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________________ जैन श्रमणियों का बृहद इतिहास गये। साध्वी पुष्पचूला आचार्य की गोचरी लाने की सेवा करती। शुभ अध्यवसाय स्वरूप जब संपूर्ण कर्म क्षीण हो गये और वह केवली हो गई, तब भी उसने पूर्व आचरित विनय को नहीं छोड़ा। अब तो वह आचार्य के लिये और भी मनोभिप्सित वस्तुएँ लेकर आने लगी, आचार्य को अत्यंत आश्चर्य होता था, किंतु पुष्पचूला केवली ने कभी कुछ नहीं बताया। एक बार जब वर्षा में भी वह गोचरी लेकर आई तो आचार्य ने पूछा -'तुम वर्षा में आई हो?' पुष्पचूला बोली- 'जिधर अचित्त वर्षा थी, उधर से आई हूँ।' ऐसा कहने पर आचार्य को उसके केवली होने का रहस्य प्रकट हुआ। उन्होंने पुष्पचूला से क्षमायाचना की। पुष्पचूला केवली पर्याय में कितने वर्ष रही और उनका निर्वाण कब हुआ इसकी निश्चित् तिथि तो ज्ञात नहीं है, किंतु अन्निकापुत्र का निर्वाण वी. सं. 11-12 में हुआ, इससे इतना अवश्य कहा जा सकता है, कि वह भी वी. नि. 12 के पश्चात् मोक्ष को प्राप्त हुई। अवदान : संसार में रहकर एक राजा की रानी के रूप में भाई के प्रति अनन्य स्नेह होने पर भी पुष्पचूला सदा साध्वी, सती और अखंड ब्रह्मचारिणी बनी रही और अंत में भाई/पति के अनुराग को भी क्षीण कर शाश्वत लक्ष्य को प्राप्त कर गई, इतिहास का यह अभूतपूर्व प्रेरक प्रसंग है। 3.3.1.6 तरंगवती/साध्वी सुव्रता (वी. नि. प्रथम दशक के लगभग) चन्दनबाला आर्या के संघ में उक्त श्रमणी का उल्लेख एवं उसकी विस्तृत कथा आचार्य पादलिप्तसूरि ने लिखी। रचना समय वि. सं. 151 से 219 के मध्य का है। यह कथा आज मूल रूप में प्राप्त नहीं है। लेकिन इसका संक्षिप्त रूप जिसका दूसरा नाम तरंगलोला भी है। वह श्री नेमिचन्द्रगणि ने तरंगवती कथा के लगभग 100 वर्ष पश्चात् अपने 'यश' नामके शिष्य के स्वाध्याय हेतु लिखी थी। इसमें 1642 गाथाएँ हैं। अद्भुत रस युक्त यह कथा आत्मकथा के रूप में वर्णित है। ____ तरंगवती महासती चंदनबाला की प्रशिष्या के रूप में उल्लिखित हुई हैं। राजा कोणिक के राज्य में वह एकबार धनपाल श्रेष्ठी के घर भिक्षाचर्या के लिए गई तो उसकी शोभा नाम की पत्नी ने साध्वी के अनुपम रूप-सौन्दर्य से मुग्ध होकर पूछा कि, "हे आर्ये! आप त्रिलोक का सारा सौन्दर्य लेकर क्यों विरक्त हुईं? मेरे मन में आपका परिचय जानने की तीव्र उत्कंठा है।" तब साध्वी तरंगवती (सुव्रता) ने अपने गृहस्थ जीवन का परिचय देते हुए कहा- “मैं एकबार अपनी सखियों के साथ नगर के बाह्य उद्यान में गई, वहाँ एक चकवा पक्षी को देखकर मुझे जातिस्मरण ज्ञान हो गया, अर्थात् मैं भी पूर्वजन्म में किसी चकवे के साथ चकवी के रूप में गंगा नदी के तट पर क्रीड़ा कर रही थी, उस समय किसी शिकारी ने मेरे पति चकवे की हत्या कर दी, मैंने भी उसके वियोग में तड़फ-तड़फ कर प्राण त्याग दिये, वहाँ से मैं एक श्रेष्ठी के यहाँ कन्या रूप में उत्पन्न हुई। जाति-स्मरण ज्ञान द्वारा अपने पूर्वभव के पति चकवे की खोज करने के लिए मैंने उसका व अपना क्रीड़ा करते हुए का दृश्य चित्रित कर कौशाम्बी नगरी के चौराहे पर रख दिया। वहाँ के श्रेष्ठी-पुत्र पद्मदेव ने उस चित्र को देखा उसे भी जातिस्मरण ज्ञान हो गया। हम दोनों का परस्पर स्नेह वृद्धिंगत होता गया, किंतु पिता की विवाह-हेतु अनुमति नहीं मिलने से हम नाव में बैठकर भाग गए, आगे चोरों ने हमें पकड़ लिया, और बलि हेतु कात्यायनी देवी के समक्ष ले गये। जीवन-रक्षा के लिए मैंने अत्यन्त 49. (क) आव. चू. उत्तरार्ध, हरि. वृत्ति, पृ. 177-79 (ख) आव. नि., भाग 1 पृ. 286 एवं भाग 2 पृ. 132 (ग) प्राप्रोने. 1 पृ. 468, (घ) जै. सा. बृ. इ., भाग 6 पृ. 319 50. प्राकृत भाषा और साहित्य का आलोचनात्मक इतिहास, डॉ. नेमिचंद्र शास्त्री, पृ. 450-56 184 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001693
Book TitleJain Dharma ki Shramaniyo ka Bruhad Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijay Sadhvi Arya
PublisherBharatiya Vidya Pratishthan
Publication Year2007
Total Pages1076
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Biography
File Size24 MB
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