________________
जैन श्रमणियों का बृहद इतिहास
परम पंडिता थी, परिव्राजिकाओं में अग्रणी थी, गेरू से रंगे हुए वस्त्र पहनती थी, दानधर्म, शौच एवं तीर्थस्नान को महत्व देती थी, त्रिदंड, कमंडलु मयुरपिच्छ का छत्र, छन्नालिक (काष्ठ उपकरण) अंकुश (वृक्ष के पत्ते तोड़ने का उपकरण), पवित्री (धातु की अंगूठी) और केसरी (प्रमार्जन करने का वस्त्र खंड) ये सात उपकरण उसके हाथ में रहते थे।
व्यवहारभाष्य में भी परिव्राजिकाओं के उल्लेख आते हैं। ये परिव्राजिकाएँ जैन साध्वियों को संयम मार्ग से च्युत भी कर देती थीं। चोक्षा परिव्राजिका के विषय में उल्लेख है, कि 19वें तीर्थंकर मल्लिकुंवरी की अतिशय रूप-सौंदर्य की प्रशंसा पांचाल जनपद के कांपिल्यपुर नगर के राजा जितशत्रु के सन्मुख करके उसने राजा के मन में मल्लिकुंवरी को पाने की अभीप्सा पैदा करवा दी थी। ये परिव्राजिकाएँ विद्या, मंत्र जड़ी-बूटी आदि देती थीं और जंतर-मंतर भी करती थीं। फिर भी इनकी न तो कोई संघीय व्यवस्था थी न इनका श्रमणी रूप, जो तप, त्याग, वैराग्य से विभूषित होना चाहिये, वह था।
इस प्रकार श्रमण संस्कृति की विभिन्न शाखाओं में श्रमणी-संघ का अध्ययन करने के पश्चात् हम वर्तमान में प्रचलित देश के विभिन्न धर्म-वैदिक, बौद्ध, ईसाई, इस्लाम, सूफी आदि में नारी के संन्यस्त रूप पर एक दृष्टिक्षेप करेंगे। 1.6 वैदिक धर्म में नारी-संन्यास
1.6.1 वैदिक काल (ईसा पूर्व 2 हजार से)
वैदिक धर्म ऋग्वेद काल से प्रारम्भ होता है, उस काल में हमें बहुत सी ब्रह्मवादिनी स्त्रियों के उल्लेख मिलते हैं, जिन्होंने ऋषियों की तरह ही मंत्रों का साक्षात्कार किया था। महर्षि कश्यप की पत्नी और देवताओं की माता 'अदिति',9 अगस्त्य की पत्नी लोपामुद्रा, अत्रिकुल की 'विश्ववारा 20 व 'अपाला', घोषा-काक्षिवती, दक्षिणा प्रजापत्या, रोमशा कक्षीवान्24, बृहस्पति पत्नी 'जूहू 5, सूर्या-सावित्री आदि ने वैदिक ऋचाएँ व्यक्त की हैं। कन्या वागाम्भृणी तो अद्वैतवाद की जननी थीं। श्री शंकराचार्य ने इसी के सूक्त से प्रेरणा प्राप्त कर अद्वैतवाद का प्रचार किया था।” इस प्रकार विविध मंत्रों का साक्षात्कार करने वाली 25 महान नारियों की ऋचाएँ ऋग्वेद में मौजूद हैं। ये सभी उच्चकोटि की विदुषी एवं ब्रह्मवादिनी नारियाँ थीं, जिन्होंने शिक्षा, ज्ञान और विद्वत्ता के क्षेत्र में महान योगदान किया। किंतु इनका संन्यासी रूप कहीं देखने को नहीं मिलता। वस्तुत: वैदिक काल में संन्यास आश्रम की कोई निश्चित् सूचना भी उपलब्ध नहीं होती।28
1.6.2 उपनिषद् काल (ईसा की आठवीं से पाँचवीं शताब्दी के पूर्व)
उपनिषत्काल में आश्रम-व्यवस्था की स्थापना के साथ-साथ प्रत्येक आश्रम के कर्त्तव्य और धर्म पृथक्-पृथक् निर्धारित हुए थे। मनुष्य के जीवन को सौ वर्ष का मानकर अंतिम चतुर्थ भाग में संन्यास आश्रम का विधान किया 17. ज्ञातासूत्र 1/8 18. व्यवहार-भाष्य, गा. 2848, 2862-63 । 19-27. देखिए-ऋग्वेद संहिता क्रमश 10/72/1-9; 5/28/1-6; 8/91/1-7; 10/39/1-14; 10/107/1-11; 1/126/1-7; 10/109/1-73
10/85/1-47; 10/125/1-8 28. 'सप्तत्या ऊर्ध्वं सन्यासमुपदिशन्ति' (बौधायन धर्मसूत्र 2/10/3-6)
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org