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प्रागैतिहासिक काल से अर्हत् पार्श्व के काल तक निर्ग्रन्थ-परम्परा की श्रमणियाँ आपको प्राप्त था। तीर्थोद्गालिक में एक लाख तीन हजार साध्वी संख्या का भी उल्लेख है। दिगम्बर ग्रंथों में कहीं 'चारणा' कहीं 'धारणा' नाम आता है। साध्वी संख्या तिलोयपण्णत्ती में एक लाख तीस हजार तथा उत्तरपुराण में एक लाख बीस हजार दी है।
2.3.23 श्री विष्णुदेवी
ग्यारहवें तीर्थंकर श्री श्रेयांसनाथजी की माता तथा सिंहपुर के राजा विष्णु की महारानी थीं। भगवान के द्वारा तीर्थ-स्थापना के पश्चात् विष्णुदेवी ने भी संसार का त्याग कर ज्ञान, दर्शन चारित्र की उत्कृष्ट आराधना की, आयुष्य पूर्ण होने पर वे सनत्कुमार नामक तीसरे देवलोक में गईं।
2.3.24 धरणी
आप बारहवें तीर्थंकर श्री वासुपूज्य की प्रथम साध्वी थीं आपकी नेश्राय में तीन लाख तीन हजार श्रमणियों के दीक्षित होने का उल्लेख मिलता है। अन्यत्र एक लाख साध्वी परिवार का भी उल्लेख है। दिगम्बर परम्परा में आप 'वरसेना' अथवा 'सेना' के नाम से भी प्रसिद्ध हैं। वहाँ आपकी साध्वी संख्या एक लाख छह हजार निर्दिष्ट
2.3.25 रोहिणी
रोहिणी बारहवें तीर्थंकर श्री वासुपूज्य के पुत्र मघव की कन्या लक्ष्मी की पुत्री थी। आठ भाइयों की एक मात्र बहिन रोहिणी का स्वयंवर हस्तिनापुर के राजा अशोक के साथ हुआ। कालान्तर में सम्राट अशोक चम्पानगरी में भगवान वासुपूज्य के दर्शनार्थ आया। भगवान का उपदेश श्रवण कर अशोक ने दीक्षा अंगीकार की तथा भगवान के गणधर बने। रोहिणी ने भी आर्यिका दीक्षा अंगीकार की, वह अच्युत स्वर्ग में देव रूप से उत्पन्न हुई।48 रोहिणी द्वारा दीक्षा के पश्चात् 'रोहिणीव्रत' आराधन का भी उल्लेख दिगम्बर ग्रंथों में मिलता है।
उक्त कथानक श्वेताम्बर परम्परा के ग्रंथों में नहीं है, डॉ. शिवप्रसाद ने चम्पानगरी कल्प का वर्णन करते हुए उक्त कथा लिखी है, किन्तु उन्होंने भगवान वासुपूज्य के शिष्य रूप्यकुंभ-स्वर्णकुम्भ द्वारा पूर्वभव का वृत्तान्त सुनकर अशोक के प्रतिबोधित होने का तथा सपरिवार मुक्ति प्राप्त करने का उल्लेख किया है।
43. (क) समवायांग, सूत्र 649, गा. 43, (ख) प्राप्रोने. भा. 1 पृ. 408 44. जै. मौ. इ. भाग 1 पृ. 815, 817 45. (क) समवयांग सूत्र 634 गा. 9, (ख) तिलोयपन्नत्ती, गा. 526-549 (ग) जैन शासननां श्रमणी-रत्नो, पृ. 83 46. (क) समवायांग, सूत्र 649, गा. 43, (ख) प्राप्रोने. भा. 1 पृ. 404 47. जै. मौ. इ. भाग 1 पृ. 815, 817 48. (क) महापुराण पृ. 174. (ख) बृहत्कथाकोष, हरिषेण 57/20-25 (अशोक रोहिणी कथानकम्) 49. जैन व्रत कथा संग्रह, मोहनलाल शास्त्री, पृ. 55 50. जैन तीर्थों का ऐतिहासिक अध्ययन पृ. 125-127
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