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जैन श्रमणियों का बृहद इतिहास
लोभी कापुरूषों द्वारा झणकारा का अपहरण होता है, पर कठिन से कठिन परिस्थिति में भी झणकारा अपने बुद्धिबल आत्मबल के सहारे शीलधर्म की रक्षा करती है। बाद में अपने पूर्वभव को सुनकर राजर्षि बना लीलापत, झणकारा और उसकी अन्य दो सपत्नियों ने दीक्षा ली। झणकारा मरकर प्रथर्म स्वर्ग में गई, आगे महाविदेह में जन्म लेकर मोक्ष प्राप्त करेगी। 269
2.7.21 ताम्रवन्ती, रूपावन्ती, नीलवन्ती, मुक्तावन्ती, हंसावली
ये पाँचों बसंतपुर के राजा वज्रसेन और प्रियंवदा के पुत्र बलवीर की पत्नियां थी। अपने जेठ ( पति के ज्येष्ठ भ्राता) जयवीर और धनवीर की ईर्ष्या का शिकार बनकर अनेक कष्ट भोगने पड़े, अंत में पूर्वभव का वृत्तान्त मुनि से सुनकर बलवीर और पाँचों रानियों ने संयम अंगीकार किया। 270
2.7.22 तारासुन्दरी
राजा मदनसेन की रानी तथा सेठ लक्ष्मीपति और कमला की पुत्री थी, विद्याधर ने कामवश उसका अपहरण किया, अनेक कष्टों के बावजूद भी वह शीलधर्म पर अडिग रही। पति मिलन के पश्चात् राजा रानी दोनों ने दीक्षा अंगीकार की। 271
2.7.23 त्रिलोकसुंदरी
सुदर्शनपुर के श्रेष्ठी पुष्पदत्त के द्वितीय पुत्र चित्रसार की पत्नी थी। यह अपने साहस, चातुर्य से समय पर पुरूषवेष बनाकर अपने धर्म की रक्षा करती है और बुद्धि कौशल से अन्त में सुखपूर्वक जीवन व्यतीत करती है। सुख-दुख के पीछे कर्मों का ही विधान है, यह प्रतिबोध हो जाने पर तिलोकसुंदरी ने अपनी सपत्नी गुणसुंदरी एवं पति चित्रसार के साथ संयम ग्रहण कर स्वर्गलोक प्राप्त किया। 272
2.7.24 धनश्री, रत्नवती, कुसुमवती, रूपवती
ये चारों दृढ़ अध्यवसायी सिंहलकुमार की पत्नियां थी। शील, परोपकार आदि का आदर्श स्थापित कर ये चारों अपने पति के साथ दीक्षा लेकर अन्त में देवलोक में गयीं 1273
2.7.25 धारिणी
राजा अरिमर्दन की रानी थी। रानी को पुत्रवती होने के आशीर्वाद को सत्य सिद्ध करने के लिये मुनि ने निदान पूर्वक संथारा किया और धारिणी के पुत्र प्रियदर्शी के रूप में उत्पन्न हुआ, इस रहस्य का उद्घाटन होने पर कुमार 269. सती झणकारा रास मुनि कालूराम जी कथा - उपलब्धि : जैनकथाएं “लीलापत झणकारा कथा", भाग 20
270. जैन कथाएं, भाग 65, पृ. 118-50 करे सो भरे (कथा- शीर्षक )
271. जैन कथाएं, भाग 69, पृ.69-88
272. जैन कथाएं, भाग 32, आधार सूत्र - त्रिलोकसुंदरी मंगल कलश चौपई, कवि लखपत कृत (संवत् 1691) अन्य रचनाएं देखेंजै. सा. का. बृ. इ. भाग 2, पृ. 132; भाग 4 पृ. 360
273. आधार : कवि समयसुंदर रचित सिंहलसी चरित्र, (सं. 1672) जैन कथाएं, भाग 44
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