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प्रागैतिहासिक काल से अर्हत् पार्श्व के काल तक निर्ग्रन्थ-परम्परा की श्रमणियाँ 2.3.12 श्री सुमंगला देवी
श्री सुमंगलादेवी अयोध्या के महाराजा मेघरथ की महारानी तथा पाँचवें तीर्थंकर श्री सुमतिनाथजी की महिमामयी मातेश्वरी थी। श्री सुमतिनाथ भगवान द्वारा तीर्थ-स्थापना के पश्चात् इन्होंने साध्वी-प्रमुखा श्री काश्यपी के पास दीक्षा ग्रहण की, सर्व कर्म क्षय कर सिद्धगति को प्राप्त हुई।28 2.3.13 रति
रति ने छठे तीर्थंकर श्री पद्मप्रभु की प्रमुखा शिष्या बनने का सौभाग्य प्राप्त किया था। इसके नेतृत्व में चार लाख बीस हजार श्रमणियाँ आत्म कल्याण की साधना करती थी। दिगम्बर ग्रंथों में रतिसेना, रतिषणा या रात्रिषेणा के नाम से ये प्रसिद्ध हैं। साध्वी संख्या श्वेताम्बर के अनुरूप ही है। 2.3.14 श्री सुसीमा देवी
___ आप छठे तीर्थंकर श्री पद्मप्रभुजी की जननी थीं। कौशाम्बी के महाप्रतापी सम्राट् श्रीधर की महारानी थीं। श्री पद्मप्रभु भगवान द्वारा तीर्थ की स्थापना करने पर आप भी संसार के सुखों को छोड़कर श्रमणी बन गईं। साध्वी-प्रमुखा श्री 'रति' के सान्निध्य में उत्कृष्ट तप-त्याग की आराधना करके मोक्ष-लक्ष्मी को प्राप्त किया। 2.3.15 सोमा
सातवें तीर्थंकर सुपार्श्वनाथ भगवान की प्रथम शिष्या के रूप में आपने यशस्विता प्राप्त की थी अन्यत्र इन्हें 'जसा' नाम से भी अभिहित किया है। आप चार लाख तीस हजार श्रमणियों की अध्यक्षा थीं। दिगम्बर ग्रंथों में आपका नाम 'मीना' उल्लिखित है। तथा साध्वी संख्या तीन लाख तीस हजार है।" 2.3.16 श्री पृथ्वीदेवी
आप सातवें तीर्थंकर श्री सुपार्श्वनाथजी की माता तथा वाणारसी के राजा प्रतिष्ठित की महारानी थीं। श्री सुपार्श्वनाथ को केवलज्ञान की प्राप्ति एवं लोकमंगलकारी तीर्थ-स्थापना के पश्चात् आप भी श्रमणी बनकर तप-त्याग की आराधना में लीन बनीं, उत्कृष्ट भावों से संयम की आराधना कर अंत में सिद्ध, बुद्ध, मुक्त हुईं। 2.3.17 सुमना
आठवें तीर्थंकर श्री चन्द्रप्रभु के धर्मसंघ में श्रमणी संघ का नेतृत्व साध्वी प्रमुखा 'सुमना' करती थी। इनके संघ 28. (क) समवयांग सूत्र 634 गा. 9, (ख) तिलोयपन्नत्ती, गा. 526-549 (ग) जैन शासननां श्रमणी-रत्नो, पृ. 82 29. (क) समवायांग पृ. 231, सू. 649 (ख) प्राप्रोने. भा. 1 पृ. 615 30. म. पु. 52/63, दृ. जै. पु. को. पृ. 326 31. (क) समवायांग सूत्र 634 गा. 9 (ख) तिलोयपन्नत्ती, गा. 526-549 (ग) जैन शासननां श्रमणी-रत्नो, पृ. 82 32. प्राप्रोने. 1 पृ. 282 33. जै. मौ. इ. भाग 1, पृ. 815, 817 34. (क) समवायांग सूत्र 634 गा. 9, (ख) तिलोयपन्नत्ती, गा. 526-549 (ग) जैन शासननां श्रमणी-रत्नो, पृ. 82
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