में सं. 2005 कार्तिक शुक्ला 4 शुक्रवार को दीक्षा हुई। आप दोनों व्याख्यात्री हैं तात्त्विक सैद्धान्तिक विषयों की अच्छी ज्ञाता हैं।328 6.5.8.22. श्री सूर्यकुंवरजी (सं. 1950- ) आप ताल-मेवाड़ के मेहता परिवार से थीं। सं. 1965 कार्तिक शुक्ला 12 को ताल में प्रवर्तिनी श्री मेहताबकुंवरजी के पास दीक्षा ग्रहण की।29 6.5.8.23. श्री मानकुंवरजी (सं. 1965- ) आप भी ताल ग्राम के श्री खूबचंदजी भरगट की सुपुत्री थीं, सं. 1965 मृगशिर कृष्णा 4 को श्री लौजांजी के साथ गङ्ग.धार में दीक्षित हुईं। आप दोनों प्रवर्तिनी श्री मेहताबकुंवरजी की शिष्या बनीं।30 6.5.8.24. श्री चाँदकुंवरजी (सं. 1965- 74 के मध्य) __ आप शिवगढ़ निवासिनी थीं, टीबूजी की शिष्या बनीं। आप तपस्विनी साध्वी थीं, मासक्षमण, 15, कई अठाइयाँ की। रतलाम में संथारा पूर्वक देहत्याग किया। आपकी तीन शिष्याएँ हुईं। (1) श्रीसुन्दरकुंवरजी-सैलाना की थीं, सैलाना में दीक्षा हुई और रतलाम में देहान्त हुआ। इनकी शिष्या सुगनकुंवरजी (लुणारवाला) (2) सेवाभाविनी श्री भूराजी-रामपुरा निवासिनी शुजालपुर दीक्षा। 6.5.8.25. श्री सूरजकुंवरजी (सं. 1965-2023) रतलाम निवासी श्री केसरीमलजी संचेती की धर्मपत्नी श्री चाँदबाई की कुक्षि से सं. 1953 में आपका जन्म हुआ था। बाल्यवय में ही सगाई के बंधन को छोड़कर आप 13 वर्ष की अविवाहित वय में अपनी माता के साथ श्री नन्दलालजी म. के मुखारविन्द से सं. 1965 में दीक्षा ग्रहण की। आप शास्त्र ज्ञाता, धर्म प्रभाविका महासती थीं, दूर-दूर तक विचरण कर धर्म का प्रचार किया। आपकी छह शिष्याएँ हुई। कुछ वर्ष आप खाचरोद में स्थिरवासिनी रहीं, वहीं सं. 2023 में समाधि पूर्वक देह त्याग किया।32 6.5.8.26. श्री दाखांजी (सं. 1965-2024) निमाड़ के सिमरोढ़ ग्राम के श्री वख्तावरमलजी की धर्मपत्नी श्री हेमबाई की कुक्षि से सं. 1942 में आपका जन्म हुआ। सं. 1965 में श्री मेनकंवरजी की शिष्या श्री राजकुंवरजी के पास आपने संयम ग्रहण किया। आपके 328. वही, पृ. 228 329-330. वही, पृ. 228 331. वही, पृ. 233 332. वही, पृ. 217 652 Page #715 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्थानकवासी परम्परा की श्रमणियाँ पास स्तोक ज्ञान का भंडार था, प्रवचन नहीं करने पर भी धर्मकथाएँ सुनाने का ढंग बड़ा सुन्दर था। सीखने-सीखाने में सदा अग्रणी रहती थीं। सं. 2024 पोष कृ. 13 को संथारा सहित आपने स्वर्ग-प्रस्थान किया।33 6.5.8.27. प्रवर्तिनी श्री चांदकंवरजी (सं. 1966) आपका जन्म 'छत्री बरमावल' निवासी श्री गंगारामजी पीपाड़ा और माता घीसीबाई के यहां हुआ। रतलाम निवासी श्री रामलालजी बाफना की माता मैनाबाई आपकी पालक माता थीं। प्रवर्तिनी श्री महताबकुंवरजी म. ने अल्प आयु में ही आपको दीक्षा दे दी थी। आपकी दीक्षा सं. 1966 फाल्गुन कृष्णा 5 को रतलाम में हुई। दीक्षा के पश्चात् आपने 25 आगमों का गहन अध्ययन किया। आप हिंदी, गुजराती, ऊर्दू, संस्कृत, प्राकृत आदि भाषाओं की ज्ञाता थीं। आपकी प्रवचन शैली भी सुन्दर आकर्षक एवं परिमार्जित थी।34 आपकी तीन शिष्याएँ हुईं-श्री मदनकुंवरजी, श्री शांतिकुंवरजी, श्री गुमानकुंवरजी।15 6.5.8.28. श्री मोताजी (सं. 1968- ) __ आप निम्बोद निवासिनी थीं, सं. 1968 वैशाख शुक्ला 11 को श्री प्रेमकुंवरजी के पास दीक्षित हुईं।36 6.5.8.29. श्री सुन्दरकंवरजी (सं. 1968- 2003) आपका जन्म कुशलगढ़ एवं ससुराल खवासा के वागरेचा परिवार में था, पतिवियोग के पश्चात् पंचवर्षीय पुत्र की ममता को छोड़कर सं. 1968 पौष कृष्णा 8 को लगभग 25 वर्ष की आयु में खवासा में दीक्षा अंगीकार की, आप प्रवर्तिनी श्री मेहताबकंवरजी की शिष्या बनीं। आप महान तपस्विनी थीं। 24 या 25 मासक्षमण तथा और भी अनगिनत तपस्याएँ की। सं. 2003 थांदला में संथारा पूर्वक देहत्याग किया। आपकी तीन शिष्याएँ हुईं-व्याख्यानी श्री फूलकुंवरजी, श्री सरसकुंवरजी तथा श्री दीपकुंवरजी।17 6.5.8.30. श्री राजकुंवरजी (सं. 1969- ) ___ आपका जन्मस्थान कुशलगढ़ में था, 28 वर्ष की आयु में पतिवियोग के पश्चात् सं. 1969 मृगशिर कृष्णा 1 सोमवार थांदला में आपने दीक्षा ग्रहण की, आप प्रवर्तिनी श्री महताबांजी की शिष्या बनीं। आप शांतप्रकृति की क्षमाशीला महासती थीं।338 6.5.8.31. श्री गुलाबकुंवरजी (सं. 1969-2000) पेटलावद निवासी श्री मीयाचंदजी चाणोदिया की आप कन्या थीं। विवाह के पश्चात् अकस्मात् पति वियोग हो जाने पर आपने श्री मेनकंवरजी म. की प्रेरणा से सं. 1969 में दीक्षा ग्रहण की। आपकी ज्ञानाराधना उत्कृष्ट 333. वही, पृ. 219 334. वही, पृ. 291 335. महासती चांद स्मृति ग्रंथ, प्रमुख संपादिका-साध्वी सुमनप्रभा 336. श्रीमद् धर्मदास व उनकी मालव-परम्परा, पृ. 227 337. वही. पृ. 228 338. वही, पृ. 229 653 Page #716 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन श्रमणियों का बृहद इतिहास थी, प्रवचन व धर्मप्रेरणा देने में कुशल थीं। आपकी प्रेरणा से श्री माणकमुनिजी म. ने दीक्षा ग्रहण की थी, श्री गेंदकुंवरजी आदि परिवार के पांच सदस्य आपसे प्रेरित होकर ही चारित्र के मार्ग पर अग्रसर हुए थे। सं. 2000 इन्दौर में आप स्वर्गवासिनी हुईं। 339 6.5.8.32. श्री केशरजी (सं. 1972- ) आप डग ग्राम की निवासिनी थीं, पतिवियोग के पश्चात् 40 वर्ष की उम्र में सं. 1972 पौष शुक्ला 10 को झालावड़ में दीक्षा ग्रहण की। आप भद्र परिणामी थीं। आपके साथ ही उज्जैन के भटेवरा परिवार की श्री नजरकंवरजी तथा इन्दौर की श्री कस्तूरांजी की भी दीक्षा हुई। आप तीनों प्रवर्तिनी श्री मेहताबकंवरजी की शिष्या थीं। कस्तूरांजी की 4 शिष्याएँ हुई- श्री कंचनजी (डग), श्री सूरजकुंवरजी (डग), श्री सूरजकुंवरजी (आगर) श्री छोटे केसरजी ( आगर) 340 6.5.8.33. श्री तेजकुंवरजी (सं. 1970-74 के मध्य ) आप श्री टीबूजी म. की तृतीय शिष्या थीं। आपकी दो शिष्याएँ - श्री ताराकुंवरजी और श्री सुंदरकुंवरजी (दक्षिण)। श्री ताराकुंवरजी की एक शिष्या श्री सुंदरकुंवरजी (दक्षिण) हुईं। 341 6.5.8.34. श्री केसरकुंवरजी (सं. 1974-2013 ) आपका जन्म पंचेड़ ग्राम ( म.प्र.) में पिता करमचन्दजी नवलखा व माता नाथीबाई के यहां हुआ । विवाह पंचेड़ में ही रिखबचंदजी के साथ हुआ। उनसे एक कन्या गुलाबबाई का जन्म हुआ, योग्य वय में उसका विवाह किया, किंतु कुछ काल बाद ही पुत्री विधवा हो गई, माता को आघात लगा । श्री टीबूजी म. के उपदेश से प्रेरित होकर माता-पुत्री दोनों ने सं. 1974 ज्येष्ठ शुक्ला 9 को पंचेड़ में ही दीक्षा अंगीकार की। आप भद्रपरिणामी व तपस्विनी थीं। आठ, नौ, उन्नीस आदि तपस्या भी की थी। सं. 2013 कार्तिक शुक्ला 2 को ताल में संथारे के साथ देहत्याग किया। 342 6.5.8.35. प्रवर्तिनी श्री गुलाबकंवरजी (सं. 1974 - ) आप श्री केसरकुंवरजी की सुपुत्री थीं, और पंचेड़ वाला महाराज के नाम से प्रसिद्ध थीं। पलसोड़ा के घासी लालजी सुराणा के साथ आपका विवाह हुआ। असमय में वैधव्य दशा से कलान्त मन होकर आपने संयम का शरण ग्रहण किया। माता के साथ ही श्री टीबूजी के पास प्रव्रज्या अंगीकारकी । श्री राजकुंवरजी महाराज के स्वर्गवास के पश्चात् आपको प्रवर्तिनी पद प्राप्त हुआ। आपकी तीन शिष्याएँ हुई- श्री सुंदरजी, श्री नानूजी, श्री चांदकुंवरजी | श्री सुन्दरजी और नानूजी का देहान्त हो गया । 343 339. वही, पृ. 218 340 वही, पृ. 229 341. वही, पृ. 234 342. वही, पृ. 234 343. वही, पृ. 295 654 Page #717 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्थानकवासी परम्परा की श्रमणियाँ 6.5.8.36. श्री गुलाबकुंवरजी (सं. 1974 से 84 के मध्य दीक्षित) __ आप श्री टीबूजी की छठी शिष्या थीं। आप खाचरोद निवासिनी थीं। पति का नाम श्री पन्नालालजी लोढ़ा था, उनके स्वर्गवास के बाद आपने दीक्षा ग्रहण की। उज्जैन में आपका स्वर्गवास हुआ। आपकी एक शिष्या थीं-श्री वल्लभकुंवरजी, इनका जन्म थांदला के गादिया परिवार में हुआ और विवाह लोढ़ा परिवार में। पति की विद्यमानता में ही सं. 1985 में दीक्षा ली और रतलाम में देहत्याग किया।344 6.5.8.37. श्री अचरजकुंवरजी (सं. 1976- ) आप जयपुर निवासिनी थीं। वि. सं. 1976 माघ कृष्णा 11 को 24 वर्ष की उम्र में प्रव. श्री. महेताबकुंवरजी के पास दीक्षा ग्रहणकी। आप तपस्विनी साध्वी थीं।345 श्री बड़े वल्लभकुंवरजी-जोधपुर निवासनी, आपकी दीक्षा सं. 1977 फाल्गुन शुक्ला 10 को हुई, आप व्याख्यानी थीं। श्री छोटेवल्लभकंवरजी-आप भी जोधपुर की थीं, सं. 1978 मृगशिर कृष्णा 5 को दीक्षित हुई, आप सेवाभाविनी व्याख्यानी साध्वी थीं। दोनों ही प्रवर्तिनी मेहताबकुंवरजी की शिष्या थीं।346 6.5.8.38. श्री आनन्दकुंवरजी (सं. 1980- ) आप जोधपुर निवासी जाट लक्ष्मणसिंहजी और स्वरूपाबाई की कन्या थीं। नौ वर्ष की अविवाहित वय में लीमड़ी -पंचमहाल में सं. 1980 मृगशिर पूर्णिमा को श्री प्रेमकुंवरजी के पास दीक्षा अंगीकार की। आप बड़ी तेजस्विनी वक्तृत्वकला में निष्णात साध्वी थीं, परन्तु अल्पायु में ही आप स्वर्गस्थ हो गईं।347. 6.5.8.39. श्री कुन्दनकुंवरजी (सं. 1981- स्वर्गस्थ) __ आपका जन्म बांसवाड़ा-राजस्थान के श्री कस्तूरचंदजी नगावत की धर्मपत्नी श्री चुन्नीबाई की कुक्षि से हुआ, तथा विवाह 'बाजना' ग्राम के नाहर परिवार में हुआ। पतिवियोग के पश्चात् 24 वर्ष की आयु में सं. 1981 चैत्र शुक्ला 10 को प्रवर्तिनी श्री मेहताबकुंवरजी के पास दीक्षा ग्रहणकी। आप सेवाभाविनी साध्वी थीं।348 6.5.8.40. श्री सागरकुंवरजी (सं. 1981 से 84 मध्य ) आप सुखेड़ा निवासिनी थीं, चार पुत्रों को छोड़कर प्रवर्तिनी श्री मेहताबकुंवरजी के पास सं. 1981 से 84 के मध्य दीक्षा अंगीकार की।349 6.5.8.41. श्री सुन्दरकुंवरजी (सं. 1984-2023) आपका जन्म उज्जैन जिले में पिता झुम्बरलालजी व माता मैनाबाई के यहां हुआ। पति श्री मौजीलालजी जैन थे, उनके देहावसान के पश्चात् सं. 1984 मृगशिर कृष्णा 7 को थांदला में श्री गुलाबकंवरजी 'पंचेड़' के पास 344. वही, पृ. 234 345. वही, पृ. 229 346. वही, पृ. 229 347. वही, पृ. 227 348. वही, पृ. 229 349. वही, पृ. 230 655 Page #718 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन श्रमणियों का बृहद इतिहास दीक्षा ग्रहणकी। आपकी प्रेरणा से आपके दो भाई भी दीक्षित हुए जो क्रमशः पंडित श्री नगीनचन्द्रजी म. और प्रियवक्ता श्री विनयचन्द्रजी म. के नाम से प्रसिद्धि प्राप्त हुए। आपमें वैयावृत्य का उत्कृष्ट गुण था, बिना भेदभाव के आप सबकी सेवा में तल्लीन रहतीं। सं. 2023 में खानदेश के किसी ग्राम में आपका स्वर्गवास हुआ।350 6.5.8.42. श्री यशकुंवरजी (सं. 1984-स्वर्गस्थ) आप प्रवर्तिनी श्री मेहताबकुंवरजी की 17 शिष्याओं में सबसे छोटी शिष्या थीं। आपका जन्म देवास तथा ससुराल उज्जैन में था। पतिवियोग के पश्चात् सं. 1984 चैत्र कृष्णा 11 को दीक्षा अंगीकार की।1 6.5.8.43. श्री सज्जनकुंवरजी (सं. 1986-2025) रतलाम निवासी श्री सौभाग्यमलजी मुणोत आपके पिता, तपस्विनी साध्वी श्री रतनकुंवरजी दादी और श्री वृद्धिचंदजी म. चाचा थे। लघुवय में ही सं. 1986 में श्री मेनकुंवरजी म. की शिष्या के रूप में आपने दीक्षा ग्रहण की। आपका सैद्धान्तिक ज्ञान अच्छा था, अधिकांश समय शास्त्र-स्वाध्याय में व्यतीत करती थीं। धर्मकथा द्वारा लोगों में संस्कारों का निर्माण करने में भी आप कुशल थीं। रूग्णता के कारण आप अंतिम दिनों रतलाम में स्थिरवासिनी रहीं, सं. 2025 में वहीं समाधि पूर्वक दिवंगत हुईं।352 6.5.8.44. प्रवर्तिनी श्री सज्जनकुंवरजी आपका जन्म 'जावरा' के रांका परिवार में हुआ। अल्पायु में ही आपने प्रव्रज्या अंगीकार की, आप श्री मानकुंवरजी की शिष्या बनीं। दीक्षा के पश्चात् आपने धार्मिक सैद्धान्तिक ज्ञान अच्छा उपार्जन किया। आपके हस्ताक्षर बड़े सुन्दर थे। आपने मालवा, मेवाड़, मारवाड़, पंजाब, जम्मू, दिल्ली, महाराष्ट्र आदि दूर-दूर के क्षेत्रों में जाकर धर्म की प्रभावना की। आपकी बारह शिष्याएँ हुईं- श्री टीबूजी (रतलाम), श्री चम्पाकुंवरजी (उज्जैन), श्री पुष्पकुंवरजी (दक्षिण) श्री छगनकुंवरजी (रतलाम), श्री सुमतिकुंवरजी, श्री तेजकुंवरजी, श्री ललितप्रभाजी एम. ए. पी.एच.डी., तपस्विनी श्री शीलकुंवरजी, श्री रमणिककुंवरजी, श्री ललितप्रभाजी की शिष्या विश्वज्योतिजी (एम. ए.) आदर्शज्योतिजी तथा श्री पुष्पकुंवरजी की शिष्या कीर्तिसुधाजी हैं।353 6.5.8.45. श्री केसरकुंवरजी आप श्री राजकुंवरजी की द्वितीय शिष्या थीं। आप जावरा निवासिनी थीं, भरा-पूरा परिवार छोड़कर पति की विद्यमानता में ही आप प्रवर्जित हो गईं। आप बड़ी सेवाभाविनी थीं, व्याख्यान के माध्यम से जनता में धर्म प्रेरणा भी अच्छी जागृत की। आपकी तीन शिष्या-प्रशिष्याएँ हैं। (1) श्री दिलसुखकुंवरजी (जालनावाले) दीक्षा सं. 1993 मृगशिर कृ. 5 (2) श्री गुलाबकुंवरजी (रतलाम वाले) दीक्षा सं. 2010 मृगशिर शुक्ला 10 (3) श्री प्रमोदकुंवरजी (लिमड़ी) दीक्षा सं. 2029 रतलाम में।54 350. वही, पृ. 235 354. वही, पृ. 296 351. वही, पृ. 229 352. वही, पृ. 218 353. वही, पृ. 293 656 Page #719 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्थानकवासी परम्परा की श्रमणियाँ 6.5.8.46. श्री सम्पतकुंवरजी (सं. 1988-2028 ) आपका जन्म थांदला निवासी सागरमलजी बोथरा व माता मणीबाई के यहां हुआ, सं. 1988 फाल्गुन मास में प्रवर्तिनी श्री टीबूजी के पास दीक्षा ग्रहण की। दीक्षा से पूर्व आपने अपना एक मकान थांदला संघ को अर्पित किया था। आप सरल प्रकृति की साध्वी थीं, सं. 2028 रतलाम में आपका देहान्त हुआ | 5 6.5.8.47. श्री सोहनकुंवरजी (सं. 1990-2017 ) बड़नगर के समीपस्थ ग्राम में पिता नन्दराम व माता मैनाबाई के यहां आपका जन्म हुआ। आपकी दीक्षा सं. 1990 वैशाख शुकला में 'करही' (निमाड़) में हुई। दीक्षा पूर्व आपने पूज्यपाद ताराचन्द्रजी महाराज सेजीवन पर्यन्त क्रोध न करने का प्रत्याख्यान लिया, और उसे जिंदगी अंतिम पल तक निभाया, आप किसी के साथ कभी ऊँचे स्वर से नहीं बोलीं अतः आप 'क्षमामूर्ति' के नाम से प्रसिद्ध हुईं। सं. 2017 वैशाख में चिखलवाड़ और मालेगांव के मध्य मालट्रक से दुर्घटनाग्रस्त होकर छह घंटे के संथारे के साथ आप स्वर्गवासिनी हुईं। 356 6.5.8.48. श्री रामकुंवरजी (सं. 1992 - स्वर्गस्थ ) आप श्री टीबूजी म. की लघु शिष्या थीं। दबाड़ी निवासिनी थीं। गृहवास में श्राविका व्रतों का सुंदर पालन किया। सं. 1992 में पंडित श्री सूर्यमुनिजी के मुखारविन्द से 'दबाड़ी' में दीक्षा ली। आपने धार के समीप नागदा ग्राम में संथारा पूर्वक समाधि मरण किया। 357 6.5.8.49. श्री गुलाबकुंवरजी (सं. 1993 के लगभग ) आपका जन्म सैलाना के समीप शिवगढ़ ग्राम में हुआ, तथा विवाह थांदला के प्रख्यात शाहजी कुटुम्ब में श्री खुमाणसिंहजी के साथ हुआ था। पतिवियोग के पश्चात् श्री टीबूजी महाराज की प्रशिष्या के रूप में दीक्षा अंगीकार की। आप प्रसिद्ध सुश्रावक रतनलालजी डोसी की बहिन थीं। आप भद्र परिणामी थीं, आपकी एक शिष्या श्री सज्जनकुंवरजी (येवला वाले) हैं, उनकी दीक्षा सं. 1993 मृगशिर कृष्णा 5 को हुई। आप रतलाम में कई वर्षों तक स्थिरवासिनी रहीं। 1358 6.5.8.50. श्री आनन्दकुंवरजी ( 2029) आप नागदा (धार) के नाहर परिवार की पुत्री थी, विवाह मुलथान में हुआ था, पति वियोग के पश्चात् प्रवर्तिनी श्री राजकुंवरजी के पास दीक्षा ली। सं. 2029 इन्दौर में समाधिपूर्वक देहत्याग किया। 359 - 6.5.8.51. श्री मैनाकुंवरजी (सं. 2001-62 ) आप माता वृद्धिबाई और पिता लालचंदजी खाचरोद निवासी की सुपुत्री थीं। आपके परिवार में माता-पिता बहिन कौशल्याकुंवरजी ( मालवसिंहनी) भ्राता पू. श्री मानमुनिजी एवं पू. श्री कान मुनिजी आदि सभी सदस्यों ने 355. वही, पृ. 234 356. वही, पृ. 236 358. वही, पृ. 295 357. वही, पृ. 235 359. वही, पृ. 219 657 Page #720 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन श्रमणियों का बृहद इतिहास संवत् 2001 को खाचरोद में दीक्षा ग्रहण की। आप अत्यंत उच्चकोटि की शास्त्रज्ञा, विनयवान और अप्रमत्त संयमी थीं। अंतिम समय 21 दिन का उपवास और 37 दिन संथारा कुल 58 दिन अनशन के साथ बदनावर (म. प्र. ) मृ. शु. 13 को समाधिमरण को प्राप्त हुईं। आप आचार्य उमेशमुनिजी की आज्ञानुवर्तिनी साध्वी थीं, आपकी रेवतीजी आदि कई शिष्याएँ हैं। 360 6.5.8.52. श्री गेंदकुंवरजी (सं. 2003-2027 ) आप ब्यावरा के निकट छापीहेड़ा के निवासी श्री रतनलालजी की पुत्री थीं, आपका विवाह आगर निवासी पुरालालजी बालवेचा से हुआ, आपके दो पुत्र और एक पुत्री हुई। पतिवियोग के पश्चात् आपने बड़े पुत्र को सं. 1996 में दीक्षा दिलाई, तत्पश्चात् स्वयं, चाँदबाई (बहिन की पुत्री) और कमलाबाई (पुत्री) तीनों ने कतवारा ग्राम में सं. 2003 वैशाख शुक्ला 11 को दीक्षा अंगीकार की। आपके दोनों पुत्र श्री सुरेन्द्रमुनि श्री रूपेन्द्रमुनि के नाम से तथा पुत्रियाँ चाँदकंवरजी और कमलाकुंवरजी के नाम से प्रख्यात है। सं. 2027 इन्दौर में संथारे के साथ आप स्वर्गवासिनी हुईं | 361 6.5.8.52. मालवा शाजापुर शाखा की अन्य श्रमणियाँ : आचार्य धर्मदासजी महाराज की मालवा - परम्परा की एक शाखा जो मुनिश्री गंगारामजी की परम्परा है वह शाजापुर शाखा के नाम से जानी जाती है, पूज्य गंगारामजी के शिष्य श्री ज्ञानचन्द्रजी महाराज के आठवें शिष्य मुनि श्री मगनलालजी मारवाड़ में विचरण करने लगे अतः उनका संघ 'ज्ञानगच्छ' के नाम से प्रसिद्ध हुआ। 302 ज्ञानगच्छ परम्परा के विशिष्ट बहुश्रुत संत मुनि समरथमलजी, श्री चम्पालालजी महाराज हुए, वर्तमान में श्री प्रकाशचन्दजी म., आदि आगमज्ञ व क्रियानिष्ठ संत हैं। इनकी मूल श्रमणियाँ कौनसी थीं, यह ज्ञात नहीं हुआ, ऐसा उल्लेख है कि महासती श्री नन्दकंवरजी एवं उनकी साध्वियाँ जड़ावकुंवरजी, श्री गुलाबकुंवरजी आदि पहले साधुमार्गी परम्परा में थीं, किंतु श्री समर्थमलजी म. के बहुत समय तक खींचन में रहने तथा अध्ययन अध्यापन की निकटता के कारण साध्वियों की आस्था उनमें हो गई, संवत् 2025 में आचार्य श्री नानेश के शासन काल में विचार भेद के कारण जब पंडित समर्थमलजी महाराज से संबंध विच्छेद हुआ तो यह साध्वी मंडल भी उनके साथ ही पूर्ण रूप से जुड़ गया जो आज भी उन्हीं की आज्ञा में विचरण कर रहा है। 363 6.5.8.53. महासती श्री नन्दकंवरजी (सं. 1910 के पश्चात् 35 ) आपका जन्म बीकानेर निवासी पन्नालालजी पूंगलिया की धर्मपत्नी मैनाबाई की कुक्षि से हुआ। बीकानेर के ही गंभीरमलजी सुराणा के साथ आपका विवाह हुआ, एकबार हरे चने में कई लटें देखकर आपका मन अनुकंपा से भर गया, और आगे से हरे चने का शाक स्वयं न खाने की प्रतिज्ञा की व पति को भी हरे चने न खाने का अनुनय किया। गंभीरमलजी ने व्यंग्य करते हुए कहा- साध्वी बनकर उपदेश दो तो असर पड़े। यह वचन नंदकंवर 360. जैन प्रकाश, दिसंबर 2005, पृ. 46 361. वही, पृ. 220 362. स्था. जैन परंपरा का इतिहास, पृ. 402 363. साधुमार्गी की पावन सरिता, पृ. 339 658 Page #721 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्थानकवासी परम्परा की श्रमणियाँ को तीर की तरह असरकारक हुआ, तुरंत बोली - 'आज से आप मेरे भाई मैं आपकी बहन, अब तो मैं साध्वी बनकर अपनी आत्मा का कल्याण करूंगी, और सबको सत्पथ दिखाऊंगी।' उनके इस निश्चय को सुनकर सभी हतप्रभ रह गये, सबने बहुत समझाया किंतु नंदकंवरजी तो वैराग्य के प्रगाढ़ रंग में रंग चुकी थीं। उन्होंने इन्दौर में श्री धर्मदासजी महाराज के संप्रदाय की महासती श्री रायकुंवरजी के पास दीक्षा अंगीकार की, दीक्षा के पश्चात् सभी शास्त्रों का गहन अध्ययन किया। ___ अपने शुद्ध संयम एवं प्रभावशाली प्रवचन की गहरी छाप जमाती हुई सं. 1927 में आप जोधपुर चातुर्मास के लिये पधारी। आपकी आकर्षक प्रवचनशैली को श्रवण करने के लिये हजारों की संख्या में लोग एकत्रित होते, एकबार जोधपुर के दीवान साहब भी राजसी ठाठ के साथ व्याख्यान में आये। उन्होंने चलते हुए सोचा यदि सतीजी मुझे कुछ त्याग करने को कहेंगी तो मैं 'कट्ठ' का त्याग कर दूंगा। व्याख्यान समाप्त हो गया तो दीवानजी चलने को मुड़े, इतने में ही सतीजी ने आवाज लगाई 'दीवानजी! वमन को वापस चाटते हो?' दीवानजी ने पूछा 'कैसा वमन?' सतीजी ने कहा घर से क्या सोच कर निकले थे और प्रत्याख्यान किये बिना ही जा रहे हो? यह वमन चाटने के बाराबर नहीं है क्या? दीवानजी आश्चर्य चकित नतमस्तक हो चरणों में दूर से सिर नवाकर खड़े हो गये। हृदय कमल खिल उठा। बात सच्ची थी। श्रद्धा बैठ गयी। फिर क्या था, दीवान साहब तो व्याख्यान में आते ही थे। अन्य लोग भी अत्यन्त उत्साह के साथ नित्य आने लगे व आध्यात्मिक ज्ञान-गंगा का रसपान करने लगे। सं. 1935 में महासती नंदकंवरजी का अवसान हुआ। आपकी शिष्याओं का विशाल परिवार श्री नंदकुंवरजी की सम्प्रदाय के नाम से प्रसिद्ध है। 64 वर्तमान में इस संघ में 424 साध्वियाँ हैं। इनमें कई साध्वियाँ आगमज्ञा, तत्त्वरसिका तथा विशिष्ट व्यक्तित्व संपन्ना है, किंतु इस संघ की साध्वियों का परिचय उपलब्ध न होने से हम उनका नामोल्लेख मात्र करके संतोष मान रहे हैं।365 : महासती श्री मगनकुंवरजी, श्री सुन्दरकुंवरजी, श्री मनीषाजी, श्री दर्शनाजी आदि-6, श्री आनंदकुंवरजी, श्री कमलेशकुंवरजी, श्री सूर्यप्रभाजी, श्री उषाजी आदि-4, श्री सुशीलाजी, श्री विदुषीकुंवरजी, श्री निर्मलाजी, श्री उर्मिलाजी आदि-5, श्री प्रेमकुंवरजी, श्री भंवरकुंवरजी, श्री शुभमतीजी, श्री विजयप्रभाजी आदि-16, श्री मनोहरकुंवरजी, श्री पतासकुंवरजी, पंकजप्रभा, प्रशांतजी, मधुबाला, श्री सुनीताजी, श्री साधनाजी आदि-7, श्री मदनकुंवरजी, श्री भाग्यवतीजी, श्री महेन्द्रकुमारीजी, श्री जयप्रभाजी आदि-7, श्री कमलावतीजी, श्री लाभुमतीजी, श्री हेमलताजी, श्री तृप्तिजी आदि-8, श्री सुमतिकुंवरजी, श्री पुष्पकुंवरजी, विमलेशजी, भावनाजी तारामतीजी आदि-16, श्री छगनकुंवरजी, आरतीजी, सूर्यशोभाजी, प्रज्ञाजी, कुसुमकान्ताजी, मोहनबालाजी आदि-8, श्री पुष्पकुंवरजी, श्री सुमनवतीजी, ललिताजी, रंजनाजी आदि-7, श्री प्रेमलताजी, श्री अर्पिताजी, श्रीवर्षाजी आदि-4, श्री त्रिशलाकुंवरजी, श्री शांताकुंवरजी, श्री चंदनाजी, श्री साक्षीजी आदि-6, श्री मंजुलाजी, श्री मनिताजी, श्री सौम्यताजी, श्री सुमित्राजी आदि- 6, श्री कमलेशकुंवरजी, श्री सारवंतीजी, श्री रेखाजी, श्री प्रेक्षाजी आदि- 4, श्री चन्दनबालाजी, श्री नीरूबालाजी, सपनाजी, श्री कल्पनाजी आदि-4, श्री कमलेशप्रभाजी, श्री मणिप्रभाजी, भारतीजी आदि-4, श्री स्नेहलताजी, श्री रतनकुंवरजी, श्री मंजुलाजी, श्री सुरेखाजी आदि-7, श्री वंदनाजी, श्री उपमाजी, श्री साधनाजी आदि-3, श्री विनयकुंवरजी, श्री प्रसन्नकुंवरजी, चंचलकुंवरजी, झणकारकुंवरजी आदि-6, श्री लक्ष्मी 364. लेखक-श्री मोतीलाल सुराना, जैन प्रकाश, 1 मार्च 1983, पृ. 25 365. समग्र जैन चातुर्मास सूची, 2004 ई., खंड 1 पृ. 64 659 Page #722 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन श्रमणियों का बृहद इतिहास कुंवरजी, श्री कंचनकुंवरजी, श्री पुष्पलताजी, श्री रश्मिताजी आदि - 8, श्री सूर्यकान्ताजी, श्री उर्मिलाजी, श्री फूलवतीजी आदि - 6, श्री आशाकुंवरजी, श्रीजीतकुंवरजी, श्री सूर्यप्रभाजी, श्री तरूणप्रभाजी आदि - 8, श्री महेन्द्रकुंवरजी, श्री अरूणप्रभाजी, श्री सरोजबालाजी, प्रतिभाजी आदि-6, श्री शकुन्तलाजी, श्री सविताजी, उषाश्रीजी, श्री श्रेयाजी आदि - 4, श्री लीलावतीजी, श्री सिद्धिजी, निधिजी, श्री दिव्याशीजी आदि 4, श्री सुशीलाजी, श्री साधनाजी, ऋद्धिप्रभाजी, श्री पीयूषाजी आदि- 6, श्री प्रभावनाजी, श्री रंजनाजी, श्री सुप्रभाजी, श्री निर्मिताजी आदि - 4, श्री शशिप्रभाजी, श्री सुबोधकुंवरजी, श्री हेमप्रभाजी, अंकिताजी आदि-5, श्री तारामतीजी, श्री निर्मलाजी, विमलाजी आदि - 6, श्री विनयप्रभाजी, श्री अंगूरबालाजी, श्री प्राप्तिजी आदि - 4, श्री कमलेशप्रभाजी, श्री नम्रताजी, समताजी आदि - 4, श्री कमलप्रभाजी, श्री ललितयशाजी, श्री सुनीताजी आदि - 4, श्री शिरोमणिजी, श्री जयश्रीजी आदि - 4, श्री धीरकंवरजी, श्री अनिताजी, श्री भारतीजी आदि- 4, श्री सुनीलकुंवरजी, श्री विमलयशाजी, अर्पिताजी आदि - 6, श्री सरलाकुंवरजी, श्री पुनीताजी आदि - 4, श्री इन्द्राजी, श्री शशिकलाजी, आदि- 4, श्री शकुंतलाजी, श्री सुलेखाजी आदि- 4, श्री रचनाजी, श्री सौम्यताजी आदि - 4, श्री कुमुदप्रभाजी, श्री ज्योतिषमतीजी, श्री प्रमिलाजी, श्री विनिताजी आदि- 4, श्री मंगलप्रभाजी, श्री प्रभाजी आदि 4, श्री रंजनप्रभाजी, श्री साधनाजी आदि - 4, श्री हसुमतीजी, श्री इन्दुमतिजी आदि - 5, श्री रंभाकुंवरजी, श्री कमलप्रभाजी, श्री मधुबालाजी आदि-5, श्री भावनाजी, श्री रविकांताजी आदि - 4, श्री अरविंदकुंवरजी, श्री प्रकाशकुंवरजी, सुदेशप्रभाजी आदि - 7, श्री सुबोधप्रभाजी, श्री मंजुश्रीजी आदि- 4, श्री जयप्रभाजी, श्री पुष्पाजी आदि - 4, श्री चन्द्रप्रभाजी, श्री विचक्षणाजी आदि - 4, श्री सुदर्शनाजी, श्री कविताजी आदि - 4, श्री सुमनकुंवरजी, श्री शिरोमणिजी आदि - 4, श्री कैलाशकुंवरजी, श्री सुयशाजी, श्री वंदिताजी, श्री शुभाजी आदि - 7 श्री चन्द्रकान्ताजी, श्री मंजुलाजी, श्री संवेगप्रियाजी आदि-5, श्री दीप्तिजी, श्री ऋजु प्रज्ञाजी आदि-5, श्री प्रीतिजी, श्री उर्मिलाजी आदि-3, श्री कंचनकुंवरजी, श्री विमलकुंवरजी, श्री चंद्रकांताजी आदि - 18, श्री नम्रताजी, श्री उदिताजी आदि - 4, श्री आनन्दकुंवरजी, श्री सरोजबालाजी, सरिताजी आदि - 4, श्री अर्चनाजी, श्री सुलोचनाजी, श्री श्रुतिजी आदि 4, श्री प्रवीणकुंवरजी, श्री शशिकांताजी, प्रमोदप्रभाजी आदि-5, श्री शारदाजी, श्री प्राप्तिजी, श्री दीक्षिताजी आदि - 4, श्री अरूणप्रभाजी, श्री मधुबालाजी, श्री सुर्दशनाजी आदि - 4, श्री चन्द्रयशाजी, श्री नीताजी, श्री सुर्वणाजी आदि - 4, श्री चेतनप्रभाजी, श्री निरंजनाजी, श्री स्वातिजी आदि - 4, श्री राजेशजी, श्री कीर्तिप्रभाजी, श्री अक्षिताजी आदि 4, श्री रम्यदर्शनाजी, श्री राजकुमारीजी, श्री सुरभिजी आदि-5, श्री रेणुकाजी, श्री संगीताजी श्री विरक्तिजी आदि - 4, श्री सुधाप्रभाजी, श्री सुजाताजी, श्री प्रज्ञाजी आदि-5, श्री प्रवीणाजी, श्री आराधनाजी, श्री विनीताजी आदि - 4, श्री अंजनाजी, श्री जागृतिजी, श्री अन्वेषाजी आदि - 4, श्री उर्मिलाकुंवरजी, श्री प्रियदर्शनीजी, श्री गुडीयाजी, श्री चन्द्रिकाजी आदि - 8 श्री चंचलाजी, श्री राजीमतीजी, सुधाजी आदि - 4, श्री सुशीलकुंवरजी, श्री अनुज्ञाजी आदि - 4, श्री कलावतीजी, श्री राजीमतिजी आदि - 4, श्री विभावनाजी, श्री सुचेताजी आदि- 4, श्री शारदाजी, श्री रेखाजी, श्री नम्रताजी आदि - 4, श्री बिन्दुमतीजी, श्री नीलमजी, श्री शोभनाजी आदि - 4 श्री अरूणाजी, श्री सिद्धिजी, श्री रिद्धिजी आदि - 5, श्री प्रीतिजी, श्री मुक्तिजी आदि - 4, श्री मंजुलाजी, श्री नम्रताजी आदि-5, श्री गुणबालाजी, श्री करूणाजी, श्री अर्पिताजी आदि - 6, श्री निर्मलकुंवरजी, श्री हर्षदाजी, श्री संजुलताजी आदि-5 6.5.8.54 श्री शशिबालाजी (सं. 2051 से वर्तमान) आप दिल्ली के प्रसिद्ध जौहरी लाला जीवनसिंहजी बोथरा की सुपुत्री हैं। अलवर निवासी ख्याति प्राप्त जौहरी 660 Page #723 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्थानकवासी परम्परा की श्रमणियाँ श्री प्रकाशचंदजी संचेती की आप धर्मपत्नी रहीं, तपस्वी संत श्री चम्पालालजी महाराज के दर्शन से श्री संचेतीजी दीक्षा के लिये तत्पर हुए तो आपने भी अपनी अथाह धन-सम्पत्ति का मोह त्याग कर पति के साथ ही संवत् 2051 में जयपुर में दीक्षा अंगीकार की। आपने संवत्सरी के दिन अत्यंत सादगी से दीक्षा ली, जो जैनसमाज में त्याग के आदर्श को प्रस्तुत करने वाली हैं, आप श्री चंद्रकांताजी की शिष्या बनीं। एवं प्रकाशचंद्रजी मुनि श्री शालिभद्रजी के नाम से आत्मार्थी संत रत्न हैं।366 6.5.9 आचार्य श्री धर्मदासजी की माखाड़-परम्परा का श्रमणी-समुदाय : क्रियोद्धारक आचार्य धर्मदासजी के शिष्यों में आचार्य धन्नाजी का प्रमुख स्थान था। धन्नाजी के शिष्या भूधरजी हुए। भूधरजी के अनेक शिष्य हुए जिनमें श्री रघुनाथजी, श्री जयमलजी और श्री कुशलोजी प्रमुख थे। कुशलोजी से रत्नवंश की नींव पड़ी।67 हम यहां तीनों शाखाओं की श्रमणियों का सम्मिलित ज्ञातव्य प्रस्तुत कर रहे हैं। 6.5.9.1 आर्या केशरजी (सं. 1810) आप श्री धर्मदासजी महाराज की परंपरा में श्री परसरामजी म. के संप्रदाय की साध्वी थी। संवत् 1810 में पंचेवर ग्राम के सम्मेलन में आप अग्रणी साध्वी के रूप में उपस्थित थीं, आपकी संप्रदाय के श्री खेतसीजी श्री खिंवसीजी म. के साथ आप वहाँ पधारी थी।368 6.5.9.2 श्री चतरूजी (सं. 1820) श्री हरकूबाई ने सं. 1820 में "चतरूजी की सज्झाय" काव्य रचा369 उसमें ये शासन प्रभाविका महासाध्वी के रूप में उल्लिखित हैं। 6.5.9.3 श्री अमरूजी (सं. 1820) आपके जीवन पर श्री हरकूबाई द्वारा रचित 'महासती अमरूजी का चरित्र' सं. 1820 किसनगढ़ का लिखा हुआ है इसका उल्लेख श्री अगरचंद नाहटा ने किया है। 70 6.5.9.4 श्री फतेहकुंवरजी (सं. 1851 के लगभग) आप धन्नाजी महाराज की परंपरा के आचार्य श्री जयमलजी महाराज की आज्ञानुवर्तिनी साध्वी थीं। महासती अखुजी की पुत्री एवं शिष्या थीं, सतत स्वाध्याय, आगम अनुशीलन मानों आपका व्यसन था, आपकी लेखन कला एवं लेखन-शक्ति अद्भुत थी, उल्लेख है कि आपने एक ही कलम से बत्तीस आगमों की दो बार पांडुलिपि तैयार 366. उ. प्र. श्री कौशल्यादेवी जी, जीवनदर्शन, पृ. 46 367. स्थानकवासी परंपरा का इतिहास, पृ. 362 368. ऋषि संप्रदाय का इतिहास, पृ. 85 369. अगरचंदजी नाहटा, ऐतिहासिक काव्य संग्रह, पृ. 214-15 370. हिं. जै. सा. इ., भाग 4, पृ. 236 1661| Page #724 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन श्रमणियों का बृहद इतिहास की, आपके लेखन का काल सं. 1851 से 57 के मध्य रहा।7। विशाल आगम-साहित्य का संपूर्ण दो बार आलेखन एक अद्वितीय ऐतिहासिक कीर्तिमान है, जो स्वर्णपृष्ठों पर अंकित करने योग्य है। इस प्रकार का आलेखन आपकी अत्युच्चकोटि की मन:स्थिरता, लेखन कुशलता एवं अपरिश्रान्त उद्यमशीलता को दर्शाते हैं। 6.5.9.5 श्री हुलासांजी (सं. 1887) आपने पाली में सं. 1887 में क्षमा व तप पर स्तवन लिखा, जो आचार्य विनयचन्द्र ज्ञान भंडार जयपुर में सुरक्षित हैं।72 6.5.9.6 श्री चम्पाकुंवरजी (19वीं सदी) आपके विषय में इतना ही उल्लेख है कि आप एक महान धर्मप्रभाविका श्रमणी थी, संभव है आप महासती फतेहकुंवरजी की शिष्या रही हो अथवा शिष्यानुशिष्या। आपने जिनधर्म को जन-जन तक पहुंचाने में योग्यतम साध्वियाँ तैयार की, उनमें केवल श्री रायकुंवरजी का ही नामोल्लेख प्राप्त होता है।373 6.5.9.7 श्री रायकुंवरजी (20वीं सदी) आप महासती श्री चम्पाकुंवरजी की सुयोग्य अंतेवासिनी तथा उत्तराधिकारिणी थीं। तपश्चरण, योगानुष्ठान एवं साधना में तन्मयता आपके जीवन के प्रमुख अंग थे, ऐसा भी उल्लेख प्राप्त होता है कि आपको दिव्य दैविक शक्तियाँ उपलब्ध थी। आपने अनेक भव्यात्माओं को प्रतिबोधित किया था, जिसमें श्री जोरावरमलजी म. सा., श्री कानमलजी म. सा., स्वामी हजारीमलजी महाराज आदि प्रमुख हैं।374 6.5.9.8 श्री चौथांजी (20वीं सदी) __ आप महासती रायकुंवरजी की शिष्या थीं। आप आगम-निष्णात विदुषी श्रमणी थीं, आपने अनेकों साध्वियों को ही नहीं वरन् साधुओं को भी आगमों का अध्ययन करवाकर शास्त्रों में पारंगत बनाया था। आपकी कई शिष्याएँ हुईं, उनमें सरदारकुंवरजी के ही नाम का उल्लेख प्राप्त हुआ।75 6.5.9.9 श्री सरदारकुंवरजी (20वीं सदी) आप मरूधरा का प्रख्यात आगमज्ञ यशस्वी महासती थीं। बालब्रह्मचारी एवं महान धर्मप्रभाविका थी, धर्मशासन के महानसेवी स्वामी श्री ब्रजलालजी म., बहुश्रुत पंडितरत्न युवाचार्य श्री मिश्रीमलजी म., "मधुकर', आत्मार्थी मुनि श्री मांगीलालजी महाराज जैसी महान आत्माओं को उद्बोधित कर संयम मार्ग पर बढ़ाने का श्रेय आपको ही है। आपकी एक शिष्या है-महासती श्री उमरावकुंवरजी 'अर्चना'3761 371. अर्चनार्चन, संपादकीय, आर्या सुप्रभा, पृ. 16 372. साध्वी चंद्रप्रभा, महासती द्वय स्मृति ग्रंथ, पृ. 54 373. अर्चनार्चन, संपादकीय पृ. 16 374-376. वही, पृ. 17 662 Page #725 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्थानकवासी परम्परा की श्रमणियाँ 6.5.9.10 श्री जड़ावांजी (सं. 1922-72) ____ आप आचार्य श्री रतनचन्द्रजी महाराज के संप्रदाय की प्रमुखा रंभाजी की शिष्या थी। इनका जन्म संवत् 1898 में सेठां की रिया में हुआ था सं. 1922 में ये दीक्षित हुई। नेत्र ज्योति क्षीण होने से सं. 1972 तक ये जयपुर में ही स्थिरवासी बनकर रहीं। यद्यपि ये अधिक पढ़ी लिखी नहीं थी, पर कविता करना इनकी जीवनचर्या का एक अंग बन गया था। 50 वर्ष के सुदीर्घ साधना काल में इन्होंने जीवन के विविध अनुभव आत्मसात् कर काव्य में उतारे इनका जीवन जितना साधनामय था उतना ही भावनामय। इनकी रचनाओं का एक संकलन 'जैन स्तवनावली' नाम से जयपुर से प्रकाशित हुआ है। प्रवृत्तियों के आधार पर इनकी रचनाओं को डॉ. नरेन्द्र भानावत ने 4 वर्गों में बांटा है-स्तवनात्मक, कथात्मक, उपदेशात्मक और तात्त्विक। सुमति कुमति को चोढालियु, अनाथी मुनि रो सतढालियों, जंबू स्वामी को सतढालियों इनकी कथात्मक रचनायें हैं। सरल बोलचाल की राजस्थानी भाषा में हृदय की उमड़ती भावधारा को विविध राग-रागिनियों के माध्यम से व्यक्त करने में ये बड़ी कुशल थीं। 6.5.9.11 श्री भूरसुन्दरी (सं. 1925) इनका जन्म संवत् 1914 में नागर के समीप बुसेरी नामक गांव में हुआ। इनके पिता का नाम अखयचन्दजी रांका तथा माता का नाम रामाबाई था। अपनी भुआ से प्रेरणा पाकर 11 वर्ष की उम्र में साध्वी चंपाजी से इन्होंने दीक्षा ग्रहण की। ये कवयित्री होने के साथ-साथ गद्य लेखिका भी थीं। इनके निम्नलिखित 6 ग्रंथ प्रकाशित हो चुके हैं। (1) भूरसुन्दरी जैन भजनोद्धार (सं. 1980) (2) भूरसुन्दरी विवेक विलास (सं. 1984), (3) भूर सुन्दरी बोध विनोद (सं. 1984), (4) भूरसुन्दरी ज्ञान प्रकाश (सं. 1986), (5) भूरसुन्दरी विद्याविलास (सं. 1986), (6) भूरसुन्दरी अध्यात्म-बोध (सं. 1995)। इनकी रचनाएं मुख्य तथा स्तवनात्मक और उपदेशात्मक हैं। इन्होंने पहेलियां भी लिखी हैं।378 6.5.9.12 श्री पन्नादेवी जी (सं. 1957-2001) ___ आपका जन्म वि. सं. 1948 में सोजत जिले के 'सवराड़' ग्राम में माल गोत्रीय परिहारवंश में हुआ। नौ वर्ष की उम्र में ही सं. 1957 में श्री लछमांजी, गुलाबकंवरजी के पास आप दीक्षित हुई। आप एक विदुषी प्रभाव संपन्ना साध्वी थीं। 'काणुजी भैरूं नांका' में प्रतिवर्ष 5000 बकरों की बलि होती थी, आपकी प्रेरणा से इस घोर हिंसाकाण्ड पर प्रतिबंध लगा। आप सं. 2021 को ब्यावर में स्वर्गवासी हुई। आपका जीवन चरित्र साध्वी सुगनकंवरजी द्वारा ‘पन्ना स्मृतिग्रंथ' में प्रकाशित है।79 6.5.9.13 प्रवर्तिनी श्री उमरावकंवरजी 'अर्चना' (1994 से वर्तमान) आपका जन्म किशनगढ़ (राज.) के दादिया ग्राम में वि. सं. 1979 में हुआ। वि. सं. 1994 में नोखा मण्डी में पू. प्रवर्तक श्री हजारीमलजी म. सा. से दीक्षा ग्रहण कर आप श्री चौथांजी महासती की परंपरा के श्री सरदार 377. राजस्थान के जैन संत, लेख-डॉ. नरेन्द्र भानावत, पुस्तक-राजस्थान का जैन साहित्य, पृ. 196 378. महासती द्वय स्मृति, ग्रंथ, पृ. 55 379. श्री केसरदेवी गौरव ग्रंथ, खंड 3, पृ. 330 663 Page #726 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन श्रमणियों का बृहद इतिहास कंवरजी की शिष्या बनीं। आप स्थानकवासी समाज की विदुषी विचारक साध्वी हैं। जैनदर्शन व अन्य भारतीय दर्शनों का आपका गहन अध्ययन है संस्कृत, प्राकृत, हिंदी, गुजराती, उर्दू, अंग्रेजी आदि भाषाओं पर भी आपका प्रभुत्व है। आपके व्यक्तित्व में ओज और माधुर्य का सामंजस्य है, प्रवचनशैली स्पष्ट एवं निर्भीक है। आपकी कई साहित्यिक कृतियाँ प्रकाशित हो चुकी हैं। उनमें मुख्य हैं - हिम और आतम, आम्र. मंजरी, समाधिमरण भावना, उपासक और उपासना, अर्चना और आलोक, अर्चना के फूल, जैनयोग ग्रन्थ चतुष्टय। काव्य-कृतियों में अर्चनांजलि एवं सुधामञ्जरी प्रमुख हैं। आपके उपदेशों से प्रेरित कई स्थानों पर संस्थाएँ स्थापित हुई हैं,380 जैसे-स्व युवाचार्य श्री मधुकरमुनि स्मृति सेवा ट्रस्ट (मद्रास) स्वधर्मी एवं मानवसेवा हित मद्रास, अजमेर, दादिया, किशनगढ़, जोधपुर, महामन्दिर (जोधपुर), उदयपुर, नागौर, खाचरौद एवं तबीजी (अजमेर) में समितियों की स्थापना हुई है। विरक्त भाई-बहनों की शिक्षा के लिये स्व. युवाचार्य श्री मधुकरमुनि स्मृति सेवा ट्रस्ट मद्रास में स्थापित किया है। धार्मिक सुसंस्कार एवं जीवन निर्माण के लिये अलवर, जम्मू महामंदिर इन्दौर, उज्जैन खाचरौद आदि स्थानों पर महिला मंडल, किशोर मंडल किशोरी स्वाध्याय मंडल का गठन किया। कई जैन स्थानक आप द्वारा प्रेरित आर्थिक अनुदानों से निर्मित हुए जिसमें जैनभवन (जगाधरी) मुनि श्री मांगीलाल स्मृति भवन (दादिया) वर्धमान जैन स्थानक (दौराई) ब्रज मधुकर स्मृति भवन (व्यावर) जैन भवन अजमेर का प्रवचन हॉल, जैन स्थानक (देहरादून) पू. जयमल स्मृति भवन (महामंदिर) प्रमुख हैं। इस प्रकार आप एक उच्चकोटि की योग-साधिका तो हैं ही, साथ ही धर्मवृद्धि, ज्ञान विकास, संघ समुन्नति एवं प्राणी मात्र की भलाई के लिये भी सतत चिन्तनशील हैं।381 6.5.9.14 श्री मैनासुन्दरीजी (सं. 2000 के लगभग-स्वर्गवास सं. 2062) सौम्य स्वभाव और मधुर व्यक्तित्व की धनी साध्वी श्री मैनासुन्दरीजीशक्तियां रत्नवंश की विदुषी प्रमुखा साध्वी थीं आप अपनी ओजस्वी प्रवचन शैली और स्पष्ट विचारधारा के लिये प्रसिद्ध थीं। आपके प्रवचनों के तीन संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं (1) दुर्लभ अंग चतुष्टय (2) पर्युषण पर्वाराधन (3) पर्व सन्देश। 6.5.9.15 श्री गुलाबकुंवरजी (सं. 2008) आपका जन्म बालचंदजी सुराणा लाम्बा (राज.) निवासी के यहां हुआ। आपकी दीक्षा मृगशिर कृ. 11 को संवत् 2008 नोखा में हुई।383 6.5.9.16 श्री उम्मेदकुंवरजी (सं. 2009) आप ब्यावर निवासी सेठ श्री मिश्रीमलजी मुणोत की सुपुत्री हैं आपका जन्म सं. 1978 मृगशिर शु. 5 को एवं दीक्षा सं. 2009 ज्येष्ठ शु. 5 को किशनगढ़ में पंजाब के प्रख्यात संत श्री विमलमुनि द्वारा हुई। प्रारंभ से ही। 380. अर्चनार्चन, संपादिका'-साध्वी सुप्रभा 'सुधा' व्रज मधुकर स्मृति भवन, पीपलिया बाजार, ब्यावर (राज.) ई. 1988 381. वही, द्वितीय खंड, पृ. 41-43 382. प्रकाशक - सम्यग्ज्ञान प्रचारक मंडल, बापू बाजार, जयपुर (राज.) 383. अर्चनार्चन, पृ. 49 664 Page #727 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्थानकवासी परम्परा की श्रमणियाँ आपका जीवन तपोमय रहा. आपने वर्षीतप से लगाकर 40 उपवास तक की तपस्या की। सं. 2034 से घी, तेल, एवं अन्नाहार का त्याग कर दिया। आपने रत्न-रश्मियां, श्री मूलमुक्तावली, स्वाध्याय-सुमन, विकास के सोपान, सिद्धि के सोपान आदि पुस्तकों का संकलन एवं संपादन किया एवं स्वरचित अन्तर्नाद में आपके बने पैंसठिये यंत्र और उन पर ही स्तुतियां रची हैं।384 6.5.9.17 श्री रतनकुंवरजी (सं. 2010) वि. सं. 2010 आसाढ़ शु. 5 के शुभ दिन किशनगढ़ में स्वामी श्री हजारीमलजी म. सा. ने आपको दीक्षा मंत्र प्रदान किया। आपको अनेक स्तवन, थोकड़े और ढालें कंठस्थ हैं।385 6.5.9.18 श्री कंचनकुंवरजी (सं. 2013) आपका जन्म सं. 1999 की शिवरात्रि के दिन ब्यावर के श्रीमान् माणकचंदजी डोसी के यहां हुआ। मृगशिर शुक्ला 13 संवत् 2013 को उपाध्याय श्री कस्तूरचंदजी म. सा. से ब्यावर में दीक्षा ली। आपने पाथर्डी बोर्ड से आचार्य प्रथम खंड की परीक्षा दी, आप स्वभाव से सरल व प्रसन्नमुखी हैं।386 6.5.9.19 श्री निर्मलकुंवरजी (सं. 2019) ___ आप क्षत्रियकुल के श्री भौमसिंहजी पवार की सुपुत्री हैं, आपने 11 वर्ष की उम्र में 15 जून 1962 को हरसोलाव (नागौर) में पू. श्री रावतमलजी म. सा. के श्री मुख से दीक्षा ग्रहण कर श्री सौभाग्यकुंवरजी म. का शिष्यत्व प्राप्त किया। आपने 32 आगमों का गहन अध्ययन एवं हिंदी, अंग्रेजी, गुजराती, मराठी, संस्कृत, प्राकृत, पालि आदि भाषा ज्ञान में निपुणता प्राप्त की है। आपने मानव सहायता एवं पश-पक्षी के लिये अनेक कार्य किये हैं। योगशिविर, बाल संस्कार शिविरों के द्वारा धर्म की पावन गंगा बहा रहे हैं। आपकी सद्प्रेरणा से 'टिटवाला' (मुंबई के पास) में मानव सेवार्थ 'मानव कल्याण सेवा संस्थान' का निर्माण हो रहा है आपके प्रखर एवं ओजस्वी प्रवचन से हजारों लोग व्रत नियम, तप, त्याग एवं दान के कार्यों में अग्रसर हुए हैं। आपकी दो शिष्याएँ -श्री पुण्यशीलाजी एवं प्रणीताशीलाजी।387 6.5.9.20 श्री सेवावंतीजी आप मुकेरियां (पंजाब) निवासी उत्तमचंदजी गादिया की सुपुत्री हैं। चैत्र कृ. 3 को 'कुंपकला' (श्रमणनगर) में श्री ज्ञानमुनिजी से दीक्षा लेकर महासती 'अर्चना 'जी की शिष्या बनी, आप स्वभाव से सरल एवं स्पष्टवादी हैं।388 384. अर्चनार्चन, डॉ. तेजसिंह गौड का आलेख-श्री उमरावकुंवरजी म. सा. 'अर्चना' का शिष्या परिवार, खंड-2, पृ. 44 385. अर्चनार्चन, पृ. 49 386. अर्चनार्चन, प्र. 45 387. समग्र जैन चातुर्मास सूची, विशेषांक 2004, पृ. 44 388. अर्चनार्चन, पृ. 45 665 Page #728 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन श्रमणियों का बृहद इतिहास 6.5.9.21 श्री सुप्रियदर्शनाजी (सं. 2028 ) आप श्री सायरमलजी मेहता जालोर (राज.) निवासी की सुपुत्री है। ज्येष्ठ शु. 10 सं. 2028 को ब्यावर में बहुश्रुत श्री समर्थमलजी म. सा. से दीक्षा पाठ पढ़कर श्री केशरकुंवरजी की निश्रा में शिष्या बनीं। आपको आठ आगम व अनेकों थोकड़े कंठस्थ हैं। व्याख्यान में भी दक्ष हैं। आप तपस्विनी भी हैं, मासखमण, 41 उपवास आदि सुदीर्घ तपस्याएँ की हैं। आप श्रमण संघीय उपप्रर्वतक श्री विनयमुनिजी 'वागीश' की आज्ञानुवर्तिनी हैं।389 6.5.9.22 डॉ. श्री सुप्रभाजी 'सुधा' (सं. 2030) आप उदयपुर के श्री भेरूलालजी धर्मावत की सुपुत्री हैं। आपकी दीक्षा महामंदिर (जोधपुर) में सं. 2030 के दिन स्वामी श्री व्रजलालजी मा. सा. युवाचार्य श्री मिश्रीमलजी म. सा. 'मधुकर' के द्वारा हुई। आप प्रखर प्रतिभा संपन्न साध्वी हैं, आप प्रयाग से हिंदी व संस्कृत में साहित्यरत्न, इन्दौर से संस्कृत में एम. ए. तथा पाथर्डी से जैन सिद्धान्ताचार्य की परीक्षा उत्तीर्ण हैं। सर्दियों की एक सुबह, मानसरोवर के मोती, सीप के मोती, पिंजरे का पंछी, अंतर में झांक मन, जगने की बेला, अग्नि पथ पर बढ़ते चरण आदि मौलिक साहित्य व उपन्यास की सर्जना की है। इसके अतिरिक्त आवश्यक सूत्र तथा दशवैकालिक का संपादन, सुधामंजरी, सुधा-सिंधु, सुधा-संचय, अमृतवेला में तथा 'अर्चनार्चन' अभिनंदन ग्रंथ का संपादन भी किया है। आपने अहिल्यादेवी विश्वविद्यालय इन्दौर से वैदिक एवं बौद्ध चिन्तन धाराओं के विशेष संदर्भ में "जैन आगमों में भारतीय दर्शन के तत्त्व' विषय पर सन् 1989 में पी.एच.डी. की उपाधि प्राप्त की है। आप स्वभाव से गम्भीर, मितभाषी, मृदुभाषी, अध्ययनप्रिय सेवाभावी कर्मठ साध्वी हैं।390 6.5.9.23 श्री प्रतिभाजी (सं. 2030) आपका जन्म गोगोलाव (नागौर) निवासी श्री घेवरचंदजी कांकरिया के यहां कार्तिक कृ. 11 सं. 2010 को हुआ। आपकी दीक्षा मृगशिर कृ. 11 सं. 2030 को जोधपुर में हुई। आप साहित्यरत्न व सिद्धान्ताचार्य हैं।391 6.5.9.24 श्री सुशीलाजी (सं. 2035) आपका जन्म सं. 2016 माघ शु. 12 के दिन विजयनगर (राज.) निवासी श्री जवरीलालजी बुरड़ के यहां हुआ। आपकी दीक्षा मृगशिर शु. 8 को युवाचार्य श्री मिश्रीमलजी म. सा. के श्री मुख से हुई। आपने साहित्यरत्न एवं जैन सिद्धान्त प्रभाकर की परीक्षा उत्तीर्ण की है।392 6.5.9.25 डॉ. श्री उदितप्रभाजी (सं. 2037) __ आपका जन्म कलकत्ता में सन् 1960 को श्री बालचंदजी वेदमूथा के यहां हुआ। माघ कृष्णा 5 सं. 2037 को डेह (राज.) ग्राम में स्वामी श्री ब्रजलालजी म. सा. द्वारा आपको दीक्षा-मंत्र प्रदान किया गया। आपने साहित्यरत्न एवं पाथर्डी बोर्ड से जैन सिद्धान्ताचार्य (प्र. खंड) की परीक्षा दी। आपने सुखविपाकसूत्र का संपादन किया।393 389. समग्र जैन चातुर्मास सूची, विशेषांक 2004, पृ. 46 390-393. अर्चनार्चन, पृ. 47 666 Page #729 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्थानकवासी परम्परा की श्रमणियाँ सन् 2005 में इनके शोधकार्य 'जैनधर्म में ध्यान का ऐतिहासिक विकासक्रम' पर जैन विश्व भारती संस्थान द्वारा पी. एच. डी. की उपाधि से विभूषित किया गया।394 6.5.9.26 श्री विजयप्रभाजी (सं. 2038) आपका जन्म ब्यावर (राज.) में श्रीमान् माणकचंदजी डोसी के यहां हुआ। वि. सं. 2038 चैत्र शु. 7 के शुभ दिन ब्यावर में ही युवाचार्य श्री मिश्रीमलजी म. सा. से संयम-व्रत ग्रहण किया। आप सिद्धान्तविशारद एवं साहित्यरत्न हैं।95 6.5.9.27 डॉ. श्री हेमप्रभाजी (सं. 2039) ___आप श्री मांगीलालजी चौरड़िया की सुपुत्री हैं। आपकी दीक्षा माघ कृष्णा 5 सं. 2039 को नोखा चांदावतों में श्री ब्रजलालजी म. सा. के श्रीमुख से संपन्न हुई। आपको दशवैकालिक, उत्तराध्ययन सूत्र, सुखविपाक, नन्दीसूत्र एवं 100 स्तोक, ढाले व स्तवन कंठस्थ हैं। आपने संस्कृत में साहित्यरत्न किया है। तथा 'जैन स्तोत्र साहित्य का समीक्षात्मक अध्ययन' विषय पर जोधपुर विश्वविद्यालय से पी.एच.डी. की उपाधि प्राप्त की है।96 विदुषी महासती श्री उमरावकुंवरजी म. सा. 'अर्चना' की आज्ञानुवर्तिनी शिष्याएँ श्री बसंताकुंवरजी, श्री चेतनाजी आदि 5 तथा विदुषी महासती श्री जयमालाजी, श्री आनंदप्रभाजी, श्री चंदनबालाजी आदि 5 का परिचय उपलब्ध नहीं हुआ। 6.5.9.28 डॉ. श्री चन्द्रप्रभा 'आभाश्री' (संव. 2041) ___ आपने 'जैन साहित्य में युवाचार्य मधुकरमुनि का योगदान' विषय पर शोधकार्य करके कानपुर विश्वविद्यालय से पी. एच. डी. की उपाधि प्राप्त की है। दिल्ली से सन् 2003 में यह कृति प्रकाशित हुई है। इनकी अन्य कृतियाँ हैं-गीतों का गुलदस्ता, श्री कान चालीसा, श्री हजारी चालीसा, समर्पण (लघु उपन्यास) आत्म रोशनी (प्रश्नोत्तर) तथा “महासती द्वय स्मृति ग्रंथ" का संपादन भी किया है।397 6.5.9.29 श्री पुण्यशीलाजी (सं. 2043) आपका जन्म 1 मई 1974 को हरसोलाव (राजस्थान) में श्री गणेशलालजी के घर हुआ। 15 मई 1986 को चौकड़ीकलां (राज.) में प्रवर्तक श्री रूपमुनिजी से दीक्षा पाठ पढ़कर श्री निर्मलकुमारीजी की शिष्या बनीं। आपने शास्त्रज्ञान के साथ योग, रैकी, मुद्रा, स्वर, वास्तु, ज्योतिष आदि का भी अच्छा अध्ययन किया है। आप कोकिलकंठी, मधुर प्रवचनकार एवं प्रश्नमंच तथा शिविरों के माध्यम से धर्म जागरण का संदेश देने वाली विदुषी साध्वी हैं।398 394. जैन प्रकाश, दिल्ली, अप्रेल 2005, प्रथम पक्ष, पृ. 43 395-396. अर्चनार्चन, पृ. 48 397. अर्चनार्चन, पृ. 48 398. समग्र जैन चातुर्मास सूची, विशेषांक 2004, पृ. 44 Page #730 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 6.5.9.30 श्री कल्पलताजी (सं. 2046 ) आप बीकनेर के श्री चंपकलालजी वैद की सुपुत्री हैं। आठ वर्ष की वय में माघ शु. 5 सं. 2046 को नागौर में उपप्रवर्तक श्री गौतममुनिजी से दीक्षा लेकर श्री केशर कुंवरजी की शिष्या बनीं। आप तप में अभिरूचि रखती हैं, 5, 15, 21, 31, 41 एवं 43 उपवास तक की दीर्घ तपस्या की है। 39 श्री रघुनाथजी महाराज की परम्परा के मरूधर केशरी श्री मिश्रीमलजी महाराज की वर्तमान में श्री तेजकुंवरजी, श्री मनोहरकुंवरजी, श्री पुष्पवतीजी, श्री सोहनकुंवरजी, श्री जयमालाजी, श्री इन्द्रप्रभाजी, श्री निर्मलकंवरजी, श्री धर्मप्रभाजी, श्री मंगलज्योतिजी, श्री प्रतिभाजी आदि 30 विदुषी श्रमणियों का उल्लेख चातुर्मास सूची में उपलब्ध होता है 1400 जयमल संप्रदाय के आचार्य शुभचन्द्रजी महाराज की आज्ञा में महासती श्री मदनकंवरजी, श्री संतोषकंवरजी, डॉ. श्री बिन्दुप्रभाजी, श्री उगमकंवरजी (बड़े) श्री निर्मलकंवरजी, श्री उगमकंवरजी (छोटे), श्री जयप्रभाजी, श्री हेमप्रभाजी, श्री पूरिमाजी, श्री दरियावकंवरजी, श्री राजमतीजी, श्री विनयश्रीजी, श्री शारदाजी, श्री रविप्रभाजी, श्री संवेगप्रभाजी, श्री चरित्रप्रभाजी, डॉ. श्री चेतनाजी, श्री सिद्धिश्रीजी, श्री दिव्यश्रीजी, श्री शशिप्रभाजी, श्री इन्दुप्रभाजी, श्री निपुणप्रभाजी, श्री वृद्धिप्रभाजी, श्री सुबोधप्रभाजी, श्री वैशालीप्रभाजी, श्री अर्पणप्रभाजी, श्री रजतश्रीजी, श्री वैभव श्रीजी, श्री परमश्रीजी, श्री देशनाश्रीजी, श्री चरमश्रीजी, श्री नियागश्रीजी आदि 32 साध्वियाँ विचरण कर रही हैं। 401 जैन श्रमणियों का बृहद इतिहास इनके अतिरिक्त रत्नवंश से संबंधित वर्तमान में 61 साध्वियों के नाम भी चातुर्मास सूची से प्राप्त हुए हैं। साध्वीप्रमुखा श्री सायरकंवरजी, श्री विमलावतीजी, श्री शांतिजी, श्री चन्द्रकलाजी, श्री दर्शनलताजी, श्री शशिकलाजी, श्री समताजी, श्री संतोषकंवरजी, श्री मनोहरकंवरजी, श्री कौशल्याजी, श्री पुनीतप्रभाजी, श्री शांतिकंवरजी, श्री इंदुबालाजी, श्री सुमतिप्रभाजी, श्री मुदितप्रभाजी, श्री तेजकंवरजी, श्री सुमनलताजी, श्री स्नेहलताजी, श्री मंजुलताजी, श्री यशप्रभाजी, श्री भक्तिप्रभाजी, श्री रतनकंवरजी, श्री विनीतप्रभाजी, श्री उषाजी, श्री निरंजनाजी, श्री सुशीलकंवरजी, श्री सरलेशप्रभाजी, श्री विनयप्रभाजी, श्री इन्दिराप्रभाजी, श्री रक्षिताजी, श्री सुयशप्रभाजी, श्री प्रभावतीजी, श्री सौभाग्यवतीजी, श्री सुश्रीप्रभाजी, श्री शारदाजी, श्री लीलाकंवरजी, श्री सोहनकंवरजी, श्री समर्पिताजी, श्री रुचिताजी, श्री विवेकप्रभाजी, श्री जागृतिजी, श्री परागप्रभाजी, श्री वृद्धिप्रभाजी, श्री ऋद्धिप्रभाजी, श्री सिद्धिप्रभाजी, श्री ज्ञानलताजी, श्री चारित्रलताजी, श्री भाग्यप्रभाजी, श्री प्रतिष्ठाप्रभाजी, श्री निष्ठाप्रभाजी, श्री निशल्यावतीजी, श्री श्रुतिप्रभाजी, श्री मतिप्रभाजी, श्री मुक्तिप्रभाजी, श्री उदितप्रभाजी, श्री संयमप्रभाजी, श्री विमलेशप्रभाजी, श्री पुष्पलताजी, श्री चैतन्यप्रभाजी, श्री पद्मप्रभाजी 1402 इनका विशेष ज्ञातव्य उपलब्ध नहीं हुआ। 6.5.10. आचार्य श्री धर्मदासजी की मेवाड़ - परम्परा का श्रमणी - समुदाय : धर्मदासजी महाराज के शिष्य छोटे पृथ्वीराजजी महाराज से मेवाड़ परंपरा चालु हुई, इसमें कई यशस्विनी साध्वियाँ हुई हैं, इस शाखा की पांच सतियों का उल्लेख कोटा संप्रदाय के आचार्य छगनलालजी महाराज के हस्तलिखित पन्ने में मिलता है । उनके नाम हैं- कुनणांजी (कुंदनजी), रतनांजी, गुमानांजी, सिणगारांजी, सिरेकंवरजी । 399. समग्र जैन चातुर्मास सूची सन् 2004, पृ. 46 400. समग्र जैन चातुर्मास सूची, 2005 विशेषांक, पृ. 30 401. जयगुरू जयमल टाइम्स, संपा. जे. धरमचंद लूंकड़, वर्ष 2 अंक 2 ई. 2005 पृ. 2 श्री श्रुताचार्य चौथ स्मृति भवन, ब्यावर 402. समग्र जैन चातुर्मास सूची सन् 2004, पृ. 48 1 668 Page #731 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्थानकवासी परम्परा की श्रमणियाँ इन साध्वियों की समयावधि का उल्लेख उसमें नहीं है तथापि ये साध्वियाँ सं. 1927 के लगभग हुई थी, ऐसा संभावित है। 403 मेवाड़ परंपरा में प्रवर्तिनी श्री नन्दुजी, धन्नाजी, सुहागांजी, सरूपांजी, तपस्विनी श्री कस्तूरांजी आदि साध्वियाँ प्रभावशालिनी हुई हैं, किन्तु उनका इतिवृत ज्ञात नहीं हो सका । 6.5.10.1 श्री नगीनाजी (सं. 1920 के लगभग ) मेवाड़ परंपरा की साध्वियों में नगीनाजी का स्थान सर्वोपरि है। इनका जन्म वि. सं. 1900 के लगभग पोटला ग्राम (मेवाड़) में भोपराजजी पामेचा के यहाँ में हुआ। 13 वर्ष की उम्र में विवाह और 20 वर्ष की वय में वैधव्य भोग लेने पर इनकी वैराग्य भावना जागृत हुई। अनेक संघर्षों को सहने के पश्चात् महासती नंदूजी के पास देलवाड़ा में इनकी दीक्षा हुई। ये शास्त्र - चर्चा में अति निपुण थीं। स्थानकवासी श्रद्धा से हटे हुए 40 परिवारों को इन्होंने पुनः धर्म में स्थिर किया था। इनकी अनेक शिष्याएँ महातपस्विनी और उग्र अभिग्रहधारी हुई हैं। उनमें चन्दूजी, मगनाजी, गेंदकुंवरजी, कंकूजी, प्यारांजी, फूलकुंवरजी, सुन्दरजी देवकुंवरजी और सरेकंवरजी के नामों का उल्लेख मिलता है। चन्दूजी की इन्द्राजी और वरदूजी ये दो शिष्याएँ थीं। इन्द्राजी विचित्र अभिग्रही, तपस्विनी साध्वी थीं, उन्होंने पलाना में 45 दिन की तपस्या पर 'काँटे' का अभिग्रह, रायपुर में भतीजे द्वारा 'मेवे की खिचड़ी' बहराने का अभिग्रह, आकोला में मूंछ के बाल का अभिग्रह, विवाह के अवसर पर 'भेष का अभिग्रह आदि लिये । नगीनाजी की ही एक साध्वी ने सादड़ी में 13 बोल का अभिग्रह किया। उनमें कुमारिका कन्या, खुले बाल, कांसी (एक धातु) का कटोरा, सच्चा मोती, नया वस्त्र, भाल पर बिंदी आदि बोल थे। श्री रंगलाल जी तातेड़ ने संवत् 1937 की अपनी एक ढाल में नगीनाजी की सतियों की तपस्या का उल्लेख करते हुए कहा कि संवत् 1933 में एक सतीजी की 75 दिन की तपस्या पर केसर की वर्षा हुई । सादड़ी में 5 मास और 11 दिन के दीर्घ तप पर 175 मूक पशु बलि से बचाये गये। इसी प्रकार इनकी किसी सती ने 34, 35 किसी ने 66, किसी ने 61, किसी ने तीन मास, किसी ने 88 दिन तक भी तप किये | 404 6.5.10.2 प्रवर्तिनी श्री सरूपांजी (सं. 1920 के लगभग ) मेवाड़ की साध्वी - परम्परा में मुख्यतया दो धाराएं हैं- एक धारा की प्रतिनिधि श्री नगीनाजी और दूसरी धारा की प्रतिनिधि श्री सरूपांजी हैं। पूज्य एकलिंगदासजी महाराज के समय साध्वी समाज ने इन्हें प्रवर्तिनी पद समर्पित किया। श्री सरूपांजी की शिष्याओं में श्री चम्पाजी, श्री सलेकुंवरजी, श्री लेरकुंवरजी, श्री हगामाजी और सरेकंवरजी (अकोला) मुख्य थे 1405 6.5.10.3 श्री कस्तूरांजी (सं. 1927 के लगभग ) आपके संबंध में विस्तृत ज्ञातव्य उपलब्ध नहीं है, इतना ही उल्लेख है कि वे तपस्विनी थीं। उन्होंने 21, 26, 13, 19, 41 दिन तक की तपस्याएँ, बेले- बेले पारणे किये, इनकी शिष्याएँ श्री फूलकुंवरजी व उनकी शिष्या श्री श्रृंगारकुंवरजी थीं। जन्म स्थान 'मोलेला' तथा ससुराल 'नाथद्वारा' में था । 406 403. उमेशमुनि 'अणु', श्रीमद् धर्मदासजी म. और उनकी मालव परंपरा, पृ. 113 404. संयम गरिमा ग्रंथ, पृ. 535 श्रीमती रविन्द्रा सिंघवी का लेख 'मेवाड़ की गौरवमयी श्रमणी - परंपरा | 405. वही, पृ. 538 406. वही, पृ. 539 669 Page #732 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन श्रमणियों का बृहद इतिहास 6.5.10.4 श्री श्रृंगारकुंवरजी (1930 के लगभग) प्रवर्तिनी श्री सरूपांजी की परम्परा में मेवाड़ में सणगारांजी के नाम से प्रसिद्ध महासती श्री श्रृंगारकुंवरजी सिंहनी सी निर्भीक, स्पष्टवक्ता, समयज्ञ और प्रभावशालिनी साध्वीजी थीं। आप पोटला (मेवाड़) के ओसवालवंशीय सियाल परिवार से प्रवर्जित हुई। शास्त्रीय ज्ञान की तो आप चलती रिती संग्रहालय थीं। पूज्य एकलिंगदासजी महाराज के स्वर्गवास के पश्चात् मेवाड़ की विश्रृंखलित कड़ियों को टूटने से आपने ही बचाया। पूज्य मोतीलालजी महाराज जब आचार्य पद स्वीकार करने को तैयार नहीं हुए, संघ सभी प्रकार के प्रयत्न करके भी असल हो गया तब आपने उन्हें कहा-"पूत कपूत होते हैं तब बाप की पगड़ी खूटी पर टंगी रहती है।' इस एक वाक्य को सुनते ही पूज्यश्री ने अपना आग्रह छोड़ दिया एवं आचार्य पद ग्रहण किया। आपकी अनेक शिष्याएँ थीं-श्री दाखांजी (सहाड़ा), श्री झमकूजी (पोटलां), श्री सोहनजी (नाई), श्री मदनकुंवरजी, श्री हरकूजी (भीम), श्री राधाजी, राजकुंवरजी (ओडण), पानजी (नाथद्वारा), श्री वरदूजी, वलावरजी, किशनकुंवरजी (नाई), मगनाजी (राजकरेड़ा) आदि।107 6.5.10.5 श्री धन्नाजी (सं. 1957-2026) श्री कंकूजी की चार शिष्याएँ-श्री धन्नाजी, सुहागाजी, सुन्दरजी और सोहनजी में ये सर्व ज्येष्ठ थीं। ये खारोलवंशी भूरजी और भगवतबाई की पुत्री थीं, संवत् 1948 के लगभग रायपुर में इनका जन्म हुआ। नौ वर्ष की वय में वैशाख शुक्ला तृतीया के दिन कोशीथल में इनकी दीक्षा हुई। श्री धन्नाजी आगमज्ञाता, व्याख्यात्री, तत्त्वज्ञानी, सेवा विनय परायणा महासती थीं। अनेक वर्ष मेवाड़ में विचरण करके अंत में संवत् 2026 सनवाड़ में ये स्वर्गवासिनी हुईं। श्री रामाजी, मानाजी, चतरकुंवरजी, सोहनकुंवरजी, सेनाजी, इनकी शिष्याएँ हुईं। श्री सोहनकंवरजी की श्री नाथकुंवरजी, श्री उगमवतीजी (श्री सौभाग्यमुनिजी 'कुमुद' की माता व बहन) तथा कमलाजी तीन शिष्याएँ हुईं।408 6.5.10.6 श्री मोड़ाजी ( -स्वर्ग. सं. 2003) आप श्री कंकूजी की शिष्या श्री सुहागाजी की शिष्या थीं। नकूम के सहलोत गोत्र में इनका जन्म और बड़ी सादड़ी में विवाह हुआ। वैधव्य के पश्चात् 20 वर्ष की वय में बड़ी सादड़ी में इनकी दीक्षा हुई। मोडाजी भद्रपरिणामी, सख्त, सात्त्विक, आचारनिष्ठ थीं। श्री पेम्पाजी, रतनकुंवरजी, खोड़ाजी, लेरकुंवरजी, राधाजी, रतनजी इनकी शिष्याएँ थीं। संवत् 2003 ज्येष्ठ कृष्णा 11 को हणुंतिया (अजमेर) में ये स्वर्गवासिनी हुईं।409 6.5.10.7 श्री वरदूजी (सं. 1965 के लगभग) श्री वरदूजी उदयपुर की थीं, सरलता, सादगी, सहिष्णुता संयमप्रियता इनके कण-कण से झलकती थी। अपने जीवन काल में इन्होंने 11 अठाइयाँ तथा काली रानी के तप की एक लड़ी पूर्ण की। ये बेले-बेले पारणे और पारणे 407. वही, पृ. 539 408. वही, पृ. 537 409. वही, पृ. 538 1670 Page #733 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्थानकवासी परम्परा की श्रमणियाँ में आयंबिल करती थीं। सरदारगढ़ में ये स्वर्गवासिनी हुईं। इनकी कई शिष्याएँ थीं-श्री केरकुंवरजी, श्री नगीनाजी, श्री गेंदकुंवरजी, श्री हगामाजी आदि। श्री केरकुंवरजी की नौ शिष्याएँ हुईं-श्री कंचनकुंवरजी, श्री दाखांजी, श्री सौभाग्यकुंवरजी, श्री सज्जनकुंवरजी, श्री रूपकुंवरजी, श्री प्रेमकुंवरजी, श्री मोहनकुंवरजी, श्री प्रतापकुंवरजी। 6.5.10.8 श्री प्रेमवतीजी (सं. 1996-2057) समन्वय साधिका महासती श्री प्रेमवतीजी का जन्म कोशीथल (मेवाड़) निवासी श्री भूरालालजी पोखरणा की धर्मपत्नी श्रीमती सज्जनकुंवरजी की कुक्षि से संवत् 1983 में हुआ। पूर्व संस्कारों से प्रेरित आपकी बाल्यवय से ही धार्मिक भावना ने अपनी माता एवं मौसी को भी वैराग्य रंग से अनुरंजित कर दिया, फलतः संवत् 1996 माघ शुक्ला प्रतिपदा के दिन कोशीथल में ही आप तीनों आचार्य मोतीलालजी म. सा. से दीक्षा पाठ पढ़कर श्री केरकंवरजी की शिष्या बनीं। आप प्रगतिशील विचारों की, प्रवचन पटु, आशु कवयित्री एवं ओजस्वी साध्वी रत्न थीं। अहिंसा के क्षेत्र में आपका योगदान सराहनीय है, आपके उपदेश से 2500 से ऊपर व्यक्तियों ने मांस-मदिरा का त्याग किया, समय-समय पर हजारों पशु कत्लखाने से मुक्त हुए। आप जिधर भी विचरती थीं, जैन अजैन बड़ी संख्या में उमड़ पड़ते थे। सेवाशील तथा व्यसन विरहित समाज संरचना में आप अंतिम क्षणों तक प्रयत्नशील रहीं। 'राष्ट्रज्योति, राजस्थान सिंहनी' आदि पदों से अलंकृत थीं। आपके व्यक्तित्व को उजागर करने वाला अभिनंदन ग्रंथ आपकी दीक्षा अर्धशताब्दी समारोह पर अर्पित किया गया। संवत् 2057 कोशीथल में आपका स्वर्गवास हुआ।10 6.6 क्रियोद्धारक आचार्य श्री हरजीऋषिजी परम्परा : स्थानकवासी संप्रदाय में लोंकाशाह के पश्चात् जिन आत्मार्थी क्रांतिवीरों ने क्रियोद्धार किया था, उनमें हरजी ऋषिजी भी प्रमुख थे, इनके क्रियोद्धार का समय वि. सं. 1686 के आसपास का है। इनकी विशिष्ट परम्परा 'कोटा संप्रदाय' के नाम से प्रसिद्ध हई। तीसरे आचार्य श्री परसरामजी तक यह परंपरा एक इकाई के रूप में रही. तदनन्तर यह दो शाखाओं में विभक्त हो गई, पहली शाखा के आचार्य श्री लोकमणजी और दूसरी शाखा के श्री खेतसीजी हुए। प्रथम शाखा के छठे आचार्य श्री दौलतरामजी के पश्चात् श्री लालचंदजी से तीसरी शाखा का प्रादुर्भाव हुआ जो पूज्य हुकमीचंदजी महाराज की संप्रदाय के नाम से विख्यात हुई।'' श्रीलालजी तक यह शाखा एकता के सूत्र में आबद्ध रही, तत्पश्चात् श्री हुकमीचंदजी महाराज की यह संप्रदाय भी दो इकाइयों में विभक्त हो गई-पहली इकाई के आचार्य हुए श्री जवाहरलालजी महाराज और दूसरी इकाई के पूज्य श्री मन्नालालजी महाराज। श्री जवाहरलालजी महाराज के पाटानुपाट श्री नानालालजी महाराज के स्वर्गवास के पश्चात् पुनः इसकी एक नई शाखा 'शांत क्रांति संघ' के रूप में उद्भुत हुई। इन सभी शाखाओं को तीन भागों में विभाजित किया है- (क) कोटा संप्रदाय (ख) साधुमार्गी संप्रदाय (ग) दिवाकर संप्रदाय। यद्यपि साध्वियों के विषय में यह निर्णय करना कठिन है कि वे किस शाखा से संबंधित रही हैं तथापि जिसकी वंशावली में हमें जिस साध्वी का उल्लेख मिला, उसे उस शाखा में वर्णित किया है। 410. संयम गरिमा ग्रंथ, प्रधान संपादक - डॅ. राजेन्द्रमुनि 'रत्नेश, प्रथमखंड, पृ. 1-72 411. प्रवर्तक मुनि शुक्लचंद्र, भारत श्रमण संघ गौरवः आचार्य सोहन, पृ. 353 671 Page #734 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन श्रमणियों का बृहद इतिहास 6.6.1 कोटा-सम्प्रदाय की श्रमणियाँ : कोटा सम्प्रदाय के प्रारंभकाल में ही 26 महापंडित मुनि और 1 पंडिता महासाध्वी का उल्लेख प्राप्त होता है, यह साध्वी कौन थी कब दीक्षित हुई, इस संबंध में कोई जानकारी उपलब्ध नहीं होती। जिन अतीतकालीन साध्वियों का इतिहास हमें प्राप्त हुआ है उनमें सर्वप्रथम नाम तपस्विनी श्री सीताजी का आता है। तत्पश्चात् अध्यात्मसाधिका श्री रूपाजी, संयम आराधिका श्री मेदाजी, श्री राधाजी, तप आराधिका श्री वीरजाजी, वात्सल्य वारिधि श्री बीसाजी, जिनशासनचन्द्रिका श्री माऊजी का है। आपके पश्चात् श्री बड़ाकंवरजी हुईं, ये घोर तपस्विनी थीं, अंतिम समय में 52 दिन के संथारे के साथ सं. 1937 में भानस का हिवड़ा ग्राम में स्वर्गवासिनी हुई, उल्लेख है कि 52 दिन तक ही वहाँ 'नाग' के दर्शन होते रहे। तदनन्तर आत्मसाधिका श्री फत्ताजी, तपस्विनी श्री चंद्रकुंवरजी एवं ज्ञानवारिधि श्री सूर्यकुंवरजी हुईं। इनके विषय में कोई उल्लेखनीय जानकारी उपलब्ध नहीं हुई। इनके पश्चात् श्री गुलाबकुंवरजी महासाध्वी हुई। कोटा संप्रदाय की इन साध्वियों के विषय में एक दोहा भी प्रचलित है बीसाजी मोटी सती, सूर्यकंवरजी महान। गुलाब संयम से सुवासित पाखंड भंजन जाना2 6.6.1.1 श्री गुलाबकुंवरजी (सं. 1950 के लगभग) आपका जन्म औरंगाबाद के श्रेष्ठी श्री अमरचंदजी के यहां हुआ। तथा विवाह नासिक निवासी बड़ी हवेली वाले श्री अमोलकचंदजी निमाणी से हुआ। आपकी दीक्षा नासिक में हुई। आप दृढ़ संयमी, आचारवान महाविदुषी तथा परम पंडिता थीं, आपके पास अनेक संत-सती अपने प्रश्न भेजते और समुचित समाधान प्राप्त करते थे, आपने हस्तलिखित शास्त्र भी अनेक संतों की सेवा में समर्पित किये। 13 वर्ष तक आप कोटा में स्थिरवासिनी रहीं, और वहीं अंतिम संलेखना संथारा करके स्वर्गवासिनी हुईं।413 6.6.1.2 प्रवर्तिनी श्री मानकंवरजी (वि. सं. 1969-2040) मध्यप्रदेश के रामपुरा-मानपुरा, के निकट 'सांगरिया' ग्राम में पिता देवीलालजी एवं माता श्रीमति शोभादेवी सेठिया के यहां आपका जन्म हुआ। 9 वर्ष की अल्पायु में ही बोलिया ग्राम निवासी श्री मलूकचंदजी के साथ विवाह और तत्पश्चात् वैधव्य ने आपको वैराग्य की ओर उन्मुख किया। 13-14 वर्ष की वय में वि. सं. 1969 मृ. शु. 2 के शुभ दिन नाहरगढ़ में श्री गुलाबकंवरजी म. के चरणों में आपने दीक्षा ली। आपकी धैर्यता, व्यवहारकुशलता, विनय, विवेक इत्यादि गुणों से प्रभावित होकर 3 वर्ष की अल्प दीक्षा पर्याय में ही चतुर्विध श्री संघ ने कोटा में आपको प्रवर्तिनी पद पर विभूषित किया। आप विदर्भ सिंहनी के नाम से भी प्रख्यात थीं। सं. 2040 वैशाख शु. 4 को जालना में 45 शिष्या-प्रशिष्याओं का विशाल श्रमणी संघ जिनशासन को समर्पित कर आप दिवंगत हुईं। 412. महासती श्री केसरदेवी गौरव ग्रंथ, खंड-3, पृ. 351 413. प्रव. श्री प्रभाकुंवरजी म. सा. से प्राप्त सामग्री के आधार पर 414. उपर्युक्त आधार 672 Page #735 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्थानकवासी परम्परा की श्रमणियाँ 6.6.1.3 उपप्रवर्तनी श्री सज्जनकुंवरजी (सं. 1979) उपप्रवर्तनी श्री सज्जनकंवरजी का जन्म मेवाड़ प्रान्त के 'बानसेन' ग्राम में पिता श्री कालूरामजी गोलेच्छा हमीरगढ़ निवासी एवं माता श्रीमति हीरकंवरबाई की कुक्षि से वि. सं. 1971 श्रावण शुक्ला पंचमी के दिन हुआ। आठ वर्ष की अल्पायु में अपनी माताजी श्री हीरकुंवरजी के सान्निध्य में श्री पानकंवरजी के पास 'रूपायेली' ग्राम में संवत् 1979 मृगशिर शुक्ला 5 के दिन जैन आहती दीक्षा अंगीकार की। 32 आगम, सैंकड़ों थोकड़े एवं संस्कृत, प्राकृत, हिंदी, गुजराती आदि विविध भाषाओं की प्रकाण्ड पंडिता महासतीजी ने अपने जीवन में जन-कल्याण के भी अनेकों कार्य किये। राजस्थान के डूंगला ग्राम के बाहर जहां वर्षों से नवरात्रि व दशहरे के दिनों में सैंकड़ों मूर्गों और बकरों की बलि चढ़ा करती थी, वहाँ आपश्री की वाणी और तप के प्रभाव से बलि प्रथा बंद हो गई। आपके दर्शन एवं मांगलिक श्रवण के लिये लोगों की भीड़ लगी रहती थी। आप सादड़ी में स्थिरवास रहीं, वहीं स्वर्गवासिनी हुई। 102 वर्ष की उम्र में 75 वर्ष तक संयम की उत्कृष्ट साधना करने वाली महास्थविरा साध्वी चम्पाकंवरजी आपकी ही शिष्या थीं।15 6.6.1.4 श्री दिलीपकंवरजी (सं. 2015) आपने चूरू निवासी वक्तावरमलजी पोरवाल के यहां जन्म लिया, सं. 2015 चै. शु. पूर्णिमा को चौथ का बरवाड़ा में विरदीकंवरजी के पास आपकी दीक्षा हुई। आपने पंडित परीक्षा, जैन सिद्धान्त प्रभाकर आदि परीक्षाएँ उत्तीर्ण कर धार्मिक अध्ययन को ठोस बनाया। महाराष्ट्र, मराठवाड़ा राजस्थान आदि में विचरण कर अनेकों में धर्म की ज्योति जागृत की, आपके सदुपदेश से कई लोग जैन बने, मद्य-मांस का परित्याग किया। आपका साहित्य-वृद्धि जीवन परिचय, वृद्धि सागर बोल माला आदि प्रकाशित हैं। आपकी 3 शिष्याएँ हैं-श्री । कुसुमकंवरजी, भक्तिप्रभाजी, अरूणप्रभाजी।416 6.6.1,5 प्रवर्तिनी श्री प्रभाकुंवरजी (सं. 1999) आपका जन्म सं. 1984 श्रावण शुक्ला 5 को 'डोंगरसेवली' ग्राम में हुआ। आप जब संयम पथ पर आरूढ़ होने जा रही थीं, तो विरोधियों ने दीक्षा रोकने के लिये कोर्ट में केस कर दिया, ब्रिटिश का राज्य होते हुए भी धर्म के प्रभाव से रविवार के दिन कोर्ट खुली, फैसला आपके पक्ष में हुआ और ठीक समय पर सं. 1999 फाल्गुन शु. 2 सोमवार के दिन बुलढाणा में आपकी दीक्षा हुई। आपकी तेजस्विता, ऊर्जस्विता, गहन शास्त्रज्ञान देखकर सं. 2057 चैत्र कृ. 8 शनिवार को 'लातुर' ग्राम में सहस्रों नर-नारियों की उपस्थिति में 'प्रवर्तिनी पद' प्रदान किया गया। आपश्री के सदुपदेश से अनेक स्थानों पर जैन पाठशाला, जैन ग्रंथालय एवं जैन स्थानकों का निर्माण हुआ। आपकी लेखनी से निःसृत साहित्य में 'तपोयोगी, संघर्ष से सौरभ, ध्रुव तारिका, कुमारपाल चरित्र पर एकांकी, अढ़ाई अक्षर आदि प्रमुख हैं। आपने अनेक श्रमणियों को तो जिनशासन में दीक्षित किया ही साथ ही श्रमणवर्ग को भी उपदेश देकर संयममार्ग का पथिक बनाया. श्री विवेकमनिजी, श्री श्रुतप्रज्ञजी श्री अक्षयप्रज्ञाजी आदि श्रमण आपकी ही देन हैं।17 415. महासती केसरदेवी गौरव ग्रंथ, खंड-3, पृ. 356 416-417. पत्राचार से प्राप्त सामग्री के आधार पर Page #736 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 6.6.1.6 श्री सरस्वतीजी (सं. 2019 ) आप मंदसौर जिले के नारायणगढ़ नामक कस्बे के निवासी खटीक (कसाई) जाति के श्री गोवाजी की सुपुत्री हैं। श्री समीरमुनिजी के सदुपदेश से आपके परिवारीजन कसाई का धंधा छोड़कर जैनधर्म के प्रति आस्थावान बने, ऐसे हजारों परिवार 'वीरवाल' के नाम से प्रसिद्धि को प्राप्त हुए। संस्कारों की सुदृढ़ भूमिका ने आपके मन में वैराग्य के ज्योति प्रज्वलित की। आप आर्हती दीक्षा लेने को तत्पर हुई तो ससुराल पक्ष की और से कोर्ट में आपकी दीक्षा को रोकने के प्रयत्न किये गये, तथापि आप अपने निश्चय पर दृढ़ रही। अंतत: 6 मई 1962 को पंचायती नोहरे में श्री समीरमुनिजी महाराज के मुखारविंद से दीक्षा का पाठ पढ़कर आप श्री रंगूजी की नेश्राय में शिष्या घोषित हुईं। वीरवाल जैन समाज से दीक्षा अंगीकार करने वाली आप सर्वप्रथम साध्वी हैं। आपके ही साथ वीरवाल समाज की अन्य दो बहनों ने भी दीक्षा अंगीकार की, वे साध्वी विद्यावती व राजीमती के नाम से प्रसिद्ध हुई। साध्वी सरस्वतीजी अत्यंत निर्भीक, सरल स्वभावी एवं विनयशील साध्वी हैं। 'वीरवाल सिंहनी' के नाम से सुविख्यात, समाज में अति प्रतिष्ठित एवं सम्माननीय साध्वी के रूप में वे जिनशासन की प्रभावना करती हुई विचरण कर रही हैं। 418 6.6.1.7 श्री भक्तिप्रभाजी (सं. 2036 ) 'कोटा' आप बलदोटा परिवार की कन्या हैं, कुंदेवाड़ी (नासिक) में सन् 1980 को कोटा संप्रदाय के श्री बिरदीकंवरजी के पास दीक्षा अंगीकार की। आपने हिंदी, अंग्रेजी, संस्कृत आदि का अच्छा ज्ञान प्राप्त किया, पाथर्डी बोर्ड से 'प्रभाकर' की परीक्षा भी दी। आप प्रखरवक्ता हैं, आपकी सद्प्रेरणा से करमाला, आष्टी, काष्टी, टेंभूर्णी आदि स्थानों पर गणेश युवक मंडल, भक्ति बहू मंडल, कन्यामंडल आदि अनेक मंडल, पाठशालाएँ, स्थानक आदि निर्मित हुए। श्रावक संगठन तैयार हुआ, आपने समाज की प्रगति में अपना काफी योगदान दिया । 19 6.6.2 आचार्य हुकमीचंदजी महाराज की साधुमार्गी शाखा की श्रमणियाँ : 6.6.2.1 प्रवर्तिनी महासती श्री खेताजी (सं. 1910 के आसपास) आपका जन्म थली प्रान्त में कोटासर निवासी टीकमचंदजी मालू की धर्मपत्नी जेताबाई की कुक्षी से हुआ, पतिवियोग के पश्चात् संयम लेकर आप पूज्य श्री हुक्मीचंदजी म. सा. की क्रियोद्धारक क्रांति में सहयोगिनी बनीं, आप बड़ी त्यागी प्रवृत्ति की थीं, जीवनपर्यन्त दिन में एकबार आहार व दो बार पानी के उपरांत अन्न जल ग्रहण नहीं किया, देवता संबंधी उपसर्ग भी आप पर आये किंतु आप विचलित नहीं हुईं। आपकी नेश्राय में सभी सतियाँ प्रायः पौरूषी करती थीं, तथा चौथे प्रहर में गर्म आहार का बिना कारण सेवन नहीं करती थीं। किसी भी गांव पौरूषी से पूर्व आप प्रवेश नहीं करतीं थीं। आपने अपने पीछे श्री राजकंवरजी को प्रवर्तनी पद पर नियुक्त किया था। 420 418. संपादिका - श्रीमती कौशल्या जैन, श्री समीरमुनि स्मृति ग्रंथ, खंड 5, पृ. 1-10 419. पत्राचार से प्राप्त 420. मुनि धर्मेश, साधुमार्गी की पावन सरिता, पृ. 336 जैन श्रमणियों का बृहद इतिहास 674 Page #737 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्थानकवासी परम्परा की श्रमणियाँ 6.6.2.2 श्री रंगूजी (सं. 1917 के पूर्व 1940 ) विशिष्ट व्यक्तित्व की धनी श्री रंगूजी का जन्म नीमच (मालवा) के हजारीमलजी पोरवाल छोटे साजनात परिवार में हुआ। किशोरावस्था में विवाह और प्रथम चरण में पति वियोग होने से ये एकाकी रह गईं। इनके अप्रतिम रूप-सौंदर्य के दीवाने धमोतर के ठाकुर शेरसिंह ने इनकी हवेली के चारों ओर पहरेदार तैनात कर दिये किंतु ये किसी तरह खिड़की से कूदकर नीमच में उग्रतपस्वी क्रियोद्धारक आचार्य श्री हुक्मीचन्दजी के चरणों में पहुंच गईं, और दीक्षा की प्रार्थना की, अन्य दो मुमुक्षु बहनों के साथ इन्होंने बा. ब्र. सीताजी की सुशिष्या धन्नाजी की नेश्राय में दीक्षा ग्रहण की। इनके दिव्य व्यक्तित्व से प्रभावित होकर अनेक कन्याओं ने संयम ग्रहण किया, किंतु इन्होंने सबकों अपनी गुरूभगिनी नवलकंवरजी की शिष्या बनाया। वर्तमान में 'श्री रंगूजी महासती की संप्रदाय' के नाम से प्रसिद्ध आपके विशाल शिष्या संघ में अनेकों विशिष्ट श्रमणियाँ हैं । 421 6.6.2.3 आर्या राजकंवरजी (सं. 1920-48 ) आप रामपुरा (भानपुरा) जिले के कंजार्डा नामक पहाड़ी गांव के निवासी श्री दयारामजी भंडारी की पुत्रवधु थीं, सं. 1903 में श्री रत्नचन्द्रजी के साथ आपका पाणिग्रहण हुआ । वि. सं. 1914 में पति श्री रत्नचंद्रजी ने मुनि श्री राजमलजी की निश्रा में दीक्षा ग्रहण कर ली। आपके तीन पुत्र थे, इनमें ज्येष्ठ पुत्र ने मुनि चौथमलजी के मंगल प्रवचन को सुनकर आजीवन ब्रह्मचर्य व्रत अंगीकार कर लिया, तब माता राजकुंवरबाई ने भी अपने तीनों पुत्र - श्री जवाहरलालजी, श्री हीरालालजी श्री नंदलालजी के साथ आचार्य प्रवर श्री शिवलालजी से आर्हती दीक्षा ग्रहण करली। यह दिन पोष शु. 6 सं. 1920 का था । आप साध्वी श्री नवलांजी की शिष्या बनीं। 122 आपकी ज्ञानगरिमा, विनयशीलता, अनुशासन दृढ़ता को देखकर महासती रंगूकंवरजी ने आपको अपनी उत्तराधिकारिणी घोषित की। कुशलतापूर्वक श्रमणी संघ का संचालन करती हुई वि. सं. 1948 में आप स्वर्गवासिनी हो गई 1423 6.6.2.4 प्रवर्तिनी श्री रत्नकुमारीजी (सं. 1920- 1969 ) आप मालवा के भाटखेड़ी ग्राम में माता तुलसा एवं पिता सुखलालजी के यहां जन्मी, नीमच के कोठोड़ा परिवार में विवाह हुआ, पति वियोग के पश्चात् महासती रंगूजी के अपूर्व त्याग से प्रभावित होकर आपने दीक्षा ग्रहण की। आप जैन दिवाकर श्री चौथमलजी म. की संसारपक्षीय मौसी थी, आपके ही पास उनकी मातुश्री केसरकंवरजी ने भी दीक्षा ग्रहण की थी। सं. 1948 में प्रवर्तिनी श्री राजकुंवरजी ने आपकी गुण - गरिमा को देख करके ‘प्रवर्तिनी' पद प्रदान किया। आपने अपने अनुशासन काल में महासती रंगू मंडल में 5 गण एवं 5 गणावच्छेदिका की नियुक्ति करके साध्वी समूह की सुव्यवस्था की थी। पांच गणावच्छेदिका के नाम (1) श्री सिरेकंवरजी, (2) श्री कंकूजी (3) श्री राजाजी, (4) श्री आणंदकंवरजी (5) श्री फूलांजी । व्यवस्था प्रपत्र को पढ़ने से ऐसा लगता है कि आप परम विदुषी, अनुशासनप्रिय, एवं शास्त्रज्ञा थीं। आपकी त्याग वृति इतनी प्रबल थी कि 26 वर्ष की उम्र से ही चार विगयों का त्याग कर दिया। अपनी वृद्धावस्था में महासती सिरेकंवरजी को उत्तराधिकारिणी नियुक्त कर संवत् 1969 में 18 दिन के संथारे के साथ आप स्वर्ग सिधारीं 1424 421. (क) श्री केसरदेवी गौरव ग्रंथ, खंड- 3, पृ. 352; (ख) साधुमार्गी की पावन सरिता, पृ0 325-27 422. स्था. परंपरा का इतिहास - पृ. 476-77 423. साधुमार्गी की पावन सरिता, पृ. 327-28 424. वही, पृ. 328-29 675 Page #738 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन श्रमणियों का बृहद इतिहास 6.6.2.5 प्रवर्तिनी श्री सिरेकंवरजी (सं. 1925-74) __ आप जावरा में जन्म लेकर बदनावर (म. प्र.) में विवाहित हुई, पतिवियोग के पश्चात् वर्धमान तप की आराधना की एवं महासती रंगूजी के पास संवत् 1925 में दीक्षा अंगीकार की। आपके सदुपदेश से अनेक भव्यात्माओं ने संसार का त्याग किया। आपकी अनेक शिष्याओं में राधाजी घोर तपस्विनी थीं, उन्होंने मासखमण एवं 45 के कई बड़े-बड़े थोक किये। ऐसे ही प्याराजी, रूकमाजी, सरसाजी, हीराजी, गटूजी, जड़ावकंवरजी, सुगनकंवरजी आदि कई विदुषी सतियाँ थीं। आप के 15 वर्ष के शासन में साध्वी समूह का खूब विकास हुआ, अंत में महासती आनंदकंवरजी को अपनी उत्तराधिकारिणी नियुक्त कर संवत् 1974 में ब्यावर में स्वर्गवासिनी हुई। सिरेकवरजी म. सा. के बाद संप्रदाय के दो हिस्से हो गये एक तरफ प्रवर्तिनी आनन्दकंवरजी थीं दूसरी तरफ की प्रवर्तनी प्यारांजी थीं; प्रवर्तिनी प्यारांजी का सती मंडल आचार्य मन्नालालजी की आज्ञा में विचरने लगा था, जो वर्तमान में 'दिवाकर सम्प्रदाय' के नाम से श्रमणसंघ में सम्मिलित हैं।425 6.6.2.6 श्री नानूकंवरजी (सं. 1930) संवत् 1930 'तिवरी' में नानूकंवरजी ने श्री नंदकंवरजी के पास दीक्षा अंगीकार की। गृहस्थावस्था में इनके पति कुष्ठ रोगी थे, नानूकुंवरजी ने मैनासुन्दरी की भांति उनकी सेवा की। पति के निधन पर अंत्येष्टि के लिये आये लोगों में दाग कौन दे जब इसकी कानाफुसी चली व उपेक्षा भाव मालूम पड़ा तो वीरबाला नानुकुंवरजी अपने पति के शव को कपड़े में बांधकर पीठ पर उठाकर श्मशान में गयी व स्वयं अंत्येष्टि क्रिया की। 12 दिन के पश्चात् वैराग्य की भावना तीव्र हो गयी व सती नंदकुंवरजी के पास दीक्षा अंगीकार की। नानूकुंवरजी बेले-तेले पारना करती थीं तथा चातुर्मास के 120 दिन में केवल 7 दिन भोजन करती थीं। ऐसी तपस्विनी सती को वाचासिद्धि मिल जाये इसमें क्या आश्चर्य? एकबार बुरी नियत से एक मुसलमान लघुशंका के लिये सतियों को आता देख बैठ गया, सतियाँजी उसके उठने का इंतजार करने लगी। अनुमानित समय से भी जब अधिक समय हो गया और नहीं उठा तो सती नानूकुंवरजी ने कहा “यह तो बैठा ही रहेगा चलो।" योग की बात, उस मुसलमान भाई का बुरी नियत के कारण पेशाब होना ही बंद हो गया। आखिर उसके कुटुम्बी उसे उठाकर लाये। माफी मांगी तथा मांसभक्षण का त्याग किया। इसी प्रकार और भी आश्चर्यकारक घटनाएँ हुईं।426 6.6.2.7 प्रवर्तिनी श्री आंनदकंवरजी (सं. 1950) आप मरूधरा के सोजत शहर के श्रेष्ठी प्रभुदानजी संघवी के सुपुत्र किशनलालजी की सबसे छोटी पुत्री थी, आप से बड़े 5 भाई व 5 बहनें थीं। जन्म नाम 'छापी' रखा पर इनके जन्म के बाद दिन-प्रतिदिन वातावरण में एक आनंददायी परिवर्तन आने से इन्हें 'आनंदकंवर' नाम से पुकारने लगे। 12-13 वर्ष की वय में ही सोजत निवासी सलेराजजी मूथा से विवाह सम्बन्ध हुआ, किंतु शीघ्र ही पतिवियोग ने इनकी दशा एवं दिशा को मोड़ दिया, संवत् 1950 में प्रवर्तिनी सिरेकवरजी के पास दीक्षा लेकर ये लक्ष्मीकंवरजी की शिष्या बनीं। इनके नम्र स्वभाव, शुद्ध चारित्रिक निष्ठा एवं गहन तत्त्वज्ञान से प्रभावित होकर अनेकों भव्य आत्माओं ने इनकी चरण शरण 425. वही, पृ. 330 426. लेखक-श्री मोतीलाल सुराना, जैनप्रकाश, मार्च 1983, पृ. 30 676 Page #739 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्थानकवासी परम्परा की श्रमणियाँ में दीक्षा ग्रहण की, संवत् 1974 में इन्हें प्रवर्तनी पद प्रदान किया गया। इनके तप-संयममयजीवन का इतना प्रभाव था कि भाटखेड़ी की विधवा ठकुरानी नवनिधिकुमारी 'जैन' बन गई। इतना ही नहीं, वह काष्ठ-पात्र में भोजन करती तथा मुख पर मुखवस्त्रिका बांधे रखती। वर्ष में एकबार 32 ही शास्त्रों का पारायण करती थी. उसने जैनधर्म की सूक्ष्म जानकारी प्राप्त की। एवं साधु संतों पर दृढ़ निष्ठा रखती। तथा स्वंय को जैन संघ की तुच्छ सेविका कहती थीं। आपने गंगापुर में कई वर्षों से चली आ रही दलबंदी को तोड़ दिया था। जीवदया की ओर आप प्रारम्भ से ही विवेकशील रही हैं। एक-बार रात्री के समय पाँव में लोहे की पत्ती घुस गई, पांव से खून की धारा बहने लगी, किंतु किसी को कहा नहीं, इसलिये कि रात्रि के समय बहनें दीपक जलाकर अग्निकाय का आरंभ समारंभ करेगी। जावरा में आपने कुछ मुसलमान भाईयों को एक सांप को लाठी से मारते एवं छेड़छाड़ करते देखा, आप के निषेध करने पर उन्होंने शरारत से कहा-'ऐसी दयावती हैं तो ले जाओ इसे।' आपने तुरंत सांप को अपनी झोली में डलवाया और दूर एकांत जंगल में ले जाकर छोड़ दिया। आपकी निर्भीकता एवं जीवदया की भावना देखकर मुसलमान भाई दंग रह गये। इसी प्रकार एकबार रास्ते में एक तेरापंथी भाई को लकड़ी फाड़ते देखा, लकड़ी थोहर की थी और पोली दिखाई दे रही थी, आपने भाई से कहा - 'भाई लकड़ी में जीव जन्तु हो सकते हैं, इसे सावधानी से फाड़ो।' भाई ने सावधानी से लकड़ी फाड़ी तो अंदर से 13 मैंढक फुदकते हुए बाहर निकले, यह देख उस भाई के मन में आपके प्रति अत्यंत श्रद्धा जागृत हुई वह आपका परम भक्त बन गया। आपकी असीम धैर्यता और सहिष्णता का एक प्रसंग है कि एकबार आपके पांव में वाला (नेहरू) हो गया, उसका ऑपरेशन आवश्यक हो गया आपने बिना क्लोरोफोर्म संघे ही होश में पूरा ऑपरेशन करवाया जरा भी हिले नहीं। एक घंटे के इस धैर्य को देखकर डॉ. भी चकित हो गया कि स्त्री होती हुई भी इतनी सहनशीलता एवं मन की दढता आसान बात नहीं है। आपने अपने संप्रदाय में सर्वप्रथम अपनी-अपनी नेश्राय में शिष्य शिष्या, बनाने की परिपाटी को बदल कर एक प्रवर्तिनी की नेश्राय में शिष्या बनाने का विधान बनाया। इस प्रकार आपका संपूर्ण जीवन धर्म, समाज और शासनहितार्थ समर्पित रहा।427 6.6.2.8 श्री सोनांजी (सं. 1957) ___ आप बीकानेर निवासी श्रीमान् सौभागमलजी डागा की धर्मपत्नी थीं, 16वर्ष की उम्र में सं. 1957 म. कृ. 6 के दिन बड़े त्याग-वैराग्य से दीक्षा ग्रहण की। प्रवर्तिनी आनंदकुमारीजी की आप ज्येष्ठ शिष्या थीं। सम्प्रदाय में कोई नया नियम बनते समय आपकी सलाह ली जाती थी, आपकी त्यागवृत्ति भी सराहनीय थी, 'प्रतिदिन पौरूषी करती थीं, एवं यावज्जीवन दूध का त्याग था, बीकानेर में आप स्थिरवासिनी रहीं।428 6.6.2.9 श्री राजकुमारीजी (सं 1960- ) ____ आप रतलाम निवासी श्री केसरीमलजी भंडारी की सुपुत्री थीं। नौ वर्ष की बाल्यवय में सं. 1960 मृ. कृ. 13 को बड़े उच्च भावों से माताजी के साथ दीक्षा अंगीकार की। आपकी दीक्षा को रोकने के लिये आपकी भुआ ने कई षडयंत्र रचे. गप्तरूप से सगाई कर दी. आपको पिंजरे में डाल दिया, वहाँ से छुटी तो अदालत में केस कर दिया, बयान लेने पर हाकिम ने रतलाम की सीमा के बाहर दीक्षा लेने का फैसला दिया, अंततः कालूखेड़ 427. (क) मुनि नेमिचंदजी, धर्ममूर्ति आनन्दकुमारी, वि. सं. 2008 (प्र. सं.) (ख) साधुमार्गी की सरिता, पृ. 330-31 428. धर्ममूर्ति आनन्दकुमारीजी, पृ. 445 677 For Priate & Personal Use Only Page #740 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन श्रमणियों का बृहद इतिहास से कुछ दूर श्री धापूजी आर्या के कर-कमलों द्वारा आप दोनों माता-पुत्री ने दीक्षा अंगीकार की। आपकी प्रवचनशैली प्रभावशाली थी, आप अनुभवी और संयमनिष्ठ साध्वी थी।29 6.6.2.10 आर्या बरजूजी (सं. 1960 के लगभग) आप लोहावट की रहने वाली थी। माता-पिता ने करीब नौ साल की उम्र में आपकी शादी कर दी थी। दैवयोग से पति का अल्पसमय में देहावसान हो गया। आपने ससुरालवालों से कठिनता पूर्वक आज्ञा प्राप्त की और साध्वीश्री मेहताबकुमारीजी के चरणों में दीक्षा ग्रहणकी। दीक्षा लेने के बाद आपने बड़ी-बड़ी तपस्याएँ की। संवत् 1960 में आपका चातुर्मास जावरा शहर में था, तब 62 दिन की तपस्या की। आप तपस्या में शारीरिक व दैनिक सभी संयम कार्य अपने हाथों से ही करती थीं। पारणे के दिन आप स्वयं भिक्षाचर्या हेतु जातीं और प्रत्येक घर से थोड़ा-थोड़ा आहार लेकर सबको संतुष्ट करती। पारणा करते समय सभी चीजों को एक ही पात्र में मिश्रित कर अग्लान भाव से भोजन करती थीं। एकबार बीकानेर में आपने 82 उपवास किये। उस समय 82 दिन के लिए दिन व रात्रि में शयन नहीं करना, शरीर नहीं खुजलाना, थूकना नहीं, आदि भीष्म प्रतिज्ञा ग्रहण की। इस दीर्घ तपस्या और कठोर अभिग्रह के दौरान ही अनशन में आप समाधिमरण को प्राप्त हुईं।430 6.6.2.11 प्रवर्तनी सुगनकंवरजी (सं. 1960-2007) आपका जन्म मारवाड़ देशनोक निवासी रावतमलजी ओसवाल की धर्मपत्नी मगनीबाई की कुक्षि से हुआ। सं. 1960 के लगभग आपने संयम धारण किया। आप अपने समय की महान विदुषी साध्वी थीं। प्रवर्तिनी राजकंवरजी के पश्चात् श्री खेतांजी की संप्रदाय की सतियों का नेतृत्व आप ही करती थीं। आप हर क्रिया का बड़ी सजगता से पालन करती थीं। वृद्धावस्था में महासती श्री चम्पाजी को प्रवर्तनी पद देकर आप सं. 2007 में स्वर्ग सिधारी।। 6.6.2.12 प्रवर्तनी श्री मोताजी (20वीं सदी का उत्तरार्द्ध) आप मालव प्रान्त में रतलाम निवासी थीं, पूज्य श्रीलालजी महाराज के वैराग्य रस से ओतप्रोत उपदेशों को श्रवण कर आपकी सखी उमाजी एवं उनकी पुत्री तीनों ने दीक्षा ली। कुछ ही समय में आपके शिष्या परिवार की की वृद्धि हुई। जिनमें कुल 53 साध्वियों का नामोल्लेख है। यह सती मंडल श्री मोताजी की संप्रदाय के रूप में प्रसिद्ध हुआ, श्री मोताजी 20वीं सदी के उत्तरार्ध काल की साध्वी थीं।12 6.6.2.13 श्री सौभाग्यकुमारीजी (सं. 1964) आप बड़ी सादड़ी मेवाड़ की निवासिनी थीं, सं. 1964 पौष कृ. 4 को दीक्षा अंगीकार की, आप अल्पभाषिणी तथा ज्ञानध्यान में तल्लीन रहने वाली शांत प्रकृति की साध्वी थीं।433 429. वही. पृ. 445 430. मुनि नेमिचंद्र, धर्ममूर्ति आनन्दकुमारी, पृ. 454 431. साधुमार्गी का पावन सरिता, पृ. 337 432. वही, पृ. 338 433. धर्ममूर्ति आनन्दकुमारी, पृ. 446 Page #741 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्थानकवासी परम्परा की श्रमणियाँ 6.6.2.14 श्री रत्नकुमारीजी (सं. 1965) आप बीकानेर निवासी दानवीर सेठ भैंरोदानजी सेठिया के लघुभ्राता श्री हजारीलालजी सेठिया की धर्मपत्नी थीं, आपने साधन संपन्न एवं भरे-पूरे परिवार का त्याग कर संवत् 1965 में अत्यंत वैराग्य पूर्वक दीक्षा ग्रहण की। आप प्रकृति से शांत एवं अल्पभाषिणी साध्वी थीं।434 6.6.2.15 श्री सोभागजी (सं. 1965) आप भद्देसर (मेवाड़) की थीं, संवत् 1965 मार्गशीर्ष कृष्णा 10 को आपने दीक्षा अंगीकार की। आप बड़ी साहसी सेवाभाविनी और उत्साही साध्वी थीं। पुराने विचार वालों को अनुकूल बनाने में सिद्धहस्त थीं, साध्वियों में आप 'भद्देसर भैरूँ' के नाम से प्रसिद्ध थीं।435 6.6.2.16 श्री हगामजी (सं. 1966) आप जावद निवासी श्री मच्छारामजी बंबोरिया की धर्मपत्नी थीं आपने संवत् 1966 ज्ये. कृ. 1 को दीक्षा ग्रहण की, आप प्रवचनदक्ष, संयमनिष्ठ, क्रियापात्री साध्वी थीं, पुराने भजन स्तवनों द्वारा शासन की बहुत प्रभावना की।436 6.6.2.17 श्री वक्तावरजी (सं. 1966) आप जावद निवासिनी थीं, संवत् 1966 ज्ये. शु. 5 को संयम अंगीकार किया। आप क्षमाशीला संतोषी प्रकृति की साध्वी थीं, स्तोक ज्ञान अच्छा होने से आपने कइयों को तत्त्वरसिक बनाया।437 6.6.2.18 श्री चम्पाकुमारीजी (सं. 1968) ___ आप रतलाम निवासिनी थीं, सं. 1968 के मृगशिर मास में संयम अंगीकार किया। आप प्रकृति की भद्र एवं सरलात्मा थीं।438 6.6.2.19 श्री सूरज कंवरजी (सं. 1968) आप रामपुरा निवासिनी थीं, मृगसिर मास में साध्वी दीक्षा अंगीकार की। आप कठोर तपस्विनी साध्वी थीं, कितने ही उपवास बेले तेले आदि छोटी-छोटी तपस्याओं के साथ अक्सर मासखमण, अर्द्धमास आदि तपस्याएँ करती रहती थीं, आप समताभावी समाधिभाव में रमण करने वाली साध्वी थीं।439 6.6.2.20 श्री केशरकंवरजी (सं. 1970) आप सोजत के सुप्रसिद्ध शास्त्रज्ञ श्रावक श्री इन्द्रचंदजी के भतीजे श्री कनकमलजी की धर्मपत्नी थीं, सं. 1970 चैत्र कृ. 10 के दिन दीक्षा ग्रहण की। आप बड़ी सेवाभाविनी साध्वी थीं, स्वयं का कार्य अस्वस्थता में भी स्वयं करने का प्रयत्न करती थीं।440 434-438. वही, पृ. 447 439. वही, पृ. 448 440. वही, पृ. 456-57 679 Page #742 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 6.6.2.21 श्री मेहताबकंवरजी (सं. 1971 ) आप पीपाड़ निवासी श्री जबरचंदजी मेहता की धर्मपत्नी थीं सं. 1971 फाल्गुन कृ. 7 को दीक्षा ग्रहण की आप गुरूणी की कृपापात्र साध्वी रहीं, किसी भी साम्प्रदायिक समस्या का समाधान करना हो तो आपसे सलाह ली जाती थी, आपने एक मास तक की तपस्याएँ की । 441 6.6.2.22 श्री राजकुमारीजी (सं. 1971-72 के मध्य ) आप जामुन्या निवासिनी थीं, आपने शास्त्रों का अच्छा अभ्यास किया, आप स्वाध्याय-प्रेमी साध्वी थीं। 442 6.6.2.23 श्री धापूजी (सं. 1972 ) आप आमेट निवासी श्री सरदारमलजी की सहधर्मिणी थीं, आप दोनों ने सजोड़े ब्यावर में दीक्षा ग्रहण की, आपका पीहर तेरापंथी मान्यता का । आप थोकड़ों की जानकार थी, एवं गायन कला उत्कृष्ट थी । 43 जैन श्रमणियों का बृहद इतिहास 6.6.2.24 श्री चत्तरजी (सं. 1973 ) आप मंदसौर निवासी श्री सूरजमलजी की सहधर्मिणी थीं, पति से आज्ञा लेकर सं. 1973 मृगशिर कृष्णा 12 को संयम अंगीकार किया बाद में सूरजमलजी भी पूज्य श्री लालजी महाराज के पास दीक्षित हुए। आपने अपनी दादीगुरूणी श्री रत्नकुमारीजी की उन्मत्त अवस्था में जो सेवा की वह एक आदर्श थी, आप विनम्र एवं शांत स्वभावी थीं। 444 6.6.2.25 श्री चुन्नाजी (सं. 1973 ) आप बोहरा कुल में उत्पन्न हुईं, ब्यावर में ससुराल था, सं. 1973 चैत्र शु. 8 को वैराग्य की पवित्र पगडंडी पकड़कर सेवा में लीन रहीं 1 445 6.6.2.26 श्री छोटांजी (सं. 1973 ) आपका ससुराल बीकानेर में पारख परिवार में था, सं. 1973 कार्तिक शु. 13 को संयम की राह पकड़ी आपने भीनासर में स्थिरवासिनी श्री कालीजी आर्या की अंतिम समय तक वात्सल्य पूर्वक सेवा की। 446 6.6.2.27 श्री सुगनकुमारीजी (सं. 1976 ) आप ब्यावर निवासी श्री गुलाबचंदजी मकाणा की सुपुत्री थीं 15 वर्ष की अविवाहित वय में जब आप दीक्षा के लिये तत्पर हुई तो आपके काकाजी ने अजमेर-मेरवाड़ा राज्य सरकार में दीक्षा विरोधी रिपोर्ट की, आपने न्यायालय में उपस्थित होकर जिस साहस एवं निर्भीकता का परिचय दिया, उससे प्रसन्न होकर श्री चांदमलजी 441. वही, पृ. 456-57 442. वही, पृ. 448 443-449. वही, पृ. 449-50 680 Page #743 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्थानकवासी परम्परा की श्रमणियाँ ढड्ढा ने अपनी ओर से अजमेर से दीक्षा महोत्सव पर बैंड-बाजे भेजकर दीक्षा करायी, सं. 1976 भाद्रपद कृ. 5 के दिन धूमधाम से आपकी दीक्षा हुई। दीक्षा के पश्चात् आपने 8 शास्त्र, कई थोकड़े कंठस्थ किये, संस्कृत, प्राकृत एवं सभी आगमों का अध्ययन किया। आप शांत सौम्य प्रकृति की सेवाभाविनी साध्वी थीं, आपका प्रवचन भी बड़ा प्रभावक होता था। 447 6.6.2.28 श्री वरजूजी (सं. 1978 ) आप बीकानेर की थीं, ज्येष्ठ शु. 7 को जैनेन्द्री दीक्षा ग्रहण कर ज्ञान-ध्यान स्वाध्याय में लीन रहीं, और संघस्थ साध्वियों की सेवा-शुश्रूषा में तत्पर रहीं। 448 6.6.2.29 श्री जड़ावांजी (सं. 1978 ) आप बीकानेर निवासी श्री हस्तीमलजी कोचर की धर्मपत्नी थीं, सं. 1978 में प्रव्रजित हुईं। आप उद्यमशील साध्वी थीं 1449 6.6.2.30 श्री दाखांजी (सं. 1979 ) आप सोजत निवासी श्री किशनलालजी मांडोत की धर्मपत्नी थीं अति संघर्ष के पश्चात् पति से दीक्षा की आज्ञा प्राप्त कर मृगशिर कृ. 7 को वैराग्यभाव से दीक्षा अंगीकार की। आप आगमज्ञा एवं शासन प्रभाविका साध्वी थीं, आपनी वाणी में द्राक्ष सी मीठास थी, एवं सेवा कार्य में सदा तत्पर रहती थीं। 450 6.6.2.31 श्री नगीनांजी (सं. 1981 ) आप छोटी सादड़ी निवासी श्रीमान् झमकमलजी कटारिया की धर्मपत्नी थीं, आषाढ़ शु. 2 को मंदसौर में दीक्षा ग्रहण की, आप एक विदुषी साध्वी थीं, स्वर की मधुरता से आप सभी के मन को मोह लेती थीं। आपका आगम ज्ञान एवं हिंदी-संस्कृत भाषाओं पर भी आधिपत्य अच्छा था, व्याख्यान शैली बड़ी रोचक और प्रभावोत्पादक थी, मेवाड़ मालवा आदि क्षेत्रों में आपने धर्म की खूब प्रभावना की कई संघों में चले आ रहे आपसी वैमनस्य और फूट को दूर करने में आपकी महत्त्वपूर्ण भूमिका रही । 451 6.6.2.32 श्री मैनाकुमारीजी (सं. 1981 ) आप थांदला निवासी श्री चुन्नीलालजी बाफणा की धर्मपत्नी थीं। सं. 1981 चैत्र शु. 9 को भागवती दीक्षा स्वीकार की। आप सेवाभाविनी तथा अत्यल्प निद्रा लेती थीं, रात्रि की परिचर्या आप बखूबी करती थीं। ज्ञानाभ्यास सेवा आदि के साथ आपने दीर्घ तपस्याएँ भी की थीं 1452 6.6.2.33 श्री गट्टूजी (सं. 1982 ) आप निम्बाहेड़ा निवासी श्री किरतमलजी सिंघी की धर्मपत्नी थीं, आपने अपने पुत्र समीरमलजी को दीक्षा देकर सं. 1982 माघ शु. 5 को स्वयं भी दीक्षा अंगीकार करली, आप मधुर स्वभावी सेवाभाविनी साध्वी थीं। 453 443-449. वही, पृ. 449-50 450-451. वही, पृ. 457 452-454 वही प1. 451 681 Page #744 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन श्रमणियों का बृहद इतिहास 6.6.2.34 श्री सरदारांजी (सं. 1982) आप उदयपुर निवासिनी थीं, आपने संवत् 1982 ज्ये. शु. 13 को की दीक्षा ली। आप सेवा भाविनी थीं।54 6.6.2.35 श्री सोभागजी (सं. 1984) आप कानोड़ निवासिनी थीं, सं. 1984 ज्ये. शु. 5 को दीक्षा अंगीकार की, आप वैयावृत्य परायणा थीं।55 6.6.2.36 श्री सूरजजी (सं. 1982) आप हम्मीरगढ़ की थीं, संवत् 1982 में संयम ग्रहण किया, आप वैयावृत्य परायणा थीं।56 6.6.2.37 श्री जीवनाजी (सं. 1984) आप बीकानेर के बोथरा परिवार की वधू थीं, सं. 1984 वैशाख शु. 6 के दिन दीक्षा ग्रहण की। आप स्वाध्याय प्रेमी साध्वीजी थीं।457 6.6.2.38 श्री श्रेयाकुमारीजी (सं. 1984) आप सोजत के श्री गुलाबचंदजी टाटिया की धर्मपत्नी थीं। सं. 1984 वै. शु. 5 को दीक्षा ग्रहण कर आप संयम और तप के मार्ग पर अग्रसर हुईं। आप नन्दीसूत्र का स्वाध्याय जब करती थीं तो श्रोता मुग्धमन से श्रवण करते थे। आप उपयोग में लाये गये वस्त्र ही ग्रहण करती थीं, नवीन वस्त्र नहीं लेती थीं।158 6.6.2.39 श्री छोटांजी (सं. 1984) आप अजमेर के श्री मिश्रीमलजी लोढा की भतीजी और श्री रसालकंवरजी की लघु भगिनी थीं, जेठाणे ग्राम की वधु थीं। सं. 1984 मार्गशीर्ष शु. 3 को आपने संयम अंगीकार किया। आप तन तोड़कर सेवा करने वाली महासाध्वी थीं, आपकी आवाज भी मधुर थीं।459 6.6.2.40 श्री सुगन कुमारीजी (सं. 1984) आप बीकानेर निवासी बींजराजजी सेठिया की धर्मपत्नी थीं आपने उच्च परिणामों से चारित्र अंगीकार किया। आप शास्त्रज्ञा एवं प्रभावशाली प्रवचनकर्ती साध्वी थीं। आपने मेवाड़, मालवा मारवाड़ में महती धर्म प्रभावना की। आप प्रकृति से विनयशील, क्षमाधारिणी एवं शान्तस्वभावी महासाध्वीजी थीं।460 6.6.2.41 श्री भूरांजी (सं. 1985) आप उदयपुर निवासिनी थीं, आपके सुपुत्र का नाम श्री ख्यालीलालजी था, सं. 1985 में आपने दीक्षा ग्रहण की। आप भद्र प्रकृति की साध्वी थीं।1 452-454 वही, प1. 451 455-463. वही, पृ. 452 682 Page #745 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्थानकवासी परम्परा की श्रमणियाँ 6.6.2.42 श्री छगनांजी (सं. 1986-87) ___आप बड़कच्यास के निवासी श्री तेजमलजी कोठारी की धर्मपत्नी थीं, आप स्वाध्याय-परायणा तथा स्तोक की ज्ञाता थीं।462 6.6.2.43 श्री टीपूजी (सं. 1986-87) आप डूंगला निवासिनी थीं, मेवाड़ के देहातों में आपका अच्छा प्रभाव पड़ा, आप स्वाध्याय प्रेमी थीं।463 6.6.2.44 श्री रसालांजी (सं. 1990) आप किशनगढ़ निवासिनी थी, अजमेर के मिश्रीलालजी लोढ़ा की भतीजी एवं साध्वी छोटांजी की भगिनी थीं। सं. 1990- कृ. 3 को आपने दीक्षा अंगीकार की। आप ज्ञान ध्यान स्वाध्याय में रूचि वाली तथा प्रवचन क संगीतकला में प्रवीण थीं।464 6.6.2.45 श्री पानकंवरजी (सं. 1991) उदयपुर में पिता श्री गंगराजजी हींगड के यहाँ माता श्रीमती सलेकंवरजी की कुक्षि से सं. 1980 में आप जन्म ग्रहण किया। छोटी उम्र में ही सं. 1991 महावीर जयंति के शुभ दिन, माताजी व छोटी बहन मनोहरकंव के साथ भीण्डर में आपकी दीक्षा हुई। आप विदुषी शासन प्रभाविका साध्वी हैं। आपकी लघु भगिनी साध्वी श्रं मनोहरकवरजी भी अत्यंत विदुषी, आशुकवयित्री प्रज्ञासंपन्न एवं प्रभावशाली व्यक्तित्व की धनी साध्वीजी हैं। 6.6.2.46 श्री केशरकंवरजी (सं. 1995-2060) स्थविरा श्री केशरकंवरजी ने मरूधरा बीकानेर जिले के सुरपुरा ग्राम में श्री शिवदासजी डागा के घर जन ग्रहण किया, बीकानेर के श्री पानमलजी गोलछा के साथ आपका पाणिग्रहण हुआ, पतिवियोग के पश्चात् आप ज्येष्ठ शु. 14 सं. 1995 को आचार्य जवाहरलालजी महाराज के श्री मुख से बीकानेर में दीक्षा ग्रहण की। उत्कृष् भावों से चारित्र पालन, गुरू आज्ञा का सर्वतोभावेन पालन एवं अनुशासितजीवन के कारण साधुमार्गी संघ में आ का प्रमुख स्थान रहा। अंत समय में 31 दिन का तिविहारी तथा 64 घंटे के चौविहारी संथारे के साथ नोखामंड में समाधिमरण को प्राप्त हुईं। 93 वर्ष की उम्र में भी निर्लिप्त भावना, संयम गुणों की साधना, निर्भय मृत्युञ्जय आराधना द्वारा सदा सदा के लिये आप मुमुक्षु साधकों के लिये प्रेरणादात्री बन गईं।466 6.6.2.47 श्री नानूकंवरजी (सं. 1999-2055) आप भी साध्वी वृंद की अग्रणी साध्वी थीं। आपका जन्म सं. 1984 देशनोक (राज.) में पार्वतीबाई व कुक्षि से श्री किशनलालजी बोथरा के यहाँ हुआ। विवाह के पश्चात् वैधव्य के योग ने आपको भोग से उपर 455-463. वही, पृ. 452 464. वही, पृ. 458 465. श्री केसरदेवी गौरव ग्रंथ, खंड 3, पृ. 358 466. श्रमणोपासक, वर्ष 41, अंक 10, नवम्बर 2003, पृ. 139 683 Page #746 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन श्रमणियों का बृहद इतिहास कर दिया। फलतः 1999 आसाढ़ शु. 3 के दिन देशनोक में आचार्य श्री जवाहरलालजी महाराज के श्रीमुख से दीक्षा अंगीकार की। आपने शास्त्रों की कुंजी रूप 200 स्तोक एवं कई चरित्र कंठस्थ किये। संस्कृत, प्राकृत, न्याय, व्याकरण आदि की आप गहन अध्येत्री तथा साधुमार्गी संघ की एक दिव्यमान, परमविदुषी एवं ओजस्वी व्याख्यात्री साथ ही प्रमुख सलाहकार भी थीं। आपने सुदूर उड़ीसा, छत्तीसगढ़, महाराष्ट्र, तमिलनाडू, कर्नाटक, आंध्रप्रदेश में विचरण कर शासन की महान प्रभावना की है। दक्षिण भारत के मद्रास एवं बैंगलोर प्रवास में आपने कई मुमुक्षु आत्माओं को दीक्षा प्रदान की। 72 वर्ष की उम्र में 25 जुलाई 1998 को चितोड़गढ़ में संलेखना सहित आपका महाप्रयाण हो गया। आपकी पावन-स्मृति में “श्री नानू स्वधर्मी सेवा कोष" की स्थापना की गई है। साधुमार्गी संघ का विभाजन होने के पश्चात् आप 'शांति क्रांति संघ' में सम्मिलित हो गईं थीं, आपकी शिष्याएँ वर्तमान में इसी संघ के प्रति आस्थाशील हैं। 67 6.6.2.48 श्री रत्नकुमारीजी (सं. 2006) ___आप उदयपुर निवासी श्रीयुत् फूलचन्दजी की सुपुत्री तथा श्रीमान् तेजसिंहजी रांका की धर्मपत्नी थीं। सं. 2006 चैत्र मास में बड़े संघर्षों का सामना करने के पश्चात् आप संयम पथ पर आरूढ़ हुईं, दीक्षा के समय अपनी ओर से पौषधशाला में 1001 रू. का दान भी दिया था आप त्यागी संयमी एवं विदुषी साध्वी थीं।468 6.6.3 आचार्य हुकमीचंदजी महाराज की दिवाकर संप्रदाय की श्रमणियाँ : 6.6.3.1 श्री मानकंवरजी (सं. 1967-73) आप प्रतापगढ़ (राज.) की कन्या थी, आपका विवाह नीमच में श्री चौथमलजी के साथ हुआ। विवाह के तुरंत पश्चात् श्री चौथमलजी ने दीक्षा अंगीकार करली। उन्हें साधुवेष में देखकर मानकंवर अत्यंत व्यथित हुई कहने लगी- 'आपने तो मुझे छोड़कर वैराग्य ले लिया, अब मैं किसके भरोसे रहूं और क्या करूं?' मुनि श्री ने उसे समझाते हुए कहा- "तुम्हारे हमारे सांसारिक नाते तो जन्म-जन्मांतर में बहुत हो चुके, पर धार्मिक नाता नहीं हुआ. ... तुम भी साध्वी बन जाओ। संसार असार हैं इसमें न कोई किसी का साथी है न इसमें आत्मकल्याण हो सकता है।" मुनिश्री की वाणी का प्रभाव मानकंवर पर पड़ा वह भी साध्वी बन गई। विजयादशमी सं. 1967 को जावरा में इनकी दीक्षा के साथ 48 दीक्षाएं और भी हुई। साध्वी मानकंवरजी जैन सिद्धान्तों की मर्मज्ञा, तप-त्याग की प्रतिमा थी। सं. 1973 में इनका स्वर्गवास हुआ।469 6.6.3.2 श्री साकरकुंवरजी ( - 2001) __ आपका विवाह निम्बाहेड़ा (राज.) में श्री खूबचंदजी के साथ हुआ। मिलन की प्रथम घड़ी में ही श्री खूबचंदजी ने अपनी दीक्षा की भावना प्रगट की, तो आप उनके पथ में विघ्न न बनकर स्वयं भी दीक्षा के लिये तैयार हो गईं। श्री खूबचंदजी ने गुरू नन्दलालजी के पास दीक्षा ग्रहण कर ली, उनकी दीक्षा के पश्चात् भी 8 वर्ष 467. (क) श्री केसरदेवी गौरव ग्रंथ, खंड 3, पृ. 358; (ख) समग्र जैन चातुर्मास सूची, सन् 1998 468. धर्ममूर्ति आनन्दकुमारी, पृ. 458 469. जैन प्रकाश पत्रिका, अप्रेल 1995, पृ. 17 684 Page #747 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्थानकवासी परम्परा की श्रमणियाँ तक आपको घरवालों ने आज्ञा नहीं दी, अंततः पूज्य आचार्य खूबचन्दजी म. सा. के चरणों में दीक्षा अंगीकार की। आप सदा स्वाध्याय व ध्यान में लीन रहती थीं, मृदुता, सहजता, सरलता, विनय व समर्पण आपके संयमी जीवन का आदर्श था। सं. 2001 ब्यावर में नौ दिन के संथारे के साथ स्वर्गवासिनी हुईं। 470 6.6.3.3 श्री बालकुंवरजी (सं. 1974-2024 ) आप सिंगोली के श्री रंगलालजी व माता जड़ावबाई नागोरी की कन्या थीं। श्री भंवरलालजी लसोड़ के साथ विवाह हुआ। पति के स्वर्गवास के पश्चात् संवत् 1974 में मालवसिंहनी श्री हगामकुंवरजी के पास दीक्षा अंगीकार की। ये श्री प्याराजी की परंपरा की साध्वी थीं। इनकी श्री गुलाबकुंवरजी श्री मानकुंवरजी, श्री पानकुंवरजी आदि शिष्याएँ हुई। अजमेर सम्मेलन में इन्हें चन्दनबाला श्रमणी संघ का उपाध्याय पद दिया था। कई चौपाई व रास भी इनके द्वारा रचित उपलब्ध होते हैं। 471 6.6.3.4 श्री कमलावतीजी (सं. 1992-2043 ) आप रतलाम (म.प्र.) के श्रेष्ठी श्री निहालचंदजी बोहरा एवं श्रीमती हगामबाई की सुपुत्री थीं। आपका जन्म आश्विन शुक्ला नवमी सं. 1983 में हुआ। पिता श्री ने आप का मुखमण्डल भी नहीं देखा कि स्वर्गवासी हो गये । आपकी मातेश्वरी हगामबाई के साथ आप (9 वर्ष की उम्र में) जैन दिवाकर चौथमलजी महाराज से रामपुरा में दीक्षा अंगीकार कर श्री साकरकुंवरजी की शिष्या बनीं। आप अत्यंत विदुषी, शास्त्र -मर्मज्ञा, साहित्यकर्त्री एवं मंत्रवेत्ता तथा ओजस्वी वक्ता थीं। आपको गुरू कृपा से 'पार्श्वनाथ भगवान का रक्षा कवच' प्राप्त हुआ, बड़े -2 संकटों में आपकी इस कवच स्तोत्र द्वारा रक्षा हुई। आप अत्यन्त निर्भीक एवं न्याय-नीति की वार्ता में सिंह सी गर्जना करने वाली संकल्प प्राणा साध्वी थीं। 16 नवम्बर सन् 1986 को 61 वर्ष की उम्र में आपका स्वर्गवास हुआ। आप 'मालवसिंहनी' के नाम से प्रख्यात थीं। 172 आपके श्रमणी - समुदाय का परिचय तालिका में दिया गया है। 6.6.3.5 श्री मदनकुंवरजी (सं. 1999 ) आप ‘बिल्लोद' ग्राम के नलवाया वंश में समुत्पन्न हुईं। मातुश्री छोगाजी के साथ सं. 1999 मृगशिर शु. 7 को मल्हारगढ़ में दीक्षा अंगीकार की। आप श्री रंगूजी की परम्परा के श्री सुन्दरकुंवरजी श्री प्याराजी की शिष्या श्री हगामकुंवरजी (लाट सा.) की शिष्या हैं। आप इलाहबाद से मध्यमा, पाथर्डी से विशारद की परीक्षा के साथ बत्तीस जैनागम, तर्क व्याकरण आदि की गहन अध्येता हैं, आपकी संप्रेरणा से अनेक स्थानों पर महिलामंडल, बहुमंडल बालिकामंडल की स्थापना हुई। आपकी दो शिष्याएँ हैं- श्री विजयश्री, श्री ज्ञानवतीजी । 473 6.6.3.6 श्री पानकंवरजी (सं. 2007-60 ) आपका जन्म झालरापाटन (राज.) में सौ. मैनाबाई भेरूलालजी गांधी के कुल में हुआ। श्री जीतमलजी बोरा 470. हमें तुम पर नाज़ है, पृ. 73 पर डॉ. साध्वी चन्दनाजी का लेख 471. पत्राचार द्वारा 472. हमें तुम पर नाज़ है, में डॉ. साध्वी चंदनाजी का आलेख 'एक दिव्य आत्मा' 473. पत्राचार के आधार पर 685 पृ. 76-80 Page #748 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन श्रमणियों का बृहद इतिहास के साथ आपका विवाह हुआ, किंतु दो वर्ष में ही विधवा हो जाने पर कार्तिक शु. 13 सं. 2007 में आपने जैन दिवाकर श्री चौथमलजी म. सा. से दीक्षा लेकर श्री बालकंवरजी का शिष्यत्व ग्रहण किया। आप मधुर व्याख्यानी, संयमी एवं आगमज्ञा थीं। 10 वर्षों से धुलिया में स्थिरवासिनी थीं, कृशकाया में भी आपका आत्मबल अपूर्व था, अंत समय में आपने जिस प्रकार देहाध्यास छोड़ा वह एक आदर्श है, 49 दिन तक आपका संथारा चला। इतनी सुदीर्घ अवधि में एक पाटे पर एक ही करवट सोये रहना, 5 इन्द्रिय के विषयों से सर्वथा उपरत हो जाना आपकी देह के प्रति निर्ममत्व भाव का सूचक है। 11 फरवरी 2004 को आप धूलिया में स्वर्गवासिनी हुई। आपकी स्मृति 'पान रमणिक शिक्षण फंड' की स्थापना हुई है। 474 6.6.3.7 श्री शांताकुमारीजी (सं. 2014 ) आप तातेड़ परिवार से बोरगांव (महा.) में श्री प्रतापमलजी म. सा. से दीक्षा अंगीकार कर मालवसिंहनी श्री कमलावतीजी की शिष्या बनीं। आप सिद्धान्तशास्त्री, आगम व स्तोक की ज्ञाता, प्रवचनकर्त्री, मृदुल स्वभावी, मिलनसार, सौम्य व शांत प्रकृति की हैं। 475 6.6.3.8 श्री सुशीलाकंवरजी (सं. 2016-22 ) आप तोंडापुर के श्री गुलाबचंदजी छाजेड़ की कन्या एवं जसराजजी बोहरा औरंगाबाद की धर्मपत्नी थी, उनके स्वर्गवास के पश्चात् 32 वर्ष की उम्र में पू. प्रतापमलजी म. से 'घोटी' में दीक्षा लेकर कमलावतीजी की शिष्या बनीं। आप घोर तपस्वी थीं, मासखमण से लेकर 56 दिन की उत्कृष्ट तपस्या की, संगीत के प्रति विशेष रूचि थी, सेवा में अग्रणी साध्वी थीं, संवत् 2022 जोधपुर में आपका स्वर्गवास हुआ, आपका जीवन परिचय 'ज्योति और ज्वाला' पुस्तक में प्रकाशित है 1476 6.6.3.9 श्री पुष्पावतीजी (सं. 2018 - स्वर्गवास ) आप पूना के श्रीमान् दीपचंदजी मरलेचा की सुपुत्री थीं, 16 वर्ष की उम्र में जावरा में पू. प्रतापमल जी महाराज से दीक्षा पाठ पढ़कर श्री कमलावतीजी की शिष्या बनीं। आप सिद्धान्त प्रभावक एवं आगमज्ञाता थी, साथ ही व्याख्यानी एवं स्पष्टवादी थीं। साध्वियों की सातापूर्वक लोच आदि करने में सिद्धहस्त थीं, आपकी दो बहनें -दिव्यसाधनाजी एवं अन्तरसाधनाजी आपके पास ही दीक्षित हैं। 477 6.6.3.10 श्री विजयश्रीजी (सं. 2020 ) आपका जन्म 'भुरट' परिवार तथा ससुराल कोठारी' परिवार में था, सं. 2020 अक्षय तृतीया के शुभ दिन रतलाम में दीक्षा हुई। आप श्री मदनकुंवरजी की शिष्या हैं। आपने वर्धा से कोविद एवं पाथर्डी से विशारद की 474. पत्राचार से प्राप्त 475. हमें तुम पर नाज है, पृ. 81 476. वही, पृ. 83 477. वही, पृ. 84 686 Page #749 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्थानकवासी परम्परा की श्रमणियाँ शिक्षा प्राप्त की। आपकी प्रेरणा से कई स्थानों पर महिला मंडल, बहू मंडल, बालिकामंडल की स्थापना हुई है। आपने 21 उपवास, कई बेले तेले चोले, वर्षीतप आदि तप भी किया है। आपकी एक शिष्या है - साध्वी डॉ. मधुबालाजी 1478 6.6.311 श्री ज्ञानवतीजी (सं. 2020 ) आप 'बरजाल' (राज.) के भंडारी परिवार से संबंधित हैं। माघ शुक्ला 2 सं. 2020 को मल्हारगढ़ (म.पं.) में दिवाकर संप्रदाय के श्री मदनकुंवरजी के पास आपने प्रव्रज्या अंगीकार की उस समय आपकी सन्तान मात्र चार वर्ष की थी। आप शांत, दान्त व सरल स्वभावी हैं, व्यसन मुक्ति एवं अन्ध-परम्पराओं का उन्मूलन करने में आप सदा अग्रणी रही हैं, अनेकों लोगों ने आपके उपदेशों से सात्विक जीवन जीने का संकल्प लिया है। आगम की गहन अध्येता होने के साथ आप तपस्विनी भी हैं। वर्षीतप, तीन अठाई, मौन व्रत से रानियों का तप, चन्द्रकला तप, षट्स तप, दस प्रत्याख्यान आदि विविध तपस्याएँ की है। 'ज्ञानालोक' ग्रंथ में आपके विचार संग्रहित हैं। आपकी चार शिष्याएँ हैं - डॉ. श्री सुशीलजी 'शशि', डॉ. श्री मधुजी, श्री कमलेशजी, छोटे विजयश्रीजी 1479 6.6.3.12 डॉ. श्री सुशीलजी 'शशि' (सं. 2023 ) आपका जन्म देवगढ़ (राज.) के भंडारी परिवार में हुआ। 26 जनवरी 1967 को कलोलिया (म. प्र. ) ग्राम में श्री ज्ञानवतीजी की शिष्या के रूप में आप दीक्षित हुईं। उस समय आपकी उम्र मात्र 7 वर्ष की थी। आपने 'जैन दिवाकर श्री चौथमलजी महाराज और उनका हिन्दी साहित्य' विषय पर सन् 1987 में एस. एन.डी. टी. युनिवर्सिटी मुंबई से पी. एच. डी. की उपाधि प्राप्त की। आपकी मौलिक पुस्तकें - तीसरा नैत्र, चिंतन के आलोक में, अतीत का दिव्य स्नान, सुशील संदेश प्रकाशित हैं। इतिहास में आपकी गहरी रूचि है। श्री जैन दिवाकर ज्ञान साधना ट्रस्ट ब्यावर, जैन दिवाकर ज्ञान प्रकाशन चित्तौड़गढ, श्री सुशील जैन दिवाकर ज्ञान प्रकाशन समिति ब्यावर आदि संस्थाएँ जहां आपके साहित्य - प्रेम को प्रदर्शित करती हैं वहीं संगठन के क्षेत्र में दिवाकर महिला मंडल, नवयुवक मंडल, बालिका मंडल, गौतम बाल मंडल, चंदनबाला बालिका मंडल, जैन दिवाकर सुशील नवयुवक मंडल आदि की स्थापना भी की है। तप के क्षेत्र में पंचकल्याणक तप, शांतिनाथ तप, चन्द्रकला तप, पुष्यनक्षत्र तप आदि विविध तपोनुष्ठान किये हैं। आपकी एक शिष्या श्री श्रद्धाजी हैं। 480 6.6.3.13 डॉ. साध्वी चंदनाजी (सं. 2023 ) उदयपुर के बाबेल परिवार की आप सुसंस्कारित कन्या रत्न हैं। पंडित हीरालालजी महाराज से जावरा में दीक्षा अंगीकार कर आप मालव सिंहनी श्री कमलावतीजी की शिष्या बनीं। ज्ञान की अदम्य लालसा लेकर आपने जैनधर्म और दर्शन का उच्चकोटि का ज्ञान प्राप्त किया। आप द्वारा शिक्षण शिविर, महिला सम्मेलन युवक-सम्मेलन, तप, जप, स्पर्धा, आनन्द संस्कार केन्द्र', 'जैन साध्वी कमला शोध संस्थान' आदि अनेक सामाजिक, धार्मिक एवं निर्माणात्मक कार्य हुए हैं। 'मातुश्री वृद्धाश्रम नासिक रोड' की भी आप प्रेरिका रही हैं। स्थानकवासी समाज में 'आनन्द पद-यात्रा' का नया क्रान्तिकारी कदम उठाने वाली आप एकमात्र साध्वी हैं। यह यात्रा 180 कि. मी. की सिन्नर से अहमदनगर तक की हुई, इसमें 400 पद यात्री जैनधर्म के संपूर्ण नियमों का पालन करते हुए आपके 478-480. पत्राचार से प्राप्त 687 Page #750 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन श्रमणियों का बृहद इतिहास साथ चले। आपका साहित्य 'जैन बाल प्रबोध' भाग 2 एवं 'सिद्धे सरणं पवज्जामि' है। साध्वी डॉ. अक्षय ज्योति द्वारा संपादित पुस्तक 'हमें तुम पर नाज है', में श्री चंदनाजी के व्यक्तित्व एवं कृतित्व का मूल्यांकन किया गया है। 6.6.3.14 साध्वी डॉ. अक्षयज्योतिजी (सं. 2028 ) आप उदयपुर के डॉ. हरीसिंहजी कंठालिया की सुपुत्री हैं। नौ वर्ष की उम्र में अपनी मातेश्वरी साध्वी कलावतीजी के पास संवत् 2028 भोपाल में दीक्षा अंगीकार की, प्रवर्तक हीरालालजी म. सा. आपके दीक्षा गुरू थे। आप अत्यंत होनहार विदुषी साध्वी हैं, विशिष्ट प्रवचनकर्त्री, निर्भीक एवं व्यवहार कुशल भी हैं। महासती चंदनाजी की मंत्री के रूप में आप उनकी सतत सहयोगिनी बनकर रहती हैं। आपकी प्रेरणा से बालकों में सुसंस्कारों का निर्माण करने हेतु 'अक्षय फाउण्डेशन' संस्था सक्रिय रूप से कार्यरत है। 481 6.6.3.15 श्री रमणिककुंवरजी (सं. 2029-55 ) आपका जन्म बोरनार ग्राम ( जलगांव ) में संवत् 1988 को श्री सुगनचंदजी व माता छोटीबाई के यहां हुआ। बूसी गांव के श्री राजमलजी गांधी से विवाह होकर एक पुत्र की प्राप्ति हुई। पति के स्वर्गवास के पश्चात् संवत् 2029 माघ शुक्ला 13 को नाशिक में श्री पानकंवरजी के पास दीक्षा हुई। आप घोर तपस्विनी थीं, 18 वर्ष की उम्र से ही तपस्याएँ प्रारंभ कर दी, अपने जीवन में कुल 31 मासक्षमण तथा 35, 45 उपवास तक की तपस्याएँ की। अन्य तपस्याओं की तो गिनती ही नहीं। श्री मंगलज्योतिजी व रचिताश्रीजी इनकी शिष्याएँ हैं । 482 6.6.3.16 डॉ. श्री मधुबालाजी (सं. 2030 से वर्तमान) आप दिवाकर संप्रदाय की चिंतनशील साध्वी हैं। आपने 'श्री रमेशमुनिजी का साहित्य' पर विक्रम विश्वविद्यालय से सन् 1998 में पी. एच. डी. की उपाधि प्राप्त की। साथ ही 'नारी की जीत', आग बना पानी, मैं जीत गई, आदि रोचक उपन्यास भी लिखे हैं। आपकी दो शिष्याएँ हैं- श्री प्रतिभाश्रीजी, श्री मंगलमैत्रीजी । 6.6.3.17 श्री सत्यसाधनाजी (सं. 2031 ) आप औरंगाबाद के स्व. कुंजीलालजी भुरावत की सुपुत्री हैं, प्रवर्तक श्री हीरालालजी मा. सा. से 19 वर्ष की वय में ब्यावर में दीक्षित होकर सिद्धान्तशास्त्री, साहित्य विशारद एवं एम. ए. किया। आप व्याख्यान कला में दक्ष, संगीतप्रेमी, विनोदी स्वभाव की स्वतंत्र विचार वाली साध्वी हैं। आप द्वारा धार्मिक, सामाजिक अनेकविध कार्य चलते हैं। वर्तमान में आपकी प्रेरणा से पूना (कात्रज) में 'अरिहंत साधु-साध्वी केन्द्र' की स्थापना हुई हैं। आपकी शिष्याओं में श्री अर्हत्ज्योतिजी, अरूणप्रभाजी, चारूप्रज्ञाजी, हितसाधनाजी, हर्षप्रज्ञाजी, व चरणप्रज्ञाजी हैं। 483 481. हमें तुम पर नाज है, पृ. 86 482. पत्राचार से प्राप्त सामग्री के आधार पर 483. हमें तुम पर नाज है, पृ. 88 688 Page #751 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्थानकवासी परम्परा की श्रमणियाँ 6.6.3.18 श्री अर्चनाजी 'मीरा' (सं. 2037 ) कर्मठ अध्यवसायी श्री अर्चनाजी का जन्म संवत् 2010 को श्री संपतरावजी कांकरिया के यहां बार्शी में हुआ। वैधव्य के पश्चात् संवत् 2037 फरवरी 15 को बार्शी में ही श्री पानकंवरजी के पास इनकी दीक्षा हुई। ये प्रखर व्याख्यात्री और ओजस्वी गायिका हैं। अध्ययन भी गहन और तलस्पर्शी है। प्रत्येक कार्य में निपुण, मिलनसार तथा व्यवहार कुशल है । श्री आराधनाजी, श्री शिवाजी आदि इनकी 6 शिष्याएँ हैं । 484 6.6.3.19 श्री मंगलज्योतिजी (सं. 2043 ) आप नाहर 'परिवार की कन्या एवं सुराणा कुल की पुत्रवधु हैं। पतिवियोग के पश्चात् श्री रमणिककंवरजी म. सा. के पास दीक्षा अंगीकार की। आप तपस्विनी साध्वी हैं, 53, 47, 45, 42, 41, 37 आदि की सुदीर्घ तपस्याएँ एवं कई छोटी-मोटी अन्य तपस्याएँ की हैं। आप सेवाभाविनी, मधुरभाषिणी हैं । 485 6.6.3.20 श्री रचिताश्रीजी (सं. 2050 ) आप श्री मंगलज्योतिजी की संसारी पुत्री है। घोर तपस्विनी श्री रमणिककंवरजी के पास अक्षय तृतीया सं. 2050 को पाटणा में दीक्षा अंगीकार की। आपने आगम स्तोत्र आदि का अध्ययन तथा हिंदी में एम. ए. किया है। आपकी प्रकाशित पुस्तकें- मौन ग्यारस कथा, भाव प्रतिक्रमण, रमणिक मुक्ताहार, रमणिक स्मृति-ग्रंथ, पानकुंवर स्वर्ण-ग्रंथ, 'पान की जिंदगी का सुवर्ण पृष्ठ' आदि हैं। पान रमणिक शिक्षण फंड की स्थापना आपकी ही प्रेरणा का प्रतिफल है। 48 6.6.3.21 श्री श्रद्धाजी 'आशु' (सं. 2053 ) आप मंदसौर (म.प्र.) के मुरड़िया परिवार की सुपुत्री हैं। माघ शुक्ला पूर्णिमा सं. 2053 को मंदसौर में ही आठ वर्ष की उम्र में आप दीक्षित हुईं। आपने आगम, स्तोक ज्ञान के अतिरिक्त जैन सिद्धान्त विशारद की परीक्षा दी। चार अठाई, 15 उपवास, पुष्य नक्षत्र तप आदि तपाराधना की। आप सुमधुर गायिका हैं, अपने उपदेश से युवावर्ग में जागृति का संदेश प्रसारित करती हैं। अर्हम ध्यान शिविर के संयोजन में आप गहरी रूचि रखती हैं। 487 दिवाकर संप्रदाय की श्री कमलावती जी का अवशिष्ट श्रमणी - समुदाय 188 क्रम साध्वी नाम पिता का नाम दीक्षा संवत् दीक्षा तिथि स्थान रतलाम जावरा 1. श्री कलावतीजी 2. श्री सूरजकंवरजी 3. श्री कुसुमलताजी जन्म संवत् स्थान - बड़ी सादड़ी - जावरा करेड़ा बोथलालजी गादिया 2025 689 2027 2028 बड़नगर 484-487. प्रत्यक्ष संपर्क के आधार पर 488. डॉ. अक्षयज्योतिजी, संपादिका - हमें तुम पर नाज है, पृ. 81, 'कमला उपवन की खिलती कलियां' लेख विशेष- विवरण सरल, सेवाभाविनी, तपस्विनी सेवाभाविनी जैन प्रभाकर, तपस्वी, वाक्पटु Page #752 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन श्रमणियों का बृहद इतिहास 4. श्री दिव्यसाधनाजी 2014 पूना दीपचंदजी मरलेचा ब्यावर 2031, अक्टू, 21 दक्षिण पावापुरी, संस्था की स्थापना प्रतिक्षा उपन्यास, विदुषी प्रवचनकर्ती संगीत प्रेमी 5. श्री प्रियसाधनाजी -जावरा ब्यावर 2031, अक्टू.21 ब्यावर तप-मासक्षमण, 41 उपवास 6. श्री अंतरसाधनाजी 7. श्री अरूणप्रभाजी 2016 पूना -जीरण दीपचंदजी मरलेचा राजमलजी बरोलिया उदयपुर तपस्विनी, सिद्धांत प्रभाकर, एम.ए. 2031 2037 अक्टू.23 2039 8. श्री कुमुदलताजी 2027 राजगढ़ बाबूलालजी धोका मार्च23 कामारेड्डी संगीतप्रेमी, अध्ययनशीला 2040 जावरा 9. श्री महाप्रज्ञाजी 10. श्री महाश्वेताजी 2024 दत्तीगांव 2019 अजमेर बाबूलालजी धोका मदनलालजी लोढ़ा एम.ए., मधुरकंठी एम. ए., जै.सि. प्रभाकर नांदेड़ 2044 अक्टू.29 11. श्री सयमलताजी -जावरा बाबूलालजी धोका मद्रास मधुर गायिका, मिलनसार 2045 अक्टू.14 12. श्री कलाश्रीजी ___-मैसूर 2046 जन27 मद्रास सेवाभाविनी 13. श्री चारूप्रज्ञाजी -नांदेड़ बबनराव ढाकणे नासिक 2048 दिस.30 2052 फर.16 14. श्री मनीषाजी -मद्रास निहालचंदजी बोहरा गजेन्द्रगढ़ सेवाभाविनी 15. श्री अर्हत्ज्योतिजी 2029 धूलिया प्रकाशचंदजी मूथा धूलिया अध्ययनशीला 2053 फर.16 16. श्री हितसाधनाजी -जोधपुर 2056 फर.17 पूना मिलनसार, अध्ययनशीला 17. श्री हर्षप्रज्ञाजी 2041 जोधपुर प्रकाशचंदजी कोचर 2056 फर.17 पूना 18. श्री अमितप्रज्ञाजी 2032 बाणावार मिश्रीलालजी बोहरा बाणावार सेवाभाविनी 2057 अप्र.6 19. श्री चरणसाधनाजी -भुसावल मुसावल - मद्रास सेवाभाविनी, स्वाध्यायी 2058 फर.17 690 Page #753 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्थानकवासी परम्परा की श्रमणियाँ 6.7 हस्तलिखित प्रतियों में स्थानकवासी जैन श्रमणियों का योगदान : 6.7.1 आर्या नाकू (सं. 1555) ___ ऋषि धनाजी द्वारा प्रतिलिपिकृत 'संवेगद्रुम मंजरी' (सं. 1555) मोरबी नगर में आर्या नाकू को पठनार्थ दी। यह प्रति महावीर जैन विद्यालय मुंबई में (नं. 623) है।489 6.7.2 आर्या सुधो (सं. 1627) आर्या सुधो ने सं. 1627 में आर्या पद्मावती के लिये दशवैकालिक सूत्र लिखा। सुधोजी आर्या वीरोजी की शिष्या के रूप में उल्लिखित है। यह प्रति बी. एल. इन्स्टीट्यूट दिल्ली (परि. 2049) में है। 6.7.3 आर्या सिंगारो (सं. 1635) आर्या गढ़ो की शिष्या आर्या सिंगारो ने सं. 1635 को त्रिकुट में 'भगवतीसूत्र' की प्रतिलिपि की। प्रति बी. एल. इन्स्टीट्यूट दिल्ली (परि. 2538) में संग्रहित है। इन्हींकी 'दशवकालिक सूत्र की प्रतिलिपि सं. 1639 की। दिल्ली (परि. 125) में तथा ज्ञाताधर्मकथा सूत्र सं. 1643 का समाणा नगर में प्रतिलिपि किया हुआ बी. एल इन्स्टी. दिल्ली (परि. 2548) में संग्रहित है। 6.7.4 आर्या गढो (सं. 1640) __ आर्या नानक की शिष्या आर्या गढ़ो की संवत् 1640 में समाणा में लिखी गई 'निरयावलिका सूत्र' (सटिप्पण) की प्रति बी. एल. इन्स्टी . दि. (परि. 1610) में है। 6.7.5 आर्या वाल्ही (सं. 1643) बुधरायकृत 'मदनरास' (रचना 1589) की सं. 1643 कार्तिक शु. 15 की प्रतिलिपि में आर्या मंगाई एवं आर्या वाल्ही दोनों के दस्तखत हैं। प्रति रोयल एशियाटिक सोसायटी टाउन हॉल मुंबई' में है।190 6.7.6 आर्या मीमी (सं. 1648) ये आचार्य नानग के पट्टधर आचार्य राम (दास) की आज्ञानुवर्तिनी थीं, सं. 1648 भाद्रपद कृ. 3 बुधवार को इन्होंने आर्या नगीनाजी के पठनार्थ उपासकदशासूत्र की प्रतिलिपि की। प्रति सुशीलमुनि आश्रम नई दिल्ली (अप्रकाशित सूची) में है। 6.7.7 आर्या सुखी (सं. 1649) अकबर रसूल शहर में सं. 1649 का उपासकदशासूत्र आर्या सुखी द्वारा प्रतिलिपि किया गया प्राप्त होता है। 489. जै. गु. क., भाग 1, पृ. 210 490. जै. गु. क. भाग 1 पृ. 308 691|| Page #754 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन श्रमणियों का बृहद इतिहास जो बी. एल. इन्स्टी. दि. (परि. 1363) में संग्रहित है। एक आर्या सुखी का उल्लेख हीरालालजी दुगड़ ने किया है, उसने सं. 1649 में औपपातिक सूत्र' की प्रतिलिपि की। जिनभद्रगणि शाखा की पंजाब की महासाध्वी हैं। 491 6. 7.8 आर्या वालो (सं. 1653 ) ये आर्या टहको की शिष्या थीं, सं. 1653 में इनका 'उपासकदशासूत्र' की प्रतिलिपिकर्ता के रूप में उल्लेख है। प्रति बी. एल इन्स्टी. दि. (परि. 1353) में है। 6.7.9 साध्वी हीरा (सं. 1653 ) इनका सं. 1653 में 'कल्याणमंदिर स्तोत्र बालावबोध' की लिपिकर्त्री के रूप में उल्लेख है 1492 6.7.10 आर्या निहालो (सं. 1657 ) इनकी दो हस्तलिखित प्रति सं. 1657 की बी. एल इंस्टी. दिल्ली में मौजूद है, एक 'आषाढ़भूति का चोढालिया' दूसरी ‘कल्पसूत्र' ये दोनों प्रति 'कैलाषर' स्थान पर लिखी गई थी। परिग्रहण संख्या क्रमशः 8262 तथा 2602 है। कल्पसूत्र प्रति में इन्होंने अपने को आर्या लक्ष्मी की शिष्या कहा है। 6.7.11 आर्या पुरां (सं. 1660 ) ये आर्या रूपां की शिष्या थी, सं. 1660 की 'समवायांग सूत्र' की प्रतिलिपिकर्त्री के रूप में इन्होंने अपना परिचय दिया है। बी. एल. इन्स्टी. दि. (परि. 1257) में इनकी हस्तलिखित प्रति है । 