________________
जैन श्रमणियों का बृहद इतिहास
4.9 समकालीन दिगम्बर परम्परा की श्रमणियाँ (विक्रम की बीसवीं सदी के उत्तरार्द्ध से वर्तमान तक)
दिगम्बर मुनि एंव आर्यिकाओं की अविच्छिन्न परम्परा अपने आविर्भाव काल से 15वीं 16वीं शताब्दी तक दिखाई देती है, उसके पश्चात् कोई ठोस प्रामाणिक सामग्री उपलब्ध नहीं होती। किसी गुटके में, ग्रंथ में या किंवदन्तियों से अथवा श्रुति परम्पराओं से छुटपुट किसी दिगम्बर मुनि का उल्लेख मिलता भी है तो वह किसी संघ के रूप में नहीं। स्वर्गीय कामताप्रसाद जी ने ढाका शहर में श्री नरसिंहमुनि (संवत् 1870) का, जयपुर में एक दिगम्बर मुनि (20वीं सदी) का, संवत् 1969 में चन्द्रसागर जी का, संवत् 1978 उदयपुर में आनंदसागर जी का तथा संवत् 1974 में अनंतकीर्ति जी आदि मुनियों के अस्तित्व का उल्लेख किया है, किंतु ये सूचनाएँ अत्यल्प हैं, इनमें भी दिगम्बर आर्यिकाएँ तो भट्टारक-परम्परा में ही दिखाई देती हैं, वह भी आचार्य धर्मचन्द्र भट्टारक की शिष्या शांतिमती इंदुमती बलात्कार गण कारंजा शाखा की उल्लिखित हैं। इनका अस्तित्व काल 1828 है, इसके पश्चात् बीसवीं सदी के उत्तरार्ध तक आर्यिकाओं के उल्लेख नहीं हैं।
दिगम्बर मुनि परम्परा की विच्छिन्न कड़ी को जोड़ने वाले आचार्य आदिसागरजी महाराज हुए, जो 'अंकलीकर' के नाम से प्रसिद्ध थे, इन्होंने 47 वर्ष की अवस्था में योग्य गुरू के अभाव में स्वयं ही कुन्थलगिरि सिद्धक्षेत्र पर प्राचीन आचार्य कुलभूषण देशभूषण को साक्षी मानकर संवत् 1971 में दीक्षा अंगीकार की इन्हें संवत् 1972 में अर्थात् दीक्षा के दूसरे ही वर्ष में चतुर्विध संघ ने आचार्य पद प्रदान किया था। आप आगम-मर्मज्ञ एवं महान तपस्वी थे, सात-सात दिन के पश्चात् आहार ग्रहण करते थे, निर्जन गुफाओं में ध्यान साधना करते थे। संवत् 2000 फाल्गुन कृ. 13 को 14 दिन की संलेखना पूर्वक देह त्याग किया।।52 आपके पश्चात् श्री महावीरकीर्ति जी महाराज आचार्य बने। आपकी शाखा में तपस्वी सम्राट् भारत गौरव सिद्धान्त चक्रवर्ती श्री सन्मतिसागरजी महाराज, स्व. आचार्य विमलसागरजी महाराज आचार्य भरतसागरजी महाराज वर्तमान में गणधराचार्य श्री कुन्थुसागर जी महाराज, आचार्य सम्भवसागर जी, आचार्य पुष्पदन्त सागर जी, आचार्य विरागसागर जी, आचार्य सुधर्म सागरजी ऐलाचार्य कनकनन्दिजी, आचार्य श्री पद्मनन्दिजी आदि आचार्य तथा गणिनी विज्ञानमतिजी, गणिनी श्री कुलभूषणमतिजी, गणिनी श्री कमलश्रीजी का विशाल संघ विद्यमान है।
दिगम्बर-परम्परा की द्वितीय शाखा चारित्र चक्रवर्ती आचार्य शांतिसागरजी म. (दक्षिण) की है। इन्होंने संवत् 1977 में श्री देवेन्द्रकीर्तिजी से मुनि दीक्षा अंगीकार की, 4 वर्ष पश्चात् समडोली में चतुर्विध संघ द्वारा आचार्य पद प्राप्त करने के बाद इन्होंने कई मुमुक्षुओं को दीक्षा प्रदान की। इनके शिष्य आचार्य वीरसागरजी, आचार्य शिवसागरजी आचार्य ज्ञानसागरजी, आचार्य विद्यासागरजी, आचार्य धर्मसागरजी, आचार्य अजितसागरजी, आचार्य श्रेयांससागरजी, आचार्य वर्धमानसागरजी, आचार्य अभिनंदनसागरजी तथा गणिनी ज्ञानचिंतामणिश्री, ज्ञानमतीजी, गणिनी श्रेयांसमतिजी, गणिनी विजयमतिजी गणिनी सुपार्श्वमतिजी आदि एवं आचार्य विद्यासागरजी की संघस्था आर्यिकाएँ हैं।
दिगम्बर की तृतीय शाखा आचार्य शांतिसागरजी 'छाणी' की है। इस परम्परा में आचार्य सूर्यसागरजी, आचार्य विजयसागरजी, आचार्य विमलसागरजी, वर्तमान में आचार्य निर्मलसागरजी (गिरनार वाले) आचार्य नेमिसागरजी, आचार्य शांतिसागरजी (नमोक्कार मंत्र वाले) आचार्य सुमतिसागरजी आदि प्रसिद्ध आचार्य तथा गणिनी ज्ञानमतिजी 151. दिगम्बरत्व और दिगम्बरमुनि पृ. 149 152. दिगम्बरत्व और दिगम्बर मुनि, पृ. 150
230
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org