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________________ पूर्व पीठिका 1.15.1.5 अभिषेका पदारोहण या प्रतिष्ठापन अर्थ में अभिषेक पद प्रयुक्त होता है। भाष्य में 'अभिसेगपत्ता-'अभिषेकप्राप्ता' प्रवर्तिनी पद योग्या 181 कहकर उसे प्रवर्तिनी पद के योग्य माना गया है। इससे ऐसा प्रतीत होता है कि प्रवर्तिनी की मृत्यु के पश्चात् जिस योग्य गीतार्थ श्रमणी को प्रवर्तिनी पद पर अभिषिक्त करना होता था उसे 'अभिषेका' कहते थे। भाष्य में गणावच्छेदिका को भी 'अभिषेका' कहा है। पद की दृष्टि से अभिषेका का स्थान गणावच्छेदिनी से भिन्न माना गया है। प्रवर्तिनी और गणावच्छेदिनी की अपेक्षा उसके दण्ड-विधान की मात्रा भी न्यून है। 82 किंतु स्थविरा, भिक्षुणी एवं क्षुल्लिका से अभिषेका का दर्जा ऊँचा है। संयम गुणों को नष्ट करने वाली प्रवृत्ति करने पर अभिषेका' को स्थविरा सदृश माना गया है। 83 कहीं-कहीं अभिसेगा और गणिनी समकक्ष कही गई है। 84 सारांश यह है कि श्रमणी का 'अभिषेका' पद गरिमामय पद था, जो प्रवर्तिनी अथवा गणिनी की वृद्धावस्था में उसके कार्यों का उत्तरदायित्व संभालने हेतु और भावी गणिनी के रूप में प्रदान किया जाता था। 1.15.1.6 प्रतिहारी प्रतिहारी निर्ग्रन्थी को प्रतिश्रयपाली. द्वारपाली अथवा संक्षिप्त में 'पाली' शब्द से भी संबोधित किया जाता था। यह साध्वियों में प्रतिभासंपन्न, शरीर से सुदृढ़, निर्भीक एवं उच्च कुलोत्पन्न साध्वी होती थी, इसका वय एवं बुद्धि से परिपक्व एवं गीतार्थ तथा भुक्तभोगिनी होना भी आवश्यक था।185 विहार-मार्ग में आपात्कालीन स्थिति में द्वारपाल के रूप में इसे नियुक्त किया जाता था।।86 यह सभी श्रमणियों के लिये 'GUARD' के रूप में कार्यरत रहती थी। यदि किसी श्रमणी को दोनों हाथ ऊपर करके आतापना लेने की इच्छा हो तो प्रतिहारी का आगे खड़ा होना जरूरी था।87 प्रतिहारी को 'रात्निक' अथवा 'रत्नाधिक श्रमणी' माना जा सकता है। 1.15.1.7 स्थविरा सामान्य रूप से स्थविरा का अर्थ वय से परिपक्व एवं बहुत वर्षों की दीक्षित साध्वी के लिये प्रयुक्त होता था।88 भुक्तभोगी और कुतूहल रहित निर्विकारी गीतार्थ को भी 'स्थविर' कहा है।189 181. बृहत्कल्प भाष्य, भा. 4, गाथा 4339 की टीका 182. प्रवर्तिनी यद्याचार्याणां कथयतां न शृणोति तदा चत्वारो गुरवः, प्रवर्तिन्याः पार्वे गणावच्छेदिनी न श्रृणोति चत्वारो लघवः, अभिषेका न श्रृणोति मासगुरू। -बृहत्कल्प भाष्य, भाग 2, गा. 1044 183. 'थेर सरिच्छी तु होइ अभिसेगा'-बृहत्कल्प भाष्य भाग 6, गा. 6111 184. "गणिनी अभिषेका तस्याः सदृशः" वही, भा. 3, गा. 2411 की टीका 185. कारण उवचिया खलु, पडिहारी संजईण गीयत्था। परिणय भुत्त कुलीणा, अभीरू वायामिय सरीरा। ___ -बृहत्कल्प भाष्य भा. 5-6, गा. 2334 186. सा च प्रतिहारी द्वारमूले संस्तारयति।' सा य पडिहारी दारमूले सुवतीति चूर्णो -वही भाग 3, गा. 2333 187. पालीहिं जत्थ दीसइ, जत्थ य सरं विसंति न जुवाणा। उग्गहमादिसु सज्जा, आयावयते तहिं अज्जा।। -वही, भाग 3, गा. 5951 188. 'थेरीहिं-स्थविराभिः वृद्धाभिः।' -मूलाचार 4/194 टीका 189. 'उवभुत्तभोगथेरेहिं'-उवभुत्तभोगी भुत्तभोगिणो विगतकौतुकाः निर्विकारा गीतार्था ते य थेरा' -निशीथ भाष्य 611 39 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001693
Book TitleJain Dharma ki Shramaniyo ka Bruhad Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijay Sadhvi Arya
PublisherBharatiya Vidya Pratishthan
Publication Year2007
Total Pages1076
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Biography
File Size24 MB
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