6.7.12 आर्या सता (सं. 1661 ) ये आर्या रूपांजी की शिष्या थी, सं. 1661 की इनकी प्रतिलिपि की हुई 'उपासकदशासूत्र' आचार्य सुशीलमुनि आश्रम नई दिल्ली में मौजूद है। 6.7.13 आर्या बीबी (सं. 1664 ) ये आर्या साहिबा की शिष्या थी। श्री सामहराय अग्रवाल की अपभ्रंश भाषा में रचित 'प्रद्युम्नचरित्र' की सं. 1664 में इन्होंने प्रतिलिपि की थी। प्रति बी. एल. इन्स्टी. दि. (परि. 6341 ) में मौजूद है। 6.7.14 आर्या केसरी (सं. 1668 ) ये आर्या नगीना की शिष्या थीं, इनकी सं. 1668 की 'चतुर्विंशति दण्डक विचारपत्र' की प्रतिलिपि बी. एल. इन्स्टी. दि. (परि. 563) में संग्रहित है। 491. मध्य एशिया और पंजाब में जैनधर्म, पृ. 389 492. राजस्थानी हस्तलिखित ग्रंथों की सूची, भाग 2 क्रमांक 92, ग्रंथांक 7891 692 Page #755 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्थानकवासी परम्परा की श्रमणियाँ 6.7.15 साध्वी माना (सं. 1668 ) संवत् 1668 में चेला विमलसी ने देवेन्द्रसूरिकृत कर्मग्रन्थ का बालावबोध साध्वी मानां को पठनार्थ दिया। इसकी प्रति वीरमगाम संघ के भंडार में है। इन्हीं के लिये सं. 1668 में उर्णाकपुर में 'नवतत्त्व स्तबक' की प्रति तैयार करने का भी उल्लेख है । यह प्रति नित्यविजय लायब्रेरी चाणास्मा में संग्रहित है। साध्वी मानांजी ऋषि सोमजी की शिष्या थीं। 493 6.7.16 साध्वी मानां (सं. 1670) सं. 1670 चैत्र शु. 14 सोमवार की हस्तलिखित 'श्री एकविंशति स्थानक प्रकरणम्' की प्रतिलिपि में साध्वी माना के वाचनार्थ लिखवाने का उल्लेख है। कर्त्ता व लिपिकार का नाम नहीं है। प्रति श्री विजय लब्धिसूरि ज्ञान भंडार खंभात में मौजूद है 1494 6.7.17 साध्वी चांपा (सं. 1672) खरतरगच्छ के उपाध्याय समयसुंदरकृत 'प्रियमेलकरास' की प्रतिलिपिकर्त्री के रूप में साध्वी चांपा का नामोल्लेख है। लिपि समय 1672 एवं लिपि स्थान मेड़ता दिया है। अभय जैन ग्रंथालय बीकानेर (पो. 15 नं. 1590 में यह प्रति है। 495 6.7.18 साध्वी लीला (सं. 1684) ऋषि भोजक ने सं.1684 चैत्र कृ. 5 रविवार को पाटण में रामजी के गृह में तपागच्छीय कुशलसंयम रचित 'हरिबल नो रास' (सं. 1555) लिखकर साध्वी लीला को पठनार्थ दिया। इसकी प्रति डायरा उपाश्रय नो भंडार पालनपुर (दा. 36 ) में है । 496 6.7.19 आर्या सोभागदे (सं. 1695 ) ‘दण्डकद्वार' की लिपिकर्त्री के रूप में इनका नामोल्लेख हुआ है। 497 6.7.20 देवी आर्या (सं. 1698 ) श्री सज्जन ऋषि ने निकोद नगर में देवी आर्या के वाचनार्थ 'सीता सती रास' (रचना सं. 1687) की प्रतिलिपि सं. 1698 वैशाख कृ. 3 शुक्रवार को दी। प्रति आचार्य सुशील मुनि आश्रम नई दिल्ली में है । 493. जै. गु. क. भाग 3, पृ. 352 494. अ. म. शाह, श्री प्रशस्ति संग्रह, पृ. 176, प्रशस्ति संख्या 697 495. गु. क. भाग 2, पृ. 328 जै. 496. जै. गु. क. भाग 1, पृ. 209 497. राज. हिं. हस्त. ग्रं. सू. भाग - 4, क्रमांक 1951 ग्रंथांक 14313 693 Page #756 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 6.7.21 आर्या कीकी (17वीं सदी) इनके लिये 17वीं सदी में 'पुच्छिस्सुणं' की एक प्रति पठनार्थ लिखी गई। प्रति आचार्य सुशीलमुनि आश्रम नई दिल्ली में है। 6.7.24 आर्या रूपां ( 17वीं सदी) आर्या रूपांजी ने लाखेरी स्थान पर 'अरणिक मुनि सज्झाय' की प्रतिलिपि की । 198 6.7.25 साध्वी पुनमा ( 17वीं सदी) खरतरगच्छ के उपाध्याय समयसुंदर की 'सांब प्रद्युम्न प्रबन्ध' 17वीं सदी में साध्वी पुनमा ने लिखा । प्रतिलिपि जिनचारित्र संग्रह (पो. 85 नं. भाग 2, पृ. 313) में है 1499 जैन श्रमणियों का बृहद इतिहास 6.7.26 अज्ञातनाम ( 17वीं सदी) खेमराज ऋषि की शिष्या ने हइबतपुर में अकबर के राज्यकाल में 'जीवाभिगम सूत्र' की प्रतिलिपि की । यह प्रति बी. एल. इन्स्टी. दि. (परि. 1552 ) में सुरक्षित है। 6.7.27 आर्या सरूपा (सं. 1700 ) सं. 1700 में आर्या सरूपा द्वारा लिखित 'निशीथ सूत्र सस्तबक' बी. एल. इन्स्टी. दि. (परि. 1603 ) में श्रेष्ठ स्थिति में मौजूद है। 6.7.28 आर्या भावा (सं. 1706) जिनोदयसूरि की राजस्थानी भाषा की कृति 'हंसराज वच्छराज चोपई' सं. 1706 में समाना नगर में आर्या भावा ने लिखी । प्रति बी. एल. इस्टी. दि. (परि. 7304) में है। 6.7.29 साध्वी देवकी (सं. 1708) कड़वागच्छ के आद्य आचार्य कडुआ द्वारा लिखित 'लीलावती सुमतिविलास रास' की प्रतिलिपि सं. 1708 में साध्वी हीरश्री की शिष्या देवकी ने की। यह प्रति डायरा उपाश्रय नो भंडार पालनपुर में है। 500 6.7.30 आर्या रतनबाई (सं. 1707 ) ये साध्वी ज्ञानबाई की संसारपक्षीय सुपुत्री थीं, उनके स्वर्गवास पर भाई किशनदास ने 'उपदेश बावनी' की रचना की। इस बावनी की रचना रतनबाई की स्मृति में, सं. 1707 विजयादशमी को बनाई। ये लुकागच्छीय थीं 150 498. रा. हिं. ह. ग्रं. सू. भाग 5 क्रमांक 1306 ग्रंथांक 6127 499. जै. गु. क. भाग 2, पृ. 313 500. जै. गु. क. भाग 1, पृ. 224 501 श्री सुशील मुनि आश्रम दिल्ली के हस्तलिखित ग्रंथ ( अप्रकाशित) 694 Page #757 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्थानकवासी परम्परा की श्रमणियाँ 6.7.31 आर्या केसर (सं. 1713) __ आपने 'विचार संग्रहणी सस्तबकं मूल सं. 1713 में मनवरंगपुर में लिपि किया एवं स्तबक सं. 1715 में । दादरी में लिखा। इसकी हस्तलिखित प्रति बी. एल. इंस्टीट्यूट दिल्ली (परि. 3178) में है। 6.7.32 आर्या गंगोजी (सं. 1720) ___ सं. 1720 में आर्या वीराजी की शिष्या गंगोजी द्वारा प्रतिलिपि किया हुआ 'कल्पसूत्र सस्तबक' मरूगुर्जर । भाषा में बी. एल. इंस्टीट्यूट दिल्ली (परि. 2430) में है। 6.7.33 आर्या हुश्यारजी (सं. 1746) 'अनुत्तरोपपातिक दशासूत्र सस्तबक' मरूगुर्जर भाषा का सं. 1746 में कुक्षीरपुर में आर्या सावोजी की शिष्या आर्या हुश्यारजी का लिखा हुआ है। इसकी प्रति बी. एल. इंस्टीट्यूट दिल्ली में (परि. 1417) है। 6.7.34 आर्या धरमो (सं. 1746) इनका सं. 1746 को उद्दीयारपुर में मरूगुर्जर भाषा में लिखा हुआ 'निरयावलिका सूत्र सस्तबक' बी. एल. इंस्टीट्यूट (परि. 1615) में है। ये आर्या सांबो की शिष्या थीं। इनकी अन्य प्रतियां 'गजसुकुमाल चौपाई,' परदेशी राजा की चौपाई एवं भक्तामर स्तोत्र भाषा की पांडुलिपि भी इन्स्टी. में (परि. 7289, 7048, 8563/1) संग्रहित 6.7.35 आर्या धर्मो (सं. 1746) पंजाब की महासाध्वी आर्या धर्मो ने वि. सं. 1746 होश्यारपुर (पंजाब) में अनुत्तरोपपातिक सूत्र पर 'टबा' । लिखा। 6.7.36 आर्या फत्ताजी (सं. 1750) इनका सं. 1750 का आगरा में लिखित 'कल्पसूत्र सस्तबक' गुजराती भाषा का बी. एल. इंस्टीट्यूट दिल्ली (परि. 2588) में है। 6.7.37 आर्या उल्लास (सं. 1752) ये जयकंवरजी की शिष्या थीं, इन्होंने सं. 1752 में समयसुंदरोपाध्याय की राजस्थानी भाषा में रचित 'चार प्रत्येक बुद्ध की चौपाई' (रचना सं. 1665) की प्रतिलिपि की। प्रति बी. एल. इन्स्टी. दि. (परि. 6925) में संग्रहित है। 6.7.38 आर्या पूरां (सं. 1759) ये आर्या रूषमादे की शिष्या आर्या गंगाजी की शिष्या थीं। ऋषि विकाजी के शिष्य जगन्नाथ ने सं. 1759 502. म. ए. और पं. में. जै., ही. दुगड़, पृ. 388 Page #758 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन श्रमणियों का बहद इतिहास कार्तिक कृ. 11 मंगलवार को सामड़िया ग्राम में 'उत्तराध्ययन सूत्र' छत्तीस अध्ययन लिखकर आर्या पूरां को पठनार्थ दिया।503 6.7.39 आर्या कुसुंबा (सं. 1762) ये ऋषि बसतांजी अनगार की शिष्या थीं, इन्होंने सं. 1762 वैशाख शु. पूर्णमासी मंगलवार के दिन 'सूत्रकृतांग सूत्र' (द्वि. श्रु.) की प्रतिलिपि की। सूत्र के साथ इसमें स्पष्टार्थ भी हैं। प्रति आचार्य सुशीलमुनि आश्रम नई दिल्ली में है। 6.7.40 आर्या उदा (सं. 1765) सं. 1765 आश्विन कृ. 12 मंगलवार को लिखी विपाकसूत्र में प्रतिलिपिकर्ता के रूप में आर्या नान्दीजी की शिष्या आर्या उदा का उल्लेख है। प्रति सुशीलमुनि आश्रम नई दिल्ली में है। 6.7.41 आर्या केसरजी (सं. 1766) सं. 1766 आसोज शुक्लपक्ष में श्री सुर्यगडांग सूत्र की प्रति आर्या केसरजी की शिष्या ने लिखी। यह प्रति आ. सुशील मुनि आश्रम नई दिल्ली में है। 6.7.42 आर्या हठीली (सं. 1769) सं. 1769 में आर्या हठीली का नाम 'माऊ अग्रवाल गर्ग रचित 'दीतवार की कथा' में प्रतिलिपिकी के रूप . में है।504 6.7.43 आर्या सुवाजी (सं. 1769) सं. 1769 कार्तिक शु. 10 रविवार को आर्या सुवाजी ने आर्या जीवोजी के लिये 'नन्दीसूत्र' की प्रतिलिपि की। प्रति आ. सुशीलमुनि आश्रम नई दिल्ली में है। 6.7.44 आर्या वीरा (सं. 1770) सं. 1770 में वजवाड़ा स्थान पर आपने 'अनुत्तरोपपातिक दशा सूत्र सस्तबक' लिखा। इसकी प्रति बी. एल. इन्स्टीट्यूट दिल्ली (परि. 2562) में है। आप आर्या अनूपांजी की शिष्या थीं। 6.7.45 आर्या केसर (सं. 1773) सं. 1773 मृगशिर कृ. 4 मंगलवार सोवलना ग्राम में ऋषि धनजी ने आर्या केसरजी के पठनार्थ 'कल्पसूत्र टब्बा सह' लिखा। यह प्रति आचार्य सुशीलमुनि आश्रम नई दिल्ली में है। 503. श्री प्रशस्ति संग्रह, पृ. 270 504. राज. हिं. ह. ग्रं. सू., भाग 8, क्र. 696, ग्रं. 4489 696 Page #759 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्थानकवासी परम्परा की श्रमणियाँ 6.7.46 आर्या केशर (सं. 1776) सं. 1776 में 'व्यवहार सूत्र सस्तबक' मरूगुर्जर भाषा में आर्या रत्नाजी की शिष्या आर्या केशरजी ने लिखा। इसकी प्रति बी. एल. इन्स्टीट्यूट दिल्ली (परि. 1648) में है। 6.7.47 आर्या मयाजी (सं. 1781) तपागच्छीय श्री गजविजय रचित 'मुनिपतिरास' (रचना सं. 1781) की प्रतिलिपि आसाढ़ शु. 11 रविवार, सं. 1781 में बालाजी की शिष्या मयाजी ने की। यह प्रति पुण्यविजयजी संग्रह, एल. डी. भारतीय संस्कृत विद्यामंदिर अमदाबाद में है।305 6.7.48 आर्या स्यामबाई (सं. 1782) गुरू प्रेमराज रचित 'वैदर्भी चौपाई' (रचना सं. 1724 से पूर्व) की प्रतिलिपिकी में आर्या स्यामबाई, साध्वी गागबाई, सखरबाई, रहीबाई का नाम है, इन्होंने सं. 1782 में कोटड़ी ग्राम में फूलबाई के पठनार्थ लिखी। संभव है, यह रहीबाई की गुरूणी-परंपरा हो, या संघ की ज्येष्ठ साध्वियाँ हों, प्रतिलिपिकी रहीबाई हों। मूल प्रति देखने से स्पष्ट हो सकता है। यह प्रति मुक्तिकमल जैन मोहनज्ञान मंदिर, बड़ोदरा (नं. 2335) में संग्रहित है।506 6.7.49 आर्या केशरजी (सं. 1782) श्री विनोदीलाल रचित 'राजुल पच्चीसी' साध्वी केशरजी के पठनार्थ पं. प्रवर मनोहर ने 1782 मृगशिर कृ. 6 को लिखी। प्रति अभय जैन ग्रंथालय बीकानेर में है।07 6.7.50 आर्या कंकूजी, नंदूजी (सं. 1783) प्राच्य विद्यापीठ शाजापुर भंडार में उपलब्ध सं. 1783 की 'उपासकदशांग सूत्र' की प्रति में कंकू आर्या और नंदू आर्या की नेश्राय लिखी गई है। डॉ. सागरमलजी जैन के अनुसार इन दोनों आर्याओं का काल तुलसी ऋषिजी के पश्चात् और मनसुखऋषिजी के पूर्व का होना चाहिये। 6.7.51 आर्या रतनांजी (सं. 1792) आर्या रतनांजी के लिये सं. 1792 में ऋषि हरचंद ने 'पारणे वडोडा वीर को' स्तवन की प्रतिलिपि की। संभवतः इन्हीं के लिये 'नववाड़ की सज्झाय' की प्रतिलिपि की गई है। इसमें भी 'आर्या रतनांजी पठनार्थ लिखा है। 'नेम राजमती की सज्झाय' में भी यही नामोल्लेख है। सदी 18वीं है।508 505. जै. गु. क. भाग 5, पृ. 304 506. जै. गु. क. भाग 4, पृ. 328 507. राज. हिंदी के हस्तलिखित ग्रंथों की खोज, भाग 4, अगरचंद नाहटा 508. रा. हिं. ह. ग्रं. की सु. भाग 3, क्रमांक 1288, ग्रंथांक 12320 (30), क्र. 922, ग्रंथांक 12320 (1),क्र. 1001, ग्रंथांक 12320 (3) Page #760 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन श्रमणियों का बृहद इतिहास 6.7.52 आर्या भागां (सं. 1792) सं. 1792 कार्तिक कृ. 3 की 'अनुत्तरोपपातिक दशा' सूत्र की प्रति में आर्या भागां और अजबां का प्रतिलिपिकर्ता के रूप में उल्लेख है। प्रति आ. सुशील आश्रम दिल्ली में है। 6.7.53 आर्या श्यामा (सं. 1794) सं. 1794 वैशाख शु. 12 शुक्रवार को श्री जीवराजजी के शिष्य द्वारा लिखी 'सूत्रकृतांग सूत्र प्रथम श्रुतस्कन्ध बालावबोध विवरण सह' की पाण्डुलिपी कर्म निर्जरार्थ आर्या स्यामा को प्रदान करने का उल्लेख है। प्रति आ. सुशीलमुनि आश्रम नई दिल्ली में मौजूद है। 6.7.54 आर्या पमी (सं. 1797) इन्होंने सं. 1797 में 'प्रश्नव्याकरण सूत्र' की प्रतिलिपि की। प्रति के अंत में इनकी गुरूणी परम्परा इस प्रकार दी है। आर्या नान्ही की शिष्या आनन्दाजी, इनकी शिष्या आर्या हरकुंवरजी उनकी शिष्या आर्या पमी। यह प्रति विद्यापीठ शाजापुर में उपलब्ध है। 6.7.55 आर्या रत्ना (सं. 1797) रंगकलश रचित 'पंचमी स्तवन' की लिपिकर्ता साध्वी खुशालाजी की शिष्या रत्नाजी व अनोपजी का नामोल्लेख है। लिपि स्थान 'नागोर' दिया है।09 6.7.56 आर्या कुसालांजी (सं. 1797) सं. 1797 को नागोर में आर्या कुसलांजी ने मरूगुर्जर भाषा ' राजप्रश्नीय सूत्र सस्तबक' लिखा। इसकी प्रति बी. एल. इंस्टीट्यूट, दिल्ली (परि. 1507) में है। 6.7.57 आर्या मीमी (18वीं सदी) इन्होंने वीरभद्रगणिकृत 'चतुः शरण प्रकीर्णक सार्थ' मरूगुर्जर भाषा में लिखा। इसकी प्रति बी. एल. इंस्टीट्यूट दिल्ली (परि. 2731) में है। 6.7.58 आर्या हीरा (18वीं सदी) गुणसागरकृत 'कयवन्नारास' की पाण्डुलिपि में कर्ता के रूप में आर्या हीराजी का नाम है।510 'अंजना सुंदरी चौपाई' में भी 18वीं सदी की लिपिक/ आर्या हीरा का नामोल्लेख है। यह प्रति बीकानेर में लिखी गई। 509. राज. हिं. ग्रं. सू. भाग 3, क्र. 1020, ग्र. 12320 (45) 510. राज. हिं. ह. ग्रं. सू., भाग 1, क्र. 291, ग्रं. 4049 511. वही, क्र. 22, ग्रं. 7043 698 Page #761 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्थानकवासी परम्परा की श्रमणियाँ 6.7.59 आर्या रज्जी ( 18वीं सदी) रामचंद्रमुनि रचित 'जंबूस्वामी चौपाई' ( रचना सं. 1714) की प्रतिलिपि आर्या रज्जी ने 18वीं सदी में की। प्रति बी. एल. इंस्टी. दि. (परि. 7066) में है। 6.7.60 आर्या पिरागी ( 18वीं सदी) श्री अभयदेवसूरि रचित 'जय तिहुअण स्तोत्र' की 18वीं सदी की पाण्डुलिपि में आर्या बालो की शिष्या आर्या पिरागी का प्रतिलिपिकर्त्ता के रूप में नामोल्लेख है। प्रति बी. एल. इंस्टी. दि. (परि. 8809) में है। 6.7.61 आर्या बीबी ( 18वीं सदी) उत्तरार्द्धगच्छ के अरणकमुनि रचित 'शालिभद्र की चौपाई' (सं. 1634) की प्रतिलिपि आर्या बीबी के 18वीं सदी में करने का उल्लेख है। प्रति बी. एल. इन्स्टी. दि. (परि. 7208) में है। 6.7.62 आर्या प्रभावती ( 18वीं सदी ) श्री दयासुंदरीजी की शिष्या प्रभावती ने 'जीवविचार प्रकरण' की प्रतिलिपि रंगसुंदरी पठनार्थ की । प्रति हमारी नेश्राय में है। 6.7.63 आर्या गंगाजी (18वीं सदी) आर्या कुसलांजी की शिष्या गंगाजी नई दिल्ली में है। 'भाववैराग्यशतक' की प्रतिलिपि की। यह प्रति आ. सुशीलमुनि आश्रम 6.7.64 आर्या नैणा ( 18वीं सदी) हरजी ऋषिजी ने 'वैराग्य शतक' की प्रतिलिपि करके आर्या नैणांजी को प्रदान की थी। प्रति आचार्य सुशील मुनि आश्रम नई दिल्ली में है। 6.7.65 आर्या सुंदरी ( 18वीं सदी) आर्या रूपीजी की शिष्या सुंदरीजी की हस्तलिखित 'कथाकोष' प्राकृत भाषा टीका की प्रति 18वीं सदी की श्री महावीर जैन पुस्तकालय चांदनी चौंक दिल्ली ( क्रमांक 108) में है। 6.7.66 आर्या सहजो ( 18वीं सदी) ' षष्टशत प्रकरणम्' की प्रतिलिपि में आर्या गोविंदीजी आर्या कुसलीजी की शिष्या आर्या सहजो का उल्लेख है। प्रति आ. सुशीलमुनि आश्रम नई दिल्ली में है । 6.7.67 आर्या लाधीजी ( 18वीं सदी) आपकी दो पांडुलिपि - 'चंदनबाला को रास' और 'श्रेयांस गीत' आ. सुशीलमुनि आश्रम नई दिल्ली में है, इन्होंने अपने को आर्या बंदोजी की शिष्या लिखा है। 699 Page #762 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन श्रमणियों का बृहद इतिहास 6.7.68 आर्या हरकुंवर (18वीं सदी) इन्होंने 'ठाणांग सूत्र' मरूगुर्जर अनुवाद सह लिखा। ग्रंथाग्र 700 श्लोक से अधिक है। पत्र सं. 194 है, प्रति सुशीलमुनि आश्रम दिल्ली के भंडार में है। आर्या हरकुंवरजी ने अपनी गुरूणी-परम्परा अंत में दी है- आर्या नानाजी, आर्या नंदजी, आर्या हीरांजी, आर्या चनांजी, आर्या हरूकंवर। 6.7.69 आर्या लालो (सं. 1800) समयसुंदरकृत 'नलदमयंती रास' (रचनां सं. 1673) की प्रतिलिपि सं. 1800 में समाना नगर में आर्या लालोजी ने की। प्रति बी. एल. इन्स्टी. दि. (परि. 918) में श्रेष्ठ स्थिति में है। 6.7.70 आर्या फत्तु (सं. 1800) सं. 1800 भाद्रपद शु. 7 'जांबवती की चौपाई' साध्वी खुशालांजी की शिष्या फत्तु ने प्रतिलिपि की। प्रति आ. सुशीलमुनि आश्रम नई दिल्ली में है। 6.7.71 आर्या दाया (सं. 1801) आचारांगसूत्र की सं. 1801 की प्रतिलिपि में प्रतिलिपिकर्ता के रूप में आर्या दाया का नामोल्लेख है। प्रति सुशीलमुनि आश्रम में कीटभक्षित रूप में अवस्थित है। 6.7.72 आर्या कुसलांजी (सं. 1801) सं. 1801 में आपने 'राजप्रश्नीय सूत्र सस्तबक' मरूगुर्जर भाषा में लिखा। प्रति बी. एल. इन्स्टीट्यूट दिल्ली (परि. 1504) में है। 6.7.73 आर्या म्हाकंवर (सं. 1802) पूज्य श्री मनजी की शिष्या म्हाकंवरजी ने सं. 1802 आसाढ़ शु. 5 सोमवार को जयपुर में 'दशाश्रुतस्कन्ध सूत्र' की प्रतिलिपि की। पश्चात् आर्या रायकवरी के दस्तखत करवाकर सं. 1850 में आर्या रत्तां को दिया। साध्वीजी की लिपि अति सुंदर है। प्रति आचार्य सुशीलमुनि आश्रम नई दिल्ली में है। 6.7.74 आर्या मीमी (सं. 1803) सं. 1803 चैत्र शु. 10 सोमवार को आर्या नान्हीजी की शिष्या आनंदाजी उनकी शिष्या हरकंवरजी उनकी शिष्या 'मीमी' ने 'निशीथ सूत्र' की प्रतिलिपि की। प्रति सुशील मुनि आश्रम नई दिल्ली में है। 6.7.75 आर्या रतनां (सं. 1805) सं. 1805 श्रावण कृ. 6 मंगलवार को श्री फूलोजी की शिष्या आर्या रतना ने नागोर में 'जीवाभिगम सूत्र' की प्रतिलिपि लिखकर पूर्ण की, यह प्रति मलयगिरि टीका के अनुसार लिखी गई है। आचार्य सुशीलमुनि आश्रम नई दिल्ली में प्रति उपलब्ध है। 700 Page #763 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्थानकवासी परम्परा की श्रमणियाँ 6.7.76 आर्या हीराजी गुलाबांजी (सं. 1810 ) सं. 1810 की आचारांग सूत्र की प्रतिलिपि में उल्लेख है कि यह सूत्र आर्या गुलाबांजी के वाचनार्थ हीराजी ने तेले-तेले की तपस्या के साथ लिखा । हीरांजी आर्या नान्हीजी की शिष्या थीं। लिपि अति स्वच्छ व सुंदर है। प्रति आ. सुशील मुनि आश्रम नई दिल्ली में है। 6.7.77 आर्या चंदा (सं. 1817 ) सं. 1817 भाद्रपद शु. 5 को आकोला में आर्या लाछांजी की शिष्या आर्या चंदाजी ने 'श्री बृहत्कल्पसूत्र' लिखकर पूर्ण किया। प्रति आ. सुशीलमुनि आश्रम में है। 6.7.78 आर्या वखतां (सं. 1819 ) आप आर्या फुलांजी की शिष्या थी, आप द्वारा मरूगुर्जर भाषा में लिखा हुआ 'दशवैकालिक सूत्र सस्तबक' बी. एल. इन्स्टीट्यूट दिल्ली (परि. 2050 ) में है। 6.7.79 आर्या चैनां (सं. 1819 ) तपागच्छीय श्री मानसागरजी की रचित 'कान्ह कठियारा नो रास (सं. 1746 ) श्री मटुजी की शिष्या आर्या चैनां द्वारा सं. 1819 में निम्बाज (राज.) का लिखा हुआ मिलता है। प्रति मुंबई नी रोयल एशियाटिक सोसायटी में है | 12 6.7.80 आर्या रत्नां (सं. 1819 ) आर्या खुसालांजी की शिष्या आर्या रत्ना ने सं. 1819 में सेवक कृत 'नवमी स्तवन' की प्रतिलिपि अहिपुर में की। 13 6.7.81 आर्या माहु (सं. 1821 ) ये नागोरी लुकागच्छ की साध्वी थी। अकबरा में सं. 1821 मृगशिर कृ. 11 सोमवार को लिखी ऋषि थिरपाल की 'उपदेशसित्तरि' की हस्तप्रति इनके वाचनार्थ लिखी गई थी, ऐसा उल्लेख है। 514 6.7.82 आर्या सिंदुरो (सं. 1822 ) आर्या केसरजी की शिष्या दीपांजी की शिष्या आर्या सिंदुरो ने 'दशवैकालिक सूत्र' की प्रतिलिपि सं. 1822 गुरूवार को की। प्रति आ. सुशीलमुनि आश्रम नई दिल्ली में है। 6.7.83 आर्या फत्तु (सं. 1823 ) आर्या हेमाजी की शिष्या फत्तु ने मेड़ता में दशाश्रुतस्कन्ध की प्रतिलिपि सं. 1823 कार्तिक कृ. 13 शुक्रवार को की। प्रति आ. सुशीलमुनि आश्रम नई दिल्ली में है। 512. जै. गु. क. भाग 4, पृ. 334 513, राज. हिं. ह. ग्रं. भाग 3, क्र. 917, ग्रं. 12320 (46) 514. जै. गु. क. भाग 3, पृ. 220 701 Page #764 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन श्रमणियों का बृहद इतिहास 6.7.84 आर्या लाभांजी (सं. 1825) ___ सं. 1825 मिगसर सुदी 13 बुधवार के दिन रजाजी उदांजी की शिष्या अजुबांजी, इनकी शिष्या लाभांजी ने आनन्दपुर ग्राम में 'नंदीसूत्र टब्बा सह' लिखा। प्रति आ. सुशीलमुनि आश्रम नई दिल्ली में है। 6.7.85 आर्या तागां (सं. 182....) सं. 182.... आश्विन शु. पूर्णमासी को आवश्यक सूत्र की प्रतिलिपि की। साध्वीजी के अक्षर सुन्दर हैं। प्रति आ. सुशील मुनि आश्रम नई दिल्ली (परि. 90/554) में है। 6.7.86 आर्या सुजाणा (सं. 1826) सं. 1826 बीकानेर में लिखी गई 'श्रावक विचार, बोल गुणठाणा' आदि की लिपिकर्ता में आर्या सुजाणाजी का नाम है।515 6.7.87 आर्या बालकुंवरिका (सं. 1827) आपने 'सूत्रकृतांग सूत्र सस्तबक' की प्रतिलिपि संवत् 1827 में की। यह प्रति बी. एल. इंस्टीट्यूट दिल्ली (परि. 759) में है। 6.7.88 आर्या रामकुंवर (सं. 1827) आपने सं. 1827 में शाहजहानाबाद में 'दशवैकालिक चूलिका सस्तबक' की प्रतिलिपि की प्रति बी. एल. इंस्टीट्यूट दिल्ली (परि. 2010) में है। 6.7.89 आर्या रतना (सं. 1828) सं. 1828 ककोड़ स्थान पर आर्या चना की शिष्या आया रतना का 'दशाश्रुतस्कंध सूत्र सस्तबक' मरू गुर्जर भाषा का प्रतिलिपि कृत मिलता है। प्रति बी. एल. इन्स्टीट्यूट दिल्ली (परि. 1672) में है। 6.7.90 साध्वी सरूपा (सं. 1827-47 के मध्य) ___ मुनि जयमलजी ने सं. 1827 से 1847 के मध्य 'हीयाली संग्रह' का गुटका रचा, उसकी साध्वी सरूपा से प्रतिलिपि कराई।516 6.7.91 आर्या वसना (सं. 1828) सं. 1828 को सुनाम नगर में आर्या वख्ताजी की शिष्या आर्या वसनांजी ने 'समवायांग सूत्र सस्तबक' की 515. राज. 'हिं. ह. ग्रं. सू., भाग 3, क्र. 1979 ग्रं. 12413 (1-2) 516. राज. हिं. ह. ग्रं. सू. भाग 3, क्रमांक 2342, ग्रं. 12320 (54) 702 Page #765 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 2 स्थानकवासी परम्परा की श्रमणियाँ प्रतिलिपि की। इसकी प्रति बी. एल. इन्स्टीट्यूट दिल्ली (परि. 1234 ) में है। इन्होंने सं. 1829 श्रावण शु. 2 को ठाणांगसूत्र की प्रतिलिप मालेरकोटला में की। ये पू. मलूकचंदजी की शिष्यां थीं। 17 6.7.92 आर्या रतना (सं. 1830 ) ब्रह्मरायमल द्वारा रचित सुदर्शनरास (सं. 1629) की सं. 1830 की प्रतिलिपिकर्त्ता में आर्या रत्नां का नाम है 1518 6.7.93 साध्वी खुशालांजी (सं. 1831 ) श्री रनवल्लभ रचित 'चार मंगल रो चौढालियो ' संवत् 1831 जयपुर में महासती खुशालाजी ने प्रतिलिपि किया। 519 6.7.94 आर्या फताजी (सं. 1832 ) आपने सं. 1832 में 'गौतम पृच्छा बालावबोध सह प्राकृत भाषा का आचारोपदेशक ग्रंथ की प्रतिलिपि की । प्रति बी. एल. इन्स्टीट्यूट दिल्ली (परि. 3343) में है। 6.7.95 आर्या फत्तु (सं. 1833 ) 'सिंहासन बत्तीसी री वार्ता' की सं. 1833 की प्रतिलिपि में आर्या केसरजी चेनांजी की शिष्या फत्तु का नामोल्लेख है। प्रति खंडप में लिखी गई 1520 6.7.96 आर्या वसनाजी (सं. 1834 मरूगुर्जर भाषा का दशवैकालिक सूत्र सस्तबक सं. 1834 ककोड़ नगर में सीताजी की शिष्या आर्या वसनाजी ने लिपि किया। यह प्रति बी. एल. इन्स्टीट्यूट दिल्ली में (परि. 2024 ) है। वसनांजी ने ही संवत् 1852 में जिहानाबाद में औपपातिक सूत्र सस्तबक की भी प्रतिलिपि की। इसकी प्रति दिल्ली (परि. 1489) में पूर्वोक्त स्थल पर है। 6.7.97 आर्या लच्छां (सं. 1835 ) श्री म्हाकंवरजी की शिष्या लच्छां आर्या ने सं. 1835 कार्तिक शु. 2 गुरूवार को चौरासीका गांव में 'दशाश्रुतस्कन्ध सूत्र' की प्रतिलिपि की । यह प्रति आ. सुशीलमुनि आश्रम नई दिल्ली (परि. 90 / 432 ) में संग्रहित है। म्हाकंवरजी का नथमलजी की गुरूबहन के रूप में उल्लेख किया है। 517. 'दुगड़' मध्य एशिया व पंजाब में जैनधर्म, पृ. 392 518. रा. हिं. ह. ग्रं. सू., भाग 8, क्र 662, ग्र. 5250 519. रा. हिं. ह. ग्रं. सू. भाग 5 क्र. 1080, ग्रं. 5784 520. राज. हिं. ह. ग्रं. सू. भाग 3, क्र. 2103 ग्रं. 11546 703 Page #766 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन श्रमणियों का बृहद इतिहास 6.7.98 आर्या हीराजी (सं. 1836) श्री गुणसागर कृत 'सेठ सुदर्शन चरित्र' सं. 1836 कार्तिक शु. 2 मंगलवार को आर्या मगडुजी की शिष्या आर्या हीरा द्वारा रूणजा ग्राम में प्रतिलिपि किया गया। यह प्रति गुमानाजी, घीसाजी के नेश्राय की थी। प्रति आ. सुशील मुनि आश्रम में है। 6.7.99 आर्या चनांजी (सं. 1838) ये आर्या फुलाजी की शिष्या थी। इन्होंने खरतरगच्छीय क्षेमहर्ष की 'चंदन मलयागिरी चौपाई' कोटा के रामपुरा में प्रतिलिपि की। प्रति अनंतनाथजी नुं मंदिर मांडवी मुंबई में है।2। सं. 1838 में आर्या फुलाजी की शिष्या चनांजी की चन्द्रलेहा चौपई' महावीर जैन लायब्रेरी चांदनीचौक दिल्ली (क्र. 118) में संग्रहित है। 6.7.100 आर्या चनांजी (सं. 1838) 'मार्गणा द्वार के बासठ बोल' की सं. 1838 साहेपुर की प्रति में चनांजी का प्रतिलिपिकर्ता के रूप में उल्लेख है। प्रति बी. एल. इन्स्टीट्यूट दि. (परि. 9553) में हैं। 6.7.101 आर्या सोनजी, चनांजी (सं. 1840) प्राच्य विद्यापीठ शाजापुर भंडार के सं. 1840 कार्तिक शु. 13 की प्रति 'कर्मों की सज्झाय' में प्रतिलिपिकर्ता आर्या सोनजी और उनकी शिष्या चनांजी का उल्लेख हैं 6.7.102 आर्या नांदो (सं. 184......) दशवैकालिक सूत्र की एक प्रति आ. सुशीलमुनि आश्रम नई दिल्ली में प्रतिलिपिक/ आर्या लिछमीजी की शिष्या 'नांदो आर्या' का नाम हैं लिपि अति सुंदर हैं। 6.7.103 आर्या नगांजी (सं. 1841) आचार्य जयमलजी रचित 'जम्बूस्वामीरास' की प्रतिलिपि सं. 1841 में प्रतिलिपिकी साध्वी नगांजी ने कुचामण में यह रास लिखा, ऐसा उल्लेख हैं। प्रति पूर्ण है किंतु दीमक भक्षित है। 22 6.7.104 आर्या लाला (सं. 1842) 'आवश्यक सूत्र टब्बार्थ सह' सं. 1842 वैशाख शु. 7 रविवार में प्रतिलिपिकार आर्या हीराजी, चनाजी की। शिष्या लाला/मालाजी का नाम है। प्रति आ. सुशीलमुनि आश्रम नई दिल्ली में है। 6.7.105 आर्या वखतांजी (सं. 1843) आर्या वखतांजी द्वारा सं. 1843 ज्येष्ठ शु. पूर्णमासी रविवार के दिन 'चन्दन मलयागिरि चउपई' की प्रतिलिपि अकबराबाद में करने का उल्लेख है। प्रति सुशीलमुनि आश्रम नई दिल्ली में है। 521. जै. गु. क. भाग 4, पृ. 144 522. राज. हिं. ह. ग्रं. सू., भाग 8, क्र. 848 ग्र. 5242 704 Page #767 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्थानकवासी परम्परा की श्रमणियाँ 6.7.106 आर्या नथोजी (सं. 1845) सं. 1845 में मेड़ता स्थल पर आर्या नथोजी द्वारा 'आठ कर्म प्रकृति विचार' की पांडुलिपि की गई। उक्त प्रति बी. एल. इन्स्टी. दि. (परि. 9510) में श्रेष्ठ स्थिति में मौजुद है। 6.7.107 आर्या रामकंवर (सं. 1849) आप द्वारा प्रतिलिपि किये गये दो शास्त्र आ. सुशीलमुनि आश्रम नई दिल्ली में है (1) अनुत्तरोपपातिक दशा सूत्र एवं (2) सं. 1849 आश्विन शु. पूर्णमासी को फरूखनगर में लिपि किया गया समवायांगसूत्र संपूर्ण। उक्त दोनों प्रति की कर्ता रामकंवरजी, आर्या केसरजी की शिष्या थीं। 6.7.108 आर्या लक्षमांजी (सं. 1850) __ ये महासती दयाजी की शिष्या रतनकुंवरजी की शिष्या थीं। दिल्ली के सुश्रावक श्रीमान् दलपतरायजी ने तुर्की भाषा में आर्या लक्षमांजी कुछ तात्त्विक प्रश्न भेजे, लक्षमांजी ने हिंदी-गुजराती भाषा में संक्षेप एवं सारपूर्ण जो समाधान लिखकर दिये, उससे साध्वीजी की ज्ञान गुरूता, विद्वत्ता एवं सूक्ष्म विश्लेषण क्षमता का सहज अनुमान लगता है। कुल 180 प्रश्न एवं उत्तर 30 पन्नों में निबद्ध है। इसकी हस्तलिखित प्रति बी. एल. इन्स्टी. दिल्ली (परि. 4369) है। अक्षर भी सुंदर हैं। प्रति सं. 1850 की है। 6.7.109 आर्या फताजी (सं. 1852) आर्या फताजी ने सं. 1852 में 'औपपातिक सूत्र सस्तबक' की प्रतिलिपि की। इसकी प्रति बी. एल. इन्स्टी. दि. (परि. 1482) में है। 'श्री नवकार बालावबोध' की प्रतिलिपि के रूप में आर्या फताजी की एक प्रति आचार्य सुशीलमुनि आश्रम नई दिल्ली में है। 6.7.110 आर्या संभूजी (सं. 1854) आर्या अनूजी की शिष्या आर्या संभूजी ने विक्रमपुर में सं. 1854 में 'नंदीसूत्र सस्तबक' की प्रतिलिपि की। प्रति बी. एल. इंस्टी. दि. (परि. 2575) में है। 6.7.111 आर्या किसनांजी (सं. 1853) सं. 1853 को लखनऊ में लिपि की गई गुजराती भाषा में 'दण्डक छब्बीस द्वार' की पांडुलिपि बी. एल. इन्स्टी. दिल्ली (परि. 9464) में संग्रहित है। 6.7.112 आर्या जमनाजी (सं. 1854) __प्राच्य विद्यापीठ शाजापुर से प्राप्त सं. 1854 चैत्र कृ. 11 की रचना 'कमलावती की सज्झाय' में रचनाकार' आर्या जमनाजी का नाम है, यह रचना प्रतापगढ़ में की गई है। शाजापुर में ही 'प्रज्ञापनासूत्र' मूलपाठ के अंतिम कवर पेज पर भी जमनाजी के नाम का उल्लेख है। 705 Page #768 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन श्रमणियों का बृहद इतिहास 6.7.113 आर्या लछमांजी (सं. 1854) महासती रतन कंवरजी की शिष्या लछमांजी ने सं. 1854 आश्विन कृ. 2 को 'चार प्रत्येक बुद्ध की चउपई' रची। इसकी पत्र सं. 30 एवं सर्व श्लोक संख्या 863 है। यह हस्तलिखित प्रति हमारे संग्रह में है। पीछे जिन लछमांजी का उल्लेख हुआ है, संभव है ये ही लछमाजी हों। 6.7.114 आर्या वसनाजी (सं. 1854) सं. 1854 में लिखित 'श्री चन्द्रगुप्त राजा के 16 स्वप्न' में प्रतिलिपिकर्ता आर्या सीताजी की शिष्या वसनां' का उल्लेख है। प्रति आ. सुशीलमुनि आश्रम में है। 6.7.115 आर्या नथोजी (सं. 1857) सं. 1857 चैत्र कृ. 14 शुक्रवार को 'दशवैकालिक सूत्र' की प्रतिलिपि आर्या खेमांजी की शिष्या वीनांजी की शिष्या नथोजी ने मालेरकोटला में की। प्रति आ. सुशील मुनि आश्रम नई दिल्ली में है। 6.7.116 आर्या वकत्तु (सं. 1858) सं. 1858 कार्तिक शु. 13 बुधवार को श्री सहजराम ने 'नमिपवज्जा' की प्रतिलिपि कर श्री मयाजी की शिष्या आर्या वकत्तु को पठनार्थ दी। यह प्रति आचार्य सुशील मुनि आश्रम दिल्ली में है। 6.7.117 आर्या सुखांजी (सं. 1860) इन्होंने सं. 1860 में 'गजसुकुमाल सज्झाय' (सं. 1858 में मुनि चौथमल रचित) प्रतिलिपि की।523 6.7.118 आर्या दुर्गीजी (सं. 1861) ___ श्री रूपचंदजी महाराज का स्तवन' रूपदेवीजी की शिष्या एवं भागवंतीजी की गुरूबहन के द्वारा सं. 1861 में लिखने का उल्लेख है। प्रति आ. सुशीलमुनि आश्रम नई दिल्ली में है। 6.7.119 आर्या लाजवंतीजी (सं. 1861) श्री बख्शीरामजी महाराज की स्तुति 'आर्या सुलषणीजी की शिष्या रूपदेवीजी उनकी शिष्या भागवंती व उनकी शिष्या लाजवंती द्वारा लिखी गई प्रति आ. सुशीलमुनि आश्रम नई दिल्ली में है। 6.7.120 आर्या चनणांजी (सं. 1862) श्री नयविजय कृत 'श्रीपाल चरित्र (सं. 1730) की सं. 1862 कोटा में प्रतिलिपि की गई प्रति अमरूजी की शिष्या चमनजी उनकी शिष्या लाभुजी व उनकी शिष्या चनणांजी की है। आ. सुशीलमुनि आश्रम नई दिल्ली में यह प्रति है। 523. रा. हिं, हस्त. ग्रं. सू., भाग 8, क्र. 895, ग्रं. 4231 706 Page #769 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्थानकवासी परम्परा की श्रमणियाँ 6.7.121 आर्या पुराजी (सं. 1863) ___ सं. 1863 में आर्या केशरजी की शिष्याआर्या पुराजी ने 'अन्तकृद्दशांग सूत्र सस्तबक' की प्रतिलिपि की।। यह प्रति बी. एल. इन्स्टी . दि. (परि. 1387) में है। 6.7.122 आर्या केसरजी की शिष्या (सं. 1863) सं. 1863 ज्येष्ठ मास में 'अन्तकृद्दशांग सूत्र' की प्रतिलिपि की में आर्या केसरजी की शिष्या का नामोल्लेख है। नाम अस्पष्ट होने से पढ़ा नहीं गया। यह प्रति आ. सुशीलमुनि आश्रम नई दिल्ली में हैं। 6.7.123 आर्या जसा (सं. 1863) _ 'कार्तिक शेठ का चौढालिया' सं. 1863 कार्तिक कृ. 5 में आर्या जसा द्वारा प्रतिलिपि किया गया। प्रति आ. सुशील मुनि आश्रम नई दिल्ली में है। 6.7.124 आर्या मानांजी (सं. 1864) ऋषि जयमलजी की राजस्थानी में रचित 'परदेशी राजा की चौपई' सं. 1864 में नारनोल में आर्या वीणांजी की शिष्या आर्या मानों ने प्रतिलिपि की। यह प्रति बी. एल. इन्स्टी. दि. (परि. 7082) में मौजुद है। 6.7.125 आर्या चुनिया (सं. 1866) समयसुंदर उपाध्याय रचित 'शांब प्रद्युम्न चौपई' की हस्तप्रति सं. 1866 में आर्या चुनिया की लक्ष्मणापुरी में । लिखी गई प्राप्त होती है। प्रति बी. एल. इन्स्टी. दि. (परि. 7273) में उपलब्ध है। 6.7.126 आर्या सजनांजी (सं. 1867) सजनां आर्या ने सं. 1867 को दिल्ली में 'नवतत्त्व बालावबोध' की प्रतिलिपि की। यह प्रति बी. एल. इन्स्टी. दि. (परि. 6073) में है। 6.7.127 आर्या लालाजी (सं. 1868) श्री भगवतीदास रचित 'पांच इन्द्रियों की चौपई' सं. 1868 में 'बिहाणी स्थल पर आर्या केसरजी की शिष्या लाला ने प्रतिलिपि की। प्रति बी. एल. इन्स्टी. दि. (परि. 254) में है। 6.7.128 आर्या रूपना (सं. 1869) ___ आर्या हेमाजी की शिष्या आर्या रूपना ने 'ईषुकार चरित्र' की सं. 1869 कार्तिक मास मंगलवार को प्रतिलिपि की। प्रति आ. सुशीलमुनि आश्रम नई दिल्ली में है। 6.7.129 साध्वी रत्नां (सं. 1870) साध्वी रत्नां ने सं. 1870 में बावड़ी ग्राम में श्रीसार रचित 'आनंद श्रावक' कृति की प्रतिलिपि की1524 524. राज. ह. ग्रं., सू. भाग 1, क्र. 144 ग्रं. 7094 707 For Privateho dnal Use Only Page #770 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन श्रमणियों का बहद इतिहास 6.7.130 आर्या फत्ताजी (सं. 1870-72) आपने कई सूत्रों की प्रतिलिपि कर श्रुतरक्षा का महद् कार्य किया। आ. सुशीलमुनि आश्रम में आप द्वारा सं. 1870 का मालेरकोटला में लिखित निरयावलिका सूत्र, सं. 1872 आश्विन शु. 6 का मालेरकोटला में लिखित संपूर्ण ठाणांगसूत्र (परि. 178), एवं राजप्रश्नीय सूत्र, (परि. 90/176) संग्रहित है। पू. जयमलजी रचित 'साधवंदना' भी मालेरकोटला में प्रतिलिपि कर मनभरीजी को प्रदान की. ऐसा उल्लेख है। यह प्रति स्व. गुलाबचंदजी जैन, चीराखाना दिल्ली के संग्रह में है। आप आर्या केसरजी की शिष्या थीं। 6.7.131 आर्या ज्ञानीजी (सं. 1873) महासती खेमांजी की शिष्या श्री बीनाजी उनकी शिष्या ज्ञानीजी का सीढोरा (पंजाब) में सं. 1873 का प्रतिलिपि किया गया चूलिका सहित दशवैकालिक सूत्र आ. सुशीलमुनि आश्रम नई दिल्ली में है। खेमांजी वीनांजी की कई शिष्याओं ने शास्त्रों की प्रतिलिपियां करके श्रुतसंरक्षण में अपना अमूल्य योगदान दिया। 6.7.132 आर्या दीपाजी (सं. 1873) ऋषि लालचंदजी रचित 'कक्का बत्तीसी' में प्रतिलिपिकर्ता के रूप में आर्या दीपां का उल्लेख है। प्रति आ. सुशीलमुनि आश्रम नई दिल्ली में है। 6.7.133 आर्या सुखमनी (सं. 1874) श्री प्रज्ञापना सूत्र सं. 1874 में अंबहटानगर में आर्या भागां की शिष्या आर्या सुखमनी ने लिपि किया। यह प्रति बी. एल. इन्स्टी. (परि. 1556) में मौजुद है। 6.7.134 आर्या पनीजी (सं. 1874-88) आप आर्या चमनाजी की शिष्या आर्या राजाजी की शिष्या थी। आपके कई सूत्र एवं रास आ. सुशीलमुनि आश्रम में हैं। आपने सं. 1874 चैत्र मास में किशनगढ़ में 'नन्दीसूत्र', सं. 1879 में फतेगढ़ में 'दशवैकालिक सूत्र' संपूर्ण, सं. 1880 माघ शु. 8 रविवार को 'अंजनासती रास', सं. 1882 में फतेगढ़ में 'उत्तराध्ययन सूत्र', सं. 1888 आसाढ़ शु. 13 गुरूवार को किशनगढ़ में 'मयणरेहा कथा संबंध' लिपिकृत कर पूर्ण किया। आपकी लिपी भी सुंदर है। 6.7.135 आर्या ज्ञानीजी (सं. 1874) श्री केसराज की कृति 'राम यशोरसायन की ढाल' सं. 1874 कार्तिक कृ. 3 सोमवार विक्रमपुर में आर्या ज्ञानीजी द्वारा प्रतिलिपि करने का उल्लेख है। यह प्रति सुशीलमुनि आश्रम नई दि. में है, पत्र एक दूसरे से चिपके हुए हैं। 6.7.136 आर्या गुमानाजी (सं. 1875) 'नमिपवज्जा' की प्रतिलिपि श्री पृथ्वीराज स्वामी ने सं. 1875 पोष शु. 14 को करके गुमानाजी को पठनार्थ दी। यह प्रति सुशील मुनि आश्रम नई दिल्ली में है। 708 Page #771 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्थानकवासी परम्परा की श्रमणियाँ 6.7.137 आर्या सुखमनी (सं. 1876) आर्या सुखमनी ने सं. 1876 थानेश्वर में कवि परमल्ल (दिगंबर) की कृति 'श्रीपाल चरित्र भाषा' (रचना सं. 1651, आगरा) की प्रतिलिपि की। उक्त प्रति बी. एल. इन्स्टी. दि. (परि. 6595) में श्रेष्ठ स्थिति में मौजुद है। श्वेताम्बर संप्रदाय की साध्वी के द्वारा दिगम्बर कृति की प्रतिलिपि करना उसके उदार दृष्टिकोण का परिचायक है। 6.7.138 आर्या जसुजी (सं. 1877) आर्या जसुजी ने सं. 1877 में 'विजयचंद केवली चरित्र सस्तबक की गुजराती में पांडुलिपि की। प्रति बी. एल. इंस्टी. दि. (परि. 9906) में हैं। 6.7.139 आर्या नान्ही (सं. 1880) इनके लिये श्री सुखजी मुनि ने सं. 1880 पोष शु. 14 गुरूवार को 'समवायांग सूत्र' संपूर्ण लिखकर झालरापाटन में प्रदान किया। प्रति सुशीलमुनि आश्रम, नई दिल्ली में है। 6.7.140 आर्या गुमानांजी (सं. 1882) प्राच्य विद्यापीठ शाजापुर से प्राप्त सोमगणि रचित 'विक्रमादित्य चौपाई (सं. 1727) की प्रतिलिपि आर्या गुमानाजी द्वारा सं. 1882 में मंदसौर नगर में की गई। 6.7.141 आर्या जमुना (सं. 1884) पंजाब की महासाध्वी आर्या जमुना ने सं. 1884 में हिसार में 'गजसुकुमाल चरित्र' रचा।25 6.7.142 आर्या उजलांजी (सं. 1886) 'चंदनमलयगिरि की चौपाई' आर्या रंभाजी की शिष्या श्री उजलांजी ने पाली में शुक्रवार सं. 1886 में लिपि की। प्रति आ. सुशील मुनि आश्रम नई दिल्ली में है। 6.7.143 साध्वी अमृताश्रीजी (सं. 1887) ___सं. 1887 में साध्वी अमृताजी ने राजस्थानी भाषा की कृति 'बासठ बोल की चर्चा' जोधपुर में प्रतिलिपि की। यह प्रति बी.एल. इन्स्टी . (परि. 987) में मौजुद है। 6.7.144 आर्या म्हाकुंवरजी (सं. 1888) 'जंबूचरित्र' की एक प्रति सुशील मुनि आश्रम नई दिल्ली में श्री चमनाजी की शिष्या सजांजी उनकी शिष्या कुशालांजी उनकी शिष्या म्हाकुंवरजी द्वारा किसनगढ़ में सं. 1888 वैशाख कृ. सोमवार के दिन लिखी गई प्राप्त होती है। 525. 'दुगड़' मध्य एशिया और पंजाब में जैनधर्म, पृ. 390 709 700 Page #772 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 6.7.145 आर्या रामजी की शिष्या (सं. 1889 ) ऋषि रायचन्दजी की 'मृगलेखा नी चौपाई' (रचना 1838 ) की प्रतिलिपि बलुंदा में सं. 1889 में रामुजी की शिष्या द्वारा की गई। 526 6.7.146 आर्या रायकंवरी (सं. 1890 ) पू. जयमलजी महाराज द्वारा रचित 'मल्लिचरित्र' ( रचना सं. 1824 सोजत, का. शु. 14 ) महासती रामकंवरजी की शिष्या पारांजी उनकी शिष्या रायकंवरजी ने सं. 1890 श्रावण कृ. 8 बुधवार को रूपनगर शहर में प्रतिलिपि की । यह प्रति आ. सुशीलमुनि आश्रम नई दिल्ली में है। 6.7.147 आर्या भागांजी (सं. 1892) 'सती सुभद्रा की चौपई' श्री राजाजी की शिष्या श्री पनाजी उनकी शिष्या भागां ने सं. 1892 वैशाख मास में सोमवार को किशनगढ़ में आत्मार्थ के लिये लिखी । प्रति आ. सुशील मुनि आश्रम नई दिल्ली में है। 6.7.148 आर्या रामो (सं. 1892 ) सं. 1892 मार्गशीर्ष शु. 10 रविवार को आगरा में ऋषि यति जोतिरूप ने 'तैंतीस बोल का थोकड़ा' लिखकर आर्या रामो को दिया। प्रति आचार्य सुशील आश्रम नई दिल्ली में है। जैन श्रमणियों का बृहद इतिहास 6.7.149 आर्या चंदु (सं. 1894 ) आनंदघनजी रचित 'नेमजी की सज्झाय' की मेड़ता में प्रतिलिपि कर आर्या चंदुजी को वाचनार्थ दी 1527 6.7.150 आर्या चिमनाजी (सं. 1895 ) सं. 1895 मृगशिरशु. 3 मंगलवार को अजीमगंज में आर्या नंदूजी की शिष्या श्री चनणांजी, उनकी शिष्या चिमनाजी ने भागिरथी के तट पर उपाध्याय समयसुंदरजी रचित 'सीताराम प्रबंध चौपाई' (रचना सं. 1687) की प्रतिलिपि की। यह प्रति श्री मोहनलालजी सेंट्रल लायब्रेरी पांजरापोल गली, लालबाग मुंबई में मौजूद है | 128 6.7.151 आर्या जतनजी (सं. 1895) श्री हसुजी की शिष्या जतनजी द्वारा सं. 1895 की प्रतिलिपि दशवैकालिक सूत्र 'आ. सुशीलमुनि आश्रम नई दिल्ली में अपूर्ण स्थिति में है। 6.7.152 आर्या कुनणांजी (सं. 1895) सं. 1895 ज्येष्ठ कृ. 14 की एक प्रति जिसमें अनेक विध मंत्र जप आदि लिखे हुए हैं; रतनांजी की शिष्या श्री लाभांजी उनकी शिष्या कुनणांजी की पांडुलिपि है। प्रति आ. सुशीलमुनि आश्रम नई दिल्ली में है। 526. राज. हिं. ह. ग्रं. की सू. भाग 3, क्र. 1617, ग्रं. 11057 527. स्व. गुलाबचंद्र जैन, चांदनी चौंक, दिल्ली के संग्रह में 528. जै. गु. क. भाग 2, पृ. 348 710 Page #773 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्थानकवासी परम्परा की श्रमणियाँ 6.7.153 आर्या मानकुंवर (सं. 1899 ) प्राच्य विद्यापीठ शाजापुर में उपलब्ध पाण्डुलिपि 'नमिपवज्जा' के अंत में आर्या मोताजी उनकी शिष्या उमाजी पेमाजी की शिष्या मानकुंवरजी और फूलकुंवरजी का उल्लेख है। यह प्रतिलिपि सं. 1899 आश्विन शु. 12 रविवार को लिखी गई अंत में, यह पत्र श्री मानकुंवरजी की नेश्राय में है, ऐसा उल्लेख है । 6.7.154 आर्या लाभु (सं. 1899 ) सं. 1899 ज्येष्ठ कृ. अमावस्या शुक्रवार को महासती हरूजी की शिष्या पेमाजी उनकी शिष्या अजबांजी उनकी शिष्या अमरूजी उनकी शिष्या लाभ के द्वारा 'उत्तराध्ययन सूत्र' की प्रतिलिपि करने का उल्लेख है। लिपि सुंदर है, आ. सुशीलमुनि आश्रम नई दिल्ली में उपलब्ध है। 6.7.155 साध्वी जसोदाजी (19वीं सदी) श्री जसोदाजी महान तपस्विनी साध्वी थीं अंत समय में आचार्य श्री के द्वारा संथारा व्रत अंगीकार कर समाधिमरण को प्राप्त हुईं। इनकी स्तुति में मुनि ठाकुर ने 7 कड़ी की पद्य रचना की है। पत्र में लेखन वर्ष का उल्लेख नहीं है, किंतु भाषा व लिपी से पत्र 19वीं सदी का प्रतीत होता है । एक साध्वी का गीत साधु के द्वारा लिखा जाना उसके संयम व तपोनिष्ठ जीवन का सूचित करता है । गीत अंत में साधु की श्रद्धा रूप एक कड़ी इस प्रकार है- 'करजोड़ी मुनि ठाकुर गुण गावई, मनवांछित सुख सघला पावई ॥ 7 ॥29 6.7.156 आर्या रामा ( 19वीं सदी) इन्होंने मरूगुर्जर भाषा की 'अनुत्तरोपपातिक दशा सूत्र सस्तबक' को 18वीं सदी में सांगानेर में पांडुलिपि की । प्रति बी. एल. इन्स्टी. दि. (परि. 1393) में है। 6.7.157 आर्या केसरजी ( 19वीं सदी) आर्या केसरजी ने 'प्रकीर्णक बोल' की 19वीं सदी में पांडुलिपि की। बी. एल. इन्स्टी. दि. में (परि. 9490) संग्रहित है। आर्या केसरजी की पांडुलिपि का 'स्फुट सवैया' भी 19वीं सदी का प्राप्त है। प्रति चित्तोड़ संग्रह में है 1530 6.7.158 आर्या लटको ( 19वीं सदी) मालमुनि रचित 'करणी स्वाध्याय' की प्रतिलिपि में आर्या जटो की शिष्या लटको का लिपिकार के रूप में उल्लेख है। प्रति बी. एल. इन्स्टी. दि. (परि. 7953 ) में है। 6.7.159 आर्या रत्ना (19वीं सदी) गुणसागर कृत 'राजेश्वर स्वाध्याय' की प्रतिलिपिकर्त्री में 'आर्या रत्ना का नामोल्लेख है। प्रति बी. एल. इन्स्टी. दि. (परि. 7547) में है। 529. 'साध्वी जसोदाजी गीत', मुनि श्री भुवनचंद्रजी म., दुर्गापुर कच्छ से प्राप्त प्रकीर्णक पत्र के आधार पर 530. रा. हिं. ह. ग्रं. सू. भाग 8 क्र. 177 ग्रं 4382 711 Page #774 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन श्रमणियों का बहद इतिहास 6.7.160 आर्या रजी (19वीं सदी) श्री मतिवल्लभ कृत 'चंद्रलेखा चौपाई (रचना सं. 1728) की प्रतिलिपिकी में आर्या वीरा की शिष्या आर्या रजी का उल्लेख है। प्रति बी. एल. इन्स्टी. दि. (परि. 7075) में संग्रहित है। 6.7.161 आर्या रमो (19वीं सदी) मरूगुजर भाषा में रचित 'पद्मावती रास' की 19वीं सदी में प्रतिलिपिकार के रूप में आर्या रमो का । नामोल्लेख है, प्रति बी. एल. इंस्टी. दि. (परि. 7033) में संग्रहित है। 6.7.162 आर्या राजकुमारी (19वीं सदी) खेममुनि रचित 'ईषुकार संधि' (रचना सं. 1747) की बाबयरा स्थान पर आर्या राजकुमारी ने 19वीं सदी में प्रतिलिपि की। प्रति बी. एल. इन्स्टी . दि. (परि. 6920) में है। 6.7.163 आर्या अनोखी (19वीं सदी) गजसुकुमाल चौपई की प्रतिलिपिकर्ता में आर्या अनोखी की शिष्या का नामोल्लेख है। प्रति बी. एल. इन्स्टी. दिल्ली (परि. 6852) में है। 6.7.164 आर्या नगीना ( 19वीं सदी) मालकवि रचित 'अमरसेन वयरसेन चौपाई' की प्रतिलिपिकार में 'आर्या नगीना' का नाम प्राप्त होता है। प्रति बी. एल. इन्स्टी. दिल्ली (परि. 6804) में संग्रहित है। 6.7.165 आर्या वृद्धि (19वीं सदी) हेमराजकविकृत 'भक्तामर स्तोत्र भाषा' की पांडुलिपि में आर्या वृद्धि का नाम है। बी. एल. इन्स्टी. दि. (परि. 8515) में संग्रहित है। 6.7.166 आर्या नवलजी (19वीं सदी) प्रज्ञापना सूत्र मूल पाठ की प्रतिलिपि (लगभग 16वीं सदी) के अंतिम कवर पृष्ठ पर नवलजी के नाम का उल्लेख है। यह प्रति प्राच्य विद्यापीठ शाजापुर भंडार में संग्रहित है। 6.7.167 आर्या नाथी ( 19वीं सदी) ऋषि दीप....कृत 'गुणकरंड गुणावली चौपाई' की लिपिकी के रूप में 19वीं सदी की आर्या नाथी का नामोल्लेख है।। 531. राज. हिं. ह. ग्रं. सू. भाग 1, क्र. 412 ग्रं. 4053 712 Page #775 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्थानकवासी परम्परा की श्रमणियाँ 6.7.168 आर्या दीपां (19वीं सदी) ___रिषी चौथमलजी रचित 'रोहिणी तप की ढाल' आर्या दीपा की शिष्या ने जालोर में लिखी। प्रति आ. सुशीलमुनि आश्रम नई दिल्ली में है। 6.7.169 आर्या दीपा (19वीं सदी) 'खण्डा-जोयणा' की लिपिकर्ता 19वीं सदी में रूपा आर्या की शिष्या दीपा आर्या थीं। प्रति जयपुर संग्रह में है।532 6.7.170 आर्या रूपां ( 19वीं सदी) 'छह ढाले उपदेशी' की प्रति 19वीं सदी में रूपां आर्या ने लाखेरी स्थान में लिपि की।33 19वीं सदी की रूपां आर्या की 'काय स्थिति द्वार बोल' की पांडुलिपि शेरपुर में लिखित प्राप्त हैं। यह प्रति जयपुर संग्रह में है।534 6.7.171 आर्या मया ( 19वीं सदी) अजबांजी की शिष्या मयाजी ने पालि में ज्येष्ठ शु 13 को 'अंजना सती रास' की प्रतिलिपि की। यह प्रति आ. सुशील मुनि आश्रम, नई दिल्ली (परि. 90/252) में है। 6.7.172 आर्या सीता ( 19वीं सदी) 'नवतत्त्व का थोकड़ा' की प्रतिलिपिकार के रूप में उल्लेख है। प्रति आ. सुशील मुनि आश्रम नई दिल्ली (परि. 90/439) में है। 6.7.173 आर्या जयदेवीजी (19वीं सदी) ___ आर्या जयकारीजी की शिष्या सुखदेईजी उनकी शिष्या जयदेवीजी द्वारा प्रतिलिपिकृत 'देवकी की ढाल' आ. सुशील मुनि आश्रम में है। यह पांडुलिपि जिहानाबाद में लिखी गई थी। 6.7.174 आर्या जोगमाया ( 19वीं सदी) ऋषि नंदलालजी रचित 'रूक्मिणी रास' (रचना, सं. 1872 होश्यारपुर) की प्रतिलिपि लाजवंती की शिष्या सती जोगमाया द्वारा लिखी गई प्राप्त होती है। प्रति आ. सुशीलमुनि आश्रम नई दि. परि. 90/547) में है। 6.7.175 आर्या नानीजी (19वीं सदी) श्री हीराचंदजी महाराज की अंतेवासिनी शिष्या नानीजी के पठनार्थ 'नमिराजर्षि' की प्रतिलिपि की गई। प्रति आ. सुशील मुनि आश्रम नई दिल्ली में है। 532. राज. हिं. ह. ग्रं. सू. भाग 6, क्र 782, ग्रं. 7185 533. राज. हिं. ह. ग्रं. सू. भाग 5, क्र. 1526 ग्रं. 6170 534. वही, भाग 6, क्र. 779 ग्रं. 7986 713 Page #776 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन श्रमणियों का बहद इतिहास 6.7.176 आर्या सारो (19वीं सदी) ‘पन्नवणां सूत्र' का 18वां पद आर्या चिमनांजी की शिष्या वखतांजी उनकी शिष्या सारो ने किशनगढ़ में लिपिकृत किया प्रति आ. सुशीलमुनि आश्रम में है। 6.7.177 आर्या चंनणीजी (19वीं सदी) 'कड़वा बोल नी सज्झाय' आर्या चंनणीजी की प्रतिलिपि मुन्नालाल सिंघी धर्मशाला, चांदनी चौंक दिल्ली से प्राप्त हुई। 6.7.178 साध्वी गुणश्री (19वीं सदी) माणिक मुनि रचित 'मांकण स्वाध्याय' गुजराती भाषा में साध्वी गुणश्री द्वारा लिखित पाटण भाभाना पाडा मां विमलगच्छ उपाश्रय के ज्ञान भंडार (प्रति नं. 3156) में उपलब्ध है।535 6.7.179 आर्या हरकुंवरजी (19वीं सदी) 'धर्मध्यान की सज्झाय' में हरकुंवरबाई स्वामी के नाम का उल्लेख है। नाम और ग्रंथ-प्राप्ति के आधार पर ये स्थानकवासी परम्परा की प्रतीत होती हैं। लिपि के आधार पर काल 19वीं शताब्दी के आसपास का है। प्रति प्राच्यविद्यापीठ शाजापुर में उपलब्ध है। 6.7.180 आर्या केसरजी (सं. 1901) पुण्यकलश उपाध्याय के शिष्य जेतसीकृत 'दशवैकालिक सूत्र गीतबंध' 'रचना सं. 1777 की प्रतिलिपि बिहारीचंद्र ने विसलपुर में सं. 1901 भाद्रपद शु. 11 को आर्या केसरजी को पठनार्थ दी। प्रति आ. सुशील मुनि आश्रम नई दिल्ली में है। 6.7.181 आर्या चनांजी (सं. 1902) सं. 1902 चैत्र शु. 7 सोमवार को किसनगढ़ में प्रतिलिपि की गई 'ठाणांगसूत्र' की. प्रति के अंत में चनांजी ने अपनी गुरूणी परंपरा भी दी है-महासती हरूजी की शिष्या पेमांजी - अजबांजी-अमरांजी-चनांजी। यह प्रति आ. सुशीलमुनि आश्रम नई दिल्ली (परि. 248) में है। 6.7.182 आर्या अजुबांजी (सं. 1903) दशाश्रुतस्कन्ध की प्रतिलिपि में उदांजी की शिष्या अजुबांजी ने सं. 1903 पोष कृ. 14 रविवार मेड़ता नगर में इसकी पांडुलिपि की, यह उल्लेख है। प्रति आ. सुशील मुनि आश्रम नई दिल्ली में है। 6.7.183 आर्या पनां (सं. 1903) वीरत्थुई की सं. 1903 पोष शु. 5 मंगलवार को ओडपुर में लिखी आर्या पनांजी की प्रतिलिपि में उल्लेख 535. पाटण जैन ग्रंथ भंडार के ह. ग्रं. सू. भाग 4, पृ. 155 714 Page #777 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्थानकवासी परम्परा की श्रमणियाँ है कि इस प्रति को आर्या चंपाजी ने विरधिचंदजी कोटा वाले देवजी स्वामी के शिष्य को सं. 1915 में सायपुरा में बहराया। प्रति आ. सुशीलमुनि आश्रम नई दिल्ली में है। 6.7.184 आर्या रत्तुजी (सं. 1903 ) नवत्तत्त्व की प्रतिलिपि में उल्लेख है कि इसे सं. 1903 में आश्विन शु. 10 बुधवार को आर्या रत्तुजी की शिष्या विलासजी ने लिखा । प्रति आ. सुशीलमुनि आश्रम नई दि. (परि. 90/30 ) में संग्रहित है। 6.7.185 आर्या गुमानांजी (सं. 1903) तैतीस बोल के थोकड़े की प्रतिलिपि सं. 1903 में आर्या गुमानांजी ने दिल्ली में की 1536 सं. 1904 की जिहाना बाद की प्रति श्री जिनचंद्रसूरिकृत' जिनकुशलसूरि अष्ट प्रकारी पूजा' में भी आर्या गुमानां का नामोल्लेख है। 37 6.7.186 अज्ञात लिपिकर्त्री (सं. 1904 ) सं. 1904 में उदयपुर शहर में रायचंद स्वामी की शिष्या ने 'आलोयणा' की प्रतिलिपि की। साध्वी का नाम निर्देश नहीं है। लेखन सुन्दर है। प्रति आ. सुशीलमुनि आश्रम में संग्रहित है। 6.7.187 आर्या गुलाबांजी (सं. 1907) श्री रायचंदजी की परंपरा के कुशालचंदजी की रचना 'अर्हद्दास चरित्र' (सं. 1879) की प्रतिलिपि सं. 1907 में श्री फतांजी चतरूंजी की शिष्या गुलाबांजी ने किसनगढ़ में की। प्रति आ. सुशीलमुनि आश्रम नई दिल्ली में है। 6.7.188 आर्या चनणांजी की शिष्या (सं. 1909 ) क्षमाकल्याणकृत 'देवकी चौपाई' सं. 1909 की लिपिकर्त्ता में चनणांजी की शिष्या का उल्लेख है, यह प्रति बिलाड़ा (राज.) में लिखी गई थी । 438 6.7.189 आर्या उदेकंवरजी (सं. 1909 ) 'विपाकसूत्र' की सं. 1909 वैशाख शु. 14 शुक्रवार की प्रतिलिपि में आर्या गवरांजी की शिष्या उदेकंवरजी ने जोधपुर में की। प्रति आ. सुशीलमुनि आश्रम नई दि. में है। 6.7.190 आर्या गोगांजी (सं. 1911-31 ) आचार्य सुशीलमुनि आश्रम नई दिल्ली में आर्या गोगांजी की भिन्न-भिन्न संवत् एवं स्थान में लिखी गई 4 प्रतियां उपलब्ध हुई हैं। (1) सं. 1911 ज्येष्ठ कृ. 2 को कीसनगढ़ में लिखी गई ' कृष्ण रूक्मिणी को ब्याहला', (2) सं. 1911 कार्तिक शु. 14 शुक्रवार को ऋषि आसकरण कृत 'गजसिंह कुमार की चउपई' (रचना सं. 1852) (3) सं. 1923 ज्येष्ठ कृ. 2 मंगलवार को मालपुरा में लिखित 'नंदीसूत्र' की प्रति (4) सं. 1931 आश्विन कृ. 12 बुधवार को किसनगढ़ में लिखित रामविजयकृत 'शांतिनाथ चरित्र' । उक्त सभी प्रतियों में इन्होंने अपनी गुरूणी परम्परा का भी उल्लेख किया है- महासती राजाजी की शिष्या - पनाजी भागांजी गोगांजी। 536. राज, हिं. ह. ग्रं. सू. भाग 5 क्र. 831 ग्रं. 5878 537. वही, क्र. 493 ग्रं. 6999 (24) 538. राज. हिं. ह. ग्रं. सू. भाग 3, क्र. 826 ग्रं. 12542 715 Page #778 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन श्रमणियों का बृहद इतिहास 6.7.191 आर्या चतरू (सं. 1915) 'मदनकुमार की ढाल' सं. 1915 वैशाख कृ. 6 को महासती गोरांजी की शिष्या आर्या चतरू ने लिपि किया। प्रति आ. सुशीलमुनि आश्रम नई दिल्ली में संग्रहित है। 6.7.192 आर्या बुधांजी (सं. 1924-60) आप श्री रामरतनजी, स्वामी बसंतराय श्री परमानंदजी महामुनि के टोले की सती थी। अग्रवाल कुल में जन्म हुआ, नाभा (पंजाब) में विवाह हुआ, विधवा होने पर श्राविका धर्म का पालन करती हुई सं. 1924 में श्री राजादेवी सती के पास वैशाख शु. 5 मंगलवार के दिन दीक्षा ली। महान तपस्विनी साध्वी थीं, सं. 1960 चैत्र शु. पूर्णमासी बुधवार को 17 उपवास के साथ संथारा करके स्वर्गवासिनी हुई। आपकी स्मृति में श्री बख्शीरामजी ने जेजोपुर में सं. 1962 को 'सती बुधांजी का चोढालिया' बनाया। इसकी हस्तप्रति आ. सुशीलमुनि आश्रम दिल्ली में है। प्रति में यह भी उल्लेख है कि आप 15 साध्वियों में अग्रणी थी। 6.7.193 साध्वी जड़ाव श्री (सं. 1926) साध्वी जड़ाव श्रीजी ने धोलराबंदर में सं. 1926 में 'सारस्वत प्रक्रिया सस्तबक गुजराती' की प्रतिलिपि की। यह प्रति बी. एल. इन्स्टी . दि. (परि. 4939) में है। 6.7.194 आर्या सुलखनीजी (सं. 1932-41) __आचार्य सुशील मुनि आश्रम में महासती राजादेवी की शिष्या सुलखनीजी की चार प्रतिलिपियाँ प्राप्त हुई हैं - (1) सुनाम शहर में सं. 1932 कार्तिक शु. 3 रविवार की श्री नंदलाल रचित 'लब्धि प्रकाश' ग्रंथ (2) सुनाम में ही सं. 1934 माघ कृ. 3 सोमवार की 'अवश्यकसूत्र' की प्रति (3) समानां शहर में सं. 1941 कार्तिक शु ___ 14 को लिखित श्री केसरराजकृत 'रामजसोरसायण'। (4) समाना में वैशाख मास सं. 1945 को मोहनविजयजी विरचित 'चंद्र चरित्र'। 6.7.195 आर्या पारबतीजी (सं. 1934) आर्या पारवतांजी ने जम्मू में 'चन्दनमलयगिरि ढाल' की रचना की, इसकी प्रतिलिपि सं. 1947 ज्येष्ठ कृ. 9 सोमवार को आर्या जसवंतीजी ने की। प्रति सुशीलमुनि आश्रम नई दिल्ली में है। 6.7.196 आर्या भूरांजी (सं. 1936) प्राच्य विद्यापीठ शाजापुर भंडार में उपलब्ध 'प्रतिक्रमण' की प्रति जो सं. 1936 आश्विन शुक्ला 12 रविवार को लिखी गई उसमें उल्लेख है कि यह प्रति दयाजी महाराज की शिष्या सरदारांजी महाराज उनकी शिष्या हीराजी और उनकी शिष्या भूरांजी के नेश्राय की है। 6.7.197 आर्या हंसुजी (सं. 1939) सं. 1939 फाल्गुन कृ. 10 को 'नमिपवज्जा' अध्ययन श्री तिलोकरिख ने दक्षिण ग्राम सीरूज में लिखकर 'आर्या हसु को दिया। प्रति आचार्य सुशील मुनि आश्रम नई दिल्ली में है। 6.7.198 आर्या समताजी (सं. 1939) ___ पूज्य श्री तुलसीरामजी के शिष्य ऋषि सुरग ने सं. 1939 कार्तिक शु. 1 मंगलवार के दिन "उत्तराध्ययन 36 716 Page #779 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्थानकवासी परम्परा की श्रमणियाँ अध्ययन संपूर्ण" लिखकर आर्या जीऊजी की शिष्या आर्या समताजी को दिया। प्रति आ. सुशीलमुनि आश्रम नई दिल्ली में है। 6.7.199 आर्या सुखाजी (सं. 1940 ) श्री विनेमल ऋषिजी द्वारा सं. 1940 चैत्र शु. 5 को जोधपुर में लिखी 'श्री रामचन्द्रजी की लावणी' आर्या सुखाजी को वाचनार्थ दी। यह प्रति आ. सुशीलमुनि आश्रम नई दिल्ली में है। 6.7.200 आर्या रूपदेवीजी (सं. 1943 ) सं. 1943 आसाढ़ कृ. 2 को 'सद्गुरू गुण वर्णन' श्री सलखणीजी की शिष्या रूपदेवीजी के पठनार्थ हैवदपुर पट्टी नगर में लिखने का उल्लेख है। आचार्य सुशीलमुनि आश्रम नई दिल्ली में यह प्रति है। 6.7.201 आर्या राजां (सं. 1942 ) सं. 1942 वैशाख मास शुक्रवार को प्रतिलिपि किया गया 'दशाश्रुतस्कन्ध' की प्रति में कर्त्ता के रूप में आर्या गोरांजी की शिष्या चम्पाजी उनकी शिष्या राजा ने लिखा, ऐसा उल्लेख है। प्रति आ. सुशीलमुनि आश्रम नई दिल्ली में है। 6.7.202 आर्या गुमानाजी (सं. 1945 ) प्राच्य विद्यापीठ शाजापुर भंडार (सं. 74 ) में उपलब्ध 'दशवैकालिक सूत्र' की प्रतिलिपि साध्वी गुमानाजी घीसाजी द्वारा सं. 1945 में लिखी गई, ऐसा उल्लेख है। एक अन्य 'समवायांग सूत्र' की प्रतिलिप जैसलमेर में हीरसुन्दर मुनि द्वारा की गई प्रति के अंत में उल्लेख है कि यह प्रति बाद में गुमानांजी घीसाजी के नेश्राय में रही । दोनों प्रति शाजापुर संग्रह में है। 6.7.203 आर्या विरदूजी (सं. 1946 ) ऋषि पूनमचंद ने जालंधर (पंजाब) में आर्या विरदूजी को मानतुंगाचार्य विरचित भक्तामर स्तोत्र ( श्लोक 44) सं. 1946 आसोज शु. 13 रविवार को लिखकर दिया। 6.7.204 आर्या सुखांजी (सं. 1950 ) सं. 1950 पोष शु. 13 रविवार को गच्छाधिपति श्री कस्तूरचंदजी म. के शिष्य ने 'देवद्वार' लिखकर आर्या सिरदारांजी की शिष्या सुखांजी को विसलपुर ग्राम में दिया । 6.7.205 आर्या वुदाजी (सं. 1950 के लगभग ) आर्या राजाजी की शिष्या वुदाजी ने 'तीन काल की चौबीसी' की प्रतिलिपि की, यह सुशील मुनि आश्रम नई दिल्ली में है। 6.7.206 आर्या गुमानांजी (सं. 1951) प्राच्य विद्यापीठ शाजापुर में 'दशवैकालिक सूत्र' की प्रति पर प्रतिलिपिकार के रूप में 'साध्वी गुमानांजी का उल्लेख है। यहां गुमानांजी के साथ घीसाजी का नाम नहीं है, अतः स्पष्ट प्रतीत नहीं होता कि यह अलग नाम है या एक ही। इस प्रति के प्रथम और अंतिम पृष्ठ पर सामकुंवरबाई द्वारा चित्रकारी भी की गई है। प्रति (म. प्र.) में लिखी गई। 717 Page #780 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 6.7.207 आर्या वुदांजी (सं. 1952 ) सं. 1952 में वुदाजी महाराज ने 'देवकी की ढाल' की प्रतिलिपि की। यह प्रति आ. सुशीलमुनि आश्रम (परि. 90/450 ) में है। 6.7.208 आर्या लिछां (सं. 1953 ) राजप्रश्नीय सूत्र वृत्ति संवत् 1953 वैशाख शु. 13 गुरूवार को पूज्य नैणसुखजी की प्रति से उतारकर आर्या नंदोजी की शिष्या आर्या लिछां ने अमीचंदजी के स्थानक रोहतक में लिखा । आ. सुशीलमुनि आश्रम में उक्त प्रति की परिग्रहण सं. 90/106 है। जैन श्रमणियों का बृहद इतिहास 6.7.209 आर्या जीवीजी (सं. 1955-62 ) आ. सुशीलमुनि आश्रम नई दिल्ली में श्री बुदांजी की शिष्या रूड़ीजी उनकी शिष्या जीवीजी की तीन हस्तलिखित प्रतियां संग्रहित हैं (1) दशवैकालिक सूत्र संपूर्ण, सं. 1955 आश्विन कृ. 6, (2) स्वामी वसंतरायजी का चउढालिया, सं. 1962 जेजो शहर, (3) बावनी, सं. 1962 आश्विन शु. 5 6.7.210 आर्या रूपां (सं. 1963) महासती श्री रूकमांजी, श्री केलाजी महाराज की शिष्या रूपांजी ने किशनगढ़ सं. 1963 पोष मास में 'नेमिचरित्र' लिखा। प्रति आ. सुशीलमुनि आश्रम नई दिल्ली में है। 6.7.211 आर्या विनैजी (सं. 1964 ) प्राच्य विद्यापीठ शाजापुर भंडार संख्या 80 पर अंकित 'भक्तामर स्तोत्र' की प्रतिलिपि सं. 1964 में गुरूदास द्वारा आर्या विनैजी के लिये लिखने का उल्लेख है। 6.7.212 आर्या मानकंवर ( सं. 1965 ) सं. 1965 को जावरा में आर्या झमकूजी की शिष्या मानकंवरजी ने तीन छंदों की प्रतिलिपि की - (1) पारसनाथ छंद - यह ताराचंद के पढ़ने के लिये लिखा (2) तप का छंद (3) कष्ट हरण छंद । तीनों आ. सुशीलमुनि आश्रम नई दिल्ली में है। 6.7.213 आर्या कस्तूरी (सं. 1967 ) सं. 1967 को पटियाला में आपने 'सुमतसुंदरी' की ढाल बनाई। इसकी हस्तलिखित प्रति आ. सुशीलमुनि आश्रम नई दिल्ली में है। 6.7.214 साध्वी रूपा (सं. 1969 ) 'पाशा केवली भाषा' की प्रतिलिपि कर्त्री के रूप में साध्वी रूपा का नाम उल्लिखित है। 539 6.7.215 आर्या भागवंतीजी (सं. 1971 ) आर्या भागवतीजी की कई हस्तलिखित ढाल रास आदि के फुटकर पन्ने आचार्य सुशीलमुनि आश्रम में संग्रहित है। इसमें रामऋषिश्वर रचित 'रामजसरसायण (सं. 1680, अतरपुर) की प्रतिलिपि सं. 1971 कार्तिक कृ. 539 राज हिं. ह. ग्रं. सू. भाग 1 क्र. 1080 ग्रं. 6433 718 Page #781 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्थानकवासी परम्परा की श्रमणियाँ ..... मालेरकोटला में श्री रूपदेवीजी की शिष्या भागवंतीजी द्वारा करने का उल्लेख है। आर्या भागवंतीजी की स्तुति में दास लाहोरी ने सं. 1972 में एक 13 कड़ी की ढाल बनाई, उसकी प्रति में उनके जगरावां स्वर्गवास का उल्लेख है। इस ढाल की प्रतिलिपि लाजवंती की शिष्या जसवंती ने की। आर्या जसवंतीजी की हस्तलिखित 'तैतीस बोल के थोकड़े' की एक प्रति भी सुशीलमुनि आश्रम (परि. सं. 90/454) में है। 6.7.216 साध्वी ऋद्धिकुमारी (सं. 1973) ___बी. एल. इन्स्टीट्यूट दिल्ली में इनकी सं. 1973 की प्रतिलिपिकृत दो प्रति संस्थान में (परि. 3692/1-2) है-(1) आलाप पद्धति-नयचक्र देवसेनकृत (संस्कृत) (2) पच्चीस द्वार (गुजराती)। 6.7.217 आर्या हीरांजी (सं. 1974) ___ साध्वी भुराजी की शिष्या साध्वी हीरा ने सुखविपाकसूत्र सं. 1974 कार्तिक कृ. 9 शनिवार को पूना (महाराष्ट्र) में लिपिकृत किया, तथा सं. 1973 को आंबोरी (दक्षिण देश) में 'अनुत्तरोपपातिक दशा' सूत्र लिखा। दोनों प्रति आ. सुशीलमुनि आश्रम नई दिल्ली में संग्रहित हैं। 6.7.218 आर्या मया (सं. 1982) ऋषि हर्षचन्द ने खाचरोद में सं. 1982 आश्विन शु. 3 शुक्रवार को 'जुटकर पद' लिखकर आर्या मयाजी को पठनार्थ प्रदान किया। प्रति आ. सुशीलमुनि आश्रम नई दिल्ली में है। 6.7.219 आर्या रायकंवर (सं. 1993) आपके द्वारा रचित 'ढालसागर' जिसमें हरिवंश का विस्तार है सं. 1993 ज्येष्ठ कृ. 8 रविवार की हस्तलिखित प्रति आ. सुशीलमुनि आश्रम नई दिल्ली में है। इस प्रति के अंत में श्री हरूजी की शिष्या पेमाजी, उनकी शिष्या अजबांजी उनकी शिष्या अमरांजी का गुणकीर्तन भी है। प्रति किशनगढ़ में लिखी गई थी। उपसंहार भगवान महावीर द्वारा संस्थापित और श्रीमद् लोकाशाह द्वारा प्रचारित जैनधर्म की मौलिक धारा का अनुगमन करने वाली स्थानकवासी श्रमणियाँ अपने उत्कृष्ट आचार पालन एवं अहिंसात्मक निराडंबर पूर्ण जीवन व्यवहार के लिये प्रसिद्ध हैं। ये श्रमणियाँ प्रमुख रूप से अध्यात्मनिष्ठ साधिका और शास्त्रज्ञा हैं। धर्म के क्षेत्र में व्याप्त आडंबर, बाह्याचार, रूढ़िवाद और जड़ता के विरूद्ध इन्होंने सदैव निर्मल संयम-साधना आंतरिक पवित्रता और साध्वाचार पर बल दिया। 311 तथा 270 दिन तक सर्वथा निराहार रहने की कठोरतम तपस्या भी इन श्रमणियों ने की है। अनेक श्रमणियाँ विशिष्ट व्याख्याता, जैनधर्म एवं दर्शन के गूढ़तम रहस्यों की अनुसंधातृ, उच्चकोटि की लेखिका एवं कवियित्री हैं। प्रतिलेखन एवं साहित्य संरक्षण में भी इनकी महत्त्वपूर्ण भूमिका रही है। इन्होंने सैंकड़ों ग्रंथों की प्रतिलेखना और प्रतिलिपि कर उन्हें काल कवलित होने से बचाया है। साहित्य-संरक्षण व प्रतिलेखन में इन्होंने कभी भी सांप्रदायिक दृष्टि को महत्त्व नहीं दिया। किसी भी निर्मांसाहारी घर से भिक्षा ग्रहण कर सकने के कारण ये व्यापक लोक संपर्क कर सकती हैं तथा जैन जैनेतर सभी वर्गों में यहाँ तक कि कारागृहों, विद्यालयों, व्यापारियों, लोकसेवकों में सर्वत्र सार्वजनिक प्रवचन व भाषण भी करती हैं। कहना न होगा कि भगवान महावीर के संघ की ये साध्वियाँ त्याग-वैराग्यपर्वक इस क्रांतिकारी आग्नेय पथ पर अनवरत चलकर विश्व मैत्री संदेश विश्व को दे रही हैं, तथा धर्म शासन की अनुपम सेवा कर रही हैं। स्थानकवासी परम्परा की परिचय प्राप्त अवशिष्ट श्रमणियों का परिचय एवं उनके अवदानों का वर्णन हम तालिका में दे रहे हैं। 719 Page #782 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य श्री अमरसिंह जी महाराज की परम्परा का अवशिष्ट श्रमणी-समुदाय:40 गुरूणी - - | साध्वी नाम जन्म संवत् स्थान | पिता का नाम गोत्र दीक्षा संवत् तिथि | दीक्षा स्थान विशेष विवरण | श्री सौभाग्यकुंवरजी | 1891 उदयपुर | पोरवाल | 1974 चै. कृ. 5 | उदयपुर सोहनकुंवरजी | शांत, मधुर भाषिणी श्री चतुरकंवरजी चंपालालजी सियाल | 1984 | सादड़ी सोहनकुंवरजी आप शांत दांत गंभीर थीं, सभी 'मां' कहते थे श्री उमरावकंवरजी | दौलतरामजी कानूगा | 1992 मा. कृ. 5 | श्री हरकूजी सरल, भद्र, प्रवचन सुंदर श्री सीताजी |- कोरना 1993 मृ. शु. 5 सरल, मिलनसार श्री मोहनकुंवरजी - गोगुंदा जोधराजजी छाजेड़ | 1994 वै. कृ. 1 श्री शंभूकंवरजी | प्रवचनशैली सुंदर श्री वल्लभकंवरजी | 1968 जसवंतगढ़ धनराजजी | 1995 आषा. शु.13 श्री लहरकुंवरजी | सरलस्वभावी श्री शकुनाजी |-गढ़सिवाना पादरू श्री दीपाजी सेवाभाविनी श्री शकुनकुंवरजी 1974 पादरू ओझराज | 1994 वै. शु. 7 श्री हरकूजी शास्त्र, चौपई की शैली सुंदर 9. o श्री श्रीमतीजी 1977 गोगंदा देवीलालजी सेठ | 1999 ज्ये. कृ.11 | नाथद्वारा श्री प्रभावतीजी |संकेतलिपि का अच्छा अभ्यास, मधुर प्रवचन 10.0 श्री प्रेमवतीजी - बागपुरा तेजपालजी पोरवाड 2003 | उदयपुर | श्री प्रभावतीजी | कई स्तोक कंठस्थ, सेवा भाविनी शांत स्वभावी, प्रवर्तक श्री गणेशमुनि जी की माता 11.0] श्री पानाजी - जालोर 2004 - श्री हरकूजी सरल स्वभावी 12. | श्री सायरकवरजी | 1970 देलवाड़ा | गेरीलालजी 2004 मा. शु. 5 श्री शीलकुंवरजी | स्तोकादि का ज्ञान श्री रतनकंवरजी | 1982 बंबोरा - ओस्तवाल 2005 मा. शु.13 श्री केलाशकुंवर | चौपाई आदि वांचन बहुत सुंदर है। 14. श्री एजाजी 1960 शिशोदा |-भेरूलालजी 2006 मा. शु. 13 श्री नजरकंवरजी | भद्र, सेवाभाविनी 15.0 श्री प्रेमकुंवरजी 1976 गढ़सिवाना| मूलचंदजी गोलेच्छा | 2006 म. कृ. 6 | पादरू (बाडमेर) अध्ययन जैन श्रमणियों का बृहद इतिहास 540. जिनशासन नां श्रमणीरत्नों, पृ. 162-236 Page #783 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 721 क्रम 16. A साध्वी नाम श्री विमलवती जी 17. श्री दयाकुंवरजी 18. 4 श्री चंदनबालाजी 19. श्री प्रियदर्शनाजी 20. श्री विनयवतीजी 21. श्री मदनकुंवरजी 22. श्री चेलनाजी 23. श्री हेमवतीजी 24. श्री साधनाजी 25. श्री ज्ञानप्रभाजी 26. श्री दर्शनप्रभाजी जन्म संवत् स्थान पिता का नाम गोत्र दीक्षा संवत् तिथि 1996 कानाना गेबीरामजी श्रीमाल 2006 मृ.कृ. 6 1969 रावल्या 1994 उदयपुर 2002 उदयपुर - पदराडा 1982 खण्डप 2001 सायरा नांदेशमा 1987 भारंडा 2016 बड़गांव भगवानजी परमार 2006 मा. कृ. 5 सोहनलालजी खाबिया 2009 चै. कृ. 5 कन्हैयालालजी लौढ़ा 2018 का. कृ. 13 खेमराजजी दौलावत 2019 मा. शु. 11 2020 वै. कृ. 10 सिरेमलजीधोका चम्पालालजी कोठारी हंसराजजी - 2020 का. शु. 15 2024 ज्ये.शु. 3 सरदारमलजी सालेचा 2027 मा.शु. 5 पं. सिद्धरामजी जैन 2028 मृ. शु. 6 1987 कासमपुरा सुपडुलालजी सुराना 2033 वै.शु. 10 दीक्षा स्थान पादरू ( बाडमेर) पाली उदयपुर उदयपुर परदाड़ा अजीत ( बाडमेर) भीलवाड़ा डबोक म गुरूणी श्री हर्षकुंवरजी नंदूरबार श्री पुष्पवतीजी विशेष विवरण शास्त्री परीक्षा, आस्था के मोती, प्रेमगीत आदि का श्री शीलकुंवरजी सेवाभाविनी श्री शीलकुंवरजी सिद्धान्ताचार्य, चंदन पर्व प्रसाद, चंदन की सौरभ, साधना के गीत भाग 1-2 आदि सृजन, स्वाध्यायी सृजन, प्रवचनकर्त्री, सुदूर विहारिणी श्री शीलकुंवरजी श्री कौशल्याजी आ. देवेन्द्रमुनिजी की मौसी की पुत्री, प्रवचन प्रभाविका, सेवाभाविनी, साहित्य- आदर्श कहानियां श्री कौशल्याजी श्री प्रेमकुंवरजी स्तोक, चौपाई आदि का अच्छा ज्ञान प्रभाकर परीक्षा पास, सेवाभाविनी श्री शीलकुंवरजी सामान्य अध्ययन, सेवाभाविनी ठाणा (महा.) श्री विमलवतीजी साहित्यरत्न, कोविद, विशारद, साहित्य - प्रार्थनापुण्य और गीतों की शहनाई श्री कौशल्याजी शास्त्र व स्तोक ज्ञान उत्तम, तपः साधिका सेवाभाविनी आगम, स्तोकादि का ज्ञान, शांत, सेवाभाविनी स्थानकवासी परम्परा की श्रमणियाँ Page #784 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्रम । 27. साध्वी नाम जन्म संवत् स्थान पिता का नाम गोत्र दीक्षा संवत् तिथि दीक्षा स्थान गुरूणी विशेष विवरण श्री सुदर्शनप्रभाजी | 2012 धूलिया | पूनमचंदजी लोढ़ा | 2033 वै.शु.10 | नंदूरबार | श्री कौशल्याजी | जैन शास्त्री, साहित्य-मंगल के मोती, सत्यं शिवं सुंदरम्, दीक्षा व तप गीत, विनयवंदना श्री किरणप्रभाजी | 2015 जयसिंगपुर ख्यालीरामजी बरड़िया 2033 मा. शु. 13 | उदयपुर श्री पुष्पवतीजी | जैन शास्त्री, गायन मधुर, सेवा 28. भाविनी 29. 722 35. श्री चंदनप्रभाजी | 2016 अमदाबाद | लाभुभाई मेहता | 2034 मा. शु. 5 | गांधीनगर | श्री सत्यप्रभाजी | जैन प्रभाकर, सेवाभाविनी, मधुर स्वभावी, व्याख्यात्री श्री देवेन्द्रप्रभाजी | 2017 जालोर मूलचंदजी भंसाली | 2034 फा. शु. 6 | जालोर। | श्री चंदनबालाजी | जैन प्रभाकर, स्तोक आगम की ज्ञाता श्री सुमनप्रभाजी | 2018 जोधपुर | मिश्रीमलजी छाजेड़ | 2035 ज्ये.शु. 3 सिवाना |श्री सत्यप्रभाजी | जैन प्रभाकर, कोविद, मधुर व प्रभावी प्रवचनकी श्री हर्षप्रभाजी 2011 किशनगढ़ | पूनमचंदजी जामड़ | 2035 मा. शु. 13 | उदयपुर | श्री प्रभावतीजी | साहित्यरत्न, जैन आचार्य | श्री विनयप्रभाजी 2013 जयपुर |सुन्दरलालजी गांधी | 2035 ना. शु. 2 | दिल्ली श्री चारित्रप्रभाजी | जैन विशारद, सुदूर विहारिणी| श्री रत्नज्योतिजी | 2019 जयसिंगपुर| गुलाबचंदजी बरड़िया | 2037 वै. शु. 15 | उदयपुर श्री पुष्पवताजा |श्री पुष्पवतीजी | जैन आचार्य, बहुभाषाविद्, प्रभावक प्रवचनकी, श्री नयनज्योतिजी 12019 उदयपुर चिदनमलजा सालका |2056 चंदनमलजी सोलंकी | 2038 ज्ये. शु. 14 | गढसिवाना |श्री विमलवतीजी जैन विशारद, कतिपय आगम वाचन डॉ. श्री स्नेहप्रभाजी | 2025 घोड़नदी | ताराचंदजी गादिया | 2039 वै. शु. 7 | अहमदनगर | श्री कौशल्याजी | जैन शास्त्री, विदुषी, 'महा निशीथ' पर पूना से पी.एच. डी. उपाधि प्राप्त श्री संयमप्रभाजी |2018 कासमपुरा | शोभाचंदजी सुराणा | 2040 वै. कृ. 7 । 2040 वै. कृ. 7 | अहमदनगर | श्री कौशल्याजी | प्रवचनकर्ती, शास्त्र व स्तोक ज्ञान अच्छा श्री अनुपमाजी | 2025 जामोला | नौरतमलजी बोहरा | 2040 मा. शु. 13 / किशनगढ़ | श्री दिव्यप्रभाजी | यथोचित ज्ञान, पुस्तक-दीक्षा ज्योति श्री धर्मज्योतिजी | 2024 खण्डप चम्पालालजी विनाय. | 2041 वै. कृ.5 खण्डप श्री चंदनबालाजी | यथोचित ज्ञान, ज्ञान विशारद श्री प्रतिभाजी | 2028 जयपुर | भंवरलाल झाबक |2041 मृ. शु. 10 | दिल्ली | श्री चारित्रप्रभाजी | जैन विशारद, विदुषी 36. 37. 38. जैन श्रमणियों का बृहद इतिहास 39. 40. Page #785 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्रम 42. साध्वी नाम जन्म संवत् स्थान | पिता का नाम गोत्र | दीक्षा संवत् तिथि | दीक्षा स्थान | गुरूणी विशेष विवरण | श्री सुलक्षणप्रभाजी | 2023 कराई | पूनमचंद बागरेचा | 2041 फा. शु. 9 | अहमदनगर | श्री कौशल्याजी | जैन प्रभाकर, संगीतप्रेमी, शांतस्वभावी श्री सुप्रभाजी -बैंगलोर चम्पालालजी खिंवे. | 2041 जनवरी 19 | 2041 जनवरी 19 | मदनगंज |श्री पुष्पावतीजी | स्वाध्याय प्रेमी, जैन प्र व्याख्यानकी श्री मंगलज्योति | 2022 दुन्दाड़ा | लालचंदजी लुंकड़ | 2042 ज्ये. शु. 3 | समदड़ी | श्री चंदनबालाजी | जैन विशारद, अध्ययनशीला श्री विचक्षणश्रीजी | 2036 किशनगढ़ | जिनेन्द्रकुमारजी | 2050 मार्च 28 | उदयपुर | श्री पुष्पवतीजी | जैन शास्त्री, एम.ए. (स्वर्ण | पदक प्राप्त), शोध की, मधुरकंठी, 9 वर्ष की आयु में उत्तराध्ययन, दशवैकालिक, सुखविपाक, तत्त्वार्थसूत्र कंठस्थ| श्री अर्पिताश्री | 2030 गदग पारसमलजी जैन | 2054 | उदयपुर | श्री पुष्पवतीजी जैन शास्त्री, एम.ए., (प्राकृ) विविध तप एकासन श्री निरूपमाजी 2022 जामोला | नौरतनमलजी बोहरा | | 2043 आसो.शु.14 | पाली श्री दिव्यप्रभाजी | जैनधर्म का यथोचित अध्ययन |श्री धर्मशीलाजी 2019 घाणा | भंवरलाल विनायक्या 2041 म. शु. 6 । समदड़ी श्री चन्दनप्रभाजी | जैन विशारद, सेवाभाविनी | श्री राजमतीजी -अजीत | मिश्रीमल तलेसरा | 2048 चै. शु. 5 | खण्डप श्री सत्यप्रभाजी | सेवामूर्ति, स्तोक साहित्य की| स्थानकवासी परम्परा की श्रमणियाँ 44. 45. 723] ज्ञाता | श्री आभाश्रीजी | 2033 अमृतसर | विरेन्द्रपाल शर्मा | 2048 वै. शु. 6 श्री नवीनज्योतिजी 2027 पाली | प्रकाशचंद मेहता 2050 र. 24 श्री पुनीतज्योतिजी | 2010 ढींढस |दलीचंदजी खांटेड़ | 2050 वै. शु. 6 | ढोल पाली मजल श्री चारित्रप्रभाजी | कई स्तोक कंठस्थ श्री चन्दनबालाजी जैन प्रभाकर, विदुषी, एम.ए. | श्री धर्मशीलाजी | कई स्तोक व शास्त्र ज्ञाता. सेवाभाविनी -संकेत चिन्ह- पतिवियोग o सुहागिन बालब्रह्मचारिणी * श्वसुरपक्ष Page #786 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री शीतलदास जी महाराज की परम्परा से श्री यशकंवरजी महाराज का श्रमणी-परिवार541 724 साध्वी नाम जन्म संवत् स्थान | पिता का नाम गोत्र | दीक्षा संवत् तिथि दीक्षा स्थान | विशेष विवरण श्री अजबकंवरजी 1974 से पूर्व जैनदर्शन की गंभीर ज्ञाता, ओजस्वी प्रवचन की, सौम्यमूर्ति, सं. 2007 बेगूं में स्वर्गस्थ श्री हुलासकंवरजी 1994 से पूर्व परम विदुषी, शास्त्रज्ञा, सं. 2004 बनेड़ा में स्वर्गस्थ श्री सुगनकंवरजी | बिजोलियां | पीपली ग्राम | आप क्रियानिष्ठ सेवामूर्ति महासतीजी हैं। - श्री गुलाबकंवरजी | डाबी - ओसवाल 2000 मृ. कृ. 2 | बेगूं (चितौड़)| विनम्र सेवाभावी व गंभीर ज्ञान की धनी थीं। सं. 2042 में 52 दिन के संथारे से स्वर्गवास 5. श्री सौभाग्यकंवरजी पुर - नाहर 2004 आषा.शु. 9 | भीलवाड़ा श्री आनन्दकुंवरजी की शिष्या, सेवाभावी व सतत ज्ञानाराधिका JO श्री राजकंवर जी | सरसी-कनेरा 2012 .शु.3 सुवाणा स्पष्टवक्ता, सेवाभाविनी, मेवाड़ी भाषा में| प्रवचनकी -श्री शान्ताकुंवरजी | बनेड़ा |- स्वर्णकार 2012 ा.शु.3 सुवाणा विदुषी, प्रवचनशैली आकर्षक व व्यक्तित्व प्रभावशाली श्री सज्जनकुंवरजी रतलाम 2012 27.शु. 3 सुवाणा मधुर स्वभावी, प्रवचनकार हैं। श्री लहरकवरजी 2014 का. कृ. 2 | पहुंना आप चिन्तन मनन व स्वाध्याय में सतत संलग्न रहती हैं। श्री रमिलाकंवरजी | भैंसरोडगढ़ - *पामेचा 2015 चै. शु. 10 | मांगरोल अध्ययनशील, प्रसन्न मुखमुद्रा वाली हैं। श्री सुमतिकंवरजी | नन्दराय भंडारी 2016 का. शु. 5 | शाहपुरा आप स्वाध्याय, जप आदि में लीन रहती हैं। श्री मनोहरकंवरजी | पांवढेडा ग्राम 2016 का. शु. 5 शाहपुरा आपकी प्रवचनशैली मधुर है। श्री सिद्धकंवरजी | बेगू घासीलाल रातड़िया 2017 मृ. शु. 10 | बेगू आपका अध्ययन गम्भीर एवं प्रवचनशैली | मधुर है। 14. श्री प्रेमकंवरजी कुण्डियाकलां शोभागसिंह पीपाड़ा | 2022 आषा. शु. 3 |बेगू मेवाड़ ज्योति, उत्कृष्ट तपः साधिका, जिनशासन चन्द्रिका बेगूं | जैन श्रमणियों का बृहद इतिहास 541. श्री यशकंवरजी म. व्यक्तित्व, कृतित्व-आर्या प्रेमकंवर, पृ. 50-52, प्रकाशक-दिनेश संचेती 'दिनकर', बीगोद (भीलवाड़ा) राजस्थान, (द्वि. सं.) ई. 1987 Page #787 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्थानकवासी परम्परा की श्रमणियाँ बीगोद क्रम साध्वी नाम | जन्म संवत् स्थान पिता का नाम गोत्र | दीक्षा संवत् तिथि दीक्षा स्थान | विशेष विवरण - श्री ललितकवरजी | जीरण (म. प्र.) |- *लसोड़ 2024 फा. शु. 2 | केकड़ी अध्ययनरत सेवाभावी - श्री ज्ञानकंवरजी | भैंसरोड़गढ़ करणमल सिसोदिया | 2024 फा. शु. 2 केकड़ी अध्ययनशीला - श्री पारसकंवरजी | खजूरी -*धूप्या 2024 फा. शु. 2 | केकड़ी स्वाध्यायप्रिय, श्री लहरकंवरजी की शिष्या | श्री इन्द्रकंवरजी तहलालजी मेहता 2027 चै. शु. 8 अजमेर सल प्रवचनकर्ती, विदुषी, गुरूभक्ता । श्री सुधाकंवरजी | सिंगोली बसंतीलाल मेहता 2028 वै. शु. 8 |सिंगोली अध्ययन, सेवा स्वाध्याय में रूचि, श्रेष्ठ कवयित्री एवं प्रवचनकर्ती - श्री रिद्धकंवरजी शाहपुरा समरथसिंहजी लोढ़ा | 2028 मा. शु. 11 भीलवाड़ा सिद्धान्ताचार्य मधुर प्रवचनकर्ती, लेखिका मातुश्री प्रेमकंवरजी हैं। श्री विमलकवरजी | छापरी 2028 मा. शु. 11 | भीलवाड़ा सेवाभाविनी | श्री चारित्रकंवरजी | सिंगोली नंदलाल मेहता 2033 मा. शु. 14 | अजमेर मधुर स्वभावी, सेवाभावी, अध्ययनरता, श्री प्रेमकंवरजी की शिष्या श्री विजयप्रभाजी | आसींद 2036 ज्ये. - भीलवाड़ा अध्ययनशीला श्री सुशीलाकंवरजी भिणाय श्री मदनलाल लोढ़ा चै. शु. 13 | विजयनगर अध्ययनरत सेवाभाविनी. श्री रमिलाकंवरजी की शिष्या है। श्री प्रतिभाकंवरजी | भीलवाड़ा सौभागसिंहजी बना 2038 वै. शु. 7 | भीलवाड़ा अध्ययनरत, श्री प्रेमकंवरजी की शिष्या श्री अर्चनाकंवरजी | डाबी ग्राम *कल्याणसिंह रातड़िया 2039 वै. शु. 3 | चोर ग्राम श्री प्रियदर्शनाजी डूंगला विजयराज जी तातेड़ | 2039 ज्ये. शु. 5 | डूंगला श्री पुष्पलताजी डूंगला भगवतीलालजी तातेड़ 2039 ज्ये. शु. 5 | डूंगला श्री सुप्रभाजी | पहुंना 2041 - जयपुर श्री मुक्तिप्रभाजी | डूंगला - डाणी 2042 - डूंगला श्री सिद्धकंवरजी की शिष्या हैं। श्री मणिप्रभाजी कदवासा (म.प्र.) | कल्याणसिंहजी डांगी| 2043 चै. शु. 13 | कदवासा श्री विनयप्रभाजी जीरण (म.प्र.) 2043 ज्ये. कृ. 2 महुआ श्री सिद्धकंवरजी की शिष्या 725 Page #788 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री लवजीऋषिजी के सम्प्रदाय की अवशिष्ट श्रमणियों की तालिका42 क्रम साध्वी नाम श्री सरदारांजी श्री धनकुंवरजी श्री राजकुंवरजी श्री सुमतिकुंवरजी श्री छोटाजी श्री अमृतकुंवरजी श्री नंदूजी - 726 श्री जमुनाजी 1951 जन्म संवत् स्थान | पिता का नाम गोत्र | दीक्षा संवत् तिथि | दीक्षा स्थान | गुरूणी विशेष विवरण | श्री कुशलकंवरजी | उच्चकोटि की शास्त्रज्ञा ,अनुभवी, भद्रपरिणामी | श्री कुशलकंवरजी | तपस्विनी, मालवा मेवाड़ में प्रचार, शिष्या फूलकुंवरजी 1950 मृ. शु. 4 - श्री गंगाजी धारणाशक्ति प्रबल, सेवाभाविनी, (मालवा) अल्पआयुषी बाल्यवय में श्री रत्नकुंवरजी | संयम से पतिता 1950 से 54 शास्त्रीय ज्ञान में अभिरूचि थी 1950 लगभग श्री गंगाजी | शिष्याएँ- राधाजी, हेमकुंवरजी, जयकुंवरजी आवलकुटि (महा.) |श्री चंपाजी गुरूणी के स्वर्गवास बाद दीक्षा लेकर शिष्या बनी, दक्षिण में स्वर्ग. आलेगांव (पूना) श्री रामकुंवरजी | पूना में स्वर्गवास। आलेगांव श्री रामकुंवरजी | बड़ी बहन सुंदरजी के साथ दीक्षा, सं. 1983 बांबोरी में स्वर्गवास करंजी छोटमलजी मुणोत घोड़नदी श्री रामकुंवरजी आ. आनंदऋषि (अहमदनगर) जी की मौसी थी, 1977 अहमद | नगर में स्वर्गवासा 1945 भिवरी 1953 मा. शु. वडूला |श्री अमृतकंवरजी | शास्त्रीयज्ञान, ज्योतिषज्ञान में निपुण बांबोरी (महा.) हजारीमलजी 1954 चै. शु. 9 मिरि (महा.) श्री अमृतकंवरजी | सं. 2005 वैजापुर में 75 वर्ष | पगारिया की उम्र में स्वर्गवास श्री रंगूजी श्री हुलासाजी श्री सूरजकुंवरजी श्री हेमकुंवरजी जैन श्रमणियों का बृहद इतिहास श्री जयकुंवरजी 542. श्री मोतीऋषिजी; ऋषि संप्रदाय का इतिहास, पृ. 273-412 Page #789 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 727 क्रम 13. 14. 15. 16. 17 18. 19. 20. 22. 23. श्री नजरकुंवरजी 21. श्री इन्द्रकुंवरजी 24. 25. साध्वी नाम प्र. श्री सिरेकुंवरजी 26. श्री राधाजी श्री प्रेमकुंवरजी श्री सदाकुंवरजी श्री कस्तूराजी श्री बड़े केशरजी श्री छोटे सुंदरजी श्री केशरजी श्री प्रेमकुंवरजी श्री गुलाबकंवरजी श्री छोटे हगामजी श्री सिरेकुंवरजी जन्म संवत् स्थान पिता का नाम गोत्र दीक्षा संवत् तिथि दीक्षा स्थान 1935 येवला रामचंद्रजी 1554 आसा. कृ. 4 (महा.) रतलाम 1934 नांदूर (महा.) श्री पन्नालालजी भंडारी पीपला (निजाम) श्री रूपचंद बोरा महाराष्ट्र महाराष्ट्र नारायणगढ़ मन्दसौर 1931 (पूना) अंजड़ (म. प्र. ) मोटाजी गांधी भिंडर (मेवाड़) घोड़नदी मगनीरामजी दरा * गुलाबचंदजी सलावतपुर (महा.) उत्तमचंदजी चतर मनसाराम छोगावत चम्पालाल छाजेड़ श्री गेरमलजी दुगड् रामलाल नरसिंहपुरा * चंदनमल मूथा 1954-63 मध्य 1955 1955 ज्ये. कृ. 13 1956 आषा.शु. 5 1957 पो. कृ. 11 1960 का.शु. 3 1960 पो. कृ. 4 1963 मा.शु. 3. 1963 का. शु. 3 1964 मा. शु. 5 1965 मृ.कृ. 1 1965 रतलाम आवलकुटि अहमदनगर प्रतापगढ़ नारायणपुर सलाबतपुर महेश्वर (म. प्र.) धरियावद घोडनदी गुरूणी श्री नंदूजी श्री नंदूजी श्री पानकुंवरजी श्री रामकुंवरजी श्री रामकुंवरजी श्री रामकुंवरजी श्री रामकुंवरजी श्री हगामकुंवरजी श्री कस्तूरांजी श्री नंदूजी श्री रामकुंवरजी श्री जयकुंवर जी श्री हमीराजी श्री रामकुंवरजी विशेष विवरण प्रवर्तिनी पद सं. 1992 पूना में, सं. 2001 घोड़नदी में स्वर्गवास स्वभाव से शीतल व सेवाभाविनी भगवद्भजन जाप में रूचि, प्र. राजकुंवरजी की माता, सं. 2008 नगर में स्वर्ग. ये बड़ी क्रियाशील आत्मार्थी थीं। उत्कृष्ट संयमी, स्वर्ग-घोडनदी सं. 1973 21 दिन का संथारा, घोड़नदी में स्वर्गवास पुत्री शांतिकुंवर के साथ दीक्षा, सं. 1989 को संथारे सह घोड़नदी में स्वर्गवास अच्छी शास्त्रज्ञाता । शांतिप्रिय, संत सती के प्रति धार्मिक वत्सलता घोड़नदी में कई दिन का संथारा आया! कंठकला श्रेष्ठ, अहमदनगर में स्वर्गवास सरल व शांत, सं. 1990 बरड़ावदा (म. प्र.) में स्वर्गवास नियम करने करवाने की अभिरूचि। सं. 1983 बांबोरी में स्वर्गवास, शांतस्वभावी स्थानकवासी परम्परा की श्रमणियाँ Page #790 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 728 . साध्वी नाम जन्म संवत् स्थान पिता का नाम गोत्र दीक्षा संवत् तिथि | दीक्षा स्थान | गुरूणी विशेष विवरण श्री चन्द्रकुंवरजी *लालचंद गेलड़ा |1965-67 मध्य घोड़नदी श्री रामकुंवरजी |सं. 1975 अहमदनगर में 3 दिन के संथारे सह स्वर्गवास श्री सरदारांजी इंगणोद (मालवा) | माली जाति सं. 1965-89 श्री देवकुंवरजी सरल, शांत, सेवाभविनी श्री रूकमाजी सारंगपुर (मालवा) श्री लछमांजी | शास्त्रज्ञा के साथ वैयावृत्य परायणा थीं, शिष्या-हरखकुंवरजी देवकुंवरजी मालवा श्री लछमांजी मालवा में धर्मप्रचार किया, मृदु सरल स्वभावी 31. | श्री जड़ावकुंवरजी | भालगांव (शिरूर) रघुनाथ जी मुणोत 1967 श्रीगोंदा श्री रामकुंवरजी | सेवाभावी, पूना में अनशन के साथ स्वर्गवास। 32. | श्री चतरकुंवरजी । 1940 कालूखेडा | हुकमीचंदजी भंडारी | 1968 वै.शु. 3 | कालूखेडा | श्री रतनकुंवरजी | दीक्षा के उपलक्ष में कालूखेडा (मालवा) के ठाकुर प्रहलादसिंहजी ने देवी माता के समक्ष बकरे की बलि सदा के लिये बंद कर दी। | श्री जसकुंवरजी चन्होली (महा.) | 1968 ज्ये. शु. 11 | उरूलीकांचन | प्रव. श्री रंभाजी | सेवाभाविनी | श्री लछमाजी 1954 कालूखेडा |किशनजी हवलदार | 1969 म. कृ. 2 | जावरा श्री चतरकुंवरजी | बहुभाषाविद्, कंठमधुर, व्याख्यान (म. प्र.) रोचक श्री शांतिकुंवरजी धुलिया श्री लछमांजो श्री सुव्रताजी तीसगांव भागचंद फिरोदिया |1969 मा.शु. 13 बांबोरी श्री रामकुंवरजी | स्वभाव मिलनसार, सं. 1988 में घोड़नदी में स्वर्गवास। श्री विजयकुंवरजी करमाला (महा.) प्रव. श्री रंभाजी | सतत तपस्या में रत, भद्र, शांत, | सं. 2003 पूना में स्वर्ग | श्री जयकुंवरजी करमाला प्रव. श्री रंभाजी | वैयावृत्य परायणा, सं. 1976 में | पंडितमरण। श्री जड़ावकुंवरजी अहमदनगर कड़ा प्रव. श्री रंभाजी | भद्र, सरल, वाद-विवाद से दूर, सं. 1977 में स्वर्ग. श्री रतनकुंवरजी करजगांव माता राजीबाई कुडगांव प्रव. श्री रंभाजी | बहुभाषाविद्, विवेकवान, सं. 1967 में स्वर्ग. - - - | श्रमणियों का बृहद इतिहास Page #791 -------------------------------------------------------------------------- ________________ www.lainelibrary.org 729 क्रम 41 42 43 44. 45. 46. 47. 50. 51. 48. 49. श्री सुन्दरजी 52. 53. साध्वी नाम श्री सुगनकुंवरजी श्री नूलकुंवरजी 54. श्री केसरजी श्री हुलासकुंवरजी श्री कस्तुराजी श्री पानकुंवरजी श्री चांदकुंवरजी श्री चंद्रकुंवरजी श्री मानकुंवरजी श्री राजकुंवरजी श्री रामकुंवरजी श्री केसरजी श्री गुलाबकुंवरजी जन्म संवत् स्थान पिता का नाम गोत्र दीक्षा संवत् तिथि 1945 लिंबड़ी देवीचंदजी लोढ़ा 1970 मृ.शु. 11 गोरवी (मालवा) सीतामऊ रामपुरा (मालवा) सलावतपुर कचनारा ( मालवा) हरीरामजी सलावतपुर 1950 बांबोरी मनासा (मेवाड़) T करजगाव सिरपुर सिरपुर "बालचंदजी सिरपुर नादरजी ब्राह्मण ऋषभजी श्रीमाल भगवानदास रोिदिया भगवानदास रोिदिया दौलतराम भटेवरा रिखबदास सेठिया 1971 फाल्गुन 1971 ज्ये. पूर्णिमा माघ शु. 12 1971 मा.कृ. 12 1972 मा. शु. 13 1972 मा. शु. 13 1973 वै.शु. 3 1973 आषा. शु. 11 दीक्षा स्थान अमरावध भावगढ़ श्री हगामकुंवरजी बाड़ी (मेवाड़) श्री हगामकुंवरजी घोड़नदी घोड़नदी धरियावद गुरूणी प्र. श्रीराजकुंवरजी 1 श्री सरसाजी प्र. श्रीराजकुंवरजी श्री सरदारांजी श्री हगामकुंवरजी तत्त्वज्ञानी, सं. 1995 को नागपुर में स्वर्गवास श्री रामकुंवरजी श्री रामकुंवरजी श्री हमीरांजी प्रव. श्री रंभाजी प्रव. श्री रंभाजी प्रव. श्री रंभाजी विशेष विवरण मालवा में अधिक विचरीं, सरल प्रकृति की। प्रव. श्री रंभाजी व्याख्यान शैली सुंदर थी, 1992 प्रतापगढ़ में स्वर्गवास तत्त्वज्ञा, मालवा में विचरीं । 31 वर्ष की वय में दीक्षा, ज्ञाना भ्यास अच्छा बा. ब्रा. 15 वर्ष की वय में दीक्षिता बा. ब्रा. 13 वर्ष की वय में ज्येष्ठ भगिनी श्री पानकुंबर के साथ दीक्षा। सेवाभाविनी तप जप में लीन, मालवा, मेवाड़, बरार, सी. पी. आदि प्रांतों में विचरीं गुजरात भी विचरी, सं. 1996 में पूना में स्वर्गवास 45 दिन की तपस्या की, सेवाभाविनी, शांत त्यागी। भक्ति से परिपूर्ण थीं, सं. 1973 में स्वर्गवास सधवावस्था में गृहत्यागी, संयमपरायणा, सं 1987 में स्वर्ग उत्तरावस्था में दीक्षा, सहिष्णु 1999 पूना में स्वर्गवास स्थानकवासी परम्परा की श्रमणियाँ Page #792 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साध्वी नाम 55. | श्री सुंदरकंवरजी श्री सुंदरकंवरजी 57. | श्री दाखांजी 58. | श्री जसकुंवरजी श्री उमरावकुंवरजी श्री जसकुंवरजी 61. | श्री शांतिकुंवरजी 730 जन्म संवत् स्थान पिता का नाम गोत्र दीक्षा संवत् तिथि | दीक्षा स्थान | गुरूणी विशेष विवरण | बाम्बोरी प्रव. श्री रंभाजी | बा. ब्रा., मधुर प्रवचनकी , विदुषी, सं. 1973 में स्वर्गवास | चौपड़ा (खानदेश) - प्रव. श्री रंभाजी | कोमल, भद्रिक, कंठस्थ ज्ञान अच्छा, सं. 1973 में स्वर्गवासा मन्दसौर पामेचा गोत्र 1973 मृ.कृ. 1 नीमच |श्री हगामकुंवरजी | शास्त्रज्ञा, सं. 1977 वाड़ी (मेवाड़) में स्वर्गवास। 1954 अहमदनगर| खुशालचंदजी कोठारी] 1974 आसा. शु. 10/ नगर श्री रामकुंवरजी | सौम्य, गंभीर, सं. 1995 पाथर्डी | में स्वर्गवास। 1938 टाटोटी | पन्नालालजी ढाबरिया | 1975 चै. शु. 5 | अजमेर प्र. श्रीरतनकुंवरजी| बालविधवा, महीने में 10 दिन (राज.) तप, स्वाध्याय व जप रूचि अहमदनगर | हेमराजजी गांधी 1974 मा. शु. 13 | - प्र. श्रीराजकुंवरजी | आचारनिष्ठ, सं. 1988 में| स्वर्गस्था वाम्बोरी सरूपचंदजी प्र. श्रीराजकुंवरजी | बा. ब्रा., पंडिता, प्रभावशाली प्रवचनकर्ती, आत्मार्थिनी, शांत प्रकृति। 1963 घोड़नदी | बिरदीचंदजी दूगड़ | 1975 मा. कृ. 1 | अहमदनगर | श्री रामकुंवरजी | 13 वर्ष की उम्र में दीक्षा, 20 शास्त्र वाचन, स्वर मधुर, संस्कृत, ऊर्दू, हिन्दी का ज्ञान अहमदनगर बालमुकंद भंडारी | 1976 मृ. शु. 12 नगर श्री रामकुंवरजी | 60 थोकड़े कंठस्थ, 20 शास्त्र वाचन, सं. 1998 दाभाड़ी में स्वर्गवास। पीपलगांव (महा.)| दौलतरामजी मुणोत | 1978 वै. शु. 2 | अहमदनगर | श्री रामकुंवरजी | सं. 1920 कोलगांव (महा.) में स्वर्गवास 1950 पहुर | श्री रामसुखजी 1978 का.शु.7 | प्रतापगढ़ |श्री अमृतकुंवरजी | जैनधर्म प्रभाविका कोमल, सरल 1957 चिंचौर नंदरामजी सोनी | 1979 फा. शु. 12 खंडाला | प्र. श्रीराजकुंवरजी सं. 1994 में स्वर्गस्था (महा.) 1955 मंदसौर निहालचंद पोरवाड़ | 1979 ज्ये. शु.5 | उज्जैन पं. दौलतऋषिजी | श्री अमृतकुंवरजी महाराष्ट्र में| ही विचरण रहा। 62. | श्री सरसकुंवरजी 63 श्री केशरजी 64 | श्री सोनाजी श्री कूलकुंवरजी श्री सिरेकुंवरजी जैन श्रमणियों का बृहद इतिहास श्री केसरजी Page #793 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 731 क्रम 68. 69. 70. 71. 72. 73. 74. 75 76 77 78. 79 80. 81. 82. 83 साध्वी नाम श्री बदामकुंवरजी श्री हर्षकुंवरजी श्री प्रेमकुंवरजी श्री सोनाजी श्री सुमतिकुंवरजी श्री बदामकुंवर श्री लाभकुंवरजी श्री हुलासकुंवरजी श्री पदमकुंवरजी श्री कंचनकुंवरजी श्री चांदकुंवरजी श्री हुलासकुंवरजी श्री राजाजी श्री सोनाजी श्री रमणिककुंवरजी श्री मृगावतीजी जन्म संवत् स्थान पिता का नाम गोत्र दीक्षा संवत् तिथि दीक्षा स्थान (म. प्र. ) बारामती (पूना) पीपाड़ वरखेड़ा (महा.) अहमदनगर 1952 बारामती 1957 धरियावद बोरकुंड (खानदेश) मालवा 1965 प्रतापगढ़ 1962 गउरवेल 1957 रठांजणे 1959 जुन्नर 1971 महू (म. प्र. ) पं. नारायणदास श्री रामचन्द्रजी बोहरा परिवार माणकचंद छाजेड़ हजारीमल पामेचा गोपालचंदजी बना जीतमलजी मूथा रतनचंदजी गुगलिया ऋषभदास मोगरा रतनचंदजी मूषा पन्नालालजी 1980 ज्ये. पूर्णिमा 1982 1983 मृ.शु. 11 1985 ज्ये. शु. 2 1986 पो. कृ. 6 1986 मा. शु. 10 1987 आषा. शु. 2 1988 मा. शु. 13 1989 10 | 1989 ज्ये. कृ. 11 1989 मृ. कृ. 5 गुरूणी माणिकवाड़ा श्री फूलकुंवरजी शिरोली घोड़नदी सीतामऊ धूलिया मन्दसौर अमहदनगर मंदसौर जुन्नर तलगारा श्री केसरकुंवरजी प्रव. श्री रंभाजी प्र. श्रीराजकुंवरजी प्र. श्रीराजकुंवरजी श्री सिरेकुंवरजी श्री सायरकुंवरजी 42 वर्ष की वय में दीक्षा, भद्र स्वभावी, श्री कल्याणऋषिजी की माता श्री सायरकुंवरजी 18 वर्ष की वय में दीक्षित 4 मास की दीक्षा, पूना में स्वर्गवास स्वर्गस्थ प्र. श्री सायर कुंवरजी श्री अमृतकुंवरजी विशेष विवरण शास्त्राभ्यासी, प्रवचनकर्त्री, बरार, खानदेश, म. प्र. में विचरों विहारभूमि- अहमदनगर, पूना आदि। सेवाभावी, शांत, दक्षिण तक दूर-दूर विचरी सरल शांत, शास्त्र ज्ञाता 32 वर्ष की वय में दीक्षित, 1996 में स्वर्ग. प्र. श्रीराजकुंवरजी श्री चतरकुंवरजी स्तोक ज्ञाता, सरल शांत, मालवा में स्वर्गवास कुकाणामें स्वर्गवास श्री सिरेकुंवरजी पाथर्डीीं से धर्मभूषण परीक्षा, सेवाभावी श्री अमृतकुंवरजी वैयावृत्य परायण, विदर्भ-मालवा के मध्य कहीं स्वर्गवास श्री अमृतकुंवरजी भद्रपरिणामी, संयमनिष्ठ, मालवा, वागड़ में विचरीं । दक्षिण खानदेश, बरार की ओर विच विवाहिता, हिन्दी, संस्कृत व शास्त्रीय ज्ञान स्थानकवासी परम्परा की श्रमणियाँ Page #794 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्रम । साध्वी नाम श्री सोहनकुंवरजी श्री रामकुंवरजी श्री रतनकुंवरजी श्री सज्जनकुंवरजी श्री दौलतकुंवरजी 89. | श्री राधाजी | 1990 श्री राजकुंवरजी 732 जन्म संवत् स्थान पिता का नाम गोत्र | दीक्षा संवत् तिथि दीक्षा स्थान गुरूणी विशेष विवरण | 1955 इंदौर इन्द्रचंदजी सुराणा | 1989 मृ. शु. 13 | मंदसौर प्र. श्री रत्नकुंवरजी| उज्जैन में विवाह, दीक्षा में जैन (उ. प्र.) दिवाकर चौथमलजी म. भी ललितपुर गिरधारीलाल श्रावगी | 1989 का. शु.9 | - श्री जयकुंवर जी | न्याय, व्याकरण साहित्यज्ञ, प्रभाकर परीक्षा दी, सुवक्ता | घोड़नदी विरदीचंदजी दूगड़ प्र. श्री शांतिकुंवर | 10 वर्ष की वय में दीक्षा, बुद्धि तीव्र, होनहार, सातारा में स्वर्गवास | 1968 मालीचिंचोरा उत्तमचंदजी बोरा | 1989 27. शु. 3 मिरी (नगर) प्र. श्री शांतिकुंवर अति सरल, शांत, सेवाभाविनी, पंजाब में भी विचरीं। 1958 बड़वा चुन्नीलाल कंदोई | 1990 म. शु. 5 | मंदसौर श्री इन्द्रकुंवरजी | धर्मप्रभाविका, सं. 2000 यवत(म. प्र.) माल में स्वर्गवास। 1956 सिल्लोड़ श्री हर्षचंद वागरेचा | 1990 अमरावती | श्री अमृतकुंवरजी | आत्मार्थी. नगर समीपस्थ किसी | गांव में स्वर्गवासा पिपली (पूना) अहमदनगर | श्री राधाजी शिक्षित हैं, वैधव्य के पश्चात् दीक्षा ली। धरियावद (मालवा ताराचंद कोठारी | 1991 मा. शु. 4 | कुंथा |श्री हगामकुंवरजी | दस वर्ष की वय में दीक्षित, निर्मलप्रज्ञा, 1994 भंडारा में स्वर्ग 1959 कोंबली मूलचंद भलगट 1991 पो. कृ. 12 करमाला प्र. श्री राजकुंवरजी 35 वर्ष की वय में दीक्षा, शुद्ध हृदया, वैयावृत्य परायणा मद्रास बरमेचा गोत्र 1992 पोष मास पूना श्री रंभाजी | भद्रपरिणामी, 2008 पूना में | स्वर्गवास। | आवलकुट्टी (महा. 1992 काल्गुन प्रव. श्री रंभाजी | अल्पवय में दीक्षित। संयम से पतित। 1953 जलगांव | श्री रामलाल रांका | 1992 का. शु. 13 प्र. श्रीराजकुंवरजी | प्रकृति से भद्र 1981 यवतमाल परशुराम राजपूत | 1992 मा. शु. 7 पीपरखुटा |श्री अमृतकुंवरजी | बा.ब्रा. प्रशांत हृदयी, शास्त्र व स्तोक की ज्ञाता, होनहार थी। | पीपाड़ हस्तीमल भंडारी 1993 म. शु. 15 | हींगनघाट |श्री जानकुंवरजी अहमदनगर चंदनमलजी पितले | 1993 वै. कृ. 11 अहमदनगर | प्र. श्रीराजकुंवरजी | श्री रंभाबाई का स्थानक आपकी दादी द्वारा प्रदत्त है। श्री जानकुंवरजी श्री सज्जनकुंवरजी श्री फूलकुंवरजी श्री बसंतकुंवरजी श्री गुलाबकुंवरजी श्री जयकुंवरजी जैन श्रमणियों का बृहद इतिहास श्री मगनकुंवरजी श्री माणककुंवरजी Page #795 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्रम 99 | साध्वी नाम श्री सूरजकुंवर 100 | श्री सूरजकुंवरजी | श्री हर्षकुंवरजी स्थानकवासी परम्परा की श्रमणियाँ 102. | श्री सूरजकुंवरजी श्री पारसकुंवरजी श्री गुलाबकुंवरजी गुलाबकुंवरजी श्री दुर्गाकुंवरजी जन्म संवत् स्थान |पिता का नाम गोत्र दीक्षा संवत् तिथि | दीक्षा स्थान | गुरूणी विशेष विवरण भिंगार (महा.) 1993 पौष पूर्णिमा | विलद | श्री सिरेकुंवरजी भद्रहृदया | 1959 चिचोंडी नेमिचंदजी गांधी 1994 मृ. शु. 5 | धवलपुरी | प्र. श्रीरतनकुंवरजी | आप समृद्ध खानदान की थीं, (महा.) विवाहित थीं। 1974 पूना दौलतराम गेलड़ा | 1994 फा.शु. 13 राहुपिंपलगांव| श्री आनंदकुंवरजी | 45 दिन की तपस्या के अंतिम दिन बम्बई (कल्याण) में पंडित मरण | काराठी (पूना) पूनमचंदजी छाजेड़ | 1994 ज्ये. शु. 13 | बांबोरी श्री शांतिकुंवरजी | पंडिता अमृतकुंवरजी की माता, तपस्विनी, 15 स्तोक कंठस्थ 1973 रोज नाहरमलजी बाफना | 1997 आषा. शु. 5 | बोरकुंड प्र. श्री सायर- | सेवाभाविनी, दक्षिण में मद्रास (नासिक) कुंवरजी तक विचरी हैं। 1954 झालरापाटन |चंपालाल मेहता | 1997 म. कृ. 13 चांदूर श्री सिरेकुंवरजी | शांत, सरल, वैयावृत्य परायण 1958 रालेगांव रतनचंद सिंघी | 1998 मृ.शु. 5 श्री दौलतकुंवरजी | सामान्य शास्त्रीय ज्ञान कुसुंबा (नासिक) | बादरमलजी धाड़ीवाल | 1998 मा. शु. 13 निफाड़ श्री जयकुंवरजी | बालविधवा, 51 वर्ष की वय (महा.) में दीक्षा, भद्रिक, सरल बालाघाट (म. प्र.)/फौजराज बाघरेचा 1999 वै. कृ. 10 नागपुर प्र. हगामकुंवरजी | शांत, सरल, सेवाभाविनी। कड़ा (नगर) 1999 फा. शु. 10 कड़ा श्री चांदकुंवरजी | प्रकृति के वशवर्ती | "सिरसाला |* रेदासणी 1999 आसा. शु 2 मीरी श्री सुमतिकुंवरजी | आपके पति बाबूलालजी ने आप से प्रेरित हो 'मीरी' में दीक्षा ली। | श्री भूरांजी शांत, सरल व कोमल स्वभावी, शास्त्र व स्तोक की ज्ञाता श्री भूरांजी संयमी, तपी, शास्त्रज्ञा, वैयावृत्य परायणा। श्री भूरांजी शास्त्रज्ञाता, प्रेमकुंवरजी फूल कुंवरजी दो शिष्या थीं। 1999 मा. शु. 13 | घोड़नदी श्री उज्ज्वल कु.जी| विदुषी सती | मिरि (महा.) *मुलतानमल बोगावत | 2000 वै. शु. 3 | भानसहिवरा | प्र. श्री सायर- पति मुलतानमलजी श्री अमोलक कुंवरजी ऋषिजी के पास सं. 1982 में दीक्षित हुए। श्री सुंदरकुंवरजी श्री पुष्पकुंवरजी श्री नवलकुंवरजी T ) - श्री रतनकुंवरजी जयकुंवरजी श्री पानकुंवरजी श्री प्रभाकुंवरजी श्री इन्द्रकुंवरजी Page #796 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 734 क्रम 115. 116. 117. 118. 119. 120. 121. 122. 123. 124. 125. 126. 127. 128. 129. साध्वी नाम श्री छोटाजी श्री मदन कुंवरजी श्री विमलकुंवरजी श्री मनोहरकुंवरजी श्री पुष्पकुंवरजी श्री मोतीकुंवरजी श्री गुमानकुंवरजी श्री हुलासकुंवरजी श्री अजितकुंवरजी देवलगांव (हैदराबाद) कुकाणा (अ'नगर) श्री वल्लभकुंवरजी श्री मदनकुंवरजी श्री सुगनकुंवरजी श्री विमलकुंवरजी श्री नन्दकुंवरजी श्री वल्लभकुंवरजी जन्म संवत् स्थान पिता का नाम गोत्र दीक्षा संवत् तिथि दीक्षा स्थान गुरुणी आवलकुटि आवलकुटि श्री चंपाजी 130. श्री कुसुमकुंवरजी 131 0 श्री विमलकुंवरजी 1972 खेड़ (नासिक) बाशी (महा.) अहमदनगर 1951 भानुपुर (मालवा) 1967 चांदूर (बरार) दीपचंद कांकरिया बैतूल (म. प्र. ) नांदूर्डी (नासिक) चिचोंडी पटेल सादड़ी घाणेराव वरदीचंदजी छाजेड़ 1993 रांजणी राणावास (राज.) भलगट कनकमलजी कोठारी ब्राह्मण परिवार सोहनजी चोरड़िया 2000 वै. शु. 3 2000 मा. शु. 13 2000 आसा. शु. 5 फा. शु. 5 2001 मू. शु 13 2001 मा.शु. 6 2001 या 2 में | 2003 2003 कृ. 7 2003 भा. कृ. 14 2003 भा. कृ. 14 2005 आसा. शु. 2 2006 मा. कृ. 13 बालारामजी कांकलिया 2007 वै. शु. 3 दौलतराम जी 2010 वै. कृ. 2. मनमाद सोलापुर पूना राहुरी अमरावती बरार बेतूल लासलगांव पूना चांदा बागलकोट प्र. श्री शांतिकुंवर सेवाभाविनी, घोड़ेगांव के चोरड़िया परिवार की पुत्रवधू थीं। स्वच्छन्द प्रवृत्ति की। शांतिप्रिय स्वाध्यायरत तपस्विनी श्री चांदकंवरजी श्री आनंदकुंवरजी श्री सुमतिकुंवरजी श्री सिरेकुंवरजी विशेष विवरण सेवाभाविनी, भद्रपरिणामी, दक्षिण में स्वर्गवासा श्री दौलतकुंवरजी दीक्षापूर्व धार्मिक संस्थाओं को हजारों रू. का दान दिया। ढाल, चौपाई सुनाने में कुशल, सरल उपशांत वृत्ति श्री अमृतकुंवरजी भुसावल जैन सिद्धान्तशाला में अध्ययन कर विदुषी हुईं। श्री अमृतकुंवरजी श्री आनंदकुंवरजी श्री उज्जवल कु.जी श्री अमृतकुंवरजी कोमल प्रकृति, निर्मलबुद्धि, शास्त्राभ्यासी श्री उज्जवल कु.जी प्र. हगामकुंवरजी श्री आनंदकुंवरजी संयम से पतित विनयवान, सेवाभाविनी । शुद्ध खादी के वस्त्र धारण कर आदर्शदीक्षा ली, आगमज्ञा विदुषी साध्वी विनयी कर्नाटक तक विचरी, स्वाध्याय लीन। दूंगला (मेवाड़) प्र. श्रीरतनकुंवरजी शांत प्रकृति शास्त्रज्ञा अभ्यासी प्र. श्रीरतनकंवरजी सेवाभाविनी सिरियारी जैन श्रमणियों का बृहद इतिहास Page #797 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्थानकवासी परम्परा की श्रमणियाँ मामा 735/ क्रम साध्वी नाम जन्म संवत् स्थान | पिता का नाम गोत्र | दीक्षा संवत् तिथि | दीक्षा स्थान |गुरूणी विशेष विवरण | श्री शांतिकुंवरजी पाना की देवलाली धनराजजी सिंघवी | 2012 आसा.शु. 10 | पूना श्री सज्जनकुंवरजी | सामान्य धार्मिक अभ्यास। श्री मंगलप्रभाजी 2008 पूना मिश्रीलालजी बोरा |2027 मई 25 पिंपलगांव |श्री उज्जवलकु.जी | वर्षीतप, अठाई, तेले आदि, तप शासन प्रभाविका, पुस्तक-प्रीति पुष्प, मंगल स्मरण 134. श्री दिव्यज्योतिजी | 2021 उज्जैन |झमकलालजी गांग |2038 मा. शु. 11 | भोपाल प्र. रतनकंवरजी बी.ए., शास्त्री, भाषारल, दो वर्षी तप, 11, 8 तप, पुस्तक-चिंतन, दिव्य चिंतन परक लेख 135. श्री अमितज्योतिजी 2021 मुंबई धनजीभाई गंगर 2043 मा.शु. 15 मुंबई |श्री आदर्शज्योति जैन प्रभाकर, जैन विद्यावारिधि; तप-8,8,9,16 | श्री शीतलज्योतिजी | 1988 नागदा माधुलाल जी जैन 2043 मा.शु. 15 | मुंबई |श्री आदर्शज्योति | तप-कई अठाई, 11, 15, 21, 31, 35, 41 व दो वर्षीतप 137. श्री कल्पदर्शनाजी | 2027 बड़वाह मोतीलाल चपलोत 12047 मार्च 8 आरणी (रा.) श्री प्रियदर्शनाजी आठ शास्त्र कंठस्थ, जैन विशारद, दीक्षा पूर्व स्वाध्यायी, 16, 11, |8 तप, वर्षीतप, कल्याणक श्री आत्मज्योति जी | 2029 चेन्नई संपतराजजी लुंकड़ | 2049 वै. कृ. 4 | श्री आदर्शज्योति |विशारद, बी. ए., तप-वर्षीतप श्री विरागदर्शनाजी - आष्टा (महा.) | मोहनलाल लोढ़ा 1 2050 वै. शु. 6 श्री प्रियदर्शनाजी दो मासखमण, 10 अठाई, 15, | 21, बेले से वर्षीतप, 11 वर्षीतप श्री सुदर्शनाजी | 2020 - | केसरीमलजी पोरवाड़ | 2050 जु. 15 प्रतापगढ़ श्री दयाकंवरजी दो अठाई, 11 ओली आदि तप श्री रजतज्योतिजी 2033 नासिक पन्नालाल गांधी | 2056 वै.शु. 3 | जाडन (पाली)| श्री आदर्शज्योति | जैन विशारद, बी. एस. सी, तप वर्षांतप 142. श्री अंतरज्योतिजी 2039 उज्जैन धनराज चपलोद | 2057 मृ.शु. 15 | अग्मेट श्री आदर्शज्योति जैन विशारद, बी. ए. (प्रथम वर्ष) 143.0 श्री प्रभाकुंवरजी सूपापवार (नगर) - |श्री चन्द्रकुंवरजी |मधुरकंठी, नौ वर्ष की उम्र में विवाह व वैधव्य, थोकड़ों की ज्ञाता 144. डॉ. लक्षितसाधनाजी 2058 डॉ. मुक्तिप्रभाजी अनुप्रेक्षा ध्यान व योग के परिप्रेक्ष्य में सिद्धांत, प्रयोग व परिणाम पर लाडनूं वि. भा. से डॉ. की उपाधि प्राप्त 145. श्री जिनेशाजी 2063 फर, 19 नाशिक |श्री सुयशा जी पूना Page #798 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री हरिदास जी महाराज की पंजाब परम्परा (क) श्री पन्नादेवी (टोहाना) की परंपरा के श्री पद्मश्रीजी म. सा. का अवशिष्ट शिष्या-परिवार:43 क्रम साध्वी नाम जन्म संवत् स्थान | पिता नाम गोत्र दीक्षा संवत् तिथि दीक्षा स्थान | दीक्षादाता | गुरूणी विशेष विवरण 7361 उ.प्र.श्री सत्यवतीजी | झिंझाना (उ. प्र.) | बुलचंदजी गुप्ता 1992 माघ शु. 3 | तीतरबाड़ा श्री पन्नादेवीजी | श्री पद्मश्रीजी स्वर्ग. सं. 2050 फा. शु. | 14 दिल्ली श्री चम्पकमालाजी | 1977 देहरा मावटी | चिरंजीलाल जैन श्री उदयचंदजी श्री सत्यवतीजी श्री सज्जनकु जी की भगिनी श्री सज्जन कु. जी | 1982 देहरा मावटी | चिरंजीलाल जैन 12002 सब्जीमंडी | श्री रघुवरदयालजी | श्री सत्यवतीजी | प्रवचनकर्ती, विदुषी दिल्ली 4. | श्री पवन कु0 जी 1994 देहरा मावटी | चिरंजीलाल जैन 2004 चै. शु. 5 अमीनगर श्री अमरचंद्रजी श्री पद्मश्रीजी श्री चंपकमालाजी की बहन सराय श्री प्रमिला जी |-अमीनगर सराय | चमनलालजी जैन चांदनीचौंक दि. श्री प्रेमचंदजी श्री पवनकुमारीजी श्री सुरेन्द्र कु. जी |2006 परासोली | शेरसिंहजीजैन | 2010 गाल्गुन बामनोली - श्री सत्यवती श्री जितेन्द्र कु. जी ] 2009 बामनोली | रिसालसिंहजी जैन |2021 नवं. 11 कैलाशनगर दि. श्री प्रेमचंदजी श्री पवनकुमारीजी श्री प्रमोद कु. जी | 2006 सदर दिल्ली | निरंजनलालजी जैन |2025 |हिलवाड़ी |श्री पवनकुमारीजी श्री संयमप्रभाजी -दिल्ली मोहनलाल अरोड़ा |2029 लालकिला दि. |पं. श्री हेमचंदजी श्री पवन कुमारीजी/'प्रभाकर' हैं। 10.| श्री रूचिकाजी 1 2044 दिल्ली मदनलालजी गुप्ता | 2048 फर. 16 विवेकविहार दि. श्री अमरमुनिजी श्री जितेन्द्रकुमारीजी श्री ऋद्धिमाजी 12025 भटिण्डा प्रकाशचंदजी खन्ना 12048 फर. 16 विवेकविहार दि.| श्री अमरमुनिजी | श्री जितेन्द्रकुमारीजी श्री हिमानीजी | 2037 भटिण्डा प्रकाशचंदजी खन्ना | 2052 फर. 4 पश्चिमविहार दि. श्री अमरमुनिजी | श्री जितेन्द्रकुमारीजी | - श्री रम्याजी 2037 दिल्ली नरायणदत्त शर्मा 12053 मई 3 गौतमपुरी दि. | श्री देवेन्द्रमुनिजी | श्री सुरेन्द्रकुमारीजी /14. श्री सुरभिजी 2037 दिल्ली | रामकुमारजी जैन 12053 दिसं. 16 | अशोकविहार | श्री देवेन्द्र मुनिजी श्री संयमप्रभाजी 15. श्री ऋषिताजी | 2039 दिल्ली रामकुमारजी जैन 2054 फर. 8 शक्तिनगर दि. | श्री अमरमुनि जी | श्री पवनकुमारीजी |16. श्री संबोधिजी 12041 बिजरोली नरेशकुमारजी जैन 12058 नवं.28 वीरनगर, दि. श्री शिवमुनिजी श्री संयमप्रभाजी 17. श्री सूर्याजी 2043 सोनीपत | रामप्रकाश शर्मा | 2060 फर. 22 दिल्ली श्री अमरमुनिजी | श्री जितेन्द्राजी जैन श्रमणियों का बृहद इतिहास 543. संयम गगन की दिव्य ज्योति, पृ. 236-41 Page #799 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (ख) श्री पन्नादेवी (टोहाना) की शिष्या प्रियावतीजी का शिष्या-परिवार 44 स्थानकवासी परम्परा की श्रमणियाँ 737 क्रम | साध्वी नाम जन्म संवत् स्थान | पिता नाम गोत्र दीक्षा संवत् तिथि दीक्षा स्थान | दीक्षादाता | गुरूणी विशेष विवरण 1 श्री वल्लभवतीजी दनौदा कलां हेमराजजी जैन 1998 आषा. शु. 3| बडौत श्री निरंजनलालजी| श्री प्रियावती जी | स्वर्ग-2043 कर्मपरा दिल्ली 2. श्री प्रकाशवतीजी |1984 सोनीपत | तुलारामजी गुप्ता 12005 अमीनगर |श्री अमरचंद्रजी म. श्री पन्नादेवीजी |आप सरल स्वभावी हंसमुख सराय प्रकृति थी स्वर्गवास-सं. 2042 दिल्ली में हुआ। 3. श्री सुरेशजी |1999 धुरी मंडी | सुमतप्रसाद जैन | 2017 अप्रैल 2 | अंबाला श्री वल्लभवतीजी | स्वर्ग. 18 अप्रेल 19921 | मेरठ में श्री सुशीलजी 2007 नैनीताल 2021 फर. 16 |जींद | श्री रामजीलालजी श्री प्रियावतीजी - श्री प्रवीणजी खेड़ी गुज्जर लखमीचंद जैन 1 2030 जून 5 |न्यूराजेंद्रनगर दि. श्री सुशीलमुनिजी | श्री विजेन्द्राजी श्री मणिप्रभाजी |2019 हांसी | अमरचंदजी जैन 1 2034 अप्रैल 20 | धर्मपुरा दिल्ली श्री बनवारीलालजी| श्री वल्लभवतीजी |श्री मंजुलज्योतिजी |2022 नारनौल वीरसिंह सैनी 2040 गौतमपुरी दिल्ली श्री जिनेन्द्रमुनि जी| श्री विजेन्द्राजी श्री निधिज्योति ]2030 दिल्ली सुमेरचंद जी जैन 12040 शास्त्रीनगर दि. श्री पद्मचंदजी म. श्री विजेन्द्राजी श्री शमांजी 2030 भैंसवालकला| कुंदनलालजी जैन इन्द्रपुरी दिल्ली| श्री प्रियावती जी | श्री सुशीलजी श्री अंजलीजी करनावल प्रभासचंद्रजी जैन 12047 जन. 30 त्रिनगर दिल्ली | श्री जगदीशमुनिजी| श्री सुशीलजी श्री गरिमाजी जालंधर मित्रसेनजी जैन | 2047 जन. 30 त्रिनगर दिल्ली | श्री जगदीशमुनिजी] श्री शमांजी श्री रचिताजी ब्रह्मपुरी परासौली ओमप्रकाशजीजैन 2048 फर. 16 | विवेकविहार दि. श्री पद्मचंद्रजी | श्री विजेन्द्राजी श्री प्रियंकाजी छपरौली सुनीलकुमारजी जैन 2053 जुलाई 12 | अशोकविहार दि. श्री देवेंद्रमुनिजी | श्री प्रवीणाजी श्री नमनजी 2039 हिलवाड़ी | ब्रजपालजी शर्मा | 2053 दिसं. 7 | अशोकविहार दि श्री देवेंद्रमुनिजी | श्री अंजली श्री सपनाजी बुद्धविहार दिल्ली मुकेशजी जैन । | 2054 दिसं. 7 |अशोकविहार दि. श्री देवेंद्रमनिजी | श्री मणिप्रभाजी श्री चारूजी श्री अंजलीजी | श्री रूपिकाजी 2057 वै. शु. 3 रायकोट प्र. सुमनमुनि जी श्री सुशीलजी श्री मेरूजी श्री शमांजी 544. संयम गगन की दिव्य ज्योति, पृ. 246-51 Page #800 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (ग) श्री पन्नादेवी (टोहाना) की शिष्या श्री प्रेम कुमारी जी महाराज का शिष्या-परिवार:45 738 क्रम | साध्वी नाम जन्म संवत् स्थान पिता नाम गोत्र | दीक्षा संवत् तिथि | दीक्षा स्थान | दीक्षा दाता | गुरूणी | विशेष विवरण 1. श्री विजयजी | 1996 मुंबई खुशीरामजी जैन तीतरवाड़ा |श्री पन्नादेवीजी म. | श्री प्रेमकुमारीजी | आपने जैन प्रभाकर परीक्षा दी है। श्री शांतिदेवीजी | घसौली | मित्रसेनजीजैन 2010 मृग. शु.5/ सफीदों मंडी श्री प्रेमकुमारीजी श्री सुमनजी | 1999 बामनोली | मनोहरलालजी जैन | 2014 मृग, शु. पू. चांदनीचौंक दि. | श्री प्रेमचंद्रजी म. श्री शांतिदेवीजी | सरल, प्रभावक श्री साधनाजी | 1998 बड़ौत | श्री मोतीलालजी 2018 चांदनीचौंक दि. - |श्री प्रेमकुमारीजी | स्वर्ग. सं. 2029 मुक्तसर श्री वीणाजी 12011 हिलवाड़ी | प्रेमचंदजी जैन | 2025 मई 5 त्रिनगर दि. श्री रामकृष्णजी म. श्री शांतिदेवीजी | प्रवचनकार, तपस्विनी सेवाभाविनी श्री समताजी होरीलालजी शर्मा | 2028 चै. शु. 5 | कुरूक्षेत्र । | श्री सुमनजी श्री सिंधुबालाजी | बुडलाढा मंडी प्यारेलालजी जैन 2029 |श्री पद्मचंद्रजी म. | श्री साधनाजी श्री राधाजी 2020 नेपाल चूडामणि लामीछाने | 2037 मार्च 12 दोघट श्री सुमतिप्रकाशजी | श्री सुमनजी |श्री रविकांताजी | बालमाटा नेपाल | कृष्णप्रसाद शर्मा 2037 मार्च 12 | दोघट | श्री सुमतिप्रकाशजी | श्री सुमनजी |श्री सोनिकाजी | शाहदरा दिल्ली | श्रीनिवास जैन | 2037 जन. 30 | त्रिनगर दिल्ली श्री जगदीशमुनिजी | श्री सुमनजी |श्री संजुजी 2031 नेपाल ज्योति शर्मा 2037 जन. 30 त्रिनगर दिल्ली श्री जगदीशमुनिजी | श्री सुमनजी | श्री गीताजी 2018 नेपाल मुक्तिनाथ सुवेदी 2041 फा.शु. 5 | लक्ष्मीनगर, दि. |श्री पद्मचंद्रजी म. | श्री सुमनजी | लघु भ्राता श्री उत्तममुनिजी | श्री पूनम जी 2024 नेपाल कृष्णप्रसाद शर्मा 2041 फा. शु. 5/ लक्ष्मीनगर, दि. | श्री पद्मचंद्रजी म. | श्री राधाजी | श्री बिन्दु जी 2026 नेपाल भूमिलाल केसी | 2043 अप्रे. 6 | कैलाशनगर, दि. | श्री रामकृष्णजी म. श्री राधाजी श्री वंदनाजी 2028 दिल्ली प्रभासजी जैन 2047 जन. 30 | त्रिनगर दिल्ली | जगदीशमुनिजी म. | श्री विजयजी | श्री श्रुति जी 2033 नेपाल घनश्यामजी शर्मा 2052 फर. 4 | पश्चिमविहार, दि. श्री अमरमुनिजी |श्री सोनिकाजी |श्री सलौनीजी 2038 दिल्ली प्रेमचंदजी जैन । 2052 फर. 4 | पश्चिमविहार, दि. श्री अमरमुनि जी | श्री गीता जी श्री शिवानीजी 2038 राजाखेड़ी | रघुवीरसिंह जैन | 2052 फर. 4 | पश्चिमविहार, दि. श्री पद्मचंद्र जी | श्री विजय जी |श्री शैलीजी 2041 दिल्ली 2056 अप्रेल 25 | शास्त्रीपार्क, दि. श्री अमरमुनिजी |श्री सोनिकाजी | श्री प्रज्ञाजी श्री मंजुलजी 21.| श्री उदिताजी - नेपाल 2060 अरिहंतनगर दि. | श्री सुमतिप्रकाशजी | श्री संजुजी जैन श्रमणियों का बृहद इतिहास 545. संयम गगन की दिव्य ज्योति, पृ. 258-60 Page #801 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (घ) श्री पन्नादेवी (टोहाना) की परंपरा की श्री शशिकांताजी म. सा. का अवशिष्ट शिष्या-परिवार546 क्रम | साध्वी नाम जन्म संवत् स्थान पिता नाम गोत्र दीक्षा संवत् तिथि| दीक्षा स्थान । दीक्षा दाता | गुरूणी | विशेष विवरण स्थानकवासी परम्परा की श्रमणियाँ 739 श्री स्नेह कु.जी | सराना खेड़ी (ह.)| शशिरामजी जैन | 2020 फर. 16 | जींद श्री रामजीलालजी | श्री शशिकांताजी श्री अनिलजी खेड़ी (ह.) शशिरामजी जैन | 2024 मई 16 सराना खेड़ी | श्री पद्मचंद्रजी श्री शशिकांताजी श्री अजयजी जालवखेड़ी (ह.)| रामभगतजी जैन 2024 मई 16 सराना खेड़ी | श्री पद्मचंद्रजी श्री शशिकांताजी श्री मीनाजी कोटकपुरा (पं.) | ज्योतिप्रसादजी जैन | 2028 जालवखेड़ी श्री शशिकांताजी श्री चेतनाजी नाभा (पं.) वचनदास गोयल 2034 सिंत 2 | धूरि (पं.) श्री अनिलजी । श्री शिखाजी | दिल्ली प्रीतमचंदजी जैन 2035 फरवरी 20/ रोपड़ (पं.) डॉ. श्री सरिताजी श्री रश्मिजी | फगवाड़ा सतापालजी जैन | 2035 दिसं. 11 | होश्यारपुर श्री पद्मचंदजी म. श्री स्नेहजी श्री रचनाजी बुडलाढा (ह.) | ईश्वरदयालजी जैन | बंगा (पं.) श्री स्नेहजी श्री मंजुलाजी जंडियाला गुरू गुरूदित्तामल अमृतसर | श्री अजयजी | श्री चंदनाजी जम्मूतवी दर्शनलालजी जैन | 2041 नवं. 29 नवांशहर | श्री ज्ञानमुनिजी श्री अनिलजी श्री आरतीजी पट्टी सुशीलकुमारजी 2041 नवं. 29 नवांशहर श्रीज्ञानमुनिजी श्री अनिलजी श्री चेलनाजी सुनाम (पं.) पारसमलजी जैन | 2041 नवं. 28 अंबाला कैंट - श्री मीनाजी आभाजी जालवखेड़ी भगवानदासजी जैन | 2047 जन. 30 त्रिनगर दिल्ली | श्री जगदीशमुनि | डॉ. श्री सरिताजी | श्री शिवाजी डेराबसी(पं.) जिनेश्वरदासजी जैन | 2047 जन. 30 त्रिनगर दिल्ली | श्री जगदीशमुनि श्री अजयजी 'वड्ढाणचरिउ' पर सन् 2002 में PH.D. श्री प्रेक्षाजी करनाल सतीशजी जैन 2048 फर. 16 विवेकविहार दि.|श्री पद्मचंद्रजी श्री मंजुलजी श्री प्रतिष्ठाजी सुनाम पारसमलजी जैन | 2048 फर. 16 | विवेकविहार दि.|श्री पद्मचंद्रजी | श्री मंजुलजी श्री श्रेयाजी कहसून मेघराजजी जैन 2051 अप्रल 22] अबाला |श्री देवेन्द्रमुनिजी | श्री शिखाजी श्री जयाजी करनाल श्री सतीश जैन 12048 फर. 16 विवेकविहार दि. श्री पद्मचंद्रजी। श्री प्रेक्षाजी श्री सौम्याजी | दिल्ली वेदप्रकाशजी जैन | 2052 मई 2 | अंबाला श्री देवेन्द्रमुनिजी श्री शिखाजी श्री भावनाजी | दिल्ली दिनेशजी जैन 12052 फर.4 पश्चिमविहार दि. श्री पद्मचंद्रजी | श्री अनिलजी श्री मधुरताजी | बडौदा लालचंदजी जैन 2053 विवेकविहार दि. श्री पद्मचंद्रजी | श्री चेलनाजी गुरूवाणीजी | दिल्ली 2058 मई 7 ऋषभविहार दि. | श्री शिवमुनिजी श्री लक्ष्मीजी श्री ममताजी | रोड़ी चौधरीवंश 2058 मई 7 ] ऋषभविहार दि. | श्री शिवमुनिजी | श्री मधुरताजी श्री श्रद्धाजी दिल्ली 2057 वै. शु.3 | रायकोट श्री सुमनमुनि | श्री शिखाजी 25. श्री वर्षाजी दिल्ली दिल्ली श्री अमरमुनिजी | श्री अनिलजी फर 16 546. संयम गगन की दिव्य ज्योति, पृ. 240-41 Page #802 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (ङ) श्री मगनश्रीजी महाराज का अवशिष्ट शिष्या-परिवार 47 क्रम| साध्वी नाम जन्म संवत् स्थान पिता नाम गोत्र दीक्षा संवत् तिथि | दीक्षा स्थान | दीक्षादाता गुरूणी विशेष विवरण 1. श्री वीरमतीजी | 1988 हिलवाड़ी | श्री नौरंगमलजी 2012 कांधला श्री मगनश्रीजी आयबिल तपाराधिका, सं. 2053 दिल्ली में स्वर्ग श्री सुचेष्टाजी सुराणाखेड़ी (हरि.) नेकीरामजी जैन | 2022 मा. शु. 5 | पिल्लुखेड़ा श्री मगनश्रीजी | बहुभाषाविद्, मधुप्रवचनकर्ती श्री मीनेशजी | राजपुर (हरि.) नानूरामजी राठी 1 2024 गंगेरू श्री मगनश्रीजी | सरल, संयम के प्रति दृढ़ निष्ठावान् 4. | श्री ममताजी पानची (हरि.) | ओमप्रकाश जैन 2034, मार्च 8 |पिल्लुखेड़ा मंडी| श्री मगनश्रीजी श्री वीरमतीजी | स्वाध्यायलीना, धर्मप्रभाविका 5. श्री मनीषाजी | भैंसवाल ग्राम छोटूरामजी | 2035 बसंतपंचमी | कांधला (उ.प्र.)| श्री सुमतिप्रकाशजी | श्री मीनेशजी प्रवचनकर्तृ, स्वाध्याय शीला 6. श्री विमलश्रीजी | राजपुर (हरि.) | श्री मांगेराम जी | 2038, फर. 9 दिल्ली | श्री मगनश्रीजी श्री सुचेष्टाजी | मधुर प्रवचन, सेवापरायणा 7. श्री विनोदश्रीजी | सुराणा खेड़ी | श्री रोशनलालजी जैन | 2038 फर, 9 | दिल्ली श्री मगनश्रीजी श्री सुचेष्टाजी जप-तप में विशेष रूचि, (हरि.) विनयी 8. श्री मनोरमाजी नांगलोई (दिल्ली)| चंदगीराम जी 2041 अक्षयतीज | नई दिल्ली श्री सुमतिप्रकाशजी | श्री ममताजी कवियित्री, प्रभावशाली प्रवचनकी 9. | श्री मुक्ताजी | छोटूरामजी जैन | 2041 मई 15 मोतीबाग नई दि. श्री सुमतिप्रकाशजी | श्री मीनेशजी | मधुरगायिका, धर्मप्रभाविका |श्री सुमनजी नोरंगमलजी जैन 2043 मार्च 30 | अंबाला पद्मचंद्र जी म. | श्री ममताजी धर्मप्रभाविका निर्मलजी रमाणा (हरि.) | चौधरी समेसिंह 12044 मार्च 1 नांगलोई, दि. श्री मगनश्रीजी | श्री सुचेष्टाजी | सेवाव्रती, सरलमना |श्री यशाज्योति श्री इन्द्रसिंहजी |2044 मार्च 1 | नांगलोई, दि. |श्री मगनश्रीजी श्री सुचेष्टाजी | मधुरगायिका, सेवाभाविनी | शिष्या-सम्यक् ज्योति 13.| श्री मंजिताजी | कुटानी खेड़ी चौ. हरिकिशन जी | - दिल्ली श्री पद्मचंद्रजी श्री विमलश्रीजी | अध्ययनशीला 14. श्री मंजुलजी | सोनीपत श्री नरेशचंद जी | 2050 अप्रैल 25 सोनीपत | श्री पद्मचंद्रजी | श्री मनीषाजी सहज प्रवचनकर्तृ. स्वाध्यायशीला जैन श्रमणियों का बृहद इतिहास 547. संयम सुरभि, पृ. 113-168 Page #803 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 741 क्रम साध्वी नाम 15. श्री वर्षाजी 16. श्री मृदुलजी 17. श्री संयमज्योति 18. श्री मंगलज्योति 19. श्री माधुरीजी 20. श्री मोहन श्रीजी 21. श्री वृष्टिजी 22. श्री विरक्ताजी 23. श्री ज्योतिजी 24 श्री मल्लीजी 25. श्री मैत्रीजी 26 श्री ज्योत्स्नाजी 27. श्री विजेताजी 28. श्री सुदेशजी जन्म संवत् स्थान पिता नाम गोत्र दीक्षा संवत् तिथि राजकुमारजी गुप्ता नांगलखेड़ी खेड़ी गुजर रिंढाणा (हरि) दिवाना (हरि) नांगलराय दिल्ली इन्द्रपति दिल्ली सोनीपत जहांगीरपुरी दिल्ली त्रिनगर (दिल्ली) तेखंड दिल्ली सूरजभानजी जैन बीरबलसिंह रामभजजी शर्मा बी. भूपसिंह चौ. जयपालसिंह राजकुमारजी राजकुमारजी श्री मदनलालजी नरेशचंदजी गुप्ता लक्ष्मीनारायणजी सुरेन्द्रकुमार गर्ग राजकुमारजी प्रकाशसिंहजी सैनी 2050 अक्षयतीज सोनीपत 2050 अक्षय तृ. 2050 मई 5 2051 अप्रेल 22 2054 अप्रैल 4 2054 नवं. 27 दीक्षा स्थान 2055 फर. 16 2056 अप्रैल 28 2058 जन. 14 2058 जन. 17 2058 जन. 17 2058 मई 7 2058 मई 7 2059 मई 15 सोनीपत दीक्षादाता श्री पद्मचंद्रजी श्री पद्मचंद्रजी त्रिनगर दिल्ली श्री पद्मचंद्रजी अम्बाला श्री देवेंद्रमुनिजी पश्चिमविहार दि श्री पद्मचंद्रजी दिल्ली, त्रिनगर विवेकविहार दि. श्री पद्मचंदजी ऋषभविहार दि श्री पद्मचंद्रजी इन्द्रपुरी, दिल्ली श्री पद्मचंदजी श्री पद्मचंद्रजी प्रेमनगर, दि. श्री पद्मचंद्रजी ऋषभ विहार, दि. श्री शिवमुनिजी ऋषभविहार दि. श्री शिवमुनिजी रायकोट (पं.) श्री शिवमुनिजी गुरूणी श्री सुमनजी श्री मनीषाजी श्री निर्मलजी श्री मुक्ताजी श्री मनोरमाजी श्री सुचेष्टाजी श्री सुमनजी श्री सुमनजी श्री मीनेशजी श्री मंजुलजी श्री मृदुलजी श्री मंजीताजी श्री सुमनजी श्री मंजुलजी विशेष विवरण अध्ययन में रूचि विधि जी और दर्शिताजी 2 शिष्या अध्ययनशील, सरल स्वभावी अध्ययनशीला, प्रवचनकत्री मधुरगायिका, गुरु भक्ति वर्षीतप किया है, सेवाशील अध्ययनरत, गंभीर गम्भीर, सेवाशील सेवा: समर्पण उल्लेखनीय अध्ययन, सेवाभाव में रूचि सेवानिष्ठ, स्वाध्यायशील। सेवाभावी, स्वाध्यायशीला सेवा व स्वाध्यायरत स्वाध्यायशीला स्थानकवासी परम्परा की श्रमणियाँ Page #804 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (च) उपप्रवर्तिनी श्री सुन्दरीजी महाराज का अवशिष्ट शिष्या-परिवार548 | साध्वी नाम जन्म संवत् स्थान पिता का नाम गोत्र | दीक्षा संवत् तिथि | दीक्षा स्थान | गुरूणी विशेष विवरण 2006 श्री शांतिदेवीजी श्री भागवन्तीजी | श्री शारदाजी 1989 उकलाना | श्री दयालालजी | *रोहतक *केसरीलालजी | 2001 रोहतक | श्री चंदगीरामजैन | 2014 श्री अर्चनाजी 2009 लड़सोली | श्री सूरजभान जैन | 2025 मार्च 6 1 2025 2036र 1 श्री शिक्षाजी श्री वंदनाजी श्री संगीताजी श्री सौरभजी 2008 जगरावां मंडी | कपूरचंद्रजी अग्र. 2017 रोहतक वीरभानजी जैन 2025 - हुकमचंदजी जैन 2025 खानपुर चौधरी इन्द्रसिंह 2043 2043 श्री सुंदरीजी | कष्ट सहिष्णु, परिषहजयी | श्री सुंदरीजी | सेवाभावी, मधुर स्वभावी जींद (हरि.) श्री शांतिदेवीजी | ज्ञान, ध्यान, संयम में उत्कृष्ट सेवाभाविनी हैं। | जगरांवा श्री आज्ञावतीजी | मृदु स्वभाव, मधुरकंठ, प्रभाकर परीक्षा उत्तीर्ण, मासखमण आदि तप, दीप्त तपस्विनी पद से अलंकृत जगरावां श्री भागवंतीजी गुरूसेवा व विशुद्ध संयम में लीन रोहतक श्री भागवंतीजी | सारगर्भित प्रवचन, ज्ञानाराधिका अंबाला श्री सुंदरीजी स्वाध्यायशीला अम्बाला |श्री सुशीलाजी स्वाध्यायशील, सेवापरायणा, शीतलजी शिष्या | माडलटाउन दि. श्री सुषमाजी वक्तृत्वकला, कंठकला श्रेष्ठ माडलटाउन दि. श्री सुशीलाजी | वक्तृत्वकला में निपुण श्री संयमप्रभाजी विनयगुणसम्पन्न श्री संयमप्रभाजी | कई आगम कंठस्थ, विनम्र श्री संयमप्रभाजी | आगमज्ञ, प्रवचनशैली मधुर बुटाना श्री शारदाजी प्रवचन व गायन में दक्ष, सुगंध (सोनीपत) जी, सुपावनजी शिष्या विवेकविहार दि. श्री अर्चनाजी अध्ययन, सेवा, मौन, जप में रूचि रोहिणी श्री सुषमाजी सात आगम व 100 स्तोक सै. 3, दि कंठस्थ 2045 2028 रिंढाणा 2019 दिल्ली दनौदा 2045 2046 श्री सन्मतिजी | श्री सुनीताजी श्री सुचारूजी श्री सुभद्राजी श्री सुनीतिजी श्री ज्योतिजी श्री दयाचंदजी श्रीरामजी जैन साधुरामजी जैन | श्री कूलचंद्रजी साधुरामजैन राजकुमारजी शर्मा 2046 दनौदा 2047 2022 बुटाना 2048 मई 8 | श्री अनुपमाजी | श्री साधनाजी 2033 बरनाला(पं.) गोविंदरामजी जैन 2028 उकलानामंडी| श्री मदनलालजी 2049र. 16 2050 जैन श्रमणियों का बृहद इतिहास 548. संयम-सुरभि : पृ. 