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दिगम्बर परम्परा की श्रमणियाँ (गुजरात), गणिनी विशुद्धमतिजी, गणिनी स्याद्वादमतीजी गणिनी कीर्तिमतीजी आदि आर्यिका संघ है। उक्त तीनों समकालीन आचार्यों की वर्तमान में कल 12 गणिनी आर्यिकाएँ. 358 आर्यिकाएँ एवं 72 क्षल्लिकाएँ विचरण कर रही
अग्रिम पृष्ठों पर हम वर्तमान दिगम्बर परम्परा की सर्वप्रथम दीक्षिता साध्वी श्री चन्द्रमतीजी से प्रारंभ कर कालक्रमानुसार कुछ प्रमुख आर्यिकाओं और क्षुल्लिकाओं का उपलब्ध जीवनवृत्त व अनुदान का विवरण प्रस्तुत कर रहे हैं उसके उपरांत जिनका सामान्य जीवन-परिचय ही प्राप्त हुआ उन्हें तालिका में दे रहे हैं। शेष आर्यिकाओं के नाम व गुरू का नाम मात्र ही वर्षावास सूची से प्राप्त हुआ है, उनका उल्लेख तदनुरूप करके ही संतोष करना पड़ रहा है।
4.9.1 आर्यिका श्री चन्द्रमतीजी (20वीं सदी)
आर्यिका चन्द्रमतीजी वर्तमान समय की प्रथम दीक्षित आर्यिका थीं, इनके पूर्व भारत भर में दिगम्बर आर्यिका पद पर कोई विद्यमान नहीं था इन्होंने 500 वर्षों से विच्छिन्न श्रमणी परम्परा को उत्तरभारत में पुनः कायम किया। इनकी दीक्षा चारित्र चक्रवर्ती आचार्य शांतिसागरजी महाराज द्वारा हुई थी। ये महाराष्ट्र के पूना जिले के वाल्हे गांव की निवासी थी, 13 वर्ष में इनका पाणिग्रहण हो गया था जन्म नाम केसरबाई था, विकाश्रम में रहकर अध्ययन की इच्छा को पूर्ण करने के लिये पिता ने घर पर ही पंडित नानाजी नाग के तत्वावधान में शिक्षण करवाया।
कहा जाता है कि आचार्य शांतिसागरजी ने अनेक महिलाओं को प्रार्थना करने पर भी दीक्षित नहीं किया था, किन्तु केसरबाई को यह कहकर दीक्षित किया, कि 'नमूना तो बनो।"54 सचमुच ही ये भावी आर्यिका संघ के लिये उत्कृष्ट नमूना सिद्ध हुई।
इन्होंने आत्मशुद्धि को जीवन का परम ध्येय मानकर चारित्रशुद्धि व्रत प्रारंभ किये जिसमें 1234 उपवास आते हैं। इनकी पवित्र और उज्जवल भावनाओं का जन-जन पर अमिट प्रभाव पड़ता था। दिल्ली के सुप्रसिद्ध नये मन्दिरजी में शुभ्रवर्णी सहस्रकूट चैत्यालय एवं दिगम्बर जैन लालमन्दिर के उद्यान में सुन्दर मानस्तम्भ इन्हीं की प्रेरणा का फल है। 101 वर्ष की उम्र में दिल्ली महिलाश्रम दरियागंज में ये स्वर्गवासिनी हुई।
4.9.2 आर्यिका श्री धर्ममतीजी (संवत् 1993-2004)
आपका जन्म 1898 ईसवी में कुचामन के पास लूणवां नामक ग्राम के निवासी चम्पालालजी जैन के घर हुआ। 14 वर्ष की आयु में वर्धा निवासी लखमीचन्द्रजी कासलीवाल के साथ विवाह और फिर वैधव्य से संसार की असारता का अनुभव हुआ। सन् 1936 को कुन्थलगिरि में श्री जयकीर्ति जी महाराज से आर्यिका दीक्षा ग्रहण की। आप सौम्य मुखाकृति, गंभीर प्रकृति, उग्र तपस्विनी तथा निरन्तर अध्ययनादि में निरत रहती थीं। सन् 1936 से 1947 तक के 11 चातुर्मासों में आगम विहित आचाम्लव्रत, एकावलीव्रत, चान्द्रायण व्रत, पुनः एकावली मुक्तावली, सिंहनिष्क्रीड़ित, सर्वतोभद्र, दुकावली व्रत, रत्नावली, शान्तकुम्भ व मेरूपंक्ति आदि अनेक प्रकार की तप साधना की। आपने अपने 153. जैन बाबूलाल 'उज्जवल', समग्र जैन चातुर्मास सूची, खंड 4, 2004 ई., बम्बई 154. आर्यिका रत्नमती अभिनंदन ग्रंथ, पृ. 407
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