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________________ प्रागैतिहासिक काल से अर्हत् पार्श्व के काल तक निर्ग्रन्थ-परम्परा की श्रमणियाँ आपके पास इकसठ हजार छहसौ श्रमणी शिष्याएँ थीं। अन्यत्र आप 'शुचि', 'सुहा', 'सुई' के नाम से भी वर्णित है। दिगम्बर-ग्रंथों में हरिसेन/हरिषेणा नाम से प्रसिद्ध हैं, वहाँ साध्वी संख्या साठ हजार तीन सौ कही है।” 2.3.32 अंजुया __ आप सत्रहवें तीर्थंकर कुंथुनाथ की सबसे प्रथम एवं अग्रणी श्रमणी थी। आपके नेतृत्व में साठ हजार छहसौ साध्वियों का परिवार था। अन्यत्र आपका नाम 'दामिनी' भी है। दिगम्बर-ग्रंथों में 'भविता' नाम से प्रसिद्ध होकर छह हजार तीन सौ पचास श्रमणियों का नेतृत्व करती थी। 2.3.33 रक्षिता अठारहवें तीर्थंकर श्री अरहनाथ की प्रमुखा शिष्या के रूप में 'रक्षिता' का उल्लेख है। आपकी नेश्राय में साठ हजार श्रमणियों ने आगार से अनगारवृत्ति धारण की। दिगम्बर-परम्परा में कुंतुसेना, कुंथुसेना कहीं 'यक्षिला' नाम भी आता है।62 2.3.34 सुव्रता अठाहरवें तीर्थंकर अरनाथ के समय की श्रमणी थी। वामन रूपधारी वीरभद्र को उसकी पत्नियों ने चिरकाल के पश्चात् इनकी शरण में प्राप्त किया था। इसने अरनाथ से वीरभद्र के पूर्व जन्म में किये सुकृत्यों के संबंध में जिज्ञासा व्यक्त की, तो भगवान ने उसका पूर्ववृत्तान्त कहा। 2.3.35 मल्ली भगवती __ श्वेताम्बर आगम-साहित्य में मल्लिनाथ को स्त्री तीर्थंकर बनने का गौरव प्रदान किया गया है। इनके पिता मिथिला नगरी के राजा कुम्भ एवं माता प्रभावती थी। अपने रूप-लावण्य और गुणादि की उत्कृष्टता से सर्वत्र चर्चित मल्ली से आकर्षित होकर साकेतपुर के राजा प्रतिबुद्ध, चम्पानगरी के राजा चन्द्र, श्रावस्ती के राजा रूक्मि, हस्तिनापुर के राजा अदीनशत्रु, पाञ्चाल के राजा जितशत्रु तथा काशी देश के राजा शंख ने विवाह करने की इच्छा प्रकट की। महाराजा कुम्भ के द्वारा अस्वीकृत कर दिये जानेपर छहों राजा अपनी सेना के साथ आक्रमण करने के लिये मिथिला में आ गये। राजकुमारी मल्लि ने युक्ति बल से उन्हें शरीर की अशुचिता का बोध कराया। संसार की नश्वरता पुदगलों का परिणमन एवं पूर्व जन्म में पाले हुए संयमी जीवन का स्मरण दिलाकर प्रतिबोधित किया। राजकुमारी मल्लि सभी 58. समवाय पृ. 231, प्राप्रोने. भा. 1 पृ. 803 59. मपु. 64/49 दृ. जै. पु. को. पृ. 260 60. प्राप्रोने. भाग 1 पृ. 366 61. प्राप्रोने. भाग 2 पृ. 617 62. मपु. 65/43 दृ0 जै. पु. को. पृ. 311 63. त्रि. श. पु. च. 6/2 111 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001693
Book TitleJain Dharma ki Shramaniyo ka Bruhad Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijay Sadhvi Arya
PublisherBharatiya Vidya Pratishthan
Publication Year2007
Total Pages1076
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Biography
File Size24 MB
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