141-159 Page #805 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 743 क्रम 17. 18. 19. 20. 21. 22. 23. 24. 25. 26. 27. 28. 29. 30. 31. 32. 33. 3435454 साध्वी नाम श्री सुदक्षाजी श्री सुमंगलाजी श्री सुनन्दाजी श्री वंदनाजी श्री शुभाजी श्री शालिनीजी श्री सुकृतिजी श्री सुरेखाजी श्री सुरक्षाजी श्री सुप्रभाजी श्री सुमनजी श्री सुवृत्ति जी श्री सुनिधिजी श्रीसुवृद्धिजी श्री सुचेताजी श्री स्वातिजी श्री सुयशाजी श्री सुधीजी श्री सुव्रताजी जन्म संवत् स्थान 2029 खानपुर गांव 2034 उकलाना 2036 राबड़ा माजरा 2030 पांची ग्राम 2036 बिठमड़ा 2029 गोहाना 2033 उकलाना 2037 सोनीपत 2037 गिवाना 2037 गोहानामंडी 2033 पंजाब 2038 पंजाब 2038 रिंढाणा पिता का नाम गोत्र दीक्षा संवत् तिथि नंदलालजी जैन जयकुमारजी जैन श्री कृष्णचंद्रजी फतेहचंदजीजैन भीमसेनजी जैन सतीशजी अग्रवाल जयकुमारजी जैन रोशनलालजी जैन धर्मवीर जैन सुरेशजी अग्रवाल सुरेशकुमारजी सुरेशकुमारजी चौ. रूपसिंह चौ. कर्णसिहंजी श्री ज्ञानचंदजी जैन 2050 2050 2051 2051 अप्रेल 22 2051 2052 2052 मई 1 2052 2052 2052 मई 1 2052 2052 2052 2052 दीक्षा स्थान दिल्ली अंबाला गोहाना मंडी सोनीपत सोनीपत सोनीपत 11 गुरूणी श्री संयमप्रभाजी श्री संयमप्रभाजी श्री संयम प्रभाजी श्री राजमतोजी श्री शिक्षाजी श्री शान्तिजी श्री संयम प्रभाजी श्री संयमप्रभाजी श्री संयमप्रभाजी श्रीसंयमप्रभाजी श्री संयमप्रभाजी श्री संयमप्रभाजी श्री संयमप्रभाजी श्री वंदनाजी श्री सुशीलाजी श्री सुशीलाजी श्री सुशीलाजी श्री सुशीलाजी शालीमारबाग दि. श्री सुंदरीदेवीजी विशेष विवरण सेवाभाविनी सरल संयमप्रभाजी की भतीजी, विनयी प्रखरबुद्धि संपन्ना है। हिंदी में एम. ए. सुन्दर प्रवचनकर्तृ शालीन व्यवहार, मधुर प्रवचनक सरलचेता, विनयवान, गुरू- समर्पिता बुद्धिमती, आपके ज्येष्ठ भ्राता श्री सुदर्शनलालजी म. के शिष्य हैं। एकान्तप्रिय, शान्तस्वभावी स्वाध्याय परायणा श्री सुचेताजी की लघु भगिनी हैं, स्वाध्याय व सेवा की रूचि सेवा, स्वाध्याय, धर्मोपदेश में रुचि विवेकशीला बुद्धिसंपन्न समताभावी, सहिष्णु, स्वाध्यायी स्थानकवासी परम्परा की श्रमणियाँ Page #806 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (छ) महासती श्री मोहनदेवीजी महाराज (दिल्ली) का अवशिष्ट श्रमणी-समुदाय 49 क्रम । साध्वी नाम श्री विमलमतीजी दिल्ली | श्री जैनमतीजी श्री यत्नमतीजी श्री रूक्मिणीजी श्री निर्मलजी श्री तृप्ताजी | श्री उर्मिलाश्रीजी श्री मधुजी 744 श्री शक्तिजी जन्म संवत् स्थान पिता का नाम गोत्र दीक्षा संवत् तिथि दीक्षा स्थान गुरूणी विशेष विवरण | - दिल्ली जीतमलजी जौहरी 1977 - श्री मोहनदेवीजी | व्याख्यान शैली सुन्दर, सं. 1987 में स्वर्गस्थ | - दादनखां *जटूशाह 1980 रावलपिंडी श्री सोमादेवीजी विदुषी, सेवाभाविनी, तपस्विनी -रावलपिंडी ला. मोहराशाह | 1983 चै. शु. रोहतक श्री द्रौपदांजी सम्पन्न, विवाहिता 1977 दिल्ली दीपचंदजी चौरड़िया 1989 वै. शु. 7 दिल्ली | श्री मोहनदेवीजी | दृढ़ वैरागी, स्वाध्यायी, सं 19931 | में स्वर्गस्थ | 2001 दिल्ली मदनलालजी भंसाली | 2017 मई 8 चांदनीचौंक दि. श्री स्वर्णाजी आगमज्ञाता, मधुरव्याख्यानी, कई | पत्रिकाओं में लेख 2002 जम्मूतवी जसवंतराय जैन 2025 पो. क.5 अहमदगढ़मंडी श्री प्रमोदजी 10 वर्षीतप, अठाइयां, 15 उपवास 33 आयबिल आगम ज्ञाता | 2009 मुंबई चिमनभाई टोलिया। | 2031 आसो. शु.5 | खार (मुंबई) |श्री विमलाश्रीजी | सेवाभाविनी, निरंतर एकासन तप 2015 दिल्ली | 2031 नवंबर 8 सब्जीमंडी श्री प्रवीणजी | अठाई, दो ओली तप, जै. सि. दिल्ली प्रभाकर, प्रवचन प्रभाविका 2011 आंवली श्री हिम्मतरामजी I2032 मा. शु.5 त्रिनगर (दि.) |श्रा प्रवाणश्राजा | त्रिनगर (दि.) | श्री प्रवीणश्रीजी | दो वर्षीतप, कई उपवास बेले तेले, 5 आगम कंठस्थ 2016 नाभा पवनकुमारजी जैन | 2032 मई 9 नाभा | श्री प्रमोदजी ओजस्वी प्रवचनकी 2014 चिंचवड़ सुवालालजी बोरा 2035 अक्षय तृ. सिकंदराबाद | श्रीमंजुश्रीजी एम.ए., लेखिका, प्रवचनकी 2019 के.जी.ए. पारसमलजी सोनी 2037 मा. शु. 5 बैंगलोर | श्री सरोजश्रीजी | बी. ए., सेवाभाविनी 2021 बरनाला जिनेश्वरजी जैन | 2039 का. शु. 13 | लुधियाना |श्री प्रमोदजी कई अठाइयां, 11 उपवास, ओली | | तप, विनीत, सेवाभाविनी 2020 चिंचवड़ सुवालालजी बोरा 2039 का.शु. 13 बैंगलोर श्री सरोजश्रीजी बी. ए., मधुर व्याख्याता 2020 कोप्पल पारसमल सकलेचा 2039 का.शु. 13 बैंगलोर श्री केसरदेवीजी | सेवाभाविनी, एम. ए. 2021 बैंगलोर सुरेशभाई मेहता 1 2039 का.शु. 13 बैंगलोर श्री उर्मिलाश्रीजी बी. ए. विदुषी, मधुर व्याख्यानी, साहित्यकी | 2022 जालना मोतीलालजी गोलेछा | 2039 का.शु. 13 | बैंगलोर श्री विमलाश्रीजी | सिद्धान्ताचार्य, विदुषी, प्रवचन प्रभाविका, लेखिका -नगुरा (हरि.) मनोहरलालजी जैन | 2040 मार्च 16 सब्जीमंडी(दि.) श्री निर्मलजी आगम स्तोक में रूचि, सैंकड़ों एकाशन, व्याख्यानी श्री सुनीताजी श्री अक्षय श्रीजी श्री यशाश्रीजी श्री अनिताजी श्री मल्लीश्रीजी श्री नीतिश्रीजी श्री निधिश्रीजी श्री कृपाश्रीजी जैन श्रमणियों का बृहद इतिहास श्री सुयशाजी - 549. (क) साध्वी विजयश्री 'आर्या; महासती केसरदेवी गौरव ग्रंथ, खंड-3, पृ. 419-52 (ख) परिचय पत्र के आधार से Page #807 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्थानकवासी परम्परा की श्रमणियाँ क्रम । साध्वी नाम जन्म संवत् स्थान |पिता का नाम गोत्र | दीक्षा संवत् तिथि | दीक्षा स्थान | गुरूणी विशेष विवरण श्री प्रगतिश्रीजी 2019 बैंगलोर |बंसीलालजी धोका | 2042 वै. श.3 | अहमदनगर |श्री मंजुश्रीजी बी.ए., मधुरकठी, पुस्तक-गीत प्रगति के, बड़ी साधुवंदना श्री कौमुदीश्रीजी 2022 मद्रास नेमिचंदजी मुणोत | 2044 नवंबर 12 | खार (मुंबई) | श्री सरोजश्रीजी | मधुरव्याख्यानी, एम. ए. । श्री सुरभिश्रीजी 1 2031 दिल्ली हरकेशसिंहजी | 2047 जनवरी 30 | त्रिनगर (दि.) श्री प्रवीण जी 9, 11, उपवास, 6 अठाई, तेले, 51 एकाशन, 9 वर्ष से एकासन के एकांतर, पुष्यनक्षत्र, ज्ञानपंचमी, आगमरूचि श्री संबोधिश्रीजी | 2025 मद्रास हेमराजजी सिंघवी | 2048 मई 26 अरिहंतनगर (दि) श्री मंजुश्रीजी | सेवाभाविनी श्री करूणाश्रीजी 2027 चिंचवड़ |रमणलालजी लुंकड़ | 2049 रवरी 8 - अहमदनगर श्री मंजुश्रीजी सेवाभाविनी श्री कमलेशजी 2037 पांवरा साहिब | श्री पूर्णचंदजी 1 2052 फा. कृ. 4 | जालन्धर श्री प्रमोदजी अठाई, 9 उपवास, आयंबिल ओली, ज्ञान पिपासु, विनीत श्री निष्ठाजी 2039 अंबाला कैंट | विजयकुमार जैन | 2052 फा. कृ.4 | जालन्धर श्री प्रमोदजी आयंबिल, उपवास कई, सेवा भाविनी, ज्ञान पिपासु श्री विचक्षणाश्री 2032 उदयपुर दिनेशचंद्रजी बया | 2053 का. शु. 13. | दिल्ली |श्री प्रियदर्शनाजी | बी. ए., मधुरव्याख्यानी, स्वाध्याय रूचि, 115 एकाशन श्री वंदनाजी -कुरूक्षेत्र अरोड़ा 2054 रवरी 16 | दिल्ली श्री निर्मलजी सेवाभाविनी श्री पूजाजी 2039 जालंधर विनोदजी जैन 2055 वै. शु. 3 जालन्धर | बी. ए., ज्ञान पिपासु, अठाइयां, एकासण, आयबिल ओली श्री तरूलताश्रीजी 2029 बडनेरा चिमनलाल गांधी 2056 मा. शु. 6 नासिक |श्री विजयश्रीजी | बी.ए., प्रवचनकर्ती, जैन पत्रि काओं में यदा-कदा लेख श्री देशनाजी 2042 आगरा 2058 का. शु. 13 | दिल्ली |श्री प्रियदर्शनाजी | मधुरगायिका, सेवाभाविनी श्री संसिद्धिजी 2045 मेरठ 2060 वै. दिल्ली |श्री मंजुश्रीजी मधुरवक्ता, अध्यनशीला श्री संतोषजी 2010 कहनी पन्नालालजी गर्ग 2026 दिसं. 7 रोहतक श्री जगदीशमतीजी | जैन शास्त्री, साहित्यरत्न, बी.ए., साहित्य-समाधान का कल्पवृक्ष भाग 1-4, तप-नौ उपवास, कई तेले, हजारों आबिल, 'जीवो मंगलम्' संस्था करनाल की प्रेरिका श्री अर्पिताजी 2017 दिल्ली कस्तूरीलाल जख | 2042 मा. शु. 5 | बड़ौत | श्री संतोषजी जैन प्रभाकर, 8, 15, 35 उपवास श्री अर्चिताजी 2039 बरनाला रोशनलालजी अग्रवाल | 2042 मा. शु.5 | बड़ौत श्री संतोषजी जैन प्रभाकर, साहित्यरल, बी. ए. 89,10 उपवास श्री डालिमाजी 12039 बठिण्डा धर्मपालजी गर्ग | 2049 नवं. 19 | दिल्ली | श्री संतोषजी | बी. ए.,तप-5 अठाई, 10 उपवास श्री परिधिजी 2047 सोनीपत प्रेमप्रकाशजी शर्मा |2061 जन. 16 | करनाल | श्री सुमनजी नोट : क्रम संख्या 32 से 36 तक श्री जगदीशमती जी महाराज का शिष्या परिवार है। Page #808 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 746 क्रम साध्वी नाम श्री चन्द्रप्रभाजी श्री कुसुमप्रभाजी श्री शशिप्रभाजी श्री ओमप्रभाजी 1. 2. 3. 4. 5. 6. 7. 8. 9. 10. श्री अचलाजी 11. श्री शोभाजी 12. श्री प्रतिभाजी 13. श्री पुण्यप्रभाजी 14. श्री ज्ञानप्रभाजी श्री पद्मप्रभाजी श्री प्रतीकप्रभाजी श्री शक्तिप्रभाजी श्री सुयशप्रभाजी श्री सुव्रतप्रभाजी 15. श्री मधुबालाजी 16. श्री सुचेताजी 17. श्री श्वेताजी 18. श्री समताजी 19. श्री शुभाजी 20. श्री शिवाजी (ज) श्री कैलाशवतीजी महाराज का शिष्या - परिवार 550 दीक्षादाता श्री श्यामलालजी जन्म संवत् स्थान पिता नाम गोत्र दीक्षा संवत् तिथि दीक्षा स्थान दनौदा दनौदा 1999 कहसून कहसून 2002 कसून कसून अम्बाला पटियाला जालन्धर पटियाला 2015 पट्टी जालन्धर 2024 हदूर (पं.) धूरी (प.) बड़ौत (उ. प्र.) हांसी जालन्धर 2030 कहसून रायकोट 2007 पट्टी (पं.) 2004 पट्टी 2007 धूरी (पं.) 2017 गीदड़वाहा 2017 भटिण्डा 2034 दरियागंज दि. 2033 नवांशहर 2035 कहसून 2035 संगरूर 2037 हठूर श्री रामजी गर्ग श्री गोपीरामजी जैन 2014 सितं. 22 सूरजमानजी जैन रामप्रसादजी गोयल रत्नलालजी जैन राजकुमारजी नाहर श्री रामप्रताप जैन विजयकुमारजी जैन भगवानदासजी जैन दयारामजी भाबू राजकुमारजी जैन चिरंजीलालजी जैन टेकचंदजी जैन मथुरादासजी जैन 2029 दिसंबर 10 2039 अप्रेल 19 2040 सितं. 23 2050 अप्रेल 19 2050 नवम्बर 18 550. साभार कैलाश कल्पद्रुम, पृ. 149 154 2025 2026 फरवरी 2 2031 मई 5 2036 मई 11 श्यामलालजी सिंगला 2037 जुलाई 17 2046 फरवरी 2 सुरेशकुमारजी जैन स्वतन्त्रकुमारजी दयालचन्द्रजी जैन श्री रामप्रताप जैन रामप्रतापजी जैन 2049 जनवरी 28 2049 जनवरी 28 2050 नवंबर 18 2050 नवं. 18 पट्टी पट्टी अहमदगढ़ बरनाला रामामंडी पानीपत हिसार हिसार हिसार हिसार श्री शीतलमतीजी श्री टेकचंदजी म. श्री टेकचंदजी म. श्री राममुनिजी म. श्री कैलाशवतीजी श्री जितेन्द्रमुनिजी गुरूणी विशेष विवरण श्री कैलाशवतीजी स्तोक, शास्त्र रूचि श्री कैलाशवतीजी जैन शास्त्री, सेवाभावी श्री कैलाशवतीजी 32 आगम, जैन की ज्ञाता श्री कैलाशवतीजी जै. सिद्धान्ताचार्य बी.ए. श्री कैलाशवतीजी श्री कैलाशवतीजी स्तोक, आगम की रूचि आगमज्ञाता, हिंदी प्रभाकर आगम व स्तोक रूचि श्री कैलाशवतीजी श्री कैलाशवतीजी श्री छोटेलालजी श्री नौबतरायजी श्री कैलाशवतीजी साहित्य सृजन भी किया है। श्री कैलाशवतीजी एम. ए. जैन विशारद उपस्विनी, स्वाध्यायी है। श्री ओमप्रभाजी श्री शशिप्रभाजी श्री ओमप्रभाजी श्री शोभाजी श्री कुसुमप्रभाजी 32 आगम वाचन जैन शास्त्री हैं, सेवाभावी है। जैन सिद्धान्ताचार्य तपस्या, मौन स्वाध्याय में रूचि श्री कैलाशवतीजी श्री कुसुमप्रभाजी जैन विशारद व शास्त्र अध्ययन प्र. श्री पद्मचंद्रजी श्री प्रतिभाजी श्री कैलाशवतीजी श्री ओमप्रभाजी श्री कैलाशवतीजी श्री कुसुमप्रभाजी श्री शक्तिप्रभाजी श्री शक्तिप्रभाजी भजन, प्रवचन में दक्ष स्तोक, सूत्र आदि में रूचि आप जैन सिद्धान्त प्रभाकर है। जैन सिद्धान्त प्रभाकर है। जैन आगम स्तोत्र पढ़ने की रूचि जैन श्रमणियों का बृहद इतिहास Page #809 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - क्रम | साध्वी नाम जन्म संवत् स्थान पिता नाम गोत्र दीक्षा संवत् तिथि| दीक्षा स्थान | दीक्षादाता गुरूणी | विशेष विवरण 21. | श्री सर्वज्ञप्रभाजी | 2039 भिवानी | सदानंद नागपाल | 2053 जन. 24 भिवानी | श्री देवेन्द्रमुनिजी | श्री सुयशप्रभाजी | एम.ए. बी.एड. एम. फिल, आगमज्ञ श्री सुप्रभाजी | श्री अतर सिंह जी | 2052 जन. 24 भिवानी | श्री देवेंद्रमुनिजी श्री पद्मप्रभाजी | भजन, प्रवचन, ध्यान की रूचि श्री समृति जी | 2037 भटिण्डा मदनलालजी मित्तल 2052 जन. 24 भिवानी | श्री देवेंद्रमुनिजी | श्री मधुबालाजी | विद्याभिलाषिणी, सेवाभाविनी हैं। श्री समृद्धिजी 2037 लुधियाना | जवाहरलालजी जैन | 2052 जन. 24 भिवानी श्री देवेंद्रमुनिजी | श्री ओमप्रभाजी | एमए, स्तोक, आगम की ज्ञाता 25. | श्री संचिताजी | 2037 कांधला | जीतेन्द्रकुमारजीजैन | 2052 फर. 4 | पश्चिम विहार दि. श्री शोभाजी जैन सिद्धान्ताचार्य हैं। श्री उपासना जी | 2039 तोषाम | श्री सुरेशचंद्रजी जैन 2054 नवं. 5 | पानीपत श्री कुसुमप्रभाजी | जैन सिद्धान्त विशारद |श्री गरिमाजी तारासिंह सिक्ख दि. 2056 पानीपत श्र कुसुमप्रभाजी | जैन विशारद, भजन, ध्यान स्थानकवासी परम्परा की श्रमणियाँ 2043 रूचि | श्री उदित प्रभाजी | 2035 हांसी सुरेशकुमार अग्रवाल | 2054 नव. 05 | पानीपत श्री कैलाशवतीजी | श्री कैलाशवतीजी | सेवाभाविनी श्री सरिताश्रीजी | 2033 येलदा घेवरचंदजी सांद्र | 2055 मई 27 | घोड़नदी .. - श्री विजयश्रीजी | शासन प्रभाविका |श्री उज्जवलप्रभा श्रीराजकुमारजी जैन | 2058 मई 7 ऋषभविहार दि. आ. शिवमुनि जी | श्री कैलाशवतीजी | सेवाभाविनी, ज्ञानाभिलाषिणी हैं। श्री विरक्ति श्री 12035 औरंगाबाद | मनोहरजी भंसाली | 2056 फा.शु. 5 | जामनेर श्री विजयश्रीजी मधरकंठी श्री आराधनाजी | होश्यारपुर |श्री ओमप्रकाश सूद 2059 फर. 6 पानीपत श्री जितेन्द्रमुनिजी | श्री सर्वज्ञप्रभाजी | तपस्विनी, वैयावृत्य परायणा श्री विभक्तिश्रीजी | 2036 येलदा मोहनलाल जी सांद्र | 2053 | मेरठ श्री सरिताश्रीजी प्रवचनकर्ती श्री अनुप्रेक्षाजी | 2040 लुधियाना | शांतिलालजी जैन | 2059 फर. 6 पानीपत श्री मनोहरमुनिजी | श्री प्रतीकप्रभाजी | जैागम, स्तोक आदि की रूचि | श्री अक्षिताजी | 2042 ओमप्रकाशजी गोयल 2059 फर. 6 | पानीपत | श्री मनोहरमुनिजी | श्री शक्तिप्रभाजी | विशारद, स्वाध्यायी, कंठ सुंदर श्री रक्षिता जी |2042 चरखीदादरी पवनकुमारजी जैन | 2059 फर. 6 पानीपत श्री मनोहरमुनिजी | श्री शक्ति प्रभाजी | जैन विशारद श्री पावनज्योति | 2039 कांधला | जितेन्द्रकुमारजी जैन 2060 दिसं.7 अहिंसाविहार दि. श्री पुण्यप्रभाजी | जैन सिद्धान्ताचार्य हैं। श्री प्रगतिजी 2023 पटियाला | देवराजजी गुप्ता | 2061 मई 2 पानीपत प्रारंभिक अध्ययन श्री योगिताजी 1 2040 उगाला | किशनलालजी जैन | 2061 मई 2 पानीपत श्री मधुबालाजी | प्रारंभिक अध्ययन श्री समीक्षाजी | 2042 भिवानी विजयकुमारजी जैन | 2061 मई 2 पानीपत श्री प्रतिभाजी प्रारंभिक अध्ययन श्री आस्थाजी 12046 इसराणा रामस्वरूपजी जैन | 2061 मई 2 पानीपत श्री शक्तिप्रभाजी | प्रारंभिक अध्ययन * नोट :- क्रम संख्या 37-41 तक श्री जगदीशमतीजी महाराज का शिष्या-परिवार है : परिचय-पत्र के आधार पर Page #810 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (झ) उपप्रवर्तिनी श्री स्वर्णकान्ताजी (अंबाला) का अवशिष्ट श्रमणी-समुदाय51 साध्वी नाम | श्री वीरकान्ताजी श्री कमलेशजी श्री विजयजी श्री चंद्रप्रभाजी श्री संतोषजी श्री श्रेष्ठाजी श्री वीणाजी 748|| जन्म संवत् स्थान | पिता का नाम गोत्र | दीक्षा संवत् तिथि | दीक्षा स्थान | गुरूणी विशेष विवरण 2002 लाहौर | श्री जगदीशचंदजी | 2024 अक्टू. 5 श्री राजकुमारीजी | शांत, मिलनसार, गंभीर प्रकृति, समाज को नई चेतना देने में दक्ष | 2003 अंबाला श्री चिरंजीलालजी 12027 मार्च 26 अंबाला श्री सुधाजी बी.ए., लिपि सुंदर, समन्वय साधि का, मासक्षमण तप 'दीप्त तपस्विनी' | 2008 रोपड़ ला. अमरचंदजी 2030 जन. 28 रोपड़ श्री सुधाजी सादगीमय जीवन, सेवाभाविनी, भंडारी उपनाम, परम गुरू भक्त। 2010 अंबाला | श्री रामकृष्णजी 2029 - रोपड़ |श्री सुधाजी स्पष्टवादी, सरल,शास्त्रों की अध्येता 2007 बलाचौर श्री दर्शनलालजी 2033 जन. 24 श्री राजकुमारीजी | उत्कृष्ट आगमज्ञाता, दो वर्षीतप और भी फुटकर तपस्याएं की। | 2017 अंबाला | श्री रामकृष्णजी 2036 फर. 11 ॥ अंबाला श्री कमलेशजी | प्रभावशाली, प्रवचनकर्ती, विशारद | में सर्वोच्च स्थान, घोर तपस्विनी। | 2021 हुनमानगढ़ श्री विद्यारत्नजी 12041 अप्रैल 22 श्री वीरकान्ताजी शांत, एकान्तप्रिय, स्वाध्याय व | मौनवृत्ति में संलग्न 2023 अंबाला | श्री रामकृष्णजी 2043 अप्रैल 30 श्री सुधाजी अध्ययनशील, संगीतप्रिय, 331 उपवास 'तपचन्द्रिका' 2025 मलोटमंडी श्री दीपचंदजी | 2044 मई 8 अंबाला श्री संतोषजी मासक्षमण तप, अध्यात्मप्रेमी 1999 बलाचौर श्री प्यारेलालजी 12044 मई 8 अंबाला |श्री राजकुमारीजी | दो वर्षीतप, 51, 61 आयंबिल, मासक्षमण तप किया। 2023 जैतोंमंडी |श्री कुलवंतरायजी |2045 अप्रैल 14 |अंबाला श्री सुधाजी आठ आगम कंठस्थ, स्वर मधुर, प्रभाविक प्रवचन, 51 आबिल| 2024 हनुमानगढ़ श्री विद्यारलजी 2045 अप्रैल 14 अंबाला श्री राजकुमारीजी आठ आगम कंठस्थ, शांत. | सहनशील, सेवाभाविनी 2025 जालंधर श्री कृष्णचंदजी 2045 जनवरी 22 श्री किरणजी आठ आगम कंठस्थ, एम. ए. (संस्कृत) 2023 बड़ा ख्याला | श्री देवराजजी 2046 फरवरी 11 पानीपत श्री राजकुमारीजी मधुरगायिका, एकान्तप्रिय, मौन साधिका 8. श्री समताजी श्री सुदेशजी श्री रक्षाजी | श्री सुयशाजी श्री सुव्रताजी आ श्री प्रीतिजी जैन श्रमणियों का बृहद इतिहास श्री कमलाजी 551. महाश्रमणी अभिनंदन-ग्रंथ, श्री स्वर्णकान्ताजी का शिष्या परिवार पृ. 53-65%3 प्रमुख संपादिका-साध्वी स्मृति, आगरा, 1996 ई. Page #811 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्रम साध्वी नाम श्री श्रुतिजी श्री प्रवीणजी स्थानकवासी परम्परा की श्रमणियाँ श्री चंदनाजी FREER OF नाभा | | जन्म संवत् स्थान | पिता का नाम गोत्र दीक्षा संवत् तिथि | दीक्षा स्थान | गुरूणी विशेष विवरण 2023 हनुमानगढ़ | श्री गोवर्धनदासजी | 2047 फरवरी 19 सफीदों मंडी श्री राजकुमारीजी | एम. ए., आगमों का गंभीर अध्ययन, सारगर्भीत प्रवचनशैली। 2028 सुनाम श्री रामनाथजी 2048 फरवरी 16 दिल्ली |श्री राजकुमारीजी | संस्कृत में एम. ए. कर्त्तव्य परायणा, मधुर स्वभावी | 2027 कुराली गांव | श्री दीपचंदजी 2048 करवरी 16 दिल्ली श्री कमलेशजी एम. ए. (संस्कृत) में सर्वोच्च. प्रज्ञापटु | 2030 कुराली गांव | श्री दीपचंदजी | 2051 अप्रैल 22 अंबाला श्री किरणजी संगीतप्रेमी, अध्ययनशीला 2031 हनुमानगढ़ | श्री बनवारी लालजी | 2053 अप्रैल 18 श्री श्रुतिजी सरल, विनम्र, जिज्ञासु वृत्ति |- बलाचौर श्री हरिचंदजी जैन 2055 मार्च 29 अंबाला श्री स्मृतिजी शांत, अध्ययनरत 2061 अप्रेल 25 नाभा 2061 अप्रेल 25 - बलाचौर श्री जोगीन्द्रशाह जैन | 2061 अप्रेल 25 नाभा श्री संतोषजी - बलाचौर अजितकुमारजी जैन 2062 जनवरी 16 मालेरकोटला श्री श्रेष्ठाजी गिदड़बाहा 2062 जन. 16 मालेरकोटला श्री प्रीतिजी बी.ए. अंबाला 2062 जन. 16 मालेरकोटला श्री समता जी लुधियाना 2062 जन. 16 मालेरकोटला श्री विजयजी कार्कीनेटा (नेपाल)| दंडबहादुर पौडेल 2042 मार्च 12 श्री कौशल्याजी 2029 नेपाल श्री ज्योति शर्मा | 2042 मार्च 12 श्री कौशल्याजी 2023 उमरा बनारसीदासजी गर्ग 2042 मार्च 12 श्री कौशल्याजी -नेपाल श्री बलभद्रजी शर्मा | 2043 मंडी कालाबाड़ी श्री कौशल्याजी 2030 नेपाल श्री लक्ष्मीदत्तजी 2043 मंडी कालाबाडी | श्री कौशल्याजी लुधियाना श्री राजेन्द्रपाल भक्कू | 2062 वैशाख शु.3 | अहमदगढ़ मंडी | श्री कोशल्याजी बी.ए., स्तोक श्री शिशुपाल जैन | 2062 वैशाख शु.3 | अहमदगढ़ मंडी श्री कोशल्याजी बी. ए., प्रवेशिका स्तोक अबोहर श्री जिनेन्द्रकुमार जैन | 2062 वैशाख शु.3 | अहमदगढ़ मंडी | श्री सुमित्राजी | एम. ए. हिंदी, आगम, स्तोक स्तोत्र आदि | रोड़ी (सिरसा) | श्री प्रेमकुमार चौधरी | 2062 वैशाख शु.3 | अहमदगढ़ मंडी श्री कोशल्याजी | आगम, स्तोक स्तोत्र आदि श्री स्वाति जी श्री तारामणिजी श्री पूर्णिमाजी श्री ज्योतिजी श्री अर्पिताजी श्री समीक्षाजी श्री कर्णिका श्री प्रांजलजी श्री अक्षिताजी श्री हर्षिताजी श्री लक्ष्मीजी श्री प्रियदर्शनाजी श्री नंदिनीजी श्री उपमाजी श्री उपासनाजी प्रियाजी ईशाजी | श्री प्रतिभाजी 749 36. | श्री दीप्तिजी * नोट - क्रम संख्या 28 से 36 तक उपप्रवर्तिनी श्री कौशल्यादेवीजी का शिष्या-परिवार है : श्री कौशल्यादेवी जीवन दर्शन, पृ. 109-19 Page #812 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 750 क्रम साध्वी नाम 1. डॉ. श्रीअर्चानाजी 2. 3. 4. 5. श्री वंदना जी श्री मनीषाजी श्री प्रज्ञाजी श्री माधवी जी महासती श्री पन्नादेवी (दिल्ली) के परिवार की श्रमणियाँ जन्म संवत् स्थान पिता नाम गोत्र दीक्षा संवत् तिथि दीक्षा स्थान दीक्षादाता गुरूणी 2011 मेरठ 2027 नव. 30 आ. आनन्द ऋषिजी श्री पन्नादेवी जी दिल्ली-सब्जी मंडी 2013 दिल्ली 2020 मेरठ 2010 2044 करनाल श्री कस्तूरीलालजो बांठिया श्री आसाराम जी गोयल 2031 फर. 23 श्री कस्तूरी लालजी 2037 अप्रे. 24 बांठिया श्री मदनलालजी गर्ग 2052 अक्टू 18 श्री राजेन्द्र मित्तल 2061 नव. 2 हाथरस नाभा करनाल लुधियाना श्री सरलाजी प्र. श्री पद्मचंदजी श्री अर्चना जी श्री पन्नादेवी जी तीन मासखमण, दो बार 15 अठाइयों आदि तप साहित्यरत्न, मिलनसार, प्रभावशाली साध्वी है 2 मासखमण व अठाई आदि तप किया है। स्वाधयायशीला श्री अर्चना जी उ.प्र. श्री सुभाष मुनि जो प्र. श्री सुमनमुनिजी श्री मनीषा जी विशेष विवरण साहित्य रत्न, शास्त्री, एम ए. हिन्दी, 'जैन दर्शन के आलोक में मध्य युगीन संत काव्य' पर पी-एच. डी. की उपाधि मुंबई वि. वि. से प्राप्त, निर्भीक, स्पष्ट वक्ता, प्रखर प्रवचनकर्ता शासन प्रभावना के अनेका विध कार्यों में संलग्न, संकल्पमना साध्वी रत्न हैं। प्रारंभिक ज्ञानार्जन जैन श्रमणियों का बृहद इतिहास Page #813 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 751 श्री धर्मसिंहजी महाराज के दरियापुरी सम्प्रदाय की अवशिष्ट श्रमणियाँ (सं. श्रमणियाँ 2 (सं. 1961-2060) विशेष विवरण स्वर्गस्थ स्वर्गस्थ स्वर्गस्थ स्वर्णस्थ स्वर्गस्थ स्वर्गस्थ स्वर्गस्थ स्वर्गस्थ क्रम 1. 2. 3. 4. O साध्वी नाम श्री नाथीबाई श्री छबलबाई श्री सूरजबाई श्री वासन्तीबाई श्री जवेरबाई श्री हीराबाई (प्र. ) श्री प्रभावतीबाई 5. 6. 7. 8. श्री गजराबाई 9. श्री आनंदीबाई 10. श्री धीरजवाई 11. श्री हीराबाई (द्वि.) 12. 4 श्री विमलाबाई 13. श्री नारंगीबाई श्री दमयंतीबाई 14. 15. श्री शकरीबाई 16. 4 श्री दीक्षिताबाई 17. 18. 19. 4 20. 21. 22. श्री हीराबाई (तृ.) श्री दीपुबाई श्री मंजुलाबाई श्री मोतीबाई जन्म संवत् स्थान 1933 प्रांतीज 1956 सुरेन्द्रनगर पेथापुर 1960 कलोल 1962 सुरेन्द्रनगर 1972 धोराजी 1962 पालनपुर अमदाबाद 1974 प्रांतीज 1970 पालनपुर 1979 वढवाण 1979 कलोल 1983 पालनपुर - बीसलपुर 1988 वढवाण 1980 वढवाण 1958 ध्रांगध्रा 1995 भादरण 1964 लींबड़ी श्री सविताबाई (प्र.) 1985 कोदरा श्री सुभद्राबाई • वड़ोदरा पिता का नाम लल्लुभाई जसराजभाई व्रजलालभाई छोटालालभाई कल्याणभाई डाह्याभाई जसाभाई ईश्वरभाई शमलभाई केशवलाल भाई फोजालालभाई वीरपालभाई हिंमतलालभाई मणीभाई गिरधरभाई छोटालालभाई अमीचंदभाई ओघड़भाई चतुरभाई मोहनभाई कालीदासभाई नाथालालभाई गोत्र दशा श्रीमाली दशाश्रीमाली दशाश्रीमाली दशा श्रीमाली दशाश्रीमाली ब्रह्मक्षत्रिया दशा श्रीमाली दशा श्रीमाली दशा श्रीमाली दशा श्रीमाली वीसाओसवाल वीसा श्रीमाली दशाश्रीमाली वीसा ओसवाल दशा श्रीमाली दशा श्रीमाली वीसा श्रीमाली दशा श्रीमाली लेवा पाटीदार वीसा श्रीमाली दशा श्रीमाली दशाश्रीमाली दीक्षा संवत् तिथि दीक्षा स्थान 1961 मा.शु. 7 प्रांतीज 1976 माघ सुरेन्द्रनगर अमदाबाद अमदाबाद सुरेन्द्रनगर अमदाबाद 1987 मा.शु. 3 1987 मा.शु. 5 1989 मा. शु. 5 1994 वैशु. 6 1994 वै.शु. 15 1994 वै.कृ. 6 1995 मा.शु. 2 1996 मा.शु. 15 2000 वै.शु. 11 2002 पै. शु. 10 2006 वै.कृ. 7 2007 मा.शु. 5 2007 वै.शु. 14 2007 वै. कृ. 11 2008 मा. शु. 6 2008 बै.कु. 6 2009 3 2009 मा.शु. 8 2009 मा. कृ. 3 2009 मा.कृ. 5 पालनपुर अमदाबाद अमदाबाद प्रांतीज पालनपुर वढवाण कलोल पालनपुर अमदाबाद वढवाण वढवाण वीरमगाम अमदाबाद अमदाबाद अमदाबाद अमदाबाद गुरूणी श्री जड़ावबाई श्री सूरजबाई श्री नंदकोरबाई श्री माणकबाई श्री कंकुबाई श्री बलबाई श्री केसरबाई श्रीरंभाबाई सरल स्वभावी, श्री नाथाबाई श्री रंभाबाई श्री ताराबाई श्री ताराबाई श्री शकरीबाई श्री वसुमतीबाई श्री आनंदीबाई श्री वसुमतीबाई श्री वसुमतीबाई श्री वासंतीबाई श्री हीराबाई (क) श्री चंचलवाई श्री चंचलबाई श्री हीराबाई श्री चंपाबाई की प्रशिष्या 552. साभार- (क) पू. नाथीबाई महासती नी जीवन झरमर, पृ. 51-75 (ख) पत्राचार से प्राप्त सामग्री के आधार पर स्वर्गस्थ स्वर्गस्थ स्वर्गस्थ वर्तमान स्वर्गस्थ स्वर्गस्थ स्वर्गस्थ वर्तमान वर्तमान वर्तमान स्वर्गस्थ वर्तमान स्वर्गस्थ स्वर्गस्थ स्थानकवासी परम्परा की श्रमणियाँ Page #814 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्रम विशेष विवरण वर्तमान स्वर्गस्थ स्वर्गस्थ स्वर्गस्थ मुंबई 752 साध्वी नाम जन्म संवत् स्थान | पिता का नाम | गोत्र दीक्षा संवत् तिथि| दीक्षा स्थान | गुरूणी श्री इंदुबाई | 1993 वढवाण प्रेमचंदभाई वीसाश्रीमाली | 2011 वै.कृ.5 | वढवाण श्री विमलाबाई श्री सविताबाई(द्वि.)|1982 कडी | रणछोड़भाई | भावसार 2012 वै.कृ. 1 | कड़ी श्री वसुमतीबाई श्री अजवालीबाई 1972 लींबड़ी वखतचंदभाई वीसाश्रीमाली 2013 पो. कृ. 5 | वढवाण श्री धीरजबाई श्री सुशीलाबाई 1986 प्रांतीज सांकलचंदभाई दशाश्रीमाली 2013 फा.शु. 2 | अमदाबाद श्री ताराबाईब श्री कांताबाई (प्र.)|1978 वीरमगाम ईश्वरभाई भावसार 2015 ज्ये. शु. 6 | बोटाद |श्री हीराबाई श्री प्रवीणाबाई | 1986 कच्छ शामजीभाई वीसाओसवाल | 2016 पो. कृ. 6 | मुंबई श्री प्रभाबाई | श्री उर्मिलाबाई | 1997 मुंबई धीरजलालभाई | दशाश्रीमाली | 2016 माशु. 10 | मुंबई श्री दीक्षिताबाई 30.0 श्री विदुलाबाई | 1983 सुरेन्द्रनगर जेसिंगभाई |वीशाश्रीमाली 2016 मा.शु. 10 | मुंबई श्री हीराबाई(ग) श्री उषाबाई 1991 वढवाण नाथालालभाई वीशाश्रीमाली | 2016 मा.शु. 10 श्री इंदुमती बाई श्री हंसाबाई 1995 कच्छ नरसिंहभाई वीशाओसवाल 2016 फा.शु. 2 श्री हीराबाई (ख) श्री निर्मलाबाई | 1939 लाठी छोटालालभाई दशाश्रीमाली | 2016 वै.शु. 13 | मुंबई श्री दीक्षिताबाई श्री चम्पाबाई 1973 खोरज वनमालीभाई | दशाश्रीमाली | 2016 वै.कृ. 6 कलोल श्री वासंतीबाई श्री हीराबाई (घ) - विसलपुर जेठालालभाई दशाश्रीमाली | 2016 वै.कृ. 6 कलोल श्री नारंगीबाई श्री फुल्लाबाई | 1995 रणनीटीकर | रतिभाई दशाश्रीमाली | 2016 ज्ये.शु. 10 | श्री वसुमतीबाई श्री खुल्लाबाई 1996 बोदाल आशाभाई 2017 मा.कृ. 10 वीरमगाम श्री नाथीबाई श्री कांताबाई |1992 वढवाण त्र्यंबकलालभाई | दशाश्रीमाली 2017 मा.शु. 1 वढवाण |श्री चंचलबाई श्री तरूलताबाई | 1996 बोटाद जेचंदभाई वीशाश्रीमाली 2017 फा.कृ. 7 भादरण | श्री सविताबाई (द्वि.) श्री मंजुलाबाई 1- राजकोट ठाकरसीभाई | दशाश्रीमाली 2017 फा.कृ. 3 अमदाबाद श्री हीराबाई (ग) श्री सुलोचनाबाई 1994 अमदाबाद शांतिलालभाई दशाश्रीमाली 2017 फा.कृ. 7 | मुंबई श्री सुशीलाबाई श्री मधुबाई (प्र.) |1997 प्रांतीज मणीभाई | दशाश्रीमाली | 2017 वै.शु. 13 घडकण |श्री चंपाबाई श्री मृदुलाबाई | 1992 वढवाण मथुरादास भाई | वीसा श्रीमाली | 2017 वै. कृ. 7 | वढवाण श्री हीराबाई श्री हर्षाबाई |1997 कच्छ | उमरशीभाई |वीसाओसवाल 2018 म. कृ. 3 | मुंबई श्री हंसाबाई श्री वर्षाबाई 2001 कच्छ मूलजीभाई | वीसाओसवाल 2018 म. कृ. 3 | मुंबई श्री हंसाबाई श्री मधुबाई (द्वि.) |1998 भावनगर अमुलखभाई दशाश्रीमाली 2019 आषा.शु. 6 | मुंबई श्री नारंगीबाई श्री ललिताबाई |2009 अमदाबाद ठाकरसीभाई भावसार | 2018 वै.शु. 10 | अमदाबाद श्री हीराबाई जैन श्रमणियों का बृहद इतिहास Page #815 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विशेष विवरण| | साध्वी नाम |जन्म संवत् स्थान| पिता का नाम | गोत्र 48. श्री सुनन्दाबाई | 1999 चूड़ा कांतिलालभाई | दशाश्रीमाली श्री प्रज्ञाबाई | 2005 ओझ चीमनलालभाई दशाश्रीमाली श्री इंदिराबाई (प्र.)| 1999 कलोल मणीलालभाई | दशाश्रीमाली श्री मनोरमाबाई |1994 कराची | बालुभाई दशाश्रीमाली इंदिराबाई (द्वि.)| 1994 सौराष्ट्र | अमीचंदभाई दशाश्रीमाली श्री वीणाबाई | 2002 वीरमगाम | सांकलचंदभाई | दशाश्रीमाली श्री जयश्रीबाई | 2001 भादरण जयचंदभाई वीसाश्रीमाली श्री ज्योत्स्नाबाई 2001 मुंबई अमोलखभाई वीसाश्रीमाली श्री दर्शनाबाई 1994 वढवाण मनसुखभाई | वीसाश्रीमाली श्री हीराबाई (घ) | 1968 प्रांतीज जीवराम भाई | दशाश्रीमाली श्री वनिताबाई | 1999 कच्छवागड़ | केशवजीभाई श्री मीनाक्षीबाई 12006 देदादरा शांतिलालभाई श्री रंजनबाई 12000 अमदाबाद | जेसिंगभाई मेहता 61.0 श्री लीलावतीबाई | 1977 चूड़ा कस्तूरभाई मश्करीआ स्थानकवासी परम्परा की श्रमणियाँ दोशी 753 दीक्षा संवत् तिथि दीक्षा स्थान| गुरूणी 2019 आषा.शु. 6 | मुंबई श्री नारंगीबाई 2020 - अमदाबाद श्री धीरजबाई 2022 वै.शु. 8 | कलोल श्री हीराबाई (क) 2022 वै.शु. 8 | अमदाबाद | श्री विमलाबाई(क) 2022 वै.शु. 11 | अमदाबाद | श्री हीराबाई (ख) 2023 मा.शु. 5 वीरमगाम श्री ललिताबाई 2023 मा.कृ. 3 भादरण श्री तरूलताबाई 2023 वै.कृ. 5 ध्रांगध्रा श्री हीीबाई (ग) 2024 21. शु.0 3 वढवाण श्री मंजुलाबाई 2024 वै.शु. 6 | अमदाबाद श्री वासंतीबाई 2024 वै.शु. 6 अमदाबाद श्री दीक्षिताबाई 2024 वै.शु. 6 अमदाबाद श्री प्रवीणाबाई 2024 वै.शु. 6 अमदाबाद श्री सुनंदाबाई 2024 वै.शु. 6 अमदाबाद श्री हीराबाई ये हीराबाई चंपाबाई की शिष्या हैं 2025 मृ. कृ.4 साबरमती |श्री सविताबाई (द्वि) 12026 मा. शु.3 वढवाण | श्री हीराबाई (ग) | 2026 मा. शु. 3 वढवाण श्री इंदिराबाई 2026 मा. शु. 3 वढवाण श्री विमलाबाई 2026 मा. शु. 3 | वढवाण श्री मृदुलाबाई 2026 वै. शु. 13 | मूली श्री हंसाबाई 2027 मा.शु. 5 | वढवाण | श्री इंदुबाई 2027 वै.शु. 5 | सुरेन्द्रनगर श्री सुशीला बाई 2027 वै. शु.6 | वडोदरा | श्री मरघाबाई 2027 वै.कृ. 6 अमदाबाद श्री चंचलबाई 2028 वै. शु. 10 अमदाबाद |श्री वासंतीबाई श्री पुष्पाबाई श्री राजश्रीबाई श्री प्रतिभाबाई श्री सूर्यश्रीबाई श्री करूणाबाई अनुपमाबाई श्री चारुमतीबाई श्री अर्पणाबाई श्री सद्गुणाबाई श्री साधनाबाई श्री हंसाबाई |2004 कड़ी 1991 वढवाण 2003 वढवाण 2004 वढवाण 2001 वढवाण 1995 मुली 2006 अमदाबाद 2004 सायला बृजलालभाई भावसार शिवलालभाई | वीसाश्रीमाली जयंतीलालभाई दशाश्रीमाली चंदुलालभाई वीशाश्रीमाली | श्री धीरजभाई दशाश्रीमाली वाडीलालभाई दशाश्रीमाली कांतिभाई दशाश्रीमाली नंदलालभाई दशाश्रीमाली गिरधरलालभाई | दशाश्रीमाली 71.0 72. 2004 पीयज कचराभाई Page #816 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विशेष विवरण क्रम | साध्वी नाम | जन्म संवत् स्थान पिता का नाम | गोत्र दीक्षा संवत् तिथि | दीक्षा स्थान गुरूणी 73. श्री प्रेरणाबाई | 1999 राणपुर शांतिलालभाई | वीसाओसवाल 2029 पो.कृ. 6 वीरमगाम श्री धीरजबाई श्री दीपिकाबाई - कलोल रमणलालभाई दशाश्रीमाली | 2029 मा. शु. 5 | अमदाबाद श्री दीक्षिताबाई श्री देविकाबाई 2006 - रतिलालभाई दशाश्रीमाली | 2029 मा. शु. 5 अमदाबाद | श्री सुलोचनाबाई प्रवीणाबाई 2002 मेथी चंदुलालभाई दशाश्रीमाली 2029 मा. शु. 13 वड़ोदरा श्री मधुबाई | श्री भावनाबाई 2008 वीरमगाम चंपकलालभाई भावसार 2029 मा. शु. 13 | वडोदरा श्री हीराबाई (क)श्री रेखाबाई 2002 वढवाण | धीरूभाई वीसाश्रीमाली | 2031 पो.कृ. 6 श्री करूणाबाई श्री चंद्रिकाबाई 2004 लखतर | शांतिभाई दशाश्रीमाली 2031 मा. शु. 5 श्री हीराबाई (ग)श्री पूर्णिमाबाई 2008 मुंबई बृजलालभाई |वीसाश्रीमाली 2031 वै.शु. 11 [ वढवाण | श्री विदुलाबाई श्री जागृतिबाई | 2007 वीरमगाम | बाबूभाई दशाश्रीमाली 2031 वै.शु. 11 वीरमगाम | श्री हीराबाई (क) - श्री दर्शिताबाई 2015 अमदाबाद | कांतिभाई दशाश्रीमाली 2032 मा.शु.5 | अमदाबाद | श्री दमयंतीबाई श्री भावनाबाई 2009 प्रांतीज रतिलालभाई | दशाश्रीमाली 2032 मा. शु. 13 | प्रांतीज | श्री मधुबाई श्री कोकिलाबाई 2006 अमदाबाद | रतिलालभाई | दशाश्रीमाली 2032 मा.कृ. 10 | अमदाबाद | श्री प्रवीणाबाई 754 जैन श्रमणियों का बृहद इतिहास Page #817 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 755 क्रम साध्वी नाम श्री जवेरबाई श्री धर्मदास जी महाराज की परम्परा 53 (क) छः कोटी लिंबड़ी अजरामर सम्प्रदाय की अवशिष्ट श्रमणियाँ ( संवत् 1983-2059)554 1. श्री समजुबाई 3. श्री मणीबाई 4. O श्री रूक्ष्मणीबाई 2. 5. श्री चंदनबाई v6 6. श्री भानुमतीबाई 7. O श्री विमलाबाई 8. श्री प्राणकुंवरबाई 9. श्री सूरजबाई 10. 4 श्री उज्जवल कुजी 110 श्री चंद्रावतीजी 12. श्री पुष्पाबाई 13. श्री हंसाबाई 14. श्री दमयंतीबाई 15. श्री कलाबाई 16. श्री प्रभावतीबाई 17. श्री मंजुलाबाई 18. श्री मुक्ताबाई 19. श्री सरलाबाई जन्म संवत् स्थान 1964 खारोई 1959 विछिया 1978 रामाणिया 1982 भुज 1767 देवचराड़ी 1958 लाकड़िया 1976 लाकड़िया 1975 बिदडा 1989 लाकड़िया 1985 गुंदाला 1982 कोचीन 1984 तरतर -छीक 1987 रताड़ीया 1987 मुंबई 1986 टोडा 1992 जेसड़ा 1979 लाकड़िया - मोरबी पिता नाम गोत्र करमण लखधीर मलूकचंद वर्धमान लखमशी आणंदजी वर्धमान नाथाभाई भुदरदास गांधी थोभणभाई गडा खाखणभाई फरिया नरशीभाई फरिया काराभाई वघाण वीरजीभाई गडा शिवचंदभाई संघवी माणेकचंद दोढ़ीवाला रणछोड़भाई खोखाणी मुलजीभाई छेड़ा धारशीभाई छेड़ा नागशीभाई छेड़ा देवशी भाई सा काचाभाई छेड़ा चुनीलाल मेहता दीक्षा संवत् तिथि दीक्षा स्थान 1983 ज्ये. शु. 2 खारोई 1986 .. 2 1995 वै.शु. 3 1997 मृ. शु. 6 1998 वै.कृ.6 1999 फा. कृ. 5 1999 फा.शु. 3 2000 वै.शु. 7 2004 मा. शु. 3 2005 मा.शु. 5 2005 मा. कृ. 5 2006 चै. शु. 7 2009 भा.कृ. 11 2009 मृ.शु. 11 2009 मृ. शु. 11 2009 - 2011 मा.शु. 10 2011 फा. शु. 2 2012 फा. कृ. 10 मांडवी रामाणिया भुज थानगढ़ वढवाण लाकड़िया बिदड़ा लाकडीया गुंदाला मांडवी सायला मोरबी समाघोघा समाघोघा जेतपुर जेसड़ा लाकडीया सायला दीक्षादात गुरूणी गुलाबचंद्रजी म.सा. मोटा कुंवरबाई गुलाबचंद्रजी म.सा. श्री नाथीबाई गुलाबचंद्रजी म.सा. श्री लाड़कुंवरबाई गुलाबचंद्रजी म.सा. श्री माणेकबाई श्री नानचंद्रजी म. श्री गुलाबचंद्रजी म. श्री शामजी म. श्री शामजी स्वामी श्री हीराचंदजी श्री शामजी स्वामी श्री शामजी स्वामी श्री नानचंद्रजी श्री नानचंद्रजी श्री डुंगरसिंहजी श्री डुंगरसिंहजी श्री शामजी स्वामी मोटा मणीबाई श्री रूक्ष्मणीबाई श्री नानचंद्रजी 553. अजरामर विरासत (स्मृतिग्रन्थ) पृ. 180-207 554. (क) वही पृ. 292-95 (ख) श्री उज्जवलकुमारी महासती, वात्सल्य नी वहेती धारा, पृ. 56-68 श्री प्रभाकुंवरबाई श्री लक्ष्मीबाई श्री देवकुंवरबाई मोटा श्री सूरजबाई श्री कुंवरबाई श्री वेल- मणिक्यलाई श्री देवकुंवरबाई श्री हेमकुंवरबाई श्री हेमकुंवरबाई श्री रतनबाई श्री रतनबाई श्री वेलमणिक्यबाई श्री धनगौरीबाई श्री वेलमाणिक्यबाई श्री प्रभाकुंवरबाई विशेष विवरण सं. 2041 लाकड़िया में स्वर्गवास सं. 2045 समाघोघा में दिवंगत स. 2050 भुज में दिवंगत, पंडितरत्ना शांत, सरल तीन वर्षीतप, 2 सिद्धितप, 33 उपवास परम विदुषी, शासन प्रभाविका, साहित्यकर्त्री विदुषी - संकेत चिन्ह ० पतिवियोग ० सुहागिन 4 बालब्रह्मचारिणी ★ श्वसुरपक्ष स्थानकवासी परम्परा की श्रमणियाँ Page #818 -------------------------------------------------------------------------- ________________ www.lainelibrary.org 756 क्रम 20. 21. 22. 23. 24. 222222223 25. 26. 27. 28. 29. 31. 32. 4 33. साध्वी नाम 34. 35. 36. 37. 38. 39. 40. श्री कंचनवाई श्री निर्मलाबाई श्री ताराबाई 30. श्री मीनाबाई श्री चंदनाबाई श्री विजयाबाई श्री लीलाबाई जन्म संवत् स्थान पिता नाम गोत्र दीक्षा संवत् तिथि दीक्षा स्थान 1996 गुंदाला कुंवरजीभाई सत्रा 2012 वै.शु. 3 गुंदाला पोपटभाई सावला 2012 वै. शु. 2 श्री कलाबाई श्री राजेमतीबाई श्री हंसाबाई नाना श्री इन्दुमतीबाई 1996 गुदाला 1995 रापर 1995 मुंबई 1993 रापर 1995 रापर 1992 मुंबई 1994 जेतपुर 1998मेलमीन (बर्मा) 1994 बेराजा 1942 गुदाला श्री आशाबाई 1999 मुंबई श्री चंपकलताजी 1996 रताडीया श्री हेमलताबाई 1996 रताड़िया श्री दिव्यप्रभाजी 1989 रताडीया श्री वसंतप्रभाजी 1996 बिदडा श्री सरस्वतीबाई 1985 कोयली श्री अंजनाबाई - समाघोघा श्री गुणवंतीबाई 1997 लाकडीया श्री निरंजनाबाई 1994 वडाला - जुनागढ़ श्री प्रमोदिनीबाई पोपटलाल पूज जेठाभाई सावला बालजीभाई पूज वालजीभाई पूज चुनी भई दोशी हेमंतभाई दोशी प्रभुदासभाई संघवी जेठाभाई सावला वेरशीभाई संगोई नानजीभाई केनिया गांगजीभाई मारू कुंवरजी पासु नेणशीभाई छेड़ा खीमजीभाई गोगरी जीवराजभाई मेहता मगनलाल संगोई भाणजीभाई सत्रा सूरजभाई गाला फुरजीभाई दोशी 2013 मा. कृ. 3 2014 .शु. 4 2014. शु. 4 2015 मा. शु. 11 2015 वै. शु. 6 2016 वै. शु. 11 2016 वै.शु. 11 2016 वै.शु. 11 गुदाला 2017 मृ. कृ. 9 2017 मा. कृ. 2 2017 मू. कृ. 5 2019 फा.शु. 2 रापर तुंबडी रापर वढवाण 2015 वै.शु. 6 2015 वै.शु. 6 2016 मा. शु. 5 2016 मा. शु. 10 गुंदाला 2016 मा.शु. 10 गुंदाला 2016 मा. कृ. 10 रताडीया 2016 मा. कृ. 10 रताडीया जेतपुर जेतपुर जेतपुर तुंबडी लींबड़ी लींबडी लींबडी समाघोघा लाकडिया भोरारा सायला दीक्षादाता श्री छोटालालजी श्री छोटालालजी आ. श्री रूपचंद्रजी श्री शामजी स्वामी 8 मासी, 72 पक्ष श्री नवलचंद्रजी म. श्री उज्जवलकु. जी 25 वर्षीतप, पोला अट्ठम से 3 वर्षीतप तेले व बेले का वर्षीतप मोक्षहार तप श्री पूनमचंदजी श्री धनजी स्वामी श्री धनवी स्वामी श्री धनजी स्वामी श्री रूपचंद्रजी श्री रूपचंद्रजी श्री रूचपंद्रजी गुरूणी श्री प्रभावतीबाई श्री रूपचंद जी श्री रूपचंद्र जी विशेष विवरण तपस्विनी, 2 वर्षीतप, छमासीनाना मोटा पखवाड़ा श्री उज्जवल जी तपस्विनी 13 वर्षीतप श्री सूरजवाई श्री वेलबाई श्री सूरजबाई श्री प्रभाकुंवरबाई श्री प्रभाकुंवरबाई श्री प्रभाकुंवरबाई श्री सूरजबाई श्री रूक्ष्मणीबाई विदुषी श्री प्रभावतीबाई श्री प्रभावतीबाई श्री उज्जवल कुजी श्री दमयंतीबाई श्री दमयंतीबाई श्री भानुमतीबाई श्री रूक्ष्मणीबाई श्री धनगौरीबाई सं. 2052 अमदाबाद में स्वर्गस्थ, दो मासखमण श्री नानचंद्रजी श्री नानचंद्रजी श्री नानचंद्रजी आ. श्री रूपचंद्रजी श्री शामजी स्वामी आ. श्री रूपचंद्रजी श्री रूक्ष्मणीबाई श्री नानचंद्रस्वामी श्री दमयंतीबाई संवत् 2058 लींबड़ी में दिवंगत सिद्धान्तज्ञाता मासखमण वर्धमान आर्य तपाराधिका संवत् 2052 भुज में दिवंगत तपस्विनी 9 वर्षीतप (विविध रीति से) जैन श्रमणियों का बृहद इतिहास Page #819 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 757 क्रम साध्वी नाम 41. श्री रूक्ष्मणीबाई श्री शोभनाबाई 42. 43. श्री विनोदप्रभाबाई 44. 45. 46. 47. 48. 49. श्री कुमुदप्रभाजी 50. श्री शीलप्रभाजी 51. श्री नीलमबाई 52. 4 श्री अनिलाबाई 53. 54. 55. 56. 57. 58. 59. 60. 61. 62. श्री पद्माबाई श्री वसंत श्रीजी श्री कल्पनाबाई श्री प्रज्ञाबाई श्री छोटे शेधनबाई श्री सुनंदाबाई श्री ऊर्मिलाबाई जन्म संवत् स्थान पिता नाम गोत्र डुंगरशीभाई वेलाणी नागरदास शाह मेकणभाई बीवा लखमशीभाई गाला मेघजीभाई सावला वेलजीभाई गोगरी डुंगरशीभाई छेडा पेथाभाई सा श्री बड़े तरूबाई श्री प्रविणाबाई 1995 2000 बो 1998टोडा (कच्छ) 1997 तुंबडी (कच्छ) 2002डोण (कच्छ) 2001 मुंबई 2006 बी 2002 भुजपुर(कच्छ) 2006नानी तुंबडी 2006 तुंबडी (कच्छ) 2003 मुंबई 2005 मुंबई जेतपुर श्री राजेश्वरीबाई 2006 मकरा श्री ज्योतिप्रभाजी 2002 रापर श्री अरूणाबाई 2009 रापर 1952 सुरेन्द्रनगर 2005 लाकड़ीया 2008 जेसडा श्री पुनिताबाई श्री रश्मिनाबाई 2009 सा श्री अमरलताबाई 2009 मुंबई वसनजीभाई राभिया देवशीभाई सावला कानजीभाई छेडा भाणजीभाई बोरा दामजीभाई शाह बाबुलाल गांधी बाबुभाई गडा चुनीलालभाई मोरबीया भाईचंदभाई दोशी टपुभाई नोरा सोमशीभाई छाडवा देवशीभाई शाह भायाभाई गाला नानजीभाई फरिया दीक्षा संवत् तिथि दीक्षा स्थान 2019 वै.शु. 9 2019 वै.शु. 9 2019 वै.कृ. 11 2020 मृ.कृ. 5 2021 मा.शु. 5 2021 मा.शु. 5 2023 मा.शु. 3 2023 वै. कृ. 4 2024 वै.शु. 6 2024 वै.शु. 7 2024 वै.शु. 7 2025 मृ.शु. 5 2025 मू. कृ. 8 2026 मा. कृ. 5 2026 मा. कृ. 7 वढवाण वढवाण बो विरमगाम भुज तुंबडी (कच्छ) श्री पूनचंद्रजी श्री रूपचंद्रजी श्री रूपचंद्रजी तुंबडी (कच्छ) रताडीया (कच्छ) तत्वज्ञा नवलचंदजी लाकडीया 2025 पी. कृ. 7 धोराजी 2025 वै.शु. 7 2026 मृ. शु. 5 2026 . शु. 5 श्री विमलाबाई बौ आ. श्री रूपचंद्रजी रमाणीया (कच्छ) आ. श्री रूपचंद्रजी श्री चन्द्रावतीबाई आ. श्री रूपचंद्रजी श्री सूरजबाई नानी तुंबडी नानी तुंबडी आ. श्री रूपचंद्रजी श्री उज्जवल कु. रताडीया कच्छ आ. श्री रूपचंद्रजी श्री उज्जवल कु आ. श्री रूपचंद्रजी श्री सूरजबाई मनफरा रापर रापर दीक्षादाता श्री पूनमचंद्रजी श्री पूनमचंद्रजी आ. श्री रूपचंद्रजी सुरेन्द्रनगर लाकडीया 2026 फा. शु. 2 सुवई सुवई 2026 फा. शु. 2 2026 फा. शु. 6 खारोई गुरूणी श्री रतनबाई श्री रतनबाई श्री चंद्रावतीबाई तीन वर्षीतप श्री राजेमतीबाई श्री उज्जवल कु. श्री रूक्ष्मणी बाई श्री कलाबाई श्री चुनीलालजी श्री पुष्पाबाई श्री चुनीलालजी बड़े सूरजबाई श्री चुनीलालजी श्री छनगौरीबाई श्री चुनीलालजी श्री उज्जवल कु पू. श्री चुनीलालजी आ. श्री रूपचंद्रजी आ. श्री रूपचंद्रजी आ. श्री रूपचंद्रजी आ. श्री रूपचंद्रजी श्री हसुमतीबाई उज्जवल कु बाई विशेष विवरण श्री विमलबाई श्री धनगौरीबाई श्री सूरजबाई तीन वर्षीतप दो मासखमण दो वर्षीतप आगम दर्शनालंकार 16 वर्षीतप तेला, पोला तेला का एक व बेले के 3 वर्षोंतप संवत् 2054 अमदाबाद में दिवंगत 3 वर्षीतप 2 सिद्धितप 4 वर्षातप, 18 वर्ष एकासणा तेले से वर्षीतप महासिद्धि तप, सिंहासनातप, 35 उपवास आगमदर्शनालंकार वर्षीतप स्थानकवासी परम्परा की श्रमणियाँ Page #820 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 758 क्रम | साध्वी नाम जन्म संवत् स्थान पिता नाम गोत्र दीक्षा संवत् तिथि| दीक्षा स्थान | दीक्षादाता | गुरूणी विशेष विवरण श्री तरूलताबाई 2009 खारोई वीरजीभाई वोरा | 2026 फा. शु. 6 | खारोई .आ.श्री रूपचंद्रजी श्री सूरजबाई वर्षांतप श्री गीताकुमारी 2005 भोरारा पोपटभाई देढ़िया 2026 वै. शु. 5 घाटकोपर | श्री डूंगरसिंहजी श्री दमयंतीबाई | श्री वंदनाबाई | - जोरावरनगर नगीनदास मणियार | 2026 वै. शु. 5 | घाटकोपर श्री डुंगरसिंहजी | श्री दमयंतीबाई श्री प्रार्थनाबाई | - जोरावरनगर |नगीनदास मणियार | 2026 वै. शु. 5 घाटकोपर | श्री डुंगरसिंहजी | श्री दमयंतीबाई 67. श्री अनंतप्रभाजी | - बोदाद पानाचंदभाई संघवी | 2026 - लखतर। | श्री पूनमचंद्रजी श्री रूक्ष्मणीबाई वर्षीतप आराधना श्री छायाबाई | 2000 लींबड़ी ललुभाई खंधार 2026 चै. शु. 9 | रापर स्वयंदीक्षिता श्री उज्जवल कु. श्री झंखनाबाई 2007 रामाणीया | ठाकरशीभाई सावला | 2027 मा.शु. 5 | कांदावाड़ी श्री पुष्करमुनिजी |श्री विनोदिनीबाई | तीन मासखमण 70. A श्री हंसाबाई | 1993 भोरारा लालजीभाई देढ़िया | 2027 मा.शु. 5 भारारा श्री भावचंद्रजी श्री चंद्रावतीबाई । 71. श्री विद्युतप्रभाजी 2004 ककरवा | भचुभाई नंदु |2027 वै.शु. 12 खारोई श्री धनगौरीबाई |श्री सूरजबाई |आगमदर्शनालंकार श्री उर्विशाजी 2006 मांडवी लालजीभाई बाबरिया | 2027 मा.शु. 11 | अमदाबाद आ.श्री रूपचंद्रजी | श्री रूक्ष्मणीबाई | वर्षांतप श्री पीयूषाजी 2005 देशलपर | मगनभाई खंडोल |2027 मा.शु. 11 | अमदाबाद आ.श्री रूपचंद्रजी |श्री रूक्ष्मणीबाई । तीन वर्षांतप श्री कंकुबाई - ककरवा वालजीभाई - 2028 - खारोई श्री नरसिंहजी श्री सूरजबाई |सं. 2045 सुरेन्द्रनगर में दिवंगत श्री प्रतिभाबाई - लींबड़ी रायचंदभाई वोरा | 2028 वै.शु. 11 लींबड़ी आंश्री रूपचंद्रजी | श्री चंद्रावतीबाई | चार मासखमण, सिद्धितप श्री सरिताबाई 2008 त्रंबौ भूराभाई सत्रा 2029 मा.कृ.5 श्री नरसिंहजी | श्री विमलाबाई दो वर्षीतप श्री नयनाबाई 2009 त्रंबौ हीरजीभाई शाह | 2029 वै.कृ.5 श्री नरसिंहजी श्री धनगौरीबाई श्री मृगावतीजी - भरूडीया जीवराजभाई डाघा | 2029 वै.कृ. 5 | भरूडीया श्री डुंगरसिंहजी श्री धनगौरीबाई श्री दर्शनाबाई 2011 भचाऊ कानजीभाई सत्रा | 2030 मा.शु. 3 भचाऊ श्री रूपचंद्रजी | श्री सूरजबाई दो वर्षीतप | श्री दर्शिताजी 2010 रापर शांतिलालभाई पूज | 2030 मा.शु. 3 | भचाऊ श्री रूपचंद्रजी श्री सूरजबाई वर्षीतप, तीन मासखमण 81. श्री हर्षिताजी 2010 रापर शांतिलालभाई पूज | 2030 मा.शु. 3 | भचाऊ श्री रूपचंद्रजी | श्री सूरजबाई | 5 वर्षीतप, 44,38,37, 30 उपवास, सर्वतोभद्रतप श्री मिलनबाई 2012 खारोई नानजीभाई फरिया | 2030 फा. कृ. 2 | खारोई श्री नवलचंद्रजी श्री सूरजबाई 13 वर्षीतप, (1 पोला अट्टम का) | श्री भद्राबाई | 2012 खारोई राजाभाई नंदू | 2030 ककरवा श्री रूपचंदजी श्री गीताबाई |सं. 2054 सुवई में दिवंगत श्री ज्योत्स्नाबाई | 2009 सुबई |राधवजीभाई सावला | 2030 फा.कृ.5 | सुवई श्री डुंगरसिंहजी श्री उज्जवल कु. वर्षीतप, 11 शास्त्र कंठस्थ श्री साधनाबाई | - सुवई |विजयपारभाई सावला | 2030 फा.कृ. 5 | सुवई श्री डूंगरसिंहजी श्री विमलाबाई श्री कमलप्रभाजी 2010 मकरा मेपशीभाई सत्रा 2030 फा.कृ.5 | मनफरा श्री नवलचंद्रजी श्री सूरजबाई 14 वर्षांतप, 2 मासखमण,2 सिद्धितप तथा विविध तप | त्रंबौ जैन श्रमणियों का बृहद इतिहास Page #821 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्रम साध्वी नाम जन्म संवत् स्थान पिता नाम गोत्र दीक्षा संवत् तिथि | दीक्षा स्थान | दीक्षादाता 87. श्री कीर्तिप्रभाजी | 2011 मनफरा हरगणभाई गडा | 2030 फा.कृ.5 मनफरा श्री नवलचंद्रजी 88. श्री रक्षाबाई | 1999 भोरारा शामजीभाई सावला | 2030 वै.शु. 13 |भोरारा श्री कोकिलाबाई | 2010 लाकडीया मालशीभाई गाला | 2030 वै.कृ. 2 लाकडीया श्री फूल्लाबाई | 2011 खेतवाडी | जगशीभाई गडा 2030 वै.कृ. 2 लाकडीया श्री दिनमणीबाई | 2010 लाकडीया | प्रेमजीभाई गाला 2031 का.कृ. 10 लाकडीया | श्री पारसमणीबाई | 1953 लाकडीया | रामजीभाई शाह 2031 का.कृ. 10 लाकडीया श्री अर्चनाबाई | 2010 रामणीया | ठाकरशीभाई सावला | 2031 का.कृ. 10 | रामाणीया आ. रूपचंद्रजी |श्री नरसिंहजी श्री नरसिंहजी श्री डुंगरसिंहजी श्री डुंगरसिंहजी श्री नवलचंद्रजी स्थानकवासी परम्परा की श्रमणियाँ श्री प्रियदर्शनाबाई | 2010 खारोई भचुभाई निसर | 2031 मा.कृ.5 खारोई श्री नवलचंद्रजी 195. 96. | श्री उषाबाई श्री कविताबाई श्री वर्षाबाई | 1955 देवलिया | बालचंदभाई शाह | 2031 मा.कृ.5 जोरावननगर | 2010रंगुन (बर्मा) | वीरजीभाई शेठिया | 2031 वै.शु. 3 प्रतापर 2009 भोरारा पोपटभाई देढिया 1 2032 मा.शु. 11 | भोरारा श्री चुनीलालजी |श्री नवलचंद्रजी श्री नवलचंद्रजी 197. | गुरूणी विशेष विवरण श्री सूरजबाई 13 वर्षीतप, 1 मासखमण, अन्य विविधतप |श्री चंद्रावती बाई| - श्री उज्जवल कु. | वर्षीतप, आगमदर्शनालंकार |श्री उज्जवल कु. | वर्षीतप, 13 शास्त्र कंठस्थ श्री उज्जवल कु. | दो मासखमण श्री उज्जवल कु. 2 वर्षीतप. विद्याभास्कर श्री झंखनाबाई 2 उपवास व एक छ? का वर्षीतप श्री झंखनाबाई 12 उपवास व एक छ? का वर्षांतप |श्री सूरजबाई | दो वर्षीतप |श्री हसुमतीबाई |श्री सूरजबाई 4 वर्षीतप, मासखमण, श्रेणीतप, सिद्धितप | श्री गीताबाई श्री प्रभावतीबाई | विद्याभास्कर, दो मासखमण श्री सूरजबाई | दो वर्षीतप श्री दमयंतीबाई तीन वर्षांतप, मासखमण श्री सूरजबाई | दो वर्षीतप, मासखमण श्री सूरजबाई | दो वर्षीतप श्री सूरजबाई श्री दमयंतीबाई | श्री रूक्ष्मणीबाई | दो वर्षीतप श्री चंद्रावतीबाई | वर्षांतप, जैन सिद्धान्ताचार्य | श्री उज्जवल कु. | विद्याभास्कर श्री उज्जवल कु. 3 वर्षांतप (एक छ8 का) 2 सिद्धितप, मासखमण श्री विमलाबाई | विद्याभास्कर |श्री उज्जवल कु. विद्याभास्कर 98. 99. 100. 101. 102. श्री देवांगिनीबाई| - भुज श्री नम्रताबाई 2009 भुज |श्री विभुतिबाई 2009 दादर |श्री अतुलाबाई 2014 तुंबडी श्री मेहुलाबाई 2012 भचाऊ |श्री झरणाबाई 2017 भचाऊ श्री तरलाबाई | 2016 सरा श्री आराधनाबाई| - तुंबडी श्री रश्मिताबाई - छसरा श्री अमिताबाई 2012 त्रंबौ श्री मृदुताबाई 2007 पत्री |श्री चेतनाबाई 2012 माटुंगा 103. |104. 1105. 1106. 107. प्रभुलालभाई शेठ | 2032 फा.शु. 3 भुज श्री नवलचंद्रजी | कातिलालभाई मेहता | 2032 फा.शु. 3 |भुज श्री नवलचंद्रजी लखमशीभाई रामिया | 2033 म.शु. 15 बोरीवली आ.कातिऋषिजी |देवशीभाई सावला | 2033 मा.शु. 7 तुंबडी श्री नवलचंद्रजी करसनभाई गाला | 2033 वै.शु. 4 श्री रूपचंद्रजी | भारमलभाई गाला | 2033 वै.शु. 4 | भचाऊ श्री रूपचंद्रजी अंबारामभाई पटेल | 2034 मृ.शु. 1 । श्री भावचंद्रजी | शिवजीभाई सावला | 2034 मृ.शु. 10 |मलाड श्री कातिऋषिजी शामजीभाई गंगर | 2034 म.क.7 अमरावती श्री रूक्ष्मणीबाई गाभाभाई बौवा | 2034 मा.शु. 13 थाणा | श्री कातिऋषिजी उमरशीभाई छेड़ा | 2034 मा.कृ. 2 |मलाव श्री शांतिलाजी खीमजीभाई मोरबीया | 2034 मा.कृ. 2 |रव (कच्छ) |श्री नवलचंद्रजी सरा 108. 110. श्री तमन्नाबाई श्री वंदिताबाई | 2017 रख कच्छ |खीमजीभाई छेड़ा | 2034 मा.कृ.2 रव (कच्छ) |श्री नवलचंद्रजी | 2010 रापर मणीलालभाई मेहता 2034 फा.शु. 2 |रापर श्री नवलचंद्रजी Page #822 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्रम साध्वी नाम जन्म संवत् स्थान | पिता नाम गोत्र दीक्षा संवत् तिथि | दीक्षा स्थान | दीक्षादाता | गुरूणी विशेष विवरण 112. श्री विपुलाबाई -रापर गोविंदभाई मेहता | 2034 फा. शु. 2 | रापर श्री नवलचंद्रजी श्री उज्जवल कु. |113.4 श्री मिताबाई 2013 रापर मणीलालभाई मेहता 2034 फा. शु. 2 | रापर श्री नवलचंद्रजी |श्री उज्जवल कु. | मासखमण, 10 शास्त्र कंठस्थ, विद्याभास्कर 114. श्री पूर्णिमाबाई |स्वरूपचंदभाई शेठ | 2034 फा. शु. 2 | रापर श्री नवलचंद्रजी श्री उज्जवल कु. | विद्याभास्कर 115. श्री प्रेरणाबाई 2015 चित्रोड़ अमरचंदभाई वोरा | 2034 फा. शु. 2 | रापर श्री नवलचंद्रजी श्री उज्जवल कु. | विद्याभास्कर, दो मासखमण 116. श्री कौमुदीबाई 2014 रापर नेणशीभाई महेता | 2034 फा. शु. 2 | रापर। श्री नवलचंद्रजी श्री उज्जवल कु. 117. श्री जागृतिबाई |2014 अंजार जेठालालभाई महेता | 2034 फा. शु. 2 |रापर श्री नवलचंद्रजी श्री उज्जवल कु. | विद्याभास्कर, 10 शास्त्र कंठस्थ, मासखमण तप 118. | श्री अखिलाबाई 2006 भोरारा खीमजीभाई देढिया | 2034 वै.शु. 3 | भोरारा रूपचंद्रजी श्री सूरजबाई श्री मल्लिकाबाई 2010 मलाड प्रेमजीभाई संगोई 2034 वै.शु. 11 | समाघोघा आ.रूपचंद्रजी श्री हेमलताबाई 120. श्री जिज्ञासाबाई |2010 –बौ खीमजीभाई शाह | 2034 वै. कृ. 10 | त्रंबी श्री डूंगरसिंहजी श्री उज्जवल कु. | विद्याभास्कर 121. श्री वैशालीबाई 2013 कुर्ला मुरजीभाई सत्रा | 2034 वै. कृ. 10/ त्रंबौ। श्री डुंगरसिंहजी श्री विमलाबाई वर्षीतप, विद्याभास्कर श्री स्मिताबाई 2016 नंदासर रतनशीभाई नंदु | 2034 वै. कृ. 10 त्रंबी श्री डुंगरसिंहजी | श्री विमलाबाई | श्री योगिनीबाई नगीनदास मणीयार | 2034 फा. कृ.5/ मुन्द्रा स्वयंदीक्षिता श्री रूक्ष्मणीबाई |श्री पद्मिनीबाई 2017 देशलपर मावजीभाई खंडोल | | 2035 मृ. शु. 7 | माधापर श्री विमलचंद्रजी श्री रूक्ष्मणीबाई विद्याभास्कर श्री मुक्तिबाई 2011 मेघासमडी |चंदुलालभाई कपासी | 2035 म. शु. 7 | लाठी श्री विमलचंद्रजी म. श्री गीताबाई |श्री रसीलाबाई 2007 मडीयाद हींमतभाई हकाणी | 2035 मा. शु. 6 | जोरावरनगर श्री चुनिलालजी म. श्री हंसाबाई | श्री मधुस्मिताबाई |2012 लाकडीया |भचुभाई गाला आ.श्रीरूपचंद्रजी श्री धनगौरीबाई | दो वर्षांतप श्री हीरणप्रभाबाई |2011 नंदासर डायाभाई बोरिया | 2035 फा. शु. 2 | नंदासर श्री भास्करमुनिजी श्री धनगौरीबाई | तीन वर्षांतप |श्री किरणप्रभाबाई |2017 नंदासर भचुभाई गाला 2035 फा. शु. 2 | नंदासर श्री भास्करमुनिजी श्री धनगौरीबाई | तीन वर्षांतप |श्री चांदनीबाई |2012 गुंदाला कुंवरजीभाई गडा | 2035 वै. शु. 3 | गुंदाला श्री भास्करमुनिजी श्री दमयंतीबाई 131. श्री शीतलबाई 2014 मुंबई गांगजीभाई गडा | 2035 वै. शु. 3 | गुंदाला श्री भास्करमुनिजी |श्री उज्जवल कु.16 वर्षीतप, मासखमण, अन्य तप श्री धृतिबाई - सामखीयारी मांचाभाई गडा 2035 वै. शु. 7 | सामखीयारी आ.रूपचंद्रजी म. श्री धनगौरीबाई |श्री प्रगतिबाई 2015 सामखीयारी भाणजीभाई गडा 2035 वै. शु. 7 सामखीयारी आ.रूपचंद्रजी म. श्री धनगौरीबाई | दो वर्षीतप 134. श्री अश्विनाबाई |2005 जोरावरनगर |जयतिभाई गांधी 2035 वै. शु.7 |लींबड़ी |श्री विमलचंद्रजी श्री प्रभावतीबाई 14 वर्षीतप, 37 उपवास, 3 मासखमण, सिद्धितप, अनुपूर्वी तप 127 लाकडीया जैन श्रमणियों का बृहद इतिहास Page #823 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्थानकवासी परम्परा की श्रमणियाँ क्रम साध्वी नाम जन्म संवत् स्थान पिता नाम गोत्र दीक्षा संवत् तिथि | दीक्षा स्थान । दीक्षादाता । गुरूणी विशेष विवरण | श्री सद्गुणाबाई | 2008 जेसड़ा भचुभाई सत्रा 2035 वै.शु. 13 |सुवई श्री भावचंद्रजी |श्री धनगौरीबाई 4 वर्षीतप, दो मासखमण | श्री चैतन्यबाई 2012 लाकडीया जेठाभाई गडा | 2037 मा.शु. 3 लाकड़ीया |श्री भावचंद्रजी |श्री सूरजबाई श्री अंजलिबाई 2016 खरीचा शांतिभाई शाह 2037 मा.शु. 13 थानगढ़ | श्री चुनिलालजी श्री हंसाबाई श्री उपासनाबाई 2018 भचाऊ पुंजाभाई गाला 2037 मा.कृ. 5 |भचाऊ आ.श्रीरूपचंद्रजी श्री सूरजबाई श्री उन्नतिबाई 2016 मकरा | पुनशीभाई सत्रा | 2037 फा.शु. 7 मनफरा श्री भावचंद्रजी श्री रतनबाई 140. | श्री विरतिबाई 2017 मकरा भचुभाई गडा 2037 फा.शु. 7 | मनफरा श्री भावचंद्रजी | श्री रतनबाई 14 वर्षीतप, दो मासखमण, दो सिद्धितप, श्रेणीतप श्री मीराबाई | 2012 सुवई | भुरालालभाई गाला | 2037 वै.शु. 7 |सुवई श्री भावचंद्रजी |श्री चन्द्रावतीबाई | विद्याभास्कर 142. श्री पुण्यशीलाजी |- सुवई | अखेराजभाई सत्रा | 2037 वै.श.7 |सुवई श्री भावचंद्रजी श्री चन्द्रावतीबाई | विद्याभास्कर 1143.A श्री निरूपमाबाई - सवई | अखेराजभाई सत्रा 2037 वै.शु. 7 | सुवई श्री भावचंद्रजी |श्री चन्द्रावतीबाई | आगमदर्शनालंकार, 10 शास्त्र कंठस्थ 144. श्री ऋजुताबाई 1- सुवई | भाणजीभाई गाला 2037 वै.शु. 7 | सुवई | श्री भावचंद्रजी श्री चन्द्रावतीबाई | दो वर्षीतप, विद्याभास्कर 5. श्री महिमाबाई | 2019 सुवई वेरशीभाई गाला 2037 वै.शु. 7 सुवई | श्री भावचंद्रजी श्री मंजुलाबाई श्री अनिशाबाई - जूनागढ़ छोटालाल मोदी | 2038 मृ. - लींबडी |श्री चुनीलालजी श्री पुष्पाबाई श्री भक्तिबाई | 2017 सरा | रतीलाल दोशी | 2038 मृ.कृ. 3 |सरा आ.श्री रूपचंद्रजी श्री सूरजबाई 148. श्री उदिताबाई 2015 त्रंबी | भुराबाई सत्रा | 2038 मा.कृ. 3 . श्री भावचंद्रजी श्री विमलाबाई 8 शास्त्र कंठस्थ 149. श्री विदिताबाई 2015 थाणा वशनजीभाई गाला | 2038 मा.कृ. 3 | श्री भावचंद्रजी श्री विमलाबाई 10 शास्त्र कंठस्थ, विद्याभास्कर 150. श्री प्रणिताबाई | 2012 थाणा भुराभाई सत्रा 2038 मा.कृ.3 |त्रंबौ श्री भावचंद्रजी श्री विमलाबाई 3 वर्षीतप, 18 शास्त्र कंठस्थ . श्री सुनिताबाई | 2018 मुंबई रतनशी नंदू 2038 मा.कृ. 3 |त्रंबौ श्री भावचंद्रजी श्री विमलाबाई | श्री उल्लासिनीबाई- अमदाबाद हरीभाई गोपाणी | 2038 मा.कृ. 6 |अमदाबाद | श्री नरसिंह जी श्री झंखनाबाई | 2 वर्षीतप | श्री श्रेयसीबाई |- अमदाबाद अमृतभाई धोलकीया | 2038 मा.कृ. 6 अमदाबाद श्री नरसिंह जी श्री झंखनाबाई 12 वर्षांतप श्री मैत्रीबाई 12014 चोटीला | रमणीकभाई शाह | 2038 फा.शु. 3 |चोटीला आ. श्री रूपचंद्रजी श्री राजेमति बाई 155. श्री तृप्तिबाई 1 2012 चित्रोड़ लक्ष्मीभाई दोशी 2038 फा.शु. 4 | चित्रोड़ श्री भावचंद्रजी श्री उज्जवल कु.] वर्षीतप 156. श्री स्मृतिबाई |2018 चित्रोड़ चुनीभाई दोशी 2038 वै.कृ. 4 चित्रोड़ श्री भावचंद्रजी श्री उज्जवल कु. | तीन वर्षांतप, 11 शास्त्र, आगमदर्शनालंकार त्रंबी 14. Page #824 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 762 (www.jainelibrary.om क्रम साध्वी नाम 157. श्री राजेमतीबाई 158. 4 श्री यशोमतीबाई 2015 रापर 159. 160. 4 श्री ज्योतिबाई 161. 4 श्री कल्याणीवाई 162. श्री रोहिणीबाई श्री प्रेक्षाबाई 163. 164. श्री प्रतिक्षाबाई 165. श्री दर्शिकाबाई जन्म संवत् स्थान पिता नाम गोत्र माघवजी मोरवीआ 2013 रापर श्री विपश्यनाबाई 2015 चोटीला रमणीकभाई शाह 166. श्री प्रतिज्ञाबाई 167. श्री प्रतिमाबाई 168. श्री ध्वनिबाई 169. श्री हितेच्छाबाई 170. श्री अनिषाबाई 1714 श्री भारतीबाई 1724 श्री परिज्ञाबाई 2012 वढवाण 2017 तेहगढ़ 2017 तेहगढ़ 2015 अंजार पानाचंदभाई संघवी सेजपार दोशी शंभुलाल शेठ 2020 लाकडी वाघजीभाई माला 2014 कलम 2016 प्रागपुर | 2016 बौ 2018 जेसड़ा |2018 भचाऊ 2020 लाकडी माघवजी मोरवीआ 2038 वै.कृ. 3 2016 रापर 2017 रामवाव भोगीभाई वोरा दीक्षा संवत् तिथि दीक्षा स्थान 2038 वै.कृ. 3 2039 वै. शु. 6 नानजीभाई सावला 2039 वै. शु. 11 हीरजी मोता हीरजी मोता शीवजी कारिया बाबुभाई गडा करमणजी कारिया मणीभाई महेता रविभाई महेता 2038 वै. कृ. 7 2038 वै. कृ. 8 2038 बै. कृ. 11 2039 का. कृ. 11 2039 चै. शु. 5 2039 वै. कृ. 3 2039 चै. कृ. 3 2039 बै. कृ. 5 2040 पो. कृ. 5 2040 पो. कृ. 6 2040 मा. शु. 3 2040 मा. शु. 3 रापर रापर चोटीला बोरीवली रव भुज लाकडीआ लखतर प्रागपुर थाणा थाणा भचाऊ लाकडीआ सुवई रापर रापर दीक्षादाता श्री नरसिंहजी श्री नरसिंहजी श्री चुनिलालजी श्री सुभाषचन्द्र जी श्री भावचद्रजी श्री भास्करजी श्री भावचंद्रजी श्री रामजीमुनि श्री विमलचंद्रजी श्री नरसिंहजी श्री नरसिंहजी श्री भास्करमुनि श्री भास्करमुनि श्री भावचंद्रजी श्री भावचंद्रजी श्री भावचंद्रजी गुरुणी श्री उज्जवल कु. श्री उज्जवल कु तपस्विनी तीन वर्षीतप दो सिद्धितप 22 उपवास व अन्य तप श्री चंदनबाई मोटा 13 शास्त्र कटस्थ, आगम दर्शनालंकार श्री रूक्ष्मणीबाई श्री रूक्ष्मणीबाई श्री रूक्ष्मणीबाई श्री सूरजबाई श्री सूरजबाई श्री हेमलताबाई विशेष विवरण दो वर्षीतप, मासखमण, 10 शास्त्र कठस्य, आगमदर्शना लंकार श्री उज्जवल कु. श्री रतनबाई श्री सूरजवाई श्री विमलाबाई श्री उज्जवल कु. श्री उज्जवल कु तीन वर्षीतप, दो मासखमण, विद्याभास्कर मासखमण, बेले से वर्षांतप उपवास से वर्षी तप, विद्याभास्कर दो वर्षीतप 4 मासखमण तथा अन्य तप श्री उज्जवल कु. दो वर्षीतप 10 शास्त्र कंठस्थ, जैन सिद्धान्ताचार्य तीन वर्षीतप 41 33 दो, 31 दो, 21 दो, श्रेणीतप सिद्धितप लघु सर्वतोभद्रतप विद्याभास्कर आगमदर्शनालंकार आगमदर्शनालंकार, 10 शास्त्र कंठस्थ जैन श्रमणियों का बृहद इतिहास Page #825 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्थानकवासी परम्परा की श्रमणियाँ चोटीला क्रम साध्वी नाम जन्म संवत् स्थान पिता नाम गोत्र दीक्षा संवत् तिथि | दीक्षा स्थान | दीक्षादाता | गुरूणी विशेष विवरण 173. श्री चांदनीबाई 12019 रापर | मणीभाई महेता | 2040 मा. शु. 3 रापर श्री भावचंद्रजी |श्री उज्जवल कु. | आगमदर्शनालंकार, 16 शास्त्र कंठस्थ 174. श्री रोशनीबाई | 2022 रापर | मणीभाई महेता | 2040 मा. शु. 3 रापर श्री भावचंद्रजी श्री उज्जवल कु. 127 शास्त्र कंठस्थ 175. श्री सुव्रताबाई 2024 रापर मणीभाई महेता | 2040 मा. शु. 3 रापर श्री भावचंद्रजी श्री उज्जवल कु. | 25 शास्त्र कंठस्थ 176. श्री रूचिताबाई | 2017 मलाड | उमरशीभाई छेडा 2040 मा. रापर श्री विमलचंद्रजी | श्री उज्जवल कु. | 10 शास्त्र कंठस्थ, विद्याभास्कर श्री नयनाबाई | 2014 चोटीला | अमृतभाई खंधार 12040 मा. शु.7 | चोटीला श्री चुनिलालजी श्री हंसाबाई | दो वर्षांतप |श्री आरतीबाई | 2010सामखीयारी | मांचाभाई गडा 2040 मा. शु. 10 सामखीयारी | श्री भावचंद्रजी श्री मंजुलाबाई वर्षांतप, मासखमण श्री निवृत्तिबाई 2020सामखीयारी | चापशीभाई छाडवा | 2040 मा. शु. 10 सामखीयारी श्री भावचंद्रजी श्री मंजुलाबाई |श्री सिद्धिबाई |- लाकडीया |भचुभाई गाला 2040 मा. कृ. 6 लाकडीया श्री भावचंद्रजी श्री मंजुलाबाई श्री तत्त्वज्ञाबाई | 2018 लाकडीया |भचुभाई छेडा 2040 मा. कृ. 6 लाकडीया श्री भावचंद्रजी श्री मंजुलाबाई श्री कोमलबाई |- सायला मुगटलालभाई शाह | 2040 फा.शु. 2। श्री चुनिलालजी दमयंतीबाई श्री धर्मेच्छाबाई |- भचाऊ |गोपालभाई नंदू 2040 वै. शु. भचाऊ श्री विमलचंद्रजी श्री सूरजबाई वर्षांतप, दो मासखमण श्री देशनाबाई 2020 भचाऊ जखुभाई सत्रा 2040 वै. शु. भचाऊ श्री विमलचंद्रजी श्री सूरजबाई वर्षीतप, दो मासखमण श्री रचनाबाई 12019 मनफरा | मालशीभाई सत्रा | 2040 वै. शु.7 | मनफरा श्री भावचंद्रजी | श्री मंजुलाबाई | 4 वर्षीतप, मासखमण, 21 उपवास दो वर्षीतप, सिद्धितप श्री खेवनाबाई - मनफरा मालशीभाई सत्रा | 2040 वै. शु. 7 | मनफरा |श्री भावचंद्रजी | तीन वर्षांतप, सिद्धितप, श्रेणीतप 187. श्री हितज्ञाबाई | 2023 नंदासर |भुराभाई बोरीया 2042 मृ. शु. 3 नंदासर | श्री भावचंद्रजी श्री सूरजबाई श्री अर्पणाबाई | 2019 शिवलखा होथीभाई गडा 2041 म. कृ. 1 | लाकडीया श्री भावचंद्रजी श्री सूरजबाई 189. श्री करूणाबाई |- लाकडीया रामजीभाई गडा 2041 म. कृ. 1 लाकडीया श्री भावचंद्रजी श्री सूरजबाई 190. श्री श्वेताबाई | 2018 त्रंबौ मुरजीभाई सत्रा 2041 मा. शु. 11 थाणा | श्री नरसिंहजी | श्री विमलाबाई वर्षीतप श्री जयश्रीबाई | 2018 जसदण | भुदरभाई संघवी 2041 मा. शु. 13 | आणंदपुर | श्री चुनिलालजी श्री चंदनबाई 192. श्री विशुद्धिबाई | 2022 आघोई जीवराजभाई गडा | 2041 वै.शु. 3 | आघोई | पू. श्री भावचंद्रजी | श्री मणीबाई 193. श्री फाल्गुनीबाई | 2022 पाटडी अमृतभाई आणंदीआ | 2041 वै. कृ. 2 | सुवई पू. श्री भावचंद्रजी श्री रूक्ष्मणीबाई पांच मासखमण 194. श्री तारिणीबाई | 2015 रापर | मगनभाई मोरबीया | 2041 ज्ये. शु. 3 गांधीधाम पू. श्री भावचंद्रजी | श्री रूक्ष्मणीबाई | विद्याभास्कर 195. श्री अभिलाषीबाई |- धोलका खीमचंदभाईशाह | 2041 फा. शु. 3 अमदाबाद | श्री नरसिंहजी श्री झंखनाबाई 188. 191. Page #826 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 197. 200. 764 क्रम साध्वी नाम । | जन्म संवत् स्थान पिता नाम गोत्र दीक्षा संवत् तिथि | दीक्षा स्थान | दीक्षादाता गुरूणी । विशेष विवरण 196. | श्री मतिज्ञाबाई | 2019 नंदासर | भचुभाई गाला 1 2042 - थाणा श्री कातिऋषिजी | श्री मंजुलाबाई | दो वर्षीतप श्री कृपाबाई | 2018 कल्याण | गाभुभाई बौवा । 2042 वै. शु. 4 |त्रंबौ श्री भावचंद्रजी श्री चंद्रावतीबाई | 11 शास्त्र कंठस्थ 198. श्री क्षमाबाई | 2021 मनफरा | अरजणभाई गडा 2042 वै. शु. 13 | मनफरा । श्री भावचंद्रजी |श्री मणीबाई | 199. श्री परागिनीबाई | 2022 थाणा रतनशीभाई बौवा 2043 म. शु. 11 | थाणा श्री कातिऋषिजी | श्री उज्जवल कु. | वर्षीतप | श्री प्रतीतिबाई 1 2022 सामखीयारी | गोकलभाई गडा 2043 पो. कृ. 6 बोरीवली |श्री कातिऋषिजी श्री मंजुलाबाई । | वर्षीतप, 41, 36, 30|| उपवास, सिद्धितप 201. श्री सोहिनीबाई | 2022 माधापर | शांतिभाई खंडोल 2043 मा. शु. 3 | माधापर श्री भावचंद्रजी श्री रूक्ष्मणीबाई | | वर्षीतप, सिद्धितप 202. श्री नंदिनीबाई 2023 भावनगर | नानाभाई बोरिया 2043 मा. शु. 3माधापर श्री भावचंद्रजी | श्री रूक्ष्मणीबाई विद्याभास्कर 203. श्री अवनीबाई | 2018 मालीया | अमृतभाई महेता 2043 मा. शु. 3 | माधापर श्री भावचंद्रजी श्री रूक्ष्मणीबाई मासखमण, सिद्धितप 204. श्री भाविनीबाई | 2024 रामपर नानाभाई दोशी 2043 मा. शु. 3 माधापर | श्री भावचंद्रजी श्री रूक्ष्मणीबाई 205. | श्री निर्जराबाई | 2018 सामखीयारी | गोकलभाई छेडा | 2043 मा. शु. 9 | सामखीयारी श्री रामचंद्रजी श्री सूरजबाई | 2 पोला अट्टम, 1 बेले से, 4 उपवास से वर्षांतप चार मासखमण, 36 दो, 21 उपवास व अन्य तप 206. श्री निष्ठाबाई 2014 मुंबई | गशामजीभाई सतरा | 2043 मा. कृ. 3 | गुंदाला श्री दमयंतीबाई दो वर्षांतप 207. |श्री श्रद्धाबाई 1- नसीतपर नानचंदभाई महेता 2043 मा. कृ. 3 | गुंदाला श्री भावचंद्रजी श्री दमयंतीबाई 208. |श्री स्वस्तीबाई | 2020 चुडा दलीचंदभाई वोरा 2043 मा. कृ. 6 चुड़ा श्री कमलेशमुनिजी | श्री झंखनाबाई 209. श्री जिनाज्ञाबाई |- मथडा | भाईचंदभाई गांधी | 2043 वै. शु. 5 | समाघोघा |पू. श्री भावचंद्रजी | श्री उज्जवल कु.| तीन वर्षांतप, दो सिद्धितप, व अन्य तप 210. श्री ब्राह्मीबाई | 2017 गुंदाला | हीरजीभाई सत्रा | 2043 वै.शु. 13 | गुंदाला | पू. श्री भावचंद्रजी | श्री प्रभावतीबाई विद्याभास्कर 211. | श्री मोक्षाबाई | 2025 लाकडीया लखधीरभाई गाला | 2043 ज्ये. शु. 2 | लाकडीया | पू. श्री भावचंद्रजी | श्री सूरजबाई 212. | श्री स्वातीबाई |- सामखीयारी | डुंगरशीभाई गडा 2044 मृ. शु. 13 | पू. श्री भावचंद्रजी | श्री मंजुलाबाई संवत् 2049 प्रागपुर में दिवंगत 213. श्री हितस्विनीबाई| 2020 लाकडीया प्रेमजीभाई गाला | 2044 मा. शु. 5 लाकडीया श्री भावचंद्रजी | श्री उज्जवल कु.| आगमदर्शनालंकार | तेजस्विनीबाई | 2019 खेतवाड़ी | जगशीभाई गड़ा | 2044 मा. शु.5 लाकडीया पृ. श्री भावचंद्रजी | श्री उज्जवल कु. मासखमण 215. श्री कोमलबाई | 2022 दादर रमणीकभाई खंडोल 2044 फा.शु. 3 | भुज । पू. श्री भावचंद्रजी श्री मंजुलाबाई वर्षांतप 216. | श्री विरताबाई | 2026 वांकानेर | प्रवीणचंद्र वशा | 2044 फा. कृ. 3 |वांकानेर पू. श्री चुनीलालजी | श्री सूरजबाई | वर्षीतप, मासखमण 217. श्री अर्पिताबाई | 2026 वांकानेर | प्रवीणचंद्र वशा 2044 फा. कृ.3 |वांकानेर पू. श्री चुनीलालजी | श्री सूरजबाई वर्षांतप, मासखमण 214. जैन श्रमणियों का बृहद इतिहास Page #827 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्थानकवासी परम्परा की श्रमणियाँ 223. 225. 765 2045 मा. क्रम | साध्वी नाम जन्म संवत् स्थान पिता नाम गोत्र | दीक्षा संवत् तिथि| दीक्षा स्थान । दीक्षादाता गुरूणी विशेष विवरण | श्री मलयाबाई 2016 भोरारा पोपटभाई संगोई | 2044 वै.शु. 3 | गुंदाला पू.श्री भावचंद्रजी | श्री चंद्रावतीबाई 219. |श्री तेजसबाई 2021 गुंदाला पोपटभाई संगोई 2044 वै.शु. 3 गुंदाला | पू.श्री भावचंद्रजी श्री सूरजबाई तीन वर्षांतप, मासखमण, | सिद्धितप श्री ओजसबाई | - सुवई पांचाभाई सावला | 2045 मृ. शु. 13 | सुवई । पू.श्री भावचंद्रजी | श्री मंजुलाबाई दो वर्षीतप, मासखमण, अन्य तप 221. | श्री शुभेच्छाबाई | 2020 सुवई लखधीरभाई सावला | 2045 म. शु. 13 सुवई पू.श्री भावचंद्रजी | श्री मंजुलाबाई 222. श्री तोरलबाई | 2024 बोरीवली | किशोरभाई शाह 2045 पो. कृ.50 सुरेन्द्रनगर | पू. श्री रामचंद्रजी | श्री सूरजबाई |श्री कल्पलताबाई| 2021 वणोई । हरघोर बौवा 2045 पो. कृ. 50 वणोई | पू. श्री भावचंद्रजी | श्री मंजुलाबाई | संवत् 2058 मुंबई में दिवंगत 224. श्री वियुक्तिबाई | 2013 वणोई भारमलभाई शाह | 2045 पो. कृ. 5 पू. श्री भावचंद्रजी श्री मंजुलाबाई श्री विरक्तिबाई 2019 रापर | शांतिभाई पूज 2045 मा. शु. 50 रापर श्री भावचंद्रजी श्री उज्जवल कु. 226. श्री विज्ञातिबाई 2020 रापर हेमचंदभाई पूज 2045 मा. शु. 5 रापर श्री भावचंद्रजी | श्री उज्जवल कु. दो वर्षांतप श्री विक्रांतिबाई | 2021 अंजार | जेठाभाई महेता 2045 मा. शु. 5 | रापर पू. श्री भावचंद्रजी |श्री उज्जवल कु.] - श्री विज्ञप्तिबाई | - रामवाव | रविभाई पूज रापर पू. श्री भावचंद्रजी | श्री उज्जवल कु.| तीन वर्षांतप, श्रेणीतप, सिद्धितप, लघुसर्वतोभद्र तप 229. श्री विश्रुतिबाई | 2024 मोवाणा | कांतिभाई महेता | 2045 मा. शु. 5 रापर पू. श्री भावचंद्रजी | श्री उज्जवल कु.| दो वर्षीतप, सिद्धितप | श्री विश्वासिनीबाई| 2025 सुवई | खीमजीभाई 2045 मा. शु. 5 रापर | पू. श्री भावचंद्रजी | श्री उज्जवल कु.] 231. श्री विभातिबाई | 2023 बेला | नागजीभाई गांधी 2045 मा. शु. 5 रापर पू. श्री भावचंद्रजी | श्री रूक्ष्मणीबाई | वर्षीतप | श्री विभूषिताबाई| - रापर | रविभाई पूज | 2045 मा. शु. 50 रापर पू. श्री भावचंद्रजी | श्री उज्जवल कु.] तीन वर्षीतप व अन्य तप 233. |श्री ख्यातिबाई | 2021 वींछीया | शांतिभाई झोबालीया | 2045 वै. शु. 10 विछिया पू. श्री भास्करजी | श्री उज्जवल कु. 234. | श्री वसुधाबाई | - थाणा अवचरभाई शाह | 2046 वै. शु. थाणा पू. श्री भावपचंद्रजी श्री मंजुलाबाई 235. श्री कमलिनीबाई| 2025 रामणीया | लालजीभाई नागडा | 2046 वै. शु. 7 पालघर श्री श्री नरसिंहजी | श्री दमयंतीबाई |श्री कांतिबाई | 2018 सुवई रणशीभाई सत्रा | 2046 मा. कृ. 5 सुवई आ. कातिऋषिजी |श्री रूक्ष्मणीबाई 237. श्री कुशलताबाई | 2024 विंछीया | कस्तूरभाई गोसलीया | 2046 मा. कृ. 6 विछिया | पू. प्रकाशचंद्रजी | श्री उज्जवल कु.| दो वर्षीतप 238. श्री एकताबाई |- घाटकोपर वसनजी गाला 2046 वै. शु. 13 थाणा | पू. भावचंद्रजी श्री विमलाबाईजी | श्री संस्कृतिबाई | - वांकानेर | - वांकानेर शांतिभाई गारड़ी | 2046 मृ. क, 5 | समाघोघा पू. प्रकाशचंद्रजी श्री दमयंतीबाई 240. | श्री जयणाबाई | - कलमाद शांतिभाई शाह 2047 मा. शु. 11 सुरेन्द्रनगर | श्री रामचंद्रजी श्री सूरजबाई चार वर्षीतप व अन्यतप 230. 232. 236. 239. Page #828 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 766 क्रम साध्वी नाम | 241. श्री प्रकृतिबाई 242. श्री भव्यताबाई 243. श्री श्रेष्ठाताबाई 244. श्री सुपर्णाबाई 245. श्री सुवर्णाबाई जन्म संवत् स्थान 2028 मोरबी थाणा भोरारा 2027 लाकडीया भरूडीया 246. श्री सौम्यताबाई 247. श्री खुमारीबाई 248. श्री निपुणाबाई 249. श्री प्राप्तिबाई 250. श्री पूर्णताबाई 251. श्री गुप्तिबाई 252. श्री धराबाई 253. श्री लब्धिबाई 254. श्री खुश्बूबाई 255. श्री कृष्णाबाई 256. श्री प्रशस्तिवाई 257. श्री निश्राबाई 258. श्री श्रुतिबाई 259. श्री जिनश्रीबाई 260. श्री आज्ञाबाई 261. श्री पात्रताबाई 262. श्री चाहनाबाई 263. श्री मर्यादाबाई 264. श्री प्रियदर्शनाबाई 2024 माधापर 2030 सडला 2026 घाटकोपर 2028 दादर 2014 कमलापुर - लाकडीया 2023 जेतपुर मकरा मुंबई 2028 मकरा 2025 वढवाण 2028 बी 2027 सुवई 2024 लाकडीया फतेहगढ़ 2025 लाकडीया 2027 लाकडीया लाकडीया - लाकडीया पिता नाम गोत्र दीक्षा संवत् तिथि दीक्षा स्थान दीक्षादाता मोरबी श्री भास्करजी भरूडीया श्री भास्करजी जादवजी महेता 2047 फा. शु. 3 शायचंदभाई छाडवा2047 वै शु. 10 दामजीभाई गोगरी 2047 पै. शु. 13 भभाई छेड़ा भोरारा पू. श्री रामचंद्रजी 2049 मृ.शु. 10 गोरेगाम (मुं.) पू. भावचंद्रजी गोरेगाम (मुं) पू. भावचंद्रजी देवशीभाई सा धीरजभाई शाह रतनशीभाई छेड़ा भचुभाई गाला भुदरबाई संघवी रामजीभाई गडा जयतिभाई पानसुख्या मालशीभाई सत्रा मालशीभाई सा गुणशोभाई गाला चंपकभाई लोलीपपणा हेमराज भाई बोरीया जेठाभाई गुरीया वणीवीरभाई गडा रमणीकभाई खंडोल थावरभाई गडा जीवराजभाई पुरीया जनुभाई गाला वीरमभाई गडा मावजीभाई खंडोल 2049 मृ.शु. 10 2049 मृ. कृ. 3 2049 मा. शु. 6 2049 मा. शु. 10 2049 मा. कृ. 5 2049 - 2049 फा. शु 2049 फा. शु. 2 2049 फा. शु. 2 2050 का. कृ. 10 2050 पो. शु. 14 2050 मा.शु. 8 2050 मा. शु. 13 2050 मा. कृ. 8 2050 फा. शु. 2 2050 वै. शु. 6 2050 वै. शु. 6 2050 वै. शु. 6 2050 वै.शु. 6 2050 बै. शु. 6 वांकानेर रव थाणा आनंदपुर लाकडीया जेतपुर घाटकोपर (मुं) घाटकोपर (मुं) पाले (मुं.) वढ़वाण यौ सुवई लाकडीया भुज लाकडीया लाकडीया लाकडीया लाकडीया माधापर पू. रामचंद्रजी श्री प्रकाशचंद्रजी पू. भावचंद्रजी श्री निरंजनमुनि श्री रामचंद्रजी पू. भास्करजी पू. भावचंद्रजी पू. भावचंद्रजी पू. भावचंद्रजी श्री नरसिंहजी पू. भावचंद्रजी पू. भावचंद्रजी पू. भास्करजी पू. भावचंद्रजी पू. रामचंद्रजी पू. रामचंद्रजी पू. रामचंद्रजी पू. रामचंद्रजी पू. विमलचंद्रजी गुरूणी श्री चंद्रावतीबाई तीव वर्षातप श्री मंजुलाबाई श्री चंद्रावतीबाई श्री मंजुलाबाई श्री मंजुलाबाई श्री सूरजबाई श्री उज्जवलबाई श्री मंजुलाबाई श्री चंदनबाई श्री सूरजबाई श्री गीताबाई श्री मणीबाई श्री मणीबाई श्री मणीबाई श्री मीरांबाई श्री प्रभावतीबाई श्री गीताबाई श्री सूरजबाई श्री मंजुलाबाई श्री सूरजबाई श्री सूरजबाई श्री सूरजबाई श्री सूरजबाई श्री रुक्ष्मणीबाई विशेष विवरण दो वर्षीतप 51, 30. 21. उपवास ataufaч, 41-1, 33-2, 32-1, 31-2 बार तथा अन्य दो वर्षीतप वर्षीतप वर्षीतप सिद्धितप मासखमण, वर्षातप वर्षीतप वर्षीतप वर्षीतप मासखमण दो वर्षीतप दो वर्षोत तीन वर्षीतप वर्षीतप वर्षीतप जैन श्रमणियों का बृहद इतिहास Page #829 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (www.jainelibrary.om. 767 क्रम साध्वी नाम 265. श्री प्रियंकाबाई 266. श्री सुरूचिवाई 267. श्री नियतिबाई 268. श्री सुहानीबाई 269. श्री प्रियांसीबाई 270. श्री प्रतिष्ठाबाई 271. श्री कुमकुमबाई 272. श्री संजीवनीबाई जन्म संवत् स्थान 2028 हाथबंधा 2026 रामवाव - राणपुर 2026 रापर 2028 रापर 20244 2027 थाणा 2023 दादर 2028 सुवई 2029 सुवई लाकडीया 273. श्री भद्रताबाई 274. श्री धीरताबाई 275. श्री समीक्षाबाई 276. श्री वैभव बाई 277. श्री कर्णिकबाई 278 श्री पवित्राबाई 279. श्री दिप्तीबाई 280. श्री बोधिनीबाई 2027 रापर 281. 2024 वडाला श्री शालिनीबाई 2029 रापर 282. श्री हितार्थिबाई 283. श्री यशस्विनीबाई 284. श्री स्तुतिबाई 285. श्री जैमिनीबाई 286. श्री भाविताबाई 287. श्री सूर्यमुखीबाई 288. श्री जशकुमारीबाई 289. श्री हंस श्रीबाई 290. श्री खुशालीबाई 2030 लाकडीया 2033 सुरेन्द्रनगर 2030 जोगेश्वरीजी •जेसढ़ा 2022 विंछीया 2034 चींचबंदर ) 2031 डुबली (कन 2017 अमदाबाद 291. श्री निर्मोहिनीबाई 2029 लाकडीया 2018 2030 झोलवाड़ा 2027 सुवई 20324 पिता नाम गोत्र दुर्लभभाई दोवाला कांतिभाई महेता नविनभाई शाह मणीभाई महेता मणीभाई महेता पांचाभाई गाला वीरजीभाई बौवा हीरजीभाई सा लखधीरभाई सावला लखधीरभाई सावला छगनभाई या कांतिभाई गांधी अमृतभाई महेता सुरजीभाई सावला हेमराज भाई बोरीया वनेचंदभाई दोशी वनेचंदभाई दोशी वेरशीभाई मरोड करमणभाई तुरीया मनहरभाई अमदावादी वालजीभाई कारीया कांतिभाई सैया केशवजीभाई गडा केशवजीभाई गडा पारसमलजी भणसाली चीमनभाईशाह प्रेमजीभाई गाला दीक्षा संवत् तिथि दीक्षा स्थान 2050 मा.शु. 2 लींबडी 2051 मा. शु. 2 रापर 2051 मा. शु. 13 सुरेन्द्रनगर 2051 मा. शु. 13 सुरेन्द्रनगर 2051 मा. शु. 13 सुरेन्द्रनगर 2051 मा. कृ. 5 थाणा 2051 मा. कृ. 5 2051 वै. शु. 7 2052 मृ.शु. 3 2052 . शु. 3 2052 ज्ये. शु. 2 2052 ज्ये. कू. 6 20533 20533 2053 मा. शु. 3. 2053 मा. शु. 13 2053 मा. शु. 13 2053 मा. शु. 13 2054 चै.शु. 13 2054 वै. 7 2054 यू. श. 9 2054 पो. कृ. 12 2054 पो. कृ. 15 2054 मा. शु. 10 2054 . शु. 7 2055 मृ.शु. 10 2055 मा. कृ. 2 थाणा दादर सुवई सुवई सुरेन्द्रनगर लींबड़ी मुलुण्ड सुबई बौ रापर रापर नवसारी मलाड सुरेन्द्रनगर जोगेश्वरी थणा पार्ला (मुं.) आघोई बोरीवली दादर (मुं.) वीक्षावाता पू. विमलचंद्रजी पू. प्रकाशचंद्रजी श्री धर्मेशचंद्रजी श्री नरसिंहजी श्री नरसिंहजी पू. निरंजनमुनि पू. निरंजनमुनि पू. निरंजनमुनि पू. भास्करमुनि पू. भास्करमुनि पू. नरसिंहजी पू. नरसिंहजी पू. निरंजनमुनि पू. भास्करमुनि पू. भास्करमुनि पू. भास्करमुनि पू. भास्करमुनि पू. प्रकाशचंद्रजी प्रकाशचंद्रजी पू. भास्करमुनि पू. विमलचंद्रजी पू. विमलचंद्रजी पू. विमलचंद्रजी पू. भास्करमुनि फू विमलचंद्रजी पू. निरंजनमुनि फू प्रकाशचंद्रजी गुरुणी श्री पुष्पाबाई श्री उज्जवल कु. श्री मंजुलाबाई श्री उज्जवल कु. श्री उज्जवल कु. श्री उज्जवल कु. श्री उज्जवल कु. वर्षीतप, मासखमण श्री उज्जवल कु. श्री मंजुलाबाई श्री मंजुलाबाई श्री सूरजबाई विशेष विवरण तेले तेले वर्षीतप तीन वर्षीतप वर्षीतप सिद्धितप श्री हेमलताबाई श्री उज्जवल कु. वर्षीतप श्री विमलाबाई श्री प्रभावतीबाई वर्षीतप श्री रूक्ष्मणीबाई श्री रूक्ष्मणीबाई श्री सूरजबाई श्री विमलाबाई श्री मणीबाई श्री मंजुलाबाई श्री उज्जवल कु. श्री मणीबाई श्री मंजुलाबाई श्री शंखनाबाई तीन वर्षीतप वर्षीतप वर्षीतप वर्षीतप वर्षातप श्री उज्जवल कु. दो वर्षीतप श्री सूरजबाई स्थानकवासी परम्परा की श्रमणियाँ Page #830 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 293. 297. 768 क्रम | साध्वी नाम |जन्म संवत् स्थान | पिता नाम गोत्र |दीक्षा संवत् तिथि दीक्षा स्थान | दीक्षादाता | गुरूणी विशेष विवरण 292. श्री धन्यताबाई |- भचाऊ गोपालभाई नंदु | 2055 मा. कृ. 11 | वाशी (मुं.) | पू. रामचंद्रजी | श्री सूरजबाई श्री प्रभूताबाई |- लाकडीआ |वेलजीभाई गाला | 2055 मा. कृ. 11|वाशी (मुं.) | पू. रामचंद्रजी | श्री सूरजबाई 294. श्री दृष्टिबाई 12032जोगेशवरी | पोपटभाई सैया | 2055 फा. शु. 5 | जोगेश्वरी(मुं.) | पू. प्रकाशचंद्रजी श्री उज्जवल कु. दो वर्षीतप 295. श्री धारणाबाई |2027 गढडा उजमशीभाई रूपेरा | 2055 फा. कृ. 5 |लोंबड़ी पू. नरसिंहजी | श्री दमयंतीबाई दो वर्षीतप 296. श्री समितिबाई | 2027 वांकानेर | प्रतापभाई महेता | 2055 फा. कृ. 5/लीबड़ी पू. निरंजनमुनि | श्री दमयंतीबाई दो वर्षीतप कृतज्ञाबाई 12028 भचाऊ नानजीभाई कारीया | 2055 वै. कृ. 8 |भचाऊ पू. भास्करमुनि श्री मणीबाई 298. |श्री समृद्धिबाई | 2037 सामखीयारी | खेराजभाई छाडवा | 2056 का. कृ. 13| बोरीवली(मुं.) | पू. रामचंद्रजी। |श्री सूरजबाई वर्षीतप 299. श्री प्रसिद्धिबाई 12033 लाकडीया | वणीवीरभाई गडा 2056 का. कृ. 13| बोरीवली(मुं.) | पू. रामचंद्रजी श्री सूरजबाई वर्षांतप 300. श्री तितिक्षाबाई | 2030 चोटीला |विनुभाई वोरा 2056 पो. कृ. 6 अमदाबाद(आंप्र) पू. प्रकाशचंद्रजी |श्री सरजबाई 301. श्री नमनबाई 12031 झरीया प्रीतमलाल महेता 2056 मा. शु. 10| हैदराबाद | पू. विमलचंद्रजी | श्री मंजुलाबाई 302. श्री प्रभंजनाबाई | 2032 थाणा रसिकभाई छेडा 2056 मा. कृ. 5 रख पू. रामचंद्रजी |श्री विमलाबाई 303. |श्री विरांगनाबाई | 2035 सुवई चंदुभाई छेडा । 2056 मा. कृ. 5 रख पू. रामचंद्रजी श्री विमलाबाई 304. |श्री प्रकाक्षाबाई | 2030 वढवाण | हसमुखभाईशाह | 2056 ज्ये.शु. 2 वडोदरा पू. रामचंद्रजी | श्री सूरजबाई | वर्षांतप | श्री निरागिणीबाई 2021 पाटडी मुलजीभाई रूपेरा | 2056 ज्ये. शु. 101 गुंदाला पू. भास्करमुनि |श्री रूक्ष्मणीबाई 306. (नाना)धारणाबाई 1 2030 बोरीवली |वाडीलालभाई वोरा | 2057 मा. शु.7 |बोरीबली(मुं.) | पू. राजेन्द्रमुनि श्री उज्जवल कु.| वर्षांतप |307. श्री विजेताबाई | 2033 भावनगर | प्राणलालभाई शेठ | 2057 म. शु. 15 | सायला पू. निरंजनमुनि | श्री दमयंतीबाई | वर्षीतप 2, मासखमण 3 308. श्री उगिनीबाई 12029 सुवई नरशीभाई छाडवा श्री उज्जवल कु.| वर्षीतप 2, सिद्धितप 2, 32 उपवास, मासखमण 309. श्री निःसंगिनीबाई | 2029लाकडीया | पोपटभाई गडा | 2057 मा. शु0 5 | दादर (मुं.) पू. राजेन्द्रमुनि श्री उज्जवल कु. 3 वर्षीतप, 2 मासखमण, | सिद्धितप, 21 उपवास 310. श्री श्रेयासिबाई |2028 थाणा पांचालालभाई गाला 2057 फा. शु. 2 थाणा (मुं.) |पू. राजेन्द्रमुनि श्री उज्जवल कु. दो वर्षीतप |311. |श्रीआत्मज्ञाबाई | 2029 पाडीयाद नगीनभाई दोशी 2057 वै. शु. 6 | कल्याण पू. विमलचंद्रजी श्री मंजुलाबाई 312.0 श्री सिद्धशीलाबाई- भचाऊ कुंभाभाई गाला 2058 मा. शु. 5 | अंधेरी (मुं.) श्री सूर्यविजयबाई पति श्री पंथक मुनि व पुत्री मुक्तिशीलाजी सह दीक्षित हुई। 313. श्री मुक्तिशीलाबाई | 20451 भचाऊ देवजीभाई गाला | 2058 मा. शु. 5 |अंधेरी (मुं.) पू. रामचंद्रजी श्री सूर्यविजयबाई| - 314. श्री धरतीबाई - नंदूरबार मोतीलालभाई भटेवरा 2058 मा. शु. 11 | अमदाबाद | पू. निरंजनमुनि श्री दमयंतीबाई 305. नाबाई - . जैन श्रमणियों का बृहद इतिहास Page #831 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्रम | साध्वी नाम जन्म संवत् स्थान | पिता नाम गोत्र | दीक्षा संवत् तिथि | दीक्षा स्थान । दीक्षादाता 315. श्री ऊर्जाबाई 2033 मुंबई | खीमजीभाई कुरिया | | 2058 मा. कृ.5 बोरीवली(मुं.)| पू. रामचंद्रजी 316. श्री जैनिताबाई | 2036 मुंबई हंसराजभाई कारिया | 2059 मा. कृ.5 थाणा (मुं.) पू. नरसिंहजी 317. श्री अनुभूतिबाई | 2038 खेंगारपर शामजीभाई डाधा | 2059 मा. कृ.5 थाणा (मुं.) पू. नरसिंहजी 318. श्री कीर्तनाबाई | 2034 मुंबई । पोपटभाई खीमसीया 2059 मा. कृ.5 थाणा (मुं.) पू. नरसिंहजी | श्री परमेश्वरीबाई 2032 मुंबई | शीवजीभाई छेडा | 2059 मा. कृ.5 थाणा (मुं.) पू. नरसिंहजी |श्री स्वानुभूतिबाई, 2035 गोगादर | शीवजीभाई छेडा 2059 मा. कृ.5 थाणा (मुं.) पू. नरसिंहजी | श्री योगेश्वरीबाई| 2033 शीवलखा |खेतशीभाई गडा 2059 मा. कृ.5 थाणा (मुं.) पू. नरसिंहजी 322.| श्री प्रियंवदाबाई | 2034 खार (मुं.) | हीरजीभाई फुरीया 2059 मा. कृ.5 (मुं.) | पू. नरसिंहजी 323. | श्री ध्रुविताबाई | 2038 भचाऊ । | हंसराजभाई कारिया | 2059 मा. कृ.5 |थाणा (मुं.) | पू. नरसिंहजी 324. श्री हितश्रीबाई | - रतनपुर नवीनभाई गांधी । 2058 आसो.कृ. 8 / रतनपुर पू. भास्करमुनि | गुरूणी | विशेष विवरण | श्री सूर्यविजयबाई | श्री मंजुलाबाई श्री मंजुलाबाई श्री मंजुलाबाई श्री मंजुलाबाई | श्री मंजुलाबाई | श्री मंजुलाबाई श्री मंजुलाबाई वर्षांतप | श्री मंजुलाबाई श्री चंदनबाई संवत् 2058 अमदाबाद में| दिवंगत स्थानकवासी परम्परा की श्रमणियाँ नोट :- अजरामर संप्रदाय की प्रायः साध्वियाँ बालब्रह्मचारिणी हैं, किंतु हमें जिनका लिखित उल्लेख इस रूप में प्राप्त हुआ, उन्हीं के नाम के पूर्व बालब्रह्मचारिणी का संकेत चिह्म बनाया है। Page #832 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (ख) गौंडल सम्प्रदाय की अवशिष्ट श्रमणियाँ 'श्री जेतुबाई का परिवार' (संवत् 1978-2036)555 विशेष विवरण माता श्रीनवलबाई बहन पुष्पाबाई पड़घरी क्रम | साध्वी नाम जन्म संवत् स्थान पिता का नाम गोत्र | दीक्षा संवत् तिथि | दीक्षा स्थान | गुरूणी | 1. श्री समरतबाई जामनगर वेणीदासभाई वारिया |1978 वै. शु. 9 जामनगर श्री रलियातबाई श्री नवलबाई पड़घरी मूलजीभाई भीमाणी 2014 मृ. शु. 10 पड़घरी श्री कुंदनबाई पड़घरी कांतिभाई मेहता |2014 मृ0 शु. 10 पड़घरी श्री पुष्पाबाई पड़घरी कांतिभाई मेहता 2014 म. श. 10 पड़घरी श्री शान्ताबाई राजकोट | मगनभाई वाघजीयांणी | 2018 . कृ. 5 राजकोट श्री कंचनबाई कालावाड़ | रतीभाई कोठारी |2021 वै. शु. 3 कालावाड़ श्री सुशीलाबाई वेरावल जयंतीभाई कामदार 2025 ज्ये. शु. 6 जामनगर श्री जसुमतीबाई |गोंडल वनमालीभाई कोठारी |2029 वै. शु. 5 राजकोट श्री सरोजबाई शांतिभाई मेहता | 2029 वै. शु. 5 राजकोट श्री किरणबाई राजकोट धीरजभाई कोठारी 2030 मृ. शु. 7 | गोंडल श्री रंभाबाई पडघरी मावजीभाई 1996 का. कृ. 13 पड़घरी श्री मानकुंवरबाई श्री जेकुंवरबाई राजकोट लीलाधरभाई 2000 का. कृ. 6 राजकोट श्री ललिताबाई राजकोट मणिलालभाई 2001 मृ. शु. 5 राजकोट श्री जयाबाई कालावाड़ दुर्लभजीभाई 2007 का. कृ. 5 राजकोट श्री निर्मलाबाई जामनगर नरभेरामभाई 2007 का. कृ. 5 राजकोट श्री नर्मदाबाई कालावाड़ भवानभाई 2008 म. शु. 5 कालावाड श्री इन्दुबाई राजकोट करमचंदभाई 2009 मृ. शु. 10 राजकोट श्री शांताबाई राजकोट वलभजीभाई 2010 मा. शु. 13 राजकोट श्री अनसुयाबाई राजकोट ओधवजीभाई 2011 म. कृ. 2 राजकोट श्री ज्योत्स्नाबाई राजकोट जेठालालभाई | 2011 म. कृ. 2 राजकोट श्री लाभुबाई राजकोट धीरजलालभाई | 2011 मा. शु. 10 राजकोट श्री वनिताबाई कालावाड़ गिरधरभाई 2015 मा. शु. 1 कालावाड़ | 23. श्री हर्षदाबाई पड़घरी जुनालालभाई 2016 वै. शु. 3 | पड़घरी 555. गोंडल गच्छदर्शन, पृ. 84-100 -संकेत चिन्हपतिवियोग सुहागिन बालब्रह्मचारिणी| __ श्वसुरपक्ष सुपुत्री ज्योत्सनाबाई जैन श्रमणियों का बृहद इतिहास Page #833 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 771 क्रम 24. 4 25. 26. 27. 28. 29. 4 साध्वी नाम श्री ताराबाई श्री प्रियबालाबाई श्री मनोरमाबाई श्री फुल्लाबाई श्री वसंताबाई श्री गुणवंतीबाई 30. श्री रमाबाई 31. 4 श्री ज्योतिबाई 32. श्री नीलमबाई 33. 4 श्री हंसाबाई 34. 4 श्री भानुबाई 35. 4 श्री हसुमतीबाई 36. 4 श्री तरूलताबाई 37. श्री चंद्रिकाबाई 38. 4 श्री अमिताबाई 39. श्री उषाबाई 40. श्री विमलाबाई 41. श्री प्रमिलाबाई 42. श्री वखतबाई 43. श्री प्रभाबाई 44. श्री हीराबाई 45. 46. 47. 48. श्री इन्दुबाई श्री हंसाबाई श्री दयाबाई श्री रमाबाई जन्म संवत् स्थान पिता का नाम गोत्र दीक्षा संवत् तिथि प्राणलालभाई 2016 वै. शु. 3 कानजीभाई 2019 मा. शु. 2 मोहनभाई 2019 मा. शु. 2 त्रिभुवनभाई 2020 मा. कृ. 13 भाईचंदभाई 2024 वै. कृ. 13 प्राणलालभाई 2024 बै. कृ. 1 पड़ राजकोट राजकोट भाणवड़ निकावा पड़री पड़घरी राजकोट धोल गोंडल गोंडल राजकोट लाठी उपलेटा उपलेटा गॉडल राजकोट राजकोट जामनगर वेरावड़ राजकोट कालावाड़ कालावाड़ जेतपुर बेरावड़ शांतिभाई मनसुखभाई छोटालालभाई मूलशंकरभाई मूलशंकरभाई चीमनलालभाई अनूपचंदभाई दलीचंदभाई दलीचंदभाई मूलशंकरभाई मणीलालभाई मनहरभाई जेसंगभाई ताराचंदभाई जमनादासभाई प्राणजीवनभाई हिंमतभाई छगनभाई हेमचंदभाई 2024 कृ. 1 2028 मा. शु. 5 2028 वै.शु. 10 2039. शु. 7 2031 मा. शु. 5 2032 मा. शु. 5 2032 मा. शु. 5 2033 मा. शु. 11 2033 मा. शु. 11 2033 वै. शु. 7 2034 वै शु. 7 2034 वै. शु. 7 1984 वै. कृ. 6 1999 फा. शु. 2 2007 पोष शु. 2 2007 माघ शु. 13 2012 पोष शु. 7 2013 पो. कृ. 5 2014 पो. कृ. 1 दीक्षा स्थान पड़घरी राजकोट राजकोट भाणवड़ निकावा पड़री पड़घरी राजकोट घोल राजकोट राजकोट राजकोट राजकोट राजकोट राजकोट राजकोट राजकोट जामनगर वेरावड़ राजकोट कालाबाद कालावाड़ जेतपुर जोरावरनगर गुरूणी 31 " "1 77 11 91 11 "1 11 " 11 21 11 "1 " "" " " "1 "1 " "1 " " " 11 11 11 11 श्री जवेरबाई " 11 " " " " 11 विशेष विवरण बहन गुणवंतीबाई भानुबाई व उपाबाई आपकी बहनें हैं। जकुंवरबाई आपकी मातुः श्री हैं। स्थानकवासी परम्परा की श्रमणियाँ Page #834 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विशेष विवरण श्री नंदनबाई की बहन हैं। श्री कृष्णाबाई की बहन श्री शारदाबाई बहनें + क्रम । साध्वी नाम 49. श्री नाना इंदुबाई 50. श्री नंदनबाई 51.0/ श्री ज्योतिबाई 52. श्री नाना हंसाबाई - श्री मधुबाई श्री कृष्णाबाई श्री सावित्रीबाई शारदाबाई श्री रंजनाबाई श्री जसवंतीबाई श्री रंजनाबाई श्री पद्माबाई श्री हस्मिताबाई श्री भानुमतिबाई श्री मंजुलाबाई श्री उषाबाई श्री भारतीबाई श्री पद्माबाई 67. श्री वासंतीबाई श्री स्मिताबाई जन्म संवत् स्थान| पिता का नाम गोत्र दीक्षा संवत् तिथि दीक्षा स्थान | गुरूणी राजकोट मूलचंदभाई 2017 मृ. कृ. 1 | राजकोट राजकोट जमनादासभाई 2017 मा. शु. 10 राजकोट राजकोट जमनादासभाई 2017 मा. शु. 10 राजकोट जामनगर परसोत्तमभाई 2018 वै. शु. 3 जामनगर जामनगर भगवानजीभाई 2019 ज्ये. शु.2 जामनगर जामनगर भगवानजीभाई 2019 ज्ये. शु. 2 | जामनगर जोड़ीया शांतिभाई 2020 मा. कृ. 11 | जामनगर जोड़ीया शांतिभाई 2020 मा. कृ. 11 | जामनगर जामनगर भोगीलालभाई 2023 मा. शु. 3 | जामनगर जामनगर तुलसीदासभाई 2023 फा. शु. 3 जामनगर कालावाड़ केशुभाई 2023 फा. शु. 3 कालावाड कालावाड़ केशुभाई 2023 फा. शु. 3 कालावाड़ राजकोट जवेरचंदभाई 2028 मा. शु. 10 राजकोट जामनगर ठाकरसीभाई 2029 वै. कृ. 10 जामनगर जामनगर लीलाधरभाई | 2031 मा. शु. 5 जामनगर जामनगर बाबूभाई 2033 ज्ये. शु7 | माटुंगा (मुं.) राजकोट प्राणलालभाई 2034 म. कृ. 5 वालकेश्वर (मुं.) कालावाड़ धीरजलालभाई 2034 मा. शु. 5 घाटकोपर (मुं.) | सावरकुंडला आणंदजीभाई 2034 वै. कृ. 11 जामनगर गोंडल शामलजीभाई 2035 मा. शु.5 वालकेश्वर श्री पद्माबाई बहन + गाडल जैन श्रमणियों का बृहद इतिहास Page #835 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (ग) श्री देवकुंवरबाई महासतीजी का शिष्या-परिवार विशेष विवरण क्रम | साध्वी नाम 1. 01 श्री धनकुंवरबाई श्री मणीबाई श्री प्रभाबाई श्री चम्पाबाई श्री विमलाबाई श्री उर्मिलाबाई स्थानकवासी परम्परा की श्रमणियाँ आपके पिताश्री भी दीक्षित है। श्री जयाबाई प्रभाबाई बहन हैं। |आणंद |7731 For Fur Personal Use Only FFFFFFFF श्री विमलाबाई श्री हंसाबाई श्री ज्योतिबाई श्री गुलाबबाई श्री विजयाबाई श्री प्रज्ञाबाई साधनाबाई श्री धीरमतीबाई श्री कुंदनबाई श्री संगीता बाई श्री चम्पाबाई श्री ललिताबाई श्री कंचनबाई श्री प्राणकुंवरबाई श्री तरूलताबाई श्री जसवंतीबाई श्री वसुमतीबाई जन्म संवत् स्थान पिता का नाम गोत्र | दीक्षा संवत् तिथि | दीक्षा स्थान | गुरूणी चेला परजतसीभाई 1987 वैशाख कृ. 6 | चेला सरसई (बगसरा) | प्रेमचंदभाई 1989 फा. कृ. 13 | बगसरा श्री हेमकुंवरबाई दलखाणिया जगजीवनभाई 1994 मा. शु. 6 बगसरा श्री उजमबाई वेरावळ पानाचंदभाई 1989 ज्ये. शु. 2 वेरावड़ चीतळ सुंदरजीभाई | 2008 फा. शु. 2 |वडिया कच्छ साडाऊ | रायसीभाई 2030 वै. शु. 10 | पलाड लखाणिया श्री जगजीवनभाई 2004 मा. शु. 13 सावरकुंडला सावरकुंडला | धीरजलालभाई 2012 वै. कृ. 5 सावरकुंडला सावरकुंडला हरजीवनभाई 2012 वै. कृ. 5 सावरकुंडला राजकोट रतिलालभाई 2026 वै. कृ. 5 खीरसरावड़ीया | भुराचंदभाई 2004 मा. शु. 13 सावरकुंडला जूनागढ़ भाईचंदभाई 2014 फा. शु. 2 | वेरावड़ वेरावळ काकुभाई 2015 म. कृ. 15 | वेरावड़ राजकोट नरोत्तमभाई 2020 म. कृ. 1 राजकोट वेरावळ अमृतलालभाई 2024 वै.शु. 9 खांभा तेजपुर चंदुभाई 2029 मा. शु. 13 |जतेपुर जूनागढ़ नागरदासभाई 2031 वै. शु. 11 जूनागढ़ राणपुर | लक्ष्मीचंदभाई 1999 ज्ये. शु. 2 | वेरावड़ श्री मोतीबाई धोराजी त्रिभोवनभाई 2008 फा. शु. 2 | वडीया विसावदर दुर्लभजीभाई 2014 फा. शु. 2 वेरावड राणपुर जयाचंदभाई 2014 मा. शु. 13 सावरकुंडला वनमालीभाई 2014 फा. शु. 2 वेरवाड़ धारी दुर्लभजीभाई 2014 फा. शु. 2 वेरवाड़ धारी मकनजीभाई | 2015 चै. शु. 5 सावरकुंडला धारी 24. Page #836 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विशेष विवरण 774 क्रम | साध्वी नाम | जन्म संवत् स्थान | पिता का नाम गोत्र | दीक्षा संवत् तिथि| दीक्षा स्थान | गुरूणी 25. श्री सुमित्राबाई | वेरावड़ नाथालालभाई |2018 वै. शु. 11 धारी श्री अरूणाबाई बगसरा अमृतलालभाई 2022 मृ. शु. 13 माटुंगा (मुंबई) श्री यशोमतीबाई बगसरा गिरधरभाई 2024 वै. शु. 9 | खांभा श्री प्रज्ञाबाई राणपुर गुलाबचंदभाई 2026 पो. शु. 15 | वेरावड़ A श्री जयवंतीबाई | मांगरोल जयतिलालभाई 2028 वे।. कृ. 13 | इन्दौर (म. प्र.) श्री मीराबाई धारी भाईचंदभाई 2028 वै. कृ. 13 | इन्दौर (म. प्र.) श्री शैलाबाई राणपुर रतिलालभाई 2030 वै. शु. 10 | मालाड (मुंबई) श्री जयेषाबाई गोविन्दपुर जेचंदभाई 2033 फा. कृ. 10 मुलुण्ड (मुंबई) श्री विरलबाई राणपुर रतिलालभाई 2036 वै. शु. 10 | माणेकपुर वसई ॥ श्री मुक्ताबाई | धारी नरभेरामभाई 2008 फा. शु. 2 | वडीया श्री अंबाबाई A] श्री लीलमबाई | सावरकुंडला जमनादासभाई 2009 फा. कृ. 11 | सावरकुंडला श्री पुष्पाबाई सावरकुंडला मूलचंदभाई 2014 फा. शु. 2 सावरकुंडला श्री प्रभाबाई सावरकुंडला रूगनाथभाई 2015 चै. शु. 5 सावरकुंडला श्री उषाबाई सावरकुंडला सोमचंदभाई 2015 चै. शु.5 | सावरकुंडला 39. श्री मृदुलाबाई | धारी नानालालभाई 2018 वै. शु. 11 | धारी श्री भद्राबाई बीलखा नरभेरामभाई 2018 वै. शु. 11 धारी श्री भारतीबाई राजकोट धीरजलालभाई 2020 कृ.5 घाटकोपर (मुं.) " श्री सुमनबाई नरभेरामभाई 2020 वै. कृ. घाटकोपर (मुं.) " " श्री वनिताबाई जूनागढ़ वनरावनभाई 2023 वै. शु. जूनागढ़ श्री अंबाबाई श्री सन्मतिबाई खांभा भगवानजीभाई 2024 खांभा श्री राजमती बाई खांभा अमीचंदभाई 2024 खांभा श्री हसुमतीबाई धारी मोहनभाई 2024 खांभा श्री सुमतिबाई बीलखा नरभेरामभाई 2024 वै. खांभा अनुमतिबाई जामनगर मोहनलालभाई 2024 वै. शु. 9 खांभा श्री वीरमतीबाई कालावाड़ धीरजलालभाई 2024 वै. शु.9 खांभा न धारी طه طه طه जैन श्रमणियों का बृहद इतिहास Page #837 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 775 क्रम 50. 51. A 52. 53. 54. 55. साध्वी नाम श्री ज्ञानशीलवाई श्री दर्शनशीलाबाई श्री विनोदबाई श्री राजुलबाई श्री सुदर्शनाबाई 4 श्री प्रियदर्शनाबाई 56. श्री कृपाबाई 57. श्री भाग्यवंतीबाई 58. श्री मीनलबाई 59. श्री मनीषाबई 60. श्री किरणबाई 61. 4 श्री हस्मिताबाई 62. 63. 64. श्री स्मिताबाई 65. 4 श्री उर्मिलाबाई 66. 4 श्री डोलरवाई 67. A श्री कल्पनाबाई 68. 4 श्री नंदाबाई 73. 74. श्री सुधाबाई श्री उर्वशीबाई 69. श्री सुनंदाबाई 70. श्री अर्चिताबाई 71. A श्री अर्पिताबाई 72. 4 श्री श्री अजिंताबाई श्री अमिताबाई श्री पुनीताबाई जन्म संवत् स्थान पिता का नाम गोत्र दीक्षा संवत् तिथि व्रजलालभाई गोविंदभाई सावरकुडला जूनागढ़ जूनागढ़ वेरावड़ जूनागढ़ जूनागढ़ वेरावड़ खाखरीया दीव गॉडल सरसई जूनागढ़ बालखा विसावदर अमरेली धारी जूनागढ़ वेरावल राणपुर राणपुर जेतपुर जेतपुर जुनीचावंड गॉडल जूनागढ़ भगवानजीभाई करसनभाई वनरावनभाई गोविंदभाई जयंतिलाल भाई जवेरचंदभाई रमणिक भाई बाबू भाई कांतिलालभाई रवजीभाई शांतिलालभाई दुर्लभजीभाई अमृतलालभाई मामलजीभाई गुणवंतभाई कांतिभाई प्राणजीवनभाई प्राणजीवनभाई केशुभाई केशुभाई कांतिभाई बाबू भाई कांतिभाई 2025 फा. शु. 9 2025 फा. शु. 9 202646 2026 पो. शु. 15 2027 वै. कृ. 6 2027 वै. शु. 6 2028 वे. शु. 6 2030 चै.शु. 10 2030 वै.शु. 10 2030 वै.शु. 10 2030 वै शु. 10 2030 वै.शु. 10 2030 वै.शु. 10 2031 मा. शु. 2 2031 मा. शु. 2 2031 मा. शु. 11 2031 वै. शु. 11 2031 वै. शु. 11 वै. 2031 शु. 11 2031 वै. शु. 11 2032 वै. शु. 7 2032 वै. शु. 7 2032 वै. शु. 7 2032 वै शु. 7 2033 वै. कृ. 7 दीक्षा स्थान गोंडल गोंडल जूनागढ़ बेरावड़ घाटकोपर (मुं.) घाटकोपर (मुं.) मुंबई कांजुर मलाड (मुं.) मलाड (मुं.) मलाड (मुं.) मलाड (मुं.) मलाड (मु) मलाड (मु.) शांताक्रूझ (मुं.) शांताक्रूझ (मुं.) जूनागढ़ जूनागढ़ जूनागढ़ जूनागढ़ जूनागढ़ गोंडल गोंडल गॉडल गोंडल जूनागढ़ गुरूणी "1 11 " 11 "1 11 "1 11 " " " 11 " " "1 11 11 11 11 11 11 11 "1 "1 "1 11 11 21 "1 11 "1 11 11 "1 ** 11 "1 " विशेष विवरण स्थानकवासी परम्परा की श्रमणियाँ Page #838 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साध्वी नाम विशेष विवरण 75. श्री सुनीताबाई श्री गीताबाई श्री वीणाबाई श्री वीनाबाई श्री तरलीका बाई श्री पूर्णिमाबाई श्री बिंदुबाई श्री रेखाबाई | श्री रूचिताबाई |श्री रूपलबाई श्री तेजलबाई श्री सुजाताबाई जन्म संवत् स्थान पिता का नाम गोत्र दीक्षा संवत् तिथि | दीक्षा स्थान | गुरूणी वेरावल कपूरचंदभाई 2033 वै. कृ. 7 जूनागढ़ वडिया व्रजलालभाई 2033 वै. कृ.7 जूनागढ़ राजकोट धीरजलालभाई | 2034 मृ. शु. 5 सावरकुंडला राजकोट धीरजलालभाई 2034 मृ. शु. 5 सावरकुंडला सावरकुंडला भाईचंदभाई | 2034 मृ. शु. 5 सावरकुंडला धारी मनसुखभाई 2034 मृ. शु.5 सावरकुंडला धारी कांतिभाई 2034 मृ. शु. 5 सावरकुंडला वेरावल मनसुखभाई 2034 मृ. शु. 5 | सावरकुंडला शांतिभाई 2036 वै. शु. 10 | माणेकपुर वसई परखवावड़ी हरिलालभाई | 2036 वै. शु. 10 | माणेकपुर वसई बगसरा रायचंदभाई 2036 वै. शु. 10 | माणेकपुर वसई वडिया विनोदरायभाई | 2036 वै. शु. 10 | माणेकपुर वसई बीलखा 776 जैन श्रमणियों का बृहद इतिहास Page #839 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .. (घ) श्री पुरीबाई की शिष्या56 श्री संतोकबाई महासतीजी का शिष्या-परिवार 57 विशेष विवरण 777 क्रम | साध्वी नाम जन्म संवत् स्थान | पिता का नाम गोत्र | दीक्षा संवत् तिथि दीक्षा स्थान | गुरूणी 1. D श्री हीराबाई कुंडणी रतीलालभाई 2001 मृ. कृ. 5 राजकोट श्रीसंतोकबाई श्री धीरजबाई घ्रका चुनीलालभाई 2014 फा. शु. 2 भाणवड श्री कांताबाई रंगून तलकचंदभाई 2015 वै. शु. 3 धोराजी श्री मोटा पुष्पाबाई खीलोश रविचंदभाई 2017 मा. शु. 5 जामनगर |श्री मोटा विजयाबाई कराची त्रीकमजीभाई | 2019 वै. कृ. 5 जोड़ीया | श्री भानुबाई कराची चुनीलालभाई 2019 वै. कृ. 5 जोडीया श्री नाना पुष्पाबाई खानपर दुर्लभजीभाई 2019 पो. कृ.8 ध्रोल | श्री इन्दुबाई मजोड़ हीराचंदभाई 2019 पो. कृ. 8 ध्रोल श्री दीक्षिताबाई राजकोट लवचंदभाई 2024 वै. शु. 8 राजकोट श्री नाना विजयाबाई मोरबी सुखलालभाई 2029 वै. कृ. 13 राजकेट श्री चंदनाबाई खानपर दुर्लभजीभाई 2031 वै.शु. 11 जूनागढ़ श्री कुसुमबाई खानपर दुर्लभजीभाई 2031 वै.शु. 11 जूनागढ़ श्री उषाबाई राजकोट फूलचंदभाई 2034 वै. शु. 7 राजकोट | श्री वीणा बाई राजकोट फूलचंदभाई 2034 वै. शु. 7 राजकोट श्री समुजबाई खारीबी जड़ीया | अमरशीभाई 2009 वै. शु. 5 बगसरा श्री अमृतबाई श्री लताबाई वीरपुर नागरभाई 2017 फा. कृ. 8 श्री सरलाबाई दलाला मगनभाई 2023 वै. शु. 3 अमरापुर |श्री प्रीतिसुधाबाई प्रांसवा वलभभाई 2030 फा. कृ. 2 जूनागढ़ |श्री शांताबाई दलपतभाई 2002 मृ. शु. 6 जूनागढ़ श्री जयाबाई |श्री कंचनाबाई बगसरा लल्लुभाई 2027 म. शु. 7 बगसरा | 21. - श्री हंसाबाई गोंडल अमृतलालभाई | 2029 वै. कृ.3 | गोंडल 556. श्री दूधीबाई की शिष्या 557. श्री दुधीबाई की शिष्या श्री मीठीबाई की शिष्या थीं। धारी गोंडल Page #840 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 778 क्रम 1. 4 2. 3. 4. 5. 6. 7. 4 8. A (ङ) श्री मणीबाई महासती तथा श्री पारवतीबाई महासती जी का शिष्या - परिवार जन्म संवत् स्थान पिता का नाम गोत्र दीक्षा संवत् तिथि दीक्षा स्थान विशेष विवरण साध्वी नाम श्री सविताबाई अमरेली मावजीभाई श्री विजयाबाई और आप दोनों बहनें हैं। श्री विजयाबाई अमरेली मावजीभाई धारी मोहनभाई वेराव हंसराजभाई मेंदड़ा मणीलालभाई धारी मोहनभाई अमरेली रतीलालभाई बाबरा दामोदरभाई राजकोट शांतिभाई श्री भानुबाई श्री शांताबाई 17. A 18. 19. 20. श्री मंजुलाबाई श्री लताबाई श्री इंदुबाई श्री अनिलाबाई 9. 4 श्री चंदनबाई 10. A श्री धर्मिष्ठाबाई 11. A श्री हंसाबाई 12. 4 श्री अरविंदाबाई 13. 4 श्री जयोतिबाई 14. श्री नीरूबाई 15. A श्री विनोदीबाई 16. श्री ज्योत्स्नाबाई श्री तेजलबाई श्री प्रज्ञाबाई श्री इन्दिराबाई श्री सरोजबाई 21. 4 श्री पुनीताबाई 22. 4 श्री जिज्ञासाबाई 23. श्री मालतीबाई जूनागढ़ अमरेली गोंडल राजकोट राजकोट गोंडल उपलेटा गोंडल बगसरा बगसरा बगसरा उपलेटा कालावाड़ राजकोट चुनीलालभाई रतीलालभाई नेमचंदभाई दलीचंदभाई शिवलालभाई तुलशीबाई गुलाबचंदभाई भगवानजीभाई केशवलालभाई दयालजीभाई ब्रजलालभाई गांडालालभाई दलीचंदभाई माणेकचंदभाई 2009 मा. शु. 11 2009 मा. शु. 11 2015 वै. शु. 3 2015 वै. शु. 3 2018 फा. शु. 5 2023 पो. शु. 15 2023 पो. शु. 15 2023 वै. शु. 2 2028 वै. शु. 6 2028 वै. शु. 13 2029 मा. कृ. 5 2029 मा. कृ. 5 2030 फा. कृ. 6 2030 फा. कृ. 6 2030 वै. शु. 3 2030 वै. शु. 3 2030 वै. शु. 3 2033 मृ. कृ. 7 2033 मृ. कृ. 7 2033 मृ. कृ. 7 2033 मृ. कृ. 7 2033 मा. शु. 7 2034 वै. शु. 7 अमरेली अमरेली जेतपुर वेरावड़ राजकोट अमरेली अमरेली सुलतानपुर राजकोट राजकोट अमरेली अमरेली राजकोट राजकोट उपलेटा उपलेटा उपलेटा राजकोट राजकोट राजकोट राजकोट राजकोट राजकोट आपकी लघु भगिनी श्री लताबाई हैं। -संकेत चिन्हपतिवियोग ० सुहागिन बालब्रह्मचारिणी ★ श्वसुरपक्ष जैन श्रमणियों का बृहद इतिहास Page #841 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (च) गोंडल संघाणी संप्रदाय की श्री मणीबाई महासती जी का शिष्या-परिवार क्रम | साध्वी नाम - श्री दिवालीबाई - श्री चंपाबाई श्री जयाबाई स्थानकवासी परम्परा की श्रमणियाँ विजयाबाई 2007 वै. शु. 11 श्री कांताबाई श्री लीलमबाई श्री उषाबाई |श्री ज्योत्स्नाबाई श्री वनिताबाई गोंडल गोंडल # टंकारा 779 श्री किरणबाई जन्म संवत् स्थान पिता का नाम गोत्र |दीक्षा संवत तिथि | दीक्षा स्थान | विशेष विवरण मोरबी देवरकणभाई 1971 चै. कृ. 2 दुवा गुरूणी-श्री कड़वीबाई म. सा. तथा जड़ावबाई अमरेली वनमालीभाई 1994 वै. शु. 13 गोंडल गुरूणी श्री कड़वीबाई आप सेवाभाविनी हैं। टंकारा कुशलचंदभाई 1996 वै. शु. 8 गोंडल प्रखर प्रवचनकी , 'जयवाणी' और 'जय जवेरात' प्रवचन पुस्तक प्रकाशित टंकारा कुशलचंदभाई 1996 वै. शु. 8 गोंडल टंकारा जेठालाल भाई टंकारा नरोत्तमभाई 2009 वै. शु. गोंडल महासुखभाई कृ. 11 गोंडल गोंडल उमेदलालभाई 2019 मृ. शु. 5 | गोंडल अमीचंदभाई 2022 मा. शु.5 । मोरबी प्रवचन की पुस्तकें (1) झीले वचन खुले नयन (2) सम्यक सोपान बनावे भगवान राजकोट शांतिभाई 2022 वै. शु. 5 | राजकोट कवियित्री व प्रखर प्रवचनकी , 'रंगाई जा ने रंग मां' प्रवचन संग्रह प्रकाशित | टंकारा कालीदास भाई 2022 वै. शु. 5 राजकोट राजकोट जयंतीलाल भाई 2024 मा. शु. 5 मोरबी मोरबी हीराचंद भाई 2024 मा. शु. 5 मोरबी मोरबी काबाभाई 2024 मा. शु. 5 मोरबी राजकोट प्रभुलाल भाई 2030 वै. शु. 8 राजकोट प्रवचन की पुस्तक (1) कल्याण नी केडी राजकोट गोरधनभाई 2030 वै. शु. 8 राजकोट वांकानेर चमनभाई 2030 वै. शु. राजकोट राजकोट शांतिलाल भाई 2031 चै. कृ. गोंडल विनोदभाई 2031 चै. कृ. 8 | गोंडल मणीलालभाई 2032 मा. शु.5 | मोरबी गोंडल हरकिशनभाई 2034 मा. कृ. 11 | गोंडल कालावाड़ बाबूलालभाई 2035 चै. शु.5 | कालावाड़ श्री चंद्रिकाबाई श्री मंजुलाबाई |श्री साधनाबाई श्री प्रभाबाई श्री उर्मिलाबाई श्री राजुलबाई श्री चंदनाबाई | श्री जयश्रीबाई | श्री हर्षाबाई श्री राजश्रीबाई श्री वर्षाबाई श्री भारतीबाई थाने 20. डेरीवडाला Page #842 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (छ) बोटाद सम्प्रदाय की समकालीन श्रमणियाँ:58 | विशेष विवरण क्रम साध्वी नाम 1. श्री सविता बाई जन्म संवत् स्थान | पिता का नाम गोत्र | दीक्षा संवत् तिथि | दीक्षा स्थान | 1948 दीगसर भोगीलालभाई जैन 2017 वै. कृ.7 | बोटाद | गुरूणी श्री चंपाबाई बोटाद 2002 अमदाबाद - केरिया - नागलपुर 1943 बोटाद 2004 बोटाद 2003 - 1999 पालियाद | 1999 - | 2002 अमदाबाद 1999 लाठी 2001 लाठी वर्तमान मे आप बोटाद संप्रदाय की अग्रगण्या हैं मधुरकंठी प्रवचनपटु मधुर व्यवहारी हिंदी कोविद, संस्कृत भूषण भूषण परीक्षा उत्तीर्ण जप-तप में लीन प्रखर व्याख्यात्री हैं। सेवाभाविनी मधुरव्याख्यानी, विदुषी बी.ए. पास, पुरूषार्थिनी बी.ए. पास, तपस्विनी 780 लाठी लाठी श्री सरोजबाई श्री मधुबाई श्री रसीलाबाई श्री अरूणाबाई श्री इंदिराबाई श्री अनीलाबाई श्री गुणवंतीबाई श्री वसुमति बाई श्री फुल्लाबाई श्री इलाबाई श्री नीलाबाई श्री रंजनबाई | श्री सुशीलाबाई | श्री रक्षाबाई श्री स्मृतिबाई श्री हंसाबाई श्री सुधाबाई श्री ज्योत्स्नाबाई श्री चंदनाबाई श्री ज्योतिबाई श्री श्रद्धाबाई श्री राजुलबाई | छबीलदास शाह 2017 वै. क.7 | बोटाद जीवराजभाई खंधार | 2019 फा. शु. 5 राणपुर हरगोविंदभाई सलोत 2022 मा. शु. 5 बोटाद लल्लुभाई वसाणी 2022 मा. शु. 5 जयतिलाल शाह 1 2022 मा. शु. 5 बोटाद प्रभुदास मिस्त्री 2023 मा. कृ. 2 गढडा चीमनभाई गोपाणी | 2023 फा. शु. 2 पालियाद अमृतलाल पारेख 2023 फा. शु. 2 पालियाद डाह्यालाल कपासी 2026 फा. शु. 7 अमदाबाद दुर्लभजी तुरखिया 2026 वै. शु. 11 दुर्लभजी तुरखिया 2026 वै. शु. 11 मणिलाल शाह 2031 मा. शु. 5 पालियाद | पोपटभाई गांधी 2031 मा. शु. 5 पालियाद रतिभाई शाह 2031 मा. शु. 5 पालियाद जयंतिभाई शाह 2031 मा. शु. 10 | बोटाद उजमशीभाई 2031 मा. शु. 10 छबीलभाई 2031 मा. शु. 10 | जगजीवनभाई 2031 मा. शु. मणिलाल भाई वोरा | 2031 मा. शु. बोटाद चंपकभाई तुरखिया | 2031 मा. कृ. 5 | दामनगर शांतिलालभाई 2031 मा. कृ. 11 | गढडा मनसुखभाई वोरा । | 2033 वै. शु. 13 | बोटाद श्री चंपाबाई श्री चंपाबाई श्री चंपाबाई श्री चंपाबाई श्री चंपाबाई श्री चंपाबाई श्री चंपाबाई श्री चंपाबाई श्री चंपाबाई श्री चंपाबाई श्री चंपाबाई श्री इलाबाई श्री चम्पाबाई श्री सविताबाई श्री अरूणाबाई श्री मधुबाई श्री सरोजबाई श्री सरोजबाई श्री अनिलाबाई श्री चम्पाबाई श्री चम्पाबाई श्री अरूणाबाई विदुषी 2007 पालियाद 2008 पालियाद 2005 - 2006 बोटाद | 2006 बोटाद बोटाद बोटाद बोटाद 2010 दामनगर 2007 गढडा - देवधरी जैन श्रमणियों का बृहद इतिहास 23.4 558. पत्राचार द्वारा प्राप्त सूचना के आधार पर Page #843 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विशेष विवरण स्थानकवासी परम्परा की श्रमणियाँ खस | गढडा सरोजभाई 781 क्रम | साध्वी नाम 24. श्री साधनाबाई श्री वंदनाबाई | श्री सुजाताबाई श्री रेणुकाबाई | श्री रोशनीबाई | श्री चांदनीबाई | श्री भारतीबाई | श्री उर्मिलाबाई श्री अवनिबाई | श्री विरतिबाई दीपिकाबाई | श्री मीनाबाई 1 श्री हर्षाबाई | श्री सुरूचिबाई | श्री जिनाज्ञाबाई | श्री जागृतिबाई | श्री उदिताबाई श्री नम्रताबाई | श्री दर्शनाबाई | श्री मैत्रीबाई श्री रिद्धिबाई श्री निधिबाई |श्री रूपांशीबाई श्री जिगीषाबाई श्री भव्यांशीबाई श्री वीणाबाई 50. श्री मौलिबाई जन्म संवत् स्थान | पिता का नाम गोत्र | दीक्षा संवत् तिथि | दीक्षा स्थान | गुरूणी डाह्याभाई - 2033 वै. शु. 13 | बोटाद श्री इलाबाई 2012 - माणेकलाल भावसार 2033 वै. शु. 13 | बोटाद श्री अनिलाबाई - बोटाद प्रेमचंदभाई शाह 2034 मा. शु.5 | अमदाबाद श्री सरोजबाई 2011 अमरेठ | नगीनभाई 2034 मा. शु. अमदाबाद श्री मधुबाई चंदुभाई गोपाणी 2038 मा. शु. पालियाद गुणीबाई - पालियाद गुलाब भाई पारेख 2038 मा. शु. पालियाद श्री अरूणाबाई - खस दलसुखभाई 2038 मा. शु. 10 श्री सुशीलाबाई 2016 राणपुर चीमनभाई 2038 फा. शु. 4 राणपुर श्री सविताबाई 2016 गढडा मणिभाई कामदार 2039 वै. शु. 13 श्री श्रद्धाबाई 2012 परिभडियाद | हिमतभाई हकाणी 2040 मई 27 जोरावरनगर | श्री फुल्लाबाई 2014 राणपुर नगीनभाई 2042 मई 1 अमदाबाद | श्री मधुबाई 2015 धंधुका शिवलाल भाई शेठ | 2043 वै. शु. 10 धंधुका 2012 बोटाद कांतिभाई प्रफुटवाला 12045 मा. कृ.5 बोटाद श्री इंदिराबाई 2012 बोटाद अमुलखभाई गोपाणी 2047 मा. कृ.5 बोटाद श्री अरूणाबाई चंपकभाई शाह । 2047 मा. कृ. बोटाद श्री रेणुकाबाई | - बोटाद प्रवीणचन्द्र - 2047 मा. कृ. बोटाद श्री सुजाताबाई | 2022 आणंदपुर | भोगीलाल संघवी |2047 मा. कृ. बोटाद श्री फुल्लाबाई अमुलखभाई - 2047 मा. कृ. बोटाद श्री चंदनाबाई 2026 - प्रवीणचन्द्रभाई शाह बोटाद श्री इलाबाई 2028 - प्रवीणचन्द्रभाई शाह 2047 मा. कृ. 5 श्री इलाबाई 2022 उमराला जयतिभाई 2048 फा. शु. 3 श्री शीलाबाई 2026 - रमणीकभाई 2048 फा. शु. 3 श्री सविताबाई 2022 - वाडीलालभाई दोशी | 2051 वै. शु. 6 श्री गुणवंतीबाई 2030 राणपुर महेन्द्रभाई गोपाणी | 2052 मा. शु. 11 श्री फुल्लाबाई 2027 - अरविंदभाई गोपाणी | 2055 मा. शु. 11 श्री राजुलाबाई शांतिभाई कपासी 12055 फा. शु. 2 दामनगर श्री नीलाबाई भोगीभाई संघवी | 2060 फा. कृ.5 श्रीसविताबाई 12047 मा. कृ.5 बी. ए. पास बी. ए. पास | राणपुर | बी. कॉम | बी.ए. बी. एड. एम.ए. Page #844 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (ज) मालव परम्परा की परिचय प्राप्त अवशिष्ट श्रमणियाँ क्रम साध्वी नाम जन्म संवत् स्थान पिता का नाम गोत्र | दीक्षा संवत् तिथि| दीक्षा स्थान | गुरूणी विशेष विवरण श्री चांदकंवरजी 1980 शेंदूर्णी | केशरीमलजी वेदमूथा | 1994 म. शु. 101 पलासखेड़ा . 2. श्री शांतिकुंवरजी नंदूरबार देवली श्री कुसुमकंवरजी श्री सुमनप्रभाजी श्री कमलप्रभाजी कन्हैयालालजी 2018 नवं. 28 | मनमाड़ सीसोदिया 2019 मृ. शु. | बाड़ीवाड़ा गुलाबचंदजी छल्लाणी| 2028 फर. 26 | धूलिया छगनमलजी ललवाणी | 2031 चै. शु. 2 | कागणा |कुरहाड़ बोरबिहीर श्री प्रवीणाजी कोपरगांव रामचंद्रजी बाफना | 2034 वै. शु. 3 | बोदवड़ 782 कई भाषाआगमों की ज्ञाता, सं. 2047 बिलाड़ा में स्वर्गस्थ श्री चांदकंवरजी वर्तमान में स्वगच्छीय श्रमणी-प्रमुखा श्री चांदकंवरजी | स्वाध्यायी | विदुषी, प्रभावक प्रवचनकी श्री चांदकंवरजी | जैन सिद्धांत शास्त्री, कोविद, तपस्विनी श्री चांदकंवरजी | विदुषी, विनम्र, मिलनसार, शासन प्रभाविका श्री चांदकंवरजी | अध्ययनशीला श्री चांदकंवरजी सेवाभाविनी श्री चांदकंवरजी | जैन सिद्धांत शास्त्री, मानस की लहरें, मन का मक्खन ये दो मुक्त रचना, सृजनप्रिया साध्वी। श्री चांदकंवरजी श्री चांदकंवरजी | सुदीर्घ तपस्विनी श्री चांदकंवरजी | अध्ययनशीला श्री चांदकंवरजी | वर्धा श्री सुवर्णप्रभाजी श्री ज्योतिप्रभाजी श्री संयमप्रभाजी लासलगांव चालीसगांव | धूलिया तेचंद खिंवेसरा कंवरलालजी कोचर शुभकरणजी चोपड़ा 2036 शु.5 2037 मई 10 | चालीसगांव 2041 मई 6 रतलाम हिंगणघाट रतलाम रतलाम सागरमल जी चुत्तर | श्री चारित्रप्रभाजी | श्री चंद्रयशाजी श्री देशनाजी श्री देवेन्द्रप्रभाजी 2041 मई 6 2043 मार्च 20 2045 फर. 10 रतलाम अमलनेर रतलाम रतलाम रतलाम जैन श्रमणियों का बृहद इतिहास 559. चांदस्मृति ग्रंथ, प्रकाशक-श्रीधर्मदास जैन मित्र मंडल, रतलाम, 1991 ई. (प्र. सं.) Page #845 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 783 क्रम 1. श्री पेम्पाजी 2. 3. 5. 6. 4. श्री कंचनकंवरजी साध्वी नाम ∞ 9. 10. 11. 12. श्री जड़ावांजी श्री केरकंवरजी 7. 8. ० श्री सज्जनकुंवरजी 13. 14. 15. श्री रूपकंवरजी श्री रतनकुंवरजी श्री लाभवतीजी श्री दमयन्तीजी श्री हेमप्रभाजी श्री राजमतीजी श्री विजयप्रभाजी श्री विजयलताजी श्री विनयलताजी श्री विद्याश्रीजी 560 (झ) मेवाड़ - परम्परा का अवशिष्ट श्रमणी - समुदाय so जन्म संवत् स्थान पिता का नाम गोत्र दीक्षा संवत् तिथि दीक्षा स्थान श्री ताराचंदजी बड़ी सादड़ी थामला 1940 रेलमगरा - देवरिया चिकारड़ा टाटगढ़ - खाखरमाला - सलोदा - गांव गुड़ा देवगढ़ - सेमा 2023 उदयपुर - गांव गुडा 2039 इसवाल धूकलचंदजी मेहता कोठारी गणेशलालजी दक पूनमचंदजी बदामा अमरचंदजी पामेचा वछराजजी पीतल्या मोतीलालजी कोठारी भेरूलालजी दक डालचंदजी लोढ़ा 1983 - 1957 मा. शु. 5 1996 मा. शु. 1 2015 मृ.शु. 10 2016 मृ.शु. 14 2028 का. शु. 15 2037 मृ.शु. 1 2045 वै. शु. 5 2045 वै. शु. 5 2060 कोशीथल कपासन राजकरेड़ा वाटी सेमा लीचड़ा लीचड़ा कोशीथल गुरूणी श्री मोड़ाजी श्री मोड़ाजी श्री वरदूजी श्री केरकुंवरजी श्री केरकुंवरजी श्री केरकुंवरजी श्री केरकुंवरजी विशेष विवरण सात्त्विक प्रकृति, अभिग्रहधारी, सं. 2026 पलाना में स्वर्गस्थ श्री केरकुंवरजी भद्र परिणामी, चांदजी, सौभाग्यजी शिष्याएं व्याख्यात्री, शास्त्रज्ञा श्री प्रेमवतीजी श्री प्रेमवतीजी श्री प्रेमवतीजी श्री प्रेमवतीजी एक शिष्या थी - वरदूजी मिष्टभाषी, उदार, सं. 2011 संथारा सह दिवंगत तपस्विनी करूणामयी, जागरूक, सं. 2024 रायपुर में स्वर्गस्थ सेवाभाविनी तपस्विनी, विनम्र, मिष्टभाषिणी सेवाभाविनी, कोमल स्वभावी सेवाभाविनी, सरल, सरस व्याख्यानी श्री प्रेमवतीजी श्री प्रेमवतीजी श्री विजयप्रभाजी मधुर व्याख्यानी एम. ए. मधुर व्याख्यानी, विदुषी सेवाभाविनी 560. संयम गरिमा ग्रंथ, षष्ठ खण्ड- मेवाड़ की गौरवमयी परम्परा एवं महासाध्वी का शिष्या परिवार : लेखिका - श्रीमती रविन्द्रा सिंघवी ; गोटूलाल मांडोत, पृ. 535-52 स्थानकवासी परम्परा की श्रमणियाँ Page #846 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (www.jainelibrary.om 784 क्रम 1. 2. 3. 5. 6. 7. श्री हरजी ऋषिजी की परम्परा (क) कोटा संप्रदाय की प्रवर्तिनी श्री मानकुंवरजी महाराज का शिष्या - परिवार 561 गुरूणी साध्वी नाम 4. 0 श्री विरधिकुंवरजी 8. 9. श्री धूलांजी श्री जड़ावकुंवरजी सवाईमाधोपुर श्री धनकुंवरजी श्री पुष्पाकुंवरजी श्री चांदकुंवरजी श्री कांतिकुंवरजी जन्म संवत् स्थान पिता का नाम गोत्र दीक्षा संवत् तिथि 1973 1955 फा.शु.11 राजा के खजांची बारा (कोटा) 1958 टौंक देईगांव बूंदी रियासत घोटी (महा.) गीरनारा गांव 1978 हरड़ाईगांव निफाड़ श्री मायाचंदजी (जयपुर) 1977 जैलालजी पोरवाल नाथुलालजी बंब श्री हजारीमलजी पोद्दार कांकरिया तेजराजजी बोथरा धोंडीरामजी चोरड़िया 1980 ज्ये. शु. 5 1980 मृ. कृ. 5 दीक्षा स्थान कोटा कोटा सवाईमाधोपुर कोटा कोपरगांव श्री हीराकुवंरजी श्री सदाकुंवरजी 561. साभार - प्रवर्तिनी श्री प्रभाकुंवरजी म. द्वारा प्राप्त सामग्री के आधार पर, कुर्डवाड़ी (महा.) विशेष विवरण स्वर्ग. सवाईमाधोपुर, आप तपस्विनी थीं। श्री मानकुंवरजी स्वर्ग. 2023 भा. शु. 8 ढाणकी जिला यवतमाल में, आप व्याख्यान वाचस्पति के रूप में। प्रसिद्ध थीं। श्री मानकुंवरजी स्वर्ग. 10 जून 1996 जालना, आप मौनसाधिका एवं सेवाभाविनी थीं, श्री जड़ावकुंवरजी म. की संसार मे नंनद थीं। श्री मानकुंवरजी स्वर्ग. सं. 2049, 22 दिन के संधारे सह पिंपलगांव बसवंत, आप 100 वर्ष की हुईं। निर्मल संयमी, जाट व मीणा लोगों को व्यसन मुक्त बनाये | श्री मानकुंवरजी स्वर्ग. सं. 2056 नांदेड़। आप सेवाभाविनी थीं। वाघली (खानदेश) श्री वृद्धिकुंवरजी आपका स्वर्गवास घोटी में हुआ। अमलनेर (महा.) में आप स्वर्गवासिनी हुईं। किनगांवराजा में स्वर्गवास जैन श्रमणियों का बृहद इतिहास Page #847 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 785 क्रम साध्वी नाम 10. O श्री एलमकुंवरजी श्री धीरजकुंवरजी श्री रोशनकुंवरजी 13. O श्री चंपाकुंवर जी 11. 12. श्री प्रमोदसुधाजी 15. O श्री जगतकुंवरजी 14. 16. O श्री श्रेयकुंवरजी 17. O श्री प्रेमकुंवरजी 18. श्री प्रकाशकुंवरजी 19. O श्री विनोदकुंवरजी जन्म संवत् स्थान पिता का नाम गोत्र हैद्राबाद (आ.प्र.) श्री नरसिंहजी रेड्डी डोंगरसेवली (जालना) 1988 पांलरकवड़ा 1969 मनमाड़ नांदुरा 1969 बार्शी 1958 धुलिया दुर्ग 2002 शेलुबाजार मुलतानमलजी भटेवरा 2000 आषा. शु. 2 चांदमलजी बोगावत (पालक) खुशालचंद बरड़िया दीक्षा संवत् तिथि 1999 का. शु. 5 2003 मा. शु. 5 -2011 वै.शु. 13 नथमलजी कावड़िया 2012 मृ. शु. 5 किशनदासजी सोलंकी 2015 चै. शु. 11 अभयराजजी कुचेरिया 2018 चै. शु. 13 गेलेड़ा दीक्षा स्थान 2027 माघ शु.5 बुलढाणा पूना दूर्ग, छत्तीसगढ़ नांदेड़ ढाणकी ग्राम खुशलचंदजी सांकला 2018 फा. शु. 8 श्री पन्नालालजी बोरा 2021 विजयादशमी परतूर (महा.) हिंगोली गुरूणी श्री जड़ावकुंवरजी विशेष विवरण प्रवर्तिनी श्री मानकुंवरजी से दीक्षा पाठ पढ़ा। आपका स्वर्गवास सं. 2038 पो. शु. 3 को निजामाबाद में हुआ। श्री मानकुंवरजी स्वर्ग. 2053 ज्ये. कृ. 2 को जालना में हुआ । श्री वृद्धिकुंवरजी आप संगठन प्रेमी थीं, इंदौर में स्वर्गवासिनी हुईं। श्री जड़ावकुंवरजी आपकी दीक्षा कर्नाटक केशरी श्री गणेशीलाल जी म. के श्रीमुख से हुई। सं. 2060 का कृ. 8 | नासिक देवलाली में 19 दिन के संथारे के साथ स्वर्गवासिनी हुई। श्री मानकुंवरजी आप जैन सिद्धान्ताचार्य, शास्त्रज्ञा विदुषी साध्वी हैं। श्री जड़ावकुंवरजी कर्नाटक केसरी श्री गणेशीलाल जी म. आपके दीक्षा गुरू थे आपका स्वर्गवास बार्शी में हुआ। श्री वृद्धिकुवरजी स्वर्गवास सुकणे, प्रव्रज्यादाताकर्णाटक केशरी गणेशीलाल जी म. श्री जड़ावकुंवरजी आप छाजेड़ परिवार में ब्याही गई थी। श्री प्रभाकुंवरजी जैन सिद्धांताचार्य, सिरसाला, बालम टाकली में गोशाला आदि कई प्राणदिया के कार्य आपकी प्रेरणा से चल रहे हैं। श्री मानकुंवरजी स्वर्गवास हो गया है। स्थानकवासी परम्परा की श्रमणियाँ Page #848 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 786 क्रम 20. 21. 4 22. साध्वी नाम श्री ज्योतिसुधाजी श्री प्रतिभाकुंवरजी श्री उज्जवलकुंवरजी 23. 4 श्री शांतिसुधाजी 24. श्री सुशीलाकुंवरजी 25. श्री किरणसुधाजी 26. श्री सुमनकुंवरजी 27. श्री कीर्तिसुधाजी 28. श्री कुसुमकुवंरजी 29. 4 श्री फुल्लाकुंवरजी 30. O श्री बसंतमालाजी 31. श्री दर्शनप्रभाजी 32. O श्री कांतिसुधाजी 33. O श्री प्रशांतकुंवरजी जन्म संवत् स्थान पिंपलगांव राजा 2012 संतोष पिपरी लोणार 2013 विडुल 2012 वांदली श्रीरामपुर 2020 नांदेड़ मद्रास नांदेड़ *परतूर 2007 घनसावंगी पिता का नाम गोत्र श्री नेमीचंदजी मीठुलालजी बाफना पुखराज जी वेदमूथा 2030 मृ. शु. 5 श्री पारसमलजी झाबड़ 2031 वै. शु 4 कचरूलालजी बोथरा 2032 चै. शु. 5 सूरजमलजी खेतमलजी बोथरा पोपटलाल कंकुलोल मीठुलालजी बना श्री गणेशलालजी बाफना दीक्षा संवत् तिथि 2028 ज्ये. शु. 5 2030 मृ. शु. 4 * कन्हैयालालजी भंसाली उगमराजजी सुराणा 2031 ज्ये. कृ. 2 2036 2032 मृ. कृ. 6 2035 वै. शु. 3 2036 2037 मृगशिर दीक्षा स्थान पिंपलगांव राजा नांदेड़ जालना किड़ मनमाड़ संगरनेर ओझर (नासिक) कंटगी बुलढाणा सिकंदराबाद गुरूणी विशेष विवरण श्री पुष्पाकुंवरजी अल्पवय में दीक्षित हुई। श्री प्रभाकुंवरजी जैन सिद्धांताचार्य, साहित्यरत्न हैं। बांदली (आकोला) श्रीप्रभाकुंवरजी पिंपलगांव बसवंत श्री विरधिकुंवरजी दीक्षादाता - आ. आनंदऋषिजी, स्व. सं. 2036 को संथारे के साथ पिंपलगांव बसवंत में हुआ। श्री हीराकुंवरजी दीक्षादाता - श्री हीराकुंवरजी 2037 आसा. शु. 9 यवतमाल श्री हीराकुंवरजी (दीक्षा प्रदाता ) एलमकुंवरजी म. एलमकुंवरजी म. जैन सि. आचार्य, राष्ट्रभाषा रत्न व प्रवचन प्रभाविका हैं। आपके दीक्षा प्रदाता आ. आनंदऋषि जी म. थे । जैन सि. आचार्य, राष्ट्रभाषा रत्न हैं। श्री प्रभाकुंवरजी दीक्षादाता - श्री रतनमुनिजी, जैन सि. आचार्य, साहित्य सुधाकर हैं। श्री विरधिकुंवरजी दीक्षादाता - श्री मानकुंवरजी, जैन सि. शास्त्री हैं। श्री एलमकुंवरजी दीक्षादाता - श्री आनंदऋषिजी, 13 दिन के संथारे के साथ सं. 2041 अक्षयतृतीया के दिन औरंगाबाद में दिवंगत हुई। आप शांत स्वभावी स्वाध्याय प्रेमी थीं। दीक्षादाता - श्रीप्रभाकुंवरजी जैन श्रमणियों का बृहद इतिहास Page #849 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्रम | साध्वी नाम | 34.| श्री ज्ञानप्रभाजी जन्म संवत् स्थान | पिता का नाम गोत्र | दीक्षा संवत् तिथि| दीक्षा स्थान | गुरूणी कोहाला रूपचंदजी वेदमूथा खामगांव 35. | श्री साधनासुधाजी |किनगांव उदैराजजी चंडालिया किनगांव जट्ट विशेष विवरण दीक्षादाता-श्री जीवराजजी म.. श्री प्रमोदसुधाजी की भानजी हैं। दीक्षादाता-श्री मानकुंवरजी, जलगांव में स्वर्गवास। दीक्षादाता-श्री प्रभाकुंवरजी, सं. 2045 यादगिरि में स्वर्गस्थ | दीक्षादाता-श्री प्रभाकुंवरजी, जैन सि. आचार्य व साहित्य सुधाकर हैं|| स्थानकवासी परम्परा की श्रमणियाँ 36. श्री रिद्धीसुधाजी | 2013 तोंडपुर चंपालालजी ललवाणी| 2038 का. शु. 12 | वणी । चपाए 37. श्री सिद्धीसुधाजी 2020 रालेगांव | भंवरीलालजी बोरा | 2038 मा. शु. 14 | रालेगांव 38.0| श्री विजयकुंवरजी 39.0 | श्री जयकुंवरजी परली वगैजनाथ लोणार | गंभीरमलजी | 2041 चांदमलजी रेदासणी | 2042 का. शु. जालना । आणि 40. श्री विशालप्रभाजी | 2024आर्णि शांतिलाल बागमार 2044 मा. शु. 