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________________ पूर्व पीठिका में धर्मचारिणी धर्मनिपुणा 'श्रमणा' कहकर संबोधित किया है। राम उसके समक्ष श्रमण धर्म की व्याख्या कर आत्मसमाधि के द्वारा पुण्यस्थान (निर्वाण) प्राप्त करने की चर्चा भी करते हैं। रामायण काल की एक विदुषी संन्यासिनी 'सुलभा' द्वारा राजा जनक के साथ मोक्षविषयक चर्चा होने का भी प्रसंग विनोबा भावे ने लिखा है। किंतु साथ में यह भी लिखा है, कि जनक ने उसे 'ब्राह्मणी संन्यासिनी' समझा किंतु सुलभा ने बताया कि वह एक क्षत्रिय कन्या है और योग्य पति न मिलने के कारण उसने मुनिव्रतों को ग्रहण किया। अब महाभारत काल लें, उसमें भी चारों आश्रमों, उनके क्रम, आश्रमधर्म आदि के उल्लेखों में संबंधित संन्यासियों की आचार-संहिता, संन्यासधर्म आदि पर विस्तृत चर्चा की गई है साथ ही क्रम उल्लंघन करने पर निंदा भी की गई है। इस प्रकार जहाँ वैदिक काल में वेद-सूक्तों की निर्माता नारियाँ भी भिक्षुणी या संन्यासिनियाँ नहीं बनती थीं, वहीं उपनिषद् काल के पश्चात् कतिपय नारियों का भिक्षुणी या संन्यासिनी आदि रूप देखने को मिलता है जो ब्राह्मण संस्कृति पर श्रमण संस्कृति के प्रभाव को परिलक्षित करता है। मैक्समूलर, एस. सी. राय चौधरी, डॉ. राधाकृष्णन् प्रभृति विद्वानों का कहना है कि "उपनिषदों का निर्माण भगवान पार्श्वनाथ के पश्चात् हुआ है, उन पर श्रमण संस्कृति का गहरा प्रभाव पड़ा, यही कारण है कि उपनिषदों में संन्यास आश्रम की विस्तृत चर्चा है।"47 1.6.4 मध्यकाल (छठी से 18वीं सदी) मध्यकाल में हिंदूधर्म की नारी को संन्यासियों के समान ब्रह्मचर्य व्रत पालन का अधिकार नहीं रहा न संन्यास का, उनका स्थान केवल घर-परिवार तक सीमित हो गया था, वे अपने पति की वासना-तृप्ति के लिये ही थीं, पति शराबी हो या दुराचारी परन्तु भारतीय नारी के लिये वह परमेश्वर और गुरू तुल्य माना जाने लगा। मारवाड़ में मीराबाई (ई. 1498-1547), महाराष्ट्र में मुक्ताबाई, उत्तरप्रदेश में सहजोबाई, कर्नाटक में अक्क-महादेवी आदि कई भक्त शिरोमणि संत-स्त्रियाँ निकलीं, लेकिन इनकी मर्यादा थी। संन्यासिनी बनने के लिये मीरां को जहर का प्याला पीना पड़ा, अनेक प्रकार की सामाजिक प्रतिबन्धक बेड़ियों ने उनका मार्ग अवरूद्ध करना चाहा, उनका सामाजिक बहिष्कार भी किया गया, फिर भी वे अंत तक कृष्ण प्रेम में पगी रहीं। रामकृष्ण परमहंस के संप्रदाय में केवल एक स्त्री को दीक्षा दी गई और वह थी स्वयं रामकृष्ण परमहंस की पत्नी शारदादेवी। उनके सिवा अन्य किसी स्त्री को दीक्षा देने का उल्लेख नहीं मिलता।48 1.6.5 आधुनिक काल (19वीं से अद्यतन) यद्यपि हिंदूधर्म में स्त्रियों के लिये संन्यास के द्वार अवरूद्ध हैं, तथापि कुछ प्रेमाभक्ति से ओतप्रोत विदुषी महिलाएँ वर्तमान में प्रसिद्धि को प्राप्त हुई हैं, जिनमें ब्रज की अपूर्व भक्तिमती उषा जी (पू. बोबो)", मां आनन्दमयी 44. स चास्य कथयामास शबरी धर्मचारिणीम्।। श्रमणां धर्म निपुणामभिगच्छेति राघवः।। -वाल्मिकी रामायण 1/1/56 45. स्त्री-शिक्षा, विनोबा, पृ. 37 46. महाभारत 12/192/33; 12/191/8 47. जैन साहित्य के इतिहास की पूर्व पीठिका, पं. कैलाशचन्द्र शास्त्री, पृ. 71 48. विनोबा, स्त्री शिक्षा.. पृ. 21 49. ब्रज विभव की अपूर्व श्री भक्तिमती उषाजी (पू. बोबो): विजय एम. ए, ब्रजनिधि प्रकाशन वृंदावन, 1994 ई. 50. मा आनन्दमयी : डॉ. पन्नालाल, आनंदमयी आश्रम, बी-2-94 भदेनी, बनारस, ई. 1992 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001693
Book TitleJain Dharma ki Shramaniyo ka Bruhad Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijay Sadhvi Arya
PublisherBharatiya Vidya Pratishthan
Publication Year2007
Total Pages1076
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Biography
File Size24 MB
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