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________________ जैन श्रमणियों का बृहद इतिहास और गणिनी एकार्थक रूप में वर्णित है। कहीं प्रवर्तिनी और गणिनी का पृथक-पृथक् दण्ड. विधान भी है। 74 वस्तुतः गणिनी पद को धारण करने वाली श्रमणी में अनेक गुणों तथा योग्यताओं का होना आवश्यक था। वह अत्यन्त विदुषी तथा प्रशासनिक कार्यों में दक्ष होती थी। यद्यपि वह स्वाध्याय तथा ध्यान में सदा लीन रहती थी तथापि जिनशासन की रक्षा का प्रश्न उपस्थित हो जाने पर वह उग्र रूप धारण कर लेती थी। शिक्षा प्रदान करने में वह किसी प्रकार का प्रमाद या आलस्य नहीं करती थी। गणिनी को गुणसम्पन्न कहा गया है। वह संघ की मर्यादा की रक्षा में सदा तत्पर रहती थी तथा साध्वियों की संख्या में वृद्धि का सतत प्रयत्न करती थी। 75 1.15.1.4 गणावच्छेदिका श्रमण के लिये 'गणावच्छेदक' का उल्लेख स्थानांगसूत्र76 एवं आवश्यक चूर्णि'77 में हुआ है। किंतु श्रमणियों के लिये इस पद का प्रयोग केवल छेदसूत्रों में ही देखा जाता है। वहाँ सर्वत्र ‘पवत्तिणी वा गणावच्छेइणी वा' इस प्रकार शब्द-प्रयोग हुआ है। गणावच्छेदिनी प्रवर्तिनी की प्रमुख सहायिका होती है। इनका कार्यक्षेत्र गणावच्छेदक के समान ही विशाल होता है और यह प्रवर्तिनी की आज्ञा से साध्वियों की व्यवस्था, सेवा, प्रायश्चित् आदि सभी कार्यों की देखरेख करती है। श्रमणियों के विहार, वर्षावास के क्षेत्रों की उपयुक्तता देखना भी इनका कार्य है। प्रवर्तिनी की अनुपस्थिति में आवश्यक कार्यों में ये स्वयं प्रवृत्ति भी कर लेती हैं। प्रवर्तिनी की समस्त चिंताओं को ये अपने सिर पर ओढ़ लेती हैं। प्रवर्तिनी के समान ही इस पद के लिये भी आचार-प्रकल्प की सम्यक् जानकारी आवश्यक है। ये आगमज्ञा, संघ-हितैषी, चतुर व प्रतिभाशालिनी होती हैं। गणावच्छेदिनी को शेषकाल में कम से कम अन्य तीन साध्वियों के साथ एवं वर्षावास में अपने से अन्य चार अर्थात् कुल 5 साध्वियों के साथ रहने का विधान है। 78 दण्ड-व्यवस्था में प्रवर्तिनी और गणावच्छेदिनी सदृश दोष की भागी होने पर भी प्रवर्तिनी की अपेक्षा उसे न्यून प्रायश्चित् दिया जाता है उसी अपराध का सेवन करने पर प्रवर्तिनी को अधिक प्रायश्चित् आता है। 79 साध्वी-संघ में 'गणावच्छेदिनी' का वही स्थान है जो श्रमण-संघ में उपाध्याय का है। इसलिये गणावच्छेदिनी को 'उपाध्याया' के रूप में भी पहचाना जाता है। 80 174. (क) छेदो गणिणीए मूलं पवित्तिणी पुण-निशीथ भाष्य, उ. 16 गा. 5335 (ख) गणिणि सरिसो उ थेरो, पवत्तिणी सरिसओ भवे भिक्खू। - वही, 5336 175. समा सीस पडिच्छीणं, चोअणासु अणालसा। गणिणी गुणसंपन्ना पसत्थपुरिसाणुगा।। संविग्गा भीय परिसा य उग्गदंडा य कारणे। सज्झायज्झाण जुत्ता या, संगहे अ विसारआ।। -गच्छाचार पइन्ना, 127-128 176. स्थानांग 3/362,4/434 177. आवश्यक चूर्णि 1/130, 131 178. व्यवहार सूत्र, उ. 5 सू. 3-43; 7-8 179. बृहत्कल्प भाष्य, भाग 2 गा. 1044, 1071 180. "आचार्य स्थाने प्रवर्तिनी, वृषभस्थाने गणावच्छेदिनी वक्तव्या।" -बृहत्कल्प भाष्य, भाग 2, गा. 1070 ('वृषभ' का अर्थ यहां उपाध्याय लिया है) 38 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001693
Book TitleJain Dharma ki Shramaniyo ka Bruhad Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijay Sadhvi Arya
PublisherBharatiya Vidya Pratishthan
Publication Year2007
Total Pages1076
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Biography
File Size24 MB
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