10 | आर्णि 787 41.0/ श्री कमलप्रभाजी | लोणार बालचंदजी रेदासणी | 2045 का. श. 6 |नेरपरसोपत श्री प्रभाकुंवरजी द्वारा दीक्षित स्वर्गवास वर्धा श्री प्रभाकुंवरजी | दीक्षादाता-श्री जीवराजजी म., साहित्य-प्रभा की विशाल किरणें भाग 1 से 12 | श्री प्रभाकुंवरजी | दीक्षादाता-श्री प्रभाकुंवरजी, नासिक में स्वर्गस्थ, आप किरण सुधाजी की माता थीं। श्री धीरजकुंवरजी | दीक्षादाता- श्री मिश्रीलालजी म. श्री पुष्पाकुंवरजी | दीक्षादाता-श्री मिश्रीलालजी म. | श्री पुष्पाकुंवरजी| दीक्षादाता-श्री पुष्पाकुंवरजी, श्रीपुष्पाकुंवरजी | दीक्षादाता-श्री पुष्पाकुंवरजी, दीक्षादाता-श्री मिश्रीलालजी म. दीक्षादाता-श्री मिश्रीलालजी म., अध्ययनशीला, स्वाध्याय प्रेमी - 2047 वै. शु. 6 | 2047 वै. शु. 6 | जालना जालना 2022 उमराणा बंशीलालजीधोका oश्री प्रगुणाजी श्री हंसाजी श्री नमिताजी 45. 0 श्री पुनीताजी 46.0 श्री अरूणप्रभाजी श्री जयश्रीजी 2015 जालना सेवली | औरंगाबाद | औरंगाबाद भागचंदजी पारख | 2028 औरंगाबाद | मनसुखजी बाठिया 2050 मा. शु. 1 | 2050 मा. शु. 1 देवड़ा - श्री दक्षिताजी 49.0/ श्री विनयकुंवरजी 50. श्री उदिताजी | बडनेरा आलेगांव | 2030 नेरपरसोंपत | -सिंघी 2050 मा. शु. 1 | औरंगाबाद 2052 माघ पूर्णिमा | लोणार 2052 माघ पूर्णिमा | लोणार दीक्षादाता-श्री सहजमुनिजी श्री प्रभाकुंवरजी | दीक्षादाता-श्री सहजमुनि जी Page #850 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्रम | गुरूणी विशेष विवरण 51. 52. | साध्वी नाम श्री प्रज्ञाजी श्री पुण्यस्मिताजी श्री अनुप्रेक्षाजी श्री प्राचीजी श्री प्रसन्नाजी जन्म संवत् स्थान | पिता का नाम गोत्र दीक्षा संवत् तिथि| दीक्षा स्थान 2032 -डाकलिया | 2053 वै. शु.7 | औरंगाबाद 2030 चंद्रपुर नेमिचंदजी बाना | 2053 मा. शु. 13 | लातुर 2030 जामनेर | -कोठारी 2054 म. कृ. 6 | बीड़ 2039 औरंगाबाद 2054 म. कृ. 6 | बीड़ 2035 अकोला | श्री मोहनलालजी | 2055 मा. शु. 1 जालना श्रीमाल पूर्णाजंक्शन सुराणा 2058 दिसं. 7 कलम 2036 लोणार | तिलोकचंद रूणावाल | 2058 27. श. 2 | लोणार 2046 बडनेरा 2058 वै. शु. 3 घोड़नदी अंबाजोगाइ बडेर 2059 वै. शु. 3 | जालना दीक्षादाता-श्री प्रभाकुंवरजी दीक्षादाता-श्री प्रभाकुंवरजी दीक्षादाता-श्री प्रभाकुंवरजी श्री प्रभाकुंवरजी | दीक्षादाता-उपा. श्री मूलमुनिजी| 54. 55. 56. श्री उन्नतिजी श्री दिव्यप्रभाजी श्री चैतन्यश्रीजी श्री आभाश्रीजी श्री श्रुतिप्रज्ञाजी श्री प्रेरणाजी श्री प्राप्तीजी श्री सजगकुंवरजी दीक्षादाता-श्री उज्जवलकुंवरजी दीक्षादाता-श्री प्रभाकुंवरजी श्री प्रभाकुंवरजी| दीक्षादाता-श्री प्रकाशकुंवरजी श्री प्रभाकुंवरजी| श्री प्रभाकुंवरजी/ दीक्षादाता-श्री सुरेशमुनि जी दीक्षादाता-श्री प्रशांतकुंवरजी दीक्षादाता-श्री प्रभाकुंवरजी दीक्षादाता-श्री प्रभाकुंवरजी . 788 बीड 2061 अक्षयतृतीया | 2061 अक्षयतृतीया औरंगाबाद | औरंगाबाद | . रतनलालजी संचेती जैन श्रमणियों का बृहद इतिहास Page #851 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (ख) साधुमार्गी संघ की अवशिष्ट श्रमणियाँ (सं. 1964-2058)562 क्रम साध्वी नाम |श्री तेजकंवरजी श्री सुगनकंवरजी जन्म संवत् स्थान | पिता का नाम गोत्र | दीक्षा संवत् तिथि दीक्षा स्थान -जावरा बालचंदजी छाजेड़ | - ब्यावर गुलाबचंदजी मकाणा | 1964 म. कृ. 6 स्थानकवासी परम्परा की श्रमणियाँ श्री जीवनाजी श्री गट्टकंवरजी -बीकानेर -अरनोद हमीरमलजी पारख भागीरथजी डांगी ० | 1976 म. शु. 13 1981 मा. शु.5 रतलाम | | चुरू 789 ०००००००००० संपतकंवरजी श्री सूरजकंवरजी श्री मोहनकंवरजी श्री छोटांकंवरजी | श्री सुगनकंवरजी श्री सिरेकवरजी श्री मानकंवरजी श्री छगनकंवरजी श्री वल्लभकंवरजी श्री टीपूकंवरजी श्री रसालकंवरजी श्री पानकंवरजी श्री मनोहरकंवरजी रतलाम 1958 दासोड़ी 1969 देशनोक -भिणाय -झड़ाऊ -सोजत -अलाय -नागेलाव -जावरा | -डूंगला - भिणाय 1980 उदयपुर 1982 उदयपुर रिखबचंदजी शिशोदिया | 1982 चै. शु. आज्ञारामजी संचेती | 1984 म. कृ. 7 मोहनलालजी गोलेछा | 1984 मृ.कृ.7 मूलचंदजी लोढ़ा 1984 सिद्धकरणजी तातेड़ | 1984 फा. कृ.9 पूनमचंदजी श्रीश्रीमाल | 1984 मघराजजी बैद राजमलजी खिंवेसरा रूपचंदजी खिमेसरा | 1987 पौ. शु. 2 धनराजजी बंब 1988 मा. शु. 5 मूलचंदजी लोढ़ा 1989 चै, कृ. 3 गेंगराजजी हींगड़ | 1991 चै. शु. 13 गेंगराजजी हींगड़ 1991 चै. शु. 13 | विशेष विवरण सं. 2032 जावरा में स्वर्गवास मरूधरा सिंहनी थीं, सं. 2034 श्रा. शु. 15 ब्यावर में स्वर्गस्थ सं. 2034 बीकानेर में स्वर्ग। वीरवाल संघ के संस्थापक मुनि समीरमलजी की माताजी सं. 2032 कानोड़ में स्वर्ग.। विदुषी, उत्कृष्ट सेवाभावी अनुशासनप्रिय, मधुर व्याख्यात्री, भीनासर में 2040 स्वर्ग मृदुभाषी, भद्रिक, सं. 2041 भीनासर में स्वर्ग. सं. 2034 ब्यावर में स्वर्गस्थ सं. 2032 बीकानेर में स्वर्गस्थ बीकानेर में स्थिरवास भीनासर में स्वर्गस्थ उदयपुर में सं. 2029 में स्वर्गवास सेवाभाविनी, शासनप्रभाविका, मंदसौर में स्थिरवास मधुरव्याख्यानी, तेजस्वी, : 2038 ब्यावर में स्वर्ग. ब्यावर में स्वर्गस्थ विदुषी शासन प्रभाविका शास्त्रज्ञा, ओजस्वी वक्त्री, महान शासन प्रभविका सं. 2039 सुवासरामंडी (म. प्र.) में स्वर्गस्था सुदूर विहारिणी, शासनप्रभाविका, मधुरभाषिणी ब्यावर में स्थिरवास। बोल स्तोक की ज्ञाता, कथाओं की भंडार. मर्मस्पशी, मारवाड़ी व्याख्यान, सं. 2041 भीनासर में स्वर्गस्था। नोखामंडी में स्थिरवासा पति चौथमलजी कोठारी के साथ दीक्षा, सरलमना, स्वाध्याय प्रिय, शासन समर्पित महातपस्विनी साध्वी थीं, बीकानेर में स्वर्गवासिनी हुईं। निसलपुर बड़ीसादड़ी किसनगढ़ भीण्डर भीण्डर A 18.0श्री गुलाबकंवरजी -खाचरोद प्यारचंदजी मेहता | 1992 वै. कृ. 6 खाचरोद |श्री प्यारकंवरजी | 1967 अलाय | किशनलाल सखलेचा | 1995 वै. शु. 3 | गोगालाव 20.0/ श्री केशरकंवरजी 21.0/ श्री राजकंवरजी - सुरपुरा |-बीकानेर शिवदासजी डागा |1995 ज्ये. शु. 4 | बीकानेर मुन्नीलालजी दस्साणी | 1996 आसा. शु. 3 | बीकानेर 562. मुनि श्री धर्मेश, साधुमार्गी की पावन सरिता,पृ. 343-95 Page #852 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 790 क्रम साध्वी नाम 22. श्री गुलाबकंवरजी 23. O 24. O 25. O श्री पेपकंवरजी 26. O श्री नानूकंवरजी 27. O श्री पानकंवरजी 28. O श्री लाडकंवरजी 29. O श्री धापूकंवरजी 30. श्री कंचनकंवरजी 31. श्री बदामकंवरजी 32. O श्री सूरजकंवरजी 33. O श्री भंवरकंवरजी श्री कूलकंवरजी 34. श्री धापूकंवरजी श्री कंकूजी O 35. संपतकंवरजी 36. O श्री सायरकंवरजी 37. श्री नगीनाजी 38. O श्री आणंदकवरजी 39. 0 श्री गुलाबकंवरजी 40. O श्री कस्तूरकंवरजी 41. O श्री सायकंवरजी 42. O श्री चांदकवरजी 43. O श्री इन्द्रकंवरजी जन्म संवत् स्थान पिता का नाम गोत्र रिखबचंदजी मेहता जावरा - भीनासर देवगढ़ 1976 बीकानेर 1984 देशनोक भीनासर - बीकानेर -दांता अलीगढ़ *ब्यावर 1978 रिंगनोद 1988 बीकानेर कुस्तला - वासनी 1995 देशनोक 1982 उदयपुर 1965 कुकड़ेश्वर रंगलालजी पटवा रंगलालजी पोखरना 1981 ब्यावर 1981 बीकानेर - बीकानेर सोहनलालजी कोठारी किशनलालजी बोथरा 1980 जावरा मिश्रीलालजी बोहरा 1983 केशरी सिंह शेषमलजी गांधी दीक्षा संवत् तिथि दीक्षा स्थान 1997 पोष शु. 2 दौलतराम गुलगुलिया लक्ष्मीचंदजी दुगड़ पन्नालालजी धर्मावत हजारीमलजी बोहरा मिश्रीलालजी गुलेछा डूंगरमलजी डागा हनुमानमल बच्छावत 1998 भा. कृ. 11 1998 मू. शु. 6 लाभचंदजी रामपुरिया 1999 माघ शु. 5 लाभचंदजी बडेर चै. 2000 कृ. 10 मोडीलालजी पोखरना 2001 . शु 13 मोतीलालजी पोखाल 2001 वै.शु. 2 *मिश्रीमलजी डोसी राजमलजी पगारिया मंगलचंदजी सोनावत बजरंगलालजी पोखाल 1999 ज्ये. कृ. 7 1999 आसा. शु. 3 2001 मृ 12 2002 मा. शु. 13 2003 वै. कृ. 10 2003 चे. शु. 9 2003 आसा. कृ. 10 2004 चे शु. 2 2004 म. शु. 5 2005 चै. शु 13 2006 मा. शु. 1 2007 पो. कृ. 9 2007 ज्ये, शु, 5 2008. कृ. 8 2009 चै. कृ. 5 1 भीनासर देवगढ़ बीकानेर देशनोक देशनोक बीकानेर भीलवाड़ा बिरमावल बीकानेर सवाईमाधेपुर ब्यावर राणावास राणावास देशनोक उदयपुर खाचरोद ब्यावर बीकानेर विशेष विवरण अत्यधिक स्वाध्याय प्रेमी खड़ी रहकर लंबे समय तक स्वाध्याय करती हैं। मंदसौर में स्थिरवास। आपके पति खींचन संप्रदाय में दीक्षित हुए। स्पष्टभाषिणी तपस्विनी हैं, पुत्र ममत्व का त्याग कर दीक्षा ली, ब्यावर में स्थिरवास कर्मठ सेवाभाविनी प्रमुख सलाहकार, शासन प्रभाविका महान शासन प्रभाविका थीं। शास्त्रज्ञा, भीनासर से. 2032 में स्वर्ग सं. 2046 ब्यावर में स्वर्गस्थ आ. श्री नानेशजी की सहोदरा हैं। ऋजुमना बीकानेर में स्थिरवास। विदुषी व्याख्यात्री शासन प्रभाविका हैं, पति भी दीक्षित है। सेवाभाविनी स्तोक की ज्ञाता थीं। सरलमना साध्वी रत्ना हैं। विदुषी मिलनसार व्याख्यात्री साध्वी रत्ना हैं। मधुरकंठी, रोचकशैली में व्याख्यान कर धर्म की महती प्रभावना कर रही है। शांत स्वभावी, विदुषी व्याख्यानकत्री सरल स्वभावी मिलनसार व्याख्यात्री शासन प्रभाविका जी का गुड़ा स. 2042 ब्यावर में स्वर्गस्थ सं. 2040 बीकानेर में स्वर्गस्थ सरलस्वभाविनी, सेवाभाविनी, शासनप्रभाविका सरल स्वभाविनी साधनाप्रिय अच्छी विदुषी शासनप्रभाविका साध्वी रत्ना शान्तप्रिय तत्वज्ञा महासाध्वी हिंदी संस्कृत प्राकृत की ज्ञाता, शास्त्रों की तलस्पर्शी अध्येता, व्याख्यात्री जैन श्रमणियों का बृहद इतिहास Page #853 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 791 क्रम 44. O 45. O साध्वी नाम श्री पानकंवरजी श्री सूरजकंवरजी 46. श्री उगमकंवरजी 47. O श्री बदामकंवरजी 48. O श्री सुमतिकंवरजी 49. श्री इचरजकंवरजी 50. O श्री वल्लभकंवरजी 51. O श्री चन्द्रकंवरजी 52. O श्री सरदारकंवरजी 53. O श्री शांताकंवरजी 54. O श्री रोशनकंवरजी 55. O श्री रोशनकंवरजी 56. O श्री धीरजकंवरजी 57. 4 श्री अनोखाजी 58. O श्री नंदकंवरजी 59. O श्री गुलाबकंवरजी 60. O श्री कमलाजी 61. O श्री झमकूजी 62. 4 श्री सूर्यकान्ताजी जन्म संवत् स्थान बीकानेर बगड़ी (म.प्र.) 1981 मेड़तासिटी 1992 प्रत् 1994 बीकानेर देशनोक 1972 रामपुरा 1986 अजमेर 1997 उदयपुर 1993 बड़ी सादड़ी 1988 उदयपुर 1993 भदेसर 1997 उदयपुर 2003 बड़ीसादड़ी 1960 रतलाम 2003 कानोड़ 1971 उदयपुर 2000 उदयपुर पिता का नाम गोत्र राजमलजी बोथरा नथमलजी धाड़ीवाल रंगलालजी डोसी सूरजमलजी कोठारी गुणचंदजी सेठिया फसराजजी बाठिया बुधमलजी छल्लाणी रतनलालजी छाकड़ कस्तूरचंदजी सेठिया ख्यालीलालजी बाफना गोटीलालजी कोठारी मनोहरसिंहजी हिरण कजोड़ीमलजी हिंगड़ दीक्षा संवत् तिथि 2009 ज्ये. कृ. 6 2009 आसो. शु. 4 भैरूलालजी नंदावत चंदनमलजी धर्मावत चंदनमलजी धर्मावत 2010 - 2010 ज्ये. कृ. 3 2011 वै. शु. 5 2013 आसो. शु. 10 2013 मृ शु 11 2014 फा. शु. 3 2015 2015 वै. शु. 6 2016 ज्ये, शु. 11 2018 वै.शु. 8 2017 आ. शु. 15 2016 भा. कृ. 8 बख्तावरमल तलेसरा भूरालालजी निमावत मोतीलाल चंडालिया 2017 2016 का. कृ. 8 2016 . कृ. 10 2016 का. शु. 13 2019 वै. शु. 7 2019 वे शु. 7 दीक्षा स्थान बीकानेर उदयपुर बीकानेर भीनासर गोगालाव भीनासर कुकड़ेश्वर उदयपुर उदयपुर बड़ीसादड़ी कानोड़ उदयपुर उदयपुर छोटी सादड़ी उदयपुर प्रतापगढ़ उदयपुर उदयपुर विशेष विवरण स्वाध्याय प्रेमी, मंदसौर में स्थिरवास संस्कृत प्राकृत व शास्त्रों की गहन ज्ञाता थीं, भाई भाभी भी दीक्षित हुए ब्यावर में स्वर्गस्थ 2042 ब्यावर में स्वर्गवास मिलनसार, शासन समर्पिता विदुषी अच्छी विदुषी व्याख्यात्री मां. जेठुती, नणदोई भी दीक्षित सेवाभावी तपस्विनी साध्वीरना भीनासर में 72 दिन के संधारे के साथ सं. 2042 श्री. शु. 10 को स्वर्गस्था सरलस्वभावी सेवाभाविनी विदुषी मिलनसार शासन प्रभाविका सेवाभाविनी मिलनसार सेवाभाविनी विदुषी शासन प्रभाविका सरल मिलनसार साध्वी थीं, सं. 2041 रतलाम में स्वर्गस्थ महाविदुषी, गंभीर, आत्मबली शासन पति से आज्ञा लेकर दीक्षित हुई सेवाभाविनी, व्याख्यात्री गृहस्थावस्था में ही अनेक बहिनों व साध्वियों को शास्त्रज्ञान करवाया वृद्धावस्था में भी खूब तपस्या व प्रभावना कर सं. 2031 उदयपुर में स्वर्गस्थ मिलनसार, शासन प्रभाविका विदुषी व्याख्यात्री, सुदूर दक्षिण में धर्म प्रभावना की। तपस्विनी अनेक मासखमण, सरल स्वभाविनी, विद्वदवर्य श्री शांतिमुनि जी की चाचीजी । स्थानकवासी परम्परा की श्रमणियाँ Page #854 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्रम साध्वी नाम | जन्म संवत् स्थान पिता का नाम गोत्र | दीक्षा संवत् तिथि| दीक्षा स्थान | विशेष विवरण 63. श्री सुशीलाकंवरजी | 2003 उदयपुर मोतीलालजी कोठारी | 2019 मा. कृ. 12 | उदयपुर 64.0 ०० श्री शांताकवरजी श्री लीलावतीजी श्री कस्तूरकवरजी गंगाशहर रावतमलजी सुराना निकुम्भ मोतीलालजी मोगरा 1992 सुवासरामंडी| पन्नालालजी मेहता 2020 फा. कृ. 12 ] गंगाशहर 2020 फा.शु. 2 | निकुम्भ 1 2020 वै. शु. 3 | पीपल्यामंडी 66.0 आचार्य श्री नानेश की प्रथम दीक्षिता साध्वी, विदुषी तरूण तपस्विनी सेवाभाविनी सेवाभाविनी तपोतेजस्विनी हैं। पति, ज्येष्ठ एवं पुत्री (चंदनबाला जी) दीक्षित हैं। सं. 2048 इन्दौर में संथारा सह स्वर्गस्था | ओजस्वी व्याख्यात्री कवियित्री निर्भीक साध्वी रत्ना घोरतपस्विनी थीं, ब्यावर 2030 में स्वर्गस्थ 66.00 श्री हुलासकंवरजी 67. श्री ज्ञानकंवरजी 68.0/ श्री सोहनकंवरजी आ. नागरा - 1988 कपासन लचंदजी चंडालिया | 2020 वै. शु. 10 | चिकारड़ा 2003 मालदावाड़ी चंपालालजी मुणोत | 2021 आसा. शु. 9/ पीपल्याकलां नाथूलालजी आ. नानेश के । इन्दौर इन्दौर के चातुर्मास 1961 बीकानेर I रावतमलजी सेठिया | 2023 वै. श.8 | बीकानेर -निमलों वीरभाणजी 2023 आसो.शु. 4 | राजनांदगांव सुरेन्द्रनगर (गु.) | चिमनभाई मेहता 2023 आसो. शु. 4] राजनांदगांव श्री वृद्धिकंवरजी 70.0 श्री ज्ञानकंवरजी 71.AI श्री प्रेमलताजी 792 72. श्री इन्दुबालाजी 73.0 श्री गंगावतीजी श्री पारसकंवरजी श्री चन्दनबालाजी | राजनांदगांव भंवरलालजी I 2023 आसो. श. 4] राजनांदगांव श्रीश्रीमाल डोंगर हमीरमलजी लोढ़ा 2023 म. शु. 3 | डोंगर ग्राम कलंगपुर हीरामलजी पारख 2023 मृ. शु. 3 | डोंगर ग्राम | 2009 पीपल्यामंडी| अमरचंदजी पामेचा 2023 मा. शु. 10 | पीपल्यामंडी सं. 2045 गंगाशाह में स्वर्गस्थ। | सं. 2050 ब्यावर में स्वर्गस्थ। | विदुषी मधुरख्याख्यानी तपस्विनी, बीकानेर की उच्च परीक्षाएं उत्तीर्ण जैन सि. रत्नाकर परीक्षा उत्तीर्ण, मधुर व्याख्यानी, तपस्विनी। सेवाभाविनी तपस्विनी जैन सिद्धान्तशास्त्री, शासन प्रभाविका | विदुषी, मधुर व्याख्यात्री, तपस्विनी हैं, परिवार से कई दीक्षाएं हुई हैं। सहागरात के दिन ही सजोड़े ब्रह्मचर्यव्रत लिया, आदर्श त्यागिनी, तपस्विनी बहिन ज्ञानकंवरजी दीक्षित हैं। विदुषी घोरतपस्विनी 75.A 76.0/ श्रीजयश्रीजी बैंगलोर हमीरमलजी सेठिया | 2023 फा. कृ.9 | रायपुर 77. 78.A श्री सुशीलाजी श्री सुशीलाजी | 2007 मालदावाड़ी | बीकानेर चंपालालजी मुणोत | 2024 आसा. शु. 2] जावरा संतोकचंदजी बैद 2025 फा. शु.5 | बीकानेर जैन श्रमणियों का बृहद इतिहास Page #855 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्रम | साध्वी नाम जन्म संवत् स्थान पिता का नाम गोत्र | दीक्षा संवत् तिथि दीक्षा स्थान 79. A] श्री मंगलाकंवरजी | बड़ावदा सौभाग्यमलजी सांड | 2024 आसो. शु. 2] दूर्ग श्री चमेलीश्रीजी 81. O| श्री शकुन्तलाजी ०/ श्री जतनकंवरजी 83.0/ श्री छगनकंवरजी | 1998 बीकानेर 2010 बालेसर 2005 हिंगनघाट 1- दांता | किशनलालजी गोलछा | 2025 27. शु.5 | संपतलालजी सांखला | 2024 मृ. कृ. 6 | हीरालालजी नाहर | मोडीलालजी पोखरना | 2026 वै. शु. 7 photo | बीकानेर | दूर्ग येवतमाल कानोड़ स्थानकवासी परम्परा की श्रमणियाँ श्री चन्द्रकान्ताजी - रतलाम सुगनचंदजी रोिदिया | 2026 वै. शु.7 | ब्यावर 793 | श्री कुसुमलताजी A श्री प्रेमलताजी o| श्री विमलाकंवरजी ० श्री कमलप्रभाजी श्री पुष्पलताजी - श्री सुमतिकंवरजी श्री विमलाकंवरजी | 2004 मंदसौर चांदमलजी कुदाल आसो. शु. 4 | मंदसौर 2008 मंदसौर चांदमलजी कुदाल 2026 आसो. शु. 4] मंदसौर 1992 आंतरी चांदमलजी खिंदावत 1 2027 का. कृ. 8 | बड़ीसादड़ी | 2002 बांदनवाड़ा | नौरतमलजी लोढ़ा | 2027 का. कृ. 8 | बड़ीसादड़ी - बड़ीसादड़ी अम्बालालजी जारोली | 2027 का. कृ. 8 | बड़ीसादड़ी - बड़ीसादड़ी ख्यालीलालजी मुणोत | 2027 का. कृ. 8 | बड़ीसादड़ी मोडी सूरजमलजी नपावलिया | 2027 मा. शु. 12 | जावद | विशेष विवरण विदुषी हैं, परिवार से माता-पिता, भाई व दो बहनें। दीक्षित हैं। मधुरव्याख्यात्री तपस्विनी। विदुषी, उग्रविहारी, मधुरव्याख्यात्री, तपस्विनी घोरतपस्विनी, सं. 2039 उदयपुर में स्वर्गस्था सेवाभाविनी, भद्रमना थीं, आ. नानेशकी सहोदरा, सं. 2033 गंगाशाहर में स्वर्गस्था आदर्श सेवाभाविनी, मधुरभाषिणी, पुत्री मनोरमा भी दीक्षित हैं। विदुषी साध्वी रत्ना विदुषी एवं तपस्विनी | सजोड़े दीक्षा, विदुषी तपस्विनी एवं आदर्श त्यागिनी विदुषी मधुर व्याख्यात्री, जैन सिद्धान्त शास्त्री विदुषी साध्वी रत्ला विदुषी, बहिन पूर्णिमाजी भी दीक्षित हैं। तपस्विनी हैं, सुशीलाजी, मक्तिप्रभाजी, करूणाजी ये तीन बहनें भी दीक्षित हैं। पति, पुत्र 2 पुत्रियों सहित दीक्षा, तपस्विनी, अंजड़ में सं. 2049 स्वर्गस्थ तपस्विनी हैं। मधुर व्याख्यात्री, विदुषी 4 बहनें दीक्षित हैं। माता-पिता भाई-बहन भी दीक्षित, विदुषी सेवाभाविनी विदुषी सेवाभाविनी मधुर व्याख्यानी, बहिन सोमलताजी दीक्षित हैं। विदुषी विदुषी मधुरव्याख्यानी सेवाभाविनी, स्तोकमर्मज्ञ, मधुरभाषिणी 91. 92. 0| श्री सूरजकंवरजी | 1982 लोद चांदमल ओस्तवाल 2028 丽丽丽丽丽丽丽丽和和 का. शु. 12 ब्यावर | श्री कल्याणकंवरजी | 2006 बीकानेर A] श्री ताराकंवरजी - रतलाम श्री कान्ताजी 2012 बड़ावदा श्री चन्दनबालाजी 2016 बड़ावदा श्री कुसुमलताजी 2015 रावटी श्री ताराकंवरजी 2014 रतलाम श्री चेतनश्रीजी 2012 कानोड़ 100.0| श्री तेजप्रभाजी 1988 नागेलाव | संपतलालजी बांठिया | 2028 का. शु. 12 | ब्यावर सुगनचंदजी रोिदिया | 2028 का. शु. 12 ब्यावर सौभागमलजी सांड 2028 का. शु. 12 ब्यावर सौभागमलजी सांड का. शु. 12 ब्यावर नानालालजी कटारिया| 2028 का. शु. 12 | ब्यावर हीरालालजी रांका । 2028 चै. कृ. 2 | जयपुर हनुमानमलजी गांधी | 2029 चै. शु. 13 टोंक | रतनलालजी कोठारी | 2029 मा. शु. 13 | भीनासर Page #856 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विदुषी 794 क्रम । साध्वी नाम | जन्म संवत् स्थान पिता का नाम गोत्र | दीक्षा संवत् तिथि | दीक्षा स्थान | विशेष विवरण 101.0 श्री भंवरकंवरजी |1985 बीकानेर | हीरालालजी बोथरा 12029 मा. शु. 13 | भीनासर पति, पुत्र व पुत्री के साथ दीक्षित, भीलवाड़ा में संथारा सह स्वर्गस्थ 102. श्री कुसुमकान्ताजी |2008 जावरा शातिलालजी पगारिया | 2029 मा. शु. 13 भीनासर विदुषी 103. श्री पुष्पावतीजी | 2012 देशनोक घेवरचंदजी बोथरा 2029 मा. शु. 13 | भीनासर तपस्विनी मधुर व्याख्यानी, श्री नानूकंवरजी की भतीजी हैं। | 104. श्री वसुमतीजी 2009 बीकानेर इन्द्रचंदजी पूगलिया 12029 मा. शु. 13 भीनासर विदुषी तपस्विनी, मधुरव्याख्यानी, बहन प्रेरणाजी व भानजी (मुक्ति श्रीजी) भी दीक्षित हैं। 105. श्री राजीमतीजी - दलौदा भंवरलालजी भंडारी | 2029 मा. शु. 13 | भीनासर मधुरभाषिणी, पं. मुनि पारसमुनि जी आपके भ्राता हैं। 106. श्री मंजुबालाजी | 2016 बीकानेर | रतनलालजी सेठिया 2029 मा. श. 13 | भीनासर | विदुषी तपस्विनी मधुरव्याख्यात्री 107. श्री प्रभावतीजी 2017 बीकानेर जतनलालजी सोनावत |2029 मा. शु. 13 | भीनासर श्री भंवरकंवरजी, श्री विजयमुनिजी, श्री जितेन्द्रमुनिजी आपके माता भाई व पिता हैं। 108.0 श्री ललितप्रभाजी - नोखामंडी घेवरचंदजी गोलेछा |2029 फा. शु. 11 | बीकानेर 109. श्री सुशीलाकंवरजी |- मोडी सूरजमलजी नपावलिया | 2030 वै श.9 | नोखामंडी विदुषी तपस्विनी मधुर व्याख्यात्री 110. श्री समताकंवरजी 2017 अजमेर पूरणमजी कोठारी 1 2030 वै शु. 9 नोखामंडी विदुषी, सेवाभाविनी, स्वर्णज्योति जी आपकी भानजी हैं। 111. श्री निरंजनाश्रीजी - बड़ीसादड़ी लक्ष्मीलाल पामेचा |2030 आसो.शु 13 | बीकानेर विदुषी, तपस्विनी 112. श्री सुधाश्रीजी 2014 ब्यावर मंगलचंदजी कोठारी |2030 आसो.शु. 13 | बीकानेर वर्तमान में अर्हत् संघ में धर्म प्रचारिका हैं। | 113.0 श्री पारसकंवरजी | 1996 निकुंभ गेहरीलालजी सहलोत |2030 मृ. शु. 9 | भीनासर आदर्श त्यागिनी तपस्विनी, सुमनलताजी आपकी पुत्री हैं। | 114. श्री सुमनलताजी | 2013 बांगेडा बालचंदजी जारोली |2030 म. शु. 9 | भीनासर मातुश्री पारसकंवरजी व मामा आगम विख्याता मुनि कंवरचंदजी हैं। 115.0 श्री स्नेहलताजी 1 2004 सरदारशहर | रामलाल जी पारख | 2030 मा. शु. 5 सरदारशाहर तपस्विनी हैं। 116. श्री विजयलक्ष्मीजी |2010 उदयपुर बख्तावरमल तलेसरा 2030 मा. शु. 5 सरदारशाहर विदुषी व तपस्विनी हैं, बडी बहन श्री अनोखा कंवरजी हैं। 117. श्री अंजनाजी | 2012 मंगलवाड़ | गुलाबचंद चपलोत 2031 ज्ये. शु. 5 गोगोलाव | विदुषी तपस्विनी 118. श्री रंजनाश्रीजी | 2010 मंगलवाड़ | गुलाबचंद चपलोत 2031 ज्ये. शु. 5 | गोगोलाव | विदुषी व तपस्विनी 119. श्री ललिताश्रीजी |2014 ब्यावर | मांगीलालजी मेहता 2031 ज्ये. श. 5 | गोगोलाव लधुभाता विद्वद्वर्य श्री ज्ञानमुनिजी हैं, आप मिलनसार विदुषी साध्वी हैं। जैन श्रमणियों का बृहद इतिहास Page #857 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्थानकवासी परम्परा की श्रमणियाँ 1795 क्रम | साध्वी नाम जन्म संवत् स्थान पिता का नाम गोत्र | दीक्षा संवत तिथि| दीक्षा स्थान | विशेष विवरण 120. श्री विचक्षणाश्रीजी | 2009 पीपल्यामंडी | जमनालालजी पामेचा ] 2031 आसो. शु. 2 | सरदारशहर विदुषी तपस्विनी, परिवार में कई व्यक्ति दीक्षित हैं। 121. श्री सुलक्षणाश्रीजी | 2013 पीपल्यामंडी | रामगोपालजी कछारा | 2031 आसो. शु. 2 | सरदारशहर | विदुषी, मधुरभाषिणी, आगम न्यायरत्नाकर, तप | 7,8 उपवास 122. श्री प्रियलक्षणाश्रीजी | 2014 पीपल्यामंडी | बापूलालजी पामेचा | 2031 आसो. शु. 2 | सरदारशहर विदुषी, तपस्विनी, श्री बलभद्रमुनिजी आपके पिताश्री हैं। | 123.0/ श्री प्रीतिसुधाजी 2004 आंतरी | दुलीचंदजी खिंदावत 12031 माघ शु. 12 | देशनोक विदुषी तपस्विनी 124. श्री सुमनप्रभाजी 2014 देवगढ़ | सोहनलाल देरासरिया | 2031 माघ शु. 12 | देशनोक विदुषी सेवाभाविनी 125. श्री सोमप्रभाजी - रावटी नानालाल कटारिया 2031 माघ शु. 12 | देशनोक तरूण तपस्विनी 126. श्री किरणप्रभाजी 12013 बीकानेर करणीदानजी पटवा | 2031 माघ शु. 12 देशनोक सेवाभाविनी 127.0 श्री मंजुलाजी -देशनोक कुंदनमलजी दुगड़ 2032 वै. कृ. 13 भीनासर मधुर व्याख्यात्री, तपस्विनी 128. | श्री सुलोचनाजी | कानोड़ बाबूलाल सहलोत | 2032 वै. कृ. 13 | भीनासर विदुषी तपस्विनी एवं व्याख्यात्री 129. श्री प्रतिभाश्रीजी 2016 बीकानेर पानमलजी सेठिया | 2032 वै. कृ. 13 | भीनासर | विदुषी तपस्विनी 130. श्री वनिताश्रीजी 12016 बीकानेर गुलाबचंद गुलगुलिया | 2032 वै. कृ. 13 | भीनासर | विदुषी तपस्विनी, बहिनें श्री कनकप्रभजी व सत्य प्रभाजी भी दीक्षित हैं। 131. श्री सुप्रभाजी 2018 गोगोलाव चंपालालजी कांकरिया | 2032 वै. कृ. 13 | भीनासर विदुषी 132. श्री जयन्तीश्रीजी 2018 बीकानेर | फकीरचंदजी पारख 2032 आसो. शु. 5 देशनोक तरूणतपस्विनी 133.0 श्री हंसकंवरजी 1987 रायपुर | हिम्मतसिंह छाजेड़ 2032 मृ. शु. 8 जावरा ऋषि संप्रदाय से निकलकर यहां पुनः दीक्षित हुई। 134. श्री सुदर्शनाश्रीजी 1 2017 नोखामंडी | मूलचंदजी पारख 2033 आषा.शु.5 | नोखामंडी मधुर व्याख्यानी 135.0| श्री निरूपमाश्रीजी | 1980 हिंगणघाट | छोटूमलजी कोठारी 2033 आसो.शु. 15 नोखामंडी मृदुभाषिणी, महिलामंडल में विशेष जागति पैदा। की, पति भी दीक्षित 136.0 श्री चन्द्रप्रभाजी | 2012 गंगाशहर | पद्मचंदजी बैद | 2033 म. शु. 13 | नोखामंडी विदुषी सेवाभाविनी 137. श्री आदर्शप्रभाजी 120 उदासर तिलोकचंद सेठिया 2034 वै. कृ. भीनासर विदुषी 138. श्री कीर्तिश्रीजी - भीनासर मेघराजजी लुणावत | 2034 वै. कृ. भीनासर तरूण तपस्विनी 139. श्री हर्षिलाश्रीजी 2017 गंगाशहर किशनलाल सोनावत | 2034 वै. कृ. 7 भीनासर अध्ययनशीला 140. श्री साधनाश्रीजी 2018 गंगाशहर संतोकचंदजी भूरा | 2034 वै. कृ.7 | भीनासर ज्ञानसाधनारत 141. श्री अर्चनाश्रीजी | 2017 गंगाशहर | लूणकरणजी सुराणा | 2034 वै.शु.पूर्णिमा | गंगाशहर विदुषी Page #858 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्रम | साध्वी नाम 142.0 श्री सरोजबालाजी 143. - श्री मनोरमाजी 144. श्री चंचलकंवरजी 145. श्री कुसुमकांताजी 146. श्री सुप्रतिभाश्रीजी 147. श्री शांतप्रभाजी 148. श्री मुक्तिप्रभाजी 149. श्री गुणसुंदरीजी 150. - श्री मधुबालाजी श्री राजश्रीजी कनकश्रीजी 153. श्री शशिकान्ताजी विदुषी 796|| जन्म संवत् स्थान पिता का नाम गोत्र | दीक्षा संवत् तिथि | | दीक्षा स्थान | विशेष विवरण 2010 - सूरजमल चौरड़िया | 2034 भा. कृ. 11 | दुर्ग मधुर व्याख्यात्री कांतिलालजी मेहता 12034 भा. कृ. 11 | दुर्ग विदुषी मधुर व्याख्यात्री, मौसी व माता भी दीक्षित हैं।। 2018 कांकेर | सूरजमलजी गांधी | 2034 भा. कृ. 11 | दुर्ग विदुषी 2018 नेबारीकला | केवलचंदजी नाहटा | 2034 भा. कृ. 11 | दुर्ग विद्याभिलाषिणी 2016 उदयपुर कन्हैयालालजी बाना 2032 आसो. शु. 2] भीनासर विदुषी | 2018 बीकानेर पूनमचंदजी सिरोहिया | 2032 आसो. श. 2] भीनासर तरूण तपस्विनी, विदुषी सेवाभाविनी 2017 मोडी सूरजमलजी नपावलिया | 2034 म. कृ.5 | बीकानेर | 2018 उदासर | संपतलालजी सेठिया | 2034 म. कृ. 5 | बीकानेर | जैन सिद्धान्तशास्त्री 2019 छोटीसादड़ी | शांतिलालजी नागोरी | 2034 म. कृ.5 | बीकानेर जैन सिद्धान्शास्त्री 2010 उदयपुर जीवनसिंहजी कोठारी | 2034 मा. शु. 10 जोधपुर एम. ए. करके दीक्षा ली, विदुषी साध्वी 1 2012 रतलाम गौतमचंदजी पिरोदिया | 2034 मा. शु. 10 जोधपुर विदुषी | 2013 उदयपुर मदनलालजी गदिया | 2034 मा. शु. 10 | जोधपुर तपस्विनी हैं, आपके पिता श्री विवेकमुनिजी के नाम से दीक्षित हुए। | 2018 देशनोक गणेशमलजी बोथरा | 2034 मा. शु. 10 | जोधपुर तपस्विनी, विदुषी, श्री नानूकंवरजी की भतीजी हैं। 2008 कानोड़ मोहनसिंहजी बाबेल | 2035 आसो. शु. 2 | जोधपुर तपस्विनी सेवाभाविनी 1 2004 देशनोक माणकचंद धाड़ीवाल ] 2035 आसो. शु. 2 | जोधपुर मधुरभाषिणी तपस्विनी |- गंगाशहर | धूडचंदजी बोथरा 2035 आसो. शु. 2 | जोधपुर विदुषी तपस्विनी, बहिन लब्धिश्रीजी दीक्षित हैं। | 2010 महिदपुर । | सौभाग्यमलजी बुरड़ | 2036 चै. शु. 15 | ब्यावर एम. ए. उत्तीर्ण कर दीक्षा ली, विदुषी तपस्विनी हैं। - इन्दौर सोहनलालजी सुराणा | 2035 आसो. शु. 2 | जोधपुर | बी. ए. उत्तीर्ण हैं, विद्याभिलाषिणी 12017 देशनोक आनंदमलजी भूरा | 2035 आसो. शु. 2 जोधपुर विदुषी तपस्विनी | 2016 पीपल्यामंडी | पारसमलजी छिंगावत | 2035 आसो. शु. 2 | जोधपुर मधुर व्याख्यात्री विदुषी, तप-अठाई-5, बारह का| तप 1 बार J2018 देशनोक | जयचंदजी छल्लाणी | 2035 आसो. शु. 2| जोधपुर अध्ययनशीला 12020 मंदसौर सागरमलजी पोरवाल 2035 आसो. शु. 2 | जोधपुर विदुषी, तरूणतपस्विनी, श्रमणीरला | 2019 बीकानेर लूणकरणजी सुखानी 2035 आसो. शु. 2 | जोधपुर व्यवहारिक शिक्षण बी.ए., विदुषी | 2009 उदयपुर मोतीसिंहजी कोठारी | 2035 आसो. शु. 2| जोधपुर तपस्विनी 12019 गंगाशहर रामलालजी सेठिया 12035 आसो. शु. 2] जोधपुर विद्याध्ययनरत 154..| श्री सुलभाश्रीजी 155. श्री चेलनाश्रीजी 156.0 श्री निर्मलाश्रीजी 157. श्री कुमुदश्रीजी 158. श्री पद्मश्रीजी 159. श्री मधुश्रीजी 160. AJश्री कल्पनाश्रीजी 161.A श्री अरूणाश्रीजी 162. 163. 164. 165. 166. श्री दर्शनाश्रीजी श्री प्रविणाश्रीजी श्री पंकजश्रीजी श्री कमलश्रीजी श्री ज्योत्स्नाश्रीजी जैन श्रमणियों का बृहद इतिहास Page #859 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्थानकवासी परम्परा की श्रमणियाँ 797 2038 क्रम साध्वी नाम जन्म संवत् स्थान पिता का नाम गोत्र | दीक्षा संवत् तिथि | दीक्षा स्थान | विशेष विवरण 167. ] श्री पूर्णिमाश्रीजी 2020 बड़ी सादड़ी | ख्यालीलालजी मुणोत | 2035 आसो. शु. 2 | जोधपुर श्री सुमतिकवरजी की आप लघु भगिनी हैं। 168. श्री वंदनाश्रीजी 2020 गंगाशहर किशनलालजी सोनावत | 2035 आसो. श. 2| जोधपुर श्री हर्षिलाश्रीजी की लघुभगिनी 169. श्री प्रमोदश्रीजी 2021 ब्यावर रतनलालजी कोठारी | 2035 आसो. शु. 2| जोधपुर विदुषी तार्किक श्री उर्मिलाश्रीजी | 2019 रायपुर नथमलजी झावक | 2037 ज्ये. शु. 3 | बुसी तरूण तपस्विनी, लघु भगिनी कल्पलताजी भी दीक्षित हैं। श्री हेमप्रभाश्रीजी । | 2018 केसिंगा हुक्मीचंदजी बरड़िया | 2037 आसो. शु. 3 | राणावास विदुषी श्रीसुभद्राश्रीजी 2014 बीकानेर किशनचंदजी पुंगलिया| 2037 श्रा. शु. ।। | राणावास विदुषी तपस्विनी श्री ललितप्रभाजी 2019 विनोता भंवरलालजी डोशी | 2038 आषा. शु. 8 | गंगापुर अध्ययनशीला 174. A] श्री वसुमतिजी 12021 अलाय पूनमचंदजी सुखलेचा | 2038 आषा. शु. 8 | अलाय विदुषी, स्थविरा श्री प्यारकंवरजी म. भुआ व| लक्ष्यप्रभाजी लघु भगिनी हैं। 175. श्री लब्धिश्रीजी |- गंगाशहर धूडचंदजी बोथरा | 2038 का. शु. 12 | उदयपुर तरूण तपस्विनी श्री इंदुप्रभाजी 2016 बीकानेर केशरीचंदजी बोथरा का. शु. 12 उदयपुर मधुर संगायिका विदुषी साध्वी श्री ज्योतिप्रभाजी 2017 गंगाशहर सूरजमलजी छाजेड़ का. शु. 12 उदयपुर तपस्विनी श्री चित्राश्रीजी 1- लोहावट संपतलाल कोटड़िया | 2038 का. शु. 12 उदयपुर तपस्विनी श्री रचनाश्रीजी | उदयपुर मदनलालजी गदिया | 2038 का. शु. 12 | उदयपुर तपस्विनी, पिताश्री विवेकमुनिजी एवं. बड़ी बहिन शशिकांताजी दीक्षित हैं। 180. श्री सुरेखाश्रीजी | जोधपुर पारसराजजी मेहता 2038 का. शु. 12 | उदयपुर सरलस्वभाविनी, सेवाभाविनी श्री विद्यावतीजी | 2023 सवाईमाधोपुर | बाबूलालजी पोरवाल | 2038 म. शु. 10 | उदयपुर विदुषी व्याख्यात्री तरूण तपस्विनी 182. श्री विरक्ताश्रीजी | 2028 विनोता नक्षत्रमलजी लोढ़ा |2038 मा. कृ.7 | बम्बोरा तरूण तपस्विनी श्री सुप्रतिभाश्रीजी 2019 राजनांदगांव | आसकरणजी ओसवाल ] 2038 चै. कृ. 3 | अहमदाबाद विदुषी साध्वीरत्ना श्री अमिताश्रीजी रतलाम हस्तीमलजी श्रीश्रीमाल | 2038 चै. कृ0 3 अहमदाबाद विदुषी साध्वीरत्ना श्री शुचिताश्रीजी रतलाम हस्तीमलजी श्रीश्रीमाल | 2038 चै. कु0 3 अहमदाबाद विदुषी साध्वीरना 186. A] श्री श्वेताश्रीजी 12018 केशकाल मोतीलालजी बुरड़ | 2038 चै. कृ0 3 अहमदाबाद | तरूण तपस्विनी, विदुषी (बस्तर) 187. श्री नम्रताश्रीजी | 2019 जगदलपुर | उत्तमचंदजी नाहर 2038 चै. कृ0 3 | अहमदाबाद विदुषी 188. | श्री मुक्तिश्रीजी - कपासन सोहनलाल चंडालिया | 2038 चै. कु0 3 अहमदाबाद तरूणतपस्विनी 183. 184. Page #860 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 798 क्रम 189. 190 191 192. 193. 4 194. 195. O 196. A 197. 198. 199. 4 200. 201. 4 202. A 203. 204. A 205. A 206. 207. 208. 209. 210. 211 212. जन्म संवत् स्थान साध्वी नाम श्री जिनप्रभाजी श्री सिद्धप्रभाजी 2015 राजनांदगांव 2018 नागौर श्री मणिप्रभाजी 2018 गंगाशहर श्री विशालप्रभाजी 2018 गंगाशहर श्री कनकप्रभाजी 2021 बीकानेर श्री सत्यप्रभाजी 2022 बीकानेर श्री रक्षिताजी 2006 आऊवा श्री महिमाश्रीजी श्री मृदुला श्रीजी श्री वीणा श्रीजी श्री लक्षप्रभाजी श्री प्रेरणाजी श्री गुणरंजनाश्रीजी श्री सूर्यमणिश्रीजी श्री सरिता श्रीजी श्री सुवर्णा श्रीजी श्री निरूपणा श्रीजी श्री शारदा श्रीजी श्री विकासश्रीजी श्री तरुलता श्रीजी श्री करूणाश्रीजी 2017 अहमदाबाद 2018 भिलाई 2020 भिलाई अलाय - बीकानेर उदयपुर मंदसौर बीकानेर रतलाम उदयपुर डोंडी लोहारा बीकानेर चित्तौड़ मोडी श्री प्रभावना श्रीजी श्री सुयशमणिजी श्री चित्तरंजनाश्रीजी रतलाम बड़ाखेड़ा भीनासर पिता का नाम गोत्र राणुलालजी गिड़िया जवरीमलजी पींचा भंवरलालजी बैद मूलचंदजी भंसाली गुलाबचंद गुलगुलिया गुलाबचंदजी गुलगुलिया जसराजजी चौहान गुमानमलजी मुकीम समरथमलजी पटवा समरथमलजी पटवा पूनमचंदजी सुखलेचा इन्दरचंद पुंगलिया मदनलालजी नलवाया समरथमलजी जैन डूंगरमलजी दस्साणी नाथूलालजी गांधी दयालालजी दोशी हजारीमलजी भंसाली दुलतानमल गोलछा भंवरलालजी अब्बानी सूरजमलजी नपाबलिया मिश्रीलालजी मांडोत मेघराजजी लुणावत रखवचंदजी पिरोदिया दीक्षा संवत् तिथि दीक्षा स्थान 2038 चै. कृ० 3 2038 चै. कृ० 3 2038 चे कृ० 3 2038 चै. कृ० 3 2038 वै. +60 3 2038 चे. कू. 3 2040 आसो. शु. 2 2040 आसो. शु. 2 2040 आसो शु 2 2040 आसो. शु. 2 2040 पो. कृ. 10 2041 फा. शु. 2 2041 फा. शु. 2 2041 फा. शु. 2 2041 फा. शु. 2 2041 फा. शु. 2 2041 फा. शु. 2 2041 फा. शु. 2 2041 फा. शु. 2 2041 फा. शु. 2 2041 फा. शु. 2 2041 फा. शु. 2 2041 फा. शु. 2 2041 फा. शु. 2 अहमदाबाद अहमदाबाद अहमदाबाद अहमदाबाद अहमदाबाद अहमदाबाद भावनगर भावनगर भावनगर भावनगर भावनगर रतलाम रतलाम रतलाम रतलाम रतलाम रतलाम रतलाम रतलाम रतलाम रतलाम रतलाम रतलाम रतलाम विशेष विवरण अध्ययनशीला अध्ययनशीला अध्ययनशीला अध्ययनशीला विदुषी साध्वीरत्ना विद्याध्ययनरत सेवाभाविनी, पतिवियोग के बाद दो संतानों का मोह छोड़कर दीक्षा, तप-7 उपवास अध्ययनशीला अध्ययनशीला अध्ययनशीला तरूण तपस्विनी तपस्विनी मृदुभाषिणी एम. ए. बी. एड. की उच्चस्तरीय शिक्षा प्राप्त कर दीक्षित हुई। तपस्विनी भी हैं। व्यावहारिक शिक्षण एम.ए. विदुषी तरूण तपस्विनी विदुषी तरुण तपस्विनी तपस्विनी तपस्विनी, सेवाभाविनी वैराग्यावस्था में मासखमण किया। तरुण तपस्विनी श्री विमलाकंवरजी आदि तीन ज्येष्ठ सहोदरा दीक्षित हैं। सरल स्वभावी तरूण तपस्विनी तरूण तपस्विनी तरूण तपस्विनी जैन श्रमणियों का बृहद इतिहास Page #861 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्थानकवासी परम्परा की श्रमणियाँ रतलाम 799 क्रम | साध्वी नाम जन्म संवत् स्थान पिता का नाम गोत्र | दीक्षा संवत् तिथि | दीक्षा स्थान | विशेष विवरण 213. श्री मुक्ताश्रीजी बीकानेर लूणकरणजी बांठिया | 2041 फा. शु. 2 रतलाम | श्री प्रेरणाश्रीजी आपकी माताजी हैं। 214. श्री सिद्धमणि जी | 2022 बेगू | शांतिलालजी पोखरणा | 2041 फा. शु. 2 रतलाम विदुषी तपस्विनी 215. श्री रजतमणिजी 2022 बगमुंडा नुनियामलजी गर्ग 2041 फा. शु. 2 | रतलाम अध्ययनरत (उड़ीसा) 216. श्री अर्पणाश्रीजी 2024 कानोड़ गुलाबचंदजी भणावत | 2041 फा. शु. 2 तरूण तपस्विनी 217. श्री मंजुलाश्रीजी भीनासर तोलारामजी सेठिया | 2041 फा. शु. 2 रतलाम तरूण तपस्विनी 218. श्री गरिमाश्रीजी | 2021 चौथ का | दौलतरामजी पोरवाल | 2041 फा. शु. 2 रतलाम अध्ययनशीला बरवाड़ा 219. श्री हेमश्रीजी नोखामंडी रूपलालजी कांकरिया | 2041 फा. शु.2 रतलाम अध्ययनशीला 220. श्री कल्पमणिश्रीजी | पीपल्यामंडी सुंदरलालजी कछारा | 2041 फा. शु. 2 रतलाम अध्ययनशीला 221. श्री रविप्रभाजी जावरा छगनलालजी काठेड़ | 2041 फा. शु. 2 | रतलाम सेवाभाविनी 222. श्री मयंकमणिजी पीपल्यामंडी कन्हैयालालजी पितलिया 2041 7. शु. 2 रतलाम तरूण तपस्विनी 223. श्री चंदनाश्रीजी । | बड़ी सादड़ी मोतीलालजी मारू | 2041 दिसं. 6 बड़ी सादड़ी | विदुषी हैं, आपकी अनुजा अर्पणाश्रीजी भी दीक्षित है। 224. श्री मीताजी 2021 गंगाशहर मोतीलालजी सुराणा | 2041 मा. शु. 10 सेवाभाविनी 225. श्री पीयूषप्रभाजी 2020 बीकानेर शिखरचंदजी बच्छावत | 2042 नवं. 17 घाटकोपार अध्ययनशीला 226. श्री संयमप्रभाजी 2020 शाहदा गुलाबचंदजी कोटडिया | 2042 नवं. 17 घाटकोपार अध्ययनशीला 227. श्री रिद्धिप्रभाजी 2022 शाहदा | नेमीचंदजी चौरड़िया | 2042 घाटकोपार अध्ययनशीला 228. - श्री पुण्यप्रभाजी 2024 अक्कलकुआं | जसराजजी कोटड़िया 1 2042 नवं. 17 घाटकोपार अध्ययनशीला श्री वैभवप्रभाजी 2023 अक्कलकुआं | रतनलालजी बोहरा | 2042 घाटकोपार अध्ययनशीला 230. श्री सुबोधप्रभाजी 2027 जांगलू संतोकचंदजी भूरा | 2042 नवं. 17 | घाटकोपार अध्ययनशीला 230. श्री परागश्रीजी - कपासन कन्हैयालालजी दुग्गड़ | 2044 चैत्र शु. 13 | इन्दौर अध्ययनशीला 232. श्री भावनाश्रीजी | 2023 भीम छगनलालजी गन्ना | 2044 चैत्र अध्ययनशीला 233. श्री दिव्यप्रभाजी डोंडीलोहारा हजारीमलजी भंसाली | 2044 वै. अध्ययनशीला 234. श्री उज्जवलप्रभाजी | राजनांदगांव इन्द्रचन्दजी सुराना |2044 वै. शु. 2 इन्दौर अध्ययनशीला, माताजी श्री गरिमाश्रीजी दीक्षित हैं।। 235. श्री कल्पलताजी | रायपुर नथमलजी भाबक | 2044 वै. शु. 2 अध्ययनशीला 236. श्री सुमित्राश्रीजी | 2022 बाडमेर | मोहनलालजी चौपड़ा | 2044 वै. शु. बाडमेर अध्ययनशीला Page #862 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ठं न निम्बाहेड़ा क्रम साध्वी नाम |जन्म संवत् स्थान | पिता का नाम गोत्र | दीक्षा संवत् तिथि | दीक्षा स्थान | विशेष विवरण 237. श्री इंगिताश्रीजी 12025 बाडमेर | ईश्वरदास मांटो तर 2044 वै. शु. बाडमेर अध्ययनशीला 238. श्री लक्षिताश्रीजी | 2024 बाडमेर | भंवरलालजी चौपड़ा 2044 वै. शु. | बाडमेर अध्ययनशीला - श्री विकासश्रीजी 2023 लौदी रतनलालजी बैद 2045 चैत्र शु. 10 | ग्लौदी अध्ययनशीला श्री अक्षयप्रभाजी बड़ी सादड़ी घासीलालजी मारू 1 2045 ज्ये. शु. 5 जावरा अध्ययनशीला - श्री सरोजश्रीजी उदयपुर भंवरीलालजी मेहता 2045 ज्ये. शु. 5 | जावरा संघ से पृथक् विचर रही हैं। | श्री श्रद्धाश्रीजी उदयपुर शोभालालजी पगारिया | 2045 ज्ये. शु. 5 जावरा ज्ञान साधनारत | श्री अर्पिताजी | बम्बोरा तख्तमलजी पीतलिया | 2045 ज्ये. शु. 5 जावरा विद्याध्ययनरत 244. AIश्री किरणप्रभाजी | नीमच शंभूसिंहजी कांठेड़ 2045 मा. शु. 10 मन्दसौर तरूणतपस्विनी 245. ०|श्री गरिमाश्रीजी | 1996 राजनांदगांव जुहारमलजी नाहटा | 2046 वै. शु. 7 निम्बाहेड़ा तपस्विनी, पुत्र-पुत्रियों एवं पति को छोडकर दीक्षाली, पुत्री श्री उज्जवलप्रभाजी हैं। | श्री चारित्रप्रभाजी | विल्लिपुरम रावतमलजी डोसी | विल्लिपुरम् वैराग्यावस्था में 99 उपवास कर कीर्तिमान स्थापित किया। | श्री कल्पनाश्रीजी नांदगांव रोशनलालजी छाजेड़ संयम-साधनारत श्री शोभाश्रीजी बोल्ठाण (महा.) मांगीलालजी तातेड़ निम्बाहेड़ा संयम-साधनारत श्री रेखाश्रीजी नांदगांव बंशीलालजी दरड़ा | 2046 वै. शु. निम्बाहेड़ा संयम-साधनारत श्री विवेक श्रीजी पाटोदी दौलतरामजी बाघमार | 2046 वै. शु. 7 | बालोतरा संयम-साधनारत श्री पुण्यप्रभाजी |2024 विल्लिपुरम् | रावतमलजी डोशी |2046 वै. शु. 7 विल्लिपुरम(त.ना)| 43 दिन का तप कर सं. 1989 भा. कृ. अमावस को उत्तर मेरूर (ता. ना.) में स्वर्गस्थ | श्री पुनीताश्रीजी 12025 बाडमेर | पुखराजजी चौपड़ा बालोतरा ज्ञान-साधनारत 253. | श्री पूजिताश्रीजी जेठमलजी चोपड़ा 2046 वै. शु.7 | बालोतरा ज्ञान-साधनारत 254. A| श्री मनीषाजी 2023 भालुण्डी | पृथ्वीराजजी नाहर 2048 मा. शु. 13 | बीकानेर आगम रत्नाकर, तप-1 से 5 उपवास, 7, 8, 15. 21,30 उपवास 255. श्री धैर्यप्रभाजी 2023 एरा रामेश्वरजी मांदलिया | 2048 मा. शु. 13 | बीकानेर सेवाभाविनी, तपस्विनी,8,9,9, 16, 31 उपवास श्री उपासनाजी 12025 रतलाम | बसंतीलालजी श्रीश्रीमाल| 2054 का. शु.7 | रतलाम एम. ए., आगमरत्नाकर, अठाई, मासक्षमण श्री वीतरागश्रीजी | 2038 कपासन | नाथूलालजी तातेड़ |2058 मा. शु. 13 | गंगाशहर | जैन विशारद, तप-5, 6, 9, 11 800 न वै. शु. 7 बायतु जैन श्रमणियों का बृहद इतिहास Page #863 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्याय 7 तेरापंथ परम्परा की श्रमणियाँ Page #864 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 7.1 तेरापंथ संघ की स्थापना.. 7.2 तेरापंथ संघ की श्रमणियाँ, 7.3 प्रथम आचार्य श्री भिक्षुकालीन प्रमुख श्रमणियां ( विक्रम संवत् 1821 से 1860 ) .. 7.4 द्वितीय आचार्य श्री भारीमलजी के शासनकाल की प्रमुख श्रमणियाँ (सं. 1860-78) 7.5 तृतीय आचार्य श्री रायचंदजी के शासनकाल की प्रमुख श्रमणियाँ ( सं. 1878-1908) 7.6 चतुर्थ आचार्य श्री जयाचार्य के शासन काल की प्रमुख श्रमणियाँ ( संवत् 1908-38 ). 7.7 पंचम आचार्य श्री मघवागणी के शासनकाल की प्रमुख श्रमणियाँ ( संवत् 1938-49 ). 7.8 षष्ठम आचार्य श्री माणकगणी के शासनकाल की प्रमुख श्रमणियाँ (सं. 1948-54 ) 7.9 सप्तम आचार्य श्री डालगणी के शासन काल की प्रमुख श्रमणियाँ (सं. 1954-66 ) 7.10 अष्टमाचार्य श्री कालूगणी के शासनकाल की प्रमुख श्रमणियाँ (सं. 1966-93) 7.11 नवम आचार्य श्री तुलसी गणाधिपति के काल की प्रमुख श्रमणियाँ (सं. 1993-2054 ) 7.12 दशम आचार्य श्री महाप्रज्ञजी के शासनकाल की कतिपय श्रमणियाँ (सं. 2052 - वर्तमान ) 7.13 तेरापंथ समणी-संस्था का विकास एवं उसका अवदान (सं. 2037 से वर्तमान) 803 803 804 808 811 815 818 821 823 830 845 871 878 Page #865 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्याय 7 तेरापंथ परम्परा की श्रमणियाँ 7.1 तेरापंथ संघ की स्थापना तेरापंथ धर्मसंघ के आद्य प्रवर्तक आचार्य भिक्षु थे, ये स्थानकवासी परम्परा के क्रान्तदृष्टा महामनस्वी आचार्य श्री जीवराजजी महाराज की परम्परा के आचार्य श्री रघुनाथजी महाराज के शिष्य थे, कुछ वैचारिक मतभेद के कारण वी. नि. 2287 (वि.सं. 1817 ) चैत्र शुक्ला नवमी के दिन अपने चार साथियों के साथ संबंध विच्छेद कर संघ से पृथक् हो गए, इसी वर्ष 'केलवा' (मेवाड़) में आसाढ़ शुक्ला पूर्णमासी के दिन अपने साथियों के साथ भावदीक्षा अंगीकार कर एक पृथक् संप्रदाय की नींव रखी। साधु और श्रावकों की तेरह की संख्या से ये 'तेरापंथ' के नाम से प्रसिद्ध हुए। तेरह साधुओं द्वारा स्वीकृत दीक्षा के उपक्रम में सबसे प्रमुख थे- श्री भिक्षुजी, वे ही तेरापंथ - संघ के प्रथम आचार्य के रूप में मनोनीत हुए, उनके पश्चात् उनकी शिष्य उत्तराधिकारी परम्परा में क्रमशः श्री भारमलजी आदि आठ आचार्य और हुए, जिन्होंने तेरापंथ संघ को समुचित संरक्षण प्रदान किया, वर्तमान में दशम आचार्य श्री महाप्रज्ञजी एवं युवाचार्य श्री महाश्रमणजी के निर्देशन में तेरापंथ धर्म शासन बहुमुखी विकास कर रहा है। एक आचार्य का नेतृत्व, मौलिक आचार की एकरूपता एवं अनुशासित जीवन शैली तेरापंथ संघ की अपनी विशेषता है। 7.2 तेरापंथ संघ की श्रमणियाँ तेरापंथ-संघ की स्थापना के पश्चात् चार वर्ष तक यह संघ श्रमणी - विहीन था, किसी व्यक्ति ने कहा- 'भिक्षुजी ! तुम्हारे संघ में तीन ही तीर्थ है।' भिक्षुजी बोले - " मोदक खंडित है, पर शुद्ध सामग्री से बना है। " संयोग से उसी वर्ष वि. सं. 1821 में तीन बहनें दीक्षित होने हेतु आचार्य भिक्षु के समक्ष उपस्थित हुईं, आचार्य भिक्षु ने उनकी योग्यता देखकर दीक्षा प्रदान की, यहीं से तेरापंथ श्रमणी संघ का इतिहास प्रारम्भ होता है, तब से लेकर संवत् 2063 अर्थात् 242 वर्षों की सुदीर्घ अवधि में कुल 1719 श्रमणियाँ दीक्षित हुईं, उन्हें आचार्यों के कालक्रमानुसार निम्न तालिका में देखा जा सकता है : Page #866 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन श्रमणियों का बृहद इतिहास अंतिम श्रमणी क्रम आचार्य आचार्य भिक्षुजी । श्री भारमलजी श्री रायचंदजी श्री जयाचार्य श्री मधवागणी श्री माणकगणी 7. | श्री डालगणी काल (वि.सं) |श्रमणी संख्या | गणमुक्त सं. 1817-60 सं. 1860-78 सं. 1878-1908 सं. 1908-38 सं. 1938-49 सं. 1949-54 सं. 1954-66 प्रथम श्रमणी श्री कुशलांजी श्री आसूजी श्री लच्छूजी श्री चंदनाजी श्री जोधांजी श्री लिछमाजी श्री दाखांजी श्री नोजांजी श्री चक्रूजी श्री मूलांजी श्री उमांजी श्री छगनांजी श्री धन्नांजी श्री संतोकाजी श्री कालूगणी श्री तुलसीगणी श्री महाप्रज्ञजी सं. 1966-93 सं. 1993-2052 सं. 2052-2063 श्री लिछमांजी श्री जतनकंवरजी श्री लावण्यप्रभाजी श्री हुलासांजी श्री धवलप्रभाजी श्री शारदाप्रभाजी | 7.3 प्रथम आचार्य श्री भिक्षुकालीन प्रमुख श्रमणिया (विक्रम संवत् 1821 से 1860) तेरापंथ धर्मसंघ की स्थापना के पश्चात् आचार्य भिक्षु ने स्वल्पावधि में अपने संघ का काफी विस्तार किया, उनके 42 वर्ष के शासनकाल में 49 साधु एवं 56 श्रमणियों का एक सुदृढ़ व संगठित समुदाय बना। यद्यपि संक्रमण काल की इस स्थिति में अनेक श्रमणियाँ गण से बहिर्भूत भी हुईं तथापि आचार्य भिक्षु के प्रभावशाली नेतृत्व, संघीय निष्ठा एवं वैचारिक एकरूपता से संघ में श्रमणियों की अभिवृद्धि होती रही। भिक्षुकालीन श्रमणियाँ प्रायः पतिवियोग के पश्चात् दीक्षित हुईं, जीवन के अंतिम समय तक निरतिचार तप एवं संयम का पालन कर अंत में संलेखना व संथारे के साथ पंडितमरण को प्राप्त हुईं। उक्त सभी श्रमणियों का परिचय, व्यक्तित्व, शिक्षा, साधना, कला, सेवा, तपस्या, संलेखना, संथारा गण से पृथकता आदि तेरापंथ संघ के आचार्यों ने सुरक्षित रखा हुआ है। सर्वप्रथम जयाचार्य ने भिक्षु ग्रन्थ रत्नाकर, आर्यादर्शन, ऋषराय सुजश, भिक्खु जश रसायण, भिक्खु दृष्टान्त, शासन विलास आदि में अपने समय तक का पूरा इतिहास लिपिबद्ध किया, पश्चात् बड़े कालू जी द्वारा लिखित 'शासन ख्यात' यति हुलासचंद जी लिखित शासन प्रभाकर, श्री मघवागणि कृत जय सुयश, श्रीचन्द रामपुरिया का आचार्य भिक्षु धर्म परिवार एवं मुनि श्री नवरत्नमलजी द्वारा लिखित शासन-समुद्र के 13 भागों में तेरापंथ श्रमणी विषयक संपूर्ण जानकारी उपलब्ध होती है। तेरापंथ श्रमणियों के जीवन-वृत्त में हमने मुख्यतः आचार्य भिक्षु धर्म परिवार एवं शासन समुद्र के भागों का । ही उद्धरण दिया है। 7.3.1 श्री कुशलाजी (सं. 1821-60) 1/1 तेरापंथ संप्रदाय में आप सर्वप्रथम साध्वी के रूप में समादृत है। सं. 1821 में आचार्य भिक्षु ने मेवाड़ या । 1. श्रीचंद रामपुरिया, आचार्य भिक्षु धर्म परिवार, भाग-दो, पृ. 533-663 804 Page #867 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तेरापंथ परम्परा की श्रमणियाँ मारवाड़ के किसी ग्राम में आप सहित तीन साध्वियों को एक साथ दीक्षा प्रदान की थी, अन्य दो साध्वियाँ मटूजी और अजबोजी थी। दीक्षा के बाद आपको ज्येष्ठ रखा गया। कहा जाता है कि दीक्षा से पूर्व इन तीनों को भिक्षु ने प्रतिज्ञाबद्ध किया था, यदि तीन में से किसी एक का वियोग हो गया तो अन्य दो संलेखना करने को उद्यत रहेंगी। आपका स्वर्गवास सर्प-दंश से गुंदोच में हुआ। सर्प के उपसर्ग को अत्यन्त समता भाव से सहन किया, अन्य कोई उपचार न कराते हुए समाधिभाव से आप संवत् 1854 से 1860 के मध्य स्वर्गवासिनी हुईं, निश्चित तिथि ज्ञात नहीं है। 7.3.2 श्री सुजाणांजी (संवत् 1821-1854) 1/4 ____ आपकी दीक्षा संवत् 1821 और 1833 के मध्य होने का अनुमान है। आप अत्यन्त भद्र प्रकृति की साध्वी थी साथ ही समझदार भी। आपका देहावसान संवत् 1837 से 1854 के मध्य अनुमानित किया जाता है। 7.3.3 श्री देऊजी (दीक्षा सं.1821-33) 1/5 आप अति ओजस्विनी साध्वी थीं, आपकी दीक्षा संवत् 1821 से 1833 के मध्य होने का अनुमान है। आचार्य भिक्षु के काल में ही आपका स्वर्गवास हो गया था। जयाचार्य ने कुशलांजी मटूजी, सुजाणांजी और आपके विषय में 'ए च्यारू आरज्यां हुई चतुरमति' कहा है। 7.3.4 श्री गुमानांजी, श्री कसुम्बाजी (दीक्षा सं. 1821-33) 1/7-8 ____ आप दोनों भी आचार्य भिक्षु से 1821 से 1833 के मध्य दीक्षित हुई थीं। आप दोनों बड़ी गुणवान साध्वीजी थीं. दोनों का संथारे के साथ स्वर्गवास हुआ। 7.3.5 श्री मैणांजी (सं. 1833-60) 1/15 आपकी दीक्षा आचार्य भिक्षु के द्वारा सं. 1833 और 1834 के मध्य हुई थी। आप पुर ग्राम की (मेवाड़) निवासिनी थी, और पति को छोड़कर अत्यंत वैराग्य भाव से दीक्षित हुई थीं। आप एक विदुषी साध्वी हुईं, कइयों को आपसे दीक्षा की प्रेरणा मिली। भिक्षुजी ने आपके ऊपर कितने ही प्रतिबन्ध लगाए, जो बड़े कठोर थे, किंतु आपने उन सबको स्वीकार किया। एवं संघ की मर्यादा को अटूट रखा, इसीलिये आपको "मोटी सती" "समणी गण सिणगार" आदि विशेषणों से मंडित किया गया। आपने संवत् 1860 खैरवे में संथारा ग्रहण कर शरीर का त्याग किया। 7.3.6 श्री रंगूजी (सं. 1838-60) 1/20 ___ आप नाथद्वारा (मेवाड़) के पोरवाल वंश की साध्वी थीं। आपकी दीक्षा आचार्य भिक्षु के द्वारा सं. 1838 में नाथद्वारा में ही संपन्न हुई। दीक्षा के कुछ वर्षों बाद ही आप अग्रणी बनकर विचरण करने लगी थीं, बगतूंजी, हीराजी और नगांजी साध्वियाँ आपकी नेश्राय में थी। ख्यात में लिखा है 'भण्या गुण्यां बिनैकर सोभा धणी लीधी' आपका स्वर्गवास सिरियारी में हुआ था। 805 o nal Use Only For Priv Page #868 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन श्रमणियों का बृहद इतिहास 7.3.7 प्रमुख स्थानीया श्री हीरांजी (सं. 1844-78) 1/28 श्री हीरांजी की दीक्षा सं. 1844 में आचार्य भिक्षु के द्वारा बगतूजी और नगांजी के साथ हुई थी। इन्हें 'पंचपदरा की सती', 'हीरे की कणी' कहकर सम्मान दिया है। ये अतीव गुण सम्पन्न, तेजस्वी व्यक्तित्व की धनी तथा बुद्धिमान थीं। सहनशीलता का गुण इनमें कूट-कूटकर भरा था। मुनि हेमराजजी ने इन्हीं से 'साधु प्रतिक्रमण' सीखा, ये अपने टोले में अग्रणी साध्वी थीं। आचार्य भारमलजी की अत्यन्त कृपापात्र थीं। कई साध्वियों को आपने शिक्षित कर सुयोग्य बनाया था। आचार्य भारमलजी के स्वर्गवास से कुछ दिन पूर्व संवत् 1878 में संथारा कर चेलावास में आपने देहत्याग किया। 7.3.8 श्री नगांजी (सं. 1844-66) 1/29 पति वियोग होने के बाद आचार्य भिक्षु द्वारा संवत् 1844 में आपने दीक्षा ग्रहण की। आप मुनि वेणीरामजी की बहन थीं, ससुराल 'बगड़ी' का था। तेरापंथ साहित्य में आपके संथारे की बड़ी महिमा गाई गई है, आपने आचार्य भारमलजी के काल में देवगढ़ में सं. 1866 कार्तिक शुक्ला चतुर्दशी को संलेखना व्रत अंगीकार किया, कुल 177 दिन में तीन उपवास, नौ बेले, उन्नीस तेले, आठ चौले, एक अठाई एवं एक छह का तप किया, इस प्रकार आपने 177 दिन में 143 दिन का तप 63 दिन का पारणा तथा 10 दिन का संथारा किया। संवत् 1866 वैशाख शुक्ला 13 को संथारे के साथ आप देवलोकवासिनी हुई। आचार्य भारमलजी ने आपको 'सतयुगी सती' कहकर सम्मानित किया। 7.3.9 श्री अजबूजी (सं. 1844-88) 1/30 आप रोयट के शाह आईदान गोलछा की बहिन एवं मुनि सरूपचंदजी, भीमजी और जीतमलजी (जयाचार्य) की बुआ थीं। उत्कट वैराग्य से आचार्य भिक्षु के शासन में संवत् 1844 को रोयट में दीक्षित हुईं। मुनि सरूपचंदजी, भीमजी एवं जीतमलजी तीनों भ्राताओं को जिनशासन में दीक्षित करने का श्रेय आपको ही है। जयाचार्य की मातेश्वरी कल्लूजी भी आपकी प्रेरणा से ही दीक्षित हुई थीं, इस प्रकार कइयों को शासन में दीक्षित कर संवत् 1888 में संथारापूर्वक स्वर्गगमन किया। 7.3.10 श्री गुमानांजी (सं. 1857-60 से 68 के मध्य) 1/33 आप संवत् 1857 में आचार्य भिक्षुजी द्वारा दीक्षित हुई थीं, संसार पक्ष में आप तासोल गांव की तथा ससुराल में बरड्या बोहरा थीं। मुनि जीवोजी की ताई (बड़ी माँ) थीं। आपने अपने जीवन में उत्कृष्ट तपाराधना की थी। ख्यात में आपके उपवास से मासखमण तक करने का उल्लेख है, एवं दो मास के संथारे का जिक्र किया है। संवत् 1860 से 1868 के मध्य आपके संथारे का उल्लेख प्राप्त होता है। 7.3.11 श्री रूपाजी (सं. 1848.57) 1/37 आप नाथद्वारा (मेवाड़) के शाह भोपजी सोलंकी की पुत्री थीं, आपके ज्येष्ठ भ्राता 'मुनि खेतसी जी' एवं ज्येष्ठा भगिनी साध्वी खुशालाजी थीं। आप आचार्य ऋषि रायचन्दजी की मौसी थीं। दीक्षा के लिये ससुराल पक्ष की ओर से आपको घोर कष्ट दिये गये, आपके पैर खोड़े में डलवा दिये गये, 21 दिन तक इस दारूण कष्ट को आपने सहनशीलता से सहन किया, अंत में खोडा स्वयं ही टूट गया। उदयपुर के महाराणा भीमसिंहजी ने यह 806 Page #869 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तेरापंथ परम्परा की श्रमणियाँ बात सुनी तो उन्होंने एक पत्र लिखा। उनके पत्र के प्रभाव से आपको दीक्षा की आज्ञा प्राप्त हुई। आपने 15 वर्ष की उम्र में पति एवं पुत्र का मोह छोड़कर आचार्य भिक्षु के चरणों में दीक्षा अंगीकार की। दीक्षा संवत् 1848 तथा संथारा संवत् 1857 में होने का उल्लेख प्राप्त होता है। 7.3.12 प्रमुख स्थानीया श्री बरजूजी (सं. 1852-88) 1/39 आप पादू (मारवाड़) की निवासिनी थी, पति के स्वर्गवास के पश्चात् आपकी दीक्षा संवत् 1852 में आचार्य भिक्षु द्वारा ही संपन्न हुई थी। आप धर्मप्रभाविका साध्वी थीं, श्रीरायचन्द्रजी और उनकी माता खुशाला जी को आपके उपदेश से ही संयम लेने की भावना जागृत हुई। संघ को आपकी यह महत्त्वपूर्ण उपलब्धि रही। इसी प्रकार साध्वी कुशालांजी, नाथांजी, बीजांजी आदि अनेक साध्वियों ने आपसे शिक्षा प्राप्त कर संघ में यशकीर्ति अर्जित की। आपकी प्रेरणा से ही तपस्विनी एवं प्रभावशालिनी साध्वी कमलजी, मयाजी आदि भी दीक्षित हुई थी। आपके प्रभावशाली व्यक्तित्व एवं गुणों के कारण आप साध्वियों में प्रमुख स्थानीया के रूप में सम्माननीय थीं। आपका अवसान काल 1887 या 1888 का माना जाता है। 7.3.13 श्री बीजांजी (सं. 1852-87) 1/40 आप रीयां (मारवाड़) निवासिनी थीं। पतिवियोग के पश्चात् संवत् 1852 पादू (मारवाड़) में सती बरजू और बनाजी के साथ आपकी दीक्षा भिक्षु स्वामी द्वारा हुई थी। आप बड़ी ही सरल और भद्र प्रकृति की साध्वी थी। संघ में आपने अपना एक विशिष्ट स्थान बनाया हुआ था, अनेक लोग आपकी वाणी से प्रतिबुद्ध हुए। आप उग्र तपस्विनी थीं, जीवन के अंतिम तीन वर्षों में आपने 763 दिन की चौविहारी तपस्या की। पारणे में भी अरस, विरस आहार का सेवन किया। 25 दिन ऊनोदरी करके फिर संथारा लिया। 9 दिन का संथारा पूर्ण कर संवत् 1887 को कंटालिया ग्राम में आपका स्वर्गवास हुआ। 7.3.14 श्री हस्तूजी, श्री कस्तूजी (सं. 1857-76) 1/45, 47 आपके पिता जगु गांधी पीपाड़ (मारवाड़) के निवासी थे, माता का नाम बदूजी था। कस्तूजी छोटी बहन थीं, दोनों अत्यंत रूपवती थीं, दोनों पीपाड़ के एक ही मुंहता परिवार में ब्याही गईं। हस्तूजी ने अनेक कष्ट सहन कर ससुराल वालों से दीक्षा की आज्ञा प्राप्त की, उन्होंने पति, दो पुत्र (एक 6 वर्ष का, दूसरा 16 मास का) छोड़कर सं. 1857 पीपाड़ में अपनी छोटी बहन कस्तूजी के साथ दीक्षा ग्रहण की। दोनों ही बहनें ज्ञानवान, गुणवान एवं चारित्रनिष्ठ थी। हस्तूजी ने शीतकाल में 12 वर्षों तक केवल एक चादर से काम चलाया। अंत में 1876 में डेढ़ प्रहर के संथारे के साथ उनका स्वर्गवास हुआ। साध्वी कस्तूजी का भी सवा प्रहर के लगभग संथारा सहित संवत् 1876 में ही स्वर्गवास हुआ, ऐसा उल्लेख है। ये दोनों भगिनियां पृथक्-पृथक् सिंघाड़े की अग्रणी होने पर भी साथ ही साथ रहती थी। इनकी जोड़ी विवाह, दीक्षा एवं स्वर्गवास तक बरकरार रही। 'हस्तूजी कस्तूजी का पंचढालिया' में दोनों का संपूर्ण जीवन-वृत्त अंकित है। 2. वही, पृ. 642, 659. 807 Page #870 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन श्रमणियों का बृहद इतिहास 7.3.15 श्री खुशालांजी (सं. 1857-67) 1/46 आप नाथद्वारा के शाह भोपजी सोलंकी की पुत्री थीं। मुनि खेतसी जी की लघु भगिनी एवं साध्वी रूपांजी की ज्येष्ठा भगिनी थीं। बड़ी रावलिया में ससुराल थी। पति का नाम शाह चतुरोजी बम्ब था। इनके तीन पुत्र थे-नानजी, मोतीजी, रायचन्द जी एवं मैना नाम की एक पुत्री थी। संवत् 1857 चैत्र शुक्ला पूर्णिमा के दिन बड़ी रावलिया में आचार्य भिक्षु के द्वारा आपकी दीक्षा हुई। रायचंद जी ने भी माता के साथ 11 वर्ष की उम्र में दीक्षा ली थी, वे तेरापंथ के तृतीय आचार्य बने। आप तेरापंथ संघ में गरिमा प्राप्त साध्वी थीं, सभी के हित में संलग्न रहती थीं, बड़ी विनयवान थी, आपको "भण्डारी" उपनाम से पुकारते थे। संवत् 1867 'आउवा' में 15 दिन की संलेखना के साथ आपका स्वर्गवास हुआ। 7.3.16 श्री जोतांजी (सं. 1857-1908) 1/48 आपकी ससुराल 'लाहवा' (मेवाड़) में बावलियां गोत्र में थी। 17 वर्ष की सुहागिन वय में संवत् 1857 में आचार्य भिक्षु के शासन में दीक्षित हुई। आपको दीक्षा न देने के उद्देश्य से घरवालों ने अनेक यातनाएं दी, तथापि विरक्ति का रंग फीका नहीं हुआ। आपकी बुद्धि बड़ी प्रखर थी, अतः शीघ्र शास्त्रज्ञाता हो गईं। वाणी की मधुरता एवं व्याख्यान कुशलता के कारण कइयों की आप संयमप्रेरिका बनीं। अपने जीवन में महती धर्म प्रभावना करके पाली में संवत् 1907 कार्तिक मास में संथारा सहित आप स्वर्गस्थ हुई। 7.4 द्वितीय आचार्य श्री भारीमलजी के शासनकाल की प्रमुख श्रमणियाँ (सं. 1860-78) _आचार्य भिक्षु की धर्मक्रान्ति के साक्षात् दृष्टा व एकनिष्ठ सहयोगी के रूप में आचार्य भारीमलजी का नाम तेरापंथ संघ में आदर के साथ लिया जाता है। आचार्य भिक्षु ने अपने द्वारा अंकुरित व संवर्द्धित 105 श्रमण-श्रमणियों के विशाल परिवार का उत्तरदायित्व वहन करने के लिये मुनि भारीमलजी का चुनाव किया, वे इस संघ के द्वितीय आचार्य के रूप में मनोनीत हुए। आचार्य भारीमलजी ने संवत् 1860 से 1878 तक तेरापंथ संघ का कुशलतापूर्वक संचालन किया, इन 18 वर्षों की स्वल्पावधि में 38 साधु एवं 44 साध्वियों की अभिवृद्धि हुई। इस युग की उल्लेखनीय विशेषता यह रही कि जहां भिक्षु युग में 17 साध्वियाँ गण से पृथक् हुई, वहीं इस युग में मात्र तीन साध्वियाँ ही गण से बाहर हुईं। दूसरी, इस युग में कुमारी कन्या की दीक्षा का शुभारम्भ भी हुआ, तथा आगे उत्तरोत्तर इसमें अभिवृद्धि होती रही। आचार्य महाप्रज्ञजी के युग तक (संवत् 2059) कुल 738 कुमारी कन्याओं ने दीक्षा अंगीकार की। आचार्य भारीमलजी के समय 41 श्रमणियों ने अपने त्याग, तपोबल एवं धर्मप्रचार से धर्मशासन को गौरवान्वित किया। उनमें से कुछ प्रमुख श्रमणियों का गरिमामय व्यक्तित्व इस प्रकार है। 7.4.1 श्री आसूजी 'पीपाड़' (सं. 1861 या 62 से 1874) 2/1 आचार्य श्री भारीमलजी की प्रथम शिष्या बनने का सौभाग्य प्राप्त करने वाली आसूजी दोनों पक्ष के धनाढ्य और सुप्रसिद्ध परिवार के संबंधों को तोड़कर बीस वर्ष की सुहागिन अवस्था में साध्वी श्री हस्तूजी से दीक्षित हुई। आपने अनेक व्यक्तियों को सुलभबोधि व श्रावक बनाया, चार बहनों को भी दीक्षा प्रदान की, वे थीं-श्री 3. मुनि श्री नवरत्नमलजी, शासन-समुद्र, भाग-7, पृ. 192-360 808 Page #871 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तेरापंथ परम्परा की श्रमणियाँ चन्नणांजी (सं. 1866), श्री चतरु जी (सं. 1866), श्री नगांजी (सं. 1869), श्री दीपांजी (सं. 1872), आपने 12 वर्ष के साधनाकाल में शीत व गर्मी के परीषह को सहन किया, उपवास, बेले और 12 दिन तक की तपस्या भी की। आप 'लावा' में स्वर्गस्थ हुईं। 7.4.2 श्री हस्तूजी 'छोटा' पीपाड़ (सं. 1862-96 ) 2/3 आप प्रकृति से शांत, सुखदायिनी व तपस्विनी साध्वी हुईं, उपवास से लेकर नौ दिन की क्रमबद्ध तपस्या की, अंत में अपूर्व वैराग्य के साथ संलेखना तप प्रारंभ किया जो लगभग 1 वर्ष तक चला, उसमें 92 चौविहारी बेले, 4 तेले 25 उपवास किये, पारणे के दिन विगय का परिहार किया, पश्चात् दो दिन के अनशन के साथ 'कंटालिया' में पंडितमरण प्राप्त किया। 7.4.3 श्री चन्नणांजी 'बड़ी खाटू' (सं. 1866-96) 2/8 आप बाजोली निवासी जगरूपजी बाफना की पुत्री व 'खाटू' के सूरजमलजी बरमेचा की पत्नी थीं, बाल्यावस्था में ही पति का स्वर्गवास हो जाने पर 17 वर्ष की उम्र में श्री आसूजी से चारित्र अंगीकार किया। आप जैनागमों की गूढ़ अध्येता थीं, हजारों पद्य कंठाग्र थे, आवाज बुलंद थी, व्याख्यान की छटा निराली थी, बड़ी निर्मल, सौम्य, बुद्धिमती और जिनशासन की शोभा बढ़ाने वाली थीं। कंटालिया में पोष कृ. 9 को चार प्रहर के अनशन के साथ पंडितमरण को प्राप्त हुई । श्रावकों ने 25 खंडी मंडी बनाकर उनका चरमोत्सव मनाया। 7.4.4 श्री चत्रूजी 'बड़ा' बाजोली (सं. 1866-1914) 2/9 श्री चत्रूजी ने पतिवियोग के बाद श्री आशूजी से दीक्षा स्वीकार की। आपने तीस सूत्रों का वाचन और गहन अध्ययन किया, तत्वचर्चा में कुशल थीं, स्व- परमती लोगों में आपकी विद्वत्ता का बड़ा प्रभाव था आप साधु क्रिया जागृत कुशल, साहसी और निर्भीक साध्वी के रूप में प्रसिद्ध हुई । प्रकृति में कठोरता और वाणी में स्पष्टता झलकती थी, कई बहनें आपसे प्रतिबुद्ध होकर दीक्षित हुईं, वे इस प्रकार हैं- श्री झुमाजी (सं. 1881), श्री चांदूजी (सं. 1881 ), श्री सिणगारांजी (सं. 1887 ), श्री किस्तूरांजी (सं. 1888), श्री तुलछांजी (सं. 1888 ), श्री कुन्नणांजी (सं. 1888), श्री वरजू जी (सं. 1891 ), श्री लिछमांजी (सं. 1892), श्री गुलाबांजी (सं. 1897), श्री तीजांजी (सं. 1900), श्री चांदूजी (सं. 1906), श्री ज्ञानांजी (सं. 1910 ) । आप स्वयं की साधना में भी कठोर थीं, उपवास, बेलों के साथ तीन बार 16 का तप, प्रतिवर्ष दस प्रत्याख्यान, बहुत वर्षों तक 5 विगय वर्जन, 30 वर्षों तक सर्दी में एक पछेवड़ी आदि नियमों का पालन पूर्ण दृढ़ता के साथ किया अंत में आपका राजनगर विराजना हुआ, वहां पोष शु. 4 सं. 1914 के दिन संथारे के साथ दिवंगत हुईं। 7.4.5 श्री चनूजी 'छोटा' तोसीणा (सं. 1868-1913) 2/14 आप नाहर परिवार से संबंधित थीं, पति से आज्ञा लेकर दीक्षा अंगीकार की। आप निर्मल चारित्र की धनी, गुरु व संघ के प्रति निष्ठाशील, भद्रप्रकृति की समताभाविनी साध्वी थीं। आपके द्वारा चार साध्वियों को दीक्षा देने का उल्लेख प्राप्त होता है- श्री सिणगारां (सं. 1879), श्री हस्तूजी (सं. 1899), श्री जीऊजी (सं. 1905), श्री सिरदारां जी । 809 Page #872 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 7.4.6 श्री रंभाजी 'पीसांगण' (सं. 1868-1915) 2/16 आप कालू कुडकी के मोतीलालजी सरावगी की पुत्री और खींवराज जी गंगवाल की पुत्रवधू थीं । पतिवियोग के पश्चात् 24 वर्ष की वय में दीक्षित हुईं। आप साधुचर्या में सजग, प्रकृति से भद्र, विनयवान साध्वी थीं, आप बड़ी तपस्विनी भी थीं, लगातार सावन भादवा में एकांतर तप, बेले, तेले और 11 तक की तपस्या कई बार की, 12 से 15 तक का तप एकबार किया, शीतऋतु में आप एक ही पछेवड़ी का उपयोग करती थीं। वाहला ग्राम में ज्येष्ठ शु. 1 को आप स्वर्गस्थ हुईं। 7.4.7 श्री कल्लूजी 'रोयट' (सं. 1869-87 2/18 आप तेरापंथ संघ के क्रांतिकारी महाप्रभावक श्री जयाचार्य जी की मातेश्वरी थीं । पतिवियोग के पश्चात् आपने व आपके तीनों सुपुत्रों - श्री स्वरूपचंदजी, श्री भीमजी और श्री जीतमलजी ने दीक्षा अंगीकार की। आप आकृति से सौम्य, कार्य में कुशल, गंभीर, विनयवान एवं वैराग्यशीला थीं। आपने 17 वर्ष के संयमी जीवन में पचोला, अठाई, पन्द्रह, सत्रह, बीस, पच्चीस का तप एक-एक बार और 5 मासखमण किये। अंतिम समय संलेखना काल में सात उपवास, आठ बेले, 50 तेले, एक अठाई, एक 11, एक मासखमण, साढ़े तीन महीने एकांतर एवं ऊनोदरी तप किया। सं. 1887 श्रावण शु. 13 के दिन 'खेरवा' में समाधिपूर्वक देह का त्याग किया। श्री जयाचार्य ने उनके गुणों का वर्णन आठ गीतिकाओं द्वारा किया है। जैन श्रमणियों का बृहद इतिहास 7.4.8 श्री नगांजी 'बोरावड़' (सं. 1869-1901) 2/20 आपने पतिवियोग के पश्चात् 'बागोट' में आषाढ़ शुक्ला 5 को दीक्षा ग्रहण की। आप हृदय से सरल, प्रकृति से भद्र, , विनय और विवेकशील थीं। आपने 11 तक लड़ीबद्ध तपस्या, दो बार तेरह, एक बार 20 दिन का तप किया। 17 वर्षों तक दो पछेवड़ी और 13 वर्षों तक एक पछेवड़ी ग्रहण की। श्रावण शु. 15 को सबलपुर में सागारी अनशन से समाधिमरण को प्राप्त हुईं। 7.4.9 प्रमुख स्थानीया श्री दीपांजी 'जोजावर' (सं. 1872-1918) 2/34 आप मेवाड़ के ताल ग्राम में मांडोत गोत्रीय परिवार की आत्मजा व जोजावर निवासी सोमासाह बम्ब की पत्नी थीं । पतिवियोग के पश्चात् 16 वर्ष की वय में दीक्षा ग्रहण की। आपकी बुद्धि बड़ी प्रखर थी, 32 शास्त्रों का गहराई से अध्ययन किया। कंठकला, वचन - मधुरता, बुलन्द आवाज एवं आत्मिक पौरुष से दिये गये आपके उपदेशों का प्रभाव जनता पर स्थायी रूप से पड़ता, आपका व्याख्यान श्रवण करने के लिये अनेक गांवों के ठाकुर, मुसद्दी, हाकिम आदि आते गांव-गांव में आपकी बड़ी ख्याति थी। शारीरिक संस्थान एवं बहुमुखी व्यक्तित्व बड़ा प्रभावशाली था । तेरापंथ धर्मसंघ में आप एक उच्चकोटि की साध्वी हुईं। आचार्य रायचंदजी के समय आप विशेष सम्मानित प्रमुखा साध्वी थीं। आपने ऋषिराय के तथा जयाचार्य के शासनकाल में अनेक व्यक्तियों को सुलभबोधि बनाया, श्रावक के व्रत धारण करवाये, तथा 10 बहनों को संयम प्रदान किया। श्री मोतांजी (सं. 1887 ), श्री राभूजी (सं. 1902), श्री ज्ञानांजी (सं. 1902), श्री सुन्दरजी (सं. 1907), श्री जोतांजी (सं. 1908), श्री नाथांजी (सं. 1908), श्री झुमांजी (सं. 1908), श्री वखतावरजी (सं. 1916), श्री चम्पाजी (सं. 1917), श्री किस्तूरांजी (सं. 1917) | ऐसा भी 810 Page #873 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तेरापंथ परम्परा की श्रमणियाँ उल्लेख है कि आपके प्रभावशाली उपदेश से 40-50 भाई बहन दीक्षा हेतु तैयार हुए। आपने कई साध्वियों को शिक्षित किया जो आगे जाकर अग्रगण्या बनीं। तेरापंथ धर्मसंघ में आपका अनुपम स्थान रहा है, आपने तेरापंथ संघ की नींव को त्याग- तपस्यादि की प्रेरणा से जिस प्रकार सुदृढ़ किया, वह इतिहास में स्वर्णाक्षरों से अंकित करने योग्य है। आपके सान्निध्य में कई साध्वियों ने पानी या आछ के आधार से सुदीर्घ तपस्या के कीर्तिमान स्थापित किये। इस प्रकार आपकी प्रेरक क्षमता अद्भुत थी। 7.4.10 श्री नन्दूजी 'लावा' (सं. 1873-1941) 2/36 आपका जन्म मेवाड़ 'लावा' ग्राम निवासी श्री फतेहचंद जी बंवलिया के यहां हुआ। आप महान प्रभावक साध्वी हुईं, आपके उपदेश से एवं श्रीमुख से पांच बहिनों ने दीक्षा ली-श्री सुवटांजी (सं. 1993), श्री नानूजी (सं. 1923), श्री गंगाजी (सं. 1933), श्री नानूजी (सं. 1938), श्री कसुंबाजी (सं. 1938)। तेरापंथ संघ की स्थापना के पश्चात् आप सर्वप्रथम कुमारी कन्या के रूप में दीक्षित हुईं। पचपदरा में आप 7 वर्ष स्थिरवासिनी रहीं, वहीं आपका समाधिपूर्वक पंडितमरण हुआ। 7.4.11 श्री कमलूजी 'चंगेरी' (सं. 1874-1902 ) 2/38 आप मेवाड़ के हीरजी कोठारी की धर्मपत्नी थी। दोनों पति-पत्नी दीक्षित हुए थे। दीक्षा के पश्चात् आपने अनेक आगमों का वाचन, हजारों पद्य कंठस्थ एवं व्याख्यान कला में निपुणता प्राप्त की, शासन की खूब प्रभावना की। आप द्वारा कई बहनों को दीक्षा देने का उल्लेख है। 'पुर' में भादवा वदि 7 को संथारे सहित स्वर्गवास हुआ। 7.4.12 श्री चक्रूजी 'गंगापुर' (सं. 1877-90) 2/44 आप मेवाड़ प्रान्त के 'चहावत' गोत्रीय श्री दीपोजी की पत्नी थी। गंगापुर में ही पति-पत्नी दोनों ने ज्ये. शु. 13 को दीक्षा अंगीकार की। आप स्वभाव से शांत, मधुर व्यवहारी व विनयवती थीं। तपस्विनी भी थीं, अनेकों उपवास, बेले, तेले, चोले किये, एक बार 62 दिन की तपस्या भी की। अंतिम समय संलेखना में पांच तेले, चार चौले के साथ संथारा कर समाधिमरण को प्राप्त हुईं। आप आचार्य भारीमलजी की अंतिम शिष्या हुईं। 7.5 तृतीय आचार्य श्री रायचंदजी के शासनकाल की प्रमुख श्रमणियाँ (सं. 1878-1908) आचार्य रायचंदजी तेरापंथ-संघ के यशस्वी आचार्य थे। आचार्य भारमलजी के स्वर्गवास के पश्चात् सं. 1978 तक उन्होंने धर्मसंघ का कुशलतापूर्वक संचालन किया। आचार्य श्री रायचंदजी के शासनकाल में साध्वियों की अभूतपूर्व वृद्धि हुई। आचार्य भिक्षु एवं भारीमलजी के युग में जहां 56 और 44 साध्वियाँ दीक्षित हुईं, वहां आचार्य रायचंदजी के समय168 साध्वियों ने दीक्षा अंगीकार की। इनमें से 164 साध्वियों ने संयम का यथोचित पालन कर अंत में समाधिपूर्वक पंडितमरण प्राप्त किया एवं 4 साध्वियाँ गण से पृथक् हुईं। इनमें 10 कुमारी कन्याएं, 4 सुहागिन, 4 पति सहित और 150 पतिवियोग के पश्चात दीक्षित हुईं। कुछ उग्र तपस्विनी साध्वियाँ हुईं, जिन्होंने छहमासी आदि तप 4. शासन-समुद्र, भाग-7 Page #874 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन श्रमणियों का बृहद इतिहास किया। दो साध्वी प्रमुखा बनीं, दो ने छह आचार्यों का शासनकाल देखा। उक्त विभूतिलसित प्रमुखा श्रमणियों का परिचयात्मक विवरण अग्रिम पंक्तियों में दे रहे हैं। 7.5.1 श्री मलूकांजी 'डेह' (सं. 1887-1931 ) 3/22 श्री मलूकांजी जाति से सरावगी थीं, पीहर सेठी गोत्रीय व ससुराल कासलीवाल था । इन्होंने मृगशिर कृष्णा 11 को लाडनूं में दीक्षा स्वीकार की। छहमासी तप करने वाली साध्वियों में मलूकांजी का नाम सर्वप्रथम आता है। इन्होंने 'आछ' के आधार पर दो बार छहमासी एवं दो बार चारमासी तप किया। इसके अतिरिक्त आछ के आगार से 132 बेले, 30 तेले, 19 चौले, 14 पचोले, 4 अठाई, 4 दसए 1 ग्यारह, 1 तेरह, दो मासखमण, एक 32, एक 35, एक 41 और एक 45 उपवास किये। पानी के आगार से सात बार 30 उपवास किये। इस प्रकार ये घोर तपस्विनी साध्वी थीं। 7.5.2 श्री गेनांजी 'लाडनूं' (सं. 1887-1937 ) 3/24 आपका ससुराल लाडनूं के कोठारी परिवार में और पीहर फिरोजपुर के डूंगरवाल परिवार में था। पति वियोग के पश्चात् आपकी दीक्षा महावीर जयंती के दिन लाडनूं में हुई। आप भी दीर्घ तपस्विनी थीं। आपने तीन बार छहमासी एक बार चौमासी और अनेक बार मासखमण की तपस्या की। आप श्री दीपांजी के संघाड़े में थीं। 7.5.3 प्रथम साध्वी प्रमुखा श्री सरदारांजी 'फलौदी' (सं. 1897-1927 ) 3/71 आप चूरू (थली) निवासी सेठ जैतरूपजी कोठारी की पुत्री थीं, दस वर्ष की अवस्था में फलौदी निवासी श्री सुलतानमलजी ढड्ढा के सुपुत्र जोरावरमलजी के साथ सं. 1875 में विवाह हुआ, पांच मास पश्चात् ही पति का देहान्त हो गया, अतः आप बाल ब्रह्मचारिणी ही रहीं। आपने बाल्यवय से ही अनेक त्याग-प्रत्याख्यान ग्रहण कर लिये थे, गृहस्थावस्था में धन्ना अणगार के 80 बेले, परदेशी राजा के 12 बेले व एक तेला, ज्ञान, दर्शन, चारित्र के तीन-तीन तेले, चातुर्मास मे एकांतर तप, 7 तेले 5 चौले, छह, सात, आठ का तप एक बार, एक वर्ष तक चौविहार बेले- बेले और उसमें प्रत्येक मास चौविहार चौला या पंचोला करने का संकल्प किया। इसमें भी कुछ मास चौविहारी बेले, तीन मास चौविहारी तेले और एक मास चौविहारी चौले तथा ऊपर 10 दिन का उपवास किया। आप रात्रि को शीतकाल में एक ओढ़नी व ग्रीष्म ऋतु में धूप में बैठकर चार-चार सामायिक आदि कर कायक्लेश तप करती थीं। दीक्षा के लिये लंबे समय तक इस प्रकार संघर्षों से जूझकर अंततः स्वयं के हाथों से केशलुञ्चन कर आप युवाचार्य श्री जीतमलजी के द्वारा मृगशिर कृष्णा 5 सं. 1897 को उदयपुर में दीक्षित हुईं। दीक्षा के पश्चात् भी आपने उग्र तपस्याएँ कीं, अनेकों कन्याओं व महिलाओं को प्रतिबोधित कर संयमीजीवन की शिक्षा-दीक्षा दी। आपके समय में तेरापंथ धर्मसंघ में अनेक नवीन क्रांतिकारी कार्य हुए (i) श्री मज्जयाचार्य ने सं. 1910 में आपको सर्वप्रथम विधिवत् रूप से प्रमुखा साध्वी के पद पर नियुक्त किया। इससे पूर्व यह पद्धति नहीं थी। (ii) आपके समय से साध्वियाँ निरंतर आचार्यों के साथ चातुर्मास करने लगीं, उसके पूर्व यह नियम नहीं था । (iii) प्रतिवर्ष चातुर्मास के पश्चात् आचार्य दर्शन की प्रणाली का शुभारम्भ भी आपसे ही हुआ । 812 Page #875 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तेरापंथ परम्परा की श्रमणियाँ (iv) चातुर्मास के पश्चात् दर्शनार्थ आने वाली एवं तपस्विनी साध्वियों का तथा नवदीक्षित एवं दिवंगत साध्वियों का संपूर्ण विवरण तैयार किया जाने लगा। (v) हस्तलिखित ग्रन्थ, पुस्तक- पन्नों आदि पर से एकाधिपत्य निरस्त कर साध्वी प्रमुखा की नेश्राय में दिये जाने लगे। साध्वी प्रमुखा आचार्य को भेंट कर देतीं हैं, आचार्य उन सबको आवश्यकतानुसार साधु-साध्वियों में वितरित कर देते हैं। (vi) सं. 1926 में सरदारांजी ने 121 साध्वियों के नये सिंघाड़े बनाकर साध्वी संघ को व्यवस्थित किया। तब से लेकर आज तक इस संघ में साध्वियों के सिंघाड़े सुव्यवस्थित रूप से पांच की संख्यामें विचरण करते हैं। इस प्रकार साध्वी प्रमुखा सरदारांजी अत्यंत प्रभावशाली व्यक्तित्व की धनी साध्वी थीं। उन्होंने साधिक 30 वर्ष के संयम-पर्याय में आत्म-निर्माण के साथ भिक्षु-शासन के विकास में महायोगदान देकर अपने जीवन को चिर यशस्वी बनाया। साध्वी सरदारांजी का नाम तेरापंथ धर्मसंघ के इतिहास में युगों-युगों तक स्वर्णिम पृष्ठों पर अंकित रहेगा। बीदासर में पौष शुक्ला 9 को संवत् 2027 में आपका स्वर्गवास हुआ, उस समय श्रावकों ने 33 खंडी मंडी बनाकर बड़ी धूमधाम के साथ दाह-संस्कार किया। श्रीमज्जयाचार्य ने 'सरदार सुजश' में 15 गीतिकाओं द्वारा आपका गौरव गरिमामय जीवन अंकित किया है। ' 7.5.4 श्री हस्तूजी 'चीवरा' (सं. 1900-12 ) 3/109 आपका ससुराल मेवाड़ के चीवरा ग्राम में 'श्रीमाल' परिवार में तथा पीहर 'ताल' ग्राम में मांडोत परिवार में था । पतिवियोग के पश्चात् फाल्गुन शुक्ला 8 को ताल में दीक्षा ली। आप उग्र तपस्विनी थीं, आपने दीपांजी के सान्निध्य में 130 दिन एवं एकबार 193 दिन का तप 'आछ' के आधार पर किया, जो तेरापंथ संघ में सर्वप्रथम था। इसके अतिरिक्त आपने 60, 45, 37 उपवास की तपस्या भी की। मासखमण तो आपने कई किये । 'पुर' मेवाड़ में आपका संथारा सहित स्वर्गगमन हुआ। 7.5.5 श्री रम्भाजी 'पदराड़ा' (सं. 1901-43 ) 3/120 आपका ससुराल पदराड़ा (मेवाड़) के खोखावत परिवार में तथा पीहर सायरा के सोलंकी गोत्र में था। आपने पतिवियोग के बाद ज्येष्ठ शुक्ला 12 को 'पदराड़ा' में दीक्षा अंगीकार की। आप घोर तपस्विनी साध्वी थीं, आपकी विशाल तपस्या के आश्चर्यजनक आंकड़े इस प्रकार थे - 15 बेले, 10 तेले, 20 चौले, 16 बार छह, 5 अठाई 7 बार नौ, दो बार 10, एक बार 11, 15, 16, 21, 28 और 31 उपवास सिर्फ पानी के आधार पर किये। तथा आछ और पानी के आधार से 10, 15 और 30 का तप दो बार, 11, 13, 14, 18, 19, 20, 22, 29, 31, 46, 53, 63, 142 और 191 का तप एकबार एक छहमासी एक साढ़े 6 मासी तप किया। आपका स्वर्गवास संवत् 1943 में हुआ। 7.5.6 श्री किस्तूरांजी 'मांडा' (सं. 1902-75 ) 3/127 साध्वी किस्तूरांजी का जन्म मांडा (मारवाड़) के गांधी गोत्र में सं. 1886 में हुआ। आप 16 वर्ष की अवस्था 5. शासन-समुद्र भाग - 7. पृ. 169-213 813 Page #876 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन श्रमणियों का बृहद इतिहास सगाई को ठुकराकर आचार्य रायचंदजी के द्वारा 'फूल्यां' ग्राम में फाल्गुन कृष्णा 13 को दीक्षित हुईं। आप साधुचर्या में अप्रमत्त, विनम्र, साहसी, चतुर एवं गण के प्रति अटूट निष्ठावान् थीं। सं. 1928 से आप अग्रगण्या के रूप में विचरण करती थीं, आपका सिंघाड़ा बड़ा प्रभावशाली माना जाता था आपने अनेकों को गुरुधारणा करवाई, कइयों को श्रावक के व्रत ग्रहण करवाये, कइयों को सुलभबोधि बनाया, तथा 10 बहिनों को दीक्षा प्रदान की- श्री गेंदकंवर जी (1928), श्री फूलांजी (1928), श्री रतनकंवरजी (1935), श्री नोजांजी (सं. 1936), श्री सोनांजी (1937), श्री गीगांजी (1937), श्री कुन्नणांजी (1938), श्री गोगांजी (1941), श्री सुजांजी (1945), श्री जोतांजी (1947)। आपकी उल्लेखनीय विशेषता - आप आचार्य श्री रायचंदजी के समय दीक्षित हुईं, 73 वर्ष के संयम पर्याय में छह आचार्यों का शासनकाल देखकर आठवें आचार्य श्री कालूगणी के समय जोधपुर में दिवंगत हुईं। 7.5.7 तृतीय साध्वी प्रमुखा श्री नवलांजी 'पाली' (सं. 1904-54 ) 3/140 आपका जन्म सं. 1885 मारवाड़ में 'रामसिंहजी का गुड़ा' के निवासी श्री कुशालचंद जी गोलेछा के यहां एवं विवाह पाली निवासी श्री अनोपचंदजी बाफना के यहां हुआ। पति वियोग के पश्चात् आपने दृढ़ वैराग्यपूर्वक सं. 1904 चैत्र शुक्ल तृतीया को 19 वर्ष की अवस्था में आचार्य रायचंदजी से पाली में दीक्षा ग्रहण की। आपने प्रथम केश लुंचन स्वयं के हाथों से करके अपने साहसी व्यक्तित्व का सर्वप्रथम परिचय दिया। आपकी कंठकला, वचन - मधुरता, सुंदर व्याख्यान शैली, नीति-निपुणता से आकृष्ट होकर सं. 1942 पौष शुक्ला को जोधपुर में मधवागणी ने आपको साध्वी प्रमुखा पद पर नियुक्त किया। आप अपनी समता, सहनशीलता, पुरुषार्थ परायणता एवं स्वाध्याय रुचि आदि गुणों के द्वारा चतुर्विध संघ में सम्माननीया हुईं। आप तपस्विनी भी थीं, सं. 1943 से 48 के मध्य आपने 23, 19, 8, 5 और 5 की तपस्या की, चातुर्मास में प्रायः पांच विगय का त्याग करती थीं। आपने ऋषिराय के साथ 3, जयाचार्य के साथ 13, मघवागणी के साथ 7, माणकगणी के साथ 3, इस प्रकार कुल 26 चातुर्मास आचार्यों की सेवा में किये। सं. 1954 आसाढ़ कृ. 5 को नौ प्रहर के संथारे के साथ बीदासर में आपका स्वर्गवास हुआ। 7.5.8 साध्वी उमांजी ( राजलदेसर 1907-73)3/157 आपका ससुराल राजलदेसर (थली) के बछावत गोत्र में तथा पीहर वहीं बैद गोत्रीय पिता श्री डूंगरसीदासजी के यहां था । पतिवियोग के बाद सं. 1907 में आपकी दीक्षा हुई। आप बड़ी तपस्विनी साध्वी थीं, आपने उपवास से लेकर बीस दिन तक क्रमबद्ध तप किया तथा चौले, 25 पचोले, एक बार 8, 12, 14, 16 उपवास, धर्मचक्र आदि तप किया। आपका साधनाकाल लगभग 66 वर्ष का रहा इस अवधि में आपको छह आचार्यों (आचार्य श्री रायचंदजी से कालूगणी तक) की सेवा का सुअवसर प्राप्त हुआ। सं. 1973 लाडनूं में आपका स्वर्गवास हुआ। 7.5.9 श्री सुंदरजी 'नाथद्वारा' (सं. 1907-43 ) 3/164 आपकी ससुराल नाथद्वारा (मेवाड़) के तलेसरा परिवार में तथा पीहर राजनगर के मादरेचा परिवार में था । आपने पतिवियोग के पश्चात् साध्वी श्री दीपांजी आषाढ़ शुक्ला 1 के दिन नाथद्वारा में दीक्षा अंगीकार की। आप उत्कट तपस्विनी और वैराग्यवान साध्वी थीं। आपने अपने संयमी जीवन में 423 उपवास, 26 बेले, 35 तेले, 33 चौले, 8 पचोले एक 6, तीन बार 7, एक अठाई, चार बार नौ, दो बार 10, एक 12, एक 13, 14, पांच 15, एक 18, एक 25, एक 28, आठ 30, एक 33, एक 45, एक 120, एक 157, तीन 180 और एक 184 का तप 814 Page #877 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तेरापंथ परम्परा की श्रमणियाँ किया। इसके अतिरिक्त साढ़े पांच मास एकान्तर, अनेक बार अढ़ाई सौ प्रत्याख्यान तथा सौ बार दस प्रत्याख्यान किये। 39 वर्ष तक 16 हाथ वस्त्र से अधिक वस्त्र शीतकाल में ग्रहण नहीं किया, तप के साथ ही आप स्वाध्याय, ध्यान एवं जाप भी नियमित करती थीं। आपकी उत्कट तप साधना वस्तुतः भौतिक युग में जीने वालों के समक्ष एक प्रबल चुनौती है। 7.6 चतुर्थ आचार्य श्री जयाचार्य के शासन काल की प्रमुख श्रमणियाँ (संवत् 1908-38) तेरापंथ संघ के चतुर्थ अधिनायक श्री जयाचार्य आगम के प्रकाण्ड विद्वान् साहित्यकार एवं प्रतिभाशाली कवि थे। श्री रायचंदजी के स्वर्गवास के पश्चात् संवत् 1908 में उन्होंने धर्मसंघ का दायित्व संभाला, उस समय तेरापंथ संघ में 67 साधु और 143 साध्वियाँ थीं। उनके 30 वर्ष के शासनकाल में 105 श्रमण और 224 साध्वियों की वृदि हुई, इनमें 213 श्रमणियों ने संयम का यथोचित पालन किया, 11 श्रमणियाँ गण से पृथक् हुईं। श्रीमज्जयाचार्य ने श्रमणियों के विकास एवं संघहित की दृष्टि से साध्वी-प्रमुखा की नियुक्ति आदि कई नई व्यवस्थाएं निर्मित की इससे साध्वियों का सर्वांगीण विकास हुआ, वे कला, साहित्य, शिक्षा आदि क्षेत्रों में रुचि लेने लगी यह इस युग की बहुत बड़ी उपलब्धि थी इनमें कई साध्वियाँ तप के क्षेत्र में भी अग्रणी रहीं, कुछ साध्वियों ने तीन बार तथा किसी ने छह बार छहमासी तप करके श्रमण-संस्कृति को गौरवान्वित किया, इनमें से कुछ श्रमणियों की झलक इस प्रकार है 7.6.1 श्री चन्दनांजी 'बींठोड़ा' (सं. 1908-52) 4/1 आपका जन्म धामली के बोहरा परिवार में हुआ और ससुराल बींठोड़ा (राज.) के लोढ़ा गोत्र में था। पतिवियोग के बाद सं. 1908 माघ शुक्ला 11 को साध्वी श्री मगदूजी के द्वारा दीक्षा ग्रहण की। आप श्री जयाचार्य की प्रथम शिष्या थीं। आप तपस्विनी साध्वी थीं। 900 उपवास, 70 बेले, 20 तेले, 32 चौले 10 पचोले, 15, 19, 30 की तपस्या एक बार की। 35 बार दस प्रत्याख्यान किये। 7.6.2 साध्वी प्रमुखा श्री गुलाबांजी 'बीदासर' (सं. 1908-42) 4/3 आप जयाचार्य के शासन की प्रथम बाल ब्रह्मचारिणी साध्वी तथा द्वितीय साध्वी प्रमुखा थीं। आपका जन्म बीदासर में श्री पूरणमलजी बेगवानी के यहां सं. 1901 में हुआ। पंचम आचार्य मघवागणी की आप लघु भगिनी थीं। गर्भ के 9 महीने मिलाकर नौवें वर्ष में प्रवेश करने पर आपकी दीक्षा अपनी माता श्री वन्नाजी के साथ सं. 1908 फाल्गुन कृष्णा 6 को जयाचार्य के द्वारा बीदासर में हुई। आपका व्यक्तित्व अत्यंत प्रभावी एवं अनुकरणीय था। आपने श्रीमज्जयाचार्य की 'भगवती सूत्र' पर पद्यबंद्ध रचना की। एक बार सुनकर ही आप लिपिबद्ध कर लेती थीं। अक्षर मोती से थे अतः आपने अनेक ग्रंथों को लिपिबद्ध किया। सं. 1927 को बीदासर में श्रीमज्जयाचार्य ने आपको 'साध्वी प्रमुखा' के रूप में अलंकृत किया। 15 वर्ष तक इस गरिमामय पद का निर्वहन कर सं. 1942 में जोधपुर में आपका महाप्रयाण हुआ। श्री मघवागणी ने आपकी गुणगरिमा एवं जीवन प्रसंग के सन्दर्भ में 'गुलाब सुजश' नामक आख्यान की रचना की। 6. शासन-समुद्र भाग-7 815 Page #878 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन श्रमणियों का बृहद इतिहास 7.6.3 श्री जेताजी "चितामा' (सं. 1908-52) 4/9 आपका पीहर ताल (मेवाड़) पीपाड़ परिवार में तथा ससुराल चितामा के मांडोत गोत्र में था। पतिवियोग के पश्चात् आपने ज्येष्ठ शु. 3 को साध्वी दीपांजी द्वारा दीक्षा अंगीकार की। आप दीर्घ तपस्विनी साध्वी थीं। आपके उपवास से लेकर साढ़े छहमासी तक के तप का विस्तृत लेखा जोखा बड़ा ही रोमांचकारी है। आपके तप की तालिका इस प्रकार है -1106, बेले 77, चोले 26, पचोले 2, सात व आठ 1-1 बार, नौ 3 बार, ग्यारह व पन्द्रह एक-एक बार, 30 तीन बार 31, 32, 45, 60 (दो बार) 63, 75, 170 एक-एक बार, छहमासी तप चार बार (आछ के आगार से)। इस प्रकार साध्वी जेताजी ने अपने जीवन को विशिष्ट तप साधना द्वारा स्वर्ण की तरह चमकाकर भौतिक युग में अध्यात्मवाद का आदर्श उपस्थित कर दिया। सं. 1952 मृगसिर कृष्णा 12 को जयपुर में सात दिन के चौविहार अनशन के साथ वे स्वर्ग की ओर प्रस्थित हुईं। 7.6.4 श्री झूमां जी "सिरेवड़ी' (सं. 1908-41) 4/11 आप सिरेवड़ी के चाहवत परिवार की पुत्रवधू एवं कुंदवा के मांडोत परिवार की कन्या थी। पतिवियोग के पश्चात् ज्येष्ठ शुक्ला 5 को श्री दीपां जी द्वारा दीक्षित हुई। आप भी उच्चकोटि की तपस्विनी साध्वी थीं। छह बार छहमासी तप करके आपने तेरापंथ धर्मसंघ में अभूतपूर्व कीर्तिमान स्थापित कर दिया। इसके अतिरिक्त आप द्वारा की गई अन्य तपस्या का विवरण इस प्रकार है-बेले 62, तेले 10, चौले 10, पचोले 22, छह, सात, आठ (छह बार), नौ, दस, तेरह, सत्रह, इक्कीस (दो) बावीस, तेवीस के तप एक बार, 30 छह, 32 दो, 60 एक, सवा चारमासी दो बार। इसके अतिरिक्त अढ़ाई सौ प्रत्याख्यान, चार मास एकान्तर व अनेक बार दस प्रत्याख्यान किये। श्रावण शुक्ला 15 को मासखमण तप के पारणे में आप दिवंगत हुई। 7.6.5 श्री केशरजी 'मांडा' (सं. 1914-49) 4/49 आप जयाचार्य युग की छठी कुमारी कन्या थीं। आपकी दीक्षा सं. 1914 भाद्रपद शुक्ला 10 को अपने पिता श्री छजमलजी, माता श्री उमेदांजी तथा भुआ श्री कुंदनांजी के साथ जयाचार्य के द्वारा बीदासर में हुई। आप उस युग की प्रतिभाशालिनि साध्वियों में एक थी। आपका सिंघाड़ा प्रमुख माना जाता था, आपने अनेक क्षेत्रों में विचरण कर धर्म का प्रचार-प्रसार किया। बहन-भाइयों में अध्यात्म के गहरे संस्कार भरे। आपके रतनगढ़ चातुर्मास सं. 1931 में संवत्सरी के दिन 200 पौषध होने का उल्लेख है। कला के क्षेत्र में भी आप सिद्धहस्त थीं। आपके अक्षर स्वच्छ व सुंदर थे, लगभग डेढ़ किलो वजन के पन्ने आपने लिपिबद्ध किये। इस प्रकार आपका जीवन विविध विशेषताओं का संगम था। 7.6.6 श्री रायकंवरजी 'चितामा' (सं. 1916-72) 4/60 आपकी माता साध्वी जेताजी एवं भगिनी श्री नाथांजी के दीक्षित होने के 8 वर्ष पश्चात् आषाढ़ कृष्णा 11 को श्री नाथांजी से आपने संयम ग्रहण किया। आपने अनेक वर्षों तक विचरण कर जन-जन के मन में अध्यात्म ज्योति जागृत की। आप द्वारा छह बहिनों को दीक्षा प्रदान करने का उल्लेख मिलता है, वे हैं-साध्वी पाचांजी, श्री जमनाजी, श्री वखतावर जी, श्री सिरदारां जी, श्री भूरांजी, श्री हगामा जी, श्री रायकंवर जी। 816 Page #879 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तेरापंथ परम्परा की श्रमणियाँ 7.6.7 साध्वी प्रमुखा श्री जेठांजी 'चूरू' (सं. 1919-81) 4/72 आप चूरू के श्री सेवारामजी नाहटा की सुपुत्री थीं। चूरू में ही श्री छगनमलजी बैद के साथ लघुवय में आप वैवाहिक बंधन में बंधी। पतिवियोग के पश्चात् 19 वर्ष की वय में सं. 1919 आषाढ़ शुक्ला 3 को जयाचार्य के द्वारा चूरू में ही संयमी जीवन में प्रवेश किया। आपका शरीर सुन्दर, सुगठित व शौर्य सम्पन्न था, दर्शन मात्र से जनता का मन प्रफ्फुलित हो जाता था। आपकी संयमनिष्ठा, संघीय भावना, गुरु भक्ति, अनुशासनबद्धता, कला-कुशलता, कार्यक्षमता व अद्भुत नेतृत्व शक्ति को देखकर सं. 1954 में सप्तम आचार्य श्री डालगणी ने तृतीय साध्वी प्रमुखा के रूप में चयन किया। आप महान तपस्विनी भी थीं, तपस्या का विवरण इस प्रकार है-उपवास 600, बेले 58, तेले 38, चोले 2, पचोले 10, छह 2, आठ 1, नौ 2, 13, 16, 20, 22 उपवास एक बार। आपके तप की विशेष उल्लेखनीय बात यह है, कि आपकी प्रायः सभी तपस्याएँ चौविहारी होती थी, अर्थात् 22 की तपस्या में भी पानी तक ग्रहण नहीं किया। अनशन रहित चौविहारी 22 दिन के तप का कीर्तिमान स्थापित करने वाली तेरापंथ धर्मसंघ में आप अद्वितीय साध्वी हैं। श्री जेठांजी ने लगभग साढ़े 61 वर्ष की संयम-पर्याय में पांच आचार्यों (जयाचार्य से कालूगणी) का शासन देखा एवं उनकी सेवा भक्ति की। सं. 1981 कार्तिक शुक्ला नवमी को चौविहारी अनशन के साथ वे स्वर्ग की ओर प्रयाण कर गईं। 7.6.8 श्री भूरांजी 'लाडनूं' (सं. 1924-97) 4/110 आपका जन्म सं. 1910 फाल्गुन शुक्ला 10 को लाडनूं कस्बे के निवासी मुलतानमलजी सरावगी के यहां हुआ। वाग्दान को ठुकराकर 14 वर्ष की उम्र में फाल्गुन कृ. 6 सं. 1924 को श्री जयाचार्य द्वारा आप दीक्षित हुईं। आपने अनेक क्षेत्रों में विचरकर धर्म का खूब प्रचार-प्रसार किया, कइयों को बारह व्रतधारी बनाया। सं. 1934 से आप अग्रणी होकर विचरने लगीं थीं। आप दीर्घ आयु वाली एवं दीर्घ संयम-पर्याय वाली साध्वी जी हुईं। अपने 73 वर्षों के साधनाकाल में आपने जयाचार्य से लेकर आचार्य श्री तुलसी तक छह आचार्यों के शासनकाल देखा, संवत् 1997 पडिहारा में आपका स्वर्गवास हुआ। 7.6.9 श्री जड़ावांजी 'जयपुर' (सं. 1928-91) 4/135 आपका ससुराल जयपुर में 'बैद' के यहाँ तथा पीहर सामसुखा के यहां था। पतिवियोग के पश्चात् 16 वर्ष की वय में द्वितीय भाद्रपद कृ. 7 को श्री जयाचार्य द्वारा जयपुर में ही आपकी दीक्षा हुई। आपका कंठ अत्यंत मधुर व सुरीला था। आपने अपने दीर्घ संयम जीवन को तप से सजाया। कुल 2053 उपवास, 420 बेले, 339 तेले, 5 चोले, पंचोला व अठाई की तपस्या की। आपका स्वर्गवास सं. 1991 जेठ वदी 9 को मोमासर में हुआ। 7.6.10 श्री गंगाजी 'मांडा' (सं. 1933-93) 4/176 आप जयाचार्य युग की 25वीं कुमारी कन्या थीं, आपने 60 वर्ष के संयम-पर्याय में जयाचार्य से तुलसीगणी तक छह आचार्यों एवं आठ आचार्यों के साधु-साध्वियों के दर्शन किये। आपका जन्म सं. 1922 कार्तिक शुक्ला 8 मांडा (मारवाड) ग्राम में हुआ। 11 वर्ष की वय में जयाचार्य द्वारा मांडा में ही दीक्षित हुईं थीं। आपको छह आगम कंठस्थ थे, स्मरणशक्ति इतनी अच्छी कि साधु साध्वी उनसे विस्मृत सूत्रों को पूछने के लिए आते। आप 817 For Privatlersonal Use Only Page #880 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन श्रमणियों का बृहद इतिहास तार्किक भी थीं, प्रश्नकर्ता को ऐसा उत्तर देतीं, कि वह समाधान पाकर संतुष्ट होता था। आपने तीन साध्वियों को स्वयं दीक्षित किया-श्री चांदाजी, पेफांजी, श्री चांदाजी। आपको ज्योतिष तथा स्वर का भी अच्छा ज्ञान था, आप प्रायश्चित् देने में भी कुशल थीं, अनेक साध्वियाँ आपसे प्रायश्चित् ग्रहण करती थीं सं. 1983 से 93 तक रतनगढ़ में स्थिरवासिनी रहीं, वहीं ज्येष्ठ कृ. 10 को समाधिपूर्वक मृत्यु हुई। 7.6.11 श्री जयकंवरजी 'माधोपुर' (सं. 1935-95) 4/194 आप ढूंढाण के श्री शोभालाल जी पोरवाल की पत्नी थीं। पतिवियोग के बाद 26 वर्ष की वय में जयाचार्य से बीदासर में दीक्षित हुईं। आप संयमनिष्ठ, सेवाभावी, त्यागी-वैरागी साध्वी थीं। मघवागणी से कालूगणी तक के लिये उदक-व्यवस्था प्रायः आप ही करती थीं। 86 वर्ष की आयु व 60 वर्ष की दीक्षा पर्याय में उन्हें आचार्य तुलसी तक का शासनकाल देखने का सौभाग्य प्राप्त हुआ। आप लाडनूं स्थिरवास रहीं, वहीं चैत्र शुक्ला 1 सं. 1995 को दिवंगत हुईं। 7.6.12 श्री जड़ावां जी 'बोरावड़' (सं. 1937-2000) 4/219 ___ आपका जन्म श्री चैनजी बम्ब के यहां संवत् 1909 में हुआ पीहर व ससुराल दोनों बोरावड़ में थे। पतिवियोग के पश्चात् मृगसिर कृ. 5 को मुनि श्री भगवानजी द्वारा बोरावड़ में ही दीक्षा स्वीकार की। उस दिन आप गण एवं गणी के प्रति एकनिष्ठ भक्ति रखती थीं, अपनी चर्या में भी अति जागरूक थीं। आपने 1200 उपवास, 29 बेले, 21 तेले, चोले व पंचोले 7 बार, 10 से 13 तक के उपवास एक बार किये। आप 91 वर्ष की अवस्था में साधिक 63 वर्ष का संयम पर्याय पालकर ज्येष्ठ शु. 9 को छापर में दिवंगत हुईं। आपने भी छह आचार्यों की सेवा-भक्ति की। सं. 1955 से अग्रणी बनकर विचरीं। 7.7 पंचम आचार्य श्री मघवागणी के शासनकाल की प्रमुख श्रमणियाँ (संवत् 1938-49) तेरापंथ-संघ के पंचम आचार्य श्री मघवागणी हुए, 12 वर्ष की संयम पर्याय और 24 वर्ष की वय में श्री जयाचार्य द्वारा आप युवाचार्य पद पर नियुक्त हुए। 18 वर्ष तक युवाचार्य पद पर अधिष्ठित रहकर जयाचार्य के स्वर्गवास के पश्चात् वि. सं. 1938 को जयपुर में मघवागणी ने तेरापंथ धर्मसंघ का दायित्व संभाला। उनका शासनकाल 11 वर्ष का था, इस अल्प अवधि में 36 साधु एवं 83 साध्वियाँ दीक्षित हुईं। प्रथम साध्वी जोधांजी और अंतिम श्री छगनांजी थीं। इनमें कई साध्वियाँ उत्कट तपस्विनी धर्मप्रचारिका, शास्त्रज्ञा एवं संघ प्रभाविका हुईं। आठ बाल-ब्रह्मचारिणी थीं। गण से पृथक् 5 साध्वियों के अतिरिक्त शेष 78 साध्वियों ने अपने संयम, तप, स्वाध्याय-ध्यान आदि विभिन्न उपक्रमों द्वारा आत्मोत्थान के साथ तेरापंथ को भी गौरवान्वित किया। 7.7.1 श्री जोधांजी, श्री लिछमांजी 'सुजानगढ़' (सं. 1938-2001) 5/1-2 आप दोनों माँ-पुत्री थीं, सुजानगढ़ के श्री कोडामल जी बेगवानी की क्रमशः पत्नी एवं कन्या थीं। जोधांजी ने पतिवियोग के पश्चात् नौ वर्षीया पुत्री लिछमां जी के साथ सं. 1938 भादवा सुदी 13 को मघवागणी के द्वारा 7. शासन-समुद्र भाग-11 818 Page #881 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तेरापंथ परम्परा की श्रमणियाँ जयपुर में दीक्षा अंगीकार की। ये दोनों मघवागणी के आचार्य पदारोहण के पश्चात् सर्वप्रथम शिष्याएँ थीं। जोधांजी वर्ष की संयम पर्याय में 108 उपवास, 10 बेले, 3 तेले, 4 चोले तथा दो-दो बार पांच व छह का तप किया। आप सं. 1947 में स्वर्गवासिनी हुईं। लिछमांजी विदुषी साध्वी थीं, 18 वर्ष की वय में ही वे अग्रणी के रूप में विचरण करने लगीं। स्वाध्याय, ध्यान व तप इनके जीवन का प्रमुख अंग रहा। उन्होंने 1000 उपवास, 32 बेले, 3 तेले, एक बार 4, 5, 8 और 58 उपवास की तपस्या की 63 वर्ष संयम पर्याय का पालन कर सं. 2001 में वे दिवंगत हुईं। 7.7.2 श्री जेठांजी 'रतनगढ़' (सं. 1938-45 ) 5/6 आप बीदासर निवासी अमरचंदजी चोरड़िया की पुत्री व रतनगढ़ के श्री भैरुंदानजी दूगड़ की पत्नी थीं। बीकानेर में वैशाख कृष्णा 5 को दीक्षा अंगीकार की। आप प्रकृति से भद्र, विनयी एवं तपस्विनी थीं। अंतिम समय जानकर आपने जब अनशन ग्रहण किया, तो अनेक साधु-साध्वियों ने भी आहार- पानी का त्याग कर दिया । जैसे, श्री किस्तूरांजी ने अनशन पूर्ण होने तक चारों आहार का ज्ञानांजी ने तीन आहार का मुनि चुन्नीलालजी ने उस दिन से पांच दिन तीन आहार का त्याग तथा अन्य 14 साधु-साध्वियों एवं श्रावक श्राविकाओं ने विविध त्यागप्रत्याख्यान किये। साढ़े 6 दिन का तिविहारी अनशन कर आषाढ़ कृष्णा 11 (द्वि.) को आप स्वर्गवासिनी हुईं। 7.7.3 श्री कुन्नणांजी 'कोशीथल' (सं. 1938 से 64 के पूर्व डालिम युग ) 5/7 कुन्णाजी का ससुराल कोशीथल कोठारी गोत्र में व पीहर लासानी में था। पतिवियोग के पश्चात् वैशाख शु. 8 को श्री किस्तूरांजी के द्वारा ये दीक्षित हुईं। सं. 1944 से 48 के मध्य इन्होंने 95 उपवास चार बेले, सात तेले, दो चोले, 15, 16, 17, 19, 20 की तपाराधना करके अपने जीवन को पवित्र बनाया। 7.7.4 श्री सुखांजी 'चंदेरा' (सं. 1940-77) 5/21 आप चंदेरा के सिंघवी गोत्रीय मोडीरामजी की पत्नी थीं। पति-पत्नी दोनों ने सं. 1940 ज्येष्ठ कृ. 5 को उदयपुर में दीक्षा ग्रहण की। सुखांजी बड़ी तपस्विनी थीं, उन्होंने 100 उपवास, 13 बेले, 10 तेले, 5 चोले, 2 नौ तथा 13, 21, 31, 61 उपवास आदि किये। 23 दिन का एक तप किया, जिसमें केवल एक दिन पानी पिया। अंतिम समय 52 दिन का तिविहारी तप पूर्ण कर 53वें दिन ज्येष्ठ शु. 4 सं. 1977 में आप दिवंगत हुईं। 7.7.5 श्री आभांजी 'सरदारशहर' (सं. 1941-96) 5/33 आपका जन्म संवत् 1923 को श्री बींजराजजी बोथरा के यहां हुआ, तथा विवाह बरड़िया परिवार में हुआ पीहर व ससुराल दोनों सरदारशहर में थे। पतिवियोग के पश्चात् आपने 18 वर्ष की वय में ज्येष्ठ शु. 3 को मुनि श्री कालूजी द्वारा दीक्षा अंगीकार की। आपकी सेवाभावना प्रशंसनीय थीं, सं. 1967 से आप अग्रणी साध्वी रहीं एवं धर्म का खूब प्रचार-प्रसार किया। सं. 1996 चैत्र शु. 2 को सरदारशहर में 55 वर्ष का संयम पालकर दिवंगत हुईं। 7.7.6 श्री गुलाबांजी 'सरदारशहर' (सं. 1943-96) 5/46 श्री गुलाबांजी श्री नंदलालजी नाहटा की सुपुत्री थीं। 16 वर्ष की वय में मुनि श्री कालूजी से सरदारशहर में दीक्षा अंगीकार की। सं. 1974 में ये अग्रणी बनकर विचरण करने लगीं। इन्होंने मेवाड़, मारवाड़ में जैनधर्म का 819 Page #882 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन श्रमणियों का बृहद इतिहास खूब प्रचार-प्रसार किया। आप उग्र तपस्विनी थीं, आपने 2419 उपवास, 221 बेले, 41 तेले, 17 चोले, 9 पांच, 8 आठ बार व 6, 7 तीन बार, 15 का तप एक बार किया। आपने लघुसिंहनिष्क्रीड़ित तप की प्रथम परिपाटी की, जिसमें तप के कुल दिन 3149 होते हैं, परिपाटी संपन्न होने के 20 दिन पूर्व ही कार्तिक शु. 12 सं. 1996 को आप दिवंगत हो गईं। यह तप तेरापंथ धर्मसंघ में सर्वप्रथम आपने किया । 7.7.7 श्री छोगांजी 'छापर' (सं. 1944-97) 5/48 आप अष्टम आचार्य कालूगणी की महिमामयी मातेश्वरी एवं 'ढढेरु' निवासी श्री मूलचंदजी चोपड़ा की धर्मपत्नी थीं। सं. 1934 में पति का देहान्त हुआ, तब पुत्र कालू साढ़े तीन मास का था । सं. 1941 में श्री मृगाजी के उपदेश से छोगांजी का मन संसार से विरक्त हो गया, आश्विन शु. 3 को बीदासर में माता छोगां जी, पुत्र कालू और भगिनी - पुत्री कानकंवर ने श्री मघवागणी से संयम ग्रहण किया। श्री छोगांजी की त्याग - वृत्ति, संयम के प्रति जागरूकता उच्चकोटि की थी। आपने तपस्या भी खूब की । आपने अपने संयम काल में 3914 उपवास 1586 बेले, 86 तेले, 17 चोले, 11 पचोले, 6, 11 (दो) 14, 16, 17, 19, 29 आदि तप किया। 20 वर्ष तक एकान्तर किया। अन्त में तीन दिन की संलेखना और 5 दिन के अनशन के साथ चैत्र कृष्णा 11 सं. 1997 को ये महामनस्विनी, वैराग्यमूर्ति मातुः श्री स्वर्गलोक की ओर प्रयाण कर गईं। 7.7.8 साध्वी प्रमुखा श्री कानकंवरजी 'श्री डूंगरगढ़' (सं. 1944-93) 5/49 आप तेरापंथ श्रमणीसंघ की पांचवीं साध्वी प्रमुखा हैं। आपका जन्म भाद्रपद शु. 9 संवत् 1930 श्री लच्छीरामजी मालू के यहां हुआ। सं. 1944 आश्विन शु. 3 को श्री मघवागणी द्वारा आप दीक्षित हुईं। अपनी प्रखर मेधा शक्ति एवं धारणा शक्ति से आपने कई आगम, स्तोक, व्याख्यान आदि कंठस्थ किये। संवत् 1956 से आपके वैदुष्य एवं विद्वत्ता से प्रभावित होकर आचार्य मघवागणी ने अग्रणी साध्वी का स्थान प्रदान किया। संवत् 1981 में आप 'प्रमुखा - पद' पर प्रतिष्ठित हुईं। आप निर्भीक, साहसी एवं वाक् कुशल थीं। संगीत इतना मधुर था कि एक बार चोरों का हृदय भी संगीत श्रवण कर परिवर्तित हो गया। कला भी आपकी बेजोड़ थी। आपने स्वाध्याय व तात्विक जिज्ञासा द्वारा अनेकों लोगों को जिनशासन रसिक बनाया। आपके हृदयग्राही प्रवचनों को सुनने के लिये संत भी लालायित रहते थे एवं पूज्य दृष्टि से आदर देते थे। आप स्वाध्याय में आनन्दानुभूति का अनुभव करती थी, रात में घंटों स्वाध्याय में लीन रहतीं, दिन में आगम वाचन करती थीं, वर्ष भर में आप 32 आगम पढ़ थीं। वि. सं. 1993 भाद्रपद कृ. 5 को अत्यन्त समाधिस्थ अवस्था में राजलदेसर में आपका स्वर्गवास हुआ। 7.7.9 श्री मुखांजी 'सरदारशहर' (सं. 1944-55 ) 5/52 आप सरदारशहर के श्री जुहारमलजी डागा की सुपुत्री थीं। आप विलक्षण बुद्धि संपन्न बालिका थीं, नौ वर्ष की उम्र में चैत्र शु. 9 को मघवागणी ने सरदारशहर में इन्हें दीक्षित किया। अपनी विनय भक्ति एवं कार्यक्षमता से आप मघवागणी व माणकगणी की विशेष कृपापात्र रहीं, आपको देखकर मघवागणी कहते - " मेरे पास मुखांजी जैसा साधु हो तो मुझे पिछले प्रबन्ध के लिये किसी प्रकार की चिन्ता न रहे।" ये उद्गार मुखांजी के प्रति गौरव व सम्मान के सूचक थे। 11 वर्ष संयम का आराधन कर 20 वर्ष की अल्पायु में ही वे संसार से विदा हो गईं। 820 Page #883 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तेरापंथ परम्परा की श्रमणियाँ 7.7.10 श्री मीरांजी "सिरसा' (सं. 1945-2004) 5/61 श्री मीरांजी का ससराल सिरसा (पंजाब) के बरडिया परिवार में व पीहर पुनलसर के सेठिया गोत्र में श्री भोजराजजी के यहां था। पति के स्वर्गवास के पश्चात् 24 वर्ष की वय में इन्होंने कार्तिक कृ. 8 को सं. 1945 में मघवागणी द्वारा दीक्षा ग्रहण की। सं. 1967 में अग्रणी बनकर आपने अनेक क्षेत्रों में धर्म का प्रचार किया। सं. 2004 ज्येष्ठ कृ. 3 को 'मोमासर' में आपका स्वर्गवास हुआ आपने अपने संयमी जीवन में उपवास 3188, बेले 173, तेले 6, चोले 9, पचोले 6 तथा 6 से 13 तक का तप एक बार किया। 7.7.11 श्री जड़ावांजी 'चाड़वास' (सं. 1947-97) 5/70 आप मोमासर निवासी हजारीमलजी पटावरी की सुपुत्री एवं चाड़वास के श्री चुन्नीलालजी सेठिया की पत्नी थीं। पतिवियोग के बाद ये तीन वर्षीय सुत को छोड़कर भाद्रपद शु. 14 को मघवागणी द्वारा बीदासर में दीक्षित हुईं। दीक्षा के 21 वर्ष पश्चात् ये अग्रणी के रूप में विचरीं। आप बड़ी तपस्विनी थीं, आपने 2425 उपवास, 295 बेले, 115 तेले, 41 चोले, 21 पचोले, 4 छह, 5 सात, 3 अठाई, 3 नौ एवं लघुसिंह निष्क्रीड़ित तप की प्रथम परिपाटी की, कल तप के दिन 3739. अर्थात 10 वर्ष 4 मास 19 दिन आपने तप में व्यतीत किये। पांच बार अढाई सौ प्रत्याख्यान, एकासने आयम्बिल आदि भी किये। नौ की तपस्या के साथ आपने अनशन किया 5 दिन के चौविहार अनशन से भाद्रपद शु. 13 सं. 1997 में स्वर्गस्थ हुईं। साध्वीश्री को अनेक वर्षों से दिखाई नहीं देता था, अनशन के दौरान उनकी एक आंख में ज्योति आ गई। यह तप का ही प्रभाव था। उनकी स्मृति में 'स्मृति-चन्द्रिका' नामक एक लघु पुस्तिका प्रकाशित हुई है। 7.7.12 श्री छगनांजी 'रासीसर' (सं. 1949-81) 5/83 श्री छगनांजी देशनोक के गिरधारीलालजी नाहटा की पुत्री व रासीसर के श्री चतरो जी छाजेड़ की पुत्रवधू थीं। 19 वर्ष की उम्र में विवाह और 10 वर्ष की उम्र में वैधव्य ने उन्हें संसार से विरक्ति दिलादी, अतः 14 वर्ष की वय में मृगसिर कृ. 1 को देशनोक में श्री हुलासांजी के द्वारा दीक्षित हुईं। आप मघवागणी की अंतिम शिष्या थीं। इन्होंने सं. 1967 से 15 वर्ष अग्रणी के रूप में ग्रामानुग्राम विचरण कर जिनशासन की ज्योति बढ़ायी। सं. 1981 आश्विन कृ. 11 को दृढ़ निश्चय और मनोबल के साथ इन्होंने आजीवन अनशन ग्रहण कर लिया, संथारा करते ही शरीर स्वस्थ हो गया, तथापि आपकी दृढ़ता चट्टान की तरह स्थिर रही, 37 दिन का अनशन पूर्ण कर देवगढ़ में परम समाधिपूर्वक ये पंडित मरण को प्राप्त हुईं। आपके संथारे के 16वें दिन चार बहनों ने भी तपस्या प्रारंभ की, उन सबको 22 दिन का उपवास हुआ, एक की नौ दिन की तपस्या हुई। 7.8 षष्ठम आचार्य श्री माणकगणी के शासनकाल की प्रमुख श्रमणियाँ (सं. 1948-54) श्री मघवागणी ने सं. 1948 को सरदार शहर में फाल्गुन शुक्ला चतुर्थी के दिन माणकमुनि को युवाचार्य पद पर प्रतिष्ठित किया। सं. 1949 में मघवागणी का स्वर्गवास हो गया, उस समय माणकगणी आचार्य पद पर अधिष्ठित हए, आप आचार्य पद पर मात्र साढे चार वर्ष तक रहे, सं. 1954 में सुजानगढ़ में 42 वर्ष की उम्र 8. शासन-समुद्र, भाग 13. 821 Page #884 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन श्रमणियों का बृहद इतिहास में आप स्वर्गवासी हो गये। साढ़े 4 वर्ष की अवधि में 15 साधु तथा 25 साध्वियाँ दीक्षित हुईं। जिनमें दो साध्वियाँ गण से पृथक् हो गईं। शेष 23 ने निर्मल संयम का पालन किया। इनके शासनकाल की साध्वी धन्नांजी ने विविध तपोनुष्ठान के साथ लघुसिंह निष्क्रीड़ित तप की चतुर्थ परिपाटी कर तेरापंथ धर्मसंघ को गौरवान्वित किया था। अय श्रमणियाँ भी उग्र तपस्विनी, संलेखना अनशन आराधिका अग्रगण्या व सेवाभाविनी के रूप में ख्याति प्राप्त हुई । 7.8.1. श्री विरधांजी 'बोरज' (सं. 1950-2006 ) 6/2 आपका जन्म सिसोदा (मेवाड़) के श्री नेमीचंदजी डूंगरवाल के यहां सं. 1925 में हुआ, एवं विवाह श्री जालमचंदजी गुंदेचा से हुआ। पतिवियोग के बाद पौष कृ. 10 को मुनि जयचंदलालजी द्वारा बोरज में दीक्षा ग्रहण की। दीक्षा के पश्चात् अनेक वर्ष आचार्यों की सेवा में रहीं, आपकी प्रकृति सरल थीं, संवत् 1984 से आपने अग्रणी पद पर रहकर शासन की विशिष्ट सेवा की। जहां भी जातीं शासन की प्रभावना करतीं। सरदारशहर चातुर्मास में आप लगभग 90 घरों से भिक्षा लाती थीं। आप तपस्विनी भी थीं। संयमी जीवन में 3014 उपवास, 321 बेले, 11 तेले 10 चोले, 3 पचोले एक 10 का तप किया। सं. 2006 पौष शु. 3 को रतनगढ़ में समाधिपूर्वक मृत्यु प्राप्त की । 7.8.2 श्री सुवटांजी 'राजलदेसर' (सं. 1951-85 ) 6/9 आपका जन्म राजलदेसर में श्री गिरधारीलालजी बैद के यहां सं. 1934 में हुआ। श्री हजारीमलजी कुंडलिया के साथ विवाह हुआ। पतिवियोग के बाद 17 वर्ष की उम्र में श्री माणकगणी से राजलदेसर में दीक्षा स्वीकार की। आप आगम विज्ञाता, सुलेखिका थीं, लाखों पद्य लिपिबद्ध किये। आप निर्भीक एवं साहसी भी थीं। स्व-परमती समाज में आपके व्यक्तित्व की धाक थी, संवत् 1963 से अग्रगण्या रूप में विचरीं । धर्म व शासन पर महान उपकार कर आप लाडनूं में स्वर्गवासिनी हुईं। 7.8.3 श्री रामकंवरजी 'भखरी' (सं. 1952-98) 6/11 आपका जन्म संवत् 1932 को बोरावड़ निवासी श्री मूलचंदजी बोथरा के यहां हुआ, ससुराल भखरी के कोठारी परिवार में था। पति श्री रामलालजी का वियोग होने पर आपने बोरावड़ में मृगसिर शुक्ला 5 को माणकगणी से दीक्षा ग्रहण की। आप तप में संलग्न रहकर आत्म-कल्याण में प्रवृत्त हुईं। आपने 1660 उपवास 317 बेले, 7 तेले, 24 चोले और 4 पचोले किये। चूरू में ज्येष्ठ कृष्णा 12 संवत् 1998 में आप दिवंगत हुईं। 7.8.4 श्री नानूंजी 'सरदारशहर' (सं. 1952-96) 6/16 आप सरदार शहर के श्री तेजमलजी छाजेड़ की पुत्री थीं एवं श्री जुहारमलजी दूगड़ की पत्नी थीं । पतिवियोग के बाद 26 वर्ष की वय में सरदारशहर में ही प्रथम ज्येष्ठ कृष्णा 6 को माणकगणी द्वारा दीक्षित हुईं। आप बड़ी तपस्विनी हुईं, आपके तप के आंकड़े रोमाञ्चित करने वाले हैं - उपवास 1386, बेले 547, तेले 92, चोले 124, पचोले 66, छह 13, सात 10, आठ 9, नौ 4, दस 4, ग्यारह 5, चौदह 1, पन्द्रह 3, सोलह 1, सत्रह 1, अठारह 1, बावीस 1, कुल 4065 दिन तप में व्यतीत किया । वैशाख कृष्णा 7 को लाडनूं में स्वर्गवासिनी हुईं। 822 Page #885 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तेरापंथ परम्परा की श्रमणियाँ 7.8.5 श्री मधुजी 'रीडी' (सं. 1953-2012 ) आपका जन्म बीदासर में श्री उदयचंदजी मरोठी के यहां संवत् 1934 में हुआ एवं विवाह श्री प्रतापमलजी भंसाली में हुआ। पतिवियोग के पश्चात् आपने भाद्रपद कृष्णा 11 को बीदासर में माणकगणी से दीक्षा स्वीकार की। आपने तपस्विनी साध्वियों की श्रेणी में अपना नामांकन करवाया । उपवास 2208, बेले 76, तेले 11, चोले 8, पचोले 5, नौ 1 बार किया। कई वर्षों तक एकांतर तप भी किया। 60 वर्ष संयम का निर्वाह कर सं. 2012 चाड़वास में समाधिपूर्वक देह त्याग किया। 7.8.6 श्री वाल्हांजी 'सिरसा' (सं. 1953-2009 ) 6/23 साध्वी वाल्हांजी का जन्म 'रीणी' गांव के श्री दुरजनदासजी के यहां सं. 1938 में हुआ। उनके पति का नाम खुमाणचंदजी नवलखा था। पतिवियोग के पश्चात् 16 वर्ष की वय में अक्षय तृतीया के दिन श्री भरांजी द्वारा राजगढ़ में दीक्षा अंगीकार की । आप बड़ी तपस्विनी हुईं, आपके तप की तालिका में 1744 उपवास, 622 बेले, 88 तेले, 60 चोले, 50 पचोले, 15 छह, 6 सात, 18 अठाई, 3 नौ, दस, ग्यारह, बारह, तेरह, चौदह का तप दो-दो बार 15 तीन बार, 16, 17 दो बार, मासखमण एकबार इस प्रकार कुल 4306 दिन तप में व्यतीत किये। आपने कर्मचूर, धर्मचक्र, वर्षीतप व लघुसिंहनिष्क्रीड़ित तप भी ( प्रथम परिपाटी) किया। अंत में 30 दिन के तिविहार तप में 4 दिन के संथारे के साथ लाडनूं में स्वर्गवासिनी हुईं। 7.8.7 श्री धन्नांजी 'जसोल' (सं. 1954-93 ) 6/25 आपके पिता श्री मोटारामजी मुणोत और पति श्री गुलाबचंदजी चोपड़ा थे। पतिवियोग के पश्चात् साध्वी जांजी के द्वारा बालोतरा में दीक्षा स्वीकार की। उस समय माणकगणी का स्वर्गवास हो गया था और डालगणी का निर्वाचन नहीं हुआ था। आप दीर्घ तपस्विनी साध्वी थीं, आपने 9, 18, 27, 29 दिन छोड़कर उपवास से 32 दिन तक लड़ीबद्ध तप किया। इसमें 1500 उपवास, 142 बेले 103 तेले, 57 चोले, 54 पचोले, 6 छह, 5 सात, 6 आठ, 2 दस किये शेष तप एक बार किया। धर्मचक्र, कर्मचूर एवं लघुसिंहनिष्क्रीड़ित तप की चौथी परिपाटी संपूर्ण की'। आपका स्वर्गवास संवत् 1993 चैत्र कृष्णा 4 को 'सुधरी' में हुआ। 7.9 सप्तम आचार्य श्री डालगणी के शासन काल की प्रमुख श्रमणियाँ (सं. 1954-66) तेरापंथ धर्मसंघ के सातवें आचार्य श्री डालगणी आगम-मर्मज्ञ शास्त्रार्थ निपुण, तार्किक प्रतिभा के धनी, उग्र पाद - विहारी तेजस्वी आचार्य थे। माणकगणी के अकस्मात् स्वर्गवास के पश्चात् धर्मसंघ में उनका निर्विरोध निर्वाचन हुआ। मुनि जीवन के 43 वर्ष के काल में उन्होंने 12 वर्ष तक तेरापंथ धर्मसंघ के दायित्व का कुशलता से संचालन किया । वि. सं. 1966 भाद्रपद शुक्ला द्वादशी के दिन लाडनूं में उनका स्वर्गवास हुआ। आचार्य डालगणी के शासन में 36 श्रमण व 125 श्रमणियों ने अध्यात्म मार्ग का अनुसरण किया, एवं अद्वितीय कीर्तिमान स्थापित किया। इस युग की उल्लेखनीय विशेषता यह रही कि शत-प्रतिशत 125 ही श्रमणियों ने सानद संयम 9. इनकी विधि देखें - शासन - समुद्र, भाग 13, पृ. 54-57. 10. शासन-समुद्र, भाग 13. 823 Page #886 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन श्रमणियों का बहद इतिहास यात्रा संपन्न की एक भी गच्छ से बहिर्भूत नहीं हुई न एक भी संयम जीवन से च्युत हुई। इस शासन में 7 कुमारी कन्याएं थीं, अधिकांश साध्वियों ने अपनी तपः प्रधान साधना, ज्ञान आराधना, सेवाभावना से भिक्षु शासन को दीप्तिमान किया। 7.9.1 श्री दाखांजी (सं. 1954-72) श्री दाखांजी 'पुर' (सं. 1954-2004) 7/1-2 ये दोनों सास-बहू थीं, दोनों एक ही नाम राशि की। 'पुर' मेवाड़ के बंवलिया गोत्र में ब्याही थीं। दाखांजी (सास) ने पति नाहरसिंहजी का देहावसान होने के बाद चैत्र कृ. 3 को पुत्र कनीरामजी, पुत्रवधू दाखांजी और पौत्र शक्तमलजी के साथ सप्तम आचार्य श्री डालगणी के द्वारा बीदासर में चैत्र कृष्णा 3 को दीक्षा ग्रहण की। श्री डालगणी के युग की ये सर्वप्रथम दीक्षाएँ थीं। इनमें श्री दाखांजी (पुत्रवधू) बड़ी तपस्विनी हुईं, उनकी विविध तपस्या की तालिका इस प्रकार है-उपवास 2700, बेले 250, तेले 25, चोले 35, पचोले 35, छह से आठ का तप 2 बार एवं दस का तप एक बार किया। इन्होंने 4 बार तीर्थंकरों की लड़ी (प्रथम तीर्थंकर का एक उपवास, क्रमशः चौबीसवें तीर्थंकर के 24 उपवास), एक हजार आयम्बिल और सात मास एकान्तर तप किया। सं. 2004 को सुजानगढ़ में आपका स्वर्गवास हुआ। 7.9.2 श्री लाडांजी 'लाडनूं' (सं. 1955-2037) 7/10 श्री लाडांजी का जन्म मुलतानमलजी बोरड़ के यहां सं. 1944 कार्तिक कृ. 11 को हुआ। सं. 1955 वैशाख कृष्णा 5 को श्री डालगणी के द्वारा राजगढ़ में दीक्षित हुईं। दीक्षा के पश्चात् शिक्षा प्रारंभ हुई, सहज बुद्धि और आन्तरिक लगन के परिणामस्वरूप सैद्धान्तिक, तात्विक, भाषायी तथा इतिहास के संदर्भ में गहन प्राप्त किया, व्याख्यान कला, लिपिकला, तात्त्विक चर्चा में आप शीघ्र ही दक्ष बन गईं। साध्वीश्री के वैविध्य गुण, नियमित-चर्या व योग्यता को परखकर आचार्य श्री डालगणी ने सं. 1963 में इन्हें अग्रणी पद पर नियुक्त किया इनका सिंघाड़ा प्रभावशाली था। आपने स्थान-स्थान पर जाकर शासन की गरिमा को बढ़ाया। श्रावक-श्राविकाओं में ये 'मीरां', 'जूनी जोगण' आदि नाम से प्रसिद्ध थीं। आप उच्चकोटि की तपसाधिका भी थीं, आपके तप का विवरण इस प्रकार है-उपवास 7000, बेले 140, तेले 50, चोले 22, पचोले 5 तथा 6, 7, 8, 9, 13, 26, 27 का तप एक बार। डूंगरगढ़ में आपने भाई-बहनों में संयम की ज्योति जागृत की। आपकी प्रेरणा से वहां की 36 बहनों और 5 भाइयों ने दीक्षा ली। वहीं पर सं. 2037 में 271 दिन की संलेखना में 140 दिन की तपस्या कर इस पौद्गलिक शरीर से सदा के लिये विदाई ली। 7.9.3 श्री हीरांजी 'नोहर' (सं. 1957-2013) 7/20 आपश्री का जन्म, स्थली प्रदेश के रीणी (तारानगर) ग्राम में सं. 1933 में श्री मालचंदजी लूनिया के यहां तथा विवाह 'जवरासर' के श्री किसनलालजी चोरड़िया से हुआ। पतिवियोग के पश्चात् श्री चौथांजी द्वारा तारानगर में दीक्षा अंगीकार की। आप साधुचर्या में सजग, सुविनीत एवं सरलता की प्रतिमूर्ति थीं, श्रमपूर्वक पांच शास्त्र व स्तोक याद किये, अनेक भाई-बहनों को तात्विक ज्ञान सिखाकर उनके हृदय में धार्मिक श्रद्धा बीज वपन किया सं. 1983 से आप अग्रणी के रूप में विचरी, आपके प्रेरणास्पद उपदेशों से ज्ञान-ध्यान, त्याग-तपस्या की खूब अभिवृद्धि हुई। आपने संयमी जीवन में 2492 उपवास, 31 बेले, 2 तेले, 14 चोले, 1 पांच की तपस्या की। अंत में पूर्ण जागृत अवस्था में मोमासर में स्वर्गगमन किया। Page #887 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तेरापंथ परम्परा की श्रमणियाँ 7.9.4 श्री रतनांजी 'सुजानगढ़' (सं. 1957-2008) 7/24 आप श्री रामलालजी बोथरा की धर्मपत्नी थी, नोखों के श्री जैतरूपजी बांठिया के यहां संवत् 1938 में आपका जन्म हुआ। आप पतिवियोग के पश्चात् श्री डालगणी से ज्येष्ठ शुक्ला 14 को बीदासर में दीक्षित हुईं। आप प्रभावशालिनि साहसी साध्वीजी थीं, सं. 1966 से अग्रणी रूप में विचरण कर शासन में अच्छी ख्याति प्राप्त की। आपके साथ नानूंजी नामकी साध्वी थी, शरीर से शिथिल हो जाने के कारण वे एकबार गर्मी के उपद्रव से निढाल सी हो गईं, रतनाजी ने उन्हें धैर्य व साहस का संबल प्रदान किया, उसी दिन शाम को रतनांजी स्वयं स्वर्गवासिनी हो गईं, तीन घंटे के पश्चात् उसी दिन नानूंजी का भी स्वर्गवास हो गया। दोनों साध्वियों ने संयम ही जीवन है अत: उसीको प्रमुखता देकर डीडवाना में प्राणोत्सर्ग कर दिया। 7.9.5 श्री लाछूजी 'सरदार शहर' (सं. 1958-2004)7/32 आप श्री किस्तूरचंद दूगड़ की सुपुत्री थीं, 12 वर्ष की उम्र में स्थानीय श्री तोलाराम जी सिंघी के साथ विवाह हुआ, एक वर्ष में ही आप श्री वैधव्य को प्राप्त हो गईं। 13 वर्ष की अवस्था में श्री डालगणी द्वारा सुजानगढ़ में आपने दीक्षा अंगीकार की। आपने कई आगम स्तोत्र आदि कंठस्थ किये। आप अग्रगामिनी साध्वी थीं, साथ ही बड़ी साहसिका एवं शारीरिक सौष्ठव से युक्त थीं, विहार में अपने कंधों पर काफी वजन उठाकर चलती थीं। सं. 2004 को बीदासर में दिवंगत हुईं। आपने उपवास से लेकर नौ तक (पांच को छोड़कर) लड़ीबद्ध तप किया। 7.9.6 श्री मौलांजी 'चाडवास' (सं. 1959-2011) 7/43 आपका जन्म संवत् 1927 राजलदेसर के श्री मूलचंदजी दूधोड़िया के यहां हुआ। आप श्री टीकमचंदजी बोथरा की धर्मपत्नी थीं, पतिवियोग के बाद गोगुंदा में श्री डालगणी द्वारा माघ कृष्णा 10 को दीक्षा अंगीकार की। आप घोर तपस्विनी थीं, संयमी जीवन में स्वीकृत तप की तालिका इस प्रकार है-उपवास 3039, बेले 420, तेले 180, चोले 80, पचोले 37, छह 1, सात 3, आठ दो, नौ 5, दस 3, ग्यारह 2, बारह 3, तेरह 2, चौदह 1, पंद्रह 1, सोलह 2, सत्रह 2, अठारह 1, इस प्रकार 52 वर्ष तपोपूत जीवन की झांकी दिखाकर 84 वर्ष की उम्र में लाडनूं में दिवंगत हुई। 7.9.7 श्री बखतावरजी 'मोखणुंदा' (सं. 1959-2015) 7/46 आप मेवाड़ देवगढ़ के श्री डालचंदजी देसरड़ा की पुत्री थीं, 8 वर्ष की कोमलवय में ही आजीवन नवकारसी तथा जमीकंद न खाने का नियम ले लिया। शादी के तीसरे ही दिन पतिवियोग की स्थिति ने जीवन को पूर्णतः संसार से विरक्त कर दिया आप मोखणुंदा में आषाढ़ शुक्ला नवमी के दिन श्री रायकवरजी द्वारा दीक्षित होकर श्रमणी बनीं। सं. 1992 में अग्रगण्या का प्राप्त पद त्यागकर भी ग्रामानुग्राम विचरण कर आपने जन-जन को धार्मिक बोध दिया। आप बड़ी आचारनिष्ठ, पापभीरु स्पष्टभाषिणी एवं निर्भीक थीं। आगम बत्तीसी का आपने कई बार वाचन किया। 825 Page #888 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन श्रमणियों का बृहद इतिहास आजीवन तीन विगय व 13 द्रव्य से अधिक वस्तु आहार में ग्रहण नहीं करती थीं। आपने उपवास से दस दिन तक लड़ीबद्ध तप किया, कुल 2273 दिन तप में व्यतीत किये। सरदारगढ़ में आपका अंतिम चातुर्मास हुआ। 7.9.8 श्री दाखांजी 'खरणोटा' (सं. 1960-2007) 7/53 आपका जन्म श्री दौलतरामजी पीतलिया के यहां संवत् 1941 में हुआ, आप श्री तोलारामजी बोला की सहधर्मिणी थीं, पतिवियोग के बाद बीदासर में पौष कृष्णा 6 को आचार्य डालगणी से दीक्षा अंगीकार की। आप सं. 1986 से अग्रगण्या बनीं, ग्रामानुग्राम धर्म की खूब उन्नति की। प्रकृति से सरल, कोमल और मधुरभाषिणी थीं, संयम-चर्या में जागरूक व तपस्विनी थीं। उपवास 1500, बेले 73 तेले 17, चोले 18, पचोले 13, छह 3, सात 7, आठ 8, नौ, दस व ग्यारह 1 बार, 12 से 23 तथा 27 से 32 तक क्रमबद्ध तप चला। आश्विन शु. 15 को सोजतरोड में आपका देहावसान हुआ। 7.9.9 श्री जड़ावांजी 'डीडवाना' (सं. 1960-90) 7/55 आपका जन्म संवत् 1932 श्री चंदनमलजी सुराणा कुचेरा वालों के यहां हुआ। आप आसकरणजी पारख की धर्मपत्नी थीं, उनका स्वर्गवास होने के बाद बीदासर में माघ शुक्ला 7 को दीक्षा ग्रहण की। आप बड़ी तपस्विनी हुईं, आपके तप के समग्र आंकड़े इस प्रकार हैं-उपवास 976, बेले 332, तेले 22, चोले 15, पांच 7, छह 3, आठ 2 आगे सात से सोलह तक फिर इक्कीस दिन की तपस्या एक बार की। जसोल में आप दिवंगत हुईं। 7.9.10 श्री पाखतांजी 'छापर' (सं. 1961-2029) 7/71 आपका जन्म बीकानेर के मलसीसर ग्राम में संवत् 1943 को श्री जालमचंदजी मालू के यहां हुआ। आप छापर निवासी श्री हनूमतमलजी नवलखा की पुत्रवधू थीं पति श्री हीरालालजी का स्वर्गवास होने पर सं. 1961 वैशाख कृ2 5 के शुभ दिन रतनगढ़ में दीक्षा अंगीकार की। आपने जीवन के सभी क्षेत्रों में विकास किया। समग्र जीवन काल में करोड़ों पद्यों का पुनरावर्तन किया। आपने ज्ञान-ध्यान, त्याग, वैराग्य, सेवाभावना एवं तपस्या के द्वारा संयमी जीवन को सोने की तरह चमकाया। आपकी श्रद्धा, संघनिष्ठा, सेवा, वाणी-माधुर्य कष्ट-सहिष्णुता के अनेक संस्मरण शासन-समुद्र में उल्लिखित हैं। आपने कुल 3129 दिन तप में व्यतीत किये, हजारों एकासन भी किये, कुल 88 वर्ष में 68 वर्ष संयम पर्याय का पालन कर चाड़वास में संथारा सहित स्वर्ग की ओर प्रस्थित हुईं। 7.9.11 श्री सोनांजी 'सरदारशहर' (सं. 1962-2027) 7/74 श्री सोनांजी का जन्म सं. 1932 को सोनपालसर ग्राम के श्री भैरुंदानजी के यहां हुआ 13 वर्ष की उम्र में श्री शेरमलजी बोथरा के पुत्र श्री प्रेमचंदजी के साथ ब्याही गई, उनसे सोनांजी को दो संतानों की प्राप्ति हुई, 21 वर्ष की अवस्था में पति का स्वर्गवास हो गया, उसके पश्चात् आप आचार्य श्री डालगणी के द्वारा लाडनूं में भाद्रपद कृष्णा 13 को दीक्षित हो गईं। आपश्री बड़ी तपस्विनी हुईं, साध्वी जीवन में आपने उपवास 5023, बेले 436, तेले 229, चोले 49, पचोले 7. छह दो, 12 उपवास तक क्रमबद्ध तप, 18 व 19 उपवास भी किये। गृहस्थावस्था में भी 9 को छोडकर । 826 Page #889 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तेरापंथ परम्परा की श्रमणियाँ से 12 तक की लड़ी की, 17 उपवास, धर्मचक्र, तीर्थंकर की लड़ियां (300 उपवास) आदि किये। आपकी स्मरणशक्ति व धारणा शक्ति तेज थी, प्रतिदिन एक हजार गाथाओं का स्वाध्याय करतीं। पड़िहारा ग्राम में 15 वर्षों तक स्थिरवास रहीं। 95 वर्ष की दीर्घतर आयु में 65 वर्ष तक धर्मसंघ की सेवा की। आपकी स्मृति में 'साध्वी श्री सोनांजी' नामक लघु पुस्तक प्रकाशित है। 7.9.12 श्री सुन्दरजी 'रीणी' (सं. 1963-2018) 7/83 ___आप 'नोहर' के श्री कुशलचंदजी नखत की सुपुत्री थीं, रीणी निवासी श्री सुगनचंदजी सुराणा के साथ आपका विवाह हुआ। 17 वर्ष की वय में ही दाम्पत्य जीवन पर उल्कापात हुआ, तो आप संयमी जीवन में प्रवेश करने के लिये श्री डालगणी द्वारा कार्तिक शुक्ला 15 को सरदारशहर में दीक्षित हुईं। संवत् 1981 में आप अग्रगण्या बनीं, आपके उद्बोधन की शैली से अनेक भाई-बहन अणुव्रती बने, 1800 भाई-बहनों ने गुरु-धारणा की, 25 भाई 9 बहनों को अनशन कराया, 300 बारह व्रतधारी बनाये। आपके प्रेरक प्रसंग व संस्मरण शासन-समुद्र में हैं। 23 दिन के अनशन से भीनासर में आप स्वर्गस्थ हुईं। आपके उपवास से नौ दिन के लड़ीबद्ध तप में कुल 1459 दिन होते हैं। 7.9.13 श्री पारवतांजी "मोमासर' (सं. 1963-2012) 7/90 श्री पारवतांजी श्री चांदमलजी लूणिया 'रीणी' वालों की पुत्री व छोगमलजी कुहाड़ की पत्नी थीं। पतिवियोग के पश्चात् ये आषाढ़ शुक्ला 7 को बीदासर में दीक्षित हो गईं। आपने 7 वर्ष तक एकान्तर उपवास किये। इसके अलावा उपवास 2024, बेले 480, तेले 180, चोले 97, पांच 46, छह 7, सात 6, आठ 11, नौ 2, दस 3, ग्यारह 2, बारह 1, तेरह 3 तथा 14, 15, 17, 19 का तप एकबार इस प्रकार कुल 12 वर्ष और 6 मास तपस्या की। लाडनूं में आप दिवंगत हुईं। 7.9.14 श्री खूमांजी 'लाडनूं' (सं. 