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महावीर और महावीरोत्तरकालीन जैन श्रमणियाँ
में
करूण विलाप किया, इससे द्रवित होकर चोरों के सरदार ने हमें मुक्त कर दिया। हम भटकते हुए कौशाम्बी नगरी पिता ने धूमधाम से शादी की। कुछ वर्षों के बाद भोगों से उपरत होकर मैंने साध्वी प्रमुखा चंदनबाला के संघ में प्रव्रज्या अंगीकार कर ली और आज मैं आपके यहाँ गोचरी हेतु आई हूँ।"
आए,
अवदान : तरंगवती ने साध्वी सुव्रता के रूप में संयम और तप की विशिष्ट आराधना की। ग्रामानुग्राम विचरण कर भगवान महावीर के अहिंसामय धर्म को सर्वत्र प्रचारित किया। कई प्राचीन ग्रंथों में तरंगवती का उदात्त शब्दों में स्मरण किया गया है। वी. नि. संवत् 1 में भद्रा, समुद्रश्री आदि 17 श्रेष्ठी - महिलाओं ने जिन सुव्रता साध्वी के पास दीक्षा अंगीकार की, संभव है वह यही सुव्रता हो ।
3.3.1.7 धारिणी “द्वितीय" (वी. नि. 24-60 के लगभग )
महापराक्रमी राजा चण्डप्रद्योत की मृत्यु के पश्चात् पालक उज्जयिनी का राजा बना। उसके दो पुत्र थे। अवतीवर्धन और राष्ट्रवर्धन । धारिणी राष्ट्रवर्धन की पत्नी थी, यह अत्यन्त रूपसंपन्ना थी, अवन्तीवर्धन ने धारिणी की रूप-सुधा पर मोहित होकर अपने लघु भ्राता राष्ट्रवर्धन की हत्या कर दी। सतीत्व की रक्षा हेतु धारिणी चुपचाप राज्य त्याग कर कौशाम्बी चली गई, वहां गर्भावस्था में ही साध्वी समुदाय के पास दीक्षित हो गईं।
गर्भावधि पूर्ण होने पर धारिणी ने पुत्र को जन्म दिया, संयम- मर्यादा हेतु उसने अपने शिशु को जंगल में एकान्त स्थान पर रख दिया, कौशाम्बी के राजा अजयसेन ने इस नवजात शिशु को उठाकर निःसंतान रानी को दे दिया, रानी ने अत्यंत हर्षित होकर शिशु को अपनी गोद में लिया और बालक का नाम 'मणिप्रभ' रख दिया। कालान्तर में धारिणी का प्रथम पुत्र 'अवन्तिसेन' जिसे वह उज्जैन में ही छोड़ आई थी, वह उज्जैन के सिंहासन पर बैठा, और अजयसेन राजा का पालित पुत्र 'मणिप्रभ' कौशाम्बी के राज सिंहासन पर बैठा। अलग-अलग राज्य के स्वामी दोनों भ्राताओं में एकबार किसी बात पर युद्ध छिड़ गया, साध्वी धारिणी को ज्ञात हुआ तो वह रक्तपात रोकने के लिये युद्धस्थल पर आई, दोनों को उनका असली परिचय देकर उनमें भ्रातृ-स्नेह स्थापित किया।”
अवदान : श्रमणी धारिणी ने युद्ध की भयावह हिंसा को रोककर अहिंसा का महत्त्व स्थापित किया, तथा समयोचित निर्णय लेकर अपनी विवेक बुद्धि का परिचय दिया, जो अनुकरणीय आदर्श है।
3.3.1.8 विगतभया (वी. नि. 44 के लगभग )
धर्मवसु आचार्य के शिष्य धर्मघोष और धर्मयश के संघ की महत्तरा साध्वी विनयमती की ये शिष्या थी, जो जप-तप ध्यान में अग्रणी थी। उसने भक्त - प्रत्याख्यान संथारा धारण किया, और संलेखना समाधि पूर्वक मृत्यु का वरण किया। कौशाम्बी के संघ ने अत्यन्त ऋद्धि के साथ उनका भव्य मृत्यु- महोत्सव मनाया। उस समय कौशाम्बी में अजितसेन का राज्य होने का भी उल्लेख है। 3
51. (क) महापुरिसचरियं, आचार्य शीलांक, पत्र 641, (ख) जै. सा. बृ. इ. भाग 6, पृ. 335, (ग) ऐतिहासिक लेख संग्रह, पू. 525
52. (क) आव. नि. हरि वृ. भाग 2 पृ. 140-141, गाथा 1287 (ख) प्राप्रोने, भाग 1 पृ. 409
53. कोसंबिय जियसेणे धम्मवसू धम्मघोस धम्मजसे । विगयभया विणयवई इड्ढि विश्रुसा य परिकम्मे ।। आव. नि., भाग 2, गाथा 1286, पृ. 139
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