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पूर्व पीठिका
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मैरेय और खट्टी कांजी को स्वीकार नहीं करते, इत्यादि आचार-विचारों से स्पष्ट है कि वे महावीर के आचार से पूर्ण प्रभावित थे। उनकी मान्यता थी " जो होनहार है वही होता है। अन्यथा कुछ नहीं हो सकता । ज्ञान से मुक्ति नहीं होती, अज्ञान ही श्रेष्ठ है, उसीसे मोक्ष की प्राप्ति होती है। देव या ईश्वर कोई नहीं है, अतः स्वेच्छा पूर्वक शून्य का ध्यान करना चाहिये।"
गोशालक ने आजीविक मत का खूब विस्तार किया, उसे कोशलदेश के राजा प्रसेनजित का भी समर्थन मिला। सम्राट् अशोक द्वारा आजीविक संघ के लिये गुफाएँ बनाने का भी उल्लेख प्राप्त होता है। 15वीं शताब्दी तक यह संप्रदाय दक्षिण के जैन संघ में विलीन हो गया प्रतीत होता है। उत्तर भारत में वे हिंदू समाज के तापस संप्रदाय में सम्मिलित हो गये लगते हैं। 14
1.5.4 अन्योन्यवादी
इसके प्ररूपक प्रकुध कात्यायन थे, जो कि महात्मा बुद्ध से पूर्व हुए थे और जाति से ब्राह्मण थे, उनकी विचारधारा पर भी पार्श्व मन्तव्यों का स्पष्ट प्रभाव दृष्टिगोचर होता है। वे शीतल जल में जीव मानकर उसके उपयोग को धर्म विरूद्ध मानते थे। जो पार्श्वनाथ की श्रमण परम्परा से प्राप्त है। उनकी कुछ अन्य मान्यताएँ भी पार्श्वनाथ की मान्यताओं से मेल खाती है।
1.5.5 उच्छेदवादी
इस मत के प्रवर्तक अजित केशकम्बल भी पार्श्व प्रभाव अछूते दिखाई नहीं देते । यद्यपि उन्होंने पार्श्व के सिद्धान्तों को विकृत रूप में प्रगट किया था, फिर भी वे वैदिक क्रियाकाण्ड के कट्टर विरोधी थे। वे दान, यज्ञ, हवन का विरोध करते थे, स्वर्ग-अपवर्ग को नहीं मानते थे, उनका कथन था कि चार भूत से शरीर उत्पत्ति होती है और मृत्यु के पश्चात् सब विलीन हो जाता है। "
इनमें आजीविक आदि संप्रदाय तो महावीर के संघ से भी विस्तृत थे, किंतु परिस्थितियों के वात्याचक्र से जैन एवं बौद्धों के अतिरिक्त ये श्रमण संप्रदाय काल के गर्भ में विलीन हो गये। वर्तमान मे उनका साहित्यिक रूप ही उपलब्ध है, साहित्य नहीं ।
श्रमण संस्कृति की उक्त सभी शाखाओं के संस्थापक प्रभावशाली धर्मनायक थे। बौद्ध साहित्य में इन सबको तीर्थंकर, संघ-स्वामी, गणाचार्य, ज्ञानी और यशस्वी के रूप में वर्णित किया है।" किंतु किसी भी धर्माचार्य ने स्त्री को दीक्षा प्रदान की हो, ऐसा संकेत कहीं भी उपलब्ध नहीं होता । यद्यपि ये सभी धर्माचार्य भगवान महावीर के समकालिक रहे हैं, तथापि इनके संघ में स्त्रियों के प्रति उदारतावादी दृष्टिकोण का अभाव ही रहा। यद्यपि श्रमण परम्परा की 'गेरूअ' अथवा 'गैरिक' शाखा में गृहत्यागी महिलाओं के उल्लेख प्राप्त होते हैं, उनको ‘परिव्राजिका' कहा जाता था। जैन आगम ज्ञातासूत्र में ऐसी चोक्षा परिव्राजिका का उल्लेख है, वह वेदों की ज्ञाता एवं 14. आचार्य हस्तीमल जी महाराज, जैन धर्म का मौलिक इतिहास, भाग 1 पृ. 730, 736
15. अण्णाणाओ मोक्ख, एवं लोयाण पयडमाणो हु ।
देवो अ णत्थि कोई, साएह इच्छाए 11 भावसंग्रह, गाथा 178
16. दीघनिकाय, सामञ्ञफलसुत्त
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