1964-2036) 7/100 आप लाडनूं के हरखचंदजी दुगड़ की सुपुत्री थीं, 12 वर्ष की वय में श्री हनूतमलजी बेगवानी के साथ विवाह हुआ, किंतु मन-मानस में छिपी वैराग्य तरंगे जब घनीभूत होने लगी तो आपने बड़ी सूझ-बूझ से पति से दीक्षा-स्वीकृति पत्र लिखवा लिया। आषाढ़ शु. 7 को खूमांजी ने पति एवं विपुल संपत्ति का त्यागकर लाडनूं में दीक्षा ले ली। आपने 'भगवती सूत्र' 'भगवतीसूत्र की जोड़', कई आगम तथा आख्यान लिपिबद्ध किये। बीदासर में आचार्य तुलसी को आपने हस्तलिखित तेरह आगम भेंट किये। अपने संयमी जीवन में कुल 4921 उपवास, 95 बेले, 36 तेले, 4 चोले 2 पचोले, 2 छह किये, पांच विगय वर्जन और पांच द्रव्य ही भोजन में ग्रहण करती थीं। खाद्य-संयम के साथ पानी-संयम, औषध-संयम, उपधि व स्थान-संयम का भी आप पूरा ध्यान रखती थीं। सं. 1997 से आप अग्रणी बनकर विचरी, और अपने शांत स्वभाव, कोमल व्यवहार, मधुरवाणी से जनमानस में सुन्दर संस्कारों का बीजारोपण किया। आप अंत तक राजलदेसर में स्थिरवासिनी रहीं। आपकी अद्भुत सूझ-बूझ श्रद्धा समर्पण, क्षमा, निस्पृहता, गुणग्राहकता, विनय, उदारता आदि के अनेक संदर्भ जासन-समुद्र में अंकित हैं। श्री फूलकुमारीजी ने भी साध्वी श्री जी की बहुमुखी विजेष्ठाताओं को अभिव्यक्त करने वाली एक पुस्तक लिखी है - 'नींव की ईंट महल की मीनार' 827 Page #890 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 7.9.15 श्री सुखदेवांजी 'लाडनूं' (सं. 1965-2021) 7/102 आपका जन्म संवत् 1942 में श्री ताराचंदजी चोरड़िया के घर हुआ। आप श्री मंगलचंदजी पगारिया की धर्मपत्नी थीं। उनका स्वर्गवास होने के बाद कार्तिक कृ. 1 को लाडनूं में श्री डालगणी से दीक्षा स्वीकार की। आप बड़ी तपस्विनी, वैराग्यवती और स्वाध्याय रसिका थीं, अपने 56 वर्षीय संयमी जीवन में तप त्याग द्वारा जीवन को निखारा आपने उपवास से नौ तक क्रमबद्ध तप किया जिसके कुल तप दिन 2824 होते हैं। अंतिम वर्षों में आप लाडनूं में स्थिरवास रहीं, वहां 24 दिन की संलेखना के बाद आजीवन अनशन किया, जो 44 दिन से संपन्न हुआ। कुल 68 दिन का संथारा कर सं. 2021 कार्तिक कृ. 14 को पंडित मरण प्राप्त किया। 7.9.16 साध्वी प्रमुखा श्री झमकूजी 'चूरू' (सं. 1965-2002 ) 7/103 आप तेरापंथ धर्मसंघ में षष्ठम साध्वी प्रमुखा के रूप में सम्माननीया हैं। आपश्री का जन्म सं. 1944 कार्तिक कृष्णा 13 को श्री रामलालजी हीरावत, थैलासर ( रतननगर) निवासी के यहां हुआ । एवं विवाह चूरू निवासी श्री पांचीरामजी पारख के साथ हुआ। नियति का अटल योग कि शादी के अढ़ाई वर्ष पश्चात् ही श्री रामलालजी परलोकवासी हो गये। झमकूजी ने साहस बटोरकर उस विरह व्यथा को धर्मचर्या व धर्मकथा में परिवर्तित किया, उन्हें कई वर्षों संयम पथ के अवरोधों को दूर करने में लगे, अंततः 21 वर्ष की अवस्था में संवत् 1965 कार्तिक शुक्ला 5 के शुभ दिन आचार्य श्री डालगणी के कर कमलों से लाडनूं में दीक्षा स्वीकार की। जैन श्रमणियों का बृहद इतिहास आपको प्रारम्भ से ही कला के प्रति सहज आकर्षण था, हस्तलाधव, सौन्दर्य - सुषमा एवं नई स्फुरणा से ऐसी कलाकृतियां निर्माण की, कि आज भी वे वस्तुएं जन-जन के आकर्षण का केन्द्र बनी हुई हैं। साध्वियों की शल्य चिकित्सा का प्रसंग आता तो वे प्रायः अपने हाथों से सम्पन्न कर देतीं। साध्वी मूलांजी के भुजदण्ड पर बहुत बड़ा फोड़ा हो गया था, डॉक्टर ने ऑपरेशन के लिये कहा, झमकूजी ने उसी समय कपूर का तेल एक अन्य वस्तु के साथ लगाया, और चंद क्षणों में ही उसकी शल्य चिकित्सा कर दी । एकबार आपने स्वयं की अंगुली के फोड़े की शल्य क्रिया की । समय पड़ने पर वे साध्वियों को इंजेक्शन भी अपने हाथों से लगा देती थीं। आपश्री के विनय-व्यवहार, आचार-कुशलता, सेवा- परायणता, नियम-निष्ठा, निरभिमानता, सहनशीलता, क्षमता, निर्भयता, आत्मीयता आदि के कई प्रसंग मुनि नवरत्नमलजी ने शासन-समुद्र भाग 13 में तथा साध्वी राजीमती ने आचार्य भिक्षु स्मृति ग्रंथ" में संजोये हैं। आपकी विरल विशेषताओं से उल्लसित होकर भाद्रपद शुक्ला 9 सं. 1993 में चतुर्विध संघ के समक्ष आचार्य श्री तुलसी ने साध्वी प्रमुखा पद पर नियुक्त किया। साध्वी प्रमुखा श्री झमकूजी ने 37 वर्ष तक तेरापंथ शासन को स्वाध्याय, ध्यान, नवीन कार्यशैली आदि में बहुत कुछ सहयोग प्रदान किया। अंत संवत् 2002 आषाढ़ कृ. 6 को शार्दूलपुर में आप अमरलोक की ओर प्रस्थित हो गईं। 7.9.17 श्री भूरांजी 'पुर' (सं. 1965-2020 ) 7/104 आपका जन्म संवत् 1935 को श्री हजारीमल जी चौधरी के यहां 'आरज्या' ग्राम में हुआ। श्री भूरांजी ने पति वियोग के बाद श्री डालगणी से लाडनूं में कार्तिक शुक्ला 13 को दीक्षा अंगीकार की। आप लगभग 55 वर्ष संयम की आराधना में लगी रहीं घोर तपस्या करके तपस्विनी साध्वियों की कड़ी में अपना विशिष्ट स्थान बनाया। आपके 11. साध्वी राजीमती जी, तेरापंथ की अग्रणी साध्वियाँ, पृ. 180. 828 Page #891 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तेरापंथ परम्परा की श्रमणियाँ समग्र तप की तालिका इस प्रकार - उपवास 3400, बेले 428, तेले 125, चोले 57, पचोले 54, छह 2, सात 2, आठ 8, नौ से इक्कीस तक उपवास एक बार 25 एवं 30 उपवास एक बार इस प्रकार कुल तप के दिन 5484 हैं। बड़ी तपस्या के अतिरिक्त उन्होंने आजीवन एकांतर तप भी चालू रखे । लाडनूं में आपका देहावसान हुआ। 7.9.18 श्री हुलासांजी 'सरदारशहर' (सं. 1965-2024) 7/108 आपका जन्म संवत् 1948 को श्री भीखणचंदजी पींचा के यहां हुआ। आप श्री उदयचंदजी गधैया की धर्मपत्नी तथा धर्मनिष्ठ श्रावक श्रीचंदजी की पुत्रवधू थीं। 16 मास में ही पति की अचानक मृत्यु हो गई, तब हुलासजी ने सरदारशहर में श्री डालगणी से मृगसिर शुक्ला 5 को दीक्षा अंगीकार की। आपने भगवती आदि 16 सूत्रों को लिपिबद्ध किया। संवत् 1981 अग्रणी बनकर जिन-जिन क्षेत्रों में गईं, उन उन क्षेत्रों में धार्मिक प्रतिबोध देकर सुसंस्कारी बनाने का प्रयास किया। आप पापभीरु, धैर्यवान, मृदुभाषिणी थीं। आपकी प्रेरणा से मोमासर में पांच बहनें दीक्षा के लिये तैयार हुईं। आपके तपोमय जीवन के कुल दिन 1836 थे। साधु जीवन को निर्दोष पालती हुई 'मोमासर' में समाधि मरण को प्राप्त हुईं। 7.9.19 श्री प्रतापांजी 'सरदारशहर' (सं. 1965-2033) 7/112 आपका जन्म सं. 1947 आषाढ़ शुक्ला 12 को श्री शोभाचंदजी दुगड़ के यहां हुआ, एक प्रतिष्ठित श्रद्धानिष्ठ श्रावक थे। विवाह के तीन वर्ष पश्चात् पति के दुखद वियोग ने आपके जीवन को धर्म से जोड़ दिया। आचार्य डालगणी के द्वारा लाडनूं में, मृगसिर शुक्ला 5 को आपकी दीक्षा हुई। आपकी लिपि सुंदर थी, अतः अनुमानतः चार हजार पत्र संख्या प्रतिलिपिकृत हैं। स्वाध्याय की रुचि होने से एक मास आप करीब 1 लाख गाथाओं का पुनरावर्तन कर लेती थीं। छोटे-मोटे कई नियम व प्रत्याख्यान भी किये तथा यथाशक्य तप की आराधना भी की। लगभग 68 वर्ष की संयम यात्रा सम्पन्न कर आपने भीनासर में स्वर्ग प्रस्थान किया। 7.8.20 श्री कंकूजी 'कुंवाथल' (सं. 1965-2025) 7/116 आपके पिता का नाम श्री चौथमलजी पीतलिया तथा पति का सूरतरामजी दक था । पतिवियोग के बाद माघ शु. 7 को लाडनूं में आपने दीक्षा ग्रहण की, उस समय श्री नाथांजी, कुन्नणाजी, गौरांजी, मैनांजी भी दीक्षित हुईं। संयम की आराधना के साथ-साथ आपने तप की जो आराधना की उसे पढ़कर रोमाञ्च हो उठता है - उपवास 5434, बेले 459, तेले 43, चोले 23, , पचोले 12, छह 2, सात, आठ एक बार कुल तप के दिन 6660 थे। तीस वर्ष तक आपने एकांतर तप किया। चौविहार बेले की तपस्या के साथ लाडनूं में समाधिपूर्वक देह त्याग किया। 7.9.21 श्री मैनांजी 'झाबुआ' (सं. 1965-2013) 7/120 श्री मैनांजी मालवा के झाबुआ की निवासिनी थी पिता का नाम श्री धनराजजी चोपड़ा एवं पति का नथमलजी जसवड़ा था। पति वियोग के पश्चात् ये भी लाडनूं में माघ शुक्ला 7 को दीक्षित हुईं। मैनाजी घोर तपस्विनी साध्वी थीं, इन्होंने उपवास से पन्द्रह तक की तपस्या क्रमबद्ध की। उसमें 2505 उपवास, 255 बेले, 43 तेले, 24 चोले, 25 पचोले, 3 छह, शेष तपस्या एक बार की। अंतिम समय में आपने संलेखना व्रत ग्रहण 829 Page #892 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन श्रमणियों का बृहद इतिहास किया, जैसा कि आगमों में उल्लेख है, कालि आदि रानियों ने साठ भक्त अनशन किया, उसी प्रकार नांजी ने भी 26 दिन के तिविहार संलेखना एवं 4 दिन चौविहार अनशन द्वारा लाडनूं में पंडितमरण प्राप्त किया। 7.9.22 श्री चांदाजी 'सरदारशहर' (सं. 1966-2005) 7/122 चांदाजी का जन्म संवत् 1938 में श्री दुलीचंदजी चंडालिया के यहां हुआ, आप श्री नथमलजी नवलखा की सहधर्मिणी थी। पतिवियोग के बाद नौ वर्षीया कन्या श्री संतोकाजी के साथ लाडनूं में भाद्रपद शुक्ला 10 के दिन दीक्षा अंगीकार की। साध्वीश्री हृदय से सरल व साधुचर्या में जागरूक थीं। सेवा के क्षेत्र में उनका विशिष्ट स्थान रहा। तप के क्षेत्र में भी लडीबद्ध सत्तरह का तप किया. फिर मासखमण किया। जिसमें उपवास 3358, बेले 203, तेले 82, चोले 12, पचोले 8, छह 2, सात 4, नौ 3, ग्यारह 3, तेरह 2 किये। सं. 1983 से सेलड़ी की वस्तु (जिसमें गुड़ चीनी मिली हुई हो) का संपूर्ण त्याग कर दिया। अंत समय 12 दिन के संलेखना संथारे के साथ राजलदेसर में स्वर्गवासिनी हो गईं। 7.10 अष्टमाचार्य श्री कालूगणी के शासनकाल की प्रमुख श्रमणियाँ 12 (सं. 1966-93) आचार्य कालूगणी सफल अनुशास्ता, निस्पृह कर्मयोगी, शांतिप्रिय और श्रमनिष्ठ आचार्य थे, आचार्य मघवागणी से दीक्षित होकर डालगणी के उत्तराधिकारी बने। उन्होंने 11 वर्ष की उम्र में संयमी जीवन में प्रवेश किया, 22 वर्ष तक सामान्य मुनि पर्याय में रहे और श्री डालगणी के बाद वि. सं. 1966 से 1993 तक 27 वर्ष आचार्य पद का दायित्व सफलतापूर्वक निभाया। सं. 1993 भाद्रपद शुक्ला षष्ठी के दिन गंगापुर (राज.) में स्वर्गस्थ हुए। कालूगणी के शासनकाल में संघ की अभूतपूर्व प्रगति हुई। साधना, शिक्षा, कला, साहित्य आदि विविध क्षेत्रों में नये कीर्तिमान स्थापित हुए। श्रमण-श्रमणी परिवार की भी अभूतपूर्व वृद्धि हुई, जहां आचार्य डालगणी के समय 68 साधु व 231 साध्वियाँ थी, वहाँ आचार्य श्री कालूगणी के शासनकाल में 410 दीक्षाएँ हुईं, जिनमें 155 श्रमण व 255 श्रमणियाँ बनी। जहां अन्य आचार्यों के काल में प्रायः विधवा या विवाहित महिलाएँ दीक्षित होती थीं, वहीं आचार्य कालूगणी के समय बालवय में दीक्षा अंगीकार करने वाली 85 श्रमणियाँ हुई। इनमें लघुसिंहनिष्क्रीड़ित तप की संपूर्ण आराधिका एवं बारहमासी तप (आछ के आगार से) करने वाली उग्र तपः साधिकाएँ भी हैं, और 71 दिन का संलेखना तप करने वाली दृढ़ मनोबली साहसी श्रमणियाँ भी हैं, साथ ही सेवाभाविनी, शास्त्रविज्ञा, संस्कृत पाठिकाएँ, धर्मप्रचारिकाएँ, अग्रगण्या श्रमणियाँ भी हैं, इन श्रमणियों ने आधुनिक जगत को अपनी अध्यात्म-ऊर्जा व कार्यक्षमता का परिचय देकर श्रमणी-संघ को गौरवान्वित किया। 7.10.1 श्री छगनांजी 'बोरावड़' (सं. 1966-2025) 8/10 आप श्री सिरेमलजी बरमेचा की सुपुत्री थीं। 14 वर्ष की वय में सगाई सम्बन्ध को तोड़कर आषाढ़ शु. 10 के दिन आचार्य कालूगणी द्वारा सरदारशहर में दीक्षित हुईं। अशिक्षित होती हुई भी लगन एवं पुरुषार्थ के साथ आपने लगभग 15 हजार पद्य, चार आगम, रामचरित्र आदि 11 आख्यान, 25 स्तोक आदि कंठस्थ किये। आप सेवाभाविनी शासन समर्पित एवं तत्त्वज्ञा साध्वी थीं, संवत् 1994 से अग्रणी के रूप में मारवाड़. मेवाड़, हरियाणा 12. शासन-समुद्र, भाग-15-16. 830 Page #893 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तेरापंथ परम्परा की श्रमणियाँ तक विचरकर ज्ञान सीखने की प्रबल प्रेरणा दी। आप छोटी-छोटी तपस्याएँ करती थीं, तप के कुल दिन 3035 थे। आपका स्वर्गवास हांसी (हरियाणा) में आषाढ़ कृ. 12 को हुआ। 7.10.2 श्री दाखांजी “दिवेर' (सं. 1967-2013) 8/16 दाखांजी, दिवेर (राज.) के श्री जीतमलजी डागा की कन्या थीं। 15 वर्ष की उम्र में माघ कृष्णा एकम के दिन रतनगढ़ में दीक्षित हुईं। आप हस्तकला व लिपिकला में विशारद थीं, हजारों पद्यों की प्रतिलिपि की। आपकी संघनिष्ठा, ऋजुता मृदुता, पापभीरुता की प्रशंसा आचार्य तुलसी ने भी की। सं. 1985 से 2013 तक राजस्थान के अनेक क्षेत्रों में धर्म की ज्योति जाग्रत की। 61 वर्ष की उम्र में आपका स्वर्गवास 'रामसिंहजी का गुडा' में हुआ। 7.10.3 श्री मुक्खांजी 'सुजानगढ़' (सं. 1967-80) 8/19 आपका जन्म संवत् 1938 श्री जोधराजजी बोथरा के यहां हुआ, आपने पति वियोग के बाद श्री कालूगणी द्वारा वैशाख शुक्ला एकम को सुजानगढ़ में दीक्षा ग्रहण की। आप तेरापंथ-संघ में विशिष्ट तपस्विनी साध्वी हुई है, आपके तीन वर्ष के तप के आंकड़े इस प्रकार हैं-50 उपवास, दो बेले, तीन तेले 17, 18, 30, 35, 39, 47, शेष वर्षों के तप उपलब्ध नहीं हुए। आपने लघुसिंहनिष्क्रीड़ित तप की चौथी परिपाटी संपूर्ण कर धर्म-संघ में कीर्तिमान स्थापित किया था, आछ के आधार पर नौमासी तप करके नया इतिहास बनाया। कुल 13 वर्ष में इन्होंने जो विचित्र तप किये, वे जैन श्रमण-संस्कृति के स्वर्णिम पृष्ठों पर अंकित करने योग्य है। आप 43 वर्ष की उम्र में 'पडिहारा' में स्वर्गस्थ हुईं। 7.10.4 श्री चांदाजी 'मोमासर' (सं. 1968-2029) 8/26 आपका जन्म संवत् 1942 धीरदेसर के कुण्डलिया गोत्र में श्री ताराचंदजी के यहां हुआ। पतिवियोग के बाद आश्विन शुक्ला 14 को बीदासर में आचार्य कालूगणी से दीक्षित होकर आपने भी तप साधिकाओं की सूची में अपना नाम जोड़ दिया। 61 वर्ष के साधनाकाल में 3113 उपवास, 157 बेले, 13 तेले, 2 चोले, 1 पंचोला किया, अंत में 44 दिन का तिविहार संलेखना तप एवं 18 दिन का आजीवन अनशन ग्रहण कर लाडनूं में दिवंगत हुईं। 7.10.5 श्री छोटांजी 'तारानगर' (सं. 1968-2029) 8/27 आपके पिता श्री पन्नालालजी दूगड़ रतनगढ़ निवासी थे। आपने 18 वर्ष की उम्र में पति को छोड़कर अत्यंत वैराग्य भाव से राजलदेसर में पौष कृष्णा 14 को दीक्षा ली, इस दिन 1 भाई व 4 बहनों की भी दीक्षा हुई। छोटांजी को योग व ध्यान की विशेष रुचि थी, पद्मासन, हलासन, गर्भासन अनेक आसन उन्हें सिद्ध थे। ये उग्र तपस्विनी भी थीं, 2874 उपवास 166 बेले, 46 तेले, 31 चार, 28 पांच, 2 छह, 3 बार सात, आठ व नौ दो बार, 10, 11, 12, 14, 22, 30 दिन का तप एक बार किया था। छापर में अंतिम समय संलेखना तप किया जो 35 दिन चला। आपके आत्मबल व वर्धमान परिणामों को देखकर जिनशासन की महती गरिमा बढ़ी। अनशनकाल में भी आप 3 घंटे पद्मासन से बैठती थीं। 831 Page #894 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 7.10.6 श्री हुलासांजी 'सिरसा' (सं. 1968-2037 ) 8/34 आपने साढ़े 13 वर्ष की वय में सगाई को छोड़कर वैराग्य भाव से अपने बड़े पिता गणपतरामजी पुगलिया व बड़ी माता मौलांजी के साथ बीदासर में दीक्षा अंगीकार की, उस दिन छह दीक्षाएँ हुई। आपकी वाणी मधुर आवाज बुलन्द और व्याख्यान शैली आकर्षक थी, आपको 'हुलासी रूप की डली बखाण की कली' कहकर साध्वी प्रमुखा सम्मान देती थीं। आपके अग्रणी रूप में 50 चातुर्मास हुए। साधना जीवन को आपने तप के द्वारा निखारा। आपने 3007 उपवास, 649 बेले, 82 तेले, 21 चौले, 19 पांच, छह, आठ, दस प्रत्याख्यान (15 बार ) अढ़ाई सौ प्रत्याख्यान, साढ़े तीन वर्ष बेले- बेले तप उसमें चातुर्मास में तेले-तेले आदि विविध तपस्याएँ कीं । कुल 69 वर्ष निर्मल संयम पालकर बीदासर में स्वर्गस्थ हुईं। 7.10.7 श्री चांदाजी 'गोगुंदा' (सं. 1968-96 ) 8/35 आप घोर तपस्वी मुनि 'सुखलालजी की माता थीं ताराबलीगढ़ के श्री पन्नालालजी सेठिया की सुपुत्री व नंदलालजी सिसोदिया की पत्नी थीं। लाडनूं में केशरजी, जड़ावांजी के साथ आपकी दीक्षा हुई, आपने स्वयं को सेवा व तप में नियोजित किया। अपने जीवन में 1601 उपवास, 224 बेले, 126 तेले, 30 चोले, 25 पचोले, 7 छह, 3 सात, 4 आठ, 9, 10, 14, 16, 21, 30 और 34 का तप दो-दो बार तथा 11, 12, 13, 15, 18, 19, 22, 24, 27, 29, 31, 32, 33 का तप एक बार किया। लघुसिंहनिष्क्रीड़ित तप की दो परिपाटी पूर्ण की, तीसरी परिपाटी में मात्र 12 दिन शेष थे, तभी आपका बीदासर में स्वर्गवास हो गया। आपका संयम पर्याय 28 वर्ष का था, इतने स्वल्प समय में घोर तपस्या तथा साथ में चार विगय का त्याग एवं शीतकाल में एक पछेवड़ी ओढ़कर आपने उत्कृष्ट तपोमय जीवन का आदर्श प्रस्तुत किया। जैन श्रमणियों का बृहद इतिहास 7.10.8 श्री ज्ञानांजी 'पीतास' (सं. 1968- 2018 ) 8 / 40 श्री ज्ञानांजी ने गर्भ के नौ महीने मिलाकर साढ़े 8 वर्ष की उम्र में माता नोजांजी के साथ फाल्गुन कृष्णा 6 को लाडनूं में दीक्षा ली, आपके पिता का नाम श्री दीपचंदजी धाड़ीवाल था । अल्पवय एवं प्रखरबुद्धि से आपने कई आगम, स्तोत्र, स्वाध्याय व 25 हजार पद्य प्रमाण आख्यानादि कंठस्थ किये, आपकी लिपि अत्यंत सुंदर थी, 400 से अधिक पत्रों के लगभग 11 पुस्तकें लिपिबद्ध की, संपूर्ण स्थानांगसूत्र की लिपि की । आपने उपवास से पांच तक की तपस्या कई बार की, तप के कुल दिन 2154 थे । सं. 1981 से आप अग्रणी पद पर नियुक्त हुई, और राजस्थान से हरियाणा तक विचरीं । आपकी निरभिमानता, स्वावलम्बीपन, सहनशीलता व सरलता के घटना प्रसंग जाासन-समुद्र में अंकित हैं। 50 वर्ष का संयम पालकर ये केलवा में स्वर्गस्थ हुईं। 7.10.9 श्री सोहनांजी 'राजनगर' (सं. 1969-99) 8/44 आपके पिता श्री पूनमचंदजी पोरवाल थे। मात्र नौ वर्ष की उम्र में आप अपनी माता विरधांजी के साथ कार्तिक कृष्णा 7 को चूरू में दीक्षित हुईं। आपकी कंठकला व व्याख्यान - शैली आकर्षक थी। लोगों पर इनका अच्छा प्रभाव था। 18 वर्षों तक अग्रणी पद पर विचरण किया, 30 वर्ष निर्मल संयम का आराधन कर रतनगढ़ चातुर्मास में स्वर्गवासिनी हुईं। 832 Page #895 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तेरापंथ परम्परा की श्रमणियाँ 7.10.10 श्री अणचांजी 'श्री डूंगरगढ़' (सं. 1970-2031) 8/45 आपका जन्म संवत् 1951 को राजपुरा के श्री सूरजमलजी हीरावत के यहां हुआ। पति वियोग के पश्चात् श्रावण शुक्ला 8 को अणचांजी 19 वर्ष की वय में लाडनूं में दीक्षित हुईं, इनके साथ मुनि आशारामजी की भी दीक्षा हुई। दोनों दीर्घ तपस्वी हुए। इन्होंने कई स्तोक, सज्झाय आदि कंठस्थ किये। ये अत्यंत सेवाभाविनी, सामञ्जस्य पूर्ण व्यवहार की धारिणी, सहिष्णु प्रकृति की थीं, प्रत्येक कार्य स्वयं संयम से एवं जागरूक रहकर करती थीं, और सहवर्तिनी साध्वियों को भी यही शिक्षा देती थीं। इनके साथ कभी 20 कभी 25 कभी 30-35 साध्वियों का दल चलता था, ये सभी को संतुष्ट रखने में प्रवीण थीं। ये तप में भी विशिष्ट थीं, संयमी जीवन में इन्होंने 4684 उपवास, 741 बेले, 194 तेले, 55 चोले, 25 पचोले, 8 छह, 6 सात, 6 अठाई, 5 नौ, 10, 11, 12, 14, 16 का तप दो-दो बार, 13, 15 तथा 17 से 32 तक का तप एकबार किया। आछ के आधार से 183 दिन का उत्कृष्ट तप किया। आपके फुटकर तप एवं अन्य प्रत्याख्यानों की भी लंबी सूची है। लघुसिंहनिष्क्रीड़ित तप की अत्यंत दुष्कर चतुर्थ परिपाटी भी आपने संपन्न की। इस प्रकार चतुर्थ आरे के दृढ़ संहनन वाले साधकों द्वारा संपन्न होने वाले उग्र तप को धैर्य व मनोबल से साध्वी अणचांजी ने पंचम आरे में पूर्ण किया, इसके लिये आचार्य श्री तुलसी ने आपकी भूरि-भूरि अनुमोदना व सराहना की। तथा 'दीर्घ तपस्विनी' संबोधन से सम्मानित किया। इन्हें साध्वी प्रमुखा जेठाजी से श्री कनकप्रभाजी तक पांच साध्वी प्रमुखाओं का भी अनुग्रह प्राप्त हुआ। अंत समय 7 दिन के अनशन के साथ मृगसिर शुक्ला 7 को 'आसींद' में यह महान तपोमूर्ति स्वर्गलोक की ओर प्रस्थित हुई। श्री हुलासांजी ने 'दीर्घ तपस्विनी साध्वी श्री अणचांजी' पुस्तक उनके तपोमय जीवन संबंधित लिखी है। 7.10.11 श्री जड़ावांजी 'सरदारशहर' (सं. 1970-90) 8/46 आपका जन्म संवत् 1938 को श्री हरखचंदजी दफतरी के यहां हुआ। आपने पतिवियोग के पश्चात् लाडनूं में आश्विन शुक्ला 13 को दीक्षा ग्रहण की। बीस वर्ष यथासाध्य तप-जप की आराधना कर अंत में तप के 41वें दिन उत्कृष्ट भावों के साथ तिविहारी संथारा किया, 31 दिन का अनशन, इस प्रकार कुल 71 दिन पूर्ण कर लाडनूं में आपने स्वर्गगमन किया। 7.10.12 श्री प्यारांजी “पुर' (सं. 1971-2011) 8/53 आपका जन्म बागोर निवासी श्री पृथ्वीराज चपलोत के यहां संवत् 1946 में हुआ। पति वियोग के पश्चात् आपने दसवर्षीय पुत्र कानमलजी के साथ पुर में दीक्षा ग्रहण की। शरीर से कृश होने पर भी आपने तपस्या में जो आत्मबल दिखाया, वह रोमांचित करने वाला है। आपने उपवास से 19 दिन लड़ीबद्ध तप किया, दो बार 21 व एकबार मासखमण किया, इसके अतिरिक्त दो पचरंगी, एक धर्मचक्र, लघुसिंहनिष्ठक्रीड़ित तप की दूसरी परिपाटी पूर्ण की। इस प्रकार 40 वर्ष की संयम-पर्याय में 18 वर्ष तपस्या में (6497 दिन) व्यतीत कर आपने जो तप का आदर्श उपस्थित किया, वह अवर्णनीय है। चूरु में आपने पंडितमरण प्राप्त किया। 7.10.13 श्री भूरांजी 'मंदारिया' (सं. 1971-2018) 8/55 आपका जन्म सवत् 1943 को देवरिया ग्राम में श्री बेणीरामजी पितलिया के यहां तथा विवाह श्री हीरालालजी 833 Page #896 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन श्रमणियों का बृहद इतिहास कोठारी के साथ हुआ। आपने पतिवियोग के पश्चात् गोगुंदा में आषाढ़ शुक्ला एकम को दीक्षा ग्रहण की, आपकी तपस्या का विचित्र इतिहास इस प्रकार है-4 वर्ष एकांतर उपवास, 6 वर्ष बेले-बेले पारणा, 5 पचरंगी, एक सतरंगी, उपवास से 16 दिन तक लड़ीबद्ध तप, जिसमें उपवास 2129, बेले 265, तेले 128, चोले 51, पचोले 46, छ 10, सात 11, अठाई दो की। आपने तप के इतिहास में आछ के आधार पर बारहमासी तप, तथा 'सर्वतोभद्र तप' (महाभद्रोत्तर) करके तेरापंथ में दो नये कीर्तिमान स्थापित किये। आमेट में उनका महाप्रयाण हुआ। 7.10.14 श्री नजरकंवरजी 'वास' (सं. 1971-स्वर्ग. सं. 2042-60 के मध्य) 8/56 श्री नजरकवरजी 'वास' (मेवाड़) निवासी श्री किस्तूरचंदजी पोरवाल की सुपुत्री थीं, 13 वर्ष की वय में आषाढ़ शुक्ला एकम को गोगुंदा में श्री कालूगणी द्वारा दीक्षा अंगीकार की। आपने सात सूत्र एवं कई व्याख्यान कंठस्थ किये। लेखन कला में विकास कर पांच सूत्रों को लिपिबद्ध किया। प्रतिवर्ष दस प्रत्याख्यान, प्रहर, खाद्य-संयम अनासक्त भावना एवं सहज वैराग्य वृत्ति से अपने संयमी जीवन को सुशोभित किया। समता, ऋजुता, मृदुता के साथ तप के क्षेत्र में आपने 2709 उपवास, 232 बेले, 55 तेले, 21 चोले, 6 पांच, छह व आठ उपवास एक बार किये। सं. 1998 से अग्रणी के रूप में विचरण कर शासन की महती प्रभावना की। आपका स्वर्गवास संवत् 2042 से 60 के मध्य में हुआ। 7.10.15 श्री सुखदवांजी 'राजलदेसर' (सं. 1972-2026) 8/59 __ आप रतनगढ़ निवासी श्री लिखमीचंद जी कोचर की पुत्री व श्री तनसुखदासजी की पत्नी थीं। पति-पत्नी दोनों ने वैशाख शुक्ला 10 को बालोतरा में दीक्षा-ग्रहण की। आप अपने अमित आत्म बल से तप के मार्ग पर आगे बढ़ी तथा उपवास से 15 दिन तक क्रमबद्ध तप किया। तप की तालिका इस प्रकार है-उपवास 1950, बेले 211, तेले 42, चोले 27, पचोले 32, छह 14, सात 14, आठ 14, नौ 4, 11 और 13 दो बार, 10, 14, 15 का तप एक बार। तप के साथ जाप, मौन, स्वाध्याय का नियमित क्रम चलता। आप 5 वर्ष तक संयम का निर्मल पालन कर चैत्र शु. 13 को राजलदेसर में स्वर्गवासिनी हुईं। 7.10.16 श्री लिछमांजी 'कालू' (सं. 1973-2033) 8/60 आपका जन्म देशनोक के श्री हेमराजजी भूरा के यहां एवं विवाह कालू निवासी सिरदारमलजी नाहटा के साथ हुआ। शादी के तीन साल पश्चात् पति का देहान्त होने पर 17 वर्ष की वय में फाल्गुन शु. 5 को सुजानगढ़ में दीक्षा स्वीकार की। आपने कई आगम, स्तोत्र, व्याख्यान आदि कंठस्थ किये। व्याख्यान की शैली प्रभावशाली थी, पुराने रागों की ज्ञाता होने से दोपहर के समय बहनें विशेष लाभ लेती। आपने 5 बार धर्मचक्र, 7 बार कर्मचूर, 16 बार दस प्रत्याख्यान के अतिरिक्त 2816 उपवास, 185 बेले, 11 तेले, 15 चोले, 2 पचोले आदि तप भी किया। अपने जीवन से तप-त्याग का संदेश देकर लाडनूं में आपकी देह का विलय हुआ। 13. उबाली हुई छाछ का निथरा हुआ पानी। 14. शासन-समुद्र, भाग-15, पृ. 195. 834 Page #897 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तेरापंथ परम्परा की श्रमणियाँ 7.10.17 श्री लिछमांजी 'सरदारशहर' (सं. 1974-2033 ) 8/62 आपका जन्म संवत् 1942 'पूर्णिया' (असम) में श्री गुलाबचंदजी पटावरी के यहां तथा विवाह श्री मघराजजी नाहटा 'सरदारशहर' में हुआ। पतिवियोग के पश्चात् 10 वर्षीय पुत्र सोहनलालजी के साथ सरदारशहर में आचार्य श्री कालूगणी के द्वारा भाद्रपद शुक्ला 12 को दीक्षा ग्रहण की। आपको अनेक थोकड़े, पचासों आख्यान, सैंकड़ों गीतिकाएं दोहे, छंद आदि कंठस्थ थे। प्रतिदिन 15 घंटा मौन व स्वाध्याय का क्रम चलता था, 52 वर्षों में लगभग 8 करोड़ थाओं का स्वाध्याय किया। तप के क्षेत्र में आपने उपवास 6060. बेले 185.तेले 24,चोले 24. पचोले 58. छह 3.4 दो बार तथा 7.9.10.11 का तप एक बार किया. 27 वर्ष एकान्तर तप किया। सैकड़ों भाई-बहनों को त्याग-प्रत्याख्यान कराये। अंतसमय में तप और अनशन के 66वें दिन लाडनूं में स्वर्गवासिनी हुईं। 7.10.18 श्री मूलांजी (सं. 1974-2022 ) श्री चांदकंवरजी (सं. 1974-2029 ) 8/64-65 श्री मूलांजी बीकानेर निवासी श्री सालमचंद जी खटेड की पुत्री थीं इनका विवाह भीनासर के मनसुखदासजी बांठिया से हुआ। श्री चांदकंवरजी इनके पति की प्रथम पत्नी लक्ष्मीदेवी की पुत्री थी। बांठियांजी का स्वर्गवास होने पर मूलांजी ने 25 वर्ष की उम्र में तथा चांदाजी ने 10 वर्ष की उम्र में आश्विन शुक्ला 7 को भीनासर में दीक्षा स्वीकार की। मूलांजी ने तपस्या की सौरभ से अपने संयमी जीवन को महकाया। उन्होंने 2059 उपवास 81 बेले, 15 तेले, 26 चोले, 16 पचोले, 3 छह, 48 वर्ष की उम्र में "रामसिंहजी का गुडा" में संथारे के साथ दिवंगत हुईं। चांदाजी ने आगम, स्तोक, व्याख्यान आदि का अच्छा अध्ययन किया अनेक व्याख्यान लिपिबद्ध किये। विनय, विवेक, संघनिष्ठा आदि देखकर आचार्यश्री ने इन्हें संवत् 1985 में अग्रणी पद पर नियुक्त किया। विविध क्षेत्रों में धर्म-प्रभावना करती हुई ये नोखामंडी में स्वर्गस्थ हुई। श्री रमावतीजी ने इनकी संक्षिप्त जीवनी लिखी है। 7.10.19 श्री नोजांजी 'सरदारशहर' (सं. 1974-2039) 8/66 आप 'बीजासर' के श्री रुघलालजी की पुत्री थीं, तोलियासर निवासी भीखणचंदजी बाफना के साथ अल्पायु में विवाह हुआ। पुत्र एवं पति के वियोग से उदासीन नोजांजी को साधु-साध्वियाँ की सत्संगति से दीक्षा की भावना जागृत हुई। 24 वर्ष की अवस्था में कार्तिक शुक्ला 5 को सरदार शहर में आपकी दीक्षा हुई। आप विनम्र सरल, समतावान, सहनशील और सेवाभाविनी साध्वी थीं। बहुत से स्तोक आख्यान भी याद किये। आप महातपस्विनी थीं गृहस्थावस्था में ही उपवास से 11 तक क्रमबद्ध एवं आगे 13, 15, 21 की तपस्या की। दीक्षा के पश्चात् आपकी तप तालिका आश्चर्यचकित कर देने वाली है, वह इस प्रकार है-5039 उपवास, 261 बेले, 95 तेले, 52 चोले, 54 पचोले, चार 6, तीन 7, छह अठाई, चार 9, 10 से 26 का तप एक बार, 27, 29 और 32 का तप दो बार, 28, 30, 31, 33, 34, 36, 37 का तप एक बार किया। आपकी तपस्या के कुल दिन 7199 हैं। आचार्य श्री तुलसी ने आपकी उग्र तप साधना देखकर आपको 'दीर्घतपस्विनी' के रूप में सम्मानित किया। माघ कृ. 3 को 90 वर्ष की अवस्था में आप सुजानगढ़ में स्वर्गस्थ हुई। 7.10.20 श्री इन्द्रूजी 'बीदासर' (सं. 1975-2017) 8/72 आप 'चूरू' के श्री नेहमलजी बैद की सुपुत्री एवं बीदासर के श्री महालचंदजी बैंगानी की धर्मपत्नी थीं। आपने पति को छोड़कर माघ शु. 14 को सुजानगढ़ में दीक्षा अंगीकार की, आप तपस्विनी थीं, कुल 2728 उपवास, 175 बेले, 19 तेले और एक मासखमण के अतिरिक्त आपने लघुसिंहनिष्क्रीड़ित तप की प्रथम परिपाटी तथा 835 Page #898 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन श्रमणियों का बृहद इतिहास चौमासी तप किया। तप के कुल दिन 3165 थे। संवत् 2017 मृगसिर शुक्ला 1 को राजनगर में स्वर्गवास हुआ। 7.10.21 श्री इन्द्रजी 'फतेहपुर' (सं. 1975-99) 8/73 आप बोहरा गोत्रीय श्री सोहनलालजी से ब्याही गई थीं। पतिवियोग के पश्चात् 20 वर्ष की वय में श्री इन्द्रजी 'बीदासर' वालों के साथ ही आपकी भी दीक्षा हुई। आप भी बड़ी तपस्विनी थीं। आपने उपवास से 15 दिन तक लड़ीबद्ध तप किया, उसमें 1621 उपवास 250 बेले, 35 तेले, 21 चोले, 25 पचोले, 5 बार छह और सात, 8 अठाई, शेष तपस्या एक बार की। सं. 1999 में सुजानगढ़ में आपका स्वर्गवास हुआ। 7.10.22 श्री सुन्दरजी 'लाडनूं' (सं. 1976-2036 ) 8/82 संवत् 1964 श्रावण कृष्णा 3 को आपका जन्म श्री वृद्धिचंदजी फूलफगर के यहां हुआ। 12 वर्ष की लघुवय में ही वैशाख शुक्ला 1 को आचार्य कालूगणी द्वारा राजगढ़ में दीक्षा ग्रहण की। आपकी एक सगी बहन और चार बुआ की बेटी बहनें भी बाद में दीक्षित हुईं। आप आगम स्तोक, व्याख्यान, व्याकरण आदि में निष्णात तथा लिपिकला में भी पारंगत थीं, आपने लगभग 100 छोटी-बड़ी प्रतियां लिखीं। आप साहसी, निर्भीक, पापभीरु आदि अनेक गुणों से अलंकृत थीं। सं. 1986 से आपने अग्रगण्या के रूप में लोगों में तात्त्विक व आध्यात्मिक प्रशिक्षण द्वारा नई जागृति पैदा की। आप प्रतिवर्ष तीन- साढ़े तीन लाख गाथाओं का स्वाध्याय करती थीं। मृगशिर शुक्ला 3 को पीपाड़ में समाधिपूर्वक कालधर्म को प्राप्त हुईं। 7.10.23 श्री संतोकांजी 'चूरू' (सं. 1976-2010 ) 8/83 आपका ससुराल चूरू में तथा पीहर थैलासर के हीरावत गोत्र में था। पतिवियोग के पश्चात् पुत्री मनोरांजी को लेकर आचार्य श्री कालूगणी से हिसार में वैशाख शुक्ला 11 को दीक्षा ग्रहण की। दीक्षा के समय आपकी उम्र 34 वर्ष की थी। लगभग 34 वर्ष ही आपने संयम पर्याय का पालन किया। इस कालावधि में आपके तप की सूची इस प्रकार है- उपवास 2760, बेले 592, तेले 96, चोले 35, पचोले 27, 6, 7 और 8 एकबार किया। कई तपस्याएँ आपने चौविहार से की। तप के साथ अभिग्रह भी करती थीं। चैत्र कृ. 13 को शार्दूलपुर में आपका पंडितमरण हुआ। 7.10.24 श्री संतोकजी 'लाडनू' (सं. 1977 स्वर्गवास - सं. 2042-60 के मध्य) 8/93 आपका जन्म चूरू में श्री जंवरीमलजी बैद के यहां हुआ। 11 वर्ष की लघुवय में लाडनूं में श्री हीरालाल जी भूतोड़िया से विवाह हुआ। वैराग्य के अंकुर प्रस्फुटित होने पर 19 वर्ष की अवस्था में बीदासर में चैत्र शुक्ला नवमी के दिन दीक्षा ग्रहण की। आप कलाप्रेमी थीं, कई रजोहरण, पुट्ठे, पटरियां, लकड़ी के उपकरण आदि बनाये। आप सिलाई भी बड़ी बारीक और सुंदर करती थीं। आपने ही सर्वप्रथम पैरों की रक्षा के लिये मोटे कपड़े की मोचड़ी बनाकर नीचे टायर लगाया, एवं पदत्राण हेतु आचार्यश्री को अर्पित किया, आचार्य श्री तुलसी ने तबसे अपने संघ को इस प्रकार के पदत्राण उपयोग करने की आज्ञा दी। लिपिकला व चित्रकला का विकास करते हुए करीब 500 पृष्ठ लिखे व 30-35 चित्र बनाये । शल्य चिकित्सा में भी आप निपुण थीं, आपने साध्वी प्रमुखा कानकंवरजी की आंख के मोतियाबिंद का ऑपरेशन किया, उन्हें आंख से दिखाई देने लगा। साध्वी भीखांजी को लाडनूं 836 Page #899 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तेरापंथ परम्परा की श्रमणियाँ में गाय ने भयंकर चोट लगाई, उनके सिर का मांस बाहर निकल आया। आप उसी समय डॉक्टर के यहां से औजार लाईं और साध्वीजी को 13 टांके लगाये। तप के क्षेत्र में भी आप अग्रणी रहीं, आपने उपवास से 10 तक क्रमबद्ध तप किया। उसमें सं. 2041 तक 2328 उपवास, 119 बेले, 2 तेले, 10 चार, 11 पांच, 2 छह, एक सात, तीन 8, दो 9, एक 10 व एक 16 का तप किया। आपके जीवन का अधिकांश भाग सेवा और तप में व्यतीत हुआ। 7.10.25 श्री नजरकंवरजी 'लाडनूं' (सं. 1977-2022 ) 8/95 _आप धनराजजी बैद की पुत्री थीं। 13 वर्ष की अवस्था में ज्येष्ठ शुक्ला पूर्णमासी को लाडनूं में दीक्षा ग्रहण की। दीक्षा के पश्चात् आपने 8 सूत्र व 27 स्तोक, आख्यान आदि सीखे। लगभग 23 हजार श्लोक आपको कंठाग्र थे। व्याख्यान देने में भी आप दक्ष थीं। सं. 1997 से अग्रगण्या के रूप में विचरण कर आपने धर्म की महती प्रभावना की। क्रमबद्ध तपस्या 11 तक की, उसमें 2610 उपवास, 72 बेले, 26 तेले, 12 चोले, 10 पचोले एवं 2 बार छह का तप किया। आप अत्यंत सहनशील एवं समतावान थीं, अंतिम समय भयंकर बीमारी को प्रसन्नतापूर्वक सहन करती हुई सुजानगढ़ में स्वर्गवासिनी हुईं। 7.10.26 श्री सुरजांजी 'भादरा' (सं. 1978-2031) 8/97 आप नोहर के कोठारी परिवार की कन्या एवं भादरा के बींजराजजी चोरड़िया की पुत्रवधू थीं। पति के देहान्त के पश्चात् आप मृगशिर शुक्ला 9 को राजलदेसर में दीक्षित हो गईं। आप बड़ी आत्मार्थिनी थीं, अपने जीवन में आपने तप के विविध प्रयोग किये। उपवास से 12 तक क्रमबद्ध तप, दो पंचरंगी, एक धर्मचक्र, प्रतरतप, चौबीस तीर्थंकर तप, परदेशी राजा के 12 बेले, अढ़ाई सौ प्रत्याख्यान किये, इस प्रकार 3766 उपवास, 469 बेले, 53 तेले, 51 चोले, 48 पांच, 4 छह, 3 सात, चार 8, दो बार 9 की तपस्या की। पौष कृ. 1 को आडसर में संथारा सहित स्वर्गगामिनी बनीं। 7.1.27 श्री सोनांजी 'साजनवासी' (सं. 1978-2036) 8/100 आपका जन्म श्री दुलीचंदजी लोढ़ा के यहां सं. 1969 में हुआ। नौ वर्ष की उम्र में पिता के साथ चैत्र कृष्णा 6 को सुजानगढ़ में दीक्षा ग्रहण की। आप अत्यंत सरल स्वभावी, लज्जाशील थीं, प्रतिदिन प्रहर, मौन, स्वाध्याय आदि करतीं, 8 वर्ष अग्रगण्या के रूप में विचरी। आचार्य श्री तुलसी के साथ भी 50 हजार मील का पाद-विहार कर तेरापंथ में कीर्तिमान स्थापित किया। अंतिम समय सुजानगढ़ में दिवंगत हुईं। साध्वीश्री की स्मृति में ‘स्वर्णहार' नामक लघु पुस्तिका प्रकाशित हुई। 7.10.28 श्री तनसुखांजी 'लाडनूं' (सं. 1979-स्वर्गवास सं. 2042 से 60 के मध्य) 8/102 आपका जन्म संवत् 1960 में लाडनूं के श्री रामलालजी गुंदेचा के यहां तथा विवाह वहीं सूरजमलजी चोपड़ा के साथ हुआ। सं. 1979 में सुहागिन वय में भाद्रपद शुक्ला 10 को बीकानेर में दीक्षा ग्रहण की। आप उग्र तपस्विनी थीं, आपकी तप सूची इस प्रकार है-लघुसिंहनिष्क्रीड़ित तप की दो परिपाटी, दो धर्मचक्र, प्रतरतप, पचरंगी तप, परदेशी राजा के 12 बेले, रसों के 5 तेले, उपवास से नौ तक की लड़ी, इस प्रकार कुल तप संख्या 4486 हुई। आप लाडनूं में स्थिरवास कर रही थीं, वहीं आपका स्वर्गवास हुआ प्रतीत होता है, क्योंकि तेरापंथ परिचायिका में आपका नामोल्लेख नहीं है। 837 Page #900 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन श्रमणियों का बृहद इतिहास 7.10.29 श्री जतनकंवरजी 'राजगढ़' (सं. 1979-स्वर्ग. सं. 2043.60 के मध्य) 8/103 __ आप श्री बालचंदजी पुगलिया की सुपुत्री थीं, 14 वर्ष की अविवाहित वय में भाद्रपद शुक्ला 10 को बीकानेर में दीक्षा अंगीकार की। आपने 4 आगम, कई स्तोक, व्याख्यान आदि कंठस्थ किये। संवत् 1995 से अग्रणी के रूप में विचरण कर खूब धर्म की प्रभावना की, स्वयं प्रतिदिन एक हजार गाथाओं का स्वाध्याय करती तथा तीन विगय से अधिक ग्रहण नहीं करती थीं, आपकी तप संख्या 2072 थी, आप शल्य चिकित्सक भी थीं, श्री हलासांजी के पीठ की गांठ का ऑपरेशन किया था। आपके स्वर्गवास की निश्चित तिथि ज्ञात नहीं हो सकी। 7.10.31 श्री दीपांजी 'सिरसा' (सं. 1979-2029) 8/105 आप पंजाब के सिरसा शहर में सं. 1969 को श्री केवलचंदजी नवलखा के यहां अवतरित हुईं। आपने दस वर्ष की लघुवय में भाई धनराजजी और चंदनमलजी के साथ सं. 1979 प्रथम ज्येष्ठ शुक्ला पूर्णिमा के दिन सुजानगढ़ में दीक्षा ली, आपके पिता श्री केवलचंदजी बाद में दीक्षित हुए थे। आपने अपनी तीक्ष्ण मेधा शक्ति से आगम, व्याकरण, काव्य, ग्रंथ, कोष, स्तोक, कई व्याख्यान आदि कंठस्थ किये। सं. 1998 से अग्रणी के रूप में विचरण करते हुए आपने जन-जन में धर्म के मौलिक तत्त्व व संस्कार भरने के अच्छे प्रयत्न किये। आप साहसी, धैर्यवान, वाक् कुशल तथा निष्ठावान साध्वी थीं अपने संयमी जीवन में उपवास से आठ तक लड़ीबद्ध तपस्या तथा 25 बार दस प्रत्याख्यान किया। सं. 2029 को अबोहर में आपका स्वर्गवास हुआ। आपके प्रेरक संस्मरण साध्वी श्री सुमंगलाजी ने 'ये दीप सदा जलते रहेंगे' पुस्तक में दिये हैं। 7.10.32 श्री मनसुखांजी 'मोमासर' (सं. 1980-स्वर्ग सं. 2042-60 के मध्य) 8/107 ___ आपका जन्म संवत् 1962 सुजानगढ़ में श्री सूरजमलजी भूतोड़िया के यहां हुआ, तथा विवाह श्री पांचीरामजी पटावरी के साथ किया गया। आपने 18 वर्ष की वय में अपने पति के साथ जयपुर में कार्तिक कृष्णा 7 को दीक्षा अंगीकार की। आपने सूत्र, स्तोक, व्याख्यान आदि की लगभग 15 हजार गाथाएँ कंठस्थ की। सं. 2042 तक आपने 1792 उपवास, 110 बेले और 7 चोले, 110 आयंबिल किये। सं. 2039 से आडसर में स्थिरवासिनी थीं, वहीं आपका सं. 2042 से 60 के मध्य स्वर्गवास हुआ। 7.10.33 श्री संतोकांजी 'चूरू' (सं. 1981-2014) 8/114 आपका ससुराल पारख गोत्र में और पीहर राजगढ़ के नाहटा गोत्र में था। सं. 1960 में आपका जन्म श्री हीरालालजी के यहां हुआ। पतिवियोग के पश्चात् सं. 1981 कार्तिक शुक्ला 5 को चूरू में दीक्षा स्वीकार की। आप तपस्विनी थीं, सेलड़ी की वस्तु, औषध सेवन तथा पांच विगय का क्रमशः आजीवन त्याग कर दिया था, तीस वर्ष तक दो महीने के एकांतर, छब्बीस वर्षों तक दस प्रत्याख्यान तथा तीन वर्ष बेले-बेले तप किया। आपके तप के कुल दिन 4237 होते हैं इसमें आठ, ग्यारह और बारह की बड़ी तपस्या भी सम्मिलित है। संवत् 2014 को सुजानगढ़ में 20 दिन के चौविहारी अनशन के साथ दिवंगत हुई। 15. दृ. तेरापंथ परिचायिका, पृ. 17. 838 Page #901 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तेरापंथ परम्परा की श्रमणियाँ 7.10.34 श्री कमलूजी 'राजलदेसर' (सं. 1981-2018) 8/115 आपका जन्म सं. 1962 को कलकत्ता में चूरू निवासी मोतीलालजी सुराणा के यहां हुआ, तथा विवाह सुराणा परिवार में हुआ। पतिवियोग के पश्चात् संवत् 1981 कार्तिक कृष्णा 5 के दिन चूरू में दीक्षा ग्रहण की। आप साहसी, फक्कड़ स्पष्टवादी और सहनशील थीं, संवत् 1990 से अग्रणी रहकर आपने काफी धर्म प्रचार किया, सं. 2019 सुजानगढ़ में आपने स्वर्ग-गमन किया। मुनि छत्रमलजी ने साध्वीश्री की संक्षिप्त जीवन झांकी 88 पद्यों में तथा श्री भीखांजी ने 'कमलू बन गई कमला' पुस्तक में दी है। 7.10.35 श्री जड़ावांजी 'गंगाशहर' (सं. 1981-2030) 8/119 आपका जन्म सं. 1949 को उदासर निवासी भैंरुदानजी चोरडिया के यहां हुआ। पतिवियोग के पश्चात् सं. 1981 माघ शुक्ला 14 को सरदारशहर में संयम ग्रहण किया। आप उग्रतपस्विनी साध्वी हुईं, उपवास 5003, बेले 588, तेले 59, चोले 39, पचोले 12, छ, सात और नौ का तप 4 बार, अठाई 5, 10, 11 और 15 का तप एकबार किया। अंत में 21 दिन के संलेखना व अनशन के साथ संवत् 2030 को लाडनूं में पंडित मरणप्राप्त किया। 7.10.36 श्री सुंदरजी 'मोमासर' (सं. 1981-2041) 8/120 आप बंगाल प्रान्त के नलफामारी ग्राम के श्री हरखचंदजी दूगड़ की सुपुत्री थीं। 20 वर्ष की अवस्था में पतिवियोग के पश्चात् सरदारशहर में आपकी दीक्षा माघ शुक्ला चतुर्दशी को हुई। आपने अपनी प्रखर प्रज्ञा एवं प्रबल पुरुषार्थ से लगभग 21 हजार गाथाएँ कंठस्थ की थीं। संवत् 2009 से आपने अग्रणी के रूप में अनेक क्षेत्रों में धर्म का प्रचार-प्रसार किया। साथ में उग्र तपस्याएँ भी की, उसका विवरण इस प्रकार है-उपवास 6111, बेले 1161, तेले 159, चोले 44, पचोले 36, छह, आठ, ग्यारह 3 बार, सात, नौ का तप 2 बार, शेष 17 तक की लड़ी एकबार की। आप प्रतिदिन एक हजार गाथाओं का स्वाध्याय करती थीं, तथा अन्य अनेक नियम धारण किये हुए थे। अंत में संवत् 2041 को चाड़वास में दो दिन की तपस्या के साथ समाधिमरण को प्राप्त हुईं। 7.10.37 श्री किस्तुरांजी 'गंगाशहर' (सं. 1981-2031) 8/122 आपका जन्म संवत् 1961 में गंगाशहर के भैंरुदानजी छाजेड़ के यहां हुआ, वहीं दूगड़ परिवार में आपका ससुराल भी था, किंतु तीन वर्ष में ही पतिवियोग हो जाने पर माघ शुक्ला 14 को सरदारशहर में आपने दीक्षा ग्रहण की। आपके पचास वर्ष की संयम-पर्याय में प्रायः एक भाग तप से परिपूर्ण रहा, आपके तप का विवरण इस प्रकार है-उपवास 4963, बेले 201, तेले 22, चोले 11, पचोले 16, छह 2, अठाई 4, पन्द्रह 2 शेष सात से 31 तक क्रमबद्ध तपस्या (20, 24-26 को छोड़कर) एक बार । अंत में आषाढ़ शुक्ला पूर्णिमा को तपस्या प्रारंभ की, संवत्सरी के दूसरे दिन 50 दिन की दीर्घ तपस्या के साथ 'तोषाम' में स्वर्गवासिनी हुईं। 7.10.38 श्री झमकूजी 'राजलदेसर' (सं. 1982-स्वर्ग. सं. 2042-60 के मध्य) 8/133 आपका जन्म चूरू के सुजानमलजी सुराणा के यहाँ संवत् 1964 में हुआ, नाहर परिवार में आपका संबंध किया गया, वैराग्य का प्रबल उदय होने पर सुहागिन वय में संवत् 1982 कार्तिक शुक्ला 5 को आपने बीदासर में दीक्षा ग्रहण Page #902 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन श्रमणियों का बृहद इतिहास की। कई आगम, स्तोक, संस्कृत, व्याख्यान, अध्यात्म काव्य एवं ग्रंथों का आपने अध्ययन किया। संवत् 2001 से अग्रणी पद पर वर्षावास करते हुए अनेकों लोगों को धर्म के प्रति आकृष्ट किया। शल्य-चिकित्सा करने में भी आप निपुण थीं, आंखों के ऑपरेशन, फोड़े-फुसियों के ऑपरेशन, इंजेक्शन आदि लगाने में कुशल थीं। कला के विविध और नवीन आयाम आप द्वारा प्रकाश में लाये गये। आपके तेजस्वी व्यक्तित्व और हृदयस्पर्शी वाणी से 15 भाई-बहन संघ में दीक्षित हुए। अंतिम समय तक धर्मशासन की महती प्रभावना करती हुईं आप संवत् 2034 से देशनोक में स्थिरवासिनी हुईं, संवत् 2042 से 60 के मध्य आप कब स्वर्गवासिनी हुईं, इसकी निश्चित तिथि ज्ञात नहीं हो सकी। 7.10.39 श्री सिरेकंवरजी 'श्रीडूंगरगढ़' (सं. 1982-स्वर्ग सं. 1942-60 के मध्य) 8/137 आप मालू गोत्रीय जीवराजजी की पुत्री थीं, 11 वर्ष की वय में कार्तिक शुक्ला पंचमी बीदासर में दीक्षा ग्रहण की, ज्ञान व तप की आराधना के साथ-साथ आपने लगभग 1 हजार व्यक्तियों को सम्यक्त्व दीक्षा प्रदान की। पंजाब में विचरण करने वाली तेरापंथ संघ की आप सर्वप्रथम साध्वी थीं। आपने उपवास से आठ दिन तक प्रायः लड़ीबद्ध तप किया। आपका स्वर्गवास सं. 1942 से 60 के मध्य हुआ। 7.10.40 श्री पानकंवरजी 'पचपदरा' (सं. 1982-स्वर्ग. सं. 1942-60 के मध्य) 8/139 आपके पिताश्री चौथमलजी संकलेचा थे। माता जमनांजी के साथ 10 वर्ष की वय में कार्तिक शुक्ला पंचमी बीदासर में आप दीक्षित हुईं। आपकी लिपि स्वच्छ, सुंदर थी, आपने लगभग 5 पुस्तकें (एक 400-500 पत्र की) लिपिबद्ध की। संवत् 2000 से आपने अग्रणी के रूप में विहरण किया, आपके मधुर उपदेशों को श्रवण कर कई व्यक्तियों ने सम्यक्त्व दीक्षा (गुरु धारणा) ग्रहण की। आपके स्वर्गवास की निश्चित् तिथि ज्ञात नहीं है। 7.10.41 साध्वी-प्रमुखा श्री लाडांजी 'लाडनूं' (सं. 1982-2026) 8/140 आपश्री का जन्म लाडनूं में संवत् 1960 श्रावण शुक्ला तृतीया को पिता श्री झूमरलालजी और मातुश्री वदनांजी के यहां हुआ। लघुवय में ही आपका विवाह स्थानीय श्री हीरालालजी बैद के साथ हुआ, छह वर्ष बाद ही पतिवियोग से लाडांजी का मन संसार से उचट गया, संवत् 1982 पौष कृष्णा पंचमी के दिन लाडांजी ने अपने लघु भ्राता तुलसीजी के साथ दीक्षा अंगीकार की। आपकी धैर्यता, गंभीरता, विनय, सहनशीलता आदि विरल विशेषताओं से प्रभावित होकर संवत् 2002 में आचार्य श्री तुलसी ने आपको 'प्रमुखा' पद पर प्रतिष्ठापित किया। आपने आचार्य श्री तुलसी के साध्वी-समाज में शिक्षा के नये-नये आयामों को सफल बनाने का सतत प्रयास किया। आपकी प्रबल प्रेरणा से साध्वी-समाज में हिन्दी, संस्कृत, प्राकृत का अच्छा विकास हुआ। गद्य-पद्य, कविता, निबंध, संस्कृत, श्लोक आदि की रचना करने में साध्वियाँ निपुण बनी। नारी-जागरण की दिशा में भी आपने अच्छे कार्य किये, आपके उद्बोधन से सामाजिक रूढ़ियां समाप्तप्रायः हुईं। आपने अपने जीवन में स्वाध्याय और खाद्य-संयम को विशेष महत्त्व दिया, एक वर्ष में तीन लाख श्लोकों का स्वाध्याय आपने नियमित रूप से किया। आपको प्रबल वेदनीय कर्म का उदय रहा, तथापि अपना धैर्य और मनोबल क्षीण नहीं होने दिया, आपकी कष्ट सहिष्णुता को देखकर आचार्यश्री ने आपको 'सहिष्णुता की प्रतिमूर्ति' की उपाधि से सम्मानित किया। संवत् 2026 को बीदासर में आपका महाप्रयाण हुआ। साध्वी संघमित्राजी ने आपकी बहुमुखी जीवन-झांकी को 'बूंद बन गई गंगा' में संजोने का प्रयास किया है। 840 Page #903 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तेरापंथ परम्परा की श्रमणियाँ 7.10.42 श्री रूपांजी 'सरदारशहर' (सं. 1982-स्वर्ग. सं. 2042-60 के मध्य) 8/143 आपका जन्म श्री प्रतापमलजी छाजेड़ के यहां सं. 1972 में हुआ, 11 वर्ष की वय में बीकानेर में आषाढ़ कृष्णा दशमी के दिन आप दीक्षित हुईं। आपका कंठस्थ ज्ञान एवं लिपिकला अच्छी थी। संवत् 1996 से अग्रणी के रूप में लगभग 44 हजार कि.मी. की दर-दर की पदयात्रा कर धर्म का प्रचार-प्रसार किया। आपका कंठ मधर, आवाज था। साहित्य के क्षेत्र में आपकी पुस्तक 'उनकी कहानी मेरी जबानी' में साध्वी प्रमुखा झमकूजी का जीवन संग्रहित है। आपके स्वर्गवास की निश्चित् तिथि ज्ञात नहीं हो सकी। बुलन्द औ 7.10.43 श्री पिस्तांजी 'ऊमरा' (सं. 1983-स्वर्ग. सं. 2042-60 के मध्य) 8/147 आप हरियाणा प्रान्त के ऊमरा ग्राम निवासी श्री सुगनचंदजी अग्रवाल की सुपुत्री थीं। श्री संतोकाजी से प्रेरित होकर 16 वर्ष की वय में लाडनूं में माघ शुक्ला 7 को दीक्षा अंगीकार की। आप ज्ञान, कला, विद्वत्ता में अग्रणी बनकर रहीं, लगभग 51 हजार कि. मी. की पदयात्रा कर आपने अनेक जमींदारों को सुलभबोधि बनाया, सैकड़ों को गुरुधारणा करवाई। तपस्या के मार्ग पर भी आप शूरवीरता से चलीं। संयमी जीवन में आपने उपवास 2557, बेले 207, तेले 93, पचोले 7. अठाई 5, छह, सात और नौ का तप दो बार तथा 10 और 11 का तप एक बार किया। 7.10.44 श्री मोहनांजी 'राजगढ़' (सं. 1983-वर्तमान) 8/148 नाहटा तनसुखदासजी के घर जन्मी मोहनांजी ने साढ़े 10 वर्ष की उम्र में लाडनूं में माघ शुक्ला सप्तमी को दीक्षा अंगीकार की। आपकी योग्यता और वैदुष्य का इससे बढ़कर और क्या प्रमाण हो सकता है कि आचार्यश्री ने 16 वर्ष की अल्पवय में ही आपको 'अग्रणी साध्वी' के रूप में प्रतिष्ठित कर दिया। आपने लाहौर, अमृतसर, आसाम, नेपाल, भूटान, सिक्किम आदि दूरवर्ती क्षेत्रों में सर्वप्रथम पहुंचकर न केवल अपने संघ के लिये पाद-विहार सुलभ करने में योगदान दिया, वरन् धर्म के प्रचार-प्रसार में भी महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई। आपने आसाम की राजधानी सिलांग की चालू विधानसभा में पहुंचकर अणुव्रत का संदेश दिया, गोहाटी के व्यापारी सम्मेलन में 100 व्यापारियों को एक साथ व्यापारीवर्गीय अणुव्रत नियम ग्रहण कराये। एक वर्ष में आसाम क्षेत्र में 50 विद्यार्थी सम्मेलन और 35 महिला सम्मेलन करवाये। आसाम के मुख्यमंत्री ने आपके किये गये सामाजिक सुधार के कार्यों की भूरि-भूरि प्रशंसा की। 7.10.45 श्री कमलूजी 'जयपुर' (सं. 1983-स्वर्ग. सं. 2042-60 के मध्य) 8/149 __ श्री मोतीलालजी बांठिया की सुसंस्कारी कन्या कमलूजी ने 10 वर्ष की उम्र में लाडनूं में माघ शुक्ला सप्तमी को दीक्षा अंगीकार की। प्रत्येक कार्य में आप निपुण थी, रंग-रोगन, विविध चित्रकारी, महीन अक्षर, लिपि आदि अन्यान्य कलाओं में भी आप सिद्धहस्त थीं। इंजेक्शन लगाना, ऑपरेशन करना, दाढ़ आदि निकालना आदि में आपका हाथ सधा हुआ था। आपके विविध गुण व योग्यता के कारण संघस्थ सभी साधु-साध्वी आपको सम्मान की दृष्टि से देखते थे। आप प्रतिवर्ष श्रावण में एकान्तर तप, लगभग 40 उपवास, एक-दो बेले-तेले किया करती थीं। आपकी स्वर्गवास तिथि निश्चित ज्ञात नहीं हो सकी। 841 For Private a Personal Use Only Page #904 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन श्रमणियों का बृहद इतिहास 7.10.46 श्री पन्नांजी 'देरासर' (सं. 1984-स्वर्ग. सं. 2042-60 के मध्य) 8/154 आपका जन्म सं. 1964 मधेपुर (बिहार) ग्राम में श्री जेठमलजी के यहाँ हुआ। आपने बीस वर्ष की सुहागिन अवस्था में श्रीडूंगरगढ़' में कार्तिक कृष्णा अष्टमी को दीक्षा अंगीकार की। आपका जीवन विशिष्ट त्याग-तपस्या का रोमांचकारी एक दस्तावेज है। गृहस्थावस्था में ही आपने उपवास से आठ तक लड़ीबद्ध तप किये, साध्वी जीवन में उपवास से 16 तक की तपस्या में कुल 2543 दिन तिविहार एवं 6814 दिन चौविहार तप में बिताये। आछ के आगार से छहमासी, दो बार चौमासी, तीनमासी, दो बार अढ़ाई मासी, पौने दो मासी, डेढ़ मासी, 41, 14, 32, 30, 31, 29, 29, 28, 28, 13, 18, 51 आदि तप किया। इनके अतिरिक्त 31 बार दस प्रत्याख्यान, 1 बार ढाईसौ प्रत्याख्यान, पंचरंगी चौविहार (4 बार) कंठीतप, प्रतरतप, धर्मचक्र तप, कर्मचूर तप, परदेशी राजा के 12 बेले (4 बार) आदि समग्र जीवन की कुल तपस्या 31 वर्ष और 4 दिन की की। पारणे में गुड़ शक्कर का त्याग, दो विगय उपरांत त्याग, एक वस्त्र से अधिक ओढ़ने का त्याग, पारणे में विचित्र अभिग्रह, दो हजार गाथाओं का स्वाध्याय, सवालक्ष जप आदि विविध तपस्याएँ देखकर आचार्य श्री तुलसी ने आपको 'दीर्घतपस्विनी' विशेषण प्रदान किया। साध्वी श्री पन्नाजी की तपःपूत साधना उनके दृढ़तम संकल्प एवं साहस की प्रतीक एवं श्रमण-संस्कृति के मस्तक को गौरवान्वित करने वाली अद्भुत साधना थी, आपके स्वर्गवास की निश्चित् तिथि ज्ञात नहीं हुई। 7.10.47 श्री भत्तूजी 'सरदारशहर' (सं. 1985-2037) 8/174 आपका जन्म श्री शोभचंदजी दूगड़ के यहां सं. 1972 में हुआ। आपने अपने पति श्री मन्नालालजी के साथ सरदारशहर में ज्येष्ठ शुक्ला 4 को दीक्षा अंगीकार की, उस समय आपकी अवस्था 14 साल की थी। आपने अपने संयमी जीवन को विनय, विवेक, अनुभवज्ञान, हस्त-कौशल, चातुर्य, स्फूर्ति, ऋजुता, मृदुता, समता, सहनशीलता आदि विशिष्ट गुणों से मंडित किया हुआ था। त्याग और वैराग्य आपके जीवन में साकार था। आपके जीवन संस्मरण इतने हृदयग्राही और प्रेरक हैं कि लगता है, साध्वी जीवन हो तो ऐसा होना चाहिये। श्री नगीनाजी ने 'स्वर्गीया साध्वी श्री भत्तूजी' नामक पुस्तक लिखी है, शासन समुद्र में भी कई प्रेरक प्रसंग आपके जीवन से संबंधित अंकित है। आपके तपोमय जीवन की सूची इस प्रकार है-उपवास से 11 तक की लड़ी में पचोले तक कई बार, छ से नौ तक तथा 20, 22, 23, 27 उपवास दो-दो बार एक मासखमण, 51 बार दस प्रत्याख्यान, वर्ष में दस मास आजीवन पांच विगय वर्जन, दो मास छह विगय वर्जन, द्रव्यों का परिमाण अन्य भी अनेकों त्याग अपने जीवन में किये हुए थे। लाडनूं में संवत् 2037 को आप महाप्रयाण कर गई। 7.10.48 श्री बालूजी 'टमकोर' (सं. 1987-2028) 8/182 आप खींयासर ग्रामवासी श्री हीरालालजी बच्छावत की सुपुत्री थीं, ढूंढाण के तोलारामजी चोरडिया के साथ आपका विवाह हुआ। आप आचार्य महाप्रज्ञजी की महिमावंत मातेश्वरी थीं। अपने होनहार पुत्ररत्न में आपने वो सुसंस्कार भरे कि कभी नथमलजी के नाम से प्रसिद्ध वह बालक तेरापंथ धर्मसंघ का दसम आचार्य एवं महावीर की ध्यान साधना प्रणाली को प्रेक्षाध्यान के माध्यम से विश्व में विस्तार करने वाला प्रज्ञापुरुष बना। श्री बालूजी स्वयं भी संयम में जागरूक पंडिता साध्वी थीं, देह और आत्मा की भिन्नता को काफी गहराई से जीवन में उतारा हुआ था, 842 Page #905 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तेरापंथ परम्परा की श्रमणियाँ उनकी दीक्षा सरदारशहर में माघ शुक्ला 10 को हुई। उनके जीवन-प्रसंगों पर लिखी गई “विदेह की साधिका साध्वी श्री बालूजी' पुस्तक प्रकाशित हुई है। 7.10.49 श्री पिस्तांजी 'जमालपुर' (सं. 1987-2037) 8/187 हरियाणा के अग्रवाल कुल में उत्पन्न हुई बाला पिस्तां 15 वर्ष की वय में सरदारशहर में माघ शुक्ला दसमी को दीक्षित होकर साध्वी बनीं। सरलभाव से तप स्वाध्याय से 50 वर्ष तक संयम का रसास्वादन कर अंत में 22 दिन के चौविहारी संथारे के साथ मृत्यु का वरण कर अपना संयमी जीवन तो सफल किया ही साथ ही तेरापंथ संघ में भी अपूर्व कीर्तिमान कायम कर शासन की गरिमा को अभिवृद्धिंगत करने का भी यशस्वी कार्य किया। 7.10.50 श्री रायकंवरजी 'राजलदेसर' (सं. 1988-स्वर्ग. सं. 2042-60 के मध्य ) 8/203 आपका जन्म श्री कोडामलजी डागा के यहाँ सं. 1976 में हुआ। आपने 13 वर्ष की वय में राजगढ़ में ज्येष्ठ कृष्णा तृतीया को दीक्षा अंगीकार की। निरंतर अभ्यास करते हुए आपने 20-25 हजार पद्य, 5 शास्त्र, कई स्तोक याद किये। आपने अपनी मधुरवाणी और प्रेरक उपदेशों द्वारा हजारों व्यक्तियों को समझाकर व्यसनमुक्त किया, अणुव्रती तैयार किये, हजारों को सुलभ बोधि और सम्यक्त्व दीक्षा दी, कई स्थानों पर सामाजिक मतभेद दूर किये। उड़ीसा के महाराज एवं महाराव तक अणुव्रत के संदेश को पहुंचाया, सार्वजनिक प्रवचन भी किये, इस प्रकार आपने शासन की बड़ी प्रभावना की। 7.10.51 श्री पारवतांजी 'लाडनूं' (सं. 1989-2033) 8/204 आपका पीहर नागौर जिले के 'अलाय' नामक कस्बे में था। पिता का नाम श्री मेघराजजी चोरडिया तथा पति का नाम आसकरणजी बोथरा था। पति के स्वर्गवास के पश्चात् आपने 5 वर्षीय पुत्र का मोह छोड़कर दस वर्षीय कन्या किस्तूरांजी के साथ कार्तिक कृष्णा नवमी को सरदारशहर में दीक्षा ली। स्वाध्याय, मौन, जप, तप, समता व समाधि की साधना से धर्मसंघ के प्रभाव को बढ़ाती हुई आप 44 वर्षों तक शासन की सेवा करती रहीं, 73 वर्ष की उम्र में 25 दिन की संलेखना और 29 दिन का तिविहारी अनशन करके शाहपुर में आप स्वर्गस्थ हुईं। आपने संयमी जीवन में 1665 उपवास एवं 1 से 9 तक लड़ी की, प्रतिवर्ष दस प्रत्याख्यान किये, आपके कुल उपवास के 1948 दिन थे। 7.10.52 श्री लिछमांजी 'सिरसा' (सं. 1989-स्वर्ग. 2042-60 के मध्य) 8/207 आपका जन्म अली मोहम्मद गांव में सं. 1967 में श्री हनूतमलजी के यहां हुआ तथा विवाह श्री डेडराजजी पारख से हुआ। पतिवियोग के बाद आपने सरदारशहर में कार्तिक कृष्णा नवमी को दीक्षा अंगीकार की। और कालि आदि रानियों के तप का स्मरण कराती हुई तप में लीन बन गईं। आपने उपवास से 23 तक लड़ीबद्ध तप तथा 28 से 31 तक का तप भी किया, आपके तपोपूत जीवन के कुल दिवस 4814 हैं। ___7.10.53 श्री किस्तूरांजी 'लाडनूं' (सं. 1989-स्वर्ग. 2042-60 के मध्य) 8/211 आपके पिता श्री आसकरणजी बोथरा थे, आपने अपनी माता पारवतांजी के साथ सरदारशहर में कार्तिक | 843|| Page #906 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन श्रमणियों का बृहद इतिहास कृष्णा नवमी को दीक्षा ग्रहण की। 21 वर्ष तक गुरुकुलवास में रहकर आपने विशेष रूप से हिंदी, संस्कृत, प्राकृत आदि अध्ययन किया, तथा अपनी लेखनी से उन्हें सृजनात्मक स्वरूप भी प्रदान किया। आपने चंदचरित्र, जिनसेन-रामसेन चरित्र, ऋषिदत्त चरित्र, भीमसेन चरित्र, हरिसेन चरित्र, विद्या विकास चरित्र आदि पद्यमय काव्य कृतियां निर्मित की। संस्कृत में भक्तामर की समस्यापूर्ति, धर्म षोडश, कर्त्तव्य-अष्टक आदि बनाये। हिंदी में भी कई कविताएं, मुक्तक, गीतिकाएं आदि तैयार की। विशेष रूप से साध्वी समाज में 'शतावधान' का द्वार उद्घाटित करने वाली आप सर्वप्रथम विदुषी साध्वी थीं। दक्षिण प्रान्त की ओर पदयात्रा करने और काठमांडू (नेपाल) में सर्वप्रथम गमन करने का श्रेय भी आपको ही प्राप्त हुआ, आचार्य श्री द्वारा आप शिक्षा केन्द्र की व्यवस्थापिका तथा व्यवस्था विभाग की व्यवस्थापिका के रूप में भी नियुक्त हुई थीं। 7.10.54 श्री सुजाणांजी 'मोमासर' (सं. 1990-2042) 8/218 श्री सुजाणांजी का जन्म राजलदेसर के बैद परिवार में सं. 1966 को हुआ, तथा विवाह मोमासर के नाहटा परिवार में हुआ। बचपन से ही त्याग-वृत्ति के मार्ग पर आरूढ़ सुजाणांजी वैधव्य के पश्चात् अपनी पुत्री इन्द्रू को लेकर श्रमणी-संघ में प्रविष्ट हुई। साधना के विविध उपक्रमों का रसास्वादन करती हुई साध्वीश्री ने तप की लड़ियां प्रारंभ की। उपवास से 15 तक लड़ीबद्ध तप उन्होंने एकाधिक बार किया। उनके समग्र जीवन के 19 वर्ष 4 मास और 11 दिन तप में व्यतीत हुए, अंत में 11 दिन की संलेखना संथारा के साथ सं. 2042 में गंगापुर में स्वर्गस्थ हुईं। 7.10.55 श्री मीरांजी 'सरदारशहर' (सं. 1991-2036) 8/224 श्री मीरांजी का जन्म संवत् 1957 सरदारशहर के श्री कुंभकरणजी पुगलिया के यहाँ तथा विवाह वहीं पर गा से हुआ। विवाह के दो मास पश्चात् ही सुहाग का चिन्ह समाप्त हो जाने पर मीरांजी ने पदार्थ की आसक्ति को ही मन से निकाल फैंका और अपने जीवन को सत्संग, दर्शन, स्वाध्याय व तप से संलग्न कर दिया। आपने एक से 16 तक लड़ीबद्ध तप भी किया। अन्तर्हदय में छलछलाते वैराग्य के परिणामों से 34 वर्ष की वय में जोधपुर में कार्तिक कृष्णा अष्टमी को दीक्षा लेकर आप श्रमणी बनीं। तप की धारा यहाँ भी अविश्रान्त गति से प्रवाहित होती रही, 1 से 8 तक की तपस्या एकाधिक बार कर कुल 1292 दिन उपवास में तथा आयंबिल से कर्मचूर, मासखमण, दो मास, चार मास, छह मास व तेरह मास तप कर 1207 दिन के आयंबिल का कीर्तिमान स्थापित किया। तप के साथ अनवरत स्वाध्याय, ध्यान, जाप एवं मौन भी चालू रखा। सं. 2036 में अपना अंतिम समय निकट जानकर आपने 22 दिन का तप और 31 दिन का तिविहारी अनशन, कुल 53 दिन की संलेखना संथारे के साथ 'लाडनूं' में अपना कार्य सिद्ध किया। 7.10.56 श्री भत्तूजी 'सरदारशहर' (सं. 1992-स्वर्ग. सं. 2042-60 के मध्य) 8/243 श्री भत्तूजी का जन्म सरदारशहर के श्री नानूरामजी दफ्तरी के यहाँ संवत् 1969 में हुआ तथा विवाह श्री जयचंदलालजी गधैया के साथ हुआ। 23 वर्ष की सुहागिन अवस्था में आपने पति तथा नववर्षीय पुत्र को छोड़कर उदयपुर में कार्तिक कृष्णा पंचमी के दिन दीक्षा ली। दीक्षा के पश्चात् आप स्वाध्याय और तप में उत्तरोत्तर वृद्धि करती रही। एक से नौ तक के उपवास एकाधिक बार किये, आछ के आधार पर छहमासी, साढ़े चारमासी, तीनमासी, डेढ़मासी आदि तप तथा आयंबिल से लघुसिंहनिष्क्रीड़ित तप की प्रथम परिपाटी, तीन बार मासखमण आदि किया, 844 Page #907 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तेरापंथ परम्परा की श्रमणियाँ इसके अलावा कंठीतप, धर्मचक्र, धर्मचक्रवाल, अढ़ाई सौ प्रत्याख्यान किये। तप के प्रभाव से अपनी 18 वर्षों से चली आती हिस्टीरिया की बीमारी भी आपने दूर की। 7.11 नवम आचार्य श्री तुलसी गणाधिपति के काल की प्रमुख श्रमणियाँ ० (सं. 1993-2054) अणुव्रत प्रवर्तक, युगप्रधान नवमाधिशास्ता के रूप में लोकप्रिय आचार्य श्री तुलसी तेरापंथ धर्मसंघ के शिखर पुरुष थे। संवत् 1993 भाद्रपद शुक्ला षष्ठी को 22 वर्ष की अल्पवय में वे आचार्य पद पर आसीन हुए और सर्वप्रथम श्रमणी-समुदाय की चतुर्मुखी प्रगति हेतु शिक्षाकेन्द्र, कलाकेन्द्र, परीक्षाकेन्द्र खोले, फलस्वरूप साध्वियों ने शिक्षा के क्षेत्र में कई कीर्तिमान स्थापित किये। आज इस संघ में अनेक विदुषी साध्वियाँ हैं, उनमें प्रभावक प्रवचनकार, संगीतकार, साहित्यकार, तत्त्वज्ञा, विविध दर्शनों की मर्मज्ञा, संस्कृत-प्राकृत आदि भाषाओं की विशेषज्ञा साध्वियाँ हैं। तुलसी युग में साध्वी समाज ने शिक्षा के क्षेत्र में अभूतपूर्व उपलब्धियां अर्जित की हैं। वर्तमान में तेरापंथ का साध्वी समाज उच्चस्तरीय शिक्षा के अध्ययन-अध्यापन में, साहित्य सृजन में, आगम-शोध के महत्त्वपूर्ण कार्यों में प्रवृत्त हैं। तप-साधना में भी पूर्वाचार्यों की अपेक्षा आचार्य तुलसी के युग की साध्वियाँ आगे रही हैं, भद्रोतर तप, लघुसिंहनिष्क्रीड़ित तप, 180 दिन का निर्जल तप, आछ प्रयोग पर छहमासी, नवमासी, बारहमासी तप, छाछ के आगार पर 462 दिन का तप, महाभद्रोतर तप आदि विविध एवं विस्तृत तप की कड़ी इस युग की अद्वितीय देन रही है। __आचार्य तुलसी के युग में साधु-साध्वियों की पद-यात्रा का भी कीर्तिमान बना है। राजस्थान, उत्तरप्रदेश, बिहार, बंगाल, आसाम, सिक्किम, मेघालय, नागालैंड, मिजोरम, तमिलनाडु, कन्याकुमारी, केरल, कर्नाटक, आन्ध्रप्रदेश, महाराष्ट्र, गोवा, मध्यप्रदेश, उड़ीसा, गुजरात, हरियाणा, पंजाब, हिमाचल प्रदेश, कश्मीर आदि प्रायः सभी प्रान्तों में तथा भारत से बाहर भूटान, नेपाल में भी साध्वियाँ पहुंच कर धर्म प्रचार का महान कार्य करती हैं। समण-श्रेणी की स्थापना करके आचार्य तुलसी ने धर्म प्रभावना को जो व्यापक रूप प्रदान किया, वह वस्तुतः स्तुत्य है, जहां साधु-साध्वी नहीं पहुंच पाते वहां समणे-समणी वर्ग पहुंचकर महावीर के संदेशों को विदेशों तक पहुंचाने का अभूतपूर्व कार्य कर रहे हैं। आचार्य श्री तुलसी का शासनकाल अन्य आचार्यों की अपेक्षा दीर्घजीवी भी रहा, सं. 1993 से 2054 तक धर्मसंघ को अपना सुखद व स्वस्थ संरक्षण देकर, 83 वर्ष की आयु में गंगाशहर में चिरसमाधिस्थ हुए। आचार्य श्री तुलसी ने 61 वर्ष की सुदीर्घ अवधि में 268 श्रमण 643 श्रमणियाँ, 11 सभण तथा 117 समणियों को दीक्षा प्रदान की। इनमें 7 समण व 34 समणियों की मुनि दीक्षा हो गई है। दीक्षित श्रमणियों का जीवन-वृत्त एवं विशेष संदर्भ मुनि श्री नवरत्नमलजी ने शासन-समुद्र भाग 20 से 25 में विस्तृत रुप से संजोये हैं, हम संक्षेप में उन श्रमणियों की विशिष्ट अर्हताओं एवं उसमें उल्लिखित सं. 2057 तक के विशिष्ट अवदानों की ओर ही दृष्टिक्षेप करेंगे। 7.11.1 श्री गौरांजी 'राजगढ़' (सं. 1993-वर्तमान") 9/9 आप श्री सम्पतरामजी नाहटा की कन्या हैं। आपने 15 वर्ष की वय में दीक्षा ली। दीक्षा के पश्चात् दशवैकालिक सूत्र एवं हजारों पद्य कंठस्थ किये। प्रवचन शैली भी सुंदर है। विशेष रूप से आपने 100 से अधिक उद्बोधक चित्र बनाये, 20-25 हजार प्रमाण पद्यों की प्रतिलिपि की। रजोहरण, टोपसियां आदि अनेक वस्तुओं का 16. शासन-समुद्र, भाग-20-25. 17. यह समय 'तेरापंथ परिचायिका' प्रकाशन वि. सं. 2060 के आधार पर है। 845 Page #908 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन श्रमणियों का बृहद इतिहास कलात्मक निर्माण कर संयम पथ पर अग्रसर होने वाले मुमुक्षुओं के लिये प्रेरणा-स्रोत बनीं। उपवास, बेले, तेले, चार, पांच, आठ, नौ आदि तप भी किया। 18 वर्ष तक प्रतिदिन 5-5 घंटे आप जाप में निरत रहीं। 5 वर्षों से प्रायः एक पछेवड़ी का उपयोग करती हैं। सेवा, गुर्वाज्ञा में आप सदा जागरूक रहती हैं। आपने अपने जीवन में भारत के प्रत्येक प्रान्त में तथा लाहौर (पाकिस्तान), नेपाल तक लगभग 80 हजार कि.मी. एवं एक दिन में 52 कि.मी. पद यात्रा करके कीर्तिमान स्थापित किया है। आप अत्यंत निर्भीक हैं, नागालैंड तक पहुंचकर जैनधर्म की ज्योति जलाने वाली प्रथम साध्वी हैं। समय-समय पर शास्ताओं द्वारा आप 100 से अधिक संदेश-पत्र प्राप्त कर चकी हैं. निडरता, सूझबूझ एवं समर्पण भाव हेतु प्राप्त हुए थे। आप सं. 2004 से अग्रगण्य रूप में धर्म की महती प्रभावना कर रही हैं। 7.11.2 श्री भीखांजी 'नोहर' (सं. 1993-वर्तमान) 9/11 आप 14 वर्ष की वय में ब्यावर में दीक्षित हुईं। रजोहरण बनाने में आप प्रथम क्रमांक पर हैं, मुखवस्त्रिका, सिलाई आदि की सुंदरता में कई बार पुरस्कृत हुईं। आप प्रतिदिन तीन विगय व 15 द्रव्यों से अधिक आहार नहीं लेती, उपवास से अठाई तक की तपस्या व 35 आयंबिल किये हैं। साध्वी खूमांजी की बहिन संतोकाजी को 71 कि.मी. तक कंधों पर उठाकर लाने में भी आप सहयोगिनी बनीं। सं. 2018 से 60 तक आपके अग्रगण्य होकर चातुर्मास करने के उल्लेख हैं। 7.11.3 श्री सिरेकंवरजी 'सरदारशहर' (सं. 1993-वर्तमान) 9/13 आपने 13 वर्ष की उम्र में ज्येष्ठ भ्राता श्री हनुमानमलजी और ज्येष्ठ भगिनी सुन्दरजी के साथ ब्यावर में दीक्षा ग्रहण की। साध्वी प्रमुखा लाडांजी की प्रेरणा से आपने मुनि हनुमानमलजी के पास संस्कृत का गहन अध्ययन किया। सं. 2005 से अग्रगण्या के रूप में विचरण कर रही हैं, आपने हरियाणा, पंजाब के हजारों भाई-बहनों को तेरापंथी, सुलभबोधि व व्यसनमुक्त बनाने में योगदान दिया। 7.11.4 मातुश्री साध्वी वदनांजी 'लाडनूं' (1994-2033 ) 9/15 श्री वदनांजी ऐसे युगप्रधान, युगदृष्टा आचार्य की मातेश्वरी हैं जिसने तेरापंथ ही नहीं संपूर्ण जैनधर्म की छवि को विश्व धर्मों में निखारने का महनीय कार्य किया। आचार्य तुलसी जो आचार्य भिक्षु के शासन में नवम आचार्य के रूप में प्रतिष्ठित हुए, उनके व्यक्तित्व का बीज मां वदनां में अन्तर्हित है। वदनांजी लाडनूं के कोठारी 'राखेचा' परिवार में पिता पूनमचंदजी व माता मघीदेवी की कन्या थीं, संवत् 1936 में उनका जन्म हुआ, 14 वर्ष की वय में खटेड़वंशीय श्री झूमरलालजी से विवाह हुआ, जिनसे आपको नौ संतानों की प्राप्ति हुई। सं. 1993 में जब मुनि तुलसी आचार्य पद पर अधिष्ठित हुए तो वदनांजी की भावधारा श्रमणी बनने को आतुर हो उठी, आचार्यश्री ने मातृ ऋण से उऋण होने का अवसर देख 58 वर्ष की उम्र में उन्हें दीक्षा प्रदान की। इससे पूर्व उन्होंने अपनी तीन संतान मुनि श्री चम्पालालजी, मुनि श्री तुलसीजी, साध्वी लाडांजी को संघ में समर्पित किया हुआ था। आपकी दीक्षा भी तेरापंथ के इतिहास में पुण्योदय का स्वर्णिम पृष्ठ है आपके पीछे 30 मुमुक्षु आत्माएँ और भी दीक्षा के लिये तैयार हुईं, कुल 31 दीक्षाएँ एक साथ बीकानेर शहर में हुईं। इनमें 23 साध्वियाँ एवं 8 श्रमण थे। वंदनाजी के परिवार में सं. 2034 तक 19 दीक्षाएँ हुईं। यहां यह विशेष उल्लेखनीय है कि तेरापंथ संघ के दस आचार्यों में सात 846 Page #909 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तेरापंथ परम्परा की श्रमणियाँ आचार्यों की माताएँ श्रमणी बनीं (i) मातुश्री साध्वी कुशालांजी (सं. 1857-67) आचार्य रायचंदजी की माता (ii) मातुश्री साध्वी कल्लूजी (सं. 1866-87) जयाचार्य की माता (iii) मातुश्री साध्वी वन्नांजी (सं. 1908-25) आचार्य मघवागणी की माता (iv) मातुश्री साध्वी जड़ावांजी (सं. 1920-48) आचार्य डालगणी की माता (v) मातुश्री साध्वी छोगांजी (सं. 1944-97) आचार्य कालूगणी की माता (vi) मातुश्री साध्वी वदनांजी (सं. 1994-2033) आचार्य तुलसीगणी की माता (vii) मातुश्री साध्वी बालूजी (सं. 1987-2078) आचार्य महाप्रज्ञजी की माता वदनांजी ने अपने समग्र जीवन को तप, संयम व साधना का पर्यायवाची बना लिया था, तप के क्षेत्र में आपने कुल उपवास 7735, बेले 325, तेले 32, चौले 17, पंचोले 7, छ 2, सात 2, आठ 3, नौ 3, दस 3, 11, 12, 13, 14, 15 व 16 का तप एक-एक बार किया। आपका दिन में तीन प्रहर भोजन त्याग एवं 15 द्रव्यों से अधिक का त्याग रहता था। आप घंटों जाप में लीन रहती थीं। आपकी निरभिमानता, सरलता अवसरज्ञता पर सभी मोहित थे। बीदासर में सं. 2033 माघ कृ. 14 को आपका स्वर्गवास हुआ, उस समय आपकी उम्र 97 वर्ष 4 मास की थी, जो तेरापंथ धर्मसंघ में कीर्तिमान के रूप में वर्णित है। आचार्य श्री तुलसी ने अपनी माता की स्मृति में 'मां वदनां' नामक कृति राजस्थानी भाषा में रची है। 7.11.5 श्री मानकंवरजी 'सुजानगढ़' (सं. 1994-2055) 9/32 आपने 14 वर्ष की वय में बीकानेर में दीक्षा ग्रहण की। आपमें सेवा का विशिष्ट गुण था, कहीं भी सेवा का कार्य हो, आप सदा तैयार रहती थीं, साथ ही प्रतिदिन 7 घंटे मौन, 700 गाथाओं का स्वाध्याय, तीन विगय के अतिरिक्त का त्याग रहता था, अंतिम समय 15 दिन की संलेखना 15 दिन तिविहारी अनशन और 15 दिन का चौविहारी अनशन कर बीदासर से स्वर्ग की ओर प्रयाण किया। 7.11.6 श्री भीखांजी “छापर' (सं. 1994-वर्तमान) 9/36 12 वर्ष की वय में 31 दीक्षाओं के साथ आपकी दीक्षा हुई। आगम, स्तोक व अन्य ज्ञानार्जन के साथ आपने कुछ व्याख्यान व गीतिकाओं का भी सर्जन किया। कई व्याख्यान सूक्ष्माक्षरों में लिखे। बारीक सिलाई और पात्र रंगाई में आप निपुण थीं, प्लास्टिक की कई कलात्मक चीजें चाकू, कतिया, खरड़, टिकटी, कानकुचरनी, दांतकुचरनी, नारियल व बेलिगरी के प्याले, जाली की माला, रजोहरण आदि निर्मित कर स्वावलम्बन की शिक्षा दी। सं. 2004 से आपने एक पछेवड़ी के अतिरिक्त त्याग, तीन विगय का त्याग, चाय आदि कई चीजों का त्याग किया हुआ है, आपकी सेवा एवं तपस्या भी प्रशंसनीय रही। 847 Page #910 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन श्रमणियों का बृहद इतिहास 7.11.7 श्री केशरजी 'श्रीडूंगरगढ़' (सं. 1995-2046) 9/39 आपका जन्म संवत् 1963 साहिबगंज (पाकिस्तान) निवासी श्री लिखमीचंदजी श्रीमाल के यहाँ हुआ था। पतिवियोग के पश्चात् अपनी पुत्री मालूजी के साथ आप सरदारशहर में दीक्षित हुई थीं। आपका तप व खाद्य संयम सराहनीय था, कई फुटकर तपस्याएँ एवं भोजन में 11 द्रव्य तथा अंत में 6 द्रव्य से अधिक न लेने का त्याग किया हुआ था। आपने तीन हजार पांचसौ पद्य कंठस्थ किये हुए थे। साढ़े पांच मास में लगभग 26 लाख 10 हजार गाथाओं का एकबार स्वाध्याय संपन्न किया। 24 वर्ष की अवस्था में लाडनूं में 13 दिन की संलेखना, एवं 40 दिन का अनशन कर चिन्तनपूर्वक मृत्यु-महोत्सव का वरण किया। संथारे के समय उपराष्ट्रपति डॉ. शंकरदयाल शर्मा आपके तपोमय जीवन को प्रत्यक्ष देखकर विस्मित हुए थे। 7.11.8 श्री केशरजी 'सरदारशहर' (सं. 1995-2057) 9/43 आपका जन्म संवत् 1978 में भूरामलजी बैद के यहां तथा विवाह पींचा परिवार में श्रीचंदजी से हुआ था। 12 वर्ष की लघुवय में एकदा बेर खाने की शौकीन केशरजी ने 'मती खाओ रे बेर जनम बिगड़े' गीतिका पढ़ी, और बेर में लटें भी देख आजीवन बेर व जमीकंद का त्याग कर दिया। 17 वर्ष की उम्र में पति, सास-ससुर सबको मनाकर सरदारशहर में दीक्षित हो गईं। इनके साथ 21 दीक्षाएँ और हुईं थीं। दीक्षा के पश्चात् आगम, स्तोक व हजारों पद्य कंठस्थ किये। रामचरित्र, हरिवंश, मुनिपत, चन्द्रसेन-चंद्रावती आदि व्याख्यान भी लिखे। आप विशेष तौर से मुखवस्त्रिका कलात्मक ढंग से बनाती थीं, तप व स्वाध्याय की साधना भी चलती थी। सं. 2009 से 2056 तक आप अग्रणी होकर विचरीं। सं. 2057 पड़िहारा में आपने समाधिमरण किया। आपके समर्पण, आत्मसाहस, कष्ट-सहिष्णुता, आज्ञाकारिता एवं आस्था के प्रसंग शासन-समुद्र भाग 20 में उल्लिखित हैं। 7.11.9 श्री सूरजकंवरजी 'सरदारशहर' (सं. 1995-वर्तमान) 9/51 आपने 11 वर्ष की उम्र में माता धन्नाजी के साथ 21 दीक्षाओं में अपना स्थान बनाया। दीक्षा के पश्चात् सूक्ष्माक्षरों के कई पन्ने प्यालों पर महीन अक्षरों का जाल, नारियल की टोपसियां आदि बनाकर आपने अपने कला-कौशल्य का परिचय दिया। साहित्य के क्षेत्र में 'साध्वी धन्नांजी का जीवन चरित्र', 'अपना चेहरा अपना दर्पण' पुस्तक लिखी। संवत् 2020 से आप अग्रगण्या रहकर धर्म का प्रचार-प्रसार कर रही हैं। 7.11.10 श्री मालूजी 'श्रीडूंगरगढ़' (सं. 1995-2060) 9/52 आपका जन्म संवत् 1985 में श्री जेसराजजी छाजेड़ के यहां हुआ, संवत् 1995 कार्तिक शुक्ला 3 को सरदारशहर में आपकी दीक्षा हुई। आपने आगम ज्ञान, प्राकृत, संस्कृत के साथ संघीय सप्तवर्षीय परीक्षा उत्तीर्ण की। एकान्हिक श्लोक शतक, समस्यापूर्ति पंचक अष्टक, षोडश आदि लिखकर विदुषी साध्वियों में अपना नाम अंकित किया। सं. 2014 से आपने अग्रगण्या के रूप में विचरण कर धर्मप्रभावना की, अंत में 2060 पड़िहारा में 13 दिन के तप व चौविहार के साथ स्वर्ग की ओर प्रस्थान किया। 18. अनुश्रुति के आधार पर। 848 Page #911 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तेरापंथ परम्परा की श्रमणियाँ 7.11.11 श्री रतनकंवरजी 'सरदारशहर' (सं. 1996-वर्तमान) 9/79 आपका जन्म संवत् 1982 में श्री सोहनलालजी छाजेड़ के यहां हुआ। सरदारशहर में 13 दीक्षाओं के साथ आप दीक्षित हुईं। दीक्षा लेकर अनुमानत: दस बारह हजार पद्य प्रमाण काव्य याद किये। संघीय परीक्षा में सात वर्ष का कोर्स तथा योग्यतम परीक्षा भी उत्तीर्ण की। आपके संस्कृत भाषा में निबंध, कहानी तथा अष्टक, षोडश आदि पद्य उपलब्ध हैं। शोध में पांच आगमों का शब्दकोश व अनुक्रमणिका तैयार की। मुखवस्त्रिका निर्मित करने, रजोहरण बनाने व संगीत प्रतियोगिता में आपने प्रथम स्थान प्राप्त किया है। संवत् 2014 से आपका स्थायी संघाड़ा बन गया है। अपनी सहवर्तिनी साध्वियों के साथ आप धर्म का प्रचार-प्रसार कर रही हैं। 7.11.12 श्री चंपाजी 'शार्दूलपुर' (सं. 1997-2056 ) 9/99 श्री सजनांजी 'देशनोक' (सं. 1998-2056) 9/115 श्री चम्पाजी का जन्म राजगढ़ के सामसुखा गोत्रीय श्री तिलोकचंदजी के यहां सं. 1974 में हुआ, तथा दीक्षा पतिवियोग के पश्चात् लाडनूं में हुई। श्री सजनांजी घमंडीरामजी चोपड़ा गंगाशहर निवासी की सुपुत्री तथा देशनोक के श्री सरदारमलजी भूरा की धर्मपत्नी थीं, राजलदेसर में सं. 1998 कार्तिक कृष्णा 9 को आप दीक्षित हुईं। आप दोनों का अंतिम संलेखना व अनशनव्रत विशेष रूप से चर्चित रहा। मृत्यु का वीरतापूर्वक वरण करने के लिये श्री चम्पाजी ने आषाढ़ कृ. 13 से तपस्या प्रारंभ की, आषाढ़ शु. 10 को उनके विशेष आग्रह पर साध्वी प्रमुखा कनकप्रभाजी ने तिविहारी अनशन यावज्जीवन के लिये पचखा दिया। आपके अनशन एवं वर्धमान परिणामों को देख साध्वी सजनांजी ने भी आषाढ़ शु. 13 को संलेखना तप प्रारंभ कर दिया। 32 दिनों तक दोनों महान साध्वियों का दर्शन करने दूर-दूर से लोग उमड़ कर आये। कुल 47 दिन के अनशन द्वारा चम्पाजी का स्वर्गवास हुआ। संथारे में उनकी सहनशीलता व समता तथा उत्तरोत्तर चढ़ते परिणाम देखकर जैन-अजैन जनता में भगवान महावीर के धर्म के प्रति निष्ठा बढ़ी। श्री सजनांजी ने अपने तप अनशन के 49वें दिन संवत्सरी महापर्व से एक दिन पूर्व अपना केश-लुंचन भी करवाया, इस कष्टानुभूति को आत्मानुभूति के रूप में परिणत कर दृढ़ता का परिचय दिया। यह संथारा 77वें दिन संपूर्ण हुआ। तेरापंथ के इतिहास में संवत् 2056 तक इतना दीर्घ संथारा करने वाली श्री सजनांजी सर्वप्रथम साध्वी शिरोमणि हुई हैं। श्री चम्पाजी ने अपनी संयम पर्याय में उपवास से दस तक लड़ीबद्ध तपस्या की, उनके उपवासों की कुल संख्या 3338 है। श्री सजनांजी भी महान तपोसाधिका थीं, उन्होंने एक से आठ तक के उपवास लड़ीबद्ध किये, एक 11 का तप किया, सजनांजी के तप का आंकड़ा 2441 दिन का है, इन्होंने कर्मचूर आदि अन्य तपस्याएँ भी की थीं, इन दोनों महासतियों ने अपने तपोपूत जीवन से श्रमण-संस्कृति को महती गरिमा प्रदान की। 7.11.13 श्री कानकंवरजी 'लाडनूं' (सं. 1997-स्वर्गवास 1957 से 60 के मध्य) 9/105 आपका जन्म लाडनूं निवासी नेमीचंदजी बैद के यहां सं. 1983 में हुआ। आपने 14 वर्ष की वय में लाडनूं में 18 दीक्षाओं के मध्य सं. 1997 कार्तिक कृष्णा अष्टमी को दीक्षा अंगीकार की। आपके परिवार से 1 संत-मुनि जतनमलजी (सं. 2001) एवं तीन साध्वियाँ दीक्षित हुईं-श्री अंजनाजी (सं. 2013) श्री रविप्रभाजी (सं. 2019) 19. देखें शासन-समुद्र, भाग-21, पृ. 38 और 96. 849 Page #912 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन श्रमणियों का बृहद इतिहास श्री शीलवतीजी (सं. 2020 ) ये चारों आपके भतीजे-भतीजियां हैं। अपने परिवार को संयम मार्ग पर प्रेरित करने में आपका अनुदान स्पृहणीय है। आप महान तपस्विनी साधिका भी थीं। पांचसौ उपवास और 108 बेलों के साथ-साथ 15 तक लड़ीबद्ध तप करके आपने आत्म की अनंत शक्ति का परिचय दिया। शासन-समुद्र में आपके स्वर्गवास का उल्लेख नहीं होने से तथा तेरापंथ-परिचायिका में आपका नामोल्लेख न होने से आपके स्वर्गवास का समय सं. 1957 से 60 के मध्य कभी हुआ प्रतीत होता है। 7.11.14 श्री मालूजी 'चूरू' (सं. 1998-2052 ) 9/114 आप आचार्य प्रवर श्री महाप्रज्ञजी की ज्येष्ठा भगिनी थीं। आपका जन्म टमकोर ( राजस्थान) में पिता तोलारामजी के यहां एवं विवाह चूरू के 'बैद' परिवार में हुआ। पति वियोग के पश्चात् 30 वर्ष की उम्र में राजलदेसर में सं. 1998 कार्तिक कृष्णा 9 को दीक्षा ग्रहण की, उस समय 4 भाई और 23 बहनों की दीक्षाएँ हुईं, उनमें आप अग्रणी थीं। आप शांत, सरल और सहिष्णु वृत्ति वाली थीं। 20 वर्ष तक शीतऋतु में भी एक पछेवड़ी से अधिक ग्रहण नहीं किया। सं. 2013 से 2052 तक आप अग्रण्या बनकर जैनधर्म का प्रभाव फैलाती रहीं। आपके संपूर्ण गुण वाणी से नहीं जीवन से अभिव्यक्त होते थे। अपने जीवन में आपने कुल 1313 उपवास 31 बेले और 5 तेले किये। सं. 2052 लाडनूं में आप स्वर्गस्थ हुईं। 7.11.15 श्री कमलूजी 'उज्जैन' (सं. 1998-2046 ) 9/124 आपका जन्म उज्जैन के बैद मुंहता गोत्रीय श्री मुन्नालालजी के यहां सं. 1983 में हुआ । पूर्वोक्त 27 दीक्षाओं में आप भी सम्मिलित थीं। 16 वर्ष की वय में दीक्षित होकर आपने ज्ञान - ध्यान में खूब उन्नति की । आपने रामचरित्र, अग्निपरीक्षा, अंजनासती, धनजी चरित्र, हरिश्चन्द्र आदि रचनाएँ कर साहित्य की सेवा की, तथा अनेक आख्यान लिपिबद्ध किये। संवत् 2025 से 45 तक आप अग्रगण्या बनकर विचरीं। सं. 2046 बीकानेर आपका स्वर्गवास हुआ। 7.11.16 श्री कानकंवरजी 'सरदारशहर' (सं. 1998 - वर्तमान) 9 / 133 आपका जन्म सरदारशहर निवासी श्री बीजराजजी बोथरा के यहां सं. 1985 में हुआ। तथा राजलदेसर की 27 दीक्षाओं में आपने संयमी जीवन अंगीकार किया। आगम, स्तोक एवं अन्य ज्ञान के साथ-साथ आपने आचार्य तुलसीजी के प्रवचनों का तीन वर्ष तक संपादन, पंचसूत्र का अनुवादकुछ शोध निबंध व गीतिकाएँ भी लिखीं। आप शिक्षाकेन्द्र में अध्यापन कार्य भी कराती रहीं। संवत् 2018 से आप अग्रणी बनकर विचरण कर रही हैं। 7.11.17 श्री ज्ञानांजी 'शार्दूलपुर' (सं. 1998-2055) 9/134 आप शार्दूलपुर के श्री नेतमलजी बोथरा के यहाँ संवत् 1984 में जन्मीं, 14 वर्ष की वय में सं. 1998 कार्तिक कृष्णा नवमी को राजलदेसर में आपकी दीक्षा हुई। आप तेरापंथ संघ में विदुषी साध्वी के रूप में प्रख्यात हैं। आपने 'कल्पना के स्वर' एवं 51 लेख लिखे । सूक्ष्माक्षरों के पत्र रजोहरण, मुखवस्त्रिका, प्लास्टिक के चश्में आदि भी बनाये। सात वर्षों तक दो-दो महीने मौनवृत्ति 3 घंटा जाप ध्यान आदि करना आपकी दैनिक जीवन क्रियाएँ थीं। संवत् 2055 बीकानेर में तीन दिन के अनशन के साथ समाधिपूर्वक स्वर्ग प्रस्थान किया । 850 Page #913 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तेरापंथ परम्परा की श्रमणियाँ 7.11.18 श्री सोहनांजी 'छापर' (सं. 1998 - वर्तमान) 9 / 135 आपका जन्म सं. 1985 में तालछार के श्री झूमरमलजी बैद के यहां हुआ, राजलदेसर में कार्तिक कृष्णा नवमी को दीक्षा अंगीकार की। दीक्षा के पश्चात् सप्तवर्षीय परीक्षाएं देकर अपना आत्मिक विकास तो किया ही, साथ ही संस्कृत में श्लोक शतक, निबंधमाला (51 निबंध) कई व्याख्यान एवं अहिंसा आदि पर शोध निबंध लिखकर जन-समाज को सही दिशाबोध भी दिया। लगभग 51 ग्रंथों की प्रतिलिपि भी की। आपके अक्षर मोती जैसे सुंदर थे, इसके लिये आचार्य श्री द्वारा आप पुरस्कृत हुईं। अग्रणी बनकर दूर-दूर यात्रा की, एक साथ 102 व्यक्तियों को गुरुधारणा करवाकर आचार्य के दर्शनार्थ भिजवाया, कइयों को अणुव्रती और व्यसनमुक्त बनाया। आप सृजनशीला साध्वी हैं। आपने जैनतत्त्व दर्पण, स्मृति के झरोखे से (संस्मरण) आख्यान एवं गीतिकाएं लिखीं। आपने अग्रणी बनकर सं. 2010 से तमिलनाडू, केरल, गोवा, भूटान, सिक्कम, नेपाल, बंगाल, बिहार, असम, मेघालय, महाराष्ट्र, गुजरात, पंजाब, कर्नाटक, आंध्रा आदि दूर-दूर की पदयात्रा कर जन-जीवन को धर्म के साथ जोड़ने का कार्य किया। आपकी प्रेरणा से संघ में सात-आठ बहिनों की वृद्धि हुई । 7.11.19 श्री कानकंवरजी 'चूरू' (सं. 1999 - वर्तमान) 9/146 आपका जन्म चूरू के सुराणा गोत्र में पिता माणकंचदजी के यहां सं. 1985 में हुआ। आपने अपनी छोटी बहन मानकंवर के साथ चूरू में सं. 1999 कार्तिक कृष्णा नवमी को दीक्षा ग्रहण कीं । आप आगम, स्तोत्र, संस्कृत भाषा आदि की जानकार हैं। अनेक ग्रंथों की आपने प्रतिलिपियां कीं । प्रतिदिन 1000 गाथाओं का स्वाध्याय करना आपका नियम है। आपने नेपाल तक की पद यात्रा की है। सं. 2057 तक आपने उपवास से अठाई तक (7 छोड़कर) लड़ीबद्ध तप किया, उपवास 1542 बेले 21 और तेले 13 किये, कई वर्षों तक लगातार दस प्रत्याख्यान किये, इस प्रकार आपका जीवन ज्ञान एवं तप का दिव्य संगम है। 7.11.20 श्री सूरजकंवरजी 'रतननगर' (सं. 1999 - वर्तमान) 9 / 150 आप हीरावत गोत्रीय श्री चम्पालालजी की सुपुत्री हैं। आपने 12 वर्ष की वय में चूरू में कार्तिक कृष्णा नवमी को दीक्षा ग्रहण की। आपको 5 आगम, संस्कृत नाममाला, कालूकौमुदी आदि कंठस्थ है। दो पुस्तक प्रमाण ग्रंथों की प्रतिलिपि, सूक्ष्माक्षरों में अंग्रेजी भाषा के 80,000 अक्षरों का निबंध एक पत्र पर जाल बनाकर लिखा, अन्य भी प्याले, ग्लास आदि पर सूक्ष्माक्षरों के जाल बनाये। 13 दिन में 6 पात्रों की रंगाई तथा दो दिन में नया रजोहरण बांधने का कार्य कर कला के क्षेत्र में अग्रणी रहीं । 7.11.21 श्री सोहनांजी 'राजलदेसर' (सं. 2000 - वर्तमान) 9/157 आपका जन्म सं. 1985 में श्री उदयचंदजी कुंडलिया के यहां हुआ, एवं दीक्षा सं. 2000 भाद्रपद शुक्ला 13 को गंगाशहर में हुई। आपने आचारांग भगवती, दशवैकालिक आदि 9 आगम कंठस्थ किये संस्कृत में सैकड़ों पद्यों की रचना की, एक दिन में 108 श्लोक बनाकर आपने अपनी असाधारण प्रतिभा का परिचय दिया। हिंदी में भी अनेक मुक्तक, कविताएं, गीतिकाएं बनाई। तप में भी आप पीछे नहीं रहीं। उपवास से 21 तक की तपस्याएँ, अढ़ाई सौ प्रत्याख्यान तीन बार 10 प्रत्याख्यान 100 बार, आयम्बिल तप भी चौमासी, दो मासी, अढ़ाई 851 Page #914 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन श्रमणियों का बृहद इतिहास मासी व 1 से 25 तक लड़ी, कर्मचूर आदि तप कर चुकी हैं। आपके उपवास 3000, बेले 151, तेले 50 व चोले 51 की संख्या में हुए। आप कष्टसहिष्णु इतनी कि 54 वर्षों से एक पछेवड़ी के अलावा ग्रहण नहीं करतीं। ऐसी महान तपस्विनी साध्वियों से भारतीय-संस्कृति का मुख उज्जवल बन रहा है। 7.11.22 श्री भत्तूजी 'भीनासर' (सं. 2000-2032) 9/158 आपका जन्म बीकानेर निवासी शोभाचंदजी भंसाली के यहां सं. 1976 में हुआ, पतिवियोग के पश्चात् सं. 2000 कार्तिक शुक्ला 9 को गंगाशहर में आपकी दीक्षा हुई। आपका त्याग-वैराग्य उच्चकोटि का था। प्रतिदिन पोरसी, 15 द्रव्य के अलावा त्याग, यावज्जीवन औषधि त्याग, तीन विगय उपरांत त्याग, प्रतिवर्ष दो महीने एकांतर, उपवास से 11 तक लड़ीबद्ध तप आदि करके जिनशासन को चमकाया। आपने 2210 उपवास, 56 बेले, 20 तेले, 4 चोले, 25 पचोले, 27 बार दस प्रत्याख्यान आदि तप किया। सं. 2032 डीमापुर (नागालैण्ड) में आपका स्वर्गवास हुआ। 7.11.23 श्री कानकंवरजी 'राजलदेसर' (सं. 2000-वर्तमान) 9/163 आपका जन्म सं. 1985 कोड़ामलजी डागा के घर हुआ, 15 वर्ष की उम्र में सं. 2000 कार्तिक शुक्ला नवमी को दीक्षा ली। आप अत्यंत पुरुषार्थी हैं। 60 वर्ष की वय में सूत्रकृतांग तथा अवधान विद्या के प्रयोग करना आपकी अप्रमत्त वृत्ति का सूचक है। आपने सूरपाल, शीलवती के व्याख्यान व कई मुक्तक बनाये। आपके द्वारा निर्मित चित्रों के पन्ने, सुंदर कटिंग के पत्र, प्यालों पर नामांकन आदि दर्शनीय हैं। एक पन्ने में सूक्ष्मलिपि से बृहत्कल्प सूत्र लिखकर आचार्यश्री को भेंट किया। आप प्रतिदिन 1000 गाथाओं का स्वाध्याय भी करती हैं। आप आत्मबली, सेवाभावी विदुषी श्रमणी हैं। 7.11.24 श्री फूलकंवरजी 'लाडनूं' (सं. 2000-वर्तमान) 9/164 आप लाडनूं के बैंगानी श्री भूरामलजी की सुपुत्री हैं, 14 वर्ष की अविवाहित वय में 2000 कार्तिक शुक्ला नवमी को आपकी दीक्षा हुई। आप तत्त्ववेत्ता विदुषी अग्रगण्या साध्वी हैं। योगक्षेम वर्ष में प्रेक्षा प्रशिक्षिका के रूप में अपना योगदान दिया। साहित्य के क्षेत्र में महावीर शतक, संकल्प सुधा, संस्कृत श्लोक व गीतिकाएं लिखी। तत्वज्ञान से संबंधित 21 शोध-निबंध लिखे, 25 व्याख्यान बनाये। मातुश्री छोगांजी का जीवन, रत्लरश्मि, नींव की ईंट, महल की मीनार, अभ्युदय की पगडंडियां आपकी ऐतिहासिक कृतियां हैं। कई वर्षों से निर्जरा के 12 प्रकारों की सलक्ष्य साधना में तल्लीन हैं। संवत् 2038 से आप अग्रणी होकर विचरण कर रही हैं। 7.11.25 श्री पानकंवरजी 'श्रीडूंगरगढ़' (सं. 2001-वर्तमान) 9/169 आप श्री संतोकचंदजी दूगड़ की सुपुत्री हैं, 15 वर्ष की अविवाहित वय में आप लाडनूं में संवत् 2001 आषाढ़ शुक्ला 2 को दीक्षित हुईं। आप आगम, स्तोत्र, हिंदी, संस्कृत आदि की ज्ञाता हैं, लगभग 15 हजार गाथाएं आपके कंठस्थ हैं। 'संघ सेविका साध्वी श्री छगनांजी' का जीवन लिखकर, तथा संवत् 2026 से अग्रणी के रूप में विचरण कर आप धर्म एवं शासन प्रभावना कर रही हैं। 852 Page #915 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तेरापंथ परम्परा की श्रमणियाँ 7.11.26 श्री लिछमांजी 'शार्दूलपुर' (सं. 2001 - वर्तमान) 9/177 आप श्री नेतमलजी बोथरा के यहां संवत् 1986 में जन्मी । 15 वर्ष की वय में संवत् 2001 कार्तिक कृष्णा दशमी को सुजानगढ़ में दीक्षा ली। आपके संसारपक्ष से दो बहनें, मौसी, मामा, मौसी के बेटे आदि छः दीक्षाएँ हो चुकी हैं। आपने आगम व साहित्य का गहन अध्ययन कर निम्नलिखित कृतियां लिखी हैं- संगीत सरिता, विचार नीड़ (मुक्तक), महकते फूल, वीरसेन कुसुम श्री आदि 6 व्याख्यान, प्रगति की किरण ( 57 हिंदी लेख), संस्कृत - प्राकृत में छह निबंध । कला के क्षेत्र में सात सूक्ष्माक्षर पत्र, जिनमें गीता, दशवैकालिक, भक्तामर, वीरत्थुई आदि मुख्य हैं, लिखे । कल्प तथा चम्मच पर सूक्ष्म अक्षरों में जाल किया रामचरित्र, चंदराजा आदि बीस व्याख्यान व कई अन्य ग्रंथों की प्रतिलिपि की । हस्तकला प्रदर्शनी में आपके द्वारा सूक्ष्मलिपि में अंकित प्याले का एक लक्ष रुपये मूल्य आंका गया। इस प्रकार आपने जैन कला के गौरव में अभिवृद्धि की। संवत् 2022 से आप अग्रणी बनकर विचरण कर रही है। 7.11.27 श्री चांदकंवरजी 'सुजानगढ़' (सं. 2001-38) 9 / 178 आपका जन्म सं. 1987 श्री गणेशमलजी सिंधी के यहाँ हुआ, संवत् 2001 कार्तिक कृष्णा 10 को सुजानगढ़ में ही दीक्षा ग्रहण की। आपकी बहनें श्री मानकंवरजी व कलाश्रीजी भी शासन में दीक्षित हैं। आप सेवा, समर्पण, निर्भयता की प्रतिमूर्ति थीं । आगम गाथाओं के अतिरिक्त संस्कृत के सैकड़ों श्लोक आपको कंठस्थ थे। आपका प्रत्येक कार्य कलात्मक ढंग से होता था, सिलाई, रंगाई, मुखवस्त्रिका, रजोहरण प्रत्येक कार्य में दक्ष थीं। सेवा व तप में सदा आगे रहीं। आपने उपवास से 11 तक लड़ीबद्ध तपस्या की। 1072 उपवास व 54 बेले किये। संवत् 2038 में ब्रेन हेमरेज से डूंगरगढ़ में स्वर्ग प्रस्थान कर गईं। 7.11.28 श्री झमकूजी 'गंगाशहर' (सं. 2001-10) 9/183 आपका जन्म गंगाशहर के दूगड़ गोत्र में संवत् 1982 को श्री मन्नालालजी के यहां हुआ। आपने पति वियोग के पश्चात् 19 वर्ष की अवस्था में संवत् 2001 माघ शुक्ला 8 को आचार्य तुलसी द्वारा सुजानगढ़ में दीक्षा ग्रहण की। आपने नौ वर्षीय साधनाकाल में एक से नौ तक की तपस्याएँ कीं उसमें 495 उपवास और 22 बेले आदि भी किये। 14 घंटों के अनशन के साथ भुसावल में सं. 2010 को आप स्वर्ग की ओर प्रस्थित हुईं। कहा जाता है, दाह संस्कार के समय आपके सभी उपकरण जलकर भस्म हो गये, किंतु साधना अवस्था की मुख्य प्रतीक मुखवस्त्रिका प्रयत्न करने पर भी नहीं जली | 7.11.29 साध्वी श्री संघमित्राजी 'श्रीडूंगरगढ़' (सं. 2002 - वर्तमान) 9 / 190 आप डूंगरगढ़ के भंसाली श्री जेठमलजी की कन्या हैं, 15 वर्ष की वय में संवत् 2002 कार्तिक कृष्णा 9 को डूंगरगढ़ में ही आपने दीक्षा अंगीकार की। आप अत्यंत सुयोग्य एवं विदुषी साध्वी हैं, साध्वी- समुदाय के 'प्रवर्तन विभाग' की अग्रणी एवं प्रबंधनिकाय की व्यवस्थापिका भी रह चुकी हैं। आपका साहित्य जैन समाज में अत्यन्त आदर की दृष्टि से देखा जाता है। जैनधर्म के प्रभावक आचार्य, साक्षी है शब्दों की (पद्य) महान जैनाचार्य, वीरता की निशानियां, बूंद बन गई गंगा, दीर्घ तपस्विनी साध्वी श्री अणचांजी, निस्पृह 853 For Priersonal Use Only Page #916 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन श्रमणियों का बृहद इतिहास कर्मयोगी, संस्कृत निबंध संग्रह, गीत संदोह, संस्कृत गीतिमाला, गीतिगुच्छ (संस्कृत-काव्य ) । तथा शोध निबंध में जैन योग मीमांसा, सम्यक् दर्शन एक तुलनात्मक अध्ययन, जैन दर्शन में ध्वनि विज्ञान, भारतीय जातियों का दैवीकरण, जैन मनीषी संतों का टीका साहित्य, श्वे. तेरापंथी सभा की स्थापना का आदिकाल, आचारांग भाष्य पर एक अनुशीलन, विभिन्न स्थितियों से गुजरता जैन भारती पत्र, राजस्थानी भाषा को आचार्य तुलसी का साहित्यिक अवदान, अहिंसा और विश्वशांति, जैन दर्शन में लोक नियामक तत्व, जैन इतिहास का संक्षिप्त सिंहावलोकन, जैन शासन के प्रभावक राजवंश आदि आपकी मौलिक रचनाएँ हैं। संवत् 2027 से आप अग्रणी के पद पर नियुक्त होकर धर्म का विशिष्ट प्रचार प्रसार कर रही हैं। 7.11.30 श्री जयश्रीजी 'नोहर' (सं. 2003 - वर्तमान) 9 /203 आप श्री जुहारमलजी चोरड़िया की सुपुत्री हैं, आपने 16 वर्ष की उम्र में 'राजगढ़' में आचार्यश्री तुलसी से कार्तिक कृष्णा 1 को दीक्षा अंगीकार की। आपकी तीन बहनें श्री भीखांजी (1993), श्री राजकंवरजी (2003), श्री रंभाकंवरजी (2009) भी दीक्षित हैं। आपने आगम ज्ञान के साथ चित्र व संगीत कला में भी दक्षता प्राप्त की । आपकी कृतियां -निरामया, (आयुर्वेदीय ग्रंथ) शकुन - साधना मुख्य हैं। 7.11.31 श्री राजकंवरजी 'नोहर' (सं. 2003 - वर्तमान) 9/205 आप जयश्रीजी की बहन हैं, उन्हीं के साथ दीक्षित हुईं। आपने लड़ीबद्ध 1 से 21 तक उपवास किये और एक 31 किया। अठाई तक की तपस्या तो आप कई बार कर चुकी हैं। आयंबिल भी 55, 54, 45 एवं एक से पन्द्रह तक लड़ीबद्ध किये। अन्य भी तपस्या की। इसके अलावा 21 महीने दूध व पानी पर 8 मास केवल दूध, 5 वर्ष मात्र दूध-पानी-रोटी 25 वर्ष मात्र 5 द्रव्य आदि करके खाद्य-संयम का परिचय दिया। आपने 6 मास पूर्ण मौन की साधना, फिर 22 वर्ष तक पूर्ण मौन, 10 वर्ष दो घंटे रखकर मौन आदि दीर्घकालीन ध्यान व मौन साधना की। 7.11.32 श्री मोहनांजी 'श्रीडूंगरगढ़' (सं. 2003 - वर्तमान) 9/212 आपका जन्म श्री मोतीलालजी मालू के यहां हुआ। 13 वर्ष की उम्र में सं. 2003 माघ शुक्ला को आपने चूरू में दीक्षा ली। आपने आगमज्ञान के साथ श्री प्रेमलताजी के सहयोग से चार कृतियां लिखीं- (1) व्यवसाय प्रबंधन के सूत्र और आचार्य भिक्षु की मर्यादाएं (2) अंक सम्राट् आचार्यश्री तुलसी (शोध ग्रंथ) (3) प्रणाम (लघु काव्य ) (4) अरहन्ते शरणं पवज्जामि (लघु काव्य) संवत् 2026 से आप संघाड़े की प्रमुखा बनकर विचरण कर रही हैं। 7.11.33 श्री रामकंवरजी 'लाडनूं' (सं. 2005 - वर्तमान) 9 / 223 आपका जन्म संवत् 1989 बैद गोत्रीय श्री अमीचंदजी के यहाँ हुआ। अपनी भुआजी की शादी में विदाई गीत सुनकर आप वैराग्य को प्राप्त हुईं, तथा अपनी बहन जतनकंवर के साथ संवत् 2005 चैत्र शुक्ला 11 को लाडनूं में दीक्षा ग्रहण की। साध्वी प्रमुखा कनकप्रभाजी आपकी भुआ लगती हैं। आपने आगम एवं प्रायः सभी संघीय साहित्य का अध्ययन किया, तथा प्याले, गिलास, प्लेट आदि अनेक छोटी-बड़ी वस्तुएं बनाईं। सं. 2024 854 Page #917 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तेरापंथ परम्परा की श्रमणियाँ से अग्रगामी होकर आप धर्म का अच्छा प्रचार-प्रसार कर रही हैं। आपने लगातार 12 चातुर्मास अहमदाबाद में किये। आचार्य महाप्रज्ञजी ने आपको कला के क्षेत्र में श्रेष्ठ कार्य करने के कारण 'शासन श्री' का संबोधन प्रदान किया। 7.11.34 श्री कंचनकंवरजी 'लाडनूं' (सं. 2005-वर्तमान) 9/225 ___आपका जन्म श्री महालचंदजी खटेड के यहां सं. 1990 में हुआ, आप भी चैत्र शु. 11 को श्री रामकुंवरजी के साथ दीक्षित हुईं। आगम-बत्तीसी के ज्ञान के साथ आपने प्राकृत में 'पाइय कहाओ' लिखी तथा प्राकृत भाषा एक विश्लेषण, आचार्य श्री तुलसी एवं आचार्य श्री महाप्रज्ञ पर शोध-निबंध लिखा। आपने सूक्ष्माक्षरों के कई पन्ने लिखे, साथ ही इंजेक्शन देना एवं आंखों का ऑपरेशन जैसे कार्य भी कर लेती हैं। एक जैन साध्वी अपने हाथों से सर्जरी तक करने की क्षमता रखती है, यह जैन साध्वी इतिहास का एक अद्वितीय पृष्ठठ है। 7.11.35 श्री लिछमांजी 'गंगाशहर' (सं. 2006-स्वर्गस्थ 2057-60 के मध्य) 9/230 संवत् 1982 को श्री भैरुदानजी डागा के यहां आपका जन्म हुआ। आपने भरे-पूरे परिवार व सप्तवर्षीय पुत्र को छोड़कर 24 वर्ष की वय में अपने पति श्री फतेहचंदजी के साथ कार्तिक कृ. 8 को जयपुर में दीक्षा ग्रहण की। आपके समय में लाडनूं में 'पारमार्थिक शिक्षण संस्था' प्रारंभ हुई। आप एवं आपके पति इस संस्था में 6 मास रहकर साधना व शिक्षा में आगे बढ़े, एवं संस्था के प्रथम शिक्षार्थी व प्रथम दीक्षार्थी कहलाने का सौभाग्य प्राप्त किया। 7.11.36 श्री प्रमोदश्रीजी 'पड़िहारा' (सं. 2006-56) 9/232 बीदासर में आपका जन्म सं. 1986 लिंगा गोत्र के श्री जेठमलजी के यहां हुआ, पति के स्वर्गवास के पश्चात् आप भी श्री लिछमाजी के साथ जयपुर में दीक्षित हुईं। आप कला कुशल थीं। आपकी कलात्मक कृतियों की एक लंबी सूची प्राप्त होती है, जिसमें 51 रजोहरण, 41 प्रमार्जनी, चित्राम की 7 प्रतियां (एक-दो प्रति में 30-40 पन्ने), 6 चश्मों के फ्रेम, दंतकुरेदनी आदि के 25 झूमके 5 खरल, 15 प्याले, सूत की अनेक मालाएं, प्रदर्शनी की तीन पेटियां 500 लिपिबद्ध पन्ने आदि प्रमुख हैं। सिलाई की परीक्षा में आपने प्रथम स्थान लिया। आप आचारनिष्ठ तपस्विनी व सहिष्णु थीं। उपवास से नौ दिन तक लड़ीबद्ध तप किया, अंत में चार दिन के चौविहारी अनशन के साथ स्वर्ग की ओर प्रस्थित हुईं। 7.11.37 श्री नगीनाश्रीजी 'टाड़गढ़' (सं. 2006-वर्तमान) 9/234 आप जगरुपमलजी पीतलियां की सुपुत्री हैं, आप भी जयपुर में दीक्षित हुईं। आप आगमज्ञाता एवं अनेक भाषाओं में प्रवीण हैं। आपकी प्रकाशित पुस्तकें-(1) पथ और पथिक, (2) जिन्दगी की तलाश, (3) विनयमूर्ति साध्वी भत्तू जी, (4) जलती चीराग आदि हैं। आपकी पुस्तक 'पथ व पथिक' सं. 2016 में प्रकाशित हुई जो साध्वी समाज में सर्वप्रथम थी। आप अग्रणी होकर संवत् 2020 से दूरवर्ती क्षेत्रों में धर्म जागृति के सुंदर कार्यक्रम कर जिनशासन को चमका रही हैं। 7.11.38 श्री जतनकंवरजी 'सरदार शहर' (सं. 2006-वर्तमान) 9/235 आपका जन्म इन्द्रचन्द्रजी दूगड़ के यहां संवत् 1991 में हुआ। आप भी 15 वर्ष की उम्र में जयपुर में आचार्य तुलसीजी के द्वारा दीक्षित हुईं। आपने आगम, टीका, भाष्य सहित कई. बार आगमों का पारायण किया। हिंदी, sss Page #918 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन श्रमणियों का बृहद इतिहास संस्कृत, प्राकृत, पाली, गुजराती व कन्नड़ भाषाओं की ज्ञाता हैं। आपने कई पुस्तकें लिखीं, जिनमें (1) साक्षात्कार, (2) हंसती- रोती फिल्मे, (3) एक और दो, (4) उम्मीद भरी सांसे ( कन्नड़ में भी अनूदित), (5) श्रुतयात्रा, (6) आयुष्मान, (7) अमृतबिंदु आदि पद्यात्मक पुस्तकें हैं। गद्य में वीर मृत्यु का नया नुस्खा, तथा विभिन्न आगमों पर लगभग 21 शोध - निबंध, प्रश्न व्याकरण सूत्र की संस्कृत छाया आदि कृतियां मुख्य हैं। 21 वर्षों तक प्रतिदिन 1000 गाथाओं का स्वाध्याय एवं 5 वर्ष शीतकाल में एक पछेवड़ी में रहकर आत्म कल्याण की साधना का सं. 2035 से अग्रणी बनकर पंजाब, असम, नेपाल तक की पद यात्राएं भी कीं । 7.11.39 साध्वी श्री राजीमतीजी 'रतनगढ़' (सं. 2007 - वर्तमान) 9 / 242 संवत् 1990 में श्री हुलासमलजी आंचलिया के यहां आपने जन्म लिया। आप तेरापंथ की अत्यंत विदुषी साध्वी हैं। आपने आचार्य तुलसी से हांसी (हरियाणा) में सं. 2007 कार्तिक कृष्णा 7 को दीक्षा ग्रहण की। शिक्षा एवं साहित्य के क्षेत्र में आपका अनूठा योगदान रहा है। आपकी सृजनशील मेधा ने कई ग्रंथ रत्नों को जन्म दिया पद्यमय कृतियां - ( 1 ) वंशाला चरित्र (2) चंद चरित्र, (3) रामायण, (4) चारूदत्त, ऋ प्रियंकर चारित्र, (6) कुमारपाल, (7) चिंता चरित्र, (8) बोधि प्राप्ति आदि । गद्य कृतियां - द्ध1 ऋ योग की प्रथम किरण, (2) ज्ञान किरण, (3) ज्योति किरण, (4) अमृत योग, (5) प्राचीन जैन साधना पद्धति, (6) योग से शान्ति की खोज, (7) नमस्कार महामंत्र, ( 8 ) साधना के आलोक में, (9) कैसे जीएं, (10) पथ और पथिक, ( 11 ) वन्दे अर्हम्, (12) दैनिक योग साधना, (13) पर्युषण साधना, ( 14 ) मुक्ति का द्वार, ( 15 ) संस्कार - प्रबोध (अंग्रेजी)। इसके अतिरिक्त लेश्या, योग, ईर्यापथ आदि कई शोध निबंध भी लिखे हैं। आप शिक्षा-साधना निकाय की व्यवस्थापिका भी रह चुकी हैं। आचार्य तुलसी जी ने आपकी शासननिष्ठा, अध्यात्मनिष्ठा और गुरु भक्ति का विशेष उल्लेख करते हुए "शासन गौरव अलंकरण" से अलंकृत किया। संवत् 2032 से सिंघाड़ाबद्ध रूप में आपने बिहार, बंगाल, असम आदि सुदूर क्षेत्रों की पद यात्रा की अब तक लगभग एक लाख किलोमीटर की यात्रा कर चुकी हैं। " 7.11.40 श्री रतनवतीजी 'श्रीडूंगरगढ़' (सं. 2008-21)9/256 आपका जन्म संवत् 1991 श्रीडूंगरगढ़ के छाजेड़ गोत्र में श्री चंदनमलजी के यहां हुआ। आप भरे-पूरे परिवार और वैभव को छोड़कर 17 वर्ष की सुहागिन अवस्था में माघ शु. 8 संवत् 2008 को सरदारशहर में आचार्य तुलसी जी द्वारा दीक्षित हुईं। आपको असातावेदनीय का प्रबल उदय रहा। संवत् 2021 ब्यावर चातुर्मास में आपने अनशन की भावना 7 दिन का उपवास किया उसके पश्चात् चौविहारी संथारा प्रारंभ किया जो 22 दिन चला। तेरापंथ धर्मसंघ में 22 दिन का यह चौविहारी अनशन अद्वितीय कीर्तिमान के रूप में उल्लिखित है। आपके जीवन से संबंधित 'रत्नरश्मि' नामक पुस्तक श्रीडूंगरगढ़ से प्रकाशित हुई है। 7.11.41 श्री गुणसुंदरीजी 'श्रीडूंगरगढ़' (सं. 2009-2057-60 के मध्य ) 9/257 आपने डूंगरगढ़ निवासी श्री भैरुदानजी पुगलिया के यहां संवत् 1982 को जन्म ग्रहण किया एवं दीक्षा सरदारशहर में कार्तिक कृ. 9 को आचार्य तुलसी जी के द्वारा हुई। आपकी दो बहनें - श्री विद्यावती जी व 856 Page #919 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तेरापंथ परम्परा की श्रमणियाँ महाकवरजी भी दीक्षित हैं। दीक्षा के पश्चात् आपने विविध विषयों पर कई मुक्तक, गीत व लेख लिखे। सौ-सवा सौ तक अवधान के 51 बार प्रयोग करके आपने अपनी अद्भुत धारणा शक्ति का परिचय दिया। 7.11.42 श्री कमलश्रीजी 'टमकोर' (सं. 2009-वर्तमान) 9/263 आप श्री पन्नालालजी चोरड़िया टमकोर वालों की सुपुत्री हैं, संवत् 1991 में आपका जन्म हुआ। आप आचार्य महाप्रज्ञजी की चचेरी बहन हैं, कई वर्ष तक आपने गुरुकुलवास किया, वहां आगम, दर्शन, भाषा का गहन अध्ययन कर सरदारशहर में कार्तिक कृष्णा 9 को दीक्षित हुईं। आपने राजस्थानी व हिंदी भाषा में 50 के लगभग व्याख्यान रचे। संवत् 2028 से आप अग्रणी बनकर धर्म प्रभावना कर रही हैं। आप अत्यंत मिलनसार, गम्भीर एवं श्रमशील साधिका हैं। महासती केसरदेवी गौरव-ग्रंथ में आपका संस्कृत भाषा में रचित काव्य आपकी विद्वत्ता का प्रमाण है। प्रत्येक वर्ष 35 उपवास, एक बेला एक तेला करती हैं, चोला, पचोला व अठाई भी की है। 7.11.43 श्री जयश्रीजी 'राजलदेसर' (सं. 2009-वर्तमान) 9/266 आपके पिताश्री डालमचंदजी बांठिया हैं। आप भी कमलश्रीजी के साथ 16 वर्ष की अविवाहित वय में सरदारशहर में दीक्षित हुईं, अपनी सहज जन्मजात प्रतिभा के बल पर आपने शिक्षा के क्षेत्र में अच्छी प्रगति की अभी तक आप दस-बारह शोध निबंध लिख चुकी हैं, साथ ही आशु कवियित्री भी हैं, आपने एक दिन में 700 से डेढ़ हजार पद्य तक नवीन राग रागनियों में बनायें। आप कला-कुशल, तपस्वी एवं कठोर संयमी हैं। आचार्य तुलसी ने कई बार आपकी विद्वत्ता का सम्मान किया। (1) प्रकृति के प्रांगण में, (2) फसल गीतों की, (3) प्यासा पनघट (कविता-संग्रह) ये तीन कृतियां आप द्वारा रचित हैं। सूक्ष्मलिपिकृत प्याले एवं प्रदर्शनी में रखने योग्य वस्तुएं भी आपने बनाई हैं। तपस्या के क्षेत्र में एक से 15 उपवास तक लड़ी कर चुकी हैं। मासखमण, दस प्रत्याख्यान 21 बार व कंठीतप भी किया। आपके उपवासों की कुल संख्या 1926 है। संवत् 2036 से आप सिंघाड़े की प्रमुखा बनकर दूरवर्ती प्रान्तों में धर्म का प्रसार कर रही हैं। 7.11.44 श्री दाखांजी 'नोहर' (सं. 2009-9) 9/269 अनशन में दीक्षा लेने वाली और दीक्षा में अनशन धारण कर सामायिक चारित्र में दिवंगत होने वाली तेरापंथ धर्मसंघ की यह महान तपस्विनी साधिका हुईं। चौविहारी अनशन के 10वें दिन माघ कृ. 7 को सरदारशहर में आपने आचार्य तुलसी से दीक्षा अंगीकार की, एवं 5 दिन श्रमणी जीवन में-ऐसे 15 दिन के संथारे के साथ स्वर्गवासिनी हुईं। साध्वीश्रीजी के पिता श्री चुन्नीलालजी सिपाणी थे, संवत् 1939 में आपका जन्म हुआ। राजगढ़ निवासी श्री कुन्दनमलजी सुराणा की आप धर्मपत्नी थीं। 7.11.45 श्री विद्यावतीजी 'श्री डूंगरगढ़' (सं. 2009-वर्तमान) 9/272 आपका जन्म डूंगरगढ़ निवासी श्री भैंरुदानजी पुगलिया के यहां हुआ। आप 16 वर्ष की वय में आचार्य तुलसी से 'कालू' में फाल्गुन शुक्ला 6 को दीक्षित हुईं। इनकी दो बड़ी बहनें-श्रीगुणसुंदरीजी और महाकंवरजी भी दीक्षित हैं। आप शतावधानी साध्वी हैं, कला-प्रवीण हैं, सूक्ष्माक्षर लिपि-सौंदर्य, रजोहरण बांधना आदि कई कलाओं में प्रथम स्थान प्राप्त किया। आपने छोटे-बड़े 50 व्याख्यान, सैकड़ों गीतिकाएं, मुक्तक आदि रचे। तप For Private a personal Use Only Page #920 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन श्रमणियों का बृहद इतिहास के क्षेत्र में सात वर्ष सावन भाद्रपद में एकांतर तप, अठाई एवं कुल 878 उपवास किये। संवत् 2028 से आप अग्रणी होकर विचरण कर रही हैं। 7.11.46 श्री रंभाकुमारीजी 'नोहर' (सं. 2010-वर्तमान) 9/276 __आपका जन्म चोरड़िया श्री जुहारमलजी के यहाँ संवत् 1993 में हुआ। आपने 18 वर्ष की उम्र में प्रथम वैशाख शु. 13 को गंगाशहर में दीक्षा ग्रहण की। आपका साहित्य- (1) श्री महावीर द्विशती, (2) स्वर-साधना और प्रेक्षाध्यान, (3) निरामया आदि है। आप 35 व 21 दिन की मौन साधना भी कर चुकी हैं। तप के क्षेत्र में उपवास से नौ दिन तक की कुल तपस्या के दिन 2052 हैं। 7.11.47 श्री कंचनकंवरजी 'उदयपुर' (सं. 2010-स्वर्गवास सं. 2057-60 के मध्य) 9/283 उदयपुर के श्री चुन्नीलालजी डागा इनके पिताश्री हैं, आपने 25 वर्ष की उम्र में पति को छोड़कर माघ कृ. 7 को आचार्य तुलसी से देवगढ़ में दीक्षा ली। आप तपस्विनी साध्वी हैं, कई उपवास, बेले तेले चौले पचोले के साथ 21 उपवास तक की लड़ी, सात मास आदि पुस्तकें तथा "व्यवहार भाष्य एक समीक्षात्मक अध्ययन" आदि कई शोध-निबंध लिखे हैं। साधनानिकाय की व्यवस्थापिका तथा साध्वी प्रमुखा के कार्य भार को हल्का करने के लिये 'नियोजिका' व्यवस्था में भी आपका चयन किया गया, आप अत्यन्त प्रतिभासंपन्न विदुषी साध्वी हैं। तपस्या के क्षेत्र में बड़ा तप अठाई, 21, 25 तक कर चुकी हैं, कुल तप दिन 1050 हैं। संवत् 2032 से आप सिंघाड़े की प्रमुखा बनकर विचरण कर रही हैं। 7.11.51 श्री सुमनश्रीजी 'बीदासर' (सं. 2014-वर्तमान) 91 305 ___ आपका जन्म संवत् 1996 में श्री थानमलजी बैद के यहां हुआ। 17 वर्ष की वय में आचार्य श्री तुलसी द्वारा कार्तिक कृष्णा नवमी को सुजानगढ़ में दीक्षित हुईं। आपने आगम, टीका, भाष्य, चूर्णियां आदि का अध्ययन किया। 'सांसों का अनुवाद व संशय का चौराहा' मूलतः आपकी साहित्यिक कृतियां हैं। इसके अतिरिक्त अनेक व्याख्यान, सैकड़ों कविता, गीत आदि का भी सृजन किया। संवत् 2037 से आप अग्रणी के रूप में विचरण कर जिनशासन की महत्ता को बढ़ा रही हैं। 7.11.52 श्री आनंदश्रीजी 'गंगाशहर' (सं. 2015-वर्तमान) 9/310 आपके पिताश्री दानमलजी बैद हैं। 5 वर्ष पारमार्थिक शिक्षण संस्था में शिक्षा एवं साधना का अभ्यास कर 19 वर्ष की वय में संवत् 2015 आश्विन शुक्ला 15 को आचार्य श्री तुलसी द्वारा कानपुर में दीक्षित हुईं। आपने "छिपी सौरभ', एवं 'विचारों का चमन' दो पुस्तकें साहित्यिक जगत को प्रदान की। संवत् 2040 से आप अग्रणी हैं। 7.11.53 श्री चन्दनबालाजी “दिल्ली' (सं. 2016-वर्तमान) 9/314 ___ आप अग्रवाल गोयल गोत्रीय श्री उग्रसेनजी की सुपुत्री हैं। भारत के प्रथम राष्ट्रपति श्री राजेन्द्र प्रसादजी से आशीर्वाद व मंगल भावना प्राप्त कर आचार्य श्री तुलसी के कलकत्ता चातुर्मास में संवत् 2016 कार्तिक शुक्ला 858 Page #921 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तेरापंथ परम्परा की श्रमणियाँ अष्टमी को दीक्षा अंगीकार की। गीत व कविता लिखने की रुचि से आपने 3 पुस्तकें साहित्यिक कोष में अर्पित की(1) वंदना के स्वर, (2) स्वरों का मेला, (3) संभावना शब्दों की। कुछ लेख भी आपने लिखे हैं। स्वास्थ्यनिकाय की व्यवस्थापिका के रूप में भी आपने कार्य किया है। 7.11.54 श्री अशोकश्रीजी 'सरदारशहर' (सं. 2017-वर्तमान) 9/320 आपके पिता दसानी श्री माणकचंदजी हैं। आपने 21 वर्ष की अवस्था में आचार्य श्री तुलसी से 'केलवा' में चातुर्मास के प्रारम्भ दिन आषाढ़ पूर्णिमा को दीक्षा ग्रहण की। आपने आगम व आगमेतर कई ग्रंथों का अध्ययन किया। आपकी साहित्यिक कृतियां-(1) भगवान महावीर और अहिंसा दर्शन (2) मूल्यों का चौराहा, (3) अनुभूति के स्वर, (4) देशी शब्दकोश (प्राकृत) है। इसके अतिरिक्त कई शोध निबंध भी लिखे। संवत् 2044 से आप अग्रणी साध्वी हैं। उपवास से अठाई तक लड़ीबद्ध तप एवं सौ अवधान तक का अभ्यास कर तप एवं ज्ञान दोनों का समन्वय अपने जीवन में किया। 7.11.55 श्री साधनाश्रीजी 'सरदारशहर' (सं. 2017-वर्तमान) 9/321 आपका जन्म संवत् 1997 में श्री पूनमचंदजी चंडालिया के यहां हुआ, श्री अशोकश्रीजी के साथ ही आप भी दीक्षित हुईं। नाम के अनुरूप ही आप साधनाशील हैं। उपवास से लेकर 16 उपवास तक की लड़ीबद्ध तपस्या तो कर ही चुकी हैं, साथ ही 18 वर्षों से आपने धारण किये वस्त्रों के अतिरिक्त वस्त्र ग्रहण नहीं किया। परिषहों को स्वेच्छा से सहन करना श्रमण-संस्कृति की अपनी अनूठी विशेषता है। 7.11.56 आठवीं साध्वी प्रमुखा कनकप्रभाजी 'कलकत्ता' (सं. 2027 से वर्तमान) 9/323 आपका मूल निवास स्थान लाडनूं था, सं. 1998 में श्री सूरजमलजी बैद के यहां कलकत्ता में जन्म हुआ, और सं. 2017 की आषाढ़ी पूर्णिमा को केलवा में आचार्य तुलसी से दीक्षा ग्रहण की। आप प्रज्ञाविभूति साध्वी हैं। तेरापथ धर्म संघ में प्रचलित शिक्षा के पाठ्यक्रमों में आप सदा सर्वोच्च स्थान पर रहीं। आपने भाषायी ज्ञान के साथ आगम, दर्शन, कोश, व्याकरण एवं साहित्य आदि विविध विषयों का तलस्पर्शी अध्ययन किया, शैक्षणिक विकास एवं व्यक्तित्व की अनूठी विशिष्टताओं के कारण ही आपने सं. 2027 में "साध्वी प्रमुखा" पद प्राप्त किया। इस पद के लिये आचार्य तुलसी एवं रत्नाधिक 400 साध्वियों का आशीर्वाद आपको प्राप्त हुआ। आचार्य श्री ने आपकी विनम्रता, ज्ञानगरिमा, सत्यनिष्ठा, निरभिमानता एवं अनुशासनप्रियता आदि गुणों से अभिभूत होकर "महाश्रमणी" एवं "संघमहानिदेशिका" विशेषण से भी आपको अलंकृत किया। साहित्य सृजन व संपादन के क्षेत्र में तेरापंथ की आप प्रथम साध्वी प्रमुखा हैं। आपकी रत्नगर्भिणी मेधा नित्य नूतन साहित्य के सृजन व सम्पादन में लगी रहती हैं, उसकी कुछ झलक इस प्रकार है (क) कविता साहित्य-1) सांसों का इकतारा, 2) सरगम, 3) तुलसी प्रबोध, 4) साध्वी प्रमुखा लाडांजी 5) श्रद्धा स्वर। (ख) यात्रा साहित्य (आचार्य तुलसी की पद-यात्राओं के संस्मरण) 1) जा घर आए संत पाहुने, 2) संत चरण गंगा की धारा, 3) घर कूचा घर मजला, 4) पांव-पांव चलने वाला सूरज, 5) जब महक उठी मरुधर माटी, 6) बहता पानी निरमला, 7) अमरित बरसा अरावली में, 8) परस पांव मुस्काई घाटी। (ग) निबंध साहित्य-1) दस्तक शब्दों की, 2) इतस्ततः, 3) करत-करत अभ्यास के, 4) सत्य का पंछी विचारों का पिंजरा, 859 Page #922 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन श्रमणियों का बृहद इतिहास 5) आचार्य भिक्षु की अनुशासन शैली । (घ) जीवनी साहित्य - 1) आचार्य तुलसी जीवन यात्रा, 2) स्मृति के दर्पण में, 3) विकास पुरुष ऋषि हेम । इनके अलावा अब तक 89 पुस्तकों का आपने संपादन किया है। आपकी प्रवचन शैली और कार्यशैली भी निराली है, जहां भी आप पधारती हैं वहां अणुव्रत, प्रेक्षाध्यान, जीवन विज्ञान के महत्वपूर्ण आयोजन होते हैं। साध्वी जिनप्रभाजी " लाडनूं" ने साध्वी प्रमुखाजी संदर्भ में अनेक संस्मरण लिखे हैं। 7.11.56 श्री स्वयंप्रभाजी 'सरदारशहर' (सं. 2017 - वर्तमान) 9/325 आपके पिताश्री महालचंदजी गोठी हैं। आपने 19 वर्ष की अवस्था में आषाढ़ पूर्णिमा को केलवा में दीक्षा ग्रहण की। अनेकों आगम, टीका, चूर्णि, संस्कृत, प्राकृत आदि का अध्ययन किया तथा अवधान विद्या का सौ तक अभ्यास किया। आपका साहित्य - ( 1 ) अर्थ खोजते आखर, (2) मुक्त - विचार, (3) पीयूष - पराग, (4) सप्तर्षि, (5) खिलता गुलशन (6) व्याख्यान गुलदस्ता आदि प्रमुख है। आप तपस्विनी भी हैं, 8 मासखमण व एक बार 121 दिन आछ व पानी के आधार से तप किया। संवत् 2037 से आप अग्रणी साध्वी हैं। 7.11.57 श्री कंचनप्रभाजी 'सुजानगढ़' (सं. 2019 - वर्तमान) 9 / 338 श्रीमाल गोत्रीय श्री हाथीमलजी आपके पिताश्री हैं, आपने 20 वर्ष की वय में कार्तिक कृ. 9 (प्रथम) को आचार्य तुलसी द्वारा उदयपुर में दीक्षा ग्रहण की। इनके साथ 1 श्रमण व 5 श्रमणियाँ (कुल 7) दीक्षित हुईं। आपने सप्तवर्षीय कोर्स में प्रथम स्थान प्राप्त किया। 'कच्छ में तेरापंथ', 'चिन्तनचर्या', 'अंजना महासती', 'धनदकुमार', 'रुक्मिणी मंगल', 'लीलावती' आदि आपकी मौलिक कृतियां हैं। संवत् 2038 से आप अग्रणी साध्वी हैं। 7.11.58 श्री सत्यप्रभाजी 'देवगढ़' (सं. 2020 - वर्तमान) 9 / 351 छाजेड़ गोत्र के श्री गणेशमलजी के यहां आपका जन्म हुआ। आपने 19 वर्ष की वय में आचार्य तुलसी द्वारा सुजानगढ़ में फाल्गुन कृष्णा 5 को दीक्षा ग्रहण की। आपने 'साधना की सौरभ जिसमें श्री हुलासाजी की (सिरसा) जीवनी हैं, तथा 'हरिषेण भीमषेण' आदि 6 व्याख्यान बनाये । तपस्या में भी आप अग्रणी हैं, उपवास से 15 तक की लड़ीबद्ध तपस्या करके रसना इन्द्रिय पर विजय प्राप्त की, कुल तप दिन 1545 हैं। इसके अलावा आप 36 बार दस प्रत्याख्यान, अढ़ाई सौ प्रत्याख्यान, 13 वर्षों से श्रावण-भाद्रपद में एकांतर भी करती हैं। 7.11.59 श्री अमितप्रभाजी 'बीदासर' (सं. 2021 - वर्तमान) 9 / 360 आप श्री इन्द्रचंदजी बैंगानी की आत्मजा हैं, संवत् 2004 अक्षय तृतीया के दिन आपका जन्म हुआ। आपने 17 वर्ष की उम्र में आचार्य श्री तुलसी से मृगसिर शुक्ला 7 को बीदासर में दीक्षा ग्रहण की। आप सहनशील एवं ज्ञान पिपासु हैं, सौ अवधानों के सफल प्रयोग कई जगह कर चुकी हैं। आपने उपवास से 11 दिन तक की लड़ी 15, 25 व मासखमण की तपस्या भी की है, बीस वर्षों से श्रावण मास में एकांतर तप करती हैं। 7.11.60 श्री जिनप्रभाजी 'लाडनूं' (सं. 2022 - वर्तमान ) 9 / 362 आप चिमनीरामजी कुचेरिया की सुपुत्री हैं, आपने 20 वर्ष की उम्र में कार्तिक शु. 13 को आचार्य तुलसीजी द्वारा 'दिल्ली' में दीक्षा ग्रहण की। आपके साथ 1 श्रमण व 2 श्रमणियाँ दीक्षित हुईं। स्थानकवासी श्रमणसंघ के 860 Page #923 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तेरापंथ परम्परा की श्रमणियाँ द्वितीय आचार्य सम्राट् श्री आनन्दऋषिजी महाराज ने इस आयोजन में पधारकर मुमुक्षुओं को आशीर्वाद प्रदान किया था। जिनप्रभाजी योग्य व विदुषी साध्वी हैं इन्होंने जैन साहित्य भारती को 'उजालों की खोज', 'मानवता का दीप' 'चादर चरित्र की' ये तीन कृतियां अर्पित की। अमृतकलश भाग 1-3 उत्तराध्ययन की जोड़ का संपादन कार्य भी किया। वर्तमान में भी आप संपादन कार्य में संलग्न है। 7.11.61 श्री शीलप्रभाजी 'सरदारशहर' (सं. 2022-वर्तमान) 9/364 आपका जन्म संवज् 2003 को श्री सूरजमलजी दूगड़ के यहां हुआ। आपकी दीक्षा भी दिल्ली में कार्तिक शु. 13 को हुई। सप्तवर्षीय संस्थान की परीक्षाएं उत्तीर्ण कर अवधान प्रयोग से भी शासन की प्रभावना कर रही हैं। आपने कई गीत, मुक्तक, दोहे भी बनाये हैं। 7.11.62 श्री कल्पलताजी 'लाडनूं' (सं. 2023-वर्तमान) 9/373 संवत् 2005 में खटेड गोत्रीय श्री नगराजजी के यहां आपने जन्म ग्रहण किया, तथा कार्तिक कृष्णा 7 को बीदासर में 7 अन्य बहनों के साथ श्रमणी दीक्षा ग्रहण की। आप योग्य एवं विदुषी साध्वी हैं। 'आस्था के चमत्कार' भाग 1-3, 'इतिहास के नूपुर' आपकी मौलिक कृतियां हैं। कई पुस्तकों - 'शासन कल्पतरु', 'कीर्तिगाथा', 'जयकीर्तिगाथा', 'संस्मरणों का वातायन' का सल संपादन किया है। वर्तमान में भी आचार्य तुलसी के साहित्य-संपादन में श्रमणी प्रमुखा श्री जी के साथ संलग्न हैं। 15 वर्षों तक संघीय साप्ताहिक विज्ञप्ति लेखन का कार्य किया, लगभग 35 वर्षों से अखिल भारतीय तेरापंथी महिला मंडल की गति-प्रगति में सुझाव देने का कार्य करती हैं। संवत् 2038 में आप सेवानिकाय की व्यवस्थापिका थीं। 7.11.63 श्री प्रेमलताजी 'श्री डूंगरगढ़' (सं. 2023-वर्तमान) 9/374 श्री मोतीलालजी मालू की आप सुपुत्री हैं, 18 वर्ष की वय में श्री कल्पलता जी के साथ बीदासर में दीक्षित हुईं। आपने अपनी मेधा शक्ति का परिचय 101 अवधान विद्या का प्रयोग करके दिया। आपका साहित्य इस प्रकार है-व्यवसाय प्रबंधन के सूत्र और आचार्य भिक्षु की मर्यादाएं, अंक सम्राट् आचार्य श्री तुलसी (शोध-ग्रंथ), प्रणाम (लघु काव्य), अरहन्ते शरणं पवज्जामि (लघु काव्य) ये चारों कृतियां श्री मोहनांजी के साथ संयुक्त होकर लिखीं। 7.11.64 श्री सरस्वतीजी 'हांसी' (सं. 2023-वर्तमान) 9/378 आप अग्रवाल गोयल गोत्रीय श्री दिलीपसिंहजी की कन्या हैं, आपकी दीक्षा भी 17 वर्ष की उम्र में बीदासर में कार्तिक कृष्णा को हुई। आपने श्रमणी जीवन में शासन श्री साध्वी रूपाजी की जीवनी, संगम-शालिभद्र, चन्दनबाला, हरिश्चन्द्र, सुभद्रा आदि परिसंवाद व अनेक गीतिकाएं रची। सं. 2053 से आप अग्रणी साध्वी हैं। 7.11.65 श्री लाभवतीजी 'बाव' (सं. 2024-वर्तमान) 9/382 ___ आपका जन्म गुजरात प्रांत के 'बाव' ग्राम में श्री चुन्नीलाल भाई मेहता के यहां सं. 2004 को हुआ। अहमदाबाद में कार्तिक कृ. 8 को आचार्य तुलसी जी द्वारा आप दीक्षित हुई। आपको प्रकृति से ही गायनकला 861 Page #924 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन श्रमणियों का बृहद इतिहास उपलब्ध है, संगीत क्षेत्र में कई बार संघीय स्तर पर पुरस्कार प्राप्त किया है। कला के कार्य भी आप तन्मयता से कुशलतापूर्वक करती हैं। 7.11.66 श्री सोमलताजी 'गंगाशहर' (सं. 2025 - वर्तमान) 9 / 390 श्री रतनलालजी बैद की आप सुपुत्री हैं, 17 वर्ष की वय में कार्तिक कृ. 8 को मातुः श्री वंदनाजी के सान्निध्य में साध्वी प्रमुखा लाडांजी के द्वारा बीदासर में आप दीक्षित हुईं आपकी गीतों की दो पुस्तकें प्रकाशित हैं- स्वर निकुंज व स्वर लहरी । संवत् 2038 से आप अग्रणी साध्वी हैं। 7.11.67 श्री संवेगप्रभाजी 'गंगाशहर (सं. 2027 - वर्तमान) 9/401 आपका जन्म गंगाशहर के श्री रामलालजी डागा के यहां हुआ, तथा विवाह लूणकरणसर के छाजेड़ परिवार में हुआ। पतिवियोग के पश्चात् 20 वर्ष की उम्र में आपने आचार्य श्री तुलसी से लाडनूं में चैत्र कृष्णा 5 के दिन दीक्षा ग्रहण की। आपने हाड़ारानी आदि पांच सात व्याख्यान व गीतिकाएं निर्मित कर साहित्य - सेवा में योगदान दिया। आप कार्यकुशल विदुषी सेवाभाविनी साध्वी हैं। 7.11.68 श्री कनकरेखाजी 'श्री डूंगरगढ़' (सं. 2027 - वर्तमान) 9/403 आप घीया गोत्रीय श्री महालचंदजी की कन्या हैं। आप संवेगप्रभाजी के साथ दीक्षित हुईं। आपने अवधान विद्या के प्रयोग कई बड़े-बड़े क्षेत्रों में कर शासन - प्रभावना में योगदान दिया। सं. 2054 से आप अग्रणी साध्वियों में गिनी जाती हैं। 7.11.69 श्री ध्यानवतीजी 'सुजानगढ़' (सं. 2027-29 ) 9 / 404 आपके पिता श्री लिखमीचंदजी फूलफगर एवं पति 'सांडवा' निवासी श्री जेठमलजी छाजेड़ थे। आप गृहस्थ जीवन में एक आदर्श श्राविका थीं, एवं विशिष्ट तपस्विनी तथा अणुव्रती के रूप में प्रसिद्ध थीं। आपने गृहस्थ में ही विविध तप का अनुष्ठान किया, जिसमें दो-चार लड़ी बीच में छोड़कर आप एक से 43 तक की लड़ी कर चुकी थीं। आपने कुल 10 हजार 911 दिन तप में व्यतीत किये, आपकी यह तपस्या संघ में एक नया कीर्तिमान प्रस्तुत करने वाली बनी । आपने संवत् 2010 में अपनी 70 वर्ष की आयु के बाद आजीवन तिविहार अनशन स्वीकार करने का कठोर संकल्प लिया था। ठीक उम्र के 70 वर्ष पूर्ण होते ही बीदासर में आचार्य तुलसी जी ने उन्हें दीक्षा प्रदान की, दीक्षा पश्चात् संथारे का संकल्प लागू नहीं होता। 15 मास आत्मसाधना कर आप सं. 2029 में लाडनूं सेवा केन्द्र में समाधिपूर्वक स्वर्गवासिनी हुईं। 7.11.70 श्री सुमनकुमारीजी 'छापर' (सं. 2029 - वर्तमान) 9/410 आप श्री शुभकरणजी दुधोड़िया की सुपुत्री हैं। 24 वर्ष की उम्र में आचार्य श्री तुलसी द्वारा चैत्र शुक्ला तेरस को सरदारशहर में दीक्षित हुईं, इनके साथ 5 कुमारी कन्याओं ने भी दीक्षा ग्रहण की। आपने योगक्षेम वर्ष में 211 उपकरणों की सिलाई जिसमें 111 उपकरणों की बारीक सिलाई कर शासन-सेवा का महनीय कार्य किया। 20 वर्षों से शीतकाल में मात्र एक पछेवड़ी लेकर शीत परिषह को सहन किया। आपने विविध तपस्याएँ की हैं -1735 862 Page #925 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तेरापंथ परम्परा की श्रमणियाँ उपवास, 1 से 11 तक उपवास, तीर्थंकरों की लड़ी, छोटा और बड़ा पखवासा, कंठीतप, दो वर्षीतप तीन विगय का आजीवन त्याग, बीस वर्ष से शीतकाल में एक पछेवड़ी आदि लेकर अपने जीवन को तपोमार्ग पर अग्रसर कर रही हैं। 7.11.71 श्री प्रमिलाकुमारी जी 'सुजानगढ़' (सं. 2029 - वर्तमान) 9/411 आपके पिता श्री सागरमलजी मालू हैं। आपने भी 21 वर्ष की वय में महावीर जयंती के दिन सरदारशहर में दीक्षा ग्रहण की। आपने चन्द्रकान्त - सूर्यकान्त सिंहलराजा का व्याख्यान गीतिका, कविता आदि की रचना की। सूक्ष्माक्षरों में जाल के पांच प्याले बनाये । तप के क्षेत्र में उपवासों से अधिक आयंबिल की साधना की। आयंबिल का वर्षीतप 297 आयंबिल, बेले, तेले, अठाई, 21, 27 आयंबिल किये। 7.11.72 श्री अणिमाश्री जी 'मोमासर' (सं. 2029 - वर्तमान) 9/419 आप श्री शुभकरणजी सेठिया की सुपुत्री हैं। आपने 18 वर्ष की उम्र में माघ शु. 5 को आचार्य श्री द्वारा 'मोमासर' में दीक्षा ग्रहण की। आपके साथ श्री प्रभावना श्री भी दीक्षित हुईं। आपने कई आगम, स्तोक व लगभग बीस हजार पद्य प्रमाण ज्ञान कंठस्थ किया। साहित्य के क्षेत्र में तेजसार, रत्नपाल चरित्र आदि 10 व्याख्यान, गीतिकाएं, कविता मुक्तक आदि बनाये। सं. 2054 से आप अग्रणी साध्वी हैं। 7.11.73 श्री इलाकुमारीजी 'गंगाशहर' (सं. 2030 - वर्तमान) 9/422 आपके पिता श्री बिशनचंदजी भूरा हैं। आप 18 वर्ष की वय में आचार्य तुलसी द्वारा कार्तिक शुक्ला 3 को हिसार में दीक्षित हुईं। आप तपस्विनी साध्वी हैं 26 वर्षों में 1973 उपवास, 338 बेले, 242 तेले, 47 चोले, 15 पांच, 4 छह, 2 सात, 2 अठाई, 3 नौ एवं 10 से 16 तक क्रमबद्ध तप, 21 व मासखमण, कर्मचूर, सिद्धितप, धर्मचक्र, तीर्थंकरों की लड़ी, परदेशी राजा के 12 बेले, पंचरंगी, 13 वर्षीतप उपवास से, फिर बेले - बेले वर्षीतप 2 वर्ष से गणाधिपति आचार्य तुलसी के 83 वर्षोत्सव के उपलक्ष्य में 83 चौविहार तेले आदि उग्र तपस्याएँ की । आप तपस्या के साथ प्रवचन, गोचरी आदि सेवा करके आत्मशुद्धि के मार्ग पर अग्रसर हैं। 