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जैन श्रमणियों का बृहद इतिहास में विवाह एवं 12 वर्ष की उम्र में विधवा हो जाने पर सं. 1983 आसाढ़ शु. 5 को प्रवर्तिनी रतनकंवरजी के पास शाजापुर में ही दीक्षित हुईं। आपकी बुद्धि निर्मल व स्मरणशक्ति तीव्र होने से स्वल्पावधि में ही हिंदी, संस्कृत प्राकृत, ऊर्दू, अरबी, फारसी, अंग्रेजी आदि भाषायी ज्ञान के साथ शास्त्रीय ज्ञान का भी अध्ययन किया। आप विदुषी होती हुई भी नम्र, सरल व शांत थीं, आपके प्रवचन विद्वत्तापूर्ण एवं रोचक होते थे, शाजापुर में आपके उपदेश से सं. 2011 में जैन पाठशाला की स्थापना हुई, आपने उदयपुर, जोधपुर, बीकानेर, रतलाम, पूना, नगर, खानदेश आदि बड़े-बड़े शहरों में आम व्याख्यान भी किये।
6.3.1.45 श्री श्रीमतीजी (सं. 1988 - स्वर्गस्थ)
वखतगढ़ (म. प्र.) निवासी चंपालालजी के यहां सं. 1967 में आपका जन्म हुआ, और विवाह नागदा निवासी श्री बस्तीमलजी सुराणा से हुआ। श्री प्रवर्तिनी रतनकंवरजी से वैराग्य होकर खाचरोद में सं. 1988 मार्गशीर्ष कृष्णा 5 के दिन दीक्षा ग्रहण की। आपने हिंदी, संस्कृत प्राकृत का अच्छा अभ्यास किया, पाथर्डी बोर्ड से 'प्रभाकर' की परीक्षा दी। ज्ञान के साथ विशिष्ट तपाराधना आपके जीवन का लक्ष्य रहा, उपवास, बेले. तेले, पचोले तो आप करती ही रहती थीं, किंतु 8, 15, 17, 19, 21, 29 दिन की तपस्या भी की। आप सेवाभावी, शांत, चतुर और आत्मार्थिनी थीं। 6.3.1.46 प्रवर्तिनी श्री उज्जवलकुमारीजी (सं. 1991-2034)
भव्य एवं आकर्षक व्यक्तित्व की धनी महासती श्री उज्जवलकुमारीजी का जन्म संवत् 1975 बरवाला (सौराष्ट्र) में श्री माधवजी भाई डगली की धर्मपत्नी श्री चंचलबहन की कुक्षि से हुआ। श्री राजकुंवरजी म. के सदुपदेश से संसार की अनित्यता और असारता को जानकर आपकी माताजी जो 'रत्नचिंतामणि कन्याशाला, घाटकोपर बम्बई' में अध्यापिका पद पर थीं, उनके साथ सं. 1991 की अक्षय तृतीया के दिन करमाला में श्री आनंदऋषिजी म. के श्रीमुख से दीक्षा अंगीकार की। दीक्षा के पश्चात् आत्मार्थी मुनि श्री मोहनऋषिजी महाराज ने आपको व्याकरण, साहित्य, दर्शन, जैनागम आदि का गंभीर और विशद अध्ययन करवाया। विश्व कवि श्री रवीन्द्रनाथ ठाकुर के साहित्य का भी आपने खूब पर्यालोचन किया। आप पांच भाषाओं-हिंदी, गुजराती, संस्कृत प्राकृत और अंग्रेजी में धाराप्रवाह प्रवचन करती थीं, आपका पाण्डित्य व्यापक और तलस्पर्शी था। विचारों में क्रांन्ति
और आचरण में सुधार का शंखनाद था। महात्मा गांधीजी से आपका कई बार मिलाप हुआ। गांधीजी आपसे धर्मचर्चा करते समय न किसी अन्य से भेंट करते और न मौनव्रत का पालन करते, वे कहते थे, मैंने विश्वशांति के लिये मौन ली आपसे चर्चा करते हुए मुझ आराम मिलता है। ये चर्चाएं 'गांधी उज्जवल वार्तालाप' पुस्तक में संकलित हैं। बम्बई के प्रधान सचिव बाला साहब खेर ने आपके प्रवचनों को सुनकर कहा-'प्राचीनकाल में ब्रह्मवादिनी स्त्रियाँ हुआ करती थीं, आज जैन समाज में वह स्वरूप मुझे महासतीजी में परिलक्षित होता है।' श्रोतावृन्द आपकी विद्वत्ता एवं विषय निरूपणशैली की भूरि-भूरि प्रशंसा करते थे। आपके कतिपय प्रवचन 'उज्जवल वाणी' भाग 1-2, जीवनधर्म तथा 'श्रावक धर्म' पुस्तक में संग्रहित हैं। अंत समय आप प्रज्ञाचक्षु के रूप में कई वर्षों तक अहमदनगर में स्थिरवासिनी रहीं, सं. 2034 में आपका स्वर्गवास अहमदनगर में हुआ। 70. ऋ. सं. इ., पृ. 301 71. ऋ. सं. इ., पृ. 288 72. ऋ. सं. इ., पृ. 289
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