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जैन श्रमणियों का बृहद इतिहास नाम की एक परिव्राजिका का उल्लेख आता तथा कालिदास रचित नाटक 'मालविकाग्निमित्र' में पंडिता 'कौशिकी' को संन्यासी के वेश में दर्शाया है। 35
कैवल्योपनिषद् (3) का उद्धरण देते हुए उन्होंने कथन किया है कि "न तो कर्मों से, न सन्तानोत्पत्ति से और न धन से ही बल्कि त्याग से कुछ लोगों ने मोक्ष प्राप्त किया । " ऐसे त्याग के लिये शूद्रों एवं नारियों दोनों को छूट है। 36 विनोबा जी ने नारियों के त्याग में सर्वोत्तम त्याग याज्ञवल्क्य की पत्नी मैत्रेयी का बताया है। 7
'मैत्रेयी' ब्रह्मवादिनी थी, वह सत्य ज्ञान की खोज में रहा करती थी, उसने अपने पति से ऐसा ज्ञान मांगा जो उसे अमर कर सके। उसने याज्ञवल्क्य से आत्मज्ञान प्राप्त कर समस्त संपत्ति का त्याग कर दिया और पति के साथ ही वन की ओर प्रस्थान कर गई 1 38
इसी प्रकार वचक्नु ऋषि की कन्या 'वाचक्नवी' (गार्गी) भी अत्यन्त ब्रह्मनिष्ठ थीं और परमहंस की तरह विचरण किया करती थीं। दैवराति जनक की सभा में इनका याज्ञवल्क्य के साथ शास्त्रार्थ हुआ था। कहा जाता है, गार्गी ने प्रश्नों की ऐसी बोछार की कि याज्ञवल्क्य की बुद्धि भी चकरा उठी थी। ऋग्वेदियों के ब्रह्मयाग तर्पण में भी गार्गी का नाम आता है। 39
देवहूति कर्दम ऋषि की पत्नी थी, एवं भगवान कपिल की माता थी । पुत्र के द्वारा इन्हें आत्मज्ञान की प्राप्ति हुई, अनुपम गार्हस्थ्य सुख का त्याग कर ये सरस्वती नदी के किनारे समाधि में स्थित हो गई । जीव भाव से निवृत्त होकर सदा के लिये परमानंद में लीन हो गई । 40
1.6.3 महाकाव्य काल ( ईसा पूर्व पहली से पाँचवीं शताब्दी)
वैदिक एवं लौकिक साहित्य के मध्यवर्ती युग में दो महाकाव्य रामायण और महाभारत का सृजन हुआ। रामायण के कर्त्ता ‘महर्षि वाल्मिकी' थे और महाभारत के 'कृष्ण द्वैपायन व्यासऋषि' । यद्यपि रामायण में आश्रम व्यवस्था रूचिर रूप दर्शाया गया है, किंतु वहाँ आश्रम - व्यवस्था के अनुकूल ही अपने जीवन को संचालित करने का विधान है, आश्रम - व्यवस्था का अतिक्रमण निन्दनीय माना गया है। रामायण में चारों आश्रमों को जीवन के एक विभाग के रूप में स्वीकार करके भी गृहस्थाश्रम को सर्वश्रेष्ठ कहा है ।" इस प्रकार रामायण गृहस्थाश्रम का ही महनीय गान है, तथापि वानप्रस्थ एवं संन्यास आश्रम के अनेक प्रसंग उसमें उपलब्ध हो जाते हैं। 12 जैसे एक जगह सीता के सम्मुख पंचवटी में रावण का 'परिव्राजकवेश' संन्यासी के रूप को स्पष्ट करता है। इसी प्रकार शबरी को वाल्मिकी रामायण
35. पी. वी. काणे, धर्मशास्त्र का इतिहास, भाग 1, पृ. 497, प्रकाशन-हिंदी भवन, एम जी रोड़, लखनऊ
36. वही भाग प्रथम, पृ. 498
37. विनोबा, स्त्री-शिक्षा, पृ. 37
38. येनाहं नामृतास्यां किमहं तेन कुर्याम् । यदेव भगवान वेद, तदेव मे ब्रूहीति- बृहदारण्यक 4/5/116-125 39. बृहदारण्यकोपनिषद् 63,64, 67, 69 से 73 दृष्टव्यः विनोबा : वेदांत - सुधा, पृ. 510
40. श्रीमद् भागवत, तृतीय स्कन्ध, 33/12-27
41. चतुर्णामाश्रमाणं हि गार्हस्थ्यं श्रेष्ठमुत्तमम् - वाल्मिकी रामायण 2/126/22 42. हस्तादानो मुखादानो नियतो वृक्षमूलिक : वानप्रस्थो भविष्यामि ..
43. वही, 3/46/3
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..इत्यादि । - वाल्मिकी रामायण 5/23/38
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