7.11.74 श्री विमलप्रज्ञाजी 'बीदासर' (सं. 2031 - वर्तमान) 9/424 आपका जन्म श्री जीवनमलजी बोथरा के यहां हुआ। आपने 24 वर्ष की उम्र में सं. 2031 कार्तिक शु. 6 को भगवान महावीर निर्वाण शताब्दी के अवसर पर दिल्ली लाल किले के सामने जैन धर्म के चारों सम्प्रदाय के आचार्यों के सान्निध्य में आचार्य तुलसी के द्वारा दीक्षा अंगीकार की। श्री विमलप्रज्ञाजी दीक्षा के पश्चात् शोधकार्य में अपना योगदान दे रही हैं। आपने 'देशी शब्दकोश', 'श्री भिक्षु आगम विषय कोश', 'संजमं शरणं गच्छामि', 'बालतत्वबोध' पुस्तकें लिखीं। कुछ वर्षों तक अणुव्रत का स्थायी स्तम्भ 'संयम ही जीवन' लिखा । 7.11.75 श्री प्रियंवदाजी 'मद्रास' (सं. 2031 - वर्तमान) 9/427 श्री विजयराजजी वैदमूथा आपके पिताश्री हैं, संवत् 2011 में आपका जन्म हुआ। आप भगवान महावीर के 2500 वें निर्वाण महोत्सव पर कार्तिक शुक्ला 6 को दिल्ली में दीक्षित होने वाली श्रमणियों में से एक हैं। आप 863 Page #926 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन श्रमणियों का बृहद इतिहास सिलाई, रंगाई एवं सूक्ष्मलिपि में दक्ष हैं। सैकड़ों गीतिका, मुक्तक, परिसंवाद बनाये। तथा अनेक बार सौ अवधानों का सफल प्रयोग किया। 7.11.76 श्री निर्वाणश्रीजी 'श्री डूंगरगढ़' (सं. 2031-वर्तमान) 9/429 आपका जन्म संवत् 2013 को श्री नेमीचंदजी श्यामसुखा के यहां हुआ। आप भी दिल्ली निर्वाणोत्सव पर दीक्षित हुईं। दीक्षा के पश्चात् शिक्षा केन्द्र में एम. ए. किया। 19 वर्ष गुरु सन्निधि में आपने अध्ययन-अध्यापन का कार्य किया। 'रोशनी की मीनारें' (20 महासतियों का जीवनवृत्त), 'गंगा उतरी धार में', 'बलिदान का इतिहास' आदि पुस्तकें प्रकाशित हैं। नारी से संबंधित एवं अन्य विषयों पर अनेकों लेख व शोध-निबंध लिखे। दो वर्ष विज्ञप्ति लेखन का कार्य किया। संवत् 2050 से आप अग्रणी साध्वियों में गिनी जाती हैं। 7.11.77 श्री वर्धमानश्रीजी 'दिल्ली' (सं. 2031-वर्तमान) 9/431 आप श्री चंदनबालाजी (संवत् 2016) की लघु भगिनी हैं। आप 22 वर्ष गुरुकुलवास में रहीं, दिल्ली निर्वाणोत्सव पर आपको दीक्षा दी गई। आपने साधुजीवन में जैनविद्या एवं तुलनात्मक धर्म-दर्शन में एम. ए. किया। जैन एवं बौद्ध धर्म का तुलनात्मक अध्ययन पर शोध-निबंध लिखे। छोटे-बड़े अनेक चित्र भी आपने तैयार किये। 7.11.78 श्री स्वर्णरेखाजी 'श्री डूंगरगढ़' (सं. 2031-वर्तमान) 9/434 आपने श्री हंसराजजी घीया के यहां सं. 2013 में जन्म ग्रहण किया। माघ शु. 12 को डूंगरगढ़ में अन्य दो मुमुक्षु बहनों के साथ आप आचार्य तुलसी से दीक्षित हुईं। आप पात्रियों पर नाम देने में विशेष दक्ष हैं, लगभग 200 पात्रियों पर नाम अंकित किये हैं। कुछ कृतियों को लिखने, प्रतिलिपि करने का भी कार्य किया। उपवास से आठ दिन तक क्रमबद्ध तपस्या की, आप निष्ठावान विदुषी साध्वी हैं। 7.11.79 श्री कुंदनरेखाजी “हिसार' (सं. 2032-वर्तमान) 9/447 अग्रवाल परिवार के सिंगल गोत्रीय लाला बालचंदजी जैन की आप सुपुत्री हैं। पौष कृ. 3 को आचार्य तुलसी से लाडनूं में दीक्षित हुईं। दीक्षा के पश्चात् संस्थान से एम. ए. जैन दर्शन एवं विद्या में किया। 'वर्तमान में चेतना का स्वरूप-भावों के संदर्भ में' पी.एच.डी. का अध्ययन किया। 'रेकी' में मास्टर डिग्री प्राप्त की। आप तपस्विनी भी हैं, सैकड़ों उपवास 30 बेले, 5 तेलों के साथ नौ दिन तक क्रमबद्ध तप तथा 11, 16 उपवास किये, प्रतिवर्ष दस प्रत्याख्यान करती हैं। 7.11.80 श्री मधुस्मिताजी 'सरदारशहर' (सं. 2033-वर्तमान) 9/455 आपका जन्म संवत् 2010 में श्री सुमेरमलजी तातेड़ के यहां हुआ, आपने कार्तिक कृ. 9 को आचार्य तुलसी द्वारा सरदारशहर में दीक्षा ग्रहण की। दीक्षा के पश्चात् आपने महावीर जीवन चरित्र पर संस्कृत में शताधिक श्लोक बनाये, उत्तराध्ययन के 29वें अध्ययन के आधार पर 100 श्लोक व समस्यापूर्ति पर 21 श्लोक बनाये। हिंदी, गुजराती, राजस्थानी भाषा में 8 आख्यान व लगभग 300 गीत आपके रचित हैं। प्रतिवर्ष दस प्रत्याख्यान, कुल 839 उपवास कर तप में भी अपनी रुचि प्रदर्शित की है। 864 Page #927 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तेरापंथ परम्परा की श्रमणियाँ 7.11.81 श्री चित्रलेखाजी 'सुजानगढ़' (सं. 2034 - वर्तमान) 9/463 आप श्री वृद्धिचंदजी गोलछा की सुपुत्री हैं। आपने 19 वर्ष की वय में आचार्य श्री तुलसी से कार्तिक कृ. 7 को लाडनूं में दीक्षा ग्रहण की। श्री चित्रलेखाजी ने सप्तवर्षीय पाठ्यक्रम की परीक्षा प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण की। संस्थान से जैनदर्शन पर एम. एम. भी प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण किया। 7.11.82 श्री स्वर्णलताजी 'कर्णपुर' (सं. 2036-49) 9/478 अग्रवाल परिवार के मित्तल गोत्रीय लाला रामस्वरूपदासजी आपके पिताश्री थे। आपने 24 वर्ष की अविवाहित अवस्था में ज्येष्ठ शु. 2 को आचार्य तुलसी से 'नाभा' में दीक्षा ग्रहण की। अंतिम वर्षों में ये कैंसर रोग से ग्रस्त हो गईं, इसके लिये आपने तप जप की अध्यात्म चिकित्सा प्रारंभ की। 47 दिन की तपस्या से कैंसर ठीक हो गया। पुनः हो जाने पर रोहतक में संलेखना तप स्वीकार किया, तप के 69वें दिन आजीवन अनशन किया, वर्धमान परिणामों अनशन चलता रहा, संवत् 2049 आषाढ़ कृ. 9 को उनका स्वर्गवास हुआ। तेरापंथ धर्मसंघ में 75 दिन के अनशन का यह प्रथम कीर्त्तिमान था । 7.11.83 श्री शारदाश्रीजी 'भीनासर' (सं. 2037 - वर्तमान) 9/497 आपका जन्म संवत् 2014 को श्री गुलाबचंदजी बैद के यहां हुआ, चूरू में फाल्गुन कृष्णा 9 को आप दीक्षित हुई। आपने संघीय सप्तवर्षीय योग्यतम परीक्षाओं के साथ जैन विश्व भारती लाडनूं से जैन दर्शन में एम. ए. प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण किया। साहित्य संपादन में आपका सहयोग रहता है। आपका कंठ सुरीला है। 7.11.84 श्री नयश्री जी 'चाड़वास' (सं. 2037 - वर्तमान) 9/499 श्री मानमलजी बैद के यहां संवत् 2015 को आपका जन्म व फाल्गुन कृष्णा 9 को चूरू में दीक्षा हुई। आपकी कला में विशेष रुचि है, योगक्षेम वर्ष में नारियल की जटा के तारों से गणाधिपतितुलसी की कलात्मक तस्वीर निर्मित की। कपड़े के कलात्मक प्याले व टोपसी बनाई। आप 8, 15 तक तपस्या कर चुकी हैं। चार बार एक - एक महीने के एकांतर व दस प्रत्याख्यान भी 6 बार किये। 7.11.85 श्री सुलेखाजी 'हिसार' (सं. 2038- वर्तमान) 9/506 आप गोयल गोत्रीय लाला ओमप्रकाशजी की कन्या हैं। जगत्प्रभाश्रीजी आपकी ज्येष्ठ भगिनी हैं, कार्तिक शुक्ला 2 को नई दिल्ली में आपकी दीक्षा हुई। आप लेखन, सिलाई, रंगाई में कुशल हैं। 7.11.86 श्री सूरजप्रभाजी 'टमकोर' (सं. 2038 - वर्तमान) 9 / 507 आपका जन्म संवत् 2015 श्री श्रीचन्दजी कोठारी के यहां हुआ, तथा दीक्षा सरदारशहर में पौष शुक्ला 5 को हुई। आप कलाप्रिय हैं। एक पन्ने पर दशवैकालिक सूत्र की 205 गाथाएं एवं पीपल के सूखे पत्तों पर अपनी कला का प्रदर्शन किया। 865 Page #928 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 7.11.87 श्री अनुशासनाश्री जी 'गंगाशहर' (सं. 2038 - वर्तमान) 9 / 513 आपका जन्म संवत् 2022 बंगाई गांव (असम) में गंगाशहर निवासी श्री मूलचंदजी सामसुखा के यहां हुआ, तथा दीक्षा माघ शुक्ला 7 को गंगाशहर में हुई। आप विदुषी साध्वी हैं, संघीय योग्यतर परीक्षाएं एवं जैन विश्व भारती संस्थान द्वारा दर्शन में एम. ए. प्रथम श्रेणी से उत्तीर्ण किया। 7.11.88 श्री हेमरेखाश्री जी 'लाडनूं' (सं. 2039 ) 9/516 आप संवत् 2015 को लाडनूं के श्री उदयचंदजी सिंघी के यहां जन्मी तथा दीक्षा संवत् 2039 चैत्र शुक्ला 2 को लाडनूं में हुई। आप प्रतिवर्ष 60 से 65 उपवास करती हैं, 16 वर्षों से श्रावण-भाद्रपद में एकान्तर तप चलता है। आप परिषह जयिष्णु भी हैं, लगभग 18 वर्षों से सर्दी में मात्र एक चादर का ही उपयोग करती हैं। जैन श्रमणियों का बृहद इतिहास 7.11.89 श्री काव्यलताजी 'गादाणा' (सं. 2039 - वर्तमान) 9/521 श्री नाहरमलजी बाणगोता की सुपुत्री हैं, संवत् 2019 में आपका जन्म हुआ, और कार्तिक शुक्ला 11 को राणावास में दीक्षा हुई। विशेष रूप से आप तपस्विनी हैं, लगभग 800 उपवास, 150 बेले इतने ही तेले, पांच बार 5, दो अठाई, एक 21, धर्मचक्र, कंठीतप, दो महीने एकांतर आदि तप करती रहती हैं। दीक्षा से पूर्व भी आपने 1 से 13 उपवासों की लड़ी की है। आपके तप के कुल दिन 2758 हैं। तप के साथ आपकी मुक्तक की पुस्तक 'अध्यात्म के पुष्प' भी प्रकाशित है। एक साथ तीन रजोहरण तैयार कर अपनी कार्यकुशलता का परिचय भी दिया। · 7.11.90 श्री परमयशाजी 'बीदासर' (सं. 2040 - वर्तमान) 9 / 534 गोलेछा गोत्रीय श्री शोभाचंदजी के यहां संवत् 2015 में आपका जन्म हुआ, माघ शुक्ला 13 को बीदासर में दीक्षा अंगीकार की। आपने आगम, दर्शन, भाषा साहित्य के साथ 'आचार्य महाप्रज्ञजी का नैतिक दर्शन' पर पी. एच. डी. की डिग्री प्राप्त की। समसामयिक विषयों पर कई शोध निबंध लिखे । 'संगीत सुमेरु' पुस्तक का निर्माण भी किया, साथ ही 1 से 9 तक तपस्या की है। 7.11.91 श्री अमितरेखाजी 'जसोल' (सं. 2041 - वर्तमान) 9 / 542 आप श्री चंदनमलजी छाजेड़ के यहां संवत् 2023 को जन्मीं, माघ शुक्ला 6 को जसोल में आपकी दीक्षा हुई। आगम, स्तोक, संस्कृत आदि ज्ञान के साथ आप सेवाभाविनी साध्वी हैं, इसके लिये वे आचार्य एवं साध्वी प्रमुखा द्वारा पुरस्कृत भी हुईं। आपने 815 उपवास, 71 बेले, 46 तेले, 2 चोले व 1 अठाई तथा 8 बार दस प्रत्याख्यान किये। प्रतिदिन एक हजार गाथाओं का स्वाध्याय भी नियमित रूप से करती हैं। 7.11.92 श्री मलयप्रभाजी 'गोगुंदा' (सं. 2042 - वर्तमान) 9 / 550 आपका जन्म सं. 2017 में श्री रोशनलालजी पोरवाल के यहां हुआ, फाल्गुन शुक्ला 2 को गोगुंदा में दीक्षा ग्रहण की। आप तपस्विनी साधिका हैं। उपवास, बेले, तेले, अठाई के साथ 35 बार दस प्रत्याख्यान कर चुकी 866 Page #929 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तेरापंथ परम्परा की श्रमणियाँ हैं, प्रतिदिन 5 या 6 विगय का त्याग तथा 12 वर्षों से दूध, चाय का त्याग है। प्रतिदिन 500 गाथाओं का स्वाध्याय, जाप व ध्यान भी करती हैं। 7.11.93 श्री रूपमालाजी 'गंगाशहर' (सं. 2043-वर्तमान) 9/552 ___आप श्री डूंगरगढ़ निवासी श्री मेघराजजी पुगलिया की सुपुत्री हैं, पति श्री मूलचंदजी सामसुखा थे, उनके स्वर्गवास के पश्चात् ज्येष्ठ शुक्ला 4 को लाडनूं में दीक्षा अंगीकार की। आपने दीक्षा से पूर्व व दीक्षा के पश्चात् कुल चार वर्षीतप, अढ़ाई सौ प्रत्याख्यान, 1 से 8 तक उपवास की लड़ी, 16 उपवास व 40 वर्षों से सावन मास में एकांतर, 7 घंटे दिन में चौविहार, 'तहत्' वचन के सिवा वर्षीतप में मौन आदि साधना की, तथा कई लाख जाप किये। 7.11.94 श्री श्रुतयशाजी 'लाडनूं' (सं. 2043-वर्तमान) 9/561 विशेष रूप से अध्ययन के क्षेत्र में तेरापंथ धर्मसंघ की आप प्रथम साध्वी हैं, जिन्होंने एम. ए. के पश्चात् 'नंदी में ज्ञान मीमांसा' विषय पर पी. एच. डी. होने का सौभाग्य प्राप्त किया। आप श्री जुगराजजी सेठिया की सुपुत्री हैं, संवत् 2043 कार्तिक शुक्ला 9 को लाडनूं में दीक्षा अंगीकार की। तब से आप सतत अध्ययन-अध्यापन में संलग्न हैं। 7.11.95 श्री मुदितयशाजी 'लाडनूं' (सं. 2043-वर्तमान) 9/563 आपका जन्म भूतोडिया गोत्रीय श्री विजयसिंहजी के यहां हुआ, 23 वर्ष की वय में सं. 2043 कार्तिक शुक्ला 3 को लाडनूं में दीक्षा ली, आप शिक्षा के क्षेत्र में अग्रणी रहीं। बी. ए. में राज्यस्तर पर (राजस्थान) 13वां स्थान प्राप्त किया। जैनदर्शन में एम.ए. कर लाडनूं से 'सन्मति तर्क एवं समीक्षात्मक अनुशीलन' पर पी.एच. डी. की। 'आगम अध्ययन' योजना में तथा 'आगम-संपादना' के कार्य में भी आप संलग्न हैं। समय-समय पर होने वाले सेमिनारों में शोध-निबंध लिखे। साप्ताहिक विज्ञप्ति में दैनिक प्रवचन का भी आप लेखन करती हैं। 7.11.96 श्री शुभ्रयशाजी 'बीदासर' (सं. 2043-वर्तमान) 9/565 ___ आप श्री हनुमानमलजी नाहटा की सुपुत्री हैं, 25 वर्ष की वय में, मृगशिर शुक्ला 12 को बीदासर में दीक्षा ग्रहण की। आप जीवन विज्ञान की प्रथम छात्रा रही, इसी में एम.ए. किया व 'आचारांगसूत्र' पर पी.एच.डी. की। 'आचारांग और महावीर' नाम से शोध प्रबंध ग्रंथ प्रकाशित है। समय-समय पर सेमिनारों में शोध निबंध लिखकर तथा आगम-संपादन में सहभागी बनकर जैन शासन के गौरव की अभिवृद्धि कर रही हैं। 7.11.97 श्री किरणयशाजी 'उदासर' (सं. 2044-44) 9/570 ____ आप श्री रूपचंदजी मुणोत की सुपुत्री हैं। दीक्षा के पूर्व ही आप पर दैविक उपसर्ग प्रारंभ हुआ, प्रण से डिगाने हेतु उसने इन्हें अंधा बना दिया, कई बार डरावने रूप दिखाये, धरती पर पटका, किंतु इन्होंने उतनी ही तप की आराधना की। साढ़े तीन वर्ष में कई बेले, तेले, चार, पांच, छह, सात, आठ किये, नौ, दस, ग्यारह, बारह, तेरह, पंद्रह, इक्कीस व इक्यावन की तपस्या की। अंततः अनशन के 50वें दिन दीक्षा ग्रहण कर मात्र चार दिन का संयम पालकर 53 दिन 867 Page #930 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन श्रमणियों का बृहद इतिहास के अनशन से मृत्यु प्राप्त की। मुमुक्षु शांता बहन ने इनके जीवन का संपूर्ण वृत्तान्त 'सतयुग की यादें' पुस्तक में प्रकाशित किया है। 7.11.98 श्री संवरप्रभाजी 'नोखामंडी' (सं. 2044-वर्तमान) 9/571 मालू गोत्रीय श्री धनराजजी की आप सुपुत्री हैं, 22 वर्ष की वय में चैत्र कृष्णा 3 को 'नखणा' (हरियाणा) में दीक्षा ग्रहण की। आप दृढ़ संकल्पी व अनन्य निष्ठावान् साध्वी हैं। आप प्रत्याख्यान, 25 बार दस प्रत्याख्यान, उपवास आयंबिल से 1 से 16 तक लड़ी, मासखमण आदि तप किया। 11 दिन खाना खाकर भी पानी नहीं पिया, कुछ दिन 5 प्याले पानी जिसमें पीना, शौच आदि सब कार्य किये। यह आपकी अनूठी त्यागवृत्ति का परिचायक है। एक बार तो आपकी आंख-ज्योति समाप्त हो गई, किंतु 'ओम् भिक्षु' जाप एवं आयंबिल तप के प्रभाव से कुछ ही दिनों में आंखों की ज्योति पुनः आ गई। इस प्रकार आपने तप एवं जप की मिशाल जन-जन के हृदय में जलाई। 7.11.99 श्री आस्थाजी 'बैंगलोर' (सं. 2045-वर्तमान) 9/577 आपका जन्म संवत् 2022 रामसिंहजी का गुडा में पारसमलजी डोसी के यहां हुआ। आषाढ शुक्ला 10 को डूंगरगढ़ में आपने दीक्षा ग्रहण की। आपने गृहस्थावस्था में ही जीवन विज्ञान विषय लेकर एम.ए. किया तथा 'ब्रह्मचर्य पर्यवेक्षण' विषय पर शोध-निबंध लिखा। 7.11.100 श्री योगक्षेमप्रभाजी 'बाव' (सं. 2045-वर्तमान) 9/578 आपने भी गृहस्थ पर्याय में राजस्थान यूनिवर्सिटी से एम.ए. तक की परीक्षाएं प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण की। 'बलिदान का इतिहास' इस मौलिक कृति की आप एवं निर्वाणश्रीजी लेखिका हैं, अनेक शोध-निबंध भी पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित होते रहते हैं। आपने शताधिक कविताएं, गीत आदि भी बनाये चित्रकला में भी आपकी अभिरुचि है, भिक्षु स्वामी के सात दृष्टान्तों पर कलात्मक चित्र बनाये। आपका जन्म 'बाव' (गुजरात) के मेहता परिवार में श्री मोतीभाई के यहां हुआ, सं. 2045 कार्तिक कृष्णा 8 को 25 वर्ष की वय में आपने श्री डूंगरगढ़ में दीक्षा अंगीकार की थी। 7.11.101 श्री कान्तयशाजी 'तारानगर' (सं. 2046-वर्तमान) 9/583 आपने श्री हंसराजजी लूणिया के यहां संवत् 2020 में जन्म लिया। लाडनूं में कार्तिक कृष्णा 8 को आपकी दीक्षा हुई। आगम, स्तोक के ज्ञान के साथ आपने जैन विश्व भारती से संस्कृत व प्राकृत में एम.ए. किया। तथा 'गुरुदेव तुलसी के साहित्य में अहिंसा दर्शन' विषय पर पी.एच.डी. की। सूक्ष्माक्षरों में प्याले पर कलात्मक जाल बनाकर आचार्य तुलसी से पुरस्कृत भी हुईं। आपने एक से 16 तक लड़ी व 21, 31 उपवास भी किये हैं। प्रतिवर्ष दस प्रत्याख्यान, प्रतिदिन 1000 गाथाओं का स्वाध्याय, ध्यान आदि आपके दैनिक जीवन का अंग है! 7.11.102 श्री संचितयशाश्रीजी 'सरदारशहर' (सं. 2046-वर्तमान) 9/584 _आप चंडालिया गोत्रीय श्री डालचंदजी की सुपुत्री हैं, 25 वर्ष की वय में कार्तिक कृष्णा 8 को लाडनूं में आप दीक्षित हुईं। आपने दर्शनशास्त्र तथा प्राकृत में एम.ए. किया और 'तेरापंथी साध्वी समाज में शिक्षा' विषय |868 Page #931 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तेरापंथ परम्परा की श्रमणियाँ पर पी.एच.डी. की। सिद्धान्त एवं दर्शन से संबंधित 20 शोध-निबंध लिखकर जैन-साहित्य भंडार की वृद्धि की। आपने तप के क्षेत्र में 800 उपवास 110 बेले 21 तेले सहित 8 उपवास तक क्रमबद्ध तप किया, एकासन की 1 से 33 तक लड़ी तथा आयंबिल की 1 से 9 तक की लड़ी की। 7.11.103 श्री सहजप्रभाजी 'टापरा' (सं. 2046-वर्तमान) 9/587 आपका जन्म संवत् 2019 टापरा के पालगोता गोत्र के श्री छगनलालजी के यहां हुआ, संवत् 2040 को अहमदाबाद में समणी दीक्षा अंगीकार की, छह वर्ष समणी अवस्था में रहकर माघ शुक्ला 5 को लाडनूं में श्रमणी दीक्षा अंगीकार की। आपने जीवन विज्ञान में एम.ए. कर 'स्वप्न विज्ञान' पर शोध-निबंध लिखा। 7.11.104 श्री सविताश्रीजी 'लाडनूं' (सं. 2046-वर्तमान) 9/590 आपके पिता श्री रतनलालजी बेगवानी हैं, 24 वर्ष की वय में संवत् 2046 माघ शुक्ला 5 को लाडनूं में दीक्षा ग्रहण की। आपने भी संस्थान से जैन दर्शन पर एम.ए. किया। 'जैन सिद्धान्त दीपिका एक समीक्षात्मक अध्ययन' पर पी.एच.डी. की। आपको हजारों गाथाएं कंठस्थ हैं। 7.11.105 श्री स्वस्तिकाश्रीजी 'श्री डूंगरगढ़' (सं. 2046-वर्तमान) 9/591 आपका जन्म घीया गोत्र में सं. 2022 को हंसराजजी के यहां हुआ, एम.ए. की शिक्षा प्राप्त कर माघ शुक्ला को आप लाडनूं में दीक्षित हुईं। आपको करीब 4 हजार पद्य कंठस्थ हैं, 40 के लगभग लेख एवं गीत लिखकर जैन भारती को अनुदान दिया। 7.11.106 श्री शुभप्रभाजी 'राजगढ़' (सं. 2048-वर्तमान) 9/598 आप मुसरफ गोत्र के श्री पृथ्वीराजजी की कन्या हैं, 28 वर्ष की अविवाहित वय में सं. 2038 चैत्र शुक्ला 15 को जयपुर में समण दीक्षा ग्रहण करने के पश्चात् संवत् 2048 कार्तिक शुक्ला10 को लाडनूं में श्रमणी दीक्षा स्वीकार की। आपने जैन दर्शन में एम.ए. किया तथा लगभग चार वर्ष विज्ञप्ति लेखन का कार्य कर संघ को योगदान दिया। 7.11.107 श्री समप्रभाजी ‘मोमासर' (सं. 2048-वर्तमान) 9/599 आपने संवत् 2043 में समणी दीक्षा के बाद कार्तिक शुक्ला 10 को लाडनूं में श्रमणी दीक्षा ली, आप बाल तपस्विनी हैं। 6 वर्ष की वय में अठाई कर सबको चमत्कृत कर दिया। दीक्षा के पश्चात् भी वर्षीतप बेले-बेले तप, चार अठाई, एक से 15 तक उपवास की लड़ी, आठ वर्षों से 5 विगय वर्जन आदि करके श्रमण-संस्कृति की गरिमा को बढ़ा रही हैं। आप मोमासर के मांगीलालजी सेठिया की सुपुत्री हैं, आपका जन्म संवत् 2023 है। 7.11.108 श्री लक्ष्मीवतीजी 'राजगढ़' (सं. 2048-48) 9/601 आपकी अद्भुत एवं लम्बी तपस्या आज के युग में एक चुनौती है। आपने उपवास 1057, बेले 70, तेले 62, चार 51, पांच 50, छह 9, सात 7, आठ 8, नौ 5, दस 3, 11 चार बार, 13 चार बार, 17 से 29 उपवास 869] Page #932 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन श्रमणियों का बहद इतिहास एक-एक बार, पांच बार 30 उपवास एक बार 31, एक बार 34 की तपस्या की। इन तपस्याओं के अलावा दो बार पंचरंगी, बेले-बेले से दो वर्षीतप चौविहारी, सावन मास में पांच बार बेले-तेले तप, पांच बार तेले-तेले चार बार चोले-चोले, छह बार पंचोले-पंचोले बड़ा पखवासा एक कर्मचूर, एक से आठ आयंबिल की लड़ी की। संवत् 2048 में 70 वर्ष की उम्र में लघुसिंहनिष्क्रीड़ित की प्रथम परिपाटी पूर्ण की, पारणे के दूसरे दिन से ही चौविहारी अनशन तथा उसमें दीक्षा अंगीकार की, वह दिन था संवत् 2048 पौष कृष्णा 14, इनका चौविहारी अनशन 21 दिन चला। आप तारानगर निवासी भैरुदानजी बोथरा की सुपुत्री एवं राजगढ़ निवासी मदनचंदजी श्यामसुखा की धर्मपत्नी थीं। आपका स्वर्गवास संवत् 2048 पौष शुक्ला 4 को लाडनूं में हुआ। 7.11.109 श्री विश्रुतविभाजी 'लाडनूं' (सं. 2046-वर्तमान) 97602 आपका जन्म, संवत् 2014 को श्री जंवरीलालजी बरड़िया मोदी के यहां हुआ, संवत् 2037 में लाडनूं में समणी दीक्षा अंगीकार की, समणी स्मितप्रज्ञा के रूप में 12 वर्ष देश-विदेश में धर्मप्रचारार्थ यात्राएं की। आप प्रथम समणी नियोजिका के रूप में पौने छह वर्षों तक रहीं। 35 वर्ष की अवस्था में संवत् 2049 कार्तिक कृष्णा 7 को लाडनूं में श्रमणी दीक्षा अंगीकार की। आप विदुषी साध्वी है, संस्थान से एम.ए. करने के पश्चात् वर्तमान में आचार्य महाप्रज्ञजी की सन्निधि में आगम-सम्पादन के कार्य में संलग्न हैं। संघ प्रशासन में आचार्य श्री द्वारा 'मुख्य नियोजिका' पद भी आपको प्राप्त हुआ है। 7.11.110 श्री कमलविभाजी 'श्रीडूंगरगढ़' (सं. 2049-वर्तमान) 9/606 आप श्री हुकमचंदजी दूगड़ की सुपुत्री हैं। 22 वर्ष की उम्र में संवत् 2046 को लाडनूं में कमलप्रज्ञाजी के रूप में समणी दीक्षा अंगीकार की तथा संवत् 2049 कार्तिक कृष्णा 7 को लाडनूं में श्रमणी बनीं। आपने संस्थान से एम.ए. की परीक्षा दी, वर्तमान में शासनसेवा, ज्ञान, शिक्षण-प्रतिशिक्षण में संलग्न हैं। आप प्रतिवर्ष दस प्रत्याख्यान, श्रावण-भाद्रपद में एकांतर तप तथा दो महीने पांचों विगय का त्याग रखती हैं। 7.11.111 श्री दर्शनविभाजी 'मद्रास' (सं. 2049-वर्तमान) 9/607 आप मुनि श्री दुलहराजजी की दोहित्री हैं। संवत् 2020 को श्री सोहनलाल जी कांकरिया के घर आपने जन्म लिया। 27 वर्ष की अवस्था में संवत् 2047 को पाली में 'समणी-दीक्षा' अंगीकार की, संवत् 2049 कार्तिक कृष्णा सप्तमी के दिन लाडनूं में आपकी 'श्रमणी दीक्षा' हुई। दीक्षा के पश्चात् आपने जैनदर्शन में एम.ए. किया। आप प्रतिवर्ष 30-35 उपवास व एक तेला करती हैं, एक बार आठ और नौ का तप भी किया। 7.11.112 श्री योगप्रभाजी 'गंगाशहर' (सं. 2051-वर्तमान) 9/618 आपके पिताश्री लूनकरणजी भंसाली हैं। 24 वर्ष की वय में श्री डूंगरगढ़ में संवत् 2045 में समणी दीक्षा अंगीकार की, उस समय आपका नाम योगक्षेम प्रज्ञाजी रखा, छह वर्ष समण-श्रेणी में रहने के पश्चात् कार्तिक कृष्णा 7 को नई दिल्ली में आपने 'श्रमणी-दीक्षा' ली। आपने जीवन-विज्ञान में एम.ए. किया तथा आचारांग सूत्र पर 200 पृष्ठों का शोध-निबंध भी लिखा। 870 Page #933 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तेरापंथ परम्परा की श्रमणियाँ 7.12 दशम आचार्य श्री महाप्रज्ञजी के शासनकाल की कतिपय श्रमणियाँ (सं. 2052-वर्तमान ) आचार्य श्री तुलसी के उत्तराधिकारी आचार्य महाप्रज्ञजी वर्तमान में तेरापंथ संघ के दशम आचार्य पद पर प्रतिष्ठित हैं। आचार्य महाप्रज्ञजी के व्यक्तित्व में प्रज्ञा और योग का अपूर्व समन्वय है, वे दार्शनिक हैं, कवि हैं, साहित्यकार हैं तथा प्रेक्षाध्यान पद्धति के विशिष्ट प्रयोक्ता हैं। आपके शासनकाल में संवत् 2052 से 63 तक कुल 120 श्रमणियाँ दीक्षित हुईं, वर्तमान संवत् 2063 की गणनानुसार 554 श्रमणियाँ एवं 116 समणियाँ कुल 670 श्रमणी-समणियाँ आपकी आज्ञा में विचरण कर रही हैं। आपके युग की प्रायः सभी श्रमणियाँ शिक्षित एवं बालब्रह्मचारिणी हैं, कई एम.ए., पी.एच.डी. हैं, कई श्रमणियों ने अपनी सृजनशील मेधा का उपयोग कर साहित्यिक क्षेत्र में काफी प्रगति की है। हमें कुछ ही श्रमणियों की अवदान-विषयक जानकारी उपलब्ध हुई है, शेष का परिचय तालिका में दिया है। 7.12.1 श्री लावण्यप्रभाजी (सं. 2052-वर्तमान) 10/1 आप आचार्य महाप्रज्ञजी द्वारा दीक्षित सर्वप्रथम श्रमणी हैं इससे पूर्व 619 दीक्षाएँ आचार्य श्री तुलसीजी के । मुखारविंद से हुईं, उसके पश्चात् उनकी सन्निधि में आचार्य श्री महाप्रज्ञजी ने दीक्षाएँ प्रदान की। लावण्यप्रभाजी का जन्म चा र भजा रोड के राठौड गोत्र में पिता श्री राजमलजी के यहाँ हआ। आप आठ वर्षों तक पारमार्थिक शिक्षण संस्था में साधनाभ्यास एवं एम.ए. तक की शिक्षा प्राप्त कर सं. 2052 आषाढ़ शुक्ला 10 को लाडनूं में दीक्षित हुईं। आपके साथ 4 श्रमण एवं दो श्रमणियों ने भी दीक्षा अंगीकार की। दीक्षा के पश्चात् आप सतत साधना मार्ग पर अग्रसर हैं। 7.12.2 श्री उज्जवलप्रभाजी (सं. 2052-वर्तमान) 10/2 आपका जन्म लोणार के जोगड़ गोत्र में पिता श्री सुवालालजी के यहाँ संवत् 2025 में हुआ। सं. 2052 आषाढ़ शुक्ला 10 को गणाधिपति तुलसी की सन्निधि में आचार्य महाप्रज्ञ जी द्वारा लाडनूं में आपने दीक्षा ग्रहण की। आगम, स्तोक एवं भाषा ज्ञान में विद्वत्ता अर्जित कर एम.ए. की परीक्षा उत्तीर्ण की। आपने एम.ए. (प्राकृत) पाठ्यक्रम से जुड़े विषयों का तुलनात्मक अध्ययन पर शोध-निबंध भी लिखा, तथा कुछ लेख, कविता एवं गीतिकाएँ भी लिखीं। श्रमणी जीवन के पाँच वर्ष की स्वल्पावधि में 103 उपवास व छह बार 10 प्रत्याख्यान कर ज्ञान के साथ तप का आदर्श भी उपस्थित किया। आप चार वर्षों से शीतकाल में केवल एक पछेवड़ी ही ग्रहण करती हैं। 7.12.3 श्री अनुप्रेक्षाश्रीजी (सं. 2052-वर्तमान) 10/3 आप श्री उज्जवलप्रभाजी की अनुजा हैं, उन्हीं के साथ दीक्षित हुईं। आपने तीन सूत्र व कुछ स्तोक कंठस्थ किये। तप में 18 उपवास और दो बार दस प्रत्याख्यान किये। 20. (क) शासन-समुद्र भाग-25, पृ. 293-347. (ख) तेरापंथ-परिचायिका। (ग) पत्राचार द्वारा प्राप्त। 21. समग्र जैन चातुर्मास सूची, सितंबर 2004, भाग-2, पृ. 1-23. 871 Page #934 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 7.12.4 श्री साधनाश्रीजी (सं. 2052-53 ) 10/4 आपका जन्म रतनगढ़ निवासी श्री रामलालजी गोलछा के यहां हुआ, आपकी साधनाचर्या विलक्षण है, पतिवियोग के पश्चात् सन् 79 में इन्होंने साधिका दीक्षा (समणी - दीक्षा का पूर्व रूप) ली, सन् 81 में श्रावक की 11 प्रतिमा अंगीकार की, सन् 82 में स्वयमेव एकल साध्वी दीक्षा लेकर समस्त व्रतों के पालन का अनूठा उदाहरण प्रस्तुत किया। केवल छेने के पानी के अलावा कुछ भी ग्रहण न करना यह संकल्प 6 वर्ष 21 दिन तक चला, तेरापंथ धर्मसंघ में 76 वर्ष की अवस्था में दीक्षा का एक नया रिकार्ड कायम किया, अंत में छन्ने के पानी का भी त्याग कर 24 दिन के अनशन के साथ आपका देह विलय हुआ। तपस्या में प्रतिदिन 9 से 16 घंटा ध्यान भी आपकी विशिष्ट साधना थी। एक से आठ उपवास की लड़ी, आयंबिल, उपवास बेले तेले आदि फुटकर तपस्या भी बहुत की। आप उपशान्त कषायी, भद्र परिणामी एवं दृढ़ मनोबली थीं। 7.12.5 श्री सरलयशाजी (सं. 2052 ) 10/5 आपने समण-दीक्षा के शुभारम्भ में समणी बनकर अपना महनीय योगदान दिया 15 वर्ष समणी - पर्याय में धर्म प्रचार कर श्रमणी के रूप में दीक्षित हुईं। आप 'अहिंसा व शांति शोध' में एम.ए. कर चुकी हैं। आप मोमासर के जंवरीमलजी सेठिया की सुपुत्री हैं। जैन श्रमणियों का बृहद इतिहास 7.12.6 श्री सौभाग्ययशाजी (सं. 2052 - वर्तमान) 10/6 आपका जन्म सरदारशहर निवासी श्री शुभकरणजी बरड़िया के यहां संवत् 2016 को हुआ । संवत् 2038 से 2052 तक समणी श्रुतप्रज्ञा के रूप में विदेश यात्रा, धर्म प्रचार करने के पश्चात् आचार्य महाप्रज्ञजी द्वारा लाडनूं में आपने श्रमणी दीक्षा अंगीकार की। आपने संस्था में रहकर 'अहिंसा व शांति शोध' विषय पर एम.ए. किया, तथा प्रेक्षाध्यान एक तुलनात्मक अध्ययन, आचार्य श्री तुलसी का अहिंसा दर्शन तथा अहिंसा दर्शन फील्डवर्क इन तीन विषयों पर शोध निबंध भी लिखे। आप सुमधुर गायिका एवं कवियित्री भी हैं। साथ ही तप के मार्ग पर चलती हुई आप उपवास से नौ तक लड़ीबद्ध तप भी कर चुकी हैं। 5 बेले, 20 तेले, 4 चोले और दस प्रत्याख्यान 5 बार, 51, 31 एकासन आदि तप किया है। 7.12.7 श्री मनुयशाजी (सं. 2052 - वर्तमान) 10/7 आप लाछूड़ा के भलावत गोत्रीय श्री मदनलालजी की सुपुत्री हैं। 25 वर्ष की अविवाहित वय में आपने समणी दीक्षा अंगीकार की, तीन वर्ष समण श्रेणी में रहकर संवत् 2052 माघ शुक्ला 5 को लाडनूं में आचार्य महाप्रज्ञजी द्वारा श्रमणी दीक्षा अंगीकार की। आपने साध्वोचित अध्ययन के साथ तपोमय जीवन को अपना लक्ष्य बनाया। अभी तक आप उपवास 315 बेले 20, तेले 27, चार, पांच व अठाई की तपस्या कर चुकी हैं। 7.12.8 श्री किरणयशाजी (सं. 2052 - वर्तमान) 10/8 आपने कांटाभांजी (उड़ीसा) के अग्रवाल परिवार में संवत् 2020 को श्री ज्ञानसागरजी गर्ग के यहां जन्म ग्रहण किया। छह वर्ष तक संस्था में साधनाभ्यास कर संवत् 2050 को राजलदेसर में 'कांतप्रज्ञा' नाम से समणी 872 Page #935 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तेरापंथ परम्परा की श्रमणियाँ दीक्षा स्वीकार की, तत्पश्चात् माघ शुक्ला 5 संवत् 2052 को लाडनूं में आचार्य महाप्रज्ञजी से श्रमणी दीक्षा ग्रहण की। आपने यथोचित ज्ञानार्जन के साथ सैकड़ों उपवास, 15 तेले, 1 अठाई और 4 दस प्रत्याख्यान तप किया। प्रतिदिन सैकड़ों गाथाओं का स्वाध्याय भी करती हैं। 7.12.9 श्री भावयशाजी (सं. 2052-वर्तमान) 10/9 आपका जन्म कालू (बीकानेर) निवासी हीरालालजी के यहां संवत् 2028 में हुआ। छह वर्ष संस्था में शिक्षा प्राप्त कर संवत् 2052 को बीदासर में समणी दीक्षा अंगीकार की। नौ मास पश्चात् माघ शुक्ला 5 संवत् 2052 में भावप्रज्ञा जी 'भावयशाजी' नामान्तर से श्रमणी बनीं, अद्यतन ज्ञान एवं तप में संलग्न हैं। 7.12.10 श्री सुनंदाश्रीजी (सं. 2053-वर्तमान) 10/10 आप लाडनूं के दूगड़ गोत्रीय कमलसिंहजी की सुपुत्री हैं। 22 वर्ष की वय में संवत् 2053 द्वितीय आषाढ़ शुक्ला 6 को लाडनूं में दीक्षा ग्रहण की। आप महाश्रमणी साध्वी प्रमुखाजी के सान्निध्य में तप-संयम मार्ग पर अग्रसर हैं। 7.12.11 श्री वंदनाश्रीजी (सं. 2053-वर्तमान) 10/11 आप डूंगरगढ़ निवासी विजयसिंहजी छाजेड़ की कन्या हैं, 15 वर्ष की लघुवय में संवत् 2053 द्वितीय आषाढ़ शुक्ला 6 को लाडनूं में आपकी दीक्षा हुई आप महाश्रमणीजी के सान्निध्य में सेवार्थिनी बनकर विचरण कर रही हैं, अंग्रेजी में विशेष रुचि रखती हैं, प्रतिवर्ष प्रायः 30 उपवास व एक अठाई तप करती हैं। 7.12.12 श्री स्मितप्रभाजी (सं. 2053-वर्तमान) 10/12 आपका जन्म सं. 2024 जसोल ग्राम में देवचंदजी ढेलड़िया के यहां हुआ। सात वर्ष संस्था में रहने के पश्चात् सं. 2050 को समण दीक्षा एवं संवत् 2053 माघ शुक्ला 13 को बीदासर में श्रमणी दीक्षा अंगीकार की। समणी स्मितप्रज्ञा से श्रमणी स्मितप्रभा बनकर आपने ज्ञान व कला के क्षेत्र में अच्छी प्रगति की। साथ ही उपवास से 11 दिन तक लड़ीबद्ध तप किया, प्रत्येक श्रावण-भाद्रव में आप एकांतर करती हैं, आयंबिल दस प्रत्याख्यान भी कई बार किये। 7.12.13 श्री सरसप्रभाजी (सं. 2053-वर्तमान) 10/13 आपका जन्म बालोतरा के शिवलालजी ढेलड़िया के यहां संवत् 2025 में हुआ। सात वर्ष साधनाभ्यास करके संवत् 2050 में समणी सरसप्रज्ञा एवं तीन वर्ष पश्चात् श्रमणी सरसप्रभा के रूप में दीक्षा अंगीकार की। तब से ज्ञान के साथ अब तक 300 उपवास, 10 बेले व 1 चोला किया है। स्वाध्याय, मौन, ध्यान, जप आदि का क्रम भी चलता है। 7.12.14 श्री गौरवप्रभाजी (सं. 2053-वर्तमान) 10/14 आप जसोल निवासी चंदनमल जी ढेलड़िया की पुत्री हैं। सात वर्ष संस्था में रहकर स्नातक परीक्षा उत्तीर्ण की, पश्चात् 24 वर्ष की वय में समणी दीक्षा एवं संवत् 2053 माघ शुक्ला 13 को श्रमणी दीक्षा ग्रहण की, समणी के रूप में आप गुप्तिप्रज्ञाजी के नाम से प्रसिद्ध थीं। 873 Page #936 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन श्रमणियों का बृहद इतिहास 7.12.15 श्री ललितयशाजी (सं. 2053-वर्तमान) 10/15 आपका जन्म संवत् 2026 को मद्रास के पगारिया गोत्रीय श्री भंवरलालजी के यहां हुआ तथा विवाह मुथा परिवार में हुआ। पति परित्यक्ता होने पर तीन वर्ष संस्था में रहीं, संवत् 2052 लाडनूं में लाभप्रज्ञा समणी के रूप में दीक्षा ली, और एक वर्ष पश्चात् ही श्रमणी दीक्षा लेकर आत्म साधना के मार्ग में संलग्न हैं। 7.12.16 श्री सौरभप्रभा जी (सं. 2053 ) 10/16 आपका जन्म संवत् 2023 धूलिया के मंदाण गोत्रीय रामचंद्रजी के यहां हुआ। आपने वैराग्य अवस्था में संस्थान से एम.ए. किया। आचार्य महाप्रज्ञजी से संवत् 2053 माघ शुक्ला 13 को बीदासर में श्रमणी दीक्षा ली। 7.12.17 श्री चैत्यप्रभाजी (सं. 2053 ) 10/17 आपने भी आचार्य महाप्रज्ञजी से माघ शुक्ला 13 को बीदासर में साध्वी दीक्षा अंगीकार की। संस्थान में एम. ए. परीक्षा उत्तीर्ण की। आप सैकड़ों उपवास, 4 बेले, एक तेला और दो बार दस प्रत्याख्यान कर चुकी हैं। आप मालूगोत्रीय श्री इन्द्रचंद डूंगरगढ़ वालों की कन्या हैं। 7.12.18 श्री मृदुयशाजी (सं. 2053-वर्तमान) 10/18 आप बालोतरा के बैदमूथा श्री घेवरचंदजी की सुपुत्री हैं। 19 वर्ष की वय में माघ शुक्ला 13 बीदासर में आपकी दीक्षा हुई। दीक्षा के पश्चात् एक हजार गाथाएं कंठस्थ की एवं प्रतिदिन 500 गाथाओं का स्वाध्याय यथाशक्य तप, ध्यान, मौन आदि भी करती हैं। 7.12.19 श्री उदितयशाजी (सं. 2053-वर्तमान) 10/19 आप जसोल निवासी मीठालालजी सालेचा की सुपुत्री हैं। 21 वर्ष की वय में माघ शुक्ला 13 को बीदासर में दीक्षित हुईं। आप यथाशक्य ज्ञान, स्वाध्याय, तप, सेवा व साधना में संलग्न हैं। 7.12.20 श्री मलयश्रीजी (सं. 2053-वर्तमान) 10/20 __ आप उदितयशाजी की भगिनी हैं, 18 वर्ष की उम्र में बहिन के साथ ही बीदासर में आपकी दीक्षा हुई। आप प्रतिवर्ष 30 उपवास व सवा लाख का जाप करती हुई गुरु-चरणों में साधनारत हैं। 7.12.21 श्री चारुप्रभाजी (सं. 2053-वर्तमान) 10/21 आपका जन्म रतनगढ़ के मोतीलालजी हींगड़ के यहां संवत् 2024 में हुआ। 30 वर्ष की वय में संवत् 2053 फाल्गुन शुक्ला 6 को डूंगरगढ़ में आपकी दीक्षा हुई। आप आगम, स्तोक व संस्कृत आदि की ज्ञाता हैं अनेकों उपवास, दो, तीन, चार, सात और आठ की तपस्या भी की है। 7.12.22 श्री मलययशाजी (सं. 2053-वर्तमान) 10/22 आपने संवत् 2026 को उधना-सूरत में श्री कांतिलालभाई गांधी के यहां जन्म लिया, प्राक् स्नातक द्वितीय वर्ष तक अध्ययन कर फाल्गुन शुक्ला 6 के दिन डूंगरगढ़ में दीक्षा अंगीकार की। सामान्य ज्ञान सीखकर तप के 874 Page #937 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तेरापंथ परम्परा की श्रमणियाँ क्षेत्र में आपने अपनी रुचि दिखाई। सैकड़ों उपवास, 7 बेले, 5 तेले, 3 पचोले, 4 अठाई, नौ, दस, ग्यारह, सोलह तथा एक वर्षीतप किया। 7.12.23 श्री मल्लिकाश्रीजी (सं. 2053-वर्तमान) 10/23 ___ आप फतेहगढ़ (भुज-कच्छ) निवासी बाबूलालजी सिंघवी की सुकन्या हैं। 24 वर्ष की वय में फाल्गुन शुक्ला 6 को श्री डूंगरगढ़ में आपने दीक्षा ली। आगम एवं संघीय साहित्य के अध्ययन के साथ आपने जैनदर्शन में एम.ए. किया। प्रतिदिन 1000 गाथाओं का स्वाध्याय जप, मौन, ध्यान आदि के साथ आपने तपस्या भी खूब की। 500 के लगभग उपवास, 30 बेले, 40 तेले, 3 चोले, 4 पचोले, 2 अठाई, 6, 9, 11, 30 की तपस्या की। आयंबिल की 9 ओली, वर्षीतप एवं 11 बार दस प्रत्याख्यान भी आपने किये हैं। सेठिया 7.12.24 श्री राजश्रीजी (सं. 2053-वर्तमान) 10/24 आप सूरत निवासी सोहनलालजी जीरावला की सुपुत्री हैं 19 वर्ष की वय में श्री डूंगरगढ में आप फाल्गुन शुक्ला 6 को दीक्षित हुई। आपने दशवैकालिक कंठस्थ किया, प्रतिमास 3 उपवास का क्रम चलता है 4 बेले, 1 तेला व ! अठाई भी की। दो वर्षों से सर्दी में कम्बल न ओढ़ने का भी संकल्प है। आचार्य श्री महाप्रज्ञजी के शासनकाल में दीक्षित साध्वियाँ (सं. 2052-59) क्रम संख्या दीक्षा क्रम | साध्वी-नाम जाति । जन्म-संवत् | जन्म-स्थान | दीक्षा-संवत् • श्री संयमप्रभाजी सुराणा 2023 सरदार शहर 2050 • श्री प्रबोधयशाजी 2026 उदासर 2054 •श्री पुनीतयशाजी नाहर 2026 बीदासर 2054 • श्री इंदुयशाजी सुराणा 2026 सरदार शहर 2054 • श्री कुंदनयशाजी लूनिया 2027 श्रीडूंगरगढ़ 2054 • श्री जयंतयशाजी बुच्चा 2027 गंगा हर 2054 •श्री विनीतयशाजी चोरडिया सुजानगढ़ 2054 • श्री मधुयशाजी लोढ़ा 2032 गंगाशहर 2054 •श्रीचारित्रप्रभाजी सालेचा 2022 जसोल 2055 • श्री अनेकान्तप्रभाजी पारेख 2025 अहमदाबाद 2055 • श्री संपूर्णयशाजी दूगड़ 2029 सरदारशर 2055 श्री किरणप्रभाजी सुराणा राजगढ़ 2055 श्री विनीतप्रभाजी 2012 आडसर 2055 • श्री कुलविभाजी गिडिया 2027 बीदासर 2055 2027 2000 छाजेड़ 875 Page #938 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन श्रमणियों का बृहद इतिहास क्रम संख्या दीक्षा क्रम | साध्वी-नाम जाति जन्म-संवत् | जन्म-स्थान । दीक्षा-संवत् 2019 2017 2019 2021 टांटिया कोठारी दूगड़ अग्रवाल अग्रवाल वावरिया छाजेड़ बेगवानी 2026 भुज 2028 2029 I 2032 2033 2026 सालेचा सालेचा बरडिया दूगड़ सेठिया श्रीश्रीमाल 2032 •श्री शशिप्रज्ञाजी •श्री लावण्ययशाजी •श्री सहजयशाजी • श्री प्रशमयशाजी • श्री रक्षितयशाजी •श्री काव्ययशाजी •श्री संवरयशाजी श्री चंद्रयशाजी श्री विनम्रयशाजी • श्री निर्मलप्रभाजी •श्री मार्दवश्रीजी • श्री सुदर्शनप्रभाजी •श्री सुमतिप्रभाजी • श्री सुधाप्रभाजी श्री प्रसन्नप्रभाजी • श्री अतुलप्रभाजी • श्री श्रेष्ठप्रभाजी • श्री सुयशप्रभाजी •श्री ज्योतियशाजी • श्री कल्याणयशाजी • श्री मल्लिप्रभाजी • श्रीविकासप्रभाजी • श्री ऋषिप्रभाजी • श्री सुमंगलाश्रीजी • श्री मुदितप्रभाजी • श्री अतुलयशाजी • श्री समन्वयप्रभाजी •श्रीलक्षितप्रभाजी • श्री सुविधिप्रभाजी • श्री सुलसाश्रीजी • श्री कारुण्यप्रभाजी पीपाड़ा 2029 2022 2030 2027 2021 टमकोर 2055 टमकोर 2055 लाडनूं 2055 जैतोमंडी 2055 जींद 2055 2055 कवास 2055 लाडनूं 2056 गंगाशहरं 2056 बाड़मेर 2056 बाड़मेर 2056 मोमासर 2057 सरदारशहर 2057 मोमासर 2057 बालोतरा (जसोल) 2057 दाहोद 2057 बैंगलोर 2057 धूलिया 2057 2057 भिवानी 2057 कालू 2057 गंगाशहर 2057 गंगाशगर 2057 सिसाय 2057 गंगाशहर 2057 आसींद 2058 श्री डूंगरगढ़ 2058 श्री डूंगरगढ़ 2058 श्री डूंगरगढ़ 2058 मोमासर 2058 श्री डूंगरगढ़ 2058 दूगड़ सींधी बरमेचा अग्रवाल(बंसल) बोथरा कालू 2028 2030 2037 2036 श्यामसुखा सीधी सिहाग (चौधरी) 2037 2037 चोपड़ा 2040 दूगड़ दूगड़ दूगड़ मालू बाफना कुंडलिया 2033 2033 2034 2036 2037 Page #939 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तेरापंथ परम्परा की श्रमणियाँ क्रम संख्या दीक्षा क्रम| साध्वी-नाम | जाति जन्म-संवत् । दीक्षा-संवत् 71 2037 2058 2031 2058 2035 2058 बैद 2036 2058 2036 2058 2036 2058 पीपाड़ा 2024 2058 2035 2058 2020 श्री डूंगरगढ़ उधना-सुरत सिन्धीकेला राजलदेसर कोप्पल समदड़ी कल्याणपुरा गंगाशहर बालोतरा जसोल आसोतरा जसोल जसोल असाढ़ा जसोल जसोल फतेहगढ़ 2058 2031 2058 2034 2058 2034 2058 2034 2058 2034 •श्री सुधांशुप्रभाजी | छाजेड़ •श्री वर्षा श्रीजी भलावत • श्री जागृतप्रभाजी अग्रवाल (जैन) •श्री सौभाग्यश्रीजी •श्री मेरुप्रभाजी जीरावला • श्री मैत्रीप्रभाजी ढेलड़िया • श्री श्रुतप्रभाजी •श्री कोमलप्रभाजी । रांका श्री संकल्पप्रभाजी कोठारी | श्री संगीतप्रभाजी भंसाली • श्री मनीशप्रभाजी बाफणा | श्री संभवश्रीजी गांधी मेहता • श्री अखिलयशाजी बोकड़िया •श्रीसलिलयशाजी भंसाली • श्री तरुणयशाजी संकलेचा • श्री मृदुप्रभाजी बोकड़िया •श्री गौरवयशाजी संधवी • श्री मननयशाजी चौरड़िया • श्री मृदुलयशाजी गेलड़ा • श्री जागृतयशाजी लूणावत | .श्री चेलनाश्रीजी मेहता •श्री आराधनाश्रीजी मोदी • श्री सिद्धान्तश्रीजी पारख श्री सोमश्रीजी चोरडिया •श्री केवलप्रभाजी गुंदेचा श्री नीतिप्रभाजी कांकरिया (सजोड़े) • श्री अर्चनाश्रीजी मेहता •श्री तन्मयप्रभाजी कांकरिया 2058 2035 2058 2038 2058 2022 2058 2025 2058 2023 लाछुड़ा बोरावड़ नोखा 2058 2031 2058 2033 बाव 2059 2059 2036 अहमदाबाद 2038 2059 2019 2059 माड़का लोणार चेम्बूर पीपाड़सिटी 2033 2059 2029 2060 2040 सूरत 2060 2049 पीपाड़सिटी 2060 877 Page #940 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्रम संख्या दीक्षा क्रम 74. 75. Ø Ø Å 2 2 2 2 2 2 2 2 76. 77. 78. 79. 80. 81. 82. 83. 84. 85. 87. 88. 89. 90. 91. 92. 93. 94. 95. 96. 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 113 114 115 116 117 118 119 120 साध्वी नाम श्री सुमित्र श्रीजी श्री कुसुमप्रभाजी श्री मर्यादाप्रभाजी श्री आस्था प्रभाजी श्री मुदिताश्रीजी श्री मुक्ता प्रभाजी श्री कल्पयशाजी श्री आत्मयशाजी श्री मयंकप्रभाजी श्री अर्हं प्रभाजी श्री सुमेधाश्रीजी श्री महिमा श्रीजी श्री मंजुला श्रीजी श्री भीरवांजी श्री महनीय प्रभाजी श्री सुरभि प्रभाजी श्री स्वस्तिक प्रभाजी श्री कौशल प्रभाजी श्री जीतयशा जी श्री कान्ताश्रीजी श्री लक्ष्मीकुमारीजी श्री शारदाप्रभाजी जाति अग्रवाल सिंधवी मेहता कोठारी मादरेचा सींची मालू लड़ा गेलड़ा सालेचा अग्रवाल जैन शंका सालेचा खोटेड़ चोरड़िया दूगड़ दूगड़ चौपड़ा मालू बैद संघवी अग्रवाल जैन जन्म- संवत् 878 26.6.1976 24.9.1990 2021 2025 2031 2032 2030 2033 11.12.1968 8.10.1976 3.12.1979 18.04.1980 1970 2032 2036 2038 2040 2039 2005 2005 2035 जैन श्रमणियों का बृहद इतिहास दीक्षा-संवत् जन्म-स्थान हांसी चारभुजा (गाडबोर) कोयल रामसिंहजी का गुड़ा चारभुजा श्री डुंगरगढ़ श्री डुगरगढ़ शाहदा शाहदा कानावा टिटिलागढ़ बालोतरा बालोतरा पाली लोकही (लाड़नू) लाडनू लाडनू गंगाशहर श्री डूंगरगढ़ रत्नगढ़ 7.13 तेरापंथ समणी संस्था का विकास एवं उसका अवदान (सं. 2037 से वर्तमान ) आचार्य श्री तुलसी ने तेरापंथ धर्मसंघ में 'समण - समणी दीक्षा' का एक सराहनीय कार्य किया। इसका शुभारम्भ 9 नवम्बर 1980 को जैन विश्व भारती लाडनूं में हुआ, उसमें सर्वप्रथम छह मुमुक्षु बहनों ने समणी दीक्षा अंगीकार की - 1) समणी स्थितप्रज्ञाजी, 2) समणी स्मितप्रज्ञाजी, 3) समणी मधुप्रज्ञाजी, 4) समणी कुसुमप्रज्ञाजी, 5) समणी सरलप्रज्ञाजी, 6) समणी विशुद्ध प्रज्ञाजी। तब से लेकर आज तक (संवत् 2063) 178 कन्याएँ समण श्रेणी में प्रविष्ट हो चुकी हैं, इनमें 62 समणियों की मुनि दीक्षा हो गई है। समण श्रेणी साधु और श्रावक की मध्यवर्ती कड़ी है, इस 22. (क) तेरापंथ परिचायिका । (ख) पत्राचार द्वारा प्राप्त । बाव/अहमदाबाद वंदनी कलां 2060 2061 2061 2061 2061 2061 2061 2061 2061 2061 2061 2061 2061 2061 2061 2061 2061 2061 2061 2062 2062 2063 - Page #941 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तेरापंथ परम्परा की श्रमणियाँ रूप में इन समणी-साधिकाओं का योगदान भी कम नहीं। श्रमणी-वर्ग अपनी मर्यादा के कारण जहां नहीं पहुंच पातीं वहां पहुंचकर ये समणियां धर्म और अध्यात्म का पाथेय प्रदान करती हैं। अपने स्थापत्य काल से ही समणीवर्ग ने कई बार सुदूरवर्ती क्षेत्रों में तथा विदेशों में जाकर जैनधर्म अणुव्रत, योग, प्रेक्षाध्यान, साधना शिविर आदि के माध्यम से धर्मसंघ की अच्छी प्रभावना की है। इनमें अनेक समणियां अत्यंत विदुषी, प्रखरवक्ता एवं लेखिकाएं हैं। कई समणियों ने उच्चकोटि के शोध-प्रबन्ध लिखकर लाडनूं विश्वविद्यालय से पी.एच.डी. की उपाधि भी प्राप्त की हैं। कुछ प्रमुख समणियों का परिचय इस प्रकार है। 7.13.1 समणी स्थितप्रज्ञाजी (सं. 2037) आप लाडनूं के घीया परिवार की कन्या हैं, आपने संवत् 2037 कार्तिक शु. 2 को लाडनूं में समणी दीक्षा अंगीकार की, शिक्षा के क्षेत्र में आपने एम.एम. के बाद 'संबोधि का समीक्षात्मक अध्ययन' विषय पर पी.एच. डी. की उपाधि प्राप्त की। आप द्वारा संपादित ग्रंथ-प्राण-चिकित्सा, अमूर्त चिन्तन, चित्त और मन, संभव है समाधान' आदि मुख्य हैं। एम.ए. जीवन विज्ञान के 40 पाठ तथा जैनधर्म दर्शन एवं तुलनात्मक धर्मदर्शन के 10 पाठों का लेखन भी किया है। 7.13.2 समणी कुसुमप्रज्ञाजी (सं. 2037) आपका जन्म इंदौर के मोदी परिवार में सं. 2016 को हुआ। सं. 2037 कार्तिक शु. 2 को लाडनूं में आपकी समणी दीक्षा हुई, आपने 'आवश्यक नियुक्ति' पर शोध प्रबंध लिखकर पी.एच.डी. की उपाधि प्राप्त की। आप द्वारा रचित साहित्य-एक बूंद : एक सागर (पांच भाग), आचार्य तुलसी साहित्य : एक पर्यवेक्षण, साधना के शलाका पुरुष : गुरुदेव तुलसी, गृहस्थ योगी नेमीचंद मोदी, आचार्य तुलसी की साहित्य संपदा, पौरुष के प्रतिमान प्रकाशित हैं-व्यवहार भाष्य, नियुक्ति पञ्चक, आवश्यक नियुक्ति, व्यवहार नियुक्ति, एकार्थक कोश, देशी शब्दकोष, पिंड-ओघ-निशीथ नियुक्ति, पञ्चकल्प भाष्य, आवश्यक नियुक्ति की कथाएं (दो भाग) आदि पुस्तकों का सफल संपादन किया है। अप्रकाशित साहित्य-आचार्य तुलसी की काव्य साधना, आचार्य तुलसी नेतृत्व की कसौटी पर, आचार्य तुलसी का अध्यापन कौशल, अर्हत् प्रज्ञप्ति, आरोहण आदि हैं। आप लगभग 25 वर्षों से आगम संपादन कार्य में संलग्न हैं। 7.13.3 समणी उज्जवलप्रज्ञाजी (सं. 2038-वर्तमान) आपका जन्म संवत् 2013 श्रावण शुक्ला 1 को हरियाणा प्रान्त के हांसी शहर में हुआ, आप अग्रवाल सिंगल परिवार की कन्या हैं। संवत् 2038 कार्तिक शुक्ला द्वितीया को दिल्ली में दीक्षा ग्रहण की। आपने संस्थान से एम.ए. करने के पश्चात् योग-शास्त्र एवं मनोनुशासनम्ः एक तुलनात्मक अध्ययन शोधकार्य कर रही है। 7.13.4 समणी-नियोजिका श्री अक्षयप्रज्ञाजी (सं. 2040-वर्तमान) आपका जन्म राजस्थान के 'टापरा' ग्राम में संवत् 2017 पौष कृष्णा पंचमी को हुआ। आपने आचार्य महाप्रज्ञजी द्वारा अहमदाबाद में संवत् 2040 वैशाख शुक्ला 3 को 'समणी-दीक्षा अंगीकार की। आप अत्यंत विदुषी, धर्मप्रभाविका 23. पत्राचार द्वारा प्राप्त सूचना। 879 Page #942 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन श्रमणियों का बृहद इतिहास समणी हैं, अपने आकर्षक व्यक्तित्व एवं सद्गुणों के कारण आप वर्तमान में विशाल समणी - संघ की नियोजिका के रूप में सम्माननीय हैं। आपने 15 बार होलेण्ड, बेल्जियम, जर्मनी, स्विट्जरलैण्ड, फिनलैण्ड, इटली, लंदन, अमेरिका, कनाडा, जापान, रसिया और फ्रांस आदि देशों में जाकर प्रेक्षाध्यान, शिविर, अणुव्रत एवं जीवन विज्ञान के माध्यम से धर्म का प्रचार-प्रसार किया है। 7.13.5 समणी भावितप्रज्ञाजी (सं. 2040 ) आप समदड़ी के ढेलड़िया परिवार की कन्या हैं। अहमदाबाद में वैशाख शु. 3 सं. 2040 में आप समणी जीवन में प्रविष्ट हुईं। आपने विश्व भारती से एम.ए. की शिक्षा प्राप्त की । श्रपद टपमू व सपमि आपकी साहित्य कृति है। धर्मप्रचार की दृष्टि से आप दस बार विदेश यात्रा कर चुकी हैं, विदेशों में अमेरिका, लंदन, जापान, हांगकांग, होलेण्ड, इजराइल, बेल्जियम, ताइवान, थाइलैण्ड, इण्डोनेशिया, सिंगापुर, इटली, जर्मनी, कनाडा, रोमानिया और पेरिस देश आपके प्रचार के प्रमुख क्षेत्र रहे। 7.13.6 समणी मंगलप्रज्ञाजी (सं. 2041 ) आप मोमासर के सेठिया परिवार की कन्या हैं, संवत् 2041 वैशाख कृ. 9 को मोमासर में आपने समणी दीक्षा अंगीकार की। शिक्षा के क्षेत्र में एम.ए. के पश्चात् 'जैन आगमों का दार्शनिक चिन्तन' विषय पर शोधपरक प्रबन्ध लिखकर पी.एच.डी. की उपाधि प्राप्त की । 'आर्हती दृष्टि', 'व्रात्यदर्शन' आपकी साहित्यिक कृतियाँ हैं। 17 जुलाई 2006 ई. में आपको जैन विश्व भारती संस्थान मान्य वि.वि. लाडनूं में प्रथम प्रो. वाइस चांसलर (सहायक कुलपति) नियुक्त किया है। इस प्रकार का महत्त्वपूर्ण पद किसी समणी को प्रथम बार प्राप्त हुआ है। 24 7.13.7 समणी निर्वाणप्रज्ञाजी (सं. 2043 ) आप भी झाबुआ के कोटड़िया परिवार की कन्या हैं। राजसमन्द में ही चैत्र शु. 9 को दीक्षित हुई । 'अहिंसा का शिक्षण-प्रशिक्षण : एक समीक्षात्मक अध्ययन' विषय पर शोध-प्रबन्ध लिखकर आपने पी. एच. डी. की उपाधि अर्जित की। 7.13.8 समणी चैतन्यप्रज्ञाजी (सं. 2043 ) आपका जन्म झाबुआ (म. प्र. ) के कोटड़िया परिवार में हुआ। संवत् 2043 चैत्र शुक्ला 15 राजसमन्द में दीक्षा अंगीकार की, आप एम. ए. पी. एच. डी. हैं। 'भगवती का दार्शनिक वैज्ञानिक अध्ययन' विषय पर शोध प्रबंध लिखा। आपकी एक कृति Scientific vision of Lord Mahavira प्रकाशित है। आप एकबार इण्डोनेशिया जाकर धर्मप्रचार भी कर चुकी हैं। 7.13.9 समणी ज्योतिप्रज्ञाजी (सं. 2043 ) आप राजस्थान में नोहर ग्राम की हैं, भाद्रपद शुक्ला 15 को लाडनूं में दीक्षित होकर आपने एम.ए. की शिक्षा प्राप्त की। एक बार मास्को, नेपाल की यात्रा भी कर चुकी हैं। आपकी साहित्य कृतियां - 'साहस भरी कहानी' और 'परमार्थ' ये दो पुस्तकें हैं। 24. अ.भा. तेरापंथ टाइम्स 24-30 जुलाई 2006, पृ. 1. 880 Page #943 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तेरापंथ परम्परा की श्रमणियाँ 7.13.10 समणी सन्मतिप्रज्ञाजी (सं. 2046 ) आप गंगाशहर के चोपड़ा गोत्र की कन्या हैं, माघ शुक्ला पंचमी को लाडनूं में दीक्षा लेकर एम.ए. की शिक्षा प्राप्त की। आपकी 'समणदीक्षा : एक परिचय' पुस्तक प्रकाशित है। 7.13.11 समणी शुभप्रज्ञाजी (सं. 2046 ) आप लाडनूं के फूलफगर परिवार की कन्या हैं, लाडनूं में माघ शुक्ला पंचमी को दीक्षित होकर एम. ए. पी. एच.डी. तक की शिक्षा प्राप्त की। आपने 'उपासकदशा एक समीक्षात्मक अध्ययन' पर शोध-प्रबंध लिखा । 7.13.12 समणी हिमप्रज्ञाजी (सं. 2048 ) आप फतेहगढ़ के मेहता परिवार की कन्या हैं, लाडनूं में कार्तिक शुक्ला 10 को आप दीक्षित हुईं। 'आचार्य तुलसी का समाज दर्शन' विषय पर आपने शोध प्रबंध लिखकर पी.एच.डी. की उपाधि प्राप्त की। 7.13.13 श्री सत्यप्रज्ञाजी (सं. 2048 ) श्रीडूंगरगढ़ के सेठिया कुल में समुत्पन्न होकर 25 वर्ष की कौमार्य अवस्था में कार्तिक शुक्ला दशमी को लाडनूं में आप समणी जीवन में प्रविष्ट हुईं। आपने 'ज्ञाताधर्मकथा एक समीक्षात्मक अध्ययन' पर शोध प्रबन्ध प्रस्तुत कर पी.एच.डी. की डिग्री प्राप्त की। 7.13.14 समणी मलयप्रज्ञाजी (सं. 2049 - वर्तमान ) आपका जन्म उड़ीसा प्रान्त के टिटिलागढ़ में संवत् 2027 वैशाख कृष्णा 7 को अग्रवाल परिवार में हुआ, संवत् 2049 कार्तिक कृष्णा 7 के दिन लाडनूं में आपने दीक्षा ग्रहण की। संस्थान से एम. ए. करने के पश्चात् आपने 'दशवैकालिक का दार्शनिक अनुशीलन' विषय पर पी. एच. डी. की डिग्री प्राप्त की । 7.13.15 समणी अमितप्रज्ञाजी (सं. 2052 ) आप गुजरात प्रान्त के 'बाव' ग्राम की कन्या हैं, मेहता कुल में उत्पन्न हुईं। संवत् 2052 आषाढ़ शुक्ला 11 को लाडनूं में 'समणी दीक्षा अंगीकार की आपने 'उत्तराध्ययन: शैली का वैज्ञानिक अध्ययन' विषय पर पी.एच. डी. की है। 7.13.16 समणी संबोधप्रज्ञाजी (सं. 2054 ) आप हरियाणा प्रान्त के 'हांसी शहर की अग्रवाल जैन कन्या हैं। संवत् 2054 कार्तिक शुक्ला पंचमी को 'गंगाशहर' में आपने समणी दीक्षा अंगीकार की आपने 'अर्धमागधी आगमों में आत्मतत्व की अवधारणा' विषय पर पी.एच.डी. की है। 7.13.17 समणी प्रशमप्रज्ञाजी आपने 'प्रश्नव्याकरण में संवर का स्वरूप' विषय पर पी.एच.डी. की डिग्री प्राप्त की। आपका विशेष ज्ञातव्य उपलब्ध नहीं हुआ। 881 Page #944 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 2014 जैन श्रमणियों का बृहद इतिहास तेरापंथ संप्रदाय की अवशिष्ट समणियाँ (संवत्. 2037-59 )24 | दीक्षा समणी-नाम जाति जन्म संवत जन्म-स्थान दीक्षा-संवत् तिथि दीक्षा स्थान विशेष क्रम विवरण 1. | 2 | श्री मधुरप्रज्ञाजी M.A | डागा 2015 | भीनासर । 2037 का.शु. 2 | लाडनूं 16 बार विदेश यात्रा 4 | श्री मुदितप्रज्ञाजी M.A | बाफना 2015 सरदारशहर 2038 चै.शु. 15 | जयपुर श्री परमप्रज्ञाजी MA(D) | बैंगानी बीदासर 2038 चै.शु. 15 | जयपुर 13 बार विदेश यात्रा श्री चिन्मयप्रज्ञाजी MA| सिंगला 2015 हांसी 2038 का.शु.2 | दिल्ली श्री मंजुप्रज्ञाजी MA | छाजेड़ सरदारशहर 2041 का.कृ.8 जोधपुर श्री मल्लिप्रज्ञाजी MA | रांका सूरतगढ़ 2041 का.कृ.8 जोधपुर 3 बार विदेश यात्रा श्री निर्मलप्रज्ञाजी M.A | मेहता 2020 बाव (गु.) 2041 का.कृ.8 | जोधपुर 1 बार विदेश यात्रा श्री प्रतिभाप्रज्ञाजी M.A| नाहटा टमकोर 2045 का.कृ.8 | श्री डूंगरगढ़ श्री जयन्तप्रज्ञांजी M.A) पारख 2020 गंगाशहर 2045 का.कृ. 8 | श्री डूंगरगढ | - श्री विनीतप्रज्ञाजी M.A बाफना 2022 सरदारशहर | 2045 का.कृ.8 | श्री डूंगरगढ़ | 7 बार विदेश यात्रा श्री क्रान्तप्रज्ञाजी MA सींधी 2019 श्री डूंगरगढ़ 2046 का.कृ.8 लाडनूं श्री प्रसन्नप्रज्ञाजी M.A नाहटा 2022 कालू (रा.) 2046 का.कृ.8 | लाडनूं श्री शीलप्रज्ञाजी M.A लाडनूं 2046 मा.शु.5 लाडनूं श्री ऋजुप्रज्ञाजी M.A लाडनूं 6 बार विदेश यात्रा श्री श्रद्धाप्रज्ञाजी B.A जाणूंदा 2047 का.कृ.8 पाली श्री चारित्रप्रज्ञाजी MAJ मद्रास 2047 का.कृ.8 | पाली 10 बार विदेशयात्रा | 28 | श्री आस्थाप्रज्ञाजी M.A| कोठारी 2021 रामसिंहजी 2047 का.कृ.8 पाली कागुडा 18. | 29 |श्री ज्ञानप्रज्ञाजी MA | नाहटा 2021 | बायतू 2047 का.कृ.8 | पाली 2019 | 18 2046 मा.शु.5 | लाडनूं 24. तेरापंथ परिचायिका पृ. संख्या 47. जै. श्वे. तेरापंथी महासभा, कोलकता (प.बंगाल) ई. 2003 882 Page #945 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तेरापंथ परम्परा की श्रमणियाँ क्रम दीक्षा समणी नाम क्रम 22222 19. 20. 21. 23. 25. 24. 37 38 40 26. 27. 28. 29. 30. 31. 32 33. 34. 35. 36. 37. 38. 39. 40. 30 33 41. 34 35 36 41 42 43 44 45 46 47 48 49 5 X 8 $8 51 52 53 54 55 56 श्री मंजुलप्रज्ञाजी MA श्री गौरवप्रज्ञाजी M.A श्री हंसप्रज्ञाजी M.A श्री कमलप्रज्ञाजी MA श्री संघप्रज्ञाजी M. A श्री अचलप्रज्ञाजी M.A श्री पुण्यप्रज्ञाजी MA श्री जिनप्रज्ञाजी MA जाति परमार चोपड़ा सुराणा अग्रवाल सुराणा श्री कंचनप्रज्ञाजी M.A जीवाला 2024 श्री रुचिप्रज्ञाजी संधवी 2025 श्री परिमलप्रज्ञाजी M.A छाजेड जीरावाला भंसाली दूगड़ श्री प्रशांतप्रज्ञाजी M.A गिड़िया श्री जगतप्रज्ञाजी MA महनोत श्री लावण्यप्रज्ञाजी M.A ढेलड़िया श्री शारदाप्रज्ञाजी M.A गोताणी श्री मुक्तिप्रज्ञाजी MA मादरेचा श्री करुणाप्रज्ञाजी M.A शाह श्री प्रेक्षाप्रज्ञाजी MA मेहता जन्म संवत जन्म स्थान दीक्षा-संवत् तिथि दीक्षा स्थान श्री विपुलप्रज्ञाजी MA ढेलड़िया श्री ऋतुप्रज्ञाजी MA बाफना श्री आरोग्यप्रज्ञाजी M.A सकलेचा 2027 2025 2019 2023 2024 2027 2028 2027 2019 बोरज गंगाशहर 2024 2023 जोधपुर टिटिलागढ़ चाडवास श्री संचितप्रज्ञाजी MA बैद (मूथा) 2021 बालीतरा श्री लोकप्रज्ञाजी M.A बोहरा 2024 समदड़ी फतेहगढ़ समदड़ी 2025 समदड़ी असाढा सरदारशहर 2027 2029 उदासर सूजानगढ़ मारवाड़ जंक्शन जसोल विराटनगर (नेपाल) चारभुजा 2027 भुज (कच्छ) 2029 राजसमन्द 2025 तलोद 2027 मद्रास 2027 पचपदरा 883 2047 का. कृ. 8 2048 का. शु. 10 2049 17 2049 का. कृ. 7 2049 का. कृ. 7 2049 का. कृ. 7 2049 का. कृ. 7 2049 का. कृ. 7 2049 का. कृ. 7 2049 मा.शु. 7 2050 चै. कृ. 9 2050 श्री.शु. 10 2050 का. कृ. 7 2050 का. कृ. 9 2050 का. कृ. 7 2050 माघ शु. 3 2051 का. कृ. 7 2052 आ.शु. 11 2052 आ.शु. 11 2052 आ.शु. 11 2052 मा.शु. 5 2052 मा.शु. 5 2052 मा.शु. 5 पाली लाडनूं लाडनूं लाडनूं लाडनूं लाडनूं लाडनूं लाडनूं बीदासर जोधपुर सरदार शहर राजलदेसर राजलदेसर राजलदेसर राजलदेसर सुजानगढ नई दिल्ली विदेश यात्रा जै. वि. भा. जै. वि. भा. जै. वि. भा. जै. वि. भा. जै. वि. भा. जै. वि. भा. विशेष विवरण ।। 3 बार विदेश यात्रा 2 बार विदेश यात्रा 1 3 बार विदेश यात्रा 2 बार विदेश यात्रा 1 बार विदेश यात्रा 1 5 बार ||||| - - Page #946 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन श्रमणियों का बृहद इतिहास | सीधी कालू क्रम | दीक्षा समणी-नाम जाति जन्म संवत जन्म-स्थान दीक्षा-संवत तिथि | दीक्षा स्थान विशेष क्रम विवरण | श्री संगीतप्रज्ञाजी M.A | अग्रवाल 2030 |टिटिलागढ़ 2053 आ.शु.6 | जै.वि:भा. (जैन) श्री पावनप्रज्ञाजी | डोसी 2023 जसोल 2053 भा.शु. 13 बीदासर श्री सुयशप्रज्ञाजी MA | सिंघवी 2026 नांदेशमा 2053 मा.शु. 13 बीदासर श्री सौम्यप्रज्ञाजी MA | बोथरा 2028 सरदाशहर 2053 फा.शु. 6 श्री डूंगरगढ़ श्री मैत्रीप्रज्ञाजी M.A | 2039 श्री डूंगरगढ़ 2053 फा.शु.6 | श्री डूंगरगढ़ श्री कुमुदप्रज्ञाजी M.A | मालू 2032 श्रीडूंगरगढ़ 2053 फा.शु.6 श्री डूंगरगढ़ श्री मानसप्रज्ञाजी B.A | छाजेड़ 2026 कवास 2054 का.शु. 5 गंगाशहर श्री विनम्रप्रज्ञाजी M.A | पूनमिया 2028 मुडीगेरे 2054 का.शु.5 गंगाशहर श्री विकासप्रज्ञाजी M.A | बरमेचा 2039 2054 का.शु. 5 गंगाशहर श्री मधुप्रज्ञाजी M.A | बोथरा । 2029 तारानगर 2056 का.शु. 10 नई दिल्ली श्री शशिप्रज्ञाजी M.A | समदडिया 2029 मद्रास 2056 का.शु. 10 दिल्ली श्री शुक्लप्रज्ञाजी M.A | बाफणा 2030 मद्रास 2056 का.शु. 101 दिल्ली 1 बार विदेश यात्रा श्री अमृतप्रज्ञाजी B.A | अरोड़ा 2030 धुले (महा.) 2057 का.शु. 5 | जै.वि.भा. श्री आत्मप्रज्ञाजी B.A गेलड़ा 2030 शाहदा 2057 का.शु.5 जै.वि.भा. | श्री मयंकप्रज्ञाजी M.A 2033 शाहदा 2057 का.शु.5 जै.वि.भा. श्री श्रेयसप्रज्ञाजी B.A | पुगलिया 2033 गंगाशहर 2057 मा.शु..10 गंगाशहर श्री मार्दवप्रज्ञाजी BA | पुगलिया 2034 गंगाशहर 2057 मा.शु. 10 गंगाशहर श्री सुमंगलप्रज्ञाजी B.AJ चोपड़ा 2036 गंगाशहर 2057 मा.शु. 10 गंगाशहर श्री मध्यस्थप्रज्ञाजी B.A| पारख 2036 गंगाशहर 2057 मा.शु. 10 गंगाशहर श्री विशदप्रज्ञानी BA | पुगलिया गंगाशहर 2057 मा.शु. 10 गंगाशहर श्री आदर्शप्रज्ञाजी MA | अग्रवाल 2034 सिन्धीकेला 2057 आ.(द्वि). बीदासर (उड़ीसा) शु.10 श्री विधिप्रज्ञाजी B.A. | अग्रवाल 2034 तुसरा 2058 आ.(द्वि). बीदासर (उड़ीसा) शु.10 80 श्री प्रांजलप्रज्ञाजी B.A | अग्रवाल 2034 केसिंगा 2058 आ.(द्वि). | बीदासर (राज.) शु.10 65. | 81 | श्री कल्याणप्रज्ञाजी M.A| भन्साली | 2036 लाडनूं 2058 आ.(द्वि). | बीदासर शु.10 गेलड़ा 2037 884 Page #947 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तेरापंथ परम्परा की श्रमणियाँ समणी-नाम | जाति क्रम | दीक्षा क्रम जन्म संवत जन्म-स्थान |दीक्षा-संवत् तिथि | दीक्षा स्थान विशेष विवरण गांधी श्री सम्प्रतिप्रज्ञाजी BAJ जीरावला | 2031 समदड़ी 2058 मा.कृ. 6 समदड़ी श्री रश्मिप्रज्ञाजी M.A | छाजेड़ 2032 समदड़ी 2058 मा.कृ.6 | समदड़ी श्री रोहिणीप्रज्ञाजी MA | जीरावला 2033 अहमदाबाद 2058 मा.कृ.6 | समदड़ी श्री आगमप्रज्ञाजी MA | छाजेड़ 2036 अहमदाबाद 2058 माकृ.6 समदड़ी श्री गोतमप्रज्ञाजी B.A | छाजेड़ 2036 समदड़ी 2058 माकृ. 6 समदड़ी श्री ऋषिप्रज्ञाजी 2034 जसोल 2058 फा.कृ.5 | जसोल महता (राज.) श्री स्वर्णप्रज्ञाजी BA | बाफना 2035 | असाड़ा 2058 फा.कृ.5 |जसोल (राज.) श्री रोहितप्रज्ञाजी M.A || | भन्साली 2035 असाड़ा 2058 फा.कृ.5 |जसोल श्री समताप्रज्ञाजी BAJ सालेचा 2037 जसोल 2058 फा.कृ.5 | जसोल श्री नंदीप्रज्ञाजी B.A | मांडोतर 2039 जसोल 2058 फा.कृ.5 | जसोल श्री तरुणप्रज्ञाजी BA | मांडोतर 2041 जसोल 2058 फा.कृ.5 | जसोल श्री मौलिकप्रज्ञाजी BAJ बागरेचा 2034 टापरा 2058 फा.शु.3 टापरा श्री महिमाप्रज्ञाजी BA छाजेड़ 2034 टापरा 2058 फा.शु.3 टापरा श्री विनयप्रज्ञाजी MA चिडालिया 2039 | वीरपुर 2059 का.शु.6 | अहमदाबाद (बिहार) श्री रविप्रज्ञाजी B.A | अग्रवाल 2036 | उचाना मंडी | 2059 मा.शु. 13 | अहमदाबाद (जैन) श्री उन्नतप्रज्ञाजी M.A भन्साली 2029 बेंगलौर 2059 मा.शु. 13 | | कांदीवली | श्री नूतनप्रज्ञाजी MA बोरा 2029 मंडिया 2059 मा.शु. 13 | मुंबई (कर्णाटक) श्री रमणीयप्रज्ञाजी MA | कोठारी 2031 | मंडिया 2059 मा.शु. 13 | मुंबई श्री चैत्यप्रज्ञाजी MA | कोठारी 2035 मंडिया 2059 मा.शु. 13 | मुंबई श्री रत्नप्रज्ञाजी M.A अग्रवाल 2036 | टिटिलागढ़ 2059 मा.शु. 13 मुंबई (जैन) (उड़ीसा) समणी चंदन प्रज्ञाजी | 22.8.1978| लूणकरणसर | 2061 फा.कृ.7 सिरिकारी | समणी मुकुल प्रज्ञाजी | सालेचा | 20.5.1980| बाडमेर 2061 फा.कृ.7 |सिरिकारी पा 885 Page #948 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन श्रमणियों का बृहद इतिहास क्रम 106 समणीमा दीक्षा | समणी-नाम | जाति | जन्म संवत जन्म-स्थान | दीक्षा-संवत् तिथि | दीक्षा स्थान विशेष विवरण | समणी ममन प्रज्ञाजी | बागरेचा 28.10.1980 | आसोतरा । 2061 फा.कृ.7 सिरिकारी समणी समीक्षा प्रज्ञाजी | बोथरा 2.9.1981 | लूणकरणसर | 2061 फा.कृ.7 सिरिकारी |समणी सुमन प्रज्ञा जी | छाजेड़ 3.7.1982 | पचपदरा 2061 फा.कृ.7 सिरिकारी समणी श्वेतप्रज्ञाजी चोपड़ा | 21.5.1986 | पचपदरा 2061 फा.कृ.7 सिरिकारी समणी प्रणव प्रज्ञाजी | भंडारी | 20.6.1986 | पचपदरा 2061 फा.कृ.7 सिरिकारी समणी वर्धमान प्रज्ञाजी भटेवरा 6.12.1986 |ब्यावर 7.12.2004 ब्यावर समणी गुरूप्रज्ञाजी | अग्रवाल 2035 हांसी 2061 मा.शु. 2 ब्यावर समणी जिज्ञासाप्रज्ञाजी मेहता 2036 | भुज कच्छ 2061 मा.शु. 2 ब्यावर 112 समणी मैत्रीप्रज्ञाजी डागा श्रीडूंगरगढ़ 2061 मा.शु. 2 ब्यावर समणी सुमेधा प्रज्ञाजी | दूगड़ सरदार शहर 2061 मा.शु. 2 ब्यावर समणी मयंकप्रज्ञा जी | दूगड़ सारदार शहर 2061 मा.शु.2 ब्यावर समणी विशालप्रज्ञाजी| चिंडालिया| 2034 | सरदारशहर 2063 वै.शु. 6 लुधियाना 116 समणी पूर्णप्रज्ञाजी बैद 2038 बंगा 2063 वै.शु. 6 लुधियाना उपसंहार तेरापंथ परम्परा की श्रमणियाँ अपने अस्तित्व के उषाकाल में तपस्तेज की मूर्तिमंत देवियाँ दिखाई देती हैं, तप ही इनके जीवन का प्रमुख अंग है। संघ एवं संघनायक के प्रति सर्वात्मना समर्पित रहकर इन्होंने धर्मशासन के प्रति अटूट आस्था की एक सुदृढ़ नींव भी निर्मित की है, जिस पर आज तेरापंथ संघ भीषणतम झंझावातों के मध्य भी अडोल अकम्प खड़ा है। आज भी तेरापंथ श्रमणियाँ तप, संलेखना संथारा आदि के कीर्तिमान स्थापित तो दूसरी ओर इनकी प्रखर साहित्य-साधना उच्चकोटि की विशिष्टता एवं विविधता लिये हुए हैं। अनेकानेक साध्वियाँ अपनी विद्वत्ता से वाग्देवी का वरदान बनी हैं, कई शतावधानी हैं, कई सफल व्याख्यात्री हैं। वर्तमान युग में कई श्रमणियाँ शल्य-चिकित्सा में निष्णात हैं। कला के क्षेत्र में भी इनका अवदान अपूर्व और अनूठा है। इन श्रमणियों ने देश के एक छोर से दूसरे छोर तक पहुँचकर जनता को धर्म का संदेश दिया है। यहाँ तक कि नेपाल तक विहार और वर्षावास करने वाली ये जैन समाज की एक मात्र श्रमणियाँ हैं। तेरापंथ समणी-संघ विश्व के कोने-कोने में धर्म का प्रचार कर रहा है, विदेशों में भी इनकी प्रेरणा से ध्यान योग, जीवन-विज्ञान आदि के प्रशिक्षण और प्रयोग शिविर लगते हैं। इस प्रकार आधुनिकतम विज्ञान की अभिनव उपलब्धियों से परिपुष्ट, आत्मविकास की सबलतम मार्गदर्शिका यह अत्यंत प्रगतिशील श्रमणी-समुदाय है। तेरापंथ की अवशिष्ट श्रमणियों का परिचय तालिका में दिया जा रहा है। 886 Page #949 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 887 क्रम सं दीक्षा क्रम 1. 2. 3. 4. vi 67 od od 5. 6. 7. 8. 9. 10. 11. 12. 13. 14. 15. 16. प्रथम आचार्य श्री भिक्षुगणी के शासनकाल की अवशिष्ट श्रमणियाँ (वि. सं. 1821-59)26 साध्वी - नाम जन्मसंवत् स्थान पिता- नाम गोत्र दीक्षा संवत् स्थान विशेष- विवरण श्री मट्टुजी 1821 - O श्री अजबूजी 1821 - श्री नेतुजी 1821-33 के मध्य 1821-33 के मध्य 17. 18. 2 3 6 a 9 17 10 श्री फत्तूजी 11 श्री अखूजी 12 श्री अजबूजी 13 श्री चन्दूजी 14 श्री चैनांजी 16 श्री धन्नूजी केलीजी 18 ∞ 122 00000 19 D 23 O 24 25 O श्री जीऊजी DO श्री रत्तूजी श्री नंदूजी श्री सदांजी श्री फूलांजी श्री अमरांजी श्री रत्तूजी श्री तेजूजी I 9 11! | । । *रीयां * नाथद्वारा *कंटालिया * ढोल - कम्बोल 1833 मृ.कृ. 2 पाली 1833 मृ.कृ.2 पाली 1833 मृ.कृ.2 पाली विजयचंद लूनावत 1833 मृ. कृ. 2 पाली 1833-34 के मध्य 1833-34 के मध्य 1833-34 के मध्य 1833-34 के मध्य 1833-34 के मध्य 1860 के पूर्व 1838-44 के मध्य * तलेसरा * पोरवाल 1838-44 के मध्य 1838-44 के मध्य 1838-44 के मध्य 26. मुनि नवरत्नमलजी, शासन-समुद्र भाग-5, पृ. 5-188, जैन वि. वि. भारती लाडनूं ईसवी सन् 2003 (द्वि.सं.) स्वर्गवास 1834-52 1834-52 1837-52के मध्य पीपाड़ 1855-60 के मध्य लाटोती 1860-68 के मध्य 1860-68 संवत् 1834-37 के मध्य गण से पृथक् संवत् 1834 के लगभग गण के पृथक् पुत्र, पौत्रादिक परिवार छोड़कर दीक्षित हुई। 1837 में गण से पृथक् 1837 में गण से पृथक् 1837 में गण से पृथक् 1854 में गण से पृथक् 1837 में गण से पृथक् संवत् 1858 या 59 में गण से पृथक् संवत् 1858 या 59 में गण से पृथक् संवत् 1858 या 59 में गण से पृथक् संवत् 1858 या 59 में गण से पृथक् अग्रणी, सरल, अंत में पंडित मरण पुत्र, पौत्रादि को छोड़कर दीक्षित हुई । अंत में अनशन किया 1852-60 के मध्य गण से पृथक् 42 दिन का अनशन कर 'केलवा' में पंडितमरण के मध्य तेरापंथ परम्परा की श्रमणियाँ Page #950 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्रम सं दीक्षा क्रम साध्वी-नाम 26 - श्री वन्नाजी 27 श्री बगतूजी 29 श्री नगांजी जन्मसंवत् स्थान पिता-नाम गोत्र | दीक्षा संवत् स्थान| स्वर्गवास विशेष-विवरण | 1838-44 के मध्य | 1858-60 के मध्य गण से पृथक् - *बगड़ी 1844 1879 के बाद सरल शांत प्रकृति की. अग्रगामिनी होकर विचरी ऋष्ठिाराय युग में * बगड़ी मुनि वैणीरामजी | 1844 - 1866 देवगढ़ स्वभाव सेसरल,कोमल, सतयुगी' उपाधि की बहन से अलंकृत,संवत् 1866 में संलेखना की, उसमें 1से 8 तक (5,7 छोड़कर) उपवास |किये, 10 दिन के संथारे सह दिवंगत। सिरियारी 1844-48 के मध्य | 1860-68 मध्य | अंत में अनशन *कांकरोली 1844-48 के मध्य 1852 के बाद गण से पृथक् * बूंदी (हाड़ोती) | -*सरावगी 1844-48 के मध्य 1860-68 । 7 श्री पन्नाजी ।। श्री लालांजी श्री खेमांजी खेरवा 888 000 - श्री जसूजी । श्री चोखांजी - श्री सरुपांजी कांकरोली +कांकरोली * माधोपुर |-*अग्रवाल - श्री वन्नांजी | श्री वीरांजी श्री ऊदांजी * बड़ी पादू - * दड़ीबा(पचपदरा) *कुम्हार | *सुनार 1844-48 के मध्य | संवत् 1852 के पूर्व गण से पृथक् 1844-48 के मध्य संवत् 1852 के पूर्व गण से पृथक् 1848-52 के मध्य | 1860-68 | कंटालिया में अनशन कर पंडितमरण के मध्य 1852 बड़ी पादू | 1867 कुशलपुरा| विनयवान, निर्मल चारित्री,अंत में अनज़न 1852 - | - 1854 में गण से पृथक् |1852-56 के मध्य | 1860-68 के नम्र उद्योगशील, अंत में अनज़न मध्य आमेट में 1856 1896-97 बगड़ी | अग्रणी होकर विचरी, अंत में अनज़न 1857 1872 खेजड़ला || | पंडितमरण 1859 पाली | 1870 माधोपुर |संलेखना तप में 112 दिन तप व 13 दिन आहार किया, पंडितमरण 1859 पाली 1897 जसोल प्रकृति से सौम्य.सरल और विनयवती *पोरवाल श्री झूमांजी नाथद्वारा 0 श्री नोरांजी सिरियारी । श्री कुशालांजी * पाली जैन श्रमणियों का बृहद इतिहास श्री नाथांजी * पाली Page #951 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 889 क्रम सं दीक्षा क्रम 35. 36. 37. 38. 39. 52 53 34 55 56 साध्वी नाम श्री बीजाजी O [D] श्री गोमाजी D श्री जसोदाजी [D] श्री डाहीजी D श्री नोजांजी जन्मसंवत् स्थान पिता- नाम गोत्र दीक्षा संवत् स्थान स्वर्गवास ★ पाली 1859 पाली 1886 लाटोती ★ रोयट ★ खेरवा मारवाड़ मारवाड़ *गोलेछा 1859 1859 1859 शेषकाल में 1859 1890 1868-70 के मध्य 1868-70 के मध्य 1868-70 के मध्य विशेष- विवरण संलेखना संथारे के 135 दिन में 18 दिन का तप व 17 दिन आहार किया। प्रकृति से भद्र, नीति से निर्मल, विनयी थीं। अनशन पूर्वक दिवंगत पीसांगण में अनशन किया। -संकेत चिन्ह विधवा सुहागिन 4 बालब्रह्मचारिणी ★ श्वसुरपक्ष तेरापंथ परम्परा की श्रमणियाँ Page #952 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 890 क्रम सं दीक्षा क्रम 1. 2. 3. 4. 245 6 5. 6. 7. & 12 12. 13. 7 2 = 2 3 5 2 10 11 9. 13 10. 11. 21 2 2 2 2 2 14. 15. 16. 17. 18. 26 22 श्री कुशालांजी 15 17 श्री फत्तूजी श्री पन्नांजी 19 ० श्री वाल्हाजी श्री उमेदांजी 23 द्वितीय आचार्य श्री भारीमलजी के शासनकाल की अवशेष श्रमणियाँ (सं. 1860-78)27 पिता - नाम गोत्र दीक्षा संवत् स्थान स्वर्गवास विशेष- विवरण 1862 - 1882 1862-66 के मध्य 1862-66 के मध्य 1862-66 के मध्य 24 25 साध्वी- नाम श्री झुमाजी श्री राहीजी श्री कुशलांजी श्री कुन्नणांजी श्री दोलांजी श्री जसुजी श्री कुशलांजी श्री गीगांजी श्री रतनांजी श्री चन्दनाजी [ श्री केशरजी ० श्री गेनांजी श्री गंगाजी जन्मसंवत् स्थान *पाली *जीलवाड़ा *केलवा नाथद्वारा *विसलपुर * बोरावड़ *बाजोली *देवगढ़ * बोरावड़ * खोड़ * आउवा *पाली * डीडवाणा *माधोपुर * माधोपुर * गोपालपुरा ★ चोरड़िया ।। हेमराजजी सोलंकी 1862-66 के मध्य 1868 - 1868 - 1868 - 1868 - 1968 - 1868 1869 - 1878 वैराग्यवती, अंत में पंडितमरण 1870 ( अनुमानतः) 1878 बीदासर 17 वर्ष लगभग का संयम पर्याय 1 I ओसवाल 1870 1870 - 1870 1870 I अग्रणी गण से पृथक् 1868-70 मध्य | अनशनपूर्वक पंडितमरण 1868-70 मध्य पति ( मुनि जोगीदासजी) दीक्षित अनशन पूर्वक पंडितमरण 27. मुनि नवरलमलजी शासन-समुद्र भाग-5, पृ. 192-360. जैन विश्व भारती लाडनूं ईसवी सन् 2003 (द्वि.सं.) 1978 1878 चेलावास 1893 नाथद्वारा हुए 1867 1880 लाडनूं तपस्विनी, दो दिन के संथारे से आराधक पद अंत में अनशन किया अंत में अनशन किया अंत में अनशन साहसी, अग्रणी, प्रभाविका 1978 1878 के लगभग अनशनपूर्वक स्वर्गस्थ 1887 1887 1885 1894 1870 थे, 17 वर्ष लगभग का संयम पर्याय अनशन पूर्वक स्वर्ग गमन अनशन पूर्वक स्वर्ग गमन तपस्विनी थीं - 1879 सिरियारी पंडित मरण जैन श्रमणियों का बृहद इतिहास Page #953 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 891 क्रम सं दीक्षा क्रम 19. 20. 222223 21. 27 28 23. 31 24. 32 29 30 25. 33 26. 35 29. 27. 37 28. 39 30. 31. 32. 40 41 42 43 साध्वी-नाम श्री नोजांजी n 00 DO D DO 00 श्री वन्नांजी श्री अमियांजी • श्री पेमांजी श्री जतनांजी श्री मयांजी 0000 श्री मधूजी श्री बीजांजी श्री नवलांजी श्री नवलांजी D श्री दोलांजी श्री उमेदांजी श्री नोजांजी श्री मगदूजी जन्मसंवत् स्थान बीदासर * बाजोली गगापुर * सणदरी *सणदरी *पश्चिम थली *लावा कांकरोली केलवा *खोड़ * बोरावड़ * बोरावड़ *नानसमा पिता - नाम गोत्र दीक्षा संवत् स्थान 1870 1870 या 71 सेखाणी हीरजी चावत | ★ बंवलिया *मुंहता वैद *सिंघी 1871 1872 आ 1873-74 पीथलजी चंडालिया 1874-75 - 1872 1872 1872 1873 लावा 1875 1876 1877 1877 स्वर्गवास 1879 सिरियारी 1887-1907 के मध्य 1878 के बाद 1903 लाडनूं 1916 के पश्चात् | 1887 विशेष- विवरण 1911 1899 1910 पुर 1917 पंडित मरण कांकरोली में स्वर्गगमन 1908 1916 के पश्चात तप प्रभाविका थीं। पापभीरु एवं स्फूर्तप्रज्ञ थीं। (जययुग में) सैद्धान्तिक ज्ञान, व्याख्यान में दक्ष, कई क्षेत्रों में विचरण 1872-78 के मध्य गण से पृथक् संवत् 1878 के पूर्व गण से पृथक, पति श्री रत्नजी के साथ दीक्षित हुई। पिता श्री पीथलजी ने पहिले ही दीक्षा ग्रहण कर ली थी। समाधिमरण समाधिमरण समाधि मरण स्वभाव से सरल, कोमल, परीषहजयी सरल, धैर्यवती, अंत में 7 दिन का संवारा तेरापंथ परम्परा की श्रमणियाँ Page #954 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय आचार्य श्री रायचन्दजी के शासनकाल की अवशेष श्रमणियाँ (वि. सं. 1878-1908 )28 विशेष-विवरण क्रम सं दीक्षा क्रम| साध्वी-नाम 1. | 1 0 श्री लच्छूजी जन्मसंवत् स्थान | पिता-नाम गोत्र | दीक्षा संवत् स्थान | स्वर्गवास | बड़ी रीयां चन्द्रभाणजी 1878 फा.कृ.4 नाथद्वारा रणधीरोत ऋषभदास जी 2. | 2 श्री मगदूजी । आमेट 1879 चे. कृ. 1 लावा हींगड़ 3 - श्री झूमांजी मालवा 1881 शिवगढ (मालवा) थांदला श्री चंदूजी *थांदला - 'दूधोडिया 1881 श्री चंपाजी 0 00 0 | *कंटालिया 1881 - 7 श्री मयांजी खेरवा कोठारी 1879 ज्ये.शु. 2 खेरवा । उपवास से 10 तक क्रमबद्ध तप, 13, 15,17 दिन का तप, 1 पछेचड़ी के अतिरिक्त प्रत्याख्यान। सं. 1916 बीदासर में स्वर्गस्थ उपवास से 15 तक क्रमबद्ध 22, 30, 34, 44,54 दिन का तप, दो पछेवडी उपरांत त्याग,सं 1915 सजानगढ मेंस्वर्गस्थ | संवत् 1916 के पश्चात् रतनगढ़ में स्वर्ग गमन हींगोला में ऋषिराय युग में दिवंगत -9, 11, 17,30,31 उपवासों का | उल्लेख, संवत् 1917 में दिवंगत | उपवास से 13,30, 32, 33 का तप, पारणे अभिग्रह सहित, सं. 1918 | सुजानगढ़ में स्वर्गस्थ संवत् 1896 या 97 में दिवंगत अंतिम 5 मास उपवास बेले आदि ऊपर 20 दिन तक तप, एक पछेवडी उपरांत त्या संवत् 1898 जयपुर में स्वर्गस्थ संवत् 1943-64 के मध्य दिवंगत मासखमण,, 6, 9 का तप, संवत् 1913 आमेट में पंडित मरण 15,32,30, 15, 17, 13 दिन का तप, संवत् 1932 में दिवंगत 7 1881 या 82 | श्री सरूपांजी | *चतराजी का गुडा | - ० श्री दोलांजी *पाली पोरवाल 1882 1882 मा.शु. 8 श्री अमृतांजी ।। श्री रोडांजी | गोगुंदा | मचीन्द पोरवाल सिंघी 1884 - श्री जेताजी | *रावलियां जैन श्रमणियों का बृहद इतिहास 1882 या 83 28. मुनि नवरत्नमलजी-शासन-समुद्र भाग-7. आदर्श साहित्य संघ, चुरु (राज.) ईसवी सन् 1984 (प्र.सं.) Page #955 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 893 क्रम सं दीक्षा क्रम 12. 13. 14. 15. 16. 17. 18. 2 2 2 2 2 2 19. 20. 21. 22. 23. 24. 25. 26. 27. 28. 29. 12 13 456 14 15 16 17 18 2 2 2 2 2 2 19 20 21 23 25 26 27 28 29 30 31 साध्वी - नाम D श्री चंदूजी O O श्री कंकूजी श्री सवांजी श्री चन्नणांजी श्री चन्नणांजी श्री नंदूजी 1 श्री रायकंवरजी ॥ श्री रुकमांजी श्री गेगांजी श्री सिणगारांजी श्री जीवजी श्री मोतांजी श्री पन्नांजी श्री पद्मांजी श्री छोटांजी O श्री सेराजी श्री ऋद्धजी श्री किस्तूरांजी जन्मसंवत् स्थान *पदराड़ा आहेड़ * खाचरोद मोही नाथद्वारा * गंगापुर 1870 मांढा * बीदासर *बाजोली डीडवाणा लाडनूं बीदासर बीदासर * चूरू * चूरू * सुजानगढ़ सुजानगढ़ भगू पिता - नाम गोत्र नंदावत चपलोत संकलेचा भोपाशाह ओसवाल सुराणा खड़ बैंगनी चोरड़िया ओसवाल ओसवाल ओसवाल कठोतिया सुराणा दीक्षा संवत् स्थान 1882 या 83 1883 चै.. 10 1884 1884 फा. कृ. 5 1884 फा. कृ. 5 1884-86 के मध्य 1886 1886 1887 मृ.कृ. 1 1887 मृ.शु. 3 1887 वै.शु.11 (द्वि). 1887 स्वर्गवास उदयपुर पुर कोठारिया 1886 लाडनूं बीदासर बीदासर 1887 1887 1888 1888 1888 मृ.कृ. 5 लाडनूं विशेष- विवरण ऋषिराय युग में दिवंगत अग्रणी, सरल, नम्र, व्यवहार कुज़ल, संवत् 1934 चांदारुण में स्वर्गवास 1887 डीडवाना में स्वर्गस्थ सवत् 1909 में गण से पृथक् तपस्विनी, विनयवान, संवत् 1922-25 के मध्य दिवंगत ऋषिराय - संयम में जागरूक, व्याख्यानी, संवत् 1902 चरपटिया में दिवंगत संवत् 1900 बाजोली में स्वर्गस्थ संवत् 1908 में दिवंगत संवत् 1930 में पंडित मरण धर्मप्रभाविका, संवत् 1930 में दिवंगत संवत् 1920 'सुजानगढ़' में पंडित मरण अग्रणी, स्वहस्त से 5 दीक्षाएं दी, 1 से 13 तक की लड़ीबद्ध तपस्या, सवत् 1959 में दिवंगत संवत् 1923 'राजनगर' में स्वर्गस्थ संवत् 1903 में दिवंगत संवत् 1891 ‘रीछेड़' में स्वर्गस्थ सरल, सेवार्थिनी, सं 1909 पाली में दिवंगत संवत् 1927 में पंडित मरण युग में दिवंगत तेरापंथ परम्परा की श्रमणियाँ Page #956 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दीक्षा संवत् स्थान | स्वर्गवास विशेष-विवरण क्रम संदीक्षा क्रम, साध्वी-नाम जन्मसंवत् स्थान | पिता-नाम गोत्र 30. | 320 श्री तुलछांजी | *लाडनूं 1888 मृ.कृ. 5 लाडनू श्री कुन्नणांजी टक | वैद मुहता | 1888 मृ.कृ. 5 लाडनूं | घीया - 000 0 पन्नांजी श्री सुखांजी श्री मोतांजी बेसलपुर *कांकरोली गोगुंदा | 1888 मृ.कृ. 14 1889 - 1890 मृ.कृ.10 खोखावत मूलांजी *पाली खोखावत | 1890 मृ.कृ.10 894 । श्री छगनांजी | वनेड़ा बोहरा | 1891 - तपस्विनी, संलेखना के 162 दिन में| 128 दिन का तप, 18 दिन पारणा, 16 दिन चौविहारी अनशन के साथ | संवत् 1892 बीदासर में स्वर्गस्थ । अग्रणी, स्वहस्त से छह दीक्षाएं दी, संवत् 1921 में स्वगर्थ संवत् 1928-34 के मध्य दिवंगत संवत् 1906 में दिवंगत अग्रणी, स्वहस्त से तीन दीक्षाएं दी, संवत् 1935 में दिवंगत संवत् 1906 में स्वर्गस्थ, श्री दोलांजी माता थीं। | संवत् 1930 में स्वर्गस्थ, श्री दोलांजी माता थीं। अग्रणी, संवत् 1936 में दिवंगत 9 वर्ष की वय में दीक्षा, नौ वर्ष का संयम पर्याय पालकर संवत् 1899 में दिवंगत ऋषिराय युग में दिवंगत संवत् 1907 में पंडित मरण तप-6, 17, 30, 30, 34, 40 दिन का, स्वर्गवास संवत् 1920 तप-7, 16, 21, 30, 30, 35 दिन| का, स्वर्गवास संवत् 1942 उपवास बेले तेले बहत, चोले से 211 की तपस्या के दिन कुल 271, संवत् 1936 में दिवंगत वरजूजी 0 रतनगढ़ 1982 नाथद्वारा भटेरा 1891 नंदलालजी तलेसरा 1891 चंपाजी 7 श्री चंपाजी *बालोतरा श्री जेमांजी श्री लिछमांजी बीदासर *पचपदरा 1892 | 1892 1892 मृ.कृ.9 - - बैंगानी 000 0 0 - श्री महेशांजी | सेवाणगढ़ आछा | 1892 पो.शु.6 काणाणा जैन श्रमणियों का बृहद इतिहास किशनगढ़ मुणोत 1892 पो.कृ.6 किशनगढ़ श्री महताब कंवरजी Page #957 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विशेष-विवरण 44 क्रम सं दीक्षा क्रम | साध्वी-नाम जन्मसंवत् स्थान | पिता-नाम गोत्र | दीक्षा संवत् स्थान श्री छोटां जी | *बाजोली 1892 | 47 श्री अमृतांजी | *मल्लिनाथजी 1892 - का स्थान 46. श्री पन्नांजी | कोशीवाड़ा राठौर | 1892 ज्ये.शु.5 स्वर्गवास संवत् 1936 पादू में। स्वर्गवास उसी वर्ष संवत् 1892 आमेट में तेरापंथ परम्परा की श्रमणियाँ सिसोदा 47. 49 बोथरा 1892 ज्ये.शु.5 पादू श्री सिरदारांजी | बाजोली श्री सदांजी | *बोरावड़ 48. 50 1893 - बोरावड़ In श्री चंपाजी चाणोद *चवाण 1893 मा. कृ. 2 | पाली 895 52 10 श्री हस्तूजी | रत्नगढ़ lo श्री लिछमांजी | सवाई आंचलिया चंडालिया | 1893 चै. शु. 8 1894 मा. कृ. 11 | चूरू रतनगढ़ | तप-13, 15, 15, 30 उपवास, संवत् 1920 में स्वर्गगमन ऋषिराय युग में दिवंगत तपस्विनी, अंतिम संलेखना में कुल 140 दिन का तप व 25 दिन पारणे के, अंत में 11 उपवास में संवत् 1895 बोरावड़ में पंडित मरण तप-4,4,8, 13, 15, 16,6,30 दिन, संवत् 1918, बीदासर में समाधिमरण अग्रणी, संवत् 1936 में स्वर्गस्थ संयम क्रिया में सावधान, नम्र प्रकृति की, मधुरकंठी थीं, संवत् 1909 रतनगढ़ में स्वर्गस्थ संवत् 1926 में स्वर्गस्थ अग्रणी, धर्मप्रभाविका, संवत् 1943 के बाद मघवायुग में दिवंगत तपस्विनी, संवत् 1912 गंगापुर में स्वर्गस्थ संवत् 1899 सिरियारी में स्वर्गवास संवत् 1904 में दिवंगत 5 मासखमण, उपवास बेले, तेले अनगिनत, संवत् 1902 नाथद्वारा में पंडितमरण कोठारी 1895 - 5 श्री रंगूजी | गोगुंदा श्री ऋभ्रूजी | लाछड़सर 1895 म. शु. 11 रतनगढ़ 000000 | मेघराजजी पोरवाल | 1895 ज्ये. कृ. 8 1895 । श्री जेतांजी श्री जेठांजी - श्री गंगा जी श्री गंगाजी | गोगुंदा | *दूधोड़ *कूटवा *चित्तौड़गढ़ 1895 । माहेश्वरी 1895 Page #958 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्रम सं| दीक्षा क्रम साध्वी-नाम । जन्मसंवत् स्थान | पिता-नाम गोत्र | दीक्षा संवत् स्थान स्वर्गवास विशेष-विवरण ए 58. | 60 | श्री गोमांजी कोठारी | 1895 ज्ये. कृ. 9 देवगढ़ श्री चंपाजी | सिरियारी श्री बीजांजी पाली श्री उमेदांजी | कालू आछा चोपड़ा कालछीवाल 1895 ज्ये. कृ. 5 1896 का. कृ. 2 1896 मा. शु. 9 सिरियारी पाली पीसांगण चन्दनाजी | 1889 बाजोली | बोथरा 1896 मा. कृ. 12 बडू 000000000000 गधैया रणधीरोत मेहता *बाफना 1896 फा. शु. 11 | 1896 चै. कृ. 4 1896 वै. कृ.5 सेखावास जोजावर आंजणे श्री चन्नणांजी | बगड़ी श्री चंपाजी | जोजावर श्री नंदूजी आंजणै श्री केशरजी | *बाजोली श्री इंदूजी | *बाजोली । श्री अणदांजी श्री गुलाबांजी | बीदासर 1896 896 बाफना 1896 प्रभावशलीनि, स्वहस्त से 5 दीक्षाएं दी, संवत् 1941 में स्वर्गस्थ संवत् 1926 में दिवंगत संवत् 1928 सुजानगढ़ में दिवंगत तप के कुल दिन 3673, संवत् 1946 में स्वर्गस्थ तपस्या 21, 15,30, 15, 10 उपवास, संवत् 1942 में दिवंगत संवत् 1937 में दिवंगत ऋषिराय युग में दिवंगत संवत् 1937 में स्वर्गस्थ ऋषिराय युग में दिवंगत ऋषिराय युग में दिवंगत ऋषिराय युग में गण से पृथक् तप-9, 11, 12, 12, 13, संवत् 1916 के बाद जययुग में दिवंगत तपस्विनी थीं, 14, 11, 15, 30,37, 40 दिन का तप, संवत् 1917 के बाद जययुग में दिवंगत ऋषिराय युग में गण से पृथक् तप-6, 9, 11, 8, 13 दिन, स्वर्गवास संवत् 1916 तप-17, 15, 14, 10, दो मासखमण, स्वर्गवास-संवत् 1918 खाटू में तप-17, 15, 17, 20, 13, स्वर्गवास संवत् 1926 पचपदरा में | 1896 - 1897 म. कृ.5 सुराणा | बीदासर ।। श्री फत्तूजी | बीदासर रंवाल 1897 म. कृ.5 | बीदासर -श्री हरखुजी पडिहारा वेद मुंहता दूगड़ श्री ऊमांजी 1897 - 1897 मा. कृ. 2 रतनगढ़ रतनगढ़ 00 0 श्री ऊमांजी पाली सालेचा बोहरा | 1897 मा. शु.5 | पाली जैन श्रमणियों का बृहद इतिहास - श्री सेरांजी | लाडनू गोलछा 1897 चै. शु. 4 | बीदासर Page #959 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तेरापंथ परम्परा की श्रमणियाँ ا 0000000000000 897 क्रम सं| दीक्षा क्रम| साध्वी-नाम जन्मसंवत् स्थान | पिता-नाम गोत्र | दीक्षा संवत् स्थान | स्वर्गवास विशेष-विवरण 0 श्री रुपकंवरजी नागौर सुराणा 1897 वै. शु. 12 नागौर तप-9, 14, 29, 6, स्वर्गवास संवत 1918 खेरवा में श्री सिणगारांजी मेवाड्या रांका 1897 ज्ये. कृ.5 | मेवाड्या तप-10, 11, स्वर्गवास संवत् 1928 बोरावड़ में श्री भूरांजी डीडवाणा सुराणा 1897 आषा. शु. 3 डीडवाणा स्वर्गवास संवत् 1937 - श्री मगनांजी | लाडनूं खटेड़ 1898 मृ. कृ. 1 | लाडनूं तप-15, 30 19, 19 दिन का, स्वर्गवास संवत् 1917 गंगापुर श्री नवलांजी लूंकड़ 1898 मृ. शु. 4 | जयपुर अग्रणी विचरी, स्वहस्त से 7 दीक्षाएं की,संवत् 1949 सरदारशहर में दिवंगत श्री ओटांजी कंटालिया सकलेचा 1898 मृ. शु. 4 | कटालिया तप-17, 19, 18, मासखमण, स्वर्गवास 1916 के बाद जययुग में । श्री हरखूजी 1898 आचार्य रायचंद यग में दिवंगत श्री लिछमांजी | बगड़ी खाठेड़ 1898 चै.शु. 7(द्वि | बगड़ी | 17 दिन का तप, संवत् 1920 बीदासर में दिवंगत श्री नन्दूजी | घड़सीसर बरडिया 1898 वै. शु. 4 सरदारशहर | दो बार 60-60 दिन का तप किया, संवत् 1918 बोरावड़ में दिवंगत नाथांजी | झूपेरा पोरवाल 1898 वै. शु. 15 तप-15, 15, 13 दिन का, स्वर्गवास-संवत् 1916 के बाद जययुग में श्री चंदनाजी कंटालिया पोरवाल 1898 वै. शु. 15 श्री नाथां जी की पुत्री थीं, संवत् 1942| में दिवंगत श्री रत्नांजी | नाथूसर सेठिया 1899 म. कृ. 6 सरदार शहर | तप-10 दिन का व 3 मासखमण, संवत् 1920 में स्वर्गवास श्री सिणगारांजी| सुजानगढ़ भंसाली 1899 मृ. शु. 3 | लाडनूं आछ के आगार से मासखमण व 40 दिन का तप, गर्म पानी के आगार से मासखमण, संवत् 1903 घोइंदा में| पंडितमरण Page #960 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विशेष-विवरण क्रम सं| दीक्षा क्रम साध्वी-नाम जन्मसंवत् स्थान | पिता-नाम गोत्र | दीक्षा संवत् स्थान | स्वर्गवास 88. | 91 - श्री हस्तूजी | बोरावड़ कोटेचा 1899 पौ. कृ. 10 सबलपुर अग्रवाल श्री चन्नणांजी | रतनगढ़ । श्री मधूजी लाडनूं 1899 पौ. शु. 3 1899 पौ. शु. 15 | लाडनूं डागा - श्री हरखूजी | सुजानगढ़ हरिसिंह जी बोथर 1899 आसो. शु. 71 बीदासर श्री मानकंवरजी बोरावड़ बोथरा 1899 - श्री नाथांजी सुजानगढ़ कोचर 1899 चैत्र कृ. सुजानगढ़ तप-4,4,8,8, 15, 16, 12 दिन का तप, संवत् 1931 वै. कृ. 11 को लाडनूं में स्वर्गस्थ ऋषिराय युग में दिवंगत तप-4 नौ, 5 पांच, 8 तीन बार तथा 9, 10 दिन का तप, वर्षीतप, संवत् | 1958 आमेट में स्वर्गस्थ माता सिणगारां जी भी दीक्षित, 1 से 81 तक तप, संवत् 1920 चूरू में स्वर्गस्थ 21 दिन के संथारे के साथ जयपुर में संवत् 1904 को स्वर्गस्थ तप-8, 10, 11, 14, 36 दिन का, संवत् 1932 में स्वर्गस्थ तप-18, 30, 60, 14, 16, 30 तथा 130 दिन का तप, संवत् 1928 में स्वर्गस्थ तप-8, 10 दिन का, संवत् 1920 में दिवंगत हरियाणा में जाने वाली प्रथम साध्वी, स्वहस्त से 8 दीक्षाएं दी,संवत् 1948 में स्वर्गस्थ | स्वहस्त से 5 दीक्षाएं दी, स्वर्गवास संवत् 1944 सजोड़े दीक्षा उपवास से 13 दिन तक | लड़ीबद्ध तप, प्रकृति से भद्र, विनीत, सेवार्थिनी, संवत् 1911 बामनिया में स्वर्गस्थ दो वर्ष संयम पालकर संवत् 1902 मांडा में दिवंगत हुईं। lo श्री गंगाजी सुरायता पोरवाल 1899 चैत्र शु. 7 | औरं किशनगढ़ किशनगढ़ श्री नवलांजी श्री सेरांजी मुणोत *संचेती 1899 ज्ये. कृ. 1899 - | *मोमासर चाड़वास बोरड़ 1899 आषा. पूर्णिमा, किशनगढ़ In श्री सुजान कंवरजी ० श्री जेताजी ओलखाण | पोरवाल 1900 आसो. शु. 9 जयपुर जैन श्रमणियों का बृहद इतिहास 99. | 102 श्री बगतूजी | *रीणी ओसवाल 1900 म. कृ. 6 Page #961 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विशेष-विवरण क्रम सं| दीक्षा क्रम साध्वी-नाम |जन्मसंवत स्थान | पिता-नाम गोत्र | दीक्षा संवत् स्थान | स्वर्गवास 103 In श्री तीजांजी | बीदासर 1899 फा. शु. 1 बीदासर 100. | मुणोत 101 बैंगानी बीदासर 104 105 श्री मकतूलांजी| बीदासर श्री अनां जी | लाडनूं 1900 - 1900 तेरापंथ परम्परा की श्रमणियाँ | दूगड़ 103 106 00000 सरदारशहर 104. 107 108 In श्री बन्नांजी o श्री रोडांजी - श्री सोनांजी नींवेडा *गेलड़ा डेरल्या चोरडिया 1900 मा. कृ. 7 लाडनूं 1900 मा. शु. 14 आरज्या 1900 फा. शु. 4 | हींगोला 105. हींगोला 106. - श्री चूनांजी सवाई गेलड़ा 1900 मा. कृ.7 | लाडनूं 107. - श्री अमरुजी | किशनगढ़ मुणोत 1900 ज्ये. कृ. 12 | हरमाला 1668 तप-8, 11, 21, संवत् 1923 चाडवास में दिवंगत संवत् 1919 में दिवंगत तप-14, 16, 31, 34, 34, संवत् 1927 में स्वर्गस्थ संवत् 1906 बीदासर में पंडितमरण सजोड़े दीक्षा संवत् 1918 में स्वर्ग-प्रस्थान तप-7, 9, 15, 16 दिन का तप, स्वर्गवास संवत् 1937 कुल तपसंख्या-268, संवत् 1964 के पूर्व डालिमयुग में दिवंगत तप-8, 12, 15, 21 दिन का, संवत् 1949 माणकयुग में दिवंगत तप के कुल 2505 दिन, दस प्रत्याख्यान 41, दो विगय से अधिक का त्याग, संवत् 1943-64 के मध्य दिवंगत तप-5 मासखमण, 20, 21 दिन का तप, संवत् 1946-64 के मध्य दिवंगत संवत् 1930 मेंस्वर्ग-प्रस्थान, तप-संख्या 1376 चार सूत्र कंठस्थ, 31 सूत्रों का वाचन, प्रवचनदक्ष, 3 बहनों को दीक्षा दी, 50 वर्ष शीतकाल में एक पछेवड़ी व 7 वर्ष रात्रि में एक साड़ी में रहीं। कुल तप दिन-494 संवत् 1955 में दिवंगत सेवापरायणा, संवत् 1925 सुजानगढ़ में समाधिमरण 108. | 1120 श्री कुन्नणांजी | लूणसर बागमार 1900 फा. कृ. 11 | चारणावास - श्री मूलांजी | बाजोली 1901 - - श्री सेऊजी तलेसरा अटाट्या गोगुंदा 1901 मृ. शु. 1 1901 मृ. शु. 1 गोगुंदा | गोगुंदा . श्री रंगूजी कुणावत | 112. | 116 | श्री उमेदांजी | फलौदी | 1901 पौ. शु. 3 फलौदी Page #962 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विशेष-विवरण क्रम सं| दीक्षा क्रम| साध्वी-नाम जन्मसंवत् स्थान | पिता-नाम गोत्र दीक्षा संवत् स्थान | स्वर्गवास | 113. | 1170 श्री सिणगारांजी| बाजोली धाड़ीवाल 1901 मा. शु. 11 | किशनगढ़ | 118 | श्री रुकमांजी | राजलदेसर | गिड़िया 1901 वै. कृ. 10 | नाथद्वारा श्री चंदनाजी | थोरिया घाटा श्री लिछमांजी बोरावड चोरडिया बोथरा | 1901 ज्ये. कृ. 2 | राजनगर 1901 आषा. शु. 6 लाडनूं डीडवाणा घोड़ावत 1902 मृ. शु. 4 | लाडनूं सरसांजी श्री डाहीजी - श्री रामाजी | सूरवाल पोरवाल 1902 पौ. शु. 2 | सूरवाल 900 000 000 | मुनि बींजराजजी की माता, तप-8, 10, 11, 14,34 उपवास, संवत् 1924 में पंडितमरण मुनि चतुर्भुजजी व छोगजी आर्या की माता, निर्मल संयम के साथ सं. 1916| बोरावड़ में दिवंगत संवत् 1918 सुजानगढ़ में दिवंगत तप-16, 22, 30 उपवास, संवत् 1918 बीदासर में स्वर्गस्थ संवत् 1911 किसनगढ़ में पंडितमरण संवत् 1909 में गण से पृथक् उपवास से 21 दिन तक लड़ी, 30, 31, 44 का तप, संवत् 1942 में दिवंगत ऋषिराय युग में छोटी रावलिया में दिवंगत संवत् 1916 के बाद जययुग में दिवंगत तप-7, 13, मासखमण, संवत् 1915 में दिवंगत तप-4 मासखमण, 35, 13,9 का तप, संवत् 1921 में दिवंगत सजोड़े दीक्षा, संवत् 1919 में दिवंगत | तप-30, 21, 35, 35, 30, 22, 25 उपवास का तप,स्वर्गवास संवत् 1930 तप-8, 9, 15, 15 उपवास, संवत् 1934 या 36 में दिवंगत तप-10, 8, 11, 6 उपवास, संवत् 1940 में स्वर्गस्थ श्री ज्ञानांजी | सोनारी सरदारांजी सुजानगढ़ 7 श्री सरुपांजी मुसालिया पोरवाल भंसाली छाजेड़ 1902 पौ. शु. 10 | भगवतगढ़ 1902 मा. शु. 1 | सुजानगढ़ 1902 वै. शु. 5 पाली श्री सीताजी | खेरवा | वैद मुंहता 1902 आषा. शु. 8| पाली ॐ श्री वगतूजी - श्री मूलांजी माधोपुर आसोतरा पोरवाल | चोपड़ा 1903 भा. शु. 15 | 1903 म. कृ. 2 जयपुर पचपदरा | श्री हस्तूजी | देवगढ़ सहलोत 1903 म. कृ. 13 रतलाम जैन श्रमणियों का बृहद इतिहास श्री सुरतांजी | पुर सिंधी 1903 पौ. कृ. 1 | दंतोरी Page #963 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विशेष-विवरण क्रम सं| दीक्षा क्रम. साध्वी-नाम जन्मसंवत् स्थान | पिता-नाम गोत्र | दीक्षा संवत् स्थान | स्वर्गवास | 134 10 श्री कुन्नणांजी | जूवाला पोरवाल 1903 चै. शु. 10 माधोपुर 1128. 129. In श्री मैनां जी | सूरवाल तेरापंथ परम्परा की श्रमणियाँ 1903 चै. शु. 10 पोरवाल माधोपुर 1130. 136 पीतलिया 131. 137 - श्री नोजांजी | मोखुणंदा 0 श्री आशांजी श्री मगनांजी | पाली । श्री रुकमांजी | बेनाथा 1903 फा. शु. 5 | गंगापुर 1904 - 1904 मृ. शु. 8 पाली 1904 मा. शु. 2 बीदासर 1132. 138 सकलेचा आरी 133. 139 0000000 134. 141 चन्दूजी | सुजानगढ़ कुन्नणांजी| पाली nश्री जीऊजी | गोठासर श्री अमरुजी | राजलदेसर * चोरडिया लुंकड़ | 1904 चै. शु. 8 1905 आसो.शु. 10 1905 मृ. शु. 3 1905 वै. कृ. 8 नाहटा चूरू बीदासर तप-29, 30, 30. संवत् 1912 कंटालिया में स्वर्गस्थ तप बेले से ऊपर की संख्या-404, अनेक वर्ष दस प्रत्याख्यान, संवत 1946-64 के मध्य दिवंगत संवत् 1911 में दिवंगत संवत् 1906 में दिवंगत |तप-13,30 उपवास,संवत् 1937 में दिवंगत | दो मासखमण किये, संवत् 1916 के बाद जययुग में दिवंगत | संवत् 1913 में समाधिमरण सजोड़े दीक्षा, संवत् 1912 रायपुर में स्वर्गस्थ | संवत् 1909 पादू में दिवंगत तप-10, 11 उपवास, संवत् 1946-64 के मध्य दिवंगत तप-15, 17, 22, 45, 13 उपवास, संवत् 1924 में स्वर्गस्थ | संवत् 1956 में स्वर्गस्थ तप-12, 15 उपवास, स्वहस्त से दो दीक्षाएं दीं, संवत् 1943 में दिवंगत ऋषिराय युग में दिवंगत तप-5 से 13 तक तप के दिन 261 तथा 14, 15, 19, 20, 22, 23 का तप, संवत् 1939 के बाद मघवायुग में दिवंगत 144 बछावत अमृतांजी | पाली पोरवाल 1905 ज्ये. शु. 1 | पाली 139. 146 सुजानगढ़ | श्री सिरदारांजी | सुजानगढ़ श्री सिरदारांजी बोरावड़ बोथरा पगारिया 1906 मृ. कृ. 1 1906 म. कृ.4 140. 147 बोरावड़ 141. 148 नाहर श्री चांदूजी 10 श्री दोलांजी बाजोली | सिरियारी 1906 मृ. कृ. 12 | बाजोली 1906 मृ. शु. 9 | हींगोला 142. 149 कटारिया Page #964 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विशेष-विवरण क्रम सं| दीक्षा क्रम| साध्वी-नाम जन्मसंवत् स्थान | पिता-नाम गोत्र | दीक्षा संवत् स्थान | स्वर्गवास 143. 1500 श्री मघूजी बीदासर बैंगानी 1906 मा. कृ. 3 खानपुर 144. श्री सिरदारांजी | पालड़ी वैद मुंहता 1906 145. - श्री मोतांजी लाडनूं सरावगी 1906 फा. शु. 5 लाडनूं 146. श्री रूपांजी | लक्खासर स्वरूपचंद नाहटा | 1906 चै. कृ. 1 रतनगढ़ श्री नंदूजी बीदासर बैंगानी 1906 वै. - लाडनूं 148. मूलांजी | बीदासर कोचर 1906 ज्ये. शु. 13 कुन्नणांजी | बीदासर *बैंगानी | 1907 मृ. शु. 4 147. बीदासर 000000 0 0 I श्री हुकमांजी | बीदासर बैंगानी 1907 पौ. शु. 1 | बीदासर 151. - श्री बखतावरजी| सुजानगढ़ 1907 सुजानगढ़ प्रतापमलजी बेगवानी सांखला श्री रोडांजी 902 लांबोरी | 1907 चै. कृ. 1 | दीवेड़ 0 संवत् 1921 में दिवंगत संवत् 1909 पाली में स्वर्गस्थ |संवत् 1936 में दिवंगत संवत् 1923 बीदासर में दिवंगत तप-10,31 उपवास, संवत् 1910 में स्वर्गस्थ | तप-9,9,16,29, संवत् 1922 में स्वर्गगमन तप-उपवास से पंचोले तक, स्वर्गवास1916 से 64 के मध्य तप-16, 12,21,30,30, 23 दिन का, स्वर्गवास-संवत् 1936 तप संख्या बेले से 17 तक के 802 दिन, दो मासखमण, संवत् 1952 मोमासर में स्वर्गस्थ तप-15, 16, 21, 21, 30, 37 दिन के | उपवास, संवत् 1918 बीदासर में स्वर्ग प्रस्थान |तप-5, 10, 16 उपवास, संवत् 1925 में दिवांत तप-11, 11, 13, 14 उपवास, संवत् 1918 बीदासर में दिवंगत तप-10, 10, 11, 16,21, 25 उपवास, संवत् 1942 में स्वर्गस्थ तप-5, 8, 6, 8 उपवास, संवत् 1925 ज्ये. कृ. 6 को पंडितमरण पुत्र कालूजी के साथ दीक्षा, संवत् 1909 में स्वर्गगमन |तप-11, 8, 5, 21 उपवास, संवत् 1920 में स्वर्गवास ऋषिराय की अंतिम शिष्या, संवत् 1921 में स्वर्गवास बीदासर श्री लच्छूजी In श्री गंगाजी | चाड़वास | कोशीथल *बोथरा माहेश्वरी 1907 ज्ये. कृ. 9 1907 ज्ये. शु. 12 श्री भानांजी बाघावास | गुणधर चोपड़ा 1907 ज्ये. शु. 13 बाघावास 0 156. In श्री चिमनांजी | बीदासर बैंगानी | 1907 आषा. शु. 7 | बीदासर 157. | श्री बगतूजी | *रेलमगरा सरावगी | 1908 मृ. कृ. 6 रेलमगरा 0 158. - श्री साकरजी | नाथद्वारा पोरवाल | 1908 पौ. कृ. 3 गोगुंदा जैन श्रमणियों का बृहद इतिहास 168 डागा श्री मूलांजी | बीदासर लाडनूं | 1908 पौ. शु. 13 0 Page #965 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ आचार्य श्री जीतमलजी महाराज के शासनकाल की अवशेष श्रमणियाँ (वि. सं. 1908-1938)9 । विशेष-विवरण क्रम सं दीक्षा क्रम| साध्वी-नाम 1. | 1 0 श्री चन्दनांजी जन्मसंवत् स्थान | पिता-नाम गोत्र | दीक्षा संवत् तिथि | दीक्षा स्थान धामली पचाणच्या बोहरा | 1908 मा.शु. 11 |बींठोड़ा तेरापंथ परम्परा की श्रमणियाँ | 20 श्री वन्नांजी चूरू बुधमलजी बोथरा | 1908 फा. कृ.6 | बीदासर 1908 फा. कृ.6 3. 4 4. | 5 0 0 श्री हस्तूजी | बीदासर श्री वरजूजी | बीकानेर | डागा सेठिया | बीदासर | बीदासर ६06 0 श्री चांदकंवरजी | बीकानेर श्री हरखूजी | बीकानेर हस्तीमलजी गोलेछा 1908 वै. शु.7 | हस्तीमलजी गोलेछा | 1908 वै. शु. 7 बीदासर बीदासर जयाचार्य की प्रथम शिष्या, कुल तप संख्या 1342, दस प्रत्याख्यान 35, संवत् 1952 लाडनूं में स्वर्गस्थ मघवागणी एवं गुलाबांजी की माता,तप-6, 8,11,16,17,19,20 छोड़कर 1 से 21 उपवास तक की लड़ी,मासखमण, शीत में एक पछेवड़ी का उपयोग, संवत् 1925 लाडनूं में स्वर्गस्थ संवत् 1933 में स्वर्गवास - दो पुत्रियां-चांदकवर जी, हरखू जी भी साथ में दीक्षित, स्वर्गवास,संवत् 1916 के बाद जययुग में दिवंगत संवत् 1933 बीदासर में पंडितमरण संवत् 1936 में गण से पृथक् होकर 9 साधु-साध्वियों ने "प्रभु-पंथसंघ"स्थापित किया। किंतु वह चला नहीं। तप-10, 11, 16, 18-21,30,31,33, 43 उपवास, संवत् 1939 में दिवंगत माता जेतांजी व बहिन रायकंवरजी भी दीक्षित हुईं। संवत् 1920 में दिवंगत अग्रणी, स्वहस्त से 5 दीक्षाएं दीं, संवत् 1943 में स्वर्गस्थ तप के कुल दिन 1621, दस प्रत्याख्यान 30,संवत् 1952 में दिवंगत | 7. 80 श्री मोतांजी | *बीकानेर *बांठिया | 1908 वै. शु.7 | बीदासर श्री नाथांजी | चितामा मांडोत 1908 ज्ये. शु. 3 चितामा 120 श्री सिणगारांजी राजलदेसर दुगड़ 1909 का. शु.3 लाडनूं 13 श्री मधूजी । लाडनू सहजावत 1909 म. कृ. 5 जयपुर 29. मुनि नवरत्नमलजी-शासन-समुद्र भाग-9. आदर्श साहित्य संघ, चुरु (राज.) ईसवी सन् 1984 (प्र.सं.) Page #966 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्रम सं | दीक्षा क्रम साध्वी-नाम । 10 श्री कंकूजी lo श्री जसोदांजी 13. 16. श्री श्रीखेमांजी 2 श्री नवलांजी 10 श्री सेराजी 10 श्री गुलाबांजी 904 2 श्री चक्रूजी 10 श्री ज्ञानांजी 10 श्री छगनांजी 2 श्री कुन्नणांजी . श्री अमृतांजी - श्री वृद्धांजी श्री हरवगसांजी श्री वृद्धांजी जन्मसंवत् स्थान | पिता-नाम गोत्र | दीक्षा संवत् तिथि | दीक्षा स्थान | विशेष-विवरण कडोली खाव्या 1909 मा. कृ.8 | सिसोदा तप-10,12,20 उपवास,संवत्1931 मेंदिवंगत देशनोक नाहटा 1909 मा. कृ. 10 |किसनगढ़ उपवास से 16 तक क्रमबद्ध तप, संवत् 1947 में स्वर्गस्थ मोखणंदा कोठारी 1909 फा. कृ.7 मोखणुंदा अग्रणी, स्वहस्त से 4 दीक्षाएं की, संवत् 1953 में दिवंगत बेमाली भैरजी बोहरा 1909 फा. कृ.3 | बेमाली संवत् 1912 कोठारिया में स्वर्ग-प्रस्थान लाडनूं बैद मुंहता 1909 - डीडवाना | संवत् 1948 में स्वर्गवास सवाई चंडालिया 1909 ज्ये. कृ. 8 केलवा संलेखना-संथारा सह 1910 नाथद्वारा में दिवंगत रायपुर ओस्तवाल 1909 आषा. शु. 11 | रायपुर स्वर्गवास संवत् प्राप्त नहीं 1910 म. कृ.3 ईडवा संवत् 1916 के बाद जययुग में दिवंगत डीडवाना सिंधी 1910 मृ. कृ. 11 डीडवाना | संवत् 1923 सुजानगढ़ में स्वर्गस्थ भावी सेठिया | 1910 मृ. भा. 12 पाली संवत् 1920 में स्वर्गगमन नानसमा सीयाल 1910 आषा. शु. 7 नानसमा तप-10, 12, 12, संवत् 1941 में दिवंगत सूरवाल चैनजी पोरवाल | 1911 आसो. कृ. 6 | रतलाम संवत् 1936 में गण से पृथक् सूरवाल चिमनजी पोरवाल | 1911 आसो. कृ. 6 | रतलाम | संवत् 1920 में दिवंगत आमेट चंडालिया 1911 म. कृ. 2 केलवा वर्षीतप व अढाई सौ प्रत्याख्यान के साथ 1 से 18 तक की लड़ी (4,6, 7, 16, 17 छोड़कर) संवत् 1947 में स्वर्गस्थ बौराणा बाबेल 1911 वै.शु. 13 बागौर तप के दिन 698,स्वर्गवास संवत् 1953 छाजेड़ 1911 मा. कृ. 12 | देवगढ़ तप-9, 11, 15,30 उपवास, | संवत् 1929 में समाधिमरण *देवगढ़ *बाफणा 1912 - स्वर्गवास संवत् 1948 श्री लालाजी 290श्री सेरांजी जैन श्रमणियों का बृहद इतिहास देवगढ़ श्री छोटांजी Page #967 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दीक्षा क्रम साध्वी-नाम 0 श्री साकरजी | श्री नोजांजी 330 श्री मगदूजी तेरापंथ परम्परा की श्रमणियाँ ताल श्री नानूजी श्री चूनांजी 350 गोलेछा D श्री जडावांजी श्री सरूपांजी 10 श्री सेरांजी 905 | जन्मसंवत् स्थान | पिता-नाम गोत्र | दीक्षा संवत् तिथि | दीक्षा स्थान | विशेष-विवरण ताल पीथोजी मेड 1912 ज्ये. कृ. 10 ताल तप-चौला, स्वर्गवास संवत् 1930 ताल खींवसीजी चावत | 1912 ज्ये. कृ. 10 ताल तप-4,5,7 स्वर्गवास संवत् 1932 दलाल 1912 ज्ये. कृ. 10 ताल आप द्वारा निर्मित एक चित्र संवत् 1916 का जिसमें स्वस्तिक व अष्टमंगल है। संवत् 1918 बीदासर में दिवंगत फलौदी नाहर 1912 आषा. शु.9 | फलौदी स्वर्गवास संवत् प्राप्त नहीं। फलौदी 1913 का. शु. 11 पाली तप-7,8,16,21 संवत् 1917 जयपुर में पंडितमरण फलौदी |गोलेछा 1913 का. शु. 11 |पाली स्वर्गवास संवत् ज्ञात नहीं सिरियारी बैद मुंहता 1913 मृ. - | राणावास तप-5,10 उपवास ,संवत् 1926 में स्वर्गस्थ | हरसोर कंटालिया 1913 मृ. शु.9 खेरवा उपवास से अठाई तक तप, संवत् 1916 बीदासर में आराधक पद रतनगढ़ |किशोरचंदजी सिंघी| 1913 मा. कृ.6 |चरपटिया | संवत् 1939 में दिवंगत लावा रत्नजी चींपड़ | 1913 वै. - तप-15,15, 18, संवत् 1923 में 25 दिन की संलेखना सह पंडितमरण पचपदरा मांडोत 1913 आषा. शु.3 उपवास से 17 दिन का लड़ीबद्ध तप, स्वर्गवास संवत् उपलब्ध नहीं। आमेट सुराणा 1913 मृ. कृ.1 आमेट संवत् 1942 में दिवंगत जयपुर वैद 1913 मा. शु. 2 जयपुर सैंकड़ों उपवास बेले तेले तथा नौ तक तप कई बार, 15 का तप,संवत् 1944 में स्वर्गस्थ मांडा शिवजी भंडारी 1914 भा. शु. 10 बीदासर मुनि छजमलजी की बहन, संवत् 1931 बीदासर में स्वर्गस्थ मांडा गांधी 1914 भा. शु. 10 बीदासर बहुत तपस्या की, संवत् 1946 में स्वर्गस्थ बालोतरा पुंवार | 1914 म. कृ.7 - संवत् 1936 में स्वर्गस्थ जसरासर सरावगी 1914 म. कृ. 12 लाडनूं स्वर्गवास संवत् 1947 श्री भामांजी 10 श्री राजांजी 2 श्री सुवटांजी | श्री जीवूजी श्री लिछमांजी a श्री कुन्नणांजी 000000 0 श्री उमेदांजी 10 श्री जेतांजी 10 श्री मृगांजी Page #968 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्रम सं खटेड दूगड़ लाडनू | करेड़ा सुजा 906 दीक्षा क्रम साध्वी-नाम जन्मसंवत् स्थान | पिता-नाम गोत्र | दीक्षा संवत् तिथि | दीक्षा स्थान | विशेष-विवरण श्री मानांजी बीकानेर 1914 मा. कृ.। स्वर्गवास संवत् 1952 राजलदेसर श्री कुन्नणांजी | रतनगढ़ 1914 शेषकाल तप-एक पचोला, स्वर्गवास संवत् 1941 I श्री सिरेकंवरजी | बीकानेर कोठारी | 1914 शेषकाल | लाडनूं श्री कुन्नणां जी की पुत्री थीं, सवत् 1922 सुजानगढ़ में दिवंगत Joश्री सेरांजी देशनोक कातेला 1915 श्रा. शु. 12 लाडनू समाधिपूर्वक स्वर्गस्थ श्री चूनांजी चूरू हुड़मलजी डागा | 1915 भा. कृ.5 लाडन संवत् 1967 लाडनूं में पंडितमरण श्री बखतावरजी | लाडनूं रामलालजी दूगड़ | 1915 म. कृ. 5 लाडनूं संवत् 1921 पाली में दिवंगत श्री साकरजी *देराड्या 1915 गण से पृथक् Dश्री तीजांजी सुजानगढ़ गिड़िया 1916 भा. शु. 13 सुजानगढ़ तप-23 उपवास 2 बेले,1 पंचोला, संवत् 1948 के बाद दिवंगत |श्री रतनकंवरजी | पीपाड़ चौधरी 1916 फा. - सानंद साधना संपन्न की श्री बखतावरजी | लाछूडा (मेवाड़)| दुलीचंदजी 1916 आषा. शु. 9 अग्रणी,तप-2 चोले,स्वहस्त से 3 दीक्षाएं चोरडिया की,संवत् 1963 चाड़वास में दिवंगत श्री रत्नांजी मेड़ता कोठारी 1916 आषा. भा.10 | पीपाड़ संवत् 1917 जोबनेर में स्वर्ग-प्रस्थान | श्री रायकंवरजी | चितामा मांडोत | 1916 आषा. कृ.11 प्रभावसंपन्ना,6 बहनों को दीक्षा दी,उपवास से 13 तक की लड़ी (दस के सिवा) संवत् 1972 चाड़वास में स्वर्गस्थ श्री सिरेकंवरजी | फलौदी 1917 म. कृ. 12 संवत् 1937 में दिवंगत Inश्री मोतांजी बीदासर सेखानी | 1917 म. कृ. 4 बीदासर संवत् 1922 पाली में दिवंगत loश्री चम्पाजी पोटला डाकलिया | 1917 चै. शु. 8 तप-मासखमण, 11 उपवास, स्वर्गवास संवत् 1952 'पुर' में श्री किस्तूरांजी | पोटला बाबेल 1917 चै. शु. 8 अग्रणी, तीन बहनों को दीक्षा दी, संवत् 1962'सिसोदा' में स्वर्गस्थ 650श्री भूरांजी सोनारी पोरवाल 1917 आषा. कृ.4 सजोड़े दीक्षा,संवत् 1969'राजलदेसर' में स्वर्ग-प्रस्थान जैन श्रमणियों का बृहद इतिहास Page #969 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तेरापंथ परम्परा की श्रमणियाँ चूरू देवगढ़ 907 क्रम सं| दीक्षा क्रम साध्वी-नाम | जन्मसंवत् स्थान | पिता-नाम गोत्र | दीक्षा संवत् तिथि | दीक्षा स्थान | विशेष-विवरण 10श्री नौंहदाजी सूरवाल श्री चैनजी पोरवाल 1918 भा. शु.4 लाडनू स्वर्गवास संवत् 1942 |श्री पारवतांजी | माधोपुर नाथूरामजी पोरवाल | 1918 भा. शु.4 लाडनूं श्री नौहदांजी की पुत्री,अग्रणी,संवत् 1961 राजलदेसर में दिवंगत श्री गुलाबांजी गुलाबचंदजी कोठारी | 1918 मा. कृ. 7 तप के कुल दिन 933,स्वर्गवास संवत् 1948 | 10श्री जेता जी * नाथद्वारा *जज़राजजी मारु 1918 - स्वर्गवास संवत् 1952 जयपुर श्री जोतांजी फलौदी भीमराजजी निमाणी | 1919 का. शु. 13 संवत् 1943 बीदासर में स्वर्गवास श्री पन्नांजी *राणावास पीतलिया 1919 म. कृ.2 | देवगढ़ संवत् 1927 में दिवंगत श्री नोजांजी ताल चावत 1919 ज्ये. कृ. 10 | ताल संवत् 1945 लाडनूं में दिवंगत श्री पन्नांजी बाफना 1919 म. कृ.1 तप के कुल दिन 1127, दस प्रत्याख्यान 33, अढाई सौ प्रत्याख्यान,स्वर्गगमन संवत् 1964 श्री चांदाजी देवगढ़ गांधी 1919 आषा. शु. 8 | देवगढ़ अग्रगण्या, संवत् 1933 लाडनूं में स्वर्गस्थ श्री पद्मांजी | पेटलावद भंडारी 1919 चै. शु. 10 | पेटलावद संवत् 1922 डीडवाना में स्वर्गवास श्री छोटांजी टीकमचंद हीरावत | 1920 श्रा. शु. 6 चूरू बेले से 13 तक तप के कुल दिन 228, संवत् 1960 छापर में दिवंगत श्री जोतांजी कांकरोली बांवलिया | 1920 मृ. कृ.1 संवत् 1936 में दिवंगत 0श्री जड़ावांजी | आमेट ओटाशाह | 1920 मृ. कृ.1 अग्रणी,नौ दिन के अनशन से संवत 1942 चंडालिया में दिवंगत श्री मुलतानांजी रीणी लूनिया 1920 मृ. कृ. 2 चूरू संवत् 1937 में स्वर्गवास श्री हरकुंवरजी जयपुर भांडावत 1920 वै. शु. 6 पीपाड़ संवत् 1945 लाडनूं में दिवंगत श्री नवलांजी धरार *बड़ोद्या 1920 - बड़ोदिया संवत् 1936 में दिवंगत श्री चमनांजी धरार पटवा 1920 वै. शु. 3 बदनावर श्री जड़ावांजी उज्जैन लूनिया 1920 आषा. शु. 13 | पेटलावद श्री डालगणी की माता, संवत् 1948 में| पंडितमरण 85 श्री नवलांजी राजनगर चपलोत | 1921 - जयपुर Page #970 -------------------------------------------------------------------------- ________________ | - पाली Pos) क्रम सं| दीक्षा क्रम| साध्वी-नाम जन्मसंवत् स्थान | पिता-नाम गोत्र | दीक्षा संवत् तिथि | दीक्षा स्थान | विशेष-विवरण 81. | 860श्री सुरतांजी पहुना आंचलिया 1921 चै. कृ.5 संवत् 1943 में स्वर्ग-गमन 87 श्री चूनांजी रतलाम बोहरा 1922 भा. शु. 13 तप-3 मासखमण, 37 का तप, संवत् 1931 गंगापुर में पंडितमरण श्री उदयकंवरजी | रतलाम मेहर 1922 भा. शु. 13 | पाली कुल तप संख्या 869, संवत् 1966 पचपदरा में दिवंगत श्री तीजांजी रतनगढ़ जेठमलजी दूगड़ | 1922 आसो. कृ.11 पाली तप-9, 12, 13, 17,31,45 उपवास, संवत् 1975 जोधपुर में स्वर्गवास श्री गौरांजी | फलौदी निमाणी 1922 आसो. कृ.11 | पाली गोरखांजी जेठांजी दोनों पुत्रियों के साथ दीक्षा ली, संवत् 1952 छापर में दिवंगत श्री गोरखांजी फलौदी लूंकड़ 1922 आसो. कृ.11 | पाली अग्रणी, संवत् 1948 में दिवंगत श्री जेठांजी फलौदी लूंकड़ 1922 आसो. कृ.11 | पाली अग्रणी, संवत् 1944 में दिवंगत श्री वरजूजी उदयपुर वीराणी 1922 का. शु. 14 | पाली तप के दिन 397,स्वर्गवास संवत् 1956 श्री हस्तूजी 1909 मोखणुंदा | जोगीदासजी। 1922 का. शु. 14 | पाली अग्रणी, पिता भी दीक्षित हुए, संवत् 1985 कोठारी छापर में संवत्सरी के दिन दिवंगत श्री ऋभ्रूजी चाडवास छोगमलजी नाहटा | 1922 ज्ये. शु.2 लाडनूं तप-4,22 दिन का,संवत् 1946 में दिवंगत श्री छोगांजी बोरावड़ ऋद्धकरणजी बोथरा 1922 म. कृ. 1 बोरावड़ संवत् 1928 में गण से पृथक् loश्री रंभाजी गोगुंदा कोठारी 35 दिनकातप,संवत्1956आमेटमेंदिवंगत श्री सिणगारांजी | लसाणी चोपड़ा | 1922 - तप के दिन 695 श्री लच्छूजी मोखणुंदा 1922 फा. शु. 12 अग्रणी, संवत् 1974 ईडवा में स्वर्गवास श्री चूनांजी बीकानेर डागा 1922 - तप-3 चोले,2 बेले,21 उपवास,स्वर्गवास संवत् 1946 सरदारशहर श्री नानूंजी बालोतरा बनेचंदजी सिंघी | 1923 - पचपदरा संवत् 1963 में दिवंगत श्री अमृतांजी पदराड़ा 1923 वै. कृ.। अग्रणी,संवत् 1968 गंगाशहर में स्वर्गस्थ श्री छोटांजी ईडवा | चोरडिया | 1923 वै. कृ. 4 श्री महताबांजी डीडवाना कोठारी 1924 का. शु. 8 सुजानगढ़ तप संख्या 170, स्वर्गवास 1949 में 1922 - उदयपुर मारु लाडनू जैन श्रमणियों का बृहद इतिहास Page #971 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चूरू 101. क्रम सं | दीक्षा क्रम साध्वी-नाम 100. श्री सिरदारांजी श्री हीरांजी श्री झूमरांजी श्री सिणगारांजी श्री सिणगारांजी श्री मोतांजी तेरापंथ परम्परा की श्रमणियाँ 107 भंसाली 106. 107. श्री मानकंवरजी श्री दाखांजी श्री जड़ावांजी 108. 909 जन्मसंवत् स्थान | पिता-नाम गोत्र | दीक्षा संवत् तिथि | दीक्षा स्थान | विशेष-विवरण दौलतरामजी वैद | 1924 का. शु. 13। | सुजानगढ़ | संवत् 1924ज्ये. कृ.2 जोधपुर में स्वर्गगमन चोरड़िया | 1924 का. शु. 13 | सुजानगढ़ संवत् 1934 में स्वर्गस्थ दौलतरामजी सुराणा 1924 मृ. शु. 1। लाडनूं संवत् 1941 में स्वर्गवास टमकोर पींचा | 1924 पो. शु. 15 बेनाथ सरदारशहर बोथरा 1924 मा. शु. 12 सुजानगढ़ 15 उपवास का तप, संवत् 1957 में दिवंगत | पड़िहारा | 1924 वै. कृ. 13 कालू उपवास से 21 तक क्रमबद्ध तप, 31, 32, 33 तप, 5 मासखमण, संवत् 1943 गोगुंदा में पंडितमरण । फलौदी लुंकड़ 1925 मृ. कृ.5 फलौदी अग्रणी,संवत् 1957-64 के मध्य दिवंगत आसींद एकलिंगदासजी रांका 1925 फा.शु. 11 - पिताश्री भी दीक्षित हुए। पेटलावद गुगलिया 1926 श्रा. शु. 12 | बीदासर सजोड़े दीक्षा, 1 से 13 तक क्रमबद्ध तप, संवत् 1979 लाडनूं में स्वर्गस्थ राजलदेसर दूगड़ 1926 श्रा. शु. 12 बीदासर स्वर्गवास संवत् 1934 लाडनूं मोतीचंदजी गिड़िया 1926 भा. शु. 13 | बीदासर पौत्री मखतूलांजी के साथ दीक्षा, संवत् 1942 में स्वर्गगमन लाडनूं मगनीराम घोडावत | 1926 भा. शु. 13 | बीदासर अग्रणी, स्वहस्त से दो दीक्षाएं दी। संवत् 1969 'पुर' में पंडितमरण गूलर जोगड़ 1926 आसो.कृ.13 | बीदासर बीदासर चोरडिया 1926 का. कृ. 1 अग्रणी, तपस्विनी 1 से 16 तक तप के कुल दिन 2929 थे, संवत् 1974 मोमासर में स्वर्गगमन राजलदेसर | खेतसीदास दूगड़ | 1926 का. शु. 13 | बीदासर तप-11,19 दिन का, संवत्1939 मेंदिवंगत राजलदेसर बोथरा | 1926 का. शु. 13 | बीदासर संवत् 1930 में पंडितमरण रीणी श्रीचंदजी लूनिया | 1926 म. कृ. 1 | रीणी तप-26 उपवास, बेला, सात, ग्यारह उपवास,संवत् 1945 में दिवंगत 100 10श्री बिदामांजी श्री राजांजी 110. श्री मखतूलांजी 112. 10श्री सदांजी श्री चांदाजी 113. 114. 15. श्री ऊमांजी श्री जेताजी श्री छोगांजी Page #972 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्रम सं | दीक्षा क्रम, साध्वी-नाम श्री किस्तूरांजी 1240श्री हुलासांजी पादू श्री नानूंजी श्री चांदाजी श्री मगदूजी लाडनूं सुजानगढ़ श्री वरजूजी श्री किस्तूरांजी श्री जमनांजी श्री वीरांजी श्री जीऊजी श्री लिछमांजी *पादू 910 जन्मसंवत् स्थान | पिता-नाम गोत्र | दीक्षा संवत् तिथि | दीक्षा स्थान | विशेष-विवरण दौलतगढ़ श्रीमाल 1926 म. कृ.1 | | नया शहर उपवास से 18 दिन तक लड़ीबद्ध तप, संवत् 1945 में स्वर्गगमन खींवेसरा | 1926 म. कृ.5 पादू अग्रणी, स्वहस्त से 2 दीक्षाएं दी, संवत् 1957 देशनोक में दिवंगत लाडनूं कठोतिया 1926 मृ. भा. 4 लाडनूं तप-7,19 दिन का,संवत् 1943 में दिवंगत लाडनूं धीरतचंद फूलफगर 1926 मृ. शु.4 संवत् 1954 में दिवंगत रेलमगरा |- मादरेचा 1926 मा. शु.5 कुल तप के दिन 632, संवत् 1957 दौलतगढ़ में दिवंगत सरदारशहर रतनसिंह बरड़िया | 1926 वै. शु. 3 संवत् 1936 में गण से पृथक् बीदासर - गिड़िया । 1926 ज्ये. कृ. 12 संवत् 1926 लाडनूं में दिवंगत | *बोरड़ 1927 - संवत् 1945 में दिवंगत सरदारशहर | भैंरुदानजी डागा | 1928 भा. कृ. 1 जयपुर संवत् 1972 राजलदेसर में दिवंगत सरदारशहर अर्जुनदास बोथरा | 1928 भा. कृ.1 | जयपुर संवत् 1937 में दिवंगत सुजानगढ़ | तेजपाल डूंगरवाल | 1928 भा. शु. 6 जयपुर तप-10, 12, 18, 1 से 27 तक के थोक (22-25 छोड़कर),संवत् 1984 लाडनूं में पंडितमरण पाली - समदड़िया 1928 आसो. शु.9 | पाली संवत् 1946 में स्वर्गस्थ सरदारशहर | घासीराम सिरोहिया | 1928 मृ. कृ. 4 | जयपुर 168 उपवास, 1 बेला, 16 चोले तप, संवत् 1949 के बाद दिवंगत उदयपुर |- कटारिया 1928 मृ. कृ.1 | उदयपुर संवत् 1928 ज्ये. शु. 7 को स्वर्गस्थ | 1928 म. कृ. 1 राजगढ़ दीक्षा के तीन दिन बाद ही गण से पृथक् | __ मांडा सुजानमलजी गांधी | 1928 म. शु. 12 नींबली अग्रणी, एक दीक्षा दी। तप 1003 उपवास, 9बेले,2 तेले,3 चोले,एक 5,संवत् 1984 सरदारशहर में दिवंगत चित्तौड़ - कोठारी 1928 - संवत् 1944 में स्वर्गस्थ श्री पन्नांजी श्री हीरांजी श्री गेंदकंवरजी श्री केशरजी श्री फूलकंवरजी 139 जैन श्रमणियों का बृहद इतिहास श्री जुहारांजी Page #973 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्रम सं | दीक्षा क्रम साध्वी-नाम 131. | 141 श्री दोलांजी | जन्मसंवत् स्थान | पिता-नाम गोत्र | दीक्षा संवत् तिथि | दीक्षा स्थान | विशेष-विवरण चरपटिया मोटजी नवलखा | 1928 मा. शु. 10 |जयपुर उपवास से दस दिन तक लड़ीबद्ध तप, संवत् 1966 माघ शु. 14 लाडनूं में तेरापंथ परम्परा की श्रमणियाँ बरवाड़ा गुसाईंसर सीकाणा संवत् 1965 में दिवंगत | सजोड़े दीक्षा, संवत् 1975 में दिवंगत बीदासर श्री वदनांजी श्री चनणांजी श्री मानकंवरजी श्री अमृतांजी श्री चिमनांजी श्री बगतूंजी ऊदोजी पोरवाल | 1928 - 1929 - - अग्रवाल 1929 का. शु. 10 1929 - - लोढ़ा 1929 म. कृ. 12 अग्रवाल 1929 पो. शु.4 फलौदी लाडनूं लाडनूं जयपुर बीकानेर श्री गुलांजी श्री चौथांजी 1929 - 1929 वै. कृ. 11 बीदासर | बीदासर संवत् 1975 आमेट में स्वर्गस्थ उपवास से 17 तक क्रमबद्ध तप, संवत् 1956 में दिवंगत संवत् 1937 में स्वर्गस्थ अग्रणी,स्वहस्त से दो दीक्षाएं दी, संवत् 1975 चाड़वास में स्वर्गस्थ 17 उपवास, 12 बेले,4 तेले, एक 16 का तप, स्वर्गवास संवत् 1941 में रीणी - छाजेड़ |श्री छगनांजी कुचामण |-सरावगी 1929 आषा. कृ.3 | बीदासर loश्री गोरखांजी श्री चंपाजी श्री ज्ञानांजी फलौदी पेटलावद कुंवाथल -निमाणी 1929 आषा. शु.9 | हुक्मीचंद चोपड़ा | 1930 पो. कृ. - | 1930 वै. शु.3 | चित्तौड़ -खाब्या पिता भी दीक्षित,संवत् 1945 के बाद दिवंगत तप-4,9,15,16,18,21,23,27,30, 32 दिन का,संवत् 1974 मोमासर में दिवंगत | अग्रणी, तप के कुल दिन 2274,डीडवाना में संवत् 1984 में 3 दिन के अनशन सह दिवंगत 1540श्री नापूँजी खींचन - बोथरा 1931 भा. शु. 15 खींचन 1931 आसो. कृ.9 Joश्री रूपांजी 146. 1560 श्री हरखूजी ऊतलोण फलौदी -लोढ़ा - लुंकड़ 1931 म. कृ.1 खींचन/फलौदी] 15 उपवास,स्वर्गवाससंवत् 1967 डूंगरगढ़ Page #974 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 9-4 150. *बरार 152. क्रम सं दीक्षा क्रम, साध्वी-नाम |जन्मसंवत् स्थान | पिता-नाम गोत्र | दीक्षा संवत् तिथि | दीक्षा स्थान | विशेष-विवरण | 147. | 157 श्री मोतांजी थामला - तलेसरा 1931 मृ. कृ.- नाथद्वारा तप-उपवास 25, बेले 3, चोला 1 और | एक 27 दिन का तप,संवत् 1963 पचपदरा में दिवंगत 148. 1580 श्री कुन्नणांजी केशरीचंदजी 1931 मृ.शु. 10 लाडनू अग्रणी,दो साध्वियों को दीक्षा दी, बांठिया संवत् 1968 बोरावड़ बोरावड़ में दिवंगत 149. 10 श्री सिरदारांजी *चूरू -बांठिया 1931 मृ.शु. 10 संवत् 1947 में दिवंगत 10 श्री साकरजी - मेहता 1931 पो. कृ.1 28 उपवास, 1 तेला और 1 सात दिन का | तप, संवत् 1975 फतेहपुर में दिवंगत | श्री कुन्नणाजी | बाघावास |- गोलेछा 1931 पो. कृ. 13 स्वर्गवास संवत् 1943 0 श्री तीजांजी बोरावड़ | चंदनमलजी कोठारी 1931 चै. शु. 10 अग्रणी, उपवास 98, बेले 6, चोला 1 पचोला।,संवत् 1986 खाटू में स्वर्गवास 10 श्री उदयकंवरजी *जोधपुर ओसवाल 1931 वै. कृ. 3 J0 श्री सुंदरजी बीकानेर भीवराजजी सिपाणी 1931 आषा. शु.6 | लाडनूं अग्रणी,आपने7,11,12,14 को छोड़कर 1 से 15 उपवास तक का थोक किया, संवत् 1985 सुजानगढ़ में दिवंगत 155. श्री महाकंवरजी ___ *ईडवा 1931 ईडवा संवत् 1936 में गण से पृथक् | श्री कसुम्बाजी पचपदरा | सूरजमल जी | 1932 का. कृ.8 | लाडनूं मुनि बींजराजजी ज्येष्ठ भ्राता, तप-मासछाजेड़ खमण, पंचोला, स्वर्गवास 1991 लाडनं में दिवंगत 157. | श्री वुरजकंवरजी सिसाय मोलूजी अग्रवाल | 1932 मृ. कृ.5 27 उपवास। चोलाकियास्वर्गवाससंवत् 1943 | 10 श्री पातांजी । *लुहारी |-अग्रवाल 1932 म. कृ.5 | कुमारी संवत् 1942 में स्वर्गस्थ 159. 10 श्री मानकंवरजी कोथ - अग्रवाल 1932 का. शु.7 सिसाय तप-15, 16, 18,20,20,23,28 व मासखमण तक तप, स्वर्गवास संवत् 1975 लाडनूं | 1700 श्री किस्तूरांजी | लश्कर | - गांधी 1932 फा. शु. 3 | सुजानगढ़ तप-प्रतिवर्ष एक मास बेला-बेला तप,8, 9, 12-14, 16-20, 25-30 तक तप, संवत् 1970 उदासर में दिवंगत कुमारी 158. जैन श्रमणियों का बृहद इतिहास Page #975 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तेरापंथ परम्परा की श्रमणियाँ 1913|| क्रम संदीक्षा क्रम साध्वी-नाम जन्मसंवत् स्थान | पिता-नाम गोत्र | दीक्षा संवत् तिथि | दीक्षा स्थान | विशेष-विवरण 161. 171 श्री ऋद्धजी सालगरामजी 1932 चै. शु. 3 उपवाससे 32 तक की कुल तपस्या के दिन कोठारी 3109, अंत में 49 दिन की संलेखना के साथ संवत् 1988 लाडनूं में दिवंगत D श्री गोरांजी छापर - कोठारी 1933 का. कृ. 13 पड़िहारा 30 उपवास 3 बेले 1 तेला, संवत् 1964 के पूर्वस्वर्गस्थ 0 श्री सुजांजी पड़िहारा - रांका 1933 का. कृ. 13 | पड़िहारा 0 श्री चांदाजी | फलौदी - गोलेछा 1933 फा. शु. 4 160 उपवास, 19 बेले,4 चोले,1 अठाई, संवत् 1966 रीणी में स्वर्गस्थ | श्री पानकंवरजी फलौदी हंसराजजी बोरड़ | 1933 मा. कृ.1 संवत् 1944 बीदासर में दिवंगत श्री समरथकंवरजी मेड़ता -सिंधी 1934 भा. - पादू 0 श्री मथुरांजी *भिवानी |*भगतू अग्रवाल 1934 मृ.शु.7 तुषाम 10 श्री फूलांजी | आगोलाई - पारख 1934 म. कृ.5 खींचन तप-उपवास 17, बेले-2,तेले 3, चोला व अठाई1-1,संवत् 1969 डूंगरगढ़ में दिवंगत श्री रायकंवरजी खींचन बगतमलजी लुंकड़ | 1934 मृ. कृ.5 खींचन श्री फूलांजी माता थीं। उपवास 27, एक तेला,अग्रणी,संवत् 1965 डूंगरगढ़में दिवंगत oश्री महादेवांजी | भिवानी अग्रवाल 1934 मृ.कृ.4 पति कन्हैयालालजी प्राग्दीक्षित, कुल तप संख्या 174दिन,संवत् 1972 खेरवामेंस्वर्गस्थ loश्री बखतावरजी | लाडनूं प्रतापमलजी 1934 फा. कृ.5 संवत् 1955 पचपदरा में दिवंगत बाफणा श्री कुनणांजी *राजलदेसर | ओसवाल | 1934 मा. कृ. 1 गण से पृथक् श्री पन्नांजी झालावास पोरवाल 1934 पौ. कृ.3 गोगुंदा पति धनजी भी दीक्षित,संवत् 1943 में दिवंगत श्री ऊदांजी राजलदेसर | आईदानजी गिड़िया | 1934 मा. कृ. 1 श्री किस्तूरांजी | *इन्दौर | *धर्मचंदजी छाजेड़ 1934 पौ. शु. 7 उपवास से16 तकलड़ीबद्ध एवं मासखमण तप, संवत् 1970 लाडनूं में स्वर्गस्थ श्री जयकंवरजी | *चांदारुण - ओसवाल | 1934 फा. शु. 10 संवत् 1948 में स्वर्गगमन Page #976 -------------------------------------------------------------------------- ________________ www.lainelibrary.org 914 क्रम सं दीक्षा क्रम साध्वी - नाम 177. 188 श्री सिरेकंवरजी 178. 179. 180. 181. 182. 183. 184. 185. 186. 187. 188. 189. 190. 191. 192. 193. 189 190 191 192 193 195 196 197 198 199 200 201 202 203 204 205 श्री पेमांजी श्री रामूंजी श्री केशरजी श्री रुकमांजी श्री शुभांजी श्री रतनकंवरजी श्री मंगलांजी श्री तीजांजी श्री सरजांजी D श्री जीबूजी श्री मोजांजी श्री नंदूजी D श्री वरजूजी श्री छोगांजी श्री छोटांजी श्री प्राणांजी जन्मसंवत् स्थान चांदारुण * जोजावर भिवानी पीपाड़ रतलाम देशनोक बीकानेर बखतगढ़ बाजोली भिवानी गोगुंदा गोगुंदा गांगुदा रतनगढ़ रीणी 1912 डीडवाना उदयपुर पिता-नाम गोत्र - ओसवाल रामजराजी अग्रवाल - चौधरी - सेठिया - कोचर चंडालिया लोढ़ा अग्रवाल सीसोदिया सीसोदिया *सेलावत दीक्षा संवत् तिथि 1934 फा. शु. 10 - पगारिया 1934 वै. कृ. - 1934 आषा. कृ. 11 1935 - 1935 श्री. शु. 10 1935 भा. कृ. 5 1935 का. कृ. 8 1935 मू. कृ. 5 1935.4 1935 पौ. कृ. 4 1935 मृ.शु. 15 1935 मृ.शु. 15 1935 मृ.शु. 15 टीकमचंदजी सामसुखा 1935 फा. कृ. 9 1935 ज्ये. कृ. 6 डागा जोरावरमलजी सुराणा 1936 श्री. कृ. 1 1936 कृ. 13 दीक्षा स्थान बीदासर रतलाम बीदासर बीकानेर बखतगढ़ बाजोली बीदासर गोगुंदा गोगुंदा गोगुंदा रतनगढ़ सुजानगढ़ बीदासर उदयपुर विशेष- विवरण श्री जयकुंवरजी माता के साथ दीक्षा अग्रणी, संवत् 1974 चाड़वास में दिवंगत गण से पृथक् संवत् 1943 में पंडितमरण संवत् 1944 में दिवंगत 22 उपवास, 1 तेला व 17 दिन का तप, संवत् 1946 के बाद दिवंगत संवत् 1947 में स्वर्गस्थ तप-152 उपवास, 3 पचोले, 6, 7, तीन अठाई, दो दस दिन का तप संवत् 1952 में स्वर्गस्थ संवत् 1957 आमेट में स्वर्गस्थ उपवास से 8 तक लड़ीबद्ध तप, स्वर्गवास संवत् 1969 लाडनूं तप उपवास से 5, 8, 11, 13, 15 तक का तप, स्वहस्त से दो दीक्षाएं, संवत् 1974 मोसालिया में दिवंगत संवत् 1967 बड़ी पादू में स्वर्गस्थ संवत् 1940 जयपुर में दिवंगत उपवास से 12 तक लड़ीबद्ध, 17, 18, 19 का तप, संवत् 1979 डूंगरगढ़ में स्वर्गस्थ तप उपवास 17, बेले 6, तेला व 12 का तप स्वर्गवास संवत् 1969 लाडनूं जैन श्रमणियों का बृहद इतिहास Page #977 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 194. खाटू 195. तेरापंथ परम्परा की श्रमणियाँ 96. 197. 198. लाडनू 200 201. 202. 1915 क्रम संदीक्षा क्रम साध्वी-नाम जन्मसंवत् स्थान | पिता-नाम गोत्र | दीक्षा संवत् तिथि | दीक्षा स्थान | विशेष-विवरण श्री नोजांजी नंदरामजी डूंगरवाल | 1936 - जोधपुर श्री बखतावरजी पोटला घासीराम माहेश्वरी | 1936 संवत् 1958'आमेट' में स्वर्गस्थ Joश्री सिरदारांजी आकोला - ओसवाल 1936 मा. शु. 15 संवत् 1975 'लाडनू' में स्वर्गस्थ श्री मगदूजी देवरिया |- माहेश्वरी 1936 चै. शु. 8 जयपुर संवत् 1957'बेनाथा' में स्वर्गस्थ श्री चम्पाजी | 1903 बोरावड़ | गाडमलजी दूगड़ | 1936 ज्ये. कृ. 3 | बोरावड़ सात वर्ष चौविहार एकांतर, बेले से सात तक की लड़ी। संवत् 1982 पड़िहारा में दिवंगत Joश्री हीरांजी चोरडिया 1937 मासखमण तप। संवत् 1970 में दिवंगत श्री राजकंवरजी | डीडवाना ओसवाल 1937 मा. कृ. 1 उपवास 28 व एक चोला, संवत् 1943 में स्वर्गस्थ श्री ऋभ्रूजी मोमासर गुलाबचंदजी सेठिया | 1937श्री उमेदांजी | *चेलावास 1937 संवत् 1942 में गण से पृथक् 203. श्री किस्तूरांजी कुंवाथल रूपचंदजी डूंगरवाल | 1937 का. कृ. 13 | जयपुर संवत् 1994 लाडनूंमेंस्वर्गस्थ, महास्थविरा छह आचार्यों का शासनकाल देखा। 204. श्री सोनांजी समदसर | बोथरा 1937 मृ.कृ.1 सिरसा उपवाससेसात तक लड़ीबद्ध तप, 10,14, 18 का तप,स्वर्गवास संवत् 1944 के बाद 205. श्री गीगांजी किसनचंदजी चोपड़ा। 1937 म. कृ.5 सिरसा तप-उपवास, से पांच तक, आठ, ग्यारह का तप, संवत् 1984 लाडनूं में पंडितमरण 206. श्री हस्तूजी - भंडारी 1937 मृ. कृ.5 | बोरावड सात दिन के अनशन के साथ संवत् 1944 आमेट में स्वर्गस्थ श्री जड़ावांजी | 1909 बोरावड़ | चैनजी बम्ब 1937 म. कृ.5 बोरावड सेवाभाविनी, विनम्र,निर्जरार्थी, तपस्विनी 1200 उपवास,बेले कई,5,10-13 तक का तप oश्री जेठांजी -बोरावड़ - पगारिया | 1937 म. कृ. 5 बोरावड़ तप-1 से 5, 8,9 उपवास, संवत् 1945 में दिवंगत | 221 श्री इन्द्रूजी | - बोरावड़ चंडालिया 1937 म. कृ.5 बोरावड़ श्री शिवकुंवरजी पुत्री थीं, आठ उपवास, 1 बेला1 चोला। संवत् 1939 के बाद दिवंगत | कालू बोरावड़ Page #978 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्रम सं दीक्षा क्रम साध्वी-नाम जन्मसंवत् स्थान | पिता-नाम गोत्र | दीक्षा संवत् तिथि | दीक्षा स्थान | विशेष-विवरण 222 श्री शिवकंवरजी | - बोरावड़ वदूजी कुचेरिया | 1937 म. कृ. 5 बोरावड़ तप-20 उपवास व 12 दिन का तप। संवत् 1964 के बाद दिवंगत श्री गौरांजी पचपदरा -खींवसरा 1937 - संवत् 1942 में 'गण' से पृथक् 10श्री ऊमांजी | 1923 राजलदेसर सोजीरामजी बछावत| 1938 भा. कृ.2 | राजलदेसर | तप-29 उपवास, चोला व अठाई। स्वर्गवास संवत् 1985 लाडनूं जैन श्रमणियों का बृहद इतिहास Page #979 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचम आचार्य श्री मघराजजी के शासनकाल की अवशेष श्रमणियाँ (वि. संवत् 1938.49 )3° | जन्मसंवत् स्थान | पिता-नाम गोत्र | दीक्षा संवत् तिथि | दीक्षा स्थान | विशेष-विवरण क्रम सं| दीक्षा क्रम साध्वी-नाम श्री जोधांजी - सुजानगढ़ भैरुंदानजी चोरडिया 1938 भा.शु. 13 जयपुर तेरापंथ परम्परा की श्रमणियाँ श्री तीजांजी -बक्काणी 1938 फा. कृ.5 | जयपुर oश्री नानूंजी |- पचपदरा उमेदमलजी चोपड़ा 1938 फा. शु. 12 | पचपदरा श्री कसूंबाजी | 1913 पचपदरा | चतुर्भुजजी मांडोत | 1938 फा. श. 12 | पचपदरा 7 श्री कुन्नणांजी - लसानी |-*कोठारी 1938 वै. श.8 - 'खाटू 1938 श्री चांदूजी | श्री सिरेकवरजी - ओसवाल - जोगड़ - बरनोल 1938 मघवागणी की प्रथम शिष्या,कुल तप दिन (बेले से) 51, संवत् 1947 में स्वर्गस्थ उपवास 35, बेले2, एक तेला, 1 चोला, | संवत् 1966 मोमासर में स्वर्गस्थ तप-7 बेले,2 तेले,5 चोले 2 पचोला। संवत् 1984 पचपदरा में दिवंगत उपवास 29, बेला तेला चोला का तप, संवत् 1990 लाडनूं में पंडितमरण तप-1 से 5,9, 11, 15-17, 19, 20 उपवास, संवत् 1964 से पूर्व दिवंगत उपवास14,एकचोला,स्वर्गवाससंवत्1948 14 उपवास एक पचोला तप, संघ के प्रति | निष्ठावान,संवत् 1957 आमेट में स्वर्गस्थ 105 उपवास,5 चोले,13,18 का तप, संवत् 1964 के पूर्व दिवंगत पति नवलजी भी दीक्षिता तप-24 उपवास, एक तेला एक चोला। संवत् 1993 लाडनूं| में दिवंगत 35 उपवास, 3 बेले, 1 चोला, संवत् 1964 के पूर्व दिवंगत माता फूलांजी के साथ दीक्षा हुई। तप-16 उपवास,4 बेले,2 तेले,2 पचोले, संवत् 1975 लाडनूं में दिवंगत 8. | 10 श्री पन्नांजी -सायरा - सिसोदिया | 1939 पौ. शु. 3 उदयपुर 110श्री नवलांजी - गोगुंदा | टेकचंदजी पोरवाल | 1939 म. कृ.5 गोगुंदा 12 श्री फूलांजी 1927 देवगढ़ | नंदरामजी ओसवाल 1939 म. कृ. 8 | 13 श्री किस्तूरांजी | - जोजावर - ओसवाल 1939 म. कृ. 8 30. मुनि नवरत्नमलजी-शासन-समुद्र भाग-11. आदर्श साहित्य संघ, चुर (राज.) ईसवी सन् 1984 (प्र.सं.) Page #980 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 816 क्रम सं| दीक्षा क्रम साध्वी-नाम जन्मसंवत् स्थान | पिता-नाम गोत्र | दीक्षा संवत् तिथि | दीक्षा स्थान | विशेष-विवरण 12. 140श्री पन्नांजी | - 'पांचोड़ी - 'श्री श्रीमाल | 1939 पौ. शु.1 | सरदारशहर सजोड़े दीक्षा, पुत्री श्री सिरेकवरजी, संवत् 1946 में स्वर्गस्थ श्री सिरेकवरजी |- पांचोड़ी | मूलचंदजी श्री श्रीमाल | 1939 पौ. शु. 1 | सरदारशहर माता-पिता के साथ दीक्षित, संवत् 1943 उदयपुर में दिवंगत श्री राजांजी 1920 चोबारियां | हंसराजजी संचेती | 1939 आषा. शु. 13/ 34 दिनकातप, संवत् 1981 लाडनूं दिवंगत श्री गुलाबांजी - शिवपुर - - 1940 का. शु. 13 | चूरू 1-5 व 10 दिन का तप, गण से पृथक् श्री चांदूजी - देवगढ़ -खाबरा 1940 - संवत् 1943 में गण से पृथक् 10श्री नोजांजी -देवगढ़ -खाबरा 1940 मा. कृ. 11 | लाडनूं पति व पुत्र भी दीक्षित। तप-1 से 3,21, 22 काथोक,संवत् 1958 बाजोली में स्वर्गस्थ श्री गौरांजी - राजलदेसर | घमंडी रामजी घोसल | 1940 मृ. शु. - | राजलदेसर 24 उपवास, एक तेला व अठाई, संवत् 1966 राजलदेसर में दिवंगत श्री सिणगारांजी | 1905 डूंगरगढ़ सूरजमल जी मालू, 1941 भा. शु. 12 | सरदारशहर | सरल प्रकृतिकी,संवत्1985 लाडनूं दिवंगत | श्री पेमांजी 1- डूंगरगढ़ रामसिंहजी मालू | 1941 भा. शु. 12 | सरदारशहर संवत् 1942 जोधपुर में दिवंगत श्री नोजांजी | - राजलदेसर | छोगमल जी वैद | 1941 आसो,क.3 | राजलदेसर | संवत् 1964 में दिवंगत |श्री मघांजी | 1923 सरदारशहर सिरेमलजी सेठिया। 1941 आसो. शु.10| सरदारशहर | 1 से 7,9,13 की तपस्या, संवत् 1999 'लाडनूं' में स्वर्गस्थ श्री जुहारांजी - फलौदी | - बैद | 1941 का. शु.8 | सरदारशहर | 111 उपवास,6बेले,3,4,5,10,12 का तप, संवत् 1976 'लावा' में स्वर्गस्थ श्री सुजांजी - सरदारशहर | वीरभाण नवलखा | 1941 मृ.कृ.1 । सरदारशहर 78 उपवास, 6 बेले, 2 तेले,4,7,8 का तप, संवत् 1949 रतनगढ़ में दिवंगत oश्री सिणगारांजी | 1914 आमेट हुकमचंद बड़ोला । 1941 मृ.शु.3 आमेट 131 उपवास, 7 बेले, 6 तेले, 4 चोले । आठ। स्वर्गवास संवत् 1994'लाडनूं' 30 श्री रंगूजी गोगुंदा ऋषभदास जी - | 1941 पौष - करणपुरा | मासखमण तप,संवत् 1957 में दिवंगत 31 श्री जुहारांजी | गोगुंदा ताराचंदजी कोलावत 1941 वै. शु. 13 | छोटी रावलियां| तप-772 उपवास, चोला, पंचोला, संवत् 1957'बेनाथा' में दिवंगत जैन श्रमणियों का बृहद इतिहास Page #981 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्रम सं| दीक्षा क्रम साध्वी-नाम श्री चतरुजी श्री गोगांजी तेरापंथ परम्परा की श्रमणियाँ श्री रुकमांजी श्री फूलांजी श्री कालांजी श्री मखतूलांजी 34. 40 श्री जीतांजी 919 श्री पेफांजी श्री देवकंवरजी श्री रुपां जी श्री धन्नांजी जन्मसंवत् स्थान| पिता-नाम गोत्र | दीक्षा संवत् तिथि | दीक्षा स्थान | विशेष-विवरण - सुजानगढ़ 1941 आषा. कृ.5 | लाडनूं चार दिन बाद ही गण से पृथक् - रतनगढ़ | लिछमणदासजी | 1941 आषा. कृ. 5 लाडनूं उपवास 2,3,8 का तप, स्वर्गवास संवत् 1996 लाडनूं सामसुखा - पांचोली | मूलचंदजी श्री श्रीमाल 1942 आसो.शु. 14 | जोधपुर 1967 पीपाड' में स्वर्ग-प्रस्थान। | 1914 भीलवाड़ा | गोपालचंदजी छाजेड़, 1942 का. कृ. 13 संवत् 1996 'पड़िहारा' में पंडित मरण - रतनगढ़ ज्ञानचंदजी आंचलिया 1942 मा. श.7 |जोजावर उपवास 115, बेले 3, तेला, चोला तप, संवत् 1969 लाडनूं में स्वर्गस्थ - रतनगढ़ - बेगवाणी 1942 आसो.शु. 14 | जोधपुर उपवास 117, बेले 8, तेले 6,4,5,6,8, 9 का तप, संवत् 1948 को दिवंगत - रतनगढ़ चेतनदासजी कोचर | 1942 मा. शु.7 | जोजावर उपवास 52, एक बेला व एक चोला, संवत् 1973 'लाडनूं' में दिवंगत 1914 राजनगर | डालचंदजी बाफणा | 1942 फा. कृ. 12 केलवा संवत् 1997 'रतनगढ़' में स्वर्गस्थ -कोठारी 1942 चै. शु. 3 कांकरोली स्वर्गवास संवत् 1952 लाडनू' - देशनोक जेसराजजी नाहटा 1943 मृ. कृ.2 उदयपुर | संवत् 1974 'छापर' में दिवंगत - *गोगुंदा - पोरवाल 1943 मृ.शु. 14 | गोगुंदा पुत्र मगनलाल के साथ दीक्षित। उपवास 43, बेले 4, चोला 1, पंचोला 2, संवत् 1975 लाडनूं में स्वर्गस्थ -सरदारशहर | लूनकरणजार | लूनकरणजी सेठिया 1943 पौ. कृ.3 | सरदारशहर उपवास 25, तेला 1, सात 1; संवत् 1975 ददरेवा में दिवंगत - *रतनगढ़ | सुलतानमल भंसाली 1944 म. कृ. 11 सुजानगढ़ संवत् 1964 के पूर्व दिवंगत - खाटू गंभीरमलजी बैद | 1944 फा. कृ. 4 खाटू संवत् 1964 के पूर्व डालिमयुग में दिवंगत - सरदारशहर | गुलाबचंदजी पटावरी| 1944 चै.शु. 9 (प्र) सरदारशहर उपवास 64, बेले 13, तेले 6, चोले 2,7, 12,22 कातप,संवत्1974'ईडवा मेंस्वर्गस्थ 1919 सरदारशहर रायचंदजी पटावरी | 1944 चै. शु9 (प्र) | सरदारशहर उपवास 75, बेले 4, तेले 4, पांच 2; सात व दस का तप, स्वर्गवास संवत् 2002 'लाडनूं' में श्री चांदाजी श्री कालांजी श्री केशरजी श्री छोगांजी Joश्री सेरांजी Page #982 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1920 क्रम सं| दीक्षा क्रम साध्वी-नाम | जन्मसंवत् स्थान | पिता-नाम गोत्र | दीक्षा संवत् तिथि | दीक्षा स्थान | विशेष-विवरण 550श्री गौरांजी - राजलदेसर | हीरालालजी बैद | 1944 चै. शु.3(द्वि)| राजलदेसर | उपवास 103, बेले 2, तेले 4, चोले 3, एक 6; 8 का तप, स्वर्गवास संवत् 1964 के पूर्व 56 श्री गंगाजी -- *केलवा | *वेद मुंहता | 1944 चै. शु. 15 | केलवा। पुत्र व पुत्रवधू भी दीक्षित, संवत् 1975 'लाडनूं' में स्वर्ग प्रस्थान श्री जुहारांजी 1915 रतलाम | रूपचंदजी कोटकानी | 1944 चै. शु. 15 | पेटलावद उपवास 23,तेले 2,पंचोला 1 संवत् 1991 लूनकरणसर में स्वर्गस्थ श्री जड़ावांजी | - *सिसोदा |- *धाकड़ 1944 चै. शु. 15 | केलवा संवत् 1957 बेनाथा में स्वर्गस्थ श्री रायकंवरजी - लाछूडा | झूमजी आंचलिया | 1944 ज्ये. कृ. 5 | लाछूड़ा संवत् 1979 लाडनूं में दिवंगत श्री भीखां जी - सरदार शहर तेजपालजी दूगड़ 1945 आसो. शु.13 | सरदारशहर तप के कुल दिन 162, सेवाभाविनी, स्वर्गवास संवत् 1968 छापर श्री सिणगारांजी -- ऊमरी - ओसवाल 1945 का. शु.7 | सरदारशहर स्वर्गवास संवत् 1975 किराड़ा में श्री केशर जी 1909 उदयपुर | नाथूजी अमरावत | 1945 मृ. शु. 3 चूरू तप के कुल दिन 208, स्वर्गवास संवत् 1983 लाडनूं' 10श्री सिणगारांजी | *केलवा - *वेदमूथा 1945 मृ. शु. 3 सजोड़े दीक्षा, संवत् 1945 में गण से पृथक् श्री छोगांजी -बीदासर |-दूगड़ 1945 चै. शु. 2 बीदासर प्रकृति से भद्र, विनयी, कुल तप के दिन 187,सभी चौविहारी तप, संवत् 1965 में स्वर्गवास |श्री जड़ावांजी | -बीदासर - चोरडिया 1945 आषा. - बीदासर | 15 दिन बाद ही गण से पृथक् श्री सुजांजी 1928 जयपुर | भैरुदानजी बांठिया | 1945 - संवत् 1995 लाडनूं' में स्वर्गस्थ श्री तीजांजी -डूंगरगढ़ बखतावरमलजी डागा 1945 राजलदेसर | संवत् 1964 से पूर्व दिवंगत श्री मूलांजी - राजलदेसर | वींजराजजीदूधोड़िया | 1946 वै. - स्वर्गवास संवत् 1953,कुल तप संख्या 71 श्री चौथांजी - बीदासर जीवनदासजी डागा || 1947 मृ. शु. 10 स्वर्गवास संवत् 1964 के पूर्वडालिमयुग में | |श्री तीजांजी 1922 हीरालालजी बैद । 1947 मृ. शु. 11 कुल तप दिन 36,तिविहारी अनशन 7 दिन | राजलदेसर चौविहारी4 दिन कुल 11 दिन के अनशन के साथ संवत् 1997'लाडनूं' में स्वर्गस्थ जैन श्रमणियों का बृहद इतिहास Page #983 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्रम सं | दीक्षा क्रम| साध्वी-नाम जन्मसंवत् स्थान| पिता-नाम गोत्र | दीक्षा संवत् तिथि | दीक्षा स्थान | विशेष-विवरण श्री नाथांजी -रीणो हीरालालजी लूनिया | 1948 आसो. शु. 3 | जयपुर तप के दिन 37, संवत् 1960 में दिवंगत Joश्री आसांजी --बीदासर जेठमलजी बैंगानी | 1948 आसो. शु. 3 जयपुर स्वर्गवास संवत् 1974 'डीडवाना' श्री पेफांजी -सनवाड़ - चींपड़ 1948 म. कृ.3 जयपुर संवत् 1973 चाड़वास में स्वर्गस्थ श्री जीवणांजी - पड़िहारा - ओसवाल 1948 - संवत् 1957 में दिवंगत श्री चावांजी - फतेहपुर हिन्दुमलजी बोहरा 1948 फा. शु.5 संवत् 1972 'लाडनूं' में दिवंगत श्री सिणगारांजी | 1914 देवगढ़ रामलालजी पीतिलया 1948 वै. शु. 13 रतनगढ़ पुत्र भीमराजजी के साथ दीक्षित, संवत् 1987 लाडनूं' में स्वर्गस्थ श्री गंगाजी |- राजलदेसर | मोतीलालजी घोसल | 1948 ज्ये. कृ. 11 | रतनगढ़ | पुत्री चांदकंवरजी के साथ दीक्षित, संवत् 1956 में दिवंगत श्री चांदकंवरजी | - रतनगढ़ सरजमलजी बैद 1948 ज्ये. कृ. 11 | रतनगढ़ संवत् 1963 में दिवंगत |श्री पेफांजी |- *गड़बोर - ओसवाल 1949 मारवाड़ संवत् 1973 'लाडनूं' में दिवंगत तेरापंथ परम्परा की श्रमणियाँ Page #984 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 922 क्रम सं दीक्षा क्रम 1. 2. 3. 4. 5. 6. 7. &. 9. 10. 11. 12. 13. 14. 15. षष्ठम आचार्य श्री माणकलालजी के शासनकाल की अवशेष श्रमणियाँ ( संवत् 1949-1954)31 पिता - नाम गोत्र दीक्षा संवत् तिथि दीक्षा स्थान विशेष- विवरण - बोकड़िया 1949 आषा.कृ. 3 (द्वि) लाडनूं माणकगणी की प्रथम शिष्या, संवत् 1974 खाटू में स्वर्गस्थ संवत् 1952 में दिवंगत संवत् 1960 'डीडवाना' में स्वर्गगमन संवत् 1956 'रीणी' (तारानगर) में दिवंगत संवत् 1953 में स्वर्गस्थ प्रवचन दक्ष, संवत् 1985 ' लाडनूं' में पंडितमरण संवत् 1975 'हिसार' में स्वर्गस्थ संवत् 1957 ' आमेट' में स्वर्गवास 16. 17. 18. 1 3 4 5 6 7 8 10 12 13 14 15 17 19 20 22 23 21 24 साध्वी - नाम श्री लिछमांजी श्री केसरजी श्री चत्रूजी श्री गौरांजी श्री लिछमांजी श्री जड़ावांजी श्री हस्तूजी श्री जड़ावांजी श्री वरजूजी श्री कुंवरांजी ० श्री सोनांजी ० श्री पद्मांजी श्री नजरकंवरजी श्री चूनांजी श्री सोनांजी श्री अणचांजी श्री पारवतांजी श्री चांदाजी जन्मसंवत् स्थान दुगोली रतलाम बीकानेर देशनोक सीणयाल 1940 रीणी नोहर लावा 1923 माधोपुर * मोखणुंदा 1926 सरदारशहर - सरदारशहर 1938 गंगापुर - श्री डूंगरगढ़ राजलदेसर 1939 चाड़वास - हरियाणा देशनोक भागीरथजी अग्रवाल 1950 पौष - ओसवाल 1950 ओसवाल 1950 ओसवाल 1950 जोरावरमलजी बोथरा 1951 मृ. कृ. 11 1951 भा. कृ. 3 1951 पौ.शु. 2 1952 फा. कृ. 5 1952 ज्ये. कृ. 6 (प्र.) 1952 ज्ये. कृ. 6 (प्र.) - श्री श्रीमाल - ओसवाल कुंजलालजी पोरवाल देवीचंदजी बोरदिया गिरधारीलाल दफतरी हीरालालजी जम्मड़ शोभाचंदजी भंडारी लिखमीचंद पुगलिया कोडामलजी नाहर बीजराजजी दूगड़ - अग्रवाल - सांड 1952 ज्ये. कृ. 6 (प्र.) 1952 ज्ये. कृ. 6 (द्वि.) 1953 का. कृ. 8 1953 का. शु. 14 1953 मृ. कृ. 3 1953 मृ. कृ. - 1953 आषा.शु. 10 31. मुनि नवरत्नमलजी - शासन - समुद्र भाग-13. जैन विश्व भारती, लाडनूं ईसवी सन् 1985 (प्र.सं.) भादरा भिवानी भिवानी लाडनूं रीणी नोहर राजलदेसर लाडनूं - सरदारशहर सरदारशहर राजलदेसर बीदासर बीदासर चाड़वास गोठ्या - संवत् 1999 ‘लाडनूं' में स्वर्गस्थ संवत् 1989 'लाडनूं' में स्वर्गस्थ संवत् 1981 'लाडनूं' में स्वर्गगमन माणकगणी के समय गण से पृथक् भाई नथराजजी भी दीक्षित, संवत् 2008 ‘लाडनूं' में स्वर्गस्थ संवत् 1976 'उज्जैन ' में दिवंगत संवत् 1978 ' थामला' में दिवंगत संवत् 1987 'डीडवाना' में दिवंगत संवत् 1954 में गण से पृथक् संवत् 1968 'बीकानेर' में दिवंगत जैन श्रमणियों का बृहद इतिहास Page #985 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्तम आचार्य श्री डालचंदजी के शासनकाल की अवशेष श्रमणियाँ (संवत् 1954-66) तेरापंथ परम्परा की श्रमणियाँ क्रम सं| दीक्षा क्रम| साध्वी-नाम जन्मसंवत् स्थान | पिता-नाम गोत्र | दीक्षा संवत् तिथि | दीक्षा स्थान | विशेष-विवरण | 1 श्री दाखांजी - बछेड़ी - भंडारी 1954 चै.कृ.3 पुत्र, पुत्रवधूव पौत्र के साथ दीक्षित, सं. 1972 ईडवा में दिवंगत श्री नाथांजी |- गोगुंदा ताराचंदजी खोखावत | 1954 वै.शु. 5 गोगुंदा सं. 1966'पचपदरा' में स्वर्गस्थ श्री आसांजी |- बीकानेर पीरदानजी मालू | 1954 आषा.कृ. 6 | राजलदेसर | सं. 1964 के पूर्व दिवंगत श्री खेतूजी - राजलदेसर किस्तूरचंदजी धाड़ेवा | 1954 आषा.कृ.6 | राजलदेसर | सं. 1973 खेरवा में दिवंगत श्री चम्पाजी * गोगुंदा दीपचंदजी लोढ़ा | 1955 मृ.कृ. 10 | छोटी रावलियां| तप की कुल संख्या 1256, | संवत्. 1993 सुघरी में दिवंगत श्री इन्द्रजी छोटी रावलियां - बोहरा 1955 मृ.कृ. 10 | छोटी रावलियां| संवत्. 1975 सिसाय में दिवंगत 80श्री रंभाजी - 'गोगुंदा 1- 'सुराणा | 1955 चै.कृ.5 बीदासर सजोड़े पुत्री सहित दीक्षा, संवत्. 1972; शिववाड़ी में पंडितमरण 9 श्री खुमाणांजी |- गोगुंदा श्रीपालजी सुराणा | 1955 चै. कृ. 5 | बीदासर | श्री रंभाजी की पुत्री, उपवास से 11 तक लड़ीबद्ध तप, संवत्. 1993 दौलतगढ़ में दिवंगत 11 श्री अमृतांजी - महाजन ग्राम | तेजमलजी छाजेड़ | 1956 का. कृ.8 | सरदार शहर | संवत्. 1964 में दिवंगत 12 श्री सुन्दरीजी 1920 श्री डूंगरगढ़ उदयचंदजी गोठी | 1956 का. कृ.8 सरदारजहर तप-उपवास से 5 तक की लड़ी व 11 उपवास तक तप की संख्या 3782, संवत् 1997 लाडनूं में स्वर्गवास Dश्री भूरांजी |- झखणावद भागचंदजी पारलेचा | 1956 वै.शु. 3 पेटलावद | संवत् 1993 खेजड़ला में दिवंगत श्री मोतांजी 1-झखणावद |- पालरेचा 1956 वै.शु. 3 | पेटलावद | संवत् 1993 में दिवंगत 15 श्री सुगनांजी 11919 उदासर मेघराजजी बोथरा | 1956ज्ये.शु. 13 | बीकानेर | संवत् 2003 लाडनूं में दिवंगत श्री चूनांजी - आमेट - ओसवाल 1957 श्रा.कृ.1 पुर संवत् 1964 में दिवंगत श्री इमरतांजी - देशनोक - बोथरा 1957 भा.कृ.5 बीदासर संवत् 1965 मोसालिया में स्वर्गवास 32. मुनि नवरत्नमलजी-शासन-समुद्र भाग-13. जैन विश्व भारती, लाडनूं ईसवी सन् 1985 (प्र.सं.) Page #986 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जन्मसंवत् स्थान पिता-नाम गोत्र | दीक्षा संवत् तिथि दीक्षा स्थान - विशेष-विवरण बीदासर क्रम सं| दीक्षा क्रम साध्वी-नाम श्री छोटांजी श्री सुखांजी श्री सुखांजी |श्री हेतूजी बीदासर * समदड़ी - ओसवाल 1957 भा.कृ.5 |- अहीपुरा - ओसवाल । 1957 भा.कृ.5 |1916 मकरोल लेखजी हरिया 1957 मृ.कृ. 12 1930 झखणावद | लूणकरणजी बालेसरा| 1957 फा.कृ.5 | समदड़ी | झखणावद |श्री तखतांजी 1929 सुजानगढ़ | विदामलजी चोरड़िया | 1957 ज्ये.कृ. 14 | लाडनूं श्री पेफांजी 1927 राजनगर | उदयरामजी मुंहता | 1957 आषा. पु. 12| गंगापुर 924 श्री सोनांजी 1918 आड़सर 10 श्री सुखदेवांजी - तारानगर 10 श्री सेराजी |1933 डूंगरगढ़ | सालमचंदजी भूतोड़िया | 1958 श्रा.शु.7(द्वि) | राजलदेसर | हंसराजजी सुराणा | 1958 भा.शु. 13 राजलदेसर |कोडामलजी सेठिया। 1958 भा.शु. 13 राजलदेसर संवत् 1964 के पूर्व दिवंगत | संवत् 1964 के पूर्व दिवंगत | संवत् 1981 में दिवंगत कुल तप के दिन 1743, स्वर्गवास संवत् 1994 जोधपुर अग्रणी, कुल तप के दिन 1972, संवत् 2003 'लाडनूं' में स्वर्गवास अनेक वर्ष अग्रणी, कुल तप दिन 447, आठ दिन अनशन सह संवत् 1997 कोलिया में दिवंगत | संवत्. 2002 में दिवंगत | संवत्. 1979 में दिवंगत उपवास से दस दिन तक क्रमबद्ध तप, सं. 1989'कंटालिया' में दिवंगत | अग्रणी, 1 उपवास से सात दिन तक की लड़ी व 10 दिन का तप,संवत् 1996 छोटी खाटू' में दिवंगत | संवत् 1978 'बगड़ी' में स्वर्गवास संवत् 1971 'डीडवाना' में स्वर्गस्थ संवत् 1997 लाडनूं' में दिवंगत संवत् 2003 लाडनूं' में दिवंगत तप.1 से 5,10,11,15 उपवासव धर्मचक्र, सं. 2001 'निम्बी' के मार्ग में दिवंगत संवत् 1975'पडिहारा' में दिवंगत 2 श्री केशरजी हेमराजजी सुराणा | 1958 भा.शु. 13 | राजलदेसर 0 0 श्री चांदाजी D श्री भत्तूजी श्री पांचांजी श्री जमनांजी | श्री चांदाजी 0 - वरणी चतुर्भुजजी श्रीमाल | 1958 मृ.शु. 2 |- सरदारशहर | कोडामलजी नाहटा | 1958 मृ.शु. 5 [1923 लूनकरणसर पेमराजजी सेठिया 1958 वै.शु. 8 |1931 लूनकरणसर| देवचंदजी बरमेचा 1958 वै.शु.8 -- आमेट | भगतरामजी पिछोलिया | 1958 वै.शु. 8 गंगापुर बीदासर कालू 0 0 | कालू जैन श्रमणियों का बृहद इतिहास 0 श्री हगामांजी |- आमेट डालचंदजी मादरेचा] 1958 आषा.कृ.8 | आमेट Page #987 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्रम सं| दीक्षा क्रम साध्वी-नाम जन्मसंवत् स्थान, पिता-नाम गोत्र | दीक्षा संवत् तिथि | दीक्षा स्थान | विशेष-विवरण 32 | 37 0 श्री लिछामांजी |1936 सुजानगढ़ | धनराजजी चोड़िया | 1958 आष्ठा.जु 9 | जोधपुर तेरापंथ परम्परा की श्रमणियाँ 38 श्री उमेदांजी -सादड़ी पन्नालालजी पोरवाल, 1959 का.कृ.8 | यथोचित ज्ञान,स्वाध्याय,जप आदि;तप-1 से 5 तक की संख्या 515,संवत् 1965 से अग्रण,सवत् 1990 भीनासर' मेंस्वर्गवास पति प्राग्दीक्षित हुए, संवत्. 1966 'बूचावास' में दिवंगत तप के कुल दिन 2202, स्वर्गवास संवत्. 2005 लाडनूं' संवत् 1992 'डूंगरगढ़' में दिवंगत संवत् 1975 'राजलदेसर' में दिवंगत | जोधपुर श्री हेमांजी 1930 आसोतरा | वसतीरामजी कुहाड़ | 1959 का.कृ.8 | जोधपुर 1959 का.शु. 15 1959 मा.कृ. 10 जोधपुर | गोगुंदा | श्री पन्नांजी - राजनगर मानमलजी बाफणा | श्री मघूजी - लूनकरणसर | कुशलचंदजी | नौलखां श्री जीवूजी - सरदारशहर मोडसीजी घीया oश्री एजणांजी |1931 पुर। सवाईरामजी सिंघी 1959 मा.कृ. 10 1959 मा.कृ. 10 | गोगुंदा | गोगुंदा | श्री चांदाजी | 1928 आमेट | मगनीरामजी पिछोलिया | 1959 ज्ये.शु. 11 श्री सिरदारांजी |1937 मोखणुंदा | लच्छीरामजी पीतलिया | | 1959 आशा. भा.9 | मोखणुंदा |श्री भूराजी 1936 लसाणी नंदरामजी बरडिया 1960 मृ.कृ.8 गंगापुर संवत् 1967 'राजलदेसर' में दिवंगत कुल तप दिन 1393, 1 से 15 तक लड़ीबद्ध तप, संवत्. 2000 'लाडनूं' में स्वर्गस्थ संवत् 1964 के पूर्व दिवंगत तप-उपवास से नौ तक लड़बद्ध, कुल दिन 4977,संवत् 2027 लाडनूं' में दिवंगत कुल तप संख्या-458, संवत्. 1982 'छापर' में स्वर्ग-प्रस्थान संवत्. 1983 सेलागुड़ा' में दिवंगत उपवास से 5,7,8,10,13,19 तक का तप,संवत्. 1985 'लुहारी' में स्वर्गस्थ उपवास से 15 तक लड़ी, ऊपर 22, 30, 31 का तप, कुल दिन 4027,14 दिन के संथारे सह संवत् 1997 'डूंगरगढ़' में स्वर्गवास श्री हगामांजी श्री ज्ञानांजी गंगापुर 11934 बेमाली |हजारीमलजी मंगावत 1960 म.कृ. 8 11925 देवरिया भारमलजी पीतलिया 1960 मृ.शु. 10 44. | 51 श्री छोगांजी |1925 लाडनूं | मगनीरामजी भंसाली| 1960 मृ. भा. 14 | लाडनूं Page #988 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (www.jainelibrary.om 926 क्रम सं दीक्षा क्रम साध्वी नाम 45. 46. 47. 48. 49. 50. 51. 52. 53. 54. 55. 56. 57. 58. 59. 52 54 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 श्री परतावांजी 1926 सिसोदा श्री सूवटांची श्री फूलांजी श्री जड़ावांजी श्री जड़ावांजी श्री नोजांजी जन्मसंवत् स्थान श्री मगनांजी श्री हुलासांजी श्री मगनांजी श्री भूरांजी टमकोर 1942 गोगुंदा 1932 छापर श्री लाभूजी श्री दरियावांजी 1942 इंदौर श्री इन्दूजी श्री गोगांजी श्री वपूजी रतनगढ़ 1922 चूरु 1924 ताल 1932 मोखणुंदा 1937 पचपदरा गंगापुर 1931 मोखणुंदा बागौर 1937 पलाणा पिता-नाम गोत्र सूरजमलजी कोठारी जालमचंदजी चोरड़िया 1960 पौ. कृ. 6 ऋषभदासजी चपलोत 1960 म7 किस्तूरचंदजी नाहटा 1960 फा. शु. 5 तनसुखलालजी गोलेचा 1960 ज्ये. कृ. 5 गुलाबचंदजी कोठारी 1960 ज्ये. कृ 13 गिरधारीमलजी बैद 1960 ज्ये. कृ. 13 गंगारामजी मोदी दीक्षा संवत् तिथि 1960 मृ.शु. 15 लिखमीचंदजी नाहर बालचंदजी गंग हजारीमलजी लोढा हजारीमलजी हिरण सीतारामजी गुलगुलिया भवानीरामजी बोहरा नवलचंदजी राठौड़ 1961 भा.शु. 13 1961 भा. शु. 13 1961 भा. शु. 13 1961 का. कृ. 13 1961 पौ.शु. 11 1961 पौ.शु. 11 1961 पौ.शु. 11 1961 मा.सु. 14 दीक्षा स्थान बीदासर बीदासर सरदारशहर चूरू चूरु 喝喝喝 सरदारशहर सरदारशहर सरदारशहर रतनगढ़ विशेष विवरण उपवास से 7 तक लड़ीबद्ध तप के कुल दिन 1772, संवत्. 1997 ' लाडनूं' में दिवंगत संवत् 1975 को दिवंगत हुई। तप के कुल दिन 304, संवत् 1993 'रामगढ़' में दिवंगत उपवास से 6 तक की लड़ी के कुल दिन 870, अग्रणी, संवत् 1995' आसींद 'मॅस्वर्गस्थ संवत् 1965 में दिवंगत 16 वष्ठा तक प्रतिमास 10 उपवास, 16, 17.22 दिन का तप भी किया, प्रतिदिन लगभग तीन हज़ार गाथाओं का स्वाध्याय, संवत् 2000 को 'राजलदेसर' में स्वर्गवास संवत् 1974 ' सरदारशहर में दिवंगत संवत् 1996 'छोटी खाटू' अग्रगण्या, 6 दिन की संलेखना सह संवत 2016' डीडवाना' में दिबंगत संवत् 1997 ' छापर' में दिवंगत संवत् 2012 ' लाडनूं' में स्वर्गस्थ अग्रणी, तप के कुल दिन 1211 संवत् 1996' आडसर' में दिवंगत संवत् 1974 'छोटी खाटू' में स्वर्ग प्रस्थान तप के दिन 1375, स्वर्गवास संवत् 1997' बीदासर' संवत् 1991 ‘लाडनूं' में दिवंगत संवत् 1980 'छापर' में स्वर्गस्थ जैन श्रमणियों का बृहद इतिहास Page #989 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्रम सं दीक्षा क्रम, साध्वी-नाम जन्मसंवत् स्थान पिता-नाम गोत्र दीक्षा संवत् तिथि | दीक्षा स्थान श्री गीगांजी श्री भूरांजी |- सरदारशहर |1936 बरार आसकरणजी बैद | फूसोजी दक | 1961 मा.शु. 14 रतनगढ़ 1961 मा. भा. 14 | रतनगढ़ तेरापंथ परम्परा की श्रमणियाँ 72 श्री जतनकंवरजी - किशनगढ़ | रेवतसिंहजी मुणोत | 1961 वै.शु.7 10श्री चांदाजी 1939 सरदारशहर | भैंरुदानजी पींचा 1962 भा.कृ.12 | लाडनूं लाडनूं |श्री जड़ावांजी |सदमलजी बोथरा | 1962 मृ.शु. 14 | सुजानगढ़ श्री मनोरांजी |बीदासर - भिवानी हरभजनलालजी जैन | 1962 मा.शु. 10 अग्रवाल |1937 सरदारशहर | पनचंदजी चंडालिया 1969 भा. कृ. 11 श्री भूराजी सरदारजहर | विशेष-विवरण स्वर्गवास संवत्. 1971 'सिरियारी' में विनयी, सरल, अनेक स्तोक व्याख्या कंठस्थ, तप-1 से 9 तक लड़ी, 18 का तप, 41 दिन की संलेखना, कुल दिन 3298,संवत् 2029 डूंगरगढ़' में स्वर्गवास स्वर्गवास संवत्. 1974 ईडवा' में अग्रणी, तपसाधिका, तप के कुल दिन 1405,संवत् 2013 'चाड़वास' में दिवंगत तपके दिन 1568, संवत्. 2017 खिंवाड़ा' | में दिवंगत | दो भ्राता दीक्षित,अग्रणी,तप के दिन 621, संवत् 1993 'आसपालसर' में दिवंगत तप- उपवास से 5 तक, अठाई दो, कुल दिन 3990, नौ दिन संलेखना संथारा सह। संवत् 2024 'लाडनूं' में दिवंगत तप के कुल दिन 579, संवत् 1990 'सादासर' में दिवंगत तपके दिन 522,संवत्. 1983 'समदड़ी' में पडित मरण 36 वर्ष अग्रणी, संवत्. 2004 'चूरू' में स्वर्गवासिनी माता श्री हुलासांजी थीं। संवत्. 2039 लाडनूं' में स्वर्गवास संवत्. 1979 में दिवंगत व्याख्यान कला में प्रवाण, साहसिका, अग्रणी,संवत् 1987'रामसिंह का गुडा' में स्वर्गस्थ चोरडिया श्री चूनांजी 1963 भा.कृ.11 | सरदारशहर |1944 सरदारशहर| मिरजामलजी चोरड़िया 1944 सरदारशहर| सिरेमलजी दूगड़ श्री नानूंजी | 1963 भा.कृ.11 सरदारशहर श्री हुलासांजी |1938 चूरू | भीवराजजी पारख | 1963 आसो.शु. 10 | सरदारशहर | श्री केशरजी |1955 राजलदेसर | हरखचंदजी बैद | 1963 आसो.शु. 10 | सरदारशहर Joश्री जड़ावांजी 840श्री भत्तूजी |- सरदारशहर | हनूतमलजी पींचा | 1963 का.शु.8 |1937 छापर | किस्तूरचंदजी नाहटा | 1963 पौ. कृ. 2 | सरदारशहर | चूरु Page #990 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्रम सं | दीक्षा क्रम साध्वी-नाम श्री मुखांजी श्री सरसांजी 86 श्री दाखांजी श्री ज्ञानांजी श्री नानूंजी 910श्री अजबूजी श्री चम्पाजी 928 |जन्मसंवत् स्थान| पिता-नाम गोत्र | दीक्षा संवत् तिथि | दीक्षा स्थान | विशेष-विवरण - बीदासर | पूनमचंदजी बैंगानी | 1963 पौ. कृ. 2 | चूरू संवत् 1973 'बगड़ी' में दिवंगत |1942 कड़दा जीतमलजी पोरवाल| 1963 मा. कृ. 3 रतनगढ़ कुल तप दिन 1376, संवत् 2003 'पीलीबंगा' में दिवगत 1938 आमेट साहिबरामजी भंडारी| 1963 मा. कृ.3 | रतनगढ़ कुल तप के दिन 664, संवत् 1985'सांडवा' में दिवंगत |1927 आसींद | देवचंदजी बाफणा | 1963 मा. शु.7 | सरदारशहर 11 वर्ष एकांतर तप, संवत् 2011 'लाडनूं में दिवंगत 1936 जसोल | देवोजी सालेचा 1963 आषा. शु.7 | बीदासर संवत् 2008 'डीडवानां' श्री रतनांजी के साथ-साथ दिवंगत 1942 पुर गौरीलालजी चौधरी| 1964 भा. शु.2 |बीदासर संवत् 2002 'लाडनूं' में स्वर्गगमन । 1939 आसोतरा सिरदारमलजीडोसी| 1964 भा. भा. 2 | बीदासर उग्र तपस्विनी-1 से 16 तक तप,19,20, 30 कुल तप दिन 3749; 44 दिन के संलेखन संथारा सह 'लाडनूं' में संवत् 2012 को दिवंगत 1943 जसोल प्रेमचंदजी कोठारी | 1964 आसो.कृ. 14 | बीदासर कुल तप संख्या 1570 संवत् 2005 लाडनूं' में दिवंगत 1928 राजाजी का| जुहारमलजी रांका | 1964 मृ.शु. 13 |सुजानगढ़ संवत् 1984'सरदारशहर' में स्वर्गवास करेड़ा 1931 राजाजी का| जुहारमलीजी रांका | 1964 मृ. शु. 13 |सुजानगढ़ श्री हरियां जी की बहन थीं, करेड़ा संवत् 2011 लाडनूं में स्वर्गस्थ 1993 राजाजी का गुलाबचंदजी मेर | 1964 मा. भा. 7 | लाडनू तपस्विनी-1 से 5 तक की तपस्या, कुल दिन3339,संवत् 2020'लाडनूं'पंडितमरण 1943 पचपदरा | बनैचंदजी सालेचा | 1964 वै. शु.7 लाडनूं संवत् 1965 में स्वर्गगमन लाडनूं गुलाबचंदजी पटावरी 1964 आषा. शु.7 | लाडनूं संवत् 1967 लाछड़सर' में दिवंगत 1939 लाडनं | हरखचंदजी बांठिया| 1964 आषा. श.7 | लाडनं संवत् 2022 लाडनूं' में स्वर्गवास 80. | 93 श्री प्यारांजी श्री हरियांजी श्री दाखांजी |श्री जड़ावाजी श्री प्यारांजी | श्री हुलासांजी nश्री छगनांजी जैन श्रमणियों का बृहद इतिहास Page #991 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तेरापंथ परम्परा की श्रमणियाँ लाडनूं 66 क्रम सं | दीक्षा क्रम| साध्वी-नाम | जन्मसंवत् स्थान | पिता-नाम गोत्र | दीक्षा संवत् तिथि | दीक्षा स्थान | विशेष-विवरण |श्री कंकूजी |- पलाणा | गेगराजजी पोरवाल | 1965 आसो.शु. 15 | लाडनूं तपके दिन 794.स्वर्गवाससंवत्1992'धोइंदा' श्री मानांजी 1940 रतनगढ़ |कोडामलजी धाडेवा| 1965 म. कृ.1 लाडनूं संवत् 1992 कंटालिया' में दिवंगत श्री मानांजी - छापर मोतीचंदजी बैद 1965 मृ. कृ.1 लाडनूं संवत् 1976 'राजलदेसर' में दिवंगत 0 श्री विरधांजी |1944सुजानगढ़ |चूनीलालजी सेठिया 1965 मृ कृ. 13 नौ वर्ष अग्रणी, कुल तप के दिन 339, | संवत् 1988'बगड़ी' में स्वर्गस्थ 0 श्री मालूजी 1947 सरदारशहर | नौलचंदजी दूगड़ 1965 मृ शु5 लाडनूं 31 वर्ष अग्रणी,कुल तप संख्या 1394, संवत 2004 दस दिन के चौविहारी तप के साथ छापर' में स्वर्गस्थ 110 0 श्री तीजांजी |1943 खींयासर | डूंगरसीजी बछावत | 1965 मृ. शु. 5 लाडनूं तप-1629 उपवास, 17 बेले, संवत् 2012 'लाडनूं' में दिवंगत | 111 श्री बालूजी 1939 सरदारजहर | चांदमलजी डागा 1965 मू5 लाडनूं तपस्विनी-1 से 8 तक लड़ी,16,43 कुल दिन 1908,संवत् 2001 'ईडवा' में 23 दिन के अनशन सेस्वर्गवास - श्री बखतावरजी 1957 सरदारशहर मेघराजजी सेठिया । 1965 मृ. शु. 5 माता बालूजी के साथ दीक्षा,संवत् 2022 'राजलदेसर' में दिवंगत 2 श्री सूवटांजी 1944 छापर तेजमलजी बैद | 1965 पौ. कृ. 13 लाडनूं तपके दिन 1914,स्वर्गवास संवत् 2007 'लाडनूं' में 2 श्री चिमनांजी 1950 राजलदेसर | हरखचंदजी गिड़िया | 1965 पौ. कृ. 13 लाडनूं वैराग्यवान,42 दिन के संलेखनावअनशन सह संवत् 2012 बीदासर' में दिवंगत श्री कंकूजी 1937 पीपली चौथमलजी पीतलिया| 1965 मा. शु.7 लाडनूं तप के दिन कुल 6660, चौविहार बेले के साथ संवत् 2025 'लाडनूं' में दिवंगत श्री नाथांजी - जसोल | वनेचंदजी सालेचा | 1965 मा. शु. 7 लाडनूं तप के कुल दिन 756,संवत् 1982 छापर' में दिवंगत 0 श्री कुन्नाणांजी |1963 आसोतरा सिरदारमलजी डोसी| 1965 मा.ना.7 लाडनूं तपस्विनी-1 से 9 दिन तक लड़ीबद्ध तप के कुल दिन 2464;संवत् 2012'चाड़वास' में स्वर्गस्थ लाडनूं Page #992 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 930 क्रम सं दीक्षा क्रम 100. 101. 102. 103. 104. 119 121 123 124 125 साध्वी-नाम ० श्री गौरांजी श्री पारवतांजी जन्मसंवत् स्थान - समदड़ी 1938 जसोल श्री संतोकांजी पिता - नाम गोत्र सागरमलजी भंसाली जैतरुपजी गांधी श्री मोतांजी रतनगढ़ हेमराजजी सिंघी श्री कुन्नाणांजी 1949 सरदारजहर इन्द्रचंदजी चोरड़िया 1957 सरदारशहर नथमलजी नौलखा दीक्षा संवत् तिथि 1965 मा. शु. 7 1965 फा. शु. 1 1965 भा. शु. 10 1965 भा. शु. 10 1965 भा. शु. 10 दीक्षा स्थान लाडनूं लाडनूं लाडनूं लाडनूं लाडनूं विशेष- विवरण संवत् 1975 'पचपदरा में स्वर्गस्थ तप के कुल दिन 1673 संवत् 2006 'मलसीसर' में दिवंगत संवत् 1967 में स्वर्ग-प्रस्थान एकनिष्ठ, अग्रणी प्रभाविका, तप-1 से 5 और अठाई, संवत् 2015 'पीपाड़' में पंडितमरण पांच आगम कंठस्थ, एक दिन में 100 पद्य कंठस्थ किये, डेढ़ हजार गाथाओं का रोज स्वाध्याय तप संख्या 386, संवत् 1983 'चूरू' में दिवंगत । जैन श्रमणियों का बृहद इतिहास Page #993 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टमाचार्य श्री कालूगणीजी के शासनकाल की अवशेष श्रमणियाँ (संवत् 1966-92)33 तेरापंथ परम्परा की श्रमणियाँ 931 क्रम संदीक्षा क्रम साध्वी-नाम जन्मसंवत् स्थान |पिता-नाम गोत्र । दीक्षा संवत् तिथि | दीक्षा स्थान | विशेष-विवरण Joश्री लिछमांजी | 1945 गोगुंदा | पन्नालालजी 1966 दीपावली लाडनू 1 से 12 तक की तपस्या के कुल दिन | अमरावत 1583,संवत् 1995 आसपालसर में दिवंगत | श्री मालूजी | - कोरणा बुद्धमलजी कोठारी| 1966 दीपावली लाडनूं संवत् 1966 चै कृ. 12 कोमोमासर मेंस्वर्गस्थ | श्री रूपांजी - बालोतरा 1966 का. शु. 11 लाडनूं संवत् 1967 कालू में स्वर्गस्थ श्री धनकंवरजी 1937 सिरसा टीकमचंद जी । 1966 मृ.शु. 14 लाडनूं | संवत् 1978 में चाड़वास में स्वर्गस्थ पारख 5. | 5 Inश्री जमनांजी 1939 गोगुंदा मगनमलजी 1966 मृ.शु. 14 लाडनूं सरल, आत्मार्थिनी, तप के दिन 4469, कुणावत संवत् 2025 लाडनूं में 29 दिन की संलेखना सह दिवंगत 6 श्री रमकूजी 1926 माधोपुर | बलदेवजी डंगडा | 1966 पौ. शु. 15 | राजलदेसर | संवत् 1986 लाडनूं में दिवंगत 7 श्री फूलांजी 1942 नोहर चुन्नीलालजी 1966 फा. कृ.5 बीदासर अग्रण्या, तप के दिन 1128, संवत् 1991 सिपाणी राजगढ़ में दिवंगत 8 श्री पन्नांजी 1946 सरदारशहर छोगमल जी 1966 फा. शु. 11 | सरदारशहर |तपके दिन 598,नौ दिन की संलेखना सह कोठारी संवत् 2025 लाडनूं में स्वर्गस्थ | 9 श्री सुवटांजी 1939 सरदारज़हर उगमचंदजी डागा | 1966 चै.शु. 8 सरदारशहर | तपस्विनी-उपवास से 12 तक लडीबद्ध और 15 से 18 तक के पांच थोकड़े, लघु सिंह-निष्क्रीड़ित तप की प्रथम परिपाटी, कुल तप दिन 2912,संवत् 2009 में 14 दिन की चौविहारी संलेखना व अनज़न सह सरदारज़हर में दिवंगत Joश्री अमरूजी | - आंगदू - ओसवाल | 1967 आसो. कृ.11 | सरदारशहर | संवत् 1974 पड़िहारा में दिवंगत 11. | 12 0श्री झमकूजी | 1950 सुजानगढ़ | तोलारामजी 1967 का. शु.5 | सरदारशहर | तप के कुल दिन 921, चोरडिया स्वर्गवास संवत् 2005 सुजानगढ़ 33. मुनि नवरत्नमलजी-शासन-समुद्र भाग-15-16. जैन विश्व भारती, लाडनूं ईसवी सन् 1986 (प्र.सं.) * नोट : श्री कालूगणीजी की श्रमणियों का संवत् 2042 के बाद का विवरण अनुपलब्ध है। Page #994 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्रम सं| दीक्षा क्रम साध्वी-नाम जन्मसंवत् स्थान पिता-नाम गोत्र | दीक्षा संवत् तिथि | दीक्षा स्थान | विशेष-विवरण 13 श्री रुकमांजी 1953 डूंगरगढ़ | हरखचंदजी डागा | 1967 का. शु. 13 | सरदारशहर | तप के दिन 1270, संवत् 2026 लाडनूं में नौ दिन की संलेखना व चौविहारी अनशन से दिवंगत |श्री हीरांजी 1943 डूंगरगढ़ रामलालजी लोढ़ा । 1967 का. शु. 13 | सरदारशहर | तप के दिन 1836.दस दिन की संलेखना संथारे सह संवत् 2004 बीदासर में स्वर्गस्थ श्री मूलांजी 6:944 आमेट |रिखबदासजी बोहरा | 1967 मा. कृ.1 | रतनगढ़ | अग्रणी, तप के दिन 805, संवत् 2002 जोबनेर में स्वर्गस्थ | श्री सोनांजी 11957 आसोतरा | सदासखजी कोठारी 1967 मा. शु. 14 राजलदेसर |संवत् 1979 राजलदेसर में दिवंगत श्री संतोकांजी |1936 सरदार शहर चुन्नीलालजी दूगड़ | 1967 वै. शु. 1 । सुजानगढ़ | पुत्री गणेशांजी भी दीक्षित हुईं, संवत् 1999 डूंगरगढ़ में दिवंगत श्री छगनांजी 11948 बीदासर |तनसुखदास शेखानी| 1968 श्रा. शु. 1 | बीदासर | संवत् 2019 छापर में दिवंगत 10श्री चांदाजी 11940 डूंगरगढ़ | जेसराजजी नवलखा| 1968 भा. कृ.3 | बीदासर संवत् 1981 बीदासर में स्वर्गस्थ |श्री पेमांजी 11942 राजलदेसर | नोलरामजी कोठारी | 1968 भा. कृ.3 | बीदासर तप के दिन 1329, स्वर्गवास संवत् 1997 सुजानगढ़ श्री प्यारांजी 1945 पचपदरा | पन्नालालजी सुकलेचा 1968 भा. शु.। | बीदासर | संवत् 2017 लाडनूं में दिवंगत |श्री सिरेकवरजी |1940 फतेहपुर | तोलारामजी रायजादा 1968 आसो. शु.14 | बीदासर | तप के कुल दिन 605, संवत् 1983 डूंगरगढ़ में दिवंगत | श्री पूनांजी 1934 बीदासर | डायमलजी नाहटा | 1968 आसो. शु.14 | बीदासर | 1से15 तक की तपस्या के कुल दिन 1614, संवत् 2004 बीदासर में 11 दिन के अनशन तप से दिवंगत 10 श्री फूलांजी |1940 भुनाण | जुहारमलजी चोरड़िया 1968 पौ. कृ. 4 राजलदेसर | तपस्विनी संवत् 2012 लाडनूं में दिवंगत 10 श्री मुक्खांजी | 1950 सुजानगढ़ | हसतमलजी बैंगानी | 1968 पौ. कृ. 4 राजलदेसर | तपके दिन 1918,संवत् 2014 लाडमेंदिवंगत श्री मालूजी | 1955 राजलदेसर | तनसुखदासजी बैद | 1968 पौ. कृ. 4 राजलदेसर | संवत् 1985 रतनगढ़ में दिवंगत | श्री चांदाजी 11941 बीदासर | हजारीमलजी बैंगानी| 1968 पौ. कृ. 13 छापर तपके कुल दिन466,संवत् 1978 मेंस्वर्गवास श्री मौलांजी |1927 धोलीपाल | ताराचंदजी कुण्डलिया 1968 मा. कृ. 2 | सुजानगढ़ | सजोड़े दीक्षा, तप के दिन 1129, संवत 1998 टमकोर में 24 दिन की संलेखना, अनशन सह दिवंगत जैन श्रमणियों का बृहद इतिहास Page #995 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तेरापंथ परम्परा की श्रमणियाँ क्रम सं| दीक्षा क्रम साध्वी-नाम जन्मसंवत् स्थान | पिता-नाम गोत्र दीक्षा संवत् तिथि | दीक्षा स्थान | विशेष-विवरण | श्री छगनांजी 1952 सुजानगढ़ | जेसराजजी भूतोड़िया 1968 पौ. शु. । । सुजानगढ़ सजोड़े दीक्षा, संवत् 2028 लाडनूं स्वर्गवास | श्री केशरजी 1925 ऊंचा नोलराम काछलीवाल 1968 फा. कृ.3 लाडनूं संवत् 2003 लाडनूं में दिवंगत श्री जड़ावांजी |1928 देवगढ़ बनेचंदजी छाजेड़ | 1968 फा. कृ. 3 लाडनूं तप के कुल दिन 1006, स्वर्गवास संवत् 1994 राजियावास 10 श्री मगनांजी - सांगवा उम्मेदमल दूनीवाल | 1968 फा. कृ.6 लाडनूं संवत् 1969 सरदार शहर में पंडित मरण 10 श्री नोजांजी | 1930 लाछूड़ा | बनेचंदजी श्रीमाल | 1968 फा. कृ. 6 लाडनूं | पुत्री ज्ञानांजी के साथ दीक्षित,तप के दिन 1523,स्वर्गवास संवत् 2007 राजलदेसर 0 श्री रूपांजी 1928 सरदारशहर वीरभाण जी दूगड़ | 1969 भा. शु. 15 तप संख्या 2154 दिन,संवत् 2008 लाडनूं| में 25 दिन की संलेखना व 6 दिन अनशन | सह दिवंगत | श्री प्यारांजी 11933 आरज्या | अर्जुनलालजी चौधरी1969 भा. श. 15 | चुरू | संवत् 2000 लाडनूं में दिवंगत 0 श्री विरधांजी |1941 गोगुंदा | हमीरमलजी पोरवाल 1969 का. कृ. 7 | 24 वर्ष अग्रणी विचरी,संवत् 2023 खींवाड़ा में स्वर्गस्थ 10 श्री हरखूजी 1946 चाड़वास | रतनचंदजी भटेरा | 1970 पौ. शु. 10 | बीकानेर | तप के कुल दिन 1767, स्वर्गवास संवत् 2025 लाडनूं | श्री भूरांजी 11946 उदासर आसकरणजी सेठिया 1970 पौ. शु. 10 | बीकानेर | संवत् 1995 बीदासर में स्वर्गवास | श्री चन्द्रूजी 1933 जाडाणा | बजरंगलाल पितलिया 1970 फा. कृ.9 | बीदासर | संलेखना23 दिन, संथारा35 दिन कुल 58 दिन के अनशन सह लाडनूं में संवत् 2022 को स्वर्गस्थ श्री मालूजी 1949 लाडनूं रतनचंदजी गोलछा 1970 फा. शु. 11 लाडनूं सजोड़े दीक्षा,संवत् 1972 बीदासर में दिवंगत | श्री फूलांजी 1925 बडू । फौजमलजी लोढ़ा 1971 मृ.शु. 12 लाडनूं पुत्रकेसाथदीक्षा,संवत् 1998 लाडनूंमंदिवंगत 10 श्री हुलासांजी |- करकेड़ी लूनकरणजी रांका 1971 पौ. शु. 15 ब्यावर सजोड़ेदीक्षा, संवत् 1975 पीपाड़में स्वर्गगमन | श्री रत्नांजी 1955 लाडनूं पन्नालालजी घीया | 1971 ज्ये. कृ.14 नाथद्वारा | तपकुलदिन 889,संवत् 1994लूनकरणसर में स्वर्गवास श्री पन्नांजी 1944 बीदासर | छोट्रलालजी कोठारी | 1972 मा. शु. 14 | | पुत्री श्री भीखांजीथीं, तप के कुल दिन 2286,संवत् 2012 लाडनूं में दिवंगत Page #996 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (www.jainelibrary.om 934 क्रम सं दीक्षा क्रम 44. 58 45. 46. 47. 48. 49. 50. 51. 52. 53. 54. 55. 56. 57. 61 63 64 67 68 69 70 71 73 74 75 76 77 साध्वी नाम श्री भीखांजी श्री प्रतापां जी 1951 बीदासर ७ श्री नानूं जी ० श्री मूलां जी श्री मालूजी श्री लिछमांजी @ श्री पन्नांजी श्री इन्द्रजी श्री सेरांजी 4 श्री इन्द्रजी श्री मनोरांजी श्री राजांजी जन्मसंवत् स्थान 1963 बीदासर श्री लिछमांजी श्री किस्तूरांजी 1950 राजनगर 1949 बीकानेर 1954 सरदारशहर 1956 सरदारशहर 1957 गैरसर 1957 गडबोर 1949 डूंगरगढ़ 1955 फतेहपुर 1952 लाडनूं 1956 मोमासर 1957 मोमासर 1942 डूंगरगढ़ पिता - नाम गोत्र समरथमलजी बैंगानी दीक्षा संवत् तिथि 1972 मा. शु. 14 जीवनमलजी मुनोत 1973 चै. कृ. 8 तेजपालजी पोरवाल 1974 प्र.भा.शु. 12 सालमचंदजी खटेड़ 1974 आसो. शु. 8 हजारीमलजी धीया नेमीचंदजी दूगड़ घमण्डीरामजी कोठारी 1974 ज्ये. शु. 3 मेघराजजी चोरड़िया 1975 श्री. शु. 12 सोजीरामजी सेठिया 1975 मा. शु. 14 1974 का. शु. 5 1974 का. शु. 5 गुलाबचंदजी नाहटा लाभूरामजी मालू तोलारामजी पारख 1975 मा. शु. 14 हीरालालजी भूतोड़िया 1976 भा. शु. 8 रिखवचंदजी सेठिया 1976 आसो. शु. 7 1976 आसो. शु. 7 1976 का. कृ. 9 दीक्षा स्थान पाली बीदासर सरदारशहर तप के दिन 2177, संवत् 2009 लाडनूं में स्वर्गस्थ भीनासर तप के दिन 2491, पुत्री चांदकंवर सह दीक्षित, संवत् 2022 रामसिंहजी का गुड़ा में दिवंगत संवत् 1996 में गण से पृथक् कुल 2400 उपवास, अग्रणी, 11 हजार मील की पदयात्रा, संवत् 2016 में स्वर्गवास सरदारशहर सजोड़े दीक्षा, तप के कुल दिन 1986, संवत् 2032 लाडनूं में पंडितमरण राजलदेसर स्तोक, व्याख्यान कंठस्थ, 31 सूत्र का वाचन, तप संख्या 4804, कलादक्ष सरदारशहर सरदारशहर सुजानगढ़ विशेष- विवरण तप के दिन 1253, कई आगम ग्रंथों की लिपि की, संवत् 2009 देशनोक में दिवंगत अग्रणी, तप संख्या - 1139 कर्मचूर व धर्मचक्र तप, संवत् 2026 जसोल में स्वर्गस्थ सुजानगढ़ बीदासर बीदासर बीदासर बीदासर कुप दिन 2471, संवत् 2019 लाडनूं में स्वर्गस्थ उपवास से 15 तक लड़ीबद्ध तप, कुल संख्या 2648, संवत् 1999 सुजानगढ़ में दिवंगत संवत् 2019 लाडनूं में स्वर्गस्थ संवत् 2014 नोखामंडी में स्वर्गस्थ अग्रगण्या, संवत् 2013 सुजानगढ़ में दिवंगत तप की कुल संख्या 4414, संवत् 2020 रामसिंहजी का गुड़ा में स्वर्गवास जैन श्रमणियों का बृहद इतिहास Page #997 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्रम सं| दीक्षा क्रम| साध्वी-नाम श्री आशांजी | श्री सोनांजी श्री मनोरांजी श्री उदांजी श्री मनोरांजी श्री संतोकाजी चूरू जन्मसंवत् स्थान | पिता-नाम गोत्र दीक्षा संवत् तिथि | दीक्षा स्थान | विशेष-विवरण 1966 राजलदेसर | इन्द्रचंदजी बैद 1976 का. कृ.9 बीदासर |माता किस्तूरांजी के साथ दीक्षा, अग्रणी, |कई ग्रंथ लिपिबद्ध किये,स्वर्गवास हो गया - उदयपुर | अंबालालजी कावड़िया 1976 फा. शु. 13 | संवत् 1978 लाडनूं में दिवंगत |- उदयपुर श्रीलालजी धूपिया | 1976 फा. शु. 13 चूरू | संवत् 1977 सरदारशहर में स्वर्ग-प्रस्थान |- उदयपुर जबरजी पोरवाल | 1976 चै. शु. 1 टमकोर | तपसंख्या 1097 संवत्2003 लाडनूं मेंस्वर्गस्थ |1966 चूरू | सदासुखजी सिंधी | 1976 वै. शु. 11 अग्रणी, लाडनूं में संवत् 2026 को दिवंगत 1946 लाडनूं | हरखचंदजी दूगड़ | 1976 आषा. कृ. 4 | हांसी तप के कुल दिन 2346, संवत् 2018 छापर में स्वर्गवास 1941 गंगाशहर | सेरमलजी नाहटा |1976 आषा. कृ.4 | हांसी तप के दिन 1265,संवत् 2001 बीदासर में स्वर्गस्थ 1957 लाडनूं गोकुलचंद फूलफगर | 1977 का. कृ.8 | भिवानी 25 वर्ष अग्रणी, संवत् 2017 बड़ाखेड़ा में तेरापंथ परम्परा की श्रमणियाँ हिसार 64. | 86 श्री नोजांजी श्री केशरजी 935 स्वर्गस्थ 0 श्री गीगांजी |1932 सरदारशहर| धनराजजी बोथरा |1977 का. कृ.8 भिवानी संवत् 2000 डीडवाना में दिवंगत, पुत्री मनोरांजी के साथ दीक्षित श्री मनोरांजी |1965 सरदारशहर | मोहनलालजी कोठारी 1977 का. कृ.8 | भिवानी अग्रणी रूप में 25 वर्ष विचरी,संवत् 2041 | लाडनूं में स्वर्गस्थ श्री दोलांजी 1959 सरदारशहर | किस्तूरचंद बच्छावत | 1977 मा. शु. 4 सरदारशहर तप संख्या 2102 श्री रमकूजी - आमेट | गुलाबचंदजी बम्ब | 1977 मा. शु. 10 | सरदारशहर |संवत् 1980 मोमासर में स्वर्गवास श्री चम्पाजी 1936 नोहर चुन्नीलालजी सिपाणी | 1977 चै. शु.9 | बीदासर | तप संख्या 717, 12 दिन की संलेखना, 8 दिन अनशन, संवत् 1998 शार्दूलपुर में स्वर्गस्थ 71. | 940श्री चूनांजी 1957 लाडनूं | जीवनलालजी खटेड | 1977 चै. भा.9 | बीदासर यथोचित ज्ञानार्जन,अग्रणी-कइयों में धार्मिक संस्कार भरे, पारस्परिक विग्रह मिटाये तप केदिन-1182,संवत् 2031 बीदासरमेंस्वर्गस्थ 72. श्री फूलकंवरजी |1942 - चुन्नीलालजी - 1978 मृ. शु.9 राजलदेसर | संवत् 1994 लाडनूं में दिवंगत Page #998 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चूरू 936 चूरू दीक्षा क्रम साध्वी-नाम जन्मसंवत् स्थान | पिता-नाम गोत्र दीक्षा संवत् तिथि | दीक्षा स्थान | विशेष-विवरण श्री धनकंवरजी 1967 लाडनूं वृद्धिचंद्रजी फूलफगर | 1978 मा. कृ. 8 | लाडनूं सूत्र,स्तोकादि कंठस्थ,कार्यदक्ष,तप-संख्या 3097,प्रतिदिन 5 हजारगाथाओंकास्वाध्याय श्री मगनांजी | 1967 छापर हजारीमलजी बैद |1978 चै. कृ.6 | सुजानगढ़ |11 वर्ष की सुहागिन वय में दीक्षिता साध्वी, तप-संख्या681,संवत्1995 सूरपूरामेस्वर्गस्थ श्री मनोरांजी 11958 सुजानगढ़ | मोतीलालजी कोठारी|1979 भा. शु. 10 बीकानेर सजोडे दीक्षा, 38 वर्ष में कल 2277 दिन | तप के, अंत में अनशन द्वारा राजनगर में पंडितमरण श्री बालूजी 1968 राजगढ़ | हीरालालजी पुगलिया| 1979 भा. शु. 10 बीकानेर | सरल, निष्ठाशील श्री मानांजी |1949 राजलदेसर | नवलचंदजी कोठारी | 1980 का.कृ.7 जयपुर | संवत् 2011 पहुना में स्वर्गस्थ श्री रायकंवरजी |1971 चाड़वास | पूरखचंदजी छाजेड़ |1980 का. कृ.7 जयपुर | अग्रणी के रूप में विचरी श्री लिछमांजी | 1969 लाडनूं | भूरामलजी खटेड | 1981 भा. कृ. 13 संवत् 2041 तक 402 उपवास व पचोले तक तप श्री जडावांजी | 1949 छापर | अमींचदजी सेठिया |1981 का. शु. 5 | तप 1 से 9 तक लड़ी,14,15 उपवास, तप के कुल दिन 2661, पंडितमरण 2024 में श्री सिरेकंवरजी | 1949 फतेहपुर | जेसराज दूगड़ | 1981 का. शु. 5 संवत् 1985 बीदासर में पंडित मरण, चार वर्ष में 222 दिन तप किया। 10श्री मनोरांजी | 1954 छापर | नानकरामजी सिंधी | 1981 का. शु. 5 संवत् 2019 राजनगर में दिवंगत, तप 1838 उपवास,83 बेले,4 तेले,9 चोले,4 पंचोले |श्री मालूजी 1957 राजलदेसर | भौमराजजी बैद 1981 का. शु. 5 | चूरू अग्रणी, शासनप्रभाविका, संवत् 2036 डीडवाना में स्वर्गस्थ श्री चांदकंवरजी | 1970 मोमासर | दीपंचदजी संचेती | 1981 का. शु.5 आगम बत्तीसी का तीन बार वाचन, सात | सूत्र व कई ग्रंथों को लिपिबद्ध किया। oश्री हरकंवरजी |1964 बीदासर | खूबचंदजी नाहटा 11981 मृ.शु.2 । | फतेहपुर | मिलनसार, संवत् 2038 पारलू में अनशन के साथ स्वर्गवास 86. |118 10श्री जड़ावांजी 1946 सरदारशहर | चूनीलालजी गीया | 1981 मा. शु. 14 | | पति मुनि लिखमीचंदजी के साथ दीक्षा हुई, संवत् 2021 लाडनूं में स्वर्गस्थ चूरू पल जैन श्रमणियों का बृहद इतिहास Page #999 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तेरापंथ परम्परा की श्रमणियाँ - 937 क्रम सं| दीक्षा क्रम| साध्वी-नाम जन्मसंवत् स्थान | पिता-नाम गोत्र दीक्षा संवत् तिथि | दीक्षा स्थान | विशेष-विवरण | 121 श्री जसुजी 1959 गंगाशहर | हीरालालजी सेठिया | 1981 मा. शु. 14 | सरदारशहर उपवास से नौ तक लड़ीबद्ध तप, संवत् | | 2008 दौलतगढ़ में दिवंगत 88. | 123 0 श्री सिरेकंवरजी | 1962 नोहर लाभूरामजी नखत |1981 मा. शु. 14 | सरदारशहर | संवत् 1997 लाडनूं में स्वर्गस्थ 124 श्री नाथांजी 1959 चाड़वास | तिलोकचंदजी भटेरा | 1981 चै. श.9 चाड़वास | उपवास से 10 तक क्रमबद्ध तप, तप के कुल दिन 2200,संवत् 2040 राजलदेसर में स्वर्गस्थ श्री गणेशांजी | 1970 चाड़वास | तिलोकचंद भटेरा | 1981 चै. शु.9 | चाड़वास | 15 सूत्र लिपिबद्ध किये, संवत् 2042 राजलदेसर में स्वर्गस्थ श्री हीरांजी 11960 सुजानगढ | अमीचंदजी राखेचा |1981 ज्ये. कृ. 11 | सुजानगढ़ संवत् 2012 लाडनूं में दिवंगत श्री संतोकाजी | 1962 सुजानगढ़ | जेतरूपजी मालू 1981 ज्ये. कृ. 11 सुजानगढ़ | संवत् 2005 लाडनूं में दिवंगत श्री केशरजी 1946 लाडनूं | टीकमचंदजी दूधोड़िया 1981 आषा. कृ.11 लाडनूं संवत् 2019 में गण से पृथक श्री लिछमांजी 1960 श्रीडूंगरगढ़ | शोभाचंदजी चौरड़िया 1981 आषा. कृ.11 लाडनूं संवत् 2002 होरणाबाद (पंजाब) में दिवंगत श्री सिरेकंवरजी | 1963 लाडनूं | डालमचंदजी बोरड़ | 1981 आषा. कृ.11 लाडनूं संवत् 2040 बीदासर में स्वर्गस्थ | 0 श्री टमकूजी |1965 लाडनूं | मोहनलालजी गुंदेचा | 1981 आषा. कृ.11 | लाडनूं संवत् 2004 से छह विगय का त्याग, संवत् 2042 तक वर्तमान |श्री जमना जी |1939 पचपदरा | पुरखजी गोलेछा |1982 का. शु. 5 | बीदासर संवत् 2016'आषाढ़ा में6 दिन के चौविहारी अनशन सेपडितमरण,कुलतप 1156 दिन का श्री सोहनां जी | 1962 राजलदेसर | संचियालालजी बैद | 1982 का. शु. 5 बीदासर | यथाशक्य स्वाध्याय, तप, मौन श्री जुहारांजी 11966 बीदासर | संतोषचंदजी बैंगाणी | 1982 का. शु. 5 सरलहृदया,कोमल,जपी-तपी,संवत् 2038 सांडवा में पंडितमरण श्री हुलासांजी |1969 किराड़ा | भूरामलजी नाहटा |1982 का. शु.5 | बीदासर कुल तप संख्या 3429 दिन की, बीदासर में स्थिरवास | श्री झमकूजी 11971 बीदासर घमंडीरामजी सिंधी | 1982 का. शु.5 | बीदासर | 2369 उपवास, 41 बार दस प्रत्याख्यान आदि किये। श्री केशरजी | 1970 लाडनूं | जेठमलजी फूलफगर 1982 आषा.कृ.10 | बीकानेर संवत् 2001 गंगाशहर में समाधिमरण बीदासर Page #1000 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 146 938 क्रम सं| दीक्षा क्रम| साध्वी-नाम जन्मसंवत् स्थान पिता-नाम गोत्र | दीक्षा संवत् तिथि | दीक्षा स्थान | विशेष-विवरण | श्री पूनांजी 1971 डूंगरगढ़ | तोलारामजी मालू | 1982 आषा.कृ.10 | बीकानेर | सरल, विनम्र, संवत् 2037 लाडनूं में स्वर्गस्थ 144 श्री गुलाबांजी 1973 भादरा | सुगनचंदजी नाहटा 1982 आषा.कृ.10 | बीकानेर | कच्छ देश में भुज मांडवी तक विहार करने वाली प्रथम साध्वी, तपस्विनी श्री सुगनांजी 11948 राजलदेसर | छोगजी बैद 1983 मा. शु.7 लाडनूं संवत् 1983 बीदासर में दिवंगत श्री मनोरांजी 1967 सुजानगढ़ | गणेशमलजी चोरड़िया 1983 मा. शु. 7 लाडनूं सरल शांत, अग्रणी, यथाशक्य तप 1500श्री मालूजी |1967 किराड़ा | तनसुखदासजी नाहटा| 1984 श्रा.शु. 13 । | श्रीडूंगरगढ़ | तपस्विनी 2351 उपवास, 97 बेले, 202 | तेले, 11 चोले,14 पचोले,6-11,15,21, | 31,32 उपवास, सैंकड़ों आयंबिल | 151 श्री केशरजी |1971 डूंगरगढ़ | ईश्वरचंदजी पुगलिया 1984 श्रा. शु. 13 श्रीडूंगरगढ़ | यथाशक्य शास्त्र,स्तोक,व्याख्यान कंठस्थ, 1700 पन्ने प्रतिलिपि, तप 2600 उपवास, 105 बेले श्री सोनांजी | 1972 डीडवाना | फतेहमलजी लोढ़ा | 1984 श्रा. शु. 13 | श्रीडूंगरगढ़ | 23 शास्त्र पढ़े, आगम व्याख्यान लिपिबद्ध किये, कुल तप दिन 3293 |श्री सजनांजी |1959 देशनोक | सौभाग्यमलजी सुराण 1984 का. कृ. 8 श्रीडूंगरगढ़ | आगम बत्तीसी पढ़ी,अध्यात्म प्रतिबोधिका, अग्रणी, कुल तप 3 वर्ष 10 मास 3 दिन श्री अमतांजी |1971 देशनोक | हलासमलजी आंचलिया। 1984 का. कृ.8 श्रीडूंगरगढ़ तपस्या-मासखमण,8,5,4,3,2 व कई उपवास,संवत् 1996 राजलदेसर में दिवंगत श्री सुन्दरजी 1971 डूंगरगढ़ | रामलालजी बोथरा | 1984 का. कृ.8 | श्रीडूंगरगढ़ |लगभग 5 हजार पद्य प्रमाण कंठस्थ. 21 सूत्र पढ़े,प्रतिदिन 1 हजारगाथाओंकास्वाध्याय श्री चूनांजी |1971 लाडनूं | छवानमलजी दूगड़ 1984 का. कृ. 8 श्रीडूंगरगढ़ | संवत् 2007 राजनगर में स्वर्गस्थ । श्री लाधूजी 1965 डूंगरगढ़ ताराचंदजी मालू 1985 का. कृ.7 | छापर कंठस्थ-दो शास्त्र, कुछ व्याख्यान, तप 1500 उपवास, 10 बेले, 3 तेले,2 नौ । | श्री इन्द्रूजी 1969 राजलदेसर | चुन्नीलालजी दूगड़ | 1985 का. कृ. 7 कंठस्थ-कुछ थोकड़े। तप के कुल दिन | 2494,कड़ाई विगयके अतिरिक्तविगय-त्याग |श्री किस्तूरांजी 1973 राजलदेसर | चुन्नीलालजी डागा | 1985 का. कृ. 7 छापर कंठस्थ-कुछ स्तोक व्याख्यान, लिपि-13 | सूत्र त कई व्याख्यान कुल तप दिन 1763 जैन श्रमणियों का बृहद इतिहास Page #1001 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 117. 118 तेरापंथ परम्परा की श्रमणियाँ 120. 121. 165 122. सरदारशहर 66/ क्रम सं| दीक्षा क्रम साध्वी-नाम जन्मसंवत् स्थान | पिता-नाम गोत्र दीक्षा संवत् तिथि | दीक्षा स्थान | विशेष-विवरण श्री सूवटांजी |1974 लाडनूं जीवनमल जी खटेड | 1985 का. कृ.7 | छापर संवत् 2036 लाडनूं में दिवंगत श्री चौथांजी |1966 रतनगढ़ सूरजमलजी गोलछा 1985 का. शु. 13 छापर सजोड़े दीक्षा, कुछ बोल व्याख्यान कंठस्थ श्री फूलांजी | 1959 गोगुंदादीपचंदजी कुणावत |1985 चै. कृ.7 पड़िहारा संवत् 1986 में गण से पृथक् । |oश्री राजकंवरजी 1977 गोगुंदा चंपालालजी चौरड़िया 1985 चै. कृ. 7 पड़िहारा कंठस्थ 5 शास्त्र, कई थोकड़े स्तोत्र व्याकरण आदि, तप दिन 1053 0श्री नानूंजी 1957 सरदारशहर बुधमलजी गोठी |1985 ज्ये. शु. 4 सरदारशहर | तप के कुल दिन 2581,संवत् 2025 जसोल में समाधिमरण श्री झमकूजी - सुजानगढ़ |- दूधोड़िया 1985 ज्ये. शु.4 सरदारशहर | संवत् 1997 लाडनूं में दिवंगत 123. |श्री केशरजी | 1960 रतनगढ़ बालचंदजी बोथरा | 1985 ज्ये. शु. 4 सरदारशहर | अग्रणी, तप के दिन 1384, संवत् 2028 गंगाशहर में दिवंगत 124. 0श्री वृद्धांजी | 1965 डूंगरगढ़ गोविन्दरामजी सेठिया 1985 ज्ये. शु. 4 | सजोड़े दीक्षा संवत् 1994 चाड़वास में दिवंगत 125. |श्री सुंदरजी |1964 सरदारशहर | इन्द्रचंद्रजी बोथरा |1985 ज्ये. शु.4 सरदारशहर 19 दिन का संयम, संवत् 1985 बीदासर में स्वर्गस्थ |श्री मनोरांजी 1964 पड़िहारा नेमीचंदजी सुराणा |1985 ज्ये. शु. 4 | सरदारशहर कंठस्थ 10 व्याख्यान, 40 स्तोक, तप के | दिन 4934, एक हजार गाथा का स्वाध्याय |श्री लिछमांजी 1964 सरदारशहर | लालचंदजी चंडालिया 1985 ज्ये. शु. 4 सरदारशहर | संवत् 2020 लाडनूं में दिवंगत |श्री सुन्दरजी |1966 सरदारशहर |अगरचंदजी दूगड़ |1985 ज्ये. शु.4 | हस्तकला में दक्ष, साहसी सहिष्णु, तप दिन 988,सर्पदंशसे संवत् 2009 बड़ी रावलिया में स्वर्गस्थ 10 श्री लाधूजी |1969 सरदारशहर | नथमलजी बांठिया |1985 ज्ये. शु.4 | सरदारशहर सजोड़े दीक्षा, हजारों पद्य कंठस्थ, तप दिन 3244,स्वाध्यायी,सेवाभाविनी श्री छगनांजी 1971 सरदारशहर | संपतरामजी लूनिया |1985 ज्ये. शु. 4 सरदारशहर यथाशक्य ज्ञानार्जन,तप के कुल दिन 1347 श्री सोहनांजी 11972 सरदारशहर | भैंरुदानजी आंचलिया| 1985 ज्ये. श.4 | सरदारशहर | 14 दिन के चौविहार अनशन के साथ संवत् | 2012 दौलतगढ़ में कार्यसिद्ध |श्री पानकंवरजी |1974 सरदारशहर | संपतरामजी लूनिया | 1985 ज्ये. शु. 4 | सरदारशहर | कंठस्थ-4 सूत्र, स्तोत्र, आगम बत्तीसी का वाचन, 1200 गाथाओं का स्वाध्याय, तप दिन 1523 126. सरदारशहर Page #1002 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 134. 38. UDA क्रम सं| दीक्षा क्रम साध्वी-नाम | जन्मसंवत् स्थान| पिता-नाम गोत्र दीक्षा संवत् तिथि | दीक्षा स्थान | विशेष-विवरण 133. |178 श्री रायकंवरजी 1967 राजलदेसर | हंसराजजी बैद 1986 श्रा. शु.7 | लाडनूं कई स्तोक व्याख्यान कंठस्थ, उपवास से | | 11 तक लड़ी, कुल तप दिन 2702 179 श्री कंचनकंवरजी 1971 राजनगर | मगनलालजी पोरवाल 1986 मा. शु. 10 | सुजानगढ़ स्फूर्तचेत्ता, सेवाभावी, साहसी, अग्रणी 135. |श्री चंपाजी 1968 डूंगरगढ़ | संतोषचंदजी दूगड़ |1986 ज्ये. शु.5 | बीकानेर | प्राय: आगम बत्तीसी का वाचन, कुल तप दिन 2739 136. 181 श्री गणेशांजी 1973 लाडनूं खींवकरणजी कुचेरिया 1986 ज्ये. शु.5 | बीकानेर कवयित्री, गण से पृथक् , पुनः सम्मिलित, 340 दिन में 219 दिन तप, संवत् 2000 लाडनूं में स्वर्गस्थ |श्री आसांजी |1954 लाडनूं | रामलालजी बोथरा | 1987 मा. शु. 10 सरदारशहर | संवत्2027 आड मेंस्वर्गस्थ,तपके दिन 823 श्री लिछमाजी |1961 सरदार शहर नथमलजी दूगड़ 1987 मा. शु. 10 | सरदारशहर | संवत् 2026 समदड़ी-सीलोर में दिवंगत, तप के दिन 1717 139. श्री छगनांजी |1961 अबोहरमंडी नारायणदासजी | 1987 मा. शु. 10 | सरदारशहर | संवत् 2031 से लाडनूं में स्थिरवास 140. Joश्री मनोरांजी |1968 नोहर बनेचंदजी बरड़िया |1987 मा. शु. 10 | सरदारशहर | कईस्तोक,पद्य कंठस्थ,संवत् 2041 लाडनूं| | में स्वर्गस्थ, तप के दिन 821 141. श्री सिरेकंवरजी |1968 डूंगरगढ़ | बींजराजजी पुगलिया | 1987ज्ये. शु. 13 | राजलदेसर | सजोड़े दीक्षा,संवत् 1993 सेरुणा में दिवंगत 1142. Joश्री जड़ावांजी 1956 मोरका जीतमलजी गीया 1988 का. शु.2 बीदासर |पुत्र बुद्धमलजी व भाई दुलीचंदजी के साथ दीक्षा,संवत् 2001 ईडवा में स्वर्गस्थ,,तप दिन 892 143. 190 श्री सुन्दरजी 1959 भीनासर मनसुखदास बांठिया | 1988 का. शु.2 | बीदासर तप के दिन 2048, संवत् 2025 नाल ग्राम | में दिवंगत 144. श्री लिछमांजी |1963 लूनकरणसर बालचंदजी दूगड़ |1988 का. शु. 2 बीदासर | तप के दिन 1609, संवत् 2039 लाडनूं में | | दिवंगत 145. 0श्री मुखांजी 11963 रामगढ़ हजारीमलजी छाजेड/1988 का. श.2 बीदासर | संवत् 2004 गण से पृथक् 146. श्री चौथांजी 11966 गजरुपदेसर जीवनमलजी मालू |1988 का. शु.2 बीदासर संवत् 2025 फतेहनगर में दिवंगत श्री नोजांजी 1965 पुनरासर | कुन्नणमलजी बोथरा 1988 का. शु.2 बीदासवर आगमबत्तीसीवाचन,तपके कुल दिन 1604 जैन श्रमणियों का बृहद इतिहास 147. Page #1003 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तेरापंथ परम्परा की श्रमणियाँ 198 199 क्रम सं| दीक्षा क्रम साध्वी-नाम जन्मसंवत् स्थान | पिता-नाम गोत्र दीक्षा संवत् तिथि | दीक्षा स्थान | विशेष-विवरण 148. |195 श्री संतोकांजी |1977 सरदारशहर | नथमलजी बांठिया |1988 का. शु. 2 बीदासर चार बार आगम बत्तीसी पढ़ी,हजार गाथाओं का रोज स्वाध्याय, तप के दिन 1123 श्री रतनकंवरजी |1976 राजगढ़ तनसुखदासजी नाहटा | 1988 का. शु. 2 बीदासर 150. श्री गणेशांजी 1953 सुजानगढ़ | हणूतमलजी सेठिया |1988 मा. कृ. 10 लाडनूं | अग्रणी, हजारों गाथाओं का पुनरावर्तन, तप के कुल दिन 2528, संवत् 2034 रतनगढ़ में दिवंगत श्री रतनकंवरजी 1977 लाडनूं ऋद्धकरणजी बोरड़ |1988 मा. कृ. 10 लाडनूं अग्रणी,विदुषी 152. श्री मोहनांजी | 1975 सरदारशहर | भैंरुदानजी आंचलिया |1988 मा. शु. 5 छापर संवत् 2005 सप्तदिवसीय चौविहारी अनशन के साथ राजलदेसर में दिवंगत 153. | श्री सुवटांजी 1964 बीदासर | भीवराजजी सेखाणी |1988 फा. शु. 2 | बीदासर कंठस्थ-15 स्तोक, 100 गीतिकाएं, तप दिन कुल 2075, संवत् 2039 से लाडनूं में स्थायी श्री भत्तूजी |1975 भादरा लूनकरणजी नाहटा |1988 ज्ये. कृ.3 राजगढ़ |श्री पानकंवरजी |1975 राजगढ़ | रामलालजी पुगलिया |1988 ज्ये. कृ. 3 राजगढ़ संवत् 1997 लाडनूं में दिवंगत 205 श्री सुगनांजी 1964 डूंगरगढ़ | दुलीचंदजी कुंडलिया |1989 का. कृ.9 सरदारशहर | कंठस्थ-200 गीत, स्तोक, संवत् 2027 से अचक्षु, तप दिन 1180 157. 1206 श्री नाथांजी 1967 सरदारशहर| किसनचंदजी सामसुखा| 1989 का. कृ.9 | सरदारशहर | कुल तप दिन 2437,रोज 500 गाथाओं का स्वाध्याय | श्री लिछमांजी |1967 अली | हनूतमलजी 1989 का. कृ.9 | सरदारशहर |1 से 23 तक लड़ीबद्ध तप,28,29,30,31 मोहम्मद का तप, कुल तप के दिन 4814 159. | 208 श्री रामजी 1968 सिरसा | हुकमचंदजी डागा | 1989 का. कृ.9 सरदारशहर | कुछ स्तोक,32 सूत्रों का वाचन, तप के दिन 4399, आयंबिल 200 दिन श्री मनोरांजी | 1973 मोमासर | पूरणचंदजी सेठिया | 1989 का. कृ.9 सरदारशहर 25 स्तोक, 25 व्याख्यान, 150 गीत, तप के दिन 2063 161. |श्री केशरजी |1977 डूंगरगढ़ | जीवरामजी मालू 1989 का. कृ. 9 162. श्री मूलांजी |1961 उदासर | गोविन्दरामजी मुणोत | 1989 का. शु. 13 सरदारशहर सेवाभाविनी, तप के कुल दिन 1916 158. | 207 160. 1209 210 Page #1004 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 942 क्रम सं दीक्षा क्रम साध्वी- नाम श्री मनोहरांजी 4 श्री फूलकंवरजी श्री चूनांजी 163. 213 164. 214 165. 215 166. 167. 168. 169. 170. 171. 172. 173. 174. 175. 176. 177. 216 217 219 220 221 222 223 225 226 227 228 229 श्री मोहनाजी 4 श्री सूरजकंवरजी © श्री धनकंवरजी • श्री रायकंवरजी जन्मसंवत् स्थान |1964 चाड़वास 1977 गंगाशहर 1959 लाडनूं 1977 दौलतपुरा 1977 जयपुर 1969 राजलदेसर 1972 रतननगर 4 श्री राजकंवरजी 1976 नोहर श्री विजयश्रीजी 1978 रतनगढ़ 4 श्रीआनंदकुमारीजी 1979 मोमासर श्री गोगांजी श्री गौरांजी श्री पूनांजी पिता-नाम गोत्र दीक्षा संवत् तिथि - चौरड़िया 1989 मा. शु. 14 1989 मा. शु. 14 सेरमलजी चोरड़िया | सिरेमलजी कुचेरिया 1989 आषा. शु. मांगीलालजी डूंगरवाल मोतीलालजी बांठिया कालूरामजी बैद धनराजजी हीरावत बनेचंदजी तातेड़ संतोषचंद जी बैद खूबचंदजी नाहटा 1967 मोमासर हीरालालजी कुहाड़ फतेहचंदजी बोथरा 1967 सरदारशहर 1970 सरदारशहर सुजानमलजी डागा 1989 आषा. शु. 1 1989 आषा. शु. 1 1990 का. कृ. 9 1990 का. कृ. 9 1990 का. कृ. 9 1990 का. कृ. 9 1990 का. कृ. 9 1991 का. कृ. 8 1991 का. कृ. 8 1991 का. कृ. 8 ० श्री पानकंवरजी 1973 सरदारशहर तनसुखदासजी बोथरा 1991 का. कृ. 8 © श्री मधूजी 1972 सरदारशहर शोभाचंदजी लूनिया 1991 का. कृ. 8 दीक्षा स्थान श्री डूंगरगढ़ श्री डूंगरगढ़ लाडनू लाडनूं लाडनूं सुजानगढ़ सुजानगढ़ सुजानगढ़ सुजानगढ़ सुजानगढ़ जोधपुर जोधपुर जोधपुर जोधपुर जोधपुर विशेष- विवरण संवत् 1999 बीदासर में दिवंगत 16 वर्ष की वय में संवत् 1993 पहुना में दिवंगत हजारों गाथाएं कंठस्थ, आठ दिन तक लड़ीबद्ध तप, संवत् 2036 उदासर में पंडितमरण कला के क्षेत्र में दक्ष, धर्मप्रभाविका, अग्रणी लगभग 30 स्तोक सैंकड़ों पद्य कंठाग्र, तप दिन 1059 सजोड़े दीक्षा, संवत् 2029 सायरा में दिवंगत अग्रणी, तप के कुल दिन 2388 अग्रणी संस्कृतज्ञ 1 वर्ष शिक्षा व्यवस्थापिका, 2 हजार पृष्ठ लिपिवद्ध, अग्रणी, धर्मप्रभाविका, तप दिन 529 हजारों पद्य कंठस्थ, प्रवचन दक्ष, तप के कुल दिन 885 संवत् 2040 से लाडनूं में स्थिरवास तप के दिन 3333, दस प्रत्याख्यान 45 बार, संवत् 2038 से लाडनूं में स्थिरवास तप के दिन 2795, अढ़ाई सौ प्रत्याख्यान शीत परीषहजयी, संवत् 2037 से राजलदेसर में स्थाई हिम्मतवाली, तप के दिन 1038, संवत् 2019 रामसिंहजी का गुडा में दिवंगत कलादक्ष, तप के दिन 3162 विविध तप साधनाएं, सेवाभावी, स्वाध्यायी जैन श्रमणियों का बृहद इतिहास Page #1005 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तेरापंथ परम्परा की श्रमणियाँ जोधपुर क्रम सं | दीक्षा क्रम साध्वी-नाम जन्मसंवत् स्थान | पिता-नाम गोत्र दीक्षा संवत् तिथि | दीक्षा स्थान 178. 230 श्री लिछमांजी 1975 उदयपुर कन्हैयालालजी पोरवाल 1991 का. कृ.8 | जोधपुर सरल विनम्र, तप के कुल दिन 1043, सेवाभाविनी |श्री संतोकाजी 1975 हांसी फतेहचंदजी गर्ग | 1991 का. कृ.8 | जोधपुर हजारोंपद्य कंठस्थ,500 गाथाओंका स्वाध्याय, तप के दिन 1672 श्री रतनकंवरजी 1976 राजगढ़ | फूलचंदजी सुराणा |1991 का. कृ. 8 जोधपुर | कइयों की आंखों के ऑपरेशन किये, संवत् 2025 रतनगढ़ में दिवंगत श्री बखतावरजी |1977 गंगाशहर | सोहनलालजी छल्लाणी | 1991 का. कृ. 8 जोधपुर |संवत् 2001 खिंवाड़ा में स्वर्गस्थ श्री मानकंवरजी |1977 बीदासर | तिलोकचंदजी बैंगानी | 1991 का. कृ. 8 जोधपुर कई आगम वाचन, कुल तप दिन 1949 श्री संतोकाजी |1978 राजगढ़ | सरदारमलजी सुराणा | 1991 का. कृ. 8 जोधपुर | 10 हजार गाथाएं कंठस्थ, तप के दिन 3726 श्री मंजुश्रीजी |1978 सरदार शहर| वृद्धिचंदजी दसाणी |1991 का. क.8 जोधपुर अग्रणी, संवत् 2038 सेनवतेरापंथ की साध्वी श्री मोहनांजी 1978 टमककोर | बालचंदजी चोरड़िया | 1991 का. कृ. 8 अग्रणी संवत्2037 सेनवतेरापंथ मेंसम्मिलित । श्री रायकंवरजी 1979 सरदारशहर | चम्पालालजी डागा |1991 का. कृ. 8 जोधपुर प्रवचनदक्ष, अग्रणी, तप के दिन 1142, संवत् 2037 तिलोली में पंडितमरण । | श्री सूरजकंवरजी 1979 राजगढ़ | रामलालजी पुगलिया | 1991 का. कृ. 8 | यथोचित ज्ञान,संवत् 1993 ब्यावर में दिवंगत 10श्री मगनांजी 1972 सुजानगढ़ | आसकरणजी सुराणा | 1991 मा. शु.5 बगड़ी उपवास से 17 तक की लड़ी, कुल तप दिन 1619,संवत् 2009 में 13 दिन का संलेखना संथारा कर डूंगरगढ़ में स्वर्गस्थ श्री गौरांजी 1978 टमकोर | गणपतरामजी भंसाली | 1991 मा. शु.5 | बगड़ी सात दिनकी संलेखना में विशिष्ट ज्ञान उत्पन्न | होने का उल्लेख है, संवत् 2006 सूरवाल में| स्वर्गस्थ | 190. 242 श्री सूवटांजी 1964 लाडनूं | चंदनमलजी बोरड़ |1992 का. कृ.5 | उदयपुर 5 हजार पद्य व 200 गाथाओं का जाप, स्वाध्याय, खाद्य संयम, तप दिन 1043, संवत् 2035 भीखी में 26 दिन के संथारे से पंडितमरण 191. | 244 श्री लिछमांजी 1970 आमेट रंगलालजी लोढ़ा |1992 का. कृ.5 | उदयपुर संवत् 2024 लाडनूं में स्वर्गस्थ 192. 245 0 श्री मनोहरांजी 1973 सरदारशहर जुहारमलजी लूनिया |1992 का. कृ.5 | उदयपुर संवत् 1997 से गण से पृथक् | जोधपुर Page #1006 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 944 क्रम सं दीक्षा क्रम साध्वी - नाम 193. 194. 195. 196. 197. 198. 199. 200. 201. 202. 246 247 248 249 250 251 252 253 254 255 4 श्री रतनकंवरजी 4 श्री गुलाबांजी 4 श्री चंपाजी 4 श्री पानकंवरजी 4 श्री कमलूजी 4 श्री केशरजी 4 श्री सोहनांजी 4 श्री चांदकंवरजी © श्री लालाजी 4 श्री हुलासांजी जन्मसंवत् स्थान 1977 शार्दूलपुर 1978 उदयपुर 1979 राजलदेसर 1979 शार्दूलपुर 1980 नोहर 1980 पड़िहारा 1981 लाडनूं 1981 सरदारशहर 1971 केसूर (म.प्र.) 1978 लाडनूं पिता - नाम गोत्र कुन्नणमलजी कोठारी फूलचंदजी पोरवाल भींवराजजी बैद कुन्दनमलजी कोठारी कुन्दनमलजी कोठारी बनेचंदजी बरड़िया महालचंदजी दूगड़ मनसुखदासजी बैद वृद्धिचंदजी दसानी केशरीमलजी बंबोली धनराजजी बैद दीक्षा संवत् तिथि 1992 का. कृ. 5 1992 का. कृ. 5 1992 का. कृ. 5 1992 का. कृ. 5 1992 का. कृ. 5 1992 का. कृ. 5 1992 का. कृ. 5 1992 का. कृ. 5 1992 मा. शु. 14 1992 चै. शु. 10 दीक्षा स्थान उदयपुर उदयपुर उदयपुर उदयपुर उदयपुर उदयपुर उदयपुर उदयपुर बडनगर लाडनूं विशेष- विवरण संवत् 2018 में गण से पृथक् गृहस्थ में संवत् 2031 तक अग्रणी बाद मंगण से बहिष्कृत संवत् 2026 में रेलमगरा में दिवंगत संवत् 2028 टाडगढ़ में दिवंगत आगम बत्तीसी कावाचन, तप के कुल दिन 1513 अग्रणी, धर्मप्रभाविका नवतेरापंथ में सम्मिलित सजोड़े दीक्षा 7 शास्त्र, 15 स्तोक कुछ पद्य कंठस्थ, तप के दिन 869 नोट: श्री कालूगणी के शासन की दीक्षित श्रपणियों में वर्तमान में श्री गुलाबांजी (144) श्री मोहनकुमारी (148) श्री सोनांजी (152) श्री राजकंवरजी (164) श्री लाधूजी (173) श्री छगनांजी (175) श्री पानकुमारी जी (177) श्री कंचनकुमारीजी (179) श्री सूरजकंवरजी (217) श्री राजकंवरजी (221) श्री मानकुमारी जी (234) ये 11 साध्वियां विद्यमान हैं, शेष सभी दिवंगत हो चुकी हैं। तेरापंथ-परिचायिका प्रकाशन- जैन श्वेतांबर तेरापंथी सभा, कोलकता (प.बंगाल) ईस्वी सन् 2003, पृ. 17 जैन श्रमणियों का बृहद इतिहास Page #1007 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 945 क्रम सं दीक्षा क्रम साध्वी- नाम 1. 2. 3. 4. 5. 6. 7. 8. 9. 10. 11. 12. 1 2 3. 4 5 6 7 8 10 12 14 आचार्य श्री तुलसीगणीजी के शासनकाल की श्रमणियाँ (संवत् 1993.2052 ) 34 विशेष विवरण पिता नाम गोत्र दीक्षा संवत् तिथि दीक्षा स्थान फूलचंदजी पोरवाल 1993 का. कृ. 7 गंगापुर कंठकला मधुर, रसीली लिपि कुशल, संवत् 2031 से गण से पृथक् लिछमीलाल नौलखा 1993 मा. शु. 6 गणपतरामजी सिपाणी मालचंदजी बोथरा 16 4 श्री जतनकंवरजी श्री दाखांजी श्री लिछमांजी 0 श्री सुंदरजी श्री गुलाबांजी 4 श्री चांदकंवरजी 4 श्री मनोहरांजी श्री मोहनांजी 4 श्री केशरजी 4 श्री छोटा जी 4 श्री रूपांजी जन्मसंवत् स्थान 1981 उदयपुर 1964 गंगापुर 1966 नोहर 1967 सरदारशहर 1968 भादरा 1976 हांसी 1976 भादरा 1976 नोहर 1980 किराड़ा हरखचंदजी बैद सोहनलालजी जिन्दल सुगनचंदजी नाहटा 1983 लाडनूं श्री सिरेकंवरजी 1962 राजगढ़ 1993 मा. शु. 6 1993 मा. शु. 6 1976 सुजानगढ़ लिखमीचंदजी जैन 1993 मा. शु. 6 गणपतराम सीपानी 1993 मा. शु. 6 मोखचंदजी नाहटा 1993 मा. शु. 6 नेमीचंदजी पटावरी 1993 मा. शु. 6 तनसुखदासजी नाहटा 1994 का. कृ. 8 1993 मा. शु.6 1993 मा. शु. 6 1993 मा. शु. 6 ब्यावर ब्यावर ब्यावर ब्यावर ब्यावर ब्यावर ब्यावर ब्यावर ब्यावर ब्यावर बीकानेर 34. मुनि नवरत्नमलजी शासन-समुद्र भाग-20-25. आदर्श साहित्य संघ, नई दिल्ली ईसवी सन् 2001 (प्र.सं.) * नोट : श्री तुलसीगणीजी की श्रमणियों का संवत् 2057 तक का विवरण ही उपलब्ध हुआ है। तप संख्या 2975, आछ से 66 दिन तप, संवत् 2044 राजलदेसर में स्वर्गस्थ संवत् 2016 मोखणुंदा में स्वर्गस्थ कुल तप संख्या 1750, तेले के साथ संवत् | 2031 लाडनूं में स्वर्गवास संवत् 2031 लाडनूं में स्वर्गस्थ 22 आगम 11 व्याख्यान की प्रतिलिपि, तप संख्या 115, स्वाध्याय दो हजार गाथा प्रतिदिन उपवास 1980 एक से 15 तक क्रमबद्ध उपवास, प्रतिवर्ष मौन का कर्मचूर रसत्यागिनी उपवास 1381, एक से 15 तक क्रमबद्ध उपवास, संवत् 2025 पीलीबंगा में स्वर्गवास दशवैकालिक, उत्तराध्ययन, बृहत्कल्प तथा चरित्र आदि कंठस्थ, डूंगरगढ़ में स्थिरवास यथोचित ज्ञान, 24 शास्त्र वाचन, प्रतिदिन 500 गाथाओं का स्वाध्याय, तप दिन 522 यथाशक्य ज्ञान, कई आगम, ग्रंथ लिपिबद्ध, कुल तप दिन 2127, अग्रणी, श्रमशीला यथाशक्य ज्ञान, उपवास 5652 क्रमबद्ध तप 11 तक, संवत् 2043 डूंगरगढ़ में दिवंगत तेरापंथ परम्परा की श्रमणियाँ Page #1008 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्रम सं दीक्षा क्रम| साध्वी-नाम जन्मसंवत् स्थान | पिता-नाम गोत्र |दीक्षा संवत् तिथि | दीक्षा स्थान | विशेष-विवरण श्री रुकमांजी | 1966 रतनगढ़ |सूरजमलजी गोलछा 1994 का. क.8 | बीकानेर संवत् 2018 में गण से पृथक् 14. | 18 |श्री रतनांजी | 1966 लाडनूं | पृथ्वीराजजी बैद 1994 का. कृ.8 बीकानेर 17 दिन के तप व 33 घंटे के चौविहारी अनशन से संवत् 2029 आमेट में दिवंगत श्री लिछमांजी | 1968 कालू सुगनचंद पुगलिया | 1994 का. कृ.8 | बीकानेर स्तोक वहजारों पद्य कंठस्थ, तप 3007 दिन, अन्य विविध तप, संवत् 2042 लाडनूं में स्वर्गस्थ 16. | 20 श्री सुंदरजी |1971 सरदारशहर| धनराजजी छाजेड़ | 1994 का. कृ.8 | बीकानेर अग्रणी, विदूशी, प्रतिदिन 1000 गाथा का स्वाध्याय, सेवाभाविनी, बड़ा तप9,10 दिन| का उपवास | 21 0 श्री पानकंवरजी | 1974 सरदारशहर प्रतापमलजी छाजेड़ 1994 का कृ. 8 यथाशक्य ज्ञान, मधुरगायिका,संवत् 2049 बीदासर में दिवंगत, 'शासनश्री' पद से| | अलंकृत 10 श्री सुखदेवांजी | 1974 सरदारशहर| जुहारमलजी बोरड़ | 1994 का. कृ.8 | बीकानेर यथोचित ज्ञान, एक हजार गाथा का स्वाध्याय, अग्रणी सुदूर विहारी 0 श्री लिछमांजी | 1976 सरदारशहर | दिलसुखराय पींचा | 1994 का. कृ.8 | बीकानेर संवत् 1995 सरदारशहर में स्वर्गस्थ श्री भत्तूजी |1977 सरदारशहर| महालचंदजी दूगड़ | 1994 का. कृ.8 | बीकानेर | यथोचित ज्ञान, तप संख्या 3351, कंठीतप, धर्मचक्र, कर्मचूर, 10 पचखाण 63 तथा पंचरंगी तप | श्री जतनकंवरजी| 1979 राजलदेसर | जोरावरमलजी दूगड़ 1994 का. कृ.8 | बीकानेर आगम बत्तीसी वाचन,कलादक्षा, तप दिन 2347, अग्रणी संवत् 2030 से । श्री इमरतजी 1979 राजगढ़ धनराजजी गधैया । 1994 का. कृ.8 | बीकानेर कुल तप संख्या 131,संवत् 1999 भैंसाणा| में दिवंगत 23. | 27 Iश्री हरकंवरजी | 1979 सरदारशहर| चांदमलजी पींचा | 30 आगम वाचन, संवत् 2003 से अग्रणी वर्तमान श्री धनकंवरजी | 1979 सरदारशहर झूमरलालजी पींचा | 1994 का. कृ.8 | बीकानेर आगमबत्तीसीवाचन,साहित्यसृजन-संस्कार सरोवर,गीत,व्याख्यान,संवत् 2016 से अग्रणी जैन श्रमणियों का बृहद इतिहास Page #1009 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तेरापंथ परम्परा की श्रमणियाँ कमध्य सं दीक्षा क्रम | साध्वी-नाम जन्मसंवत् स्थान | पिता-नाम गोत्र |दीक्षा संवत् तिथि | दीक्षा स्थान | विशेष-विवरण श्री रतनकंवरजी 1980 चूरू रावतमलजी पारख | 1994 का. कृ. 8 बीकानेर यथाशक्य ज्ञान, स्वाध्याय, जाप, मौन, तप-उपवास से नौ दिन तक 30 श्री कमलू जी | 1980 सरदारशहर | सुमेरमलजी दूगड़ | 1994 का. कृ. 8 | बीकानेर | तत्त्ववेत्ता, विदूषी,तप संख्या 775,संवत् 2016 से अग्रणी,स्वर्गवास संवत् 2042-60 के मध्य श्रीमानकंवरजी। 1980 राजगढ फतेहचंद कोचर |1994 का. क.8 | बीकानेर संवत् 1999 डूंगरगढ़ में स्वर्गवास श्री चांदकंवरजी 1980 राजगढ़ नेमीचंदजी सामसुखा 1994 का. कृ.8 बीकानेर कुल तप संख्या 912,, संवत् 2032 लाडनूं में स्वर्गवास श्री सूरजकंवरजी| 1981 टमकोर | चंपालालजी चोरड़िया 1994 का. कृ. 8 बीकानेर यथाशक्य ज्ञान, कलादक्ष, तपसंख्या 537 श्री लिछमांजी 1981 सरदारशहर | चांदमलजी पींचा | 1994 का. कृ. 8 बीकानेर यथाशक्य अध्ययन, वाचन, जप, मौन क्रम श्री सिरेकंवरजी | 1982 सरदारशहर चंपालालजी कोठारी 1994 का. कृ.8 | बीकानेर संवत् 2046 छोटी सवाई में दिवंगत श्री धन्नांजी 1960 सरदारशहर | गणपतराम चंडालिया| 1995 का. शु. 3 सरदारशहर यथाज़क्य ज्ञान,तप संख्या 2337,स्वर्गवास सरदारशहर संवत्2033 में16 दिनसंलेखना संथारा से 33. |40 10श्री तीजांजी | 1977 सरदारशहर | ऋद्धकरणजी नाहटा| 1995 का. शु.3 । सरदारशहर | तप संख्या 665, संवत् 2025 ईयारा कैंप (बीदासर) में स्वर्गस्थ श्री छगनांजी | 1977 नोहर |संतोकचंदजी सिंघी | 1995 का. शु.3 । सरदारशहर 1 से 15 तक लड़ी, मासखमण, कुल तप | संख्या 2280, कर्मचूर 2, धर्मचक्र 2, संवत 2036 विरमसर में स्वर्गस्थ । 10श्री गुलाबांजी | 1978 चूरू फूसराजजी बांठिया | 1995 का. शु.3 | सरदारशहर सजोड़े दीक्षा, स्वर्गवास 13 दिन के संथारे सह संवत् 2040 सरदारपुरा में श्री गुलाबांजी | 1980 सरदारशहर तोलाराम बरड़िया | 1995 का. शु.3 | सरदारशहर | तप संख्या 1805,संवत् 2047 में 28 दिन के चौविहारी संलेखना संथारा सह थामला में स्वर्गस्थ 34. In Page #1010 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्रम सं दीक्षा क्रम | साध्वी-नाम जन्मसंवत् स्थान | पिता-नाम गोत्र दीक्षा संवत् तिथि | दीक्षा स्थान | विशेष-विवरण । 948 श्री दीपांजी 1980 सरदारशहर | देवचंद जी पींचा | 1995 का. शु.3 | सरदारशहर | संवत् 2032 से अग्रणी, संवत् 2052 राजलदेसर में स्वर्गस्थ श्री सिरेकंवरजी | 1980 सुजानगढ़ | जयचंदजी दूगड़ | 1995 का. शु. 3 | सरदारशहर | संवत् 2054 में गण से पृथक् श्री पानकंवरजी | 1980 सरदारशहर | नथमलजी बोथरा | 1995 का. शु. 3 सरदारशहर | 32 आगम वाचन,तप संख्या 1179,संवत् | 2056 लाडनूं में स्वर्गस्थ श्री जतनकंवरजी, 1981 सरदारशहर | नथमलजी डागा | 19895 का. शु. 3 | सरदारशहर | संवत् 2038 से 52 तक अग्रणी, बीदासर में संवत् 2054 को दिवंगत श्री रतनकंवरजी | 1982 सरदारशहर फतेहचंदजी पटावरी 1995 का. शु. 3 सरदारशहर | संवत् 2054 राजलदेसर में दिवंगत श्री भीखांजी | 1983 सरदार शहर नथमलजी बोथरा | 1995 का. शु.3 सरदारशहर 32 आगम वाचन, सूक्ष्मलिपिव कलादक्ष, तप संख्या 1407,संवत् 2018 से अग्रणी, संवत् 2053 डीडवाना में दिवंगत |श्री ऋद्भूजी |1984 सुजानगढ़ | जयचंदजी दूगड़ सरदारशहर | संवत् 1998 छापर में दिवंगत श्री फूलकंवरजी | 1981 चूरू सुमेरमलजी सुराणा | 1995 पौ. कृ. 5 चूरू संवत् 1999 राजलदेसर में स्वर्गवास श्री किस्तूरांजी | 1982 चूरू | फतेहचंदजी सुराणा | 1995 पौ. कृ. 5 | चूरू संवत् 1996 केसूर में दिवंगत 10 श्री छगनांजी | 1979 फतेहपुरा | श्रीचंदजी बोहरा | 1995 मा. शु. 7 रतनगढ़ सजोड़े दीक्षा 19 स्तोक, कई व्याख्यान, गीत कंठस्थ, तप संख्या 729 57 श्री जसूजी 1981 कलकत्ता | कन्हैयालाल सिपाणी | 1995 मा. शु.7 रतनगढ़ 10 हजार गाथाएं याद, तप संख्या 3311, दस प्रत्याख्यान 36,संवत् 2056 लाडनूं में 28 दिन अनशन के साथ दिवंगत श्री मालूजी 1982 नोहर लाभूरामजी नखत | 1995 मा. शु.7 | रतनगढ़ | संवत् 2018 में गण से पृथक श्री सजनांजी | 1983 उदयपुर |नथराजजी बैदमुंहता| 1995 मा. शु.7 | रतनगढ़ प्रतिवर्ष 30 उपवास, बेले से तप संख्या 79, स्वाध्याय, ध्यान, जप, मौन का क्रम 600 श्री पूनांजी | 1975 बीदासर | मूलचंदजी नौलखा | 1996 चै. शु. 10 | बीदासर सजोड़े दीक्षा, यथाशक्य ज्ञानार्जन, उपकरण निर्मातृ, तप संख्या 1474, दस प्रत्याख्यान जैन श्रमणियों का बृहद इतिहास 24 Page #1011 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तेरापंथ परम्परा की श्रमणियाँ लाडनूं 949 क्रम संदीक्षा क्रम साध्वी-नाम जन्मसंवत् स्थान | पिता-नाम गोत्र दीक्षा संवत् तिथि दीक्षा स्थान | विशेष-विवरण श्री धनकंवरजी | 1981 बीदासर | तिलोकचंदजी बैंगानी | 1996 चै. शु. 10 | बीदासर 30 स्तोक 10 हजार गाथाएं कंठस्थ, सूक्ष्मलिपि दक्ष, तप संख्या 1762 श्री सूरजकंवरजी 1982 बीदासर | सोहनलालजी दूगड़ | 1996 चै. शु. 10 | बीदासर कलादक्ष,नम्बरसहितप्लास्टिकके चश्मोंकी सर्वप्रथमनिर्मात,सूक्ष्मलिपिदक्ष,तप 1007 दिन श्री किस्तूरांजी | 1982 बीदासर | देवचंदजी बैंगाणी 1996 चै. शु. 10 | बीदासर सूत्र, व्याख्यान, शताधिक गीत कंठस्थ, सिलाई रंगाई प्रतिलिपि में कुशल, जाप, मौन का क्रम 10श्री केशरजी | 1978 लाडनूं | झूमरमलजी पगारिया | 1996 वै.शु.7 लाडनूं स्तोक आगम गीत आदि कंठस्थ, तप संख्या 1073,घंटोंजाप,स्वाध्याय,सेवार्थिनी 0श्री इन्द्रूजी | 1978 सुजानगढ़ | सोहनलालजी नाहटा | 1996 वै. शु. 7 सजोड़े दीक्षा, यथाशक्य ज्ञान,ध्यान, मौन, उपवास, संवत् 2005-46 तक अग्रणी, बीदासर में स्थिरवास 66 | श्री मोहनांजी | 1984 लाडनूं | देवचंदजी सांखला | 1996 वै. शु.7 | लाडनूं आचार्य तुलसीजी की भानजी, 20 वर्ष अग्रणी,संवत् 2040 कांकरोली में स्वर्गस्थ श्री चांदकंवरजी | 1980 जोधपुर | केवलराजजी मुंहता| 1996 का. कृ.8 | बीदासर आगम, स्तोक, व्याकरणज्ञाता, कलादक्ष, तप संख्या 1598,संवत् 2050 सुजानगढ़ में स्वर्गस्थ श्री सुरजकंवरजी। 1982 बडी पाद | बालचंदजी आंचलिया | 1996 का. कृ.8 बीदासर कलाकृति हेतु 6 बार पुरस्कृत, तप संख्या 1469,संवत् 2040 सरदारशहर में दिवंगत श्री सोहनांजी 1980 वास गेरीलालजी पोरवाल 1996 मृ.शु. 10 छापर संवत् 1997 चूरू में स्वर्गस्थ श्री रतनांजी 1975 राजलदेसर | महालचंदजी बैद | 1996 पो. शु. 8 राजलदेसर | हजारों गाथाएं कंठस्थ,तप संख्या 1790, संवत् 2056 राजलदेसर में 50 दिन की संलेखना व अनशन सह दिवंगत श्री पन्नांजी | 1977 डूंगरगढ़ | शोभाचंद पुगलिया | 1996 पौ. शु. 8 | राजलदेसर । तप संख्या 803,आछ से चातुर्मासिक तप के 120 वें दिन दिवंगत संवत् 2017 केलवा में श्री केशरजी | 1983 राजलदेसर | जेठमलजी नौलखा | 1996 पौ. शु. 8 | राजलदेसर | 22 आगम वाचन, माला, सिलाई रंगाई में दक्ष, तप संख्या 525 Page #1012 -------------------------------------------------------------------------- ________________ www.lainelibrary.org 950 क्रम सं दीक्षा क्रम साध्वी - नाम 63. 64. 65. 66. 67. 68. 69. 70. 71. 72. 73. 74. 75. 76. 74 75 76 77 78 80 4141416 12244 81 82 83 84 85 86 87 88 श्री सुखदेवांजी [D] श्री इन्द्रजी ० श्री पन्नांजी ● श्री महताबांजी श्री मोहनांजी 4 श्री तीजांजी 4 श्री सुंदरजी श्री छगनांजी 4 श्री तीजांजी श्री लिछमांजी श्री जड़ावांजी जन्मसंवत् स्थान 1969 नोखामंडी 1969 नोखामंडी श्री मनोहरांजी 1968 राजलदेसर महालचंदजी बरड़िया 1976 आडवा सागरमलजी बोराणा पिता नाम गोत्र मदनचंदजी सेठिया मदनचंदजी सेठिया 1981 तारानगर 1978 सरदार शहर लिखमीचंदजी बोथरा 1996 मा. शु. 6 4 श्री वरजूजी 1983 सरदारशहर झूमरमलजी पींचा श्री कानकंवरजी 1984 सरदारशहर बुद्धमलजी बोथरा 1996 मा. शु. 6 रेवतमलजी सुराणा 1996 मा. शु. 6 1983 सरदारशहर छोटूलालजी बरड़िया 1996 मा. शु. 6 1996 मा. शु. 6 1983 सरदारशहर झूमरलालजी बोथरा 1983 सरदारशहर नेमीचंदजी सेठिया 1996 मा. शु. 6 1984 मोमासर 1968 डूंगरगढ़ 1969 डूंगरगढ़ दीक्षा संवत् तिथि दीक्षा स्थान 1996 मा. शु. 6 1973 रतनगढ़ 1996 मा. शु. 6 1996 मा. शु. 6 आसकरणजी नाहटा ताजमलजी बोथरा हेतरामजी बोथरा 1996 मा. शु. 6 1996 मा. शु. 6 1997 वै. कृ. 10 1997 वै. कृ. 10 जयंचदजी गोलछा 1997 बै. कृ. 10 सरदारशहर सरदारशहर सरदारशहर सरदारशहर सरदारशहर सरदारशहर सरदारशहर सरदारशहर सरदारशहर सरदारशहर सरदारशहर श्रीडूंगरगढ़ श्रीडूंगरगढ़ श्रीडूंगरगढ़ विशेष विवरण 21 स्तोक याद, तप संख्या 2352, संवत् 2049 राजलदेसर में दिवंगत संवत् 2040 भीनासर में स्वर्गस्थ सजोड़े दीक्षा कई आगम, ग्रंथों का वाचन, तप संख्या 2552, आयंबिल संख्या 269, संवत् 2056 लाडनूं में स्वर्गस्थ सजोड़े दीक्षा, तप संख्या 2089, प्रतरतप, कंठीतप, अढ़ाई सौ प्रत्याख्यान आदि। 4 सूत्र, स्तोक कंठस्थ, तप संख्या 2174, अग्रणी, संवत् 2054 पलाणा में दिवंगत आगम बत्तीसी वाचन, तप संख्या 1286, अग्रणी, 50 हजार कि. मी. की पदयात्रा तप संख्या 1068 यथाशक्य ज्ञानार्जन, तप संख्या 1537, संवत् 2043 शार्दूलपुर में दिवंगत यथाशक्य ज्ञानार्जन, तप संख्या 2720, हजार गाथाओं का प्रतिदिन स्वाध्याय 15 स्तोक कंठस्थ, 30 आगम वाचन, कलादक्ष, तप संख्या 528 संवत् 1997 बीदासर में स्वर्गस्थ संवत् 2003 हरणूवाद (पंजाब) में स्वर्गस्थ 51 उपवास बेला तप, स्वर्गवास 1999 चूरू में संवत् 2026 सुजानगढ़ में दिवंगत जैन श्रमणियों का बृहद इतिहास Page #1013 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 951 क्रम सं दीक्षा क्रम साध्वी नाम 77. 89 श्री हुलासांजी 78. 79. 80. 81. 82. 83. 84. 85. 86. 87. 88. 90 91 92 93 94 95 96 97 98 100 101 4 श्री पानकंवरजी 1980 डूंगरगढ़ श्री फूलकंवरजी 1982 नोहर श्री रायकंवरजी 1983 डूंगरगढ़ श्री पूनांजी 1974 सुजानगढ़ श्री रतनांजी 1977 सुजानगढ़ श्री गणेशांजी श्री छोटांनी जन्मसंवत् स्थान 1976 राजलदेसर ● श्री तीजांजी ० श्री तीजांजी पिता-नाम गोत्र तोलाराम कुंडलिया लालचंदजी पुगलिया डालचंदजी दूगड़ जैसराजजी सेठिया गणेशमलजी मालू दीक्षा संवत् तिथि 1997 पै. कृ. 10 केसरचंदजी तातेड़ 1997 वे. कृ. 10 श्री मनोहरांजी 1972 सरदार शहर जसकरण बछावत श्री लिछमांजी 1975 राजगढ़ मानमलजी मुसरफ 1997 वै. कृ. 10 1997 व. कृ. 10 1997 आषा. कृ. 7 1997 आषा. कृ. 7 1978 सुजानगढ़ पन्नालालजी बोरड़ 1997 आषा. कृ. 7 1982 लाडनूं कुंदनमलजी गोलछा 1997 आषा. कृ. 7 1965 सुजानगढ़ नथमलजी फूलफगर 1997 आषा. कृ. 7 1997 का. कृ. 8 1997 का. कृ. 8 1976 सरदारशहर उदयचंदजी जम्मड़ 1997 का. कृ. 8 दीक्षा स्थान श्रीडूंगरगढ़ श्रीडूंगरगढ़ श्रीडूंगरगढ़ श्रीडूंगरगढ़ सुजानगढ़ सुजानगढ़ सुजानगढ़ सुजानगढ़ सुजानगढ़ लाडनूं लाडनूं लाडनूं विशेष- विवरण यथोचित ज्ञान, 1 से 10 तक उपवास की संख्या 1684, खाद्य संयमी, संवत् 2056 डूंगरगढ़ में दिवंगत यथाशक्य ज्ञान, 30 आगम वाचन, तप संख्या 2560, तीन दीर्घसंथारों की प्रभाविका, अग्रणी ज्ञानकला में निपुण, 1 से 10 उपवास, 13, 15, दो मास एकांतर, स्वाध्याय, मौन आदि क्रम 40 स्तोक, आगम ज्ञाता, प्रतिवर्ष 90 उपवास, 1 से 9 तक लड़ीबद्ध तप, सेवाभाविनी संवत् 2055 लाडनूं में स्वर्गस्थ तप संख्या 436, संवत् 2009 में 15 दिन की संलेखना + अनशन के साथ सरदार शहर में स्वर्गस्थ 15 हजार गाथाएं कंठस्थ, तप संख्या 1790, संवत् 2045 आइसर में दिवंगत यथाशक्य ज्ञान दर्शन चारित्र की आराधना, संवत् 2013 गंगापुर में दिवंगत संयम-चर्या में 26 वर्ष व्यतीत कर संवत् 2023 लाडनूं में स्वर्गस्थ संवत् 2050 बीदासर में स्वर्गस्थ ज्ञानध्यान के साथ सैंकड़ों उपवास, 1 से 15, 21 का तप, कुल संख्या. संवत् 2055 टोहाना में स्वर्गस्थ कुल तप संख्या 1327, संवत् 2029 लाडनूं में स्वर्गस्थ तेरापंथ परम्परा की श्रमणियाँ Page #1014 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 952 क्रम सं दीक्षा क्रम साध्वी नाम 89. 102 90. 91. 92. 93. 94. 95. 96. 97. 98. 99. 100. 103 104 106 107 108 109 110 111 112 113 115 जन्मसंवत् स्थान © श्री मानकंवरजी 1979 लाडनूं 0 श्री भीखांजी 4 श्री झमकूजी श्री कमलूजी श्री धनकंवरजी श्री केशरजी 1981 लाडनूं 1982 जोधपुर 1983 लाडनूं 1983 लाडनूं 1984 लाडनूं 4 श्री गणेशांजी 1984 लाडनूं 4 श्री पानकंवरजी 1984 लाडनूं 4 श्री भत्तूजी 1984 लाडनूं श्री ज्ञानांजी श्री सोहनांजी ● श्री सजनांजी 1973 बोरावड़ 1983 बोरावड़ 1971 गंगाशहर पिता नाम गोत्र दीक्षा संवत् तिथि दीक्षा स्थान पृथ्वीराज बरमेचा 1997 का. कृ. 8 लाडनूं भीवराज सेठिया जसराजजी श्रीश्रीमल जालमचंद दूगड़ चांदमलजी बैद मौजीरामजी दूगड़ जसकरणजी बैद महालचंदजी बैद रूपचंदजी बोथरा 1997 का. कृ. 8 1997 का. कृ. 8 1997 का. कृ. 8 1997 का. कृ. 8 1997 का. कृ. 8 1997 का. कृ. 8 1997 का. कृ. 8 1997 का. कृ. 8 हस्तीमलजी गेलड़ा 1998 आषा. शु. 7 हस्तीमलजी गेलड़ा 1998 आषा. शु. 7 घमंडीरामजी चोपड़ा 1998 का. कृ. 9 लाडनूं लाडनूं लाडनूं लाडनूं लाडनू लाडन लाडनूं लाडनूं पड़िहारा पड़िहारा राजलदेसर विशेष विवरण आगम बत्तीसी का वाचन, संघीय सप्तवर्षीय परीक्षा, तप संख्या 1143, संवत् 2047 उकलाना में स्वर्गस्थ यथोचित ज्ञानार्जन, संवत् 2029 से अग्रणी तप संख्या 536, संवत् 2028 बीदासर में स्वर्गस्थ चार आगम कुछ स्तोक कंठस्थ, 1-10 तक उपवास, जप, मौन स्वाध्याय में लीन यथोचित ज्ञान, तप संख्या 1010 साध्योचित ज्ञान, संवत् 2042 आमेट में स्वर्गस्थ कलात्मक उपकरण की निर्मिति, तप संख्या 647, संवत् 2034 रींछेड़ में दिवंगत आगम बत्तीसी का वाचन, प्रतिलिपिकर्त्री, प्रतिवर्ष 44 उपवास, शेष तप संख्या 106 साध्वोचित अध्ययन, आगम बत्तीसी का वाचन, तप संख्या 1814, कुछ व्याख्यान भी रचे साध्वोचित शिक्षा, तप संख्या 1752, एक पछेवड़ी सिवा त्याग, संवत् 2057 ईंडवा में स्वर्गस्थ साध्वोचित उपकरण निर्माण में दक्ष, तप संख्या 2174 तपसंख्या 2441, संवत् 2056 लाडनूं में 7 दिन संलेखना 70 दिन के अनशन सह दिवंगत जैन श्रमणियों का बृहद इतिहास Page #1015 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तेरापंथ परम्परा की श्रमणियाँ 953 क्रम सं दीक्षा क्रम साध्वी-नाम जन्मसंवत् स्थान | पिता-नाम गोत्र दीक्षा संवत् तिथि | दीक्षा स्थान | विशेष-विवरण 101. 116 श्री राजांजी 1971 गंगाशहर | तनसुखदासजी सुराणा | 1998 का. कृ.9 | राजलदेसर | सेवाभाविनी, कार्यदक्ष, निर्भय, संवत् 2038 को उदासर में 11 दिन के अनशनसह दिवंगत 102. श्री रंभाजी 1972 भीनासर | मोतीचंदजी कोचर | 1998 का. कृ.9 | राजलदेसर संवत् 2002 में गण से पृथक् 103. श्री नोजांजी | 1974 राजलदेसर | जैसराजजी बैद 1998 का. कृ.9 राजलदेसर यथासाध्य तप जप स्वाध्याय, संवत् 2036] लाडनूं में स्वर्गस्थ 104. श्री इन्द्रूजी 1976 रतनगढ़ | डूंगरमलजी तातेड़ | 1998 का. कृ.9 राजलदेसर यथासाध्य ज्ञानार्जन, उपकरण निर्माण में कुशल, तप संख्या 3263, साहसी "श्री विदामांजी | 1975 सिरेवड़ी |1998 का. कृ.9 | राजलदेसर यथामति ज्ञानार्जन,तपसंख्या 2859,अढ़ाई सौ प्रत्याख्यान, प्रतिदिन दो प्रहर तप श्री सुगनांजी 1977 गंगाशहर | जुहारमल सिरोहिया | 1998 का. कृ.9 राजलदेसर संवत् 2046 बीदासर में स्वर्गस्थ 107. श्री मोहनांजी | 1978 लाडनूं | नेमीचंदजी कोठारी | 1998 का. कृ.9 राजलदेसर | समतावान, यथाशक्य ज्ञान, ध्यान, स्वाध्याय, तप संख्या 1736, अढ़ाई सौ प्रत्याख्यान 108. | 123 श्री भत्तूजी 1982 केलवा नंदलालजी चोरड़िया | 1998 का. कृ.9 | राजलदेसर | प्रतिवर्ष40-50 उपवास,दोवर्षीतप, अठाई 10श्री लिछमांजी | 1982 तालछापर | महालचंदजी कोठारी| 1998 का. कृ.9 | राजलदेसर कईस्तोक,व्याख्यान कंठस्थ,तप-संख्या 1994, अढ़ाई सौ प्रत्याख्यान, संवत् 2049 बीदासर में स्वर्गस्थ 126 श्री भीखांजी | 1982 राजलदेसर | रूपचंदजी बैद 1998 का. कृ.9 | राजलदेसर | यथोचित ज्ञानार्जन, तप-संख्या 2025 श्री मोहनांजी 1983 छापर झूमरमलजी नाहटा | 1998 का. कृ.9 राजलदेसर | यथाशक्य ज्ञानार्जन,तप संख्या 809,संवत् 2045 सरदार शहर में दिवंगत | श्री गणेशांजी | 1983 छापर झूमरमलजी बैद 1998 का. कृ.9 | राजलदेसर यथाशक्य अध्ययन, 17 वर्षों से एकांतर, शेष तप-संख्या 1811 श्री लिछमांजी | 1983 राजलदेसर | सूरजमलजी बैद | 1998 का. कृ.9 | राजलदेसर यथाशक्य शास्त्रज्ञान 114. | श्री रायकंवरजी | 1983 राजलदेसर | तोलारामजी कुंडलिया | 1998 का. कृ. 9 राजलदेसर यथाशक्य अध्ययन,वाचन,स्वाध्याय,मौन, तप-संख्या 1133,डूंगरगढ़ में स्थिरवास 109. 10 12 113. Page #1016 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्रम सं दीक्षा क्रम| साध्वी-नाम जन्मसंवत् स्थान | पिता-नाम गोत्र दीक्षा संवत् तिथि दीक्षा स्थान | विशेष-विवरण | 131 श्री भीखांजी | 1983 पीपली | चंदनमलजी दक | 1998 का. कृ.9 | राजलदेसर | यथाशक्य ज्ञानार्जन, उपकरण निर्माण में| दक्ष,तप संख्या 1307.संवत् 2047 खात्यां की ढाणी में स्वर्गवास श्री मानकंवरजी | 1984 राजलदेसर | तोलारामजी बैद | 1998 का. कृ.9 | राजलदेसर | 32 सूत्रों का अध्ययन, कलादक्ष, तप | संख्या 1430 श्री पानकंवरजी | 1984 सरदारशहर | नथमलजी डागा | 1998 मा. शु.7 सरदारशहर | संवत् 2054 बीदासर में स्वर्गस्थ श्री चौथांजी |1984 सरदारशहर| धनराजजी पटावरी | 1998 मा. श.7 सरदारशहर | उपकरण निर्माण में दक्ष, 1 से 9 दिन तक लड़ीबद्ध तप श्री भीखांजी 1984 सुजानगढ़ |छगनलालजी डोसी | 1998 मा. श.7 | सरदारशहर | सूक्ष्माक्षर लिपिकला में दक्ष, 13 वर्ष दो मास एकान्तर, 1 से 9 तक की लड़ी। श्री राजांजी | 1974 गंगाशहर | भीखणचंदजी बैद 1999 का. कृ. 8 तपसंख्या1118,संवत्2022 हिसारमेंदिवंगत श्री मूलांजी | 1977 चूरू हजारीमलजी सुराणा | 1999 का. कृ. 8 आगमज्ञाता, कलादक्ष, संवत् 2045 मांडा में स्वर्गवास श्री सिरेकवरजी | 1977 चूरू | केशरीचंदजीकोठारी | 1999 का. कृ. 8 संयमनिष्ठ,तप-जप में लीन,तप-संख्या 1194,संवत् 2050 लूणकरणसर में स्वर्गस्थ श्री धनकंवरजी | 1980 चूरू | कन्हैयालाल बांठिया 1999 का. कृ. 8 तप संख्या 1897,यथाशक्य ज्ञान, ध्यान, जप, तप, संवत् 2035 रतनगढ़ में स्वर्गस्थ श्री बिदामांजी | 1983 देवगढ़ | गणेशमलजी छाजेड़1999 का. कृ. 8 यथाशक्य ज्ञानार्जन, तप संख्या 1437, संवत् 2048 बीदासर में स्वर्गगमन श्री मनोहरांजी | 1985 जयपुर बादरमलजी चोपड़ा 1999 का. कृ. 8 साध्वोचित उपकरण निर्माण में कुशल, उपवास से आठ तक का तप, स्वाध्याय, ध्यान मौन का क्रम श्री पानकंवरजी | 1985 जयपुर मोतीलालजी बांठिया 1999 का. कृ. 8 आगम बत्तीसी की ज्ञाता, कलादक्ष श्री चांदकंवरजी | 1985 रतननगर | श्रींचदजी हीरावत | 1999 का. कृ. 8 | चूरू यथासाध्य ज्ञानार्जन श्री झमकूजी 1986 भादरा | वृद्धिचंदजी नाहटा | 1999 का. कृ.8 चूरू चार शास्त्र कंठस्थ, कुछ व्याख्यान सैंकड़ों | गीतिकाएं रची, तप संख्या 1060 जैन श्रमणियों का बृहद इतिहास Page #1017 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 129. तेरापंथ परम्परा की श्रमणियाँ चूरू 955 क्रम सं दीक्षा क्रम| साध्वी-नाम जन्मसंवत् स्थान | पिता-नाम गोत्र | दीक्षा संवत् तिथि | दीक्षा स्थान | विशेष-विवरण श्री रायकंवरजी | 1987 जयपर मोतीलालजी बांठिया 1999 का. क.8 चूरू आगमज्ञाता, तप-55 वर्षों से एक मास एकान्तर, 25 बेले | 152 श्री सुखदेवांजी | 1987 चूरू सूरजमलजी बांठिया 1999 का. कृ. 8 आगम व्याकरणादि का ज्ञान, तप संख्या 861,संवत् 2051 बीदासर में स्वर्गस्थ 153 श्री मानकंवरजी | 1987 चूरू माणकचंदजी सुराणा 1999 का. कृ.8 चूरू आगम,स्तोक,व्याकरण का ज्ञान,संघीय चार वर्ष की परीक्षा,कलादक्ष.तपसंख्या 1042 श्री ज्ञानांजी | 1975 कालू लिखमीचंद नाहटा | 2000 भा. शु. 13 | गंगाशहर | यथाशक्य ज्ञान, तप संख्या 2844 |155 श्री केशरजी | 1983 राजलदेसर | श्री तनसुखदासजी | 2000 भा. शु. 13 | गंगाशहर पांच वर्ष की वयसेही उपवास,धर्मरुचि, घोड़ावत कई स्तोक, श्लोक आदि कंठस्थ, कुल तप-संख्या 1335 कई कलात्मक उपकरणों का निर्माण, लाडनूं में स्थिरवासिनी श्री लिछमांजी | 1983 राजलदेसर | मिरजामलजी बैद | 2000 भा. शु. 13 गंगाशहर तप संख्या 1440, अढ़ाई सौ प्रत्याख्यान श्री उमांजी 1983 लावा | जोधराजजी चींपड़ | 2000 भा. शु. 13 गंगाशहर कुछ स्तोक व शास्त्रज्ञान, कलादक्ष, तप संख्या 252,अग्रणी संवत् 2040 से श्री छगनांजी 1984 सरदारशहर महालचंदजी कोठारी 1000 का. शु.9 | गंगाशहर शिक्षाकला का यथाशक्य अभ्यास, तप संख्या 1629, अग्रणी संवत् 2038 से, धर्मप्रभाविका 137. 161 | 161 -नानूंजी 1984लावा | कन्हैयालालजी मेहता 2000 का. शु.१ । गंगाशहर सेवाभाविनी,संस्कृत में बी.ए.,दो दिन के अनशन सह संवत् 2057 सुनाम में समाधिमरण 138. 162 श्री तीजांजी 1985 उदयपुर | फूलचंदजी पोरवाल | 2000 का. शु.9 | गंगाशहर संवत् 2031 में गण से पृथक् 139. 165 श्री वरजूजी 1986 सरदारशहर| सोहनलाल बच्छावत | 2000 का. श.9 | गंगाशहर सेवाभाविनी, साध्वोचित उपकरण, उद्बोधक चित्र निर्माण में कुशल, तप 1 से 8 लड़ीबद्ध Page #1018 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 956 क्रम सं दीक्षा क्रम साध्वी - नाम 140. 166 141. 142. 145. 146. 147. 143. 170 144. 171 148. 149. 150. 151. 152. 153. 167 154. 168 172 173 174 175 176 179 180 181 182 184 श्री रतनकंवरजी श्री चनणांजी 4 श्री विदामांजी 4 श्री धनकंवरजी श्री हरकंवरजी 4 श्री राजकंवरजी श्री रायकंवरजी © श्री धनकंवरजी जन्मसंवत् स्थान 1987 सरदारशहर 1977 जन् 1982 खींवाड़ा 1986 लाडनूं 1987 जोधपुर 1987 डूंगरगढ़ 1982 सुजानगढ़ 1982 सरदारशहर पिता नाम गोत्र दीक्षा संवत् तिथि दीक्षा स्थान बुद्धमलजी बोथरा 2000 का. शु. 9 गंगाशहर भीखणचंदजी सेठिया 2001 वै. शु. 3 गुलाबचंदजी गधैया 2001 वै. शु. 3 आसकरण खटेड़ माणकचंदजी 1989 सुजानगढ़ 1980 सरदारशहर 1980 सुजानगढ़ सांखला बींजराजजी वैद पूनमचंदजी नाहटा सोहनलाल तातेड़ 2001 आषा. शु. 2 2001 आषा. शु. 2 2001 आषा. शु. 2 2001 का. कृ. 10 2001 का. कृ. 10 1985 सरदारशहर लालचंदजी कुंडलिया 2001 का. कृ. 10 शिवरामजी बाफणा 2001 का. कृ. 10 4 श्री रामकुमारीजी 4 श्री जतनकंवरजी 1985 भैंसाणा श्री रायकंवरजी श्री लिछमांजी जयचंदजी दूगड़ दीपचंदजी सेठिया मोहनलाल सेठिया • श्री कानकंवरजी ● श्री गुलाबांजी 1981 सरदारशहर दुलीचंदजी पारख 2001 मा. शु. 8 4 श्री कानकंवरजी 1986 राजलदेसर तोलारामजी कुंडलिया 2001 मा. शु. 8 2001 का. कृ. 10 2001 मा. सु. ४ 2001 मा. शु. 8 नोखामंडी नोखामंडी लाडनूं लाडनूं लाडनूं सुजानगढ़ सुजानगढ़ सुजानगढ़ सुजानगढ़ सुजानगढ़ सुजानगढ़ सुजानगढ़ सुजानगढ़ सुजानगढ़ विशेष- विवरण कई स्तोक व्याख्यान व आगम ज्ञान सीखा, 1 से 9 लड़ीबद्ध तप, आयबल सेमासखमण, 101 तेले स्तोक 9 व्याख्यान 150 ढालें कंठस्थ तप 1 से 9 तक लड़ी, कुल तप-संख्या 2814 स्तोक, व्याख्यान, ज्ञानाराधना के साथ तप संख्या 1613 भद्र, मिलनसार, संवत् 2015 अमीनाबाद में पिपासा परीषह के कारण दिवंगत संवत् 2009 टमकोर में स्वर्गस्थ संवत् 2049 लाडनूं में दिवंगत, तप संख्या 791 संवत् 2007 छह दिन के तप व 25 घंटे के संथारे सह दिवंगत आगम, टीका, भाष्य का अध्ययन, अग्रणी, सेवाभाविनी यथाशक्य अध्ययन, उपवास से आठ दिन तक लड़ीबद्ध तप संवत् 2054 में गण से पृथक् स्तोक ज्ञान, ऊनी वस्त्र त्याग, तप संख्या 3255 15 दिन के अनशन सह संवत् 2052 लाडनूं में स्वर्गस्थ सरल, सेवाभाविनी तप संख्या 516, स्वर्गवास संवत् 2049 गोगुंदा में स्तोक, 13 व्याख्यान कंठस्थ, तप संख्या 507, संवत् 2051 डूंगरगढ़ में दिवंगत जैन श्रमणियों का बृहद इतिहास Page #1019 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तेरापंथ परम्परा की श्रमणियाँ 957 क्रम सं दीक्षा क्रम | साध्वी-नाम जन्मसंवत् स्थान | पिता-नाम गोत्र | दीक्षा संवत् तिथि | दीक्षा स्थान | विशेष-विवरण श्री कानकंवरजी | 1987 भादरा | पन्नालालजी नाहटा | 2001 मा. शु. 8 | सुजानगढ़ | शांत प्रकृति, ज्ञान-ध्यान तप प्रधान जीवन, तप संख्या 1520 संवत् 2029 लाडनूं में दिवंगत श्री फूलकंवरजी | 1988 लाडनूं | मोहनलालजी बैद | 2001 मा. शु. 8 सुजानगढ़ संवत् 2041 में गण से पृथक | श्री इमरतांजी | 1986 सरदारशहर | महालचंदजी बोरड़ | 2002 का. कृ. 8 | डूंगरगढ़ संवत् 2017 में गण से पृथक् | श्री झमकूजी | 1987 बीदासर | तिलोकचंदजी बैंगानी | 2002 का. कृ. 8 | डूंगरगढ़ कुछ आगम, व्याकरण सूक्ष्माक्षर लेखन का ज्ञान, तप संख्या 1838 | श्री रतनकंवरजी | 1987 सरदारशहर | बुद्धमलजी बच्छावत 2002 का. कृ. 8 डूंगरगढ़ कुछ आगम, स्तोक, व्याख्यान ज्ञान, तप संख्या 1083 श्री भीखांजी 1989 डूंगरगढ़ हरखचंदजी बोथरा 2002 का.कृ.8 | डूंगरगढ़ स्तोक आगम ज्ञान, साध्वोचित कार्य में दक्ष,तप 1 से 9 तक लड़ीबद्ध कुल संख्या 1604 | 192 श्री हुलासांजी | 1989 गंगाशहर | ऊमचंदजी भुगड़ी | 2002 का. कृ. 8 | डूंगरगढ़ सप्तवर्षीयपरीक्षा,1000 गाथाओंका प्रतिदिन स्वाध्याय,8 द्रव्य 2 विगय का उपभोग,तप संख्या 2772 | श्री जतनकंवरजी 1989 चूरू भंवरलाल सुराणा 2002 का. कृ.8 | डूंगरगढ़ | संवत् 2037 में गण से पृथक् | श्री धनकंवरजी | 1989 सरदारशहर | लाभूरामजी नखत | 2002 मा. शु. 7 सरदारशहर | यथाशक्य ज्ञान, इंजेक्शन लगाने में दक्ष, तपसंख्या 1969 195 श्री झमकूजी | 1989 सरदारशहर वृद्धिचंदजी बैद | 2002 मा. शु.7 सरदारशहर | यथासंभव ज्ञानार्जन, आगम बत्तीसी का वाचन,तप संख्या, उपवास सैकड़ों,2 से 9 तक तप संख्या 421 श्री कानकंवरजी 1989 सरदारशहर गणेशमलजी कोठारी | 2002 मा. शु.7 | सरदारशहर | संवत् 2017 रायपुर में स्वर्ग प्रस्थान | श्री मानकंवरजी | 1990 सरदारशहर | खेतसीदासजी दूगड़ | 2002 मा. शु. 7 सरदारशहर | विदुषी,कला-चातुर्य में पुरस्कृत,तपसंख्या 323,अग्रणी, 5 वर्ष 5 विगय त्याग श्री जेठांजी | 1977 शार्दूलपुर | पूरणमलजी छाजेड़ | 2003 का. कृ. 1 | राजगढ़ कतिपय व्याख्यानादि कंठस्थ, कुल तप संख्या 2957 लाडनूं में स्थिरवास Page #1020 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 169 73. क्रम सं दीक्षा क्रम | साध्वी-नाम जन्मसंवत् स्थान | पिता-नाम गोत्र दीक्षा संवत् तिथि दीक्षा स्थान | विशेष-विवरण 199 श्री मानकंवरजी| 1979 बीदासर | कालूरामजी बुच्चा | 2003 का. कृ.1 | | राजगढ़ | यथाशक्य ज्ञान ध्यान, सेवा, तप1 से 11| तक लड़ी, कुल संख्या 1777 श्री रतनांजी 1981 चूरू हुलासामलजी कोठारी | 2003 का. कृ.1 | राजगढ़ यथाशक्य ज्ञान-ध्यान, तप संख्या 1486, संवत् 2057 बीदासर मंसंथारा सह स्वर्गवास 10श्री सोनांजी | 1982 डूंगरगढ़ | विरधीचंदजी बाफणा| 2003 का. कृ. 1 राजगढ़ बोल, स्तोक कंठस्थ, 1 से 15 तक का लड़ीबद्ध तप, कुल तप संख्या 951 श्री गणेशांजी | 1987 बोरावड़ हस्तीमलजी गेलड़ा| 2003 का. कृ.1 | राजगढ़ तीन वर्ष की वय में उपवास का कीर्तिमान संस्कृत, व्याकरण, आगम ज्ञान, कविता मुक्तक की रचना,कलादक्ष,लगभग 131 उपवास,1300 एकाशन,83 आयंबिल |204 श्री कंचनकंवरजी | 1988 उदयपुर | जोधसिंहजी सिंघवी 2003 का. कृ.1 | राजगढ़ छह आगम कंठस्थ,संवत् 2015 से अग्रणी | 206 0 श्री दीपांजी | 1981 डूंगरगढ़ | ईश्वरचंदजी पुगलिया | 2003 मा. शु. 5 | चूरू पांच हजार गाथाएं कंठस्थ, तप संख्या 1279, अनशन तप 46 दिन संवत् 1990 थामला में दिवात 174. 207 |"श्री चांदाजी | 1982 डूंगरगढ़ | मोतीलालजी मालू | 2003 मा. शु. 5 तप संख्या 1032 संवत् 2057 तक 1208 श्री मनोरांजी | 1986 लावा | कनकमलजी | 2003 मा. शु. 5 यथाशक्य ज्ञान, तप सैकड़ों उपवास, बेले, तेले, चार व आठ का तप भी किया। 176. 209 श्री मानकंवरजी | 1987 टमकोर दीपचंदजी कोठारी | 2003 मा. शु. 5 कतिपय स्तोक आदि ज्ञान, तप संख्या 1106,आयंबिल 165 177. 1210 | श्री सूरजकंवरजी| 1988 शार्दूलपुर | गणपतराय सीधी | 2003 मा. शु. 5 स्तोक ज्ञान, तप संख्या 528,दो विगय व 15 द्रव्य के अतिरिक्त का त्याग 178. 211 श्री वरजू जी |1989 लावा कनकमलजी चींपड़ 2003 मा. शु. 5 चूरू कंठस्थ ज्ञान अच्छा है। सैकड़ों उपवास, अठाई,21 कातप, कुल संख्या बेलेके आगे की 150 179. 1213 श्री फूलकंवरजी 1984 सुजानगढ़ प्रेमचंदजी सिंधी 2004 का. कृ.7 | रतनगढ़ स्तोक 13,वाचन 30 आगम,8आगोंकीसूची तैयारकी,तपसंख्या 304,संवत् 2027 सेअग्रणी 175. जैन श्रमणियों का बृहद इतिहास Page #1021 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तेरापंथ परम्परा की श्रमणियाँ 181. 1215 182. 1216 185. क्रम सं दीक्षा क्रम साध्वी-नाम जन्मसंवत् स्थान | पिता-नाम गोत्र दीक्षा संवत् तिथि | दीक्षा स्थान | विशेष-विवरण 180. 214 श्री सिरेकंवरजी 1986 सुजानगढ़ माणकचंदजी डोसी | 2004 का. कृ.7 रतनगढ़ यथोचित ज्ञानार्जन, तप संख्या 982, स्वाध्याय, मौन, जाप का क्रम श्री मनोरांजी |1980 राजगढ़ | हरखचंदजी सिंधी | 2004 मा. शु. 5 बीदासर यथोचित ज्ञानार्जन, उपवास से 10 तक लडी.दो मास प्रायः एकान्तर, कलादक्ष श्री चांदांजी | 1988 टाड़गढ़ | मीठालालजी कोठारी | 2004 मा. शु. 5 बीदासर कंठस्थ ज्ञान व आगम ज्ञान श्रेष्ठ, ग्रंथों की प्रतिलिपियां भी की, तप संख्या 980 183. 217 श्री पूनांजी | 1982 लाडनूं जयंचदजी खटेड | 2005 चै. शु. 11 लाडनूं आवश्यक ज्ञान कंठस्थ, उपवास से 15 दिन तक लड़ीबद्ध तप 184. 218 श्री केशरजी | 1985 राजगढ़ | रायचंदजी सुराणा | 2005 चै. शु. 11 लाडनूं साध्वोचित ज्ञान, कला में प्रवीण, तप संख्या 1077,प्राय:प्रतिवर्षदस प्रत्याख्यान | श्री पानकंवरजी | 1987 लाडनूं डालमचंदजी बरमेचा | 2005 चै. शु. 11 लाडनूं संवत् 2052 बीदासर में स्वर्गस्थ श्री गुलाबांजी | 1987 चूरू गोपालचंदजी सुराणा | 2005 चै. शु. 1। लाडनूं कतिपय स्तोक आगम ज्ञान, तप संख्या 816, कई हरिजनों को व्यसन मुक्त किया। | श्री कानकंवरजी | 1988 लाडनूं इन्द्रचन्द्रजी घीया | 2005 चै. शु. 11 साध्वोचित ज्ञानार्जन, तप 1 से 8 तक कुल संख्या 825 | 222 श्री चांदकंवरजी | 1989 लाडनूं दुलीचंदजी गोलछा | 2005 चै. शु. 11 टीका, भाष्य, न्याय, दर्शन योग विषयक ग्रंथों का विशिष्ट अध्ययन, व्याख्यान, मुक्तक, गीत की रचना, तप संख्या 538, दस प्रत्याख्यान 15 बार, विदुषी साध्वी, संवत् 2032 से अग्रणी |224 श्री जतनकंवरजी 1990 लाडनूं | मोहनलालजी बैद | 2005 चै. शु. 11 | लाडनूं पांच वर्ष की परीक्षा उत्तीर्ण, सेवाभाविनी, तप 100 उपवास, 1 बेला | श्री पानकंवरजी | 1977 सिरसा डूंगरसीदास गोलछा | 2005 का. कृ. 8 | छापर संवत् 2022 में गण से पृथक् श्री मूलांजी 1989 फतेहगढ़ निहालचंद सिंघवी | 2005 का. कृ. 8 छापर कच्छ गुजरात की तेरापंथी प्रथम साध्वी, 13 वर्ष की वय में वर्षीतप, कुल तप 1899,स्वाध्यायी हैं 1187. 226 2. Page #1022 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दीक्षा क्रम साध्वी-नाम जन्मसंवत् स्थान | पिता-नाम गोत्र दीक्षा संवत् तिथि दीक्षा स्थान | विशेष-विवरण श्री सूरजकंवरजी 1988 छोटी खाटू उगमचंदजी भंडारी | 2005 का. कृ. 8 छापर संवत् 2055 बीदासर में स्वर्गस्थ | श्री किस्तूरांजी | 1990 सरदार शहर हजारीमलजी सुराणा 2005 का. कृ. 8 छापर संवत् 2042 सुजानगढ़ में स्वर्गस्थ श्री मनोहरांजी | 1982 आडसर छोगमल सामसुखा | 2006 का. कृ. 8 | जयपुर संवत् 2053 चूरू में स्वर्गस्थ IN श्री मदनकंवरजी| 1989 उज्जैन नेमीचंदजी बोरदिया | 2006 का. कृ. 8 जयपुर यथाशक्य ज्ञानाभ्यास सक्ष्माक्षर लेखन कला, तप संख्या 782, दस प्रत्याख्यान 15,सेवाभाविनी 10श्री दीपांजी | 1986 डूंगरगढ़ वृद्धिचंदजी बाफणा | 2006 पौ. शु. 8 | सवाई माधोपुर संवत् 2038 में गण से पृथक् श्री कानकंवरजी 1982 बीदासर |गोरधनदास बरमेचा 2007 का कृ.7 | हांसी 40 दिन का तप 10 दिन का अनशन कुल 50 दिन तप अनशन सह संवत् 2046 राजलदेसर में स्वर्गस्थ 10श्री कलावतीजी| 1985 सुजानगढ़ | नेमीचंदजी नाहटा 2007 का. कृ.7 | हांसी संवत् 2041 लाडनूं में स्वर्गस्थ 10श्री लीलावतीजी| 1987 केसूर, म.प्र.रूपचंदजी दक 2007 का कृ.7 हांसी सजोड़े दीक्षा, 1 से 10 उपवास लड़ीबद्ध, आछ के आधार से 50 दिन का तप श्री कमलावतीजी 1987 लाडनूं महालचंदजी सिंधी | 2007 का.कृ.7 | हांसी यथाशक्य ज्ञानार्जन, उपवाससंख्या 1409, दस प्रत्याख्यान 13,आबिल तेले 7,31 का थोक | 241 श्री पद्मावतीजी 1988 शाहदा देवकरणजी गेलड़ा | 2007 का. कृ.7 | धूलिया दीक्षा साध्वी भत्तूजी द्वारा हुई,प्रतिदिन 300 गाथाओं का स्वाध्याय, प्रतिवर्ष 40-50 उपवास, बेले से नौ तक तप संख्या 82 श्री इन्दिराजी | 1985 आडसर तोलारामजी आरी | 2007 पौ. कृ. 2 | उकलाना मंडी | कलादक्ष, तप संख्या 1020, ज्ञान-आगम, स्तोक, व्याकरण श्री गुणश्रीजी | माणकचंद चोरड़िया 2007 पौ. शु. 7 हिसार ज्ञान-आगम, संघीय साहित्य, कलादक्ष, लगभग 700 उपवास श्री मंजुलाजी | 1992 लाडनूं | सूरजमलजी बैद | 2007 पौ. शु.7 | हिसार साध्वी प्रमुखाकनकप्रभाजीकीज्येष्ठाभगिनी. विदुषी साध्वी,संवत् 2038 में संघ मुक्त जैन श्रमणियों का बृहद इतिहास Page #1023 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तेरापंथ परम्परा की श्रमणियाँ 961 क्रम सं दीक्षा क्रम साध्वी-नाम जन्मसंवत् स्थान | पिता-नाम गोत्र दीक्षा संवत् तिथि दीक्षा स्थान विशेष-विवरण | 246 श्री रतनश्रीजी | 1990 लाडनूं मोतीलाल बोकड़िया 2008 चै. शु. 5 | संगरूर आगम, न्याय, संस्कृत ज्ञान, सप्तवर्षीय | परीक्षा, बहुभाषाविद्,भजन कविता मुक्तक की रचना की। तप 750 उपवास, अठाई, एकाशन के 4 मासखमण, पचरंगी आदि 500 एकाशन | 206. | 247 श्री गुणवतीजी | 1991 टमकोर चंपालाल चोरड़िया | 2008 चै. शु. 5 | संगरूर | ज्ञान-आगम,स्तोक,संस्कृत,न्याय आदि, कलादक्ष, गीत मुक्तक रचना, तप संख्या 1112 उपवास 1248 श्री गणेशांजी | 1984 रतनगढ़ |सोहनलाल आंचलिया | 2008 का. शु. 13 | दिल्ली संवत् 2053 राजलदेसर में स्वर्ग गमन 1249 10श्री कुसुमश्रीजी 1985 कोलिया |किस्तूरचंदजी सिंधी | 2008 का. शु. 13 दिल्ली संवत् 2044 लाडनूं में 29 दिन तप व अनशन के साथ दिवंगत Jश्री रतनश्रीजी | 1991 डूंगरगढ़ | हुलासमल चोरडिया 2008 का. शु. 13 | दिल्ली ज्ञान-आगम,संस्कृत आदि,अग्रणी संवत् 2028 से 251 श्री विद्यावतीजी | 1993 डूंगरगढ़ हनूतमलजी दूगड़ 2008 पौ. कृ.5 | भादरा ज्ञान-आगम 5, स्तोक, संस्कृत आदि, नर्स के कार्य में सक्षम, तप संख्या 394 उपवास 252 0 श्री भानुमतीजी | 1986 गंगाशहर आनंदमलजी सेठिया 2008 पौ. शु. 8 | सिरसा ज्ञान-आगमों का, कलादक्ष,उपवाससंख्या, 1637 253 श्री सज्जनश्रीजी | 1990 शार्दूलपुर | नैतमलजी बोथरा | 2008 मा. कृ.5 | नोहर । ज्ञान-स्तोक, आगम, संस्कृत, रचना एकान्हिक श्लोक शतक, शोध निबंध कई विशिष्ट कलादक्ष, उपवास संख्या 1589, दस प्रत्याख्यान 15, आयंबिल तेले 15 | 213. 254 श्री लिखमावतीजी 1972 डूंगरगढ़ | धनराजजी बोथरा | 2008 मा. शु. 13 सरदारशहर | उपवास संख्या 3009 एक से 16 तक की लड़ी, वर्षीतप, सुव्रत तप, अकषाय तप, धर्मचक्र आदि, भादरा में स्थिरवास Page #1024 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 962 क्रम सं दीक्षा क्रम साध्वी नाम 214. 255 258 215. 216. 217. 218. 219. 220. 221. 222. 223. 224. 225. 226. 259 260 261 262 264 265 267 268 270 271 273 श्री विजयकंवरजी ० श्री अकल कंवरजी 4 श्री राजवतीजी 4 श्री सुमति कुमारीजी O श्री भानुकंवरजी 1987 सरदार शहर सुमेरमलजी पीचा 4 श्री पुण्यश्रीजी श्री मदनश्रीजी जन्मसंवत् स्थान 1991 छापर 1985 सांचोर श्री विमल श्रीजी श्री भागवतीजी 1990 डूंगरगढ़ 1990 लाडनूं 1991 लाडनूं 1991 बीदासर श्री मैणरयाजी 1992 केसूर 1993 गंगाशहर 1993 डूंगरगढ़ पिता - नाम गोत्र झूमरमलजी नाहटा जुगराजजी भंडारी मेघराजजी सामसुखा तिलोकचंदजी बोर श्री चंद्रकलाजी 1990 हिसार दीक्षा संवत् तिथि दीक्षा स्थान 2008 मा. शु. 13 2009 का. कृ. 9 2009 का. कृ. 9 श्री वसुमतीजी 1988 सरदारशहर फतेहचंदजी दूगड़ 2009 का. कृ. 9 2009 का. कृ. 9 हरखचंदजी पगारिया 2009 का. कृ. 9 इन्द्रचंदजी बैद 2009 का. कृ. 9 ज्ञानमलजी बम्बोरी 2009 का. कृ. 9 2009 का. कृ. 9 भैंरुदानजी डागा लूनकरणजी सिंघी 2009 पौ. शु. 13 2009 मा. शु. 9 श्री जसवतीजी 1990 सरदारशहर महालचंदजी नाहटा 2009 मा. शु. 9 गोपीरामजी मित्तल 2009 फा. शु. 13 सरदारशहर सरदारशहर सरदारशहर सरदारशहर सरदारशहर सरदारशहर सरदारशहर सरदारशहर सरदारशहर डूंगरगढ़ सरदारशहर सरदारशहर लूनकरणसर विशेष विवरण ज्ञान-आगम, स्तोक, संस्कृत, साहित्यिक ग्रंथ आगम, स्तोक, संस्कृत, संघीय साहित्य का ज्ञान, उपवास हजारों, बेले 200, 11 तक क्रमबद्ध तप एक 15 ज्ञान- आगम, स्तोक आदि, 21 तक अवधान प्रयोग आगम, स्तोक ज्ञान आगम, स्तोक ज्ञान 10 वर्ष से दो मास एकांतर उपवास संवत् 2018 से गण मुक्त कतिपय स्तोक, व्याख्यान कंठस्थ, कुल उपवास संख्या 381, दस प्रत्याख्यान 4 बार ज्ञान-आगम, स्तोक, संस्कृत आदि, कलादक्ष, उपवास संख्या 1159 संवत् 2027 गण से पृथक् ज्ञान- आगम, स्तोक, संस्कृत आदि, सृजनव्याख्यान, परिसंवाद, सैकड़ों गीत, संवत् 2029 से अग्रणी, उपवास संख्या 596 ज्ञान-आगम, स्तोक, संस्कृत आदि, विशिष्ट कलादक्ष, तप संख्या 1082 ज्ञानस्तोक, आगम, लिपि कुशल, तप संख्या 1701 आगम साहित्य का ज्ञान, 'अनामिका' पुस्तक प्रकाशित, सावन-भादवा एकांतर, अढ़ाई सौ प्रत्याख्यान 3 बार जैन श्रमणियों का बृहद इतिहास Page #1025 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तेरापंथ परम्परा की श्रमणियाँ क्रम सं दीक्षा क्रम| साध्वी-नाम जन्मसंवत् स्थान | पिता-नाम गोत्र | दीक्षा संवत् तिथि | दीक्षा स्थान विशेष-विवरण 227. | 274 0 श्री सुदर्शनाजी | 1991 गंगाशहर तनसुखदास लालानी | 2010 वै. शु. 13 गंगाशहर | सजोड़े दीक्षा, ज्ञान-आगम,स्तोक,संस्कृत, तप 1 से 15 तक कुल संख्या 1129 उपवास,संवत् 2042 देशनोक में स्वर्गस्थ श्री सुबोध | 1992 बीदासर मूलचंद जी बोथरा | 2010 वै. शु. 13 | गंगाशहर | ज्ञान-आगम,स्तोक आदि,उपवास संख्या कुमारीजी 1193,संवत् 2039 से अग्रणी | 277 श्री धर्मवतीजी | 1985 गंगाशहर | देवचंद गुलगुलिया | 2010 का. कृ. 10 | जोधपुर कलादक्ष, तप संख्या 2085 कुल,प्रति वर्ष दस प्रत्याख्यान 10 श्री महाकुमारीजी | 1989 डूंगरगढ़ भैरुदानजी पुगलिया | 2010 का. कृ. 10 | जोधपुर विशिष्ट कला कौशल.तप संख्या 1603, दस प्रत्याख्यान 7 बार श्री प्रकाशवतीजी | 1992 सिसाय नरसिंहदास सिंगल | 2010 का. कृ. 10 | जोधपुर ज्ञान-आगम, स्तोक, संस्कृत व अन्य, लिपि कलादक्ष, तप संख्या 1122 श्री कैलाशवतीजी 1992 सिसाय ताराचंदजी सिंगल | 2010 का. कृ. 10 जोधपुर स्तोक आगम ज्ञान, तप संख्या 1631, दस प्रत्याख्यान 5 बार | श्री जयकुमारीजी | 1992 छोटी खाटू रूपचंदजी छाड़ेवा | 2010 का. कृ. 10 | जोधपुर आगम बत्तीसी वाचन, सैकड़ों उपवास, 5 चोले, 4 पंचोले, 1 अठाई | श्री कंचनकंवरजी | 1993 छोटी खाटू | मिलापचंदजी भंडारी 2010 मा. कृ.। | टाड़गढ़ आगम कुछ संघीय साहित्य वाचन,1 से 10 तक तप संख्या 1323,दस प्रत्याख्यान 10 श्री लक्ष्मीवतीजी | 1987 सरदारशहर कुंदनमलजी जम्मड़ 2010 फा. कृ. 10 | कंटालिया | उपवास से 10 दिन तक लड़ीबद्ध तप श्री शुभवतीजी | 1991 सिसाय लालचंदजी सींगल | 2010 फा. कृ. 14 सुधरी ज्ञान-कई आगम, तप 1 से 9 उपवास तक संख्या 880, अढाई सौ प्रत्याख्यान 2 बार | 286 श्री धनश्रीजी 1996 सरदारशहर सुजानमल चंडालिया 2011 वै. कृ. 6 | बाव स्तोक, सूत्र ज्ञान, सृजन-200 लगभग गीत, उपवास 2000, एक मासखमण, कुल तप दिन 2075 238. 287 श्री गुलाबकुमारी 1988 लाडनूं नथमलजी कठोतिया 2011 का. कृ.8 | बम्बई सूत्रज्ञान, प्रतिवर्षलगभग 90-95 उपवास, 8 तक लड़ीबद्ध तप, वर्ष में दो बार दस प्रत्याख्यान Page #1026 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 242 1291 1964 क्रम सं दीक्षा क्रम | साध्वी-नाम | जन्मसंवत् स्थान| पिता-नाम गोत्र दीक्षा संवत् तिथि | दीक्षा स्थान | विशेष-विवरण 239. 288 श्री विद्याकुमारी | 1994 सिसाय | ताराचंदजी |2011 का. कृ. 8 बम्बई संवत् 2052 लाडनूं में स्वर्गस्थ 240. 289 0 श्री अनोपकुमारी 1994 डूंगरगढ़ । पृथ्वीराजजी पुगलिया | 2011 का. कृ. 8 | बम्बई ज्ञान-अंग, छेदसूत्र, रचना-लघु आख्यान | कई,तप-उपवास 1500,आठ तक कुल दिन 1602 241. 1290 10श्री जेठांजी |1989 आडसर |चुन्नीलालजी छाजेड़ | 2011 मा. कृ.9 | मुलुण्ड आगम, स्तोक ज्ञान, 17 वर्ष से एकांतर तप, प्रतिवर्ष दस प्रत्याख्यान, लिपि में दक्ष श्री हेमकंवरजी 1980 देवरिया |सुखलालजी कूकड़ा| 2012 ज्ये. कृ.8 जलगांव तप-उपवाससे अठाई तक क्रमबद्ध तप के कुल दिन 1792, संवत् 2055 सरदारशहर में स्वर्गस्थ 243. |2920 श्री राकेश 1982 राजलदेसर शोभाचंदजी 2012 का. शु. 10 | उज्जैन लगभग 7 हजार गाथाकंठस्थ,कलादक्ष,तप कुमारीजी विनायकिया 1 से9 उपवास के कुलतपदिन 1547,अन्य भी तप 244. 293 श्री मंजुकुमारीजी | 1995 डूंगरगढ़ |लूनकरणजी सिंधी | 2012 का. शु. 10 | उज्जैन शिक्षा-आगम, संस्कृत, स्तोक आदि, कलादक्ष, तप-मासखमण, 1 से 8 तक तप के दिन 1655 245. 294 श्री अंजनाजी | 1986 लाडनूं | नगराजजी बैद 2013 का. कृ.8 | सरदारशहर | भद्र विनीत थीं,4 वर्ष की तपसंख्या 149, संवत् 2017 रामसिंहजी का गुडा में पंडितमरण। 246. 295 श्री इन्दुमतीजी | 1990 सरदारशहर | बालचंदजी बैद | 2013 का. कृ. 8 सरदारशहर ज्ञान-आगम,स्तोक,उपवास सैकड़ों,2 से 8 तक तप के दिन 128,अढाई सौ प्रत्याख्यान आदि 247. 296 श्री सरोजकुमारीजी 1990 सूरत | गलाबचंद भाई जवेरी | 2013 का. कृ.8 | सरदारशहर सप्तवर्षीय परीक्षा, कला के प्रति सहज रुचि, एक व्याख्यान रचा, अग्रणी संवत् 2030 से श्री सुमंगलाजी | 1994 चूरू भंवरलालजी सुराणा | 2013 का. कृ. 8 सरदारशहर | संवत् 2038 में गण से पृथक् श्री सुव्रतांजी 1996 डूंगरगढ़ हुलासचंद चोरडिया 2013 का. कृ.8 | सरदारशहर | ज्ञान-सूत्र, संघीय ग्रंथ, लिपिकला में दक्ष, तप-उपवास कई,2से9 तक तप के दिन 78 जैन श्रमणियों का बृहद इतिहास 248. 297 249. Page #1027 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तेरापंथ परम्परा की श्रमणियाँ 251. । 19651 क्रम संदीक्षा क्रम| साध्वी-नाम जन्मसंवत् स्थान पिता-नाम गोत्र दीक्षा संवत् तिथि | दीक्षा स्थान | विशेष-विवरण 250. |302 श्री सुप्रभाजी 1995 डूंगरगढ़ ऋषभचंदजी छाजेड़ 2014 का. कृ.9 | सुजानगढ़ सूत्रवाचन, 300 गाथाओं का प्रतिदिन स्वाध्याय,सेवाभाविनी 303 श्री उज्जवल 1995 सिसाय चन्द्रभाणजी सींगल | 2014 का. कृ.9 | सुजानगढ़ | ज्ञान-सूत्र, स्तोक, संस्कृत, तप के दिन | कुमारीजी 532,स्फुटकर तप,संवत् 2054 से अग्रणी 252. | 304 श्री कुमुदश्रीजी |1995 राजगढ़ | बालमुकुन्द सुराणा | 2014 का. कृ.१ | सुजानगढ़ | ज्ञान-सूत्र,स्तोक, संस्कृत, विविध भाषाओं में सैकड़ों गीत रचे, तप के दिन 798, अढाई सौ प्रत्याख्यान 253. 306 | श्री विद्यावतीजी |1996 डूंगरगढ़ | अर्जुनलाल पुगलिया | 2014 पौ. कृ. 5 | डूंगरगढ़ | आगमबत्तीसी वाचन, तप सैकड़ों उपवास, 5 तेले, संवत् 2048 से अग्रणी 254. 307 श्री ज्ञानवतीजी 1993 लाडनूं गुलाबचंदजी कोठारी | 2014 मा. शु. 14 | लाडनूं साधनाभ्यास 255. | 308 श्री जयमालाजी |1996 नोहर चंपालालजी लूनिया | 2014 मा. शु. 14 | लाडनूं आगमवाचन,रचना-गद्यमें अनेक एकांकी, पद्य में लघु व्याख्यान, गीत, मुक्तक, तप 1 से 8 लड़ीबद्ध, हजारों उपवास, प्रतिवर्ष दस प्रत्याख्यान 256. 309 श्री मधुमतीजी |1995 टमकोर दीपचंदजी कोठारी | 2015 आसो. शु. 15| कानपुर ज्ञान-कई सूत्र, व्याकरण, कार्यदक्ष, तप दिन 517, अढ़ाई सौ प्रत्याख्यान एक बार 257. 311 श्री गुणमालाजी |1996 उदयपुर पूनमचंदजी तलेसरा 2015 आसो. शु. 15| कानपुर धार्मिक 5 वर्ष की परीक्षा, सैकड़ों गीत व संवाद बनाये, 1500 उपवास,2 मासखमण, 11 तक लड़ी, 13, 15 उपवास 258. | 3120 श्री भागवतीजी 1996 बाव मोहनलालजी पारख 2015 आसो.शु.15 | कानपुर कई आगम वाचन, धनद चरित्र आदि कई व्याख्यान बनाये। तप-उपवास हजारों,2 से 8 तक तप दिन 149,अग्रणी संवत् 2040 से 10श्री सुभद्राजी घसीएन उड़ीसा कालूरामजी अग्रवाल | 2016 का. शु.8 कलकत्ता संवत् 2019 गोगुंदा में स्वर्ग-प्रस्थान श्री कुशल श्रीजी 1996 सरदारशहर लालचंदजी चंडालिया 2016 का. शु.8 कलकत्ता 1 से 8 तक लड़ीबद्ध उपवास, संवत् 2052/ में स्वर्गवास 313 260. 