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जैन श्रमणियों का बृहद इतिहास
में तीन लाख अस्सी हजार श्रमणियाँ आत्मोत्थान की साधना में निरत थी।” दिगम्बर ग्रंथों में इनका नाम 'वरूणा' आया 136
2.3.18 श्री लक्ष्मणादेवी
आठवें तीर्थंकर श्री चन्द्रप्रभु भगवान की माता तथा चन्द्रपुर नगरी के महाराज महासेन की पटरानी थीं। श्री चन्द्रप्रभु भगवान की तीर्थ स्थापना के पश्चात् लक्ष्मणादेवी भी उत्कृष्ट अध्यवसाय द्वारा सर्व कर्म क्षय कर मोक्ष में गईं। 37
2.3.19 वारुणी
नौवे तीर्थंकर सुविधिनाथ जी की ये अग्रगण्या श्रमणी - श्रेष्ठा थीं। इन्होंने तीन लाख श्रमणियों के लिये आत्मोत्थान का मार्ग प्रशस्त किया था। 38 अन्यत्र इनके नेतृत्व में एक लाख बीस हजार श्रमणियों की संख्या उल्लिखित है। दिगम्बर- परम्परा में श्रमणियों की संख्या तीन लाख अस्सी हजार दी है। तथा 'वारूणी' के स्थान पर 'घोषा. ' नाम दिया है। 39
2.3.20 श्री रामादेवी
काकंदी के राजा सुग्रीव की महारानी तथा श्री सुविधिनाथ भगवान की माता थीं। श्री सुविधिनाथ को केवलज्ञान हुआ, माता रामादेवी ने भी इस असार संसार का त्याग कर अपूर्व आराधना की और आयुष्य पूर्ण होने पर सनत्कुमार नाम के तृतीय देवलोक में गईं 140
2.3.21 सुलसा
दसवें तीर्थंकर शीतलनाथ की प्रमुखा श्रमणी थीं। तथा एक लाख बीस हजार श्रमणियों का नेतृत्व करती थीं। अन्यत्र कहीं एक लाख छह हजार साध्वियों का उल्लेख है, कहीं एक लाख छह साध्वी संख्या है।" दिगम्बर ग्रंथों में साध्वी संख्या तीन लाख अस्सी हजार प्राप्त होती है तथा सुलसा की जगह 'धरणा' नाम का उल्लेख मिलता है। 2 2.3.22 धारिणी
आप ग्यारहवें तीर्थंकर श्री श्रेयांसनाथजी की अग्रणी श्रमणी थी। एक लाख छह हजार आर्यिकाओं का नेतृत्व
35. (क) समवायांग सू. 649, गा. 43 पृ. 231 (ख) प्रापोने. भाग 1 पृ. 832
36. जै. मौ. इ. भाग 1, पृ. 815
37. (क) समवयांग सूत्र 634 गा. 9, (ख) तिलोयपन्नत्ती, गा. 526-549 (ग) जैन शासननां श्रमणी - रत्नो, पृ. 83
38. (क) समवायांग, सू. 649, गा. 43 पृ. 231 (ख) प्रापोने. भाग 1 पृ. 691
39. महापुराण 55/56
40. (क) समवायांग सूत्र 634 गा. 9, (ख) तिलोयपन्नत्ती, गा. 526-549 (ग) जैन शासननां श्रमणी - रत्नो, पृ. 83 41. समवायांग, सूत्र 649 प्राप्रोने. भा. 1 पृ. 839
42. म. पु. 56/54
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