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स्थानकवासी परम्परा की श्रमणियाँ 6.3.1.47 श्री सुमतिकुंवरजी महार्या (सं. 1992 से वर्तमान)
आपका जन्म घोड़नदी निवासी श्रीमान् हस्तीमलजी दुगड़ की धर्मपत्नी हुलासाबाई की रत्नकुक्षि से सं. 1973 में हुआ। विवाह के 18 मास पश्चात् पति मोहनलालजी भणसाली का स्वर्गवास होने पर सं. 1992 पोष शु. 2 को आपने श्री रामकुंवरजी की शिष्या श्री जसकुंवरजी, श्री रंभाजी के पास दीक्षा अंगीकार करली। आप आगम, दर्शन, न्याय, व्याकरण संस्कृत, प्राकृत आदि की विशिष्ट ज्ञाता हैं। विधवा बहनों, परित्यक्ता या पीड़ित बहनों व कन्याओं की शिक्षा व्यवस्था में आप सदा सजग रहकर समाज को प्रेरित करती हैं। आपने अनेक संस्थाएँ व उपाश्रय खडे करवाये. अनेक संघों के पारस्परिक संघर्ष मिटाये।
आपके गुरू आचार्य आनन्दऋषिजी हैं, उनसे ही दीक्षा-शिक्षा एवं संस्कार प्राप्त हुए हैं। आप उनकी अत्यंत कृपापात्र एवं दांये हाथ के रूप में रही हैं। धार्मिक परीक्षा बोर्ड पाथर्डी के आद्यन्त निर्माण का श्रेय आपको ही है। घोड़नदी में पांजरापोल, तिलोक पारमार्थिक संस्था, उपाश्रय एवं पुस्तकालय, तिलोक शताब्दी ग्रंथ का प्रकाशन आदि में भी मूल प्रेरणा आपकी रही है। आपने समाज में व्याप्त अनेक कुप्रथाओं को दूर करने का प्रयास किया। सन् 1950 तक विधवा बहनों को गहरे लाल या काले कपड़े पहनने होते थे, अपनी सरल सुबोध उपदेश शैली से आपने उसे समूल नष्ट करवाया। उस समय माताएं, बहनें प्रवचन सुनने के लिये प्रवचन हॉल में पर्दे में बैठती थी उसे भी आपने दूर करवाया। इतना ही नहीं, प्रत्येक क्षेत्र में महिला मंडल स्थापित करके महिलाओं को जागरण की दिशा दी। मुंबई में चातुर्मास करके साध्वियों के लिये मुंबई नगरी के बंद द्वारों को सन् 1956 में सर्वप्रथम आपने ही खोले। आप हजारों मील का विहार कर हर साध सम्मेलन में पंहची और साधुओं के एकाधिकार को तोड़कर साध्वियों का महत्व स्थापित करवाया। महिलाओं को चौपाई सुनाने के बजाय ज्ञानार्जन हेतु प्रेरित करना, उनमें जागरण लाना आपकी करूणा का यह एक सहज रूप रहा हैं। सन् 2004 में आपका 80वां जन्मोत्सव आचार्य चंदनाजी के सान्निध्य में वीरायतन (राजगृही) के प्रांगण में मनाया गया। इस प्रकार जैन समाज में आपकी गौरवगाथा चिरस्मरणीय रहेगी। वर्तमान में आप एवं आपका शिष्या परिवार स्वतंत्र संघ के रूप में वीरायतन राजगृह में शासन की प्रभावना कर रहा है।'
6.3.1.48 श्री अमृतकुंवरजी (सं. 1992-स्वर्गस्थ)
वि. सं. 1975 में ग्राम चन्होली (पूना) निवासी सेठ पूनमचंदजी सुराणा के यहां आपका जन्म तथा श्री नवलमलजी खिंवेसरा के पुत्र श्री जीवराजजी के साथ विवाह हुआ। प्रवर्तिनी श्री शांतिकुंवरजी के सदुपदेश से माघ शु. 7 सं. 1992 को चरोली में ही श्री आनंदऋषिजी महाराज के श्रीमुख से आपकी दीक्षा हुई। दीक्षा प्रसंग पर श्री ताराचंदजी म. ठाणा 5 भी उपस्थित थे। आपकी बुद्धि अत्यंत प्रखर थी, संस्कृत भाषा के करीब 1000 श्लोक अर्थ सहित कंठस्थ थे। पाथर्डी बोर्ड से 'प्रभाकर', 'शास्त्री' की परीक्षा उर्तीण की। आप प्रकृति से शांत व सरल थीं, प्रवचन मधुर व प्रभावशाली था, सतत ज्ञान पिपासु प्रकृति रही।
73. (क) ऋ. सं. इ.. पृ. 360 (ख) डॉ. श्री धर्मशीलाजी से प्राप्त सामग्री के आधार पर 74. (क) ऋ. सं. इ., पृ. 331 (ख) अमरभारती पत्रिका, सन् 2003 जनवरी-फरवरी अंक
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