315 Page #1028 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 966 क्रम सं दीक्षा क्रम साध्वी नाम 261. 316 4 श्री गुणप्रभाजी 262. 263. 265. 264. 319 266. 267. 268. 269. 270. 271. 272. 317 273. 318 322 324 326 327 328 329 330 331 332 जन्मसंवत् स्थान पिता-नाम गोत्र दीक्षा संवत् तिथि दीक्षा स्थान 1996 बाव चिमनभाई मेहता 2016 का. शु. 8 कलकत्ता श्री मृगावतीजी 1985 नोहर काशीराम रामपुरिया © श्री आशावतीजी 1993 नोखामंडी बाघमलजी वैद 4 श्री सुमतिश्रीजी 1995 सरदारशहर दुलीचंदजी वैद 4 श्री सुधा श्रीजी 1997 सरदारशहर दुलीचंदजी बैद 4 श्री लज्जावतीजी 1999 सरदारशहर सेोहनलालजी सेठिया 4 श्री ज्ञानप्रभाजी 1989 बीकानेर 1997 फतेहगढ़ श्री प्रभावतीजी आसकरणजी सेठिया मूलचंदजी खंडोल मूलचंदजी खंडोल 4 श्री पुष्पावतीजी 1998 बाव 4 श्री श्रद्धाश्रीजी 1997 उदयपुर श्री लाघव श्रीजी 1998 टमकोर शांतिभाई सिंघवी 2017 आपा 15 - कोठारी 2017 आषा शु. 15 2017 आप शु 15 2017 आषा 15 2017 आषा. शु. 15 2017 आषा शु. 15 2017 का. शु. 13 2017 का. शु. 13 तखतमलजी धर्मावत 2018 वै. शु. 1 2018 प्रत्येकृ. 13 नागजी भाई खंडोल 2018 प्रज्येकृ. 13 श्री विवेक श्रीजी 2001 फतेहगढ़ श्री कल्याणश्रीजी 1997 अहमदगढ़ छाजूरामजी अग्रवाल 2018 का. कृ. 8 केलवा केलवा केलवा केलवा कलवा केलवा राजनगर राजनगर बाडमेर बालोतरा फतेहगढ़ (कच्छ) बीदासर विशेष- विवरण यथोचित ज्ञान, कलाकुशल, 700 उपवास, 1 से 15 तक उपवास कुल दिन 907 स्वल्पावधि में तप दिन 133, संवत् 2024 सुजानगढ़ में स्वर्गस्थ | आगम वाचन, कतिपय दोहे गीत बनाये, 1 से 8 उपवास की लड़ी, तप दिन 1586 तपस्विनी से लड़ीबद्धतप, मासखमण, कुल तप दिन 2402, आछ के आगार से 28 दिन तप आगम वाचन, लिपिकला कुशल, तप दिन 1583, अढ़ाई सौ प्रत्याख्यान, संवत् 2051 से अग्रणी कई आगम वाचन, लिपिकला दक्ष, तप दिन 440 कुछ स्तोक, आगम वाचन, सामान्य तप ज्ञान-सामान्य, तप 250 उपवास, 10 बेले, 10 तेले, अठाई 1 स्तोक, आगम ज्ञान, तप 3 मासखमण, वर्षीतप 1 से 13 तक लड़ी, कुल तप दिन 1551 कई आगम वाचन, तप उपवास सैकड़ों, बेले 3, तेले 2 चोले 2 आगम ज्ञान, सूक्ष्मलिपि कला कुशल, तप दिन 598, सेवाभाविनी दीक्षादाता श्री मनसुखांजी, आगम साहित्य, कुछ स्तोक ज्ञान, तप दिन 869 संवत् 2028 में गण से पृथक् जैन श्रमणियों का बृहद इतिहास Page #1029 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तेरापंथ परम्परा की श्रमणियाँ 275. 33 2/x. 279. 296 क्रम सं दीक्षा क्रम | साध्वी-नाम जन्मसंवत् स्थान पिता-नाम गोत्र दीक्षा संवत् तिथि | दीक्षा स्थान | विशेष-विवरण श्री ज्योतिश्रीजी | 1999 डूंगरगढ़ |जसकरणजी छाड़ेवा | 2018 का.कृ.8 बीदासर ज्ञान सूत्र, स्तोत्र, स्तोक, व्याकरण आदि। तपदिन 1898,प्रतिदिन 1000 गाथास्वाध्याय श्री जयप्रभाजी | 1999 डूंगरगढ़ | हुलासमल चोरड़िया| 2018 पौ.शु. 7 डूंगरगढ़ आगम, काव्य आदि तात्विक ग्रंथ, लिपि कुशल, संवत् 2050 से अग्रणी 276. श्री संयमश्रीजी 1998 रतनगढ़ तोलारामजी बोथरा | 2018 चै.कृ.5 देशनोक संस्था की छह परीक्षाएं दी, तप-1 से 9| तक लड़ी, तप दिन 808, संवत् 2047 से अग्रणी 336 श्री ऋजुमतीजी | 1993 राजलदेसर | चंपालालजी बैद | 2018 चै. कृ.9 | नोखामंडी स्तोकवसंस्कृत ज्ञान,तपासे9 कीलडी,तप दिन1609,आयबिल 51,137 एकाशन आदि तप 337 श्री मल्लिप्रभाजी | 1997 सरदारशहर | मूलचंदजी दूगड़ | 2019 का.कृ.9 प्र. उदयपुर संवत् 2030 गण से पृथक् - श्री रविप्रभाजी | 2000 लाडनूं |गुलाबचंदजी बैद | 2019 का.कृ.9 प्र. उदयपुर कई आगम ग्रंथों का वाचन, लिपि कुशल, तप, साधना यथाशक्ति, संवत् 2052 से अग्रणी 280. Iश्री ललितप्रभाजी | 2000 सरदारशहर पूनमचंदजी दूगड़ | 2019 का कृ.9प्र. उदयपुर सप्तवर्षीय परीक्षा दी, लेखन रुचि,सैकड़ो | उपवास, 2 से 8 तक तप दिन 154 281. 1341 श्री कमलप्रभाजी | 2000 लाडनूं कुशलचंदजी बैद |2019 का.कृ.9प्र. उदयपुर आगम, स्तोक,संस्कृत ज्ञान, व्याख्यान गीत दोहे बनाये,तपसंख्या 1171,संवत् 2040 से अग्रणी श्री कुसुमप्रभाजी | 2000 राजलदेसर | हुलासमल कुंडलिया 2019 पौ. शु. 15 संवत् 2043 में गण से पृथक् 10श्री कीर्तिश्रीजी | 1995 तारानगर वंशीलालजी सुराणा | 2020 का. शु. 7 सामान्य अध्ययन श्री नीतिश्रीजी | 2002 देवगढ़ घीसुलालजी डागा | 2020 का. शु. 7 लाडनूं संस्था की पंचवर्षीय परीक्षा,तप दिन 605 श्री ऋजुश्रीजी | 1996 डूंगरगढ़ | मेघराजजी सामसुखा 2020 पौ. शु. 14 सुजानगढ़ आगम, स्तोक, संस्कृत ज्ञान, तप दिन 1155,आयंबिल 100 श्री करुणाश्रीजी | 1999 सुजानगढ़ | चम्पालालजी बोथरा | 2020 पौ. शु. 14 सुजानगढ़ सामान्य अध्ययन, तप संख्या 746 287. श्री तिलकश्रीजी | 2000 सुजानगढ़ घेवरचंदजी डोसी | 2020 पौ. शु. 14 सुजानगढ़ सामान्य अध्ययन 282 रीछेड़ लाडनूं 286. Page #1030 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्रम सं दीक्षा क्रम साध्वी-नाम जन्मसंवत् स्थान पिता-नाम गोत्र दीक्षा संवत् तिथि दीक्षा स्थान विशेष-विवरण 1348 349 1350 1968 I श्री चारित्रश्रीजी | 2000 सुजानगढ़ |सागरमलजी बाफणा 2020 पौ. शु. 14 सुजानगढ़ | यथोचित ज्ञान, अग्रणी संवत् 2035 से | श्री कलाश्रीजी | 2001 सुजानगढ़ | गणेशमलजी सिंघी | 2020 पौ. शु. 14 | सुजानगढ़ । आगम बत्तीसी ज्ञान, विशिष्ट कला | कौशल्य, 1 से 9 तक लड़ीबद्ध तप श्री शीलवतीजी | 2000 लाडनूं नगराजजी बैद । 2020 फा. कृ.3 | लाडनूं | साधना शिक्षा यथाशक्य श्री मंजुप्रभाजी 2001 मोमासर | सहनलालजीसेठिया | 2020 फा. कृ. 5 सुजानगढ़ कई आगम वाचन, स्तोक ज्ञान, तप संख्या 576 आयंबिल 45 | श्री कमलप्रभाजी | 2002 बोरज घीसुलालजी गुंदेचा | 2020 फा. कृ. 5 | सुजानगढ़ | कई सूत्र, स्तोक, संस्कृत ग्रंथों का ज्ञान, सप्तवर्षीय परीक्षोत्तीर्ण, तप 1 से 11 तक संख्या 874 श्री बसंतप्रभाजी | 2004 राजलदेसर तोलारामजी बैद । 2020 फा. कृ.5 | सुजानगढ़ कई सूत्र, स्तोक व अन्य अध्ययन, तप संख्या 1334 श्री धर्मप्रभाजी | 2000 बीकानेर भैंरुदानजी सामसुखा 2020 फा. शु.5 | चूरू कुछ स्तोक अनेक सूत्रों का अध्ययन, कुछ लघु व्याख्यान गीत बनाये, महीने में दो उपवास तप श्री प्रशमरतिजी | 2002 तारानगर सागरमल चोरडिया | 2020 फा. शु.5 | कुछ सूत्र, स्तोक ज्ञान, कलादक्ष, तप-1 से 6,8,11 उपवास कुल दिन 759 | श्री कुसुमलताजी | 2002 तारानगर | जयचंदजी सुराणा | 2020 फा. शु. 5 संस्थाकीचतुर्थपरीक्षाउत्तीर्ण,गीतरचना,तप संख्या 1037 वर्षीतप,प्रतिवर्ष 10 प्रत्याख्यान 0 श्री मणिप्रभाजी | 2002 राजलदेसर | तोलारामजी दूगड़ | 2021 का कृ. 8 बीकानेर | सजोड़ेदीक्षा,तप 1 से9 तककुल संख्या407 श्री कुलप्रभाजी | 2003 बीदासर | भंवरलालजी बाठिया | 2021 मृ. शु. 7 | बीदासर यथाशक्य ज्ञान, तप-उपवास दिन 1084 श्री कनकलताजी 2003 सरदारशहर कालूरामजी बरडिया 2021 मा. शु. 5 | बालोतरा संवत् 2038 में गण से पृथक् । श्री समताश्रीजी | 2002 राजलदेसर सोहनलालजी बैद | 2022 का. शु. 13 | दिल्ली आगम,स्तोक,संस्कृत आदि ज्ञान, तप मासखमण, अठाई, कुल तप दिन 764, आयंबिल 1 मास |श्री पद्मश्रीजी | 2004 बोरावड़ धनराजजी कोटेचा | 2022 फा. शु.9 | सिरसा संवत् 2041 राजगढ़ में दिवंगत 96. 1357 1358 359 1363 जैन श्रमणियों का बृहद इतिहास 301. 1365 Page #1031 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तेरापंथ परम्परा की श्रमणियाँ 1368 305. 696 क्रम सं दीक्षा क्रम| साध्वी-नाम जन्मसंवत् स्थान| पिता-नाम गोत्र |दीक्षा संवत् तिथि | दीक्षा स्थान | विशेष-विवरण 302. 1366 10 श्री अजितप्रभाजी 1993 खींवाड़ा | ताराचंदजी खटेड | 2022 चै. कृ. 13 | हनुमानगढ़ | कतिपय सूत्र स्तोत्र, तप-उपवास से नौ तक कुल संख्या 1653, प्रतिदिन जाप, मौन का क्रम 303. 367 श्री मधुबालाजी | 2004 मोमासर सोहनलालजी संचेती | 2023 चै. शु. 13 | गंगानगर सूत्र स्तोक आदि का ज्ञान 304. | श्री मंजुबालाजी |2004 मोमासर | कोडामलजी सेठिया | 2023 चै. शु. 13 गंगानगर तीन सूत्र व अनेक स्तोक कंठस्थ,विदुषी, सूक्ष्माक्षर लेखन में दक्ष, तप दिन 351 369 श्री किरणमालाजी | 2003 नेपाल | पन्नालालजी छाजेड़ 2023 वै. कृ. 5 अबोहर सामान्य ज्ञान 306. 370 श्री कल्याण 2007 टमकोर नेमीचंदजी कोठारी | 2023 वै. शु. 11 | राजसिंहनगर | ज्ञान-कुछ स्तोक आगम आदि, लिपिकला सुमालाजी दक्ष,तपसंख्या 1031,अढ़ाई सौप्रत्याख्यान 307. 1371 | श्री विनयवतीजी |2004 हांसी |प्रसन्नलाल गोयल | 2023 का. कृ.7 | बीदासर | आगम, व्याख्यान कंठस्थ, कुछ गीत रचे, तपसंख्या 1027,आबिल,एकासन 500 308. 1372 श्री सत्यवतीजी |2004 हांसी खुशीरामजी गोयल 2023 का. कृ.7 | बीदासर ज्ञान-सूत्र, स्तोक व अन्य, साहित्य परिसंवाद,शब्दचित्र,गीत,तप1 से 8 तक संख्या 727 309. 375 श्री कंचनमालाजी |2005 सरदारशहर कन्हैयालालजीगांधी 2023 का. कृ.7 | बीदासर 11 अंग वाचन,तप 1 से 8 उपवास संख्या 1305,5 विगय त्याग 310. 1376 श्री रमावतीजी |2005 बीदासर भंवरलालजी बाठिया | 2023 का. कृ.7 | बीदासर कंठस्थ2 सूत्र,कुछ स्तोक,संस्कृतश्लोक, तप संख्या 418 311. 377 श्री चन्द्रावतीजी |2006 गंगाशहर सेरमलजी छाजेड़ | 2023 का. कृ.7 | बीदासर कंठस्थ-1 सूत्र, कुछ स्तोत्र, स्तोक, तप संख्या 1 से 15 तक 1751 अढाई सौ प्रत्याख्यान 2 बार, पद्य रचना | 312. 379 श्री प्रभाश्रीजी |2004 बाव (गु.) | नरपतभाई मेहता | 2024 वै. कृ.4 ज्ञान कुछ स्तोक,स्तोत्र, शास्त्र कंठस्थ, तप अढ़ाई सौ प्रत्याख्यान 3 बार, कुल उपवास 723 | 313. 380 श्री शशीरेखाजी |2006 बाव हरखचंदजी मेहता | 2024 ज्ये. शु.8 | राजकोट कंठस्थ 2 आगम,स्तोक,स्तोत्र,तपसंख्या 337 Page #1032 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 385 319. 387 क्रम सं दीक्षा क्रम | साध्वी-नाम- जन्मसंवत् स्थान| पिता-नाम गोत्र दीक्षा संवत् तिथि | दीक्षा स्थान | विशेष-विवरण 314. 381 1381 | श्री मंजुरेखाजी | 2007 बाव | भोगीभाई मेहता | 2024 ज्ये. शु. 8 | राजकोट | कंठस्थ 2 आगम, स्तोक, स्तोत्र आदि, तप उपवास सैकड़ों, तेले 23, पांच 2, अठाई। 315. | श्री विमलप्रभाजी | 2005 बीदासर | रतनलालजी दूगड़ | 2024 का. कृ. 8 अहमदाबाद | साध्वोचित अध्ययन, तीन परीक्षा उत्तीर्ण, तप संख्या 701 384 श्री कुलबालाजी | 2005 डूंगरगढ़ | हुलासमल चोरड़िया 2024 का. कृ. 8 अहमदाबाद यथोचित अध्ययन 317. श्री सुमनप्रभाजी | 2009 डूंगरगढ़ | कन्हैयालाल चोरड़िया | 2024 का. कृ. 8 अहमदाबाद | यथोचित अध्ययन, ध्यान, जप,स्वाध्याय 318. 386 श्री कुंथुश्रीजी | 2004 ऊमरा प्यारेलालजी गर्ग | 2024 मृ. शु. 9 सूरत आगम बत्तीसी का वाचन,दोशास्त्र कंठस्थ | श्री मधुरेखाजी | 2008 गंगाशहर | गोपीचंदजी लोढ़ा | 2024 चै. कृ. 3 जयसिंहपुर | कई आगम साहित्य ग्रंथ पढ़े,इतिहास की विशेष रुचि, तप 15 तक, कुल उपवास 1033 320. 388 श्री जिनरेखाजी | 2008 गंगाशहर | कोडामलजी भंसाली | 2025 चै. शु. 13 | हुबली कुछ आगम, स्तोक, संस्कृत आदि ज्ञान, मौन, जप आदि |321. 389 | श्री उषाकुमारीजी | 2006 सांडवा | प्रेमचन्दजी छाजेड़ | 2025 का. कृ. 8 मद्रास संवत् 2038 में गण से पृथक्, नवतेरापंथ की साध्वी हैं। 322. 391 | श्री शतिकमारीजी |2009 गंगाशहर |शेरमलजी छाजेड |2025 का. कृ.8 मद्रास प्रखरबुद्धि,100 श्लोक एक दिन में कंठस्थ, रचना-परिसंवाद, एकांगी व गीत, तप दिन 521 392 | श्री चन्द्रप्रभाजी | 2007 सरदारशहर | कन्हैयालाल गांधी | 2025 मा. पूर्णिमा | कुंभकोणम् | यथोचित ज्ञान, तप संख्या 425 | श्री प्रमोदश्रीजी | 2005 पचपदरा |बाणमलजी चोपड़ा | 2026 ज्ये. कृ. 3 मैसूर आगमवाचनकी रुचि,साहित्य-15व्याख्यान, कईलेख लिखे, तप-उपवास सैकड़ों,अठाई श्री विजयमालाजी | 2007 कालू बीजराजजी पुगलिया 2026 का. शु. 5 बैंगलोर संवत् 2056 तारानगर में स्वर्गस्थ | श्री लावण्यश्रीजी | 2010 के.जी.एफ. | जीवराजजी संचेती | 2026 का. शु. 5 बैंगलोर कई आगम वाचन, प्रतिलिपि दो-तीन ग्रंथों की I श्री प्रज्ञावतीजी | 2008 अहमदाबाद चिमनभाई डोसी |2026 मा. शु. 11 हैदराबाद | यथोचित ज्ञानार्जन, कुल तप संख्या 529 328. 1397 | श्री कृष्णाकुमारीजी | 2005 पद्मपुर नानूरामजी अग्रवाल | 2027 ज्ये. कृ. 4 कांटाभांजी | यथाशक्य ज्ञानार्जन, कुल तप संख्या 1012 393 25. |394 326. 395 जैन श्रमणियों का बृहद इतिहास 327. 396 Page #1033 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तेरापंथ परम्परा की श्रमणियाँ क्रम सं दीक्षा क्रम| साध्वी-नाम | जन्मसंवत् स्थान, पिता-नाम गोत्र | दीक्षा संवत् तिथि | दीक्षा स्थान | विशेष-विवरण श्री संयमप्रभाजी | 2004 हांसी किशोरीलाल सिंगल 2027 चै. कृ.5 | लाडनूं कंठस्थ 3 सूत्र, स्तोकादि, उपवास तप संख्या 1315, आयंबिल 41,51 कुल संख्या 168 श्री कंचनरेखाजी| 2005 बाव भोगीभाई मेहता | 2027 चै. कृ. 5 लाडनूं ज्ञान-अधिकांश आगम, तप-1 से 8 लड़ीबद्ध उपवास श्री चन्द्रलेखाजी 2005 लाडनूं मांगीलाल कुचेरिया 2027 चै. कृ.5 लाडनूं संस्था की चार परीक्षा, तप-1 से 11 उपवास लड़ीबद्ध, कुल संख्या 1087 श्री विज्ञानश्रीजी | 2007 सुजानगढ़ | कुमख्यालाल कोठारी 2027 चै. कृ.5 लाडनूं यथाशक्य साधना आराधना 10 श्री कल्पनाश्रीजी 2007 मोमासर | बालचंदजी पटावरी | 2028 का कृ. 10 लाडनूं कंठस्थ 3 सूत्र, 40 स्तोक,सैकड़ों घटना प्रसंग,तप-1 से 11 उपवास की लड़ी श्री दर्शनाश्रीजी | 2007लूणकरणसर | माणकचंदजी बोथरा 2028 मा. शु. 15 गंगाशहर संवत् 2037 में गण से पृथक श्री राकेश | 2009 बायतू राणुलालजी बुरड़ | 2028 मा. शु. 15 गंगाशहर | यथोचित ज्ञान,कलादक्ष,दसवर्षों से प्रतिवर्ष कुमारीजी लगभग 170 उपवास,संवत्2053 से अग्रणी श्री सुषमाश्रीजी | 2011 गंगाशहर | केशरीचंदजी गोलछा | 2028 मा. शु. 15 गंगाशहर ज्ञान-अनेक स्तोक, लगभग 10 हजार गाथाएं कंठस्थ की, तप संख्या 374 oश्री महिमाश्रीजी 2011 धूलिया लक्ष्मणजी चौधरी | 2028 मा. शु. 15 गंगाशहर | संवत् 2040 में गण से पृथक् श्री वीणाकुमारीजी | 2007 सरदारशहर सोहनलालजी बोथरा | 2029 चै. शु. 13 सरदारशहर अध्ययन तीन वर्ष की परीक्षा, आगम वाचन श्री मृदुलाकुमारीजी | 2009 गादाणा | बस्तीमलजी मूंथा | 2029 चै. शु. 13 सरदार शहर | यथोचित ज्ञानार्जन, कार्य कुशल, संवत्सरी का उपवास श्री सुषमाकुमारीजी | 2010 सरदारशहर चंदनमलजी नोलखा | 2029 चै. शु. 13 सरदार शहर संघीय तीन वर्ष की परीक्षा, कार्य कुशल, उपवास सैकड़ों श्री लछिमाश्रीजी 2005 सरदारशहर दुलीचंदजी बैद | 2029 मा. कृ. 10 सरदार शहर | सैकड़ों उपवास श्री गरिमाश्रीजी | 2005 लाडनूं | 2029 मा. कृ. 10 सरदार शहर यथोचित ज्ञानाभ्यास, 1 से 8 लड़ीबद्ध तप, कुल संख्या 369 श्री तितिक्षाश्रीजी | 2010 मद्रास किसनलालजी बैद | 2029 मा. कृ. 10 यथाशक्य अध्ययन, कंठकला मधुर, तप उपवास कुल 1009 Page #1034 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (www.jainelibrary.om 972 क्रम सं दीक्षा क्रम साध्वी नाम 344. 345. 346. 347. 348. 349. 350. 351. 353. 354. 418 420 357. 421 352. 432 358. 423 425 426 428 430 433 355. 436 356. 437 435 438 439 श्री प्रभावना श्रीजी श्री मुक्तिप्रभाजी श्री उर्मिलाश्रीजी श्री विशदप्रज्ञाजी श्री सिद्धप्रज्ञाजी 2007 लाडनूं श्री अरुणप्रज्ञाजी श्री कीर्तिलताजी 2007 जोधपुर 2012 बैंगलौर 2013 बैंगलौर श्री शांतिलताजी श्री संगीत श्रीजी जन्मसंवत् स्थान 2011 टमकोर 2002 चूरू 2011 गंगाशहर सोहनलालजी बुच्चा 2030 का. शु. 3 2006 बीदासर झूमरमलजी सिंधी पिता नाम गोत्र बुद्धमलजी भंसाली डेडराजजी कोठारी 2031 का. शु. 6 चंदनमलजी गोलछा 2031 का. शु. 6. भंवरलालजी सुराणा राजमलजी सकलेचा राजमलजी सकलेचा हुकमचंदजी दूगड़ 4 श्री संवेगश्रीजी 2012 डूंगरगढ़ ऋद्धकरणजी बाफणा 2031 मा. शु. 12 ० श्री धर्मलताजी 2007 सरदारशहर भंवरलालजी बोथरा 2031 चै. कृ. 4 श्री रजतरेखाजी 2007 लाडनूं 4 श्री दीपमालाजी 2010 ऊमरा 2010 डूंगरगढ़ दीक्षा संवत् तिथि 2029 मा. शु. 5 2030 का. शु. 3 श्री ललिताश्रीजी 2012 टमकोर श्री कविता श्रीजी 2018 चूरू 2031 का. शु. 6 2031 का. शु. 6. 2031 का. शु. 6 2031 मा. शु. 12 2031. कृ. 4 श्रीचंदजी वैद जगदीशराय मित्तल 2031 चै. कृ. 4 दीपचंदजी चोरड़िया 2031 चै. कृ. 4 लालचंदजी सुराणा 2031 चै. कृ. 4 दीक्षा स्थान मोमासर हिसार हिसार दिल्ली दिल्ली दिल्ली दिल्ली दिल्ली लाडनूं विशेष- विवरण यथोचित अध्ययन, तप संख्या 403 यथोचित ज्ञानार्जन, तप से 9 तक लड़ीबद्ध, कुल संख्या 753 यथोचित अध्ययन, परीक्षाओं में प्रथम श्रेणी, स्वाध्याय प्रतिदिन 1000 गाथा, तप संख्या 337 दीक्षा में चारों संप्रदाय के आचार्य व साधु साध्वी थे। अध्ययन यथोचित लाडनूं लाडनूं शिक्षा केन्द्र में शोधकार्य में निरत, कई साध्वियव श्राविकाओं के संवारे में सहयोगिनी संवत् 2037 में गण से बहिर्भूत अध्ययन यथोचित, 1 से 9 तक लड़ीबद्ध तप यथोचित ज्ञानाभ्यास, तप-सैकड़ों उपवास, अठाई । श्री दूगरगढ़ श्री डूंगरगढ़ यथोचित ज्ञानाभ्यास, तप उपवास सैकड़ों, तप की संख्या 1089 लाडनूं लाडनूं लाडनूं यथोचित ज्ञानार्जन, कार्यकुशल, 1 से8 लड़ीबद्ध उपवास संख्या 1158 वर्षीतप अन्य तप यथोचित ज्ञानाभ्यास, तप की संख्या बेले से आठ तक 88, उपवस सैंकड़ों संवत् 2057 मानसामंडी में स्वर्ग प्रस्थान यथोचित शिक्षण, कार्यकुशल, तप संख्या 1130 यथोचित अध्यास, कार्यदक्ष, उपवास सैकड़ों, 2 से 9 तक तप संख्या 139, आयबल 108 संवत् 2035 में गण से मुक्त जैन श्रमणियों का बृहद इतिहास Page #1035 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तेरापंथ परम्परा की श्रमणियाँ 443 364. क्रम सं दीक्षा क्रम साध्वी-नाम जन्मसंवत् स्थान पिता-नाम गोत्र दीक्षा संवत् तिथि दीक्षा स्थान विशेष-विवरण 359. 1440 श्री सुरेखाजी |2008 चाड़वास शुभकरणजी चोरडिया | 2032 वै. कृ.8 | जयपुर यथोचित शिक्षण, सैकड़ों उपवास, 2 से 8 तक तप संख्या 56, विदुषी, प्रेक्षाध्यान में रुचि 360. 1441 श्री उज्जवलरेखाजी | 2010 सरदारशहर मंगलचंदजी सेठिया | 2032 वै. कृ. 8 जयपुर यथाशक्य ज्ञानार्जन, तप संख्या 226 442 | श्री कमलरेखाजी | 2011 लाडनूं सोहनलालजी बरमेचा 2032 वै. कृ. 8 जयपुर यथाशक्य ज्ञानाराधना श्री कुसुमरेखाजी | 2012 सरदारशहर | पूनमचंदजी छाजेड़ | 2032 वै. कृ. 8 | जयपुर संवत् 2038 में गण से पृथक् ,नवतेरापंथ में सम्मिलित 363. 444 श्री राजप्रभाजी | 2007 फारबिसगंज | अमरचंदजी सेठिया | 2032 का. शु. 13 नौगांव | श्री गौरांजी द्वारा दीक्षित, यथोचित प्रशिक्षण (आसाम) 1445 10श्री कुशलरेखाजी 2002 सरदारशहर फूलचंदजी चोरड़िया 2032 पौ. कृ.3 | लाडनूं यथोचित ज्ञान,तप 1 से8 लडीबद्ध उपवास 365. 1446 श्री अर्चनाश्रीजी | 2012 सरदारशहर भैंरुदानजी चंडालिया 2032 पौ. कृ.3 | लाडनूं संवत् 2035 आगोलाई में स्वर्ग-प्रस्थान. ढाई वर्ष में तप संख्या 26, एकाशन 13 366. 1448 श्री आनंदप्रभाजी | 2013 हिसार प्रेमकुमारजी मित्तल 2032 पौ. कृ. 3 | लाडनूं यथोचित प्रशिक्षण, तप संख्या 1321,I एकाशन 475 367. 449 श्री सविताश्रीजी | 2010 सरदारशहर लूनकरण चोरड़िया | 2032 फा. शु. 10 | लाडनूं यथोचित ज्ञानाराधना, साधना 368. श्री ज्योत्स्नाजी 2014 गंगाशहर | राजकरण जी 2033 वै. शु. 13 | सुजानगढ़ अध्ययन यथोचित, तप 1 से 8 उपवास लड़ीबद्ध, तप संख्या 569 369. 1451 |श्री शकुंतलाजी | 2010 बालोतरा लालचंदजी भंडारी | 2033 ज्ये. कृ. 10 | पड़िहारा अध्ययन यथाशक्य, तप उपवास सैकड़ों, 5 बेले, तेले, पांच का तप 370. | श्री दिव्यप्रभाजी | 2006 गोगुंदा फतेहलाल पोरवाल | 2033 ज्ये. शु. 9 | राजलदेसर | ज्ञानाभ्यास अच्छा, 1 से 8 उपवास, तप संख्या 292 371. 1453 श्री संघप्रभाजी | 2021 राजलदेसर | श्रीचंदजी डागा 2033 ज्ये. शु.9 | राजलदेसर विशिष्ट ज्ञानाभ्यास, साहित्य जैन व वैदिक संस्कृति पर तुलनात्मक शोधनिबंध 150 पृष्ठ का, कई व्याख्यान, गीत मुक्तक भी रचे। 372. 454 श्री गुप्तिप्रभाजी | 2010 राजगढ़ जयचंदजी सुराणा 2033 का. कृ.9 | विदुषी, गीत, मुक्तक रचना, तप-1 से 8 लड़ीबद्ध उपवास संख्या 1059 450 1452 Page #1036 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्रम संदीक्षा क्रम साध्वी-नाम जन्मसंवत् स्थान | पिता-नाम गोत्र दीक्षा संवत् तिथि दीक्षा स्थान | विशेष-विवरण 373. 1456 श्री ध्रुवरेखाजी 2011 सरदारशहर | कन्हैयालालजी गांधी | 2033 का. कृ.१ | सरदारशहर | यथोचित ज्ञानाभ्यास,सूक्ष्म लिपिकला दक्ष, तप संख्या 1052 । सरदारशहर लगभग4हजारगाथाप्रमाणकंठस्थ,सूक्ष्मलिपि दक्ष,तपसंख्याउपवासदिन472,आबिलदिन 374. 1457 श्री लब्धिश्रीजी |2011 अहमदाबाद हरिभाई मोदी 2033 का. कृ.9 375. छापर श्री कीर्तिसुधाजी |2014 गंगाशहर श्री जगवत्सलाजी | 2015 बीदासर मांगीलालजी बैद | 2033 फा. शु. 3 | पन्नालालजी बैंगानी | 2033 फा. शु. 3 376. | छापर 377. 1460 श्री पुण्यप्रभाजी |2012 बाडमेर भंवरलालजीसालेचा 2034 का. कृ.7 लाडनूं 378. 1461 श्री मंगलप्रभाजी | 2012 लाडनूं अमरचंदजी कुचेरिया 2034 का. कृ.7 | लाडनूं 974 379. 1462 श्री सोमप्रभाजी |2013 लाडनूं | सोहनलालजी कठोतिया |2034 का. कृ.7 | लाडनूं यथोचित विद्याभ्यास तप संख्या 510 यथोचित ज्ञानाभ्यास, 15 वर्ष शीत परिषह सहन यथाशक्य ज्ञानार्जन, तप1 से 15 उपवास की संख्या 1100, अढ़ाई सौ प्रत्याख्यान यथाशक्य ज्ञानार्जन, मुक्तक, परिसंवाद, शब्दचित्र आदि का सृजन , कलादक्ष, तप संख्या718 | यथोचित ज्ञान, सृजन-निबंध, लेख, परिसंवाद,गीतिका, तप संख्या उपवास की 640, आबिल की 120 यथाशक्य ज्ञानाभ्यास, तप संख्या 304 | ज्ञान यथोचित, कलादक्ष,तप संख्या 774 ज्ञान यथोचित,कला पुरस्कृत, तप प्रतिवर्ष | 21 उपवास ज्ञान यथोचित, तप-प्रतिवर्ष 30 उपवास शिक्षा, तप, साधना यथाशक्य शिक्षा, साधना यथाशक्य, उपवास सैकड़ों शिक्षा, साधना यथोचित, उपवास सैकड़ों आबिल कई,अढाईसौप्रत्याख्यान एक बार 380. 464 | श्री कुंदनप्रभाजी | 2012 उदासर केशरीचंदजी मुनोत | 2034 मा. शु.5 श्री कुशलप्रज्ञाजी | 2012 सुजानगढ़ फूसराजजी बैद | 2034 मा. शु. 5 श्री कल्याणमित्रा | 2015 गंगाशहर नेमीचंदजी सुराणा | 2034 मा. शु. 5 | सुजानगढ़ | सुजानगढ़ | सुजानगढ़ 382. 383. 384. श्री प्रतिभाश्रीजी | 2011 गंगाशहर मंगलचंदजी लूनावत 2035 आसोशु 15 श्री ऋजुप्रभाजी |2012 बाव नरपतभाई मेहता | 2035 आसोशु 15 श्री भावनाश्रीजी | 2013 उदरामसर दौलतरामजी सिपानी | 2035 आसोशु 15 श्री मंगलमालाजी | 2013 सरदारशहर | धर्मचंदजी नौलखां | 2035 आसोशु. 15 | गंगाशहर गंगाशहर गंगाशहर जैन श्रमणियों का बृहद इतिहास 385. 386. गंगाशहर Page #1037 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तेरापंथ परम्परा की श्रमणियाँ 475 392 975 क्रम संदीक्षा क्रम | साध्वी-नाम जन्मसंवत् स्थान पिता-नाम गोत्र दीक्षा संवत् तिथि | दीक्षा स्थान | विशेष-विवरण 387. 1471 श्रीललितकलाजी | 2014 गंगाशहर लूनकरणजी भंसाली | 2035 आसोशु 15 | गंगाशहर शिक्षा, साधना यथोचित, तप दिन 532, दस प्रत्याख्यान 13 बार | 472 श्री जिनबालाजी | 2015 गंगाशहर | किशनलालजी रांका 2035 आसोशु 15 | गंगाशहर शिक्षा, साधना यथोचित, कलाकुशल, सूक्ष्मलिपिकला दक्ष 389. 1473 | श्री मधुलताजी | 2016 गंगाशहर | सूरजमलजी चोपड़ा 2035 आसोशु 15 गंगाशहर | कई आगम,संस्कृत साहित्य संघीय साहित्य का अध्ययन 390. 474 श्री विभाश्रीजी | 2017 गंगाशहर | हुकमचंदजी बोथरा | 2035 आसोशु 15 | गंगाशहर | जेन दर्शन पर प्रथम श्रेणी से एम.ए., तप 1 से 9 दिन लड़ीबद्ध उपवास श्री त्रिशलाकुमारी | 2014 सुजानगढ़ |सागरमलजी मालू | 2035 का. शु. 13 | गंगाशहर | यथोचित ज्ञानाभ्यास, तप दिन 324,वर्षीतप2 476 श्री प्रियदर्शनाजी | 2010 सूरतगढ़ | रतनलाल रामपुरिया 2036 वै. शु. 10 चंडीगढ़ | यथोचित ज्ञानार्जन, तप संख्या 837, आयंबिल 21 393. श्री पुण्यदर्शनाजी | 2011 सूरतगढ़ | तोलारामजी रांका | 2036 वै. शु. 10 चंडीगढ़ यथोचित ज्ञानार्जन,तपासे लड़ीबद्ध उपवास 394. श्री संकल्पश्रीजी | 2011 भादरा सालमचंदजी सिंधी | 2036 का. कृ. 9 | लुधियाना | यथोचित ज्ञानाभ्यास, तप 1 से 8 तक लड़ीबद्ध उपवास संख्या 753 395. 480 I श्री गुणरेखाजी | 2012 बीदासर मालचंदजी बैद । 2036 का. कृ.9 | लुधियाना | यथोचित ज्ञान साधना, तप संख्या 140, संवत् 2055 बीदासर में स्वर्गस्थ | श्री सौम्यप्रभाजी | 2013 सरदारशहर | पूनमचंदजी बोथरा | 2036 का. कृ. 9 | लुधियाना | यथाशक्य ज्ञानार्जन, तप संख्या 502 श्री कीर्तिरखाजी| 2016 ऊमरा |गुलाबसिंहजी सिंगल 12036 का. कृ.9 लुधियाना | यथोचित ज्ञानार्जन,तप 1 से 11 तक लड़ीबद्ध तप,15 उपवास,कंठीतप,कल्याणकतपआदि | 398. 1483 | श्री गुणप्रेक्षाजी | 2015 उदासर | रामलालजी चोरड़िया | 2036 पौ. शु. 14 भटिण्डा यथोचित ज्ञानकला में प्रगति.तप सैकड़ों उपवास, अठाई,10 बार दस प्रत्याख्यान 399. 484 श्री उदितप्रभाजी | 2014 उकलानामंडी| धनराजजी अग्रवाल | 2036 फा. कृ.7 | सुनाम | यथोचित ज्ञानार्जन,तप1 से9 तक उपवास की संख्या 1019 400. 1485 श्री मुदितप्रभाजी | 2017उकलानामंडी | किशोरीलाल अग्रवाल | 2036 फा. कृ.7 | सुनाम पांच आगम कंठस्थ, तप 1 से 15 तक लड़ीबद्ध तप, मासखमण, वर्षीतप, संवत् 2056 दिल्ली में दिवंगत 1479 391. 482 Page #1038 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 976 (www.jainelibrary.om क्रम सं दीक्षा क्रम साध्वी नाम 401. 402. 403. 404. 405. 406. 407. 408. 409. 410. 411. 412. 413. 486 487 488 489 490 491 492 493 494 495 496 498 जन्मसंवत् स्थान O श्री शीतलप्रभाजी 1985 खेतासर 500 श्री विनयप्रभाजी श्री ऋषभप्रभाजी 2012 सरदारशहर 4 श्री अर्हत्प्रभाजी 2013 सरदारशहर 4 श्री शांतिप्रभाजी 2017 लाडनूं 2011 सरदारशहर| माणकचंदजी तातेड़ 2037 वै. शु. 8 2037 वै. शु. 8 माणकचंदजी बरड़िया कन्हैयालालजी 2037 वै. शु. 8 सेठिया पिता-नाम गोत्र हीरालालजी संचेती श्री मनीषाश्रीजी 2015 चाड़वास श्री हिमश्रीजी दीक्षा संवत् तिथि 2037 वै. शु. 8 4 श्री लोकप्रभाजी 2017 लाडनूं 4 श्री शरप्रभाजी 2015 लाडनूं श्री शुक्लप्रभाजी 2016 सरदारशहर हुलासमलजी कुहाड़ 2037 मा. कृ. 6 4 श्री विद्युत्प्रभाजी 2017 मोमासर श्री पावनप्रभाजी | 2018 डूंगरगढ़ श्री सन्मतिश्रीजी 2013 सरदारशहर बालचंदजी सेठिया 2037 वै. शु. 8 मांगीलालजी दूगड़ 2037 वै. शु. 8 आसकरणजी भरुंट 2037 मा. कृ. 6 मांगीलाल पटावरी 2037 मा. कृ. 6 कस्तूरचंदजी दूगड़ हंसराजजी चंडालिया 2037 मा. कृ. 6 2037 फा. कृ. 9 जीवणमलजी दूगड़ 2037 फा. कृ. 9 2017 सरदारशहर पूनमचंदजी दूगड़ 2037 फा. कृ. 9 दीक्षा स्थान लाडनूं लाडनूं लाडनूं लाडनूं लाडनूं लाडनूं मोमासर मोमासर मोमासर मोमासर चूरू चूरू 咄 विशेष विवरण संवत् 2053 हिरियूर के पास ट्रक दुर्घटना से स्वर्गवास, गृहस्थावस्था में मासखमण तक तपस्या यथाशक्य ज्ञानार्जन, तप-10 वर्ष की उम्र में अठाई, 81 उपवास 2 बेले ज्ञान चरित्र की समाराधना में संलग्न यथोचित ज्ञानार्जन, कतिपय व्याख्यान, गीत निबंध का सृजन, तप दिन से 9 तक लड़ी में सैकड़ों उपवास संस्थान से बी. ए., विविध कला कौशल्य, सृजन- गीत, मुक्तक लेखादि, तप संख्या 1 से 8 तक लड़ीबद्ध कुल दिन 899 यथोचित ज्ञानार्जन, उपवास अनेकों तेला 1 अठाई 1 यथोचित ज्ञानार्जन, तप उपवास 643, बेले 11, एकासन 1100 के लगभग यथाशक्य ज्ञान, तप संख्या 936 दिन, दो वर्षीतप आयबल आदि, शीत परिषहजयी यथाशक्य ज्ञानार्जन, सैकड़ों उपवास यथोचित ज्ञानकला में प्रगति, तप संख्या 564 यथोचित ज्ञानाभ्यास, 1 से 9 तक लड़ीबद्ध तप, 11, 13, 15 का तप साध्वोचित ज्ञानार्जन कार्यकलाकुशल, संगीत में निपुण, तप 564 उपवास यथोचित अध्ययन, तप 1 से 8 तक लड़ीबद्ध कुल संख्या 550 जैन श्रमणियों का बृहद इतिहास Page #1039 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तेरापंथ परम्परा की श्रमणियाँ 977 सरदारशहर क्रम सं दीक्षा क्रम| साध्वी-नाम जन्मसंवत् स्थान| पिता-नाम गोत्र दीक्षा संवत् तिथि दीक्षा स्थान विशेष-विवरण 414. 1501 श्री विवेक श्रीजी |2017 चाड़वास माणकचंदजी सेठिया | 2037 फा. कृ.9 चूरू यथोचित ज्ञानाभ्यास, तप संख्या 312, कंठमधुर, हजारों पद्यों का प्रतिदिन स्वाध्याय व जप श्री शशिकलाजी | 2011 हांसी किशोरीलाल सिंगल| 2038 का. शु. 2। | नई दिल्ली | यथोचित ज्ञानार्जन, तप संख्या 639,पांच बार दस प्रत्याख्यान श्री कमलयशाजी |2012 मोमासर मांगीलालजी संचेती 2038 का. शु. 2 | नई दिल्ली | यथायोग्य ज्ञान विकास, लिपिकला दक्ष, कुल तप संख्या 530, दस प्रत्याख्यान 15 श्री जगत्प्रभाजी |2012 हिसार ओमप्रकाशजी गोयल | 2038 का. शु. 2 | नई दिल्ली | साहित्य-आवश्यक नियुक्ति पर शोधकार्य, श्री छगनांजी 'बोरावड' की जीवनी, तप-सैकड़ों उपवास, दस प्रत्याख्यान 13 श्री अमितश्रीजी | 2014 सरदारशहर शुभकरणजी दूगड़ | 2038 का. शु. 2 | नई दिल्ली | यथाशक्य ज्ञान, 1 से 9 तक लड़ीबद्ध तपस्या कुल संख्या 842 श्री रचनाश्रीजी |2016 टमकोर मंगलचंदजी गिड़िया | 2038 पौ. शु.5 आगम स्तोक, संस्कृत आदि अध्ययन, विविधकलात्मक वस्तुओंका निर्माण लेख, गीत कविता आदि का सृजन श्री सम्यक्प्रभाजी | 2017 सरदारशहर | सूरजमलजी बोथरा | 2038 पौ. शु. 5 सरदारशहर कई स्तोक कंठस्थ, आगमवाचन, तप संख्या 461 श्री पूर्णिमाश्रीजी | 2017 सरदारशहर | माणकचंद दूगड़ | 2038 पौ. शु. 5 सरदारशहर यथायोग्य ज्ञान, तप,साधना श्री चन्दनप्रभाजी | 2019 नोखामंडी | कन्हैयालालजी मालू 2038 पौ. शु. 5 सरदारशहर | संवत् 2054 में गण से पृथक् श्री सुदर्शनाश्रीजी | 2019 सरदारशहर | भैरुदानजी चंडालिया | 2038 पौ. शु. 5 सरदारशहर | शिक्षा आगम, भाष्य संघीय साहित्य, तप 1 से 8 तक लड़ीबद्ध कुल संख्या 904 श्री सुधाकुमारीजी |2016 बीदासर भीखमचंदजी बैद | 2038 चै. कृ. 2 बीदासर सामान्य साधुयोग्य शिक्षण, कार्यकुशल श्री निर्मलाश्रीजी | 2014 उदासर | चम्पालालजी मुणोत | 2039 चै. शु. 2 लाडनूं गण से पृथक् संवत् 2049 में श्री मर्यादाश्रीजी |2015 गोगुंदा । | भंवरलाल गोरवाड़ा | 2039 चै. शु. 2 लाडनूं कई स्तोक, संस्कृत व अन्य ग्रंथों का शिक्षण,तप संख्या 1307,तीर्थंकरों की लड़ी, सैकड़ों एकासन Page #1040 -------------------------------------------------------------------------- ________________ । क्रम सं दीक्षा क्रम| साध्वी-नाम जन्मसंवत् स्थान| पिता-नाम गोत्र दीक्षा संवत् तिथि | दीक्षा स्थान | विशेष-विवरण | श्री पंकजश्रीजी | 2015 लाडनूं मांगीलालजी दूगड़ |2039 चै. शु. 2 | लाडनूं यथाशक्य ज्ञानार्जन,कार्यकुशल,तप संख्या 485 श्री मुक्तिश्रीजी | 2017 फतेहगढ़, | महादेवभाई सिंघवी | 2039 चै. शु. 2 | लाडनूं यथाशक्य ज्ञानार्जन,तप1 से 8 तकलडीबद्ध कच्छ उपवास, कुल संख्या 808 श्री मंजुलताजी | 2017 लाडनूं | बालचंदजी बैद 2039 चै. शु.2 लाडनूं यथाशक्य ज्ञान, तप, साधना श्री हेमलताजी | 2017 बेला तेजपालभाई मेहता | 2039 का. शु. 11 राणावास यथोचित ज्ञानार्जन, सूक्ष्मलिपि,लेखनदक्ष, (कच्छ) तपसंख्या 445, अढाई सौ प्रत्याख्यान 5 बार | श्री मधुरलताजी | 2020 रामसिंह जेवंतराजजी सेठिया | 2039 का. शु. 11 राणावास यथाशक्य ज्ञानार्जन, प्रतिवर्ष 40 उपवास कागुड़ा कुल 40 बेले 30 तेले, अठाई, कंठीतप, अढाई सौ प्रत्याख्यान |श्री प्रज्ञाश्रीजी |2014 तासोल |रंगलालजी बोहरा | 2039 प्र.फा.शु. 15 | उदयपुर यथासंभव ज्ञान साधना श्री प्रेक्षाश्रीजी | 2018 टिटलागढ़ | हेमराजजी मित्तल | 2039 प्र.फा.शु. 15 उदयपुर तप1 से 8 तक उपवाससंख्या 1090,अढ़ाई सौ प्रत्याख्यान, दस प्रत्याख्यान 15 बार श्री प्रेरणाश्रीजी |2018 मद्रास विजयराजजी मूथा 2039 प्र.फा.शु. 15 | उदयपुर लगभग 9 हजार गाथाएं कंठस्थ,तप संख्या 256 I श्री गवेषणाश्रीजी | 2018 समदड़ी सुखराजजी जीराबला 2040 आषा.शु.1 | समदड़ी श्री कर्णिकाश्रीजी 2021 समदड़ी |पुखराजजी ढेलड़िया | 2040 आषा.शु.1 | समदड़ी | श्री कलाप्रभाजी | 2016 बालोतरा | भगवानचंदजी बाफना | 2040 आसो.शु. 2 | बालोतरा जैनदर्शन में एम.ए., "क्रियाका दार्शनिक एवं वैज्ञानिक अध्ययन' पर पी.एच.डी., तप दिन 279 यथोचित ज्ञानार्जन,तपसंख्या 849,अढ़ाई सौ प्रत्याख्यान 1 बार ज्ञान-आगम,न्याय,स्तोक व अन्य,प्रतिवर्ष 35 लगभग उपवास यथासाध्य ज्ञान-साधना यथासाध्य अध्ययन, तप संख्या 792, वर्षीतप, कल्याणकतप, तीर्थंकरों की लड़ी आदि तप | श्री दिव्यलताजी | 2018 बाड़मेर भंवरलालजी सालेचा 2040 आसो.शु. 2 श्री विजयप्रभाजी | 2018 बालोतरा ऋषभचंदजी बडेरा | 2040 आसो.शु. 2 | बालोतरा बालोतरा जैन श्रमणियों का बृहद इतिहास Page #1041 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 979 क्रम से दीक्षा क्रम साध्वी नाम 532 439. 440. 441. 442. 446. 447. 443. 537 444. 538 445. 539 448. 449. 533 450. 451. 452. 535 536. 540 541 543 544 545 546 547 4 श्री संयमलताजी 4 श्री रतिप्रभाजी श्री धर्मयशाजी जन्मसंवत् स्थान 2018 बाड़मेर 2018 बालोतरा 2018 बीदासर 4 श्री पुण्यशाजी श्री सोमयशाजी 2016 गंगाशहर 2019 डूंगरगढ़ 4 श्री सूर्ययशाजी 4 श्री विशुद्धप्रभाजी 2018 लाडनूं श्री दीपयशाजी श्री लोकयशाजी श्री मंगलयशाजी 2020 बीदासर पिता-नाम गोत्र दीक्षा संवत् तिथि धनराजजी सालेचा 2040 आसो. शु. 2 भगवानचंदजी बाफणा 2040 आसो. शु. 2 हनुमानमलजी गोलछा 2040 मा.शु. 13 जीवनमलजी डागा हनुमानमलजी चोपड़ा सोहनलालजी दूगड़ हंसराजजी दूगड़ 4 श्री प्रेमप्रभाजी 2019 लाडनूं 4 श्री लब्धिप्रभाजी 2017 टिटलागढ़ कपूरचंदजी गर्ग 4 श्री पीयूषप्रभाजी 2012 सरदारशहर पूनमचंदजी सेठिया हंसराजजी सिंधी 4 श्री अमृतप्रभाजी 2016 सरदारशहर - नौलखा 2040मा. 13 2041 वै. शु. 3 2041 वै. शु. 3 2041 ज्ये. शु. 4 2041 ज्ये. शु. 4 2041 मा. शु. 6 2042 ज्ये, शु. 13 2042 ज्ये. शु. 13 अमृतलाल चोवटिया 2042 का. शु. 10 नाहटा 2005 धूलिया 2008 रतननगर 2042 का. शु. 10 2020 फतेहगढ़ कानजीभाई सिंघवी 2042 का. शु. 10 दीक्षा स्थान बालोतरा बालोतरा बीदासर बीदासर श्रीडूंगरगढ़ श्रीडूंगरगढ़ लाडनूं लाडनूं जसोल भीलवाड़ा भीलवाड़ा आमेट आमेट आमेट विशेष- विवरण यथोचित ज्ञानार्जन, तप उपवास, बेले, तेले और 9 दिन का तप यथाशक्य ज्ञानार्जन, सृजन-13 व्याख्यान कई गोत, कलादक्ष, प्रतिवर्ष 35 उपवास, वर्षीतप जैनदर्शन में एम. ए. प्रथम श्रेणी में तप संख्या 250 आगम, नियुक्ति भाष्य आदि अनेक ग्रंथों का अध्ययन, कलादक्ष, तप दिन 294 यथोचित ज्ञानार्जन, तप 1 से 8 दिन लड़ीबद्ध यथोचित ज्ञानाभ्यास, कार्यकुशल संवत् 2037 में समणी दीक्षा ली थी, वथोचित ज्ञान, कलार्जन, तप सैकडों उपवास, दो मास एकांतर तपस्विनी 1 से 8 उपवास के कुल दिन 1112, अढ़ाई सौ प्रत्याख्यान, कार्यकुशल संस्थान से बी. ए. उत्तीर्ण, तप 260 दिन, आयंबिल के कई तेले जैन दर्शन में एम. ए. में प्रथम स्थान, 'आचारचूला व निशीथचूर्णि पर पी. एच. डी. आगम शोधकार्य में संलग्न, कार्यकला कुशल, तप- प्रतिवर्ष 30-40 उपवास, सावन में एकांतर ज्ञान-तप आराधना में संलग्न यथाशक्य ज्ञानाराधना, प्रतिमास दो उपवास यथाशक्य संयम, ज्ञान कला में विकास तेरापंथ परम्परा की श्रमणियाँ Page #1042 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 980 क्रम सं दीक्षा क्रम साध्वी- नाम 453. 548 454. 549 455. 551 456. 457. 458. 459. 460. 461. 462. 463. 464. 465. 466. 553 554 555 556 557 558 559 560 562 564 566 जन्मसंवत् स्थान | पिता-नाम गोत्र 2021 गंगाशहर केशरीचंदजी बोथरा श्री मधुरयशाजी श्री सौम्ययशाजी 2022 धूलिया 4 श्री चिन्मयप्रभाजी 2021 नाथद्वारा दयाचंद मंधाण (सिंधी) गोकुलचंदजी बाफणा श्री ललितरेखा 2022 छोटी खाटू गणपतमल डूंगरवाल 2043 ज्ये, शु. 4 श्री अमृतयशाजी 2024 लाडनूं सम्पतमलजी गोलछा 2043 भा. शु. 15 श्री प्रबलयशाजी 2018 छापर श्री कुमुदयशाजी 2018 लाडनूं 2019 गंगाशहर श्री कीर्तियशाजी श्री हेमयशाजी 4 श्री ऋजुवशाजी 2020 पड़िहारा श्री नम्रयशाजी श्री निर्मलयशाजी 2019 अहमदाबाद हरिभाई मोदी श्री मंजुयशाजी 2019 सिसाय 2019 सरदारशहर श्री नूतनयशाजी 2022 पड़िहारा जुगराजजी भंसाली उदयचंदजी सिंधी डागा 2022 बीदासर धनराजजी सुराणा जयवीरसिंह सिंगल नगराजजी सामसुखा धनराजजी सुराणा दीक्षा संवत् तिथि 2042 का. शु. 10 2042 का. शु. 10 2042 फा. शु. 2 बच्छराजजी लिंगा 2043 का. शु. 9 2043 का. शु. 9 2043 का. शु. 9 2043का. शु. 9 2043 का. शु. 9 2043 का. शु. 9 2043 का. शु. 9 2043का. शु. 9 2043 मृ.शु. 12 दीक्षा स्थान आमेट आमेट गोगुंदा लाडनूं लाडनूं लाडनूं लाडनू लाडनू लाडनूं लाडनूं लाडनूं लाडनू लाडनू बीदासर विशेष विवरण यथोचित ज्ञान आराधना बी. ए. प्रथम श्रेणी से उत्तीर्ण यथोचित ज्ञानार्जन, तप सैकड़ों उपवास ऊपर पंचोले तक संस्थान से एम. ए. प्रथम श्रेणी में शीत परीषहजयी, कार्यकुशल दस आगम वाचन, सैकड़ों उपवास एक अठाई यथाशक्य स्वाध्याय, जप, ध्यान आदि यथाशक्य ज्ञान तप आराधना में संलग्न आगम, स्तोक, स्तोत्र, श्लोकादि कंठस्थ, तप 307 उपवास, दस प्रत्याख्यान 4 बार आगम बत्तीसी का वाचन, तप संख्या 807, दो मास एकांतर प्रतिवर्ष जैन दर्शन में एम. ए. तप- सैकड़ों उपवास, बड़ा तप 8, 9, 11 गण से पृथक् संवत् 2051 में जैनदर्शन में एम. ए. प्रथम श्रेणी से उत्तीर्ण, कलाकुशल, सृजन-लेख, गीत, कविता, मुक्तक आदि ज्ञान-साधना में प्रगति, तप-सात वर्षों से सावण-भादवा में एकांतर तप, 3, 5, 7 उपवास यथोचित ज्ञानार्जन, कार्यदक्ष, तप से 9 तक लड़ीबद्ध उपवास, ध्यान व जप पर निष्ठा जैन श्रमणियों का बृहद इतिहास Page #1043 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तेरापंथ परम्परा की श्रमणियाँ 981 क्रम सं दीक्षा क्रम | साध्वी-नाम जन्मसंवत् स्थान | पिता-नाम गोत्र दीक्षा संवत् तिथि | दीक्षा स्थान | विशेष-विवरण 467. 1567 श्री मुक्तियशाजी 2021 रतनगढ़ | जयचंदजी कोचर | 2043 मा. शु. 13 | रतनगढ़ यथाशक्य ज्ञानार्जन,तप एकाशन 8,21, 31 व खुले एकाशन 200, उपवास 15 468. | 568 श्री शीलयशाजी | 2022 सांडवा 2043 मा. शु. 13 रतनगढ़ संस्थान से बी.ए..विविध वस्तु कलादक्ष, तप-अनेक उपवास, बेला, तेला, चोला व अठाई 1569 श्री शीतलयशाजी| 2022 रतनगढ़ | श्रीचन्दजी बैद | 2043 मा. शु. 13 रतनगढ़ यथाशक्य ज्ञान, तप आदि साधना श्री किरणयशाजी | 2024 उदासर रूपचंदजी मुणोत | 2044 ज्ये.शु.3 लाडनूं अनशन के 50वें दिन दीक्षा.4 दिन का संयम पर्याय पालकर संवत् 2044 लाडनूं में दिवंगत। श्री सरलप्रभाजी | 2008 सरदारशहर माणकचंदजी दूगड़ | 2045 वै. कृ. 12 सरदारशहर | तपस्विनी, 1 से 9 उपवास लड़ीबद्ध, 15 और 31 का तप | 573 0 श्री ऋजुप्रभाजी | 2011 लाडनूं | भैरुदानजी बैंगानी | 2045 वै. कृ. 12 | सरदारशहर | यथोचित ज्ञानाभ्यास, तप दिन 307, आयंबिल की 2 अठाई,दस प्रत्याख्यान 3 बार श्री आत्मप्रभाजी| 2011 सरदारशहर माणकचंदजी तातेड 2045 वै. कृ. 12 सरदारशहर | यथोचित ज्ञानार्जन, सृजन-गीत, मुक्तक, कविता आदि, तप 1 से 8 तक लड़ीबद्ध, शीत परीषहजयी । श्री सुव्रतयशाजी | 2022 सरदारशहर | लूणकरणजी चोरड़िया | 2045 वै. कृ. 12 सरदारशहर | यथायोग्य ज्ञान व तप साधना | श्री पूनमप्रभाजी | 2020 बैंगलोर | राजमलजी सकलेचा| 2045 आषा.शु. 10 | श्री डूंगरगढ़ | यथायोग्य ज्ञानार्जन, तप सैकड़ों उपवास, 2,3,5,8 उपवास श्री सम्पतप्रभाजी | 2021 डूंगरगढ़ | ठाकरमलजी बोथरा | 2045 का. कृ. 8 | श्री डूंगरगढ़ यथोचित ज्ञानाभ्यास, स्वाध्याय आदि। श्री मधुलेखाजी | 2022 गंगाशहर | लूणकरणजी गोलछा | 2045 का. कृ. 8 | श्री डूंगरगढ़ | यथोचित ज्ञानार्जन, प्रतिवर्ष 30 उपवास | श्री कल्पमालाजी | 2023 गंगाशहर | जेठमलजी सिंधी | 2045 का. कृ. 8 | श्री डूंगरगढ़ | यथोचित ज्ञानाभ्यास, कार्यकुशल, तप ! से 9 उपवास, दस प्रत्याख्यान 6, आयंबिल व शताधिक एकासन श्री सूरजयशाजी | 2013 सरदारशहर| सोहनलालजी बोथरा 2046 का. कृ.9 | ज्ञान, तप, संयम साधना में संलग्न Page #1044 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्रम सं दीक्षा क्रम साध्वी-नाम जन्मसंवत् स्थान | पिता-नाम गोत्र दीक्षा संवत् तिथि | दीक्षा स्थान | विशेष-विवरण 1480. 1585 1585 loश्री वैराग्यश्रीजी | 1990 टमकोर |मन्नालालजी कोठारी| 2046 मा. शु.5 | लाडनूं 481. 1586 श्री निर्भयप्रभाजी 2019 बाव जयन्तीभाई मेहता | 2046 मा. शु.5 | लाडनूं श्री जयंतमालाजी 2021 बालोतरा |चंपालालजी बडेरा लाडनूं 483. 1589 | श्री आदर्शप्रभाजी | 2021 बालोतरा ऋषभचंदजी बडेरा | 2046 मा. शु. 5 लाडनूं 484. 592 श्री श्वेतप्रभाजी | 2022 टमकोर बच्छराजजी चोरडिया 2046 मा. शु.5 | लाडनू 485. 593 594 श्री शशिप्रभाजी | 2023 लाडनूं श्री गुरुयशाजी | 2018 लाडनूं | कमलसिंहजी दूगड़ | 2046 मा. शु. 5 लाडनूं हिम्मतमलजी कोठारी 2047 का. कृ.8 | पाली 486. 982 यथोचित ज्ञानाभ्यास, तप-5 वर्षीतप, 1 से 9 तक तप संवत् 2041 में समणी दीक्षा ली थी,जीवन विज्ञान में एम. ए., तप 1 से 11 तक लड़ीबद्ध,तप संख्या 551 यथासंभव ज्ञानार्जन, तप कुछ उपवास,6 दो, 8 दो, 9 का तप एक बार यथोचित ज्ञानार्जन, उपवास 905, दस प्रत्याख्यान 4 बार यथोचित ज्ञानाभ्यास, सैकड़ों उपवास, तेला, पांच व अठाई जीवन विज्ञान में एम. ए. संवत् 2038 में समणी दीक्षा ली थी। ज्ञानाराधना में संलग्न संवत् 2045 मेंसमणी दीक्षाली थी। जीवन विज्ञान में एम. ए., तप दिन 275 संवत् 2046 में समणी दीक्षा, यथोचित ज्ञानार्जन, तप सैकड़ों उपवास, बेले-तेले कुछ, अठाई। | पूर्व में समणी दीक्षा संवत् 2046,प्रतिवर्ष 30 उपवास समणी दीक्षा संवत् 2047, यथोचित ज्ञानाभ्यास, प्रतिवर्ष दो मास एकांतर, दस प्रत्याख्यान पूर्व में समणी दीक्षा संवत् 2043,यथोचित ज्ञानाराधना, प्रतिवर्ष दो मास एकांतर उपवास 487. 1595 श्री अमितयशाजी 2019 गंगाशहर | खूमचंदजी पारख | 2047 का. कृ.8 ] पाली 488. 1596 श्री मननप्रभाजी | 2019 उदासर भीखणचंद चोरडिया 2047 फा. शु. 10 | राजसमन्द | श्री शांतिप्रभाजी | 2022 राजलदेसर | जसकरणजी बैद 2047 फा. शु. 10 ।। राजसमन्द 1600 |श्री ध्यानप्रभाजी | 2024 मद्रास सुखराजजी आछा | 2048 का. शु. 10 | लाडनूं जैन श्रमणियों का बृहद इतिहास 491. 1603 | हंसराजजी दूगड़ | 2049 का. कृ.7 | लाडनूं Page #1045 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्रम सं दीक्षा क्रम | साध्वी-नाम जन्मसंवत् स्थान पिता-नाम गोत्र दीक्षा संवत् तिथि दीक्षा स्थान | विशेष-विवरण हंसराजजी बांठिया | 2049 का. कृ.7 | लाडनूं संवत् 2043 में समणी दीक्षा लेकर कई प्रांतों में धर्म प्रचार किया, तप बेले से नौ | तक तप दिन 55 सैकड़ों उपवास Iश्री जयविभाजी | 2023 गंगाशहर | मोहनलालजी सेठिया 2049 का. कृ.7 | लाडनूं संवत् 2043 में समणी दीक्षा ली थी, ज्ञानाराधना में संलग्न I श्री संवरविभाजी | 2021 शाहदा अमोलकचंद गेलडा|2049 का. कृ.7 | लाडनं संवत् 2047 में समणी दीक्षा ली थी.यथोचित ज्ञान साधना, उपवास कई, 2, 3, 4, 5, 8, तेरापंथ परम्परा की श्रमणियाँ 983] |612 उपवास भी किये। श्री गुप्तिविभाजी 1997 टमकोर दीपचंदजी चोरडिया 2049 मा. शु.7 | बीदासर यथाशक्य ज्ञानार्जन, स्वाध्याय, ध्यान, उपवास-सैकड़ों श्रीकांतप्रभाजी | 2023 उदासर | श्रीचंदजी मुहनोत | 2050 का. कृ.7 | राजलदेसर समणी दीक्षा संवत् 2046 मेंली थी.यथोचित ज्ञानाराधना, तप 185 दिन I श्री सिद्धप्रभाजी | 2021 रामसिंह |उत्तमचंदजी गादिया | 2050 का. कृ.7 | राजलदेसर समणी दीक्षा संवत् 2047 में, स्नातकोत्तर कागुडा परीक्षा उत्तीर्ण,आयंबिल मासखमण,50, 10.9,8 आदि उपवास 150 श्री परिमलप्रभाजी 2024 गंगाशहर | सूरजमलजी बैद | 2050 का. कृ.7 | राजलदेसर | जीवन विज्ञान में एम.एस.सी.,तप-उपवास सैकड़ों,दो से नौतकतप73 दिन,आयंबिल 100 शीत परीषहजयी श्री आरोग्यश्रीजी| 2025 मोमासर | कमलसिंहजी संचेती| 2050 का. कृ.7 | राजलदेसर | जीवन विज्ञान में एम. ए., शोधकार्य में | संलग्न | श्री स्वस्थप्रभाजी | 2014 सरदारशहर | सुमेरमलजी तातेड़ | 2050 मा. शु. 3 | सुजानगढ़ पूर्व में समणी दीक्षा संवत् 2041 में, ज्ञान तप साधना में निरत श्री नियतिप्रभाजी| 2026 आसीन्द |सम्पतमल चोरडिया 2050 मा. शु.3 | सुजानगढ़ | पूर्व में समणी दीक्षा संवत् 2048, यथोचित ज्ञानार्जन, हजार गाथाओं का रोज स्वाध्याय, तप दिन 255 Page #1046 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्रम सं दीक्षा क्रम | साध्वी-नाम |जन्मसंवत् स्थान | पिता-नाम गोत्र | दीक्षा संवत् तिथि | दीक्षा स्थान | विशेष-विवरण 502. 616 | I श्री संयमप्रभाजी | 2023 सरदारशहर| पन्नालालजी सुराणा| 2050 मा. शु.3 617 श्री विनयप्रभाजी| 2023 गंगाशहर | खेमचंदजी बैद | 2050 मा. शु. 3 | सुजानगढ़ | पूर्व में समणी दीक्षा संवत् 2048,यथोचित ज्ञानार्जन, तप 1 से 15 तक लड़ीबद्ध उपवास, बेले से कुल तप संख्या 420 | सुजानगढ़ | पूर्व में समणी दीक्षा संवत् 2048, यथोचित ज्ञानार्जन | नई दिल्ली | पूर्वमेंसमणी दीक्षासंवत्2047,यथोचित ज्ञानार्जन, तप1 से 9 तक लड़ी की, सैकड़ों उपवास श्री धवलप्रभाजी| 2023 बायतू | कानमलजी बालड़ | 2051 का. कृ.7 984 नोट: 1. दीक्षा क्रम संख्या - 6,7, 20, 22, 24, 30, 33,41,56,81,91,92, 139, 154, 158, 160, 170, 189, 199, 209,213,215,218,230, 233,257,278,281, 283, 330,348,366,478 और 564 के स्वर्गवास का संकेत तेरापंथ परिचायिका से प्राप्त होता है। ये श्रमणियां संवत् 2042 से 60 के मध्य कब दिवंगत हुईं, इसकी निश्चित तिथि व स्थान ज्ञात नहीं हुआ। 2. संवत् 2051 के बाद की आचार्य महाप्रज्ञ जी से दीक्षित होने वाली साध्वियों का परिचय पृ. 885 से 888 पर तालिका में देखें। जैन श्रमणियों का बृहद इतिहास Page #1047 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्याय 8 उपसंहार Page #1048 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपसंहार आभार प्रदर्शन.. .... 985 991 Page #1049 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्याय आठ उपसंहार श्रमणियों की गौरवमयी गाथाओं पर दृष्टिक्षेप करने से यह स्पष्ट प्रतिभासित होता है कि आदिकाल से ही श्रमण संस्कृति को सिंचित करने और पल्लवित पुष्पित रखने में जैन श्रमणियों का महान योगदान रहा है। भारत के विभिन्न धर्म एवं दर्शनों में यद्यपि वैयक्तिक रूप से नारी-साधिकाओं के उल्लेख प्राप्त होते हैं, किंतु श्रमणी संघ का यह व्यवस्थित एवं परिष्कृत रूप जैनधर्म में ही दिखाई देता है, अन्यत्र नहीं। बौद्ध धर्म यद्यपि विश्व के अनेक देशों में व्याप्त है तथापि एक दो देशों को छोड़कर अन्यत्र भिक्षुणी संघ की कोई व्यवस्था नहीं है। ईसाई धर्म में नंस (Nuns) की कुछ संस्थाएँ हैं, किन्तु वे सब वैयक्तिक तौर पर स्थापित आचार-विचार एवं जीवन-शैली से संचालित हैं। जैन धर्म की श्रमणियाँ सर्वत्र महाव्रतों की एक डोर में बंधी हुई, तप-त्यागमय निष्परिग्रही जीवन जीती हुई दृष्टिगोचर होती हैं। आज देश में जैनधर्म की 10277 श्रमणियाँ हैं, सभी भारत भर में पैदल विहार करती हुई विचरण कर रही हैं। उनके आहार, विहार, आवास, केशलुंचन आदि नियम प्रायः एक समान हैं। जैन श्रमणियाँ अध्यात्म प्रधान जीवन की श्रेष्ठतम संवाहिका हैं। उनमें सम्पूर्ण व्यक्तित्त्व निर्माण कर सकने की क्षमता है, अतः इन्हें 'श्रमण संस्कृति की रीढ़' कहा जाए तो कोई अत्युक्ति नहीं होगी। श्रमणियों ने नारी समाज के उत्थान और विकास में जो भूमिका निर्मित की है, उससे आज कोई भी अपरिचित नहीं है। परूषों की अपेक्षा दगने-तिगने उत्साह से नारियों ने श्रमण धर्म में प्रवेश कर उसकी गणवत्ता में वृद्धि की है। नारी के लिए अभेद्य कहे जाने वाले संयम दुर्ग में प्रवेश कर उन्होंने अपनी दक्षता, क्षमता और शौर्यता का परिचय दिया है । व्यक्ति, समाज और राष्ट्र की उन्नति में श्रमणियों ने अपनी बुद्धि, विवेक और प्रतिभा का पूरा-पूरा उपयोग किया है। श्रमणियों का सम्पूर्ण इतिहास उनकी यशोगाथाओं से भरा पड़ा है। प्राचीन काल की साध्वियाँ तप-त्याग की साक्षात् प्रतिमाएँ थी। ब्राह्मी सुन्दरी आदि का तपोमय जीवन किसी परिचय के अपेक्षा नहीं रखता। ब्रह्मतेज की जीवंत मूर्ति राजीमती, धर्म की धुरा का संवहन करने वाली बृहत् श्रमणी संघ की संचालिका चंदनबाला, शांति की सूत्रधार मृगावती, तत्त्वशोधिका जयंति, लोकहृदय में प्रतिष्ठित शक्तिस्वरूपा सीता, अनुराग से विराग का दीप जलाने वाली देवानन्दा अचल श्रद्धा की प्रतीक सुलसा, तपस्या के प्राञ्जल कोष की स्वामिनी कालि आदि रानियों की यशोगाथाएँ इतिहास के स्वर्णम पृष्ठों पर चिरस्थायी बन गई हैं। महावीरोत्तरकाल में जम्बू कुमार के साथ अपने अविचल प्रेम का निर्वहन करने वाली समुद्रश्री आदि आठ कोमल श्रेष्ठी कन्याएँ भोग योग्य युवावस्था में सुख सुविधाओं को ठुकराकर जो अद्वितीय अनुपम आदर्श उपस्थित करती हैं, वह इतिहास के पन्नों पर अमिट है। तप संयम की उत्कृष्ट आराधना कर भगवद्पद को प्राप्त करने वाली पुष्पचूला अपने ही बोध प्रदाता गुरू आचार्य अन्निकापुत्र की मार्गदृष्टा बनी। अद्वितीय प्रतिभा की धनी, श्रुतसंपन्ना यक्षा यक्षदत्ता Page #1050 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन श्रमणियों का बृहद इतिहास आदि सात साध्वी भगिनियों के ज्ञान निर्झर से सिंचित आर्य महागिरि और आर्य सुहस्ति जैसी महान हस्तियाँ जैन शासन की अभूतपूर्व प्रभावना करने वाली बनीं। आर्या पोइणी ने श्रुतरक्षा एवं संघहित हेतु आयोजित वाचनाओं विचारणाओं एवं परिषद् में विशाल साध्वी समुदाय के साथ उपस्थित होकर अपनी ज्ञानगरिमा का परिचय दिया। ईश्वरी ने संकटकाल से विरक्ति की प्रेरणा लेकर सम्पूर्ण परिवार को प्रव्रजित होने की प्रेरणा दी थी । याकिनी महत्तरा ने जैनधर्म के कट्टर विद्वेषी महापंडित हरिभद्र को जिस व्यवहार कुशलता और अद्भुत प्रज्ञा से जैनधर्म में दीक्षित किया, उस साध्वी का ऋण चुकाने में आचार्य हरिभद्र को 1444 ग्रंथ भी कम पड़ गये थे। वीर निर्वाण की छठी से दसवीं शताब्दी तक निर्मित मथुरा की मूर्तियों में सैंकड़ों श्रमणियों की प्रेरणाएँ निहित हैं। विक्रमी संवत् 757 के आसपास उन सैंकड़ों अमरत्व की पूज्य प्रतिमा श्रमणियों के नामों का उल्लेख श्रवणबेलगोला के चन्द्रगिरि पर्वत पर है, जिन्होंने जीवन के अन्तिम समय महान संलेखना व्रत अंगीकार कर आध्यात्मिक उत्कर्ष का परिचय दिया। विक्रम की आठवीं से ग्यारहवीं सदी तक दक्षिण के शिलालेखों में अनेकों ऐसी श्रमणियों के नाम उट्टंकित हैं, जो नर-नारी दोनों को दीक्षित कर आचार्या / भट्टारिका पद पर प्रतिष्ठित हुईं, और बड़े-बड़े विश्वविद्यालयों का निर्माण करवाकर जैनधर्म व दर्शन के उच्च कोटि के विद्वान पंडित तैयार किये, उन्हें देश के विभिन्न भागों में धर्म प्रचार हेतु भेजा। इसी प्रकार उत्तर भारत के देवगढ़ के मंदिरों में विक्रम की ग्यारहवीं से तेरहवीं सदी तक की अनेक श्रमणियों के सक्रिय धार्मिक सहयोग और जीवन गाथाओं का अंकन है। एक मानस्तम्भ पर तो आर्यिका का उपदेश भी दो पंक्तियों में उट्टंकित है। विक्रम की तेरहवीं सदी में महत्तरा पद्मसिरि अलौकिक व्यक्तित्त्व की धनी साध्वी हुई, गूढ़ से गूढ़ तत्त्वज्ञान को सुबोध शैली में समझाने की उनकी कला एवं वैराग्यपूर्ण सदुपदेश से प्रेरित होकर 700 नारियाँ दीक्षित हुई, मातरतीर्थ में उनकी प्रतिमा भी प्रतिष्ठित है, अध्याय एक में हमने उनका चित्र दिया है। इसी प्रकार विक्रमी संवत् 1477 में गुणसमृद्धि महत्तरा ने प्राकृत भाषा में 503 पद्यों में 'अंजणासुंदरीचरियं लिखकर अपने वैदुष्य का परिचय दिया। धर्मलक्ष्मी महत्तरा को ज्ञानसागरसूरि ने विमलचारित्र में 'स्वर्णलक्षजननी' और 'सरस्वती' कहकर उसकी बहुश्रुतता और संयमनिष्ठता का गान किया है। मध्ययुग में श्रमणियों ने आगम एवं प्राचीन ग्रंथों के प्रतिलिपिकरण की ओर भी विशेष ध्यान दिया। इसीलिये जैसलमेर पाटण, राजस्थान और उत्तर भारत के हस्तलिखित ग्रंथ भंडारों में मुस्लिम काल में प्रतिलिपि की गई पांडुलिपियाँ सर्वाधिक मात्रा में उपलब्ध होती है। प्राचीन साहित्य के संरक्षण, संवर्धन एवं लेखन में पन्द्रहवीं सदी से अठारहवीं सदी तक की श्रमणियों का योगदान अप्रतिम है। श्रमणियों द्वारा लिखी गई कुछ पांडुलिपियाँ तो ऐसी हैं, जिनकी अभी तक दूसरी पाण्डुलिपि तैयार नहीं हुई। इनमें कई प्रतियाँ तो सचित्र हैं। यदि श्रमणियों द्वारा लिखित पांडुलिपियों का सर्वेक्षण किया जाये तो एक स्वतन्त्र और महत्त्वपूर्ण ग्रंथ तैयार हो सकता है। आधुनिक युग विज्ञान का युग है, इस युग में श्रमणियों ने धार्मिक, आध्यात्मिक, सामाजिक, सांस्कृतिक और साहित्यिक प्रत्येक क्षेत्र में उन्नति की है। आधुनिक युग की साध्वियाँ महाविदुषी हैं, सफल प्रवचनकर्त्री हैं, धर्म और दर्शन की प्रौढ़ प्रवक्ता हैं तथा अनेक उच्चस्तरीय ग्रंथों की रचयित्री हैं। इक्कीसवीं सदी की श्रमणियाँ बहुधा बालब्रह्मचारिणी हैं, जो इस सदी की नवीनतम उपलब्धि हैं। इन युवा साध्वियों ने आध्यात्मिक ज्ञान के साथ-साथ विविध भाषाओं का ज्ञान एवं लौकिक शिक्षा की ऊँचाइयों का भी स्पर्श किया है । दिगम्बर संघ की सर्वप्रथम बालब्रह्मचारिणी आर्यिका गणिनी ज्ञानमती जी ने बड़े-बड़े आचार्यों की टक्कर गहन गूढ़ दार्शनिक ग्रंथों का प्रणयन किया। लगभग 150 ग्रंथ आपकी लेखनी से स्पर्शित होकर निकले हैं। इसी प्रकार सुपार्श्वमतीजी प्रत्येक क्षेत्र में विद्वत्ता को प्राप्त एवं बीसियों ग्रंथों की रचयित्री हैं, आर्यिका जिनमती जी दर्शन शास्त्र की प्रकाण्ड पंडिता हैं, गणिनी विजयमतीजी बीसवीं शताब्दी की सर्वप्रथम गणिनी, अनेक भाषाओं की ज्ञाता, अनेक धर्म संस्थाओं की प्रेरिका एवं विपुल साहित्य निर्मातृ, विशिष्ट संयमी साध्वी हैं। श्री विशुद्धमती जी ज्ञान की अनुपम निधि एवं दुर्गम ग्रंथों की टीकाकर्त्री धर्मप्रभाविका साध्वी हैं। 988 Page #1051 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपसंहार श्वेताम्बर सम्प्रदाय में श्री उद्योत श्रीजी ने विशुद्ध श्रमणाचार का पालन करने के लिए श्री सुखसागर जी महाराज के साथ क्रियोद्धार में अपनी महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई थी। प्रवर्तिनी पुण्यश्रीजी के वैराग्य रस से ओतप्रोत उपदेशों आकृष्ट होकर 116 मुमुक्षु आत्माएँ दीक्षित हुई। जैन कोकिला प्रवर्तिनी विचक्षणश्रीजी तथा बहुआयामी व्यक्तित्त्व की धनी श्री सज्जन श्रीजी, मनोहर श्री जी, मणिप्रभाश्री जी आदि साध्वियों का संघ में विशिष्ट स्थान है। तपागच्छ की प्रवर्तिनी शिवश्रीजी, तिलक श्री जी, तीर्थश्री जी, पुष्पाश्रीजी, रेवती श्री जी, राजेन्द्र श्री जी, मृगेन्द्रश्री जी, निरंजनाश्रीजी, मलयाश्री जी आदि श्रमणियाँ विशाल श्रमणी संघ की संवाहिका रहीं। इनमें संख्याबद्ध श्रमणियाँ ऐसी हैं, जिन्होंने वर्धमान तप की 100 ओली पूर्ण कर तप की ज्योति आत्मा में प्रज्वलित की। इनके अलावा श्री दमयन्ती श्री जी, मोक्षज्ञाश्री जी, चिद्वर्षा श्री जी, देवेन्द्र श्री जी आदि कुछ साध्वियाँ तो तप की जीती जागती प्रतिमा ही नजर आती हैं। कई साध्वियाँ विशुद्धप्रज्ञा सम्पन्ना हैं, जैसे मयणाश्री जी, डॉ. निर्मलाश्री जी आदि शतावधानी हैं, प्रवर्तिनी लक्ष्मीश्री जी आशुकवियित्री थीं। निरंजनाश्री जी संस्कृत प्राकृत, काव्य, न्याय आदि की उच्चकोटि की अध्येत्री हैं, श्री रत्नचूलाश्री जी अपने विशाल श्रमणी संघ में 'सरस्वतीसुता' के नाम से प्रसिद्ध हैं। महत्तरा श्री मृगावती जी अपनी विचक्षणता, विदग्धता, तेजस्विता, नवयुग निर्माण की क्षमता और उदार दृष्टिकोण से भारतभर में विख्यात हुई। प्रवर्तिनी कल्याणश्री जी ने अकेले 'डभोई' ग्राम में 60-65 मुमुक्षुओं को दीक्षित किया, श्री हर्षलताश्री जी ने अपने परिवार के 45 स्वजनों को संयम पथ पर आरूढ़ करवाया। इसी प्रकार त्रिस्तुतिक समुदाय में महत्तरा विद्याश्री जी, पार्श्वचन्द्रगच्छ की श्री खांतिश्री जी, अद्भुत समता की मिसाल श्री गुणोदया श्री जी आदि अनगिनत साध्वियाँ हैं, जिनकी महिमा गरिमा और प्रभाव अकथ्य है। अमूर्तिपूजक विचारधारा का अनुगमन करने वाली श्वेताम्बर स्थानकवासी श्रमणियाँ अपने उत्कृष्ट आचार पालन एवं अहिंसात्मक निराडम्बरपूर्ण जीवन व्यवहार लिए प्रसिद्ध हैं। ये श्रमणियाँ प्रमुख रूप से अध्यात्मनिष्ठ साधिका और शास्त्रज्ञा हुई हैं। अनेक श्रमणियाँ विशिष्ट व्याख्याता, जैन धर्म एवं दर्शन के गूढ़तम रहस्यों की अनुसंधातृ, उच्चकोटि की लेखिका एवं कवयित्री हैं। श्री सोहनकंवर जी, श्री शीलवती जी आगम ज्ञान की गहन ज्ञाता एवं अनेक धार्मिक संस्थाओं की प्रेरिका थीं। श्री पुष्पवती जी, श्री कुसुमवती जी, बहुमुखी प्रतिभा की धनी, साहित्यकर्त्री साध्वी थी। प्रवर्तिनी श्री यशकंवर जी ने जोगणिया माता पर होने वाली बलि प्रथा को बन्द करवाने का अभूतपूर्व कार्य किया। ऋषि संप्रदाय की प्रवर्तिनी श्री रतनकंवर जी ने भी महाराजा चतरसेन जी द्वारा दशहरे के दिन होने वाली भैंसे की बलि को सदा के लिए बंद करवाया था। प्रवर्तिनी श्री उज्ज्वलकुमारी जी की विद्वत्ता और विषय निरूपण शैली अद्वितीय थी, उनसे चर्चा वार्त्ता कर महात्मा गांधी जी असीम आनन्द का अनुभव किया करते थे। आचार्या चंदना जी राजगृही वीरायतन में रहकर अनेक लोकमंगलकारी एवं विशद् परिमाण में मानव सेवा के कार्य कर रही हैं। डॉ. मुक्तिप्रभा जी, डॉ. दिव्यप्रभा जी जैन धर्म व दर्शन के गूढ़तम रहस्यों की ज्ञाता एवं द्रव्यानुयोग तथा चरणानुयोग की व्याख्याता हैं। वाणीभूषण श्री प्रीतिसुधा जी अपनी सधी हुई सुमधुर वाणी से हजारों की संख्या में लोगों को व्यसनमुक्त कराने में सार्थक भूमिका निभा रही हैं, इनके द्वारा कई स्थानों पर गोरक्षण संस्थाएं भी स्थापित हुई हैं। पंजाब सम्प्रदाय में अठारहवीं सदी की साध्वी सीता जी द्वारा एक साथ 5000 लोगों ने माँस और मदिरा का त्याग किया था, खेमांजी ने 250 जोड़ों को आजीवन ब्रह्मचर्यव्रत दिलवाया था। श्री ज्ञानांजी ने पंजाब की विच्छिन्न साधु-परम्परा की कड़ी को जोड़ने का अद्भुत कार्य किया। श्री शेरांजी ने आचार्य अमरसिंह जी महाराज और आचार्य सोहनलाल जी महाराज जैसी महान हस्तियों को जैनधर्म में दीक्षित कराया था। पंजाब श्रमणी संघ की प्रथम प्रवर्तिनी श्री पार्वतीजी महाराज हिन्दी साहित्य की प्रथम जैन साध्वी लेखिका हुई हैं, अनेक अन्य मतावलम्बी उनसे शास्त्रार्थ में पराजित होकर नतमस्तक हुए थे। श्री चंदाजी, श्री द्रौपदांजी, श्री मथुरादेवी जी, श्री मोहनदेवी जी आदि साध्वियों ने अपने उपदेशों से समाज की अनेक कुरीतियों को बन्द करवा कर स्थान-स्थान पर महिला सत्संग प्रारम्भ करवाये। श्री चंद्रकलाजी ने गाय की रक्षा करते हुए अपने प्राणों का बलिदान किया था। श्री मोहनमाला जी, श्री शुभ जी, श्री हेमकंवर जी 989 Page #1052 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन श्रमणियों का बृहद इतिहास ने 311, 265 और 251 दिन सर्वथा निराहार रहकर कठोर तपस्या की। प्रवर्तिनी श्री राजमती जी, श्री पन्नादेवी जी (टुहाना), श्री कौशल्या देवी जी आदि परम सहिष्णु, समता की साक्षात् प्रतिमूर्ति साध्वियाँ थी। कंठ कोकिला श्री सीता जी, वात्सल्यनिधि श्री कौशल्या जी 'श्रमणी', दृढ़ संयमी श्री मगनश्री जी, सर्वदा ऊर्जस्वित श्री स्वर्णकान्ता जी, अध्यात्मनिष्ठ श्री सुंदरी जी, प्रबल स्मृतिधारिणी, सुदूर विहारिणी प्रवर्तिनी श्री केसरदेवी जी प्रभावशाली व्यक्तित्त्व की धनी श्री कैलाशवती जी आदि पंजाब की विशिष्ट साध्वियाँ हैं, जिनका वैदुष्य से भरपूर विशाल शिष्या परिवार है। खम्भात ऋषि सम्प्रदाय में श्री शारदाबाई खम्भात सम्प्रदाय की विच्छिन्न साधु परम्परा की जन्मदातृ, आगमज्ञा साध्वी थी, इनके प्रवचनों की कई पुस्तकें प्रकाशित हैं। क्रियोद्धारक श्री धर्मदास जी महाराज की गुजरात परम्परा की श्रमणियों का इतिवृत्त संवत् 1718 से उपलब्ध होता है। यह परम्परा अनेक शाखाओं में विस्तार को प्राप्त है, विशेषतः लिंबड़ी अजरामर सम्प्रदाय में बहुश्रुती शत शिष्याओं की प्रमुखा श्री वेलबाई स्वामी, श्री उज्ज्वलकुमारी जी आदि विदुषी साध्वियाँ हुईं, लिंबड़ी गोपाल सम्प्रदाय की श्री लीलावती बाई. सौराष्ट्रसिंहनी. 145 साध्वियों की खिवैया एवं तेतलीपुत्र आदि प्रवचन पुस्तकों से ख्यातनामा साध्वी थीं। इनकी कई शिष्याएं मासोपवासी व आगमज्ञा हैं। श्री निरूपमाजी ने बत्तीस शास्त्र कठस्थ कर साध्वीसंघ में कीर्तिमान स्थापित किया है। गोंडल सम्प्रदाय में श्री मीठीबाई के तप के आँकड़ें चौंका देने लायक हैं। वर्तमान में मुक्ताबाई लीलमबाई परम वैराग्यशीला एवं विशाल श्रमणी संघ की संवाहिका है। बरवाला सम्प्रदाय में जवेरीबाई उग्र तपस्विनी साध्वी थी। बोटाद सम्प्रदाय में चम्पाबाई, कच्छ आठ कोटि मोटा संघ में श्री मीठीबाई, श्री जेतबाई, कच्छ नानीपक्ष में देवकुंवरबाई आदि दृढ़ संयमनिष्ठा साध्वियाँ हुई। मालव परम्परा में श्री मेनकंवरजी प्रखर प्रतिभासम्पन्न, कठोर संयमी साध्वी थी, उन्होंने भारत के वायसराय एवं सैलाना नरेश आदि उच्च अधिकारियों को अपने प्रवचनों से प्रभावित कर राज्य में अमारि की घोषणा करवाई थी। ज्ञानगच्छ में नंदकंवरजी एवं उनका श्रमणी समुदाय उत्कृष्ट क्रिया का आराधक है। मारवाड़ परम्परा में श्री फतेहकुंवरजी ने विशाल आगम साहित्य की दो बार प्रतिलिपि की। श्री चौथांजी ने कई साधु साध्वियों को आगमों में निष्णात बनाया था। श्री सरदारकुंवर जी के द्वारा कई हस्तियाँ संयम मार्ग पर आरूढ़ होकर जिन धर्म की पताका को फहराने वाली बनी। श्री जड़ावांजी, श्री भूरसुन्दरी जी की उत्कृष्ट काव्य कला की विद्वानों ने भूरि-भूरि प्रशंसा की है। श्री पन्नादेवी जी ने 'काणूजी भैरूं नाका' पर होने वाले भीषण संहार को बन्द करवाया था। प्रवर्तिनी उमरावकंवरजी वर्तमान में उच्च कोटि की योगसाधिका, मधुर उपदेष्टा एवं श्रमण-श्रमणी संघ की सम्माननीया साध्वी हैं। रत्नवंश की प्रमुखा साध्वी श्री सरदारकुंवर जी तथा श्री मैनासुन्दरी जी अपनी ओजस्वी प्रवचन शैली और स्पष्ट विचारधारा के लिए प्रसिद्ध थीं। मेवाड़ परम्परा में श्री नगीनांजी शास्त्र चर्चा में निपुण महासाध्वी हुईं, इनकी शिष्याएँ श्री चंदूजी, इन्द्राजी, कस्तूरांजी, बरदूजी आदि साध्वियाँ महातपस्विनी और उग्र अभिग्रहधारी थीं। श्री श्रृंगारकवर जी निर्भीक स्पष्टवक्ता समयज्ञा साध्वी थी, मेवाड़ की विश्रृंखलित कड़ियों को इन्होंने ही टूटने से बचाया। श्री प्रेमवतीजी राजस्थान सिंहनी के नाम से प्रख्यात साध्वी थी, अहिंसा के क्षेत्र में इनका योगदान सराहनीय था। कोटा सम्प्रदाय की साध्वी श्री बड़ाकंवरजी घोर तपस्विनी थी, इनके अन्तिम 52 दिन के संथारे में रोज नाग के दर्शन होते रहे। प्रवर्तिनी श्री मानकंवरजी 45 शिष्या-प्रशिष्याओं की संयमदात्री थी। उपप्रवर्तिनी श्री सज्जनकंवरजी ने डूंगला ग्राम के बाहर नवरात्रि पर होने वाली सैंकड़ों पशुओं की बलि को अपनी ओजस्वी वाणी से बन्द करवाया था। प्रवर्तिनी प्रभाकंवरजी अनेक श्रमण-श्रमणियों की संयम प्रेरिका, तेजस्विनी, वर्चस्विनी, आगमज्ञा साध्वी हैं। आचार्य हुक्मीचंदजी महाराज की सम्प्रदाय में श्री रंगूजी विशिष्ट व्यक्तित्व की धनी साध्वी थी। आदर्श त्यागिनी श्री नानूकंवरजी चातुर्मास के 120 दिन में केवल 5-7 दिन आहार करती थी, उन्होंने दीक्षा से पूर्व अपने कुष्ठ रोग से मृत्यु प्राप्त पति की स्वयं अन्त्येष्टी क्रिया की थी। प्रवर्तिनी आनन्दकंवरजी इतनी करूणामूर्ति थी कि अपनी जान की 990 Page #1053 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपसंहार परवाह न कर जीवदया के अनेकों कार्य किये। घोर तपस्विनी श्री वरजूजी ने 82 दिन के उपवास कठोर कायक्लेश के साथ किये थे। श्री मोताजी तथा श्री नानूकंवरजी बृहद् श्रमणी संघ की जीवन निर्मानृ तथा आगम ज्ञान की गहन अध्येत्री थीं। श्री साकरकंवर जी श्री कमलावती जी अत्यन्त विदुषी ओजस्वी वक्ता थी। कृशकाया में अतुल आत्मबल की धनी श्री पानकंवरजी ने 42 दिन के संथारे में जिस प्रकार देहाध्यास का त्याग किया, वह धूलिया के इतिहास | अद्वितीय था। वर्तमान में डॉ. सुशीलजी, डॉ. चंदनाजी, डॉ. अक्षयज्योतिजी, डॉ. मधुबालाजी, श्री सत्यसाधनाजी श्री अर्चनाजी आदि जैनधर्म की यशस्विनी साध्वियाँ हैं। तेरापंथ धर्म संघ के श्रमणी संघ का इतिहास विक्रमी संवत् 1821 से प्रारम्भ हुआ, तब से लेकर अद्यतन पर्यन्त 1700 से अधिक श्रमणियाँ संयम पथ पर आरूढ़ होकर अपने तप त्याग के द्वारा जिन शासन की चहुंमुखी उन्नति में सर्वात्मना समर्पित हैं। आचार्य भिक्षुजी के समय श्री हीरांजी 'हीरे की कणी' के समान अनेक गुणों से अलंकृत प्रमुखा साध्वी थी। श्री वरजू जी, दीपांजी, मधुरवक्त्री, आत्मबली, नेतृत्त्व निपुणा प्रमुखा साध्वी थीं। श्री मलूकांजी ने आछ के आगार से छहमासी, चारमासी आदि उग्र तप एवं सात मासखमण आदि किये। साध्वी प्रमुखा सरदारांजी कठोर तपाराधिका थी। संघ संगठन व शासनोन्नति में इनका योगदान अपूर्व था। श्री हस्तूजी, श्री रम्भा जी, श्री जेतांजी, श्री झूमाजी, श्री जेठांजी आदि की तपस्याएँ इस भौतिक युग में चौंकाने वाली हैं। साध्वी प्रमुखा गुलांबाजी की स्मरण शक्ति और लिपिकला बेजोड़ थी। श्री मुखांजी अद्भुत क्षमता युक्त, आगमज्ञा साध्वी थीं। श्री धन्नाजी दीर्घ तपस्विनी थीं, इन्होंने अन्य तपाराधना के साथ लघु सिंहनिष्क्रीड़ित तप की चारों परिपाटी पूर्ण कर तप के क्षेत्र में एक अद्भुत कीर्तिमान कायम किया। श्री लाडांजी उच्च कोटि की तपोसाधिका थीं, इनके वर्चस्वी व्यक्तित्त्व से प्रभावित होकर अकेले डूंगरगढ़ से 36 बहनों और 5 भाइयों ने संयम अंगीकार किया। श्री मौलांजी, श्री सोनांजी, श्री कंकूजी, श्री भूरांजी, श्री चांदाजी, श्री अणचां जी, श्री प्यारां जी, श्री भूरा जी, श्री नोजांजी, श्री तनसुखा जी, श्री मुक्खांजी, श्री जड़ावांजी, श्री पन्नांजी, श्री भत्तूजी आदि ने विविध तपो अनुष्ठान कर अपनी आत्मशक्ति का परिचय दिया। श्री संतोकाजी बहुमुखी प्रतिभा सम्पन्न साध्वी थीं, ये शल्य चिकित्सा, लिपिकला, चित्रकला आदि में भी निपुण थीं। श्री मोहनांजी ने दूर-दूर के प्रान्तों में विचरण कर धर्म की महती प्रभावना की। तेरापंथ के नवम आचार्य श्री तुलसी जी का शासन तेरापंथ के इतिहास का स्वर्णकाल कहा जा सकता है। इस काल की साध्वियों ने प्रत्येक क्षेत्र में एक मिसाल कायम की है। समण श्रेणी द्वारा जो धर्म प्रभावना का व्यापक रूप दृष्टिगोचर होता है, वह भी इस युग की नई देन है। इस संघ में श्री गौरांजी जैसी संकल्पमना साध्वी जहाँ पाकिस्तान (लाहौर) से नेपाल तक और नागालैंड तक जैन धर्म का प्रचार करने में अग्रणी रहीं। वहीं कई धर्मोपकरणों का कलात्मक निर्माण और सैंकड़ों उद्बोधक चित्र भी इन्होंने बनाये। मातुश्री वदनांजी ने आचार्य तुलसी सहित तीन सन्तानों को तो संयम मार्ग प्रदान कर जैन शासन को अभूतपूर्व योग प्रदान किया ही, साथ ही स्वयं भी दीक्षित होकर तपोमयी जीवन बनाया। श्री चम्पा जी ने 77 दिन का संथारा कर संघ को गौरवान्वित किया। श्री मालू जी ने 20 वर्ष और श्री सोहनांजी ने 54 वर्ष एक चादर ग्रहण कर परम तितिक्षा भाव का परिचय दिया। श्री सूरजकंवरजी और श्री लिछमांजी सूक्ष्माक्षर व लिपिकला में दक्ष थी तो श्री कंचनकुंवर जी शल्य चिकित्सामें निपुण थी। श्री प्रमोदश्री जी, श्री सुमनकुमारी जी द्वारा भी कई कलात्मक कृतियाँ निर्मित हुई। श्री संघमित्रा जी, श्री राजिमती जी, श्री जतनकंवर जी, श्री कनकश्री जी, श्री यशोधरा जी, श्री स्वयंप्रभा जी आदि कई श्रमणियों ने चिंतन प्रधान उत्तम कोटि का साहित्य जनजीवन को प्रदान किया। महाश्रमणी एवं संघ महानिदेशिका साध्वी प्रमुखा श्री कनकप्रभा जी की अजस्र ज्ञान गंगा से लगभग 115 पुस्तकों का लेखन व सम्पादन हुआ है, जो अपने आप में अनूठा कार्य है। जयश्री जी आदि कई श्रमणियों की उत्कृष्ट काव्य कला की विद्वज्जनों ने मुक्त कंठ से प्रशंसा की है। अमितप्रभा जी आदि कई साध्वियाँ शतावधानी हैं। श्री लावण्यप्रभा जी उज्ज्वलप्रभा जी, सरलयशा जी, सौभाग्ययशाजी आदि कई श्रमणियों ने शिक्षा के 991 991 Page #1054 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन श्रमणियों का बृहद इतिहास अत्युच्च शिखर को छुआ है। समणी साधिकाओं में श्री स्थितप्रज्ञा जी, कुसुमप्रज्ञा जी, उज्ज्वलप्रज्ञा जी, अक्षयप्रज्ञाजी आदि विदुषी चिन्तनशील समणियाँ हैं, जो उच्चकोटि का साहित्य सृजन कर समाज को नई दिशा प्रदान कर रही हैं तथा सुदूर देश विदेशों में जाकर ध्यान, योग, जीवन विज्ञान आदि का प्रशिक्षण दे रही हैं। __ वस्तुतः जैन धर्म में श्रमणियों के योगदानों की एक लम्बी सूची है, जिन्होंने समाज को नया विचार, नया चिन्तन और नई वाणी दी एवं प्रसुप्त समाज को प्रबुद्ध बनाया। जैन श्रमणियाँ दिव्य साधना की मुँह बोलती तस्वीरें हैं, ये प्रत्येक काल, प्रत्येक क्षेत्र और प्रत्येक सम्प्रदाय में व्यापक रूप से दृष्टिगोचर होती हैं। शोध मर्यादा और सीमा होने से हम उनकी विस्तृत चर्चा नहीं कर पाये। इनमें कितनी ही श्रमणियों ने अहिंसक और व्यसनमुक्त समाज की संरचना में सहयोग दिया तो कितनी ही श्रमणियों ने धार्मिक व आध्यात्मिक उत्कष्ट तपोमय जीवन के साथ आगम स्वाध्याय, ध्यान साधना, तप-जप संलेखना आदि करते हुए आत्मोन्नति का मार्ग प्रशस्त किया। कितनी ही महाविदुषी श्रमणियों ने चिन्तन प्रधान, उच्चस्तरीय ग्रंथों की रचना की, कइयों ने काव्य क्षेत्र में सुन्दर आध्यात्मिक गीत प्रस्तुत किये, जिनमें काव्य जगत की सभी शैलियों और प्रवृत्तियों को खोजा जा सकता है । कइयों ने स्कूल, कॉलेज, धार्मिक पाठशालाएँ, धर्म स्थान व प्राचीन मन्दिरों के जीर्णोद्धार आदि में अपनी महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई, कइयों ने जन कल्याण और मानव सेवा जैसे रचनात्मक कार्य करके धर्म व समाज के ने आगम वाणी व प्राचीन ग्रंथों की सुरक्षा हेतु प्रतिलिपिकरण का कार्य किया। वीतराग संस्कृति को अक्षुण्ण रखने के लिए अनेक श्रमणियों ने मिथ्यात्व पोषक परम्पराओं एवं शिथिलाचार के विरूद्ध क्रियोद्धार कर स्वस्थ परम्परा का निर्माण किया। ये सभी वे महत्त्वपूर्ण पहलू हैं, जिन पर पृथक्-पृथक् रूप से शोध की आवश्यकता है। श्रमणियों का योगदान प्रत्येक क्षेत्र में अनूठा है, अनुपम है, विशिष्ट है। उनमें ऐतिहासिक शोध की पर्याप्त सामग्री है। श्रमणियाँ एक प्रज्वलित ज्योति हैं, उनमें प्रज्ञा का प्रकाश भी है और आचार की उष्मा भी है। उनका जीवन ज्ञान और क्रिया, बुद्धि और विवेक, प्रज्ञा और प्रक्रिया का समन्वित रूप है। इन्द्रधनुष से भी अधिक वे जिनशासन रूपी गगन में शोभा को प्राप्त हुई हैं, उनका व्यक्तित्त्व अलौकिक आभा से मंडित रहा है। इतना होने पर भी आज के युग में श्रमणियों को लेकर समाज के समक्ष कुछ ऐसे प्रश्न हैं, जो अनुत्तरित हैं और अब समाधान चाहते हैं कि योग्य, गुणी और ज्ञानवान चिरदीक्षिता साध्वी भी एक सामान्य नवदीक्षित साधु से निम्न स्थानीय क्यों मानी जाती हैं ? चतुर्विध संघ उसे संघनायिका की गरिमा क्यों नहीं प्रदान करता ? लोक व्यवहार में जब वह माता, ज्येष्ठ भगिनी आदि के रूप में पूज्यनीय बन सकती है, तो दीक्षा के पश्चात् लघु साधुओं द्वारा वंदनीय और पूज्यनीय क्यों नहीं रहती ? आज का श्रमण वर्ग जब प्राचीन महासतियों का गुणानुवाद और स्तुति, वंदन इत्यादि कर सकता है तो अपने से पूर्व दीक्षिता साध्वी माता, साध्वी गुरूणी या स्थविरा साध्वी को नमन क्यों नहीं कर सकता, क्यों उसे बैठने, बोलने या आवास-निवास, विचार-गोष्ठी आदि में उच्च अथवा समान दर्जा नहीं दिया जाता? वस्तुतः इन वैदिक या बौद्ध संस्कृति के प्रभाव से ग्रस्त परम्पराओं के पुनर्मूल्यांकन की आज आवश्यकता है। श्रमण वर्ग को चाहिये कि वे अपने अहं का विसर्जन कर महावीर के समतावादी सिद्धान्तों की पुनर्स्थापना करने का साहसिक कदम उठाये। यथार्थ की दहलीज पर खड़े होकर श्रमणियों के साथ समता और सहानुभूतिपूर्ण व्यवहार करें, उनकी प्रतिभा और क्षमता के अनुसार उनके अधिकारों को देने का साहस करें। सभी जैन परम्पराओं के चतुर्विध संघ इस धर्म विपरीत, लोक विपरीत आचरण पर प्रतिबन्ध लगाकर जैन धर्म की सात्विकता और गरिमा को बनाये रखने में अपना सहयोग दें। इस शोध प्रबन्ध का एक महत्त्वपूर्ण उद्देश्य यह भी है और श्रमणियों का गरिमापूर्ण इतिहास इस क्रान्तिकारी परिवर्तन की अपेक्षा भी रखता है। 992|| Page #1055 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आभार प्रदर्शन बार-बार धन्यवाद है, जिसने किया सहयोग। उनके सबल प्रयास से, निर्मित नवीन प्रयोग ।। • स्व. श्रीमती राजीबाई धर्मपत्नी स्व. श्री हगामीलालजी नाहर की पुण्य स्मृति में उनके सुपुत्र श्रीमान शांतिलाल जी, मिश्री लाल जी नाहर, संरक्षक श्री वर्धमान स्थानकवासी जैन श्रावक संघ, अहमदाबाद भावनगर (गुजरात) • श्रीमान् प्रकाशचंद जी बाफना, भू.पू. युवा अध्यक्ष कान्फ्रेन्स कर्नाटक शाखा, बैंगलोर • श्रीमान् चैनसुखदास जी जैन लोहेवाले ट्रस्टी श्री प्रतापचंद जैन धर्मशाला, आगरा श्रीमान बालकृष्णजी जैन, प्रधान एस. एस. जैन सभा, भावनगर, (गुजरात) • श्रीमान अशोक कुमार जी समदरिया, बैंगलोर (कर्नाटक) • श्रीमान स्व. सुरेशचंद एवं धर्मपत्नी श्रीमती सरलादेवी जी की स्मृति में श्री प्रमोद कुमार एवं परिवार, भावनगर (गु) • लोकेश ज्वैलर्स, मुम्बई • श्रीमती रतनदेवी जी धर्मपत्नी स्व. श्रीमान आनंदीलाल जी मेहता, उदयपुर (राज.) डॉ. श्रमणी विजयश्रीजी के मातुश्री • श्रीमती त्रिशलादेवी धर्मपत्नी श्री भंवरलाल जी श्रीश्रीमाल, दुर्ग (छ.ग.) • महासती प्रियदर्शनाश्रीजी की प्रेरणा से एस. एस. जैन सभा, साजा (दुर्ग) • श्रीमान चम्पालाल जी मकाणा, बैंगलोर (कर्नाटक) • श्री वीरेन्द्र कुमार जी जैन, नवीन शाहदरा, दिल्ली (तिजारे वाले) • श्रीमान शांतिलाल जी सांड, धूलिया (महा.) • स्व. श्रीमती रामप्यारी जैन धर्मपत्नी स्व. श्री शादीलालजी जैन की स्मृति में श्री सतपाल जैन "जिनसुत" लुधियाना (पंजाब) Page #1056 -------------------------------------------------------------------------- ________________ • श्रीमती नीतू धर्मपत्नी श्री वीरेन्द्र कुमार जी जैन, फैशन कैंप सिरसा (हरियाणा) • श्रीमती स्नेह कुमारी जी, जम्मूतवी • श्रीमान श्रीपाल जी जैन प्रधान एस. एस. जैन सभा गांधीनगर जम्मूतवी • श्रीमान नेमीचंद जी नागोरी, ट्रिप्लीकेन मद्रास • एस. एस. जैन सभा जम्मू प्रधान श्री राजकुमार जी जैन • श्रीमती शीलारानी धर्मपत्नी श्री सुमेरचंद जी जैन, दिल्ली, चांदीवाले • श्रीमती चन्द्रमोहिनी जैन, मालेरकोटला • स्व. श्रीमती सेवावंती जी की स्मृति में श्री विनोदकुमार जी जैन, जम्मूतवी • श्रीमती नीलम जैन, होशियारपुर लिरी प्रिंटिंग प्रेस वाले श्री पुरुषोत्तम जी जैन श्री रवीन्द्र जैन 'युगलबंधु' मालेरकोटला • श्री पुष्प जैन सुपुत्र श्री राममूर्ति जैन मालेरकोटला • श्रीमती चन्दनबाला रामेश्वरकुमार सिंगला, मालेरकोटला • श्रीमती नीलम जैन, फरीदकोट, किसान ब्रदर्स वाले • श्रीमान सोहनलालजी जैन, सर्दूलगढ़ (पंजाब) • श्रीमान जवाहरलाल जैन पाटनी, जैन ऑइल फ्लोर मिल, रायकोट • श्रीमान मदनलाल जी जैन, जैन रेडियो कं. जम्मू तवी • श्री सुरेन्द्रकुमार जी जैन, ठेकेदार मालेरकोटला • श्री शांतिकुमार शीतल जैन, मालेरकोटला • श्री चिरंजीलाल जी राकेश कुमार जी जैन, मालेरकोटला • श्रीमती त्रिशलावंती धर्मपत्नी श्री जोगेन्द्र पाल जी जैन बाबेल मालेरकोटला • श्रीमान् मदनलाल जी लक्की कुमार 'लोहिये' मालेरकोटला • श्रीमान अनिल कुमार जी जैन महावीर मेडीकोज़ मोगा (पंजाब) जैन श्रमणियों का बृहद् इतिहास • श्रीमान किशन लाल जी, चम्पा लाल जी मकाणा डोड बालापुर (बैंगलोर), मै. जैन ज्वैलर्स • श्रीमान भंवर लाल जी, विकास कुमार जी भंडार, डोड बालापुर (बैंगलोर) • श्रीमान सतीश कुमार जी, पूर्व प्रधान फरीदकोट 994 Page #1057 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संदर्भ ग्रंथ-सूची 1. अंगसुत्ताणि : भाग 1, 2, वाचना प्रमुख-आचार्य तुलसी, जैन विश्व भारती लाडनूं, ई. 1992 (द्वि. सं) 2. अंगुत्तरनिकाय पालि : भाग 1-3, संपादक-भिक्खु जगदीस कस्सप, नालन्दा देवनागरी पालि ग्रंथमाला, ई. 1960 3. अंचलगच्छ दिग्दर्शन : प्रायोजक-पार्श्व, अंचलगच्छ जैन समाज, मुलुण्ड, मुंबई-80, ई. 1968 4. अचलगच्छ का इतिहास : लेखक--डॉ. शिवप्रसाद, पार्श्वनाथ विद्यापीठ वाराणसी, ई. 2001 5. अजरामर विरासत : श्री स्थानकवासी जैन लीबड़ी अजरामर संप्रदाय, लींबड़ी, ई. 2003 6. अध्यात्मयोगिनी महाश्रमणी : लेखिका-साध्वी विजयश्री 'आर्या', पार्श्व ऑफसेट प्रेस, दिल्ली, ई. 1994 7. अध्यात्म साधिका सुंदरी : सम्पादिका-साध्वी सुषमा एवं साध्वी संगीता, एफ. 100, प्रशान्त विहार, दिल्ली, ई. 2003 8. अन्तकृदशांग सूत्रः सम्पादक-युवाचार्य मधुकरमुनि, आगम प्रकाशन समिति, ब्यावर (राज.) ई. 1981 (प्र.सं.) 9. अनुसंधान 32 : सम्पादक-विजयशीलचन्द्र सूरि, कलिकाल सर्वज्ञ श्री हेमचन्द्राचार्य नवम जन्म शताब्दी स्मृति संस्कार शिक्षण निधि, अहमदाबाद, ई. 2005 10. अ. भा. श्वे. स्था. जैन कान्फ्रेंस का स्वर्णजयंती ग्रंथ : सम्पादक-श्री भीखालाल गिरधरलाल शेठ, धीरजलाल के. तुरखिया, जैन भवन 12 भगतसिंह मार्ग, नई दिल्ली, ई. 1956 11. अभिधान चिन्तामणि : व्याख्या-पं. श्री हरगोबिन्द शास्त्री, चौखम्बा संस्कृत सीरिज, वाराणसी, ई. 1994 (द्वि. सं.) 12. अभिधान राजेन्द्र कोषः श्री विजय राजेन्द्रसूरि, श्री राजेन्द्र सूरि जैन ज्ञान मन्दिर, रतनपोल, अहमदाबाद, ई. 1986 (द्वि. सं.) 13. अर्चनार्चन : प्रमुख सम्पादिका-आर्या सुप्रभा 'सुधा', ब्रज मधुकर स्मृति भवन, पीपलिया बाजार, ब्यावर, ई. 1988 Page #1058 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन श्रमणियों का बृहद इतिहास 14. अष्टपाहुड : आचार्य कुंदकुंद, परमश्रुत प्रभावक मंडल, अगास, ई. 1969 15. अष्टाध्यायी : महर्षि पाणिनी प्रणीत, हिन्दी व्याख्या - डा. रामरंग. शर्मा, भारतीय विद्या प्रकाशन, दिल्ली , ई. 1999 16. आगम और त्रिपिटक एक अनुशीलन : खंड 1 और 3, लेखक-मुनि श्री नगराजजी, डी. लिट्, कॉन्सेप्ट पब्लिशिंग कम्पनी, एच-13, बालीनगर, नई दिल्ली - 15 (द्वि सं. 1987) 17. आगम शब्द कोष : वाचना प्रमुख-आचार्य तुलसी, जैन विश्व भारती, लाडनूं (राजस्थान) ई. 1980 18. अमृत समीपे : रतिलाल दीपचंद देसाई, अमरभाई ठाकोरलाल शाह गुर्जर ग्रंथ रत्न कार्यालय गांधी मार्ग, अहमदाबाद, ई. 2003 19. आचार्य आदिसागर अभिनन्दन ग्रन्थ : प्रमुख सम्पादक-महेन्द्र कुमार जैन बड़जात्या, दि. जैन विजयाग्रंथ प्रकाशन समिति, ई. 1993 20. आचार्य आनंदऋषि अभिनंदन ग्रंथ : प्रमुख सम्पादक-श्रीचंद सुराना 'सरस, स्थानकवासी जैन संघ, नानापेठ पूना, ई. 1975 21. आचार्य भिक्षु धर्म परिवार : भाग 2, लेखक-श्रीचंद रामपुरिया, जैन विश्व भारती लाडनूं, ई. 1981 (प्र. सं.) 22. आचार्य भिक्षु स्मृति ग्रन्थः आचार्य तुलसी गणि, जैन विश्व भारती लाडनूं, ई. 1960 23. आचार्य विजयवल्लभ सूरि स्मारक ग्रंथः सम्पादक-डॉ. भोगीलाल जे. सांडेसरा एवं मण्डल, महावीरजैन विद्यालय गोवालिया टैंक रोड़ बम्बई, ई. 1956 24. आचारांग टीका : शीलांकाचार्यकृत, सिद्धचक्र साहित्य प्रचारक समिति सूरत, ई. 1935 25. आचारांग सूत्र : भाग 1, 2, सम्पादक-युवाचार्य श्री मधुकर मुनि, आगम प्रकाशन समिति, पीपलिया बाजार, ब्यावर ई. 1980 (प्र. सं.) 26. आचारांग सूत्र एक आलोचनात्मक अध्ययन : लेखिका-डॉ. साध्वी सुनीता, बहादुरगढ़, ई. 2004 27. आदर्श प्रवर्तिनी : लेखक-श्री ऋषभचंद डागा, ममोल जैन ग्रंथमाला, ई. 1951 28. आदिपुराण : जिनसेनकृत, सम्पादक - पन्नालाल जैन, भारतीय ज्ञानपीठ नई दिल्ली, ई. 1985 29. आर्यिका इन्दुमती अभिनंदन ग्रंथ : संपादिका - गणिनी विजयमती माताजी, कलकत्ता, ई. 1983 30. आर्यिका रत्नमती अभिनंदन ग्रंथ : सम्पादक-डॉ. पन्नालाल जैन, अ. भा. दिगंबर जैन महासभा, डोभापुर, ई. 1983 31. आवश्यकचूर्णि : भाग 1, जिनदासगणि महत्तरकृत, श्री ऋषभदेवजी केशरीमलजी, श्वेताम्बर संस्थान रतलाम, ई. 1941 Page #1059 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संदर्भ ग्रंथ-सूची 32. आवश्यक नियुक्ति : (हरिभद्रीयवृत्ति) भाग 1-2, बी. के. कोठारी धार्मिक ट्रस्ट बालकेश्वर, मुंबई, वि. सं. 2038 33. आवश्यक-वृत्ति : मलयगिरिकृत, आगमोदय समिति बम्बई, ई. 1928 34. इन्दु नी तेजल ज्योति : लेखिका-ज्योतिबाई महासतीजी, एम. डी. मेहता, श्री स्थानकवासी जैन संघ, सान्ताक्रूझ (वेस्ट) मुंबई, ई. 1984 35. इन्साइक्लोपीडिया ऑफ वर्ल्ड वुमेन : वाल्यूम 2, एस. एस. संदीप प्रकाशन दिल्ली, ई. 1989 36. उत्तरपुराण : आचार्य जिनसेनकृत, भारतीय ज्ञानपीठ नई दिल्ली, ई. 1985 37. उत्तरभारत में जैनधर्म : लेखक- चिमनलाल जैचंदशाह, सेवा मंदिर रावटी जोधपुर (राजस्थान) ई. 1990 38. उपाध्याय पुष्करमुनि स्मृति ग्रन्थ : सम्पादक-आचार्य देवेन्द्रमुनिजी, तारक गुरू ग्रंथालय, उदयपुर (राजस्थान) ई. 1994 39. उत्तराध्ययन : नेमिचन्द्र वृत्ति, संयोजक - पद्मसेन विजयजी महाराज, दिव्य दर्शन ट्रस्ट 68 गुलाबवाड़ी बम्बई-4, ई. 1937 40. उत्तराध्ययन बृहवृत्ति : शांतिसूरिकृत, देवचंद्र लालभाई जैन पुस्तकोद्धार बम्बई, ई. 1916-17 41. उपकेशगच्छ का संक्षिप्त इतिहास : लेखक- डॉ. शिवप्रसाद, पार्श्वनाथ विद्यापीठ वाराणसी, ई. 1991 42. उपनिषद् : भाग प्रथम, हिंदी अनुवाद-पं. शंकरलाल कौशल्य, वेदान्त केसरी कार्यालय बेलनगंज आगरा ई. 1988 43. ऋग्वेद संहिता : आर्य साहित्य मंडल लिमिटेड अजमेर (राजस्थान) ई. 1952 44. ऋषभदेव एक परिशीलन : लेखक- देवेन्द्रमुनि शास्त्री, सन्मति ज्ञानपीठ लोहामंडी आगरा, ई. 1967 (प्र. सं.) 45. ऋषि सम्प्रदाय का इतिहास : लेखक-मोतीऋषिजी महाराज, श्री रत्न जैन पुस्तकालय पाथर्डी (महा.) ई. 1956 (प्र. सं.) 46. ऐतिहासिक काल के तीन तीर्थकर : आचार्य हस्तीमलजी म. सा., सम्यग्ज्ञान प्रचारक मंडलजोधपुर 47. ऐतिहासिक जैन काव्य संग्रह : सम्पादक-अगरचंद नाहटा, अभय जैन ग्रंथालय बीकानेर 48. ऐतिहासिक लेख संग्रह : सम्पादक- पं. लालचंद भगवानदास गाँधी, प्राच्य विद्या मंदिर, महाराजा सयाजीराव युनिवर्सिटी बड़ोदरा (गु.) ई. 1963 49. कन्नड़ प्रान्तीय ताड़ग्रंथ सूची : के. भुजबल शास्त्री, भारतीय ज्ञानपीठ काशी, ई. 1948 (प्र. सं.) 50. कुसुम अभिनंदन ग्रंथ : सम्पादक- साध्वी डॉ. दिव्यप्रभा, श्री तारक गुरू ग्रंथालय उदयपुर, ई. 1990 997 Page #1060 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन श्रमणियों का बृहद इतिहास 51. कुसुम किरण : सम्पादिका-प्रज्ञाबाई महासतीजी, मलाड (वेस्ट) मुबई-64, ई. 2001 52. खंडेलवाल जैन समाज का बृहद् इतिहास : लेखक- डॉ. के. कासलीवाल, जैन इतिहास प्रकाशन संस्थान जयपुर, ई. 1989 (प्र. सं) 53. खरतरगच्छ का इतिहासः खण्ड प्रथम, सम्पादक- महोपाध्याय विनयसागर, जिनदत्तसूरि समिति, अजमेर, ई. 1956 54. खरतरगच्छ दीक्षा नंदी सूची : सम्पादक- श्री भंवरलाल नाहटा, महो. विनयसागर, प्राकृत भारती अकादमी जयपुर-3, ई. 1990 55. खरतरगच्छ पट्टावली संग्रह : भाग 2 सम्पादक- श्री जिनविजयजी, इंडियन मिरर स्ट्रीट न. 48, कलकत्ता, ई. 1932 56. खरतरगच्छ बृहद्, गुर्वावलि : सम्पादक- श्री जिनविजयजी, सिंधी जैन शास्त्र शिक्षापीठ, भारतीय विद्या भवन मुंबई, ई. 1956 57. गच्छाचार पयन्ना : पूर्वाचार्यकृत, श्री भूपेन्द्रसूरि जैन साहित्य समिति आहौर ई. 1945 58. गणिनी आर्यिका रत्न श्री ज्ञानमती अभिनंदन ग्रंथ : प्रधान सम्पादक- श्री रवीन्द्रकुमार जैन, दिगंबर जैन त्रिलोक शोध संस्थान हस्तिनापुर, ई. 1992 59. गोंडल गच्छ दर्शन : श्री गिरधरलाल सवचंद दोशी, इन्दौर, ई. 1988 60. चंद्रज्योति : सम्पादिका-श्री महेन्द्राजी महाराज, श्री जैन शास्त्रमाला कार्यालय लुधियाना, वि. सं. 2011 61. चुल्लवग्ग पालि : नालन्दा देवनागरी पालि ग्रन्थमाला बिहार, ई. 1956 62. जंबूद्वीपपण्णत्ति सूत्र : सम्पादक- युवाचार्य मधुकरमुनि, आगम प्रकाशन समिति, ब्यावर 63. जयवाणी : श्री जयमलजी महाराज, सन्मति ज्ञानपीठ आगरा, वि. सं. 2016 64. जिनमूर्ति प्रशस्ति लेख : सम्पादक- कमलकुमार जैन, दि. जैन बड़ा मंदिर छतरपुर (मध्यप्रदेश) ई. 1982 65. जिनशासन नां श्रमणीरत्नो : नंदलाल देवलुक्, अरिहंत प्रकाशन, भावनगर, ई. 1994 66. जीवाभिगम सूत्र : सम्पादक- युवाचार्य मधुकर मुनि, आगम प्रकाशन समिति, ब्यावर 67. जैन आगम में नारी : लेखिका- डॉ. कोमल जैन, पद्मजा प्रकाशन, गुडलक स्टोर्स देवास (म. प्र.) ई. 1986 68. जैन आगम साहित्य में भारतीय समाज : लेखक-डॉ. जगदीशचन्द्र जैन, चौखम्बा विद्या भवन वाराणसी, ई. 1965 (प्र. सं.) 69. जैन इन्स्क्रीप्शन्स इन तमिलनाडू : सम्पादक-डॉ. एकंबरनाथन एवं डॉ. सी. के. शिवप्रकाशम्, रिसर्च फाउण्डेशन फोर जैनोलोजी, मद्रास, 1987 (प्र. सं.) 998 Page #1061 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संदर्भ ग्रंथ-सूची 70. जैन ऐतिहासिक गुर्जर काव्य संचय : सम्पादक-अगरचंद भंवरलाल नाहटा, 5-6 आरमेनियन स्ट्रीट, कलकत्ता, वि. सं. 1994 71. जैन और बौद्ध भिक्षुणी संघ : एक तुलनात्मक अध्ययन : लेखक-डॉ. अरूणप्रतापसिंह, पार्श्वनाथ विद्यापीठ वाराणसी, ई. 1986 72. जैन कथामाला : भाग-14, लेखक- युवाचार्य श्री मधुकरमुनि, हजारीमल स्मृति प्रकाशन ब्यावर, ई. 1979 73. जैन कथायें : भाग 1 से 111, लेखक- उपाध्याय पुष्करमुनिजी महाराज, तारक गुरू ग्रंथालय, उदयपुर (राजस्थान) ई. 1977-78 74. जैन कथा संग्रह : लेखिका-श्री हीराश्रीजी, लोहावट (राजस्थान) वि. सं. 2003 75. जैन कला तीर्थ देवगढ़ : लेखक-प्रो. मारूतीनन्दनप्रसाद तिवारी, डॉ. शान्तिस्वरूप सिन्हा, श्री देवगढ़ मैंनेजिंग दिगम्बर जैन कमेटी, ललितपुर (उत्तरप्रदेश) ई. 2002 (प्र. सं.) 76. जैन ग्रन्थ प्रशस्ति संग्रह : भाग 1, संग्राहक-जुगल किशोर मुख्तार, वीर सेवा मन्दिर दरियागंज दिल्ली, ई. 1954 77. जैन गुर्जर कविओ : भाग 1 से 5, मोहनलाल दलीचंद देसाई, श्री महावीर जैन विद्यालय मुंबई, ई. 1986-88 (द्वि. सं.) 78. जैन चित्रकल्पद्रुम : साराभाई मणिलाल नवाब, अहमदाबाद, ई. 1936 79. जैन तीर्थों का ऐतिहासिक अध्ययन : डॉ. शिवप्रसाद, पार्श्वनाथ विद्यापीठ वाराणसी 80. जैनधर्म का मौलिक इतिहास : भाग 1-4, आचार्य श्री हस्तीमल जी महाराज, सम्यग्ज्ञान प्रचारक मंडल जयपुर, ई. 1971 (प्र. सं.) 2002 (ष. सं.) 81. जैनधर्म का यापनीय सम्प्रदाय : लेखक-डॉ. सागरमल जैन, पार्श्वनाथ विद्यापीठ वाराणसी, ई. 1996 (प्र. सं.) 82. जैनधर्म की प्रमुख साध्वियाँ एवं महिलाएँ : डॉ. हीराबाई बोरदिया, पार्श्वनाथ विद्यापीठ वाराणसी, ई. 1991 83. जैनधर्म दर्शन : डॉ. मोहनलाल मेहता, पार्श्वनाथ विद्याश्रम, वाराणसी, ई. 1966 (प्र. सं.) 84. जैन प्रतिमा विज्ञान : डॉ. मारूतीनन्दन तिवारी, पार्श्वनाथ विद्यापीठ वाराणसी, ई. 1981 85. जैन पुराण कोष : सम्पादक- प्रो. प्रवीणचंद्र जैन एवं डॉ. दरबारी लाल कोठिया, जैन विद्या संस्थान दिगंबर जैन अतिशय क्षेत्र श्री महावीरजी, ई. 1993 (प्र.सं.) 86. जैन बिबलियोग्राफी : डॉ. ए. एन. उपाध्ये, वीर सेवा मंदिर दरियागंज, नई दिल्ली, ई. 1982 87. जैन व्रत कथा संग्रह : संग्राहक-श्री मोहनलाल शास्त्री, श्री वर्णी साहित्य सदन, ज्ञानोदय नगर नारेली 999 Page #1062 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन श्रमणियों का बृहद इतिहास 88. जैन लिटरचेर इन तमिलनाडु : ए. चक्रवर्ती व के. वी. रमेश, भारतीय ज्ञानपीठ नई दिल्ली, ई. 1974 89. जैन लेख संग्रह : भाग 1-3, बाबू पूरणचन्द्र नाहर, जैन विविध साहित्य शास्त्रमाला, कलकत्ता, ई. 1918 90. जैन शिलालेख संग्रह : भाग 1-2, संग्राहक - हीरालाल जैन, माणिकचंद्र दिगम्बर जैन ग्रन्थमाला मुंबई, ई. 1928 91. जैन शिलालेख संग्रह : भाग 3, संग्राहक - पं. विजयमूर्ति, माणिकचंद्र दिगम्बर जैन ग्रन्थमाला मुंबई, ई. 1956 92. जैन शिलालेख संग्रह : भाग 4, सम्पादक - डॉ. विद्याधर जोहरापुरकर, भारतीय ज्ञानपीठ काशी, ई. 1971 93. जैन शिलालेख संग्रह : भाग 5, सम्पादक- डॉ. विद्याधर जोहरापुरकर, भारतीय ज्ञानपीठ दिल्ली, ई. 1971 94. जैन संस्कृत साहित्य नो इतिहास : भाग 1, 2, 3, हीरालाल रसिक भाई, कापड़िया, मुक्ति कमल जैन मोहनमाला बड़ोदरा, ई. 1968 95. जैन साहित्य का बृहद् इतिहास : भाग 1, पं. बेचरदास दोशी, पार्श्वनाथ विद्याश्रम शोध संस्थान वाराणसी, ई. 1989 (द्वि. सं.) 96. जैन साहित्य का बृहद् इतिहास : भाग 2, डॉ. जगदीशचंद्र जैन व डॉ. मोहनलाल मेहता, पा. वि., वाराणसी, ई. 1989 (द्वि. सं.) 97. जैन साहित्य का बृहद इतिहास : भाग 3, डॉ. मोहनलाल मेहता, पा. वि. वाराणसी, ई. 1989 (द्वि.सं.) 98. जैन साहित्य का बृहद् इतिहास : भाग 4, डॉ. मोहनलाल मेहता व प्रो. हीरालाल र. कापडिया, पा. वि. वाराणसी, ई. 1991 (द्वि. सं.) 99. जैन साहित्य का बृहद् इतिहास : भाग 5, पं. अम्बालाल पी. शाह, पा. वि. वाराणसी, ई. 1969 (प्र. सं.) 100. जैन साहित्य का बृहद् इतिहास : भाग 6, डॉ. गुलाबचन्द्र चौधरी, पा. वि. वाराणसी, ई. 1973 (प्र. सं.) 101. जैन साहित्य का बृहद् इतिहास : भाग 7, पं. के. भुजबल शास्त्री, पा. वि. वाराणसी, ई. 1997 (द्वि. सं.) 102. जैन साहित्य का इतिहास : पूर्व पीठिका, लेखक - पं. कैलाशचन्द्र शास्त्री, श्री गणेशवर्णी, दिगंबर जैन संस्थान नरिया वाराणसी, ई. 1996 (द्वि. सं.) 103, जैन सिद्धान्त बोल संग्रह : भाग 5, अगरचंद भंवरलाल सेठिया, सेठिया जैन पारमार्थिक संस्था बीकानेर, ई. 1950 (द्वि. सं.) 1000 Page #1063 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संदर्भ ग्रंथ सूची 104. जैनिज्म इन अर्ली मिडिवल कर्नाटका : रामभूषण प्रसाद सिंह, मोतीलाल बनारसीदास दिल्ली, 1975 (प्र. सं.) 105. जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश : भाग 2, क्षु. जिनेन्द्रवर्णी, भारतीय ज्ञानपीठ काशी, ई. 1970 106. जैसलमेर के प्राचीन जैन ग्रंथ भंडारों की सूची : सम्पादक- जंबूविजयजी, जैसलमेर लोद्रवपुर पार्श्वनाथ जैन श्वे. ट्रस्ट, जैसलमेर (राजस्थान ) ई. 2000 107. ज्ञाताधर्मकथासूत्र : सम्पादक - युवाचार्य मधुकरमुनि, आगम प्रकाशन समिति ब्यावर, ई. 1981 (प्र. सं.) 108. तपागच्छ का इतिहास भाग 1, लेखक - डॉ. शिवप्रसाद, पार्श्वनाथ विद्यापीठ वाराणसी, ई. 2000 109. तपागच्छ पट्टावली : भाग 1, पं. कल्याणविजयजी, विजय नीतिसूरीश्वरजी जैन लायब्रेरी अहमदाबाद, ई. 1940 110. तारक नां तेज किरणो : लेखिका-प्रीति शाह, श्रीमती पद्माबेन धनकुमार, 5 जैननगर पालड़ी, अहमदाबाद, ई. 1981 111. तिलोयपण्णत्ति ( यतिवृषभकृत) : सम्पादक- आदिनाथ उपाध्ये तथा हीरालाल जैन, जीवराज जैन ग्रन्थमाला 1, शोलापुर, ई. 1943 112. तिलोयपण्णत्ति हिन्दी टीका : आर्यिका विशुद्धमतीजी, दिगम्बर जैन अतिशय क्षेत्र तिजारा, ई. 1997 (तृ. सं.) 113. तीर्थकर चरित्र : भाग 1-3, श्री रतनलाल डोसी, अ. भा. साधुमार्गी जैन संस्कृति रक्षक संघ, सैलाना (राजस्थान ) ई. 1988 114. तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्य परम्परा : (भाग 1) लेखक - डॉ. नेमिचन्द्र शास्त्री, भारतवर्षीय दिगम्बर जैन विद्वत् परिषद् सागर, ई. 1974 115. तीर्थ दर्शन : ( प्रथम खंड ) श्री जैन प्रार्थना मंदिर ट्रस्ट, चेन्नई, ई. 1980 (प्र. सं.) 116. त्रिलोकसार ( नेमिचन्द्रकृत ) : सम्पादक- पं. मनोहरलाल शास्त्री, हिन्दी जैन साहित्य प्रसारक कार्यालय बम्बई, ई. 1918 117. त्रिषष्टि शलाका पुरूष चरित्र ( आचार्य हेमचंद्र ) : अनुवाद - हेलेन एम. जोन्सन बड़ौदा, ई. 1931 118. त्रीणि छेदसूत्राणि: सम्पादक- युवाचार्य श्री मधुकर मुनि श्री आगम प्रकाशन समिति, ब्यावर ई. 1992 (प्र. सं.) 119. तेरापंथ इतिहास और दर्शन: साध्वी प्रमुखा कनकप्रभा, जैन विश्व भारती लाडनूं, ई. 1995 (प्र.सं) 120. तेरापंथ परिचायिका : जैन श्वे. तेरापंथी महासभा कोलकाता (पश्चिम बंगाल), ई. 2003 121. दर्द का रिश्ता : सम्पादिका - आर्या कृतिनंदिताश्री, भेरूबाग पार्श्वनाथ जैन तीर्थ जोधपुर, वि. सं. 2050 1001 Page #1064 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन श्रमणियों का बृहद इतिहास 122. दशवैकालिक ( शय्यंभवकृत) : सम्पादक- मधुकर मुनि, आगम प्रकाशन समिति ब्यावर, ई. 1985 123. दशवैकालिक नियुक्ति : भद्रबाहु द्वितीयकृत, जैन पुस्तकोद्धार भंडार बम्बई, ई. 1918 124. दशवैकालिक हरिभद्रीय वृत्ति जैन पुस्तकोद्धार फंड बम्बई, 1918 125. दर्शन पाहुड़ : अष्टपाहुड़ के अन्तर्गत 126. दशाश्रुतस्कन्ध निर्युक्तिः एक अध्ययन : डॉ. अशोककुमार सिंह, पार्श्वनाथ विद्यापीठ वाराणसी, ई. 1998 ई. 1967 127. दक्षिण भारत में जैनधर्म : लेखक- पं. कैलाशचन्द्र शास्त्री, भारतीय ज्ञानपीठ कलकत्ता, 128. दि अन्नोन पिलग्रिम्स : लेखिका - एन. शांता, प्राप्तिस्थल - ऑरिएंटल एंड इण्डोलॉजिकल पब्लिशर्स, शक्तिनगर, दिल्ली 7, ई. 1991 (प्र. सं.) 129. दिगम्बर जैन साधु परिचय : सम्पादक- पंडित धर्मचंदजी, आचार्य धर्मश्रुत ग्रंथमाला दिल्ली, ई. 1985 (प्र. सं.) 130. दिगम्बरत्व और दिगम्बर मुनि : लेखक-स्वर्गीय कामताप्रसाद जैन, सारस्वत ग्रंथमाला प्रकाशन समिति गाँधी नगर, दिल्ली, ई. 1995 131. दिव्यविभूति महासती मोहनदेवीजी : लेखिका - साध्वी हुक्मदेवीजी, कोल्हापुर रोड़ दिल्ली, ई. 1970 132. दीघनिकाय : अनुवादक - राहुल सांकृत्यायन, महाबोधि सभा सारनाथ, ई. 1936 133. दीर्घ तपस्विनी: मुनि धनंजय कुमार, आदर्श साहित्य संघ चूरू, ई. 1996 134. देवगढ़ की जैन कलाः एक सांस्कृतिक अध्ययन : लेखक- डॉ. भागचन्द्र जैन 'भागेन्दु', भारतीय ज्ञानपीठ नई दिल्ली, ई. 2000 (द्वि. सं.) 135. देवगढ़ के जैन मन्दिर : विश्वम्भरदास गार्गीय श्री देवगढ़ तीर्थोद्धारक दंड झांसी, वि. सं. 2448 " 136. धर्ममूर्ति आनन्दकुमारी : लेखक-मुनि नेमिचन्द्र, वि. सं. 2008 (प्र. सं.) 137. धर्मशास्त्र का इतिहास : भाग 1-4, लेखक - पाण्डुरंग वामन काणे, हिन्दी समिति सूचना विभाग लखनऊ 138. नंदीसूत्र : युवाचार्य मधुकर मुनि, आगम प्रकाशन समिति, ब्यावर ( राजस्थान ) ई. 1982 (प्र.सं.) 139. नंदीसूत्र वृत्ति : ( मलयगिरिकृत), आगमोदय समिति, सूरत 140. न्यायबिंदु : आचार्य धर्मकीर्ति, विद्याविकास प्रैस काशी 141. निरयावलिका सूत्र : सम्पादक- युवाचार्य मधुकरमुनि, आगम प्रकाशन समिति ब्यावर, (राजस्थान) ई. 2002 (तृ. सं.) 142. निरूक्त कोश : आचार्य तुलसी, जैन विश्वभारती लाडनू, ई. 1984 1002 Page #1065 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संदर्भ ग्रंथ-सूची 143. निशीथचूर्णि भाग 1 से 4, सम्पादक - उपाध्याय अमरमुनि एवं मुनि कन्हैयालाल 'कमल', सन्मति ज्ञानपीठ आगरा, 1982 द्वि. सं 144. निशीथ भाष्यचूर्णि : जिनदासगणि, सन्मति ज्ञानपीठ आगरा, ई. 1957-60 145. निशीथ सूत्र : सम्पादक- युवाचार्य मधुकर मुनि, आगम प्रकाशन समिति ब्यावर, ई. 1991 (प्र.सं.) 146. पंजाब उपप्रवर्तनी श्री कौशल्या देवी जी महाराज जीवन दर्शन : लेखक- कमलचंद मालू, बी. 19 यू. ए., जवाहर नगर दिल्ली, ई. 1996 147. पंजाब श्रमण संघ गौरव : लेखक - श्री सुमनमुनि, पूज्य श्री कांशीराम स्मृति ग्रंथमाला अम्बाला शहर, ई. 1970 148. पंडित रत्न श्री प्रेममुनि स्मृतिग्रंथ : सम्पादक - कीर्तिमुनि एवं उमेशमुनि, 14 / 24 शक्ति नगर, दिल्ली, ई. 1979 149. पांडुलिपियाँ : आचार्य सुशीलमुनि आश्रम, पं. जवाहरलाल नेहरू लायब्रेरी शंकर रोड़, नई दिल्ली 150. पांडुलिपियाँ: प्राच्य विद्यापीठ शाजापुर (मध्यप्रदेश ) 151. पांडुलिपियाँ: रजिस्टर संख्या 1 से 7 भोगीलाल लहेरचन्द इन्स्टीट्यूट ऑ इंडोलोजी, वल्लभ स्मारक, करनाल रोड़, दिल्ली 152. पांडुलिपियाँ : श्री गुलाबचंद्रजी जैन, चीराखाना मालीवाड़ा, दिल्ली 153. पांडुलिपियाँ : श्री महावीर जैन लायब्रेरी चाँदनी चौक, दिल्ली 154. पद्मपुराण: श्रीमद् रविषेणाचार्य प्रणीत (तृतीय भाग), सम्पादक - डॉ. पन्नालाल जैन, भारतीय ज्ञानपीठ नई दिल्ली, ई. 2000 ( 7वां संस्करण) 155. पट्टावली प्रबन्ध संग्रह : आचार्य हस्तीमलजी महाराज, जैन इतिहास निर्माण समिति जयपुर, ई. 1968 156. पाटण जैन ग्रंथ भंडार के हस्तलिखित ग्रंथो की सूची: भाग 1-4, संकलन मुनि पुण्यविजयजी, शारदाबेन चिमनभाई एज्यूकेशनल रिसर्च सेन्टर दर्शन, शाहीबाग, अहमदाबाद (गुजरात), ई, 1991 157. पुष्पचूलिका : निरयावलिका के अन्तर्गत 158 पुष्पिका निरयावलिका के अन्तर्गत 159. पूज्य आर्यिका रत्नमती अभिनंदन ग्रंथ : प्रमुख सम्पादिका - आर्यिका रत्न श्री ज्ञानमतीजी, श्री दिगंबर जैन त्रिलोक शोध संस्थान, हस्तिनापुर, ई. 1983 160. प्रभावक चरित : (चन्द्रप्रभसूरि प्रणीत ) भाग 1, सम्पादक पं. हीरानंद एम. शास्त्री, तुकाराम जावजीकृत निर्णय सागर प्रेस बम्बई, ई. 1909 161. प्रमुख ऐतिहासिक जैन पुरूष और महिलाएँ : लेखक- डॉ. ज्योतिप्रसाद, भारतीय ज्ञानपीठ, नई दिल्ली, ई. 1975 (प्र. सं.) 1003 Page #1066 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन श्रमणियों का बृहद इतिहास 162. प्रवचन बेबसाईट : संकलनकर्ता-पं. राजुभाई एम. शाह, सुधर्म प्रचार मंडल गुजरात शाखा अहमदाबाद, ई. 2004 163. प्रवचन सारोद्धार : (नेमिचन्द्र सूरि). निर्णय सागर प्रैस बम्बई. ई. 1922 164. प्रशस्ति संग्रह : प्रबन्धक-रामचन्द्र खिन्दुका, दि. जैन अतिशय क्षेत्र महावीरजी, ई. 1950 165. प्राकृत प्रोपर नेम्स : भाग 1-2, संग्राहक-रिखबचंद एवं मोहनलाल मेहता, प्रकाशक-एल. डी. इन्स्टीट्यूट ऑ इन्डोलोजी, अहमदाबाद, ई. 1970-72 166. प्राकृत भाषा और साहित्य का आलोचनात्मक इतिहास : लेखक-डॉ. नेमिचंद शास्त्री, तारा पब्लिकेशन्स वाराणसी, ई. 1966 167. प्राचीन ऐतिहासिक जैन तीर्थ : पंन्यास पद्मविजय जी, श्री जैन श्वेताम्बर महासभा हस्तिनापुर (उ. प्र.) 168. ब्रज विभव की अपूर्व भक्तिमती ऊषा जी : विजय एम. ए., ब्रजनिधि प्रकाशन वृन्दावन, ई. 1994 169. ब्र. पं. चंदाबाई अभिनन्दन ग्रंथ : प्रमुख सम्पादक-सुशीला सुल्तानसिंह जैन, जयमाला जैनेन्द्र किशोर जैन, अ. भा. दि. जैन महिला परिषद, ई. 1954 170. बृहत्कथाकोश (हरिषेणकृत) : सम्पादक-ए. एन. उपाध्ये, भारतीय विद्या भवन, बम्बई, वि. सं. 1999 171. बृहत्कल्पभाष्यः भाग 1 से 6, सम्पादक-श्री चतुरविजयजी, श्री पुण्यविजयजी, श्री आत्मानंद जैन सभा, भावनगर, ई. 1936-1941 (प्र.सं.) 172. बृहद्कल्प सूत्र : त्रीणि छेदसूत्राणि के अन्तर्गत 173. बृहदारण्यकोपनिषद् : वैदिक संशोधन मण्डल, पूना, शक सं. 1880 (प्र. सं.) 174. बाई अजितमती एवं उसके समकालीन कवि : डॉ. कासलीवाल, श्री महावीर ग्रन्थ अकादमी जयपुर, ई. 1984 175. बीकानेर जैन लेख संग्रह : अगरचंद भंवरलाल नाहटा, पं. जगमोहन मल्लिक लेन, कलकत्ता, ई. 1955 176. बुद्ध हृदय : लेखक-स्वामी सत्यभक्त सत्याश्रम वर्धा, ई. 1941 177. बौद्धधर्म की बाईस वनितायें : रसिक बिहारी मंजुल, बी. के. पब्लिशिंग हाऊस, बरेली (उ.प्र.) ई. __1993 178. बौधायन श्रौतसूत्र : चौखम्बा संस्कृत सीरिज, बनारस, ई. 1934 179. भंवरलाल नाहटा अभिनन्दन ग्रंथ : श्री गणेश ललवाणी, 86 कनिंग स्ट्रीट कलकत्ता, ई. 1986 180. भगवान पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास : भाग 1 खंड 1-2, लेखक-मुनि ज्ञानसुन्दरजी, श्री रत्न प्रभाकर ज्ञान पुस्तक माला फलौदी, ई. 1940 2004 Page #1067 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संदर्भ ग्रंथ-सूची 181. भगवान महावीर और उनका तत्त्वदर्शन : लेखक-आचार्य देशभूषणजी महाराज, जैन साहित्य समिति, कूचा बुलाकी बेगम, दिल्ली - 6, ई. 1973 (प्र. सं.) 182. भट्टारक सम्प्रदाय : लेखक-डॉ. वि. जोहरापुरकर, जैन संस्कृति संरक्षक संघ, सोलापुर, ई. 1958 183. भारत के दिगंबर जैन तीर्थ : भाग 1-3, लेखक-बलभद्र जैन, भारतीय दिगंबर जैन तीर्थ क्षेत्र कमेटी, हीराबाग बम्बई, ई. 1974-76 184. भारत श्रमण संघ गौरव आचार्य सोहन : लेखक-प्रवर्तक मुनि शुक्लचंद्र, अम्बाला, ई. 2004 (द्वि. सं.) 185. भारतीय संस्कृति : लेखिका-डॉ. प्रीतिप्रभा गोयल, राजस्थानी ग्रंथागार जोधपुर, ई. 1991 (प्र. सं.) 186. भारतीय संस्कृति और श्रमण परम्परा : लेखक-डॉ. हरीन्द्रभूषण जैन, वीर निर्वाण भारती, मेरठ (उत्तरप्रदेश) ई. 1974 (प्र. सं) 187. भारतीय श्रमण संस्कृति : लेखक-जवाहरलाल जैन, ग्रंथ भारती जौहरी बाज़ार जयपुर, ई. 1991 188. भुयणसुन्दरी कहा : श्री विजयसिंह सूरि, पाटण, ई. 2000 189. मज्झिमनिकाय : अनुवादक-राहुल सांकृत्यायन, महाबोधि सभा सारनाथ, वाराणसी, ई. 1964 190. मणिधारी जिनदत्तसूरि अष्टम शताब्दी स्मृति ग्रंथ : अगरचंद नाहटा, दिल्ली, ई. 1971 191. मद्रास व मैसूर के प्राचीन जैन स्मारक : ब्र. शीतलप्रसादजी, दिगम्बर जैन पुस्तकालय चांदावाड़ी सूरत, वी. सं. 2454 192. मध्य एशिया और पंजाब में जैनधर्म : लेखक-हीरालाल दुगड़, जैन प्राचीन साहित्य प्रकाशन मंदिर, शाहदरा, दिल्ली, ई. 1979 (प्र. सं.) 193. मध्यकालीन भारत में सूफी मत का उद्भव और विकास : लेखक-डॉ. श्रीमती राजबाल सिंह, अशोक प्रकाशन दिल्ली ई. 1995 194. मध्यकालीन मालवा में जैनधर्म : शोध प्रबन्ध-प्रकाशचन्द जैन, प्राच्य विद्यापीठ, शाजापुर (मध्यप्रदेश) 195. मध्यकालीन राजस्थान में जैनधर्म : डॉ. श्रीमती राजेश जैन, पार्श्वनाथ विद्यापीठ वाराणसी, ई. 1991-92 196. मध्यप्रदेश के दिगम्बर जैन तीर्थ : बलभद्र जैन, अ. भा. दि. जैनतीर्थ क्षेत्र कमेटी बम्बई, ई. 1976 197. मनुस्मृति : मनु प्रकाशक, निर्णय सागर प्रैस बम्बई, ई. 1946 198. महान साध्वीओ : सम्पादक-भिक्षु अखंडानंद, सस्तु साहित्यवर्धक कार्यालय, अहमदाबाद, सं. 1985 199. महापुराण : अनुवादक-देवेन्द्रकुमार जैन, भारतीय ज्ञानपीठ दिल्ली, ई. 1979 (प्र. सं.) 200. महाभारत : वेद व्यास, गीताप्रैस, गोरखपुर 201. महावग्गपालि : (विनयपिटके), भिक्खु जगदीस कस्सप, नालंदा देवनागरी पालि ग्रंथमाला बिहार, ई. 1956 hoos Page #1068 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन श्रमणियों का बृहद इतिहास 202. महासती केसरदेवी गौरव ग्रंथ : लेखिका व सम्पादिका-साध्वी विजयश्री 'आर्या', कोल्हापुर रोड़, दिल्ली - 6, ई. 1995 203. महासती चाँद स्मृति ग्रंथ : प्रमुख सम्पादिका-साध्वी सुमनप्रभा, श्री धर्मदास जैन मित्र मण्डल नौलाईपुरा, रतलाम, ई. 1991 204. महासती द्वय स्मृति ग्रंथ : सम्पादिका-साध्वी श्रीचन्द्रप्रभा, 45 वीरप्पन स्ट्रीट, साहूकार पेठ, मद्रास, ई. 1992 205. महासती पुष्पवती अभिनंदन ग्रंथ : सम्पादक-श्री देवेन्द्रमुनि शास्त्री, श्री तारक गुरू ग्रंथालय उदयपुर, ई. 1987 206. महासती मथुरादेवी जी महाराज का जीवन चरित्र : लेखिका-श्रमणी वीरमती, जैन प्रिंटर्स, देवनगर करोल बाग, नई दिल्ली 207. महाश्रमणी अभिनंदन ग्रंथ : प्रमुख सम्पादिका-साध्वी स्मृति, अम्बाला शहर, ई. 1997 208. माँ आनन्दमयी : डॉ. पन्नालाल, आनंदमयी आश्रम बनारस, ई. 1992 209. माँ रत्नत्रय चन्द्रिका : प्रधान सम्पादक-प्रो. टीकमचंद जैन, अग्रवाल जैन धर्मशाला, मालपुरा जिला टोंक (राजस्थान) ई. 1999 210. मीठीम्हेक : लेखिका-श्री शांताबहन सिंघवी, श्री भरतकुमार खुशालचंद शेठ उपलेटा, ई. 1962 211. मुदित कुमुदचन्द्र नाटक : आचार्य यशश्चन्द्र, वाराणसी, वि. नि. 2431 212. मुनि श्री हजारीमल स्मृति ग्रंथ : सम्पादक-श्री शोभाचन्द्र भारिल्ल, मुनि श्री हजारीमल स्मृति ग्रंथ प्रकाशन समिति, ब्यावर (राजस्थान) ई. 1965 213. मुस्लिम महात्माओ : श्री गिरीशचन्द्र सेन, सस्तु साहित्यवर्धक कार्यालय, अहमदाबाद ई. 1996 (द्वि. सं.) 214. मूर्तिपूजा का प्राचीन इतिहास : लेखक-मुनि श्री ज्ञानसुन्दरजी, रत्नप्रभाकर ज्ञान पुष्पमाला फलौदी, ई. 1936 215. मूलाचार : श्रीमद् वट्टकेराचार्य प्रणीत, भाग 1-2, भारतीय ज्ञानपीठ, दिल्ली, ई. 1996 तृ. सं. 216. मूलाचार का समीक्षात्मक अध्ययन : लेखक-डॉ. कूलचन्द्र जैन 'प्रेमी', सोहनलाल जैन विद्या प्रसारक समिति, अमृतसर, ई. 1988 (प्र. सं.) 217. मोक्षपाहुड : कुन्दकुन्दाचार्य, माणिकचंद्र दिगंबर जैन ग्रंथमाला बम्बई, वि.सं. 1977 218. यात्रा : ए. विंग, लोकमत भवन, पंडित नेहरू मार्ग नागपुर, ई. 1995 219. युगप्रधान श्री जिनचन्द्रसूरि : अगरचंद भंवरलाल नाहटा, श्री अभय जैन ग्रंथालय, बीकानेर, ई. 1935 220. राजस्थान का जैन साहित्य : सम्पादक-विद्वत्परिषद, प्राकृत भारती अकादमी जयपुर, ई. 1977 221. राजस्थान के अभिलेख : संग्राहक-गोविन्दलाल श्रीमाली, महाराजा मानसिंह पुस्तक प्रकाश जोधपुर, ई. 2000 1006 Page #1069 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संदर्भ ग्रंथ-सूची 222. राजस्थान में हिन्दी के हस्तलिखित ग्रंथों की खोज : भाग 4, अगरचंद नाहटा, राजस्थान विश्व विद्यापीठ, उदयपुर, ई. 1954 (प्र.सं.) 223. राजस्थानी हिन्दी हस्तलिखित ग्रंथ सूची : भाग 1-8, सम्पादक-पद्मश्री मुनि जिनविजयजी, ओंकार लाल मेनारिया आदि, राजस्थान प्राच्य विद्या प्रतिष्ठान जोधपुर, ई. 1960-83 224. लिस्ट ऑफ ब्राह्मी इंस्क्रिप्शंस फ्रम द अरलियस्ट टाइम्स : लेखक-प्रो. एच. लुडरस् बर्लिन, इंडोलोजिकल बुक हाऊस, वाराणसी और दिल्ली, ई. 1973 225. वसु वाणी : भाग बीजो, अमृतलाल गोपाणी, माटुंगा, मुंबई, ई. 1962 226. वात्सल्यता नी वीरड़ी : सम्पादिका-मेरूभाई झींझुवाड़िया, श्री शाहपुर दरियापुरी आठ कोटी स्था. जैन संघ, अहमदाबाद, ई. 1998 227. वात्सल्य नी बहेती धारा : लेखिका- श्री उज्जवलकुमारी बाई महासती, अजरामर संघ लीबड़ी (सौ.), ई. 1996 228. वाल्मीकि रामायण : डॉ. जियालाल कम्बोज, भारतीय विद्या प्रकाशन, ई. 1996 (तृ. सं.) 229. विजय जीवन नो मरण मृत्यु नुं : लेखक-श्री चन्द्रकान्त जोशी, श्री हसुमतीबाई स्वामी स्मारक ट्रस्ट, सुरेन्द्रनगर (सौ.) ई. 1983 230. विजय प्रशस्ति सार : लेखक-मुनि विद्याविजयजी, हर्षचन्द भूराभाई जैनशासन, लखनऊ, ई. 1912 231. विनयपिटक : (चुल्लवग्गपालि) सम्पादक-भिक्खु जगदीस कस्सप, नालंदा देवनागरी पालि ग्रंथमाला बिहार, ई. 1956 232. विश्व प्रसिद्ध जैन तीर्थ : महोपाध्याय ललितप्रभसागर, श्री जितयशा फाउंडेशन, कलकत्ता, ई. 1995-96 233. विशेषावश्यक भाष्य : जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण, आगमोदय समिति बम्बई, ई. 1927 234. विश्रांति नो वडलो : सम्पादक-प्रा.मलूकचंद आर. शाह एवं डॉ. हरीशभाई आर. बेंकर, श्री संघवी धारशी रवाभाई स्था. जैन संघ, छालियापरा, लींबड़ी (सौ.), ई. 1985 235. व्यवहार भाष्य : सम्पादक-आचार्य महाप्रज्ञ, जैन विश्व भारती लाडनूं ई. 1996 (प्र. सं.) 236. व्यवहार सूत्र : त्रीणि छेदसूत्राणि के अन्तर्गत 237. व्यवहार सूत्र : (सभाष्य), मलयगिरिवृत्ति, वकील विक्रमलाल अगरचंद, अहमदाबाद, ई. 1928 238. व्याख्या प्रज्ञप्ति सूत्र : (भगवतीसूत्र), सम्पादक-युवाचार्य मधुकरमुनि जी, आगम प्रकाशन समिति, ब्यावर (राजस्थान) ई. 1982 (प्र. सं) 239. वेदांत सुधा : भाग-2, विनोबा भावे, परंधाम प्रकाशन वर्धा, ई. 1993 240. शाकटायन व्याकरणम् : भारतीय ज्ञानपीठ नई दिल्ली, ई. 1977 Page #1070 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन श्रमणियों का बृहद इतिहास 241. शारदा स्मृति ग्रंथ : वर्ध. स्था. जैन श्रावक संघ, मलाड़ वेस्ट, मुंबई, ई. 1988 242 शासन समुद्र (13 भाग) : लेखक-मुनि नवरत्नमल, आदर्श साहित्य संघ, चुरू (राजस्थान), ई, 1982 से 2001 243. शासन सुमन सुवासिका : सम्पादक - श्री जिज्ञेसमुनि श्री प्राण परिमल प्रकाशन चास, बोकाटो ( बिहार ) ई. 1982 244. श्री कुसुमबाई महासतीजी नी जीवन झरमर : श्री धनीबेन मेकणभाई धना सत्रा, बीलीमोरा, ई. 1995 245. श्री कुसुमाभिनन्दनम् : डॉ. साध्वी सुभाषा, आत्म मनोहर जैन संस्कृति केन्द्र, मालेरकोटला, ई. 2004 246. श्री केसरबाई नी संक्षिप्त जीवन झरमर : सम्पादक - अंबालाल छोटालाल पटेल, श्री दरियापुरी आठ कोठि स्था. जैन संघ सारंगपुर, अहमदाबाद, ई. 1978 247. श्री कैलाश कल्पद्रुम : सम्पादक-डॉ. हरीशकुमार वर्मा, सुश्रुत प्रकाशन, दिल्ली - 92 ई. 2004 248. श्री जिनचंद्रसूरि स्मृति ग्रंथ : भंवरलाल नाहटा, अष्टम शताब्दी समारोह समिति, दिल्ली, ई. 1971 249. श्री द्रौपदां जी महाराज का जीवन चरित्र : लेखिका - आर्या मोहनदेवीजी महाराज, श्री महावीर जैन स्कूल जम्मू, ई. 1942 (प्र. सं.) 250. श्री नाथीबाई जीवन झरमर : सम्पादक - भ्रातृचन्द्र पादाम्बुजरज 'अंबू', श्री शाहपुर दरियापुरी आठ कोटि, स्थानकवासी जैनसंघ, अहमदाबाद, ई. 1976 251. श्री प्रशस्ति संग्रहः अमृतलाल मगनलाल शाह, श्री देशविरति धर्माराधक समाज अहमदाबाद, वि. सं. 1993 252. श्री मंजुल जीवन मंजुषा : लेखक- मुनि श्री सुधेन्द्र, भूधरलाल हरखचंद तुरखावाला रामकृष्णानगर-4, राजकोट, ई. 1971 (द्वि. सं.) 253. श्रीमद् धर्मदासजी और उनकी मालव शिष्य परंपरा : लेखक - श्री उमेशमुनि 'अणु', श्री धर्मदास मित्र मंडल नौलाईपुरा, रतलाम, ई. 1974 (प्र. सं.) 254 श्रीमद् भागवत : व्याख्याकार- पू. श्री रामचंद्र केशवजी डोंगरे, मानस प्रकाशन, करोलबाग, नई दिल्ली - 5, ई. 1986 255. श्री यशकंवरजी महाराज, व्यक्तित्त्व कृतित्त्व जीवनग्रंथ : सम्पादिका - आर्या श्री प्रेमकंवर श्री सिद्धकंवर, दिनेश संचेती 'दिनकर' बीगोद, भीलवाड़ा (राजस्थान ) ई. 1986 256. श्री वसुमती आर्याजी नी जीवन झरमर : सम्पादक - अंबालाल सी. पटेल, अहमदाबाद, वि. सं. 2031 257. श्री श्री सिद्धिमाता : राजबाला देवी, चौखम्बा विद्या भवन चौक बनारस, ई. 1992 258. श्री समीरमुनि स्मृति ग्रंथ : सम्पादिका - श्रीमती कौशल्या जैन, श्री समीर साहित्य प्रकाशन समिति कुरज, जिला राजसमन्द, ई. 1999 (प्र. सं.) 1008 For Priversonal Use Only Page #1071 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संदर्भ ग्रंथ-सूची 259. षट्खंडागम : भाग 1, जैन साहित्योद्धारक ठंड कार्यालय, अमरावती ( बरार ) ई. 1939 260. संघ सौरभ : सम्पादक- मुनि श्री भुवनचन्द्र, श्री पार्श्वचन्द्रगच्छ जैन संघ, देशलपुर (कंठी) ई. 2005 261. संयम गगन की दिव्य ज्योति : सम्पादक - श्री तिलकधर शास्त्री, पन्ना स्मारक समिति, शालिमार बाग, दिल्ली, सन् 2001 262. संयम गरिमा ग्रंथ : सम्पादक- डॉ. मुनि श्री राजेन्द्र 'रत्नेश', धर्म ज्योति परिषद्, 7 नेताजी सुभाष मार्ग, भीलवाड़ा ( राजस्थान ) ई. 1990 263. संयम सुरभि महाश्रमणी श्री मथुरादेवी : श्री सुन्दरी देवी जी महाराज, प्रशान्त विहार, दिल्ली, ई. 2003 264. संस्कृत हिन्दी कोश: वामन शिवराम आप्टे, मोतीलाल बनारसीदास, जवाहरनगर, दिल्ली पुनर्मुद्रण 1987 ई. 265. संस्कृति के चार अध्याय : लेखक- रामधारी सिंह 'दिनकर', राजपाल एंड संस, कश्मीरी गेट, दिल्ली, ई. 1956 (द्वि.सं.) 266. समग्र जैन चातुर्मास सूची : सम्पादक- बाबूलाल जैन 'उज्जवल', कांदिवली (पूर्व) मुंबई 267. समय की परतों में : साध्वी शिलापी जी, वीरायतन, राजगृह नालंदा, बिहार, ई. 1998 (प्र. सं.) 268, समवायांग सूत्र : प्रधान सम्पादक - युवाचार्य मधुकरमुनि, श्री आगम प्रकाशन समिति, ई. 1991 (द्वि. सं.) 269. स्वर्णगिरी जालोर : संग्राहक - भंवरलाल नाहटा, प्राकृत भारती अकादमी जयपुर, ई. 1995 270. सचित्र कल्पसूत्र : श्री अमरमुनि, पद्म प्रकाशन दिल्ली ई. 1995 271. साउथ इंडियन इन्स्क्रीप्शंस : भाग - 3, मद्रास, ई. 1940 272. सागार धर्मामृत : पं. आशाधर, सम्पादक व अनुवादक- पं. कैलाशचंद्र शास्त्री, भारतीय ज्ञानपीठ, दिल्ली, ई. 1978 273. साधना पथ की अमर साधिका : लेखिका - साध्वी सरला, जैन महिला समिति, पहाड़ी धीरज दिल्ली, ई. 1970 274. साध्वी सुलोचना स्मृति ग्रंथ : सम्पादिका - रत्नसूर्य शिष्या वृंद, स्थानकवासी छः कोटि जैन संघ, समाघोघा (कच्छ) ई. 1994 275. साधुमार्ग की पावन सरिता : भाग 1, लेखक - मुनि धर्मेश, अ. भा. साधुमार्गी जैन संघ, समता भवन, रामपुरिया मार्ग, बीकानेर (राजस्थान ) ई. 2003 276. साहनी सर्वोत्तम हिन्दी निबन्ध : साहनी एवं सिंह, साहनी ब्रदर्स आगरा, ई. 2003 277. साहित्य और संस्कृति : लेखक- देवेन्द्र मुनि शास्त्री, भारतीय विद्या प्रकाशन, वाराणसी, ई. 1970 1009 Page #1072 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन श्रमणियों का बृहद इतिहास 278. सिंधु सभ्यता : लेखक-किरण कुमार थपल्याल, उत्तरप्रदेश हिंदी संस्थान, राजर्षि पुरूषोत्तमदास टंडन हिंदी भवन, महात्मा मार्ग, लखनऊ (उत्तरप्रदेश), ई. 1985 (द्वि. सं.) 279. सुत्तपाहुड : अष्टपाहुड के अन्तर्गत 280. सुत्तपिटक : (खुद्दकनिकाये अपदान) सम्पादक-भिक्खु जगदीस कस्सप, नालन्दा देवनागरी, पालि ग्रंथ माला, ई. 1959 281. सूत्रकृतांग सूत्र : आचार्य अमोलकऋषि जी, अमोल जैन ज्ञानालय धूलिया (महाराष्ट्र), ई. 1963 282. सृष्टि स्वस्ति वाणी : (चातुर्मास स्मारिका), संयोजक-विनीत कुमार जैन, दिगंबर जैन समाज, मुरादाबाद, ई. 2001 283. स्थानकवासी जैन परम्परा का इतिहास : लेखक-डॉ. सागरमल जैन, डॉ. विजयकुमार, पार्श्वनाथ विद्यापीठ वाराणसी, ई. 2003 (प्र.सं.) 284. स्थानांग सूत्र : युवाचार्य मधुकर मुनि, आगम प्रकाशन समिति, ब्यावर, ई. 2001 (तृ. सं.) 285. स्थानांग सूत्र : अभयदेवसूरिवृत्ति, आगमोदय समिति, सूरत, ई. 1920 286. स्त्री शिक्षा : आचार्य विनोबा भावे, अ. भा. सर्वसेवा संघ प्रकाशन राजघाट, काशी, ई. 1958 (प्र. सं.) 287. हमें तुम पर नाज़ है : सम्पादिका-डॉ. साध्वी अक्षय ज्योति, अक्षय फाऊण्डेशन, 5 पलसेकर बिल्डिंग सुभाष रोड़, नाशिक (महाराष्ट्र), ई. 2003 288. हरिभद्र साहित्य में समाज और संस्कृति : लेखक-डॉ. श्रीमती कोमल जैन, पार्श्वनाथ विद्यापीठ वाराणसी, ई. 1994 289. हरिवंश पुराण : श्रीमज्जिनसेनाचार्य, सम्पादक-डॉ. पन्नालाल जैन 'साहित्याचार्य', भारतीय ज्ञानपीठ नई दिल्ली, ई. 1978 (द्वि. सं.) 290. हिन्दी जैन साहित्य का बृहद् इतिहास : खण्ड 1, 2, 3, डॉ. शितिकंठ मिश्र, पार्श्वनाथ विद्यापीठ वाराणसी, ई. 1989, 1992, 1997 (प्र. सं.) 1010 Page #1073 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पत्र-पत्रिकाएँ 1. अनेकान्त : वर्ष 28 किरण 1, वर्ष 34 किरण 3, 4, प्रकाशक - वीर सेवा मंदिर, 21 दरियागंज, दिल्ली वीरायतन, राजगृही, बिहार अप्रैल 1995 मार्च 1998 दिसम्बर 2003 अप्रैल 2005, अ. भा. जैन 2. अमर भारती : सन् 2003 3. जैन प्रकाश : मार्च 1983 कान्फ्रेंस, नई दिल्ली 4. जैन सत्यप्रकाश वर्ष 9, 1943 ई., जैनधर्म सत्यप्रकाशक समिति, अहमदाबाद 5. जैन सिद्धान्त भास्कर : दिसम्बर 1940, 1943 जुलाई 1946, सम्पादक- जे. के. जैन, जैन सिद्धान्त भवन, आरा (बिहार ) 6. तित्थयर : जैनोलॉजी एंड प्राकृत रिसर्च इन्स्टीट्यूट, जैन भवन, कलाकार स्ट्रीट, कलकत्ता 7. तीर्थकर : अक्टूबर 1980, हीरा भैया प्रकाशन, इन्दौर 8. पाठशाला : 703, भट्टार मार्ग, सूरत, जुलाई 2003 9. विजयानंद : जनवरी 1998, आत्मानंद जैन महासभा, अम्बाला 10. विमल विवेक : फरवरी 2005, सम्पादक - डॉ. संजय जैन, एन. एल. 125, मुहल्ला महेन्द्रु, जालन्धर 11. श्रमण वर्ष 42 ई. 1991 पार्श्वनाथ विद्याश्रम शोध संस्थान, वाराणसी 12. श्रमणोपासक : नवम्बर 2003, अ. भा. साधुमार्गी जैन संघ, बीकानेर (राजस्थान ) 13. श्रमणसंघ ज्योति : वर्ष 1 अंक 6, नवम्बर 2003 14. श्री राजेन्द्र ज्योति : सम्पादक - डॉ. प्रेमसिंह राठौड़, अ. भा. श्री राजेन्द्र जैन नवयुवक संघ, मोहनखेड़ा तीर्थ, ई. 1973 Page #1074 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #1075 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रुतप्रज्ञा महासाध्वी डॉ. विजय श्री "आर्या" श्रुत की सतत समुपासना में संलग्न साधनामय जीवन, शिक्षा के उच्चतम आयामों का संस्पर्श करता हुआ कदम दर कदम स्वर्णपदकों से सम्मानित व्यक्तित्व, स्थानकवासी पंजाब परंपरा में श्रमणी अभिनन्दन ग्रंथ की प्रथम प्रणयनकत्री, श्रमणी परंपरा की गौरवान्वित मुकुट मणि, जैनागम दर्शन के रहस्योद्घाटन में सुदक्ष, सरल, विनम्र, विद्वद् जीवन की त्रिवेणी संगम है- महासाध्वी डॉ. विजय श्री जी। आपने जैन इतिहास में प्रथम बार दस हजार श्रमणियों की यशोमय जीवन गाथा को प्रस्तुत कृति में पिरोया है। अनेक श्रमणियों का श्रममय व्यक्तित्व जो यत्र-तत्र कला एवं स्थापत्य की परिधि में जुगनूं की तरह चमक रहा था, उसे अपने प्रज्ञा कौशल्य से प्रथम बार आदित्यमान किया है। अपनी प्रासाद कांत गुणमय साहित्यिक भाषा सौष्ठव के कल-कल नाद से प्रवाहित यह श्रमणी इतिहास वस्तुत: उच्च कोटि की साहित्यिक निधि है। भूत भावी वर्तमान श्रमणियों का एकत्र सम्मलिन प्रस्तुत इतिहास की अप्रतिम विशिष्टता है। आपका लेखनी रूप ऐतिहासिक ज्ञान गर्भित श्रमकण विद्वद् समाज में समादरणीय है, अनुसंधान हेतु प्रकाश स्तंभ है, कि बहुना, यह श्रमणी इतिहास समग्र श्रमणियों का अभिनन्दन करता हुआ विश्व इतिहास की एक अमूल्य धरोहर के रूप में समादरणीय होगा। यत्र-तत्र-सर्वत्र स्तुत्य आपकी इस अनमोल कृति हेतु हम अहोभाव के उपहार के सिवा क्याभेंट करें? साध्वी प्रतिभा श्री "प्राची" Page #1076 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'अभिसम्मत' ज्योतिशिखा साध्वी श्री विजयश्री जी "आर्या' द्वारा आलिखित "जैन श्रमणियों का बृहद् इतिहास" वस्तुतः एक ग्रन्थ है। यह ग्रन्थ रचना धर्मिता का एक उपमान है, प्रतिमान भी है। शोधार्थिनी साध्वी श्रीजी ने विषय-वस्तु को अष्टविध अध्याय में वर्गीकृत भी वैज्ञानिक दृष्टिकोण से किया है। जिससे ग्रन्थ का व्यक्तित्व आभापूर्ण रूप से रूपायित है। इतना ही नहीं इससे यह पूर्णतः प्रगट है कि श्रद्धास्पदा साध्वी श्री जी माता शारदा की दत्तका नहीं, अपितु अंगजाता आज्ञानुवर्तिनी सुयोग्य नन्दिनी है। उपाध्याय रमेश मुनि आपका कार्य इतना पूर्ण होता है कि मुझे संशोधन की कोई अपेक्षा ही नहीं लगती। आपने जो श्रम किया है वह बहुत ही स्तुत्य है। पी. एच.डी. के सम्बन्ध में ऐसा परिश्रम विरल ही होता है। जैनसंघ आपके इस उपकार को कभी नहीं भुलेगा। डॉ. सागरमल जैन, शाजापुर (शोध निदेशक) जिन स्थापित चतुर्विध संघ श्रमण-श्रमणी, श्रावक और श्राविका में से श्रमणी वर्ग का साङ्गोपाङ्ग परिचय प्रस्तुत शोध प्रबन्ध में विवेचित है। प्रागैतिहासिक काल महावीर और महावीर के उत्तरवर्ती काल से लेकर वर्तमान काल तक की समस्त जैन परम्परा का लगभग दस हजार श्रमणियों का परिचय और श्रमण परम्परा को उनके योगदान का वास्तविक विवेचन प्रस्तुत करना अपने आप में एक दुःसाहस कार्य है। श्रमणाचार्य को देखते हुए इस कार्य का दुःसाध्यता गुरुत्तर हो जाती है। साध्वी श्री विजय श्री जी ने श्रम एवं धैयपूर्वक शोध प्रबन्ध ही नहीं अपितु श्रमणी विश्व कोश प्रस्तुत किया है जिससे विद्वत वर्ग के साथ ही सामान्य वर्ग भी दीर्घ काल तक लाभान्वित होता रहेगा। इस शोध प्रबन्ध के ! माध्यम से साहित्य एवं समाज की महनीय सेवा के लिए साध्वी श्री जी को शतश:वंदन। डॉ. अशोक सिंह ! मूल्य 8 2000/- (प्रति सेट) भारतीय विद्या प्रतिष्ठान M-2/77, सैक्टर 13, आत्मवल्लभ सोसायटी, रोहिणी, दिल्ली-110085