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________________ जैन श्रमणियों का बृहद इतिहास जीवनकाल में कुल तीन हजार उपवास किये। अंत में खानियां (जयपुर) में आचार्य देशभूषण जी महाराज के सान्निध्य में समाधिमरण प्राप्त किया।155 4.9.3 आर्यिका श्री वीरमतीजी (संवत् 1995) आपका जन्म खंडेलवाल परिवार में जयपुर निवासी श्री जमुनालाल जी के यहां हुआ, विवाह के पश्चात् भावविशुद्धि से सिद्धवरकूट सिद्धक्षेत्र में आचार्य शांतिसागरजी से क्षुल्लिका दीक्षा एवं इन्दौर में संवत् 1995 में आचार्य वीरसागरजी से आर्यिका दीक्षा ली। आपको संस्कृत व हिंदी पर विशेष अधिकार है, राजस्थान एवं मध्यप्रदेश में विचरण कर आपने धर्म की वृद्धि की, दूध के अलावा संपूर्ण रसों का त्याग कर आप विषयों से विरक्त बन गई।156 4.9.4 आर्यिका श्री विमलमतीजी (संवत् 2002-34) आपका जन्म ग्राम मुंगावली (म.प्र.) में श्री रामचन्द्रजी परवार के यहां चैत्र शु. 13 सं. 1962 को हुआ। 12 वर्ष की वय में विधवा होने के पश्चात् आप विद्याध्ययन कर नागौर की कन्या पाठशाला में अध्यापिका पद पर 8 वर्ष तक रहीं। संवत् 2000 में क्षुल्लिका दीक्षा तथा संवत् 2002 में पूज्य वीरसागरजी महाराज से आर्यिका दीक्षा अंगीकार की। आपने नागौर एवं उसके आसपास के क्षेत्रों में ही धर्मप्रचार किया, कई ग्रंथों का आपके द्वारा प्रकाशन हुआ है। यथा-कल्याण पाठ संग्रह, नित्यनियमपूजा, भक्तामर कथा, शांतिविधान, देववंदना, समाधितन्त्र, इष्टोपदेश, स्वरूप संबोधन, जिनसहस्र स्तवन, द्वादश अनुप्रेक्षा, नवधा भक्ति, आराधना कथाकोष 1-3 भाग, (हिंदी व संस्कृत)। संवत् 2034 वैशाख शुक्ला 1 को नागौर में ही आपका स्वर्गवास हुआ।'57 4.9.5 आर्यिका श्री पार्श्वमतीजी (संवत् 2002) आश्विन कृ. 3 संवत् 1956 के दिन जयपुर के खेड़ा ग्राम में श्रीमान् मोतीलाल जी वोरा के यहां आपका जन्म हुआ। आठ वर्ष की उम्र में आपका विवाह जयपुर निवासी श्री लक्ष्मीचन्द्रजी से हुआ, श्वसुर पक्ष में सभी व्यक्ति शिक्षित योग्य व संपन्न थे, आपके श्वसुर सात ग्राम के जमींदार थे, किंतु असमय में ही पति वियोग ने आपके अन्तर् में वैराग्य की प्रबल ज्योति जागृत कर दी, आप व्रत-नियमों का कठोरता से पालन करने लगीं, वि. संवत् 1997 में आचार्य वीरसागरजी से क्षुल्लिका दीक्षा ली, ज्ञान-चारित्र में उत्तरोत्तर उन्नति करती हुई आप आश्विन पूर्णमासी संवत् 2002 को झालरापाटन में आचार्य वीरसागरजी से आर्यिका के रूप में दीक्षित हो गईं। इस प्रकार आप तप एवं साधना में संलग्न रहकर ज्ञान और चारित्र के मार्ग पर अग्रसर रहीं।।58 155. वही, पृ. 410 156. दिगम्बर जैन साधु, पृ. 143 157. वही, पृ. 144 158. वही, पृ. 147 1232 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001693
Book TitleJain Dharma ki Shramaniyo ka Bruhad Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijay Sadhvi Arya
PublisherBharatiya Vidya Pratishthan
Publication Year2007
Total Pages1076
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Biography
File Size24 MB
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