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जैन श्रमणियों का बृहद इतिहास प्रतिबोधित राजाओं तथा तीन सौ पुरूषों एवं तीन सौ महिलाओं के साथ दीक्षित हुईं। एक प्रहर से कुछ अधिक साध्वी अवस्था में रहकर दिन के चतुर्थ प्रहर में सर्व कर्मराशि को भस्म कर सर्वज्ञ-सर्वदर्शी बनी। सर्वज्ञता प्राप्ति के पश्चात् चतुर्विध-संघ रूप तीर्थ का स्थापन जैसे अन्यान्य तीर्थंकरों ने किया, उसी तरह इन्होंने भी किया। इनके संघ में साध्वियों को आभ्यंतर परिषद् में तथा साधुओं को बाह्य परिषद् में गिना गया अर्थात् साध्वियाँ अग्रस्थान में बैठती थीं।
मल्लि भगवती के 28 गणधर, चालीस हजार श्रमण एवं पचपन हजार श्रमणियाँ थी, एक लाख चौरासी हजार गृहस्थ उपासक तथा तीन लाख पैंसठ हजार गृहस्थ उपासिकाएँ थीं। पचपन हजार वर्ष तक देश के विभिन्न क्षेत्रों में धर्म का उपदेश देती हुईं चैत्र शुक्ला चतुर्थी को रात्रि में सम्मेदशिखर पर निर्वाण को प्राप्त हुईं। भगवान मल्लिनाथ पर अनेक आचार्यों की उच्चकोटि की रचनाएँ उपलब्ध हैं।
श्वेताम्बर परम्परा ने स्त्री को न केवल धर्म संस्थापिका के रूप में स्वीकार किया है अपितु उनकी स्त्री रूप में प्रतिमाएं भी बनाई हैं। ऐसी एक प्रतिमा 12वीं शताब्दी की गंधावल ग्राम (देवास जिला म. प्र.) में लीशामपुर (उज्जैन) के मन्दिर में कुछ धातु प्रतिमाएँ रतलाम के श्वेताम्बर संप्रदाय के जूने मन्दिर में सुरक्षित हैं तथा एक दुर्लभ प्रतिमा झार्डा (म. प्र.) में काले पत्थर पर निर्मित है। उस पर संवत् 1206 का अभिलेख है। और उसके पादपीठ पर "मल्लिनाथ प्रणमति नित्यम्" लेख अंकित है।66
लखनऊ के शासकीय म्युजियम में स्थित मल्लिनाथ की स्त्री प्रतिमा का एक चित्र प्रथम अध्याय में दिया है। इन प्राचीन मूर्तियों एवं उन पर अंकित अभिलेखों से स्पष्ट रूपेण सिद्ध होता है कि मल्ली तीर्थंकर स्त्री थे। यद्यपि दिगम्बर-परम्परा उनके स्त्री होने का निषेध करती है तथापि कंदकंद के इस वचन से: कि जिनशासन में वस्त्रधारी की मुक्ति नहीं है चाहे वह तीर्थकर ही क्यों न हो;7 से प्रतीत होता है कि वे भी पहले स्त्री का तीर्थं थे, बाद में अचेलत्व के आग्रह से स्त्री-मुक्ति के साथ स्त्री तीर्थंकर का भी विरोध किया हो। 2.3.36 बंधुमती
उन्नीसवें तीर्थंकर मल्लिनाथ के श्रमणी-संघ की प्रवर्तिनी बंधुमती थी। हरिवंश पुराण आदि दिगम्बर ग्रंथों में2 इनका नाम मधुसेना या बंधुसेणा उल्लिखित है। इनकी नेश्राय में पचपन हजार श्रमणियों ने दीक्षा अंगीकर की थी। इस श्रमणी-संघ की एक उल्लेखनीय विशेषता यह रही कि इन्हें मल्ली भगवती के समवसरण में अग्रस्थानीय का सम्मान मिला, क्योंकि इन्हें आभ्यंतर परिषद् में परिगणित किया है, और श्रमण-संघ को बाह्य-परिषद में।68 2.3.37 पुष्पावती
बीसवें तीर्थंकर श्री मुनिसुव्रत जी के श्रमणी संघ की ये प्रमुखा श्रमणी थी। इनकी नेश्राय में पचास हजार श्रमणियों ने जिनदीक्षा अंगीकार की। दिगम्बर ग्रंथों में ये पूर्वदत्ता, पुष्पदंता नाम से प्रसिद्ध हुई हैं।" 64. ज्ञाताधर्मकथा 1/8, समवायांग 231, आव. नि. 257, 386, त्रि.श.पु.च. 6/6; प्राप्रोने. 1 पृ. 554-555 65. द्र-जैन संस्कृत साहित्य नो इति. प्र. 22, 24 तथा जैन साहित्य का बृहद् इतिहास, भाग 2 पू. 53, 147, 177%; वही, भाग-3 पृ. 511 66. डॉ. सुरेन्द्रकमार 'आर्य': मल्लिनाथ की अप्रकाशित प्रतिमाएँ, महाश्रमणी ग्रंथ खंड 4 पृ. 47 67. ण वि सिज्झइ वत्थधरो जिण सासणे जइवि होइ तित्थयरो-सुत्तपाहुड 23 68. समवायांग पृ. 231, प्राप्रोने, 2 पृ. 795; ज्ञाता 1/8 69. समवायांग पृ. 2313; प्राप्रोने. भा. 1 पृ. 470
70. मपु. 63/53 दृ. जै. पु. को पृ. 228
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