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प्रागैतिहासिक काल से अर्हत् पार्श्व के काल तक निर्ग्रन्थ-परम्परा की श्रमणियाँ
2.3.38 पुरन्दरयशा
श्रावस्ती के महाराजा जितशत्रु की कन्या एवं राजकुमार स्कन्दक की बहिन पुरन्दरयशा का विवाह उत्तरापथ की सीमा पर स्थित कुम्भकारकटक नगर के राजा दंडकी के साथ हुआ था। दंडकी राजा का पुरोहित पालक राजकुमार स्कन्दक का तीव्र विद्वेषी था। स्कन्दक दीक्षा लेने के पश्चात् अपने पाँचसौ शिष्यों के साथ जब बहन और बहनोई को धर्मोपदेश देने की भावना से कुम्भकारकटक के बाहर उद्यान में पधारे, तो पालक ने कुटिल षड़यंत्र रचकर स्कन्दक मुनि को उनके पाँच सौ शिष्यों सहित घाणी में पिलवा दिया था। अपने प्राण-प्रिय भ्राता मुनि की ऐसी हृदयद्रावक मृत्यु का समाचार जब पुरन्दरयशा के पास पहुंचा तो वह संसार के भय से उद्विग्न बनी और बीसवें तीर्थंकर मुनिसुव्रत के चरणों में दीक्षित हो गई । "
2.3.39 मंदोदरी
राजा 'मय' एवं रानी हेमवती की विदुषी कन्या मन्दोदरी भारतवर्ष के महान शक्तिसम्पन्न एवं चर्चित सम्राट् रावण की पट्टमहिषी थी। उसने समय-समय पर हित-मित उपदेश द्वारा रावण को सन्मार्ग पर लाने के संपूर्ण प्रयत्न किये। किंतु “विनाशकाले विपरीत बुद्धि" उक्ति के अनुसार रावण को पत्नी का उपदेश अच्छा नहीं लगा, वह मृत्यु को प्राप्त हुआ, रावण की मृत्यु के पश्चात् संसार की असारता एवं क्षणभंगुरता को देखकर मन्दोदरी ने शशिकान्ता आर्या के पास दीक्षा अंगीकार कर ली। उसके साथ रावण की बहन चन्द्रनखा आदि के भी दीक्षा लेने का उल्लेख है। 2
शशिकान्ता आर्या संभवत: आचार्य अनन्तवीर्य के संघ की आर्यिकाओं की गणिनी प्रतीत होती है। क्योंकि पर्व 78 में आचार्य अनंतवीर्य का ही नाम है, जिनके पास मंदोदरी की दीक्षा का उल्लेख हुआ है। रावण के साथ मंदोदरी के संवादों को अनेक कवियों ने अपने काव्य में उतारा है। "
2.3.40 कैकयी
आचार्य विमलसूरि की ईसवी सन् प्रथम शती में रचित कृति 'पउमचरियं' में कैकयी के उदात्त जीवन का चित्रण है। यह उत्तरापथ के राजा शुभमति की रानी पृथ्वी की रूप- गुण सम्पन्न कन्या थी । कैकयी ने दशरथ का स्वयं वरण किया था। रथ-संचालन-कला में विशेष निपुण होने के कारण उसने दशरथ के साथ युद्ध करने आये अन्य राजाओं को पराजित करने में दशरथ का पूर्ण सहयोग किया था। प्रसन्न होकर दशरथ ने कैकयी को एक वरदान मांगने को कहा । चतुर बुद्धि कैकयी ने अपना 'वर' धरोहर के रूप में राजा के पास ही रखा।
जैन ग्रन्थ पद्मपुराण और पउमचरियं के अनुसार जब दशरथ ने राम के राज्याभिषेक एवं स्वयं के दीक्षित होने का संकल्प सभाजनों के समक्ष रखा, तब कैकयी पुत्र भरत भी पिता के साथ संसार त्याग करने को तैयार हुए। कैकयी पति और पुत्र दोनों को दीक्षा ग्रहण करते देख मानसिक पीड़ा से आहत हो उठी। पुत्र को दीक्षा के मार्ग से रोकने के लिये उसने एक युक्ति सोची। वह उचित समय जानकर राजा के पास में गई और उन्हें अपने वर की स्मृति दिलाते हुए याचना की " हे नाथ, मेरे पुत्र के लिये राज्य प्रदान कीजिये । " प्रण में आबद्ध राजा दशरथ ने अपने ज्येष्ठ पुत्र
71. (क) बृहत्कल्प भाष्य भा. 3 पृ. 915, (ख) त्रि. श. पु. च. 7/5/367-68 (ग) उत्तराध्ययन नेमिवृत्ति, पृ. 24
72. प. पु. भाग 3 पर्व 58, मपु. 8/17-27, 68/356 दृ. 73. दृ.-जै. सा. बृ. इ. भाग 2 पृ. 482, 498, 516,568
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पु.
को. पृ. 279
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