SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 71
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ पूर्व पीठिका गया था।" इस आश्रम के द्वारा मनुष्य अपने चरम लक्ष्य मोक्ष की प्राप्ति कर सकता है। किंतु यह विधान पुरूषों के लिये ही था, स्त्रियों के लिये नहीं । वैदिक युग में जिन नारियों को उपनयन (यज्ञोपवीत धारण करना) करने, वेद पढ़ने, साथ ही यज्ञ करने और कराने के अधिकार प्राप्त थे, उत्तरवर्ती काल में वह उन संपूर्ण अधिकारों से वञ्चित हुई देखी जाती हैं। पाणिनी ने वैदिक शाखाओं की स्त्रियों के लिये 'उपाध्याय' के साथ 'उपाध्यायी' तथा 'उपाध्यायानी' शब्द दिया है। 30 इन शब्दों से यह सिद्ध होता है कि उस समय स्त्रियाँ वेद-शास्त्रों का अध्ययन एवं अध्यापन करने का सम्मानजनक कार्य करती थी, किंतु आगे चलकर जैसे पुरूषों को ब्रह्मचर्य आश्रम में गुरूकुल में रहकर गुरू की सेवा करने का निर्देश था, वैसे स्त्रियों के लिये ब्रह्मचर्य या गुरूकुल में रहकर विद्याध्ययन करना अधर्म समझा जाने लगा। मनुस्मृति में तो यहाँ तक कह दिया कि 'कन्या के लिये विवाह ही उपनयन संस्कार है । पतिसेवा ही गुरूकुलवास है और गृहस्थी के कार्य ही अग्नि परिक्रिया है । " नारी का उचित धर्म है, अपनी जाति के पुरूषों से सन्तानोत्पति करना। पति को देवतुल्य मानकर उसकी आज्ञा का पालन करना, उसकी सेवा शुश्रूषा में सतत संलग्न रहना; इसके लिये नारी को विवाह करना अनिवार्य है। अविवाहित स्त्री मोक्ष प्राप्त नहीं कर सकती। ऋषि कूणि की पुत्री सुश्रू ने कठोर तपस्या की, तप करते-करते वह जरा जीर्ण अवस्था को प्राप्त हो गई तथापि वह इसलिये मोक्ष में नहीं जा सकी, चूंकि वह अविवाहित थी। निदान उसने अपनी तपस्या का अर्द्धभाग ऋषि श्रृंगी को प्रदान कर उनसे विवाह किया। सुभ्रू एक रात अपने पति के पास रही उसके बाद ही वह स्वर्ग में जा सकी। 32 वसिष्ठ तथा बौधायन धर्मसूत्र में वर्णन है कि मनुष्य तीन ऋणों से ऋणी होकर जन्म ग्रहण करता है - ऋषिऋण, देवऋण और पितृऋण। स्वाध्याय द्वारा ऋषिऋण, यज्ञ द्वारा देवऋण एवं प्रजनन द्वारा पितृऋण से उऋण हुआ जा सकता है। इनमें से दो ऋणों से मुक्ति प्राप्त करने के लिये गृहस्थाश्रम यानि विवाह करना अनिवार्य है।” गृहस्थाश्रम के कर्त्तव्य पूर्ण करने के पश्चात् वानप्रस्थ आश्रम में वह चाहे तो स्वेच्छा से अपने पति के साथ जा सकती है। किंतु संन्यास आश्रम में वह पति के साथ भी प्रवेश नहीं कर सकती। ऋषि अत्रि का कथन है कि जो स्त्री को संन्यास में प्रविष्ट कराता है, वह पुरुष पाप का भागी है। वह दंड के योग्य है। वहां नारी एवं शुद्र के लिये छः कार्य वर्जित कहे हैं - (1) जप (2) तप ( 3 ) प्रव्रज्या (4) तीर्थयात्रा (5) मन्त्र - साधन (6) देवताराधन 1 34 उपनिषदों में नारी संन्यास के कतिपय उदाहरण : पी. वी. काणे ने अपने 'धर्मशास्त्र का इतिहास' में कहा है कि ब्राह्मणवादी काल में कभी-कभी नारियाँ भी संन्यास धारण कर लेती थीं उन्होंने मिताक्षरा द्वारा बौधायन के एक सूत्र " स्त्रीणा चैके " का उद्धरण देते हुए लिखा है कि कुछ आचार्यों के मत में नारियाँ भी संन्यास आश्रम प्रविष्ट हो सकती थीं । पतञ्जलि के महाभाष्य में 'शंकरा' 29. अष्टाध्यायी 4/1/48 30. वैवाहिको विधि: स्त्रीणां संस्कारो वैदिक स्मृतः । पतिसेवा गुरौवासः गृहार्थोऽग्नि परिक्रिया ।। -मनुस्मृति 2/67 31. अष्टाध्यायी 4/1/48 32. महाभारत, शल्यपर्व 52/3-9 33. युक्तः स्वाध्याये यज्ञे प्रजनने च वसिष्ठ धर्मसूत्र 8 / 11 34. डॉ. प्रीतिप्रभा गोयल, भारतीय संस्कृति, पृ. 136-37 Jain Education International 9 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001693
Book TitleJain Dharma ki Shramaniyo ka Bruhad Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijay Sadhvi Arya
PublisherBharatiya Vidya Pratishthan
Publication Year2007
Total Pages1076
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Biography
File Size24 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy